July 27, 2024

महतां दर्शनं ब्रह्मज्जायते न हि निष्फलं |
द्वेषादज्ञानतो वापि प्रसन्गाद्वा प्रमादतः ||
अयसः स्पर्शसंस्पर्शो रुक्मत्वायैव जायते |
— ब्रह्म पुराण

अर्थ – महापुरुषों का दर्शन निष्फल नहीं होता, भले ही वह द्वेष अथवा अज्ञान से ही क्यों न हुआ हो | लोहे का पारसमणि से प्रसंग या प्रामद से भी स्पर्श हो जाय तो भी वह उसे सोना ही बनाता है |

अंतर्ध्यान – सोचने वाली बात है कि गंगा जी का पानी कानपुर में उतना शुद्ध क्यों नहीं है और हरिद्वार, काशी में क्यों उद्धार करने वाला है ? आगरा क्यों तीर्थ नहीं है और मथुरा, वृन्दावन क्यों तीर्थ है ? क्यों काशी तो महातीर्थ है पर उसके पास का गाजीपुर तीर्थ नहीं है ?

जब आप शास्त्रों और पुराणों की कड़ी से कड़ी मिलायेंगे तो इसका जवाब मिलता है | जैसा ब्रह्म पुराण के इस श्लोक में लिखा है, कि पारस से आप लोहा छुलायें तो वो सोना बन जाता है | इसके और उदाहरण देता हूँ जब आप चुम्बक को लोहे से घिसते हैं तो देखते हैं कि लोहे में भी चुम्बक के गुण उत्पन्न हो गए हैं, यदि आप किसी लोहे में एक ख़ास डायरेक्शन में करंट बहायेंगे तो देखेंगे कि उस लोहे के अन्दर के गुण धर्म बदल गए हैं और उसके अन्दर के अणुओं की दशा भी उसी डायरेक्शन में हो गयी है | कहने का तात्पर्य ये है कि जिस चीज के सानिद्ध्य में हम आते हैं उसके गुण धर्म हमारे अन्दर भी आते हैं या जिस भी चीज को हम ज्यादा देर तक छूते हैं उसके गुण धर्म हमारे अन्दर आते हैं |

इसीलिए कहा गया है, सत्संग करो, कुसंग मत करो | क्यों ? क्योंकि सत्संग करोगे तो कुछ अच्छा ज्ञान प्राप्त होगा और यदि कुसंग करोगे तो वैसे ही गुण धर्म आपके भी धीरे धीरे हो जायेंगे | आप जिस चीज के पास रहोगे उसके गुण धर्म को आप अवशोषित करेंगे ही करेंगे | इसीलिए हमारे यहाँ पैर छूने की परम्परा है | क्योंकि ऐसा माना गया कि जिसके आप पैर छूते हैं उसके कुछ गुण आप अवशोषित करते हैं और इसीलिए बड़ों के, गुरुओं के, ऋषियों के पैर छूने की परम्परा रही | पहले ये पैर छूने की परम्परा नहीं थी, पहले तो पैर बाकायदा धो कर उसका पानी पी जाते थे, जिसे चरणोदक कहते थे, ताकि ज्यादा से ज्यादा पुण्य मिले, फिर समय के साथ केवल पैर पखारने तक बात रह गयी, ताकि ज्यादा से ज्यादा देर तक पैरों का स्पर्श रहे और वो पानी हमारी त्वचा में अवशोषित हो और अब केवल पैर छूने की ही प्रथा रह गयी है, कहीं कहीं तो अब घुटने छुए जाते हैं या केवल इशारा कर दिया जाता है और हो गया काम….. पर समझने वाली बात है कि हम दूसरों के पुण्य और पाप अवशोषित करते हैं |

पद्म पुराण में लिखा है कि जो स्थावर योनी होती है (वृक्ष आदि) उनका उद्धार उनके संसर्ग में आने वाले, उनको स्पर्श करने वाले ऋषि और मुनियों के प्रताप से होता है | जो उनकी छाया में तप करते हैं उसका प्रभाव वो पेड़ भी लेते हैं और मुक्त होते हैं |

हमारे यहाँ बताया गया है कि जो लोग ऋषि होते थे, मुनि होते थे, तपस्वी होते थे, उनके सतोगुण का प्रभाव उनके आस पास के वातावरण पर भी पड़ता था, कई आश्रमों का विवरण हैं जहाँ पर हिरन और शेर एक ही जगह पानी पीते थे | क्योंकि उनका जो तप है उसका प्रभाव उसके आस पास पड़ता था, उस क्षेत्र पर पड़ता था | “जित जित पाव पड़े संतन के” और जहाँ जहाँ किसी तपस्वी ने कोई महान तप किया या आश्रम बनाया वह जगह तीर्थ स्थान का रूप पा गयी | लोग उसे तीर्थ कहने लगे | चाहे वो भगवान् बुद्ध का तपस्या क्षेत्र हो या भृतहरी का | इसी का प्रभाव है कि काशी एक महातीर्थ है, हरिद्वार एक तीर्थ है जबकि आगरा तीर्थ नहीं है | क्योंकि ऐसा माना गया कि उस मिटटी पर, उस जगह पर, उस क्षेत्र पर, जहाँ पर वो ऋषि मुनि विचरे, उस जगह ने उनके पुण्य अवशोषित किये हैं और अब हम उस जगह से, उस मिटटी से उनके पुण्य अवशोषित कर लेते हैं |

जिस जगह पर वो ऋषि मुनि नहाते थे, उस जगह की मिटटी, पत्थर से रगड़ खा कर जो पानी बह रहा है, जो गंगा जी बह रही हैं, उनका पानी भी परम पवित्र हो जाता है और उस पानी में नहा कर हम भी कुछ पुण्य अर्जित करते हैं और इस तरह से वो गंगोत्री, वो हरिद्वार, वो काशी, वो संगम में गंगा जी का पानी और उसमें नहाने वाला उस पुण्य का भागी होता है जो उसमें संचित है |

अब सोचिये, जिन लोगों के केवल छूने भर से, केवल विचरने मात्र से वो जगह, वो स्थान आज तीर्थ है, उसका पुण्य हम हजारों साल बाद भी ले रहे हैं…. यदि वैसे ही या उसकी एक छंटाक भर भी पूजा हम, तप, यजन, मनन हम कर लें, तो क्या जरूरत है किसी तीर्थ जाने की ? गंगा जी में डुबकी लगाने की ? अरे ! मन चंगा तो कठौती में गंगा !!!

हमारे ब्रह्म पुराण और अन्य पुराणों में तीर्थ भी दो प्रकार के बताये गए हैं, स्थानिक तीर्थ और मानसिक तीर्थ और कहा गया है, जिसने मानसिक तीर्थ नहीं किया उसका स्थानिक तीर्थ व्यर्थ है | गंगा जी भी आपके पाप नहीं हर सकती, अगर आपने डुबकी मारने के बाद आकर फिर पाप कर्म ही करना है |

ॐ श्री गुरवे नमः |

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You cannot copy content of this page