जब गांधारी को पता चला की युधिष्ठिर उससे मिलने को आ रहे हैं तो वो रोषपूर्ण आवेग में आ जाती है और युधिष्ठिर को श्राप देने को उद्यत हो जाती है | वेदव्यास जी ये भांप लेते हैं और तुरंत गांधारी को रोक देते हैं कि हे गांधारी ! तुम युधिष्ठिर को श्राप नहीं दोगी क्योंकि तुमने ही जब जब दुर्योधन आशीर्वाद मांगने आया युद्ध में विजय के लिए, तो कहा कि जहाँ धर्म होगा, विजय उसकी होगी तो फिर अब श्राप देने का औचित्य नहीं है |
किन्तु दुःख में, मनुष्य अपना आपा खो ही देता है | वेद व्यास के कहने पर, गांधारी ने श्राप तो न दिया, लेकिन जिह्वा से बाण चलाने शुरू कर दिए और भीम से बोली –
“अरे भीम ! मुझे पता है, कौरव आपस में ही युद्ध करते करते मर गये और उसमें पांडवों का दोष नहीं है किन्तु तुमने गदा युद्ध में मेरे बेटे दुर्योधन की जंघा पर वार किया ? ऐसा अनुचित कर्म ! क्या तुम इसे धर्म कहते हो ? कृष्ण के देखते देखते, भीम ने ये दुष्कर्म किया | धर्मज्ञ महात्माओं ने गदायुद्ध के लिये जिस धर्म का प्रतिपादन किया है, उसे शूरवीर योद्धा रणभूमि में किसी तरह अपने प्राण बचाने के लिये कैसे त्याग सकते हैं ?”
भीम ने डरते हुए कहा – हे माता ! आप सही कह रही हैं ! मैंने जान लिया था कि मैं दुर्योधन से नहीं जीत सकता हूँ इसीलिए मैने दुर्योधन की जंघा पर प्रहार किया था | ये धर्म हो या अधर्म किन्तु आपके उस महाबली पुत्र को कोई भी धर्मानुकूल युद्ध करके मारने का साहस नहीं कर सकता था; अत: मैंने विषमतापूर्ण बर्ताव किया। आप मुझे क्षमा करें !
यहाँ पहले अपनी ग़लती मान कर, फिर धीम धीरे से अपनी असल बात कहते हैं – “पहले उसने भी अधर्म से ही राजा युधिष्ठिर को जीता था और हम लोगों के साथ सदा धोखा किया था, इसलिये मैंने भी उसके साथ विषम बर्ताव किया ।‘कौरव सेना का एकमात्र बचा हुआ यह पराक्रमी वीर गदायुद्ध के द्वारा मुझे मारकर पुन: सारा राज्य हर न ले, इसी आशंका से मैंने वह अयोग्य बर्ताव किया था। ‘राजकुमारी द्रौपदी से, जो एक वस्त्र धारण किये रजस्वला अवस्था में थी, आपके पुत्र ने जो कुछ कहा था, वह सब आप जानती हैं। ‘दुर्योधन का संहार किये बिना हम लोग निष्कण्टक पृथ्वी का राज्य नहीं भोग सकते थे, इसलिये मैंने यह अयोग्य कार्य किया। ‘आपके पुत्र ने तो हम सब लोगों का इससे भी बढ़कर अप्रिय किया था कि उसने भरी सभा में द्रौपदी को अपनी बाँयीं जाँघ दिखायी। ‘आपके उस दुराचारी पुत्र को तो हमें उसी समय मार डालना चाहिये था; परंतु धर्मराज की आज्ञा से हमलोग समय के बन्धन में बँधकर चुप रह गये। ‘रानी! आपके पुत्र ने उस महान वैर की आग को और भी प्रज्वलित कर दिया और हमें वन में भेजकर सदा क्लेश पहुँचाया; इसीलिये हमने उसके साथ ऐसा व्यवहार किया है। ‘रणभूमि में दुर्योधन का वध करके हम लोग इस वैर से पार हो गये। राजा युधिष्ठिर को राज्य मिल गया और हम लोगों का क्रोध शान्त हो गया |”
अब गांधारी निरुत्तर हो गयी होगी ! है न ! नहीं, दोनों ही पक्ष अपनी बात कर रहे थे, रोष में थे, दुखी थे, किन्तु वार्तालाप में, बातें कहने की चतुराई थी | पहली भीम ने गलती मानी फिर धीरे से दुर्योधन की करतूतें भी याद दिलाई और माता का मान भी रखा | लेकिन गांधारी शांत नहीं हुई | कहती हैं – “तात! तुम मेरे पुत्र की इतनी प्रशंसा कर रहे हो; इसलिये यह उसका वध नहीं हुआ (वह अपने यशोमय शरीर से अमर है) और मेरे सामने तुम जो कुछ कह रहे हो, वह सारा अपराध दुर्योधन ने अवश्य किया है। भारत! परंतु वृषसेन ने जब नकुल के घोड़ो को मारकर उसे रथहीन कर दिया था, उस समय तुमने युद्ध में दु:शासन को मारकर जो उसका खून पी लिया, वह सत्पुरुषों द्वारा निन्दित और नीच पुरुषों द्वारा सेवित घोर क्रूरतापूर्ण कर्म है। वृकोदर! तुमने वही क्रूर कार्य किया है, इसलिये तुम्हारे द्वारा अत्यन्त अयोग्य कर्म बन गया है।”
भीमसेन न क्रोध में हैं, न उत्तेजित हैं प्रश्नों से क्योंकि प्रश्न माता कर रही है | भीमसेन कहते हैं – “माता जी! दूसरे का भी खून नहीं पीना चाहिये; फिर अपना ही खून कोई कैसे पी सकता है? जैसे अपना शरीर है, वैसे ही भाई का शरीर है। अपने में और भाई में कोई अन्तर नहीं है। माँ! आप शोक न करें। वह खून मेरे दाँतो और ओठों को लाँघकर आगे नहीं जा सका था। इस बात को सूर्य-पुत्र यमराज जानते हैं कि केवल मेरे दोनों हाथ ही रक्त में सने हुए थे। युद्ध में वृषसेन के द्वारा नकुल के घोड़ो को मारा गया देख जो दु:शासन के सभी भाई हर्ष से उल्लसित हो उठे थे, उनके मन में वैसा करके मैंने केवल त्रास उत्पन्न किया था। द्यतक्रीडा के समय जब द्रौपदी का केश खींचा गया, उस समय क्रोध में भरकर मैंने जो प्रतिज्ञा की थी, उसकी याद हमारे हृदय में बराबर बनी रहती थी।”
रानी जी! यदि मैं उस प्रतिज्ञा को पूर्ण न करता तो सदा के लिये क्षत्रिय-धर्म से गिर जाता, इसलिये मैंने यह काम किया था। माता गान्धारी! आपको मुझमें दोष की आशंका नहीं करनी चाहिये। पहले जब हम लोगों ने कोई अपराध नहीं किया था, उस समय हम पर अत्याचार करने वाले अपने पुत्रों-को तो आपने रोका नही; फिर इस समय आप क्यों मुझ पर दोषारोपण करती है?
गांधारी दुखी है ! वो अपने बाणों से भीम का कुछ नहीं बिगाड़ पा रही हैं, उसके कर्मो में कोई दोष नहीं सिद्ध कर पा रही है तो वो भीम से अलग हट जाती हैं और युधिष्ठिर पर आ जाती हैं, क्योंकि उसे पता है, भीम कम से कम प्र्यत्युत्तर तो देगा ही, अतः उसे बातों में नहीं हराया जा सकता किन्तु युधिष्ठिर ऐसा नहीं है | वो सौम्य है और बड़ों का इससे भी अधिक आदर करेगा सो आगे कहती है – ” अरे भीम ! अगर मारना ही था तो दुर्योधन को मार देते, दुश्शासन को भी मार देते, मेरे क्रूरकर्मा पुत्रों को मार डालते लेकिन कोई १ तो ऐसा होगा, जो ऐसा नहीं होगा, उसे तो छोड़ देते ! जिसने तुम्हारा इतना बुरा नहीं किया होगा ! अरे अब बताओ, अब हम अंधे बुड्ढे बुढिया, किसके सहारे जियेंगे ? तुमने सभी को मार दिया, तुम बड़े ही क्रूर हो | तुम तो मेरे सारे पुत्रों के लिए यमराज बन गए | अगर मेरा एक पुत्र भी शेष रहता तो मुझे इतना दुःख नहीं होता | कहाँ है वो युधिष्ठिर, सामने क्यों नहीं आता ?”
युधिष्ठिर आगे आते हैं और बिना किसी तर्क, वितर्क के विनयपूर्वक अपनी गलती मान लेते हैं और कहते हैं – माँ ! मैं यहाँ हूँ | आप सही कहती हैं, राज्य के लोभ में, हमने ही अपने सभी भाइयों को मार दिया है | भाइयों के ही नहीं बल्कि पृथ्वीभर के राजाओं को मारने में, मैं ही हेतु हूँ अतः आप मुझे श्राप दीजिये | मैं अपने सुहृदयो का द्रोही हूँ और अविवेकी हूँ | ऐसे सुहृदयों को मार कर, अब धन, राज्य से मेरा कोई प्रयोजन नहीं है |
जब निकट आकर डरे हुए राजा युधिष्ठर ने, ऐसी बातें कहीं, तब गान्धारी देवी जोर-जोर से साँस खींचती हुई सिसकने लगीं। वे मुँह से कुछ बोल न सकीं। राजा युधिष्ठिर शरीर को झुकाकर गांधारी के चरणों पर गिर जाना चाहते थे। इतने ही में धर्म को जानने वाली दूरदर्शिनी देवी गांधारी ने पट्टी के भीतर से ही राजा युधिष्ठिर के पैरों की अगुलियों के अग्रभाग देख लिये। इतने ही से राजा-के नख काले पड़ गये। इसके पहले उनके नख बड़े ही सुन्दर और दर्शनीय थे। ये देखकर अर्जुन डर के मारे, कृष्ण जी के पीछे छिप जाते हैं | इस प्रकार की इधर उधर छिपने की चेष्टा करते हुए जानकार, गांधारी का क्रोध उस समय शांत हो गया लेकिन श्राप तो उसने दिया | युद्धभूमि में पहुच कर, कृष्ण जी को ! क्योंकि मा जब अपने बेटे की लाश देख ले तो उसके दुःख का कोई पारावार नहीं रहता, किसी न किसी को तो श्राप मिलना ही था और वो श्राप मिला कृष्ण को ! मृत्यु का श्राप !
महाभारत पढ़िए, बड़ी मजेदार है | कोई नावेल,कोई उपन्यास उसका मुकाबला नहीं कर सकता | असली धर्मग्रंथो को पढ़िए | आपको बहुत से अनसुलझे सवालों का जवाब मिलेगा | किसी बाबा, सबा को ढूढने की आवश्यकता नहीं है | पर समस्या ये है कि लोग प्रश्न तो हजार लिए घुमते हैं लेकिन पढ़ते कुछ नहीं हैं | जब कि ऐसा तो नहीं है कि मेरी नौकरी नहीं है, मेरा घर नहीं है, सब कुछ है, पर फिर भी पढ़ लेता हूँ, पढ़ा लेता हूँ पर आप ऐसे कहाँ बीजी हैं जो कुछ भी नहीं पढ़ पा रहे ! सच बताइए समय नहीं है या बहाना मारते हैं ? आंय !
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