श्रीमते विदुषे यूने कुलीनाय यशस्विने, उदाराय सनाथाय कन्या देय वराय वै | – १
एकतः पृथिवी कृत्स्ना सशैलवनकानन,
स्वलन्कृतोपाधिहीना सुकन्या चैकतः स्मृता | विक्रीणीते यश्च कन्यामश्वम् वा गां तिलान्यपि ||
(विस्तार १६५ | ८ – १६ ) ब्रह्म पुराण
अर्थ – ये सन्दर्भ तब का है जब सूर्य अपनी पुत्री विष्टि का विवाह नहीं कर पा रहे थे क्योंकि विष्टि देखने में बड़ी भयंकर थी | जब भगवान् सूर्य विवाह नहीं कर पा रहे थे तो ऐसी स्थिति में दुखी होकर उनकी पुत्री विष्टि ने उनसे उपरोक्त वचन कहे | उसने कहा – पिताजी ! धनवान, विद्वान्, तरुण, कुलीन, यशस्वी, उदार और सनाथ वर को कन्या देनी चाहिए | जो पिता इसके विपरीत आचरण करता है, वह नरक में पड़ता है | एक ओर पर्वत, वन और काननों सहित समूची पृथ्वी और दूसरी ओर वस्त्राभूषणों से अलंकृत नीरोग कन्या – दोनों एक सामान है | उस कन्या के दान से पृथ्वी दान का फल प्राप्त होता है | जो कन्या, अश्व, गौ और तिल की बिक्री करता है, उसका रौरव आदि नरकों से कभी छुटकारा नहीं होता | कन्या के विवाह में कभी विलम्ब नहीं करना चाहिए | उसमें विलम्ब करने वाले करने पर माता पिता को जो पाप लगता है, उसका वर्णन कौन कर सकता है | कन्या के पिता जो उसके लिए दान-पूजन आदि करते है, वही सफल समझना चाहिए | कन्याओं को जो कुछ दिया जाता है, उसका पुण्य अक्षय होता है | (इसका तात्पर्य दहेज़ नहीं है !!! )
इस पर भगवान् सूर्य बोले – बेटी ! मैं क्या करूँ ! तुम्हारी आकृति इतनी भयंकर है, इसलिए कोई तुम्हें ग्रहण ही नहीं करता है | मेरे यहाँ सब कुछ है लेकिन तुम में गुणों का अभाव है | क्या करूँ, कहाँ तुम्हारा विवाह करूँ ?
इस पर विष्टि ने फिर कहा – पति, पुत्र, धन, सुख, आयु, रूप और परस्पर प्रेम – ये पूर्व जन्म में किये हुए कर्मों के अनुसार प्राप्त होते हैं | जीव पहले जन्म में जो बुरा भला कर्म किये रहता है, उसके अनुकूल ही दुसरे जन्म में उसे फल मिलता है, अतः पिता को तो उचित है कि वह अपने दोष से मुक्त हो जाए – कन्या का कही योग्य वर के साथ विवाह कर दे | फल तो उसे पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार ही मिलेगा | पिता अपने वंश की मर्यादा के अनुसार कन्या का दान और विवाह-सम्बन्ध करता है | शेष बातें तो प्रारब्ध में होती है, वे मिल जाती हैं |
कन्या का यह कथन सुन कर भगवान् सूर्य ने अपनी लोकभयंकरी भीषण कन्या का विवाह विश्वकर्मा के पुत्र विश्वरूप से कर दिया | विश्वरूप भी वैसे ही भयंकर आकार वाले थे |
अंतर्ध्यान – ये कथा ज्योतिष के लिए बड़े महत्त्व की है | यहाँ ये कहना उचित है कि हमारे ऋषियों ने जो कथाएं बनाई हैं उस पर दो तरह के मत हैं | एक मत कहता है कि ज्योतिष आदि ज्ञान को लोग भूल न जाएँ, इसलिए इस प्रकार की कथा बनायी गयी, वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है | मेरा मानना इस से भिन्न है, जो कि दूसरा मत है | ये सारे करैक्टर जो हमारी कथाओं में कहे गए हैं, ये सभी ऐसे ही थे और ऐसा ही हुआ था क्योंकि और उन्ही करैक्टर से ज्ञान लेकर हमारे ऋषि मुनियों ने कथा जो कि वास्तव में सत्य थी, पहले श्रुति के माध्यम से आगे प्रसारित की और बाद में इन्हें लिपिबद्ध कर लिया गया | क्योंकि बिना वास्तव में ऐसा हुए, इतनी सटीक और गुणों से भरपूर कथा कहाँ असंभव जान पड़ता है | क्यों ज्योतिषीय ग्रंथो में आपको शिव पार्वती संवाद मिलता है ? क्यों गुरु, शुक्र, मंगल, चन्द्र, सूर्य आदि ग्रह, नक्षत्रों के करैक्टर का कहानियों में इतना विस्तार किया गया है (सूर्य की, चंद्रमा की, गुरु की आदि की सैकड़ों कथाएं हैं और कही भी किसी भी कथा में कोई मतभिन्नता नहीं है, आखिर इस सब की क्या जरूरत थी, एक दो कथा भी बन सकती थी, पर उन्होंने उस पर पूरा वंश ही लिख दिया… सूर्य वंश और चन्द्र वंश तो बहुत आगे तक उपलब्ध है और उन वंशो का भी चरित्र पूरी तरह से लिखा गया है |)
अब इस कथा पर आते हैं, कैसे ये ज्योतिष के लिए महत्वपूर्ण है | मेरे साथ साथ देखिये जरा | विष्टि, सूर्य की दूसरी पत्नी छाया से उत्पन्न हुई थी | छाया के एक पुत्र भी था, शनि देव जी | आप सोचिये कैसे किसी ने सूर्य और छाया में पति पत्नी का सम्बन्ध बताया है | जब सूर्य होता है, तब छाया होती है | जब सूर्य अस्त हो जाता है, तब छाया भी लुप्त हो जाती है | सूर्य का एक नाम भानु भी है | भानु, भास्कर ये सारे नाम “भा’ धातु से बने हैं जो कि दिप्तर्थक है यानि ज्योति से सम्बंधित है | जहाँ ज्योति होगी चाहे दीपक की हो, मोमबत्ती की हो, सूरज की हो, चंद्रमा की हो, वहां छाया अवश्य होगी | कितने गजब का रिलेशन बनाया है | उसके बाद हम देखते हैं कि छाया की दोनों संतान भयंकर हैं, क्योंकि छाया पैदा तो दीप्ति से होती है पर जहां होती है, वहां अन्धकार करती है | कितना गजब गुण निरूपण किया है और शनि और विष्टि के साथ भी ऐसा ही है, दोनों भयंकर हैं | (ज्योतिष में शनि सदैव हानिकारक नहीं होता, लाभकारक भी होता है किन्तु जब हानिकारक होता है तो इसका मुकाबला कोई नहीं कर सकता, इसकी कुपित दृष्टी से अच्छे अच्छे राजा, भीख मांग जाते हैं )
और आगे बढ़ते हैं | इन दोनों की संतानों के नाम देखीये – गंड, अतिगंड, रक्ताक्ष, क्रोधन, व्यय और दुर्मुख – ये सारी संतान भी इनके जैसे ही थी और ज्योतिषी जानता है कि गंड, अतिगंड या व्यय भाव का ज्योतिष में क्या महत्त्व है | (क्रोधन, रक्ताक्ष, दुर्मुख और हर्षण के बारे में भी यदि कोई सज्जन जानते हो तो अवश्य साझा करें, मैंने अभी इतनी ही ज्योतिष पढ़ी है सो ज्यादा नहीं जानता ) | इनके एक पुत्र और हुआ जिसका नाम था ‘हर्षण’ | ये बड़ा सात्विक था | इसने अपने मामा (यमराज) से स्वर्ग और नरक का मर्म पुछा और अपने कुल के उद्धार के लिए मार्गदर्शन ले कर विष्णु जी की आराधना की |
मजेदार बात ये है कि विष्णु जी ने ही हर्षण को वरदान दिया कि ‘तुम्हारे कुल का कल्याण हो | समस्त अभद्रों (अमंगलों) की शान्ति होकर भद्र (मंगल) का विस्तार हो |’, ‘भद्रम अस्तु’ कहने से हर्षण के पिता भद्र कहलाये और उनकी माता विष्टि का नाम ‘भद्रा’ हुआ | और कहने वाली बात नहीं है कि सभी ज्योतिषीजन भद्रा और भद्रा का महत्व जानते हैं | जिस जगह हर्षण ने ये तप किया था, वह स्थान भद्रतीर्थ कहलाया और ये कथा ब्रहम पुराण में भद्रतीर्थ के की महिमा के नाम से ही दी हुई है |
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ॐ श्री गुरवे नमः | ॐ श्री भैरवाय नमः | ॐ श्री पितृचरण कमलेभ्यो नमः |