अर्जुन एक बार नारद जी से इस प्रकार प्रश्न किया – देवर्षि ! आप सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति समान भाव रखने वाले, जितेन्द्रिय तथा राग-द्वेष रहित हैं | तथापि आप में जो कलह करने की प्रवृत्ति है, उसके कारण कई हजार देवता, गन्धर्व, राक्षस, दैत्य तथा मुनि नष्ट हो गए | विप्रवर ! आपकी ऐसी चेष्टा क्यों होती है ? मेरे इस सन्देश का निवारण कीजिये |
नारद जी ने यह सुन कर हँसते हुए बाभ्रव्य मुनि की ओर देखा, जो उस समय वहीँ उपस्थित थे | बाभ्रव्य मुनि का जन्म हरित कुल में हुआ था (नोट – कमठ वाला हरित कुल, पिछले वृतांत देखें) | उन्होंने नारद जी का आशय समझ कर अर्जुन से इस प्रकार कहा – पांडुनंदन ! आपने नारद जी से जो कुछ कहा है वो सब कुछ सत्य है | एक बार जब भगवान् कृष्ण ने नारद जी की स्तुति की थी तो महाराज उग्रसेन ने भी उनसे इसी प्रकार प्रश्न किया था |
महाराज उग्रसेन ने पुछा – जगदीश्वर श्रीकृष्ण ! मैं एक संदेह पूछता हूँ, आप उसका समाधान करें | ये जो महाबुद्धिमान नारद जी हैं, समस्त संसार में इनकी ख्याति है | मैं जानना चाहता हूँ, ये अत्यंत चपल क्यों है ? क्यों वायु की भांति समस्त जगत में चक्कर लगाया करते हैं | इन्हें कलह कराना इतना प्रिय क्यों है ? तथा इनका आपमें अत्यंत प्रेम क्यों है ?
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा – राजन ! आपने जो कुछ पुछा है वह सत्य है | मैं इसका कारण बतालाता हूँ | पूर्वकाल में प्रजापति दक्ष ने अपनी बहुत सी संतानों को उत्पन्न करके संसार सृष्टि के लिए विभिन्न क्षेत्रों में भेजा किन्तु नारद जी ने उन्हें वैराग्यपूर्ण उपदेश दे कर उन्हें संसार से विरक्त कर दिया | जब प्रजापति दक्ष को पता चला तो उसे बड़ा क्रोध हुआ किन्तु उसने क्षमा करते हुए दुबारा प्रयत्न किया और दुबारा बहुत सी संतान उत्पन्न करके उन्हें संसार सृष्टि के लिए तैयार किया और नारद जी ने एक बार फिर से उन्हें वैराग्यपूर्ण उपदेश देकर उन्हें संसार से विरक्त कर दिया | यह सब देख कर दुसरे पुत्रों के भी विचलित होने से रूष्ट हो कर प्रजापति दक्ष ने नारद जी को श्राप दिया – “नारद ! तुम संसार में सदा भ्रमण करते रहोगे, कहीं भी तुम्हारे ठहरने के लिए स्थान न मिलेगा तथा तुम इधर उधर की चुगली खाने वाले होगे |” ये दो श्राप प्राप्त करके उन्हें दूर करने में समर्थ होने पर भी नारद मुनि ने ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया | यही साधुता है कि स्वयं समर्थ होकर भी दूसरों के अपराध क्षमा कर दे | नारद जी पहले यह देख लेते हैं कि अमुक राक्षस या दैत्य आदि का विनाशकाल आ पंहुचा है, तब वे उसकी कलह-भावना बढाते हैं और चुगली के लिए झूठ न बोलकर सच्ची बात बताया करते हैं, इसलिए वे पाप से लिप्त नहीं होते | सर्वत्र भ्रमण करते रहने से भी इनका मन ध्येय से विचलित नहीं होता; अतः भ्रमदोष से ये भ्रांत नहीं होते तथा मुझमें जो इनका अधिक प्रेम है, उसका भी कारण सुनिए | मैं देवराज इंद्रा द्वारा किये गए स्तोत्र से दिव्यदृष्टीसंपन्न श्रीनारद जी की सडा स्तुति करता हूँ |
स्कन्द पुराण