नारद जी ने कहा – कुरुश्रेष्ठ ! भूमि से लाख योजन ऊपर सूर्य मंडल है । भगवान् सूर्य के रथ का विस्तार नौ सहस्त्र योजन है । इसकी धुरी डेढ़ करोड़ साढ़े सात लाख योजन की है । वेद के जो सात छंद हैं वे ही सूर्य के रथ के सात अश्व हैं । उनके नाम सुनो – गायत्री, वृहती, उष्णिक, जगती, त्रिष्टुप, अनुष्टुप और षडंक्ति – ये छंद ही सूर्य के घोड़े बताये गए हैं । सदा विद्यमान रहने वाले सूर्य का न तो कभी अस्त होता है और न ही कभी उदय होता है । सूर्य का दिखाई देना ही उदय है और उनका द्रष्टि से ओझल होना ही अस्त है ।
उत्तरायण के प्रारंभ में सूर्य मकर राशि में जाते हैं उसके पश्चात वे कुम्भ और मीन राशियों में एक राशि से दूसरी राशि में होते हुए जाते हैं । इन तीनो राशियों के भोग लेने पर सूर्यदेव दिन और रात दोनों को बराबर करते हुए विषुवत रेखा पर पहुचते हैं । उसके बाद से प्रतिदिन रात्रि घटने लगती है और दिन बढ़ने लगता है । फिर मेष तथा वृष राशि का अतिक्रमण करके मिथुन के अंत में उत्तरायण की अंतिम सीमा पर उपस्थित होते हैं और कर्क राशी में पहुच कर दक्षिणायन का आरम्भ करते हैं । जैसे कुम्हार के चाक के सिरे बैठा हुआ जीव बड़ी शीघ्रता से घूमता है उसी प्रकार सूर्य भी दक्षिणायन को पार करने में शीघ्रता से चलते हैं । वे वायु वेग से चलते हुए, अत्यंत वेगवान होने के कारण बहुत दूर की भूमि भी थोड़े ही देर में पार कर लेते हैं और इसका उल्टा उत्तरायण में होता है जिसमें सूर्य मंद गति से चलते हैं ।
संध्या काल आने पर मन्देह नामक राक्षस भगवान् सूर्य को खा जाने की इच्छा करते हैं । उन राक्षसों को प्रजापति से ये श्राप है की उनका शरीर तो अक्षय रहेगा किन्तु उनकी मृत्यु प्रतिदिन होगी । अतः संध्याकाळ में उन राक्षसों के साथ सूर्य के साथ बड़ा भयानक युद्ध होता है । उस समय द्विज लोग गायत्री मन्त्र से पवित्र किये जल का अर्ध्य देते हैं जिस से वो पापी राक्षस जल जाते हैं । इसीलिए सदा संध्योपासना करनी चाहिए । धाता, अर्यमा, मित्र, वरुण, विवस्वान, इंद्र, पूषा, सविता, भग, स्वष्टा तथा विष्णु ये बारह आदित्य चैत्र आदि मासों में सूर्य मंडल के अधिकारी माने गए हैं ।
सूर्य के स्थान से लाख योजन दूर चन्द्रमा का मंडल स्थित है, चन्द्रमा का रथ भी तीन पहियों वाला वताया गया है । उसमें बाई और दाहिनी ओर कुंद के समान श्वेत दस घोड़े जुते होते हैं । चंद्रमा से पूरे एक लाख योजन ऊपर सम्पूर्ण नक्षत्र मंडल प्रकाशित होता है । नक्षत्रों की संख्या अस्सी समुन्द्र चौदह अरब और बीस करोड़ बताई गयी है । नक्षत्र मंडल से दो लाख योजन ऊपर बुध का स्थान है । चन्द्र नंदन बुध का रथ वायु तथा अग्नि द्रव्य से बना हुआ है, उनके रथों में भी आठ घोड़े जुते हुए हैं । बुध से भी दो लाख योजन ऊपर शुक्राचार्य का स्थान माना गया है । शुक्र से लाख योजन ऊपर मंगल का स्थान माना गया है । मंगल से दो लाख योजन ऊपर देव पुरोहित बृहस्पति का स्थान माना गया है । बृहस्पति से दो लाख योजन ऊपर शनैश्चर का स्थान है । राहु के रथ में भ्रमर के समान रंग वाले आठ घोड़े हैं, वे ही बार में जोत दिए गए हैं और सदा उनके धूसर रथ को खींचते रहते हैं । उनकी स्तिथि सूर्यलोक से नीचे मानी गयी है । शनैश्चर से एक लाख योजन ऊपर सप्तर्षि मंडल है और उनसे भी लाख योजन ऊपर ध्रुव की स्तिथि है । ध्रुव समस्त ज्योति मंडल के केंद्र हैं ।
अर्जुन ! यह सारा ज्योतिर्मंडल वायु रूपी डोर से ध्रुव से बंधा हुआ है । सूर्यमंडल का विस्तार नौ हजार योजन है, उनसे दूना चंद्रमा का मंडल बताया गया है । मंडलाकार राहु इन दोनों के बराबर होकर पृथ्वी की निर्मल छाया ग्रहण करके उनके नीचे चलता है । शुक्राचार्य का मंडल चन्द्रमा के सोलहवें भाग के बराबर है । बृहस्पति मंडल का विस्तार शुक्राचार्य से एक चौथाई कम है । इसी प्रकार मंगल, शनैश्चर और बुध – ये बृहस्पति की अपेक्षा भी एक चौथाई कम है ।
पृथ्वी पर स्थित सभी लोक जहाँ पैदल जाया जा सकता है, भूलोक कहलाता है । भूमि और सूर्य के बीच जो चौदह लाख योजन का अवकाश है, उसे विज्ञ पुरुष स्वर्गलोक कहते हैं । ध्रुव से ऊपर एक करोड़ योजन तक महर्लोक बताया गया है । उस से ऊपर २ करोड़ योजन तक जनलोक है, जहाँ सनकादि निवास करते हैं । उस से ऊपर चार करोड़ योजन तक तपोलोक माना गया है, जहाँ वैराज नाम वाले देवता संताप रहित हो कर निवास करते हैं । तपोलोक से ऊपर उसकी अपेक्षा छः गुने विस्तार वाले सत्यलोक विराजमान हैं । जहाँ के लोगों की पुनर्मृत्यु नहीं होती । सत्यलोक ही ब्रह्मलोक माना गया है
भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्गलोक – इन तीनों को त्रैलोक्य कहते हैं । यह त्रैलोक्य (अनित्य) लोक हैं । जनलोक, तपोलोक तथा सत्यलोक – ये तीनों नित्य लोक है । नित्य और अनित्य लोकों के बीच में महर्लोक की स्थिति मानी गयी है । ये पुन्यकर्मों द्वारा प्राप्त होने वाले सात लोक बताये गए हैं ।
अर्जुन ! वायु की सात शाखाएं हैं, उनकी स्थिति जिस प्रकार है, वह बतलाता हूँ, सुनो – प्रथ्वी को लांघ कर मेघमंडलपर्यन्त जो वायु स्थित है, उसका नाम ‘प्रवाह’ है । वह अत्यंत शक्तिमान है और वही बादलों को इधर उधर उड़ाकर ले जाती है । धूप तथा गर्मी से उत्पन्न होने वाले मेघों को यह प्रवाह वायु ही समुद्र जल से परिपूर्ण करती है, जिस से ये मेघ कलि घटा के रूप में परिणत हो जाते हैं और अतिशय वर्षा करने वाले होते हैं । वायु की दूसरी शाखा का नाम ‘आवह’ है, जो सूर्यमंडल में बंधी हुई है । उसी के द्वारा ध्रुव से आबद्ध हो कर सूर्यमंडल घुमाया जाता है । तीसरी शाखा का नाम ‘उद्वह’ है जो चन्द्रलोक में प्रतिष्ठित है । इसी के द्वारा ध्रुव से सम्बद्ध होकर यह चन्द्र मंडल घुमाया जाता है । चौथी शाखा का नाम ‘संवह’ है, जो नक्षत्रमंडल में स्थित है । उसी से ध्रुव से आबद्ध होकर सम्पूर्ण नक्षत्रमंडल घूमता रहता है । पांचवी शाखा का नाम ‘विवह’ है और यह ग्रहमंडल में स्थित है । उसकी के द्वारा यह गृह चक्र ध्रुव से सम्बद्ध हो कर घूमता रहता है । वायु की छठी शाखा का नाम ‘परिवह’ है, जो सप्तर्षिमंडल में स्थित है । इसी के द्वारा ध्रुव से सम्बद्ध हो सप्तर्षि आकाश में भ्रमण करते हैं । वायु के सातवें स्कन्ध का नाम ‘परावह’ है जो ध्रुव में आबद्ध है । इसी के द्वारा ध्रुव चक्र तथा अन्यान्य मंडल एक स्थान पर स्थापित रहते हैं ।
अब पाताल का वर्णन सुनो । भूमि की ऊंचाई सत्तर हजार योजन है । इसके भीतर सात पाताल हैं, जो एक दूसरे से दस दस हजार योजन की दूरी पर हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं – अतल, वितल, नितल, रसातल, तलातल, सुतल तथा पाताल । कुरुनन्दन ! वहां की भूमियाँ सुन्दर महलों से सुशोभित हैं । उन पातालों में दानव, दैत्य और नाग सैंकड़ों संघ बनाकर रहते हैं । वहां पर न गर्मी है, न सर्दी है, न वर्षा है, न कोई कष्ट । सातवें पाताल में ‘हाटकेश्वर’ शिवलिंग है, जिसकी स्थापना ब्रह्मा जी के द्वारा हुई थी । वहां अनेकानेक नागराज उस शिवलिंग की आराधना करते हैं । पाताल के नीचे बहुत अधिक जल है और उस के नीचे नरकों की स्थिति बताई है ।