अघोरी बाबा की गीता – अहिंसा क्या है ? क्या धर्म हिंसा तथैव च, शास्त्रोक्त है ? कहीं झूठ तो नहीं ? अहिंसा परमो धर्म कैसे ?
#अघोरी_बाबा_की_गीता – 74
बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई।
“पहले हमें यह समझना चाहिए कि अहिंसा होता क्या है, जब हम अहिंसा को समझ पाएंगे तब ही इसकी तात्विक विवेचना करना संभव होगा | अहिंसा शब्द में अ अक्षर का उपसर्ग है | हिंसा शब्द में जब अ अक्षर का उपसर्ग लगाते हैं, तब बन जाता है अहिंसा | अ उपसर्ग, मुख्यतः किसी बात के निषेध के लिए लगाया जाता है, जैसे अमर अर्थात जो मर न सकता हो, अधर्म अर्थात जो धर्म न हो | ऐसे ही अहिंसा का अर्थ है, हिंसा न करना | कृष्ण जी ने भगवद्गीता में कहा है कि –
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते।। (१*)
देव, द्विज (ब्राह्मण), गुरु और ज्ञानी जनों का पूजन, शौच, आर्जव (सरलता), ब्रह्मचर्य और अहिंसा, यह शरीर संबंधी तप कहा जाता है । इसमें स्वयं कृष्ण जी ने अहिंसा को शरीर का तप बताया है |
अब जब हिंसा न करने के लिए कहा जाता है तो अनेकानेक समय पर अहिंसा परमो धर्मः कहा जाता है | यानि अहिंसा ही परम धर्म है | अब सोचने और विचारने वाली बात ये है कि क्या अहिंसा ही परम धर्म है ? क्या अहिंसा का यही अर्थ है, जो हमें बताया जाता रहा है ! ये भी कहा जाता है कि हिंसा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि हिंसा करना पाप है | किन्तु यदि हिंसा करना पाप होता, तो क्या पूरी भगवद्गीता अर्जुन को युद्ध में प्रेरित करने के लिए सुनाई गयी है, क्या वो गलत है ? युद्ध में तो अहिंसा हो ही नहीं सकती | क्या ऐसा संभव है कि कृष्ण जी गीता में अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित करते हों, हिंसा करने के लिए कहते हो, पाप करने के लिए कहते हों ? इसका अर्थ ये जाता है कि अवश्य ही हम अहिंसा को नहीं समझ पा रहे हैं | लेकिन अहिंसा तो अपने आप में स्वतंत्र शब्द है ही नहीं, अहिंसा तो हिंसा से बना है, इसका अर्थ ये भी हुआ कि हम हिंसा को भी नहीं समझ पा रहे हैं | जब हम दोनों शब्दों को ही नहीं समझ पा रहे हैं तो हम इनके सही सही अर्थ को कैसे समझ सकते हैं ! फिर यदि हम हिंसा अर्थ किसी को मारना और अहिंसा का अर्थ किसी को न मारना लें तो ये बड़ी मूर्खता होगी | यदि इसके आधार पर हम कोई भी निष्कर्ष निकालें तो वो भी मूर्खता ही होगी | दोनों में से सही क्या है ? अहिंसा परम धर्म है तो कृष्ण जी अर्जुन को युद्ध करने की प्रेरणा क्यों दे रहे हैं ?”
मैं बड़े ध्यान से किशोर जी की बात सुन रहा था | अहिंसा शब्द को लेकर तो सही में बड़ा घाल-मेल है | ये उतना आसान भी नहीं है, जितना मैं समझ रहा था | अब तो बात कृष्ण जी के ऊपर ही आ गयी है और जो कृष्ण जी ने कहा, वो गलत होना असंभव है | भगवद्गीता सबसे बड़ा ग्रन्थ है, जो इसमें है वही सही है किन्तु इसमें भी यही लिखा है कि अहिंसा शरीर का तप है ! ये क्या चक्कर है ? ये कैसी उलझन है कि अहिंसा को तप भी बता रहे हैं और अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित भी कर रहे हैं | मुझे अब लग रहा था कि इस शब्द को किसी भी राह चलते से सुन लेना और उसके अनुसार हिंसा और अहिंसा शब्द का कुछ भी अर्थ कर लेना, बड़ी भारी गलती होगी | किशोर जी की बातों पर मैंने अपने कान टिका दिए कि कहीं कुछ छूट न जाए |
“अब मुझे बताओ कि अहिंसा ही परम धर्म होता तो महाराणा प्रताप, महाराणा सांगा, लक्ष्मीबाई, शिवाजी, क्या ये सब अधर्मी थी ? क्या इन्होने जो मातृभूमि के लिए युद्ध किया, क्या वो अधर्म ही था ? यदि ये अधर्म नहीं था तो फिर क्या हमें ये मानना चाहिए कि महाभारत में जो लिखा गया है, “अहिंसा परमो धर्मः” वो गलत है ? किन्तु क्या किसी भी ग्रन्थ के बारे में किसी बात को सही और किसी बात को गलत मानने का अधिकार हमको है ? महाभारत में ही गीता को सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ मानो लेकिन उसी महाभारत में दूसरी जगह लिखी हुई, “अहिंसा परमो धर्मः” की बात को गलत मानो ! ये क्या अपने घर की खेती है कि जो समझ में आये वो सही और जो समझ में न आये, वो गलत ? पर वास्तव में होता यही है | आदमी शास्त्रों को समझ नहीं पाता और जब समझ नहीं पाता तो उनको गलत बोलता है | शास्त्रों पर ही दोष मढ़ता है ! अरे, किसी को पढ़ कर समझ नहीं आ रहा तो इसमें शास्त्रों की क्या गलती है ? ढूंढें किसी को जो उसे समझा सकता हो, खुद क्यों विद्वान् बना जा रहा है, महाभारत को झूठा बता कर ? लोग बातों को समझते नहीं है या समझना नहीं चाहते, बस शास्त्रों का नाम लेकर अनर्गल प्रलाप करते हैं | वो शास्त्रों को इतना आसान समझ लेते हैं कि कोई भी उसकी कैसी भी व्याख्या कर लेता है | तुम बताओ, दोनों में से कौन सी बात सही है ? अहिंसा परम धर्म है या भगवद्गीता में कृष्ण जी का अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित करना सही है ?”
सही बताऊ, मेरी तो बुद्धि ने ही काम करना बंद कर दिया ! ये क्या माजरा है ! यदि कहूं कि भगवान् कृष्ण सही कह रहे हैं, तो वो युद्ध के लिए अर्जुन को प्रेरित क्यों कर रहे हैं और इस प्रकार में महाभारत को ही झूठा सिद्ध कर दूंगा कि अहिंसा परम धर्म नहीं है लेकिन यदि मैं ऐसा करता हूँ तो भगवद्गीता भी तो महाभारत का ही अंश है ! वो पहले झूठी सिद्ध हो जायेगी ! अजीब पहेली है ! एक एक शब्द का बड़ा महत्व है ! कितने ही शब्दों की व्याख्या अभी तक किशोर जी ने की और ये भी दिखाया कि कैसे लोग अर्थ का अनर्थ करते हैं, चाहे वो बात ज्योतिष की हो, चाहे बलि हो, योनि हो, वर्ण हो अतः अब ये तो स्पष्ट है कि जब तक शब्द का सही सही अर्थ नहीं पता हो, हर किसी को शास्त्रों की व्याख्या नहीं करनी चाहिए और न ही लोगो को ऐसे लोगो को मानना चाहिए जो शब्दों से खेल कर अर्थ का अनर्थ करते हैं | फिर भी मैंने एक प्रयास किया, जिसे मैं बहुधा सुनता आ रहा था –
“जी, मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है | पर ये भी समझ नहीं आ रहा कि आप आधी बात क्यों बोल रहे हैं ! यदि ये लिखा है महाभारत में कि अहिंसा परमो धर्मः तो उसके आगे ये भी तो लिखा है, धर्म हिंसा तथैव च ! यदि हम इसको पूरा पढेंगे तो कारण स्पष्ट हो जायेगा कि कृष्ण जी अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित क्यों कर रहे हैं ! मेरे ख्याल से, ये विषय इतना भी टेढ़ा नहीं है, जितना आप बता रहे हैं ! महाभारत के पूरे श्लोक को लें, “अहिंसा परमो धर्मः, धर्म हिंसा तथैव च” तो सब कुछ पानी की तरह साफ़ हो जाएगा |”
किशोर जी मेरी बात सुन कर प्रसन्न नहीं हुए ! उनकी मुख मुद्रा बदल गयी और बोले –
“ज्ञानी महाराज, ये आपने महाभारत में कहाँ पढ़ा है कि अहिंसा परमो धर्मः, धर्म हिंसा तथैव च ?”
“जी पक्का तो नहीं मालूम पर शायद महाभारत के अनुशासन पर्व में ऐसा है |” – मैंने अपनी बात को पुष्ट करते हुए कहा |
“महाभारत के अनुशासन पर्व में ऐसा कुछ नहीं लिखा है | इसे ही अनर्गल प्रलाप कहा जाता है | पूरी महाभारत में ऐसा कहीं नहीं लिखा हुआ है | शातिर लोग इसी बात का फायदा उठाते हैं कि लोगो ने स्वयं तो कुछ पढ़ा नहीं है सो शास्त्रों का नाम लेकर कुछ भी ठेल दो, सब चल जाएगा | बोल दो, महाभारत में ऐसा ऐसा लिखा है तो लोग मान लेंगे और लोग मान लेते हैं, उदाहरण हो तुम स्वयं ! क्या तुमने कभी खुद महाभारत हाथ में उठा कर देखी कि पता करूँ, ऐसा लिखा भी है या नहीं ! महाभारत में लिखा है –
अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परं तपः ।
अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते || (२*)
अर्थात अहिंसा ही परम धर्म है, अहिंसा ही परम तप है, अहिंसा ही परम सत्य है, अहिंसा से ही मनुष्य धर्म में प्रवृत्त होता है |”
“अब बताओ, क्या मिथ्या है ? महाभारत गलत है, भगवद्गीता गलत है या धर्म हिंसा तथैव च महाभारत में लिखा हुआ है, ये गलत है ?”
पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगा, जैसे किसी ने पीछे से चिल्लाया हो – क्लीन बोल्ड ! मेरे गिल्ली डंडे बिखर चुके थे | मुझे ऐसा लग रहा था जैसे क्रीज पर आते ही शून्य पर आउट हो गया हूँ | मैं भी क्यों इतने बड़े ज्ञानी के सामने होशियारी खर्च करता हूँ ! अब तो हाथ जोड़ने के अलावा कोई और चारा ही नहीं था |
“जी, मैं फिर से भ्रमित हो चुका हूँ | मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा है | मैंने तो यही सुना था कि अहिंसा परमो धर्मः, धर्म हिंसा तथैव च, महाभारत में लिखा हुआ है लेकिन आपने बताया कि ऐसा कहीं नहीं लिखा हुआ है, इसका तो एक ही अर्थ हो सकता है कि मुझे शास्त्रों के नाम पर बड़ी आसानी से मूर्ख बनाया जा सकता है क्योंकि मैंने स्वयं तो कभी कुछ पढ़ा ही नहीं है | अब आप ही मेरा मार्गदर्शन कीजिये |” – ये कह कर मैं बड़े ही दीन भाव में उनके सामने सर झुका कर बैठ गया |
क्रमशः
अभिनन्दन शर्मा दिल से …..
(१*) – भगवद्गीता – अध्याय १७, श्लोक १४
(२*) – (महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय 115, श्लोक २३ – दानधर्मपर्व).