July 27, 2024

बुद्धिश्च हायते पुंसां नाचैत्तगह समागमात |
मध्यस्थेमध्यताम याति श्रेष्ठताम याति चौत्तमे ||

नारद जी कहते हैं – नन्दभद्र नाम का एक वणिक था | धर्मों के विषय में जो कुछ कहा गया है, उसमें कोई भी ऐसी बात नहीं थी, जो नन्दभद्र को ज्ञात न हो | किसी के साथ उसका द्वेष नहीं था, न राग, न अनुरोध था, न विरोध था | पत्थर और सुवर्ण को समान समझते तथा अपनी निंदा और स्तुति में समान भाव रखते थे | वे स्वभाव से ही धीर थे | सम्पूर्ण भूतों से निर्भय रहते थे और अपनी आकृति ऐसी बनाए रखते थे, मानो अंधे और बहरे हों | कर्मों के फल की उन्हें कोई आकांक्षा नहीं थी अतः यह फल उनके लिए भगवान् सदाशिव की आराधना बन जाता था |

उनके मत से, प्रतिदिन अपनी शक्ति के अनुसार देवताओं, पितरों, मनुष्यों (अतिथि), ब्राह्मणों तथा पशु पक्षी, कीट-पतंगों के लिए अन्न देना चाहिए | सदा इन सब को अन्न देकर ही भोजन करना उचित है | उनके मत में जो धन और पद के मद में उन्मत्त होता है, वह पतित होकर विवेक खो बैठता है | अतः सम्पूर्ण भूतों को अपना स्वरुप मान कर उनके प्रति अपने ही जैसा बर्ताव करना चाहिए | जिसकी सर्वत्र आत्मदृष्टि है वह ऐश्वर्य से मतवाला नही हो सकता | इस प्रकार इधर उधर प्रकट हुए सारभूत सदाचार का संग्रह करके साधू शिरोमणि बुद्धिमान नन्दभद्र उसी का पालन करते थे |

इसी स्थान में एक शूद्र भी रहता था, जो नन्दभद्र का पडोसी था | उसका नाम तो था सत्यव्रत, किन्तु वह बड़ा भारी नास्तिक और दुराचारी था | धर्मपरायण नन्दभद्र पर बार बार दोषारोपण किया करता था और सदा उसके दोष ही ढूंढता रहता था | उसकी इच्छा थी, कि यदि इसका कोई छिद्र देख पाऊं तो उन्हें धर्म से गिरा दूं | खोटे ह्रदय वाले क्रूर नास्तिकों का यह स्वभाव ही होता है कि ये अपने को तो नीचा गिराते ही हैं, दूसरों को भी गिराने की चेष्टा करते हैं |

धार्मिक वृत्ति से रहने वाले बुद्धिमान नन्दभद्र के वृद्धावस्था में बड़े कष्ट से एक पुत्र हुआ, किन्तु वह चल बसा | इसे प्रारब्ध का फल मान कर उन महामति वैश्य ने शोक नहीं किया | देवता हो या मनुष्य प्रारब्ध विधान से कौन छूट सकता है | तदनंतर नन्दभद्र की प्यारी पत्नी कनका, जो बड़ी ही पतिव्रता और गृहस्थ धर्म की साक्षात् मूर्ती थी, सहसा मृत्यु को प्राप्त हो गयी | नन्दभद्र जितेन्द्रिय थे; फिर भी पत्नी के न रहने से गृहस्थ धर्म का नाश होगा, यह सोचकर उन्हें शोक हुआ |

नन्दभद्र का यह अंतर देख कर सत्यव्रत को बहुत दिनों के बाद बड़ी प्रसन्नता हुई | वह ‘हाय-हाय ! बड़े कष्ट की बात हुई’ ऐसा कहता हुआ शीघ्र ही नन्दभद्र के पास आया और मित्र की भाँती मिलकर उस से बोला – ‘ हा नन्दभद्र ! यदि तुम जैसे धर्मात्मा को भी ऐसा फल मिला तो इस से मेरे मन में यही आता है कि यह धर्म-कर्म व्यर्थ ही है | भाई नन्दभद्र ! मैं सदा तुमसे कुछ कहना चाहता था, किन्तु तुम्हारी ओर से कोई प्रस्ताव न होने के कारण मैंने कभी कुछ नहीं कहा, क्योंकि बिना किसी प्रस्ताव के बृहस्पति जी भी कोई बात कहें, तो उनकी बुद्धि की अवहेलना होती है और उन्हें नीच पुरुष की भाँती अपमान प्राप्त होता है | मैं वाणी के अठारह और बुद्धि कि नौ दोषों से रहित सर्वथा निर्दोष वाक्य बोलूँगा |

वाणी के अट्ठारह दोषों कर वर्णन सुनो | अपेतार्थ, अभिन्नार्थ, अप्रवृत्त, अधि, अश्लक्षण, संदिग्ध, पदांत अक्षर का गुरु होना, परांग्मुख-मुख, अनृत एवं असंस्कृत, त्रिवर्गविरुद्ध, न्यून, कष्ट्शब्द, अतिशब्द, ब्युत्क्र्माभिहृत, सशेष, अहेतुक तथा निष्कारण – ये वाणी के दोष हैं* | अब बुद्धि के दोष सुनो | काम, क्रोध, भय, लोभ, दैन्य, अनार्जव (कुटलिता) – इन छह दोषों से युक्त होकर तथा दया, सम्मान और धर्म – इन तीनो गुणों से हीन होकर मैं कोई बात न कहूँगा ( उक्त छह दोषों के साथ, दयाहीनता, सम्मानहीनता और धर्महीनता – ये तीन दोष और मिल जाने से नौ दोष होते हैं) | जब वक्ता, श्रोता और वाक्य तीनो अविकल रह कर बोलने की इच्छा में समान अवस्था को प्राप्त हों, तभी वक्ता का अभिप्राय यथावत रूप से प्रकट होता है | बातचीत करते समय जब वक्ता श्रोता की अवहेलना करता है अथवा श्रोता ही वक्ता की उपेक्षा करने लगता है, तब बोला हुआ वाक्य बुद्धि पर नहीं चढ़ता | इसके सिवा, जो सत्य का परित्याग करके अपने को अथवा श्रोता को प्रिय लगने वाला वचन बोलता है, उसके उस वाक्य में संदेह उत्पन्न होने लगता है, अतः वह वाक्य भी सदा सदोष ही है | इसलिए जो अपने को या श्रोता को प्रिय लगने वाली बात छोड़कर केवल सत्य ही बोलता है, वही इस पृथ्वी पर यथार्थ वक्ता है, दूसरा नहीं |

शास्त्रों के जाल से पृथक हो मिथ्यावाद को छोड़कर केवल सत्य कहना ही मेरा व्रत है इसलिए मैं ‘सत्यव्रत’ कहलाता हूँ | में तुमसे सही बात कहूँगा और तुम्हें भी उसे सत्य मान कर स्वीकार करना चाहिए |

भलेमानुस ! जबसे तुम पत्थर पूजने में लग गए, तब से तुम्हें कोई अच्छा फल मिला हो, ऐसा मैं नहीं देखता | तुम्हारे एक ही तो पुत्र था, वह भी नष्ट हो गया | पतिव्रता पत्नी थी, सो भी संसार से चल बसी | साधो ! झूठे तथा कपटपूर्ण कर्मों का ही ऐसा फल हुआ करता है | भैया ! देवता कहाँ हैं ? सब मिथ्या है ? यदि होते तो दिखाई न देते ? यह सब कुछ कपटी ब्राह्मणों की झूठी कल्पना है | लोग पितरों के उद्देश्य से दान देते हैं, यह देखकर मुझे तो हंसी आती है | मेरी दृष्टी में यह अन्न की बर्बादी है | भला, मरा हुआ मनुष्य क्या खायेगा ? मूर्ख एवं नीच ब्राह्मण, जो समस्त संसार की दृष्टी का अनेक प्रकार से वर्णन किया करते हैं, उसमें भी जो यथार्थ बात है उसे सुनो | संसार सृष्टि और संहार – ये दोनों बातें झूठी हैं | वास्तव में यह जगत सत्य है और इसी रूप में सदा बना रहता है | यह विश्व स्वभाव से ही सदा वर्तमान रहता है, ये सूर्य आदि ग्रह स्वभाव से ही आकाश में विचरण करते हैं, स्वभाव से ही निरंतर वायु चलती है, स्वभाव से ही मेघ पानी बरसता है और स्वभाव से ही बोया हुआ धान्य जमता है | स्वभाव से ही पृथ्वी स्थिर है, स्वभाव से ही नदियाँ बहती हैं, स्वभाव से ही पर्वत अविचल भाव से सुशोभित हैं और स्वभाव से ही समुद्र अपनी मर्यादा में स्थित है | स्वभाव से ही गर्भवती स्त्री पुत्र पैदा करती है, स्वभाव से ही ये बहुतेरे जीव उत्पन्न होते हैं | जैसे स्वभाव से ही टेढ़े लोग होते हैं, ऋतु के प्रभाव से ही बेरों में कांटे पैदा होते हैं – इसी प्रकार स्वभाव से ही यह सम्पूर्ण जगत प्रकाशित होता है | इसका कोई प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला कर्ता नहीं है | इस प्रकार स्वभाव से ही सम्पूर्ण लोक स्थित है | ऐसी अवस्था में भी मूर्ख मनुष्य इस विषय को लेकर मतवाले की भाँती व्यर्थ मोह में पड़ा रहता है |

धूर्त लोग इस मनुष्य योनी को भी जो सबसे श्रेष्ठ बतलाते हैं, इसकी भी पोल खोलता हूँ, सुनो | मनुष्य योनी से बढ़कर दूसरी किसी योनी में कष्ट नहीं है | मनुष्यों को जो कष्ट हैं, वह हमारे शत्रुओं को भी न हो | मनुष्यों के समक्ष क्षण क्षण में शोक के सहस्त्रों स्थान आते हैं | यह मानव योनी क्या है, बंदीगृह है | कोई बडभागी पुरुष ही इस से छुटकारा पता है | ये पशु पक्षी, कीड़े-मकोड़े बिना किसी बंधन के सुख पूर्वक विहार करते हैं; इनकी योनि अत्यंत दुर्लभ है | ये स्थावर (वृक्ष-पर्वत आदि) कितने निश्चिन्त हैं | पृथ्वी पर इन्ही का सुख महान है | अधिक क्या कहें, मनुष्यों की अपेक्षा अन्य योनियों में उत्पन्न होने वाले सभी जीव धन्य हैं | कोई स्थावर है, कोई कीड़े हैं, कोई पतंग है और कोई मनुष्य आदि जीवों में उत्पन्न होने वाले सभी जीव धन्य हैं | इसमें स्वभाव ही प्रधान कारण समझो | पुण्य और पाप आदि तो कल्पनामात्र है | इसलिए नन्दभद्र ! तुम मिथ्याधर्म का परित्याग करके मौज से खाओ, पीओ, खेलो और भोग भोगो | पृथ्वी पर, बस यही सत्य है |

नारद जी ने कहा – सत्यव्रत के इन वाक्यों से, जो अशुभकर, अयुक्तिसंगत तथा असमंजस (दोषपूर्ण) थे, महाबुद्धिमान नन्दभद्र तनिक भी विचलित नहीं हुए | वे क्षोभरहित समुन्द्र के भांति गंभीर थे | उन्होंने हँसते हुए उत्तर दिया – ‘सत्यव्रत जी ! आपने जो यह कहा कि धर्मनिष्ठ मनुष्य सदा दुःख के भागी होते हैं, यह झूठ है | हम तो पापियों पर भी बहुतेरे दुःख आते देखते हैं | संसारबंधन जनित क्लेश तथा पुत्र और स्त्री आदि कि मृत्यु के दुःख पापी मनुष्यों के यहाँ भी देखे जाते हैं | इसलिए मेरे मत में धर्म ही श्रेष्ठ है | किसी पुण्यात्मा साधुपुरुष पर  संकट आया देखकर बड़े बड़े लोग सहानुभूति प्रदर्शित करते हुए यह कहते हैं कि ‘अहो ! ये तो साधु पुरुष है, इन पर कष्ट आया, यह तो हमारे लिए बड़े दुःख कि बात है’ इत्यादि | पापियों को तो यह सहानुभूति भी दुर्लभ है | स्त्री तथा धन आदि के लोभ से जब कोई पापी लुटेरा घर में घुसता है, तो आप भी उस से डर जाते हैं; उसके प्रति द्वेष का परिचय देते हैं और उसके ऊपर क्रोध भी करते हैं | यह सब व्यर्थ ही तो है |

दूसरी बात जो आप यह कहते हैं कि इस संसार का कारण कोई महान ईश्वर नहीं है, यह भी बच्चों की सी बात है | क्या प्रजा बिना राजा के रह सकती है ? इसके सिवा जो आप यह कहते हैं कि तुम झूठे ही पत्थर के लिंग कि पूजा करते हो, इसके उत्तर में मुझे इतना ही निवेदन करना है कि आप शिवलिंग की महिमा को नहीं जानते हैं | ठीक उसी तरह, जैसे अँधा सूर्य के स्वरुप को नहीं जानता | ब्रह्मा आदि समस्त देवता, बड़े बड़े समृद्धिशाली राजा, साधारण मनुष्य तथा मुनि भी शिवलिंग कि पूजा करते हैं | उनके द्वारा स्थापित किये हुए शिवलिंग उन्हीं के नाम से प्रसिद्ध हैं, क्या ये सब के सब मूर्ख ही थे और अकेले आप सत्यव्रत ही बुद्धिमानी का ठेका लिए बैठा है ? भगवान् विष्णु (राम) ने युद्ध में रावण को मार कर समुन्द्र के किनारे रामेश्वर लिंग की स्थापना की है, क्या वह झूठा ही है ? प्राचीन काल में इंद्र ने वृत्तासुर का वध करके महेंद्र पर्वत पर शिवलिंग को स्थापित किया, जिससे वृत्तवध के पाप से मुक्त होकर इंद्र आज भी स्वर्गलोक का आनंद भोगते हैं ! चंद्रमा ने पश्चिम समुन्द्र के तट पर प्रभास क्षेत्र में भगवान् सोमनाथ की स्थापना करके आरोग्यलाभ किया था | यमराज और कुबेर ने काशी में, गरुण और कश्यप ने सह्य पर्वत पर तथा वायु और वरुण ने नैमिषारण्य में शिवलिंग को स्थापित किया है | जिस से वे सदा आनंदमग्न रहते हैं |

आप जो यदि यह कहते हैं कि देवता नहीं है और यदि हैं तो कहीं भी दिखाई क्यों नहीं देते ? आपके इस प्रश्न से मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है | जैसे दरिद्र लोग द्वार द्वार जा कर कुलथी मांगते हैं, उसी प्रकार क्या देवता भी आपके पास आकर याचना करें ? भैया ! आप बड़े बुद्धिमान हैं, आप जो चाहते हैं उसकी सिद्धि तो आपके गुरु ही कर सकते हैं | यदि आपके मत में सब पदार्थ स्वभाव से ही सिद्ध होते हैं, तो बताइये, कर्ता  के बिना भोजन क्यों नहीं तैयार हो जाता ? इसलिए जो भी निर्माण कार्य है, वह अवश्य किसी न किसी कर्ता का ही है | जिस पदार्थ में जितनी निर्माण शक्ति विधाता ने भर दी है, वह वैसा ही है | और आपने जो यह कहा है कि पशु आदि प्राणी ही सुखी तथा धन्य हैं, यह बात आपके सिवा और किसी ने न तो कही है और न सुनी ही है | तमोगुणी और अनेक इन्द्रियों से रहित जो पशु पक्षी आदि प्राणी है तथा उनके जो कष्ट हैं, वे भी यदि स्प्रुह्नीय और धन्य हैं तो सम्पूर्ण इन्द्रियों से युक्त मनुष्य श्रेष्ठ और धन्य क्यों नहीं है ? मैं तो समझता हूँ कि आपका जो यह अद्भुत सत्यव्रत है, इसे आपने नरक जाने के लिए ही संग्रह किया है | आपने पहले ही जो आडम्बरपूर्ण भूमिका बाँध कर अपने ज्ञान का परिचय देना आरम्भ किया है, उसी में आपके इन वचनों की सारहीनता व्यक्त हो गई है |

आपने प्रतिज्ञा तो की थी कुछ और कहने के लिए, परन्तु कह डाला कुछ और ही | इसमें आपका कोई दोष नहीं है, सब दोष मेरा ही है, जो मैं आपकी बात सुनता हूँ | नास्तिक, सर्प और विष इनका तो यह गुण ही है कि ये दूसरे को मोहित करते हैं | प्रतिदिन साधुपुरुषों का संग करना धर्म का कारण है | इसलिए विद्वान्, वृद्ध, शुद्ध भाव वाले तपस्वी तथा शान्तिपरायण संत महात्माओं के साथ संपर्क स्थापित करना चाहिए | दुष्ट पुरुषों के दर्शन, स्पर्श, वार्तालाप, एक आसन पर बैठने तथा एक साथ भोजन करने से धार्मिक आचार नष्ट होते हैं | नीचों के संग से पुरुषों की बुद्धि नष्ट होती है, माध्यम श्रेणी के लोगों के साथ उठने बैठने से बुद्धि मध्यम स्थिति को प्राप्त होती है और श्रेष्ठ पुरुषों के साथ समागम होने से बुद्धि श्रेष्ठ हो जाती है | इस धर्म का स्मरण करके मैं पुनः आपसे मिलने की इच्छा नहीं रखता, क्योंकि आप सदा ब्राह्मणों की ही निंदा करते हैं | वेद प्रमाण है, स्मृतियों प्रमाण है तथा धर्म और अर्थ से युक्त वचन प्रमाण है, परन्तु जिसकी दृष्टी में ये तीनो ही प्रमाण नहीं है, उसकी बात को कौन प्रमाण मानेगा |

महात्मा नन्दभद्र सत्यव्रत से ऐसा कह कर उसी समय सहसा घर से निकल पड़े और भगवान् भट्टादित्य के परम पावन बहूदक तीर्थ में जा पहुचे |

वाणी के अट्ठारह दोष*

अपेतार्थ – जिस वाणी के उच्चारण करने पर भी उसके अर्थ का भान न हो, वो अपेतार्थ |
अभिन्नार्थ – जिससे अर्थभेद की प्रतीति न हो, वो अभिन्नार्थ |
अप्रवृत्त – जो सदा व्यवहार में न आता हो, वो अप्रवर्त |
अधिक – जिस शब्द के न रहने पर भी वाक्य का बोध हो जाए, वो शब्द अधिक
अश्लक्षण – अस्पष्ट अथवा अपरिमार्जित वाणी को अश्लक्षण कहते हैं |
संदिग्ध – जिस शब्द के होने से, अर्थ में संदेह हो, वो संदिग्ध |
पदांत अक्षर का गुरु होना – ये तो स्पष्ट ही है |
परांग्मुख-मुख – वक्ता जो बात बतलाना चाहता हो, उसके विपरीत अर्थ को देने वाली वाणी के लिए, ये दोष जाना जाता है |
अनृत एवं असंस्कृत – जो व्याकरण से सिद्ध न हो |
त्रिवर्गविरुद्ध – धर्म, अर्थ और काम के विरुद्ध कहने वाली वाणी |
न्यून – स्पष्ट अर्थ के लिए, पर्याप्त शब्द के अभाव का होना, न्यून दोष कहलाता है |
कष्ट्शब्द – जिसके उच्चारण में क्लेश हो, वो ये दोष है |
अतिशब्द – अतिश्योक्तिपूर्ण शब्द को ही अतिशब्द नामक दोष कहा गया है |
ब्युत्क्र्माभिहृत – जहाँ, क्रम का उलंग्घन शब्दप्रयोग हो, वहां ये दोष होता है |
सशेष – वाक्य पूरा होने पर भी जहाँ अर्थ स्पष्ट न हो, वहां सशेष दोष होता है |
अहेतुक – कथित अर्थ के निष्पत्ति के लिए, जहाँ उचित तर्क अथवा उदाहरण का अभाव हो, वहां अहेतुक दोष होता है |
निष्कारण – जब किसी शब्द के प्रयोग करने का कोई कारण ही न हो, वहां निष्कारण दोष होता है

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