सन्दर्भ – जब इंद्र का युद्ध वृत्तासुर से प्रारंभ हुआ और देवताओं ने दधिची की हड्डियों से बनाये हुए अस्त्र शस्त्रों से दैत्यों का नाश करना प्राम्भ कर दिया तब सभी राक्षस भयभीत हो कर भागने लगे । तब वृत्तासुर ने समझाया
“वीरो ! युद्ध स्वर्ग का द्वार है, उसका त्याग कदापि नहीं करना चाहिए । जिनकी संग्राम मैं मृत्यु होती है, वे परम पद को प्राप्त होते हैं । विद्वान् पुरुष जहाँ कहीं भी संभव हो संग्राम में मृत्यु की अभिलाषा करते हैं । जो लोग युद्ध छोड़ कर भागते हैं, वे निश्चय ही नरक में पड़ते हैं । महापातकी मनुष्य भी यदि गौ, ब्राह्मण, भृत्य, कुटुंब, तथा स्त्री की रक्षा के लिए हाथ में शस्त्र ले कर युद्ध करें तथा वे शस्त्रों के आघात से घायल हो जाये अथवा युद्ध स्थल में ही प्राण त्याग दें, तो उन्हें निश्चय ही उत्तम लोक की प्राप्ति होती है । वे ज्ञानियों के लिए भी दुर्लभ उत्कृष्ठ पद को प्राप्त कर लेते हैं । अतः तुम लोगो को अपने स्वामी के कार्य-साधन में पूर्णतः तत्पर रह कर युद्ध करना चाहिए ।”
वृत्तासुर के ऐसा समझाने पर असुरों ने देवताओं के साथ ऐसा घमासान युद्ध आरम्भ किया, जो सम्पूर्ण लोकों के लिए भयंकर था ।