
महाभारत : भाग 1 –
संस्कारशाला में महाभारत की कथा प्रारंभ हुई है, एकदम शुरू से, प्रथम अध्याय से । सभी लोग अवश्य पढ़ें या यूट्यूब चैनल पर उसका लाइव अवश्य देखा करें । बहुत से अनजानी बातें, आपको पता चलेंगी ।
अभी तक बताया गया कि वेद व्यास जी ने महाभारत के श्लोक मन में रच लिए और ब्रह्मा जी से अपना दुख व्यक्त किया कि इतना लिखने वाला और भी शुद्ध लिखने वाला इस धरा पर उपलब्ध नहीं है तो ये जय संहिता कैसे लिखी जाएगी ? इस कथा में सभी वेदों, शास्त्रों, पुराणों, उपनिषदों का ज्ञान है (बच्चों को वेदों, उपवेदों, वेदांगों आदि के नाम बताए गए) लेकिन इसे कोई लिखने वाला ही नहीं है । इस पर ब्रह्मा जी ने गणेश जी का ध्यान करने को कहा और अंतर्ध्यान हो गए ।
इसके बाद व्यास जी ने गणेश जी का ध्यान किया । गणेश जी ने शर्त रखी कि आपको एक क्षण के लिए भी सोचना या चुप नहीं रहना है, वरना मैं लेखनी रख दूंगा । इस पर व्यास जी ने भी शर्त रख दी और कहा कि आप तब तक न लिखें, जब तक आप श्लोक का सही सही अर्थ न समझ लें । इसके बाद व्यास जी ने एक से एक टेढ़े श्लोक बोलने प्रारंभ किए, जिनका बाहर से अर्थ कुछ लगता था पर गूढ़ार्थ कुछ और ही होता था । इसका एक कवित्व उदाहरण दिया (विडियो में देखें) जिसमें बकरी के दोस्त के शत्रु की जननी के पति के पुत्र के मित्र का भजन करने को कहा गया !! (क्या है ये स्तुति ? देखें वीडियो में ।
इसके बाद महाभारत प्रारंभ हुई जन्मेजय (परीक्षित के पुत्र) के यज्ञ से, जहां देवताओं की कुतिया ने जन्मेजय को शाप दिया कि उसके ऊपर जल्द ही कोई विपत्ति आयेगी । विपत्ति से बचने के लिए, जन्मेजय ने महर्षि सोमश्रवा को अपना पुरोहित बनाया और तीनों भाइयों को सोमश्रवा के अनुसार ही कार्य करने को कहा । भाइयों ने पूछा कि गुरु की आज्ञा कैसे मानते हैं तो उन्हें आरुणि, उपमन्यु और देव की कथा सुनाई कि कैसे उन्होंने गुरु की आज्ञा का पालन किया (कथा विडियो में देखें) उसके बाद वेद के शिष्य उत्तान्क की कथा प्रारंभ हुई ।
Mahabharat part 2 (i)
Mahabharat Part 2 (ii)
Mahabharat Part 2 (iii)
Mahabharat Part 3
Mahabharat Part 4
इस बार की संस्कारशाला में बच्चों को महाभारत से भृगुवंश की कथा सुनाई, जिसमें ऋषि उग्रश्रवा ने, ऋषि शौनक को उनके वंश के बारे में बताया । यहां बच्चों से उनके बाबा के बारे में पूछा तो बहुत बच्चों को उनके बाबा का नाम तक नहीं पता था, बाबा के कार्य तो बिल्कुल पता नहीं थे) ऋषि भृगु की उत्पत्ति और उसके बाद, उनके पुत्र च्यवन के जन्म की कथा सुनाई, जिनका नाम भार्गव प्रसिद्ध हुआ ।
ऋषि शौनक ने च्यवन ऋषि के जन्म की कथा पूछी (इन्हीं च्यवन ऋषि के नाम से च्यवनप्राश बना) । जिसमें भृगु ऋषि की पत्नी, पुलोमा के बारे में बताया, जिसे पुलोमा नाम के ही राक्षस ने अपहरण कर लिया । अपहरण का कारण था, कि पिता ने बच्ची को डराने के लिए बोला था कि तेरा तो किसी राक्षस से विवाह कर देंगे, ए राक्षस, इससे विवाह कर ले । उस घर में पहले से पुलोमा राक्षस था, जिसने पिता की बात सुनकर, उस बालिका का वरण कर लिया, जिसे बड़ी होने पर, पिता ने भृगु ऋषि से ब्याह दिया । (इसलिए कभी बच्चों से कोई खराब बात नहीं कहानी चाहिए, पता नही वो कब सच हो जायेगी)
पुलोमा गर्भवती थी । राक्षस ने आश्रम में जल रही अग्नि से पूछा कि सही सही बताओ, इस पुलोमा का पति कौन है ? इसके पिता के कहने से मैने इसका वरण किया था, जिसे बाद में उस असत्यवादी पिता ने भृगु से ब्याह दिया। अतः आप सत्य कहो, क्या ये मेरी पत्नी नहीं है । तब अग्नि ने भृगु ऋषि के शाप से डरते हुए और असत्य वादन के पाप से बचते हुए कहा कि तुमसे विवाह तो हुआ था लेकिन वैदिक मंत्रों के साथ नहीं हुआ था, जबकि भृगु के साथ, मुझे साक्षी मान कर, वैदिक रीति से विवाह हुआ है पर ये सत्य है, पहले पति तुम ही थे ।
यह सुनते ही राक्षस ने पुलोमा का अपहरण कर लिया । परेशान पुलोमा के पेट से गर्भ का बालक, तेजबल से, च्युत (अलग) होकर, बाहर आ गया, और उसके सैकड़ों सूर्य के तेज से, वो राक्षस वहीं जल कर भस्म हो गया ।
भृगु ऋषि आश्रम पहुंचे और उन्हें सब ज्ञात हुआ तो उन्होंने पूछा कि इस जंगल में तुम्हें कोई नहीं जानता तो फिर उस राक्षस से तुम्हारा परिचय किसने कराया ? कौन है, जो मेरे शाप से नहीं डरता ? तो पुलोमा ने, अग्नि देव का नाम लिया । भृगु ऋषि ने अग्नि देवता को शाप दिया कि तुम सर्वभक्षी हो जाओ ।
ऐसा शाप मिलने से अग्नि देवता क्रोधित हुए और उन्होंने भृगु ऋषि से पूछा कि इसमें उनकी क्या गलती थी ? वो झूठ नहीं बोल सकते और चुप भी नहीं रह सकते थे क्योंकि किसी बात का प्रत्यक्षदर्शी होकर, जो पूछने पर झूठ बोलता है या चुप रह जाता है, वो अपनी आगे और पीछे की 7 पीढ़ियों को नर्क में धकेल देता है । अतः इसमें मेरी क्या गलती थी ? मैं भी आपको शाप दे सकता हूं लेकिन ब्राह्मण सम्मान के योग्य हैं, इसलिए आपको शाप नहीं देता हूं और ऐसा कह कर अग्नि देवता समस्त संसार से गायब हो गए । हवन कुंड से अग्नि गायब हो गई, चूल्हों से अग्नि गायब हो गई, चिता से अग्नि गायब हो गई । संपूर्ण संसार में हाहाकार मच गया ।
सभी देवता, ब्रह्मा जी के पास पहुंचे, उनको सब बताया । ब्रह्मा जी ने अग्नि की बुला कर उसे आशीर्वाद दिया कि जैसे सूर्य की किरणों से सभी अपवित्र चीजें भी पवित्र हो जाती हैं, ऐसे ही, आप के स्पर्श से भी सभी अशुद्ध चीजें, शुद्ध हो जाएंगी । आप देवताओं का मुख हैं (बच्चों को बताया कि अग्नि देवता का मुख कैसे हैं) आप अपने पेट की अग्नि से, अशुद्ध चीजों को ग्रहण करें और शुद्ध चीजों को अपने मुख से ग्रहण करके देवताओं को दें ।
इसके बाद उग्रश्रवा ऋषि ने भृग्गुवंश में अन्य नाम गिनाए । आगे ऋषि रूरू की उत्पत्ति की कथा अगली क्लास में होगी । जिनके बेटे शुनक ऋषि के पुत्र होने से ही, उनके बेटे का नाम शौनक हुआ ।
ऐसे ही वसुंधरा जी का पुत्र होने से, जन्मेजय जी के बेटे का एक नाम वसुंधरेय होगा । जैसे अंजनी जी के पुत्र का नाम आञ्जनेय हुआ । कुंती के पुत्रों का नाम कौंतेय हुआ । राधा के पुत्र (कर्ण) का नाम राधेय हुआ ।
इसके बाद बच्चों को तीन श्लोक याद कराए, त्वमेव माता च पिता त्वमेव, कर्पूर गौर करुणावतारम और विघ्नेश्वराय वरदाय ….
इसके बाद बच्चों को संगीत के अलंकारों का अभ्यास कराया और उनसे सुर लगवाए गए ।
अभिनंदन शर्मा
Mahabharat Part 5 – महाभारत में भृगुवंशीय महात्मा रुरु की कथा
इस बार की संस्कारशाला में भृगु वंश के परिचय के साथ, महात्मा रूरू की कथा कही गई । महर्षि प्रमति के पुत्र, रूरू हुए । जिनका तप और पुण्य बहुत बढ़ा चढ़ा था। दुष्ट और निर्लज्ज मेनका अप्सरा (अप्सरा कौन ?) ने गंधर्वराज (गंधर्व कौन ? )विश्ववसु से एक कन्या उत्पन्न की, और उसे महर्षि स्थूलकेष के आश्रम के बाहर, नदी तट पर छोड़ दिया । महर्षि स्थूलकेश, दयालु थे और उन्होंने जब उस देवताओं के तेज से युक्त बच्ची को देखा तो उसे आश्रम ले आए । उसका पालन पोषण करने लगे । जब वो बड़ी हुई तो महात्मा रूरू से, महर्षि स्थूलकेश के आश्रम पर उसकी भेंट हुई और महात्मा रूरू को वो पसंद आ गई । उन्होंने अपने मित्रों से, अपने पिता को कहलाया कि ये कन्या उनके लिए योग्य है, वो इससे विवाह करना चाहते हैं । (अच्छे बच्चे, अपने माता पिता की आज्ञा से, ऐसे बड़े निर्णय लिया करते हैं) । प्रमति ने महर्षि स्थूलकेश से बात की और एक शुभ मुहूर्त (मुहूर्त = 2 घड़ी = 48मिनट) निश्चित कर दिया ।
एक दिन जब विवाह का मुहूर्त निकट था तो कन्या, जिसका नाम, प्रमद्वरा (अर्थ ?) रखा गया, वो सहेलियों के साथ वन में खेलने गई । काल के वशीभूत होकर , खेलने में, उसका पैर एक सोते हुए काले सर्प पर पड़ गया और वो उसे कुचलती हुई आगे बढ़ गई ।
उस काले सर्प ने क्रोध में भरकर, अपने बड़े दांत, उस कोमलांगी के शरीर में गड़ा दिए । जिससे वो तुरंत ही जमीन पर गिर पड़ी और मर गई । जो कन्या कुछ समय पहले तक बहुत ही सुंदर और परिवार वालों के सुख को बढ़ाने वाली थी, वो ही अब कांतिहीन होकर परिवार वालो का शोक बढ़ा रही थी ।
ऋषि स्थूलकेश और अन्य ऋषियों ने रूरू के साथ जब उसको देखा तो सभी बड़े जोर से विलाप करने लगे । महात्मा रूरू तो दुखी होकर गहन वन में चले गए और बड़े जोर जोर से रोने लगे और कहने लगे । हे देवताओं ! जिस कोमलांगी से मैं विवाह करना चाहता था, वो अब सभी के दुख को बढ़ाती हुई धरती पर सो रही है। यदि मैने कभी जरा सा भी दान दिया हो, गुरु की सेवा की हो, भगवान कृष्ण की भक्ति की हो तो मेरी प्रिया तुरंत ही पुनः जीवित हो जाए । ऐसा बार बार कहकर वो जोर जोर से विलाप करने लगे । इतने में एक देवदूत आया और बोला – महात्मा रूरू आपका ये विलाप और कथन सब व्यर्थ हैं । तीन प्रकार के कष्ट होते हैं, साध्य, दुस्साध्य और असाध्य । साध्य और दुस्साध्य तो पूजा पाठ और इलाज करने से ठीक हो जाते हैं, किंतु जो रोग या कष्ट असाध्य है, उसके लिए मनुष्य की आयु पूरी समझनी चाहिए । वो कन्या का जीवन इतना ही था, अब उसे दुबारा जीवित नहीं किया जा सकता है, किंतु ऐसे विषय में देवताओं ने एक उपाय किया हुआ है, यदि आप वो कर सकें तो वो मैं आपसे कहूं ।
महात्मा रूरू बोले – मुझे तुरंत बताओ, मैं किसी भी प्रकार के उपाय को तुरंत करूंगा ।
तब वो देवदूत बोला कि आप यदि अपनी आधी आयु इस कन्या को दे दें तो वो कन्या पुनः जीवित हो सकती है (जैसे अभी फाइल ट्रांसफर होती है, ब्लूटूथ से, वैसे उस समय पुण्य के प्रभाव से आयु ट्रांसफर हो जाती थी, अधिक डिटेल्स के लिए वीडियो देखें)
महात्मा रूरू ने जल हाथ में लेकर तुरंत ही शपथ ली कि मैं अपनी आधी आयु प्रदवारा को देता हूं, वो तुरंत जीवित हो जाए ।
ऐसा कहने पर गंधरवराज विश्ववसु और देवगणों ने यमराज (यमराज कौन ?) को सारा हाल बताया और उनसे प्रमद्वरा को पुनः जीवित करने का निवेदन किया, जिसे यमराज ने स्वीकार कर लिया । प्रमद्वरा, तुरंत ही उठ गई, जैसे कोई सोते से उठ गया हो । ऐसा देख कर सभी परिवार वाले बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने महात्मा रूरू और प्रमद्वरा का विवाह करा दिया । दोनों प्रसन्नता से रहने लगे ।
लेकिन महात्मा रूरू तब से सर्पों से विशेष बैर मानने लगे और जहां भी सर्प को देखते, वो तुरंत किसी डंडे से इस सर्प को मार डालते । एक दिन महात्मा रूरू वन को गए तो वहां उन्हें एक डुंडूभ जाति का सर्प दिखा, जो सो रहा था । महात्मा रूरू उसे देखते ही क्रोध से भर गए और एक बड़ा सा काला दंड उठाकर उसे मारने को बढे । इतने में उस सर्प ने पूछा कि आप मुझ निरीह सर्प को क्यों मारना चाहते हैं ? मैने तो आपका कोई अपराध भी नहीं किया है । तब महात्मा रूरू ने बताया कि एक बार एक सर्प ने उनकी पत्नी को काट लिया था, तब से उन्होंने प्रतिज्ञा ली है कि मैं जिस भी सर्प को देखूंगा उसे मार डालूंगा अतः आप मरने को तैयार हो जाएं ।
तब वो सर्प बोला कि हम डुंडुभ (मतलब ?) सर्पों का भी बहुत दुख है कि हम किसी को नुकसान भी नहीं पहुंचाते, फिर भी लोग हमें अन्य सर्पों की भांति ही समझकर, हमें मार डालते हैं ।
इस पर महात्मा रूरू ने उसे कोई ऋषि समझा और पूछा कि आप कौन हैं और किस प्रकार इस सर्प योनि (योनि मतलब ?) में पहुंचे हैं ?
तब वो सर्प बोला कि इसकी भी एक कथा है, जो मैं अगली क्लास में सुनाऊंगा ।
(प्रश्नों के उत्तर के लिए कृपया यूट्यूब पर पूरी कथा सुनें )
इसके बाद बच्चों को श्लोक का अभ्यास कराया –
त्वमेव माता च पिता त्वमेव
कर्पूर गौरम करुणावतारम
विघ्नेश्वराय वरदाय
ब्रह्मा मुरारी त्रिपुरातकारी
इसके बाद बच्चों को संगीत में अलंकारों का अभ्यास कराया ।
अभिनंदन शर्मा