July 7, 2024

क्रोधस्तु प्रथमं शत्रुर्निष्फलो देह्नाशनः,
ज्ञानखड्गेन तं छित्वा परमं सुखमाप्नुयात |
तृष्णा बहुविधा माया बन्धनी पापकारिणी,
छित्वेतां ज्ञानखड्गेन सुखं तिष्ठति मानवः ||
                                               — ब्रह्म पुराण

अर्थ – मनुष्य का पहला शत्रु है क्रोध | उसका फल तो कुछ भी नहीं है, उलटे वह शरीर का नाश करता है, अतः ज्ञान रुपी खड्ग से उसका नाश करके परम आनंद को प्राप्त करे | नाना प्रकार की तृष्णा बंधन में डालने वाली माया है, वह पाप कराती है; अतः ज्ञान रुपी खड्ग से उसका नाश कर देने पर मनुष्य सुख से रहता है |

अंतर्ध्यान – ज्ञान से अज्ञान को काटना है | पर कैसे ? बहुत से पंडित, बाबा, महात्मा बताते हैं कि लोभ छोड़ो, माया छोड़ो, स्त्री छोड़ो…. ये छोड़ो, वो छोड़ो…. ज्ञान मिल जायेगा | कैसे मिल जायेगा ? अरे साब, स्त्री के पास रहना पाप होता तो कृष्ण जी के पास तो हजारों पत्नियाँ थी, जिसमें एक दो नहीं ८-८ पटरानियाँ थी | माया छोड़ो !!! अरे, जब भगवान् राम स्वयं माया के वशीभूत हो कर सीता जी को जंगल छुडवा दिए रहे तो हम और आप माया कैसे छोड़ सकते हैं ? सीता जी को तोते से श्राप पड़ा ही क्यों ? अगर वो माया के वशीभूत नहीं थी ? जब वो नहीं छोड़ पाए तो हम कैसे छोड़ेंगे ? वास्तव में कुछ नहीं छोड़ना… !

इसको और आसान करके देखते हैं | उपरोक्त श्लोक में अज्ञान एक खराब चीज है, इसे थोड़ी देर के लिए वायरस मान लेते हैं और ज्ञान एक अच्छी चीज है जो अज्ञान का नाश करता है सो इसे थोड़ी देर के लिए एंटीवायरस मान लेते हैं | और ये दोनों कहाँ रहते हैं ? हमारे शरीर में, सो इसे थोड़ी देर के लिए सिस्टम मान लेते हैं | सिस्टम में सारी प्रोग्रामिंग कहाँ होती है ? माइक्रोप्रोसेसर में, सो चित्त हमारा माइक्रोप्रोसेसर है |  अब ये वायरस आते कहाँ से हैं ? ये वायरस हमें बचपन से दिए जाते हैं | जैसे ये मेरा है, ये तेरा है; ये अपना है, ये पराया है; ये अच्छा है ये बुरा है; ये पाप है, ये पुण्य है; ये सही है, ये गलत है; ये सुख है और ये दुःख है;  ये सब क्या है ? ये सब भेद बुद्धि है; ये सब ही वायरस है जो हमें सिखाये गए हैं, हममें डाले गए हैं | आदमी जो कुछ सोचता है और जो कुछ करता है इन सब चीजो को ध्यान में रख कर ही करता है, यानी हमारी सोच और हमारे कार्य इन सब बातों से प्रभावित होते हैं और यही एक वायरस का काम है | जो भी प्रोसेसिंग हो, उसे एफेक्ट करना | जब कंप्यूटर में वायरस ज्यादा हो जाते हैं तो क्या करते हैं ? कंप्यूटर को फॉर्मेट कर देते हैं | मार दीजिये अपने सिस्टम को फॉर्मेट | कंप्यूटर को फॉर्मेट करते हैं तो क्या होता है ? सब खाली हो जाता है और उसके सारे वायरस भी ख़त्म हो जाते हैं, आपके भी वायरस ख़त्म हो जायेंगे, भेद बुद्धि ख़त्म हो जाएगी क्योंकि आप जिन चित्त के विकारों से भेद कर रहे थे वो सारे प्रोग्राम तो आपने फॉर्मेट कर दिए |

तब क्या होगा ? फॉर्मेट के बाद कंप्यूटर में क्या बचता है ? स्पेस !!! खाली स्पेस आपके सिस्टम में भी एक स्पेस क्रिएट होगा | अब आप उस स्पेस में कुछ भी भर सकते हैं | आप अपनी प्रोग्रामिंग खुद कर सकते हैं | हटा दीजिये सारे भेद जो आप जानते थे | जो प्रोग्राम आपमें डाले गए थे; ये सुन्दर है, ये असुंदर है, ये अच्छा है, ये बुरा है | सब हटा दीजिये | जैसे कंप्यूटर फॉर्मेट होने के बाद क्लीन हो जाता है वैसे ही आपकी बुद्धि भी शुद्ध हो जाएगी | बुद्धि शुद्ध होगी तो क्या होगा ? सारे भेद समाप्त हो जायेंगे |

कीजिये अपनी प्रोग्रामिंग, मिटा दीजिये सारी भेद बुद्धि को | न कुछ अच्छा है, न कुछ बुरा है, न कोई अपना है, न कोई पराया है, न कुछ सही है और न कुछ गलत है, न कुछ पाप है और न कुछ पुण्य है, न कहीं सुख है और न कहीं दुख है  | फिर क्या डालना है ? फिर डालना है सही प्रोग्राम, खुद कीजिए अपनी प्रोग्रामिंग | सब मेरे हैं, कोई पराया नहीं है | जब सब मेरे हैं तो मेरा भाई भी मेरा है, मेरा पडोसी भी मेरा भाई है, मेरा सहपाठी भी मेरा भाई है, सारे हमउम्र, सारे छोटे बड़े, सब मेरे भाई हैं,  कोई पराया नहीं है क्योंकि अपने परायेपन की प्रोग्रामिंग तो आपने डिलीट कर दी, अब तो सब अपने हैं | ये मेरे पिता जी  हैं और पड़ोस के अंकल भी मेरे पिता सामान ही हैं | मेरी बेटी भी मेरी है और मेरे पड़ोस में रहने वाली लड़की भी मेरी बेटी जैसी ही है | कौन पराया है फिर ?  नेता लोग, अक्सर अपने स्टेज से कहते हैं – भाइयों और बहनों !!! क्यों ? क्योंकि वो दिखाना चाहते हैं कि वो कोई भेद नहीं करते पर ऐसा है क्या ?  क्या कोई अपने भाई के लिए ऐसी पालिसी बनाता है, जिस से खुद के भाई बहनों का नुकसान हो, या  कष्ट हो | वो सिर्फ दिखाते  हैं, मानते नहीं है | पर जो मानता है कि इस दुनिया में जो भी है, वो अपना है, मेरा है उसके लिए ही कहा गया है – “वसुधैव कुटुम्बकम”

वसुधैव कुटुम्बकम उसी के लिए है जिसकी भेद बुद्धि नष्ट हो चुकी है | जो सेल्फ प्रोग्रामर है, जो खुद पर कण्ट्रोल कर लेता है |

ऐसे ही कुछ भी मेरा नहीं है और कुछ  भी पराया नहीं है | अरे ! जब सब अपने ही भाई बंधू हैं तो क्या मेरा और क्या तेरा ? जब तुझे जरूरत पड़ेगी, मेरे से ले और जब मुझे जरूरत पड़ेगी मैं तेरे से ले लूँगा | कहते तो हैं – इयं मम परोवेति, गणना लघुचेतसाम | सब कुछ तो हम जानते हैं | पर मानते नहीं हैं | सो अपनी प्रोग्रामिंग खुद कीजिये | ऐसे ही जितनी भी और भेद बुद्धि है, उस सब को हटा कर केवल एक चीज रखिये | जैसे न कहीं सुख है और न कहीं दुःख है – सब जगह एक ही चीज है, आनंद | सुख में भी आनंद लीजिये और दुःख में भी आनंद लीजिये | कुछ समय बाद आपको लगेगा कि साला, हम कितना फालतू की बातों पर रोता था…. और अपने आप, दुःख और सुख से परे, आनंद की स्टेट में पहुच जायेंगे (विस्तारभय से इसे यहीं छोड़ता हूँ )

अहम् ब्रह्मास्मि ! जो अपनी प्रोग्रामिंग खुद करेगा, जो सबको ब्रह्म का स्वरुप मानेगा, जो स्वयं ब्रह्म की भांति चित्त के विकारों से दूर होगा, वही ब्रह्म है | आप भी ब्रहम हैं और मैं भी ब्रह्म हूँ | हम सब ईश्वर स्वरूप हैं और विकारों से मुक्त होने के लिए ही बने हैं | कीजिये खुद को अपने चित्त के विकारों से दूर….. कीजिये खुद की सेल्फ प्रोग्रामिंग……. काटिए अपने अज्ञान को अपने ज्ञान से …… स्वयं को जानिये …… |

ॐ श्री गुरुवे नमः |

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