July 27, 2024

मस्तकस्थापिनम मृत्युम यदि पश्येदयम जनः । आहारोअपि न रोचते किमुताकार्यकारिता ।।
अहो मानुष्यकं जन्म सर्वरत्नसुदुर्लभम । तृणवत क्रियते कैश्चिद योषिन्मूढ़ेर्नराधमै ।।

सन्दर्भ – जब अर्जुन पांच तीर्थों में स्नान  करने के लिए गए और जब उन्होंने पांच ग्राहों को श्राप मुक्त कराया और उन पांचो सुंदर स्त्रियों से ग्राह्स्वरूप में श्रापग्रस्त होने का कारण पुछा तब उन सुन्दर स्त्रियों ने बताया कि वो पांचो अप्सराएं थी और अपनी चार सखियों के साथ वन में गई और वहां उन्होंने एक बड़े सुन्दर तपस्वी को देखा और उसे लुभाने के लिए चेष्टा करने लगी । हमारी अनुचित चेष्टाओ से कुपित होकर उन्होंने हम सब को सौ वर्षों तक ग्राह बनने का श्राप दे दिया ।

इसे सुन कर हम सब बड़ी व्यथित हो गई और उन से क्षमा याचना करने लगी । अप्सराओं के प्रार्थना करने पर उन्होंने उन पर कृपा की और इस  कहा – “देवियों ! यदि लोग अपने सिर पर खड़ी हुई मृत्यु को देख लें तो उन्हें भोजन भी न रुचे, फिर पाप में तो प्रवृति हो ही कैसे सकती है ? अहो ! सब रत्नों से बढ़कर अत्यंत दुर्लभ इस मनुष्य जन्म को पा कर स्त्रियों के मोह में फंसे हुए कुछ नीच मनुष्य इसे तिनके के समान गवां देते हैं । यह कितने आश्चर्य की बात है ।

हम पूछते हैं, तुम लोगो का जन्म किसलिये हुआ है अथवा उस से क्या लाभ है । अपने मन में विचार करके इसका उत्तर दो । हम स्त्रियों की निंदा  नहीं करते, जिनसे सबका जन्म होता है । केवल उन पुरुषों की निंदा करते हैं, जो स्त्रियों के प्रति उच्छर्लङ्ख हैं, मर्यादा का उल्लंघन करके उनके प्रति आसक्त हैं । ब्रह्मा जी ने संसार की सृष्टि बढाने के लिए स्त्री पुरुष के जोड़े का निर्माण किया है । अतः इसी भाव से स्त्री पुरुष को मिथुन धर्म का पालन करना चाहिए । इसमें कोई दोष नहीं हैं । परन्तु इतना ध्यान रखना चाहिए कि जो नारी अपने बन्धु बांधवों द्वारा ब्राह्मण और अग्नि के समीप शास्त्रीय विधि से अपने को दी गयी हो, उसी के साथ सदा गृहस्थ धर्म का पालन करना श्रेष्ठ माना गया है । इस प्रकार प्रयत्नपूर्वक शास्त्र मर्यादा के अनुकूल चलाये जाने वाला गृहस्थ धर्म महान गुणकारक होता है ।

जो गृहस्थी शास्त्र मर्यादा के अनुसार नहीं चलाई जाती, वह दोष का कारण होती है । स्त्री के साथ संयोग इस लिए किया  जाता है कि उसके पुत्र उत्पन्न हो कर पञ्च यज्ञ आदि कर्मो द्वारा संपूर्ण विश्व का उपकार कर सके, किन्तु हाय ! मूढ़ मनुष्य उस पवित्र संयोग को किसी और ही भाव से ग्रहण करते हैं । छः धातुओं का सारभूत जो वीर्य है उसे अपने समान वर्ण वाली स्त्री को छोड़ कर अन्य किसी निन्दित योनि में यदि कोई छोड़ता है, तो उसके लिए यमराज ने ऐसा कहा है  – पहले तो वो अन्न का द्रोही है, फिर आत्मा का द्रोही है, फिर पितरों का द्रोही है तथा अंततोगत्वा सम्पूर्ण विश्व का द्रोही है । ऐसा पुरुष  अनंत काल तक अन्धकार पूर्ण नरक में पड़ता है । देवता, पितर, ऋषि, मनुष्य (अतिथि) तथा सम्पूर्ण प्राणी मनुष्य के सहारे ही जीविका  चलाते हैं अतः प्रत्येक मनुष्य को ये उचित ही है कि वह इन पांचो का उपकार करने के लिए सदैव उद्यत  रहे ।  इस प्रकार संसार का जो निर्माण  हुआ है, उसे ह्रदय के भीतर स्मरण रखने वाले पुरुष का मन त्रिलोकी का राज्य पाने के लिए भी कैसे पाप में प्रवृत हो सकता है ।

यह ज्ञान वाणी कहने के  बाद उन्होंने हमें श्राप मुक्त होने के लिए किसी श्रेष्ठ पुरुष द्वारा जल पर खींच लाया जायेगा और हम श्राप मुक्त हो जायेंगे और अपने पूर्व स्वरुप को प्राप्त हो जायेंगे ।

सन्दर्भ – (स्कन्ध पुराण, कुमारिका खंड 1। 49-50)

 

 

 

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You cannot copy content of this page