December 22, 2024

इस संसार में केवल तीन ही चीज याद रखने लायक हैं – 1. मृत्यु २. ईश्वर ३. कर्तव्य

1. मृत्यु – क्यों ? मृत्यु को ही सबसे पहले क्यों ? ईश्वर को क्यों नहीं ? क्योंकि मृत्यु को जब आप याद करते हैं तो आपको पता चलता है कि सब को एक दिन मर जाना है, जो कुछ आँखों से दिख रहा है वो नित्य नहीं है | न तो उस धन को भोगने के लिए तुम अनंत काल तक जीवित रहोगे, जिसके लिए पूरा जीवन फांय फांय करते हो और न ही वो लोग या रिश्तेदार जिनके लिए पूरा जीवन सोचते रहते हो | तो जब सब कुछ नश्वर है तो उसके बारे में सोचने से क्या लाभ ? क्या लाभ उन रिश्ते नातों पर सारा जीवन न्योछावर करने से, जिसका कुछ हासिल ही नहीं ? फिर मोह क्यों ? जब इन सबसे कोई लाभ नहीं तो फिर क्यों न ऐसी चीज में जीवन लगाया जाय, मन लगाया जाय जो नित्य हो, जो सदैव हो, क्यों न ईश्वर को याद किया जाय, क्यों न जीवन उस को ध्यान करके व्यतीत किया जाय | जब हम मृत्यु को याद करते हैं तो अहसास होता है कि सब कुछ नश्वर है और जब ये नश्वरता का भाव आता है तब विरक्ति का भाव आता है और जब विरक्ति का भाव आता है तब स्पेस इस मन, बुद्धि में खाली होता है, ये सारी विषय, भोग, विलास ने जो स्पेस घेरा हुआ है वो रिक्त हो जाता है और वहां ईश्वर की जगह बन जाती है | अब वहां ईश्वर आसानी से आ सकता है |

2. ईश्वर – ईश्वर कर मतलब केवल वो परम पिता परमेश्वर ही नहीं है | ईश्वर का मतलब उसके अंश यानी अपनी आत्मा से भी है | दोनों का ध्यान कीजिये | आत्मा का ध्यान कर्नेगे तो उसका ही ध्यान होगा | तुलसीदास जी ने कहा है – “ईश्वर अंश जीव अविनाशी” (यहाँ जीव से तात्पर्य आत्मा से ही है, जबकि जीव और आत्मा अलग अलग हैं ! आत्मा का प्रयोग इसमें नहीं हो सकता था वर्ना मात्रा का फर्क आ जाता, आत्मा में ४ मात्रा हैं और जीव में ३, अतः कवि ने एक आसान शब्द लिया है, जो आत्मा के सबसे पास का शब्द है) ये आत्मा भी ईश्वर का ही अंश है यानी ये भी ईश्वर ही है | इसी आत्मा को ज्योतिष में सूर्य से सम्बद्ध किया गया है | क्यों ? सूर्य का अर्थ है जो स्वयं प्रकाशवान है और ज्योतिष के और किसी भी ग्रह में स्वयं का प्रकाश नहीं होता | जिसमें ऊर्जा का अथाह प्रवाह है | ज्योतिष के और किसी भी ग्रह में स्वयं की ऊर्जा नहीं होती | इसीलिए सूर्य को आत्मा का द्योतक माना गया है, ज्योतिष में | अतः दूसरी चीज है, जो नित्य है वह है ईश्वर, उसमें ध्यान |

3. कर्तव्य – कर्तव्य ? पैसा हुए हैं तो कर्म तो करने ही पड़ेंगे | लेकिन कर्तव्य का अर्थ है जो कर्म हमें करने चाहिए | ईश्वर में डूबने का या विरक्ति का ये अर्थ नहीं है कि आप अपने बीवी बच्चो को मरने के लिए छोड़ कर जंगल चले जाओ | ईश्वर में ध्यान का अर्थ ये भी नहीं है कि इस संसार में आप अपने रिश्तों को भूल कर बस भगवान् का जाप ही करते रहो ! अगर आपने माँ-बाप की सेवा नहीं की | अगर आपने अपने रिश्तों के लिए अपने कर्तव्यों का निर्वाह नहीं किया तो भी आपका जीवन व्यर्थ है | गुरु को गुरु न मानो और ईश्वर की पूजा करो तो भी काकभुशुण्डी जैसा हाल होता है | भगवन भी उस पर दया नहीं करता है, जो गुरु की, माता की, पिता की अवहेलना करता है | जीवन है तो कर्म करने हैं और कर्मों में भी कौन से कर्म, जो कर्तव्य हैं |
दुनिया में बस यही तीनो चीजें हैं जो नित्य हैं | बाकि सब व्यर्थ है, विषयों का समुद्र है जिसमें दुःख रुपी फैन और कष्ट रुपी नाग अपना फन लिए हुए हैं | यही समझने की चीज है, यही ज्ञान है |
ॐ श्री गुरवे नमः ! ॐ श्री भैरवाय नमः ! ॐ श्री मातृ-पितृ चरण कमलेभ्यो नमः !

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You cannot copy content of this page