मंडन 2 – ‘युग सहस्त्र योजन पर भानु’ में सूर्य की दूरी पर स्पष्टीकरण
आजकल सोशल मिडिया में, ये पोस्ट खूब वायरल है कि तुलसीदास जी ने वर्षों पहले, हनुमान चालीसा में, पृथ्वी से सूर्य की दूरी बता दी थी | कुछ लोग, जो आस्तिक और धार्मिक टाइप के हैं, इसे सही मानते हैं और कुछ लोग, जो हर धार्मिक बात में विज्ञान को घुसाने को एक जबरन कोशिश मानते हैं अथवा नास्तिक हैं, वो इसे गलत मानते हैं | दोनों के अपने अपने तर्क हैं | जो इसे सही मानते हैं, वो तो आपको पोस्ट में दिख ही रहा है, पर जो गलत मानते हैं, उनके मुख्य तर्क हैं कि एक तो जो मात्रक होते हैं, वो समान प्रकार के मात्रक का ही गणित में गुणन हो सकता है, जैसे गति का गति से (मीटर/से) अथवा समय का समय से पर यहाँ युग जो कि समय का मात्रक है और योजन, जो कि दूरी का मात्रक है अतः यदि दोनों को एक दुसरे से गुना करेंगे तो उत्तर दूरी में कैसे आएगा ? अतः ये बात गणित के आधार पर गलत है |
एक बात और बताते हैं कि युग का अर्थ १२००० दिव्य वर्ष (=1 चतुर्युग) ही क्यों लिया गया ? जबकि यहाँ सतुयुग, त्रेतायुग, कलियुग, द्वापर युग कुछ भी लगाया जा सकता था | चलो इनको नहीं भी लगाना था, वर्षों को ही लगाना था तो भी दिव्य वर्ष ही क्यों लिए गए, सावन वर्ष, सौर वर्ष, चन्द्र वर्ष क्यों नहीं लिए गए | आप अपने मन से, कुछ भी संख्या थोड़ी न उठा लेंगे, जो आपको सूट करेगी | यदि तुलसीदास जी को दिव्य वर्ष ही लिखना होता अथवा चतुर्युग ही लिखना होता तो वो भी अपने दोहा अथवा चौपाई में लिख देते, उसकी जगह उन्होंने केवल युग शब्द ही क्यों प्रयोग किया ? अतः इस प्रकार के मनमानी संख्या को लेना भी गलत है, इस तरह से आप जबरन, उसे सूर्य की दूरी के बराबर लाना चाहते हैं, इसलिए आपने वहां दिव्यवर्ष लिया है, जबकि तुलसीदास जी ने, ऐसा कुछ नहीं लिखा है |
पहली दृष्टि में, दोनों ही वितर्क महत्वपूर्ण लगते हैं और तार्किक लगते हैं किन्तु जब हमने इसका और अध्ययन किया तो हमें कुछ और बातें पता चली, जो इस पोस्ट के आलोचकों को शायद नहीं ज्ञात | वो बातें, गणित से सम्बन्धित और भाषा यानि व्याकरण से सम्बंधित थी | जिनकी जानकारी के बिना, इन दोनों तर्कों को करने का महत्व ही नहीं है | जैसे, तुलसीदास जी को यदि चतुर्युग ही लिखना था तो उन्होंने वो ही क्यों नहीं लिखा दिया अथवा दिव्य वर्ष स्पष्ट क्यों नहीं लिख दिया ?
किसी दोहे, चौपाई अथवा छंद में मात्राओं का विशेष ध्यान रखा जाता है | एक भी मात्रा के इधर उधर होने से, छंद गलत हो जाता है | अतः काव्य में अथवा छंद में सदैव, ऐसा शब्द प्रयोग किया जाता है, जिससे ध्येय का ज्ञान हो जाए, भले ही शब्द उस ध्येय को पूरा नहीं दिखाता हो पर उस ध्येय तक, पाठक को पहुंचा दे |
जैसे – तुलसीदास जी लिखते हैं – ईश्वर अंश, जीव अविनाशी – यहाँ जीव का अर्थ आत्मा लिया जाता है कि आत्मा ईश्वर का अंश है किन्तु शब्द प्रयोग किया गया है, जीव | जबकि जीव अलग चीज और आत्मा अलग चीज है फिर भी जीव से पाठक, सन्दर्भ को ध्यान में रख कर, उसका अर्थ आत्मा ही लेता है | तुलसीदास जी, यहाँ आत्मा शब्द प्रयोग नहीं कर सकते थे क्योंकि आत्मा में 4 मात्रा होती हैं और जीव में तीन, जिसकी वजह से छंद बिगड़ जाता | अतः उन्होंने आत्मा की जगह जीब शब्द से काम चलाया है | ऐसे ही दूसरी जगह लिखते हैं – जामवंत कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥ – अब दाया कोई शब्द नहीं होता, दया होता है किन्तु दया प्रयोग करने पर, मात्रा भ्रष्ट हो जाती अतः दाया शब्द का प्रयोग किया है, जिसका अर्थ पाठक दया ही लेता है, सन्दर्भ से |
अब ये स्पष्ट है कि वो युग के अलावा कोई भी और शब्द लेते जैसे चतुर्युग अथवा दिव्य वर्ष तो मात्रा का अंतर पड़ जाता अतः उन्होंने वहां समानार्थी शब्द (जैसे जीव, दाया) – युग का प्रयोग किया है | पर बात तो अब भी वहीं है कि युग का मतलब १२००० दिव्य वर्ष ही क्यों लिया ?
इसके लिए भी हमने भाषा और गणित की पुरानी रीति को समझना पड़ेगा | उदाहरण देखते हैं, दोहे की परिभाषा –
प्रथम चरण तेरह कला, दोहा समकल रूद्र,
दोहा समकल रूद्र, प्रथम चरण तेरह कला |
ये दोहा लिखने की परिभाषा भी है और एक दोहा भी है | मतलब पहले और तीसरे चरण में 13 मात्रा आयेंगी और दुसरे और चौथे में ग्यारह मात्रा आयेंगी | पर दोहे (परिभाषा) में एकादश तो कहीं लिखा ही नहीं है ? फिर हमने कैसे जाना कि यहाँ 11 मात्रा की बात हो रही है | क्योंकि शास्त्रों के हिसाब से, रूद्र 11 होते हैं | हमारे शास्त्रों में संख्याओं का निरूपण काव्य में, इसी प्रकार होता था | कुछ अन्य उदाहरण भी हैं (इसे आप पुराने जमाने की कोडिंग अर्थात कोड लैंग्वेज भी कह सकते हैं), जैसे –
राम का अर्थ 3 क्योंकि तीन राम प्रसिद्ध हैं – राम, बलराम और परशुराम
वेद का अर्थ 4 क्योंकि वेद 4 ही होते हैं |
शर का अर्थ 5 क्योंकि कामदेव के पास 5 बाण होते हैं |
रस का अर्थ 6 क्योंकि भोजन में 6 ही रस होते हैं |
इसी प्रकार दिग का अर्थ 10 क्योंकि दिशाएँ दस होती हैं | यदि कहा जाए दिगम्बर तो यहाँ अर्थ होगा दिशारों को वस्त्र रूप में धारण करने वाला और यदि कहा जाए दिग्दर्शी तो अर्थ होगा, दसों दिशाओं में देखने वाला | अतः सन्दर्भ से अर्थ निकालना चाहिए |
ऐसे ही रूद्र का अर्थ पहले बता चुके हैं कि 11 होता है और दन्त माने 32 |
इसी प्रकार, शब्दों के अर्थ बनाये जाते हैं और गणित में प्रयोग किये जाते हैं | यहाँ तुलसीदास जी, युग की बात कर रहे हैं तो पढने वाले को, युग के स्थान पर, अपनी समझ से, एप्रोप्रियेट अर्थ लगाना होगा | कलियुग, त्रेता अथवा सौर वर्ष आदि से वो मतलब सिद्ध नहीं होता है अतः दिव्य वर्ष का प्रयोग सन्दर्भ से उचित है |
अब आखिरी बात आती है कि गणित में गति और दूरी का गुणा करने से, उसके मात्रक बदल जायेंगे और विज्ञान का ये सिद्धांत नहीं लगता है किन्तु यहाँ भी हमें पुराने जमाने की एक बात समझनी होगी कि मात्रक आदि का विज्ञान और नियम नया है और हमारे यहाँ बातों को कहने का अलग नियम होता था | हमारे यहाँ, संख्या महत्वपूर्ण होती थी जैसे कि सूर्यसिद्धांत के तृतीय अध्याय में लिखा है कि “पृथ्वी की दैनिक गति, पृथ्वी के अर्ध व्यास के 15 गुने के बराबर होता है |” अब यहाँ हम दैनिक गति को किससे निकाल रहे हैं ? धरती के व्यास को 15 से गुणा करके !! पर उत्तर तो लम्बाई अर्थात किलोमीटर में ही आयेगा, आज के नियम से तो ! गति कैसे आ जायेगी ? इसलिए आ जायेगी क्योंकि हमारे यहाँ उस संख्या को इंगित किया जाता था और ये माना जाता था कि पाठक में इतनी बुद्धि है कि वो गति के लिए, उस संख्या में अपने आप ही, उचित मात्रक लगा लेगा |
इसी प्रकार, जब तुलसीदास जी, युग कहते हैं (जिसका सन्दर्भ से, १२००० दिव्य वर्ष संख्या ली गयी है), सहस्त्र (1000) कहते हैं और योजन (एक योजन, चार कोस के बराबर होता है, ये प्रसिद्ध है और इसकी वैल्यू 13 से 16 किलोमीटर तक कुछ भी हो सकती है | पर सूर्य सिद्धांत और आर्यभटीय में एक योजन को 8 मील के बराबर अर्थात करीब 13 किलोमीटर लिया गया है अतः हम इसे ही प्रमाणिक मानते हैं) कहते हैं तो उसी मान को, इस श्लोक के अर्थ में लिया गया है |
पर यहाँ ये मान लेना कि तुलसीदास जी ने ये बात पहली बार लिखी है, और उससे पहले किसी को सूर्य से धरती के बीच की दूरी का ज्ञान नहीं था, तो ये बात सही नहीं है | तुलसीदास जी का काल 1511-1623 ई कहा जाता है, जबकि उनसे बहुत पहले, आर्यभट्ट (476 AD-550 AD) ने गोलाध्याय में ये सब गणित से सिद्ध करके (ग्रहण बिम्ब से) बता रखा है और सूर्यसिद्धांत में भी इसी रीति से इसकी गणना की गयी है, जो कि तुलसीदास जी से बहुत पहले का लिखा हुआ है | किन्तु क्योंकि आजकल के लोग, हनुमानचालीसा तो जानते हैं किन्तु गोलपाद और सूर्यसिद्धांत के बारे में कोई नहीं जानता इसलिए लोगों को लगता है कि तुलसीदास जी ने इसे पहले बार आज से 400 वर्ष पूर्व लिख दिया, जबकि हमारे यहाँ ये ज्ञान हजारों वर्षों से है | पश्चिमी वैज्ञानिकों ने इसको प्रमाणित अब किया है, बस इतनी सी बात है | तुलसीदास जी ने तो बस, उसी बात को, लोकभाषा में, काव्य में लिख दिया है, जिसका अर्थ है कि तुलसीदास बहुत पढ़ते थे और ज्ञानी थे | आजकल के लोगों को उनसे कुछ सीखना चाहिए और अधिक से अधिक अध्ययन करना चाहिए |
अतः इस प्रकार, भाषा, व्याकरण, गणित के पुराने सिद्धांत और भाषा को प्रयोग करने की विधि के आधार पर ही, तुलसीदास जी की इस पंक्ति की विवेचना होनी चाहिए, न कि विज्ञान के नवीन नियम (जो उस समय में नहीं प्रयोग में आते थे, बल्कि पाठक को उतना विद्वान् समझा ही जाता था) अथवा उन्होंने ये शब्द प्रयोग क्यों नहीं किया या वो शब्द क्यों नहीं प्रयोग किया | शास्त्रों की विवेचना में कालखंड, भाषा प्रयोग, छंदरचना और कवित्व को ध्यान में रखना चाहिए अन्यथा हम अर्थ का अनर्थ करते ही रहेंगे, जैसा कि अधिकतर वायरल फेक पोस्ट में किया जाता है कि तुलसीदास जी ने, कोरोना के लिए चमगादड़ का नाम लिखा है, इस प्रकार की व्यर्थ बातें, वही कर सकते हैं, जिन्हें भाषा का साधारण ज्ञान भी नहीं है |
आप सभी लोग भी कसम लीजिये कि शास्त्रों और धर्म को, फेसबुक, व्हात्सप्प की वायरल पोस्ट से नहीं समझेंगे अपितु स्वअध्ययन करेंगे और न ही, इस प्रकार की वायरल पोस्ट को, बिना सोचे समझें अन्य ग्रुप्स में भेजकर इनका प्रचार ही करेंगे |
फेक पोस्ट को शेयर करने की बजाय, इस प्रकार की पोस्ट को अन्य ग्रुप्स पर और फेसबुक पर शेयर/कॉपी पेस्ट कीजये ताकि अधिक से अधिक लोगों तक, शास्त्रों के बारे में ये महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हो सके और शास्त्रों के बारे में, सही जानकारी का प्रसार हो और लोग फेक पोस्ट के बहकावे में न आयें |
पं अशोकशर्मात्मज अभिनन्दन शर्मा