श्रीपरमात्मने नमः
संक्षिप्त योगवासिष्ठ
वैराग्य-प्रकरण
यतः सर्वाणि भूतानि प्रतिभान्ति स्थितानि च । यत्रैवोपशमं यान्ति तस्मै सत्यात्मने नमः ।।
सृष्टिके आरम्भमें सम्पूर्ण भूत जिनसे प्रकट होकर प्रतीतिके विषय होते हैं, स्थितिकालमें जिनमें ही स्थित होते हैं और प्रलयकाल आनेपर जिनमें ही लीन हो जाते हैं, उन सत्यस्वरूप परमात्माको नमस्कार है।
ज्ञाता ज्ञानं तथा ज्ञेयं द्रष्टा दर्शनदृश्यभूः । कर्ता हेतुः क्रिया यस्मात् तस्मै ज्ञप्त्यात्मने नमः ।।
ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय; द्रष्टा, दर्शन और दृश्य तथा कर्ता, कारण और क्रिया—इन सबका जिनसे ही आविर्भाव होता है, उन ज्ञानस्वरूप परमात्माको नमस्कार है।
स्फुरन्ति सीकरा यस्मादानन्दस्याम्बरेऽवनौ । सर्वेषां जीवनं तस्मै ब्रह्मानन्दात्मने नमः ।।
जिनसे स्वर्ग और भूतल आदि सभी लोकोंमें आनन्दरूपी जलके कण स्फुरित होते हैं—प्राणियोंके अनुभवमें आते हैं तथा जो समस्त जीवोंके जीवनाधार हैं, उन पूर्ण चिन्मय आनन्दके महासागररूप परब्रह्म परमात्माको नमस्कार है।
पूर्वकालमें सुतीक्ष्ण नामसे प्रसिद्ध कोई ब्राह्मण थे, जिनके मनमें संशय छा गया था; अतः उन्होंने महर्षि अगस्ति के आश्रममें जाकर उन महामुनिसे आदरपूर्वक पूछा—‘भगवन्! आप धर्मके तत्त्वको जानते हैं। आपको सम्पूर्ण शास्त्रोंके सिद्धान्तका सुनिश्चित ज्ञान है। मेरे हृदयमें एक महान् संदेह है, आप कृपापूर्वक इसका समाधान कीजिये। मोक्षका साधन कर्म है या ज्ञान है अथवा दोनों ही हैं? इन तीनों पक्षोंमेंसे किसी एकका निश्चय करके जो वास्तवमें मोक्षका कारण हो, उसका प्रतिपादन कीजिये।’
अगस्तिने कहा—ब्रह्मन्! जैसे दोनों ही पंखोंसे पक्षियोंका आकाशमें उड़ना सम्भव होता है, उसी प्रकार ज्ञान और निष्काम कर्म दोनोंसे ही परमपदकी प्राप्ति होती है। इस विषयमें एक प्राचीन इतिहास है, जिसका मैं तुम्हारे समक्ष वर्णन करता हूँ। पहलेकी बात है, कारुण्य नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्मण थे, जो अग्निवेश्यके पुत्र थे। उन्होंने सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन किया था तथा वे वेद-वेदाङ्गोंके पारंगत विद्वान् थे। गुरुके यहाँसे विद्या पढ़कर अपने घर लौटनेके बाद वे संध्या-वन्दन आदि कोई भी कर्म न करते हुए चुपचाप बैठे रहने लगे। उनके मनमें संशय भरा हुआ था। पिता अग्निवेश्यने देखा कि मेरा पुत्र शास्त्रोक्त कर्मोंका परित्याग करके निन्दनीय हो गया है, तब वे उसके हितके लिये इस प्रकार बोले।
अग्निवेश्यने कहा—बेटा! यह क्या बात है? तुम अपने कर्तव्य-कर्मोंका पालन क्यों नहीं करते? बताओ तो सही। यदि सत्कर्मोंके अनुष्ठानमें नहीं लगोगे तो तुम्हें परम सिद्धि कैसे प्राप्त होगी? तुम जो इस कर्तव्य-कर्मसे निवृत्त हो रहे हो, इसमें क्या कारण है? यह मुझसे कहो।
कारुण्य बोले—पिताजी! आजीवन अग्निहोत्र और प्रतिदिन संध्योपासना करे—‘इस प्रवृत्तिरूप धर्मका श्रुति और स्मृतिने विधान अथवा प्रतिपादन किया है। साथ ही एक दूसरी श्रुति भी है, जिसके अनुसार न धनसे, न कर्मसे और न संतानके उत्पादनसे ही मोक्ष प्राप्त होता है। मुख्य-मुख्य यतियोंने एकमात्र त्यागसे ही अमृतस्वरूप मोक्ष-सुखका अनुभव किया है। पूज्य पिताजी! इन दो प्रकारकी श्रुतियोंमेंसे मुझे किसके आदेशका पालन करना चाहिये?’ इस संशयमें पड़कर मैं कर्मकी ओरसे उदासीन हो गया हूँ। अगस्ति कहते हैं—तात सुतीक्ष्ण! पितासे यों कहकर वे ब्राह्मण कारुण्य चुप हो गये। पुत्रको इस प्रकार कर्मसे उदासीन हुआ देख पिताने पुनः उससे कहा!
अग्निवेश्य बोले—बेटा! मैं तुमसे एक कथा कहता हूँ, उसे सुनो और उसके सम्पूर्ण तात्पर्यका अपने हृदयमें निश्चय कर लेनेके पश्चात् तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा करो। सुरुचि नामसे प्रसिद्ध कोई देवलोककी स्त्री थी, जो अप्सराओंमें श्रेष्ठ समझी जाती थी। एक दिन वह मयूरोंके झुंडसे घिरे हुए हिमालयके एक शिखरपर बैठी थी। उसी समय उसने अन्तरिक्षमें इन्द्रके एक दूतको कहीं जाते देखा। उसे देखकर अप्सराओंमें श्रेष्ठ महाभागा सुरुचिने इस प्रकार पूछा—‘महाभाग देवदूत! आप कहाँसे आ रहे हैं और इस समय कहाँ जायँगे? यह सब कृपा करके मुझे बताइये।’
देवदूतने कहा—भद्रे! सुनो; जो वृत्तान्त जैसे घटित हुआ है, वह सब मैं तुम्हें विस्तारसे बता रहा हूँ। सुन्दर भौंहोंवाली सुन्दरी! धर्मात्मा राजा अरिष्टनेमि अपने पुत्रको राज्य देकर स्वयं वीतराग हो तपस्याके लिये वनमें चले गये और अब गन्धमादन पर्वतपर वे तपस्या कर रहे हैं। वहाँ वनमें ज्यों ही उन्होंने दुस्तर तपस्या आरम्भ की, त्यों ही देवराज इन्द्रने मुझे आदेश दिया—‘दूत! तुम यह विमान लेकर शीघ्र वहाँ जाओ। इस विमानमें अप्सराओंके समुदायको भी साथ ले लो। नाना प्रकारके वाद्य इसकी शोभा बढ़ाते रहें। गन्धर्व, सिद्ध, यक्ष और किंनर आदिसे भी यह सुशोभित होना चाहिये। इसमें ताल, वेणु और मृदङ्ग आदि भी रख लो। इस प्रकार भाँति-भाँतिके वृक्षोंसे भरे हुए सुन्दर गन्धमादन पर्वतपर पहुँचकर तुम राजा अरिष्टनेमिको इस विमानपर चढ़ा लो और उन्हें स्वर्गका सुख भोगनेके लिये अमरावती नगरीमें ले जाओ।’
देवराज इन्द्रकी यह आज्ञा पाकर मैं सामग्रियोंसे संयुक्त विमान ले उस पर्वतपर गया। वहाँ पहुँचकर राजा अरिष्टनेमिके आश्रमपर गया; फिर मैंने देवराज इन्द्रकी सारी आज्ञा राजासे कह सुनायी। शुभे! वे मेरी बात सुनकर संदेहमें पड़ गये और इस प्रकार बोले—‘देवदूत! मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ, आप मेरे इस प्रश्नका उत्तर दें। स्वर्गमें कौन-कौन-से गुण हैं और कौन-कौन-से दोष? आप मेरे सामने उनका सुस्पष्ट वर्णन कीजिये। स्वर्गलोकमें रहनेके गुण-दोषको जाननेके पश्चात् मेरी जैसी रुचि होगी, वैसा करूँगा।’
मैंने कहा—‘राजन्! स्वर्गलोकमें जीव अपने पुण्यकी सामग्रीके अनुसार उत्तम सुखका उपभोग करता है। उत्तम पुण्यसे उत्तम स्वर्गकी प्राप्ति होती है, मध्यम पुण्यसे मध्यम स्वर्ग मिलता है और इनकी अपेक्षा निम्न श्रेणीके पुण्यसे उसके अनुरूप स्वर्ग सुलभ होता है। इसके विपरीत कुछ नहीं होता। स्वर्गमें भी दूसरोंको अपनेसे ऊँची स्थितिमें देखकर लोगोंके लिये उनका उत्कर्ष असह्य हो उठता है। जो लोग समान स्थितिमें होते हैं, वे भी अपने बराबरवालोंके साथ स्पर्धा (लागडाँट) रखते हैं तथा जो स्वर्गवासी अपनेसे हीन स्थितिमें होते हैं, उनको अपनी अपेक्षा अल्पसुखी देखकर अधिक सुखवालोंको संतोष होता है। इस प्रकार असहिष्णुता, स्पर्धा और संतोषका अनुभव करते हुए पुण्यात्मा पुरुष तभीतक स्वर्गमें रहते हैं, जबतक उनके पुण्योंका भोग समाप्त नहीं हो जाता। पुण्योंका क्षय हो जानेपर वे जीव पुनः इस मर्त्यलोकमें प्रवेश करते हैं और पार्थिव-शरीर धारण करते रहते हैं। राजन्! स्वर्गमें इसी तरहके गुण और दोष विद्यमान हैं।’
भद्रे! मेरी यह बात सुनकर राजाने इस प्रकार उत्तर दिया—‘देवदूत! जहाँ ऐसा फल प्राप्त होता है, उस स्वर्गलोकमें मैं नहीं जाना चाहता। आप इस विमानको लेकर जैसे आये थे, वैसे ही देवराज इन्द्रके पास चले जाइये। आपको नमस्कार है।’ भद्रे! जब राजाने मुझसे ऐसी बात कही, तब मैं इन्द्रके समक्ष यह वृत्तान्त निवेदन करनेके लिये लौट गया। वहाँ जब मैंने सब बातें ज्यों-की-त्यों कह सुनायीं, तब देवराज इन्द्रको महान् आश्चर्य हुआ और वे स्निग्ध एवं मधुर वाणीमें मुझसे पुनः बोले।
इन्द्रने कहा—दूत! तुम फिर वहाँ जाओ और उस विरक्त राजाको आत्मज्ञानकी प्राप्तिके लिये तत्त्वज्ञ महर्षि वाल्मीकिके आश्रममें ले जाओ। वहाँ महर्षि वाल्मीकिसे मेरा यह संदेश कह देना—‘महामुने! इन विनयशील, वीतराग तथा स्वर्गकी भी इच्छा न रखनेवाले नरेशको आप तत्त्वज्ञानका उपदेश दीजिये। ये जन्म-मरणरूप संसार-दुःखसे पीड़ित हैं, अतः आपके दिये हुए तत्त्वज्ञानके उपदेशसे इन्हें मोक्ष प्राप्त होगा।’
यों कहकर देवराजने मुझे राजा अरिष्टनेमिके पास भेजा। तब मैंने पुनः वहाँ जाकर राजाको वाल्मीकिजीके पास पहुँचाया, उनसे देवराज इन्द्रका संदेश कहा तथा राजाने उन महर्षिसे मोक्षका साधन पूछा। तदनन्तर वाल्मीकिजीने अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक कुशलप्रश्नकी बात आरम्भ करते हुए राजासे उनके आरोग्यका समाचार पूछा। राजाने कहा—भगवन्! आपको धर्मके तत्त्वका ज्ञान है। जाननेयोग्य जितनी भी बातें हैं, वे सब आपको ज्ञात हैं। विद्वानोंमें श्रेष्ठ महर्षे! आपके दर्शनसे मैं कृतार्थ हो गया। यही मेरी कुशल है। भगवन्! मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूँ। आप बिना किसी विघ्न-बाधाके मेरी शङ्काका समाधान करें। संसार-बन्धनके दुःखसे मुझे जो पीड़ा हो रही है, उससे किस प्रकार मेरा छुटकारा होगा? यह बताइये।
श्रीवाल्मीकिजीने कहा—राजन्! सुनो; मैं तुमसे अखण्ड रामायणकी कथा कहूँगा। उसे सुनकर यत्नपूर्वक हृदयमें धारण कर लेनेपर तुम जीवन्मुक्त हो जाओगे। राजेन्द्र! वह रामायण महर्षि वसिष्ठ और श्रीरामके संवादरूपमें वर्णित है। वह मोक्षप्राप्तिके उपायकी मङ्गलमयी कथा है। मैंने तुम्हारे स्वभावको समझ लिया है; अतः तुम्हें अधिकारी मानकर मैं तुमसे वह कथा कहूँगा। विद्वान् नरेश! सुनो।
राजाने पूछा—तत्त्वज्ञानियोंमें श्रेष्ठ महामुने! श्रीराम कौन हैं? उनका स्वरूप कैसा है? वे किसके वंशज थे? वे बद्ध थे या मुक्त? पहले आप मुझे इन्हीं बातोंका निश्चित ज्ञान प्रदान कीजिये।
श्रीवाल्मीकि जी ने कहा—स्वयं भगवान् श्रीहरि ही शापके पालनके बहाने राजा श्रीरामके रूपमें अवतीर्ण हुए थे। वे प्रभु सर्वज्ञ होनेपर भी (अपने भक्त महर्षियोंकी वाणीको सत्य करनेके लिये ही) आरोपित अथवा स्वेच्छासे गृहीत अज्ञानसे युक्त हो साधारण मनुष्योंकी भाँति अल्पज्ञ-से हो गये।
राजा ने पूछा—महर्षे! श्रीराम तो सच्चिदानन्दस्वरूप चैतन्यघनविग्रह थे। उन्हें शाप प्राप्त होनेका क्या कारण था? यह बताइये। साथ ही यह भी कहिये कि उन्हें शाप देनेवाला कौन था?
श्रीवाल्मीकि जी ने कहा—राजन्! (ब्रह्माजीके मानस पुत्र) सनत्कुमार, जो सर्वथा निष्काम थे, ब्रह्मलोकमें निवास करते थे। एक दिन त्रिलोकीनाथ सर्वशक्तिमान् भगवान् विष्णु वैकुण्ठलोकसे वहाँ पधारे। उस समय ब्रह्माजीने वहाँ उनका पूजन किया। सत्यलोकमें निवास करनेवाले दूसरे-दूसरे महात्माओंने भी उनका स्वागत-सत्कार किया। केवल सनत्कुमारने उनके आदर-सत्कारमें कोई भाग नहीं लिया—वे चुपचाप बैठे ही रह गये। तब उनकी ओर देखकर सर्वेश्वर भगवान् श्रीहरिने कहा—‘सनत्कुमार! तुम अपनेको निष्काम समझकर अहंकारी हो गये हो, इसीलिये जडवत् स्तब्ध बने बैठे हो। इस गर्वयुक्त चेष्टाके कारण तुम शाप या दण्ड पानेके योग्य हो, अतः शरजन्मा कुमारके नामसे विख्यात हो दूसरा शरीर धारण करो।’ यह सुनकर सनत्कुमारने भी भगवान् विष्णुको शाप दिया—‘देवेश्वर! आप भी अपनी सर्वज्ञताको कुछ कालके लिये छोड़कर अज्ञानी जीवके समान हो जायँगे।’ एक समय अपनी पत्नीको श्रीहरिके चक्रसे मारी गयी देख महर्षि भृगुका क्रोध बहुत बढ़ गया। वे उन्हें शाप देते हुए बोले—‘विष्णो! आपको भी कुछ कालके लिये अपनी पत्नीसे वियोगका कष्ट सहना पड़ेगा।’ इस प्रकार सनत्कुमार और भृगुके शाप देनेपर (उनकी वाणी सत्य करनेके लिये) भगवान् विष्णु उस शापसे मनुष्यरूपमें अवतीर्ण हुए। राजन्! भगवान् विष्णुको शापका बहाना क्यों लेना पड़ा, इसका सब कारण मैंने तुम्हें बता दिया, अब तुम्हारे प्रश्नके अनुसार अन्य सारी बातें भी बता रहा हूँ। तुम सावधान होकर सुनो।
सर्ग 1
दिवि भूमौ तथाऽऽकाशे बहिरन्तश्च मे विभुः।
यो विभात्यवभासात्मा तस्मै सर्वात्मने नमः ।।
जो प्रकाश (ज्ञान)-स्वरूप सर्वव्यापी परमात्मा स्वर्गमें, भूतलमें, आकाशमें तथा हमारे अंदर और बाहर—सर्वत्र प्रकाशित हो रहे हैं, उन सर्वात्माको नमस्कार है।
श्रीवाल्मीकि जी कहते हैं—राजन्! मैं संसाररूपी बन्धनमें बँधा हुआ हूँ, किंतु इससे मुक्त हो सकता हूँ—ऐसा जिसका निश्चय है तथा जो न तो अत्यन्त अज्ञानी है और न तत्त्वज्ञानी ही है, वही इस शास्त्रको सुनने अथवा पढ़नेका अधिकारी है। जो पहले कथारूपी उपायसे युक्त रामायणके बाल, अयोध्या आदि सभी काण्डोंका विचार (परिशीलन) करके मोक्षके उपायभूत इन वैराग्य आदि छः प्रकरणोंका विचार (अनुशीलन) करता है, वह विद्वान् पुरुष फिर इस संसारमें जन्म नहीं लेता (वह यहाँके जन्म आदि दुःखोंसे सदाके लिये छुटकारा पा जाता है)। शत्रुओंका मर्दन करनेवाले नरेश! यह रामायण पूर्व और उत्तर—दो खण्डोंसे युक्त है। इसमें राग-द्वेष आदि दोषोंको दूर करनेके लिये रामकथारूपी प्रबल उपाय बताये गये हैं। पहले इन बाल आदि सात काण्डोंकी रचना करके मैंने एकाग्रचित्त हो अपने बुद्धिमान् एवं विनयशील शिष्य भरद्वाजको इसका ज्ञान प्रदान किया; ठीक उसी तरह, जैसे समुद्र मणि या रत्नकी इच्छा रखनेवाले याचकको मणि प्रदान करता है। बुद्धिमान् भरद्वाजने मुझसे कथारूपी उपायवाले इन सात काण्डोंका अध्ययन करनेके पश्चात् मेरुपर्वतके किसी गहन वनमें ब्रह्माजीके सामने इनका वर्णन किया। इससे महान् आशयवालेलोकपितामह भगवान् ब्रह्मा भरद्वाजके ऊपर बहुत संतुष्ट हुए और उनसे बोले—‘बेटा! तुम मुझसे कोई वर माँग लो।’ भरद्वाजने कहा—भगवन्! भूत, भविष्य और वर्तमानके स्वामी पितामह! जिस उपायसे यह समस्त मानव-समुदाय सम्पूर्ण दुःखसे छुटकारा पा जाय, वह मुझे बताइये। आज मुझे यही वर अच्छा लगता है।
श्रीब्रह्माजीने कहा—वत्स! तुम इस विषयमें शीघ्र ही प्रयत्नपूर्वक अपने गुरु वाल्मीकिजीसे प्रार्थना करो। उन्होंने जिस निर्दोष रामायणकी रचना आरम्भ की है, उसका श्रवण कर लेनेपर मनुष्य सम्पूर्ण मोहसे पार हो जायँगे।
श्रीवाल्मीकिजी कहते हैं—भरद्वाजसे यों कहकर सम्पूर्ण भूतोंके स्रष्टा भगवान् ब्रह्मा उनके साथ ही मेरे आश्रमपर आये। उस समय मैंने शीघ्र ही अर्घ्य, पाद्य आदिके द्वारा उन भगवान् ब्रह्माजीका पूजन किया। तत्पश्चात् समस्त प्राणियोंके हितमें तत्पर रहनेवाले ब्रह्माजीने मुझसे कहा—‘श्रेष्ठ महर्षे! श्रीरामचन्द्रजीके स्वभाव एवं स्वरूपका वर्णन करनेवाले इस निर्दोष रामायणका आरम्भ करके जबतक इसकी समाप्ति न हो जाय, तबतक कितना ही उद्वेग क्यों न हो, तुम इसका परित्याग न करना। इस ग्रन्थके अनुशीलनसे यह जगत् इस संसाररूपी क्लेशसे उसी प्रकार शीघ्र पार हो जायगा, जैसे जहाजके द्वारा लोग अविलम्ब समुद्रसे पार हो जाते हैं। तुम लोकहितके लिये इस रामायण नामक शास्त्रकी रचना करो। इसी बातको कहनेके लिये मैं स्वयं यहाँतक आया हूँ।’ तत्पश्चात् वे मेरे उस पवित्र आश्रमसे उसी क्षण अदृश्य हो गये। तब भरद्वाजने कहा—‘भगवन्!महामना श्रीरामचन्द्रजी, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न, यशस्विनी सीतादेवी तथा श्रीरामचन्द्रजीका अनुसरण करनेवाले परम बुद्धिमान् मन्त्रिपुत्र—इन सबने इस संसाररूपी संकटमें पड़कर कैसा व्यवहार किया था, यह बात मुझे बताइये। इसे सुनकर अन्य लोगोंके साथ मैं भी वैसा ही बर्ताव करूँगा।’
राजेन्द्र! जब भरद्वाजने आदरपूर्वक मुझसे पूर्वोक्त विषयका प्रतिपादन करनेके लिये अनुरोध किया, तब मैं भगवान् ब्रह्माजीकी आज्ञाका पालन करनेके लिये उक्त विषयके वर्णनमें प्रवृत्त हुआ और बोला—‘वत्स भरद्वाज! सुनो; तुमने जैसा पूछा है, उसके अनुसार तुम्हें सब कुछ बताता हूँ। मेरे उपदेशको सुननेसे तुम अपना सारा मोह दूर कर सकोगे। बुद्धिमान् भरद्वाज! तुम वैसा ही व्यवहार करो, जैसा कि आनन्दस्वरूप कमलनयन भगवान् श्रीरामने समस्त संसारमें अनासक्तभावसे रहकर किया था।’
महामना भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न, कौसल्या, सुमित्रा, सीता, राजा दशरथ, श्रीरामसखा कृतास्त्र और अविरोध, पुरोहित वसिष्ठ, वामदेव तथा अन्यान्य आठ मन्त्री—ये सभी ज्ञानमें पारंगत थे। धृष्टि, जयन्त, भास, सत्यवादी विजय, विभीषण, सुषेण, हनुमान् और इन्द्रजित्—ये श्रीरामके आठ मन्त्री बताये गये हैं। ये सब-के-सब समदर्शी थे। इनका चित्त विषयोंमें आसक्त नहीं था। ये सभी जीवन्मुक्त महात्मा थे और प्रारब्धवश जो कुछ प्राप्त होता, उसीमें संतुष्ट रहकर तदनुकूल व्यवहार करते थे। बेटा! इन लोगोंने जिस प्रकार होम, दान और आदान-प्रदान किया था, इन्होंने जगत्में जिस प्रकार निवास किया था और जिस प्रकार स्मरण-चिन्तन अथवा श्रौत-स्मार्त कर्मोंका पालन किया था, उसी प्रकार यदि तुम भी बर्ताव करते हो तो संसाररूपी संकटसे छूटे हुए ही हो। उदार एवं सत्त्वगुणसे सम्पन्न पुरुष अपार संसार-समुद्रमें गिरनेपर भी यदि उपर्युक्त उत्कृष्ट साधनको अपना ले तो उसे न तो शोक प्राप्त होता है और न वह दीनता अथवा दुःखमें ही पड़ता है। सब प्रकारकी चिन्ताओंसे मुक्त हो वह परमानन्द-सुधाका पान करके सदाके लिये परम तृप्त हो जाता है।
सर्ग 2
भरद्वाज बोले—ब्रह्मन्! आप श्रीरामचन्द्रजीकी कथासे आरम्भ करके क्रमशः जीवन्मुक्तकी स्थितिका मुझसे वर्णन कीजिये, जिससे मैं सदाके लिये परम सुखी हो जाऊँ।
श्रीवाल्मीकिजीने कहा—साधु पुरुष भरद्वाज! जैसे रूपरहित आकाशमें नील-पीत आदि वर्णोंका भ्रम होता है, उसी प्रकार निर्गुण-निराकार ब्रह्ममें अज्ञानवश जगत्की सत्ताका भ्रम होता है। यह जो जगत्सम्बन्धी भ्रम उत्पन्न हो गया है, इसे इस तरह भुला दिया जाय कि फिर कभी इसका स्मरण ही न हो—इसीको मैं उत्तम ज्ञान मानता हूँ। इस दृश्य-प्रपञ्चका अत्यन्त अभाव है—यह बिना हुए ही भासित हो रहा है, जबतक ऐसा बोध नहीं होता, तबतक कोई कभी भी उस उत्कृष्ट आत्मज्ञानका अनुभव नहीं कर सकता; इसलिये आत्मज्ञानका अन्वेषण—उसकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न करना चाहिये। इस (योगवासिष्ठरूप) शास्त्रका ज्ञान होनेपर इसी जीवनमें उस आत्मतत्त्वका बोध हो जाय—यह सर्वथा सम्भव ही है—वह होकर ही रहेगा। इसी उद्देश्यसे इस शास्त्रका विस्तार (प्रचार-प्रसार) किया जाता है। यदि तुम (श्रद्धा-भक्तिके साथ) इस शास्त्रका श्रवण करोगे तो निश्चय ही तुम्हें उस आत्मतत्त्वका ज्ञान प्राप्त हो जायगा; अन्यथा उसकी प्राप्ति असम्भव है।
निष्पाप भरद्वाज! यह जगद्रूपी भ्रम यद्यपि प्रत्यक्ष दिखायी देता है तो भी इस शास्त्रके विचारसे अनायास ही ऐसा अनुभव हो जाता है कि ‘यह है ही नहीं’—ठीक उसी तरह जैसे आकाशमें नील आदि वर्ण प्रत्यक्ष दीखनेपर भी विचार करनेसे बिना परिश्रमके ही यह समझमें आ जाता है कि इसका अस्तित्व नहीं है। यह दृश्य-जगत् वास्तवमें है ही नहीं, ऐसा बोध होनेपर जब मनसे दृश्य-प्रपञ्चका मार्जन (निवारण या अभाव) हो जाय, तब परमनिर्वाणरूप शान्तिका स्वतः अनुभव होने लगता है। ब्रह्मन्! सम्पूर्णरूपसे वासनाओंका जो परित्याग (अत्यन्त अभाव) है, वही उत्तममोक्ष कहलाता है। उसे अविद्यारूपी मलसे रहित ज्ञानी ही प्राप्त कर सकते हैं। विप्रवर! जैसे शीतके नष्ट होनेपर हिमकण तुरंत गल जाते हैं, उसी प्रकार वासनाओंके क्षीण हो जानेपर (वासना-पुञ्जरूप) चित्त भी शीघ्र ही गल जाता है (उसका अभाव-सा हो जाता है)।
वासना दो प्रकारकी बतायी गयी है—एक शुद्ध वासना और दूसरी मलिन वासना। मलिन वासना जन्मकी हेतुभूत है—उसके द्वारा जीव जन्म-मृत्युके चक्करमें पड़ता है और शुद्ध वासना जन्मका नाश करनेवाली (अर्थात् मोक्षकी साधिका) है। विद्वानोंने मलिन वासनाको पुनर्जन्मकी प्राप्ति करानेवाली बताया है। अज्ञान ही उसकी घनीभूत आकृति है तथा वह बढ़े हुए अहंकारसे सुशोभित होती है। जो भुने हुए बीजके समान पुनर्जन्मरूपी अङ्कुरको उत्पन्न करनेकी शक्तिको त्यागकर केवल शरीरधारण मात्रके लिये स्थित रहती है, वह वासना ‘शुद्धा’ कही गयी है। जो लोग शुद्ध वासनासे युक्त हैं, वे फिर जन्मरूप अनर्थके भाजन नहीं होते। जानने योग्य परमात्माके तत्त्वको जाननेवाले वे परम बुद्धिमान् पुरुष ‘जीवन्मुक्त’ कहलाते हैं।
महामते भरद्वाज! अब तुम श्रीरामचन्द्रजीकी जीवनचर्यासे सम्बन्ध रखनेवाली इस मङ्गलकारिणी कथाका क्रमशः श्रवण करो। मैं उसका वर्णन करूँगा, उसीके द्वारा तुम सदाके लिये सम्पूर्ण तत्त्वका ज्ञान प्राप्त कर लोगे। वत्स! जिन्हें कहींसे भी कोई भय नहीं है, वे कमलनयन भगवान् श्रीराम जब अध्ययनके पश्चात् विद्यालयसे निकलकर घरको लौटे, तब भाँति-भाँतिकी लीलाएँ करते हुए उन्होंने राजभवनमें कुछ दिन व्यतीत किये। तदनन्तर कुछ समय बीतनेपर, जब कि राजा दशरथ भूमण्डलके पालनमें लगे थे और प्रजावर्गके लोग रोग-शोकसे रहित हो बड़े सुखसे दिन बिता रहे थे, एक दिन अनन्त कल्याणमय गुणोंसे सुशोभित होनेवाले श्रीरामचन्द्रजीके मनमें तीर्थों तथा पुण्यमय आश्रमोंके दर्शनकी अत्यन्त उत्कण्ठा जाग उठी। तब श्रीरामने पिताके पास जाकर उनके चरण-कमलोंमें प्रणाम किया और इस प्रकार कहा।
श्रीराम बोले—पिताजी! मेरे स्वामी महाराज! मेरे मनमें तीर्थों, देवमन्दिरों, वनों तथा आश्रमोंका दर्शन करनेके लिये बड़ी उत्कण्ठा हो रही है। आपके समक्ष मेरी यह पहली याचना है, आप इसे सफल करने योग्य हैं। नाथ! संसारमें ऐसा कोई याचक नहीं है, जिसे अभीष्ट वस्तु देकर आपने उसका आदर न किया हो।
श्रीराम पहली बार प्रार्थी होकर राजाके समक्ष उपस्थित हुए थे। उनके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर राजा दशरथने वसिष्ठजीके साथ विचार करके उन्हें तीर्थ-दर्शनके लिये आज्ञा दे दी। उस समय शुभ नक्षत्र और शुभ दिनमें ब्राह्मणोंने आकर उनके लिये स्वस्तिवाचन किया। उनके शरीरको माङ्गलिक वेष-भूषासे अलंकृत किया गया। माताओंने उन्हें हृदयसे लगा-लगाकर आशीर्वाद दिये और आभूषण पहनाये। फिर वे रघुनाथजी तीर्थ-यात्राके लिये उद्यत हो लक्ष्मण और शत्रुघ्न—इन दो भाइयों, वसिष्ठजीके भेजे हुए शास्त्रज्ञ ब्राह्मणों तथा अपने ऊपर स्नेह रखनेवाले कुछ इने-गिने राजकुमारोंके साथ अपने उस राजभवनसे बाहर निकले। श्रीरामचन्द्रजी दान-मान आदिसे ब्राह्मणोंको अपने अनुकूल बनाते, सब ओरसे प्रजाओंके आशीर्वाद सुनते और सम्पूर्ण दिशाओंके दृश्योंपर दृष्टिपात करते वन्य-प्रदेशोंमें भ्रमण करने लगे। उन्होंने अपने निवासस्थान उस कोसल जनपदसे आरम्भ करके स्नान, दान, तप और ध्यानपूर्वक क्रमशः समस्त तीर्थ-स्थानोंका दर्शन किया। नदियोंके पवित्र तट, पुण्य वन, पावन आश्रम, जंगल, जनपदोंकी सीमाओंमें स्थित समुद्र औरपर्वतोंके तट, चन्द्रमाके समान उज्ज्वल आभावाली गङ्गा, नीलकमलकी-सी कान्तिवाली निर्मल कलिन्दनन्दिनी यमुना, सरस्वती, शतद्रू (सतलज), चन्द्रभागा (चिनाब), इरावती (रावी), वेणी, कृष्णवेणी,१ निर्विन्ध्या, सरयू, चर्मण्वती (चम्बल), वितस्ता (झेलम), विपाशा (व्यास), बाहुदा२, प्रयाग, नैमिषारण्य, धर्मारण्य, गया, वाराणसी (काशीपुरी), श्रीशैल, केदारनाथ, पुष्कर, क्रमप्राप्त मानस सरोवर, उत्तरमानस, वड़वामुख, अन्य तीर्थसमुदाय, अग्नितीर्थ, महातीर्थ, इन्द्रद्युम्न सरोवर आदि पुण्यतीर्थ, सरोवर, सरिताएँ, नद, तालाब या कुण्ड—इन सबका उन्होंने आदरपूर्वक दर्शन किया।
स्वामी कार्तिकेय, शालग्रामस्वरूप श्रीविष्णु, भगवान् विष्णु और शिवके चौंसठ स्थान, नाना प्रकारके आश्चर्यजनक दृश्योंसे विचित्र शोभा धारण करनेवाले चारों समुद्रोंके तट, विन्ध्यपर्वत और मन्दराचलके कुञ्ज, हिमालय आदि सात कुल-पर्वतोंके स्थान तथा बड़े-बड़े राजर्षियों, ब्रह्मर्षियों, देवताओं और ब्राह्मणोंके मङ्गलकारी पावन आश्रमोंका भी श्रीरामचन्द्रजीने श्रद्धापूर्वक दर्शन किया। दूसरोंको मान देनेवाले श्रीरघुनाथजी अपने भाइयोंके साथ बारम्बार चारों दिशाओंके प्रान्तभागों तथा भूमण्डलके सभी छोरोंमें घूमते फिरे। जैसे देवता आदिसे सम्मानित भगवान् शंकर सम्पूर्ण दिशाओंमें विहार करके पुनः शिवलोकमें लौट आते हैं, उसी प्रकार रघुनन्दन श्रीराम देवताओं, किंनरों तथा मनुष्योंसे सम्मानित हो इस सम्पूर्ण भूमण्डलका अवलोकन करके फिर अपने घर लौट आये।
सर्ग 3
श्रीवाल्मीकि जी कहते हैं—भरद्वाज! जब श्रीमान् रामचन्द्र नगरको लौटे, उस समय (उनका स्वागत करते हुए) पुरवासीजन उनके ऊपर राशि-राशि पुष्प बिखेरने लगे। उस अवस्थामें, जैसे इन्द्र-पुत्र जयन्त अपने स्वर्गीय भवनमें प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार उन्होंने अपने महलमें प्रवेश किया। वहाँ पहुँचकर रघुनाथजीने पहले पिताको प्रणाम किया, फिर क्रमशः कुलगुरु वसिष्ठजीको, बड़े बन्धु-बान्धवोंको, ब्राह्मणोंको तथा कुलके बड़े-बूढ़े लोगोंको मस्तक झुकाया। फिर सुहृदों, बन्धुओं, पिता तथा ब्राह्मणसमुदायने श्रीरामको बारंबार हृदयसे लगाया और श्रीरामने भी उनके प्रति अभिवादन एवं प्रिय-भाषण आदि यथोचित आचार-व्यवहारका निर्वाह किया। उस समय श्रीरघुनाथजी आनन्दोल्लाससे फूले नहीं समाते थे। अयोध्यामें श्रीरामचन्द्रजीके शुभागमनके उपलक्ष्यमें लगातार आठ दिनोंतक आनन्दोत्सव मनाया गया। उस समय हर्षसे मतवाली जनताके द्वारा सुखपूर्वक किये गये गीत-वाद्य आदिका मधुर कोलाहल सब ओर व्याप्त हो गया था। तबसे श्रीरघुनाथजी विभिन्न देशोंमें प्रचलित नाना प्रकारके रहन-सहनका जहाँ-तहाँ वर्णन करते हुए घरमें ही सुखपूर्वक रहने लगे।
श्रीरामचन्द्रजी प्रतिदिन सबेरे उठकर (स्नान आदिके पश्चात्) विधिपूर्वक संध्या-वन्दन करके राजसभामें बैठे हुए अपने इन्द्रतुल्य तेजस्वी पिता महाराज दशरथका दर्शन किया करते थे। वहाँ एक पहरतक वसिष्ठ आदिके साथ बैठकर आदरपूर्वक ज्ञानभरी कथा-वार्ता सुना करते थे। भाइयोंके साथ तीर्थयात्रासे लौटनेपर श्रीरघुनाथजी प्रायः ऐसी ही दिनचर्याको अपनाकर पिताके घरमें सुखपूर्वक रहते थे। निष्पाप भरद्वाज! श्रीरामचन्द्रजीकी प्रत्येक चेष्टा राजोचित व्यवहारके कारण बड़ी मनोहर प्रतीत होती थी; वह सत्पुरुषोंके चित्तमें चन्द्रमाकी चाँदनीके समान आह्लाद उत्पन्न करती थी। सभी उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते थे तथा वह अमृत-रसके समान मधुर, सुन्दर एवं कोमल होती थी। ऐसी ही चेष्टाके द्वारा वे दिन व्यतीत करते थे।
भरद्वाज! तदनन्तर जब श्रीरघुनाथजीकी अवस्था सोलह वर्षसे कुछ ही कम थी, शत्रुघ्न और लक्ष्मण श्रीरामचन्द्रजीका निरन्तर अनुसरण करते थे, भरत सुखपूर्वक अपने नानाके यहाँ विराज रहे थे, महाराज दशरथ इस सारी पृथ्वीका यथोचित रूपसे पालन कर रहे थे तथा वे महाप्राज्ञ नरेश प्रतिदिन मन्त्रियोंके साथ बैठकर अपने पुत्रोंके विवाहके लिये भी परामर्श करने लगे थे, उन्हीं दिनों तीर्थयात्रा पूरी करके अपने घरमें रहते हुए श्रीराम दिन-पर-दिन कृश होने लगे।
भरद्वाज! महाराज दशरथ श्रीरामसे बारंबार स्नेहयुक्त मधुरवाणीमें पूछते—‘बेटा! तुम्हारे मनमें कैसी बड़ी भारी चिन्ता पैदा हो गयी है?’ वे उत्तर देते—‘पिताजी! मुझे कोई कष्ट नहीं है।’ इतना ही कहकर कमलनयन श्रीराम पिताजीकी गोदमें चुपचाप बैठ जाते थे।
तदनन्तर एक दिन राजा दशरथने समस्त कार्योंका ज्ञान रखनेवाले, वक्ताओंमें श्रेष्ठ वसिष्ठजीसे पूछा—‘गुरुदेव! श्रीराम क्यों खिन्न हैं?’ उनके इस प्रकार पूछनेपर वसिष्ठ मुनिने कुछ सोचकर राजासे कहा—‘श्रीमन्! महाराज! इसमें कुछ कारण है; किंतु इसके लिये आपके मनमें दुःख नहीं होना चाहिये।’
इसी समय महर्षि विश्वामित्र अयोध्यानरेश दशरथसे मिलनेके लिये वहाँ आये। उन दिनों धर्मकार्यमें तत्पर रहनेवाले उन बुद्धिमान् महर्षिके यहाँ एक यज्ञ हो रहा था। माया, बल और वीर्यसे उन्मत्त रहनेवाले राक्षसोंने एक साथ आक्रमण करके उनके उस यज्ञका विध्वंस कर डाला। उस यज्ञकी रक्षाके लिये ही उन्होंने महाराज दशरथसे मिलनेकी इच्छा की थी; क्योंकि राक्षसोंके उत्पातके कारण वे मुनि अपने उस यज्ञको बिना किसीविघ्न-बाधाके पूर्ण नहीं कर पाते थे। तब उन निशाचरोंके विनाशके लिये उद्यत हो वे तपोनिधि महातेजस्वी विश्वामित्र मुनि अयोध्यापुरीमें आये। वहाँ पहुँचकर राजासे मिलनेकी अभिलाषा लिये वे द्वारपालोंसे बोले—‘तुमलोग शीघ्र जाकर महाराजको मेरे आनेकी सूचना दो। उनसे कहना—गाधिके पुत्र कुशिकवंशी विश्वामित्र आये हैं।’
मुनिका यह वचन सुनकर राजद्वारपर रहनेवाले पहरेदारोंने राजमहलमें जाकर अपने स्वामी छड़ीदारसे बताया—‘प्रभो! महर्षि विश्वामित्र पधारे हैं। तब उस छड़ीदारने सभामण्डपमें राजाओंकी मण्डलीसे घिरे बैठे हुए महाराजके पास तुरंत जाकर सूचना दी—‘देव! राजद्वारपर नवोदित सूर्यके समान महातेजस्वी तथा अग्निकी ज्वालाके सदृश अरुण जटाजूटधारी एक दीप्तिमान् पुरुष आकर खड़े हैं। वे महामुनि विश्वामित्र हैं।’ राजाकी ओर देखकर छड़ीदारने नम्रतापूर्ण वचनोंमें ज्यों ही यह बात कही, उसकी उस बातको सुनते ही मन्त्री और सामन्तोंसहित वे राजशिरोमणि दशरथ तत्काल सोनेके सिंहासनसे उठकर खड़े हो गये।
राजाओंके समुदायसे घिरे तथा सामन्तोंसे प्रशंसित होते हुए वे नरेश वसिष्ठ और वामदेवजीके साथ सहसा पैदल ही उस स्थानकी ओर चल दिये, जहाँ महामुनि विश्वामित्र खड़े थे। राजाने ड्योढ़ीपर खड़े हुए उन मुनिश्रेष्ठको देखा। वे ब्राह्मणोचित तेज तथा महान् क्षात्रबलसे भी सम्पन्न थे। वृद्धावस्थाके कारण अधिक पकी हुई और तपस्यामें ही लगे रहनेसे रूखी जटावल्लरीके द्वारा उनके कंधे ढके हुए थे। उन्होंने शान्त (सौम्य), कान्तिमान्, उद्दीप्त, प्रतिघातरहित, विनयशील, हृष्ट-पुष्ट अवयवोंसे युक्त तथा तेजस्वी शरीर धारण कर रखा था। उनका तेज सुन्दर होनेके साथ ही अत्यन्त भयंकर था, प्रसादगुणसे युक्त तथा दूरतक फैला हुआ था, गम्भीर एवं अतिशय पूर्णताको प्राप्त था। उस तेजसे ऋषिकी अङ्गकान्ति अनुरञ्जित थी। उन्होंने अपने हाथमें एक कुण्डी (कमण्डलु) ले रखी थी, जो चिकनी, निर्दोष एवं उत्तम थी। वह उनके कल्पान्तस्थायी जीवनकालकी सभी अवस्थाओंमें सहचरीकी भाँति उनका साथ देती थी। मुनिका अन्तःकरण अत्यन्त निर्मल था। उनके चित्तमें करुणा भरी थी, इसलिये उनकी वाणी बड़ी मधुर एवं प्रसन्नतासूचक होती थी। वे अपनी स्नेहपूर्ण दृष्टिसे इस प्रकार देखते थे, मानो सामने खड़ी हुई जनताको अमृतसे सींच रहे हों। उनके अङ्गमें सुन्दर यज्ञोपवीत शोभा पा रहा था। वे दर्शकोंके मनमें अत्यन्त आश्चर्यका संचार-सा कर रहे थे। उन महर्षिको दूरसे ही देखकर राजाका शरीर विनयसे झुक गया और उन्होंने मुकुटमण्डित मस्तकसे उनके चरणोंमें प्रणाम किया। मुनिने भी, जैसे सूर्यदेव इन्द्रका प्रत्यभिवादन करते हैं, उसी प्रकार मधुर एवं उदारतापूर्ण वचनोंद्वारा आशीर्वाद देकर पृथ्वीनाथ दशरथका प्रत्यभिवादन किया। तत्पश्चात् वसिष्ठ आदि सभी ब्राह्मणोंने स्वागत आदिके क्रमसे विश्वामित्रजीका सत्कार किया।
मुनिका यह वचन सुनकर राजद्वारपर रहनेवाले पहरेदारोंने राजमहलमें जाकर अपने स्वामी छड़ीदारसे बताया—‘प्रभो! महर्षि विश्वामित्र पधारे हैं। तब उस छड़ीदारने सभामण्डपमें राजाओंकी मण्डलीसे घिरे बैठे हुए महाराजके पास तुरंत जाकर सूचना दी—‘देव! राजद्वारपर नवोदित सूर्यके समान महातेजस्वी तथा अग्निकी ज्वालाके सदृश अरुण जटाजूटधारी एक दीप्तिमान् पुरुष आकर खड़े हैं। वे महामुनि विश्वामित्र हैं।’ राजाकी ओर देखकर छड़ीदारने नम्रतापूर्ण वचनोंमें ज्यों ही यह बात कही, उसकी उस बातको सुनते ही मन्त्री और सामन्तोंसहित वे राजशिरोमणि दशरथ तत्काल सोनेके सिंहासनसे उठकर खड़े हो गये।
राजाओंके समुदायसे घिरे तथा सामन्तोंसे प्रशंसित होते हुए वे नरेश वसिष्ठ और वामदेवजीके साथ सहसा पैदल ही उस स्थानकी ओर चल दिये, जहाँ महामुनि विश्वामित्र खड़े थे। राजाने ड्योढ़ीपर खड़े हुए उन मुनिश्रेष्ठको देखा। वे ब्राह्मणोचित तेज तथा महान् क्षात्रबलसे भी सम्पन्न थे। वृद्धावस्थाके कारण अधिक पकी हुई और तपस्यामें ही लगे रहनेसे रूखी जटावल्लरीके द्वारा उनके कंधे ढके हुए थे। उन्होंने शान्त (सौम्य), कान्तिमान्, उद्दीप्त, प्रतिघातरहित, विनयशील, हृष्ट-पुष्ट अवयवोंसे युक्त तथा तेजस्वी शरीर धारण कर रखा था। उनका तेज सुन्दर होनेके साथ ही अत्यन्त भयंकर था, प्रसादगुणसे युक्त तथा दूरतक फैला हुआ था, गम्भीर एवं अतिशय पूर्णताको प्राप्त था। उस तेजसे ऋषिकी अङ्गकान्ति अनुरञ्जित थी। उन्होंने अपने हाथमें एक कुण्डी (कमण्डलु) ले रखी थी, जो चिकनी, निर्दोष एवं उत्तम थी। वह उनके कल्पान्तस्थायी जीवनकालकी सभी अवस्थाओंमें सहचरीकी भाँति उनका साथ देती थी। मुनिका अन्तःकरण अत्यन्त निर्मल था। उनके चित्तमें करुणा भरी थी, इसलिये उनकी वाणी बड़ी मधुर एवं प्रसन्नतासूचक होती थी। वे अपनी स्नेहपूर्ण दृष्टिसे इस प्रकार देखते थे, मानो सामने खड़ी हुई जनताको अमृतसे सींच रहे हों। उनके अङ्गमें सुन्दर यज्ञोपवीत शोभा पा रहा था। वे दर्शकोंके मनमें अत्यन्त आश्चर्यका संचार-सा कर रहे थे। उन महर्षिको दूरसे ही देखकर राजाका शरीर विनयसे झुक गया और उन्होंने मुकुटमण्डित मस्तकसे उनके चरणोंमें प्रणाम किया। मुनिने भी, जैसे सूर्यदेव इन्द्रका प्रत्यभिवादन करते हैं, उसी प्रकार मधुर एवं उदारतापूर्ण वचनोंद्वारा आशीर्वाद देकर पृथ्वीनाथ दशरथका प्रत्यभिवादन किया। तत्पश्चात् वसिष्ठ आदि सभी ब्राह्मणोंने स्वागत आदिके क्रमसे विश्वामित्रजीका सत्कार किया।
दशरथने कहा—महात्मन्! जैसे भगवान् सूर्य अपने तेजस्वी स्वरूपका दर्शन देकर कमलोंसे भरे हुए सरोवरोंपर अनुग्रह करते हैं, उसी प्रकार आज आपका जो यह असम्भावित तेजोमय दर्शन प्राप्त हुआ है, इससे हम सब लोग अत्यन्त अनुगृहीत हैं।
मुनिके प्रति ऐसी ही बातें कहते हुए अन्य राजा तथा महर्षि, सब लोग राजसभामें आकर यथायोग्य आसनोंपर बैठ गये। राजा दशरथने स्वयं ही मुनिको अर्घ्य निवेदन किया।
राजाके अर्घ्यको स्वीकार करके महर्षिने शास्त्रोक्त विधिसे प्रदक्षिणा करते हुए नरेशकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। राजा दशरथद्वारा पूजित हो विश्वामित्र बड़े प्रसन्न हुए। उनका मुखारविन्द खिल उठा। उन्होंने राजासे उनकी कुशल पूछी। तदनन्तर मुनिवर विश्वामित्र हँसकर वसिष्ठजीसे मिले और यथायोग्य सत्कार करके उनके आरोग्यका समाचार पूछने लगे। क्षणभरमें एक-दूसरेसे मिलकर यथायोग्य आदर-सत्कार करके वे सब लोग प्रसन्नचित्त हो महाराजके महलमें यथायोग्य आसनोंपर बैठ गये। एक-दूसरेके सम्पर्कमें आनेसे उन सबके तेज बढ़ गये थे। वे सब आदरपूर्वक आपसमें एक-दूसरेकी कुशल पूछने लगे। तदनन्तर प्रसन्नचित्त एवं पवित्र राजा दशरथने हाथ जोड़कर मुनिसे कहा
‘विप्रवर! आप परम धर्मात्मा तथा दानके उत्तम पात्र हैं और सौभाग्यवश यहाँ पधार गये हैं। बताइये आपकी सर्वोत्तम अभिलाषा क्या है? मैं आपकी कौन-सी सेवा करूँ? भगवन्! पहले आप ‘राजर्षि’ कहे जाते थे, किंतु तपस्याने आपके ब्राह्मतेजको प्रकाशित कर दिया। आपने ‘ब्रह्मर्षि’ का पद प्राप्त कर लिया, अतः आप मेरे द्वारा सर्वथा पूजनीय हैं। जैसे गङ्गाजीके जलमें स्नान करनेसे मुझे बड़ी प्रसन्नता होती है, उसी प्रकार आपके दर्शनसे भी हो रही है। वह प्रसन्नता मेरे ही तलको शीतल-सा किये देती है। ब्रह्मन्! आपके अन्तःकरणसे इच्छा, भय और क्रोध निकल गये हैं, राग-द्वेष दूर हो गये हैं, आप सर्वथा रोगरहित हैं; तो भी मेरे पास आये, यह अत्यन्त अद्भुत बात है। यहाँ पधारे हुए आपका दर्शन, पूजन और वन्दन करके मैं अपनेमें ही फूला नहीं समाता—वैसे ही, जैसे समुद्र अपने ही भीतर पूर्ण चन्द्रमाका प्रतिबिम्ब देखकर अपने-आपमें नहीं समाता, तटकी सीमाको लाँघकर आगे बढ़ आता है। मुनिवर! आपका जो कार्य हो, जिस प्रयोजनसे आप यहाँ पधारे हों, उसे आप सिद्ध हुआ ही समझिये; क्योंकि आप सर्वदा मेरे माननीय हैं। कुशिककुलनन्दन! आप कोई विचार न कीजिये। भगवन्! आपके लिये मुझे कुछ भी अदेय नहीं है; क्योंकि दी हुई वस्तु आप-जैसे सत्पात्रको प्राप्त होकर ही सार्थक होती है। मैं आपका सारा कार्य पूर्ण करूँगा। आप मेरे परम देवता हैं।’
आत्मज्ञानी महाराज दशरथके द्वारा विनयपूर्वक कहे हुए इस अत्यन्त मधुर, श्रवणसुखद एवं गुणविशिष्ट वचनको सुनकर विख्यात गुण और प्रख्यात यशवाले मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्रको बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई।
सर्ग 4-6
श्रीवाल्मीकि जी कहते हैं—भरद्वाज! तदनन्तर महातेजस्वी विश्वामित्रजीने पुलकित होकर कहा—‘नृपश्रेष्ठ! आप महान् कुलमें उत्पन्न हुए हैं और महर्षि वसिष्ठजीकी आज्ञाके अधीन रहते हैं; अतः आपके मुखसे जो बात निकली है, वह इस भूतलपर आपके ही योग्य है। महाराज! अब मैं अपना हार्दिक अभिप्राय आपसे निवेदन करता हूँ। जब-जब मैं यज्ञके द्वारा देवसमूहोंका पूजन करता हूँ, तब-तब कुछ निशाचर आकर मेरे उस यज्ञको नष्ट कर देते हैं। मैंने अनेक बार यज्ञका अनुष्ठान आरम्भ किया, किंतु राक्षसनायकोंने उस यज्ञ-मण्डपकी भूमिमें रक्त और मांस बिखेर दिये। मैं यज्ञके लिये परिश्रम करके भी उसमें सफल नहीं हो रहा हूँ, इसलिये विघ्न-निवारणके उद्देश्यको लेकर मैं उस स्थानसे यहाँ आपके पास आया हूँ। पृथ्वीनाथ! मेरे मनमें यह विचार नहीं होता कि मैं क्रोध करके उन्हें शाप दे दूँ। मैं चाहता हूँ, आपके प्रसादसे उस यज्ञको बिना किसी विघ्न-बाधाके पूर्ण करके उसके महान् पुण्य-फलका भागी होऊँ। अतः आर्त होकर शरण पानेकी इच्छासे आपके पास आया हूँ, आप (उस यज्ञकी रक्षाद्वारा) मेरा संकटसे उद्धार करनेके योग्य हैं। आपके पुत्र श्रीमान् राम मतवाले सिंहके समान पराक्रमी हैं। उनका बल-विक्रम देवराज इन्द्रके तुल्य है। वे उन राक्षसोंको विदीर्ण करनेमें पूर्ण समर्थ हैं। अतः राजसिंह! आपके जो ज्येष्ठ पुत्र काकपक्षधारी, सत्यपराक्रमी, शूरवीर श्रीराम हैं उनको मुझे सौंप दीजिये। ये मुझसे सुरक्षित रहकर अपने दिव्य तेजसे उन यज्ञ-विध्वंसक एवं समस्त संसारका अपकार करनेवाले राक्षसोंका मस्तक काटनेमें समर्थ होंगे। मैं इन श्रीरामको (अस्त्र-विद्या प्रदान करके) अनेक प्रकारसे अनन्त कल्याणका भागी बनाऊँगा, जिससे ये तीनों लोकोंके पूजनीय होंगे।’
‘वे पापी राक्षस युद्धमें कालकूटके समान भयानक हैं, उन्हें अपने बल और पराक्रमपर बड़ा गर्व है, वे खर और दूषणके भृत्य हैं तथा कुपित होनेपर यमराजके समान जान पड़ते हैं। किंतु राजसिंह! वे श्रीरामके सायकोंको उसी प्रकार नहीं सह सकेंगे, जैसे धूलिकण निरन्तर गिरती हुई मेघकी जलधाराको नहीं सह सकते। महाराज! मैं अपनी तपःशक्तिसे इस बातको निश्चित रूपसे जानता हूँ, आप भी मेरे कथनानुसार उन राक्षसोंको मरा हुआ ही समझिये; क्योंकि हम तथा हमारे-जैसे दूसरे विज्ञ पुरुष संदिग्ध विषयमें नहीं प्रवृत्त होते। कमलनयन श्रीराम कोई साधारण पुरुष नहीं, साक्षात् परमात्मा हैं; इन्हें मैं जानता हूँ, महातेजस्वी वसिष्ठजी जानते हैं तथा दूसरे-दूसरे दीर्घदर्शी महर्षि भी जानते हैं।१ यदि आपके हृदयमें धर्म, महत्ता और यशके लिये विशेष स्थान है तो अपने प्रिय पुत्र श्रीरामको आप मुझे दे दीजिये। मेरा वह यज्ञ, जिसमें श्रीरामको यज्ञद्रोही, विघ्नकर्ता राक्षसोंका वध करना है, दस दिनोंमें पूरा हो जायगा। काकुत्स्थ! इसके लिये भी आपके वसिष्ठ आदि सभी मन्त्री आपको अवश्य अनुमति दे देंगे, अतः आप श्रीरामको मेरे साथ भेज दीजिये। ठीक समयपर किया हुआ थोड़ा-सा भी कार्य बहुत उपकारी होता है और समय बीतनेपर किया हुआ महान् उपकार भी व्यर्थ हो जाता है।’
इस प्रकार धर्म और अर्थसे युक्त बात कहकर धर्मात्मा, महातेजस्वी मुनीश्वर विश्वामित्र चुप हो गये। मुनिवर विश्वामित्रका वचन सुनकर उन्हें युक्तियुक्त उत्तर देनेके लिये कुछ सोचते हुए महानुभाव राजा दशरथ थोड़ी देरतक चुपचाप बैठे रहे; क्योंकि जिसका मनोरथ पूर्ण न किया गया हो, वह बुद्धिमान् पुरुष युक्तिसंगत उत्तर पाये बिना संतुष्ट नहीं होता है।
भरद्वाज! विश्वामित्रजीका वह भाषण सुनकर (वात्सल्य-भावापन्न) नृपश्रेष्ठ दशरथ दो घड़ीतक निश्चेष्ट बैठे रहे, फिर इस प्रकार दीनतापूर्ण वचन बोले—‘मुनीश्वर! कमलनयन श्रीरामकी अवस्था अभी सोलह वर्षसे भी कम है। ये राक्षसोंके साथ युद्ध कर सकें, ऐसी योग्यता मैं इनमें नहीं देखता। प्रभो! मेरे पास यह पूरी एक अक्षौहिणी सेना है, जिसका मैं ही स्वामी हूँ। इस सेनाके साथ चलकर मैं ही उन पिशाचोंके साथ युद्ध करूँगा। ये सभी सैनिक मेरे भृत्य हैं—मेरे द्वारा पोषित हुए हैं। ये शूरवीर, पराक्रमी और उचित सलाह देनेमें भी चतुर हैं। मैं युद्धके मुहानेपर हाथमें धनुष लेकर इन सबकी रक्षा करूँगा। इनके साथ रहकर मैं महेन्द्रसे भी बढ़े-चढ़े वीरोंको उसी तरह युद्धका अवसर दूँगा, जैसे सिंह मतवाले हाथियोंको देता है। श्रीराम अभी बालक हैं। इन्हें न तो उत्तम शस्त्रोंका ज्ञान है और न ये युद्धकी कलामें ही निपुण हुए हैं। समराङ्गणमें कोटि-कोटि शूरवीरोंके साथ अस्त्रोंद्वारा कैसे युद्ध किया जाता है, इसका भी इनको ज्ञान नहीं है। केवल फुलवाड़ियोंमें, नगरके उपवनोंमें तथा उद्यानवर्ती वनकुञ्जोंमें इनका घूमना-फिरना होता है। ये राजकुमारोंके साथ आँगनकी उस भूमिमें विचरण करना जानते हैं, जिसपर फूल बिछे होते हैं।’
‘ब्रह्मन्! आजकल तो मेरे भाग्यके उलट-फेरसे ये उसी तरह अत्यन्त कृश और पाण्डु वर्णके हो गये हैं, जैसे पाला पड़नेसे कमल पीला पड़कर गलने लगता है। अपने चारों पुत्रोंमें मेरा सबसे अधिक प्रेम इन श्रीरामपर ही है। अतः मेरे धर्मात्मा ज्येष्ठ पुत्र श्रीरामको आप यहाँसे न ले जायँ। मुने! यदि आपको निशाचर-सेनाका नाश ही अभीष्ट है तो मेरे साथ मेरी चतुरङ्गिणी सेनाको ले चलिये। सुना जाता है कि रावण नामसे प्रसिद्ध एक महापराक्रमी राक्षस है, जो साक्षात् कुबेरका भाई और विश्रवा मुनिका पुत्र है। यदि वही दुर्बुद्धि राक्षस आपके यज्ञमें विघ्न डालता है, तब तो हमलोग उस दुरात्माके साथ युद्ध करनेमें असमर्थ हैं।’
सर्ग 7-8
श्रीवाल्मीकि जी कहते हैं—भरद्वाज! स्नेहवश नेत्रोंमें आँसू भरकर राजाके द्वारा कही गयी इस बातको सुनकर विश्वामित्र कुपित हो उठे और उन भूपालसे इस प्रकार बोले—“राजन्! ‘मैं आपकी माँग पूरी करूँगा’ ऐसी प्रतिज्ञा करके आप उसे तोड़ रहे हैं। इसका मतलब यह हुआ कि आप सिंह होकर अब सियार बनना चाहते हैं। रघुवंशियोंके लिये यह व्यवहार अनुचित है। इससे तो इस कुलकी मर्यादा ही उलट जायगी। शीतरश्मि चन्द्रमासे कभी उष्ण किरणें नहीं प्रकट होतीं (आपसे ऐसे व्यवहारकी कदापि आशा नहीं की जाती थी)। राजन्! यदि आप अपनी प्रतिज्ञाकी पूर्ति करनेमें असमर्थ हैं तो मैं जैसे आया था, उसी तरह लौट जाऊँगा। ककुत्स्थवंशी नरेश! आप अपनी प्रतिज्ञासे भ्रष्ट होकर बन्धु-बान्धवोंके साथ सुखी होइये।”
महामुनि विश्वामित्रको क्रोधसे आक्रान्त जान उत्तम व्रतका पालन करनेवाले धैर्यवान् और बुद्धिमान् वसिष्ठजी बोले—“राजन्! आप इक्ष्वाकुकुलमें साक्षात् दूसरे धर्मके समान उत्पन्न हुए हैं। आप श्रीमान् दशरथ तीनों लोकोंमें सज्जनोचित सद्गुणोंसे विभूषित हैं। धैर्यवान् तथा उत्तम व्रतके पालक हैं। आपको धर्मका त्याग नहीं करना चाहिये। आप धर्म और यशसे सम्पन्न होकर ही तीनों लोकोंमें विख्यात हुए हैं। अपने धर्मको समझिये। उसका परित्याग न कीजिये। ये मुनि तीनों लोकोंका शासन करनेमें समर्थ हैं, आपको इनकी आज्ञाका पालन करना चाहिये। राजन्! ‘करूँगा’ ऐसी प्रतिज्ञा करके यदि आप उसका पालन नहीं करते तो यह मिथ्याभाषण आपके इष्ट और आपूर्त (यज्ञ-यागादि तथा वापी, कूप आदिके निर्माणसे होनेवाले पुण्य)-को हर लेगा। इसलिये श्रीरामको विश्वामित्रजीके हाथमें सौंप दीजिये। आप इक्ष्वाकुवंशमें उत्पन्न हुए हैं और स्वयं विख्यात राजा दशरथ हैं। यदि आप अपने वचनका पालन नहीं करते तो दूसरा कौन करेगा? ये विश्वामित्रजी धर्मके मूर्तिमान् स्वरूप हैं। ये बल और पराक्रमसे सम्पन्न वीरपुरुषोंमें श्रेष्ठ हैं। संसारमें सबसे अधिक बुद्धिमान् हैं तथा तपस्या के परम आश्रय हैं। चराचर प्राणियोंसहित त्रिलोकीमें यह प्रसिद्ध है कि ये विश्वामित्रजी नाना प्रकारके अस्त्रोंको जानते हैं। जिन अस्त्रोंका इन्हें ज्ञान है, उन्हें दूसरा कोई पुरुष न तो जानता है और न भविष्यमें जान सकेगा। देवता, ऋषि, असुर, राक्षस, नाग, यक्ष और गन्धर्व—ये सब एक साथ मिलकर आ जायँ तो भी वे विश्वामित्रमुनिकी समानता नहीं कर सकते। जिन दिनों ये विश्वामित्रजी राज्य करते थे, उन दिनों इन्हें इनकी तपस्यासे संतुष्ट हुए रुद्रदेवने कृशाश्वद्वारा उत्पन्न किये गये अस्त्रोंका दान किया था। वे अस्त्र दूसरोंके लिये अत्यन्त दुर्जय हैं। उन अस्त्रोंके अभिमानी देवता कृशाश्वके पुत्र हैं और संहार करनेमें प्रजापतिके पुत्र रुद्रदेवकी समानता करते हैं। उन कान्तिमान्, महातेजस्वी और बल-विक्रमशाली अस्त्र-देवताओंने सदा इनका अनुसरण किया है (क्योंकि इन्होंने अपनी तपस्याके प्रभावसे उन्हें सदाके लिये वशमें कर लिया है)। ये विश्वविख्यात महातेजस्वी विश्वामित्र ऐसे महान् शक्तिशाली हैं, अतः श्रीरामको इनके साथ भेजनेमें आप अपने हृदयको व्याकुल न होने दें। ये महामुनीश्वर महान् प्रभावशाली हैं। साधु स्वभाववाले नरेश! ये जिस पुरुषके समीप खड़े हों, वह मृत्युके आ जानेपर भी अमरत्वको ही प्राप्त होगा। अतः आप मूढ़ मनुष्यकी भाँति अपने मनमें दीनताको स्थान न दीजिये।”
भरद्वाज! जब वसिष्ठजी ऐसी बातें कहकर समझाने लगे, तब राजा दशरथका चित्त प्रसन्न हो गया और उन्होंने अपने पुत्र श्रीराम तथा लक्ष्मणको बुलानेके लिये द्वारपालको पुकारा—‘प्रतिहार! तुम सत्य-पराक्रमी महाबाहु श्रीराम और लक्ष्मणको विश्वामित्रके पुण्यमय यज्ञकी निर्विघ्न सिद्धिके लिये शीघ्र यहाँ बुला ले आओ।’
महाराजके इस प्रकार आज्ञा देनेपर वह द्वारपाल अन्तःपुरके श्रीराम-मन्दिरमें गया और दो ही घड़ीमें वहाँसे लौटकर उन भूपालसे बोला—‘देव! अपने बाहुबलसे समस्त शत्रुदलका दर्प दलन करनेवाले महाराज! जैसे भ्रमर रातको कमलमें बंद होकर उदास बैठा रहता है, उसी प्रकार श्रीरामचन्द्रजी भी अपने भवनमें अनमने होकर बैठे हुए हैं।’
द्वारपालके यह कहनेपर उसके साथ आये हुए श्रीरामके समस्त सेवकोंको महाराजने आश्वासन दिया और क्रमशः उनका समाचार पूछा—‘राम कैसे हैं? उनकी ऐसी अवस्था कैसे हो गयी है?’ भूपालके इस तरह पूछनेपर श्रीरामके सेवकोंने दुःखी होकर उनसे कहा—“देव! आपके पुत्र श्रीरामका शरीर अत्यन्त कृश हो गया है। उनके खेदसे हमलोग भी इतने खिन्न हो गये हैं कि हमलोगोंका शरीर भी गलकर छड़ीके समान पतला हो गया है और हम किसी तरह इसे ढोये जा रहे हैं। कमलनयन श्रीराम जबसे ब्राह्मणोंके साथ तीर्थयात्रासे लौटकर आये हैं, तभीसे उनका मन बहुत उदास रहता है। जो वस्तु उपयोगमें लानेके योग्य, स्वादिष्ठ, सुन्दर और मनोहर है, उसीसे वे इस तरह खिन्न हो उठते हैं, मानो उनके नेत्रोंमें आँसू भर आये हों। भोजन, शय्या, सवारी, विलास, स्नान, आसन आदि उत्तम कार्य या वस्तुके प्रस्तुत होनेपर भी वे उसका अभिनन्दन नहीं करते (उसकी ओरसे विरक्त हो जाते हैं)। ‘सम्पत्तिसे, विपत्तिसे, घरसे अथवा विभिन्न चेष्टाओंसे क्या होने-जानेवाला है? क्योंकि सब कुछ मिथ्या है।’ यह कहकर वे चुप हो जाते हैं और अकेले बैठे रहते हैं। परिहास होनेपर वे प्रसन्न नहीं होते। भोगोंमें उनकी आसक्ति नहीं है। किसी प्रकारके कार्योंमें उनकी प्रवृत्ति नहीं होती। वे सदा मौनभावका ही अवलम्बन किये रहते हैं। एकान्तमें, विभिन्न दिशाओंमें, नदियोंके तटोंपर, जंगलोंमें तथा गहन वनोंमें उन्हें सुख मिलता है—वहीं उनका मन लगता है। भूपाल! वे पहननेके वस्त्र तथा खाने-पीनेकी वस्तुएँ न लेकर सदा उनकी ओरसे विमुख ही रहते हैं तथा उस विमुखता या विरक्तिके द्वारा संन्यासी या तपस्वीके आचारका अनुसरण करते हैं। जनेश्वर! श्रीरामचन्द्रजी निर्जन स्थानमें अकेले ही रहकर न कभी हँसते हैं, न गाते हैं और न रोते ही हैं। सदा पद्मासन लगाये शून्यचित्त (संकल्परहित) हो केवल बैठे रहते हैं। न किसी बातका अभिमान करते हैं न राजा होनेकी अभिलाषा रखते हैं, न सुख प्राप्त होनेपर प्रसन्न होते हैं और न दुःख मिलनेपर विषाद ही करते हैं। हम नहीं समझ पाते कि वे कहाँ जाते हैं, क्या करते हैं, क्या चाहते हैं, किसका ध्यान करते हैं, कहाँ आते हैं और किस तरह किसका अनुसरण करते हैं? वे प्रतिदिन दुबले हो रहे हैं। रोज-रोज पीले पड़ते चले जा रहे हैं और नित्यप्रति उनका वैराग्य बढ़ता ही जाता है। राजन्! सदा श्रीरामचन्द्रजीका अनुसरण करनेवाले ये शत्रुघ्न और लक्ष्मणजी भी उन्हींके समान दुर्बल होते जा रहे हैं। श्रीराम अपने पास रहनेवाले सुहृज्जनों—मित्रोंको यह उपदेश देते हैं कि ‘ये भोग ऊपर-ऊपरसे मनोरम दिखायी देते हैं, वास्तवमें नश्वर हैं। अतः इनमें तुमलोग अपना मन न लगाओ। हमलोगोंने आयासरहित परम पदकी प्राप्तिसे दूर हटानेवाली चेष्टाओंद्वारा ही अपनी सारी आयु व्यर्थ बिता दी।’ इस प्रकार मधुर और स्फुट वाणीद्वारा वे बारम्बार गुनगुनाते रहते हैं। यदि पास बैठा हुआ कोई सेवक उनका अभिनन्दन करते हुए यह कहे कि ‘आप सम्राट् हों’ तो वे उसके इस कथनको उन्मत्त प्रलाप-सा समझकर अन्यमनस्क हो हँसने लगते हैं तथा सदा मुनिवृत्तिसे रहते हैं। न तो किसीकी कही हुई बातको सुनते हैं और न सामने पड़ी हुई वस्तुकी ओर दृष्टिपात ही करते हैं। सुन्दर-से-सुन्दर वस्तु प्राप्त होनेपर भी सर्वत्र उसकी अवहेलना ही करते हैं। जैसे मेघद्वारा बरसाये गये जलकी धाराएँ किसी बड़े भारी दुर्भेद्य पत्थरका भेदन नहीं कर सकतीं, उसी प्रकार कामदेवके बाण कान्तिमती वनिताओंके बीचमें रहते हुए भी श्रीरामचन्द्रजीके मनका भेदन नहीं कर पाते। ‘धन आपत्तियोंका एकमात्र स्थान है। तू इसकी इच्छा क्यों करता है?’ श्रीरामचन्द्रजी सबको ऐसी ही शिक्षा देते हैं और अपना सारा धन उसकी इच्छा रखनेवाले दीन याचकोंको बाँट देते हैं। ‘यह आपत्ति है, यह सम्पत्ति है—इस प्रकारकी कल्पनाओंके रूपमें केवल मनका मोह (अज्ञान) ही प्रकट होता है।’ इस तरहके श्लोकोंका वे सदा गान किया करते हैं।
‘हाय! मैं मारा गया, मैं अनाथ हो गया—इस प्रकार सब लोग चीखते-चिल्लाते रहते हैं तो भी किसीको इस संसारसे वैराग्य नहीं होता—यह कितने आश्चर्यकी बात है!’ श्रीराम प्रायः ऐसी ही बातें कहा करते हैं।”
सर्ग 9-10
तब विश्वामित्रजीने कहा—परम बुद्धिमान् सत्पुरुषो! यदि ऐसी बात है तो जैसे मृगोंका झुंड अपने यूथपतिको ले आता है, उसी प्रकार आपलोग भी रघुकुलनन्दन श्रीरामको शीघ्र यहाँ बुला लाइये। श्रीरामचन्द्रजीको यह मोह न तो किसी आपत्तिसे हुआ है और न आसक्तिसे ही। वे विवेक और वैराग्यसे सम्पन्न हैं अतः उन्हें मोह नहीं, बोध ही प्राप्त हुआ है, जो महान् अभ्युदयकारक है। इस विचारमूलक मोहका युक्तिद्वारा निवारण कर देनेपर रघुकुलनन्दन श्रीराम हमलोगोंकी ही भाँति परम पदमें प्रतिष्ठित हो जायँगे। हमारे उपदेशसे वास्तविक बोधका उदय हो जानेपर श्रीरामचन्द्रजी अमृत पीये हुए पुरुषकी भाँति सत्यता१ (त्रिकालाबाधित ब्रह्मरूपता), मुदिता२ (परमानन्दस्वरूपता), प्रज्ञा३ (अपरिच्छिन्न ज्ञानरूपता)-को प्राप्त होकर विश्रान्ति-सुखसे सुखसे सम्पन्न, संतापशून्य, शरीरसे हृष्ट-पुष्ट और उत्तम कान्तिसे युक्त हो जायँगे। फिर तो मनमें अपनी पूर्णताका अनुभव करते हुए माननीय श्रीरामचन्द्रजी अपने वर्ण और आश्रमके अनुसार प्राप्त होनेवाली व्यवहार-परम्पराका निर्बाधरूपसे पालन करने लगेंगे। वे महान् सत्त्वगुणसे युक्त तथा लोकव्यापी निर्गुण-सगुणरूप परब्रह्म परमात्माके ज्ञानसे सम्पन्न हो जायँगे। उन्हें सुख-दुःखकी दशाएँ नहीं प्राप्त होंगी। वे मिट्टीके ढेले, पत्थर और सुवर्णमें कोई अन्तर नहीं देखेंगे—इन सबको समान समझने लगेंगे।
मुनीश्वर विश्वामित्रके यों कहनेपर राजा दशरथ बड़े प्रसन्न हुए, मानो उनका सारा मनोरथ पूर्ण हो गया। उन्होंने श्रीरामचन्द्रजीको बुला लानेके लिये बारम्बार दूत-पर-दूत भेजना आरम्भ किया। जब राजा और मुनिका संवाद हो रहा था, उसी समय श्रीरामचन्द्रजी अपने थोड़े-से सेवकों और दोनों भाई लक्ष्मण तथा शत्रुघ्नके साथ अपने पिताके पवित्र स्थान—राजसभामें गये। श्रीरामने दूरसे ही महाराज दशरथको देखा। जैसे इन्द्र देवसमूहसे घिरकर बैठते हैं, उसी प्रकार वे भी राजाओंकी मण्डलीसे घिरे हुए बैठे थे। उनके दोनों ओर महर्षि वसिष्ठ और विश्वामित्रजी विराजमान थे। सम्पूर्ण शास्त्रोंके अर्थका ज्ञान रखनेवाले मन्त्रीगण मालाकी भाँति उन्हें सब ओरसे घेरकर बैठे थे। इधर वसिष्ठ, विश्वामित्र आदि ऋषियों तथा दशरथ आदि राजाओंने भी कुमार कार्तिकेयके समान सुन्दर श्रीरामचन्द्रजीको दूरसे ही अपने पास आते देखा। वे सौम्य और समदर्शी थे। उनकी आकृति मङ्गलमयी थी। उनका हृदय विनीतभावसे युक्त और उदार था। शरीर कान्तिमान् और शान्त (सौम्य) दिखायी देता तथा वे परम पुरुषार्थके भाजन (परमार्थस्वरूप) थे। पवित्र गुणवाले पुरुषोंके आश्रय थे। समस्त सद्गुणोंने मानो एकमात्र महान् सत्त्वगुणके लोभसे उनका आश्रय ले रखा था।