मन में अपने बारह प्रश्नों को लेकर ब्राह्मण की खोज के लिए नारद जी कलाप ग्राम पहुचे । कलाप ग्राम वह स्थान है, जहां सतयुग के लिए सूर्य वंश, चन्द्र वंश और ब्राह्मण वंश के बीज सुरक्षित हैं । वहां जा कर मैंने ब्राह्मणों से अपने प्रश्नों के समाधान के लिए कहा । वहां के विद्वान ब्राहमण “पहले मैं उत्तर दूंगा, पहले मैं उत्तर दूंगा ” ऐसा कह कर एक दुसरे को मना करने लगे । तब मैंने उनके सामने अपने बारह प्रश्न उपस्थित किये । सुन कर वे मुनीश्वर उन प्रश्नों को खिलवाड़ समझते हुए मुझसे कहने लगे – ” विप्रवर ! आपके प्रश्न तो बालकों से हैं । इन छोटे छोटे प्रश्नों से यहाँ क्या होने वाला है ? आप हम लोगों में जिसे सबसे छोटा और ज्ञानहीन समझते हों, वही इन प्रश्नों का उत्तर दे ।” यह सुन कर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ ! मैंने अपने को कृतार्थ माना और उनमें से एक बालक को सबसे हीन समझ कर कहा – ‘ यह मेरे प्रश्नों का उत्तर दे ।’
उस बालक का नाम सुतनु था । उसने मेरे प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहा –
1. मातृका को कौन विशेषरूप से जानता है ? वह मातृका कितने प्रकार की और कैसे अक्षरों वाली है ?
मातृका में बावन अक्षर बताये गए हैं । इनमें सबसे प्रथम अक्षर ॐकार है । उसके सिवा चौदह स्वर, तैतीस व्यंजन, अनुस्वर, विसर्ग, जिव्हामूलीय तथा उप्षमानीय – ये सब मिला कर बावन मातृका वर्ण माने गए हैं । द्विजवर ! यह तो मैंने आपसे अक्षरों की संख्या बतायी है । अब इनका अर्थ सुनिए । इस अर्थ के विषय में पहले आपसे एक इतिहास कहूँगा । पूर्व काल की बात है, मिथिला नगरी में कौथुम नाम से प्रसिद्ध एक ब्राह्मण रहते थे । उन्होंने इस पृथ्वी पर प्रचलित सभी विद्याओं को पढ़ लिया था । अध्ययन कर के जब वे गृहस्थ हुए तब कुछ काल के बाद उनका एक पुत्र हुआ । उस पुत्र के सारे कार्य जड़ की भाँती होते थे । उसने केवल मातृका पढ़ी । मातृका पढने के बाद वह किसी प्रकार की कोई दूसरी बात याद ही नहीं करता था । उसके पिता उसकी इस बात से बड़े खिन्न हुए और उस जड़ बालक से कहने लगे – ” बेटा ! पढो, पढो, मैं तुम्हें मिठाई दूंगा और अनहि पढोगे तो यह मिठाई दुसरे को दे दूंगा और तुम्हारे दोनों कान उखाड़ लूँगा ।”
यह सुन कर पुत्र ने कहा – पिताजी ! क्या मिठाई लेने के लिए पढ़ा जाता है ? क्या लोभ की पूर्ती ही अध्ययन का उद्देश्य है ? अध्ययन तो उसका नाम है, जो मनुष्यों को परलोक में लाभ पहुचाने वाला हो ।
कौथुम बोले – वत्स ! ऐसी बातें कहने वाले तेरी आयु बढे । तेरी यह बुद्धि बहुत अच्छी है । पर तू पढता क्यों नहीं है ?
पुत्र ने कहा – पिताजी ! जानने योग्य जितनी भी बातें हैं, वे सब तो मैंने मातृका में ही जान ली । बताइए, इसके बाद अब कंठ किसलिए सुखाया जाये ?
पिता बोले – वत्स ! तू तो आज बड़ी विचित्र बात कहता है । मातृका में तूने किस ज्ञातव्य अर्थ का ज्ञान प्राप्त किया है ? बता बता । मैं तेरी बात फिर सुनना चाहता हूँ ।
पुत्र ने कहा – पिताजी ! आपने इकतीस हजार वर्षों तक नाना प्रकार के तर्कों का अध्ययन करते हुए भी अपने मन में केवल भ्रम का ही साधन किया है । ‘ यह धर्म है, यह धर्म है ‘ ऐसा कह कर शास्त्रों में जो धर्म बताया गया है, उसमें चित्त भ्रांत सा हो जाता है । आप उपदेश को केवल पढ़ते हैं उसके वास्तविक अर्थ की जानकारी नहीं रखते । जो ब्राह्मण केवल पाठ मात्र करते हैं, अर्थ नहीं समझते, वे दो पैर वाले पशु हैं । अतः मैं आपसे मोह्नाशक वचन सुनाता हूँ । अकार ब्रह्मा कहे गए हैं, भगवान् विष्णु उकार बतलाये गये हैं, मकार को भगवान् महेश्वर का प्रतीक माना गया है । ये तीन गुणमय स्वरुप बताये गये हैं । ॐकार के मस्तक पर जो अनुस्वार रूप अर्द्धमात्रा है, वह सर्वोत्कृष्ट भगवान् सदाशिव का ही प्रतीक है । यह है ॐकार की महिमा जिसका वर्णन कोटि कोटि ग्रंथो द्वारा दस हजार वर्षों में भी नहीं किया जा सकता ।
पुनः जो मातृका का सारसर्वस्व बताया गया है उसे सुनिए – अकार से लेकर औकार तक जो चौदह स्वर हैं, वे चौदह मनुस्वरूप हैं । स्वायम्भुव, स्वारोचिष, औत्तम, रैवत, तामस, छठे चाक्षुष, सातवें वैवस्वत – जो इस समय वर्तमान है, सावार्णि , ब्रह्मसावार्णि, रुद्रसावार्णि, दक्षसावार्णि, धर्मसावार्णि, रौच्य तथा भौत्य – ये चौदह मनु हैं । श्वेत, पाण्डु, लोहित, ताम्र, पीत , कपिल, कृष्ण, श्याम, धूम्र, अधिक पिंगल, थोडा पिंगल, तिरंगा, बहुरंगा तथा कबरा – ये चौदह मनुओं के रंग हैं । पिताजी ! वैवस्तव मनु ऋकार स्वरुप हैं । उनका रंग काला बताया गया है । ‘क’ ले लेकर ‘ह’ तक तैंतीस देवता हैं । ‘क’ से लेकर ‘ठ’ तक तो बारह आदित्य माने गये हैं । ‘ड’ से लेकर ‘ब’ तक जो अक्षर हैं वे ग्यारह रूद्र हैं । ‘भ’ से लेकर ‘ष’ तक आठ वसु माने गये हैं । ‘स’ और ‘ह’ – ये दोनों अश्विनी कुमार बताये गये हैं । इस प्रकार ये तैतीस देवता कहे गये हैं । पिताजी ! अनुस्वार, विसर्ग, जिव्हा मूलिय और उपध्मानीय – ये चार अक्षर जरायुज, अंडज, स्वेदज और उद्विज्ज नामक चार प्रकार के जीव बताये गये हैं ।
पिताजी ! ये भावार्थ बताया गया है अब तत्वार्थ सुनिए । जो पुरुष इन देवताओं का आश्रय लेकर कर्मानुष्ठान में तत्पर होते हैं वे ही सदाशिव में लीन होते हैं । जिस शास्त्र में पापी मनुष्यों के द्वारा ये देवता नहीं माने गये हैं, उस शास्त्र को साक्षात् ब्रह्मा जी भी कहें तो नहीं मानना चाहिये । अजितेन्द्रिय मनुष्यों के मोह की महिमा तो देखो, वे पापी मातृका पढ़ते तो हैं, परन्तु इन देवताओं को नहीं मानते ।
इस प्रकार मैंने आपके प्रथम प्रश्न का उत्तर दिया है अब आप दुसरे प्रश्न के बारे में कहें ।