2. कौन द्विज पचीस वस्तुओं के बने हुए गृह को अच्छी तरह जानता है ?
अब पच्चीस वस्तुओं से बने हुए गृह सम्बन्धी द्वितीय प्रश्न का उत्तर सुनिये । पांच महाभूत (पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश), पांच कर्मेन्द्रिय (वाक्, हाथ, पैर, गुदा और लिंग), पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (कान, नेत्र, रसना, नासिक और त्वचा), पाँच विषय – मन, बुद्धि, अहंकार, प्रकृति और पुरुष – ये पच्चीस तत्व हैं । पच्चीसवां तत्व पुरुष है जो सदशिवस्वरुप है । इन पच्चीस तत्वों से संपन्न हुआ यह शरीर ही घर कहलाता है । जो इस शरीर को इस प्रकार तत्वतः जानता है, वह कल्याणमय परमात्मा को प्राप्त होता है ।
3. अनेक रूप वाली स्त्री को एक रूप वाली बनाने की कला किसको ज्ञात है ?
वेदान्तवादी वेद्वान बुद्धि को ही अनेक रूपों वाली स्त्री कहते हैं, क्योंकि यही नाना प्रकार के विषयों अथवा पदार्थों का सेवन करने से अनेक रूप ग्रहण करती है । किन्तु अनेकरूपा होने पर भी वह एकमात्र धर्म के संयोग से एक रूपा ही रहती है । जो इस तत्वार्थ को जानता है, वह (धर्म का आश्रय लेने के कारण) कभी नरक में नहीं पड़ता ।
4. संसार में रहने वाला कौन पुरुष विचित्र कथावाली वाक्यरचना को जानता है ?
मुनियों ने जिसे नहीं कहा है तथा जो वचन देवताओं की मान्यता नहीं स्वीकार करता, उसे विद्वानों ने विचित्र कथा से मुक्त बन्ध (वाक्य विन्यास) कहा है तथा जो काम युक्त वचन है वह भी इसी श्रेणी में हैं । (ऐसा वचन सुनने और मानने योग्य नहीं हैं । वास्तव में वह बंधन ही है ।
5. कौन स्वाध्यायशील ब्राह्मण समुन्द्र में रहने वाले महान ग्राह की जानकारी रखता है ?
अब पांचवे प्रश्न का समाधान सुनिये । एक मात्र लोभ ही इस संसार समुन्द्र के भीतर महान ग्राह है । लोभ से पाप में प्रवृति होती है, लोभ से क्रोध प्रकट होता है, लोभ से कामना होती है, लोभ से ही मोह, माया (शठता), अभिमान, स्तम्भ (जड़ता), दुसरे के धन की स्पृहा, अविद्या और मूर्खता होती है । यह सब कुछ लोभ से ही उत्पन्न होता है । दूसरे के धन का अपहरण, पराई स्त्री के साथ बलात्कार, सब प्रकार के दुस्साहस में प्रवृत्ति तथा न करने योग्य कार्यों का अनुष्ठान भी लोभ की ही प्रेरणा से होता है । अपने मन को जीतने वाले संयमी पुरुष को उचित है की वह उस लोभ को मोह्सहित जीते । जो लोभी और अजितात्मा है, उन्ही में दंभ, द्रोह, निंदा, चुगली और दूसरों से डाह – यस सब दुर्गुण प्रकट होते हैं । जो बड़े बड़े शास्त्रों को याद रखते हैं और दूसरों की शंकाओं का निवारण करते हैं, ऐसे बहुज्ञ विद्वान भी लोभ के वशीभूत होकर नीचे गिर जाते हैं । लोभ और क्रोध में आसक्त मनुष्य सदाचार से दूर हो जाते हैं । उनका अंतःकरण छुरे के समान तीखा होता है । परन्तु ऊपर से वे मीठी बातें करते हैं । ऐसे लोग तिनकों से ढके हुए कुँए के सामान भयंकर होते हैं । वे ही लोग केवल युक्तिवाद का सहारा लेकर अनेकों पंथ चलाते हैं । लोभवश मनुष्य समस्त धर्म मार्गों का लोप कर देते हैं । लोभ से ही कुटुम्बी जनों के प्रति निष्ठुरता पूर्वक वर्ताव करते हैं । कितने ही नीच मनुष्य लोभवश धर्म को अपना वाह्य आभूषण बना धर्मज्ञ होकर जगत को लूटते हैं । वे सदा लोभ में डूबे रहने वाले महान पापी हैं । राजा जनक, वृषादर्भी, प्रसेनजित तथा और भी बहुत से राजा लोभ का नाश करके स्वर्गलोक में गए हैं । इसलिए जो लोग लोभ का परित्याग करते हैं, वे ही इस संसार समुन्द्र के पार जाते हैं । इनसे भिन्न लोभी मनुष्य ग्राह के चंगुल में ही फंसे हुए हैं । इसमें संशय नहीं है ।