July 27, 2024
माता

पिता स्वर्गः पिता धर्मः पिता हि  परमं तपः । पितरि प्रितिमापन्ने सर्वाः प्रोणन्ति देवताः ।।

यह सन्दर्भ चिरकारी की कथा से लिया गया है जिसमें चिरकारी माता और पिता के महत्त्व को लेकर असमंजस में हैं । उनके पिता ने उन्हें अपनी माता का वध करने का आदेश दिया । क्योंकि वो चिरकारी थे अतः अपने स्वभाव स्वरुप वो इस आदेश के बाद भी मंथन में बैठ गए  कि  क्या उचित है और क्या अनुचित ।

वे सोचने लगे की स्त्री की उसमें भी माता की हत्या करके कभी भी कौन सुखी रह सकता है । पुत्रत्व सर्वथा परतंत्र है – पुत्र माता और पिता दोनों के अधीन है । माना की पिता की आज्ञा पालन करना सबसे बड़ा धर्म है परन्तु उसी प्रकार माता की रक्षा भी तो मेरा अपना धर्मं है । किन्तु पिता की अवज्ञा करके भी कौन प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकता है । पुत्र के लिए यही उचित है की पिता की अवहेलना न करे । साथ ही उसके लिए माता की रक्षा करना भी उचित है । शरीर आदि जो देने  योग्य वस्तुयें हैं, उन सबको एक मात्र पिता देते हैं, इसलिए पिता की प्रत्येक आज्ञा का पालन करना चाहिए । पिता की आज्ञा पालन करने वाले पुत्र के पूर्वकृत पातक भी धुल जाते हैं । “पिता स्वर्ग है, पिता धर्म है और पिता ही सर्वश्रेष्ठ तपस्या है । पिता के प्रसन्न होने पर सब देवता प्रसन्न हो जाते हैं ।”

यदि पिता प्रसन्न हैं तो पुत्र के सब पापों का प्रायश्चित हो जाता है । पुत्र के स्नेह से कष्ट पाते हुए भी पिता उसके प्रति स्नेह नहीं छोड़ते । यह पिता का गौरव है जिस पर पुत्र की द्रष्टि से मैंने विचार किया है । अब मैं माता के विषय में विचार करूँगा ।

नास्ति मात्रा समं तीर्थ, नास्ति मात्रा समा गतिः । नास्ति मात्रा समं श्राणं नास्ति मात्रा समा  प्रपा ।।

कुक्षौ संधारणाधात्री, जननाच्जनानी तथा । अङ्गानम वर्धनादम्बा वॆर्मत्वेन वीरसूह ।।

मेरे इस मानव जन्म में जो यह पञ्चभूतों का समुदाय स्वरुप शरीर प्राप्त हुआ है इसका कारण तो मेरी माता ही हैं । जिसकी माता जीवित हैं, बह सनाथ है । जो मातृहीन है, वह अनाथ है । पुत्र और पौत्र से युक्त मनुष्य यदि सौ वर्ष की आयु के बाद भी अपनी माता के आश्रय में जाता है, तो वह दो वर्ष के बालक की भाँती आचरण करता है । पुत्र समर्थ हो या असमर्थ, दुर्बल हो या पुष्ट – माता उसका विधिवत पालन करती है । “माता के सामान कोई तीर्थ नहीं है, माता के सामान कोई गति नहीं है, माता के सामान कोई रक्षक नहीं है तथा माता के समान कोई प्याऊ नहीं है । माता अपने गर्भ में धारण करने के कारण ‘धात्री’ है, जन्म देने वाली  होने से ‘जननी’ है, अंगो की वृद्धि करने के कारण ‘अम्बा’ है, वीर पुत्र का प्रसब करने के कारण ‘वीरप्रसू’ कहलाती है, शिशु की सुश्रुषा करने से वह ‘शक्ति’ कही गयी है तथा सदा सम्मान देने के कारण उसे माता कहते हैं ।” मुनि लोग पिता को देवता के समान समझते हैं परन्तु मनुष्यों और देवताओं का समूह भी माता के समीप नहीं पहुच पता – माता की बराबरी नहीं कर सकता । पतित होने पर गुरुजन भी त्याग देने योग्य माने गए हैं; परन्तु माता किसी भी प्रकार त्याज्य नहीं है । कौशिकी नदी के तट पर स्त्रियों से घिरे हुए राजा बलि की ओर वो देर तक निहारती रही; केवल इसी अपराधवश पिता ने मुझे अपनी माता को मार डालने का आदेश दिया है । चिरकारी होने के कारण वे इन्ही सब बातों पर अधिक समय तक विचार करते रहे, परन्तु उनकी चिंता का अंत नहीं हुआ ।

इधर गौतम ऋषि (चिरकारी के पिता) दुखी हो कर आंसू बहते हुए चिंता करने लगे – अहो ! पतिव्रता नारी का वध करके मैं पाप के समुन्द्र में डूब गया हूँ । अब कौन मेरा उद्धार करेगा ? मैंने उदार विचार वाले चिरकारी को  बड़ी शीघ्रता से यह कठोर आज्ञा दे दी थी । यही वह सचमुच चिरकारी हो तो मुझे पाप से बचा सकता है । चिरकारी ! तुम्हारा कल्याण हो । यदि आज भी अपने नाम के अनुसार तुम चिरकारी बने रहे, तभी वास्तव में चिरकार्य  हो । इस प्रकार अत्यंत चिंता करते हुए गौतम मुनि चिरकारी के पास आये । वहां आकर उन्होंने चिरकारी को माता के समक्ष बैठा देखा और अपनी पत्नी को जीवित देखा । चिरकारी ने पिता को देखा तो शस्त्र फ़ेंक दिये और चरणों में लेट गया और नाना प्रकार से पिता को प्रसन्न करने की चेष्टा करने लगा ।

तब गौतम ऋषि ने चिरकारी  को ह्रदय से लगा लिया और नाना प्रकार के आशीर्वाद दिए और उसकी स्तुति की । उन्होंने चिरकारी के विलम्ब करने पर ऐसा कहा – ‘चिरकाल तक विचार करके कोई मंत्रणा स्थिर करे । स्थिर किये मंत्र (परामर्श) को चिरकाल के बाद छोड़े । चिरकाल में किसी को मित्र बना कर उसे चिर काल तक धारण किये रहना उचित है । राग, दर्प,अभिमान, द्रोह, पापकर्म तथा अप्रिय कर्तव्य में चिरकारी (विलम्ब करने वाला) प्रशंसा का पात्र है । बंधु, सुह्रदय, भृत्य और स्त्रियों के अव्यक्त अपराधों में जल्दी कोई दंड न देकर देर तक विचार करने वाला पुरुष प्रशंसनीय है । चिर काल तक धर्मों का सेवन करे । किसी बात की खोज का कार्य चिरकाल तक  करता रहे । विद्वान पुरुषों का संग अधिक काल तक करे । इष्ट मित्रों का सेवन और इष्ट देवता की उपासना दीर्घ काल तक करे ।

पर यदि कोई धर्म का कार्य आ गया हो तो उसके पालन में विलम्ब नहीं करना चाहिए । शत्रु हाथ में हथियार लेकर आता हो तो  उस से आत्म रक्षा में देर नहीं लगानी चाहिए । यदि कोई सुपात्र व्यक्ति अपने समीप आ गया हो तो उसका सम्मान करने में विलम्ब नहीं करना चाहिए । भय से बचने में और साधू संतों का सत्कार करने में भी विलम्ब नहीं करना चाहिए । उपरोक्त कार्यों में जो विलम्ब करता है वह प्रशंसा का पात्र नहीं है ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You cannot copy content of this page