December 13, 2024

अध्याय ३

अब हम थोडा और आगे बढ़ेंगे | जैसे जैसे हम आगे बढ़ते हैं, वैसे वैसे हमारा वास्ता पंचांग और कैलेंडर से पड़ता जायेगा | अतः हमें पंचांग के भी कुछ अंगों से प्रत्यक्ष होना पड़ेगा | पंचांग में तिथि, वार, नक्षत्र, योग तथा करण, ये पांच अंग होते हैं इसीलिए इसे पंचांग कहा जाता है | हम इसमें से कुछ को पहले बता चुके हैं, जैसे वार कैसे आते हैं ? तिथि क्या होती है ? अब उस से आगे बढ़ते हैं |

तिथि – चन्द्रमा की एक कला को एक तिथि माना गया है | अमावस्या के बाद प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक की तिथियाँ शुक्लपक्ष और पूर्णिमा से अमावस्या तक की तिथियाँ कृष्ण पक्ष कहलाती हैं |

अमावस्या – अमावस्या तीन प्रकार की होती है | सिनीवाली, दर्श और कुहू | प्रातःकाल से लेकर रात्रि तक रहने वाली अमावस्या को सिनीवाली, चतुर्दशी से बिद्ध को दर्श एवं प्रतिपदा से युक्त अमावस्या को कुहू कहते हैं |

तिथियों की संज्ञाएँ – 1|6|11 नंदा, 2|7|12 भद्रा, 3|8|13 जया, 4|9|14 रिक्ता और  5|10|15 पूर्णा तथा  4|6|8|9|12|14 तिथियाँ पक्षरंध्र संज्ञक हैं |

नन्दा भद्रा जया रिक्ता पूर्णा
१०
११ १२ १३ १४ १५, ३०

नन्दा तिथियाँ – दोनों पक्षों की प्रतिपदा, षष्ठी व एकादशी (१,६,११) नन्दा तिथियाँ कहलाती हैं | प्रथम गंडात काल अर्थात अंतिम प्रथम घटी या २४ मिनट को छोड़कर सभी मंगल कार्यों के लिए शुभ माना जाता है |

भद्रा तिथियाँ – दोनों पक्षों की द्वितीया, सप्तमी व द्वादशी (२,७,१२) भद्रा तिथि होती है | व्रत, जाप, तप, दान-पुण्य जैसे धार्मिक कार्यों के लिए शुभ हैं |

जया तिथि – दोनों पक्षों की तृतीया, अष्टमी व त्रयोदशी (३,८,१३) जया तिथि मानी गयी है | गायन, वादन आदि जैसे कलात्मक कार्य किये जा सकते हैं |

रिक्ता तिथि – दोनों पक्षों की चतुर्थी, नवमी व चतुर्दशी (४,९,१४) रिक्त तिथियाँ होती है | तीर्थ यात्रायें, मेले आदि कार्यों के लिए ठीक होती हैं |

पूर्णा तिथियाँ – दोनों पक्षों की पंचमी, दशमी और पूर्णिमा और अमावस (५,१०,१५,३०) पूर्णा तिथि कहलाती हैं | तिथि गंडात काल अर्थात अंतिम १ घटी या २४ मिनट पूर्व सभी प्रकार के लिए मंगल कार्यों के लिए ये तिथियाँ शुभ मानी जाती हैं |

इनके अलावा भी कुछ तिथियाँ होती हैं |

१. युगादी तिथियाँ – सतयुग की आरंभ तिथि – कार्तिक शुक्ल नवमी, त्रेता युग आरम्भ तिथि – बैसाख शुक्ल तृतीया, द्वापर युग आरम्भ तिथि – माघ कृष्ण अमावस्या, कलियुग की आरंभ तिथि – भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी | इन सभी तिथियों पर किया गया दान-पुण्य-जाप अक्षत और अखंड होता है | इन तिथियों पर स्कन्द पुराण में बहुत विस्तृत वर्णन है |

२. सिद्धा तिथियाँ – इन सभी तिथियों को सिद्धि देने वाली माना गया है | इसका ऐसा भी अर्थ कर सकते हैं कि इनमे किया गया कार्य सिद्धि प्रदायक होता है |

मंगलवार १३
बुधवार १२
गुरूवार १० १५
शुक्रवार ११
शनिवार १४

पर्व तिथियाँ – कृष्ण पक्ष की तीन तिथियाँ अष्टमी, चतुर्दशी और अमावस्या तथा शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि और संक्रांति तिथि पर्व कहलाती है | इन्हें शुभ मुहूर्त के लिए छोड़ा दिया जाता है |

प्रदोष तिथियाँ – द्वादशी तिथि अर्ध रात्रि पूर्व, षष्ठी तिथि रात्रि से ४ घंटा ३० मिनट पूर्व एवं तृतीया तिथि रात्रि से ३ घंटा पूर्व समाप्त होने की स्थिति में प्रदोष तिथियाँ कहलाती हैं | इनमें सभी शुभ कार्य वर्जित हैं |

दग्धा, विष एवं हुताषन तिथियाँ –

वार/तिथि रविवार सोमवार मंगलवार बुधवार गुरूवार शुक्रवार शनिवार
दग्धा १२ ११
विष
हुताशन १२ १० ११

उपरोक्त सभी वारों के नीचे लिखी तिथियाँ दग्धा, विष, हुताशन तिथियों में आती हैं | यह सभी तिथियाँ अशुभ और हानिकारक होती हैं |

मासशून्य तिथियाँ – ऐसा कहा जाता है कि इन तिथियों पर कार्य करने से कार्य में उस कार्य में सफलता प्राप्त नहीं होती |

शुक्ल पक्ष कृष्ण पक्ष
चैत्र ८,९ ८,९
बैसाख १२ १२
ज्येष्ठ १३ १४
आषाढ़
श्रावण २,३ २,३
भाद्रपद १,२ १,२
अश्विन १०,११ १०,११
कार्तिक १४
मार्गशीर्ष ७,८ ७,८
पौष ४,५ ४,५
माघ
फाल्गुन

वृद्धि तिथि – सूर्योदय के पूर्व प्रारंभ होकर अगले दिन सूर्योदय के बाद समाप्त होने वाली तिथि ‘वृद्धि तिथि’ कहलाती है | इसे ‘तिथि वृद्धि’ भी कहते हैं | ये सभी मुहूर्त के लिए अशुभ होती है |

क्षय तिथि – सूर्योदय के पश्चात प्रारंभ होकर अगले दिन सूर्योदय से पूर्व समाप्त होने वाली तिथि ‘क्षय तिथि’ कहलाती है | इसे ‘तिथि क्षय’ भी कहते हैं | यह तिथि सभी मुहूर्तों के लिए छोड़ दी जाती है |

गंड तिथि – सभी पूर्ण तिथियों (५,१०,१५,३०) की अंतिम २४ मिनट या एक घटी तथा नन्दा तिथियों (१,६,११) की प्रथम २४ मिनट या १ घटी गंड तिथि की श्रेणी में आती हैं | इन तिथियों की उक्त घटी को सभी मुहूर्तों के लिए छोड़ दिया जाता है |

तिथि श्रेणियां – केलेंडर की तिथियाँ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ग्रहों से प्रभावित रहती हैं | अतः इन ग्रहों की संख्या के अनुसार इन तिथियों को ७ श्रेणियों में बांटा जा सकता है |

१. सूर्य प्रभावित तिथियाँ – १, १०, १९, २८ और ४,१३, २२, ३१

२. चन्द्र प्रभावित तिथियाँ – २,११,२०, २९, और ७,१६,२५

३. मंगल प्रभावित तिथियाँ – ९, १८, २७

४. बुध प्रभावित तिथियाँ – ५,१४,२३

५. गुरु प्रभावित तिथियाँ – ३,१२,२१,३०

६. शुक्र प्रभावित तिथियाँ – ६,१५,२४

७. शनि प्रभावित तिथियाँ – ८,१७,२६

करण –  तिथि या मिति के अर्ध भाग को करण कहते हैं | एक तिथि में २ करण आते हैं | अतः मास की ३० तिथियों में करणों की ६० बार पुनरावृत्ति होती है | कुल ११ प्रकार के करण होते हैं  | इनमें चार करण (किन्सतुघ्न, शकुन, चतुष्पद और नाग) स्थिर होते हैं | शेष ७ करणों (बालव, तैतिल, वणिज, बव, कौलव, गरज और विष्टि) की मास में ८-८ बार पुनरावृत्ति होती है | स्थिर करणों में पहला करण किन्सतुघ्न सबसे पहले शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को आता है | शेष तीन स्थिर करण शकुन, चतुष्पद और नाग क्रमशः कृष्णपक्ष की त्रयोदशी, चतुर्दशी और अमावस को आते हैं | यह चारों करण अशुभ माने गए हैं | इनमें शुभ कार्य नहीं करने चाहिए | आठवें करण विष्टि को ही भद्रा कहते हैं | भद्रा भी सभी शुभ कार्यों के लिए त्याज्य है | विशेषतः जब चंद्रमा कर्क, सिंह, कुम्भ और मीन राशि में आता है | इस समय भद्रा पृथ्वी पर निवास करती है |

हमने नक्षत्रों की चर्चा अध्याय १ में संक्षिप्त में की थी | यहाँ फिर से हम उसकी आगे चर्चा करते हैं पर यहाँ भी हम थोडा ही लिखेंगे और आगे जैसे जैसे इसका सन्दर्भ आएगा, इसे और विस्तार देंगे |

नक्षत्रों को ७ श्रेणियों में दृष्टी के आधार पर, ३ श्रेणियों में, शुभाशुभ फल के आधार पर ३ श्रेणियों में तथा चोरी गयी वस्तु की प्राप्ति/अप्राप्ति के आधार पर ४ श्रेणियों में बांटा गया है | विशिष्ट पहचान वाले कुल १७ नक्षत्रों में ५ नक्षत्र पञ्चसंज्ञक, ६ नक्षत्र मूलसंज्ञक और ६ नक्षत्रों की कुछ घटी गंड नक्षत्र की श्रेणी में आती हैं |

स्वभाव के आधार पर – नक्षत्रों की स्वभाव के आधार पर ७ श्रेणियों होती हैं | ध्रुव, चंचल, उग्र, मिश्र, क्षिप्रा, मृदु और तीक्ष्ण |

१. ध्रुव (स्थिर) नक्षत्र – ४,१२,,२१,२६ चार नक्षत्र स्थिर नक्षत्र होते हैं | भवन निर्माण कार्य, कृषि कार्य, बाग़ बगीचे लगाने, गृह प्रवेश, नौकरी ज्वाइन करने, उपनयन संस्कार आदि के लिए शुभ होता है |

२. चंचल (चर) स्वभाव – ७,१५,२२,२३,२३ चंचल नक्षत्र होते हैं | घुड़सवारी करना, मोटर या कार आदि चलाना सीखना, मशीन चलाना, यात्रा करना आदि गतिशील कार्यों के लिए शुभ होते हैं |

३. उग्र (क्रूर) नक्षत्र – २,१०,११,२०,२५ पांच नक्षत्र उग्र होते हैं | भट्टे लगाना, गैस जलाना, सर्जरी करना, मार पीट करना, अस्त्र-शस्त्र चलाना, व्यापार करना, खोज कार्य करना, शोध कार्य करना आदि हेतु शुभ होते हैं |

४. मिश्र (साधारण) नक्षत्र – ३,१६ दो नक्षत्र मिश्र होते हैं | लोहा भट्टी व गैस भट्टी के कार्य, भाप इंजन, बिजली सम्बन्धी कार्य, दवाइयां बनाने आदि हेतु शुभ होते हैं |

५. क्षिप्रा (लघु) नक्षत्र – १,८,१३ व अभिजीत ये चार नक्षत्र क्षिप्रा होते हैं | नृत्य, गायन, रूप सज्जा, नाटक, नौटंकी आदि कार्य करना, दूकान करना, आभूषण बनाना, शिक्षा कार्य, लेखन, प्रकाशन हेतु शुभ होते हैं |

६. मृदु (मित्रवत) नक्षत्र – ५,१४,१७,२७ ये चार नक्षत्र मृदु नक्षत्र होते हैं | कपडे बनाना, सिलाई कार्य, कपडे पहनना, खेल कार्य, आभूषण बनाना एवं पहनना, व्यापार करना, सेवा कार्य, सत्संगति आदि हेतु शुभ होते हैं |

७. तीक्ष्ण (दारुण) नक्षत्र – ६,९,१८,१९ ये चार नक्षत्र तीक्ष्ण अर्थात दुखदायी  होते हैं | हानिकारक कार्य करना, लड़ाई झगडे करना, जानवरों को वश में करना, काला जादू सीखना, मैस्मेरिस्म आदि कार्यों हेतु शुभ माने गए हैं |

दृष्टी के आधार पर – दृष्टी के आधार पर नक्षत्रों की तीन श्रेणी होती हैं | अधोमुखी, उर्ध्वमुखी व त्रियंगमुखी |

१. अधोमुखी नक्षत्र – नीचे की ओर दृष्टी रखने वाले २,३,९,१०,११,१६,१९,२०,२५ कुल ९ नक्षत्र हैं | कुआँ, तालाब, मकान की नीव, बेसमेंट, सुरंग बनवाना, खान खोदना, पानी व सीवर के पाईप डालना जैसे भूमिगत कार्यों के लिए शुभ होते हैं |

२. उर्ध्वमुखी नक्षत्र – ऊपर की दृष्टी रखने वाले (४,६,८,१२,२१,२२,२३,२४,२६) कुल ९ नक्षत्र होते हैं | मंदिर निर्माण, बहुमंजिली भवन निर्माण, मूर्ती स्थापना, ध्वज फहराना, राज्याभिषेक, मंडप बनवाना, बाग़ लगवाना, पहाड़ पर चढ़ना आदि कार्यों हेतु शुभ होते हैं |

३. त्रियंगमुखी नक्षत्र – दायें, बाएं व सम्मुख दृष्टी रखने वाले १,५,७,१३,१४,१५,१७,१८,२७ कुल ९ नक्षत्र हैं | घुड़सवारी करना, मोटर गाडी चलाना, सड़क बनवाना, पशु खरीदना, नाव चलाना, कृषि करना, आवागमन आदि कार्यों हेतु शुभ माने गए हैं |

शुभाशुभ फल के आधार पर – इनमें तीन श्रेणी होती हैं | शुभ, मध्यम एवं अशुभ |

१. शुभ फलदायी – १,४,८,१२,१३,१४,१७,२१,२२,२३,२४,२६,२७ कुल १३ नक्षत्र शुभ फलदायी होते हैं |

२. मध्यम फलदायी – ५,७,१०,१६ कुल चार नक्षत्र थोडा फल देते हैं |

३. अशुभ फलदायी – २,३,६,९,११,१५,१८,१९,२०,२५ ये शेष दस नक्षत्र अशुभ फलदायी होते हैं |

चोरी गयी वस्तु की प्राप्ति/अप्राप्ति के आधार पर – कुल चार श्रेणी होती हैं | अंध लोचन, मंद लोचन, मध्य लोचन एवं सुलोचन |

१. अन्ध लोचन – ४,७,१२,१६,२०,२३,२७ अन्ध लोचन होती है | इन नक्षत्रों में खोई वस्तु पूर्व दिशा में जाती है और शीघ्र मिल जाती है |

२. मन्द लोचन – ७,५,९,१३,१७,२१,२४ मंद्लोचन नक्षत्र हैं | खोई वस्तु, पश्चिम दिशा में जाती है | प्रयत्न करने पर मिल जाती है |

३. मध्य लोचन – २,६,१०,१४,१८,२५ इन छह नक्षत्रों में चोरी गयी वस्तु दक्षिण दिशा में जाती है | सूचना मिलने पर भी नहीं मिलती |

४. सुलोचन – ३,८,११,१५,१९,२२,२६ इन ७ नक्षत्रों में वस्तु उत्तर दिशा में जाती है | न तो वस्तु मिलती है और न कोई उसकी सूचना मिलती है |

विशिष्ट श्रेणियां – विशिष्ट पहचान वाले १७ नक्षत्रों की निम्नलिखित ३ श्रेणियां हैं |

१. पञ्चसंज्ञक नक्षत्र – अंतिम ५ नक्षत्र (२३,२४,२५,२६,२७) पंचंक संज्ञक नक्षत्र होते हैं | इनमें पंचक दोष माना जाता है | किसी भी प्रकार के शुभ कार्य नहीं करने चाहिए |

२. मूल संज्ञक नक्षत्र – ९, १०, १८, १९, २७, १ कुल ६ नक्षत्र मूल संज्ञक हैं | इन नक्षत्रों में जन्मे बालक हेतु २७ दिन बाद उसी नक्षत्र के आने पर शांति पाठ एवं हवन कराना शुभ माना गया है |

३. नक्षत्र गंडात – कुछ नक्षत्रों की कुछ घटियाँ गंडात श्रेणी में आती हैं | यह समय सभी शुभ कार्यों के लिए अशुभ माना जाता है | इनमें ३ नक्षत्रों (१,१०,१९) की प्रारंभ की २ घटी तथा ३ नक्षत्रों की (९,१८,२७) की अंतरिम २ घटी होती हैं |

इसके अलावा कुछ संज्ञाएँ और मिलती हैं |

१. दग्ध संज्ञक नक्षत्र – रविवार को भरणी, सोमवार को चित्रा, मंगल को उत्तराषाढ, बुधवार को धनिष्ठा, बृहस्पतिवार को उत्तराफाल्गुनी, शुक्र को ज्येष्ठा एवं शनि को रेवती दग्ध संज्ञक हैं | इन नक्षत्रों में शुभ कार्य करना वर्जित है |

नक्षत्रों को भी दो प्रकार का कहा गया है |

अ – दिन नक्षत्र – प्रतिदिन चंद्रमा जिस नक्षत्र में रहता है वह दिन नक्षत्र है |

ब – सूर्य नक्षत्र – जिस नक्षत्र पर सूर्य हो वह सूर्य नक्षत्र है |

 इसी प्रकार कोई ग्रह जिस नक्षत्र पर हो, वह उस ग्रह का नक्षत्र होता है |

नक्षत्र भाव वृद्धि – जो नक्षत्र ६० घडी पूर्ण होकर दूरे दिन चला जाए और दुसरे दिन का स्पर्श हो जाए अर्थात घटिकाओं में जो नक्षत्र पड़ता है उसे भाववृद्धि कहते हैं |

योग – कुल मिला कर २७ योग होते हैं | जैसे कि अश्विनी नक्षत्र के आरम्भ से सूर्य और चंद्रमा दोनों मिल कर ८०० कलाएं आगे चल चुकते हैं तब एक योग बीतता है, जब १६०० कलाएं आगे चलते हैं तब २, इसी प्रकार जब दोनों १२ राशियों – २१६०० कलाएं अश्विनी से आगे चल चुकते हैं तब २७ योग बीतते हैं | इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि जब सूर्य और चन्द्रमा की गति में १३ डिग्री २० कला का अंतर होता है तब एक योग होता है | एक योग की औसत अवधि ६० घटी या २४ घंटे होती है | यह कम या अधिक भी हो सकती है | सूर्य और चंद्रमा के स्पष्ट स्थानों को जोड़ कर तथा कलाएं बना कर ८०० का भाग देने पर गत योगों की संख्या निकल आती है | शेष से यह अवगत किया जाता है कि वर्तमान योग की कितनी कलाएं बीत गयी हैं | शेष को ८०० में से घटाने पर वर्तमान योग की गम्य कलाएं आती हैं | इन गत या गम्य कलाओं को ६० से गुना कर के सूर्य और चंद्रमा की स्पष्ट दैनिक गति के योग से भाग देने पर वर्तमान योग की गत और गम्य घतिकाएं आती हैं |

२७ योगों के नाम इस प्रकार हैं |

`१. विष्कम्भ २. प्रीति ३. आयुष्मान ४. सौभाग्य
५. शोभन ६. अतिगंड ७. सुकर्मा ८. धृति
९. शूल १०. गंड ११. वृद्धि १२. ध्रुव
१३. व्याघात १४. हर्षण १५. वज्र १६. सिद्धि
१७. व्यतिपात १८. वरीयन १९. परिघ २०. शिव
२१. सिद्ध २२. साध्य २३. शुभ २४. शुक्ल
२५. ब्रह्म २६. एन्द्र २७. वैधृति

योगों के स्वामी –

योग स्वामी योग स्वामी योग स्वामी योग स्वामी
`१. विष्कम्भ यम २. प्रीति विष्णु ३. आयुष्मान चंद्रमा ४. सौभाग्य ब्रह्मा
५. शोभन बृहस्पति ६. अतिगंड चंद्रमा ७. सुकर्मा इंद्र ८. धृति जल
९. शूल सर्प १०. गंड अग्नि ११. वृद्धि सूर्य १२. ध्रुव भूमि
१३. व्याघात वायु १४. हर्षण भग १५. वज्र वरुण १६. सिद्धि गणेश
१७. व्यतिपात रूद्र १८. वरीयन कुबेर १९. परिघ विश्वकर्मा २०. शिव मित्र
२१. सिद्ध कार्तिकेय २२. साध्य सावित्री २३. शुभ लक्ष्मी २४. शुक्ल पार्वती
२५. ब्रह्म अश्विनीकुमार २६. एन्द्र पितर २७. वैधृति दिति

परिध योग का आधा भाग त्याज्य है, उत्तरार्ध शुभ है | विष्कम्भ योग की प्रतम पांच घटिकाएं, शूल योग की प्रथम सात घटिकाएं, गंड और व्याघात योग की प्रथम छह घटिकाएं, हर्षण और वज्र योग की नौ घटिकाएं एवं वैधृति और व्यतिपात योग समस्त परित्यज्य है |

लग्न तालिका के १२ भाव

उत्तर भरत में लग्न तालिका नीचे दिए गए चित्र के अनुसार बनाई जाती है | इसमें जो बारह खाने बने हैं उनमें चित्र की तरह केंद्र के प्रथम भाव से प्रारंभ करके घडी की सुइ की उलटी दिशा में चलते हुए बारहवें भाव तक बनाए जाते हैं | उक्त बारह भाव में प्रत्येक भाव मनुष्य के जीवन के किसी विशेष क्षेत्र को तथा किसी विशेष अंग की स्थिति बताता है | प्रत्येक भाव का विस्तृत अध्ययन अलग से किया जायेगा | उदाहरणार्थ प्रथम भाव मनुष्य के सामान्य शारीरिक गठन व सिर के सम्बन्ध में बताता है |

bhaav talikaचित्र -१

जन्म तालिका में राशियों और ग्रहों को प्रदर्शित करना – किसी व्यक्ति के जन्म के समय पृथ्वी अपने परिपथ पर चलते हुए जिस राशि में है, वह राशि की क्रम संख्या के रूप में प्रथम भाव में लिखी जाती है तथा उसके आगे कि राशियाँ घडी की सुइयों के उलटी दिशा में क्रमश दुसरे, तीसरे…..आदि भावों में लिखी जाती है | इस राशि को ही जन्म राशि कहते हैं |

उदाहरण के लिए – यदि किसी व्यक्ति का जन्म चित्र २ के अनुसार उस समय हुआ है, जब पृथ्वी ३० डिग्री एवं ६० डिग्री के बीच अर्थात वृष राशि में थी तो लग्न तालिका के प्रथम भाव में वृष राशि की क्रम संख्या अर्थात २ लिखा जायेगा तथा उसके बाद द्वितीय, तृतीय आदि भावों में लिखा जायेगा | बारहवें भाव में राशि क्रम संख्या १ (मेष) लिखा जायेगा |

राशियों को अंकित करने के बाद अन्य ग्रहों की स्थिति जन्म के समय देख कर उसे सम्बंधित राशि वाले भाव में लिखा जायेगा | उदाहरणार्थ चित्र २ के अनुसार, जन्म के समय बृहस्पति वृष (२) राशि में व चंद्रमा मिथुन (३) राशि में है | अतः चित्र ३ में प्रथम भाव में बृहस्पति व द्वितीय भाव में चंद्रमा लिखा गया है | इसी प्रकार चित्र २ में जन्म के समय शनि व राहु सिंह (५) राशि में, शुक्र मकर (१०) राशियों में, बुध, सूर्य व केतु कुम्भ (११) राशि में तथा मंगल मीन वृष (१२) राशि में है | अतः चित्र ३ में इसी के अनुसार सम्बंधित राशि वाले भाव में इन ग्रहों के नाम लिखे गए हैं | जन्म के समय पृथ्वी किस राशि में, किस डिग्री पर थी तथा अन्य ग्रहों की क्या स्थिति है, इसको ज्ञात करने के लिए गणना का सहारा लिया जाता है जिसकी विस्तृत चर्चा आगे की जाएगी | यहाँ केवल हम कुंडली को समझ रहे हैं.. और उसका कांसेप्ट साफ़ कर रहे हैं | इसकी गणना कैसे करते हैं, वो आगे बताया जायेगा |

चित्र २

लग्न कुंडली व चन्द्र कुंडली – चित्र ३ में वृष राशि में जन्मे व्यक्ति की लग्न कुंडली प्रदर्शित है | यह कुंडली चित्र २ के अनुसार पृथ्वी व अन्य ग्रहों की स्थिति प्रदर्शित करते हुए बनाई गयी है | किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में ज्योतिषीय अध्ययन के लिए जन्म कुंडली के अतिरिक्त चन्द्र कुंडली भी बनाई जाती है | उत्तर भारत में बहुधा जन्म के समय पृथ्वी जिस जिस राशि में होती है उस राशि को उस व्यक्ति की ‘लग्न राशि’ या संक्षेप में केवल ‘लग्न’ कहते हैं (इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि जन्म समय पर किसी निश्चित स्थान के पूर्वी क्षितिज पर राशि चक्र की जो राशि उदित हो रही होती है, वह लग्न राशी कहलाती है ) तथा जन्म के समय चंद्रमा जिस राशि में होता है उसे ‘चन्द्र राशि’ या संक्षेप में केवल ‘राशि’ कह देते हैं | किसी व्यक्ति की चन्द्र कुंडली बनाने के लिए उसकी लग्न कुंडली में चंद्रमा जिस राशि में हो उस राशि को प्रथम भाव में लिख देते हैं तथा उसके आगे की राशियाँ द्वितीय आदि भाव में पूर्व में दी गयी विधि से ही लिखते हैं |चित्र ३

इसके बाद लग्न कुंडली में जो ग्रह जिस राशि में है उसी राशि में वह ग्रह लिख देते हैं | उदाहरणार्थ चित्र ३ में बनाई गयी लग्न कुंडली की चन्द्र कुंडली चित्र ४ के अनुसार होगी | चित्र ३ में चंद्रमा राशि संख्या ३ (मिथुन) में है अतः चित्र ४ में प्रथम भाव में ३ लिखा गया है तथा उसके बाद की राशियाँ द्वितीय, तृतीय आदि भाव में लिखी गयी हैं | जो ग्रह जिस राशि में चित्र ३ में है, वह उसी राशि में चित्र ४ में लिखा गया है | यदि किसी व्यक्ति के जन्म के समय पृथ्वी व चंद्रमा एक ही राशि में हो तो उसकी लग्न कुंडली के प्रथम भाव में चंद्रमा ही होगा | अतः उसकी लग्न कुंडली और चन्द्र कुंडली एक समान होगी |

चित्र 4

कुंडली बनाने से पहले हमें जन्म समय निकालना आना चाहिए, पर उसके लिए पहले समय के कांसेप्ट को और अच्छे से समझना चाहिए | सीधे जन्म समय का गणित भी बताया जा सकता है, पर हमारा उद्देश्य हर चीज को बारीकी से समझना है इसलिए हम कोई जल्दी नहीं करेंगे | हमने समय को पहले भी संक्षेप में बताया हैं यहाँ घडी और सूर्य के अनुसार समय की चर्चा करेंगे |

भारत वर्ष में स्टैण्डर्ड टाइम ८० डिग्री ५ मिनट रेखांश (देशांतर) निर्धारित हुआ है | किसी विशेष स्थान का समय नहीं है बल्कि ८२ डिग्री ५ मिनट पर रेखांश पर जितने स्थान पड़ते हैं उन सब का यही स्थानक समय समझना चाहिए | इसी के अनुसार भारतवर्ष भर की घड़ियाँ मिलाई जाती है | जब ८२ डिग्री ५ मिनट रेखांश के देशो में १२ बजते हैं तो सम्पूर्ण भारत की घड़ियों में उस समय १२ बजते हैं | इसके कारण व्यवहारिक रीति से कारोबार करने में सुविधा हो गयी कि यदि एक घडी में १२ बजेंगे तो सरे भारतवर्ष में १२ बजेगा |

१.७.१९०५ में यह स्टैण्डर्ड समय की व्यवस्था नहीं थी | इसके पहले ऐसा नहीं होता था, प्रत्येक स्थानों में पृथक पृथक समय ही प्रचलित था |

जिस प्रकार भारतवर्ष का स्टैण्डर्ड समय निर्धारित हुआ है उसी प्रकार प्रत्येक देश का पृथक पृथक स्टैण्डर्ड समय निर्धारित कर दिया गया है और ग्रीनविच समय को मध्य जान कर उसके हिसाब से यह समय निर्धारित हुआ है | बर्मा का स्टैण्डर्ड समय ६.३० मिनट है अर्थात बर्मा भारतवर्ष के समय से १ घंटा बढ़ा हुआ है | दूसरी लड़ाई के समय बर्मा में लड़ाई होने के कारण बर्मा का स्टैण्डर्ड समय भारत में लागू कर दिया गया था यानि की पुराने समय में १ घंटा आगे बढ़ा दिया गया था जो तारिख १ सितम्बर १९४२ से १५ ऑक्टोबर १९४५ के २ बजे तक प्रचलित रहा |

अब के समय में घड़ियों में २ समस्या हैं | एक तो यह कि यदि एक घडी बंद होती है तो दूसरी घडी से मिलान करने पर २-४ मिनट का अंतर प्रत्येक घडी में आ ही जाता है | रेलवे या पोस्ट ऑफिस से बहुत कम घड़ियाँ मिली हुई होती हैं |

दूसरी समस्या यह कि आजकल जो घड़ियाँ बनती हैं वो किसी नियमित गति से ही चलती है अर्थात वह घडी एक दिन में जिस गति से चलेगी सदा उसी गति से वह घडी चलती रहेगी | अर्थात १२ घंटे में जिस प्रकार घंटे का काँटा एक बार पूरा घूम कर फिर १२ पर आएगा और उसके लिए जितना समय लगेगा सदा उतना ही समय प्रतिदिन उस घडी में उसी प्रकार घंटे का कांटा एक बार पूरा घूम जाने में लगेगा | ऐसा नहीं होता कि कभी १२ घंटा लगा हो और कभी ११.५० घंटे में एक बार काँटा पूरा घूम गया हो | इस प्रकार घडी की चाल एक सी बनी रहती है |

अब सूर्य का विचार कीजिये जिसका समय बताने के लिए ये घड़ियाँ बनी हैं | सूर्य की प्रतिदिन की गति एक सी नहीं होती | कभी दिन भर में ५७ कला गति होती है, कभी वह गति प्रतिदिन क्रमशः बढ़ते बढ़ते ६१ कला तक हो जाती है और फिर घटने लगती है | इस प्रकार सूर्य की गति घटती बढती रहती है | जबकि घडी ऐसी नहीं बनी होती जो सूर्य की गति के अनुसार कभी घडी की गति धीमी या तेज हो जाये |

अतः किसी स्थान का सही लोकल समय वही होगा जो धुप घडी के अनुसार वहां का समय होगा | धुप घडी के समय को स्थानिक समय या लोकल टाइम कहते हैं | परन्तु घड़ियों में जो दोपहर का समय प्रकट होता है वह वहां के ठीक दोपहर का समय नहीं होता |

स्थानीय समय २ प्रकार का होता है |

क) प्रत्यक्ष स्थानीय समय (Apparent Local Time)

ख) मध्यम स्थानीय समय (Local Mean Time)

प्रत्यक्ष समय और मध्यम स्थानीय समय – इस प्रकार सूर्य के और घड़ियों के समय के अंतर की कठिनाई दूर करने के लिए ज्योतिषियों ने एक नकली सूर्य आकाश में घूमता हुआ मान लिया है | इस सूर्य को मध्यम सूर्य कहते हैं जो भूमध्य रेखा पर एक सी गति से घुमते हुए मान लिया गया है  और इस मध्यम सूर्य (Mean Sun) के समय का मिलान सच्चे सूर्य के समय से उस समय होता है जब कि सच्चा सूर्य मेघ सम्पात (Vernel Equinox) में होता है और उस समय दिन रात बराबर होते हैं |

जो समय अपने असली सूर्य से प्रकट होता है उसे स्पष्ट समय या प्रत्यक्ष समय कहते हैं परन्तु जो मध्यम सूर्य के चलने के कारण जो समय प्रकट होता है वह मध्यम समय कहलाता है | अपनी घड़ियाँ इसी मध्यम समय को बतलाती हैं अर्थात घडी के समय को मध्यम समय कहेंगे | मध्यम समय और स्पष्ट समय के अंतर को बेलांतर (Equation of Time) कहते हैं | यह अंतर १६ मिनट से अधिक का नही होता |

मध्यम सूर्य का ६ बजे ठीक उगना, १२ बजे दोपहर होना और ६ बजे संध्या के समय अस्त मानते हैं | परन्तु वास्तविक सूर्य के उदय अस्त के समय में प्रतिदिन अंतर पड़ता है |

बता चुके हैं कि घडी का समय मध्यम समय है और इससे जो स्थानीय समय निकाला गया है वह भी मध्यम स्थानीय समय ही होगा | इस प्रकार निकाल गया स्थानीय समय भी शुद्ध नहीं है क्योंकि यह समय भी घडी के अनुसार निकला है जबकि सूर्य की गति एक सी नहीं रहती लेकिन घड़ियों की गति एक सी रहती है इस कारण इस मध्यम समय को सूर्य के अनुसार करना पड़ता है | इसमें ऊपर बताये गए तरीके से बेलांतर संस्कार करने से ही शुद्ध समय निकलता है | इस शुद्ध समय को लेकर इष्ट काल (आगे बतया जायेगा ) निकाल कर ही कुंडली बनायी जाती है |

बेलान्तर सारणी – सूर्य की गति एक सी नहीं रहती कभी गति अधिक होती है और कभी कम होती है | इस कारण सूर्य की गति किस महीने में कितनी कम या अधिक होती है यह जानकर मध्यम समय से उस समय की घटी बढ़ी का विचार कर एक सारणी बना ली गयी है, जिसे बेलान्तर सारणी या काल समीकरण कहते हैं |

स्थानिक मध्यम समय में जो घडी के समय से बनता है, बेलान्तर सारणी के अनुसार संस्कार करने से उस स्थान का इष्ट समय (सूर्य के अनुसार) निकल आता है | धुप घड़ी के अनुसार जो समय विदित होता है वाही वहां का स्पष्ट स्थानिक समय जानना चाहिए |

 देशांतर संस्कार – कोई देश ग्रीनविच से जितने रेखांश दूरी पर हो उसके घंटा मिनट बना लीजिये | यदि वह देश ग्रीनविच से पूर्व में है तो ग्रीनविच समय से जोड़ देंगे और यदि पश्चिम में हो तो घटा देंगे तो वहां का समय निकल आएगा | इस प्रकार से इष्ट देश के समय का अंतर ज्ञात हो जायेगा इसे ही देशांतर संस्कार कहते हैं |

जैसे किसी स्थान का देशांतर ग्रीनविच से १० डिग्री पूर्व है तो १ डिग्री = ४ मिनट के हिसाब से १० डिग्री = १० x ४ = ४० मिनट का नातर ग्रीनविच से पड़ेगा | इसी प्रकार भारत के ८२ डिग्री ५ मिनट को भी निकाला जा सकता है |

आज कल घड़ियाँ जो समय बताती हैं वह स्टैण्डर्ड समय है और बहुधा लोग इसे ही नोट करते हैं | इस कारण उस समय की शुद्धि की आवश्यकता होती है |

जैसे – यदि भरत का देशांतर ८२ डिग्री ५ मिनट = ५ घंटा – ३० मिनट पूर्व है | जबलपुर ८० डिग्री ० मिनट पर है तो ८०x४ = ३२० मिनट = ५ घंटा २० मिनट मतलब १० मिनट का अंतर रहेगा | अतः घडी में जब १२ बजेंगे तो जबलपुर का स्थानीय समय ११ बजाकर ५० मिनट होगा |

ऐसे ही काशी का देशांतर ग्रीनविच से ८३ डिग्री ० मिनट पूर्व है तो ८३x४ = ५ घंटा ३२ मिनट | यहाँ काशी का देशांतर ८२ डिग्री ५ मिनट से अधिक है तो २ मिनट (दोनों का अंतर) घडी के समय में जोड़ देंगे | जब स्टैण्डर्ड समय (घडी में) १२ बजेगा तो काशी में २ मिनट अधिक होगा अर्थात १२ बजाकर २ मिनट होगा |

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