सूर्य गीता
गौरनाद्यन्तवती सा जनित्री भूतभाविनी ।
सितासिता च रक्ता च सर्वकामदुधा विभोः ॥ ५॥ मान्त्रिकोपनिषत्
दानं स्वधर्मो नियमो यमश्च
श्रुतं च कर्माणि च सद्व्रतानि ।
सर्वे मनोनिग्रहलक्षणान्ता:
परो हि योगो मनस: समाधि: ॥ ११.२३ ४५ ॥ श्रीमद्भागवतपुराणम्
कर्माणि चित्तशुद्ध्यर्थं ऐकाग्र्यार्थमुपासना।
मोक्षार्थं ब्रह्मविज्ञानं इति वेदान्तडिण्डिमः।। २६।। वेदान्तडिण्डिमः
कर्मणा जायते भक्तिर्भक्त्या ज्ञानं प्रजायते ।
ज्ञानात्प्रजायते मुक्ति: इति शास्त्रेषु निश्चयः ।। (शिवपुराण -५. ५१.१०)
निष्काम भाव से अनुष्ठित स्वकर्मानुष्ठान के अमोघ प्रभाव से भगवद्भक्ति सुलभ होती है । भक्तिसे तत्त्वज्ञान समुत्पन्न होता है । ज्ञानसे मुक्ति सुलभ होती है । यह शास्त्रसम्मत सुनिश्चित सिद्धान्त है ।।
जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुह्रद परिवारा।।
सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी।।
अति दानाद् बलिर्बद्धः अति मानात् सुयोधनः ।
विनष्टो रावणो लौल्यात् अति सर्वत्र वर्जयेत् ॥
अतिरूपेण वै सीता अतिगर्वेणः रावणः ।
अतिदानाब्दलिर्बध्दो ह्यति सर्वत्र वर्जयेत् ।।१२।।
अत्यधिक दानशील होने के कारण दैत्यराज बलि ने स्वयं को बन्दी बनने दिया था और अत्यधिक अभिमानी होने के कारण कौरव सम्राट दुर्योधन तथा लोल्यता (अस्थिर मन तथा गर्व) के कारण राक्षसराज महाबली रावण का भी नाश हो गया | अतः किसी भी प्रवृत्ति या परिस्थिति का एक सर्वमान्य सीमा से अधिक होने से बचना चाहिये |
विश्वं दर्पणदृश्यमाननगरीतुल्यं निजान्तर्गतम्, पश्यन्नात्मनि माययाबहिरिवोद्भूतं यथा निद्रया।
यः साक्षात्कुरुते प्रबोधसमये स्वात्मानमेवाद्वयम्, तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥१॥
यह विश्व दर्पण में दिखाई देने वाली नगरी के समान है (अर्थात् अवास्तविक है), स्वयं के भीतर है, मायावश आत्मा ही बाहर प्रकट हुआ सा दिखता है जैसे नींद में अपने अन्दर देखा गया स्वप्न बाहर उत्पन्न हुआ सा दिखाई देता है।जो आत्म-साक्षात्कार के समय यह ज्ञान देते हैं कि आत्मा एक (बिना दूसरे के) है उन श्रीगुरुरूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥१॥
किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटिशतैरपि। दुर्लभा चित्तविश्रान्तिः विना गुरुकृपां पराम्॥१२८॥ स्कंदपुराणे उत्तरखंडे गुरुगीता
बहुत कहने से क्या ? करोडों शास्त्रों से भी क्या ? चित्त की परम् शांति, गुरु कृपा के बिना मिलना दुर्लभ है ।
ध्यानिकं सर्वं एवैतद्यदेतदभिशब्दितम् । न ह्यनध्यात्मवित्कश्चित्क्रियाफलं उपाश्नुते । । ६.८२ । । मनुस्मृतिः/षष्ठोध्यायः
यहां जो कुछ भी उजागर होता है वह दिव्य सार के ध्यान से प्राप्त होता है; क्योंकि कोई भी व्यक्ति जो (अध्यात्म ज्ञान में पारंगत नहीं है) यानी कि इन्द्रियां ,मन,बुद्धि और आत्मा कैसे एकदूसरे से संबद्ध हैं और परमात्मा के ज्ञान में परिनिष्ठित नहीं है, वह उसके प्रयासों का फल नहीं पा सकता है।
|| प्रकाशकीय वक्तव्य ||
आदि देव नमस्तुभ्यं प्रसीद मम भास्कर । दिवाकर नमस्तुभ्यं प्रभाकर नमोऽस्तु ते ||
रविर्विनायकश्चण्डी ईशो विष्णुस्तथैव च । अनुक्रमेण पूज्यन्ते व्युत्क्रमे तु महद्भयम् ॥
श्री सूर्य गीता नामक इस ग्रंथ का प्रणयन महर्षि वशिष्ठ ने किया था | इस सूर्य गीता नामक महा शास्त्र को समस्त वेदान्त दर्शन के गुह्यतम रहस्यों के विशदीकरण में सक्षम माना गया है | संस्कृत भाषा में तत्वसारायण नामक महर्षि वशिष्ठ प्रणीत एक महाग्रंथ है | यह सूर्य गीता उसी के अन्तर्गत है | इसमें सर्वप्रथम तो भगवान श्रीगुरु मूर्ति (दक्षिणामूर्ति) और ब्रह्मा जी का संवाद है और बाद में भगवान सूर्यनारायण और उनके सारथी अरुण का संवाद है | सनातन धर्म में पंचदेव पूजा का प्राधान्य है | करि मज्जनु पूजहिं नर नारी। गनप गौरी त्रिपुरारि तमारी॥ रमा रमन पद बंदि बहोरी। बिनवहिं अंजुलि अंचल जोरी॥ उन पञ्च देवताओं में सूर्य ही प्रत्यक्ष देव हैं | आशा है कि यह भाषा टीका सर्व साधारण को उपयोगी होगी , यदि इसमें कोई त्रुटि रह गई हो तो विद्वज्जन क्षमा करेंगे और ज्ञानपिपासू गण इसका समुचित आदर करेंगे |
नटवत् कारणं ब्रह्म मायया शंकरोब्रवीत् | जीवाज्ञान निमित्तं तद्वभाषे भामतीपतिः ||
सूर्यगीता समाख्याता सारासार विनिर्णये | तत्व प्रबोधिनी नाम्नी हिन्दी व्याख्या मया कृता ||
श्री सूर्यस्य प्रसादेन यत्किञ्चित् प्रोच्यते मया | गुणस्संगृह्यतां तस्माद् गुण दोष विवेकिभिः ||
ॐ आदित्याय विद्महे दिवाकराय धीमहि तन्नो: सूर्य: प्रचोदयात।
श्रीगुरुपदानुरक्त – स्वामी निर्दोष
प्रस्तावना :-
कश्यपात्मज ,अदिति नंदन भगवान भास्कर श्रौत,स्मार्त परम्परा में पंचदेवों में से एक हैं | ये गुरुमूर्ति स्वरूप भगवानसूर्य ही अरुण ,वैवस्वतमनु ,हनुमान तथा योगी याज्ञवल्क्य के गुरु तथा शुक्ल यजुर्वेद के प्रवर्तक हैं | सनातन धर्म के नित्यकर्मों में सर्वप्रथम सन्ध्योपासना {सूर्योपासना} ही की जाती है तथा अन्य धार्मिक कृत्य भी पूर्व अर्थात सूर्योदय की दिशा में मुख करके भगवान सूर्य को साक्षी मानकर ही किये जाते हैं | वेदों में उदित होते हुए सूर्य की किरणों का बहुत महत्व बताया गया है | उद्यन्त्सूर्यो नुदतां मृत्युपाशान्। -अथर्ववेद १७ /१ /३० अर्थात् उदित होता हुआ सूर्य मृत्यु के सभी कारणों अर्थात सभी रोगों को नष्ट करता है। सूर्य की किरणें मनुष्य को मृत्यु से बचाती हैं | अर्थात मृत्यु के बंधनों को यदि तोड़ना है, तो सूर्य के प्रकाश से अपना संपर्क बनाए रखें |
सूर्यस्त्वाधिपतिर्मृत्योरुदायच्छतु रश्मिभिः ॥१५॥ – अथर्ववेद -काण्ड ५ सूक्त ३० ||
उत्क्रामातः पुरुष माव पत्था मृत्योः पड्वीषमवमुञ्चमानः । मा छित्था अस्माल्लोकादग्नेः सूर्यस्य संदृशः ॥४॥ – अथर्ववेद -काण्ड ८ सूक्त १ ||
अर्थात सूर्य के प्रकाश में रहना अमृत के लोक में रहने के तुल्य है। चूंकि भगवान सूर्य परमात्मा नारायण के साक्षात् प्रतीक हैं, इसलिए वे सूर्यनारायण कहलाते हैं। सूर्य ही ब्रह्मा का आदित्य रूप हैं। ये ही जगत के एकमात्र नेत्र (प्रकाशक) हैं, समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का कारण और पालनहार हैं। प्रत्यक्ष देवता हैं, जिनका अवतरण ही संसार के कल्याण के लिए हुआ है | सूर्य ही एक ऐसे देव हैं, जिनकी उपासना से हमें प्रत्यक्ष फल प्राप्त होता है, मनोकामनाएं पूरी होती हैं। वेदों में ओजस्, तेजस् एवं ब्रह्मवर्चस की प्राप्ति के लिए सूर्य की उपासना करने का विधान है। सूर्य मानव मात्र के समस्त शुभ और अशुभ कर्मों के साक्षी हैं। उनसे हमारा कोई भी कार्य या व्यवहार छिपा नहीं रह सकता, क्योंकि सूर्य विश्व चक्षु जो है |
सूर्य उपनिषद के अनुसार समस्त देव, गंधर्व एवं ऋषि भी सूर्य रश्मियों (किरणों) में निवास करते हैं। अतः सूर्य की किरणों और उनके प्रभावों की प्राप्ति के लिए ही प्रत्येक शुभ कार्यों व संस्कारों को करते समय पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठने की परंपरा हमारे वेदों के निर्देशों पर की गई है, ताकि धार्मिक व्यक्ति इसका अधिक-से-अधिक लाभ उठा सकें। उल्लेखनीय है कि इस समय की किरणों में अवरक्त (infrared) किरणें होती हैं, जिनमें रोगों को नष्ट करने की विशेष क्षमता होती है। सूर्य की सात अलग-अलग रंगों की किरणों से सात प्रकार की ऊर्जा भी प्राप्त होती है।
१. प्रज्ञा शक्ति २. प्राणशक्ति ३. ज्ञानशक्ति ४. क्रियाशक्ति ५. इच्छाशक्ति ६. जातिस्मरत्वशक्ति ७. मेधाशक्ति | इस ऊर्जा के कारण सभी धार्मिक अनुष्ठान सफल होते हैं। सूर्य की अवरक्त किरणें सीधे छाती पर पड़ती रहें, तो उनके प्रभाव से व्यक्ति सदा निरोग रहता है। इसलिए प्रातः सूर्योदय के समय पूर्व की ओर मुख करके सूर्य नमस्कार, सूर्य उपासना, संध्योपासना, पूजा-पाठ, हवन आदि शुभ कार्य करना बहुत लाभदायक है | सूर्यदेव की उपासना करने के लिए कुछ प्रधान मन्त्र इस प्रकार से हैं —
ॐ जपाकुसुम संकाशं काश्यपेयं महाद्युतिम् | तमोरिं सर्वपापघ्नं प्रणतोस्मि दिवाकरम् ||
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं स: सूर्याय नम:।।
ॐ ह्रीं घृणिः सूर्य आदित्य श्रीं ॐ ।
ॐ ह्रीं घृणिः सूर्य आदित्यः क्लीं ॐ ।
ॐ आदित्याय विद्महे मार्तण्डाय धीमहि तन्नो सूर्य: प्रचोदयात्।
ॐ आदित्याय विद्महे प्रभाकराय धीमहि तन्नो सूर्य प्रचोदयात् |
ॐ आदित्याय विद्महे सहस्र किरणाय धीमहि तन्नो सूर्य: प्रचोदयात् ।।
ॐ सप्ततुरंगाय विद्महे सहस्रकिरणाय धीमहि तन्नो रवि: प्रचोदयात् ।
एहि सूर्य सहस्रांशो तेजोराशे जगत्पते। अनुकम्पय मां भक्त्या गृहणार्घ्यं दिवाकर।।
यो देवः सवितास्माकं धियो धर्मादिगोचरः। प्रेरयेत् तस्य यद् भर्गः तं वरेण्यमुपास्महे।।
ह्रीं यो देवः सवितास्माकं मनः प्राणेन्द्रियक्रियाः ॥ प्रचोदयति तद्भर्गः वरेण्यं समुपास्महे ॥
ॐ श्री सूर्याय नमः ||
इन मन्त्रों में से किसी एक मन्त्र का गुरु के आदेशानुसार जप (अनुष्ठान) आदि करना चाहिये | प्रणाम करने के लिए कोई भी मन्त्र ले सकते हैं |
स्वामी निर्दोष
विषय सूची
प्रथमोऽध्यायः
द्वितीयोध्यायः
तृतीयोध्यायः
चतुर्थोध्यायः
पञ्चमोध्यायः
श्री सूर्यदेव चालीसा
श्री सूर्यदेव की आरती
नाम त्रय मन्त्र विधान
श्री सूर्यगीता मूलपाठ
अथर्ववेदीय सूर्य उपनिषद
संक्षिप्त रुद्राभिषेक विधि
सनातन धर्मावलंबियों के लिये सामान्य ज्ञान
दयानंदी आधुनिक मतमर्दन
|| आदित्यहृदयम् ||
|| सूर्य उपस्थानम् ||
|| श्री सूर्य गीता ||
॥ श्री गणेशाय नमः ॥
॥ॐ नमो भगवते भुवन भास्कराय॥
॥ अथ सूर्यगीता प्रारभ्यते ॥
|| अथ प्रथमोऽध्यायः ||
ब्रह्मा उवाच
प्रपंचसृष्टिकर्मेदं मम श्रीगुरुनायक। अहार्यं द्विपरार्धान्तमाधिकारिकतावशात् ॥१.१॥
ब्रह्मा जी ने कहा — हे श्री गुरुनायक ! ( श्री दक्षिणामूर्ति भगवान ) इस दुनिया को बनाने का यह कार्य , जो मेरा (अहार्य) अत्याज्य , अटल कर्तव्य है , क्योंकि मुझे इस कार्य को करने लिये आधिकारिक पुरुष के रूप में नियुक्त किया गया है | और यह मेरे जीवन काल के दो परार्ध पर्यन्त दीर्घ काल तक चलता रहता है | ॥ १ ॥
इति त्वद्वदनाम्भोजात्सम्यग्विदितवानहम्। तथाप्यत्र न मे चिन्ता जायते त्वत्कृपाबलात् ॥१.२॥
आधिकारिक पुरुषों का शरीर परिवर्तन नहीं होता यह भी मैंने आपके श्रीमुख से भली प्रकार से जाना लिया है , फिर भी आपकी अनुकम्पा के बल से मेरे मन में इससे संबंधित कोई चिंता या संदेह नहीं है | ॥ २ ॥
त्वयि प्रसन्ने मय्येवं बोधानन्दस्वरूपतः। पुनर्जन्मभयाभावाद्धीर एवास्मि वृत्तिषु ॥१.३॥
आपके कृपा प्रसाद से ही मैंने अपने चिदानंद स्वरूप को पहचाना है , {मैं ज्ञान स्वरूप हूँ और ज्ञान के सिवाय दूसरा कोई आनन्द नहीं है (जैसे मूर्छित व्यक्ति को कोई आनन्द नहीं मिलता है) तथाज्ञान का नाश भी कभी नहीं होता है } जिससे मुझे पुनर्जन्म का भी भय नहीं है | और मैं अपने कर्तव्य के बारे में आश्वस्त हूँ तथा वृत्तियों के परिवर्तन में मैं धैर्यपूर्वक रह सकता हूँ | ॥ ३ ॥
तथापि कर्मभागेषु श्रोतव्यमवशिष्यते। तत्सर्वं च विदित्वैव सर्वज्ञः स्यामहं प्रभो ॥१.४॥
हे प्रभो ! फिर भी मुझे कर्मों का विभाग जानना, सुनना बाकी है , जैसे कि विहितकर्म , निषिद्ध कर्म , नित्यकर्म ,(नियमेन भवं नित्यं , जो रोज – रोज नियमसे करना पड़े वह नित्यकर्म है) नैमित्तिककर्म , प्रायश्चित्तकर्म , काम्यकर्म , सञ्चितकर्म , क्रियमाणकर्म , प्रारब्ध कर्म , इष्टकर्म , पूर्तकर्म , दान , पुण्य ,यज्ञ आदि कर्म उसके बिना मेरा ज्ञान पूर्ण नहीं हो सकता | कर्म विभाग को जानकर ही मैं सर्वज्ञ हो सकूँगा | ॥ ४ ॥
जगज्जीवेश्वरादीनां प्रागुत्पत्तेर्निरंजनम्। निर्विशेषमकर्मैकं ब्रह्मैवासीत्तदद्वयम् ॥१.५॥
जगत , जीव और ईश्वर आदि की उत्पत्ति से पूर्व केवल एक निरंजन (बेदाग, माया से रहित) अखण्ड , अद्वय (माया से असंश्लिष्ट) , निर्विशेष , अकर्ता , अद्वय ब्रह्म ही था। जिसको ओंकार का चतुर्थ पाद कहा जाता है।
‘‘नान्तःप्रज्ञं न बहिष्प्रज्ञं नोभयतःप्रज्ञं न प्रज्ञानघनं न प्रज्ञं नाप्रज्ञम्।अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः ॥ ७ ॥ माण्डुक्योपनिषद् ’’
वह न अन्तःप्रज्ञ है न बहिष्प्रज्ञ है, न उभय-प्रज्ञ अर्थात् अन्तः एवं बहिष्प्रज्ञ एक साथ है, न वह प्रज्ञान-घन है, न प्रज्ञ (ज्ञाता) है, न अप्रज्ञ (अज्ञाता) है। वह जो अदृष्ट है, अव्यवहार्य है, अग्राह्य है, अलक्षण है, अचिन्त्य है, अव्यपदेश्य अर्थात् अनिर्देश्य है, ‘आत्मा’ के ऐकान्तिक अस्तित्व का बोध ही जिसका सार है, ‘जिसमें’ समस्त प्रपञ्चात्मक जगत् का विलय हो जाता है, जो ‘पूर्ण शान्त’ है, जो ‘शिवम्’ है-मंगलकारी है, और जो ‘अद्वैत’ है, ‘उसे’ ही चतुर्थ (पाद) माना जाता है; ‘वही’ है ‘आत्मा’, एकमात्र ‘वही’ ‘विज्ञेय’ (जानने योग्य तत्त्व) है। ॥ ५ ॥
तस्य जीवेशस्रष्टृत्वं प्रोच्यते वेदवादिभिः। अकर्मणः कथं सृष्टिकर्म कर्तृत्व मुच्यते ॥१.६॥
उस परब्रह्म के बारे में वेदों को जानने वाले विद्वान कहते हैं कि उसी परब्रह्म ने जीव और जगत की रचना की (जन्माद्यस्य यतः ब्र.सूत्र १.१.२) ‘‘जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् ।’’ तथा ‘‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते ।’’ और यह भी कहते हैं कि ‘‘निष्कलं निष्क्रियं शान्तं निरवद्यं निरञ्जनम् |’’ ‘‘न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।’’ तो मेरी समझ यह नहीं आता कि जिसको निर्विशेष,निष्क्रिय और अकर्ता कहा जाता है वह परब्रह्म सृष्टि का कर्ता कैसे हो गया ?॥६॥
सकर्मा सेन्द्रियो लोके दृश्यते न निरिन्द्रियः। ब्रह्मणोऽतीन्द्रियत्वं च सर्वशास्त्रेषु घुष्यते ॥१.७॥
इस दुनिया की गतिविधियों में लगे हुए लोगों को इन्द्रियों के सहित ही देखा जाता है वे इन्द्रियों से रहित नहीं होते हैं | लेकिन शास्त्रों में ब्रह्म को अतीन्द्रिय (निरीन्द्रिय) बताया गया है | तो फिर इन्द्रियों की सहायताके बिना उसने जगत रचना का कार्य सम्पन्न कैसे किया ?
‘‘न तस्य कार्यं करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते।
परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया || ८ || श्वेताश्वतरोपनिषद्षष्ठोऽध्यायः’’
उस ‘देव’ का करणीय कर्म कुछ है ही नहीं, न ही उसके कर्म का कोई करण (साधनभूत अंग) है, न ही कोई ‘उससे’ बढ़कर है न ही हमें ‘उसके’ समान कोई दिखायी पड़ता है-क्योंकि ‘उसकी’ शक्ति अन्य सबसे बहुत अधिक बढ़कर, सबसे परे है, मनुष्य केवल विविध नामों तथा विविध रूपों में उसका वर्णन सुनते हैं। वस्तुतः ‘उसका’ बल, ‘उसकी’ क्रियाएँ तथा ‘उसका’ ज्ञान स्वभावतः आत्म-समर्थ तथा स्वयं ही स्वयं का कारण हैं।
‘‘न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनो न विद्मो न विजानीमो यथैतदनुशिष्यात्। अन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि। इति शुश्रुम पूर्वेषां ये नस्तद्व्याचचक्षिरे || १.३ || केनोपनिषद्’’
वहाँ न चक्षु जा सकता है, न वाणी, न ही मन। हम न ‘उसे’ जानते हैं न यह जान पाते हैं कि ‘उसकी’ शिक्षा कैसे दी जाये; क्योंकि ‘वह’ विदित से अन्य है; तथा अविदित से भी परे है; ‘वह’ ऐसा है यह हमने उन पूर्वजों से सुना है जिन्होंने उस ‘परतत्त्व’ की हमारे बोध के लिए व्याख्या की है।
‘‘यतो वाचो निवर्तन्ते। अप्राप्य मनसा सह। आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान्। न बिभेति कुतश्चनेति। एतं ह वाव न तपति। किमहं साधु नाकरवम्। किमहं पापमकरवमिति।स य एवं विद्वानेते आत्मानं स्पृणुते। उभे ह्येवैष एते आत्मानं स्पृणुते। य एवं वेद। इत्युपनिषत् || १ || तैत्तिरीयोपनिषद् ब्रह्मानन्दवल्ली नवमोऽनुवाकः’’
‘ब्रह्म’ का वह आनन्द जहाँ से कुछ भी प्राप्त किए बिना वाणी वापिस लौट आती है तथा मन भी जहाँ पहुँच कर विस्मय से चकित होकर लौट आता है, ‘ब्रह्म’ के उस आनन्द को कौन जानता है? वह जो उसे जानता है वह चाहे इस जगत् में, चाहे अन्यत्र, कहीं भी, भयभीत नहीं होता। वास्तव में उसको कोई सन्ताप (दुःख) नहीं होता तथा ये पीड़ापूर्ण भाव उसके मन में नहीं आते-”मैंने सत्कर्म को करना क्यों छोड़ दिया तथा मैंने उस पापकर्म का आचरण क्यों किया? क्योंकि जो ‘नित्यब्रह्म’ को जानता है वह इन्हें जानता है, वह यह जानता है कि ये सभी उसके ‘आत्मतत्त्व’ के समान ही हैं; हाँ,वह जानता है कि ये शुभ एवं अशुभ दोनों क्या हैं तथा ‘ब्रह्म’ को ऐसा जानते हुए वह आत्मा को मुक्त करता है। और यही है उपनिषद्, यही है वेद का रहस्य | ॥७॥
नश्यमानतयोत्पत्तिमत्वादाद्यस्य कर्मणः। न मुख्यमवकल्पेताप्यनादित्वोपवर्णनम् ॥१.८॥
जो अनादि होता है वह अनन्त भी होता है और जो उत्पन्न होता वह नष्ट भी होता है तो फिर उस अनादि और अविनाशी जगत्कर्ता से विनाशी जगत कैसे उत्पन्न हुआ ? क्योंकि कार्य अपने कारण से भिन्न नहीं होता है | यदि कार्य विघटन के अधीन है तो कारण अनादि कैसे हो सकता है ? || ८ ||
ब्रह्म चेत्कर्म कुर्वीत येनकेनापि हेतुना। तथा च संसृतिस्तस्य प्रसज्येत तु नात्मनः ॥१.९॥
यह कहा जाता है कि आत्मा (ब्रह्म) कर्ता नहीं है , यदि ब्रह्म किसी भी कारण से कर्म करता है तो वह कर्मफल से मुक्त नहीं हो सकता अर्थात उसका संसारित्व निवृत्त नहीं होगा | क्योंकि ‘‘कर्तृत्व भोक्तृत्व लक्षणं संसारः’’ जैसा करना वैसा भोगना यही तो संसार है | ॥९॥
तस्मादाद्यस्य पुण्यस्य पापस्य च दयानिधे। कर्मणो ब्रूहि मे स्पष्टमुपपत्तिं गुरूत्तम ॥१.१०॥
इसलिए हे दया के सागर ! हे श्रेष्ठ आचार्य ! मुझे स्पष्ट रूप से प्रधान कर्ता (आद्यकर्ता,प्रथम कर्ता) के बारे में बताएं तथा पाप कर्म और पुण्य कर्म के बारे में भी बताएं | || १.१० ||
इत्युक्तो विधिना देवो दक्षिणामूर्तिरीश्वरः। विचित्रप्रश्नसन्तुष्ट इदं बचनमब्रवीत् ॥१.११॥
इस प्रकार ब्रह्मा जी के पूछने पर भगवान दक्षिणामूर्ति ने विभिन्न प्रकार के विचित्र प्रश्नों से संतुष्ट होकर ये वचन कहे। ||११||
श्रीगुरु मूर्तिरुवाच
ब्रह्मन्साधुरयं प्रश्नस्तव प्रश्नविदां वर। शृणुश्व सावधानेन चेतसास्योत्तरं मम ॥१.१२॥
भगवान् दक्षिणामूर्ति बोले , हे जिज्ञासुओं में श्रेष्ठ ब्रह्मन् ! तुम्हारा यह प्रश्न उत्तम है | अब तुम मेरे द्वारा दिये गए उत्तर को सावधान चित्त होकर ध्यान से सुनो। ||१२||
प्रागुत्पत्तेरकर्मैकमकर्तृ च निरिन्द्रियम्। निर्विशेषं परं ब्रह्मैवासीन्नात्रास्ति संशयः॥१.१३॥
सृष्टि के पहले केवल कर्महीन , सभी इन्द्रियों से रहित , अकर्ता , निर्विशेष सर्वोच्च ब्रह्म का ही अस्तित्व था। इसके बारे में कोई संदेह नहीं है।
‘‘न तस्य कश्चित्पतिरस्ति लोके न चेशिता नैव च तस्य लिङ्गम्।
स कारणं करणाधिपाधिपो न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिपः ||६.९ || श्वेताश्वतरोपनिषद्’’
इस लोक में ‘उसका’ कोई स्वामी नहीं है, न ही कोई ‘उसके’ ऊपर शासनकर्ता है। न हीं ‘उसका’ कोई रूप है न कोई लिंग है; क्योंकि ‘वह’ स्वयं ही उत्पत्ति का कारण तथा प्रकृतिगत करणों (साधनों) के अधिपतियों का भी अधिपति’ है, किन्तु न कोई उसका जनक (उत्पत्तिकर्ता) है न ही कोई ‘उसका’ अधिपति-स्वामी है। ||१३||
तथापि तस्य चिच्छक्तिसंयुतत्वेन हेतुना। प्रतिच्छायात्मिके शक्ती मायाविद्ये बभूवुतुः ॥१.१४॥
फिर भी चेतना की शक्ति से संपन्न होने के कारण उस चिच्छक्ति के सहयोग से उस ब्रह्म की माया और अविद्या नाम वाली दो शक्तियां प्रतिबिंब के रूप में अस्तित्व आईं |
‘‘मायाविद्ये विहायैवमुपाधी परजीवयोः ।
अखण्डं सच्चिदानन्दं परं ब्रह्मैव लक्ष्यते ॥ ४८॥ पञ्चदशी/प्रथमप्रकरणम्’’ ,
इन जीव एवं ईश्वर के माया और अविद्यारूप उपाधियों के त्याग कर देने पर अखंड सच्चिदानन्द स्वरूप ब्रह्म ही लक्षित होता है | अवशिष्ट रहता है। || १४ ||
अद्वितीयमपि ब्रह्म तयोर्यत्प्रतिबिम्बितम्। तेन द्वैविध्यमासाद्य जीव ईश्वर इत्यपि ॥१.१५॥
चेतन का कभी भी नाश नहीं होता और वह सर्वत्र एक ही है इसलिये उसे अद्वितीय कहते हैं। पदार्थ और चेतन की विभाजक रेखा को आजतक कोई भी स्पष्ट नहीं कर पाया अन्यथा अन्न से मन का निर्माण कैसे होता ? और बैसे ही न दिखाई देने वाले मन से बड़े -बड़े मकान , बड़े-बड़े पुल , हवाईजहाज इत्यादि कैसे बन जाते ? यद्यपि ब्रह्म अद्वितीय है तथापि माया और अविद्या में प्रतिबिंबित होने के कारण उसे दो रूप प्राप्त हुए – एक जीव और दूसरा ईश्वर | माया में प्रतिबिंबित चेतन ईश्वर संज्ञक हुआ और अविद्या में प्रतिबिंबित चेतन जीव नाम वाला हुआ |
‘‘अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके।।८.१८।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
(ब्रह्माजी के) दिन का उदय होने पर अव्यक्त से (यह) व्यक्त (चराचर जगत्) उत्पन्न होता है; और (ब्रह्माजी की) रात्रि के आगमन पर उसी अव्यक्त में लीन हो जाता है।
‘‘एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म {छान्दोग्य ६.२.१}’’ सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ” {तैत्तिरीय २.१.१}
ब्रह्म ही एक मात्र सत्ता है। उसके अतिरिक्त कोई अन्य दूसरी सत्ता नहीं है। सत् तथा असत् इसी के रूप हैं। यह सत् और असत् दोनों से परे भी है। इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। तीनों काल में जो कुछ है और तीनों काल से परे जो कुछ है वह वास्तव में एकमात्र वही ब्रह्म है। ब्रह्माण्ड में जो कुछ है लघु या विशाल, उदात्त अथवा हेय वह केवल ब्रह्म है, केवल ब्रह्म । विश्व भी ब्रह्म है । यह सत्य है, मिथ्या नहीं।
दिक्कालाद्यनवच्छिन्नानंतचिन्मात्रमूर्तये।
स्वनुभूत्येकमानायनम: शान्ताय तेजसे ||१|| भर्तृहरि नीति शतकम् ||
मैं उस शांत तथा तेजस्वरुप ब्रह्म को नमस्कार करता हूँ, जो दिशा-काल आदि की सीमा से परे, अनंत, चैतन्य स्वरुप, केवल स्वानुभव के द्वारा ही बोधगम्य है। || १५ ||
पुण्यपापादिकर्तृत्वं जगत्सृष्ट्यादिकर्तृताम्। अभजत्सेन्द्रियत्वं च सकर्मत्वं विशेषतः ॥१.१६॥
फिर ब्रह्म ने विभिन्न गतिविधियों को स्वीकार किया – पुण्य और पापों का कर्ता , जगत का निर्माता , इन्द्रियों आदि के साथ मिलकर इन्द्रियों वाला और विशेष रूप से अपने कर्मों का फल धारण करने वाले रूप को ग्रहण किया | इस प्रकार एक ही ब्रह्म सेन्द्रिय और सकर्मा बन गया जैसे कोई लाल कपड़ा पहन कर लाल कपड़े वाला बन जाता है अथवा जैसे नाटक में कभी कभी एक ही व्यक्ति अनेक अभिनयों को करता है।
‘‘स वै नैव रेमे । तस्मादेकाकी न रमते । स द्वितीयमैच्छत् । स हैतावानास यथा स्त्रीपुमांसौ सम्परिष्वक्तौ । स इममेवात्मानं द्वेधापातयत् । ततः पतिश्च पत्नी चाभवताम् । तस्मादिदमर्धबृगलमिव स्व इति ह स्माह याज्ञवल्क्यः । तस्मादयमाकाशः स्त्रिया पूर्यत एव । तां समभवत् । ततो मनुष्या अजायन्त ॥ १,४.३ ॥बृहदारण्यकोपनिषद्’’
वे भगवान अकेले रमण नहीं करते। उन्होंने दूसरे की इच्छा की। उन्होंने अपने ही शरीर को दो भागों में बांट दिया। उस विभाजन से पति और पत्नी उत्पन्न हुए। उन्होंने अपने में से ही दूसरा स्वरूप प्रकट किया। वे ही पति भी बने और वे ही पत्नी भी बने।
तदैक्षत एकोऽहं बहु स्याम्–(छान्दोग्य उपनिषद् ६.२.३)|
यद्यपि मैं अकेला हूँ, किन्तु मैं अनेक हो जाउँगा | वे इस भौतिक शक्ति में अपना विस्तार करते हैं और सारी विराट अभिव्यक्ति पुनः घटित हो जाती है। || १६ ||
यः स्वशक्त्या समुल्लास उदभूत्परमात्मनः। स्वबन्धजनकं सूक्ष्मं तदाद्यं कर्म कथ्यते ॥१.१७॥
यह जो अपनी ही शक्ति का समुल्लास है जैसे शांत समुद्र अचानक तरंगायित हो उठे, सर्वोच्च आत्मा का यह सूक्ष्म खेल जो कि उसकी अपनी स्वयं की शक्ति का उपयोग करके हुआ , जिसके परिणामस्वरूप यह आत्मबंधन का कारण हुआ | जिसे प्रथम गतिविधि कहा जा सकता है | जैसे दर्पण में बालक अपने ही प्रतिबिम्ब से खेले और उसे अपना शत्रु या मित्र मान बैठे | मन जब दश इन्द्रियों पर काबू रखता है तब दशरथ कहलाता है और तभी इसके आँगन में बालरूप राम खेलते हैं तथा जब यह मन दश इन्द्रियों का संयम नहीं रख पाता तब दशमुख रावण हो जाता है। || १७ ||
न तेन निर्विशेषत्वं हीयते तस्य किंचन। न च संसारबन्धश्च कश्चिद्ब्रह्मन्प्रजायते ॥१.१८॥
हे ब्रह्मन् ! इससे ब्रह्म की एकरूपता या समरूपता प्रभावित नहीं होती |और संसार में ब्रह्म का बंधन भी नहीं होता | ब्रह्म स्वरूप से तो एक अकेला निर्विशेष ही है | जब भी वह अपने को अन्तर्मुख होकर देखेगा तो मालूम पड़ेगा कि यहां मेरे सिवा दूसरा कोई नहीं है | जैसे स्वप्न में अनेक दृश्य दीखते हैं परन्तु असल में वहां आपके सिवा दूसरा कोई नहीं होता | जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें।। जो निर्गुण है वही सगुण कैसे है? जैसे जल और ओले में भेद नहीं। (दोनों जल ही हैं, ऐसे ही निर्गुण और सगुण एक ही हैं।)
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा।।
अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई।।
सगुण और निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं है- मुनि, पुराण, विद्वानपण्डित और वेद सभी ऐसा कहते हैं। जो निर्गुण, अरूप (निराकार), अलख (अव्यक्त) और अजन्मा है, वही भक्तों के प्रेमवश सगुण हो जाता है। || १८ ||
पारमार्थिकसंसारी जीवः पुण्यादिकर्मवान्। प्रातिभासिकसंसारी त्वीशः सृष्ट्यादिकर्मवान् ॥१.१९॥
जीव एक सांसारिक प्राणी है जो इस दुनिया को वास्तविक मानता है और शुभ तथा अशुभ कर्म करता है | लेकिन ईश्वर भी एक सांसारिक प्राणी है जो इस दुनिया को प्रातिभासिक , प्राकृतिक प्रातीतिक अथवा स्वप्नवत् भ्रम होना जानता है और इस विश्व का निर्माण , रखरखाव और विनाश जैसी गतिविधियों में शामिल है | अर्थात जीव का संसारित्व वास्तविक है और ईश्वर का संसारित्व काल्पनिक , अध्यारोपित है।
‘‘मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।९.१० ।।’’ (श्रीमद् भगवद्गीता)
हे कौन्तेय ! मुझ अध्यक्ष के कारण ( अर्थात मेरी अध्यक्षता में) प्रकृति चराचर जगत् को उत्पन्न करती है; इस कारण यह जगत् घूमता रहता है।
‘‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।१८.६१।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
हे अर्जुन ! ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें रहता है और अपनी मायासे शरीररूपी यन्त्रपर आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको (उनके स्वभावके अनुसार) भ्रमण कराता रहता है। ||१९||
असंसारि परं ब्रह्म जीवेशोभयकारणम्। ततोऽप्यतीतं नीरूपमवाङ्मनसगोचरम् ॥१.२०॥
लेकिन परब्रह्म कोई सांसारिक प्राणी नहीं है और वह जीव तथा ईश्वर दोनों का कारण है | वह इन दोनों से परे है | वह परब्रह्म तो निराकार है इसलिए वाणी , इन्द्रियों और मन से उसका निर्वचन , ग्रहण या कल्पना नहीं की जा सकती।
‘‘न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥२.११’’ (मुण्डकोपनिषद्)
वहां न सूर्य प्रकाशित होता है और जहाँ चन्द्र आभाहीन हो जाता है तथा तारे बुझ जाते हैं; वहां ये विद्युत् भी नहीं चमकता, तो फिर यह पार्थिव अग्नि भी वहां कैसे जल पाएगी? जो कुछ भी चमकता है, वह सब उसकी आभा से अनुभासित होता है, यह सम्पूर्ण विश्व उसी के प्रकाश से प्रकाशित एवं भासित हो रहा है।
‘‘न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।१५ .६ ।। भगवद्गीता’’
उसे न सूर्य प्रकाशित कर सकता है (सूर्य माने चक्षु इन्द्रिय) और न चन्द्रमा (चन्द्रमा माने मन) और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकता है। (अग्नि माने वाणी) जिसका गुणकथन, व्याख्यान नहीं कर सकती। जिसे प्राप्त कर मनुष्य पुन: (संसार में) नहीं लौटते हैं, वह मेरा परम धाम है। ||२०||
कर्मवन्तौ परित्यज्य जीवेशौ ये महाधियः। अकर्मवत्परं ब्रह्म प्रयान्त्यत्र समाधिभिः ॥१.२१॥
जो बुद्धिमान पुरुष कर्म और गुणत्रय से सम्बन्ध रखने वाले जीव और ईश्वर को छोड़ देते हैं , और कर्म एवं गुणत्रय से सम्बन्ध न रखने वाले ब्रह्म के प्रति समर्पित होते हैं वे समाधि तक पहुंचते हैं। ‘‘समाधिभिः’’ यह तृतीया बहुवचन है अर्थात् समाधि के साधनों के द्वारा। और उस समाधि के मुख्य चार साधन हैं १. शम (मन की वृत्तियों का शमन करना) २. संतोष ३.सत्संग ४. विचार
“मोक्षद्वारे द्वारपालाश्चत्वारः परिकीर्तिताः । शमो विचारः संतोषश्चतुर्थः साधुसंगमः ।। २.५९ ।। योगवासिष्ठः (मुमुक्षुव्यवहारप्रकरणम्) सर्गः ११ ||
शम (मनोनिग्रह), विचार,(नित्य क्या है और अनित्य क्या है इसका विचार) संतोष = सरल सुभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई॥ सरल स्वभाव हो, मन में कुटिलता न हो और जो कुछ मिले उसी में सदा संतोष रखे॥ एवं सत्संग ये ही मोक्षद्वार के चार द्वारपाल के रूप में कहे गये हैं। यदि इनमें से किसी एक का भी आश्रय प्राप्त कर लिया जाये, तो शेष तीनों द्वारपाल सहजतापूर्वक स्वयमेव ही अपने वश में हो जाते हैं।
सतसंगति मुद मंगल मूला । सोइ फल सिधि सब साधन फूला ॥
उत्तम कर्म एवं उत्तम भावना की वृद्धि के लिए सतसंग ही एक मात्र उपाय है। सदा सत्पुरुषों का ही संग करना चाहिए क्योंकि मनुष्य पर संगत का सबसे बड़ा प्रभाव पड़ता है। सत्पुरुषों के गुण आचरण और उनके द्वारा दी गई शिक्षा को जानना समझना और आत्मसात कर के अपने जीवन में धारण करना और सत् शास्त्र का अध्ययन मनन और अभ्यास करना भी संत संग के समान ही माना गया है।
हानि कुसंग सुसंगति लाहू । लोकहु वेद विदित सब काहू ॥
कुसंगतिसे हानि होती है और सत्संगतिसे लाभ होता है। यह तथ्य लोक और वेंदों में प्रसिद्ध है इसे सब जानते हैं। सुसंगति पाकर ज्ञान उत्पन्न होता है और कुसंगति से ज्ञान नष्ट हो जाता है । ॥२१॥
ते विदेहविमुक्ता वा जीवन्मुक्ता नरोत्तमाः। कर्माकर्मोभयातीतास्तद्ब्रह्मारूपमाप्नुयुः ॥१.२२॥
और जब एक बार ब्रह्म ज्ञान हो जाए फिर चाहे वे महापुरुष विदेह मुक्त हो या जीवन्मुक्त , वे कर्म और अकर्म दोनों से ऊपर उठ जाते हैं | और अरूप माने निराकार ब्रह्म को प्राप्त होते हैं |
‘‘यदा पश्यः पश्यते रुक्मवर्णं कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम्।
तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति || ३.१.३ || मुण्डकोपनिषद्’’
जब द्रष्टा उस ‘स्वर्णवर्ण’, कर्ता ‘ईश’, ‘पुरुष’ को देखता है जो ‘महद्ब्रह्म’ (प्रकृति) की योनि है तब वह ज्ञाता बनकर अपने पंखों से पाप एवं पुण्य को झटकार कर, ‘निरंजन’, निष्कलंक होकर परम तादात्म्य (साम्य) का लाभ करता है।
‘‘मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्।
संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत।।१४.३।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
हे भारत ! मेरी महद् ब्रह्मरूप प्रकृति, (भूतों की) योनि है, (मेरी मूल प्रकृति जो उत्पत्ति स्थान है) जिसमें मैं जीवरूप गर्भका गर्भाधान करता हूँ; इससे समस्त भूतों की (प्राणियोंकी) उत्पत्ति होती है। जिसने अपने अरूप रूप स्वरूप को जान लिया उसे फिर दुनियाँ में किसी की परवाह नहीं रहती। ||२२||
कर्मणा संसृतौ बद्धा मुच्यन्ते ते ह्यकर्मणा। बन्धमोक्षोभयातीताः कर्मिणो नाप्यकर्मिणः ॥१.२३॥
और जो लोग अपने कर्मों द्वारा संसार में बंधे हैं , वे नैष्कर्म्य अथवा अकर्म के द्वारा कर्म बंधन से मुक्त हो जाते हैं | अर्थात जब देख लिया कि शुद्ध चेतन में कर्म है ही नहीं तो बंधन कैसा ? अतः वे बंधन और मुक्ति दोनों से ऊपर उठ जाते हैं | वे न तो सक्रिय कहे जा सकते हैं और न निष्क्रियता में उनकी स्थिति होती है | क्योंकि कर्म और अकर्म का सम्बन्ध शरीर से है , न कि शुद्ध चेतन आत्मा से। || २३ ||
जीवस्य कर्मणा बन्धस्तस्य मोक्षश्च कर्मणा। तस्माद्धेयं च कर्म स्यादुपादेयं च कर्म हि ॥१.२४॥
जीव कर्म से बंधा है और उसकी मुक्ति भी कर्म से ही होती है | यह थोड़ा समझने लायक है , जब अध्यास पूर्वक (अर्थात अपने को देह , इन्द्रिय , प्राण और बुद्धि से एक करके) कामना पूर्वक भोग के लिये कर्म करता है तो वह कर्म बंधनकारक होता है | और जब मुक्ति के साधनरूप १. विवेक २.वैराग्य ३.षट्सम्पत्ति (१.शम २.दम ३.उपरति ४.तितिक्षा ५.श्रद्धा ६.समाधान ) ४. मुमुक्षा पूर्वक विचार रूपी कर्म करता है तो मुक्त हो जाता है | इसलिए , कर्म छोड़ने के साथ साथ अपनाने के लायक भी है | अर्थात विचार और सत्संग रूपी कर्म अवश्य कर्तव्य हैं | वेद में कहा है कि —
‘‘परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन।’’
ब्रह्म-जिज्ञासु (ब्राह्मण) कर्म द्वारा संचित लोकों की परीक्षा करके अर्थात विवेक करके संसार का फीकापन (निर्वेद माने वैराग्य) का अनुभव करता है, क्योंकि कर्मों को करने से ही ‘उस’ की उपलब्धि नहीं हो सकती जो ‘अकृत’ माने कर्मातीत है। इसके द्वारा विवेक का प्रतिपादन कियाऔर
शान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः समाहितः श्रद्धावित्तो भूत्वात्मन्येवात्मानं पश्येत्। इस श्रुति में षट्सम्पत्ति का वर्णन है | (बृ.उ.४.४.२३) तथा न स पुनरावर्तते इति श्रुतेः। (शरभ उपनिषद) इस श्रुति में मुमुक्षा वर्णन है।
‘‘कर्मणा बध्यते जन्तुर्विद्यया च विमुच्यते ।
तस्मात्कर्म न कुर्वन्ति यतयः पारदर्शिनः ॥ ११७ ॥ संन्यासोपनिषद् द्वितीयोऽध्यायः’’
समस्त प्राणी कर्मों के द्वारा बन्धन में बँधते हैं और विद्या (आत्मज्ञान) के द्वारा मुक्ति को प्राप्त करते हैं। इसी कारण ज्ञानवान् संन्यासी कर्म से सर्वदा दूर रहते हैं॥
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः,जनकादि (ज्ञानी जन) भी कर्म द्वारा ही संसिद्धि को प्राप्त हुये लोक संग्रह (लोक-रक्षण) को भी देखते हुये तुम कर्म करने योग्य हो। अर्थात् तात्पर्य तो आसक्तिरहित होकर कर्म करनेसे है क्योंकि आसक्तिरहित होकर कर्म करनेसे ही मनुष्य कर्मबन्धनसे मुक्त होता है केवल कर्म करनेसे नहीं। केवल कर्म करनेसे तो प्राणी बँधता है
‘‘कर्मणा बध्यते जन्तुर्विद्यया तु प्रमुच्यते।
तस्मात्कर्म न कुर्वन्ति यतयः पारदर्शिनः।।’’ (महाभारत शान्तिपर्व २४७.७ ) || २४ ||
त्यक्ते कर्मणि जीवत्वमात्मनो गच्छति स्वयम्। गृहीते कर्मणि क्षिप्रं ब्रह्मत्वं च प्रसिध्यति ॥१.२५॥
चित्त को शुद्ध करने वाले शास्त्रीय विहित कर्मों का परित्याग करने पर आत्मा जीवत्व दोष से युक्त हो जाता है | और विहित कर्मों (पञ्च महायज्ञ आदि) का विवेक पूर्वक ग्रहण करने से शीघ्र ही ब्रह्मत्व की स्थिति का अनुभव होता है।
‘‘न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।३.४।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
कर्मों के न करने से मनुष्य नैर्ष्कम्य को प्राप्त नहीं होता क्योंकि यदि कर्मों का आरम्भ ही नहीं करेगा तो चित्त की शुद्धि कैसे होगी ? और न कर्मों के संन्यास से ही वह सिद्धि (पूर्णत्व) को प्राप्त करता है।। अर्थात केवल संन्याससे अर्थात् बिना ज्ञानके केवल कर्मपरित्यागमात्रसे मनुष्य निष्कर्मतारूप सिद्धिको अर्थात् ज्ञानयोगसे होनेंवाली स्थितको नहीं पाता।|| २५ ||
आविद्यकमशुद्धं यत्कर्म दुःखाय तन्नॄणाम्। विद्यासम्बन्धि शुद्धं यत्तत्सुखाय च कथ्यते ॥१.२६॥
अविद्या माने अज्ञान (मोह) से सम्बन्धित जो कर्म हैं वे अशुद्ध हैं और वे पुरुषों के लिए परिणाम में दुःख देनेवाले होते हैं | और जो विद्या माने ज्ञान से संबंधित कर्म हैं वे शुद्ध हैं और परिणाम में सुख तथा आनन्द देनेवाले कहे गए हैं। योग दर्शन में दुःखके पांच स्रोत कहे गए हैं अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, तथा अभिनिवेश। ये ही पांच क्लेश हैं।
इनमें अविद्या ही बाकी के चारों क्लेशों की जननी है। और यह अविद्या भी चार प्रकार की होती है १. अनित्य में नित्य बुद्धि। २. अशुचि में शुचि बुद्धि। ३. दुःख में सुख बुद्धि। ४. अनात्मा में आत्म बुद्धि।
२:- इस अविद्या का परिणाम है अस्मिता- जीवात्मा और बुद्धि को एक समझना अस्मिता है।
३:- राग:- जो जो सुख संसार में भोगे हैं, उन्हें याद करके फिर भोगने की इच्छा करना राग कहलाता है ।
४ :- द्वेष:- जिससे दु:ख मिला हो उसके याद आने पर उसके प्रति क्रोध होता है, यही द्वेष है।
५ :- अभिनिवेश- शरीर के अन्दर घुस कर बैठना , शरीर को मैं, मेरा मानने से मृत्यु से डरना ही अभिनिवेश है। सब प्राणियों की इच्छा होती है कि हम सदा जीवित रहे, कभी भी मरें नहीं, यह अभिनिवेश है। इस प्रकार यह सब अविद्या का ही परिवार है जो कि बंधन कारक है और इसके विपरीत विद्या है जो मुक्ति का कारण है। || २६ ||
विद्याकर्मक्षुरात्तीक्ष्णाच्छिनत्ति पुरुषोत्तमः। अविद्याकर्मपाशांश्चेत्स मुक्तो नात्र संशयः ॥१.२७॥
हे पुरुषोत्तम ! यदि कोई व्यक्ति विद्या माने ज्ञान से संबंधित कर्म के तीक्ष्ण छुरा का उपयोग करके अविद्या सम्बन्धी कर्म के जालों को काट देता है तो वह निश्चय ही मुक्त है | इस विषय में कोई संशय नहीं है। कांटे से कांटा निकाला जाता है , यह कहाबत प्रसिद्ध ही है।
कर्मणा बध्यते जन्तुर्विद्यया तु प्रमुच्यते। तस्मात्कर्म न कुर्वन्ति यतयः पारदर्शिनः ||
आसक्तिरहित होकर कर्म करने से ही मनुष्य कर्म बंधन से मुक्त होता है केवल कर्म करने से नहीं। केवल कर्म करने से तो प्राणी बँधता है | अतः कर्तृत्व ही बन्धन कारक है। ||२७||
सर्वस्य व्यवहारस्य विधे कर्मैव कारणम्। इति निश्चयसिद्ध्यै ते सूर्यगीतां वदाम्यहम् ॥१.२८॥
हे विधे ! समस्त व्यवहार का कारण कर्म ही है। इस निष्कर्ष को स्थापित करने के लिए मैं आपको सूर्य गीता बताता हूँ।
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा । जो जस करहि सो तस फल चाखा ॥
सकल पदारथ हैं जग मांही। कर्महीन नर पावत नाहीं ॥
‘‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।२.४७।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
कर्म करने मात्र में तुम्हारा अधिकार है। फल में कभी नहीं। तुम कर्मफल के हेतु वाले मत होना और अकर्म में भी तुम्हारी आसक्ति न हो। मनुष्य के जीवन में कर्म की ही प्रधानता है। चाहे रामचरित मानस हो या गीता, दोनों में ही कर्म को ही प्रधान बताया गया है। हम अपने कर्मो से ही अपने भाग्य को बनाते और बिगाड़ते हैं। हमें कर्म के आधार पर ही उसका फल प्राप्त होता है। कर्म सिर्फ शरीर की क्रियाओं से ही संपन्न नहीं होता बल्कि मन से, विचारों से एवं भावनाओं से भी कर्म संपन्न होता है।
‘‘द्वाविमौ ग्रसते भूमिः सर्पो बिलशयानिव।
राजानं चाविरोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम्।।३।। महाभारतम्-शांतिपर्व- अध्याय ५६’’
जिस प्रकार बिल में रहने वाले मेढक, चूहे आदि जीवों को सर्प खा जाता है, उसी प्रकार शत्रु का विरोध न करने वाले राजा तथा विद्याध्ययन आदि के लिये घर छोड कर अन्यत्र न जाने वाले ब्राहमण अर्थात् परदेस गमन से डरने वाले ब्राह्मण इन दोनों को पृथ्वी खा जाती है! (अर्थात् वे पुरुषार्थ किये बिना ही मर जाते हैं ) अतःउचित काल पर दोनों कार्य करने चाहिए।
‘‘द्वे कर्मणी नरः कुर्वन्नस्मिँल्लोके विरोचते।
अब्रुवन्परुषं किञ्चिदसतोऽनर्चयंस्तथा ॥ ५०॥ विदुरनीतिः’’
इन दो कर्मों को करनेवाला मनुष्य इस लोक में विशेष शोभा पाता है : जरा भी कठोर न बोलना और दुष्ट पुरुषों का आदर न करना। || २८ ||
कर्मसाक्षिणमादित्यं सहस्रकिरणं प्रभुम्। सप्ताश्वं सर्वधर्मज्ञमपृच्छदरुणः पुरा ॥१.२९॥
इस विषय में आपको मैं एक पुराना इतिहास सुनाता हूँ | पहले एक बार कर्मों के साक्षी अनन्त किरणों से सम्पन्न भगवान आदित्य (सर्वज्ञ सूर्यनारायण) से जिन्हें सभी धर्मों का ज्ञान है और जो सात घोड़ों के रथ पर आरूढ़ हैं , उनसे उनके शिष्य और सारथी अरुण ने प्रश्न किया।
इसी प्रकार गीतामें भी ‘‘श्री भगवानुवाच :- इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।४.१।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
श्रीभगवान् बोले :- जगत्प्रतिपालक क्षत्रियोंमें बल स्थापन करनेके लिये मैंने इस योगको पहले सृष्टिके आदिकालमें सूर्यसे कहा था (क्योंकि) उस योगबलसे युक्त हुए क्षत्रिय ब्रह्मत्वकी रक्षा करनेमें समर्थ होते हैं तथा ब्राह्मण और क्षत्रियोंका पालन ठीक तरह हो जानेपर ये दोनों सब जगत का पालन अनायास कर सकते हैं। इस योगका फल अविनाशी है इसलिये यह अव्यय है क्योंकि इस सम्यक् ज्ञाननिष्ठारूप योगका मोक्षरूप फल कभी नष्ट नहीं होता। उस सूर्यने यह योग अपने पुत्र मनुसे कहा और मनुने अपने पुत्र सबसे पहले राजा बननेवाले इक्ष्वाकुसे कहा। क्योंकि —
“ब्राह्मणत्वस्य हि रक्षणेन रक्षितः स्याद् वैदिको धर्मः।” वैदिक धर्मका रक्षण तब ही संभव है, जब कि ब्राह्मणत्व का रक्षण हो। चावल नहीं होगा तो थाईलेण्ड से मंगवाएंगे, दवा नहीं होगी तो जर्मनी से मंगवाएंगे, रूस, अमेरिका से टेक्नीशियन बुला लेंगे, खिलौने जापान से लेंगे .. लेकिन अगर ज्ञान और भक्ति से परिपूर्ण ब्राह्मणों को मुक्त किया जाएगा, तो ऐसे दुरमिल ब्राह्मण को किस देश से मंगवाया जाएगा? यदि वैदिक धर्म की रक्षा करनी है, तो ब्राह्मणवाद का निर्माण करना होगा। ब्राह्मणवाद की रक्षा कैसे की जाती है? समाज को ईमानदारी से प्यार करने वाले, साधु संस्कृति के लिए काम करने वाले इंसान कैसे पैदा हो सकते हैं? इसलिए “स्वाध्यायान्मा प्रमदः” वेदाध्ययन में प्रमाद न किया जाये ।
“शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्।।१८.४२।। श्रीमद् भगवद्गीता”
शम- माने मनका निग्रह करना , दम- माने इन्द्रियोंको वशमें करना; तप- माने धर्मपालनके लिये कष्ट सहना; शौच- माने बाहर-भीतरसे शुद्ध रहना; क्षान्ति- माने दूसरोंके अपराधको क्षमा करना; आर्जव- माने शरीर, मन आदिमें सरलता रखना; ज्ञान- माने वेद, शास्त्र आदिका ज्ञान होना; विज्ञान- माने यज्ञविधिको अनुभवमें लाना; और आस्तिक्य- माने परमात्मा, वेद आदिमें आस्तिक भाव रखना — ये सब-के-सब ब्राह्मणके स्वाभाविक कर्म हैं। || २९ ||
अरुण उवाच = अरुण बोले
भगवन्केन संसारे प्राणिनः संभ्रमन्त्यमी। केनैतेषां निवृत्तिश्च संसाराद्वद सद्गुरो ॥१.३०॥
अरुण ने कहा हे भगवान् ! हे सद्गुरु ! किस कारण से प्राणी इस संसार भ्रमित होकर भटकते हैं ? और किस उपाय से इन जीवों की संसार के आवागमन से मुक्ति हो सकती है यह कृपा करके मुझे बताइये। केनोपनिषद में भी ऐसा ही प्रश्न है कि —
‘‘केनेषितं पतति प्रेषितं मनः। केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः।
केनेषितां वाचमिमां वदन्ति। चक्षुः श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति || १ || केनोपनिषद्’’
किसके द्वारा प्रेषित यह मन बाणवत् अपने लक्ष्य पर जाकर गिरता है? किसके द्वारा नियुक्त यह मुख्य प्राण अपने पथ पर आगे बढ़ता है? किसके द्वारा प्रेरित है यह वाणी जिसे मनुष्य बोलते हैं? कौन है वह देव जिसने चक्षु और कर्ण को उनकी क्रियाओं में नियुक्त कर दिया है? इसके अलावा अर्जुन भी भगवान से कुछ ऐसा ही प्रश्न करते हैं यथा —
‘‘अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।।३.३६।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
हे वार्ष्णेय ! (वृष्णि कुल में उत्पन्न) फिर यह पुरुष बलपूर्वक बाध्य किये हुये के समान अनिच्छा होते हुये भी किसके द्वारा प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है? जैसे यदि हम तबला सीखना चांहते हों तो हमें तबला गुरू के पास जाना पड़ेगा क्योंकि वह तबला का विशेषज्ञ है , बैसे ही यदि हम जगत के बारे में कुछ जानना चांहते हैं या इससे मुक्त होना चांहते हैं तो हमें किसी जगद्गुरू के पास जाना पड़ेगा क्योंकि वह जगत का गुरू है माने जगत का विशेषज्ञ है और सूर्य से बड़ा कोई जगद्गुरू नहीं है क्योंकि सूर्य सौरमंडल का केंद्र है एवं वही सभी ग्रहों का अधिपति भी है। सूर्य को जगत चक्षु भी कहते हैं। अतः उनसे ही शिक्षा लेनी चाहिये। || ३० ||
इति पृष्टः स सर्वज्ञः सहस्रकिरणोज्ज्वलः। सूर्योऽब्रवीदिदं शिष्यमरुणं निजसारथिम् ॥१.३१॥
इस प्रकार पूछे जाने पर , सर्वज्ञ सूर्य ने , जो अनंत किरणों की शोभा से दैदीप्यमान हैं , अपने प्रिय शिष्य और सारथी अरुण से यह कहा। || ३१ ||
सूर्य उवाच :- सूर्य ने कहा
अरुण त्वं भवस्यद्य मम प्रियतमः खलु। यतः पृच्छसि संसारभ्रमकारणमादरात् ॥१.३२॥
सूर्य ने कहा , हे अरुण ! आज निश्चय ही तुम मेरे सबसे प्रिय बन गए हो क्योंकि आज तुमने बड़े ही आदरपूर्वक संसारभ्रम का कारण पूछा है | तत्व ब्रह्म है और संसार भ्रम है यह बात उपनिषदों में , योगवाशिष्ठ में और ब्रह्मसूत्र आदि सैकड़ों ग्रन्थों में बताई गयी है।
‘‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः ।
अनेन वेद्यं सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिमः ।।२०।। ब्रह्मज्ञानावलीमाला’’
ब्रह्म वास्तविक है, ब्रह्मांड मिथ्या है (इसे वास्तविक या असत्य के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है)। जीव ही ब्रह्म है और वह ब्रह्म से भिन्न नहीं है । इसे सही शास्त्र के रूप में समझा जाना चाहिए। यह वेदांत द्वारा घोषित किया गया है।
यहाँ आये हुए “जगन्मिथ्या” वाक्यांश में मिथ्या शब्द का अर्थ झूठ (अभावस्वरूप) नहीं है। ‘‘मिथ्या शब्दो अनिर्वचनीयता वचनः’’ शांकरवेदान्त में प्रकृति को भावरूप अज्ञान माना गया है, अभाव रूप नहीं। असत् का भाव (विद्यमान होना) नहीं होता और सत् का अभाव नहीं होता। जगत सत्य होता तो इसका कभी बाध नहीं होता और असत्य होता तो इसकी कभी प्रतीति नहीं होती अतः सत्य तथा असत्य से विलक्षण अनिर्वचनीय कोटि की यह प्रकृति है, स्वयं परमात्मा की ही अचिन्त्य शक्ति जगत के रूप में भासित हो रही है। यह माया तो ईश्वर की छाया है।
‘‘ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन् देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम् ।
यः कारणानि निखिलानि तानिकालात्मयुक्तान्यधितिष्ठत्येकः ॥ ३॥ श्वेताश्वतरोपनिषद्’’
तब ऋषियों ने एकाग्रचित्त होकर ध्यान योग में स्वयं भगवान की सृजन-शक्ति को देखा जो अपने गुणों में छिपी हुई थी। ये वही एकमेवाद्वितीयं हैं जो काल, आत्मा तथा सभी कारणों के अधिपति हैं।
मैं न बंदा था, न खुदा था, मुझे मालूम न था, दोनों इल्लत से जुदा था, मुझे मालूम न था, वजह मालूम हुई तुझसे न मिलने की सनम। घटाकाश, महाकाश से मिल नहीं पाया। जब मिला तो न घटाकाश रहा, न महाकाश। स्वामी राम कहते हैं कि ” मैं न बंदा था, न खुदा था मुझे मालूम न था “दोनों इल्लत-दोनों उपाधि, दोनों ख्याल थे। यह छोटा, यह बड़ा आकाश-यह हमारे ख्याल हैं। आकाश, आकाश है। न छोटा, न बड़ा । “दोनों इल्लत से जुदा था, मुझे मालूम न था”। वजह मालूम हुई तुझसे न मिलने की सनम। तुझसे क्यों नहीं मिला ? क्यों तड़पता रहा ? खुद “मैं” ही परदा बना था मुझे मालूम ना था । स्वामी रामतीर्थ।
‘‘अहं ब्रह्मेति नियतं मोक्षहेतुर्महात्मनाम् ।
द्वे पदे बन्धमोक्षाय निर्ममेति ममेति च।
ममेति बध्यते जन्तुर्निर्ममेति विमुच्यते ।।७२।। महोपनिषद्’’
उस आनन्द स्वरूप, द्वन्द्वों से परे, गुणरहित (गुणों से परे), सत् स्वरूप, चिद्घन परब्रह्म को अपना-निज स्वरूप जान लेने के पश्चात् मनुष्य को किञ्चित् भी भय नहीं होता। जो महान् से महानतम एवं श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम, तेज:स्वरूप, शाश्वत, कल्याण-प्रद, सर्वज्ञ, पुराणपुरुष, सनातन, सर्वेश्वर तथा सभी देवगणों के द्वारा सम्पूजित एवं उपास्य है, वह अविनाशी ब्रह्म मैं हूँ- ऐसा निश्चय महात्माओं के लिए मुक्ति का माध्यम होता है । बन्धन एवं मोक्ष के दो ही कारण बनते हैं, जिनमें प्रथम है – ममता एवं द्वितीय है ममतारहित होना । ममता के द्वारा जीव बन्धन में पड़ता है और ममता से रहित हो जाने के पश्चात् वह (जीव) मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।||३२||
भ्रमन्ति केवलं सर्वे संसारे प्रणिनोऽनिशम्। न तु तत्कारणं केनाप्यहो किंचिद्विचार्यते ॥१.३३॥
सभी जीवित प्राणी इस संसार में दिन-रात भ्रमित होकर भटकते रहते हैं | लेकिन अफसोस! इस भ्रान्ति का कारण क्या है इसका कोई भी तनिक भी विचार नहीं करता ! ||३३||
तज्जिज्ञासुतया त्वं तु श्लाध्योऽसि विबुधोत्तमैः। शृणुश्वारुण वक्ष्यामि तव संसारकारणम् ॥१.३४॥
परन्तु आपने इसके बारे में जिज्ञासा प्रकट की है इसलिए हे अरुण ! आप तो बुद्धिमान पुरुषों द्वारा सम्मान योग्य हो | अतः अब मैं आपको संसार रूपी भ्रम के पीछे कारण क्या है , यह बताता हूँ। सुनिये। || ३४ ||
पुण्यपापात्मकं कर्म यत्सर्वप्राणिसंचितम्। अनादिसुखदुःखानां जनकं चाभिधीयते ॥१.३५॥
पुण्य कर्म और पाप कर्म जो अनादि काल से सभी प्राणियों द्वारा संग्रहीत किए जाते हैं वे कर्म ही सुख दुःख आदि की परंपरा के कारण कहे जाते हैं। || ३५ ||
शास्त्रैः सर्वैश्च विहितं प्रतिषिद्धं च सादरम्। कामादिजनितं तत्त्वं विद्धि संसारकारणम् ॥१.३६॥
जिन कर्मों का सभी शास्त्रों ने विधान और निषेध किया उनका आदर पूर्वक स्वीकार करते हुए जीवन यापन करना चाहिए | कामादि जन्य मनमाने ढंग से जो कर्म किये जाते हैं उन्हें ही संसार का कारण जानो | जैसे कि वेद की आज्ञा है ‘‘अहरह: सन्ध्यामुपासीत ।’’ प्रतिदिन ब्राह्मण संध्योपासना करे, यह विधि वाक्य है |‘‘ब्राह्मणः सुरां न पिवेत् ’’ यह निषेध वाक्य है।
‘‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥२॥ ईशोपनिषद्’’
इस संसार में कर्म करते हुए ही मनुष्य को सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिये। हे मानव! तेरे लिए इस प्रकार का ही विधान है, इससे भिन्न किसी और प्रकार का नहीं है, इस प्रकार कर्म करते हुए ही जीने की इच्छा करने से मनुष्य में कर्म का लेप नहीं होता। यह भी विधिवाक्य है।
और ‘‘सत्यं वद। धर्मं चर। स्वाध्यायान्मा प्रमदः।’’ सत्य बोलो, अपने धर्म के मार्ग पर चलो, वेदों के स्वाध्याय में प्रमाद या अवहेलना मत करो। और ‘‘अक्षैर्मा दीव्यः’’ जुआ न खेल |,”मा हिंस्यात् सर्वा भूतानि” (किसी भी प्राणी की हिंसा ना करें) . इस तरह अनेक विधि निषेधात्मक वाक्य वेदों में मिलते हैं उन्हीं का आदर करना चाहिए, अन्यथा केवल मोह के वश होकर जो काम करते हैं उन्हें बंधन प्राप्त होता है।
‘‘यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।१६.२३ ।।’’ (श्रीमद् भगवद्गीता)
जो पुरुष शास्त्र विधि को त्यागकर अपनी कामना से प्रेरित होकर ही कार्य करता है, वह न पूर्णत्व की सिद्धि प्राप्त करता है, न सुख और न परा गति।
हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना।। ||३६||
पश्वादीनमभावेऽपि तयोर्विधिनिषेधयोः। संसारस्य न लोपोऽस्ति पूर्वकर्मानुसारतः ॥१.३७॥
पशु आदि योनियों में विधि और निषेध का विधान नहीं है क्योंकि वे केवल भोग योनियां हैं , फिर भी संसरण का (आवागमन का) लोप नहीं होता | और उन प्राणियों के पूर्व कर्मोंके अनुसार जाति, आयु और भोग का क्रम चलता ही रहता है | ‘‘पश्वादिभिश्चाविशेषात्। ब्रह्मसूत्र-शांकरभाष्य ||’’ यदि मनुष्य भी पशु जैसा ही आचरण करें तो उनमें और पशुओं भेद ही क्या है ? ‘‘
येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मर्त्यलोके भुविभारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति || १३ || नीतिशतकम्’’
जिन लोगों के पास न तो विद्या है, न तप, न दान, न शील, न गुण और न धर्म। वे लोग इस पृथ्वी पर भार हैं और मनुष्य के रूप में मृग/जानवर की तरह से घूमते रहते हैं। अतः मनुष्यों में धर्म ही विशेष है |
‘‘आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत्पषुभिर्निराणाम्।
धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ।।’’
अर्थात् आहार, निद्रा, भय और मैथुन, मनुष्यों और पशुओं के लिये, एक ही समान स्वाभाविक हैं। मनुष्यों और पशुओं में कुछ भेद है तो केवल धर्म का अर्थात इन स्वाभाविक वृतियों को मर्यादित करने का और नया ज्ञान प्राप्त करने का। जिस मनुष्य में यह धर्म नहीं है वह पशु के समान ही है।
“धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥ मनुस्मृति”
धर्म के दस लक्षण हैं – धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, पवित्रता, इन्द्रियों को वशमें रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना।||३७||
पूर्वं मनुष्यभूतानां पापकर्मवशादिह। श्वखरोष्ट्रादिजन्मानि निकृष्टानि भवन्त्यहो ॥१.३८॥
अफसोस ! जो लोग अतीत में मनुष्य योनि में रहे हैं , और उस समय पापकर्म करने के कारण , परिणाम स्वरूप वे कुत्ते , गदहे , ऊंट आदि निकृष्ट योनियों में जन्म प्राप्त करते हैं | कठोपनिषद में कहा है कि —
”न साम्परायः प्रतिभाति बालं प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम्।
अयं लोको नास्ति पर इति मानी पुनः पुनर्वशमापद्यते मे ॥१.२.६॥”
बाल-बुद्धि व्यक्ति को, (अज्ञानी को ) जो वित्त के मोह से मूढ़ हो गया है, प्रमाद में डूबा हुआ है, उसे परलोक यात्रा का प्रतिबोध नहीं होता, वह तो मात्र यह लोक ही है, और परलोक होता ही नहीं, ऐसा मानने वाला व्यक्ति ‘मृत्यु’ के वशीभूत होता रहता है। और कर्म फल भोगने के लिये उन्हें सतत वाध्य होना पड़ता है।
‘‘आदित्यस्य गतागतैरहरहः संक्षीयते जीवितं
व्यापारैर्बहुकार्यभारगुरुभिः कालोऽपि न ज्ञायते ।
दृष्ट्वा जन्मजराविपत्तिमरणं त्रासश्च नोत्पद्यते
पीत्वा मोहमयीं प्रमादमदिरामुन्मत्तभूतं जगत् ॥ – वैराक्यशतकम् ४३ ||’’
सूर्य के उदय और अस्त होने के साथ-साथ मनुष्यों की जिन्दगी रोज-रोज घटती जाती है । समय भागा जाता है, पर कारोबार में मशगूल रहने के कारण वह भागता हुआ नहीं दीखता । लोगों को पैदा होते, बूढ़े होते, विपत्ति ग्रसित होते और मरते देखकर भी उनमें भय उत्पन्न नहीं होता । इससे मालूम होता है कि मोहमाया, प्रमादरूपी मदिरा के नशे में संसार मतवाला हो रहा है । || ३८ ||
पापकर्मसु भोगेन प्रक्षीणेषु पुनश्च ते। प्राप्नुवन्ति मनुष्यत्वं पुनश्च श्वादिजन्मिताम् ॥१.३९॥
पाप कर्मों का भोग समाप्त होने पर वे प्राणी फिर से मनुष्य जन्म प्राप्त करते हैं और पुनः काम, भोगलिप्सा के वशीभूत होकर पाप कर्म में प्रवृत्त होने के कारण फिर से कुत्ते आदि की योनि में जन्म लेते हैं।
‘‘ अदत्तदानाच्च भवेद्दरिद्रो दरिद्रभावाच्च करोतिपापम् ।
पापप्रभावान्नरकं प्रयाति पुनर्दरिद्रः पुनरेव पापी ॥ २,२४.४६ ॥ गरुडपुराणम्’’
जो सामर्थ्यवान होते हुए भी दान नहीं करते, वे लोग दरिद्री होते हैं । और दरिद्रता के कारण फिर से पाप कर्म करते हैं । तथा पाप कर्मों के कारण पुनः नरक जाते हैं, या पशु आदि योनियों में भटकते हैं और पुनः दरिद्री और पापी होते हैं । और इसके विपरीत यदि सत्संग लाभ हो जाये तो सद्बुद्धि का उदय होने से
‘‘सत्पात्रदानेन भवेद्धनाढयो धन प्रकर्षेण करोति पुण्यम् ।
पुण्यादवश्यं त्रिदिवं प्रयाति पुनर्धनाढ्यः पुनरेव भोगी ।।’’
सुपात्रको दान देनेसे, मनुष्य धनवान बनता है; (फिर) धनके प्रभाव से पुण्यकर्म करता है; पुण्य के प्रभावसे उसे स्वर्ग प्राप्त होता है; और फिर से धनवान और फिर से भोगी बनता है।” ||३९||
जननैर्मरणैरेवं पौनःपुन्येन संसृतौ। भ्रमन्त्याब्धितरंगस्थदारुवद्धीमतां वर ॥१.४०॥
हे बुद्धिमानों में श्रेष्ठ ! इस प्रकार बार बार जन्म और मृत्यु के चक्कर में उन्हें घूमना पड़ता है | जैसे समुद्र की तरंगों में एक लकड़ी का टुकड़ा ऊपर , नीचे भ्रमण करता रहता है |
भगवान श्री कृष्ण ने भी कहा है कि — इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च। जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्।।१३.९।।श्रीमद् भगवद्गीता ||
इन्द्रियोंके विषयोंमें वैराग्यका होना, अहंकारका भी न होना और जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा व्याधियोंमें दुःखरूप दोषोंको बार-बार देखना। श्रीमान शंकराचार्यजी महाराज कहते है कि —
‘‘ पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम् ।
इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥ २१ ॥मोहमुद्गरम् ||’’
बार-बार जन्म, बार-बार मृत्यु, बार-बार माँ के गर्भ में शयन, इस संसार से पार जा पाना बहुत कठिन है, हे कृष्ण कृपा करके रक्षा करो॥
“जन्म दुःखं जरा दुःखं जाया दुःखं पुनः पुनः । मृत्युकाले महादुःखं तस्मात् जाग्रहि जाग्रहि ।।”
जन्म दुःख है, बृद्धावस्था दुःखमय है, और स्त्री (स्त्री पुत्रादि कुदुंबीजन) दुःखरूप
हैं, और अंतकाल भी बडा दुःखद है | इसलिये “ जागो ”-/ जागो ” ।
दुःखं जन्म जरा दुःखं दुःखं मृत्युः पुनः पुनः । संसारमण्डलं दुःखं पच्यन्ते यत्र जन्तवः ।।
संसार मण्डल तो दुःख की कढ़ाई है , जिसमें प्राणियों को उबाल-उबाल कर पकाया जाता है।
व्याघ्रीव तिष्ठति जरा परितर्जयन्ती रोगाश्च शत्रव इव प्रहरन्ति देहम् ।
आयुः परिस्रवति भिन्नघटादिवाम्भः लोकस्तथाप्यहितमाचरतीति चित्रम् ॥ वैराग्यशतकम् ३८ ||
वृद्धावस्था भयंकर बाघिनी की भाँति भयभीत करती हुई सामने खड़ी है । रोग शत्रुओं की भाँति शरीर पर आक्रमण कर रहे हैं । जैसे फूटे घड़े से पानी रिसता है उसी प्रकार आयु भी क्षीण होती जा रही है । अहो ! फिर भी लोग उल्टा ही आचरण करते हैं जिनसे उनका अहित ही होता है । आश्चर्य ! महान आश्चर्य !
आदौ कर्मप्रसङ्गात् कलयति कलुषं मातृकुक्षौ स्थितं मां
विण्वमूत्रामेध्यमध्ये क्वथयति नितरां जाठरो जातवेदा: ।
यद्यद् वै तत्र दु:खं व्यथयति नितरां शक्यते केन वक्तुं
क्षन्तव्यो मेSपराध: शिव शिव शि भो: श्रीमहादेव शम्भो ।।१।। (शिवापराध-क्षमापन-स्तोत्रम् )
अर्थ-“हे शिव,हे महादेव,हे शम्भु! पूर्वजन्म-जनित कर्म प्रसङ्ग से किये हुए पाप ही मुझे माता की कुक्षि में प्रविष्ट कराते हैं, पुन:माता के उदरस्थ अपवित्र विष्ठा-मूत्र के मध्य मुझे जठराग्नि अत्यंत सन्तप्त करती है। वहां पर जो जो असहनीय कष्ट मुझे निरंतर पीड़ित करते रहते हैं,उन्हें कौन कह सकता है? अत: हे शंकर! मेरा अपराध क्षमा कीजिए।” ॥४०॥
अरुण उवाच :- अरुण बोले
प्रक्षीणपापकर्माणः प्राप्तवन्तो मनुष्यताम्। पुनश्च श्वादिजन्मानि केन गच्छन्ति हेतुना ॥१.४१॥
अरुण ने पूछा कि जिनके पापकर्म भोग के द्वारा समाप्त हो गए हैं और मानव जन्म प्राप्त हुआ है | उन्हें भी पुनः किस कारण से श्वान, सूकर आदि योनियों में जन्म लेना पड़ता है ? || ४१ ||
न हि दुर्जन्महेतुत्वं पुण्यानां युक्तमीरितुम्। न च पुण्यवतां भूयः पापकर्मोपपद्यते॥१.४२॥
क्योंकि पुण्यों को दुःखदायी योनियों में जन्म का हेतु नहीं कहा जा सकता | और जो पुण्यात्मा पुरुष हैं , वे पापपूर्ण कर्मों में प्रवृत्त नहीं हो सकते। || ४२ ||
पुण्यैर्विशुद्धचित्तानां ज्ञानयोगादिसाधनैः। संसारमोक्षसंसिद्ध्या पापकर्माप्रसक्तितः ॥१.४३॥
पाप कर्मों के प्रति आसक्ति न होने कारण तथा ज्ञान योग आदि अन्य साधन रूप पुण्य कर्मों के द्वारा जिनका चित्त शुद्ध हो गया है उनका मोक्ष तो निश्चित रूपेण होना ही चाहिए। || ४३ ||
जीवेषु पौनःपुन्यं चेदुत्तमाधमजन्मनाम्। नियमेनाभिधीयेत येन केनापि हेतुना ॥१.४४॥
फिर भी चाहे किसी भी कारण से हो , यदि उन जीवों का जन्म बार – बार ऊंची , नीची योनियों में नियम पूर्वक होता ही है।
‘‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च। तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।२ .२७ ।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ जन्मने वाले की मृत्यु निश्चित है और मरने वाले का जन्म निश्चित है; इसलिए जो अटल है अपरिहार्य है उसके विषय में तुमको शोक नहीं करना चाहिये।। ॥४४॥
मोक्षशास्त्रस्य वैयर्थ्यमापतत्येव सर्वथा। तस्मादपापिनां जन्म पुनश्चेति न युज्यते ॥१.४५॥
तो फिर ऐसा होने से तो मुक्ति का मार्ग दिखाने वाले शास्त्र निश्चित रूपेण व्यर्थ ही सिद्ध होते हैं | इसलिए निष्पापों का पुनर्जन्म होना उचित नहीं जान पड़ता। || ४५ ||
इत्युक्तो भगवानाह सर्वज्ञः करुणानिधिः। रविः संशयविच्छेदनिपुणोऽरुणमादरात् ॥१.४६॥
इस प्रकार अरुण के द्वारा संशय उपस्थापित किये जाने पर , सर्वज्ञ , करुणा के सागर , भगवान भास्कर जो संदेह दूर करने में बड़े ही कुशल हैं , सम्मानपूर्वक अरुण के प्रति बोले। || ४६ ||
रविरुवाच :- भगवान सूर्य ने कहा
प्रक्षीणेष्वपि भोगेन पाप कर्मसु देहिनः। पुनश्च पाप कर्माणि कुर्वन्तो यान्ति दुर्गतिम् ॥१.४७॥
सूर्य देव ने कहा — शरीर-अभिमानी जीव पाप कर्मों का फल (दुःख ,अधोयोनि गमन आदि के द्वारा) भोग करने से क्षीण तो हो जाता है परन्तु पाप कर्मों की वासना संस्कार रूप से बनी ही रहती है | और फिर उसी वासना के वशीभूत होकर पुनः पाप कर्मों में प्रवृत्त होता है, और फिर से नीच योनि में जन्म प्राप्त करता है।
‘‘ये नार्चयंति गिरिशं समये प्रदोषे ये नार्चितं शिवमपि प्रणमंति चान्ये ।।
एतत्कथां श्रुतिपुटैर्न पिबंति मूढास्ते जन्मजन्मसु भवंति नरा दरिद्राः ।।३.६.७४।। स्कन्दपुराणम्’’
जो प्रदोषकाल में भगवान शङ्कर सहित देवों की पूजा-अर्चना नही करतें, प्रणाम नहीं करते,अपने कर्णपुटों द्वारा भगवत्कथाओं का रसपान नहीं करते, वे जन्म -जन्मान्तरों में दरिद्री होते हैं ।
जो सामर्थ्यवान होते हुए भी दान नहीं करते, वे भी दरिद्री होते हैं । और दरिद्रता के कारण पापकर्म करते हैं । पापकर्मों के कारण नरक जाते हैं तथा पुनः दरिद्री और पापी होते हैं ।
‘‘कुचैलिनं दन्तमलोपधारिणां बह्वाशिनंनिष्ठुरभाषिणां च ।
सूर्योदये वाऽस्तमिते शयानं विमुञ्चति श्रीर्यदि चक्रपाणिः ।।४।। चाणक्यनीतिः’’
जो मानव विकृत और मलिन वस्त्रों को धारण करते हैं, दातों पर मल रखते हैं, अधिक मात्रा में भोजन करते हैं तथा अखाद्य पदार्थों (मांस मदिरादि)का सेवन करते है और सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय शयन करते हैं ये दुर्गुणी व्यक्तियों का चाहे वह स्वयं भगवान विष्णु ही क्यों न हों लक्ष्मी उनका परित्याग कर देतीं हैं ।अर्थात एसे दुर्गुणी भी परम दरिद्री होते हैं ।
‘‘नाराधिता येन शिवा सनातनी दुःखार्तिहा सिद्धिकरी जगद्वरा ।
दुःखावृतः शत्रुयुतश्च भूतले नूनं दरिद्रो भवतीह मानवः ॥ २३ ॥ देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः ०३/अध्यायः २७’’
जो मनुष्य जगज्जननी पराम्बा जो समस्त दुखों का हरण करनें वालीं हैं तथा समस्त सिद्धियों को प्रदान करने वाली हैं एवं श्रेष्ठ सद्गुणों को प्रदान करने वाली हैं उनकी आराधना नहीं करते वे निश्चय ही दरिद्री होते हैं । और फिर स्वाभाविकतया ही पाप में प्रवृत्त हो जाते हैं , और फिर से नीच योनि में जन्म प्राप्त करते हैं। || ४७ ||
तानि दुर्जन्मबीजानि कामात्पापानि देहिनाम्। पुनरप्युपपद्यन्ते पूर्वपुण्यवतामपि ॥१.४८॥
इसलिए वे पाप वासनायें जो नीच जन्मों के बीज हैं , वे बीज रूप से उनके कर्ता पुरुषों के पास फिर से जाती हैं जिन्होंने सुख प्राप्त करने की इच्छा के कारण पहले कभी पुण्य कर्म भी किये हैं | अनित्य पदार्थों से सुख मिलेगा यह सबसे पहली भूल है और उसके बाद फिर तो भूल की परंपरा शुरू हो जाती है | दुर्योधन , रावण आदि भी अपने पूर्व कृत पुण्यों के कारण थोड़ा सुख का अनुभव करते थे, इसीप्रकार थोड़ा-थोड़ा सुख तो प्रत्येक योनि में होता है, और फिर धीरे-धीरे दूसरों को दुःख देकर सुख पाने की वासना प्रबल होने लगती है , तब फिर जैसा कि भगवद्गीता में बताया है- ‘‘ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते। सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।२ .६२ ।।’’ विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्तिसे कामना पैदा होती है। कामनासे क्रोध पैदा होता है। क्रोध होनेपर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धिका नाश हो जाता है। बुद्धिका नाश होनेपर मनुष्यका पतन हो जाता है। इस विषय में नारद मोह की कथा रामचरितमानस में प्रसिद्ध है। ॥४८॥
सकामानां च पुण्यानां भोगहेतुतया नॄणाम्। न चित्तशुद्धिहेतुत्वं क्वचिद्भवितुमर्हति | || १.४९ ||
इसके अलावा जो लोग पुण्य कर्म करते हैं वे भी आसक्ति पूर्वक स्वयं सुख भोग की इच्छा से ही करते हैं | इस प्रकार किया हुआ पुण्य कभी भी चित्त शुद्धि का कारण नहीं बन सकता | ‘‘परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ||’’ दूसरों का उपकार करने से पुण्य होता है और दुख देने से पाप । श्रीमद् भगवद्गीता के तीसरे अध्याय में बताया है कि यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः। तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर।।३.९।। यज्ञ के लिये किये हुए कर्म के अतिरिक्त अन्य कर्म में प्रवृत्त हुआ यह पुरुष कर्मों द्वारा बंधता है इसलिए हे कौन्तेय आसक्ति को त्यागकर यज्ञ के निमित्त ही कर्म का सम्यक् आचरण करो।
‘‘चित्तस्य शुद्धये कर्म नतु वस्तूपलब्धये ।
वस्तुसिद्धिर्विचारेण न किंचित्कर्मकोटिभिः ॥११॥ विवेकचूडामणिः ||’’
कर्म चित्त की शुद्धि के लिये ही है, वस्तुपलब्धि (तत्वदृष्टि) – के लिये नहीं। वस्तु-सिद्धि तो विचार से ही होती है, करोड़ों कर्मों से कुछ भी नहीं हो सकता।|| ४९ ||
कुतश्चाशुद्धचित्तानां ज्ञान योगादि संभवः। ज्ञानयोगादिहीनानां कुतो मोक्षश्च संसृतेः ॥१.५०॥
तो फिर अशुद्ध अन्तःकरण [बुद्धि , मन और चित्त] रखने वालों के लिए ज्ञान और योग आदि साधन कैसे संभव हो सकते हैं ? तथा जो ज्ञान और योग से रहित हैं वे कैसे संसार बंधन से मुक्त हो सकते हैं ? || ५० ||
कामेन हेतुना सत्स्वप्युत्तमाधम जन्मसु। मोक्ष शास्त्रस्य सार्थक्यं नैष्काम्योदय हेतुकम् ॥१.५१॥
कामना के कारण ही उत्तम या अधम योनि में जन्म होता है | सद्भावना से युक्त होकर पुण्य कर्मों के परिणाम स्वरूप उत्तम योनि में जन्म होता है तथा असद्वासना के फल स्वरूप निकृष्ट योनि में जन्म होता है | परन्तु शास्त्र का तात्पर्य है निष्काम कर्मयोग में प्रेरित करना है | इसी में मोक्षशास्त्रों की सार्थकता है।
‘‘तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येरन्ब्राह्मणयोनिं वा क्षत्रिययोनिं वा वैश्ययोनिं वाथ य इह कपूयचरणा अभ्याशो ह यत्ते कपूयां योनिमापद्येरन् श्वयोनिं वा सूकरयोनिं वा चण्डालयोनिं वा॥७॥ छान्दोग्योपनिषद् पञ्चमोऽध्यायः दशमः खण्डः’’
जिनका आचरण यहाँ पृथ्वी पर अच्छा रहा है, वे ब्राह्मण के रूप में कुछ अच्छे कुल में जन्म लेंगे, क्षत्रिय के रूप में जन्म लेंगे, या वैश्य के रूप में जन्म प्राप्त करेंगे। लेकिन जिनका आचरण यहाँ बुरा रहा है, वे शीघ्र ही अपवित्र योनि को पाते हैं जैसे कुत्ते के रूप में, सुअर के रूप में जन्म, अथवा जो क्रूर कर्म करने वाले हैं वे चाण्डाल की योनि को पाते हैं। और जो किसी मार्ग से न जाकर त्वरित मरते और उत्पन्न होने की क्रिया में संलग्न हो जाते हैं जैसे मच्छर कीड़े मकोड़े आदि हैं वे हीन रूप में जन्म को प्राप्त करेंगे।
‘‘ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः।।१४.१८।। श्रीमद् भगवद्गीता ’’
सत्त्वगुणमें यानी सात्त्विक भावोंमें स्थित पुरुष उच्च स्थानको जाते हैं अर्थात् देवलोक आदि उच्च लोकोंमें उत्पन्न होते हैं। और राजस पुरुष बीचमें रहते हैं अर्थात् मनुष्ययोनियोंमें उत्पन्न होते हैं। तथा जघन्य गुणके आचरणोंमें स्थित हुए अर्थात् जो जघन्य माने निन्दनीय गुण हैं, उस तमोगुणके कार्यरूप निद्रा और आलस्य आदिमें स्थित हुए मूढ़ अर्थात तामसी पुरुष नीचे गिरते हैं वे पशु, पक्षी आदि योनियोंमें उत्पन्न होते हैं।
‘‘तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसानाशकेन । एतमेव विदित्वा मुनिर्भवति । एतमेव प्रव्राजिनो लोकमिच्छन्तः प्रव्रजन्ति ॥ ४,४.२२ ॥ बृहदारण्यकोपनिषद् ’’
वेदाध्ययन , सद्दान , यज्ञ , तप आदि धर्मों से तथा श्रद्धा से अनुष्ठित उपासना से युक्त अत्यन्त निर्मल अन्तःकरणवाले ब्राह्मण जिस ब्रह्मतत्त्व को जानने की इच्छा करते हैं , वह तत्त्व तुम्हीं हो । नमक की डली कैसे लौटकर बतायेगी कि समुद्र कितना गहरा है ?||५१ ||
सुखदुःखोपभोगेन यदा निर्वेदमागतः। निष्कामत्वमवाप्नोति स्वविवेकपुरस्सरम् ॥१.५२॥
बारम्बार सुख दुःख के चक्कर में भ्रमण करने उपरान्त जब वैराग्य को प्राप्त होता है , तब व्यक्ति उन सांसारिक भोगों के प्रति उदासीनता की स्थिति को प्राप्त करता है , परिणाम स्वरूप विवेक का उदय होने पर निष्काम भाव को प्राप्त करता है | विवेक शब्द का अर्थ है विचार करना , चीजों को अलग-अलग करके देखना | (तिल,तण्डुल न्याय) तिल और चावल यदि एक साथ मिल गये हों तो उन्हें अलग करना | {नीर क्षीर विवेक न्याय प्रसिद्ध ही है |} मैं कौन हूँ , मैं क्या हूँ और मेरा कौन है, मेरा क्या है इसका स्पष्ट विवेक होना चाहिए | विचिर्,पृथग्भावे धातु से विवेक शब्द निष्पन्न होता है | इसी को आत्मानात्म विवेक कहते हैं। || ५२ ||
ततःप्रभृति कैश्चित्स्याज्जन्मभिर्ज्ञानयोगवान्। श्रवणादिप्रयत्नैर्हि मुक्तिः स्वात्मन्यवस्थितिः ॥१.५३॥
तब फिर कई जन्मों के बाद किसी किसी की ज्ञान और योग में दृढ़ निष्ठा होती है | श्रवण , मनन और निदिध्यासन के प्रयासों के माध्यम से (सुनना , सोचना और ध्यान करना) अपने आप में स्थिति होती है | और उस स्वरूपावस्थिति का नाम ही मुक्ति है | अपने को देह , प्राण , इन्द्रिय , मन , बुद्धि न जान कर शुद्ध दृक् स्वरूप जानना ही आत्मज्ञान में स्थित होना कहा जाता है |
यदर्थप्रतिभानं तन्मन इत्यभिधीयते ।
अन्यन्न किंचिदप्यस्ति मनो नाम कदाचन ।। ३.४.४२।। योगवासिष्ठः ||
वह जो सभी वस्तुओं के भान का प्रतिनिधि है, उसे मन कहा जाता है: इसके अलावा मन और कुछ भी नहीं है जिसके लिए मन शब्द लागू होता है। जिसमें विषयों की प्रतीति होती है वह मन है और जिसको मालूम पड़ता है वह ज्ञानस्वरूप आत्मा है |
‘‘यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति ।
दूरंगं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।१।। शिवसंकल्पोपनिषद्’’
हे परमात्मन् !जो मन जाग्रत् अवस्था में दूर-दूर तक गमन करता है और उसी प्रकार सुप्तावस्था में भी दूर-दूर तक जाता है; वही (मन) निश्चित रूप से इन्द्रियों का प्रकाशक है, जीवात्मा का एकमात्र माध्यम है, ऐसा हमारा वह मन श्रेष्ठ-कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो। ||५३||
कर्माध्यक्षं परात्मानं सर्वकर्मैकसाक्षिणम्। सर्वकर्मविदूरन्तं कर्मवान्कथमाप्नुयात् ॥१.५४॥
सर्वोच्च स्व , जो एकमात्र कर्मों का पर्यवेक्षक है , जो सभी कर्मों का केवल साक्षी है , जो सभी कामों से दूर है , कर्म में लगे व्यक्ति इसे प्राप्त करने में कैसे सफल हो सकते हैं ?
‘‘एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च॥११॥ श्वेताश्वतरोपनिषद् षष्ठोऽध्यायः’’
उस ‘एकमेव देव’ का ही अस्तित्व है, प्रत्येक प्राणी में ‘वही’ गूढ़ रूपसे छिपा हुआ है क्योंकि ‘वही’ सर्वव्यापी एवं समस्त प्राणियोंका ‘अन्तरात्मा’ है, ‘वह’ सभी कर्मोंका अध्यक्ष-स्वामी है, एवं सभी जीवसत्ताओंका आवास है। ‘वही’ सकल जगत-व्यापारोंका ‘महान् साक्षी’ है जो विचारोंमें परस्पर सम्बद्धता लाता है, ‘वह’ है ‘निरपेक्ष’ एवं निर्गुण, जिसमें न कोई मनोभाव है न कोई गुण है। ||५४ ||
पुण्येष्वपि च पापेषु पौर्विकेषु च भोगतः। क्षपितेषु परात्मा स स्वयमाविर्भविष्यति ॥१.५५॥
पूर्वकृत पुण्य और पाप जब भोग के द्वारा क्षीण हो जाते हैं तब अन्तःकरण निर्मल हो जाने से वह परमात्मा ( जो केवल शुद्धचित् स्वरूप हैं ) उसी अन्तःकरण में स्वयं आविर्भूत हो जाते हैं | अन्तःकरण का दर्पण स्वच्छ होते ही चित्प्रतिबिम्ब साफ-साफ झलकने लगता है।
चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्निनिर्वापणम् श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधू जीवनम् ।
आनंदाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनम् सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम् ॥१॥ (श्रीशिक्षाष्टकम्)
चित्त रूपी दर्पण को स्वच्छ करने वाले, भव रूपी महान अग्नि को शांत करने वाले, चन्द्र किरणों के समान श्रेष्ठ, विद्या रूपी वधू के जीवन स्वरूप, आनंद सागर में वृद्धि करने वाले, प्रत्येक शब्द में पूर्ण अमृत के समान सरस, सभी को पवित्र करने वाले श्रीकृष्ण कीर्तन की उच्चतम विजय हो॥१॥
‘‘स्वाध्यायाद् योगमासीत योगात् स्वाध्यायमामनेत्।
स्वाध्याय-योग-सम्पत्त्या परमात्मा प्रकाशते||२|| विष्णुपुराणम् / षष्टांशः/अध्यायः ६’’
स्वाध्याय से योग, योग से स्वाध्याय और अब स्वाध्याय, योग दोनों की सम्पदा आयेगी तब परमात्मा का दर्शन होगा ,योगपूर्वक स्वाध्याय से ही परमात्मा का साक्षात्कार हो सकता है। । ‘‘जपश्रान्तश्चरेद् ध्यानं ध्यानात् श्रान्तश्चरेज्जपम्। जप- ध्यान- परिश्रान्त आत्मतत्वं विचारयेत्।।’’ यदि जप में थकान मालूम हो तो आँख बन्द करके ध्यान करो और ध्यान में तबीयत ऊबने लगे तो माला लेकर जप करो। यदि दोनों में थकान मालूम पड़े तो स्वाध्याय करो, पढ़ो, पाठ करो! ||५५||
कर्तृभिर्भुज्यते जीवैः सर्वकर्मफलं न तु। साक्षिणा निर्विकल्पेन निर्लेपेन परात्मना ॥१.५६॥
कर्ता जीवों के द्वारा ही कर्मफलों का भोग किया जाता है , न कि अकर्ता , निर्लेप , निर्विकल्प , साक्षी परमात्मा के द्वारा |
‘‘द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति || ३.१.१ || मुण्डकोपनिषद्’’
दो सुंदर पंखों वाले पक्षी, जो घनिष्ठ सखा हैं , और शरीर रूपी समान वृक्ष पर ही रहते हैं; उनमें से एक वृक्ष के स्वादिष्ट फलों को खाता है,(कर्म फलों को भोगता है |) अन्य खाता नहीं अपितु अपने सखा को देखता है। || ५६ ||
जीवानां तदनन्यत्वाद्भोगस्यावसरः कुतः। इति केचन शंकन्ते वेदान्तापातदर्शिनः ॥१.५७॥
जो लोग वेदान्त के आपातदर्शी हैं माने ऊपर-ऊपर से ही जिन्होंने वेदान्त को देखा है , गहराई से नहीं समझा है | वे लोग ही ऐसा समझते हैं कि जीव और ईश्वर अभिन्न हैं | तो जब जीव परमात्मा से अलग नहीं है तो जीव के लिए कर्म फल भोग की संभावना ही कहाँ है? | (कहते हैं कि आत्मा सो परमात्मा) परन्तु यह बात ठीक नहीं है | यद्यपि चिदंश में दोनों एक हैं तथापि उपाधि अंश में दोनों भिन्न हैं | ईश्वर की उपाधि माया है और जीव की उपाधि अविद्या है।
तुलसीदास जी ने कहा है कि — माया वश परिछिन्न जड़ जीव कि ईश समान’’ माया के वश में रहने वाला परिच्छिन्न , जड़ जीव क्या ईश्वर के समान हो सकता है ? | अर्थात् कदापि नहीं | एक जीव है जो माया के वश में है और दूसरा ईश्वर है जो मायाधीश है।
भगवद्गीता में भी बताया है कि— ‘‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।१५ .७ ।।’’
इस संसार में जीव बना हुआ आत्मा मेरा ही सनातन अंश है; परन्तु वह प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है (अपना मान लेता है)। |||५७||
परमार्थदशायां हि तदनन्यत्वमिष्यते। व्यवहारदशायां नानुपपत्तिश्च काचन ॥१.५८॥
केवल पारमार्थिक अवस्था में जीव और आत्मा की एकता सिद्ध की जा सकती है , व्यावहारिक दशा में यह युक्ति सिद्ध नहीं है | (उचित नहीं है ) अन्तःकरणावच्छिन्नं चैतन्यं जीवः, तदनवच्छिन्नम् ईश्वरः । अन्तःकरण की उपाधि के कारण जीव कर्ता और भोक्ता बनता है , ईश्वर अन्तःकरण की उपाधि स्वीकार ही नहीं करता अतः कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व से मुक्त रहता है ||
‘‘पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।
सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।।१८.१३।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
इसलिये क्रिया कारक और फल आदि आत्मामें अविद्यासे (अज्ञान से) आरोपित होनेके कारण परमार्थदर्शी,( आत्मज्ञानी ) ही सम्पूर्ण कर्मोंका अशेषतः त्यागी हो सकता है। कर्म करनेवाले अधिष्ठान ( शरीर ) कर्ताक्रिया आदि कारकोंको आत्मभावसे देखनेवाला अज्ञानी सम्पूर्ण कर्मोंका पूर्णतया त्याग नहीं कर सकता। यह बात अगले श्लोकसे दिखलाते हैं — हे महाबाहो इनआगे कहे जानेवाले पाँच कारणोंको अर्थात् कर्मके साधनोंको तू मुझसे जान। अगले उपदेशमें अर्जुनके चित्तको लगानेके लिये और अधिष्ठानादिके ज्ञानकी कठिनता दिखानेके लिये उन पाँचों कारणोंको जाननेयोग्य बतलाकर उनकी स्तुति करते हैं। जिस शास्त्रमें जाननेयोग्य पदार्थोंकी संख्या ( गणना ) की जाय उसका नाम सांख्य अर्थात् वेदान्त है। कृतान्त भी उसीका विशेषण है। कृत कर्मको कहते हैं जहाँ उसका अन्त अर्थात् जहाँ कर्मोंकी समाप्ति हो जाती है वह कृतान्त है — यानी कर्मोंका अन्त है। “यावानर्थ उदपाने” “सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने,परिसमाप्यते” इत्यादि वचन भी आत्मज्ञान उत्पन्न होनेपर समस्त कर्मोंकी निवृत्ति दिखलाते हैं। इसलिये ( कहते हैं कि ) उस आत्मज्ञानप्रद कृतान्त – सांख्यमें यानी वेदान्तशास्त्रमें समस्त कर्मोंकी सिद्धिके लिये कहे हुए ( उन पाँच कारणोंको तू मुझसे सुन )। ‘‘अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।१८.१४।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
वे ( पाँच कारण ) कौनसे हैं सो बतलाते हैं -(१)अधिष्ठान — इच्छा,द्वेष, सुख,दुःख और ज्ञान आदिकी अभिव्यक्तिका आश्रय शरीर। यह पहला कारण है। (२) कर्ता – {अस्मिता की उपाधि वाला} उपाधिस्वरूप भोक्ता जीव यह दूसरा कारण है। (३) भिन्नभिन्न प्रकारके करण –शब्दादि विषयोंको ग्रहण करनेवाले श्रोत्रादि अलगअलग बारह करण हैं। (४) नाना प्रकारकी चेष्टाएँ -श्वासप्रश्वास आदि अलगअलग वायुसम्बन्धी क्रियाएँ और इन चारोंके साथ पाँचवाँ -पाँचकी संख्याको पूर्ण करनेवाला कारण दैव है। अर्थात् चक्षु आदि इन्द्रियोंके अनुग्राहक सूर्यादि देव हैं।
‘‘शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः।।१८.१५।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
मनुष्य अपने शरीर, वाणी और मन से जो कोई न्याय्य (उचित) या विपरीत (अनुचित) कर्म करता है, उसके ये पाँच कारण ही हैं।
‘‘तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः।।१८.१६।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
तत्र शब्द प्रकरणसे सम्बन्ध जोड़ता है। ऐसा होनेसे – यानी पहले बतलाये हुए पाँच कारणोंद्वारा ही समस्त कर्म सिद्ध होते हैं? इसलिये जो अज्ञानी पुरुष वेदान्त और आचार्यके उपदेशद्वारा तथा तर्कद्वारा संस्कृतबुद्धि न होनेके कारण उन अधिष्ठानादि पाँचों कारणोंके साथ अविद्यासे आत्माकी एकता मानकर उनके द्वारा किये हुए कर्मोंका मैं ही कर्ता हूं इस प्रकार केवलशुद्ध आत्माको ( उन कर्मोंका ) कर्ता समझता है ( वह वास्तवमें कुछ भी नहीं समझता )। तथा आत्माको शरीरादिसे अलग माननेवाला भी जो शरीरादिसे अलग केवल आत्माको ही कर्ता समझता है वह भी अकृतबुद्धि ही है। अतः असंस्कृतबुद्धि होनेके कारण वह भी वास्तवमें आत्माका या कर्मका तत्त्व नहीं समझता यह अभिप्राय है। इसलिये वह दुर्बुद्धि है। जिसकी बुद्धि कुत्सित या विपरीत है , ऐसी उस दुष्ट बुद्धि को बारम्बार जन्ममरण देनेमें कारणरूप होने से उसे दुर्बुद्धि कहते हैं ऐसा मनुष्य देखता हुआ भी वास्तवमें नहीं देखता। जैसे तिमिररोगवाला अनेक चन्द्र देखता है या जैसे बालक दौड़ते हुए बादलोंमें चन्द्रमाको दौड़ता हुआ देखता है अथवा जैसे ( पालकी आदि ) किसी सवारीपर चढ़ा हुआ मनुष्य दूसरोंके चलनेमें अपना चलना समझता है ( वैसे ही उसका समझना है )।||५८||
परमार्थदशारूढे जीवन्मुक्तेऽपि कर्मणाम्। भोगोऽङीक्रियते सम्यग्दृश्यते च तथा सति ॥१.५९॥
जब कोई पारमार्थिक अवस्था में पहुंचता है (अपने सच्चे स्वरूप को पहचानता है) या जीवन्मुक्त बन जाता है तो स्पष्ट देख पाता है कि जीव भोक्ता है और आत्मा केवल द्रष्टा, साक्षी है | क्योंकि ऐसा जीवन्मुक्त सिद्धयोगी अन्तःकरण से तादात्म्यापन्न नहीं होता (अन्तःकरण को मैं,मेरा नहीं मानता) अर्थात अन्तःकरण ही कर्ता तथा भोक्ता है , मैं (आत्मा) तो द्रष्टा मात्र हूँ।
‘‘मनोबुद्ध्यहङ्कारचित्तानि नाहं न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे ।
न च व्योमभूमिर्न तेजो न वायुः चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥१॥ निर्वाणषट्कम् ||’’
मैं न मन हूं, न बुद्धि हूं, न अहंकार हूं, न ही चित्त (आंतरिक आत्मा का प्रतिबिंब हूं) {न मैं स्मृतियों का संग्रह पुञ्ज हूँ}। और न ही कान हूँ न जीभ, न नाक और न आँख हूँ। मैं पांच ज्ञान की इंद्रियां नहीं हूं। मैं इससे परे हूं। मैं न आकाश हूँ, न पृथ्वी, न अग्नि, न वायु (अर्थात पाँच तत्व)। मैं वास्तव में, वह शाश्वत ज्ञान और आनंद, शिव, प्रेम और शुद्ध चेतना हूं। ||५९||
अज्ञानां व्यवहारैकनिष्ठानां तदनन्यता। अभोक्तृता च केनैव वक्तुं शक्या मनीषिणा ॥१.६०॥
जो अज्ञानी व्यक्ति केवल व्यवहार दशा (जाग्रत दशा) में ही निष्ठा वाला है , {स्वप्न ,सुषुप्ति और तुरीय अवस्था का कभी विचार ही नहीं करता } वह आत्मा और अन्तःकरण को अभिन्न ही समझता है | ऐसे उस अविवेकी पुरुषको कौन बुद्धिमान पुरुष समझा सकता है कि शुद्ध दृक स्वरूप आत्मा वास्तव में अभोक्ता है ? अर्थात् पारमार्थिक सारतत्व उसकी समझमें आ ही नहीं सकता। || ६० ||
ज्ञानिनः कर्मकर्तृत्वं दृश्यमानमपि स्फुटम्। उत्पादयेत्फलं नेति मन्यन्ते स्वप्नकर्मवत् ॥१.६१॥
ज्ञानी पुरुष भी व्यवहार दशा में कर्म करता हुआ सा दिखाई तो देता है लेकिन उसके कर्म हर्ष ,शोक रूपी फल को उत्पन्न नहीं करते क्योंकि वह (ज्ञानी पुरुष) उन कर्मों को स्वप्न के कर्म जैसा मानता है अथवा जैसे नाटक में अभिनेता भिन्न-भिन्न अभिनय करता है कभी राजा और कभी भिकारी लेकिन वह सुखी-दुखी नहीं होता | प्रबुद्ध पुरुष के कर्म सपने में किये गए कार्यों के समान होते है | जैसे कोई सपने में चोरी या हिंसा करे तो जाग्रत में उसे जेल नहीं होती |
‘‘कतम आत्मेति योऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु हृद्यन्तर्ज्योतिः पुरुषः स समानः सन्नुभौ लोकावनुसंचरति ध्यायतीव लेलायतीव स हि स्वप्नो भूत्वेमं लोकमतिक्रामति मृत्यो रूपाणि ||७|| बृहदारण्यकोपनिषद चतुर्थोऽध्यायःतृत्तीयं ब्राह्मणम्’’
“आत्मा कौन सा है?” “यह जो प्राणों में बुद्धिवृत्तियों के भीतर रहने वाला (विज्ञानमय) ज्योतिः स्वरूप पुरुष है , वह समान (बुद्धिवृत्तियों के सदृश) हुआ इस लोक और परलोक दोनों में संचार करता है | वह [बुद्धिवृत्तिके अनुसार] मानो चिन्तन करता है और [प्राणवृत्तिके अनुरूप होकर] मानो चेष्टा करता है | वही स्वप्न होकर इस लोक (देहेन्द्रिय संघात) का अतिक्रमण करता है और [शरीर तथा इन्द्रिय रूप] यह इस जाग्रत संसार को पार कर जाता है, जो मृत्यु के रूपों (अज्ञानता और उसके प्रभावों) का भी अतिक्रमण करता है।|| ६१ ||
तदयुक्तं न हि स्वप्ने पापकर्तुः स्वतन्त्रता। जाग्रति प्राणिनः कर्म स्वातन्त्र्यं वर्तते खलु ॥१.६२॥
क्योंकि सपने में पाप करने वाला व्यक्ति कार्य करने में स्वतंत्र नहीं होता | जाग्रत अवस्था में (प्रबुद्ध व्यक्ति की) उसकी कार्य करने की स्वतंत्रता मौजूद है इसलिए जाग्रत अवस्था में ही तुरीय का अनुसंधान किया जा सकता है | जाग्रत् अवस्था और तुरीयावस्था की जोड़ी है तथा स्वप्नावस्था सुषुप्ति अवस्था की जोड़ी है। जैसे राम और लक्ष्मण की जोड़ी है और भरत तथा शत्रुघ्न की जोड़ी है।
‘‘अकारक्षरसंभूतः सौमित्रिर्विश्वभावनः ।
उकाराक्षरसंभूतः शत्रुघ्नस्तैजसात्मकः ॥ १॥
प्राज्ञात्मकस्तु भरतो मकाराक्षरसंभवः ।
अर्धमात्रात्मको रामो ब्रह्मानन्दैकविग्रहः ॥ २॥ रामोत्तरतापिन्युपनिषत्’’
‘‘रमन्ते योगिनोऽनन्ते नित्यानन्दे चिदात्मनि ।
इति रामपदेनासौ परं ब्रह्माभिधीयते ॥ ६॥ श्रीरामतापिन्युपनिषत्’’
जिस अनन्त, नित्यानन्द और चिन्मय परमब्रह्म में योगी लोग रमण करते हैं, उसी राम पद (शब्द) से परमब्रह्म प्रतिपादित होता है, अर्थात राम नाम ही परमब्रह्म है। || ६२ ||
तिरश्चां जागरावस्था यथा भोगैककारणम्। तथा स्वप्नदशा नॄणां फलभोगैककारणम् ॥१.६३॥
जैसे जिनका जन्म तिर्यक योनि (पशु योनि) में हुआ है वे जाग्रत अवस्था में केवल प्रकृति प्रदत्त भोग ही भोग सकते हैं | वैसे ही मनुष्य भी स्वप्नावस्था में अपने पुण्य और पाप के अनुसार केवल अपने पिछले कर्मों का फल ही भोगता है। || ६३ ||
नॄणां च जागरावस्था बालानां स्यात्तथा न तु। यूनां वृद्धतमानां वा किमुत स्वात्मवेदिनाम् ॥१.६४॥
लेकिन मनुष्य के बच्चों के लिए जाग्रत अवस्था में ऐसी स्थिति नहीं है ; न जवानों की और न बूढ़ों की क्योंकि उन्हें विशेष बुद्धि प्राप्त है इसलिए वे कर्म करने में स्वतन्त्र हैं | जब सामान्य मनुष्यों का यह हाल है तो फिर आत्मज्ञानियों के बारे में तो कहना ही क्या | क्योंकि आत्मज्ञानी तो जानता है कि मैं कभी कुछ नहीं करता | ‘‘ नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्। पश्यन् श्रृणवन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपन् श्वसन्।।५ .८ ।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ तत्त्व को जानने वाला सांख्ययोगी देखता, सुनता, छूता, सूंघता, खाता, चलता, ग्रहण करता, बोलता, मल-मूत्र का त्याग करता, सोता, श्वास लेता तथा आँखें खोलता और मूँदता भी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ ही इन्द्रियों के विषयों में बरत रही हैं’ — ऐसा समझकर ‘मैं (स्वयं) कुछ भी नहीं करता हूँ’ — ऐसा ही मानता है | क्योंकि मृगतृष्णा में जल समझकर उसको पीने के लिये प्रवृत्त हुआ मनुष्य उस में जल के अभाव का ज्ञान हो जाने पर फिर कभी उसी जल को पीने के लिये प्रवृत्त नहीं होता। ‘‘कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः। स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।४ .१८ ।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ जो पुरुष कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है, वह योगी सम्पूर्ण कर्मों को करने वाला है। || ६४ ||
भाविभोगार्थकं कर्म जाग्रत्येव नॄणां भवेत्। फलं तु कर्मणः स्वप्ने जाग्रत्यपि च युज्यते ॥१.६५॥
मनुष्यों की जाग्रत अवस्था में सोच समझ कर तथा अभिमान पूर्वक जो कर्म किये जाते हैं उनका फल समय के परिपाक से भविष्य में होता है लेकिन जो बिना समझे बूझे , बेहोशी में कर्म बन पड़ते हैं उनका फल स्वप्न में और कभी-कभी जाग्रत में भी होता है | यह कर्म की उग्रता के तारतम्य पर निर्भर करता है कि उसका फल जाग्रत में होगा या स्वप्न में | अतः कर्म करते समय अत्यंत सावधानी की आवश्यकता है | ‘‘यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो विन्दति मातरम्। तथा पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति।। ॥ २,४२.१ ॥ गरुडपुराणम्
अर्थात् जैसे हजारों गौओं के बीच में बछड़ा अपनी माँ के पास पहुंच जाता है वैसे ही कर्म अपने कर्ता के पास पहुंच जाता है ।’’ ‘‘यथा कर्म तथा फलम्’’ ।
‘‘त्रिभिर्वर्षैः त्रिभिर्मासैः त्रिभिर्पक्षैः त्रिभिर्दिनैः।
अत्युत्कटैः पापपुण्यैः इहैव फलमश्नुते।।पंचतंत्र’’
चाहे वह तीन साल, तीन महीने, तीन पखवाड़े या तीन दिन में हो, व्यक्ति अपने अत्युत्कट अच्छे या बुरे कर्मों का फल इस दुनिया में ही भोगता है। || ६५ ||
कर्मण्यध्यस्य भोगं ये भोगेऽध्यस्याथ कर्म च। कर्मतद्भोगयोर्भेदमज्ञात्वाहुर्यथेप्सितम् ॥१.६६॥
जो लोग कर्म में भोग का आरोप कर लेते हैं तथा भोग में कर्म का , वे लोग कर्म और भोग के अंतर को जाने बिना ही जो चाहते हैं सो कहते रहते हैं | कर्म प्राणमय कोष का धर्म है और भोग विज्ञानमय कोष का धर्म है | प्राण के बिना कर्म नहीं हो सकता और बुद्धि के बिना भोग नहीं हो सकता क्योंकि जब हम सो जाते हैं तब भोगों की प्रतीति नहीं होती अतः अज्ञानी लोग कर्म और भोग में अन्योन्य अध्यास कर लेते हैं | अध्यास शब्द का अर्थ होता है किसी एक चीज को दूसरी समझ लेना जैसे रस्सी को सर्प समझ लेना | रामचरित मानस के अयोध्याकाण्ड में लक्ष्मण और निषादराज का संवाद है , जिसे लक्ष्मण गीता भी कहते हैं , वहाँ लक्ष्मणजी ने कहा है कि — काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता॥२॥
हे भाई! कोई किसी को सुख-दुःख का देने वाला नहीं है। सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं॥२॥ और आगे कहते हैं कि —
जोग बियोग भोग भल मंदा। हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा॥ जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। संपति बिपति करमु अरु कालू॥३॥
संयोग (मिलना), वियोग (बिछुड़ना), भले-बुरे भोग, शत्रु, मित्र और उदासीन- ये सभी भ्रम के फंदे हैं। जन्म-मृत्यु, सम्पत्ति-विपत्ति, कर्म और काल- जहाँ तक जगत के जंजाल हैं,॥३॥
धरनि धामु धनु पुर परिवारू। सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू॥ देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीं॥४॥
धरती, घर, धन, नगर, परिवार, स्वर्ग और नरक आदि जहाँ तक व्यवहार हैं, जो देखने, सुनने और मन के अंदर विचारने में आते हैं, इन सबका मूल मोह (अज्ञान) ही है। परमार्थतः ये नहीं हैं॥४॥ दोहा :- सपनें होइ भिखारि नृपु रंकु नाकपति होइ। जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोइ॥९२॥
जैसे स्वप्न में राजा भिखारी हो जाए या कंगाल स्वर्ग का स्वामी इन्द्र हो जाए, तो जागने पर लाभ या हानि कुछ भी नहीं है, वैसे ही इस दृश्य-प्रपंच को हृदय से देखना चाहिए॥९२॥
अस बिचारि नहिं कीजिअ रोसू। काहुहि बादि न देइअ दोसू॥ मोह निसाँ सबु सोवनिहारा। देखिअ सपन अनेक प्रकारा॥१॥
ऐसा विचारकर क्रोध नहीं करना चाहिए और न किसी को व्यर्थ दोष ही देना चाहिए। सब लोग मोह रूपी रात्रि में सोने वाले हैं और सोते हुए उन्हें अनेकों प्रकार के स्वप्न दिखाई देते हैं॥१॥
एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी॥ जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा॥२॥
इस जगत रूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपंच (मायिक जगत) से छूटे हुए हैं। जगत में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए, जब सम्पूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाए॥२॥ होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥ सखा परम परमारथु एहू। मन क्रम बचन राम पद नेहू॥३॥
विवेक होने पर मोह रूपी भ्रम भाग जाता है, तब (अज्ञान का नाश होने पर) श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम होता है। हे सखा! मन, वचन और कर्म से श्री रामजी के चरणों में प्रेम होना, यही सर्वश्रेष्ठ परमार्थ (पुरुषार्थ) है॥३॥
राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अबिगत अलख अनादि अनूपा॥ सकल बिकार रहित गतभेदा। कहि नित नेति निरूपहिं बेदा॥४॥
श्री रामजी परमार्थस्वरूप (परम सत्य वस्तु) परब्रह्म हैं। वे अविगत (जानने में न आने वाले) अलख (स्थूल दृष्टि से देखने में न आने वाले), अनादि (आदिरहित), अनुपम (उपमारहित) सब विकारों से रहति और भेद शून्य हैं, वेद जिनका नित्य ‘नेति-नेति’ कहकर निरूपण करते हैं॥४॥
दोहा :- भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल। करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहिं जग जाल॥९३॥
वही कृपालु श्री रामचन्द्रजी भक्त, भूमि, ब्राह्मण, गौ और देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करके लीलाएँ करते हैं, जिनके सुनने से जगत के जंजाल मिट जाते हैं॥९३॥
‘‘रामो विग्रहवान् धर्मः साधुः सत्य पराक्रमः । राजा सर्वस्य लोकस्य देवानाम् इव वासवः ॥३-३७-१३॥ रामायणम्/अरण्यकाण्डम्/सर्गः ३७’’
भगवान श्रीराम धर्म के साक्षात् साकार रूप हैं, वे साधुता, सत्य एवं पराक्रम की मूर्ति हैं और जैसे इन्द्र सभी देवताओं के राजा हैं वैसे ही राम संपूर्ण मानवता के शासक हैं। || ६६ ||
तेषां मन्दधियां ज्ञानवादिनां पापकारिणाम्। कथं कृतार्थतां ब्रूयामध्यासक्षयसंभवाम् ॥१.६७॥
उन मंदबुद्धि वाले पुरुषों के लिए जो वास्तव में हैं तो पापी लेकिन अपने को ज्ञानवान घोषित करते हैं और जिनका अध्यास माने भ्रान्ति का क्षय नहीं हुआ है। शोक-मोह की निवृत्ति भी नहीं हुई है, उन्हें कृतार्थ (ज्ञात ज्ञातव्य,लक्षित लक्ष्य,प्राप्त प्राप्तव्य, कृतकृत्य) कैसे कहा जा सकता है | अर्थात मैं यह कैसे कह सकता हूँ कि उन्होंने अपना उद्देश्य पूरा कर लिया है जो कि सभी प्रकार के अध्यासों की निवृत्ति के उपरान्त ही सम्भव है | ज्ञानी होने का तो मतलब ही यह है कि सभी प्रकार संशय तथा भ्रमों समूल नष्ट हो जाना |
‘‘आरोप्यते शिला शैले क्लेशेन महता यथा ।
पत्यते च सुखेनाधस्तथात्मा पुण्यपापयोः ॥३१८॥ सारसमुच्चयः’’
जैसे पहाड़ के ऊपर चट्टान बड़ी कठिनता से चढ़ाई जाती है परन्तु क्षणभर में गिराई जा सकती है, उसी प्रकार आत्मा द्वारा गुण तो कठिनाई से ग्रहण किये जाते हैं, परन्तु दोषों में पतन शीघ्र हो जाता है। || ६७ ||
कर्मण्यकर्मधीर्येषामकर्मणि च कर्मधीः। ते चाध्यासवशा मन्दा ज्ञानिनः स्वैरचारिणः ॥१.६८॥
जो निषिद्ध कर्मों को विहित कर्म समझते हैं तथा विहित कर्मों को निषिद्ध कर्म समझते हैं , ऐसे भ्रान्त , अज्ञानी और मंदबुद्धि लोग भ्रमवश मिथ्याभिमान धारण करने के कारण अपने को देह मानकर स्वेच्छाचारी होते हैं |
‘‘अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसाऽऽवृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी।।१८ .३२ ।।’’
हे पार्थ जो तमोगुणसे आवृत हुई बुद्धि अधर्मको – निषिद्ध कार्यको धर्म मान लेती है यानी शास्त्रविहित मान लेती है तथा जाननेयोग्य अन्यान्य समस्त पदार्थोंको भी जो विपरीत ही समझती है वह तामसी है। लेकिन जो सच्चे ज्ञानी हैं वे तो स्वाराज्य सिद्धि को प्राप्त होने के कारण यदृच्छया अथवा ईश्वरेच्छा से प्रेरित होते हैं |
‘‘यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।।४ .२२ ।।’’ श्रीमद् भगवद्गीता
यदृच्छया (अपने आप) जो कुछ प्राप्त हो उसमें ही संतुष्ट रहने वाला, द्वन्द्वों से अतीत तथा मत्सर से रहित, सिद्धि व असिद्धि में समभाव वाला पुरुष कर्म करके भी नहीं बँधता है।। इसलिए ज्ञानी भी ब्रह्मानुभूति होने के उपरान्त स्वच्छंद विचरण करता है |
सम्पूर्णं जगदेव नन्दनवनं सर्वेऽपि कल्पद्रुमाः गाङ्गं वारि समस्तवारि निवहाः पुण्याः समस्ताः क्रियाः । वाचः प्राकृतसंस्कृताः श्रुतिशिरो वाराणसी मेदिनी सर्वावस्थितिरस्य वस्तुविषया दृष्टे परब्रह्मणि ।।
जिसने सभी पहलुओं में ब्रह्म को जान लिया है, उसके लिए सारा संसार स्वर्ग का बगीचा बन जाता है; सभी वस्तुएं कल्पवृक्ष (इच्छानुरूप फल देने वाले पेड़); हर जल-प्रवाह पवित्र गंगा; उसके सभी कार्य, पुण्य और शुभता; ऊँचे विचारों वाली संस्कृत वाणी और साथ ही मूर्खतापूर्ण बातें प्राकृत (शब्दमात्र) वेदांतवाक्य बन जाते हैं तथा पूरी पृथ्वी, वाराणसी जैसी ज्ञानमयी दिखती है | उसके हर विचार या जागरूकता से उसे केवल ब्रह्म का पता चलता है।॥६८॥
वर्णाश्रमादिधर्माणामद्वैतं कर्मणैव ये। अनुतिष्ठन्ति ते मूढाः कर्माकर्मोभयच्युताः ॥१.६९॥
वर्ण और आश्रम के द्वारा विहित कर्म जो कि अंतःकरण की शुद्धि का साधन है , यदि निष्काम भाव से किया जाये तो चित्त शुद्धि में सहायक होता है | केवल विहित कर्म अनुष्ठान से ही अद्वैत आत्मानुभूति नहीं हो जाती , उसके लिए तो वेदांत के श्रवण , मनन और निदिध्यासन की आवश्यकता होती है | पर जो लोग केवल कर्म से ही अद्वैत की सिद्धि कर लेना चाहते है वे कर्म और अकर्म माने ज्ञान और योग दोनों से भ्रष्ट हो जाते है | वेद का स्पष्ट निर्देश है ‘‘नास्त्यकृतः कृतेन’’ मुण्डकोपनिषद .१.२.१२. — कर्म से शाश्वत तत्व नहीं प्राप्त होता है। कृतेन – किए हुए कर्म के द्वारा जो अकृत है हम उसको नहीं पा सकते । तात्पर्य यह हुआ कि परमात्म तत्त्व की प्राप्ति मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ और शरीर आदि जड़ पदार्थों के द्वारा नहीं होती | प्रत्युत जड़ता के त्याग से होती है। जब तक मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ , शरीर, देश, काल और वस्तु आदिका आश्रय है तबतक एक परमात्मा का आश्रय नहीं हो सकता। मन और बुद्धि आदि के आश्रय से परमात्मा की प्राप्ति होगी — यह साधक की मूल भूल है। अगर जड़ता का आश्रय और विश्वास टूट जाए तथा एकमात्र परमात्मा का ही आश्रय और विश्वास हो जाए तो परमात्मा प्राप्ति में देरी नहीं लग सकती । यहां कर्म से मतलब है निष्काम कर्मयोग से और अकर्म अर्थात ज्ञानयोग। || ६९ ||
स्वानुभूतिं वरिष्ठां तां सर्वानुष्ठानवर्जिताम्। सर्वानुष्ठानवन्तोऽपि सिद्धामाहुर्बतात्मनाम् ॥१.७०॥
सभी प्रकार के क्रियाकलापों को करते हुए भी यदि कोई कहे कि मुझे आत्मानुभूति (ब्रह्मानुभूति) हो गई है , तो यह संभव नहीं है | क्योंकि ब्रह्मानुभूति होने पर तो सभी प्रकार के कर्म अनुष्ठान छूट जाते हैं | यहां एक बात तो यह समझने की है कि आत्मा और ब्रह्म पर्यायवाची शब्द हैं | आत्मा का अनुभव तो सबको होता ही है , ऐसा कौन है जो कह सकता है कि मैं नहीं हूँ ? लेकिन मैं ब्रह्म हूँ यह अनुभव गुरुकृपा, शास्त्र कृपा , ईश कृपा और आत्म कृपा के बिना संभव नहीं है | और जब आत्मज्ञान या ब्रह्म ज्ञान हो जाता है तब कर्तृत्व तथा भोक्तृत्व की निवृत्ति हो जाती है | “आत्मानं चेद् विजानीयाद् अयमस्मीति पूरुषः । किमच्छन् कस्य कामाय शरीरम् अनुसंज्वरेत् ॥” बृहदारण्यक उपनिषद्॥ ४,४.१२ ॥ अगर कोई आत्माको ठीक-ठीक पहचान जाय ‘‘अयमस्मि ’’ यह समझ जाए , अपरोक्ष साक्षात्कार हो जाये तो फिर किस इच्छा से किस कामना से अपने शरीर को तकलीफ देवे या शरीर से शरीर के पीछे चलकर अपने ऊपर जन्म और मृत्यु का बुखार चढ़ाये ? पूरुषः माने जीव, लेकिन चिदंश में जीव ब्रह्म ही है ऐसा पहले कह चुके हैं। ||७०||
अभेदध्यानसाध्यां तां स्वानुभूतिं महत्तमाम्। विचारसाध्यां मन्यन्ते ते महापापकर्मिणः ॥१.७१॥
अति उत्कृष्ट या सर्वोत्तम महत्वपूर्ण जो आत्मानुभूति या ब्रह्मानुभूति है , वह तो केवल अभेद साधना या अद्वैत साधना के द्वारा ही सुलभ होती है | ऐसा महापुरुषों का मानना है | महापापी लोग ही उसे विचार साध्य मानते हैं | जो तत्व मन और वाणी से भी परे है उसे तो निर्विचार अवस्था में ही अनुभव किया जा सकता है न कि विचार या चिंतन करने से | आपका मन तो जाग्रत और स्वप्नावस्था तक ही साथ देता है , सुषुप्ति अवस्था में भी काम नहीं आता तो फिर मृत्यु और मूर्छा की तो बात ही कौन करे | बृहदारण्यक उपनिषद् में सुषुप्ति का वर्णन इस प्रकार किया गया है —
‘‘अत्र पिताऽपिता भवति माताऽमाता लोका अलोका देवा अदेवा वेदा अवेदा। अत्र स्तेनोऽस्तेनो भवति भ्रूणहाऽभ्रूणहा चाण्डालोऽचण्डालः पौल्कसोऽपौल्कसः श्रमणोऽश्रमणस्तापसोऽतापसोऽनन्वागतं पुण्येनानन्वागतं पापेन तीर्णो हि तदा सर्वाञ्छोकान्हृदयस्य भवति॥२२॥ बृहदारण्यकोपनिषद चतुर्थोऽध्यायः तृत्तीयं ब्राह्मणम्’’
इस अवस्था में पिता पिता नहीं रहता, माता माता नहीं रहती, संसार नहीं रहा, देवता नहीं रहे, वेद अब वेद नहीं रहे। इस अवस्था में जो चोर है, अब चोर नहीं रहा, कुलीन ब्राह्मण का हत्यारा हत्यारा नहीं रहा, चांडाल अब चांडाल नहीं रहा, {शूद्र के द्वारा ब्राह्मणी में उत्पन्न बालक चांडाल कहलाता है} पुलकसा अब पुलकसा नहीं रहा, {शूद्र के द्वारा क्षत्राणी में उत्पन्न बालक पुल्कस कहलाता है} साधु अब साधु नहीं रहा, तपस्वी अब तपस्वी नहीं रहा। उसका यह रूप अच्छे कर्मों से अछूता और बुरे कर्मों से भी अछूता ही रहता है, क्योंकि इस गाढ़ सुषुप्ति की अवस्था में वह अपने दिल के सभी दुखों से परे हो जाता है। जब हमारा भान रहता है तब सब मालूम पड़ता है। जब हमारा भान शान्त हो जाता है-भान माने मालूम पड़ना – प्रतीत होना। जब कुछ नहीं-मूर्च्छा में, सुषुप्ति में, समाधि में किसने यह दुनिया देखी है? कहाँ जाती है वह? जब और जहाँ हमारा होश है तब सब है और होश नहीं है तो कुछ नहीं है। होश से जुदा दुनियाँ कुछ नहीं है। इसका नाम वेदान्त-दर्शन है। केवल भान से मालूम पड़ता है और अभान से लोप हो जाता है और केवल सत से उत्पन्न होता है और सत में लीन हो जाता है। सत और भान दोनों एक हैं; इसलिए परमात्मा से अलग यह सृष्टि नहीं है। सृष्टि परमात्मा-रूप है। लेकिन आत्मा तो अवस्थात्रय से अतीत है। आत्मा तीनों गुणों से परे है।
‘‘त्वं गुणत्रयातीतः। त्वं अवस्थात्रयातीतः। त्वं देहत्रयातीतः। त्वं कालत्रयातीतः।’’ तुम सत्व,रज,तम तीनो गुणों से भिन्न हो | तुम तीनों कालों भूत, भविष्य और वर्तमान से भिन्न हो | तुम तीनों देहो से भिन्न हो |
‘‘त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।२ .४५।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
हे अर्जुन वेदों का विषय तीन गुणों से सम्बन्धित (संसार से) है और तुम तो त्रिगुणातीत निर्द्वन्द्व, नित्य सत्व (शुद्धि) में स्थित, योगक्षेम से रहित और आत्मवान् बनो। || ७१ ||
निदिध्यासनमप्यात्माभेदाभिध्यानलक्षणम्। उपेक्षन्ते वृथाद्वैतज्ञानवादैकमोहतः ॥१.७२॥
अद्वैत सिद्धांत को ठीक-ठीक न समझने के कारण मोहित हुए कुछ लोग गलत तरीके से निदिध्यासन की प्रथा को अनदेखा करते हैं | (नितरां दिध्यासा, ध्यातुमिच्छा निदिध्यासा) आत्मा और ब्रह्म अभिन्न हैं ऐसा निरन्तर चिन्तन करना ही निदिध्यासन है | सर्वत्र एक अखण्ड ब्रह्म की ही सत्ता है ऐसा कहने मात्र से अद्वैत की सिद्धि नहीं हो जाती प्रत्युत निदिध्यासन परमावश्यक है | अतः निदिध्यासन की उपेक्षा नहीं की जा सकती | भगवान श्रीआदिशंकराचार्यजी ने निदिध्यासन का बहुत ही सरल प्रकार केवल तीन श्लोकों में प्रातःस्मरण की परम्परा में ही ड़ाल दिया है देखिये कितना सुन्दर है –
‘‘प्रातः स्मरामि हृदि संस्फुरदात्मतत्त्वं सच्चित्सुखं परमहंसगतिं तुरीयम् ।
यत्स्वप्नजागरसुषुप्तिमवैति नित्यं तद्ब्रह्म निष्कलमहं न च भूतसङ्घः ॥१॥
मैं प्रातःकाल हृदय में स्फुरित होते हुए आत्म तत्व का स्मरण करता हूँ, जो सत, चित् और आनन्द स्वरूप है, परम हंसों का प्राप्य स्थान है और जाग्रत आदि तीनों अवस्थाओं से अलग है , विलक्षण है, जो स्वप्न, जाग्रत और सुषुप्ति अवस्था को नित्य जानता है, वह स्पन्द शून्य , निष्कल ब्रह्म ही मैं हूँ, पंच भूतों का संघात (शरीर) मैं नहीं हूँ ।|| १ ||
प्रातर्भजामि मनसा वचसामगम्यं वाचो विभान्ति निखिला यदनुग्रहेण ।
यन्नेतिनेतिवचनैर्निगमा अवोचुस्तं देवदेवमजमच्युतमाहुरग्र्यम् ॥२॥
जो मन और वाणी से अगम्य है, जिसकी कृपा से समस्त वाणी भास रही हैं, जिससे सब कुछ प्रकाशित होता है जिसका वेद और शास्त्र नेति-नेति कहकर जिसका निरूपण करते हैं, और जिस जन्मरहित देवदेवेश्वर अच्युत को (आदि) पुरुष कहते हैं, मैं उसका प्रातःकाल भजन करता हूँ । || २ ||
प्रातर्नमामि तमसः परमर्कवर्णं पूर्णं सनातनपदं पुरुषोत्तमाख्यम् ।
यस्मिन्निदं जगदशेषमशेषमूर्तौ रज्ज्वां भुजङ्गम इव प्रतिभासितं वै ॥३॥
जिस सर्वस्वरूप परमेश्वर में यह समस्त संसार रज्जु में सर्प के समान प्रतिभासित हो रहा है, उस अज्ञान से परे, दिव्य सूर्य के समान तेजस्वी ,पूर्ण सनातन पुरुषोत्तम को मैं प्रातःकाल नमस्कार करता हूँ । || ३ ||’’
कहने का तात्पर्य यह है कि वेदान्त वाद का विषय नहीं अनुभव करने का है |
‘‘यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः। अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम् ॥३॥ केनोपनिषद् द्वितीयः खण्डः’’
जिसके द्वारा इसको ‘विचार बद्ध’ नहीं किया जाता, उसके पास ‘इसका’ विचार है; जिसके द्वारा ‘इसका’ मनन पूर्वक विचार किया गया है वह ‘इसे’ नहीं जानता। जो ‘इसका’ विवेचन करते हैं उनके लिए ‘यह’ अविज्ञात है, जो ‘इसके’ विवेचन का प्रयत्न नहीं करते, उनके लिए ‘यह’ ज्ञात है।
‘‘प्राणो ह्येष यः सर्वभूतैर्विभाति विजानन् विद्वान् भवते नातिवादी।
आत्मक्रीड आत्मरतिः क्रियावानेष ब्रह्मविदां वरिष्ठः ॥४॥
मुण्डकोपनिषद् तृतीयो मुण्डकः प्रथमः खण्डः’’
यह प्राण ही है जो समस्त भूतपदार्थों के द्वारा अभिव्यक्त होकर उद्भासित होता है; विद्वान् व्यक्ति इसे पूर्णतया जानते हुए, मतमतान्तर एवं विवादों (अतिवाद) से बचता है। ‘आत्मा’ में उसकी रति होती है तथा ‘आत्मा’ में ही क्रीड़ारत रहकर कर्म करता रहता है,-ब्रह्मवेत्ताओं में वह सर्वश्रेष्ठः वरिष्ठ है।|| ७२ ||
आश्रित्यैव विचारं ये वाक्यार्थमननात्मकम्। मन्यन्ते कृतकृत्यत्वमात्मनां ते हि मोहिताः ॥१.७३॥
महावाक्यों के अर्थ का केवल विचार करने मात्र से जो अपने को कृतकृत्य मानने लगते हैं , वे वास्तव में मोहित हैं अर्थात अविवेकी हैं | उपनिषदों के महान कथन जैसे कि (सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत।) इसमें से {सर्वं खल्विदं ब्रह्म} इतना तो इनको याद रहता और आगे का आधा हिस्सा {तज्जलानिति शान्त उपासीत।} भूल जाते हैं | उपनिषद के ये महावाक्य निराकार ब्रह्म और उसकी सर्वव्यापकता का परिचय देते है। ये महावाक्य उद्घोष करते हैं कि मनुष्य देह, इंद्रिय और मन का संघटन मात्र नहीं है, बल्कि वह सुख-दुख, जन्म-मरण से परे दिव्य स्वरूप है, आत्म स्वरूप है। आत्मभाव से मनुष्य जगत का द्रष्टा भी है और दृश्य भी। जहां-जहां ईश्वर की सृष्टि का आलोक व विस्तार है, वहां-वहां उसकी पहुंच है। वह परमात्मा का अंश भूत आत्मा है। यही जीवन का चरम-परम पुरुषार्थ है। उपनिषद के ये महावाक्य मानव जाति के लिए महाप्राण, महौषधि एवं संजीवनी बूटी के समान हैं, जिन्हें हृदयंगम कर मनुष्य आत्मस्थ हो सकता है ।
‘‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन॥९॥ निरालम्बोपनिषद’’
यह समस्त विश्व ही ब्रह्म हैं, इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है॥ शरीर का चर्म, रक्त, मांस, अस्थियां, ‘आत्मा’ नहीं होतीं। इसी भांति इन्द्रियों द्वारा की जाने वाली क्रियाओं को कर्म कहते हैं। ‘ब्रह्म’ द्वारा निर्मित विभिन्न जीव-रूपों में भेद मानना अज्ञान कहलाता है। सत-चित-आनन्द-स्वरूप परमात्मा के ज्ञान से जो आनन्दपूर्ण स्थिति बनती है, वह सुख है। नश्वर विषयों का विचार करना दुःख कहलाता है। सत्य और सत्संग का समागम ही स्वर्ग है। और नश्वर संसार के मोह-बंधन में पड़े रहना ही नरक है। ‘मैं हूं’ का विचार ही बंधन है। सभी प्रकार का योग, वर्ण और आश्रम-व्यवस्था तथा धर्म-कर्म के संकल्प भी बन्धन-स्वरूप हैं। मोक्ष पर विचार करना, आत्मा के गुणों का संकल्प, यज्ञ, व्रत, तप, दान आदि का विधि-विधान आदि भी बन्धन के ही रूप हैं। जब सभी प्रकार के सुख-दुख, मोह-ममता आदि नष्ट हो जायें, तब उस स्थिति को मोक्ष कहते हैं। जिसके हृदय में ब्रह्मरूप ज्ञान ही शेष रह जाये, उसे शिष्य और आत्मतत्त्व के विज्ञानमय स्वरूप को जानने वाला विद्वान अथवा गुरु होता है। जो ‘मैं ही करता हूं’ या ‘मैंने किया है’ इस भाव से लिप्त रहता है, वह मूर्ख है। ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ के भाव को धारण करके की जाने वाली साधना, तप कहलाती है। प्राण, इन्द्रिय, अंतःकरण आदि से भिन्न सच्चिदानन्दस्वरूप और नित्य, मुक्त, ब्रह्म का स्थान परम पद कहा जाता है। जो समस्त धर्मों तथा कर्मों में ममता एवं अहंकार का परित्याग करके ‘ब्रह्म’ की शरण में जाकर उसी को सब कुछ समझता है, वह साधक या पुरुष संन्यासी कहलाता है। वही मुक्त, पूज्य, योगी, परमहंस, अवधूत और ब्राह्मण होता है। उसका पुनरावर्तन नहीं होता। यह उन उपनिषदों के वचनों का रहस्य है। ‘निरावलम्ब,’ अर्थात् ब्रह्म के अतिरिक्त किसी अन्य के अधीन जो नहीं होता, वह ‘मोक्ष’ का अधिकारी होता है। || ७३ ||
आद्यज्ञानोदये काम्यकर्मत्याग उदीर्यते। द्वितीयसम्यग्ज्ञाने तु नैमित्तिकनिराकृतिः ॥१.७४॥
जब ज्ञान का पहला स्तर प्राप्त होता है तब काम्य कर्मों का त्याग हो जाता है | और अगले स्तर में सम्यग्ज्ञान होने पर नैमित्तिक कर्मों की भी निराकृति की जा सकती है | क्योंकि शुद्ध आत्मा तो कर्तृत्व और भोक्तृत्व से रहित है | ‘‘कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते। पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतु रुच्यते।।१३.२१।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ कार्य और कारण के उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और पुरुष (जीव) सुख-दुख के भोक्तृत्व में हेतु कहा जाता है। ||७४||
तृतीयपूर्णज्ञाने च नित्यकर्मनिराकृतिः। चतुर्थाद्वैतबोधे तु सोऽतीवर्णाश्रमी भवेत् ॥१.७५॥
और जब ज्ञान के तीसरे स्तर पर पहुंचता है तब अर्थात् जब पूर्ण ज्ञान हो जाता है तब नित्यकर्म की भी उपेक्षा की जा सकती है |और जब चौथा स्तर प्राप्त होता है अर्थात् जब अद्वैत का अनुभव होता है तब वह व्यक्ति वर्ण और आश्रमों के धर्मों से भी अतीत हो जाता है अर्थात् अवधूत की स्थिति को प्राप्त कर लेता है | ‘‘अतिवर्णाश्रमी भवेत्’’ अर्थात वर्णाश्रम से ऊपर उठ जाता है | श्वेताश्वतर उपनिषद में इसका वर्णन इस प्रकार किया गया है – ‘‘यदा चर्मवदाकाशं वेष्टयिष्यन्ति मानवाः। तदा देवमविज्ञाय दुःखस्यान्तो भविष्यति॥’’ जब मानव सन्तति आकाश को चमड़े के या कपडे के समान आवेष्टित करके धारण करेगी तथा द्युलोकों को परिधान के समान अपने ऊपर लपेट लेगी, केवल तभी अपने ‘प्रभु’, ‘ईश्वर’ परमदेव ,परमात्मा के ज्ञान के बिना ही ‘जगत्’ के दुःखों का अन्त हो जायेगा। अर्थात ज्ञान के बिना मुक्ति संभव नहीं है | ‘‘तपःप्रभावाद्देवप्रसादाच्च ब्रह्म ह श्वेताश्वतरोऽथ विद्वान्। अत्याश्रमिभ्यः परमं पवित्रं प्रोवाच सम्यगृषिसङ्घजुष्टम्॥’’ अपनी भक्ति के तप के प्रभाव से (ऊर्जा शक्ति) से तथा परमेश्वर की कृपा से श्वेताश्वतर मुनि ने तब अपनी चेतना में ‘ब्रह्म’ को जाना तथा उसने (अत्याश्रमिभ्यः) लौकिक जीवन का परित्याग करने वालों के पास आकर उन्हें उस ‘परमोच्च’ एवं ‘परम पवित्र परमेश्वर’ के विषय में सम्यक् रूप से ऋषियों की सभा में प्रवचन किया, जिसमें ऋषि-संघ सर्वदा आश्रय ग्रहण करते हैं। || ७५ ||
नित्यनैमित्तिकोपेतज्ञानान्मुक्तिः क्रमाद्भवेत्। सम्यग्ज्ञानात्तु सा जीवन्मुक्तिर्नित्यैकसंयुतात् ॥१.७६॥
नित्यकर्म और नैमित्तिक कर्म यथावत करते हुए धीरे-धीरे अन्तःकरण शुद्ध होने पर क्रम से मुक्ति प्राप्त होती है | परन्तु गुरुकृपा से सम्यक ज्ञान प्राप्त हो जाने से तत्क्षण जीवन्मुक्त हुआ जा सकता है, क्योंकि परमात्मा एक है और नित्य है , उस नित्य, एक से सम्बन्ध हो जाने पर मुक्ति तो आत्मा स्वभाव ही है | उसे प्राप्त नहीं करना पड़ता | श्वेताश्वतर उपनिषद में कहा है कि
‘‘नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान्।
तत् कारणं सांख्ययोगाधिगम्यं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः॥६.१३॥ ’’
यह सब जो कुछ दिखता है अनित्य ही है, अर्थात् अस्थायी एवं असत् है, उसमें ‘वह’ परमात्मा जो देखने वाला है वही एकमात्र ‘नित्य तत्व’ है, और समस्त चेतनों में वही ‘एकमात्र’ सच्चा ‘चेतन-तत्त्व’ है; बाकी तो सब चिदाभास हैं | अनेकों की कामनाओं को ‘वह’ ‘एक’ ही परिपूर्ण करता है; ‘वह’ एकमात्र ‘मूल कारण-स्वरूप’ है जिस पर सांख्य एवं योग हमें ले जाते हैं। यदि तुम इस ‘देव’ (ईश्वर) को जान लो तो तुम समस्त बंधनों से मुक्त हो जाओगे। अर्थात परमात्मा के मिलने में या जीवन्मुक्त होने में देर नहीं लगती केवल अन्तःकरण के दर्पण को शुद्ध करके उनके दर्शन की योग्यता प्राप्त करने में ही देरी लगती है | क्योंकि परमात्मा तो नित्य प्रकट ही है | वास्तव में कर्म किसी को नहीं बांधता क्योंकि कर्म तो स्वयं ही जड़ है वो क्या किसी को बांधेगा , कर्म में जो कर्तृत्व है वह ही बंधन का कारण होता है। || ७६ ||
पूर्णज्ञानाद्विदेहाख्या शाश्वती मुक्तिरिष्यते। यथा नैष्कर्म्यसंसिद्धिर्जीवन्मुक्तेर्निरंकुशा ॥१.७७॥
जैसे जीवन्मुक्त को निरंकुश , निर्वाध नैष्कर्म्य सिद्धि (इच्छा रहित कर्म करना) प्राप्त होती है वैसे ही द्रष्टा और दृश्य का विवेक हो जाने के कारण पूर्ण ज्ञान हो जाने पर अनन्त काल तक रहने वाली (शाश्वती मुक्ति) विदेह मुक्ति कही जाती है | पातञ्जल योगसूत्र में बताया है कि ‘‘तदा द्रष्टु: स्वरूपे अवस्थानं ।।३।।’’उस समय द्रष्टा यानी आत्मा की अपने स्वरूपमें स्थिति हो जाती है । अर्थात वह कैवल्य अवस्थाको उपलब्ध हो जाता है ।|| ७७ ||
अत्रैवं सति नैष्कर्म्यं ज्ञानकर्मसमुच्चयात्। सिध्येत्क्रमेण सद्यो वा नान्यथा कल्पकोटिभिः ॥१.७८॥
अतः इस सम्बन्ध में ज्ञान और कर्म के समुच्चय से अर्थात ज्ञान और कर्म का एक साथ अनुष्ठान करने से नैष्कर्म्य का अनुभव होता है | और यह बात तत्परता की गति पर निर्भर करती है कि यह नैष्कर्म्य सिद्धि क्रम से होगी अथवा एक ही झटके में शीघ्र ही हो जाएगी |
यह विषय ईशावास्योपनिषद में बहुत विस्तार समझाया गया है |
यहाँ संक्षेप में खाली एक मंत्र लिखते हैं |
‘‘विद्यांच अविद्याञ्च यस्तद्वेदोभयं सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते ॥’’
इसका शाब्दिक अर्थ यह है- जो विद्या और अविद्या-इन दोनों को ही एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमरत्व (देवतात्मा भाव अर्थात देवत्व) प्राप्त कर लेता है। जो तत् पदार्थ को इस रूप में जानता है कि वह एक साथ विद्या और अविद्या दोनों है, | वह अविद्या से मृत्यु को पार कर विद्या से अमरता का आनन्द लाभ करता है। यहाँ विद्या माने ज्ञानयोग और अविद्या माने निष्काम कर्म तथा उपासना समझना चाहिए | शरीर और मन से सम्बन्ध रखने वाली लौकिक और वैदिक विद्या को यहाँ अविद्या शब्द से कहा गया है |इसी बात को मुण्डकोपनिषद में परा तथा अपरा नाम से कहा गया है |
‘‘तत्र अपरा ऋग्वेदः यजुर्वेदः सामवेदः अथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषम् इति। अथ परा यया तत् अक्षरम् अधिगम्यते ॥’’
इसमें अपरा है, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद,शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द तथा ज्योतिष। और परा विद्या वह है जिससे ‘अक्षर तत्व’ का ज्ञान होता है। इसके सिवा दूसरे किसी उपाय से हजारों जन्मों में भी मुक्ति की सिद्धि नहीं हो सकती || ७८ ||
यावद्विदेहमुक्तिः सा न सिध्यति शरीरिणः। तावत्समुच्चयः सिद्धो ज्ञानोपासनकर्मणाम् ॥१.७९॥
जब तक शरीर धारी जीव को विदेह मुक्ति का अनुभव न हो जाये तब तक उसे कर्म ,उपासना और ज्ञान का समुच्चय करके ही अनुष्ठान करते रहना चाहिए | इसी बात को हनुमानजी ने अपने शब्दों इस प्रकार कहा कि
“देहदृष्ट्या तु दासोऽहं जीवदृष्ट्या त्वदंशक:।
आत्मदृष्ट्या त्वमेवाहमिति मे निश्चला मति:।।”
हनुमानजी बोले – हे प्रभु ! देह भाव से देखूँ तो मैं आपका सेवक हूँ, जीव भाव से देखूँ तो मैं आपका अंश हूँ और यदि आत्म भाव से देखूँ तो मैं आप ही हूँ। ऐसा मेरा निश्चय है। अतः शरीर से सेवा रूपी कर्म , मन से भगवान की उपासना और बुद्धि से ‘‘ऐतदात्यमिदं सर्वं तत्सत्यं स आत्मा तत्त्वमसि, श्वेतकेतो ! इति …॥ छा० ६।८।७ ॥’’ अर्थात् यह सब उस आत्मा से व्याप्त है – ऐतदात्म्य है । वह (आत्मा) सत्य है । वह आत्मा वह तुम हो, श्वेतकेतु ! इस प्रकार तद्रूपता का अनुसंधान करते रहना चाहिए। || ७९ ||
तस्माद् ज्ञात्वा परात्मानं ध्याननिष्ठो महामतिः। भूयान्निजाश्रमाचार निरतः श्रेयसे सदा ॥१.८०॥
इस प्रकार परमात्मतत्व को जानने के पश्चात बुद्धिमान पुरुष को ध्याननिष्ठ रहते हुए अपने वर्णाश्रम धर्मका , कुलाचार धर्म का और लौकिक व्यवहारों पालन करने से सर्वदा ही परम कल्याण की प्राप्ति होती है | जैसे एक ड्राइवर गाड़ी चलाते समय रेडिओ भी सुनता रहता है , अपने साथियों से बातें भी करता रहता है लेकिन उसका मुख्य ध्यान ड्राइविंग पर ही होता है | वैसे ही मैं कर्ता , भोक्ता नहीं हूँ | द्रष्टा , साक्षी , चेतन मात्र हूँ | इस प्रकार अपने आत्मकल्याण के लिए नित्य निरंतर ध्याननिष्ठ रहना चाहिए। ||८०||
ज्ञानोपस्ती कर्मसापेक्षके ते कर्मोपास्ती ज्ञानसापेक्षके च।
कर्मज्ञाने चान्यसापेक्षके तन्मुक्त्यै प्रोक्तं साहचर्यं त्रयाणाम् ॥१.८१॥
ज्ञान और उपासना कर्म सापेक्ष हैं और क्रिया तथा उपासना ज्ञान पर निर्भर करती है ; उसी प्रकार कर्म और ज्ञान में निष्ठा उपासना के बिना हो नहीं सकती अतः तीनों की सङ्गति को ही मुक्ति का कारण कहा गया है | इस प्रकार कर्म , उपासना और ज्ञान परस्पर एक दूसरे पर निर्भर करते हैं |जैसा कि श्रीमद्भागवत में बताया है कि —
‘‘एकमेकतराभावे यदा नोपलभामहे।
त्रितयंतत्र योवेद सआत्मास्वाश्रयाश्रयः।।२.१०.९’’
अर्थात् प्रमाता, प्रमाण और प्रमेय इन तीनों में से किसी एक के अभाव में अन्य की सिद्धि नहीं हो सकती। और इन तीनों का साक्षात्कार आत्मा से होता है। आत्मा अनन्य आश्रय होते हुए अन्य सब का आश्रय है। उपासना-लक्षण क्रिया से अनन्त, अखण्ड, निर्विकार दिव्य-स्वरूप का अनायासेन प्राकट्य हो जाता है। अर्थात ज्ञान हो जाता है | जैसे प्रमाता, प्रमाण और प्रमेय एक दूसरे के बिना नहीं टिकते वैसे ही कर्म , उपासना और ज्ञान भी एक दूसरे बिना सफल नहीं होते | अतः इन तीनों के संयुक्त प्रयास से मुक्ति सुलभ होती है। || ८१ ||
ज्ञानोपास्ती स्वीयकर्मस्वपास्याप्येकं मुक्तिर्नैव कस्यापि सिध्येत्।
तस्माद्धीमानाश्रयेदप्रमत्तस्त्रीण्युक्तानि श्रद्धयादेहपातात् ॥१.८२॥
इन ज्ञान उपासना और कर्म रूपी साधनों में से किसी एक को भी छोड़कर साधन करने से किसी को मुक्ति नहीं मिल सकती | इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति को अप्रमत्त होकर उक्त तीनों साधनों द्वारा श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान करके देहपात से पूर्व ही जीवनमुक्ति का अनुभव कर लेना चाहिए | केनोपनिषद में कहा है कि —
‘‘इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति। न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः। भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः। प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥५॥ केनोपनिषद् द्वितीयः खण्डः’’
यदि व्यक्ति यहीं (इसी लोक में) उस ज्ञान को प्राप्त कर लेता है तो व्यक्ति का अस्तित्व सार्थक है, और यदि यहीं इसी जीवन में उस ज्ञान की प्राप्ति नहीं की, तो महाविनाश है। ज्ञानीजन विविध भूत-पदार्थों में ‘उस’ का विवेचन कर, उसी की सत्ता का अनुभव कर इस लोक से प्रस्थान करके अमर हो जाते हैं। अतः इन तीनों साधनों का एक साथ आश्रय करना चाहिये | || ८२ ||
॥इति सूर्यगीतायां प्रथमोऽध्यायः॥
|| अथ द्वितीयोऽध्यायः ||
सूर्य उवाच :- भगवान सूर्य बोले
अथातः संप्रवक्ष्यामि कर्मणां पंचभूमिकाः। उत्तरोत्तर मुत्कर्षाद्विद्धि सोपान पंक्ति वत् ॥२.१॥
भगवान सूर्य ने कहा कि अब मैं कर्म की पांच भूमिका (स्तर) बताऊंगा | उनमें से प्रत्येक को पिछले से अगले को बेहतर समझना चाहिए , जैसे सीढ़ी के क्रमिक चरण | जैसे जैसे हम ऊपर चढ़ते हैं वैसे वैसे हमारा दृष्टिकोण प्रशस्ततर होता जाता है | उत्तरोत्तर उत्कर्ष की प्राप्ति के लिए अपने अधिकारानुसार इन भूमिकाओं का अनुष्ठान करना चाहिए। ||१||
प्रथमा तांत्रिकी प्रोक्ता परा पौराणिकी मता। स्मार्ता तृतीया तुर्या तु श्रौता संकीर्तिता बुधैः ॥२.२॥
तांत्रिक प्रक्रिया को प्रथम भूमिका कहा गया है ; दूसरी पौराणिकी भूमिका है जो पहली से श्रेष्ठ है ; स्मार्त माने स्मृतियों में बताई हुई (धर्म शास्त्रोक्त ) प्रक्रिया तीसरी है और बुद्धिमान पुरुषों द्वारा श्रौती अर्थात वेदोक्त प्रक्रिया को चौथी भूमिका के रूप में घोषित किया जाता है। || २ ||
पंचमी त्वौपनिषदा विबुधोत्तमसम्मता। यस्याः परं न किंचित्स्याद्वाच्यं ज्ञेयं च सत्तम ॥२.३॥
हे महान अरुण ! श्रेष्ठ विद्वानों द्वारा सहमति प्राप्त करके औपनिषदिक प्रक्रिया को पांचवी भूमिका कहा गया है | यह पाँचवी भूमिका ही सर्वोत्तम है | इससे अधिक न कुछ कहने योग्य है और न जानने योग्य है | ‘‘तं त्वा ‘औपनिषदं’ पुरुषं पृच्छामि । – बृहदारण्यकोपनिषत् ३-९-२६’’ प्रत्यगात्मैव औपनिषदः पुरुषः । “औपनिषदात्मज्ञानादेव मुक्तिः॥” क्योंकि परमार्थ के प्रकाशक उपनिषद ही हैं | इसीलिये भगवत्पाद शंकराचार्य जी ने उपदेश पंचकम् में कहा कि —
“सङ्गः सत्सु विधीयतां भगवतो भक्तिर्दृढाधीयतां
शान्त्यादिः परिचीयतां दृढतरं कर्माशु संत्यज्यताम्।
सद्विद्वानुपसृप्यतां प्रतिदिनं तत्पादुका सेव्यतां
ब्रह्मैकाक्षरमर्थ्यतां श्रुतिशिरोवाक्यं समाकर्ण्यताम्।।२।।”
इस श्लोक में अन्वेषणकर्ता को क्या-क्या करना चाहिए इसका निर्णय किया गया है | सज्जनों का साथ करें, प्रभु में भक्ति को दृढ़ करें, शम-दम आदि गुणों का दृढ़ता पूर्वक सेवन करें , काम्य-निषिद्ध आदि कठोर कर्मों का परित्याग करें, सत्य को जानने वाले विद्वानों की शरण लें, प्रतिदिन उनकी चरण पादुकाओं की पूजा करें, ब्रह्म के एक अक्षर वाले नाम ॐ के अर्थ पर विचार करें, उपनिषदों के महावाक्यों को सुनें। || ३ ||
स्वेच्छं कर्माणि कुर्वन्यः प्रमाणाश्रयणं विना। तन्त्रोक्तानि करोत्येष कर्मी प्राथमिको मतः ॥२.४॥
जो अपनी मर्जी से केवल किताब में पढ़कर बिना किसी प्रमाण का आश्रय लिए तंत्र में बताये गए कर्तव्यों का पालन करता है, उसे पहले प्रकार का कर्ता माना जाता है | क्योंकि प्रत्येक शास्त्र में शब्दों के पारिभाषिक अर्थ होते हैं | अतः अर्थ का विपरीत ग्रहण होना स्वाभाविक है। जैसे सामान्य व्यवहार में गुण और वृद्धि शब्द का अर्थ कुछ और होता है और संस्कृत व्याकरण में कुछ और ही अर्थ होता है। जैसे -वृद्धिरादैच् – वृद्धिः =आत् ऐच् – आ ऐ औ इन तीनों स्वरों को वृद्धि कहते हैं | और अदेङ्गुणः = अ, ए और ओ इन तीनों स्वरों को गुण कहते हैं। इसी प्रकार विभिन्न शास्त्रों में हजारों उदाहरण मिलते हैं। लेकिन फिर भी यदि कोई कुछ करता है तो न करने वालों से तो अच्छा ही है क्योंकि ‘‘करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान। रसरी आवत जात तें, सिल पर परत निसान।।’’ कुए से पानी खींचने के लिए बर्तन से बांधी हुई रस्सी कुए के किनारे पर रखे हुए पत्थर से बार -बार रगड़ खाने से पत्थर पर भी निशान बन जाते हैं। ठीक इसी प्रकार बार-बार अभ्यास करने से मंदबुद्धि व्यक्ति भी कई नई बातें सीख कर उनका जानकार हो जाता है। || ४ ||
तानि तन्त्रोक्तकर्माणि त्यक्त्वा पौराणिकानि यः। करोति तन्त्रसम्बन्धीन्ययं कर्मी द्वितीयकः ॥२.५॥
तंत्र में निर्दिष्ट कर्तव्यों का त्याग करके , जो पुराणों में निर्धारित तंत्रप्रक्रिया है उससे संबंधित कर्तव्यों का पालन करता है, वह दूसरी कक्षा का कर्ता है | (तंत्र माने प्रयोग विधि) “तनु विस्तारे”–विस्तारार्थक “तन्” धातु से तंत्र शब्द की निष्पत्ति होती है | तननात् त्रायते इति तन्त्रः जैसे मननात् त्रायते इति मन्त्रः | क्योंकि तंत्र में क्रिया का विस्तार होता है | परन्तु पुराण संबंधित तंत्र में क्रिया के साथ-साथ भाव का भी विस्तार होता है | “तनोति ज्ञानं त्रायते महतो भयात् इति तन्त्रः।” अतः तन्त्र ज्ञान का विस्तार करने वाला व महान भय से छुटकारा दिलाने वाला होता है | न देवो विद्यते काष्ठे न पाषाणे न मृण्मये। भावेषु विद्यते देवः तस्मात् भावो हि कारणम्॥(गरुड़पुराण, उत्तर. ३/१०) ‘देवता न तो काष्ठमें रहते हैं, न पत्थरमें और न मिट्टीमें रहते हैं । भावमें ही देवताका निवासस्थान होता है, इसलिये भावको ही मुख्य मानना चाहिये ।’ || ५ ||
त्यक्त्वा तान्यपि यः स्मार्तान्यनुतिष्ठति सर्वदा। श्रुतिसम्बन्धवन्त्येष तृतीयः कर्म्युदीर्यते ॥२.६॥
अब तीसरे प्रकार के कर्ता के स्वरूप का निरूपण करते हैं | तांत्रिक और पौराणिक विधानों को छोड़कर जो हमेशां वेदानुकूल स्मृतियों में वर्णित कर्तव्यों का निर्वाह करता है उसे तीसरे प्रकार का कर्ता कहा जाता है | स्मृतिः श्रुत्यनुसारिणी (श्रुत्यनुसारिणी च स्मृतिः प्रमाणमिति स्थितिः।) जैसे मनुस्मृति , याज्ञवल्क्यस्मृति , वशिष्ठ स्मृति ,अत्रि स्मृति , व्यास स्मृति, पराशर स्मृति आदि |
‘‘वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियं आत्मनः ।
एतत् चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद् धर्मस्य लक्षणम् ||२.१२||’’
(वेदः स्मृतिः सदाचारः) वेद, स्मृति , तथा सत्पुरुषों का आचरण और (स्वस्य आत्मनः प्रियम्) अपने आत्मा के ज्ञान से अविरुद्ध तथा प्रिय आचरण (एतत् चतुर्विधं धर्मस्य लक्षणम्) ये चार धर्म के लक्षण हैं अर्थात् इन्हीं लक्षणों से धर्म लक्षित होता है ।
“आर्षं धर्मोपदेशं च वेदशास्त्र अविरोधिना । यस्तर्केण अनुसंधत्ते स धर्मं वेद नेतरः” ।। जो मनुष्य ऋषि-मुनि प्रणीत ग्रंथों का स्वाध्याय तथा उनके उपदेशों का श्रवण करता और जो वेद शास्त्र के अनुकूल जानता,मानता व आचरण करता है, और जो तर्क के द्वारा अनुसंधान करता है वही धर्म के तत्व को समझ पाता है, अन्य नहीं ।
“धृति क्षमा दमोस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः: ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्” ।। (मनुस्मृति)
अर्थात् धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य और क्रोध न करना – ये धर्म के दश लक्षण हैं । श्रुतिः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियं आत्मनः । सम्यक् संकल्पजः कामो धर्म मूलं इदं स्मृतम् । । १.७ । । महर्षि याज्ञवल्क्य के अनुसार श्रुति स्मृति द्वारा प्रतिपादित मार्ग का अनुसरण, सदाचार, प्राणीमात्र में आत्मा का भाव रखते हुए आत्म प्रेम से युक्त होकर और शुद्ध संकल्प से की गई इच्छा ही धर्म का मूल है | {आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः। सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः। स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः।} ‘आहार की शुद्धि से सत्त्व की शुद्धि होती है। आहृयन्ते इति आहाराः जिनको ग्रहण किया जाय वे आहार हैं जैसे आंख से और कान आदि ज्ञानेन्द्रियों से हम जो कुछ भी ग्रहण करते हैं वे सब आहार हैं | वे यदि शुद्ध और सात्विक हों तो सत्त्व की शुद्धि होती है | अर्थात अन्तःकरण शुद्ध होता है | और अंतःकरण की शुद्धि से बुद्धि निर्मल और दृढ़ निश्चयी बन जाती है। पवित्र और निश्चय बुद्धि से मुक्ति भी सरलता से प्राप्त होती है। ||६||
यश्च तान्यपि सन्त्यज्य श्रौतान्येवाचरत्ययम्। कर्मी धर्मार्थकामानां स्थानं तुर्योऽभिधीयते ॥२.७॥
और जिन्होंने उन स्मृति उक्त (धर्म शास्त्रोक्त) आचारों को भी छोड़दिया है , और केवल वैदिक आज्ञाओं का ही पालन करते हैं , जो कि धर्म , अर्थ और काम से सम्बन्धित हैं , उन्हें चौथे स्तर का कर्ता कहा जाता है | ‘‘वेदो नित्यमधीयतां तदुदितं कर्म स्वनुष्ठीयतां’’ अर्थात प्रतिदिन वेदों का अध्ययन करें और तदुदितं कर्म स्वानुष्ठीयतां-अर्थात् वेदों में जिन कर्मों का वर्णन किया गया है उन्हीं कर्मों का आचरण करना ही धर्म है। || ७ ||
श्रौतान्यपि च यस्त्यक्त्वा सदौपनिषदानि वै। करोति श्रद्धया कर्माण्ययं मोक्षी तु पंचमः ॥२.८॥
और जिसने वैदिक कर्तव्यों का भी त्याग कर दिया है , तथा हमेशा परम श्रद्धा और विश्वास के साथ केवल औपनिषदिक (उपनिषदों में बताये हुए) कर्मों का आचरण मोक्ष प्राप्ति के लिए करता है वह पांचवें प्रकार का {स्तर का} कर्ता है |
‘‘ शान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः समाहितः श्रद्धावित्तो भूत्वा आत्मन्येव आत्मानं पश्येत्” (बृहदारण्यक उपनिषद २ -४ – ५)’’
कब आप अपने आपको (आत्म स्वरूप को) जान सकते हैं ? जब शान्ति, दान्ति, उपरति, तितिक्षा, समाधि ओर श्रद्धा वित्त हों । जो चीज आपने देखी नहीं है, उसके बारे में जरा वेद की बात मानो। श्रत् माने आस्तिकता अर्थात् जिसको तुम देख नहीं रहे हो, वह भी है। ‘श्रत् सत्यं तदस्यां धीयते इति श्रद्धा’ श्रद्धा की पूंजी लेकर यह यात्रा करनी चाहिए | यहां पर तितिक्षा को भी मुख्य रूप से कहा गया है क्योंकि तितिक्षु मोक्षमार्ग के योग्य हो जाता है अर्थात् श्रवण मनन में लगकर उस परमात्मा के भाव का निश्चय करके मुक्त हो जाता है । तितिक्षा अपने आप में मोक्ष नहीं देती लेकिन तितिक्षा से तुम श्रवण-मनन रूप मोक्ष-साधन को कर पाते हो । इसलिए इसकी आवश्यकता है । इसी श्रुत्यर्थ को शंकराचार्य विवेक चूड़ामणि में कहते हैं कि —
‘‘शान्तो दान्तः परमुपरतः क्षान्तियुक्तः समाधिं
कुर्वन्नित्यं कलयति यतिः स्वस्य सर्वात्मभावम् ।
तेनाविद्यातिमिरजनितान्साधु दग्ध्वा विकल्पान्
ब्रह्माकृत्या निवसति सुखं निष्क्रियो निर्विकल्पः ॥ ३५५ ॥’’
योगी पुरुष चित्तकी शान्ति, इन्द्रियनिग्रह, विषयोंसे उपरति और क्षमासे युक्त होकर समाधिका निरन्तर अभ्यास करता हुआ अपने सर्वात्म भावका अनुभव करता है और उसके द्वारा अविद्यारूप अन्धकारसे उत्पन्न हुए समस्त विकल्पों का भलीभाँति ध्वंस करके निष्क्रिय और निर्विकल्प होकर आनन्दपूर्वक ब्रह्माकार वृत्ति से रहता है |
‘‘सहनं सर्व दु:खानां अप्रतीकारपूर्वकम् ।
चिन्ताविलापरहितं सा तितिक्षा निगद्यते ॥२४॥विवेकचूडामणिः’’
सभी प्रकार के दुखों को बिना प्रतीकार के सहन करना ही तितिक्षा कहलाता है |
“विषयेभ्यः परावृत्तिः परमोपरतिर्हि सा।
सहनं सर्व दुःखानां तितिक्षा सा शुभा मता ॥७॥ अपरोक्षानुभूतिः”
बाह्य विषयों से वृत्ति को हटाकर अंतर्चेतना में वृत्ति की स्थापना करना ही उपरति है | और संपूर्ण दुःखों का सहन करना शुभ तितिक्षा मानी गई है।
‘‘मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः |
आगमापायिनोऽनित्यास्तान्स् तितिक्षस्व भारत ||२.१४||श्रीमद् भगवद्गीता’’
हे कुन्तीपुत्र ! शीत और उष्ण और सुख दुख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग का प्रारम्भ और अंत होता है; वे अनित्य हैं, इसलिए, हे भारत ! उनको तुम सहन करो। || ८ ||
यान्यौपनिषदानां स्युरविरोधीनि कर्माणाम्। श्रौतादीनि सुसंग्राह्यान्यमलानि मुमुक्षुभिः ॥२.९॥
वेदों के वे सभी निर्मल कर्तव्य जो उपनिषदों के विरुद्ध नहीं हैं , उन्हें मुक्ति के लिए प्रयासरत लोगों द्वारा स्वीकार किया जाना चाहिए | जैसे कि यजुर्वेद अपने पहले ही अध्याय में यज्ञकर्म का विधान करता है —
‘‘इषे त्वा ऊर्जे त्वा । वायव स्थ । देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणऽआ प्यायध्वम् अघ्न्या इन्द्राय भागं प्रजावतीर् अनमीवाऽअयक्ष्मा मा व स्तेनऽ ईशत माघशꣳसो ध्रुवाऽअस्मिन् गोपतौ स्यात बह्वीः । यजमानस्य पशून्पाहि ॥’’
अर्थात् हे सबका सृजन करने वाले सविता देव ! तुम सबको यज्ञ रूपी श्रेष्ठ कर्म करने के लिए प्रेरित करो और चालीसवें अध्याय के दूसरे मन्त्र में
‘‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा:। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥२॥’’
इस संसार में कर्म करते हुए ही मनुष्य को सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिये। हे मानव! तेरे लिए इस प्रकार का ही विधान है, इससे भिन्न किसी और प्रकार का नहीं है, इस प्रकार कर्म करते हुए ही जीने की इच्छा करने से मनुष्य में कर्म का लेप नहीं होता। इस प्रकार कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा रखने को कहा गया है। इस प्रकार संहिता के बाद अब उपनिषद में कर्म का विधान देखिये—
‘‘वेदमनूच्याचार्योऽन्तेवासिनमनुशास्ति । सत्यं वद । धर्मं चर । स्वाध्यायान्मा प्रमदः । आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजानन्तुं मा व्यवच्छेसीः । सत्यान्न प्रमदितव्यम् । धर्मान्न प्रमदितव्यम् । कुशलान्न प्रमदितव्यम् । भूत्यै न प्रमदितव्यम् । स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् ।। (तैत्तिरीय उपनिषद्, शिक्षावल्ली, अनुवाक ११, मंत्र १)’’
अर्थ:- वेद के शिक्षण के पश्चात् आचार्य अपने आश्रममें रहने वाले शिष्यों को अनुशासन सिखाता है । सत्य बोलो । धर्मसम्मत कर्म करो । स्वाध्याय के प्रति प्रमाद मत करो । आचार्य को जो अभीष्ट हो वह धन (भिक्षा से) लाओ और संतान-परंपरा का छेदन न करो (यानी गृहस्थ बनकर संतानोत्पत्ति कर पितृऋण से मुक्त होओ) । सत्य के प्रति प्रमाद (भूल) न होवे, अर्थात् सत्य से मुख न मोड़ो । धर्म से विमुख नहीं होना चाहिए । अपनी कुशल बनी रहे ऐसे कार्यों की अवहेलना न की जाए । ऐश्वर्य प्रदान करने वाले मंगल कर्मों से विरत नहीं होना चाहिए । स्वाध्याय तथा प्रवचन कार्य की अवहेलना न होवे ।
“देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम् । मातृदेवो भव । पितृदेवो भव । आचार्यदेवो भव । अतिथिदेवो भव । यान्यनवद्यानि कर्माणि । तानि सेवितव्यानि । नो इतराणि । यान्यस्माकं सुचरितानि । तानि त्वयोपास्यानि ।। (तैत्तिरीय उपनिषद, शिक्षावल्ली, अनुवाक ११, मंत्र २) “
अर्थ:- देवकार्य तथा पितृ कार्य से प्रमाद नहीं किया जाना चाहिए । माता को देव तुल्य मानने वाला बनो (मातृदेवो = माता है देवता तुल्य जिसके लिए) । पिता को देव तुल्य मानने वाला बनो । आचार्य को देव तुल्य मानने वाला बनो । अतिथि को देव तुल्य मानने वाला बनो । अर्थात् इन सभी के प्रति देवता के समान श्रद्धा, सम्मान और सेवा भाव का आचरण करे । जो अनिन्द्य कर्म हैं उन्हीं का सेवन किया जाना चाहिए, अन्य का नहीं । हमारे जो-जो कर्म अच्छे आचरण के द्योतक हों केवल उन्हीं की उपासना की जानी चाहिए; उन्हीं को संपन्न किया जाना चाहिए । (अवद्य अर्थात निन्दित, जिसका कथन न किया जा सके, जो गर्हित हो, प्रशंसा योग्य न हो ।) संकेत है कि गुरुजनों का आचरण सदैव अनुकरणीय ही हो ऐसा नहीं है । अपने विवेक के द्वारा व्यक्ति क्या करने जैसा है और क्या नहीं इसका निर्णय करें और तदनुसार व्यवहार करें । तथा भगवद्गीता में भी कहा है कि–
‘‘यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।।१८.५।।’’
यज्ञ, दान और तप रूप कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत उनको तो करना ही चाहिये क्योंकि यज्ञ, दान और तप ये तीनों ही कर्म मनीषियों को, मनुष्यों को पवित्र करने वाले हैं। ||९||
कर्माण्युपनिषत्सु स्युर्ब्रह्मैकार्थासु वै कथम्। इति शंक्यन्नकुर्वन् हि विधिरस्ति जिजीविषेत् ॥२.१०॥
अब यदि कोई इस प्रकार का संदेह करने लगे कि उपनिषद में तो बताया है कि ब्रह्म एक है और उसके सिवाय कुछ भी नहीं है तो यह कर्म की कथा कैसे चल पाएगी | ‘‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन ॥’’ यह दृश्यमान समस्त विश्व ही ब्रह्म है, इस ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है | ”सदेव सोम्येदमग्रमासीदेकमेवाद्वितीयम्।” {छान्दोग्योपनिषद् ६ / २ / १ } ब्रह्म के सन्दर्भ में श्रुति के “एकमेव” कथन से अभिप्राय है कि ब्रह्म “एक” ही है | “एव” कार पूर्ण विश्वास का प्रतीक है जो उन समस्त शंकाओं को निरस्त कर देता है जो ब्रह्म के एक होने पर उठती हैं | इसके पश्चात् “अद्वितीय” पद इस एकत्व के सापेक्षत्व का भी निरसन कर देता है | निरपेक्ष में ही अद्वितीयता संगत है |
कर्म करने के लिए कम से कम दो तो चाहिए ही , एक कर्ता और दूसरा कर्म | जब एक ही है तो कर्म कैसे संभव होगा ? मैं स्वयं अपने ही कंधे पर तो नहीं बैठ सकता | (इसे शास्त्रीय भाषा में कर्म कर्तृ विरोध कहते हैं) तथा कर्म करने से ब्रह्म की प्राप्ति नहीं होती क्योंकि ब्रह्म तो अकृत है |
‘‘परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन। तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ॥१२॥ मुण्डकोपनिषद्’’ ब्रह्म का जिज्ञासु (ब्राह्मण) कर्मों के द्वारा संचित लोकों की परीक्षा करके संसार के फीकापन (निर्वेद) का अनुभव करता है, क्योंकि कर्मों को करने से ही ‘उस’ की उपलब्धि नहीं हो सकती जो ‘अकृत’ है। उस ‘पर तत्व’ के ज्ञान के लिए वह (ब्राह्मण) हाथ में समिधा धारण करके वेदविद् (श्रोत्रिय) एवं ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाये । अथवा, ‘वह’ जो असृष्ट है, वह सृष्ट पर आधारित नहीं है। “शाब्दिक अनुवादː” कृत के द्वारा (अथवा, बनाये गये के द्वारा) ‘अकृत’ (‘यह’ जो असृष्ट है) नहीं प्राप्त होता है । और दूसरी तरफ विधान करते हैं कि — ‘‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥२॥ ईशोपनिषद्’’
इस संसार में कर्म करते हुए ही मनुष्य को सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिये। हे मानव! तेरे लिए इस प्रकार का ही विधान है, इससे भिन्न किसी और प्रकार का नहीं है, इस प्रकार कर्म करते हुए ही जीने की इच्छा करने से मनुष्य में कर्म का लेप नहीं होता। अतः भगवद्गीता के अनुसार ‘‘कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः। स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तःकृत्स्नकर्मकृत्।।४.१८।।’’ जो पुरुष कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है, वह योगी सम्पूर्ण कर्मों को करने वाला है।। अथवा ‘‘न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा। इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।।४.१४।।’’ कर्म मुझे लिप्त नहीं करते; न मुझे कर्मफल में स्पृहा है। इस प्रकार मुझे जो जानता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता है।। तथा ‘‘प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।३.२७।।’’ सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, अहंकार से मोहित हुआ पुरुष, “मैं करता हूँ” ऐसा मान लेता है।। इसलिए कर्तृत्व के अहंकार बिना कर्म करो |या फिर भगवान के लिए कर्म करो। || १० ||
ईशावास्यादिवेदान्तप्रोक्तान्यामरणादपि। कुर्वन्नेव विमुच्येत ब्रह्मवित्प्रवरोऽस्तु वा ॥२.११॥
अतः ईशावास्य और अन्य उपनिषदों में निर्धारित कर्तव्यों को मृत्यु पर्यन्त करते हुए ही मोक्ष प्राप्त करना चाहिए | विश्व कल्याण के लिए अथवा भगवत् प्रीत्यर्थ किया गया कर्म बंधन कारक नहीं होता है | अथवा जैसा कि भगवद्गीता में बताया है वैसा ब्रह्म का उत्कृष्ट विज्ञान प्राप्त करना चाहिए | ‘‘त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः। कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित् करोति सः।।४.२०।।’ जो पुरुष, कर्म फलासक्ति को त्याग कर, नित्य तृप्त है और सब आश्रयों से रहित है वह कर्म में प्रवृत्त होते हुए भी (वास्तव में) कुछ भी नहीं करता है।। ‘‘निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्त सर्व परिग्रहः। शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।४.२१।।’’ जो आशा रहित है तथा जिसने चित्त और आत्मा (शरीर) को संयमित किया है, जिसने सब परिग्रहों का त्याग किया है, ऐसा पुरुष शारीरिक कर्म करते हुए भी पाप को नहीं प्राप्त होता है। तथा इसी प्रकार ‘‘ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।४.२४।।’’ अर्पण (अर्थात अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है; ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है, वह भी ब्रह्म ही है। इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है। || ११ ||
यतयस्त्यक्तगार्हस्थ्या अपि स्वोचितकर्मभिः। आश्रमं पालयन्तः स्वं कैवल्यं प्राप्नुयुः परम् ॥२.१२॥
यहाँ तक कि जो तपस्वी लोग अपने गृहस्थ कर्तव्यों का परित्याग कर चुके हैं , वे भी उनके आश्रम के लिए उपयुक्त कर्तव्यों का पालन करने से सर्वोच्च कैवल्य पद को प्राप्त कर सकते हैं | ‘‘यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः। तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर।।३.९।।’’ यज्ञ के लिये किये हुए कर्म के अतिरिक्त अन्य कर्म में प्रवृत्त हुआ यह पुरुष कर्मों द्वारा बंध जाता है इसलिए हे कौन्तेय आसक्ति का त्याग कर यज्ञ के निमित्त ही कर्म का सम्यक् आचरण करो।। ‘‘यज्ञ’’ यह सर्व व्यापक विष्णु भगवान का नाम है। || १२ ||
कर्मप्रजाधनानां यस्त्यागः समभिधीयते। कामैकविषयत्वेन स यतेर्न विरुध्यते ॥२.१३॥
ब्रह्म प्राप्ति के लिए उपनिषदों में त्याग का विधान किया गया है | कर्मों का त्याग , बच्चों का त्याग और धन का त्याग | ये सारे त्याग काम सम्बन्धी ही हैं | इच्छा के बिना कोई काम नहीं कर सकता | तदुक्तं भट्टाचार्यैः – ‘‘प्रयोजनमनुद्दिश्य मन्दोपि न प्रवर्तते |जगच्च सृजतस्तस्य किं नाम न कृतं भवेत्॥’’ – किसी प्रयोजन के बिना मूर्ख व्यक्ति भी किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता है | और सबसे बड़ी इच्छा है आत्म सुख की प्राप्ति, उसी आत्म सुख लाभार्थ धन, प्रजा और काम्यकर्मों का त्याग किया जाता है |’आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति’ संसार के प्रत्येक व्यक्ति को अपने सुख के लिए ही पत्नी, पुत्र व धन प्रिय होता है । इसलिए यह त्याग मुक्ति में बाधक नहीं है, अपितु साधक ही है | ‘‘न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः। परेण नाकं निहितं गुहायां विभ्राजते यद्यतयो विशन्ति ॥’’ उस (अमृत) की प्राप्ति न कर्म के द्वारा, न संतान के द्वारा और न ही धन के द्वारा हो पाती है। (उस) अमृतत्व को सम्यक् रूप से (ब्रह्म को जानने वालों ने) केवल त्याग के द्वारा ही प्राप्त किया है। स्वर्गलोक से भी ऊपर गुफा अर्थात बुद्धि के गह्वर में प्रतिष्ठित होकर जो ब्रह्मलोक प्रकाश से परिपूर्ण है, इस तरह के उस (ब्रह्मलोक) में संयमशील योगीजन ही प्रविष्ट होते हैं | ‘‘श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते। ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।१२.१२।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ अभ्याससे शास्त्रज्ञान श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञानसे ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यानसे भी सब कर्मोंके फलका त्याग श्रेष्ठ है। कर्मफलत्यागसे तत्काल ही परमशान्ति प्राप्त हो जाती है। || १३ ||
संन्यासिनो हि कर्माणि नित्यानि विमलानि च। श्रेयोऽर्थानि विधीयन्ते परिव्राजेऽब्जजन्मना ॥२.१४॥
संयमी , त्यागी संन्यासियों के कल्याण के लिये ब्रह्मा जी ने जिन नियमों का विधान किया है , उन नित्य कर्म सम्बन्धी नियमों का पालन करने से अंतःकरण की शुद्धि होती है, फलतः वे नित्य कर्म सम्बन्धी नियम मोक्षमार्ग में सहायक होते हैं |
जैसे कि प्राणायाम रूपी यज्ञ, अभय का दान, ज्ञान का दान और प्रेम दान तथा आत्मानुसंधान रूपी तप इन यज्ञ, दान और तप रूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को आसक्ति से रहित और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिए, ऐसा श्री कृष्ण भगवान का गीता में निश्चय किया हुआ उत्तम मत है |
‘‘एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च ।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ॥१८- ६॥श्रीमद् भगवद्गीता’’
हे पार्थ ! (पूर्वोक्त यज्ञ, दान और तप) इन कर्मोंको तथा दूसरे भी कर्मोंको आसक्ति और फलोंका त्याग करके करना चाहिये – यह मेरा निश्चित किया हुआ उत्तम मत है।
‘‘ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः संबभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता ।
स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठामथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह ॥ १ ॥ (मुण्डकोपनिषत् १-१-१) –
देवगणों में प्रथम ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई जो सम्पूर्ण विश्व के कर्ता एवं लोक के संरक्षक हैं; उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्व के प्रति उस ब्रह्मविद्या का कथन किया जिसमें समस्त विद्याओं की प्रतिष्ठा है।
अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्माऽथर्वा तं पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्याम्।
स भारद्वाजाय सत्यवाहाय प्राह भारद्वाजोऽङ्गिरसे परावराम् ॥ २ ॥
जिस ब्रह्मविद्या का ब्रह्मा ने अथर्व के प्रति कथन किया था उसका कथन पुराकाल में अथर्वा ऋषि ने अंगिरा के प्रति किया; उसने भारद्वाज सत्यवह के प्रति किया; भारद्वाज ने परा एवं अपरा, दोनों विद्याओं का अंगिरस के प्रति कथन किया।
‘‘शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ ।
कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति ॥ ३ ॥’’
महाशालाधिपति शौनक अंगिरस के पास विधिवत शिष्य रूप में आये और उनसे पूछाː “हे भगवन्! क्या है जिसे जान लेने के पश्चात् यह सब कुछ ज्ञात हो जाता है? || १४ ||
अपेतकाम्यकर्माणो यतयोऽन्येऽपि वा जनाः। सद्यः क्रमेण वा मुक्तिमाप्नुयुर्नात्र संशयः ॥२.१५॥
जिन लोगों ने काम्य कर्मों का त्याग कर दिया है , चाहे वे तपस्वी संन्यासी हों अथवा अन्य पुरुष हों , वे मुक्ति प्राप्त करते हैं इसमें कोई शक नहीं है | फिर भले ही उनकी मुक्ति क्रममुक्ति हो अथवा सद्योमुक्ति |
‘‘न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति । – बृहदारण्यकोपनिषत् ४-४-६’’
यह बृहदारण्यक श्रुति सद्योमुक्ति में उदाहरण है | क्योंकि अज्ञानियोंकी ही गति (जाना) और आगति (लौट कर आना) होता है | अविद्या , काम और कर्म से रहित आत्मज्ञानी की गति नहीं होती | अविद्या , काम और कर्म से प्रेरित अज्ञानी ही बार – बार जन्मता और मरता है | अज्ञानी ही जन्म और मरण के चक्र में फँस कर सुख -दुःख रूपी फलों का अनुभव करता है | ब्रह्मज्ञानी में काम का अभाव होने से कर्मों का भी अभाव होता है इसलिए ऐसे आप्तकाम, आत्मकाम और अकाम ब्रह्मज्ञानी का लोकान्तर और जन्मान्तर में गमन का अभाव होता है | क्योंकि उसने निर्विशेष, अद्वैत, परिपूर्ण ब्रह्म का अपने आत्मा के रूप में अनुभव किया होता है, अतः उसकी इन्द्रियां उत्क्रमण नहीं करतीं | इसलिए ब्रह्मज्ञानी किसको छोड़कर कहाँ गमन करे? इसलिए ब्रह्मज्ञानी अभी और यहीं ब्रह्मस्वरूप होता हुआ परब्रह्म के साथ एक हो जाता है | जीवन्मुक्त ही ज्ञानी है | इसलिए इस ब्रह्मज्ञानी की गति नहीं होती | यही सद्योमुक्ति है | अब क्रम मुक्ति का उदाहरण देखिये-
‘‘सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चितेति॥’’ (तैत्तिरीयोपनिषदत् / ब्रह्मानन्दवल्ली)
वही समस्त कामनाओं को परितृप्त करता है तथा वही उस विज्ञानमय तथा बोधपूर्ण ‘अन्तरात्मा’ के साथ ‘ब्रह्म’ में निवास करता है।
‘‘आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन। मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते।।८.१६।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
हे अर्जुन ! ब्रह्म लोक तक के सब लोग पुनरावर्ती स्वभाव वाले हैं। परन्तु, हे कौन्तेय ! मुझे प्राप्त होने पर पुनर्जन्म नहीं होता।
अत्रेयं व्यवस्था –ये क्रममुक्तिफलाभिरुपासनाभिर्ब्रह्मलोकं प्राप्तास्तेषामेव तत्रोत्पन्नसम्यग्दर्शनानां ब्रह्मणा सह मोक्षः। (मधुसूदन-सरस्वती)
वेदान्त में क्रम मुक्ति का एक सिद्धांत प्रतिपादित है। इसके अनुसार जो पुरुष वैदिक कर्मों का एवं उपासना का युगपत् (एक साथ) अनुष्ठान करता है वह कर्म और उपासना के इस समुच्चय के फलस्वरूप ब्रह्मलोक अर्थात सृष्टिकर्ता के लोक को प्राप्त करता है। यहाँ कल्प की समाप्ति पर ब्रह्मा जी के उपदेश से परब्रह्म के साथ एकरूप हो जाता है अर्थात मुक्त हो जाता है। इस ब्रह्मा जी के लोक में भी मुक्ति का अधिकारी बनने के लिए उसे आत्मसंयम ब्रह्मा जी के उपदेश का पालन तथा आत्म विचार करना आवश्यक होता है। तभी अज्ञान जनित बन्धन से उसकी पूर्ण मुक्ति हो सकती है। || १५ ||
पंचमीं भूमिमारूढः ज्ञानोपासनकर्मभिः। शोकमोहादिनिर्मुक्तः सर्वदैव विराजते ॥२.१६॥
ज्ञान , उपासना और कर्मों के आधार पर , जो कर्म की पांचवीं कक्षा में चढ़ गया है वह शोक , मोह (भ्रम) आदि से विनिर्मुक्त होकर हमेशा देदीप्यमान रहता है | श्वेताश्वतरोपनिषद में बताया है कि —
‘‘पृथिव्यप्तेजोऽनिलखे समुत्थिते पञ्चात्मके योगगुणे प्रवृत्ते।
न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम्॥२.१२॥’’
पंचमहाभूतोंका भले प्रकार उत्थान होने पर और पंचयोग-सम्बन्धी गुणोंके सिद्ध हो जानेपर योगसे तेजस्वी हुए देहको पा लेनेके बाद साधक रोग, जरा और मृत्युसे मुक्त हो जाता है।
जब योगी के समक्ष योग के द्वारा योग के पाँच गुण प्रकट हो जाते हैं अर्थात जब वह अपने आपको पञ्चभूतों से एकीभूत कर लेता है तब उसे योगाग्नि से बना शरीर प्राप्त हो जाता है और तब वह रोगों से, जरा से (बुढ़ापे से) और मृत्यु से मुक्त हो जाता है।
‘‘यथैव बिम्बं मृदयोपलिप्तं तेजोमयं भ्राजते तत्सुधान्तम्।
तद्वात्मतत्वं प्रसमीक्ष्य देही एक: कृताथों: भवते वीतशोकः ॥२.१४॥’’
जिस प्रकार धूल में लिपटी धातु की मूर्ति धुल जाने से चमकने लगती है, उसी प्रकार देही {आत्मा} आत्म तत्व के सम्यक दर्शन से कृतार्थ हो जाती है और तब वह अपने यथार्थ रूप में चमकने लगती है उसी प्रकार इस जीवात्मा का वास्तविक स्वरूप अत्यंत स्वच्छ होने पर भी अनंत जन्मों में किए हुए कर्मों के संस्कारों से सम्मिलित हो जाने के कारण प्रत्यक्ष प्रकट नहीं होता परंतु जब मनुष्य ध्यान योग की साधना द्वारा अपने समस्त कषायों को धोकर आत्मा के यथार्थ स्वरूप को भली-भांति प्रत्यक्ष कर लेता है तब वह असंग हो जाता है अर्थात उसका जो जड़ पदार्थ के साथ संयोग हो रहा था उसका नाश होकर वह कैवल्य अवस्था को प्राप्त हो जाता है तथा उसके सब प्रकार के दुखों का अंत हो कर वह सर्वथा कृतकृत्य हो जाता है उसका मनुष्य जन्म सार्थक हो जाता है और वह अपने लक्ष्य के साथ एकता को प्राप्त कर शोक से मुक्त हो जाता है। || १६ ||
न ज्ञानेन विनोपास्तिर्नोपास्त्या च विनेतरत्। कर्मापि तेन हेतुत्वं पूर्वपूर्वस्य कथ्यते ॥२.१७॥
अतः ज्ञान के बिना उपासना की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि जिसकी उपासना करनी है उसका ज्ञान होना आवश्यक है , और इसी प्रकार उपासना के बिना ज्ञान की भी सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि जब तक जो हमारा ज्ञातव्य है उसकी उपासना नहीं करेंगे तब तक उसका ज्ञान होना संभव नहीं है | और कर्म को भी इन दोनों में से प्रत्येक का कारण कहा जाता है | (उपासना और ज्ञान का) इसी बात को श्रीमद्भगवद्गीता में इस प्रकार कहा है | ‘‘ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति। समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।।१८ .५४ ।।’’ ब्रह्मभूत (जो साधक ब्रह्म बन गया है), प्रसन्न मन वाला पुरुष न इच्छा करता है और न शोक, समस्त भूतों के प्रति सम होकर वह मेरी पराभक्ति को प्राप्त करता है।। तथा ‘‘भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः। ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।।१८ .५५ ।।’’ (उस पराभक्ति ) के द्वारा मुझे वह तत्त्वत: जानता है कि मैं कितना (व्यापक) हूँ तथा मैं क्या हूँ। (इस प्रकार) तत्त्वत: जानने के पश्चात् तत्काल ही वह मुझमें प्रवेश कर जाता है, अर्थात मेरा ही स्वरूप बन जाता है।। इसी बात को समझाते हुए कठोपनिषद में इस प्रकार कहा है | ‘‘यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह। बुद्धिश्च न विचेष्टते तामाहुः परमां गतिम् ॥’’ ”जब पाँचों इन्द्रियाँ शान्त होकर स्थिर हो जाती हैं तथा हमारा मन भी उनके साथ स्थिर हो जाता है, और ‘बुद्धि’ की प्रक्रिया भी शांत हो जाती हैं तो वह उच्चतम अवस्था (परमा गति) होती है, ऐसा विद्वान लोग कहते है। ||१७||
यद्वा यावन्न हि ज्ञानं तावन्नोपासनं मतम्। यावन्नोपासनं तावन्न ज्ञानं च कथंचन ॥२.१८॥
अथवा यों कहें कि जब तक ज्ञान नहीं है , तब तक उपासना ठीक प्रकार से नहीं हो सकती | और जब तक उपासना सम्यक प्रकार से नहीं की जाती तब तक ज्ञान किसी भी तरह से नहीं हो सकता | जब तक हम किसीको जानेंगे ही नहीं तो उससे प्रेम कैसे कर सकेंगे और यदि प्रेम नहीं करेंगे तो जानेंगे कैसे ? तुलसीदास जी कहते हैं कि — जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती।। प्रीति बिना नहिं भगति दृढ़ाई । जिमि खगपति जल कै चिकनाई।। प्रभु की प्रभुता जाने बिना उन पर विश्वास नहीं जमता, विश्वास के बिना प्रीति नहीं होती और प्रीति बिना भक्ति वैसे ही दृढ़ नहीं होती जैसे हे पक्षीराज! जल की चिकनाई ठहरती नहीं है। || १८ ||
ज्ञानं यावन्न कर्मापि न तावन्मुख्यमीर्यते। यावन्न कर्म तावच्च न ज्ञानं साधु सम्मतम् ॥२.१९॥
जब तक ज्ञान नहीं है तब तक कर्म भी ठीक प्रकार से नहीं किया जा सकता | और जब तक कोई क्रिया नहीं होती तब तक ज्ञान को भी सार्थक नहीं कहा जा सकता | क्रियाहीन ज्ञान साधु पुरुषों द्वारा सम्मत नहीं है | अवशेन्द्रियचित्तानां हस्तिस्नानमिव क्रिया । दुर्भगाभरणप्रायो ज्ञानं भारः क्रियां विना ॥ जिन मनुष्यों की ज्ञानेंद्रियां और चित्त वश में नहीं हैं, उनका सब कार्य हाथी के स्नान की तरह निष्फल ही है (हाथी स्नान करके भी अपने ऊपर धूल फेंककर स्वयं को पुनः मलिन कर लेता है)। और जो लोग अपने ज्ञान का उपयोग नहीं करते, उनका ज्ञान भी दुर्भगा माने भाग्यहीन (परित्यक्ता,कुरूप अथवा विधवा) स्त्री के आभूषण की तरह भार मात्र ही है । || १९ ||
यावन्नोपासनं तावन्न कर्मापि प्रशस्यते। यावन्न कर्मोपास्तिश्च न तावत्सात्त्विकी मता ॥२.२०॥
और जब तक पूजा ,उपासना नहीं होती , तब तक कर्म की भी प्रशंसा नहीं होती | और जब तक कोई क्रिया नहीं होती , तब तक लम्बी पूजा ,उपासना को भी सात्विक (शुद्ध) नहीं माना जाता है | श्रीमद्भागवत में बताया है कि — ‘‘नैष्कर्म्यमप्यच्युतभाववर्जितं न शोभते ज्ञानमलं निरञ्जनम् । कुत: पुन: शश्वदभद्रमीश्वरे न चार्पितं कर्म यदप्यकारणम् ॥ १. ५ . १२ ॥’’ वह निर्मल ज्ञान भी , जो मोक्ष की प्राप्ति का साक्षात साधन है , यदि भगवान की भक्ति से रहित हो तो उसकी उतनी शोभा नहीं होती | फिर जो साधन और सिद्धि दोनों ही दशाओं में सदा ही अमंगल रूप है , वह काम्य कर्म , और जो भगवान को अर्पण नहीं किया गया है, ऐसा अहैतुक (निष्काम) कर्म भी कैसे सुशोभित हो सकता है | कोई काम निष्काम भाव से तो युक्त हो परंतु भगवान की भक्ति से रहित हो तो उसकी शोभा नहीं होती | परमात्मा की भक्ति से भावित होकर ही ज्ञान और कर्म शोभित होते हैं। ‘‘शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खाः यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् । सुचिन्तितं चौषधमातुराणां न नाममात्रेण करोत्यरोगम् ॥’’ पुरुष शास्त्रों को पढ़कर भी मूर्ख ही रह जाते हैं। वास्तव में जो पुरुष कर्म करता है, वह विद्वान है। अच्छी तरह से सोचकर की गई औषध के नामोच्चारण मात्र से रोगी का रोग नष्ट नहीं होता है। जैसे कि केवल एक अच्छे चिकित्सक से अच्छी औषधि लिखवाने मात्र से ही रोगी स्वस्थ नहीं हो जाते, स्वस्थ होने के लिए उन्हें औषधि का सेवन भी करना होता है ।||२०||
ज्ञानोपासनकर्माणि सापेक्षाणि परस्परम्। प्रयच्छन्ति परां मुक्तिं नान्यथेत्युक्तमेव ते ॥२.२१॥
ज्ञान, उपासना और कर्म , परस्पर एक दूसरे पर निर्भर करते हैं | ये तीनों परस्पर एक दूसरे से निरपेक्ष रह कर सर्वोच्च मुक्ति को नहीं दे सकते | ये तीनों परस्पर सापेक्ष रहकर ही परा मुक्ति के साधन बनते हैं | यह अन्यथा नहीं हो सकता | यह आपसे कहा ही जा चुका है | सोह न राम प्रेम बिनु ग्यानू ,करनधार बिनु जिमि जलजानू ||राम-प्रेम के बिना ज्ञान शोभा नहीं देता, जैसे कर्णधार के बिना जहाज। कैवल्योपनिषत् में पितामह ब्रह्मा जी ने कहा है कि — ‘‘श्रद्धा भक्ति ध्यान योगात् अवेहि ’’ अर्थात् श्रद्धा, भक्ति, और ध्यान योग के द्वारा आत्मा का ज्ञान प्राप्त करो। ||२१||
एतेषु साधनेष्वेकं त्रिषु यत्किंचिदत्र यः। त्यजेदसद्गुरूक्त्या स नाश्नुवीत परामृतम् ॥२.२२॥
किसी असद् गुरु के कहने से यदि कोई इन तीनों साधनों (ज्ञान, उपासना और कर्म) में से किसी एक का भी त्याग कर देता है, तो वह सर्वोच्च अमृत को प्राप्त नहीं कर सकता है | कठोपनिषद में भी कहा है कि अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितं मन्यमानाः। दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः ॥ जो लोग अविद्या में, उसके भीतर ही वास करते हैं, अर्थात अज्ञान में ही रहते हैं | अपनी बुद्धि में स्वयं को ज्ञानी तथा महापण्डित मानते हैं, वे मूढ़ होते हैं, और वे उसी प्रकार ठोकरें खाते हुए चक्करों में भटकते रहते हैं जैसे अंधे के द्वारा ले जाये जाने वाले दूसरे अंधे भी ठोकरें ही खाते हैं । || २२ ||
नानाविधानि ज्ञानानि नानारुपा उपास्तयः। नानाविधानि कर्माणि श्रुत्यन्तादिषु संविदुः ॥२.२३॥
विभिन्न प्रकार के ज्ञान तथा अनेक प्रकार की उपासनाओं के रूप और कर्मों का निरूपण उपनिषद आदि अनेक ग्रंथों में प्राप्त होते हैं | जैसे कि १ सद्विद्या , २ भूमाविद्या , ३ दहरविद्या ४ वैश्वानर विद्या, ५ पंचाग्नि विद्या , ६ मधुविद्या ७ दक्षिणाक्षिविद्या ८ आत्मविद्या ९ यज्ञविद्या।
तथा संवर्गोपासना , प्रतीकोपासना , सगुणोपासना , सम्पद उपासना , उद्गीथ उपासना , ज्योति उपासना आदि अनेक प्रकार की उपासनाएं हैं |
और ब्रह्म के सगुण प्रतीक जैसे मन, प्राण, आकाश, वायु, वाक्, चक्षु, श्रोत्र, सूर्य, अग्नि, रुद्र, आदित्य या मरुत और गायत्री इत्यादि की उपासना निर्दिष्ट की गई है। इसी प्रकार इष्ट कर्म , पूर्तकर्म, और दत्तकर्म तथा काम्यकर्म, निषिद्धकर्म एवं प्रायश्चित्त कर्म आदि प्रकार से अनेक विध कर्मों का विधान है। ||२३||
सम्बन्धस्तु त्रयाणां स्यादुचितः शिष्टवर्त्मना । निपुणैश्च सुविज्ञेयमनुबन्धचतुष्टयम् ॥ २.२४ ॥
महापुरुषों द्वारा सेवित मार्ग से मुक्ति प्राप्त करने के लिए इन तीनों में (कर्म ,उपासना और ज्ञान में) एक उचित संबंध स्थापित कर लेना चाहिए | चार कारक किसी भी प्रयास में सफलता निर्धारित करते हैं | और वे हैं १. अधिकारी २. विषय ३. सम्बन्ध ४. प्रयोजन | कुशल लोगों द्वारा इन चारों को सही तरीके से जान लेना चाहिए | भगवद्गीता में बड़े ही सरल शब्दों में यह बात कही गई है |
‘‘मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः। निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।।११ .५५।।’’
हे पाण्डव! जो पुरुष मेरे लिए ही कर्म करने वाला है, और मुझे ही परम लक्ष्य मानता है, जो मेरा भक्त है तथा संग रहित है, माने आसक्तिरहित है और जो भूत मात्र के प्रति निर्वैर है, अर्थात् सम्पूर्ण भूत प्राणियों में वैर भाव से रहित है , वह पुरुष मुझे ही प्राप्त होता है।।
भव सागर चह पार जो पावा। राम कथा ता कहँ दृढ़ नावा॥
‘‘नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम् ।
मयानुकूलेन नभस्वतेरितं पुमान् भवाब्धिं न तरेत् स आत्महा ॥ १७ ॥श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ११/अध्यायः २०’’
सभी देहों में श्रेष्ठ यह मनुष्य देह, मेरी अनुकूलतारूप हवासे चलनेवाली, एकमात्र गुरुरूप, कर्णधार से युक्त, अत्यंत दुर्लभ, सुदृढ़ नाव के रूप में अनायास प्राप्त है। इसके सहारे जो संसार सागर पार न कर जाए, वह पुरुष आत्मघाती है।|| २४ ||
अनुबन्धाविरोधेन त्रयाणां चेत्समुच्चयः। कृतः स सद्यः प्राप्नोति तृप्तिं मानवपुंगवः ॥२.२५॥
चारों अनुबन्धों के साथ अविरोध रखते हुए यदि तीनों (ज्ञान ,क्रिया और उपासना) का एक साथ अनुष्ठान किया जाता है | तो उस श्रेष्ठ पुरुष को शीघ्र ही परा तृप्ति {परम संतोष} का लाभ प्राप्त होता है | क्योंकि ‘‘अन्तो नास्ति पिपासायाः संतोषः परमं सुखं | तस्मात्संतोषमेवेह धनं पश्यन्ति पण्डिताः ||’’ मानव मन में तृष्णा (और अधिक चाहने की और कभी संतुष्ट न होने की प्रवृत्ति) का कोई अन्त ही नहीं है | अतः जो कुछ उपलब्ध हो उस पर संतोष करना ही परम सुख की स्थिति है | इसी कारण विद्वान् व्यक्ति इस संसार में संतोष को ही असली धन के रूप में देखते हैं | सन्तोषः परमो लाभः सत्सङ्गः परमा गतिः । विचारः परमं ज्ञानं शमो हि परमं सुखम् ॥ संतोष ही परम लाभ है, सत्संग ही परम गति है, विचार ही परम ज्ञान है, और शम ‘शमु उपशमे’ धातु से क्तिन् प्रत्यय करने पर शान्ति शब्द बनता है | यह (शांति) ही परम सुख है । महर्षि पतञ्जलि भी कहते हैं कि – ‘‘संतोषादनुत्तमः सुखलाभः ।। २.४२ ।।’’ संतोष से प्राणी को अनुत्तम सुख की प्राप्ति होती है, अनुत्तम सुख वह है जिससे उत्तम और कुछ भी न हो, अनुत्तम सुख को ही ब्रह्म सुख कहा जाता है। ||२५||
अनुबन्धपरिज्ञानं विना मुक्त्यै प्रयत्नवान्। न मुक्तिं विन्दते कोऽपि साधकादिविपर्ययात् ॥२.२६॥
अनुबंध चतुष्टय के सम्यक ज्ञान के बिना कोई भी यदि मुक्ति के लिए प्रयास करता है , तो वह साध्य, साधक विरोध होने के कारण मुक्ति को नहीं प्राप्त कर सकता | क्योंकि अनुबंध चतुष्टय का ज्ञान साधक है और मुक्ति साध्य है | प्रत्येक कार्य के आरम्भ में अनुबंध चतुष्टय का विचार अवश्य करना चाहिए | पहला अनुबंध है (अधिकारी) अर्थात अधिकार का, योग्यता का विचार करना कि इस कार्य को करने की योग्यता मुझमें है या नहीं ? जैसे कि बिना ड्राइविंग लाइसेंस के मोटर गाड़ी चलाना यह अनधिकार चेष्टा है | दूसरा है (विषय) जैसे कि मोटर गाड़ी के बारे में पूरी जानकारी होना भी जरूरी है | तीसरा है (सम्बन्ध) अर्थात् यह विचार करना कि क्या मुझे मोटर गाड़ी की आवश्यकता है भी या नहीं ? और चौथा है (प्रयोजन) अर्थात् यह विचार करना कि क्या मुझे कहीं आवश्यक यात्रा करनी है ? श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है कि ‘‘अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम्। मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते।।१८.२५।।’’ अनुबंध को — अंत में होने वाला जो परिणाम है उसे अनु-बन्ध कहते हैं | उसको तथा क्षयको, कर्म के करने में जो शक्ति का या धन का क्षय होता है उसको, हिंसा को, प्राणियों की पीड़ा को और पौरुष को अर्थात् अमुक कर्म को मैं समाप्त कर सकता हूँ या नहीं ऐसी अपनी सामर्थ्य को इस प्रकार अनुबंध से लेकर पौरुष तक के इन समस्त भावों की अपेक्षा न करके — उनकी परवाह न करके जो धर्म को त्याग कर केवल मोह और अज्ञान से कर्म का आरम्भ किया जाता है वह तमोगुण पूर्वक किया हुआ कहा जाता है। || २६ ||
भोगाधिकारी मोक्षं चेत्फलमिच्छेत्कदाचन। अनुबन्धस्य विज्ञानं कथं नु स्यात्समंजसम् ॥२.२७॥
अब यदि कोई अधिकारी जिसमें केवल सांसारिक भोगों को ही प्राप्त करने की योग्यता है , वह यदि मोक्ष का फल पाने की इच्छा रखता है तो अनुबंध चतुष्टय के विज्ञान के साथ उसकी संगति नहीं बैठती (सामंजस्य नहीं बैठता) कबीरदास जी कहते हैं कि ‘‘करता था सो क्यों किया, अब कर क्यों पछताय । बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय ॥’’ अगर तुम अपने आपको ही कर्ता मानते हो तो फिर जीवन में सफलता क्यों नहीं है । इसका मतलब यह है तुम वास्तव में कर्ता नहीं हो कर्म के निमित्त मात्र हो। करन करावन हार तो वह ईश्वर ही है वही सृष्टि करता है। कारणों का कारण भी वही है। मनुष्य अपने अहंकार में आकर कर्तृत्व और भोक्तृत्व का भाव रखने के कारण संसार से मुक्त नहीं हो सकता | आप अपने आप को कर्ता भी मानो और सुख दुःख से भी बच जाओ यह नहीं हो सकता | अब जब परमात्मा की दी हुई शक्ति को ही तुमने अपना अहंकार बना लिया है। बबूल का पेड़ ही तब तुमने बोया है जिसमें कांटे ही कांटे हैं इसलिए आम कहाँ से खाने को मिलेगा। तुमने ऐसे काम क्यों नहीं किये जिससे जीवन में सुख मिले। तुम नियामक नहीं निमित्त हो , और अपने को कर्ता , भोक्ता समझ बैठे। कर्मों में आसक्ति की वजह से ही मनुष्य जीवन में कष्ट पाता है। मनुष्य कर्म तो भोग के लिए करता है और फल में मोक्ष चाहता है | यह तो विडंबना ही है | ‘‘प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।३.२७।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, अहंकार से मोहित हुआ पुरुष, “मैं करता हूँ” ऐसा मान लेता है। || २७ ||
अधिकारानुगुण्येन सम्बन्धः परिकीर्तितः। तत्संबन्धानुगुण्येन विषयश्च प्रकीर्तितः ॥२.२८॥
अधिकार अथवा योग्यता के आधार पर सम्बन्ध का निर्णय होता है | और उस सम्बन्ध की प्रकृति के अनुसार विद्या या अध्ययन की वस्तु निर्धारित होती है | व्यावहारिक जीवन में भी भारतीय संस्कारों की परंपरा में बालक का छठे महीने में अन्नप्राशन संस्कार होता है | उस समय बालक /बालिका को खीर चटाने से पहले उसके सामने अनेक वस्तुऐं , खिलोने आदि रखे जाते हैं | जैसे कि {पुस्तक , माला , चाकू , तराजू और झाड़ू आदि} और देखा जाता है कि बच्चा किसके प्रति आकर्षित होता है | इससे उसके पूर्वजन्म के वर्ण , गुण , संस्कार और रुचि तथा स्वभाव का निर्णय हो जाता है | उसके अनुसार ही उसकी योग्यता का निर्णय करके उसे भविष्य में प्रोत्साहन दिया जाता है | उसी प्रकार तत्वज्ञान में भी प्रवेश करने के पूर्व जिज्ञासु के अधिकार की परीक्षा की जाती है | वेदान्तसार नामक पुस्तक में अधिकारी के लक्षण निम्न प्रकार से बताये गए हैं | इसी अधिकारी को प्रमाता भी कहा जाता है | —
“अधिकारी तु विधिवदधीतवेदवेदाङ्गत्वेनापाततोऽधिगताखिलवेदार्थोऽस्मिन् जन्मनि जन्मान्तरे वा काम्यनिषिद्धवर्जनपुरःसरं नित्यनैमित्तिकप्रायश्चित्तोपासनानुष्ठानेन निर्गतनिखिलकल्मषतया नितान्तनिर्मलस्वान्तः साधनचतुष्टयसम्पन्नः प्रमाता अधिकारी ॥ ६॥” अर्थात् तत्वज्ञान का अधिकारी वह है जिसने विधिवत् वेद-वेदांगों का अध्ययन करके समस्त वेद का तात्पर्यार्थ प्राप्त किया है | इस जन्म में अथवा किसी और जन्म में जिसने काम्यकर्म और निषिद्धकर्मोंका त्याग कर दिया है और फिर नित्य, नैमित्तिक, प्रायश्चित्त तथा उपासनात्मक कर्मोंके अनुष्ठानद्वारा समस्त पापों और मलिनता का नाश कर अन्तःकरण को अत्यंत निर्मल कर लिया है। ऐसा साधन चतुष्टय सम्पन्न (विवेक, वैराग्य , षट्सम्पत्ति और मुमुक्षा से संपन्न) ही अधिकारी है | प्रमा अर्थात् यथार्थ ज्ञान को ग्रहण करने के योग्य अधिकारी है। || २८ ||
विषयानुगुणं प्रोक्तं प्रयोजनमतो बुधैः। अनुबन्धाः सुविज्ञेया ज्ञानोपासनकर्मसु ॥२.२९॥
विद्वानों ने कहा है कि विषय के अनुसार (अध्ययन की वस्तु के अनुसार) प्रयोजन (फल) कहा जाता है | इसलिए ज्ञान,उपासना और कर्म में अनुबंध चतुष्टय को सही ढंग से समझ लेना चाहिए | अनुबन्ध (आवश्यक सामग्री) को कहते हैं | १. (अधिकारी) वेदान्त पढ़ने का अधिकारी, २. (विषय) ग्रन्थ में प्रतिपाद्य विषय, ३. (सम्बन्ध) प्रतिपाद्य विषय के साथ प्रतिपादक ग्रन्थ का बोध्य-बोधक सम्बन्ध, तथा अध्ययन का फल ४. (प्रयोजन) ये चार अनुबन्ध हैं | अधिकारी की चर्चा पछले श्लोक में की जा चुकी है | अब थोड़ा सा विषय , सम्बन्ध और प्रयोजन के बारे में समझ लेते हैं | विषयः – जीवब्रह्मैक्यं शुद्धचैतन्यं प्रमेयं | तत्र एव वेदान्तानां तात्पर्यात् ॥ २७॥{वेदान्तसार} जीव और ब्रह्म एक ही शुद्ध चेतन हैं | उपाधि अंश में भेद है परन्तु चेतनांश में भेद नहीं है | इसी बात में सभी उपनिषदों का तात्पर्य है | अतः यही वेदान्तों का विषय है | अब संबंध के बारे में जानते हैं — सम्बन्धस्तु – तदैक्यप्रमेयस्य तत्प्रतिपादकोपनिषत्प्रमाणस्य च बोध्यबोधकभावः ॥ २८॥ {वेदान्तसार} यहाँ बोध्य (जानने योग्य) ब्रह्म है और बोधक उपनिषदें है | यह बोध्य बोधक भाव अथवा साध्य साधक भाव ही सम्बन्ध है | अब प्रयोजन को देखते हैं | प्रयोजनं तु – तदैक्यप्रमेयगताज्ञाननिवृत्तिः स्वस्वरूपानन्दावाप्तिश्च” `तरति शोकम् आत्मवित् | (छां उ ७.१.३) इत्यादि श्रुतेः” ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति। (मुण्ड उ ३.२.९)इत्यादि श्रुतेः | ब्रह्मात्मैक्यबोध में जो प्रतिरोधी अज्ञान है, उस गैरसमज को हटाकर स्वरूपानंद की प्राप्ति ही प्रयोजन (फल) है। || २९ ||
वर्णाश्रमाणां सर्वेषामनुष्ठेयेषु कर्मसु। अविद्वान्संशयात्मा चेदनुवर्तेत पूर्वकान् ॥२.३०॥
यदि कोई व्यक्ति चारों वर्ण और चारों आश्रमों के लिए निर्धारित कर्तव्यों से अनभिज्ञ है तथा संशय से युक्त है तो उसे अपने पूर्व पुरुषों का अनुवर्ती होना चाहिए | ‘‘यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि॥’’ तैत्तिरीयोपनिषद | इस श्रुति का अभिप्राय यह है कि माता पिता आचार्य अपनी संतान और शिष्यों को सदा सत्य का ही उपदेश करें और यह भी कहें कि जो-जो हमारे धर्मयुक्त कर्म हैं उनका ही ग्रहण किया करें और जो-जो दुष्कर्म हैं उनका त्याग कर दिया करें। दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत् । सत्यपूतां वदेद्वाचं मनःपूतं समाचरेत् ।। ६.४६ ।। मनुस्मृति ॥ अर्थ— आँख से पवित्र करके अर्थात् नीचे दृष्टि कर के ऊँचे नीचे स्थान को देख कर चले, वस्त्र से पवित्र करके, छान कर जल पिये, सत्य से पवित्र करके वचन बोले, मन से पवित्र करके, विचार कर के आचरण करे। माता शत्रुः पिता वैरी याभ्यां बालाः न पाठिताः । सभामध्ये न शोभन्ते हंसमध्ये बको यथा ॥२.११॥ चाणक्यनीतिदर्पणः | वे माता और पिता अपने सन्तानों के वैरी हैं जिन्होंने उन को विद्या की प्राप्ति नहीं करवाई, वे विद्वानों की सभा में वैसे ही शोभित नहीं होते जैसे हंसों के बीच में बगुला। माता, पिता का यह कर्तव्य है कि वे अपनी संतानों को तन, मन, धन से विद्या, धर्म, सभ्यता और उत्तम शिक्षा से युक्त करें । || ३० ||
विद्वान् चेत्संशयात्माभूच्छास्त्रे स्वमतिनिश्चितम् । आचरेत्तु न शिष्टस्यप्यबुधस्य पितुर्मतम् ॥ २.३१ ॥
यदि कोई विद्वान व्यक्ति शास्त्रों में निर्धारित कर्तव्यों के विषय में संदिग्ध हो जाता है, और अपनी बुद्धि से निर्णय करने में असमर्थ होकर, विद्वानों और शिष्टों के मत का अनुसरण न करके अपने अशिष्ट और अज्ञानी पिताके मतका अनुसरण करता है, तो यह उचित नहीं है | ‘‘अथ यदि ते कर्मविचिकित्सा वा वृत्तविचिकित्सा वा स्यात्। ये तत्र ब्राह्मणाः सम्मर्शिनः। युक्ता आयुक्ताः। अलूक्षा धर्मकामाः स्युः। यथा ते तत्र वर्तेरन्। तथा तत्र वर्तेथाः। अथाभ्याख्यातेषु। ये तत्र ब्राह्मणाः संमर्शिनः। युक्ता आयुक्ताः। अलूक्षा धर्मकामाः स्युः। यथा ते तेषु वर्तेरन्। तथा तेषु वर्तेथाः। एष आदेशः। एष उपदेशः। एषा वेदोपनिषत्। एतदनुशासनम्। एवमुपासितव्यम्। एवमु चैतदुपास्यम्।’’ तैत्तिरीय उपनिषद शिक्षावल्ली | इसके अतिरिक्त यदि तुम्हें अपने कर्म तथा कर्म पथ (आचरण) के विषय में शंका हो तो जो भी ब्राह्मण वहाँ हों जो विचारशील हों भक्त हों, दूसरों से संचालित न हों धर्मपरायण हों, कठोर एवं क्रूर न हों, जैसा वे उस विषय में आचरण करें वैसा ही तुम करो। और यदि कोई व्यक्ति दूसरों के द्वारा अभियुक्त तथा अपराधी घोषित हो तो उसके साथ भी तुम उसी प्रकार आचरण करो जैसा उसके प्रति वे सब ब्राह्मण करते हैं जो सुविचारवान श्रद्धावान् हैं, दूसरों के द्वारा संचालित नहीं हैं, धर्मपरायण हैं, जो कठोर एवं क्रूर नहीं हैं। यही विधान तथा उपदेश हैं। यह ही परम ‘आदेश’ हैं। (यह वेदों का उपनिषद (अंतर ज्ञान) है। इसी ज्ञान के अनुसार तुम्हें धर्म का पालन करना चाहिए। हाँ, निश्चित रूप से यही ज्ञान है जो धर्मपूर्वक करणीय है। || ३१ ||
स्वकूटस्थबुधाचारः साधुसंविदितो यदि। विद्वानपि त्यजेत्स्वीयं तद्विरुद्धमसम्मतम् ॥२.३२॥
आपके अंतर्मन में स्थित विचारों का समर्थन समाज के तथाकथित बुद्धिमानों द्वारा बहुमत से भी प्राप्त हो तो भी एक ज्ञानी व्यक्ति को अपने आश्रम के द्वारा निर्धारित कर्तव्यों का ही पालन करना चाहिए , अपने आश्रम के विरुद्ध आचरणों का त्याग करना चाहिए और प्रबुद्ध व्यक्ति का ही अनुसरण करना चाहिए | इसके विपरीत करना अनुचित है |
‘‘श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।३.३५।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्मकी अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है; स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) पर धर्म भय को देने वाला है।। यह सब कहने का मतलब है कि मनमानी नहीं करनी चाहिए |
‘‘यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।१६.२३।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
जो पुरुष शास्त्र विधि को त्यागकर अपनी कामना से प्रेरित होकर ही कार्य करता है, वह न पूर्णत्व की सिद्धि प्राप्त करता है, न सुख और न परा गति।। कठोपनिषद में भी इसी तरफ इशारा किया गया है |
‘‘न साम्परायः प्रतिभाति बालं प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम्।
अयं लोको नास्ति पर इति मानी पुनः पुनर्वशमापद्यते मे ||’’
बाल-बुद्धि व्यक्ति को, जो वित्त मोह से मूढ़ हो गया है और प्रमाद में डूबा हुआ है तथा जिसे परलोक यात्रा का प्रतिबोध नहीं होताː मात्र यह लोक ही है, परलोक होता ही नहीं, ऐसा मानने वाला व्यक्ति ‘मृत्यु’ के वशीभूत होता रहता है। || ३२ ||
पूर्वाचारानुसरणं कर्ममात्रे नियम्यते । ज्ञानोपास्त्योस्त्वबाह्यत्वादन्यथाऽपि च युज्यते ॥ २.३३ ॥
अपने पूर्वज आप्त पुरुषों का अनुसरण केवल कर्मों के सम्बन्ध में किया जाता है | ज्ञान और उपासना में नहीं ,क्योंकि कर्म बाहरी हैं और दृश्य हैं तथा बहुधा आसक्ति के कारण किए जाते हैं | परन्तु ज्ञान और उपासना कोई बाहरी चीज नहीं है | अतः अदृश्य होने के कारण वहां लौकिक प्रसिद्ध पुरुषों का अनुसरण नहीं करना चाहिए | तुलसीदास जी ने मीरा जो को एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने बताया कि — ‘‘जाके प्रिय न राम-वैदेही। तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही॥ तज्यो पिता प्रहलाद, विभीषण बंधु, भरत महतारी। बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनितन्हि, भये मुद-मंगलकारी॥ नाते नेह राम के मनियत सुहृद सुसेव्य जहाँ लौं। अंजन कहा आँखि जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं॥ तुलसी सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रान ते प्यारो। जासों होय सनेह राम-पद, ए तो मतो हमारो॥ तुलसीदास जी भगवान श्रीराम के परम भक्त थे। विनय पत्रिका से उद्धृत इस पद में वे कहते हैं कि जिसको सीताराम से प्रेम नहीं है वह यदि परम प्रिय भी है तो उसे एकदम छोड देना चाहिये। तुलसीदासजी ने इसके अनेक उदाहरण दिये हैं। प्रह्लाद, विभीषण, भरत, बलि, ब्रजकी गोपांगना आदि ने अपने प्रियजनों का त्याग कर दिया था । ‘‘प्रह्लाद नारद पराशर पुण्डरीक व्यासाम्बरीष शुकशौनक भीष्मदाल्भ्यान्। रुक्माङ्गदार्जुन वसिष्ठ विभीषणादीन् पुण्यानिमान् परमभागवतान् नमामि॥’’ ये सब परम भक्त हैं | जब यज्ञ करना हो तो बहुत से लोग मिल कर करते हैं | परन्तु जब प्रेम या ध्यान करना हो तो एकान्त में ही करना पड़ता है | क्योंकि ये अन्तरंग हैं |धर्म,कर्म वाह्य है क्योंकि शरीर से होता है और ज्ञानोपासना आंतर है। || ३३ ||
पूर्वकेष्वपि सांख्येषु स्वस्य युज्येत योगिता । अन्यथाऽपि च नैतेन प्रत्यवायः कियानपि ॥ २.३४ ॥
इस श्लोक का तात्पर्य है कि हमेशा योग्य गुरु की शरण में जाना चाहिए , क्योंकि ऐसा करने नुकसान की कोई संभावना नहीं है | योग्य गुरु का लक्षण है श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ होना | बहुत से गुरु विश्वविख्यात भी हो सकते हैं , प्रवचनपटु भी हो सकते हैं , सकल शास्त्र प्रवीण भी हो सकते हैं परन्तु आत्मज्ञानी भी हों ये जरूरी नहीं है | यदि गुरु आत्मज्ञानी नहीं है , स्वयं शोक, मोह से दूर नहीं हुआ है और वेदान्त सम्प्रदाय को मानने वाला नहीं है तो वह ब्रह्मविद्या का आचार्य पद ग्रहण करने के योग्य नहीं है | ब्रह्मनिष्ठ ही सद्गुरु होने के योग्य है । अन्यथा केवल पुस्तकमस्तक विद्या सम्पन्न प्रवचनपटु केवल शुष्कपंडित वेदांताचार्य नहीं होता | कठोपनिषद में बताया है कि
‘‘न नरेणावरेण प्रोक्त एष सुविज्ञेयो बहुधा चिन्त्यमानः।
अनन्यप्रोक्ते गतिरत्र नास्त्यणीयान् ह्यतर्क्यमणुप्रमाणात् ॥’’ – काठकोपनिषत् १-२-८ ”
अवर व्यक्ति (अल्पबुद्धि, ज्ञानहीन) तुम्हें ‘उसके’ विषय में बता नहीं सकता; उसके कथन किये जाने पर भी तुम वस्तुतː ‘उसे’ जान नहीं सकते क्योंकि ‘उसका’ बहुविध रूपों में चिंतन किया जाता है। तथापि अन्य किसी के द्वारा ‘उसके’ विषय में कथन के बिना तुम ‘उस’ तक पहुँचने का मार्ग भी नहीं पा सकोगे। कारण, ‘वह’ सूक्ष्मतासे भी सूक्ष्मतर है तथा तर्कके द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता है। इसलिए अपनी योग्यता का विकास करने के लिए सद्गुरु के अनुशासन में रहना चाहिए | प्रश्नोत्तर रत्नमालिका में भगवान श्री शंकराचार्य जी ने कहा है कि–
भगवन् किं उपादेयम् ? गुरुवचनं |
हेयमपि च किम् ? अकार्यम्।
को गुरुः ? अधिगततत्त्वः,
शिष्यहितायोद्यतः सततम्॥ २॥
अर्थात् हे भगवान्! ग्रहण करने योग्य क्या है? गुरु के वचन। और त्यागने योग्य क्या है? बुरे कार्य। कौन गुरु है? जिसने तत्वों का ज्ञान अर्जित कर लिया हो और निरंतर ही शिष्य के हित के लिए प्रयत्नशील रहता है। || ३४ ||
यदि पूर्वविरोधेन कुर्यात्कर्माणि मानवः। स मूर्खो भवति क्षिप्रं प्रत्यवायी न संशयः ॥२.३५॥
लेकिन अगर कोई आदमी अपने पूर्वाचार्यों के विपरीत आचरण करता है , तो वह बिना किसी संदेह के, मूर्ख है और उसे प्रत्यवाय माने उलटे फल का भागी होना पड़ेगा अर्थात् परिणामस्वरूप उसको जल्दी ही नुकसान उठाना पड़ता है | किं विषम् ? अवधीरणा गुरुषु | विष क्या है ? बड़ो की आज्ञाकी अवज्ञा ही विष के समान है |
‘‘मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि।।१८.५८।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
मच्चित्त होकर (मेरे में चित्त वाला होकर) तुम मेरी कृपा से (सर्वदुर्गाणि) समस्त कठिनाइयों को पार कर जाओगे; और यदि अहंकारवश (तुम मेरे उपदेश को) नहीं सुनोगे, तो तुम नष्ट हो जाओगे अर्थात् तुम्हारा पतन हो जाएगा ।।
अथ चैत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि। ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि।।२.३३।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
और यदि तुम इस धर्मयुद्ध को स्वीकार नहीं करोगे, तो स्वधर्म को खोकर पाप को प्राप्त करोगे और अपने धर्म और कीर्ति का त्याग करने से पाप को प्राप्त होता है । “पा रक्षणे धातु से भी पाप शब्द की व्युत्पत्ति बनती है, अपगता (पा) यस्मात् इति पापं” जहां से रक्षा की कोई संभावना नहीं रही उसे पाप कहते हैं। || ३५ ||
नैमित्तिकानामकृतौ काम्यानां च न कश्चन। प्रत्यवायोऽत्र वामुत्र लोके भवितुमर्हति ॥२.३६॥
नैमित्तिक और काम्य कर्मों के न करने से किसी को भी इस लोक में अथवा परलोक में प्रत्यवाय की प्राप्ति नहीं होती | प्रत्यवाय उसको कहते हैं जैसे कि यदि आप बिजली बिल भरो तो आपको कोई पुरस्कार नहीं दिया जाएगा केवल आपके घर में बिजली चालू रहेगी ,पर यदि बिजली का बिल न भरे तो बिजली की लाइन काट दी जाएगी | ऐसे ही संध्यावन्दनादि नित्यकर्म और दर्शपौर्णमास आदि नैमित्तिक कर्म यदि आप करते हैं तो आपका आत्मबल और आत्मशुद्धि बनी रहेगी , और यदि नहीं करते तो उसकी हानि हो जाएगी | प्रति+अव+आय=प्रत्यवाय माने लाभ का उलटा अर्थात् हानि ये अर्थ होता है | प्रसिद्ध पुस्तक श्रीमद्भगवद्गीता में भी प्रत्यवाय शब्द का प्रयोग है — ‘‘नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते। स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।२.४०।।’’ इसमें क्रम नाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है। इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय से रक्षा करता है। मनुष्य लोक में इस समबुद्धि रूप धर्म के आरम्भ का नाश नहीं होता, इसके अनुष्ठान का उलटा फल भी नहीं होता और इसका थोड़ा सा भी अनुष्ठान (जन्म-मरण रूप) महान् भय से रक्षा कर लेता है। ||३६||
नित्यानां त्वकृतावत्रामुत्र वा प्रत्यवायभाक्। भवेदवश्यकार्यत्वादाश्रमच्युतिहेतवे ॥२.३७॥
लेकिन यदि नित्य कर्म नहीं किये तो इस लोक और परलोक में भी प्रत्यवाय लग जाएगा क्योंकि नित्यकर्म अनिवार्य हैं | यदि अवश्य कर्तव्य कर्म नहीं किये जाते तो वे उस व्यक्ति के अपने आश्रम से पतन के कारण बन जाते हैं | पराशर स्मृति में बताया है कि —
‘‘संध्या स्नानं जपो होमो देवतानां च पूजनम्।
आतिथ्यं वैश्वदेवं च षट् कर्माणि दिने दिने॥ || १.३९ ||’’
अर्थात् ‘रात और दिनकी संधिके समय में स्नान, गायत्री का जप, अग्निहोत्र, शिव विष्णु आदि पंचदेवों का पूजन, यथाशक्ति, अतिथि का सत्कार और बलिवैश्वदेव ये छह कर्म द्विज जातियों को नित्य ही करने चाहिए। तथा जिनका यज्ञोपवीत संस्कार नहीं हुआ है उन्हें भी —
‘‘देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः।
दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने।।’’
अपने इष्टदेव की पूजा करना, गुरु की उपासना करना, रामायण,महाभारत,श्रीमद्भागवत आदि शास्त्रों का स्वाध्याय करना-कराना, इन्द्रियों पर नियंत्रण एवं प्राणी रक्षा रूप संयम रखें, व्रत उपवास आदि के द्वारा रसत्याग आदि तप करना तथा अपनी शक्ति के अनुसार सत्पात्रों को श्रद्धा के साथ दान करना और दीन-दुखी जीवों को करुणा भाव से आहार, औषधि, ज्ञान और अभय दान देना; ये छह आवश्यक कार्य गृहस्थ को प्रत्येक दिन करना आवश्यक है। इसलिए समस्त संसारी कार्यों को त्याग कर सर्वप्रथम मानव मात्र को इन आवश्यक कामों को करना चाहिए। अहरह: सन्ध्यामुपासीत, कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा: इत्यादिना। || ३७ ||
न स्यादकरणं हेतुरभावात्मतया ततः। नित्याकरणहेतुः प्राक्कर्म चेत्प्रत्यवायकृत् ॥२.३८॥
इस प्रकार आत्मज्ञान के अभाव में कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिए | यदि कोई आत्मज्ञान का बहाना करके कर्मों का त्याग करता है तो उसे परिणामस्वरूप (प्रत्यवाय का भागी बनना पड़ेगा) अर्थात् नुकसान उठाना पड़ेगा | आत्मज्ञान का ढोंग करके नित्यकर्मों का त्याग नहीं करना चाहिए | ( हमारी तो सर्वत्र समबुद्धि हो गई है , हमें तो सर्वत्र ब्रह्म दर्शन होता है , इत्यादि ) अरे बाबा जबतक द्रष्टा और दृश्य का भेद बना हुआ है तबतक नैष्कर्म्य सिद्धि कैसे संभव है ?
‘‘कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि।।३.२०।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
राजा जनक-जैसे अनेक महापुरुष भी कर्म के द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं। इसलिये लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू (निष्काम भावसे) कर्म करने के योग्य है। ऋषभदेव,भगवान रामचंद्र, श्रीकृष्णचन्द्र, भगवान व्यासदेव , भगवान शंकराचार्य , दशरथजी शास्त्री , स्वामी करपात्रीजी आदि सभी महापुरुषों ने लोकसंग्रह के लिए कभी भी नित्यकर्मों का त्याग नहीं किया।
‘‘यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।३.२१।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करता है, अन्य लोग भी वैसा ही अनुकरण करते हैं; वह पुरुष जो कुछ भी अपने आचरण से प्रमाणित कर देता है, लोग भी उसका अनुसरण करते हैं। || ३८ ||
अकृतौ प्रत्यवायस्य श्रवणं व्यर्थमेव तत्। पूर्वकर्मफलादन्यफलस्यानवधारणात् ॥२.३९॥
यदि नैष्कर्म्य का तात्पर्य नित्यकर्मों का न करना ही होता तो यह जो सामान्यतः सुना जाता है कि नित्यकर्मों के न करने से प्रत्यवाय होता है यह बात ही व्यर्थ हो जाती | क्योंकि यही बात सुनी जाती है कि यदि तुम अकर्मण्य हो जाओगे तो तुम्हें प्रत्यवाय लगेगा अर्थात् नुक्सान उठाना पड़ेगा ,क्योंकि आपने कर्तव्य कर्मों का त्याग किया है, अथवा यह कहें कि पूर्वजन्म में किये हुए कर्मों के फल स्वरूप हमें इस जन्म में जीवनमुक्ति का फल मिला है तो यह भी युक्तियुक्त नहीं है | क्योंकि कर्मों का फल तो भोग होता है मोक्ष नहीं | और दूसरी बात यह है कि नित्यकर्मों के करने से चित्तशुद्धि होती है और नैमित्तिक तथा काम्य कर्मों का फल जाति (जन्म) आयु और भोग है | मोक्ष की सिद्धि में कर्मोपासना परम्परया (परम्परा से) साधन हैं और ज्ञान साक्षात् साधन है | प्रत्येक कर्मकी उत्पत्ति अहंभावसे होती है और परमात्मप्राप्ति अहंभावके मिटनेपर होती है। कारण कि अहंभाव कृति (कर्म) है और परमात्मा कृतिरहित हैं। कृतिरहित तत्त्वको किसी कृतिसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है — नास्त्यकृतः कृतेन। तात्पर्य यह हुआ कि परमात्म तत्त्व की प्राप्ति मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ और शरीर आदि जड़ पदार्थों के द्वारा नहीं प्रत्युत जड़ता के त्याग से होती है। || ३९ ||
अतो नाभावता युक्ता नित्यकर्माकृतेर्यथा। निषिद्धाचरणं भावस्तथैवाकरणं मतम् ॥२.४०॥
अतः जैसे नित्यकर्मों का न करना उपयुक्त नहीं है , वैसे ही निषिद्ध कर्मोंका करना भी ठीक नहीं है| नित्यकर्मों का कोई भोग रूप फल नहीं होता , इसका मतलब यह नहीं है कि वे अभावात्मक हैं क्योंकि उनका फल चित्तशुद्धी है ही और वैसे ही आत्मा तो अकर्ता है , तो निषिद्धाचरण भी अकर्म में गिना जाएगा , तो यह बात ठीक नहीं है | वो कहावत है न , (मीठा मीठा गप और कडुआ कडुआ थू)
‘‘तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येरन्ब्राह्मणयोनिं वा क्षत्रिय योनिं वा वैश्ययोनिं वाथ य इह कपूयचरणा अभ्याशो ह यत्ते कपूयां योनिमापद्येरन् श्वयोनिं वा सूकरयोनिं वा चण्डालयोनिं वा ॥५.१०.७॥’’ छान्दोग्योपनिषद |
अपने पूर्व कर्म के अनुसार ब्राह्मण योनि, क्षत्रिययोनि , वैश्ययोनि में जन्म लेता है , किन्तु बुरे कर्म वाला कुत्तायोनि, सूकरयोनि, चंडालयोनि, में जाता है । एक ब्राह्मण ने बगीचा लगाया। नजर बचाकर उसमें एक गाय घुस गई और कितने ही हरे-भरे पौधे चर लिये। देखा, तो ब्राह्मण आग बबूला हो गया। आवेश में जोर से ऐसा लट्ठ मारा कि गाय चक्कर खाकर गिर पड़ी और वहीं उसका प्राणान्त हो गया। उन दिनों गौ-हत्या को बहुत बड़ा पाप माना जाता था और प्रायश्चित्त का दण्ड विधान भी बहुत कठोर था। सो ब्राह्मण डर गया और दण्ड से बचने के लिए वेदान्त झाड़ने लगा। जो कोई भी पूछता उससे कहता- हाथों का अधिष्ठाता इन्द्र है। उसकी प्रेरणा से हाथ काम करते हैं तो दोष मेरा नहीं इन्द्र का है वह इन्द्र ही इस गौ हत्या का पाप ओढ़ेगा। गौ हत्या एक राक्षसी का रूप बनाकर खड़ी थी। ब्राह्मण ने उसे स्वीकार नहीं किया तो वह इन्द्र के पास चली गई। सारा विवरण सुनाया और कहा दोष आपका हो तो आप ही मुझे स्वीकार कीजिए। इन्द्र इस विचित्र आक्षेप पर क्षुब्ध थे। वे उस गौ-हत्या को साथ लेकर वेष बदलकर बगीचे में राहगीर बनकर पहुँचे। बगीचे की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। जिसने भी कितने परिश्रम और कौशल से इसे लगाया है उसके दर्शन की इच्छा व्यक्त करने लगे। तब प्रशंसा सुनकर ब्राह्मण बहुत प्रसन्न हुआ और सामने आकर विस्तारपूर्वक वह सब बताने लगा कि उसने किस प्रकार इस बगीचे को लगाया और धन कमाया। तब इन्द्र असली रूप में प्रकट हुए और बोले- जब हाथों के परिश्रम का श्रेय और लाभ आपको मिला तो इन्हीं के द्वारा किये गये पाप कर्म का फल इन्द्र क्यों भोगे? ब्राह्मण से कुछ उत्तर देते न बन पड़ा और गौ-हत्या उस पर सवार हो गई। || ४० ||
विहिताकरणस्यापि भावात्मत्वोररीकृतेः। आस्तिकत्वमिह प्राहुरन्यथा नास्तिकत्वतः ॥२.४१॥
सर्वत्र आत्मदृष्टि हो जाने पर यदि कोई विहित कर्मों का ( नित्य, नैमित्तिक कर्मों का ) त्याग करता है तो भी वह पुरुष आस्तिक कहा जाएगा क्योंकि कर्म संन्यास का स्वरूप ही यह कि है, काम्य कर्मों का त्याग अथवा सर्वकर्मफल त्याग | इसके विपरीत यदि हो तो नास्तिक कहा जाएगा। आत्मज्ञान या ब्रह्मनिष्ठा हुए बिना यदि कोई विहित कर्मों का त्याग करेगा तो उसे प्रत्यवाय रूप फल भोगना पड़ेगा |
‘‘असन्नेव स भवति। असद् ब्रह्मेति वेद चेत्।
अस्ति ब्रह्मेति चेद्वेद। सन्तमेनं ततो विदुरिति।॥१॥ तैत्तिरीयोपनिषद्’’
यदि कोई ‘ब्रह्म’ को ‘असत्’ रूप समझता है तो वह स्वयं असत्य समान (अस्तित्वहीन) बन जाता है; किन्तु यदि वह ‘ब्रह्म’ को इस रूप में जानता है कि वह है, तो लोग उसे संत की तरह जानते हैं तथा वह उनके लिए एक यथार्थ सत्य है |
‘‘कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।४.१८।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म में कर्म देखता है वह मनुष्यों में बुद्धिमान है योगी है और सम्पूर्ण कर्मों को करने वाला है। आत्मा केवल द्रष्टा है, नित्य ही अकर्ता है इसलिए ज्ञानी कर्म में अकर्म देखता है और मन,बुद्धि तथा इन्द्रियां नित्य ही कर्म से संयुक्त हैं अतः यदि व्यक्ति मन,बुद्धि तथा इन्द्रियों से तादात्म्यापन्न (Identified) है तो उसे कर्म में अकर्म देखने का ढोंग नहीं करना चाहिए |अर्थात् जो कोई भी मन,बुद्धि और शरीर को ही अपनी पहचान समझता है, वह यदि विहित कर्म नहीं करेगा तो नास्तिक कहा जाएगा | श्रीमद्भगवद्गीता में यह भी कहा है कि —
‘‘न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः’’ ||३.५||
कोई भी पुरुष कभी क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता क्योंकि प्रकृति से उत्पन्न गुणों के द्वारा परवश होते हुए सब (पुरुषों) से कर्म करवा लिया जाता है। अर्थात् प्रकृतिजन्य गुण कर्म कराते हैं। ||४१||
पूर्वकर्मफलस्यापि नित्याकरणकर्मणः। पापस्य दुःखहेतुत्वं पृथगेवावधार्यते ॥२.४२॥
दुःख और पाप के दो हेतु बताये गए हैं | एक तो नित्यकर्मों का न करना और दूसरा पूर्व संचित दुष्कर्मों का प्रबल वेग | यह तो प्रसिद्ध ही है कि पाप का फल दुःख होता है | उन पापों और दुःखों के सम्बन्ध में यह माना जाता है कि या तो वे पूर्व जन्म के कर्मों का फल है अथवा नित्यकर्मों के पालन न करने का परिणाम है | नित्यस्य तु कर्तव्यतामात्रम् । न चाकरणान्नित्यस्य प्रत्यवायो भवतीति विज्ञानात्किंचित्फलं स्यात् । नापि नित्याकरणं ज्ञेयत्वेन चोदितम्। कर्मों का करने और न करने से सम्बन्ध है न कि ज्ञान और मोक्ष से | नित्यकर्मों के अभाव रूप अकर्म में कर्म देखने को कहीं कर्तव्य रूप से विधान नहीं किया है, केवल नित्यकर्म की कर्तव्यता का विधान है। नित्य कर्मों के न करने से अशुद्धि , अंधकार या अज्ञान और भी बढ़ता है , और अन्धकार से अन्धकार की निवृत्ति नहीं होती है| इसीलिए दुःखों की परम्परा चालू रहती है। ||४२||
अज्ञानाद्विहिते लुप्ते ज्ञानाद्वा कर्मणि स्वके। प्रायश्चित्ती भवेन्मर्त्यो लभेद्दुर्जन्म वा पुनः ॥२.४३॥
यदि कोई व्यक्ति अज्ञानता से अथवा जानबूझकर अपने लिए विहित कर्मों का लोप करता है, तो उसे उसका प्रायश्चित्त करना चाहिए अन्यथा उसका अगला जन्म नीच योनिमें होगा | “प्रायः पापं समुद्दिष्टं चित्तं तस्य विशोधनम् ॥” यद्वा, प्रायस्य तपसः चित्तशुद्धिर्भविष्यति || प्रायश्चित्तान्यशेषाणि तपःकर्मात्मकानि वै । यानि तेषामशेषाणां कृष्णानुस्मरणं परम् ॥ इतिस्मृतौ । यहाँ इस प्रसंग में प्राय शब्द पापका वाचक है और चित्त शब्द शुद्धिका वाचक है अर्थात् पाप की शुद्धि तपस्या आदि कर्मों के द्वारा होती है | और अगर कुछ भी न कर सके तो कृष्ण का स्मरण करना चाहिए (श्रीकृष्णः शरणं मम) गीताजीमें भगवान कहते हैं कि ‘‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।१८.६६।। सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम बिलकुल भी शोक मत करो।। रामायण में भी ’’सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते | अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम ||(वाल्मीकि रामायण ६/१८/३३) भगवान श्री रामचन्द्रजी कहते हैं कि ‘जो एक बार भी मेरे शरण होकर कहता है, कि मैं तुम्हारा हूँ, (तुम मुझे अपना लो) इस प्रकार मुझसे रक्षा की प्रार्थना करता है तो मैं उसे सब भूतों से अभय कर देता हूँ, यह मेरा व्रत है (यह मेरी प्रतिज्ञा) है। इसपर भी मनुष्य उनके शरण होकर अपना कल्याण क्यों नहीं करता, यह बड़े आश्चर्य-की बात है ! || ४३ ||
बुद्धिपूर्वं त्यजन्नित्यमनुतापविवर्जितः। अनाश्रमी नरो घोरं रौरवं नरकं व्रजेत् ॥२.४४॥
यदि कोई व्यक्ति जानबूझकर अपने नित्यकर्मों का त्याग कर देता है और अनुताप , पश्चात्ताप या प्रायश्चित्त भी नहीं करता तो फिर वह चार आश्रमोंमें से किसी भी आश्रम से संबंधित हो अनाश्रमी (आश्रम बाह्य) हो जाता है और भयंकर रौरव नरकमें जाता है |
“अकृत्वा वैदिकं नित्यं प्रत्यवायी भवेन्नरः।
देवताप्रतिमां दृष्ट्वा यतिं दृष्ट्वा त्रिदण्डिनम् ।
नमस्कारं न कुर्याच्चेत्प्रायश्चित्ती भवेन्नरः । ।
इसीलिए त्रिकाल संध्यामें सूर्य उपासना करनेके समय पापपुरुष को दूर करने तथा पापका प्रायश्चित्त करने के लिए अघमर्षण किया जाता है | अघमर्षण माने पापनाशक क्रिया | अघमर्षण ऋग्वेद का एक सूक्त है जिसमें तीन मंत्र हैं और जिसका उच्चारण संध्या वंदन के समय द्विज लोग पाप की निवृत्ति के लिये करते हैं । जिसमें मंत्र द्वारा हाथ में जल लेकर नासिका से छुला कर वायु छोड़ते हुए पाप विसर्जन करने की पापनाशिनी क्रिया की जाती है। अघमर्षण का मंत्र यह है —
ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत। ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः।।१।।
समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत। अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी।।२।।
सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्। दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः।।३।।’
ऋतमिति सत्यनाम । ऋतं मानसं यथार्थसंकल्पनं सत्यं वाचिकं यथार्थभाषणम् । चकाराभ्यामन्यदपि शास्त्रीयं धर्मजातं समुच्चीयते । तत्सर्वमभीद्धादभितप्ताद्ब्रह्मणा पुरा सृष्ट्यर्थं कृतात्तपसोऽधि । अध्युपर्यर्थे । उपर्यजायत । उदपद्यत । ‘ तपस्तप्त्वेदं सर्वमसृजत ‘ (तै. आ. ८. ६ ) इति श्रुतेः ।
तपश्चात्र स्रष्टव्यपर्यालोचनलक्षणम् ।’ यस्य ज्ञानमयं तपः’ ( मु. उ. १, १. ९) इति श्रुत्यन्तरात् ॥ यद्वा । अभीद्धादभितः प्रकाशमानात् परमात्मनो मायाधिष्ठानरूपादुपादानभूतादृतं सत्यं चाजायत । ततस्तस्मादेवेश्वराद्रात्री । उपलक्षणमेतदन्होऽपि । अहश्च रात्रिश्चाजायत ॥ ततस्तस्मादेवेश्वरादर्णवोऽर्णसोदकेन युक्तः समुद्रश्चाजायत । समुद्रशब्दोऽन्तरिक्षोदध्योः साधारण इत्यभिमतार्थस्य प्रकाशनायार्णवशब्देन विशेष्यते । अर्णवात्समुद्रात्सृष्टादध्यूर्ध्वं संवत्सरः संवत्सरोपलक्षितः सर्वः कालोऽजायत । श्रूयते हि —
‘सर्वे निमेषा जज्ञिरे विद्युतः पुरुषादधि कला मुहूर्ताः काष्ठाश्च ‘ (तै. आ. १०. १. २) इति ।
स चेश्वरोऽहोरात्राण्येतदुपलक्षितानि सर्वाणि भूतजातानि विदधत् कुर्वन् सृजन् ॥ मिषतो निमिषादियुक्तस्य विश्वस्य सर्वस्य प्राणिजातस्य वशी स्वामी भूत्वा वर्तते ॥ सूर्याचन्द्रमसौ कालस्य ध्वजभूतौ दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षं च इत्थं त्रिभुवनं स्वः । स्वःशब्दः सुखवाची । दिवो विशेषणम् । सुखरूपां दिवम् । तदेतत्सर्वं धाता विधाता यथापूर्वं पूर्वस्मिन् कल्पे अकल्पयत् सृष्टवान् तथैवागामिन्यपि कल्पे कल्पयिष्यतीत्यर्थः |[सायणभाष्यम्]
इस मन्त्र का सामान्य अर्थ—(महाप्रलय के बाद इस कल्प के आरम्भ में) सबओर से प्रकाशमान तपरूप परमात्मा से ऋत (सत्संकल्प) और सत्य (यथार्थ भाषण) की उत्पत्ति हुई। उसी परमात्मा से रात्रि-दिन प्रकट हुए तथा उसी से जलमय समुद्र का आविर्भाव हुआ। जलमय समुद्र की उत्पत्ति के पश्चात् दिनों और रात्रियों को धारण करने वाला कालस्वरूप संवत्सर प्रकट हुआ जो कि पलक झपकानेवाले जंगम प्राणियों और स्थावरों से युक्त समस्त संसार को अपने अधीन रखने वाला है। इसके बाद सबको धारण करने वाले परमेश्वर ने सूर्य, चन्द्र, दिव (स्वर्ग लोक),पृथ्वी, अन्तरिक्ष तथा महर्लोक आदि लोकोंकी भी पूर्व कल्प के अनुसार सृष्टि की।||४४ ||
जीवन्मुक्तस्य नित्येषु यदि लुप्तानि कानिचित्। न तेन प्रत्यवायोऽस्ति कैश्चित्स्वाश्रमसिद्धितः ॥२.४५॥
लेकिन अगर कोई जीवन्मुक्त पुरुष अपने नित्यकर्मों का पालन नहीं करता तो उसे किसी प्रकार का प्रत्यवाय नहीं लगता | अर्थात् परिणामस्वरूप उसे कोई नुकसान नहीं उठाना पड़ता क्योंकि उसने अपने आश्रम में पूर्णता प्राप्त की है | इस विषय में सुबालोपनिषद से एक उद्धरण देते हैं —
अथ हैनं रैक्वः पप्रच्छ भगवन्योऽयं विज्ञानघन उत्क्रामन्स केन कतरद्वाव स्थानं दहतीति तस्मै स हो वाच योऽयं विज्ञानघन उत्क्रामन्प्राणं दहत्यपानं व्यानमुदानं समानं वैरम्भं मुख्यमन्तर्यामं प्रभञ्जनं कुमार श्येनं श्वेतं कृष्णं नागं दहति पृथिव्यापस्तेजोवाय्याकाशं दहति जागरितं स्वप्नं सुषुप्त तुरीयं च महतां च लोकं परं च लोकं दहति लोकालोकं दहति धर्माधर्मं दहत्यभास्करममर्यादं निरालोकमतः परंदहति महान्तं दहत्यव्यक्तं दहत्यक्षरं दहति मृत्यु दहति मृत्युर्वै परे देव एकीभवतीति परस्तान्न सन्नासन्न सदसदित्येतन्निर्वाणानुशासन मिति वेदानुशासनमिति वेदानुशासनम्॥ सुबालोपनिषद ||१५.१||
इसके पश्चात् रेक्व मुनि ने पोराङ्गिरस से पुनः प्रश्न किया- ‘‘हे भगवन्! यह विज्ञान स्वरूप आत्मा जब शरीर से बाहर उत्क्रमण करता है, तब वह किसके द्वारा, किस स्थान को जलाता है?’’
ऐसा सुन कर उन पोराङ्गिरस ने कहा- ‘‘वह विज्ञान घन आत्मा बाहर उत्क्रमण करता है,’’ तब सबसे पहले प्राणको, क्रमशः अपानको, ब्यानको, उदानको, समानको, वैरंभको, मुख्यको, अन्तर्यामको, प्रभंजनको, कुमारको, श्येनको, श्वेतको, कृष्णको एवं नागको दग्ध करता है।
इस प्रकार यहाँ १४ चौदह प्राण के भेदों का वर्णन किया है | तत्पश्चात् पृथ्वी, जल, तेज, वायु तथा आकाश को दग्ध करता है, इसके बाद जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुर्या, महानता के लोक तथा परलोक को भी दग्ध कर देता है, तदनन्तर लोक एवं अलोक को दग्ध करता है, धर्म एवं अधर्म को दग्ध करता है, तत्पश्चात् बिना सूर्य के, बिना मर्यादा के और बिना आलोक के वह सभी स्थलों को दग्ध कर देता है, उसके बाद महत्तत्व को दग्ध कर देता है, प्रकृति को दग्ध करता है, अक्षर को दग्ध करता है तथा मृत्यु को भी दग्ध कर देता है। मृत्यु भी परम आदिदेव परमतत्व में एकाकार हो जाती है, उसके बाद न सत् है, न असत् और न ही सत्-असत् है। यही निर्वाण (मुक्ति) का अनुशासन है, यही वेद की शिक्षा है, यही वेद का अनुशासन है। || ४५ ||
प्रायश्चित्तनिवर्त्यानि निषिद्धाचरणानि च । प्रायश्चित्तमकुर्वन्तमपि लिम्पन्ति नैव तम् ॥ २.४६ ॥
जिन निषिद्धाचरणों की निवृत्ति प्रायश्चित्तकर्म करने से होती है , वे प्रायश्चित्त रूपी कर्म जीवन्मुक्त पुरुष को नहीं करने पड़ते क्योंकि जीवन्मुक्त पुरुष को निषिद्धाचरण प्रभावित नहीं करते इसलिए तपस्या करके उसे शुद्धिकरण की प्रक्रिया से गुजरने की कोई आवश्यकता नहीं होती है | क्योंकि वह अपने को शरीर, मन, बुद्धि से युक्त कर्ता या भोक्ता नहीं मानता | वह तो अपने द्रष्टा स्वरूप में अवस्थित रहता है | इसीलिये भगवान श्रीकृष्ण ने गीताजी में कहा है कि —
‘‘शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि।।९.२८।।’’
इस प्रकार तुम शुभाशुभ फलस्वरूप कर्म बंधनों से मुक्त हो जाओगे; और संन्यास योग से युक्त चित्त हुए तुम विमुक्त होकर मुझे ही प्राप्त हो जाओगे।।
‘‘यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।९.२७।।’’
हे कौन्तेय ! तुम जो कुछ कर्म करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ हवन करते हो, जो कुछ दान देते हो और जो कुछ तप करते हो, वह सब तुम मुझे अर्पण करो।। भगवान ने यह नहीं कहा कि तुम केवल शुभ कर्म ही मुझे अर्पण करो बल्कि यह कहा कि तुम जो कुछ भी शुभ अशुभ कर्म करते हो, सब कुछ मुझे अर्पण कर दो क्योंकि भगवान पूर्ण हैं और उनको को पूर्णता ही प्रिय है, आधा-आधा भगवान को अच्छा नहीं लगता | और स्वभावतः जब आप भगवान को दृष्टि में रखकर कर्म करोगे तो अशुभ कर्म कर ही नहीं सकते। || ४६ ||
कर्म शुद्धमशुद्धं च द्विविधं प्रोच्यते श्रुतौ। तत्राशुद्धेन बन्धः स्यान्मोक्षः शुद्धेन देहिनाम् ॥२.४७॥
वेदों में दो प्रकार के कर्म बताए गए हैं , एक शुद्ध कर्म हैं और दूसरे अशुद्ध कर्म कहे जाते हैं | इनमें से, अशुद्ध कार्यों द्वारा,एक व्यक्ति बंधन से पीड़ित होता है और शुद्ध कर्मों के आचरण से मुक्ति मिलती है | शुद्ध कर्म वे हैं जो शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियों और प्राण से तादात्म्यापन्न हुए बिना किये जाते हैं | और जो शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियों और प्राण से अपने को एक मानकर किये जाते हैं , वे अशुद्ध कर्म हैं |
‘‘प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।३.२७।।’’ (श्रीमद् भगवद्गीता)
सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, अहंकार से मोहित हुआ पुरुष, “मैं करता हूँ” ऐसा मान लेता है।। || ४७ ||
अशुद्धं च तथा प्रोक्तं पुण्यं पापमिति द्विधा। परस्परं न बाधोऽस्ति तयोरत्राविरोधतः ॥२.४८॥
अब जो अशुद्ध प्रकार के कर्म हैं उसके भी दो विभाग हैं एक पुण्य कर्म होते हैं और दूसरे पाप कर्म होते हैं | ये दोनों एक दूसरे को काटते नहीं हैं क्योंकि ये दोनों परस्पर विरोधी नहीं हैं | ये पुण्य और पाप , प्रकाश और अंधकार के समान एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं |जैसे कि धृतराष्ट्र को उसके पुण्य कर्मों के फलस्वरूप राज्य का सुख मिला और पाप कर्मों के परिणाम में पुत्रों के विनाश का दुख देखना पड़ा। || ४८ ||
सुखदुःखे समस्तस्य जन्तोर्याभ्यां प्रसिध्यतः । तयोर्न वशमागच्छेच्छुद्धमात्रेण संस्थितः ॥ २.४९ ॥
आत्मा चेतन है और शरीर जड़ है पर जब जड़ और चेतन एक दूसरे में मिल जाते हैं तब अशुद्ध हो जाते हैं और चेतन आत्मा अपने को जड़ देह के रूप में मानने लगता है | इसलिए मुख्य रूप से जिस देहासक्ति के कारण सभी सांसारिक प्राणियों को सुख और दुःख सहना पड़ता है , उसे जड़ और चेतन के विवेक द्वारा अपने को शुद्ध, चेतन, अकर्ता,आत्मा ही मानना चाहिए और किसी भी प्रकार की आसक्ति में न फँसकर अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित रहना चाहिए |
‘‘तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।३.२८।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
परन्तु हे महाबाहो ! गुण और कर्म के विभाग के सत्य (तत्व) को जानने वाला ज्ञानी पुरुष यह जानकर कि “गुण गुणों में बरतते हैं” (कर्म में) आसक्त नहीं होता।। विवेक के अभाव में अपने आपको देह,गेह, जन, धन, मान, अपमान, हानि और लाभ वाला मानने लगता है |
‘‘इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।३.३४।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
इन्द्रिय-इन्द्रिय (अर्थात प्रत्येक इन्द्रिय) के विषय के प्रति (मन में) राग द्वेष रहते हैं; मनुष्य को चाहिये कि वह उन दोनों के वश में न हो; क्योंकि वे इसके (मनुष्य के) शत्रु हैं। ||४९||
शुद्धं नित्यमनन्तं यत्सत्यं कर्म निगद्यते। नित्यशुद्धविमुक्तात्मसाक्षात्कारार्थकं विदुः ॥२.५०॥
नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त और अनंत स्वरूप निजात्मा के साक्षात्कार के उद्देश्य से जो कर्म किये जाते हैं वे शाश्वत और शुद्ध कर्म कहे जाते हैं |
‘‘संध्यावंदन भद्रमस्तु भवतो भो स्नान तुभ्यं नमः, भो देवा: पितरश्च तर्पणविधौ नाहंक्षमः क्षम्यताम्। यत्र क्वापि निषद्य यादव कुलोत्तंसस्य कंस द्विषः स्मारं स्मार मघं हरामि तदलं मन्ये किमन्येन मे ।।’’
भावार्थः- हे धर्म कर्म, हे संध्या वंदन, आपका कल्याण हो । हे स्नान तुम्हारे लिए नमस्कार है । हे देवताओ और पितरो ! तर्पण पूजा में मैं समर्थ नहीं हूँ, क्षमा करो । मैं केवल इतना ही चाहता हूँ कि जहाँ कहीं भी जाऊं वह चाहे पुण्य भूमि काशी हो, या कीकट (मगध देश) हो मुझे भगवान का स्मरण होता रहे । मैं काशी की महिमा को स्वीकार करता हूँ, परन्तु अब मुझे और कुछ सूझता नहीं है कि मैं क्या करूं? इसलिए चाहता हूँ कि जहाँ कहीं भी बैठ जाऊँ वहाँ यादव कुलावतंस, कंस के हंता भगवान श्रीकृष्ण का चिंतन होता रहे ।अब मुझे और कुछ करने की आवश्यकता नहीं है । भक्ति देवी की कृपा से अविद्या काम और कर्म पर्यन्त जितने भी पाप हैं वे सब नष्ट हो जाते हैं । इसलिए अब मुझे किसी दूसरे साधन की आवश्यकता नहीं है । और न मुझे भगवान की भक्ति के सिवा दूसरा कोई प्राप्तव्य पदार्थ ही अभीष्ट है । भगवद् भक्ति ही धर्म कर्म का काम कर देती है , क्योंकि इससे अन्तःकरण भगवद- आकार या आत्माकार हो जाता है ।
विवेकचूड़ामणि में भगवान शंकराचार्य जी कहते हैं कि —-
‘‘मोक्षकारणसामग्र्यां भक्तिरेव गरीयसी ।
स्वस्वरूपानुसन्धानं भक्तिरित्यभिधीयते ॥ ३१ ॥
स्वात्मतत्वानुसन्धानं भक्तिरित्यपरे जगु:।’’
मुक्ति की कारण रूप सामग्री में भक्ति ही सबसे बढ़कर है और अपने वास्तविक स्वरूप का अनुसन्धान करना ही ‘भक्ति’ कहलाता है। कोई-कोई ‘स्वात्म-तत्व का अनुसन्धान ही भक्ति है’- ऐसा कहते हैं। || ५० ||
विशुद्धैः कर्मभिः शुद्धानीन्द्रियाणि भवन्त्यलम्। इन्द्रियेषु विशुद्धेषु मनः शुद्धं स्वतो भवेत् ॥२.५१॥
विशुद्ध कर्मों का आचरण करने से भाव शुद्ध हो जाता है और जब भाव शुद्ध हो जाता है तब इन्द्रियां शुद्ध हो जाती हैं तथा जब इन्द्रियां शुद्ध हो जातीं हैं तब मन अपने आप शुद्ध हो जाता है।
छान्दोग्य उपनिषद में कहा है कि – आहार शुद्धौ सत्व शुद्धिः सत्त्व शुद्धौ ध्रुवा स्मृति:।
स्मृतिलम्भे सर्व ग्रन्थीनां विप्रमोक्षः। {छा.उप.७ -२६-२}
यहाँ आहार का अर्थ केवल भोजन नहीं अपितु आहृयते इन्द्रीभिःस्वीकृयते (अनुभूयते ) स आहारः = जो कुछ भी हम समस्त इन्द्रियों के द्वारा जिसका- जिसका अनुभव करते हैं वह सब आहार है। इसलिये आहार शुद्धि से सभी विषयों की शुद्धि अभीष्ट है। जो कुछ भी अन्दर लिया जाता है वह आहार है और जो कुछ बोला जाता है सो व्याहार है और जो कुछ किया जाता है वह व्यवहार है। अस्तु !
विशुद्धिकारणं साधनमुपदिश्यते आहारशुद्धौ । आह्रियत इति आहारः शब्दादि विषय विज्ञानं भोक्तुर्भोगायाऽह्रियते तस्य विषय उपलब्धि लक्षणस्य विज्ञानस्य शुद्धिराहार शुद्धी रागद्वेषमोहदोषैरसंसृष्टं विषयविज्ञानमित्यर्थः । तस्यामाहार शुद्धौ सत्यां तद्वतोऽन्तःकरणस्य सत्वस्य शुद्धिर्नैर्मल्यं भवति । सत्त्वशुद्धौ च सत्यां यथावगते भूमात्मनि ध्रुवाविच्छिन्ना स्मृतिरविस्मरणं भवति । तस्यांचलब्धायांस्मृतिलम्भेसति – सर्वेषामविद्याकृतानर्थपाशरूपाणामनेकजन्मान्तरानुभवभावना कठिनीकृतानां हृदये स्थितानां ग्रन्थीनां विप्रमोक्षो विशेषेण प्रमोक्षणं विनाशो भवतीति ।
संसार के मिथ्या स्वरूप के ज्ञान का बार – बार चिन्तन करके उस परम शिव का आत्म स्वरूप से अनुसंधान ही इसका साधन है । इसी लिये भगवान् आचार्य शङ्कर कहते हैं ” अहर्निशं किं परिचिन्तनीयम् ? दिन रात क्या विचार करना चाहिए ? संसार मिथ्यात्वशिवात्मतत्त्वम् ” संसार का मिथ्यात्व और आत्मतत्व की शिवरूपता । || २.५१ ||
शुद्धे मनसि जीवोऽपि विशुद्धो ब्रह्मणैकताम्। उपेत्य केवलानन्दं निष्कलं परमश्नुते ॥२.५२॥
तदनन्तर जब मन शुद्ध हो जाता है तब जीव भी विशुद्ध होकर ब्रह्म के साथ एकता को प्राप्त कर लेता है और सर्वोच्च तथा अविभाजित (निष्कल) कैवल्य , परमानंद को प्राप्त करता है। आचार्य शंकर विवेक चूड़ामणि कहते हैं कि —
अथ ते संप्रवक्ष्यामि स्वरूपं परमात्मनः ।
यद्विज्ञाय नरो बन्धान्मुक्तः कैवल्य मश्नुते ॥ १२४ ॥
अब मैं तुम्हें परमात्मा के स्वरूप के बारे में बताऊंगा , जिसको अच्छी तरह से जानने से मनुष्य बंधनों से मुक्त होकर कैवल्य पद को प्राप्त करता है |
‘‘अस्ति कश्चित्स्वयं नित्यमहंप्रत्ययलम्बनः ।
अवस्थात्रयसाक्षी सन्पञ्चकोशविलक्षणः ॥१२५॥ विवेकचूडामणि’’
अहं प्रत्यय का आधार कोई स्वयं नित्य पदार्थ है , जो तीनों अवस्थाओंका साक्षी होकर भी पञ्चकोशातीत है |
श्रीमद् भागवत जी में कहा है कि —
परित्यक्तगुण: सम्यग्दर्शनो विशदाशय: ।
शान्तिं मे समवस्थानं ब्रह्म कैवल्यमश्नुते ॥ ४.२०.१० ॥
चित्त शुद्ध होने पर उसका विषयों से सम्बन्ध नहीं रहता तथा उसे तत्वज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। फिर तो वह मेरी समतारूप स्थितिको प्राप्त हो जाता है। यही परम शान्ति, ब्रह्म अथवा कैवल्य है। || ५२ ||
बाह्यमभ्यन्तरं चेति शुद्धं कर्म द्विधोच्यते। बाह्यं स्नानादि नित्यं स्याद्ध्यानाद्याभ्यान्तरम् परम् ॥२.५३॥
अब जो शुद्ध कर्म हैं वे भी दो प्रकार के हैं एक हैं बाह्य और दूसरे आंतरिक हैं। स्नान आदि क्रियाएं बाह्य शुद्धि के कर्म हैं जैसे कि पंचगव्य प्राशन, दशविध, स्नान – १ -गोमूत्र से स्नान – २ – गोमय से स्नान – ३ – गौ दुग्ध से स्नान – ४ -गोदधि से स्नान – ५ – गौघृत से स्नान – ६ – कुशोदक से स्नान – ७ – भस्म से स्नान – ८ – मृत्तिका (मिट्टी) से स्नान – ९ – मधु (शहद) से स्नान – १० – पवित्र जल से स्नान और प्राणायाम आदि क्रियाएं भी बाह्य शुद्धी में साधनभूत हैं। संक्षेप से कहें तो नित्य , नैमित्तिक और प्रायश्चित्त कर्म बाह्य शुद्धि कारक हैं तथा ध्यान,धारणा आदि आंतरिक शुद्धि की क्रियाएं हैं | श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान ने अपना निर्णय दिया है कि —-
‘‘यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।।१८.५।।’’
यज्ञ, दान और तप रूप कर्म त्याज्य नहीं है, किन्तु वह नि:संदेह कर्तव्य है; यज्ञ, दान और तप ये मनीषियों (बुद्धिमान साधकों) को पवित्र करने वाले हैं।।
‘‘तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः॥२.१॥पातञ्जलयोगदर्शनम्’’
तप, अध्यात्मशास्त्रों के पठन-पाठन और ईश्वर शरणागति – ये तीनों क्रिया योग हैं।|| ५३ ||
अतः शुद्धेरशुद्धानां नाशो भवितुमर्हति। न शुद्धव्यतिरेकेण प्रयत्नान्तरमिष्यते ॥२.५४॥
इसलिए शुद्ध कर्मों द्वारा अशुद्ध कर्मों को नष्ट किया जाना चाहिए | शुद्ध कर्मों के अलावा कोई अन्य प्रयास नहीं किया जाना चाहिए |
श्रीमद्भागवत पांचवें स्कंध में कथा है कि आग्नीध्र के पुत्र महाराज नाभि ने अपनी भार्या मेरुदेवी के साथ शुद्ध कर्मों का आचरण करके भगवान को भी अपने पुत्र के रूप में प्राप्त किया था।
‘‘को नु तत्कर्म राजर्षेर्नाभेरन्वाचरेत्पुमान् |
अपत्यतामगाद्यस्य हरिः शुद्धेन कर्मणा ||५.४.६ ||
ब्रह्मण्योऽन्यः कुतो नाभेर्विप्रा मङ्गलपूजिताः |
यस्य बर्हिषि यज्ञेशं दर्शयामासुरोजसा ||५.४.७ ||’’
राजर्षि नाभि के जैसा उदार कर्मों का आचरण करने वाला दूसरा कौन पुरुष हो सकता है — जिनके शुद्ध कर्मों से संतुष्ट होकर साक्षात श्रीहरि उनके पुत्र हो गए थे | महाराज नाभि के समान ब्राह्मण भक्त भी कौन हो सकता है — जिनकी दक्षिणा आदि से संतुष्ट हुए ब्राह्मणों ने अपने मन्त्र बल से उन्हें यज्ञशाला में साक्षात् श्रीविष्णु भगवान के दर्शन करा दिए | इस प्रकार राजर्षि नाभि के पुत्र भगवान ऋषभदेव ने अपने देश अजनाभवर्ष को अपनी कर्मभूमि बनाया बाद में उनके पुत्र भरत के द्वारा उनके देश अजनाभवर्ष का नाम भारतवर्ष पड़ा। || ५४ ||
विशुद्धकर्मनिष्ठास्ते यतयोऽन्येऽपि वा जनाः। अत्रैव परिमुच्यन्ते स्वातंत्र्येण परामृतात् ॥२.५५॥
परम अमृत स्वरूप परब्रह्म परमात्मा के प्रसाद से जो लोग शुद्ध कर्मों के लिए समर्पित हैं , फिर चाहे वे तपस्वी संन्यासी हों या कोई अन्य पुरुष हों, वे अपने आपको अभी, यहीं, इस लोक में ही इसी जीवन में ही स्वयं के द्वारा ही (स्वतंत्रता पूर्वक) किसी के आशीर्वाद के बिना ही सर्वोच्च मृत्युहीन अवस्था अर्थात् परा मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं।
‘‘इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः।।५.१९।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
जिनका मन समत्व भाव में स्थित है, उनके द्वारा यहीं पर यह सर्ग जीत लिया जाता है; क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है इसलिये वे ब्रह्म में ही स्थित हैं।।
कामान् यः कामयते मन्यमानः स कामभिर्जायते तत्र तत्र।
पर्याप्तकामस्य कृतात्मनस्तु इहैव सर्वे प्रविलीयन्ति कामाः ॥ (मुण्डकोपनिषत्-३.२)
अर्थ — जो कामनाओं की अभिलाषा करता है तथा जिसका मन उन कामनाओं में लीन रहता है, वह उन कामनाओं के द्वारा प्रेरित वहीं-वहीं जन्म ग्रहण करता है, किन्तु जिसने अपनी कामनाओं को जीत लिया है तथा अपनी आत्मा को प्राप्त कर लिया है, ऐसे ‘कृतात्मा’ जनकी यहीं, इसी लोक में समस्त कामनाएँ विलुप्त हो जाती हैं। जो संसार की वस्तुओं को चाह-चाह करके, उनके पीछे दौड़ रहा है, उनको जगह-जगह भटकना ही पड़ता है। || ५५ ||
आरूढः पंचमीं भूमिं शुद्धेनैवावतिष्ठते। अतोऽत्र मतिमान् नित्यं पंचम्यभ्यासमाचरेत् ॥२.५६॥
जो पुरुष पांचवीं भूमिका में आरूढ़ है वह केवल शुद्ध कर्मों को ही करता है, जो कर्ता के पांचवें स्तर पर चढ़ गया है, वह हमेशा शुद्ध कर्म करता है। इसलिए एक बुद्धिमान व्यक्ति को हमेशा पांचवें स्तर के कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। यह जो पांचवीं भूमिका है वह औपनिषदी भूमिका है |
‘‘तं त्वा ‘औपनिषदं’ पुरुषं पृच्छामि ।’’ – बृहदारण्यकोपनिषत् ३-९-२६
वेदान्तप्रतिपादितस्य आत्मनः औपनिषदः पुरुषः इति नामधेयम् । उपनिषत्सु प्रतिपादितः आत्मा औपनिषदः । उपनिषत्सु वेदान्तेष्वेव प्रतिबोधितः आत्मा औपनिषदः पुरुषः । न कुत्राप्यन्यत्र अयमुपदिश्यते । पुराणेषु उपदिष्टाः देवताः पौराणिकदेवताः इति कथ्यन्ते । इन्द्र चन्द्र मित्र वरुणार्यमाद्याः देवाः पौराणिकाः भवन्ति । नैते “औपनिषदःपुरुषाः” भवन्ति । पौराणिकदेवताः अनात्मभूताः सोपाधिकाः संसारिस्वरूपा एव। औपनिषदः पुरुषः पुनः ? अयं निरुपाधिकः पुरुषः परिपूर्णं परं ब्रह्म । अयमेव असंसारी आत्मा ॥ औपनिषदः पुरुषः निरुपाधिकः निर्विशेषः निरवयवः असंसारी प्रत्यगात्मा परब्रह्मस्वरूपः। नामरूपक्रियासम्बन्धरहितः देशकालरहितः परिपूर्णः प्रत्यगात्मैव औपनिषदः पुरुषः । औपनिषदात्मज्ञानादेव मुक्तिः ॥
श्रीनारद जी कहते हैं– तं त्वौपनिषदं पुरुषं पृच्छामि –मैं उन औपनिषद् पुरुष के बारे में पूछता हूं” ऐसा सनकादिकों से पूँछते हैं | नारदजी ने उपनिषदवेद्य पुरुष की जिज्ञासा की है, उन्होंने सनकादिक जैसे निर्ग्रंथ मुनीश्वरों से पूँछा। श्रीमद्भगवद्गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि —
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्।।१५.१५।।
मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (उनका अभाव) होता है। समस्त वेदों के द्वारा मैं ही वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ तथा वेदान्त का और वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ।।
‘‘निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।।१५.५।।’’
जिनका मान और मोह निवृत्त हो गया है, जिन्होंने संगदोष को जीत लिया है और जो अध्यात्म में स्थित हैं जिनकी कामनाएं निवृत्त हो चुकी हैं और जो सुख-दु:ख नामक द्वन्द्वों से मुक्त हो गये हैं, ऐसे सम्मोह रहित ज्ञानीजन उस अव्यय पद को प्राप्त होते हैं।।
मेघदूत में कालिदास जी कहते हैं कि —
नन्वात्मानं बहु विगणयन्नात्मनैवावलम्बे तत्कल्याणि त्वमपि नितरां मा गमः कातरत्वम् ।
कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण ॥४६॥
आत्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त है इसलिये मैं आत्मा का ही आश्रय ग्रहण करता हूँ , तुम भी आत्मा का आश्रय ग्रहण करके शोकसे कातर न होना क्योंकि किसको केवल सुख या दुःख ही हमेशा मिला है ? किसी को भी नहीं । सुख और दुःख की दशा तो चक्र के हाथे की तरह हमेशा ऊपर नीचे आती जाती रहती है । || ५६ ||
इन्द्रियाणि विशुद्धान्यप्यशुद्धानां विवर्जनात्। शुद्धानामप्यनुष्ठानाद्धीमांस्तानि न विश्वेसेत् ॥२.५७॥
भले ही इन्द्रियां अशुद्ध कर्मों को त्यागने के कारण और शुद्ध कर्मों का अनुष्ठान करने के कारण पवित्र हो गई हों, फिर भी एक बुद्धिमान व्यक्ति को कभी भी उन इन्द्रियों पर भरोसा नहीं करना चाहिए।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवानजी कहते हैं —
‘‘यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।२.६०।।’’
हे कौन्तेय ! (संयम का) प्रयत्न करते हुए बुद्धिमान (विपश्चित) पुरुष के भी मनको ये प्रमथनशील इंद्रियां बलपूर्वक हर लेती हैं।।
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।३.४१।।
इसलिये, हे अर्जुन ! तुम पहले इन्द्रियों को वश में करके, ज्ञान और विज्ञान के नाशक इस कामरूप पापी को नष्ट करो।
प्रश्नोत्तर रत्नमालिका में श्री शंकराचार्य जी कहते हैं कि—
शेते सुखं कस्तु समाधिनिष्ठो जागर्ति को व सदसद्विवेकी।
के शत्रवः सन्ति निजेन्द्रियाणि तान्येव मित्राणि जितानि यानि ।।४।।
प्रश्न – (वास्तव में) सुख से कौन सोता है ? उत्तर – जो समाधि निष्ठ है या परमात्मा के स्वरूप में स्थित है ।
प्रश्न – और कौन जागता है ? उत्तर – सत् और असत् के तत्व का जानने वाला।
प्रश्न – शत्रु कौन हैं ? उत्तर – अपनी इन्द्रियां; परन्तु यदि वे जीती हुई हों तो वे ही मित्र हैं ।
‘‘मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् ।
बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसं अपि कर्षति ।। २.२१५ ।।मनुस्मृतिः/ द्वितीयोध्यायः’’
माता, भगिनी (बहिन) तथा पुत्री तक के साथ में एकान्त स्थान में अथवा एक ही आसन पर कदापि न बैठे, क्योंकि इन्द्रियां अत्यन्त प्रबल होती हैं और वे ज्ञानीजनों के मन को भी सहज ही अपने वश में कर लेने में समर्थ हैं |
श्री शुकदेव स्वामिपाद कहते हैं कि —
‘‘न कुर्यात्कर्हिचित्सख्यं मनसि ह्यनवस्थिते |
यद्विश्रम्भाच्चिराच्चीर्णं चस्कन्द तप ऐश्वरम् ||३||
नित्यं ददाति कामस्य च्छिद्रं तमनु येऽरयः |
योगिनः कृतमैत्रस्य पत्युर्जायेव पुंश्चली ||४||
कामो मन्युर्मदो लोभः शोकमोहभयादयः|
कर्मबन्धश्च यन्मूलः स्वीकुर्यात्को नु तद्बुधः ||५|| श्रीमद्भागवतपुराणम्/ स्कन्धः ५/अध्यायः ६’’
इस चंचल चित्त से कभी मैत्री नही करनी चाहिए। इसमें विश्वास करने से ही मोहनी के रूप में फंसकर महादेवजी का चिरकाल का संचित तप क्षीण हो गया था। जैसे व्यभिचारिणी स्त्री जार पुरुषों को अवकाश देकर उनके द्वारा अपने में विश्वास रखने वाले पति का वध कर देती है, उसी प्रकार जो योगी मन पर विश्वास करते हैं, उसका मन काम और उसके साथी क्रोधादि शत्रुओं को आक्रमण करने का अवसर देकर उन्हें नष्ट भ्रष्ट कर देता है। काम,क्रोध, मद,लोभ,मोह और भय आदि शत्रुओं का तथा कर्म बंधन का मूल तो यह मन ही है, इस पर कोई भी बुद्धिमान कैसे विश्वास कर सकता है।|| ५७ ||
अशुद्धेषु प्रवर्तेरन्पूर्ववासनया स्वतः। तेभ्यो नियम्य शुद्धेषु नित्यं तानि प्रवर्तयेत् ॥२.५८॥
प्राचीन वासनाओं के कारण अशुद्ध कर्मों में इन्द्रियों की स्वतः ही स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। अतः उन्हें अशुद्ध वासनाओं से हटाकर शुद्ध कर्मों में प्रवृत्त करना चाहिए।
‘‘शिरः शार्वं स्वर्गात्पशुपतिशिरस्तः क्षितिधरं महीध्रादुत्तुङ्गादवनिमवनेश्चापि जलधिम् ।
अधोऽधो गङ्गेयं पदमुपगता स्तोक मथवा विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः ॥१०॥ भर्तृहरि:’’
पहले तो गंगा स्वर्ग से निकल कर भगवान शिवजी की जटाओं में गिरती है, और फिर वहां से निकल कर हिमालय से होकर धरती पर आती है; और फिर वह गंगा मैदानी इलाकों में आती है, और मैदानों में आकर और नीचे जाते हुए अंततः समुद्र में मिल जाती है। ठीक इसी प्रकार मूर्ख भी अपने जीवनके साथ करते हैं। वे हमेशा सबसे सरल मार्ग अपनाते हुए सबसे निम्न स्तर पर पहुँच जाते हैं। विवेक से भ्रष्ट हुए लोगोंका अनेक प्रकारसे अधःपतन होता है।
विवेकचूडामणि में कहा गया है —
लक्ष्यच्युतं चेद्यदि चित्तमीषद्बहिर्मुखं सन्निपतेत्ततस्ततः ।
प्रमादतः प्रच्युतकेलिकन्दुकः सोपानपङ्क्तौ पतितो यथा तथा ॥ ३२५ ॥
जैसे असावधानी वश खेलकी गेंद एकवार हाथसे छूटकर अगर सीढ़ियों पर गिर जाती है तो फिर निरन्तर नीचे ही गिरती जाती है , वैसे ही चित्त भी यदि प्रमाद वश थोड़ा सा भी अपने लक्ष्य से च्युत हुआ तो निरन्तर बहिर्मुख होता ही चला जाता है | ||५८||
इन्द्रियाणां च मनसः प्रसादं शुद्धकर्मभिः। उपलभ्यापि दुर्बुद्धिरशुद्धेह प्रवर्तते ॥२.५९॥
शुद्ध कर्मों के द्वारा मन और इन्द्रियों की निर्मलता प्राप्त होती है। शुद्ध कर्म रूपी साधन के प्राप्त होने पर भी दुर्बुद्धि मनुष्य अशुद्ध कर्मों में प्रवृत्त है। यह तो आश्चर्य ही है !
मनु जी महाराज कहते हैं —
‘‘ध्यानिकं सर्वं एवैतद्यदेतदभिशब्दितम् ।
न ह्यनध्यात्मवित्कश्चित्क्रियाफलं उपाश्नुते ॥ ६.८२॥’’ (मनुस्मृतिः)
यह जो कुछ पहले कहा गया है यह सब ही ध्यान योग के द्वारा सिद्ध होने वाला है अध्यात्म ज्ञान से रहित कोई भी व्यक्ति ऊपर बताए गए कर्मों के फल को नहीं पा सकता ।
‘‘अनेन विधिना सर्वांस्त्यक्त्वा सङ्गाञ्छनैः शनैः ।
सर्वद्वन्द्वविनिर्मुक्तो ब्रह्मण्येवावतिष्ठते ॥ ६.८१ ॥’’ (मनुस्मृतिः)
इस विधि से धीरे–धीरे सभी प्रकार की आसक्तियों से (सब संग से) हुए, दोषों को छोड़ कर, सभी प्रकार के हर्ष–शोक आदि द्वन्द्वों से निर्मुक्त होके विद्वान पुरुष ब्रह्म ही में स्थिर होता है।
फलं कतकवृक्षस्य यद्यप्यम्बुप्रसादकम् ।
न नामग्रहणादेव तस्य वारि प्रसीदति । । ६.६७ ।‘‘ (मनुस्मृतिः)
यद्यपि निर्मली वृक्ष का फल पीस कर गंदले जल में डालने से जल का शोधन करता है तथापि बिना डाले उसके नाम का कथन वा श्रवण मात्र से उसका जल शुद्ध नहीं हो सकता ।’’
‘‘यद्यपि निर्मली वृक्ष का फल जल को शुद्ध करने वाला है तथापि उसके नाम ग्रहण मात्र से जल शुद्ध नहीं होता किन्तु उसको लेकर, पीसकर, जल में डालने ही से जल शुद्ध होता है, वैसे ही नाम मात्र के आश्रय से कुछ भी नहीं होता किन्तु अपने–अपने आश्रम के अनुकूल धर्मयुक्त कर्म करने से ही आश्रम धारण करना सफल होता है, अन्यथा नहीं ।’’ ॥ ५९ ॥
प्रसन्नमनसः स्वास्थ्यात्सुखं किंचित्प्रजायते। तावन्मात्रेण तृप्तस्तु क्रमेणाधः पतेन्नरः ॥२.६०॥
निर्मल मन वाला (शान्त चित्त वाला) व्यक्ति अपने स्वरूपमें स्थित होने के कारण थोड़े से सुख का अनुभव करता है, उसे कुछ खुशी पैदा होती है। पर उस छोटी सी सुख की झलक से ही यदि व्यक्ति अपने आपको तृप्त और संतुष्ट मानने लगता है तो निश्चित ही उसका धीरे-धीरे पतन होता है। वह व्यक्ति एक-के-बाद एक निचले स्तरों पर गिरता जाता है। इसलिए मनु जी कहते हैं कि —
‘‘दह्यन्ते ध्मायमानानां धातूनां हि यथा मलाः ।
तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात् || ६.७१ ||’’
जैसे अग्नि में तपाने और गलाने से धातुओं के मल नष्ट हो जाते हैं वैसे ही प्राणों के निग्रह से (प्राणायाम करने से) मन आदि इन्द्रियों के दोष भस्मीभूत हो जाते हैं । अतः नित्य ही प्राणायाम का अभ्यास करते रहना चाहिए। क्योंकि एकवार धातुएं शुद्ध हो जाने पर भी दो या तीन महीने के बाद फिर से मलिन हो ही जातीं हैं। || ६० ||
तृप्तिरल्पसुखप्राप्तौ महानर्थैककारणम्। अतस्तृप्तिमनाप्यैव शुद्धं नित्यं समाचरेत् ॥२.६१॥
अल्प सुख प्राप्त करने पर संतोष कर लेना महान दुर्भाग्य का एकमात्र कारण है। इसलिए, संतुष्टि में निवास किए बिना, व्यक्ति को लगातार शुद्ध कर्तव्यों का पालन करते रहना चाहिए।
चाणक्य का वचन है कि –
सन्तोषस्त्रिषु कर्तव्यः स्वदारे भोजने धने।
त्रिषु चैव न कर्तव्योऽध्ययने जपदानयोः॥
व्यक्ति को अपनी ही पत्नी से संतोष कर लेना चाहिए चाहे वह रूपवती हो अथवा साधारण, वह सुशिक्षित हो अथवा निरक्षर – उसको पत्नी प्राप्त है , यही बड़ी बात है । और ईमानदारी से कमाए हुए धन और भोजन में संतोष करना चाहिए , परन्तु तीन चीजों में संतोष कभी भी नहीं करना
१ अध्ययन २ जप ३ दान।
और अध्यात्म के विषय में मनु जी की सलाह है कि —
‘‘प्राणायमैर्दहेद्दोषान्धारणाभिश्च किल्बिषम् ।
प्रत्याहारेण संसर्गान्ध्यानेनानीश्वरान्गुणान् ।। ६.७२ ।।’’ (मनुस्मृतिः)
इसलिए विद्वान पुरुष प्राणायामों के द्वारा शरीरके और इन्द्रियोंके दोषोंको ध्वस्त करे और धारणाओं के द्वारा अन्तःकरणके कपट को, पापको, मैलको तथा प्रत्याहार से संसर्ग-जन्य दोषोंको, और ध्यानसे अविद्या आदि तथा पक्षपात, कूट-नीति आदि अनीश्वरताके दोषों को नष्ट करे। ||६१||
यथा विषयभोगेषु विना तृप्तिं पुनः पुनः। प्रवर्तते तथा नित्यं यः शुद्धेषु स बुद्धिमान् ॥२.६२॥
जैसे मनुष्य इन्द्रियों के सुख का तृप्त हुए बिना बार-बार भोग करता है, बिना किसी संतुष्टि का अनुभव किए निरंतर बाह्य विषयों का सेवन करता है वैसे ही जो हमेशा शुद्ध कर्मों में लगा रहता है, वह बुद्धिमान है।
प्रह्लाद जी कहते हैं “नाथ योनिसहस्रेषु येषु येषु व्रजाम्यहम् ।
तेषु तेष्वच्युताभक्तिरच्युतास्तु सदा त्वयि ॥ १-२०-१८ ॥
या प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वनपायिनी।
त्वामनुस्मरतः सा मे हृदयान्मापसर्पतु।।” विष्णु पुराण (१-२०-१९)
हेनाथ ! हजारों योनियों में से जिस जिस योनि में मुझे जाना पड़े, उन सब योनियों में हे अच्युत ! आपसे मेरी यही प्रार्थना है कि आपमें मेरी अखण्ड भक्ति बनी रहे और हे परमात्मा ! विवेकहीन जनों की जैसी गहरी प्रीति इन्द्रियोंके भोगके नश्वर पदार्थोंमें रहती है, उसी प्रकारकी प्रीति मेरी आप में हो और आपका स्मरण करते हुए मेरे हृदय से वह कभी दूर न होवे। ||६२||
शुद्धं शुद्धेन वर्धेत शुद्धः शुद्धं ततो व्रजेत्। अशुद्धमप्यशुद्धेनाशुद्धोऽशुद्धं तथा नरः ॥२.६३॥
मनुष्य को शुद्ध कर्मों द्वारा अपनी पवित्रता बढ़ानी चाहिए; तब वह व्यक्ति शुद्ध कर्मों के प्रभाव से शुद्ध हो जाता है और शुद्ध (स्व) की ओर {अपनी आत्मा की ओर} चला जाता है। इसी प्रकार, अशुद्ध कर्मों के द्वारा अपने अन्तःकरण की अशुद्धता को बढ़ाता है | यदि कोई व्यक्ति अशुद्ध कार्यों को करता है तो उसकी अशुद्धता बढ़ती जाती है, और अशुद्धता से अशुद्धता की ओर बढ़ता चला जाता है।
‘‘मृगाः मृगैः संगमुपव्रजन्ति गावश्च गोभिः स्तुरंगास्तुरंगैः।
मूर्खाश्च मूर्खैः सुधियः सुधीभिः समानशीलव्यसनेषु सख्यं॥’’
हिरण हिरण का अनुसरण करता है, गाय गाय का अनुसरण करती है, घोड़ा घोड़े का अनुसरण करता है, मूर्ख मूर्ख का अनुसरण करता है और बुद्धिमान बुद्धिमान का अनुसरण करता है। इसलिए मित्रता हमेशा ही समान गुण वालों में ही होती है।
स्वगणे परमा प्रीति: सर्वेषामेव प्राणिनाम्। महिषाः किं न पश्यन्ति चन्द्रवन्महिषी मुखम्।।
किसी भैंसे से पूँछो कि भैंस ज्यादा सुन्दर है या मानुषी ? तो स्वाभाविकतया कहेगा कि भैंस ही चन्द्रमुखी है।
कहावत भी है कि {भैंस के आगे भागवत} उसे तो भूसा ही पसन्द आयेगा।
पानी से पानी मिले,मिले कीच से कीच ।
ज्ञानी से ज्ञानी मिले,मिले नीच से नीच ।।
‘स्वगणे परमा प्रीतिः’-अपने गण में परम प्रीति होती है । बालक से बालक का प्रेम होता है; जवान जवानों से जा मिलते हैं; वृद्धों के साथी वृद्ध। ऐसे ही कर्मकार कर्मकारों के साथ, गायक गायकों के साथ, विलासी विलासियों के साथ, चोर चोरों के साथ सम्बन्ध रखते हैं। इसका कारण यही है कि उनके विचार, कार्य, स्वभाव एक-से होते हैं । ||६३||
यदेन्द्रियमनःप्राणाः शान्ताः सुप्ताविवाभवन्। शुद्धाशुद्धोभयातीतस्तदा तृप्तिं परां व्रजेत् ॥२.६४॥
जब इन्द्रियाँ, मन और प्राण शांत और स्थिर हो जाते हैं, जैसे कि वे नींद की स्थिति में होते हैं, तो उस समय जो शुद्ध और अशुद्ध से परे है उस आत्मतत्व में वह व्यक्ति स्थिर हो जाता है तथा वह परम संतुष्टि को प्राप्त करता है।
शंकराचार्यजी दशश्लोकी में कहते हैं कि —
‘‘न भूमिर्न तोयं न तेजो न वायुः न खं नेन्द्रियं वा न तेषां समूहः ।
अनेकान्तिकत्वात् सुषुप्त्येकसिद्धः तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ॥ १॥’’
‘शुद्ध अहं का स्वरूप’ अहं शब्द के अर्थ का अवलम्बन, न भूमि है, न जल है, न तेज है, न वायु है, न आकाश है, न प्रत्येक इन्द्रिय है और न भूमि आदि का समूह ही है; क्योंकि ये सब बदलने वाले हैं, परिणामी हैं तथा विनाशी भी हैं । इन सबका निषेध करने के बाद जो एकमात्र शेष रहता वही मैं हूँ। सुषुप्ति में एक साक्षी रूप से सिद्ध, अद्वितीय, अविनाशी, सभी धर्मों से अतीत जो शिव है, वही मैं हूँ। सुषुप्ति अवस्था में निःसंकल्पता होती है और तुरीयावस्था में भी निःसंकल्पता होती है परन्तु सुषुप्ति अवस्था में संसार का अभाव होता है तथा तुरीयावस्था में परमात्मा का प्रकाश होता है। असल में अवस्था तो परिवर्तनशील है पर उसमें जो शुद्ध चेतन है {ज्ञानस्वरूप है} वही परम सत्य है। ||६४||
यावन्नेन्द्रियसंशान्तिर्यावन्न मनसोऽप्ययः। यावन्न प्राणशान्तिश्च तावच्छुद्धं समाचरेत् ॥२.६५॥
जब तक किसी की इंद्रियां शांत नहीं हो जातीं, जब तक किसी का मन नहीं शांत हो जाता है, जब तक किसी के प्राण शांत नहीं होते, तब तक व्यक्ति को शुद्ध कर्म अर्थात् पुण्य कर्म करते रहना चाहिए।
मनुष्य के जीवन में चार पुरुषार्थ हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इन चारों की प्राप्ति ही मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य है। पुरुषैः अर्थ्यते इति पुरुषार्थः, इनमें से धर्म की प्राप्ति सुकृति (पुण्य) से होती है। अर्थ की प्राप्ति व्यापृति (व्यापार) से होती है। काम की प्राप्ति रति (प्रेम) से होती है और मोक्ष की प्राप्ति भक्ति से होती है।
भर्तृहरि महाराज ने कहा है कि —
‘‘यावत्स्वस्थमिदं कलेवर गृहं यावज्जरा दूरतः
यावच्चेन्द्रिय शक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः ।
आत्म श्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान्
संदीप्ते भवने तु कूप खननं प्रत्युद्यमः कीदृशः || ७५ ||वैराग्यशतकम् (भर्तृहरिविरचितम्)’’
जब तक शरीर रूप घर स्वस्थ है और बुढ़ापा दूर है, इंद्रियों की शक्ति खत्म नहीं हुई, आयुष्य का क्षय नहीं हुआ, तब तक ही {इसी समयावधि में} बुद्धिमान् मनुष्य को आत्म कल्याण के लिए महान् प्रयत्न करना चाहिए । घर को आग लगने के बाद कुआ खोदने का क्या मतलब ? || ६५ ||
परस्परोपयोगित्वाद्बाह्याभ्यन्तरशुद्धयोः। वियोगो नैव कार्योऽत्र बुधैरादेहमोचनात् ॥२.६६॥
चूँकि बाहरी और आंतरिक जितनी भी शुद्धिकरण की क्रियाएं हैं वे सब परस्पर लाभकारी होती हैं, इसलिए, बुद्धिमान पुरुषों को जब तक वे जीवित हैं, उनमें से किसी को भी अस्वीकार नहीं करना चाहिए।
आचार्य शंकर कहते हैं कि —
‘‘आयुर्नश्यति पश्यतां प्रतिदिनं याति क्षयं यौवनं
प्रत्यायान्ति गताः पुनर्न दिवसाः कालो जगद्भक्षकः।
लक्ष्मीस्तोयतरङ्गभङ्गचपला विद्युच्चलं जीवितं
तस्मान्मां शरणागतं शरणद त्वं रक्ष रक्षाधुना।। ॥ १३॥ शिवपराधक्षमापणस्तोत्रम्’’
प्रतिदिन आयु नष्ट हो रही है, यौवन का क्षय हो रहा है। बीता हुआ दिन फिर वापस नहीं आता, काल संसार का भक्षक है। लक्ष्मी (धन-संपत्ति) जल की तरंग-भंग की भांति चपला है, जीवन विद्युत के समान क्षणभंगुर है। इसलिए हे शम्भो ! हे दयासिन्धो ! आप जो सभी को शरण देते हैं, अब इस दीन की, शरणागत की रक्षा कीजिए | || ६६ ||
यः शुद्धपक्षो हंसः स ऊर्ध्वं गच्छति चाम्बरे। अशुद्धपक्षः श्येनस्तु व्योमगोऽपि पतत्यधः ॥२.६७॥
जिस हंस के पास शुद्ध, स्वच्छ और स्वस्थ पंख होते हैं, वह आकाश में ऊपर जाता है। और एक बाज, अशुद्ध,अस्वच्छ और अस्वस्थ पंखों के साथ, भले ही वह आकाश में बहुत ऊंचे जाता हो, उसे नीचे ही गिरना पड़ता है।
बीमार घोड़ा आपको युद्ध में विजयश्री नहीं दिला सकता।
महाभारत के अनुशासन पर्व के दसवें अध्याय में भीष्म पितामह द्वारा कहे गए ये दो श्लोक भारतीय संस्कृति में कर्म की महत्ता पर प्रकाश डालते हैं।
‘‘यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो विन्दति मातरम् |
एवं पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति ||१३-१०-२३||’’
जैसे बछड़ा हज़ारों गायों में भी अपनी माँ को ढूँढ़ लेता है, वैसे ही पहले का किया हुआ कर्म भी कर्ता को पहचान कर उसका जन्म-जन्मांतर तक अनुसरण करता है।
‘‘अचोद्यमानानि यथा, पुष्पाणि च फलानि च|
स्वं कालं नातिवर्तन्ते, तथा कर्म पुरा कृतम् || १३-१०-२४||’’
जैसे फूल और फल बिना किसी की प्रेरणा से स्वतः समय पर प्रकट हो जाते हैं और समय का अतिक्रमण नहीं करते, उसी प्रकार पहले किये कर्म भी यथासमय ही अपने फल (अच्छे या बुरे) देते हैं। अर्थात् कर्मों का फल अनिवार्य रूप से प्राप्त होता है। || ६७ ||
छिन्नैकपक्षो हंसोऽपि नोर्ध्वं गन्तुमितोऽर्हति । अतः शुद्धद्वयं मुख्यं साधनं मुक्तये विदुः ॥२.६८॥
किसी भी पक्षी की यदि एक पाँख टूट गयी हो तो वह उड़ने में सक्षम नहीं हो पाता है अतः दोनों पंखों का सबल और सक्षम होना जरूरी है। कटे और फटे हुए पंखों वाला एक हंस भी ऊपर नहीं चढ़ पाता है। इसलिए, दोनों प्रकार की शुद्धता, आंतरिक और साथ ही बाहरी शुद्धि भी मुक्ति के मुख्य साधन के रूप में जाने जाते हैं।
‘‘सर्वेषामेव शौचानां अर्थशौचं परं स्मृतम् ।
योऽर्थे शुचिर्हि स शुचिर्न मृद्वारिशुचिः शुचिः|| ५.१०६|| मनुस्मृतिः’’
सभी शौचों, शुचिताओं, यानी शुद्धियों में धन से संबद्ध शुचिता ही वास्तविक शुद्धि है। मात्र मृत्तिका-जल (मिट्टी एवं पानी) के माध्यम से शुचिता प्राप्त कर लेने से कोई वास्तविक अर्थमें शुद्ध नहीं हो जाता। मनुष्य की अशुद्धि के कई पहलू होते हैं। एक तो सामान्य दैहिक स्तर की गंदगी होती है, जिसे हम मिट्टी, राख, अथवा साबुन जैसे पदार्थों एवं पानी द्वारा स्वच्छ करते हैं। उक्त मनु वचन का तात्पर्य यह है कि इस प्रकार की शुचिता केवल सतही है। ऐसी शुद्धि अवश्य वांछित है किंतु इससे अधिक महत्व की बात है धन संबंधी शुचिता । केवल वही व्यक्ति सच्ची शुचिता को प्राप्त है जिसने धनार्जन में शुचिता बरती हो । अर्थात् जिसने औरों को धोखा देकर, उन्हें लूटकर, उनसे घूस लेकर अथवा ऐसे ही उल्टे-सीधे तरीके से धन संग्रह न किया हो । || ६८ ||
यद्यप्याभ्यान्तरं शुद्धं बाह्यशुद्धनिवर्तकम्। भवत्येतेन साम्यं न तयोरिति च केचन ॥२.६९॥
भले ही कुछ लोग यह कहते हैं कि बाहरी और आंतरिक शुद्धता समतुल्य नहीं है क्योंकि आंतरिक शुद्धता बाहरी शुद्धता की आवश्यकता को दूर करती है।
मनु महाराज कहते हैं कि –
‘‘क्षान्त्या शुध्यन्ति विद्वांसो दानेनाकार्यकारिणः ।
प्रच्छन्न पापा जप्येन तपसा वेदवित्तमाः ।। ५.१०७।। मनुस्मृतिः’’
क्षमा’ से विद्वान शुद्ध होते हैं,अयोग्य (धर्म विरुद्ध) कार्य करने वाले, पाप कर्म करने वाले ‘दान’ से {सत्संग और विद्या आदि शुभ गुणों के दान से} और गुप्त-पाप करने वाले ‘जप’ से शुद्ध होते हैं, किन्तु वेदाध्ययन रूप ‘तप’ से तो सभी शुद्ध होते हैं । इस वचन के अनुसार क्रोध एवं द्वेष जैसे मनोभाव विद्वानों की शुचिता को समाप्त कर देते हैं । इन क्रोधादि से मुक्त होने पर ही विद्वान लोगों की शुद्धि कही गयी है । क्षमादान जैसे गुणों को अपनाकर वे शुद्ध बुद्धि को प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार अनुचित कार्य करने पर दान करके व्यक्ति अपने को शुद्ध करता है। धर्म की दृष्टि से पाप समझे जाने वाले कर्म करनेवाले के लिए शास्त्रों में वर्णित मंत्रों का जप शुद्धि का साधन होता है और शास्त्र विहित तप, वेदपाठ आदि कार्यों के करनेसे सभी की शुद्धि होती है तथा मुक्तिका मार्ग खुल जाता है इन सब बातों में प्रायश्चित्तकी भावनाका होना आवश्यक है । ऐसे कार्यों का संपादन मात्र सतही तौर पर किया जाना शुद्धि नहीं दे सकता है। मन में स्वयं को दोषमुक्त करनेका संकल्प ही शुद्ध बुद्धि प्राप्त करनेका प्रधान कारण है।
मृत्तोयैः शुद्ध्यते शोध्यं नदी वेगेन शुद्ध्यति ।
रजसा स्त्री मनो दुष्टा संन्यासेन द्विजोत्तमः ॥५. १०८॥ मनुस्मृतिः
पदार्थों में रही हुई भौतिक गंदगी स्वच्छ मिट्टी एवं जल के प्रयोगसे दूर होती है और नदी अपने अविरल प्रवाह से ही शुद्ध हो जाती है। मन में कुत्सित विचार रखने वाली स्त्री की शुद्धि रजस्राव में निहित रहती है और ब्राह्मणकी शुद्धि संन्यास में निहित रहती है। संन्यास का अर्थ केवल भगवा वस्त्र धारण करना नहीं है, बल्कि लोभ-लालच एवं संग्रह की भावनाके त्याग में तात्पर्य है।
अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति ।
विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति ।। ५.१०९ ।। मनुस्मृतिः
शरीर की शुद्धि जलसे होती है । मनकी शुद्धि सत्य भाषण से होती है । जीवात्मा की शुचिता के मार्ग विद्या और तप हैं । और बुद्धि की स्वच्छता ज्ञानार्जन से होती है । || ६९ ||
तथापि बाह्यविलयसमकाललयात्परम्। आभ्यान्तरं समं तेन बाह्येन स्यात्स्वकर्मणा ॥२.७०॥
फिर भी, क्योंकि मनका विघटन शरीरके विघटन के साथ ही एक ही समय में होता है, अतः बाह्य क्रियाओं के माध्यम से प्राप्त की गई बाहरकी शुद्धता, आंतरिक शुद्धताके बराबर ही होती है।
‘‘यस्तु विज्ञानवान् भवति युक्तेन मनसा सदा।
तस्येन्द्रियाणि वश्यानि सदश्वा इव सारथेः ॥’’ कठोपनिषद ||१.३.६||
जो विवेक बुद्धि युक्त पुरुष मन को वश में करके रहता है उसकी इंद्रियां सदा वश रहती हैं जैसे सावधान सारथी के वश में उसके घोड़े रहते हैं |
‘‘यस्तु विज्ञानवान्भवति समनस्कः सदा शुचिः।
स तु तत्पदमाप्नोति यस्माद् भूयो न जायते ॥’’ कठोपनिषद् १.३.८”
परन्तु जो ज्ञानवान् होता है, सचेतनमना {सदा सावधान} तथा सदा शुचिता से युक्त होता है, वह उस (परम) पद को प्राप्त करता है जहां से वह पुनः जन्म नहीं लेता। || ७० ||
आभ्यान्तरं च तच्छुद्धं कर्म द्विविधमुच्यते। सम्प्रज्ञातसमाध्याख्यमसम्प्रज्ञातनाम च ॥२.७१॥
आंतरिक शुद्ध कर्म दो प्रकारके कहे जाते हैं, एक को संप्रज्ञात-समाधि कहा जाता है और दूसरे का नाम है असम्प्रज्ञात-समाधि।
‘‘वितर्कविचारानन्दास्मितारूपानुगमात् संप्रज्ञातः ॥ १.१७॥’’ पातञ्जलयोगसूत्र
वितर्क, विचार, आनंद और अस्मिता – इन चारों के सम्बन्धसे युक्त चित्तवृत्ति का समाधान- सम्प्रज्ञात-समाधि है।
‘‘विरामप्रत्ययाभ्यास पूर्व: संस्कार शेषोSन्यः ॥ १.१८॥’’ पातञ्जलयोगसूत्र
विराम-प्रत्यय का अभ्यास जिसकी पूर्व-अवस्था है और जिसमें चित्त का स्वरूप ‘संस्कार’ मात्र ही शेष रह जाता है, वह समाधि योग का प्रकार अन्य है अर्थात् असम्प्रज्ञात-समाधि है । जिस समाधि की अवस्था में ध्येय वस्तु का ठीक-ठीक ज्ञान होता है उस समाधि को सम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं। सवितर्क समाधि, विचार सहित समाधि, आनन्द सहित समाधि और अस्मिता सहित समाधि इस प्रकार इस सम्प्रज्ञात समाधि के चार भेद होते हैं। जब चित्त में पाञ्चभौतिक स्थूल विषयों का आलम्बन करके जो समाधि होती है उस समाधिका नाम {सवितर्क सम्प्रग्यात} समाधि है। जब चित्त सूक्ष्म तन्मात्रा आदि का आलम्बन करता है तब उसका नाम {सविचार सम्प्रज्ञात} समाधि होता है। जब बुद्धि ग्रहीता पुरुष के साथ एकीभाव को प्राप्त होती है तब उसे {सास्मितासंप्रज्ञात} समाधि कहते हैं। एकात्मिका संविद को ही अस्मिता कहा गया है। मैं हूँ केवल इतना ही भाव अस्मिता है। सत्त्वगुण का प्रकर्ष होनेसे जो आल्हाद उत्पन्न होता है उस आनन्द के साक्षात्कार को ही {सानन्द सम्प्रज्ञात} समाधि कहते हैं। सम्प्रज्ञात को ही लययोग भी कहते हैं। तथा सर्ववृत्तिनिरोध होने पर जब चित्तमें केवल संस्कार शेष रह जाए तब उसे ‘असम्प्रज्ञात’ समाधि कहते हैं। सवितर्कादिभेद वाली सम्प्रज्ञात समाधि अविद्या रूप बीज के होने से उसे ‘सबीज समाधि’ भी कहते हैं। और उस बीज का भी नाश हो जाने पर असम्प्रज्ञात-समाधि को ही निर्बोज समाधि कहते हैं। सबीज समाधि में जब निर्विकारता और निर्विचारता की अधिकता होती है और सत्वोद्रेक होता है तब उसमें ऋतम्भरा प्रज्ञा प्रकट होती है। समाधिकी प्रज्ञासे जन्य संस्कारों द्वारा व्युत्थान संस्कारोंका बाध (निराकरण, मिथ्यात्व) हो जाता है | और फिर उस संस्कार का भी निरोध हो जाने पर निर्बीज समाधि की सिद्धि होती है। इसके बाद मोक्ष होता है यह क्रम है। इस प्रकार जानना चाहिए। || ७१ ||
जीवन्मुक्तेः पुरावृत्तमाद्यं कर्म स्वमानसम्। पुरा विदेहमुक्तेस्तु वृत्तमन्यत्स्वमानसम् ॥२.७२॥
एक जीवन्मुक्त पुरुष जिसने पहले अपने अपने पूर्वजन्म में जो मानसिक कार्यों का {आध्यात्मिक साधनाओं का} अनुष्ठान किया है, उसके अनुसार वह इस जीवन में भी समाधि के साधनों का अनुष्ठान करने के कारण जीवन्मुक्त हो सकता है। लेकिन एक विदेहमुक्त पुरुष को मानसिक क्रियाओं की आवश्यकता नहीं होती वह तो केवल शारीरिक व्यवहार अहं कर्तृत्व भावना के बिना ही करता है।
(जैसे कि जड़भरत मुनि) जिनकी कथा श्रीमद्भागवत में प्रसिद्ध है। शुकदेव, सनकादि तथा महाराज जनक विदेहमुक्त रूपसे प्रसिद्ध हैं। इसलिए यदि सर्वकर्मसंन्यास शास्त्रविहित ढंगसे किया जाए तो विदेहमुक्ति तो हो सकती है परन्तु जीवन्मुक्ति प्राप्त करनेके लिए, व्यक्ति को धारणा, ध्यान और समाधि आदि मानसिक-क्रियाएं ही जीवन्मुक्ति दे सकतीं हैं। शारीरिक क्रियाएँ (त्याग,संन्यास आदि) जीवन्मुक्ति का विलक्षण अनुभव नहीं देतीं हैं। || ७२ ||
मानसत्वात्समाधेश्च कर्मत्वोक्तिर्न दूष्यते। अनन्यविषयत्वाच्च तत्फलं नैव नश्वरम् ॥२.७३॥
क्योंकि समाधि का अभ्यास एक मानसिक गतिविधि है, लेकिन इसे ‘कर्म’ कहना अनुचित नहीं है। चूंकि यह चित्त की एकाग्रता का उद्देश्य भौतिक क्रियाओं के समान ही है, इसलिए मानसिक कार्यों के फल नष्ट नहीं होते हैं (बल्कि शारीरिक क्रियाओं के फल को और भी सुदृढ़ करते हैं)।
मनु जी कहते हैं —
‘‘उच्चावचेषु भूतेषु दुर्ज्ञेयामकृतात्मभिः ।
ध्यान योगेन संपश्येद्गतिं अस्यान्तरात्मनः||’’ ६.७३|| (मनुस्मृतिः)
बड़े छोटे प्राणी (देवयोनि और पशुयोनि) और स्थावर आदि प्राणियों में जो जन्म प्राप्ति होती है वह अशुद्ध अंतःकरण से देखने के योग्य नहीं है। ध्यानाभ्यास से अच्छी तरह और कारण सहित जानी जा सकती है। तभी उस समाधि में निष्ठा वाले योगी को पता लगता है कि किस हेतु से उसकी क्या गति हुई है। अविद्या, काम्य तथा निषिद्ध कर्मों में से किस कर्म से इसकी गति निर्मित हुई है यह जानकर ब्रह्मज्ञान में निष्ठा वाला बने यह तात्पर्य है। उस अन्तर्यामी परमात्माकी गति अर्थात् प्राप्ति को ध्यान योग से ही देखा जा सकता है।
सम्यग्दर्शन संपन्नः कर्मभिर्न निबध्यते ।
दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपद्यते ||६.७४||मनुस्मृतिः
उसके बाद जिसको यथार्थ ज्ञान हो गया है वह कर्म बंधन में नहीं पड़ता अर्थात् कर्म उसका पुनर्जन्म नहीं करा सकते क्योंकि पूर्वार्जित पापपुण्यों का ब्रह्मज्ञान से नाश हो जाता है। अथवा जो षड्दर्शनों से युक्त हैं वह दुष्टकर्मों से बद्ध नहीं होता और जो ज्ञान, विद्या, योगाभ्यास सत्संग, धर्मानुष्ठान वा षड्दर्शनों से रहित विज्ञान हीन है वह मोक्ष को प्राप्त न हो कर जन्म–मरण रूप संसार को प्राप्त होता है।
‘‘तद्यथेषीकातूलमग्नौ प्रोतं प्रदूयेतैवं हास्य सर्व्वेपाप्मानः प्रदूयन्ते उभौ ब्रह्मैवैष भवति | छान्दोग्योपनिषद्/अध्यायः ५’’ इति श्रुत्या ।
जैसे अग्नि में घास जल जाती है वैसे ही ज्ञानी के सारे पाप जल जाते हैं। यहां पाप से पुण्य को भी समझ लेना चाहिए अर्थात् कर्म मात्र का क्षय हो जाता है।
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे||मुण्डकोपनिषद् २.९||
हृदय की सारी ग्रंथियां खुल जाती हैं, समस्त संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, तथा मनुष्य के समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है, जब उस ‘परतत्त्व’ का दर्शन हो जाता है, जो एक साथ ही अपरा सत्ता एवं ‘परम सत्ता’ है। इसी सम्बन्ध में यह ब्रह्मसूत्र भी है —
‘‘तदधिगम उत्तरपूर्वाघयोरश्लेषविनाशौ तद्व्यपदेशात्।। ४.१.१३।।’’
तदधिगमे ब्रह्माधिगमे सति उत्तरपूर्वयोरघयो रश्लेषविनाशौ भवतः उत्तरस्य अश्लेषः पूर्वस्य विनाशः। कस्मात् तद्व्यपदेशात् तथा हि ब्रह्मविद्याप्रक्रियायां संभाव्यमानसंबन्धस्य आगामिनो दुरितस्यानभिसंबन्धं विदुषो व्यपदिशति यथा पुष्करपलाश आपो न श्लिष्यन्त एवमेवंविदि पापं कर्म न श्लिष्यते इति। तस्मात् ब्रह्माधिगमे दुरितक्षय इति स्थितम्।
(इस सूत्र का अर्थ यह है कि शास्त्र घोषित करता है कि किसी व्यक्ति द्वारा किए गए सभी बाद के और पिछले कार्यों के प्रभाव, जब वह अभी भी अज्ञानता में था, सत्य की प्राप्ति पर नष्ट हो जाएगा)।
‘‘यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।४.१९।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
जिसके सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भ संकल्प और कामनासे रहित हैं तथा जिसके सम्पूर्ण कर्म ज्ञानरूपी अग्निसे जल गये हैं, उसको ज्ञानिजन भी पण्डित (बुद्धिमान्) कहते हैं। ।।७३||
अन्तःशुद्धिर्बहिःशुद्धिं यथा नॄणामपेक्षते । बहिःशुद्धिस्तथैवान्तःशुद्धिं च नियमेन हि ॥२.७४॥
जैसे पुरुषों की आंतरिक शुद्धता बाहरी शुद्धता की अपेक्षा रखती है, वैसे ही, नियम के अनुसार, बाहरी शुद्धता आंतरिक शुद्धता की अपेक्षा रखती है।
मनु जी का कथन है कि —
अहिंसयेन्द्रियासङ्गैर्वैदिकैश्चैव कर्मभिः ।
तपसश्चरणैश्चोग्रैः साधयन्तीह तत्पदम् ||६.७५||
जो निर्वैर हैं, इन्द्रियों के विषयों के बंधन से पृथक्, वैदिक कर्माचरणों और प्राणायाम आदि उग्र तप करते हैं तथा सत्यभाषण आदि उत्तम कर्मों से युक्त लोग होते हैं, वे इसी जन्म में, इसी वर्तमान समय में परमेश्वर की प्राप्ति रूप परम पद को प्राप्त होते हैं।
विष्णुधर्मोत्तर पुराण के द्वितीय खण्ड में कहा है कि —
अस्थिस्थूणं स्नायुयुतं मांसशोणितलेपितम् ।
चर्मावनद्धं दुर्गन्धि पात्रं मूत्रपुरीषयोः ।। ४३ ।।
जरा शोक समाविष्टं रोगायतनमातुरम् ।
रजस्वलमनित्यञ्च भूतावासमिदं त्यजेत् ।। २.१३१.४४ ।।
जिस शरीर में हड्डियों के खंभे हैं और जो नाड़ियों की रस्सियों बाँधे गए हैं तथा मांस और रुधिर से उपलिप्त हैं और चमड़ी से ढ़के हुए हैं तथा जो मूत्र और पुरीष का पात्र होने से दुर्गन्ध पूर्ण है, इसके अलावा बुढ़ापा, रोग और शोक जिसमें हमेशा परेशान करते रहते हैं। भूँख, प्यास, सर्दी, गर्मी जिसमें सदा ही सतातीं रहतीं हैं और जो निरंतर रजोगुण से युक्त है तथा नश्वरता ही जिसका स्वभाव है और वास्तव में तो यह पृथ्वी आदि का घर है पर अज्ञान से जीव इसे अपना घर मान लेता है। इसलिए भलाई इसीमें है कि इसे अपना घर मानना छोड़ दे।
नदीकूले यथा वृक्षो वृक्षे वा शकुनिर्यथा ।
तथा त्यजन् इमं देहं कृच्छ्रग्राहाद्विमुच्यते ।।२.१३१.४५।।
जैसे वृक्ष नदी के किनारे को छोड़ देता है, वैसे ही अज्ञानियों को यह देह छोड़ना पड़ता है। जो लोग यह मानते हैं कि देहपात तो कर्माधीन है वे अपने पतन को न जानते हुए नदी के वेगपूर्ण प्रवाह में गिर जाते हैं। और जिनमें ज्ञान और कर्म का प्रकर्ष होता है वे भीष्माचार्य, पंडित दशरथजी शास्त्री आदि की तरह स्वाधीन मृत्यु होने से जैसे पक्षी वृक्ष को त्याग देता है वैसे शरीर को त्यागकर सांसारिक दुःखरूप ग्राह से मुक्त हो जाते हैं ।||७४||
यस्य कर्मसु शुद्धेष्वप्यौदासीन्यं विजायते। तस्यैव जन्मसांकर्यमनुमेयं विपश्चिता ॥२.७५॥
जिसने शुद्ध कर्मों के प्रति उदासीनता का एक विकसित दृष्टिकोण बनाया है, उसने जीवन को गलत तरीके से समझा है ऐसा जानना चाहिए, बुद्धिमान व्यक्तियों द्वारा यह निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए कि उसके जन्म में संकरता है अर्थात् मिलावट है। इसी को वर्णसंकर कहते हैं। महाभारत में धृतराष्ट्र के प्रति भगवान् सनत्कुमार का वचन है —
‘‘प्रमादं वै मृत्युमहं ब्रवीमि’’ अर्थात् प्रमाद ही मृत्यु है। आध्यात्मिक मार्ग पर प्रमाद ही हमारा सब से बड़ा शत्रु है। उसी के कारण हम काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर्य नामक नर्कके छः द्वारों में से किसी एक में अनायास ही प्रवेश कर जाते हैं। आत्मज्ञान ही ब्रह्मज्ञान है, यही भूमा-विद्या है। जो इस दिशा में जो अविचल निरंतर अग्रसर है, वही महावीर है अर्थात् सभी वीरों में श्रेष्ठ है। || ७५ ||
विरोधो जायते यस्य ज्ञानकर्मसमुच्चये। तस्यैव जन्मसांकर्यमनुमेयं विपश्चिता ॥२.७६॥
जिन्हें ज्ञान और कर्म के समुच्चय में विरोध की प्रतीति होती है। विद्वानों के द्वारा उनके जन्म में सांकर्य का अनुमान किया जाना चाहिए। भगवान् श्रीकृष्णने गीताजी में कहा कि —
‘‘उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः।।३.२४।।’’
यदि मैं कर्म न करूँ, तो ये समस्त लोक नष्ट हो जायेंगे; और मैं वर्णसंकर का कर्ता तथा इस प्रजा का हनन करने वाला होऊंगा। साथ ही यह भी कहा कि —
सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।५.४।।
बालक अर्थात् बाल बुद्धि के लोग सांख्य (ज्ञान या संन्यास) और योग अर्थात् कर्मयोग को परस्पर भिन्न समझते हैं; किसी एक में भी सम्यक् प्रकार से स्थित हुआ पुरुष दोनों के फल को प्राप्त कर लेता है। अर्थात् ज्ञान के बिना कर्म हो नहीं सकता और कर्म के बिना ज्ञान यानी अनुभव भी नहीं हो सकता। || ७६ ||
यः श्रौतं कर्म हित्वान्यत्तान्त्रिकं समुपाश्रयेत्। तस्यैव जन्मसांकर्यमनुमेयं विपश्चिता ॥२.७७॥
जो वैदिक कर्तव्यों को अस्वीकार कर रहा है, और जो तांत्रिक कर्तव्यों पर निर्भर करता है, उसके व्यक्तित्व में जन्मसंकरता है अर्थात् उसने जीवन को गलत तरीके से ही समझा है। ऐसा एक बुद्धिमान व्यक्ति के द्वारा निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए। क्योंकि सभी धर्म कर्मों का मूल वेद ही है। जो लोग मूल की रक्षा नहीं कर सकते उनके शाखा और पत्ते भी सुरक्षित नहीं रह सकते।
मनुजी ने कहा भी है-
‘‘वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम् ।
आचारश्चैव साधूनां आत्मनस्तुष्टिरेव च ।। २.६ ।। मनुस्मृतिः’’
अर्थात् अखिल वेद माने सम्पूर्ण वेद और उन वेद वेत्ताओं द्वारा प्रणीत स्मृतियां तथा उन श्रेष्ठपुरुषों का स्वभाव और सत्पुरुषों का आचरण तथा अपनी आत्मा की प्रसन्नता का होना अर्थात् जिस कर्म के करने में भय, शंका, लज्जा न होकर आत्मा को प्रसन्नता का अनुभव हो, ये सब ही धर्म के मूल हैं ।
‘‘आचारः परमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च ।
तस्मादस्मिन्सदा युक्तो नित्यं स्यादात्मवान्द्विजः ।। १.१०८।। मनुस्मृतिः’’
वेदों में कहा हुआ और वेदानुकूल स्मृतियों में भी कहा हुआ जो आचरण का संविधान है वह सर्वश्रेष्ठ धर्म है। इसलिए आत्मवान् को आत्मोन्नति चाहने वाले मनुष्य को चाहिए कि वह इस श्रेष्ठ आचरण में निरंतर प्रयत्नशील रहे ।
“यं पृथग्धर्मचरणाः पृथग्धर्मफलैषिणः।
पृथग्धर्मैः समर्चन्ति तस्मै धर्मात्मने नमः।। महाभारत-शान्तिपर्व ४६-५१॥”
जो भिन्न-भिन्न धर्मोंका आचरण करके अलग-अलग उनके फलोंकी इच्छा रखते हैं, ऐसे पुरुष पृथक् धर्मोंके द्वारा जिनकी पूजा करते हैं, उन धर्मस्वरूप भगवान् को प्रणाम है।
‘‘धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ॥८.१५॥ मनुस्मृतिः’’
जो पुरुष धर्म का नाश करता है, धर्म उसीका नाश कर देता है, और जो धर्मकी रक्षा करता है, उसकी धर्म भी रक्षा करता है। इसलिए मारा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले, इस भय से धर्म का हनन अर्थात् त्याग कभी न करना चाहिए। जो पुरुष धर्म का नाश करता है, उसी का नाश धर्म कर देता है, और जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी धर्म भी रक्षा करता है। इसलिए मारा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले, इस भय से धर्म का हनन अर्थात् त्याग कभी नहीं करना चाहिए।
“श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैतत्प्रधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।।३३५।। पद्मपुराणम् (सृष्टिखण्डम्) अध्यायः १९”
“धर्मसर्वस्वम्” धर्म के तत्व को, सार को सुनो। जीवनके धर्मको सुनो और सुननेके पश्चात् उसे ग्रहण (धारण) करो, और सदैव इसका पालन करो। अपने लिये प्रतिकूल व्यवहारका आचरण कभी भी किसी अन्य के साथ ऐसा व्यवहार न करो जो तुम स्वयं के साथ नहीं चाहोगे। अर्थात् जो व्यवहार आपको अपने लिये पसन्द नहीं है वैसा आचरण दूसरों के साथ नहीं करना चाहिये।
“आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥२५॥ हितोपदेशः”
आहार, निद्रा, भय और मैथुन – ये मनुष्य और पशु में समान हैं। इन्सान में विशेष केवल धर्म है,
अर्थात् बिना धर्म के व्यक्ति पशुतुल्य है। || ७७ ||
यश्चान्तरं च तत्कर्म मन्यते मन्दगोचरम्। तस्यैव जन्मसांकर्यमनुमेयं विपश्चिता ॥२.७८॥
जो आंतरिक कार्यों अर्थात् आध्यात्मिक साधनाओं को (ध्यान,धारणा और समाधि आदि को) सुस्त आलसियों का धंधा समझता है, उसने जीवन में इसका गलत तरीके से निस्तारण किया है, ऐसा एक बुद्धिमान व्यक्ति द्वारा निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए।
‘‘संकल्पमूलः कामो वै यज्ञाः संकल्पसंभवाः ।
व्रतानि यम धर्माश्च सर्वे संकल्पजाः स्मृताः ।।( मनुस्मृतिः–२/३)’’
(सभी काम,यज्ञ, सत्य भाषण आदि व्रत, यम-नियम रूपी धर्म आदि संकल्प ही से बनते हैं, किसी भी कार्य का निश्चय करने से ही उसमें सफलता मिलती है। संकल्प माने सम्यक् कल्पना, अर्थात् एक अच्छे प्रकार से बनाई गयी योजना। प्रत्येक कामना संकल्प मूलक ही होती है अर्थात् संकल्प से ही प्रत्येक इच्छा उत्पन्न होती है।)
‘कामः संकल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धाधृतिरधृतिर्ह्रीर्धीर्भीरित्येतत्सर्वं मन एव’
इस श्रुति के अनुसार काम, संकल्प, संशय, श्रद्धा, अश्रद्धा, ह्री,माने लज्जा धी, माने बुद्धि भीः, माने भय ये सब मन ही के विकार हैं।
अकामस्य क्रिया काचिद्दृश्यते नेह कर्हिचित् ।
यद्यद्धि कुरुते किंचित्तत्तत्कामस्य चेष्टितम् ।। २.४ ।।
इच्छा के बिना कोई कार्य नहीं होता। जो कुछ होता है, सब इच्छा ही से होता है। इसलिए किसी कार्य या लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इच्छाशक्ति की बहुत आवश्यकता पड़ती है | || ७८ ||
अशुद्धकर्मनिष्ठः सन्शुद्धं निन्दति यः सदा। तस्यैव जन्मसांकर्यमनुमेयं विपश्चिता ॥२.७९॥
जो अशुद्ध कर्मों के लिए समर्पित है और हमेशा शुद्ध कर्मों की निंदा करता है, जीवन में उसने गलत तरीके से निर्णय लिया है ऐसा एक बुद्धिमान व्यक्ति द्वारा निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए।
“आचाराद्विच्युतो विप्रो न वेदफलमश्नुते ।
आचारेण तु संयुक्तः सम्पूर्णफलभाग्भवेत्।।” १.१०९ (मनुस्मृति)
वास्तव में आचारहीन व्यक्ति को वैदिक कर्मों का फल नहीं मिलता उसे वेद प्रतिपादित धर्मजन्य सुखरूप फल प्राप्त नहीं हो सकता आचारवान व्यक्ति ही अपने और दूसरे के जीवन का कल्याण कर सकते हैं। वेद और स्मृति दोनों में कहा गया कि आचार ही परम धर्म है, इस कारण आत्मवान् द्विज को सदाचार में सदा यत्नवान् रहना चाहिए। जो स्वयं शुद्ध,पवित्र, सदाचारी नहीं है, वह तो अपना भी कल्याण नहीं कर सकता, दूसरों की तो बात ही क्या। इसलिए जीवन में आचार का बडा ही महत्व है।
आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः यदप्यधीताः सह षड्भिरङ्गैः ।
छन्दांस्येनं मृत्युकाले त्यजन्ति नीडं शकुन्ता इव जातपक्षाः ॥ १ ॥
देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः ११/अध्यायः २||
वेद भी आचारहीन मनुष्य को पवित्र नहीं करते। यद्यपि उसने भलेही शिक्षा,कल्प, निरुक्त, छन्द, व्याकरण और ज्योतिष-इन छः अंगों सहित वेदों का अध्ययन किया हो, फिर भी मृत्युकाल में आचारहीन मनुष्य को वेद वैसे ही छोड़ देते हैं, जैसे पंख उगने पर पक्षी अपने घोंसले को। आचारहीनेन तु धर्मकार्यं कृतं हि सर्वं भवतीह मिथ्या ।।
आचारहीन पुरुष के सभी धर्मकार्य मिथ्या ही सिद्ध होते हैं | || ७९ ||
शुद्धं पश्यति यः शान्तमक्षिरोगीव भास्करम्। तस्यैव जन्मसांकर्यमनुमेयं विपश्चिता ॥२.८०॥
जो शुद्ध कर्मों को नीरस, निस्तेज, निर्वीर्य या शांत देखता है जैसे रोगग्रस्त आंखों वाला व्यक्ति सूर्य को निस्तेज देखता है, उसे निश्चय ही वर्णसंकर जानना चाहिए अर्थात् जीवन में उसने गलत तरीके से निर्णय लिया है ऐसा एक बुद्धिमान व्यक्ति द्वारा निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए।
सर्वलक्षणयुक्तोऽपि नरस्त्वाचार वर्जितः ।
न प्राप्नोति तथा विद्यां न च किञ्चिदभीप्सितम् ।।३.२५०.४।। विष्णुधर्मोत्तरपुराणम्
सभी प्रकार के शुभ लक्षणों से सम्पन्न पुरुष भी यदि सदाचार से रहित है तो न तो उसे विद्या की प्राप्ति होती है और ना ही उसके मनोरथ सफल होते हैं | || ८० ||
विशुद्धवंशप्रभवं महामतिं विशुद्धबाह्यान्तरकर्मभास्वरम्।
विशुद्धवेदान्तरहस्यवेदिनं विद्वेष्टि यः संकर एव नेतरः ॥२.८१॥
जो शुद्ध जाति में जन्म लेता है, जो अत्यधिक बुद्धिमान होता है, जो अपने आंतरिक और बाह्य पवित्रता के गुण से चमकता है, जो उपनिषदों के रहस्यों को जानता है, ऐसे पुरुष से यदि कोई द्वेष करता है तो वह वर्णसंकर के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। वह केवल भ्रमित होता है और कुछ नहीं।
अपूज्या यत्र पूज्यंते पूज्यानां तु विमानना।
त्रीणि तत्र प्रवर्तन्ते, दुर्भिक्षं मरणं भयम्॥ ३.१९२॥ पञ्चतन्त्र
जहाँ अपूज्य व्यक्तियों का सम्मान और पूजा होती है और पूजनीय व्यक्तियों की अवमानना होती है, वहां दुर्भिक्ष,अकाल मृत्यु तथा भय युक्त वातावरण , ये तीनों परिस्थितियां सदैव विद्यमान होती हैं | ||८१||
अशुद्ध वंश प्रभवं सुदुर्मतिं स्वशुद्धकर्मद्वयनष्ट तेजसं।
अशुद्धतन्त्रार्थविदं नराधमं यः श्लाधते संकर एव नेतरः ॥२.८२॥
जिन्होंने अशुद्ध जाति में जन्म लिया है, जो अत्यधिक दुर्बुद्धि वाले होते हैं, और जिन्होंने आंतरिक तथा बाह्य शुद्धि की प्रक्रिया न करके अपना तेज नष्ट कर लिया है, जो केवल अशुद्ध तंत्र का अर्थ जानते हैं इस तरहके जो निम्न श्रेणी का मनुष्य हैं, उनकी जो प्रशंसा करता है वह केवल भ्रमित है और कुछ नहीं।
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोष लगाइ।।४३।।
भावार्थ:-वह परलोक में दुःख पाता है, सिर पीट-पीटकर पछताता है तथा (अपना दोष न समझकर) काल पर, कर्म पर और ईश्वर पर मिथ्या दोष लगाता है॥४३॥ रामचरितमानस उत्तरकाण्ड || ८२ ||
॥इति सूर्यगीतायां द्वितीयोऽध्यायः॥
|| अथ तृतीयोऽध्यायः ||
अथातः संप्रवक्ष्यामि ममान्तर्यामिणं शिवम्। यः सर्वकर्मणां साक्षी निर्लेपः प्रभुरीश्वरः ॥३.१॥
अब मैं शिव के बारे में बताऊंगा, जो मेरा आंतरिक नियंत्रण करने वाले हैं और जो सभी कर्मोंके, कार्यों के साक्षी हैं, जो निर्लेप हैं, और सभी का शासन करने वाले स्वामी हैं।
प्रभुं प्राणनाथं विभुं विश्वनाथं जगन्नाथ नाथं सदानंद भाजाम्।
भवद्भव्य भूतेश्वरं भूतनाथं शिवं शंकरं शंभु मीशानमीडे || १ || श्रीशिवाष्टकं
मैं शिव, शंकर, शंभु, जो भगवान हैं, (मालिक हैं) उनकी स्तुति करता हूँ तथा प्रार्थना करता हूँ, जो हमारे जीवन के भगवान (शाशक) हैं, जो विभु हैं (सर्वत्र व्याप्त हैं), जो दुनिया के भगवान हैं, जो विष्णु (जगन्नाथ) के भगवान हैं, जो हमेशा आनन्द में निवास करते हैं, सदा खुशी में रहते हैं, जो भूत, भविष्य और वर्तमानके मालिक हैं। जो सभी जीवित प्राणियों का भगवान है, जो भूतों का भगवान है, और जो सभी का भगवान है। उस मालिक को मैं प्रणाम करता हूँ। ||१ ||
त्रिनेत्रं नीलकण्ठं यं सांबं मृत्यंजयं हरम्। ध्यात्वा संसृतिमोक्षः स्यात्तं नमामि महेश्वरम् ॥३.२॥
तीन आंखों वाले , नीलेरंग के गले वाले , अम्बा के साथ रहने वाले , मृत्यु के विजेता, हर, (पाप ,ताप को हरने वाले) जिनका ध्यान करने से व्यक्ति दुनियाँ से मुक्ति प्राप्त करता है, मैं उस महान स्वामी (सर्वेश्वर, परमेश्वर, महेश्वर) को नमन करता हूँ।
चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालुम् ।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥ ४॥ श्री रुद्राष्टकम्
जिनके कानों में कुण्डल हिल रहे हैं, सुंदर भृकुटि व विशाल नेत्र हैं, जो प्रसन्न मुख, नीलकंठ व दयालु हैं, सिंहचर्म धारण किये व मुंडमाल पहने हैं, सबके प्यारे, और सब के नाथ श्री शंकर को मैं भजता हूँ।॥४॥
शान्ताकारं शिखरशयनं नीलकण्ठं सुरेशं।
विश्वाधारं स्फटिकसदृशं शुभ्रवर्णं शुभाङ्गम्।।
गौरी कान्तम् त्रितय नयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्।
वन्दे शम्भुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।
अर्थात् – जिनका विग्रह सौम्य (शान्त) है, जो कैलाश के शिखर पर निवास करते है, जिनके गले में नीलेरंग का चिन्ह है, जो सभी देवताओं के ईश्वर हैं, जो सारे संसार के आधार है, स्फटिक के समान जिनकी शुभ्र कान्ति है, और सुन्दर अंग हैं, वे गौरी के पति हैं, तीन नेत्र धारण करने वाले हैं और योगी जनों को ध्यान के द्वारा दर्शन देते हैं, ऐसे संसार के भय को दूर करने वाले और त्रिभुवन के नाथ भगवान शंभु को मैं नमस्कार करता हूँ । || २ ||
सर्वेषां कर्मणामेकः फलदाता य उच्यते। स एव मृड ईशानः सर्वज्ञः सर्वशक्तिमान् ॥३.३॥
जिसे सभी कर्मों के फलों का एकमात्र दाता कहा जाता है, वह है वास्तव में मृड़ (दयालु), {मृडः = सुखी । मृडनम् = सुखम् ।
भवतीति भवो ज्ञेयो मृडतीति स वै मृडः}
भूतेशः खण्डपरशुर्गिरीशो गिरिशो मृडः ।। १.१.७४ ।।अमरकोष।
ईशानः (शासक), सर्वज्ञ और सबसे अधिक शक्तिशाली।
भगवान व्यास ब्रह्मसूत्र में कहते हैं कि —
“वैषम्यनैर्घृण्ये न सापेक्षत्वात्तथाहि दर्शयति।।२.१.३४।।”
ईश्वर में विषमता और निर्दयता का दोष नहीं है; क्योंकि सृष्टि-रचना कर्म-सापेक्ष है। क्योंकि वे सारी रचना पूर्वार्जित कर्मों के अनुसार करते हैं’ प्राणियों के धर्म और अधर्म के कारण ही सृष्टि में विषमता दिखती है। ईश्वर तो बादल जैसा है गेहूँ, जौ, चना, केला, अंगूर और करेला सबको समान रूप से पानी देता है। उन उन बीजों के सामर्थ्य से ही विषमता दिखती है। वैसे ही देव, मनुष्य और पशु आदि योनियों में ईश्वर तो केवल चेतना का संचार करता है उन उन जीवों के कर्मों के कारण सुख-दुःख का दर्शन होता है। यदि कहो कि ‘यह बात सिद्ध नहीं होती, क्योंकि (महाप्रलय में) कर्मों का विभाग नहीं है तो ऐसा भी नहीं है; क्योंकि कर्म अनादि हैं’।
“एष ह्येव साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषत एष उ एवासाधु कर्म कारयति तं यमधो निनीषते इति || ३. ९ || कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद्”
यह प्राण एवं प्रज्ञा रूप चैतन्य युक्त परब्रह्म ही इस देहाभिमानी पुरुष से श्रेष्ठ कार्य करवाता है। वह ऐसे श्रेष्ठ कृत्य उसी से करवाता है, जिसे वह इन प्रत्यक्ष लोकों से ऊर्ध्व की तरफ ले जाना चाहता है और जिसे वह इन श्रेष्ठ लोकों की अपेक्षा नीचे ले जाना चाहता है, उससे अशुभ कार्य करवाता है। यह आत्मा समस्त लोकों का अधिपति है एवं यही सभी का स्वामी है। इन सभी श्रेष्ठ गुणों से युक्त वह प्राण ही आत्मा है, ऐसा जानना चाहिए। वह प्राण ही हमारा आत्मा है, ऐसा जानना चाहिए।
पुण्यो वै पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेन। ( बृहदारण्यकोपनिषद् , ३।२।१३ )
यदि पाप करोगे तो पाप-प्रारब्ध जागकर तुम्हें दुखी कर देगा और पुण्य करोगे तो पुण्य-प्रारब्ध जागकर तुम्हें सुखी कर देगा।
और स्मृति में भी ‘‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।४.११।।’’ श्रीमद् भगवद्गीता
जो मुझे जैसे भजते हैं, मैं उन पर वैसे ही अनुग्रह करता हूँ; हे पार्थ सभी मनुष्य सब प्रकार से, मेरे ही मार्ग का अनुवर्तन करते हैं। || ३ ||
यस्य स्मरणमात्रेण निवर्तन्तेऽखिलापदः। संपदश्चेह लभ्यन्ते सोऽन्तर्यामी शिवो हरः ॥३.४॥
जिनके स्मरण मात्र से सभी विपदाएँ दूर हो जाती हैं और इस संसार में संपत्ति और समृद्धि प्राप्त होती है, वे आंतरिक-नियंत्रण करने वाले हैं, शिव हैं, (वे ही कल्याणस्वरूप हैं) वे ही सहारा देते हैं। तथा वे ही हर हैं । वे मनोहर भी हैं। हरति इति हरः। हरति पापं भक्तानामिति हरः। जो भक्तों के पाप और तापों हरण कर लेते हैं इसलिए वे हर हैं। हरति नाशयति विश्वं वा प्रलये इति हरः, जो प्रलय काल में विश्व का संहार करते हैं अतः वे हर हैं।
‘‘क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मानावीशते देव एकः।
तस्याभिध्यानाद्योजनात्तत्त्वभावात् भूयश्चान्ते विश्वमायानिवृत्तिः॥१.१० ॥’’ श्वेताश्वतरोपनिषद्
प्रकृति नाशवान है इसलिए उसे क्षर कहते हैं। और जीवात्मा अविनाशी है। इसलिए उसे अमृत या अक्षर कहते हैं। वह, एकमात्र ईश्वर नाशवान प्रकृति और जीवात्मा दोनों पर शासन करता है। इसलिए उसे परात्पर हर कहते हैं। प्रधानं (प्रकृतिं) भोग्यत्वेन हरति इति हरः। उस एकं पर ध्यान करने से और उसके साथ संयुक्त तथा तादात्म्य हो जाने से अन्त में समस्त अज्ञान या भ्रान्ति से मुक्ति मिल जाती है। ||४||
येनैव सृष्टमखिलं जगदेतच्चराचरम्। यस्मिंस्तिष्ठति नश्यत्यप्येष एको महेश्वरः ॥३.५॥
वह जिसके द्वारा चलने और न चलने वाले प्राणियों की यह पूरी दुनिया बनाई जाती है और जिसमें वह रहती है और जिससे वह नष्ट हो जाती है, वह वास्तव में यह एक महेश्वर ही है।
‘‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते । येन जातानि जीवन्ति । यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति । तद्विजिज्ञासस्व । तद् ब्रह्मेति ॥ – तैत्तिरीयोपनिषत् ३-१-३’’
जिसके द्वारा,इस सृष्टि का निर्माण होता है,जिसके द्वारा इस सृष्टि का पोषण होता है और जिससे सब लोग प्रेम करते हैं तथा जिसमें सब लोग जाकर, अपने आप विलीन हो जाते हैं, उस एक को ही जानना चाहिए। “तद्विजिज्ञासस्व”-उस एक की ही जिज्ञासा करो। “तद् ब्रह्म”- वह परमात्मा है।
श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है कि — ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः।।६.८।।
जो योगी ज्ञान और विज्ञान से तृप्त है, जो विकार रहित (कूटस्थ) और जितेन्द्रिय है, जिसको मिट्टी, पाषाण और कंचन समान है, वह (परमात्मा से) युक्त कहलाता है।। || ५ ||
यं नमन्ति सुराः सर्वे स्वस्वाभीष्टप्रसिद्धये । स्वातन्त्र्यं यस्य सर्वत्र सोऽन्तर्यामि महेश्वरः ॥ ३.६ ॥
जिनके लिए सभी देवता अपनी अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए झुकते हैं, प्रणाम करते हैं जो हर जगह संप्रभु हैं, जिनकी स्वतन्त्रता सर्वातिशायिनी है और वे सबके आंतरिक नियंत्रक हैं, अतः महेश्वर हैं।
शिव महिम्नस्तोत्र में कहा है — रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो।
रथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर इति।।
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर विधिः।
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः।। १८।।
जब भगवान शिव त्रिपुरासुर के वध लिए प्रवृत्त हुए तब आपने (तारकासुर के तीनों पुत्रों द्वारा रचित) तीन नगरों का विध्वंस करने हेतु पृथ्वी को रथ बनाया और ब्रह्माजी को सारथी बनाया, सूर्य और चन्द्र को रथ के दो पहिये, मेरु पर्वत का धनुष बनाया और विष्णु जी का बाण बना लिया। हे शम्भू ! इस वृहद परियोजना की क्या आवश्यकता थी ? आपके लिए तो संसार मात्र का विलय करना अत्यंत ही छोटी सी बात है। आपको किसी सहायता की क्या आवश्यकता? आपने तो केवल (अपने नियंत्रण में रहने वाली) शक्तियों के साथ खेल किया था, लीला की थी।
उसी महिम्न स्तोत्र में वर्णन है कि —
‘‘यदद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सती मधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयस्त्रिभुवनः ।
न तच्चित्रं तस्मिंन्वरिवसितरि त्वच्चरणयो र्न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः ॥१३॥’’
हे प्रभु ! बाण जैसा साधारण राक्षस त्रिभुवन का स्वामी और देवराज इन्द्र से भी ज्यादा ऐश्वर्यवान बन गया। लेकिन इसमें आश्चर्य करने जैसी कोई बात नहीं है क्योंकि वो आपका परम भक्त था। जो मनुष्य आपके चरणोंमें श्रद्धाभक्तिपूर्वक शीश रखता है उसकी उन्नति और समृद्धि निश्चित है। आपके सामने सिर झुकाने से कौन सी समृद्धि नहीं आती? ||६||
उमार्धविग्रहः शंभुः त्रिनेत्रः शशिशेखरः। गंगाधरो महादेवः सोऽन्तर्यामी दयानिधिः ॥३.७॥
जिसके शरीर के आधे भाग में उमा है, जिसे शंभू (दयालु) कहा जाता है, वह तीन आंखों वाला है, चंद्रमा को अपने सिर पर धारण करता है, गंगा को अपनी जटाओं में धारण करता है, वह आंतरिक-नियंत्रण करने वाला है, करुणा का सागर है।
श्रीवेदव्यासजी द्वारा विरचित नमस्कारदशकस्तोत्रमें ‘‘उमार्धविग्रहः’’ का स्वरूप देखिये —
नमः शिवाभ्यां नवयौवनाभ्यां परस्पराश्लिष्ट वपुर्धराभ्यां ।
नगेन्द्रकन्या वृषकेतनाभ्यां नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम् ॥ ९॥ नमस्कारदशकस्तोत्रं
‘कल्याण करने वाले नवयौवन से युक्त, परस्पर आश्लिष्ट शरीर वाले को नमस्कार! वृषभ का चिह्न जिसके ध्वज पर है, ऐसे शंकर और पर्वतकी कन्या पार्वती को बार-बार नमस्कार!’
श्रीपंडितदशरथजी शास्त्री द्वारा विरचित ‘‘वृद्धगङ्गालहरी’’ नामक स्तोत्रमें वर्णन किया है —
गिरीशोऽप्यालोच्याखिल सुर समज्यां जलमयीम्,
स्वनेत्राभ्यां दृष्टा निज मनसि खिन्नः स्ववचनात्।
जटायान्तान्दघ्रे कृत कलुष शान्त्यै द्रुततया,
प्रमग्नः सस्स्वान्तेऽलभदिह च गङ्गाधर पदम् ॥१७॥
भगवान् शंकर ने जब उस दैवी सभा में सभान होकर विचार किया और संपूर्ण समागत समाज को अपनी आंखों से जलमय देखा तो उनके मन में खिन्नता हुई कि यह सब मेरे ही गान के कारण हुआ है तब तो शीघ्र ही प्राणिमात्र कृत समस्त पापों का शमन करने वाली उस अमृत द्रव रूपा गङ्गा को शीघ्र ही अपनी जटाओं में धारण कर लिया तब उनके मन में प्रसन्नता हुई ,और गङ्गाधर पदवी को प्राप्त किया। जाह्नवीके जन्मका आख्यान श्रीब्रह्मवैवर्त-महापुराणके श्रीकृष्णजन्मखण्डमें नारायण-नारदके संवादमें चौंतीसवें अध्यायमें वर्णित है। || ७ ||
श्रुतिस्मृतिपुराणेषु यस्यैवाधिक्यमिष्यते। यस्याधिक्यस्मृतेर्मुक्तिः सोऽन्तर्यामी पुरातनः ॥३.८॥
जिनका वर्चस्व श्रुतियों, स्मृतियों और सभी पुराणों में घोषित है; केवल यह याद रखने से कि जिसका वर्चस्व सर्वोत्कृष्ट है, मनुष्य मुक्ति को प्राप्त कर लेता है, वह अंतर्यामी पुराण पुरुष है, जो कि सभी देवताओं में प्रधान है।
निरावलम्बस्य ममावलम्बं विपाटिताशेषविपत्कदम्बं।
मदीय पापाचल पात शम्बं प्रवर्ततां वाचि सदैव बम् बम् ॥
हे विश्वनाथ (बम् बम्) ! आप ही मुझ निराश्रय के एक मात्र आश्रय हैं, आपने मेरे समस्त विपत्ति समूहों को उखाड़ कर फेंक दिया। मेरे पाप रूपी पर्वत को विदीर्ण करने के लिए आप भाला के समान हैं अतः मेरी वाणी सदैव आपके अमृत स्वरूप महामंत्र बीजाक्षर (बम् बम्) का उच्चारण करती रहे | हे प्रभु ! यही आपसे प्रार्थना है।
आचार्यपुष्पदंत शिवमहिम्नःस्तोत्रमें कहते हैं —
अतीतः पंथानं तव च महिमा वाङ्मनसयो रतद् व्यावृत्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि ।
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः ।।२।।
आपकी महिमा (किसी की भी) वाणी व मन की पहुँच से परे है, जिसे वेद भी आश्चर्य से चकित अथवा अचंभित हो कर (अतद् व्यावृत्ति द्वारा) नेति-नेति कह कर वर्णित करते हैं। ऐसा ब्रह्म किसके द्वारा स्तोतव्य हो सकता है, अर्थात् उस ब्रह्म की महिमा कैसे और किससे गायी जा सकती है ? क्या ऐसा (परात्पर) ब्रह्म भी किसी के मन,इन्द्रियों अथवा वाणी की विषय-वस्तु बन सकता है ? तथापि आप के अर्वाचीन रूप अर्थात् अपेक्षाकृत नये रूप में (जो सृष्टि-रचना के पूर्व निर्गुण रूप में रहने वाले परब्रह्म ने सगुण रूप धारण कर व्यक्त किया है), उसमें किसकी वाणी व किसका मन नहीं रमता ? || ८ ||
यन्नामजपमात्रेण पुरुषः पूज्यते सुरैः। यमाहुः सर्वदेवेशं सोऽन्तर्यामी गुरूत्तमः ॥३.९॥
केवल जिसका नाम जपने से मनुष्य देवताओं द्वारा पूजा जाता है, जिसे सभी देवताओं का स्वामी कहा जाता है, वे अन्तरतम के नियमन करने वाले, ये भगवान् व्यक्ति की चेतना के अन्तर्यामी हैं। उन्हें देवों के देव महादेव भी कहते हैं। शिक्षकों में सबसे अच्छे शिक्षक हैं।
‘‘महेशं सुरेशं सुरारातिनाशं विभुं विश्वनाथं विभूत्यङ्गभूषम्।
विरूपाक्षमिन्द्वर्कवह्नित्रिनेत्रं सदानन्दमीडे प्रभुं पञ्चवक्त्रम् || २ ||’’ वेदसार शिवस्तव स्तोत्रं ||
चन्द्र,सूर्य और अग्नि — तीनों जिनके नेत्र हैं, उन विरूपनयन महेश्वर, देवेश्वर, देवदु:खदलन, विभु, विश्वनाथ, विभूतिभूषण, नित्यानन्दस्वरूप, पंचमुख भगवान् महादेवकी मैं स्तुति करता हूॅं ||२||
इच्छित फल बिनु शिव अवराधे | लहिअ न कोटि जोग जप साधे ||
“नाम लेत भव सिन्धु सुखाही | करहु बिचार सुजन मन माही !”
भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी॥
औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि। संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि॥४५॥ रामचरितमानस उत्तरकाण्ड।
जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा।।
(भगवान् राम ने नारद को कहा) जाकर शंकर के शतनाम का जप करो, इससे हृदय में तुरंत शांति होगी। क्योंकि वे शिव ही परमगुरु हैं।
‘‘नित्यानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं,
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं,
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि।।२१।। शुकरहस्योपनिषद्’’
जो सदा ही आनन्दरूप, श्रेष्ठ सुखदायी स्वरूप वाले, ज्ञान के साक्षात् विग्रह रूप हैं। जो संसार के द्वन्द्वों (सुख-दुःखादि) से रहित, व्यापक आकाश के सदृश (निर्लिप्त) है तथा जो एक ही परमात्म- तत्त्व को सदैव लक्ष्य किये रहते हैं। जो एक हैं, नित्य हैं, सदैव शुद्ध स्वरूप है, (संसार के झंझावातों में) अचल रहने वाले, सबकी बुद्धि में अधिष्ठित, सब प्राणियों के साक्षिरूप, राग-आसक्ति आदि भावों से दूर, (रज,तम और सत्व) लोभ, मोह, प्रकाश और अहंकार जैसे सामान्य त्रिगुणों से रहित हैं, उन सद्गुरु को हम नमस्कार करते हैं॥ ‘‘
॥दक्ष उवाच॥ नमामि देवं वरदं वरेण्यं नमामि देवं च सदा सनातनम्॥
नमामि देवाधिपमीश्वरं हरं नमामि शंभुं जगदेकबन्धुम्॥ ५.३६ ॥
नमामि विश्वेश्वरविश्वरूपं सनातनं ब्रह्म निजात्मरूपम्॥
नमामि सर्वं निजभावभावं वरं वरेण्यं वरदं नतोऽस्मि॥ ५.३७ ॥’’ || ९ ||
यदाख्यामृतपानेन संतृप्ता मुनयोऽखिलाः। न वांछन्ति महाभोगान्सोऽन्तर्यामी जगत्पतिः ॥३.१०॥
जिनके वचनामृत और नाम अमृत रूपी अमृत पीने से सभी मुनि तृप्त हो जाते हैं और महान सांसारिक सुखों के लिए तरसते नहीं हैं, वे सर्वान्तर्यामी शिव हैं, सर्वेषां अन्तरे स्थित्वा यमयति इति सर्वान्तर्यामी। और वे ही संसार के रक्षक है।
‘‘तमीश्वराणाम् परमं महेश्वरं तं देवतानां परमं दैवतम् ।
पतिं पतीनां परमं परस्ताद् विदाम देवं भुवनेशमीड्यम् ॥ (श्वेताश्वतरोपनिषद ६/७)’’
वे परब्रह्म परमात्मा समस्त ईश्वरों के भी महान ईश्वर अर्थात् परमेश्वर रूप महान शासक हैं, अर्थात् ये सब इन्द्रादि देव भी उन परमेश्वर के अधीन रहकर जगत् का शासन करते हैं। वे ही समस्त देवताओं के भी परम आराध्य देव हैं। समस्त पतियों-रक्षकों के भी परम पति हैं तथा समस्त ब्रह्माण्डों के स्वामी हैं। उन स्तुति करने योग्य परमदेव परमात्मा को हम लोग सबसे परे जानते हैं। उनसे श्रेष्ठ और कोई नहीं है। वे ही इस जगत् के सर्वश्रेष्ठ कारण हैं। सभी ज्योतियों में भी परम ज्योति अनिर्देश्य, मात्र दृक् स्वरूप, महान प्रकाश ही शिव तत्व है ।।
सकलभुवनोदयस्थितिलयमयलीलाविनोदनोद्युक्तः ।
अन्तर्लीनविमर्शः पातु महेशः प्रकाशमात्रतनुः ॥१॥ कामकलाविलासः।।|| १० ||
अरुण उवाच :- अरुण ने कहा
सद्गुरो भास्कर श्रीमान्सर्वतत्त्वार्थकोविद। श्रुतिस्मृतिपुराणेषु ह्यन्तर्याम्यन्यथा श्रुतः ॥३.११॥
हे दयालु शिक्षक! हे भास्कर! हे भाग्यशाली! हे समस्त तत्त्वों के ज्ञाता! श्रुतियों में, धर्मशास्त्रों में
और पुराणों में तो अन्तर्यामी को कुछ अलग ही तरह से सुना जाता है। ||११||
सत्यं ज्ञानमनन्तं यत्प्रसिद्धं ब्रह्म निष्कलम्। निर्गुणं निष्क्रियं शान्तं केवलं सर्वगं परम् ॥३.१२॥
ब्रह्म, जो सत्य-ज्ञान-अनन्तता के रूप में प्रसिद्ध है, तथा जो निष्कल है और जो अविभाज्य है, तथा गुणों से रहित है, कर्महीन, शांतिपूर्ण, एकमात्र, सर्वव्यापी और सर्वोच्च है।
‘‘ब्रह्मविदाप्नोति परम्। तदेषाऽभ्युक्ता। सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म। यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन्। सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चितेति॥’’ तैत्तिरीयोपनिषद्ब्रह्मानन्दवल्लीप्रथमोऽनुवाकः ||
ब्रह्मवेत्ता ‘परम तत्त्व’ को प्राप्त करता है; क्योंकि प्राचीन ऋचाओं में यही कथन है, ”’ब्रह्म’ ‘सत्य’ है, ‘ब्रह्म’ ‘ज्ञान’ है ‘ब्रह्म’ ‘अनन्त’ है।” जो व्यक्ति सत्ता की हृद्-गुहा में निहित ‘उसको’ खोज लेता है ‘उसको’ ही प्राणियों के हृदय रूपी परम व्योम में ‘उसे’ पा लेता है, वही समस्त कामनाओं से परितृप्त हो जाता है तथा वह उस विज्ञानमय तथा बोधपूर्ण ‘अंतरात्मा’ के साथ ‘ब्रह्म’ में निवास करता है। ||१२||
तदेव सर्वान्तर्यामी श्रुतं सर्वान्तरत्वतः। वरेण्यं सवितुस्ते च गायत्र्यां तद्धि कथ्यते ॥३.१३॥
उस (ब्रह्म) को सभी का आंतरिक नियंत्रण करने वाला माना जाता है क्योंकि यह सभी के अंदर मौजूद है। उसी अन्तर्यामी को यहां तक कि गायत्री मंत्र में भी, वह आपके लिए (वरेण्य) योग्य है ऐसा कह कर सूर्य की, पूजा करते हैं।
ईश्वर नियन्ता है और जगत नियम्य है। बृहदारण्यक उपनिषद् के तीसरे अध्याय के सप्तम ब्राह्मण में इसका अन्तर्यामी के नाम से पूरा प्रकरण है |
‘‘यः पृथिव्यां तिष्ठन् पृथिव्या अन्तरो यं पृथिवी न वेद यस्य पृथिवी शरीरं यः पृथिवीमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.३ ॥ योऽप्सु तिष्ठन्नद्भ्योऽन्तरो यमापो न विदुर्यस्यापः शरीरं योऽपोऽन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.४ ॥ योऽग्नौ तिष्ठन्नग्नेरन्तरो यमग्निर्न वेद यस्याग्निः शरीरं योऽग्निमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ बृह. ३,७.५ ॥ योऽन्तरिक्षे तिष्ठन्नन्तरिक्षादन्तरो यमन्तरिक्षं न वेद यस्यान्तरिक्षं शरीरं योऽन्तरिक्षमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.६ ॥ यो वायौ तिष्ठन् वायोरन्तरो यं वायुर्न वेद यस्य वायुः शरीरं यो वायुमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.७ ॥ यो दिवि तिष्ठन् दिवोऽन्तरो यं द्यौर्न वेद यस्य द्यौः शरीरं यो दिवमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.८ ॥ य आदित्ये तिष्ठन्नादित्यादन्तरो यमादित्यो न वेद यस्यादित्यः शरीरं य आदित्यमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.९ ॥ यो दिक्षु तिष्ठन् दिग्भ्योऽन्तरो यं दिशो न विदुर्यस्य दिशः शरीरं यो दिशोऽन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.१० ॥ यश्चन्द्रतारके तिष्ठञ्चन्द्रतारकादन्तरो यं चन्द्रतारकं न वेद यस्य चन्द्रतारकं शरीरं यश्चन्द्रतारकमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ बृह. ३,७.११ ॥ य आकाशे तिष्ठन्नाकाशादन्तरो यमाकाशो न वेद यस्याकाशः शरीरं य आकाशमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.१२ ॥ यस्तमसि तिष्ठंस्तमसोऽन्तरो यं तमो न वेद यस्य तमः शरीरं यस्तमोऽन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.१३ ॥ यस्तेजसि तिष्ठंस्तेजसोऽन्तरो यं तेजो न वेद यस्य तेजः शरीरं यस्तेजोऽन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.१४ ॥ अथाधिभूतम् । यः सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन् सर्वेभ्यो भूतेभ्योऽन्तरो यं सर्वाणि भूतानि न विदुर्यस्य सर्वाणि भुतानि शरीरं यः सर्वाणि भूतान्यन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः । इत्यधिभूतम् ॥ बृह. ३,७.१५ ॥ अथाध्यात्मम् । यः प्राणे तिष्ठन् प्राणादन्तरो यं प्राणो न वेद यस्य प्राणः शरीरं यः प्राणमन्तरो यमयति एष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.१६ ॥ यो वाचि तिष्ठन् वाचोऽन्तरो यं वाङ्न वेद यस्य वाक्शरीरं यो वाचमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.१७ ॥ यश्चक्षुषि तिष्ठञ्चक्षुषोऽन्तरो यं चक्षुर्न वेद यस्य चक्षुः शरीरं यश्चक्षुरन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.१८ ॥ यः श्रोत्रे तिष्ठञ्छ्रोत्रादन्तरो यं श्रोत्रं न वेद यस्य श्रोत्रं शरीरं यः श्रोत्रमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.१९ ॥ यो मनसि तिष्ठन्मनसोऽन्तरो यं मनो न वेद यस्य मनः शरीरं यो मनोऽन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.२० ॥ यस्त्वचि तिष्ठंस्त्वचोऽन्तरो यं त्वङ्न वेद यस्य त्वक्शरीरं यस्त्वचमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.२१ ॥ यो विज्ञाने तिष्ठन् विज्ञानादन्तरो यं विज्ञानं न वेद यस्य विज्ञानं शरीरं यो विज्ञानमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ बृह. ३,७.२२ ॥ यो रेतसि तिष्ठं रेतसोऽन्तरो यं रेतो न वेद यस्य रेतः शरीरं यो रेतोऽन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः । अदृष्टो द्रष्टाश्रुतः श्रोतामतो मन्ताविज्ञतो विज्ञाता । नान्योऽतोऽस्ति द्रष्टा नान्योऽतोऽस्ति श्रोता नान्योऽतोऽस्ति मन्ता नान्योऽतोऽस्ति विज्ञाता । एष त आत्मान्तर्याम्यमृतः । अतोऽन्यदार्तम् ।’’
इस प्रकार भोक्ता और भोग्य के रूप में सभी अवस्थाओं में स्थित चेतन और जड़ दोनों ही तत्व परम पुरुष के शरीर होने के कारण उसके द्वारा नियमित किये जाते हैं। या नियमन करने योग्य हैं। इसलिए इन दोनों की भगवान् से अपृथक् स्थिति और परम पुरुष भगवान् के आत्मत्व का वर्णन कितनी ही श्रुतियाँ इस प्रकार करती हैं- ‘जो पृथ्वी में रहकर पृथ्वी की अपेक्षा अन्तरंग है, जिसको पृथ्वी नहीं जानती। पृथिवी जिसका शरीर है। जो पृथ्वी के भीतर रहकर उसका नियमन करता है।’ यहाँ से लेकर ‘जो आत्मा में रहकर आत्मा की अपेक्षा अन्तरंग है, जिसको आत्मा नहीं जानता, आत्मा जिसका शरीर है, जो आत्मा के भीतर रहकर उसका नियमन करता है,’ यहाँ तक तथा ‘पृथ्वी जिसका शरीर है, जो पृथ्वी के भीतर विचरता है, जिसको पृथ्वी नहीं जानती’ यहाँ से लेकर ‘अक्षर जिसका शरीर है, जो अक्षर के भीतर विचरता है, जिसको अक्षर नहीं जानता। मृत्यु जिसका शरीर है, जो मृत्यु के भीतर विचरता है, जिसको मृत्यु नहीं जानता। यह सब भूतों का अन्तरात्मा सब पापों से रहित एक दिव्य देव नारायण है।’ इस श्रुति में ‘मृत्यु’ नाम से ‘तमः’ शब्द की अर्थभूत सूक्ष्म अवस्था में स्थित जड प्रकृति कही गयी है। क्योंकि इसी उपनिषद् में ‘अव्यक्त अक्षर में लय होता है, अक्षर तम में लय होता है, तम परम देव में एक होकर रहता है।’ ऐसा कहा है। तथा ‘जीवों का शासक सबका आत्मा अन्तर में प्रविष्ट है।’ यह भी कहा है। || १३ ||
अशरीस्य तस्यैव ह्यादिमध्यान्तवर्जनात्। आकाशवद्विभुत्वेन सर्वान्तर्यामितोचिता ॥३.१४॥
उन्हीं का, शरीरसे रहित होनेके कारण, सर्वान्तर्यामित्व होना उपयुक्त है, क्योंकि शुरुआत, मध्य और अंत से रहित होने और अंतरिक्ष की तरह सर्वव्यापी होनेके कारण वे ही अन्तर्यामी हैं।
‘‘अन्तःशरीरे निहितो गुहायामज एको नित्यो यस्य पृथिवी शरीरं यः पृथिवीमन्तरे संचरन् यं पृथिवी न वेद । यस्यापः शरीरं योऽपोऽन्तरे संचरन्यमापो न विदुः । यस्य तेजः शरीरं यस्तेजोन्तरे संचरन् यं तेजो न वेद। यस्य वायुः शरीरं यो वायुमन्तरे संचरन् यं वायुर्न वेद । यस्याकाशः शरीरं य आकाशमन्तरे संचरन् यमाकाशो न वेद। यस्य मनः शरीरं यो मनोन्तरे संचरन्यं मनो न वेद । यस्य बुद्धिः शरीरं यो बुद्धिमन्तरे संचरन् यं बुद्धिर्न वेद । यस्याहंकारः शरीरं योऽहंकारमन्तरे संचरन् यमहंकारो न वेद। यस्य चित्तं शरीरं यश्चित्तमन्तरे संचरन् यं चित्तं न वेद । यस्याव्यक्तं शरीरं योऽव्यक्तमन्तरे संचरन् यमव्यक्तं न वेद । यस्याक्षरं शरीरं योऽक्षरमन्तरे संचरन् यमक्षरं न वेद । यस्य मृत्युः शरीरं यो मृत्युमन्तरे संचरन् यं मृत्युर्न वेद । स एष सर्वभूतान्तरात्माऽपहतपाप्मा दिव्यो देव एको नारायणः ॥’’ सुबालोपनिषद्सप्तमः खण्डः।।
जो शरीर के अन्दर हृदय रूपी गुफा में निवास करता है, वह आत्मा अजन्मा , एक और नित्य है। उसका शरीर पृथिवी है, जो पृथ्वी में संचरित होता है; पर पृथ्वी जिसे नहीं जानती। जल जिसका शरीर है, जो जल में संचरित होता है; पर जल का देवता जिसे नहीं जानता। तेज जिसका शरीर है, जो तेज में संचरित होता है; पर तेज जिसे नहीं जानता। वायु जिसका शरीर है, वायु में जो संचरित होता है; पर वायु जिसे नहीं जानता। आकाश जिसका शरीर है, जो आकाश में संचरित होता है; पर आकाश जिसे नहीं जानता। मन जिसका शरीर है, जो मन में संचरित होता है; पर मन जिसे नहीं जानता। बुद्धि जिसका शरीर है, जो बुद्धि में संचरित होता है; पर बुद्धि जिसे नहीं जानती। अहंकार जिसका शरीर है, जो अहंकार में संचरित होता है; पर अहंकार जिसे नहीं जानता। चित्त जिसका शरीर है, जो चित्त में संचरित होता है; पर चित्त जिसे नहीं जानता। अव्यक्त जिसका शरीर है, जो अव्यक्त में संचरित होता है; पर अव्यक्त जिसे नहीं जानता। अक्षर जिसका शरीर है, जो अक्षर में संचरित होता है; पर अक्षर जिसे नहीं जानता। मृत्यु जिसका शरीर है, जो मृत्यु में संचरित होता है; पर मृत्यु जिसे नहीं जानती, वे सर्वभूतों के अन्तरात्मा, विनष्ट पाप वाले, एक, दिव्य, देव, नारायण हैं ॥ || १४ ||
शिवस्य सशरीस्य सांबस्य सगुणस्य तु। अविभुत्वेन सो नैव युज्यते भास्कर प्रभो ॥३.१५॥
हे भास्कर! हे प्रभो ! शिव का अन्तर्यामित्व सिद्ध नहीं होता, क्योंकि जिनके पास एक भौतिक शरीर है, और जो अम्बा (उनकी पत्नी) के साथ-साथ रहने के कारण तथा सगुण होने के कारण , और क्योंकि वे सर्वव्यापी नहीं है, इसलिए उन्हें अन्तर्यामी कहना उपयुक्त नहीं है।
अरुणजी शंका करते हैं कि जो शरीरधारी है वह तो परिच्छिन्न है, जड़ है। वह सर्वव्यापी कैसे हो सकता है ? संसारसम्बन्धिनी गति देश, काल और वस्तु से परिच्छिन्न ही होती है। यदि ब्रह्म देशपरिच्छिन्न हो तो मृतद्रव्यके समान आदि-अन्तवाला सिद्ध होगा। सावयव- पराश्रित, अनित्य और कृतक सिद्ध हो जायगा। ब्रह्म ऐसा हो नहीं सकता। अतः उसकी प्राप्ति भी देशपरिच्छिन्ना नहीं हो सकती; इसके सिवा ब्रह्मवेत्ता लोग अविद्या जन्य संसार को अनित्य और परिच्छिन्न ही कहते हैं | इस प्रकार एक सीमित व्यक्ति सर्वव्यापक कैसे हो सकता है ? || १५||
सगुणैकप्रधानैश्च विशिष्टाद्वैतवादिभिः। कैश्चिद्ब्रह्म हरीशानामन्तर्यामित्व मुच्यते ॥३.१६॥
विशिष्ट-अद्वैतके कुछ अनुयायियों द्वारा, जो सगुण ईश्वर को ही प्रधान देवता मानते हैं, वे लोग ब्रह्मा, विष्णु और शिव के वर्चस्व को मानते हैं, और उनके द्वारा इन सबको आंतरिक नियंत्रण करने वाला (अन्तर्यामी) कहा जाता है।
सर्वज्ञत्वादिधर्माणां समत्वं च त्रिमूर्तिषु। मत्वैवोपासते विप्राः ते गायत्रीपरायणाः ॥३.१७॥
जो ब्राह्मण, गायत्री की पूजा के लिए समर्पित होते हैं, वे इन तीनों को ही सर्वज्ञता आदि गुणों से संपन्न मान कर ही इन तीनों को (ब्रह्मा ,विष्णु और शिव को) ध्यान में रखते हुए उनकी पूजा करते हैं। सर्वज्ञता आदि धर्म त्रिमूर्ति में समान रूप से वर्तमान हैं ऐसा वे मानते हैं | ||१७||
केचिद् द्रुहिण एव स्यादन्तर्यामी च वाक्पतिः । नान्यौ हरिहरौ कर्मप्रसिद्धेरिति वै विदुः ॥ ३.१८॥
क्योंकि ब्रह्माजी जिनको विश्व विधाता भी कहा जाता है वे ही जगत् के कर्ता हैं इसलिए कुछ लोगों का कहना है कि कर्म के वर्चस्व के कारण ब्रह्माजी, जो कि (वाणीकी देवी) सरस्वती के स्वामी हैं, वेदनिधि हैं। अतः वे ही आंतरिक-नियंत्रक हैं और अन्य दो जिनमें (उपासना और ज्ञानकी प्रधानता है) वे विष्णु और शिव नहीं।
ब्रह्मा येन कुलालवन्नियमितो ब्रह्माण्डभाण्डोदरे
विष्णुर्येन दशावत्रगहने क्षिप्तो महासङ्कटे ।
रुद्रो येन कपालपाणिपुटके भिक्षाटनं कारितः
सूर्यो भ्राम्यति नित्यमेव गगने तस्मै नमः कर्मणे ॥
जिस कर्म ने विधाता को ब्रह्माण्डरूपी पात्र के अन्दर कुम्हार की तरह सृष्टि कार्य हेतु नियोजित किया, विष्णु को दशावतार रूपी कष्टतम कार्य में नियुक्त किया, शंकर को हाथ में खप्पर लेकर भिक्षाटन कराया और सूर्य को आकाश में निरन्तर भ्रमण कराता है, उस कर्म को नमस्कार है ।
‘‘रामो येन विडम्बितो वनगतश्चन्द्रः कलङ्कीकृतः,
क्षाराम्बुस्सरितां पतिश्च नहुषः सर्पः कपाली हरः॥
मांडव्योऽपि च शूलपीडितवपुर्भिक्षाभुजः पाण्डवाः।
नीतो येन रसातलं बलिरसौ तस्मै नमः कर्मणे ॥’’
रामको जिसने वन-वन फिराया, सुन्दर चंद्रमामें कलंक लगाया, समुद्रके जल को खारा किया, नहुषको सर्प बनाया, महादेवको कापालिक बनाया, माण्डव्य मुनिको सूली पर चढ़ाया, पाण्डवों से भीख मंगवाई और राजा बलि को जिसने पाताल में पहुंचा दिया, उस कर्म को नमस्कार है। {कर्म प्रधान विश्व रचि राखा} अतः कर्मके देवता केवल ब्रह्माजी ही अन्तर्यामी हो सकते हैं। || १८ ||
केचित्तु विष्णुरेव स्यादन्तर्यामी रमापतिः। न विधीशौ परोपास्तिप्रसिद्धेरिति वै विदुः ॥३.१९॥
लेकिन कुछ लोग कहते हैं कि विष्णु, जो रमा के स्वामी हैं, वे ही भीतर के नियंत्रक हैं और अन्य दो ब्रह्मा और शिव नहीं हैं, क्योंकि पूजा,उपासना की सर्वोच्चता (कर्म और ज्ञान से अधिक) है।
मोक्ष कारण सामग्र्यां भक्तिरेव गरीयसी । कल्याण-प्राप्ति के जितने भी साधन हैं, उन सब साधनों में भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है।
नारद भक्ति सूत्र में कहा है कि — ‘‘त्रि सत्यस्य भक्तिरेव गरीयसी, भक्तिरेव गरीयसी॥८१॥तीनों (कायिक, वाचिक, मानसिक) सत्यों में (अथवा तीनों कालों में सत्य भगवान की) भक्ति ही श्रेष्ठ है, भक्ति ही श्रेष्ठ है।
रामचरित-मानस में कहा है —
भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सत्संग न पावहिं प्रानी।।
भगति तात अनुपम सुखमूला। मिलइ जो संत होइँ अनुकूला।।
पन्नगारि सुनु प्रेम सम भजन न दूसर आन ।
अस बिचारि मुनि पुनि पुनि करत राम गुन गान ।।
इसलिये मुनिजन बार-बार भगवान का गुणगान करते हैं‒इसका तात्पर्य है कि भगवान का गुणगान करने से उनमें प्रेम हो जाता है । अतः उपासना की प्रधानता होने से विष्णु ही अन्तर्यामी हो सकते हैं | ||१९||
केचिच्च शिव एकः स्यादन्तर्यामी ह्युमापतिः। नान्यौ ब्रह्महरी ज्ञानप्रसिद्धेरिति संविदुः ॥३.२०॥
और कुछ लोग कहते हैं कि ज्ञान के वर्चस्व के कारण, उमा के स्वामी शिव ही भीतर के नियंत्रक हैं और अन्य दो ब्रह्मा और विष्णु नहीं हैं। क्योंकि वे तो (कर्म और उपासना) के अधिदेव हैं।
जहाँ विशुद्ध ज्ञान की ज्योति है, वहाँ हर प्रकार का सुख है।
“ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः।” अर्थात् — ”ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं”
“ज्ञानादेव तु कैवल्यम् इति शास्त्रेषु डिण्डिम:।।”
मुक्ति ज्ञानसे ही मिलती है, यह शास्त्रोंकी घोषणा है। (ज्ञान से की कैवल्य प्राप्त होता है।)
“तरति शोकमात्मवित्।”
जिसको आत्मा का ज्ञान है वह सारे दुःख और शोक को पार कर अनन्त सुखका अनुभव प्राप्त कर सकता है। जिसके बिना मुक्ति संभव नहीं है।
सम्यग्विवेकेनात्मविज्ञानम्, शृण्वतो जायते ज्ञानं ज्ञानादेव विमुच्यते॥, ज्ञानान्मुक्तिमवाप्नुयात्,
तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥३.८॥ श्वेताश्वतरोपनिषद्
उसका’ ज्ञान प्राप्त करके व्यक्ति मृत्यु की पकड़ से परे चला जाता है तथा इस महद्-गति के लिए दूसरा कोई मार्ग नहीं है। जो उसे अनुभव के द्वारा जान जाता है वह मृत्यु से मुक्त हो जाता है। जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारे का कोई अन्य मार्ग नहीं है।
भगवद्गीता में भी कहा है कि —
‘‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति।।४.३८।।’’
इस लोक में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला, निसंदेह, कुछ भी नहीं है। योग में सिद्ध पुरुष स्वयं ही उसे (उचित) काल में अपने आत्मा में ही उस परम ज्ञान को प्राप्त करता है।
‘‘ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् | उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् ||१२ ||ऋग्वेदः – मण्डल ७ सूक्तं ५९’’
हम त्रिनेत्र को पूजते हैं, जो सुगंधित हैं, हमारा पोषण करते हैं, जिस तरह फल, शाखा के बंधन से मुक्त हो जाता है, वैसे ही हम भी मृत्यु और नश्वरता से मुक्त हो जाएं।
‘‘त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम् । उर्वारुकम् इव बन्धनाद् इतो मुक्षीय मामुतः ||६०|| शुक्लयजुर्वेदः/अध्यायः ०३’’
तथा हम लोग (सुगन्धिम्) उत्तम गन्धयुक्त (पतिवेदनम्) संरक्षक सत्ता का प्रत्यक्ष बोध करानेवाले, रक्षा करनेवाले स्वामी को जानें (त्र्यम्बकम्) त्रिनेत्र धारी सब के अध्यक्ष जगदीश्वर का (यजामहे) निरन्तर सत्कारपूर्वक ध्यान करें और उनके अनुग्रह से (उर्वारुकमिव) जैसे खरबूजा पक कर (बन्धनात्) लता के सम्बन्ध से छूट कर अमृत के समान मिष्ट होता है, वैसे हम लोग भी (इतः) इस शरीर से (मुक्षीय) छूट जावें (अमुतः) मोक्ष और अन्य जन्म के सुख और सत्यधर्म के फल से (मा) पृथक् न होवें || २० ||
त्वदुक्तरीत्या त्वाधिक्यं ज्ञानोपासनकर्मसु। कर्मणोऽवगतं तेन विधेरेव प्रसिध्यति ॥३.२१॥
और आपके कथनानुसार जो कर्म का श्रेष्ठत्व प्रतिपादन किया गया है, उसके अनुसार, ज्ञान, उपासना (पूजा) और कर्म के बीच कर्म ही सर्वोच्च है। तो फिर इसके द्वारा तो ब्रह्मा का ही वर्चस्व स्थापित होता है।
‘‘कर्मणा जायते जन्तुः कर्मणैव विलीयते।
सुखं दुःखं भयं क्षेमं कर्मणैवाभिपद्यते।।
अस्ति चेदीश्वरः कश्चित् फलरूप्यन्यकर्मणाम्।
कर्तारं भजते सोपि न ह्यकर्तुः प्रभुर्हि सः।।१०,२४,१३-१४ भागवत महापुराण, ’’
कर्मों के करने से ही समस्त जीव जंतुओं की उत्पत्ति होती है तथा अपने कर्मो के कारण ही वे विलीन (नष्ट) हो जाते हैं। सुख, दुःख, भय और अभय (सुरक्षा) की ये सभी परिस्थितियां भी कर्म करने से ही आती हैं। यदि ईश्वर नाम की कोई चीज है तो वो भी फल उसी को देती है जो कर्म करता है, जो कर्म नहीं करता उसको ईश्वर भी फल कभी नहीं देता। कर्म न करनेवालों पर उसकी प्रभुता नहीं चल सकती। ||२१||
एष पक्षः समीचीनस्तव नैव भविष्यति। तस्मादनिश्चितार्थं मां कुरुष्वासंशयं प्रभो ॥३.२२॥
आपका जो शिव सम्बन्धी पक्ष है वह समीचीन नहीं है क्योंकि अभी-अभी जो आपके द्वारा प्रतिपादित (शिव के वर्चस्व का) शिव-स्वरूप का कथन किया गया है वह संगत नहीं बैठता है। पहले आपने कर्म की प्रशंसा की थी जिसके अनुसार ब्रह्मा का श्रेष्ठत्व सिद्ध होता है। अत: हे प्रभो! मुझे ठीक ठीक बताओ क्योंकि मैं अनिर्णय की स्थिति में हूँ, कृपया मुझे नि:संदेह बनाइये।
ऐसा ही प्रसंग श्रीमद्भगवद्गीता में भी है —
‘‘व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् || ३.२||’’
आप इस मिश्रित वाक्य से मेरी बुद्धि को मोहित सा करते हैं अतः आप उस एक (मार्ग) को निश्चित रूप से कहिये जिससे मैं परम श्रेय को प्राप्त कर सकूँ। आपके अस्पष्ट निर्देशों से मेरी बुद्धि हतप्रभ है। कृपया मुझे निर्णायक रूप से बताएं कि मैं कौन से मार्गसे श्रेय प्राप्त कर सकता हूं। अर्थात् मेरे लिये कौनसा मार्ग कल्याण कारक है। || २२ ||
सूर्य उवाच — सूर्य ने कहा
सम्यक्पृष्टं त्वया धीमान्नरुण शृणु सादरम्। वक्ष्यामि निश्चितार्थं ते श्रुतिस्मृत्यादिभिः स्फुटम् ॥३.२३॥
हे बुद्धिमान अरुण ! आपने ठीक ही पूछा है। ध्यान से सुनो, मैं आपको निश्चित निष्कर्ष बताऊंगा जो श्रुतियों, स्मृतियों और अन्य शास्त्रों से लिया गया है, और बहुत ही स्पष्ट है। क्योंकि —
‘‘वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियं आत्मनः।
एतत् चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद् धर्मस्य लक्षणम् || २.१२||’’
मनु महाराजके अनुसार धर्म के चार लक्षण बताए गए हैं , धर्म की कसौटी चार हैं :१. श्रुति, २. स्मृति, ३. सदाचार ४. और अपनी आत्मा को प्रिय लगने वाला आचरण | || २३ ||
अन्तर्यामी द्विधा प्रोक्तः सगुणो निर्गुणोऽपि च। चरस्य केवलं त्वाद्यश्चरस्यान्योऽचरस्य च ॥३.२४॥
आंतरिक-नियंत्रण करने वाले को (अन्तर्यामी को) दो प्रकार का कहा जाता है, पहला सगुण और दूसरा निर्गुण। जो पहला है वह केवल चलने वाले प्राणियों का है और जो दूसरा है वह चलने वाले और न चलने वाले दोनों प्रकार के प्राणियों का है।
‘‘बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्।।१३.१६।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
(वह ब्रह्म) भूत मात्र के अंतर्बाह्य में स्थित है; वह चेतन चर भी है और जड़ अचर भी। सूक्ष्म होने से वह अज्ञेय है; वह बहुत दूर और अत्यंत समीपस्थ भी है। अविद्याद्वारा आत्मभावसे कल्पित शरीरको त्वचापर्यन्त अवधि मानकर उसीकी अपेक्षासे ज्ञेयको उसके बाहर बतलाते हैं। वैसे ही अन्तरात्माको लक्ष्य करके तथा शरीरको ही अवधि मानकर ज्ञेयको उसके भीतर (व्याप्त) बतलाया जाता है। बाहर और भीतर व्याप्त है — ऐसा कहनेसे मध्यमें उसका अभाव प्राप्त हुआ? इसलिये कहते हैं — चर और अचररूप भी वही है अर्थात् रज्जुमें सर्पकी भाँति प्रतीत होनेवाले जो चर-अचररूप शरीरके आभास हैं वह भी उस ज्ञेयका ही स्वरूप है। यदि चर और अचररूप समस्त व्यवहारका विषय वह ज्ञेय (परमात्मा) ही है? तो फिर वह यह है इस प्रकार सबसे क्यों नहीं जाना जा सकता इस पर कहते हैं — ठीक है — सारा दृश्य उसीका स्वरूप है तो भी वह ज्ञेय आकाशकी भाँति अति सूक्ष्म है। अतः यद्यपि वह आत्मरूपसे ज्ञेय है — तो भी सूक्ष्म होनेके कारण अज्ञानियोंके लिये अविज्ञेय ही है। ज्ञानी पुरुषोंके लिये तो — यह सब कुछ आत्मा ही है यह सब कुछ ब्रह्म ही है इत्यादि प्रमाणोंसे वह सदा ही प्रत्यक्ष रहता है। वह ज्ञेय अज्ञात होनेके कारण और हजारोंकरोड़ों वर्षोंतक भी प्राप्त न हो सकनेके कारण अज्ञानियोंके लिये बहुत दूर है किंतु ज्ञानियोंका तो वह आत्मा ही है अतः उनके निकट ही है। || २४ ||
अहं हि चर एवास्मि मदन्तर्यामिणावुभौ। गायत्र्यां चावगन्तव्यौ देवौ सगुणनिर्गुणौ ॥३.२५॥
मैं एक चलता-फिरता प्राणी हूं, और मेरे भीतर के नियंत्रक (अन्तर्यामी देव) जो कि गायत्री मंत्र में जाने जाते हैं वे सगुण और निर्गुण दोनों ही प्रकार के हैं।
इस गायत्री मंत्र में सवितृ देवता की उपासना है इसलिए इसे सावित्रीमन्त्र भी कहा जाता है। गायत्री मंत्र का सम्बन्ध सवितृ से ही माना जाता है। सविता शब्द की निष्पत्ति ‘सु’ धातु से हुई है जिसका अर्थ है – उत्पन्न करना, गति देना तथा प्रेरणा देना। सवितृ देव का सूर्य देवता से बहुत साम्य है। ‘सू´ प्रसवे तथा ईर् गतौ धातु से क्यप् प्रत्यय का योग करने पर ‘सूर्य’ शब्द निष्पन्न होता है। सू´ सवने परस्मैपदी धातु तथ ईर् गतौ धातु से क्यप् प्रत्यय का योग करने पर भी ‘सूर्य’ शब्द निष्पन्न होता है। तथा सूर्य शब्द सृ गतौ परस्मैपदी धातु से क्यप् प्रत्यय का योग करने पर भी निष्पन्न होता है। “सरति गच्छति आकाशे इति सूर्यः”|
‘‘तत् सवितुर्वरेण्यं। भर्गोदेवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्। (ऋग्वेद ३,६२,१०)’’
“यः सविता देवः “नः अस्माकं” धियः कर्माणि धर्मादिविषया वा बुद्धीः “प्रचोदयात् प्रेरयेत्“ तत् तस्य “देवस्य “सवितुः सर्वान्तर्यामितया प्रेरकस्य जगत्स्रष्टुः परमेश्वरस्य “वरेण्यं सर्वैः उपास्यतया ज्ञेयतया च संभजनीयं”
भर्गः अविद्या तत्कार्ययो र्भर्जनाद्भर्गः स्वयंज्योतिः परब्रह्मात्मकं तेजः “धीमहि वयं ध्यायामः ।
उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अपनी अंतरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करें। इस मंत्र में जो सविता देव हैं वह सगुण रूप है और जो भर्ग देव हैं वह निर्गुण रूप है।
बुराइयों का अज्ञानान्धकार का नाश करने वाली शक्ति का नाम भर्ग है।
भ्राजते च यदा भर्गः पूर्ण रूपाच्च पूरुषः।
सर्वात्मा सर्वभावस्तु आत्मा तेन निगद्यते ।।
सवितास्वात्मभूतस्तु वरेण्यं सर्व जन्तुभिः।
भजनीयं द्विजा भर्गः तेजश्चैतन्य लक्षणम्।। (स्कन्दपुराणान्तर्गत-सूतसंहिता)
हे द्विजो! सविता देव आत्मरूप तथा सर्व जन्तुओं से प्रार्थनीय चैतन्य रुपी तेज तुम्हारे द्वारा भजन करने योग्य है। गीता में भगवान ने स्वयं कहा है ‘गायत्री छन्दसामहम्’ अर्थात् गायत्री मंत्र मैं स्वयं ही हूं। गायत्री-रहस्योपनिषद् में गायत्री मन्त्र का अर्थ बताया है।
‘‘अथातो गायत्री व्याहृतयश्च प्रवर्तन्ते। का च गायत्री काश्च व्याहृतयः। किं भूः किं भुवः किं सुवः किं महः किं जनः किं तपः किं सत्यं किं तत् किं सवितुः किं वरेण्यं किं भर्ग: किं देवस्य किं धीमहि किं धियः किं यः किं नः किं प्रचोदयात्।
ॐ भूरिति भुवो लोकः। भुव इत्यन्तरिक्ष लोकः। स्वरिति स्वर्गलोकः। मह इति महर्लोकः। जन इति जनलोकः। तप इति तपोलोकः। सत्यमिति सत्यलोकः। तदिति तदसौ तेजोमयं तेजोऽग्निर्देवता। सवितुरिति सविता सावित्रमादित्यो वै। वरेण्यमित्यत्र प्रजापतिः। भर्ग इत्यापो वै भर्गः। देवस्य इतीन्द्रो देवो द्योतत इति स इन्द्रस्तस्मात् सर्वपुरुषो नाम रुद्रः। धीमहीत्यन्तरात्मा। धिय इत्यन्तरात्मा परः। य इति सदाशिवपुरुषः। नो इत्यस्माकं स्वधर्म। प्रचोदयादिति प्रचोदितकाम इमान् लोकान् प्रत्याश्रयते यः परो धर्म इत्येषा गायत्री॥
अर्थ — अब यहाँ गायत्री और व्याहृतियों का वर्णन प्रारम्भ होता है।
प्रश्न-गायत्री कौन है? और व्याहृतियाँ कौन हैं? भू: क्या है? भुवः क्या है? स्व: क्या है? मह: क्या है? जन: क्या है? तप: क्या है? सत्यं क्या है? तत् क्या है? सवितुः क्या है? वरेण्यं क्या है? भर्ग: क्या है? देवस्य क्या है? धीमहि क्या है? धियः क्या है? यः क्या है? नः क्या है? तथा प्रचोदयात् क्या है?
उत्तर — ॐ भूः — यह भू लोक का वाचक है, भुवः — अंतरिक्ष का वाची है, स्वः — स्वर्ग लोक का वाचक है, महः — महर्लोक का वाचक है, जन:-जनोलोक का, तपः-तपोलोक का, सत्यम्-सत्यलोक का, तत् — तेजस्वरूप अग्निदेव, सवितुः — सूर्य का वाचक है, वरेण्यं यह प्रजापति (ब्रह्मा) का, भर्ग — आपः (जल) का, (भर्गः) भृज्जन्ति पापानि दुःखमूलानि येन तत्। देवस्य यह तेजस्वी इन्द्र का जो परम ऐश्वर्य का द्योतक तथा सर्व पुरुष नामक रुद्र द्वारा प्रख्यात है। धीमहि यह अन्तरात्मा का, धियः — यह दूसरी अंतरात्मा का — ब्रह्म का, य: — शब्द उस भगवान् सदाशिव पुरुष का, न: — यह अपने स्वरूप का (अर्थात् हमारे इस अर्थ का वाचक है), इस तरह से ये सभी शब्द यथोक्त क्रम से सतत स्वरूप का बोध (साक्षात्कार) कराने वाले हैं। प्रचोदयात्-यह प्रेरणा का इच्छा का द्योतक है। जो धर्म इन सभी लोकों का आश्रय करा दे, वही गायत्री है॥ ||२५||
निर्गुणश्चावगन्तव्यः सगुणद्वारतोऽखिलैः। अतोऽब्रुवं शिवं साक्षान्मदन्तर्यामिणं तव ॥३.२६॥
सभी लोगों के द्वारा हमेशा निर्गुण तत्व सगुण के माध्यम से ही जाना जाता है। और इसमें सरलता भी है। इसलिए मैंने कहा कि शिव स्वयं मेरे आंतरिक-नियंत्रक हैं।
भर्गः, पुं, (भृज्यते कामादिरनेनेति । भृज् +“हलश्च” इति घञ्) शिवः। इत्यमरः ॥ भ्रस्ज घञ् आदित्यान्तर्गते ऐश्वर्य तेजसि। भ्रज धातु से घञ प्रत्यय करने पर भर्ग शब्द बनता है। सूर्य मण्डल के अन्तर्गत विद्यमान ईश्वरीय तेज को भर्ग कहते हैं। भर्जयतीति वै स भर्गः।
“आदित्यान्तर्गतं वर्चो भर्गाख्यं तन्मुमुक्षुभिः।
जन्म मृत्यु विनाशाय दुःखस्य त्रितयस्य च ॥
ध्यानेन पुरुषो यश्च द्रष्टव्यः सूर्य्यमण्डले ॥” इत्याह्निकतत्त्वम् ॥
यही भर्ग सबसे श्रेष्ठ तथा परिपूर्ण होने से पुरुष कहा गया है। यह भर्ग संसार से भयभीत पुरुषों का कल्याण करता है अतः शिवस्वरुप कहा गया है।
वीर्यो वै भर्गः।-शतपथ ब्रा० ५.४५.१
‘‘क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ।। १२.५।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
परन्तु उन अव्यक्त में आसक्त हुए चित्त वाले पुरुषों को क्लेश अधिक होता है, क्योंकि देहधारियों से अव्यक्त की गति कठिनाईपूर्वक प्राप्त की जाती है। || २६ ||
कारणत्वं यथा सिद्धं ब्रह्मणः परमात्मनः। यथा शिवस्य साम्बस्य कार्यत्वं च सतां मतम् ॥३.२७॥
जिस प्रकार परमात्मा ब्रह्म को सर्वोच्च कारण के रूप में जाना जाता है; और जैसे विद्वानों के मतानुसार अम्बा (भवानी) के सहित शिव को कार्य के रूप में माना जाता है; || २७ ||
तथा शिवस्य हेतुत्वं विष्णोः कार्यत्वमप्यथ। विष्णोश्च हेतुतां तद्वद्विधेर्विद्धि च कार्यताम् ॥३.२८॥
उसी प्रकार, शिवजी कारण हैं और विष्णु कार्य हैं ; और इसी तरह विष्णु को कारण और ब्रह्मा को कार्य रूप में विद्वान लोग जानते हैं। || २८ ||
ब्रह्मा विष्णुः शिवो ब्रह्म ह्युत्तरोत्तरहेतवः। इति जानन्ति विद्वांसो नेतरे मायया वृताः ॥३.२९॥
उच्च और उच्चतर क्रम में ब्रह्मा, विष्णु, शिव और परब्रह्म कारण हैं। यह ज्ञानी पुरुषों द्वारा जाना जाता है और अन्य लोगों द्वारा नहीं क्योंकि वे माया द्वारा आवृत (ढ़की हुई) बुद्धि वाले हैं।
अद्वैतसिद्धान्तानुसार भी शुकरहस्योपनिषद् में बताया है कि —
‘‘कार्योपाधिरयं जीवः कारणोपाधिरीश्वरः।
कार्यकारणतां हित्वा पूर्णबोधोऽवशिष्यते || ४२||’’
मायायां चित्प्रतिबिम्बः ईश्वरः, अन्तःकरणे चित्प्रतिबिम्बो जीवः। यह जीव कार्यरूप उपाधि वाला और ईश्वर कारण रूप उपाधि वाला है। इन कार्य और कारण रूप दोनों प्रकार की उपाधियों को छोड़ देने पर विशुद्ध ज्ञान रूप ब्रह्म ही शेष रहता है॥ || २९ ||
विशिष्टाद्वैतिनो वान्ये सगुणैकाभिमानिनः। अशरीरानभिज्ञत्वान्मायापरवशा ध्रुवम् ॥३.३०॥
फिर चाहे वे विशिष्टाद्वैत वादी हों या अन्य कोई जो केवल एक सगुण इकाई को ही सर्वोच्च मानते हैं, वे अशरीरी (निर्गुण ब्रह्म) को न जानने के कारण निश्चित रूप से माया की पकड़ में हैं।
भगवद्गीता में भगवान कहते हैं कि असल में तो यह आत्मा अशरीरी ही है —
‘‘अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।।२.२५।।’’
यह आत्मा अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकारी कहा जाता है; इसलिए इसको इस प्रकार जानकर तुम्हें शोक करना उचित नहीं है।।
निष्कलं निर्गुणं शान्तं निर्विकारं निराश्रयम् ।
निर्लेपकं निरापायं कूटस्थमचलं ध्रुवम् ॥ २.२१॥ योगशिखोपनिषत्
‘‘अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।।२.२६।।
और यदि तुम आत्मा को नित्य जन्मने और नित्य मरने वाला मानो तो भी, हे महाबाहो ! इस प्रकार शोक करना तुम्हारे लिए उचित नहीं है।। यदि सर्वदा जन्ममानं, म्रियमाणं च शरीरमेव त्वम् आत्मत्वेन स्वीकरोषि, आत्मा शरीराद्भिन्नः उपर्युक्तैः लक्षणैः युक्तः इति यदि न स्वीकरोषि च, तर्ह्यपि त्वया एतादृशः अतिमात्रः शोकः अनुचितः। || ३० ||
सर्वज्ञत्वादिधर्माणां कथं साम्यं त्रिमूर्तिषु। त्रयाणां च गुणानां हि वैषम्यं सर्वसंमतम् ॥३.३१॥
सर्वज्ञता आदि गुण तीनों (ब्रह्मा, विष्णु और शिव) में समान रूप से कैसे उपस्थित हो सकते हैं जब कि तीनों गुणों के बीच आपसी टकराव और आपसी तालमेल सभी के द्वारा समान रूप से स्वीकार किया जाता है।
‘‘ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः।
प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि।।१८.१९।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
ज्ञान, कर्म और कर्ता भी गुणों के भेद से सांख्यशास्त्र (गुणसंख्याने जहाँ गुणों की संख्या यानी विचार किया जाता है) में त्रिविध ही कहे गये हैं; उनको भी तुम मुझ से यथावत् श्रवण करो।
और ‘‘न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात् त्रिभिर्गुणैः।।१८.४०।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
पृथ्वी पर अथवा स्वर्ग के देवताओं में ऐसा कोई प्राणी (सत्त्वं अर्थात् विद्यमान वस्तु) नहीं है जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीन गुणों से मुक्त (रहित) हो। || ३१ ||
गुणत्रयवशात्तेषां वैषम्यं विद्धि सुस्थितम्। ब्रह्मा हि राजसः प्रोक्तो विष्णुस्तामस उच्यते ॥३.३२॥
ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीनों में गुणों का वैषम्य तो प्रत्यक्ष ही देखा जाता है। ये तीनों ही एक एक गुण के विशेषाधिकारी हैं, तीनों लोकों में सभी जानते हैं कि उनके बीच एक स्थिर विचलन है। ब्रह्मा का रजोगुण पर प्रभुत्व कहा जाता है, विष्णु का तमस पर प्रभुत्व कहा जाता है।
‘‘त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान्।
अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति।।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः।
समस्त-व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम्।। २७।।(शिवमहिम्नःस्तोत्र)’’
हे सर्वेश्वर!!! ॐ तीन तत्वों से बना है अ, उ, और म जो तीन वेदों (ऋग्, साम, यजु), तीन अवस्था (जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्त), तीन लोकों, तीन कालों, तीन गुणों तथा त्रिदेवों को इंगित करता है। परन्तु हे ॐकारस्वरूप आप तो चौथे अर्धमात्रास्वरूप हैं। आपही इस त्रिगुण, त्रिकाल, त्रिदेव, त्रिअवस्था, और त्रिवेद के समागम हैं। ||३२||
रुद्रः स सात्त्विकः प्रोक्तः मूर्तिवर्णैश्च तादृशाः। चित्स्वरूपानुभूत्या च तारतम्यं निगद्यते ॥३.३३॥
रुद्र का सत्वगुण पर प्रभुत्व कहा जाता है। उनके शरीर (या मूर्तियों) का रंग भी उसी के अनुसार है। जगत के रचयिता रजोगुणी ब्रह्माजी लाल रंग के हैं, तमोगुणी विष्णु काले रंग के हैं जो कि शेष शय्या पर शयन करते हैं और सत्व मूर्ति रुद्र कर्पूरगौर धवल वर्ण के हैं और समाधि में स्थित रहते हैं। क्योंकि उन्होंने अपनी चित्स्वरूपता का अनुभव किया है इसलिए चेतना के रूप में उनका अनुभव होने के कारण, उनके बीच समानता को कहा जाता है। और अपने गुणों के अनुसार ही उनके अनुभव में तरतमता का भाव कहा जाता है।
‘‘शुद्ध स्फटिक संकाशं त्रिनेत्रं पञ्च वक्त्रकम् ।
गङ्गाधरं दशभुजं सर्वाभरण भूषितम् ॥’’
‘‘कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारम्।
सदा बसन्तं हृदयारबिन्दे भवं भवानीसहितं नमामि।।’’
कर्पूर जैसे गौर वर्ण वाले, करुणाके अवतार, संसार के सार, सर्प का हार धारण करने वाले, वे भगवान शिव शंकर माता भवानी के साथ मेरे हृदय में सदा निवास करें। उनको मेरा प्रणाम है।
‘‘शरच्चंद्र गात्रं गणानंदपात्रं त्रिनेत्रं पवित्रं धनेशस्य मित्रम्।
अपर्णा कलत्रं सदा सच्चरित्रं, शिवं शंकरं शंभु मीशानमीडे ॥ ७ ॥ शिवाष्टकम्’’
जिनका शरीर शरत्कालीन -चंद्रमा के जैसा है, जो अपने गणों के लिए सुख का विषय है, जिनके तीन नेत्र हैं, जो शुद्ध हैं, जो कुबेर (धन के नियंत्रक) के मित्र हैं। , अपर्णा (पार्वती) जिनकी पत्नी है, जिसकी शाश्वत विशेषताएं हैं, और जो सभी के स्वामी हैं। मैं ऐसे शिव, शंकर, शंभू, की स्तुति करता हूं, || ३३ ||
निर्विशेषपरब्रह्मानन्यत्वेन तु ते समाः। तथापि शिवशब्दस्य परब्रह्मार्थकत्वतः ॥३.३४॥
परब्रह्म से अलग न होने के कारण, वे सभी (ब्रह्मा, विष्णु आदि) समान हैं। फिर भी, शिव शब्द सर्वोच्च ब्रह्म के लिए ही प्रयुक्त होता है।
(माण्डुक्योपनिषद्) में कहा है कि —
‘‘नान्तःप्रज्ञं न बहिष्प्रज्ञं नोभयतःप्रज्ञं न प्रज्ञानघनं न प्रज्ञं नाप्रज्ञम्| अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः ॥ ७ ||’’
वह न अन्तःप्रज्ञ है न बहिष्प्रज्ञ है, न उभय-प्रज्ञ अर्थात् अन्तः एवं बहिष्प्रज्ञ एक साथ है, न वह प्रज्ञान-घन है, न प्रज्ञ (ज्ञाता) है, न अप्रज्ञ (अज्ञाता)। वह जो अदृष्ट है, अव्यवहार्य है, अग्राह्य है, अलक्षण है, अचिन्त्य है, अव्यपदेश्य अर्थात् अनिर्देश्य है, ‘आत्मा’ के ऐकान्तिक अस्तित्व का बोध ही जिसका सार है, ‘जिसमें’ समस्त प्रपञ्चात्मक जगत् का विलय हो जाता है, जो ‘पूर्ण शांत’ है, जो ‘शिवम्’ है-मंगलकारी है, और जो ‘अद्वैत’ है, ‘उसे’ ही चतुर्थ (पाद) माना जाता है; ‘वही’ है ‘आत्मा’, एकमात्र ‘वही’ ‘विज्ञेय’ (जानने योग्य तत्व) है। || ३४ ||
साक्षिणा निर्विकारेण चिन्मात्रेण महात्मना। सदाशिवेन नित्येन केवलेन समो न हि ॥३.३५॥
(पिछले श्लोक से जारी है) अनुग्रह विग्रह साम्बसदाशिव के समान कोई नहीं है, क्योंकि वे साक्षी हैं तथा (निर्विकार) परिवर्तनशीलता से रहित, अकेले, केवल शुद्ध चेतन रूप, महान, शाश्वत, और एकमात्र हैं इसलिए उन सदाशिव के समान कोई नहीं है।
‘‘एको हि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थुर्य इमांल्लोकानीशत ईशनीभिः।
प्रत्यङ्जनांस्तिष्ठति सञ्चुकोचान्तकाले संसृज्य विश्वा भुवनानि गोपाः ||३.२||’’ श्वेताश्वतरोपनिषद्
जो समस्त लोकों की रक्षा तथा उन पर शासन करता है वह, रुद्र, वास्तव में केवल एक ही है। उसके समीप कोई नहीं है जो उसे दूसरा बना सके। वह सभी प्राणियों के हृदय में विद्यमान है। सभी जगतों का सृजन और पालन करने के बाद अंत में वह अपने आप में इसे निवर्तित कर लेता है।
अजं शाश्वतं कारणं कारणानां शिवं केवलं भासकं भासकानाम्।
तुरीयं तमःपारमाद्यन्तहीनं प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम्।।७।। (श्रीशङ्कराचार्यकृतं-वेदसारशिवस्तोत्रम्)
हे अजन्मा (अनादि), आप शाश्वत हैं, नित्य हैं, कारणों के भी कारण हैं। हे कल्याण मूर्ति (शिव) आप ही एक मात्र प्रकाशकों को भी प्रकाश प्रदान करने वाले हैं। आप तीनों अवस्थाओं से परे हैं। हे अनादि, अनंत आप जो कि अज्ञान से परे हैं, आपके उस परम पावन अद्वैत स्वरूप को नमस्कार है। मैं आपकी चरण शरण ग्रहण करता हूँ | ३५ ||
सांबस्य चन्द्रचूडस्य नीलकण्ठस्य शूलिनः। उत्कर्षोऽस्ति स्वतःसिद्धः किं मया प्रतिपाद्यते ॥३.३६॥
शिव का वर्चस्व सर्वोपरि है। जिनके सिर पर चंद्रमा है, जो नीले रंग के कंठ वाले हैं, त्रिशूल धारण करने वाले हैं, अम्बा के साथ रहने वाले हैं तथा जो स्वयं परमात्मा हैं। उनका उत्कर्ष तो स्वतःसिद्ध है। {भगवान सूर्य कहते हैं} कि यह (केवल) मेरे द्वारा कैसे प्रतिपादित किया जा सकता है?
‘‘प्रभो शूलपाणे विभो विश्वनाथ महादेव शंभो महेश त्रिनेत्र।
शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्यः||९||’’
(श्रीशंकराचार्यद्वारा रचित वेदसार शिवस्तोत्र)
हे त्रिशूलधारी! हे विभो विश्वनाथ! हे महादेव! हे शंभो! हे महेश! हे त्रिनेत्र! हे पार्वती वल्लभ! हे शान्त! हे स्मरारे (कामदेव के शत्रु) ! हे त्रिपुरारे! आपके समक्ष न कोई श्रेष्ठ है, न वरण करने योग्य है, न मान्य है और न गणनीय ही है। ||३६||
आदौ मां जनयामास ब्रह्मा साक्षाच्चतुर्मुखः । यथा तथा विरिंचिं तं श्रीमान्नारायणो हरिः ॥ ३.३७ ॥
जिस तरह से चार मुख वाले ब्रह्मा ने मुझे शुरुआत में पैदा किया, उसी तरह से श्री हरि, नारायण ने ब्रह्मा को बनाया।
‘‘कर्तारं जगतां साक्षात्प्रकृतेश्च प्रवर्तकम्।
सनातनमजं विष्णुं विरिंचिं विष्णु संभवम् || २.१.७.२९||’’ (शिवपुराणम्)
(तथा च लैङ्गे-लिङ्गपुराणम् – पूर्वभागः/अध्यायः १७)
सुप्ते नारायणे देवे नाभेः पङ्कजमुत्तमम् ।
अनन्तयोजनायाममुदभूच्च ततो विधिः ||३.४.२०.५७|| भविष्यपुराणम् || ३७ ||
यतोऽभवन्महाविष्णुर्ममारुण पितामहः। ततो मे सुप्रसिद्धाभूत्सूर्यनारायणाभिधा ॥३.३८॥
हे अरुण ! जब से महाविष्णु मेरे दादाजी (पितामह) बने, तब से मेरा नाम सूर्यनारायण हो गया।
‘‘आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी।।१०.२१।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
तथा इस प्रकार भी मेरा ध्यान किया जा सकता है –, द्वादश आदित्योंमें मैं विष्णु नामक आदित्य हूँ। प्रकाश करनेवाली ज्योतियोंमें मैं किरणोंवाला सूर्य हूँ। वायुसम्बन्धी देवताओंके भेदोंमें मैं मरीचि नामक देवता हूँ और नक्षत्रोंमें मैं शशी — चन्द्रमा हूँ। || ३८ ||
नैतेन सकलेशस्य प्रपितामहतावशात्। सर्वोत्कृष्टत्वसंसिद्ध्या लुप्यते ह्यान्तरात्मना ॥३.३९॥
लेकिन इसके द्वारा, (जो कि नारायण या विष्णु मेरे पूर्वज होने और उनके नाम पर मेरे नाम होने के नाते), सकल विश्वेश्वर शिव की स्थिति का अनादर नहीं होता है क्योंकि वे तो प्रपितामह हैं और सर्वोत्कृष्ट तथा सभी के स्वामी हैं | अतः उनका अन्तर्यामित्व लुप्त नहीं होता। क्योंकि वे मेरे परदादा हैं और उनका सर्वोच्च होना सिद्ध है।
‘‘तस्मै नमः परमकारणकारणाय दीप्तोज्ज्वलज्ज्वलितपिङ्गललोचनाय । नागेन्द्रहारकृतकुण्डलभूषणाय ब्रह्मेन्द्रविष्णुवरदाय नमः शिवाय ॥१॥ शिवाष्टकम्’’
उसे नमस्कार, जो सभी कारणों के पीछे महान कारण है, जिसकी भूरी आँखें (सारी सृष्टि के पीछे) रोशनी से जगमगाती हैं, जिसकी माला सर्पों के राजा (सर्पों) द्वारा बनाई गई है, जो उसे कान के छल्ले के रूप में भी सजाते हैं, जो ब्रह्मा, इन्द्र और विष्णु को वरदान देते हैं; उस शिव को नमस्कार। ||३९||
अथवा योगवृत्या स्याच्छिवो नारायणाभिधः। तद्दृष्टिर्मयि कर्तव्योपासकैरिति सन्मतम् ॥३.४०॥
या फिर, योग की शक्ति के माध्यम से, शिव को नारायण (विष्णु) के रूप में जाना जाता है। उपासकों द्वारा मेरे प्रति भी ऐसा ही रवैया अपनाया जा सकता है। यह संतों का मत है और सही भी है।
‘‘शिवाय विष्णु रूपाय शिव रूपाय विष्णवे।
शिवस्य हृदयं विष्णुः विष्णोश्च हृदयं शिवः ||८ ||
यथा शिवमयो विष्णुरेवं विष्णुमयः शिवः ।
यथान्तरं न पश्यामि तथा मे स्वस्तिरायुषि ॥ ९॥’’ {स्कन्दोपनिषत्}
यथा शिवस्तथा विष्णुर्यथा विष्णुस्तथा शिव: ।
अन्तरं शिवविष्ण्वोश्च मनागपि न विद्यते ||४.२३.४१|| स्कन्दपुराणम्
अर्थ = “जैसे शिव हैं, वैसे ही विष्णु हैं तथा जैसे विष्णु हैं, वैसे ही शिव हैं । शिव और विष्णु में तनिक भी अंतर नहीं है।
“आदित्यञ्च शिवं विन्द्याच्छिवमादित्यरूपिणम्।
उभयोरन्तरं नास्ति आदित्यस्य शिवस्य च॥”
आदित्य शिव रूप हैं और शिव आदित्य रूप हैं शिव और आदित्य में कोई अंतर नही है |||४०||
कर्मोपासनबोधेषु ब्रह्मविष्णुशिवाः क्रमात्। प्रसिद्धा इति संत्यज्य धियं शृणु वचो मम ॥३.४१॥
इस सोच को त्याग दें कि ब्रह्मा, विष्णु और शिव क्रमशः कर्म, उपासना और ज्ञान से जुड़े हैं और मेरे शब्दों को ध्यानपूर्वक श्रवण करें। ||४१||
त्रिषु त्रयः प्रसिद्धाः स्युस्तारतम्येन चारुण। काम्यकर्मप्रधानोऽस्ति स्वयंभूश्चतुराननः ॥३.४२॥
हे अरुण ! ये तीनों (ब्रह्मा, विष्णु और शिव) तीनों (कर्म, उपासना और ज्ञान) के साथ तारतम्य रूप से जुड़े हुए हैं। परन्तु स्रष्टा स्वयंभू चार मुख वाले भगवान ब्रह्मा में काम्य कर्तव्यों की प्रधानता प्रसिद्ध है। || ४२ ||
नैमित्तिकप्रधानोऽस्ति विष्णुः कमललोचनः। नित्यकर्मप्रधानः स शिवः साक्षात्त्रिलोचनः ॥३.४३॥
कमलनयन विष्णु जी नैमित्तिक कर्तव्यों के लिए प्रसिद्ध हैं। और नित्य कर्मों में तीन आंखों वाले शिव जी प्रसिद्ध हैं । || ४३ ||
मूर्त्युपास्तौ विधिर्मुख्यस्त्वंशोपास्तौ हरिर्मतः। निरंशोपासने मुख्यो नीलकण्ठो हरो मतः ॥३.४४॥
मूर्ति-पूजा में, ब्रह्मा जी की प्राथमिकता है तथा अवतार की पूजा में विष्णु जी की प्राथमिकता है। जबकि (निर्गुण, निराकारकी) गैर-अवतार की पूजा में, नीले गले वाले हर (नीलकंठ महादेव) को विशेष माना जाता है। || ४४ ||
ज्ञाने श्रवणजे ब्रह्मा विज्ञाने मननोदिते। विष्णुः स सम्यग्ज्ञाने तु निदिध्यासनजे शिवः ॥३.४५॥
श्रुतिजन्य श्रवणके माध्यमसे पैदा हुए ज्ञानमें, ब्रह्मा विशेष हैं, चिंतन-मननके माध्यमसे पैदा हुए ज्ञान में विष्णु विशेष हैं और सम्यक् ज्ञान तथा ध्यान (निदिध्यासन) के माध्यमसे पैदा हुए ज्ञान में, शिवजी विशेष हैं। || ४५ ||
अत्रैवं सति कस्याभूदाधिक्यमरुणाधुना। त्वमेव सम्यगालोच्य विनिश्चिनु महामते ॥३.४६॥
हे अरुण ! अब जब कि ऐसी स्थिति है तो किसका वर्चस्व स्थापित हुआ ? अतः हे बुद्धिमान! अब आप स्वयं उचित विचार-विमर्श के बाद निर्णय लीजिये । || ४६ ||
पुरा कश्चिन्महाधीरः शिवभक्ताग्रणीर्द्विजः। शिवाख्याजपसंसक्तश्चचार भुवि निस्पृहः ॥३.४७॥
पूर्वकाल में कोई परम धैर्यशाली बुद्धिमान ब्राह्मण थे जो शिव के सबसे बड़े भक्त थे, और शिव का नाम जपने के लिए ही समर्पित थे। और सभी प्रकार की इच्छाओं से पूरी तरह से मुक्त होकर इस पृथ्वी पर विचरण करते थे | || ४७ ||
स्वाश्रमाचारनिरतो भस्मरुद्राक्षभूषणः। सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञः कामक्रोधादिवर्जितः ॥३.४८॥
वे ब्राह्मणदेव हमेशा अपने आश्रम के कर्तव्यों को निभाने में तत्पर रहते थे; उनके पास आभूषणों के रूप में पवित्र-राख और रुद्राक्ष के मोती थे; वे सभी शास्त्रों का वास्तविक अर्थ जानते थे और काम, क्रोध, वासना आदि से रहित थे। || ४८ ||
शमादिषट्कसम्पन्नः शिवभक्तजनादरः। शिवस्य वैभवं स्मृत्वा श्रुतिस्मृतिपुराणगम् ॥३.४९॥
वे ब्राह्मणदेव शमादि षट्सम्पत्ति (शम, दम, श्रद्धा, उपरति, तितिक्षा और समाधान), रूप इन्द्रिय-नियंत्रण आदि के छह गुणों से संपन्न थे; {शमादि षट्सम्पत्ति का विवेचन इस प्रकार है। मन को इन्द्रियों के विषयों से हटाना ‘शम’ है। इन्द्रियों को विषयों से हटाना ‘दम’ है। ईश्वर, शास्त्र आदि पर पूज्य भावपूर्वक प्रत्यक्ष से भी अधिक विश्वास करना ‘श्रद्धा’ है। वृत्तियों का संसार की ओर से हट जाना ‘उपरति’ है। सरदी-गरमी आदि द्वन्द्वों को सहना, उनकी उपेक्षा करना ‘तितिक्षा’ है। अन्तःकरण में शंकाओं का न रहना ‘समाधान’ है।} वे महात्मा शिवके सभी भक्तजनों का बहुत ही आदर करते थे; और श्रुतियों, स्मृतियों, शिलालेखों और पुराणों में उल्लिखित शिव की पारदर्शिता और वैभव को याद करते हुए (अगले श्लोक में जारी) || ४९ ||
सर्वेश्वरस्य सांबस्य त्रिनेत्रस्य दयानिधेः। सदाशिवस्य माहात्म्यं स्वत एवेदमब्रवीत् ॥३.५०॥
(शिव की महिमा को याद करते हुए) शिव की महानता, {सर्वेश्वरत्व} सभी के स्वामी, अम्बा को उनकी अपनी पत्नी के रूप में साथ लिए हुए, तीन आंखों वाले, दया के सागर, सदाशिव का माहात्म्य {अपने आप ही अपने अंतर्मन से} उन्होंने अपने दम पर यह कहा। || ५० ||
पश्वादिभ्यो वरिष्ठाः क्षितिगतमनुजास्तेभ्य एवेन्द्रमुख्यः
देवास्तेभ्यो विधाता हरिरपि च ततः शंकरो यस्त्रिनेत्रः।
नान्योऽस्माच्छंकरात्तु श्रुतिषु निगदितो वा वरिष्ठः समो वा
सर्वान्विष्ण्वादिकांस्तं न हि वयमधुना नूनमेवाश्रयामः ॥३.५१॥
पृथ्वी पर मनुष्य जानवरों आदि से श्रेष्ठ हैं; इंद्र और अन्य देवता उन मनुष्यों से श्रेष्ठ हैं; देवताओं से श्रेष्ठ ब्रह्मा जी हैं और विष्णु उनसे भी श्रेष्ठ हैं; फिर शंकर जी जो तीन आंखों वाले हैं वे उन सबसे भी श्रेष्ठ हैं। श्रुतियों में कोई भी शंकर के समान अथवा उनसे श्रेष्ठ या वरिष्ठ घोषित नहीं किया जाता है। अतः अब हम निश्चित रूप से किसी विष्णु या अन्य देवताओं पर नहीं बल्कि शंकर पर ही निर्भर होंगे। शिवानन्द लहरी में कहा है कि —
‘‘असारे संसारे निजभजनदूरे जडधिया भ्रमन्तं मामन्धं परमकृपया पातुमुचितम् ।
मदन्यः को दीनस्तव कृपणरक्षातिनिपुण- स्त्वदन्यः को वा मे त्रिजगति शरण्यः पशुपते|| १३ ||
हे पशुपति ! अपने प्राप्तव्य से अत्यंत भिन्न असार संसार में अपनी मूढ़बुद्धि के कारण भटकते हुए मुझ अन्धे की आपकी अहैतुकी कृपा से रक्षा हो (यह) उचित है। आपके लिए तीनों लोकों में मुझसे भिन्न दीन कौन होगा (जिस पर कृपा करके आप उसकी रक्षा करेंगें) और मेरे लिए तीनों लोकों में आपसे भिन्न कौन शरण लेने योग्य तथा दुःखी की रक्षामें कौन कुशल होगा ? अतः आप ही मेरे शरण्य हैं। ब्रह्मस्तुति में पण्डित भीमसेन शर्मा जी कहते हैं कि —
त्वमेकं शरण्यं त्वमेकं वरेण्यं, त्वमेकं जगत्पालकं स्वप्रकाशम्।
त्वमेकं जगत्कर्तृ पातृ प्रहर्तृ, त्वमेकं परं निश्चलं निर्विकल्पम्॥२॥
आप ही एक शरण लेने योग्य हैं, आप ही एक वरण करने योग्य हैं, आप ही एक जगत् को पालन करने वाले तथा स्वप्रकाशस्वरूप हैं, इस जगत के कर्ता, रक्षक और संहार करने वाले भी आप ही हैं तथा सबके परे निश्चल और निर्विकल्प ब्रह्म भी आप ही हैं ॥ ||५१||
मूलाधारे गणेशस्तदुपरि तु विधिर्विष्णुरस्मात्ततोऽयं
रुद्रस्थाने चतुर्थे श्रुतिरपि च तथा प्राह शांतं चतुर्थम्।
अस्मादन्यः शिवोऽस्ति त्रिपुरहर इतो वा सदाद्यः शिवोऽस्ति
स्वस्थोऽयं द्वादशान्तप्रबलनटनकृच्चापि साक्षात्सभेशः ॥३.५२॥
गणेश मूलाधार में रहते हैं, उससे भी ऊपर वाले चक्र में ब्रह्मा तथा उसके ऊपर वाले चक्र में विष्णु और फिर ये (शिव) चौथे (चक्र) में निवास करते हैं, जिसे रुद्रस्थान भी कहा जाता है।
‘‘प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते’’ श्रुति यह भी कहती है कि चौथे चक्र को शांतिपूर्ण कहा जाता है। इसके बाद पांचवें स्थान में त्रिपुर हर (तीन शहरों के विनाशकर्ता के रूप में शिव) का नाम आता है, अगला है सदाशिव, जो एक मात्र प्रधान हैं। जिनका स्थान द्वादशान्त है जो अपने आप में ही अपना रहस्योद्घाटन करते हैं और वे नृत्य के स्वामी नटराज जिनको (चित्सभेश) कहते हैं। जो सहस्रार चक्र में उग्र नृत्य, आनन्द (तांडव) करते हैं। ||५२||
{विशेष टिप्पणी}
षट्चक्र एवं उनके देवता और ग्रह
क्र.सं. षट्चक्र, अधिष्ठातृदेवता, कारकग्रह , शक्ति
१. मूलाधार गणेश बुध डाकिनी
२. स्वाधिष्ठान ब्रह्मा शुक्र राकिनी
३. मणिपूर विष्णु शनि लाकिनी
४. अनाहत रुद्र मंगल काकिनी
५. विशुद्ध त्रिपुरारी चन्द्र शाकिनी
६. आज्ञा हर गुरु हाकिनी
७. सहस्रार सदाशिव सूर्य कामिनी
डाकिनी राकिनी देवि लाकिनी काकिनी ततः । शाकिनी हाकिनी संज्ञा सत्व-रूपा ततः प्रिये ।।
(१) मूलाधार-चक्र।
इस चक्र का स्थान लिंग और गुदा के मध्य ‘कन्द’ भाग में है। चक्र का कमल रक्त वर्णका हैं इसके ४-दलों पर वं शं षं सं अक्षरहैं। चक्र के यंत्र का आकार चतुष्कोण (चतुर्भुज) है। यंत्र का रंग लाल तथा बीज लं है। बीज का वाहन ऐरावत हाथी है। यंत्र के देवता तथा शक्ति ब्रह्मा और डाकिनी है। चक्र का यंत्र पृथ्वी तत्व का द्योतक है। इस चक्र के ध्यान से वाचा सिद्धि, दीर्घायु तथा कार्यदक्षता प्राप्त होती है।
(२) स्वाधिष्ठान-चक्र।
इस चक्र का स्थान लिंग मूल के सामने है। कमल दलों की संख्या-६ है। जिन पर बं से लं तक अक्षर हैं। इस चक्र के यंत्र का आकार अर्धचंद्राकार है। यंत्र का रंग शुभ्र है। बीज वं है जिसका वाहन मकर है। यंत्र के देवता तथा शक्ति विष्णु और राकिनी है। यंत्र जल तत्व का घोतक है। इस चक्र के ध्यान से स्रजन एवं पालन करने की सामर्थ्य हो जाती है। साधक में अहंकार-शून्यता के साथ ही गद्य-पद्य रचने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है।
(३) मणिपूर-चक्र
चक्र का स्थान नाभि के पीछे है। कमल दलों की संख्या १० है। जिन पर डं से फं तक अक्षर हैं। दलों का रंग पीला है। चक्र के यंत्र का आकार त्रिकोणात्मक है। यंत्र उगते हुए सूर्य के समान रक्तवर्णी है। यंत्र का बीज रं है तथा वाहन मेष है। यंत्र के देवता तथा शक्ति क्रमशः रूद्र तथा लाकिनी है। यह यंत्र अग्नि तत्व का द्योतक है। इस चक्र के ध्यान से सरस्वती की कृपा प्राप्त होती है तथा साधक में पालन एवं संहार की क्षमता उत्पन्न होती है।
(४) अनाहत-चक्र।
यह चक्र हृदय के सामने स्थित है। इसके कमल दलों का रंग लाल है। कमल दलों की संख्या १२ है जिस पर कं से ठं तक १२ अक्षर है। चक्र का यंत्र षट्कोण है तथा धूम्रवर्ण का है। यंत्र का बीज यं है जिसका वाहन मृग है। यंत्र के देवता तथा शक्ति क्रमशः ईशान तथा काकिनी है। यह यंत्र वायु तत्व का द्योतक है। इसके ध्यान से व्यक्ति सृष्टि, स्थिति तथा संहार करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है। साधक में परकाया प्रवेश करने की क्षमता तथा बृहस्पति के समान विद्वत्ता प्राप्त हो जाती हैं।
(५) विशुद्धि-चक्र।
इस चक्र की स्थिति कंठ के सामने है। कमल दलों का वर्ण धूम्र तथा संख्या १६ है जिन पर अं से अः तक अक्षर अंकित है। इस चक्र का यंत्र पूर्ण चन्द्राकार है। यंत्र का बीज हं है। जिसका वाहन हाथी है। यंत्र के देवता तथा शक्ति क्रमशः सदाशिव तथा शाकिनी हैं। यह यंत्र आकाश तत्व का द्योतक है। चक्र के ध्यान से साधक नीरोग, दीर्घजीवी, त्रिकालदर्शी तथा समस्त लोकों का कल्याण कर सकता है।
(६) आज्ञा-चक्र।
यह चक्र भ्रूमध्य में स्थित है। इसके कमल दल २ है जिनका वर्ण श्वेत है। इन दलों पर हं तथा क्षं अंकित है। इस चक्र का चित्र अर्धनारीश्वर का लिंग (इतर लिंग) है जो विद्युत की चमक के समान प्रकाशमान है। यंत्र का बीज प्रणव है जिसका वाहन नाद है । यंत्र के देवता तथा शक्ति क्रमशः अर्धनारीश्वर तथा हाकिनी हैं। यह यंत्र महत्तत्व का द्योतक हैं। इसके ध्यान से साधक सर्वदर्शी, सर्वज्ञ तथा परोपकारी बन जाता है तथा उसमें परकाया प्रवेश करने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है।
(७) सहस्रार-चक्र।
मेरुदण्ड के सबसे ऊपरी सिरे का (स्थान) पर एक हजार कमलदलों वाला श्वेतवर्णी सहस्रार चक्र स्थित है। स्वरों तथा व्यंजनों अ से क्ष तक (संख्या-५०) को २० बार लिखकर उसे पूर्ण किया गया है। इस चक्र में परमशिव विराजमान रहते हैं जिनसे मिलने के लिए मूलाधार स्थित कुंडलिनी-शक्ति सदैव आतुर रहती है। मूलाधार से कुंडलिनी का उत्थापन करके षट् चक्रों का भेदन करते हुए सहस्रार में विद्यमान परमशिव से मिलना ही शक्ति उपासक का चरम लक्ष्य होता है। इस कमल की कर्णिका में सम्पूर्ण चन्द्रमण्डल विद्यमान रहता है, इस मंडल के मध्य में त्रिकोण है जिसके मध्य में शून्य (बिन्दु) स्थित है। यहॉं पहुँच कर साधक को जीवात्मा तथा परमात्मा का अभेदज्ञान प्राप्त हो जाता है। यही शक्ति साधना का अंतिम सोपान है।
उपरोक्त विवरण ‘षट्चक्र निरूपण’ नामक ग्रन्थ पर आधारित है। प्राचीन ग्रन्थों में मूलाधार से सहस्रार तक के देवी-देवता क्रमशः (१ गणेश-सिद्धि, बुद्धि) (२ब्रह्मा-सरस्वती) (३ विष्णु-लक्ष्मी) (४ शिव-पार्वती) (५ जीव-प्राणशक्ति) तथा आज्ञा में (६ गुरु तथा ज्ञान शक्ति है।)
तथा सौन्दर्यलहरी में ‘षट्चक्र निरूपण’ इस प्रकार किया गया है —
महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहं
स्थितं स्वाधिष्ठाने हृदि मरुतमाकाशमुपरि ।
मनोऽपि भ्रूमध्ये सकलमपि भित्वा कुलपथं
सहस्रारे पद्मे सह रहसि पत्या विहरसे ॥ ९॥ (सौन्दर्यलहरी)
मूलाधारचक्रमें पृथ्वीतत्त्वको, मणिपुरचक्रमें जल और अग्नितत्त्वको स्वाधिष्ठानचक्रमें, हृदयमें वायुतत्त्वको और इसके ऊपर विशुद्धचक्रमें आक्राशतत्त्वको तथा भ्रूकुटिके मध्यमें मन-तत्त्वको इस प्रकार कुण्डलिनी-शक्तिके तमाम मार्गोंको वींधकर तुम हजार पंखडीवाले कमल में (सहस्रारचक्रमें) पतिके साथ एकांतमें विहार करती हो।
क्षितौ षट्पञ्चाशद् द्विसमधिकपञ्चाशदुदके
हुताशे द्वाषष्टिश्चतुरधिकपञ्चाशदनिले ।
दिवि द्विष्षट्त्रिंशन्मनसि च चतुष्षष्टिरिति ये
मयूखास्तेषामप्युपरि तव पादाम्बुजयुगम् ॥ १४॥ (सौन्दर्यलहरी)
षट्चक्रमें जो सबसे ऊपरवाला स्थान है वहीं आपका निवास है। पृथ्वीतत्त्ववाले (मूलाधारमें) ५६ छप्पन, जलतत्त्व वाले (मणिपुरस्थानमें) ५२ बावन, अग्नितत्ववाले (स्वाधिष्ठानचक्रमें) ६२ बासठ, वायुतत्त्ववाले (अनाहत-चक्रमें) ५४ चौवन, आक्राशतत्त्ववाले (विशुद्रिचक्रमें) ७२ बहत्तर और मनस्तत्त्ववाले (आज्ञाचक्रमें) चौंसठ इस प्रकार आपकी किरणें प्रसिद्ध हैं। और इन सबके ऊपर (सहस्रार-चक्रमें) कमलके समान आपके दोनों चरण विराजमान हैं। ५६+५२+६२+५४+७२+६४ = ३६० ये चान्द्र-वर्षके ३६० दिन हैं जो छः ऋतुओं में विभक्त हैं। देवीको चन्द्र-कला-विद्या भी कहा जाता है।
रौद्री शक्तिस्तथा स्यादयमपि च हरिः शाक्त एवं विरिंचो
मन्तव्यो वैष्णवोऽमी सनकमुखमहाब्राह्मणा ब्राह्मणाश्च।
तस्मादेवं विभक्ते न हि भवति हरेरंशितांशांशिभावे
साक्षादप्यत्र नित्यं परमशिवमहं चांशिनं तं नमामि ॥३.५३॥
शक्ति (शायद कुंडलिनी?) भी रुद्र की है। इसलिए ये हरि भी शाक्त हैं । (ऐसा इसलिए है क्योंकि विष्णु सहित सभी प्राणियों में सात चक्र और कुंडलिनी की सभी शक्तियां निवास करती हैं। चूंकि वे सारी शक्तियां शिवजी की हैं इसलिए हर कोई शैव हो जाता है या समकक्ष रूप से शाक्त हो जाता है।) इसी प्रकार ब्रह्माजी को भी शाक्त माना जाना चाहिए। अन्य ऋषि जैसे सनक आदि जिन्हें वैष्णव माना जाता है, उन्हें भी शाक्त माना जाना चाहिए। तथा मरीचि,अत्रि,भृगु आदि भी शैव हैं। ऐसा होने के नाते, संपूर्ण विश्व जिनका एक अंश है, एक हिस्सा है, वह विष्णु नहीं हैं, अपितु शिव हैं। इसलिए मैं हमेशा शिव को नमन करता हूं, जो संपूर्ण हैं, जिनमें बाकी सब कुछ एक अंश है, एक हिस्सा है और शिव अंशी हैं। महाराज जनक के यहां शिवजी ने अपना धनुष रखा इससे जनक भी शैव सिद्ध होते हैं।
‘‘इन्ह सम काँहु न सिव अवराधे। काहिं न इन्ह समान फल लाधे।।’’
इन (दोनों राजाओं) के समान किसी ने शिवजी की आराधना नहीं की और न इनके समान किसी ने फल ही पाए।
महाराज दशरथ जब राम की बरात लेकर चलते हैं तब सबसे पहले शिवजी को ही प्रणाम करते हैं।
‘‘तेहिं रथ रुचिर बसिष्ठ कहुँ हरषि चढ़ाई नरेसु।
आपु चढ़ेउ स्यंदन सुमिरि हर गुर गौरि गनेसु॥३०१॥बालकाण्ड’’
भावार्थ — उस सुंदर रथ पर राजा ने वशिष्ठजी को हर्ष पूर्वक चढ़ाकर फिर स्वयं शिव, गुरु, गौरी (पार्वती) और गणेशजी का स्मरण करके स्वयं (दूसरे) रथ पर चढ़े।
सौन्दर्य लहरी में आचार्य शंकर कहते हैं —
‘‘ शिवः शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितुं न चेदेवं देवो न खलु कुशलः स्पन्दितुमपि। अतस्त्वामाराध्यांहरिहरविरिञ्चादिभिरपि प्रणन्तुं स्तोतुं वा कथमकृत पुण्यः प्रभवति।।१।।’’
यदि शिव शक्ति से युक्त होकर ही सष्टि करने में शक्तिमान् होता है और यदि ऐसा न होता तो वह ईश्वर भी स्पन्दित होने मे समर्थ नहीं था इसलिये तुझे जो कि हरि, हर और ब्रह्मा की भी आराध्य देवता है, उसको किसी भी पुण्यहीन मनुष्य में प्रणाम करने अथवा स्तुति करने की प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ?
तथा कामकलाविलास में पुण्यानन्दनाथ जी कहते हैं —
सा जयति शक्तिराद्या निजसुखमयनित्यनिरुपमाकारा।
भाविचराचर बीजं शिवरूपविमर्शनिर्मलादर्शः ||२||(काम कला विलास) ||५३||
शंभोरन्यन्न पश्याम्यहमिह परमे व्योम्नि सोमाच्छ्रुतौ वा
यस्यैवैतेन भासा जगदखिलमिदं भासते चैत्य रूपम्।
यच्छीर्षांघ्री दिदृक्षू द्रुहिणमुररिपू सर्वशक्त्याप्यदृष्ट्वा
खेदन्तौ जग्मतुस्तं परमशिवममुं त्वां विना कं नु वंदे ॥३.५४॥
मैं शंभू या साम्बसदाशिव {उमया सहितः सोमः} के अलावा किसी और को परम आकाश में नहीं देखता। जिसके प्रकाशसे, श्रुतियों के अनुसार, संपूर्ण ब्रह्माण्ड एक चेतना के साथ (चैत्य रूप में) चमक रहा है। तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति इति। एकवार यह देखने के लिए कि उन शिवजी का सिर और पैर कहाँ हैं ब्रह्मा और विष्णु ने अपनी सारी शक्तियों के प्रयोग के बावजूद भी सफलता नहीं पाई और अंत में थक गए और दुखी होकर आपकी (शिवजी की) शरण में गए। अतः हे परम शिव मैं आपको छोड़कर और किसके सामने झुक सकता हूं ? किसकी वंदना करूं ?
महिम्नकार पुष्पदन्ताचार्य कहते हैं —
‘‘तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरधः परिच्छेतुं यातावनलमनलस्कन्धवपुषः।
ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत् स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति॥ १०॥’’
एक समय आपके पूर्ण स्वरूप का भेद जानने हेतु ब्रह्मा एवं विष्णु क्रमश: ऊपर और नीचे की दिशाओं में गए। पर उनके सारे प्रयास विफल हुए। जब उन्होंने भक्ति मार्ग अपनाया तभी वे लोग आपको जान पाए। क्या आपकी भक्ति कभी विफल हो सकती है? अर्थात् आपकी अनुवृत्ति क्या क्या फल नहीं देती ? मतलब सब कुछ देती है।
‘‘बाणत्वं वृषभत्वमर्धवपुषा भार्यात्वमार्यापते
घोणित्वं सखिता मृदङ्गवहता चेत्यादि रूपं दधौ ।
त्वत्पादे नयनार्पणं च कृतवान् त्वद्देहभागो हरिः
पूज्यात्पूज्यतरः स एव हि न चेत् को वा तदन्योऽधिकः ॥ ८२॥शिवानन्दलहरी’’
हे उमापति! भगवान विष्णु आपके लिये अनेक रूप धारण करते आये हैं, त्रिपुर संहारके समय वे आपके लिये वाण बने, बृषभरुप में वाहन बने, अर्धाङ्गिनी के रूप में भार्या बने, सूकर बनकर पृथ्वी खोदते -खोदते शिव के चरणों तक पहुँचने का प्रयास किया, मोहिनी रूप में सहचरी बने, आपके कीर्तन में मस्त होकर मृदङ्ग बजाते हैं, और तो और, जब सहस्र कमल से अर्चना के समय एक कमलपुष्प कम पड़ गया तो, उसके स्थान पर, अपना नेत्र अर्पण करने को तत्पर हो गये, उनसे बढ़कर शिव का प्रिय दूसरा कौन हो सकता है !!
भास्करराय तो कहते हैं कि —
वितरन् हरये तपस्यते पदरेखाजनितं सुदर्शनम्।
वपुरर्धमपि प्रियाय ते प्रथितस्त्वं भुवि विष्णुबल्लभ:।।
तपस्या करते हुए विष्णु को, चरण नख किरणों से समुत्पन्न सुदर्शन चक्र प्रदान कर उन्हें अपना आधा शरीर प्रदान कर दिया इसलिए आप विष्णुवल्लभ हैं। ||५४||
यं विष्णुर्नावपश्यत्यखिलजनभयध्वंसकं काशिकायां
लिंगं चोपास्त इत्यप्यधिकभसितरुद्राक्षसंभूषितः सन्।
जाबालेये बृहत्यप्यथ हरिजनिता श्रूयते सोम एकः
पायाच्छ्रुत्यन्तसिद्धो जनिमृतिभयभृत्संसृतेस्तारको माम् ॥३.५५॥
सभी पुरुषोंके भयका नाश करनेवाले जिन शिवजीको , यहां तक कि विष्णु भी उन्हें नहीं देख पाते और रुद्राक्ष और भस्म से सुशोभित होकर, काशीमें लिंगके सामने बैठते हैं (उनकी पूजा करने के लिए); सोमा (उमा सहित महेश्वर) जिसे जाबाली और बृहदारण्यक (उपनिषद) में विष्णु के एक पूर्वज के रूप में सुना जाता है, जिनका उपनिषदोंमें इस संसारसे मुक्तिदाता और विष्णुके जन्मदाता होनेका निरूपण किया जाता है, मैं जो कि जन्म और मृत्यु रूपी संसार के भयसे डरा हुआ हूँ, वे उपनिषदों में प्रसिद्ध (शिव) मेरी रक्षा करें। (भक्त्या नम्रतनोर्विष्णोः प्रसादमकरोद्विभुः।) बृहज्जाबालोपनिषत् में विष्णु के द्वारा शिवोपासनाका वर्णन इस प्रकार है —
‘‘ततो भस्म भक्षयेति हरिमाह हरस्ततः ।
भक्षयिष्ये शिवं भस्म स्नात्वाहं भस्मना पुरा ॥ ७॥
पृष्टेश्वरं भक्तिगम्यं भस्माभक्षयदच्युतः ।
तत्राश्चर्यमतीवासीत्प्रतिबिम्बसमद्युतिः ॥ ८॥
वासुदेवः शुद्धमुक्ताफलवर्णोऽभवत् क्षणात् ।
तदाप्रभृति शुक्लाभो वासुदेवः प्रसन्नवान् ॥ ९॥
न शक्यं भस्मनो ज्ञानं प्रभावं ते कुतो विभो ।
नमस्तेऽस्तु नमस्तेऽस्तु त्वामहं शरणं गतः ॥ १०॥
त्वत्पादयुगले शम्भो भक्तिरस्तु सदा मम ।
भस्मधारणसम्पन्नो मम भक्तो भविष्यति ॥ ११॥’’ — बृहज्जाबालोपनिषत्।
शरभोपनिषत् में कहा है —
{विष्णुर्विश्वजगद्योनिः स्वांशभूतैः स्वकैः सह ।
ममांशसंभवो भूत्वा पालयत्यखिलं जगत् ॥ २२ ॥}॥ — शरभ उपनिषद ॥ || ५५ ||
मध्ये को वाधिकः स्याद्द्रुहिणहरिहराणामिति प्रश्नपूर्वं
ब्रह्मादौ पैप्पलादं खलु वदति महान्रुद्र एवाधिकः स्यात्।
इत्युक्त्वा शारभाख्ये श्रुतिशिरसि नमश्चास्तु रुद्राय तस्मै
स्तुत्वैवं ध्येयमाह त्रिपुरहरमुमाकांतमेकं भजेऽहम् ॥३.५६॥
पूर्वकाल में शरभ नामक उपनिषद में, जब पिप्पलाद ने (ब्रह्मा) से पूछा कि ब्रह्मा, विष्णु और शिव में से कौन श्रेष्ठ है, तो ब्रह्मा ने कहा कि शुरुआत में महान शिव ही श्रेष्ठ थे और यह कहने के बाद कहा कि शिव ही (मुझे) ब्रह्मा को छंद (वेद) देते हैं “उन रुद्र को प्रणाम” इस प्रकार के आदर वाचक शब्दों से उन्हें अवगत कराया गया। और {रुद्र} अर्थात शिव का ध्यान करने की घोषणा की। मैं उन {त्रिपुर हर} तीन शहरों के विध्वंसक और उमा के स्वामी की पूजा करता हूं।
अथ हैनं पैप्पलादो ब्रह्माणमुवाच भो भगवन् ब्रह्मविष्णुरुद्राणां मध्ये को वा अधिकतरो ध्येयः स्यात्तत्त्वमेव नो ब्रूहीति । तस्मै स होवाच पितामहश्च हे पैप्पलाद शृणु वाक्यमेतत् ।
बहूनि पुण्यानि कृतानि येन तेनैव लभ्यः परमेश्वरोऽसौ ।
यस्याङ्गजोऽहं हरिरिन्द्रमुख्या मोहान्न जानन्ति सुरेन्द्रमुख्याः ॥ १ ॥
प्रभुं वरेण्यं पितरं महेशं यो ब्रह्माणं विदधाति तस्मै ।
वेदांश्च सर्वान्प्रहिणोति चाग्र्यं तं वै प्रभुं पितरं देवतानाम् ॥ २ ॥
ममापि विष्णोर्जनकं देवमीड्यं योऽन्तकाले सर्वलोकान्संजहार ॥ ३ ॥ ॥ शरभोपनिषत् ॥
‘‘रुद्रात्प्रवर्तते बीजं बीजयोनिर्जनार्दनः ।
यो रुद्रः स स्वयं ब्रह्मा यो ब्रह्मा स हुताशनः ॥ ८॥
ब्रह्मविष्णुमयो रुद्र अग्नीषोमात्मकं जगत् ।
पुंलिङ्गं सर्वमीशानं स्त्रीलिङ्गं भगवत्युमा ॥ ९॥
उमारुद्रात्मिकाः सर्वाः प्रजाः स्थावरजङ्गमाः ।
व्यक्तं सर्वमुमारूपमव्यक्तं तु महेश्वरम् ॥ १०॥’’ रुद्रहृदयोपनिषत् ||| ५६ ||
ध्याता रुद्रो रमेशो हरिरपि तु तथा ध्यानमेकः शिवस्तु
ध्येयोऽथर्वश्रुतेः सा निखिलरसवती या समाप्ता शिखाभूत्।
ध्येयश्चिन्मात्र एकः परमशिव इतो वा चिदंशत्वमस्य
ध्यातुः स्यान्न त्वमुष्य प्रकृतिभवमनोवृत्तिरूपस्य विष्णोः ॥३.५७॥
रुद्र ध्यानी हैं, अर्थात् ध्याता हैं, हरि या रमेश ध्यान की प्रक्रिया हैं, और शिव (ध्येय) ध्यान करने योग्य ध्यातव्य वस्तु हैं। अमृत से भरा हुआ अथर्वशिर (उपनिषद), यह कहकर समाप्त होता है कि ध्यान की वस्तु एकमात्र सर्वोच्च शिव हैं, जो चेतना की प्रकृति है। चेतना को केवल ध्यानी के रूप में ही जाना जा सकता है, न कि मन के विचारों को, जो कि विष्णु की स्वाभाविक स्थिति है। क्योंकि वासुदेव चित्त के अधिष्ठाता देव हैं। इसलिए परम शिव जो कि चिन्मात्र हैं और विष्णु चिदंश हैं तथा शिव का ध्यान करते हैं। इससे विष्णु के ऊपर शिव की सर्वोच्चता (सर्वोपरिता) सिद्ध होती है।
‘‘ॐ देवा ह वै स्वर्गं लोकमायंस्ते रुद्रमपृच्छन्को भवानिति । सोऽब्रवीदहमेकः प्रथममासं वर्तामि च भविश्यामि च नान्यः कश्चिन्मत्तो व्यतिरिक्त इति । सोऽन्तरादन्तरं प्राविशत् दिशश्चान्तरं प्राविशत् सोऽहं नित्यानित्योऽहं व्यक्ताव्यक्तो ब्रह्माहमब्रह्माहं प्राञ्चः प्रत्यञ्चोऽहं दक्षिणाञ्च उदञ्चोहम् अधश्चोर्ध्वं चाहं दिशश्च प्रतिदिशश्चाहं पुमानपुमान् स्त्रियश्चाहं गायत्र्यहं सावित्र्यहं सरस्वत्यहं त्रिष्टुब्जगत्यनुष्टुप् चाहं छन्दोऽहं गार्हपत्यो दक्षिणाग्निराहवनीयोऽहं सत्योऽहं गौरहं गौर्यहमृगहं यजुरहं सामाहमथर्वाङ्गिरसोऽहं ज्येष्ठोऽहं श्रेष्ठोऽहं वरिष्ठोऽहमापोऽहं तेजोऽहं गुह्योहमरण्योऽहमक्षरमहं क्षरमहं पुष्करमहं पवित्रमहमुग्रं च मध्यं च बहिश्च पुरस्ताज्ज्योतिरित्यहमेव सर्वे मामेव स सर्वे स मां यो मां वेद स वेदान्वेद स सर्वांश्च वेदान्साङ्गानपि ब्रह्म ब्राह्मणैश्च गां गोभिर्ब्राह्माणान्ब्राह्मण्येन हविर्हविषा आयुरायुषा सत्येन सत्यं धर्मेण धर्मं तर्पयामि स्वेन तेजसा । ततो ह वै ते देवा रुद्रमपृच्छन्ते देवा रुद्रमपश्यन् । ते देवा रुद्रमध्यायंस्ततो देवा ऊर्ध्वबाहवो रुद्रं स्तुवन्ति ॥ १॥ अथर्वशिर उपनिषद्। ’’
एक समय देवताओं ने स्वर्गलोक में जाकर रूद्र से पूछा- आप कौन हैं? रुद्र ने उत्तर दिया- मैं एक हूँ, भूतकाल हूँ, वर्तमान काल हूँ और भविष्यकाल भी मैं ही हूँ। मेरे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। जो अन्तर के भी अन्तर में विद्यमान है, जो समस्त दिशाओं में सन्निविष्ट है, वह मैं ही हूँ। मैं ही नित्य और अनित्य, व्यक्त और अव्यक्त, ब्रह्म और अब्रह्म हूँ। मैं ही प्राची (पूर्व) और प्रतीची (पश्चिम), उत्तर और दक्षिण, ऊर्ध्व और अध: आदि दिशाएँ तथा विदिशाएँ हूँ। पुमान् (पुरुष), अपुमान् (अपुरुष) और स्त्री भी मैं ही हूँ। मैं ही गायत्री, सावित्री और सरस्वती हूँ। त्रिष्टुप् जगती और अनुष्टुपू आदि छन्द भी मैं ही हूँ। मैं गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि और आहवनीय अग्नि हूँ। मैं सत्य, गौ, गौरी, ज्येष्ठ, श्रेष्ठ और वरिष्ठ हूँ। आपः (जल) और तेजस् भी मैं ही हूँ। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद भी मैं ही हूँ। अक्षर-क्षर गोप्य (छिपाने योग्य) और गुह्य (छिपाया हुआ) भी मैं हूँ। अरण्य, पुष्कर (तीर्थ), पवित्र मैं हूँ। अग्र, मध्य, बाह्य और पुरस्ताद् (सामने या पूर्व) आदि दसों दिशाओं में अवस्थित और अनवस्थित ज्योतिरूप शक्ति मुझे ही मानना चाहिए और सब कुछ मुझमें ही व्याप्त जानना चाहिए। इस प्रकार जो मुझे जानता है, वह समस्त देवों और अङ्गों सहित समस्त वेदों को जानता है। मैं गौओं को गोत्व से, ब्राह्मणों को ब्राह्मणत्व से, हवि को हविष्य से, आयु को आयुष्य से, सत्य को सत्यता से, धर्म को धर्म तत्त्व से तृप्त करता हूँ। यह सुनकर देवगणों ने रुद्र को देखा और उनका ध्यान करने लगे । तत्पश्चात् भुजाएँ उठाकर इस प्रकार स्तुति की।
{देवाश्चेति संधत्तां सर्वेभ्यो दुःखभयेभ्यः संतारयतीति तारणात्तारः । सर्वे देवाः संविशन्तीति विष्णुः । सर्वाणि बृहयतीति ब्रह्मा । सर्वेभ्योऽन्तस्थानेभ्यो ध्येयेभ्यः प्रदीपवत्प्रकाशयतीति प्रकाशः । प्रकाशेभ्यः सदोमित्यन्तः शरीरे विद्युद्वद्द्योतयति मुहुर्मुहुरिति विद्युद्वत्प्रतीयाद्दिशं दिशं भित्त्वा सर्वांल्लोकान्व्याप्नोति व्यापयतीति व्यापनाद्व्यापी महादेवः ॥ २॥} (अथर्वशिख उपनिषद्)
चार वेदों और सभी देवों के जन्म स्थान के रूप में ध्यान किया जाना चाहिए। जो इस तरह ध्यान करता है वह सभी दुखों और भयों से दूर हो जाता है, संसारसे तार देता है इसलिये इसे तार कहते हैं। और अपने पास आने वाले सभी लोगों की रक्षा करने की शक्ति प्राप्त करता है। इस ध्यान के कारण ही भगवान विष्णु, जो हर जगह व्याप्त (फैले) हुए हैं, अन्य सभी पर विजय प्राप्त करते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि भगवान ब्रह्मा ने अपने सभी अंगों को नियंत्रित किया और उनका ध्यान किया, उन्होंने निर्माता का पद प्राप्त किया। यहां तक कि भगवान विष्णु भी, परमात्मा (परम आत्मा) के स्थान की ध्वनि (ओम) में अपना दिमाग लगाते हैं और ईशान का ध्यान करते हैं, जिनकी पूजा करना सबसे उचित है। यह सब ईशान के मामले में ही उचित है। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और इंद्र सभी प्राणियों, सभी अंगों और सभी करणों का निर्माण कर रहे हैं। वे उन्हें नियंत्रित करने में भी सक्षम हैं। लेकिन भगवान महादेव (शिव) उनके बीच आकाश की तरह मौजूद हैं और स्थायी रूप से स्थिर हैं || ५७ ||
एको रुद्रो महेशः शिव इति च महादेव एवेष सर्वव्यापी
यः श्रूयतेऽस्मिनंच्छ्रुतिशिरसि तथाथर्वशीर्षाभिधे च।
देवाः सर्वे यदन्तस्थितिजुष इह ते विष्णुपूर्वास्ततोन्यः
को वा स्याद्व्यापकोऽस्मान्निरतिशयचिदाकाशरूपान्महेशात् ॥३.५८॥
एक रुद्र, महेश, शिव और महादेव जिन्हें अथर्वशिर उपनिषद में और अथर्ववेद की अन्य उपनिषदों में भी सर्वव्यापी सुना जाता है, जिन सर्वेश्वर,महेश्वर के भीतर विष्णु से शुरू होने वाले सभी देवता स्थित हैं, जो अगम्य चेतना के रूप में हैं, जो निरतिशय चिदाकाश रूप हैं उनके अलावा कौन हो सकता है सर्वव्यापी?
‘‘एको हि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थुर्य इमांल्लोकानीशत ईशनीभिः।
प्रत्यङ्जनांस्तिष्ठति सञ्चुकोचान्तकाले संसृज्य विश्वा भुवनानि गोपाः ||३.२|| श्वेताश्वतरउपनिषत्’’
जो समस्त विश्व ब्रह्माण्ड की रक्षा तथा उन पर शासन करता है वह, रुद्र, वास्तव में केवल एक ही है। उसके समीप कोई नहीं है जो उसे दूसरा बना सके। वह सभी प्राणियों के हृदय में विद्यमान है। सभी जगतों का सृजन और पालन करने के बाद अंत में वह अपने आप में इसे निवर्तित (लीन) कर लेता है। शिव संबन्धी उपनिषदें निम्नलिखित हैं —
१.अक्षमालिका उपनिषद २. बृहज्जाबालोपनिषत् ३. भस्मजाबालोपनिषत् ४. रुद्रहृदयोपनिषत् ५. रुद्राक्ष जाबालोपनिषद ६. शरभोपनिषत् ७. श्वेताश्वतरोपनिषत् ८. अथर्वशिखोपनिषत् ९. अथर्वशिर उपनिषत् १०. कालाग्निरुद्रोपनिषत् ११. कैवल्योपनिषत् १२. गणपत्युपनिषत् १३. जाबाल्युपनिषत् १४. दक्षिणामूर्ति उपनिषद १५. पञ्चब्रह्मोपनिषत्। ||५८||
नाभौ ब्रह्माणमुक्त्वा हरिमपि हृदये रुद्रमेनं भ्रुवोस्तन्मध्ये
श्रुत्यन्त एवं प्रणवविवरणे नारसिंघाभिधे च।
विज्ञेयः सोऽयमात्मा शिव इति च चतुर्थोऽद्वितीयः प्रशान्त
श्चेत्याहान्ते प्रजेशस्त्रिदशपरिषदस्तत्स ईशः प्रपूज्यः ॥३.५९॥
नृसिंह तापनी उपनिषद में, प्रणव का (ॐ शब्द का) वर्णन करते हुए बताया कि प्रजापति, ब्रह्मा उस विराट पुरुष के नाभि क्षेत्र में स्थित हैं, हरि हृदय क्षेत्र में और रुद्र को भौंहों के बीच में होने के लिए कहा, अंत में देवों के समूह से कहा कि इस आत्मा (स्वयं) को शिव के रूप में जानना चाहिए, जो चौथे (प्रणव का चौथा हिस्सा अर्ध मात्रा रूप) हैं, जो शांत हैं और जो एकमेवाद्वितीयं दूसरे के बिना हैं । इसलिए वे ही ईशान भगवान् पूजा के योग्य हैं।
ॐ देवा ह वै प्रजापतिं अब्रुवन् अणोरणीयां – समिममात्मानमोङ्कारं नो व्याचक्ष्वेति | ‘‘प्रपञ्चोपशमं शिवं शान्तमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः। (नृसिंहोत्तरतापनीयोपनिषद)’’ ||५९||
कैवल्यं प्राप्नुयात्कः पुरुष इह शिवं केवलं त्वां विहाय
स्वामिन्नीशं तथान्यं जगति सदसतोरत्र विष्णोर्विधेर्वा।
चिन्मात्रः प्रत्यगात्मा त्वमसि खलु सदा पूर्व एकः
शिवोऽतस्त्वामेवैकं भजेऽहं सततमपि जगत्साक्षिणं निर्विशेषम् ॥३.६०॥
हे स्वामिन् ! आप कैवल्य-स्वरूप शिवको छोड़कर कौन ऐसा मनुष्य है जो इस सत् और असत् के मिश्रण से बने हुए संसार में यहाँ कैवल्य (मुक्ति) प्राप्त कर सकता है, अष्टमूर्ति के रूप में केवल शिव ही विद्यमान हैं। आप वास्तव में विष्णु और ब्रह्मा की आत्मा हैं। और सभी जीवों में प्रत्यगात्मा, अंतरात्मा के रूप में विचरते हैं। आप चिन्मात्र, शिव, केवल आप ही हैं, आप ही प्राचीन हैं। इसलिए मैं हमेशा केवल तुम्हारी ही पूजा करता हूं, जो कि संसार के साक्षी हैं, पूर्ण हैं और निर्विशेष हैं। कैवल्योपनिषत् में बताया है कि —
‘‘तमादिमध्यान्तविहीनमेकं विभुं चिदानन्दमरूपमद्भुतम् ।
उमासहायं परमेश्वरं प्रभुं त्रिलोचनं नीलकण्ठं प्रशान्तम्।।
ध्यात्वा मुनिर्गच्छति भूतयोनिं समस्तसाक्षिं तमसः परस्तात् ॥ ७ ॥’’
इस तरह से जो अचिन्त्य, अव्यक्त तथा अनन्त रूप से युक्त है, कल्याणकारी है, शांत-चित्त है, अमृत है, जो निखिल ब्रह्माण्ड का मूल कारण है, जिसका आदि, मध्य और अंत नहीं है, जो अनुपम है, विभु (विराट) और चिदानंद स्वरूप है, अरूप और अद्भुत है, ऐसे उन उमा (ब्रह्मविद्या) के साथ परमेश्वर को, सम्पूर्ण चर-अचर के पालनकर्ता को, शांत स्वरूप, तीन नेत्रों वाले, नीलकंठ को- जो समस्त भूत-प्राणियों का मूल कारण हैं, सभी के साक्षी हैं और अविद्यासे रहित हो प्रकाशमान हो रहे हैं, ऐसे उस (प्रकाश पुंज परमात्मा) को योगीजन ध्यानके माध्यम से ग्रहण करते हैं। || ६० ||
सूर्य उवाच – सूर्य ने कहा
एवं शिवस्य माहात्म्ये सर्वश्रुत्यन्तनिश्चिते। उद्भवेत्संशयः कस्य को मुच्येत च संशयात् ॥३.६१॥
शिव की ऐसी महानता में, जो कि सभी श्रुतियों , उपनिषदों का निष्कर्ष निकाल कर निश्चित की गयी है, उसमें किसको संदेह उत्पन्न हो सकता है ? और (क्योंकि ऐसा कोई नहीं है जिसको ऐसा संदेह उत्पन्न हो सकता है) तो फिर उस संदेह से छुटकारा कौन और कैसे पा सकेगा ? कैवल्योपनिषत् में कहा है कि :- ‘‘एवं विदित्वा परमात्मरूपं गुहाशयं निष्कलमद्वितीयम्। समस्तसाक्षिं सदसद्विहीनं प्रयाति शुद्धं परमात्मरूपम् || २४ ||’’ जो भी मनुष्य अविनाशी ब्रह्म को इस प्रकार से गुहा-अर्थात बुद्धि के गह्वर में स्थित, निष्कल रूप से (कला रहित ,अंग विहीन रूप से) एवं अद्वितीय,सदसत् से परे, सभी के साक्षी रूप में विद्यमान जानता है, वह पवित्रतम परमात्म स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। || ६१ ||
अतोऽरुण महाप्राज्ञ मुख्यान्तर्यामिणं मम। त्रिनेत्रं भज कैवल्यसंसिध्यै परमेश्वरम् ॥३.६२॥
अत: हे अरुण! हे महा बुद्धिमान ! मेरे जो मुख्य अन्तर्यामी हैं और तीन आंखों वाले सर्वोच्च स्वामी हैं उन्ही का आप भजन करें | वे ही कैवल्यमुक्ति की सिद्धि देने वाले परमेश्वर हैं | अतः उन्ही की पूजा करो | ‘‘अनेन ज्ञान माप्नोति संसारार्णव नाशनम् । तस्मादेवं विदित्वैनं कैवल्यं पद मश्नुते कैवल्यं पदमश्नुत इति ॥ २६ ॥’’ कैवल्योपनिषत् — इससे उस विशेष ज्ञान की प्राप्ति होती है, जो ज्ञान भवसागर को नष्ट कर देता है। इस प्रकार इस उपनिषद (विशेष रहस्य ज्ञान) को ऐसा जानकर व्यक्ति कैवल्य फल को प्राप्त कर लेता है, कैवल्य पद को प्राप्त हो जाता है ॥ || ६२ ||
॥इति सूर्य गीतायां तृतीयोऽध्यायः॥
|| अथ चतुर्थोऽध्यायः ||
सूर्य उवाच – सूर्य ने कहा
अथातः संप्रवक्ष्यामि तस्यान्तर्यामिणो गुरोः। जगत्सृष्ट्यादिकर्माणि लीलारूपाणि सुव्रत ॥४.१॥
हे पुण्यवान व्रतों का पालन करने वाले! अब मैं आपको जो मेरे और इस जगत के आंतरिक-नियंत्रण करने वाले और जगत के शिक्षक हैं, उनके बारे में बताऊंगा | तथा लीला विनोद के लिए इस ब्रह्मांड के निर्माण, निर्वाह और विनाश के रूप में, जो अद्भुत कर्म करते रहते हैं उनका भी वर्णन करूंगा | कामकला विलास के प्रथम श्लोक में इसका बहुत ही सुन्दर वर्णन है — ‘‘सकलभवनोदयस्थितिलयमयलीलाविनोदनोद्युक्तः | अंतर्लीन विमर्शः पातु महेशः प्रकाश मात्र तनुः’’ अजाव्यक्त लीला-वपुधारी, लीलामय लीला-विस्तारी,|| १ ||
आदौ जगत्ससर्जेदं पंचीकरणकर्मणा। यः स ईशो महामायः सर्वज्ञः सर्वशक्तिमान् ॥४.२॥
उन्होंने पञ्चीकरण की प्रक्रिया से शुरुआत में इस ब्रह्मांड का निर्माण किया, वे ईश्वर (स्वामी), महान भ्रमजाल को नष्ट करने वाले (मायाधीश), सर्वज्ञ और सबसे शक्तिशाली {समस्त शक्तियों के अधीश्वर}हैं ।{पञ्चीकरण} :- पृथ्वी, अप्, तेज, वायु और आकाश इन सबकी रचना में आधा भाग तो उनका अपना-अपना होता है और शेष आधे भाग ४ अंशों में विभक्त होकर एक एक अंश अन्य चार भूतों में मिल जाते हैं | इस प्रकार हर भूत में पांचों भूत मिलकर रहते हैं |पञ्चानां भूतानामेकैकं द्विधा विभज्य स्वार्धभागं विहायार्धभागं चतुर्धा विभज्येतरेषु योजिते पञ्चीकरणं मायारूपदर्शनमध्यारोपापवादाभ्यां निष्प्रपञ्चं प्रपञ्च्यते॥ ‘‘त्वत्तो जगद्भवति देव भव स्मरारे त्वय्येव तिष्ठति जगन्मृड विश्वनाथ। त्वय्येव गच्छति लयं जगदेतदीश लिङ्गात्मके हर चराचरविश्वरूपिन || ११ ||’’ हे चराचर विश्वरूप प्रभु, आपके लिंग स्वरूप से ही सम्पूर्ण जगत अपने अस्तित्व में आता है (उसकी उत्पत्ति होती है), हे शंकर! हे विश्वनाथ!अस्तित्व में आने के उपरांत यह जगत आप में ही स्थित रहता है–अर्थात आप ही इसका पालन करते हैं। अंतत: यह सम्पूर्ण सृष्टि आप में ही लय हो जाती है। || २ ||
चतुर्विधेषु भूतेषु निजमायावशीकृतान्। जीवान्प्रवेशयित्वानुप्रविवेश स्वयं वशी ॥४.३॥
उन सर्वान्तर्यामी प्रभु ने सभी जीवों को बनाया, जिन्हें उनकी माया के प्रभाव में लाया गया था, फिर उन्होंने चार प्रकार के शरीरों की रचना करके उन शरीरों में उन जीवों का प्रवेश कराया | इस जगत में प्रजा की क्रमशः चार योनियां हैं- जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज। इनमें से वृक्ष, लता, वल्ली और तृण आदि उद्भिज्ज कहलाते हैं। डाँस और जूँ आदि कीट जाति के प्राणी स्वेदज कहे गये हैं। जिनके पंख होते हैं और कान के स्थान में एक छिद्र मात्र होता है, ऐसे प्राणी अण्डज माने गये हैं। गाय ,भैंस आदि पशु, व्याल (हिंसक जंतु बाघ, चीते आदि) और मनुष्य- इनको जरायुज कहा जाता है | इस तरह आत्मा इन चार प्रकार की जातियों का आश्रय लेकर रहता है। (जो अंडे से पैदा होते हैं, जो पसीने से बाहर आते हैं , जो गर्भ से बाहर आते है और जो बीज से अंकुरित होते हैं) बाद में वह परमात्मा खुद उन सभी में घुस गया | ‘‘ ‘तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्’, इति । तदनु प्रविश्य । सच्च त्यच्चाभवत् । निरुक्तं च अनिरुक्तं च । निलयनं च अनिलयनं च । विज्ञानं च अविज्ञानं च । सत्यं च अनृतं च सत्यं अभवत् । यदिदं किं च । तत्सत्यमित्याचक्षते । (तै. उ. २ । ६ । १)’’ इसे रचकर वह इसी में अनुप्रविष्ट हो गया । इसमें अनुप्रवेश कर वह सत्य स्वरूप परमात्मा मूर्त- अमूर्त, [ देश कालादि परिच्छिन्न रूप से ] कहे जाने योग्य , और न कहे जाने योग्य, आश्रय – अनाश्रय, चेतन- अचेतन एवं व्यावहारिक सत्य- असत्य रूप हो गया । यह जो कुछ है उसे ब्रह्मवेत्ता लोग ‘सत्य’ इस नाम से पुकारते हैं | {वशी} माया शक्ति को अपने वश में रखने वाला अथवा जिसने अपनी इच्छाशक्ति और इन्द्रियों को वश में कर रखा हो।, ऐसे संयमी (ध्यान ,धारणा और समाधि से युक्त) पुरुष को वशी कहते हैं | || ३ ||
लीलारूपमपीदं च कर्म तस्य महेशितुः। प्रारव्धकर्मजं ज्ञेयमाधिकारिकतावशात् ॥४.४॥
लीला वपुधारक लीलाधर भगवान शिव के इस जगत के निर्माण रूप कर्म को लीला रूप ही जानना चाहिए | अथवा अधिकारी पुरुष होने के नाते यह जगत उनके प्रारब्ध जन्य कर्म का परिणाम है | उनके अधिकार की सीमा में होने (जगत के निर्माता आदि होने) के कारण संभव हो सकता है कि वे अपने स्वयं से ही इस जगत रूपी कर्म के कारण हैं | ‘‘स वा एष महानज आत्मा योऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु य एषोऽन्तर्हृदय आकाशस्तस्मिञ्छेते सर्वस्य वशी सर्वस्येशानः सर्वस्याधिपतिः स न साधुना कर्मणा भूयान्नो एवा साधुना कनीयानेष सर्वेश्वर एष भूताधिपतिरेष भूतपाल एष सेतुर्विधरण एषां लोकानामसम्भेदाय तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसा नाशकेनैतमेव विदित्वा मुनिर्भवति । एतमेव प्रव्राजिनो लोकमिच्छन्तः प्रव्रजन्ति । एतद्ध स्म वै तत्पूर्वे विद्वांसः प्रजां न कामयन्ते किं प्रजया करिष्यामो येषां नोऽयमात्मायं लोक इति ते ह स्म पुत्रैषणायाश्च वित्तैषणायाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति या ह्येव पुत्रैषणा सा वित्तैषणा या वित्तैषणा सा लोकैषणोभे ह्येते एषणे एव भवतः । स एष नेति नेत्यात्मागृह्यो न हि गृह्यतेऽशीर्यो न हि शीर्यतेऽसङ्गो न हि सज्यतेऽसितो न व्यथते न रिष्यत्येतमु हैवैते न तरत इत्यतः पापमकरवमित्यतः कल्याणमकरवमित्युभे उ हैवैष एते तरति नैनं कृताकृते तपतः ॥ २२ ॥’’ बृहदारण्यकोपनिषद चतुर्थोऽध्यायः नवद्वारे पुरे देही हंसो लेलायते बहिः। वशी सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च || १८ || श्वेताश्वतरोपनिषद् तृतीयोऽध्यायः | नवद्वार की पुरी में अर्थात यह शरीर नौ द्वारों (दो आँखे, दो नाक के नथुने, दो कान, एक मुँह, गुदा और उपस्थ) से युक्त है | उसी में इस हंस या आत्मा का निवास है। वह आत्मा के रूप में बाह्य जगत में लीला करता है। और वही इस सम्पूर्ण विश्व, समस्त चर-अचर जगत का विधाता है | सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी। नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्।।५.१३।। जिसकी इंद्रियां और मन वश में हैं, ऐसा देहधारी पुरुष नौ द्वारों वाले शरीररूपी पुर में सम्पूर्ण कर्मों का विवेकपूर्वक मनसे त्याग करके निःसन्देह न करता हुआ और न करवाता हुआ सुखपूर्वक (अपने स्वरूप में) स्थित रहता है | वह न तो कर्म करता है और ना ही किसी से करवाता है।। || ४ ||
स ह्यादिकारिकः श्रेष्ठः पूर्वं जीवत्वमागतः। समुच्चयादभूदीशो ज्ञानोपासनकर्मणाम् ॥४.५॥
क्योंकि वही , ब्रह्मांड में सबसे प्रथम कर्ता है , सबसे श्रेष्ठ, उत्कृष्ट व्यक्ति, जिसने सबसे पहले जीवत्व को प्राप्त किया था, विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता। विश्व को बनाने वाला और संसार का रक्षक | और फिर वही ज्ञान, उपासना और कर्म के समुच्चय के माध्यम से ईश्वर बन गया | ‘‘यो योनिं योनिमधितिष्ठत्येको विश्वानि रूपाणि योनीश्च सर्वाः। ऋषिं प्रसूतं कपिलं यस्तमग्रे ज्ञानैर्बिभर्ति जायमानं च पश्येत् || २ ||’’ श्वेताश्वतरोपनिषद् पञ्चमोऽध्यायः | ‘वह’ जो ‘एकमेव’ है, भिन्न-भिन्न योनियों में (गर्भों में), अनेकानेक रूपों में तथा समस्त प्राणियों के गर्भ में प्रवेश करता है। ‘उसी’ ने आरम्भ में माँ के गर्भ में स्थित कपिल ऋषि को विविध ज्ञान से परिपूर्ण किया; ‘उसी’ ने कपिल को जन्म लेते भी हुए देखा। ||५||
प्राक्कल्पाधिकृतो देवः स्वारब्धक्षपणात्स्वयम्। अपहाय निजां मायां प्राप्तवान्परमं पदम् ॥४.६॥
जो पूर्व कल्प में ईश्वर के रूप में अधिकृत था, उसने अपने प्रारब्ध कर्म के क्षय होने के बाद, अपनी माया दूर करके (संकुचित करके) परम अवस्था को प्राप्त कर लिया। ‘‘अनाद्यनन्तं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्रष्ठारमनेकरूपम्। विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः || १३ ||’’ श्वेताश्वतरोपनिषद् पञ्चमोऽध्यायः | इस अस्तव्यस्तता एवं अव्यवस्थित प्रपंच (कलिल) के बीच उस ‘अनादि’ एवं ‘अनन्त’ को, जो अनेक रूप धारण करके इस विश्व की रचना करता है, तथा ‘एकमेव’ होते हुए भी उसे परिवेष्टित कर लेता है, उस ‘देव’ (ईश्वर) को जो जान लेता है, वह व्यक्ति समस्त पाशों से (बन्धनों से) मुक्त हो जाता है | || ६ ||
अथ तामाश्रितो जीवः कल्पादौ पूर्ववत्क्रमात्। सृष्ट्वा सर्वाधिकारी सन्जगत्पाति च हन्ति च ॥४.७॥
अब, इस कल्प की शुरुआत में, जैसा कि पिछले कल्प में था , एक और जो जीव सर्वोच्च अधिकारी के रूप में कार्य करता है, जिसने उस माया का उपयोग करके इस ब्रह्मांड का निर्माण किया है और सर्वाधिक उन्नत पद पर विराजमान होते हुए इस जगत को बनाए रखता है (पालन करता है) और नष्ट भी कर देता है | ‘‘ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत । ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः ॥१॥ समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत । अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी ॥२॥ सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् । दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः ॥३॥ ऋग्वेदः सूक्तं १०.१९०’’ अथातः संप्रवक्ष्यामि ध्यानं संसार नाशनम् । ऋतं सत्यं परं ब्रह्म सर्व संसार भेषजम् ॥ १॥ ऊर्ध्वरेतं विश्वरूपं विरूपाक्षं महेश्वरम् । सोऽहमित्यादरेणैव ध्यायेद्योगीश्वरेश्वरम् ॥ २॥ जाबालदर्शन उपनिषद/खण्डः ९ – त्वयि योगं च सांख्यं च तपोविद्याविधिक्रियाः।। ऋतं सत्यं दया ब्रह्म अहिंसा सन्मतिः क्षमा।। १६.२९ ।।ध्यानं ध्येयं दमः शांतिर्विद्याऽविद्या मतिर्धृतिः।। कांतिर्नीतिः प्रथा मेधा लज्जा दृष्टिः सरस्वती।। १६.३० ।। तुष्टिः पुष्टिः क्रिया चैव प्रसादश्च प्रतिष्ठिताः।। द्वात्रिंशत्सुगुणा ह्येषा द्वात्रिंशाक्षरसंज्ञया।। १६.३१ ।। लिङ्ग पुराण – पूर्व भाग/अध्याय १६ – ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् | उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् || हम त्रिनेत्र को पूजते हैं, जो सुगंधित हैं, हमारा पोषण करते हैं,जिस तरह खरबूजा का फल, शाखा के बंधन से मुक्त हो जाता है, वैसे ही हम भी मृत्यु और नश्वरता से मुक्त हो जाएं। इस त्र्यम्बक मन्त्र में अनुष्टुप छन्द है इसलिए इसमें बत्तीस अक्षर हैं , उन बत्तीस अक्षरों में जो शक्तियां निहित उनका निरूपण उपरोक्त लिंग पुराण के श्लोकों में किया गया है | (महाप्रलय के बाद इस कल्प के आरम्भ में सब ओर से प्रकाशमान तपस्वरूप परमात्मा से ऋत (सत्संकल्प) और सत्य (यथार्थ भाषण) की उत्पत्ति हुई। उसी परमात्मा से रात्रि और दिन प्रकट हुए तथा उसी से जलमय (गतिमय) समुद्र का आविर्भाव हुआ। जलमय समुद्र की उत्पत्ति के पश्चात दिनों और रात्रियों को धारण करने वाला काल स्वरूप संवत्सर प्रकट हुआ {वह (वशी) स्वामी} जो कि पलक झपकाने वाले जंगम प्राणियों और स्थावरों से युक्त समस्त संसार को अपने अधीन रखने वाला है। इसके बाद सबको धारण करने वाले परमेश्वर ने सूर्य, चन्द्र, दिवं माने (स्वर्ग लोक),पृथ्वी, अंतरिक्ष तथा महर्लोक आदि सभी लोकों की भी पूर्व कल्प के अनुसार सृष्टि की | || ७ ||
क्रियमाणतया तेन नियमेनैव कर्मणाम्। त्रयाणां तस्य कर्मित्वमीशस्याप्युपपद्यते ॥४.८॥
एक ही नियम से तीन प्रकार के कर्म (सृजन, निर्वाह और विनाश) किए जाने के कारण, ईश्वर कर्ता का दर्जा प्राप्त करता है | ‘‘आरभ्य कर्माणि गुणान्वितानि भावांश्च सर्वान्विनियोजयेद्यः। तेषामभावे कृतकर्मनाशः कर्मक्षये याति स तत्त्वतोऽन्यः || ४ || श्वेताश्वतरोपनिषद्षष्ठोऽध्यायः’’ — इस प्रकार ‘वह’ उन कर्मों का आरम्भ करता है, जो प्रकृति के गुणों के अधीन हैं तथा समस्त सत्ताओं को उनके कर्मों में नियुक्त कर देता है: और जब ये सब सत्ताएँ नहीं रहतीं तब उस कर्म का लोप (नाश) हो जाता है; एवं कर्म के क्षय होने से ‘वह’ उनसे प्रयाण कर जाता है; क्योंकि ‘अपने’ परम सत्य स्वरूप में, तत्त्वतः ‘वह’ उनसे भिन्न है | त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्। वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप।।११.३८।। श्रीमद् भगवद्गीता — आप आदिदेव और पुराण (सनातन) पुरुष हैं। आप इस जगत् के परम आश्रय, ज्ञाता, ज्ञेय, (जानने योग्य) और परमधाम हैं। हे अनन्त रूप आपसे ही यह विश्व व्याप्त है।। ||८||
जीवन्मुक्तसमानत्वं यतस्तस्यावगम्यते। अतः प्रारब्धकर्मित्वमवश्यं तस्य सिध्यति ॥४.९॥
चूँकि ईश्वर को जीवन्मुक्त के समान समझा जाता है, इसलिए यह इस प्रकार है कि वह निश्चित रूप से अपने प्रारब्ध कर्म से संचालित होता है | ‘‘प्रारब्धं बलवत्तरं खलु विदां भोगेन तस्य क्षयः सम्यग्ज्ञानहुताशनेन विलयः प्राक्संचितागामिनाम्। बह्मात्मैक्यमवेक्ष्य तन्मयतया ये सर्वदा संस्थिता स्तेषां तत्त्रितयं न हि क्वचिदपि ब्रह्मैव ते निर्गुणम् ॥ ४५३ ॥’’ विवेक चूड़ामणि– विद्वान का प्रारब्ध, जो कर्म है वह अवश्य ही बलवान होता है, उसका क्षय तो केवल भोगने से ही हो सकता है। उसके अतिरिक्त संचित और आगामी कर्म का तो तत्त्वज्ञान रूप अग्नि से क्षय हो जाता है। किंतु जो ब्रह्म और आत्मा की एकता को जानकर सदा उसी भाव में स्थित रहते हैं, उनकी दृष्टि में तो वे (प्रारब्ध, संचित और आगामी-क्रियमाण) तीनों प्रकार के कर्म कहीं हैं ही नहीं। वे तत्त्वज्ञानी तो मानो साक्षात निर्गुण ब्रह्म ही हैं | || ९ ||
ब्रह्मवित्त्वं हि तस्य स्यान्न तु ब्रह्मत्वमीशितुः। सृष्ट्यादिकर्मकर्तृत्वदर्शनान्माययापि वा ॥४.१०॥
ईश्वर को ब्रह्म के ज्ञाता होने का दर्जा प्राप्त है लेकिन स्वयं ब्रह्म का नहीं | ऐसा इसलिए है क्योंकि वे सृजन आदि गतिविधियों को करने के लिए माया का उपयोग करते देखे जाते हैं | ‘‘सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्रष्ठारमनेकरूपम्। विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति || १४ ||’’ श्वेताश्वतरोपनिषद् चतुर्थोऽध्यायः – इस महती अव्यवस्था (कलिल) के बीच जो सूक्ष्मातिसूक्ष्म (सत्य) है, विश्व का जो अनेक रूप धारी स्रष्टा है, तथा जो ‘एक’ होते हुए भी समस्त विश्व को परिवेष्टित किये हुए है, उसे ‘शिव’–मंगलकारी जानकर मनुष्य आत्यन्तिक रूप से शांति को प्राप्त करता है | || १० ||
जीवसृष्ट्यादिकर्तृत्वं ब्रह्मणोऽपि तु वर्तते। तथापि पूर्वकर्मित्वं तस्य न श्रूयते क्वचित् ॥४.११॥
प्राणियों की रचना आदि के लिए कर्ता ब्रह्म के लिए भी बताया जाता है , लेकिन फिर भी यह कभी नहीं सुना जाता है कि यह उसके पूर्वकृत कर्मों का फल है अर्थात इनकी पिछली क्रियाएं यह निर्धारित करती हैं कि यह उनकी वर्तमान स्थिति है | ‘‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते । येन जातानि जीवन्ति । यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति । तद्विजिज्ञासस्व । तद् ब्रह्मेति ॥ – तैत्तिरीयोपनिषत् ३-१-३’’ जिसके द्वारा,इस सृष्टि का निर्माण होता है,जिसके द्वारा इस सृष्टि का पोषण होता है और जिसमें सब लोग जाकर,अपने आप विलीन हो जाते हैं,उस एक को ही जानना चाहिए। “तद् ब्रह्म”-वह परमात्मा है | एष सर्वेश्वरः एष सर्वज्ञ एषोऽन्तर्याम्येष योनिः सर्वस्य प्रभवाप्ययौ हि भूतानाम् || ६ || यह ‘सर्वेश्वर’ है, यह ‘सर्वज्ञ’ है, यह है ‘अन्तरात्मा’-अंतर्यामी, यह समस्त विश्व की ‘योनि’ अर्थात जन्म देने वाला ‘गर्भ’ है, यह समस्त प्राणियों की ‘उत्पत्ति’ एवं उनका ‘प्रलय’ है | || ११ ||
कर्मणः प्रागभावत्वाद्भावत्वाद्ब्रह्मणो विभोः। पूर्वकर्मवतो हि स्यात्कर्म प्रारब्धसंज्ञितम् ॥४.१२॥
ब्रह्म में कर्मों का प्रागभाव है – (प्रागभाव-उत्पत्ति के पूर्व वस्तु का अभाव) लेकिन ब्रह्म का अपना अभाव नहीं है | इसका कारण पिछले जन्मों में कर्मों का अभाव और उसके सर्वव्यापी होने के कारण (जो अतीत में मौजूद है, वर्तमान के साथ-साथ भविष्य में भी है)। प्रारब्ध कर्म केवल उसी के लिए संभव है, जिसके पास पिछले जीवन के कर्मों का भंडार हो | ब्रह्म तो देश ,काल और वस्तु से परिच्छिन्न नहीं है ‘‘नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्। किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नंभः किमासीद् गहनंगभीरम् ॥१॥’’ नासदीय सूक्त ऋग्वेद के १० वें मंडल का १२९ वां सूक्त है | अन्वय- तदानीम् असत् न आसीत् सत् नो आसीत्; रजः न आसीत्; व्योम नोयत् परः अवरीवः, कुह कस्य शर्मन् गहनं गभीरम्। अर्थ- उस समय अर्थात सृष्टि की उत्पत्ति से पहले प्रलय दशा में असत् अर्थात अभावात्मक तत्त्व नहीं था। सत्= भाव तत्त्व भी नहीं था, रजः=स्वर्गलोक मृत्युलोक और पाताल लोक नहीं थे, अंतरिक्ष नहीं था और उससे परे जो कुछ है वह भी नहीं था, वह आवरण करने वाला तत्व कहाँ था और किसके संरक्षण में था। उस समय गहन= कठिनाई से प्रवेश करने योग्य गहरा क्या था, अर्थात वे सब नहीं थे | || १२ ||
सृष्ट्यादिकर्मबद्धत्वे तस्य मायावशत्वतः। वश्यमायत्व वचनं व्यर्थमेवेति चेन्न च ॥४.१३॥
अगर कोई कहता है कि यह तो माया की शक्ति से है कि ईश्वर सृष्टि आदि की गतिविधियों में पकड़ा जाता है {अर्थात् माया के कारण सृष्टि आदि करने के लिए बाध्य है } तो फिर उसे वश्यमायी क्यों कहा जाता है ? {वश्यमायत्व वचनं व्यर्थं} (जो माया का उपयोग करते हुए दूसरों पर शासन करता है) वही वश्यमायी है | अन्यथा उसका मायाधीश होना बेकार है, लेकिन ऐसा नहीं है | ‘‘एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा यः करोति। तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् || १२ || कठोपनिषद् अध्याय २ वल्ली २’’ ”समस्त प्राणियों के अंतर में स्थित, शांत एवं सबको वश में रखने वाला एकमेव ‘आत्मा’ (ब्रह्म) एक ही रूप को बहुविध रचता है; जो धीर पुरुष ‘उस’ का आत्मा में दर्पण वत अनु दर्शन करते हैं उन्हें शाश्वत सुख प्राप्त होता है, इससे इतर अन्य लोगों को नहीं | जैसे एक ही बिम्ब अनेक दर्पणों की उपाधि से अनेक प्रतिबिम्बों के रूप में प्रतीत होता है | ‘‘समुन्मीलत् संवित् कमलमकरन्दैकरसिकं भजे हंसद्वन्द्वं किमपि महतां मानसचरम् । यदालापादष्टादशगुणितविद्यापरिणति र्यदादत्ते दोषाद् गुणमखिलमद्भ्यः पय इव ॥ ३८॥ सौन्दर्यलहरी’’ भगवत्पाद आचार्य शंकर कहते हैं कि मैं हंस जोड़े के सामने प्रार्थना करता हूं, जो केवल ज्ञान के खुले कमल के फूलों से अमृत का आनंद लेते हैं। जो महान लोगों के मन रूपी झील में वे तैरते हैं, और केवल शब्दों से उनका वर्णन नहीं किया जा सकता है। उनकी बातचीत से ही अठारह विद्यायें आती हैं, और वे अच्छे को बुरे से अलग करती हैं, बस जैसे हंस पक्षी दूध को पानी से अलग करता है।|| १३ ||
स्वाधिकारावसाने हि कैवल्यं नोपरुध्यते। अतस्तस्य प्रसिद्धं तद्वश्यमायत्वमर्थवत् ॥४.१४॥
जब ईश्वर के निर्धारित कर्तव्य समाप्त हो जाते हैं तब उसकी कैवल्य (परम मुक्ति) बाधित नहीं होती है। इसलिए उनका माया वशित्व के रूप में प्रसिद्ध होना (माया का उपयोग करने वाले और उस महाशक्ति द्वारा दूसरों पर शासन करने वाले रूप में वर्णन) सार्थक है | यहाँ ईश्वर माने हिरण्यगर्भ समझना चाहिए | हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्॥ स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ १ ॥ ऋग्वेद -१० /१२१ सृष्टि के आदि में केवल हिरण्यगर्भ ही थे, जो सभी प्राणियों का प्रकट अधीश्वर हैं। सम्पूर्ण सृष्टि को पृथ्वी और अंतरिक्ष को वे ही धारण करते हैं, आइये उन देवता की उपासना हम हवि से करें। तथा च ‘‘यो देवानां प्रभवश्चोद्भवश्च विश्वाधिपो रुद्रो महर्षिः। हिरण्यगर्भं पश्यत जायमानं स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु || १२ || श्वेताश्वतरोपनिषद् चतुर्थोऽध्यायः’’ वह जो देवों के प्रभव का (जन्म का स्थान) है तथा उनकी सत्ता का उद्भव स्थान है, जो विश्व का अधिपति है, ‘रुद्र’ है, ‘महर्षि’ -महान् द्रष्टा है, एवं जिसने जन्म ग्रहण करते हुए ‘हिरण्यगर्भ’ को देखा था,-वह हमें तेजस्वी तथा शुभ-बुद्धि से संयुक्त करे |अर्थात् उसका साक्षित्व कभी बाधित नहीं होता | || १४ ||
स्थितौ तु तस्य मायित्वं कामित्वादिवदिष्यते। न धनित्वादिवत्कर्म पारवश्यान्निरन्तरम् ॥४.१५॥
ब्रह्माण्ड को बनाए रखने के दौरान, ईश्वर की माया पर पकड़ उसी के समान है, जैसे धन कामी पुरुष धन की इच्छा करता है और जो पहले से ही धन रखता है उसकी तुलना धन कामी से नहीं की जा सकती , क्योंकि उसके {धनकामी के} कर्म हमेशा किसी और के नियंत्रण में होते हैं | ‘‘सोऽकामयत । बहुस्यां प्रजायेयेति । स तपोऽतप्यत । स तपस्तप्त्वा । इदं सर्वमसृजत । यदिदं किञ्च ।’’ ( तैत्तिरीयोपनिषद /ब्रह्मानन्दवल्ली अनुवाक ६) ‘परमात्म तत्त्व’ ने आदिकाल में कामना की ”मैं अपनी प्रजा के जन्म के हेतु बहुरूप हो जाऊँ।” अतः ‘उसने’ ‘स्वयं’ को पूर्णतया चिन्तन में एकाग्र किया, और ‘अपने’ उस चिन्तन की शक्ति से, अपने तप से ‘उसने’ इस समस्त विश्व की सृष्टि की, हाँ, जो कुछ भी विद्यमान है, उसको रचा |||१५||
जाग्रद्वत्सृष्टिकर्म स्यात्स्वप्नवत्स्थितिकर्म च। जगत्प्रलयकर्म स्यात् सुप्तवत्तस्य मायिनः ॥४.१६॥
उस ईश्वर के लिए, जो माया का शासक है , उसके लिए सृष्टि निर्माण की गतिविधि मन की जागृत अवस्था की तरह है, निर्वाह (पालन) की स्थिति स्वप्न की तरह है और विनाश गहरी नींद की अवस्था की तरह है | || १६ ||
अवस्थात्रयवत्त्वेन कर्मत्रितयवत्तया। शरीरत्रयवत्त्वेन जीवः सोऽपीति केचन ॥४.१७॥
कुछ लोग सोचते हैं कि तीनों प्रकार की अवस्थाओं को (जाग्रत ,स्वप्न और सुषुप्ति) धारण करने के कारण, तथा तीनों प्रकार के कार्यों को (सृष्टि ,स्थिति और प्रलय) के उपादान और निमित्त होने के कारण और तीन प्रकार के शरीर (स्थूल ,सूक्ष्म और कारण) को स्वीकार करने कारण ईश्वर भी एक जीव ही है | || १७ ||
तदयुक्तं पुरा जीवोऽप्यद्य ब्रह्मात्मवित्तया। सर्वज्ञत्वादिसम्पत्त्या स हि जीवविलक्षणः ॥४.१८॥
लेकिन यह सही नहीं है। भले ही वह पहले कभी एक जीव था, परन्तु अब, क्योंकि वह ब्रह्म को जानता है और सर्वज्ञता आदि गुणों से संपन्न है, इसलिए वह जीव से अलग है (विलक्षण है)| ‘‘स यो ह वै तत् परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति नास्याब्रह्मवित् कुले भवति। तरति शोकं तरति पाप्मानं गुहा ग्रन्थिभ्यो विमुक्तोऽमृतो भवति || ९ ||’’ मुण्डकोपनिषद् तृतीय मुण्डक द्वितीय खण्ड — वस्तुतः वह जो कि उस ‘परम ब्रह्म’ को जानता है वह स्वयं ‘ब्रह्म’ बन जाता है; उसके कुल में ‘ब्रह्म’ को न मानने वाला पैदा नहीं होता। वह शोक और मोह से पार हो जाता है, वह पापों से तर जाता है, वह हृद् गुहा की ग्रंथियों से मुक्त होकर अमर हो जाता है | || १८ ||
जीवनमुक्तसमानत्वान्न कर्मत्रयमीशितुः। प्रारब्धमात्रबद्धत्वादधिकारवशादिह ॥४.१९॥
ईश्वर के कर्म जीवन्मुक्त के समान होने के कारण, उसके पास तीन प्रकार के कर्म नहीं हैं (कुछ कर्म वे हैं जो दुःख उत्पन्न करते हैं, और कुछ वे हैं जो सुख उत्पन्न करते हैं तथा कुछ ऐसे हैं जो सुख और दुख दोनों उत्पन्न करते हैं)। लेकिन ईश्वर तो केवल अपने प्रारब्ध कर्म से बंधे हुए होने के कारण तथा अधिकारी पुरुष होने के कारण अपने निर्धारित कर्तव्यों को पूरा करता है | योगदर्शन के अनुसार कर्म चार प्रकार के होते हैं – १ .शुक्ल कर्म , (शुभ कर्म या पुण्य कर्म) २. कृष्ण कर्म ,(अशुभ या पापकर्म) ३. शुक्ल-कृष्ण, (मिश्र कर्म माने मिले जुले कर्म) ४. अशुक्लाकृष्ण (न पुण्य और न पाप) । पाप कर्म कृष्ण हैं , पुण्य कर्म शुक्ल हैं , दोनों से मिश्रित कृष्ण-शुक्ल और निष्काम कर्म अशुक्ल-अकृष्ण हैं | प्रथम तीन बंध के कारण हैं और चौथा न बंध का कारण है और न मुक्ति का | कर्म तो अपने आप में जड़ है , वह बन्धन या मुक्ति का कारण नहीं हो सकता | कर्तृत्व के अहंकार से बन्धन होता है | व्यक्ति यदि कर्तृत्व से रहित हो जाए तो नित्य मुक्त ही है , क्योंकि कर्तृत्व के बिना भोक्तृत्व की सिद्धि ही नहीं होती | रजोगुण के कारण क्रियाशील चित्त में कर्म होता है, फिर उससे संस्कार या कर्माशय बनता है , फिर उससे वासना और वासना से पुनः कर्म, यह चक्र बराबर चलता रहता है | कर्म वासना के अधीन है । अनेक जन्म पहले की वासनाएँ अनेक जन्म पश्चात् उद्बुद्ध होती हैं । अविद्या ही वासना का मूल कारण है । धर्म, अधर्म आदि कार्य हैं और वासना इसका कारण । मन वासना का आश्रय है, निमित्त भूत वस्तु आलंबन है, पुण्य-पाप उसके फल हैं ।(योगदर्शन सूत्र) | ‘‘कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम् ॥४.७॥’’ योगी के कर्म पाप एवं पुण्य से रहित होते हैं अर्थात निष्काम होते हैं जबकि योगी से भिन्न सांसारिक व्यक्तियों के कर्म तीन प्रकार के होते हैं । योगियों से अन्य दूसरे व्यक्तियों के अलग से तीन प्रकार के कर्म होते हैं | || १९ ||
अधिकारावसाने तद्ब्रह्मत्वं सम्भविष्यति। इति वेदान्तसिद्धेऽर्थे व्यभिचारः कुतो भवेत् ॥४.२०॥
जब उसके निर्धारित कर्तव्य जब समाप्त हो जाएंगे, तो वह ब्रह्म के साथ एक हो जाएगा। वेदांत के इस स्थापित निष्कर्ष में, कोई भ्रम कैसे हो सकता है? ‘‘पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति ॥ ४.३४॥’’ (योगदर्शन सूत्र) इस जीवन के प्रयोजन अथवा लक्ष्य से रहित हुए गुणों का वापिस अपने कारण में लीन हो जाना ही कैवल्य मुक्ति होता है | अथवा आत्मा का अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित हो जाना ही मोक्ष कहलाता है | || २० ||
ब्रह्मैवैकमकर्मोक्तं श्रुतिभिः स्मृतिभिश्च तत्। ईशस्य कर्मतोक्तिस्तु श्रूयते ह्यौपचारिकी ॥४.२१॥
ब्रह्म एकमात्र अकर्ता है, यह श्रुतियों और स्मृतियों में सुना जाता है। और उन्हीं ग्रंथों में ( निगम और आगमों में) जो ईश्वर का कर्तापन, सुना जाता है, वह एक औपचारिक है ,आलंकारिक है | श्रीमद् भगवद्गीता में कहा है –‘‘प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः। यः पश्यति तथाऽऽत्मानमकर्तारं स पश्यति।।१३ .३०।।’’ जो पुरुष समस्त कर्मों को सर्वश: प्रकृति द्वारा ही किये गये देखता है तथा आत्मा को अकर्ता देखता है, वही (वास्तव में) देखता है।। || २१ ||
सकर्मत्वेऽपि तस्य स्यात्कर्ममोचकतेशितुः। संचितागामिहीनत्वात्सर्वज्ञत्वाच्च सत्तम ॥४.२२॥
हे श्रेष्ठ तम! अरुण ! भले ही शिव एक कर्ता हैं, फिर भी उनके पास दूसरों को मुक्त करने की शक्ति है क्योंकि वे संचित और आगामी कर्मों से मुक्त हैं और सर्वज्ञ हैं | जैसे एक मशीन काम करती है लेकिन उसमें कर्तृत्व या भोक्तृत्व नहीं होता | परन्तु एक सांसारिक मशीन जड़ होती है और आध्यात्मिक मशीन चेतन होती है इतना ही अन्तर उन दोनों में है | और शुद्ध चेतन में भी कर्तृत्व या भोक्तृत्व नहीं होता | शुद्ध चेतन के साथ तादात्म्य होने पर ब्रह्मत्व के साथ एकात्म्य होना आसान हो जाता है | || २२ ||
ईश्वरब्रह्मणोर्भेदं सकर्माकर्मतादिभिः। सुप्रसिद्धिमपह्नोतुं कः समर्थोऽस्ति मानतः ॥४.२३॥
ईश्वर और ब्रह्म के बीच का भेद प्रसिद्ध है , एक ईश्वर कर्ता और दूसरा ब्रह्म अकर्ता आदि होने के बीच का अंतर सर्वविदित है। इसे प्रमाणों के द्वारा कौन निरस्त कर सकता है ? कौन है जो गर्व से कह सकता है कि ईश्वर और ब्रह्म में कोई अंतर नहीं है | स्वामी विद्यारण्य ने पञ्चदशी के छठे प्रकरण में कहा कि — ‘‘मायाख्याया कामधेनोर्वत्सौ जीवेश्वरावुभौ । यथेच्छं पिबतां द्वैतं तत्त्वं त्वद्वैतमेव हि ॥ २३६॥’’ माया नाम की कामधेनु के दो बछड़े हैं , एक जीव और दूसरा ईश्वर ,ये दोनों भले ही यथेच्छ द्वैत रूपी दूध पियें परन्तु तत्व तो अद्वैत ही है |अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत्। अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्य तन्मृत्युमुखात् प्रमुच्यते || १५ || कठोपनिषद् अध्याय १ वल्ली ३ ”वह ‘परतत्त्व’ जिसमें न शब्द है, न स्पर्श और न रूप है, जो अव्यय है जिसमें न कोई रस है और न कोई गंध है, जो नित्य है, अनादि तथा अनंत है, ‘महान् आत्मतत्त्व’ से भी उच्चतर (परे) है, ध्रुव (स्थिर) है उसका दर्शन करके मृत्यु के मुख से मुक्ति मिल जाती है।” || २३ ||
ईश्वरस्याप्यकर्मत्वं यदि ब्रूयान्निरंकुशम्। स द्वैती न कदाप्यस्मात्संसारान्मुक्तिमाप्नुयात् ॥४.२४॥
यदि कोई निरंकुश होकर ईश्वर का भी अकर्तृत्व (अकर्ता पना) सिद्ध करता है , तो उस द्वैतवादी को दुनिया से कभी भी मुक्ति नहीं मिलेगी | ‘‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।१८.६१।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ हे अर्जुन (मानों किसी) यंत्र पर आरूढ़ समस्त भूतों को ईश्वर अपनी माया से घुमाता हुआ (भ्रामयन्) भूत मात्र के हृदय में स्थित रहता है।। रामो भामिनि लोकस्य चातुर्वर्ण्यस्य रक्षिता । मर्यादानां च लोकस्य कर्ता कारयिता च सः ।। ५.३५.११।। श्रीमद्वाल्मीकियरामायणे सुन्दरकाण्डे पञ्चत्रिंशतितमः सर्गः | स प्रभुः सर्वभूतानां विभुश्च भरतर्षभ ।संक्षेपो विस्तरश्चैव कर्ता कारयिता तथा || ६.८.१७ || महाभारतम्-भीष्मपर्व-अध्याय ८ ||२४||
यतस्तत्पदवाच्योऽर्थः स हेय इति कथ्यते। अतस्तस्य न नित्यत्वं नाकर्मत्वं च युज्यते ॥४.२५॥
चूँकि जिसे {तत्}’उस’ शब्द से दर्शाया जाता है (प्रसिद्ध वेदांत वाक्यांश {तत् त्वं असि} “वह तुम हो”) इस वाक्य के वाच्यार्थ को अस्वीकार किए जाने के योग्य माना जाता है, इसलिए इसके लिए स्थायित्व या अकर्तृत्व का उल्लेख करना उचित नहीं है | क्योंकि वह {तत्} पद का वाच्यार्थ है न कि लक्ष्यार्थ | वाच्यार्थ तो विनाशशील ही होता है फिर चाहे वह जीव हो या ईश्वर | लक्ष्यार्थ ही अविनाशी ब्रह्म है | इसके लिए कम से कम वेदान्त के प्रक्रिया ग्रंथों का (प्रकरण ग्रन्थों का) अध्ययन आवश्यक है | क्योंकि वेदान्त का तात्पर्य वाच्यार्थ के त्याग में ही है | विवेक चूड़ामणि में कहा है कि :- ‘‘मृत्कार्यं सकलं घटादि सततं मृन्मात्रमेवाहितं तद्वत् सज्जनितं सदात्मकमिदं सन्मात्रमेवा खिलम् । यस्मान्नास्मि सतः परं किमपि यत् सत्यं स आत्मा स्वयं तस्मात् तत्त्वमसि प्रशांतममलं ब्रह्माद्वयं यत् परम् ॥ २५१॥ जिस प्रकार मिट्टी के कार्य घट आदि हर तरह से मृत्तिका का ही कार्य हैं,उसी प्रकार सत से उत्पन्न हुआ सत्स्वरूप संपूर्ण जगत सन्मात्र अर्थात सत्य ही है। क्योंकि सत से परे और कुछ भी नहीं है तथा वही सत्य स्वयं आत्मा भी है, इसलिए जो शांत, निर्मल और अद्वितीय परब्रह्म है वही तुम हो | निद्राकल्पितदेशकालविषयज्ञात्रादि सर्वं यथा मिथ्या तद्वदिहापि जाग्रति जगत्स्वाज्ञानकार्यत्वतः । यस्मादेवमिदं शरीरकरणप्राणाहमाद्यप्यसत् तस्मात्तत्त्वमसि प्रशान्तममलं ब्रह्माद्वयं यत्परम् ॥ २५२॥’’ (जिस प्रकार स्वप्न में निद्रा-दोष से कल्पित देश, काल, विषय और ज्ञाता आदि सभी मिथ्या होते हैं , उसी प्रकार जाग्रत अवस्था में भी यह जगत्, अपने अज्ञान का कार्य होने के कारण, मिथ्या ही है | इस प्रकार क्योंकि ये शरीर, इन्द्रियाँ, प्राण और अहंकार आदि सभी असत्य हैं, अत: तुम वही परब्रह्म हो जो शान्त,निर्मल और अद्वितीय है) || २५ ||
अनध्यस्तात्म भावेन न देहेनैव कश्चन। व्याप्रीयेत ततश्च स्याद् देहीशो ध्यान संयुतः ॥४.२६॥
पाञ्चभौतिक शरीर के साथ तादात्म्य किये बिना ( पहचान बनाये बिना ), कोई भी सांसारिक गतिविधि नहीं कर सकता है। इसलिए, ईश्वर ध्यान की अवस्था में, एक भौतिक शरीर में रहता है | ‘‘स विचार्याखिलान् लोकान् सृष्ट्वा पालक सृष्टये | कृत्वा विराट् तनुं छिद्रेश्वथ तद्देवता व्यधात् ||७||’’ स्वामी विद्यारण्य ने अनुभूतिप्रकाश में कहा है कि — उसने विचार किया और फिर अखिल लोकों की सृष्टि की इसके बाद उसके पालक की सृष्टि करने के लिए उसने विराट रूप धारण किया फिर उस शरीर के छिद्रों में देवताओं की स्थापना की | पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम्। उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति । (पुरुषः एव इदं सर्वम्) यह सब कुछ वह पुरुष ही है। (यद् भूतं यत् च भव्यम्) ये जो भूत अर्थात् उत्पन्न और जो भव्य अर्थात् आगे भी उत्पन्न होने वाले कार्य और कारण हैं। (उत्) और वह (अमृतत्वस्य ईशानः) अमृतस्वरूप मोक्ष का स्वामी है, जो अन्न से (अति रोहति) सर्वोपरि है। वही समस्त प्राणियों के अन्न अर्थात् भोग्य कर्मफल का स्वामी होकर उन सब को वश किये हुए है | पुरुष-सूक्त (पुरुष) पुर में व्यापक शक्ति वाले राजा के तुल्य समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त परम पुरुष परमात्मा (सहस्र-शीर्ष) हजारों शिरों वाला है। (सः) वह (भूमि ) सम्पूर्ण जगत् के उत्पादक, सर्वेश्वर प्रकृति को ( विश्वतः वृत्वा ) सब ओर से, सब प्रकार से चरण कर, व्याप कर (दशांगुलम् अति अतिष्ठन् ) दस अंगुल अतिक्रमण करके विराजता है। अंगुल यह इन्द्रिय,वा देह का उपलक्षण है, अर्थात वह दश इन्द्रियों के भोग और कर्म के क्षेत्र से बाहर है। वह न कर्म-बंधन में बद्ध रहता है और न मन का विषय है। समस्त संसार के सिर उसके सिर हैं और समस्त संसार के चक्षु और चरण भी उसी के चक्षु और चरण हैं । सर्वत्र उसी की दर्शन शक्ति और गति शक्ति कार्य कर रही है | || २६ ||
स्वदेहेऽपीश्वरस्यास्ति नाध्यासः पारमार्थिकः। प्रातिभासिकमाश्रित्य स्रष्टृत्वादि निगद्यते ॥४.२७॥
(पारमार्थिक दृष्टिकोण से) निरपेक्ष दृष्टिकोण से, यहाँ तक कि ईश्वर का भी शरीर के साथ कोई तादात्म्य अध्यास नहीं है , अर्थात उनकी शरीर से पहचान नहीं है | केवल प्रातिभासिक सत्ता का आश्रय लेकर ही उनके रचनाकार आदि होने का गुणगान किया जाता है | और वैसे भी अध्यास माने उल्टी समझ कभी (पारमार्थिक) वास्तविक नहीं होती | ‘‘माया भासेन जीवेशौ करोतीति श्रुतौ श्रुतम् । मेघाकाशजलाकाशाविव तौ सुव्यवस्थितौ ॥ १५५॥ चित्रदीप प्रकरण पञ्चदशी’’ इसलिए श्रुति में कहा गया है कि माया जीव और ईश को प्रतिबिंब के योग के माध्यम से करती है। उन्हें पानी और बादल के रूप में प्रतिष्ठित किया जाना चाहिए | माया भासेन जीवेशौ करोतीति श्रुतत्वतः । कल्पितावेव जीवेशौ ताभ्यां सर्वप्रकल्पितम् ।।३।।तृप्ति दीप पञ्चदशी | माया ही चिदाभास की मदत से ईश्वर को भी निर्माण करती तथा जीव को भी निर्माण करती है (जीवेशौ)। माया से निर्मित ईश्वर और जीव दोनों कल्पित है तथा इन दोनों की बताई-बनाई बातें भी सब कल्पित ही है | इदं वै तन्मधु दध्यङ्ङाथर्वणोऽश्विभ्यामुवाच तदेतदृषिः पश्यन्नवोचद्रूपरूपं प्रतिरूपो बभूव तदस्य रूपं प्रतिचक्षणाय। इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते युक्ता ह्यस्य हरयः शता दशेति। अयं वै हरयोऽयं वै दश च सहस्राणि बहूनि चानन्तानि च तदेतद् ब्रह्मा पूर्वमनपरमनन्तरमबाह्यमयमात्मा ब्रह्म सर्वानुभूरित्यनुशासनम् ||१९|| बृहदारण्यकोपनिषद द्वितीयोऽध्यायःपञ्चमं ब्राह्मणम् | वह परमेश्वर अज्ञानों के द्वारा अनेक रूपों वाला प्रतीत होता है। ‘इन्दति परमैश्वर्यं लभते इति इन्द्रः’ (इदि परमैश्वर्ये धातु + औणादिक रन् प्रत्यय=इन्द्र) मायाभिः में जो बहुवचन है वह अज्ञान के अनेकता को द्योतित करता है। अज्ञान की अनेकता के कारण ही वह परमेश्वर अनेक रूपों में भासित होता है। इन्द्र शब्द से ही इन्द्रिय शब्द बना है |इन्द्रियमिन्द्रलिङ्गमिन्द्रदृष्टमिन्द्रसृष्टमिन्द्रजुष्टमिन्द्रदत्तमिति वा। (पाणिनि अष्टाध्यायी ५.२.९३) स्वप्न में स्वप्नद्रष्टा के अतिरिक्त सबकुछ मिथ्या ही होता है | || २७ ||
देहाध्यासस्य सत्यस्य न कदाप्यस्ति संगतिः। प्रागीशदेहाभावेन देहाभावेन चाप्यये ॥४.२८॥
देहाध्यास की और सत्यता की कभी संगति नहीं बैठती | शरीर के साथ पहचान की वैधता (जो कि प्रातिभासिक दृष्टिकोण से है) ईश्वर के शरीर के अभाव के पूर्व और शरीर विघटन के समय शरीर की अनुपस्थिति या शरीर की अनुपस्थिति से पहले कभी भी साथ नहीं होती है | क्योंकि प्रलय काल में तो देह का अभाव ही होता है |अर्थात ईश्वर को यह भ्रान्ति कभी नहीं होती कि मैं देह हूँ | ‘‘वाक्यार्थश्च विचार्यतां श्रुति शिरः पक्षः समाश्रीयतां दुस्तर्कात्सुविरम्यतां श्रुतिमतस्तर्कोऽनुसन्धीयताम्। ब्रह्मास्मीति विभाव्यतामहरहर्गर्वः परित्यज्यतां देहोऽहंमतिरुझ्यतां बुधजनैर्वादः परित्यज्यताम्॥३॥’’ शंकराचार्य जी साधनपंचक में कहते हैं कि — तत्वमसि आदि महावाक्यों के अर्थ पर विचार करें, श्रुति के प्रधान पक्ष का अनुसरण करें, कुतर्कों से दूर रहें, श्रुति पक्ष के तर्कों का विश्लेषण करें, मैं ब्रह्म हूँ ऐसा विचार करते हुए मैं रुपी अभिमान का त्याग करें, मैं शरीर हूँ, इस भाव का त्याग करें, बुद्धिमानों से वाद-विवाद न करें | ‘‘मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय। मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।७.७।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ हे धनञ्जय ! मुझसे बढ़कर (इस जगत् का) दूसरा कोई किञ्चिन्मात्र भी कारण नहीं है। जैसे सूतकी मणियाँ सूतके धागेमें पिरोयी हुई होती हैं, ऐसे ही यह सम्पूर्ण जगत् मेरेमें ही ओत-प्रोत है। ||२८||
जगत्प्रलयकाले स निर्व्यापारोऽपि सुप्तवत्। अध्यासबीजवत्त्वेन पुनः सृष्टौ प्रवर्तते ॥४.२९॥
ब्रह्मांड के विनाश के दौरान, ईश्वर बिना किसी गतिविधि के है, जैसे कि वह नींद में हो उसकी पहचान (शरीर के साथ) कारण अवस्था में रहती है, जैसे एक पेड़ की जीवन धारा एक बीज में प्रसुप्त रूप में टिकी हुई है, और सृष्टि काल शुरू होने पर फिर से प्रकट होती है | क्योंकि उस समय भी उस ईश्वर में जगत का अध्यास संस्कार बीज रूप से बना रहता है | जैसे जब हम सो जाते हैं तब भी हमारा प्रारब्ध और अध्यास बीज रूप से बना ही रहता है | ‘‘नष्टे लोके द्विपरार्धावसाने महाभूतेष्वादिभूतं गतेषु । व्यक्तेऽव्यक्तं कालवेगेन याते भवानेकः शिष्यते शेषसंज्ञः ॥ २॥’’ श्रीमद्भागवतम्॥ १०.०३.०२५ ॥ यह भी सत्य है कि महाप्रलय में केवल आप ही शेष रहते हैं, काल के वेग से ब्रह्मा जी की दो परार्ध आयु का अंत होने पर जब ये चौदह लोक नष्ट होते हैं, अर्थात् पञ्च महाभूतों में लीन हो जाते हैं और महाभूत इंद्रियों सहित अहंकार में लीन हो जाते हैं, अहंकार महत्तत्त्व में, महत्तत्त्व अव्यक्त (प्रधान) में और प्रधान आप में लीन हो जाता है तब ‘यह जगत मुझमें इस प्रकार लीन हुआ है फिर इसको इस प्रकार उत्पन्न करना चाहिए’, इस तरह सबका ज्ञान रखने वाले आप ही शेष रह जाते हैं | ‘‘बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते। वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।७.१९।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ‘सब कुछ परमात्मा ही है’,ऐसे ज्ञान को प्राप्त होकर कि ‘यह सब वासुदेव ही है’ जो ज्ञानवान् मेरे शरण होता है, ऐसा ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है; ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है।।|| २९ ||
चतुर्युगसहस्रान्ते विधातुर्हि निशोच्यते। तदा सुप्तस्य तस्यापि जीवस्येव सबीजता ॥४.३०॥
जगतनिर्माता के एक हजार चतुर्युगी के अंत में उतनी ही लम्बी उन विधाता की रात्रि कही जाती है | जब प्रलयाग्नि में सब कुछ भस्म हो जाता है, और संवर्त नाम के मेघ सब कुछ आप्लावित करके जल मय बना देते हैं तब वह निर्माता, जो नींद की अवस्था में प्रवेश कर गया था, कारण स्थिति में प्रवेश करता है, जैसे जीव हर लौकिक सुषुप्ति में अपनी भावनाओं के बीज के साथ शयन करता है, वैसे ही ब्रह्मा जी भी सृष्टि रचना रूप कर्म वासना के बीज के साथ शयन करते हैं | ‘‘सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः। रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः।।८.१७।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ जो मनुष्य ब्रह्माके एक हज़ार चतुर्युगीवाले एक दिनको और सहस्त्र चतुर्युगीपर्यन्त एक रातको जानते हैं, वे मनुष्य ब्रह्माके दिन और रातको जाननेवाले हैं | चतुर्युगसहस्रं तु ब्रह्मणो दिनमुच्यते । स कल्पो यत्र मनवश्चतुर्दश विशाम्पते ॥ २ ॥ श्रीमद् भागवत पुराण| एक हजार चतुर्युग जब एक साथ व्यतीत हो जाते हैं तब ब्रह्मा का एक दिन होता है। ब्रह्मा के इस एक दिन को कल्प कहा जाता है। ब्रह्माजी की कुल आयु है ३१ नील १० खरब ४० अरब मानव वर्ष की होती है | एक कल्प माने ब्रह्माजी के एक दिन में चौदह घण्टे अथवा १४ मनु होते हैं। वर्तमान सृष्टि की कुल आयु ४३,२,००००००० वर्ष है | इसे कुल १४ मन्वन्तरों मे बाँटा गया है. १ मन्वन्तर = ७१ चतुर्युगी १ चतुर्युगी = चार युग (सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग) वर्तमान में ७ वें मन्वन्तर अर्थात् वैवस्वत मनु का काल चल रहा है. इस से पूर्व ६ मन्वन्तर हो चुके हैं जैसे स्वायम्भव, स्वारोचिष, औत्तमि, तामस, रैवत, चाक्षुष बीत चुके है और आगे सावर्णि आदि ७ मन्वन्तर होवेंगे . वर्तमान सप्तम मन्वन्तर के मालिक वैवस्वत मनु हैं। अष्टम सावर्णि मनु , नवम दक्षसावर्णि मनु, दशम, ब्रह्मसावर्णि मनु, एकादश धर्मसावर्णि मनु, द्वादश रुद्रसावर्णि मनु, त्रयोदश देवसावर्णि मनु ,चतुर्दश इन्द्रसावर्णि मनु| || ३० ||
तथा विष्णोर्युगाः प्रोक्तास्तस्माच्छतगुणाधिकाः। तथा शिवस्य तस्माच्च विष्णोः शतगुणाधिकाः ॥४.३१॥
इसी प्रकार विष्णु का एक युग ब्रह्मा के युग का सौ गुना अधिक है और शिव का एक युग, विष्णु के युग का सौ गुना अधिक है | ||३१||
एवं कालैरवच्छिन्नांस्तारतम्येन जीववत् । ईश्वरांस्तान् कथं ब्रूयां देहकर्मादिवर्जितान् ॥ ४.३२ ॥
वे ईश्वर (ब्रह्मा, विष्णु और शिव) समय से बंधे हुए हैं,(काल की सीमा में हैं) इसलिए एक जीव के समान हैं, मैं उन्हें शरीर, कर्म आदि के बंधन से मुक्त होने के लिए कैसे कह सकता हूं? अर्थात वे देह और कर्म के बंधनों से मुक्त नहीं हैं | ‘‘ब्रह्मा येन कुलालवन्नियमितो ब्रह्माण्ड भाण्डोदरे विष्णुर्येन दशावतार गहने क्षिप्तो महासंकटे । रुद्रो येन कपालपाणिपुटके भिक्षाटनं कारितः सूर्यो भ्राम्यति नित्यमेव गगने तस्मै नम: कर्मणे ।।९२।। भर्तृहरि नीतिशतक’’ जिस कर्म ने विधाता को ब्रह्मांड रूपी पात्र के अंदर कुम्हार की तरह सृष्टि कार्य हेतु नियोजित किया, विष्णु को दशावतार रूपी कष्ट देने वाले कार्य में नियुक्त किया, शंकर को हाथ में खप्पर लेकर भिक्षाटन कराया और सूर्य को आकाश में निरंतर भ्रमण कराता है, उस कर्म को नमस्कार है | अयं काणः शुक्रो विषमचरणः सूर्यतनयः क्षताङ्गोऽयं राहुर्विकल महिमा शीतकिरणः । अजानानस्तेषामपि नियतकर्मस्वकफलं ग्रहग्रामग्रस्ता वयमिति जनोऽयंप्रलपति ॥ काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता॥ हे भाई! कोई किसी को सुख-दुःख का देने वाला नहीं है। सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं॥ ||३२||
व्यष्टिदेहत्रयं स्वीयं मत्वा जीवत्रयं यथा। पारमार्थिकसंसारनिबद्धं कर्मितामगात् ॥४.३३॥
यद्यपि जीव का पारमार्थिक स्वरूप तो ब्रह्म से भिन्न नहीं है तथापि व्यवहार दशा में व्यष्टि (व्यक्तिगत) शरीर से तादात्म्य होने के कारण जाग्रत ,स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं में तीन जीवों की तरह, तीन व्यक्तिगत शरीरों को प्राप्त कर लेता है , जाग्रत अवस्था में नेत्र में बैठ कर {विश्व} नाम वाला हो जाता है , स्वप्न अवस्था में कंठ में बैठ कर {तैजस} नाम वाला और सुषुप्ति अवस्था में हृदय में स्थित होकर प्राज्ञ संज्ञा को प्राप्त करता है और संसार में बंध कर कर्मसङ्गी हो जाता है | वैसे ही समष्टि में ईश्वर भी (अगले श्लोक में जारी) || ३३ ||
समष्टिदेहत्रितयं तथा मत्वेश्वरत्रयम्। प्रातिभासिकसंसारनिबद्धं कर्मितामगात् ॥४.३४॥
(जारी) इसी तरह ईश्वर भी अपनी जाग्रत आदि तीन अवस्थाओं के अनुसार तीन रूप और तीन नाम वाला हो जाता है | ईश्वर की जाग्रत अवस्था में उसका नाम विराट , स्वप्न में हिरण्यगर्भ और सुषुप्ति में ईश्वर नाम होता है और पूरे विश्व को अपने तीन गुना शरीर के रूप में मानते हुए, त्रिगुणात्मक रूप से प्रातिभासिक दुनिया के संसार में बंध कर कर्मित्व को प्राप्त हुआ | || ३४ ||
शुद्धसत्त्वप्रधानायां मायायां प्रतिबिंबितः। ईश इत्युच्यते तस्य निरुपाधिकता कथम् ॥४.३५॥
शुद्धसत्वप्रधान माया में प्रतिबिंबित होने के कारण, जिस माया में शुद्ध सत्त्व प्रमुख है, ऐसी उस माया की उपाधि वाले को ईश्वर कहा जाता है | उस ईश्वर को निरुपाधिक कैसे कह सकते हैं , वह पूर्ण कैसे हो सकता है? ‘‘सत्त्वशुद्ध्यविशुद्धिभ्यां मायाऽविद्ये च ते मते । मायाबिम्बो वशीकृत्य तां स्यात्सर्वज्ञ ईश्वरः ॥ १६॥’’ वेदान्त पंचदशी | चिदानन्दमय ब्रह्म के प्रतिबिम्ब से समन्वित तमोगुण,रजोगुण और सत्त्वगुणमयी प्रकृति दो प्रकार की है,शुद्धसत्त्वगुणप्रधान माया और अशुद्ध या मलिनसत्वप्रधान अविद्या। माया में प्रतिबिम्बित ब्रह्म माया को अपने वश में करके ईश्वर कहा जाता है और अविद्या में प्रतिबिम्बित अविद्या के वश में होकर जीव कहा जाता है। माया ईश्वर के वश में है,पर जीव अविद्या के वश में है, दोनों में यही अंतर है | || ३५ ||
औपाधिकस्य नित्यत्वं कथं वाच्यं मनीषिभिः। अनित्यस्य च नैष्कर्म्यं कथं भवितुमर्हति ॥४.३६॥
जो निरुपाधिक नहीं है (निरपेक्ष नहीं है), उसे विद्वान पुरुष नित्य या शाश्वत कैसे कह सकते हैं {उसमें स्थायित्व का वर्णन कैसे कर सकते हैं} और यदि वह शाश्वत नहीं है माने अनित्य है, तो उसमें नैष्कर्म्य (कर्मराहित्य) की सिद्धि कैसे हो सकती है ? अन्यत्वेनाप्रमेयत्वं प्रमेयत्वेपि दृश्यता | अतोप्रमेयता श्रौती प्रत्यञ्चं न विमुञ्चति ||श्रुति ही परम प्रमाण है |’साखी’, सबदी, दोहरा, कहि कहनी उपखान। भगति निरूपहिं अधम कवि, निंदहिं वेद पुराण।। ‘‘अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते । धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः । । २.१३ । ।मनुस्मृतिः/द्वितीयोध्यायः’’ जो द्रव्यों के लोभ और काम अर्थात् विषय – सेवा में फंसा हुआ नहीं होता, उसी को धर्म का ज्ञान होता है । जो धर्म को जानने की इच्छा करें उनके लिए वेद ही परम प्रमाण है । ‘‘योऽन्यथा सन्तमात्मानमन्यथा प्रतिपद्यते। किं तेन न कृतं पापं चोरेणात्मापहारिणा || ३५ || महाभारत उद्योग पर्व अध्याय ४२’’ ‘जो अन्य प्रकारका (अविनाशी) होते हुए भी आत्मा को अन्य प्रकारका (विनाशी) मानता है, उस आत्मघाती चोर ने कौन-सा पाप नहीं किया ?’||३६||
ब्रह्मण्यारोपितो भ्रान्तैरीशाख्यः सर्वसृष्टिकृत्। आत्मयोगिभिरभ्रान्तैः स भवत्यवरोपितः ॥४.३७॥
सार्वभौमिक रचनाकार ईश्वर को (भ्रान्त पुरुषों द्वारा) बहके हुए लोगों द्वारा ब्रह्म पर झूठे ही आरोपित किया गया है | परन्तु जो अभ्रान्तपुरुष हैं, ऐसे गैर-बहकाने वाले योगी लोग जो स्वयं को जानते हैं, वे उस आरोप का अपवाद कर देते हैं | अर्थात उस आरोपित भ्रान्ति को दूर हटा देते हैं | ‘‘इदं सर्वं पुरा सृष्टेरेकमेवाद्वितीयकम् । सदेवासीन्नामरूपे नास्तामित्यारुणेर्वचः ॥ १९ ॥ वेदान्त पंचदशी’’ श्रुति का मत यह है कि, यह सारा संसार सृष्टि से पहले कुछ नहीं था , लेकिन एक ही अद्वितीय रूप था ; तब कोई नाम नहीं था। ‘ यह अरुण के बेटे उद्दालक ऋषि का वचन है | ”एकम्, एव, अद्वितीयं,” इन तीनों शब्दों से ब्रह्म के स्थान को देखने के बीच के अंतर को हल किया है | तीन प्रकार के भेद हैं: स्वगत, सजातीय और विजातीय आइए एक उदाहरण के रूप में एक पेड़ को लें और देखें कि ये तीन अंतर उनमें कैसे किए जाते हैं | एक पेड़ के पत्तों और फूलों से बनाया गया भेद स्वगत भेद है; दो अलग-अलग, पेड़ों के बीच का अंतर सजातीय है; और पत्थर, मिट्टी और पेड़ के बीच के अंतर को विजातीय माना जाना चाहिए | शुद्ध सत्ता मात्र में ये तीनों भेद नहीं है | ||३७||
अविद्यातिमिरान्धस्य स्थाणौ चोरवदीश्वरः। प्रतिभाति परब्रह्मण्यमले स्वात्मरूपिणि ॥४.३८॥
जो लोग अज्ञानता के अंधेरे से अंधे हैं, वे शुद्ध ब्रह्म में धोखे से ईश्वर को देखते हैं | जैसे कोई भ्रम से सूखे हुए वृक्ष के ठूंठ में चोर की कल्पना करता है | जो परब्रह्म स्वयं अपनी आत्मा का ही स्वरूप है उसी में ईश्वर ,जगत और जीव और न जाने क्या क्या कल्पनाएँ करता है | ठीक उसी तरह जैसे अंधेरे में खड़ा एक आदमी एक मूर्ति में एक चोर को धोखे से देखता है | तुलसीदास जी कहते हैं कि –‘‘तमेकमद्भुतं प्रभु। निरीहमीश्वरं विभुं।। जगद्गुरुं च शाश्वतं। तुरीयमेव केवलं।।’’ उन (आप) को जो एक (अद्वितीय), अद्भुत (मायामय जगत से विलक्षण), प्रभु (सर्वसमर्थ), इच्छा रहित, ईश्वर (सबके स्वामी), व्यापक, जगद्गुरु, सनातन (नित्य), तुरीय (तीनों गुणों से सर्वथा परे) और केवल (अपने स्वरूप में स्थित) हैं॥ ||३८||
सद्यो मुमुक्षुदृष्ट्या हि नेश्वरस्यास्ति सत्यता। अतो विवर्तवादोऽयं सुतरामुपयुज्यते ॥४.३९॥
तात्कालिक मुक्ति (कैवल्य) के दृष्टिकोण से, ईश्वर के अस्तित्व में कोई सच्चाई नहीं है। इसलिए, ईश्वर के अस्तित्व की धारणा के मिथ्यात्व को और अधिक मजबूत करने वाले विवर्तवाद को यहां स्थापित किया गया है | दार्शनिक क्षेत्र में, यह सिद्धान्त है कि ब्रह्म ही सत्य है और यह जगत् उसके विवर्त या भ्रम के कारण कल्पित रूप है | (विपरीत रूपेण वर्तते ,प्रतीयते इति विवर्तः) अथवा विरुद्ध रूप से प्रतीयमान को विवर्त कहते हैं | विवर्तवाद के अनुसार परिवर्तन वास्तविक न होकर आभास मात्र होता है। जैसे-रस्सी में सर्प का आभास होना। ‘‘सत्तत्त्वमाश्रिता शक्तिः कल्पयेत्सति विक्रियाः । वर्णाभित्तिगताभित्तौ चित्रं नानाविधं यथा ॥ ५९ ॥’’ वेदान्त पंचदशी — सत्तत्व के आश्रय में रहने वाली शक्ति उसी सत्तत्व के भीतर कई प्रकार के विकारों की कल्पना करती है। जैसे दीवार पर खींची गई रेखाओं में कभी कोई तस्वीर तथा कभी कभी उसमें तरह-तरह के अक्षर भी दिखाई देने लगते हैं |||३९||
परिणामेऽप्यनित्यत्वसंसिद्धेरीश्वरस्य च। अद्वैतब्रह्मनिष्ठत्वं श्रोतुर्जीवस्य संभवेत् ॥४.४०॥
जब यह भी साबित हो जाता है कि परिणाम में ईश्वर भी अनित्य है अर्थात बहुत अंत में, ईश्वर अपूर्ण है, तब जीव को अद्वैत ब्रह्म निष्ठा के बारे में श्रवण करने की इच्छा (इस सिद्धांत को समझने की इच्छा) संभव हो सकती है | अद्वितीय ब्रह्म में विश्वास प्राप्त कर सकती है (जैसा कि ईश्वर में विश्वास रखने का विरोध किया गया है)। सत्कार्यवाद के दो भेद हैं- परिणामवाद तथा विवर्तवाद। परिणामवाद से तात्पर्य है कि कारण वास्तविक रूप में कार्य में परिवर्तित हो जाता है। जैसे तिल तेल में, दूध दही में रूपांतरित होता है। विवर्तवाद के अनुसार परिवर्तन वास्तविक न होकर आभास मात्र होता है। जैसे-रस्सी में सर्प का आभास होना | मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये । यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ||७.३|| श्रीमद् भगवद्गीता– सहस्रों मनुष्यों में कोई ही मनुष्य पूर्णत्व की सिद्धि के लिए प्रयत्न करता है और उन प्रयत्नशील साधकों में भी कोई ही पुरुष मुझे तत्व से जानता है।। ”ईश्वरानुग्रहादेव पुंसां अद्वैतवासना । महाभयकृतत्राणा द्वित्राणां उपजायते ॥” परमात्मा की कृपा से ही मनुष्यों में अद्वैत वासना का उदय होता है जो कि मृत्यु रूप महा भय से रक्षा करने वाली है , कभी किन्हीं दो या तीन पुरुषों में जागती है |श्रीदत्तात्रेय अवधूत अपनी अवधूत गीता में बोलते हैं कि ईश्वर की कृपा से अद्वैतवासना होती है, माने जब तक भगवान् स्वयं नहीं बुलावेगा, तब तक उसकी ओर कौन जावे? यदि अद्वैत की ओर जा रहा है तो यह उसी का प्रणयनिमंत्रण है। खण्डन-खण्डन-खाद्य में भी, यही श्लोक है | श्रीमद् भगवद्गीता में भी कहा है कि ‘‘बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते। वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।७.१९।।’’ बहुत जन्मों के अंत में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि ‘यह सब वासुदेव है’ ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है; ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है।। || ४० ||
अधिकारिविभेदेन वादास्ते च मतास्त्रयः। तत्रोत्तमाधिकारी स्याच्छृण्वन्नीशे विवर्तताम् ॥४.४१॥
अधिकारी श्रोता की योग्यता के आधार पर, तीन प्रकार के दर्शन और मान्यताओं की वकालत की गई है। (सत्कार्यवाद ,असत्कार्यवाद और विवर्तवाद) इन तीनों में से, ईश्वर के अस्तित्व के मिथ्याकरण को सुनकर विवर्तवाद को स्वीकार करके उत्तम अधिकारी पहली कक्षा का श्रोता बन जाता है | उत्तम अधिकारी को तो श्रवण मात्र से ही ज्ञान हो जाता है बाद के लोगों को मनन और निदिध्यासन की जरूरत पड़ती है | || ४१ ||
जीवे तु परिणामित्वं शृणवन्नेवोत्तमोत्तमः। कीटवद्भृंगरूपेण परिणामे विमोक्षतः ॥४.४२॥
इन दर्शनशास्त्रों को सुनकर, जीव परिवर्तन से गुजरता है और क्रमिक रूप से उच्च और उच्च अवस्था को प्राप्त करता है और अंत में मुक्ति को प्राप्त करता है, ठीक उसी तरह जैसे एक कीट अंत में भृंग में परिवर्तित हो जाता है। कीट भृंग-न्याय, दो या अधिक वस्तुओं का मिलकर एक रूप हो जाना जिस प्रकार भौंरा किसी कीड़े को पकड़कर (लोक प्रवाद के अनुसार) उसे बिलकुल अपनी तरह का बना लेता है। भइ मम कीट भृंग की नाई। जहँ तहँ मैं देखउँ दोउ भाई॥ मेरी दशा तो भृंगी के कीड़े की सी हो गई है। अब मैं जहाँ-तहाँ श्री राम-लक्ष्मण दोनों भाइयों को ही देखता हूँ | कीटो भ्रमर संयोगे भ्रमरो भवित ध्रुवम् । मानव: शिव योगेन शिवो भवति निश्चितम् ।। ‘‘कीट सतत भ्रमर का चिंतन करने से भ्रमर बन जाता है । उसी प्रकार शिव के सहवास से मनुष्य शिव बन जाता है । भगवत्स्वरूप में मन स्थिर करने वाला मनुष्य दिव्य बनता है | ||४२||
जीवस्येश्वरतावाप्तौ क्रममुक्तिर्हि सिध्यति। अतोऽस्य सद्यो मुक्त्यर्थं ब्रह्मतावाप्तिरीर्यते ॥४.४३॥
जब जीव ईश्वर की शरणागति (ईश्वर के चरणों की शरण ग्रहण) के माध्यम से मुक्ति प्राप्त करता है, तो केवल कदम दर कदम मुक्ति संभव है | (उसे क्रम मुक्ति कहते हैं) और सद्योमुक्ति के लिए आत्म साक्षात्कार ,ब्रह्म साक्षात्कार (स्वरूप का अनुसंधान) आवश्यक होता है इसलिए तत्काल मुक्ति के लिए, जीव को ब्रह्मत्व का ज्ञान प्राप्त करना पड़ता है (जो स्वयं का एहसास है) | ‘‘मैं हूँ’’ ऐसा एहसास तो सभी को हमेशां ही होता है परन्तु अपने परिच्छिन्न शरीर में ही होता है। लेकिन मेरी चेतना ही विश्व की चेतना है इस बात को दृढ करने के लिए सतत वेदान्त का श्रवण तथा उस श्रवण किये हुए तत्व का श्रुत्यनुकूल युक्तियों द्वारा उपपादन अर्थात मनन और फिर उस उपपन्न तत्व में स्थिति अर्थात निदिध्यासन की आवश्यकता होती है | ‘‘द्वैतावज्ञा सुस्थिता चेदद्वैते धीः स्थिरा भवेत् । स्थैर्यै तस्याः पुमानेष जीवन्मुक्त इतीर्यते ॥ १०२ ॥’’ (वेदान्त पंचदशी) हमने जो द्वैत का अनादर किया है, वह उनके अनूठेपन का (दृश्यत्व) अनादर नहीं है। केवल आगमापायी होने से उसके नित्यत्व का अनादर है | एक बार जब यह द्वंद्व का अनादर मन में अच्छी तरह से स्थापित हो जाता है, तो अद्वैत स्थिर हो जाता है, और जब यह स्थिर हो जाता है, तो मनुष्य जीवन मुक्त हो जाता है | || ४३ ||
तुरीयः पंचमो वास्तामीश्वरः षष्ठ एव वा। तस्मादतीतं ब्रह्मेति सिद्धान्ते कोऽनुसंशयः ॥४.४४॥
चाहे (क्रम मुक्ति की) तुरीय (चौथी) अथवा पांचवी (तुरीयातीत) अवस्था हो या ईश्वर की छठी अवस्था हो, ब्रह्म इससे परे है। इस सिद्धांत के संबंध में क्या संदेह हो सकता है? ‘‘स्वयंज्योतिर्भवत्येष पुरोऽस्माद्भासतेऽखिलात् । तमेव भान्तमन्वेति तद्भासा भास्यते जगत् ॥ १६ ॥’’ (वेदान्त पंचदशी) यह आत्मा स्वयं ज्योति है अर्थात आदमी का आत्मा ज्ञान स्वरूप है | इसके होने से ही यह सभी विषयों का ज्ञान होने लगता है | श्रुति वाक्य आत्मा के आत्म-प्रकाश का सुझाव देते हैं, आत्मा का अनुसरण करके ही सभी चीजें प्रकाशित होतीं हैं , अन्तःकरण की वृत्ति रूप ,रस ,गन्धादि विषयों को प्रकाशित करती है और उस वृत्ति को प्रकाशित करने वाला आत्मचैतन्य है | इसलिए दुनिया उसे प्रतीत होती है, इसलिए सभी चीजें उस आत्मा के प्रकाश से प्रकट होती हैं | {तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥} जो कुछ भी प्रकाशमान है, वह ‘उस’ की ज्योति की प्रतिच्छाया है, ‘उस’ की आभा से ही यह सब प्रतिभासित होता है।” येनेदं सर्वं विजानाति तं केन विजानीयात् ? विज्ञातारमरे केन विजानीयात् ? – बृहदारण्यकोपनिषत् २-४-१४” जिसके द्वारा इस जगत की सभी वस्तुओं का ज्ञान होता है और जो सबको जानने वाला है, उस परमात्मा को कैसे और किसके द्वारा जाना जा सकता है? | || ४४ ||
ईश्वरे तिष्ठति ब्रह्म ब्रह्मणीशश्च तिष्ठति । अत एकत्वमेव स्यात् द्वयोरिति न तर्क्यताम् ॥ ४.४५ ॥
“ब्रह्म ईश्वर में रहता है और ईश्वर ब्रह्म में रहता है, इसलिए दोनों समान हैं”, किसी को इस तरह की बहस नहीं करनी चाहिए | इस प्रकार के तर्क नहीं करने चाहिए क्योंकि वह तो ‘‘अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः। स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम् || १९ || श्वेताश्वतरोपनिषद् तृतीयोऽध्यायः’’ वह बिना हाथ का होते हुए सबको पकड़े हुए है। बिना पांव के वह तेजी से चलता है। नेत्र के बिना देखता है। कान के बिना सुनता है। जानने योग्य हर चीज को वह जान लेता है। पर उसे कोई नहीं जानता। ज्ञानीजन कहते हैं कि वह अग्रवर्ती और विराट पुरुष है | न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनो न विद्मो न विजानीमो यथैतदनुशिष्यात्। अन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि। इति शुश्रुम पूर्वेषां ये नस्तद्व्याचचक्षिरे || ३ || (केनोपनिषद् प्रथमः खण्डः) वहाँ न चक्षु जा सकता है, न वाणी, न ही मन। क्योंकि ये मन,वाणी और इन्द्रियां बाहर के जगत के बारे में ही सूचना दे सकते हैं आन्तर द्रष्टा के बारे में नहीं, इसलिए हम न ‘उसे’ जानते हैं न यह जान पाते हैं कि ‘उनकी’ शिक्षा कैसे दी जाए; क्योंकि ‘वह’ विदित {जाने हुए} से अन्य है; तथा अविदित से भी परे है; ‘वह’ ऐसा है यह हमने उन पूर्वजों से सुना है जिन्होंने उस ‘परतत्त्व’ की हमारे बोध के लिए व्याख्या की है | वह विदित इसलिए नहीं है क्योंकि वह दृश्य नहीं है, और दृश्य परिवर्तनशील है अर्थात विनाशी है और अविदित इसलिए नहीं है क्योंकि वह अपना आत्मा ही है | वह तो सर्वसाक्षी है | सबका प्रकाशक है | || ४५ ||
ब्रह्मण्येवेश्वरः प्रोक्तो न तु ब्रह्मेश्वरे क्वचित्। विभोरविभुसंस्थत्वासंभवात्परमात्मनः ॥४.४६॥
ईश्वर को ब्रह्म में स्थित कहा जाता है, ब्रह्म को ईश्वर में स्थित नहीं कहा जाता है क्योंकि सर्वव्यापी सर्वोच्च परमात्मा (जिनके समतुल्य कोई अन्य नहीं है) वह एक परिमित इकाई (ईश्वर) में कभी भी (अन्तर्हित) समाहित नहीं हो सकता है | अविभु ईश्वर में विभु ब्रह्म की संस्थिति संभव नहीं है | एकदेशीयत्वात् परिछिन्नत्वात् च | ‘‘यस्मिन्यस्मिन्नस्ति लोके बोधस्तत्तदुपेक्षणे । यद्वोध मात्रं तद्ब्रह्मेत्येवं धीर्ब्रह्मनिश्चयः ॥३. २१॥पञ्चदशी’’ काश, यदि हम ऐसा कर पाते कि इस दुनिया में जिस जिस पदार्थ का ज्ञान होता है, उस उस पदार्थ की उपेक्षा करने के बाद जो केवल एक चीज बचती है वह शुद्ध ज्ञान है | पदार्थ को हटाकर ज्ञान मात्र को बचाकर रख लेना तब वह केवल ज्ञान ही ब्रह्म है और जब इसे दृढ़ता से समझा जाता है तब इस प्रकार की बुद्धि को (निश्चय को) ब्रह्म ज्ञान कहा जाता है। २१॥ (पञ्चकोशविवेकप्रकरणम्) अर्थात सीमित में असीमित नहीं रह सकता || ४६ ||
ब्रह्मक्षत्रमुभे यस्य श्रुत्या भवत ओदनः। यस्योपसेचनं मृत्युः स यत्र ब्रह्मणीर्यते ॥४.४७॥
जिनके लिए, श्रुति (कठोपनिषद के अनुसार यहां कहा गया है), ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों ही भोजन के समान हैं, जिसके लिए यह स्वयं मृत्यु उपसेचन है {एक साइड-डिश की तरह है}, वह (पुरुष) स्वयं उस ब्रह्म में स्थित है ऐसा कहा जाता है | ‘‘यस्य ब्रह्म च क्षत्रं च उभे भवत ओदनः। मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र सः || २५ || कठोपनिषद्अध्याय १ वल्ली २’’ ” ‘वह’ (परतत्त्व) जिसके लिए ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनो भोज्य पदार्थ (ओदन) चावल का भात मात्र हैं, और ‘मृत्यु’ जिसके महाभोज का एक रसाहार (उपसेचन) चटनी या दाल है। अतः ऐसे ‘उसको’ कौन जान पाएगा कि ‘वह’ क्या है और कहाँ निवास करता है?” (वेदान्त पंचदशी) में कहा गया है कि — अक्षाणां विषयस्त्वीदृक् परोक्षस्तादृगुच्यते । विषयी नाक्षविषयः स्वत्वान्नास्य परोक्षता ॥ २७ ॥ मुझे आपकी प्रक्रिया समझ में नहीं आ रही है। इसे जरा समझाओ। इन्द्रियों को दिखाई देने वाले पदार्थ को हम (ईदृक्) इस प्रकार है, ऐसा कहते हैं अर्थात जो पदार्थ इन्द्रियों को सामने से दिखाई देते हैं उसे हम (ईदृक्) ऐसा कहते हैं। और जो पदार्थ इन्द्रियों को दिखाई नहीं देते उनको हम (तादृक्) वैसा है, ऐसा कहते हैं अब बताओ आत्मा इंद्रियों का विषय नहीं है, इसलिए इसे (ईदृक्) नहीं कहा जा सकता है, और चूंकि यह आत्मा अपना आपा ही है ,आत्म-प्रकाश, आत्म-चेतन है, इसलिये उसे (तादृक्) भी नहीं कहा जा सकता | ||४७||
तदेतादृशमित्यत्र को वेदेदंतयाव्ययम्। अखंडं निर्गुणं ब्रह्म निराधारं परं महत् ॥४.४८॥
ब्रह्म को इदमित्थंतया ब्रह्म ऐसा है इस प्रकार कौन जान सकता है ? (जो स्वयं पुरुष के लिए आधार है), जो अखण्ड , अपरिवर्तनीय, अविभाज्य, गुणहीन, आधारहीन (लेकिन बाकी सब चीजों का आधार है) उसको कौन जान सकता है?, जो सर्वोच्च और अनन्त ब्रह्म है | ‘‘चिच्छायावेशतः शक्तिश्चेतनेव विभाति सा । तच्छक्त्त्युपाधिसंयोगाद्ब्रह्मैवेश्वरतां व्रजेत् ॥ ४० ॥’’ (वेदान्त पंचदशी) माया नाम की शक्ति में चैतन्य का आवेश होने के कारण तथा बीच में ब्रह्म के प्रतिबिम्ब के कारण यह चेतना के समान प्रतीत होता है, अतः इसमें नियमन करने की शक्ति भी है। इस शक्ति की उपाधि के सहयोग से ही ब्रह्म को (ईश्वरत्व) देवत्व प्राप्त हुआ | || ४८||
परब्रह्मांशभूतोऽपि परमः पुरुषोत्तमः। ईश्वरादधिकः प्रोक्तः किं पुनर्ब्रह्म केवलम् ॥४.४९॥
परम पुरुष,(पुरुषोत्तम) जो ब्रह्म का हिस्सा है, जिसको अक्षर पुरुष से ईश्वर से बड़ा कहा जाता है। तो फिर केवल शुद्ध ब्रह्म के बारे में और क्या कहा जा सकता है? ‘‘यस्मात् क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः। अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।।१५.१८।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ क्योंकि मैं क्षर से अतीत हूँ और अक्षर से भी उत्तम हूँ, इसलिये लोक में और वेद में भी मैं पुरुषोत्तम के नाम से प्रसिद्ध हूँ।। यस्मात्परं नापरमस्ति किंचिद्यस्मान्नाणीयो न ज्यायोऽस्ति कश्चित्। वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम् || ९ || श्वेताश्वतरोपनिषद् तृतीयोऽध्यायः अर्थ :- उससे उच्चतर अथवा उससे भिन्न कुछ भी नहीं है। उससे महानतर अथवा सूक्ष्मतर कुछ भी नहीं है। अपनी महिमा में आमूल बद्ध वह एकमेवाद्वितीय और अटल होकर एक वृक्ष के समान खड़ा है। उस पुरुष के द्वारा समस्त ब्रह्माण्ड परिपूर्ण है | || ४९ ||
कारणं जगतामीशो जीवानां ब्रह्म कारणम्। एवं सतीशब्रह्मैक्यं व्यवहारे कथं भवेत् ॥४.५०॥
ईश्वर संसार का कारण है और ब्रह्म जीव का कारण है। यह मामला इस प्रकार का होने के नाते, सांसारिक दृष्टिकोण से ईश्वर और ब्रह्म के बीच एकता कैसे हो सकती है? ‘‘मायां तु प्रकृतिं विद्यात् मायिनं च महेश्वरम्। तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत् || १० || श्वेताश्वतरोपनिषद् चतुर्थोऽध्यायः’’ माया को प्रकृति की शक्ति जानो तथा माया के अधीश्वर को ‘महेश्वर’ समझो; ‘उसी’ (महेश्वर) के अवयव रूप विभूतियों से यह समस्त जगत् भरा हुआ है | ||५०||
ईशस्य कर्मितायां हि पुण्यं पापं च संभवेत्। सुखं दुःखं च तेनैव जीवत्वमिति चेच्छृणु ॥४.५१॥
ईश्वर की गतिविधियों में भी, पुण्य और पाप वैध हैं, संभव हैं साथ ही सुख और दुख भी। (यदि आपको लगता है कि) फिर तो वह एक जीव की तरह ही है, तो यह भी सुनें | “तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्” (तै- २.६) ” उसके दो विवर्त है, जिसमें प्रविष्ट अंश को अक्षर (जीव) तथा सृष्ट अंश को क्षर, भौतिक प्रपञ्च कहते हैं । यह तीनों {ब्रह्म ,ईश्वर और जीव } अविनाभावी है – एक दूसरे के विना नहीं रहते । यस्मान्न जातः परो अन्यो अस्ति य आविवेश भुवनानि विश्वा । प्रजापतिः प्रजया संरराणस्त्रीणि ज्योतींषि सचते स षोडशी ।। शुक्लयजुर्वेद ८-३६।। कृत्वा रूपान्तरं जैवं देहे प्राविशदीश्वरः। इति ताः श्रुतयः प्राहुर्जीवत्वं प्राणधारणात् ॥ १० ॥ (वेदान्त पंचदशी) श्रुति कहती हैं कि जीवन से जुड़े ऐसे ही अलग रूप में भगवान ने शरीर में प्रवेश किया। वह ईश्वर प्राण आदि की धारणा करने के कारण जीव रूप में आया है | ‘‘अनेनैव जीवेनात्मनाऽनुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणि’ (छां ६.३.२)’’ जीव रूप से उसने प्रवेश किया | इस सारे अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड का उसने विस्तार किया , नाम और रूप का निर्माण किया | || ५१ ||
ईशः प्रवर्तते पुण्यपापयोर्लोकसंग्रहात्। तथापि सुखदुःखे स्तो नैवात्मज्ञानवत्तया ॥४.५२॥
ईश्वर संसार के कल्याण के लिए पुण्य और पाप कर्मों में लिप्त हैं। तब भी दुख और सुख उसके लिए लागू नहीं होते क्योंकि वह स्व (आत्मा) को जानता है | क्योंकि ईश्वर पुर्यष्टक से रहित है इसलिये ईश्वर को पाप और पुण्य स्पर्श नहीं करते | आठ पुरियों का बोधक वचन इस प्रकार उपलब्ध होता है भूतेन्द्रियमनोबुद्धिवासनाकर्मवायव:। अविद्या चेत्यमुं वर्गमाहु: पुर्यष्टकं बुधा:।। महाभारत शान्ति पर्व अध्याय १९८ भूत, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, वासना,कर्म, प्राण और अविद्या – ईश्वर इन आठ पुरियों से मुक्त है। तथा अशरीरं शरीरेष्वनवस्थेष्ववस्थितम्। महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति॥ २२॥ कठोपनिषद् अध्याय १ वल्ली २ ”शरीरों में ‘अशरीरी’, अस्थिर पदार्थों में ‘स्थित’-तत्त्व, ‘महिमामय’ ‘विभु व्यापी आत्मा’ का साक्षात्कार करके ज्ञानी एवं धीर पुरुष शोक नहीं करते। “अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः” छान्दोग्योपनिषद् ( ८.१२.१ ) यह जो अशरीरी आत्मा है, जिसे प्रिय और अप्रिय कुछ भी स्पर्श नहीं कर सकता । ‘‘न दृष्टेर्द्रष्टारं पश्येः । न श्रुतेः श्रोतारं शृणुयाः । न मतेर्मन्तारं मन्वीथा । न विज्ञातेर्विज्ञातारं विजानीयाः । एष त आत्मा सर्वान्तरः । अतोऽन्यदार्तम् । ततो होषस्तश्चाक्रायण उपरराम ॥ ३,४.२ ॥ बृहदारण्यकोपनिषद्’’ तुम वह नहीं देख सकते जो देखने का द्रष्टा है; तुम वह नहीं सुन सकते जो सुनने वाला है; आप उसके बारे में नहीं सोच सकते जो विचारों का भी विचारक है; तुम उसे नहीं जान सकते जो ज्ञान का ज्ञाता है। यह तुम्हारा स्व है, तुम्हारा यह आत्मा अंतर्यामी है जो सबके भीतर है; और बाकी जो सब कुछ है वह सब दुख रूप और नाशवान है | || ५२ ||
भ्रूणहत्यादिपापानि ह्यकरोद्विष्णुरीदृशः। न तैर्दुःखमभूत्तस्य संप्राप्तं पारमार्थिकम् ॥४.५३॥
विष्णु ने भ्रूण हत्या आदि जैसे पाप किए, लेकिन जब से उन्होंने पारमार्थिक राज्य प्राप्त किया है, तब से उन्होंने कोई पाप नहीं किया | श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान कहते हैं कि ‘‘देवानामस्मि वासवः।’’ देवों में मैं वासव (इन्द्र) हूँ; | और वामनपुराण के अनुसार इन्द्र ने दिति के गर्भ में भ्रूणहत्या की | ‘‘कश्यपोऽप्याह देवेशं भ्रूणहत्या कृता त्वया। दित्युदरात् त्वया गर्भः कृत्तो वै बहुधा बलात्।। ७६.६।।वामनपुराणम्/षट्सप्ततितमोऽध्यायः|| ’’ परशुराम अवतार की कथा में तुलसीदास जी कहते हैं कि मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीप किशोर। गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर।। अरे राजा के बालक! तू अपने माता-पिता को सोच के वश न कर। मेरा यह फरसा बड़ा भयानक है, यह गर्भों के बच्चों का भी नाश करने वाला है | गर्भ स्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर। परसु अछत देखउँ जिअत बैरी भूपकिशोर।।२७९।। मेरे जिस कुठार की घोर करनी सुनकर राजाओं की स्त्रियों के गर्भ गिर पड़ते हैं, उसी फरसे के रहते मैं इस शत्रु राजपुत्र को जीवित देख रहा हूँ॥ २७९॥ लेकिन जब उन्हें ज्ञान हुआ तब उनकी यह स्थिति हो गई और बोले कि — कहि जय जय जय रघुकुल केतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू।। व्यास जी ने भी यही कहा है कि ‘‘नैतादृशं ब्राह्मणस्यास्ति वित्तं यथैकता समता सत्यता च । शीलं स्थितिर्दण्डनिधान मार्जवं ततस्ततश्चोपरमः क्रियाभ्यः || २६ ||’’ वामन पुराण ,अध्याय ४३ तथा महाभारतम्- शान्तिपर्व- अध्याय-२८३ परमात्मा के साथ एकता तथा सभी भूत प्राणियों में समता, सत्यभाषण, सदाचार, ब्रह्मनिष्ठा, दण्ड का परित्याग (अहिंसा), सरलता तथा सब प्रकार के सकाम कर्मों से उपरति–इनके समान ब्राह्मण के लिये दूसरा कोई धन नहीं है | || ५३ ||
लोकक्षेमार्थकत्वेन तत्कृताघस्य निन्द्यता। न वाच्या न च तेनास्ति जीवत्वं तस्य सर्वथा ॥४.५४॥
चूंकि वे पाप दुनिया के कल्याण के लिए किए गए थे, इसलिए उन्हें अवमानना के रूप में घोषित नहीं किया जाना चाहिए | इसलिए, इस कारण से, ईश्वर एक जीव के समान नहीं है , उलटा उससे विपरीत और विलक्षण है | अर्थात ईश्वर का जीवत्व सिद्ध नहीं होता | भगवान पतञ्जलि ने कहा है कि ‘‘क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः: पुरुषविशेष ईश्वरः ॥१.२४॥’’ जो क्लेश, कर्म, विपाक, आशय – इन चारों के संबंध से रहित है तथा जो समस्त पुरुषों से उत्तम है, वह ईश्वर है | अन्तःकरणे प्रतिबिम्बितं चैतन्यं जलाकाशस्थानीयं संसारी जीवः। धीवासनाः, तासु प्रतिबिम्बितं चैतन्यं मेघाकाशस्थानीयम् ईश्वरः ‘अज्ञानोपाध्यवच्छिन्नं चैतन्यं जीवः’ तत्रान्तःकरणविशिष्टं चैतन्यं जीवः, तदुपहितं जीवसाक्षि । समष्टिरूपाज्ञाने शुद्धसत्त्वप्रधाने उपहितं चैतन्यम् ईश्वरः । व्यष्टिरूपाज्ञाने मलिनसत्त्वप्रधाने उपहितं चैतन्यं प्राज्ञ इत्युच्यते । || ५४ ||
ऋगादिवेदकर्तापि स यथोक्तं समाचरेत्। अन्यथा संप्रसज्येत ह्यप्रामाणिकतेशितुः ॥४.५५॥
या तो किसी को (प्रातिभासिक दृष्टिकोण का आश्रय लेने से) शिव को वेदों का रचयिता (निर्माता) मानना चाहिए या फिर किसी को (पारमार्थिक दृष्टिकोण का आश्रय लेने से) शिव की अनधिकारिता को स्वीकार करना चाहिए और ब्रह्म के अधिकार को स्वीकार करना चाहिए | यहाँ {शिव} शब्द से ईश्वर का अर्थ ग्रहण करना चाहिए | सामान्यतः लोग यही समझते हैं कि ईश्वर ने वेदों की रचना की है , तो फिर वेदों को अपौरुषेय क्यों कहा जाता है और वह ईश्वर शिव, राम, कृष्णादि के रूप में वेदों की आज्ञा को क्यों मानता है ? शास्त्रयोनित्वात् १ /१ /३ वेदान्त-दर्शन –अर्थात् शास्त्र[वेद] की योनि[मूल कारण तथा प्रमाण] होने के कारण ब्रह्म सर्वज्ञ है। वेद प्रणिहितो धर्मों ह्यधर्मस्तदविपर्ययः ।। वेदो नारायणः साक्षात् स्वयंभूरिति शुश्रुम ।। (भागवत महापुराण – षष्ठ स्कंध, प्रथम अध्याय, श्लोक – ४०) वेदों में जो कुछ भी करने को कहा गया है, वही धर्म है । और जिन बातों का निषेध किया गया है, वो अधर्म है । क्योंकि वेद स्वयं भगवान के स्वरूप हैं वे उनके स्वाभाविक श्वास-प्रश्वास एवं स्वयंप्रकाश ज्ञान हैं , ऐसा हमने सुना है ।। न कश्चिद् वेदकर्ता च वेद स्मर्ता चतुर्मुखः | ब्रह्माद्या ऋषयः सर्वे स्मारका न तु कारकाः || ईश्वर का ईश्वरत्व और ब्रह्म का ब्रह्म तत्व भी वेदों से ही सिद्ध होता है | ||५५||
संसिद्धे शास्त्रकर्तृत्वे न कारयितृता वचः। व्यर्थमेवेति चेन्नैष दोष एव विचारणे ॥४.५६॥
यदि कोई शिव को शास्त्रों का निर्माणकर्ता मानता है, तो फिर शास्त्र अब ब्रह्म के शब्द नहीं हैं, जो कि रचनाकार का भी कारण है। और इसलिए अगर कोई सोचता है कि वे व्यर्थ हैं, तो यह मामला नहीं है। यह तो सोच में दोष है | विचार का अर्थ ही होता है पृथक्करण | अगर चीजें साफ साफ नहीं दिखतीं तो इसका अर्थ है विचार में दोष का होना | ‘‘आत्माभासस्य जीवस्य संसारो नात्मवस्तुनः । इति बोधो भवेद्विद्या लभ्यतेऽसौ विचारणात् ॥ ११ ॥ पञ्चदशी’’ यह संसार केवल जीवों पर लागू होता है और आत्मा का इससे कोई लेना-देना नहीं है। और आत्मज्ञान वह विचार से उत्पन्न होता है और वेदान्त आदि शास्त्र ही विचार की जन्मभूमि हैं | आदिशङ्कराचार्य कृत प्रश्नोत्तर रत्न मालिका में बताया है कि —को दीर्घरोगो भव एव साधो,किमौषधं तस्य विचार एव।। कौन सा रोग अधिक कष्टदायक है ? जन्म मरण का रोग अथवा महत्वाकांक्षा का रोग ही अत्यधिक कष्टदायक है। इस रोग की औषधि क्या है ? परमात्मा के नाम और स्वरूप का बार-बार चिंतन,विचार और स्मरण करना ही इस भवरोग की औषधि है | ‘‘यत्ने कृते यदि न सिध्यन्ति कोत्र दोषः’’ प्रयत्न करने पर भी यदि कोई कार्य सिद्ध नहीं होता है तो तुम्हारे प्रयत्न क्या कमी (दोष) है ? उस दोष का अनुसन्धान करना चाहिए ||| ५६ ||
जीवस्य कर्तृतायां हि स्यात्कारयितृतेशितुः। शास्त्रस्य कर्मतायां तु महेशस्यास्ति कर्तृता ॥४.५७॥
जीव की गतिविधियों में, (कर्तृत्व में) शिव ही {ब्रह्म ही} कारण हैं (कारयिता हैं) शास्त्रों की रचना में शिव की (कर्तृता है) अर्थात वे शास्त्रों के कर्ता हैं |जीव का कारण ब्रह्म है और शास्त्रों का विधान करने वाला ईश्वर है | ‘‘ सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च। वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्।।१५.१५।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ मैं ही सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें स्थित हूँ। मेरेसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (संशय आदि दोषोंका नाश) होता है। सम्पूर्ण वेदोंके द्वारा मैं ही जाननेयोग्य हूँ। वेदान्तका कर्ता? अर्थात् वेदान्तार्थके सम्प्रदायका कर्ता और वेदके अर्थको समझनेवाला भी मैं ही हूँ। वेदोंके तत्त्वका निर्णय करनेवाला और वेदोंको जाननेवाला भी मैं ही हूँ। || ५७ ||
नैतेन शास्त्रयोनित्वं निर्गुणस्यैव हीयते। निर्गुणोद्भूतशास्त्रस्य सगुणाद्व्यक्तिदर्शनात् ॥४.५८॥
इसके द्वारा (उपरि लिखित वाक्य के द्वारा) निर्गुण ब्रह्म में उत्पन्न होने वाले शास्त्रों का उल्लंघन नहीं किया जाता है | {शास्त्रयोनित्वात् इस ब्रह्मसूत्र का खण्डन नहीं होता} क्योंकि, शास्त्र , जो निर्गुण ब्रह्म से उत्पन्न हुए हैं, केवल सगुण व्यक्ति के द्वारा ही अभिव्यक्ति को प्राप्त होते हैं | ‘‘कूटस्थो ब्रह्म जीवेशावित्येवं चिच्चतुर्विधा। घटाकाशमहाकाशौ जलाकाशाभ्रखे यथा ॥ १८ ॥’’ ॥ पञ्चदशी ॥ जैसे आकाश चार प्रकार का होता है, घटाकाश, महाकाश, जलाकाश और अभ्राकाश {बादलों के अन्दर प्रतिबिम्बित आकाश}, वैसे ही भी चेतना भी चार प्रकार की होती है, कूटस्थ, ब्रह्म, जीव और ईश | || ५८ ||
उपचर्यत ईशस्य गुणिनः शास्त्रयोनिता। यद्वास्तामुभयोर्वेदवेदान्ताभ्यां च बीजता ॥४.५९॥
सगुण ईश्वर शास्त्रों के प्रवर्तक होने के कारण महज आलंकारिक है | {उपचार मात्र है} या फिर, वेद और उपनिषद बीज-रूप में (सगुण शिव और निर्गुण ब्रह्म) दोनों में समाहित हैं | बाबा तुलसीदास जी कहते हैं कि — ‘‘सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥ अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥ भावार्थ- सगुण और निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं है – मुनि, पुराण, पंडित और वेद सभी ऐसा कहते हैं। जो निर्गुण, रूप रहित (निराकार), अलख (अव्यक्त) और अजन्मा है, वे ही भक्तों के प्रेमवश सगुण हो जाते हैं |’’ जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल विलग नहीं जैसे॥ जो निर्गुण है वह सगुण कैसे है? जैसे जल और ओले (हिम उपल , बर्फ के टुकड़े ) में भेद नहीं। (दोनों जल ही हैं, ऐसे ही निर्गुण और सगुण एक ही हैं।) || ५९ ||
न चैतेनास्ति कर्मित्वसाम्यं ब्रह्मेशयोस्तयोः। कर्तुश्च कृतकर्तुश्च भेदोऽस्ति स्पष्ट एव हि ॥४.६०॥
लेकिन इससे शिव और परब्रह्म का कर्तापन समान नहीं हो जाता | कर्ता और कर्ता के कारण के बीच का अंतर काफी स्पष्ट है | ‘‘न तस्य कश्चित्पतिरस्ति लोके न चेशिता नैव च तस्य लिङ्गम्। स कारणं करणाधिपाधिपो न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिपः || ९ || श्वेताश्वतरोपनिषद् षष्ठोऽध्यायः’’ इस लोक में ‘उसका’ कोई स्वामी नहीं है, न ही कोई ‘उसके’ ऊपर शासनकर्ता है। नहीं ‘उसका’ कोई रूप है न कोई लिंग है; क्योंकि ‘वह’ स्वयं ही उत्पत्ति का कारण तथा प्रकृति गत करणों (साधनों) के अधिपतियों का भी ‘अधिपति’ है, किन्तु न कोई उसका जनक (उत्पत्ति कर्ता) है न ही कोई ‘उसका’ अधिपति-स्वामी है | ‘‘यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्। यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्।।१५ .१२।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ जो तेज सूर्य में स्थित होकर सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है और व्यष्टि में जो तेज आँख में स्थित होकर जगत को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमा में है अर्थात मन में है और अग्नि में है, अर्थात वाणी में है उस तेज को तुम मेरा ही जानो। || ६० ||
कर्तृत्वं यस्य संसिद्धं कर्मित्वं तस्य सिद्ध्यति। इत्यत्र संशयः को वा तद्ब्रह्मेशौ च कर्मिणौ ॥४.६१॥
(कोई इस तरह बहस कर सकता है) जिसका कर्तापन स्थापित हो चुका है , उसे कर्मों का फल भोगने के लिए बाध्य किया जाता है। तो ईश्वर और ब्रह्म के कर्मी होने और उन कर्तव्यों का पालन करने के कारण उसके फल भोगने में क्या संदेह हो सकता है? ‘‘पराचः कामाननुयन्ति बालास्ते मृत्योर्यन्ति विततस्य पाशम्। अथ धीरा अमृतत्वं विदित्वा ध्रुवमध्रुवेष्विह न प्रार्थयन्ते || २ || कठोपनिषद् अध्याय २ वल्ली १’’ ”अन्य अन्य बाल बुद्धि लोग (बहिर्मुख बुद्धि वाले लोग) कामनाओं तथा सुख-भोगों का अनुसरण करके उस मृत्यु के विस्तृत पाश में बंधे चले जाते हैं जो मुंह खोले सदा ही उन्हें लेने को तैयार है। परन्तु धीर पुरुष अमृतत्व को जानकर इस लोक के अनित्य पदार्थों में नित्य (ध्रुव) तत्त्व को पाने की अभीप्सा नहीं करते है। क्योंकि अस्थायी पदार्थों में नित्य सुख का मिलना संभव नहीं है | || ६१ ||
इति चेत्कर्मितेशस्य कामित्वादिवदिष्यते। ब्रह्मणोऽपि तु कर्मित्वं धनित्वादिवदित्यतः ॥४.६२॥
(यदि कोई ऐसा सोचता है तो उसका उत्तर यह होगा कि) ईश्वर एक ऐसे कर्ता की तुलना में है जो धन प्राप्त करने के लिए कार्य करता है, लेकिन ब्रह्म एक ऐसे कर्ता की तरह है जो कार्य करता है, भले ही उसके पास पहले से ही धन हो | जैसे कभी कभी सेठ भी मजदूरों के साथ काम करता है परन्तु मजदूरी प्राप्त करने के लिए नहीं | भगवान कहते हैं ‘‘न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन। नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।३.२२।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ यद्यपि मुझे त्रैलोक्य में कुछ भी कर्तव्य नहीं हैं तथा किंचित भी प्राप्त होने योग्य (अवाप्तव्यम्) वस्तु अप्राप्त नहीं है, तो भी मैं कर्म में ही बर्तता हूँ। तथा ‘‘न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा। इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।।४.१४।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ कर्म मुझे लिप्त नहीं करते; न मुझे कर्मफल में स्पृहा है। इस प्रकार मुझे जो जानता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता है। || ६२ ||
परतन्त्रो महेशः स्यात्स्वतंत्रं ब्रह्म निर्गुणं। आधाराधेयभावेन कार्यकारणता द्वयोः ॥४.६३॥
ईश्वर निर्भर है (परतन्त्र है) लेकिन निर्गुण ब्रह्म संप्रभु है (स्वतंत्र है)। दोनों के बीच में आधार आधेय भाव है | एक मूल है और अतिसूक्ष्म है और दूसरा विराट होने के कारण अतिस्थूल है , दोनों के बीच में एक कार्य है और दूसरा कारण है इस प्रकार दोनों का कार्य कारण भाव संबंध है।‘‘एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय । अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥७.६ ৷৷’’ भावार्थ : हे अर्जुन! तू ऐसा समझ कि सम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों (परा और अपरा) से ही उत्पन्न होने वाले हैं और मैं सम्पूर्ण जगत का प्रभव (उत्पत्ति) तथा प्रलय हूँ अर्थात् सम्पूर्ण जगत का मूल कारण मैं ही हूँ | || ६३ ||
कर्मित्वे ब्रह्मणः सिद्धे कथं नैर्गुण्यमीर्यते। इति चेन्नैष दोषोऽस्ति मायागुणविवर्जनात् ॥४.६४॥
अब अगर कोई यह सोचता है कि, यदि ब्रह्म एक कर्ता है, तो इसे गुणों से मुक्त कैसे कहा जा सकता है, तो यह एक गलत सोच है क्योंकि ब्रह्म माया और गुणों से बंधे हुए नहीं हैं। ‘‘सर्वेन्द्रिय गुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्। असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च।।१३.१५।।श्रीमद् भगवद्गीता ’’ वह समस्त इन्द्रियों के गुणो (कार्यों) के द्वारा प्रकाशित होने वाला, परन्तु (वस्तुत:) समस्त इन्द्रियों से रहित है; आसक्ति रहित तथा गुण रहित होते हुए भी सम्पूर्ण संसार का धारण पोषण करने वाला और गुणों का भोक्ता है | || ६४ ||
अदृश्यत्वादिभिर्विद्यागुणैरानन्दतादिभिः। सगुणव्यपदेशः स्याद्ब्रह्मणस्त्विष्ट एव सः ॥४.६५॥
यदि ब्रह्म को सगुण इकाई माना जाता है जिसमें अतिरिक्त गुण जैसे अदृश्यता आदि ज्ञान और आनंद आदि हैं तो ऐसा करना केवल वांछनीय ही है। ‘‘अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्। भूत भर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च।।१३.१७।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ वह परमात्मा विभाग रहित एक रूप से आकाश के सदृश परिपूर्ण होने पर भी चराचर सम्पूर्ण भूतों में विभक्त-सा स्थित प्रतीत होता है (जैसे महाकाश विभाग रहित स्थित हुआ भी घड़ों में पृथक-पृथक के सदृश प्रतीत होता है, वैसे ही परमात्मा सब भूतों में एक रूप से स्थित हुआ भी पृथक-पृथक की भाँति प्रतीत होता है) तथा वह जानने योग्य परमात्मा विष्णु रूप से भूतों को धारण-पोषण करने वाला और रुद्र रूप से संहार करने वाला तथा ब्रह्मा रूप से सबको उत्पन्न करने वाला है | अतः वह अविभक्त है, तथापि वह भूतों में विभक्त के समान स्थित है। वह ज्ञेय ब्रह्म भूत मात्र का भर्ता, संहारकर्ता और उत्पत्ति कर्ता है | वे जानने योग्य परमात्मा ही सम्पूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाले तथा उनका भरण-पोषण करने वाले और संहार करने वाले हैं। इसीलिए भगवान की सगुण मूर्ति में ‘आनन्दमात्र करपादमुखोदरादि’ ‘आनन्दमात्रैकरसमूर्तयः’ इत्यादि उक्तियाँ हैं। ‘‘निर्दोषपूर्णगुणविग्रह आत्मतन्त्रोनिश्चेतनात्मकशरीरगुणैश्च हीनः|आनन्दमात्रकरपादमुखोदरादिः सर्वत्र च स्वगतभेदविवर्जितात्मा ||(महाभारत तात्पर्य निर्णयः)’’ भगवान का दिव्य शरीर भ्रम, प्रमाद, जरा, रोग आदि सभी दोषों से रहित तथा अनन्त कल्याण गुणों का धाम है , वह काल कर्मादि के अधीन नहीं है | पाञ्चभौतिक जड़ प्रकृति से बना हुआ नहीं है | उनके हाथ, पैर, मुख, उदर आदि सभी अंग केवल चिन्मय आनन्द से ही बने हुए हैं| उनमें स्वगत, सजातीय तथा विजातीय भेद नहीं हैं ||| ६५ ||
जगत्संसारकर्तृत्वं यथा जीवेशयोर्मतम्। तथा जीवेशकर्तृत्वं परस्य ब्रह्मणो मतम् ॥४.६६॥
जिस तरह जीव और ईश्वर को दुनिया का कर्ता माना जाता है, उसी तरह सर्वोच्च ब्रह्म को जीव और ईश्वर का कर्ता माना जाता है | ‘‘अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः। शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते।।१३.३२।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ हे कौन्तेय ! अनादि और निर्गुण होने से यह परमात्मा अव्यय है। शरीर में स्थित हुआ भी, वास्तव में , वह न (कर्म) करता है और न (फलों से) लिप्त होता है | || ६६ ||
ब्रह्मणोऽन्यो न कर्तास्ति प्राक्कर्मादिविवर्जनात्। अनाद्यनन्तं ब्रह्मैकमकर्माकर्तृ हीयते ॥४.६७॥
ब्रह्म के अलावा कोई दूसरा कर्ता नहीं है क्योंकि वह किसी पिछले कर्म से रहित है। यदि ब्रह्म, जो शुरुआत और अंत के बिना है, को एक गैर-कर्ता माना जाता है तो यह पतन की ओर ले जाएगा | ‘‘अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते। इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।।१०.८।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ मैं ही सबका प्रभव (उत्पत्ति) स्थान हूँ; मुझसे ही सब (जगत्) विकास को प्राप्त होता है, इस प्रकार जानकर बुधजन भक्ति भाव से युक्त होकर मेरा ही भजन करते हैं | || ६७ ||
कालत्रयेऽप्यकर्तृत्वं ब्रह्मणः सम्मतं यदि। जीवेश रचना न स्यात् जगत्संसारयोरपि ॥४.६८॥
यदि ब्रह्म के अकर्तृत्व को तीनों समय, भूत, वर्तमान और भविष्य में स्वीकार किया जाता है, तो जीव और ईश्वर का भी कोई सृजन नहीं हो सकता है और जब जीव और ईश्वर ही नहीं होंगे तो फिर इस दुनिया का कोई भी निर्माण नहीं हो सकता है | ‘‘यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः। क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत।।१३.३४।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ हे भारत ! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण लोक को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही क्षेत्री (क्षेत्रज्ञ) सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है | || ६८ ||
प्रत्यक्षसिद्धा रचना कर्तारं समपेक्षते। अतोऽद्यकर्मकर्तृत्वाद्ब्रह्मणः कर्मितोचिता ॥४.६९॥
एक निर्मित इकाई जिसे देखा जा सकता है, उस रचना का कोई एक निर्माता होने की अपेक्षा होती है। इसलिए, ब्रह्म प्रधान रचनाकार होने के नाते, उनका कर्तापन उपयुक्त है | ‘‘सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः। तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता।।१४.४।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ हे कौन्तेय ! समस्त योनियों में जितनी मूर्तियां (शरीर) उत्पन्न होती हैं, उन सबकी योनि अर्थात् गर्भ है महद् ब्रह्म (मूल प्रकृति) और मैं बीज की स्थापना करने वाला पिता हूँ | ६९ ||
कर्मित्वे ब्रह्मणोऽप्येवं किं वाच्यं ब्रह्मवेदिनः। ब्रह्मीभूतो न कर्मी स्यादित्येतच्च न सिद्ध्यति ॥४.७०॥
अब यदि, इस प्रकार, ब्रह्म को कर्ता के रूप में स्थापित किया जाता है, तो ब्रह्म के जानकारों के बारे में क्या कहा जाना चाहिए (जो कि आत्म-सिद्ध पुरुष हैं)? क्योंकि अब (यह कहना) कि जो व्यक्ति ब्रह्म के साथ एक हो गया है, वह कर्ता नहीं है, यह बात मान्य नहीं है | ‘‘कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः। स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।४.१८।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ जो पुरुष कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है, वह योगी सम्पूर्ण कर्मों को करने वाला है | || ७० ||
यादृशं ब्रह्म निर्णीतं तद्भूतोऽपि च तादृशः। इति निर्णय एव स्याद्युक्तेरपि समंजसः ॥४.७१॥
जिस तरह से ब्रह्म के तत्व का निर्णय किया गया है (एक कर्ता के रूप में होने के लिए) उसी तरह जो ब्रह्म के साथ एकता प्राप्त कर चुका है वह भी एक कर्ता है, ऐसा निष्कर्ष होना चाहिए। तभी यह उपरोक्त कथन के अनुरूप भी होगा | बच्चे जब एक फिल्म देखते हैं तब वे उसे सच्ची समझ कर हँसते,रोते हैं ,सुखी,दुःखी होते हैं परन्तु बड़े बूढ़े उसे एक फिल्म ही समझते हैं | ‘‘यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः। ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।४.१९।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ जिसके समस्त कार्य कामना और संकल्प से रहित हैं, ऐसे उस ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा भस्म हुए कर्मों वाले पुरुष को ज्ञानीजन पण्डित कहते हैं | || ७१ ||
कालत्रयेऽप्यकर्मित्वमकर्तृत्वमकालता। कस्य चिद्ब्रह्मणोऽन्यस्य नीरूपस्यास्ति वस्तुनः ॥४.७२॥
अतीत, वर्तमान और भविष्य इन तीनों कालों में कर्तृत्व हीनता और समय हीनता, निराकार चेतन ब्रह्म के अलावा किस वस्तु अथवा व्यक्ति के लिए संभव है | ‘‘अस्तीत्येवोपलब्धव्यस्तत्त्वभावेन चोभयोः। अस्तीत्येवोपलब्धस्य तत्त्वभावः प्रसीदति || १३ || कठोपनिषद् अध्याय २ वल्ली ३’’ ”’उस’ का बोध ”वह है” (अस्तित्व-भाव) एवं ‘उसके’ ‘तत्व भाव’, दोनों रूपों में प्राप्त करना चाहिये। किन्तु जब मनुष्य ‘उसको’ वास्तव में ”है” ऐसा जान लेते हैं, तो ‘उसका’ तत्त्व भाव उस मनुष्य के प्रति उद्भासित हो जाता है | परमात्मा की सत्ता को स्वीकार करने वाले साधक के लिए परमात्मा का तात्विक स्वरूप (अपने आप शुद्ध हृदय में) प्रत्यक्ष हो जाता है | || ७२ ||
तत्र कालत्रयातीतं नेह ज्ञेयं विवक्षितम्। प्रमेयत्वप्रमाणत्वप्रमातृत्वादिवर्जनात् ॥४.७३॥
यहां, जिसने समय को पार कर लिया है, (जो कालत्रय से अतीत है) उस अकालपुरुष को ज्ञेय रूप से नहीं माना जाना चाहिए, क्योंकि वह ब्रह्म ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय से पारगमन की स्थिति में है | ‘‘प्रमाता च प्रमाणञ्च प्रमेयं प्रमितिस्तथा । यस्य प्रसादात् सिध्यन्ति तत्सिद्धौ किमपेक्षते।।’’ तथा च , अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः। अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।२.१८।। इस नाशरहित अप्रमेय नित्य , अविनाशी (हमेशा रहने वाले) देही आत्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गये हैं। इसलिये हे भारत ! तुम युद्ध करो | || ७३ ||
ये तु ब्रह्मेशजीवाः संप्रोक्ताः कर्तृत्वसंयुताः। विद्यया मायया ते हि कर्मिणोऽविद्ययापि च ॥४.७४॥
लेकिन ब्रह्म, ईश्वर और जीव जो कर्ता (कर्तृत्व से युक्त) कहे जाते हैं, वे क्रमशः ज्ञान, माया से युक्त होने पर कहे जाते हैं और (अविद्या) अज्ञान के गुण से संपन्न होने पर क्रमशः कर्मी कहे जाते हैं | श्रुति पथ पालक धर्म धुरंधर। गुणातीत अरु भोग पुरंदर॥ श्री रामचंद्र जी वेदमार्ग के पालने वाले, धर्म की धुरी को धारण करने वाले, (प्रकृतिजन्य सत्व, रज और तम) तीनों गुणों से अतीत और भोगों (ऐश्वर्य) में इन्द्र के समान हैं | || ७४ ||
कर्मिषु त्रिषु चोक्तेषु ब्रह्मणः श्रैष्ठ्यदर्शनात्। अकर्मत्वं श्रुतिस्मृत्योः प्रोच्यते युक्तमेव तत् ॥४.७५॥
इन तीनों प्रकार के कर्ता-धर्ताओं में ब्रह्म की श्रेष्ठता के कारण, श्रुतियों और स्मृति शोधों में इसे न करने वाला कर्म संस्पर्श से रहित कहना (अकर्तापन) उपयुक्त है | ‘‘आकाशवत्सर्वगतं सुसूक्ष्मं निरञ्जनं निष्क्रियं सन्मात्रं चिदानन्दैकरसं शिवं प्रशान्तममृतं तत्परं च ब्रह्म ||४|| शाण्डिल्योपनिषद् द्वितीयोऽध्यायः’’ आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त रहने वाले, अति सूक्ष्म, निरञ्जन, क्रियाविहीन, एकमात्र सत्य स्वरूप, चेतना से सम्पन्न, आनन्द स्वरूप, एकरस से सम्पन्न, मंगलमय, अत्यन्त शांत एवं अमर है, वही परम अविनाशी ब्रह्म है | || ७५ ||
एतेन कर्मिणः श्रैष्ठ्यं संसिद्धमिति ये विदुः। औदासीन्यं न तेषां स्याच्छ्रुतिस्मृत्युक्तकर्मसु ॥४.७६॥
इस तरह जो लोग कर्ता की श्रेष्ठता के बारे में जानते हैं, वे श्रुतियों और स्मृतियों में वर्णित क्रियाओं की अवहेलना नहीं करते | ‘‘तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ। ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि।।१६.२४।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ इसलिए तुम्हारे लिए कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था (निर्णय) में शास्त्र ही प्रमाण है शास्त्रोक्त विधान को जानकर तुम्हें अपने कर्म करने चाहिए | श्रुतिस्मृत्युदितं सम्यङ् निबद्धं स्वेषु कर्मसु । धर्ममूलं निषेवेत सदाचारमतन्द्रितः ||१५५|| मनुस्मृतिके चौथे अध्याय में कहा है कि सदा आलस्य को छोड़कर वेद और मनुस्मृति में वेदानुकूल कहे हुए अपने कर्मों में निबद्ध धर्म का मूल सदाचार अर्थात जो सत्य और सत्पुरुष, आप्तपुरुष, {वह व्यक्ति जो तत्त्वों, वस्तुओं आदि के यथार्थ रूप को अच्छी तरह जानता हो और जिसकी उपदेशपूर्ण बातें प्रामाणिक मानी जाती हों। (आप्तोपदेश: शब्द:; न्यायसूत्र १.१.७) वह आप्तपुरुष है} अर्थात जो धर्मात्माओं का आचरण है उसका सेवन सदा करना चाहिए | श्रुतिस्मृत्युदितं धर्ममनुतिष्ठन् हि मानवः। इह कीर्त्तिमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखम् ||९||मनुस्मृतिः/द्वितीयोध्यायः क्योंकि जो मनुष्य वेदोक्त धर्म और तथा वेद से अविरुद्ध स्मृत्युक्त धर्म का अनुष्ठान करता है वह इस लोक में कीर्ति और मरणोपरांत सर्वोत्तम सुख को प्राप्त होता है | || ७६ ||
ज्ञानादुपास्तिरुत्कृष्टा कर्मोत्कृष्टमुपासनात्। इति यो वेद वेदान्तैः स एव पुरुषोत्तमः ॥४.७७॥
उपासना ज्ञान से श्रेष्ठ है और कर्म उपासना से श्रेष्ठ है। जो यह बात उपनिषदों से जानता है, वह पुरुषों में श्रेष्ठ है | ‘‘कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः। लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि।।३.२०।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ राजा जनक-जैसे अनेक महापुरुष भी (जैसे कि काशीराज अजातशत्रु , महाराज अश्वपति आदि) कर्म के द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं। इसलिये लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू (निष्कामभावसे) कर्म करनेके योग्य है | || ७७ ||
॥इति सूर्यगीतायां चतुर्थोऽध्यायः॥
|| अथ पञ्चमोऽध्यायः ||
सूर्य उवाच
अथातः संप्रवक्ष्यामि कर्मिश्रेष्ठस्य लक्षणम्। यच्छ्रुत्वा नैव भूयोऽन्यच्छ्रोतव्यं तेऽवशिष्यते ॥५.१॥
हे अरुण! अब मैं आपको उन विशेषताओं को बताऊंगा जो सबसे अच्छे कर्ता की होतीं हैं। यह सब सुनने के बाद और अच्छी तरह से जानने के बाद, आपके द्वारा सुनने योग्य और ज्ञात होने के लिए और कुछ भी शेष नहीं रहेगा | ‘‘ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः।यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते।।७.२।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ मैं तुम्हारे लिए विज्ञान सहित इस ज्ञान को अशेष रूप से (पूर्ण रूप से) कहूँगा जिसको जानकर यहाँ (जगत् में) फिर और कुछ जानने योग्य (ज्ञातव्य) शेष नहीं रह जाता है | || १ ||
यस्य देहः स्वकीयोऽपि सर्वथा न प्रतीयते। नेन्द्रियाणि च सर्वाणि स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥५.२॥
वह जो अपना शरीर भी महसूस नहीं करता है, और न ही उसे कोई अपनी इन्द्रियों का होश है, उसे सबसे अच्छा कर्ता कहा जाता है | अर्थात शरीर और इन्द्रियों में जिसकी अहंता और ममता नहीं है | यह सारा खेल ईश्वर का बनाया हुआ है और वही इसका वास्तविक कर्ता है | गुरु साहब नानक देव जी की वाणी है कि {उसतों होइ नहीं किछु बुरा औरहिं कहौ जीनहि किछु करा} अर्थात:- उससे कुछ बुरा होता नहीं और उसके सिवा दूसरा कोई कर्ता नहीं है | इक ओंकार सतनाम करता पुरख निरभऊ निरबैर अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसाद ॥ अनुवाद:- एक परमात्मा, जिसका नाम सत्य है सृजनकर्ता पुरुष निर्भय, द्वेष-रहित अकाल मूर्ति (सनातन छवि) अजन्मा (जन्म से रहित) स्वयंभू (स्वयं से उत्पन्न हुआ) गुरु-कृपा से प्राप्त ॥ तथा श्री कृष्ण भी कहते हैं -‘‘यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः। ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।४.१९।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ जिसके समस्त कार्य कामना और संकल्प से रहित हैं, ऐसे उस ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा भस्म हुए कर्मों वाले पुरुष को ज्ञानीजन पण्डित कहते हैं | ‘‘भविष्यं नानुसन्धत्ते नातीत चिन्तयत्यसौ। वर्तमान निमेषं तु हसन्नेवानुनर्तते ।।’’ भविष्य का अनुसंधान नहीं, न अतीत की चिन्ता। हंसते हुए वर्तमान में जीना। ||२||
यस्य प्राणाः प्रशान्ताः स्युर्मन आदीनि च स्वयम्। अव्यक्तान्तानि सर्वाणि स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥५.३॥
वह जिसका समस्त प्राण आदि वर्ग शांत है बना हुआ है, जिसका मन अव्यक्त की सीमा तक स्थिर है और जो स्वयं भी शांत है, वह सर्वश्रेष्ठ कर्ता कहलाता है | ‘‘इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः। मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्परः || १० || महतः परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुषः परः। पुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः || ११ || कठोपनिषद् अध्याय १ वल्ली ३’’ ”इन्द्रियों से उच्चतर हैं उनके विषय, उन इन्द्रिय-विषयों से उच्चतर है ‘मन’, ‘मन’ से उच्चतर है बुद्धि तथा उससे (बुद्धि से) उच्चतर है ‘महान् आत्मा’। “उस महान आत्मा से उच्चतर ‘अव्यक्त’ है, ‘अव्यक्त’ से उच्चतर ‘पुरुष’ है; ‘पुरुष’ से उच्चतर कुछ भी नहीं ː ‘बही’ सत्ता की पराकाष्ठा है, वही यात्रा का परम लक्ष्य (परा गति) है | ‘‘प्रलयस्यापि हुंकारैः चराचर विचालनैः | विक्षोभं नैति यस्यान्तः स महात्मेति कथ्यते ||’’ प्रलय काल की गंभीर गर्जनाओं में भी और जब समस्त स्थावर,जङ्गम सृष्टि विचलित हो जाती है , उस समय भी जिसका चित्त विचलित नहीं होता उसे महात्मा कहते हैं | ऐसे महापुरुष प्रलय काल में भी दु:खी नहीं हो सकते | || ३ ||
बालोन्मत्तपिशाचादिचेष्टितान्यपि यत्र नो। निष्ठाऽजगरवद्यस्य स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥५.४॥
वह जो बालकों, पागलों और भूत पिशाचों की तरह चेष्टा करता है और नहीं भी करता है, और वह जिसका रवैया अजगर सर्प (पाइथन) की तरह है, उसे सर्वश्रेष्ठ कर्ता कहा जाता है | ‘‘बुद्धतत्त्वस्य लोकोऽयं जडोन्मत्तपिशाचवत् । बुद्धतत्त्वोऽपि लोकस्य जडोन्मत्तपिशाचवत्”-“पहुँचे हुए तत्त्वज्ञानी की नजरोमें यह सारी दुनिया जड, पागल और पिशाच जैसी है और दुनिया की नजरो में वह तत्वज्ञानी भी ऐसा ही है | || ४ ||
नाहंभावश्च यस्यास्ति नेदं भावश्च कुत्रचित्। सर्व द्वन्द विहीनात्मा स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥५.५॥
जिसको कहीं भी “मैं” या “यह” का कोई बोध नहीं है, अर्थात जिसको अपने शरीर में अहंता तथा संबंधियों और पदार्थों ममता नहीं है | एवं वह जो सभी (द्वन्द्वों) जोड़ों के विरोध से रहित है, उसे सबसे अच्छा काम करने वाला (कर्मिश्रेष्ठ) कहा जाता है | ‘‘प्रतिबन्धो वर्तमानो विषयासक्ति लक्षणः । प्रज्ञामान्द्यं कुतर्कश्च विपर्ययदुराग्रहः ॥ ४३॥ पञ्चदशी ध्यानदीप प्रकरण ’’ वर्तमान प्रतिबंधों को , मौजूदा प्रतिबंधों को उदाहरणों के रूप में समझा जाना चाहिए, जैसे कि १ विषयासक्ति २ प्रज्ञामान्द्यं (बुद्धि की मन्दता) ,व्यक्तिपरक बुद्धि, ३ कुतर्क करना या रूढ़िवादिता के खिलाफ परिष्कार करना अर्थात चेतन आत्मा को देहेन्द्रिय,मन,प्राण,बुद्धि आदि मानना इस प्रकार की विपरीत भावना को विपर्यय कहते हैं ४ मैं देह ही हूँ इस बात में दुराग्रह या कट्टरता का होना | ये चार बातें तत्वज्ञान के प्रतिबन्ध हैं (रुकाबट या अड़चनें हैं) | || ५ ||
प्राग्बद्धोऽहं विमुक्तोऽद्येत्येवं यस्य स्मृतिर्न च। नित्यमुक्तस्वरूपः सन् स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥५.६॥
“मैं पहले बद्ध था, और अब मैं मुक्त हो गया हूं” – जो इस तरह की धारणा नहीं रखता है, वह जो हमेशा के लिए मुक्त है, उसे सर्वश्रेष्ठ कर्ता कहा जाता है | आत्मतत्व – देश, काल, वस्तु से अपरिच्छिन्न सर्वाधिष्ठान और सर्व साक्षी है | ‘‘यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः। विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः।।५.२८।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ जिस पुरुष की इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि संयत हैं, ऐसा मोक्ष परायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित है, वह सदा मुक्त ही है | || ६ ||
विदेहमुक्तो यः प्रोक्तो वरिष्ठो ब्रह्मवेदिनाम्। अरूपनष्टचित्तासुः स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥५.७॥
जिसे विदेहमुक्त के रूप में जाना जाता है, वह ब्रह्म के ज्ञाताओं में श्रेष्ठ है, जो निराकार है और जिसका चित्त और प्राण नष्ट हो चुका है, (जो अपने को प्राणमय और विज्ञानमय कोष से पृथक जानता है) जो केवल द्रष्टा साक्षी मात्र है, उसे सर्वश्रेष्ठ कर्ता कहा जाता है | ‘‘ईप्सितानीप्सिते न स्तो यस्यान्तर्वर्तिदृष्टिषु । सुषुप्तिवद्यश्चरति स जीवन्मुक्त उच्यते ||४६|| महोपनिषद् द्वितीयोऽध्यायः’’ जो सदैव अन्तर्मुखी दृष्टिवाला, पदार्थ की आकांक्षा से रहित और किसी भी वस्तु की अपेक्षा अथवा कामना से रहित सुषुप्ति के समान अवस्था में विचरण करता रहता है, वही मनुष्य जीवन्मुक्त कहलाता है। जो सदैव आत्मा में लीन रहता है, जिसका मन पूर्ण एवं पवित्र है, अत्यन्त श्रेष्ठ एवं शान्त स्वभाव को प्राप्त कर जो इस नश्वर संसार में किसी वस्तु की इच्छा नहीं रखता, जो किसी के प्रति आसक्ति न रखता हुआ उदासीन भाव से भ्रमण करता रहता है, वही पुरुष जीवन्मुक्त कहलाता है। जिसका हृदय किसी भी पदार्थ में लिप्त नहीं होता तथा जो चेतन संवित् (सद्ज्ञानयुक्त) स्वरूप वाला है, वही पुरुष जीवन्मुक्त कहलाता है। जो पुरुष राग-द्वेष, सुख-दु:ख, मान-अपमान, धर्म-अधर्म एवं फलाफल की इच्छा-आकांक्षा न रखता हुआ सदैव अपने कार्यों में व्यस्त रहता है, वही मनुष्य जीवन्मुक्त कहलाता है। जो अहंभाव को त्याग करके, मान एवं मत्सर से रहित, उद्वेगरहित तथा संकल्पविहीन रहकर कर्म करता रहता है,उसी पुरुष को ज्ञानीजन जीवन्मुक्त कहते हैं | || ७ ||
कर्माणि यस्य सर्वाणि वासनात्रयजानि च। अभवन्नपशान्तानि स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥५.८॥
जिसके सभी प्रकार के कर्म मल जो कि तीन प्रकार की वासनाओं से झरते हैं, वे पूरी तरह से शान्त हो चुके हैं, नष्ट हो चुके हैं, उसे सर्वश्रेष्ठ कर्ता कहा जाता है | एषणाएं मुख्य रूप से तीन प्रकार की होती हैं-वित्तैषणा, पुत्रैषणा और लोकैषणा ये तीन ही सभी वासनाओं के मूल हैं | शैव दर्शन के अनुसार मल भी तीन प्रकार के होते हैं १ आणवमल, २ मायामल और ३ कार्मिक मल अणु ( जीव ) गत अज्ञान ही उसके परमार्थ स्वरूप को ढक लेता है । इसी को आणव मल कहते हैं । माया शक्ति के अधीन मल मायीयमल तथा पुण्य और पाप कर्मों की वासना से उत्पन्न मल कार्मिक मल कहलाते हैं | इन्ही तीन मलों के कारण जीव बंधन में पड़ता है | ‘‘हर्षामर्षभयक्रोधकामकार्पण्य दृष्टिभिः । न परामृश्यते योऽन्तः स जीवन्मुक्त उच्यते ||४४|| महोपनिषद् द्वितीयोऽध्यायः’’ जिसे तप आदि साधनों के अभाव में स्वभाववश ही सांसारिक भोग अच्छे नहीं लगते,वही पुरुष जीवन्मुक्त कहलाता है। जो प्रतिपल प्राप्त होने वाले सुखों या दुःखों में आसक्त नहीं होता, जो न हर्षित होता है और न ही दुःखी होता है,वही जीवन्मुक्त कहलाता है । जो हर्ष, अमर्ष, भय,काम, क्रोध एवं शोक आदि विकारों से मुक्त रहता है,वही जीवन्मुक्त कहलाता है। जो अहंकार युक्त वासना को अति सहजता से त्याग देता है तथा जो चित्त के अवलम्बन में सम्यक् रूप से त्याग भाव रखता है, वही वास्तव में जीवन्मुक्त कहलाता है | || ८ ||
कर्माणि कर्मभिः शुद्धैरशुद्धान्युपमृद्य यः। स कर्मब्रह्ममात्रोऽभूत् स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥५.९॥
जिसने अपने सभी अशुद्ध कर्मों को शुद्ध कर्मों से शुद्ध किया है और जिसने केवल ब्रह्म के लिए काम करने की स्थिति प्राप्त की है, उसे सर्वश्रेष्ठ कर्ता कहा जाता है | ‘‘ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।४.२४।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ अर्पण (अर्थात् अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है; ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है, वह भी ब्रह्म ही है। इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है | || ९ ||
ज्ञानिनामपि य श्रेष्ठः सप्तमीं भूमिकां गतः। उपासकानां यश्चैकः स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥५.१०॥
जो ज्ञानियों में श्रेष्ठ है, जिसने ज्ञान के सातवें चरण को प्राप्त कर लिया है, वह जो उपासकों में अद्वितीय है, उसे सर्वश्रेष्ठ कर्ता कहा जाता है | ‘‘ज्ञानभूमिः शुभेच्छाख्या प्रथमा परिकीर्तिता।
विचारणा द्वितीया स्यात्तृतीया तनुमानसा।। सत्त्वापत्तिश्चतुर्थी स्यात्ततोऽसंसक्तिनामिका। पदार्थाभावनी षष्ठी सप्तमी तुर्यगा स्मृता।।’’ शुभेच्छा, (सु)विचारणा, तनुमानसा, सत्वापत्ति, असंसक्ति, पदार्थाभावनी और तुर्यगा, ज्ञान की ये सात भूमिकायें बताई गई हैं | ‘‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन | न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रय: || ३.१८ || श्रीमद् भगवद्गीता’’ उस (कर्मयोगसे सिद्ध हुए) महापुरुषका इस संसारमें न तो कर्म करनेसे कोई प्रयोजन रहता है, और न कर्म न करनेसे ही कोई प्रयोजन रहता है, तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें (किसी भी प्राणीके साथ) इसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता। श्रीमद्भागवत में कहा है कि ‘‘देहं च नश्वरमवस्थितमुत्थितं वा सिद्धो न पश्यति यतोऽध्यगमत् स्वरूपम् । दैवादपेतमथ दैववशादुपेतं वासो यथा परिकृतं मदिरामदान्ध: ॥ ११.१३.३६ ॥’’ जैस मदिरा पीकर उन्मत्त पुरूष यह नहीं देखता कि मेरे द्वारा पहना हुआ वस्त्र शरीर पर है या नहीं या गिर गया वैसे ही सिद्ध पुरुष जिस शरीर से उसने साक्षात्कार किया है वह प्रारब्ध बस खड़ा है बैठा है या चल रहा है इत्यादि बातों पर ध्यान नहीं देता है। ‘‘देहोऽपि दैववशगः खलु कर्म यावत् । स्वारंभकं प्रतिसमीक्षत एव सासुः । तं सप्रपञ्चमधिरूढसमाधियोगः । स्वाप्नं पुनर्न भजते प्रतिबुद्धवस्तुः ॥ ३७ ॥ श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ११/अध्यायः १३’’ देह भी दैवाधीन रहकर स्वारंभक कर्म (शेष) रहने तक प्राणधारण कर राह देखता रहता है। समाधि-योग प्राप्त कर वस्तु प्रबोधलब्ध पुरुष स्वप्नतुल्य उस सप्रपंच देह को पुनः धारण नहीं करता। श्रुति में भी कहा है कि ‘‘तद्यथाऽहिनिर्ल्वयनी वल्मीके मृता प्रत्यस्ता शयीतैवमेवेदं शरीरं शेते अथायमशरीरो मृतः प्राणो ब्रह्मैव तेज एव इति। (वृहदारण्यकोपनिषद ४.४.७)’’ जैसा कि साँप की केंचुली से भरी हुई देह फेंक दी हुई बर्मी (चींटियों के बनाए हुए मिट्टी के ढेर) पर पड़ी रहे, इसी प्रकार यह शरीर पड़ा रहता है और अब यह आत्मा शरीर से रहित हुआ अमृत प्राण (अमर जीवन) है, ब्रह्म ही है, तेज (प्रकाश स्वरूप) ही है । तस्य तावदेव चिरं यावन्न विमोक्ष्ये, अथ संपत्स्ये (छान्दोग्योपनिषद ६.१४.२) उसके लिए उतनी ही देर है, जब तक वह देह से नहीं छूटता, इसके पीछे तब वह सत् (ब्रह्म) को प्राप्त होगा । यथा नद्य: स्यन्दमाना: समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय । तथा विद्वान् नामरूपाद्विमुक्त: परात्परं पुरुषमुषैति दिव्यम् । (मुण्डकोपनिषद् ३.२.८) जैसे नदियाँ बहती हुई समुद्र में जाकर अपना नामरूप खो कर लीन हो जाती हैं, ऐसे ही ज्ञानी पुरुष नाम और रूप को त्याग कर परे से परे जो दिव्य पुरुष है, उसको प्राप्त होता है । एष सम्प्रसादोऽस्माच्छरीरात् समुत्थाय परं ज्योतिरूप सम्पद्य स्वेन रूपणाभिनिष्पद्यते स उत्तम: पुरुष: (छान्दोग्योपनिषद ८.१२.३) यह निर्मल हुआ आत्मा इस शरीर से उठ कर परमज्योति को प्राप्त होकर अपने असली रूप से प्रकट होता है, यह उत्तम पुरुष है । यदात्मतत्त्वेन तु ब्रह्मतत्वं दीपोपमेनेह युक्त: प्रपश्येत् । अजं ध्रुवं सर्वतत्वैर्विशुद्धं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः (श्वेताश्वतरोपनिषद् २.१५) अर्थात् जब वह वहाँ सावधान होकर दीपक के सदृश आत्मतत्त्व से ब्रह्मतत्व को देखता है, जो अजन्मा है, अटल है और सब तत्त्वों से शुद्ध है, तब उस देव को जान कर वह सारी फाँसों से छूट जाता है । || १० ||
यः सर्वैः पीडितोऽपि स्यान्निर्विकारोऽपि पूजितः। सुखदुःखे न यस्य स्तः स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥५.११॥
ऐसा वह व्यक्ति, जिसे दूसरों द्वारा सताया जाता है या वह जो दूसरों द्वारा पूजित होने पर भी अप्रभावित रहता है, वह जिसके लिए कोई सांसारिक पीड़ा और सुख नहीं है, उसे सर्वश्रेष्ठ कर्ता कहा जाता है | ‘‘यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्। नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।२.५७।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ जो सर्वत्र अति स्नेह से रहित हुआ उन शुभ तथा अशुभ वस्तुओं को प्राप्त कर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है? उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित (स्थिर) है |दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः। वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।२.५६।।श्रीमद् भगवद्गीता दुख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता सुख में जिसकी स्पृहा निवृत्त हो गयी हैऔर जिसके मन से राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं वह मुनि स्थितप्रज्ञ कहलाता है | ‘‘न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्। स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः।।५.२०।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ जो स्थिरबुद्धि, संमोहरहित ब्रह्मवित् पुरुष ब्रह्म में स्थित है, वह प्रिय वस्तु को प्राप्त होकर हर्षित नहीं होता और अप्रिय को पाकर उद्विग्न नहीं होता। || ११ ||
यः सर्वमनुजैः पूज्यो यः सर्वैश्च सुरासुरैः। ब्रह्मविष्णुशिवैर्यश्च स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥५.१२॥
जो सभी मनुष्यों, सभी देवताओं और असुरों द्वारा पूजनीय होने के योग्य है, वह जो ब्रह्मा, विष्णु और शिव द्वारा भी पूजे जाने के योग्य है, वह सर्वश्रेष्ठ कर्ता कहलाता है | ‘‘बुद्धाद्वैतसतत्त्वस्य यथेष्टाचरणं यदि । शुनां तत्त्वदृशां चैव कोभेदोऽशुचिभक्षणे ॥ ५५ ॥ ‘‘विड्वराहादितुल्यत्वं मा काङ्क्षीस्तत्त्वविद् भवान् । सर्वधीदोषसंत्यागाल्लोकैः पूज्यस्व देववत् ॥ ५७ ॥पञ्चदशी’’ आचार्य विद्यारण्य स्वामी ने कहा कि यदि मुमुक्षु अद्वैत तत्व का साक्षात्कार करने के उपरान्त भी स्वेच्छाचारी हो जाता है तो उसमें और साधारण जन में क्या भेद है ? यदि दोनों की अशुचि भक्षण में ही रुचि है तो कुत्ते में और तत्वदर्शी में क्या भेद है ? अद्वैतत्व का एहसास होने के बाद भी, यदि कोई व्यक्ति दुराचरणों में गिर जाता है, तो वह अखाद्य भोजन भी करेगा। वह वही करेगा जो वह चाहता है, और जब ऐसा होगा, तो उसमें और कुत्ते में क्या अंतर है?अब जब आप एक दार्शनिक बन गए हैं, तो आपको सुअर की तरह व्यवहार नहीं करना चाहये । काम-आदि बुद्धि के दोषों को दूर करो; और लोक में देवताओं की तरह पूजा प्राप्त करो ! | बोधात् पुरा मनोदोषमात्रात्क्लिष्टोऽस्यथाधुना ।
अशेषलोकनिन्दा चेत्यहो ते बोधवैभवम् ॥ ५६ ॥ अहाहा! तुम्हारे इस ज्ञान की क्या महिमा है? तत्व दर्शन के आगमन से पहले, हालांकि, कामक्रोधादि मनोविकारों को भुगतना पड़ा, और अब, ज्ञान के बाद, सभी लोगों से निंदा का क्लेश सहन करना पड़ रहा है | धन्य है आपका ज्ञान वैभव। वाह वाह। || १२ ||
त्यक्त्वा कर्माणि सर्वाणि स्वात्ममात्रेण तिष्ठतः। कथं कर्मित्वमित्येवं मा शंकिष्ठा महामते ॥५.१३॥
हे बुद्धिमान अरुण! “जिसने सभी कार्यों को छोड़ दिया है और जो अपने आप में ही स्थित है, वह श्रेष्ठकर्ता कैसे हो सकता है?” इस प्रकार का संदेह न करें – || १३ ||
कर्मणां फलमेषा हि स्वात्ममात्रेण संस्थितिः। अतः सफलकर्मैष कर्मिश्रेष्ठो भवेद्ध्रुवम् ॥५.१४॥
वेद विहित कर्मों का परम फल यही है कि स्वयं ही अपने स्वरूप में स्थित हो जाना क्योंकि भगवत्प्रीत्यर्थ कर्म करने से ही चित्तशुद्धि होती है और निर्मल चित्त में ही आत्मा का प्रतिबिम्ब पड़ता है , इसलिए अपने कार्यों को चरम फल तक पहुंचाने के कारण वह निश्चित रूप से श्रेष्ठ कर्ता है |
‘‘दानं स्वधर्मो नियमो यमश्च श्रुतं च कर्माणि च सद्व्रतानि सर्वे मनोनिग्रहलक्षणान्ताः परो हि योगो मनसः समाधिः ||४६ || दान, अपने धर्म का पालन, नियम, यम, वेदाध्ययन, सत्कर्म और ब्रह्मचर्यादि श्रेष्ठ व्रत, देहेन्द्रिय प्राणान्तःकरण की निर्मलता – इन सबका अंतिम फल यही है कि मन एकाग्र हो जाय, भगवान में लग जाये। मन का समाहित हो जाना ही परम योग है | समाहितं यस्य मनः प्रशान्तं दानादिभिः किं वद तस्य कृत्यम् | असंयतं यस्य मनो विनश्यद्दानादिभिश्चेदपरं किमेभिः || ४७ ||’’ श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ११/अध्यायः २३ जिस व्यक्ति का मन शान्त और समाहित है, उसने मानो दान आदि समस्त सत्कर्मों का फल प्राप्त कर लिया है । वह कृतकृत्य हो गया । जिसका मन असंयमी तथा चंचल है अथवा आलस्य से अभिभूत हो रहा है, उस व्यक्ति को इन दानादि शुभ कर्मों से भी कोई लाभ नहीं | || १४ ||
ज्ञानेन ज्ञायते यद्वा उपास्त्या चोपलभ्यते। तत्स्थिरं प्राप्यतेऽनेन कर्मणाऽतोऽस्य कर्मिता ॥५.१५॥
जो ज्ञान से जाना जाता है या उपासना , पूजा द्वारा प्राप्त किया जाता है, वही स्थिरता (दृढ़ता) निश्चित ही इस कर्मयोग के द्वारा प्राप्त की जाती है और इसीलिए उसका कर्तापन मान्य होता है | श्रीमान शंकराचार्य ने भी स्वरूपानुसन्धानाष्टकम् में कहा है कि – तपोयज्ञदानादिभिः शुद्धबुद्धिर्विरक्तो नृपादेः पदे तुच्छबुद्ध्या | परित्यज्य सर्वं यदाप्नोति तत्त्वं परं ब्रह्म नित्यं तदेवाहमस्मि || १|| (जिसने तप, यज्ञ, दान आदि से चंचल बुद्धि को शुद्ध {निश्चल} कर दिया है। ऐसा वह शुद्धबुद्धि वाला पुरुष राजादि के पद से विरक्त होने से उस राज्यप्राप्ति आदि में तुच्छ बुद्धि रखता है। सबका परित्याग करके जिस ब्रह्माकार वृत्ति से परमतत्त्व प्राप्त होता है, वह नित्य ब्रह्म मैं ही हूँ।।१।।) अन्यच्च – तपोभिः क्षीणपापानां शान्तानां वीतरागिणाम् । मुमुक्षूणामपेक्ष्योऽयमात्मबोधो विधीयते ॥१॥ श्लोकार्थ – तपों के अभ्यास द्वारा जिन लोगों के पाप क्षीण हो गये है, जिनके चित्त शान्त और राग-द्वेष या आसक्तियों से रहित हो गये है, ऐसे मोक्ष प्राप्ति की तीव्र इच्छा रखनेवाले साधकों के लिए ‘आत्मबोध’ नामक इस ग्रन्थ की रचना की जा रही है। महर्षि पतञ्जलि ने भी कहा कि – “तपः स्वाध्याय ईश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः ” अर्थात – तप, स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान क्रियायोग है | इन तीनों का सम्बन्ध शारीरिक और मानसिक क्रियाओं से ही है | || १५ ||
देहेऽस्मिन्वर्तमानेऽपि देहस्मृतिविवर्जनात्। विदेहमुक्त इत्युक्तः कथं कर्मीति चेच्छृणु ॥५.१६॥
यदि आप इस प्रकार संदेह करते हैं कि “एक विदेहमुक्त, जो इस शरीर में सीमित रहते हुए भी शरीर-चेतना (शरीर भान) के अभाव के कारण (देह स्मृति से रहित होने के कारण) विदेह मुक्त ऐसा कहा जाता है, तो वह कर्ता कैसे हो सकता है?”, तो सुनो | ‘‘यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।३.७।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ परन्तु हे अर्जुन जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ कर्मेंन्द्रियों से कर्मयोग का आचरण करता है वह श्रेष्ठ है | || १६ ||
देहविस्मृतिमत्त्वेऽपि कर्मदेहे स्थितत्वतः। अन्यदृष्ट्याऽस्य देहित्वात्कर्मित्वमुपपद्यते ॥५.१७॥
शरीर के बारे में जागरूकता खोने पर, लेकिन अभी भी कर्म के शरीर में स्थित होने के कारण, दूसरे दृष्टिकोण से, वह अभी भी एक शरीर तक ही सीमित है अतः उसका कर्तापन वैध है | ‘‘नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः। शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।।३.८।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ तुम (अपने) नियत (कर्तव्य) कर्म करो क्योंकि अकर्म से श्रेष्ठ कर्म है। तुम्हारे अकर्मण्य होने से (तुम्हारा) शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा | न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ।। ३.५ ।।श्रीमद् भगवद्गीता में यह भी कहा है कि कोई भी पुरुष कभी क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता क्योंकि प्रकृति से उत्पन्न गुणों के द्वारा अवश हुए सब (पुरुषों) से कर्म करवा लिया जाता है | || १७ ||
देहस्थत्वादपूर्णः स्यादिति शक्यं (शङ्कयं) न किंचन। तटाकमप्रकुंभस्थं जलं पूर्णं हि दृश्यते ॥५.१८॥
इस बात पर थोड़ा भी संदेह न करें कि (कार्मिक) शरीर में स्थित होने के कारण वह सीमित होकर, अपूर्ण है (अर्थात, वह सार्वभौमिक स्व के साथ एक नहीं हो गया है)। यदि एक कुंड में डूबे हुए घड़े को, पानी में (अंदर और बाहर) सब जगह पूरे के रूप में देखा जाता है | घटाकाश का सम्बन्ध महाकाश से कभी भी विच्छिन्न नहीं होता | हठयोग प्रदीपिका कहा है -‘‘अन्त: शून्यो: बहि: शून्य: कुम्भ इवाम्बरे । अन्तः पूर्णो बहि: पूर्ण: पूर्ण: कुम्भ इवार्णवे ।।५६।।’’ जिस प्रकार खाली घड़े के बाहर और अन्दर का हिस्सा खाली रहता है अर्थात् वह शून्य स्थान कहलाता है । जिसे हम आकाश की संज्ञा देते हैं । ठीक इसी प्रकार समुद्र के पानी में डूबा हुआ घड़ा जिस प्रकार अन्दर व बाहर दोनों प्रकार से ही पानी से युक्त होता है अर्थात् उस घड़े के अन्दर भी जल होता है और उसके बाहर भी जल होता है । अतः जिस तरह घड़ा अन्दर व बाहर दोनों ही प्रकार से पूर्ण होता है | उसी प्रकार इस जगत के अन्दर बाहर सर्वत्र आत्मा ही है। ठीक उसी प्रकार योगी को भी साधना काल में सभी बाह्य ( बाहरी ) व आन्तरिक ( अन्दर के) विचारों का पूरी तरह से त्याग कर देना चाहिए । इस प्रकार योगी सभी बाहरी व भीतरी विचारों से पूरी तरह से शून्य होकर अथवा पूर्ण होकर साधना करे | || १८ ||
प्रारब्धकर्ममुक्तोऽपि भोगान्भुक्तोऽपि चाखिलान् । कर्मकार्ये स्थितः कर्मी देहे स्याद्भोगसाधने ॥५.१९॥
प्रारब्ध कर्म से मुक्त होकर, सभी सांसारिक भोगों को भोगते हुए, वह एक ऐसा कर्ता है जो अपने कर्तव्य कार्य में स्थित है इसलिए कर्मी ही है तथा जो अभी भी भौतिक शरीर तक ही सीमित है, जो कि कर्म का ही परिणाम है और सांसारिक भोग का साधन है | इस सम्बन्ध में हजारों दृष्टान्त दिए जा सकते हैं | यहाँ तो केवल दो -चार नामों का स्मरण किया जाता है | देखिये १ श्रीरामचन्द्र जी ने ज्ञान हो जाने के बाद विवाह किया, युद्ध किया, राज्य किया | २ अर्जुन ने ज्ञान होने के बाद युद्ध किया | ३ महर्षि वशिष्ठ ने ज्ञानोपरान्त पौरोहित्य किया | ४ महाराज विदेहजनक ने ज्ञानी होते हुए राज्य किया | अर्थात ज्ञान का कर्म से कोई विरोध नहीं है। || १९ ||
साधने सति देहेऽपि साध्यो भोगो न सिद्ध्यति। देहविस्मृतिमत्त्वेन देहहीनसमत्वतः ॥५.२०॥
भले ही सांसारिक भोग का साधन, शरीर का अस्तित्व बना रहे, लेकिन शरीर-चेतना के अभाव के कारण (शरीर में अहंता और ममता के अभाव के कारण) सांसारिक भोग का अनुभव नहीं होता है, जो शरीर के अभाव के बराबर ही है | ‘‘पुरे पौरान्पश्यन्नरयुवतिनामाकृतिमयान् सुवेषान्स्वर्णालङ्करणकलितांश्चित्रसदृशान् । स्वयं साक्षाद्दृष्टेत्यपि च कलयंस्तैः सह रमन्
मुनिर्न व्यामोहं भजति गुरुदीक्षाक्षततमाः ॥ १॥जीवन्मुक्तानन्दलहरी’’ चित्रों की भाँति नगर के लोगों को विभिन्न रूपों के पुरुषों और युवतियों को आकर्षक वेश-भूषा पहने और सोने के आभूषणों से अलंकृत देखकर यह अनुभव होता है कि वह वास्तव में उन्हें देख रहा है और उनके साथ आनन्द से घुलमिल रहा है। परन्तु गुरु की कृपा (दीक्षा) द्वारा दूर किया गया है अज्ञान जिसका ऐसा ऋषि, बिल्कुल भी भ्रमित नहीं होता है | इन्द्रधनुष या नीले आकाश में कोई कपड़े रंगने नहीं जाता , क्योंकि वे प्रातीतिक हैं वास्तविक नहीं , इसी प्रकार अन्तःकरण रूपी दर्पण में जगत की प्रतीति स्वप्नतुल्य है अर्थात मायामय है , मिथ्या है। || २० ||
आहिताग्नित्वसंसिद्ध्यै ज्योतिष्टोमे कृतेऽपि च। यथा न स्वर्गमाप्नोति निष्कामः पुरुषर्षभः ॥५.२१॥
एक इच्छा-रहित पुरुष ही सचमुच में पुरुषर्षभ है (वास्तव में एक सच्चा धार्मिक पुरुष है), जो पुरुष आहिताग्नित्व को अच्छी प्रकार से सिद्ध करने के लिए ज्योतिष्टोम नाम वाले यज्ञ के अनुष्ठान को सम्पन्न करता है (और इस तरह स्वर्ग प्राप्त करता है), लेकिन निष्काम कर्मयोगी स्वर्ग को प्राप्त नहीं करता है (लेकिन इसके बजाय मुक्ति प्राप्त करता है) (इसी तरह एक व्यक्ति जिसके पास देहात्मभाव नहीं है | {शरीर से जिसकी चेतना जुड़ी नहीं है और काम कर रहा है, लेकिन वह इसके सांसारिक फलों का अनुभव करने के लिए बाध्य नहीं है, बल्कि इसके बजाय मुक्ति को ही प्राप्त करता है) ‘‘यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।३.७।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ हे अर्जुन! जो मनुष्य मनसे इन्द्रियोंपर नियन्त्रण करके आसक्तिरहित होकर (निष्काम भावसे) समस्त इन्द्रियोंके द्वारा कर्मयोगका आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है | प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।३.२७।।श्रीमद् भगवद्गीता:- सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, अहंकार से मोहित हुआ पुरुष, “मैं कर्ता हूँ” ऐसा मान लेता है। || २१ ||
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्यात्मसंधित्रयकृतामृतः। सर्वसंध्यादिरहितः संधिभिर्वन्द्यन्ते सदा ॥५.२२॥
जिसने स्वयं के साथ जाग्रत , स्वप्न और निद्रा अवस्था का एकीकरण कर लिया है और (चौथी, तुरिया अवस्था प्राप्त करके), जो अमर हो गया है, वह जो इन अभिलक्षणों के कारण सभी सन्ध्या आदि विधि संस्कारों से मुक्त है , तथा सभी प्रकार की सन्धियों के द्वारा (देशकृत सन्धि ,कालकृत सन्धि एवं वस्तुकृत सन्धि) जिसको हमेशा नमन , वन्दन किया जाता है | ‘‘त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः। कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः।।४.२०।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ जो पुरुष, कर्मफलासक्ति को त्यागकर, नित्यतृप्त और सब आश्रयों से रहित है वह कर्म में प्रवृत्त होते हुए भी (वास्तव में) कुछ भी नहीं करता है | नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्। पश्यन् श्रृणवन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपन् श्वसन्।।५.८।। श्रीमद् भगवद्गीता– तत्त्वको जाननेवाला सांख्ययोगी अर्थात तत्त्ववित् ,योगयुक्त पुरुष यह सोचेगा कि देखता, सुनता, छूता, सूँघता, खाता, चलता, ग्रहण करता, बोलता, मल-मूत्र का त्याग करता, सोता, श्वास लेता तथा आँखें खोलता और मूँदता भी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ ही इन्द्रियोंके विषयोंमें बरत रही हैं’ – मैं तो साक्षी द्रष्टा हूँ – ऐसा समझकर ‘मैं (स्वयं) कुछ भी नहीं करता हूँ’ — ऐसा माने। (अर्थात् इस प्रकार जानता है) | आचार्य सुरेश्वर अपने नैष्कर्म्यसिद्धिः नामक ग्रन्थ में कहते हैं – “दुःखी यदि भवेदात्मा कः साक्षी दुःखिनो भवेत् । दुःखिनः साक्षितायुक्ता साक्षिणो दुःखिता तथा ॥” {नैष्कर्म्यसिद्धिः २.७६} यदि हम अपने दुःखीपने को जानते हैं , तो हम दुःखी नहीं हैं । जो जिसका साक्षी होता है , वह उससे भिन्न होता है – यह सामान्य नियम है । यदि हम अपने मकान को जानते हैं , तो हम उस मकान से अलग होते हैं । देह को जानते हैं तो देह से अलग होते हैं | दुःख को जानते हैं तो दुःख से अलग हुए या नहीं ? “प्रज्ञापराध एवैष दुःखमिति यत्” वह दुःख प्रज्ञा का अपराध है अर्थात् हमारी समझ की भूल है । जब हम दुःखी होते है . तब समझना कि हमारी समझ ही कुछ गलती कर रही है । ‘‘नर्ते स्याद्विक्रियां दुःखी साक्षिता का विकारिणः । धीविक्रियासहस्राणां साक्ष्यतोऽहमविक्रियः ॥’’ {नैष्कर्म्यसिद्धिः २.७७} विकार के बिना,परिवर्तन के बिना कोई दुःखी नहीं हो सकता है | और जो विकारी है, वह साक्षी नहीं है और मैं तो बुद्धि के हजार-हजार विकारों का साक्षी हूँ , इसलिए मैं हमेशां ही शुद्ध, बुद्ध अविकारी हूँ । || २२ ||
यः सर्वकर्मभिर्वन्द्यो नित्यं सर्वैरकर्मिभिः। स कर्मिप्रवरोऽकर्मिप्रवरश्चेति कथ्यते ॥५.२३॥
वह हमेशा सभी (सांसारिक) कर्ताओं के साथ-साथ गैर-कर्ताओं के द्वारा भी पूजित होने के योग्य है | वह सर्वश्रेष्ठ कर्ता होने के साथ-साथ अ-कर्ताओं में भी सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है | ‘‘उन्नतिं निखिला जीवाः धर्मेणैव क्रमादिह | विदधानः सावधानाः लभन्तेन्ते परं पदम् ||’’ समस्त जीव गण इसी क्रम से सावधानी पूर्वक धर्म का पालन करते हुए अन्त में परम पद का लाभ प्राप्त करते हैं | धारण करने को ही धर्म कहा है। धर्म ने ही समस्त संसार को धारण कर रखा है । जो धारण से संयुक्त है वही धर्म है यह निश्चित है |अप्रमादेन मघवा देवानां श्रेष्ठतां गतः । अप्रमादं प्रशंसन्ति प्रमादो गर्हितः सदा ॥ १०॥ धर्मपदम् || अप्रमाद (=आलस्य रहित होने के कारण इन्द्र देवताओंसें श्रेष्ठ बना । इसलिए अप्रमाद की प्रशंसा करते हैं, और प्रमाद की सदा निन्दा होती है। || २३ ||
सर्वसाम्यमुपेतस्य स्वात्मारामस्य योगिनः। सहस्रशः कृतैः किं वा वन्दनैरकृतैश्च वा ॥५.२४॥
वह योगी जो उस अवस्था में पहुँच गया है जहाँ सब कुछ एक जैसा प्रतीत होता है, जो अपने आप में ही आनन्दित होता रहता है, उसे हज़ारों बार प्रणाम किया जाए अथवा न किया जाए इससे उसे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता | वह न कुछ पाता है और न कुछ खोता है | ‘‘निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु लक्ष्मी: समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्। अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा न्याय्यात्पथ: प्रविचलन्ति पथं न धीरा:।।८४।। ( भर्तृहरि नीतिशतकम् )’’ नीति में निपुण मनुष्य चाहे उसकी निंदा करें या प्रशंसा, लक्ष्मी आए या इच्छानुसार चली जाए, आज ही मृत्यु हो जाए या युगों के बाद हो परन्तु धैर्यवान मनुष्य कभी भी न्याय के मार्ग से अपने कदम नहीं हटाते हैं। || २४ ||
देहादिषु विकारेषु स्वीयत्वं स्वत्वपूर्वकम्। विहाय नित्यनिष्ठाभिः स्वमात्रः स विराजते ॥५.२५॥
शरीर आदि विकारों के साथ अपनी पहचान बनाना और प्रकृति के अन्य परिणामों (बुद्धि, अहंकार आदि) का परित्याग करना, जिसमें उनके ऊपर अपने स्वामित्व की भावना भी शामिल है, इन सबको छोड़कर और खुद को नित्य स्थायी तत्व के साथ एकरूप में पहचानने से, वह स्वयं सार्वभौमिक के रूप में चमकता है | अर्थात अपने को कभी भी परिच्छिन्न नहीं जानना | ब्रह्मात्मैक्य भाव ही सबसे बड़ी सिद्धि है | ‘‘आत्मानं चेद्विजानीयादयमस्मीति पूरुषः । किमिच्छन्कस्य कामाय शरीरमनुसञ्ज्वरेत् ॥ १२ ॥’’ ‘यदि पुरुष यह आत्मा ही ,(सच्चिदानन्द घन ही) मैं हूँ – इस प्रकार आत्मा को जान ले तो किस विषय की इच्छा करता हुआ और किस विषय के लिए अपने आत्मा को तपायमान करे ? अर्थात् आत्मज्ञान से ही सब कामनाएँ शांत हो जाती हैं ।’ महर्षि याज्ञवल्क्य बृहदारण्यक उपनिषद् (४.४.१२) में कहते हैं-जो ब्रह्म को प्राप्त है उसको वह अनन्त असीम, अचिंत्य आनन्द प्राप्त है जिसकी किसी के साथ तुलना नहीं हो सकती | घड़े ने मिट्टी को पहचान लिया ,तरंग ने अपने को सागर जान लिया, चिनगारी ने अग्नि से अपनी एकता देख ली , प्राणवायु ने बाह्यवायु से एकत्व स्थापित कर लिया ,घड़े के आकाश ने अपने को महाकाश के रूप में देख लिया , स्वप्न और मनोराज्य को जिसने अपने मानसिक साम्राज्य के रूप में समझ लिया उसने कार्य-कारण की परम्परा समझ ली। देहस्थित चैतन्य जीव की कल्पना हटी और सर्वत्र व्यापक चैतन्य ब्रह्म हो गया ।|| २५ ||
इन्द्रियार्थैर्विमूढानां दुष्कर्मत्वं निगद्यते। तैरपेतः सुकर्म्येष विदेह इति कथ्यते ॥५.२६॥
पाप कर्मों के बारे में कहा जाता है कि जो इंद्रियों की विषय वस्तुओं के कारण विमूढ़ चित्त हो गये हैं उन्ही की दुष्कर्मों में प्रवृत्ति होती है। और जो उनसे हमेशा दूर रह कर अच्छे कार्यों को करने के लिए नित्य तत्पर रहते हैं उन्हें विदेह’ कहा जाता है | अर्थात पञ्च महायज्ञ हमेशा चलते रहने चाहिए | ‘‘सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।३.१०।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ प्रजापति (सृष्टिकर्त्ता) ने (सृष्टि के) आदि में यज्ञ सहित प्रजा का निर्माण कर यह कहा कि इस यज्ञ द्वारा तुम वृद्धि को प्राप्त हो और यह यज्ञ तुम्हारे लिये इच्छित कामनाओं को पूर्ण करने वाला (इष्टकामधुक्) होवे।। ‘‘यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः। तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर।।३ .९।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ यज्ञ के लिये किये हुए कर्म के अतिरिक्त अन्य कर्म में प्रवृत्त हुआ यह पुरुष कर्मों द्वारा बंधता है इसलिए हे कौन्तेय आसक्ति को त्यागकर यज्ञ के निमित्त ही कर्म का सम्यक् आचरण करो | ‘‘प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।३.२७।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, अहंकार से मोहित हुआ पुरुष, “मैं कर्ता हूँ” ऐसा मान लेता है | ‘‘एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः। अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति।।३.१६।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ हे पार्थ! जो मनुष्य इस लोकमें इस प्रकार परम्परासे प्रचलित सृष्टिचक्रके अनुसार नहीं चलता, वह इन्द्रियोंके द्वारा भोगोंमें रमण करनेवाला अघायु (पापमय जीवन बितानेवाला) मनुष्य संसारमें व्यर्थ ही जीता है। || २६ ||
यः सर्वद्वन्द्वनिर्मुक्तः सर्वत्रिपुटिवर्जितः। सर्वावस्थाविहीनः स विदेह इति कथ्यते ॥५.२७॥
जो सभी युग्मों से परे है, जो सभी त्रिपुटियों जैसे (ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान-आदि) से रहित है, जो सभी अवस्थाओं से रहित (जाग्रत, निद्रा और स्वप्न) है, उसे ‘विदेह’ कहा जाता है | ‘‘योऽयमात्मा स्वयंज्योतिः पञ्चकोशविलक्षणः । अवस्थात्रयसाक्षी सन्निर्विकारो निरंजनः । सत्स्वरूपः स विज्ञेयः स्वात्मत्वेन विपश्चिता ॥ २१३ ॥ विवेकचूडामणिः’’ यह स्वयंभू आत्मा जो पांच कोशों से अलग है, तीन अवस्थाओं का साक्षी, वास्तविक, परिवर्तनहीन, निर्मल, चिरस्थायी आनंद – बुद्धिमान व्यक्ति द्वारा स्वयं के रूप में उसे महसूस किया जाना चाहिए। || २७ ||
लौकिकं वैदिकं कर्म सर्वं यस्मिन्क्षयं गतम्। यस्मान्नेवाणुमात्रं च विदेह इति कथ्यते ॥५.२८॥
वह, जिसमें सभी सांसारिक क्रियाकलापों के साथ-साथ वैदिक गतिविधियां भी समाप्त हो गई हैं, जो परमाणु के आकार के बराबर भी कर्म नहीं करता है, उसे ‘विदेह’ कहा जाता है | विगतो देहः देहसम्बन्धो यस्य । ‘‘निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः। द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।।१५.५।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ जिनका मान और मोह निवृत्त हो गया है, जिन्होंने संगदोष को जीत लिया है, जो अध्यात्म में स्थित हैं जिनकी कामनाएं निवृत्त हो चुकी हैं और जो सुख-दु:ख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त हो गये हैं, ऐसे सम्मोह रहित ज्ञानीजन उस अव्यय पद को प्राप्त होते हैं। || २८ ||
यस्येन्द्रियाणि सर्वाणि न चलन्ति कदाचन। भित्तिस्थचित्रांगनीव विदेह इति कथ्यते ॥५.२९॥
जिसकी इंद्रियाँ कभी भी चञ्चल या विकृत नहीं होती हैं और जैसे दीवार पर खींची गई चित्रलिखित स्त्री की तरह गतिहीन होती हैं, उसे ‘विदेह’ कहा जाता है | ‘‘असंसारस्य तु क्वापि न हर्षो न विषादिता। स शीतलमना नित्यं विदेह इव राजते ॥१८- २२॥ अष्टावक्रगीता’’ संसार से मुक्त पुरुष को न तो कभी हर्ष होता है और न ही विषाद। उसका मन सदा शीतल और शांत रहता है और वह (शरीर रहते हुए भी) विदेह या मुक्त रहता हुआ सुशोभित होता है। || २९ ||
आत्मानं सत्यमद्वैतं केवलं निर्गुणामृतम्। संपश्यतः सदा स्वान्यविकारस्फुरणं कुतः ॥५.३०॥
जो स्वयं को हमेशा अपने वास्तविक,सच्चिदानन्द स्वरूप में ही देखता है | और जो अपने को अद्वैत , निरपेक्ष, तीनों गुणों से रहित और अमर देखता है, उसके अंदर भला शोरगुल मचाने वाले विचार कैसे पैदा हो सकते हैं ? अर्थात स्वात्मा से भिन्न विकारों का स्फुरण कैसे हो सकता है ?
‘‘अस्ति जायते वर्धते विपरिणमते अपक्षीयते विनश्यतीति षड्विकारवदेतत् स्थूलशरीरम् |’’ दृश्य के रूप में अस्तित्व, जन्म, वृद्धि, परिणाम, अपक्षय एवं विनाश ये ही षड्विध भाव-विकार हैं। आत्मा षड्विध भाव विकार-विवर्जित है | ये सारे विकार तो स्थूल शरीर के हैं , जो कि दृश्य प्रपञ्च का एक अंश है परन्तु आत्मा तो द्रष्टा है। || ३० ||
आत्मेतरदसत्यं च द्वैतं नानागुणान्वितम्। अपश्यतः सदानन्दस्वरूपास्फुरणं कुतः ॥५.३१॥
आत्मा से भिन्न समस्त दृश्यवर्ग जो कि द्वैतात्मक है (परस्पर सापेक्ष है) और असत्य है अर्थात प्रतीति मात्र है जैसे आकाश में नीलिमा मिथ्या है | तथा प्रकृति के तीन गुणों से मिश्रित है , इस बात का जबतक सम्यक विवेक नहीं हो जाता तबतक उसके द्वारा हमेशा आनंदित आत्मा (सदानन्दस्वरूप) का अनुभव कैसे किया जा सकता है? ‘‘सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः। निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्।।१४.५।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ हे महाबाहो ! सत्त्व, रज और तम ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण देही आत्मा को देह के साथ बांध देते हैं। || ३१ ||
आदिमध्यान्तरहितचिदानन्दस्वरूपिणः। स्थितप्रज्ञस्य को बाधः शरीरेण स्वयोगिनः ॥५.३२॥
जो शुरुआत, मध्य और अंत से रहित है, जो चिदानन्द स्वभाव वाला है अर्थात आनंदित चेतन स्व के रूप में है, जिसकी बुद्धि स्थिर है, जो स्वयं में एक योगी है, वह अपने शरीर से किस बाधा का सामना कर सकता है? अर्थात शरीर से उसे कौन सी बाधा प्राप्त हो सकती है ? ‘‘यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।२.५८।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ जिस तरह कछुआ अपने अङ्गोंको सब ओरसे समेट लेता है, ऐसे ही जिस कालमें यह कर्मयोगी इन्द्रियोंके विषयोंसे इन्द्रियोंको सब प्रकारसे समेट लेता (हटा लेता) है, तब उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित हो जाती है। || ३२ ||
कर्माणि कर्मणा त्यक्त्वा ब्रह्मणा ब्रह्मणि स्थितः। कर्मणा शर्म सततं संप्राप्तः स विराजते ॥५.३३॥
जिसने कर्मों के द्वारा कर्मों का परित्याग किया है, क्योंकि बुद्धि से ब्रह्म विचार करना भी बौद्धिक कर्म ही है , उस ब्रह्मविचार रूपी कर्म से शारीरिक और मानसिक कर्मों की आसक्ति का त्याग किया जाता है | और जो ब्रह्म के द्वारा ब्रह्म में स्थित है, ‘‘यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।३.१७।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ जो मनुष्य अपने-आपमें ही रमण करनेवाला और अपने-आपमें ही तृप्त तथा अपने-आपमें ही संतुष्ट है, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है | जिसने अपने कार्यों से अनंत शांति प्राप्त की है, वह चमकता है | ‘‘बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।२.५०।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ समत्वबुद्धि युक्त पुरुष यहां (इस जीवन में) पुण्य और पाप इन दोनों कर्मों को त्याग देता है | इसलिये तुम योग से युक्त हो जाओ। कर्मों में कुशलता ही योग है | धन्याष्टक में श्री शंकराचार्य जी कहते हैं कि — सम्पूर्णं जगदेव नन्दनवनं सर्वेऽपि कल्पद्रुमा गाङ्गं वरि समस्तवारिनिवहः पुण्याः समस्ताः क्रियाः । वाचः प्राकृतसंस्कृताः श्रुतिशिरोवाराणसी मेदिनी सर्वावस्थितिरस्य वस्तुविषया दृष्टे परब्रह्मणि ॥ १०॥ जिसने सभी पहलुओं में ब्रह्म को जान लिया है, उसके लिए सारा संसार स्वर्गीय उद्यान बन जाता है; सभी वस्तुएं कल्पवृक्ष (इच्छा देने वाले पेड़); बन जाते हैं और हर जल-प्रवाह पवित्र गंगा है तथा उसके सभी कार्य, पुण्य और शुभता से भरी हुई संस्कृत वाणी ऊँचे विचारों वाली और साथ ही मूर्खतापूर्ण बातें भी (प्राकृत शब्द भी) अर्थात वाणी मात्र {समस्त वाङ्मय} ये सब वेदांतवाक्य बन जाते हैं तथा पूरी पृथ्वी, वाराणसी बन जाती है | उसके हर विचार या जागरूकता से उसे केवल ब्रह्म का ही पता चलता है | ‘‘अनादि निधनं ब्रह्म शब्दतत्त्वं यदक्षरम्। विवर्ततेऽर्थ भावेन प्रक्रिया जगतो यतः ।।१।।वाक्यपदीयम्।’’ अर्थात ब्रह्म का न आदि है न अन्त है । उसका कभी क्षरण नही होता । उसका स्वरूप शब्द अर्थात नाद है । वही नाद विषयोंके रूप मे विविध प्रकार से प्रकट होता है और उसीसे जगत् की सृष्टि होती है । || ३३ ||
बुद्धेस्तैक्ष्ण्यं च मौढ्यं च यस्य नैवास्ति किंचन। बुद्धेः पारंगतः सोऽयं प्रबुद्धः शोभतेतराम् ॥५.३४॥
वह जिसके लिए बुद्धि की तीक्ष्णता या मूढ़ता , नीरसता का कोई महत्व नहीं है, जो बुद्धि से परे चला गया है, वह प्रबुद्ध पुरुष परम शोभा को प्राप्त होता है, एक और ही प्रकार से चमकता है | ‘‘भविष्यं नानुसन्धत्ते नातीतं चिन्तयत्यसौ । वर्तमाननिमेषं तु हसन्नेवानुवर्तते ॥’’ भविष्य का अनुसंधान नहीं, न अतीत की चिन्ता। हंसते हुए वर्तमान में जीना। ‘‘न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्। स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः।।५.२०।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ जो प्रियको प्राप्त होकर हर्षित न हो और अप्रियको प्राप्त होकर उद्विग्न न हो, वह स्थिर बुद्धिवाला, मूढ़तारहित तथा ब्रह्मको जाननेवाला मनुष्य ब्रह्ममें स्थित है। || ३४ ||
मनस्तथैव संलीनं चितीव लवणं जले। यथा निरन्तरात्मीयनिष्ठया सोऽद्वयोऽभवत् ॥५.३५॥
जिसका मन ठीक उसी तरह चित्तत्व में विलीन हो जाता है, जैसे नमक पानी में घुल जाता है, उसी प्रकार आत्मा की निरंतर भक्ति से आत्मनिष्ठ हो कर वह अद्वय तत्व के साथ एक हो जाता है |
‘‘मातर्मेदिनि तात मारुति सखे तेजः सुबन्धो जल भ्रातर्व्योम निबद्ध एष भवतामन्त्यः प्रणामाञ्जलिः । युष्मत्सङ्गवशोपजातसुकृतस्फारस्फुरन्निर्मलज्ञानापास्त समस्तमोहमहिमा लीये परब्रह्मणि ॥ १०० ॥ भर्तृहरेःवैराग्यशतकम्’’ हे माता पृथ्वी ! हे मेरे पिता पवन ! हे मेरे मित्र तेज !(अग्नि) हे मेरे सुबन्धु जल ! (मेरे अच्छे रिश्तेदार) हे मेरे भाई आकाश ! एक अंतिम बार मैं हाथ जोड़कर आप सबको प्रणाम करता हूं। आप सभी के साथ जुड़कर, मैंने परम ज्ञान में परिणत होकर कई गुण प्राप्त किए, जिसने मुझे भ्रम के शक्तिशाली प्रभाव को दूर करने में मदद की। अब मेरे संसारी मोह का नाश हो गया है और अब मैं परम ब्रह्म के साथ एक हो गया हूँ | कारण से कार्य का ज्ञान होता है और कार्य से कारण का अनुमान होता है और इन दोनों से अद्वैत की सिद्धि होती है। || ३५ ||
समनस्त्वान्महद्दुःखममनस्कस्य तत्कुतः। समनस्को हि संकल्पान् करुते दुःखकारिणः ॥५.३६॥
मन के साथ, व्यक्ति भारी कष्ट का अनुभव करता है; और जो मन के बिना है उसके लिए, वह (दुख) कहाँ है? केवल मन वाला व्यक्ति ही दुःख और दर्द पैदा करने वाले संकल्पों में और प्रयासों में शामिल होता है | ‘‘नायं जनो मे सुखदु:खहेतुर्न देवतात्मा ग्रहकर्मकाला:| मन: परं कारणमामनन्ति संसारचक्रं परिवर्तयेद् यत् ॥ ११ -२३ ४२ ॥ श्रीमद्भागवत’’ मेरे सुख-दुख का कारण न ये मनुष्य हैं, न देवता, न यह शरीर और न ग्रह न कर्म और न काल हैं | महात्मा लोग (सुख-दुखात्मक) संसाररूप चक्र को घुमाने वाले मन को ही इनका कारण बताते हैं | और यह मन ही भौतिक जीवन के चक्र को बनाए रखता है | मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् || २ || ब्रह्मबिन्दूपनिषद् || मन ही सभी मनुष्यों के बन्धन एवं मोक्ष का प्रमुख कारण है। विषयों में आसक्त मन बन्धन का और कामना-संकल्प से रहित मन ही मोक्ष (मुक्ति) का कारण कहा गया है। || ३६ ||
प्रारब्धकर्मजं दुःखं जीवन्मुक्तस्य कथ्यते। कर्मत्रयविहीनस्य विदेहस्य कथं नु तत् ॥५.३७॥
जीवमुक्त पुरुष की पीड़ा को प्रारब्ध कर्म द्वारा निर्मित बताया गया है | परन्तु जो तीनों प्रकार के कर्मों से रहित (प्रारब्ध ,सञ्चित और क्रियमाण कर्मों से रहित) है ऐसे एक विदेहमुक्त के लिए दुःखी कैसे कहा जा सकता है? ‘‘प्रारब्धं पुष्यति वपुरिति निश्चित्य निश्चलः। धैर्यमालम्ब्य यत्नेन स्वाध्यासापनयं कुरु॥ २७९॥विवेकचूडामणि’’ यह निश्चित रूप से जानते हुए कि प्रारब्ध कार्य ही इस शरीर को बनाए रखेगा, शांत रहें और सावधानी से और धैर्य के साथ अपने अध्यारोपण को दूर करें |
प्रारब्ध- पिछले कर्मों का परिणाम है जिसके कारण वर्तमान जन्म हुआ है। जब इस प्रारब्ध काम समाप्त हो जाता है, तब शरीर गिर जाता है, और विदेहमुक्ति परिणाम होता है | भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे || ९ || मुण्डकोपनिषद् द्वितीयोमुण्डकः द्वितीयः खण्डः || हृदय की सारी ग्रथियाँ खुल जाती हैं, समस्त संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, तथा मनुष्य के समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है, जब उस ‘परतत्त्व’ का दर्शन हो जाता है, जो एक साथ ही अपरा सत्ता एवं ‘परम सत्ता’ है। || ३७ ||
कर्म कर्तव्यमिति वा न कर्तव्यमितीह वा । यदि मन्येत वैदेहीं न मुक्तिं प्राप्तवांस्तु सः ॥५.३८॥
यदि किसी का ऐसा मानना है कि इस कर्तव्य को निभाया जाना चाहिए और यह कर्तव्य नहीं निभाया जाना चाहिए, तो उसे विदेहमुक्ति प्राप्त नहीं हुई है | ‘‘यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः। आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।३.१७।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ जो मनुष्य अपने-आपमें ही रमण करनेवाला और अपने-आपमें ही तृप्त तथा अपने-आपमें ही संतुष्ट है, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है। || ३८ ||
समाधिर्वाऽथ कर्तव्यो न कर्तव्य इतीह वा । यदि मन्येत वैदेहीं न मुक्तिं प्राप्तवांस्तु सः ॥५.३९॥
यदि कोई यह मानता है कि समाधि को प्राप्त करना है या प्राप्त नहीं करना है, तो उसने विदेहमुक्ति प्राप्त नहीं की है | अरे बाबा ज्ञान तो जैसा समाधि में है बैसा ही विक्षेप में है | ज्ञान अखंड एक सीताबर। ‘‘कर्तव्यदुःखमार्तण्डज्वालादग्धान्तरात्मनः। कुतः प्रशमपीयूषधारासारमृते सुखम्।।१८.३।।’’ अष्टावक्रगीता || मिथ्यारूप जो संकल्प विकल्प है उन को तुच्छ जानना ही संकल्पविकल्प का त्याग है, जैसे वंध्यापुत्र को मिथ्यारूप जान लेना ही उसका त्याग है क्योंकि मिथ्यारूप वस्तु का अन्य किसी प्रकार से त्याग नहीं हो सकता, इसी प्रकार नाना प्रकार के जो कर्म और उन कर्मों से उत्पन्न होनेवाले जो दुःख वही हुआ सूर्य की किरणों का अत्यंत तीक्ष्ण ताप उससे दग्ध हुआ है अंतःकरण जिसका ऐसे पुरुष को संकल्प विकल्प की शांतिरूप अमृतधारा की वृष्टि के बिना सुख कहां से हो सकता है ? || ३९ ||
पूर्वं बद्धोऽधुना मुक्तोऽस्म्यहमित्येव बन्धनात्। यदि मन्येत वैदेहीं न मुक्तिं प्राप्तवांस्तु सः ॥५.४०॥
यदि कोई मानता है कि मैं पहले बंध गया था, लेकिन अब बंधन से मुक्त हो गया हूँ , तो उसने विदेहमुक्ति प्राप्त नहीं की है | अष्टावक्रजी कहते हैं, ‘‘भवोऽयं भावनामात्रो न किञ्चित्परमार्थतः । नास्त्यभावः स्वभावानां भावाभावविभाविनाम् ॥१८.४॥’’ संसाररूपी विष को दूर करनेवाला होने के कारण संकल्पविकल्प की शान्ति हो जाना ही अमृतरूप है | यह संसार केवल एक भावना मात्र है,
परमार्थतः कुछ भी नहीं है | भाव और अभाव के रूप में स्वभावतः स्थित पदार्थों का कभी अभाव नहीं हो सकता | वास्तव में यह संसार केवल संकल्पमात्र है, वास्तवदृष्टि से एक आत्मा के सिवाय दूसरा कुछ नहीं है, यहां वादी शंका करता है कि भावरूप जो दृश्यमान जगत् है सो नष्ट होने के अनंतर अभावरूप शून्य हो जाता है, इस प्रकार तो शून्यवादी का मत सिद्ध होता है ? इस के उत्तर में श्रीगुरु अष्टावक्रजी कहते हैं, कि संकल्पमात्र जगत् के नाश होने के अनंतर सत्यस्वभाव आत्मा अखंडरूप से विराजमान रहता है, इस कारण संसार का नाश होने के अनंतर शून्य नहीं रहता है, किंतु उस समय निर्विकल्प केवलानंदरूप मुक्त आत्मा रहता है ॥१८.४॥ लिंग पुराण कहना है कि आत्मा की सत्ता नित्य स्वतन्त्र है “यच्चाप्नोति यदादत्ते यच्चात्ति विषयानिह । यच्चास्य सन्ततो भावस्तस्मादात्मेति कीर्त्त्यते ।। ७०.९६ ।। लिङ्गपुराणम् – पूर्वभागः/अध्यायः ७० ” (जो सुषुप्ति अवस्था में सबको व्याप्त करता है, जो स्वप्नावस्था संस्कारों के परिणाम को ग्रहण करता है, जो जाग्रत अवस्था में सम्पूर्ण विषयों का भोग करता है और जिसकी सदैव सत्ता बनी रहती है, उसको आत्मा कहा जाता है।) न हि कश्चित् प्रतीयात् नाहमस्मीति | इस दुनियां में ऐसा कोई नहीं है जो कह सके कि मैं नहीं हूँ। || ४० ||
पूर्वमप्यभवन्मुक्तो मध्ये भ्रान्तिस्तु बन्धवत्। यदि मन्येत वैदेहीं न मुक्तिं प्राप्तवांस्तु सः ॥५.४१॥
यदि कोई यह मानता है कि मैं पहले मुक्त था, लेकिन बीच में बंधे होने के भ्रम में फंस गया, तो उसे विदेहमुक्ति की प्राप्ति नहीं हुई है | ‘‘न दूरं न च संकोचाल्लब्धमेवात्मनः पदम् । निर्विकल्पं निरायासं निर्विकारं निरञ्जनम् ॥१८.५॥ अष्टावक्र गीता’’ यदि कोई प्रश्न करता है कि, संकल्पविकल्प की निवृत्ति होते ही आत्मा को अमृतत्व की प्राप्ति किस प्रकार हो जाती है ? तो कहते हैं कि आत्मस्वरूप दूर नहीं है किंतु सदा प्राप्त है; और परिपूर्ण है सदा संकल्पविकल्परहित है, निरायास अर्थात श्रम के बिना ही प्राप्त है, विकार जो जन्म और मृत्यु आदि हैं उनसे से रहित है और निरंजन अर्थात माया (अविद्या) रूप उपाधियों रहित है, जिस प्रकार कंठ में धारण की हुई मणि भूल से दूसरे स्थान में ढूंढने से नहीं मिलती है और विस्मृति के दूर होते ही कंठ में ही प्रतीत हो जाती है, उसी प्रकार अज्ञान से आत्मा दूर प्रतीत होता है परंतु ज्ञान होनेपर प्राप्त ही है। || ४१ ||
वन्ध्यापुत्रादिवत्सर्वं मय्यभूदसदित्यपि। यदि मन्येत वैदेहीं न मुक्तिं प्राप्तवांस्तु सः ॥५.४२॥
यदि किसी का मानना है कि यह ब्रह्मांड, एक बांझ महिला के बेटे की तरह काल्पनिक होने के नाते, मुझ में पैदा हुआ, तो उसे विदेहमुक्ति नहीं मिली है | मोह जनित माया के परिणाम स्वरूप शशशृंग, आकाश पुष्प, वंध्यापुत्र, मृग मरीचिका आदि के दृष्टांत दर्शन ग्रंथों में दिए जाते हैं | ‘‘पाषाणखण्डेष्वपि रत्नबुद्धिः कान्तेति धीः शोणित मांस पिण्डे | यस्त्वात्म बुद्धिः कुणपे त्रिधातुके जयत्यहो काचन मोह लीला ||’’ लोग पत्थर के टुकड़ों को हीरा समझते हैं-‘पाषाणखण्डेष्वपि रत्न बुद्धि:’। कामिनी के कमनीय कलेवर में रमणीय बुद्धि का होना और खून और मांस के पिण्ड को अपना समझते हैं-‘ कान्तेति धीः शोणितमांसविण्डे’।और खून मांस हड्डी की बनी स्त्री को अपनी भोग्या, सुखदायिका समझते हैं | और आत्मधी: तीन धातुओं से बने हुए जड़ शरीर में आत्मबुद्धि , ये कैसी लीला है भगवान ! आपकी-‘व्यक्ताऽसौ काचन मोह-लीला’ । || ४२ ||
आविद्यकं तमो ध्वस्तं स्वप्रकाशेन वा इति। यदि मन्येत वैदेहीं न मुक्तिं प्राप्तवांस्तु सः ॥५.४३॥
अथवा अगर कोई यह मानता है कि ज्ञान प्राप्त होने तक अज्ञान का अंधेरा रहा और बाद में स्वयं के (आत्मा के) प्रकाश से नष्ट हो गया, तो उसे विदेहमुक्ति की प्राप्त नहीं हुई है | जिनको दृश्य स्वरूप देह, इन्द्रिय ,प्राण , और अन्तःकरणादि में आत्मबुद्धि है उन्हें ही ज्ञान ,भक्ति कर्म और योग आदि साधनों की अपेक्षा होती है , संशय और भ्रान्ति की निवृत्ति होने के उपरान्त स्वरूपावस्थिति के लिए किसी प्रयत्न विशेष की आवश्यकता नहीं होती | ‘‘दृष्टो येनात्मविक्षेपो निरोधं कुरुते त्वसौ। उदारस्तु न विक्षिप्तः साध्याभावात्करोति किम् ॥१८.१७॥ अष्टावक्र गीता’’ अंतःकरण का विक्षेप जिस पुरुष के देखने में आता हो वह मन को वश में करने का उपाय करे और जो सर्वत्र एक ब्रह्मको ही देखता है, उस के तो विक्षेप है ही नहीं, उस को कुछ साधने योग्य नहीं होता है इस कारण वह कुछ साधन भी नहीं करता है | संस्कृत में ज्ञान शब्द की दो व्युत्पत्तियां हैं एक तो ज्ञायते अनेन इति ज्ञानम् और दूसरी है ज्ञप्तिर्ज्ञानम् {जानना मात्र} तो वेदान्त में पहली व्युत्पत्ति स्वीकार्य नहीं है दूसरी ही ग्राह्य है | ज्ञान शुद्ध होना चाहिये , इन्द्रिय , मन , बुद्धि आदि से मिश्रित नहीं | ऐसा ज्ञान ही आत्मा या ब्रह्म का स्वरूप है। || ४३ ||
स्वप्नेऽपि नाहंभावोऽस्ति मम देहेन्द्रियादिषु। यदि मन्येत वैदेहीं न मुक्तिं प्राप्तवांस्तु सः ॥५.४४॥
यदि कोई यह मानता है कि मेरे सपनों में भी मेरे शरीर या इंद्रियों में मुझे कोई अहंता का बोध नहीं है, तो उसने विदेहमुक्ति की प्राप्ति नहीं की है | ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं। देख ब्रह्म समान सब माहीं॥ ज्ञान तो उसे कहते हैं जहाँ किसी भी प्रकार की मान्यता नहीं होती क्योंकि मानना तो मन का धर्म है आत्मा का नहीं | देशमान , कालमान , वस्तुमान ये सब इन्द्रिय और विषय सापेक्ष हैं | सच्चा ज्ञान वह है, जहाँ (जिसमें) मान (मान्यता) आदि का एक भी (दोष) नहीं है और जो सर्वत्र समान रूप से ब्रह्म को देखता है | गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई॥ इंद्रियों के विषयों को और जहाँ तक मन जाता है, हे भाई! उन सबको माया जानना | ज्ञान के साधनों का वर्णन करते हुए श्री कृष्ण भगवान कहते हैं कि ‘‘अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्। आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः।।१३.८।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ सबसे पहले कहा कि अमानित्व अर्थात अपने में मानित्व-(अपनेमें श्रेष्ठताके भाव-) का न होना, अथवा किसी भी प्रकार की मान्यता का अभाव और दम्भित्व-(दिखावटीपन-) का न होना, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरुकी सेवा, बाहर-भीतरकी शुद्धि, स्थिरता और मनका वशमें होना आदि ज्ञान के साधन हैं। || ४४ ||
अरूपनष्टमनसो विदेहत्वं प्रकीर्त्यते। तत्कथं मन्यमानस्य यत्किंचित्स्यादनात्मनः ॥५.४५॥
विदेहता उसी के लिए कहा जाता है जो निराकार है और जिसका मन नष्ट हो गया है। यह कैसे कहा जा सकता है कि जो सोचता है कि आत्मा के अलावा भी कुछ और है? ‘‘अस्ति भाति प्रियं नाम रूपं चेत्यंशपञ्चकम् । आद्यं त्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपमथद्वयम् || २३ || सरस्वतीरहस्योपनिषत् ’’ (परम सत्ता के अस्ति = सत्,माने है मात्र और भाति = चित् , (प्रतीत होना) माने ज्ञान स्वरूप तथा प्रिय = आनन्द, का होना इसके अलाबा नाम और रूप ये कुल मिलाकर पाँच अंश हैं | इनमें से प्रथम तीन अंश ब्रह्म का रूप है, शेष दो अंश जगत् का (माया ,मोह का) रूप है।) नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी।। ये दोनों ही {नाम और रूप} अनिर्वचनीय हैं, अनादि हैं और सुंदर (शुद्ध भक्तियुक्त) बुद्धिसे ही इनका (दिव्य अविनाशी) स्वरूप जाननेमें आता है। || ४५ ||
मनो नश्यति निःशेषं मननस्य विसर्जनात्। अमनस्कस्वभावं तत्पदं तस्यावशिष्यते ॥५.४६॥
मानसिक गतिविधियों के त्याग से मन पूरी तरह से नष्ट हो जाता है | फिर उसके लिए क्या शेष रह गया ? केवल अमनस्कता की स्थिति, बिना दिमाग वाला स्वभाव मात्र जो कि सच्चिदानन्द स्वरूप है , वही केवल ब्रह्मपद उस विदेहमुक्त आत्मा के लिए शेष रहता है |योगवासिष्ठः में कहा है कि — ‘‘महोदयो मनोनाशो महोच्छेदस्य तूदयः | मनोनाशे प्रयत्नं त्वं कुरु मा मनसो जवे || ३९ || (उत्पत्तिप्रकरणम्)/सर्गः १०२’’ मन को वश में करना ही आत्मा के विशाल साम्राज्य में प्रवेश करना है, और यही साधना दुखों से मुक्ति दिलाती है, इसलिए अपने मन को संयमित करने का प्रयास करो, न कि उसे खुला घूमने की छुट्टी। || ४६ ||
मननेन विनिश्चित्य वैदेहीं मुक्तिमात्मनः। नैष्कर्म्यसिद्धिं वदतां का तृप्तिरविवेकिनाम् ॥५.४७॥
जो अज्ञानी पुरुष मानसिक रूप से स्वयं को विदेहमुक्त मानते हैं और इच्छा-रहित कर्मों की प्राप्ति की घोषणा करते हैं, वे किस तृप्ति या संतोष (स्वयं का अनुभव कर सकते हैं) को प्राप्त कर सकते हैं? अर्थात अविवेकी पुरुष को कभी भी परिपूर्ण आत्मतृप्ति का अनुभव नहीं हो सकता | आत्मा तो सर्व द्रष्टा है | ज्ञान का भी द्रष्टा है और ज्ञानाभाव का भी द्रष्टा है | ‘‘धन्योऽहं धन्योऽहं नित्यं स्वात्मानमञ्जसा वेद्मि।। धन्योऽहं धन्योऽहं ब्रह्मानन्दो विभाति मे स्पष्टम्॥ ||२९|| धन्योऽहं धन्योऽहं दुःखं सांसारिकं न वीक्षेऽद्य। धन्योऽहं धन्योऽहं स्वस्याज्ञानं पलायितं क्वापि॥ ||३०|| धन्योऽहं धन्योऽहं कर्तव्यं मे न विद्यते किंचित्। धन्योऽहं धन्योऽहं प्राप्तव्यं सर्वमत्र संपन्नम्॥ ||३१|| धन्योऽहं धन्योऽहं तृप्तेर्मे कोपमा भवेल्लोके। धन्योऽहं धन्योऽहं धन्यो धन्यः पुनः पुनर्धन्यः ॥ ||३२|| अवधूतोपनिषद् ’’ धन्योऽहं कृतकृत्योऽहं विमुक्तोऽहं भवग्रहात् । नित्यानन्दस्वरूपोऽहं पूर्णोऽहं त्वदनुग्रहात् || ४८९|| विवेकचूडामणिः || जब ज्ञान हो जाता है तब इस प्रकार तृप्ति के उद्गार निकलते हैं कि अब धन्य हूँ मैं, अपने जीवन की पूर्णता तक पहुँच गया हूँ और संसार रूपी ग्राह (मगर) के जबड़े से मुक्त हूँ। मैं शाश्वत आनंद का अवतार हूं | हे श्री गुरुदेव ! आपकी कृपा से मैं अनंत हूं | अपने को परिच्छिन्न भी मानना और मुक्त भी मानना संभव नहीं है |यह तो घड़े में थाली ढूँढने के समान है। || ४७ ||
श्रुत्वा वेदान्तवाक्यानि मोदन्तेऽनुभवं विना। लीढेन ताडपत्रेण गुडाक्षरयुतेन किम् ॥५.४८॥
वे स्वयं के किसी भी अनुभव के बिना, वेदांत संबंधी कथन सुनकर आनन्दित होते रहते हैं। ताड़ के पेड़ की चीनी-लेपित पत्तियों को चाटने से क्या फायदा होता है? अर्थात ताड़वृक्ष के पत्तों पर गुड़ से तत्वमस्यादि वाक्य लिख कर चाटने से ब्रहमानुभूति नहीं होती | | शंकराचार्य भगवान ने वेदान्तार्थ को सात भागों में विभक्त किया है १ पहला है अधिकारी, अधिकारी कौन है इस बात का निर्णय वेदान्त के द्वारा ही होना चाहिए , मनमानी नहीं | शान्त हो, दान्त हो, उपरत हो, तितिक्षु हो ,श्रद्धालु हो और समाहित हो तब वह अधिकारी होता है | २ गुरूपसदन, दूसरी बात है गुरुपसत्ति | जहाँ बुद्धि का अभिमान होगा वहाँ बुद्धि की पुष्टि होगी | अभिमान निरास पूर्वक जो अद्वैत तत्व का बोध होता है वह नहीं होगा | ये जो बुद्धि का अभिमान है वह अद्वैतत्व के बोध में वाधक है | अभिमान का अर्थ ही होता है अपने को छोटा बना लेना | अभिमान का नाम ज्ञान नहीं है इस बात को दृढ़ता से समझ लेना चाहिए | {अभितो मानः इति अभिमानः} जैसे अपने को साढ़े तीन हाथ के घेरे में बंद करलेना इस प्रकार लम्बाई,चौड़ाई का घेरा और फिर इसीप्रकार उमर का घेरा और बजन का घेरा , जब मान होगया , तौल होगई और उसीको आपने अपना आपा समझ लिया तो अभिमान होगया | अभिमान माने चारों ओर से घेरा बनाने वाला पदार्थ और ब्रह्म इसके विपरीत अनन्त है | जब विषय के सम्बन्ध में विचार करना होता है तब बुद्धि काम आती है परन्तु बौद्धा की परीक्षा में बुद्धि अखीर तक साथ नहीं देती | बौद्धा , बुद्धि और बोध्य अथवा प्रमाता ,प्रमाण और प्रमेय की त्रिपुटी को छोड़कर जो वस्तु है सो ब्रह्म है | अपरिच्छिन्नता कभी भी प्रमाता का विषय नहीं बन सकती, ज्ञानस्वरूप साक्षी हमेशां अखण्ड रहता है | अपरिच्छिन्नता का बोध कभी भी विषयत्वेन नहीं होता | इसलिए ‘‘तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ॥’’ उस ‘परतत्त्व’ के ज्ञान के लिए वह (जिज्ञासु) हाथ में समिधा धारण करके वेदविद् (श्रोत्रिय) एवं ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाये । ३ वेदान्त का तीसरा पदार्थ है पदार्थद्वय {जीव पद वाच्यार्थ क्या है और ईश्वर पद वाच्यार्थ क्या है} व्यष्टिदेश, व्यष्टिकाल, व्यष्टिशरीर इसमें जो चैतन्य है उसको जीब कहते हैं | समष्टिदेश , समष्टिकाल और समष्टिवस्तु में जो चैतन्य है उसको ईश्वर कहते हैं | व्यष्टि समष्टि के भावाभाव में यह चैतन्य एक रहता है | इस प्रकार तत् , त्वं पदार्थ के वाच्यार्थ का निर्णय ये वेदान्त तीसरा प्रसङ्ग है | इस प्रकार पदार्थद्वय यह तीसरा विषय है। ४ चौथा विषय है तदैक्य |[तयोः ऐक्यं तदैक्यं] तदैक्य माने जो सन्मात्रवस्तु,ज्ञानमात्रवस्तु,आनन्दमात्रवस्तु है वह एक है | इस प्रकार तदैक्य शब्द से अद्वय तत्व की एकता बताई जाती है | ५ पाँचवां विषय है विरोधपरिहार अर्थात जहाँ श्रुतियों में परस्पर विरोध है उसको हटाना जैसे कि ‘‘द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते । तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥ १ ॥॥ मुण्डकोपनिषत् ॥’’ यह श्रुति स्पष्ट ही अद्वैत के विरुद्ध मालुम पड़ती है तो वहाँ भोक्ता और अभोक्ता के भेद से भोक्ता अंश में एकत्व नहीं है अभोक्तृत्व में ही ऐक्य है | इस प्रकार स्थान-स्थान पर विरोध परिहार करना | ६ छठा है साधन तत्वमस्यादि वाक्यजन्य वृत्ति ही साक्षात् साधन है | अविद्या को निवृत्त करके ब्रह्माकार वृत्ति करना ही साधन है | ७ सातवां है फल, मोक्ष ही फल है जीवन काल में अखण्ड , अनन्त स्वातन्त्र्य ही वेदान्त का फल है | इन सात बातों का ख़याल रखने से ठीक-ठीक वेदान्तार्थ का निर्णय हो जाता है | यह ब्रह्मज्ञान ही परम पुरुषार्थ है | कहते तो हैं कि हम राम के दास हैं और सेवा, स्मरण, और चिन्तन करते हैं काम, दाम,और चाम का तो उन्हें कभी भी तृप्ति ,सुख और सन्तोष प्राप्त नहीं हो सकता | काम फिल्मी गाना है जो बच्चों को पसन्द आता है और राम शास्त्रीय संगीत है | ‘‘यत् पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः । न दुह्यन्ति मनःप्रीतिं पुंसः कामहतस्य ते ॥ १३ ॥ न जातु कामः कामानां उपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ॥ १४ ॥श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ९/अध्यायः १९’’ इस संसार का सारा अन्न, सारा स्वर्ण, सारी स्त्रियाँ भी एक मनुष्य की तृप्ति के लिए पर्याप्त नहीं हैं, जो कामनाओं के प्रहार से जर्जर हो रहा है उसे कोई तृप्त नहीं कर सकता है | भोग करने से कभी भी कामवासना शान्त नहीं होती है, परन्तु जिस प्रकार हवनकुण्ड की जलती हुई अग्नि में घी आदि की आहुति देने से अग्नि और भी प्रज्ज्वलित हो जाती है वैसे ही कामवासना भी और अधिक भडक उठती है | मनुष्य बूढ़ा होता है इच्छाएं नहीं | जीर्यन्ते जीर्यत: केशाः दन्ताः जीर्यन्ति जीर्यत: | चक्षु: श्रोत्रे च जीर्येते, तृष्णैका तरुणायते || वाल बूढ़े हो जाते हैं , दांत भी बूढ़े होते हैं , आँख और कान भी बूढ़े होते हैं पर एक तृष्णा ही है, जो निरन्तर तरुण होती रहती है। || ४८ ||
स्वानुभूतिं विना शास्त्रैः पंडिताः समलंकृताः। कचहीनेव विधवा भूषणैर्भूषितोत्तमैः ॥५.४९॥
जिन पंडितों ने वास्तव में स्वयं का अनुभव किए बिना विभिन्न शास्त्रों को पढ़ा है और जो अनेक विद्याओं से विभूषित हैं , वे एक ऐसी विधवा की तरह हैं जो उत्कृष्ट आभूषणों से सजी हैं लेकिन जिनका सिर मुंडा हुआ है | यहाँ यह संकेत करना आवश्यक प्रतीत होता है कि स्वानुभूति और मन को वश में करने के चार उपाय योगवाशिष्ठ आदि शास्त्रों में बताये गए हैं यथा :-‘‘अङ्कुशेन विना मत्तो यथा दुष्टमतङ्गजः । अध्यात्मविद्याधिगमः साधुसंगतिरेव च ॥ ४४॥ वासनासम्परित्यागः प्राणस्पन्दनिरोधनम् । एतास्ता युक्तयः पुष्टाः सन्ति चित्तजये किल ॥ ४५॥ मुक्तिकोपनिषत्’’ जिस प्रकार मदमत्त हाथी अङ्कुश के बिना दूसरे उपाय से वश में नहीं होता, उसी प्रकार पवित्र युक्ति के बिना मन वश में नही होता। १. अध्यात्म-विद्या की प्राप्ति, २. साधु-संगति, ३. वासना का सर्वथा परित्याग और ४. प्राणस्पन्दन का निरोध – ये चार ही युक्तियाँ चित्त पर विजय पाने के लिये निश्चितरूप से दृढ़ उपाय हैं | इनसे तत्काल ही चित्तपर विजय प्राप्त हो जाती है और साधक को परमतत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है। || ४९ ||
स्वानुभूतिं विना कर्माण्याचरन्त्यखिलान्यपि। स्वर्णायःकुम्भकारादितुल्या एवोपवीतिनः ॥५.५०॥
जिन लोगों को पवित्र-सूत्र {यज्ञोपवीत} (उनकी ब्राह्मणता का प्रतीक) के साथ निवेश किया जाता है, लेकिन वे स्वयं का अनुभव किए बिना सभी {श्रौत-स्मार्त} कार्यों को करते हैं, तो वे एक सुनार, लुहार या कुम्भार आदि की तरह होते हैं (जो कि निम्न जाति के होते है) | कलियुग का वर्णन करते हुए तुलसीदास जी कहते हैं कि ”शूद्र द्विजन्ह उपदेशहि ज्ञाना। मेलि जनेऊ लेहि कुदाना।।”अर्थात क्षुद्र एवं नीच कर्म करने वाले पापाचारी दुष्ट बुद्धि लोग विद्वानो एवं सन्तों समान पुरुषो को ऊँचे आसन पर बैठकर उपदेश का पाठ पढायेगें। तथा जबरदस्ती जनेऊ पहन कर दान-दक्षिणा वसूलेगें | ‘‘बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि। जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि।।९९(ख)।।उत्तरकाण्ड ’’ (ब्रह्म) शब्द तो कोई भी बोल सकता है परन्तु ब्रह्मतत्व अनन्त होने से और दृश्य न होने से ज्ञेय कोटि में कभी नहीं आता। || ५० ||
स्वानुभूतिं विना वेदान्पठन्ति विविधा द्विजाः। प्रावृण्णिशायां परितो मण्डूका इव दुस्स्वराः ॥५.५१॥
श्रोत्रिय होने के साथ साथ ब्रह्मनिष्ठ होना भी आवश्यक है , इस बात को स्पष्ट करते हैं | वे ब्राह्मण जो स्वयं का अनुभव किए बिना वेदों का पाठ करते हैं, वे बहुत अधिक संख्या में होते हैं, जो कि दर्दनाक टर्र टर्र की आबाज मेंढकों के जैसी छोड़ते रहते हैं, जैसे मेंढक बरसात की रातों में चारों ओर बिखर जाते हैं और बहुत शोरगुल मचाते हैं | ‘‘रूप-यौवन-सम्पन्ना विशाल-कुल-सम्भवाः | विद्या-हीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ||३८||हितोपदेशः’’ अर्थात् (जो लोग) सुंदर रूप, युवावस्था से युक्त, ऊँचे कुल में उत्पन्न हैं परन्तु विद्या से हीन हैं (वे) बिना सुगंध वाले पलाश के फूल के समान शोभा नहीं पाते हैं | प्रश्नोत्तर रत्नमालिका में आचार्य शंकर कहते हैं कि — कः पथ्यतरः ? धर्मः, कः शुचिरिह ? यस्य मानसं शुद्धम् । कः पण्डितः ? विवेकी, किं विषम् ? अवधीरणा गुरुषु ॥ अर्थात् कल्याणकारी क्या है ? धर्म या अपने लिए विहित कर्तव्य । इस लोक में पवित्र कौन है ? जिसका मन शुद्ध हो । विद्वान कौन है ? जो सत्य असत्य का ज्ञान रखता है । विष क्या है ? गुरुओं का अपमान करना अर्थात् उनकी बात का तिरस्कार करना। || ५१ ||
स्वानुभूतिं विना देहं बिभ्रत्यध्यासदार्ढ्यतः । शाकल्यस्य मृतं देहं धनबुद्ध्येव तस्कराः ॥ ५.५२ ॥
जिन लोगों की अपने शरीर के साथ एक पुख्ता पहचान होती है | {अर्थात केवल शरीर को ही मैं समझते हैं} और वे स्वयं का अनुभव किए बिना अपने शरीर को ढोते रहते हैं, वे उन लुटेरों की तरह हैं, जिन्होंने धन के लिए भूल से शाकल्य के मृत शरीर को धन समझा | ‘‘देहं मनोमात्रमिमं गृहीत्वा ममाहमित्यन्धधियो मनुष्याः । एषोऽहमन्योऽयमिति भ्रमेणदुरन्तपारे तमसि भ्रमन्ति ॥ ११.२३.५०॥ श्रीमद्भागवतम् || जो व्यक्ति इस शरीर के साथ तादात्म्य रखते हैं, जो कि केवल भौतिक मन की उपज है, वे अपनी बुद्धि में अंधे हो जाते हैं, ऐसे मनुष्य केवल “मैं” और “मेरा” के संदर्भ में ही सोचते हैं। “यह मैं हूं, लेकिन यह कोई और है” इस के भ्रम के कारण, वे अंतहीन अंधेरे में भटकते हैं | पञ्चभूत भी सब में एक हैं और चैतन्य भी सब में एक है तो फिर यह भेद कहाँ से आगया ? ।|| ५२ ||
स्वानुभूतिं विना ध्यानं कुर्वन्त्यासनसंयुताः। बका इवांभसस्तीरे मत्स्यवंचनतत्पराः ॥५.५३॥
जो लोग आत्मानुभूति के बिना एक आसन जमाकर बैठे हैं, और वे लोकवंचक स्वयं का अनुभव किए बिना ध्यान का अभ्यास करते हैं, वे लोग नदी किनारे खड़े बगुले की तरह हैं जो मछलियों को पकड़ने का इरादा रखते हैं | आत्मानुभूति के लिए विचार की आवश्यकता होती है न कि ध्यान की | क्योंकि ध्यान तो किसी दुसरे का किया जाता है | ‘‘काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः। मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः।।१६.१०।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ दम्भ, मान और मद से युक्त कभी न पूर्ण होने वाली कामनाओं का आश्रय लिये, मोहवश मिथ्या धारणाओं को ग्रहण करके ये अशुद्ध संकल्पों के लोग जगत् में कार्य करते हैं। || ५३ ||
स्वानुभूतिं विना श्वासान्निरुन्धन्ति हठात्सदा। अयस्कारोऽनिलं बाह्यं द्रुतिकायामिवाधिकम् ॥५.५४॥
जो लोग स्वयं को अनुभव किए बिना हमेशा अपनी सांस को जबरदस्ती नियंत्रित करते हैं, वे एक ऐसे लुहार की तरह हैं जो अपनी धौंकनी की गर्म हवा से धातु की बाहरी सतह को तो अत्यधिक पिघला देता है (जबकि धौंकनी के अंदर अभी भी कठोरता है) | ‘‘चित्तादिसर्वभावेषु ब्रह्मत्वेनैव भावनात् । निरोधः सर्ववृत्तीनां प्राणायामः स उच्यते ॥ ११८ ॥ अपरोक्षानुभूति ’’ चित्त जैसी सभी मानसिक अवस्थाओं को केवल ब्रह्म मानकर मन की सभी वृत्तियों को रोकना ही असली प्राणायाम कहलाता है | चरतां सर्वतोऽसूनामेकदेशे तु धारणम् ।। गुरूपदिष्टरीत्यैव प्राणायामः स उच्यते ।। १४ ।। चले वायौ चलं चित्तं स्थिरे तस्मिन्स्थिरं ततः ।। सुदेशेऽयं सदाऽभ्यस्यः पूरकुम्भकरेचकैः ।। १५ ।। स्कन्दपुराणम् (वैष्णवखण्डः) अध्यायः ३० || शरीर शुद्धि अथवा नाड़ी शुद्धि के लिए हठयोग वाला प्राणायाम भी लाभकारी है | चले वाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत्। योगी स्थाणुत्वम् आप्नोति ततो वायुं निरोधयेत्॥ हठ प्रदीपिका-२.२॥ प्राणों के चलायमान होने पर चित्त भी चलायमान हो जाता है और प्राणों के निश्चल होने पर मन भी स्वत: निश्चल हो जाता है और योगी स्थाणु हो जाता है। अतः योगी को श्वांसों का नियंत्रण करना चाहिये। || ५४ ||
स्वानुभूतिं विना योगदण्डपट्टादिधारिणः। जीर्णकन्थाभरं भग्नदंडभांडादि पित्तवत् ॥५.५५॥
आत्मज्ञान हुए बिना ही जो एक योगदण्ड को वहन करता है और (योगपट्ट) संन्यासियों के नाम को धारण करता तथा स्व के अनुभव के बिना सन्तों के वेश को धारण करता है, वह एक बीमार स्वभाव के व्यक्ति की तरह है, जो अपने कंधों पर फटे हुए कपड़े पहने हुए है, और एक टूटा हुआ डंडा और फूटा हुआ बर्तन (भिक्षापात्र) लिए हुए घूमता है | शंकराचार्य जी भज गोविन्दंस्तोत्र में कहते हैं कि -‘‘जटिलो मुण्डी लुञ्छितकेशः काषायाम्बरबहुकृतवेषः । पश्यन्नपि च न पश्यति मूढः उदरनिमित्तं बहुकृतवेषः ॥१४॥’’ बड़ी बड़ी जटाएं, केश रहित सिर, बिखरेहुए नोंचेहुए बाल, काषाय (भगवा) वस्त्र और भांति भांति के वेश ये सब अपना पेट भरने के लिए ही धारण किये जाते हैं, अरे मोहित मनुष्य तुम इसको देख कर भी क्यों नहीं देख पाते हो | – ‘‘रथ्याकर्पटविरचितकन्थः पुण्यापुण्य- विवर्जितपन्थः । नाहं न त्वं नायं लोकस्तदपि किमर्थं क्रियते शोकः ॥१६॥ भजगोविन्दं …’’ अर्थ – रास्ते में पड़े चिथड़ों से बनी झोली या गुदड़ी से काम चला लिया, पुण्य-अपुण्य से परे विशेष जीवन-मार्ग अपना लिया, न मैं हूं, न तुम हो, न ही यह संसार है यह जान लिया, तब फिर भी किस बात शोक किया जाये | उपर्युक्त कथन उस व्यक्ति के संदर्भ में है जो संन्यास के मार्ग पर चल निकला हो | ऐसा व्यक्ति मार्ग में यानी आम जन से जो कुछ भी पा जाए उसी से काम चलाता है | चिथड़ों से बनी झोली या गुदड़ी से आशय है संसाधनविहीन जीवन को अविचलित भाव के साथ जीने से लिया जा सकता है | “पुण्यमय एवं अपुण्य से रहित मार्ग अपनाया हो जिसने” ऐसे वीतराग से अपेक्षा की जाती है कि संन्यासी पापमार्ग से बचा रहे | उसे जीवन की नश्वरता का ज्ञान जब हो जाता है तब उसे किसी प्रकार की हानि का भय नहीं रह जाता है। || ५५ ||
स्वानुभूतिं विना यद्यत्कुर्वन्ति भुवि मानवाः। तत्तत्सर्वं वृथैव स्यान्मरुभूमौ कृषिर्यथा ॥५.५६॥
आत्मा का अनुभव किए बिना दुनिया में पुरुष जो भी कार्य करते हैं, वह सब एक रेगिस्तान में खेती करने की तरह पूरी तरह से व्यर्थ है | आत्मानुभूति के साधन के रूप में कुछ बातें श्रीमद्भागवत पुराण में बताई गयी हैं जैसे कि — ‘‘वाचं यच्छ मनो यच्छ प्राणान् यच्छेन्द्रियाणि च । आत्मानमात्मना यच्छ न भूय: कल्पसेऽध्वने ॥ ४२ ॥ यो वै वाङ्मनसी सम्यक् असंयच्छन् धिया यतिः। तस्य व्रतं तपो ज्ञानं स्रवत्यामघटांबुवत् ||४३ || श्रीमद्भागवतपुराणम्-स्कन्धः ११ अध्यायः १६ ’’ इसलिए वाणी, मन, प्राण, इंद्रियाँ, इनका निरोध करो | आत्मशक्ति से अपना संयम करो | फिर आप आवागमन अर्थात पुनः जन्म-मरण के चक्र में नहीं फंसेगे | जो यति बुद्धि से अपनी वाणी और मन का भलीभाँति निरोध नहीं करता, उसके व्रत, तप, ज्ञान (मिट्टी के) कच्चे घड़े में स्थित पानी की तरह चू जाते हैं | ‘‘यच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञान आत्मनि। ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेत्तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि ॥१३॥ कठोपनिषद् अध्याय १ वल्ली ३’’ प्रज्ञावान् व्यक्ति अपनी वाणी को मन में नियन्त्रित रखे, उस मन को ज्ञानस्वरूप आत्मा में (अथात् बुद्धि में) नियन्त्रित रखे तथा ज्ञान को ‘महान् आत्मा’ में ( अर्थात् समष्टि बुद्धि में) नियन्त्रित रखे और उसे पुनः उस ‘आत्मा’ में नियन्त्रित रखे जो शान्त-स्वरूप है। अर्थात् ब्रह्म में) । || ५६ ||
स्वानुभूत्यर्थकं कर्म निकृष्टमपि सर्वथा। उत्तमं विबुधैः श्लाघ्यं श्वेव चोरनिवर्तकाः ॥५.५७॥
आत्मा का अनुभव करने के लिए किए गए कार्य, भले ही वे निम्न-श्रेणी के हों, वास्तव में उत्कृष्ट और बुद्धिमानों द्वारा सम्मानित होते हैं, क्योंकि वे उस कुत्ते की तरह हैं जो चोर को दूर रखते हैं | यद्यपि ज्ञानमार्ग , भक्तिमार्ग , विवेक , वैराग्य शमादि षट्सम्पत्ति उत्तम साधन हैं तथापि जिसकी देहबुद्धि स्थिर है उसके लिए तो भगवान कृष्ण गीताजी में बहुत ही सरल उपाय कहते हैं कि ‘‘तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ। पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।३.४१।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ इसलिये हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! तुम सबसे पहले इन्द्रियोंको वशमें करके इस ज्ञान और विज्ञानका नाश करनेवाले महान् पापी इस कामरूप शत्रु को नष्ट करो | यहाँ तक कि — मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् | बलवन्निन्द्रियग्रामा विद्वांसमपि कर्षति ||- मनुस्मृति (२/२१५ ) माता, भगिनी (बहिन) पुत्री तक के साथ में एकान्त स्थान में अथवा एक ही आसन पर कदापि न बैठे, क्योंकि इन्द्रियां अत्यन्त प्रबल होती हैं और वे विवेकी , ज्ञानीजनों के मन को भी सहज ही अपने वश में कर लेने में समर्थ हैं | इसलिए शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः॥२.३२॥ बाह्य एवं अंत:स्वच्छता संतुष्टि तप स्वाध्याय और ईश्वर-शरणागति – ये पाँच नियम हैं | तावज्जितेन्द्रियो न स्याद् विजितान्येन्द्रिय: पुमान् | न जयेद् रसनं यावद् जितं सर्वं जिते रसे ||श्रीमद्भागवत ११|८|२१ जब तक मनुष्य अपने विविध आहारों के उपर स्वनियंत्रण नही रखता तब तक उसने सब इन्द्रियों के उपर विजय पायी है ऐसा नही बोल सकते | आहार के उपर स्वनियंत्रण यही सब से आवश्यक बात है। || ५७ ||
स्वानुभूत्युपयुक्तेभ्य इतराणि बहून्यपि। कर्मादीन्याचरन्मर्त्यो भ्रान्तवद्व्यर्थचेष्टितः ॥५.५८॥
एक व्यक्ति जो स्वयं के अनुभव के लिए उपयुक्त प्रयत्न नहीं करता है, उसके अलावा विभिन्न कार्यों को करता है, वह एक भ्रान्त व्यक्ति के समान इधर-उधर भटक रहा है और अपने प्रयासों को बर्बाद कर रहा है | ‘‘भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः । कालो न यातो वयमेव याता स्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ॥ ७॥ वैराग्यशतकम्’’ भोगों को हमने नहीं भोगा, बल्कि भोगों ने ही हमें ही भोग लिया । तपस्या हमने नहीं की, बल्कि हम खुद तप गए । काल (समय) कहीं नहीं गया बल्कि हम स्वयं चले गए । इस सभी के बाद भी मेरी कुछ पाने की तृष्णा नहीं गयी (पुरानी नहीं हुई) बल्कि हम स्वयं जीर्ण हो गए। || ५८ ||
श्रुतिस्मृतिपुराणेषु काम्यकर्माण्यनेकधा। प्रोच्यन्ते तेषु संसक्तस्त्याज्यः शिष्टैर्विटो यथा ॥५.५९॥
सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए वेदोंमें तथा स्मृतिकारों द्वारा और पुराणों में अनेक प्रकार के काम्यकर्मों का वर्णन किया गया है और कई संस्कारों के विधानों उल्लेख है | जो भोग और ऐश्वर्य की प्राप्ति से जुड़ा है | उन कर्मकाण्डों में जो अत्यन्त आसक्त चित्त वाला है उसे वैसे ही छोड़ देना चाहिए जैसे भौतिकवादी (देहात्मवादी) आदमी को ब्रह्मात्मवादी (शिष्ट, ज्ञानीपुरुष, विद्वानपुरुष) छोड़ देते हैं | ‘‘भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्। व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।२.४४।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ वेदों की उस पुष्पित वाणीसे जो कि रागी लोगों को उद्देश्य में रखकर कही गयी है उस कर्मकाण्डात्मक वाणी द्वारा जिसका अन्तःकरण हर लिया गया है अर्थात् भोगोंकी तरफ खिंच गया है और जो भोग तथा ऐश्वर्यमें अत्यन्त आसक्त हैं, उन मनुष्यों के अन्तकरण में परमात्मा में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती | अर्थात वे ध्यान का अभ्यास करने योग्य नही होते | ‘‘आशा नाम नदी मनोरथजला तृष्णातरङ्गाकुला रागग्राहवती वितर्कविहगा धैर्यद्रुमध्वंसिनी । मोहावर्तसुदुस्तरातिगहना प्रोत्तुङ्गचिन्तातटी तस्याः पारगता विशुद्धमनसो नन्दन्ति योगीश्वराः ॥ १०॥वैराग्यशतकम्’’ आशा नाम की एक नदी है मनोरथरूपी जल जिसमें भरा है, तृष्णा जिसकी लहरें है, रागद्वेष जिसके मगर और घडियाल है, अपने अनुकुल और प्रतिकूल होनेवाले पदार्थों के निर्णय करने के विचयारधारा रूपी वितर्क ही जिस पर पक्षी के रूप में विचर रहे है, जिसका प्रवाह धैर्य रूपी वृक्ष को गिरा रहा है, मोह रूप भँवर से जो अत्यन्त खतरनाक और अति कठिन है और बड़ी- बड़ी चिन्तायें जिसके तट हैं, ऐसी नदी के पार गये हुए शुध्दान्तःकरण वाले योगिराज ही परमानन्द को प्राप्त होते हैं। || ५९ ||
काम्यकर्मसमासक्तः स्वनिष्ठां स्वस्य मन्यते। जात्यन्धः स्वस्य रत्नादिपरीक्षादक्षतामिव ॥५.६०॥
काम्यकर्मों में अच्छी तरह डूबा हुआ व्यक्ति और अपनी भौतिक इच्छाओं की पूर्ति में लीन रहने वाला व्यक्ति उच्च सम्मान में अपनी पहचान रखता है, जैसे जन्म से अंधा पैदा हुआ आदमी रत्न आदि की परीक्षा में अपनी कुशलता दिखाए और उन्हें धारण करने में अपनी विशेषज्ञता और उच्च सम्मान में प्रतिष्ठा प्राप्त करनेके सपने देखता हो | ‘‘अवश्यं यातारश्चिरतरमुषित्वापि विषया वियोगे को भेदस्त्यजति न जनो यत्स्वयममून् । व्रजन्तः स्वातन्त्र्यादतुलपरितापाय मनसः स्वयं त्यक्ता ह्येते शमसुखमनन्तं विदधति ॥ १२॥ वैराग्यशतकम् ||’’ चिरकाल तक भोग किए विषय एक न एक दिन अवश्य ही भोगनेवाले को छोड़ते है, तब यदि उन्हें स्वयं ही छोड दिया जाय तो क्या हानि? फिर भी इनको हम छोड़ने को तैयार नहीं | मनुष्यों को चाहिए कि वे उनको स्वयं छोड़ दें | क्योंकि अपनी इच्छा से विषयों का त्याग करने पर अत्यन्त सुख प्राप्त होता है और यदि विषयों ने हमें छोड़ा तो बड़ा सन्ताप होता है। || ६० ||
अवशेन्द्रियमात्मार्थगुरुबुद्ध्यैव सेवते। बालातन्तुसुतं लोकेऽगणितं भुक्तये यथा ॥५.६१॥
यदि आत्मज्ञान का इच्छुक व्यक्ति, एक ऐसे शिक्षक की सेवा करता है , जिसकी इंद्रियाँ उसके नियंत्रण में नहीं हैं, तो वह पीने के उद्देश्य के लिए एक युवा तने से जिसमें बहुत कम मात्रा में सोम का रस निकलता है उससे अनन्त तृप्ति प्राप्त करने की इच्छा के समान है | मतलब छोटे आदमी का सँग नहीं करना चाहिए , बड़े आदमी की ही सङ्गति करनी चाहिए | ‘‘हीयते हि मतिस्तात हीनैः सह समागमात् । समैश्च समतां एति विशिष्टैश्च विशिष्टताम् ॥४१॥हितोपदेशः’’ हीन लोगों की संगति से अपनी भी बुद्धि हीन हो जाती है, समान लोगों के साथ रहने से समान बनी रहती है और विशिष्ट लोगों की संगति से विशिष्ट हो जाती है। धीरे धीरे आगे बढ़ना चाहिए । || ६१ ||
यस्तु वश्येन्द्रियं शान्तं निष्कामं सद्गुरुं सदा। स्वात्मैकरसिकं मुक्त्यै स धीमानुपगच्छति ॥५.६२॥
लेकिन जो एक ऐसे अच्छे शिक्षक (सद्गुरु) की सेवा करता है, जिसकी इंद्रियां हमेशा उसके नियंत्रण में रहती हैं, जो शान्त चित्त वाला है, किसीभी प्रकार की इच्छा से रहित और हमेशा स्वयं के आनंद में लीन रहता है, ऐसा वह बुद्धिमान साधक मुक्ति की ओर अग्रसर होता है।
‘‘ऐङ्कार ह्रीङ्कार रहस्य युक्त श्रीङ्कार गूढार्थमहाविभूत्या॥ ओङ्कार मर्म प्रतिपादिनीभ्यां नमो नमः श्री गुरुपादुकाभ्याम्॥२॥ गुरुदेव “ऐंकार” रूप से युक्त हैं, जो कि साक्षात् सरस्वती के पुंज हैं, गुरुदेव ”ह्रींकार” युक्त हैं, एक प्रकार से देखा जाये तो वे पूर्णरूपेण सूर्यरूपा भुवनेश्वरीविद्या से युक्त हैं, गुरुदेव ”श्रींकार” युक्त हैं, जो संसार के समस्त वैभव, सम्पदा और सुख से युक्त हैं, जो सही अर्थों में स्वाराज्यलक्ष्मी की महान विभूति हैं, मेरे गुरुदेव “ॐ” शब्द के रहस्य मर्म को समझाने में समर्थ हैं, वे अपने शिष्यों को भी उच्च कोटि कि साधना सिद्ध कराने में सहायक हैं, ऐसे गुरुदेव के चरणों में लिपटी रहने वाली ये पादुकाएं साक्षात् गुरुदेव का ही विग्रह हैं, इसीलिए मैं इन पादुकाओं को श्रद्धा – भक्ति से युक्त होकर प्रणाम करता हूँ | ‘‘अनन्त संसार समुद्र तार नौकायिताभ्यां स्थिरभक्तिदाभ्याम्। जाड्याब्धि संशोषण वाडवाभ्यां नमो नमः श्री गुरुपादुकाभ्याम्॥५॥’’ इस संसार रूपी अनंत समुद्र को गुरुजी भक्ति रूपी नौका से पार करने योग्य बनाने वाले हैं और अमूल्य वैराग्य के साम्राज्य की राह दिखाने वाले गुरु की चरणपादुकाओं को बारम्बार नमस्कार है | ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम्। मन्त्रमूलं गुरोर्वाक्यं तस्मै श्रीगुरवे नमः॥७६॥ गुरुगीता’’ ध्यान का आधार गुरुदेव की मूर्ति है, पूजा का आधार गुरुदेव के श्रीचरण हैं, गुरुदेव के श्रीमुख से निकले हुए वचन मंत्र के आधार हैं तथा गुरु की कृपा ही मोक्ष का द्वार है । || ६२ ||
काम्यकर्माणि चोत्सृज्य निष्कामो यो मुमुक्षया। शान्त्यादिगुणसंयुक्तं गुरुं प्राप्तः स मुच्यते ॥५.६३॥
जिसने सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए सभी कार्यों को त्याग दिया है और जिसने मुक्ति की इच्छा के साथ एक ऐसे (सद्गुरु) शिक्षक को प्राप्त किया है जो शांति,दान्ति आदि अन्य सद्गुणों से संपन्न है, वह मुक्त है। ‘‘श्रीनाथादि गुरुत्रयं गणपतिं पीठत्रयं भैरवं सिद्धौघं बटुकत्रयं पदयुगं दूतीक्रमं मण्डलम् | वीरेशाष्टचतुष्कषष्टि नवकं वीरावलीपञ्चकं श्रीमन्मालिनिमन्त्रराजसहितं वन्दे गुरोर्मण्डलम् ||५२|| गुरुगीता’’ मैं गुरु की सभा को नमन करता हूं जो श्रीनाथ, गणपति, शक्ति के तीन आसन, आठ भैरव, नौ पारंपरिक सिद्धों के समूह, तीन वटुकों, शिव और शक्ति का प्रतिनिधित्व करने वाले दो चरणों, दस दूतियों के क्रम से शुरू होने वाले तीन पूर्ववर्ती गुरुओं से बना है। तीन मंडल, दस वीर, चौंसठ स्थापित सिद्ध, नौ मुद्राएं, पांच वीरों की पंक्ति, साथ में श्रद्धेय मालिनीमन्त्र की वर्णमाला के अक्षर और मंत्रराज के सहित विराजमान हैं । || ६३ ||
इस गुरुमण्डल मन्त्र का विशेष विवरण निम्न प्रकार से है |
श्री गुरु-पादुका पूजन पद्धति (उपर्युक्त ‘श्रीनाथादिगुरुत्रयं-‘ गुरुमण्डल के अर्चन का रहस्यमय मन्त्र है ।) भगवान शिव का एक सात्विक रूप दक्षिणामूर्ति है, और ये गुरुओं के भी गुरु हैं | दक्षिणामूर्ति संप्रदाय के अनुसार दिव्यौघ में चार गुरु हैं १ परप्रकाशानन्दनाथ २ परशिवानन्दनाथ ३ पराशक्त्यम्बानन्दनाथ ४ कौलेश्वरानन्दनाथ | सिद्धौघ में भी चार गुरु हैं १ भोगानन्दनाथ २ क्लिन्नानन्दनाथ ३ समयानन्दनाथ ४ सहजानन्दनाथ और मानवौघ में आठ गुरु हैं १ गगनानंदनाथ २ विश्वानंदनाथ ३ विमलानंदनाथ ४ मदनानंदनाथ ५ भुवनानंदनाथ ६ लीलानन्दनाथ ७ स्वात्मानन्दनाथ ८ प्रियानंदनाथ । इन्ही को गुरुत्रयं पद से कहा गया है | ‘‘गुरुत्रयं’’ में पहले अपने श्रीगुरु फिर गुरु के गुरु श्रीपरमगुरु फिर उनके भी गुरु श्रीपरमेष्ठीगुरु की वन्दना करके प्रज्ञा के देवता श्री महागणपति की वन्दना का विधान है | तदुपरान्त तीन पीठों की ‘‘पीठत्रयं’’ १ कामगिरिपीठ २ पूर्णगिरिपीठ ३ जालंधरपीठ | ‘‘भैरवं’’ अष्टभैरव के क्रम में भैरव आठ है- मन्थानभैरव, षट्चक्रभैरव, श्री फट्कारभैरव, एकात्मकभैरव, रविभक्ष्यभैरव, श्री चन्डभैरव, श्री नभोनिर्मलभैरव, श्री भ्रमरभास्कर भैरव। इसके बाद ‘‘सिद्धौघं’’ में ये सिद्ध शक्तियां आठ हैं १ श्री महादर्पनाम्बा २ श्री सुन्दर्यम्बा ३ श्री करालाम्बिका ४ श्री त्रिबाणाम्बा ५ श्री भीमाम्बा ६ श्री कराल्याम्बा ७ श्री खराननाम्बा ८ श्री विधीशालीनाम्बा | इसके बाद ‘‘बटुकत्रयं’’ १ स्कन्दवटुक २ चित्रवटुक ३ विरंचिवटुक | इसके बाद ‘‘पदयुगं’’ प्रकाश और विमर्श ( शिव और शक्ति ) के दो चरण | इसके बद ‘‘दूतीक्रमं’’ ये दूतियाँ ९ हैं जैसे – १ योन्यंम्बा दूती २ योनिसिद्धनाथाम्बा दूती ३ महायोन्यंम्बादूती ४ महायोनिसिद्धनाथाम्बा दूती ५ दिव्ययोन्याम्बा दूती ६ दिव्ययोनिसिद्धनाथाम्बा दूती ७ शंखयोन्यम्बा दूती ८ शंखयोनिसिद्धनाथाम्बा दूती ९ पद्मयोनिसिद्धनाथाम्बा दूती | इसके बाद ‘‘मण्डलम्’’ १ अग्निमण्डल २ सूर्यमण्डल ३ सोममण्डल | इसके बाद ‘‘वीर’’ दस वीर भैरव हैं १. श्रीसृष्टिवीरभैरव । २. श्रीस्थितिवीरभैरव । ३. श्रीसंहारवीरभैरव । ४. श्रीरक्तवीरभैरव । ५. श्रीयमवीरभैरव । ६. श्रीमृत्युवीरभैरव । ७. श्रीभद्रवीरभैरव । ८. श्रीपरमार्थवीर भैरव । ९. श्रीमार्तण्डवीरभैरव । १० श्रीकालाग्निरुद्रवीरभैरव । इसके बाद ‘‘चतुष्कषष्टि’’ ६४ योगिनियों का मण्डल है जैसे कि – १ मङ्लानाथा । २ चण्डिकानाथा । ३ कलुकानाथा । ४ पट्टहानाथा । ५ कूर्मानाथा । ६ धनदानाथा । ७ गन्धानाथा । ८ गगनानाथा । ९ मतङ्गानाथा । १० चम्पकानाथा । ११ कैवर्तानाथा । १२ मातङ्गगमनानाथा । १३ सूर्यभक्ष्यानाथा । १४ नभोभक्ष्यानाथा । १५ स्तौतिकानाथा । १६ रूपिकानाथा । १७ दंष्ट्रापूज्यानाथा । १८ धुम्राक्षानाथा । १९ ज्वालानाथा । २० गान्धारानाथा । २१ गगनेश्वरानाथा । २२ मायानाथा । २३ महामायानाथा । २४ नित्यानाथा । २५ शालानाथा । २६ विश्वानाथा । २७ कामिनीनाथा । २८ उमानाथा । २९ श्रियानाथा । ३० सुभगानाथा । ३१ सर्वगानाथा । ३२ लक्ष्मीनाथा । ३३ विद्यानाथा । ३४ मीनानाथा । ३५ अमृतानाथा । ३६ चन्द्रानाथा । ३७ सिद्धानाथा । ३८ श्रद्धानाथा । ३९ अनन्तानाथा । ४० शम्बरानाथा । ४१ उल्कानाथा । ४२ त्रैलोक्यानाथा । ४३ भीमानाथा । ४४ राक्षसीनाथा ४५ मणिनाथा ४६ प्रचण्डानाथा । ४७ अनङ्गानाथा । ४८ विधिनाथा । ४९ अनभिहितानाथा । ५० नन्दिनीनाथा । ५१ महामनानाथा । ५२ सुन्दरीनाथा । ५३ विश्वेश्वरीनाथा । ५४ कालनाथा । ५५ महाकालनाथा । ५६ अभयानाथा । ५७ विकारानाथा । ५८ महाविकारानाथा । ५९ सर्वगानाथा । ६० सकलानाथा । ६१ पूतनानाथा । ६२ सर्वरीनाथा । ६३ व्योमानाथा । ६४ ज्येष्ठानाथा । इसके बाद ‘‘ नवकं’’ मुद्रानवक (नवमुद्रा) १ द्राँ सर्वसंक्षोभिणीमुद्रायै नम: । २ द्रीं सर्वविद्राविणीमुद्रायै नम: । ३ क्लीं सर्वाकर्षिणीमुद्रायै नम: । ४ लृँ सर्ववशङ्करीमुद्रायै नम: । ५ स: सर्वोन्मादिनीमुद्रायै नम: । ६ क्रौं सर्वमहाङ्कुशामुद्रायै नमः । ७ हसखफ्रें सर्वखेचरीमुद्रायै नम: । ८. हस्त्रौं सर्वबीजमुद्रायै नम: । ९ ऐं सर्वयोनिमुद्रायै नम: । नवमुद्राम्बायै नमः । अथ च तुरीयांबा , महार्घाम्बा , अश्वारूढाम्बा , मिश्रांबा , वाग्वादिन्यंबा , महाकाल्यंबा , तारांबा , वनदुर्गांबा
जयदुर्गांबा , मुद्रानवकांबा श्री पादुकां पूजयामि तर्पयामि | इसके बाद ‘‘वीरावलीपञ्चकं’’ १ लं ब्रह्मवीरावल्यै । २ वं श्रीविष्णुवीरावल्यै । ३ रं श्रीरुद्रवीरावल्यै । ४ यं श्रीईश्वरवीरावल्यै । ५ हं श्रीसदाशिववीरावल्यै । इसके बाद ‘‘पञ्चकं’’ पद से इन सबका ग्रहण होता है | इसको पञ्चपञ्चिका पूजा कहते हैं | जैसे :- पञ्चलक्ष्मी पूजन , पञ्च कौशाम्बा पूजन , पञ्च कल्पलता पूजन , पञ्च कामदुधा पूजन , पञ्च रत्नाम्बा पूजन — पञ्चलक्ष्मी —
श्री विद्यालक्ष्मी लक्ष्म्यम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री एकाकारलक्ष्मी लक्ष्म्यम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री महालक्ष्मी लक्ष्म्यम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री त्रिशक्तिलक्ष्मी लक्ष्म्यम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री सर्वसाम्राज्यलक्ष्मी लक्ष्म्यम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
— पञ्च कौशाम्बा
श्री विद्या कोशाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री परज्योति कोशाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री परिनिष्कल शाम्भवी कोशाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री अजपा कोशाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री मातृका कोशाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
— पञ्चकल्पलता —
श्री विद्या कल्पलताम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री त्वरिता कल्पलताम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री पारिजातेश्वरी कल्पलताम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री त्रिपुटा कल्पलताम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री पञ्च बाणेश्वरी कल्पलताम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
— पञ्चकामदुघा —
श्री विद्या कामदुघाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री अमृत पीठेश्वरी कामदुघाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री सुधांशु कामदुघाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री अमृतेश्वरी कामदुघाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री अन्नपूर्णा कामदुघाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
— पञ्चरत्न विद्या —
श्री विद्या रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री सिद्धलक्ष्मी रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री मातंगेश्वरी रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री भुवनेश्वरी रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री वाराही रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्रीमन्मालिनी रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
— श्रीमन्मालिनी मन्त्र —
अंत में तीन बार श्रीमन्मालिनी का उच्चारण करना चाहिए जिससे गुरुदेव की शक्ति, तेज और सम्पूर्ण साधनाओं की प्राप्ति हो सके – ॐ अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ॠं लृं ल्रृं एं ऐँ ओं औं अं अः |
कं खं गं घं ङं | चं छं जं झं ञं | टं ठं डं ढं णं | तं थं दं धं नं | पं फं बं भं मं | यं रं लं वं शं षं सं हं क्षं हंसः सोऽहं गुरुदेवाय नमः |श्री मालिन्यम्बायै नमः । ‘‘श्रीमन्त्रराज’’ पञ्चदशाक्षरी श्री विद्या || शिवः शक्तिः कामः क्षितिरथ रविः शीतकिरणः स्मरो हंसः शक्रस्तदनु च परामारहरयः । अमी हृल्लेखाभिस्तिसृभिरवसानेषु घटिताः भजन्ते वर्णास्ते तव जननि नामावयवताम् ।। ३२ ।। सौन्दर्य लहरी || अर्थ – हे जननि ! शिव बीजाक्षर ‘क’ शक्ति बीजक्षर ‘ए’ मन्मथ बीजक्षर ‘ई’ पृथ्वी बीजक्षर ‘ल’ उसके पश्चात् सूर्य बीजाक्षर ‘ह’ शीतलकिरणवाले चन्द्रमा का बीजाक्षर ‘स’ मन्मथ बीज ‘क’ हंस मन्त्रस्थित आकाशबीज ‘ह’ इन्द्र बीजाक्षर ‘ ल ‘ उसके बाद परा (शक्ति) बीज ‘स’ मार (काम) बीज ‘क’ हरिबीजाक्षर ‘ल’ इन तीनों के अन्त में तीन बीज ह्रींकारों को मिलाकर तुम्हारे नाम के अवयव स्वरूप वर्णों का (जो मन्त्र बन जाते हैं) साधक लोग भजन करते है । (विशेष जानकारी के लिये स्वामी करपात्री द्वारा रचित ‘‘श्रीविद्या-रत्नाकरः’’ ग्रन्थ का अध्ययन करना चाहिये |
इति श्रुत्वारुणः सूर्यात्संतुष्टः स्वात्मनिष्ठया। कृतकृत्य इदं प्राह भास्करं विनयान्वितः ॥५.६४॥
सूर्य की यह बात सुनकर, अरुण, तृप्त हो गये और स्थिर मन से कृतकृत्य होकर अपनी आत्मनिष्ठा से संतुष्ट होकर, विनम्रता से परिपूर्ण होकर, इस प्रकार सूर्य से बात की। || ६४ ||
अरुण उवाच :- अरुण बोले
श्रीमान्गुरुवर स्वामिंस्त्वन्मुखात्पारमार्थिकम्। निष्कामकर्ममाहात्म्यं श्रुत्वा धन्योऽस्म्यसंशयम् ॥५.६५॥
हे श्रेष्ठ गुरुवर ! हे स्वामिन् ! हे शिक्षक! आप से इच्छा-रहित कर्म की महत्ता के बारे में सुनकर, जो सर्वोच्च मूल्यवान है, (परम परमार्थ है) मैं धन्य हो गया हूं, इसमें कोई संदेह नहीं है | ‘‘धन्योऽहं कृतकृत्योऽहं विमुक्तोऽहं भवग्रहात् । नित्यानन्दस्वरूपोऽहं पूर्णोऽहं त्वदनुग्रहात् ॥ ४८८ ॥ विवेक चूडामणि’’ हे गुरुदेव, आपकी कृपा से मैं धन्य हो गया हूँ, कृतकृत्य (सभी कर्तव्यों से मुक्त) हो गया हूँ , संसार बन्धन (आवागमन) से मुक्त हो गया हूँ ; मैं नित्य आनन्द स्वरूप हूँ , मैं पूर्ण हो गया हूँ , मैं अनंत हूं, आपकी कृपा से। || ६५ ||
सकर्मत्वमकर्मत्वं विदेहस्य च लक्षणम्। श्रुतं रहस्यं नातोऽन्यत्किंचिदप्यवशिष्यते ॥५.६६॥
मैंने सकर्मत्व और अकर्मत्व के बारे में सुना तथा मैंने इच्छा और अनिच्छा के बारे में सुना है, क्योंकि इच्छा के बिना तो कोई कर्म ही नहीं होता और इच्छा आपातरमणीय विषयों की अधूरी जानकारी के कारण होती है जिससे काम और मोह के जाल में आदमी फँस जाता है | मैंने एक विदेह पुरुष की विशेषताओं के बारे में भी सुना है; आपकी कृपा से सारा रहस्य जान लिया है , अब इसके आगे और कुछ जानने को शेष नहीं है। ‘‘अपि व्यापकत्वात् हितत्त्वप्रयोगात् स्वतः सिद्धभावादनन्याश्रयत्वात् । जगत् तुच्छमेतत् समस्तं तदन्यत् तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ॥ ९॥दशश्लोकी ||’’ आत्मा सर्वव्यापी है, यह सारा ब्रह्मांड, आत्मा के अलावा, असत्य है; क्योंकि, केवल स्वयं ही सर्व-समावेशी है, स्वयंभू है, और किसी भी चीज़ पर निर्भर नहीं है, आत्म-स्थापित और आत्मनिर्भर है। वह एक, जो शेष रहता है, वही आनन्द स्वरूप मैं सभी गुणों से मुक्त एक शुभ स्व के रूप में रहता हूं। ‘‘गुरुचरणाम्बुजनिर्भरभक्तः संसारादचिराद्भव मुक्तः । सेन्द्रियमानस नियमा देवं द्रक्ष्यसि निजहृदयस्थं देवम् ॥ ३१॥’’ सद्गुरु के चरण कमलों में पूर्णरूप से समर्पित होकर शीघ्र ही प्रवासन (आवागमन) प्रक्रिया से मुक्त हो जाते हैं। इस प्रकार, इंद्रिय अनुशासन और मननियंत्रण के माध्यम से, आप अपने हृदय में निवास करने वाले देवता को देखेंगे। || ६६ ||
तथापि मम साक्षात्त्वं कर्तव्यं ब्रूहि निश्चितम्। मच्चित्तपरिपाकं हि वेत्सि सर्वज्ञ सद्गुरो ॥५.६७॥
लेकिन फिर भी, हे श्री गुरो ! मुझे अपना पूर्ण और अंतिम कर्तव्य सीधे-सीधे बताएं, क्योंकि आप सर्वज्ञ हैं और मेरे चित्त के पकने के बारे में जानते हैं (अर्थात क्या आप मेरे कर्म के बारे में जानते हैं जो मुझे इस संसार में कार्य करने के लिए जिम्मेदार (अधिकारी) मानते हैं)। ‘‘यावत्स्वस्थमिदं शरीरमरुजं यावज्जरा दूरतो यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः । आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान् संदीप्ते भवने तु कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः ॥ ७५॥ भतृहरि का वैराग्यशतकम्’’ जब तक यह शरीर स्वस्थ अर्थात् रोगरहित है, जब तक बुढ़ापा दूर है, जब तक सभी इन्द्रियों में शक्ति विद्यमान है और आयु बची हुई है, तभी तक एक बुद्धिमान् व्यक्ति को चाहिए कि आत्मकल्याण के लिए महान् पुरुषार्थ करे, अन्यथा जैसे घर में आग लग जाने पर कुआं खोदने से कोई लाभ नहीं होता वैसे मृत्यु काल में कुछ भी नहीं हो सकेगा। ‘‘दुर्वारसंसारदवाग्नितप्तं दोधूयमानं दुरदृष्टवातैः । भीतं प्रपन्नं परिपाहि मृत्योः शरण्यमन्यं यदहं न जाने ॥ ३८ ॥ विवेकचूडामणिः ||’’ आचार्य शंकर कहते हैं कि जिससे छुटकारा पाना अति कठिन है, ऐसे उस संसाररूपी दावानल से जल रहे तथा दुर्भाग्यरूपी तेज (आंधी) से बुरी तरह कांप रहे और भयभीत मुझ शरणागत की आप मृत्यु से रक्षा कीजिए, क्योंकि इस समय मैं और किसी को नहीं जानता जिसकी शरण में मैं जाऊं। || ६७ ||
इति पृष्ट उवाचेदं भगवान्भास्करोऽरुणम्। स्वसारथिं निजाग्रस्थं बद्धबाहुं नताननम् ॥५.६८॥
इस प्रकार प्रश्न करने पर , भगवान सूर्य ने अपने सारथी अरुण से यह बात कही , जो उनके सामने हाथ जोड़कर बैठे थे और सिर झुकाए हुए थे। || ६८ ||
सूर्य उवाच :- भगवान् भास्कर बोले
अरुण त्वं परं ब्रह्म साक्षाद्दृष्ट्वाधुना कृती। तथाप्यादेहपतनाद्ब्रह्माभिध्यानमादरात् ॥५.६९॥
हे अरुण! अब, सीधे ब्रह्म का अनुभव करने के बाद, आपने अपना उद्देश्य पूरा कर लिया है। लेकिन फिर भी, जब तक आपका शरीर नीचे नहीं गिर जाता, तब तक पूरे आदर और विश्वास के साथ ब्रह्म का ध्यान करें। ‘‘क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मानावीशते देव एकः।
तस्याभिध्यानाद्योजनात्तत्त्वभावात् भूयश्चान्ते विश्वमायानिवृत्तिः ||१०|| श्वेताश्वतरोपनिषद् प्रथमोऽध्यायः’’ परिवर्तन शील स्वभाव वाली प्रकृति नाशवान है और जीवात्मा अविनाशी है। वह, एक मात्र ईश्वर नाशवान प्रकृति और अविनाशी जीवात्मा दोनों पर शासन करता है। उस एकं पर ध्यान करने से और उसके साथ संयुक्त तथा तादात्म्य (तदात्म भाव) हो जाने से अन्त में समस्त अज्ञान या भ्रान्ति से मुक्ति मिल जाती है। ‘‘स तु दीर्घकाल नैरन्तर्य सत्कारादरासेवितो दृढभूमिः ॥ || १. १४ || पतंजलि योग सूत्र’’ वह बहुत समय तक निरन्तर और श्रद्धा के साथ सेवन किया हुआ वह ध्यान का अभ्यास दृढ़ अवस्था वाला हो जाता है। || ६९ ||
स्वाधिकारोचितं शुद्धं कर्माप्याचर सत्तम। प्रमादो मास्तु ते स्वप्नेऽप्युक्तयोर्ब्रह्मकर्मणोः ॥५.७०॥
हे महान! आप अपना कर्तव्य अधिकार के अनुसार निभाएं, जो आपके कर्तव्य के अनुसार फिट हो। यहां तक कि सपने में भी ब्रह्म सम्बन्धी पूर्वोक्त ध्यान और कर्तव्य के प्रदर्शन के बारे में कोई लापरवाही नहीं होनी चाहिए। ‘‘योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।२.४८।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ हे धनंजय आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है।। ‘‘यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः। तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर।।३.९।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ यज्ञ के लिये किये हुए कर्म के अतिरिक्त अन्य कर्म में प्रवृत्त हुआ यह पुरुष कर्मों द्वारा बंधता है इसलिए हे कौन्तेय आसक्ति को त्यागकर यज्ञ के निमित्त ही कर्म का सम्यक् आचरण करो।। विष्णुसहस्रनाम के अनुसार योग और यज्ञ ये दोनों ही परमात्मा के नाम हैं | योगो योग-विदां नेता प्रधान पुरुषेश्वरः । नारसिंहवपुः श्रीमान केशवः पुरुषोत्तमः ॥३॥ भूर्भवः स्वस्तरुस्तारः सविता प्रपितामहः । यज्ञो यज्ञपतिर्यज्वा यज्ञांगो यज्ञवाहनः ।। १०४।।विष्णुसहस्रनाम || अतः सम्पूर्ण जीवन योग और यज्ञ मय ही होना चाहिए। || ७० ||
संवादमावयोरेतं सर्वपापहरं शुभम्। यः शृणोति सकृद्वा स कृतार्थो नात्र संशयः ॥५.७१॥
जो मनुष्य हमारे और तुम्हारे बीच हुए इस वार्तालाप को एक बार भी सुनता है वह धन्य हो जाता है और वह अपने पाप को नष्ट कर देता है, और जो भी प्राप्तव्य है उसे वह प्राप्त कर लेता है और जो भी कर्तव्य है उसे वह पूर्ण कर लेता है इस बारे में कोई भी संदेह नहीं है। ‘‘ न खिद्यते नो विषयैः प्रमोदते न सज्जते नापि विरज्यते च । स्वस्मिन्सदा क्रीडति नन्दति स्वयं निरन्तरानन्दरसेन तृप्तः || ५३६ || विवेकचूडामणिः’’ वह न तो दुखी होता है और न ही प्रसन्न होता है, न आसक्त होता है और न ही विषयों से घृणा करता है, लेकिन अनंत आनंद के सार में संतुष्ट, वह स्वयं में खेलता और आनंद लेता है। ‘‘कौपीनं शतखण्डजर्जरतरं कन्था पुनस्तादृशी नैश्चिन्त्यं निरपेक्षभैक्षमशनं निद्रा श्मशाने वने । स्वातन्त्र्येण निरङ्कुशं विहरणं स्वान्तं प्रशान्तं सदा स्थैर्यं योगमहोत्सवेऽपि च यदि त्रैलोक्यराज्येन किम् ॥ ९१॥ भर्तृहरेः वैराग्यशतकम्’’ आत्मज्ञानी तपस्वी के जीवन का मार्ग : लंगोटी फटी-पुरानी और फटी हुई सौ लत्तों के जोड से बनी गुदडी , फिर भी समान स्थिति में लपेटकर, चिंता से मुक्त, बिना किसी अपेक्षा के भीख माँगकर भोजन करना, एक जंगल या एक श्मशानभूमि में गहरी नींद में सोना बिना किसी बाधा के स्वतंत्र रूप से घूमते हुए, हमेशा अंतर्मुखी और शांत, और दिव्य मिलन के महान आनंद में स्थापित चित्त वाले ऐसे योगी के लिए तीनों लोकों की संप्रभुता भी तुलना में नीचे है। || ७१ ||
श्रीगुरुमूर्तिरुवाच :- श्रीगुरु भगवान दक्षिणामूर्ति बोले —
इति दिनकरवक्त्रातद्ब्रह्मकर्मैकनिष्ठां स्फुटतरमवगम्य प्राज्ञ एकोऽरुणः सः।
अभवदखिललोकैः पूजनीयः कृतार्थस्त्वमपि भव तथैव क्षिप्रमंभोजजन्मन् ॥५.७२॥
हे कमल में जन्म लेने वाले! (हे ब्रह्मा जी !) इस प्रकार बुद्धिमान अरुण ने सूर्य के मुख से ब्रह्मनिष्ठा और कर्मनिष्ठा के विषय को स्पष्ट करने वाला प्रवचन सुना और समझा तथा अपने उद्देश्य को पूरा किया और समस्त संसार द्वारा पूजित होने के योग्य बन गया | तुम भी जल्दी से उसकी तरह बन जाओ। ‘‘ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना || ।।४.२४।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ अर्पण (अर्थात् अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है; ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है, वह भी ब्रह्म ही है। इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है। || ७२ ||
विमलविगुणयोगाभ्यासदार्ढ्येन युक्तः सकलगतचिदात्मन्यद्वितीये बुधोऽपि।
सततमपि कुरुष्वारब्धदुःखोपशान्त्यै रहसि निजसमाधीन्स्वोक्तकर्मापि धातः ॥५.७३॥
हे धाता! (हे ब्रह्माजी !) विमल (राग , द्वेष और मोह से रहित) त्रिगुणातीत योग के अभ्यास के संबंध में दृढ़ता के साथ संपन्न होकर ; अपने मन को पूरी तरह से सर्वव्यापक , अद्वितीय स्व में अवशोषित होने दें; अपने प्रारब्ध कर्म से उत्पन्न कष्ट को शांत करने के लिए, हमेशा एकांत में समाधि का अभ्यास करें; और अपना निर्धारित कर्तव्य करें। ‘‘त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन। निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।२.४५।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ हे अर्जुन वेदों का विषय तीन गुणों से सम्बन्धित (संसार से) है तुम त्रिगुणातीत, निर्द्वन्द्व, नित्य सत्त्व (शुद्धता) में स्थित, योगक्षेम से रहित और आत्मवान् बनो। || ७३ ||
॥इति तत्त्वसारायणकर्मकांडोक्तश्रीसूर्यगीतायां पंचमोऽध्यायः॥
इस प्रकार तत्वसारायण के कर्मकांड में कही गयी श्री सूर्य गीताके पांचवें अध्याय की (तत्वप्रबोधिनी) हिन्दी व्याख्या पूरी हुई |
श्री सूर्यदेव चालीसा
॥दोहा॥
कनक बदन कुण्डल मकर, मुक्ता माला अङ्ग,
पद्मासन स्थित ध्याइए, शंख चक्र के सङ्ग॥
॥चौपाई॥
जय सविता जय जयति दिवाकर,
सहस्रांशु सप्ताश्व तिमिरहर॥
भानु पतंग मरीची भास्कर,
सविता हंस सुनूर विभाकर॥ १॥
विवस्वान आदित्य विकर्तन,
मार्तण्ड हरिरूप विरोचन॥
अम्बरमणि खग रवि कहलाते,
वेद हिरण्यगर्भ कह गाते॥ २॥
सहस्त्रांशु प्रद्योतन, कहिकहि,
मुनिगन होत प्रसन्न मोदलहि॥
अरुण सदृश सारथी मनोहर,
हांकत हय साता चढ़ि रथ पर॥३॥
मंडल की महिमा अति न्यारी,
तेज रूप केरी बलिहारी॥
उच्चैःश्रवा सदृश हय जोते,
देखि पुरन्दर लज्जित होते || ४ ||
मित्र मरीचि, भानु, अरुण, भास्कर,
सविता सूर्य अर्क खग कलिकर॥
पूषा रवि आदित्य नाम लै,
हिरण्यगर्भाय नमः कहि कै॥५ ॥
द्वादस नाम प्रेम सों गावैं,
मस्तक बारह बार नवावैं॥
चार पदारथ जन सो पावै,
दुःख दारिद्र अघ पुंज नसावै॥६ ॥
नमस्कार को चमत्कार यह,
विधि हरिहर को कृपासार यह॥
सेवै भानु तुमहिं मन लाई,
अष्ट सिद्धि नवनिधि तेहिं पाई॥७ ॥
बारह नाम उच्चारन करते,
सहस जनम के पातक टरते॥
उपाख्यान जो करते तव जन,
रिपु सों जमलहते सो तेहि छन॥८ ॥
धन सुत जुत परिवार बढ़तु है,
प्रबल मोह को फंद कटतु है॥
अर्क शीश को रक्षा करते,
रवि ललाट पर नित्य बिहरते॥९॥
सूर्य नेत्र पर नित्य विराजत,
कर्ण देस पर दिनकर छाजत॥
भानु नासिका वास करहु नित,
भास्कर करत सदा मुखको हित॥१०॥
ओंठ रहैं पर्जन्य हमारे,
रसना बीच तीक्ष्ण बस प्यारे॥
कंठ सुवर्ण रेत की शोभा,
तिग्म तेजसः कांधे लोभा॥११॥
पूषां बाहू मित्र पीठहिं पर,
त्वष्टा वरुण रहत सुउष्णकर॥
युगल हाथ पर रक्षा कारन,
भानुमान उरसर्म सुउदरचन॥१२॥
बसत नाभि आदित्य मनोहर,
कटिमंह, रहत मन मुदभर॥
जंघा गोपति सविता बासा,
गुप्त दिवाकर करत हुलासा॥१३॥
विवस्वान पद की रखवारी,
बाहर बसते नित तम हारी॥
सहस्त्रांशु सर्वांग सम्हारै,
रक्षा कवच विचित्र विचारे॥१४॥
अस जोजन अपने मन माहीं,
भय जगबीच करहुं तेहि नाहीं ॥
दद्रु कुष्ठ तेहिं कबहु न व्यापै,
जोजन याको मन मंह जापै॥१५॥
अंधकार जग का जो हरता,
नव प्रकाश से आनन्द भरता॥
ग्रह गन ग्रसि न मिटावत जाही,
कोटि बार मैं प्रनवउँ ताही॥
मंद सदृश सुत जग में जाके,
धर्मराज सम अद्भुत बांके॥१६॥
धन्य-धन्य तुम दिनमनि देवा,
किया करत सुरमुनि नर सेवा॥
भक्ति भाव युत पूर्ण नियम सों,
दूर हटतसो भवके भ्रम सों॥१७॥
परम धन्य सों नर तनधारी,
हैं प्रसन्न जेहि पर तम हारी॥
अरुण माघ महं सूर्य फाल्गुन,
मधु वेदांग नाम रवि उदयन॥१८॥
भानु उदय बैसाख गिनावै,
ज्येष्ठ इन्द्र आषाढ़ रवि गावै॥
यम भादों आश्विन हिमरेता,
कातिक होत दिवाकर नेता॥१९॥
अगहन भिन्न विष्णु हैं पूसहिं,
पुरुष नाम रविहैं मलमासहिं॥२०॥
॥दोहा॥
भानु चालीसा प्रेम युत, गावहिं जे नर नित्य,
सुख सम्पत्ति लहि बिबिधविधि , होंहिं सदा कृतकृत्य॥
श्री सूर्यदेव की आरती
ॐ जय सूर्य भगवान, जय हो जय दिनकर भगवान।
जगत् के नेत्रस्वरूपा, तुम हो त्रिगुण स्वरूपा।
धरत सब ही तव ध्यान, ॐ जय सूर्य भगवान।।
।।ॐ जय सूर्य भगवान…।।
सारथी अरुण हैं प्रभु तुम, श्वेत कमलधारी। तुम चार भुजाधारी।।
अश्व हैं सात तुम्हारे, कोटिक किरण पसारे। तुम हो देव महान।।
।।ॐ जय सूर्य भगवान…।।
उषाकाल में जब तुम, उदयाचल आते। प्रभु सब दर्शन पाते।।
फैलाते उजियारा, जागता तब जग सारा। करे सब तब गुणगान।।
।।ॐ जय सूर्य भगवान…।।
संध्या में भुवनेश्वर अस्ताचल जाते। तब गोधन घर आते।।
गोधूलि बेला में, हर घर हर आंगन में। हो तव महिमा गान।।
।।ॐ जय सूर्य भगवान…।।
देव-दनुज नर-नारी, ऋषि-मुनिवर भजते। आदित्य हृदय जपते।।
स्तोत्र ये मंगलकारी, इसकी है रचना न्यारी। दे नव जीवनदान।।
।।ॐ जय सूर्य भगवान…।।
तुम हो त्रिकाल करता , तुम जग के आधार। महिमा है अपरम्पार।।
प्राणों का सिंचन करके भक्तों को अपने देते। बल, बुद्धि और ज्ञान।।
।।ॐ जय सूर्य भगवान…।।
भूचर जलचर खेचर, सबके हों प्राण तुम्हीं। सब जीवों के प्राण तुम्हीं।।
वेद-पुराण बखाने, धर्म सभी तुम्हें माने। तुम हो शक्तिनिधान ।।
।।ॐ जय सूर्य भगवान…।।
पूजन करतीं दिशाएं, पूजे दश दिक्पाल। तुम भुवनों के प्रतिपाल।।
ऋतुएं तुम्हारी दासी, तुम शाश्वत अविनाशी। शुभकारी अंशुमान।।
।।ॐ जय सूर्य भगवान।।
ॐ जय सूर्य भगवान, जय हो जय दिनकर भगवान।
जगत् के नेत्रस्वरूपा, तुम हो त्रिगुण स्वरूपा।।
धरत सब ही तव ध्यान, ॐ जय सूर्य भगवान।।
नाम त्रय मन्त्र विधान
नामत्रय मंत्रस्य कश्यपात्रिभरद्वाजा ऋषयः अनुष्टुप् छन्दः श्रीमहाविष्णुर्देवता तत्प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः |
ध्यानम् – समस्तदुस्तरव्याधिसंघध्वंसपटीयसे | अच्युतानन्तगोविन्दनाम्ने धाम्ने नमो नमः ||
अच्युताय नम:
अनन्ताय, नम:
गोविन्दाय नम:
” अच्युतानन्तगोविन्द नामोच्चारण भेषजात्। नश्यन्ति सकला रोगा: सत्यं सत्यं वदाम्यहम्।। “
श्री सूर्यगीता मूलपाठ
|| श्री सूर्य गीता ||
॥ श्री गणेशाय नमः ॥
॥ श्री भगवते भुवन भास्कराय नमः ॥
॥ अथ सूर्यगीता प्रारभ्यते ॥
॥अथ प्रथमोऽध्यायः॥
ब्रह्मा उवाच –
प्रपञ्चसृष्टिकर्मेदं मम श्रीगुरुनायक ।
अहार्यं द्विपरार्धान्तमाधिकारिकतावशात् ॥ १ ॥
इति त्वद्वदनाम्भोजात्सम्यग्विदितवानहम् ।
तथाप्यत्र न मे चिन्ता जायते त्वत्कृपाबलात् ॥ २ ॥
त्वयि प्रसन्ने मय्येवं बोधानन्दः स्वरूपतः ।
पुनर्जन्म भयाभावाद्धीर एवास्मि वृत्तिषु ॥ ३ ॥
तथाऽपि कर्मभागेषु श्रोतव्यमवशिष्यते ।
तत्सर्वं च विदित्वैव सर्वज्ञः स्यामहं प्रभो ॥ ४ ॥
जगज्जीवेश्वरादीनां प्रागुत्पत्तेर्निरंजनम् ।
निर्विशेषमकर्मैकं ब्रह्मैवासीत्तदद्वयम् ॥ ५ ॥
तस्य जीवेश स्रष्टृत्वं प्रोच्यते वेदवादिभिः ।
अकर्मणः कथं सृष्टिकर्मकर्तृत्वमुच्यते ॥ ६ ॥
सकर्मा सेन्द्रियो लोके दृश्यते न निरिन्द्रियः ।
ब्रह्मणोऽतीन्द्रियत्वं च सर्वशास्त्रेषु घुष्यते ॥ ७ ॥
नश्यमानतयोत्पत्तिमत्वादाद्यस्य कर्मणः ।
न मुख्यमवकल्पेताप्यनादित्वोपवर्णनम् ॥ ८ ॥
ब्रह्म चेत्कर्मकुर्वीत येन केनापि हेतुना ।
तथा च संसृतिस्तस्य प्रसज्येत तु नात्मनः ॥ ९ ॥
तस्मादाद्यस्य पुण्यस्य पापस्य च दयानिधे ।
कर्मणो ब्रूहि मे स्पष्टमुपपत्तिं गुरूत्तम ॥ १० ॥
इत्युक्तो विधिना देवो दक्षिणामूर्तिरीश्वरः ।
विचित्रप्रश्नसन्तुष्ट इदं वचनमब्रवीत् ॥ ११ ॥
श्रीगुरु मूर्तिरुवाच –
ब्रह्मन्साधुरयं प्रश्नस्तव प्रश्नविदां वर ।
शृणुष्व सावधानेन चेतसाऽस्योत्तरं मम ॥ १२ ॥
प्रागुत्पत्तेरकर्मैकमकर्तृ च निरिन्द्रियम् ।
निर्विशेषं परं ब्रह्मैवासीन्नात्रास्ति संशयः ॥ १३ ॥
तथाऽपि तस्य चिच्छक्ति संयुतत्वेन हेतुना ।
प्रतिच्छायात्मिके शक्ती मायाविद्ये बभूवतुः ॥ १४ ॥
अद्वितीयमपि ब्रह्म तयोर्यत्प्रतिबिम्बितम् ।
तेन द्वैविध्यमासाद्य जीव ईश्वर इत्यपि ॥ १५ ॥
पुण्यपापादिकर्तृत्वं जगत्सृष्ट्यादिकर्तृताम् ।
अभजत्सेन्द्रियत्वं च सकर्मत्वं विशेषतः ॥ १६ ॥
यः स्वशक्त्या समुल्लास उद्भूत परमात्मनः ।
स्वबन्धजनकं सूक्ष्मं तदाद्यं कर्म कथ्यते ॥ १७ ॥
न तेन निर्विशेषत्वं हीयते तस्य किंचन ।
न च संसारबन्धश्च कश्चिद्ब्रह्मन्प्रसज्यते ॥ १८ ॥
पारमार्थिकसंसारी जीवः पुण्यादिकर्मवान् ।
प्रातिभासिकसंसारी त्वीशः सृष्ट्यादिकर्मवान् ॥ १९ ॥
असंसारि परं ब्रह्म जीवेशोभय कारणम् ।
ततोऽप्यतीतं नीरूपं अवाङ्मनसगोचरम् ॥ २० ॥
कर्मवन्तौ परित्यज्य जीवेशौ ये महाधियः ।
अकर्मवत्परं ब्रह्म प्रयान्त्यत्र समाधिभिः ॥ २१ ॥
ते विदेहविमुक्ता वा जीवन्मुक्ता नरोत्तमाः ।
कर्माकर्मोभयातीतास्तद्ब्रह्मारूपमाप्नुयुः ॥ २२ ॥
कर्मणा संसृतौ बद्धा मुच्यन्ते ते ह्यकर्मणा ।
बन्धमोक्षोभयातीताः कर्मिणो नाप्यकर्मिणः ॥ २३ ॥
जीवस्य कर्मणा बन्धस्तस्य मोक्षश्च कर्मणा ।
तस्माद्धेयं च कर्म स्यादुपादेयं च कर्म हि ॥ २४ ॥
त्यक्ते कर्मणि जीवत्वमात्मनो गच्छति स्वयम् ।
गृहीते कर्मणि क्षिप्रं ब्रह्मत्वं च प्रसिध्यति ॥ २५ ॥
आविद्यकमशुद्धं यत्कर्म दुःखाय तन्नृणाम् ।
विद्यासम्बन्धि शुद्धं यत् तत्सुखाय च कथ्यते ॥ २६ ॥
विद्याकर्मक्षुरात्तीक्ष्णात् छिनत्ति पुरुषोत्तमः ।
अविद्याकर्मपाशांश्चेत्स मुक्तो नात्र संशयः ॥ २७ ॥
सर्वस्य व्यवहारस्य विधे कर्मैव कारणम् ।
इति निश्चयसिद्ध्यै ते सूर्यगीतां वदाम्यहम् ॥ २८ ॥
कर्मसाक्षिणमादित्यं सहस्रकिरणं प्रभुम् ।
सप्ताश्वं सर्वधर्मज्ञमपृच्छदरुणः पुरा ॥ २९ ॥
अरुण उवाच –
भगवन् केन संसारे प्राणिनः संभ्रमन्त्यमी ।
केनैतेषां निवृत्तिश्च संसाराद्वद सद्गुरो ॥ ३० ॥
इति पृष्टः स सर्वज्ञः सहस्रकिरणोज्वलः ।
सूर्योऽब्रवीदिदं शिष्यमरुणं निजसारथिम् ॥ ३१ ॥
सूर्य उवाच –
अरुण त्वं भवस्यद्य मम प्रियतमः खलु ।
यतः पृच्छसि संसारभ्रमकारणमादरात् ॥ ३२ ॥
भ्रमन्ति केवलं सर्वे संसारे प्राणिनोऽनिशम् ।
न तु तत्कारणं केनाप्यहो किंचिद्विचार्यते ॥ ३३ ।
तज्जिज्ञासुतया त्वं तु श्लाघ्योऽसि विबुधोत्तमैः ।
शृणुश्वारुण वक्ष्यामि तव संसारकारणम् ॥ ३४ ॥
पुण्यपापात्मकं कर्म यत्सर्वप्राणिसंचितम् ।
अनादि सुखदुःखानां जनकं चाभिधीयते ॥ ३५ ॥
शास्त्रैः सर्वैश्च विहितं प्रतिषिद्धं च सादरम् ।
कामादिजनितं तत्त्वं विद्धि संसारकारणम् ॥ ३६ ॥
पश्वादीनामभावेऽपि तयोर्विधिनिषेधयोः ।
संसारस्य न लोपोऽस्ति पूर्वकर्मानुसारतः ॥ ३७ ॥
पूर्वं मनुष्यभूतानां पापकर्मावशादिह ।
श्वखरोष्ट्रादिजन्मानि निकृष्टानि भवन्त्यहो ॥ ३८ ॥
पापकर्मसु भोगेन प्रक्षीणेषु पुनश्च ते ।
प्राप्नुवन्ति मनुष्यत्वं पुनश्च श्वादिजन्मिताम् ॥ ३९ ॥
जननैर्मरणैरेवं पौनःपुन्येन संसृतौ ।
भ्रमन्त्यब्धितरंगस्थदारुवद्धीमतां वर ॥ ४० ॥
अरुण उवाच –
प्रक्षीणपापकर्माणः प्राप्तवन्तो मनुष्यताम् ।
पुनश्च श्वादिजन्मानि केन गच्छन्ति हेतुना ॥ ४१ ॥
न हि दुर्जन्महेतुत्वं पुण्यानां युक्तमीरितुम् ।
न च पुण्यवतां भूयः पापकर्मोपपद्यते ॥ ४२ ॥
पुण्यैर्विशुद्ध चित्तानां ज्ञान योगादि साधनैः ।
संसारमोक्षसंसिद्ध्या पापकर्माप्रसक्तितः ॥ ४३ ॥
जीवेषु पौनःपुन्यं चेदुत्तमाधमजन्मनाम् ।
नियमेनाभिधीयेत येन केनापि हेतुना ॥ ४४ ॥
मोक्षशास्त्रस्य वैयर्थ्यमापतत्येव सर्वथा ।
तस्मादपापिनां जन्म पुनश्चेति न युज्यते ॥ ४५ ॥
इत्युक्तो भगवानाह सर्वज्ञः करुणानिधिः ।
रविः संशयविच्छेदनिपुणोऽरुणमादरात् ॥ ४६ ॥
रविरुवाच –
प्रक्षीणेष्वपि भोगेन पापकर्मसु देहिनः ।
पुनश्च पापकर्माणि कुर्वन्तो यान्ति दुर्गतिम् ॥ ४७ ॥
तानि दुर्जन्म बीजानि कामात्पापानि देहिनाम् ।
पुनरप्युपपद्यन्ते पूर्वपुण्यवतामपि ॥ ४८ ॥
सकामानां च पुण्यानां भोगहेतुतया नृणाम् ।
न चित्त शुद्धि हेतुत्वं क्वचिद्भवितुमर्हति ॥ ४९ ॥
कुतश्चाशुद्ध चित्तानां ज्ञानयोगादिसंभवः ।
ज्ञानयोगादिहीनानां कुतो मोक्षश्च संसृतेः ॥ ५० ॥
कामेन हेतुना सत्स्वप्युत्तमाधमजन्मसु ।
मोक्ष शास्त्रस्य सार्थक्यं नैष्काम्योदयहेतुकम् ॥ ५१ ॥
सुखदुःखोपभोगेन यदा निर्वेदमागतः ।
निष्कामत्वमवाप्नोति स्वविवेकपुरस्सरम् ॥ ५२ ॥
ततःप्रभृति कैश्चित्स्याज्जन्मभिर्ज्ञानयोगवान् ।
श्रवणादिप्रयत्नैर्हि मुक्तिः स्वात्मन्यवस्थितिः ॥ ५३ ॥
कर्माध्यक्षं परात्मानं सर्वकर्मैकसाक्षिणम् ।
सर्वकर्मविदूरन्तं कर्मवान्कथमाप्नुयात् ॥ ५४ ॥
पुण्येष्वपि च पापेषु पौर्विकेषु तु भोगतः ।
क्षपितेषु परात्मा स स्वयमाविर्भविष्यति ॥ ५५ ॥
कर्तृभिर्भुज्यते जीवैः सर्वकर्मफलं न तु ।
साक्षिणा निर्विकल्पेन निर्लेपेन परात्मना ॥ ५६ ॥
जीवानां तदनन्यत्वात्भोगस्यावसरः कुतः ।
इति केचन शंकन्ते वेदान्तापातदर्शिनः ॥ ५७ ॥
परमार्थदशायां हि तदनन्यत्वमिष्यते ।
व्यवहार दशायां तु नानुपपत्तिश्च काचन ॥ ५८ ॥
परमार्थदशारूढे जीवन्मुक्तेऽपि कर्मणाम् ।
भोगोऽङ्गीक्रियते सम्यक् दृश्यते च तथा सति ॥ ५९ ॥
अज्ञानां व्यवहारैकनिष्ठानां तदनन्यता ।
अभोक्तृता च केनैव वक्तुं शक्या मनीषिणा ॥ ६० ॥
ज्ञानिनः कर्मकर्तृत्वं दृश्यमानमपि स्फुटम् ।
उत्पादयेत्फलं नेति मन्यन्ते स्वप्नकर्मवत् ॥ ६१ ॥
तदयुक्तं न हि स्वप्ने पापकर्तुः स्वतन्त्रता ।
जाग्रति प्राणिनः कर्म स्वातन्त्र्यं वर्तते खलु ॥ ६२ ॥
तिरश्चां जागरावस्था यथा भोगैक कारणम् ।
तथा स्वप्नदशा नॄणां फलभोगैककारणम् ॥ ६३ ॥
नृणां च जागरावस्था बालानां स्यात्तथा न तु ।
यूनां वृद्धतमानां वा किमुत स्वात्मवेदिनाम् ॥ ६४ ॥
भाविभोगार्थकं कर्म जाग्रत्येव नृणां भवेत् ।
फलं तु कर्मणः स्वप्ने जाग्रत्यपि च युज्यते ॥ ६५ ॥
कर्मण्यध्यस्य भोगं ये भोगेऽध्यस्याथ कर्म च ।
कर्म तद्भोगयोर्भेदमज्ञात्वाहुर्यथेप्सितम् ॥ ६६ ॥
तेषां मन्दधियां ज्ञानवादिनां पापकारिणाम् ।
कथं कृतार्थतां ब्रूयामध्यासक्षयसंभवाम् ॥ ६७ ॥
कर्मण्यकर्मधीर्येषामकर्मणि च कर्म धीः ।
ते चाध्यासवशा मन्दा ज्ञानिनः स्वैरचारिणः ॥ ६८ ॥
वर्णाश्रमादिधर्माणामद्वैतं कर्मणैव ये ।
अनुतिष्ठन्ति ते मूढाः कर्माकर्मोभयच्युताः ॥ ६९ ॥
स्वानुभूतिं वरिष्ठां तां सर्वानुष्ठानवर्जिताम् ।
सर्वानुष्ठानवन्तोऽपि सिद्धामाहुर्बतात्मनाम् ॥ ७० ॥
अभेदध्यानसाध्यां तां स्वानुभूतिं महत्तमाम् ।
विचारसाध्यां मन्यन्ते ते महापापकर्मिणः ॥ ७१ ॥
निदिध्यासनमप्यात्मा भेदाभिध्यानलक्षणम् ।
उपेक्षन्ते वृथा द्वैत ज्ञानवादैकमोहतः ॥ ७२ ॥
आश्रित्यैव विचारं ये वाक्यार्थमननात्मकम् ।
मन्यन्ते कृतकृत्यत्वमात्मनां ते हि मोहिताः ॥ ७३ ॥
आद्यज्ञानोदये काम्यकर्मत्याग उदीर्यते ।
द्वितीयसम्यग्ज्ञाने तु नैमित्तिकनिराकृतिः ॥ ७४ ॥
तृतीयपूर्णज्ञाने च नित्यकर्मनिराकृतिः ।
चतुर्थाद्वैतबोधे तु सोऽति वर्णाश्रमी भवेत् ॥ ७५ ॥
नित्यनैमित्तिकोपेतज्ञानान्मुक्तिः क्रमाद्भवेत् ।
सम्यग्ज्ञानात्तु सा जीवन्मुक्तिर्नित्यैकसंयुतात् ॥ ७६ ॥
पूर्णज्ञानाद्विदेहाख्या शाश्वती मुक्तिरिष्यते ।
यथा नैष्कर्म्यसंसिद्धिर्जीवन्मुक्ते निरंकुशा ॥ ७७ ॥
अत्रैवं सति नैष्कर्म्यं ज्ञानकर्मसमुच्चयात् ।
सिध्येत्क्रमेण सद्यो वा नान्यथा कल्पकोटिभिः ॥ ७८ ॥
यावद्विदेहमुक्तिः सा न सिध्यति शरीरिणः ।
तावत्समुच्चयः सिद्धो ज्ञानोपासनकर्मणाम् ॥ ७९ ॥
तस्माद् ज्ञात्वा परात्मानं ध्याननिष्ठो महामतिः ।
भूयान्निजाश्रमाचारनिरतः श्रेयसे सदा ॥ ८० ॥
ज्ञानोपास्ती कर्मसापेक्षके ते
कर्मोपास्ती ज्ञानसापेक्षके च ।
कर्मज्ञाने चान्यसापेक्षके तन्-
मुक्त्यै प्रोक्तं साहचर्यं त्रयाणाम् ॥ ८१ ॥
ज्ञानोपास्ती स्वीयकर्मस्वपास्याप्येकं
मुक्तिर्नैव कस्यापि सिध्येत् ।
तस्माद्धीमानाश्रयेदप्रमत्त स्त्री-
ण्युक्तानि श्रद्धयाऽऽदेहपातात् ॥ ८२ ॥
॥ इति सूर्यगीतायां प्रथमोऽध्यायः ॥
॥ अथ द्वितीयोऽध्यायः ॥
सूर्य उवाच –
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि कर्मणां पंचभूमिकाः ।
उत्तरोत्तर मुत्कर्षाद्विद्धि सोपान पंक्तिवत् ॥ १ ॥
प्रथामा तांत्रिकी प्रोक्ता परा पौराणिकी मता ।
स्मार्ता तृतीया तुर्या तु श्रौता संकीर्तिता बुधैः ॥ २ ॥
पंचमी त्वौपनिषदा विबुधोत्तमसंमता ।
यस्याः परं न किंचित्स्याद्वाच्यं ज्ञेयं च सत्तम ॥ ३ ॥
स्वेच्छं कर्माणि कुर्वन्यः प्रमाणाश्रयणं विना ।
तन्त्रोक्तानि करोत्येष कर्मी प्राथमिको मतः ॥ ४ ॥
तानि तन्त्रोक्तकर्माणि त्यक्त्वा पौराणिकानि यः ।
करोति तन्त्रसम्बन्धीन्ययं कर्मी द्वितीयकः ॥ ५ ॥
त्यक्त्वा तान्यपि यः स्मार्तान्यनुतिष्ठति सर्वदा ।
श्रुतिसम्बन्धवन्त्येष तृतीयः कर्म्युदीर्यते ॥ ६ ॥
यश्च तान्यपि सन्त्यज्य श्रौतान्येवाचरत्ययम् ।
कर्मी धर्मार्थकामानां स्थानं तुर्योऽभिधीयते ॥ ७ ॥
श्रौतान्यपि च यस्त्यक्त्वा सदौपनिषदानि वै ।
करोति श्रद्धया कर्माण्ययं मोक्षी तु पंचमः ॥ ८ ॥
यान्यौपनिषदानां स्युरविरोधीनि कर्मणाम् ।
श्रौतादीनि सुसंग्राह्यान्यमलानि मुमुक्षुभिः ॥ ९ ॥
कर्माण्युपनिषत्सु स्युर्ब्रह्मैकार्थासु वै कथम् ।
इति शंक्यन्नकुर्वन् हि विधिरस्ति जिजीविषेत् ॥ १० ॥
ईशावास्यादिवेदान्तप्रोक्तान्यामरणादपि ।
कुर्वन्नेव विमुच्येत ब्रह्मवित्प्रवरोऽस्तु वा ॥ ११ ॥
यतयस्त्यक्तगार्हस्थ्या अपि स्वोचितकर्मभिः ।
आश्रमं पालयन्तः स्वं कैवल्यं प्राप्नुयुः परम् ॥ १२ ॥
कर्म प्रजाधनानां यस्त्यागः समभिधीयते ।
कामैकविषयत्वेन स यतेर्न विरुध्यते ॥ १३ ॥
संन्यासिनो हि कर्माणि नित्यानि विमलानि च ।
श्रेयोर्थानि विधीयन्ते परिव्राजेब्जजन्मना ॥ १४ ॥
अपेतकाम्यकर्माणो यतयोऽन्येऽपि वा जनाः ।
सद्यः क्रमेण वा मुक्तिमाप्नुयुर्नात्र संशयः ॥ १५ ॥
पंचमीं भूमिमारूढः ज्ञानोपासनकर्मभिः ।
शोकमोहादिनिर्मुक्तः सर्वदैव विराजते ॥ १६ ॥
न ज्ञानेन विनोपास्तिर्नोपास्त्या न विनेतरत् ।
कर्मापि तेन हेतुत्वं पूर्वपूर्वस्य कथ्यते ॥ १७ ॥
यद्वा यावन्न हि ज्ञानं तावन्नोपासनं मतम् ।
यावन्नोपासनं तावन्न ज्ञानं च कथंचन ॥ १८ ॥
ज्ञानं यावन्न कर्मापि न तावन्मुख्यमीर्यते ।
यावन्न कर्म तावच्च न ज्ञानं साधुसंमतम् ॥ १९ ॥
यावन्नोपासनं तावन्न कर्मापि प्रशस्यते ।
यावन्न कर्मोपास्तिश्च न तावत्सात्त्विकी मता ॥ २० ॥
ज्ञानोपासनकर्माणि सापेक्षाणि परस्परम् ।
प्रयच्छन्ति परां मुक्तिं नान्यथेत्युक्तमेव ते ॥ २१ ॥
एतेषु साधनेष्वेकं त्रिषु यत्किंचिदत्र यः ।
त्यजेदसद्गुरूक्त्या स नाश्नुवीत परामृतम् ॥ २२ ॥
नानाविधानि ज्ञानानि नाना रूपा उपास्तयः ।
नानाविधानि कर्माणि श्रुत्यन्तादिषु संविदुः ॥ २३ ॥
सम्बन्धस्तु त्रयाणां स्यादुचितः शिष्टवर्त्मना ।
निपुणैश्च सुविज्ञेयमनुबन्धचतुष्टयम् ॥ २४ ॥
अनुबन्धाविरोधेन त्रयाणां चेत्समुच्चयः ।
कृतः स सद्यः प्राप्नोति तृप्तिं मानवपुंगवः ॥ २५ ॥
अनुबन्धपरिज्ञानं विना मुक्त्यै प्रयत्नवान् ।
न मुक्तिं विन्दते कोऽपि साधकादिविपर्ययात् ॥ २६ ॥
भोगाधिकारी मोक्षं चेत्फलमिच्छेत्कदाचन ।
अनुबन्धस्य विज्ञानं कथं नु स्यात्समंजसम् ॥ २७ ॥
अधिकारानुगुण्येन सम्बन्धः परिकीर्तितः ।
तत्सम्बन्धानुगुण्येन विषयश्च प्रकीर्तितः ॥ २८ ॥
विषयानुगुणं प्रोक्तं प्रयोजनमतो बुधैः ।
अनुबन्धाः सुविज्ञेया ज्ञानोपासनकर्मसु ॥ २९ ॥
वर्णाश्रमाणां सर्वेषां अनुष्ठेयेषु कर्मसु ।
अविद्वान् संशयात्मा चेदनुवर्तेत पूर्वकान् ॥ ३० ॥
विद्वान् चेत्संशयात्माभूच्छास्त्रे स्वमतिनिश्चितम् ।
आचरेत्तु न शिष्टस्यप्यबुधस्य पितुर्मतम् ॥ ३१ ॥
स्वकूटस्थबुधाचारः साधुसंविदितो यदि ।
विद्वानपि त्यजेत् स्वीयं तद्विरुद्धमसंमतम् ॥ ३२ ॥
पूर्वाचारानुसरणं कर्ममात्रे नियम्यते ।
ज्ञानोपास्त्योस्त्वबाह्यत्वादन्यथाऽपि च युज्यते ॥ ३३ ॥
पूर्वकेष्वपि सांख्येषु स्वस्य युज्येत योगिता ।
अन्यथाऽपि च नैतेन प्रत्यवायः कियानपि ॥ ३४ ॥
यदि पूर्वविरोधेन कुर्यात्कर्माणि मानवः ।
स मूर्खो भवति क्षिप्रं प्रत्यवायी न संशयः ॥ ३५ ॥
नैमित्तिकानामकृतौ काम्यानां च न कश्चन ।
प्रत्यवायोऽत्र वाऽमुत्र लोके भवितुमर्हति॥ ३६ ॥
नित्यानां त्वकृतावत्रामुत्र वा प्रत्यवायभाक् ।
भवेदवश्यकार्यत्वादाश्रमच्युतिहेतवे ॥ ३७ ॥
न स्यादकरणं हेतुरभावात्मतया ततः ।
नित्याकरणहेतुः प्राक्कर्म चेत्प्रत्यवायकृत् ॥ ३८ ॥
अकृतौ प्रत्यवायस्य श्रवणं व्यर्थमेव तत् ।
पूर्वकर्मफलादन्यफलस्यानवधारणात् ॥ ३९ ॥
अतो नाभावता युक्ता नित्यकर्माकृतेर्यथा ।
निषिद्धाचरणं भावस्तथैवाकरणं मतम् ॥ ४० ॥
विहिताकरणस्यापि भावात्मत्वोररीकृतेः ।
आस्तिकत्वमिह प्राहुरन्यथा नास्तिकत्वतः ॥ ४१ ॥
पूर्वकर्मफलस्यापि नित्याकरणकर्मणः ।
पापस्य दुःखहेतुत्वं पृथगेवाववधार्यते ॥ ४२ ॥
अज्ञानाद्विहिते लुप्ते ज्ञानाद्वा कर्मणि स्वके ।
प्रायश्चित्ती भवेन्मर्त्यो लभेद्दुर्जन्म वा पुनः ॥ ४३ ॥
बुद्धिपूर्वं त्यजन्नित्यमनुतापविवर्जितः ।
अनाश्रमी नरो घोरं रौरवं नरकं व्रजेत् ॥ ४४ ॥
जीवन्मुक्तस्य नित्येषु यदि लुप्तानि कानिचित् ।
न तेन प्रत्यवायोऽस्ति कैश्चित्स्वाश्रमसिद्धितः ॥ ४५ ॥
प्रायश्चित्तनिवर्त्यानि निषिद्धाचरणानि च ।
प्रायश्चित्तमकुर्वन्तमपि लिम्पन्ति नैव तम् ॥ ४६ ॥
कर्म शुद्धमशुद्धं च द्विविधं प्रोच्यते श्रुतौ ।
तत्राशुद्धेन बन्धः स्यान्मोक्षः शुद्धेन देहिनाम् ॥ ४७ ॥
अशुद्धं च तथा प्रोक्तं पुण्यं पापमिति द्विधा ।
परस्परं न बाधोऽस्ति तयोरत्राविरोधतः ॥ ४८ ॥
सुखदुःखे समस्तस्य जन्तोर्याभ्यां प्रसिध्यतः ।
तयोर्न वशमागच्छेच्छुद्ध मात्रेण संस्थितः ॥ ४९ ॥
शुद्धं नित्यमनन्तं यत्सत्यं कर्म निगद्यते ।
नित्यशुद्धविमुक्तात्मसाक्षात्कारार्थकं विदुः ॥ ५० ॥
विशुद्धैः कर्मभिः शुद्धानीन्द्रियाणि भवन्त्यलम् ।
इन्द्रियेषु विशुद्धेषु मनः शुद्धं स्वतो भवेत् ॥ ५१ ॥
शुद्धे मनसि जीवोऽपि विशुद्धो ब्रह्मणैकताम् ।
उपेत्य केवलानन्दं निष्कलं परमश्नुते ॥ ५२ ॥
बाह्यमाभ्यन्तरं चेति शुद्धं कर्म द्विधोच्यते ।
बाह्यं स्नानादि नित्यं स्याद्ध्यानाद्याभ्यन्तरं परम् ॥ ५३ ॥
अतः शुद्धेरशुद्धानां नाशो भवितुमर्हति ।
न शुद्धव्यतिरेकेण प्रयत्नान्तरमिष्यते ॥ ५४ ॥
विशुद्धकर्मनिष्ठास्ते यतयोऽन्येऽपि वा जनाः ।
अत्रैव परिमुच्यन्ते स्वातन्त्र्येण परामृतात् ॥ ५५ ॥
आरूढः पंचमीं भूमिं शुद्धेनैवावतिष्ठते ।
अतोऽत्र मतिमान्नित्यं पंचम्यभ्यासमाचरेत् ॥ ५६ ॥
इन्द्रियाणि विशुद्धान्यप्यशुद्धानां विवर्जनात् ।
शुद्धानामप्यनुष्ठानाद्धीमांस्तानि न विश्वसेत् ॥ ५७ ॥
अशुद्धेषु प्रवर्तेरन् पूर्ववासनया स्वतः ।
तेभ्यो नियम्य शुद्धेषु नित्यं तानि प्रवर्तयेत् ॥ ५८ ॥
इन्द्रियाणां च मनसः प्रसादं शुद्धकर्मभिः ।
उपलभ्यापि दुर्बुद्धिरशुद्धेह प्रवर्तते ॥ ५९ ॥
प्रसन्नमनसः स्वास्थ्यात्सुखं किंचित्प्रजायते ।
तावन्मात्रेण तृप्तस्तु क्रमेणाधः पतेन्नरः ॥ ६० ॥
तृप्तिरल्पसुखप्राप्तौ महानर्थैक कारणम् ।
अतस्तृप्तिमनाप्यैव शुद्धं नित्यं समाचरेत् ॥ ६१ ॥
यथा विषयभोगेषु विना तृप्तिं पुनः पुनः ।
प्रवर्तते तथा नित्यं यः शुद्धेषु स बुद्धिमान् ॥ ६२ ॥
शुद्धं शुद्धेन वर्धेत शुद्धः शुद्धं ततो व्रजेत् ।
अशुद्धमप्यशुद्धेनाशुद्धोऽशुद्धं तथा नरः ॥ ६३ ॥
यदेन्द्रियमनःप्राणाः शान्ताः सुप्ताविवाभवन् ।
शुद्धाशुद्धोभयातीतस्तदा तृप्तिं परां व्रजेत् ॥ ६४ ॥
यावन्नेन्द्रियसंशान्तिर्यावन्न मनसोऽप्ययः ।
यावन्न प्राणशान्तिश्च तावच्छुद्धं समाचरेत् ॥ ६५ ॥
परस्परोपयोगित्वाद्बाह्याभ्यन्तरशुद्धयोः ।
वियोगो नैव कार्योऽत्र बुधैरादेहमोचनात् ॥ ६६ ॥
यः शुद्धपक्षो हंसः स ऊर्ध्वं गच्छति चाम्बरे ।
अशुद्ध पक्षः श्येनस्तु व्योमगोऽपि पतत्यधः ॥ ६७ ॥
छिन्नैकपक्षो हंसोऽपि नोर्ध्वं गन्तुमितोऽर्हति ।
अतः शुद्धद्वयं मुख्यं साधनं मुक्तये विदुः ॥ ६८ ॥
यद्यप्याभ्यन्तरं शुद्धं बाह्यशुद्धनिवर्तकम् ।
भवत्येतेन साम्यं न तयोरिति च केचन ॥ ६९ ॥
तथाऽपि बाह्यविलयसमकाललयात्परम् ।
आभ्यन्तरं समं तेन बाह्येन स्यात्स्वकर्मणा ॥ ७० ॥
आभ्यन्तरं च तच्छुद्धं कर्म द्विविधमुच्यते ।
सम्प्रज्ञातसमाध्याख्यमसम्प्रज्ञातनाम च ॥ ७१ ॥
जीवन्मुक्तेः पुरावृत्तमाद्यं कर्म स्व मानसम् ।
पुरा विदेहमुक्तेस्तु वृतमन्यत्स्वमानसम् ॥ ७२ ॥
मानसत्वात्समाधेश्च कर्मत्वोक्तिर्न दूष्यते ।
अनन्यविषयत्वाच्च तत्फलं नैव नश्वरम् ॥ ७३ ॥
अन्तःशुद्धिर्बहिःशुद्धिं यथा नॄणामपेक्षते ।
बहिःशुद्धिस्तथैवान्तःशुद्धिं च नियमेन हि ॥ ७४ ॥
यस्य कर्मसु शुद्धेष्वप्यौदासीन्यं विजायते ।
तस्यैव जन्मसांकर्यमनुमेयं विपश्चिता ॥ ७५ ॥
विरोधो जायते यस्य ज्ञानकर्मसमुच्चये ।
तस्यैव जन्मसांकर्यमनुमेयं विपश्चिता ॥ ७६ ॥
यः श्रौतं कर्म हित्वान्यत्तान्त्रिकं समुपाश्रयेत् ।
तस्यैव जन्मसांकर्यमनुमेयं विपश्चिता ॥ ७७ ॥
यश्चान्तरं च तत्कर्म मन्यते मन्दगोचरम् ।
तस्यैव जन्मसांकर्यमनुमेयं विपश्चिता ॥ ७८ ॥
अशुद्धकर्मनिष्ठः सन् शुद्धं निन्दति यः सदा ।
तस्यैव जन्मसांकर्यमनुमेयं विपश्चिता ॥ ७९ ॥
शुद्धं पश्यति यः शान्तमक्षिरोगीव भास्करम् ।
तस्यैव जन्मसांकर्यमनुमेयं विपश्चिता ॥ ८० ॥
विशुद्धवंशप्रभवं महामतिं
विशुद्धबाह्यान्तरकर्मभास्वरम् ।
विशुद्धवेदान्तरहस्यवेदिनं
विद्वेष्टि यः संकर एव नेतरः ॥ ८१ ॥
अशुद्धवंशप्रभवं सुदुर्मतिं
स्वशुद्धकर्मद्वयनष्टतेजसम् ।
अशुद्धतन्त्रार्थविदं नराधमं
यः श्लाघते संकर एव नेतरः ॥ ८२ ॥
इति सूर्यगीतायां द्वितीयोऽध्यायः ॥
॥ अथ तृतीयोऽध्यायः ॥
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि ममान्तर्यामिणं शिवम् ।
यः सर्वकर्मणां साक्षी निर्लेपः प्रभुरीश्वरः ॥ १ ॥
त्रिनेत्रं नीलकण्ठं यं साम्बं मृत्युंजयं हरम् ।
ध्यात्वा संसृतिमोक्षः स्यात्तं नमामि महेश्वरम् ॥ २ ॥
सर्वेषां कर्मणामेकः फलदाता य उच्यते ।
स एव मृड ईशानः सर्वज्ञः सर्वशक्तिमान् ॥ ३ ॥
यस्य स्मरणमात्रेण निवर्तन्तेऽखिलापदः ।
सम्पदश्चेह लभ्यन्ते सोऽन्तर्यामी शिवो हरः ॥ ४ ॥
येनैव सृष्टमखिलं जगदेतच्चराचरम् ।
यस्मिंस्तिष्ठति नश्यत्यप्येष एको महेश्वरः ॥ ५ ॥
यं नमन्ति सुराः सर्वे स्वस्वाभीष्टप्रसिद्धये ।
स्वातन्त्र्यं यस्य सर्वत्र सोऽन्तर्यामि महेश्वरः ॥ ६ ॥
उमार्धविग्रहः शम्भुः त्रिनेत्रः शशिशेखरः ।
गंगाधरो महादेवः सोऽन्तर्यामि दयानिधिः ॥ ७ ॥
श्रुतिस्मृतिपुराणेषु यस्यैवाधिक्यमिष्यते ।
यस्याधिक्यस्मृतेर्मुक्तिः सोऽन्तर्यामी पुरातनः ॥ ८ ॥
यन्नामजप मात्रेण पुरुषः पूज्यते सुरैः ।
यमाहुः सर्वदेवेशं सोऽन्तर्यामी गुरूत्तमः ॥ ९ ॥
यदाख्यामृतपानेन संतृप्ता मुनयोऽखिलाः ।
न वाञ्छन्ति महाभोगान् सोऽन्तर्यामी जगत्पतिः ॥ १० ॥
अरुण उवाच –
सद्गुरो भास्कर श्रीमन् सर्वतत्त्वार्थकोविद ।
श्रुतिस्मृतिपुराणेषु ह्यन्तर्याम्यन्यथा श्रुतः ॥ ११ ॥
सत्यं ज्ञानमनन्तं यत्प्रसिद्धं ब्रह्म निष्कलम् ।
निर्गुणं निष्क्रियं शान्तं केवलं सर्वगं परम् ॥ १२ ॥
तदेव सर्वान्तर्यामी श्रुतं सर्वान्तरत्वतः ।
वरेण्यं सवितुस्ते च गायत्र्यां तद्धि कथ्यते ॥ १३ ॥
अशरीरस्य तस्यैव ह्यादिमध्यान्तवर्जनात् ।
आकाशवद्विभूतेन सर्वान्तर्यामितोचिता ॥ १४ ॥
शिवस्य सशरीरस्य साम्बस्य सगुणस्य तु ।
अविभुत्वेन सा नैव युज्यते भास्कर प्रभो ॥ १५ ॥
सगुणैकप्रधानैश्च विशिष्टाद्वैत वादिभिः ।
कैश्चिद्ब्रह्महरीशानामन्तर्यामित्वमुच्यते ॥ १६ ॥
सर्वज्ञत्वादिधर्माणां समत्वं च त्रिमूर्तिषु ।
मत्वैवोपासते विप्राः ते गायत्रीपरायणाः ॥ १७ ॥
केचिद् द्रुहिण एव स्यादन्तर्यामी च वाक्पतिः ।
नान्यौ हरिहरौ कर्मप्रसिद्धेरिति वै विदुः ॥ १८ ॥
केचित्तु विष्णुरेव स्यादन्तर्यामी रमापतिः ।
न विधीशौ परोपास्तिप्रसिद्धेरिति वै विदुः ॥ १९ ॥
केचिच्च शिव एकः स्यादन्तर्यामी ह्युमापतिः ।
नान्यौ ब्रह्महरी ज्ञानप्रसिद्धेरिति संविदुः ॥ २० ॥
त्वदुक्तरीत्या त्वाधिक्यं ज्ञानोपासनकर्मसु ।
कर्मणोऽवगतं तेन विधेरेव प्रसिध्यति ॥ २१ ॥
एष पक्षः समीचीनस्तव नैव भविष्यति ।
तस्मादनिश्चितार्थं मां कुरुष्वासंशयं प्रभो ॥ २२ ॥
सूर्य उवाच –
सम्यक् पृष्टं त्वया धीमन्नरुण शृणु सादरम् ।
वक्ष्यामि निश्चितार्थं ते श्रुतिस्मृत्यादिभिः स्फुटम् ॥ २३ ॥
अन्तर्यामी द्विधा प्रोक्तः सगुणो निर्गुणोऽपि च ।
चरस्य केवलं त्वाद्यश्चरस्यान्योऽचरस्य च ॥ २४ ॥
अहं हि चर एवास्मि मदन्तर्यामिणावुभौ ।
गायत्र्यां चावगन्तव्यौ देवौ सगुणनिर्गुणौ ॥ २५ ॥
निर्गुणश्चावगन्तव्यः सगुण द्वारतोऽखिलैः ।
अतोऽब्रुवं शिवं साक्षान्मदन्तर्यामिणं तव ॥ २६ ॥
कारणत्वं यथा सिद्धं ब्रह्मणः परमात्मनः ।
यथा शिवस्य साम्बस्य कार्यत्वं च सतां मतम् ॥ २७ ॥
तथा शिवस्य हेतुत्वं विष्णोः कार्यत्वमप्यथ ।
विष्णोश्च हेतुतां तद्वद्विधेर्विद्धि च कार्यताम् ॥ २८ ॥
ब्रह्मा विष्णुः शिवो ब्रह्म ह्युत्तरोत्तरहेतवः ।
इति जानन्ति विद्वांसो नेतरे मायया वृताः ॥ २९ ॥
विशिष्टाद्वैतिनो वाऽन्ये सगुणैकाभिमानिनः ।
अशरीरानभिज्ञत्वान्मायापरवशा ध्रुवम् ॥ ३० ॥
सर्वज्ञत्वादिधर्माणां कथं साम्यं त्रिमूर्तिषु ।
त्रयाणां च गुणानां हि वैषम्यं सर्वसंमतम् ॥ ३१ ॥
गुणत्रयवशात्तेषां वैषम्यं विद्धि सुस्थितम् ।
ब्रह्मा हि राजसः प्रोक्तो विष्णुस्तामस उच्यते ॥ ३२ ॥
रुद्रः स सात्त्विकः प्रोक्तः मूर्तिवर्णैश्च तादृशाः ।
चित्स्वरूपानुभूत्या च तारतम्यं निगद्यते ॥ ३३ ॥
निर्विशेषपरब्रह्मानन्यत्वेन तु ते समाः ।
तथाऽपि शिव शब्दस्य परब्रह्मात्मकत्वतः ॥ ३४ ॥
साक्षिणा निर्विकारेण चिन्मात्रेण महात्मना ।
सदाशिवेन नित्येन केवलेन समो न हि ॥ ३५ ॥
साम्बस्य चन्द्रचूडस्य नीलकण्ठस्य शूलिनः ।
उत्कर्षोऽस्ति स्वतःसिद्धः किं मया प्रतिपाद्यते ॥ ३६ ॥
आदौ मां जनयामास ब्रह्मा साक्षाच्चतुर्मुखः ।
यथा तथा विरिंचिं तं श्रीमान्नारायणो हरिः ॥ ३७ ॥
यतोऽभवन्महाविष्णुर्ममारुण पितामहः ।
ततो मे सुप्रसिद्धभूत्सूर्यनारायणा भिधा ॥ ३८ ॥
नैतेन सकलेशस्य प्रपितामहतावशात् ।
सर्वोत्कृष्टत्वसंसिद्ध्या लुप्यते ह्यान्तरात्मना ॥ ३९
अथ वा योगवृत्या स्याच्छिवो नारायणाभिधः ।
तद्दृष्टिर्मयि कर्तव्योपासकैरिति सन्मतम् ॥ ४० ॥
कर्मोपासनबोधेषु ब्रह्मविष्णुशिवाः क्रमात् ।
प्रसिद्धा इति संत्यज्य धियं शृणु वचो मम ॥ ४१ ॥
त्रिषु त्रयः प्रसिद्धाः स्युस्तारतम्येन चारुण ।
काम्यकर्मप्रधानोऽस्ति स्वयंभूश्चतुराननः ॥ ४२ ॥
नैमित्तिकप्रधानस्तु विष्णुः कमललोचनः ।
नित्यकर्मप्रधानः स शिवः साक्षात् त्रिलोचनः ॥ ४३ ॥
मूर्त्युपास्तौ विधिमुख्यस्त्वंशोपास्तौ हरिर्मतः ।
निरंशोपासने मुख्यो नीलकण्ठो हरो मतः ॥ ४४ ॥
ज्ञाने श्रवणजे ब्रह्मा विज्ञाने मननोदिते ।
विष्णुः स सम्यग्ज्ञाने तु निदिध्यासनजे शिवः ॥ ४५ ॥
अत्रैवं सति कस्याभूदाधिक्यमरुणाधुना ।
त्वमेव सम्यगालोच्य विनिश्चिनु महामते ॥ ४६ ॥
पुरा कश्चिन्महाधीरः शिवभक्ताग्रणीर्द्विजः ।
शिवाख्याजपसंसक्तश्चचार भुवि निस्पृहः ॥ ४७ ॥
स्वाश्रमाचारनिरतो भस्मरुद्राक्षभूषणः ।
सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञः कामक्रोधादिवर्जितः ॥ ४८ ॥
शमादिषट्कसम्पन्नः शिवभक्तजनादरः ।
शिवस्य वैभवं स्मृत्वा श्रुतिस्मृतिपुराणगम् ॥ ४९ ॥
सर्वेश्वरस्य साम्बस्य त्रिनेत्रस्य दयानिधेः ।
सदाशिवस्य माहात्म्यं स्वत एवेदमब्रवीत् ॥ ५० ॥
पश्वादिभ्यो वरिष्ठाः क्षितिगतमनुजास्तेभ्य एवेन्द्रमुख्यः
देवास्तेभ्यो विधाता हरिरपि च ततः शङ्करो यस्त्रिनेत्रः ।
नान्योऽस्माच्छंकरात्तु श्रुतिषु निगदितो वा वरिष्ठः समो वा
सर्वान्विष्ण्वादिकांस्तं न हि वयमधुना नूनमेवाश्रयामः ॥ ५१ ॥
मूलाधारे गणेशस्तदुपरि तु विधिर्विष्णुरस्मात्ततोऽयं
रुद्रस्थाने चतुर्थे श्रुतिरपि च तथा प्राह शान्तं चतुर्थम् ।
अस्मादन्यः शिवोऽस्ति त्रिपुरहर इतो वा सदाद्यः शिवोऽस्ति
स्वस्थोऽयं द्वादशान्तप्रबलनटनकृच्चापि साक्षात्सभेशः ॥ ५२ ॥
रौद्री शक्तिस्तथा स्यादयमपि च हरिः शाक्त एवं विरिंचो
मन्तव्यो वैष्णवोऽमी सनकमुखमहाब्राह्मणा ब्राह्मणाश्च ।
तस्मादेवं विभक्ते न हि भवति हरेरंशितांशांशिभावे
साक्षादप्यत्र नित्यं परमशिवमहं चांशिनं तं नमामि ॥ ५३ ॥
शम्भोरन्यन्न पश्याम्यहमिह परमे व्योम्नि सोमाच्छ्रुतौ वा
यस्यैवैतेन भासा जगदखिलमिदं भासते चैत्यरूपम् ।
यच्छीर्षाङ्घ्री दिदृक्षु द्रुहिणमुररिपु सर्वशक्त्याप्य दृष्ट्वा
खेदन्तौ जग्मतुस्तं परमशिवममुं त्वां विना कं नु वन्दे ॥ ५४ ॥
यं विष्णुर्नावपश्यत्यखिलजनभयध्वंसकं काशिकायां
लिंगं चोपास्त इत्यप्यधिकभसितरुद्राक्षसंभूषितः सन् ।
जाबालेये बृहत्यप्यथ हरिजनिता श्रूयते सोम एकः
पायाच्छ्रुत्यन्तसिद्धो जनिमृतिभयभृत्संसृतेस्तारको माम् ॥ ५५ ॥
मध्ये को वाऽधिकः स्याद्द्रुहिण हरिहराणामिति प्रश्नपूर्वं
ब्रह्मादौ पैप्पलादं खलु वदति महान्रुद्र एवाधिकः स्यात् ।
इत्युक्त्वा शारभाख्ये श्रुतिशिरसि नमश्चास्तु रुद्राय तस्मै
स्तुत्वैवं ध्येयमाह त्रिपुरहरमुमाकांतमेकं भजेऽहम् ॥ ५६ ॥
ध्याता रुद्रो रमेशो हरिरपि तु तथा ध्यानमेकः शिवस्तु
ध्येयोऽथर्वश्रुतेः सा निखिलरसवती या समाप्ता शिखाभूत् ।
ध्येयश्चिन्मात्र एकः परमशिव इतो वा चिदंशत्व-
मस्य ध्यातुः स्यान्न त्वमुष्य प्रकृतिभवमनोवृत्तिरूपस्य विष्णोः ॥ ५७ ॥
एको रुद्रो महेशः शिव इति च महादेव एवैष सर्व
व्यापी यः श्रूयतेऽस्मिंच्छ्रुतिशिरसि तथाथर्वशीर्षाभिधे च ।
देवाः सर्वे यदन्तस्थितिजुष इह ते विष्णुपूर्वास्ततोन्यः
को वाऽस्याद्व्यापकोऽस्मान्निरतिशयचिदाकाशरूपान्महेशात् ॥ ५८ ॥
नाभौ ब्रह्माणमुक्त्वा हरिमपि हृदये रुद्रमेनं भ्रुवोस्त-
न्मध्ये श्रुत्यन्त एवं प्रणवविवरणे नारसिंहाभिधे च ।
विज्ञेयः सोऽयमात्मा शिव इति च चतुर्थोऽद्वितीयः
प्रशान्तश्चेत्याहान्ते प्रजेशस्त्रिदशपरिपदस्तत्स ईशः प्रपूज्यः ॥ ५९ ॥
कैवल्यं प्राप्नुयात्कः पुरुष इह शिवं केवलं त्वां विहाय
स्वामिन्नीशं तथान्यं जगति सदसतोरत्र विष्णोर्विधेर्वा ।
चिन्मात्रः प्रत्यगात्मा त्वमसि खलु सदा पूर्व एकः शिवोऽत-
स्त्वामेवैकं भजेऽहं सततमपि जगत्साक्षिणं निर्विशेषम् ॥ ६० ॥
सूर्य उवाच –
एवं शिवस्य माहात्म्ये सर्वश्रुत्यन्तनिश्चिते ।
उद्भवेत्संशयः कस्य को मुच्येत च संशयात् ॥ ६१ ॥
अतोरुण महाप्राज्ञ मुख्यान्तर्यामिणं मम ।
त्रिनेत्रं भज कैवल्यसंसिध्यै परमेश्वरम् ॥ ६२ ॥
॥ इति सूर्य गीतायां तृतीयोऽध्यायः ॥
॥ अथ चतुर्थोऽध्यायः ॥
सूर्य उवाच –
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि तस्यान्तर्यामिणो गुरोः ।
जगत्सृष्ट्यादिकर्माणि लीलारूपाणि सुव्रत ॥ १ ॥
आदौ जगत्ससर्जेदं पंचीकरणकर्मणा ।
यः स ईशो महामायः सर्वज्ञः सर्वशक्तिमान् ॥ २ ॥
चतुर्विधेषु भूतेषु निजमायावशीकृतान् ।
जीवान् प्रवेशयित्वानुप्रविवेश स्वयं वशी ॥ ३ ॥
लीलारूपमपीदं च कर्म तस्य महेशितुः ।
प्रारब्धकर्मजं ज्ञेयमाधिकारिकतावशात् ॥ ४ ॥
स ह्यादिकारिकः श्रेष्ठः पूर्वं जीवत्वमागतः ।
समुच्चयादभूदीशो ज्ञानोपासनकर्मणाम् ॥ ५॥
प्राक्कल्पाधिकृतो देवः स्वारब्धक्षपणात्स्वयम् ।
अपहाय निजां मायां प्राप्तवान् परमं पदम् ॥ ६ ॥
अथ तामाश्रितो जीवः कल्पादौ पूर्ववत्क्रमात् ।
सृष्ट्वा सर्वाधिकारी सन् जगत्पाति च हन्ति च ॥ ७ ॥
क्रियमाणतया तेन नियमेनैव कर्मणाम् ।
त्रयाणां तस्य कर्मित्वमीशस्याप्युपपद्यते ॥ ८ ॥
जीवन्मुक्तसमानत्वं यतस्तस्यावगम्यते ।
अतः प्रारब्धकर्मित्वं अवश्यं तस्य सिध्यति ॥ ९ ॥
ब्रह्मवित्त्वं हि तस्य स्यान्न तु ब्रह्मत्वमीशितुः ।
सृष्ट्यादिकर्मकर्तृत्वदर्शनान्माययाऽपि वा ॥ १० ॥
जीवसृष्ट्यादिकर्तृत्वं ब्रह्मणोऽपि तु वर्तते ।
तथापि पूर्वकर्मित्वं तस्य न श्रूयते क्वचित् ॥ ११ ॥
कर्मणः प्रागभावत्वाद्भावत्वाद्ब्रह्मणो विभोः ।
पूर्वकर्मवतो हि स्यात्कर्म प्रारब्धसंज्ञितम् ॥ १२ ॥
सृष्ट्यादिकर्मबद्धत्वे तस्य मायावशत्वतः ।
वश्यमायत्ववचनं व्यर्थमेवेति चेन्न च ॥ १३ ॥
स्वाधिकारावसाने हि कैवल्यं नोपरुध्यते ।
अतस्तस्य प्रसिद्धं तद्वश्यमायत्वमर्थवत् ॥ १४ ॥
स्थितौ तु तस्य मायित्वं कामित्वादिवदिष्यते ।
न धनित्वादिवत्कर्म पारवश्यान्निरन्तरम् ॥ १५ ॥
जाग्रद्वत्सृष्टिकर्म स्यात्स्वप्नवत्स्थितिकर्म च ।
जगत्प्रलयकर्म स्यात् सुप्तिवत्तस्य मायिनः ॥ १६ ॥
अवस्थात्रयवत्त्वेन कर्मत्रितयवत्तया ।
शरीरत्रयवत्त्वेन जीवः सोऽपीति केचन ॥ १७ ॥
तदयुक्तं पुरा जीवोऽप्यद्य ब्रह्मात्मवित्तया ।
सर्वज्ञत्वादिसम्पत्त्या स हि जीवविलक्षणः ॥ १८ ॥
जीवन्मुक्तसमानत्वान्न कर्मत्रयमीशितुः ।
प्रारब्धमात्रबद्धत्वादधिकारवशादिह ॥ १९ ॥
अधिकारावसाने तद्ब्रह्मत्वं सम्भविष्यति ।
इति वेदान्तसिद्धेऽर्थे व्यभिचारः कुतो भवेत् ॥ २० ॥
ब्रह्मैवैकमकर्मोक्तं श्रुतिभिः स्मृतिभिश्च तत् ।
ईशस्य कर्मतोक्तिस्तु श्रूयते ह्यौपचारिकी ॥ २१ ॥
स कर्मत्वेऽपि तस्य स्यात्कर्ममोचकतेशितुः ।
संचितागामिहीनत्वात्सर्वज्ञत्वाच्च सत्तम ॥ २२ ॥
ईश्वरब्रह्मणोर्भेदं सकर्माऽकर्मतादिभिः ।
सुप्रसिद्धमपह्नोतुं कः समर्थोऽस्ति मानतः ॥ २३ ॥
ईश्वरस्याप्यकर्मत्वं यदि ब्रूयान्निरंकुशम् ।
स द्वैती न कदाप्यस्मात्संसारान्मुक्तिमाप्नुयात् ॥ २४ ॥
यतस्तत्पदवाच्योऽर्थः स हेय इति कथ्यते ।
अतस्तस्य न नित्यत्वं नाकर्मत्वं च युज्यते ॥ २५ ॥
अनध्यस्तात्मभावेन न देहेनैव कश्चन ।
व्याप्रीयेत ततश्च स्याद्देहीशो ध्यानसंयुतः ॥ २६ ॥
स्वदेहेऽपीश्वरस्यास्ति नाध्यासः पारमार्थिकः ।
प्रातिभासिकमाश्रित्य स्रष्टृत्वादि निगद्यते ॥ २७ ॥
देहाध्यासस्य सत्यस्य न कदाप्यस्ति संगतिः ।
प्रागीशदेहाभावेन देहाभावेन चाऽप्यये ॥ २८ ॥
जगत्प्रलयकाले स निर्व्यापारोऽपि सुप्तवत् ।
अध्यासबीजवत्त्वेन पुनः सृष्टौ प्रवर्तते ॥ २९ ॥
चतुर्युगसहस्रान्ते विधातुर्हि निशोच्यते ।
तदा सुप्तस्य तस्यापि जीवस्येव सबीजता ॥ ३० ॥
तथा विष्णोर्युगाः प्रोक्तास्तस्माच्छतगुणाधिकाः ।
तथा शिवस्य तस्माच्च विष्णोः शतगुणाधिकाः ॥ ३१ ॥
एवं कालैरवच्छिन्नांस्तारतम्येन जीववत् ।
ईश्वरांस्तान् कथं ब्रूयां देहकर्मादिवर्जितान् ॥ ३२ ॥
व्यष्टिदेहत्रयं स्वीयं मत्वा जीवत्रयं यथा ।
पारमार्थिकसंसारनिबद्धं कर्मितामगात् ॥ ३३ ॥
समष्टिदेहत्रितयं तथा मत्वेश्वरत्रयम् ।
प्रातिभासिकसंसारनिबद्धं कर्मितामगात् ॥ ३४ ॥
शुद्धसत्त्वप्रधानायां मायायां प्रतिबिम्बितः ।
ईश इत्युच्यते तस्य निरुपाधिकता कथम् ॥ ३५ ॥
औपाधिकस्य नित्यत्वं कथं वाच्यं मनीषिभिः ।
अनित्यस्य च नैष्कर्म्यं कथं भवितुमर्हति ॥ ३६ ॥
ब्रह्मण्यारोपितो भ्रान्तैरीशाख्यः सर्वसृष्टिकृत् ।
आत्मयोगिभिरभ्रान्तैः स भवत्यवरोपितः ॥ ३७ ॥
अविद्यातिमिरान्धस्य स्थाणौ चोरवदीश्वरः ।
प्रतिभाति परब्रह्मण्यमले स्वात्मरूपिणि ॥ ३८ ॥
सद्यो मुमुक्षुदृष्ट्या हि नेश्वरस्यास्ति सत्यता ।
अतो विवर्तवादोऽयं सुतरामुपयुज्यते ॥ ३९ ॥
परिणामेऽप्यनित्यत्वसंसिद्धेरीश्वरस्य च ।
अद्वैतब्रह्मनिष्ठत्वं श्रोतुर्जीवस्य सम्भवेत् ॥ ४० ॥
अधिकारिविभेदेन वादास्ते च मतास्त्रयः ।
तत्रोत्तमाधिकारी स्याच्छृण्वन्नीशे विवर्तताम् ॥ ४१ ॥
जीवे तु परिणामित्वं शृण्वन्नेवोत्तमोत्तमः ।
कीटवद्भृङ्गरूपेण परिणामे विमोक्षतः ॥ ४२ ॥
जीवस्येश्वरताऽवाप्तौ क्रममुक्तिर्हि सिध्यति ।
अतोऽस्य सद्यो मुक्त्यर्थं ब्रह्मतावाप्तिरीर्यते ॥ ४३ ॥
तुरीयः पंचमो वाऽऽस्तामीश्वरः षष्ठ एव वा ।
तस्मादतीतं ब्रह्मेति सिद्धान्ते कोऽनुसंशयः ॥ ४४ ॥
ईश्वरे तिष्ठति ब्रह्म ब्रह्मणीशश्च तिष्ठति ।
अत एकत्वमेव स्याद्द्वयोरिति न तर्क्यताम् ॥ ४५ ॥
ब्रह्मण्येवेश्वरः प्रोक्तो न तु ब्रह्मेश्वरे क्वचित् ।
विभोरविभुसंस्थत्वासंभवात्परमात्मनः ॥ ४६ ॥
ब्रह्मक्षत्रमुभे यस्य श्रुत्या भवत ओदनः ।
यस्योपसेचनं मृत्युः स यत्र ब्रह्मणीर्यते ॥ ४७ ॥
तदेतादृशमित्यत्र को वेदेदन्तयाव्ययम् ।
अखण्डं निर्गुणं ब्रह्म निराधारं परं महत् ॥ ४८ ॥
परब्रह्मांशभूतोऽपि परमः पुरुषोत्तमः ।
ईश्वरादधिकः प्रोक्तः किं पुनर्ब्रह्म केवलम् ॥ ४९ ॥
कारणं जगतामीशो जीवानां ब्रह्म कारणम् ।
एवं सतीशब्रह्मैक्यं व्यवहारे कथं भवेत् ॥ ५० ॥
ईशस्य कर्मितायां हि पुण्यं पापं च संभवेत् ।
सुखं दुःखं च तेनैव जीवत्वमिति चेच्छृणु ॥ ५१ ॥
ईशः प्रवर्तते पुण्यपापयोर्लोकसंग्रहात् ।
तथाऽपि सुखदुःखे स्तो नैवात्मज्ञानवत्तया ॥ ५२ ॥
भ्रूणहत्यादिपापानि ह्यकरोद्विष्णुरीदृशः ।
न तैर्दुःखमभूत्तस्य सम्प्राप्तं पारमार्थिकम् ॥ ५३ ॥
लोकक्षेमार्थकत्वेन तत्कृताघस्य निन्द्यता ।
न वाच्या न च तेनास्ति जीवत्वं तस्य सर्वथा ॥ ५४ ॥
ऋगादिवेदकर्ताऽपि स यथोक्तं समाचरेत् ।
अन्यथा सम्प्रसज्येत ह्यप्रामाणिकतेशितुः ॥ ५५ ॥
संसिद्धे शास्त्रकर्तृत्वे न कारयितृता वचः ।
व्यर्थमेवेति चेन्नैष दोष एव विचारणे ॥ ५६ ॥
जीवस्य कर्तृतायां हि स्यात्कारयितृतेशितुः ।
शास्त्रस्य कर्मतायां तु महेशस्यास्ति कर्तृता ॥ ५७ ॥
नैतेन शास्त्रयोनित्वं निर्गुणस्यैव हीयते ।
निर्गुणोद्भूतशास्त्रस्य सगुणाद्व्यक्तिदर्शनात् ॥ ५८ ॥
उपचर्यत ईशस्य गुणिनः शास्त्रयोनिता ।
यद्वाऽस्तामुभयोर्वेदवेदान्ताभ्यां च बीजता ॥ ५९ ॥
न चैतेनास्ति कर्मित्वसाम्यं ब्रह्मेशयोस्तयोः ।
कर्तुश्च कृतकर्तुश्च भेदोऽस्ति स्पष्ट एव हि ॥ ६० ॥
कर्तृत्वं यस्य संसिद्धं कर्मित्वं तस्य सिद्ध्यति ।
इत्यत्र संशयः को वा तद्ब्रह्मेशौ च कर्मिणौ ॥ ६१ ॥
इति चेत्कर्मितेशस्य कामित्वादिवदिष्यते ।
ब्रह्मणोऽपि तु कर्मित्वं धनित्वादिवदित्यतः ॥ ६२ ॥
परतन्त्रो महेशः स्यात्स्वतन्त्रं ब्रह्म निर्गुणम् ।
आधाराधेयभावेन कार्यकारणता द्वयोः ॥ ६३ ॥
कर्मित्वे ब्रह्मणः सिद्धे कथं नैर्गुण्यमीर्यते ।
इति चेन्नैष दोषोऽस्ति मायागुणविवर्जनात् ॥ ६४ ॥
अदृश्यत्वादिभिर्विद्यागुणैरानन्दतादिभिः ।
सगुणव्यपदेशः स्याद्ब्रह्मणस्त्विष्ट एव सः ॥ ६५ ॥
जगत्संसारकर्तृत्वं यथा जीवेशयोर्मतम् ।
तथा जीवेशकर्तृत्वं परस्य ब्रह्मणो मतम् ॥ ६६ ॥
ब्रह्मणोऽन्यो न कर्ताऽस्ति प्राक्कर्मादिविवर्जनात् ।
अनाद्यनन्तं ब्रह्मैकमकर्माकर्तृ हीर्यते ॥ ६७ ॥
ब्रह्मणोऽन्यो न कर्ताऽस्ति प्राक्कर्मादिविवर्जनात् ।
अनाद्यनन्तं ब्रह्मैकमकर्माकर्तृ हीयते ॥ ६७ ॥
कालत्रयेऽप्यकर्तृत्वं ब्रह्मणः सम्मतं यदि ।
जीवेशरचना न स्यात् जगत्संसारयोरपि ॥ ६८ ॥
प्रत्यक्षसिद्धा रचना कर्तारं समपेक्षते ।
अतोऽद्य कर्मकर्तृत्वाद्ब्रह्मणः कर्मितोचिता ॥ ६९ ॥
कर्मित्वे ब्रह्मणोऽप्येवं किं वाच्यं ब्रह्मवेदिनः ।
ब्रह्मीभूतो न कर्मी स्यादित्येतच्च न सिद्ध्यति ॥ ७० ॥
यादृशं ब्रह्म निर्णीतं तद्भूतोऽपि च तादृशः ।
इति निर्णय एव स्याद्युक्तेरपि समंजसः ॥ ७१ ॥
कालत्रयेऽप्यकर्मित्वमकर्तृत्वमकालता ।
कस्य चिद्ब्रह्मणोऽन्यस्य नीरूपस्यास्ति वस्तुनः ॥ ७२ ॥
तत्र कालत्रयातीतं नेह ज्ञेयं विवक्षितम् ।
प्रमेयत्वप्रमाणत्वप्रमातृत्वादिवर्जनात् ॥ ७३ ॥
ये तु ब्रह्मेशजीवाः सम्प्रोक्ताः कर्तृत्वसंयुताः ।
विद्यया मायया ते हि कर्मिणोऽविद्ययापि च ॥ ७४ ॥
कर्मिषु त्रिषु चोक्तेषु ब्रह्मणः श्रैष्ठ्यदर्शनात् ।
अकर्मत्वं श्रुतिस्मृत्योः प्रोच्यते युक्तमेव तत् ॥ ७५ ॥
एतेन कर्मिणः श्रैष्ठ्यं संसिद्धमिति ये विदुः ।
औदासीन्यं न तेषां स्याच्छ्रुतिस्मृत्युक्तकर्मसु ॥ ७६ ॥
ज्ञानादुपास्तिरुत्कृष्टा कर्मोत्कृष्टमुपासनात् ।
इति यो वेद वेदान्तैः स एव पुरुषोत्तमः ॥ ७७ ॥
इति सूर्यगीतायां चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
अथ पञ्चमोऽध्यायः ॥
सूर्य उवाच –
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि कर्मिश्रेष्ठस्य लक्षणम् ।
यच्छ्रुत्वा नैव भूयोऽन्यच्छ्रोतव्यं तेऽवशिष्यते ॥ १ ॥
यस्य देहः स्वकीयोऽपि सर्वथा न प्रतीयते ।
नेन्द्रियाणि च सर्वाणि स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥ २ ॥
यस्य प्राणाः प्रशान्ताः स्युर्मन आदीनि च स्वयम् ।
अव्यक्तान्तानि सर्वाणि स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥ ३ ॥
बालोन्मत्तपिशाचादि चेष्टितान्यपि यत्र नो ।
निष्ठाऽजगरवद्यस्य स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥ ४ ॥
नाहंभावश्च यस्यास्ति नेदंभावश्च कुत्रचित् ।
सर्वद्वन्द्वविहीनात्मा स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥ ५ ॥
प्राग्बद्धोऽहं विमुक्तोऽद्येत्येवं यस्य स्मृतिर्न च ।
नित्यमुक्तस्वरूपः सन् स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥ ६ ॥
विदेहमुक्तो यः प्रोक्तो वरिष्ठो ब्रह्मवेदिनाम् ।
अरूपनष्टचित्तासुः स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥ ७ ॥
कर्माणि यस्य सर्वाणि वासनात्रयजानि च ।
अभवन्नपशान्तानि स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥ ८ ॥
कर्माणि कर्मभिः शुद्धैरशुद्धान्युपमृद्य यः ।
स कर्मब्रह्ममात्रोऽभूत् स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥ ९ ॥
ज्ञानिनामपि यः श्रेष्ठः सप्तमीं भूमिकां गतः ।
उपासकानां यश्चैकः स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥ १० ॥
यः सर्वैः पीडितोऽपि स्यान्निर्विकारोऽपि पूजितः ।
सुखदुःखे न यस्य स्तः स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥ ११ ॥
यः सर्वैर्मनुजैः पूज्यो यः सर्वैश्च सुरासुरैः ।
ब्रह्मविष्णुशिवैर्यश्च स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥ १२ ॥
त्यक्त्वा कर्माणि सर्वाणि स्वात्ममात्रेण तिष्ठतः ।
कथं कर्मित्वमित्येवं मा शंकिष्ठा महामते ॥ १३ ॥
कर्मणां फलमेषा हि स्वात्ममात्रेण संस्थितिः ।
अतः सफलकर्मैष कर्मिश्रेष्ठो भवेद्ध्रुवम् ॥ १४ ॥
ज्ञानेन ज्ञायते यद्वा उपास्त्या चोपलभ्यते ।
तत्स्थिरं प्राप्यतेऽनेन कर्मणाऽतोऽस्य कर्मिता ॥ १५ ॥
देहेऽस्मिन् वर्तमानेऽपि देहस्मृतिविवर्जनात् ।
विदेहमुक्त इत्युक्तः कथं कर्मीति चेच्छृणु ॥ १६ ॥
देहविस्मृतिमत्त्वेऽपि कर्मदेहे स्थितत्वतः ।
अन्यदृष्ट्याऽस्य देहित्वात्कर्मित्वमुपपद्यते ॥ १७ ॥
देहस्थत्वादपूर्णः स्यादिति शक्यं न किंचन ।
तटाकमप्रकुंभस्थं जलं पूर्णं हि दृश्यते ॥ १८ ॥
प्रारब्धकर्ममुक्तोऽपि भोगान्भुक्तोऽपि चाखिलान् ।
कर्माकार्ये स्थितः कर्मी देहे स्याद्भोगसाधने ॥ १९ ॥
साधने सति देहेऽपि साध्यो भोगो न सिध्यति ।
देहविस्मृतिमत्त्वेन देहहीनसमत्वतः ॥ २० ॥
आहिताग्नित्वसंसिद्ध्यै ज्योतिष्टोमे कृतेऽपि च ।
यथा न स्वर्गमाप्नोति निष्कामः पुरुषर्षभः ॥ २१ ॥
जाग्रस्वप्नसुषुप्त्यात्मसन्धित्रयकृतामृतः ।
सर्वसन्ध्यादिरहितः सन्धिभिर्वन्द्यते सदा ॥ २२ ॥
यः सर्वकर्मभिर्वन्द्यो नित्यं सर्वैरकर्मिभिः ।
स कर्मिप्रवरोऽकर्मिप्रवरश्चेति कथ्यते ॥ २३ ॥
सर्वसाम्यमुपेत्यस्य स्वात्मारामस्य योगिनः ।
सहस्रशः कृतैः किं वा वन्दनैरकृतेश्च वा ॥ २४ ॥
देहादिषु विकारेषु स्वीयत्वं स्वत्वपूर्वकम् ।
विहाय नित्यनिष्ठाभिः स्वमात्रः स विराजते ॥ २५ ॥
इन्द्रियार्थैर्विमूढानां दुष्कर्मत्वं निगद्यते ।
तैरपेतः सुकर्म्येष विदेह इति कथ्यते ॥ २६ ॥
यः सर्वद्वन्द्वनिर्मुक्तः सर्वत्रिपुटिवर्जितः ।
सर्वावस्थाविहीनः स विदेह इति कथ्यते ॥ २७ ॥
लौकिकं वैदिकं कर्म सर्वं यस्मिन्क्षयं गतम् ।
यस्मान्नैवाणुमात्रं च विदेह इति कथ्यते ॥ २८ ॥
यस्येन्द्रियाणि सर्वाणि न चलन्ति कदाचन ।
भित्तिस्थचित्रांगानीव विदेह इति कथ्यते ॥ २९ ॥
आत्मानं सत्यमद्वैतं केवलं निर्गुणामृतम् ।
सम्पश्यतः सदा स्वान्यविकारस्फुरणं कुतः ॥ ३० ॥
आत्मेतरदसत्यं च द्वैतं नानागुणान्वितम् ।
अपश्यतः सदानन्दस्वरूपास्फुरणं कुतः ॥ ३१ ॥
आदिमध्यान्तरहितचिदानन्दस्वरूपिणः ।
स्थितप्रज्ञस्य को बाधः शरीरेण स्वयोगिनः ॥ ३२ ॥
कर्माणि कर्मणा त्यक्त्वा ब्रह्मणा ब्रह्मणि स्थितः ।
कर्मणा शर्म सततं सम्प्राप्तः स विराजते ॥ ३३ ॥
बुद्धेस्तैक्ष्ण्यं च मौढ्यं च यस्य नैवास्ति किंचन ।
बुद्धेः पारंगतः सोऽयं प्रबुद्धः शोभतेतराम् ॥ ३४ ॥
मनस्तथैव संलीनं चितीव लवणं जले ।
यथा निरन्तरात्मीयनिष्ठया सोऽद्वयोऽभवत् ॥ ३५ ॥
समनस्त्वान्महद्दुःखममनस्कस्य तत्कुतः ।
समनस्को हि संकल्पान् करुते दुःखकारिणः ॥ ३६ ॥
प्रारब्धकर्मजं दुःखं जीवन्मुक्तस्य कथ्यते ।
कर्मत्रयविहीनस्य विदेहस्य कथं नु तत् ॥ ३७ ॥
कर्म कर्तव्यमिति वा न कर्तव्यमितीह वा ।
यदि मन्येत वैदेहीं न मुक्तिं प्राप्तवांस्तु सः ॥ ३८ ॥
समाधिर्वाऽथ कर्तव्यो न कर्तव्य इतीह वा ।
यदि मन्येत वैदेहीं न मुक्तिं प्राप्तवांस्तु सः ॥ ३९ ॥
पूर्वं बद्धोऽधुना मुक्तोऽस्म्यहमित्येव बन्धनात् ।
यदि मन्येत वैदेहीं न मुक्तिं प्राप्तवांस्तु सः ॥ ४० ॥
पूर्वमप्यभवन्मुक्तो मध्ये भ्रान्तिस्तु बन्धवत् ।
यदि मन्येत वैदेहीं न मुक्तिं प्राप्तवांस्तु सः ॥ ४१ ॥
वन्ध्यापुत्रादिवत्सर्वं मय्यभूदसदित्यपि ।
यदि मन्येत वैदेहीं न मुक्तिं प्राप्तवांस्तु सः ॥ ४२ ॥
आविद्यकं तमो ध्वस्तं स्वप्रकाशेन वा इति ।
यदि मन्येत वैदेहीं न मुक्तिं प्राप्तवांस्तु सः ॥ ४३ ॥
स्वप्नेऽपि नाहंभावोऽस्ति मम देहेन्द्रियादिषु ।
यदि मन्येत वैदेहीं न मुक्तिं प्राप्तवांस्तु सः ॥ ४४ ॥
अरूपनष्टमनसो विदेहत्वं प्रकीर्त्यते ।
तत्कथं मन्यमानस्य यत्किंचित्स्यादनात्मनः ॥ ४५ ॥
मनो नश्यति निःशेषं मननस्य विसर्जनात् ।
अमनस्कस्वभावं तत्पदं तस्यावशिष्यते ॥ ४६ ॥
मननेन विनिश्चित्य वैदेहीं मुक्तिमात्मनः ।
नैष्कर्म्यसिद्धिं वदतां का तृप्तिरविवेकिनाम् ॥ ४७ ॥
श्रुत्वा वेदान्तवाक्यानि मोदन्तेऽनुभवं विना ।
लीढेन ताडपत्रेण गुडाक्षरयुतेन किम् ॥ ४८ ॥
स्वानुभूतिं विना शास्त्रैः पण्डिताः समलंकृताः ।
कचहीनेव विधवा भूषणैर्भूषितोत्तमैः ॥ ४९ ॥
स्वानुभूतिं विना कर्माण्याचरन्त्यखिलान्यपि ।
स्वर्णयःकुम्भकारादितुल्या एवोपवीतिनः ॥ ५० ॥
स्वानुभूतिं विना वेदान् पठन्ति विविधा द्विजाः ।
प्रावृण्णिशायां परितो मण्डूका इव दुस्स्वराः ॥ ५१ ॥
स्वानुभूतिं विना देहं बिभ्रत्यध्यासदार्ढ्यतः ।
शाकल्यस्य मृतं देहं धनबुद्ध्येव तस्कराः ॥ ५२ ॥
स्वानुभूतिं विना ध्यानं कुर्वन्त्यासनसंयुताः ।
बका इवांभसस्तीरे मत्स्यवंचनतत्पराः ॥ ५३ ॥
स्वानुभूतिं विना श्वासान्निरुन्धन्ति हठात्सदा ।
अयस्कारोऽनिलं बाह्यं द्रुतिकायामिवाधिकम् ॥ ५४ ॥
स्वानुभूतिं विना योगदण्डपट्टादिधारिणः ।
जीर्णकन्थाभरं भग्नदण्डभाण्डादि पित्तवत् ॥ ५५ ॥
स्वानुभूतिं विना यद्यत्कुर्वन्ति भुवि मानवाः ।
तत्तत्सर्वं वृथैव स्यान्मरुभूमौ कृषिर्यथा ॥ ५६ ॥
स्वानुभूत्यर्थकं कर्म निकृष्टमपि सर्वथा ।
उत्तमं विबुधैः श्लाघ्यं श्वेव चोरनिवर्तकः ॥ ५७ ॥
स्वानुभूत्युपयुक्तेभ्य इतराणि बहून्यपि ।
कर्मादीन्याचरन्मर्त्यो भ्रान्तवद्व्यर्थचेष्टितः ॥ ५८ ॥
श्रुतिस्मृतिपुराणेषु काम्यकर्माण्यनेकधा ।
प्रोच्यन्ते तेषु संसक्तस्त्याज्यः शिष्टैर्विटो यथा ॥ ५९ ॥
काम्यकर्मसमासक्तः स्वनिष्ठां स्वस्य मन्यते ।
जात्यन्धः स्वस्य रत्नादिपरीक्षादक्षतामिव ॥ ६० ॥
अवशेन्द्रियमात्मार्थगुरुबुद्ध्यैव सेवते ।
बालातन्तुसुतं लोकेऽगणितं भुक्तये यथा ॥ ६१ ॥
यस्तु वश्येन्द्रियं शान्तं निष्कामं सद्गुरुं सदा ।
स्वात्मैकरसिकं मुक्त्यै स धीमानुपगच्छति ॥ ६२ ॥
काम्यकर्माणि चोत्सृज्य निष्कामो यो मुमुक्षया ।
शान्त्यादिगुणसंयुक्तं गुरुं प्राप्तः स मुच्यते ॥ ६३ ॥
इति श्रुत्वाऽरुणः सूर्यात्संतुष्टः स्वात्मनिष्ठया ।
कृतकृत्य इदं प्राह भास्करं विनयान्वितः ॥ ६४ ॥
अरुण उवाच –
श्रीमन्गुरुवर स्वामिंस्त्वन्मुखात्पारमार्थिकम् ।
निष्कामकर्ममाहात्म्यं श्रुत्वा धन्योऽस्म्यसंशयम् ॥ ६५ ॥
सकर्मत्वमकर्मत्वं विदेहस्य च लक्षणम् ।
श्रुतं रहस्यं नातोऽन्यत्किंचिदप्यवशिष्यते ॥ ६६ ॥
तथाऽपि मम साक्षात्त्वं कर्तव्यं ब्रूहि निश्चितम् ।
मच्चित्तपरिपाकं हि षेत्सि सर्वज्ञ सद्गुरो ॥ ६७ ॥
इति पृष्ट उवाचेदं भगवान्भास्करोऽरुणम् ।
स्वसारथिं निजग्रस्थं बद्धबाहुं नताननम् ॥ ६८ ॥
सूर्य उवाच –
अरुण त्वं परं ब्रह्म साक्षाद्दृष्ट्वाऽधुना कृती ।
तथाऽप्यादेहपतनाद्ब्रह्माभिध्यानमादरात् ॥ ६९ ॥
स्वाधिकारोचितं शुद्धं कर्माप्याचर सत्तम ।
प्रमादो माऽस्तु ते स्वप्नेऽप्युक्तयोर्ब्रह्मकर्मणोः ॥ ७० ॥
संवादमावयोरेतं सर्वपापहरं शुभम् ।
यः शृणोति सकृद्वा स कृतार्थो नात्र संशयः ॥ ७१ ॥
श्रीगुरुमूर्तिरुवाच –
इति दिनकरवक्त्राद्ब्रह्मकर्मैनिष्ठां
स्फुटतरमवगम्य प्राज्ञ एकोऽरुणः सः ।
अभवदखिललोकैः पूजनीयः कृतार्थ-
स्त्वमपि भव तथैव क्षिप्रमंभोजजन्मन् ॥ ७२ ॥
विमलविगुणयोगाभ्यासदार्ढ्येन युक्तः
सकलगतचिदात्मन्यद्वितीये बुधोऽपि ।
सततमपि कुरुष्वारब्धदुःखोपशान्त्यै
रहसि निजसमाधीन्स्वोक्तकर्मापि धातः ॥ ७३ ॥
इति तत्त्वसारायणकर्मकाण्डोक्तश्रीसूर्यगीतायां पंचमोऽध्यायः ॥
॥ इति सूर्यगीता समाप्ता ॥
अथ अथर्ववेदीय सूर्य उपनिषद
सूदितस्वातिरिक्तारिसूरिनन्दात्मभावितम् । सूर्यनारायणाकारं नौमि चित्सूर्यवैभवम् ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः । स्थिरैरण्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः । स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ अथ सूर्याथर्वाङ्गिरसं व्याख्यास्यामः । ब्रह्मा ऋषिः । गायत्री च्हन्दः । आदित्यो देवता । हंसः सोऽहमग्निनारायणयुक्तं बीजम् । हृल्लेखा शक्तिः । वियदादिसर्गसंयुक्तं कीलकम् । चतुर्विधपुरुषार्थसिद्ध्यर्थे विनियोगः । षट्स्वरारूढेन बीजेन षडङ्गं रक्ताम्बुजसंस्थितम् । सप्ताश्वरथिनं हिरण्यवर्णं चतुर्भुजं पद्मद्वयाभयवरदहस्तं कालचक्रप्रणेतारं श्रीसूर्यनारायणं य एवं वेद स वै ब्राह्मणः ।
ॐ भूर्भुवः स्वः । ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् । सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च । सूर्याद्वै खल्विमानि भूतानि जायन्ते । सूर्याद्ययः पर्जन्योऽन्नमात्मा नमस्ते आदित्य । त्वमेव प्रत्यक्षं कर्मकर्तासि । त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि । त्वमेव प्रत्यक्षं विष्णुरसि । त्वमेव प्रत्यक्षं रुद्रोऽसि । त्वमेव प्रत्यक्षमृगसि । त्वमेव प्रत्यक्षं यजुरसि । त्वमेव प्रत्यक्षं सामासि । त्वमेव प्रत्यक्षमथर्वासि । त्वमेव सर्वं छन्दोऽसि । आदित्याद्वायुर्जायते । आदित्याद्भूमिर्जायते । आदित्यादापो जायन्ते । आदित्याज्ज्योतिर्जायते । आदित्याद्व्योम दिशो जायन्ते । आदित्याद्देवा जायन्ते । आदित्याद्वेदा जायन्ते । आदित्यो वा एष एतन्मण्डलं तपति । असावादित्यो ब्रह्म । आदित्योऽन्तःकरण मनोबुद्धिचित्ताहंकाराः । आदित्यो वै व्यानः समानोदानोऽपानः प्राणः । आदित्यो वै श्रोत्रत्वक्चक्षूरसनघ्राणाः । आदित्यो वै वाक्पाणिपादपायूपस्थाः । आदित्यो वै शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाः । आदित्यो वै वचनादानागमनविसर्गानन्दाः । आनन्दमयो विज्ञानमयो विज्ञानघन आदित्यः । नमो मित्राय भानवे मृत्योर्मा पाहि । भ्राजिष्णवे विश्वहेतवे नमः । सूर्याद्भवन्ति भूतानि सूर्येण पालितानि तु । सूर्ये लयं प्राप्नुवन्ति यः सूर्यः सोऽहमेव च । चक्षुर्नो देवः सविता चक्षुर्न उत पर्वतः । चक्षुर्धाता दधातु नः । आदित्याय विद्महे सहस्रकिरणाय धीमहि । तन्नः सूर्यः प्रचोदयात् । सविता पुरस्तात् सवितापश्चात्तात् सवितोत्तरात्तात्सविताधरात्तात् । सविता नः सुवतु सर्वतातिं सविता नो रासतां दीर्घमायुः । ॐइत्येकाक्षरं ब्रह्म । घृणिरिति द्वे अक्षरे । सूर्य इत्यक्षरद्वयम् । आदित्य इति त्रीण्यक्षराणि । एतस्यैव सूर्यस्याष्टाक्षरो मनुः । यः सदाहरहर्जपति स वै ब्राह्मणो भवति स वै ब्राह्मणो भवति । सूर्याभिमुखो जप्त्वा महाव्याधिभयात्प्रमुच्यते । अलक्ष्मीर्नश्यति । अभक्ष्यभक्षणात्पूतो भवति । अगम्यागमनात्पूतो भवति । पतितसम्भाषणात्पूतो भवति । असत्सम्भाषणात्पूतो भवति । मध्याह्ने सूर्याभिमुखः पठेत् । सद्योत्पन्नपञ्चमहापातकात्प्रमुच्यते । सैषा सावित्रीं विद्यां न किञ्चिदपि न कस्मैचित्प्रशंसयेत् । य एतां महाभागः प्रातः पठति स भाग्यवाञ्जायते । पशून्विन्दति । वेदार्थं लभते । त्रिकालमेतज्जप्त्वा क्रतुशतफलमवाप्नोति । यो हस्तादित्ये जपति स महामृत्युं तरति स महामृत्युं तरति य एवं वेद ॥ इत्युपनिषत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ भद्रं कर्णेभिरिति शान्तिः ॥ इति सूर्योपनिषत्समाप्ता ॥
आदित्यं च शिवं विद्याच्छिवमादित्यरूपिणम् । उभयोरन्तरं नास्ति आदित्यस्य शिवस्य च ॥ ११६॥ श्रीभविष्योत्तरपुराणे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे आदित्यहृदयस्तोत्रं || अर्थात- आदित्य यानि सूर्य को ही शिव जानो. और शिवजी को ही सूर्य रूप जानो क्योंकि भगवान सूर्य में और भगवान शिवजी में कोई भेद नहीं है |
संक्षिप्त रुद्राभिषेक विधि:-
संक्षिप्त रुद्राभिषेक विधि :-
१ गणेश = ग॒णानां॑ त्वा ग॒णप॑तिᳪ हवामहे प्रि॒याणां॑ त्वा प्रि॒यप॑तिᳪ हवामहे नि॒धीनां॑ त्वा॑ निधि॒पति॑ᳪ हवामहे वसो मम । आहम॑जानि गर्भ॒धमा त्वम॑जासि गर्भ॒धम् ।। १९ ।।
२ गौरी =आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन्मातरं पुरः । पितरं च प्रयन्स्वः ॥
३ स्कन्दस्वामी = यदक्रन्दः प्रथमं जायमान उद्यन्समुद्रादुत वा पुरीषात् । श्येनस्य पक्षा हरिणस्य बाहू उपस्तुत्यं महि जातं ते अर्वन् ॥१॥
४ नन्दी = वयं सोम व्रते तव मनस्तनूषु बिभ्रतः । प्रजावन्तः सचेमहि ॥
५ सर्प वासुकि = नमोऽस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथिवीमनु ।ये ऽ अन्तरिक्षे ये दिवि तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः ॥ वासुकिने नमः
६ कुबेराय = कुविदङ्ग यवमन्तो यवं चिद्यथा दान्त्यनुपूर्वं वियूय । इहेहैषां कृणुहि भोजनानि ये बर्हिषो नमोवृक्तिं न जग्मुः ॥
७ त्रिशूलाय ,डमरवे = त्रिंशद्धाम वि राजति वाक्पतंगाय धीयते । प्रति वस्तोरह द्युभिः ॥
गकारः कण्ठोर्ध्वं गजमुखसमो मर्त्यसदृशो णकारः कण्ठाधो जठर सदृशाकार इति च । अधोभावः कट्यां चरण इति हीशोस्य च तमः विभातीत्थं नाम त्रिभुवन समं भू र्भुव स्सुवः ॥ 3 ॥
आदिशक्ति त्वमसि काली मुण्डमाला धारिणी ।
त्वमसितारा मुण्डहारा विकटसंकटहारिणी।।
त्रिपुरसुन्दरि आदिका त्वं षोडशी परमेश्वरी ।
सकल मंगलमूर्तिरसि जगदम्बिके भुवनेश्वरी ॥
ॐ ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतंसं, रत्नाकल्पोज्ज्वलांगं परशुमृग वराभीतिहस्तं प्रसन्नम्। पद्मासीनं समन्तात् स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं वसानं विश्वाद्यं विश्वबीजं निखिलभयहरं पंचवक्त्रं त्रिनेत्रम्।।
गायत्री त्रिष्टुब् जगत्य् अनुष्टुप् पङ्क्त्या सह । बृहत्य् उष्णिहा ककुप् सूचीभिः शम्यन्तु त्वा ॥इति पाद्यम्
नमो ऽस्तु नीलग्रीवाय सहस्राक्षाय मीढुषे । अथो ये ऽ अस्य सत्वानो ऽहं तेभ्यो ऽकरं नमः ॥ इति अर्घ्यं
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकम् इव बन्धनान् मृत्योर् मुक्षीय माऽमृतात् ।
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम् । उर्वारुकम् इव बन्धनाद् इतो मुक्षीय मामुतः ॥ इत्याचमनीयं
इ॒मं मे॑ वरुण श्रु॒धी हव॑म॒द्या च॑ मृडय । त्वाम॑स्व॒स्युरा च॑के इति स्नानम्
पयः पृथिव्यां पय ऽ ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः । पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम् ॥ इति पयस्नानम्
दधिक्राव्णो अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वा॒जिन॑: । सु॒र॒भि नो॒ मुखा॑ कर॒त्प्र ण॒ आयू॑ᳪषि तारिषत् ।। इति दधिस्नानम्
ॐ घृतं घृतपावानः पिबत वसाम्व्वसापावानः पिबतान्तरिक्षस्य हविरसि स्वाहा दिशः प्रदिशऽआदिशो विदिशऽउद्दिशो दिग्भ्यः स्वाहा । इति घृतस्नानं
मधु वाता ऽ ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः । माध्वीर् नः सन्त्व् ओषधीः ॥ मधु नक्तम् उतोषसो मधुमत् पार्थिवꣳ रजः । मधु द्यौर् अस्तु नः पिता ॥ मधुमान् नो वनस्पतिर् मधुमाँ२ऽ अस्तु सूर्यः । माध्वीर् गावो भवन्तु नः ॥ इति मधुस्नानम्
अपाꣳ रसम् उद्वयसꣳ सूर्ये सन्तꣳ समाहितम् । अपाꣳ रसस्य यो रसस् तं वो गृह्णाम्य् उत्तमम् ।
उपयामगृहीतो सीन्द्राय त्वा जुष्टं गृह्णामि । एष ते योनिर् इन्द्राय त्वा जुष्टतमम् ॥ इति शर्करा स्नानम्
पुनन्तु मा देवजनाः पुनन्तु मनसा धियः । पुनन्तु विश्वा भूतानि जातवेदः पुनीहि मा ॥ इति शुद्धोदकम्
पञ्च नद्यः सरस्वतीम् अपि यन्ति सस्रोतसः । सरस्वती तु पञ्चधा सो देशे ऽभवत् सरित् ॥ इति पञ्चामृत स्नानम्
गन्धर्वस्त्वा विश्वावसुः परिदधातु विश्वस्यारिष्ट्यै यजमानस्य परिधिरस्यग्निरिड ईडित इति गन्धोदकस्नानम्
त्वं यविष्ठ दाशुषो नॄꣳः पाहि शृणुधी गिरः । रक्षा तोकम् उत त्मना ॥ इति शुद्धोदकस्नानम्
मातर्गंङ्गे तरलतरङ्गे सततं वारिधिवारिणि सङ्गे। मम तव तीरे पिबतो नीरं ‘हरि हरि’ जपतः पततु शरीरम्।। इति गङ्गा जलम्
अथाभिषेकं
नमस् ते रुद्र मन्यव ऽ उतो त ऽ इषवे नमः । बाहुभ्याम् उत ते नमः ॥
या ते रुद्र शिवा तनूर् अघोरापापकाशिनी । तया नस् तन्वा शंतमया गिरिशन्ताभि चाकशीहि ॥
याम् इषुं गिरिशन्त हस्ते बिभर्ष्य् अस्तवे । शिवां गिरित्र तां कुरु मा हिꣳसीः पुरुषं जगत् ॥
शिवेन वचसा त्वा गिरिशाच्छा वदामसि । यथा नः सर्वम् इज् जगद् अयक्ष्मꣳ सुमना ऽ असत् ॥
अध्य् अवोचद् अधिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक् । अहीꣳश् च सर्वान् जम्भयन्त् सर्वाश् च यातुधान्यो ऽधराचीः परा सुव ॥
असौ यस् ताम्रो ऽ अरुण ऽ उत बभ्रुः सुमङ्गलः । ये चैनꣳ रुद्रा ऽ अभितो दिक्षु श्रिताः सहस्रशो वैषाꣳ हेड ऽ ईमहे ॥
असौ यो ऽवसर्पति नीलग्रीवो विलोहितः । उतैनं गोपा ऽ अदृश्रन्न् अदृश्रन्न् उदहार्यः स दृष्टो मृडयाति नः ॥
नमो ऽस्तु नीलग्रीवाय सहस्राक्षाय मीढुषे । अथो ये ऽ अस्य सत्वानो ऽहं तेभ्यो ऽकरं नमः ॥
प्र मुञ्च धन्वनस् त्वम् उभयोर् आर्त्न्योर् ज्याम् । याश् च ते हस्त ऽ इषवः ऽ परा ता भगवो वप ॥
विज्यं धनुः कपर्दिनो विशल्यो वाणवाꣳ२ऽ उत । अनेशन्न् अस्य याऽइषव ऽआभुर् अस्य निषङ्गधिः ॥
या ते हेतिर् मीढुष्टम हस्ते बभूव ते धनुः । तयास्मान् विश्वतस् त्वम् अयक्ष्मया परि भुज ॥
परि ते धन्वनो हेतिर् अस्मान् वृणक्तु विश्वतः । अथो य ऽइषुधिस् तवारे ऽ अस्मन् नि धेहि तम् ॥
अवतत्य धनुष् ट्वꣳ सहस्राक्ष शतेषुधे । निशीर्य शल्यानां मुखा शिवो नः सुमना भव ॥
नमस् त ऽ आयुधायानातताय धृष्णवे । उभाभ्याम् उत ते नमो बाहुभ्यां तव धन्वने ॥
मा नो महान्तम् उत मा नो ऽ अर्भकं मा न ऽ उक्षन्तम् उत मा न ऽ उक्षितम् । मा नो वधीः पितरं मोत मातरं मा नः प्रियास् तन्वो रुद्र रीरिषः ॥
मा नस् तोके तनये मा न ऽ आयुषि मा नो गोषु मा नो ऽ अश्वेषु रीरिषः । मा नो वीरान् रुद्र भामिनो वधीर् हविष्मन्तः सदम् इत् त्वा हवामहे ॥
सनातन धर्मावलंबियों के लिये सामान्य ज्ञान
भगवान् सूर्य से ही काल प्रवर्तन होता है |
कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिः सर्वमलाश्रयः। कला काष्ठा मुहूर्त्ताश्च क्षपा यामस्तथा क्षणः ।।
■ काष्ठा = सैकन्ड का 34000 वाँ भाग
■ 1 त्रुटि = सैकन्ड का 300 वाँ भाग
■ लग्न = नारदसंहिता में बताया है कि लग्नज्ञानमतिकठिनम् :- त्रुटेः सहस्रभागो यो लग्नकालः स उच्यते । ब्रह्मापि तं न जानाति कि पुनः प्राकृतो जनः । एक त्रुटि का हजारवां भाग लग्नकाल कहलाता है । ब्रह्मा भी उसको नहीं जानता है , साधारण आदमी का क्या ठिकाना है |
■ 2 त्रुटि = 1 लव ,
■ 1 लव = 1 क्षण
■ 30 क्षण = 1 विपल ,
■ 60 विपल = 1 पल
■ 60 पल = 1 घड़ी (24 मिनट ) ,
■ 2.5 घड़ी = 1 होरा (घन्टा )
■ 24 होरा = 1 दिवस (दिन या वार) ,
■ 7 दिवस = 1 सप्ताह
■ 4 सप्ताह = 1 माह ,
■ 2 माह = 1 ऋतू
■ 6 ऋतू = 1 वर्ष ,
■ 100 वर्ष = 1 शताब्दी
■ 10 शताब्दी = 1 सहस्राब्दी ,
■ 432 सहस्राब्दी = 1 युग
■ 2 युग = 1 द्वापर युग ,
■ 3 युग = 1 त्रैता युग ,
■ 4 युग = सतयुग
■ सतयुग + त्रेतायुग + द्वापरयुग + कलियुग = 1 महायुग
■ 72 महायुग = मनवन्तर ,
■ 1000 महायुग = 1 कल्प
■ 1 नित्य प्रलय = 1 महायुग (धरती पर जीवन अन्त और फिर आरम्भ )
■ 1 नैमितिका प्रलय = 1 कल्प ।(देवों का अन्त और जन्म )
■ महालय = 36000 कल्प ।(ब्रह्मा का अन्त और जन्म )
सम्पूर्ण विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र यही है। जो हमारे देश भारत में बना। ये हमारा भारत जिस पर हमें गर्व है l
दो लिंग : नर और नारी ।
दो पक्ष : शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।
दो पूजा : वैदिकी और तांत्रिकी (पुराणोक्त)।
दो अयन : उत्तरायण और दक्षिणायन।
तीन देव : ब्रह्मा, विष्णु, शंकर।
तीन देवियाँ : महा सरस्वती, महा लक्ष्मी, महा गौरी।
तीन लोक : पृथ्वी, आकाश, पाताल।
तीन गुण : सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण।
तीन स्थिति : ठोस, द्रव, वायु।
तीन स्तर : प्रारंभ, मध्य, अंत।
तीन पड़ाव : बचपन, जवानी, बुढ़ापा।
तीन रचनाएँ : देव, तिर्यग, मानव।
तीन अवस्था : जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति।
तीन काल : भूत, भविष्य, वर्तमान।
तीन नाड़ी : इडा, पिंगला, सुषुम्ना।
तीन संध्या : प्रात:, मध्याह्न, सायं।
तीन शक्ति : इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति।
चार धाम : बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम्, द्वारका।
चार मुनि : सनत, सनातन, सनंदन, सनत कुमार।
चार वर्ण : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।
चार नीति : साम, दाम, दंड, भेद।
चार वेद : सामवेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद।
चार स्त्रीरूप : माता, पत्नी, बहन, पुत्री।
चार युग : सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग, कलियुग।
चार समय : सुबह, शाम, दिन, रात।
चार अप्सरा : उर्वशी, रंभा, मेनका, तिलोत्तमा।
चार गुरु : माता, पिता, शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु।
चार प्राणी : जलचर, थलचर, नभचर, उभयचर।
चार जीव : अण्डज, पिंडज, स्वेदज, उद्भिज।
चार वाणी : परा , पश्यन्ती , मध्यमा बैखरी
ओंकार की चार मात्राएं : अकार ,उकार ,मकार ,अर्धमात्रा
चार आश्रम : ब्रह्मचर्य, ग्राहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास।
चार भोज्य : खाद्य, पेय, लेह्य, चोष्य।
चार पुरुषार्थ : धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।
चार वाद्य : सुषिर, तन्तु, अवनद्ध , घन |
पाँच तत्व : पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल, वायु।
पाँच देवता : गणेश, दुर्गा, विष्णु, शंकर, सूर्य।
पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा।
पाँच विषय : रस, रुप, गंध, स्पर्श, ध्वनि।
पांच उंगलियां : अंगूठा, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा।
पाँच पूजा उपचार : गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य।
पाँच अमृत : दूध, दही, घी, शहद, शक्कर।
पाँच प्रेत : भूत, पिशाच, वैताल, कुष्मांड, ब्रह्मराक्षस।
पाँच वायु : प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान।
पाँच वटवृक्ष : सिद्धवट (उज्जैन), अक्षयवट (प्रयाग ), गृध्रवट (सोरों सूकरक्षेत्र ), वंशीवट (वृंदावन), साक्षीवट (गया)।
पाँच पत्ते : आम, पीपल, बरगद, गुलर, पिलखुन ।
पाँच कन्या : अहल्या, तारा, मंदोदरी, कुंती, द्रौपदी।
छः रस – मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त तथा कसाय।
छ: ॠतु : शीत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, बसंत, शिशिर।
छ: वेद के अंग : शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष।
छ: कर्म : देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान।
छ: शत्रु : काम, क्रोध, मद (घमंड), लोभ (लालच), मात्सर्य मोह।
सात छंद : गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती।
सात स्वर : सा, रे, ग, म, प, ध, नि।
सात सुर : षडज्, ॠषभ्, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद।
सात चक्र : सहस्त्रार, आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मुलाधार।
सात वार : रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि।
सात मिट्टी : गौशाला, घुड़साल, हाथीसाल, राजद्वार, बाम्बी की मिट्टी, नदी संगम, तालाब।
सात महाद्वीप : जम्बुद्वीप (एशिया), प्लक्षद्वीप (यूरोप) शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप।
सात ऋषि : वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, भारद्वाज।
सात धातु (शारीरिक) : रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य।
सात रंग : बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी, लाल।
सात पाताल : अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल।
सात पुरी : मथुरा, हरिद्वार, काशी, अयोध्या, उज्जैन, द्वारका, काञ्ची।
सात धान्य : उड़द, गेहूँ, चना, चांवल, जौ, मूँग, बाजरा।
सात मातृका : ब्राह्मी, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौमारी, ऐन्द्री, वाराही, चामुंडा।
सात महाद्वीप : जम्बुद्वीप (एशिया), प्लक्षद्वीप, शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप।
सात ॠषि : वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव, शौनक।
सात ॠषि : वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, भारद्वाज।
सात धातु (शारीरिक) : रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य।
सात रंग : बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी, लाल।
सात पाताल : अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल।
सात पुरी : मथुरा, हरिद्वार, काशी, अयोध्या, उज्जैन, द्वारका, काञ्ची।
सात धान्य : उड़द, गेहूँ, चना, चांवल, जौ, मूँग, बाजरा।
आठ मातृका : ब्राह्मी, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौमारी, ऐन्द्री, वाराही, नारसिंही, चामुंडा।
आठ लक्ष्मी : आदिलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी।
आठ वसु : अप (अह:/अयज), ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्युष, प्रभास।
आठ सिद्धि : अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व।
आठ धातु : सोना, चांदी, ताम्बा, सीसा जस्ता, टिन, लोहा, पारा।
नवदुर्गा : शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री।
नवग्रह : सुर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु।
नवरत्न : हीरा, पन्ना, मोती, माणिक, मूंगा, पुखराज, नीलम, गोमेद, लहसुनिया।
नवनिधि : पद्मनिधि, महापद्मनिधि, नीलनिधि, मुकुंदनिधि, नंदनिधि, मकरनिधि, कच्छपनिधि, शंखनिधि, खर्व/मिश्र निधि।
दस महाविद्या : काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्तिका, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला।
दस दिशाएँ : पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, नैॠत्य, वायव्य, ईशान, ऊपर, नीचे।
दस दिक्पाल : इन्द्र, अग्नि, यमराज, नैॠिति, वरुण, वायुदेव, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा, अनंत।
दस अवतार (विष्णुजी) : मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दस सति : सावित्री, अनुसुइया, मंदोदरी, तुलसी, द्रौपदी, गांधारी, सीता, दमयन्ती, सुलक्षणा, अरुंधती।
आठ लक्ष्मी : आदिलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी।
आठ वसु : अप (अह:/अयज), ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूष, प्रभास।
आठ सिद्धि : अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व।
आठ धातु : सोना, चांदी, ताम्बा, सीसा जस्ता, टिन, लोहा, पारा।
नवदुर्गा : शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कूष्माण्डा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री।
नवग्रह : सुर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु।
नवरत्न : हीरा, पन्ना, मोती, माणिक, मूंगा, पुखराज, नीलम, गोमेद, लहसुनिया।
नवनिधि : पद्मनिधि, महापद्मनिधि, नीलनिधि, मुकुंदनिधि, कुन्दनिधि, मकरनिधि, कच्छपनिधि, शंखनिधि, खर्व निधि।
दस महाविद्या : काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला।
दस दिशाएं : पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, ईशान, ऊपर, नीचे।
दस दिक्पाल : इन्द्र, अग्नि, यमराज, नैॠिति, वरुण, वायुदेव, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा, अनंत।
दस अवतार (विष्णु जी) : मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दस सती : सावित्री, अनुसुइया, मंदोदरी, तुलसी, द्रौपदी, गांधारी, सीता, दमयंती, सुलक्षणा, अरुंधती।
|| श्रीरुद्रयामले तन्त्रे श्रीदेवीरहस्ये श्रीसूर्यसहस्रनामस्तोत्रम् की फलश्रुती ||
देवाधिदेव, सविता (जगत की रचना करने वाले) अमित तेजस्वी सूर्य के सहस्र नामों का पाठ सर्व सार मय है , दिव्य है और ब्रह्मतेज की वृद्धि करने वाला है | || १३५ ||
ब्रह्म ज्ञान से परिपूर्ण ,परम पवित्र , पुण्य तीर्थों का फल देने वाला , समस्त यज्ञों के फल के समान और सभी प्रकार की विद्याओं को देने वाला है | || १३६ ||
सर्वश्रेयस्कर , लोक में कीर्ति और धन देने वाला , सभी प्रकार के व्रतों के फल से छलाछल भरा हुआ और सभी धर्मों के फल को देने वाला है | || १३७ ||
हे देवि ! यह सर्वरोगहर, और शरीर के आरोग्य को बढ़ाने वाला है | इन हजार नामों का ऐसा ही प्रभाव है | ॥ १३८॥
करोड़ों कल्पों में भी मैं इसका वर्णन नहीं कर सकता | हे पार्वती ! इन्द्रियों को संयम में रखते हुए जिस जिस कामना को मन में रखकर इसका पठन या श्रवण किया जाता है उन उन कामनाओं के फल को मनुष्य अचानक ही तथा शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है वे फिर भले ही देवताओं के लिए भी दुर्लभ क्यों न हों !॥ १३९॥ १४०॥
जो व्यक्ति जो इसका पाठ करता है वह वीर ,श्रेष्ठ धार्मिक , सौन्दर्य से युक्त , धनवान तथा पुत्र वान ,और राजाओं को प्रिय होता है || १४१ ||
हे महादेवी ! कौलिक दीक्षा से सम्पन्न होकर जो इसे रविवार के दिन पढता है वह आयु और आरोग्य से युक्त होकर धन भंडारों का मालिक होता है | || १४२ ||
हे देवि ! सूर्योदय काल में सूर्य का ध्यान करते हुए जो इसे पढता है वह इच्छित फल पाता है तथा संक्रांति के दिन भक्तिपूर्वक जो इसे तीनों कालों में पढ़ता है वह इस लोक में धन का सुख भोग कर सभी रोगों से मुक्त हो जाता है | तथा शुक्ल पक्ष की सप्तमी के दिन सूर्यास्त काल में जो इसे पढ़ता है उस कौलिकोत्तम का शरीर आरोग्य संपन्न होता है | उसी प्रकार व्यतीपात योग में मध्यान्ह काल में अपनी सभी इन्द्रियों को संयम में रखते हुए जो इसका पाठ करता है उसे सूर्य की कृपा से धन , पुत्र , यश और मान की प्राप्ति होती है | चक्रार्चन के समय भगवान् रवि का स्मरण करते हुए जो मूल मन्त्र का जप करता है तथा जो महाचीनक्रमाचार में विचक्षण (कुशल) है वह सूर्य होकर सभी शत्रुओं को शीघ्र ही जीत लेता है और वह प्रतापवान होकर लक्ष्मी को प्राप्त करता है | || १४३ || १४४ || १४५ || १४६ || १४७ ||
जो परदेश में रहकर बटुकों का पूजन करते हुए निर्भय होकर अपनी प्रिया का आश्रय लेकर उपर्युक्त चीनाचार के अनुसार इसका पाठ करता है वह शिव के समान तेजस्वी हो जाता है | || १४८ ||
जो बारह वर्ष तक नित्य ही इसके १०० पाठ करता है अथवा एक सूर्योदय से लेकर दूसरे सूर्योदय तक की समय अवधि में जो इसके सौ पाठ करता है तो उसे सर्वलोक प्रभु भगवान सविता उसे तुरंत ही वर देते हैं | || १४९ ||
हे पार्वती ! बहुत कहने से क्या लाभ , इसके पढ़ने से इस लोक में सदा ही लक्ष्मी भोग कर परलोक में मोक्ष प्राप्त करता है | || १५० ||
रविवार के दिन भोजपत्र पर दिव्य अष्टगंध , नील पुष्प और हल्दी के पाउडर से सूर्य के हजार नामों को लिखें |||१५१||
मंत्र की सिद्धि करने वाले को पंचामृत और सर्वौषधि और अपनी आँखों के प्रेम अश्रु बिन्दुओं से विधि पूर्वक लिखकर यंत्र के बीच में मंत्र के अक्षरों से वेष्टित करे || १५२ ||
फिर उस भोजपत्र की एक गोली बनाकर मूल मंत्र का स्मरण करते हुए कन्या के द्वारा काते हुए सूत से लपेट कर लाल रंग की लाख से उसे ढक दे || १५३ ||
फिर उसे सोने के ताबीज में मढ़वा कर पंचगव्य से उसे शुद्ध करे और मंत्रराज के द्वारा उसे सिद्ध करके मस्तक पर अथवा भुजा में धारण करे || १५४ ||
हे देवी ! फिर क्या क्या सिद्ध नहीं हो जाता ? अर्थात सब कुछ सिद्ध हो जाता है | जो कि मुझे भी दुर्लभ है | कुष्ठरोगी , शूल रोग वाला, प्रमेह रोग , कुक्षी रोग वाला , भगन्दर से पीड़ित , ववासीर रोग , अश्मरी (पथरी) से पीड़ित आदि इस दुर्लभ गुटी को धारण करने से शीघ्र ही मुक्त हो जाता है | || १५५ || १५६ ||
वन्ध्या और काकवन्ध्या तथा जिसका बच्चा मर चुका है ऐसी कामिनी स्त्री भी आनंद और गौरव से पूर्ण होकर इस गुटिका को अपने हृदय पर धारण करे तो हे पार्वती !वन्ध्या और काकवन्ध्या तथा मृतवत्सा भी बहुत से सुन्दर रूप वाले और चिरायु पुत्रों को जन्म देती है || १५७ || १५८ |||
इस गुटिका को धारण करके रण में जाकर अक्षतांग रहते हुए शत्रुओं को जीत कर लक्ष्मी लाभ करता है और वह महाराजा सुखी होकर अपने नगर में लौट आता है | || १५९ ||
जो इस गुटिका को नित्य ही भुजा में धारण करता है , राजा लोग उसके वश में रहते हैं | यह गुटिका मोहन , आकर्षण , स्तम्भन और उच्चाटन करने में सक्षम है | || १६० ||
वह सूर्य के समान महान तेजस्वी हो जाता है और धन में कुबेर के समान तथा ऐश्वर्य में शंकर के समान होता है || १६१ ||
हे देवी ! वह पुरुष शोभा में इन्द्र के समान , यश में राम के समान , पौरुष में भार्गव के समान , बोलने में बृहस्पति के समान और नीति में शुक्र के समान होता है || १६२ ||
बल में वायु के समान , दया में विष्णु के समान , आरोग्य में अगस्त्य के समान और कान्ति में चन्द्रमा के समान होता है || १६३ ||
धर्म में धर्मराज के समान , रत्नभंडार और गंभीरता में समुद्र के समान तथा दानवीरों में बलि महाराज के समान होता है || १६४ ||
सिद्धि में साक्षात श्री भैरव के समान , आनन्द में चिदम्बर के समान होता है | हे शिवे ! इसे पढ़े या धारण करे | ज्यादा बातें करने से क्या लाभ होने वाला है ? || १६५ ||
इस परम दिव्य सूर्य सहस्रनाम को जो सुनता है वह साक्षात् परमानन्द विग्रह रूप भास्कर ही हो जाता है || १६६ ||
वह स्वतंत्र हो जाता है और अंत में विष्णु के परम पद को प्राप्त होता है | यह सूर्य सहस्रनाम दिव्य , महान और परम तत्व रूप है | || १६७ ||
हे पार्वती ! दुरात्माओं के प्रति इसका खुलासा नहीं करना चाहिए और अभक्तों को , गंदे कपड़े पहनने वालों को , दूसरों के शिष्यों को इसके बारे में नहीं बताना चाहिए || १६८ ||
कर्कश ,कटु , वाणी बोलने वालों को , अकुलीन को , दुर्जनों को , पाप बुद्धि को , गुरु भक्ति से रहित को और शिवागम (शिव शास्त्र) की निंदा करने वाले को यह नहीं बताना चाहिए || १६९ ||
जो शिष्य हो , शांत हो , गुरु भक्ति परायण हो , कुलीन हो , सुभक्त हो और सूर्य भक्ति में निरत हो उसे ही बताना चाहिए || १७० ||
यह तत्वों का भी तत्व है | यह वेद और आगमों का रहस्य है | यह सर्व मंत्रमय होने से गोप्य है | अपनी जाति के समान इसकी रक्षा करनी चाहिए | || १७१ ||
* श्रीहरिः *
दयानंदी आधुनिक मतमर्दन
अर्थात्
आर्यसमाज की कीहुई शंका बाल्मीकि कृत रामायण का यथार्थ (उत्तर)
जिसको
श्रीमान श्री १०८ सिद्धान्त वागीश द्विवेदी पंडित
दशरथ शास्त्री सनाढ्य वंशोद्भव सूकर क्षेत्र (सोरों) प्रान्त एटा ने रचा |
प्रशंशित शास्त्री जी की आज्ञा से
पंडित कुन्दनलाल मास्टर प्रोग्रेसिव स्कूल [ मंत्री वैदिक सनातन धर्म सभा ] कासगंज
व पंडित श्रीकृष्ण पाठक ने सहसम्मति सभा , सज्जन पुरुषों के लाभार्थ यू ० पी ० आर्ट प्रिंटिगवर्क्स कासगंज में
मास्टर रघुनन्दनलाल के प्रबन्ध से छपवाकर प्रकाशित किया |
विशेष सूचना
प्रियवर ! यह बात याद रखने के काबिल है कि श्रीमान विद्यावारिधि पण्डित ज्वालाप्रसाद मिश्र मुरादाबाद निवासी ने (एणेयं मांस) का जो भाष्य किया है वह भाष्य अधिकांश में न होजाने की बजह से सिर्फ शब्दमात्र का ही प्रयोग कर दिया है न कि व्युत्पत्ति आदि पर्यायवाची शब्दों से मांस शब्द के असली अभिप्राय को प्रकट किया हो ; जैसा कि इस पुस्तक में लिखा गया है , इसलिए मांस शब्द का अर्थ प्रचलित मांस समझ लेना यह अज्ञानता के कारण मनुष्यत्व के विरुद्ध असम्भव है क्योंकि जिस मनुष्य ने अपने असली मन्तव्य को ही प्रकट नहीं किया तो उस पर मनगढन्त अर्थानुसार दोषारोपण कैसे हो सकता है | कदापि नहीं ! यह तो मांस पार्टी और घास पार्टी जैसा कि तिमिर भास्कर के अन्तिम लेख से विदित होता है दयानन्दी नवीन मत में ही नियत की गई है ; जिनकी कि मांस युक्त शंकाओं को पं० धूरीलाल अपने १०००, मुद्रा पारितोषिक देने वाले विज्ञापन में ता० १३ जौलाई स० १९१४ को छपा चुके हैं | परन्तु आर्यसमाज कासगंज ने यथार्थ उत्तर नहीं दिया जिसकी कि समीक्षा पुस्तक के अन्त भाग में की गई है |
हस्ताक्षर कुन्दनलाल मास्टर मंत्री
* भूमिका *
आज कल संसार में बहुत से मतमतान्तर प्रचलित हो रहे हैं , और सबका मूल मन्तव्य उन्नति के शिखर पर चढ़ने का है मगर विचार कर देखागया तो बजाय उन्नति के अधोगति को प्राप्त हुए जान पड़ते हैं क्योंकि न तो देववाणी भाषा का ही परमज्ञान है न दिमागी स्मरण शक्ति | अगर है तो क्या है कि , दिमागी क्रूरता और जिह्वा की चपलता जैसा कि आर्य्यसमाज के हस्त लिखित तथा यन्त्रालय के छपे हुए विज्ञापनों से विदित होता है जिन्होंने कि श्री महाराज रामचन्द्र जी भगवान मर्यादा पुरुषोत्तम पर भी मांस भक्ष का दोषारोपण कर दिया | जिसका उत्तर वैदिक सत्य सनातन धर्म सभा कासगंज ने भिन्न भिन्न दृष्टान्तों से व्याख्यान द्वारा तथा नोटिस द्वारा दिया | कि श्री रामचन्द्र जी ने कभी भी उपरोक्त असम्भव वर्ताव नहीं किया , इस पर असंतुष्ट हो उपरोक्त आर्य्य समाज ने क्रोधानल में तप्त हो बहुत से अनर्गल शब्दों का आरोपण करते हुए चंद श्लोक बाल्मीकीय रामायण से लेकर पुनरपि मांस भक्षण की पुष्टी निमित्त छपबाया परन्तु सत्या सत्य का कुछ भी निर्णय नहीं किया | अब श्रीमान ब्रह्मऋषि भारद्वाज गोत्र पं० कल्याणदास सनाढ्यबंशोद्भव छर्रा प्रान्त अलीगढ़ तथा (वशिष्ठ गोत्र पं० जगन्नाथप्रसाद सनाढ्यबंशोद्भव पालक पिता कासगंज) निवासी तत्पुत्र पं० कुंदनलाल मास्टर मंत्री सनातनधर्म सभा कासगंज व वशिष्ठ गोत्र पं० दामोदर पाठक सनाढ्य वंशोद्भव तत्पुत्र पं० श्रीकृष्ण पाठक कासगंज निवासी ने अपने तन , मन , धन से परिश्रम उठा , यह दयानंदी आधुनिक मतमर्दन पुस्तक धर्म के ग्राहक प्रेमी सज्जन पुरुषों के निमित्त श्रीमान श्री १०८ सिद्धान्तवागीश द्विवेदी पं० दशरथ शास्त्री जी सूकर क्षेत्र (सोरों) प्रान्त एटा निवासी से निर्माण कराया जिससे उन भोले भाले पाठक गणों को जो विपक्षियों के नोटिस पढ़ भ्रान्त चित्त हो जाते हैं , पूरणरूप से विदित हो जायगा कि श्रीमान ब्रह्मऋषि बाल्मीक कृत रामायण के उन श्लोकों का जो आर्य्य समाज ने अपने नोटिस में छपवाये हैं यथार्थ अर्थ क्या है | और मांस शब्द का वहां पर किस वस्तु से सम्बन्ध रख प्रयोग किया गया है – आशा है कि प्रियवर इस पुस्तक को आद्योपान्त पढ़ हम उपरोक्त शुभ चिंतकों के परिश्रम को सफल कर नवीन मत वेद विरोधी के झूंठे जाली विज्ञापनों पर किंचित मात्र भी ध्यान न लायेंगे | और वैदिक सत्य सनातन धर्म की उन्नति के विषयों पर विचार करते हुए धर्म फल प्राप्त कर यश के भागी बन मेरे इस सूक्षम लेख की त्रुटियों को क्षमा योग्य समझ हर एक सज्जन पुरुष पूर्व महर्षियों के यथार्थ आन्तरिक भाव को जानने की कोशिश में तत्पर रहेंगे — इति
सत्य का ग्राहक
पं० कुंदन लाल मास्टर
प्रोग्रेसिव स्कूल (मंत्री सनातनधर्म सभा)
कासगंज
गौरनाद्यन्तवती सा जनित्री भूतभाविनी ।
सितासिता च रक्ता च सर्वकामदुधा विभोः ॥ ५॥ मान्त्रिकोपनिषत्
दानं स्वधर्मो नियमो यमश्च
श्रुतं च कर्माणि च सद्व्रतानि ।
सर्वे मनोनिग्रहलक्षणान्ता:
परो हि योगो मनस: समाधि: ॥ ११.२३ ४५ ॥ श्रीमद्भागवतपुराणम्
कर्माणि चित्तशुद्ध्यर्थं ऐकाग्र्यार्थमुपासना।
मोक्षार्थं ब्रह्मविज्ञानं इति वेदान्तडिण्डिमः।। २६।। वेदान्तडिण्डिमः
कर्मणा जायते भक्तिर्भक्त्या ज्ञानं प्रजायते ।
ज्ञानात्प्रजायते मुक्ति: इति शास्त्रेषु निश्चयः ।। (शिवपुराण -५. ५१.१०)
निष्काम भाव से अनुष्ठित स्वकर्मानुष्ठान के अमोघ प्रभाव से भगवद्भक्ति सुलभ होती है । भक्तिसे तत्त्वज्ञान समुत्पन्न होता है । ज्ञानसे मुक्ति सुलभ होती है । यह शास्त्रसम्मत सुनिश्चित सिद्धान्त है ।।
जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुह्रद परिवारा।।
सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी।।
अति दानाद् बलिर्बद्धः अति मानात् सुयोधनः ।
विनष्टो रावणो लौल्यात् अति सर्वत्र वर्जयेत् ॥
अतिरूपेण वै सीता अतिगर्वेणः रावणः ।
अतिदानाब्दलिर्बध्दो ह्यति सर्वत्र वर्जयेत् ।।१२।।
अत्यधिक दानशील होने के कारण दैत्यराज बलि ने स्वयं को बन्दी बनने दिया था और अत्यधिक अभिमानी होने के कारण कौरव सम्राट दुर्योधन तथा लोल्यता (अस्थिर मन तथा गर्व) के कारण राक्षसराज महाबली रावण का भी नाश हो गया | अतः किसी भी प्रवृत्ति या परिस्थिति का एक सर्वमान्य सीमा से अधिक होने से बचना चाहिये |
विश्वं दर्पणदृश्यमाननगरीतुल्यं निजान्तर्गतम्, पश्यन्नात्मनि माययाबहिरिवोद्भूतं यथा निद्रया।
यः साक्षात्कुरुते प्रबोधसमये स्वात्मानमेवाद्वयम्, तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥१॥
यह विश्व दर्पण में दिखाई देने वाली नगरी के समान है (अर्थात् अवास्तविक है), स्वयं के भीतर है, मायावश आत्मा ही बाहर प्रकट हुआ सा दिखता है जैसे नींद में अपने अन्दर देखा गया स्वप्न बाहर उत्पन्न हुआ सा दिखाई देता है।जो आत्म-साक्षात्कार के समय यह ज्ञान देते हैं कि आत्मा एक (बिना दूसरे के) है उन श्रीगुरुरूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥१॥
किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटिशतैरपि। दुर्लभा चित्तविश्रान्तिः विना गुरुकृपां पराम्॥१२८॥ स्कंदपुराणे उत्तरखंडे गुरुगीता
बहुत कहने से क्या ? करोडों शास्त्रों से भी क्या ? चित्त की परम् शांति, गुरु कृपा के बिना मिलना दुर्लभ है ।
ध्यानिकं सर्वं एवैतद्यदेतदभिशब्दितम् । न ह्यनध्यात्मवित्कश्चित्क्रियाफलं उपाश्नुते । । ६.८२ । । मनुस्मृतिः/षष्ठोध्यायः
यहां जो कुछ भी उजागर होता है वह दिव्य सार के ध्यान से प्राप्त होता है; क्योंकि कोई भी व्यक्ति जो (अध्यात्म ज्ञान में पारंगत नहीं है) यानी कि इन्द्रियां ,मन,बुद्धि और आत्मा कैसे एकदूसरे से संबद्ध हैं और परमात्मा के ज्ञान में परिनिष्ठित नहीं है, वह उसके प्रयासों का फल नहीं पा सकता है।
|| प्रकाशकीय वक्तव्य ||
आदि देव नमस्तुभ्यं प्रसीद मम भास्कर । दिवाकर नमस्तुभ्यं प्रभाकर नमोऽस्तु ते ||
रविर्विनायकश्चण्डी ईशो विष्णुस्तथैव च । अनुक्रमेण पूज्यन्ते व्युत्क्रमे तु महद्भयम् ॥
श्री सूर्य गीता नामक इस ग्रंथ का प्रणयन महर्षि वशिष्ठ ने किया था | इस सूर्य गीता नामक महा शास्त्र को समस्त वेदान्त दर्शन के गुह्यतम रहस्यों के विशदीकरण में सक्षम माना गया है | संस्कृत भाषा में तत्वसारायण नामक महर्षि वशिष्ठ प्रणीत एक महाग्रंथ है | यह सूर्य गीता उसी के अन्तर्गत है | इसमें सर्वप्रथम तो भगवान श्रीगुरु मूर्ति (दक्षिणामूर्ति) और ब्रह्मा जी का संवाद है और बाद में भगवान सूर्यनारायण और उनके सारथी अरुण का संवाद है | सनातन धर्म में पंचदेव पूजा का प्राधान्य है | करि मज्जनु पूजहिं नर नारी। गनप गौरी त्रिपुरारि तमारी॥ रमा रमन पद बंदि बहोरी। बिनवहिं अंजुलि अंचल जोरी॥ उन पञ्च देवताओं में सूर्य ही प्रत्यक्ष देव हैं | आशा है कि यह भाषा टीका सर्व साधारण को उपयोगी होगी , यदि इसमें कोई त्रुटि रह गई हो तो विद्वज्जन क्षमा करेंगे और ज्ञानपिपासू गण इसका समुचित आदर करेंगे | नटवत् कारणं ब्रह्म मायया शंकरोब्रवीत् | जीवाज्ञान निमित्तं तद्वभाषे भामतीपतिः || सूर्यगीता समाख्याता सारासार विनिर्णये | तत्व प्रबोधिनी नाम्नी हिन्दी व्याख्या मया कृता || श्री सूर्यस्य प्रसादेन यत्किञ्चित् प्रोच्यते मया | गुणस्संगृह्यतां तस्माद् गुण दोष विवेकिभिः || ॐ आदित्याय विद्महे दिवाकराय धीमहि तन्नो: सूर्य: प्रचोदयात।
श्रीगुरुपदानुरक्त –
स्वामी निर्दोष
प्रस्तावना :-
कश्यपात्मज ,अदिति नंदन भगवान भास्कर श्रौत,स्मार्त परम्परा में पंचदेवों में से एक हैं | ये गुरुमूर्ति स्वरूप भगवानसूर्य ही अरुण ,वैवस्वतमनु ,हनुमान तथा योगी याज्ञवल्क्य के गुरु तथा शुक्ल यजुर्वेद के प्रवर्तक हैं | सनातन धर्म के नित्यकर्मों में सर्वप्रथम सन्ध्योपासना {सूर्योपासना} ही की जाती है तथा अन्य धार्मिक कृत्य भी पूर्व अर्थात सूर्योदय की दिशा में मुख करके भगवान सूर्य को साक्षी मानकर ही किये जाते हैं | वेदों में उदित होते हुए सूर्य की किरणों का बहुत महत्व बताया गया है | उद्यन्त्सूर्यो नुदतां मृत्युपाशान्। -अथर्ववेद १७ /१ /३० अर्थात् उदित होता हुआ सूर्य मृत्यु के सभी कारणों अर्थात सभी रोगों को नष्ट करता है। सूर्य की किरणें मनुष्य को मृत्यु से बचाती हैं | अर्थात मृत्यु के बंधनों को यदि तोड़ना है, तो सूर्य के प्रकाश से अपना संपर्क बनाए रखें | सूर्यस्त्वाधिपतिर्मृत्योरुदायच्छतु रश्मिभिः ॥१५॥ – अथर्ववेद -काण्ड ५ सूक्त ३० || उत्क्रामातः पुरुष माव पत्था मृत्योः पड्वीषमवमुञ्चमानः । मा छित्था अस्माल्लोकादग्नेः सूर्यस्य संदृशः ॥४॥ – अथर्ववेद -काण्ड ८ सूक्त १ || अर्थात सूर्य के प्रकाश में रहना अमृत के लोक में रहने के तुल्य है। चूंकि भगवान सूर्य परमात्मा नारायण के साक्षात् प्रतीक हैं, इसलिए वे सूर्यनारायण कहलाते हैं। सूर्य ही ब्रह्मा का आदित्य रूप हैं। ये ही जगत के एकमात्र नेत्र (प्रकाशक) हैं, समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का कारण और पालनहार हैं। प्रत्यक्ष देवता हैं, जिनका अवतरण ही संसार के कल्याण के लिए हुआ है | सूर्य ही एक ऐसे देव हैं, जिनकी उपासना से हमें प्रत्यक्ष फल प्राप्त होता है, मनोकामनाएं पूरी होती हैं। वेदों में ओजस्, तेजस् एवं ब्रह्मवर्चस की प्राप्ति के लिए सूर्य की उपासना करने का विधान है। सूर्य मानव मात्र के समस्त शुभ और अशुभ कर्मों के साक्षी हैं। उनसे हमारा कोई भी कार्य या व्यवहार छिपा नहीं रह सकता, क्योंकि सूर्य विश्व चक्षु जो है |
सूर्य उपनिषद के अनुसार समस्त देव, गंधर्व एवं ऋषि भी सूर्य रश्मियों (किरणों) में निवास करते हैं। अतः सूर्य की किरणों और उनके प्रभावों की प्राप्ति के लिए ही प्रत्येक शुभ कार्यों व संस्कारों को करते समय पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठने की परंपरा हमारे वेदों के निर्देशों पर की गई है, ताकि धार्मिक व्यक्ति इसका अधिक-से-अधिक लाभ उठा सकें। उल्लेखनीय है कि इस समय की किरणों में अवरक्त (infrared) किरणें होती हैं, जिनमें रोगों को नष्ट करने की विशेष क्षमता होती है। सूर्य की सात अलग-अलग रंगों की किरणों से सात प्रकार की ऊर्जा भी प्राप्त होती है।
१. प्रज्ञा शक्ति २. प्राणशक्ति ३. ज्ञानशक्ति ४. क्रियाशक्ति ५. इच्छाशक्ति ६. जातिस्मरत्वशक्ति ७. मेधाशक्ति | इस ऊर्जा के कारण सभी धार्मिक अनुष्ठान सफल होते हैं। सूर्य की अवरक्त किरणें सीधे छाती पर पड़ती रहें, तो उनके प्रभाव से व्यक्ति सदा निरोग रहता है। इसलिए प्रातः सूर्योदय के समय पूर्व की ओर मुख करके सूर्य नमस्कार, सूर्य उपासना, संध्योपासना, पूजा-पाठ, हवन आदि शुभ कार्य करना बहुत लाभदायक है | सूर्यदेव की उपासना करने के लिए कुछ प्रधान मन्त्र इस प्रकार से हैं —
ॐ जपाकुसुम संकाशं काश्यपेयं महाद्युतिम् | तमोरिं सर्वपापघ्नं प्रणतोस्मि दिवाकरम् ||
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं स: सूर्याय नम:।।
ॐ ह्रीं घृणिः सूर्य आदित्य श्रीं ॐ ।
ॐ ह्रीं घृणिः सूर्य आदित्यः क्लीं ॐ ।
ॐ आदित्याय विद्महे मार्तण्डाय धीमहि तन्नो सूर्य: प्रचोदयात्।
ॐ आदित्याय विद्महे प्रभाकराय धीमहि तन्नो सूर्य प्रचोदयात् |
ॐ आदित्याय विद्महे सहस्र किरणाय धीमहि तन्नो सूर्य: प्रचोदयात् ।।
ॐ सप्ततुरंगाय विद्महे सहस्रकिरणाय धीमहि तन्नो रवि: प्रचोदयात् ।
एहि सूर्य सहस्रांशो तेजोराशे जगत्पते। अनुकम्पय मां भक्त्या गृहणार्घ्यं दिवाकर।।
यो देवः सवितास्माकं धियो धर्मादिगोचरः। प्रेरयेत् तस्य यद् भर्गः तं वरेण्यमुपास्महे।।
ह्रीं यो देवः सवितास्माकं मनः प्राणेन्द्रियक्रियाः ॥ प्रचोदयति तद्भर्गः वरेण्यं समुपास्महे ॥
ॐ श्री सूर्याय नमः ||
इन मन्त्रों में से किसी एक मन्त्र का गुरु के आदेशानुसार जप (अनुष्ठान) आदि करना चाहिये | प्रणाम करने के लिए कोई भी मन्त्र ले सकते हैं |
स्वामी निर्दोष
विषय सूची
प्रथमोऽध्यायः
द्वितीयोध्यायः
तृतीयोध्यायः
चतुर्थोध्यायः
पञ्चमोध्यायः
श्री सूर्यदेव चालीसा
श्री सूर्यदेव की आरती
नाम त्रय मन्त्र विधान
श्री सूर्यगीता मूलपाठ
अथर्ववेदीय सूर्य उपनिषद
संक्षिप्त रुद्राभिषेक विधि
सनातन धर्मावलंबियों के लिये सामान्य ज्ञान
दयानंदी आधुनिक मतमर्दन
|| आदित्यहृदयम् ||
|| सूर्य उपस्थानम् ||
|| सूर्य देव की आरती २||
।। प्रात:स्मरणम् ।।
|| श्री सूर्य गीता ||
॥ श्री गणेशाय नमः ॥
॥ॐ नमो भगवते भुवन भास्कराय॥
॥ अथ सूर्यगीता प्रारभ्यते ॥
|| अथ प्रथमोऽध्यायः ||
ब्रह्मा उवाच
प्रपंचसृष्टिकर्मेदं मम श्रीगुरुनायक। अहार्यं द्विपरार्धान्तमाधिकारिकतावशात् ॥१.१॥
ब्रह्मा जी ने कहा — हे श्री गुरुनायक ! ( श्री दक्षिणामूर्ति भगवान ) इस दुनिया को बनाने का यह कार्य , जो मेरा (अहार्य) अत्याज्य , अटल कर्तव्य है , क्योंकि मुझे इस कार्य को करने लिये आधिकारिक पुरुष के रूप में नियुक्त किया गया है | और यह मेरे जीवन काल के दो परार्ध पर्यन्त दीर्घ काल तक चलता रहता है | ॥ १ ॥
इति त्वद्वदनाम्भोजात्सम्यग्विदितवानहम्। तथाप्यत्र न मे चिन्ता जायते त्वत्कृपाबलात् ॥१.२॥
आधिकारिक पुरुषों का शरीर परिवर्तन नहीं होता यह भी मैंने आपके श्रीमुख से भली प्रकार से जाना लिया है , फिर भी आपकी अनुकम्पा के बल से मेरे मन में इससे संबंधित कोई चिंता या संदेह नहीं है | ॥ २ ॥
त्वयि प्रसन्ने मय्येवं बोधानन्दस्वरूपतः। पुनर्जन्मभयाभावाद्धीर एवास्मि वृत्तिषु ॥१.३॥
आपके कृपा प्रसाद से ही मैंने अपने चिदानंद स्वरूप को पहचाना है , {मैं ज्ञान स्वरूप हूँ और ज्ञान के सिवाय दूसरा कोई आनन्द नहीं है (जैसे मूर्छित व्यक्ति को कोई आनन्द नहीं मिलता है) तथाज्ञान का नाश भी कभी नहीं होता है } जिससे मुझे पुनर्जन्म का भी भय नहीं है | और मैं अपने कर्तव्य के बारे में आश्वस्त हूँ तथा वृत्तियों के परिवर्तन में मैं धैर्यपूर्वक रह सकता हूँ | ॥ ३ ॥
तथापि कर्मभागेषु श्रोतव्यमवशिष्यते। तत्सर्वं च विदित्वैव सर्वज्ञः स्यामहं प्रभो ॥१.४॥
हे प्रभो ! फिर भी मुझे कर्मों का विभाग जानना, सुनना बाकी है , जैसे कि विहितकर्म , निषिद्ध कर्म , नित्यकर्म ,(नियमेन भवं नित्यं , जो रोज – रोज नियमसे करना पड़े वह नित्यकर्म है) नैमित्तिककर्म , प्रायश्चित्तकर्म , काम्यकर्म , सञ्चितकर्म , क्रियमाणकर्म , प्रारब्ध कर्म , इष्टकर्म , पूर्तकर्म , दान , पुण्य ,यज्ञ आदि कर्म उसके बिना मेरा ज्ञान पूर्ण नहीं हो सकता | कर्म विभाग को जानकर ही मैं सर्वज्ञ हो सकूँगा | ॥ ४ ॥
जगज्जीवेश्वरादीनां प्रागुत्पत्तेर्निरंजनम्। निर्विशेषमकर्मैकं ब्रह्मैवासीत्तदद्वयम् ॥१.५॥
जगत , जीव और ईश्वर आदि की उत्पत्ति से पूर्व केवल एक निरंजन (बेदाग, माया से रहित) अखण्ड , अद्वय (माया से असंश्लिष्ट) , निर्विशेष , अकर्ता , अद्वय ब्रह्म ही था। जिसको ओंकार का चतुर्थ पाद कहा जाता है।
‘‘नान्तःप्रज्ञं न बहिष्प्रज्ञं नोभयतःप्रज्ञं न प्रज्ञानघनं न प्रज्ञं नाप्रज्ञम्।अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः ॥ ७ ॥ माण्डुक्योपनिषद् ’’
वह न अन्तःप्रज्ञ है न बहिष्प्रज्ञ है, न उभय-प्रज्ञ अर्थात् अन्तः एवं बहिष्प्रज्ञ एक साथ है, न वह प्रज्ञान-घन है, न प्रज्ञ (ज्ञाता) है, न अप्रज्ञ (अज्ञाता) है। वह जो अदृष्ट है, अव्यवहार्य है, अग्राह्य है, अलक्षण है, अचिन्त्य है, अव्यपदेश्य अर्थात् अनिर्देश्य है, ‘आत्मा’ के ऐकान्तिक अस्तित्व का बोध ही जिसका सार है, ‘जिसमें’ समस्त प्रपञ्चात्मक जगत् का विलय हो जाता है, जो ‘पूर्ण शान्त’ है, जो ‘शिवम्’ है-मंगलकारी है, और जो ‘अद्वैत’ है, ‘उसे’ ही चतुर्थ (पाद) माना जाता है; ‘वही’ है ‘आत्मा’, एकमात्र ‘वही’ ‘विज्ञेय’ (जानने योग्य तत्त्व) है। ॥ ५ ॥
तस्य जीवेशस्रष्टृत्वं प्रोच्यते वेदवादिभिः। अकर्मणः कथं सृष्टिकर्म कर्तृत्व मुच्यते ॥१.६॥
उस परब्रह्म के बारे में वेदों को जानने वाले विद्वान कहते हैं कि उसी परब्रह्म ने जीव और जगत की रचना की (जन्माद्यस्य यतः ब्र.सूत्र १.१.२) ‘‘जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् ।’’ तथा ‘‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते ।’’ और यह भी कहते हैं कि ‘‘निष्कलं निष्क्रियं शान्तं निरवद्यं निरञ्जनम् |’’ ‘‘न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।’’ तो मेरी समझ यह नहीं आता कि जिसको निर्विशेष,निष्क्रिय और अकर्ता कहा जाता है वह परब्रह्म सृष्टि का कर्ता कैसे हो गया ?॥६॥
सकर्मा सेन्द्रियो लोके दृश्यते न निरिन्द्रियः। ब्रह्मणोऽतीन्द्रियत्वं च सर्वशास्त्रेषु घुष्यते ॥१.७॥
इस दुनिया की गतिविधियों में लगे हुए लोगों को इन्द्रियों के सहित ही देखा जाता है वे इन्द्रियों से रहित नहीं होते हैं | लेकिन शास्त्रों में ब्रह्म को अतीन्द्रिय (निरीन्द्रिय) बताया गया है | तो फिर इन्द्रियों की सहायताके बिना उसने जगत रचना का कार्य सम्पन्न कैसे किया ?
‘‘न तस्य कार्यं करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते।
परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया || ८ || श्वेताश्वतरोपनिषद्षष्ठोऽध्यायः’’
उस ‘देव’ का करणीय कर्म कुछ है ही नहीं, न ही उसके कर्म का कोई करण (साधनभूत अंग) है, न ही कोई ‘उससे’ बढ़कर है न ही हमें ‘उसके’ समान कोई दिखायी पड़ता है-क्योंकि ‘उसकी’ शक्ति अन्य सबसे बहुत अधिक बढ़कर, सबसे परे है, मनुष्य केवल विविध नामों तथा विविध रूपों में उसका वर्णन सुनते हैं। वस्तुतः ‘उसका’ बल, ‘उसकी’ क्रियाएँ तथा ‘उसका’ ज्ञान स्वभावतः आत्म-समर्थ तथा स्वयं ही स्वयं का कारण हैं।
‘‘न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनो न विद्मो न विजानीमो यथैतदनुशिष्यात्। अन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि। इति शुश्रुम पूर्वेषां ये नस्तद्व्याचचक्षिरे || १.३ || केनोपनिषद्’’
वहाँ न चक्षु जा सकता है, न वाणी, न ही मन। हम न ‘उसे’ जानते हैं न यह जान पाते हैं कि ‘उसकी’ शिक्षा कैसे दी जाये; क्योंकि ‘वह’ विदित से अन्य है; तथा अविदित से भी परे है; ‘वह’ ऐसा है यह हमने उन पूर्वजों से सुना है जिन्होंने उस ‘परतत्त्व’ की हमारे बोध के लिए व्याख्या की है।
‘‘यतो वाचो निवर्तन्ते। अप्राप्य मनसा सह। आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान्। न बिभेति कुतश्चनेति। एतं ह वाव न तपति। किमहं साधु नाकरवम्। किमहं पापमकरवमिति।स य एवं विद्वानेते आत्मानं स्पृणुते। उभे ह्येवैष एते आत्मानं स्पृणुते। य एवं वेद। इत्युपनिषत् || १ || तैत्तिरीयोपनिषद् ब्रह्मानन्दवल्ली नवमोऽनुवाकः’’
‘ब्रह्म’ का वह आनन्द जहाँ से कुछ भी प्राप्त किए बिना वाणी वापिस लौट आती है तथा मन भी जहाँ पहुँच कर विस्मय से चकित होकर लौट आता है, ‘ब्रह्म’ के उस आनन्द को कौन जानता है? वह जो उसे जानता है वह चाहे इस जगत् में, चाहे अन्यत्र, कहीं भी, भयभीत नहीं होता। वास्तव में उसको कोई सन्ताप (दुःख) नहीं होता तथा ये पीड़ापूर्ण भाव उसके मन में नहीं आते-”मैंने सत्कर्म को करना क्यों छोड़ दिया तथा मैंने उस पापकर्म का आचरण क्यों किया? क्योंकि जो ‘नित्यब्रह्म’ को जानता है वह इन्हें जानता है, वह यह जानता है कि ये सभी उसके ‘आत्मतत्त्व’ के समान ही हैं; हाँ,वह जानता है कि ये शुभ एवं अशुभ दोनों क्या हैं तथा ‘ब्रह्म’ को ऐसा जानते हुए वह आत्मा को मुक्त करता है। और यही है उपनिषद्, यही है वेद का रहस्य | ॥७॥
नश्यमानतयोत्पत्तिमत्वादाद्यस्य कर्मणः। न मुख्यमवकल्पेताप्यनादित्वोपवर्णनम् ॥१.८॥
जो अनादि होता है वह अनन्त भी होता है और जो उत्पन्न होता वह नष्ट भी होता है तो फिर उस अनादि और अविनाशी जगत्कर्ता से विनाशी जगत कैसे उत्पन्न हुआ ? क्योंकि कार्य अपने कारण से भिन्न नहीं होता है | यदि कार्य विघटन के अधीन है तो कारण अनादि कैसे हो सकता है ? || ८ ||
ब्रह्म चेत्कर्म कुर्वीत येनकेनापि हेतुना। तथा च संसृतिस्तस्य प्रसज्येत तु नात्मनः ॥१.९॥
यह कहा जाता है कि आत्मा (ब्रह्म) कर्ता नहीं है , यदि ब्रह्म किसी भी कारण से कर्म करता है तो वह कर्मफल से मुक्त नहीं हो सकता अर्थात उसका संसारित्व निवृत्त नहीं होगा | क्योंकि ‘‘कर्तृत्व भोक्तृत्व लक्षणं संसारः’’ जैसा करना वैसा भोगना यही तो संसार है | ॥९॥
तस्मादाद्यस्य पुण्यस्य पापस्य च दयानिधे। कर्मणो ब्रूहि मे स्पष्टमुपपत्तिं गुरूत्तम ॥१.१०॥
इसलिए हे दया के सागर ! हे श्रेष्ठ आचार्य ! मुझे स्पष्ट रूप से प्रधान कर्ता (आद्यकर्ता,प्रथम कर्ता) के बारे में बताएं तथा पाप कर्म और पुण्य कर्म के बारे में भी बताएं | || १.१० ||
इत्युक्तो विधिना देवो दक्षिणामूर्तिरीश्वरः। विचित्रप्रश्नसन्तुष्ट इदं बचनमब्रवीत् ॥१.११॥
इस प्रकार ब्रह्मा जी के पूछने पर भगवान दक्षिणामूर्ति ने विभिन्न प्रकार के विचित्र प्रश्नों से संतुष्ट होकर ये वचन कहे। ||११||
श्रीगुरु मूर्तिरुवाच
ब्रह्मन्साधुरयं प्रश्नस्तव प्रश्नविदां वर। शृणुश्व सावधानेन चेतसास्योत्तरं मम ॥१.१२॥
भगवान् दक्षिणामूर्ति बोले , हे जिज्ञासुओं में श्रेष्ठ ब्रह्मन् ! तुम्हारा यह प्रश्न उत्तम है | अब तुम मेरे द्वारा दिये गए उत्तर को सावधान चित्त होकर ध्यान से सुनो। ||१२||
प्रागुत्पत्तेरकर्मैकमकर्तृ च निरिन्द्रियम्। निर्विशेषं परं ब्रह्मैवासीन्नात्रास्ति संशयः॥१.१३॥
सृष्टि के पहले केवल कर्महीन , सभी इन्द्रियों से रहित , अकर्ता , निर्विशेष सर्वोच्च ब्रह्म का ही अस्तित्व था। इसके बारे में कोई संदेह नहीं है।
‘‘न तस्य कश्चित्पतिरस्ति लोके न चेशिता नैव च तस्य लिङ्गम्।
स कारणं करणाधिपाधिपो न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिपः ||६.९ || श्वेताश्वतरोपनिषद्’’
इस लोक में ‘उसका’ कोई स्वामी नहीं है, न ही कोई ‘उसके’ ऊपर शासनकर्ता है। न हीं ‘उसका’ कोई रूप है न कोई लिंग है; क्योंकि ‘वह’ स्वयं ही उत्पत्ति का कारण तथा प्रकृतिगत करणों (साधनों) के अधिपतियों का भी अधिपति’ है, किन्तु न कोई उसका जनक (उत्पत्तिकर्ता) है न ही कोई ‘उसका’ अधिपति-स्वामी है। ||१३||
तथापि तस्य चिच्छक्तिसंयुतत्वेन हेतुना। प्रतिच्छायात्मिके शक्ती मायाविद्ये बभूवुतुः ॥१.१४॥
फिर भी चेतना की शक्ति से संपन्न होने के कारण उस चिच्छक्ति के सहयोग से उस ब्रह्म की माया और अविद्या नाम वाली दो शक्तियां प्रतिबिंब के रूप में अस्तित्व आईं |
‘‘मायाविद्ये विहायैवमुपाधी परजीवयोः ।
अखण्डं सच्चिदानन्दं परं ब्रह्मैव लक्ष्यते ॥ ४८॥ पञ्चदशी/प्रथमप्रकरणम्’’ ,
इन जीव एवं ईश्वर के माया और अविद्यारूप उपाधियों के त्याग कर देने पर अखंड सच्चिदानन्द स्वरूप ब्रह्म ही लक्षित होता है | अवशिष्ट रहता है। || १४ ||
अद्वितीयमपि ब्रह्म तयोर्यत्प्रतिबिम्बितम्। तेन द्वैविध्यमासाद्य जीव ईश्वर इत्यपि ॥१.१५॥
चेतन का कभी भी नाश नहीं होता और वह सर्वत्र एक ही है इसलिये उसे अद्वितीय कहते हैं। पदार्थ और चेतन की विभाजक रेखा को आजतक कोई भी स्पष्ट नहीं कर पाया अन्यथा अन्न से मन का निर्माण कैसे होता ? और बैसे ही न दिखाई देने वाले मन से बड़े -बड़े मकान , बड़े-बड़े पुल , हवाईजहाज इत्यादि कैसे बन जाते ? यद्यपि ब्रह्म अद्वितीय है तथापि माया और अविद्या में प्रतिबिंबित होने के कारण उसे दो रूप प्राप्त हुए – एक जीव और दूसरा ईश्वर | माया में प्रतिबिंबित चेतन ईश्वर संज्ञक हुआ और अविद्या में प्रतिबिंबित चेतन जीव नाम वाला हुआ |
‘‘अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके।।८.१८।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
(ब्रह्माजी के) दिन का उदय होने पर अव्यक्त से (यह) व्यक्त (चराचर जगत्) उत्पन्न होता है; और (ब्रह्माजी की) रात्रि के आगमन पर उसी अव्यक्त में लीन हो जाता है।
‘‘एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म {छान्दोग्य ६.२.१}’’ सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ” {तैत्तिरीय २.१.१}
ब्रह्म ही एक मात्र सत्ता है। उसके अतिरिक्त कोई अन्य दूसरी सत्ता नहीं है। सत् तथा असत् इसी के रूप हैं। यह सत् और असत् दोनों से परे भी है। इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। तीनों काल में जो कुछ है और तीनों काल से परे जो कुछ है वह वास्तव में एकमात्र वही ब्रह्म है। ब्रह्माण्ड में जो कुछ है लघु या विशाल, उदात्त अथवा हेय वह केवल ब्रह्म है, केवल ब्रह्म । विश्व भी ब्रह्म है । यह सत्य है, मिथ्या नहीं।
दिक्कालाद्यनवच्छिन्नानंतचिन्मात्रमूर्तये।
स्वनुभूत्येकमानायनम: शान्ताय तेजसे ||१|| भर्तृहरि नीति शतकम् ||
मैं उस शांत तथा तेजस्वरुप ब्रह्म को नमस्कार करता हूँ, जो दिशा-काल आदि की सीमा से परे, अनंत, चैतन्य स्वरुप, केवल स्वानुभव के द्वारा ही बोधगम्य है। || १५ ||
पुण्यपापादिकर्तृत्वं जगत्सृष्ट्यादिकर्तृताम्। अभजत्सेन्द्रियत्वं च सकर्मत्वं विशेषतः ॥१.१६॥
फिर ब्रह्म ने विभिन्न गतिविधियों को स्वीकार किया – पुण्य और पापों का कर्ता , जगत का निर्माता , इन्द्रियों आदि के साथ मिलकर इन्द्रियों वाला और विशेष रूप से अपने कर्मों का फल धारण करने वाले रूप को ग्रहण किया | इस प्रकार एक ही ब्रह्म सेन्द्रिय और सकर्मा बन गया जैसे कोई लाल कपड़ा पहन कर लाल कपड़े वाला बन जाता है अथवा जैसे नाटक में कभी कभी एक ही व्यक्ति अनेक अभिनयों को करता है।
‘‘स वै नैव रेमे । तस्मादेकाकी न रमते । स द्वितीयमैच्छत् । स हैतावानास यथा स्त्रीपुमांसौ सम्परिष्वक्तौ । स इममेवात्मानं द्वेधापातयत् । ततः पतिश्च पत्नी चाभवताम् । तस्मादिदमर्धबृगलमिव स्व इति ह स्माह याज्ञवल्क्यः । तस्मादयमाकाशः स्त्रिया पूर्यत एव । तां समभवत् । ततो मनुष्या अजायन्त ॥ १,४.३ ॥बृहदारण्यकोपनिषद्’’
वे भगवान अकेले रमण नहीं करते। उन्होंने दूसरे की इच्छा की। उन्होंने अपने ही शरीर को दो भागों में बांट दिया। उस विभाजन से पति और पत्नी उत्पन्न हुए। उन्होंने अपने में से ही दूसरा स्वरूप प्रकट किया। वे ही पति भी बने और वे ही पत्नी भी बने।
तदैक्षत एकोऽहं बहु स्याम्–(छान्दोग्य उपनिषद् ६.२.३)|
यद्यपि मैं अकेला हूँ, किन्तु मैं अनेक हो जाउँगा | वे इस भौतिक शक्ति में अपना विस्तार करते हैं और सारी विराट अभिव्यक्ति पुनः घटित हो जाती है। || १६ ||
यः स्वशक्त्या समुल्लास उदभूत्परमात्मनः। स्वबन्धजनकं सूक्ष्मं तदाद्यं कर्म कथ्यते ॥१.१७॥
यह जो अपनी ही शक्ति का समुल्लास है जैसे शांत समुद्र अचानक तरंगायित हो उठे, सर्वोच्च आत्मा का यह सूक्ष्म खेल जो कि उसकी अपनी स्वयं की शक्ति का उपयोग करके हुआ , जिसके परिणामस्वरूप यह आत्मबंधन का कारण हुआ | जिसे प्रथम गतिविधि कहा जा सकता है | जैसे दर्पण में बालक अपने ही प्रतिबिम्ब से खेले और उसे अपना शत्रु या मित्र मान बैठे | मन जब दश इन्द्रियों पर काबू रखता है तब दशरथ कहलाता है और तभी इसके आँगन में बालरूप राम खेलते हैं तथा जब यह मन दश इन्द्रियों का संयम नहीं रख पाता तब दशमुख रावण हो जाता है। || १७ ||
न तेन निर्विशेषत्वं हीयते तस्य किंचन। न च संसारबन्धश्च कश्चिद्ब्रह्मन्प्रजायते ॥१.१८॥
हे ब्रह्मन् ! इससे ब्रह्म की एकरूपता या समरूपता प्रभावित नहीं होती |और संसार में ब्रह्म का बंधन भी नहीं होता | ब्रह्म स्वरूप से तो एक अकेला निर्विशेष ही है | जब भी वह अपने को अन्तर्मुख होकर देखेगा तो मालूम पड़ेगा कि यहां मेरे सिवा दूसरा कोई नहीं है | जैसे स्वप्न में अनेक दृश्य दीखते हैं परन्तु असल में वहां आपके सिवा दूसरा कोई नहीं होता | जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें।। जो निर्गुण है वही सगुण कैसे है? जैसे जल और ओले में भेद नहीं। (दोनों जल ही हैं, ऐसे ही निर्गुण और सगुण एक ही हैं।)
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा।।
अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई।।
सगुण और निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं है- मुनि, पुराण, विद्वानपण्डित और वेद सभी ऐसा कहते हैं। जो निर्गुण, अरूप (निराकार), अलख (अव्यक्त) और अजन्मा है, वही भक्तों के प्रेमवश सगुण हो जाता है। || १८ ||
पारमार्थिकसंसारी जीवः पुण्यादिकर्मवान्। प्रातिभासिकसंसारी त्वीशः सृष्ट्यादिकर्मवान् ॥१.१९॥
जीव एक सांसारिक प्राणी है जो इस दुनिया को वास्तविक मानता है और शुभ तथा अशुभ कर्म करता है | लेकिन ईश्वर भी एक सांसारिक प्राणी है जो इस दुनिया को प्रातिभासिक , प्राकृतिक प्रातीतिक अथवा स्वप्नवत् भ्रम होना जानता है और इस विश्व का निर्माण , रखरखाव और विनाश जैसी गतिविधियों में शामिल है | अर्थात जीव का संसारित्व वास्तविक है और ईश्वर का संसारित्व काल्पनिक , अध्यारोपित है।
‘‘मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।९.१० ।।’’ (श्रीमद् भगवद्गीता)
हे कौन्तेय ! मुझ अध्यक्ष के कारण ( अर्थात मेरी अध्यक्षता में) प्रकृति चराचर जगत् को उत्पन्न करती है; इस कारण यह जगत् घूमता रहता है।
‘‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।१८.६१।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
हे अर्जुन ! ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें रहता है और अपनी मायासे शरीररूपी यन्त्रपर आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको (उनके स्वभावके अनुसार) भ्रमण कराता रहता है। ||१९||
असंसारि परं ब्रह्म जीवेशोभयकारणम्। ततोऽप्यतीतं नीरूपमवाङ्मनसगोचरम् ॥१.२०॥
लेकिन परब्रह्म कोई सांसारिक प्राणी नहीं है और वह जीव तथा ईश्वर दोनों का कारण है | वह इन दोनों से परे है | वह परब्रह्म तो निराकार है इसलिए वाणी , इन्द्रियों और मन से उसका निर्वचन , ग्रहण या कल्पना नहीं की जा सकती।
‘‘न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥२.११’’ (मुण्डकोपनिषद्)
वहां न सूर्य प्रकाशित होता है और जहाँ चन्द्र आभाहीन हो जाता है तथा तारे बुझ जाते हैं; वहां ये विद्युत् भी नहीं चमकता, तो फिर यह पार्थिव अग्नि भी वहां कैसे जल पाएगी? जो कुछ भी चमकता है, वह सब उसकी आभा से अनुभासित होता है, यह सम्पूर्ण विश्व उसी के प्रकाश से प्रकाशित एवं भासित हो रहा है।
‘‘न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।१५ .६ ।। भगवद्गीता’’
उसे न सूर्य प्रकाशित कर सकता है (सूर्य माने चक्षु इन्द्रिय) और न चन्द्रमा (चन्द्रमा माने मन) और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकता है। (अग्नि माने वाणी) जिसका गुणकथन, व्याख्यान नहीं कर सकती। जिसे प्राप्त कर मनुष्य पुन: (संसार में) नहीं लौटते हैं, वह मेरा परम धाम है। ||२०||
कर्मवन्तौ परित्यज्य जीवेशौ ये महाधियः। अकर्मवत्परं ब्रह्म प्रयान्त्यत्र समाधिभिः ॥१.२१॥
जो बुद्धिमान पुरुष कर्म और गुणत्रय से सम्बन्ध रखने वाले जीव और ईश्वर को छोड़ देते हैं , और कर्म एवं गुणत्रय से सम्बन्ध न रखने वाले ब्रह्म के प्रति समर्पित होते हैं वे समाधि तक पहुंचते हैं। ‘‘समाधिभिः’’ यह तृतीया बहुवचन है अर्थात् समाधि के साधनों के द्वारा। और उस समाधि के मुख्य चार साधन हैं १. शम (मन की वृत्तियों का शमन करना) २. संतोष ३.सत्संग ४. विचार
“मोक्षद्वारे द्वारपालाश्चत्वारः परिकीर्तिताः । शमो विचारः संतोषश्चतुर्थः साधुसंगमः ।। २.५९ ।। योगवासिष्ठः (मुमुक्षुव्यवहारप्रकरणम्) सर्गः ११ ||
शम (मनोनिग्रह), विचार,(नित्य क्या है और अनित्य क्या है इसका विचार) संतोष = सरल सुभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई॥ सरल स्वभाव हो, मन में कुटिलता न हो और जो कुछ मिले उसी में सदा संतोष रखे॥ एवं सत्संग ये ही मोक्षद्वार के चार द्वारपाल के रूप में कहे गये हैं। यदि इनमें से किसी एक का भी आश्रय प्राप्त कर लिया जाये, तो शेष तीनों द्वारपाल सहजतापूर्वक स्वयमेव ही अपने वश में हो जाते हैं।
सतसंगति मुद मंगल मूला । सोइ फल सिधि सब साधन फूला ॥
उत्तम कर्म एवं उत्तम भावना की वृद्धि के लिए सतसंग ही एक मात्र उपाय है। सदा सत्पुरुषों का ही संग करना चाहिए क्योंकि मनुष्य पर संगत का सबसे बड़ा प्रभाव पड़ता है। सत्पुरुषों के गुण आचरण और उनके द्वारा दी गई शिक्षा को जानना समझना और आत्मसात कर के अपने जीवन में धारण करना और सत् शास्त्र का अध्ययन मनन और अभ्यास करना भी संत संग के समान ही माना गया है।
हानि कुसंग सुसंगति लाहू । लोकहु वेद विदित सब काहू ॥
कुसंगतिसे हानि होती है और सत्संगतिसे लाभ होता है। यह तथ्य लोक और वेंदों में प्रसिद्ध है इसे सब जानते हैं। सुसंगति पाकर ज्ञान उत्पन्न होता है और कुसंगति से ज्ञान नष्ट हो जाता है । ॥२१॥
ते विदेहविमुक्ता वा जीवन्मुक्ता नरोत्तमाः। कर्माकर्मोभयातीतास्तद्ब्रह्मारूपमाप्नुयुः ॥१.२२॥
और जब एक बार ब्रह्म ज्ञान हो जाए फिर चाहे वे महापुरुष विदेह मुक्त हो या जीवन्मुक्त , वे कर्म और अकर्म दोनों से ऊपर उठ जाते हैं | और अरूप माने निराकार ब्रह्म को प्राप्त होते हैं |
‘‘यदा पश्यः पश्यते रुक्मवर्णं कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम्।
तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति || ३.१.३ || मुण्डकोपनिषद्’’
जब द्रष्टा उस ‘स्वर्णवर्ण’, कर्ता ‘ईश’, ‘पुरुष’ को देखता है जो ‘महद्ब्रह्म’ (प्रकृति) की योनि है तब वह ज्ञाता बनकर अपने पंखों से पाप एवं पुण्य को झटकार कर, ‘निरंजन’, निष्कलंक होकर परम तादात्म्य (साम्य) का लाभ करता है।
‘‘मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्।
संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत।।१४.३।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
हे भारत ! मेरी महद् ब्रह्मरूप प्रकृति, (भूतों की) योनि है, (मेरी मूल प्रकृति जो उत्पत्ति स्थान है) जिसमें मैं जीवरूप गर्भका गर्भाधान करता हूँ; इससे समस्त भूतों की (प्राणियोंकी) उत्पत्ति होती है। जिसने अपने अरूप रूप स्वरूप को जान लिया उसे फिर दुनियाँ में किसी की परवाह नहीं रहती। ||२२||
कर्मणा संसृतौ बद्धा मुच्यन्ते ते ह्यकर्मणा। बन्धमोक्षोभयातीताः कर्मिणो नाप्यकर्मिणः ॥१.२३॥
और जो लोग अपने कर्मों द्वारा संसार में बंधे हैं , वे नैष्कर्म्य अथवा अकर्म के द्वारा कर्म बंधन से मुक्त हो जाते हैं | अर्थात जब देख लिया कि शुद्ध चेतन में कर्म है ही नहीं तो बंधन कैसा ? अतः वे बंधन और मुक्ति दोनों से ऊपर उठ जाते हैं | वे न तो सक्रिय कहे जा सकते हैं और न निष्क्रियता में उनकी स्थिति होती है | क्योंकि कर्म और अकर्म का सम्बन्ध शरीर से है , न कि शुद्ध चेतन आत्मा से। || २३ ||
जीवस्य कर्मणा बन्धस्तस्य मोक्षश्च कर्मणा। तस्माद्धेयं च कर्म स्यादुपादेयं च कर्म हि ॥१.२४॥
जीव कर्म से बंधा है और उसकी मुक्ति भी कर्म से ही होती है | यह थोड़ा समझने लायक है , जब अध्यास पूर्वक (अर्थात अपने को देह , इन्द्रिय , प्राण और बुद्धि से एक करके) कामना पूर्वक भोग के लिये कर्म करता है तो वह कर्म बंधनकारक होता है | और जब मुक्ति के साधनरूप १. विवेक २.वैराग्य ३.षट्सम्पत्ति (१.शम २.दम ३.उपरति ४.तितिक्षा ५.श्रद्धा ६.समाधान ) ४. मुमुक्षा पूर्वक विचार रूपी कर्म करता है तो मुक्त हो जाता है | इसलिए , कर्म छोड़ने के साथ साथ अपनाने के लायक भी है | अर्थात विचार और सत्संग रूपी कर्म अवश्य कर्तव्य हैं | वेद में कहा है कि —
‘‘परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन।’’
ब्रह्म-जिज्ञासु (ब्राह्मण) कर्म द्वारा संचित लोकों की परीक्षा करके अर्थात विवेक करके संसार का फीकापन (निर्वेद माने वैराग्य) का अनुभव करता है, क्योंकि कर्मों को करने से ही ‘उस’ की उपलब्धि नहीं हो सकती जो ‘अकृत’ माने कर्मातीत है। इसके द्वारा विवेक का प्रतिपादन कियाऔर
शान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः समाहितः श्रद्धावित्तो भूत्वात्मन्येवात्मानं पश्येत्। इस श्रुति में षट्सम्पत्ति का वर्णन है | (बृ.उ.४.४.२३) तथा न स पुनरावर्तते इति श्रुतेः। (शरभ उपनिषद) इस श्रुति में मुमुक्षा वर्णन है।
‘‘कर्मणा बध्यते जन्तुर्विद्यया च विमुच्यते ।
तस्मात्कर्म न कुर्वन्ति यतयः पारदर्शिनः ॥ ११७ ॥ संन्यासोपनिषद् द्वितीयोऽध्यायः’’
समस्त प्राणी कर्मों के द्वारा बन्धन में बँधते हैं और विद्या (आत्मज्ञान) के द्वारा मुक्ति को प्राप्त करते हैं। इसी कारण ज्ञानवान् संन्यासी कर्म से सर्वदा दूर रहते हैं॥
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः,जनकादि (ज्ञानी जन) भी कर्म द्वारा ही संसिद्धि को प्राप्त हुये लोक संग्रह (लोक-रक्षण) को भी देखते हुये तुम कर्म करने योग्य हो। अर्थात् तात्पर्य तो आसक्तिरहित होकर कर्म करनेसे है क्योंकि आसक्तिरहित होकर कर्म करनेसे ही मनुष्य कर्मबन्धनसे मुक्त होता है केवल कर्म करनेसे नहीं। केवल कर्म करनेसे तो प्राणी बँधता है
‘‘कर्मणा बध्यते जन्तुर्विद्यया तु प्रमुच्यते।
तस्मात्कर्म न कुर्वन्ति यतयः पारदर्शिनः।।’’ (महाभारत शान्तिपर्व २४७.७ ) || २४ ||
त्यक्ते कर्मणि जीवत्वमात्मनो गच्छति स्वयम्। गृहीते कर्मणि क्षिप्रं ब्रह्मत्वं च प्रसिध्यति ॥१.२५॥
चित्त को शुद्ध करने वाले शास्त्रीय विहित कर्मों का परित्याग करने पर आत्मा जीवत्व दोष से युक्त हो जाता है | और विहित कर्मों (पञ्च महायज्ञ आदि) का विवेक पूर्वक ग्रहण करने से शीघ्र ही ब्रह्मत्व की स्थिति का अनुभव होता है।
‘‘न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।३.४।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
कर्मों के न करने से मनुष्य नैर्ष्कम्य को प्राप्त नहीं होता क्योंकि यदि कर्मों का आरम्भ ही नहीं करेगा तो चित्त की शुद्धि कैसे होगी ? और न कर्मों के संन्यास से ही वह सिद्धि (पूर्णत्व) को प्राप्त करता है।। अर्थात केवल संन्याससे अर्थात् बिना ज्ञानके केवल कर्मपरित्यागमात्रसे मनुष्य निष्कर्मतारूप सिद्धिको अर्थात् ज्ञानयोगसे होनेंवाली स्थितको नहीं पाता।|| २५ ||
आविद्यकमशुद्धं यत्कर्म दुःखाय तन्नॄणाम्। विद्यासम्बन्धि शुद्धं यत्तत्सुखाय च कथ्यते ॥१.२६॥
अविद्या माने अज्ञान (मोह) से सम्बन्धित जो कर्म हैं वे अशुद्ध हैं और वे पुरुषों के लिए परिणाम में दुःख देनेवाले होते हैं | और जो विद्या माने ज्ञान से संबंधित कर्म हैं वे शुद्ध हैं और परिणाम में सुख तथा आनन्द देनेवाले कहे गए हैं। योग दर्शन में दुःखके पांच स्रोत कहे गए हैं अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, तथा अभिनिवेश। ये ही पांच क्लेश हैं।
इनमें अविद्या ही बाकी के चारों क्लेशों की जननी है। और यह अविद्या भी चार प्रकार की होती है १. अनित्य में नित्य बुद्धि। २. अशुचि में शुचि बुद्धि। ३. दुःख में सुख बुद्धि। ४. अनात्मा में आत्म बुद्धि।
२:- इस अविद्या का परिणाम है अस्मिता- जीवात्मा और बुद्धि को एक समझना अस्मिता है।
३:- राग:- जो जो सुख संसार में भोगे हैं, उन्हें याद करके फिर भोगने की इच्छा करना राग कहलाता है ।
४ :- द्वेष:- जिससे दु:ख मिला हो उसके याद आने पर उसके प्रति क्रोध होता है, यही द्वेष है।
५ :- अभिनिवेश- शरीर के अन्दर घुस कर बैठना , शरीर को मैं, मेरा मानने से मृत्यु से डरना ही अभिनिवेश है। सब प्राणियों की इच्छा होती है कि हम सदा जीवित रहे, कभी भी मरें नहीं, यह अभिनिवेश है। इस प्रकार यह सब अविद्या का ही परिवार है जो कि बंधन कारक है और इसके विपरीत विद्या है जो मुक्ति का कारण है। || २६ ||
विद्याकर्मक्षुरात्तीक्ष्णाच्छिनत्ति पुरुषोत्तमः। अविद्याकर्मपाशांश्चेत्स मुक्तो नात्र संशयः ॥१.२७॥
हे पुरुषोत्तम ! यदि कोई व्यक्ति विद्या माने ज्ञान से संबंधित कर्म के तीक्ष्ण छुरा का उपयोग करके अविद्या सम्बन्धी कर्म के जालों को काट देता है तो वह निश्चय ही मुक्त है | इस विषय में कोई संशय नहीं है। कांटे से कांटा निकाला जाता है , यह कहाबत प्रसिद्ध ही है।
कर्मणा बध्यते जन्तुर्विद्यया तु प्रमुच्यते। तस्मात्कर्म न कुर्वन्ति यतयः पारदर्शिनः ||
आसक्तिरहित होकर कर्म करने से ही मनुष्य कर्म बंधन से मुक्त होता है केवल कर्म करने से नहीं। केवल कर्म करने से तो प्राणी बँधता है | अतः कर्तृत्व ही बन्धन कारक है। ||२७||
सर्वस्य व्यवहारस्य विधे कर्मैव कारणम्। इति निश्चयसिद्ध्यै ते सूर्यगीतां वदाम्यहम् ॥१.२८॥
हे विधे ! समस्त व्यवहार का कारण कर्म ही है। इस निष्कर्ष को स्थापित करने के लिए मैं आपको सूर्य गीता बताता हूँ।
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा । जो जस करहि सो तस फल चाखा ॥
सकल पदारथ हैं जग मांही। कर्महीन नर पावत नाहीं ॥
‘‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।२.४७।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
कर्म करने मात्र में तुम्हारा अधिकार है। फल में कभी नहीं। तुम कर्मफल के हेतु वाले मत होना और अकर्म में भी तुम्हारी आसक्ति न हो। मनुष्य के जीवन में कर्म की ही प्रधानता है। चाहे रामचरित मानस हो या गीता, दोनों में ही कर्म को ही प्रधान बताया गया है। हम अपने कर्मो से ही अपने भाग्य को बनाते और बिगाड़ते हैं। हमें कर्म के आधार पर ही उसका फल प्राप्त होता है। कर्म सिर्फ शरीर की क्रियाओं से ही संपन्न नहीं होता बल्कि मन से, विचारों से एवं भावनाओं से भी कर्म संपन्न होता है।
‘‘द्वाविमौ ग्रसते भूमिः सर्पो बिलशयानिव।
राजानं चाविरोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम्।।३।। महाभारतम्-शांतिपर्व- अध्याय ५६’’
जिस प्रकार बिल में रहने वाले मेढक, चूहे आदि जीवों को सर्प खा जाता है, उसी प्रकार शत्रु का विरोध न करने वाले राजा तथा विद्याध्ययन आदि के लिये घर छोड कर अन्यत्र न जाने वाले ब्राहमण अर्थात् परदेस गमन से डरने वाले ब्राह्मण इन दोनों को पृथ्वी खा जाती है! (अर्थात् वे पुरुषार्थ किये बिना ही मर जाते हैं ) अतःउचित काल पर दोनों कार्य करने चाहिए।
‘‘द्वे कर्मणी नरः कुर्वन्नस्मिँल्लोके विरोचते।
अब्रुवन्परुषं किञ्चिदसतोऽनर्चयंस्तथा ॥ ५०॥ विदुरनीतिः’’
इन दो कर्मों को करनेवाला मनुष्य इस लोक में विशेष शोभा पाता है : जरा भी कठोर न बोलना और दुष्ट पुरुषों का आदर न करना। || २८ ||
कर्मसाक्षिणमादित्यं सहस्रकिरणं प्रभुम्। सप्ताश्वं सर्वधर्मज्ञमपृच्छदरुणः पुरा ॥१.२९॥
इस विषय में आपको मैं एक पुराना इतिहास सुनाता हूँ | पहले एक बार कर्मों के साक्षी अनन्त किरणों से सम्पन्न भगवान आदित्य (सर्वज्ञ सूर्यनारायण) से जिन्हें सभी धर्मों का ज्ञान है और जो सात घोड़ों के रथ पर आरूढ़ हैं , उनसे उनके शिष्य और सारथी अरुण ने प्रश्न किया।
इसी प्रकार गीतामें भी ‘‘श्री भगवानुवाच :- इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।४.१।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
श्रीभगवान् बोले :- जगत्प्रतिपालक क्षत्रियोंमें बल स्थापन करनेके लिये मैंने इस योगको पहले सृष्टिके आदिकालमें सूर्यसे कहा था (क्योंकि) उस योगबलसे युक्त हुए क्षत्रिय ब्रह्मत्वकी रक्षा करनेमें समर्थ होते हैं तथा ब्राह्मण और क्षत्रियोंका पालन ठीक तरह हो जानेपर ये दोनों सब जगत का पालन अनायास कर सकते हैं। इस योगका फल अविनाशी है इसलिये यह अव्यय है क्योंकि इस सम्यक् ज्ञाननिष्ठारूप योगका मोक्षरूप फल कभी नष्ट नहीं होता। उस सूर्यने यह योग अपने पुत्र मनुसे कहा और मनुने अपने पुत्र सबसे पहले राजा बननेवाले इक्ष्वाकुसे कहा। क्योंकि —
“ब्राह्मणत्वस्य हि रक्षणेन रक्षितः स्याद् वैदिको धर्मः।” वैदिक धर्मका रक्षण तब ही संभव है, जब कि ब्राह्मणत्व का रक्षण हो। चावल नहीं होगा तो थाईलेण्ड से मंगवाएंगे, दवा नहीं होगी तो जर्मनी से मंगवाएंगे, रूस, अमेरिका से टेक्नीशियन बुला लेंगे, खिलौने जापान से लेंगे .. लेकिन अगर ज्ञान और भक्ति से परिपूर्ण ब्राह्मणों को मुक्त किया जाएगा, तो ऐसे दुरमिल ब्राह्मण को किस देश से मंगवाया जाएगा? यदि वैदिक धर्म की रक्षा करनी है, तो ब्राह्मणवाद का निर्माण करना होगा। ब्राह्मणवाद की रक्षा कैसे की जाती है? समाज को ईमानदारी से प्यार करने वाले, साधु संस्कृति के लिए काम करने वाले इंसान कैसे पैदा हो सकते हैं? इसलिए “स्वाध्यायान्मा प्रमदः” वेदाध्ययन में प्रमाद न किया जाये ।
“शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्।।१८.४२।। श्रीमद् भगवद्गीता”
शम- माने मनका निग्रह करना , दम- माने इन्द्रियोंको वशमें करना; तप- माने धर्मपालनके लिये कष्ट सहना; शौच- माने बाहर-भीतरसे शुद्ध रहना; क्षान्ति- माने दूसरोंके अपराधको क्षमा करना; आर्जव- माने शरीर, मन आदिमें सरलता रखना; ज्ञान- माने वेद, शास्त्र आदिका ज्ञान होना; विज्ञान- माने यज्ञविधिको अनुभवमें लाना; और आस्तिक्य- माने परमात्मा, वेद आदिमें आस्तिक भाव रखना — ये सब-के-सब ब्राह्मणके स्वाभाविक कर्म हैं। || २९ ||
अरुण उवाच = अरुण बोले
भगवन्केन संसारे प्राणिनः संभ्रमन्त्यमी। केनैतेषां निवृत्तिश्च संसाराद्वद सद्गुरो ॥१.३०॥
अरुण ने कहा हे भगवान् ! हे सद्गुरु ! किस कारण से प्राणी इस संसार भ्रमित होकर भटकते हैं ? और किस उपाय से इन जीवों की संसार के आवागमन से मुक्ति हो सकती है यह कृपा करके मुझे बताइये। केनोपनिषद में भी ऐसा ही प्रश्न है कि —
‘‘केनेषितं पतति प्रेषितं मनः। केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः।
केनेषितां वाचमिमां वदन्ति। चक्षुः श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति || १ || केनोपनिषद्’’
किसके द्वारा प्रेषित यह मन बाणवत् अपने लक्ष्य पर जाकर गिरता है? किसके द्वारा नियुक्त यह मुख्य प्राण अपने पथ पर आगे बढ़ता है? किसके द्वारा प्रेरित है यह वाणी जिसे मनुष्य बोलते हैं? कौन है वह देव जिसने चक्षु और कर्ण को उनकी क्रियाओं में नियुक्त कर दिया है? इसके अलावा अर्जुन भी भगवान से कुछ ऐसा ही प्रश्न करते हैं यथा —
‘‘अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।।३.३६।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
हे वार्ष्णेय ! (वृष्णि कुल में उत्पन्न) फिर यह पुरुष बलपूर्वक बाध्य किये हुये के समान अनिच्छा होते हुये भी किसके द्वारा प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है? जैसे यदि हम तबला सीखना चांहते हों तो हमें तबला गुरू के पास जाना पड़ेगा क्योंकि वह तबला का विशेषज्ञ है , बैसे ही यदि हम जगत के बारे में कुछ जानना चांहते हैं या इससे मुक्त होना चांहते हैं तो हमें किसी जगद्गुरू के पास जाना पड़ेगा क्योंकि वह जगत का गुरू है माने जगत का विशेषज्ञ है और सूर्य से बड़ा कोई जगद्गुरू नहीं है क्योंकि सूर्य सौरमंडल का केंद्र है एवं वही सभी ग्रहों का अधिपति भी है। सूर्य को जगत चक्षु भी कहते हैं। अतः उनसे ही शिक्षा लेनी चाहिये। || ३० ||
इति पृष्टः स सर्वज्ञः सहस्रकिरणोज्ज्वलः। सूर्योऽब्रवीदिदं शिष्यमरुणं निजसारथिम् ॥१.३१॥
इस प्रकार पूछे जाने पर , सर्वज्ञ सूर्य ने , जो अनंत किरणों की शोभा से दैदीप्यमान हैं , अपने प्रिय शिष्य और सारथी अरुण से यह कहा। || ३१ ||
सूर्य उवाच :- सूर्य ने कहा
अरुण त्वं भवस्यद्य मम प्रियतमः खलु। यतः पृच्छसि संसारभ्रमकारणमादरात् ॥१.३२॥
सूर्य ने कहा , हे अरुण ! आज निश्चय ही तुम मेरे सबसे प्रिय बन गए हो क्योंकि आज तुमने बड़े ही आदरपूर्वक संसारभ्रम का कारण पूछा है | तत्व ब्रह्म है और संसार भ्रम है यह बात उपनिषदों में , योगवाशिष्ठ में और ब्रह्मसूत्र आदि सैकड़ों ग्रन्थों में बताई गयी है।
‘‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः ।
अनेन वेद्यं सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिमः ।।२०।। ब्रह्मज्ञानावलीमाला’’
ब्रह्म वास्तविक है, ब्रह्मांड मिथ्या है (इसे वास्तविक या असत्य के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है)। जीव ही ब्रह्म है और वह ब्रह्म से भिन्न नहीं है । इसे सही शास्त्र के रूप में समझा जाना चाहिए। यह वेदांत द्वारा घोषित किया गया है।
यहाँ आये हुए “जगन्मिथ्या” वाक्यांश में मिथ्या शब्द का अर्थ झूठ (अभावस्वरूप) नहीं है। ‘‘मिथ्या शब्दो अनिर्वचनीयता वचनः’’ शांकरवेदान्त में प्रकृति को भावरूप अज्ञान माना गया है, अभाव रूप नहीं। असत् का भाव (विद्यमान होना) नहीं होता और सत् का अभाव नहीं होता। जगत सत्य होता तो इसका कभी बाध नहीं होता और असत्य होता तो इसकी कभी प्रतीति नहीं होती अतः सत्य तथा असत्य से विलक्षण अनिर्वचनीय कोटि की यह प्रकृति है, स्वयं परमात्मा की ही अचिन्त्य शक्ति जगत के रूप में भासित हो रही है। यह माया तो ईश्वर की छाया है।
‘‘ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन् देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम् ।
यः कारणानि निखिलानि तानिकालात्मयुक्तान्यधितिष्ठत्येकः ॥ ३॥ श्वेताश्वतरोपनिषद्’’
तब ऋषियों ने एकाग्रचित्त होकर ध्यान योग में स्वयं भगवान की सृजन-शक्ति को देखा जो अपने गुणों में छिपी हुई थी। ये वही एकमेवाद्वितीयं हैं जो काल, आत्मा तथा सभी कारणों के अधिपति हैं।
मैं न बंदा था, न खुदा था, मुझे मालूम न था, दोनों इल्लत से जुदा था, मुझे मालूम न था, वजह मालूम हुई तुझसे न मिलने की सनम। घटाकाश, महाकाश से मिल नहीं पाया। जब मिला तो न घटाकाश रहा, न महाकाश। स्वामी राम कहते हैं कि ” मैं न बंदा था, न खुदा था मुझे मालूम न था “दोनों इल्लत-दोनों उपाधि, दोनों ख्याल थे। यह छोटा, यह बड़ा आकाश-यह हमारे ख्याल हैं। आकाश, आकाश है। न छोटा, न बड़ा । “दोनों इल्लत से जुदा था, मुझे मालूम न था”। वजह मालूम हुई तुझसे न मिलने की सनम। तुझसे क्यों नहीं मिला ? क्यों तड़पता रहा ? खुद “मैं” ही परदा बना था मुझे मालूम ना था । स्वामी रामतीर्थ।
‘‘अहं ब्रह्मेति नियतं मोक्षहेतुर्महात्मनाम् ।
द्वे पदे बन्धमोक्षाय निर्ममेति ममेति च।
ममेति बध्यते जन्तुर्निर्ममेति विमुच्यते ।।७२।। महोपनिषद्’’
उस आनन्द स्वरूप, द्वन्द्वों से परे, गुणरहित (गुणों से परे), सत् स्वरूप, चिद्घन परब्रह्म को अपना-निज स्वरूप जान लेने के पश्चात् मनुष्य को किञ्चित् भी भय नहीं होता। जो महान् से महानतम एवं श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम, तेज:स्वरूप, शाश्वत, कल्याण-प्रद, सर्वज्ञ, पुराणपुरुष, सनातन, सर्वेश्वर तथा सभी देवगणों के द्वारा सम्पूजित एवं उपास्य है, वह अविनाशी ब्रह्म मैं हूँ- ऐसा निश्चय महात्माओं के लिए मुक्ति का माध्यम होता है । बन्धन एवं मोक्ष के दो ही कारण बनते हैं, जिनमें प्रथम है – ममता एवं द्वितीय है ममतारहित होना । ममता के द्वारा जीव बन्धन में पड़ता है और ममता से रहित हो जाने के पश्चात् वह (जीव) मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।||३२||
भ्रमन्ति केवलं सर्वे संसारे प्रणिनोऽनिशम्। न तु तत्कारणं केनाप्यहो किंचिद्विचार्यते ॥१.३३॥
सभी जीवित प्राणी इस संसार में दिन-रात भ्रमित होकर भटकते रहते हैं | लेकिन अफसोस! इस भ्रान्ति का कारण क्या है इसका कोई भी तनिक भी विचार नहीं करता ! ||३३||
तज्जिज्ञासुतया त्वं तु श्लाध्योऽसि विबुधोत्तमैः। शृणुश्वारुण वक्ष्यामि तव संसारकारणम् ॥१.३४॥
परन्तु आपने इसके बारे में जिज्ञासा प्रकट की है इसलिए हे अरुण ! आप तो बुद्धिमान पुरुषों द्वारा सम्मान योग्य हो | अतः अब मैं आपको संसार रूपी भ्रम के पीछे कारण क्या है , यह बताता हूँ। सुनिये। || ३४ ||
पुण्यपापात्मकं कर्म यत्सर्वप्राणिसंचितम्। अनादिसुखदुःखानां जनकं चाभिधीयते ॥१.३५॥
पुण्य कर्म और पाप कर्म जो अनादि काल से सभी प्राणियों द्वारा संग्रहीत किए जाते हैं वे कर्म ही सुख दुःख आदि की परंपरा के कारण कहे जाते हैं। || ३५ ||
शास्त्रैः सर्वैश्च विहितं प्रतिषिद्धं च सादरम्। कामादिजनितं तत्त्वं विद्धि संसारकारणम् ॥१.३६॥
जिन कर्मों का सभी शास्त्रों ने विधान और निषेध किया उनका आदर पूर्वक स्वीकार करते हुए जीवन यापन करना चाहिए | कामादि जन्य मनमाने ढंग से जो कर्म किये जाते हैं उन्हें ही संसार का कारण जानो | जैसे कि वेद की आज्ञा है ‘‘अहरह: सन्ध्यामुपासीत ।’’ प्रतिदिन ब्राह्मण संध्योपासना करे, यह विधि वाक्य है |‘‘ब्राह्मणः सुरां न पिवेत् ’’ यह निषेध वाक्य है।
‘‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥२॥ ईशोपनिषद्’’
इस संसार में कर्म करते हुए ही मनुष्य को सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिये। हे मानव! तेरे लिए इस प्रकार का ही विधान है, इससे भिन्न किसी और प्रकार का नहीं है, इस प्रकार कर्म करते हुए ही जीने की इच्छा करने से मनुष्य में कर्म का लेप नहीं होता। यह भी विधिवाक्य है।
और ‘‘सत्यं वद। धर्मं चर। स्वाध्यायान्मा प्रमदः।’’ सत्य बोलो, अपने धर्म के मार्ग पर चलो, वेदों के स्वाध्याय में प्रमाद या अवहेलना मत करो। और ‘‘अक्षैर्मा दीव्यः’’ जुआ न खेल |,”मा हिंस्यात् सर्वा भूतानि” (किसी भी प्राणी की हिंसा ना करें) . इस तरह अनेक विधि निषेधात्मक वाक्य वेदों में मिलते हैं उन्हीं का आदर करना चाहिए, अन्यथा केवल मोह के वश होकर जो काम करते हैं उन्हें बंधन प्राप्त होता है।
‘‘यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।१६.२३ ।।’’ (श्रीमद् भगवद्गीता)
जो पुरुष शास्त्र विधि को त्यागकर अपनी कामना से प्रेरित होकर ही कार्य करता है, वह न पूर्णत्व की सिद्धि प्राप्त करता है, न सुख और न परा गति।
हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना।। ||३६||
पश्वादीनमभावेऽपि तयोर्विधिनिषेधयोः। संसारस्य न लोपोऽस्ति पूर्वकर्मानुसारतः ॥१.३७॥
पशु आदि योनियों में विधि और निषेध का विधान नहीं है क्योंकि वे केवल भोग योनियां हैं , फिर भी संसरण का (आवागमन का) लोप नहीं होता | और उन प्राणियों के पूर्व कर्मोंके अनुसार जाति, आयु और भोग का क्रम चलता ही रहता है | ‘‘पश्वादिभिश्चाविशेषात्। ब्रह्मसूत्र-शांकरभाष्य ||’’ यदि मनुष्य भी पशु जैसा ही आचरण करें तो उनमें और पशुओं भेद ही क्या है ? ‘‘
येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मर्त्यलोके भुविभारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति || १३ || नीतिशतकम्’’
जिन लोगों के पास न तो विद्या है, न तप, न दान, न शील, न गुण और न धर्म। वे लोग इस पृथ्वी पर भार हैं और मनुष्य के रूप में मृग/जानवर की तरह से घूमते रहते हैं। अतः मनुष्यों में धर्म ही विशेष है |
‘‘आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत्पषुभिर्निराणाम्।
धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ।।’’
अर्थात् आहार, निद्रा, भय और मैथुन, मनुष्यों और पशुओं के लिये, एक ही समान स्वाभाविक हैं। मनुष्यों और पशुओं में कुछ भेद है तो केवल धर्म का अर्थात इन स्वाभाविक वृतियों को मर्यादित करने का और नया ज्ञान प्राप्त करने का। जिस मनुष्य में यह धर्म नहीं है वह पशु के समान ही है।
“धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥ मनुस्मृति”
धर्म के दस लक्षण हैं – धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, पवित्रता, इन्द्रियों को वशमें रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना।||३७||
पूर्वं मनुष्यभूतानां पापकर्मवशादिह। श्वखरोष्ट्रादिजन्मानि निकृष्टानि भवन्त्यहो ॥१.३८॥
अफसोस ! जो लोग अतीत में मनुष्य योनि में रहे हैं , और उस समय पापकर्म करने के कारण , परिणाम स्वरूप वे कुत्ते , गदहे , ऊंट आदि निकृष्ट योनियों में जन्म प्राप्त करते हैं | कठोपनिषद में कहा है कि —
”न साम्परायः प्रतिभाति बालं प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम्।
अयं लोको नास्ति पर इति मानी पुनः पुनर्वशमापद्यते मे ॥१.२.६॥”
बाल-बुद्धि व्यक्ति को, (अज्ञानी को ) जो वित्त के मोह से मूढ़ हो गया है, प्रमाद में डूबा हुआ है, उसे परलोक यात्रा का प्रतिबोध नहीं होता, वह तो मात्र यह लोक ही है, और परलोक होता ही नहीं, ऐसा मानने वाला व्यक्ति ‘मृत्यु’ के वशीभूत होता रहता है। और कर्म फल भोगने के लिये उन्हें सतत वाध्य होना पड़ता है।
‘‘आदित्यस्य गतागतैरहरहः संक्षीयते जीवितं
व्यापारैर्बहुकार्यभारगुरुभिः कालोऽपि न ज्ञायते ।
दृष्ट्वा जन्मजराविपत्तिमरणं त्रासश्च नोत्पद्यते
पीत्वा मोहमयीं प्रमादमदिरामुन्मत्तभूतं जगत् ॥ – वैराक्यशतकम् ४३ ||’’
सूर्य के उदय और अस्त होने के साथ-साथ मनुष्यों की जिन्दगी रोज-रोज घटती जाती है । समय भागा जाता है, पर कारोबार में मशगूल रहने के कारण वह भागता हुआ नहीं दीखता । लोगों को पैदा होते, बूढ़े होते, विपत्ति ग्रसित होते और मरते देखकर भी उनमें भय उत्पन्न नहीं होता । इससे मालूम होता है कि मोहमाया, प्रमादरूपी मदिरा के नशे में संसार मतवाला हो रहा है । || ३८ ||
पापकर्मसु भोगेन प्रक्षीणेषु पुनश्च ते। प्राप्नुवन्ति मनुष्यत्वं पुनश्च श्वादिजन्मिताम् ॥१.३९॥
पाप कर्मों का भोग समाप्त होने पर वे प्राणी फिर से मनुष्य जन्म प्राप्त करते हैं और पुनः काम, भोगलिप्सा के वशीभूत होकर पाप कर्म में प्रवृत्त होने के कारण फिर से कुत्ते आदि की योनि में जन्म लेते हैं।
‘‘ अदत्तदानाच्च भवेद्दरिद्रो दरिद्रभावाच्च करोतिपापम् ।
पापप्रभावान्नरकं प्रयाति पुनर्दरिद्रः पुनरेव पापी ॥ २,२४.४६ ॥ गरुडपुराणम्’’
जो सामर्थ्यवान होते हुए भी दान नहीं करते, वे लोग दरिद्री होते हैं । और दरिद्रता के कारण फिर से पाप कर्म करते हैं । तथा पाप कर्मों के कारण पुनः नरक जाते हैं, या पशु आदि योनियों में भटकते हैं और पुनः दरिद्री और पापी होते हैं । और इसके विपरीत यदि सत्संग लाभ हो जाये तो सद्बुद्धि का उदय होने से
‘‘सत्पात्रदानेन भवेद्धनाढयो धन प्रकर्षेण करोति पुण्यम् ।
पुण्यादवश्यं त्रिदिवं प्रयाति पुनर्धनाढ्यः पुनरेव भोगी ।।’’
सुपात्रको दान देनेसे, मनुष्य धनवान बनता है; (फिर) धनके प्रभाव से पुण्यकर्म करता है; पुण्य के प्रभावसे उसे स्वर्ग प्राप्त होता है; और फिर से धनवान और फिर से भोगी बनता है।” ||३९||
जननैर्मरणैरेवं पौनःपुन्येन संसृतौ। भ्रमन्त्याब्धितरंगस्थदारुवद्धीमतां वर ॥१.४०॥
हे बुद्धिमानों में श्रेष्ठ ! इस प्रकार बार बार जन्म और मृत्यु के चक्कर में उन्हें घूमना पड़ता है | जैसे समुद्र की तरंगों में एक लकड़ी का टुकड़ा ऊपर , नीचे भ्रमण करता रहता है |
भगवान श्री कृष्ण ने भी कहा है कि — इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च। जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्।।१३.९।।श्रीमद् भगवद्गीता ||
इन्द्रियोंके विषयोंमें वैराग्यका होना, अहंकारका भी न होना और जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा व्याधियोंमें दुःखरूप दोषोंको बार-बार देखना। श्रीमान शंकराचार्यजी महाराज कहते है कि —
‘‘ पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम् ।
इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥ २१ ॥मोहमुद्गरम् ||’’
बार-बार जन्म, बार-बार मृत्यु, बार-बार माँ के गर्भ में शयन, इस संसार से पार जा पाना बहुत कठिन है, हे कृष्ण कृपा करके रक्षा करो॥
“जन्म दुःखं जरा दुःखं जाया दुःखं पुनः पुनः । मृत्युकाले महादुःखं तस्मात् जाग्रहि जाग्रहि ।।”
जन्म दुःख है, बृद्धावस्था दुःखमय है, और स्त्री (स्त्री पुत्रादि कुदुंबीजन) दुःखरूप
हैं, और अंतकाल भी बडा दुःखद है | इसलिये “ जागो ”-/ जागो ” ।
दुःखं जन्म जरा दुःखं दुःखं मृत्युः पुनः पुनः । संसारमण्डलं दुःखं पच्यन्ते यत्र जन्तवः ।।
संसार मण्डल तो दुःख की कढ़ाई है , जिसमें प्राणियों को उबाल-उबाल कर पकाया जाता है।
व्याघ्रीव तिष्ठति जरा परितर्जयन्ती रोगाश्च शत्रव इव प्रहरन्ति देहम् ।
आयुः परिस्रवति भिन्नघटादिवाम्भः लोकस्तथाप्यहितमाचरतीति चित्रम् ॥ वैराग्यशतकम् ३८ ||
वृद्धावस्था भयंकर बाघिनी की भाँति भयभीत करती हुई सामने खड़ी है । रोग शत्रुओं की भाँति शरीर पर आक्रमण कर रहे हैं । जैसे फूटे घड़े से पानी रिसता है उसी प्रकार आयु भी क्षीण होती जा रही है । अहो ! फिर भी लोग उल्टा ही आचरण करते हैं जिनसे उनका अहित ही होता है । आश्चर्य ! महान आश्चर्य !
आदौ कर्मप्रसङ्गात् कलयति कलुषं मातृकुक्षौ स्थितं मां
विण्वमूत्रामेध्यमध्ये क्वथयति नितरां जाठरो जातवेदा: ।
यद्यद् वै तत्र दु:खं व्यथयति नितरां शक्यते केन वक्तुं
क्षन्तव्यो मेSपराध: शिव शिव शि भो: श्रीमहादेव शम्भो ।।१।। (शिवापराध-क्षमापन-स्तोत्रम् )
अर्थ-“हे शिव,हे महादेव,हे शम्भु! पूर्वजन्म-जनित कर्म प्रसङ्ग से किये हुए पाप ही मुझे माता की कुक्षि में प्रविष्ट कराते हैं, पुन:माता के उदरस्थ अपवित्र विष्ठा-मूत्र के मध्य मुझे जठराग्नि अत्यंत सन्तप्त करती है। वहां पर जो जो असहनीय कष्ट मुझे निरंतर पीड़ित करते रहते हैं,उन्हें कौन कह सकता है? अत: हे शंकर! मेरा अपराध क्षमा कीजिए।” ॥४०॥
अरुण उवाच :- अरुण बोले
प्रक्षीणपापकर्माणः प्राप्तवन्तो मनुष्यताम्। पुनश्च श्वादिजन्मानि केन गच्छन्ति हेतुना ॥१.४१॥
अरुण ने पूछा कि जिनके पापकर्म भोग के द्वारा समाप्त हो गए हैं और मानव जन्म प्राप्त हुआ है | उन्हें भी पुनः किस कारण से श्वान, सूकर आदि योनियों में जन्म लेना पड़ता है ? || ४१ ||
न हि दुर्जन्महेतुत्वं पुण्यानां युक्तमीरितुम्। न च पुण्यवतां भूयः पापकर्मोपपद्यते॥१.४२॥
क्योंकि पुण्यों को दुःखदायी योनियों में जन्म का हेतु नहीं कहा जा सकता | और जो पुण्यात्मा पुरुष हैं , वे पापपूर्ण कर्मों में प्रवृत्त नहीं हो सकते। || ४२ ||
पुण्यैर्विशुद्धचित्तानां ज्ञानयोगादिसाधनैः। संसारमोक्षसंसिद्ध्या पापकर्माप्रसक्तितः ॥१.४३॥
पाप कर्मों के प्रति आसक्ति न होने कारण तथा ज्ञान योग आदि अन्य साधन रूप पुण्य कर्मों के द्वारा जिनका चित्त शुद्ध हो गया है उनका मोक्ष तो निश्चित रूपेण होना ही चाहिए। || ४३ ||
जीवेषु पौनःपुन्यं चेदुत्तमाधमजन्मनाम्। नियमेनाभिधीयेत येन केनापि हेतुना ॥१.४४॥
फिर भी चाहे किसी भी कारण से हो , यदि उन जीवों का जन्म बार – बार ऊंची , नीची योनियों में नियम पूर्वक होता ही है।
‘‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च। तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।२ .२७ ।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ जन्मने वाले की मृत्यु निश्चित है और मरने वाले का जन्म निश्चित है; इसलिए जो अटल है अपरिहार्य है उसके विषय में तुमको शोक नहीं करना चाहिये।। ॥४४॥
मोक्षशास्त्रस्य वैयर्थ्यमापतत्येव सर्वथा। तस्मादपापिनां जन्म पुनश्चेति न युज्यते ॥१.४५॥
तो फिर ऐसा होने से तो मुक्ति का मार्ग दिखाने वाले शास्त्र निश्चित रूपेण व्यर्थ ही सिद्ध होते हैं | इसलिए निष्पापों का पुनर्जन्म होना उचित नहीं जान पड़ता। || ४५ ||
इत्युक्तो भगवानाह सर्वज्ञः करुणानिधिः। रविः संशयविच्छेदनिपुणोऽरुणमादरात् ॥१.४६॥
इस प्रकार अरुण के द्वारा संशय उपस्थापित किये जाने पर , सर्वज्ञ , करुणा के सागर , भगवान भास्कर जो संदेह दूर करने में बड़े ही कुशल हैं , सम्मानपूर्वक अरुण के प्रति बोले। || ४६ ||
रविरुवाच :- भगवान सूर्य ने कहा
प्रक्षीणेष्वपि भोगेन पाप कर्मसु देहिनः। पुनश्च पाप कर्माणि कुर्वन्तो यान्ति दुर्गतिम् ॥१.४७॥
सूर्य देव ने कहा — शरीर-अभिमानी जीव पाप कर्मों का फल (दुःख ,अधोयोनि गमन आदि के द्वारा) भोग करने से क्षीण तो हो जाता है परन्तु पाप कर्मों की वासना संस्कार रूप से बनी ही रहती है | और फिर उसी वासना के वशीभूत होकर पुनः पाप कर्मों में प्रवृत्त होता है, और फिर से नीच योनि में जन्म प्राप्त करता है।
‘‘ये नार्चयंति गिरिशं समये प्रदोषे ये नार्चितं शिवमपि प्रणमंति चान्ये ।।
एतत्कथां श्रुतिपुटैर्न पिबंति मूढास्ते जन्मजन्मसु भवंति नरा दरिद्राः ।।३.६.७४।। स्कन्दपुराणम्’’
जो प्रदोषकाल में भगवान शङ्कर सहित देवों की पूजा-अर्चना नही करतें, प्रणाम नहीं करते,अपने कर्णपुटों द्वारा भगवत्कथाओं का रसपान नहीं करते, वे जन्म -जन्मान्तरों में दरिद्री होते हैं ।
जो सामर्थ्यवान होते हुए भी दान नहीं करते, वे भी दरिद्री होते हैं । और दरिद्रता के कारण पापकर्म करते हैं । पापकर्मों के कारण नरक जाते हैं तथा पुनः दरिद्री और पापी होते हैं ।
‘‘कुचैलिनं दन्तमलोपधारिणां बह्वाशिनंनिष्ठुरभाषिणां च ।
सूर्योदये वाऽस्तमिते शयानं विमुञ्चति श्रीर्यदि चक्रपाणिः ।।४।। चाणक्यनीतिः’’
जो मानव विकृत और मलिन वस्त्रों को धारण करते हैं, दातों पर मल रखते हैं, अधिक मात्रा में भोजन करते हैं तथा अखाद्य पदार्थों (मांस मदिरादि)का सेवन करते है और सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय शयन करते हैं ये दुर्गुणी व्यक्तियों का चाहे वह स्वयं भगवान विष्णु ही क्यों न हों लक्ष्मी उनका परित्याग कर देतीं हैं ।अर्थात एसे दुर्गुणी भी परम दरिद्री होते हैं ।
‘‘नाराधिता येन शिवा सनातनी दुःखार्तिहा सिद्धिकरी जगद्वरा ।
दुःखावृतः शत्रुयुतश्च भूतले नूनं दरिद्रो भवतीह मानवः ॥ २३ ॥ देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः ०३/अध्यायः २७’’
जो मनुष्य जगज्जननी पराम्बा जो समस्त दुखों का हरण करनें वालीं हैं तथा समस्त सिद्धियों को प्रदान करने वाली हैं एवं श्रेष्ठ सद्गुणों को प्रदान करने वाली हैं उनकी आराधना नहीं करते वे निश्चय ही दरिद्री होते हैं । और फिर स्वाभाविकतया ही पाप में प्रवृत्त हो जाते हैं , और फिर से नीच योनि में जन्म प्राप्त करते हैं। || ४७ ||
तानि दुर्जन्मबीजानि कामात्पापानि देहिनाम्। पुनरप्युपपद्यन्ते पूर्वपुण्यवतामपि ॥१.४८॥
इसलिए वे पाप वासनायें जो नीच जन्मों के बीज हैं , वे बीज रूप से उनके कर्ता पुरुषों के पास फिर से जाती हैं जिन्होंने सुख प्राप्त करने की इच्छा के कारण पहले कभी पुण्य कर्म भी किये हैं | अनित्य पदार्थों से सुख मिलेगा यह सबसे पहली भूल है और उसके बाद फिर तो भूल की परंपरा शुरू हो जाती है | दुर्योधन , रावण आदि भी अपने पूर्व कृत पुण्यों के कारण थोड़ा सुख का अनुभव करते थे, इसीप्रकार थोड़ा-थोड़ा सुख तो प्रत्येक योनि में होता है, और फिर धीरे-धीरे दूसरों को दुःख देकर सुख पाने की वासना प्रबल होने लगती है , तब फिर जैसा कि भगवद्गीता में बताया है- ‘‘ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते। सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।२ .६२ ।।’’ विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्तिसे कामना पैदा होती है। कामनासे क्रोध पैदा होता है। क्रोध होनेपर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धिका नाश हो जाता है। बुद्धिका नाश होनेपर मनुष्यका पतन हो जाता है। इस विषय में नारद मोह की कथा रामचरितमानस में प्रसिद्ध है। ॥४८॥
सकामानां च पुण्यानां भोगहेतुतया नॄणाम्। न चित्तशुद्धिहेतुत्वं क्वचिद्भवितुमर्हति | || १.४९ ||
इसके अलावा जो लोग पुण्य कर्म करते हैं वे भी आसक्ति पूर्वक स्वयं सुख भोग की इच्छा से ही करते हैं | इस प्रकार किया हुआ पुण्य कभी भी चित्त शुद्धि का कारण नहीं बन सकता | ‘‘परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ||’’ दूसरों का उपकार करने से पुण्य होता है और दुख देने से पाप । श्रीमद् भगवद्गीता के तीसरे अध्याय में बताया है कि यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः। तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर।।३.९।। यज्ञ के लिये किये हुए कर्म के अतिरिक्त अन्य कर्म में प्रवृत्त हुआ यह पुरुष कर्मों द्वारा बंधता है इसलिए हे कौन्तेय आसक्ति को त्यागकर यज्ञ के निमित्त ही कर्म का सम्यक् आचरण करो।
‘‘चित्तस्य शुद्धये कर्म नतु वस्तूपलब्धये ।
वस्तुसिद्धिर्विचारेण न किंचित्कर्मकोटिभिः ॥११॥ विवेकचूडामणिः ||’’
कर्म चित्त की शुद्धि के लिये ही है, वस्तुपलब्धि (तत्वदृष्टि) – के लिये नहीं। वस्तु-सिद्धि तो विचार से ही होती है, करोड़ों कर्मों से कुछ भी नहीं हो सकता।|| ४९ ||
कुतश्चाशुद्धचित्तानां ज्ञान योगादि संभवः। ज्ञानयोगादिहीनानां कुतो मोक्षश्च संसृतेः ॥१.५०॥
तो फिर अशुद्ध अन्तःकरण [बुद्धि , मन और चित्त] रखने वालों के लिए ज्ञान और योग आदि साधन कैसे संभव हो सकते हैं ? तथा जो ज्ञान और योग से रहित हैं वे कैसे संसार बंधन से मुक्त हो सकते हैं ? || ५० ||
कामेन हेतुना सत्स्वप्युत्तमाधम जन्मसु। मोक्ष शास्त्रस्य सार्थक्यं नैष्काम्योदय हेतुकम् ॥१.५१॥
कामना के कारण ही उत्तम या अधम योनि में जन्म होता है | सद्भावना से युक्त होकर पुण्य कर्मों के परिणाम स्वरूप उत्तम योनि में जन्म होता है तथा असद्वासना के फल स्वरूप निकृष्ट योनि में जन्म होता है | परन्तु शास्त्र का तात्पर्य है निष्काम कर्मयोग में प्रेरित करना है | इसी में मोक्षशास्त्रों की सार्थकता है।
‘‘तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येरन्ब्राह्मणयोनिं वा क्षत्रिययोनिं वा वैश्ययोनिं वाथ य इह कपूयचरणा अभ्याशो ह यत्ते कपूयां योनिमापद्येरन् श्वयोनिं वा सूकरयोनिं वा चण्डालयोनिं वा॥७॥ छान्दोग्योपनिषद् पञ्चमोऽध्यायः दशमः खण्डः’’
जिनका आचरण यहाँ पृथ्वी पर अच्छा रहा है, वे ब्राह्मण के रूप में कुछ अच्छे कुल में जन्म लेंगे, क्षत्रिय के रूप में जन्म लेंगे, या वैश्य के रूप में जन्म प्राप्त करेंगे। लेकिन जिनका आचरण यहाँ बुरा रहा है, वे शीघ्र ही अपवित्र योनि को पाते हैं जैसे कुत्ते के रूप में, सुअर के रूप में जन्म, अथवा जो क्रूर कर्म करने वाले हैं वे चाण्डाल की योनि को पाते हैं। और जो किसी मार्ग से न जाकर त्वरित मरते और उत्पन्न होने की क्रिया में संलग्न हो जाते हैं जैसे मच्छर कीड़े मकोड़े आदि हैं वे हीन रूप में जन्म को प्राप्त करेंगे।
‘‘ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः।।१४.१८।। श्रीमद् भगवद्गीता ’’
सत्त्वगुणमें यानी सात्त्विक भावोंमें स्थित पुरुष उच्च स्थानको जाते हैं अर्थात् देवलोक आदि उच्च लोकोंमें उत्पन्न होते हैं। और राजस पुरुष बीचमें रहते हैं अर्थात् मनुष्ययोनियोंमें उत्पन्न होते हैं। तथा जघन्य गुणके आचरणोंमें स्थित हुए अर्थात् जो जघन्य माने निन्दनीय गुण हैं, उस तमोगुणके कार्यरूप निद्रा और आलस्य आदिमें स्थित हुए मूढ़ अर्थात तामसी पुरुष नीचे गिरते हैं वे पशु, पक्षी आदि योनियोंमें उत्पन्न होते हैं।
‘‘तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसानाशकेन । एतमेव विदित्वा मुनिर्भवति । एतमेव प्रव्राजिनो लोकमिच्छन्तः प्रव्रजन्ति ॥ ४,४.२२ ॥ बृहदारण्यकोपनिषद् ’’
वेदाध्ययन , सद्दान , यज्ञ , तप आदि धर्मों से तथा श्रद्धा से अनुष्ठित उपासना से युक्त अत्यन्त निर्मल अन्तःकरणवाले ब्राह्मण जिस ब्रह्मतत्त्व को जानने की इच्छा करते हैं , वह तत्त्व तुम्हीं हो । नमक की डली कैसे लौटकर बतायेगी कि समुद्र कितना गहरा है ?||५१ ||
सुखदुःखोपभोगेन यदा निर्वेदमागतः। निष्कामत्वमवाप्नोति स्वविवेकपुरस्सरम् ॥१.५२॥
बारम्बार सुख दुःख के चक्कर में भ्रमण करने उपरान्त जब वैराग्य को प्राप्त होता है , तब व्यक्ति उन सांसारिक भोगों के प्रति उदासीनता की स्थिति को प्राप्त करता है , परिणाम स्वरूप विवेक का उदय होने पर निष्काम भाव को प्राप्त करता है | विवेक शब्द का अर्थ है विचार करना , चीजों को अलग-अलग करके देखना | (तिल,तण्डुल न्याय) तिल और चावल यदि एक साथ मिल गये हों तो उन्हें अलग करना | {नीर क्षीर विवेक न्याय प्रसिद्ध ही है |} मैं कौन हूँ , मैं क्या हूँ और मेरा कौन है, मेरा क्या है इसका स्पष्ट विवेक होना चाहिए | विचिर्,पृथग्भावे धातु से विवेक शब्द निष्पन्न होता है | इसी को आत्मानात्म विवेक कहते हैं। || ५२ ||
ततःप्रभृति कैश्चित्स्याज्जन्मभिर्ज्ञानयोगवान्। श्रवणादिप्रयत्नैर्हि मुक्तिः स्वात्मन्यवस्थितिः ॥१.५३॥
तब फिर कई जन्मों के बाद किसी किसी की ज्ञान और योग में दृढ़ निष्ठा होती है | श्रवण , मनन और निदिध्यासन के प्रयासों के माध्यम से (सुनना , सोचना और ध्यान करना) अपने आप में स्थिति होती है | और उस स्वरूपावस्थिति का नाम ही मुक्ति है | अपने को देह , प्राण , इन्द्रिय , मन , बुद्धि न जान कर शुद्ध दृक् स्वरूप जानना ही आत्मज्ञान में स्थित होना कहा जाता है |
यदर्थप्रतिभानं तन्मन इत्यभिधीयते ।
अन्यन्न किंचिदप्यस्ति मनो नाम कदाचन ।। ३.४.४२।। योगवासिष्ठः ||
वह जो सभी वस्तुओं के भान का प्रतिनिधि है, उसे मन कहा जाता है: इसके अलावा मन और कुछ भी नहीं है जिसके लिए मन शब्द लागू होता है। जिसमें विषयों की प्रतीति होती है वह मन है और जिसको मालूम पड़ता है वह ज्ञानस्वरूप आत्मा है |
‘‘यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति ।
दूरंगं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।१।। शिवसंकल्पोपनिषद्’’
हे परमात्मन् !जो मन जाग्रत् अवस्था में दूर-दूर तक गमन करता है और उसी प्रकार सुप्तावस्था में भी दूर-दूर तक जाता है; वही (मन) निश्चित रूप से इन्द्रियों का प्रकाशक है, जीवात्मा का एकमात्र माध्यम है, ऐसा हमारा वह मन श्रेष्ठ-कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो। ||५३||
कर्माध्यक्षं परात्मानं सर्वकर्मैकसाक्षिणम्। सर्वकर्मविदूरन्तं कर्मवान्कथमाप्नुयात् ॥१.५४॥
सर्वोच्च स्व , जो एकमात्र कर्मों का पर्यवेक्षक है , जो सभी कर्मों का केवल साक्षी है , जो सभी कामों से दूर है , कर्म में लगे व्यक्ति इसे प्राप्त करने में कैसे सफल हो सकते हैं ?
‘‘एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च॥११॥ श्वेताश्वतरोपनिषद् षष्ठोऽध्यायः’’
उस ‘एकमेव देव’ का ही अस्तित्व है, प्रत्येक प्राणी में ‘वही’ गूढ़ रूपसे छिपा हुआ है क्योंकि ‘वही’ सर्वव्यापी एवं समस्त प्राणियोंका ‘अन्तरात्मा’ है, ‘वह’ सभी कर्मोंका अध्यक्ष-स्वामी है, एवं सभी जीवसत्ताओंका आवास है। ‘वही’ सकल जगत-व्यापारोंका ‘महान् साक्षी’ है जो विचारोंमें परस्पर सम्बद्धता लाता है, ‘वह’ है ‘निरपेक्ष’ एवं निर्गुण, जिसमें न कोई मनोभाव है न कोई गुण है। ||५४ ||
पुण्येष्वपि च पापेषु पौर्विकेषु च भोगतः। क्षपितेषु परात्मा स स्वयमाविर्भविष्यति ॥१.५५॥
पूर्वकृत पुण्य और पाप जब भोग के द्वारा क्षीण हो जाते हैं तब अन्तःकरण निर्मल हो जाने से वह परमात्मा ( जो केवल शुद्धचित् स्वरूप हैं ) उसी अन्तःकरण में स्वयं आविर्भूत हो जाते हैं | अन्तःकरण का दर्पण स्वच्छ होते ही चित्प्रतिबिम्ब साफ-साफ झलकने लगता है।
चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्निनिर्वापणम् श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधू जीवनम् ।
आनंदाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनम् सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम् ॥१॥ (श्रीशिक्षाष्टकम्)
चित्त रूपी दर्पण को स्वच्छ करने वाले, भव रूपी महान अग्नि को शांत करने वाले, चन्द्र किरणों के समान श्रेष्ठ, विद्या रूपी वधू के जीवन स्वरूप, आनंद सागर में वृद्धि करने वाले, प्रत्येक शब्द में पूर्ण अमृत के समान सरस, सभी को पवित्र करने वाले श्रीकृष्ण कीर्तन की उच्चतम विजय हो॥१॥
‘‘स्वाध्यायाद् योगमासीत योगात् स्वाध्यायमामनेत्।
स्वाध्याय-योग-सम्पत्त्या परमात्मा प्रकाशते||२|| विष्णुपुराणम् / षष्टांशः/अध्यायः ६’’
स्वाध्याय से योग, योग से स्वाध्याय और अब स्वाध्याय, योग दोनों की सम्पदा आयेगी तब परमात्मा का दर्शन होगा ,योगपूर्वक स्वाध्याय से ही परमात्मा का साक्षात्कार हो सकता है। । ‘‘जपश्रान्तश्चरेद् ध्यानं ध्यानात् श्रान्तश्चरेज्जपम्। जप- ध्यान- परिश्रान्त आत्मतत्वं विचारयेत्।।’’ यदि जप में थकान मालूम हो तो आँख बन्द करके ध्यान करो और ध्यान में तबीयत ऊबने लगे तो माला लेकर जप करो। यदि दोनों में थकान मालूम पड़े तो स्वाध्याय करो, पढ़ो, पाठ करो! ||५५||
कर्तृभिर्भुज्यते जीवैः सर्वकर्मफलं न तु। साक्षिणा निर्विकल्पेन निर्लेपेन परात्मना ॥१.५६॥
कर्ता जीवों के द्वारा ही कर्मफलों का भोग किया जाता है , न कि अकर्ता , निर्लेप , निर्विकल्प , साक्षी परमात्मा के द्वारा |
‘‘द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति || ३.१.१ || मुण्डकोपनिषद्’’
दो सुंदर पंखों वाले पक्षी, जो घनिष्ठ सखा हैं , और शरीर रूपी समान वृक्ष पर ही रहते हैं; उनमें से एक वृक्ष के स्वादिष्ट फलों को खाता है,(कर्म फलों को भोगता है |) अन्य खाता नहीं अपितु अपने सखा को देखता है। || ५६ ||
जीवानां तदनन्यत्वाद्भोगस्यावसरः कुतः। इति केचन शंकन्ते वेदान्तापातदर्शिनः ॥१.५७॥
जो लोग वेदान्त के आपातदर्शी हैं माने ऊपर-ऊपर से ही जिन्होंने वेदान्त को देखा है , गहराई से नहीं समझा है | वे लोग ही ऐसा समझते हैं कि जीव और ईश्वर अभिन्न हैं | तो जब जीव परमात्मा से अलग नहीं है तो जीव के लिए कर्म फल भोग की संभावना ही कहाँ है? | (कहते हैं कि आत्मा सो परमात्मा) परन्तु यह बात ठीक नहीं है | यद्यपि चिदंश में दोनों एक हैं तथापि उपाधि अंश में दोनों भिन्न हैं | ईश्वर की उपाधि माया है और जीव की उपाधि अविद्या है।
तुलसीदास जी ने कहा है कि — माया वश परिछिन्न जड़ जीव कि ईश समान’’ माया के वश में रहने वाला परिच्छिन्न , जड़ जीव क्या ईश्वर के समान हो सकता है ? | अर्थात् कदापि नहीं | एक जीव है जो माया के वश में है और दूसरा ईश्वर है जो मायाधीश है।
भगवद्गीता में भी बताया है कि— ‘‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।१५ .७ ।।’’
इस संसार में जीव बना हुआ आत्मा मेरा ही सनातन अंश है; परन्तु वह प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है (अपना मान लेता है)। |||५७||
परमार्थदशायां हि तदनन्यत्वमिष्यते। व्यवहारदशायां नानुपपत्तिश्च काचन ॥१.५८॥
केवल पारमार्थिक अवस्था में जीव और आत्मा की एकता सिद्ध की जा सकती है , व्यावहारिक दशा में यह युक्ति सिद्ध नहीं है | (उचित नहीं है ) अन्तःकरणावच्छिन्नं चैतन्यं जीवः, तदनवच्छिन्नम् ईश्वरः । अन्तःकरण की उपाधि के कारण जीव कर्ता और भोक्ता बनता है , ईश्वर अन्तःकरण की उपाधि स्वीकार ही नहीं करता अतः कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व से मुक्त रहता है ||
‘‘पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।
सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।।१८.१३।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
इसलिये क्रिया कारक और फल आदि आत्मामें अविद्यासे (अज्ञान से) आरोपित होनेके कारण परमार्थदर्शी,( आत्मज्ञानी ) ही सम्पूर्ण कर्मोंका अशेषतः त्यागी हो सकता है। कर्म करनेवाले अधिष्ठान ( शरीर ) कर्ताक्रिया आदि कारकोंको आत्मभावसे देखनेवाला अज्ञानी सम्पूर्ण कर्मोंका पूर्णतया त्याग नहीं कर सकता। यह बात अगले श्लोकसे दिखलाते हैं — हे महाबाहो इनआगे कहे जानेवाले पाँच कारणोंको अर्थात् कर्मके साधनोंको तू मुझसे जान। अगले उपदेशमें अर्जुनके चित्तको लगानेके लिये और अधिष्ठानादिके ज्ञानकी कठिनता दिखानेके लिये उन पाँचों कारणोंको जाननेयोग्य बतलाकर उनकी स्तुति करते हैं। जिस शास्त्रमें जाननेयोग्य पदार्थोंकी संख्या ( गणना ) की जाय उसका नाम सांख्य अर्थात् वेदान्त है। कृतान्त भी उसीका विशेषण है। कृत कर्मको कहते हैं जहाँ उसका अन्त अर्थात् जहाँ कर्मोंकी समाप्ति हो जाती है वह कृतान्त है — यानी कर्मोंका अन्त है। “यावानर्थ उदपाने” “सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने,परिसमाप्यते” इत्यादि वचन भी आत्मज्ञान उत्पन्न होनेपर समस्त कर्मोंकी निवृत्ति दिखलाते हैं। इसलिये ( कहते हैं कि ) उस आत्मज्ञानप्रद कृतान्त – सांख्यमें यानी वेदान्तशास्त्रमें समस्त कर्मोंकी सिद्धिके लिये कहे हुए ( उन पाँच कारणोंको तू मुझसे सुन )। ‘‘अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।१८.१४।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
वे ( पाँच कारण ) कौनसे हैं सो बतलाते हैं -(१)अधिष्ठान — इच्छा,द्वेष, सुख,दुःख और ज्ञान आदिकी अभिव्यक्तिका आश्रय शरीर। यह पहला कारण है। (२) कर्ता – {अस्मिता की उपाधि वाला} उपाधिस्वरूप भोक्ता जीव यह दूसरा कारण है। (३) भिन्नभिन्न प्रकारके करण –शब्दादि विषयोंको ग्रहण करनेवाले श्रोत्रादि अलगअलग बारह करण हैं। (४) नाना प्रकारकी चेष्टाएँ -श्वासप्रश्वास आदि अलगअलग वायुसम्बन्धी क्रियाएँ और इन चारोंके साथ पाँचवाँ -पाँचकी संख्याको पूर्ण करनेवाला कारण दैव है। अर्थात् चक्षु आदि इन्द्रियोंके अनुग्राहक सूर्यादि देव हैं।
‘‘शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः।।१८.१५।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
मनुष्य अपने शरीर, वाणी और मन से जो कोई न्याय्य (उचित) या विपरीत (अनुचित) कर्म करता है, उसके ये पाँच कारण ही हैं।
‘‘तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः।।१८.१६।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
तत्र शब्द प्रकरणसे सम्बन्ध जोड़ता है। ऐसा होनेसे – यानी पहले बतलाये हुए पाँच कारणोंद्वारा ही समस्त कर्म सिद्ध होते हैं? इसलिये जो अज्ञानी पुरुष वेदान्त और आचार्यके उपदेशद्वारा तथा तर्कद्वारा संस्कृतबुद्धि न होनेके कारण उन अधिष्ठानादि पाँचों कारणोंके साथ अविद्यासे आत्माकी एकता मानकर उनके द्वारा किये हुए कर्मोंका मैं ही कर्ता हूं इस प्रकार केवलशुद्ध आत्माको ( उन कर्मोंका ) कर्ता समझता है ( वह वास्तवमें कुछ भी नहीं समझता )। तथा आत्माको शरीरादिसे अलग माननेवाला भी जो शरीरादिसे अलग केवल आत्माको ही कर्ता समझता है वह भी अकृतबुद्धि ही है। अतः असंस्कृतबुद्धि होनेके कारण वह भी वास्तवमें आत्माका या कर्मका तत्त्व नहीं समझता यह अभिप्राय है। इसलिये वह दुर्बुद्धि है। जिसकी बुद्धि कुत्सित या विपरीत है , ऐसी उस दुष्ट बुद्धि को बारम्बार जन्ममरण देनेमें कारणरूप होने से उसे दुर्बुद्धि कहते हैं ऐसा मनुष्य देखता हुआ भी वास्तवमें नहीं देखता। जैसे तिमिररोगवाला अनेक चन्द्र देखता है या जैसे बालक दौड़ते हुए बादलोंमें चन्द्रमाको दौड़ता हुआ देखता है अथवा जैसे ( पालकी आदि ) किसी सवारीपर चढ़ा हुआ मनुष्य दूसरोंके चलनेमें अपना चलना समझता है ( वैसे ही उसका समझना है )।||५८||
परमार्थदशारूढे जीवन्मुक्तेऽपि कर्मणाम्। भोगोऽङीक्रियते सम्यग्दृश्यते च तथा सति ॥१.५९॥
जब कोई पारमार्थिक अवस्था में पहुंचता है (अपने सच्चे स्वरूप को पहचानता है) या जीवन्मुक्त बन जाता है तो स्पष्ट देख पाता है कि जीव भोक्ता है और आत्मा केवल द्रष्टा, साक्षी है | क्योंकि ऐसा जीवन्मुक्त सिद्धयोगी अन्तःकरण से तादात्म्यापन्न नहीं होता (अन्तःकरण को मैं,मेरा नहीं मानता) अर्थात अन्तःकरण ही कर्ता तथा भोक्ता है , मैं (आत्मा) तो द्रष्टा मात्र हूँ।
‘‘मनोबुद्ध्यहङ्कारचित्तानि नाहं न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे ।
न च व्योमभूमिर्न तेजो न वायुः चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥१॥ निर्वाणषट्कम् ||’’
मैं न मन हूं, न बुद्धि हूं, न अहंकार हूं, न ही चित्त (आंतरिक आत्मा का प्रतिबिंब हूं) {न मैं स्मृतियों का संग्रह पुञ्ज हूँ}। और न ही कान हूँ न जीभ, न नाक और न आँख हूँ। मैं पांच ज्ञान की इंद्रियां नहीं हूं। मैं इससे परे हूं। मैं न आकाश हूँ, न पृथ्वी, न अग्नि, न वायु (अर्थात पाँच तत्व)। मैं वास्तव में, वह शाश्वत ज्ञान और आनंद, शिव, प्रेम और शुद्ध चेतना हूं। ||५९||
अज्ञानां व्यवहारैकनिष्ठानां तदनन्यता। अभोक्तृता च केनैव वक्तुं शक्या मनीषिणा ॥१.६०॥
जो अज्ञानी व्यक्ति केवल व्यवहार दशा (जाग्रत दशा) में ही निष्ठा वाला है , {स्वप्न ,सुषुप्ति और तुरीय अवस्था का कभी विचार ही नहीं करता } वह आत्मा और अन्तःकरण को अभिन्न ही समझता है | ऐसे उस अविवेकी पुरुषको कौन बुद्धिमान पुरुष समझा सकता है कि शुद्ध दृक स्वरूप आत्मा वास्तव में अभोक्ता है ? अर्थात् पारमार्थिक सारतत्व उसकी समझमें आ ही नहीं सकता। || ६० ||
ज्ञानिनः कर्मकर्तृत्वं दृश्यमानमपि स्फुटम्। उत्पादयेत्फलं नेति मन्यन्ते स्वप्नकर्मवत् ॥१.६१॥
ज्ञानी पुरुष भी व्यवहार दशा में कर्म करता हुआ सा दिखाई तो देता है लेकिन उसके कर्म हर्ष ,शोक रूपी फल को उत्पन्न नहीं करते क्योंकि वह (ज्ञानी पुरुष) उन कर्मों को स्वप्न के कर्म जैसा मानता है अथवा जैसे नाटक में अभिनेता भिन्न-भिन्न अभिनय करता है कभी राजा और कभी भिकारी लेकिन वह सुखी-दुखी नहीं होता | प्रबुद्ध पुरुष के कर्म सपने में किये गए कार्यों के समान होते है | जैसे कोई सपने में चोरी या हिंसा करे तो जाग्रत में उसे जेल नहीं होती |
‘‘कतम आत्मेति योऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु हृद्यन्तर्ज्योतिः पुरुषः स समानः सन्नुभौ लोकावनुसंचरति ध्यायतीव लेलायतीव स हि स्वप्नो भूत्वेमं लोकमतिक्रामति मृत्यो रूपाणि ||७|| बृहदारण्यकोपनिषद चतुर्थोऽध्यायःतृत्तीयं ब्राह्मणम्’’
“आत्मा कौन सा है?” “यह जो प्राणों में बुद्धिवृत्तियों के भीतर रहने वाला (विज्ञानमय) ज्योतिः स्वरूप पुरुष है , वह समान (बुद्धिवृत्तियों के सदृश) हुआ इस लोक और परलोक दोनों में संचार करता है | वह [बुद्धिवृत्तिके अनुसार] मानो चिन्तन करता है और [प्राणवृत्तिके अनुरूप होकर] मानो चेष्टा करता है | वही स्वप्न होकर इस लोक (देहेन्द्रिय संघात) का अतिक्रमण करता है और [शरीर तथा इन्द्रिय रूप] यह इस जाग्रत संसार को पार कर जाता है, जो मृत्यु के रूपों (अज्ञानता और उसके प्रभावों) का भी अतिक्रमण करता है।|| ६१ ||
तदयुक्तं न हि स्वप्ने पापकर्तुः स्वतन्त्रता। जाग्रति प्राणिनः कर्म स्वातन्त्र्यं वर्तते खलु ॥१.६२॥
क्योंकि सपने में पाप करने वाला व्यक्ति कार्य करने में स्वतंत्र नहीं होता | जाग्रत अवस्था में (प्रबुद्ध व्यक्ति की) उसकी कार्य करने की स्वतंत्रता मौजूद है इसलिए जाग्रत अवस्था में ही तुरीय का अनुसंधान किया जा सकता है | जाग्रत् अवस्था और तुरीयावस्था की जोड़ी है तथा स्वप्नावस्था सुषुप्ति अवस्था की जोड़ी है। जैसे राम और लक्ष्मण की जोड़ी है और भरत तथा शत्रुघ्न की जोड़ी है।
‘‘अकारक्षरसंभूतः सौमित्रिर्विश्वभावनः ।
उकाराक्षरसंभूतः शत्रुघ्नस्तैजसात्मकः ॥ १॥
प्राज्ञात्मकस्तु भरतो मकाराक्षरसंभवः ।
अर्धमात्रात्मको रामो ब्रह्मानन्दैकविग्रहः ॥ २॥ रामोत्तरतापिन्युपनिषत्’’
‘‘रमन्ते योगिनोऽनन्ते नित्यानन्दे चिदात्मनि ।
इति रामपदेनासौ परं ब्रह्माभिधीयते ॥ ६॥ श्रीरामतापिन्युपनिषत्’’
जिस अनन्त, नित्यानन्द और चिन्मय परमब्रह्म में योगी लोग रमण करते हैं, उसी राम पद (शब्द) से परमब्रह्म प्रतिपादित होता है, अर्थात राम नाम ही परमब्रह्म है। || ६२ ||
तिरश्चां जागरावस्था यथा भोगैककारणम्। तथा स्वप्नदशा नॄणां फलभोगैककारणम् ॥१.६३॥
जैसे जिनका जन्म तिर्यक योनि (पशु योनि) में हुआ है वे जाग्रत अवस्था में केवल प्रकृति प्रदत्त भोग ही भोग सकते हैं | वैसे ही मनुष्य भी स्वप्नावस्था में अपने पुण्य और पाप के अनुसार केवल अपने पिछले कर्मों का फल ही भोगता है। || ६३ ||
नॄणां च जागरावस्था बालानां स्यात्तथा न तु। यूनां वृद्धतमानां वा किमुत स्वात्मवेदिनाम् ॥१.६४॥
लेकिन मनुष्य के बच्चों के लिए जाग्रत अवस्था में ऐसी स्थिति नहीं है ; न जवानों की और न बूढ़ों की क्योंकि उन्हें विशेष बुद्धि प्राप्त है इसलिए वे कर्म करने में स्वतन्त्र हैं | जब सामान्य मनुष्यों का यह हाल है तो फिर आत्मज्ञानियों के बारे में तो कहना ही क्या | क्योंकि आत्मज्ञानी तो जानता है कि मैं कभी कुछ नहीं करता | ‘‘ नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्। पश्यन् श्रृणवन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपन् श्वसन्।।५ .८ ।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ तत्त्व को जानने वाला सांख्ययोगी देखता, सुनता, छूता, सूंघता, खाता, चलता, ग्रहण करता, बोलता, मल-मूत्र का त्याग करता, सोता, श्वास लेता तथा आँखें खोलता और मूँदता भी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ ही इन्द्रियों के विषयों में बरत रही हैं’ — ऐसा समझकर ‘मैं (स्वयं) कुछ भी नहीं करता हूँ’ — ऐसा ही मानता है | क्योंकि मृगतृष्णा में जल समझकर उसको पीने के लिये प्रवृत्त हुआ मनुष्य उस में जल के अभाव का ज्ञान हो जाने पर फिर कभी उसी जल को पीने के लिये प्रवृत्त नहीं होता। ‘‘कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः। स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।४ .१८ ।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ जो पुरुष कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है, वह योगी सम्पूर्ण कर्मों को करने वाला है। || ६४ ||
भाविभोगार्थकं कर्म जाग्रत्येव नॄणां भवेत्। फलं तु कर्मणः स्वप्ने जाग्रत्यपि च युज्यते ॥१.६५॥
मनुष्यों की जाग्रत अवस्था में सोच समझ कर तथा अभिमान पूर्वक जो कर्म किये जाते हैं उनका फल समय के परिपाक से भविष्य में होता है लेकिन जो बिना समझे बूझे , बेहोशी में कर्म बन पड़ते हैं उनका फल स्वप्न में और कभी-कभी जाग्रत में भी होता है | यह कर्म की उग्रता के तारतम्य पर निर्भर करता है कि उसका फल जाग्रत में होगा या स्वप्न में | अतः कर्म करते समय अत्यंत सावधानी की आवश्यकता है | ‘‘यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो विन्दति मातरम्। तथा पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति।। ॥ २,४२.१ ॥ गरुडपुराणम्
अर्थात् जैसे हजारों गौओं के बीच में बछड़ा अपनी माँ के पास पहुंच जाता है वैसे ही कर्म अपने कर्ता के पास पहुंच जाता है ।’’ ‘‘यथा कर्म तथा फलम्’’ ।
‘‘त्रिभिर्वर्षैः त्रिभिर्मासैः त्रिभिर्पक्षैः त्रिभिर्दिनैः।
अत्युत्कटैः पापपुण्यैः इहैव फलमश्नुते।।पंचतंत्र’’
चाहे वह तीन साल, तीन महीने, तीन पखवाड़े या तीन दिन में हो, व्यक्ति अपने अत्युत्कट अच्छे या बुरे कर्मों का फल इस दुनिया में ही भोगता है। || ६५ ||
कर्मण्यध्यस्य भोगं ये भोगेऽध्यस्याथ कर्म च। कर्मतद्भोगयोर्भेदमज्ञात्वाहुर्यथेप्सितम् ॥१.६६॥
जो लोग कर्म में भोग का आरोप कर लेते हैं तथा भोग में कर्म का , वे लोग कर्म और भोग के अंतर को जाने बिना ही जो चाहते हैं सो कहते रहते हैं | कर्म प्राणमय कोष का धर्म है और भोग विज्ञानमय कोष का धर्म है | प्राण के बिना कर्म नहीं हो सकता और बुद्धि के बिना भोग नहीं हो सकता क्योंकि जब हम सो जाते हैं तब भोगों की प्रतीति नहीं होती अतः अज्ञानी लोग कर्म और भोग में अन्योन्य अध्यास कर लेते हैं | अध्यास शब्द का अर्थ होता है किसी एक चीज को दूसरी समझ लेना जैसे रस्सी को सर्प समझ लेना | रामचरित मानस के अयोध्याकाण्ड में लक्ष्मण और निषादराज का संवाद है , जिसे लक्ष्मण गीता भी कहते हैं , वहाँ लक्ष्मणजी ने कहा है कि — काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता॥२॥
हे भाई! कोई किसी को सुख-दुःख का देने वाला नहीं है। सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं॥२॥ और आगे कहते हैं कि —
जोग बियोग भोग भल मंदा। हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा॥ जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। संपति बिपति करमु अरु कालू॥३॥
संयोग (मिलना), वियोग (बिछुड़ना), भले-बुरे भोग, शत्रु, मित्र और उदासीन- ये सभी भ्रम के फंदे हैं। जन्म-मृत्यु, सम्पत्ति-विपत्ति, कर्म और काल- जहाँ तक जगत के जंजाल हैं,॥३॥
धरनि धामु धनु पुर परिवारू। सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू॥ देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीं॥४॥
धरती, घर, धन, नगर, परिवार, स्वर्ग और नरक आदि जहाँ तक व्यवहार हैं, जो देखने, सुनने और मन के अंदर विचारने में आते हैं, इन सबका मूल मोह (अज्ञान) ही है। परमार्थतः ये नहीं हैं॥४॥ दोहा :- सपनें होइ भिखारि नृपु रंकु नाकपति होइ। जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोइ॥९२॥
जैसे स्वप्न में राजा भिखारी हो जाए या कंगाल स्वर्ग का स्वामी इन्द्र हो जाए, तो जागने पर लाभ या हानि कुछ भी नहीं है, वैसे ही इस दृश्य-प्रपंच को हृदय से देखना चाहिए॥९२॥
अस बिचारि नहिं कीजिअ रोसू। काहुहि बादि न देइअ दोसू॥ मोह निसाँ सबु सोवनिहारा। देखिअ सपन अनेक प्रकारा॥१॥
ऐसा विचारकर क्रोध नहीं करना चाहिए और न किसी को व्यर्थ दोष ही देना चाहिए। सब लोग मोह रूपी रात्रि में सोने वाले हैं और सोते हुए उन्हें अनेकों प्रकार के स्वप्न दिखाई देते हैं॥१॥
एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी॥ जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा॥२॥
इस जगत रूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपंच (मायिक जगत) से छूटे हुए हैं। जगत में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए, जब सम्पूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाए॥२॥ होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥ सखा परम परमारथु एहू। मन क्रम बचन राम पद नेहू॥३॥
विवेक होने पर मोह रूपी भ्रम भाग जाता है, तब (अज्ञान का नाश होने पर) श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम होता है। हे सखा! मन, वचन और कर्म से श्री रामजी के चरणों में प्रेम होना, यही सर्वश्रेष्ठ परमार्थ (पुरुषार्थ) है॥३॥
राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अबिगत अलख अनादि अनूपा॥ सकल बिकार रहित गतभेदा। कहि नित नेति निरूपहिं बेदा॥४॥
श्री रामजी परमार्थस्वरूप (परम सत्य वस्तु) परब्रह्म हैं। वे अविगत (जानने में न आने वाले) अलख (स्थूल दृष्टि से देखने में न आने वाले), अनादि (आदिरहित), अनुपम (उपमारहित) सब विकारों से रहति और भेद शून्य हैं, वेद जिनका नित्य ‘नेति-नेति’ कहकर निरूपण करते हैं॥४॥
दोहा :- भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल। करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहिं जग जाल॥९३॥
वही कृपालु श्री रामचन्द्रजी भक्त, भूमि, ब्राह्मण, गौ और देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करके लीलाएँ करते हैं, जिनके सुनने से जगत के जंजाल मिट जाते हैं॥९३॥
‘‘रामो विग्रहवान् धर्मः साधुः सत्य पराक्रमः । राजा सर्वस्य लोकस्य देवानाम् इव वासवः ॥३-३७-१३॥ रामायणम्/अरण्यकाण्डम्/सर्गः ३७’’
भगवान श्रीराम धर्म के साक्षात् साकार रूप हैं, वे साधुता, सत्य एवं पराक्रम की मूर्ति हैं और जैसे इन्द्र सभी देवताओं के राजा हैं वैसे ही राम संपूर्ण मानवता के शासक हैं। || ६६ ||
तेषां मन्दधियां ज्ञानवादिनां पापकारिणाम्। कथं कृतार्थतां ब्रूयामध्यासक्षयसंभवाम् ॥१.६७॥
उन मंदबुद्धि वाले पुरुषों के लिए जो वास्तव में हैं तो पापी लेकिन अपने को ज्ञानवान घोषित करते हैं और जिनका अध्यास माने भ्रान्ति का क्षय नहीं हुआ है। शोक-मोह की निवृत्ति भी नहीं हुई है, उन्हें कृतार्थ (ज्ञात ज्ञातव्य,लक्षित लक्ष्य,प्राप्त प्राप्तव्य, कृतकृत्य) कैसे कहा जा सकता है | अर्थात मैं यह कैसे कह सकता हूँ कि उन्होंने अपना उद्देश्य पूरा कर लिया है जो कि सभी प्रकार के अध्यासों की निवृत्ति के उपरान्त ही सम्भव है | ज्ञानी होने का तो मतलब ही यह है कि सभी प्रकार संशय तथा भ्रमों समूल नष्ट हो जाना |
‘‘आरोप्यते शिला शैले क्लेशेन महता यथा ।
पत्यते च सुखेनाधस्तथात्मा पुण्यपापयोः ॥३१८॥ सारसमुच्चयः’’
जैसे पहाड़ के ऊपर चट्टान बड़ी कठिनता से चढ़ाई जाती है परन्तु क्षणभर में गिराई जा सकती है, उसी प्रकार आत्मा द्वारा गुण तो कठिनाई से ग्रहण किये जाते हैं, परन्तु दोषों में पतन शीघ्र हो जाता है। || ६७ ||
कर्मण्यकर्मधीर्येषामकर्मणि च कर्मधीः। ते चाध्यासवशा मन्दा ज्ञानिनः स्वैरचारिणः ॥१.६८॥
जो निषिद्ध कर्मों को विहित कर्म समझते हैं तथा विहित कर्मों को निषिद्ध कर्म समझते हैं , ऐसे भ्रान्त , अज्ञानी और मंदबुद्धि लोग भ्रमवश मिथ्याभिमान धारण करने के कारण अपने को देह मानकर स्वेच्छाचारी होते हैं |
‘‘अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसाऽऽवृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी।।१८ .३२ ।।’’
हे पार्थ जो तमोगुणसे आवृत हुई बुद्धि अधर्मको – निषिद्ध कार्यको धर्म मान लेती है यानी शास्त्रविहित मान लेती है तथा जाननेयोग्य अन्यान्य समस्त पदार्थोंको भी जो विपरीत ही समझती है वह तामसी है। लेकिन जो सच्चे ज्ञानी हैं वे तो स्वाराज्य सिद्धि को प्राप्त होने के कारण यदृच्छया अथवा ईश्वरेच्छा से प्रेरित होते हैं |
‘‘यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।।४ .२२ ।।’’ श्रीमद् भगवद्गीता
यदृच्छया (अपने आप) जो कुछ प्राप्त हो उसमें ही संतुष्ट रहने वाला, द्वन्द्वों से अतीत तथा मत्सर से रहित, सिद्धि व असिद्धि में समभाव वाला पुरुष कर्म करके भी नहीं बँधता है।। इसलिए ज्ञानी भी ब्रह्मानुभूति होने के उपरान्त स्वच्छंद विचरण करता है |
सम्पूर्णं जगदेव नन्दनवनं सर्वेऽपि कल्पद्रुमाः गाङ्गं वारि समस्तवारि निवहाः पुण्याः समस्ताः क्रियाः । वाचः प्राकृतसंस्कृताः श्रुतिशिरो वाराणसी मेदिनी सर्वावस्थितिरस्य वस्तुविषया दृष्टे परब्रह्मणि ।।
जिसने सभी पहलुओं में ब्रह्म को जान लिया है, उसके लिए सारा संसार स्वर्ग का बगीचा बन जाता है; सभी वस्तुएं कल्पवृक्ष (इच्छानुरूप फल देने वाले पेड़); हर जल-प्रवाह पवित्र गंगा; उसके सभी कार्य, पुण्य और शुभता; ऊँचे विचारों वाली संस्कृत वाणी और साथ ही मूर्खतापूर्ण बातें प्राकृत (शब्दमात्र) वेदांतवाक्य बन जाते हैं तथा पूरी पृथ्वी, वाराणसी जैसी ज्ञानमयी दिखती है | उसके हर विचार या जागरूकता से उसे केवल ब्रह्म का पता चलता है।॥६८॥
वर्णाश्रमादिधर्माणामद्वैतं कर्मणैव ये। अनुतिष्ठन्ति ते मूढाः कर्माकर्मोभयच्युताः ॥१.६९॥
वर्ण और आश्रम के द्वारा विहित कर्म जो कि अंतःकरण की शुद्धि का साधन है , यदि निष्काम भाव से किया जाये तो चित्त शुद्धि में सहायक होता है | केवल विहित कर्म अनुष्ठान से ही अद्वैत आत्मानुभूति नहीं हो जाती , उसके लिए तो वेदांत के श्रवण , मनन और निदिध्यासन की आवश्यकता होती है | पर जो लोग केवल कर्म से ही अद्वैत की सिद्धि कर लेना चाहते है वे कर्म और अकर्म माने ज्ञान और योग दोनों से भ्रष्ट हो जाते है | वेद का स्पष्ट निर्देश है ‘‘नास्त्यकृतः कृतेन’’ मुण्डकोपनिषद .१.२.१२. — कर्म से शाश्वत तत्व नहीं प्राप्त होता है। कृतेन – किए हुए कर्म के द्वारा जो अकृत है हम उसको नहीं पा सकते । तात्पर्य यह हुआ कि परमात्म तत्त्व की प्राप्ति मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ और शरीर आदि जड़ पदार्थों के द्वारा नहीं होती | प्रत्युत जड़ता के त्याग से होती है। जब तक मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ , शरीर, देश, काल और वस्तु आदिका आश्रय है तबतक एक परमात्मा का आश्रय नहीं हो सकता। मन और बुद्धि आदि के आश्रय से परमात्मा की प्राप्ति होगी — यह साधक की मूल भूल है। अगर जड़ता का आश्रय और विश्वास टूट जाए तथा एकमात्र परमात्मा का ही आश्रय और विश्वास हो जाए तो परमात्मा प्राप्ति में देरी नहीं लग सकती । यहां कर्म से मतलब है निष्काम कर्मयोग से और अकर्म अर्थात ज्ञानयोग। || ६९ ||
स्वानुभूतिं वरिष्ठां तां सर्वानुष्ठानवर्जिताम्। सर्वानुष्ठानवन्तोऽपि सिद्धामाहुर्बतात्मनाम् ॥१.७०॥
सभी प्रकार के क्रियाकलापों को करते हुए भी यदि कोई कहे कि मुझे आत्मानुभूति (ब्रह्मानुभूति) हो गई है , तो यह संभव नहीं है | क्योंकि ब्रह्मानुभूति होने पर तो सभी प्रकार के कर्म अनुष्ठान छूट जाते हैं | यहां एक बात तो यह समझने की है कि आत्मा और ब्रह्म पर्यायवाची शब्द हैं | आत्मा का अनुभव तो सबको होता ही है , ऐसा कौन है जो कह सकता है कि मैं नहीं हूँ ? लेकिन मैं ब्रह्म हूँ यह अनुभव गुरुकृपा, शास्त्र कृपा , ईश कृपा और आत्म कृपा के बिना संभव नहीं है | और जब आत्मज्ञान या ब्रह्म ज्ञान हो जाता है तब कर्तृत्व तथा भोक्तृत्व की निवृत्ति हो जाती है | “आत्मानं चेद् विजानीयाद् अयमस्मीति पूरुषः । किमच्छन् कस्य कामाय शरीरम् अनुसंज्वरेत् ॥” बृहदारण्यक उपनिषद्॥ ४,४.१२ ॥ अगर कोई आत्माको ठीक-ठीक पहचान जाय ‘‘अयमस्मि ’’ यह समझ जाए , अपरोक्ष साक्षात्कार हो जाये तो फिर किस इच्छा से किस कामना से अपने शरीर को तकलीफ देवे या शरीर से शरीर के पीछे चलकर अपने ऊपर जन्म और मृत्यु का बुखार चढ़ाये ? पूरुषः माने जीव, लेकिन चिदंश में जीव ब्रह्म ही है ऐसा पहले कह चुके हैं। ||७०||
अभेदध्यानसाध्यां तां स्वानुभूतिं महत्तमाम्। विचारसाध्यां मन्यन्ते ते महापापकर्मिणः ॥१.७१॥
अति उत्कृष्ट या सर्वोत्तम महत्वपूर्ण जो आत्मानुभूति या ब्रह्मानुभूति है , वह तो केवल अभेद साधना या अद्वैत साधना के द्वारा ही सुलभ होती है | ऐसा महापुरुषों का मानना है | महापापी लोग ही उसे विचार साध्य मानते हैं | जो तत्व मन और वाणी से भी परे है उसे तो निर्विचार अवस्था में ही अनुभव किया जा सकता है न कि विचार या चिंतन करने से | आपका मन तो जाग्रत और स्वप्नावस्था तक ही साथ देता है , सुषुप्ति अवस्था में भी काम नहीं आता तो फिर मृत्यु और मूर्छा की तो बात ही कौन करे | बृहदारण्यक उपनिषद् में सुषुप्ति का वर्णन इस प्रकार किया गया है —
‘‘अत्र पिताऽपिता भवति माताऽमाता लोका अलोका देवा अदेवा वेदा अवेदा। अत्र स्तेनोऽस्तेनो भवति भ्रूणहाऽभ्रूणहा चाण्डालोऽचण्डालः पौल्कसोऽपौल्कसः श्रमणोऽश्रमणस्तापसोऽतापसोऽनन्वागतं पुण्येनानन्वागतं पापेन तीर्णो हि तदा सर्वाञ्छोकान्हृदयस्य भवति॥२२॥ बृहदारण्यकोपनिषद चतुर्थोऽध्यायः तृत्तीयं ब्राह्मणम्’’
इस अवस्था में पिता पिता नहीं रहता, माता माता नहीं रहती, संसार नहीं रहा, देवता नहीं रहे, वेद अब वेद नहीं रहे। इस अवस्था में जो चोर है, अब चोर नहीं रहा, कुलीन ब्राह्मण का हत्यारा हत्यारा नहीं रहा, चांडाल अब चांडाल नहीं रहा, {शूद्र के द्वारा ब्राह्मणी में उत्पन्न बालक चांडाल कहलाता है} पुलकसा अब पुलकसा नहीं रहा, {शूद्र के द्वारा क्षत्राणी में उत्पन्न बालक पुल्कस कहलाता है} साधु अब साधु नहीं रहा, तपस्वी अब तपस्वी नहीं रहा। उसका यह रूप अच्छे कर्मों से अछूता और बुरे कर्मों से भी अछूता ही रहता है, क्योंकि इस गाढ़ सुषुप्ति की अवस्था में वह अपने दिल के सभी दुखों से परे हो जाता है। जब हमारा भान रहता है तब सब मालूम पड़ता है। जब हमारा भान शान्त हो जाता है-भान माने मालूम पड़ना – प्रतीत होना। जब कुछ नहीं-मूर्च्छा में, सुषुप्ति में, समाधि में किसने यह दुनिया देखी है? कहाँ जाती है वह? जब और जहाँ हमारा होश है तब सब है और होश नहीं है तो कुछ नहीं है। होश से जुदा दुनियाँ कुछ नहीं है। इसका नाम वेदान्त-दर्शन है। केवल भान से मालूम पड़ता है और अभान से लोप हो जाता है और केवल सत से उत्पन्न होता है और सत में लीन हो जाता है। सत और भान दोनों एक हैं; इसलिए परमात्मा से अलग यह सृष्टि नहीं है। सृष्टि परमात्मा-रूप है। लेकिन आत्मा तो अवस्थात्रय से अतीत है। आत्मा तीनों गुणों से परे है।
‘‘त्वं गुणत्रयातीतः। त्वं अवस्थात्रयातीतः। त्वं देहत्रयातीतः। त्वं कालत्रयातीतः।’’ तुम सत्व,रज,तम तीनो गुणों से भिन्न हो | तुम तीनों कालों भूत, भविष्य और वर्तमान से भिन्न हो | तुम तीनों देहो से भिन्न हो |
‘‘त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।२ .४५।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
हे अर्जुन वेदों का विषय तीन गुणों से सम्बन्धित (संसार से) है और तुम तो त्रिगुणातीत निर्द्वन्द्व, नित्य सत्व (शुद्धि) में स्थित, योगक्षेम से रहित और आत्मवान् बनो। || ७१ ||
निदिध्यासनमप्यात्माभेदाभिध्यानलक्षणम्। उपेक्षन्ते वृथाद्वैतज्ञानवादैकमोहतः ॥१.७२॥
अद्वैत सिद्धांत को ठीक-ठीक न समझने के कारण मोहित हुए कुछ लोग गलत तरीके से निदिध्यासन की प्रथा को अनदेखा करते हैं | (नितरां दिध्यासा, ध्यातुमिच्छा निदिध्यासा) आत्मा और ब्रह्म अभिन्न हैं ऐसा निरन्तर चिन्तन करना ही निदिध्यासन है | सर्वत्र एक अखण्ड ब्रह्म की ही सत्ता है ऐसा कहने मात्र से अद्वैत की सिद्धि नहीं हो जाती प्रत्युत निदिध्यासन परमावश्यक है | अतः निदिध्यासन की उपेक्षा नहीं की जा सकती | भगवान श्रीआदिशंकराचार्यजी ने निदिध्यासन का बहुत ही सरल प्रकार केवल तीन श्लोकों में प्रातःस्मरण की परम्परा में ही ड़ाल दिया है देखिये कितना सुन्दर है –
‘‘प्रातः स्मरामि हृदि संस्फुरदात्मतत्त्वं सच्चित्सुखं परमहंसगतिं तुरीयम् ।
यत्स्वप्नजागरसुषुप्तिमवैति नित्यं तद्ब्रह्म निष्कलमहं न च भूतसङ्घः ॥१॥
मैं प्रातःकाल हृदय में स्फुरित होते हुए आत्म तत्व का स्मरण करता हूँ, जो सत, चित् और आनन्द स्वरूप है, परम हंसों का प्राप्य स्थान है और जाग्रत आदि तीनों अवस्थाओं से अलग है , विलक्षण है, जो स्वप्न, जाग्रत और सुषुप्ति अवस्था को नित्य जानता है, वह स्पन्द शून्य , निष्कल ब्रह्म ही मैं हूँ, पंच भूतों का संघात (शरीर) मैं नहीं हूँ ।|| १ ||
प्रातर्भजामि मनसा वचसामगम्यं वाचो विभान्ति निखिला यदनुग्रहेण ।
यन्नेतिनेतिवचनैर्निगमा अवोचुस्तं देवदेवमजमच्युतमाहुरग्र्यम् ॥२॥
जो मन और वाणी से अगम्य है, जिसकी कृपा से समस्त वाणी भास रही हैं, जिससे सब कुछ प्रकाशित होता है जिसका वेद और शास्त्र नेति-नेति कहकर जिसका निरूपण करते हैं, और जिस जन्मरहित देवदेवेश्वर अच्युत को (आदि) पुरुष कहते हैं, मैं उसका प्रातःकाल भजन करता हूँ । || २ ||
प्रातर्नमामि तमसः परमर्कवर्णं पूर्णं सनातनपदं पुरुषोत्तमाख्यम् ।
यस्मिन्निदं जगदशेषमशेषमूर्तौ रज्ज्वां भुजङ्गम इव प्रतिभासितं वै ॥३॥
जिस सर्वस्वरूप परमेश्वर में यह समस्त संसार रज्जु में सर्प के समान प्रतिभासित हो रहा है, उस अज्ञान से परे, दिव्य सूर्य के समान तेजस्वी ,पूर्ण सनातन पुरुषोत्तम को मैं प्रातःकाल नमस्कार करता हूँ । || ३ ||’’
कहने का तात्पर्य यह है कि वेदान्त वाद का विषय नहीं अनुभव करने का है |
‘‘यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः। अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम् ॥३॥ केनोपनिषद् द्वितीयः खण्डः’’
जिसके द्वारा इसको ‘विचार बद्ध’ नहीं किया जाता, उसके पास ‘इसका’ विचार है; जिसके द्वारा ‘इसका’ मनन पूर्वक विचार किया गया है वह ‘इसे’ नहीं जानता। जो ‘इसका’ विवेचन करते हैं उनके लिए ‘यह’ अविज्ञात है, जो ‘इसके’ विवेचन का प्रयत्न नहीं करते, उनके लिए ‘यह’ ज्ञात है।
‘‘प्राणो ह्येष यः सर्वभूतैर्विभाति विजानन् विद्वान् भवते नातिवादी।
आत्मक्रीड आत्मरतिः क्रियावानेष ब्रह्मविदां वरिष्ठः ॥४॥
मुण्डकोपनिषद् तृतीयो मुण्डकः प्रथमः खण्डः’’
यह प्राण ही है जो समस्त भूतपदार्थों के द्वारा अभिव्यक्त होकर उद्भासित होता है; विद्वान् व्यक्ति इसे पूर्णतया जानते हुए, मतमतान्तर एवं विवादों (अतिवाद) से बचता है। ‘आत्मा’ में उसकी रति होती है तथा ‘आत्मा’ में ही क्रीड़ारत रहकर कर्म करता रहता है,-ब्रह्मवेत्ताओं में वह सर्वश्रेष्ठः वरिष्ठ है।|| ७२ ||
आश्रित्यैव विचारं ये वाक्यार्थमननात्मकम्। मन्यन्ते कृतकृत्यत्वमात्मनां ते हि मोहिताः ॥१.७३॥
महावाक्यों के अर्थ का केवल विचार करने मात्र से जो अपने को कृतकृत्य मानने लगते हैं , वे वास्तव में मोहित हैं अर्थात अविवेकी हैं | उपनिषदों के महान कथन जैसे कि (सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत।) इसमें से {सर्वं खल्विदं ब्रह्म} इतना तो इनको याद रहता और आगे का आधा हिस्सा {तज्जलानिति शान्त उपासीत।} भूल जाते हैं | उपनिषद के ये महावाक्य निराकार ब्रह्म और उसकी सर्वव्यापकता का परिचय देते है। ये महावाक्य उद्घोष करते हैं कि मनुष्य देह, इंद्रिय और मन का संघटन मात्र नहीं है, बल्कि वह सुख-दुख, जन्म-मरण से परे दिव्य स्वरूप है, आत्म स्वरूप है। आत्मभाव से मनुष्य जगत का द्रष्टा भी है और दृश्य भी। जहां-जहां ईश्वर की सृष्टि का आलोक व विस्तार है, वहां-वहां उसकी पहुंच है। वह परमात्मा का अंश भूत आत्मा है। यही जीवन का चरम-परम पुरुषार्थ है। उपनिषद के ये महावाक्य मानव जाति के लिए महाप्राण, महौषधि एवं संजीवनी बूटी के समान हैं, जिन्हें हृदयंगम कर मनुष्य आत्मस्थ हो सकता है ।
‘‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन॥९॥ निरालम्बोपनिषद’’
यह समस्त विश्व ही ब्रह्म हैं, इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है॥ शरीर का चर्म, रक्त, मांस, अस्थियां, ‘आत्मा’ नहीं होतीं। इसी भांति इन्द्रियों द्वारा की जाने वाली क्रियाओं को कर्म कहते हैं। ‘ब्रह्म’ द्वारा निर्मित विभिन्न जीव-रूपों में भेद मानना अज्ञान कहलाता है। सत-चित-आनन्द-स्वरूप परमात्मा के ज्ञान से जो आनन्दपूर्ण स्थिति बनती है, वह सुख है। नश्वर विषयों का विचार करना दुःख कहलाता है। सत्य और सत्संग का समागम ही स्वर्ग है। और नश्वर संसार के मोह-बंधन में पड़े रहना ही नरक है। ‘मैं हूं’ का विचार ही बंधन है। सभी प्रकार का योग, वर्ण और आश्रम-व्यवस्था तथा धर्म-कर्म के संकल्प भी बन्धन-स्वरूप हैं। मोक्ष पर विचार करना, आत्मा के गुणों का संकल्प, यज्ञ, व्रत, तप, दान आदि का विधि-विधान आदि भी बन्धन के ही रूप हैं। जब सभी प्रकार के सुख-दुख, मोह-ममता आदि नष्ट हो जायें, तब उस स्थिति को मोक्ष कहते हैं। जिसके हृदय में ब्रह्मरूप ज्ञान ही शेष रह जाये, उसे शिष्य और आत्मतत्त्व के विज्ञानमय स्वरूप को जानने वाला विद्वान अथवा गुरु होता है। जो ‘मैं ही करता हूं’ या ‘मैंने किया है’ इस भाव से लिप्त रहता है, वह मूर्ख है। ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ के भाव को धारण करके की जाने वाली साधना, तप कहलाती है। प्राण, इन्द्रिय, अंतःकरण आदि से भिन्न सच्चिदानन्दस्वरूप और नित्य, मुक्त, ब्रह्म का स्थान परम पद कहा जाता है। जो समस्त धर्मों तथा कर्मों में ममता एवं अहंकार का परित्याग करके ‘ब्रह्म’ की शरण में जाकर उसी को सब कुछ समझता है, वह साधक या पुरुष संन्यासी कहलाता है। वही मुक्त, पूज्य, योगी, परमहंस, अवधूत और ब्राह्मण होता है। उसका पुनरावर्तन नहीं होता। यह उन उपनिषदों के वचनों का रहस्य है। ‘निरावलम्ब,’ अर्थात् ब्रह्म के अतिरिक्त किसी अन्य के अधीन जो नहीं होता, वह ‘मोक्ष’ का अधिकारी होता है। || ७३ ||
आद्यज्ञानोदये काम्यकर्मत्याग उदीर्यते। द्वितीयसम्यग्ज्ञाने तु नैमित्तिकनिराकृतिः ॥१.७४॥
जब ज्ञान का पहला स्तर प्राप्त होता है तब काम्य कर्मों का त्याग हो जाता है | और अगले स्तर में सम्यग्ज्ञान होने पर नैमित्तिक कर्मों की भी निराकृति की जा सकती है | क्योंकि शुद्ध आत्मा तो कर्तृत्व और भोक्तृत्व से रहित है | ‘‘कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते। पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतु रुच्यते।।१३.२१।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ कार्य और कारण के उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और पुरुष (जीव) सुख-दुख के भोक्तृत्व में हेतु कहा जाता है। ||७४||
तृतीयपूर्णज्ञाने च नित्यकर्मनिराकृतिः। चतुर्थाद्वैतबोधे तु सोऽतीवर्णाश्रमी भवेत् ॥१.७५॥
और जब ज्ञान के तीसरे स्तर पर पहुंचता है तब अर्थात् जब पूर्ण ज्ञान हो जाता है तब नित्यकर्म की भी उपेक्षा की जा सकती है |और जब चौथा स्तर प्राप्त होता है अर्थात् जब अद्वैत का अनुभव होता है तब वह व्यक्ति वर्ण और आश्रमों के धर्मों से भी अतीत हो जाता है अर्थात् अवधूत की स्थिति को प्राप्त कर लेता है | ‘‘अतिवर्णाश्रमी भवेत्’’ अर्थात वर्णाश्रम से ऊपर उठ जाता है | श्वेताश्वतर उपनिषद में इसका वर्णन इस प्रकार किया गया है – ‘‘यदा चर्मवदाकाशं वेष्टयिष्यन्ति मानवाः। तदा देवमविज्ञाय दुःखस्यान्तो भविष्यति॥’’ जब मानव सन्तति आकाश को चमड़े के या कपडे के समान आवेष्टित करके धारण करेगी तथा द्युलोकों को परिधान के समान अपने ऊपर लपेट लेगी, केवल तभी अपने ‘प्रभु’, ‘ईश्वर’ परमदेव ,परमात्मा के ज्ञान के बिना ही ‘जगत्’ के दुःखों का अन्त हो जायेगा। अर्थात ज्ञान के बिना मुक्ति संभव नहीं है | ‘‘तपःप्रभावाद्देवप्रसादाच्च ब्रह्म ह श्वेताश्वतरोऽथ विद्वान्। अत्याश्रमिभ्यः परमं पवित्रं प्रोवाच सम्यगृषिसङ्घजुष्टम्॥’’ अपनी भक्ति के तप के प्रभाव से (ऊर्जा शक्ति) से तथा परमेश्वर की कृपा से श्वेताश्वतर मुनि ने तब अपनी चेतना में ‘ब्रह्म’ को जाना तथा उसने (अत्याश्रमिभ्यः) लौकिक जीवन का परित्याग करने वालों के पास आकर उन्हें उस ‘परमोच्च’ एवं ‘परम पवित्र परमेश्वर’ के विषय में सम्यक् रूप से ऋषियों की सभा में प्रवचन किया, जिसमें ऋषि-संघ सर्वदा आश्रय ग्रहण करते हैं। || ७५ ||
नित्यनैमित्तिकोपेतज्ञानान्मुक्तिः क्रमाद्भवेत्। सम्यग्ज्ञानात्तु सा जीवन्मुक्तिर्नित्यैकसंयुतात् ॥१.७६॥
नित्यकर्म और नैमित्तिक कर्म यथावत करते हुए धीरे-धीरे अन्तःकरण शुद्ध होने पर क्रम से मुक्ति प्राप्त होती है | परन्तु गुरुकृपा से सम्यक ज्ञान प्राप्त हो जाने से तत्क्षण जीवन्मुक्त हुआ जा सकता है, क्योंकि परमात्मा एक है और नित्य है , उस नित्य, एक से सम्बन्ध हो जाने पर मुक्ति तो आत्मा स्वभाव ही है | उसे प्राप्त नहीं करना पड़ता | श्वेताश्वतर उपनिषद में कहा है कि
‘‘नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान्।
तत् कारणं सांख्ययोगाधिगम्यं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः॥६.१३॥ ’’
यह सब जो कुछ दिखता है अनित्य ही है, अर्थात् अस्थायी एवं असत् है, उसमें ‘वह’ परमात्मा जो देखने वाला है वही एकमात्र ‘नित्य तत्व’ है, और समस्त चेतनों में वही ‘एकमात्र’ सच्चा ‘चेतन-तत्त्व’ है; बाकी तो सब चिदाभास हैं | अनेकों की कामनाओं को ‘वह’ ‘एक’ ही परिपूर्ण करता है; ‘वह’ एकमात्र ‘मूल कारण-स्वरूप’ है जिस पर सांख्य एवं योग हमें ले जाते हैं। यदि तुम इस ‘देव’ (ईश्वर) को जान लो तो तुम समस्त बंधनों से मुक्त हो जाओगे। अर्थात परमात्मा के मिलने में या जीवन्मुक्त होने में देर नहीं लगती केवल अन्तःकरण के दर्पण को शुद्ध करके उनके दर्शन की योग्यता प्राप्त करने में ही देरी लगती है | क्योंकि परमात्मा तो नित्य प्रकट ही है | वास्तव में कर्म किसी को नहीं बांधता क्योंकि कर्म तो स्वयं ही जड़ है वो क्या किसी को बांधेगा , कर्म में जो कर्तृत्व है वह ही बंधन का कारण होता है। || ७६ ||
पूर्णज्ञानाद्विदेहाख्या शाश्वती मुक्तिरिष्यते। यथा नैष्कर्म्यसंसिद्धिर्जीवन्मुक्तेर्निरंकुशा ॥१.७७॥
जैसे जीवन्मुक्त को निरंकुश , निर्वाध नैष्कर्म्य सिद्धि (इच्छा रहित कर्म करना) प्राप्त होती है वैसे ही द्रष्टा और दृश्य का विवेक हो जाने के कारण पूर्ण ज्ञान हो जाने पर अनन्त काल तक रहने वाली (शाश्वती मुक्ति) विदेह मुक्ति कही जाती है | पातञ्जल योगसूत्र में बताया है कि ‘‘तदा द्रष्टु: स्वरूपे अवस्थानं ।।३।।’’उस समय द्रष्टा यानी आत्मा की अपने स्वरूपमें स्थिति हो जाती है । अर्थात वह कैवल्य अवस्थाको उपलब्ध हो जाता है ।|| ७७ ||
अत्रैवं सति नैष्कर्म्यं ज्ञानकर्मसमुच्चयात्। सिध्येत्क्रमेण सद्यो वा नान्यथा कल्पकोटिभिः ॥१.७८॥
अतः इस सम्बन्ध में ज्ञान और कर्म के समुच्चय से अर्थात ज्ञान और कर्म का एक साथ अनुष्ठान करने से नैष्कर्म्य का अनुभव होता है | और यह बात तत्परता की गति पर निर्भर करती है कि यह नैष्कर्म्य सिद्धि क्रम से होगी अथवा एक ही झटके में शीघ्र ही हो जाएगी |
यह विषय ईशावास्योपनिषद में बहुत विस्तार समझाया गया है |
यहाँ संक्षेप में खाली एक मंत्र लिखते हैं |
‘‘विद्यांच अविद्याञ्च यस्तद्वेदोभयं सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते ॥’’
इसका शाब्दिक अर्थ यह है- जो विद्या और अविद्या-इन दोनों को ही एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमरत्व (देवतात्मा भाव अर्थात देवत्व) प्राप्त कर लेता है। जो तत् पदार्थ को इस रूप में जानता है कि वह एक साथ विद्या और अविद्या दोनों है, | वह अविद्या से मृत्यु को पार कर विद्या से अमरता का आनन्द लाभ करता है। यहाँ विद्या माने ज्ञानयोग और अविद्या माने निष्काम कर्म तथा उपासना समझना चाहिए | शरीर और मन से सम्बन्ध रखने वाली लौकिक और वैदिक विद्या को यहाँ अविद्या शब्द से कहा गया है |इसी बात को मुण्डकोपनिषद में परा तथा अपरा नाम से कहा गया है |
‘‘तत्र अपरा ऋग्वेदः यजुर्वेदः सामवेदः अथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषम् इति। अथ परा यया तत् अक्षरम् अधिगम्यते ॥’’
इसमें अपरा है, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद,शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द तथा ज्योतिष। और परा विद्या वह है जिससे ‘अक्षर तत्व’ का ज्ञान होता है। इसके सिवा दूसरे किसी उपाय से हजारों जन्मों में भी मुक्ति की सिद्धि नहीं हो सकती || ७८ ||
यावद्विदेहमुक्तिः सा न सिध्यति शरीरिणः। तावत्समुच्चयः सिद्धो ज्ञानोपासनकर्मणाम् ॥१.७९॥
जब तक शरीर धारी जीव को विदेह मुक्ति का अनुभव न हो जाये तब तक उसे कर्म ,उपासना और ज्ञान का समुच्चय करके ही अनुष्ठान करते रहना चाहिए | इसी बात को हनुमानजी ने अपने शब्दों इस प्रकार कहा कि
“देहदृष्ट्या तु दासोऽहं जीवदृष्ट्या त्वदंशक:।
आत्मदृष्ट्या त्वमेवाहमिति मे निश्चला मति:।।”
हनुमानजी बोले – हे प्रभु ! देह भाव से देखूँ तो मैं आपका सेवक हूँ, जीव भाव से देखूँ तो मैं आपका अंश हूँ और यदि आत्म भाव से देखूँ तो मैं आप ही हूँ। ऐसा मेरा निश्चय है। अतः शरीर से सेवा रूपी कर्म , मन से भगवान की उपासना और बुद्धि से ‘‘ऐतदात्यमिदं सर्वं तत्सत्यं स आत्मा तत्त्वमसि, श्वेतकेतो ! इति …॥ छा० ६।८।७ ॥’’ अर्थात् यह सब उस आत्मा से व्याप्त है – ऐतदात्म्य है । वह (आत्मा) सत्य है । वह आत्मा वह तुम हो, श्वेतकेतु ! इस प्रकार तद्रूपता का अनुसंधान करते रहना चाहिए। || ७९ ||
तस्माद् ज्ञात्वा परात्मानं ध्याननिष्ठो महामतिः। भूयान्निजाश्रमाचार निरतः श्रेयसे सदा ॥१.८०॥
इस प्रकार परमात्मतत्व को जानने के पश्चात बुद्धिमान पुरुष को ध्याननिष्ठ रहते हुए अपने वर्णाश्रम धर्मका , कुलाचार धर्म का और लौकिक व्यवहारों पालन करने से सर्वदा ही परम कल्याण की प्राप्ति होती है | जैसे एक ड्राइवर गाड़ी चलाते समय रेडिओ भी सुनता रहता है , अपने साथियों से बातें भी करता रहता है लेकिन उसका मुख्य ध्यान ड्राइविंग पर ही होता है | वैसे ही मैं कर्ता , भोक्ता नहीं हूँ | द्रष्टा , साक्षी , चेतन मात्र हूँ | इस प्रकार अपने आत्मकल्याण के लिए नित्य निरंतर ध्याननिष्ठ रहना चाहिए। ||८०||
ज्ञानोपस्ती कर्मसापेक्षके ते कर्मोपास्ती ज्ञानसापेक्षके च।
कर्मज्ञाने चान्यसापेक्षके तन्मुक्त्यै प्रोक्तं साहचर्यं त्रयाणाम् ॥१.८१॥
ज्ञान और उपासना कर्म सापेक्ष हैं और क्रिया तथा उपासना ज्ञान पर निर्भर करती है ; उसी प्रकार कर्म और ज्ञान में निष्ठा उपासना के बिना हो नहीं सकती अतः तीनों की सङ्गति को ही मुक्ति का कारण कहा गया है | इस प्रकार कर्म , उपासना और ज्ञान परस्पर एक दूसरे पर निर्भर करते हैं |जैसा कि श्रीमद्भागवत में बताया है कि —
‘‘एकमेकतराभावे यदा नोपलभामहे।
त्रितयंतत्र योवेद सआत्मास्वाश्रयाश्रयः।।२.१०.९’’
अर्थात् प्रमाता, प्रमाण और प्रमेय इन तीनों में से किसी एक के अभाव में अन्य की सिद्धि नहीं हो सकती। और इन तीनों का साक्षात्कार आत्मा से होता है। आत्मा अनन्य आश्रय होते हुए अन्य सब का आश्रय है। उपासना-लक्षण क्रिया से अनन्त, अखण्ड, निर्विकार दिव्य-स्वरूप का अनायासेन प्राकट्य हो जाता है। अर्थात ज्ञान हो जाता है | जैसे प्रमाता, प्रमाण और प्रमेय एक दूसरे के बिना नहीं टिकते वैसे ही कर्म , उपासना और ज्ञान भी एक दूसरे बिना सफल नहीं होते | अतः इन तीनों के संयुक्त प्रयास से मुक्ति सुलभ होती है। || ८१ ||
ज्ञानोपास्ती स्वीयकर्मस्वपास्याप्येकं मुक्तिर्नैव कस्यापि सिध्येत्।
तस्माद्धीमानाश्रयेदप्रमत्तस्त्रीण्युक्तानि श्रद्धयादेहपातात् ॥१.८२॥
इन ज्ञान उपासना और कर्म रूपी साधनों में से किसी एक को भी छोड़कर साधन करने से किसी को मुक्ति नहीं मिल सकती | इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति को अप्रमत्त होकर उक्त तीनों साधनों द्वारा श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान करके देहपात से पूर्व ही जीवनमुक्ति का अनुभव कर लेना चाहिए | केनोपनिषद में कहा है कि —
‘‘इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति। न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः। भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः। प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥५॥ केनोपनिषद् द्वितीयः खण्डः’’
यदि व्यक्ति यहीं (इसी लोक में) उस ज्ञान को प्राप्त कर लेता है तो व्यक्ति का अस्तित्व सार्थक है, और यदि यहीं इसी जीवन में उस ज्ञान की प्राप्ति नहीं की, तो महाविनाश है। ज्ञानीजन विविध भूत-पदार्थों में ‘उस’ का विवेचन कर, उसी की सत्ता का अनुभव कर इस लोक से प्रस्थान करके अमर हो जाते हैं। अतः इन तीनों साधनों का एक साथ आश्रय करना चाहिये | || ८२ ||
॥इति सूर्यगीतायां प्रथमोऽध्यायः॥
|| अथ द्वितीयोऽध्यायः ||
सूर्य उवाच :- भगवान सूर्य बोले
अथातः संप्रवक्ष्यामि कर्मणां पंचभूमिकाः। उत्तरोत्तर मुत्कर्षाद्विद्धि सोपान पंक्ति वत् ॥२.१॥
भगवान सूर्य ने कहा कि अब मैं कर्म की पांच भूमिका (स्तर) बताऊंगा | उनमें से प्रत्येक को पिछले से अगले को बेहतर समझना चाहिए , जैसे सीढ़ी के क्रमिक चरण | जैसे जैसे हम ऊपर चढ़ते हैं वैसे वैसे हमारा दृष्टिकोण प्रशस्ततर होता जाता है | उत्तरोत्तर उत्कर्ष की प्राप्ति के लिए अपने अधिकारानुसार इन भूमिकाओं का अनुष्ठान करना चाहिए। ||१||
प्रथमा तांत्रिकी प्रोक्ता परा पौराणिकी मता। स्मार्ता तृतीया तुर्या तु श्रौता संकीर्तिता बुधैः ॥२.२॥
तांत्रिक प्रक्रिया को प्रथम भूमिका कहा गया है ; दूसरी पौराणिकी भूमिका है जो पहली से श्रेष्ठ है ; स्मार्त माने स्मृतियों में बताई हुई (धर्म शास्त्रोक्त ) प्रक्रिया तीसरी है और बुद्धिमान पुरुषों द्वारा श्रौती अर्थात वेदोक्त प्रक्रिया को चौथी भूमिका के रूप में घोषित किया जाता है। || २ ||
पंचमी त्वौपनिषदा विबुधोत्तमसम्मता। यस्याः परं न किंचित्स्याद्वाच्यं ज्ञेयं च सत्तम ॥२.३॥
हे महान अरुण ! श्रेष्ठ विद्वानों द्वारा सहमति प्राप्त करके औपनिषदिक प्रक्रिया को पांचवी भूमिका कहा गया है | यह पाँचवी भूमिका ही सर्वोत्तम है | इससे अधिक न कुछ कहने योग्य है और न जानने योग्य है | ‘‘तं त्वा ‘औपनिषदं’ पुरुषं पृच्छामि । – बृहदारण्यकोपनिषत् ३-९-२६’’ प्रत्यगात्मैव औपनिषदः पुरुषः । “औपनिषदात्मज्ञानादेव मुक्तिः॥” क्योंकि परमार्थ के प्रकाशक उपनिषद ही हैं | इसीलिये भगवत्पाद शंकराचार्य जी ने उपदेश पंचकम् में कहा कि —
“सङ्गः सत्सु विधीयतां भगवतो भक्तिर्दृढाधीयतां
शान्त्यादिः परिचीयतां दृढतरं कर्माशु संत्यज्यताम्।
सद्विद्वानुपसृप्यतां प्रतिदिनं तत्पादुका सेव्यतां
ब्रह्मैकाक्षरमर्थ्यतां श्रुतिशिरोवाक्यं समाकर्ण्यताम्।।२।।”
इस श्लोक में अन्वेषणकर्ता को क्या-क्या करना चाहिए इसका निर्णय किया गया है | सज्जनों का साथ करें, प्रभु में भक्ति को दृढ़ करें, शम-दम आदि गुणों का दृढ़ता पूर्वक सेवन करें , काम्य-निषिद्ध आदि कठोर कर्मों का परित्याग करें, सत्य को जानने वाले विद्वानों की शरण लें, प्रतिदिन उनकी चरण पादुकाओं की पूजा करें, ब्रह्म के एक अक्षर वाले नाम ॐ के अर्थ पर विचार करें, उपनिषदों के महावाक्यों को सुनें। || ३ ||
स्वेच्छं कर्माणि कुर्वन्यः प्रमाणाश्रयणं विना। तन्त्रोक्तानि करोत्येष कर्मी प्राथमिको मतः ॥२.४॥
जो अपनी मर्जी से केवल किताब में पढ़कर बिना किसी प्रमाण का आश्रय लिए तंत्र में बताये गए कर्तव्यों का पालन करता है, उसे पहले प्रकार का कर्ता माना जाता है | क्योंकि प्रत्येक शास्त्र में शब्दों के पारिभाषिक अर्थ होते हैं | अतः अर्थ का विपरीत ग्रहण होना स्वाभाविक है। जैसे सामान्य व्यवहार में गुण और वृद्धि शब्द का अर्थ कुछ और होता है और संस्कृत व्याकरण में कुछ और ही अर्थ होता है। जैसे -वृद्धिरादैच् – वृद्धिः =आत् ऐच् – आ ऐ औ इन तीनों स्वरों को वृद्धि कहते हैं | और अदेङ्गुणः = अ, ए और ओ इन तीनों स्वरों को गुण कहते हैं। इसी प्रकार विभिन्न शास्त्रों में हजारों उदाहरण मिलते हैं। लेकिन फिर भी यदि कोई कुछ करता है तो न करने वालों से तो अच्छा ही है क्योंकि ‘‘करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान। रसरी आवत जात तें, सिल पर परत निसान।।’’ कुए से पानी खींचने के लिए बर्तन से बांधी हुई रस्सी कुए के किनारे पर रखे हुए पत्थर से बार -बार रगड़ खाने से पत्थर पर भी निशान बन जाते हैं। ठीक इसी प्रकार बार-बार अभ्यास करने से मंदबुद्धि व्यक्ति भी कई नई बातें सीख कर उनका जानकार हो जाता है। || ४ ||
तानि तन्त्रोक्तकर्माणि त्यक्त्वा पौराणिकानि यः। करोति तन्त्रसम्बन्धीन्ययं कर्मी द्वितीयकः ॥२.५॥
तंत्र में निर्दिष्ट कर्तव्यों का त्याग करके , जो पुराणों में निर्धारित तंत्रप्रक्रिया है उससे संबंधित कर्तव्यों का पालन करता है, वह दूसरी कक्षा का कर्ता है | (तंत्र माने प्रयोग विधि) “तनु विस्तारे”–विस्तारार्थक “तन्” धातु से तंत्र शब्द की निष्पत्ति होती है | तननात् त्रायते इति तन्त्रः जैसे मननात् त्रायते इति मन्त्रः | क्योंकि तंत्र में क्रिया का विस्तार होता है | परन्तु पुराण संबंधित तंत्र में क्रिया के साथ-साथ भाव का भी विस्तार होता है | “तनोति ज्ञानं त्रायते महतो भयात् इति तन्त्रः।” अतः तन्त्र ज्ञान का विस्तार करने वाला व महान भय से छुटकारा दिलाने वाला होता है | न देवो विद्यते काष्ठे न पाषाणे न मृण्मये। भावेषु विद्यते देवः तस्मात् भावो हि कारणम्॥(गरुड़पुराण, उत्तर. ३/१०) ‘देवता न तो काष्ठमें रहते हैं, न पत्थरमें और न मिट्टीमें रहते हैं । भावमें ही देवताका निवासस्थान होता है, इसलिये भावको ही मुख्य मानना चाहिये ।’ || ५ ||
त्यक्त्वा तान्यपि यः स्मार्तान्यनुतिष्ठति सर्वदा। श्रुतिसम्बन्धवन्त्येष तृतीयः कर्म्युदीर्यते ॥२.६॥
अब तीसरे प्रकार के कर्ता के स्वरूप का निरूपण करते हैं | तांत्रिक और पौराणिक विधानों को छोड़कर जो हमेशां वेदानुकूल स्मृतियों में वर्णित कर्तव्यों का निर्वाह करता है उसे तीसरे प्रकार का कर्ता कहा जाता है | स्मृतिः श्रुत्यनुसारिणी (श्रुत्यनुसारिणी च स्मृतिः प्रमाणमिति स्थितिः।) जैसे मनुस्मृति , याज्ञवल्क्यस्मृति , वशिष्ठ स्मृति ,अत्रि स्मृति , व्यास स्मृति, पराशर स्मृति आदि |
‘‘वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियं आत्मनः ।
एतत् चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद् धर्मस्य लक्षणम् ||२.१२||’’
(वेदः स्मृतिः सदाचारः) वेद, स्मृति , तथा सत्पुरुषों का आचरण और (स्वस्य आत्मनः प्रियम्) अपने आत्मा के ज्ञान से अविरुद्ध तथा प्रिय आचरण (एतत् चतुर्विधं धर्मस्य लक्षणम्) ये चार धर्म के लक्षण हैं अर्थात् इन्हीं लक्षणों से धर्म लक्षित होता है ।
“आर्षं धर्मोपदेशं च वेदशास्त्र अविरोधिना । यस्तर्केण अनुसंधत्ते स धर्मं वेद नेतरः” ।। जो मनुष्य ऋषि-मुनि प्रणीत ग्रंथों का स्वाध्याय तथा उनके उपदेशों का श्रवण करता और जो वेद शास्त्र के अनुकूल जानता,मानता व आचरण करता है, और जो तर्क के द्वारा अनुसंधान करता है वही धर्म के तत्व को समझ पाता है, अन्य नहीं ।
“धृति क्षमा दमोस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः: ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्” ।। (मनुस्मृति)
अर्थात् धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य और क्रोध न करना – ये धर्म के दश लक्षण हैं । श्रुतिः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियं आत्मनः । सम्यक् संकल्पजः कामो धर्म मूलं इदं स्मृतम् । । १.७ । । महर्षि याज्ञवल्क्य के अनुसार श्रुति स्मृति द्वारा प्रतिपादित मार्ग का अनुसरण, सदाचार, प्राणीमात्र में आत्मा का भाव रखते हुए आत्म प्रेम से युक्त होकर और शुद्ध संकल्प से की गई इच्छा ही धर्म का मूल है | {आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः। सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः। स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः।} ‘आहार की शुद्धि से सत्त्व की शुद्धि होती है। आहृयन्ते इति आहाराः जिनको ग्रहण किया जाय वे आहार हैं जैसे आंख से और कान आदि ज्ञानेन्द्रियों से हम जो कुछ भी ग्रहण करते हैं वे सब आहार हैं | वे यदि शुद्ध और सात्विक हों तो सत्त्व की शुद्धि होती है | अर्थात अन्तःकरण शुद्ध होता है | और अंतःकरण की शुद्धि से बुद्धि निर्मल और दृढ़ निश्चयी बन जाती है। पवित्र और निश्चय बुद्धि से मुक्ति भी सरलता से प्राप्त होती है। ||६||
यश्च तान्यपि सन्त्यज्य श्रौतान्येवाचरत्ययम्। कर्मी धर्मार्थकामानां स्थानं तुर्योऽभिधीयते ॥२.७॥
और जिन्होंने उन स्मृति उक्त (धर्म शास्त्रोक्त) आचारों को भी छोड़दिया है , और केवल वैदिक आज्ञाओं का ही पालन करते हैं , जो कि धर्म , अर्थ और काम से सम्बन्धित हैं , उन्हें चौथे स्तर का कर्ता कहा जाता है | ‘‘वेदो नित्यमधीयतां तदुदितं कर्म स्वनुष्ठीयतां’’ अर्थात प्रतिदिन वेदों का अध्ययन करें और तदुदितं कर्म स्वानुष्ठीयतां-अर्थात् वेदों में जिन कर्मों का वर्णन किया गया है उन्हीं कर्मों का आचरण करना ही धर्म है। || ७ ||
श्रौतान्यपि च यस्त्यक्त्वा सदौपनिषदानि वै। करोति श्रद्धया कर्माण्ययं मोक्षी तु पंचमः ॥२.८॥
और जिसने वैदिक कर्तव्यों का भी त्याग कर दिया है , तथा हमेशा परम श्रद्धा और विश्वास के साथ केवल औपनिषदिक (उपनिषदों में बताये हुए) कर्मों का आचरण मोक्ष प्राप्ति के लिए करता है वह पांचवें प्रकार का {स्तर का} कर्ता है |
‘‘ शान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः समाहितः श्रद्धावित्तो भूत्वा आत्मन्येव आत्मानं पश्येत्” (बृहदारण्यक उपनिषद २ -४ – ५)’’
कब आप अपने आपको (आत्म स्वरूप को) जान सकते हैं ? जब शान्ति, दान्ति, उपरति, तितिक्षा, समाधि ओर श्रद्धा वित्त हों । जो चीज आपने देखी नहीं है, उसके बारे में जरा वेद की बात मानो। श्रत् माने आस्तिकता अर्थात् जिसको तुम देख नहीं रहे हो, वह भी है। ‘श्रत् सत्यं तदस्यां धीयते इति श्रद्धा’ श्रद्धा की पूंजी लेकर यह यात्रा करनी चाहिए | यहां पर तितिक्षा को भी मुख्य रूप से कहा गया है क्योंकि तितिक्षु मोक्षमार्ग के योग्य हो जाता है अर्थात् श्रवण मनन में लगकर उस परमात्मा के भाव का निश्चय करके मुक्त हो जाता है । तितिक्षा अपने आप में मोक्ष नहीं देती लेकिन तितिक्षा से तुम श्रवण-मनन रूप मोक्ष-साधन को कर पाते हो । इसलिए इसकी आवश्यकता है । इसी श्रुत्यर्थ को शंकराचार्य विवेक चूड़ामणि में कहते हैं कि —
‘‘शान्तो दान्तः परमुपरतः क्षान्तियुक्तः समाधिं
कुर्वन्नित्यं कलयति यतिः स्वस्य सर्वात्मभावम् ।
तेनाविद्यातिमिरजनितान्साधु दग्ध्वा विकल्पान्
ब्रह्माकृत्या निवसति सुखं निष्क्रियो निर्विकल्पः ॥ ३५५ ॥’’
योगी पुरुष चित्तकी शान्ति, इन्द्रियनिग्रह, विषयोंसे उपरति और क्षमासे युक्त होकर समाधिका निरन्तर अभ्यास करता हुआ अपने सर्वात्म भावका अनुभव करता है और उसके द्वारा अविद्यारूप अन्धकारसे उत्पन्न हुए समस्त विकल्पों का भलीभाँति ध्वंस करके निष्क्रिय और निर्विकल्प होकर आनन्दपूर्वक ब्रह्माकार वृत्ति से रहता है |
‘‘सहनं सर्व दु:खानां अप्रतीकारपूर्वकम् ।
चिन्ताविलापरहितं सा तितिक्षा निगद्यते ॥२४॥विवेकचूडामणिः’’
सभी प्रकार के दुखों को बिना प्रतीकार के सहन करना ही तितिक्षा कहलाता है |
“विषयेभ्यः परावृत्तिः परमोपरतिर्हि सा।
सहनं सर्व दुःखानां तितिक्षा सा शुभा मता ॥७॥ अपरोक्षानुभूतिः”
बाह्य विषयों से वृत्ति को हटाकर अंतर्चेतना में वृत्ति की स्थापना करना ही उपरति है | और संपूर्ण दुःखों का सहन करना शुभ तितिक्षा मानी गई है।
‘‘मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः |
आगमापायिनोऽनित्यास्तान्स् तितिक्षस्व भारत ||२.१४||श्रीमद् भगवद्गीता’’
हे कुन्तीपुत्र ! शीत और उष्ण और सुख दुख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग का प्रारम्भ और अंत होता है; वे अनित्य हैं, इसलिए, हे भारत ! उनको तुम सहन करो। || ८ ||
यान्यौपनिषदानां स्युरविरोधीनि कर्माणाम्। श्रौतादीनि सुसंग्राह्यान्यमलानि मुमुक्षुभिः ॥२.९॥
वेदों के वे सभी निर्मल कर्तव्य जो उपनिषदों के विरुद्ध नहीं हैं , उन्हें मुक्ति के लिए प्रयासरत लोगों द्वारा स्वीकार किया जाना चाहिए | जैसे कि यजुर्वेद अपने पहले ही अध्याय में यज्ञकर्म का विधान करता है —
‘‘इषे त्वा ऊर्जे त्वा । वायव स्थ । देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणऽआ प्यायध्वम् अघ्न्या इन्द्राय भागं प्रजावतीर् अनमीवाऽअयक्ष्मा मा व स्तेनऽ ईशत माघशꣳसो ध्रुवाऽअस्मिन् गोपतौ स्यात बह्वीः । यजमानस्य पशून्पाहि ॥’’
अर्थात् हे सबका सृजन करने वाले सविता देव ! तुम सबको यज्ञ रूपी श्रेष्ठ कर्म करने के लिए प्रेरित करो और चालीसवें अध्याय के दूसरे मन्त्र में
‘‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा:। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥२॥’’
इस संसार में कर्म करते हुए ही मनुष्य को सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिये। हे मानव! तेरे लिए इस प्रकार का ही विधान है, इससे भिन्न किसी और प्रकार का नहीं है, इस प्रकार कर्म करते हुए ही जीने की इच्छा करने से मनुष्य में कर्म का लेप नहीं होता। इस प्रकार कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा रखने को कहा गया है। इस प्रकार संहिता के बाद अब उपनिषद में कर्म का विधान देखिये—
‘‘वेदमनूच्याचार्योऽन्तेवासिनमनुशास्ति । सत्यं वद । धर्मं चर । स्वाध्यायान्मा प्रमदः । आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजानन्तुं मा व्यवच्छेसीः । सत्यान्न प्रमदितव्यम् । धर्मान्न प्रमदितव्यम् । कुशलान्न प्रमदितव्यम् । भूत्यै न प्रमदितव्यम् । स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् ।। (तैत्तिरीय उपनिषद्, शिक्षावल्ली, अनुवाक ११, मंत्र १)’’
अर्थ:- वेद के शिक्षण के पश्चात् आचार्य अपने आश्रममें रहने वाले शिष्यों को अनुशासन सिखाता है । सत्य बोलो । धर्मसम्मत कर्म करो । स्वाध्याय के प्रति प्रमाद मत करो । आचार्य को जो अभीष्ट हो वह धन (भिक्षा से) लाओ और संतान-परंपरा का छेदन न करो (यानी गृहस्थ बनकर संतानोत्पत्ति कर पितृऋण से मुक्त होओ) । सत्य के प्रति प्रमाद (भूल) न होवे, अर्थात् सत्य से मुख न मोड़ो । धर्म से विमुख नहीं होना चाहिए । अपनी कुशल बनी रहे ऐसे कार्यों की अवहेलना न की जाए । ऐश्वर्य प्रदान करने वाले मंगल कर्मों से विरत नहीं होना चाहिए । स्वाध्याय तथा प्रवचन कार्य की अवहेलना न होवे ।
“देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम् । मातृदेवो भव । पितृदेवो भव । आचार्यदेवो भव । अतिथिदेवो भव । यान्यनवद्यानि कर्माणि । तानि सेवितव्यानि । नो इतराणि । यान्यस्माकं सुचरितानि । तानि त्वयोपास्यानि ।। (तैत्तिरीय उपनिषद, शिक्षावल्ली, अनुवाक ११, मंत्र २) “
अर्थ:- देवकार्य तथा पितृ कार्य से प्रमाद नहीं किया जाना चाहिए । माता को देव तुल्य मानने वाला बनो (मातृदेवो = माता है देवता तुल्य जिसके लिए) । पिता को देव तुल्य मानने वाला बनो । आचार्य को देव तुल्य मानने वाला बनो । अतिथि को देव तुल्य मानने वाला बनो । अर्थात् इन सभी के प्रति देवता के समान श्रद्धा, सम्मान और सेवा भाव का आचरण करे । जो अनिन्द्य कर्म हैं उन्हीं का सेवन किया जाना चाहिए, अन्य का नहीं । हमारे जो-जो कर्म अच्छे आचरण के द्योतक हों केवल उन्हीं की उपासना की जानी चाहिए; उन्हीं को संपन्न किया जाना चाहिए । (अवद्य अर्थात निन्दित, जिसका कथन न किया जा सके, जो गर्हित हो, प्रशंसा योग्य न हो ।) संकेत है कि गुरुजनों का आचरण सदैव अनुकरणीय ही हो ऐसा नहीं है । अपने विवेक के द्वारा व्यक्ति क्या करने जैसा है और क्या नहीं इसका निर्णय करें और तदनुसार व्यवहार करें । तथा भगवद्गीता में भी कहा है कि–
‘‘यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।।१८.५।।’’
यज्ञ, दान और तप रूप कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत उनको तो करना ही चाहिये क्योंकि यज्ञ, दान और तप ये तीनों ही कर्म मनीषियों को, मनुष्यों को पवित्र करने वाले हैं। ||९||
कर्माण्युपनिषत्सु स्युर्ब्रह्मैकार्थासु वै कथम्। इति शंक्यन्नकुर्वन् हि विधिरस्ति जिजीविषेत् ॥२.१०॥
अब यदि कोई इस प्रकार का संदेह करने लगे कि उपनिषद में तो बताया है कि ब्रह्म एक है और उसके सिवाय कुछ भी नहीं है तो यह कर्म की कथा कैसे चल पाएगी | ‘‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन ॥’’ यह दृश्यमान समस्त विश्व ही ब्रह्म है, इस ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है | ”सदेव सोम्येदमग्रमासीदेकमेवाद्वितीयम्।” {छान्दोग्योपनिषद् ६ / २ / १ } ब्रह्म के सन्दर्भ में श्रुति के “एकमेव” कथन से अभिप्राय है कि ब्रह्म “एक” ही है | “एव” कार पूर्ण विश्वास का प्रतीक है जो उन समस्त शंकाओं को निरस्त कर देता है जो ब्रह्म के एक होने पर उठती हैं | इसके पश्चात् “अद्वितीय” पद इस एकत्व के सापेक्षत्व का भी निरसन कर देता है | निरपेक्ष में ही अद्वितीयता संगत है |
कर्म करने के लिए कम से कम दो तो चाहिए ही , एक कर्ता और दूसरा कर्म | जब एक ही है तो कर्म कैसे संभव होगा ? मैं स्वयं अपने ही कंधे पर तो नहीं बैठ सकता | (इसे शास्त्रीय भाषा में कर्म कर्तृ विरोध कहते हैं) तथा कर्म करने से ब्रह्म की प्राप्ति नहीं होती क्योंकि ब्रह्म तो अकृत है |
‘‘परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन। तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ॥१२॥ मुण्डकोपनिषद्’’ ब्रह्म का जिज्ञासु (ब्राह्मण) कर्मों के द्वारा संचित लोकों की परीक्षा करके संसार के फीकापन (निर्वेद) का अनुभव करता है, क्योंकि कर्मों को करने से ही ‘उस’ की उपलब्धि नहीं हो सकती जो ‘अकृत’ है। उस ‘पर तत्व’ के ज्ञान के लिए वह (ब्राह्मण) हाथ में समिधा धारण करके वेदविद् (श्रोत्रिय) एवं ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाये । अथवा, ‘वह’ जो असृष्ट है, वह सृष्ट पर आधारित नहीं है। “शाब्दिक अनुवादː” कृत के द्वारा (अथवा, बनाये गये के द्वारा) ‘अकृत’ (‘यह’ जो असृष्ट है) नहीं प्राप्त होता है । और दूसरी तरफ विधान करते हैं कि — ‘‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥२॥ ईशोपनिषद्’’
इस संसार में कर्म करते हुए ही मनुष्य को सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिये। हे मानव! तेरे लिए इस प्रकार का ही विधान है, इससे भिन्न किसी और प्रकार का नहीं है, इस प्रकार कर्म करते हुए ही जीने की इच्छा करने से मनुष्य में कर्म का लेप नहीं होता। अतः भगवद्गीता के अनुसार ‘‘कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः। स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तःकृत्स्नकर्मकृत्।।४.१८।।’’ जो पुरुष कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है, वह योगी सम्पूर्ण कर्मों को करने वाला है।। अथवा ‘‘न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा। इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।।४.१४।।’’ कर्म मुझे लिप्त नहीं करते; न मुझे कर्मफल में स्पृहा है। इस प्रकार मुझे जो जानता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता है।। तथा ‘‘प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।३.२७।।’’ सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, अहंकार से मोहित हुआ पुरुष, “मैं करता हूँ” ऐसा मान लेता है।। इसलिए कर्तृत्व के अहंकार बिना कर्म करो |या फिर भगवान के लिए कर्म करो। || १० ||
ईशावास्यादिवेदान्तप्रोक्तान्यामरणादपि। कुर्वन्नेव विमुच्येत ब्रह्मवित्प्रवरोऽस्तु वा ॥२.११॥
अतः ईशावास्य और अन्य उपनिषदों में निर्धारित कर्तव्यों को मृत्यु पर्यन्त करते हुए ही मोक्ष प्राप्त करना चाहिए | विश्व कल्याण के लिए अथवा भगवत् प्रीत्यर्थ किया गया कर्म बंधन कारक नहीं होता है | अथवा जैसा कि भगवद्गीता में बताया है वैसा ब्रह्म का उत्कृष्ट विज्ञान प्राप्त करना चाहिए | ‘‘त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः। कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित् करोति सः।।४.२०।।’ जो पुरुष, कर्म फलासक्ति को त्याग कर, नित्य तृप्त है और सब आश्रयों से रहित है वह कर्म में प्रवृत्त होते हुए भी (वास्तव में) कुछ भी नहीं करता है।। ‘‘निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्त सर्व परिग्रहः। शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।४.२१।।’’ जो आशा रहित है तथा जिसने चित्त और आत्मा (शरीर) को संयमित किया है, जिसने सब परिग्रहों का त्याग किया है, ऐसा पुरुष शारीरिक कर्म करते हुए भी पाप को नहीं प्राप्त होता है। तथा इसी प्रकार ‘‘ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।४.२४।।’’ अर्पण (अर्थात अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है; ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है, वह भी ब्रह्म ही है। इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है। || ११ ||
यतयस्त्यक्तगार्हस्थ्या अपि स्वोचितकर्मभिः। आश्रमं पालयन्तः स्वं कैवल्यं प्राप्नुयुः परम् ॥२.१२॥
यहाँ तक कि जो तपस्वी लोग अपने गृहस्थ कर्तव्यों का परित्याग कर चुके हैं , वे भी उनके आश्रम के लिए उपयुक्त कर्तव्यों का पालन करने से सर्वोच्च कैवल्य पद को प्राप्त कर सकते हैं | ‘‘यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः। तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर।।३.९।।’’ यज्ञ के लिये किये हुए कर्म के अतिरिक्त अन्य कर्म में प्रवृत्त हुआ यह पुरुष कर्मों द्वारा बंध जाता है इसलिए हे कौन्तेय आसक्ति का त्याग कर यज्ञ के निमित्त ही कर्म का सम्यक् आचरण करो।। ‘‘यज्ञ’’ यह सर्व व्यापक विष्णु भगवान का नाम है। || १२ ||
कर्मप्रजाधनानां यस्त्यागः समभिधीयते। कामैकविषयत्वेन स यतेर्न विरुध्यते ॥२.१३॥
ब्रह्म प्राप्ति के लिए उपनिषदों में त्याग का विधान किया गया है | कर्मों का त्याग , बच्चों का त्याग और धन का त्याग | ये सारे त्याग काम सम्बन्धी ही हैं | इच्छा के बिना कोई काम नहीं कर सकता | तदुक्तं भट्टाचार्यैः – ‘‘प्रयोजनमनुद्दिश्य मन्दोपि न प्रवर्तते |जगच्च सृजतस्तस्य किं नाम न कृतं भवेत्॥’’ – किसी प्रयोजन के बिना मूर्ख व्यक्ति भी किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता है | और सबसे बड़ी इच्छा है आत्म सुख की प्राप्ति, उसी आत्म सुख लाभार्थ धन, प्रजा और काम्यकर्मों का त्याग किया जाता है |’आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति’ संसार के प्रत्येक व्यक्ति को अपने सुख के लिए ही पत्नी, पुत्र व धन प्रिय होता है । इसलिए यह त्याग मुक्ति में बाधक नहीं है, अपितु साधक ही है | ‘‘न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः। परेण नाकं निहितं गुहायां विभ्राजते यद्यतयो विशन्ति ॥’’ उस (अमृत) की प्राप्ति न कर्म के द्वारा, न संतान के द्वारा और न ही धन के द्वारा हो पाती है। (उस) अमृतत्व को सम्यक् रूप से (ब्रह्म को जानने वालों ने) केवल त्याग के द्वारा ही प्राप्त किया है। स्वर्गलोक से भी ऊपर गुफा अर्थात बुद्धि के गह्वर में प्रतिष्ठित होकर जो ब्रह्मलोक प्रकाश से परिपूर्ण है, इस तरह के उस (ब्रह्मलोक) में संयमशील योगीजन ही प्रविष्ट होते हैं | ‘‘श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते। ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।१२.१२।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ अभ्याससे शास्त्रज्ञान श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञानसे ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यानसे भी सब कर्मोंके फलका त्याग श्रेष्ठ है। कर्मफलत्यागसे तत्काल ही परमशान्ति प्राप्त हो जाती है। || १३ ||
संन्यासिनो हि कर्माणि नित्यानि विमलानि च। श्रेयोऽर्थानि विधीयन्ते परिव्राजेऽब्जजन्मना ॥२.१४॥
संयमी , त्यागी संन्यासियों के कल्याण के लिये ब्रह्मा जी ने जिन नियमों का विधान किया है , उन नित्य कर्म सम्बन्धी नियमों का पालन करने से अंतःकरण की शुद्धि होती है, फलतः वे नित्य कर्म सम्बन्धी नियम मोक्षमार्ग में सहायक होते हैं |
जैसे कि प्राणायाम रूपी यज्ञ, अभय का दान, ज्ञान का दान और प्रेम दान तथा आत्मानुसंधान रूपी तप इन यज्ञ, दान और तप रूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को आसक्ति से रहित और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिए, ऐसा श्री कृष्ण भगवान का गीता में निश्चय किया हुआ उत्तम मत है |
‘‘एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च ।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ॥१८- ६॥श्रीमद् भगवद्गीता’’
हे पार्थ ! (पूर्वोक्त यज्ञ, दान और तप) इन कर्मोंको तथा दूसरे भी कर्मोंको आसक्ति और फलोंका त्याग करके करना चाहिये – यह मेरा निश्चित किया हुआ उत्तम मत है।
‘‘ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः संबभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता ।
स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठामथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह ॥ १ ॥ (मुण्डकोपनिषत् १-१-१) –
देवगणों में प्रथम ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई जो सम्पूर्ण विश्व के कर्ता एवं लोक के संरक्षक हैं; उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्व के प्रति उस ब्रह्मविद्या का कथन किया जिसमें समस्त विद्याओं की प्रतिष्ठा है।
अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्माऽथर्वा तं पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्याम्।
स भारद्वाजाय सत्यवाहाय प्राह भारद्वाजोऽङ्गिरसे परावराम् ॥ २ ॥
जिस ब्रह्मविद्या का ब्रह्मा ने अथर्व के प्रति कथन किया था उसका कथन पुराकाल में अथर्वा ऋषि ने अंगिरा के प्रति किया; उसने भारद्वाज सत्यवह के प्रति किया; भारद्वाज ने परा एवं अपरा, दोनों विद्याओं का अंगिरस के प्रति कथन किया।
‘‘शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ ।
कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति ॥ ३ ॥’’
महाशालाधिपति शौनक अंगिरस के पास विधिवत शिष्य रूप में आये और उनसे पूछाː “हे भगवन्! क्या है जिसे जान लेने के पश्चात् यह सब कुछ ज्ञात हो जाता है? || १४ ||
अपेतकाम्यकर्माणो यतयोऽन्येऽपि वा जनाः। सद्यः क्रमेण वा मुक्तिमाप्नुयुर्नात्र संशयः ॥२.१५॥
जिन लोगों ने काम्य कर्मों का त्याग कर दिया है , चाहे वे तपस्वी संन्यासी हों अथवा अन्य पुरुष हों , वे मुक्ति प्राप्त करते हैं इसमें कोई शक नहीं है | फिर भले ही उनकी मुक्ति क्रममुक्ति हो अथवा सद्योमुक्ति |
‘‘न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति । – बृहदारण्यकोपनिषत् ४-४-६’’
यह बृहदारण्यक श्रुति सद्योमुक्ति में उदाहरण है | क्योंकि अज्ञानियोंकी ही गति (जाना) और आगति (लौट कर आना) होता है | अविद्या , काम और कर्म से रहित आत्मज्ञानी की गति नहीं होती | अविद्या , काम और कर्म से प्रेरित अज्ञानी ही बार – बार जन्मता और मरता है | अज्ञानी ही जन्म और मरण के चक्र में फँस कर सुख -दुःख रूपी फलों का अनुभव करता है | ब्रह्मज्ञानी में काम का अभाव होने से कर्मों का भी अभाव होता है इसलिए ऐसे आप्तकाम, आत्मकाम और अकाम ब्रह्मज्ञानी का लोकान्तर और जन्मान्तर में गमन का अभाव होता है | क्योंकि उसने निर्विशेष, अद्वैत, परिपूर्ण ब्रह्म का अपने आत्मा के रूप में अनुभव किया होता है, अतः उसकी इन्द्रियां उत्क्रमण नहीं करतीं | इसलिए ब्रह्मज्ञानी किसको छोड़कर कहाँ गमन करे? इसलिए ब्रह्मज्ञानी अभी और यहीं ब्रह्मस्वरूप होता हुआ परब्रह्म के साथ एक हो जाता है | जीवन्मुक्त ही ज्ञानी है | इसलिए इस ब्रह्मज्ञानी की गति नहीं होती | यही सद्योमुक्ति है | अब क्रम मुक्ति का उदाहरण देखिये-
‘‘सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चितेति॥’’ (तैत्तिरीयोपनिषदत् / ब्रह्मानन्दवल्ली)
वही समस्त कामनाओं को परितृप्त करता है तथा वही उस विज्ञानमय तथा बोधपूर्ण ‘अन्तरात्मा’ के साथ ‘ब्रह्म’ में निवास करता है।
‘‘आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन। मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते।।८.१६।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
हे अर्जुन ! ब्रह्म लोक तक के सब लोग पुनरावर्ती स्वभाव वाले हैं। परन्तु, हे कौन्तेय ! मुझे प्राप्त होने पर पुनर्जन्म नहीं होता।
अत्रेयं व्यवस्था –ये क्रममुक्तिफलाभिरुपासनाभिर्ब्रह्मलोकं प्राप्तास्तेषामेव तत्रोत्पन्नसम्यग्दर्शनानां ब्रह्मणा सह मोक्षः। (मधुसूदन-सरस्वती)
वेदान्त में क्रम मुक्ति का एक सिद्धांत प्रतिपादित है। इसके अनुसार जो पुरुष वैदिक कर्मों का एवं उपासना का युगपत् (एक साथ) अनुष्ठान करता है वह कर्म और उपासना के इस समुच्चय के फलस्वरूप ब्रह्मलोक अर्थात सृष्टिकर्ता के लोक को प्राप्त करता है। यहाँ कल्प की समाप्ति पर ब्रह्मा जी के उपदेश से परब्रह्म के साथ एकरूप हो जाता है अर्थात मुक्त हो जाता है। इस ब्रह्मा जी के लोक में भी मुक्ति का अधिकारी बनने के लिए उसे आत्मसंयम ब्रह्मा जी के उपदेश का पालन तथा आत्म विचार करना आवश्यक होता है। तभी अज्ञान जनित बन्धन से उसकी पूर्ण मुक्ति हो सकती है। || १५ ||
पंचमीं भूमिमारूढः ज्ञानोपासनकर्मभिः। शोकमोहादिनिर्मुक्तः सर्वदैव विराजते ॥२.१६॥
ज्ञान , उपासना और कर्मों के आधार पर , जो कर्म की पांचवीं कक्षा में चढ़ गया है वह शोक , मोह (भ्रम) आदि से विनिर्मुक्त होकर हमेशा देदीप्यमान रहता है | श्वेताश्वतरोपनिषद में बताया है कि —
‘‘पृथिव्यप्तेजोऽनिलखे समुत्थिते पञ्चात्मके योगगुणे प्रवृत्ते।
न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम्॥२.१२॥’’
पंचमहाभूतोंका भले प्रकार उत्थान होने पर और पंचयोग-सम्बन्धी गुणोंके सिद्ध हो जानेपर योगसे तेजस्वी हुए देहको पा लेनेके बाद साधक रोग, जरा और मृत्युसे मुक्त हो जाता है।
जब योगी के समक्ष योग के द्वारा योग के पाँच गुण प्रकट हो जाते हैं अर्थात जब वह अपने आपको पञ्चभूतों से एकीभूत कर लेता है तब उसे योगाग्नि से बना शरीर प्राप्त हो जाता है और तब वह रोगों से, जरा से (बुढ़ापे से) और मृत्यु से मुक्त हो जाता है।
‘‘यथैव बिम्बं मृदयोपलिप्तं तेजोमयं भ्राजते तत्सुधान्तम्।
तद्वात्मतत्वं प्रसमीक्ष्य देही एक: कृताथों: भवते वीतशोकः ॥२.१४॥’’
जिस प्रकार धूल में लिपटी धातु की मूर्ति धुल जाने से चमकने लगती है, उसी प्रकार देही {आत्मा} आत्म तत्व के सम्यक दर्शन से कृतार्थ हो जाती है और तब वह अपने यथार्थ रूप में चमकने लगती है उसी प्रकार इस जीवात्मा का वास्तविक स्वरूप अत्यंत स्वच्छ होने पर भी अनंत जन्मों में किए हुए कर्मों के संस्कारों से सम्मिलित हो जाने के कारण प्रत्यक्ष प्रकट नहीं होता परंतु जब मनुष्य ध्यान योग की साधना द्वारा अपने समस्त कषायों को धोकर आत्मा के यथार्थ स्वरूप को भली-भांति प्रत्यक्ष कर लेता है तब वह असंग हो जाता है अर्थात उसका जो जड़ पदार्थ के साथ संयोग हो रहा था उसका नाश होकर वह कैवल्य अवस्था को प्राप्त हो जाता है तथा उसके सब प्रकार के दुखों का अंत हो कर वह सर्वथा कृतकृत्य हो जाता है उसका मनुष्य जन्म सार्थक हो जाता है और वह अपने लक्ष्य के साथ एकता को प्राप्त कर शोक से मुक्त हो जाता है। || १६ ||
न ज्ञानेन विनोपास्तिर्नोपास्त्या च विनेतरत्। कर्मापि तेन हेतुत्वं पूर्वपूर्वस्य कथ्यते ॥२.१७॥
अतः ज्ञान के बिना उपासना की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि जिसकी उपासना करनी है उसका ज्ञान होना आवश्यक है , और इसी प्रकार उपासना के बिना ज्ञान की भी सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि जब तक जो हमारा ज्ञातव्य है उसकी उपासना नहीं करेंगे तब तक उसका ज्ञान होना संभव नहीं है | और कर्म को भी इन दोनों में से प्रत्येक का कारण कहा जाता है | (उपासना और ज्ञान का) इसी बात को श्रीमद्भगवद्गीता में इस प्रकार कहा है | ‘‘ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति। समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।।१८ .५४ ।।’’ ब्रह्मभूत (जो साधक ब्रह्म बन गया है), प्रसन्न मन वाला पुरुष न इच्छा करता है और न शोक, समस्त भूतों के प्रति सम होकर वह मेरी पराभक्ति को प्राप्त करता है।। तथा ‘‘भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः। ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।।१८ .५५ ।।’’ (उस पराभक्ति ) के द्वारा मुझे वह तत्त्वत: जानता है कि मैं कितना (व्यापक) हूँ तथा मैं क्या हूँ। (इस प्रकार) तत्त्वत: जानने के पश्चात् तत्काल ही वह मुझमें प्रवेश कर जाता है, अर्थात मेरा ही स्वरूप बन जाता है।। इसी बात को समझाते हुए कठोपनिषद में इस प्रकार कहा है | ‘‘यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह। बुद्धिश्च न विचेष्टते तामाहुः परमां गतिम् ॥’’ ”जब पाँचों इन्द्रियाँ शान्त होकर स्थिर हो जाती हैं तथा हमारा मन भी उनके साथ स्थिर हो जाता है, और ‘बुद्धि’ की प्रक्रिया भी शांत हो जाती हैं तो वह उच्चतम अवस्था (परमा गति) होती है, ऐसा विद्वान लोग कहते है। ||१७||
यद्वा यावन्न हि ज्ञानं तावन्नोपासनं मतम्। यावन्नोपासनं तावन्न ज्ञानं च कथंचन ॥२.१८॥
अथवा यों कहें कि जब तक ज्ञान नहीं है , तब तक उपासना ठीक प्रकार से नहीं हो सकती | और जब तक उपासना सम्यक प्रकार से नहीं की जाती तब तक ज्ञान किसी भी तरह से नहीं हो सकता | जब तक हम किसीको जानेंगे ही नहीं तो उससे प्रेम कैसे कर सकेंगे और यदि प्रेम नहीं करेंगे तो जानेंगे कैसे ? तुलसीदास जी कहते हैं कि — जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती।। प्रीति बिना नहिं भगति दृढ़ाई । जिमि खगपति जल कै चिकनाई।। प्रभु की प्रभुता जाने बिना उन पर विश्वास नहीं जमता, विश्वास के बिना प्रीति नहीं होती और प्रीति बिना भक्ति वैसे ही दृढ़ नहीं होती जैसे हे पक्षीराज! जल की चिकनाई ठहरती नहीं है। || १८ ||
ज्ञानं यावन्न कर्मापि न तावन्मुख्यमीर्यते। यावन्न कर्म तावच्च न ज्ञानं साधु सम्मतम् ॥२.१९॥
जब तक ज्ञान नहीं है तब तक कर्म भी ठीक प्रकार से नहीं किया जा सकता | और जब तक कोई क्रिया नहीं होती तब तक ज्ञान को भी सार्थक नहीं कहा जा सकता | क्रियाहीन ज्ञान साधु पुरुषों द्वारा सम्मत नहीं है | अवशेन्द्रियचित्तानां हस्तिस्नानमिव क्रिया । दुर्भगाभरणप्रायो ज्ञानं भारः क्रियां विना ॥ जिन मनुष्यों की ज्ञानेंद्रियां और चित्त वश में नहीं हैं, उनका सब कार्य हाथी के स्नान की तरह निष्फल ही है (हाथी स्नान करके भी अपने ऊपर धूल फेंककर स्वयं को पुनः मलिन कर लेता है)। और जो लोग अपने ज्ञान का उपयोग नहीं करते, उनका ज्ञान भी दुर्भगा माने भाग्यहीन (परित्यक्ता,कुरूप अथवा विधवा) स्त्री के आभूषण की तरह भार मात्र ही है । || १९ ||
यावन्नोपासनं तावन्न कर्मापि प्रशस्यते। यावन्न कर्मोपास्तिश्च न तावत्सात्त्विकी मता ॥२.२०॥
और जब तक पूजा ,उपासना नहीं होती , तब तक कर्म की भी प्रशंसा नहीं होती | और जब तक कोई क्रिया नहीं होती , तब तक लम्बी पूजा ,उपासना को भी सात्विक (शुद्ध) नहीं माना जाता है | श्रीमद्भागवत में बताया है कि — ‘‘नैष्कर्म्यमप्यच्युतभाववर्जितं न शोभते ज्ञानमलं निरञ्जनम् । कुत: पुन: शश्वदभद्रमीश्वरे न चार्पितं कर्म यदप्यकारणम् ॥ १. ५ . १२ ॥’’ वह निर्मल ज्ञान भी , जो मोक्ष की प्राप्ति का साक्षात साधन है , यदि भगवान की भक्ति से रहित हो तो उसकी उतनी शोभा नहीं होती | फिर जो साधन और सिद्धि दोनों ही दशाओं में सदा ही अमंगल रूप है , वह काम्य कर्म , और जो भगवान को अर्पण नहीं किया गया है, ऐसा अहैतुक (निष्काम) कर्म भी कैसे सुशोभित हो सकता है | कोई काम निष्काम भाव से तो युक्त हो परंतु भगवान की भक्ति से रहित हो तो उसकी शोभा नहीं होती | परमात्मा की भक्ति से भावित होकर ही ज्ञान और कर्म शोभित होते हैं। ‘‘शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खाः यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् । सुचिन्तितं चौषधमातुराणां न नाममात्रेण करोत्यरोगम् ॥’’ पुरुष शास्त्रों को पढ़कर भी मूर्ख ही रह जाते हैं। वास्तव में जो पुरुष कर्म करता है, वह विद्वान है। अच्छी तरह से सोचकर की गई औषध के नामोच्चारण मात्र से रोगी का रोग नष्ट नहीं होता है। जैसे कि केवल एक अच्छे चिकित्सक से अच्छी औषधि लिखवाने मात्र से ही रोगी स्वस्थ नहीं हो जाते, स्वस्थ होने के लिए उन्हें औषधि का सेवन भी करना होता है ।||२०||
ज्ञानोपासनकर्माणि सापेक्षाणि परस्परम्। प्रयच्छन्ति परां मुक्तिं नान्यथेत्युक्तमेव ते ॥२.२१॥
ज्ञान, उपासना और कर्म , परस्पर एक दूसरे पर निर्भर करते हैं | ये तीनों परस्पर एक दूसरे से निरपेक्ष रह कर सर्वोच्च मुक्ति को नहीं दे सकते | ये तीनों परस्पर सापेक्ष रहकर ही परा मुक्ति के साधन बनते हैं | यह अन्यथा नहीं हो सकता | यह आपसे कहा ही जा चुका है | सोह न राम प्रेम बिनु ग्यानू ,करनधार बिनु जिमि जलजानू ||राम-प्रेम के बिना ज्ञान शोभा नहीं देता, जैसे कर्णधार के बिना जहाज। कैवल्योपनिषत् में पितामह ब्रह्मा जी ने कहा है कि — ‘‘श्रद्धा भक्ति ध्यान योगात् अवेहि ’’ अर्थात् श्रद्धा, भक्ति, और ध्यान योग के द्वारा आत्मा का ज्ञान प्राप्त करो। ||२१||
एतेषु साधनेष्वेकं त्रिषु यत्किंचिदत्र यः। त्यजेदसद्गुरूक्त्या स नाश्नुवीत परामृतम् ॥२.२२॥
किसी असद् गुरु के कहने से यदि कोई इन तीनों साधनों (ज्ञान, उपासना और कर्म) में से किसी एक का भी त्याग कर देता है, तो वह सर्वोच्च अमृत को प्राप्त नहीं कर सकता है | कठोपनिषद में भी कहा है कि अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितं मन्यमानाः। दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः ॥ जो लोग अविद्या में, उसके भीतर ही वास करते हैं, अर्थात अज्ञान में ही रहते हैं | अपनी बुद्धि में स्वयं को ज्ञानी तथा महापण्डित मानते हैं, वे मूढ़ होते हैं, और वे उसी प्रकार ठोकरें खाते हुए चक्करों में भटकते रहते हैं जैसे अंधे के द्वारा ले जाये जाने वाले दूसरे अंधे भी ठोकरें ही खाते हैं । || २२ ||
नानाविधानि ज्ञानानि नानारुपा उपास्तयः। नानाविधानि कर्माणि श्रुत्यन्तादिषु संविदुः ॥२.२३॥
विभिन्न प्रकार के ज्ञान तथा अनेक प्रकार की उपासनाओं के रूप और कर्मों का निरूपण उपनिषद आदि अनेक ग्रंथों में प्राप्त होते हैं | जैसे कि १ सद्विद्या , २ भूमाविद्या , ३ दहरविद्या ४ वैश्वानर विद्या, ५ पंचाग्नि विद्या , ६ मधुविद्या ७ दक्षिणाक्षिविद्या ८ आत्मविद्या ९ यज्ञविद्या।
तथा संवर्गोपासना , प्रतीकोपासना , सगुणोपासना , सम्पद उपासना , उद्गीथ उपासना , ज्योति उपासना आदि अनेक प्रकार की उपासनाएं हैं |
और ब्रह्म के सगुण प्रतीक जैसे मन, प्राण, आकाश, वायु, वाक्, चक्षु, श्रोत्र, सूर्य, अग्नि, रुद्र, आदित्य या मरुत और गायत्री इत्यादि की उपासना निर्दिष्ट की गई है। इसी प्रकार इष्ट कर्म , पूर्तकर्म, और दत्तकर्म तथा काम्यकर्म, निषिद्धकर्म एवं प्रायश्चित्त कर्म आदि प्रकार से अनेक विध कर्मों का विधान है। ||२३||
सम्बन्धस्तु त्रयाणां स्यादुचितः शिष्टवर्त्मना । निपुणैश्च सुविज्ञेयमनुबन्धचतुष्टयम् ॥ २.२४ ॥
महापुरुषों द्वारा सेवित मार्ग से मुक्ति प्राप्त करने के लिए इन तीनों में (कर्म ,उपासना और ज्ञान में) एक उचित संबंध स्थापित कर लेना चाहिए | चार कारक किसी भी प्रयास में सफलता निर्धारित करते हैं | और वे हैं १. अधिकारी २. विषय ३. सम्बन्ध ४. प्रयोजन | कुशल लोगों द्वारा इन चारों को सही तरीके से जान लेना चाहिए | भगवद्गीता में बड़े ही सरल शब्दों में यह बात कही गई है |
‘‘मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः। निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।।११ .५५।।’’
हे पाण्डव! जो पुरुष मेरे लिए ही कर्म करने वाला है, और मुझे ही परम लक्ष्य मानता है, जो मेरा भक्त है तथा संग रहित है, माने आसक्तिरहित है और जो भूत मात्र के प्रति निर्वैर है, अर्थात् सम्पूर्ण भूत प्राणियों में वैर भाव से रहित है , वह पुरुष मुझे ही प्राप्त होता है।।
भव सागर चह पार जो पावा। राम कथा ता कहँ दृढ़ नावा॥
‘‘नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम् ।
मयानुकूलेन नभस्वतेरितं पुमान् भवाब्धिं न तरेत् स आत्महा ॥ १७ ॥श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ११/अध्यायः २०’’
सभी देहों में श्रेष्ठ यह मनुष्य देह, मेरी अनुकूलतारूप हवासे चलनेवाली, एकमात्र गुरुरूप, कर्णधार से युक्त, अत्यंत दुर्लभ, सुदृढ़ नाव के रूप में अनायास प्राप्त है। इसके सहारे जो संसार सागर पार न कर जाए, वह पुरुष आत्मघाती है।|| २४ ||
अनुबन्धाविरोधेन त्रयाणां चेत्समुच्चयः। कृतः स सद्यः प्राप्नोति तृप्तिं मानवपुंगवः ॥२.२५॥
चारों अनुबन्धों के साथ अविरोध रखते हुए यदि तीनों (ज्ञान ,क्रिया और उपासना) का एक साथ अनुष्ठान किया जाता है | तो उस श्रेष्ठ पुरुष को शीघ्र ही परा तृप्ति {परम संतोष} का लाभ प्राप्त होता है | क्योंकि ‘‘अन्तो नास्ति पिपासायाः संतोषः परमं सुखं | तस्मात्संतोषमेवेह धनं पश्यन्ति पण्डिताः ||’’ मानव मन में तृष्णा (और अधिक चाहने की और कभी संतुष्ट न होने की प्रवृत्ति) का कोई अन्त ही नहीं है | अतः जो कुछ उपलब्ध हो उस पर संतोष करना ही परम सुख की स्थिति है | इसी कारण विद्वान् व्यक्ति इस संसार में संतोष को ही असली धन के रूप में देखते हैं | सन्तोषः परमो लाभः सत्सङ्गः परमा गतिः । विचारः परमं ज्ञानं शमो हि परमं सुखम् ॥ संतोष ही परम लाभ है, सत्संग ही परम गति है, विचार ही परम ज्ञान है, और शम ‘शमु उपशमे’ धातु से क्तिन् प्रत्यय करने पर शान्ति शब्द बनता है | यह (शांति) ही परम सुख है । महर्षि पतञ्जलि भी कहते हैं कि – ‘‘संतोषादनुत्तमः सुखलाभः ।। २.४२ ।।’’ संतोष से प्राणी को अनुत्तम सुख की प्राप्ति होती है, अनुत्तम सुख वह है जिससे उत्तम और कुछ भी न हो, अनुत्तम सुख को ही ब्रह्म सुख कहा जाता है। ||२५||
अनुबन्धपरिज्ञानं विना मुक्त्यै प्रयत्नवान्। न मुक्तिं विन्दते कोऽपि साधकादिविपर्ययात् ॥२.२६॥
अनुबंध चतुष्टय के सम्यक ज्ञान के बिना कोई भी यदि मुक्ति के लिए प्रयास करता है , तो वह साध्य, साधक विरोध होने के कारण मुक्ति को नहीं प्राप्त कर सकता | क्योंकि अनुबंध चतुष्टय का ज्ञान साधक है और मुक्ति साध्य है | प्रत्येक कार्य के आरम्भ में अनुबंध चतुष्टय का विचार अवश्य करना चाहिए | पहला अनुबंध है (अधिकारी) अर्थात अधिकार का, योग्यता का विचार करना कि इस कार्य को करने की योग्यता मुझमें है या नहीं ? जैसे कि बिना ड्राइविंग लाइसेंस के मोटर गाड़ी चलाना यह अनधिकार चेष्टा है | दूसरा है (विषय) जैसे कि मोटर गाड़ी के बारे में पूरी जानकारी होना भी जरूरी है | तीसरा है (सम्बन्ध) अर्थात् यह विचार करना कि क्या मुझे मोटर गाड़ी की आवश्यकता है भी या नहीं ? और चौथा है (प्रयोजन) अर्थात् यह विचार करना कि क्या मुझे कहीं आवश्यक यात्रा करनी है ? श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है कि ‘‘अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम्। मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते।।१८.२५।।’’ अनुबंध को — अंत में होने वाला जो परिणाम है उसे अनु-बन्ध कहते हैं | उसको तथा क्षयको, कर्म के करने में जो शक्ति का या धन का क्षय होता है उसको, हिंसा को, प्राणियों की पीड़ा को और पौरुष को अर्थात् अमुक कर्म को मैं समाप्त कर सकता हूँ या नहीं ऐसी अपनी सामर्थ्य को इस प्रकार अनुबंध से लेकर पौरुष तक के इन समस्त भावों की अपेक्षा न करके — उनकी परवाह न करके जो धर्म को त्याग कर केवल मोह और अज्ञान से कर्म का आरम्भ किया जाता है वह तमोगुण पूर्वक किया हुआ कहा जाता है। || २६ ||
भोगाधिकारी मोक्षं चेत्फलमिच्छेत्कदाचन। अनुबन्धस्य विज्ञानं कथं नु स्यात्समंजसम् ॥२.२७॥
अब यदि कोई अधिकारी जिसमें केवल सांसारिक भोगों को ही प्राप्त करने की योग्यता है , वह यदि मोक्ष का फल पाने की इच्छा रखता है तो अनुबंध चतुष्टय के विज्ञान के साथ उसकी संगति नहीं बैठती (सामंजस्य नहीं बैठता) कबीरदास जी कहते हैं कि ‘‘करता था सो क्यों किया, अब कर क्यों पछताय । बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय ॥’’ अगर तुम अपने आपको ही कर्ता मानते हो तो फिर जीवन में सफलता क्यों नहीं है । इसका मतलब यह है तुम वास्तव में कर्ता नहीं हो कर्म के निमित्त मात्र हो। करन करावन हार तो वह ईश्वर ही है वही सृष्टि करता है। कारणों का कारण भी वही है। मनुष्य अपने अहंकार में आकर कर्तृत्व और भोक्तृत्व का भाव रखने के कारण संसार से मुक्त नहीं हो सकता | आप अपने आप को कर्ता भी मानो और सुख दुःख से भी बच जाओ यह नहीं हो सकता | अब जब परमात्मा की दी हुई शक्ति को ही तुमने अपना अहंकार बना लिया है। बबूल का पेड़ ही तब तुमने बोया है जिसमें कांटे ही कांटे हैं इसलिए आम कहाँ से खाने को मिलेगा। तुमने ऐसे काम क्यों नहीं किये जिससे जीवन में सुख मिले। तुम नियामक नहीं निमित्त हो , और अपने को कर्ता , भोक्ता समझ बैठे। कर्मों में आसक्ति की वजह से ही मनुष्य जीवन में कष्ट पाता है। मनुष्य कर्म तो भोग के लिए करता है और फल में मोक्ष चाहता है | यह तो विडंबना ही है | ‘‘प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।३.२७।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, अहंकार से मोहित हुआ पुरुष, “मैं करता हूँ” ऐसा मान लेता है। || २७ ||
अधिकारानुगुण्येन सम्बन्धः परिकीर्तितः। तत्संबन्धानुगुण्येन विषयश्च प्रकीर्तितः ॥२.२८॥
अधिकार अथवा योग्यता के आधार पर सम्बन्ध का निर्णय होता है | और उस सम्बन्ध की प्रकृति के अनुसार विद्या या अध्ययन की वस्तु निर्धारित होती है | व्यावहारिक जीवन में भी भारतीय संस्कारों की परंपरा में बालक का छठे महीने में अन्नप्राशन संस्कार होता है | उस समय बालक /बालिका को खीर चटाने से पहले उसके सामने अनेक वस्तुऐं , खिलोने आदि रखे जाते हैं | जैसे कि {पुस्तक , माला , चाकू , तराजू और झाड़ू आदि} और देखा जाता है कि बच्चा किसके प्रति आकर्षित होता है | इससे उसके पूर्वजन्म के वर्ण , गुण , संस्कार और रुचि तथा स्वभाव का निर्णय हो जाता है | उसके अनुसार ही उसकी योग्यता का निर्णय करके उसे भविष्य में प्रोत्साहन दिया जाता है | उसी प्रकार तत्वज्ञान में भी प्रवेश करने के पूर्व जिज्ञासु के अधिकार की परीक्षा की जाती है | वेदान्तसार नामक पुस्तक में अधिकारी के लक्षण निम्न प्रकार से बताये गए हैं | इसी अधिकारी को प्रमाता भी कहा जाता है | —
“अधिकारी तु विधिवदधीतवेदवेदाङ्गत्वेनापाततोऽधिगताखिलवेदार्थोऽस्मिन् जन्मनि जन्मान्तरे वा काम्यनिषिद्धवर्जनपुरःसरं नित्यनैमित्तिकप्रायश्चित्तोपासनानुष्ठानेन निर्गतनिखिलकल्मषतया नितान्तनिर्मलस्वान्तः साधनचतुष्टयसम्पन्नः प्रमाता अधिकारी ॥ ६॥” अर्थात् तत्वज्ञान का अधिकारी वह है जिसने विधिवत् वेद-वेदांगों का अध्ययन करके समस्त वेद का तात्पर्यार्थ प्राप्त किया है | इस जन्म में अथवा किसी और जन्म में जिसने काम्यकर्म और निषिद्धकर्मोंका त्याग कर दिया है और फिर नित्य, नैमित्तिक, प्रायश्चित्त तथा उपासनात्मक कर्मोंके अनुष्ठानद्वारा समस्त पापों और मलिनता का नाश कर अन्तःकरण को अत्यंत निर्मल कर लिया है। ऐसा साधन चतुष्टय सम्पन्न (विवेक, वैराग्य , षट्सम्पत्ति और मुमुक्षा से संपन्न) ही अधिकारी है | प्रमा अर्थात् यथार्थ ज्ञान को ग्रहण करने के योग्य अधिकारी है। || २८ ||
विषयानुगुणं प्रोक्तं प्रयोजनमतो बुधैः। अनुबन्धाः सुविज्ञेया ज्ञानोपासनकर्मसु ॥२.२९॥
विद्वानों ने कहा है कि विषय के अनुसार (अध्ययन की वस्तु के अनुसार) प्रयोजन (फल) कहा जाता है | इसलिए ज्ञान,उपासना और कर्म में अनुबंध चतुष्टय को सही ढंग से समझ लेना चाहिए | अनुबन्ध (आवश्यक सामग्री) को कहते हैं | १. (अधिकारी) वेदान्त पढ़ने का अधिकारी, २. (विषय) ग्रन्थ में प्रतिपाद्य विषय, ३. (सम्बन्ध) प्रतिपाद्य विषय के साथ प्रतिपादक ग्रन्थ का बोध्य-बोधक सम्बन्ध, तथा अध्ययन का फल ४. (प्रयोजन) ये चार अनुबन्ध हैं | अधिकारी की चर्चा पछले श्लोक में की जा चुकी है | अब थोड़ा सा विषय , सम्बन्ध और प्रयोजन के बारे में समझ लेते हैं | विषयः – जीवब्रह्मैक्यं शुद्धचैतन्यं प्रमेयं | तत्र एव वेदान्तानां तात्पर्यात् ॥ २७॥{वेदान्तसार} जीव और ब्रह्म एक ही शुद्ध चेतन हैं | उपाधि अंश में भेद है परन्तु चेतनांश में भेद नहीं है | इसी बात में सभी उपनिषदों का तात्पर्य है | अतः यही वेदान्तों का विषय है | अब संबंध के बारे में जानते हैं — सम्बन्धस्तु – तदैक्यप्रमेयस्य तत्प्रतिपादकोपनिषत्प्रमाणस्य च बोध्यबोधकभावः ॥ २८॥ {वेदान्तसार} यहाँ बोध्य (जानने योग्य) ब्रह्म है और बोधक उपनिषदें है | यह बोध्य बोधक भाव अथवा साध्य साधक भाव ही सम्बन्ध है | अब प्रयोजन को देखते हैं | प्रयोजनं तु – तदैक्यप्रमेयगताज्ञाननिवृत्तिः स्वस्वरूपानन्दावाप्तिश्च” `तरति शोकम् आत्मवित् | (छां उ ७.१.३) इत्यादि श्रुतेः” ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति। (मुण्ड उ ३.२.९)इत्यादि श्रुतेः | ब्रह्मात्मैक्यबोध में जो प्रतिरोधी अज्ञान है, उस गैरसमज को हटाकर स्वरूपानंद की प्राप्ति ही प्रयोजन (फल) है। || २९ ||
वर्णाश्रमाणां सर्वेषामनुष्ठेयेषु कर्मसु। अविद्वान्संशयात्मा चेदनुवर्तेत पूर्वकान् ॥२.३०॥
यदि कोई व्यक्ति चारों वर्ण और चारों आश्रमों के लिए निर्धारित कर्तव्यों से अनभिज्ञ है तथा संशय से युक्त है तो उसे अपने पूर्व पुरुषों का अनुवर्ती होना चाहिए | ‘‘यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि॥’’ तैत्तिरीयोपनिषद | इस श्रुति का अभिप्राय यह है कि माता पिता आचार्य अपनी संतान और शिष्यों को सदा सत्य का ही उपदेश करें और यह भी कहें कि जो-जो हमारे धर्मयुक्त कर्म हैं उनका ही ग्रहण किया करें और जो-जो दुष्कर्म हैं उनका त्याग कर दिया करें। दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत् । सत्यपूतां वदेद्वाचं मनःपूतं समाचरेत् ।। ६.४६ ।। मनुस्मृति ॥ अर्थ— आँख से पवित्र करके अर्थात् नीचे दृष्टि कर के ऊँचे नीचे स्थान को देख कर चले, वस्त्र से पवित्र करके, छान कर जल पिये, सत्य से पवित्र करके वचन बोले, मन से पवित्र करके, विचार कर के आचरण करे। माता शत्रुः पिता वैरी याभ्यां बालाः न पाठिताः । सभामध्ये न शोभन्ते हंसमध्ये बको यथा ॥२.११॥ चाणक्यनीतिदर्पणः | वे माता और पिता अपने सन्तानों के वैरी हैं जिन्होंने उन को विद्या की प्राप्ति नहीं करवाई, वे विद्वानों की सभा में वैसे ही शोभित नहीं होते जैसे हंसों के बीच में बगुला। माता, पिता का यह कर्तव्य है कि वे अपनी संतानों को तन, मन, धन से विद्या, धर्म, सभ्यता और उत्तम शिक्षा से युक्त करें । || ३० ||
विद्वान् चेत्संशयात्माभूच्छास्त्रे स्वमतिनिश्चितम् । आचरेत्तु न शिष्टस्यप्यबुधस्य पितुर्मतम् ॥ २.३१ ॥
यदि कोई विद्वान व्यक्ति शास्त्रों में निर्धारित कर्तव्यों के विषय में संदिग्ध हो जाता है, और अपनी बुद्धि से निर्णय करने में असमर्थ होकर, विद्वानों और शिष्टों के मत का अनुसरण न करके अपने अशिष्ट और अज्ञानी पिताके मतका अनुसरण करता है, तो यह उचित नहीं है | ‘‘अथ यदि ते कर्मविचिकित्सा वा वृत्तविचिकित्सा वा स्यात्। ये तत्र ब्राह्मणाः सम्मर्शिनः। युक्ता आयुक्ताः। अलूक्षा धर्मकामाः स्युः। यथा ते तत्र वर्तेरन्। तथा तत्र वर्तेथाः। अथाभ्याख्यातेषु। ये तत्र ब्राह्मणाः संमर्शिनः। युक्ता आयुक्ताः। अलूक्षा धर्मकामाः स्युः। यथा ते तेषु वर्तेरन्। तथा तेषु वर्तेथाः। एष आदेशः। एष उपदेशः। एषा वेदोपनिषत्। एतदनुशासनम्। एवमुपासितव्यम्। एवमु चैतदुपास्यम्।’’ तैत्तिरीय उपनिषद शिक्षावल्ली | इसके अतिरिक्त यदि तुम्हें अपने कर्म तथा कर्म पथ (आचरण) के विषय में शंका हो तो जो भी ब्राह्मण वहाँ हों जो विचारशील हों भक्त हों, दूसरों से संचालित न हों धर्मपरायण हों, कठोर एवं क्रूर न हों, जैसा वे उस विषय में आचरण करें वैसा ही तुम करो। और यदि कोई व्यक्ति दूसरों के द्वारा अभियुक्त तथा अपराधी घोषित हो तो उसके साथ भी तुम उसी प्रकार आचरण करो जैसा उसके प्रति वे सब ब्राह्मण करते हैं जो सुविचारवान श्रद्धावान् हैं, दूसरों के द्वारा संचालित नहीं हैं, धर्मपरायण हैं, जो कठोर एवं क्रूर नहीं हैं। यही विधान तथा उपदेश हैं। यह ही परम ‘आदेश’ हैं। (यह वेदों का उपनिषद (अंतर ज्ञान) है। इसी ज्ञान के अनुसार तुम्हें धर्म का पालन करना चाहिए। हाँ, निश्चित रूप से यही ज्ञान है जो धर्मपूर्वक करणीय है। || ३१ ||
स्वकूटस्थबुधाचारः साधुसंविदितो यदि। विद्वानपि त्यजेत्स्वीयं तद्विरुद्धमसम्मतम् ॥२.३२॥
आपके अंतर्मन में स्थित विचारों का समर्थन समाज के तथाकथित बुद्धिमानों द्वारा बहुमत से भी प्राप्त हो तो भी एक ज्ञानी व्यक्ति को अपने आश्रम के द्वारा निर्धारित कर्तव्यों का ही पालन करना चाहिए , अपने आश्रम के विरुद्ध आचरणों का त्याग करना चाहिए और प्रबुद्ध व्यक्ति का ही अनुसरण करना चाहिए | इसके विपरीत करना अनुचित है |
‘‘श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।३.३५।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्मकी अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है; स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) पर धर्म भय को देने वाला है।। यह सब कहने का मतलब है कि मनमानी नहीं करनी चाहिए |
‘‘यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।१६.२३।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
जो पुरुष शास्त्र विधि को त्यागकर अपनी कामना से प्रेरित होकर ही कार्य करता है, वह न पूर्णत्व की सिद्धि प्राप्त करता है, न सुख और न परा गति।। कठोपनिषद में भी इसी तरफ इशारा किया गया है |
‘‘न साम्परायः प्रतिभाति बालं प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम्।
अयं लोको नास्ति पर इति मानी पुनः पुनर्वशमापद्यते मे ||’’
बाल-बुद्धि व्यक्ति को, जो वित्त मोह से मूढ़ हो गया है और प्रमाद में डूबा हुआ है तथा जिसे परलोक यात्रा का प्रतिबोध नहीं होताː मात्र यह लोक ही है, परलोक होता ही नहीं, ऐसा मानने वाला व्यक्ति ‘मृत्यु’ के वशीभूत होता रहता है। || ३२ ||
पूर्वाचारानुसरणं कर्ममात्रे नियम्यते । ज्ञानोपास्त्योस्त्वबाह्यत्वादन्यथाऽपि च युज्यते ॥ २.३३ ॥
अपने पूर्वज आप्त पुरुषों का अनुसरण केवल कर्मों के सम्बन्ध में किया जाता है | ज्ञान और उपासना में नहीं ,क्योंकि कर्म बाहरी हैं और दृश्य हैं तथा बहुधा आसक्ति के कारण किए जाते हैं | परन्तु ज्ञान और उपासना कोई बाहरी चीज नहीं है | अतः अदृश्य होने के कारण वहां लौकिक प्रसिद्ध पुरुषों का अनुसरण नहीं करना चाहिए | तुलसीदास जी ने मीरा जो को एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने बताया कि — ‘‘जाके प्रिय न राम-वैदेही। तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही॥ तज्यो पिता प्रहलाद, विभीषण बंधु, भरत महतारी। बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनितन्हि, भये मुद-मंगलकारी॥ नाते नेह राम के मनियत सुहृद सुसेव्य जहाँ लौं। अंजन कहा आँखि जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं॥ तुलसी सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रान ते प्यारो। जासों होय सनेह राम-पद, ए तो मतो हमारो॥ तुलसीदास जी भगवान श्रीराम के परम भक्त थे। विनय पत्रिका से उद्धृत इस पद में वे कहते हैं कि जिसको सीताराम से प्रेम नहीं है वह यदि परम प्रिय भी है तो उसे एकदम छोड देना चाहिये। तुलसीदासजी ने इसके अनेक उदाहरण दिये हैं। प्रह्लाद, विभीषण, भरत, बलि, ब्रजकी गोपांगना आदि ने अपने प्रियजनों का त्याग कर दिया था । ‘‘प्रह्लाद नारद पराशर पुण्डरीक व्यासाम्बरीष शुकशौनक भीष्मदाल्भ्यान्। रुक्माङ्गदार्जुन वसिष्ठ विभीषणादीन् पुण्यानिमान् परमभागवतान् नमामि॥’’ ये सब परम भक्त हैं | जब यज्ञ करना हो तो बहुत से लोग मिल कर करते हैं | परन्तु जब प्रेम या ध्यान करना हो तो एकान्त में ही करना पड़ता है | क्योंकि ये अन्तरंग हैं |धर्म,कर्म वाह्य है क्योंकि शरीर से होता है और ज्ञानोपासना आंतर है। || ३३ ||
पूर्वकेष्वपि सांख्येषु स्वस्य युज्येत योगिता । अन्यथाऽपि च नैतेन प्रत्यवायः कियानपि ॥ २.३४ ॥
इस श्लोक का तात्पर्य है कि हमेशा योग्य गुरु की शरण में जाना चाहिए , क्योंकि ऐसा करने नुकसान की कोई संभावना नहीं है | योग्य गुरु का लक्षण है श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ होना | बहुत से गुरु विश्वविख्यात भी हो सकते हैं , प्रवचनपटु भी हो सकते हैं , सकल शास्त्र प्रवीण भी हो सकते हैं परन्तु आत्मज्ञानी भी हों ये जरूरी नहीं है | यदि गुरु आत्मज्ञानी नहीं है , स्वयं शोक, मोह से दूर नहीं हुआ है और वेदान्त सम्प्रदाय को मानने वाला नहीं है तो वह ब्रह्मविद्या का आचार्य पद ग्रहण करने के योग्य नहीं है | ब्रह्मनिष्ठ ही सद्गुरु होने के योग्य है । अन्यथा केवल पुस्तकमस्तक विद्या सम्पन्न प्रवचनपटु केवल शुष्कपंडित वेदांताचार्य नहीं होता | कठोपनिषद में बताया है कि
‘‘न नरेणावरेण प्रोक्त एष सुविज्ञेयो बहुधा चिन्त्यमानः।
अनन्यप्रोक्ते गतिरत्र नास्त्यणीयान् ह्यतर्क्यमणुप्रमाणात् ॥’’ – काठकोपनिषत् १-२-८ ”
अवर व्यक्ति (अल्पबुद्धि, ज्ञानहीन) तुम्हें ‘उसके’ विषय में बता नहीं सकता; उसके कथन किये जाने पर भी तुम वस्तुतː ‘उसे’ जान नहीं सकते क्योंकि ‘उसका’ बहुविध रूपों में चिंतन किया जाता है। तथापि अन्य किसी के द्वारा ‘उसके’ विषय में कथन के बिना तुम ‘उस’ तक पहुँचने का मार्ग भी नहीं पा सकोगे। कारण, ‘वह’ सूक्ष्मतासे भी सूक्ष्मतर है तथा तर्कके द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता है। इसलिए अपनी योग्यता का विकास करने के लिए सद्गुरु के अनुशासन में रहना चाहिए | प्रश्नोत्तर रत्नमालिका में भगवान श्री शंकराचार्य जी ने कहा है कि–
भगवन् किं उपादेयम् ? गुरुवचनं |
हेयमपि च किम् ? अकार्यम्।
को गुरुः ? अधिगततत्त्वः,
शिष्यहितायोद्यतः सततम्॥ २॥
अर्थात् हे भगवान्! ग्रहण करने योग्य क्या है? गुरु के वचन। और त्यागने योग्य क्या है? बुरे कार्य। कौन गुरु है? जिसने तत्वों का ज्ञान अर्जित कर लिया हो और निरंतर ही शिष्य के हित के लिए प्रयत्नशील रहता है। || ३४ ||
यदि पूर्वविरोधेन कुर्यात्कर्माणि मानवः। स मूर्खो भवति क्षिप्रं प्रत्यवायी न संशयः ॥२.३५॥
लेकिन अगर कोई आदमी अपने पूर्वाचार्यों के विपरीत आचरण करता है , तो वह बिना किसी संदेह के, मूर्ख है और उसे प्रत्यवाय माने उलटे फल का भागी होना पड़ेगा अर्थात् परिणामस्वरूप उसको जल्दी ही नुकसान उठाना पड़ता है | किं विषम् ? अवधीरणा गुरुषु | विष क्या है ? बड़ो की आज्ञाकी अवज्ञा ही विष के समान है |
‘‘मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि।।१८.५८।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
मच्चित्त होकर (मेरे में चित्त वाला होकर) तुम मेरी कृपा से (सर्वदुर्गाणि) समस्त कठिनाइयों को पार कर जाओगे; और यदि अहंकारवश (तुम मेरे उपदेश को) नहीं सुनोगे, तो तुम नष्ट हो जाओगे अर्थात् तुम्हारा पतन हो जाएगा ।।
अथ चैत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि। ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि।।२.३३।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
और यदि तुम इस धर्मयुद्ध को स्वीकार नहीं करोगे, तो स्वधर्म को खोकर पाप को प्राप्त करोगे और अपने धर्म और कीर्ति का त्याग करने से पाप को प्राप्त होता है । “पा रक्षणे धातु से भी पाप शब्द की व्युत्पत्ति बनती है, अपगता (पा) यस्मात् इति पापं” जहां से रक्षा की कोई संभावना नहीं रही उसे पाप कहते हैं। || ३५ ||
नैमित्तिकानामकृतौ काम्यानां च न कश्चन। प्रत्यवायोऽत्र वामुत्र लोके भवितुमर्हति ॥२.३६॥
नैमित्तिक और काम्य कर्मों के न करने से किसी को भी इस लोक में अथवा परलोक में प्रत्यवाय की प्राप्ति नहीं होती | प्रत्यवाय उसको कहते हैं जैसे कि यदि आप बिजली बिल भरो तो आपको कोई पुरस्कार नहीं दिया जाएगा केवल आपके घर में बिजली चालू रहेगी ,पर यदि बिजली का बिल न भरे तो बिजली की लाइन काट दी जाएगी | ऐसे ही संध्यावन्दनादि नित्यकर्म और दर्शपौर्णमास आदि नैमित्तिक कर्म यदि आप करते हैं तो आपका आत्मबल और आत्मशुद्धि बनी रहेगी , और यदि नहीं करते तो उसकी हानि हो जाएगी | प्रति+अव+आय=प्रत्यवाय माने लाभ का उलटा अर्थात् हानि ये अर्थ होता है | प्रसिद्ध पुस्तक श्रीमद्भगवद्गीता में भी प्रत्यवाय शब्द का प्रयोग है — ‘‘नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते। स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।२.४०।।’’ इसमें क्रम नाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है। इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय से रक्षा करता है। मनुष्य लोक में इस समबुद्धि रूप धर्म के आरम्भ का नाश नहीं होता, इसके अनुष्ठान का उलटा फल भी नहीं होता और इसका थोड़ा सा भी अनुष्ठान (जन्म-मरण रूप) महान् भय से रक्षा कर लेता है। ||३६||
नित्यानां त्वकृतावत्रामुत्र वा प्रत्यवायभाक्। भवेदवश्यकार्यत्वादाश्रमच्युतिहेतवे ॥२.३७॥
लेकिन यदि नित्य कर्म नहीं किये तो इस लोक और परलोक में भी प्रत्यवाय लग जाएगा क्योंकि नित्यकर्म अनिवार्य हैं | यदि अवश्य कर्तव्य कर्म नहीं किये जाते तो वे उस व्यक्ति के अपने आश्रम से पतन के कारण बन जाते हैं | पराशर स्मृति में बताया है कि —
‘‘संध्या स्नानं जपो होमो देवतानां च पूजनम्।
आतिथ्यं वैश्वदेवं च षट् कर्माणि दिने दिने॥ || १.३९ ||’’
अर्थात् ‘रात और दिनकी संधिके समय में स्नान, गायत्री का जप, अग्निहोत्र, शिव विष्णु आदि पंचदेवों का पूजन, यथाशक्ति, अतिथि का सत्कार और बलिवैश्वदेव ये छह कर्म द्विज जातियों को नित्य ही करने चाहिए। तथा जिनका यज्ञोपवीत संस्कार नहीं हुआ है उन्हें भी —
‘‘देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः।
दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने।।’’
अपने इष्टदेव की पूजा करना, गुरु की उपासना करना, रामायण,महाभारत,श्रीमद्भागवत आदि शास्त्रों का स्वाध्याय करना-कराना, इन्द्रियों पर नियंत्रण एवं प्राणी रक्षा रूप संयम रखें, व्रत उपवास आदि के द्वारा रसत्याग आदि तप करना तथा अपनी शक्ति के अनुसार सत्पात्रों को श्रद्धा के साथ दान करना और दीन-दुखी जीवों को करुणा भाव से आहार, औषधि, ज्ञान और अभय दान देना; ये छह आवश्यक कार्य गृहस्थ को प्रत्येक दिन करना आवश्यक है। इसलिए समस्त संसारी कार्यों को त्याग कर सर्वप्रथम मानव मात्र को इन आवश्यक कामों को करना चाहिए। अहरह: सन्ध्यामुपासीत, कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा: इत्यादिना। || ३७ ||
न स्यादकरणं हेतुरभावात्मतया ततः। नित्याकरणहेतुः प्राक्कर्म चेत्प्रत्यवायकृत् ॥२.३८॥
इस प्रकार आत्मज्ञान के अभाव में कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिए | यदि कोई आत्मज्ञान का बहाना करके कर्मों का त्याग करता है तो उसे परिणामस्वरूप (प्रत्यवाय का भागी बनना पड़ेगा) अर्थात् नुकसान उठाना पड़ेगा | आत्मज्ञान का ढोंग करके नित्यकर्मों का त्याग नहीं करना चाहिए | ( हमारी तो सर्वत्र समबुद्धि हो गई है , हमें तो सर्वत्र ब्रह्म दर्शन होता है , इत्यादि ) अरे बाबा जबतक द्रष्टा और दृश्य का भेद बना हुआ है तबतक नैष्कर्म्य सिद्धि कैसे संभव है ?
‘‘कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि।।३.२०।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
राजा जनक-जैसे अनेक महापुरुष भी कर्म के द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं। इसलिये लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू (निष्काम भावसे) कर्म करने के योग्य है। ऋषभदेव,भगवान रामचंद्र, श्रीकृष्णचन्द्र, भगवान व्यासदेव , भगवान शंकराचार्य , दशरथजी शास्त्री , स्वामी करपात्रीजी आदि सभी महापुरुषों ने लोकसंग्रह के लिए कभी भी नित्यकर्मों का त्याग नहीं किया।
‘‘यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।३.२१।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करता है, अन्य लोग भी वैसा ही अनुकरण करते हैं; वह पुरुष जो कुछ भी अपने आचरण से प्रमाणित कर देता है, लोग भी उसका अनुसरण करते हैं। || ३८ ||
अकृतौ प्रत्यवायस्य श्रवणं व्यर्थमेव तत्। पूर्वकर्मफलादन्यफलस्यानवधारणात् ॥२.३९॥
यदि नैष्कर्म्य का तात्पर्य नित्यकर्मों का न करना ही होता तो यह जो सामान्यतः सुना जाता है कि नित्यकर्मों के न करने से प्रत्यवाय होता है यह बात ही व्यर्थ हो जाती | क्योंकि यही बात सुनी जाती है कि यदि तुम अकर्मण्य हो जाओगे तो तुम्हें प्रत्यवाय लगेगा अर्थात् नुक्सान उठाना पड़ेगा ,क्योंकि आपने कर्तव्य कर्मों का त्याग किया है, अथवा यह कहें कि पूर्वजन्म में किये हुए कर्मों के फल स्वरूप हमें इस जन्म में जीवनमुक्ति का फल मिला है तो यह भी युक्तियुक्त नहीं है | क्योंकि कर्मों का फल तो भोग होता है मोक्ष नहीं | और दूसरी बात यह है कि नित्यकर्मों के करने से चित्तशुद्धि होती है और नैमित्तिक तथा काम्य कर्मों का फल जाति (जन्म) आयु और भोग है | मोक्ष की सिद्धि में कर्मोपासना परम्परया (परम्परा से) साधन हैं और ज्ञान साक्षात् साधन है | प्रत्येक कर्मकी उत्पत्ति अहंभावसे होती है और परमात्मप्राप्ति अहंभावके मिटनेपर होती है। कारण कि अहंभाव कृति (कर्म) है और परमात्मा कृतिरहित हैं। कृतिरहित तत्त्वको किसी कृतिसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है — नास्त्यकृतः कृतेन। तात्पर्य यह हुआ कि परमात्म तत्त्व की प्राप्ति मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ और शरीर आदि जड़ पदार्थों के द्वारा नहीं प्रत्युत जड़ता के त्याग से होती है। || ३९ ||
अतो नाभावता युक्ता नित्यकर्माकृतेर्यथा। निषिद्धाचरणं भावस्तथैवाकरणं मतम् ॥२.४०॥
अतः जैसे नित्यकर्मों का न करना उपयुक्त नहीं है , वैसे ही निषिद्ध कर्मोंका करना भी ठीक नहीं है| नित्यकर्मों का कोई भोग रूप फल नहीं होता , इसका मतलब यह नहीं है कि वे अभावात्मक हैं क्योंकि उनका फल चित्तशुद्धी है ही और वैसे ही आत्मा तो अकर्ता है , तो निषिद्धाचरण भी अकर्म में गिना जाएगा , तो यह बात ठीक नहीं है | वो कहावत है न , (मीठा मीठा गप और कडुआ कडुआ थू)
‘‘तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येरन्ब्राह्मणयोनिं वा क्षत्रिय योनिं वा वैश्ययोनिं वाथ य इह कपूयचरणा अभ्याशो ह यत्ते कपूयां योनिमापद्येरन् श्वयोनिं वा सूकरयोनिं वा चण्डालयोनिं वा ॥५.१०.७॥’’ छान्दोग्योपनिषद |
अपने पूर्व कर्म के अनुसार ब्राह्मण योनि, क्षत्रिययोनि , वैश्ययोनि में जन्म लेता है , किन्तु बुरे कर्म वाला कुत्तायोनि, सूकरयोनि, चंडालयोनि, में जाता है । एक ब्राह्मण ने बगीचा लगाया। नजर बचाकर उसमें एक गाय घुस गई और कितने ही हरे-भरे पौधे चर लिये। देखा, तो ब्राह्मण आग बबूला हो गया। आवेश में जोर से ऐसा लट्ठ मारा कि गाय चक्कर खाकर गिर पड़ी और वहीं उसका प्राणान्त हो गया। उन दिनों गौ-हत्या को बहुत बड़ा पाप माना जाता था और प्रायश्चित्त का दण्ड विधान भी बहुत कठोर था। सो ब्राह्मण डर गया और दण्ड से बचने के लिए वेदान्त झाड़ने लगा। जो कोई भी पूछता उससे कहता- हाथों का अधिष्ठाता इन्द्र है। उसकी प्रेरणा से हाथ काम करते हैं तो दोष मेरा नहीं इन्द्र का है वह इन्द्र ही इस गौ हत्या का पाप ओढ़ेगा। गौ हत्या एक राक्षसी का रूप बनाकर खड़ी थी। ब्राह्मण ने उसे स्वीकार नहीं किया तो वह इन्द्र के पास चली गई। सारा विवरण सुनाया और कहा दोष आपका हो तो आप ही मुझे स्वीकार कीजिए। इन्द्र इस विचित्र आक्षेप पर क्षुब्ध थे। वे उस गौ-हत्या को साथ लेकर वेष बदलकर बगीचे में राहगीर बनकर पहुँचे। बगीचे की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। जिसने भी कितने परिश्रम और कौशल से इसे लगाया है उसके दर्शन की इच्छा व्यक्त करने लगे। तब प्रशंसा सुनकर ब्राह्मण बहुत प्रसन्न हुआ और सामने आकर विस्तारपूर्वक वह सब बताने लगा कि उसने किस प्रकार इस बगीचे को लगाया और धन कमाया। तब इन्द्र असली रूप में प्रकट हुए और बोले- जब हाथों के परिश्रम का श्रेय और लाभ आपको मिला तो इन्हीं के द्वारा किये गये पाप कर्म का फल इन्द्र क्यों भोगे? ब्राह्मण से कुछ उत्तर देते न बन पड़ा और गौ-हत्या उस पर सवार हो गई। || ४० ||
विहिताकरणस्यापि भावात्मत्वोररीकृतेः। आस्तिकत्वमिह प्राहुरन्यथा नास्तिकत्वतः ॥२.४१॥
सर्वत्र आत्मदृष्टि हो जाने पर यदि कोई विहित कर्मों का ( नित्य, नैमित्तिक कर्मों का ) त्याग करता है तो भी वह पुरुष आस्तिक कहा जाएगा क्योंकि कर्म संन्यास का स्वरूप ही यह कि है, काम्य कर्मों का त्याग अथवा सर्वकर्मफल त्याग | इसके विपरीत यदि हो तो नास्तिक कहा जाएगा। आत्मज्ञान या ब्रह्मनिष्ठा हुए बिना यदि कोई विहित कर्मों का त्याग करेगा तो उसे प्रत्यवाय रूप फल भोगना पड़ेगा |
‘‘असन्नेव स भवति। असद् ब्रह्मेति वेद चेत्।
अस्ति ब्रह्मेति चेद्वेद। सन्तमेनं ततो विदुरिति।॥१॥ तैत्तिरीयोपनिषद्’’
यदि कोई ‘ब्रह्म’ को ‘असत्’ रूप समझता है तो वह स्वयं असत्य समान (अस्तित्वहीन) बन जाता है; किन्तु यदि वह ‘ब्रह्म’ को इस रूप में जानता है कि वह है, तो लोग उसे संत की तरह जानते हैं तथा वह उनके लिए एक यथार्थ सत्य है |
‘‘कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।४.१८।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म में कर्म देखता है वह मनुष्यों में बुद्धिमान है योगी है और सम्पूर्ण कर्मों को करने वाला है। आत्मा केवल द्रष्टा है, नित्य ही अकर्ता है इसलिए ज्ञानी कर्म में अकर्म देखता है और मन,बुद्धि तथा इन्द्रियां नित्य ही कर्म से संयुक्त हैं अतः यदि व्यक्ति मन,बुद्धि तथा इन्द्रियों से तादात्म्यापन्न (Identified) है तो उसे कर्म में अकर्म देखने का ढोंग नहीं करना चाहिए |अर्थात् जो कोई भी मन,बुद्धि और शरीर को ही अपनी पहचान समझता है, वह यदि विहित कर्म नहीं करेगा तो नास्तिक कहा जाएगा | श्रीमद्भगवद्गीता में यह भी कहा है कि —
‘‘न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः’’ ||३.५||
कोई भी पुरुष कभी क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता क्योंकि प्रकृति से उत्पन्न गुणों के द्वारा परवश होते हुए सब (पुरुषों) से कर्म करवा लिया जाता है। अर्थात् प्रकृतिजन्य गुण कर्म कराते हैं। ||४१||
पूर्वकर्मफलस्यापि नित्याकरणकर्मणः। पापस्य दुःखहेतुत्वं पृथगेवावधार्यते ॥२.४२॥
दुःख और पाप के दो हेतु बताये गए हैं | एक तो नित्यकर्मों का न करना और दूसरा पूर्व संचित दुष्कर्मों का प्रबल वेग | यह तो प्रसिद्ध ही है कि पाप का फल दुःख होता है | उन पापों और दुःखों के सम्बन्ध में यह माना जाता है कि या तो वे पूर्व जन्म के कर्मों का फल है अथवा नित्यकर्मों के पालन न करने का परिणाम है | नित्यस्य तु कर्तव्यतामात्रम् । न चाकरणान्नित्यस्य प्रत्यवायो भवतीति विज्ञानात्किंचित्फलं स्यात् । नापि नित्याकरणं ज्ञेयत्वेन चोदितम्। कर्मों का करने और न करने से सम्बन्ध है न कि ज्ञान और मोक्ष से | नित्यकर्मों के अभाव रूप अकर्म में कर्म देखने को कहीं कर्तव्य रूप से विधान नहीं किया है, केवल नित्यकर्म की कर्तव्यता का विधान है। नित्य कर्मों के न करने से अशुद्धि , अंधकार या अज्ञान और भी बढ़ता है , और अन्धकार से अन्धकार की निवृत्ति नहीं होती है| इसीलिए दुःखों की परम्परा चालू रहती है। ||४२||
अज्ञानाद्विहिते लुप्ते ज्ञानाद्वा कर्मणि स्वके। प्रायश्चित्ती भवेन्मर्त्यो लभेद्दुर्जन्म वा पुनः ॥२.४३॥
यदि कोई व्यक्ति अज्ञानता से अथवा जानबूझकर अपने लिए विहित कर्मों का लोप करता है, तो उसे उसका प्रायश्चित्त करना चाहिए अन्यथा उसका अगला जन्म नीच योनिमें होगा | “प्रायः पापं समुद्दिष्टं चित्तं तस्य विशोधनम् ॥” यद्वा, प्रायस्य तपसः चित्तशुद्धिर्भविष्यति || प्रायश्चित्तान्यशेषाणि तपःकर्मात्मकानि वै । यानि तेषामशेषाणां कृष्णानुस्मरणं परम् ॥ इतिस्मृतौ । यहाँ इस प्रसंग में प्राय शब्द पापका वाचक है और चित्त शब्द शुद्धिका वाचक है अर्थात् पाप की शुद्धि तपस्या आदि कर्मों के द्वारा होती है | और अगर कुछ भी न कर सके तो कृष्ण का स्मरण करना चाहिए (श्रीकृष्णः शरणं मम) गीताजीमें भगवान कहते हैं कि ‘‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।१८.६६।। सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम बिलकुल भी शोक मत करो।। रामायण में भी ’’सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते | अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम ||(वाल्मीकि रामायण ६/१८/३३) भगवान श्री रामचन्द्रजी कहते हैं कि ‘जो एक बार भी मेरे शरण होकर कहता है, कि मैं तुम्हारा हूँ, (तुम मुझे अपना लो) इस प्रकार मुझसे रक्षा की प्रार्थना करता है तो मैं उसे सब भूतों से अभय कर देता हूँ, यह मेरा व्रत है (यह मेरी प्रतिज्ञा) है। इसपर भी मनुष्य उनके शरण होकर अपना कल्याण क्यों नहीं करता, यह बड़े आश्चर्य-की बात है ! || ४३ ||
बुद्धिपूर्वं त्यजन्नित्यमनुतापविवर्जितः। अनाश्रमी नरो घोरं रौरवं नरकं व्रजेत् ॥२.४४॥
यदि कोई व्यक्ति जानबूझकर अपने नित्यकर्मों का त्याग कर देता है और अनुताप , पश्चात्ताप या प्रायश्चित्त भी नहीं करता तो फिर वह चार आश्रमोंमें से किसी भी आश्रम से संबंधित हो अनाश्रमी (आश्रम बाह्य) हो जाता है और भयंकर रौरव नरकमें जाता है |
“अकृत्वा वैदिकं नित्यं प्रत्यवायी भवेन्नरः।
देवताप्रतिमां दृष्ट्वा यतिं दृष्ट्वा त्रिदण्डिनम् ।
नमस्कारं न कुर्याच्चेत्प्रायश्चित्ती भवेन्नरः । ।
इसीलिए त्रिकाल संध्यामें सूर्य उपासना करनेके समय पापपुरुष को दूर करने तथा पापका प्रायश्चित्त करने के लिए अघमर्षण किया जाता है | अघमर्षण माने पापनाशक क्रिया | अघमर्षण ऋग्वेद का एक सूक्त है जिसमें तीन मंत्र हैं और जिसका उच्चारण संध्या वंदन के समय द्विज लोग पाप की निवृत्ति के लिये करते हैं । जिसमें मंत्र द्वारा हाथ में जल लेकर नासिका से छुला कर वायु छोड़ते हुए पाप विसर्जन करने की पापनाशिनी क्रिया की जाती है। अघमर्षण का मंत्र यह है —
ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत। ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः।।१।।
समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत। अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी।।२।।
सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्। दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः।।३।।’
ऋतमिति सत्यनाम । ऋतं मानसं यथार्थसंकल्पनं सत्यं वाचिकं यथार्थभाषणम् । चकाराभ्यामन्यदपि शास्त्रीयं धर्मजातं समुच्चीयते । तत्सर्वमभीद्धादभितप्ताद्ब्रह्मणा पुरा सृष्ट्यर्थं कृतात्तपसोऽधि । अध्युपर्यर्थे । उपर्यजायत । उदपद्यत । ‘ तपस्तप्त्वेदं सर्वमसृजत ‘ (तै. आ. ८. ६ ) इति श्रुतेः ।
तपश्चात्र स्रष्टव्यपर्यालोचनलक्षणम् ।’ यस्य ज्ञानमयं तपः’ ( मु. उ. १, १. ९) इति श्रुत्यन्तरात् ॥ यद्वा । अभीद्धादभितः प्रकाशमानात् परमात्मनो मायाधिष्ठानरूपादुपादानभूतादृतं सत्यं चाजायत । ततस्तस्मादेवेश्वराद्रात्री । उपलक्षणमेतदन्होऽपि । अहश्च रात्रिश्चाजायत ॥ ततस्तस्मादेवेश्वरादर्णवोऽर्णसोदकेन युक्तः समुद्रश्चाजायत । समुद्रशब्दोऽन्तरिक्षोदध्योः साधारण इत्यभिमतार्थस्य प्रकाशनायार्णवशब्देन विशेष्यते । अर्णवात्समुद्रात्सृष्टादध्यूर्ध्वं संवत्सरः संवत्सरोपलक्षितः सर्वः कालोऽजायत । श्रूयते हि —
‘सर्वे निमेषा जज्ञिरे विद्युतः पुरुषादधि कला मुहूर्ताः काष्ठाश्च ‘ (तै. आ. १०. १. २) इति ।
स चेश्वरोऽहोरात्राण्येतदुपलक्षितानि सर्वाणि भूतजातानि विदधत् कुर्वन् सृजन् ॥ मिषतो निमिषादियुक्तस्य विश्वस्य सर्वस्य प्राणिजातस्य वशी स्वामी भूत्वा वर्तते ॥ सूर्याचन्द्रमसौ कालस्य ध्वजभूतौ दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षं च इत्थं त्रिभुवनं स्वः । स्वःशब्दः सुखवाची । दिवो विशेषणम् । सुखरूपां दिवम् । तदेतत्सर्वं धाता विधाता यथापूर्वं पूर्वस्मिन् कल्पे अकल्पयत् सृष्टवान् तथैवागामिन्यपि कल्पे कल्पयिष्यतीत्यर्थः |[सायणभाष्यम्]
इस मन्त्र का सामान्य अर्थ—(महाप्रलय के बाद इस कल्प के आरम्भ में) सबओर से प्रकाशमान तपरूप परमात्मा से ऋत (सत्संकल्प) और सत्य (यथार्थ भाषण) की उत्पत्ति हुई। उसी परमात्मा से रात्रि-दिन प्रकट हुए तथा उसी से जलमय समुद्र का आविर्भाव हुआ। जलमय समुद्र की उत्पत्ति के पश्चात् दिनों और रात्रियों को धारण करने वाला कालस्वरूप संवत्सर प्रकट हुआ जो कि पलक झपकानेवाले जंगम प्राणियों और स्थावरों से युक्त समस्त संसार को अपने अधीन रखने वाला है। इसके बाद सबको धारण करने वाले परमेश्वर ने सूर्य, चन्द्र, दिव (स्वर्ग लोक),पृथ्वी, अन्तरिक्ष तथा महर्लोक आदि लोकोंकी भी पूर्व कल्प के अनुसार सृष्टि की।||४४ ||
जीवन्मुक्तस्य नित्येषु यदि लुप्तानि कानिचित्। न तेन प्रत्यवायोऽस्ति कैश्चित्स्वाश्रमसिद्धितः ॥२.४५॥
लेकिन अगर कोई जीवन्मुक्त पुरुष अपने नित्यकर्मों का पालन नहीं करता तो उसे किसी प्रकार का प्रत्यवाय नहीं लगता | अर्थात् परिणामस्वरूप उसे कोई नुकसान नहीं उठाना पड़ता क्योंकि उसने अपने आश्रम में पूर्णता प्राप्त की है | इस विषय में सुबालोपनिषद से एक उद्धरण देते हैं —
अथ हैनं रैक्वः पप्रच्छ भगवन्योऽयं विज्ञानघन उत्क्रामन्स केन कतरद्वाव स्थानं दहतीति तस्मै स हो वाच योऽयं विज्ञानघन उत्क्रामन्प्राणं दहत्यपानं व्यानमुदानं समानं वैरम्भं मुख्यमन्तर्यामं प्रभञ्जनं कुमार श्येनं श्वेतं कृष्णं नागं दहति पृथिव्यापस्तेजोवाय्याकाशं दहति जागरितं स्वप्नं सुषुप्त तुरीयं च महतां च लोकं परं च लोकं दहति लोकालोकं दहति धर्माधर्मं दहत्यभास्करममर्यादं निरालोकमतः परंदहति महान्तं दहत्यव्यक्तं दहत्यक्षरं दहति मृत्यु दहति मृत्युर्वै परे देव एकीभवतीति परस्तान्न सन्नासन्न सदसदित्येतन्निर्वाणानुशासन मिति वेदानुशासनमिति वेदानुशासनम्॥ सुबालोपनिषद ||१५.१||
इसके पश्चात् रेक्व मुनि ने पोराङ्गिरस से पुनः प्रश्न किया- ‘‘हे भगवन्! यह विज्ञान स्वरूप आत्मा जब शरीर से बाहर उत्क्रमण करता है, तब वह किसके द्वारा, किस स्थान को जलाता है?’’
ऐसा सुन कर उन पोराङ्गिरस ने कहा- ‘‘वह विज्ञान घन आत्मा बाहर उत्क्रमण करता है,’’ तब सबसे पहले प्राणको, क्रमशः अपानको, ब्यानको, उदानको, समानको, वैरंभको, मुख्यको, अन्तर्यामको, प्रभंजनको, कुमारको, श्येनको, श्वेतको, कृष्णको एवं नागको दग्ध करता है।
इस प्रकार यहाँ १४ चौदह प्राण के भेदों का वर्णन किया है | तत्पश्चात् पृथ्वी, जल, तेज, वायु तथा आकाश को दग्ध करता है, इसके बाद जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुर्या, महानता के लोक तथा परलोक को भी दग्ध कर देता है, तदनन्तर लोक एवं अलोक को दग्ध करता है, धर्म एवं अधर्म को दग्ध करता है, तत्पश्चात् बिना सूर्य के, बिना मर्यादा के और बिना आलोक के वह सभी स्थलों को दग्ध कर देता है, उसके बाद महत्तत्व को दग्ध कर देता है, प्रकृति को दग्ध करता है, अक्षर को दग्ध करता है तथा मृत्यु को भी दग्ध कर देता है। मृत्यु भी परम आदिदेव परमतत्व में एकाकार हो जाती है, उसके बाद न सत् है, न असत् और न ही सत्-असत् है। यही निर्वाण (मुक्ति) का अनुशासन है, यही वेद की शिक्षा है, यही वेद का अनुशासन है। || ४५ ||
प्रायश्चित्तनिवर्त्यानि निषिद्धाचरणानि च । प्रायश्चित्तमकुर्वन्तमपि लिम्पन्ति नैव तम् ॥ २.४६ ॥
जिन निषिद्धाचरणों की निवृत्ति प्रायश्चित्तकर्म करने से होती है , वे प्रायश्चित्त रूपी कर्म जीवन्मुक्त पुरुष को नहीं करने पड़ते क्योंकि जीवन्मुक्त पुरुष को निषिद्धाचरण प्रभावित नहीं करते इसलिए तपस्या करके उसे शुद्धिकरण की प्रक्रिया से गुजरने की कोई आवश्यकता नहीं होती है | क्योंकि वह अपने को शरीर, मन, बुद्धि से युक्त कर्ता या भोक्ता नहीं मानता | वह तो अपने द्रष्टा स्वरूप में अवस्थित रहता है | इसीलिये भगवान श्रीकृष्ण ने गीताजी में कहा है कि —
‘‘शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि।।९.२८।।’’
इस प्रकार तुम शुभाशुभ फलस्वरूप कर्म बंधनों से मुक्त हो जाओगे; और संन्यास योग से युक्त चित्त हुए तुम विमुक्त होकर मुझे ही प्राप्त हो जाओगे।।
‘‘यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।९.२७।।’’
हे कौन्तेय ! तुम जो कुछ कर्म करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ हवन करते हो, जो कुछ दान देते हो और जो कुछ तप करते हो, वह सब तुम मुझे अर्पण करो।। भगवान ने यह नहीं कहा कि तुम केवल शुभ कर्म ही मुझे अर्पण करो बल्कि यह कहा कि तुम जो कुछ भी शुभ अशुभ कर्म करते हो, सब कुछ मुझे अर्पण कर दो क्योंकि भगवान पूर्ण हैं और उनको को पूर्णता ही प्रिय है, आधा-आधा भगवान को अच्छा नहीं लगता | और स्वभावतः जब आप भगवान को दृष्टि में रखकर कर्म करोगे तो अशुभ कर्म कर ही नहीं सकते। || ४६ ||
कर्म शुद्धमशुद्धं च द्विविधं प्रोच्यते श्रुतौ। तत्राशुद्धेन बन्धः स्यान्मोक्षः शुद्धेन देहिनाम् ॥२.४७॥
वेदों में दो प्रकार के कर्म बताए गए हैं , एक शुद्ध कर्म हैं और दूसरे अशुद्ध कर्म कहे जाते हैं | इनमें से, अशुद्ध कार्यों द्वारा,एक व्यक्ति बंधन से पीड़ित होता है और शुद्ध कर्मों के आचरण से मुक्ति मिलती है | शुद्ध कर्म वे हैं जो शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियों और प्राण से तादात्म्यापन्न हुए बिना किये जाते हैं | और जो शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियों और प्राण से अपने को एक मानकर किये जाते हैं , वे अशुद्ध कर्म हैं |
‘‘प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।३.२७।।’’ (श्रीमद् भगवद्गीता)
सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, अहंकार से मोहित हुआ पुरुष, “मैं करता हूँ” ऐसा मान लेता है।। || ४७ ||
अशुद्धं च तथा प्रोक्तं पुण्यं पापमिति द्विधा। परस्परं न बाधोऽस्ति तयोरत्राविरोधतः ॥२.४८॥
अब जो अशुद्ध प्रकार के कर्म हैं उसके भी दो विभाग हैं एक पुण्य कर्म होते हैं और दूसरे पाप कर्म होते हैं | ये दोनों एक दूसरे को काटते नहीं हैं क्योंकि ये दोनों परस्पर विरोधी नहीं हैं | ये पुण्य और पाप , प्रकाश और अंधकार के समान एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं |जैसे कि धृतराष्ट्र को उसके पुण्य कर्मों के फलस्वरूप राज्य का सुख मिला और पाप कर्मों के परिणाम में पुत्रों के विनाश का दुख देखना पड़ा। || ४८ ||
सुखदुःखे समस्तस्य जन्तोर्याभ्यां प्रसिध्यतः । तयोर्न वशमागच्छेच्छुद्धमात्रेण संस्थितः ॥ २.४९ ॥
आत्मा चेतन है और शरीर जड़ है पर जब जड़ और चेतन एक दूसरे में मिल जाते हैं तब अशुद्ध हो जाते हैं और चेतन आत्मा अपने को जड़ देह के रूप में मानने लगता है | इसलिए मुख्य रूप से जिस देहासक्ति के कारण सभी सांसारिक प्राणियों को सुख और दुःख सहना पड़ता है , उसे जड़ और चेतन के विवेक द्वारा अपने को शुद्ध, चेतन, अकर्ता,आत्मा ही मानना चाहिए और किसी भी प्रकार की आसक्ति में न फँसकर अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित रहना चाहिए |
‘‘तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।३.२८।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
परन्तु हे महाबाहो ! गुण और कर्म के विभाग के सत्य (तत्व) को जानने वाला ज्ञानी पुरुष यह जानकर कि “गुण गुणों में बरतते हैं” (कर्म में) आसक्त नहीं होता।। विवेक के अभाव में अपने आपको देह,गेह, जन, धन, मान, अपमान, हानि और लाभ वाला मानने लगता है |
‘‘इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।३.३४।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
इन्द्रिय-इन्द्रिय (अर्थात प्रत्येक इन्द्रिय) के विषय के प्रति (मन में) राग द्वेष रहते हैं; मनुष्य को चाहिये कि वह उन दोनों के वश में न हो; क्योंकि वे इसके (मनुष्य के) शत्रु हैं। ||४९||
शुद्धं नित्यमनन्तं यत्सत्यं कर्म निगद्यते। नित्यशुद्धविमुक्तात्मसाक्षात्कारार्थकं विदुः ॥२.५०॥
नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त और अनंत स्वरूप निजात्मा के साक्षात्कार के उद्देश्य से जो कर्म किये जाते हैं वे शाश्वत और शुद्ध कर्म कहे जाते हैं |
‘‘संध्यावंदन भद्रमस्तु भवतो भो स्नान तुभ्यं नमः, भो देवा: पितरश्च तर्पणविधौ नाहंक्षमः क्षम्यताम्। यत्र क्वापि निषद्य यादव कुलोत्तंसस्य कंस द्विषः स्मारं स्मार मघं हरामि तदलं मन्ये किमन्येन मे ।।’’
भावार्थः- हे धर्म कर्म, हे संध्या वंदन, आपका कल्याण हो । हे स्नान तुम्हारे लिए नमस्कार है । हे देवताओ और पितरो ! तर्पण पूजा में मैं समर्थ नहीं हूँ, क्षमा करो । मैं केवल इतना ही चाहता हूँ कि जहाँ कहीं भी जाऊं वह चाहे पुण्य भूमि काशी हो, या कीकट (मगध देश) हो मुझे भगवान का स्मरण होता रहे । मैं काशी की महिमा को स्वीकार करता हूँ, परन्तु अब मुझे और कुछ सूझता नहीं है कि मैं क्या करूं? इसलिए चाहता हूँ कि जहाँ कहीं भी बैठ जाऊँ वहाँ यादव कुलावतंस, कंस के हंता भगवान श्रीकृष्ण का चिंतन होता रहे ।अब मुझे और कुछ करने की आवश्यकता नहीं है । भक्ति देवी की कृपा से अविद्या काम और कर्म पर्यन्त जितने भी पाप हैं वे सब नष्ट हो जाते हैं । इसलिए अब मुझे किसी दूसरे साधन की आवश्यकता नहीं है । और न मुझे भगवान की भक्ति के सिवा दूसरा कोई प्राप्तव्य पदार्थ ही अभीष्ट है । भगवद् भक्ति ही धर्म कर्म का काम कर देती है , क्योंकि इससे अन्तःकरण भगवद- आकार या आत्माकार हो जाता है ।
विवेकचूड़ामणि में भगवान शंकराचार्य जी कहते हैं कि —-
‘‘मोक्षकारणसामग्र्यां भक्तिरेव गरीयसी ।
स्वस्वरूपानुसन्धानं भक्तिरित्यभिधीयते ॥ ३१ ॥
स्वात्मतत्वानुसन्धानं भक्तिरित्यपरे जगु:।’’
मुक्ति की कारण रूप सामग्री में भक्ति ही सबसे बढ़कर है और अपने वास्तविक स्वरूप का अनुसन्धान करना ही ‘भक्ति’ कहलाता है। कोई-कोई ‘स्वात्म-तत्व का अनुसन्धान ही भक्ति है’- ऐसा कहते हैं। || ५० ||
विशुद्धैः कर्मभिः शुद्धानीन्द्रियाणि भवन्त्यलम्। इन्द्रियेषु विशुद्धेषु मनः शुद्धं स्वतो भवेत् ॥२.५१॥
विशुद्ध कर्मों का आचरण करने से भाव शुद्ध हो जाता है और जब भाव शुद्ध हो जाता है तब इन्द्रियां शुद्ध हो जाती हैं तथा जब इन्द्रियां शुद्ध हो जातीं हैं तब मन अपने आप शुद्ध हो जाता है।
छान्दोग्य उपनिषद में कहा है कि – आहार शुद्धौ सत्व शुद्धिः सत्त्व शुद्धौ ध्रुवा स्मृति:।
स्मृतिलम्भे सर्व ग्रन्थीनां विप्रमोक्षः। {छा.उप.७ -२६-२}
यहाँ आहार का अर्थ केवल भोजन नहीं अपितु आहृयते इन्द्रीभिःस्वीकृयते (अनुभूयते ) स आहारः = जो कुछ भी हम समस्त इन्द्रियों के द्वारा जिसका- जिसका अनुभव करते हैं वह सब आहार है। इसलिये आहार शुद्धि से सभी विषयों की शुद्धि अभीष्ट है। जो कुछ भी अन्दर लिया जाता है वह आहार है और जो कुछ बोला जाता है सो व्याहार है और जो कुछ किया जाता है वह व्यवहार है। अस्तु !
विशुद्धिकारणं साधनमुपदिश्यते आहारशुद्धौ । आह्रियत इति आहारः शब्दादि विषय विज्ञानं भोक्तुर्भोगायाऽह्रियते तस्य विषय उपलब्धि लक्षणस्य विज्ञानस्य शुद्धिराहार शुद्धी रागद्वेषमोहदोषैरसंसृष्टं विषयविज्ञानमित्यर्थः । तस्यामाहार शुद्धौ सत्यां तद्वतोऽन्तःकरणस्य सत्वस्य शुद्धिर्नैर्मल्यं भवति । सत्त्वशुद्धौ च सत्यां यथावगते भूमात्मनि ध्रुवाविच्छिन्ना स्मृतिरविस्मरणं भवति । तस्यांचलब्धायांस्मृतिलम्भेसति – सर्वेषामविद्याकृतानर्थपाशरूपाणामनेकजन्मान्तरानुभवभावना कठिनीकृतानां हृदये स्थितानां ग्रन्थीनां विप्रमोक्षो विशेषेण प्रमोक्षणं विनाशो भवतीति ।
संसार के मिथ्या स्वरूप के ज्ञान का बार – बार चिन्तन करके उस परम शिव का आत्म स्वरूप से अनुसंधान ही इसका साधन है । इसी लिये भगवान् आचार्य शङ्कर कहते हैं ” अहर्निशं किं परिचिन्तनीयम् ? दिन रात क्या विचार करना चाहिए ? संसार मिथ्यात्वशिवात्मतत्त्वम् ” संसार का मिथ्यात्व और आत्मतत्व की शिवरूपता । || २.५१ ||
शुद्धे मनसि जीवोऽपि विशुद्धो ब्रह्मणैकताम्। उपेत्य केवलानन्दं निष्कलं परमश्नुते ॥२.५२॥
तदनन्तर जब मन शुद्ध हो जाता है तब जीव भी विशुद्ध होकर ब्रह्म के साथ एकता को प्राप्त कर लेता है और सर्वोच्च तथा अविभाजित (निष्कल) कैवल्य , परमानंद को प्राप्त करता है। आचार्य शंकर विवेक चूड़ामणि कहते हैं कि —
अथ ते संप्रवक्ष्यामि स्वरूपं परमात्मनः ।
यद्विज्ञाय नरो बन्धान्मुक्तः कैवल्य मश्नुते ॥ १२४ ॥
अब मैं तुम्हें परमात्मा के स्वरूप के बारे में बताऊंगा , जिसको अच्छी तरह से जानने से मनुष्य बंधनों से मुक्त होकर कैवल्य पद को प्राप्त करता है |
‘‘अस्ति कश्चित्स्वयं नित्यमहंप्रत्ययलम्बनः ।
अवस्थात्रयसाक्षी सन्पञ्चकोशविलक्षणः ॥१२५॥ विवेकचूडामणि’’
अहं प्रत्यय का आधार कोई स्वयं नित्य पदार्थ है , जो तीनों अवस्थाओंका साक्षी होकर भी पञ्चकोशातीत है |
श्रीमद् भागवत जी में कहा है कि —
परित्यक्तगुण: सम्यग्दर्शनो विशदाशय: ।
शान्तिं मे समवस्थानं ब्रह्म कैवल्यमश्नुते ॥ ४.२०.१० ॥
चित्त शुद्ध होने पर उसका विषयों से सम्बन्ध नहीं रहता तथा उसे तत्वज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। फिर तो वह मेरी समतारूप स्थितिको प्राप्त हो जाता है। यही परम शान्ति, ब्रह्म अथवा कैवल्य है। || ५२ ||
बाह्यमभ्यन्तरं चेति शुद्धं कर्म द्विधोच्यते। बाह्यं स्नानादि नित्यं स्याद्ध्यानाद्याभ्यान्तरम् परम् ॥२.५३॥
अब जो शुद्ध कर्म हैं वे भी दो प्रकार के हैं एक हैं बाह्य और दूसरे आंतरिक हैं। स्नान आदि क्रियाएं बाह्य शुद्धि के कर्म हैं जैसे कि पंचगव्य प्राशन, दशविध, स्नान – १ -गोमूत्र से स्नान – २ – गोमय से स्नान – ३ – गौ दुग्ध से स्नान – ४ -गोदधि से स्नान – ५ – गौघृत से स्नान – ६ – कुशोदक से स्नान – ७ – भस्म से स्नान – ८ – मृत्तिका (मिट्टी) से स्नान – ९ – मधु (शहद) से स्नान – १० – पवित्र जल से स्नान और प्राणायाम आदि क्रियाएं भी बाह्य शुद्धी में साधनभूत हैं। संक्षेप से कहें तो नित्य , नैमित्तिक और प्रायश्चित्त कर्म बाह्य शुद्धि कारक हैं तथा ध्यान,धारणा आदि आंतरिक शुद्धि की क्रियाएं हैं | श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान ने अपना निर्णय दिया है कि —-
‘‘यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।।१८.५।।’’
यज्ञ, दान और तप रूप कर्म त्याज्य नहीं है, किन्तु वह नि:संदेह कर्तव्य है; यज्ञ, दान और तप ये मनीषियों (बुद्धिमान साधकों) को पवित्र करने वाले हैं।।
‘‘तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः॥२.१॥पातञ्जलयोगदर्शनम्’’
तप, अध्यात्मशास्त्रों के पठन-पाठन और ईश्वर शरणागति – ये तीनों क्रिया योग हैं।|| ५३ ||
अतः शुद्धेरशुद्धानां नाशो भवितुमर्हति। न शुद्धव्यतिरेकेण प्रयत्नान्तरमिष्यते ॥२.५४॥
इसलिए शुद्ध कर्मों द्वारा अशुद्ध कर्मों को नष्ट किया जाना चाहिए | शुद्ध कर्मों के अलावा कोई अन्य प्रयास नहीं किया जाना चाहिए |
श्रीमद्भागवत पांचवें स्कंध में कथा है कि आग्नीध्र के पुत्र महाराज नाभि ने अपनी भार्या मेरुदेवी के साथ शुद्ध कर्मों का आचरण करके भगवान को भी अपने पुत्र के रूप में प्राप्त किया था।
‘‘को नु तत्कर्म राजर्षेर्नाभेरन्वाचरेत्पुमान् |
अपत्यतामगाद्यस्य हरिः शुद्धेन कर्मणा ||५.४.६ ||
ब्रह्मण्योऽन्यः कुतो नाभेर्विप्रा मङ्गलपूजिताः |
यस्य बर्हिषि यज्ञेशं दर्शयामासुरोजसा ||५.४.७ ||’’
राजर्षि नाभि के जैसा उदार कर्मों का आचरण करने वाला दूसरा कौन पुरुष हो सकता है — जिनके शुद्ध कर्मों से संतुष्ट होकर साक्षात श्रीहरि उनके पुत्र हो गए थे | महाराज नाभि के समान ब्राह्मण भक्त भी कौन हो सकता है — जिनकी दक्षिणा आदि से संतुष्ट हुए ब्राह्मणों ने अपने मन्त्र बल से उन्हें यज्ञशाला में साक्षात् श्रीविष्णु भगवान के दर्शन करा दिए | इस प्रकार राजर्षि नाभि के पुत्र भगवान ऋषभदेव ने अपने देश अजनाभवर्ष को अपनी कर्मभूमि बनाया बाद में उनके पुत्र भरत के द्वारा उनके देश अजनाभवर्ष का नाम भारतवर्ष पड़ा। || ५४ ||
विशुद्धकर्मनिष्ठास्ते यतयोऽन्येऽपि वा जनाः। अत्रैव परिमुच्यन्ते स्वातंत्र्येण परामृतात् ॥२.५५॥
परम अमृत स्वरूप परब्रह्म परमात्मा के प्रसाद से जो लोग शुद्ध कर्मों के लिए समर्पित हैं , फिर चाहे वे तपस्वी संन्यासी हों या कोई अन्य पुरुष हों, वे अपने आपको अभी, यहीं, इस लोक में ही इसी जीवन में ही स्वयं के द्वारा ही (स्वतंत्रता पूर्वक) किसी के आशीर्वाद के बिना ही सर्वोच्च मृत्युहीन अवस्था अर्थात् परा मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं।
‘‘इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः।।५.१९।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
जिनका मन समत्व भाव में स्थित है, उनके द्वारा यहीं पर यह सर्ग जीत लिया जाता है; क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है इसलिये वे ब्रह्म में ही स्थित हैं।।
कामान् यः कामयते मन्यमानः स कामभिर्जायते तत्र तत्र।
पर्याप्तकामस्य कृतात्मनस्तु इहैव सर्वे प्रविलीयन्ति कामाः ॥ (मुण्डकोपनिषत्-३.२)
अर्थ — जो कामनाओं की अभिलाषा करता है तथा जिसका मन उन कामनाओं में लीन रहता है, वह उन कामनाओं के द्वारा प्रेरित वहीं-वहीं जन्म ग्रहण करता है, किन्तु जिसने अपनी कामनाओं को जीत लिया है तथा अपनी आत्मा को प्राप्त कर लिया है, ऐसे ‘कृतात्मा’ जनकी यहीं, इसी लोक में समस्त कामनाएँ विलुप्त हो जाती हैं। जो संसार की वस्तुओं को चाह-चाह करके, उनके पीछे दौड़ रहा है, उनको जगह-जगह भटकना ही पड़ता है। || ५५ ||
आरूढः पंचमीं भूमिं शुद्धेनैवावतिष्ठते। अतोऽत्र मतिमान् नित्यं पंचम्यभ्यासमाचरेत् ॥२.५६॥
जो पुरुष पांचवीं भूमिका में आरूढ़ है वह केवल शुद्ध कर्मों को ही करता है, जो कर्ता के पांचवें स्तर पर चढ़ गया है, वह हमेशा शुद्ध कर्म करता है। इसलिए एक बुद्धिमान व्यक्ति को हमेशा पांचवें स्तर के कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। यह जो पांचवीं भूमिका है वह औपनिषदी भूमिका है |
‘‘तं त्वा ‘औपनिषदं’ पुरुषं पृच्छामि ।’’ – बृहदारण्यकोपनिषत् ३-९-२६
वेदान्तप्रतिपादितस्य आत्मनः औपनिषदः पुरुषः इति नामधेयम् । उपनिषत्सु प्रतिपादितः आत्मा औपनिषदः । उपनिषत्सु वेदान्तेष्वेव प्रतिबोधितः आत्मा औपनिषदः पुरुषः । न कुत्राप्यन्यत्र अयमुपदिश्यते । पुराणेषु उपदिष्टाः देवताः पौराणिकदेवताः इति कथ्यन्ते । इन्द्र चन्द्र मित्र वरुणार्यमाद्याः देवाः पौराणिकाः भवन्ति । नैते “औपनिषदःपुरुषाः” भवन्ति । पौराणिकदेवताः अनात्मभूताः सोपाधिकाः संसारिस्वरूपा एव। औपनिषदः पुरुषः पुनः ? अयं निरुपाधिकः पुरुषः परिपूर्णं परं ब्रह्म । अयमेव असंसारी आत्मा ॥ औपनिषदः पुरुषः निरुपाधिकः निर्विशेषः निरवयवः असंसारी प्रत्यगात्मा परब्रह्मस्वरूपः। नामरूपक्रियासम्बन्धरहितः देशकालरहितः परिपूर्णः प्रत्यगात्मैव औपनिषदः पुरुषः । औपनिषदात्मज्ञानादेव मुक्तिः ॥
श्रीनारद जी कहते हैं– तं त्वौपनिषदं पुरुषं पृच्छामि –मैं उन औपनिषद् पुरुष के बारे में पूछता हूं” ऐसा सनकादिकों से पूँछते हैं | नारदजी ने उपनिषदवेद्य पुरुष की जिज्ञासा की है, उन्होंने सनकादिक जैसे निर्ग्रंथ मुनीश्वरों से पूँछा। श्रीमद्भगवद्गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि —
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्।।१५.१५।।
मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (उनका अभाव) होता है। समस्त वेदों के द्वारा मैं ही वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ तथा वेदान्त का और वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ।।
‘‘निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।।१५.५।।’’
जिनका मान और मोह निवृत्त हो गया है, जिन्होंने संगदोष को जीत लिया है और जो अध्यात्म में स्थित हैं जिनकी कामनाएं निवृत्त हो चुकी हैं और जो सुख-दु:ख नामक द्वन्द्वों से मुक्त हो गये हैं, ऐसे सम्मोह रहित ज्ञानीजन उस अव्यय पद को प्राप्त होते हैं।।
मेघदूत में कालिदास जी कहते हैं कि —
नन्वात्मानं बहु विगणयन्नात्मनैवावलम्बे तत्कल्याणि त्वमपि नितरां मा गमः कातरत्वम् ।
कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण ॥४६॥
आत्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त है इसलिये मैं आत्मा का ही आश्रय ग्रहण करता हूँ , तुम भी आत्मा का आश्रय ग्रहण करके शोकसे कातर न होना क्योंकि किसको केवल सुख या दुःख ही हमेशा मिला है ? किसी को भी नहीं । सुख और दुःख की दशा तो चक्र के हाथे की तरह हमेशा ऊपर नीचे आती जाती रहती है । || ५६ ||
इन्द्रियाणि विशुद्धान्यप्यशुद्धानां विवर्जनात्। शुद्धानामप्यनुष्ठानाद्धीमांस्तानि न विश्वेसेत् ॥२.५७॥
भले ही इन्द्रियां अशुद्ध कर्मों को त्यागने के कारण और शुद्ध कर्मों का अनुष्ठान करने के कारण पवित्र हो गई हों, फिर भी एक बुद्धिमान व्यक्ति को कभी भी उन इन्द्रियों पर भरोसा नहीं करना चाहिए।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवानजी कहते हैं —
‘‘यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।२.६०।।’’
हे कौन्तेय ! (संयम का) प्रयत्न करते हुए बुद्धिमान (विपश्चित) पुरुष के भी मनको ये प्रमथनशील इंद्रियां बलपूर्वक हर लेती हैं।।
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।३.४१।।
इसलिये, हे अर्जुन ! तुम पहले इन्द्रियों को वश में करके, ज्ञान और विज्ञान के नाशक इस कामरूप पापी को नष्ट करो।
प्रश्नोत्तर रत्नमालिका में श्री शंकराचार्य जी कहते हैं कि—
शेते सुखं कस्तु समाधिनिष्ठो जागर्ति को व सदसद्विवेकी।
के शत्रवः सन्ति निजेन्द्रियाणि तान्येव मित्राणि जितानि यानि ।।४।।
प्रश्न – (वास्तव में) सुख से कौन सोता है ? उत्तर – जो समाधि निष्ठ है या परमात्मा के स्वरूप में स्थित है ।
प्रश्न – और कौन जागता है ? उत्तर – सत् और असत् के तत्व का जानने वाला।
प्रश्न – शत्रु कौन हैं ? उत्तर – अपनी इन्द्रियां; परन्तु यदि वे जीती हुई हों तो वे ही मित्र हैं ।
‘‘मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् ।
बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसं अपि कर्षति ।। २.२१५ ।।मनुस्मृतिः/ द्वितीयोध्यायः’’
माता, भगिनी (बहिन) तथा पुत्री तक के साथ में एकान्त स्थान में अथवा एक ही आसन पर कदापि न बैठे, क्योंकि इन्द्रियां अत्यन्त प्रबल होती हैं और वे ज्ञानीजनों के मन को भी सहज ही अपने वश में कर लेने में समर्थ हैं |
श्री शुकदेव स्वामिपाद कहते हैं कि —
‘‘न कुर्यात्कर्हिचित्सख्यं मनसि ह्यनवस्थिते |
यद्विश्रम्भाच्चिराच्चीर्णं चस्कन्द तप ऐश्वरम् ||३||
नित्यं ददाति कामस्य च्छिद्रं तमनु येऽरयः |
योगिनः कृतमैत्रस्य पत्युर्जायेव पुंश्चली ||४||
कामो मन्युर्मदो लोभः शोकमोहभयादयः|
कर्मबन्धश्च यन्मूलः स्वीकुर्यात्को नु तद्बुधः ||५|| श्रीमद्भागवतपुराणम्/ स्कन्धः ५/अध्यायः ६’’
इस चंचल चित्त से कभी मैत्री नही करनी चाहिए। इसमें विश्वास करने से ही मोहनी के रूप में फंसकर महादेवजी का चिरकाल का संचित तप क्षीण हो गया था। जैसे व्यभिचारिणी स्त्री जार पुरुषों को अवकाश देकर उनके द्वारा अपने में विश्वास रखने वाले पति का वध कर देती है, उसी प्रकार जो योगी मन पर विश्वास करते हैं, उसका मन काम और उसके साथी क्रोधादि शत्रुओं को आक्रमण करने का अवसर देकर उन्हें नष्ट भ्रष्ट कर देता है। काम,क्रोध, मद,लोभ,मोह और भय आदि शत्रुओं का तथा कर्म बंधन का मूल तो यह मन ही है, इस पर कोई भी बुद्धिमान कैसे विश्वास कर सकता है।|| ५७ ||
अशुद्धेषु प्रवर्तेरन्पूर्ववासनया स्वतः। तेभ्यो नियम्य शुद्धेषु नित्यं तानि प्रवर्तयेत् ॥२.५८॥
प्राचीन वासनाओं के कारण अशुद्ध कर्मों में इन्द्रियों की स्वतः ही स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। अतः उन्हें अशुद्ध वासनाओं से हटाकर शुद्ध कर्मों में प्रवृत्त करना चाहिए।
‘‘शिरः शार्वं स्वर्गात्पशुपतिशिरस्तः क्षितिधरं महीध्रादुत्तुङ्गादवनिमवनेश्चापि जलधिम् ।
अधोऽधो गङ्गेयं पदमुपगता स्तोक मथवा विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः ॥१०॥ भर्तृहरि:’’
पहले तो गंगा स्वर्ग से निकल कर भगवान शिवजी की जटाओं में गिरती है, और फिर वहां से निकल कर हिमालय से होकर धरती पर आती है; और फिर वह गंगा मैदानी इलाकों में आती है, और मैदानों में आकर और नीचे जाते हुए अंततः समुद्र में मिल जाती है। ठीक इसी प्रकार मूर्ख भी अपने जीवनके साथ करते हैं। वे हमेशा सबसे सरल मार्ग अपनाते हुए सबसे निम्न स्तर पर पहुँच जाते हैं। विवेक से भ्रष्ट हुए लोगोंका अनेक प्रकारसे अधःपतन होता है।
विवेकचूडामणि में कहा गया है —
लक्ष्यच्युतं चेद्यदि चित्तमीषद्बहिर्मुखं सन्निपतेत्ततस्ततः ।
प्रमादतः प्रच्युतकेलिकन्दुकः सोपानपङ्क्तौ पतितो यथा तथा ॥ ३२५ ॥
जैसे असावधानी वश खेलकी गेंद एकवार हाथसे छूटकर अगर सीढ़ियों पर गिर जाती है तो फिर निरन्तर नीचे ही गिरती जाती है , वैसे ही चित्त भी यदि प्रमाद वश थोड़ा सा भी अपने लक्ष्य से च्युत हुआ तो निरन्तर बहिर्मुख होता ही चला जाता है | ||५८||
इन्द्रियाणां च मनसः प्रसादं शुद्धकर्मभिः। उपलभ्यापि दुर्बुद्धिरशुद्धेह प्रवर्तते ॥२.५९॥
शुद्ध कर्मों के द्वारा मन और इन्द्रियों की निर्मलता प्राप्त होती है। शुद्ध कर्म रूपी साधन के प्राप्त होने पर भी दुर्बुद्धि मनुष्य अशुद्ध कर्मों में प्रवृत्त है। यह तो आश्चर्य ही है !
मनु जी महाराज कहते हैं —
‘‘ध्यानिकं सर्वं एवैतद्यदेतदभिशब्दितम् ।
न ह्यनध्यात्मवित्कश्चित्क्रियाफलं उपाश्नुते ॥ ६.८२॥’’ (मनुस्मृतिः)
यह जो कुछ पहले कहा गया है यह सब ही ध्यान योग के द्वारा सिद्ध होने वाला है अध्यात्म ज्ञान से रहित कोई भी व्यक्ति ऊपर बताए गए कर्मों के फल को नहीं पा सकता ।
‘‘अनेन विधिना सर्वांस्त्यक्त्वा सङ्गाञ्छनैः शनैः ।
सर्वद्वन्द्वविनिर्मुक्तो ब्रह्मण्येवावतिष्ठते ॥ ६.८१ ॥’’ (मनुस्मृतिः)
इस विधि से धीरे–धीरे सभी प्रकार की आसक्तियों से (सब संग से) हुए, दोषों को छोड़ कर, सभी प्रकार के हर्ष–शोक आदि द्वन्द्वों से निर्मुक्त होके विद्वान पुरुष ब्रह्म ही में स्थिर होता है।
फलं कतकवृक्षस्य यद्यप्यम्बुप्रसादकम् ।
न नामग्रहणादेव तस्य वारि प्रसीदति । । ६.६७ ।‘‘ (मनुस्मृतिः)
यद्यपि निर्मली वृक्ष का फल पीस कर गंदले जल में डालने से जल का शोधन करता है तथापि बिना डाले उसके नाम का कथन वा श्रवण मात्र से उसका जल शुद्ध नहीं हो सकता ।’’
‘‘यद्यपि निर्मली वृक्ष का फल जल को शुद्ध करने वाला है तथापि उसके नाम ग्रहण मात्र से जल शुद्ध नहीं होता किन्तु उसको लेकर, पीसकर, जल में डालने ही से जल शुद्ध होता है, वैसे ही नाम मात्र के आश्रय से कुछ भी नहीं होता किन्तु अपने–अपने आश्रम के अनुकूल धर्मयुक्त कर्म करने से ही आश्रम धारण करना सफल होता है, अन्यथा नहीं ।’’ ॥ ५९ ॥
प्रसन्नमनसः स्वास्थ्यात्सुखं किंचित्प्रजायते। तावन्मात्रेण तृप्तस्तु क्रमेणाधः पतेन्नरः ॥२.६०॥
निर्मल मन वाला (शान्त चित्त वाला) व्यक्ति अपने स्वरूपमें स्थित होने के कारण थोड़े से सुख का अनुभव करता है, उसे कुछ खुशी पैदा होती है। पर उस छोटी सी सुख की झलक से ही यदि व्यक्ति अपने आपको तृप्त और संतुष्ट मानने लगता है तो निश्चित ही उसका धीरे-धीरे पतन होता है। वह व्यक्ति एक-के-बाद एक निचले स्तरों पर गिरता जाता है। इसलिए मनु जी कहते हैं कि —
‘‘दह्यन्ते ध्मायमानानां धातूनां हि यथा मलाः ।
तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात् || ६.७१ ||’’
जैसे अग्नि में तपाने और गलाने से धातुओं के मल नष्ट हो जाते हैं वैसे ही प्राणों के निग्रह से (प्राणायाम करने से) मन आदि इन्द्रियों के दोष भस्मीभूत हो जाते हैं । अतः नित्य ही प्राणायाम का अभ्यास करते रहना चाहिए। क्योंकि एकवार धातुएं शुद्ध हो जाने पर भी दो या तीन महीने के बाद फिर से मलिन हो ही जातीं हैं। || ६० ||
तृप्तिरल्पसुखप्राप्तौ महानर्थैककारणम्। अतस्तृप्तिमनाप्यैव शुद्धं नित्यं समाचरेत् ॥२.६१॥
अल्प सुख प्राप्त करने पर संतोष कर लेना महान दुर्भाग्य का एकमात्र कारण है। इसलिए, संतुष्टि में निवास किए बिना, व्यक्ति को लगातार शुद्ध कर्तव्यों का पालन करते रहना चाहिए।
चाणक्य का वचन है कि –
सन्तोषस्त्रिषु कर्तव्यः स्वदारे भोजने धने।
त्रिषु चैव न कर्तव्योऽध्ययने जपदानयोः॥
व्यक्ति को अपनी ही पत्नी से संतोष कर लेना चाहिए चाहे वह रूपवती हो अथवा साधारण, वह सुशिक्षित हो अथवा निरक्षर – उसको पत्नी प्राप्त है , यही बड़ी बात है । और ईमानदारी से कमाए हुए धन और भोजन में संतोष करना चाहिए , परन्तु तीन चीजों में संतोष कभी भी नहीं करना
१ अध्ययन २ जप ३ दान।
और अध्यात्म के विषय में मनु जी की सलाह है कि —
‘‘प्राणायमैर्दहेद्दोषान्धारणाभिश्च किल्बिषम् ।
प्रत्याहारेण संसर्गान्ध्यानेनानीश्वरान्गुणान् ।। ६.७२ ।।’’ (मनुस्मृतिः)
इसलिए विद्वान पुरुष प्राणायामों के द्वारा शरीरके और इन्द्रियोंके दोषोंको ध्वस्त करे और धारणाओं के द्वारा अन्तःकरणके कपट को, पापको, मैलको तथा प्रत्याहार से संसर्ग-जन्य दोषोंको, और ध्यानसे अविद्या आदि तथा पक्षपात, कूट-नीति आदि अनीश्वरताके दोषों को नष्ट करे। ||६१||
यथा विषयभोगेषु विना तृप्तिं पुनः पुनः। प्रवर्तते तथा नित्यं यः शुद्धेषु स बुद्धिमान् ॥२.६२॥
जैसे मनुष्य इन्द्रियों के सुख का तृप्त हुए बिना बार-बार भोग करता है, बिना किसी संतुष्टि का अनुभव किए निरंतर बाह्य विषयों का सेवन करता है वैसे ही जो हमेशा शुद्ध कर्मों में लगा रहता है, वह बुद्धिमान है।
प्रह्लाद जी कहते हैं “नाथ योनिसहस्रेषु येषु येषु व्रजाम्यहम् ।
तेषु तेष्वच्युताभक्तिरच्युतास्तु सदा त्वयि ॥ १-२०-१८ ॥
या प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वनपायिनी।
त्वामनुस्मरतः सा मे हृदयान्मापसर्पतु।।” विष्णु पुराण (१-२०-१९)
हेनाथ ! हजारों योनियों में से जिस जिस योनि में मुझे जाना पड़े, उन सब योनियों में हे अच्युत ! आपसे मेरी यही प्रार्थना है कि आपमें मेरी अखण्ड भक्ति बनी रहे और हे परमात्मा ! विवेकहीन जनों की जैसी गहरी प्रीति इन्द्रियोंके भोगके नश्वर पदार्थोंमें रहती है, उसी प्रकारकी प्रीति मेरी आप में हो और आपका स्मरण करते हुए मेरे हृदय से वह कभी दूर न होवे। ||६२||
शुद्धं शुद्धेन वर्धेत शुद्धः शुद्धं ततो व्रजेत्। अशुद्धमप्यशुद्धेनाशुद्धोऽशुद्धं तथा नरः ॥२.६३॥
मनुष्य को शुद्ध कर्मों द्वारा अपनी पवित्रता बढ़ानी चाहिए; तब वह व्यक्ति शुद्ध कर्मों के प्रभाव से शुद्ध हो जाता है और शुद्ध (स्व) की ओर {अपनी आत्मा की ओर} चला जाता है। इसी प्रकार, अशुद्ध कर्मों के द्वारा अपने अन्तःकरण की अशुद्धता को बढ़ाता है | यदि कोई व्यक्ति अशुद्ध कार्यों को करता है तो उसकी अशुद्धता बढ़ती जाती है, और अशुद्धता से अशुद्धता की ओर बढ़ता चला जाता है।
‘‘मृगाः मृगैः संगमुपव्रजन्ति गावश्च गोभिः स्तुरंगास्तुरंगैः।
मूर्खाश्च मूर्खैः सुधियः सुधीभिः समानशीलव्यसनेषु सख्यं॥’’
हिरण हिरण का अनुसरण करता है, गाय गाय का अनुसरण करती है, घोड़ा घोड़े का अनुसरण करता है, मूर्ख मूर्ख का अनुसरण करता है और बुद्धिमान बुद्धिमान का अनुसरण करता है। इसलिए मित्रता हमेशा ही समान गुण वालों में ही होती है।
स्वगणे परमा प्रीति: सर्वेषामेव प्राणिनाम्। महिषाः किं न पश्यन्ति चन्द्रवन्महिषी मुखम्।।
किसी भैंसे से पूँछो कि भैंस ज्यादा सुन्दर है या मानुषी ? तो स्वाभाविकतया कहेगा कि भैंस ही चन्द्रमुखी है।
कहावत भी है कि {भैंस के आगे भागवत} उसे तो भूसा ही पसन्द आयेगा।
पानी से पानी मिले,मिले कीच से कीच ।
ज्ञानी से ज्ञानी मिले,मिले नीच से नीच ।।
‘स्वगणे परमा प्रीतिः’-अपने गण में परम प्रीति होती है । बालक से बालक का प्रेम होता है; जवान जवानों से जा मिलते हैं; वृद्धों के साथी वृद्ध। ऐसे ही कर्मकार कर्मकारों के साथ, गायक गायकों के साथ, विलासी विलासियों के साथ, चोर चोरों के साथ सम्बन्ध रखते हैं। इसका कारण यही है कि उनके विचार, कार्य, स्वभाव एक-से होते हैं । ||६३||
यदेन्द्रियमनःप्राणाः शान्ताः सुप्ताविवाभवन्। शुद्धाशुद्धोभयातीतस्तदा तृप्तिं परां व्रजेत् ॥२.६४॥
जब इन्द्रियाँ, मन और प्राण शांत और स्थिर हो जाते हैं, जैसे कि वे नींद की स्थिति में होते हैं, तो उस समय जो शुद्ध और अशुद्ध से परे है उस आत्मतत्व में वह व्यक्ति स्थिर हो जाता है तथा वह परम संतुष्टि को प्राप्त करता है।
शंकराचार्यजी दशश्लोकी में कहते हैं कि —
‘‘न भूमिर्न तोयं न तेजो न वायुः न खं नेन्द्रियं वा न तेषां समूहः ।
अनेकान्तिकत्वात् सुषुप्त्येकसिद्धः तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ॥ १॥’’
‘शुद्ध अहं का स्वरूप’ अहं शब्द के अर्थ का अवलम्बन, न भूमि है, न जल है, न तेज है, न वायु है, न आकाश है, न प्रत्येक इन्द्रिय है और न भूमि आदि का समूह ही है; क्योंकि ये सब बदलने वाले हैं, परिणामी हैं तथा विनाशी भी हैं । इन सबका निषेध करने के बाद जो एकमात्र शेष रहता वही मैं हूँ। सुषुप्ति में एक साक्षी रूप से सिद्ध, अद्वितीय, अविनाशी, सभी धर्मों से अतीत जो शिव है, वही मैं हूँ। सुषुप्ति अवस्था में निःसंकल्पता होती है और तुरीयावस्था में भी निःसंकल्पता होती है परन्तु सुषुप्ति अवस्था में संसार का अभाव होता है तथा तुरीयावस्था में परमात्मा का प्रकाश होता है। असल में अवस्था तो परिवर्तनशील है पर उसमें जो शुद्ध चेतन है {ज्ञानस्वरूप है} वही परम सत्य है। ||६४||
यावन्नेन्द्रियसंशान्तिर्यावन्न मनसोऽप्ययः। यावन्न प्राणशान्तिश्च तावच्छुद्धं समाचरेत् ॥२.६५॥
जब तक किसी की इंद्रियां शांत नहीं हो जातीं, जब तक किसी का मन नहीं शांत हो जाता है, जब तक किसी के प्राण शांत नहीं होते, तब तक व्यक्ति को शुद्ध कर्म अर्थात् पुण्य कर्म करते रहना चाहिए।
मनुष्य के जीवन में चार पुरुषार्थ हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इन चारों की प्राप्ति ही मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य है। पुरुषैः अर्थ्यते इति पुरुषार्थः, इनमें से धर्म की प्राप्ति सुकृति (पुण्य) से होती है। अर्थ की प्राप्ति व्यापृति (व्यापार) से होती है। काम की प्राप्ति रति (प्रेम) से होती है और मोक्ष की प्राप्ति भक्ति से होती है।
भर्तृहरि महाराज ने कहा है कि —
‘‘यावत्स्वस्थमिदं कलेवर गृहं यावज्जरा दूरतः
यावच्चेन्द्रिय शक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः ।
आत्म श्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान्
संदीप्ते भवने तु कूप खननं प्रत्युद्यमः कीदृशः || ७५ ||वैराग्यशतकम् (भर्तृहरिविरचितम्)’’
जब तक शरीर रूप घर स्वस्थ है और बुढ़ापा दूर है, इंद्रियों की शक्ति खत्म नहीं हुई, आयुष्य का क्षय नहीं हुआ, तब तक ही {इसी समयावधि में} बुद्धिमान् मनुष्य को आत्म कल्याण के लिए महान् प्रयत्न करना चाहिए । घर को आग लगने के बाद कुआ खोदने का क्या मतलब ? || ६५ ||
परस्परोपयोगित्वाद्बाह्याभ्यन्तरशुद्धयोः। वियोगो नैव कार्योऽत्र बुधैरादेहमोचनात् ॥२.६६॥
चूँकि बाहरी और आंतरिक जितनी भी शुद्धिकरण की क्रियाएं हैं वे सब परस्पर लाभकारी होती हैं, इसलिए, बुद्धिमान पुरुषों को जब तक वे जीवित हैं, उनमें से किसी को भी अस्वीकार नहीं करना चाहिए।
आचार्य शंकर कहते हैं कि —
‘‘आयुर्नश्यति पश्यतां प्रतिदिनं याति क्षयं यौवनं
प्रत्यायान्ति गताः पुनर्न दिवसाः कालो जगद्भक्षकः।
लक्ष्मीस्तोयतरङ्गभङ्गचपला विद्युच्चलं जीवितं
तस्मान्मां शरणागतं शरणद त्वं रक्ष रक्षाधुना।। ॥ १३॥ शिवपराधक्षमापणस्तोत्रम्’’
प्रतिदिन आयु नष्ट हो रही है, यौवन का क्षय हो रहा है। बीता हुआ दिन फिर वापस नहीं आता, काल संसार का भक्षक है। लक्ष्मी (धन-संपत्ति) जल की तरंग-भंग की भांति चपला है, जीवन विद्युत के समान क्षणभंगुर है। इसलिए हे शम्भो ! हे दयासिन्धो ! आप जो सभी को शरण देते हैं, अब इस दीन की, शरणागत की रक्षा कीजिए | || ६६ ||
यः शुद्धपक्षो हंसः स ऊर्ध्वं गच्छति चाम्बरे। अशुद्धपक्षः श्येनस्तु व्योमगोऽपि पतत्यधः ॥२.६७॥
जिस हंस के पास शुद्ध, स्वच्छ और स्वस्थ पंख होते हैं, वह आकाश में ऊपर जाता है। और एक बाज, अशुद्ध,अस्वच्छ और अस्वस्थ पंखों के साथ, भले ही वह आकाश में बहुत ऊंचे जाता हो, उसे नीचे ही गिरना पड़ता है।
बीमार घोड़ा आपको युद्ध में विजयश्री नहीं दिला सकता।
महाभारत के अनुशासन पर्व के दसवें अध्याय में भीष्म पितामह द्वारा कहे गए ये दो श्लोक भारतीय संस्कृति में कर्म की महत्ता पर प्रकाश डालते हैं।
‘‘यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो विन्दति मातरम् |
एवं पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति ||१३-१०-२३||’’
जैसे बछड़ा हज़ारों गायों में भी अपनी माँ को ढूँढ़ लेता है, वैसे ही पहले का किया हुआ कर्म भी कर्ता को पहचान कर उसका जन्म-जन्मांतर तक अनुसरण करता है।
‘‘अचोद्यमानानि यथा, पुष्पाणि च फलानि च|
स्वं कालं नातिवर्तन्ते, तथा कर्म पुरा कृतम् || १३-१०-२४||’’
जैसे फूल और फल बिना किसी की प्रेरणा से स्वतः समय पर प्रकट हो जाते हैं और समय का अतिक्रमण नहीं करते, उसी प्रकार पहले किये कर्म भी यथासमय ही अपने फल (अच्छे या बुरे) देते हैं। अर्थात् कर्मों का फल अनिवार्य रूप से प्राप्त होता है। || ६७ ||
छिन्नैकपक्षो हंसोऽपि नोर्ध्वं गन्तुमितोऽर्हति । अतः शुद्धद्वयं मुख्यं साधनं मुक्तये विदुः ॥२.६८॥
किसी भी पक्षी की यदि एक पाँख टूट गयी हो तो वह उड़ने में सक्षम नहीं हो पाता है अतः दोनों पंखों का सबल और सक्षम होना जरूरी है। कटे और फटे हुए पंखों वाला एक हंस भी ऊपर नहीं चढ़ पाता है। इसलिए, दोनों प्रकार की शुद्धता, आंतरिक और साथ ही बाहरी शुद्धि भी मुक्ति के मुख्य साधन के रूप में जाने जाते हैं।
‘‘सर्वेषामेव शौचानां अर्थशौचं परं स्मृतम् ।
योऽर्थे शुचिर्हि स शुचिर्न मृद्वारिशुचिः शुचिः|| ५.१०६|| मनुस्मृतिः’’
सभी शौचों, शुचिताओं, यानी शुद्धियों में धन से संबद्ध शुचिता ही वास्तविक शुद्धि है। मात्र मृत्तिका-जल (मिट्टी एवं पानी) के माध्यम से शुचिता प्राप्त कर लेने से कोई वास्तविक अर्थमें शुद्ध नहीं हो जाता। मनुष्य की अशुद्धि के कई पहलू होते हैं। एक तो सामान्य दैहिक स्तर की गंदगी होती है, जिसे हम मिट्टी, राख, अथवा साबुन जैसे पदार्थों एवं पानी द्वारा स्वच्छ करते हैं। उक्त मनु वचन का तात्पर्य यह है कि इस प्रकार की शुचिता केवल सतही है। ऐसी शुद्धि अवश्य वांछित है किंतु इससे अधिक महत्व की बात है धन संबंधी शुचिता । केवल वही व्यक्ति सच्ची शुचिता को प्राप्त है जिसने धनार्जन में शुचिता बरती हो । अर्थात् जिसने औरों को धोखा देकर, उन्हें लूटकर, उनसे घूस लेकर अथवा ऐसे ही उल्टे-सीधे तरीके से धन संग्रह न किया हो । || ६८ ||
यद्यप्याभ्यान्तरं शुद्धं बाह्यशुद्धनिवर्तकम्। भवत्येतेन साम्यं न तयोरिति च केचन ॥२.६९॥
भले ही कुछ लोग यह कहते हैं कि बाहरी और आंतरिक शुद्धता समतुल्य नहीं है क्योंकि आंतरिक शुद्धता बाहरी शुद्धता की आवश्यकता को दूर करती है।
मनु महाराज कहते हैं कि –
‘‘क्षान्त्या शुध्यन्ति विद्वांसो दानेनाकार्यकारिणः ।
प्रच्छन्न पापा जप्येन तपसा वेदवित्तमाः ।। ५.१०७।। मनुस्मृतिः’’
क्षमा’ से विद्वान शुद्ध होते हैं,अयोग्य (धर्म विरुद्ध) कार्य करने वाले, पाप कर्म करने वाले ‘दान’ से {सत्संग और विद्या आदि शुभ गुणों के दान से} और गुप्त-पाप करने वाले ‘जप’ से शुद्ध होते हैं, किन्तु वेदाध्ययन रूप ‘तप’ से तो सभी शुद्ध होते हैं । इस वचन के अनुसार क्रोध एवं द्वेष जैसे मनोभाव विद्वानों की शुचिता को समाप्त कर देते हैं । इन क्रोधादि से मुक्त होने पर ही विद्वान लोगों की शुद्धि कही गयी है । क्षमादान जैसे गुणों को अपनाकर वे शुद्ध बुद्धि को प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार अनुचित कार्य करने पर दान करके व्यक्ति अपने को शुद्ध करता है। धर्म की दृष्टि से पाप समझे जाने वाले कर्म करनेवाले के लिए शास्त्रों में वर्णित मंत्रों का जप शुद्धि का साधन होता है और शास्त्र विहित तप, वेदपाठ आदि कार्यों के करनेसे सभी की शुद्धि होती है तथा मुक्तिका मार्ग खुल जाता है इन सब बातों में प्रायश्चित्तकी भावनाका होना आवश्यक है । ऐसे कार्यों का संपादन मात्र सतही तौर पर किया जाना शुद्धि नहीं दे सकता है। मन में स्वयं को दोषमुक्त करनेका संकल्प ही शुद्ध बुद्धि प्राप्त करनेका प्रधान कारण है।
मृत्तोयैः शुद्ध्यते शोध्यं नदी वेगेन शुद्ध्यति ।
रजसा स्त्री मनो दुष्टा संन्यासेन द्विजोत्तमः ॥५. १०८॥ मनुस्मृतिः
पदार्थों में रही हुई भौतिक गंदगी स्वच्छ मिट्टी एवं जल के प्रयोगसे दूर होती है और नदी अपने अविरल प्रवाह से ही शुद्ध हो जाती है। मन में कुत्सित विचार रखने वाली स्त्री की शुद्धि रजस्राव में निहित रहती है और ब्राह्मणकी शुद्धि संन्यास में निहित रहती है। संन्यास का अर्थ केवल भगवा वस्त्र धारण करना नहीं है, बल्कि लोभ-लालच एवं संग्रह की भावनाके त्याग में तात्पर्य है।
अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति ।
विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति ।। ५.१०९ ।। मनुस्मृतिः
शरीर की शुद्धि जलसे होती है । मनकी शुद्धि सत्य भाषण से होती है । जीवात्मा की शुचिता के मार्ग विद्या और तप हैं । और बुद्धि की स्वच्छता ज्ञानार्जन से होती है । || ६९ ||
तथापि बाह्यविलयसमकाललयात्परम्। आभ्यान्तरं समं तेन बाह्येन स्यात्स्वकर्मणा ॥२.७०॥
फिर भी, क्योंकि मनका विघटन शरीरके विघटन के साथ ही एक ही समय में होता है, अतः बाह्य क्रियाओं के माध्यम से प्राप्त की गई बाहरकी शुद्धता, आंतरिक शुद्धताके बराबर ही होती है।
‘‘यस्तु विज्ञानवान् भवति युक्तेन मनसा सदा।
तस्येन्द्रियाणि वश्यानि सदश्वा इव सारथेः ॥’’ कठोपनिषद ||१.३.६||
जो विवेक बुद्धि युक्त पुरुष मन को वश में करके रहता है उसकी इंद्रियां सदा वश रहती हैं जैसे सावधान सारथी के वश में उसके घोड़े रहते हैं |
‘‘यस्तु विज्ञानवान्भवति समनस्कः सदा शुचिः।
स तु तत्पदमाप्नोति यस्माद् भूयो न जायते ॥’’ कठोपनिषद् १.३.८”
परन्तु जो ज्ञानवान् होता है, सचेतनमना {सदा सावधान} तथा सदा शुचिता से युक्त होता है, वह उस (परम) पद को प्राप्त करता है जहां से वह पुनः जन्म नहीं लेता। || ७० ||
आभ्यान्तरं च तच्छुद्धं कर्म द्विविधमुच्यते। सम्प्रज्ञातसमाध्याख्यमसम्प्रज्ञातनाम च ॥२.७१॥
आंतरिक शुद्ध कर्म दो प्रकारके कहे जाते हैं, एक को संप्रज्ञात-समाधि कहा जाता है और दूसरे का नाम है असम्प्रज्ञात-समाधि।
‘‘वितर्कविचारानन्दास्मितारूपानुगमात् संप्रज्ञातः ॥ १.१७॥’’ पातञ्जलयोगसूत्र
वितर्क, विचार, आनंद और अस्मिता – इन चारों के सम्बन्धसे युक्त चित्तवृत्ति का समाधान- सम्प्रज्ञात-समाधि है।
‘‘विरामप्रत्ययाभ्यास पूर्व: संस्कार शेषोSन्यः ॥ १.१८॥’’ पातञ्जलयोगसूत्र
विराम-प्रत्यय का अभ्यास जिसकी पूर्व-अवस्था है और जिसमें चित्त का स्वरूप ‘संस्कार’ मात्र ही शेष रह जाता है, वह समाधि योग का प्रकार अन्य है अर्थात् असम्प्रज्ञात-समाधि है । जिस समाधि की अवस्था में ध्येय वस्तु का ठीक-ठीक ज्ञान होता है उस समाधि को सम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं। सवितर्क समाधि, विचार सहित समाधि, आनन्द सहित समाधि और अस्मिता सहित समाधि इस प्रकार इस सम्प्रज्ञात समाधि के चार भेद होते हैं। जब चित्त में पाञ्चभौतिक स्थूल विषयों का आलम्बन करके जो समाधि होती है उस समाधिका नाम {सवितर्क सम्प्रग्यात} समाधि है। जब चित्त सूक्ष्म तन्मात्रा आदि का आलम्बन करता है तब उसका नाम {सविचार सम्प्रज्ञात} समाधि होता है। जब बुद्धि ग्रहीता पुरुष के साथ एकीभाव को प्राप्त होती है तब उसे {सास्मितासंप्रज्ञात} समाधि कहते हैं। एकात्मिका संविद को ही अस्मिता कहा गया है। मैं हूँ केवल इतना ही भाव अस्मिता है। सत्त्वगुण का प्रकर्ष होनेसे जो आल्हाद उत्पन्न होता है उस आनन्द के साक्षात्कार को ही {सानन्द सम्प्रज्ञात} समाधि कहते हैं। सम्प्रज्ञात को ही लययोग भी कहते हैं। तथा सर्ववृत्तिनिरोध होने पर जब चित्तमें केवल संस्कार शेष रह जाए तब उसे ‘असम्प्रज्ञात’ समाधि कहते हैं। सवितर्कादिभेद वाली सम्प्रज्ञात समाधि अविद्या रूप बीज के होने से उसे ‘सबीज समाधि’ भी कहते हैं। और उस बीज का भी नाश हो जाने पर असम्प्रज्ञात-समाधि को ही निर्बोज समाधि कहते हैं। सबीज समाधि में जब निर्विकारता और निर्विचारता की अधिकता होती है और सत्वोद्रेक होता है तब उसमें ऋतम्भरा प्रज्ञा प्रकट होती है। समाधिकी प्रज्ञासे जन्य संस्कारों द्वारा व्युत्थान संस्कारोंका बाध (निराकरण, मिथ्यात्व) हो जाता है | और फिर उस संस्कार का भी निरोध हो जाने पर निर्बीज समाधि की सिद्धि होती है। इसके बाद मोक्ष होता है यह क्रम है। इस प्रकार जानना चाहिए। || ७१ ||
जीवन्मुक्तेः पुरावृत्तमाद्यं कर्म स्वमानसम्। पुरा विदेहमुक्तेस्तु वृत्तमन्यत्स्वमानसम् ॥२.७२॥
एक जीवन्मुक्त पुरुष जिसने पहले अपने अपने पूर्वजन्म में जो मानसिक कार्यों का {आध्यात्मिक साधनाओं का} अनुष्ठान किया है, उसके अनुसार वह इस जीवन में भी समाधि के साधनों का अनुष्ठान करने के कारण जीवन्मुक्त हो सकता है। लेकिन एक विदेहमुक्त पुरुष को मानसिक क्रियाओं की आवश्यकता नहीं होती वह तो केवल शारीरिक व्यवहार अहं कर्तृत्व भावना के बिना ही करता है।
(जैसे कि जड़भरत मुनि) जिनकी कथा श्रीमद्भागवत में प्रसिद्ध है। शुकदेव, सनकादि तथा महाराज जनक विदेहमुक्त रूपसे प्रसिद्ध हैं। इसलिए यदि सर्वकर्मसंन्यास शास्त्रविहित ढंगसे किया जाए तो विदेहमुक्ति तो हो सकती है परन्तु जीवन्मुक्ति प्राप्त करनेके लिए, व्यक्ति को धारणा, ध्यान और समाधि आदि मानसिक-क्रियाएं ही जीवन्मुक्ति दे सकतीं हैं। शारीरिक क्रियाएँ (त्याग,संन्यास आदि) जीवन्मुक्ति का विलक्षण अनुभव नहीं देतीं हैं। || ७२ ||
मानसत्वात्समाधेश्च कर्मत्वोक्तिर्न दूष्यते। अनन्यविषयत्वाच्च तत्फलं नैव नश्वरम् ॥२.७३॥
क्योंकि समाधि का अभ्यास एक मानसिक गतिविधि है, लेकिन इसे ‘कर्म’ कहना अनुचित नहीं है। चूंकि यह चित्त की एकाग्रता का उद्देश्य भौतिक क्रियाओं के समान ही है, इसलिए मानसिक कार्यों के फल नष्ट नहीं होते हैं (बल्कि शारीरिक क्रियाओं के फल को और भी सुदृढ़ करते हैं)।
मनु जी कहते हैं —
‘‘उच्चावचेषु भूतेषु दुर्ज्ञेयामकृतात्मभिः ।
ध्यान योगेन संपश्येद्गतिं अस्यान्तरात्मनः||’’ ६.७३|| (मनुस्मृतिः)
बड़े छोटे प्राणी (देवयोनि और पशुयोनि) और स्थावर आदि प्राणियों में जो जन्म प्राप्ति होती है वह अशुद्ध अंतःकरण से देखने के योग्य नहीं है। ध्यानाभ्यास से अच्छी तरह और कारण सहित जानी जा सकती है। तभी उस समाधि में निष्ठा वाले योगी को पता लगता है कि किस हेतु से उसकी क्या गति हुई है। अविद्या, काम्य तथा निषिद्ध कर्मों में से किस कर्म से इसकी गति निर्मित हुई है यह जानकर ब्रह्मज्ञान में निष्ठा वाला बने यह तात्पर्य है। उस अन्तर्यामी परमात्माकी गति अर्थात् प्राप्ति को ध्यान योग से ही देखा जा सकता है।
सम्यग्दर्शन संपन्नः कर्मभिर्न निबध्यते ।
दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपद्यते ||६.७४||मनुस्मृतिः
उसके बाद जिसको यथार्थ ज्ञान हो गया है वह कर्म बंधन में नहीं पड़ता अर्थात् कर्म उसका पुनर्जन्म नहीं करा सकते क्योंकि पूर्वार्जित पापपुण्यों का ब्रह्मज्ञान से नाश हो जाता है। अथवा जो षड्दर्शनों से युक्त हैं वह दुष्टकर्मों से बद्ध नहीं होता और जो ज्ञान, विद्या, योगाभ्यास सत्संग, धर्मानुष्ठान वा षड्दर्शनों से रहित विज्ञान हीन है वह मोक्ष को प्राप्त न हो कर जन्म–मरण रूप संसार को प्राप्त होता है।
‘‘तद्यथेषीकातूलमग्नौ प्रोतं प्रदूयेतैवं हास्य सर्व्वेपाप्मानः प्रदूयन्ते उभौ ब्रह्मैवैष भवति | छान्दोग्योपनिषद्/अध्यायः ५’’ इति श्रुत्या ।
जैसे अग्नि में घास जल जाती है वैसे ही ज्ञानी के सारे पाप जल जाते हैं। यहां पाप से पुण्य को भी समझ लेना चाहिए अर्थात् कर्म मात्र का क्षय हो जाता है।
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे||मुण्डकोपनिषद् २.९||
हृदय की सारी ग्रंथियां खुल जाती हैं, समस्त संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, तथा मनुष्य के समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है, जब उस ‘परतत्त्व’ का दर्शन हो जाता है, जो एक साथ ही अपरा सत्ता एवं ‘परम सत्ता’ है। इसी सम्बन्ध में यह ब्रह्मसूत्र भी है —
‘‘तदधिगम उत्तरपूर्वाघयोरश्लेषविनाशौ तद्व्यपदेशात्।। ४.१.१३।।’’
तदधिगमे ब्रह्माधिगमे सति उत्तरपूर्वयोरघयो रश्लेषविनाशौ भवतः उत्तरस्य अश्लेषः पूर्वस्य विनाशः। कस्मात् तद्व्यपदेशात् तथा हि ब्रह्मविद्याप्रक्रियायां संभाव्यमानसंबन्धस्य आगामिनो दुरितस्यानभिसंबन्धं विदुषो व्यपदिशति यथा पुष्करपलाश आपो न श्लिष्यन्त एवमेवंविदि पापं कर्म न श्लिष्यते इति। तस्मात् ब्रह्माधिगमे दुरितक्षय इति स्थितम्।
(इस सूत्र का अर्थ यह है कि शास्त्र घोषित करता है कि किसी व्यक्ति द्वारा किए गए सभी बाद के और पिछले कार्यों के प्रभाव, जब वह अभी भी अज्ञानता में था, सत्य की प्राप्ति पर नष्ट हो जाएगा)।
‘‘यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।४.१९।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
जिसके सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भ संकल्प और कामनासे रहित हैं तथा जिसके सम्पूर्ण कर्म ज्ञानरूपी अग्निसे जल गये हैं, उसको ज्ञानिजन भी पण्डित (बुद्धिमान्) कहते हैं। ।।७३||
अन्तःशुद्धिर्बहिःशुद्धिं यथा नॄणामपेक्षते । बहिःशुद्धिस्तथैवान्तःशुद्धिं च नियमेन हि ॥२.७४॥
जैसे पुरुषों की आंतरिक शुद्धता बाहरी शुद्धता की अपेक्षा रखती है, वैसे ही, नियम के अनुसार, बाहरी शुद्धता आंतरिक शुद्धता की अपेक्षा रखती है।
मनु जी का कथन है कि —
अहिंसयेन्द्रियासङ्गैर्वैदिकैश्चैव कर्मभिः ।
तपसश्चरणैश्चोग्रैः साधयन्तीह तत्पदम् ||६.७५||
जो निर्वैर हैं, इन्द्रियों के विषयों के बंधन से पृथक्, वैदिक कर्माचरणों और प्राणायाम आदि उग्र तप करते हैं तथा सत्यभाषण आदि उत्तम कर्मों से युक्त लोग होते हैं, वे इसी जन्म में, इसी वर्तमान समय में परमेश्वर की प्राप्ति रूप परम पद को प्राप्त होते हैं।
विष्णुधर्मोत्तर पुराण के द्वितीय खण्ड में कहा है कि —
अस्थिस्थूणं स्नायुयुतं मांसशोणितलेपितम् ।
चर्मावनद्धं दुर्गन्धि पात्रं मूत्रपुरीषयोः ।। ४३ ।।
जरा शोक समाविष्टं रोगायतनमातुरम् ।
रजस्वलमनित्यञ्च भूतावासमिदं त्यजेत् ।। २.१३१.४४ ।।
जिस शरीर में हड्डियों के खंभे हैं और जो नाड़ियों की रस्सियों बाँधे गए हैं तथा मांस और रुधिर से उपलिप्त हैं और चमड़ी से ढ़के हुए हैं तथा जो मूत्र और पुरीष का पात्र होने से दुर्गन्ध पूर्ण है, इसके अलावा बुढ़ापा, रोग और शोक जिसमें हमेशा परेशान करते रहते हैं। भूँख, प्यास, सर्दी, गर्मी जिसमें सदा ही सतातीं रहतीं हैं और जो निरंतर रजोगुण से युक्त है तथा नश्वरता ही जिसका स्वभाव है और वास्तव में तो यह पृथ्वी आदि का घर है पर अज्ञान से जीव इसे अपना घर मान लेता है। इसलिए भलाई इसीमें है कि इसे अपना घर मानना छोड़ दे।
नदीकूले यथा वृक्षो वृक्षे वा शकुनिर्यथा ।
तथा त्यजन् इमं देहं कृच्छ्रग्राहाद्विमुच्यते ।।२.१३१.४५।।
जैसे वृक्ष नदी के किनारे को छोड़ देता है, वैसे ही अज्ञानियों को यह देह छोड़ना पड़ता है। जो लोग यह मानते हैं कि देहपात तो कर्माधीन है वे अपने पतन को न जानते हुए नदी के वेगपूर्ण प्रवाह में गिर जाते हैं। और जिनमें ज्ञान और कर्म का प्रकर्ष होता है वे भीष्माचार्य, पंडित दशरथजी शास्त्री आदि की तरह स्वाधीन मृत्यु होने से जैसे पक्षी वृक्ष को त्याग देता है वैसे शरीर को त्यागकर सांसारिक दुःखरूप ग्राह से मुक्त हो जाते हैं ।||७४||
यस्य कर्मसु शुद्धेष्वप्यौदासीन्यं विजायते। तस्यैव जन्मसांकर्यमनुमेयं विपश्चिता ॥२.७५॥
जिसने शुद्ध कर्मों के प्रति उदासीनता का एक विकसित दृष्टिकोण बनाया है, उसने जीवन को गलत तरीके से समझा है ऐसा जानना चाहिए, बुद्धिमान व्यक्तियों द्वारा यह निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए कि उसके जन्म में संकरता है अर्थात् मिलावट है। इसी को वर्णसंकर कहते हैं। महाभारत में धृतराष्ट्र के प्रति भगवान् सनत्कुमार का वचन है —
‘‘प्रमादं वै मृत्युमहं ब्रवीमि’’ अर्थात् प्रमाद ही मृत्यु है। आध्यात्मिक मार्ग पर प्रमाद ही हमारा सब से बड़ा शत्रु है। उसी के कारण हम काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर्य नामक नर्कके छः द्वारों में से किसी एक में अनायास ही प्रवेश कर जाते हैं। आत्मज्ञान ही ब्रह्मज्ञान है, यही भूमा-विद्या है। जो इस दिशा में जो अविचल निरंतर अग्रसर है, वही महावीर है अर्थात् सभी वीरों में श्रेष्ठ है। || ७५ ||
विरोधो जायते यस्य ज्ञानकर्मसमुच्चये। तस्यैव जन्मसांकर्यमनुमेयं विपश्चिता ॥२.७६॥
जिन्हें ज्ञान और कर्म के समुच्चय में विरोध की प्रतीति होती है। विद्वानों के द्वारा उनके जन्म में सांकर्य का अनुमान किया जाना चाहिए। भगवान् श्रीकृष्णने गीताजी में कहा कि —
‘‘उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः।।३.२४।।’’
यदि मैं कर्म न करूँ, तो ये समस्त लोक नष्ट हो जायेंगे; और मैं वर्णसंकर का कर्ता तथा इस प्रजा का हनन करने वाला होऊंगा। साथ ही यह भी कहा कि —
सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।५.४।।
बालक अर्थात् बाल बुद्धि के लोग सांख्य (ज्ञान या संन्यास) और योग अर्थात् कर्मयोग को परस्पर भिन्न समझते हैं; किसी एक में भी सम्यक् प्रकार से स्थित हुआ पुरुष दोनों के फल को प्राप्त कर लेता है। अर्थात् ज्ञान के बिना कर्म हो नहीं सकता और कर्म के बिना ज्ञान यानी अनुभव भी नहीं हो सकता। || ७६ ||
यः श्रौतं कर्म हित्वान्यत्तान्त्रिकं समुपाश्रयेत्। तस्यैव जन्मसांकर्यमनुमेयं विपश्चिता ॥२.७७॥
जो वैदिक कर्तव्यों को अस्वीकार कर रहा है, और जो तांत्रिक कर्तव्यों पर निर्भर करता है, उसके व्यक्तित्व में जन्मसंकरता है अर्थात् उसने जीवन को गलत तरीके से ही समझा है। ऐसा एक बुद्धिमान व्यक्ति के द्वारा निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए। क्योंकि सभी धर्म कर्मों का मूल वेद ही है। जो लोग मूल की रक्षा नहीं कर सकते उनके शाखा और पत्ते भी सुरक्षित नहीं रह सकते।
मनुजी ने कहा भी है-
‘‘वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम् ।
आचारश्चैव साधूनां आत्मनस्तुष्टिरेव च ।। २.६ ।। मनुस्मृतिः’’
अर्थात् अखिल वेद माने सम्पूर्ण वेद और उन वेद वेत्ताओं द्वारा प्रणीत स्मृतियां तथा उन श्रेष्ठपुरुषों का स्वभाव और सत्पुरुषों का आचरण तथा अपनी आत्मा की प्रसन्नता का होना अर्थात् जिस कर्म के करने में भय, शंका, लज्जा न होकर आत्मा को प्रसन्नता का अनुभव हो, ये सब ही धर्म के मूल हैं ।
‘‘आचारः परमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च ।
तस्मादस्मिन्सदा युक्तो नित्यं स्यादात्मवान्द्विजः ।। १.१०८।। मनुस्मृतिः’’
वेदों में कहा हुआ और वेदानुकूल स्मृतियों में भी कहा हुआ जो आचरण का संविधान है वह सर्वश्रेष्ठ धर्म है। इसलिए आत्मवान् को आत्मोन्नति चाहने वाले मनुष्य को चाहिए कि वह इस श्रेष्ठ आचरण में निरंतर प्रयत्नशील रहे ।
“यं पृथग्धर्मचरणाः पृथग्धर्मफलैषिणः।
पृथग्धर्मैः समर्चन्ति तस्मै धर्मात्मने नमः।। महाभारत-शान्तिपर्व ४६-५१॥”
जो भिन्न-भिन्न धर्मोंका आचरण करके अलग-अलग उनके फलोंकी इच्छा रखते हैं, ऐसे पुरुष पृथक् धर्मोंके द्वारा जिनकी पूजा करते हैं, उन धर्मस्वरूप भगवान् को प्रणाम है।
‘‘धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ॥८.१५॥ मनुस्मृतिः’’
जो पुरुष धर्म का नाश करता है, धर्म उसीका नाश कर देता है, और जो धर्मकी रक्षा करता है, उसकी धर्म भी रक्षा करता है। इसलिए मारा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले, इस भय से धर्म का हनन अर्थात् त्याग कभी न करना चाहिए। जो पुरुष धर्म का नाश करता है, उसी का नाश धर्म कर देता है, और जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी धर्म भी रक्षा करता है। इसलिए मारा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले, इस भय से धर्म का हनन अर्थात् त्याग कभी नहीं करना चाहिए।
“श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैतत्प्रधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।।३३५।। पद्मपुराणम् (सृष्टिखण्डम्) अध्यायः १९”
“धर्मसर्वस्वम्” धर्म के तत्व को, सार को सुनो। जीवनके धर्मको सुनो और सुननेके पश्चात् उसे ग्रहण (धारण) करो, और सदैव इसका पालन करो। अपने लिये प्रतिकूल व्यवहारका आचरण कभी भी किसी अन्य के साथ ऐसा व्यवहार न करो जो तुम स्वयं के साथ नहीं चाहोगे। अर्थात् जो व्यवहार आपको अपने लिये पसन्द नहीं है वैसा आचरण दूसरों के साथ नहीं करना चाहिये।
“आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥२५॥ हितोपदेशः”
आहार, निद्रा, भय और मैथुन – ये मनुष्य और पशु में समान हैं। इन्सान में विशेष केवल धर्म है,
अर्थात् बिना धर्म के व्यक्ति पशुतुल्य है। || ७७ ||
यश्चान्तरं च तत्कर्म मन्यते मन्दगोचरम्। तस्यैव जन्मसांकर्यमनुमेयं विपश्चिता ॥२.७८॥
जो आंतरिक कार्यों अर्थात् आध्यात्मिक साधनाओं को (ध्यान,धारणा और समाधि आदि को) सुस्त आलसियों का धंधा समझता है, उसने जीवन में इसका गलत तरीके से निस्तारण किया है, ऐसा एक बुद्धिमान व्यक्ति द्वारा निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए।
‘‘संकल्पमूलः कामो वै यज्ञाः संकल्पसंभवाः ।
व्रतानि यम धर्माश्च सर्वे संकल्पजाः स्मृताः ।।( मनुस्मृतिः–२/३)’’
(सभी काम,यज्ञ, सत्य भाषण आदि व्रत, यम-नियम रूपी धर्म आदि संकल्प ही से बनते हैं, किसी भी कार्य का निश्चय करने से ही उसमें सफलता मिलती है। संकल्प माने सम्यक् कल्पना, अर्थात् एक अच्छे प्रकार से बनाई गयी योजना। प्रत्येक कामना संकल्प मूलक ही होती है अर्थात् संकल्प से ही प्रत्येक इच्छा उत्पन्न होती है।)
‘कामः संकल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धाधृतिरधृतिर्ह्रीर्धीर्भीरित्येतत्सर्वं मन एव’
इस श्रुति के अनुसार काम, संकल्प, संशय, श्रद्धा, अश्रद्धा, ह्री,माने लज्जा धी, माने बुद्धि भीः, माने भय ये सब मन ही के विकार हैं।
अकामस्य क्रिया काचिद्दृश्यते नेह कर्हिचित् ।
यद्यद्धि कुरुते किंचित्तत्तत्कामस्य चेष्टितम् ।। २.४ ।।
इच्छा के बिना कोई कार्य नहीं होता। जो कुछ होता है, सब इच्छा ही से होता है। इसलिए किसी कार्य या लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इच्छाशक्ति की बहुत आवश्यकता पड़ती है | || ७८ ||
अशुद्धकर्मनिष्ठः सन्शुद्धं निन्दति यः सदा। तस्यैव जन्मसांकर्यमनुमेयं विपश्चिता ॥२.७९॥
जो अशुद्ध कर्मों के लिए समर्पित है और हमेशा शुद्ध कर्मों की निंदा करता है, जीवन में उसने गलत तरीके से निर्णय लिया है ऐसा एक बुद्धिमान व्यक्ति द्वारा निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए।
“आचाराद्विच्युतो विप्रो न वेदफलमश्नुते ।
आचारेण तु संयुक्तः सम्पूर्णफलभाग्भवेत्।।” १.१०९ (मनुस्मृति)
वास्तव में आचारहीन व्यक्ति को वैदिक कर्मों का फल नहीं मिलता उसे वेद प्रतिपादित धर्मजन्य सुखरूप फल प्राप्त नहीं हो सकता आचारवान व्यक्ति ही अपने और दूसरे के जीवन का कल्याण कर सकते हैं। वेद और स्मृति दोनों में कहा गया कि आचार ही परम धर्म है, इस कारण आत्मवान् द्विज को सदाचार में सदा यत्नवान् रहना चाहिए। जो स्वयं शुद्ध,पवित्र, सदाचारी नहीं है, वह तो अपना भी कल्याण नहीं कर सकता, दूसरों की तो बात ही क्या। इसलिए जीवन में आचार का बडा ही महत्व है।
आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः यदप्यधीताः सह षड्भिरङ्गैः ।
छन्दांस्येनं मृत्युकाले त्यजन्ति नीडं शकुन्ता इव जातपक्षाः ॥ १ ॥
देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः ११/अध्यायः २||
वेद भी आचारहीन मनुष्य को पवित्र नहीं करते। यद्यपि उसने भलेही शिक्षा,कल्प, निरुक्त, छन्द, व्याकरण और ज्योतिष-इन छः अंगों सहित वेदों का अध्ययन किया हो, फिर भी मृत्युकाल में आचारहीन मनुष्य को वेद वैसे ही छोड़ देते हैं, जैसे पंख उगने पर पक्षी अपने घोंसले को। आचारहीनेन तु धर्मकार्यं कृतं हि सर्वं भवतीह मिथ्या ।।
आचारहीन पुरुष के सभी धर्मकार्य मिथ्या ही सिद्ध होते हैं | || ७९ ||
शुद्धं पश्यति यः शान्तमक्षिरोगीव भास्करम्। तस्यैव जन्मसांकर्यमनुमेयं विपश्चिता ॥२.८०॥
जो शुद्ध कर्मों को नीरस, निस्तेज, निर्वीर्य या शांत देखता है जैसे रोगग्रस्त आंखों वाला व्यक्ति सूर्य को निस्तेज देखता है, उसे निश्चय ही वर्णसंकर जानना चाहिए अर्थात् जीवन में उसने गलत तरीके से निर्णय लिया है ऐसा एक बुद्धिमान व्यक्ति द्वारा निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए।
सर्वलक्षणयुक्तोऽपि नरस्त्वाचार वर्जितः ।
न प्राप्नोति तथा विद्यां न च किञ्चिदभीप्सितम् ।।३.२५०.४।। विष्णुधर्मोत्तरपुराणम्
सभी प्रकार के शुभ लक्षणों से सम्पन्न पुरुष भी यदि सदाचार से रहित है तो न तो उसे विद्या की प्राप्ति होती है और ना ही उसके मनोरथ सफल होते हैं | || ८० ||
विशुद्धवंशप्रभवं महामतिं विशुद्धबाह्यान्तरकर्मभास्वरम्।
विशुद्धवेदान्तरहस्यवेदिनं विद्वेष्टि यः संकर एव नेतरः ॥२.८१॥
जो शुद्ध जाति में जन्म लेता है, जो अत्यधिक बुद्धिमान होता है, जो अपने आंतरिक और बाह्य पवित्रता के गुण से चमकता है, जो उपनिषदों के रहस्यों को जानता है, ऐसे पुरुष से यदि कोई द्वेष करता है तो वह वर्णसंकर के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। वह केवल भ्रमित होता है और कुछ नहीं।
अपूज्या यत्र पूज्यंते पूज्यानां तु विमानना।
त्रीणि तत्र प्रवर्तन्ते, दुर्भिक्षं मरणं भयम्॥ ३.१९२॥ पञ्चतन्त्र
जहाँ अपूज्य व्यक्तियों का सम्मान और पूजा होती है और पूजनीय व्यक्तियों की अवमानना होती है, वहां दुर्भिक्ष,अकाल मृत्यु तथा भय युक्त वातावरण , ये तीनों परिस्थितियां सदैव विद्यमान होती हैं | ||८१||
अशुद्ध वंश प्रभवं सुदुर्मतिं स्वशुद्धकर्मद्वयनष्ट तेजसं।
अशुद्धतन्त्रार्थविदं नराधमं यः श्लाधते संकर एव नेतरः ॥२.८२॥
जिन्होंने अशुद्ध जाति में जन्म लिया है, जो अत्यधिक दुर्बुद्धि वाले होते हैं, और जिन्होंने आंतरिक तथा बाह्य शुद्धि की प्रक्रिया न करके अपना तेज नष्ट कर लिया है, जो केवल अशुद्ध तंत्र का अर्थ जानते हैं इस तरहके जो निम्न श्रेणी का मनुष्य हैं, उनकी जो प्रशंसा करता है वह केवल भ्रमित है और कुछ नहीं।
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोष लगाइ।।४३।।
भावार्थ:-वह परलोक में दुःख पाता है, सिर पीट-पीटकर पछताता है तथा (अपना दोष न समझकर) काल पर, कर्म पर और ईश्वर पर मिथ्या दोष लगाता है॥४३॥ रामचरितमानस उत्तरकाण्ड || ८२ ||
॥इति सूर्यगीतायां द्वितीयोऽध्यायः॥
|| अथ तृतीयोऽध्यायः ||
अथातः संप्रवक्ष्यामि ममान्तर्यामिणं शिवम्। यः सर्वकर्मणां साक्षी निर्लेपः प्रभुरीश्वरः ॥३.१॥
अब मैं शिव के बारे में बताऊंगा, जो मेरा आंतरिक नियंत्रण करने वाले हैं और जो सभी कर्मोंके, कार्यों के साक्षी हैं, जो निर्लेप हैं, और सभी का शासन करने वाले स्वामी हैं।
प्रभुं प्राणनाथं विभुं विश्वनाथं जगन्नाथ नाथं सदानंद भाजाम्।
भवद्भव्य भूतेश्वरं भूतनाथं शिवं शंकरं शंभु मीशानमीडे || १ || श्रीशिवाष्टकं
मैं शिव, शंकर, शंभु, जो भगवान हैं, (मालिक हैं) उनकी स्तुति करता हूँ तथा प्रार्थना करता हूँ, जो हमारे जीवन के भगवान (शाशक) हैं, जो विभु हैं (सर्वत्र व्याप्त हैं), जो दुनिया के भगवान हैं, जो विष्णु (जगन्नाथ) के भगवान हैं, जो हमेशा आनन्द में निवास करते हैं, सदा खुशी में रहते हैं, जो भूत, भविष्य और वर्तमानके मालिक हैं। जो सभी जीवित प्राणियों का भगवान है, जो भूतों का भगवान है, और जो सभी का भगवान है। उस मालिक को मैं प्रणाम करता हूँ। ||१ ||
त्रिनेत्रं नीलकण्ठं यं सांबं मृत्यंजयं हरम्। ध्यात्वा संसृतिमोक्षः स्यात्तं नमामि महेश्वरम् ॥३.२॥
तीन आंखों वाले , नीलेरंग के गले वाले , अम्बा के साथ रहने वाले , मृत्यु के विजेता, हर, (पाप ,ताप को हरने वाले) जिनका ध्यान करने से व्यक्ति दुनियाँ से मुक्ति प्राप्त करता है, मैं उस महान स्वामी (सर्वेश्वर, परमेश्वर, महेश्वर) को नमन करता हूँ।
चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालुम् ।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥ ४॥ श्री रुद्राष्टकम्
जिनके कानों में कुण्डल हिल रहे हैं, सुंदर भृकुटि व विशाल नेत्र हैं, जो प्रसन्न मुख, नीलकंठ व दयालु हैं, सिंहचर्म धारण किये व मुंडमाल पहने हैं, सबके प्यारे, और सब के नाथ श्री शंकर को मैं भजता हूँ।॥४॥
शान्ताकारं शिखरशयनं नीलकण्ठं सुरेशं।
विश्वाधारं स्फटिकसदृशं शुभ्रवर्णं शुभाङ्गम्।।
गौरी कान्तम् त्रितय नयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्।
वन्दे शम्भुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।
अर्थात् – जिनका विग्रह सौम्य (शान्त) है, जो कैलाश के शिखर पर निवास करते है, जिनके गले में नीलेरंग का चिन्ह है, जो सभी देवताओं के ईश्वर हैं, जो सारे संसार के आधार है, स्फटिक के समान जिनकी शुभ्र कान्ति है, और सुन्दर अंग हैं, वे गौरी के पति हैं, तीन नेत्र धारण करने वाले हैं और योगी जनों को ध्यान के द्वारा दर्शन देते हैं, ऐसे संसार के भय को दूर करने वाले और त्रिभुवन के नाथ भगवान शंभु को मैं नमस्कार करता हूँ । || २ ||
सर्वेषां कर्मणामेकः फलदाता य उच्यते। स एव मृड ईशानः सर्वज्ञः सर्वशक्तिमान् ॥३.३॥
जिसे सभी कर्मों के फलों का एकमात्र दाता कहा जाता है, वह है वास्तव में मृड़ (दयालु), {मृडः = सुखी । मृडनम् = सुखम् ।
भवतीति भवो ज्ञेयो मृडतीति स वै मृडः}
भूतेशः खण्डपरशुर्गिरीशो गिरिशो मृडः ।। १.१.७४ ।।अमरकोष।
ईशानः (शासक), सर्वज्ञ और सबसे अधिक शक्तिशाली।
भगवान व्यास ब्रह्मसूत्र में कहते हैं कि —
“वैषम्यनैर्घृण्ये न सापेक्षत्वात्तथाहि दर्शयति।।२.१.३४।।”
ईश्वर में विषमता और निर्दयता का दोष नहीं है; क्योंकि सृष्टि-रचना कर्म-सापेक्ष है। क्योंकि वे सारी रचना पूर्वार्जित कर्मों के अनुसार करते हैं’ प्राणियों के धर्म और अधर्म के कारण ही सृष्टि में विषमता दिखती है। ईश्वर तो बादल जैसा है गेहूँ, जौ, चना, केला, अंगूर और करेला सबको समान रूप से पानी देता है। उन उन बीजों के सामर्थ्य से ही विषमता दिखती है। वैसे ही देव, मनुष्य और पशु आदि योनियों में ईश्वर तो केवल चेतना का संचार करता है उन उन जीवों के कर्मों के कारण सुख-दुःख का दर्शन होता है। यदि कहो कि ‘यह बात सिद्ध नहीं होती, क्योंकि (महाप्रलय में) कर्मों का विभाग नहीं है तो ऐसा भी नहीं है; क्योंकि कर्म अनादि हैं’।
“एष ह्येव साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषत एष उ एवासाधु कर्म कारयति तं यमधो निनीषते इति || ३. ९ || कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद्”
यह प्राण एवं प्रज्ञा रूप चैतन्य युक्त परब्रह्म ही इस देहाभिमानी पुरुष से श्रेष्ठ कार्य करवाता है। वह ऐसे श्रेष्ठ कृत्य उसी से करवाता है, जिसे वह इन प्रत्यक्ष लोकों से ऊर्ध्व की तरफ ले जाना चाहता है और जिसे वह इन श्रेष्ठ लोकों की अपेक्षा नीचे ले जाना चाहता है, उससे अशुभ कार्य करवाता है। यह आत्मा समस्त लोकों का अधिपति है एवं यही सभी का स्वामी है। इन सभी श्रेष्ठ गुणों से युक्त वह प्राण ही आत्मा है, ऐसा जानना चाहिए। वह प्राण ही हमारा आत्मा है, ऐसा जानना चाहिए।
पुण्यो वै पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेन। ( बृहदारण्यकोपनिषद् , ३।२।१३ )
यदि पाप करोगे तो पाप-प्रारब्ध जागकर तुम्हें दुखी कर देगा और पुण्य करोगे तो पुण्य-प्रारब्ध जागकर तुम्हें सुखी कर देगा।
और स्मृति में भी ‘‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।४.११।।’’ श्रीमद् भगवद्गीता
जो मुझे जैसे भजते हैं, मैं उन पर वैसे ही अनुग्रह करता हूँ; हे पार्थ सभी मनुष्य सब प्रकार से, मेरे ही मार्ग का अनुवर्तन करते हैं। || ३ ||
यस्य स्मरणमात्रेण निवर्तन्तेऽखिलापदः। संपदश्चेह लभ्यन्ते सोऽन्तर्यामी शिवो हरः ॥३.४॥
जिनके स्मरण मात्र से सभी विपदाएँ दूर हो जाती हैं और इस संसार में संपत्ति और समृद्धि प्राप्त होती है, वे आंतरिक-नियंत्रण करने वाले हैं, शिव हैं, (वे ही कल्याणस्वरूप हैं) वे ही सहारा देते हैं। तथा वे ही हर हैं । वे मनोहर भी हैं। हरति इति हरः। हरति पापं भक्तानामिति हरः। जो भक्तों के पाप और तापों हरण कर लेते हैं इसलिए वे हर हैं। हरति नाशयति विश्वं वा प्रलये इति हरः, जो प्रलय काल में विश्व का संहार करते हैं अतः वे हर हैं।
‘‘क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मानावीशते देव एकः।
तस्याभिध्यानाद्योजनात्तत्त्वभावात् भूयश्चान्ते विश्वमायानिवृत्तिः॥१.१० ॥’’ श्वेताश्वतरोपनिषद्
प्रकृति नाशवान है इसलिए उसे क्षर कहते हैं। और जीवात्मा अविनाशी है। इसलिए उसे अमृत या अक्षर कहते हैं। वह, एकमात्र ईश्वर नाशवान प्रकृति और जीवात्मा दोनों पर शासन करता है। इसलिए उसे परात्पर हर कहते हैं। प्रधानं (प्रकृतिं) भोग्यत्वेन हरति इति हरः। उस एकं पर ध्यान करने से और उसके साथ संयुक्त तथा तादात्म्य हो जाने से अन्त में समस्त अज्ञान या भ्रान्ति से मुक्ति मिल जाती है। ||४||
येनैव सृष्टमखिलं जगदेतच्चराचरम्। यस्मिंस्तिष्ठति नश्यत्यप्येष एको महेश्वरः ॥३.५॥
वह जिसके द्वारा चलने और न चलने वाले प्राणियों की यह पूरी दुनिया बनाई जाती है और जिसमें वह रहती है और जिससे वह नष्ट हो जाती है, वह वास्तव में यह एक महेश्वर ही है।
‘‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते । येन जातानि जीवन्ति । यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति । तद्विजिज्ञासस्व । तद् ब्रह्मेति ॥ – तैत्तिरीयोपनिषत् ३-१-३’’
जिसके द्वारा,इस सृष्टि का निर्माण होता है,जिसके द्वारा इस सृष्टि का पोषण होता है और जिससे सब लोग प्रेम करते हैं तथा जिसमें सब लोग जाकर, अपने आप विलीन हो जाते हैं, उस एक को ही जानना चाहिए। “तद्विजिज्ञासस्व”-उस एक की ही जिज्ञासा करो। “तद् ब्रह्म”- वह परमात्मा है।
श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है कि — ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः।।६.८।।
जो योगी ज्ञान और विज्ञान से तृप्त है, जो विकार रहित (कूटस्थ) और जितेन्द्रिय है, जिसको मिट्टी, पाषाण और कंचन समान है, वह (परमात्मा से) युक्त कहलाता है।। || ५ ||
यं नमन्ति सुराः सर्वे स्वस्वाभीष्टप्रसिद्धये । स्वातन्त्र्यं यस्य सर्वत्र सोऽन्तर्यामि महेश्वरः ॥ ३.६ ॥
जिनके लिए सभी देवता अपनी अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए झुकते हैं, प्रणाम करते हैं जो हर जगह संप्रभु हैं, जिनकी स्वतन्त्रता सर्वातिशायिनी है और वे सबके आंतरिक नियंत्रक हैं, अतः महेश्वर हैं।
शिव महिम्नस्तोत्र में कहा है — रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो।
रथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर इति।।
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर विधिः।
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः।। १८।।
जब भगवान शिव त्रिपुरासुर के वध लिए प्रवृत्त हुए तब आपने (तारकासुर के तीनों पुत्रों द्वारा रचित) तीन नगरों का विध्वंस करने हेतु पृथ्वी को रथ बनाया और ब्रह्माजी को सारथी बनाया, सूर्य और चन्द्र को रथ के दो पहिये, मेरु पर्वत का धनुष बनाया और विष्णु जी का बाण बना लिया। हे शम्भू ! इस वृहद परियोजना की क्या आवश्यकता थी ? आपके लिए तो संसार मात्र का विलय करना अत्यंत ही छोटी सी बात है। आपको किसी सहायता की क्या आवश्यकता? आपने तो केवल (अपने नियंत्रण में रहने वाली) शक्तियों के साथ खेल किया था, लीला की थी।
उसी महिम्न स्तोत्र में वर्णन है कि —
‘‘यदद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सती मधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयस्त्रिभुवनः ।
न तच्चित्रं तस्मिंन्वरिवसितरि त्वच्चरणयो र्न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः ॥१३॥’’
हे प्रभु ! बाण जैसा साधारण राक्षस त्रिभुवन का स्वामी और देवराज इन्द्र से भी ज्यादा ऐश्वर्यवान बन गया। लेकिन इसमें आश्चर्य करने जैसी कोई बात नहीं है क्योंकि वो आपका परम भक्त था। जो मनुष्य आपके चरणोंमें श्रद्धाभक्तिपूर्वक शीश रखता है उसकी उन्नति और समृद्धि निश्चित है। आपके सामने सिर झुकाने से कौन सी समृद्धि नहीं आती? ||६||
उमार्धविग्रहः शंभुः त्रिनेत्रः शशिशेखरः। गंगाधरो महादेवः सोऽन्तर्यामी दयानिधिः ॥३.७॥
जिसके शरीर के आधे भाग में उमा है, जिसे शंभू (दयालु) कहा जाता है, वह तीन आंखों वाला है, चंद्रमा को अपने सिर पर धारण करता है, गंगा को अपनी जटाओं में धारण करता है, वह आंतरिक-नियंत्रण करने वाला है, करुणा का सागर है।
श्रीवेदव्यासजी द्वारा विरचित नमस्कारदशकस्तोत्रमें ‘‘उमार्धविग्रहः’’ का स्वरूप देखिये —
नमः शिवाभ्यां नवयौवनाभ्यां परस्पराश्लिष्ट वपुर्धराभ्यां ।
नगेन्द्रकन्या वृषकेतनाभ्यां नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम् ॥ ९॥ नमस्कारदशकस्तोत्रं
‘कल्याण करने वाले नवयौवन से युक्त, परस्पर आश्लिष्ट शरीर वाले को नमस्कार! वृषभ का चिह्न जिसके ध्वज पर है, ऐसे शंकर और पर्वतकी कन्या पार्वती को बार-बार नमस्कार!’
श्रीपंडितदशरथजी शास्त्री द्वारा विरचित ‘‘वृद्धगङ्गालहरी’’ नामक स्तोत्रमें वर्णन किया है —
गिरीशोऽप्यालोच्याखिल सुर समज्यां जलमयीम्,
स्वनेत्राभ्यां दृष्टा निज मनसि खिन्नः स्ववचनात्।
जटायान्तान्दघ्रे कृत कलुष शान्त्यै द्रुततया,
प्रमग्नः सस्स्वान्तेऽलभदिह च गङ्गाधर पदम् ॥१७॥
भगवान् शंकर ने जब उस दैवी सभा में सभान होकर विचार किया और संपूर्ण समागत समाज को अपनी आंखों से जलमय देखा तो उनके मन में खिन्नता हुई कि यह सब मेरे ही गान के कारण हुआ है तब तो शीघ्र ही प्राणिमात्र कृत समस्त पापों का शमन करने वाली उस अमृत द्रव रूपा गङ्गा को शीघ्र ही अपनी जटाओं में धारण कर लिया तब उनके मन में प्रसन्नता हुई ,और गङ्गाधर पदवी को प्राप्त किया। जाह्नवीके जन्मका आख्यान श्रीब्रह्मवैवर्त-महापुराणके श्रीकृष्णजन्मखण्डमें नारायण-नारदके संवादमें चौंतीसवें अध्यायमें वर्णित है। || ७ ||
श्रुतिस्मृतिपुराणेषु यस्यैवाधिक्यमिष्यते। यस्याधिक्यस्मृतेर्मुक्तिः सोऽन्तर्यामी पुरातनः ॥३.८॥
जिनका वर्चस्व श्रुतियों, स्मृतियों और सभी पुराणों में घोषित है; केवल यह याद रखने से कि जिसका वर्चस्व सर्वोत्कृष्ट है, मनुष्य मुक्ति को प्राप्त कर लेता है, वह अंतर्यामी पुराण पुरुष है, जो कि सभी देवताओं में प्रधान है।
निरावलम्बस्य ममावलम्बं विपाटिताशेषविपत्कदम्बं।
मदीय पापाचल पात शम्बं प्रवर्ततां वाचि सदैव बम् बम् ॥
हे विश्वनाथ (बम् बम्) ! आप ही मुझ निराश्रय के एक मात्र आश्रय हैं, आपने मेरे समस्त विपत्ति समूहों को उखाड़ कर फेंक दिया। मेरे पाप रूपी पर्वत को विदीर्ण करने के लिए आप भाला के समान हैं अतः मेरी वाणी सदैव आपके अमृत स्वरूप महामंत्र बीजाक्षर (बम् बम्) का उच्चारण करती रहे | हे प्रभु ! यही आपसे प्रार्थना है।
आचार्यपुष्पदंत शिवमहिम्नःस्तोत्रमें कहते हैं —
अतीतः पंथानं तव च महिमा वाङ्मनसयो रतद् व्यावृत्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि ।
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः ।।२।।
आपकी महिमा (किसी की भी) वाणी व मन की पहुँच से परे है, जिसे वेद भी आश्चर्य से चकित अथवा अचंभित हो कर (अतद् व्यावृत्ति द्वारा) नेति-नेति कह कर वर्णित करते हैं। ऐसा ब्रह्म किसके द्वारा स्तोतव्य हो सकता है, अर्थात् उस ब्रह्म की महिमा कैसे और किससे गायी जा सकती है ? क्या ऐसा (परात्पर) ब्रह्म भी किसी के मन,इन्द्रियों अथवा वाणी की विषय-वस्तु बन सकता है ? तथापि आप के अर्वाचीन रूप अर्थात् अपेक्षाकृत नये रूप में (जो सृष्टि-रचना के पूर्व निर्गुण रूप में रहने वाले परब्रह्म ने सगुण रूप धारण कर व्यक्त किया है), उसमें किसकी वाणी व किसका मन नहीं रमता ? || ८ ||
यन्नामजपमात्रेण पुरुषः पूज्यते सुरैः। यमाहुः सर्वदेवेशं सोऽन्तर्यामी गुरूत्तमः ॥३.९॥
केवल जिसका नाम जपने से मनुष्य देवताओं द्वारा पूजा जाता है, जिसे सभी देवताओं का स्वामी कहा जाता है, वे अन्तरतम के नियमन करने वाले, ये भगवान् व्यक्ति की चेतना के अन्तर्यामी हैं। उन्हें देवों के देव महादेव भी कहते हैं। शिक्षकों में सबसे अच्छे शिक्षक हैं।
‘‘महेशं सुरेशं सुरारातिनाशं विभुं विश्वनाथं विभूत्यङ्गभूषम्।
विरूपाक्षमिन्द्वर्कवह्नित्रिनेत्रं सदानन्दमीडे प्रभुं पञ्चवक्त्रम् || २ ||’’ वेदसार शिवस्तव स्तोत्रं ||
चन्द्र,सूर्य और अग्नि — तीनों जिनके नेत्र हैं, उन विरूपनयन महेश्वर, देवेश्वर, देवदु:खदलन, विभु, विश्वनाथ, विभूतिभूषण, नित्यानन्दस्वरूप, पंचमुख भगवान् महादेवकी मैं स्तुति करता हूॅं ||२||
इच्छित फल बिनु शिव अवराधे | लहिअ न कोटि जोग जप साधे ||
“नाम लेत भव सिन्धु सुखाही | करहु बिचार सुजन मन माही !”
भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी॥
औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि। संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि॥४५॥ रामचरितमानस उत्तरकाण्ड।
जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा।।
(भगवान् राम ने नारद को कहा) जाकर शंकर के शतनाम का जप करो, इससे हृदय में तुरंत शांति होगी। क्योंकि वे शिव ही परमगुरु हैं।
‘‘नित्यानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं,
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं,
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि।।२१।। शुकरहस्योपनिषद्’’
जो सदा ही आनन्दरूप, श्रेष्ठ सुखदायी स्वरूप वाले, ज्ञान के साक्षात् विग्रह रूप हैं। जो संसार के द्वन्द्वों (सुख-दुःखादि) से रहित, व्यापक आकाश के सदृश (निर्लिप्त) है तथा जो एक ही परमात्म- तत्त्व को सदैव लक्ष्य किये रहते हैं। जो एक हैं, नित्य हैं, सदैव शुद्ध स्वरूप है, (संसार के झंझावातों में) अचल रहने वाले, सबकी बुद्धि में अधिष्ठित, सब प्राणियों के साक्षिरूप, राग-आसक्ति आदि भावों से दूर, (रज,तम और सत्व) लोभ, मोह, प्रकाश और अहंकार जैसे सामान्य त्रिगुणों से रहित हैं, उन सद्गुरु को हम नमस्कार करते हैं॥ ‘‘
॥दक्ष उवाच॥ नमामि देवं वरदं वरेण्यं नमामि देवं च सदा सनातनम्॥
नमामि देवाधिपमीश्वरं हरं नमामि शंभुं जगदेकबन्धुम्॥ ५.३६ ॥
नमामि विश्वेश्वरविश्वरूपं सनातनं ब्रह्म निजात्मरूपम्॥
नमामि सर्वं निजभावभावं वरं वरेण्यं वरदं नतोऽस्मि॥ ५.३७ ॥’’ || ९ ||
यदाख्यामृतपानेन संतृप्ता मुनयोऽखिलाः। न वांछन्ति महाभोगान्सोऽन्तर्यामी जगत्पतिः ॥३.१०॥
जिनके वचनामृत और नाम अमृत रूपी अमृत पीने से सभी मुनि तृप्त हो जाते हैं और महान सांसारिक सुखों के लिए तरसते नहीं हैं, वे सर्वान्तर्यामी शिव हैं, सर्वेषां अन्तरे स्थित्वा यमयति इति सर्वान्तर्यामी। और वे ही संसार के रक्षक है।
‘‘तमीश्वराणाम् परमं महेश्वरं तं देवतानां परमं दैवतम् ।
पतिं पतीनां परमं परस्ताद् विदाम देवं भुवनेशमीड्यम् ॥ (श्वेताश्वतरोपनिषद ६/७)’’
वे परब्रह्म परमात्मा समस्त ईश्वरों के भी महान ईश्वर अर्थात् परमेश्वर रूप महान शासक हैं, अर्थात् ये सब इन्द्रादि देव भी उन परमेश्वर के अधीन रहकर जगत् का शासन करते हैं। वे ही समस्त देवताओं के भी परम आराध्य देव हैं। समस्त पतियों-रक्षकों के भी परम पति हैं तथा समस्त ब्रह्माण्डों के स्वामी हैं। उन स्तुति करने योग्य परमदेव परमात्मा को हम लोग सबसे परे जानते हैं। उनसे श्रेष्ठ और कोई नहीं है। वे ही इस जगत् के सर्वश्रेष्ठ कारण हैं। सभी ज्योतियों में भी परम ज्योति अनिर्देश्य, मात्र दृक् स्वरूप, महान प्रकाश ही शिव तत्व है ।।
सकलभुवनोदयस्थितिलयमयलीलाविनोदनोद्युक्तः ।
अन्तर्लीनविमर्शः पातु महेशः प्रकाशमात्रतनुः ॥१॥ कामकलाविलासः।।|| १० ||
अरुण उवाच :- अरुण ने कहा
सद्गुरो भास्कर श्रीमान्सर्वतत्त्वार्थकोविद। श्रुतिस्मृतिपुराणेषु ह्यन्तर्याम्यन्यथा श्रुतः ॥३.११॥
हे दयालु शिक्षक! हे भास्कर! हे भाग्यशाली! हे समस्त तत्त्वों के ज्ञाता! श्रुतियों में, धर्मशास्त्रों में
और पुराणों में तो अन्तर्यामी को कुछ अलग ही तरह से सुना जाता है। ||११||
सत्यं ज्ञानमनन्तं यत्प्रसिद्धं ब्रह्म निष्कलम्। निर्गुणं निष्क्रियं शान्तं केवलं सर्वगं परम् ॥३.१२॥
ब्रह्म, जो सत्य-ज्ञान-अनन्तता के रूप में प्रसिद्ध है, तथा जो निष्कल है और जो अविभाज्य है, तथा गुणों से रहित है, कर्महीन, शांतिपूर्ण, एकमात्र, सर्वव्यापी और सर्वोच्च है।
‘‘ब्रह्मविदाप्नोति परम्। तदेषाऽभ्युक्ता। सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म। यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन्। सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चितेति॥’’ तैत्तिरीयोपनिषद्ब्रह्मानन्दवल्लीप्रथमोऽनुवाकः ||
ब्रह्मवेत्ता ‘परम तत्त्व’ को प्राप्त करता है; क्योंकि प्राचीन ऋचाओं में यही कथन है, ”’ब्रह्म’ ‘सत्य’ है, ‘ब्रह्म’ ‘ज्ञान’ है ‘ब्रह्म’ ‘अनन्त’ है।” जो व्यक्ति सत्ता की हृद्-गुहा में निहित ‘उसको’ खोज लेता है ‘उसको’ ही प्राणियों के हृदय रूपी परम व्योम में ‘उसे’ पा लेता है, वही समस्त कामनाओं से परितृप्त हो जाता है तथा वह उस विज्ञानमय तथा बोधपूर्ण ‘अंतरात्मा’ के साथ ‘ब्रह्म’ में निवास करता है। ||१२||
तदेव सर्वान्तर्यामी श्रुतं सर्वान्तरत्वतः। वरेण्यं सवितुस्ते च गायत्र्यां तद्धि कथ्यते ॥३.१३॥
उस (ब्रह्म) को सभी का आंतरिक नियंत्रण करने वाला माना जाता है क्योंकि यह सभी के अंदर मौजूद है। उसी अन्तर्यामी को यहां तक कि गायत्री मंत्र में भी, वह आपके लिए (वरेण्य) योग्य है ऐसा कह कर सूर्य की, पूजा करते हैं।
ईश्वर नियन्ता है और जगत नियम्य है। बृहदारण्यक उपनिषद् के तीसरे अध्याय के सप्तम ब्राह्मण में इसका अन्तर्यामी के नाम से पूरा प्रकरण है |
‘‘यः पृथिव्यां तिष्ठन् पृथिव्या अन्तरो यं पृथिवी न वेद यस्य पृथिवी शरीरं यः पृथिवीमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.३ ॥ योऽप्सु तिष्ठन्नद्भ्योऽन्तरो यमापो न विदुर्यस्यापः शरीरं योऽपोऽन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.४ ॥ योऽग्नौ तिष्ठन्नग्नेरन्तरो यमग्निर्न वेद यस्याग्निः शरीरं योऽग्निमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ बृह. ३,७.५ ॥ योऽन्तरिक्षे तिष्ठन्नन्तरिक्षादन्तरो यमन्तरिक्षं न वेद यस्यान्तरिक्षं शरीरं योऽन्तरिक्षमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.६ ॥ यो वायौ तिष्ठन् वायोरन्तरो यं वायुर्न वेद यस्य वायुः शरीरं यो वायुमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.७ ॥ यो दिवि तिष्ठन् दिवोऽन्तरो यं द्यौर्न वेद यस्य द्यौः शरीरं यो दिवमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.८ ॥ य आदित्ये तिष्ठन्नादित्यादन्तरो यमादित्यो न वेद यस्यादित्यः शरीरं य आदित्यमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.९ ॥ यो दिक्षु तिष्ठन् दिग्भ्योऽन्तरो यं दिशो न विदुर्यस्य दिशः शरीरं यो दिशोऽन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.१० ॥ यश्चन्द्रतारके तिष्ठञ्चन्द्रतारकादन्तरो यं चन्द्रतारकं न वेद यस्य चन्द्रतारकं शरीरं यश्चन्द्रतारकमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ बृह. ३,७.११ ॥ य आकाशे तिष्ठन्नाकाशादन्तरो यमाकाशो न वेद यस्याकाशः शरीरं य आकाशमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.१२ ॥ यस्तमसि तिष्ठंस्तमसोऽन्तरो यं तमो न वेद यस्य तमः शरीरं यस्तमोऽन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.१३ ॥ यस्तेजसि तिष्ठंस्तेजसोऽन्तरो यं तेजो न वेद यस्य तेजः शरीरं यस्तेजोऽन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.१४ ॥ अथाधिभूतम् । यः सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन् सर्वेभ्यो भूतेभ्योऽन्तरो यं सर्वाणि भूतानि न विदुर्यस्य सर्वाणि भुतानि शरीरं यः सर्वाणि भूतान्यन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः । इत्यधिभूतम् ॥ बृह. ३,७.१५ ॥ अथाध्यात्मम् । यः प्राणे तिष्ठन् प्राणादन्तरो यं प्राणो न वेद यस्य प्राणः शरीरं यः प्राणमन्तरो यमयति एष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.१६ ॥ यो वाचि तिष्ठन् वाचोऽन्तरो यं वाङ्न वेद यस्य वाक्शरीरं यो वाचमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.१७ ॥ यश्चक्षुषि तिष्ठञ्चक्षुषोऽन्तरो यं चक्षुर्न वेद यस्य चक्षुः शरीरं यश्चक्षुरन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.१८ ॥ यः श्रोत्रे तिष्ठञ्छ्रोत्रादन्तरो यं श्रोत्रं न वेद यस्य श्रोत्रं शरीरं यः श्रोत्रमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.१९ ॥ यो मनसि तिष्ठन्मनसोऽन्तरो यं मनो न वेद यस्य मनः शरीरं यो मनोऽन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.२० ॥ यस्त्वचि तिष्ठंस्त्वचोऽन्तरो यं त्वङ्न वेद यस्य त्वक्शरीरं यस्त्वचमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ३,७.२१ ॥ यो विज्ञाने तिष्ठन् विज्ञानादन्तरो यं विज्ञानं न वेद यस्य विज्ञानं शरीरं यो विज्ञानमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ बृह. ३,७.२२ ॥ यो रेतसि तिष्ठं रेतसोऽन्तरो यं रेतो न वेद यस्य रेतः शरीरं यो रेतोऽन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः । अदृष्टो द्रष्टाश्रुतः श्रोतामतो मन्ताविज्ञतो विज्ञाता । नान्योऽतोऽस्ति द्रष्टा नान्योऽतोऽस्ति श्रोता नान्योऽतोऽस्ति मन्ता नान्योऽतोऽस्ति विज्ञाता । एष त आत्मान्तर्याम्यमृतः । अतोऽन्यदार्तम् ।’’
इस प्रकार भोक्ता और भोग्य के रूप में सभी अवस्थाओं में स्थित चेतन और जड़ दोनों ही तत्व परम पुरुष के शरीर होने के कारण उसके द्वारा नियमित किये जाते हैं। या नियमन करने योग्य हैं। इसलिए इन दोनों की भगवान् से अपृथक् स्थिति और परम पुरुष भगवान् के आत्मत्व का वर्णन कितनी ही श्रुतियाँ इस प्रकार करती हैं- ‘जो पृथ्वी में रहकर पृथ्वी की अपेक्षा अन्तरंग है, जिसको पृथ्वी नहीं जानती। पृथिवी जिसका शरीर है। जो पृथ्वी के भीतर रहकर उसका नियमन करता है।’ यहाँ से लेकर ‘जो आत्मा में रहकर आत्मा की अपेक्षा अन्तरंग है, जिसको आत्मा नहीं जानता, आत्मा जिसका शरीर है, जो आत्मा के भीतर रहकर उसका नियमन करता है,’ यहाँ तक तथा ‘पृथ्वी जिसका शरीर है, जो पृथ्वी के भीतर विचरता है, जिसको पृथ्वी नहीं जानती’ यहाँ से लेकर ‘अक्षर जिसका शरीर है, जो अक्षर के भीतर विचरता है, जिसको अक्षर नहीं जानता। मृत्यु जिसका शरीर है, जो मृत्यु के भीतर विचरता है, जिसको मृत्यु नहीं जानता। यह सब भूतों का अन्तरात्मा सब पापों से रहित एक दिव्य देव नारायण है।’ इस श्रुति में ‘मृत्यु’ नाम से ‘तमः’ शब्द की अर्थभूत सूक्ष्म अवस्था में स्थित जड प्रकृति कही गयी है। क्योंकि इसी उपनिषद् में ‘अव्यक्त अक्षर में लय होता है, अक्षर तम में लय होता है, तम परम देव में एक होकर रहता है।’ ऐसा कहा है। तथा ‘जीवों का शासक सबका आत्मा अन्तर में प्रविष्ट है।’ यह भी कहा है। || १३ ||
अशरीस्य तस्यैव ह्यादिमध्यान्तवर्जनात्। आकाशवद्विभुत्वेन सर्वान्तर्यामितोचिता ॥३.१४॥
उन्हीं का, शरीरसे रहित होनेके कारण, सर्वान्तर्यामित्व होना उपयुक्त है, क्योंकि शुरुआत, मध्य और अंत से रहित होने और अंतरिक्ष की तरह सर्वव्यापी होनेके कारण वे ही अन्तर्यामी हैं।
‘‘अन्तःशरीरे निहितो गुहायामज एको नित्यो यस्य पृथिवी शरीरं यः पृथिवीमन्तरे संचरन् यं पृथिवी न वेद । यस्यापः शरीरं योऽपोऽन्तरे संचरन्यमापो न विदुः । यस्य तेजः शरीरं यस्तेजोन्तरे संचरन् यं तेजो न वेद। यस्य वायुः शरीरं यो वायुमन्तरे संचरन् यं वायुर्न वेद । यस्याकाशः शरीरं य आकाशमन्तरे संचरन् यमाकाशो न वेद। यस्य मनः शरीरं यो मनोन्तरे संचरन्यं मनो न वेद । यस्य बुद्धिः शरीरं यो बुद्धिमन्तरे संचरन् यं बुद्धिर्न वेद । यस्याहंकारः शरीरं योऽहंकारमन्तरे संचरन् यमहंकारो न वेद। यस्य चित्तं शरीरं यश्चित्तमन्तरे संचरन् यं चित्तं न वेद । यस्याव्यक्तं शरीरं योऽव्यक्तमन्तरे संचरन् यमव्यक्तं न वेद । यस्याक्षरं शरीरं योऽक्षरमन्तरे संचरन् यमक्षरं न वेद । यस्य मृत्युः शरीरं यो मृत्युमन्तरे संचरन् यं मृत्युर्न वेद । स एष सर्वभूतान्तरात्माऽपहतपाप्मा दिव्यो देव एको नारायणः ॥’’ सुबालोपनिषद्सप्तमः खण्डः।।
जो शरीर के अन्दर हृदय रूपी गुफा में निवास करता है, वह आत्मा अजन्मा , एक और नित्य है। उसका शरीर पृथिवी है, जो पृथ्वी में संचरित होता है; पर पृथ्वी जिसे नहीं जानती। जल जिसका शरीर है, जो जल में संचरित होता है; पर जल का देवता जिसे नहीं जानता। तेज जिसका शरीर है, जो तेज में संचरित होता है; पर तेज जिसे नहीं जानता। वायु जिसका शरीर है, वायु में जो संचरित होता है; पर वायु जिसे नहीं जानता। आकाश जिसका शरीर है, जो आकाश में संचरित होता है; पर आकाश जिसे नहीं जानता। मन जिसका शरीर है, जो मन में संचरित होता है; पर मन जिसे नहीं जानता। बुद्धि जिसका शरीर है, जो बुद्धि में संचरित होता है; पर बुद्धि जिसे नहीं जानती। अहंकार जिसका शरीर है, जो अहंकार में संचरित होता है; पर अहंकार जिसे नहीं जानता। चित्त जिसका शरीर है, जो चित्त में संचरित होता है; पर चित्त जिसे नहीं जानता। अव्यक्त जिसका शरीर है, जो अव्यक्त में संचरित होता है; पर अव्यक्त जिसे नहीं जानता। अक्षर जिसका शरीर है, जो अक्षर में संचरित होता है; पर अक्षर जिसे नहीं जानता। मृत्यु जिसका शरीर है, जो मृत्यु में संचरित होता है; पर मृत्यु जिसे नहीं जानती, वे सर्वभूतों के अन्तरात्मा, विनष्ट पाप वाले, एक, दिव्य, देव, नारायण हैं ॥ || १४ ||
शिवस्य सशरीस्य सांबस्य सगुणस्य तु। अविभुत्वेन सो नैव युज्यते भास्कर प्रभो ॥३.१५॥
हे भास्कर! हे प्रभो ! शिव का अन्तर्यामित्व सिद्ध नहीं होता, क्योंकि जिनके पास एक भौतिक शरीर है, और जो अम्बा (उनकी पत्नी) के साथ-साथ रहने के कारण तथा सगुण होने के कारण , और क्योंकि वे सर्वव्यापी नहीं है, इसलिए उन्हें अन्तर्यामी कहना उपयुक्त नहीं है।
अरुणजी शंका करते हैं कि जो शरीरधारी है वह तो परिच्छिन्न है, जड़ है। वह सर्वव्यापी कैसे हो सकता है ? संसारसम्बन्धिनी गति देश, काल और वस्तु से परिच्छिन्न ही होती है। यदि ब्रह्म देशपरिच्छिन्न हो तो मृतद्रव्यके समान आदि-अन्तवाला सिद्ध होगा। सावयव- पराश्रित, अनित्य और कृतक सिद्ध हो जायगा। ब्रह्म ऐसा हो नहीं सकता। अतः उसकी प्राप्ति भी देशपरिच्छिन्ना नहीं हो सकती; इसके सिवा ब्रह्मवेत्ता लोग अविद्या जन्य संसार को अनित्य और परिच्छिन्न ही कहते हैं | इस प्रकार एक सीमित व्यक्ति सर्वव्यापक कैसे हो सकता है ? || १५||
सगुणैकप्रधानैश्च विशिष्टाद्वैतवादिभिः। कैश्चिद्ब्रह्म हरीशानामन्तर्यामित्व मुच्यते ॥३.१६॥
विशिष्ट-अद्वैतके कुछ अनुयायियों द्वारा, जो सगुण ईश्वर को ही प्रधान देवता मानते हैं, वे लोग ब्रह्मा, विष्णु और शिव के वर्चस्व को मानते हैं, और उनके द्वारा इन सबको आंतरिक नियंत्रण करने वाला (अन्तर्यामी) कहा जाता है।
सर्वज्ञत्वादिधर्माणां समत्वं च त्रिमूर्तिषु। मत्वैवोपासते विप्राः ते गायत्रीपरायणाः ॥३.१७॥
जो ब्राह्मण, गायत्री की पूजा के लिए समर्पित होते हैं, वे इन तीनों को ही सर्वज्ञता आदि गुणों से संपन्न मान कर ही इन तीनों को (ब्रह्मा ,विष्णु और शिव को) ध्यान में रखते हुए उनकी पूजा करते हैं। सर्वज्ञता आदि धर्म त्रिमूर्ति में समान रूप से वर्तमान हैं ऐसा वे मानते हैं | ||१७||
केचिद् द्रुहिण एव स्यादन्तर्यामी च वाक्पतिः । नान्यौ हरिहरौ कर्मप्रसिद्धेरिति वै विदुः ॥ ३.१८॥
क्योंकि ब्रह्माजी जिनको विश्व विधाता भी कहा जाता है वे ही जगत् के कर्ता हैं इसलिए कुछ लोगों का कहना है कि कर्म के वर्चस्व के कारण ब्रह्माजी, जो कि (वाणीकी देवी) सरस्वती के स्वामी हैं, वेदनिधि हैं। अतः वे ही आंतरिक-नियंत्रक हैं और अन्य दो जिनमें (उपासना और ज्ञानकी प्रधानता है) वे विष्णु और शिव नहीं।
ब्रह्मा येन कुलालवन्नियमितो ब्रह्माण्डभाण्डोदरे
विष्णुर्येन दशावत्रगहने क्षिप्तो महासङ्कटे ।
रुद्रो येन कपालपाणिपुटके भिक्षाटनं कारितः
सूर्यो भ्राम्यति नित्यमेव गगने तस्मै नमः कर्मणे ॥
जिस कर्म ने विधाता को ब्रह्माण्डरूपी पात्र के अन्दर कुम्हार की तरह सृष्टि कार्य हेतु नियोजित किया, विष्णु को दशावतार रूपी कष्टतम कार्य में नियुक्त किया, शंकर को हाथ में खप्पर लेकर भिक्षाटन कराया और सूर्य को आकाश में निरन्तर भ्रमण कराता है, उस कर्म को नमस्कार है ।
‘‘रामो येन विडम्बितो वनगतश्चन्द्रः कलङ्कीकृतः,
क्षाराम्बुस्सरितां पतिश्च नहुषः सर्पः कपाली हरः॥
मांडव्योऽपि च शूलपीडितवपुर्भिक्षाभुजः पाण्डवाः।
नीतो येन रसातलं बलिरसौ तस्मै नमः कर्मणे ॥’’
रामको जिसने वन-वन फिराया, सुन्दर चंद्रमामें कलंक लगाया, समुद्रके जल को खारा किया, नहुषको सर्प बनाया, महादेवको कापालिक बनाया, माण्डव्य मुनिको सूली पर चढ़ाया, पाण्डवों से भीख मंगवाई और राजा बलि को जिसने पाताल में पहुंचा दिया, उस कर्म को नमस्कार है। {कर्म प्रधान विश्व रचि राखा} अतः कर्मके देवता केवल ब्रह्माजी ही अन्तर्यामी हो सकते हैं। || १८ ||
केचित्तु विष्णुरेव स्यादन्तर्यामी रमापतिः। न विधीशौ परोपास्तिप्रसिद्धेरिति वै विदुः ॥३.१९॥
लेकिन कुछ लोग कहते हैं कि विष्णु, जो रमा के स्वामी हैं, वे ही भीतर के नियंत्रक हैं और अन्य दो ब्रह्मा और शिव नहीं हैं, क्योंकि पूजा,उपासना की सर्वोच्चता (कर्म और ज्ञान से अधिक) है।
मोक्ष कारण सामग्र्यां भक्तिरेव गरीयसी । कल्याण-प्राप्ति के जितने भी साधन हैं, उन सब साधनों में भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है।
नारद भक्ति सूत्र में कहा है कि — ‘‘त्रि सत्यस्य भक्तिरेव गरीयसी, भक्तिरेव गरीयसी॥८१॥तीनों (कायिक, वाचिक, मानसिक) सत्यों में (अथवा तीनों कालों में सत्य भगवान की) भक्ति ही श्रेष्ठ है, भक्ति ही श्रेष्ठ है।
रामचरित-मानस में कहा है —
भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सत्संग न पावहिं प्रानी।।
भगति तात अनुपम सुखमूला। मिलइ जो संत होइँ अनुकूला।।
पन्नगारि सुनु प्रेम सम भजन न दूसर आन ।
अस बिचारि मुनि पुनि पुनि करत राम गुन गान ।।
इसलिये मुनिजन बार-बार भगवान का गुणगान करते हैं‒इसका तात्पर्य है कि भगवान का गुणगान करने से उनमें प्रेम हो जाता है । अतः उपासना की प्रधानता होने से विष्णु ही अन्तर्यामी हो सकते हैं | ||१९||
केचिच्च शिव एकः स्यादन्तर्यामी ह्युमापतिः। नान्यौ ब्रह्महरी ज्ञानप्रसिद्धेरिति संविदुः ॥३.२०॥
और कुछ लोग कहते हैं कि ज्ञान के वर्चस्व के कारण, उमा के स्वामी शिव ही भीतर के नियंत्रक हैं और अन्य दो ब्रह्मा और विष्णु नहीं हैं। क्योंकि वे तो (कर्म और उपासना) के अधिदेव हैं।
जहाँ विशुद्ध ज्ञान की ज्योति है, वहाँ हर प्रकार का सुख है।
“ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः।” अर्थात् — ”ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं”
“ज्ञानादेव तु कैवल्यम् इति शास्त्रेषु डिण्डिम:।।”
मुक्ति ज्ञानसे ही मिलती है, यह शास्त्रोंकी घोषणा है। (ज्ञान से की कैवल्य प्राप्त होता है।)
“तरति शोकमात्मवित्।”
जिसको आत्मा का ज्ञान है वह सारे दुःख और शोक को पार कर अनन्त सुखका अनुभव प्राप्त कर सकता है। जिसके बिना मुक्ति संभव नहीं है।
सम्यग्विवेकेनात्मविज्ञानम्, शृण्वतो जायते ज्ञानं ज्ञानादेव विमुच्यते॥, ज्ञानान्मुक्तिमवाप्नुयात्,
तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥३.८॥ श्वेताश्वतरोपनिषद्
उसका’ ज्ञान प्राप्त करके व्यक्ति मृत्यु की पकड़ से परे चला जाता है तथा इस महद्-गति के लिए दूसरा कोई मार्ग नहीं है। जो उसे अनुभव के द्वारा जान जाता है वह मृत्यु से मुक्त हो जाता है। जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारे का कोई अन्य मार्ग नहीं है।
भगवद्गीता में भी कहा है कि —
‘‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति।।४.३८।।’’
इस लोक में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला, निसंदेह, कुछ भी नहीं है। योग में सिद्ध पुरुष स्वयं ही उसे (उचित) काल में अपने आत्मा में ही उस परम ज्ञान को प्राप्त करता है।
‘‘ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् | उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् ||१२ ||ऋग्वेदः – मण्डल ७ सूक्तं ५९’’
हम त्रिनेत्र को पूजते हैं, जो सुगंधित हैं, हमारा पोषण करते हैं, जिस तरह फल, शाखा के बंधन से मुक्त हो जाता है, वैसे ही हम भी मृत्यु और नश्वरता से मुक्त हो जाएं।
‘‘त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम् । उर्वारुकम् इव बन्धनाद् इतो मुक्षीय मामुतः ||६०|| शुक्लयजुर्वेदः/अध्यायः ०३’’
तथा हम लोग (सुगन्धिम्) उत्तम गन्धयुक्त (पतिवेदनम्) संरक्षक सत्ता का प्रत्यक्ष बोध करानेवाले, रक्षा करनेवाले स्वामी को जानें (त्र्यम्बकम्) त्रिनेत्र धारी सब के अध्यक्ष जगदीश्वर का (यजामहे) निरन्तर सत्कारपूर्वक ध्यान करें और उनके अनुग्रह से (उर्वारुकमिव) जैसे खरबूजा पक कर (बन्धनात्) लता के सम्बन्ध से छूट कर अमृत के समान मिष्ट होता है, वैसे हम लोग भी (इतः) इस शरीर से (मुक्षीय) छूट जावें (अमुतः) मोक्ष और अन्य जन्म के सुख और सत्यधर्म के फल से (मा) पृथक् न होवें || २० ||
त्वदुक्तरीत्या त्वाधिक्यं ज्ञानोपासनकर्मसु। कर्मणोऽवगतं तेन विधेरेव प्रसिध्यति ॥३.२१॥
और आपके कथनानुसार जो कर्म का श्रेष्ठत्व प्रतिपादन किया गया है, उसके अनुसार, ज्ञान, उपासना (पूजा) और कर्म के बीच कर्म ही सर्वोच्च है। तो फिर इसके द्वारा तो ब्रह्मा का ही वर्चस्व स्थापित होता है।
‘‘कर्मणा जायते जन्तुः कर्मणैव विलीयते।
सुखं दुःखं भयं क्षेमं कर्मणैवाभिपद्यते।।
अस्ति चेदीश्वरः कश्चित् फलरूप्यन्यकर्मणाम्।
कर्तारं भजते सोपि न ह्यकर्तुः प्रभुर्हि सः।।१०,२४,१३-१४ भागवत महापुराण, ’’
कर्मों के करने से ही समस्त जीव जंतुओं की उत्पत्ति होती है तथा अपने कर्मो के कारण ही वे विलीन (नष्ट) हो जाते हैं। सुख, दुःख, भय और अभय (सुरक्षा) की ये सभी परिस्थितियां भी कर्म करने से ही आती हैं। यदि ईश्वर नाम की कोई चीज है तो वो भी फल उसी को देती है जो कर्म करता है, जो कर्म नहीं करता उसको ईश्वर भी फल कभी नहीं देता। कर्म न करनेवालों पर उसकी प्रभुता नहीं चल सकती। ||२१||
एष पक्षः समीचीनस्तव नैव भविष्यति। तस्मादनिश्चितार्थं मां कुरुष्वासंशयं प्रभो ॥३.२२॥
आपका जो शिव सम्बन्धी पक्ष है वह समीचीन नहीं है क्योंकि अभी-अभी जो आपके द्वारा प्रतिपादित (शिव के वर्चस्व का) शिव-स्वरूप का कथन किया गया है वह संगत नहीं बैठता है। पहले आपने कर्म की प्रशंसा की थी जिसके अनुसार ब्रह्मा का श्रेष्ठत्व सिद्ध होता है। अत: हे प्रभो! मुझे ठीक ठीक बताओ क्योंकि मैं अनिर्णय की स्थिति में हूँ, कृपया मुझे नि:संदेह बनाइये।
ऐसा ही प्रसंग श्रीमद्भगवद्गीता में भी है —
‘‘व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् || ३.२||’’
आप इस मिश्रित वाक्य से मेरी बुद्धि को मोहित सा करते हैं अतः आप उस एक (मार्ग) को निश्चित रूप से कहिये जिससे मैं परम श्रेय को प्राप्त कर सकूँ। आपके अस्पष्ट निर्देशों से मेरी बुद्धि हतप्रभ है। कृपया मुझे निर्णायक रूप से बताएं कि मैं कौन से मार्गसे श्रेय प्राप्त कर सकता हूं। अर्थात् मेरे लिये कौनसा मार्ग कल्याण कारक है। || २२ ||
सूर्य उवाच — सूर्य ने कहा
सम्यक्पृष्टं त्वया धीमान्नरुण शृणु सादरम्। वक्ष्यामि निश्चितार्थं ते श्रुतिस्मृत्यादिभिः स्फुटम् ॥३.२३॥
हे बुद्धिमान अरुण ! आपने ठीक ही पूछा है। ध्यान से सुनो, मैं आपको निश्चित निष्कर्ष बताऊंगा जो श्रुतियों, स्मृतियों और अन्य शास्त्रों से लिया गया है, और बहुत ही स्पष्ट है। क्योंकि —
‘‘वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियं आत्मनः।
एतत् चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद् धर्मस्य लक्षणम् || २.१२||’’
मनु महाराजके अनुसार धर्म के चार लक्षण बताए गए हैं , धर्म की कसौटी चार हैं :१. श्रुति, २. स्मृति, ३. सदाचार ४. और अपनी आत्मा को प्रिय लगने वाला आचरण | || २३ ||
अन्तर्यामी द्विधा प्रोक्तः सगुणो निर्गुणोऽपि च। चरस्य केवलं त्वाद्यश्चरस्यान्योऽचरस्य च ॥३.२४॥
आंतरिक-नियंत्रण करने वाले को (अन्तर्यामी को) दो प्रकार का कहा जाता है, पहला सगुण और दूसरा निर्गुण। जो पहला है वह केवल चलने वाले प्राणियों का है और जो दूसरा है वह चलने वाले और न चलने वाले दोनों प्रकार के प्राणियों का है।
‘‘बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्।।१३.१६।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
(वह ब्रह्म) भूत मात्र के अंतर्बाह्य में स्थित है; वह चेतन चर भी है और जड़ अचर भी। सूक्ष्म होने से वह अज्ञेय है; वह बहुत दूर और अत्यंत समीपस्थ भी है। अविद्याद्वारा आत्मभावसे कल्पित शरीरको त्वचापर्यन्त अवधि मानकर उसीकी अपेक्षासे ज्ञेयको उसके बाहर बतलाते हैं। वैसे ही अन्तरात्माको लक्ष्य करके तथा शरीरको ही अवधि मानकर ज्ञेयको उसके भीतर (व्याप्त) बतलाया जाता है। बाहर और भीतर व्याप्त है — ऐसा कहनेसे मध्यमें उसका अभाव प्राप्त हुआ? इसलिये कहते हैं — चर और अचररूप भी वही है अर्थात् रज्जुमें सर्पकी भाँति प्रतीत होनेवाले जो चर-अचररूप शरीरके आभास हैं वह भी उस ज्ञेयका ही स्वरूप है। यदि चर और अचररूप समस्त व्यवहारका विषय वह ज्ञेय (परमात्मा) ही है? तो फिर वह यह है इस प्रकार सबसे क्यों नहीं जाना जा सकता इस पर कहते हैं — ठीक है — सारा दृश्य उसीका स्वरूप है तो भी वह ज्ञेय आकाशकी भाँति अति सूक्ष्म है। अतः यद्यपि वह आत्मरूपसे ज्ञेय है — तो भी सूक्ष्म होनेके कारण अज्ञानियोंके लिये अविज्ञेय ही है। ज्ञानी पुरुषोंके लिये तो — यह सब कुछ आत्मा ही है यह सब कुछ ब्रह्म ही है इत्यादि प्रमाणोंसे वह सदा ही प्रत्यक्ष रहता है। वह ज्ञेय अज्ञात होनेके कारण और हजारोंकरोड़ों वर्षोंतक भी प्राप्त न हो सकनेके कारण अज्ञानियोंके लिये बहुत दूर है किंतु ज्ञानियोंका तो वह आत्मा ही है अतः उनके निकट ही है। || २४ ||
अहं हि चर एवास्मि मदन्तर्यामिणावुभौ। गायत्र्यां चावगन्तव्यौ देवौ सगुणनिर्गुणौ ॥३.२५॥
मैं एक चलता-फिरता प्राणी हूं, और मेरे भीतर के नियंत्रक (अन्तर्यामी देव) जो कि गायत्री मंत्र में जाने जाते हैं वे सगुण और निर्गुण दोनों ही प्रकार के हैं।
इस गायत्री मंत्र में सवितृ देवता की उपासना है इसलिए इसे सावित्रीमन्त्र भी कहा जाता है। गायत्री मंत्र का सम्बन्ध सवितृ से ही माना जाता है। सविता शब्द की निष्पत्ति ‘सु’ धातु से हुई है जिसका अर्थ है – उत्पन्न करना, गति देना तथा प्रेरणा देना। सवितृ देव का सूर्य देवता से बहुत साम्य है। ‘सू´ प्रसवे तथा ईर् गतौ धातु से क्यप् प्रत्यय का योग करने पर ‘सूर्य’ शब्द निष्पन्न होता है। सू´ सवने परस्मैपदी धातु तथ ईर् गतौ धातु से क्यप् प्रत्यय का योग करने पर भी ‘सूर्य’ शब्द निष्पन्न होता है। तथा सूर्य शब्द सृ गतौ परस्मैपदी धातु से क्यप् प्रत्यय का योग करने पर भी निष्पन्न होता है। “सरति गच्छति आकाशे इति सूर्यः”|
‘‘तत् सवितुर्वरेण्यं। भर्गोदेवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्। (ऋग्वेद ३,६२,१०)’’
“यः सविता देवः “नः अस्माकं” धियः कर्माणि धर्मादिविषया वा बुद्धीः “प्रचोदयात् प्रेरयेत्“ तत् तस्य “देवस्य “सवितुः सर्वान्तर्यामितया प्रेरकस्य जगत्स्रष्टुः परमेश्वरस्य “वरेण्यं सर्वैः उपास्यतया ज्ञेयतया च संभजनीयं”
भर्गः अविद्या तत्कार्ययो र्भर्जनाद्भर्गः स्वयंज्योतिः परब्रह्मात्मकं तेजः “धीमहि वयं ध्यायामः ।
उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अपनी अंतरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करें। इस मंत्र में जो सविता देव हैं वह सगुण रूप है और जो भर्ग देव हैं वह निर्गुण रूप है।
बुराइयों का अज्ञानान्धकार का नाश करने वाली शक्ति का नाम भर्ग है।
भ्राजते च यदा भर्गः पूर्ण रूपाच्च पूरुषः।
सर्वात्मा सर्वभावस्तु आत्मा तेन निगद्यते ।।
सवितास्वात्मभूतस्तु वरेण्यं सर्व जन्तुभिः।
भजनीयं द्विजा भर्गः तेजश्चैतन्य लक्षणम्।। (स्कन्दपुराणान्तर्गत-सूतसंहिता)
हे द्विजो! सविता देव आत्मरूप तथा सर्व जन्तुओं से प्रार्थनीय चैतन्य रुपी तेज तुम्हारे द्वारा भजन करने योग्य है। गीता में भगवान ने स्वयं कहा है ‘गायत्री छन्दसामहम्’ अर्थात् गायत्री मंत्र मैं स्वयं ही हूं। गायत्री-रहस्योपनिषद् में गायत्री मन्त्र का अर्थ बताया है।
‘‘अथातो गायत्री व्याहृतयश्च प्रवर्तन्ते। का च गायत्री काश्च व्याहृतयः। किं भूः किं भुवः किं सुवः किं महः किं जनः किं तपः किं सत्यं किं तत् किं सवितुः किं वरेण्यं किं भर्ग: किं देवस्य किं धीमहि किं धियः किं यः किं नः किं प्रचोदयात्।
ॐ भूरिति भुवो लोकः। भुव इत्यन्तरिक्ष लोकः। स्वरिति स्वर्गलोकः। मह इति महर्लोकः। जन इति जनलोकः। तप इति तपोलोकः। सत्यमिति सत्यलोकः। तदिति तदसौ तेजोमयं तेजोऽग्निर्देवता। सवितुरिति सविता सावित्रमादित्यो वै। वरेण्यमित्यत्र प्रजापतिः। भर्ग इत्यापो वै भर्गः। देवस्य इतीन्द्रो देवो द्योतत इति स इन्द्रस्तस्मात् सर्वपुरुषो नाम रुद्रः। धीमहीत्यन्तरात्मा। धिय इत्यन्तरात्मा परः। य इति सदाशिवपुरुषः। नो इत्यस्माकं स्वधर्म। प्रचोदयादिति प्रचोदितकाम इमान् लोकान् प्रत्याश्रयते यः परो धर्म इत्येषा गायत्री॥
अर्थ — अब यहाँ गायत्री और व्याहृतियों का वर्णन प्रारम्भ होता है।
प्रश्न-गायत्री कौन है? और व्याहृतियाँ कौन हैं? भू: क्या है? भुवः क्या है? स्व: क्या है? मह: क्या है? जन: क्या है? तप: क्या है? सत्यं क्या है? तत् क्या है? सवितुः क्या है? वरेण्यं क्या है? भर्ग: क्या है? देवस्य क्या है? धीमहि क्या है? धियः क्या है? यः क्या है? नः क्या है? तथा प्रचोदयात् क्या है?
उत्तर — ॐ भूः — यह भू लोक का वाचक है, भुवः — अंतरिक्ष का वाची है, स्वः — स्वर्ग लोक का वाचक है, महः — महर्लोक का वाचक है, जन:-जनोलोक का, तपः-तपोलोक का, सत्यम्-सत्यलोक का, तत् — तेजस्वरूप अग्निदेव, सवितुः — सूर्य का वाचक है, वरेण्यं यह प्रजापति (ब्रह्मा) का, भर्ग — आपः (जल) का, (भर्गः) भृज्जन्ति पापानि दुःखमूलानि येन तत्। देवस्य यह तेजस्वी इन्द्र का जो परम ऐश्वर्य का द्योतक तथा सर्व पुरुष नामक रुद्र द्वारा प्रख्यात है। धीमहि यह अन्तरात्मा का, धियः — यह दूसरी अंतरात्मा का — ब्रह्म का, य: — शब्द उस भगवान् सदाशिव पुरुष का, न: — यह अपने स्वरूप का (अर्थात् हमारे इस अर्थ का वाचक है), इस तरह से ये सभी शब्द यथोक्त क्रम से सतत स्वरूप का बोध (साक्षात्कार) कराने वाले हैं। प्रचोदयात्-यह प्रेरणा का इच्छा का द्योतक है। जो धर्म इन सभी लोकों का आश्रय करा दे, वही गायत्री है॥ ||२५||
निर्गुणश्चावगन्तव्यः सगुणद्वारतोऽखिलैः। अतोऽब्रुवं शिवं साक्षान्मदन्तर्यामिणं तव ॥३.२६॥
सभी लोगों के द्वारा हमेशा निर्गुण तत्व सगुण के माध्यम से ही जाना जाता है। और इसमें सरलता भी है। इसलिए मैंने कहा कि शिव स्वयं मेरे आंतरिक-नियंत्रक हैं।
भर्गः, पुं, (भृज्यते कामादिरनेनेति । भृज् +“हलश्च” इति घञ्) शिवः। इत्यमरः ॥ भ्रस्ज घञ् आदित्यान्तर्गते ऐश्वर्य तेजसि। भ्रज धातु से घञ प्रत्यय करने पर भर्ग शब्द बनता है। सूर्य मण्डल के अन्तर्गत विद्यमान ईश्वरीय तेज को भर्ग कहते हैं। भर्जयतीति वै स भर्गः।
“आदित्यान्तर्गतं वर्चो भर्गाख्यं तन्मुमुक्षुभिः।
जन्म मृत्यु विनाशाय दुःखस्य त्रितयस्य च ॥
ध्यानेन पुरुषो यश्च द्रष्टव्यः सूर्य्यमण्डले ॥” इत्याह्निकतत्त्वम् ॥
यही भर्ग सबसे श्रेष्ठ तथा परिपूर्ण होने से पुरुष कहा गया है। यह भर्ग संसार से भयभीत पुरुषों का कल्याण करता है अतः शिवस्वरुप कहा गया है।
वीर्यो वै भर्गः।-शतपथ ब्रा० ५.४५.१
‘‘क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ।। १२.५।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
परन्तु उन अव्यक्त में आसक्त हुए चित्त वाले पुरुषों को क्लेश अधिक होता है, क्योंकि देहधारियों से अव्यक्त की गति कठिनाईपूर्वक प्राप्त की जाती है। || २६ ||
कारणत्वं यथा सिद्धं ब्रह्मणः परमात्मनः। यथा शिवस्य साम्बस्य कार्यत्वं च सतां मतम् ॥३.२७॥
जिस प्रकार परमात्मा ब्रह्म को सर्वोच्च कारण के रूप में जाना जाता है; और जैसे विद्वानों के मतानुसार अम्बा (भवानी) के सहित शिव को कार्य के रूप में माना जाता है; || २७ ||
तथा शिवस्य हेतुत्वं विष्णोः कार्यत्वमप्यथ। विष्णोश्च हेतुतां तद्वद्विधेर्विद्धि च कार्यताम् ॥३.२८॥
उसी प्रकार, शिवजी कारण हैं और विष्णु कार्य हैं ; और इसी तरह विष्णु को कारण और ब्रह्मा को कार्य रूप में विद्वान लोग जानते हैं। || २८ ||
ब्रह्मा विष्णुः शिवो ब्रह्म ह्युत्तरोत्तरहेतवः। इति जानन्ति विद्वांसो नेतरे मायया वृताः ॥३.२९॥
उच्च और उच्चतर क्रम में ब्रह्मा, विष्णु, शिव और परब्रह्म कारण हैं। यह ज्ञानी पुरुषों द्वारा जाना जाता है और अन्य लोगों द्वारा नहीं क्योंकि वे माया द्वारा आवृत (ढ़की हुई) बुद्धि वाले हैं।
अद्वैतसिद्धान्तानुसार भी शुकरहस्योपनिषद् में बताया है कि —
‘‘कार्योपाधिरयं जीवः कारणोपाधिरीश्वरः।
कार्यकारणतां हित्वा पूर्णबोधोऽवशिष्यते || ४२||’’
मायायां चित्प्रतिबिम्बः ईश्वरः, अन्तःकरणे चित्प्रतिबिम्बो जीवः। यह जीव कार्यरूप उपाधि वाला और ईश्वर कारण रूप उपाधि वाला है। इन कार्य और कारण रूप दोनों प्रकार की उपाधियों को छोड़ देने पर विशुद्ध ज्ञान रूप ब्रह्म ही शेष रहता है॥ || २९ ||
विशिष्टाद्वैतिनो वान्ये सगुणैकाभिमानिनः। अशरीरानभिज्ञत्वान्मायापरवशा ध्रुवम् ॥३.३०॥
फिर चाहे वे विशिष्टाद्वैत वादी हों या अन्य कोई जो केवल एक सगुण इकाई को ही सर्वोच्च मानते हैं, वे अशरीरी (निर्गुण ब्रह्म) को न जानने के कारण निश्चित रूप से माया की पकड़ में हैं।
भगवद्गीता में भगवान कहते हैं कि असल में तो यह आत्मा अशरीरी ही है —
‘‘अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।।२.२५।।’’
यह आत्मा अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकारी कहा जाता है; इसलिए इसको इस प्रकार जानकर तुम्हें शोक करना उचित नहीं है।।
निष्कलं निर्गुणं शान्तं निर्विकारं निराश्रयम् ।
निर्लेपकं निरापायं कूटस्थमचलं ध्रुवम् ॥ २.२१॥ योगशिखोपनिषत्
‘‘अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।।२.२६।।
और यदि तुम आत्मा को नित्य जन्मने और नित्य मरने वाला मानो तो भी, हे महाबाहो ! इस प्रकार शोक करना तुम्हारे लिए उचित नहीं है।। यदि सर्वदा जन्ममानं, म्रियमाणं च शरीरमेव त्वम् आत्मत्वेन स्वीकरोषि, आत्मा शरीराद्भिन्नः उपर्युक्तैः लक्षणैः युक्तः इति यदि न स्वीकरोषि च, तर्ह्यपि त्वया एतादृशः अतिमात्रः शोकः अनुचितः। || ३० ||
सर्वज्ञत्वादिधर्माणां कथं साम्यं त्रिमूर्तिषु। त्रयाणां च गुणानां हि वैषम्यं सर्वसंमतम् ॥३.३१॥
सर्वज्ञता आदि गुण तीनों (ब्रह्मा, विष्णु और शिव) में समान रूप से कैसे उपस्थित हो सकते हैं जब कि तीनों गुणों के बीच आपसी टकराव और आपसी तालमेल सभी के द्वारा समान रूप से स्वीकार किया जाता है।
‘‘ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः।
प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि।।१८.१९।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
ज्ञान, कर्म और कर्ता भी गुणों के भेद से सांख्यशास्त्र (गुणसंख्याने जहाँ गुणों की संख्या यानी विचार किया जाता है) में त्रिविध ही कहे गये हैं; उनको भी तुम मुझ से यथावत् श्रवण करो।
और ‘‘न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात् त्रिभिर्गुणैः।।१८.४०।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
पृथ्वी पर अथवा स्वर्ग के देवताओं में ऐसा कोई प्राणी (सत्त्वं अर्थात् विद्यमान वस्तु) नहीं है जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीन गुणों से मुक्त (रहित) हो। || ३१ ||
गुणत्रयवशात्तेषां वैषम्यं विद्धि सुस्थितम्। ब्रह्मा हि राजसः प्रोक्तो विष्णुस्तामस उच्यते ॥३.३२॥
ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीनों में गुणों का वैषम्य तो प्रत्यक्ष ही देखा जाता है। ये तीनों ही एक एक गुण के विशेषाधिकारी हैं, तीनों लोकों में सभी जानते हैं कि उनके बीच एक स्थिर विचलन है। ब्रह्मा का रजोगुण पर प्रभुत्व कहा जाता है, विष्णु का तमस पर प्रभुत्व कहा जाता है।
‘‘त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान्।
अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति।।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः।
समस्त-व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम्।। २७।।(शिवमहिम्नःस्तोत्र)’’
हे सर्वेश्वर!!! ॐ तीन तत्वों से बना है अ, उ, और म जो तीन वेदों (ऋग्, साम, यजु), तीन अवस्था (जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्त), तीन लोकों, तीन कालों, तीन गुणों तथा त्रिदेवों को इंगित करता है। परन्तु हे ॐकारस्वरूप आप तो चौथे अर्धमात्रास्वरूप हैं। आपही इस त्रिगुण, त्रिकाल, त्रिदेव, त्रिअवस्था, और त्रिवेद के समागम हैं। ||३२||
रुद्रः स सात्त्विकः प्रोक्तः मूर्तिवर्णैश्च तादृशाः। चित्स्वरूपानुभूत्या च तारतम्यं निगद्यते ॥३.३३॥
रुद्र का सत्वगुण पर प्रभुत्व कहा जाता है। उनके शरीर (या मूर्तियों) का रंग भी उसी के अनुसार है। जगत के रचयिता रजोगुणी ब्रह्माजी लाल रंग के हैं, तमोगुणी विष्णु काले रंग के हैं जो कि शेष शय्या पर शयन करते हैं और सत्व मूर्ति रुद्र कर्पूरगौर धवल वर्ण के हैं और समाधि में स्थित रहते हैं। क्योंकि उन्होंने अपनी चित्स्वरूपता का अनुभव किया है इसलिए चेतना के रूप में उनका अनुभव होने के कारण, उनके बीच समानता को कहा जाता है। और अपने गुणों के अनुसार ही उनके अनुभव में तरतमता का भाव कहा जाता है।
‘‘शुद्ध स्फटिक संकाशं त्रिनेत्रं पञ्च वक्त्रकम् ।
गङ्गाधरं दशभुजं सर्वाभरण भूषितम् ॥’’
‘‘कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारम्।
सदा बसन्तं हृदयारबिन्दे भवं भवानीसहितं नमामि।।’’
कर्पूर जैसे गौर वर्ण वाले, करुणाके अवतार, संसार के सार, सर्प का हार धारण करने वाले, वे भगवान शिव शंकर माता भवानी के साथ मेरे हृदय में सदा निवास करें। उनको मेरा प्रणाम है।
‘‘शरच्चंद्र गात्रं गणानंदपात्रं त्रिनेत्रं पवित्रं धनेशस्य मित्रम्।
अपर्णा कलत्रं सदा सच्चरित्रं, शिवं शंकरं शंभु मीशानमीडे ॥ ७ ॥ शिवाष्टकम्’’
जिनका शरीर शरत्कालीन -चंद्रमा के जैसा है, जो अपने गणों के लिए सुख का विषय है, जिनके तीन नेत्र हैं, जो शुद्ध हैं, जो कुबेर (धन के नियंत्रक) के मित्र हैं। , अपर्णा (पार्वती) जिनकी पत्नी है, जिसकी शाश्वत विशेषताएं हैं, और जो सभी के स्वामी हैं। मैं ऐसे शिव, शंकर, शंभू, की स्तुति करता हूं, || ३३ ||
निर्विशेषपरब्रह्मानन्यत्वेन तु ते समाः। तथापि शिवशब्दस्य परब्रह्मार्थकत्वतः ॥३.३४॥
परब्रह्म से अलग न होने के कारण, वे सभी (ब्रह्मा, विष्णु आदि) समान हैं। फिर भी, शिव शब्द सर्वोच्च ब्रह्म के लिए ही प्रयुक्त होता है।
(माण्डुक्योपनिषद्) में कहा है कि —
‘‘नान्तःप्रज्ञं न बहिष्प्रज्ञं नोभयतःप्रज्ञं न प्रज्ञानघनं न प्रज्ञं नाप्रज्ञम्| अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः ॥ ७ ||’’
वह न अन्तःप्रज्ञ है न बहिष्प्रज्ञ है, न उभय-प्रज्ञ अर्थात् अन्तः एवं बहिष्प्रज्ञ एक साथ है, न वह प्रज्ञान-घन है, न प्रज्ञ (ज्ञाता) है, न अप्रज्ञ (अज्ञाता)। वह जो अदृष्ट है, अव्यवहार्य है, अग्राह्य है, अलक्षण है, अचिन्त्य है, अव्यपदेश्य अर्थात् अनिर्देश्य है, ‘आत्मा’ के ऐकान्तिक अस्तित्व का बोध ही जिसका सार है, ‘जिसमें’ समस्त प्रपञ्चात्मक जगत् का विलय हो जाता है, जो ‘पूर्ण शांत’ है, जो ‘शिवम्’ है-मंगलकारी है, और जो ‘अद्वैत’ है, ‘उसे’ ही चतुर्थ (पाद) माना जाता है; ‘वही’ है ‘आत्मा’, एकमात्र ‘वही’ ‘विज्ञेय’ (जानने योग्य तत्व) है। || ३४ ||
साक्षिणा निर्विकारेण चिन्मात्रेण महात्मना। सदाशिवेन नित्येन केवलेन समो न हि ॥३.३५॥
(पिछले श्लोक से जारी है) अनुग्रह विग्रह साम्बसदाशिव के समान कोई नहीं है, क्योंकि वे साक्षी हैं तथा (निर्विकार) परिवर्तनशीलता से रहित, अकेले, केवल शुद्ध चेतन रूप, महान, शाश्वत, और एकमात्र हैं इसलिए उन सदाशिव के समान कोई नहीं है।
‘‘एको हि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थुर्य इमांल्लोकानीशत ईशनीभिः।
प्रत्यङ्जनांस्तिष्ठति सञ्चुकोचान्तकाले संसृज्य विश्वा भुवनानि गोपाः ||३.२||’’ श्वेताश्वतरोपनिषद्
जो समस्त लोकों की रक्षा तथा उन पर शासन करता है वह, रुद्र, वास्तव में केवल एक ही है। उसके समीप कोई नहीं है जो उसे दूसरा बना सके। वह सभी प्राणियों के हृदय में विद्यमान है। सभी जगतों का सृजन और पालन करने के बाद अंत में वह अपने आप में इसे निवर्तित कर लेता है।
अजं शाश्वतं कारणं कारणानां शिवं केवलं भासकं भासकानाम्।
तुरीयं तमःपारमाद्यन्तहीनं प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम्।।७।। (श्रीशङ्कराचार्यकृतं-वेदसारशिवस्तोत्रम्)
हे अजन्मा (अनादि), आप शाश्वत हैं, नित्य हैं, कारणों के भी कारण हैं। हे कल्याण मूर्ति (शिव) आप ही एक मात्र प्रकाशकों को भी प्रकाश प्रदान करने वाले हैं। आप तीनों अवस्थाओं से परे हैं। हे अनादि, अनंत आप जो कि अज्ञान से परे हैं, आपके उस परम पावन अद्वैत स्वरूप को नमस्कार है। मैं आपकी चरण शरण ग्रहण करता हूँ | ३५ ||
सांबस्य चन्द्रचूडस्य नीलकण्ठस्य शूलिनः। उत्कर्षोऽस्ति स्वतःसिद्धः किं मया प्रतिपाद्यते ॥३.३६॥
शिव का वर्चस्व सर्वोपरि है। जिनके सिर पर चंद्रमा है, जो नीले रंग के कंठ वाले हैं, त्रिशूल धारण करने वाले हैं, अम्बा के साथ रहने वाले हैं तथा जो स्वयं परमात्मा हैं। उनका उत्कर्ष तो स्वतःसिद्ध है। {भगवान सूर्य कहते हैं} कि यह (केवल) मेरे द्वारा कैसे प्रतिपादित किया जा सकता है?
‘‘प्रभो शूलपाणे विभो विश्वनाथ महादेव शंभो महेश त्रिनेत्र।
शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्यः||९||’’
(श्रीशंकराचार्यद्वारा रचित वेदसार शिवस्तोत्र)
हे त्रिशूलधारी! हे विभो विश्वनाथ! हे महादेव! हे शंभो! हे महेश! हे त्रिनेत्र! हे पार्वती वल्लभ! हे शान्त! हे स्मरारे (कामदेव के शत्रु) ! हे त्रिपुरारे! आपके समक्ष न कोई श्रेष्ठ है, न वरण करने योग्य है, न मान्य है और न गणनीय ही है। ||३६||
आदौ मां जनयामास ब्रह्मा साक्षाच्चतुर्मुखः । यथा तथा विरिंचिं तं श्रीमान्नारायणो हरिः ॥ ३.३७ ॥
जिस तरह से चार मुख वाले ब्रह्मा ने मुझे शुरुआत में पैदा किया, उसी तरह से श्री हरि, नारायण ने ब्रह्मा को बनाया।
‘‘कर्तारं जगतां साक्षात्प्रकृतेश्च प्रवर्तकम्।
सनातनमजं विष्णुं विरिंचिं विष्णु संभवम् || २.१.७.२९||’’ (शिवपुराणम्)
(तथा च लैङ्गे-लिङ्गपुराणम् – पूर्वभागः/अध्यायः १७)
सुप्ते नारायणे देवे नाभेः पङ्कजमुत्तमम् ।
अनन्तयोजनायाममुदभूच्च ततो विधिः ||३.४.२०.५७|| भविष्यपुराणम् || ३७ ||
यतोऽभवन्महाविष्णुर्ममारुण पितामहः। ततो मे सुप्रसिद्धाभूत्सूर्यनारायणाभिधा ॥३.३८॥
हे अरुण ! जब से महाविष्णु मेरे दादाजी (पितामह) बने, तब से मेरा नाम सूर्यनारायण हो गया।
‘‘आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी।।१०.२१।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
तथा इस प्रकार भी मेरा ध्यान किया जा सकता है –, द्वादश आदित्योंमें मैं विष्णु नामक आदित्य हूँ। प्रकाश करनेवाली ज्योतियोंमें मैं किरणोंवाला सूर्य हूँ। वायुसम्बन्धी देवताओंके भेदोंमें मैं मरीचि नामक देवता हूँ और नक्षत्रोंमें मैं शशी — चन्द्रमा हूँ। || ३८ ||
नैतेन सकलेशस्य प्रपितामहतावशात्। सर्वोत्कृष्टत्वसंसिद्ध्या लुप्यते ह्यान्तरात्मना ॥३.३९॥
लेकिन इसके द्वारा, (जो कि नारायण या विष्णु मेरे पूर्वज होने और उनके नाम पर मेरे नाम होने के नाते), सकल विश्वेश्वर शिव की स्थिति का अनादर नहीं होता है क्योंकि वे तो प्रपितामह हैं और सर्वोत्कृष्ट तथा सभी के स्वामी हैं | अतः उनका अन्तर्यामित्व लुप्त नहीं होता। क्योंकि वे मेरे परदादा हैं और उनका सर्वोच्च होना सिद्ध है।
‘‘तस्मै नमः परमकारणकारणाय दीप्तोज्ज्वलज्ज्वलितपिङ्गललोचनाय । नागेन्द्रहारकृतकुण्डलभूषणाय ब्रह्मेन्द्रविष्णुवरदाय नमः शिवाय ॥१॥ शिवाष्टकम्’’
उसे नमस्कार, जो सभी कारणों के पीछे महान कारण है, जिसकी भूरी आँखें (सारी सृष्टि के पीछे) रोशनी से जगमगाती हैं, जिसकी माला सर्पों के राजा (सर्पों) द्वारा बनाई गई है, जो उसे कान के छल्ले के रूप में भी सजाते हैं, जो ब्रह्मा, इन्द्र और विष्णु को वरदान देते हैं; उस शिव को नमस्कार। ||३९||
अथवा योगवृत्या स्याच्छिवो नारायणाभिधः। तद्दृष्टिर्मयि कर्तव्योपासकैरिति सन्मतम् ॥३.४०॥
या फिर, योग की शक्ति के माध्यम से, शिव को नारायण (विष्णु) के रूप में जाना जाता है। उपासकों द्वारा मेरे प्रति भी ऐसा ही रवैया अपनाया जा सकता है। यह संतों का मत है और सही भी है।
‘‘शिवाय विष्णु रूपाय शिव रूपाय विष्णवे।
शिवस्य हृदयं विष्णुः विष्णोश्च हृदयं शिवः ||८ ||
यथा शिवमयो विष्णुरेवं विष्णुमयः शिवः ।
यथान्तरं न पश्यामि तथा मे स्वस्तिरायुषि ॥ ९॥’’ {स्कन्दोपनिषत्}
यथा शिवस्तथा विष्णुर्यथा विष्णुस्तथा शिव: ।
अन्तरं शिवविष्ण्वोश्च मनागपि न विद्यते ||४.२३.४१|| स्कन्दपुराणम्
अर्थ = “जैसे शिव हैं, वैसे ही विष्णु हैं तथा जैसे विष्णु हैं, वैसे ही शिव हैं । शिव और विष्णु में तनिक भी अंतर नहीं है।
“आदित्यञ्च शिवं विन्द्याच्छिवमादित्यरूपिणम्।
उभयोरन्तरं नास्ति आदित्यस्य शिवस्य च॥”
आदित्य शिव रूप हैं और शिव आदित्य रूप हैं शिव और आदित्य में कोई अंतर नही है |||४०||
कर्मोपासनबोधेषु ब्रह्मविष्णुशिवाः क्रमात्। प्रसिद्धा इति संत्यज्य धियं शृणु वचो मम ॥३.४१॥
इस सोच को त्याग दें कि ब्रह्मा, विष्णु और शिव क्रमशः कर्म, उपासना और ज्ञान से जुड़े हैं और मेरे शब्दों को ध्यानपूर्वक श्रवण करें। ||४१||
त्रिषु त्रयः प्रसिद्धाः स्युस्तारतम्येन चारुण। काम्यकर्मप्रधानोऽस्ति स्वयंभूश्चतुराननः ॥३.४२॥
हे अरुण ! ये तीनों (ब्रह्मा, विष्णु और शिव) तीनों (कर्म, उपासना और ज्ञान) के साथ तारतम्य रूप से जुड़े हुए हैं। परन्तु स्रष्टा स्वयंभू चार मुख वाले भगवान ब्रह्मा में काम्य कर्तव्यों की प्रधानता प्रसिद्ध है। || ४२ ||
नैमित्तिकप्रधानोऽस्ति विष्णुः कमललोचनः। नित्यकर्मप्रधानः स शिवः साक्षात्त्रिलोचनः ॥३.४३॥
कमलनयन विष्णु जी नैमित्तिक कर्तव्यों के लिए प्रसिद्ध हैं। और नित्य कर्मों में तीन आंखों वाले शिव जी प्रसिद्ध हैं । || ४३ ||
मूर्त्युपास्तौ विधिर्मुख्यस्त्वंशोपास्तौ हरिर्मतः। निरंशोपासने मुख्यो नीलकण्ठो हरो मतः ॥३.४४॥
मूर्ति-पूजा में, ब्रह्मा जी की प्राथमिकता है तथा अवतार की पूजा में विष्णु जी की प्राथमिकता है। जबकि (निर्गुण, निराकारकी) गैर-अवतार की पूजा में, नीले गले वाले हर (नीलकंठ महादेव) को विशेष माना जाता है। || ४४ ||
ज्ञाने श्रवणजे ब्रह्मा विज्ञाने मननोदिते। विष्णुः स सम्यग्ज्ञाने तु निदिध्यासनजे शिवः ॥३.४५॥
श्रुतिजन्य श्रवणके माध्यमसे पैदा हुए ज्ञानमें, ब्रह्मा विशेष हैं, चिंतन-मननके माध्यमसे पैदा हुए ज्ञान में विष्णु विशेष हैं और सम्यक् ज्ञान तथा ध्यान (निदिध्यासन) के माध्यमसे पैदा हुए ज्ञान में, शिवजी विशेष हैं। || ४५ ||
अत्रैवं सति कस्याभूदाधिक्यमरुणाधुना। त्वमेव सम्यगालोच्य विनिश्चिनु महामते ॥३.४६॥
हे अरुण ! अब जब कि ऐसी स्थिति है तो किसका वर्चस्व स्थापित हुआ ? अतः हे बुद्धिमान! अब आप स्वयं उचित विचार-विमर्श के बाद निर्णय लीजिये । || ४६ ||
पुरा कश्चिन्महाधीरः शिवभक्ताग्रणीर्द्विजः। शिवाख्याजपसंसक्तश्चचार भुवि निस्पृहः ॥३.४७॥
पूर्वकाल में कोई परम धैर्यशाली बुद्धिमान ब्राह्मण थे जो शिव के सबसे बड़े भक्त थे, और शिव का नाम जपने के लिए ही समर्पित थे। और सभी प्रकार की इच्छाओं से पूरी तरह से मुक्त होकर इस पृथ्वी पर विचरण करते थे | || ४७ ||
स्वाश्रमाचारनिरतो भस्मरुद्राक्षभूषणः। सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञः कामक्रोधादिवर्जितः ॥३.४८॥
वे ब्राह्मणदेव हमेशा अपने आश्रम के कर्तव्यों को निभाने में तत्पर रहते थे; उनके पास आभूषणों के रूप में पवित्र-राख और रुद्राक्ष के मोती थे; वे सभी शास्त्रों का वास्तविक अर्थ जानते थे और काम, क्रोध, वासना आदि से रहित थे। || ४८ ||
शमादिषट्कसम्पन्नः शिवभक्तजनादरः। शिवस्य वैभवं स्मृत्वा श्रुतिस्मृतिपुराणगम् ॥३.४९॥
वे ब्राह्मणदेव शमादि षट्सम्पत्ति (शम, दम, श्रद्धा, उपरति, तितिक्षा और समाधान), रूप इन्द्रिय-नियंत्रण आदि के छह गुणों से संपन्न थे; {शमादि षट्सम्पत्ति का विवेचन इस प्रकार है। मन को इन्द्रियों के विषयों से हटाना ‘शम’ है। इन्द्रियों को विषयों से हटाना ‘दम’ है। ईश्वर, शास्त्र आदि पर पूज्य भावपूर्वक प्रत्यक्ष से भी अधिक विश्वास करना ‘श्रद्धा’ है। वृत्तियों का संसार की ओर से हट जाना ‘उपरति’ है। सरदी-गरमी आदि द्वन्द्वों को सहना, उनकी उपेक्षा करना ‘तितिक्षा’ है। अन्तःकरण में शंकाओं का न रहना ‘समाधान’ है।} वे महात्मा शिवके सभी भक्तजनों का बहुत ही आदर करते थे; और श्रुतियों, स्मृतियों, शिलालेखों और पुराणों में उल्लिखित शिव की पारदर्शिता और वैभव को याद करते हुए (अगले श्लोक में जारी) || ४९ ||
सर्वेश्वरस्य सांबस्य त्रिनेत्रस्य दयानिधेः। सदाशिवस्य माहात्म्यं स्वत एवेदमब्रवीत् ॥३.५०॥
(शिव की महिमा को याद करते हुए) शिव की महानता, {सर्वेश्वरत्व} सभी के स्वामी, अम्बा को उनकी अपनी पत्नी के रूप में साथ लिए हुए, तीन आंखों वाले, दया के सागर, सदाशिव का माहात्म्य {अपने आप ही अपने अंतर्मन से} उन्होंने अपने दम पर यह कहा। || ५० ||
पश्वादिभ्यो वरिष्ठाः क्षितिगतमनुजास्तेभ्य एवेन्द्रमुख्यः
देवास्तेभ्यो विधाता हरिरपि च ततः शंकरो यस्त्रिनेत्रः।
नान्योऽस्माच्छंकरात्तु श्रुतिषु निगदितो वा वरिष्ठः समो वा
सर्वान्विष्ण्वादिकांस्तं न हि वयमधुना नूनमेवाश्रयामः ॥३.५१॥
पृथ्वी पर मनुष्य जानवरों आदि से श्रेष्ठ हैं; इंद्र और अन्य देवता उन मनुष्यों से श्रेष्ठ हैं; देवताओं से श्रेष्ठ ब्रह्मा जी हैं और विष्णु उनसे भी श्रेष्ठ हैं; फिर शंकर जी जो तीन आंखों वाले हैं वे उन सबसे भी श्रेष्ठ हैं। श्रुतियों में कोई भी शंकर के समान अथवा उनसे श्रेष्ठ या वरिष्ठ घोषित नहीं किया जाता है। अतः अब हम निश्चित रूप से किसी विष्णु या अन्य देवताओं पर नहीं बल्कि शंकर पर ही निर्भर होंगे। शिवानन्द लहरी में कहा है कि —
‘‘असारे संसारे निजभजनदूरे जडधिया भ्रमन्तं मामन्धं परमकृपया पातुमुचितम् ।
मदन्यः को दीनस्तव कृपणरक्षातिनिपुण- स्त्वदन्यः को वा मे त्रिजगति शरण्यः पशुपते|| १३ ||
हे पशुपति ! अपने प्राप्तव्य से अत्यंत भिन्न असार संसार में अपनी मूढ़बुद्धि के कारण भटकते हुए मुझ अन्धे की आपकी अहैतुकी कृपा से रक्षा हो (यह) उचित है। आपके लिए तीनों लोकों में मुझसे भिन्न दीन कौन होगा (जिस पर कृपा करके आप उसकी रक्षा करेंगें) और मेरे लिए तीनों लोकों में आपसे भिन्न कौन शरण लेने योग्य तथा दुःखी की रक्षामें कौन कुशल होगा ? अतः आप ही मेरे शरण्य हैं। ब्रह्मस्तुति में पण्डित भीमसेन शर्मा जी कहते हैं कि —
त्वमेकं शरण्यं त्वमेकं वरेण्यं, त्वमेकं जगत्पालकं स्वप्रकाशम्।
त्वमेकं जगत्कर्तृ पातृ प्रहर्तृ, त्वमेकं परं निश्चलं निर्विकल्पम्॥२॥
आप ही एक शरण लेने योग्य हैं, आप ही एक वरण करने योग्य हैं, आप ही एक जगत् को पालन करने वाले तथा स्वप्रकाशस्वरूप हैं, इस जगत के कर्ता, रक्षक और संहार करने वाले भी आप ही हैं तथा सबके परे निश्चल और निर्विकल्प ब्रह्म भी आप ही हैं ॥ ||५१||
मूलाधारे गणेशस्तदुपरि तु विधिर्विष्णुरस्मात्ततोऽयं
रुद्रस्थाने चतुर्थे श्रुतिरपि च तथा प्राह शांतं चतुर्थम्।
अस्मादन्यः शिवोऽस्ति त्रिपुरहर इतो वा सदाद्यः शिवोऽस्ति
स्वस्थोऽयं द्वादशान्तप्रबलनटनकृच्चापि साक्षात्सभेशः ॥३.५२॥
गणेश मूलाधार में रहते हैं, उससे भी ऊपर वाले चक्र में ब्रह्मा तथा उसके ऊपर वाले चक्र में विष्णु और फिर ये (शिव) चौथे (चक्र) में निवास करते हैं, जिसे रुद्रस्थान भी कहा जाता है।
‘‘प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते’’ श्रुति यह भी कहती है कि चौथे चक्र को शांतिपूर्ण कहा जाता है। इसके बाद पांचवें स्थान में त्रिपुर हर (तीन शहरों के विनाशकर्ता के रूप में शिव) का नाम आता है, अगला है सदाशिव, जो एक मात्र प्रधान हैं। जिनका स्थान द्वादशान्त है जो अपने आप में ही अपना रहस्योद्घाटन करते हैं और वे नृत्य के स्वामी नटराज जिनको (चित्सभेश) कहते हैं। जो सहस्रार चक्र में उग्र नृत्य, आनन्द (तांडव) करते हैं। ||५२||
{विशेष टिप्पणी}
षट्चक्र एवं उनके देवता और ग्रह
क्र.सं. षट्चक्र, अधिष्ठातृदेवता, कारकग्रह , शक्ति
१. मूलाधार गणेश बुध डाकिनी
२. स्वाधिष्ठान ब्रह्मा शुक्र राकिनी
३. मणिपूर विष्णु शनि लाकिनी
४. अनाहत रुद्र मंगल काकिनी
५. विशुद्ध त्रिपुरारी चन्द्र शाकिनी
६. आज्ञा हर गुरु हाकिनी
७. सहस्रार सदाशिव सूर्य कामिनी
डाकिनी राकिनी देवि लाकिनी काकिनी ततः । शाकिनी हाकिनी संज्ञा सत्व-रूपा ततः प्रिये ।।
(१) मूलाधार-चक्र।
इस चक्र का स्थान लिंग और गुदा के मध्य ‘कन्द’ भाग में है। चक्र का कमल रक्त वर्णका हैं इसके ४-दलों पर वं शं षं सं अक्षरहैं। चक्र के यंत्र का आकार चतुष्कोण (चतुर्भुज) है। यंत्र का रंग लाल तथा बीज लं है। बीज का वाहन ऐरावत हाथी है। यंत्र के देवता तथा शक्ति ब्रह्मा और डाकिनी है। चक्र का यंत्र पृथ्वी तत्व का द्योतक है। इस चक्र के ध्यान से वाचा सिद्धि, दीर्घायु तथा कार्यदक्षता प्राप्त होती है।
(२) स्वाधिष्ठान-चक्र।
इस चक्र का स्थान लिंग मूल के सामने है। कमल दलों की संख्या-६ है। जिन पर बं से लं तक अक्षर हैं। इस चक्र के यंत्र का आकार अर्धचंद्राकार है। यंत्र का रंग शुभ्र है। बीज वं है जिसका वाहन मकर है। यंत्र के देवता तथा शक्ति विष्णु और राकिनी है। यंत्र जल तत्व का घोतक है। इस चक्र के ध्यान से स्रजन एवं पालन करने की सामर्थ्य हो जाती है। साधक में अहंकार-शून्यता के साथ ही गद्य-पद्य रचने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है।
(३) मणिपूर-चक्र
चक्र का स्थान नाभि के पीछे है। कमल दलों की संख्या १० है। जिन पर डं से फं तक अक्षर हैं। दलों का रंग पीला है। चक्र के यंत्र का आकार त्रिकोणात्मक है। यंत्र उगते हुए सूर्य के समान रक्तवर्णी है। यंत्र का बीज रं है तथा वाहन मेष है। यंत्र के देवता तथा शक्ति क्रमशः रूद्र तथा लाकिनी है। यह यंत्र अग्नि तत्व का द्योतक है। इस चक्र के ध्यान से सरस्वती की कृपा प्राप्त होती है तथा साधक में पालन एवं संहार की क्षमता उत्पन्न होती है।
(४) अनाहत-चक्र।
यह चक्र हृदय के सामने स्थित है। इसके कमल दलों का रंग लाल है। कमल दलों की संख्या १२ है जिस पर कं से ठं तक १२ अक्षर है। चक्र का यंत्र षट्कोण है तथा धूम्रवर्ण का है। यंत्र का बीज यं है जिसका वाहन मृग है। यंत्र के देवता तथा शक्ति क्रमशः ईशान तथा काकिनी है। यह यंत्र वायु तत्व का द्योतक है। इसके ध्यान से व्यक्ति सृष्टि, स्थिति तथा संहार करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है। साधक में परकाया प्रवेश करने की क्षमता तथा बृहस्पति के समान विद्वत्ता प्राप्त हो जाती हैं।
(५) विशुद्धि-चक्र।
इस चक्र की स्थिति कंठ के सामने है। कमल दलों का वर्ण धूम्र तथा संख्या १६ है जिन पर अं से अः तक अक्षर अंकित है। इस चक्र का यंत्र पूर्ण चन्द्राकार है। यंत्र का बीज हं है। जिसका वाहन हाथी है। यंत्र के देवता तथा शक्ति क्रमशः सदाशिव तथा शाकिनी हैं। यह यंत्र आकाश तत्व का द्योतक है। चक्र के ध्यान से साधक नीरोग, दीर्घजीवी, त्रिकालदर्शी तथा समस्त लोकों का कल्याण कर सकता है।
(६) आज्ञा-चक्र।
यह चक्र भ्रूमध्य में स्थित है। इसके कमल दल २ है जिनका वर्ण श्वेत है। इन दलों पर हं तथा क्षं अंकित है। इस चक्र का चित्र अर्धनारीश्वर का लिंग (इतर लिंग) है जो विद्युत की चमक के समान प्रकाशमान है। यंत्र का बीज प्रणव है जिसका वाहन नाद है । यंत्र के देवता तथा शक्ति क्रमशः अर्धनारीश्वर तथा हाकिनी हैं। यह यंत्र महत्तत्व का द्योतक हैं। इसके ध्यान से साधक सर्वदर्शी, सर्वज्ञ तथा परोपकारी बन जाता है तथा उसमें परकाया प्रवेश करने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है।
(७) सहस्रार-चक्र।
मेरुदण्ड के सबसे ऊपरी सिरे का (स्थान) पर एक हजार कमलदलों वाला श्वेतवर्णी सहस्रार चक्र स्थित है। स्वरों तथा व्यंजनों अ से क्ष तक (संख्या-५०) को २० बार लिखकर उसे पूर्ण किया गया है। इस चक्र में परमशिव विराजमान रहते हैं जिनसे मिलने के लिए मूलाधार स्थित कुंडलिनी-शक्ति सदैव आतुर रहती है। मूलाधार से कुंडलिनी का उत्थापन करके षट् चक्रों का भेदन करते हुए सहस्रार में विद्यमान परमशिव से मिलना ही शक्ति उपासक का चरम लक्ष्य होता है। इस कमल की कर्णिका में सम्पूर्ण चन्द्रमण्डल विद्यमान रहता है, इस मंडल के मध्य में त्रिकोण है जिसके मध्य में शून्य (बिन्दु) स्थित है। यहॉं पहुँच कर साधक को जीवात्मा तथा परमात्मा का अभेदज्ञान प्राप्त हो जाता है। यही शक्ति साधना का अंतिम सोपान है।
उपरोक्त विवरण ‘षट्चक्र निरूपण’ नामक ग्रन्थ पर आधारित है। प्राचीन ग्रन्थों में मूलाधार से सहस्रार तक के देवी-देवता क्रमशः (१ गणेश-सिद्धि, बुद्धि) (२ब्रह्मा-सरस्वती) (३ विष्णु-लक्ष्मी) (४ शिव-पार्वती) (५ जीव-प्राणशक्ति) तथा आज्ञा में (६ गुरु तथा ज्ञान शक्ति है।)
तथा सौन्दर्यलहरी में ‘षट्चक्र निरूपण’ इस प्रकार किया गया है —
महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहं
स्थितं स्वाधिष्ठाने हृदि मरुतमाकाशमुपरि ।
मनोऽपि भ्रूमध्ये सकलमपि भित्वा कुलपथं
सहस्रारे पद्मे सह रहसि पत्या विहरसे ॥ ९॥ (सौन्दर्यलहरी)
मूलाधारचक्रमें पृथ्वीतत्त्वको, मणिपुरचक्रमें जल और अग्नितत्त्वको स्वाधिष्ठानचक्रमें, हृदयमें वायुतत्त्वको और इसके ऊपर विशुद्धचक्रमें आक्राशतत्त्वको तथा भ्रूकुटिके मध्यमें मन-तत्त्वको इस प्रकार कुण्डलिनी-शक्तिके तमाम मार्गोंको वींधकर तुम हजार पंखडीवाले कमल में (सहस्रारचक्रमें) पतिके साथ एकांतमें विहार करती हो।
क्षितौ षट्पञ्चाशद् द्विसमधिकपञ्चाशदुदके
हुताशे द्वाषष्टिश्चतुरधिकपञ्चाशदनिले ।
दिवि द्विष्षट्त्रिंशन्मनसि च चतुष्षष्टिरिति ये
मयूखास्तेषामप्युपरि तव पादाम्बुजयुगम् ॥ १४॥ (सौन्दर्यलहरी)
षट्चक्रमें जो सबसे ऊपरवाला स्थान है वहीं आपका निवास है। पृथ्वीतत्त्ववाले (मूलाधारमें) ५६ छप्पन, जलतत्त्व वाले (मणिपुरस्थानमें) ५२ बावन, अग्नितत्ववाले (स्वाधिष्ठानचक्रमें) ६२ बासठ, वायुतत्त्ववाले (अनाहत-चक्रमें) ५४ चौवन, आक्राशतत्त्ववाले (विशुद्रिचक्रमें) ७२ बहत्तर और मनस्तत्त्ववाले (आज्ञाचक्रमें) चौंसठ इस प्रकार आपकी किरणें प्रसिद्ध हैं। और इन सबके ऊपर (सहस्रार-चक्रमें) कमलके समान आपके दोनों चरण विराजमान हैं। ५६+५२+६२+५४+७२+६४ = ३६० ये चान्द्र-वर्षके ३६० दिन हैं जो छः ऋतुओं में विभक्त हैं। देवीको चन्द्र-कला-विद्या भी कहा जाता है।
रौद्री शक्तिस्तथा स्यादयमपि च हरिः शाक्त एवं विरिंचो
मन्तव्यो वैष्णवोऽमी सनकमुखमहाब्राह्मणा ब्राह्मणाश्च।
तस्मादेवं विभक्ते न हि भवति हरेरंशितांशांशिभावे
साक्षादप्यत्र नित्यं परमशिवमहं चांशिनं तं नमामि ॥३.५३॥
शक्ति (शायद कुंडलिनी?) भी रुद्र की है। इसलिए ये हरि भी शाक्त हैं । (ऐसा इसलिए है क्योंकि विष्णु सहित सभी प्राणियों में सात चक्र और कुंडलिनी की सभी शक्तियां निवास करती हैं। चूंकि वे सारी शक्तियां शिवजी की हैं इसलिए हर कोई शैव हो जाता है या समकक्ष रूप से शाक्त हो जाता है।) इसी प्रकार ब्रह्माजी को भी शाक्त माना जाना चाहिए। अन्य ऋषि जैसे सनक आदि जिन्हें वैष्णव माना जाता है, उन्हें भी शाक्त माना जाना चाहिए। तथा मरीचि,अत्रि,भृगु आदि भी शैव हैं। ऐसा होने के नाते, संपूर्ण विश्व जिनका एक अंश है, एक हिस्सा है, वह विष्णु नहीं हैं, अपितु शिव हैं। इसलिए मैं हमेशा शिव को नमन करता हूं, जो संपूर्ण हैं, जिनमें बाकी सब कुछ एक अंश है, एक हिस्सा है और शिव अंशी हैं। महाराज जनक के यहां शिवजी ने अपना धनुष रखा इससे जनक भी शैव सिद्ध होते हैं।
‘‘इन्ह सम काँहु न सिव अवराधे। काहिं न इन्ह समान फल लाधे।।’’
इन (दोनों राजाओं) के समान किसी ने शिवजी की आराधना नहीं की और न इनके समान किसी ने फल ही पाए।
महाराज दशरथ जब राम की बरात लेकर चलते हैं तब सबसे पहले शिवजी को ही प्रणाम करते हैं।
‘‘तेहिं रथ रुचिर बसिष्ठ कहुँ हरषि चढ़ाई नरेसु।
आपु चढ़ेउ स्यंदन सुमिरि हर गुर गौरि गनेसु॥३०१॥बालकाण्ड’’
भावार्थ — उस सुंदर रथ पर राजा ने वशिष्ठजी को हर्ष पूर्वक चढ़ाकर फिर स्वयं शिव, गुरु, गौरी (पार्वती) और गणेशजी का स्मरण करके स्वयं (दूसरे) रथ पर चढ़े।
सौन्दर्य लहरी में आचार्य शंकर कहते हैं —
‘‘ शिवः शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितुं न चेदेवं देवो न खलु कुशलः स्पन्दितुमपि। अतस्त्वामाराध्यांहरिहरविरिञ्चादिभिरपि प्रणन्तुं स्तोतुं वा कथमकृत पुण्यः प्रभवति।।१।।’’
यदि शिव शक्ति से युक्त होकर ही सष्टि करने में शक्तिमान् होता है और यदि ऐसा न होता तो वह ईश्वर भी स्पन्दित होने मे समर्थ नहीं था इसलिये तुझे जो कि हरि, हर और ब्रह्मा की भी आराध्य देवता है, उसको किसी भी पुण्यहीन मनुष्य में प्रणाम करने अथवा स्तुति करने की प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ?
तथा कामकलाविलास में पुण्यानन्दनाथ जी कहते हैं —
सा जयति शक्तिराद्या निजसुखमयनित्यनिरुपमाकारा।
भाविचराचर बीजं शिवरूपविमर्शनिर्मलादर्शः ||२||(काम कला विलास) ||५३||
शंभोरन्यन्न पश्याम्यहमिह परमे व्योम्नि सोमाच्छ्रुतौ वा
यस्यैवैतेन भासा जगदखिलमिदं भासते चैत्य रूपम्।
यच्छीर्षांघ्री दिदृक्षू द्रुहिणमुररिपू सर्वशक्त्याप्यदृष्ट्वा
खेदन्तौ जग्मतुस्तं परमशिवममुं त्वां विना कं नु वंदे ॥३.५४॥
मैं शंभू या साम्बसदाशिव {उमया सहितः सोमः} के अलावा किसी और को परम आकाश में नहीं देखता। जिसके प्रकाशसे, श्रुतियों के अनुसार, संपूर्ण ब्रह्माण्ड एक चेतना के साथ (चैत्य रूप में) चमक रहा है। तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति इति। एकवार यह देखने के लिए कि उन शिवजी का सिर और पैर कहाँ हैं ब्रह्मा और विष्णु ने अपनी सारी शक्तियों के प्रयोग के बावजूद भी सफलता नहीं पाई और अंत में थक गए और दुखी होकर आपकी (शिवजी की) शरण में गए। अतः हे परम शिव मैं आपको छोड़कर और किसके सामने झुक सकता हूं ? किसकी वंदना करूं ?
महिम्नकार पुष्पदन्ताचार्य कहते हैं —
‘‘तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरधः परिच्छेतुं यातावनलमनलस्कन्धवपुषः।
ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत् स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति॥ १०॥’’
एक समय आपके पूर्ण स्वरूप का भेद जानने हेतु ब्रह्मा एवं विष्णु क्रमश: ऊपर और नीचे की दिशाओं में गए। पर उनके सारे प्रयास विफल हुए। जब उन्होंने भक्ति मार्ग अपनाया तभी वे लोग आपको जान पाए। क्या आपकी भक्ति कभी विफल हो सकती है? अर्थात् आपकी अनुवृत्ति क्या क्या फल नहीं देती ? मतलब सब कुछ देती है।
‘‘बाणत्वं वृषभत्वमर्धवपुषा भार्यात्वमार्यापते
घोणित्वं सखिता मृदङ्गवहता चेत्यादि रूपं दधौ ।
त्वत्पादे नयनार्पणं च कृतवान् त्वद्देहभागो हरिः
पूज्यात्पूज्यतरः स एव हि न चेत् को वा तदन्योऽधिकः ॥ ८२॥शिवानन्दलहरी’’
हे उमापति! भगवान विष्णु आपके लिये अनेक रूप धारण करते आये हैं, त्रिपुर संहारके समय वे आपके लिये वाण बने, बृषभरुप में वाहन बने, अर्धाङ्गिनी के रूप में भार्या बने, सूकर बनकर पृथ्वी खोदते -खोदते शिव के चरणों तक पहुँचने का प्रयास किया, मोहिनी रूप में सहचरी बने, आपके कीर्तन में मस्त होकर मृदङ्ग बजाते हैं, और तो और, जब सहस्र कमल से अर्चना के समय एक कमलपुष्प कम पड़ गया तो, उसके स्थान पर, अपना नेत्र अर्पण करने को तत्पर हो गये, उनसे बढ़कर शिव का प्रिय दूसरा कौन हो सकता है !!
भास्करराय तो कहते हैं कि —
वितरन् हरये तपस्यते पदरेखाजनितं सुदर्शनम्।
वपुरर्धमपि प्रियाय ते प्रथितस्त्वं भुवि विष्णुबल्लभ:।।
तपस्या करते हुए विष्णु को, चरण नख किरणों से समुत्पन्न सुदर्शन चक्र प्रदान कर उन्हें अपना आधा शरीर प्रदान कर दिया इसलिए आप विष्णुवल्लभ हैं। ||५४||
यं विष्णुर्नावपश्यत्यखिलजनभयध्वंसकं काशिकायां
लिंगं चोपास्त इत्यप्यधिकभसितरुद्राक्षसंभूषितः सन्।
जाबालेये बृहत्यप्यथ हरिजनिता श्रूयते सोम एकः
पायाच्छ्रुत्यन्तसिद्धो जनिमृतिभयभृत्संसृतेस्तारको माम् ॥३.५५॥
सभी पुरुषोंके भयका नाश करनेवाले जिन शिवजीको , यहां तक कि विष्णु भी उन्हें नहीं देख पाते और रुद्राक्ष और भस्म से सुशोभित होकर, काशीमें लिंगके सामने बैठते हैं (उनकी पूजा करने के लिए); सोमा (उमा सहित महेश्वर) जिसे जाबाली और बृहदारण्यक (उपनिषद) में विष्णु के एक पूर्वज के रूप में सुना जाता है, जिनका उपनिषदोंमें इस संसारसे मुक्तिदाता और विष्णुके जन्मदाता होनेका निरूपण किया जाता है, मैं जो कि जन्म और मृत्यु रूपी संसार के भयसे डरा हुआ हूँ, वे उपनिषदों में प्रसिद्ध (शिव) मेरी रक्षा करें। (भक्त्या नम्रतनोर्विष्णोः प्रसादमकरोद्विभुः।) बृहज्जाबालोपनिषत् में विष्णु के द्वारा शिवोपासनाका वर्णन इस प्रकार है —
‘‘ततो भस्म भक्षयेति हरिमाह हरस्ततः ।
भक्षयिष्ये शिवं भस्म स्नात्वाहं भस्मना पुरा ॥ ७॥
पृष्टेश्वरं भक्तिगम्यं भस्माभक्षयदच्युतः ।
तत्राश्चर्यमतीवासीत्प्रतिबिम्बसमद्युतिः ॥ ८॥
वासुदेवः शुद्धमुक्ताफलवर्णोऽभवत् क्षणात् ।
तदाप्रभृति शुक्लाभो वासुदेवः प्रसन्नवान् ॥ ९॥
न शक्यं भस्मनो ज्ञानं प्रभावं ते कुतो विभो ।
नमस्तेऽस्तु नमस्तेऽस्तु त्वामहं शरणं गतः ॥ १०॥
त्वत्पादयुगले शम्भो भक्तिरस्तु सदा मम ।
भस्मधारणसम्पन्नो मम भक्तो भविष्यति ॥ ११॥’’ — बृहज्जाबालोपनिषत्।
शरभोपनिषत् में कहा है —
{विष्णुर्विश्वजगद्योनिः स्वांशभूतैः स्वकैः सह ।
ममांशसंभवो भूत्वा पालयत्यखिलं जगत् ॥ २२ ॥}॥ — शरभ उपनिषद ॥ || ५५ ||
मध्ये को वाधिकः स्याद्द्रुहिणहरिहराणामिति प्रश्नपूर्वं
ब्रह्मादौ पैप्पलादं खलु वदति महान्रुद्र एवाधिकः स्यात्।
इत्युक्त्वा शारभाख्ये श्रुतिशिरसि नमश्चास्तु रुद्राय तस्मै
स्तुत्वैवं ध्येयमाह त्रिपुरहरमुमाकांतमेकं भजेऽहम् ॥३.५६॥
पूर्वकाल में शरभ नामक उपनिषद में, जब पिप्पलाद ने (ब्रह्मा) से पूछा कि ब्रह्मा, विष्णु और शिव में से कौन श्रेष्ठ है, तो ब्रह्मा ने कहा कि शुरुआत में महान शिव ही श्रेष्ठ थे और यह कहने के बाद कहा कि शिव ही (मुझे) ब्रह्मा को छंद (वेद) देते हैं “उन रुद्र को प्रणाम” इस प्रकार के आदर वाचक शब्दों से उन्हें अवगत कराया गया। और {रुद्र} अर्थात शिव का ध्यान करने की घोषणा की। मैं उन {त्रिपुर हर} तीन शहरों के विध्वंसक और उमा के स्वामी की पूजा करता हूं।
अथ हैनं पैप्पलादो ब्रह्माणमुवाच भो भगवन् ब्रह्मविष्णुरुद्राणां मध्ये को वा अधिकतरो ध्येयः स्यात्तत्त्वमेव नो ब्रूहीति । तस्मै स होवाच पितामहश्च हे पैप्पलाद शृणु वाक्यमेतत् ।
बहूनि पुण्यानि कृतानि येन तेनैव लभ्यः परमेश्वरोऽसौ ।
यस्याङ्गजोऽहं हरिरिन्द्रमुख्या मोहान्न जानन्ति सुरेन्द्रमुख्याः ॥ १ ॥
प्रभुं वरेण्यं पितरं महेशं यो ब्रह्माणं विदधाति तस्मै ।
वेदांश्च सर्वान्प्रहिणोति चाग्र्यं तं वै प्रभुं पितरं देवतानाम् ॥ २ ॥
ममापि विष्णोर्जनकं देवमीड्यं योऽन्तकाले सर्वलोकान्संजहार ॥ ३ ॥ ॥ शरभोपनिषत् ॥
‘‘रुद्रात्प्रवर्तते बीजं बीजयोनिर्जनार्दनः ।
यो रुद्रः स स्वयं ब्रह्मा यो ब्रह्मा स हुताशनः ॥ ८॥
ब्रह्मविष्णुमयो रुद्र अग्नीषोमात्मकं जगत् ।
पुंलिङ्गं सर्वमीशानं स्त्रीलिङ्गं भगवत्युमा ॥ ९॥
उमारुद्रात्मिकाः सर्वाः प्रजाः स्थावरजङ्गमाः ।
व्यक्तं सर्वमुमारूपमव्यक्तं तु महेश्वरम् ॥ १०॥’’ रुद्रहृदयोपनिषत् ||| ५६ ||
ध्याता रुद्रो रमेशो हरिरपि तु तथा ध्यानमेकः शिवस्तु
ध्येयोऽथर्वश्रुतेः सा निखिलरसवती या समाप्ता शिखाभूत्।
ध्येयश्चिन्मात्र एकः परमशिव इतो वा चिदंशत्वमस्य
ध्यातुः स्यान्न त्वमुष्य प्रकृतिभवमनोवृत्तिरूपस्य विष्णोः ॥३.५७॥
रुद्र ध्यानी हैं, अर्थात् ध्याता हैं, हरि या रमेश ध्यान की प्रक्रिया हैं, और शिव (ध्येय) ध्यान करने योग्य ध्यातव्य वस्तु हैं। अमृत से भरा हुआ अथर्वशिर (उपनिषद), यह कहकर समाप्त होता है कि ध्यान की वस्तु एकमात्र सर्वोच्च शिव हैं, जो चेतना की प्रकृति है। चेतना को केवल ध्यानी के रूप में ही जाना जा सकता है, न कि मन के विचारों को, जो कि विष्णु की स्वाभाविक स्थिति है। क्योंकि वासुदेव चित्त के अधिष्ठाता देव हैं। इसलिए परम शिव जो कि चिन्मात्र हैं और विष्णु चिदंश हैं तथा शिव का ध्यान करते हैं। इससे विष्णु के ऊपर शिव की सर्वोच्चता (सर्वोपरिता) सिद्ध होती है।
‘‘ॐ देवा ह वै स्वर्गं लोकमायंस्ते रुद्रमपृच्छन्को भवानिति । सोऽब्रवीदहमेकः प्रथममासं वर्तामि च भविश्यामि च नान्यः कश्चिन्मत्तो व्यतिरिक्त इति । सोऽन्तरादन्तरं प्राविशत् दिशश्चान्तरं प्राविशत् सोऽहं नित्यानित्योऽहं व्यक्ताव्यक्तो ब्रह्माहमब्रह्माहं प्राञ्चः प्रत्यञ्चोऽहं दक्षिणाञ्च उदञ्चोहम् अधश्चोर्ध्वं चाहं दिशश्च प्रतिदिशश्चाहं पुमानपुमान् स्त्रियश्चाहं गायत्र्यहं सावित्र्यहं सरस्वत्यहं त्रिष्टुब्जगत्यनुष्टुप् चाहं छन्दोऽहं गार्हपत्यो दक्षिणाग्निराहवनीयोऽहं सत्योऽहं गौरहं गौर्यहमृगहं यजुरहं सामाहमथर्वाङ्गिरसोऽहं ज्येष्ठोऽहं श्रेष्ठोऽहं वरिष्ठोऽहमापोऽहं तेजोऽहं गुह्योहमरण्योऽहमक्षरमहं क्षरमहं पुष्करमहं पवित्रमहमुग्रं च मध्यं च बहिश्च पुरस्ताज्ज्योतिरित्यहमेव सर्वे मामेव स सर्वे स मां यो मां वेद स वेदान्वेद स सर्वांश्च वेदान्साङ्गानपि ब्रह्म ब्राह्मणैश्च गां गोभिर्ब्राह्माणान्ब्राह्मण्येन हविर्हविषा आयुरायुषा सत्येन सत्यं धर्मेण धर्मं तर्पयामि स्वेन तेजसा । ततो ह वै ते देवा रुद्रमपृच्छन्ते देवा रुद्रमपश्यन् । ते देवा रुद्रमध्यायंस्ततो देवा ऊर्ध्वबाहवो रुद्रं स्तुवन्ति ॥ १॥ अथर्वशिर उपनिषद्। ’’
एक समय देवताओं ने स्वर्गलोक में जाकर रूद्र से पूछा- आप कौन हैं? रुद्र ने उत्तर दिया- मैं एक हूँ, भूतकाल हूँ, वर्तमान काल हूँ और भविष्यकाल भी मैं ही हूँ। मेरे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। जो अन्तर के भी अन्तर में विद्यमान है, जो समस्त दिशाओं में सन्निविष्ट है, वह मैं ही हूँ। मैं ही नित्य और अनित्य, व्यक्त और अव्यक्त, ब्रह्म और अब्रह्म हूँ। मैं ही प्राची (पूर्व) और प्रतीची (पश्चिम), उत्तर और दक्षिण, ऊर्ध्व और अध: आदि दिशाएँ तथा विदिशाएँ हूँ। पुमान् (पुरुष), अपुमान् (अपुरुष) और स्त्री भी मैं ही हूँ। मैं ही गायत्री, सावित्री और सरस्वती हूँ। त्रिष्टुप् जगती और अनुष्टुपू आदि छन्द भी मैं ही हूँ। मैं गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि और आहवनीय अग्नि हूँ। मैं सत्य, गौ, गौरी, ज्येष्ठ, श्रेष्ठ और वरिष्ठ हूँ। आपः (जल) और तेजस् भी मैं ही हूँ। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद भी मैं ही हूँ। अक्षर-क्षर गोप्य (छिपाने योग्य) और गुह्य (छिपाया हुआ) भी मैं हूँ। अरण्य, पुष्कर (तीर्थ), पवित्र मैं हूँ। अग्र, मध्य, बाह्य और पुरस्ताद् (सामने या पूर्व) आदि दसों दिशाओं में अवस्थित और अनवस्थित ज्योतिरूप शक्ति मुझे ही मानना चाहिए और सब कुछ मुझमें ही व्याप्त जानना चाहिए। इस प्रकार जो मुझे जानता है, वह समस्त देवों और अङ्गों सहित समस्त वेदों को जानता है। मैं गौओं को गोत्व से, ब्राह्मणों को ब्राह्मणत्व से, हवि को हविष्य से, आयु को आयुष्य से, सत्य को सत्यता से, धर्म को धर्म तत्त्व से तृप्त करता हूँ। यह सुनकर देवगणों ने रुद्र को देखा और उनका ध्यान करने लगे । तत्पश्चात् भुजाएँ उठाकर इस प्रकार स्तुति की।
{देवाश्चेति संधत्तां सर्वेभ्यो दुःखभयेभ्यः संतारयतीति तारणात्तारः । सर्वे देवाः संविशन्तीति विष्णुः । सर्वाणि बृहयतीति ब्रह्मा । सर्वेभ्योऽन्तस्थानेभ्यो ध्येयेभ्यः प्रदीपवत्प्रकाशयतीति प्रकाशः । प्रकाशेभ्यः सदोमित्यन्तः शरीरे विद्युद्वद्द्योतयति मुहुर्मुहुरिति विद्युद्वत्प्रतीयाद्दिशं दिशं भित्त्वा सर्वांल्लोकान्व्याप्नोति व्यापयतीति व्यापनाद्व्यापी महादेवः ॥ २॥} (अथर्वशिख उपनिषद्)
चार वेदों और सभी देवों के जन्म स्थान के रूप में ध्यान किया जाना चाहिए। जो इस तरह ध्यान करता है वह सभी दुखों और भयों से दूर हो जाता है, संसारसे तार देता है इसलिये इसे तार कहते हैं। और अपने पास आने वाले सभी लोगों की रक्षा करने की शक्ति प्राप्त करता है। इस ध्यान के कारण ही भगवान विष्णु, जो हर जगह व्याप्त (फैले) हुए हैं, अन्य सभी पर विजय प्राप्त करते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि भगवान ब्रह्मा ने अपने सभी अंगों को नियंत्रित किया और उनका ध्यान किया, उन्होंने निर्माता का पद प्राप्त किया। यहां तक कि भगवान विष्णु भी, परमात्मा (परम आत्मा) के स्थान की ध्वनि (ओम) में अपना दिमाग लगाते हैं और ईशान का ध्यान करते हैं, जिनकी पूजा करना सबसे उचित है। यह सब ईशान के मामले में ही उचित है। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और इंद्र सभी प्राणियों, सभी अंगों और सभी करणों का निर्माण कर रहे हैं। वे उन्हें नियंत्रित करने में भी सक्षम हैं। लेकिन भगवान महादेव (शिव) उनके बीच आकाश की तरह मौजूद हैं और स्थायी रूप से स्थिर हैं || ५७ ||
एको रुद्रो महेशः शिव इति च महादेव एवेष सर्वव्यापी
यः श्रूयतेऽस्मिनंच्छ्रुतिशिरसि तथाथर्वशीर्षाभिधे च।
देवाः सर्वे यदन्तस्थितिजुष इह ते विष्णुपूर्वास्ततोन्यः
को वा स्याद्व्यापकोऽस्मान्निरतिशयचिदाकाशरूपान्महेशात् ॥३.५८॥
एक रुद्र, महेश, शिव और महादेव जिन्हें अथर्वशिर उपनिषद में और अथर्ववेद की अन्य उपनिषदों में भी सर्वव्यापी सुना जाता है, जिन सर्वेश्वर,महेश्वर के भीतर विष्णु से शुरू होने वाले सभी देवता स्थित हैं, जो अगम्य चेतना के रूप में हैं, जो निरतिशय चिदाकाश रूप हैं उनके अलावा कौन हो सकता है सर्वव्यापी?
‘‘एको हि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थुर्य इमांल्लोकानीशत ईशनीभिः।
प्रत्यङ्जनांस्तिष्ठति सञ्चुकोचान्तकाले संसृज्य विश्वा भुवनानि गोपाः ||३.२|| श्वेताश्वतरउपनिषत्’’
जो समस्त विश्व ब्रह्माण्ड की रक्षा तथा उन पर शासन करता है वह, रुद्र, वास्तव में केवल एक ही है। उसके समीप कोई नहीं है जो उसे दूसरा बना सके। वह सभी प्राणियों के हृदय में विद्यमान है। सभी जगतों का सृजन और पालन करने के बाद अंत में वह अपने आप में इसे निवर्तित (लीन) कर लेता है। शिव संबन्धी उपनिषदें निम्नलिखित हैं —
१.अक्षमालिका उपनिषद २. बृहज्जाबालोपनिषत् ३. भस्मजाबालोपनिषत् ४. रुद्रहृदयोपनिषत् ५. रुद्राक्ष जाबालोपनिषद ६. शरभोपनिषत् ७. श्वेताश्वतरोपनिषत् ८. अथर्वशिखोपनिषत् ९. अथर्वशिर उपनिषत् १०. कालाग्निरुद्रोपनिषत् ११. कैवल्योपनिषत् १२. गणपत्युपनिषत् १३. जाबाल्युपनिषत् १४. दक्षिणामूर्ति उपनिषद १५. पञ्चब्रह्मोपनिषत्। ||५८||
नाभौ ब्रह्माणमुक्त्वा हरिमपि हृदये रुद्रमेनं भ्रुवोस्तन्मध्ये
श्रुत्यन्त एवं प्रणवविवरणे नारसिंघाभिधे च।
विज्ञेयः सोऽयमात्मा शिव इति च चतुर्थोऽद्वितीयः प्रशान्त
श्चेत्याहान्ते प्रजेशस्त्रिदशपरिषदस्तत्स ईशः प्रपूज्यः ॥३.५९॥
नृसिंह तापनी उपनिषद में, प्रणव का (ॐ शब्द का) वर्णन करते हुए बताया कि प्रजापति, ब्रह्मा उस विराट पुरुष के नाभि क्षेत्र में स्थित हैं, हरि हृदय क्षेत्र में और रुद्र को भौंहों के बीच में होने के लिए कहा, अंत में देवों के समूह से कहा कि इस आत्मा (स्वयं) को शिव के रूप में जानना चाहिए, जो चौथे (प्रणव का चौथा हिस्सा अर्ध मात्रा रूप) हैं, जो शांत हैं और जो एकमेवाद्वितीयं दूसरे के बिना हैं । इसलिए वे ही ईशान भगवान् पूजा के योग्य हैं।
ॐ देवा ह वै प्रजापतिं अब्रुवन् अणोरणीयां – समिममात्मानमोङ्कारं नो व्याचक्ष्वेति | ‘‘प्रपञ्चोपशमं शिवं शान्तमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः। (नृसिंहोत्तरतापनीयोपनिषद)’’ ||५९||
कैवल्यं प्राप्नुयात्कः पुरुष इह शिवं केवलं त्वां विहाय
स्वामिन्नीशं तथान्यं जगति सदसतोरत्र विष्णोर्विधेर्वा।
चिन्मात्रः प्रत्यगात्मा त्वमसि खलु सदा पूर्व एकः
शिवोऽतस्त्वामेवैकं भजेऽहं सततमपि जगत्साक्षिणं निर्विशेषम् ॥३.६०॥
हे स्वामिन् ! आप कैवल्य-स्वरूप शिवको छोड़कर कौन ऐसा मनुष्य है जो इस सत् और असत् के मिश्रण से बने हुए संसार में यहाँ कैवल्य (मुक्ति) प्राप्त कर सकता है, अष्टमूर्ति के रूप में केवल शिव ही विद्यमान हैं। आप वास्तव में विष्णु और ब्रह्मा की आत्मा हैं। और सभी जीवों में प्रत्यगात्मा, अंतरात्मा के रूप में विचरते हैं। आप चिन्मात्र, शिव, केवल आप ही हैं, आप ही प्राचीन हैं। इसलिए मैं हमेशा केवल तुम्हारी ही पूजा करता हूं, जो कि संसार के साक्षी हैं, पूर्ण हैं और निर्विशेष हैं। कैवल्योपनिषत् में बताया है कि —
‘‘तमादिमध्यान्तविहीनमेकं विभुं चिदानन्दमरूपमद्भुतम् ।
उमासहायं परमेश्वरं प्रभुं त्रिलोचनं नीलकण्ठं प्रशान्तम्।।
ध्यात्वा मुनिर्गच्छति भूतयोनिं समस्तसाक्षिं तमसः परस्तात् ॥ ७ ॥’’
इस तरह से जो अचिन्त्य, अव्यक्त तथा अनन्त रूप से युक्त है, कल्याणकारी है, शांत-चित्त है, अमृत है, जो निखिल ब्रह्माण्ड का मूल कारण है, जिसका आदि, मध्य और अंत नहीं है, जो अनुपम है, विभु (विराट) और चिदानंद स्वरूप है, अरूप और अद्भुत है, ऐसे उन उमा (ब्रह्मविद्या) के साथ परमेश्वर को, सम्पूर्ण चर-अचर के पालनकर्ता को, शांत स्वरूप, तीन नेत्रों वाले, नीलकंठ को- जो समस्त भूत-प्राणियों का मूल कारण हैं, सभी के साक्षी हैं और अविद्यासे रहित हो प्रकाशमान हो रहे हैं, ऐसे उस (प्रकाश पुंज परमात्मा) को योगीजन ध्यानके माध्यम से ग्रहण करते हैं। || ६० ||
सूर्य उवाच – सूर्य ने कहा
एवं शिवस्य माहात्म्ये सर्वश्रुत्यन्तनिश्चिते। उद्भवेत्संशयः कस्य को मुच्येत च संशयात् ॥३.६१॥
शिव की ऐसी महानता में, जो कि सभी श्रुतियों , उपनिषदों का निष्कर्ष निकाल कर निश्चित की गयी है, उसमें किसको संदेह उत्पन्न हो सकता है ? और (क्योंकि ऐसा कोई नहीं है जिसको ऐसा संदेह उत्पन्न हो सकता है) तो फिर उस संदेह से छुटकारा कौन और कैसे पा सकेगा ? कैवल्योपनिषत् में कहा है कि :- ‘‘एवं विदित्वा परमात्मरूपं गुहाशयं निष्कलमद्वितीयम्। समस्तसाक्षिं सदसद्विहीनं प्रयाति शुद्धं परमात्मरूपम् || २४ ||’’ जो भी मनुष्य अविनाशी ब्रह्म को इस प्रकार से गुहा-अर्थात बुद्धि के गह्वर में स्थित, निष्कल रूप से (कला रहित ,अंग विहीन रूप से) एवं अद्वितीय,सदसत् से परे, सभी के साक्षी रूप में विद्यमान जानता है, वह पवित्रतम परमात्म स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। || ६१ ||
अतोऽरुण महाप्राज्ञ मुख्यान्तर्यामिणं मम। त्रिनेत्रं भज कैवल्यसंसिध्यै परमेश्वरम् ॥३.६२॥
अत: हे अरुण! हे महा बुद्धिमान ! मेरे जो मुख्य अन्तर्यामी हैं और तीन आंखों वाले सर्वोच्च स्वामी हैं उन्ही का आप भजन करें | वे ही कैवल्यमुक्ति की सिद्धि देने वाले परमेश्वर हैं | अतः उन्ही की पूजा करो | ‘‘अनेन ज्ञान माप्नोति संसारार्णव नाशनम् । तस्मादेवं विदित्वैनं कैवल्यं पद मश्नुते कैवल्यं पदमश्नुत इति ॥ २६ ॥’’ कैवल्योपनिषत् — इससे उस विशेष ज्ञान की प्राप्ति होती है, जो ज्ञान भवसागर को नष्ट कर देता है। इस प्रकार इस उपनिषद (विशेष रहस्य ज्ञान) को ऐसा जानकर व्यक्ति कैवल्य फल को प्राप्त कर लेता है, कैवल्य पद को प्राप्त हो जाता है ॥ || ६२ ||
॥इति सूर्य गीतायां तृतीयोऽध्यायः॥
|| अथ चतुर्थोऽध्यायः ||
सूर्य उवाच – सूर्य ने कहा
अथातः संप्रवक्ष्यामि तस्यान्तर्यामिणो गुरोः। जगत्सृष्ट्यादिकर्माणि लीलारूपाणि सुव्रत ॥४.१॥
हे पुण्यवान व्रतों का पालन करने वाले! अब मैं आपको जो मेरे और इस जगत के आंतरिक-नियंत्रण करने वाले और जगत के शिक्षक हैं, उनके बारे में बताऊंगा | तथा लीला विनोद के लिए इस ब्रह्मांड के निर्माण, निर्वाह और विनाश के रूप में, जो अद्भुत कर्म करते रहते हैं उनका भी वर्णन करूंगा | कामकला विलास के प्रथम श्लोक में इसका बहुत ही सुन्दर वर्णन है — ‘‘सकलभवनोदयस्थितिलयमयलीलाविनोदनोद्युक्तः | अंतर्लीन विमर्शः पातु महेशः प्रकाश मात्र तनुः’’ अजाव्यक्त लीला-वपुधारी, लीलामय लीला-विस्तारी,|| १ ||
आदौ जगत्ससर्जेदं पंचीकरणकर्मणा। यः स ईशो महामायः सर्वज्ञः सर्वशक्तिमान् ॥४.२॥
उन्होंने पञ्चीकरण की प्रक्रिया से शुरुआत में इस ब्रह्मांड का निर्माण किया, वे ईश्वर (स्वामी), महान भ्रमजाल को नष्ट करने वाले (मायाधीश), सर्वज्ञ और सबसे शक्तिशाली {समस्त शक्तियों के अधीश्वर}हैं ।{पञ्चीकरण} :- पृथ्वी, अप्, तेज, वायु और आकाश इन सबकी रचना में आधा भाग तो उनका अपना-अपना होता है और शेष आधे भाग ४ अंशों में विभक्त होकर एक एक अंश अन्य चार भूतों में मिल जाते हैं | इस प्रकार हर भूत में पांचों भूत मिलकर रहते हैं |पञ्चानां भूतानामेकैकं द्विधा विभज्य स्वार्धभागं विहायार्धभागं चतुर्धा विभज्येतरेषु योजिते पञ्चीकरणं मायारूपदर्शनमध्यारोपापवादाभ्यां निष्प्रपञ्चं प्रपञ्च्यते॥ ‘‘त्वत्तो जगद्भवति देव भव स्मरारे त्वय्येव तिष्ठति जगन्मृड विश्वनाथ। त्वय्येव गच्छति लयं जगदेतदीश लिङ्गात्मके हर चराचरविश्वरूपिन || ११ ||’’ हे चराचर विश्वरूप प्रभु, आपके लिंग स्वरूप से ही सम्पूर्ण जगत अपने अस्तित्व में आता है (उसकी उत्पत्ति होती है), हे शंकर! हे विश्वनाथ!अस्तित्व में आने के उपरांत यह जगत आप में ही स्थित रहता है–अर्थात आप ही इसका पालन करते हैं। अंतत: यह सम्पूर्ण सृष्टि आप में ही लय हो जाती है। || २ ||
चतुर्विधेषु भूतेषु निजमायावशीकृतान्। जीवान्प्रवेशयित्वानुप्रविवेश स्वयं वशी ॥४.३॥
उन सर्वान्तर्यामी प्रभु ने सभी जीवों को बनाया, जिन्हें उनकी माया के प्रभाव में लाया गया था, फिर उन्होंने चार प्रकार के शरीरों की रचना करके उन शरीरों में उन जीवों का प्रवेश कराया | इस जगत में प्रजा की क्रमशः चार योनियां हैं- जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज। इनमें से वृक्ष, लता, वल्ली और तृण आदि उद्भिज्ज कहलाते हैं। डाँस और जूँ आदि कीट जाति के प्राणी स्वेदज कहे गये हैं। जिनके पंख होते हैं और कान के स्थान में एक छिद्र मात्र होता है, ऐसे प्राणी अण्डज माने गये हैं। गाय ,भैंस आदि पशु, व्याल (हिंसक जंतु बाघ, चीते आदि) और मनुष्य- इनको जरायुज कहा जाता है | इस तरह आत्मा इन चार प्रकार की जातियों का आश्रय लेकर रहता है। (जो अंडे से पैदा होते हैं, जो पसीने से बाहर आते हैं , जो गर्भ से बाहर आते है और जो बीज से अंकुरित होते हैं) बाद में वह परमात्मा खुद उन सभी में घुस गया | ‘‘ ‘तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्’, इति । तदनु प्रविश्य । सच्च त्यच्चाभवत् । निरुक्तं च अनिरुक्तं च । निलयनं च अनिलयनं च । विज्ञानं च अविज्ञानं च । सत्यं च अनृतं च सत्यं अभवत् । यदिदं किं च । तत्सत्यमित्याचक्षते । (तै. उ. २ । ६ । १)’’ इसे रचकर वह इसी में अनुप्रविष्ट हो गया । इसमें अनुप्रवेश कर वह सत्य स्वरूप परमात्मा मूर्त- अमूर्त, [ देश कालादि परिच्छिन्न रूप से ] कहे जाने योग्य , और न कहे जाने योग्य, आश्रय – अनाश्रय, चेतन- अचेतन एवं व्यावहारिक सत्य- असत्य रूप हो गया । यह जो कुछ है उसे ब्रह्मवेत्ता लोग ‘सत्य’ इस नाम से पुकारते हैं | {वशी} माया शक्ति को अपने वश में रखने वाला अथवा जिसने अपनी इच्छाशक्ति और इन्द्रियों को वश में कर रखा हो।, ऐसे संयमी (ध्यान ,धारणा और समाधि से युक्त) पुरुष को वशी कहते हैं | || ३ ||
लीलारूपमपीदं च कर्म तस्य महेशितुः। प्रारव्धकर्मजं ज्ञेयमाधिकारिकतावशात् ॥४.४॥
लीला वपुधारक लीलाधर भगवान शिव के इस जगत के निर्माण रूप कर्म को लीला रूप ही जानना चाहिए | अथवा अधिकारी पुरुष होने के नाते यह जगत उनके प्रारब्ध जन्य कर्म का परिणाम है | उनके अधिकार की सीमा में होने (जगत के निर्माता आदि होने) के कारण संभव हो सकता है कि वे अपने स्वयं से ही इस जगत रूपी कर्म के कारण हैं | ‘‘स वा एष महानज आत्मा योऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु य एषोऽन्तर्हृदय आकाशस्तस्मिञ्छेते सर्वस्य वशी सर्वस्येशानः सर्वस्याधिपतिः स न साधुना कर्मणा भूयान्नो एवा साधुना कनीयानेष सर्वेश्वर एष भूताधिपतिरेष भूतपाल एष सेतुर्विधरण एषां लोकानामसम्भेदाय तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसा नाशकेनैतमेव विदित्वा मुनिर्भवति । एतमेव प्रव्राजिनो लोकमिच्छन्तः प्रव्रजन्ति । एतद्ध स्म वै तत्पूर्वे विद्वांसः प्रजां न कामयन्ते किं प्रजया करिष्यामो येषां नोऽयमात्मायं लोक इति ते ह स्म पुत्रैषणायाश्च वित्तैषणायाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति या ह्येव पुत्रैषणा सा वित्तैषणा या वित्तैषणा सा लोकैषणोभे ह्येते एषणे एव भवतः । स एष नेति नेत्यात्मागृह्यो न हि गृह्यतेऽशीर्यो न हि शीर्यतेऽसङ्गो न हि सज्यतेऽसितो न व्यथते न रिष्यत्येतमु हैवैते न तरत इत्यतः पापमकरवमित्यतः कल्याणमकरवमित्युभे उ हैवैष एते तरति नैनं कृताकृते तपतः ॥ २२ ॥’’ बृहदारण्यकोपनिषद चतुर्थोऽध्यायः नवद्वारे पुरे देही हंसो लेलायते बहिः। वशी सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च || १८ || श्वेताश्वतरोपनिषद् तृतीयोऽध्यायः | नवद्वार की पुरी में अर्थात यह शरीर नौ द्वारों (दो आँखे, दो नाक के नथुने, दो कान, एक मुँह, गुदा और उपस्थ) से युक्त है | उसी में इस हंस या आत्मा का निवास है। वह आत्मा के रूप में बाह्य जगत में लीला करता है। और वही इस सम्पूर्ण विश्व, समस्त चर-अचर जगत का विधाता है | सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी। नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्।।५.१३।। जिसकी इंद्रियां और मन वश में हैं, ऐसा देहधारी पुरुष नौ द्वारों वाले शरीररूपी पुर में सम्पूर्ण कर्मों का विवेकपूर्वक मनसे त्याग करके निःसन्देह न करता हुआ और न करवाता हुआ सुखपूर्वक (अपने स्वरूप में) स्थित रहता है | वह न तो कर्म करता है और ना ही किसी से करवाता है।। || ४ ||
स ह्यादिकारिकः श्रेष्ठः पूर्वं जीवत्वमागतः। समुच्चयादभूदीशो ज्ञानोपासनकर्मणाम् ॥४.५॥
क्योंकि वही , ब्रह्मांड में सबसे प्रथम कर्ता है , सबसे श्रेष्ठ, उत्कृष्ट व्यक्ति, जिसने सबसे पहले जीवत्व को प्राप्त किया था, विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता। विश्व को बनाने वाला और संसार का रक्षक | और फिर वही ज्ञान, उपासना और कर्म के समुच्चय के माध्यम से ईश्वर बन गया | ‘‘यो योनिं योनिमधितिष्ठत्येको विश्वानि रूपाणि योनीश्च सर्वाः। ऋषिं प्रसूतं कपिलं यस्तमग्रे ज्ञानैर्बिभर्ति जायमानं च पश्येत् || २ ||’’ श्वेताश्वतरोपनिषद् पञ्चमोऽध्यायः | ‘वह’ जो ‘एकमेव’ है, भिन्न-भिन्न योनियों में (गर्भों में), अनेकानेक रूपों में तथा समस्त प्राणियों के गर्भ में प्रवेश करता है। ‘उसी’ ने आरम्भ में माँ के गर्भ में स्थित कपिल ऋषि को विविध ज्ञान से परिपूर्ण किया; ‘उसी’ ने कपिल को जन्म लेते भी हुए देखा। ||५||
प्राक्कल्पाधिकृतो देवः स्वारब्धक्षपणात्स्वयम्। अपहाय निजां मायां प्राप्तवान्परमं पदम् ॥४.६॥
जो पूर्व कल्प में ईश्वर के रूप में अधिकृत था, उसने अपने प्रारब्ध कर्म के क्षय होने के बाद, अपनी माया दूर करके (संकुचित करके) परम अवस्था को प्राप्त कर लिया। ‘‘अनाद्यनन्तं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्रष्ठारमनेकरूपम्। विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः || १३ ||’’ श्वेताश्वतरोपनिषद् पञ्चमोऽध्यायः | इस अस्तव्यस्तता एवं अव्यवस्थित प्रपंच (कलिल) के बीच उस ‘अनादि’ एवं ‘अनन्त’ को, जो अनेक रूप धारण करके इस विश्व की रचना करता है, तथा ‘एकमेव’ होते हुए भी उसे परिवेष्टित कर लेता है, उस ‘देव’ (ईश्वर) को जो जान लेता है, वह व्यक्ति समस्त पाशों से (बन्धनों से) मुक्त हो जाता है | || ६ ||
अथ तामाश्रितो जीवः कल्पादौ पूर्ववत्क्रमात्। सृष्ट्वा सर्वाधिकारी सन्जगत्पाति च हन्ति च ॥४.७॥
अब, इस कल्प की शुरुआत में, जैसा कि पिछले कल्प में था , एक और जो जीव सर्वोच्च अधिकारी के रूप में कार्य करता है, जिसने उस माया का उपयोग करके इस ब्रह्मांड का निर्माण किया है और सर्वाधिक उन्नत पद पर विराजमान होते हुए इस जगत को बनाए रखता है (पालन करता है) और नष्ट भी कर देता है | ‘‘ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत । ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः ॥१॥ समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत । अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी ॥२॥ सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् । दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः ॥३॥ ऋग्वेदः सूक्तं १०.१९०’’ अथातः संप्रवक्ष्यामि ध्यानं संसार नाशनम् । ऋतं सत्यं परं ब्रह्म सर्व संसार भेषजम् ॥ १॥ ऊर्ध्वरेतं विश्वरूपं विरूपाक्षं महेश्वरम् । सोऽहमित्यादरेणैव ध्यायेद्योगीश्वरेश्वरम् ॥ २॥ जाबालदर्शन उपनिषद/खण्डः ९ – त्वयि योगं च सांख्यं च तपोविद्याविधिक्रियाः।। ऋतं सत्यं दया ब्रह्म अहिंसा सन्मतिः क्षमा।। १६.२९ ।।ध्यानं ध्येयं दमः शांतिर्विद्याऽविद्या मतिर्धृतिः।। कांतिर्नीतिः प्रथा मेधा लज्जा दृष्टिः सरस्वती।। १६.३० ।। तुष्टिः पुष्टिः क्रिया चैव प्रसादश्च प्रतिष्ठिताः।। द्वात्रिंशत्सुगुणा ह्येषा द्वात्रिंशाक्षरसंज्ञया।। १६.३१ ।। लिङ्ग पुराण – पूर्व भाग/अध्याय १६ – ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् | उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् || हम त्रिनेत्र को पूजते हैं, जो सुगंधित हैं, हमारा पोषण करते हैं,जिस तरह खरबूजा का फल, शाखा के बंधन से मुक्त हो जाता है, वैसे ही हम भी मृत्यु और नश्वरता से मुक्त हो जाएं। इस त्र्यम्बक मन्त्र में अनुष्टुप छन्द है इसलिए इसमें बत्तीस अक्षर हैं , उन बत्तीस अक्षरों में जो शक्तियां निहित उनका निरूपण उपरोक्त लिंग पुराण के श्लोकों में किया गया है | (महाप्रलय के बाद इस कल्प के आरम्भ में सब ओर से प्रकाशमान तपस्वरूप परमात्मा से ऋत (सत्संकल्प) और सत्य (यथार्थ भाषण) की उत्पत्ति हुई। उसी परमात्मा से रात्रि और दिन प्रकट हुए तथा उसी से जलमय (गतिमय) समुद्र का आविर्भाव हुआ। जलमय समुद्र की उत्पत्ति के पश्चात दिनों और रात्रियों को धारण करने वाला काल स्वरूप संवत्सर प्रकट हुआ {वह (वशी) स्वामी} जो कि पलक झपकाने वाले जंगम प्राणियों और स्थावरों से युक्त समस्त संसार को अपने अधीन रखने वाला है। इसके बाद सबको धारण करने वाले परमेश्वर ने सूर्य, चन्द्र, दिवं माने (स्वर्ग लोक),पृथ्वी, अंतरिक्ष तथा महर्लोक आदि सभी लोकों की भी पूर्व कल्प के अनुसार सृष्टि की | || ७ ||
क्रियमाणतया तेन नियमेनैव कर्मणाम्। त्रयाणां तस्य कर्मित्वमीशस्याप्युपपद्यते ॥४.८॥
एक ही नियम से तीन प्रकार के कर्म (सृजन, निर्वाह और विनाश) किए जाने के कारण, ईश्वर कर्ता का दर्जा प्राप्त करता है | ‘‘आरभ्य कर्माणि गुणान्वितानि भावांश्च सर्वान्विनियोजयेद्यः। तेषामभावे कृतकर्मनाशः कर्मक्षये याति स तत्त्वतोऽन्यः || ४ || श्वेताश्वतरोपनिषद्षष्ठोऽध्यायः’’ — इस प्रकार ‘वह’ उन कर्मों का आरम्भ करता है, जो प्रकृति के गुणों के अधीन हैं तथा समस्त सत्ताओं को उनके कर्मों में नियुक्त कर देता है: और जब ये सब सत्ताएँ नहीं रहतीं तब उस कर्म का लोप (नाश) हो जाता है; एवं कर्म के क्षय होने से ‘वह’ उनसे प्रयाण कर जाता है; क्योंकि ‘अपने’ परम सत्य स्वरूप में, तत्त्वतः ‘वह’ उनसे भिन्न है | त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्। वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप।।११.३८।। श्रीमद् भगवद्गीता — आप आदिदेव और पुराण (सनातन) पुरुष हैं। आप इस जगत् के परम आश्रय, ज्ञाता, ज्ञेय, (जानने योग्य) और परमधाम हैं। हे अनन्त रूप आपसे ही यह विश्व व्याप्त है।। ||८||
जीवन्मुक्तसमानत्वं यतस्तस्यावगम्यते। अतः प्रारब्धकर्मित्वमवश्यं तस्य सिध्यति ॥४.९॥
चूँकि ईश्वर को जीवन्मुक्त के समान समझा जाता है, इसलिए यह इस प्रकार है कि वह निश्चित रूप से अपने प्रारब्ध कर्म से संचालित होता है | ‘‘प्रारब्धं बलवत्तरं खलु विदां भोगेन तस्य क्षयः सम्यग्ज्ञानहुताशनेन विलयः प्राक्संचितागामिनाम्। बह्मात्मैक्यमवेक्ष्य तन्मयतया ये सर्वदा संस्थिता स्तेषां तत्त्रितयं न हि क्वचिदपि ब्रह्मैव ते निर्गुणम् ॥ ४५३ ॥’’ विवेक चूड़ामणि– विद्वान का प्रारब्ध, जो कर्म है वह अवश्य ही बलवान होता है, उसका क्षय तो केवल भोगने से ही हो सकता है। उसके अतिरिक्त संचित और आगामी कर्म का तो तत्त्वज्ञान रूप अग्नि से क्षय हो जाता है। किंतु जो ब्रह्म और आत्मा की एकता को जानकर सदा उसी भाव में स्थित रहते हैं, उनकी दृष्टि में तो वे (प्रारब्ध, संचित और आगामी-क्रियमाण) तीनों प्रकार के कर्म कहीं हैं ही नहीं। वे तत्त्वज्ञानी तो मानो साक्षात निर्गुण ब्रह्म ही हैं | || ९ ||
ब्रह्मवित्त्वं हि तस्य स्यान्न तु ब्रह्मत्वमीशितुः। सृष्ट्यादिकर्मकर्तृत्वदर्शनान्माययापि वा ॥४.१०॥
ईश्वर को ब्रह्म के ज्ञाता होने का दर्जा प्राप्त है लेकिन स्वयं ब्रह्म का नहीं | ऐसा इसलिए है क्योंकि वे सृजन आदि गतिविधियों को करने के लिए माया का उपयोग करते देखे जाते हैं | ‘‘सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्रष्ठारमनेकरूपम्। विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति || १४ ||’’ श्वेताश्वतरोपनिषद् चतुर्थोऽध्यायः – इस महती अव्यवस्था (कलिल) के बीच जो सूक्ष्मातिसूक्ष्म (सत्य) है, विश्व का जो अनेक रूप धारी स्रष्टा है, तथा जो ‘एक’ होते हुए भी समस्त विश्व को परिवेष्टित किये हुए है, उसे ‘शिव’–मंगलकारी जानकर मनुष्य आत्यन्तिक रूप से शांति को प्राप्त करता है | || १० ||
जीवसृष्ट्यादिकर्तृत्वं ब्रह्मणोऽपि तु वर्तते। तथापि पूर्वकर्मित्वं तस्य न श्रूयते क्वचित् ॥४.११॥
प्राणियों की रचना आदि के लिए कर्ता ब्रह्म के लिए भी बताया जाता है , लेकिन फिर भी यह कभी नहीं सुना जाता है कि यह उसके पूर्वकृत कर्मों का फल है अर्थात इनकी पिछली क्रियाएं यह निर्धारित करती हैं कि यह उनकी वर्तमान स्थिति है | ‘‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते । येन जातानि जीवन्ति । यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति । तद्विजिज्ञासस्व । तद् ब्रह्मेति ॥ – तैत्तिरीयोपनिषत् ३-१-३’’ जिसके द्वारा,इस सृष्टि का निर्माण होता है,जिसके द्वारा इस सृष्टि का पोषण होता है और जिसमें सब लोग जाकर,अपने आप विलीन हो जाते हैं,उस एक को ही जानना चाहिए। “तद् ब्रह्म”-वह परमात्मा है | एष सर्वेश्वरः एष सर्वज्ञ एषोऽन्तर्याम्येष योनिः सर्वस्य प्रभवाप्ययौ हि भूतानाम् || ६ || यह ‘सर्वेश्वर’ है, यह ‘सर्वज्ञ’ है, यह है ‘अन्तरात्मा’-अंतर्यामी, यह समस्त विश्व की ‘योनि’ अर्थात जन्म देने वाला ‘गर्भ’ है, यह समस्त प्राणियों की ‘उत्पत्ति’ एवं उनका ‘प्रलय’ है | || ११ ||
कर्मणः प्रागभावत्वाद्भावत्वाद्ब्रह्मणो विभोः। पूर्वकर्मवतो हि स्यात्कर्म प्रारब्धसंज्ञितम् ॥४.१२॥
ब्रह्म में कर्मों का प्रागभाव है – (प्रागभाव-उत्पत्ति के पूर्व वस्तु का अभाव) लेकिन ब्रह्म का अपना अभाव नहीं है | इसका कारण पिछले जन्मों में कर्मों का अभाव और उसके सर्वव्यापी होने के कारण (जो अतीत में मौजूद है, वर्तमान के साथ-साथ भविष्य में भी है)। प्रारब्ध कर्म केवल उसी के लिए संभव है, जिसके पास पिछले जीवन के कर्मों का भंडार हो | ब्रह्म तो देश ,काल और वस्तु से परिच्छिन्न नहीं है ‘‘नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्। किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नंभः किमासीद् गहनंगभीरम् ॥१॥’’ नासदीय सूक्त ऋग्वेद के १० वें मंडल का १२९ वां सूक्त है | अन्वय- तदानीम् असत् न आसीत् सत् नो आसीत्; रजः न आसीत्; व्योम नोयत् परः अवरीवः, कुह कस्य शर्मन् गहनं गभीरम्। अर्थ- उस समय अर्थात सृष्टि की उत्पत्ति से पहले प्रलय दशा में असत् अर्थात अभावात्मक तत्त्व नहीं था। सत्= भाव तत्त्व भी नहीं था, रजः=स्वर्गलोक मृत्युलोक और पाताल लोक नहीं थे, अंतरिक्ष नहीं था और उससे परे जो कुछ है वह भी नहीं था, वह आवरण करने वाला तत्व कहाँ था और किसके संरक्षण में था। उस समय गहन= कठिनाई से प्रवेश करने योग्य गहरा क्या था, अर्थात वे सब नहीं थे | || १२ ||
सृष्ट्यादिकर्मबद्धत्वे तस्य मायावशत्वतः। वश्यमायत्व वचनं व्यर्थमेवेति चेन्न च ॥४.१३॥
अगर कोई कहता है कि यह तो माया की शक्ति से है कि ईश्वर सृष्टि आदि की गतिविधियों में पकड़ा जाता है {अर्थात् माया के कारण सृष्टि आदि करने के लिए बाध्य है } तो फिर उसे वश्यमायी क्यों कहा जाता है ? {वश्यमायत्व वचनं व्यर्थं} (जो माया का उपयोग करते हुए दूसरों पर शासन करता है) वही वश्यमायी है | अन्यथा उसका मायाधीश होना बेकार है, लेकिन ऐसा नहीं है | ‘‘एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा यः करोति। तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् || १२ || कठोपनिषद् अध्याय २ वल्ली २’’ ”समस्त प्राणियों के अंतर में स्थित, शांत एवं सबको वश में रखने वाला एकमेव ‘आत्मा’ (ब्रह्म) एक ही रूप को बहुविध रचता है; जो धीर पुरुष ‘उस’ का आत्मा में दर्पण वत अनु दर्शन करते हैं उन्हें शाश्वत सुख प्राप्त होता है, इससे इतर अन्य लोगों को नहीं | जैसे एक ही बिम्ब अनेक दर्पणों की उपाधि से अनेक प्रतिबिम्बों के रूप में प्रतीत होता है | ‘‘समुन्मीलत् संवित् कमलमकरन्दैकरसिकं भजे हंसद्वन्द्वं किमपि महतां मानसचरम् । यदालापादष्टादशगुणितविद्यापरिणति र्यदादत्ते दोषाद् गुणमखिलमद्भ्यः पय इव ॥ ३८॥ सौन्दर्यलहरी’’ भगवत्पाद आचार्य शंकर कहते हैं कि मैं हंस जोड़े के सामने प्रार्थना करता हूं, जो केवल ज्ञान के खुले कमल के फूलों से अमृत का आनंद लेते हैं। जो महान लोगों के मन रूपी झील में वे तैरते हैं, और केवल शब्दों से उनका वर्णन नहीं किया जा सकता है। उनकी बातचीत से ही अठारह विद्यायें आती हैं, और वे अच्छे को बुरे से अलग करती हैं, बस जैसे हंस पक्षी दूध को पानी से अलग करता है।|| १३ ||
स्वाधिकारावसाने हि कैवल्यं नोपरुध्यते। अतस्तस्य प्रसिद्धं तद्वश्यमायत्वमर्थवत् ॥४.१४॥
जब ईश्वर के निर्धारित कर्तव्य समाप्त हो जाते हैं तब उसकी कैवल्य (परम मुक्ति) बाधित नहीं होती है। इसलिए उनका माया वशित्व के रूप में प्रसिद्ध होना (माया का उपयोग करने वाले और उस महाशक्ति द्वारा दूसरों पर शासन करने वाले रूप में वर्णन) सार्थक है | यहाँ ईश्वर माने हिरण्यगर्भ समझना चाहिए | हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्॥ स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ १ ॥ ऋग्वेद -१० /१२१ सृष्टि के आदि में केवल हिरण्यगर्भ ही थे, जो सभी प्राणियों का प्रकट अधीश्वर हैं। सम्पूर्ण सृष्टि को पृथ्वी और अंतरिक्ष को वे ही धारण करते हैं, आइये उन देवता की उपासना हम हवि से करें। तथा च ‘‘यो देवानां प्रभवश्चोद्भवश्च विश्वाधिपो रुद्रो महर्षिः। हिरण्यगर्भं पश्यत जायमानं स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु || १२ || श्वेताश्वतरोपनिषद् चतुर्थोऽध्यायः’’ वह जो देवों के प्रभव का (जन्म का स्थान) है तथा उनकी सत्ता का उद्भव स्थान है, जो विश्व का अधिपति है, ‘रुद्र’ है, ‘महर्षि’ -महान् द्रष्टा है, एवं जिसने जन्म ग्रहण करते हुए ‘हिरण्यगर्भ’ को देखा था,-वह हमें तेजस्वी तथा शुभ-बुद्धि से संयुक्त करे |अर्थात् उसका साक्षित्व कभी बाधित नहीं होता | || १४ ||
स्थितौ तु तस्य मायित्वं कामित्वादिवदिष्यते। न धनित्वादिवत्कर्म पारवश्यान्निरन्तरम् ॥४.१५॥
ब्रह्माण्ड को बनाए रखने के दौरान, ईश्वर की माया पर पकड़ उसी के समान है, जैसे धन कामी पुरुष धन की इच्छा करता है और जो पहले से ही धन रखता है उसकी तुलना धन कामी से नहीं की जा सकती , क्योंकि उसके {धनकामी के} कर्म हमेशा किसी और के नियंत्रण में होते हैं | ‘‘सोऽकामयत । बहुस्यां प्रजायेयेति । स तपोऽतप्यत । स तपस्तप्त्वा । इदं सर्वमसृजत । यदिदं किञ्च ।’’ ( तैत्तिरीयोपनिषद /ब्रह्मानन्दवल्ली अनुवाक ६) ‘परमात्म तत्त्व’ ने आदिकाल में कामना की ”मैं अपनी प्रजा के जन्म के हेतु बहुरूप हो जाऊँ।” अतः ‘उसने’ ‘स्वयं’ को पूर्णतया चिन्तन में एकाग्र किया, और ‘अपने’ उस चिन्तन की शक्ति से, अपने तप से ‘उसने’ इस समस्त विश्व की सृष्टि की, हाँ, जो कुछ भी विद्यमान है, उसको रचा |||१५||
जाग्रद्वत्सृष्टिकर्म स्यात्स्वप्नवत्स्थितिकर्म च। जगत्प्रलयकर्म स्यात् सुप्तवत्तस्य मायिनः ॥४.१६॥
उस ईश्वर के लिए, जो माया का शासक है , उसके लिए सृष्टि निर्माण की गतिविधि मन की जागृत अवस्था की तरह है, निर्वाह (पालन) की स्थिति स्वप्न की तरह है और विनाश गहरी नींद की अवस्था की तरह है | || १६ ||
अवस्थात्रयवत्त्वेन कर्मत्रितयवत्तया। शरीरत्रयवत्त्वेन जीवः सोऽपीति केचन ॥४.१७॥
कुछ लोग सोचते हैं कि तीनों प्रकार की अवस्थाओं को (जाग्रत ,स्वप्न और सुषुप्ति) धारण करने के कारण, तथा तीनों प्रकार के कार्यों को (सृष्टि ,स्थिति और प्रलय) के उपादान और निमित्त होने के कारण और तीन प्रकार के शरीर (स्थूल ,सूक्ष्म और कारण) को स्वीकार करने कारण ईश्वर भी एक जीव ही है | || १७ ||
तदयुक्तं पुरा जीवोऽप्यद्य ब्रह्मात्मवित्तया। सर्वज्ञत्वादिसम्पत्त्या स हि जीवविलक्षणः ॥४.१८॥
लेकिन यह सही नहीं है। भले ही वह पहले कभी एक जीव था, परन्तु अब, क्योंकि वह ब्रह्म को जानता है और सर्वज्ञता आदि गुणों से संपन्न है, इसलिए वह जीव से अलग है (विलक्षण है)| ‘‘स यो ह वै तत् परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति नास्याब्रह्मवित् कुले भवति। तरति शोकं तरति पाप्मानं गुहा ग्रन्थिभ्यो विमुक्तोऽमृतो भवति || ९ ||’’ मुण्डकोपनिषद् तृतीय मुण्डक द्वितीय खण्ड — वस्तुतः वह जो कि उस ‘परम ब्रह्म’ को जानता है वह स्वयं ‘ब्रह्म’ बन जाता है; उसके कुल में ‘ब्रह्म’ को न मानने वाला पैदा नहीं होता। वह शोक और मोह से पार हो जाता है, वह पापों से तर जाता है, वह हृद् गुहा की ग्रंथियों से मुक्त होकर अमर हो जाता है | || १८ ||
जीवनमुक्तसमानत्वान्न कर्मत्रयमीशितुः। प्रारब्धमात्रबद्धत्वादधिकारवशादिह ॥४.१९॥
ईश्वर के कर्म जीवन्मुक्त के समान होने के कारण, उसके पास तीन प्रकार के कर्म नहीं हैं (कुछ कर्म वे हैं जो दुःख उत्पन्न करते हैं, और कुछ वे हैं जो सुख उत्पन्न करते हैं तथा कुछ ऐसे हैं जो सुख और दुख दोनों उत्पन्न करते हैं)। लेकिन ईश्वर तो केवल अपने प्रारब्ध कर्म से बंधे हुए होने के कारण तथा अधिकारी पुरुष होने के कारण अपने निर्धारित कर्तव्यों को पूरा करता है | योगदर्शन के अनुसार कर्म चार प्रकार के होते हैं – १ .शुक्ल कर्म , (शुभ कर्म या पुण्य कर्म) २. कृष्ण कर्म ,(अशुभ या पापकर्म) ३. शुक्ल-कृष्ण, (मिश्र कर्म माने मिले जुले कर्म) ४. अशुक्लाकृष्ण (न पुण्य और न पाप) । पाप कर्म कृष्ण हैं , पुण्य कर्म शुक्ल हैं , दोनों से मिश्रित कृष्ण-शुक्ल और निष्काम कर्म अशुक्ल-अकृष्ण हैं | प्रथम तीन बंध के कारण हैं और चौथा न बंध का कारण है और न मुक्ति का | कर्म तो अपने आप में जड़ है , वह बन्धन या मुक्ति का कारण नहीं हो सकता | कर्तृत्व के अहंकार से बन्धन होता है | व्यक्ति यदि कर्तृत्व से रहित हो जाए तो नित्य मुक्त ही है , क्योंकि कर्तृत्व के बिना भोक्तृत्व की सिद्धि ही नहीं होती | रजोगुण के कारण क्रियाशील चित्त में कर्म होता है, फिर उससे संस्कार या कर्माशय बनता है , फिर उससे वासना और वासना से पुनः कर्म, यह चक्र बराबर चलता रहता है | कर्म वासना के अधीन है । अनेक जन्म पहले की वासनाएँ अनेक जन्म पश्चात् उद्बुद्ध होती हैं । अविद्या ही वासना का मूल कारण है । धर्म, अधर्म आदि कार्य हैं और वासना इसका कारण । मन वासना का आश्रय है, निमित्त भूत वस्तु आलंबन है, पुण्य-पाप उसके फल हैं ।(योगदर्शन सूत्र) | ‘‘कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम् ॥४.७॥’’ योगी के कर्म पाप एवं पुण्य से रहित होते हैं अर्थात निष्काम होते हैं जबकि योगी से भिन्न सांसारिक व्यक्तियों के कर्म तीन प्रकार के होते हैं । योगियों से अन्य दूसरे व्यक्तियों के अलग से तीन प्रकार के कर्म होते हैं | || १९ ||
अधिकारावसाने तद्ब्रह्मत्वं सम्भविष्यति। इति वेदान्तसिद्धेऽर्थे व्यभिचारः कुतो भवेत् ॥४.२०॥
जब उसके निर्धारित कर्तव्य जब समाप्त हो जाएंगे, तो वह ब्रह्म के साथ एक हो जाएगा। वेदांत के इस स्थापित निष्कर्ष में, कोई भ्रम कैसे हो सकता है? ‘‘पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति ॥ ४.३४॥’’ (योगदर्शन सूत्र) इस जीवन के प्रयोजन अथवा लक्ष्य से रहित हुए गुणों का वापिस अपने कारण में लीन हो जाना ही कैवल्य मुक्ति होता है | अथवा आत्मा का अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित हो जाना ही मोक्ष कहलाता है | || २० ||
ब्रह्मैवैकमकर्मोक्तं श्रुतिभिः स्मृतिभिश्च तत्। ईशस्य कर्मतोक्तिस्तु श्रूयते ह्यौपचारिकी ॥४.२१॥
ब्रह्म एकमात्र अकर्ता है, यह श्रुतियों और स्मृतियों में सुना जाता है। और उन्हीं ग्रंथों में ( निगम और आगमों में) जो ईश्वर का कर्तापन, सुना जाता है, वह एक औपचारिक है ,आलंकारिक है | श्रीमद् भगवद्गीता में कहा है –‘‘प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः। यः पश्यति तथाऽऽत्मानमकर्तारं स पश्यति।।१३ .३०।।’’ जो पुरुष समस्त कर्मों को सर्वश: प्रकृति द्वारा ही किये गये देखता है तथा आत्मा को अकर्ता देखता है, वही (वास्तव में) देखता है।। || २१ ||
सकर्मत्वेऽपि तस्य स्यात्कर्ममोचकतेशितुः। संचितागामिहीनत्वात्सर्वज्ञत्वाच्च सत्तम ॥४.२२॥
हे श्रेष्ठ तम! अरुण ! भले ही शिव एक कर्ता हैं, फिर भी उनके पास दूसरों को मुक्त करने की शक्ति है क्योंकि वे संचित और आगामी कर्मों से मुक्त हैं और सर्वज्ञ हैं | जैसे एक मशीन काम करती है लेकिन उसमें कर्तृत्व या भोक्तृत्व नहीं होता | परन्तु एक सांसारिक मशीन जड़ होती है और आध्यात्मिक मशीन चेतन होती है इतना ही अन्तर उन दोनों में है | और शुद्ध चेतन में भी कर्तृत्व या भोक्तृत्व नहीं होता | शुद्ध चेतन के साथ तादात्म्य होने पर ब्रह्मत्व के साथ एकात्म्य होना आसान हो जाता है | || २२ ||
ईश्वरब्रह्मणोर्भेदं सकर्माकर्मतादिभिः। सुप्रसिद्धिमपह्नोतुं कः समर्थोऽस्ति मानतः ॥४.२३॥
ईश्वर और ब्रह्म के बीच का भेद प्रसिद्ध है , एक ईश्वर कर्ता और दूसरा ब्रह्म अकर्ता आदि होने के बीच का अंतर सर्वविदित है। इसे प्रमाणों के द्वारा कौन निरस्त कर सकता है ? कौन है जो गर्व से कह सकता है कि ईश्वर और ब्रह्म में कोई अंतर नहीं है | स्वामी विद्यारण्य ने पञ्चदशी के छठे प्रकरण में कहा कि — ‘‘मायाख्याया कामधेनोर्वत्सौ जीवेश्वरावुभौ । यथेच्छं पिबतां द्वैतं तत्त्वं त्वद्वैतमेव हि ॥ २३६॥’’ माया नाम की कामधेनु के दो बछड़े हैं , एक जीव और दूसरा ईश्वर ,ये दोनों भले ही यथेच्छ द्वैत रूपी दूध पियें परन्तु तत्व तो अद्वैत ही है |अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत्। अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्य तन्मृत्युमुखात् प्रमुच्यते || १५ || कठोपनिषद् अध्याय १ वल्ली ३ ”वह ‘परतत्त्व’ जिसमें न शब्द है, न स्पर्श और न रूप है, जो अव्यय है जिसमें न कोई रस है और न कोई गंध है, जो नित्य है, अनादि तथा अनंत है, ‘महान् आत्मतत्त्व’ से भी उच्चतर (परे) है, ध्रुव (स्थिर) है उसका दर्शन करके मृत्यु के मुख से मुक्ति मिल जाती है।” || २३ ||
ईश्वरस्याप्यकर्मत्वं यदि ब्रूयान्निरंकुशम्। स द्वैती न कदाप्यस्मात्संसारान्मुक्तिमाप्नुयात् ॥४.२४॥
यदि कोई निरंकुश होकर ईश्वर का भी अकर्तृत्व (अकर्ता पना) सिद्ध करता है , तो उस द्वैतवादी को दुनिया से कभी भी मुक्ति नहीं मिलेगी | ‘‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।१८.६१।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ हे अर्जुन (मानों किसी) यंत्र पर आरूढ़ समस्त भूतों को ईश्वर अपनी माया से घुमाता हुआ (भ्रामयन्) भूत मात्र के हृदय में स्थित रहता है।। रामो भामिनि लोकस्य चातुर्वर्ण्यस्य रक्षिता । मर्यादानां च लोकस्य कर्ता कारयिता च सः ।। ५.३५.११।। श्रीमद्वाल्मीकियरामायणे सुन्दरकाण्डे पञ्चत्रिंशतितमः सर्गः | स प्रभुः सर्वभूतानां विभुश्च भरतर्षभ ।संक्षेपो विस्तरश्चैव कर्ता कारयिता तथा || ६.८.१७ || महाभारतम्-भीष्मपर्व-अध्याय ८ ||२४||
यतस्तत्पदवाच्योऽर्थः स हेय इति कथ्यते। अतस्तस्य न नित्यत्वं नाकर्मत्वं च युज्यते ॥४.२५॥
चूँकि जिसे {तत्}’उस’ शब्द से दर्शाया जाता है (प्रसिद्ध वेदांत वाक्यांश {तत् त्वं असि} “वह तुम हो”) इस वाक्य के वाच्यार्थ को अस्वीकार किए जाने के योग्य माना जाता है, इसलिए इसके लिए स्थायित्व या अकर्तृत्व का उल्लेख करना उचित नहीं है | क्योंकि वह {तत्} पद का वाच्यार्थ है न कि लक्ष्यार्थ | वाच्यार्थ तो विनाशशील ही होता है फिर चाहे वह जीव हो या ईश्वर | लक्ष्यार्थ ही अविनाशी ब्रह्म है | इसके लिए कम से कम वेदान्त के प्रक्रिया ग्रंथों का (प्रकरण ग्रन्थों का) अध्ययन आवश्यक है | क्योंकि वेदान्त का तात्पर्य वाच्यार्थ के त्याग में ही है | विवेक चूड़ामणि में कहा है कि :- ‘‘मृत्कार्यं सकलं घटादि सततं मृन्मात्रमेवाहितं तद्वत् सज्जनितं सदात्मकमिदं सन्मात्रमेवा खिलम् । यस्मान्नास्मि सतः परं किमपि यत् सत्यं स आत्मा स्वयं तस्मात् तत्त्वमसि प्रशांतममलं ब्रह्माद्वयं यत् परम् ॥ २५१॥ जिस प्रकार मिट्टी के कार्य घट आदि हर तरह से मृत्तिका का ही कार्य हैं,उसी प्रकार सत से उत्पन्न हुआ सत्स्वरूप संपूर्ण जगत सन्मात्र अर्थात सत्य ही है। क्योंकि सत से परे और कुछ भी नहीं है तथा वही सत्य स्वयं आत्मा भी है, इसलिए जो शांत, निर्मल और अद्वितीय परब्रह्म है वही तुम हो | निद्राकल्पितदेशकालविषयज्ञात्रादि सर्वं यथा मिथ्या तद्वदिहापि जाग्रति जगत्स्वाज्ञानकार्यत्वतः । यस्मादेवमिदं शरीरकरणप्राणाहमाद्यप्यसत् तस्मात्तत्त्वमसि प्रशान्तममलं ब्रह्माद्वयं यत्परम् ॥ २५२॥’’ (जिस प्रकार स्वप्न में निद्रा-दोष से कल्पित देश, काल, विषय और ज्ञाता आदि सभी मिथ्या होते हैं , उसी प्रकार जाग्रत अवस्था में भी यह जगत्, अपने अज्ञान का कार्य होने के कारण, मिथ्या ही है | इस प्रकार क्योंकि ये शरीर, इन्द्रियाँ, प्राण और अहंकार आदि सभी असत्य हैं, अत: तुम वही परब्रह्म हो जो शान्त,निर्मल और अद्वितीय है) || २५ ||
अनध्यस्तात्म भावेन न देहेनैव कश्चन। व्याप्रीयेत ततश्च स्याद् देहीशो ध्यान संयुतः ॥४.२६॥
पाञ्चभौतिक शरीर के साथ तादात्म्य किये बिना ( पहचान बनाये बिना ), कोई भी सांसारिक गतिविधि नहीं कर सकता है। इसलिए, ईश्वर ध्यान की अवस्था में, एक भौतिक शरीर में रहता है | ‘‘स विचार्याखिलान् लोकान् सृष्ट्वा पालक सृष्टये | कृत्वा विराट् तनुं छिद्रेश्वथ तद्देवता व्यधात् ||७||’’ स्वामी विद्यारण्य ने अनुभूतिप्रकाश में कहा है कि — उसने विचार किया और फिर अखिल लोकों की सृष्टि की इसके बाद उसके पालक की सृष्टि करने के लिए उसने विराट रूप धारण किया फिर उस शरीर के छिद्रों में देवताओं की स्थापना की | पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम्। उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति । (पुरुषः एव इदं सर्वम्) यह सब कुछ वह पुरुष ही है। (यद् भूतं यत् च भव्यम्) ये जो भूत अर्थात् उत्पन्न और जो भव्य अर्थात् आगे भी उत्पन्न होने वाले कार्य और कारण हैं। (उत्) और वह (अमृतत्वस्य ईशानः) अमृतस्वरूप मोक्ष का स्वामी है, जो अन्न से (अति रोहति) सर्वोपरि है। वही समस्त प्राणियों के अन्न अर्थात् भोग्य कर्मफल का स्वामी होकर उन सब को वश किये हुए है | पुरुष-सूक्त (पुरुष) पुर में व्यापक शक्ति वाले राजा के तुल्य समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त परम पुरुष परमात्मा (सहस्र-शीर्ष) हजारों शिरों वाला है। (सः) वह (भूमि ) सम्पूर्ण जगत् के उत्पादक, सर्वेश्वर प्रकृति को ( विश्वतः वृत्वा ) सब ओर से, सब प्रकार से चरण कर, व्याप कर (दशांगुलम् अति अतिष्ठन् ) दस अंगुल अतिक्रमण करके विराजता है। अंगुल यह इन्द्रिय,वा देह का उपलक्षण है, अर्थात वह दश इन्द्रियों के भोग और कर्म के क्षेत्र से बाहर है। वह न कर्म-बंधन में बद्ध रहता है और न मन का विषय है। समस्त संसार के सिर उसके सिर हैं और समस्त संसार के चक्षु और चरण भी उसी के चक्षु और चरण हैं । सर्वत्र उसी की दर्शन शक्ति और गति शक्ति कार्य कर रही है | || २६ ||
स्वदेहेऽपीश्वरस्यास्ति नाध्यासः पारमार्थिकः। प्रातिभासिकमाश्रित्य स्रष्टृत्वादि निगद्यते ॥४.२७॥
(पारमार्थिक दृष्टिकोण से) निरपेक्ष दृष्टिकोण से, यहाँ तक कि ईश्वर का भी शरीर के साथ कोई तादात्म्य अध्यास नहीं है , अर्थात उनकी शरीर से पहचान नहीं है | केवल प्रातिभासिक सत्ता का आश्रय लेकर ही उनके रचनाकार आदि होने का गुणगान किया जाता है | और वैसे भी अध्यास माने उल्टी समझ कभी (पारमार्थिक) वास्तविक नहीं होती | ‘‘माया भासेन जीवेशौ करोतीति श्रुतौ श्रुतम् । मेघाकाशजलाकाशाविव तौ सुव्यवस्थितौ ॥ १५५॥ चित्रदीप प्रकरण पञ्चदशी’’ इसलिए श्रुति में कहा गया है कि माया जीव और ईश को प्रतिबिंब के योग के माध्यम से करती है। उन्हें पानी और बादल के रूप में प्रतिष्ठित किया जाना चाहिए | माया भासेन जीवेशौ करोतीति श्रुतत्वतः । कल्पितावेव जीवेशौ ताभ्यां सर्वप्रकल्पितम् ।।३।।तृप्ति दीप पञ्चदशी | माया ही चिदाभास की मदत से ईश्वर को भी निर्माण करती तथा जीव को भी निर्माण करती है (जीवेशौ)। माया से निर्मित ईश्वर और जीव दोनों कल्पित है तथा इन दोनों की बताई-बनाई बातें भी सब कल्पित ही है | इदं वै तन्मधु दध्यङ्ङाथर्वणोऽश्विभ्यामुवाच तदेतदृषिः पश्यन्नवोचद्रूपरूपं प्रतिरूपो बभूव तदस्य रूपं प्रतिचक्षणाय। इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते युक्ता ह्यस्य हरयः शता दशेति। अयं वै हरयोऽयं वै दश च सहस्राणि बहूनि चानन्तानि च तदेतद् ब्रह्मा पूर्वमनपरमनन्तरमबाह्यमयमात्मा ब्रह्म सर्वानुभूरित्यनुशासनम् ||१९|| बृहदारण्यकोपनिषद द्वितीयोऽध्यायःपञ्चमं ब्राह्मणम् | वह परमेश्वर अज्ञानों के द्वारा अनेक रूपों वाला प्रतीत होता है। ‘इन्दति परमैश्वर्यं लभते इति इन्द्रः’ (इदि परमैश्वर्ये धातु + औणादिक रन् प्रत्यय=इन्द्र) मायाभिः में जो बहुवचन है वह अज्ञान के अनेकता को द्योतित करता है। अज्ञान की अनेकता के कारण ही वह परमेश्वर अनेक रूपों में भासित होता है। इन्द्र शब्द से ही इन्द्रिय शब्द बना है |इन्द्रियमिन्द्रलिङ्गमिन्द्रदृष्टमिन्द्रसृष्टमिन्द्रजुष्टमिन्द्रदत्तमिति वा। (पाणिनि अष्टाध्यायी ५.२.९३) स्वप्न में स्वप्नद्रष्टा के अतिरिक्त सबकुछ मिथ्या ही होता है | || २७ ||
देहाध्यासस्य सत्यस्य न कदाप्यस्ति संगतिः। प्रागीशदेहाभावेन देहाभावेन चाप्यये ॥४.२८॥
देहाध्यास की और सत्यता की कभी संगति नहीं बैठती | शरीर के साथ पहचान की वैधता (जो कि प्रातिभासिक दृष्टिकोण से है) ईश्वर के शरीर के अभाव के पूर्व और शरीर विघटन के समय शरीर की अनुपस्थिति या शरीर की अनुपस्थिति से पहले कभी भी साथ नहीं होती है | क्योंकि प्रलय काल में तो देह का अभाव ही होता है |अर्थात ईश्वर को यह भ्रान्ति कभी नहीं होती कि मैं देह हूँ | ‘‘वाक्यार्थश्च विचार्यतां श्रुति शिरः पक्षः समाश्रीयतां दुस्तर्कात्सुविरम्यतां श्रुतिमतस्तर्कोऽनुसन्धीयताम्। ब्रह्मास्मीति विभाव्यतामहरहर्गर्वः परित्यज्यतां देहोऽहंमतिरुझ्यतां बुधजनैर्वादः परित्यज्यताम्॥३॥’’ शंकराचार्य जी साधनपंचक में कहते हैं कि — तत्वमसि आदि महावाक्यों के अर्थ पर विचार करें, श्रुति के प्रधान पक्ष का अनुसरण करें, कुतर्कों से दूर रहें, श्रुति पक्ष के तर्कों का विश्लेषण करें, मैं ब्रह्म हूँ ऐसा विचार करते हुए मैं रुपी अभिमान का त्याग करें, मैं शरीर हूँ, इस भाव का त्याग करें, बुद्धिमानों से वाद-विवाद न करें | ‘‘मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय। मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।७.७।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ हे धनञ्जय ! मुझसे बढ़कर (इस जगत् का) दूसरा कोई किञ्चिन्मात्र भी कारण नहीं है। जैसे सूतकी मणियाँ सूतके धागेमें पिरोयी हुई होती हैं, ऐसे ही यह सम्पूर्ण जगत् मेरेमें ही ओत-प्रोत है। ||२८||
जगत्प्रलयकाले स निर्व्यापारोऽपि सुप्तवत्। अध्यासबीजवत्त्वेन पुनः सृष्टौ प्रवर्तते ॥४.२९॥
ब्रह्मांड के विनाश के दौरान, ईश्वर बिना किसी गतिविधि के है, जैसे कि वह नींद में हो उसकी पहचान (शरीर के साथ) कारण अवस्था में रहती है, जैसे एक पेड़ की जीवन धारा एक बीज में प्रसुप्त रूप में टिकी हुई है, और सृष्टि काल शुरू होने पर फिर से प्रकट होती है | क्योंकि उस समय भी उस ईश्वर में जगत का अध्यास संस्कार बीज रूप से बना रहता है | जैसे जब हम सो जाते हैं तब भी हमारा प्रारब्ध और अध्यास बीज रूप से बना ही रहता है | ‘‘नष्टे लोके द्विपरार्धावसाने महाभूतेष्वादिभूतं गतेषु । व्यक्तेऽव्यक्तं कालवेगेन याते भवानेकः शिष्यते शेषसंज्ञः ॥ २॥’’ श्रीमद्भागवतम्॥ १०.०३.०२५ ॥ यह भी सत्य है कि महाप्रलय में केवल आप ही शेष रहते हैं, काल के वेग से ब्रह्मा जी की दो परार्ध आयु का अंत होने पर जब ये चौदह लोक नष्ट होते हैं, अर्थात् पञ्च महाभूतों में लीन हो जाते हैं और महाभूत इंद्रियों सहित अहंकार में लीन हो जाते हैं, अहंकार महत्तत्त्व में, महत्तत्त्व अव्यक्त (प्रधान) में और प्रधान आप में लीन हो जाता है तब ‘यह जगत मुझमें इस प्रकार लीन हुआ है फिर इसको इस प्रकार उत्पन्न करना चाहिए’, इस तरह सबका ज्ञान रखने वाले आप ही शेष रह जाते हैं | ‘‘बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते। वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।७.१९।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ‘सब कुछ परमात्मा ही है’,ऐसे ज्ञान को प्राप्त होकर कि ‘यह सब वासुदेव ही है’ जो ज्ञानवान् मेरे शरण होता है, ऐसा ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है; ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है।।|| २९ ||
चतुर्युगसहस्रान्ते विधातुर्हि निशोच्यते। तदा सुप्तस्य तस्यापि जीवस्येव सबीजता ॥४.३०॥
जगतनिर्माता के एक हजार चतुर्युगी के अंत में उतनी ही लम्बी उन विधाता की रात्रि कही जाती है | जब प्रलयाग्नि में सब कुछ भस्म हो जाता है, और संवर्त नाम के मेघ सब कुछ आप्लावित करके जल मय बना देते हैं तब वह निर्माता, जो नींद की अवस्था में प्रवेश कर गया था, कारण स्थिति में प्रवेश करता है, जैसे जीव हर लौकिक सुषुप्ति में अपनी भावनाओं के बीज के साथ शयन करता है, वैसे ही ब्रह्मा जी भी सृष्टि रचना रूप कर्म वासना के बीज के साथ शयन करते हैं | ‘‘सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः। रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः।।८.१७।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ जो मनुष्य ब्रह्माके एक हज़ार चतुर्युगीवाले एक दिनको और सहस्त्र चतुर्युगीपर्यन्त एक रातको जानते हैं, वे मनुष्य ब्रह्माके दिन और रातको जाननेवाले हैं | चतुर्युगसहस्रं तु ब्रह्मणो दिनमुच्यते । स कल्पो यत्र मनवश्चतुर्दश विशाम्पते ॥ २ ॥ श्रीमद् भागवत पुराण| एक हजार चतुर्युग जब एक साथ व्यतीत हो जाते हैं तब ब्रह्मा का एक दिन होता है। ब्रह्मा के इस एक दिन को कल्प कहा जाता है। ब्रह्माजी की कुल आयु है ३१ नील १० खरब ४० अरब मानव वर्ष की होती है | एक कल्प माने ब्रह्माजी के एक दिन में चौदह घण्टे अथवा १४ मनु होते हैं। वर्तमान सृष्टि की कुल आयु ४३,२,००००००० वर्ष है | इसे कुल १४ मन्वन्तरों मे बाँटा गया है. १ मन्वन्तर = ७१ चतुर्युगी १ चतुर्युगी = चार युग (सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग) वर्तमान में ७ वें मन्वन्तर अर्थात् वैवस्वत मनु का काल चल रहा है. इस से पूर्व ६ मन्वन्तर हो चुके हैं जैसे स्वायम्भव, स्वारोचिष, औत्तमि, तामस, रैवत, चाक्षुष बीत चुके है और आगे सावर्णि आदि ७ मन्वन्तर होवेंगे . वर्तमान सप्तम मन्वन्तर के मालिक वैवस्वत मनु हैं। अष्टम सावर्णि मनु , नवम दक्षसावर्णि मनु, दशम, ब्रह्मसावर्णि मनु, एकादश धर्मसावर्णि मनु, द्वादश रुद्रसावर्णि मनु, त्रयोदश देवसावर्णि मनु ,चतुर्दश इन्द्रसावर्णि मनु| || ३० ||
तथा विष्णोर्युगाः प्रोक्तास्तस्माच्छतगुणाधिकाः। तथा शिवस्य तस्माच्च विष्णोः शतगुणाधिकाः ॥४.३१॥
इसी प्रकार विष्णु का एक युग ब्रह्मा के युग का सौ गुना अधिक है और शिव का एक युग, विष्णु के युग का सौ गुना अधिक है | ||३१||
एवं कालैरवच्छिन्नांस्तारतम्येन जीववत् । ईश्वरांस्तान् कथं ब्रूयां देहकर्मादिवर्जितान् ॥ ४.३२ ॥
वे ईश्वर (ब्रह्मा, विष्णु और शिव) समय से बंधे हुए हैं,(काल की सीमा में हैं) इसलिए एक जीव के समान हैं, मैं उन्हें शरीर, कर्म आदि के बंधन से मुक्त होने के लिए कैसे कह सकता हूं? अर्थात वे देह और कर्म के बंधनों से मुक्त नहीं हैं | ‘‘ब्रह्मा येन कुलालवन्नियमितो ब्रह्माण्ड भाण्डोदरे विष्णुर्येन दशावतार गहने क्षिप्तो महासंकटे । रुद्रो येन कपालपाणिपुटके भिक्षाटनं कारितः सूर्यो भ्राम्यति नित्यमेव गगने तस्मै नम: कर्मणे ।।९२।। भर्तृहरि नीतिशतक’’ जिस कर्म ने विधाता को ब्रह्मांड रूपी पात्र के अंदर कुम्हार की तरह सृष्टि कार्य हेतु नियोजित किया, विष्णु को दशावतार रूपी कष्ट देने वाले कार्य में नियुक्त किया, शंकर को हाथ में खप्पर लेकर भिक्षाटन कराया और सूर्य को आकाश में निरंतर भ्रमण कराता है, उस कर्म को नमस्कार है | अयं काणः शुक्रो विषमचरणः सूर्यतनयः क्षताङ्गोऽयं राहुर्विकल महिमा शीतकिरणः । अजानानस्तेषामपि नियतकर्मस्वकफलं ग्रहग्रामग्रस्ता वयमिति जनोऽयंप्रलपति ॥ काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता॥ हे भाई! कोई किसी को सुख-दुःख का देने वाला नहीं है। सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं॥ ||३२||
व्यष्टिदेहत्रयं स्वीयं मत्वा जीवत्रयं यथा। पारमार्थिकसंसारनिबद्धं कर्मितामगात् ॥४.३३॥
यद्यपि जीव का पारमार्थिक स्वरूप तो ब्रह्म से भिन्न नहीं है तथापि व्यवहार दशा में व्यष्टि (व्यक्तिगत) शरीर से तादात्म्य होने के कारण जाग्रत ,स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं में तीन जीवों की तरह, तीन व्यक्तिगत शरीरों को प्राप्त कर लेता है , जाग्रत अवस्था में नेत्र में बैठ कर {विश्व} नाम वाला हो जाता है , स्वप्न अवस्था में कंठ में बैठ कर {तैजस} नाम वाला और सुषुप्ति अवस्था में हृदय में स्थित होकर प्राज्ञ संज्ञा को प्राप्त करता है और संसार में बंध कर कर्मसङ्गी हो जाता है | वैसे ही समष्टि में ईश्वर भी (अगले श्लोक में जारी) || ३३ ||
समष्टिदेहत्रितयं तथा मत्वेश्वरत्रयम्। प्रातिभासिकसंसारनिबद्धं कर्मितामगात् ॥४.३४॥
(जारी) इसी तरह ईश्वर भी अपनी जाग्रत आदि तीन अवस्थाओं के अनुसार तीन रूप और तीन नाम वाला हो जाता है | ईश्वर की जाग्रत अवस्था में उसका नाम विराट , स्वप्न में हिरण्यगर्भ और सुषुप्ति में ईश्वर नाम होता है और पूरे विश्व को अपने तीन गुना शरीर के रूप में मानते हुए, त्रिगुणात्मक रूप से प्रातिभासिक दुनिया के संसार में बंध कर कर्मित्व को प्राप्त हुआ | || ३४ ||
शुद्धसत्त्वप्रधानायां मायायां प्रतिबिंबितः। ईश इत्युच्यते तस्य निरुपाधिकता कथम् ॥४.३५॥
शुद्धसत्वप्रधान माया में प्रतिबिंबित होने के कारण, जिस माया में शुद्ध सत्त्व प्रमुख है, ऐसी उस माया की उपाधि वाले को ईश्वर कहा जाता है | उस ईश्वर को निरुपाधिक कैसे कह सकते हैं , वह पूर्ण कैसे हो सकता है? ‘‘सत्त्वशुद्ध्यविशुद्धिभ्यां मायाऽविद्ये च ते मते । मायाबिम्बो वशीकृत्य तां स्यात्सर्वज्ञ ईश्वरः ॥ १६॥’’ वेदान्त पंचदशी | चिदानन्दमय ब्रह्म के प्रतिबिम्ब से समन्वित तमोगुण,रजोगुण और सत्त्वगुणमयी प्रकृति दो प्रकार की है,शुद्धसत्त्वगुणप्रधान माया और अशुद्ध या मलिनसत्वप्रधान अविद्या। माया में प्रतिबिम्बित ब्रह्म माया को अपने वश में करके ईश्वर कहा जाता है और अविद्या में प्रतिबिम्बित अविद्या के वश में होकर जीव कहा जाता है। माया ईश्वर के वश में है,पर जीव अविद्या के वश में है, दोनों में यही अंतर है | || ३५ ||
औपाधिकस्य नित्यत्वं कथं वाच्यं मनीषिभिः। अनित्यस्य च नैष्कर्म्यं कथं भवितुमर्हति ॥४.३६॥
जो निरुपाधिक नहीं है (निरपेक्ष नहीं है), उसे विद्वान पुरुष नित्य या शाश्वत कैसे कह सकते हैं {उसमें स्थायित्व का वर्णन कैसे कर सकते हैं} और यदि वह शाश्वत नहीं है माने अनित्य है, तो उसमें नैष्कर्म्य (कर्मराहित्य) की सिद्धि कैसे हो सकती है ? अन्यत्वेनाप्रमेयत्वं प्रमेयत्वेपि दृश्यता | अतोप्रमेयता श्रौती प्रत्यञ्चं न विमुञ्चति ||श्रुति ही परम प्रमाण है |’साखी’, सबदी, दोहरा, कहि कहनी उपखान। भगति निरूपहिं अधम कवि, निंदहिं वेद पुराण।। ‘‘अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते । धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः । । २.१३ । ।मनुस्मृतिः/द्वितीयोध्यायः’’ जो द्रव्यों के लोभ और काम अर्थात् विषय – सेवा में फंसा हुआ नहीं होता, उसी को धर्म का ज्ञान होता है । जो धर्म को जानने की इच्छा करें उनके लिए वेद ही परम प्रमाण है । ‘‘योऽन्यथा सन्तमात्मानमन्यथा प्रतिपद्यते। किं तेन न कृतं पापं चोरेणात्मापहारिणा || ३५ || महाभारत उद्योग पर्व अध्याय ४२’’ ‘जो अन्य प्रकारका (अविनाशी) होते हुए भी आत्मा को अन्य प्रकारका (विनाशी) मानता है, उस आत्मघाती चोर ने कौन-सा पाप नहीं किया ?’||३६||
ब्रह्मण्यारोपितो भ्रान्तैरीशाख्यः सर्वसृष्टिकृत्। आत्मयोगिभिरभ्रान्तैः स भवत्यवरोपितः ॥४.३७॥
सार्वभौमिक रचनाकार ईश्वर को (भ्रान्त पुरुषों द्वारा) बहके हुए लोगों द्वारा ब्रह्म पर झूठे ही आरोपित किया गया है | परन्तु जो अभ्रान्तपुरुष हैं, ऐसे गैर-बहकाने वाले योगी लोग जो स्वयं को जानते हैं, वे उस आरोप का अपवाद कर देते हैं | अर्थात उस आरोपित भ्रान्ति को दूर हटा देते हैं | ‘‘इदं सर्वं पुरा सृष्टेरेकमेवाद्वितीयकम् । सदेवासीन्नामरूपे नास्तामित्यारुणेर्वचः ॥ १९ ॥ वेदान्त पंचदशी’’ श्रुति का मत यह है कि, यह सारा संसार सृष्टि से पहले कुछ नहीं था , लेकिन एक ही अद्वितीय रूप था ; तब कोई नाम नहीं था। ‘ यह अरुण के बेटे उद्दालक ऋषि का वचन है | ”एकम्, एव, अद्वितीयं,” इन तीनों शब्दों से ब्रह्म के स्थान को देखने के बीच के अंतर को हल किया है | तीन प्रकार के भेद हैं: स्वगत, सजातीय और विजातीय आइए एक उदाहरण के रूप में एक पेड़ को लें और देखें कि ये तीन अंतर उनमें कैसे किए जाते हैं | एक पेड़ के पत्तों और फूलों से बनाया गया भेद स्वगत भेद है; दो अलग-अलग, पेड़ों के बीच का अंतर सजातीय है; और पत्थर, मिट्टी और पेड़ के बीच के अंतर को विजातीय माना जाना चाहिए | शुद्ध सत्ता मात्र में ये तीनों भेद नहीं है | ||३७||
अविद्यातिमिरान्धस्य स्थाणौ चोरवदीश्वरः। प्रतिभाति परब्रह्मण्यमले स्वात्मरूपिणि ॥४.३८॥
जो लोग अज्ञानता के अंधेरे से अंधे हैं, वे शुद्ध ब्रह्म में धोखे से ईश्वर को देखते हैं | जैसे कोई भ्रम से सूखे हुए वृक्ष के ठूंठ में चोर की कल्पना करता है | जो परब्रह्म स्वयं अपनी आत्मा का ही स्वरूप है उसी में ईश्वर ,जगत और जीव और न जाने क्या क्या कल्पनाएँ करता है | ठीक उसी तरह जैसे अंधेरे में खड़ा एक आदमी एक मूर्ति में एक चोर को धोखे से देखता है | तुलसीदास जी कहते हैं कि –‘‘तमेकमद्भुतं प्रभु। निरीहमीश्वरं विभुं।। जगद्गुरुं च शाश्वतं। तुरीयमेव केवलं।।’’ उन (आप) को जो एक (अद्वितीय), अद्भुत (मायामय जगत से विलक्षण), प्रभु (सर्वसमर्थ), इच्छा रहित, ईश्वर (सबके स्वामी), व्यापक, जगद्गुरु, सनातन (नित्य), तुरीय (तीनों गुणों से सर्वथा परे) और केवल (अपने स्वरूप में स्थित) हैं॥ ||३८||
सद्यो मुमुक्षुदृष्ट्या हि नेश्वरस्यास्ति सत्यता। अतो विवर्तवादोऽयं सुतरामुपयुज्यते ॥४.३९॥
तात्कालिक मुक्ति (कैवल्य) के दृष्टिकोण से, ईश्वर के अस्तित्व में कोई सच्चाई नहीं है। इसलिए, ईश्वर के अस्तित्व की धारणा के मिथ्यात्व को और अधिक मजबूत करने वाले विवर्तवाद को यहां स्थापित किया गया है | दार्शनिक क्षेत्र में, यह सिद्धान्त है कि ब्रह्म ही सत्य है और यह जगत् उसके विवर्त या भ्रम के कारण कल्पित रूप है | (विपरीत रूपेण वर्तते ,प्रतीयते इति विवर्तः) अथवा विरुद्ध रूप से प्रतीयमान को विवर्त कहते हैं | विवर्तवाद के अनुसार परिवर्तन वास्तविक न होकर आभास मात्र होता है। जैसे-रस्सी में सर्प का आभास होना। ‘‘सत्तत्त्वमाश्रिता शक्तिः कल्पयेत्सति विक्रियाः । वर्णाभित्तिगताभित्तौ चित्रं नानाविधं यथा ॥ ५९ ॥’’ वेदान्त पंचदशी — सत्तत्व के आश्रय में रहने वाली शक्ति उसी सत्तत्व के भीतर कई प्रकार के विकारों की कल्पना करती है। जैसे दीवार पर खींची गई रेखाओं में कभी कोई तस्वीर तथा कभी कभी उसमें तरह-तरह के अक्षर भी दिखाई देने लगते हैं |||३९||
परिणामेऽप्यनित्यत्वसंसिद्धेरीश्वरस्य च। अद्वैतब्रह्मनिष्ठत्वं श्रोतुर्जीवस्य संभवेत् ॥४.४०॥
जब यह भी साबित हो जाता है कि परिणाम में ईश्वर भी अनित्य है अर्थात बहुत अंत में, ईश्वर अपूर्ण है, तब जीव को अद्वैत ब्रह्म निष्ठा के बारे में श्रवण करने की इच्छा (इस सिद्धांत को समझने की इच्छा) संभव हो सकती है | अद्वितीय ब्रह्म में विश्वास प्राप्त कर सकती है (जैसा कि ईश्वर में विश्वास रखने का विरोध किया गया है)। सत्कार्यवाद के दो भेद हैं- परिणामवाद तथा विवर्तवाद। परिणामवाद से तात्पर्य है कि कारण वास्तविक रूप में कार्य में परिवर्तित हो जाता है। जैसे तिल तेल में, दूध दही में रूपांतरित होता है। विवर्तवाद के अनुसार परिवर्तन वास्तविक न होकर आभास मात्र होता है। जैसे-रस्सी में सर्प का आभास होना | मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये । यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ||७.३|| श्रीमद् भगवद्गीता– सहस्रों मनुष्यों में कोई ही मनुष्य पूर्णत्व की सिद्धि के लिए प्रयत्न करता है और उन प्रयत्नशील साधकों में भी कोई ही पुरुष मुझे तत्व से जानता है।। ”ईश्वरानुग्रहादेव पुंसां अद्वैतवासना । महाभयकृतत्राणा द्वित्राणां उपजायते ॥” परमात्मा की कृपा से ही मनुष्यों में अद्वैत वासना का उदय होता है जो कि मृत्यु रूप महा भय से रक्षा करने वाली है , कभी किन्हीं दो या तीन पुरुषों में जागती है |श्रीदत्तात्रेय अवधूत अपनी अवधूत गीता में बोलते हैं कि ईश्वर की कृपा से अद्वैतवासना होती है, माने जब तक भगवान् स्वयं नहीं बुलावेगा, तब तक उसकी ओर कौन जावे? यदि अद्वैत की ओर जा रहा है तो यह उसी का प्रणयनिमंत्रण है। खण्डन-खण्डन-खाद्य में भी, यही श्लोक है | श्रीमद् भगवद्गीता में भी कहा है कि ‘‘बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते। वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।७.१९।।’’ बहुत जन्मों के अंत में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि ‘यह सब वासुदेव है’ ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है; ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है।। || ४० ||
अधिकारिविभेदेन वादास्ते च मतास्त्रयः। तत्रोत्तमाधिकारी स्याच्छृण्वन्नीशे विवर्तताम् ॥४.४१॥
अधिकारी श्रोता की योग्यता के आधार पर, तीन प्रकार के दर्शन और मान्यताओं की वकालत की गई है। (सत्कार्यवाद ,असत्कार्यवाद और विवर्तवाद) इन तीनों में से, ईश्वर के अस्तित्व के मिथ्याकरण को सुनकर विवर्तवाद को स्वीकार करके उत्तम अधिकारी पहली कक्षा का श्रोता बन जाता है | उत्तम अधिकारी को तो श्रवण मात्र से ही ज्ञान हो जाता है बाद के लोगों को मनन और निदिध्यासन की जरूरत पड़ती है | || ४१ ||
जीवे तु परिणामित्वं शृणवन्नेवोत्तमोत्तमः। कीटवद्भृंगरूपेण परिणामे विमोक्षतः ॥४.४२॥
इन दर्शनशास्त्रों को सुनकर, जीव परिवर्तन से गुजरता है और क्रमिक रूप से उच्च और उच्च अवस्था को प्राप्त करता है और अंत में मुक्ति को प्राप्त करता है, ठीक उसी तरह जैसे एक कीट अंत में भृंग में परिवर्तित हो जाता है। कीट भृंग-न्याय, दो या अधिक वस्तुओं का मिलकर एक रूप हो जाना जिस प्रकार भौंरा किसी कीड़े को पकड़कर (लोक प्रवाद के अनुसार) उसे बिलकुल अपनी तरह का बना लेता है। भइ मम कीट भृंग की नाई। जहँ तहँ मैं देखउँ दोउ भाई॥ मेरी दशा तो भृंगी के कीड़े की सी हो गई है। अब मैं जहाँ-तहाँ श्री राम-लक्ष्मण दोनों भाइयों को ही देखता हूँ | कीटो भ्रमर संयोगे भ्रमरो भवित ध्रुवम् । मानव: शिव योगेन शिवो भवति निश्चितम् ।। ‘‘कीट सतत भ्रमर का चिंतन करने से भ्रमर बन जाता है । उसी प्रकार शिव के सहवास से मनुष्य शिव बन जाता है । भगवत्स्वरूप में मन स्थिर करने वाला मनुष्य दिव्य बनता है | ||४२||
जीवस्येश्वरतावाप्तौ क्रममुक्तिर्हि सिध्यति। अतोऽस्य सद्यो मुक्त्यर्थं ब्रह्मतावाप्तिरीर्यते ॥४.४३॥
जब जीव ईश्वर की शरणागति (ईश्वर के चरणों की शरण ग्रहण) के माध्यम से मुक्ति प्राप्त करता है, तो केवल कदम दर कदम मुक्ति संभव है | (उसे क्रम मुक्ति कहते हैं) और सद्योमुक्ति के लिए आत्म साक्षात्कार ,ब्रह्म साक्षात्कार (स्वरूप का अनुसंधान) आवश्यक होता है इसलिए तत्काल मुक्ति के लिए, जीव को ब्रह्मत्व का ज्ञान प्राप्त करना पड़ता है (जो स्वयं का एहसास है) | ‘‘मैं हूँ’’ ऐसा एहसास तो सभी को हमेशां ही होता है परन्तु अपने परिच्छिन्न शरीर में ही होता है। लेकिन मेरी चेतना ही विश्व की चेतना है इस बात को दृढ करने के लिए सतत वेदान्त का श्रवण तथा उस श्रवण किये हुए तत्व का श्रुत्यनुकूल युक्तियों द्वारा उपपादन अर्थात मनन और फिर उस उपपन्न तत्व में स्थिति अर्थात निदिध्यासन की आवश्यकता होती है | ‘‘द्वैतावज्ञा सुस्थिता चेदद्वैते धीः स्थिरा भवेत् । स्थैर्यै तस्याः पुमानेष जीवन्मुक्त इतीर्यते ॥ १०२ ॥’’ (वेदान्त पंचदशी) हमने जो द्वैत का अनादर किया है, वह उनके अनूठेपन का (दृश्यत्व) अनादर नहीं है। केवल आगमापायी होने से उसके नित्यत्व का अनादर है | एक बार जब यह द्वंद्व का अनादर मन में अच्छी तरह से स्थापित हो जाता है, तो अद्वैत स्थिर हो जाता है, और जब यह स्थिर हो जाता है, तो मनुष्य जीवन मुक्त हो जाता है | || ४३ ||
तुरीयः पंचमो वास्तामीश्वरः षष्ठ एव वा। तस्मादतीतं ब्रह्मेति सिद्धान्ते कोऽनुसंशयः ॥४.४४॥
चाहे (क्रम मुक्ति की) तुरीय (चौथी) अथवा पांचवी (तुरीयातीत) अवस्था हो या ईश्वर की छठी अवस्था हो, ब्रह्म इससे परे है। इस सिद्धांत के संबंध में क्या संदेह हो सकता है? ‘‘स्वयंज्योतिर्भवत्येष पुरोऽस्माद्भासतेऽखिलात् । तमेव भान्तमन्वेति तद्भासा भास्यते जगत् ॥ १६ ॥’’ (वेदान्त पंचदशी) यह आत्मा स्वयं ज्योति है अर्थात आदमी का आत्मा ज्ञान स्वरूप है | इसके होने से ही यह सभी विषयों का ज्ञान होने लगता है | श्रुति वाक्य आत्मा के आत्म-प्रकाश का सुझाव देते हैं, आत्मा का अनुसरण करके ही सभी चीजें प्रकाशित होतीं हैं , अन्तःकरण की वृत्ति रूप ,रस ,गन्धादि विषयों को प्रकाशित करती है और उस वृत्ति को प्रकाशित करने वाला आत्मचैतन्य है | इसलिए दुनिया उसे प्रतीत होती है, इसलिए सभी चीजें उस आत्मा के प्रकाश से प्रकट होती हैं | {तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥} जो कुछ भी प्रकाशमान है, वह ‘उस’ की ज्योति की प्रतिच्छाया है, ‘उस’ की आभा से ही यह सब प्रतिभासित होता है।” येनेदं सर्वं विजानाति तं केन विजानीयात् ? विज्ञातारमरे केन विजानीयात् ? – बृहदारण्यकोपनिषत् २-४-१४” जिसके द्वारा इस जगत की सभी वस्तुओं का ज्ञान होता है और जो सबको जानने वाला है, उस परमात्मा को कैसे और किसके द्वारा जाना जा सकता है? | || ४४ ||
ईश्वरे तिष्ठति ब्रह्म ब्रह्मणीशश्च तिष्ठति । अत एकत्वमेव स्यात् द्वयोरिति न तर्क्यताम् ॥ ४.४५ ॥
“ब्रह्म ईश्वर में रहता है और ईश्वर ब्रह्म में रहता है, इसलिए दोनों समान हैं”, किसी को इस तरह की बहस नहीं करनी चाहिए | इस प्रकार के तर्क नहीं करने चाहिए क्योंकि वह तो ‘‘अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः। स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम् || १९ || श्वेताश्वतरोपनिषद् तृतीयोऽध्यायः’’ वह बिना हाथ का होते हुए सबको पकड़े हुए है। बिना पांव के वह तेजी से चलता है। नेत्र के बिना देखता है। कान के बिना सुनता है। जानने योग्य हर चीज को वह जान लेता है। पर उसे कोई नहीं जानता। ज्ञानीजन कहते हैं कि वह अग्रवर्ती और विराट पुरुष है | न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनो न विद्मो न विजानीमो यथैतदनुशिष्यात्। अन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि। इति शुश्रुम पूर्वेषां ये नस्तद्व्याचचक्षिरे || ३ || (केनोपनिषद् प्रथमः खण्डः) वहाँ न चक्षु जा सकता है, न वाणी, न ही मन। क्योंकि ये मन,वाणी और इन्द्रियां बाहर के जगत के बारे में ही सूचना दे सकते हैं आन्तर द्रष्टा के बारे में नहीं, इसलिए हम न ‘उसे’ जानते हैं न यह जान पाते हैं कि ‘उनकी’ शिक्षा कैसे दी जाए; क्योंकि ‘वह’ विदित {जाने हुए} से अन्य है; तथा अविदित से भी परे है; ‘वह’ ऐसा है यह हमने उन पूर्वजों से सुना है जिन्होंने उस ‘परतत्त्व’ की हमारे बोध के लिए व्याख्या की है | वह विदित इसलिए नहीं है क्योंकि वह दृश्य नहीं है, और दृश्य परिवर्तनशील है अर्थात विनाशी है और अविदित इसलिए नहीं है क्योंकि वह अपना आत्मा ही है | वह तो सर्वसाक्षी है | सबका प्रकाशक है | || ४५ ||
ब्रह्मण्येवेश्वरः प्रोक्तो न तु ब्रह्मेश्वरे क्वचित्। विभोरविभुसंस्थत्वासंभवात्परमात्मनः ॥४.४६॥
ईश्वर को ब्रह्म में स्थित कहा जाता है, ब्रह्म को ईश्वर में स्थित नहीं कहा जाता है क्योंकि सर्वव्यापी सर्वोच्च परमात्मा (जिनके समतुल्य कोई अन्य नहीं है) वह एक परिमित इकाई (ईश्वर) में कभी भी (अन्तर्हित) समाहित नहीं हो सकता है | अविभु ईश्वर में विभु ब्रह्म की संस्थिति संभव नहीं है | एकदेशीयत्वात् परिछिन्नत्वात् च | ‘‘यस्मिन्यस्मिन्नस्ति लोके बोधस्तत्तदुपेक्षणे । यद्वोध मात्रं तद्ब्रह्मेत्येवं धीर्ब्रह्मनिश्चयः ॥३. २१॥पञ्चदशी’’ काश, यदि हम ऐसा कर पाते कि इस दुनिया में जिस जिस पदार्थ का ज्ञान होता है, उस उस पदार्थ की उपेक्षा करने के बाद जो केवल एक चीज बचती है वह शुद्ध ज्ञान है | पदार्थ को हटाकर ज्ञान मात्र को बचाकर रख लेना तब वह केवल ज्ञान ही ब्रह्म है और जब इसे दृढ़ता से समझा जाता है तब इस प्रकार की बुद्धि को (निश्चय को) ब्रह्म ज्ञान कहा जाता है। २१॥ (पञ्चकोशविवेकप्रकरणम्) अर्थात सीमित में असीमित नहीं रह सकता || ४६ ||
ब्रह्मक्षत्रमुभे यस्य श्रुत्या भवत ओदनः। यस्योपसेचनं मृत्युः स यत्र ब्रह्मणीर्यते ॥४.४७॥
जिनके लिए, श्रुति (कठोपनिषद के अनुसार यहां कहा गया है), ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों ही भोजन के समान हैं, जिसके लिए यह स्वयं मृत्यु उपसेचन है {एक साइड-डिश की तरह है}, वह (पुरुष) स्वयं उस ब्रह्म में स्थित है ऐसा कहा जाता है | ‘‘यस्य ब्रह्म च क्षत्रं च उभे भवत ओदनः। मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र सः || २५ || कठोपनिषद्अध्याय १ वल्ली २’’ ” ‘वह’ (परतत्त्व) जिसके लिए ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनो भोज्य पदार्थ (ओदन) चावल का भात मात्र हैं, और ‘मृत्यु’ जिसके महाभोज का एक रसाहार (उपसेचन) चटनी या दाल है। अतः ऐसे ‘उसको’ कौन जान पाएगा कि ‘वह’ क्या है और कहाँ निवास करता है?” (वेदान्त पंचदशी) में कहा गया है कि — अक्षाणां विषयस्त्वीदृक् परोक्षस्तादृगुच्यते । विषयी नाक्षविषयः स्वत्वान्नास्य परोक्षता ॥ २७ ॥ मुझे आपकी प्रक्रिया समझ में नहीं आ रही है। इसे जरा समझाओ। इन्द्रियों को दिखाई देने वाले पदार्थ को हम (ईदृक्) इस प्रकार है, ऐसा कहते हैं अर्थात जो पदार्थ इन्द्रियों को सामने से दिखाई देते हैं उसे हम (ईदृक्) ऐसा कहते हैं। और जो पदार्थ इन्द्रियों को दिखाई नहीं देते उनको हम (तादृक्) वैसा है, ऐसा कहते हैं अब बताओ आत्मा इंद्रियों का विषय नहीं है, इसलिए इसे (ईदृक्) नहीं कहा जा सकता है, और चूंकि यह आत्मा अपना आपा ही है ,आत्म-प्रकाश, आत्म-चेतन है, इसलिये उसे (तादृक्) भी नहीं कहा जा सकता | ||४७||
तदेतादृशमित्यत्र को वेदेदंतयाव्ययम्। अखंडं निर्गुणं ब्रह्म निराधारं परं महत् ॥४.४८॥
ब्रह्म को इदमित्थंतया ब्रह्म ऐसा है इस प्रकार कौन जान सकता है ? (जो स्वयं पुरुष के लिए आधार है), जो अखण्ड , अपरिवर्तनीय, अविभाज्य, गुणहीन, आधारहीन (लेकिन बाकी सब चीजों का आधार है) उसको कौन जान सकता है?, जो सर्वोच्च और अनन्त ब्रह्म है | ‘‘चिच्छायावेशतः शक्तिश्चेतनेव विभाति सा । तच्छक्त्त्युपाधिसंयोगाद्ब्रह्मैवेश्वरतां व्रजेत् ॥ ४० ॥’’ (वेदान्त पंचदशी) माया नाम की शक्ति में चैतन्य का आवेश होने के कारण तथा बीच में ब्रह्म के प्रतिबिम्ब के कारण यह चेतना के समान प्रतीत होता है, अतः इसमें नियमन करने की शक्ति भी है। इस शक्ति की उपाधि के सहयोग से ही ब्रह्म को (ईश्वरत्व) देवत्व प्राप्त हुआ | || ४८||
परब्रह्मांशभूतोऽपि परमः पुरुषोत्तमः। ईश्वरादधिकः प्रोक्तः किं पुनर्ब्रह्म केवलम् ॥४.४९॥
परम पुरुष,(पुरुषोत्तम) जो ब्रह्म का हिस्सा है, जिसको अक्षर पुरुष से ईश्वर से बड़ा कहा जाता है। तो फिर केवल शुद्ध ब्रह्म के बारे में और क्या कहा जा सकता है? ‘‘यस्मात् क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः। अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।।१५.१८।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ क्योंकि मैं क्षर से अतीत हूँ और अक्षर से भी उत्तम हूँ, इसलिये लोक में और वेद में भी मैं पुरुषोत्तम के नाम से प्रसिद्ध हूँ।। यस्मात्परं नापरमस्ति किंचिद्यस्मान्नाणीयो न ज्यायोऽस्ति कश्चित्। वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम् || ९ || श्वेताश्वतरोपनिषद् तृतीयोऽध्यायः अर्थ :- उससे उच्चतर अथवा उससे भिन्न कुछ भी नहीं है। उससे महानतर अथवा सूक्ष्मतर कुछ भी नहीं है। अपनी महिमा में आमूल बद्ध वह एकमेवाद्वितीय और अटल होकर एक वृक्ष के समान खड़ा है। उस पुरुष के द्वारा समस्त ब्रह्माण्ड परिपूर्ण है | || ४९ ||
कारणं जगतामीशो जीवानां ब्रह्म कारणम्। एवं सतीशब्रह्मैक्यं व्यवहारे कथं भवेत् ॥४.५०॥
ईश्वर संसार का कारण है और ब्रह्म जीव का कारण है। यह मामला इस प्रकार का होने के नाते, सांसारिक दृष्टिकोण से ईश्वर और ब्रह्म के बीच एकता कैसे हो सकती है? ‘‘मायां तु प्रकृतिं विद्यात् मायिनं च महेश्वरम्। तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत् || १० || श्वेताश्वतरोपनिषद् चतुर्थोऽध्यायः’’ माया को प्रकृति की शक्ति जानो तथा माया के अधीश्वर को ‘महेश्वर’ समझो; ‘उसी’ (महेश्वर) के अवयव रूप विभूतियों से यह समस्त जगत् भरा हुआ है | ||५०||
ईशस्य कर्मितायां हि पुण्यं पापं च संभवेत्। सुखं दुःखं च तेनैव जीवत्वमिति चेच्छृणु ॥४.५१॥
ईश्वर की गतिविधियों में भी, पुण्य और पाप वैध हैं, संभव हैं साथ ही सुख और दुख भी। (यदि आपको लगता है कि) फिर तो वह एक जीव की तरह ही है, तो यह भी सुनें | “तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्” (तै- २.६) ” उसके दो विवर्त है, जिसमें प्रविष्ट अंश को अक्षर (जीव) तथा सृष्ट अंश को क्षर, भौतिक प्रपञ्च कहते हैं । यह तीनों {ब्रह्म ,ईश्वर और जीव } अविनाभावी है – एक दूसरे के विना नहीं रहते । यस्मान्न जातः परो अन्यो अस्ति य आविवेश भुवनानि विश्वा । प्रजापतिः प्रजया संरराणस्त्रीणि ज्योतींषि सचते स षोडशी ।। शुक्लयजुर्वेद ८-३६।। कृत्वा रूपान्तरं जैवं देहे प्राविशदीश्वरः। इति ताः श्रुतयः प्राहुर्जीवत्वं प्राणधारणात् ॥ १० ॥ (वेदान्त पंचदशी) श्रुति कहती हैं कि जीवन से जुड़े ऐसे ही अलग रूप में भगवान ने शरीर में प्रवेश किया। वह ईश्वर प्राण आदि की धारणा करने के कारण जीव रूप में आया है | ‘‘अनेनैव जीवेनात्मनाऽनुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणि’ (छां ६.३.२)’’ जीव रूप से उसने प्रवेश किया | इस सारे अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड का उसने विस्तार किया , नाम और रूप का निर्माण किया | || ५१ ||
ईशः प्रवर्तते पुण्यपापयोर्लोकसंग्रहात्। तथापि सुखदुःखे स्तो नैवात्मज्ञानवत्तया ॥४.५२॥
ईश्वर संसार के कल्याण के लिए पुण्य और पाप कर्मों में लिप्त हैं। तब भी दुख और सुख उसके लिए लागू नहीं होते क्योंकि वह स्व (आत्मा) को जानता है | क्योंकि ईश्वर पुर्यष्टक से रहित है इसलिये ईश्वर को पाप और पुण्य स्पर्श नहीं करते | आठ पुरियों का बोधक वचन इस प्रकार उपलब्ध होता है भूतेन्द्रियमनोबुद्धिवासनाकर्मवायव:। अविद्या चेत्यमुं वर्गमाहु: पुर्यष्टकं बुधा:।। महाभारत शान्ति पर्व अध्याय १९८ भूत, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, वासना,कर्म, प्राण और अविद्या – ईश्वर इन आठ पुरियों से मुक्त है। तथा अशरीरं शरीरेष्वनवस्थेष्ववस्थितम्। महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति॥ २२॥ कठोपनिषद् अध्याय १ वल्ली २ ”शरीरों में ‘अशरीरी’, अस्थिर पदार्थों में ‘स्थित’-तत्त्व, ‘महिमामय’ ‘विभु व्यापी आत्मा’ का साक्षात्कार करके ज्ञानी एवं धीर पुरुष शोक नहीं करते। “अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः” छान्दोग्योपनिषद् ( ८.१२.१ ) यह जो अशरीरी आत्मा है, जिसे प्रिय और अप्रिय कुछ भी स्पर्श नहीं कर सकता । ‘‘न दृष्टेर्द्रष्टारं पश्येः । न श्रुतेः श्रोतारं शृणुयाः । न मतेर्मन्तारं मन्वीथा । न विज्ञातेर्विज्ञातारं विजानीयाः । एष त आत्मा सर्वान्तरः । अतोऽन्यदार्तम् । ततो होषस्तश्चाक्रायण उपरराम ॥ ३,४.२ ॥ बृहदारण्यकोपनिषद्’’ तुम वह नहीं देख सकते जो देखने का द्रष्टा है; तुम वह नहीं सुन सकते जो सुनने वाला है; आप उसके बारे में नहीं सोच सकते जो विचारों का भी विचारक है; तुम उसे नहीं जान सकते जो ज्ञान का ज्ञाता है। यह तुम्हारा स्व है, तुम्हारा यह आत्मा अंतर्यामी है जो सबके भीतर है; और बाकी जो सब कुछ है वह सब दुख रूप और नाशवान है | || ५२ ||
भ्रूणहत्यादिपापानि ह्यकरोद्विष्णुरीदृशः। न तैर्दुःखमभूत्तस्य संप्राप्तं पारमार्थिकम् ॥४.५३॥
विष्णु ने भ्रूण हत्या आदि जैसे पाप किए, लेकिन जब से उन्होंने पारमार्थिक राज्य प्राप्त किया है, तब से उन्होंने कोई पाप नहीं किया | श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान कहते हैं कि ‘‘देवानामस्मि वासवः।’’ देवों में मैं वासव (इन्द्र) हूँ; | और वामनपुराण के अनुसार इन्द्र ने दिति के गर्भ में भ्रूणहत्या की | ‘‘कश्यपोऽप्याह देवेशं भ्रूणहत्या कृता त्वया। दित्युदरात् त्वया गर्भः कृत्तो वै बहुधा बलात्।। ७६.६।।वामनपुराणम्/षट्सप्ततितमोऽध्यायः|| ’’ परशुराम अवतार की कथा में तुलसीदास जी कहते हैं कि मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीप किशोर। गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर।। अरे राजा के बालक! तू अपने माता-पिता को सोच के वश न कर। मेरा यह फरसा बड़ा भयानक है, यह गर्भों के बच्चों का भी नाश करने वाला है | गर्भ स्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर। परसु अछत देखउँ जिअत बैरी भूपकिशोर।।२७९।। मेरे जिस कुठार की घोर करनी सुनकर राजाओं की स्त्रियों के गर्भ गिर पड़ते हैं, उसी फरसे के रहते मैं इस शत्रु राजपुत्र को जीवित देख रहा हूँ॥ २७९॥ लेकिन जब उन्हें ज्ञान हुआ तब उनकी यह स्थिति हो गई और बोले कि — कहि जय जय जय रघुकुल केतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू।। व्यास जी ने भी यही कहा है कि ‘‘नैतादृशं ब्राह्मणस्यास्ति वित्तं यथैकता समता सत्यता च । शीलं स्थितिर्दण्डनिधान मार्जवं ततस्ततश्चोपरमः क्रियाभ्यः || २६ ||’’ वामन पुराण ,अध्याय ४३ तथा महाभारतम्- शान्तिपर्व- अध्याय-२८३ परमात्मा के साथ एकता तथा सभी भूत प्राणियों में समता, सत्यभाषण, सदाचार, ब्रह्मनिष्ठा, दण्ड का परित्याग (अहिंसा), सरलता तथा सब प्रकार के सकाम कर्मों से उपरति–इनके समान ब्राह्मण के लिये दूसरा कोई धन नहीं है | || ५३ ||
लोकक्षेमार्थकत्वेन तत्कृताघस्य निन्द्यता। न वाच्या न च तेनास्ति जीवत्वं तस्य सर्वथा ॥४.५४॥
चूंकि वे पाप दुनिया के कल्याण के लिए किए गए थे, इसलिए उन्हें अवमानना के रूप में घोषित नहीं किया जाना चाहिए | इसलिए, इस कारण से, ईश्वर एक जीव के समान नहीं है , उलटा उससे विपरीत और विलक्षण है | अर्थात ईश्वर का जीवत्व सिद्ध नहीं होता | भगवान पतञ्जलि ने कहा है कि ‘‘क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः: पुरुषविशेष ईश्वरः ॥१.२४॥’’ जो क्लेश, कर्म, विपाक, आशय – इन चारों के संबंध से रहित है तथा जो समस्त पुरुषों से उत्तम है, वह ईश्वर है | अन्तःकरणे प्रतिबिम्बितं चैतन्यं जलाकाशस्थानीयं संसारी जीवः। धीवासनाः, तासु प्रतिबिम्बितं चैतन्यं मेघाकाशस्थानीयम् ईश्वरः ‘अज्ञानोपाध्यवच्छिन्नं चैतन्यं जीवः’ तत्रान्तःकरणविशिष्टं चैतन्यं जीवः, तदुपहितं जीवसाक्षि । समष्टिरूपाज्ञाने शुद्धसत्त्वप्रधाने उपहितं चैतन्यम् ईश्वरः । व्यष्टिरूपाज्ञाने मलिनसत्त्वप्रधाने उपहितं चैतन्यं प्राज्ञ इत्युच्यते । || ५४ ||
ऋगादिवेदकर्तापि स यथोक्तं समाचरेत्। अन्यथा संप्रसज्येत ह्यप्रामाणिकतेशितुः ॥४.५५॥
या तो किसी को (प्रातिभासिक दृष्टिकोण का आश्रय लेने से) शिव को वेदों का रचयिता (निर्माता) मानना चाहिए या फिर किसी को (पारमार्थिक दृष्टिकोण का आश्रय लेने से) शिव की अनधिकारिता को स्वीकार करना चाहिए और ब्रह्म के अधिकार को स्वीकार करना चाहिए | यहाँ {शिव} शब्द से ईश्वर का अर्थ ग्रहण करना चाहिए | सामान्यतः लोग यही समझते हैं कि ईश्वर ने वेदों की रचना की है , तो फिर वेदों को अपौरुषेय क्यों कहा जाता है और वह ईश्वर शिव, राम, कृष्णादि के रूप में वेदों की आज्ञा को क्यों मानता है ? शास्त्रयोनित्वात् १ /१ /३ वेदान्त-दर्शन –अर्थात् शास्त्र[वेद] की योनि[मूल कारण तथा प्रमाण] होने के कारण ब्रह्म सर्वज्ञ है। वेद प्रणिहितो धर्मों ह्यधर्मस्तदविपर्ययः ।। वेदो नारायणः साक्षात् स्वयंभूरिति शुश्रुम ।। (भागवत महापुराण – षष्ठ स्कंध, प्रथम अध्याय, श्लोक – ४०) वेदों में जो कुछ भी करने को कहा गया है, वही धर्म है । और जिन बातों का निषेध किया गया है, वो अधर्म है । क्योंकि वेद स्वयं भगवान के स्वरूप हैं वे उनके स्वाभाविक श्वास-प्रश्वास एवं स्वयंप्रकाश ज्ञान हैं , ऐसा हमने सुना है ।। न कश्चिद् वेदकर्ता च वेद स्मर्ता चतुर्मुखः | ब्रह्माद्या ऋषयः सर्वे स्मारका न तु कारकाः || ईश्वर का ईश्वरत्व और ब्रह्म का ब्रह्म तत्व भी वेदों से ही सिद्ध होता है | ||५५||
संसिद्धे शास्त्रकर्तृत्वे न कारयितृता वचः। व्यर्थमेवेति चेन्नैष दोष एव विचारणे ॥४.५६॥
यदि कोई शिव को शास्त्रों का निर्माणकर्ता मानता है, तो फिर शास्त्र अब ब्रह्म के शब्द नहीं हैं, जो कि रचनाकार का भी कारण है। और इसलिए अगर कोई सोचता है कि वे व्यर्थ हैं, तो यह मामला नहीं है। यह तो सोच में दोष है | विचार का अर्थ ही होता है पृथक्करण | अगर चीजें साफ साफ नहीं दिखतीं तो इसका अर्थ है विचार में दोष का होना | ‘‘आत्माभासस्य जीवस्य संसारो नात्मवस्तुनः । इति बोधो भवेद्विद्या लभ्यतेऽसौ विचारणात् ॥ ११ ॥ पञ्चदशी’’ यह संसार केवल जीवों पर लागू होता है और आत्मा का इससे कोई लेना-देना नहीं है। और आत्मज्ञान वह विचार से उत्पन्न होता है और वेदान्त आदि शास्त्र ही विचार की जन्मभूमि हैं | आदिशङ्कराचार्य कृत प्रश्नोत्तर रत्न मालिका में बताया है कि —को दीर्घरोगो भव एव साधो,किमौषधं तस्य विचार एव।। कौन सा रोग अधिक कष्टदायक है ? जन्म मरण का रोग अथवा महत्वाकांक्षा का रोग ही अत्यधिक कष्टदायक है। इस रोग की औषधि क्या है ? परमात्मा के नाम और स्वरूप का बार-बार चिंतन,विचार और स्मरण करना ही इस भवरोग की औषधि है | ‘‘यत्ने कृते यदि न सिध्यन्ति कोत्र दोषः’’ प्रयत्न करने पर भी यदि कोई कार्य सिद्ध नहीं होता है तो तुम्हारे प्रयत्न क्या कमी (दोष) है ? उस दोष का अनुसन्धान करना चाहिए ||| ५६ ||
जीवस्य कर्तृतायां हि स्यात्कारयितृतेशितुः। शास्त्रस्य कर्मतायां तु महेशस्यास्ति कर्तृता ॥४.५७॥
जीव की गतिविधियों में, (कर्तृत्व में) शिव ही {ब्रह्म ही} कारण हैं (कारयिता हैं) शास्त्रों की रचना में शिव की (कर्तृता है) अर्थात वे शास्त्रों के कर्ता हैं |जीव का कारण ब्रह्म है और शास्त्रों का विधान करने वाला ईश्वर है | ‘‘ सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च। वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्।।१५.१५।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ मैं ही सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें स्थित हूँ। मेरेसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (संशय आदि दोषोंका नाश) होता है। सम्पूर्ण वेदोंके द्वारा मैं ही जाननेयोग्य हूँ। वेदान्तका कर्ता? अर्थात् वेदान्तार्थके सम्प्रदायका कर्ता और वेदके अर्थको समझनेवाला भी मैं ही हूँ। वेदोंके तत्त्वका निर्णय करनेवाला और वेदोंको जाननेवाला भी मैं ही हूँ। || ५७ ||
नैतेन शास्त्रयोनित्वं निर्गुणस्यैव हीयते। निर्गुणोद्भूतशास्त्रस्य सगुणाद्व्यक्तिदर्शनात् ॥४.५८॥
इसके द्वारा (उपरि लिखित वाक्य के द्वारा) निर्गुण ब्रह्म में उत्पन्न होने वाले शास्त्रों का उल्लंघन नहीं किया जाता है | {शास्त्रयोनित्वात् इस ब्रह्मसूत्र का खण्डन नहीं होता} क्योंकि, शास्त्र , जो निर्गुण ब्रह्म से उत्पन्न हुए हैं, केवल सगुण व्यक्ति के द्वारा ही अभिव्यक्ति को प्राप्त होते हैं | ‘‘कूटस्थो ब्रह्म जीवेशावित्येवं चिच्चतुर्विधा। घटाकाशमहाकाशौ जलाकाशाभ्रखे यथा ॥ १८ ॥’’ ॥ पञ्चदशी ॥ जैसे आकाश चार प्रकार का होता है, घटाकाश, महाकाश, जलाकाश और अभ्राकाश {बादलों के अन्दर प्रतिबिम्बित आकाश}, वैसे ही भी चेतना भी चार प्रकार की होती है, कूटस्थ, ब्रह्म, जीव और ईश | || ५८ ||
उपचर्यत ईशस्य गुणिनः शास्त्रयोनिता। यद्वास्तामुभयोर्वेदवेदान्ताभ्यां च बीजता ॥४.५९॥
सगुण ईश्वर शास्त्रों के प्रवर्तक होने के कारण महज आलंकारिक है | {उपचार मात्र है} या फिर, वेद और उपनिषद बीज-रूप में (सगुण शिव और निर्गुण ब्रह्म) दोनों में समाहित हैं | बाबा तुलसीदास जी कहते हैं कि — ‘‘सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥ अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥ भावार्थ- सगुण और निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं है – मुनि, पुराण, पंडित और वेद सभी ऐसा कहते हैं। जो निर्गुण, रूप रहित (निराकार), अलख (अव्यक्त) और अजन्मा है, वे ही भक्तों के प्रेमवश सगुण हो जाते हैं |’’ जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल विलग नहीं जैसे॥ जो निर्गुण है वह सगुण कैसे है? जैसे जल और ओले (हिम उपल , बर्फ के टुकड़े ) में भेद नहीं। (दोनों जल ही हैं, ऐसे ही निर्गुण और सगुण एक ही हैं।) || ५९ ||
न चैतेनास्ति कर्मित्वसाम्यं ब्रह्मेशयोस्तयोः। कर्तुश्च कृतकर्तुश्च भेदोऽस्ति स्पष्ट एव हि ॥४.६०॥
लेकिन इससे शिव और परब्रह्म का कर्तापन समान नहीं हो जाता | कर्ता और कर्ता के कारण के बीच का अंतर काफी स्पष्ट है | ‘‘न तस्य कश्चित्पतिरस्ति लोके न चेशिता नैव च तस्य लिङ्गम्। स कारणं करणाधिपाधिपो न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिपः || ९ || श्वेताश्वतरोपनिषद् षष्ठोऽध्यायः’’ इस लोक में ‘उसका’ कोई स्वामी नहीं है, न ही कोई ‘उसके’ ऊपर शासनकर्ता है। नहीं ‘उसका’ कोई रूप है न कोई लिंग है; क्योंकि ‘वह’ स्वयं ही उत्पत्ति का कारण तथा प्रकृति गत करणों (साधनों) के अधिपतियों का भी ‘अधिपति’ है, किन्तु न कोई उसका जनक (उत्पत्ति कर्ता) है न ही कोई ‘उसका’ अधिपति-स्वामी है | ‘‘यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्। यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्।।१५ .१२।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ जो तेज सूर्य में स्थित होकर सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है और व्यष्टि में जो तेज आँख में स्थित होकर जगत को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमा में है अर्थात मन में है और अग्नि में है, अर्थात वाणी में है उस तेज को तुम मेरा ही जानो। || ६० ||
कर्तृत्वं यस्य संसिद्धं कर्मित्वं तस्य सिद्ध्यति। इत्यत्र संशयः को वा तद्ब्रह्मेशौ च कर्मिणौ ॥४.६१॥
(कोई इस तरह बहस कर सकता है) जिसका कर्तापन स्थापित हो चुका है , उसे कर्मों का फल भोगने के लिए बाध्य किया जाता है। तो ईश्वर और ब्रह्म के कर्मी होने और उन कर्तव्यों का पालन करने के कारण उसके फल भोगने में क्या संदेह हो सकता है? ‘‘पराचः कामाननुयन्ति बालास्ते मृत्योर्यन्ति विततस्य पाशम्। अथ धीरा अमृतत्वं विदित्वा ध्रुवमध्रुवेष्विह न प्रार्थयन्ते || २ || कठोपनिषद् अध्याय २ वल्ली १’’ ”अन्य अन्य बाल बुद्धि लोग (बहिर्मुख बुद्धि वाले लोग) कामनाओं तथा सुख-भोगों का अनुसरण करके उस मृत्यु के विस्तृत पाश में बंधे चले जाते हैं जो मुंह खोले सदा ही उन्हें लेने को तैयार है। परन्तु धीर पुरुष अमृतत्व को जानकर इस लोक के अनित्य पदार्थों में नित्य (ध्रुव) तत्त्व को पाने की अभीप्सा नहीं करते है। क्योंकि अस्थायी पदार्थों में नित्य सुख का मिलना संभव नहीं है | || ६१ ||
इति चेत्कर्मितेशस्य कामित्वादिवदिष्यते। ब्रह्मणोऽपि तु कर्मित्वं धनित्वादिवदित्यतः ॥४.६२॥
(यदि कोई ऐसा सोचता है तो उसका उत्तर यह होगा कि) ईश्वर एक ऐसे कर्ता की तुलना में है जो धन प्राप्त करने के लिए कार्य करता है, लेकिन ब्रह्म एक ऐसे कर्ता की तरह है जो कार्य करता है, भले ही उसके पास पहले से ही धन हो | जैसे कभी कभी सेठ भी मजदूरों के साथ काम करता है परन्तु मजदूरी प्राप्त करने के लिए नहीं | भगवान कहते हैं ‘‘न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन। नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।३.२२।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ यद्यपि मुझे त्रैलोक्य में कुछ भी कर्तव्य नहीं हैं तथा किंचित भी प्राप्त होने योग्य (अवाप्तव्यम्) वस्तु अप्राप्त नहीं है, तो भी मैं कर्म में ही बर्तता हूँ। तथा ‘‘न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा। इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।।४.१४।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ कर्म मुझे लिप्त नहीं करते; न मुझे कर्मफल में स्पृहा है। इस प्रकार मुझे जो जानता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता है। || ६२ ||
परतन्त्रो महेशः स्यात्स्वतंत्रं ब्रह्म निर्गुणं। आधाराधेयभावेन कार्यकारणता द्वयोः ॥४.६३॥
ईश्वर निर्भर है (परतन्त्र है) लेकिन निर्गुण ब्रह्म संप्रभु है (स्वतंत्र है)। दोनों के बीच में आधार आधेय भाव है | एक मूल है और अतिसूक्ष्म है और दूसरा विराट होने के कारण अतिस्थूल है , दोनों के बीच में एक कार्य है और दूसरा कारण है इस प्रकार दोनों का कार्य कारण भाव संबंध है।‘‘एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय । अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥७.६ ৷৷’’ भावार्थ : हे अर्जुन! तू ऐसा समझ कि सम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों (परा और अपरा) से ही उत्पन्न होने वाले हैं और मैं सम्पूर्ण जगत का प्रभव (उत्पत्ति) तथा प्रलय हूँ अर्थात् सम्पूर्ण जगत का मूल कारण मैं ही हूँ | || ६३ ||
कर्मित्वे ब्रह्मणः सिद्धे कथं नैर्गुण्यमीर्यते। इति चेन्नैष दोषोऽस्ति मायागुणविवर्जनात् ॥४.६४॥
अब अगर कोई यह सोचता है कि, यदि ब्रह्म एक कर्ता है, तो इसे गुणों से मुक्त कैसे कहा जा सकता है, तो यह एक गलत सोच है क्योंकि ब्रह्म माया और गुणों से बंधे हुए नहीं हैं। ‘‘सर्वेन्द्रिय गुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्। असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च।।१३.१५।।श्रीमद् भगवद्गीता ’’ वह समस्त इन्द्रियों के गुणो (कार्यों) के द्वारा प्रकाशित होने वाला, परन्तु (वस्तुत:) समस्त इन्द्रियों से रहित है; आसक्ति रहित तथा गुण रहित होते हुए भी सम्पूर्ण संसार का धारण पोषण करने वाला और गुणों का भोक्ता है | || ६४ ||
अदृश्यत्वादिभिर्विद्यागुणैरानन्दतादिभिः। सगुणव्यपदेशः स्याद्ब्रह्मणस्त्विष्ट एव सः ॥४.६५॥
यदि ब्रह्म को सगुण इकाई माना जाता है जिसमें अतिरिक्त गुण जैसे अदृश्यता आदि ज्ञान और आनंद आदि हैं तो ऐसा करना केवल वांछनीय ही है। ‘‘अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्। भूत भर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च।।१३.१७।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ वह परमात्मा विभाग रहित एक रूप से आकाश के सदृश परिपूर्ण होने पर भी चराचर सम्पूर्ण भूतों में विभक्त-सा स्थित प्रतीत होता है (जैसे महाकाश विभाग रहित स्थित हुआ भी घड़ों में पृथक-पृथक के सदृश प्रतीत होता है, वैसे ही परमात्मा सब भूतों में एक रूप से स्थित हुआ भी पृथक-पृथक की भाँति प्रतीत होता है) तथा वह जानने योग्य परमात्मा विष्णु रूप से भूतों को धारण-पोषण करने वाला और रुद्र रूप से संहार करने वाला तथा ब्रह्मा रूप से सबको उत्पन्न करने वाला है | अतः वह अविभक्त है, तथापि वह भूतों में विभक्त के समान स्थित है। वह ज्ञेय ब्रह्म भूत मात्र का भर्ता, संहारकर्ता और उत्पत्ति कर्ता है | वे जानने योग्य परमात्मा ही सम्पूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाले तथा उनका भरण-पोषण करने वाले और संहार करने वाले हैं। इसीलिए भगवान की सगुण मूर्ति में ‘आनन्दमात्र करपादमुखोदरादि’ ‘आनन्दमात्रैकरसमूर्तयः’ इत्यादि उक्तियाँ हैं। ‘‘निर्दोषपूर्णगुणविग्रह आत्मतन्त्रोनिश्चेतनात्मकशरीरगुणैश्च हीनः|आनन्दमात्रकरपादमुखोदरादिः सर्वत्र च स्वगतभेदविवर्जितात्मा ||(महाभारत तात्पर्य निर्णयः)’’ भगवान का दिव्य शरीर भ्रम, प्रमाद, जरा, रोग आदि सभी दोषों से रहित तथा अनन्त कल्याण गुणों का धाम है , वह काल कर्मादि के अधीन नहीं है | पाञ्चभौतिक जड़ प्रकृति से बना हुआ नहीं है | उनके हाथ, पैर, मुख, उदर आदि सभी अंग केवल चिन्मय आनन्द से ही बने हुए हैं| उनमें स्वगत, सजातीय तथा विजातीय भेद नहीं हैं ||| ६५ ||
जगत्संसारकर्तृत्वं यथा जीवेशयोर्मतम्। तथा जीवेशकर्तृत्वं परस्य ब्रह्मणो मतम् ॥४.६६॥
जिस तरह जीव और ईश्वर को दुनिया का कर्ता माना जाता है, उसी तरह सर्वोच्च ब्रह्म को जीव और ईश्वर का कर्ता माना जाता है | ‘‘अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः। शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते।।१३.३२।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ हे कौन्तेय ! अनादि और निर्गुण होने से यह परमात्मा अव्यय है। शरीर में स्थित हुआ भी, वास्तव में , वह न (कर्म) करता है और न (फलों से) लिप्त होता है | || ६६ ||
ब्रह्मणोऽन्यो न कर्तास्ति प्राक्कर्मादिविवर्जनात्। अनाद्यनन्तं ब्रह्मैकमकर्माकर्तृ हीयते ॥४.६७॥
ब्रह्म के अलावा कोई दूसरा कर्ता नहीं है क्योंकि वह किसी पिछले कर्म से रहित है। यदि ब्रह्म, जो शुरुआत और अंत के बिना है, को एक गैर-कर्ता माना जाता है तो यह पतन की ओर ले जाएगा | ‘‘अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते। इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।।१०.८।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ मैं ही सबका प्रभव (उत्पत्ति) स्थान हूँ; मुझसे ही सब (जगत्) विकास को प्राप्त होता है, इस प्रकार जानकर बुधजन भक्ति भाव से युक्त होकर मेरा ही भजन करते हैं | || ६७ ||
कालत्रयेऽप्यकर्तृत्वं ब्रह्मणः सम्मतं यदि। जीवेश रचना न स्यात् जगत्संसारयोरपि ॥४.६८॥
यदि ब्रह्म के अकर्तृत्व को तीनों समय, भूत, वर्तमान और भविष्य में स्वीकार किया जाता है, तो जीव और ईश्वर का भी कोई सृजन नहीं हो सकता है और जब जीव और ईश्वर ही नहीं होंगे तो फिर इस दुनिया का कोई भी निर्माण नहीं हो सकता है | ‘‘यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः। क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत।।१३.३४।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ हे भारत ! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण लोक को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही क्षेत्री (क्षेत्रज्ञ) सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है | || ६८ ||
प्रत्यक्षसिद्धा रचना कर्तारं समपेक्षते। अतोऽद्यकर्मकर्तृत्वाद्ब्रह्मणः कर्मितोचिता ॥४.६९॥
एक निर्मित इकाई जिसे देखा जा सकता है, उस रचना का कोई एक निर्माता होने की अपेक्षा होती है। इसलिए, ब्रह्म प्रधान रचनाकार होने के नाते, उनका कर्तापन उपयुक्त है | ‘‘सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः। तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता।।१४.४।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ हे कौन्तेय ! समस्त योनियों में जितनी मूर्तियां (शरीर) उत्पन्न होती हैं, उन सबकी योनि अर्थात् गर्भ है महद् ब्रह्म (मूल प्रकृति) और मैं बीज की स्थापना करने वाला पिता हूँ | ६९ ||
कर्मित्वे ब्रह्मणोऽप्येवं किं वाच्यं ब्रह्मवेदिनः। ब्रह्मीभूतो न कर्मी स्यादित्येतच्च न सिद्ध्यति ॥४.७०॥
अब यदि, इस प्रकार, ब्रह्म को कर्ता के रूप में स्थापित किया जाता है, तो ब्रह्म के जानकारों के बारे में क्या कहा जाना चाहिए (जो कि आत्म-सिद्ध पुरुष हैं)? क्योंकि अब (यह कहना) कि जो व्यक्ति ब्रह्म के साथ एक हो गया है, वह कर्ता नहीं है, यह बात मान्य नहीं है | ‘‘कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः। स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।४.१८।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ जो पुरुष कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है, वह योगी सम्पूर्ण कर्मों को करने वाला है | || ७० ||
यादृशं ब्रह्म निर्णीतं तद्भूतोऽपि च तादृशः। इति निर्णय एव स्याद्युक्तेरपि समंजसः ॥४.७१॥
जिस तरह से ब्रह्म के तत्व का निर्णय किया गया है (एक कर्ता के रूप में होने के लिए) उसी तरह जो ब्रह्म के साथ एकता प्राप्त कर चुका है वह भी एक कर्ता है, ऐसा निष्कर्ष होना चाहिए। तभी यह उपरोक्त कथन के अनुरूप भी होगा | बच्चे जब एक फिल्म देखते हैं तब वे उसे सच्ची समझ कर हँसते,रोते हैं ,सुखी,दुःखी होते हैं परन्तु बड़े बूढ़े उसे एक फिल्म ही समझते हैं | ‘‘यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः। ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।४.१९।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ जिसके समस्त कार्य कामना और संकल्प से रहित हैं, ऐसे उस ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा भस्म हुए कर्मों वाले पुरुष को ज्ञानीजन पण्डित कहते हैं | || ७१ ||
कालत्रयेऽप्यकर्मित्वमकर्तृत्वमकालता। कस्य चिद्ब्रह्मणोऽन्यस्य नीरूपस्यास्ति वस्तुनः ॥४.७२॥
अतीत, वर्तमान और भविष्य इन तीनों कालों में कर्तृत्व हीनता और समय हीनता, निराकार चेतन ब्रह्म के अलावा किस वस्तु अथवा व्यक्ति के लिए संभव है | ‘‘अस्तीत्येवोपलब्धव्यस्तत्त्वभावेन चोभयोः। अस्तीत्येवोपलब्धस्य तत्त्वभावः प्रसीदति || १३ || कठोपनिषद् अध्याय २ वल्ली ३’’ ”’उस’ का बोध ”वह है” (अस्तित्व-भाव) एवं ‘उसके’ ‘तत्व भाव’, दोनों रूपों में प्राप्त करना चाहिये। किन्तु जब मनुष्य ‘उसको’ वास्तव में ”है” ऐसा जान लेते हैं, तो ‘उसका’ तत्त्व भाव उस मनुष्य के प्रति उद्भासित हो जाता है | परमात्मा की सत्ता को स्वीकार करने वाले साधक के लिए परमात्मा का तात्विक स्वरूप (अपने आप शुद्ध हृदय में) प्रत्यक्ष हो जाता है | || ७२ ||
तत्र कालत्रयातीतं नेह ज्ञेयं विवक्षितम्। प्रमेयत्वप्रमाणत्वप्रमातृत्वादिवर्जनात् ॥४.७३॥
यहां, जिसने समय को पार कर लिया है, (जो कालत्रय से अतीत है) उस अकालपुरुष को ज्ञेय रूप से नहीं माना जाना चाहिए, क्योंकि वह ब्रह्म ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय से पारगमन की स्थिति में है | ‘‘प्रमाता च प्रमाणञ्च प्रमेयं प्रमितिस्तथा । यस्य प्रसादात् सिध्यन्ति तत्सिद्धौ किमपेक्षते।।’’ तथा च , अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः। अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।२.१८।। इस नाशरहित अप्रमेय नित्य , अविनाशी (हमेशा रहने वाले) देही आत्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गये हैं। इसलिये हे भारत ! तुम युद्ध करो | || ७३ ||
ये तु ब्रह्मेशजीवाः संप्रोक्ताः कर्तृत्वसंयुताः। विद्यया मायया ते हि कर्मिणोऽविद्ययापि च ॥४.७४॥
लेकिन ब्रह्म, ईश्वर और जीव जो कर्ता (कर्तृत्व से युक्त) कहे जाते हैं, वे क्रमशः ज्ञान, माया से युक्त होने पर कहे जाते हैं और (अविद्या) अज्ञान के गुण से संपन्न होने पर क्रमशः कर्मी कहे जाते हैं | श्रुति पथ पालक धर्म धुरंधर। गुणातीत अरु भोग पुरंदर॥ श्री रामचंद्र जी वेदमार्ग के पालने वाले, धर्म की धुरी को धारण करने वाले, (प्रकृतिजन्य सत्व, रज और तम) तीनों गुणों से अतीत और भोगों (ऐश्वर्य) में इन्द्र के समान हैं | || ७४ ||
कर्मिषु त्रिषु चोक्तेषु ब्रह्मणः श्रैष्ठ्यदर्शनात्। अकर्मत्वं श्रुतिस्मृत्योः प्रोच्यते युक्तमेव तत् ॥४.७५॥
इन तीनों प्रकार के कर्ता-धर्ताओं में ब्रह्म की श्रेष्ठता के कारण, श्रुतियों और स्मृति शोधों में इसे न करने वाला कर्म संस्पर्श से रहित कहना (अकर्तापन) उपयुक्त है | ‘‘आकाशवत्सर्वगतं सुसूक्ष्मं निरञ्जनं निष्क्रियं सन्मात्रं चिदानन्दैकरसं शिवं प्रशान्तममृतं तत्परं च ब्रह्म ||४|| शाण्डिल्योपनिषद् द्वितीयोऽध्यायः’’ आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त रहने वाले, अति सूक्ष्म, निरञ्जन, क्रियाविहीन, एकमात्र सत्य स्वरूप, चेतना से सम्पन्न, आनन्द स्वरूप, एकरस से सम्पन्न, मंगलमय, अत्यन्त शांत एवं अमर है, वही परम अविनाशी ब्रह्म है | || ७५ ||
एतेन कर्मिणः श्रैष्ठ्यं संसिद्धमिति ये विदुः। औदासीन्यं न तेषां स्याच्छ्रुतिस्मृत्युक्तकर्मसु ॥४.७६॥
इस तरह जो लोग कर्ता की श्रेष्ठता के बारे में जानते हैं, वे श्रुतियों और स्मृतियों में वर्णित क्रियाओं की अवहेलना नहीं करते | ‘‘तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ। ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि।।१६.२४।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ इसलिए तुम्हारे लिए कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था (निर्णय) में शास्त्र ही प्रमाण है शास्त्रोक्त विधान को जानकर तुम्हें अपने कर्म करने चाहिए | श्रुतिस्मृत्युदितं सम्यङ् निबद्धं स्वेषु कर्मसु । धर्ममूलं निषेवेत सदाचारमतन्द्रितः ||१५५|| मनुस्मृतिके चौथे अध्याय में कहा है कि सदा आलस्य को छोड़कर वेद और मनुस्मृति में वेदानुकूल कहे हुए अपने कर्मों में निबद्ध धर्म का मूल सदाचार अर्थात जो सत्य और सत्पुरुष, आप्तपुरुष, {वह व्यक्ति जो तत्त्वों, वस्तुओं आदि के यथार्थ रूप को अच्छी तरह जानता हो और जिसकी उपदेशपूर्ण बातें प्रामाणिक मानी जाती हों। (आप्तोपदेश: शब्द:; न्यायसूत्र १.१.७) वह आप्तपुरुष है} अर्थात जो धर्मात्माओं का आचरण है उसका सेवन सदा करना चाहिए | श्रुतिस्मृत्युदितं धर्ममनुतिष्ठन् हि मानवः। इह कीर्त्तिमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखम् ||९||मनुस्मृतिः/द्वितीयोध्यायः क्योंकि जो मनुष्य वेदोक्त धर्म और तथा वेद से अविरुद्ध स्मृत्युक्त धर्म का अनुष्ठान करता है वह इस लोक में कीर्ति और मरणोपरांत सर्वोत्तम सुख को प्राप्त होता है | || ७६ ||
ज्ञानादुपास्तिरुत्कृष्टा कर्मोत्कृष्टमुपासनात्। इति यो वेद वेदान्तैः स एव पुरुषोत्तमः ॥४.७७॥
उपासना ज्ञान से श्रेष्ठ है और कर्म उपासना से श्रेष्ठ है। जो यह बात उपनिषदों से जानता है, वह पुरुषों में श्रेष्ठ है | ‘‘कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः। लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि।।३.२०।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ राजा जनक-जैसे अनेक महापुरुष भी (जैसे कि काशीराज अजातशत्रु , महाराज अश्वपति आदि) कर्म के द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं। इसलिये लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू (निष्कामभावसे) कर्म करनेके योग्य है | || ७७ ||
॥इति सूर्यगीतायां चतुर्थोऽध्यायः॥
|| अथ पञ्चमोऽध्यायः ||
सूर्य उवाच
अथातः संप्रवक्ष्यामि कर्मिश्रेष्ठस्य लक्षणम्। यच्छ्रुत्वा नैव भूयोऽन्यच्छ्रोतव्यं तेऽवशिष्यते ॥५.१॥
हे अरुण! अब मैं आपको उन विशेषताओं को बताऊंगा जो सबसे अच्छे कर्ता की होतीं हैं। यह सब सुनने के बाद और अच्छी तरह से जानने के बाद, आपके द्वारा सुनने योग्य और ज्ञात होने के लिए और कुछ भी शेष नहीं रहेगा | ‘‘ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः।यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते।।७.२।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ मैं तुम्हारे लिए विज्ञान सहित इस ज्ञान को अशेष रूप से (पूर्ण रूप से) कहूँगा जिसको जानकर यहाँ (जगत् में) फिर और कुछ जानने योग्य (ज्ञातव्य) शेष नहीं रह जाता है | || १ ||
यस्य देहः स्वकीयोऽपि सर्वथा न प्रतीयते। नेन्द्रियाणि च सर्वाणि स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥५.२॥
वह जो अपना शरीर भी महसूस नहीं करता है, और न ही उसे कोई अपनी इन्द्रियों का होश है, उसे सबसे अच्छा कर्ता कहा जाता है | अर्थात शरीर और इन्द्रियों में जिसकी अहंता और ममता नहीं है | यह सारा खेल ईश्वर का बनाया हुआ है और वही इसका वास्तविक कर्ता है | गुरु साहब नानक देव जी की वाणी है कि {उसतों होइ नहीं किछु बुरा औरहिं कहौ जीनहि किछु करा} अर्थात:- उससे कुछ बुरा होता नहीं और उसके सिवा दूसरा कोई कर्ता नहीं है | इक ओंकार सतनाम करता पुरख निरभऊ निरबैर अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसाद ॥ अनुवाद:- एक परमात्मा, जिसका नाम सत्य है सृजनकर्ता पुरुष निर्भय, द्वेष-रहित अकाल मूर्ति (सनातन छवि) अजन्मा (जन्म से रहित) स्वयंभू (स्वयं से उत्पन्न हुआ) गुरु-कृपा से प्राप्त ॥ तथा श्री कृष्ण भी कहते हैं -‘‘यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः। ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।४.१९।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ जिसके समस्त कार्य कामना और संकल्प से रहित हैं, ऐसे उस ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा भस्म हुए कर्मों वाले पुरुष को ज्ञानीजन पण्डित कहते हैं | ‘‘भविष्यं नानुसन्धत्ते नातीत चिन्तयत्यसौ। वर्तमान निमेषं तु हसन्नेवानुनर्तते ।।’’ भविष्य का अनुसंधान नहीं, न अतीत की चिन्ता। हंसते हुए वर्तमान में जीना। ||२||
यस्य प्राणाः प्रशान्ताः स्युर्मन आदीनि च स्वयम्। अव्यक्तान्तानि सर्वाणि स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥५.३॥
वह जिसका समस्त प्राण आदि वर्ग शांत है बना हुआ है, जिसका मन अव्यक्त की सीमा तक स्थिर है और जो स्वयं भी शांत है, वह सर्वश्रेष्ठ कर्ता कहलाता है | ‘‘इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः। मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्परः || १० || महतः परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुषः परः। पुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः || ११ || कठोपनिषद् अध्याय १ वल्ली ३’’ ”इन्द्रियों से उच्चतर हैं उनके विषय, उन इन्द्रिय-विषयों से उच्चतर है ‘मन’, ‘मन’ से उच्चतर है बुद्धि तथा उससे (बुद्धि से) उच्चतर है ‘महान् आत्मा’। “उस महान आत्मा से उच्चतर ‘अव्यक्त’ है, ‘अव्यक्त’ से उच्चतर ‘पुरुष’ है; ‘पुरुष’ से उच्चतर कुछ भी नहीं ː ‘बही’ सत्ता की पराकाष्ठा है, वही यात्रा का परम लक्ष्य (परा गति) है | ‘‘प्रलयस्यापि हुंकारैः चराचर विचालनैः | विक्षोभं नैति यस्यान्तः स महात्मेति कथ्यते ||’’ प्रलय काल की गंभीर गर्जनाओं में भी और जब समस्त स्थावर,जङ्गम सृष्टि विचलित हो जाती है , उस समय भी जिसका चित्त विचलित नहीं होता उसे महात्मा कहते हैं | ऐसे महापुरुष प्रलय काल में भी दु:खी नहीं हो सकते | || ३ ||
बालोन्मत्तपिशाचादिचेष्टितान्यपि यत्र नो। निष्ठाऽजगरवद्यस्य स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥५.४॥
वह जो बालकों, पागलों और भूत पिशाचों की तरह चेष्टा करता है और नहीं भी करता है, और वह जिसका रवैया अजगर सर्प (पाइथन) की तरह है, उसे सर्वश्रेष्ठ कर्ता कहा जाता है | ‘‘बुद्धतत्त्वस्य लोकोऽयं जडोन्मत्तपिशाचवत् । बुद्धतत्त्वोऽपि लोकस्य जडोन्मत्तपिशाचवत्”-“पहुँचे हुए तत्त्वज्ञानी की नजरोमें यह सारी दुनिया जड, पागल और पिशाच जैसी है और दुनिया की नजरो में वह तत्वज्ञानी भी ऐसा ही है | || ४ ||
नाहंभावश्च यस्यास्ति नेदं भावश्च कुत्रचित्। सर्व द्वन्द विहीनात्मा स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥५.५॥
जिसको कहीं भी “मैं” या “यह” का कोई बोध नहीं है, अर्थात जिसको अपने शरीर में अहंता तथा संबंधियों और पदार्थों ममता नहीं है | एवं वह जो सभी (द्वन्द्वों) जोड़ों के विरोध से रहित है, उसे सबसे अच्छा काम करने वाला (कर्मिश्रेष्ठ) कहा जाता है | ‘‘प्रतिबन्धो वर्तमानो विषयासक्ति लक्षणः । प्रज्ञामान्द्यं कुतर्कश्च विपर्ययदुराग्रहः ॥ ४३॥ पञ्चदशी ध्यानदीप प्रकरण ’’ वर्तमान प्रतिबंधों को , मौजूदा प्रतिबंधों को उदाहरणों के रूप में समझा जाना चाहिए, जैसे कि १ विषयासक्ति २ प्रज्ञामान्द्यं (बुद्धि की मन्दता) ,व्यक्तिपरक बुद्धि, ३ कुतर्क करना या रूढ़िवादिता के खिलाफ परिष्कार करना अर्थात चेतन आत्मा को देहेन्द्रिय,मन,प्राण,बुद्धि आदि मानना इस प्रकार की विपरीत भावना को विपर्यय कहते हैं ४ मैं देह ही हूँ इस बात में दुराग्रह या कट्टरता का होना | ये चार बातें तत्वज्ञान के प्रतिबन्ध हैं (रुकाबट या अड़चनें हैं) | || ५ ||
प्राग्बद्धोऽहं विमुक्तोऽद्येत्येवं यस्य स्मृतिर्न च। नित्यमुक्तस्वरूपः सन् स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥५.६॥
“मैं पहले बद्ध था, और अब मैं मुक्त हो गया हूं” – जो इस तरह की धारणा नहीं रखता है, वह जो हमेशा के लिए मुक्त है, उसे सर्वश्रेष्ठ कर्ता कहा जाता है | आत्मतत्व – देश, काल, वस्तु से अपरिच्छिन्न सर्वाधिष्ठान और सर्व साक्षी है | ‘‘यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः। विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः।।५.२८।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ जिस पुरुष की इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि संयत हैं, ऐसा मोक्ष परायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित है, वह सदा मुक्त ही है | || ६ ||
विदेहमुक्तो यः प्रोक्तो वरिष्ठो ब्रह्मवेदिनाम्। अरूपनष्टचित्तासुः स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥५.७॥
जिसे विदेहमुक्त के रूप में जाना जाता है, वह ब्रह्म के ज्ञाताओं में श्रेष्ठ है, जो निराकार है और जिसका चित्त और प्राण नष्ट हो चुका है, (जो अपने को प्राणमय और विज्ञानमय कोष से पृथक जानता है) जो केवल द्रष्टा साक्षी मात्र है, उसे सर्वश्रेष्ठ कर्ता कहा जाता है | ‘‘ईप्सितानीप्सिते न स्तो यस्यान्तर्वर्तिदृष्टिषु । सुषुप्तिवद्यश्चरति स जीवन्मुक्त उच्यते ||४६|| महोपनिषद् द्वितीयोऽध्यायः’’ जो सदैव अन्तर्मुखी दृष्टिवाला, पदार्थ की आकांक्षा से रहित और किसी भी वस्तु की अपेक्षा अथवा कामना से रहित सुषुप्ति के समान अवस्था में विचरण करता रहता है, वही मनुष्य जीवन्मुक्त कहलाता है। जो सदैव आत्मा में लीन रहता है, जिसका मन पूर्ण एवं पवित्र है, अत्यन्त श्रेष्ठ एवं शान्त स्वभाव को प्राप्त कर जो इस नश्वर संसार में किसी वस्तु की इच्छा नहीं रखता, जो किसी के प्रति आसक्ति न रखता हुआ उदासीन भाव से भ्रमण करता रहता है, वही पुरुष जीवन्मुक्त कहलाता है। जिसका हृदय किसी भी पदार्थ में लिप्त नहीं होता तथा जो चेतन संवित् (सद्ज्ञानयुक्त) स्वरूप वाला है, वही पुरुष जीवन्मुक्त कहलाता है। जो पुरुष राग-द्वेष, सुख-दु:ख, मान-अपमान, धर्म-अधर्म एवं फलाफल की इच्छा-आकांक्षा न रखता हुआ सदैव अपने कार्यों में व्यस्त रहता है, वही मनुष्य जीवन्मुक्त कहलाता है। जो अहंभाव को त्याग करके, मान एवं मत्सर से रहित, उद्वेगरहित तथा संकल्पविहीन रहकर कर्म करता रहता है,उसी पुरुष को ज्ञानीजन जीवन्मुक्त कहते हैं | || ७ ||
कर्माणि यस्य सर्वाणि वासनात्रयजानि च। अभवन्नपशान्तानि स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥५.८॥
जिसके सभी प्रकार के कर्म मल जो कि तीन प्रकार की वासनाओं से झरते हैं, वे पूरी तरह से शान्त हो चुके हैं, नष्ट हो चुके हैं, उसे सर्वश्रेष्ठ कर्ता कहा जाता है | एषणाएं मुख्य रूप से तीन प्रकार की होती हैं-वित्तैषणा, पुत्रैषणा और लोकैषणा ये तीन ही सभी वासनाओं के मूल हैं | शैव दर्शन के अनुसार मल भी तीन प्रकार के होते हैं १ आणवमल, २ मायामल और ३ कार्मिक मल अणु ( जीव ) गत अज्ञान ही उसके परमार्थ स्वरूप को ढक लेता है । इसी को आणव मल कहते हैं । माया शक्ति के अधीन मल मायीयमल तथा पुण्य और पाप कर्मों की वासना से उत्पन्न मल कार्मिक मल कहलाते हैं | इन्ही तीन मलों के कारण जीव बंधन में पड़ता है | ‘‘हर्षामर्षभयक्रोधकामकार्पण्य दृष्टिभिः । न परामृश्यते योऽन्तः स जीवन्मुक्त उच्यते ||४४|| महोपनिषद् द्वितीयोऽध्यायः’’ जिसे तप आदि साधनों के अभाव में स्वभाववश ही सांसारिक भोग अच्छे नहीं लगते,वही पुरुष जीवन्मुक्त कहलाता है। जो प्रतिपल प्राप्त होने वाले सुखों या दुःखों में आसक्त नहीं होता, जो न हर्षित होता है और न ही दुःखी होता है,वही जीवन्मुक्त कहलाता है । जो हर्ष, अमर्ष, भय,काम, क्रोध एवं शोक आदि विकारों से मुक्त रहता है,वही जीवन्मुक्त कहलाता है। जो अहंकार युक्त वासना को अति सहजता से त्याग देता है तथा जो चित्त के अवलम्बन में सम्यक् रूप से त्याग भाव रखता है, वही वास्तव में जीवन्मुक्त कहलाता है | || ८ ||
कर्माणि कर्मभिः शुद्धैरशुद्धान्युपमृद्य यः। स कर्मब्रह्ममात्रोऽभूत् स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥५.९॥
जिसने अपने सभी अशुद्ध कर्मों को शुद्ध कर्मों से शुद्ध किया है और जिसने केवल ब्रह्म के लिए काम करने की स्थिति प्राप्त की है, उसे सर्वश्रेष्ठ कर्ता कहा जाता है | ‘‘ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।४.२४।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ अर्पण (अर्थात् अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है; ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है, वह भी ब्रह्म ही है। इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है | || ९ ||
ज्ञानिनामपि य श्रेष्ठः सप्तमीं भूमिकां गतः। उपासकानां यश्चैकः स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥५.१०॥
जो ज्ञानियों में श्रेष्ठ है, जिसने ज्ञान के सातवें चरण को प्राप्त कर लिया है, वह जो उपासकों में अद्वितीय है, उसे सर्वश्रेष्ठ कर्ता कहा जाता है | ‘‘ज्ञानभूमिः शुभेच्छाख्या प्रथमा परिकीर्तिता।
विचारणा द्वितीया स्यात्तृतीया तनुमानसा।। सत्त्वापत्तिश्चतुर्थी स्यात्ततोऽसंसक्तिनामिका। पदार्थाभावनी षष्ठी सप्तमी तुर्यगा स्मृता।।’’ शुभेच्छा, (सु)विचारणा, तनुमानसा, सत्वापत्ति, असंसक्ति, पदार्थाभावनी और तुर्यगा, ज्ञान की ये सात भूमिकायें बताई गई हैं | ‘‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन | न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रय: || ३.१८ || श्रीमद् भगवद्गीता’’ उस (कर्मयोगसे सिद्ध हुए) महापुरुषका इस संसारमें न तो कर्म करनेसे कोई प्रयोजन रहता है, और न कर्म न करनेसे ही कोई प्रयोजन रहता है, तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें (किसी भी प्राणीके साथ) इसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता। श्रीमद्भागवत में कहा है कि ‘‘देहं च नश्वरमवस्थितमुत्थितं वा सिद्धो न पश्यति यतोऽध्यगमत् स्वरूपम् । दैवादपेतमथ दैववशादुपेतं वासो यथा परिकृतं मदिरामदान्ध: ॥ ११.१३.३६ ॥’’ जैस मदिरा पीकर उन्मत्त पुरूष यह नहीं देखता कि मेरे द्वारा पहना हुआ वस्त्र शरीर पर है या नहीं या गिर गया वैसे ही सिद्ध पुरुष जिस शरीर से उसने साक्षात्कार किया है वह प्रारब्ध बस खड़ा है बैठा है या चल रहा है इत्यादि बातों पर ध्यान नहीं देता है। ‘‘देहोऽपि दैववशगः खलु कर्म यावत् । स्वारंभकं प्रतिसमीक्षत एव सासुः । तं सप्रपञ्चमधिरूढसमाधियोगः । स्वाप्नं पुनर्न भजते प्रतिबुद्धवस्तुः ॥ ३७ ॥ श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ११/अध्यायः १३’’ देह भी दैवाधीन रहकर स्वारंभक कर्म (शेष) रहने तक प्राणधारण कर राह देखता रहता है। समाधि-योग प्राप्त कर वस्तु प्रबोधलब्ध पुरुष स्वप्नतुल्य उस सप्रपंच देह को पुनः धारण नहीं करता। श्रुति में भी कहा है कि ‘‘तद्यथाऽहिनिर्ल्वयनी वल्मीके मृता प्रत्यस्ता शयीतैवमेवेदं शरीरं शेते अथायमशरीरो मृतः प्राणो ब्रह्मैव तेज एव इति। (वृहदारण्यकोपनिषद ४.४.७)’’ जैसा कि साँप की केंचुली से भरी हुई देह फेंक दी हुई बर्मी (चींटियों के बनाए हुए मिट्टी के ढेर) पर पड़ी रहे, इसी प्रकार यह शरीर पड़ा रहता है और अब यह आत्मा शरीर से रहित हुआ अमृत प्राण (अमर जीवन) है, ब्रह्म ही है, तेज (प्रकाश स्वरूप) ही है । तस्य तावदेव चिरं यावन्न विमोक्ष्ये, अथ संपत्स्ये (छान्दोग्योपनिषद ६.१४.२) उसके लिए उतनी ही देर है, जब तक वह देह से नहीं छूटता, इसके पीछे तब वह सत् (ब्रह्म) को प्राप्त होगा । यथा नद्य: स्यन्दमाना: समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय । तथा विद्वान् नामरूपाद्विमुक्त: परात्परं पुरुषमुषैति दिव्यम् । (मुण्डकोपनिषद् ३.२.८) जैसे नदियाँ बहती हुई समुद्र में जाकर अपना नामरूप खो कर लीन हो जाती हैं, ऐसे ही ज्ञानी पुरुष नाम और रूप को त्याग कर परे से परे जो दिव्य पुरुष है, उसको प्राप्त होता है । एष सम्प्रसादोऽस्माच्छरीरात् समुत्थाय परं ज्योतिरूप सम्पद्य स्वेन रूपणाभिनिष्पद्यते स उत्तम: पुरुष: (छान्दोग्योपनिषद ८.१२.३) यह निर्मल हुआ आत्मा इस शरीर से उठ कर परमज्योति को प्राप्त होकर अपने असली रूप से प्रकट होता है, यह उत्तम पुरुष है । यदात्मतत्त्वेन तु ब्रह्मतत्वं दीपोपमेनेह युक्त: प्रपश्येत् । अजं ध्रुवं सर्वतत्वैर्विशुद्धं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः (श्वेताश्वतरोपनिषद् २.१५) अर्थात् जब वह वहाँ सावधान होकर दीपक के सदृश आत्मतत्त्व से ब्रह्मतत्व को देखता है, जो अजन्मा है, अटल है और सब तत्त्वों से शुद्ध है, तब उस देव को जान कर वह सारी फाँसों से छूट जाता है । || १० ||
यः सर्वैः पीडितोऽपि स्यान्निर्विकारोऽपि पूजितः। सुखदुःखे न यस्य स्तः स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥५.११॥
ऐसा वह व्यक्ति, जिसे दूसरों द्वारा सताया जाता है या वह जो दूसरों द्वारा पूजित होने पर भी अप्रभावित रहता है, वह जिसके लिए कोई सांसारिक पीड़ा और सुख नहीं है, उसे सर्वश्रेष्ठ कर्ता कहा जाता है | ‘‘यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्। नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।२.५७।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ जो सर्वत्र अति स्नेह से रहित हुआ उन शुभ तथा अशुभ वस्तुओं को प्राप्त कर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है? उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित (स्थिर) है |दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः। वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।२.५६।।श्रीमद् भगवद्गीता दुख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता सुख में जिसकी स्पृहा निवृत्त हो गयी हैऔर जिसके मन से राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं वह मुनि स्थितप्रज्ञ कहलाता है | ‘‘न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्। स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः।।५.२०।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ जो स्थिरबुद्धि, संमोहरहित ब्रह्मवित् पुरुष ब्रह्म में स्थित है, वह प्रिय वस्तु को प्राप्त होकर हर्षित नहीं होता और अप्रिय को पाकर उद्विग्न नहीं होता। || ११ ||
यः सर्वमनुजैः पूज्यो यः सर्वैश्च सुरासुरैः। ब्रह्मविष्णुशिवैर्यश्च स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥५.१२॥
जो सभी मनुष्यों, सभी देवताओं और असुरों द्वारा पूजनीय होने के योग्य है, वह जो ब्रह्मा, विष्णु और शिव द्वारा भी पूजे जाने के योग्य है, वह सर्वश्रेष्ठ कर्ता कहलाता है | ‘‘बुद्धाद्वैतसतत्त्वस्य यथेष्टाचरणं यदि । शुनां तत्त्वदृशां चैव कोभेदोऽशुचिभक्षणे ॥ ५५ ॥ ‘‘विड्वराहादितुल्यत्वं मा काङ्क्षीस्तत्त्वविद् भवान् । सर्वधीदोषसंत्यागाल्लोकैः पूज्यस्व देववत् ॥ ५७ ॥पञ्चदशी’’ आचार्य विद्यारण्य स्वामी ने कहा कि यदि मुमुक्षु अद्वैत तत्व का साक्षात्कार करने के उपरान्त भी स्वेच्छाचारी हो जाता है तो उसमें और साधारण जन में क्या भेद है ? यदि दोनों की अशुचि भक्षण में ही रुचि है तो कुत्ते में और तत्वदर्शी में क्या भेद है ? अद्वैतत्व का एहसास होने के बाद भी, यदि कोई व्यक्ति दुराचरणों में गिर जाता है, तो वह अखाद्य भोजन भी करेगा। वह वही करेगा जो वह चाहता है, और जब ऐसा होगा, तो उसमें और कुत्ते में क्या अंतर है?अब जब आप एक दार्शनिक बन गए हैं, तो आपको सुअर की तरह व्यवहार नहीं करना चाहये । काम-आदि बुद्धि के दोषों को दूर करो; और लोक में देवताओं की तरह पूजा प्राप्त करो ! | बोधात् पुरा मनोदोषमात्रात्क्लिष्टोऽस्यथाधुना ।
अशेषलोकनिन्दा चेत्यहो ते बोधवैभवम् ॥ ५६ ॥ अहाहा! तुम्हारे इस ज्ञान की क्या महिमा है? तत्व दर्शन के आगमन से पहले, हालांकि, कामक्रोधादि मनोविकारों को भुगतना पड़ा, और अब, ज्ञान के बाद, सभी लोगों से निंदा का क्लेश सहन करना पड़ रहा है | धन्य है आपका ज्ञान वैभव। वाह वाह। || १२ ||
त्यक्त्वा कर्माणि सर्वाणि स्वात्ममात्रेण तिष्ठतः। कथं कर्मित्वमित्येवं मा शंकिष्ठा महामते ॥५.१३॥
हे बुद्धिमान अरुण! “जिसने सभी कार्यों को छोड़ दिया है और जो अपने आप में ही स्थित है, वह श्रेष्ठकर्ता कैसे हो सकता है?” इस प्रकार का संदेह न करें – || १३ ||
कर्मणां फलमेषा हि स्वात्ममात्रेण संस्थितिः। अतः सफलकर्मैष कर्मिश्रेष्ठो भवेद्ध्रुवम् ॥५.१४॥
वेद विहित कर्मों का परम फल यही है कि स्वयं ही अपने स्वरूप में स्थित हो जाना क्योंकि भगवत्प्रीत्यर्थ कर्म करने से ही चित्तशुद्धि होती है और निर्मल चित्त में ही आत्मा का प्रतिबिम्ब पड़ता है , इसलिए अपने कार्यों को चरम फल तक पहुंचाने के कारण वह निश्चित रूप से श्रेष्ठ कर्ता है |
‘‘दानं स्वधर्मो नियमो यमश्च श्रुतं च कर्माणि च सद्व्रतानि सर्वे मनोनिग्रहलक्षणान्ताः परो हि योगो मनसः समाधिः ||४६ || दान, अपने धर्म का पालन, नियम, यम, वेदाध्ययन, सत्कर्म और ब्रह्मचर्यादि श्रेष्ठ व्रत, देहेन्द्रिय प्राणान्तःकरण की निर्मलता – इन सबका अंतिम फल यही है कि मन एकाग्र हो जाय, भगवान में लग जाये। मन का समाहित हो जाना ही परम योग है | समाहितं यस्य मनः प्रशान्तं दानादिभिः किं वद तस्य कृत्यम् | असंयतं यस्य मनो विनश्यद्दानादिभिश्चेदपरं किमेभिः || ४७ ||’’ श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ११/अध्यायः २३ जिस व्यक्ति का मन शान्त और समाहित है, उसने मानो दान आदि समस्त सत्कर्मों का फल प्राप्त कर लिया है । वह कृतकृत्य हो गया । जिसका मन असंयमी तथा चंचल है अथवा आलस्य से अभिभूत हो रहा है, उस व्यक्ति को इन दानादि शुभ कर्मों से भी कोई लाभ नहीं | || १४ ||
ज्ञानेन ज्ञायते यद्वा उपास्त्या चोपलभ्यते। तत्स्थिरं प्राप्यतेऽनेन कर्मणाऽतोऽस्य कर्मिता ॥५.१५॥
जो ज्ञान से जाना जाता है या उपासना , पूजा द्वारा प्राप्त किया जाता है, वही स्थिरता (दृढ़ता) निश्चित ही इस कर्मयोग के द्वारा प्राप्त की जाती है और इसीलिए उसका कर्तापन मान्य होता है | श्रीमान शंकराचार्य ने भी स्वरूपानुसन्धानाष्टकम् में कहा है कि – तपोयज्ञदानादिभिः शुद्धबुद्धिर्विरक्तो नृपादेः पदे तुच्छबुद्ध्या | परित्यज्य सर्वं यदाप्नोति तत्त्वं परं ब्रह्म नित्यं तदेवाहमस्मि || १|| (जिसने तप, यज्ञ, दान आदि से चंचल बुद्धि को शुद्ध {निश्चल} कर दिया है। ऐसा वह शुद्धबुद्धि वाला पुरुष राजादि के पद से विरक्त होने से उस राज्यप्राप्ति आदि में तुच्छ बुद्धि रखता है। सबका परित्याग करके जिस ब्रह्माकार वृत्ति से परमतत्त्व प्राप्त होता है, वह नित्य ब्रह्म मैं ही हूँ।।१।।) अन्यच्च – तपोभिः क्षीणपापानां शान्तानां वीतरागिणाम् । मुमुक्षूणामपेक्ष्योऽयमात्मबोधो विधीयते ॥१॥ श्लोकार्थ – तपों के अभ्यास द्वारा जिन लोगों के पाप क्षीण हो गये है, जिनके चित्त शान्त और राग-द्वेष या आसक्तियों से रहित हो गये है, ऐसे मोक्ष प्राप्ति की तीव्र इच्छा रखनेवाले साधकों के लिए ‘आत्मबोध’ नामक इस ग्रन्थ की रचना की जा रही है। महर्षि पतञ्जलि ने भी कहा कि – “तपः स्वाध्याय ईश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः ” अर्थात – तप, स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान क्रियायोग है | इन तीनों का सम्बन्ध शारीरिक और मानसिक क्रियाओं से ही है | || १५ ||
देहेऽस्मिन्वर्तमानेऽपि देहस्मृतिविवर्जनात्। विदेहमुक्त इत्युक्तः कथं कर्मीति चेच्छृणु ॥५.१६॥
यदि आप इस प्रकार संदेह करते हैं कि “एक विदेहमुक्त, जो इस शरीर में सीमित रहते हुए भी शरीर-चेतना (शरीर भान) के अभाव के कारण (देह स्मृति से रहित होने के कारण) विदेह मुक्त ऐसा कहा जाता है, तो वह कर्ता कैसे हो सकता है?”, तो सुनो | ‘‘यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।३.७।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ परन्तु हे अर्जुन जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ कर्मेंन्द्रियों से कर्मयोग का आचरण करता है वह श्रेष्ठ है | || १६ ||
देहविस्मृतिमत्त्वेऽपि कर्मदेहे स्थितत्वतः। अन्यदृष्ट्याऽस्य देहित्वात्कर्मित्वमुपपद्यते ॥५.१७॥
शरीर के बारे में जागरूकता खोने पर, लेकिन अभी भी कर्म के शरीर में स्थित होने के कारण, दूसरे दृष्टिकोण से, वह अभी भी एक शरीर तक ही सीमित है अतः उसका कर्तापन वैध है | ‘‘नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः। शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।।३.८।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ तुम (अपने) नियत (कर्तव्य) कर्म करो क्योंकि अकर्म से श्रेष्ठ कर्म है। तुम्हारे अकर्मण्य होने से (तुम्हारा) शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा | न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ।। ३.५ ।।श्रीमद् भगवद्गीता में यह भी कहा है कि कोई भी पुरुष कभी क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता क्योंकि प्रकृति से उत्पन्न गुणों के द्वारा अवश हुए सब (पुरुषों) से कर्म करवा लिया जाता है | || १७ ||
देहस्थत्वादपूर्णः स्यादिति शक्यं (शङ्कयं) न किंचन। तटाकमप्रकुंभस्थं जलं पूर्णं हि दृश्यते ॥५.१८॥
इस बात पर थोड़ा भी संदेह न करें कि (कार्मिक) शरीर में स्थित होने के कारण वह सीमित होकर, अपूर्ण है (अर्थात, वह सार्वभौमिक स्व के साथ एक नहीं हो गया है)। यदि एक कुंड में डूबे हुए घड़े को, पानी में (अंदर और बाहर) सब जगह पूरे के रूप में देखा जाता है | घटाकाश का सम्बन्ध महाकाश से कभी भी विच्छिन्न नहीं होता | हठयोग प्रदीपिका कहा है -‘‘अन्त: शून्यो: बहि: शून्य: कुम्भ इवाम्बरे । अन्तः पूर्णो बहि: पूर्ण: पूर्ण: कुम्भ इवार्णवे ।।५६।।’’ जिस प्रकार खाली घड़े के बाहर और अन्दर का हिस्सा खाली रहता है अर्थात् वह शून्य स्थान कहलाता है । जिसे हम आकाश की संज्ञा देते हैं । ठीक इसी प्रकार समुद्र के पानी में डूबा हुआ घड़ा जिस प्रकार अन्दर व बाहर दोनों प्रकार से ही पानी से युक्त होता है अर्थात् उस घड़े के अन्दर भी जल होता है और उसके बाहर भी जल होता है । अतः जिस तरह घड़ा अन्दर व बाहर दोनों ही प्रकार से पूर्ण होता है | उसी प्रकार इस जगत के अन्दर बाहर सर्वत्र आत्मा ही है। ठीक उसी प्रकार योगी को भी साधना काल में सभी बाह्य ( बाहरी ) व आन्तरिक ( अन्दर के) विचारों का पूरी तरह से त्याग कर देना चाहिए । इस प्रकार योगी सभी बाहरी व भीतरी विचारों से पूरी तरह से शून्य होकर अथवा पूर्ण होकर साधना करे | || १८ ||
प्रारब्धकर्ममुक्तोऽपि भोगान्भुक्तोऽपि चाखिलान् । कर्मकार्ये स्थितः कर्मी देहे स्याद्भोगसाधने ॥५.१९॥
प्रारब्ध कर्म से मुक्त होकर, सभी सांसारिक भोगों को भोगते हुए, वह एक ऐसा कर्ता है जो अपने कर्तव्य कार्य में स्थित है इसलिए कर्मी ही है तथा जो अभी भी भौतिक शरीर तक ही सीमित है, जो कि कर्म का ही परिणाम है और सांसारिक भोग का साधन है | इस सम्बन्ध में हजारों दृष्टान्त दिए जा सकते हैं | यहाँ तो केवल दो -चार नामों का स्मरण किया जाता है | देखिये १ श्रीरामचन्द्र जी ने ज्ञान हो जाने के बाद विवाह किया, युद्ध किया, राज्य किया | २ अर्जुन ने ज्ञान होने के बाद युद्ध किया | ३ महर्षि वशिष्ठ ने ज्ञानोपरान्त पौरोहित्य किया | ४ महाराज विदेहजनक ने ज्ञानी होते हुए राज्य किया | अर्थात ज्ञान का कर्म से कोई विरोध नहीं है। || १९ ||
साधने सति देहेऽपि साध्यो भोगो न सिद्ध्यति। देहविस्मृतिमत्त्वेन देहहीनसमत्वतः ॥५.२०॥
भले ही सांसारिक भोग का साधन, शरीर का अस्तित्व बना रहे, लेकिन शरीर-चेतना के अभाव के कारण (शरीर में अहंता और ममता के अभाव के कारण) सांसारिक भोग का अनुभव नहीं होता है, जो शरीर के अभाव के बराबर ही है | ‘‘पुरे पौरान्पश्यन्नरयुवतिनामाकृतिमयान् सुवेषान्स्वर्णालङ्करणकलितांश्चित्रसदृशान् । स्वयं साक्षाद्दृष्टेत्यपि च कलयंस्तैः सह रमन्
मुनिर्न व्यामोहं भजति गुरुदीक्षाक्षततमाः ॥ १॥जीवन्मुक्तानन्दलहरी’’ चित्रों की भाँति नगर के लोगों को विभिन्न रूपों के पुरुषों और युवतियों को आकर्षक वेश-भूषा पहने और सोने के आभूषणों से अलंकृत देखकर यह अनुभव होता है कि वह वास्तव में उन्हें देख रहा है और उनके साथ आनन्द से घुलमिल रहा है। परन्तु गुरु की कृपा (दीक्षा) द्वारा दूर किया गया है अज्ञान जिसका ऐसा ऋषि, बिल्कुल भी भ्रमित नहीं होता है | इन्द्रधनुष या नीले आकाश में कोई कपड़े रंगने नहीं जाता , क्योंकि वे प्रातीतिक हैं वास्तविक नहीं , इसी प्रकार अन्तःकरण रूपी दर्पण में जगत की प्रतीति स्वप्नतुल्य है अर्थात मायामय है , मिथ्या है। || २० ||
आहिताग्नित्वसंसिद्ध्यै ज्योतिष्टोमे कृतेऽपि च। यथा न स्वर्गमाप्नोति निष्कामः पुरुषर्षभः ॥५.२१॥
एक इच्छा-रहित पुरुष ही सचमुच में पुरुषर्षभ है (वास्तव में एक सच्चा धार्मिक पुरुष है), जो पुरुष आहिताग्नित्व को अच्छी प्रकार से सिद्ध करने के लिए ज्योतिष्टोम नाम वाले यज्ञ के अनुष्ठान को सम्पन्न करता है (और इस तरह स्वर्ग प्राप्त करता है), लेकिन निष्काम कर्मयोगी स्वर्ग को प्राप्त नहीं करता है (लेकिन इसके बजाय मुक्ति प्राप्त करता है) (इसी तरह एक व्यक्ति जिसके पास देहात्मभाव नहीं है | {शरीर से जिसकी चेतना जुड़ी नहीं है और काम कर रहा है, लेकिन वह इसके सांसारिक फलों का अनुभव करने के लिए बाध्य नहीं है, बल्कि इसके बजाय मुक्ति को ही प्राप्त करता है) ‘‘यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।३.७।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ हे अर्जुन! जो मनुष्य मनसे इन्द्रियोंपर नियन्त्रण करके आसक्तिरहित होकर (निष्काम भावसे) समस्त इन्द्रियोंके द्वारा कर्मयोगका आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है | प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।३.२७।।श्रीमद् भगवद्गीता:- सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, अहंकार से मोहित हुआ पुरुष, “मैं कर्ता हूँ” ऐसा मान लेता है। || २१ ||
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्यात्मसंधित्रयकृतामृतः। सर्वसंध्यादिरहितः संधिभिर्वन्द्यन्ते सदा ॥५.२२॥
जिसने स्वयं के साथ जाग्रत , स्वप्न और निद्रा अवस्था का एकीकरण कर लिया है और (चौथी, तुरिया अवस्था प्राप्त करके), जो अमर हो गया है, वह जो इन अभिलक्षणों के कारण सभी सन्ध्या आदि विधि संस्कारों से मुक्त है , तथा सभी प्रकार की सन्धियों के द्वारा (देशकृत सन्धि ,कालकृत सन्धि एवं वस्तुकृत सन्धि) जिसको हमेशा नमन , वन्दन किया जाता है | ‘‘त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः। कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः।।४.२०।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ जो पुरुष, कर्मफलासक्ति को त्यागकर, नित्यतृप्त और सब आश्रयों से रहित है वह कर्म में प्रवृत्त होते हुए भी (वास्तव में) कुछ भी नहीं करता है | नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्। पश्यन् श्रृणवन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपन् श्वसन्।।५.८।। श्रीमद् भगवद्गीता– तत्त्वको जाननेवाला सांख्ययोगी अर्थात तत्त्ववित् ,योगयुक्त पुरुष यह सोचेगा कि देखता, सुनता, छूता, सूँघता, खाता, चलता, ग्रहण करता, बोलता, मल-मूत्र का त्याग करता, सोता, श्वास लेता तथा आँखें खोलता और मूँदता भी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ ही इन्द्रियोंके विषयोंमें बरत रही हैं’ – मैं तो साक्षी द्रष्टा हूँ – ऐसा समझकर ‘मैं (स्वयं) कुछ भी नहीं करता हूँ’ — ऐसा माने। (अर्थात् इस प्रकार जानता है) | आचार्य सुरेश्वर अपने नैष्कर्म्यसिद्धिः नामक ग्रन्थ में कहते हैं – “दुःखी यदि भवेदात्मा कः साक्षी दुःखिनो भवेत् । दुःखिनः साक्षितायुक्ता साक्षिणो दुःखिता तथा ॥” {नैष्कर्म्यसिद्धिः २.७६} यदि हम अपने दुःखीपने को जानते हैं , तो हम दुःखी नहीं हैं । जो जिसका साक्षी होता है , वह उससे भिन्न होता है – यह सामान्य नियम है । यदि हम अपने मकान को जानते हैं , तो हम उस मकान से अलग होते हैं । देह को जानते हैं तो देह से अलग होते हैं | दुःख को जानते हैं तो दुःख से अलग हुए या नहीं ? “प्रज्ञापराध एवैष दुःखमिति यत्” वह दुःख प्रज्ञा का अपराध है अर्थात् हमारी समझ की भूल है । जब हम दुःखी होते है . तब समझना कि हमारी समझ ही कुछ गलती कर रही है । ‘‘नर्ते स्याद्विक्रियां दुःखी साक्षिता का विकारिणः । धीविक्रियासहस्राणां साक्ष्यतोऽहमविक्रियः ॥’’ {नैष्कर्म्यसिद्धिः २.७७} विकार के बिना,परिवर्तन के बिना कोई दुःखी नहीं हो सकता है | और जो विकारी है, वह साक्षी नहीं है और मैं तो बुद्धि के हजार-हजार विकारों का साक्षी हूँ , इसलिए मैं हमेशां ही शुद्ध, बुद्ध अविकारी हूँ । || २२ ||
यः सर्वकर्मभिर्वन्द्यो नित्यं सर्वैरकर्मिभिः। स कर्मिप्रवरोऽकर्मिप्रवरश्चेति कथ्यते ॥५.२३॥
वह हमेशा सभी (सांसारिक) कर्ताओं के साथ-साथ गैर-कर्ताओं के द्वारा भी पूजित होने के योग्य है | वह सर्वश्रेष्ठ कर्ता होने के साथ-साथ अ-कर्ताओं में भी सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है | ‘‘उन्नतिं निखिला जीवाः धर्मेणैव क्रमादिह | विदधानः सावधानाः लभन्तेन्ते परं पदम् ||’’ समस्त जीव गण इसी क्रम से सावधानी पूर्वक धर्म का पालन करते हुए अन्त में परम पद का लाभ प्राप्त करते हैं | धारण करने को ही धर्म कहा है। धर्म ने ही समस्त संसार को धारण कर रखा है । जो धारण से संयुक्त है वही धर्म है यह निश्चित है |अप्रमादेन मघवा देवानां श्रेष्ठतां गतः । अप्रमादं प्रशंसन्ति प्रमादो गर्हितः सदा ॥ १०॥ धर्मपदम् || अप्रमाद (=आलस्य रहित होने के कारण इन्द्र देवताओंसें श्रेष्ठ बना । इसलिए अप्रमाद की प्रशंसा करते हैं, और प्रमाद की सदा निन्दा होती है। || २३ ||
सर्वसाम्यमुपेतस्य स्वात्मारामस्य योगिनः। सहस्रशः कृतैः किं वा वन्दनैरकृतैश्च वा ॥५.२४॥
वह योगी जो उस अवस्था में पहुँच गया है जहाँ सब कुछ एक जैसा प्रतीत होता है, जो अपने आप में ही आनन्दित होता रहता है, उसे हज़ारों बार प्रणाम किया जाए अथवा न किया जाए इससे उसे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता | वह न कुछ पाता है और न कुछ खोता है | ‘‘निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु लक्ष्मी: समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्। अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा न्याय्यात्पथ: प्रविचलन्ति पथं न धीरा:।।८४।। ( भर्तृहरि नीतिशतकम् )’’ नीति में निपुण मनुष्य चाहे उसकी निंदा करें या प्रशंसा, लक्ष्मी आए या इच्छानुसार चली जाए, आज ही मृत्यु हो जाए या युगों के बाद हो परन्तु धैर्यवान मनुष्य कभी भी न्याय के मार्ग से अपने कदम नहीं हटाते हैं। || २४ ||
देहादिषु विकारेषु स्वीयत्वं स्वत्वपूर्वकम्। विहाय नित्यनिष्ठाभिः स्वमात्रः स विराजते ॥५.२५॥
शरीर आदि विकारों के साथ अपनी पहचान बनाना और प्रकृति के अन्य परिणामों (बुद्धि, अहंकार आदि) का परित्याग करना, जिसमें उनके ऊपर अपने स्वामित्व की भावना भी शामिल है, इन सबको छोड़कर और खुद को नित्य स्थायी तत्व के साथ एकरूप में पहचानने से, वह स्वयं सार्वभौमिक के रूप में चमकता है | अर्थात अपने को कभी भी परिच्छिन्न नहीं जानना | ब्रह्मात्मैक्य भाव ही सबसे बड़ी सिद्धि है | ‘‘आत्मानं चेद्विजानीयादयमस्मीति पूरुषः । किमिच्छन्कस्य कामाय शरीरमनुसञ्ज्वरेत् ॥ १२ ॥’’ ‘यदि पुरुष यह आत्मा ही ,(सच्चिदानन्द घन ही) मैं हूँ – इस प्रकार आत्मा को जान ले तो किस विषय की इच्छा करता हुआ और किस विषय के लिए अपने आत्मा को तपायमान करे ? अर्थात् आत्मज्ञान से ही सब कामनाएँ शांत हो जाती हैं ।’ महर्षि याज्ञवल्क्य बृहदारण्यक उपनिषद् (४.४.१२) में कहते हैं-जो ब्रह्म को प्राप्त है उसको वह अनन्त असीम, अचिंत्य आनन्द प्राप्त है जिसकी किसी के साथ तुलना नहीं हो सकती | घड़े ने मिट्टी को पहचान लिया ,तरंग ने अपने को सागर जान लिया, चिनगारी ने अग्नि से अपनी एकता देख ली , प्राणवायु ने बाह्यवायु से एकत्व स्थापित कर लिया ,घड़े के आकाश ने अपने को महाकाश के रूप में देख लिया , स्वप्न और मनोराज्य को जिसने अपने मानसिक साम्राज्य के रूप में समझ लिया उसने कार्य-कारण की परम्परा समझ ली। देहस्थित चैतन्य जीव की कल्पना हटी और सर्वत्र व्यापक चैतन्य ब्रह्म हो गया ।|| २५ ||
इन्द्रियार्थैर्विमूढानां दुष्कर्मत्वं निगद्यते। तैरपेतः सुकर्म्येष विदेह इति कथ्यते ॥५.२६॥
पाप कर्मों के बारे में कहा जाता है कि जो इंद्रियों की विषय वस्तुओं के कारण विमूढ़ चित्त हो गये हैं उन्ही की दुष्कर्मों में प्रवृत्ति होती है। और जो उनसे हमेशा दूर रह कर अच्छे कार्यों को करने के लिए नित्य तत्पर रहते हैं उन्हें विदेह’ कहा जाता है | अर्थात पञ्च महायज्ञ हमेशा चलते रहने चाहिए | ‘‘सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।३.१०।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ प्रजापति (सृष्टिकर्त्ता) ने (सृष्टि के) आदि में यज्ञ सहित प्रजा का निर्माण कर यह कहा कि इस यज्ञ द्वारा तुम वृद्धि को प्राप्त हो और यह यज्ञ तुम्हारे लिये इच्छित कामनाओं को पूर्ण करने वाला (इष्टकामधुक्) होवे।। ‘‘यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः। तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर।।३ .९।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ यज्ञ के लिये किये हुए कर्म के अतिरिक्त अन्य कर्म में प्रवृत्त हुआ यह पुरुष कर्मों द्वारा बंधता है इसलिए हे कौन्तेय आसक्ति को त्यागकर यज्ञ के निमित्त ही कर्म का सम्यक् आचरण करो | ‘‘प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।३.२७।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, अहंकार से मोहित हुआ पुरुष, “मैं कर्ता हूँ” ऐसा मान लेता है | ‘‘एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः। अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति।।३.१६।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ हे पार्थ! जो मनुष्य इस लोकमें इस प्रकार परम्परासे प्रचलित सृष्टिचक्रके अनुसार नहीं चलता, वह इन्द्रियोंके द्वारा भोगोंमें रमण करनेवाला अघायु (पापमय जीवन बितानेवाला) मनुष्य संसारमें व्यर्थ ही जीता है। || २६ ||
यः सर्वद्वन्द्वनिर्मुक्तः सर्वत्रिपुटिवर्जितः। सर्वावस्थाविहीनः स विदेह इति कथ्यते ॥५.२७॥
जो सभी युग्मों से परे है, जो सभी त्रिपुटियों जैसे (ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान-आदि) से रहित है, जो सभी अवस्थाओं से रहित (जाग्रत, निद्रा और स्वप्न) है, उसे ‘विदेह’ कहा जाता है | ‘‘योऽयमात्मा स्वयंज्योतिः पञ्चकोशविलक्षणः । अवस्थात्रयसाक्षी सन्निर्विकारो निरंजनः । सत्स्वरूपः स विज्ञेयः स्वात्मत्वेन विपश्चिता ॥ २१३ ॥ विवेकचूडामणिः’’ यह स्वयंभू आत्मा जो पांच कोशों से अलग है, तीन अवस्थाओं का साक्षी, वास्तविक, परिवर्तनहीन, निर्मल, चिरस्थायी आनंद – बुद्धिमान व्यक्ति द्वारा स्वयं के रूप में उसे महसूस किया जाना चाहिए। || २७ ||
लौकिकं वैदिकं कर्म सर्वं यस्मिन्क्षयं गतम्। यस्मान्नेवाणुमात्रं च विदेह इति कथ्यते ॥५.२८॥
वह, जिसमें सभी सांसारिक क्रियाकलापों के साथ-साथ वैदिक गतिविधियां भी समाप्त हो गई हैं, जो परमाणु के आकार के बराबर भी कर्म नहीं करता है, उसे ‘विदेह’ कहा जाता है | विगतो देहः देहसम्बन्धो यस्य । ‘‘निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः। द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।।१५.५।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ जिनका मान और मोह निवृत्त हो गया है, जिन्होंने संगदोष को जीत लिया है, जो अध्यात्म में स्थित हैं जिनकी कामनाएं निवृत्त हो चुकी हैं और जो सुख-दु:ख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त हो गये हैं, ऐसे सम्मोह रहित ज्ञानीजन उस अव्यय पद को प्राप्त होते हैं। || २८ ||
यस्येन्द्रियाणि सर्वाणि न चलन्ति कदाचन। भित्तिस्थचित्रांगनीव विदेह इति कथ्यते ॥५.२९॥
जिसकी इंद्रियाँ कभी भी चञ्चल या विकृत नहीं होती हैं और जैसे दीवार पर खींची गई चित्रलिखित स्त्री की तरह गतिहीन होती हैं, उसे ‘विदेह’ कहा जाता है | ‘‘असंसारस्य तु क्वापि न हर्षो न विषादिता। स शीतलमना नित्यं विदेह इव राजते ॥१८- २२॥ अष्टावक्रगीता’’ संसार से मुक्त पुरुष को न तो कभी हर्ष होता है और न ही विषाद। उसका मन सदा शीतल और शांत रहता है और वह (शरीर रहते हुए भी) विदेह या मुक्त रहता हुआ सुशोभित होता है। || २९ ||
आत्मानं सत्यमद्वैतं केवलं निर्गुणामृतम्। संपश्यतः सदा स्वान्यविकारस्फुरणं कुतः ॥५.३०॥
जो स्वयं को हमेशा अपने वास्तविक,सच्चिदानन्द स्वरूप में ही देखता है | और जो अपने को अद्वैत , निरपेक्ष, तीनों गुणों से रहित और अमर देखता है, उसके अंदर भला शोरगुल मचाने वाले विचार कैसे पैदा हो सकते हैं ? अर्थात स्वात्मा से भिन्न विकारों का स्फुरण कैसे हो सकता है ?
‘‘अस्ति जायते वर्धते विपरिणमते अपक्षीयते विनश्यतीति षड्विकारवदेतत् स्थूलशरीरम् |’’ दृश्य के रूप में अस्तित्व, जन्म, वृद्धि, परिणाम, अपक्षय एवं विनाश ये ही षड्विध भाव-विकार हैं। आत्मा षड्विध भाव विकार-विवर्जित है | ये सारे विकार तो स्थूल शरीर के हैं , जो कि दृश्य प्रपञ्च का एक अंश है परन्तु आत्मा तो द्रष्टा है। || ३० ||
आत्मेतरदसत्यं च द्वैतं नानागुणान्वितम्। अपश्यतः सदानन्दस्वरूपास्फुरणं कुतः ॥५.३१॥
आत्मा से भिन्न समस्त दृश्यवर्ग जो कि द्वैतात्मक है (परस्पर सापेक्ष है) और असत्य है अर्थात प्रतीति मात्र है जैसे आकाश में नीलिमा मिथ्या है | तथा प्रकृति के तीन गुणों से मिश्रित है , इस बात का जबतक सम्यक विवेक नहीं हो जाता तबतक उसके द्वारा हमेशा आनंदित आत्मा (सदानन्दस्वरूप) का अनुभव कैसे किया जा सकता है? ‘‘सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः। निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्।।१४.५।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ हे महाबाहो ! सत्त्व, रज और तम ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण देही आत्मा को देह के साथ बांध देते हैं। || ३१ ||
आदिमध्यान्तरहितचिदानन्दस्वरूपिणः। स्थितप्रज्ञस्य को बाधः शरीरेण स्वयोगिनः ॥५.३२॥
जो शुरुआत, मध्य और अंत से रहित है, जो चिदानन्द स्वभाव वाला है अर्थात आनंदित चेतन स्व के रूप में है, जिसकी बुद्धि स्थिर है, जो स्वयं में एक योगी है, वह अपने शरीर से किस बाधा का सामना कर सकता है? अर्थात शरीर से उसे कौन सी बाधा प्राप्त हो सकती है ? ‘‘यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।२.५८।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ जिस तरह कछुआ अपने अङ्गोंको सब ओरसे समेट लेता है, ऐसे ही जिस कालमें यह कर्मयोगी इन्द्रियोंके विषयोंसे इन्द्रियोंको सब प्रकारसे समेट लेता (हटा लेता) है, तब उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित हो जाती है। || ३२ ||
कर्माणि कर्मणा त्यक्त्वा ब्रह्मणा ब्रह्मणि स्थितः। कर्मणा शर्म सततं संप्राप्तः स विराजते ॥५.३३॥
जिसने कर्मों के द्वारा कर्मों का परित्याग किया है, क्योंकि बुद्धि से ब्रह्म विचार करना भी बौद्धिक कर्म ही है , उस ब्रह्मविचार रूपी कर्म से शारीरिक और मानसिक कर्मों की आसक्ति का त्याग किया जाता है | और जो ब्रह्म के द्वारा ब्रह्म में स्थित है, ‘‘यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।३.१७।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ जो मनुष्य अपने-आपमें ही रमण करनेवाला और अपने-आपमें ही तृप्त तथा अपने-आपमें ही संतुष्ट है, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है | जिसने अपने कार्यों से अनंत शांति प्राप्त की है, वह चमकता है | ‘‘बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।२.५०।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ समत्वबुद्धि युक्त पुरुष यहां (इस जीवन में) पुण्य और पाप इन दोनों कर्मों को त्याग देता है | इसलिये तुम योग से युक्त हो जाओ। कर्मों में कुशलता ही योग है | धन्याष्टक में श्री शंकराचार्य जी कहते हैं कि — सम्पूर्णं जगदेव नन्दनवनं सर्वेऽपि कल्पद्रुमा गाङ्गं वरि समस्तवारिनिवहः पुण्याः समस्ताः क्रियाः । वाचः प्राकृतसंस्कृताः श्रुतिशिरोवाराणसी मेदिनी सर्वावस्थितिरस्य वस्तुविषया दृष्टे परब्रह्मणि ॥ १०॥ जिसने सभी पहलुओं में ब्रह्म को जान लिया है, उसके लिए सारा संसार स्वर्गीय उद्यान बन जाता है; सभी वस्तुएं कल्पवृक्ष (इच्छा देने वाले पेड़); बन जाते हैं और हर जल-प्रवाह पवित्र गंगा है तथा उसके सभी कार्य, पुण्य और शुभता से भरी हुई संस्कृत वाणी ऊँचे विचारों वाली और साथ ही मूर्खतापूर्ण बातें भी (प्राकृत शब्द भी) अर्थात वाणी मात्र {समस्त वाङ्मय} ये सब वेदांतवाक्य बन जाते हैं तथा पूरी पृथ्वी, वाराणसी बन जाती है | उसके हर विचार या जागरूकता से उसे केवल ब्रह्म का ही पता चलता है | ‘‘अनादि निधनं ब्रह्म शब्दतत्त्वं यदक्षरम्। विवर्ततेऽर्थ भावेन प्रक्रिया जगतो यतः ।।१।।वाक्यपदीयम्।’’ अर्थात ब्रह्म का न आदि है न अन्त है । उसका कभी क्षरण नही होता । उसका स्वरूप शब्द अर्थात नाद है । वही नाद विषयोंके रूप मे विविध प्रकार से प्रकट होता है और उसीसे जगत् की सृष्टि होती है । || ३३ ||
बुद्धेस्तैक्ष्ण्यं च मौढ्यं च यस्य नैवास्ति किंचन। बुद्धेः पारंगतः सोऽयं प्रबुद्धः शोभतेतराम् ॥५.३४॥
वह जिसके लिए बुद्धि की तीक्ष्णता या मूढ़ता , नीरसता का कोई महत्व नहीं है, जो बुद्धि से परे चला गया है, वह प्रबुद्ध पुरुष परम शोभा को प्राप्त होता है, एक और ही प्रकार से चमकता है | ‘‘भविष्यं नानुसन्धत्ते नातीतं चिन्तयत्यसौ । वर्तमाननिमेषं तु हसन्नेवानुवर्तते ॥’’ भविष्य का अनुसंधान नहीं, न अतीत की चिन्ता। हंसते हुए वर्तमान में जीना। ‘‘न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्। स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः।।५.२०।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ जो प्रियको प्राप्त होकर हर्षित न हो और अप्रियको प्राप्त होकर उद्विग्न न हो, वह स्थिर बुद्धिवाला, मूढ़तारहित तथा ब्रह्मको जाननेवाला मनुष्य ब्रह्ममें स्थित है। || ३४ ||
मनस्तथैव संलीनं चितीव लवणं जले। यथा निरन्तरात्मीयनिष्ठया सोऽद्वयोऽभवत् ॥५.३५॥
जिसका मन ठीक उसी तरह चित्तत्व में विलीन हो जाता है, जैसे नमक पानी में घुल जाता है, उसी प्रकार आत्मा की निरंतर भक्ति से आत्मनिष्ठ हो कर वह अद्वय तत्व के साथ एक हो जाता है |
‘‘मातर्मेदिनि तात मारुति सखे तेजः सुबन्धो जल भ्रातर्व्योम निबद्ध एष भवतामन्त्यः प्रणामाञ्जलिः । युष्मत्सङ्गवशोपजातसुकृतस्फारस्फुरन्निर्मलज्ञानापास्त समस्तमोहमहिमा लीये परब्रह्मणि ॥ १०० ॥ भर्तृहरेःवैराग्यशतकम्’’ हे माता पृथ्वी ! हे मेरे पिता पवन ! हे मेरे मित्र तेज !(अग्नि) हे मेरे सुबन्धु जल ! (मेरे अच्छे रिश्तेदार) हे मेरे भाई आकाश ! एक अंतिम बार मैं हाथ जोड़कर आप सबको प्रणाम करता हूं। आप सभी के साथ जुड़कर, मैंने परम ज्ञान में परिणत होकर कई गुण प्राप्त किए, जिसने मुझे भ्रम के शक्तिशाली प्रभाव को दूर करने में मदद की। अब मेरे संसारी मोह का नाश हो गया है और अब मैं परम ब्रह्म के साथ एक हो गया हूँ | कारण से कार्य का ज्ञान होता है और कार्य से कारण का अनुमान होता है और इन दोनों से अद्वैत की सिद्धि होती है। || ३५ ||
समनस्त्वान्महद्दुःखममनस्कस्य तत्कुतः। समनस्को हि संकल्पान् करुते दुःखकारिणः ॥५.३६॥
मन के साथ, व्यक्ति भारी कष्ट का अनुभव करता है; और जो मन के बिना है उसके लिए, वह (दुख) कहाँ है? केवल मन वाला व्यक्ति ही दुःख और दर्द पैदा करने वाले संकल्पों में और प्रयासों में शामिल होता है | ‘‘नायं जनो मे सुखदु:खहेतुर्न देवतात्मा ग्रहकर्मकाला:| मन: परं कारणमामनन्ति संसारचक्रं परिवर्तयेद् यत् ॥ ११ -२३ ४२ ॥ श्रीमद्भागवत’’ मेरे सुख-दुख का कारण न ये मनुष्य हैं, न देवता, न यह शरीर और न ग्रह न कर्म और न काल हैं | महात्मा लोग (सुख-दुखात्मक) संसाररूप चक्र को घुमाने वाले मन को ही इनका कारण बताते हैं | और यह मन ही भौतिक जीवन के चक्र को बनाए रखता है | मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् || २ || ब्रह्मबिन्दूपनिषद् || मन ही सभी मनुष्यों के बन्धन एवं मोक्ष का प्रमुख कारण है। विषयों में आसक्त मन बन्धन का और कामना-संकल्प से रहित मन ही मोक्ष (मुक्ति) का कारण कहा गया है। || ३६ ||
प्रारब्धकर्मजं दुःखं जीवन्मुक्तस्य कथ्यते। कर्मत्रयविहीनस्य विदेहस्य कथं नु तत् ॥५.३७॥
जीवमुक्त पुरुष की पीड़ा को प्रारब्ध कर्म द्वारा निर्मित बताया गया है | परन्तु जो तीनों प्रकार के कर्मों से रहित (प्रारब्ध ,सञ्चित और क्रियमाण कर्मों से रहित) है ऐसे एक विदेहमुक्त के लिए दुःखी कैसे कहा जा सकता है? ‘‘प्रारब्धं पुष्यति वपुरिति निश्चित्य निश्चलः। धैर्यमालम्ब्य यत्नेन स्वाध्यासापनयं कुरु॥ २७९॥विवेकचूडामणि’’ यह निश्चित रूप से जानते हुए कि प्रारब्ध कार्य ही इस शरीर को बनाए रखेगा, शांत रहें और सावधानी से और धैर्य के साथ अपने अध्यारोपण को दूर करें |
प्रारब्ध- पिछले कर्मों का परिणाम है जिसके कारण वर्तमान जन्म हुआ है। जब इस प्रारब्ध काम समाप्त हो जाता है, तब शरीर गिर जाता है, और विदेहमुक्ति परिणाम होता है | भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे || ९ || मुण्डकोपनिषद् द्वितीयोमुण्डकः द्वितीयः खण्डः || हृदय की सारी ग्रथियाँ खुल जाती हैं, समस्त संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, तथा मनुष्य के समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है, जब उस ‘परतत्त्व’ का दर्शन हो जाता है, जो एक साथ ही अपरा सत्ता एवं ‘परम सत्ता’ है। || ३७ ||
कर्म कर्तव्यमिति वा न कर्तव्यमितीह वा । यदि मन्येत वैदेहीं न मुक्तिं प्राप्तवांस्तु सः ॥५.३८॥
यदि किसी का ऐसा मानना है कि इस कर्तव्य को निभाया जाना चाहिए और यह कर्तव्य नहीं निभाया जाना चाहिए, तो उसे विदेहमुक्ति प्राप्त नहीं हुई है | ‘‘यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः। आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।३.१७।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ जो मनुष्य अपने-आपमें ही रमण करनेवाला और अपने-आपमें ही तृप्त तथा अपने-आपमें ही संतुष्ट है, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है। || ३८ ||
समाधिर्वाऽथ कर्तव्यो न कर्तव्य इतीह वा । यदि मन्येत वैदेहीं न मुक्तिं प्राप्तवांस्तु सः ॥५.३९॥
यदि कोई यह मानता है कि समाधि को प्राप्त करना है या प्राप्त नहीं करना है, तो उसने विदेहमुक्ति प्राप्त नहीं की है | अरे बाबा ज्ञान तो जैसा समाधि में है बैसा ही विक्षेप में है | ज्ञान अखंड एक सीताबर। ‘‘कर्तव्यदुःखमार्तण्डज्वालादग्धान्तरात्मनः। कुतः प्रशमपीयूषधारासारमृते सुखम्।।१८.३।।’’ अष्टावक्रगीता || मिथ्यारूप जो संकल्प विकल्प है उन को तुच्छ जानना ही संकल्पविकल्प का त्याग है, जैसे वंध्यापुत्र को मिथ्यारूप जान लेना ही उसका त्याग है क्योंकि मिथ्यारूप वस्तु का अन्य किसी प्रकार से त्याग नहीं हो सकता, इसी प्रकार नाना प्रकार के जो कर्म और उन कर्मों से उत्पन्न होनेवाले जो दुःख वही हुआ सूर्य की किरणों का अत्यंत तीक्ष्ण ताप उससे दग्ध हुआ है अंतःकरण जिसका ऐसे पुरुष को संकल्प विकल्प की शांतिरूप अमृतधारा की वृष्टि के बिना सुख कहां से हो सकता है ? || ३९ ||
पूर्वं बद्धोऽधुना मुक्तोऽस्म्यहमित्येव बन्धनात्। यदि मन्येत वैदेहीं न मुक्तिं प्राप्तवांस्तु सः ॥५.४०॥
यदि कोई मानता है कि मैं पहले बंध गया था, लेकिन अब बंधन से मुक्त हो गया हूँ , तो उसने विदेहमुक्ति प्राप्त नहीं की है | अष्टावक्रजी कहते हैं, ‘‘भवोऽयं भावनामात्रो न किञ्चित्परमार्थतः । नास्त्यभावः स्वभावानां भावाभावविभाविनाम् ॥१८.४॥’’ संसाररूपी विष को दूर करनेवाला होने के कारण संकल्पविकल्प की शान्ति हो जाना ही अमृतरूप है | यह संसार केवल एक भावना मात्र है,
परमार्थतः कुछ भी नहीं है | भाव और अभाव के रूप में स्वभावतः स्थित पदार्थों का कभी अभाव नहीं हो सकता | वास्तव में यह संसार केवल संकल्पमात्र है, वास्तवदृष्टि से एक आत्मा के सिवाय दूसरा कुछ नहीं है, यहां वादी शंका करता है कि भावरूप जो दृश्यमान जगत् है सो नष्ट होने के अनंतर अभावरूप शून्य हो जाता है, इस प्रकार तो शून्यवादी का मत सिद्ध होता है ? इस के उत्तर में श्रीगुरु अष्टावक्रजी कहते हैं, कि संकल्पमात्र जगत् के नाश होने के अनंतर सत्यस्वभाव आत्मा अखंडरूप से विराजमान रहता है, इस कारण संसार का नाश होने के अनंतर शून्य नहीं रहता है, किंतु उस समय निर्विकल्प केवलानंदरूप मुक्त आत्मा रहता है ॥१८.४॥ लिंग पुराण कहना है कि आत्मा की सत्ता नित्य स्वतन्त्र है “यच्चाप्नोति यदादत्ते यच्चात्ति विषयानिह । यच्चास्य सन्ततो भावस्तस्मादात्मेति कीर्त्त्यते ।। ७०.९६ ।। लिङ्गपुराणम् – पूर्वभागः/अध्यायः ७० ” (जो सुषुप्ति अवस्था में सबको व्याप्त करता है, जो स्वप्नावस्था संस्कारों के परिणाम को ग्रहण करता है, जो जाग्रत अवस्था में सम्पूर्ण विषयों का भोग करता है और जिसकी सदैव सत्ता बनी रहती है, उसको आत्मा कहा जाता है।) न हि कश्चित् प्रतीयात् नाहमस्मीति | इस दुनियां में ऐसा कोई नहीं है जो कह सके कि मैं नहीं हूँ। || ४० ||
पूर्वमप्यभवन्मुक्तो मध्ये भ्रान्तिस्तु बन्धवत्। यदि मन्येत वैदेहीं न मुक्तिं प्राप्तवांस्तु सः ॥५.४१॥
यदि कोई यह मानता है कि मैं पहले मुक्त था, लेकिन बीच में बंधे होने के भ्रम में फंस गया, तो उसे विदेहमुक्ति की प्राप्ति नहीं हुई है | ‘‘न दूरं न च संकोचाल्लब्धमेवात्मनः पदम् । निर्विकल्पं निरायासं निर्विकारं निरञ्जनम् ॥१८.५॥ अष्टावक्र गीता’’ यदि कोई प्रश्न करता है कि, संकल्पविकल्प की निवृत्ति होते ही आत्मा को अमृतत्व की प्राप्ति किस प्रकार हो जाती है ? तो कहते हैं कि आत्मस्वरूप दूर नहीं है किंतु सदा प्राप्त है; और परिपूर्ण है सदा संकल्पविकल्परहित है, निरायास अर्थात श्रम के बिना ही प्राप्त है, विकार जो जन्म और मृत्यु आदि हैं उनसे से रहित है और निरंजन अर्थात माया (अविद्या) रूप उपाधियों रहित है, जिस प्रकार कंठ में धारण की हुई मणि भूल से दूसरे स्थान में ढूंढने से नहीं मिलती है और विस्मृति के दूर होते ही कंठ में ही प्रतीत हो जाती है, उसी प्रकार अज्ञान से आत्मा दूर प्रतीत होता है परंतु ज्ञान होनेपर प्राप्त ही है। || ४१ ||
वन्ध्यापुत्रादिवत्सर्वं मय्यभूदसदित्यपि। यदि मन्येत वैदेहीं न मुक्तिं प्राप्तवांस्तु सः ॥५.४२॥
यदि किसी का मानना है कि यह ब्रह्मांड, एक बांझ महिला के बेटे की तरह काल्पनिक होने के नाते, मुझ में पैदा हुआ, तो उसे विदेहमुक्ति नहीं मिली है | मोह जनित माया के परिणाम स्वरूप शशशृंग, आकाश पुष्प, वंध्यापुत्र, मृग मरीचिका आदि के दृष्टांत दर्शन ग्रंथों में दिए जाते हैं | ‘‘पाषाणखण्डेष्वपि रत्नबुद्धिः कान्तेति धीः शोणित मांस पिण्डे | यस्त्वात्म बुद्धिः कुणपे त्रिधातुके जयत्यहो काचन मोह लीला ||’’ लोग पत्थर के टुकड़ों को हीरा समझते हैं-‘पाषाणखण्डेष्वपि रत्न बुद्धि:’। कामिनी के कमनीय कलेवर में रमणीय बुद्धि का होना और खून और मांस के पिण्ड को अपना समझते हैं-‘ कान्तेति धीः शोणितमांसविण्डे’।और खून मांस हड्डी की बनी स्त्री को अपनी भोग्या, सुखदायिका समझते हैं | और आत्मधी: तीन धातुओं से बने हुए जड़ शरीर में आत्मबुद्धि , ये कैसी लीला है भगवान ! आपकी-‘व्यक्ताऽसौ काचन मोह-लीला’ । || ४२ ||
आविद्यकं तमो ध्वस्तं स्वप्रकाशेन वा इति। यदि मन्येत वैदेहीं न मुक्तिं प्राप्तवांस्तु सः ॥५.४३॥
अथवा अगर कोई यह मानता है कि ज्ञान प्राप्त होने तक अज्ञान का अंधेरा रहा और बाद में स्वयं के (आत्मा के) प्रकाश से नष्ट हो गया, तो उसे विदेहमुक्ति की प्राप्त नहीं हुई है | जिनको दृश्य स्वरूप देह, इन्द्रिय ,प्राण , और अन्तःकरणादि में आत्मबुद्धि है उन्हें ही ज्ञान ,भक्ति कर्म और योग आदि साधनों की अपेक्षा होती है , संशय और भ्रान्ति की निवृत्ति होने के उपरान्त स्वरूपावस्थिति के लिए किसी प्रयत्न विशेष की आवश्यकता नहीं होती | ‘‘दृष्टो येनात्मविक्षेपो निरोधं कुरुते त्वसौ। उदारस्तु न विक्षिप्तः साध्याभावात्करोति किम् ॥१८.१७॥ अष्टावक्र गीता’’ अंतःकरण का विक्षेप जिस पुरुष के देखने में आता हो वह मन को वश में करने का उपाय करे और जो सर्वत्र एक ब्रह्मको ही देखता है, उस के तो विक्षेप है ही नहीं, उस को कुछ साधने योग्य नहीं होता है इस कारण वह कुछ साधन भी नहीं करता है | संस्कृत में ज्ञान शब्द की दो व्युत्पत्तियां हैं एक तो ज्ञायते अनेन इति ज्ञानम् और दूसरी है ज्ञप्तिर्ज्ञानम् {जानना मात्र} तो वेदान्त में पहली व्युत्पत्ति स्वीकार्य नहीं है दूसरी ही ग्राह्य है | ज्ञान शुद्ध होना चाहिये , इन्द्रिय , मन , बुद्धि आदि से मिश्रित नहीं | ऐसा ज्ञान ही आत्मा या ब्रह्म का स्वरूप है। || ४३ ||
स्वप्नेऽपि नाहंभावोऽस्ति मम देहेन्द्रियादिषु। यदि मन्येत वैदेहीं न मुक्तिं प्राप्तवांस्तु सः ॥५.४४॥
यदि कोई यह मानता है कि मेरे सपनों में भी मेरे शरीर या इंद्रियों में मुझे कोई अहंता का बोध नहीं है, तो उसने विदेहमुक्ति की प्राप्ति नहीं की है | ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं। देख ब्रह्म समान सब माहीं॥ ज्ञान तो उसे कहते हैं जहाँ किसी भी प्रकार की मान्यता नहीं होती क्योंकि मानना तो मन का धर्म है आत्मा का नहीं | देशमान , कालमान , वस्तुमान ये सब इन्द्रिय और विषय सापेक्ष हैं | सच्चा ज्ञान वह है, जहाँ (जिसमें) मान (मान्यता) आदि का एक भी (दोष) नहीं है और जो सर्वत्र समान रूप से ब्रह्म को देखता है | गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई॥ इंद्रियों के विषयों को और जहाँ तक मन जाता है, हे भाई! उन सबको माया जानना | ज्ञान के साधनों का वर्णन करते हुए श्री कृष्ण भगवान कहते हैं कि ‘‘अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्। आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः।।१३.८।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ सबसे पहले कहा कि अमानित्व अर्थात अपने में मानित्व-(अपनेमें श्रेष्ठताके भाव-) का न होना, अथवा किसी भी प्रकार की मान्यता का अभाव और दम्भित्व-(दिखावटीपन-) का न होना, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरुकी सेवा, बाहर-भीतरकी शुद्धि, स्थिरता और मनका वशमें होना आदि ज्ञान के साधन हैं। || ४४ ||
अरूपनष्टमनसो विदेहत्वं प्रकीर्त्यते। तत्कथं मन्यमानस्य यत्किंचित्स्यादनात्मनः ॥५.४५॥
विदेहता उसी के लिए कहा जाता है जो निराकार है और जिसका मन नष्ट हो गया है। यह कैसे कहा जा सकता है कि जो सोचता है कि आत्मा के अलावा भी कुछ और है? ‘‘अस्ति भाति प्रियं नाम रूपं चेत्यंशपञ्चकम् । आद्यं त्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपमथद्वयम् || २३ || सरस्वतीरहस्योपनिषत् ’’ (परम सत्ता के अस्ति = सत्,माने है मात्र और भाति = चित् , (प्रतीत होना) माने ज्ञान स्वरूप तथा प्रिय = आनन्द, का होना इसके अलाबा नाम और रूप ये कुल मिलाकर पाँच अंश हैं | इनमें से प्रथम तीन अंश ब्रह्म का रूप है, शेष दो अंश जगत् का (माया ,मोह का) रूप है।) नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी।। ये दोनों ही {नाम और रूप} अनिर्वचनीय हैं, अनादि हैं और सुंदर (शुद्ध भक्तियुक्त) बुद्धिसे ही इनका (दिव्य अविनाशी) स्वरूप जाननेमें आता है। || ४५ ||
मनो नश्यति निःशेषं मननस्य विसर्जनात्। अमनस्कस्वभावं तत्पदं तस्यावशिष्यते ॥५.४६॥
मानसिक गतिविधियों के त्याग से मन पूरी तरह से नष्ट हो जाता है | फिर उसके लिए क्या शेष रह गया ? केवल अमनस्कता की स्थिति, बिना दिमाग वाला स्वभाव मात्र जो कि सच्चिदानन्द स्वरूप है , वही केवल ब्रह्मपद उस विदेहमुक्त आत्मा के लिए शेष रहता है |योगवासिष्ठः में कहा है कि — ‘‘महोदयो मनोनाशो महोच्छेदस्य तूदयः | मनोनाशे प्रयत्नं त्वं कुरु मा मनसो जवे || ३९ || (उत्पत्तिप्रकरणम्)/सर्गः १०२’’ मन को वश में करना ही आत्मा के विशाल साम्राज्य में प्रवेश करना है, और यही साधना दुखों से मुक्ति दिलाती है, इसलिए अपने मन को संयमित करने का प्रयास करो, न कि उसे खुला घूमने की छुट्टी। || ४६ ||
मननेन विनिश्चित्य वैदेहीं मुक्तिमात्मनः। नैष्कर्म्यसिद्धिं वदतां का तृप्तिरविवेकिनाम् ॥५.४७॥
जो अज्ञानी पुरुष मानसिक रूप से स्वयं को विदेहमुक्त मानते हैं और इच्छा-रहित कर्मों की प्राप्ति की घोषणा करते हैं, वे किस तृप्ति या संतोष (स्वयं का अनुभव कर सकते हैं) को प्राप्त कर सकते हैं? अर्थात अविवेकी पुरुष को कभी भी परिपूर्ण आत्मतृप्ति का अनुभव नहीं हो सकता | आत्मा तो सर्व द्रष्टा है | ज्ञान का भी द्रष्टा है और ज्ञानाभाव का भी द्रष्टा है | ‘‘धन्योऽहं धन्योऽहं नित्यं स्वात्मानमञ्जसा वेद्मि।। धन्योऽहं धन्योऽहं ब्रह्मानन्दो विभाति मे स्पष्टम्॥ ||२९|| धन्योऽहं धन्योऽहं दुःखं सांसारिकं न वीक्षेऽद्य। धन्योऽहं धन्योऽहं स्वस्याज्ञानं पलायितं क्वापि॥ ||३०|| धन्योऽहं धन्योऽहं कर्तव्यं मे न विद्यते किंचित्। धन्योऽहं धन्योऽहं प्राप्तव्यं सर्वमत्र संपन्नम्॥ ||३१|| धन्योऽहं धन्योऽहं तृप्तेर्मे कोपमा भवेल्लोके। धन्योऽहं धन्योऽहं धन्यो धन्यः पुनः पुनर्धन्यः ॥ ||३२|| अवधूतोपनिषद् ’’ धन्योऽहं कृतकृत्योऽहं विमुक्तोऽहं भवग्रहात् । नित्यानन्दस्वरूपोऽहं पूर्णोऽहं त्वदनुग्रहात् || ४८९|| विवेकचूडामणिः || जब ज्ञान हो जाता है तब इस प्रकार तृप्ति के उद्गार निकलते हैं कि अब धन्य हूँ मैं, अपने जीवन की पूर्णता तक पहुँच गया हूँ और संसार रूपी ग्राह (मगर) के जबड़े से मुक्त हूँ। मैं शाश्वत आनंद का अवतार हूं | हे श्री गुरुदेव ! आपकी कृपा से मैं अनंत हूं | अपने को परिच्छिन्न भी मानना और मुक्त भी मानना संभव नहीं है |यह तो घड़े में थाली ढूँढने के समान है। || ४७ ||
श्रुत्वा वेदान्तवाक्यानि मोदन्तेऽनुभवं विना। लीढेन ताडपत्रेण गुडाक्षरयुतेन किम् ॥५.४८॥
वे स्वयं के किसी भी अनुभव के बिना, वेदांत संबंधी कथन सुनकर आनन्दित होते रहते हैं। ताड़ के पेड़ की चीनी-लेपित पत्तियों को चाटने से क्या फायदा होता है? अर्थात ताड़वृक्ष के पत्तों पर गुड़ से तत्वमस्यादि वाक्य लिख कर चाटने से ब्रहमानुभूति नहीं होती | | शंकराचार्य भगवान ने वेदान्तार्थ को सात भागों में विभक्त किया है १ पहला है अधिकारी, अधिकारी कौन है इस बात का निर्णय वेदान्त के द्वारा ही होना चाहिए , मनमानी नहीं | शान्त हो, दान्त हो, उपरत हो, तितिक्षु हो ,श्रद्धालु हो और समाहित हो तब वह अधिकारी होता है | २ गुरूपसदन, दूसरी बात है गुरुपसत्ति | जहाँ बुद्धि का अभिमान होगा वहाँ बुद्धि की पुष्टि होगी | अभिमान निरास पूर्वक जो अद्वैत तत्व का बोध होता है वह नहीं होगा | ये जो बुद्धि का अभिमान है वह अद्वैतत्व के बोध में वाधक है | अभिमान का अर्थ ही होता है अपने को छोटा बना लेना | अभिमान का नाम ज्ञान नहीं है इस बात को दृढ़ता से समझ लेना चाहिए | {अभितो मानः इति अभिमानः} जैसे अपने को साढ़े तीन हाथ के घेरे में बंद करलेना इस प्रकार लम्बाई,चौड़ाई का घेरा और फिर इसीप्रकार उमर का घेरा और बजन का घेरा , जब मान होगया , तौल होगई और उसीको आपने अपना आपा समझ लिया तो अभिमान होगया | अभिमान माने चारों ओर से घेरा बनाने वाला पदार्थ और ब्रह्म इसके विपरीत अनन्त है | जब विषय के सम्बन्ध में विचार करना होता है तब बुद्धि काम आती है परन्तु बौद्धा की परीक्षा में बुद्धि अखीर तक साथ नहीं देती | बौद्धा , बुद्धि और बोध्य अथवा प्रमाता ,प्रमाण और प्रमेय की त्रिपुटी को छोड़कर जो वस्तु है सो ब्रह्म है | अपरिच्छिन्नता कभी भी प्रमाता का विषय नहीं बन सकती, ज्ञानस्वरूप साक्षी हमेशां अखण्ड रहता है | अपरिच्छिन्नता का बोध कभी भी विषयत्वेन नहीं होता | इसलिए ‘‘तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ॥’’ उस ‘परतत्त्व’ के ज्ञान के लिए वह (जिज्ञासु) हाथ में समिधा धारण करके वेदविद् (श्रोत्रिय) एवं ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाये । ३ वेदान्त का तीसरा पदार्थ है पदार्थद्वय {जीव पद वाच्यार्थ क्या है और ईश्वर पद वाच्यार्थ क्या है} व्यष्टिदेश, व्यष्टिकाल, व्यष्टिशरीर इसमें जो चैतन्य है उसको जीब कहते हैं | समष्टिदेश , समष्टिकाल और समष्टिवस्तु में जो चैतन्य है उसको ईश्वर कहते हैं | व्यष्टि समष्टि के भावाभाव में यह चैतन्य एक रहता है | इस प्रकार तत् , त्वं पदार्थ के वाच्यार्थ का निर्णय ये वेदान्त तीसरा प्रसङ्ग है | इस प्रकार पदार्थद्वय यह तीसरा विषय है। ४ चौथा विषय है तदैक्य |[तयोः ऐक्यं तदैक्यं] तदैक्य माने जो सन्मात्रवस्तु,ज्ञानमात्रवस्तु,आनन्दमात्रवस्तु है वह एक है | इस प्रकार तदैक्य शब्द से अद्वय तत्व की एकता बताई जाती है | ५ पाँचवां विषय है विरोधपरिहार अर्थात जहाँ श्रुतियों में परस्पर विरोध है उसको हटाना जैसे कि ‘‘द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते । तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥ १ ॥॥ मुण्डकोपनिषत् ॥’’ यह श्रुति स्पष्ट ही अद्वैत के विरुद्ध मालुम पड़ती है तो वहाँ भोक्ता और अभोक्ता के भेद से भोक्ता अंश में एकत्व नहीं है अभोक्तृत्व में ही ऐक्य है | इस प्रकार स्थान-स्थान पर विरोध परिहार करना | ६ छठा है साधन तत्वमस्यादि वाक्यजन्य वृत्ति ही साक्षात् साधन है | अविद्या को निवृत्त करके ब्रह्माकार वृत्ति करना ही साधन है | ७ सातवां है फल, मोक्ष ही फल है जीवन काल में अखण्ड , अनन्त स्वातन्त्र्य ही वेदान्त का फल है | इन सात बातों का ख़याल रखने से ठीक-ठीक वेदान्तार्थ का निर्णय हो जाता है | यह ब्रह्मज्ञान ही परम पुरुषार्थ है | कहते तो हैं कि हम राम के दास हैं और सेवा, स्मरण, और चिन्तन करते हैं काम, दाम,और चाम का तो उन्हें कभी भी तृप्ति ,सुख और सन्तोष प्राप्त नहीं हो सकता | काम फिल्मी गाना है जो बच्चों को पसन्द आता है और राम शास्त्रीय संगीत है | ‘‘यत् पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः । न दुह्यन्ति मनःप्रीतिं पुंसः कामहतस्य ते ॥ १३ ॥ न जातु कामः कामानां उपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ॥ १४ ॥श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ९/अध्यायः १९’’ इस संसार का सारा अन्न, सारा स्वर्ण, सारी स्त्रियाँ भी एक मनुष्य की तृप्ति के लिए पर्याप्त नहीं हैं, जो कामनाओं के प्रहार से जर्जर हो रहा है उसे कोई तृप्त नहीं कर सकता है | भोग करने से कभी भी कामवासना शान्त नहीं होती है, परन्तु जिस प्रकार हवनकुण्ड की जलती हुई अग्नि में घी आदि की आहुति देने से अग्नि और भी प्रज्ज्वलित हो जाती है वैसे ही कामवासना भी और अधिक भडक उठती है | मनुष्य बूढ़ा होता है इच्छाएं नहीं | जीर्यन्ते जीर्यत: केशाः दन्ताः जीर्यन्ति जीर्यत: | चक्षु: श्रोत्रे च जीर्येते, तृष्णैका तरुणायते || वाल बूढ़े हो जाते हैं , दांत भी बूढ़े होते हैं , आँख और कान भी बूढ़े होते हैं पर एक तृष्णा ही है, जो निरन्तर तरुण होती रहती है। || ४८ ||
स्वानुभूतिं विना शास्त्रैः पंडिताः समलंकृताः। कचहीनेव विधवा भूषणैर्भूषितोत्तमैः ॥५.४९॥
जिन पंडितों ने वास्तव में स्वयं का अनुभव किए बिना विभिन्न शास्त्रों को पढ़ा है और जो अनेक विद्याओं से विभूषित हैं , वे एक ऐसी विधवा की तरह हैं जो उत्कृष्ट आभूषणों से सजी हैं लेकिन जिनका सिर मुंडा हुआ है | यहाँ यह संकेत करना आवश्यक प्रतीत होता है कि स्वानुभूति और मन को वश में करने के चार उपाय योगवाशिष्ठ आदि शास्त्रों में बताये गए हैं यथा :-‘‘अङ्कुशेन विना मत्तो यथा दुष्टमतङ्गजः । अध्यात्मविद्याधिगमः साधुसंगतिरेव च ॥ ४४॥ वासनासम्परित्यागः प्राणस्पन्दनिरोधनम् । एतास्ता युक्तयः पुष्टाः सन्ति चित्तजये किल ॥ ४५॥ मुक्तिकोपनिषत्’’ जिस प्रकार मदमत्त हाथी अङ्कुश के बिना दूसरे उपाय से वश में नहीं होता, उसी प्रकार पवित्र युक्ति के बिना मन वश में नही होता। १. अध्यात्म-विद्या की प्राप्ति, २. साधु-संगति, ३. वासना का सर्वथा परित्याग और ४. प्राणस्पन्दन का निरोध – ये चार ही युक्तियाँ चित्त पर विजय पाने के लिये निश्चितरूप से दृढ़ उपाय हैं | इनसे तत्काल ही चित्तपर विजय प्राप्त हो जाती है और साधक को परमतत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है। || ४९ ||
स्वानुभूतिं विना कर्माण्याचरन्त्यखिलान्यपि। स्वर्णायःकुम्भकारादितुल्या एवोपवीतिनः ॥५.५०॥
जिन लोगों को पवित्र-सूत्र {यज्ञोपवीत} (उनकी ब्राह्मणता का प्रतीक) के साथ निवेश किया जाता है, लेकिन वे स्वयं का अनुभव किए बिना सभी {श्रौत-स्मार्त} कार्यों को करते हैं, तो वे एक सुनार, लुहार या कुम्भार आदि की तरह होते हैं (जो कि निम्न जाति के होते है) | कलियुग का वर्णन करते हुए तुलसीदास जी कहते हैं कि ”शूद्र द्विजन्ह उपदेशहि ज्ञाना। मेलि जनेऊ लेहि कुदाना।।”अर्थात क्षुद्र एवं नीच कर्म करने वाले पापाचारी दुष्ट बुद्धि लोग विद्वानो एवं सन्तों समान पुरुषो को ऊँचे आसन पर बैठकर उपदेश का पाठ पढायेगें। तथा जबरदस्ती जनेऊ पहन कर दान-दक्षिणा वसूलेगें | ‘‘बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि। जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि।।९९(ख)।।उत्तरकाण्ड ’’ (ब्रह्म) शब्द तो कोई भी बोल सकता है परन्तु ब्रह्मतत्व अनन्त होने से और दृश्य न होने से ज्ञेय कोटि में कभी नहीं आता। || ५० ||
स्वानुभूतिं विना वेदान्पठन्ति विविधा द्विजाः। प्रावृण्णिशायां परितो मण्डूका इव दुस्स्वराः ॥५.५१॥
श्रोत्रिय होने के साथ साथ ब्रह्मनिष्ठ होना भी आवश्यक है , इस बात को स्पष्ट करते हैं | वे ब्राह्मण जो स्वयं का अनुभव किए बिना वेदों का पाठ करते हैं, वे बहुत अधिक संख्या में होते हैं, जो कि दर्दनाक टर्र टर्र की आबाज मेंढकों के जैसी छोड़ते रहते हैं, जैसे मेंढक बरसात की रातों में चारों ओर बिखर जाते हैं और बहुत शोरगुल मचाते हैं | ‘‘रूप-यौवन-सम्पन्ना विशाल-कुल-सम्भवाः | विद्या-हीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ||३८||हितोपदेशः’’ अर्थात् (जो लोग) सुंदर रूप, युवावस्था से युक्त, ऊँचे कुल में उत्पन्न हैं परन्तु विद्या से हीन हैं (वे) बिना सुगंध वाले पलाश के फूल के समान शोभा नहीं पाते हैं | प्रश्नोत्तर रत्नमालिका में आचार्य शंकर कहते हैं कि — कः पथ्यतरः ? धर्मः, कः शुचिरिह ? यस्य मानसं शुद्धम् । कः पण्डितः ? विवेकी, किं विषम् ? अवधीरणा गुरुषु ॥ अर्थात् कल्याणकारी क्या है ? धर्म या अपने लिए विहित कर्तव्य । इस लोक में पवित्र कौन है ? जिसका मन शुद्ध हो । विद्वान कौन है ? जो सत्य असत्य का ज्ञान रखता है । विष क्या है ? गुरुओं का अपमान करना अर्थात् उनकी बात का तिरस्कार करना। || ५१ ||
स्वानुभूतिं विना देहं बिभ्रत्यध्यासदार्ढ्यतः । शाकल्यस्य मृतं देहं धनबुद्ध्येव तस्कराः ॥ ५.५२ ॥
जिन लोगों की अपने शरीर के साथ एक पुख्ता पहचान होती है | {अर्थात केवल शरीर को ही मैं समझते हैं} और वे स्वयं का अनुभव किए बिना अपने शरीर को ढोते रहते हैं, वे उन लुटेरों की तरह हैं, जिन्होंने धन के लिए भूल से शाकल्य के मृत शरीर को धन समझा | ‘‘देहं मनोमात्रमिमं गृहीत्वा ममाहमित्यन्धधियो मनुष्याः । एषोऽहमन्योऽयमिति भ्रमेणदुरन्तपारे तमसि भ्रमन्ति ॥ ११.२३.५०॥ श्रीमद्भागवतम् || जो व्यक्ति इस शरीर के साथ तादात्म्य रखते हैं, जो कि केवल भौतिक मन की उपज है, वे अपनी बुद्धि में अंधे हो जाते हैं, ऐसे मनुष्य केवल “मैं” और “मेरा” के संदर्भ में ही सोचते हैं। “यह मैं हूं, लेकिन यह कोई और है” इस के भ्रम के कारण, वे अंतहीन अंधेरे में भटकते हैं | पञ्चभूत भी सब में एक हैं और चैतन्य भी सब में एक है तो फिर यह भेद कहाँ से आगया ? ।|| ५२ ||
स्वानुभूतिं विना ध्यानं कुर्वन्त्यासनसंयुताः। बका इवांभसस्तीरे मत्स्यवंचनतत्पराः ॥५.५३॥
जो लोग आत्मानुभूति के बिना एक आसन जमाकर बैठे हैं, और वे लोकवंचक स्वयं का अनुभव किए बिना ध्यान का अभ्यास करते हैं, वे लोग नदी किनारे खड़े बगुले की तरह हैं जो मछलियों को पकड़ने का इरादा रखते हैं | आत्मानुभूति के लिए विचार की आवश्यकता होती है न कि ध्यान की | क्योंकि ध्यान तो किसी दुसरे का किया जाता है | ‘‘काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः। मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः।।१६.१०।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ दम्भ, मान और मद से युक्त कभी न पूर्ण होने वाली कामनाओं का आश्रय लिये, मोहवश मिथ्या धारणाओं को ग्रहण करके ये अशुद्ध संकल्पों के लोग जगत् में कार्य करते हैं। || ५३ ||
स्वानुभूतिं विना श्वासान्निरुन्धन्ति हठात्सदा। अयस्कारोऽनिलं बाह्यं द्रुतिकायामिवाधिकम् ॥५.५४॥
जो लोग स्वयं को अनुभव किए बिना हमेशा अपनी सांस को जबरदस्ती नियंत्रित करते हैं, वे एक ऐसे लुहार की तरह हैं जो अपनी धौंकनी की गर्म हवा से धातु की बाहरी सतह को तो अत्यधिक पिघला देता है (जबकि धौंकनी के अंदर अभी भी कठोरता है) | ‘‘चित्तादिसर्वभावेषु ब्रह्मत्वेनैव भावनात् । निरोधः सर्ववृत्तीनां प्राणायामः स उच्यते ॥ ११८ ॥ अपरोक्षानुभूति ’’ चित्त जैसी सभी मानसिक अवस्थाओं को केवल ब्रह्म मानकर मन की सभी वृत्तियों को रोकना ही असली प्राणायाम कहलाता है | चरतां सर्वतोऽसूनामेकदेशे तु धारणम् ।। गुरूपदिष्टरीत्यैव प्राणायामः स उच्यते ।। १४ ।। चले वायौ चलं चित्तं स्थिरे तस्मिन्स्थिरं ततः ।। सुदेशेऽयं सदाऽभ्यस्यः पूरकुम्भकरेचकैः ।। १५ ।। स्कन्दपुराणम् (वैष्णवखण्डः) अध्यायः ३० || शरीर शुद्धि अथवा नाड़ी शुद्धि के लिए हठयोग वाला प्राणायाम भी लाभकारी है | चले वाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत्। योगी स्थाणुत्वम् आप्नोति ततो वायुं निरोधयेत्॥ हठ प्रदीपिका-२.२॥ प्राणों के चलायमान होने पर चित्त भी चलायमान हो जाता है और प्राणों के निश्चल होने पर मन भी स्वत: निश्चल हो जाता है और योगी स्थाणु हो जाता है। अतः योगी को श्वांसों का नियंत्रण करना चाहिये। || ५४ ||
स्वानुभूतिं विना योगदण्डपट्टादिधारिणः। जीर्णकन्थाभरं भग्नदंडभांडादि पित्तवत् ॥५.५५॥
आत्मज्ञान हुए बिना ही जो एक योगदण्ड को वहन करता है और (योगपट्ट) संन्यासियों के नाम को धारण करता तथा स्व के अनुभव के बिना सन्तों के वेश को धारण करता है, वह एक बीमार स्वभाव के व्यक्ति की तरह है, जो अपने कंधों पर फटे हुए कपड़े पहने हुए है, और एक टूटा हुआ डंडा और फूटा हुआ बर्तन (भिक्षापात्र) लिए हुए घूमता है | शंकराचार्य जी भज गोविन्दंस्तोत्र में कहते हैं कि -‘‘जटिलो मुण्डी लुञ्छितकेशः काषायाम्बरबहुकृतवेषः । पश्यन्नपि च न पश्यति मूढः उदरनिमित्तं बहुकृतवेषः ॥१४॥’’ बड़ी बड़ी जटाएं, केश रहित सिर, बिखरेहुए नोंचेहुए बाल, काषाय (भगवा) वस्त्र और भांति भांति के वेश ये सब अपना पेट भरने के लिए ही धारण किये जाते हैं, अरे मोहित मनुष्य तुम इसको देख कर भी क्यों नहीं देख पाते हो | – ‘‘रथ्याकर्पटविरचितकन्थः पुण्यापुण्य- विवर्जितपन्थः । नाहं न त्वं नायं लोकस्तदपि किमर्थं क्रियते शोकः ॥१६॥ भजगोविन्दं …’’ अर्थ – रास्ते में पड़े चिथड़ों से बनी झोली या गुदड़ी से काम चला लिया, पुण्य-अपुण्य से परे विशेष जीवन-मार्ग अपना लिया, न मैं हूं, न तुम हो, न ही यह संसार है यह जान लिया, तब फिर भी किस बात शोक किया जाये | उपर्युक्त कथन उस व्यक्ति के संदर्भ में है जो संन्यास के मार्ग पर चल निकला हो | ऐसा व्यक्ति मार्ग में यानी आम जन से जो कुछ भी पा जाए उसी से काम चलाता है | चिथड़ों से बनी झोली या गुदड़ी से आशय है संसाधनविहीन जीवन को अविचलित भाव के साथ जीने से लिया जा सकता है | “पुण्यमय एवं अपुण्य से रहित मार्ग अपनाया हो जिसने” ऐसे वीतराग से अपेक्षा की जाती है कि संन्यासी पापमार्ग से बचा रहे | उसे जीवन की नश्वरता का ज्ञान जब हो जाता है तब उसे किसी प्रकार की हानि का भय नहीं रह जाता है। || ५५ ||
स्वानुभूतिं विना यद्यत्कुर्वन्ति भुवि मानवाः। तत्तत्सर्वं वृथैव स्यान्मरुभूमौ कृषिर्यथा ॥५.५६॥
आत्मा का अनुभव किए बिना दुनिया में पुरुष जो भी कार्य करते हैं, वह सब एक रेगिस्तान में खेती करने की तरह पूरी तरह से व्यर्थ है | आत्मानुभूति के साधन के रूप में कुछ बातें श्रीमद्भागवत पुराण में बताई गयी हैं जैसे कि — ‘‘वाचं यच्छ मनो यच्छ प्राणान् यच्छेन्द्रियाणि च । आत्मानमात्मना यच्छ न भूय: कल्पसेऽध्वने ॥ ४२ ॥ यो वै वाङ्मनसी सम्यक् असंयच्छन् धिया यतिः। तस्य व्रतं तपो ज्ञानं स्रवत्यामघटांबुवत् ||४३ || श्रीमद्भागवतपुराणम्-स्कन्धः ११ अध्यायः १६ ’’ इसलिए वाणी, मन, प्राण, इंद्रियाँ, इनका निरोध करो | आत्मशक्ति से अपना संयम करो | फिर आप आवागमन अर्थात पुनः जन्म-मरण के चक्र में नहीं फंसेगे | जो यति बुद्धि से अपनी वाणी और मन का भलीभाँति निरोध नहीं करता, उसके व्रत, तप, ज्ञान (मिट्टी के) कच्चे घड़े में स्थित पानी की तरह चू जाते हैं | ‘‘यच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञान आत्मनि। ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेत्तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि ॥१३॥ कठोपनिषद् अध्याय १ वल्ली ३’’ प्रज्ञावान् व्यक्ति अपनी वाणी को मन में नियन्त्रित रखे, उस मन को ज्ञानस्वरूप आत्मा में (अथात् बुद्धि में) नियन्त्रित रखे तथा ज्ञान को ‘महान् आत्मा’ में ( अर्थात् समष्टि बुद्धि में) नियन्त्रित रखे और उसे पुनः उस ‘आत्मा’ में नियन्त्रित रखे जो शान्त-स्वरूप है। अर्थात् ब्रह्म में) । || ५६ ||
स्वानुभूत्यर्थकं कर्म निकृष्टमपि सर्वथा। उत्तमं विबुधैः श्लाघ्यं श्वेव चोरनिवर्तकाः ॥५.५७॥
आत्मा का अनुभव करने के लिए किए गए कार्य, भले ही वे निम्न-श्रेणी के हों, वास्तव में उत्कृष्ट और बुद्धिमानों द्वारा सम्मानित होते हैं, क्योंकि वे उस कुत्ते की तरह हैं जो चोर को दूर रखते हैं | यद्यपि ज्ञानमार्ग , भक्तिमार्ग , विवेक , वैराग्य शमादि षट्सम्पत्ति उत्तम साधन हैं तथापि जिसकी देहबुद्धि स्थिर है उसके लिए तो भगवान कृष्ण गीताजी में बहुत ही सरल उपाय कहते हैं कि ‘‘तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ। पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।३.४१।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ इसलिये हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! तुम सबसे पहले इन्द्रियोंको वशमें करके इस ज्ञान और विज्ञानका नाश करनेवाले महान् पापी इस कामरूप शत्रु को नष्ट करो | यहाँ तक कि — मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् | बलवन्निन्द्रियग्रामा विद्वांसमपि कर्षति ||- मनुस्मृति (२/२१५ ) माता, भगिनी (बहिन) पुत्री तक के साथ में एकान्त स्थान में अथवा एक ही आसन पर कदापि न बैठे, क्योंकि इन्द्रियां अत्यन्त प्रबल होती हैं और वे विवेकी , ज्ञानीजनों के मन को भी सहज ही अपने वश में कर लेने में समर्थ हैं | इसलिए शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः॥२.३२॥ बाह्य एवं अंत:स्वच्छता संतुष्टि तप स्वाध्याय और ईश्वर-शरणागति – ये पाँच नियम हैं | तावज्जितेन्द्रियो न स्याद् विजितान्येन्द्रिय: पुमान् | न जयेद् रसनं यावद् जितं सर्वं जिते रसे ||श्रीमद्भागवत ११|८|२१ जब तक मनुष्य अपने विविध आहारों के उपर स्वनियंत्रण नही रखता तब तक उसने सब इन्द्रियों के उपर विजय पायी है ऐसा नही बोल सकते | आहार के उपर स्वनियंत्रण यही सब से आवश्यक बात है। || ५७ ||
स्वानुभूत्युपयुक्तेभ्य इतराणि बहून्यपि। कर्मादीन्याचरन्मर्त्यो भ्रान्तवद्व्यर्थचेष्टितः ॥५.५८॥
एक व्यक्ति जो स्वयं के अनुभव के लिए उपयुक्त प्रयत्न नहीं करता है, उसके अलावा विभिन्न कार्यों को करता है, वह एक भ्रान्त व्यक्ति के समान इधर-उधर भटक रहा है और अपने प्रयासों को बर्बाद कर रहा है | ‘‘भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः । कालो न यातो वयमेव याता स्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ॥ ७॥ वैराग्यशतकम्’’ भोगों को हमने नहीं भोगा, बल्कि भोगों ने ही हमें ही भोग लिया । तपस्या हमने नहीं की, बल्कि हम खुद तप गए । काल (समय) कहीं नहीं गया बल्कि हम स्वयं चले गए । इस सभी के बाद भी मेरी कुछ पाने की तृष्णा नहीं गयी (पुरानी नहीं हुई) बल्कि हम स्वयं जीर्ण हो गए। || ५८ ||
श्रुतिस्मृतिपुराणेषु काम्यकर्माण्यनेकधा। प्रोच्यन्ते तेषु संसक्तस्त्याज्यः शिष्टैर्विटो यथा ॥५.५९॥
सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए वेदोंमें तथा स्मृतिकारों द्वारा और पुराणों में अनेक प्रकार के काम्यकर्मों का वर्णन किया गया है और कई संस्कारों के विधानों उल्लेख है | जो भोग और ऐश्वर्य की प्राप्ति से जुड़ा है | उन कर्मकाण्डों में जो अत्यन्त आसक्त चित्त वाला है उसे वैसे ही छोड़ देना चाहिए जैसे भौतिकवादी (देहात्मवादी) आदमी को ब्रह्मात्मवादी (शिष्ट, ज्ञानीपुरुष, विद्वानपुरुष) छोड़ देते हैं | ‘‘भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्। व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।२.४४।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ वेदों की उस पुष्पित वाणीसे जो कि रागी लोगों को उद्देश्य में रखकर कही गयी है उस कर्मकाण्डात्मक वाणी द्वारा जिसका अन्तःकरण हर लिया गया है अर्थात् भोगोंकी तरफ खिंच गया है और जो भोग तथा ऐश्वर्यमें अत्यन्त आसक्त हैं, उन मनुष्यों के अन्तकरण में परमात्मा में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती | अर्थात वे ध्यान का अभ्यास करने योग्य नही होते | ‘‘आशा नाम नदी मनोरथजला तृष्णातरङ्गाकुला रागग्राहवती वितर्कविहगा धैर्यद्रुमध्वंसिनी । मोहावर्तसुदुस्तरातिगहना प्रोत्तुङ्गचिन्तातटी तस्याः पारगता विशुद्धमनसो नन्दन्ति योगीश्वराः ॥ १०॥वैराग्यशतकम्’’ आशा नाम की एक नदी है मनोरथरूपी जल जिसमें भरा है, तृष्णा जिसकी लहरें है, रागद्वेष जिसके मगर और घडियाल है, अपने अनुकुल और प्रतिकूल होनेवाले पदार्थों के निर्णय करने के विचयारधारा रूपी वितर्क ही जिस पर पक्षी के रूप में विचर रहे है, जिसका प्रवाह धैर्य रूपी वृक्ष को गिरा रहा है, मोह रूप भँवर से जो अत्यन्त खतरनाक और अति कठिन है और बड़ी- बड़ी चिन्तायें जिसके तट हैं, ऐसी नदी के पार गये हुए शुध्दान्तःकरण वाले योगिराज ही परमानन्द को प्राप्त होते हैं। || ५९ ||
काम्यकर्मसमासक्तः स्वनिष्ठां स्वस्य मन्यते। जात्यन्धः स्वस्य रत्नादिपरीक्षादक्षतामिव ॥५.६०॥
काम्यकर्मों में अच्छी तरह डूबा हुआ व्यक्ति और अपनी भौतिक इच्छाओं की पूर्ति में लीन रहने वाला व्यक्ति उच्च सम्मान में अपनी पहचान रखता है, जैसे जन्म से अंधा पैदा हुआ आदमी रत्न आदि की परीक्षा में अपनी कुशलता दिखाए और उन्हें धारण करने में अपनी विशेषज्ञता और उच्च सम्मान में प्रतिष्ठा प्राप्त करनेके सपने देखता हो | ‘‘अवश्यं यातारश्चिरतरमुषित्वापि विषया वियोगे को भेदस्त्यजति न जनो यत्स्वयममून् । व्रजन्तः स्वातन्त्र्यादतुलपरितापाय मनसः स्वयं त्यक्ता ह्येते शमसुखमनन्तं विदधति ॥ १२॥ वैराग्यशतकम् ||’’ चिरकाल तक भोग किए विषय एक न एक दिन अवश्य ही भोगनेवाले को छोड़ते है, तब यदि उन्हें स्वयं ही छोड दिया जाय तो क्या हानि? फिर भी इनको हम छोड़ने को तैयार नहीं | मनुष्यों को चाहिए कि वे उनको स्वयं छोड़ दें | क्योंकि अपनी इच्छा से विषयों का त्याग करने पर अत्यन्त सुख प्राप्त होता है और यदि विषयों ने हमें छोड़ा तो बड़ा सन्ताप होता है। || ६० ||
अवशेन्द्रियमात्मार्थगुरुबुद्ध्यैव सेवते। बालातन्तुसुतं लोकेऽगणितं भुक्तये यथा ॥५.६१॥
यदि आत्मज्ञान का इच्छुक व्यक्ति, एक ऐसे शिक्षक की सेवा करता है , जिसकी इंद्रियाँ उसके नियंत्रण में नहीं हैं, तो वह पीने के उद्देश्य के लिए एक युवा तने से जिसमें बहुत कम मात्रा में सोम का रस निकलता है उससे अनन्त तृप्ति प्राप्त करने की इच्छा के समान है | मतलब छोटे आदमी का सँग नहीं करना चाहिए , बड़े आदमी की ही सङ्गति करनी चाहिए | ‘‘हीयते हि मतिस्तात हीनैः सह समागमात् । समैश्च समतां एति विशिष्टैश्च विशिष्टताम् ॥४१॥हितोपदेशः’’ हीन लोगों की संगति से अपनी भी बुद्धि हीन हो जाती है, समान लोगों के साथ रहने से समान बनी रहती है और विशिष्ट लोगों की संगति से विशिष्ट हो जाती है। धीरे धीरे आगे बढ़ना चाहिए । || ६१ ||
यस्तु वश्येन्द्रियं शान्तं निष्कामं सद्गुरुं सदा। स्वात्मैकरसिकं मुक्त्यै स धीमानुपगच्छति ॥५.६२॥
लेकिन जो एक ऐसे अच्छे शिक्षक (सद्गुरु) की सेवा करता है, जिसकी इंद्रियां हमेशा उसके नियंत्रण में रहती हैं, जो शान्त चित्त वाला है, किसीभी प्रकार की इच्छा से रहित और हमेशा स्वयं के आनंद में लीन रहता है, ऐसा वह बुद्धिमान साधक मुक्ति की ओर अग्रसर होता है।
‘‘ऐङ्कार ह्रीङ्कार रहस्य युक्त श्रीङ्कार गूढार्थमहाविभूत्या॥ ओङ्कार मर्म प्रतिपादिनीभ्यां नमो नमः श्री गुरुपादुकाभ्याम्॥२॥ गुरुदेव “ऐंकार” रूप से युक्त हैं, जो कि साक्षात् सरस्वती के पुंज हैं, गुरुदेव ”ह्रींकार” युक्त हैं, एक प्रकार से देखा जाये तो वे पूर्णरूपेण सूर्यरूपा भुवनेश्वरीविद्या से युक्त हैं, गुरुदेव ”श्रींकार” युक्त हैं, जो संसार के समस्त वैभव, सम्पदा और सुख से युक्त हैं, जो सही अर्थों में स्वाराज्यलक्ष्मी की महान विभूति हैं, मेरे गुरुदेव “ॐ” शब्द के रहस्य मर्म को समझाने में समर्थ हैं, वे अपने शिष्यों को भी उच्च कोटि कि साधना सिद्ध कराने में सहायक हैं, ऐसे गुरुदेव के चरणों में लिपटी रहने वाली ये पादुकाएं साक्षात् गुरुदेव का ही विग्रह हैं, इसीलिए मैं इन पादुकाओं को श्रद्धा – भक्ति से युक्त होकर प्रणाम करता हूँ | ‘‘अनन्त संसार समुद्र तार नौकायिताभ्यां स्थिरभक्तिदाभ्याम्। जाड्याब्धि संशोषण वाडवाभ्यां नमो नमः श्री गुरुपादुकाभ्याम्॥५॥’’ इस संसार रूपी अनंत समुद्र को गुरुजी भक्ति रूपी नौका से पार करने योग्य बनाने वाले हैं और अमूल्य वैराग्य के साम्राज्य की राह दिखाने वाले गुरु की चरणपादुकाओं को बारम्बार नमस्कार है | ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम्। मन्त्रमूलं गुरोर्वाक्यं तस्मै श्रीगुरवे नमः॥७६॥ गुरुगीता’’ ध्यान का आधार गुरुदेव की मूर्ति है, पूजा का आधार गुरुदेव के श्रीचरण हैं, गुरुदेव के श्रीमुख से निकले हुए वचन मंत्र के आधार हैं तथा गुरु की कृपा ही मोक्ष का द्वार है । || ६२ ||
काम्यकर्माणि चोत्सृज्य निष्कामो यो मुमुक्षया। शान्त्यादिगुणसंयुक्तं गुरुं प्राप्तः स मुच्यते ॥५.६३॥
जिसने सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए सभी कार्यों को त्याग दिया है और जिसने मुक्ति की इच्छा के साथ एक ऐसे (सद्गुरु) शिक्षक को प्राप्त किया है जो शांति,दान्ति आदि अन्य सद्गुणों से संपन्न है, वह मुक्त है। ‘‘श्रीनाथादि गुरुत्रयं गणपतिं पीठत्रयं भैरवं सिद्धौघं बटुकत्रयं पदयुगं दूतीक्रमं मण्डलम् | वीरेशाष्टचतुष्कषष्टि नवकं वीरावलीपञ्चकं श्रीमन्मालिनिमन्त्रराजसहितं वन्दे गुरोर्मण्डलम् ||५२|| गुरुगीता’’ मैं गुरु की सभा को नमन करता हूं जो श्रीनाथ, गणपति, शक्ति के तीन आसन, आठ भैरव, नौ पारंपरिक सिद्धों के समूह, तीन वटुकों, शिव और शक्ति का प्रतिनिधित्व करने वाले दो चरणों, दस दूतियों के क्रम से शुरू होने वाले तीन पूर्ववर्ती गुरुओं से बना है। तीन मंडल, दस वीर, चौंसठ स्थापित सिद्ध, नौ मुद्राएं, पांच वीरों की पंक्ति, साथ में श्रद्धेय मालिनीमन्त्र की वर्णमाला के अक्षर और मंत्रराज के सहित विराजमान हैं । || ६३ ||
इस गुरुमण्डल मन्त्र का विशेष विवरण निम्न प्रकार से है |
श्री गुरु-पादुका पूजन पद्धति (उपर्युक्त ‘श्रीनाथादिगुरुत्रयं-‘ गुरुमण्डल के अर्चन का रहस्यमय मन्त्र है ।) भगवान शिव का एक सात्विक रूप दक्षिणामूर्ति है, और ये गुरुओं के भी गुरु हैं | दक्षिणामूर्ति संप्रदाय के अनुसार दिव्यौघ में चार गुरु हैं १ परप्रकाशानन्दनाथ २ परशिवानन्दनाथ ३ पराशक्त्यम्बानन्दनाथ ४ कौलेश्वरानन्दनाथ | सिद्धौघ में भी चार गुरु हैं १ भोगानन्दनाथ २ क्लिन्नानन्दनाथ ३ समयानन्दनाथ ४ सहजानन्दनाथ और मानवौघ में आठ गुरु हैं १ गगनानंदनाथ २ विश्वानंदनाथ ३ विमलानंदनाथ ४ मदनानंदनाथ ५ भुवनानंदनाथ ६ लीलानन्दनाथ ७ स्वात्मानन्दनाथ ८ प्रियानंदनाथ । इन्ही को गुरुत्रयं पद से कहा गया है | ‘‘गुरुत्रयं’’ में पहले अपने श्रीगुरु फिर गुरु के गुरु श्रीपरमगुरु फिर उनके भी गुरु श्रीपरमेष्ठीगुरु की वन्दना करके प्रज्ञा के देवता श्री महागणपति की वन्दना का विधान है | तदुपरान्त तीन पीठों की ‘‘पीठत्रयं’’ १ कामगिरिपीठ २ पूर्णगिरिपीठ ३ जालंधरपीठ | ‘‘भैरवं’’ अष्टभैरव के क्रम में भैरव आठ है- मन्थानभैरव, षट्चक्रभैरव, श्री फट्कारभैरव, एकात्मकभैरव, रविभक्ष्यभैरव, श्री चन्डभैरव, श्री नभोनिर्मलभैरव, श्री भ्रमरभास्कर भैरव। इसके बाद ‘‘सिद्धौघं’’ में ये सिद्ध शक्तियां आठ हैं १ श्री महादर्पनाम्बा २ श्री सुन्दर्यम्बा ३ श्री करालाम्बिका ४ श्री त्रिबाणाम्बा ५ श्री भीमाम्बा ६ श्री कराल्याम्बा ७ श्री खराननाम्बा ८ श्री विधीशालीनाम्बा | इसके बाद ‘‘बटुकत्रयं’’ १ स्कन्दवटुक २ चित्रवटुक ३ विरंचिवटुक | इसके बाद ‘‘पदयुगं’’ प्रकाश और विमर्श ( शिव और शक्ति ) के दो चरण | इसके बद ‘‘दूतीक्रमं’’ ये दूतियाँ ९ हैं जैसे – १ योन्यंम्बा दूती २ योनिसिद्धनाथाम्बा दूती ३ महायोन्यंम्बादूती ४ महायोनिसिद्धनाथाम्बा दूती ५ दिव्ययोन्याम्बा दूती ६ दिव्ययोनिसिद्धनाथाम्बा दूती ७ शंखयोन्यम्बा दूती ८ शंखयोनिसिद्धनाथाम्बा दूती ९ पद्मयोनिसिद्धनाथाम्बा दूती | इसके बाद ‘‘मण्डलम्’’ १ अग्निमण्डल २ सूर्यमण्डल ३ सोममण्डल | इसके बाद ‘‘वीर’’ दस वीर भैरव हैं १. श्रीसृष्टिवीरभैरव । २. श्रीस्थितिवीरभैरव । ३. श्रीसंहारवीरभैरव । ४. श्रीरक्तवीरभैरव । ५. श्रीयमवीरभैरव । ६. श्रीमृत्युवीरभैरव । ७. श्रीभद्रवीरभैरव । ८. श्रीपरमार्थवीर भैरव । ९. श्रीमार्तण्डवीरभैरव । १० श्रीकालाग्निरुद्रवीरभैरव । इसके बाद ‘‘चतुष्कषष्टि’’ ६४ योगिनियों का मण्डल है जैसे कि – १ मङ्लानाथा । २ चण्डिकानाथा । ३ कलुकानाथा । ४ पट्टहानाथा । ५ कूर्मानाथा । ६ धनदानाथा । ७ गन्धानाथा । ८ गगनानाथा । ९ मतङ्गानाथा । १० चम्पकानाथा । ११ कैवर्तानाथा । १२ मातङ्गगमनानाथा । १३ सूर्यभक्ष्यानाथा । १४ नभोभक्ष्यानाथा । १५ स्तौतिकानाथा । १६ रूपिकानाथा । १७ दंष्ट्रापूज्यानाथा । १८ धुम्राक्षानाथा । १९ ज्वालानाथा । २० गान्धारानाथा । २१ गगनेश्वरानाथा । २२ मायानाथा । २३ महामायानाथा । २४ नित्यानाथा । २५ शालानाथा । २६ विश्वानाथा । २७ कामिनीनाथा । २८ उमानाथा । २९ श्रियानाथा । ३० सुभगानाथा । ३१ सर्वगानाथा । ३२ लक्ष्मीनाथा । ३३ विद्यानाथा । ३४ मीनानाथा । ३५ अमृतानाथा । ३६ चन्द्रानाथा । ३७ सिद्धानाथा । ३८ श्रद्धानाथा । ३९ अनन्तानाथा । ४० शम्बरानाथा । ४१ उल्कानाथा । ४२ त्रैलोक्यानाथा । ४३ भीमानाथा । ४४ राक्षसीनाथा ४५ मणिनाथा ४६ प्रचण्डानाथा । ४७ अनङ्गानाथा । ४८ विधिनाथा । ४९ अनभिहितानाथा । ५० नन्दिनीनाथा । ५१ महामनानाथा । ५२ सुन्दरीनाथा । ५३ विश्वेश्वरीनाथा । ५४ कालनाथा । ५५ महाकालनाथा । ५६ अभयानाथा । ५७ विकारानाथा । ५८ महाविकारानाथा । ५९ सर्वगानाथा । ६० सकलानाथा । ६१ पूतनानाथा । ६२ सर्वरीनाथा । ६३ व्योमानाथा । ६४ ज्येष्ठानाथा । इसके बाद ‘‘ नवकं’’ मुद्रानवक (नवमुद्रा) १ द्राँ सर्वसंक्षोभिणीमुद्रायै नम: । २ द्रीं सर्वविद्राविणीमुद्रायै नम: । ३ क्लीं सर्वाकर्षिणीमुद्रायै नम: । ४ लृँ सर्ववशङ्करीमुद्रायै नम: । ५ स: सर्वोन्मादिनीमुद्रायै नम: । ६ क्रौं सर्वमहाङ्कुशामुद्रायै नमः । ७ हसखफ्रें सर्वखेचरीमुद्रायै नम: । ८. हस्त्रौं सर्वबीजमुद्रायै नम: । ९ ऐं सर्वयोनिमुद्रायै नम: । नवमुद्राम्बायै नमः । अथ च तुरीयांबा , महार्घाम्बा , अश्वारूढाम्बा , मिश्रांबा , वाग्वादिन्यंबा , महाकाल्यंबा , तारांबा , वनदुर्गांबा
जयदुर्गांबा , मुद्रानवकांबा श्री पादुकां पूजयामि तर्पयामि | इसके बाद ‘‘वीरावलीपञ्चकं’’ १ लं ब्रह्मवीरावल्यै । २ वं श्रीविष्णुवीरावल्यै । ३ रं श्रीरुद्रवीरावल्यै । ४ यं श्रीईश्वरवीरावल्यै । ५ हं श्रीसदाशिववीरावल्यै । इसके बाद ‘‘पञ्चकं’’ पद से इन सबका ग्रहण होता है | इसको पञ्चपञ्चिका पूजा कहते हैं | जैसे :- पञ्चलक्ष्मी पूजन , पञ्च कौशाम्बा पूजन , पञ्च कल्पलता पूजन , पञ्च कामदुधा पूजन , पञ्च रत्नाम्बा पूजन — पञ्चलक्ष्मी —
श्री विद्यालक्ष्मी लक्ष्म्यम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री एकाकारलक्ष्मी लक्ष्म्यम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री महालक्ष्मी लक्ष्म्यम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री त्रिशक्तिलक्ष्मी लक्ष्म्यम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री सर्वसाम्राज्यलक्ष्मी लक्ष्म्यम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
— पञ्च कौशाम्बा
श्री विद्या कोशाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री परज्योति कोशाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री परिनिष्कल शाम्भवी कोशाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री अजपा कोशाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री मातृका कोशाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
— पञ्चकल्पलता —
श्री विद्या कल्पलताम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री त्वरिता कल्पलताम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री पारिजातेश्वरी कल्पलताम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री त्रिपुटा कल्पलताम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री पञ्च बाणेश्वरी कल्पलताम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
— पञ्चकामदुघा —
श्री विद्या कामदुघाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री अमृत पीठेश्वरी कामदुघाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री सुधांशु कामदुघाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री अमृतेश्वरी कामदुघाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री अन्नपूर्णा कामदुघाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
— पञ्चरत्न विद्या —
श्री विद्या रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री सिद्धलक्ष्मी रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री मातंगेश्वरी रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री भुवनेश्वरी रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री वाराही रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्रीमन्मालिनी रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
— श्रीमन्मालिनी मन्त्र —
अंत में तीन बार श्रीमन्मालिनी का उच्चारण करना चाहिए जिससे गुरुदेव की शक्ति, तेज और सम्पूर्ण साधनाओं की प्राप्ति हो सके – ॐ अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ॠं लृं ल्रृं एं ऐँ ओं औं अं अः |
कं खं गं घं ङं | चं छं जं झं ञं | टं ठं डं ढं णं | तं थं दं धं नं | पं फं बं भं मं | यं रं लं वं शं षं सं हं क्षं हंसः सोऽहं गुरुदेवाय नमः |श्री मालिन्यम्बायै नमः । ‘‘श्रीमन्त्रराज’’ पञ्चदशाक्षरी श्री विद्या || शिवः शक्तिः कामः क्षितिरथ रविः शीतकिरणः स्मरो हंसः शक्रस्तदनु च परामारहरयः । अमी हृल्लेखाभिस्तिसृभिरवसानेषु घटिताः भजन्ते वर्णास्ते तव जननि नामावयवताम् ।। ३२ ।। सौन्दर्य लहरी || अर्थ – हे जननि ! शिव बीजाक्षर ‘क’ शक्ति बीजक्षर ‘ए’ मन्मथ बीजक्षर ‘ई’ पृथ्वी बीजक्षर ‘ल’ उसके पश्चात् सूर्य बीजाक्षर ‘ह’ शीतलकिरणवाले चन्द्रमा का बीजाक्षर ‘स’ मन्मथ बीज ‘क’ हंस मन्त्रस्थित आकाशबीज ‘ह’ इन्द्र बीजाक्षर ‘ ल ‘ उसके बाद परा (शक्ति) बीज ‘स’ मार (काम) बीज ‘क’ हरिबीजाक्षर ‘ल’ इन तीनों के अन्त में तीन बीज ह्रींकारों को मिलाकर तुम्हारे नाम के अवयव स्वरूप वर्णों का (जो मन्त्र बन जाते हैं) साधक लोग भजन करते है । (विशेष जानकारी के लिये स्वामी करपात्री द्वारा रचित ‘‘श्रीविद्या-रत्नाकरः’’ ग्रन्थ का अध्ययन करना चाहिये |
इति श्रुत्वारुणः सूर्यात्संतुष्टः स्वात्मनिष्ठया। कृतकृत्य इदं प्राह भास्करं विनयान्वितः ॥५.६४॥
सूर्य की यह बात सुनकर, अरुण, तृप्त हो गये और स्थिर मन से कृतकृत्य होकर अपनी आत्मनिष्ठा से संतुष्ट होकर, विनम्रता से परिपूर्ण होकर, इस प्रकार सूर्य से बात की। || ६४ ||
अरुण उवाच :- अरुण बोले
श्रीमान्गुरुवर स्वामिंस्त्वन्मुखात्पारमार्थिकम्। निष्कामकर्ममाहात्म्यं श्रुत्वा धन्योऽस्म्यसंशयम् ॥५.६५॥
हे श्रेष्ठ गुरुवर ! हे स्वामिन् ! हे शिक्षक! आप से इच्छा-रहित कर्म की महत्ता के बारे में सुनकर, जो सर्वोच्च मूल्यवान है, (परम परमार्थ है) मैं धन्य हो गया हूं, इसमें कोई संदेह नहीं है | ‘‘धन्योऽहं कृतकृत्योऽहं विमुक्तोऽहं भवग्रहात् । नित्यानन्दस्वरूपोऽहं पूर्णोऽहं त्वदनुग्रहात् ॥ ४८८ ॥ विवेक चूडामणि’’ हे गुरुदेव, आपकी कृपा से मैं धन्य हो गया हूँ, कृतकृत्य (सभी कर्तव्यों से मुक्त) हो गया हूँ , संसार बन्धन (आवागमन) से मुक्त हो गया हूँ ; मैं नित्य आनन्द स्वरूप हूँ , मैं पूर्ण हो गया हूँ , मैं अनंत हूं, आपकी कृपा से। || ६५ ||
सकर्मत्वमकर्मत्वं विदेहस्य च लक्षणम्। श्रुतं रहस्यं नातोऽन्यत्किंचिदप्यवशिष्यते ॥५.६६॥
मैंने सकर्मत्व और अकर्मत्व के बारे में सुना तथा मैंने इच्छा और अनिच्छा के बारे में सुना है, क्योंकि इच्छा के बिना तो कोई कर्म ही नहीं होता और इच्छा आपातरमणीय विषयों की अधूरी जानकारी के कारण होती है जिससे काम और मोह के जाल में आदमी फँस जाता है | मैंने एक विदेह पुरुष की विशेषताओं के बारे में भी सुना है; आपकी कृपा से सारा रहस्य जान लिया है , अब इसके आगे और कुछ जानने को शेष नहीं है। ‘‘अपि व्यापकत्वात् हितत्त्वप्रयोगात् स्वतः सिद्धभावादनन्याश्रयत्वात् । जगत् तुच्छमेतत् समस्तं तदन्यत् तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ॥ ९॥दशश्लोकी ||’’ आत्मा सर्वव्यापी है, यह सारा ब्रह्मांड, आत्मा के अलावा, असत्य है; क्योंकि, केवल स्वयं ही सर्व-समावेशी है, स्वयंभू है, और किसी भी चीज़ पर निर्भर नहीं है, आत्म-स्थापित और आत्मनिर्भर है। वह एक, जो शेष रहता है, वही आनन्द स्वरूप मैं सभी गुणों से मुक्त एक शुभ स्व के रूप में रहता हूं। ‘‘गुरुचरणाम्बुजनिर्भरभक्तः संसारादचिराद्भव मुक्तः । सेन्द्रियमानस नियमा देवं द्रक्ष्यसि निजहृदयस्थं देवम् ॥ ३१॥’’ सद्गुरु के चरण कमलों में पूर्णरूप से समर्पित होकर शीघ्र ही प्रवासन (आवागमन) प्रक्रिया से मुक्त हो जाते हैं। इस प्रकार, इंद्रिय अनुशासन और मननियंत्रण के माध्यम से, आप अपने हृदय में निवास करने वाले देवता को देखेंगे। || ६६ ||
तथापि मम साक्षात्त्वं कर्तव्यं ब्रूहि निश्चितम्। मच्चित्तपरिपाकं हि वेत्सि सर्वज्ञ सद्गुरो ॥५.६७॥
लेकिन फिर भी, हे श्री गुरो ! मुझे अपना पूर्ण और अंतिम कर्तव्य सीधे-सीधे बताएं, क्योंकि आप सर्वज्ञ हैं और मेरे चित्त के पकने के बारे में जानते हैं (अर्थात क्या आप मेरे कर्म के बारे में जानते हैं जो मुझे इस संसार में कार्य करने के लिए जिम्मेदार (अधिकारी) मानते हैं)। ‘‘यावत्स्वस्थमिदं शरीरमरुजं यावज्जरा दूरतो यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः । आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान् संदीप्ते भवने तु कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः ॥ ७५॥ भतृहरि का वैराग्यशतकम्’’ जब तक यह शरीर स्वस्थ अर्थात् रोगरहित है, जब तक बुढ़ापा दूर है, जब तक सभी इन्द्रियों में शक्ति विद्यमान है और आयु बची हुई है, तभी तक एक बुद्धिमान् व्यक्ति को चाहिए कि आत्मकल्याण के लिए महान् पुरुषार्थ करे, अन्यथा जैसे घर में आग लग जाने पर कुआं खोदने से कोई लाभ नहीं होता वैसे मृत्यु काल में कुछ भी नहीं हो सकेगा। ‘‘दुर्वारसंसारदवाग्नितप्तं दोधूयमानं दुरदृष्टवातैः । भीतं प्रपन्नं परिपाहि मृत्योः शरण्यमन्यं यदहं न जाने ॥ ३८ ॥ विवेकचूडामणिः ||’’ आचार्य शंकर कहते हैं कि जिससे छुटकारा पाना अति कठिन है, ऐसे उस संसाररूपी दावानल से जल रहे तथा दुर्भाग्यरूपी तेज (आंधी) से बुरी तरह कांप रहे और भयभीत मुझ शरणागत की आप मृत्यु से रक्षा कीजिए, क्योंकि इस समय मैं और किसी को नहीं जानता जिसकी शरण में मैं जाऊं। || ६७ ||
इति पृष्ट उवाचेदं भगवान्भास्करोऽरुणम्। स्वसारथिं निजाग्रस्थं बद्धबाहुं नताननम् ॥५.६८॥
इस प्रकार प्रश्न करने पर , भगवान सूर्य ने अपने सारथी अरुण से यह बात कही , जो उनके सामने हाथ जोड़कर बैठे थे और सिर झुकाए हुए थे। || ६८ ||
सूर्य उवाच :- भगवान् भास्कर बोले
अरुण त्वं परं ब्रह्म साक्षाद्दृष्ट्वाधुना कृती। तथाप्यादेहपतनाद्ब्रह्माभिध्यानमादरात् ॥५.६९॥
हे अरुण! अब, सीधे ब्रह्म का अनुभव करने के बाद, आपने अपना उद्देश्य पूरा कर लिया है। लेकिन फिर भी, जब तक आपका शरीर नीचे नहीं गिर जाता, तब तक पूरे आदर और विश्वास के साथ ब्रह्म का ध्यान करें। ‘‘क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मानावीशते देव एकः।
तस्याभिध्यानाद्योजनात्तत्त्वभावात् भूयश्चान्ते विश्वमायानिवृत्तिः ||१०|| श्वेताश्वतरोपनिषद् प्रथमोऽध्यायः’’ परिवर्तन शील स्वभाव वाली प्रकृति नाशवान है और जीवात्मा अविनाशी है। वह, एक मात्र ईश्वर नाशवान प्रकृति और अविनाशी जीवात्मा दोनों पर शासन करता है। उस एकं पर ध्यान करने से और उसके साथ संयुक्त तथा तादात्म्य (तदात्म भाव) हो जाने से अन्त में समस्त अज्ञान या भ्रान्ति से मुक्ति मिल जाती है। ‘‘स तु दीर्घकाल नैरन्तर्य सत्कारादरासेवितो दृढभूमिः ॥ || १. १४ || पतंजलि योग सूत्र’’ वह बहुत समय तक निरन्तर और श्रद्धा के साथ सेवन किया हुआ वह ध्यान का अभ्यास दृढ़ अवस्था वाला हो जाता है। || ६९ ||
स्वाधिकारोचितं शुद्धं कर्माप्याचर सत्तम। प्रमादो मास्तु ते स्वप्नेऽप्युक्तयोर्ब्रह्मकर्मणोः ॥५.७०॥
हे महान! आप अपना कर्तव्य अधिकार के अनुसार निभाएं, जो आपके कर्तव्य के अनुसार फिट हो। यहां तक कि सपने में भी ब्रह्म सम्बन्धी पूर्वोक्त ध्यान और कर्तव्य के प्रदर्शन के बारे में कोई लापरवाही नहीं होनी चाहिए। ‘‘योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।२.४८।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ हे धनंजय आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है।। ‘‘यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः। तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर।।३.९।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ यज्ञ के लिये किये हुए कर्म के अतिरिक्त अन्य कर्म में प्रवृत्त हुआ यह पुरुष कर्मों द्वारा बंधता है इसलिए हे कौन्तेय आसक्ति को त्यागकर यज्ञ के निमित्त ही कर्म का सम्यक् आचरण करो।। विष्णुसहस्रनाम के अनुसार योग और यज्ञ ये दोनों ही परमात्मा के नाम हैं | योगो योग-विदां नेता प्रधान पुरुषेश्वरः । नारसिंहवपुः श्रीमान केशवः पुरुषोत्तमः ॥३॥ भूर्भवः स्वस्तरुस्तारः सविता प्रपितामहः । यज्ञो यज्ञपतिर्यज्वा यज्ञांगो यज्ञवाहनः ।। १०४।।विष्णुसहस्रनाम || अतः सम्पूर्ण जीवन योग और यज्ञ मय ही होना चाहिए। || ७० ||
संवादमावयोरेतं सर्वपापहरं शुभम्। यः शृणोति सकृद्वा स कृतार्थो नात्र संशयः ॥५.७१॥
जो मनुष्य हमारे और तुम्हारे बीच हुए इस वार्तालाप को एक बार भी सुनता है वह धन्य हो जाता है और वह अपने पाप को नष्ट कर देता है, और जो भी प्राप्तव्य है उसे वह प्राप्त कर लेता है और जो भी कर्तव्य है उसे वह पूर्ण कर लेता है इस बारे में कोई भी संदेह नहीं है। ‘‘ न खिद्यते नो विषयैः प्रमोदते न सज्जते नापि विरज्यते च । स्वस्मिन्सदा क्रीडति नन्दति स्वयं निरन्तरानन्दरसेन तृप्तः || ५३६ || विवेकचूडामणिः’’ वह न तो दुखी होता है और न ही प्रसन्न होता है, न आसक्त होता है और न ही विषयों से घृणा करता है, लेकिन अनंत आनंद के सार में संतुष्ट, वह स्वयं में खेलता और आनंद लेता है। ‘‘कौपीनं शतखण्डजर्जरतरं कन्था पुनस्तादृशी नैश्चिन्त्यं निरपेक्षभैक्षमशनं निद्रा श्मशाने वने । स्वातन्त्र्येण निरङ्कुशं विहरणं स्वान्तं प्रशान्तं सदा स्थैर्यं योगमहोत्सवेऽपि च यदि त्रैलोक्यराज्येन किम् ॥ ९१॥ भर्तृहरेः वैराग्यशतकम्’’ आत्मज्ञानी तपस्वी के जीवन का मार्ग : लंगोटी फटी-पुरानी और फटी हुई सौ लत्तों के जोड से बनी गुदडी , फिर भी समान स्थिति में लपेटकर, चिंता से मुक्त, बिना किसी अपेक्षा के भीख माँगकर भोजन करना, एक जंगल या एक श्मशानभूमि में गहरी नींद में सोना बिना किसी बाधा के स्वतंत्र रूप से घूमते हुए, हमेशा अंतर्मुखी और शांत, और दिव्य मिलन के महान आनंद में स्थापित चित्त वाले ऐसे योगी के लिए तीनों लोकों की संप्रभुता भी तुलना में नीचे है। || ७१ ||
श्रीगुरुमूर्तिरुवाच :- श्रीगुरु भगवान दक्षिणामूर्ति बोले —
इति दिनकरवक्त्रातद्ब्रह्मकर्मैकनिष्ठां स्फुटतरमवगम्य प्राज्ञ एकोऽरुणः सः।
अभवदखिललोकैः पूजनीयः कृतार्थस्त्वमपि भव तथैव क्षिप्रमंभोजजन्मन् ॥५.७२॥
हे कमल में जन्म लेने वाले! (हे ब्रह्मा जी !) इस प्रकार बुद्धिमान अरुण ने सूर्य के मुख से ब्रह्मनिष्ठा और कर्मनिष्ठा के विषय को स्पष्ट करने वाला प्रवचन सुना और समझा तथा अपने उद्देश्य को पूरा किया और समस्त संसार द्वारा पूजित होने के योग्य बन गया | तुम भी जल्दी से उसकी तरह बन जाओ। ‘‘ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना || ।।४.२४।। श्रीमद् भगवद्गीता’’ अर्पण (अर्थात् अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है; ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है, वह भी ब्रह्म ही है। इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है। || ७२ ||
विमलविगुणयोगाभ्यासदार्ढ्येन युक्तः सकलगतचिदात्मन्यद्वितीये बुधोऽपि।
सततमपि कुरुष्वारब्धदुःखोपशान्त्यै रहसि निजसमाधीन्स्वोक्तकर्मापि धातः ॥५.७३॥
हे धाता! (हे ब्रह्माजी !) विमल (राग , द्वेष और मोह से रहित) त्रिगुणातीत योग के अभ्यास के संबंध में दृढ़ता के साथ संपन्न होकर ; अपने मन को पूरी तरह से सर्वव्यापक , अद्वितीय स्व में अवशोषित होने दें; अपने प्रारब्ध कर्म से उत्पन्न कष्ट को शांत करने के लिए, हमेशा एकांत में समाधि का अभ्यास करें; और अपना निर्धारित कर्तव्य करें। ‘‘त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन। निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।२.४५।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ हे अर्जुन वेदों का विषय तीन गुणों से सम्बन्धित (संसार से) है तुम त्रिगुणातीत, निर्द्वन्द्व, नित्य सत्त्व (शुद्धता) में स्थित, योगक्षेम से रहित और आत्मवान् बनो। || ७३ ||
॥इति तत्त्वसारायणकर्मकांडोक्तश्रीसूर्यगीतायां पंचमोऽध्यायः॥
इस प्रकार तत्वसारायण के कर्मकांड में कही गयी श्री सूर्य गीताके पांचवें अध्याय की (तत्वप्रबोधिनी) हिन्दी व्याख्या पूरी हुई |
श्री सूर्यदेव चालीसा
॥दोहा॥
कनक बदन कुण्डल मकर, मुक्ता माला अङ्ग,
पद्मासन स्थित ध्याइए, शंख चक्र के सङ्ग॥
॥चौपाई॥
जय सविता जय जयति दिवाकर,
सहस्रांशु सप्ताश्व तिमिरहर॥
भानु पतंग मरीची भास्कर,
सविता हंस सुनूर विभाकर॥ १॥
विवस्वान आदित्य विकर्तन,
मार्तण्ड हरिरूप विरोचन॥
अम्बरमणि खग रवि कहलाते,
वेद हिरण्यगर्भ कह गाते॥ २॥
सहस्त्रांशु प्रद्योतन, कहिकहि,
मुनिगन होत प्रसन्न मोदलहि॥
अरुण सदृश सारथी मनोहर,
हांकत हय साता चढ़ि रथ पर॥३॥
मंडल की महिमा अति न्यारी,
तेज रूप केरी बलिहारी॥
उच्चैःश्रवा सदृश हय जोते,
देखि पुरन्दर लज्जित होते || ४ ||
मित्र मरीचि, भानु, अरुण, भास्कर,
सविता सूर्य अर्क खग कलिकर॥
पूषा रवि आदित्य नाम लै,
हिरण्यगर्भाय नमः कहि कै॥५ ॥
द्वादस नाम प्रेम सों गावैं,
मस्तक बारह बार नवावैं॥
चार पदारथ जन सो पावै,
दुःख दारिद्र अघ पुंज नसावै॥६ ॥
नमस्कार को चमत्कार यह,
विधि हरिहर को कृपासार यह॥
सेवै भानु तुमहिं मन लाई,
अष्ट सिद्धि नवनिधि तेहिं पाई॥७ ॥
बारह नाम उच्चारन करते,
सहस जनम के पातक टरते॥
उपाख्यान जो करते तव जन,
रिपु सों जमलहते सो तेहि छन॥८ ॥
धन सुत जुत परिवार बढ़तु है,
प्रबल मोह को फंद कटतु है॥
अर्क शीश को रक्षा करते,
रवि ललाट पर नित्य बिहरते॥९॥
सूर्य नेत्र पर नित्य विराजत,
कर्ण देस पर दिनकर छाजत॥
भानु नासिका वास करहु नित,
भास्कर करत सदा मुखको हित॥१०॥
ओंठ रहैं पर्जन्य हमारे,
रसना बीच तीक्ष्ण बस प्यारे॥
कंठ सुवर्ण रेत की शोभा,
तिग्म तेजसः कांधे लोभा॥११॥
पूषां बाहू मित्र पीठहिं पर,
त्वष्टा वरुण रहत सुउष्णकर॥
युगल हाथ पर रक्षा कारन,
भानुमान उरसर्म सुउदरचन॥१२॥
बसत नाभि आदित्य मनोहर,
कटिमंह, रहत मन मुदभर॥
जंघा गोपति सविता बासा,
गुप्त दिवाकर करत हुलासा॥१३॥
विवस्वान पद की रखवारी,
बाहर बसते नित तम हारी॥
सहस्त्रांशु सर्वांग सम्हारै,
रक्षा कवच विचित्र विचारे॥१४॥
अस जोजन अपने मन माहीं,
भय जगबीच करहुं तेहि नाहीं ॥
दद्रु कुष्ठ तेहिं कबहु न व्यापै,
जोजन याको मन मंह जापै॥१५॥
अंधकार जग का जो हरता,
नव प्रकाश से आनन्द भरता॥
ग्रह गन ग्रसि न मिटावत जाही,
कोटि बार मैं प्रनवउँ ताही॥
मंद सदृश सुत जग में जाके,
धर्मराज सम अद्भुत बांके॥१६॥
धन्य-धन्य तुम दिनमनि देवा,
किया करत सुरमुनि नर सेवा॥
भक्ति भाव युत पूर्ण नियम सों,
दूर हटतसो भवके भ्रम सों॥१७॥
परम धन्य सों नर तनधारी,
हैं प्रसन्न जेहि पर तम हारी॥
अरुण माघ महं सूर्य फाल्गुन,
मधु वेदांग नाम रवि उदयन॥१८॥
भानु उदय बैसाख गिनावै,
ज्येष्ठ इन्द्र आषाढ़ रवि गावै॥
यम भादों आश्विन हिमरेता,
कातिक होत दिवाकर नेता॥१९॥
अगहन भिन्न विष्णु हैं पूसहिं,
पुरुष नाम रविहैं मलमासहिं॥२०॥
॥दोहा॥
भानु चालीसा प्रेम युत, गावहिं जे नर नित्य,
सुख सम्पत्ति लहि बिबिधविधि , होंहिं सदा कृतकृत्य॥
श्री सूर्यदेव की आरती
ॐ जय सूर्य भगवान, जय हो जय दिनकर भगवान।
जगत् के नेत्रस्वरूपा, तुम हो त्रिगुण स्वरूपा।
धरत सब ही तव ध्यान, ॐ जय सूर्य भगवान।।
।।ॐ जय सूर्य भगवान…।।
सारथी अरुण हैं प्रभु तुम, श्वेत कमलधारी। तुम चार भुजाधारी।।
अश्व हैं सात तुम्हारे, कोटिक किरण पसारे। तुम हो देव महान।।
।।ॐ जय सूर्य भगवान…।।
उषाकाल में जब तुम, उदयाचल आते। प्रभु सब दर्शन पाते।।
फैलाते उजियारा, जागता तब जग सारा। करे सब तब गुणगान।।
।।ॐ जय सूर्य भगवान…।।
संध्या में भुवनेश्वर अस्ताचल जाते। तब गोधन घर आते।।
गोधूलि बेला में, हर घर हर आंगन में। हो तव महिमा गान।।
।।ॐ जय सूर्य भगवान…।।
देव-दनुज नर-नारी, ऋषि-मुनिवर भजते। आदित्य हृदय जपते।।
स्तोत्र ये मंगलकारी, इसकी है रचना न्यारी। दे नव जीवनदान।।
।।ॐ जय सूर्य भगवान…।।
तुम हो त्रिकाल करता , तुम जग के आधार। महिमा है अपरम्पार।।
प्राणों का सिंचन करके भक्तों को अपने देते। बल, बुद्धि और ज्ञान।।
।।ॐ जय सूर्य भगवान…।।
भूचर जलचर खेचर, सबके हों प्राण तुम्हीं। सब जीवों के प्राण तुम्हीं।।
वेद-पुराण बखाने, धर्म सभी तुम्हें माने। तुम हो शक्तिनिधान ।।
।।ॐ जय सूर्य भगवान…।।
पूजन करतीं दिशाएं, पूजे दश दिक्पाल। तुम भुवनों के प्रतिपाल।।
ऋतुएं तुम्हारी दासी, तुम शाश्वत अविनाशी। शुभकारी अंशुमान।।
।।ॐ जय सूर्य भगवान।।
ॐ जय सूर्य भगवान, जय हो जय दिनकर भगवान।
जगत् के नेत्रस्वरूपा, तुम हो त्रिगुण स्वरूपा।।
धरत सब ही तव ध्यान, ॐ जय सूर्य भगवान।।
नाम त्रय मन्त्र विधान
नामत्रय मंत्रस्य कश्यपात्रिभरद्वाजा ऋषयः अनुष्टुप् छन्दः श्रीमहाविष्णुर्देवता तत्प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः |
ध्यानम् – समस्तदुस्तरव्याधिसंघध्वंसपटीयसे | अच्युतानन्तगोविन्दनाम्ने धाम्ने नमो नमः ||
अच्युताय नम:
अनन्ताय, नम:
गोविन्दाय नम:
” अच्युतानन्तगोविन्द नामोच्चारण भेषजात्। नश्यन्ति सकला रोगा: सत्यं सत्यं वदाम्यहम्।। “
श्री सूर्यगीता मूलपाठ
|| श्री सूर्य गीता ||
॥ श्री गणेशाय नमः ॥
॥ श्री भगवते भुवन भास्कराय नमः ॥
॥ अथ सूर्यगीता प्रारभ्यते ॥
॥अथ प्रथमोऽध्यायः॥
ब्रह्मा उवाच –
प्रपञ्चसृष्टिकर्मेदं मम श्रीगुरुनायक ।
अहार्यं द्विपरार्धान्तमाधिकारिकतावशात् ॥ १ ॥
इति त्वद्वदनाम्भोजात्सम्यग्विदितवानहम् ।
तथाप्यत्र न मे चिन्ता जायते त्वत्कृपाबलात् ॥ २ ॥
त्वयि प्रसन्ने मय्येवं बोधानन्दः स्वरूपतः ।
पुनर्जन्म भयाभावाद्धीर एवास्मि वृत्तिषु ॥ ३ ॥
तथाऽपि कर्मभागेषु श्रोतव्यमवशिष्यते ।
तत्सर्वं च विदित्वैव सर्वज्ञः स्यामहं प्रभो ॥ ४ ॥
जगज्जीवेश्वरादीनां प्रागुत्पत्तेर्निरंजनम् ।
निर्विशेषमकर्मैकं ब्रह्मैवासीत्तदद्वयम् ॥ ५ ॥
तस्य जीवेश स्रष्टृत्वं प्रोच्यते वेदवादिभिः ।
अकर्मणः कथं सृष्टिकर्मकर्तृत्वमुच्यते ॥ ६ ॥
सकर्मा सेन्द्रियो लोके दृश्यते न निरिन्द्रियः ।
ब्रह्मणोऽतीन्द्रियत्वं च सर्वशास्त्रेषु घुष्यते ॥ ७ ॥
नश्यमानतयोत्पत्तिमत्वादाद्यस्य कर्मणः ।
न मुख्यमवकल्पेताप्यनादित्वोपवर्णनम् ॥ ८ ॥
ब्रह्म चेत्कर्मकुर्वीत येन केनापि हेतुना ।
तथा च संसृतिस्तस्य प्रसज्येत तु नात्मनः ॥ ९ ॥
तस्मादाद्यस्य पुण्यस्य पापस्य च दयानिधे ।
कर्मणो ब्रूहि मे स्पष्टमुपपत्तिं गुरूत्तम ॥ १० ॥
इत्युक्तो विधिना देवो दक्षिणामूर्तिरीश्वरः ।
विचित्रप्रश्नसन्तुष्ट इदं वचनमब्रवीत् ॥ ११ ॥
श्रीगुरु मूर्तिरुवाच –
ब्रह्मन्साधुरयं प्रश्नस्तव प्रश्नविदां वर ।
शृणुष्व सावधानेन चेतसाऽस्योत्तरं मम ॥ १२ ॥
प्रागुत्पत्तेरकर्मैकमकर्तृ च निरिन्द्रियम् ।
निर्विशेषं परं ब्रह्मैवासीन्नात्रास्ति संशयः ॥ १३ ॥
तथाऽपि तस्य चिच्छक्ति संयुतत्वेन हेतुना ।
प्रतिच्छायात्मिके शक्ती मायाविद्ये बभूवतुः ॥ १४ ॥
अद्वितीयमपि ब्रह्म तयोर्यत्प्रतिबिम्बितम् ।
तेन द्वैविध्यमासाद्य जीव ईश्वर इत्यपि ॥ १५ ॥
पुण्यपापादिकर्तृत्वं जगत्सृष्ट्यादिकर्तृताम् ।
अभजत्सेन्द्रियत्वं च सकर्मत्वं विशेषतः ॥ १६ ॥
यः स्वशक्त्या समुल्लास उद्भूत परमात्मनः ।
स्वबन्धजनकं सूक्ष्मं तदाद्यं कर्म कथ्यते ॥ १७ ॥
न तेन निर्विशेषत्वं हीयते तस्य किंचन ।
न च संसारबन्धश्च कश्चिद्ब्रह्मन्प्रसज्यते ॥ १८ ॥
पारमार्थिकसंसारी जीवः पुण्यादिकर्मवान् ।
प्रातिभासिकसंसारी त्वीशः सृष्ट्यादिकर्मवान् ॥ १९ ॥
असंसारि परं ब्रह्म जीवेशोभय कारणम् ।
ततोऽप्यतीतं नीरूपं अवाङ्मनसगोचरम् ॥ २० ॥
कर्मवन्तौ परित्यज्य जीवेशौ ये महाधियः ।
अकर्मवत्परं ब्रह्म प्रयान्त्यत्र समाधिभिः ॥ २१ ॥
ते विदेहविमुक्ता वा जीवन्मुक्ता नरोत्तमाः ।
कर्माकर्मोभयातीतास्तद्ब्रह्मारूपमाप्नुयुः ॥ २२ ॥
कर्मणा संसृतौ बद्धा मुच्यन्ते ते ह्यकर्मणा ।
बन्धमोक्षोभयातीताः कर्मिणो नाप्यकर्मिणः ॥ २३ ॥
जीवस्य कर्मणा बन्धस्तस्य मोक्षश्च कर्मणा ।
तस्माद्धेयं च कर्म स्यादुपादेयं च कर्म हि ॥ २४ ॥
त्यक्ते कर्मणि जीवत्वमात्मनो गच्छति स्वयम् ।
गृहीते कर्मणि क्षिप्रं ब्रह्मत्वं च प्रसिध्यति ॥ २५ ॥
आविद्यकमशुद्धं यत्कर्म दुःखाय तन्नृणाम् ।
विद्यासम्बन्धि शुद्धं यत् तत्सुखाय च कथ्यते ॥ २६ ॥
विद्याकर्मक्षुरात्तीक्ष्णात् छिनत्ति पुरुषोत्तमः ।
अविद्याकर्मपाशांश्चेत्स मुक्तो नात्र संशयः ॥ २७ ॥
सर्वस्य व्यवहारस्य विधे कर्मैव कारणम् ।
इति निश्चयसिद्ध्यै ते सूर्यगीतां वदाम्यहम् ॥ २८ ॥
कर्मसाक्षिणमादित्यं सहस्रकिरणं प्रभुम् ।
सप्ताश्वं सर्वधर्मज्ञमपृच्छदरुणः पुरा ॥ २९ ॥
अरुण उवाच –
भगवन् केन संसारे प्राणिनः संभ्रमन्त्यमी ।
केनैतेषां निवृत्तिश्च संसाराद्वद सद्गुरो ॥ ३० ॥
इति पृष्टः स सर्वज्ञः सहस्रकिरणोज्वलः ।
सूर्योऽब्रवीदिदं शिष्यमरुणं निजसारथिम् ॥ ३१ ॥
सूर्य उवाच –
अरुण त्वं भवस्यद्य मम प्रियतमः खलु ।
यतः पृच्छसि संसारभ्रमकारणमादरात् ॥ ३२ ॥
भ्रमन्ति केवलं सर्वे संसारे प्राणिनोऽनिशम् ।
न तु तत्कारणं केनाप्यहो किंचिद्विचार्यते ॥ ३३ ।
तज्जिज्ञासुतया त्वं तु श्लाघ्योऽसि विबुधोत्तमैः ।
शृणुश्वारुण वक्ष्यामि तव संसारकारणम् ॥ ३४ ॥
पुण्यपापात्मकं कर्म यत्सर्वप्राणिसंचितम् ।
अनादि सुखदुःखानां जनकं चाभिधीयते ॥ ३५ ॥
शास्त्रैः सर्वैश्च विहितं प्रतिषिद्धं च सादरम् ।
कामादिजनितं तत्त्वं विद्धि संसारकारणम् ॥ ३६ ॥
पश्वादीनामभावेऽपि तयोर्विधिनिषेधयोः ।
संसारस्य न लोपोऽस्ति पूर्वकर्मानुसारतः ॥ ३७ ॥
पूर्वं मनुष्यभूतानां पापकर्मावशादिह ।
श्वखरोष्ट्रादिजन्मानि निकृष्टानि भवन्त्यहो ॥ ३८ ॥
पापकर्मसु भोगेन प्रक्षीणेषु पुनश्च ते ।
प्राप्नुवन्ति मनुष्यत्वं पुनश्च श्वादिजन्मिताम् ॥ ३९ ॥
जननैर्मरणैरेवं पौनःपुन्येन संसृतौ ।
भ्रमन्त्यब्धितरंगस्थदारुवद्धीमतां वर ॥ ४० ॥
अरुण उवाच –
प्रक्षीणपापकर्माणः प्राप्तवन्तो मनुष्यताम् ।
पुनश्च श्वादिजन्मानि केन गच्छन्ति हेतुना ॥ ४१ ॥
न हि दुर्जन्महेतुत्वं पुण्यानां युक्तमीरितुम् ।
न च पुण्यवतां भूयः पापकर्मोपपद्यते ॥ ४२ ॥
पुण्यैर्विशुद्ध चित्तानां ज्ञान योगादि साधनैः ।
संसारमोक्षसंसिद्ध्या पापकर्माप्रसक्तितः ॥ ४३ ॥
जीवेषु पौनःपुन्यं चेदुत्तमाधमजन्मनाम् ।
नियमेनाभिधीयेत येन केनापि हेतुना ॥ ४४ ॥
मोक्षशास्त्रस्य वैयर्थ्यमापतत्येव सर्वथा ।
तस्मादपापिनां जन्म पुनश्चेति न युज्यते ॥ ४५ ॥
इत्युक्तो भगवानाह सर्वज्ञः करुणानिधिः ।
रविः संशयविच्छेदनिपुणोऽरुणमादरात् ॥ ४६ ॥
रविरुवाच –
प्रक्षीणेष्वपि भोगेन पापकर्मसु देहिनः ।
पुनश्च पापकर्माणि कुर्वन्तो यान्ति दुर्गतिम् ॥ ४७ ॥
तानि दुर्जन्म बीजानि कामात्पापानि देहिनाम् ।
पुनरप्युपपद्यन्ते पूर्वपुण्यवतामपि ॥ ४८ ॥
सकामानां च पुण्यानां भोगहेतुतया नृणाम् ।
न चित्त शुद्धि हेतुत्वं क्वचिद्भवितुमर्हति ॥ ४९ ॥
कुतश्चाशुद्ध चित्तानां ज्ञानयोगादिसंभवः ।
ज्ञानयोगादिहीनानां कुतो मोक्षश्च संसृतेः ॥ ५० ॥
कामेन हेतुना सत्स्वप्युत्तमाधमजन्मसु ।
मोक्ष शास्त्रस्य सार्थक्यं नैष्काम्योदयहेतुकम् ॥ ५१ ॥
सुखदुःखोपभोगेन यदा निर्वेदमागतः ।
निष्कामत्वमवाप्नोति स्वविवेकपुरस्सरम् ॥ ५२ ॥
ततःप्रभृति कैश्चित्स्याज्जन्मभिर्ज्ञानयोगवान् ।
श्रवणादिप्रयत्नैर्हि मुक्तिः स्वात्मन्यवस्थितिः ॥ ५३ ॥
कर्माध्यक्षं परात्मानं सर्वकर्मैकसाक्षिणम् ।
सर्वकर्मविदूरन्तं कर्मवान्कथमाप्नुयात् ॥ ५४ ॥
पुण्येष्वपि च पापेषु पौर्विकेषु तु भोगतः ।
क्षपितेषु परात्मा स स्वयमाविर्भविष्यति ॥ ५५ ॥
कर्तृभिर्भुज्यते जीवैः सर्वकर्मफलं न तु ।
साक्षिणा निर्विकल्पेन निर्लेपेन परात्मना ॥ ५६ ॥
जीवानां तदनन्यत्वात्भोगस्यावसरः कुतः ।
इति केचन शंकन्ते वेदान्तापातदर्शिनः ॥ ५७ ॥
परमार्थदशायां हि तदनन्यत्वमिष्यते ।
व्यवहार दशायां तु नानुपपत्तिश्च काचन ॥ ५८ ॥
परमार्थदशारूढे जीवन्मुक्तेऽपि कर्मणाम् ।
भोगोऽङ्गीक्रियते सम्यक् दृश्यते च तथा सति ॥ ५९ ॥
अज्ञानां व्यवहारैकनिष्ठानां तदनन्यता ।
अभोक्तृता च केनैव वक्तुं शक्या मनीषिणा ॥ ६० ॥
ज्ञानिनः कर्मकर्तृत्वं दृश्यमानमपि स्फुटम् ।
उत्पादयेत्फलं नेति मन्यन्ते स्वप्नकर्मवत् ॥ ६१ ॥
तदयुक्तं न हि स्वप्ने पापकर्तुः स्वतन्त्रता ।
जाग्रति प्राणिनः कर्म स्वातन्त्र्यं वर्तते खलु ॥ ६२ ॥
तिरश्चां जागरावस्था यथा भोगैक कारणम् ।
तथा स्वप्नदशा नॄणां फलभोगैककारणम् ॥ ६३ ॥
नृणां च जागरावस्था बालानां स्यात्तथा न तु ।
यूनां वृद्धतमानां वा किमुत स्वात्मवेदिनाम् ॥ ६४ ॥
भाविभोगार्थकं कर्म जाग्रत्येव नृणां भवेत् ।
फलं तु कर्मणः स्वप्ने जाग्रत्यपि च युज्यते ॥ ६५ ॥
कर्मण्यध्यस्य भोगं ये भोगेऽध्यस्याथ कर्म च ।
कर्म तद्भोगयोर्भेदमज्ञात्वाहुर्यथेप्सितम् ॥ ६६ ॥
तेषां मन्दधियां ज्ञानवादिनां पापकारिणाम् ।
कथं कृतार्थतां ब्रूयामध्यासक्षयसंभवाम् ॥ ६७ ॥
कर्मण्यकर्मधीर्येषामकर्मणि च कर्म धीः ।
ते चाध्यासवशा मन्दा ज्ञानिनः स्वैरचारिणः ॥ ६८ ॥
वर्णाश्रमादिधर्माणामद्वैतं कर्मणैव ये ।
अनुतिष्ठन्ति ते मूढाः कर्माकर्मोभयच्युताः ॥ ६९ ॥
स्वानुभूतिं वरिष्ठां तां सर्वानुष्ठानवर्जिताम् ।
सर्वानुष्ठानवन्तोऽपि सिद्धामाहुर्बतात्मनाम् ॥ ७० ॥
अभेदध्यानसाध्यां तां स्वानुभूतिं महत्तमाम् ।
विचारसाध्यां मन्यन्ते ते महापापकर्मिणः ॥ ७१ ॥
निदिध्यासनमप्यात्मा भेदाभिध्यानलक्षणम् ।
उपेक्षन्ते वृथा द्वैत ज्ञानवादैकमोहतः ॥ ७२ ॥
आश्रित्यैव विचारं ये वाक्यार्थमननात्मकम् ।
मन्यन्ते कृतकृत्यत्वमात्मनां ते हि मोहिताः ॥ ७३ ॥
आद्यज्ञानोदये काम्यकर्मत्याग उदीर्यते ।
द्वितीयसम्यग्ज्ञाने तु नैमित्तिकनिराकृतिः ॥ ७४ ॥
तृतीयपूर्णज्ञाने च नित्यकर्मनिराकृतिः ।
चतुर्थाद्वैतबोधे तु सोऽति वर्णाश्रमी भवेत् ॥ ७५ ॥
नित्यनैमित्तिकोपेतज्ञानान्मुक्तिः क्रमाद्भवेत् ।
सम्यग्ज्ञानात्तु सा जीवन्मुक्तिर्नित्यैकसंयुतात् ॥ ७६ ॥
पूर्णज्ञानाद्विदेहाख्या शाश्वती मुक्तिरिष्यते ।
यथा नैष्कर्म्यसंसिद्धिर्जीवन्मुक्ते निरंकुशा ॥ ७७ ॥
अत्रैवं सति नैष्कर्म्यं ज्ञानकर्मसमुच्चयात् ।
सिध्येत्क्रमेण सद्यो वा नान्यथा कल्पकोटिभिः ॥ ७८ ॥
यावद्विदेहमुक्तिः सा न सिध्यति शरीरिणः ।
तावत्समुच्चयः सिद्धो ज्ञानोपासनकर्मणाम् ॥ ७९ ॥
तस्माद् ज्ञात्वा परात्मानं ध्याननिष्ठो महामतिः ।
भूयान्निजाश्रमाचारनिरतः श्रेयसे सदा ॥ ८० ॥
ज्ञानोपास्ती कर्मसापेक्षके ते
कर्मोपास्ती ज्ञानसापेक्षके च ।
कर्मज्ञाने चान्यसापेक्षके तन्-
मुक्त्यै प्रोक्तं साहचर्यं त्रयाणाम् ॥ ८१ ॥
ज्ञानोपास्ती स्वीयकर्मस्वपास्याप्येकं
मुक्तिर्नैव कस्यापि सिध्येत् ।
तस्माद्धीमानाश्रयेदप्रमत्त स्त्री-
ण्युक्तानि श्रद्धयाऽऽदेहपातात् ॥ ८२ ॥
॥ इति सूर्यगीतायां प्रथमोऽध्यायः ॥
॥ अथ द्वितीयोऽध्यायः ॥
सूर्य उवाच –
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि कर्मणां पंचभूमिकाः ।
उत्तरोत्तर मुत्कर्षाद्विद्धि सोपान पंक्तिवत् ॥ १ ॥
प्रथामा तांत्रिकी प्रोक्ता परा पौराणिकी मता ।
स्मार्ता तृतीया तुर्या तु श्रौता संकीर्तिता बुधैः ॥ २ ॥
पंचमी त्वौपनिषदा विबुधोत्तमसंमता ।
यस्याः परं न किंचित्स्याद्वाच्यं ज्ञेयं च सत्तम ॥ ३ ॥
स्वेच्छं कर्माणि कुर्वन्यः प्रमाणाश्रयणं विना ।
तन्त्रोक्तानि करोत्येष कर्मी प्राथमिको मतः ॥ ४ ॥
तानि तन्त्रोक्तकर्माणि त्यक्त्वा पौराणिकानि यः ।
करोति तन्त्रसम्बन्धीन्ययं कर्मी द्वितीयकः ॥ ५ ॥
त्यक्त्वा तान्यपि यः स्मार्तान्यनुतिष्ठति सर्वदा ।
श्रुतिसम्बन्धवन्त्येष तृतीयः कर्म्युदीर्यते ॥ ६ ॥
यश्च तान्यपि सन्त्यज्य श्रौतान्येवाचरत्ययम् ।
कर्मी धर्मार्थकामानां स्थानं तुर्योऽभिधीयते ॥ ७ ॥
श्रौतान्यपि च यस्त्यक्त्वा सदौपनिषदानि वै ।
करोति श्रद्धया कर्माण्ययं मोक्षी तु पंचमः ॥ ८ ॥
यान्यौपनिषदानां स्युरविरोधीनि कर्मणाम् ।
श्रौतादीनि सुसंग्राह्यान्यमलानि मुमुक्षुभिः ॥ ९ ॥
कर्माण्युपनिषत्सु स्युर्ब्रह्मैकार्थासु वै कथम् ।
इति शंक्यन्नकुर्वन् हि विधिरस्ति जिजीविषेत् ॥ १० ॥
ईशावास्यादिवेदान्तप्रोक्तान्यामरणादपि ।
कुर्वन्नेव विमुच्येत ब्रह्मवित्प्रवरोऽस्तु वा ॥ ११ ॥
यतयस्त्यक्तगार्हस्थ्या अपि स्वोचितकर्मभिः ।
आश्रमं पालयन्तः स्वं कैवल्यं प्राप्नुयुः परम् ॥ १२ ॥
कर्म प्रजाधनानां यस्त्यागः समभिधीयते ।
कामैकविषयत्वेन स यतेर्न विरुध्यते ॥ १३ ॥
संन्यासिनो हि कर्माणि नित्यानि विमलानि च ।
श्रेयोर्थानि विधीयन्ते परिव्राजेब्जजन्मना ॥ १४ ॥
अपेतकाम्यकर्माणो यतयोऽन्येऽपि वा जनाः ।
सद्यः क्रमेण वा मुक्तिमाप्नुयुर्नात्र संशयः ॥ १५ ॥
पंचमीं भूमिमारूढः ज्ञानोपासनकर्मभिः ।
शोकमोहादिनिर्मुक्तः सर्वदैव विराजते ॥ १६ ॥
न ज्ञानेन विनोपास्तिर्नोपास्त्या न विनेतरत् ।
कर्मापि तेन हेतुत्वं पूर्वपूर्वस्य कथ्यते ॥ १७ ॥
यद्वा यावन्न हि ज्ञानं तावन्नोपासनं मतम् ।
यावन्नोपासनं तावन्न ज्ञानं च कथंचन ॥ १८ ॥
ज्ञानं यावन्न कर्मापि न तावन्मुख्यमीर्यते ।
यावन्न कर्म तावच्च न ज्ञानं साधुसंमतम् ॥ १९ ॥
यावन्नोपासनं तावन्न कर्मापि प्रशस्यते ।
यावन्न कर्मोपास्तिश्च न तावत्सात्त्विकी मता ॥ २० ॥
ज्ञानोपासनकर्माणि सापेक्षाणि परस्परम् ।
प्रयच्छन्ति परां मुक्तिं नान्यथेत्युक्तमेव ते ॥ २१ ॥
एतेषु साधनेष्वेकं त्रिषु यत्किंचिदत्र यः ।
त्यजेदसद्गुरूक्त्या स नाश्नुवीत परामृतम् ॥ २२ ॥
नानाविधानि ज्ञानानि नाना रूपा उपास्तयः ।
नानाविधानि कर्माणि श्रुत्यन्तादिषु संविदुः ॥ २३ ॥
सम्बन्धस्तु त्रयाणां स्यादुचितः शिष्टवर्त्मना ।
निपुणैश्च सुविज्ञेयमनुबन्धचतुष्टयम् ॥ २४ ॥
अनुबन्धाविरोधेन त्रयाणां चेत्समुच्चयः ।
कृतः स सद्यः प्राप्नोति तृप्तिं मानवपुंगवः ॥ २५ ॥
अनुबन्धपरिज्ञानं विना मुक्त्यै प्रयत्नवान् ।
न मुक्तिं विन्दते कोऽपि साधकादिविपर्ययात् ॥ २६ ॥
भोगाधिकारी मोक्षं चेत्फलमिच्छेत्कदाचन ।
अनुबन्धस्य विज्ञानं कथं नु स्यात्समंजसम् ॥ २७ ॥
अधिकारानुगुण्येन सम्बन्धः परिकीर्तितः ।
तत्सम्बन्धानुगुण्येन विषयश्च प्रकीर्तितः ॥ २८ ॥
विषयानुगुणं प्रोक्तं प्रयोजनमतो बुधैः ।
अनुबन्धाः सुविज्ञेया ज्ञानोपासनकर्मसु ॥ २९ ॥
वर्णाश्रमाणां सर्वेषां अनुष्ठेयेषु कर्मसु ।
अविद्वान् संशयात्मा चेदनुवर्तेत पूर्वकान् ॥ ३० ॥
विद्वान् चेत्संशयात्माभूच्छास्त्रे स्वमतिनिश्चितम् ।
आचरेत्तु न शिष्टस्यप्यबुधस्य पितुर्मतम् ॥ ३१ ॥
स्वकूटस्थबुधाचारः साधुसंविदितो यदि ।
विद्वानपि त्यजेत् स्वीयं तद्विरुद्धमसंमतम् ॥ ३२ ॥
पूर्वाचारानुसरणं कर्ममात्रे नियम्यते ।
ज्ञानोपास्त्योस्त्वबाह्यत्वादन्यथाऽपि च युज्यते ॥ ३३ ॥
पूर्वकेष्वपि सांख्येषु स्वस्य युज्येत योगिता ।
अन्यथाऽपि च नैतेन प्रत्यवायः कियानपि ॥ ३४ ॥
यदि पूर्वविरोधेन कुर्यात्कर्माणि मानवः ।
स मूर्खो भवति क्षिप्रं प्रत्यवायी न संशयः ॥ ३५ ॥
नैमित्तिकानामकृतौ काम्यानां च न कश्चन ।
प्रत्यवायोऽत्र वाऽमुत्र लोके भवितुमर्हति॥ ३६ ॥
नित्यानां त्वकृतावत्रामुत्र वा प्रत्यवायभाक् ।
भवेदवश्यकार्यत्वादाश्रमच्युतिहेतवे ॥ ३७ ॥
न स्यादकरणं हेतुरभावात्मतया ततः ।
नित्याकरणहेतुः प्राक्कर्म चेत्प्रत्यवायकृत् ॥ ३८ ॥
अकृतौ प्रत्यवायस्य श्रवणं व्यर्थमेव तत् ।
पूर्वकर्मफलादन्यफलस्यानवधारणात् ॥ ३९ ॥
अतो नाभावता युक्ता नित्यकर्माकृतेर्यथा ।
निषिद्धाचरणं भावस्तथैवाकरणं मतम् ॥ ४० ॥
विहिताकरणस्यापि भावात्मत्वोररीकृतेः ।
आस्तिकत्वमिह प्राहुरन्यथा नास्तिकत्वतः ॥ ४१ ॥
पूर्वकर्मफलस्यापि नित्याकरणकर्मणः ।
पापस्य दुःखहेतुत्वं पृथगेवाववधार्यते ॥ ४२ ॥
अज्ञानाद्विहिते लुप्ते ज्ञानाद्वा कर्मणि स्वके ।
प्रायश्चित्ती भवेन्मर्त्यो लभेद्दुर्जन्म वा पुनः ॥ ४३ ॥
बुद्धिपूर्वं त्यजन्नित्यमनुतापविवर्जितः ।
अनाश्रमी नरो घोरं रौरवं नरकं व्रजेत् ॥ ४४ ॥
जीवन्मुक्तस्य नित्येषु यदि लुप्तानि कानिचित् ।
न तेन प्रत्यवायोऽस्ति कैश्चित्स्वाश्रमसिद्धितः ॥ ४५ ॥
प्रायश्चित्तनिवर्त्यानि निषिद्धाचरणानि च ।
प्रायश्चित्तमकुर्वन्तमपि लिम्पन्ति नैव तम् ॥ ४६ ॥
कर्म शुद्धमशुद्धं च द्विविधं प्रोच्यते श्रुतौ ।
तत्राशुद्धेन बन्धः स्यान्मोक्षः शुद्धेन देहिनाम् ॥ ४७ ॥
अशुद्धं च तथा प्रोक्तं पुण्यं पापमिति द्विधा ।
परस्परं न बाधोऽस्ति तयोरत्राविरोधतः ॥ ४८ ॥
सुखदुःखे समस्तस्य जन्तोर्याभ्यां प्रसिध्यतः ।
तयोर्न वशमागच्छेच्छुद्ध मात्रेण संस्थितः ॥ ४९ ॥
शुद्धं नित्यमनन्तं यत्सत्यं कर्म निगद्यते ।
नित्यशुद्धविमुक्तात्मसाक्षात्कारार्थकं विदुः ॥ ५० ॥
विशुद्धैः कर्मभिः शुद्धानीन्द्रियाणि भवन्त्यलम् ।
इन्द्रियेषु विशुद्धेषु मनः शुद्धं स्वतो भवेत् ॥ ५१ ॥
शुद्धे मनसि जीवोऽपि विशुद्धो ब्रह्मणैकताम् ।
उपेत्य केवलानन्दं निष्कलं परमश्नुते ॥ ५२ ॥
बाह्यमाभ्यन्तरं चेति शुद्धं कर्म द्विधोच्यते ।
बाह्यं स्नानादि नित्यं स्याद्ध्यानाद्याभ्यन्तरं परम् ॥ ५३ ॥
अतः शुद्धेरशुद्धानां नाशो भवितुमर्हति ।
न शुद्धव्यतिरेकेण प्रयत्नान्तरमिष्यते ॥ ५४ ॥
विशुद्धकर्मनिष्ठास्ते यतयोऽन्येऽपि वा जनाः ।
अत्रैव परिमुच्यन्ते स्वातन्त्र्येण परामृतात् ॥ ५५ ॥
आरूढः पंचमीं भूमिं शुद्धेनैवावतिष्ठते ।
अतोऽत्र मतिमान्नित्यं पंचम्यभ्यासमाचरेत् ॥ ५६ ॥
इन्द्रियाणि विशुद्धान्यप्यशुद्धानां विवर्जनात् ।
शुद्धानामप्यनुष्ठानाद्धीमांस्तानि न विश्वसेत् ॥ ५७ ॥
अशुद्धेषु प्रवर्तेरन् पूर्ववासनया स्वतः ।
तेभ्यो नियम्य शुद्धेषु नित्यं तानि प्रवर्तयेत् ॥ ५८ ॥
इन्द्रियाणां च मनसः प्रसादं शुद्धकर्मभिः ।
उपलभ्यापि दुर्बुद्धिरशुद्धेह प्रवर्तते ॥ ५९ ॥
प्रसन्नमनसः स्वास्थ्यात्सुखं किंचित्प्रजायते ।
तावन्मात्रेण तृप्तस्तु क्रमेणाधः पतेन्नरः ॥ ६० ॥
तृप्तिरल्पसुखप्राप्तौ महानर्थैक कारणम् ।
अतस्तृप्तिमनाप्यैव शुद्धं नित्यं समाचरेत् ॥ ६१ ॥
यथा विषयभोगेषु विना तृप्तिं पुनः पुनः ।
प्रवर्तते तथा नित्यं यः शुद्धेषु स बुद्धिमान् ॥ ६२ ॥
शुद्धं शुद्धेन वर्धेत शुद्धः शुद्धं ततो व्रजेत् ।
अशुद्धमप्यशुद्धेनाशुद्धोऽशुद्धं तथा नरः ॥ ६३ ॥
यदेन्द्रियमनःप्राणाः शान्ताः सुप्ताविवाभवन् ।
शुद्धाशुद्धोभयातीतस्तदा तृप्तिं परां व्रजेत् ॥ ६४ ॥
यावन्नेन्द्रियसंशान्तिर्यावन्न मनसोऽप्ययः ।
यावन्न प्राणशान्तिश्च तावच्छुद्धं समाचरेत् ॥ ६५ ॥
परस्परोपयोगित्वाद्बाह्याभ्यन्तरशुद्धयोः ।
वियोगो नैव कार्योऽत्र बुधैरादेहमोचनात् ॥ ६६ ॥
यः शुद्धपक्षो हंसः स ऊर्ध्वं गच्छति चाम्बरे ।
अशुद्ध पक्षः श्येनस्तु व्योमगोऽपि पतत्यधः ॥ ६७ ॥
छिन्नैकपक्षो हंसोऽपि नोर्ध्वं गन्तुमितोऽर्हति ।
अतः शुद्धद्वयं मुख्यं साधनं मुक्तये विदुः ॥ ६८ ॥
यद्यप्याभ्यन्तरं शुद्धं बाह्यशुद्धनिवर्तकम् ।
भवत्येतेन साम्यं न तयोरिति च केचन ॥ ६९ ॥
तथाऽपि बाह्यविलयसमकाललयात्परम् ।
आभ्यन्तरं समं तेन बाह्येन स्यात्स्वकर्मणा ॥ ७० ॥
आभ्यन्तरं च तच्छुद्धं कर्म द्विविधमुच्यते ।
सम्प्रज्ञातसमाध्याख्यमसम्प्रज्ञातनाम च ॥ ७१ ॥
जीवन्मुक्तेः पुरावृत्तमाद्यं कर्म स्व मानसम् ।
पुरा विदेहमुक्तेस्तु वृतमन्यत्स्वमानसम् ॥ ७२ ॥
मानसत्वात्समाधेश्च कर्मत्वोक्तिर्न दूष्यते ।
अनन्यविषयत्वाच्च तत्फलं नैव नश्वरम् ॥ ७३ ॥
अन्तःशुद्धिर्बहिःशुद्धिं यथा नॄणामपेक्षते ।
बहिःशुद्धिस्तथैवान्तःशुद्धिं च नियमेन हि ॥ ७४ ॥
यस्य कर्मसु शुद्धेष्वप्यौदासीन्यं विजायते ।
तस्यैव जन्मसांकर्यमनुमेयं विपश्चिता ॥ ७५ ॥
विरोधो जायते यस्य ज्ञानकर्मसमुच्चये ।
तस्यैव जन्मसांकर्यमनुमेयं विपश्चिता ॥ ७६ ॥
यः श्रौतं कर्म हित्वान्यत्तान्त्रिकं समुपाश्रयेत् ।
तस्यैव जन्मसांकर्यमनुमेयं विपश्चिता ॥ ७७ ॥
यश्चान्तरं च तत्कर्म मन्यते मन्दगोचरम् ।
तस्यैव जन्मसांकर्यमनुमेयं विपश्चिता ॥ ७८ ॥
अशुद्धकर्मनिष्ठः सन् शुद्धं निन्दति यः सदा ।
तस्यैव जन्मसांकर्यमनुमेयं विपश्चिता ॥ ७९ ॥
शुद्धं पश्यति यः शान्तमक्षिरोगीव भास्करम् ।
तस्यैव जन्मसांकर्यमनुमेयं विपश्चिता ॥ ८० ॥
विशुद्धवंशप्रभवं महामतिं
विशुद्धबाह्यान्तरकर्मभास्वरम् ।
विशुद्धवेदान्तरहस्यवेदिनं
विद्वेष्टि यः संकर एव नेतरः ॥ ८१ ॥
अशुद्धवंशप्रभवं सुदुर्मतिं
स्वशुद्धकर्मद्वयनष्टतेजसम् ।
अशुद्धतन्त्रार्थविदं नराधमं
यः श्लाघते संकर एव नेतरः ॥ ८२ ॥
इति सूर्यगीतायां द्वितीयोऽध्यायः ॥
॥ अथ तृतीयोऽध्यायः ॥
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि ममान्तर्यामिणं शिवम् ।
यः सर्वकर्मणां साक्षी निर्लेपः प्रभुरीश्वरः ॥ १ ॥
त्रिनेत्रं नीलकण्ठं यं साम्बं मृत्युंजयं हरम् ।
ध्यात्वा संसृतिमोक्षः स्यात्तं नमामि महेश्वरम् ॥ २ ॥
सर्वेषां कर्मणामेकः फलदाता य उच्यते ।
स एव मृड ईशानः सर्वज्ञः सर्वशक्तिमान् ॥ ३ ॥
यस्य स्मरणमात्रेण निवर्तन्तेऽखिलापदः ।
सम्पदश्चेह लभ्यन्ते सोऽन्तर्यामी शिवो हरः ॥ ४ ॥
येनैव सृष्टमखिलं जगदेतच्चराचरम् ।
यस्मिंस्तिष्ठति नश्यत्यप्येष एको महेश्वरः ॥ ५ ॥
यं नमन्ति सुराः सर्वे स्वस्वाभीष्टप्रसिद्धये ।
स्वातन्त्र्यं यस्य सर्वत्र सोऽन्तर्यामि महेश्वरः ॥ ६ ॥
उमार्धविग्रहः शम्भुः त्रिनेत्रः शशिशेखरः ।
गंगाधरो महादेवः सोऽन्तर्यामि दयानिधिः ॥ ७ ॥
श्रुतिस्मृतिपुराणेषु यस्यैवाधिक्यमिष्यते ।
यस्याधिक्यस्मृतेर्मुक्तिः सोऽन्तर्यामी पुरातनः ॥ ८ ॥
यन्नामजप मात्रेण पुरुषः पूज्यते सुरैः ।
यमाहुः सर्वदेवेशं सोऽन्तर्यामी गुरूत्तमः ॥ ९ ॥
यदाख्यामृतपानेन संतृप्ता मुनयोऽखिलाः ।
न वाञ्छन्ति महाभोगान् सोऽन्तर्यामी जगत्पतिः ॥ १० ॥
अरुण उवाच –
सद्गुरो भास्कर श्रीमन् सर्वतत्त्वार्थकोविद ।
श्रुतिस्मृतिपुराणेषु ह्यन्तर्याम्यन्यथा श्रुतः ॥ ११ ॥
सत्यं ज्ञानमनन्तं यत्प्रसिद्धं ब्रह्म निष्कलम् ।
निर्गुणं निष्क्रियं शान्तं केवलं सर्वगं परम् ॥ १२ ॥
तदेव सर्वान्तर्यामी श्रुतं सर्वान्तरत्वतः ।
वरेण्यं सवितुस्ते च गायत्र्यां तद्धि कथ्यते ॥ १३ ॥
अशरीरस्य तस्यैव ह्यादिमध्यान्तवर्जनात् ।
आकाशवद्विभूतेन सर्वान्तर्यामितोचिता ॥ १४ ॥
शिवस्य सशरीरस्य साम्बस्य सगुणस्य तु ।
अविभुत्वेन सा नैव युज्यते भास्कर प्रभो ॥ १५ ॥
सगुणैकप्रधानैश्च विशिष्टाद्वैत वादिभिः ।
कैश्चिद्ब्रह्महरीशानामन्तर्यामित्वमुच्यते ॥ १६ ॥
सर्वज्ञत्वादिधर्माणां समत्वं च त्रिमूर्तिषु ।
मत्वैवोपासते विप्राः ते गायत्रीपरायणाः ॥ १७ ॥
केचिद् द्रुहिण एव स्यादन्तर्यामी च वाक्पतिः ।
नान्यौ हरिहरौ कर्मप्रसिद्धेरिति वै विदुः ॥ १८ ॥
केचित्तु विष्णुरेव स्यादन्तर्यामी रमापतिः ।
न विधीशौ परोपास्तिप्रसिद्धेरिति वै विदुः ॥ १९ ॥
केचिच्च शिव एकः स्यादन्तर्यामी ह्युमापतिः ।
नान्यौ ब्रह्महरी ज्ञानप्रसिद्धेरिति संविदुः ॥ २० ॥
त्वदुक्तरीत्या त्वाधिक्यं ज्ञानोपासनकर्मसु ।
कर्मणोऽवगतं तेन विधेरेव प्रसिध्यति ॥ २१ ॥
एष पक्षः समीचीनस्तव नैव भविष्यति ।
तस्मादनिश्चितार्थं मां कुरुष्वासंशयं प्रभो ॥ २२ ॥
सूर्य उवाच –
सम्यक् पृष्टं त्वया धीमन्नरुण शृणु सादरम् ।
वक्ष्यामि निश्चितार्थं ते श्रुतिस्मृत्यादिभिः स्फुटम् ॥ २३ ॥
अन्तर्यामी द्विधा प्रोक्तः सगुणो निर्गुणोऽपि च ।
चरस्य केवलं त्वाद्यश्चरस्यान्योऽचरस्य च ॥ २४ ॥
अहं हि चर एवास्मि मदन्तर्यामिणावुभौ ।
गायत्र्यां चावगन्तव्यौ देवौ सगुणनिर्गुणौ ॥ २५ ॥
निर्गुणश्चावगन्तव्यः सगुण द्वारतोऽखिलैः ।
अतोऽब्रुवं शिवं साक्षान्मदन्तर्यामिणं तव ॥ २६ ॥
कारणत्वं यथा सिद्धं ब्रह्मणः परमात्मनः ।
यथा शिवस्य साम्बस्य कार्यत्वं च सतां मतम् ॥ २७ ॥
तथा शिवस्य हेतुत्वं विष्णोः कार्यत्वमप्यथ ।
विष्णोश्च हेतुतां तद्वद्विधेर्विद्धि च कार्यताम् ॥ २८ ॥
ब्रह्मा विष्णुः शिवो ब्रह्म ह्युत्तरोत्तरहेतवः ।
इति जानन्ति विद्वांसो नेतरे मायया वृताः ॥ २९ ॥
विशिष्टाद्वैतिनो वाऽन्ये सगुणैकाभिमानिनः ।
अशरीरानभिज्ञत्वान्मायापरवशा ध्रुवम् ॥ ३० ॥
सर्वज्ञत्वादिधर्माणां कथं साम्यं त्रिमूर्तिषु ।
त्रयाणां च गुणानां हि वैषम्यं सर्वसंमतम् ॥ ३१ ॥
गुणत्रयवशात्तेषां वैषम्यं विद्धि सुस्थितम् ।
ब्रह्मा हि राजसः प्रोक्तो विष्णुस्तामस उच्यते ॥ ३२ ॥
रुद्रः स सात्त्विकः प्रोक्तः मूर्तिवर्णैश्च तादृशाः ।
चित्स्वरूपानुभूत्या च तारतम्यं निगद्यते ॥ ३३ ॥
निर्विशेषपरब्रह्मानन्यत्वेन तु ते समाः ।
तथाऽपि शिव शब्दस्य परब्रह्मात्मकत्वतः ॥ ३४ ॥
साक्षिणा निर्विकारेण चिन्मात्रेण महात्मना ।
सदाशिवेन नित्येन केवलेन समो न हि ॥ ३५ ॥
साम्बस्य चन्द्रचूडस्य नीलकण्ठस्य शूलिनः ।
उत्कर्षोऽस्ति स्वतःसिद्धः किं मया प्रतिपाद्यते ॥ ३६ ॥
आदौ मां जनयामास ब्रह्मा साक्षाच्चतुर्मुखः ।
यथा तथा विरिंचिं तं श्रीमान्नारायणो हरिः ॥ ३७ ॥
यतोऽभवन्महाविष्णुर्ममारुण पितामहः ।
ततो मे सुप्रसिद्धभूत्सूर्यनारायणा भिधा ॥ ३८ ॥
नैतेन सकलेशस्य प्रपितामहतावशात् ।
सर्वोत्कृष्टत्वसंसिद्ध्या लुप्यते ह्यान्तरात्मना ॥ ३९
अथ वा योगवृत्या स्याच्छिवो नारायणाभिधः ।
तद्दृष्टिर्मयि कर्तव्योपासकैरिति सन्मतम् ॥ ४० ॥
कर्मोपासनबोधेषु ब्रह्मविष्णुशिवाः क्रमात् ।
प्रसिद्धा इति संत्यज्य धियं शृणु वचो मम ॥ ४१ ॥
त्रिषु त्रयः प्रसिद्धाः स्युस्तारतम्येन चारुण ।
काम्यकर्मप्रधानोऽस्ति स्वयंभूश्चतुराननः ॥ ४२ ॥
नैमित्तिकप्रधानस्तु विष्णुः कमललोचनः ।
नित्यकर्मप्रधानः स शिवः साक्षात् त्रिलोचनः ॥ ४३ ॥
मूर्त्युपास्तौ विधिमुख्यस्त्वंशोपास्तौ हरिर्मतः ।
निरंशोपासने मुख्यो नीलकण्ठो हरो मतः ॥ ४४ ॥
ज्ञाने श्रवणजे ब्रह्मा विज्ञाने मननोदिते ।
विष्णुः स सम्यग्ज्ञाने तु निदिध्यासनजे शिवः ॥ ४५ ॥
अत्रैवं सति कस्याभूदाधिक्यमरुणाधुना ।
त्वमेव सम्यगालोच्य विनिश्चिनु महामते ॥ ४६ ॥
पुरा कश्चिन्महाधीरः शिवभक्ताग्रणीर्द्विजः ।
शिवाख्याजपसंसक्तश्चचार भुवि निस्पृहः ॥ ४७ ॥
स्वाश्रमाचारनिरतो भस्मरुद्राक्षभूषणः ।
सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञः कामक्रोधादिवर्जितः ॥ ४८ ॥
शमादिषट्कसम्पन्नः शिवभक्तजनादरः ।
शिवस्य वैभवं स्मृत्वा श्रुतिस्मृतिपुराणगम् ॥ ४९ ॥
सर्वेश्वरस्य साम्बस्य त्रिनेत्रस्य दयानिधेः ।
सदाशिवस्य माहात्म्यं स्वत एवेदमब्रवीत् ॥ ५० ॥
पश्वादिभ्यो वरिष्ठाः क्षितिगतमनुजास्तेभ्य एवेन्द्रमुख्यः
देवास्तेभ्यो विधाता हरिरपि च ततः शङ्करो यस्त्रिनेत्रः ।
नान्योऽस्माच्छंकरात्तु श्रुतिषु निगदितो वा वरिष्ठः समो वा
सर्वान्विष्ण्वादिकांस्तं न हि वयमधुना नूनमेवाश्रयामः ॥ ५१ ॥
मूलाधारे गणेशस्तदुपरि तु विधिर्विष्णुरस्मात्ततोऽयं
रुद्रस्थाने चतुर्थे श्रुतिरपि च तथा प्राह शान्तं चतुर्थम् ।
अस्मादन्यः शिवोऽस्ति त्रिपुरहर इतो वा सदाद्यः शिवोऽस्ति
स्वस्थोऽयं द्वादशान्तप्रबलनटनकृच्चापि साक्षात्सभेशः ॥ ५२ ॥
रौद्री शक्तिस्तथा स्यादयमपि च हरिः शाक्त एवं विरिंचो
मन्तव्यो वैष्णवोऽमी सनकमुखमहाब्राह्मणा ब्राह्मणाश्च ।
तस्मादेवं विभक्ते न हि भवति हरेरंशितांशांशिभावे
साक्षादप्यत्र नित्यं परमशिवमहं चांशिनं तं नमामि ॥ ५३ ॥
शम्भोरन्यन्न पश्याम्यहमिह परमे व्योम्नि सोमाच्छ्रुतौ वा
यस्यैवैतेन भासा जगदखिलमिदं भासते चैत्यरूपम् ।
यच्छीर्षाङ्घ्री दिदृक्षु द्रुहिणमुररिपु सर्वशक्त्याप्य दृष्ट्वा
खेदन्तौ जग्मतुस्तं परमशिवममुं त्वां विना कं नु वन्दे ॥ ५४ ॥
यं विष्णुर्नावपश्यत्यखिलजनभयध्वंसकं काशिकायां
लिंगं चोपास्त इत्यप्यधिकभसितरुद्राक्षसंभूषितः सन् ।
जाबालेये बृहत्यप्यथ हरिजनिता श्रूयते सोम एकः
पायाच्छ्रुत्यन्तसिद्धो जनिमृतिभयभृत्संसृतेस्तारको माम् ॥ ५५ ॥
मध्ये को वाऽधिकः स्याद्द्रुहिण हरिहराणामिति प्रश्नपूर्वं
ब्रह्मादौ पैप्पलादं खलु वदति महान्रुद्र एवाधिकः स्यात् ।
इत्युक्त्वा शारभाख्ये श्रुतिशिरसि नमश्चास्तु रुद्राय तस्मै
स्तुत्वैवं ध्येयमाह त्रिपुरहरमुमाकांतमेकं भजेऽहम् ॥ ५६ ॥
ध्याता रुद्रो रमेशो हरिरपि तु तथा ध्यानमेकः शिवस्तु
ध्येयोऽथर्वश्रुतेः सा निखिलरसवती या समाप्ता शिखाभूत् ।
ध्येयश्चिन्मात्र एकः परमशिव इतो वा चिदंशत्व-
मस्य ध्यातुः स्यान्न त्वमुष्य प्रकृतिभवमनोवृत्तिरूपस्य विष्णोः ॥ ५७ ॥
एको रुद्रो महेशः शिव इति च महादेव एवैष सर्व
व्यापी यः श्रूयतेऽस्मिंच्छ्रुतिशिरसि तथाथर्वशीर्षाभिधे च ।
देवाः सर्वे यदन्तस्थितिजुष इह ते विष्णुपूर्वास्ततोन्यः
को वाऽस्याद्व्यापकोऽस्मान्निरतिशयचिदाकाशरूपान्महेशात् ॥ ५८ ॥
नाभौ ब्रह्माणमुक्त्वा हरिमपि हृदये रुद्रमेनं भ्रुवोस्त-
न्मध्ये श्रुत्यन्त एवं प्रणवविवरणे नारसिंहाभिधे च ।
विज्ञेयः सोऽयमात्मा शिव इति च चतुर्थोऽद्वितीयः
प्रशान्तश्चेत्याहान्ते प्रजेशस्त्रिदशपरिपदस्तत्स ईशः प्रपूज्यः ॥ ५९ ॥
कैवल्यं प्राप्नुयात्कः पुरुष इह शिवं केवलं त्वां विहाय
स्वामिन्नीशं तथान्यं जगति सदसतोरत्र विष्णोर्विधेर्वा ।
चिन्मात्रः प्रत्यगात्मा त्वमसि खलु सदा पूर्व एकः शिवोऽत-
स्त्वामेवैकं भजेऽहं सततमपि जगत्साक्षिणं निर्विशेषम् ॥ ६० ॥
सूर्य उवाच –
एवं शिवस्य माहात्म्ये सर्वश्रुत्यन्तनिश्चिते ।
उद्भवेत्संशयः कस्य को मुच्येत च संशयात् ॥ ६१ ॥
अतोरुण महाप्राज्ञ मुख्यान्तर्यामिणं मम ।
त्रिनेत्रं भज कैवल्यसंसिध्यै परमेश्वरम् ॥ ६२ ॥
॥ इति सूर्य गीतायां तृतीयोऽध्यायः ॥
॥ अथ चतुर्थोऽध्यायः ॥
सूर्य उवाच –
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि तस्यान्तर्यामिणो गुरोः ।
जगत्सृष्ट्यादिकर्माणि लीलारूपाणि सुव्रत ॥ १ ॥
आदौ जगत्ससर्जेदं पंचीकरणकर्मणा ।
यः स ईशो महामायः सर्वज्ञः सर्वशक्तिमान् ॥ २ ॥
चतुर्विधेषु भूतेषु निजमायावशीकृतान् ।
जीवान् प्रवेशयित्वानुप्रविवेश स्वयं वशी ॥ ३ ॥
लीलारूपमपीदं च कर्म तस्य महेशितुः ।
प्रारब्धकर्मजं ज्ञेयमाधिकारिकतावशात् ॥ ४ ॥
स ह्यादिकारिकः श्रेष्ठः पूर्वं जीवत्वमागतः ।
समुच्चयादभूदीशो ज्ञानोपासनकर्मणाम् ॥ ५॥
प्राक्कल्पाधिकृतो देवः स्वारब्धक्षपणात्स्वयम् ।
अपहाय निजां मायां प्राप्तवान् परमं पदम् ॥ ६ ॥
अथ तामाश्रितो जीवः कल्पादौ पूर्ववत्क्रमात् ।
सृष्ट्वा सर्वाधिकारी सन् जगत्पाति च हन्ति च ॥ ७ ॥
क्रियमाणतया तेन नियमेनैव कर्मणाम् ।
त्रयाणां तस्य कर्मित्वमीशस्याप्युपपद्यते ॥ ८ ॥
जीवन्मुक्तसमानत्वं यतस्तस्यावगम्यते ।
अतः प्रारब्धकर्मित्वं अवश्यं तस्य सिध्यति ॥ ९ ॥
ब्रह्मवित्त्वं हि तस्य स्यान्न तु ब्रह्मत्वमीशितुः ।
सृष्ट्यादिकर्मकर्तृत्वदर्शनान्माययाऽपि वा ॥ १० ॥
जीवसृष्ट्यादिकर्तृत्वं ब्रह्मणोऽपि तु वर्तते ।
तथापि पूर्वकर्मित्वं तस्य न श्रूयते क्वचित् ॥ ११ ॥
कर्मणः प्रागभावत्वाद्भावत्वाद्ब्रह्मणो विभोः ।
पूर्वकर्मवतो हि स्यात्कर्म प्रारब्धसंज्ञितम् ॥ १२ ॥
सृष्ट्यादिकर्मबद्धत्वे तस्य मायावशत्वतः ।
वश्यमायत्ववचनं व्यर्थमेवेति चेन्न च ॥ १३ ॥
स्वाधिकारावसाने हि कैवल्यं नोपरुध्यते ।
अतस्तस्य प्रसिद्धं तद्वश्यमायत्वमर्थवत् ॥ १४ ॥
स्थितौ तु तस्य मायित्वं कामित्वादिवदिष्यते ।
न धनित्वादिवत्कर्म पारवश्यान्निरन्तरम् ॥ १५ ॥
जाग्रद्वत्सृष्टिकर्म स्यात्स्वप्नवत्स्थितिकर्म च ।
जगत्प्रलयकर्म स्यात् सुप्तिवत्तस्य मायिनः ॥ १६ ॥
अवस्थात्रयवत्त्वेन कर्मत्रितयवत्तया ।
शरीरत्रयवत्त्वेन जीवः सोऽपीति केचन ॥ १७ ॥
तदयुक्तं पुरा जीवोऽप्यद्य ब्रह्मात्मवित्तया ।
सर्वज्ञत्वादिसम्पत्त्या स हि जीवविलक्षणः ॥ १८ ॥
जीवन्मुक्तसमानत्वान्न कर्मत्रयमीशितुः ।
प्रारब्धमात्रबद्धत्वादधिकारवशादिह ॥ १९ ॥
अधिकारावसाने तद्ब्रह्मत्वं सम्भविष्यति ।
इति वेदान्तसिद्धेऽर्थे व्यभिचारः कुतो भवेत् ॥ २० ॥
ब्रह्मैवैकमकर्मोक्तं श्रुतिभिः स्मृतिभिश्च तत् ।
ईशस्य कर्मतोक्तिस्तु श्रूयते ह्यौपचारिकी ॥ २१ ॥
स कर्मत्वेऽपि तस्य स्यात्कर्ममोचकतेशितुः ।
संचितागामिहीनत्वात्सर्वज्ञत्वाच्च सत्तम ॥ २२ ॥
ईश्वरब्रह्मणोर्भेदं सकर्माऽकर्मतादिभिः ।
सुप्रसिद्धमपह्नोतुं कः समर्थोऽस्ति मानतः ॥ २३ ॥
ईश्वरस्याप्यकर्मत्वं यदि ब्रूयान्निरंकुशम् ।
स द्वैती न कदाप्यस्मात्संसारान्मुक्तिमाप्नुयात् ॥ २४ ॥
यतस्तत्पदवाच्योऽर्थः स हेय इति कथ्यते ।
अतस्तस्य न नित्यत्वं नाकर्मत्वं च युज्यते ॥ २५ ॥
अनध्यस्तात्मभावेन न देहेनैव कश्चन ।
व्याप्रीयेत ततश्च स्याद्देहीशो ध्यानसंयुतः ॥ २६ ॥
स्वदेहेऽपीश्वरस्यास्ति नाध्यासः पारमार्थिकः ।
प्रातिभासिकमाश्रित्य स्रष्टृत्वादि निगद्यते ॥ २७ ॥
देहाध्यासस्य सत्यस्य न कदाप्यस्ति संगतिः ।
प्रागीशदेहाभावेन देहाभावेन चाऽप्यये ॥ २८ ॥
जगत्प्रलयकाले स निर्व्यापारोऽपि सुप्तवत् ।
अध्यासबीजवत्त्वेन पुनः सृष्टौ प्रवर्तते ॥ २९ ॥
चतुर्युगसहस्रान्ते विधातुर्हि निशोच्यते ।
तदा सुप्तस्य तस्यापि जीवस्येव सबीजता ॥ ३० ॥
तथा विष्णोर्युगाः प्रोक्तास्तस्माच्छतगुणाधिकाः ।
तथा शिवस्य तस्माच्च विष्णोः शतगुणाधिकाः ॥ ३१ ॥
एवं कालैरवच्छिन्नांस्तारतम्येन जीववत् ।
ईश्वरांस्तान् कथं ब्रूयां देहकर्मादिवर्जितान् ॥ ३२ ॥
व्यष्टिदेहत्रयं स्वीयं मत्वा जीवत्रयं यथा ।
पारमार्थिकसंसारनिबद्धं कर्मितामगात् ॥ ३३ ॥
समष्टिदेहत्रितयं तथा मत्वेश्वरत्रयम् ।
प्रातिभासिकसंसारनिबद्धं कर्मितामगात् ॥ ३४ ॥
शुद्धसत्त्वप्रधानायां मायायां प्रतिबिम्बितः ।
ईश इत्युच्यते तस्य निरुपाधिकता कथम् ॥ ३५ ॥
औपाधिकस्य नित्यत्वं कथं वाच्यं मनीषिभिः ।
अनित्यस्य च नैष्कर्म्यं कथं भवितुमर्हति ॥ ३६ ॥
ब्रह्मण्यारोपितो भ्रान्तैरीशाख्यः सर्वसृष्टिकृत् ।
आत्मयोगिभिरभ्रान्तैः स भवत्यवरोपितः ॥ ३७ ॥
अविद्यातिमिरान्धस्य स्थाणौ चोरवदीश्वरः ।
प्रतिभाति परब्रह्मण्यमले स्वात्मरूपिणि ॥ ३८ ॥
सद्यो मुमुक्षुदृष्ट्या हि नेश्वरस्यास्ति सत्यता ।
अतो विवर्तवादोऽयं सुतरामुपयुज्यते ॥ ३९ ॥
परिणामेऽप्यनित्यत्वसंसिद्धेरीश्वरस्य च ।
अद्वैतब्रह्मनिष्ठत्वं श्रोतुर्जीवस्य सम्भवेत् ॥ ४० ॥
अधिकारिविभेदेन वादास्ते च मतास्त्रयः ।
तत्रोत्तमाधिकारी स्याच्छृण्वन्नीशे विवर्तताम् ॥ ४१ ॥
जीवे तु परिणामित्वं शृण्वन्नेवोत्तमोत्तमः ।
कीटवद्भृङ्गरूपेण परिणामे विमोक्षतः ॥ ४२ ॥
जीवस्येश्वरताऽवाप्तौ क्रममुक्तिर्हि सिध्यति ।
अतोऽस्य सद्यो मुक्त्यर्थं ब्रह्मतावाप्तिरीर्यते ॥ ४३ ॥
तुरीयः पंचमो वाऽऽस्तामीश्वरः षष्ठ एव वा ।
तस्मादतीतं ब्रह्मेति सिद्धान्ते कोऽनुसंशयः ॥ ४४ ॥
ईश्वरे तिष्ठति ब्रह्म ब्रह्मणीशश्च तिष्ठति ।
अत एकत्वमेव स्याद्द्वयोरिति न तर्क्यताम् ॥ ४५ ॥
ब्रह्मण्येवेश्वरः प्रोक्तो न तु ब्रह्मेश्वरे क्वचित् ।
विभोरविभुसंस्थत्वासंभवात्परमात्मनः ॥ ४६ ॥
ब्रह्मक्षत्रमुभे यस्य श्रुत्या भवत ओदनः ।
यस्योपसेचनं मृत्युः स यत्र ब्रह्मणीर्यते ॥ ४७ ॥
तदेतादृशमित्यत्र को वेदेदन्तयाव्ययम् ।
अखण्डं निर्गुणं ब्रह्म निराधारं परं महत् ॥ ४८ ॥
परब्रह्मांशभूतोऽपि परमः पुरुषोत्तमः ।
ईश्वरादधिकः प्रोक्तः किं पुनर्ब्रह्म केवलम् ॥ ४९ ॥
कारणं जगतामीशो जीवानां ब्रह्म कारणम् ।
एवं सतीशब्रह्मैक्यं व्यवहारे कथं भवेत् ॥ ५० ॥
ईशस्य कर्मितायां हि पुण्यं पापं च संभवेत् ।
सुखं दुःखं च तेनैव जीवत्वमिति चेच्छृणु ॥ ५१ ॥
ईशः प्रवर्तते पुण्यपापयोर्लोकसंग्रहात् ।
तथाऽपि सुखदुःखे स्तो नैवात्मज्ञानवत्तया ॥ ५२ ॥
भ्रूणहत्यादिपापानि ह्यकरोद्विष्णुरीदृशः ।
न तैर्दुःखमभूत्तस्य सम्प्राप्तं पारमार्थिकम् ॥ ५३ ॥
लोकक्षेमार्थकत्वेन तत्कृताघस्य निन्द्यता ।
न वाच्या न च तेनास्ति जीवत्वं तस्य सर्वथा ॥ ५४ ॥
ऋगादिवेदकर्ताऽपि स यथोक्तं समाचरेत् ।
अन्यथा सम्प्रसज्येत ह्यप्रामाणिकतेशितुः ॥ ५५ ॥
संसिद्धे शास्त्रकर्तृत्वे न कारयितृता वचः ।
व्यर्थमेवेति चेन्नैष दोष एव विचारणे ॥ ५६ ॥
जीवस्य कर्तृतायां हि स्यात्कारयितृतेशितुः ।
शास्त्रस्य कर्मतायां तु महेशस्यास्ति कर्तृता ॥ ५७ ॥
नैतेन शास्त्रयोनित्वं निर्गुणस्यैव हीयते ।
निर्गुणोद्भूतशास्त्रस्य सगुणाद्व्यक्तिदर्शनात् ॥ ५८ ॥
उपचर्यत ईशस्य गुणिनः शास्त्रयोनिता ।
यद्वाऽस्तामुभयोर्वेदवेदान्ताभ्यां च बीजता ॥ ५९ ॥
न चैतेनास्ति कर्मित्वसाम्यं ब्रह्मेशयोस्तयोः ।
कर्तुश्च कृतकर्तुश्च भेदोऽस्ति स्पष्ट एव हि ॥ ६० ॥
कर्तृत्वं यस्य संसिद्धं कर्मित्वं तस्य सिद्ध्यति ।
इत्यत्र संशयः को वा तद्ब्रह्मेशौ च कर्मिणौ ॥ ६१ ॥
इति चेत्कर्मितेशस्य कामित्वादिवदिष्यते ।
ब्रह्मणोऽपि तु कर्मित्वं धनित्वादिवदित्यतः ॥ ६२ ॥
परतन्त्रो महेशः स्यात्स्वतन्त्रं ब्रह्म निर्गुणम् ।
आधाराधेयभावेन कार्यकारणता द्वयोः ॥ ६३ ॥
कर्मित्वे ब्रह्मणः सिद्धे कथं नैर्गुण्यमीर्यते ।
इति चेन्नैष दोषोऽस्ति मायागुणविवर्जनात् ॥ ६४ ॥
अदृश्यत्वादिभिर्विद्यागुणैरानन्दतादिभिः ।
सगुणव्यपदेशः स्याद्ब्रह्मणस्त्विष्ट एव सः ॥ ६५ ॥
जगत्संसारकर्तृत्वं यथा जीवेशयोर्मतम् ।
तथा जीवेशकर्तृत्वं परस्य ब्रह्मणो मतम् ॥ ६६ ॥
ब्रह्मणोऽन्यो न कर्ताऽस्ति प्राक्कर्मादिविवर्जनात् ।
अनाद्यनन्तं ब्रह्मैकमकर्माकर्तृ हीर्यते ॥ ६७ ॥
ब्रह्मणोऽन्यो न कर्ताऽस्ति प्राक्कर्मादिविवर्जनात् ।
अनाद्यनन्तं ब्रह्मैकमकर्माकर्तृ हीयते ॥ ६७ ॥
कालत्रयेऽप्यकर्तृत्वं ब्रह्मणः सम्मतं यदि ।
जीवेशरचना न स्यात् जगत्संसारयोरपि ॥ ६८ ॥
प्रत्यक्षसिद्धा रचना कर्तारं समपेक्षते ।
अतोऽद्य कर्मकर्तृत्वाद्ब्रह्मणः कर्मितोचिता ॥ ६९ ॥
कर्मित्वे ब्रह्मणोऽप्येवं किं वाच्यं ब्रह्मवेदिनः ।
ब्रह्मीभूतो न कर्मी स्यादित्येतच्च न सिद्ध्यति ॥ ७० ॥
यादृशं ब्रह्म निर्णीतं तद्भूतोऽपि च तादृशः ।
इति निर्णय एव स्याद्युक्तेरपि समंजसः ॥ ७१ ॥
कालत्रयेऽप्यकर्मित्वमकर्तृत्वमकालता ।
कस्य चिद्ब्रह्मणोऽन्यस्य नीरूपस्यास्ति वस्तुनः ॥ ७२ ॥
तत्र कालत्रयातीतं नेह ज्ञेयं विवक्षितम् ।
प्रमेयत्वप्रमाणत्वप्रमातृत्वादिवर्जनात् ॥ ७३ ॥
ये तु ब्रह्मेशजीवाः सम्प्रोक्ताः कर्तृत्वसंयुताः ।
विद्यया मायया ते हि कर्मिणोऽविद्ययापि च ॥ ७४ ॥
कर्मिषु त्रिषु चोक्तेषु ब्रह्मणः श्रैष्ठ्यदर्शनात् ।
अकर्मत्वं श्रुतिस्मृत्योः प्रोच्यते युक्तमेव तत् ॥ ७५ ॥
एतेन कर्मिणः श्रैष्ठ्यं संसिद्धमिति ये विदुः ।
औदासीन्यं न तेषां स्याच्छ्रुतिस्मृत्युक्तकर्मसु ॥ ७६ ॥
ज्ञानादुपास्तिरुत्कृष्टा कर्मोत्कृष्टमुपासनात् ।
इति यो वेद वेदान्तैः स एव पुरुषोत्तमः ॥ ७७ ॥
इति सूर्यगीतायां चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
अथ पञ्चमोऽध्यायः ॥
सूर्य उवाच –
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि कर्मिश्रेष्ठस्य लक्षणम् ।
यच्छ्रुत्वा नैव भूयोऽन्यच्छ्रोतव्यं तेऽवशिष्यते ॥ १ ॥
यस्य देहः स्वकीयोऽपि सर्वथा न प्रतीयते ।
नेन्द्रियाणि च सर्वाणि स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥ २ ॥
यस्य प्राणाः प्रशान्ताः स्युर्मन आदीनि च स्वयम् ।
अव्यक्तान्तानि सर्वाणि स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥ ३ ॥
बालोन्मत्तपिशाचादि चेष्टितान्यपि यत्र नो ।
निष्ठाऽजगरवद्यस्य स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥ ४ ॥
नाहंभावश्च यस्यास्ति नेदंभावश्च कुत्रचित् ।
सर्वद्वन्द्वविहीनात्मा स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥ ५ ॥
प्राग्बद्धोऽहं विमुक्तोऽद्येत्येवं यस्य स्मृतिर्न च ।
नित्यमुक्तस्वरूपः सन् स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥ ६ ॥
विदेहमुक्तो यः प्रोक्तो वरिष्ठो ब्रह्मवेदिनाम् ।
अरूपनष्टचित्तासुः स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥ ७ ॥
कर्माणि यस्य सर्वाणि वासनात्रयजानि च ।
अभवन्नपशान्तानि स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥ ८ ॥
कर्माणि कर्मभिः शुद्धैरशुद्धान्युपमृद्य यः ।
स कर्मब्रह्ममात्रोऽभूत् स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥ ९ ॥
ज्ञानिनामपि यः श्रेष्ठः सप्तमीं भूमिकां गतः ।
उपासकानां यश्चैकः स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥ १० ॥
यः सर्वैः पीडितोऽपि स्यान्निर्विकारोऽपि पूजितः ।
सुखदुःखे न यस्य स्तः स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥ ११ ॥
यः सर्वैर्मनुजैः पूज्यो यः सर्वैश्च सुरासुरैः ।
ब्रह्मविष्णुशिवैर्यश्च स कर्मिश्रेष्ठ उच्यते ॥ १२ ॥
त्यक्त्वा कर्माणि सर्वाणि स्वात्ममात्रेण तिष्ठतः ।
कथं कर्मित्वमित्येवं मा शंकिष्ठा महामते ॥ १३ ॥
कर्मणां फलमेषा हि स्वात्ममात्रेण संस्थितिः ।
अतः सफलकर्मैष कर्मिश्रेष्ठो भवेद्ध्रुवम् ॥ १४ ॥
ज्ञानेन ज्ञायते यद्वा उपास्त्या चोपलभ्यते ।
तत्स्थिरं प्राप्यतेऽनेन कर्मणाऽतोऽस्य कर्मिता ॥ १५ ॥
देहेऽस्मिन् वर्तमानेऽपि देहस्मृतिविवर्जनात् ।
विदेहमुक्त इत्युक्तः कथं कर्मीति चेच्छृणु ॥ १६ ॥
देहविस्मृतिमत्त्वेऽपि कर्मदेहे स्थितत्वतः ।
अन्यदृष्ट्याऽस्य देहित्वात्कर्मित्वमुपपद्यते ॥ १७ ॥
देहस्थत्वादपूर्णः स्यादिति शक्यं न किंचन ।
तटाकमप्रकुंभस्थं जलं पूर्णं हि दृश्यते ॥ १८ ॥
प्रारब्धकर्ममुक्तोऽपि भोगान्भुक्तोऽपि चाखिलान् ।
कर्माकार्ये स्थितः कर्मी देहे स्याद्भोगसाधने ॥ १९ ॥
साधने सति देहेऽपि साध्यो भोगो न सिध्यति ।
देहविस्मृतिमत्त्वेन देहहीनसमत्वतः ॥ २० ॥
आहिताग्नित्वसंसिद्ध्यै ज्योतिष्टोमे कृतेऽपि च ।
यथा न स्वर्गमाप्नोति निष्कामः पुरुषर्षभः ॥ २१ ॥
जाग्रस्वप्नसुषुप्त्यात्मसन्धित्रयकृतामृतः ।
सर्वसन्ध्यादिरहितः सन्धिभिर्वन्द्यते सदा ॥ २२ ॥
यः सर्वकर्मभिर्वन्द्यो नित्यं सर्वैरकर्मिभिः ।
स कर्मिप्रवरोऽकर्मिप्रवरश्चेति कथ्यते ॥ २३ ॥
सर्वसाम्यमुपेत्यस्य स्वात्मारामस्य योगिनः ।
सहस्रशः कृतैः किं वा वन्दनैरकृतेश्च वा ॥ २४ ॥
देहादिषु विकारेषु स्वीयत्वं स्वत्वपूर्वकम् ।
विहाय नित्यनिष्ठाभिः स्वमात्रः स विराजते ॥ २५ ॥
इन्द्रियार्थैर्विमूढानां दुष्कर्मत्वं निगद्यते ।
तैरपेतः सुकर्म्येष विदेह इति कथ्यते ॥ २६ ॥
यः सर्वद्वन्द्वनिर्मुक्तः सर्वत्रिपुटिवर्जितः ।
सर्वावस्थाविहीनः स विदेह इति कथ्यते ॥ २७ ॥
लौकिकं वैदिकं कर्म सर्वं यस्मिन्क्षयं गतम् ।
यस्मान्नैवाणुमात्रं च विदेह इति कथ्यते ॥ २८ ॥
यस्येन्द्रियाणि सर्वाणि न चलन्ति कदाचन ।
भित्तिस्थचित्रांगानीव विदेह इति कथ्यते ॥ २९ ॥
आत्मानं सत्यमद्वैतं केवलं निर्गुणामृतम् ।
सम्पश्यतः सदा स्वान्यविकारस्फुरणं कुतः ॥ ३० ॥
आत्मेतरदसत्यं च द्वैतं नानागुणान्वितम् ।
अपश्यतः सदानन्दस्वरूपास्फुरणं कुतः ॥ ३१ ॥
आदिमध्यान्तरहितचिदानन्दस्वरूपिणः ।
स्थितप्रज्ञस्य को बाधः शरीरेण स्वयोगिनः ॥ ३२ ॥
कर्माणि कर्मणा त्यक्त्वा ब्रह्मणा ब्रह्मणि स्थितः ।
कर्मणा शर्म सततं सम्प्राप्तः स विराजते ॥ ३३ ॥
बुद्धेस्तैक्ष्ण्यं च मौढ्यं च यस्य नैवास्ति किंचन ।
बुद्धेः पारंगतः सोऽयं प्रबुद्धः शोभतेतराम् ॥ ३४ ॥
मनस्तथैव संलीनं चितीव लवणं जले ।
यथा निरन्तरात्मीयनिष्ठया सोऽद्वयोऽभवत् ॥ ३५ ॥
समनस्त्वान्महद्दुःखममनस्कस्य तत्कुतः ।
समनस्को हि संकल्पान् करुते दुःखकारिणः ॥ ३६ ॥
प्रारब्धकर्मजं दुःखं जीवन्मुक्तस्य कथ्यते ।
कर्मत्रयविहीनस्य विदेहस्य कथं नु तत् ॥ ३७ ॥
कर्म कर्तव्यमिति वा न कर्तव्यमितीह वा ।
यदि मन्येत वैदेहीं न मुक्तिं प्राप्तवांस्तु सः ॥ ३८ ॥
समाधिर्वाऽथ कर्तव्यो न कर्तव्य इतीह वा ।
यदि मन्येत वैदेहीं न मुक्तिं प्राप्तवांस्तु सः ॥ ३९ ॥
पूर्वं बद्धोऽधुना मुक्तोऽस्म्यहमित्येव बन्धनात् ।
यदि मन्येत वैदेहीं न मुक्तिं प्राप्तवांस्तु सः ॥ ४० ॥
पूर्वमप्यभवन्मुक्तो मध्ये भ्रान्तिस्तु बन्धवत् ।
यदि मन्येत वैदेहीं न मुक्तिं प्राप्तवांस्तु सः ॥ ४१ ॥
वन्ध्यापुत्रादिवत्सर्वं मय्यभूदसदित्यपि ।
यदि मन्येत वैदेहीं न मुक्तिं प्राप्तवांस्तु सः ॥ ४२ ॥
आविद्यकं तमो ध्वस्तं स्वप्रकाशेन वा इति ।
यदि मन्येत वैदेहीं न मुक्तिं प्राप्तवांस्तु सः ॥ ४३ ॥
स्वप्नेऽपि नाहंभावोऽस्ति मम देहेन्द्रियादिषु ।
यदि मन्येत वैदेहीं न मुक्तिं प्राप्तवांस्तु सः ॥ ४४ ॥
अरूपनष्टमनसो विदेहत्वं प्रकीर्त्यते ।
तत्कथं मन्यमानस्य यत्किंचित्स्यादनात्मनः ॥ ४५ ॥
मनो नश्यति निःशेषं मननस्य विसर्जनात् ।
अमनस्कस्वभावं तत्पदं तस्यावशिष्यते ॥ ४६ ॥
मननेन विनिश्चित्य वैदेहीं मुक्तिमात्मनः ।
नैष्कर्म्यसिद्धिं वदतां का तृप्तिरविवेकिनाम् ॥ ४७ ॥
श्रुत्वा वेदान्तवाक्यानि मोदन्तेऽनुभवं विना ।
लीढेन ताडपत्रेण गुडाक्षरयुतेन किम् ॥ ४८ ॥
स्वानुभूतिं विना शास्त्रैः पण्डिताः समलंकृताः ।
कचहीनेव विधवा भूषणैर्भूषितोत्तमैः ॥ ४९ ॥
स्वानुभूतिं विना कर्माण्याचरन्त्यखिलान्यपि ।
स्वर्णयःकुम्भकारादितुल्या एवोपवीतिनः ॥ ५० ॥
स्वानुभूतिं विना वेदान् पठन्ति विविधा द्विजाः ।
प्रावृण्णिशायां परितो मण्डूका इव दुस्स्वराः ॥ ५१ ॥
स्वानुभूतिं विना देहं बिभ्रत्यध्यासदार्ढ्यतः ।
शाकल्यस्य मृतं देहं धनबुद्ध्येव तस्कराः ॥ ५२ ॥
स्वानुभूतिं विना ध्यानं कुर्वन्त्यासनसंयुताः ।
बका इवांभसस्तीरे मत्स्यवंचनतत्पराः ॥ ५३ ॥
स्वानुभूतिं विना श्वासान्निरुन्धन्ति हठात्सदा ।
अयस्कारोऽनिलं बाह्यं द्रुतिकायामिवाधिकम् ॥ ५४ ॥
स्वानुभूतिं विना योगदण्डपट्टादिधारिणः ।
जीर्णकन्थाभरं भग्नदण्डभाण्डादि पित्तवत् ॥ ५५ ॥
स्वानुभूतिं विना यद्यत्कुर्वन्ति भुवि मानवाः ।
तत्तत्सर्वं वृथैव स्यान्मरुभूमौ कृषिर्यथा ॥ ५६ ॥
स्वानुभूत्यर्थकं कर्म निकृष्टमपि सर्वथा ।
उत्तमं विबुधैः श्लाघ्यं श्वेव चोरनिवर्तकः ॥ ५७ ॥
स्वानुभूत्युपयुक्तेभ्य इतराणि बहून्यपि ।
कर्मादीन्याचरन्मर्त्यो भ्रान्तवद्व्यर्थचेष्टितः ॥ ५८ ॥
श्रुतिस्मृतिपुराणेषु काम्यकर्माण्यनेकधा ।
प्रोच्यन्ते तेषु संसक्तस्त्याज्यः शिष्टैर्विटो यथा ॥ ५९ ॥
काम्यकर्मसमासक्तः स्वनिष्ठां स्वस्य मन्यते ।
जात्यन्धः स्वस्य रत्नादिपरीक्षादक्षतामिव ॥ ६० ॥
अवशेन्द्रियमात्मार्थगुरुबुद्ध्यैव सेवते ।
बालातन्तुसुतं लोकेऽगणितं भुक्तये यथा ॥ ६१ ॥
यस्तु वश्येन्द्रियं शान्तं निष्कामं सद्गुरुं सदा ।
स्वात्मैकरसिकं मुक्त्यै स धीमानुपगच्छति ॥ ६२ ॥
काम्यकर्माणि चोत्सृज्य निष्कामो यो मुमुक्षया ।
शान्त्यादिगुणसंयुक्तं गुरुं प्राप्तः स मुच्यते ॥ ६३ ॥
इति श्रुत्वाऽरुणः सूर्यात्संतुष्टः स्वात्मनिष्ठया ।
कृतकृत्य इदं प्राह भास्करं विनयान्वितः ॥ ६४ ॥
अरुण उवाच –
श्रीमन्गुरुवर स्वामिंस्त्वन्मुखात्पारमार्थिकम् ।
निष्कामकर्ममाहात्म्यं श्रुत्वा धन्योऽस्म्यसंशयम् ॥ ६५ ॥
सकर्मत्वमकर्मत्वं विदेहस्य च लक्षणम् ।
श्रुतं रहस्यं नातोऽन्यत्किंचिदप्यवशिष्यते ॥ ६६ ॥
तथाऽपि मम साक्षात्त्वं कर्तव्यं ब्रूहि निश्चितम् ।
मच्चित्तपरिपाकं हि षेत्सि सर्वज्ञ सद्गुरो ॥ ६७ ॥
इति पृष्ट उवाचेदं भगवान्भास्करोऽरुणम् ।
स्वसारथिं निजग्रस्थं बद्धबाहुं नताननम् ॥ ६८ ॥
सूर्य उवाच –
अरुण त्वं परं ब्रह्म साक्षाद्दृष्ट्वाऽधुना कृती ।
तथाऽप्यादेहपतनाद्ब्रह्माभिध्यानमादरात् ॥ ६९ ॥
स्वाधिकारोचितं शुद्धं कर्माप्याचर सत्तम ।
प्रमादो माऽस्तु ते स्वप्नेऽप्युक्तयोर्ब्रह्मकर्मणोः ॥ ७० ॥
संवादमावयोरेतं सर्वपापहरं शुभम् ।
यः शृणोति सकृद्वा स कृतार्थो नात्र संशयः ॥ ७१ ॥
श्रीगुरुमूर्तिरुवाच –
इति दिनकरवक्त्राद्ब्रह्मकर्मैनिष्ठां
स्फुटतरमवगम्य प्राज्ञ एकोऽरुणः सः ।
अभवदखिललोकैः पूजनीयः कृतार्थ-
स्त्वमपि भव तथैव क्षिप्रमंभोजजन्मन् ॥ ७२ ॥
विमलविगुणयोगाभ्यासदार्ढ्येन युक्तः
सकलगतचिदात्मन्यद्वितीये बुधोऽपि ।
सततमपि कुरुष्वारब्धदुःखोपशान्त्यै
रहसि निजसमाधीन्स्वोक्तकर्मापि धातः ॥ ७३ ॥
इति तत्त्वसारायणकर्मकाण्डोक्तश्रीसूर्यगीतायां पंचमोऽध्यायः ॥
॥ इति सूर्यगीता समाप्ता ॥
अथ अथर्ववेदीय सूर्य उपनिषद
सूदितस्वातिरिक्तारिसूरिनन्दात्मभावितम् । सूर्यनारायणाकारं नौमि चित्सूर्यवैभवम् ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः । स्थिरैरण्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः । स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ अथ सूर्याथर्वाङ्गिरसं व्याख्यास्यामः । ब्रह्मा ऋषिः । गायत्री च्हन्दः । आदित्यो देवता । हंसः सोऽहमग्निनारायणयुक्तं बीजम् । हृल्लेखा शक्तिः । वियदादिसर्गसंयुक्तं कीलकम् । चतुर्विधपुरुषार्थसिद्ध्यर्थे विनियोगः । षट्स्वरारूढेन बीजेन षडङ्गं रक्ताम्बुजसंस्थितम् । सप्ताश्वरथिनं हिरण्यवर्णं चतुर्भुजं पद्मद्वयाभयवरदहस्तं कालचक्रप्रणेतारं श्रीसूर्यनारायणं य एवं वेद स वै ब्राह्मणः ।
ॐ भूर्भुवः स्वः । ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् । सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च । सूर्याद्वै खल्विमानि भूतानि जायन्ते । सूर्याद्ययः पर्जन्योऽन्नमात्मा नमस्ते आदित्य । त्वमेव प्रत्यक्षं कर्मकर्तासि । त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि । त्वमेव प्रत्यक्षं विष्णुरसि । त्वमेव प्रत्यक्षं रुद्रोऽसि । त्वमेव प्रत्यक्षमृगसि । त्वमेव प्रत्यक्षं यजुरसि । त्वमेव प्रत्यक्षं सामासि । त्वमेव प्रत्यक्षमथर्वासि । त्वमेव सर्वं छन्दोऽसि । आदित्याद्वायुर्जायते । आदित्याद्भूमिर्जायते । आदित्यादापो जायन्ते । आदित्याज्ज्योतिर्जायते । आदित्याद्व्योम दिशो जायन्ते । आदित्याद्देवा जायन्ते । आदित्याद्वेदा जायन्ते । आदित्यो वा एष एतन्मण्डलं तपति । असावादित्यो ब्रह्म । आदित्योऽन्तःकरण मनोबुद्धिचित्ताहंकाराः । आदित्यो वै व्यानः समानोदानोऽपानः प्राणः । आदित्यो वै श्रोत्रत्वक्चक्षूरसनघ्राणाः । आदित्यो वै वाक्पाणिपादपायूपस्थाः । आदित्यो वै शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाः । आदित्यो वै वचनादानागमनविसर्गानन्दाः । आनन्दमयो विज्ञानमयो विज्ञानघन आदित्यः । नमो मित्राय भानवे मृत्योर्मा पाहि । भ्राजिष्णवे विश्वहेतवे नमः । सूर्याद्भवन्ति भूतानि सूर्येण पालितानि तु । सूर्ये लयं प्राप्नुवन्ति यः सूर्यः सोऽहमेव च । चक्षुर्नो देवः सविता चक्षुर्न उत पर्वतः । चक्षुर्धाता दधातु नः । आदित्याय विद्महे सहस्रकिरणाय धीमहि । तन्नः सूर्यः प्रचोदयात् । सविता पुरस्तात् सवितापश्चात्तात् सवितोत्तरात्तात्सविताधरात्तात् । सविता नः सुवतु सर्वतातिं सविता नो रासतां दीर्घमायुः । ॐइत्येकाक्षरं ब्रह्म । घृणिरिति द्वे अक्षरे । सूर्य इत्यक्षरद्वयम् । आदित्य इति त्रीण्यक्षराणि । एतस्यैव सूर्यस्याष्टाक्षरो मनुः । यः सदाहरहर्जपति स वै ब्राह्मणो भवति स वै ब्राह्मणो भवति । सूर्याभिमुखो जप्त्वा महाव्याधिभयात्प्रमुच्यते । अलक्ष्मीर्नश्यति । अभक्ष्यभक्षणात्पूतो भवति । अगम्यागमनात्पूतो भवति । पतितसम्भाषणात्पूतो भवति । असत्सम्भाषणात्पूतो भवति । मध्याह्ने सूर्याभिमुखः पठेत् । सद्योत्पन्नपञ्चमहापातकात्प्रमुच्यते । सैषा सावित्रीं विद्यां न किञ्चिदपि न कस्मैचित्प्रशंसयेत् । य एतां महाभागः प्रातः पठति स भाग्यवाञ्जायते । पशून्विन्दति । वेदार्थं लभते । त्रिकालमेतज्जप्त्वा क्रतुशतफलमवाप्नोति । यो हस्तादित्ये जपति स महामृत्युं तरति स महामृत्युं तरति य एवं वेद ॥ इत्युपनिषत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ भद्रं कर्णेभिरिति शान्तिः ॥ इति सूर्योपनिषत्समाप्ता ॥
आदित्यं च शिवं विद्याच्छिवमादित्यरूपिणम् । उभयोरन्तरं नास्ति आदित्यस्य शिवस्य च ॥ ११६॥ श्रीभविष्योत्तरपुराणे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे आदित्यहृदयस्तोत्रं || अर्थात- आदित्य यानि सूर्य को ही शिव जानो. और शिवजी को ही सूर्य रूप जानो क्योंकि भगवान सूर्य में और भगवान शिवजी में कोई भेद नहीं है |
संक्षिप्त रुद्राभिषेक विधि:-
संक्षिप्त रुद्राभिषेक विधि :-
१ गणेश = ग॒णानां॑ त्वा ग॒णप॑तिᳪ हवामहे प्रि॒याणां॑ त्वा प्रि॒यप॑तिᳪ हवामहे नि॒धीनां॑ त्वा॑ निधि॒पति॑ᳪ हवामहे वसो मम । आहम॑जानि गर्भ॒धमा त्वम॑जासि गर्भ॒धम् ।। १९ ।।
२ गौरी =आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन्मातरं पुरः । पितरं च प्रयन्स्वः ॥
३ स्कन्दस्वामी = यदक्रन्दः प्रथमं जायमान उद्यन्समुद्रादुत वा पुरीषात् । श्येनस्य पक्षा हरिणस्य बाहू उपस्तुत्यं महि जातं ते अर्वन् ॥१॥
४ नन्दी = वयं सोम व्रते तव मनस्तनूषु बिभ्रतः । प्रजावन्तः सचेमहि ॥
५ सर्प वासुकि = नमोऽस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथिवीमनु ।ये ऽ अन्तरिक्षे ये दिवि तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः ॥ वासुकिने नमः
६ कुबेराय = कुविदङ्ग यवमन्तो यवं चिद्यथा दान्त्यनुपूर्वं वियूय । इहेहैषां कृणुहि भोजनानि ये बर्हिषो नमोवृक्तिं न जग्मुः ॥
७ त्रिशूलाय ,डमरवे = त्रिंशद्धाम वि राजति वाक्पतंगाय धीयते । प्रति वस्तोरह द्युभिः ॥
गकारः कण्ठोर्ध्वं गजमुखसमो मर्त्यसदृशो णकारः कण्ठाधो जठर सदृशाकार इति च । अधोभावः कट्यां चरण इति हीशोस्य च तमः विभातीत्थं नाम त्रिभुवन समं भू र्भुव स्सुवः ॥ 3 ॥
आदिशक्ति त्वमसि काली मुण्डमाला धारिणी ।
त्वमसितारा मुण्डहारा विकटसंकटहारिणी।।
त्रिपुरसुन्दरि आदिका त्वं षोडशी परमेश्वरी ।
सकल मंगलमूर्तिरसि जगदम्बिके भुवनेश्वरी ॥
ॐ ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतंसं, रत्नाकल्पोज्ज्वलांगं परशुमृग वराभीतिहस्तं प्रसन्नम्। पद्मासीनं समन्तात् स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं वसानं विश्वाद्यं विश्वबीजं निखिलभयहरं पंचवक्त्रं त्रिनेत्रम्।।
गायत्री त्रिष्टुब् जगत्य् अनुष्टुप् पङ्क्त्या सह । बृहत्य् उष्णिहा ककुप् सूचीभिः शम्यन्तु त्वा ॥इति पाद्यम्
नमो ऽस्तु नीलग्रीवाय सहस्राक्षाय मीढुषे । अथो ये ऽ अस्य सत्वानो ऽहं तेभ्यो ऽकरं नमः ॥ इति अर्घ्यं
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकम् इव बन्धनान् मृत्योर् मुक्षीय माऽमृतात् ।
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम् । उर्वारुकम् इव बन्धनाद् इतो मुक्षीय मामुतः ॥ इत्याचमनीयं
इ॒मं मे॑ वरुण श्रु॒धी हव॑म॒द्या च॑ मृडय । त्वाम॑स्व॒स्युरा च॑के इति स्नानम्
पयः पृथिव्यां पय ऽ ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः । पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम् ॥ इति पयस्नानम्
दधिक्राव्णो अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वा॒जिन॑: । सु॒र॒भि नो॒ मुखा॑ कर॒त्प्र ण॒ आयू॑ᳪषि तारिषत् ।। इति दधिस्नानम्
ॐ घृतं घृतपावानः पिबत वसाम्व्वसापावानः पिबतान्तरिक्षस्य हविरसि स्वाहा दिशः प्रदिशऽआदिशो विदिशऽउद्दिशो दिग्भ्यः स्वाहा । इति घृतस्नानं
मधु वाता ऽ ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः । माध्वीर् नः सन्त्व् ओषधीः ॥ मधु नक्तम् उतोषसो मधुमत् पार्थिवꣳ रजः । मधु द्यौर् अस्तु नः पिता ॥ मधुमान् नो वनस्पतिर् मधुमाँ२ऽ अस्तु सूर्यः । माध्वीर् गावो भवन्तु नः ॥ इति मधुस्नानम्
अपाꣳ रसम् उद्वयसꣳ सूर्ये सन्तꣳ समाहितम् । अपाꣳ रसस्य यो रसस् तं वो गृह्णाम्य् उत्तमम् ।
उपयामगृहीतो सीन्द्राय त्वा जुष्टं गृह्णामि । एष ते योनिर् इन्द्राय त्वा जुष्टतमम् ॥ इति शर्करा स्नानम्
पुनन्तु मा देवजनाः पुनन्तु मनसा धियः । पुनन्तु विश्वा भूतानि जातवेदः पुनीहि मा ॥ इति शुद्धोदकम्
पञ्च नद्यः सरस्वतीम् अपि यन्ति सस्रोतसः । सरस्वती तु पञ्चधा सो देशे ऽभवत् सरित् ॥ इति पञ्चामृत स्नानम्
गन्धर्वस्त्वा विश्वावसुः परिदधातु विश्वस्यारिष्ट्यै यजमानस्य परिधिरस्यग्निरिड ईडित इति गन्धोदकस्नानम्
त्वं यविष्ठ दाशुषो नॄꣳः पाहि शृणुधी गिरः । रक्षा तोकम् उत त्मना ॥ इति शुद्धोदकस्नानम्
मातर्गंङ्गे तरलतरङ्गे सततं वारिधिवारिणि सङ्गे। मम तव तीरे पिबतो नीरं ‘हरि हरि’ जपतः पततु शरीरम्।। इति गङ्गा जलम्
अथाभिषेकं
नमस् ते रुद्र मन्यव ऽ उतो त ऽ इषवे नमः । बाहुभ्याम् उत ते नमः ॥
या ते रुद्र शिवा तनूर् अघोरापापकाशिनी । तया नस् तन्वा शंतमया गिरिशन्ताभि चाकशीहि ॥
याम् इषुं गिरिशन्त हस्ते बिभर्ष्य् अस्तवे । शिवां गिरित्र तां कुरु मा हिꣳसीः पुरुषं जगत् ॥
शिवेन वचसा त्वा गिरिशाच्छा वदामसि । यथा नः सर्वम् इज् जगद् अयक्ष्मꣳ सुमना ऽ असत् ॥
अध्य् अवोचद् अधिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक् । अहीꣳश् च सर्वान् जम्भयन्त् सर्वाश् च यातुधान्यो ऽधराचीः परा सुव ॥
असौ यस् ताम्रो ऽ अरुण ऽ उत बभ्रुः सुमङ्गलः । ये चैनꣳ रुद्रा ऽ अभितो दिक्षु श्रिताः सहस्रशो वैषाꣳ हेड ऽ ईमहे ॥
असौ यो ऽवसर्पति नीलग्रीवो विलोहितः । उतैनं गोपा ऽ अदृश्रन्न् अदृश्रन्न् उदहार्यः स दृष्टो मृडयाति नः ॥
नमो ऽस्तु नीलग्रीवाय सहस्राक्षाय मीढुषे । अथो ये ऽ अस्य सत्वानो ऽहं तेभ्यो ऽकरं नमः ॥
प्र मुञ्च धन्वनस् त्वम् उभयोर् आर्त्न्योर् ज्याम् । याश् च ते हस्त ऽ इषवः ऽ परा ता भगवो वप ॥
विज्यं धनुः कपर्दिनो विशल्यो वाणवाꣳ२ऽ उत । अनेशन्न् अस्य याऽइषव ऽआभुर् अस्य निषङ्गधिः ॥
या ते हेतिर् मीढुष्टम हस्ते बभूव ते धनुः । तयास्मान् विश्वतस् त्वम् अयक्ष्मया परि भुज ॥
परि ते धन्वनो हेतिर् अस्मान् वृणक्तु विश्वतः । अथो य ऽइषुधिस् तवारे ऽ अस्मन् नि धेहि तम् ॥
अवतत्य धनुष् ट्वꣳ सहस्राक्ष शतेषुधे । निशीर्य शल्यानां मुखा शिवो नः सुमना भव ॥
नमस् त ऽ आयुधायानातताय धृष्णवे । उभाभ्याम् उत ते नमो बाहुभ्यां तव धन्वने ॥
मा नो महान्तम् उत मा नो ऽ अर्भकं मा न ऽ उक्षन्तम् उत मा न ऽ उक्षितम् । मा नो वधीः पितरं मोत मातरं मा नः प्रियास् तन्वो रुद्र रीरिषः ॥
मा नस् तोके तनये मा न ऽ आयुषि मा नो गोषु मा नो ऽ अश्वेषु रीरिषः । मा नो वीरान् रुद्र भामिनो वधीर् हविष्मन्तः सदम् इत् त्वा हवामहे ॥
सनातन धर्मावलंबियों के लिये सामान्य ज्ञान
भगवान् सूर्य से ही काल प्रवर्तन होता है |
कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिः सर्वमलाश्रयः। कला काष्ठा मुहूर्त्ताश्च क्षपा यामस्तथा क्षणः ।।
■ काष्ठा = सैकन्ड का 34000 वाँ भाग
■ 1 त्रुटि = सैकन्ड का 300 वाँ भाग
■ लग्न = नारदसंहिता में बताया है कि लग्नज्ञानमतिकठिनम् :- त्रुटेः सहस्रभागो यो लग्नकालः स उच्यते । ब्रह्मापि तं न जानाति कि पुनः प्राकृतो जनः । एक त्रुटि का हजारवां भाग लग्नकाल कहलाता है । ब्रह्मा भी उसको नहीं जानता है , साधारण आदमी का क्या ठिकाना है |
■ 2 त्रुटि = 1 लव ,
■ 1 लव = 1 क्षण
■ 30 क्षण = 1 विपल ,
■ 60 विपल = 1 पल
■ 60 पल = 1 घड़ी (24 मिनट ) ,
■ 2.5 घड़ी = 1 होरा (घन्टा )
■ 24 होरा = 1 दिवस (दिन या वार) ,
■ 7 दिवस = 1 सप्ताह
■ 4 सप्ताह = 1 माह ,
■ 2 माह = 1 ऋतू
■ 6 ऋतू = 1 वर्ष ,
■ 100 वर्ष = 1 शताब्दी
■ 10 शताब्दी = 1 सहस्राब्दी ,
■ 432 सहस्राब्दी = 1 युग
■ 2 युग = 1 द्वापर युग ,
■ 3 युग = 1 त्रैता युग ,
■ 4 युग = सतयुग
■ सतयुग + त्रेतायुग + द्वापरयुग + कलियुग = 1 महायुग
■ 72 महायुग = मनवन्तर ,
■ 1000 महायुग = 1 कल्प
■ 1 नित्य प्रलय = 1 महायुग (धरती पर जीवन अन्त और फिर आरम्भ )
■ 1 नैमितिका प्रलय = 1 कल्प ।(देवों का अन्त और जन्म )
■ महालय = 36000 कल्प ।(ब्रह्मा का अन्त और जन्म )
सम्पूर्ण विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र यही है। जो हमारे देश भारत में बना। ये हमारा भारत जिस पर हमें गर्व है l
दो लिंग : नर और नारी ।
दो पक्ष : शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।
दो पूजा : वैदिकी और तांत्रिकी (पुराणोक्त)।
दो अयन : उत्तरायण और दक्षिणायन।
तीन देव : ब्रह्मा, विष्णु, शंकर।
तीन देवियाँ : महा सरस्वती, महा लक्ष्मी, महा गौरी।
तीन लोक : पृथ्वी, आकाश, पाताल।
तीन गुण : सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण।
तीन स्थिति : ठोस, द्रव, वायु।
तीन स्तर : प्रारंभ, मध्य, अंत।
तीन पड़ाव : बचपन, जवानी, बुढ़ापा।
तीन रचनाएँ : देव, तिर्यग, मानव।
तीन अवस्था : जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति।
तीन काल : भूत, भविष्य, वर्तमान।
तीन नाड़ी : इडा, पिंगला, सुषुम्ना।
तीन संध्या : प्रात:, मध्याह्न, सायं।
तीन शक्ति : इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति।
चार धाम : बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम्, द्वारका।
चार मुनि : सनत, सनातन, सनंदन, सनत कुमार।
चार वर्ण : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।
चार नीति : साम, दाम, दंड, भेद।
चार वेद : सामवेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद।
चार स्त्रीरूप : माता, पत्नी, बहन, पुत्री।
चार युग : सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग, कलियुग।
चार समय : सुबह, शाम, दिन, रात।
चार अप्सरा : उर्वशी, रंभा, मेनका, तिलोत्तमा।
चार गुरु : माता, पिता, शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु।
चार प्राणी : जलचर, थलचर, नभचर, उभयचर।
चार जीव : अण्डज, पिंडज, स्वेदज, उद्भिज।
चार वाणी : परा , पश्यन्ती , मध्यमा बैखरी
ओंकार की चार मात्राएं : अकार ,उकार ,मकार ,अर्धमात्रा
चार आश्रम : ब्रह्मचर्य, ग्राहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास।
चार भोज्य : खाद्य, पेय, लेह्य, चोष्य।
चार पुरुषार्थ : धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।
चार वाद्य : सुषिर, तन्तु, अवनद्ध , घन |
पाँच तत्व : पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल, वायु।
पाँच देवता : गणेश, दुर्गा, विष्णु, शंकर, सूर्य।
पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा।
पाँच विषय : रस, रुप, गंध, स्पर्श, ध्वनि।
पांच उंगलियां : अंगूठा, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा।
पाँच पूजा उपचार : गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य।
पाँच अमृत : दूध, दही, घी, शहद, शक्कर।
पाँच प्रेत : भूत, पिशाच, वैताल, कुष्मांड, ब्रह्मराक्षस।
पाँच वायु : प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान।
पाँच वटवृक्ष : सिद्धवट (उज्जैन), अक्षयवट (प्रयाग ), गृध्रवट (सोरों सूकरक्षेत्र ), वंशीवट (वृंदावन), साक्षीवट (गया)।
पाँच पत्ते : आम, पीपल, बरगद, गुलर, पिलखुन ।
पाँच कन्या : अहल्या, तारा, मंदोदरी, कुंती, द्रौपदी।
छः रस – मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त तथा कसाय।
छ: ॠतु : शीत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, बसंत, शिशिर।
छ: वेद के अंग : शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष।
छ: कर्म : देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान।
छ: शत्रु : काम, क्रोध, मद (घमंड), लोभ (लालच), मात्सर्य मोह।
सात छंद : गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती।
सात स्वर : सा, रे, ग, म, प, ध, नि।
सात सुर : षडज्, ॠषभ्, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद।
सात चक्र : सहस्त्रार, आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मुलाधार।
सात वार : रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि।
सात मिट्टी : गौशाला, घुड़साल, हाथीसाल, राजद्वार, बाम्बी की मिट्टी, नदी संगम, तालाब।
सात महाद्वीप : जम्बुद्वीप (एशिया), प्लक्षद्वीप (यूरोप) शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप।
सात ऋषि : वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, भारद्वाज।
सात धातु (शारीरिक) : रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य।
सात रंग : बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी, लाल।
सात पाताल : अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल।
सात पुरी : मथुरा, हरिद्वार, काशी, अयोध्या, उज्जैन, द्वारका, काञ्ची।
सात धान्य : उड़द, गेहूँ, चना, चांवल, जौ, मूँग, बाजरा।
सात मातृका : ब्राह्मी, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौमारी, ऐन्द्री, वाराही, चामुंडा।
सात महाद्वीप : जम्बुद्वीप (एशिया), प्लक्षद्वीप, शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप।
सात ॠषि : वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव, शौनक।
सात ॠषि : वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, भारद्वाज।
सात धातु (शारीरिक) : रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य।
सात रंग : बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी, लाल।
सात पाताल : अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल।
सात पुरी : मथुरा, हरिद्वार, काशी, अयोध्या, उज्जैन, द्वारका, काञ्ची।
सात धान्य : उड़द, गेहूँ, चना, चांवल, जौ, मूँग, बाजरा।
आठ मातृका : ब्राह्मी, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौमारी, ऐन्द्री, वाराही, नारसिंही, चामुंडा।
आठ लक्ष्मी : आदिलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी।
आठ वसु : अप (अह:/अयज), ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्युष, प्रभास।
आठ सिद्धि : अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व।
आठ धातु : सोना, चांदी, ताम्बा, सीसा जस्ता, टिन, लोहा, पारा।
नवदुर्गा : शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री।
नवग्रह : सुर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु।
नवरत्न : हीरा, पन्ना, मोती, माणिक, मूंगा, पुखराज, नीलम, गोमेद, लहसुनिया।
नवनिधि : पद्मनिधि, महापद्मनिधि, नीलनिधि, मुकुंदनिधि, नंदनिधि, मकरनिधि, कच्छपनिधि, शंखनिधि, खर्व/मिश्र निधि।
दस महाविद्या : काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्तिका, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला।
दस दिशाएँ : पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, नैॠत्य, वायव्य, ईशान, ऊपर, नीचे।
दस दिक्पाल : इन्द्र, अग्नि, यमराज, नैॠिति, वरुण, वायुदेव, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा, अनंत।
दस अवतार (विष्णुजी) : मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दस सति : सावित्री, अनुसुइया, मंदोदरी, तुलसी, द्रौपदी, गांधारी, सीता, दमयन्ती, सुलक्षणा, अरुंधती।
आठ लक्ष्मी : आदिलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी।
आठ वसु : अप (अह:/अयज), ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूष, प्रभास।
आठ सिद्धि : अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व।
आठ धातु : सोना, चांदी, ताम्बा, सीसा जस्ता, टिन, लोहा, पारा।
नवदुर्गा : शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कूष्माण्डा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री।
नवग्रह : सुर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु।
नवरत्न : हीरा, पन्ना, मोती, माणिक, मूंगा, पुखराज, नीलम, गोमेद, लहसुनिया।
नवनिधि : पद्मनिधि, महापद्मनिधि, नीलनिधि, मुकुंदनिधि, कुन्दनिधि, मकरनिधि, कच्छपनिधि, शंखनिधि, खर्व निधि।
दस महाविद्या : काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला।
दस दिशाएं : पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, ईशान, ऊपर, नीचे।
दस दिक्पाल : इन्द्र, अग्नि, यमराज, नैॠिति, वरुण, वायुदेव, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा, अनंत।
दस अवतार (विष्णु जी) : मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दस सती : सावित्री, अनुसुइया, मंदोदरी, तुलसी, द्रौपदी, गांधारी, सीता, दमयंती, सुलक्षणा, अरुंधती।
|| श्रीरुद्रयामले तन्त्रे श्रीदेवीरहस्ये श्रीसूर्यसहस्रनामस्तोत्रम् की फलश्रुती ||
देवाधिदेव, सविता (जगत की रचना करने वाले) अमित तेजस्वी सूर्य के सहस्र नामों का पाठ सर्व सार मय है , दिव्य है और ब्रह्मतेज की वृद्धि करने वाला है | || १३५ ||
ब्रह्म ज्ञान से परिपूर्ण ,परम पवित्र , पुण्य तीर्थों का फल देने वाला , समस्त यज्ञों के फल के समान और सभी प्रकार की विद्याओं को देने वाला है | || १३६ ||
सर्वश्रेयस्कर , लोक में कीर्ति और धन देने वाला , सभी प्रकार के व्रतों के फल से छलाछल भरा हुआ और सभी धर्मों के फल को देने वाला है | || १३७ ||
हे देवि ! यह सर्वरोगहर, और शरीर के आरोग्य को बढ़ाने वाला है | इन हजार नामों का ऐसा ही प्रभाव है | ॥ १३८॥
करोड़ों कल्पों में भी मैं इसका वर्णन नहीं कर सकता | हे पार्वती ! इन्द्रियों को संयम में रखते हुए जिस जिस कामना को मन में रखकर इसका पठन या श्रवण किया जाता है उन उन कामनाओं के फल को मनुष्य अचानक ही तथा शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है वे फिर भले ही देवताओं के लिए भी दुर्लभ क्यों न हों !॥ १३९॥ १४०॥
जो व्यक्ति जो इसका पाठ करता है वह वीर ,श्रेष्ठ धार्मिक , सौन्दर्य से युक्त , धनवान तथा पुत्र वान ,और राजाओं को प्रिय होता है || १४१ ||
हे महादेवी ! कौलिक दीक्षा से सम्पन्न होकर जो इसे रविवार के दिन पढता है वह आयु और आरोग्य से युक्त होकर धन भंडारों का मालिक होता है | || १४२ ||
हे देवि ! सूर्योदय काल में सूर्य का ध्यान करते हुए जो इसे पढता है वह इच्छित फल पाता है तथा संक्रांति के दिन भक्तिपूर्वक जो इसे तीनों कालों में पढ़ता है वह इस लोक में धन का सुख भोग कर सभी रोगों से मुक्त हो जाता है | तथा शुक्ल पक्ष की सप्तमी के दिन सूर्यास्त काल में जो इसे पढ़ता है उस कौलिकोत्तम का शरीर आरोग्य संपन्न होता है | उसी प्रकार व्यतीपात योग में मध्यान्ह काल में अपनी सभी इन्द्रियों को संयम में रखते हुए जो इसका पाठ करता है उसे सूर्य की कृपा से धन , पुत्र , यश और मान की प्राप्ति होती है | चक्रार्चन के समय भगवान् रवि का स्मरण करते हुए जो मूल मन्त्र का जप करता है तथा जो महाचीनक्रमाचार में विचक्षण (कुशल) है वह सूर्य होकर सभी शत्रुओं को शीघ्र ही जीत लेता है और वह प्रतापवान होकर लक्ष्मी को प्राप्त करता है | || १४३ || १४४ || १४५ || १४६ || १४७ ||
जो परदेश में रहकर बटुकों का पूजन करते हुए निर्भय होकर अपनी प्रिया का आश्रय लेकर उपर्युक्त चीनाचार के अनुसार इसका पाठ करता है वह शिव के समान तेजस्वी हो जाता है | || १४८ ||
जो बारह वर्ष तक नित्य ही इसके १०० पाठ करता है अथवा एक सूर्योदय से लेकर दूसरे सूर्योदय तक की समय अवधि में जो इसके सौ पाठ करता है तो उसे सर्वलोक प्रभु भगवान सविता उसे तुरंत ही वर देते हैं | || १४९ ||
हे पार्वती ! बहुत कहने से क्या लाभ , इसके पढ़ने से इस लोक में सदा ही लक्ष्मी भोग कर परलोक में मोक्ष प्राप्त करता है | || १५० ||
रविवार के दिन भोजपत्र पर दिव्य अष्टगंध , नील पुष्प और हल्दी के पाउडर से सूर्य के हजार नामों को लिखें |||१५१||
मंत्र की सिद्धि करने वाले को पंचामृत और सर्वौषधि और अपनी आँखों के प्रेम अश्रु बिन्दुओं से विधि पूर्वक लिखकर यंत्र के बीच में मंत्र के अक्षरों से वेष्टित करे || १५२ ||
फिर उस भोजपत्र की एक गोली बनाकर मूल मंत्र का स्मरण करते हुए कन्या के द्वारा काते हुए सूत से लपेट कर लाल रंग की लाख से उसे ढक दे || १५३ ||
फिर उसे सोने के ताबीज में मढ़वा कर पंचगव्य से उसे शुद्ध करे और मंत्रराज के द्वारा उसे सिद्ध करके मस्तक पर अथवा भुजा में धारण करे || १५४ ||
हे देवी ! फिर क्या क्या सिद्ध नहीं हो जाता ? अर्थात सब कुछ सिद्ध हो जाता है | जो कि मुझे भी दुर्लभ है | कुष्ठरोगी , शूल रोग वाला, प्रमेह रोग , कुक्षी रोग वाला , भगन्दर से पीड़ित , ववासीर रोग , अश्मरी (पथरी) से पीड़ित आदि इस दुर्लभ गुटी को धारण करने से शीघ्र ही मुक्त हो जाता है | || १५५ || १५६ ||
वन्ध्या और काकवन्ध्या तथा जिसका बच्चा मर चुका है ऐसी कामिनी स्त्री भी आनंद और गौरव से पूर्ण होकर इस गुटिका को अपने हृदय पर धारण करे तो हे पार्वती !वन्ध्या और काकवन्ध्या तथा मृतवत्सा भी बहुत से सुन्दर रूप वाले और चिरायु पुत्रों को जन्म देती है || १५७ || १५८ |||
इस गुटिका को धारण करके रण में जाकर अक्षतांग रहते हुए शत्रुओं को जीत कर लक्ष्मी लाभ करता है और वह महाराजा सुखी होकर अपने नगर में लौट आता है | || १५९ ||
जो इस गुटिका को नित्य ही भुजा में धारण करता है , राजा लोग उसके वश में रहते हैं | यह गुटिका मोहन , आकर्षण , स्तम्भन और उच्चाटन करने में सक्षम है | || १६० ||
वह सूर्य के समान महान तेजस्वी हो जाता है और धन में कुबेर के समान तथा ऐश्वर्य में शंकर के समान होता है || १६१ ||
हे देवी ! वह पुरुष शोभा में इन्द्र के समान , यश में राम के समान , पौरुष में भार्गव के समान , बोलने में बृहस्पति के समान और नीति में शुक्र के समान होता है || १६२ ||
बल में वायु के समान , दया में विष्णु के समान , आरोग्य में अगस्त्य के समान और कान्ति में चन्द्रमा के समान होता है || १६३ ||
धर्म में धर्मराज के समान , रत्नभंडार और गंभीरता में समुद्र के समान तथा दानवीरों में बलि महाराज के समान होता है || १६४ ||
सिद्धि में साक्षात श्री भैरव के समान , आनन्द में चिदम्बर के समान होता है | हे शिवे ! इसे पढ़े या धारण करे | ज्यादा बातें करने से क्या लाभ होने वाला है ? || १६५ ||
इस परम दिव्य सूर्य सहस्रनाम को जो सुनता है वह साक्षात् परमानन्द विग्रह रूप भास्कर ही हो जाता है || १६६ ||
वह स्वतंत्र हो जाता है और अंत में विष्णु के परम पद को प्राप्त होता है | यह सूर्य सहस्रनाम दिव्य , महान और परम तत्व रूप है | || १६७ ||
हे पार्वती ! दुरात्माओं के प्रति इसका खुलासा नहीं करना चाहिए और अभक्तों को , गंदे कपड़े पहनने वालों को , दूसरों के शिष्यों को इसके बारे में नहीं बताना चाहिए || १६८ ||
कर्कश ,कटु , वाणी बोलने वालों को , अकुलीन को , दुर्जनों को , पाप बुद्धि को , गुरु भक्ति से रहित को और शिवागम (शिव शास्त्र) की निंदा करने वाले को यह नहीं बताना चाहिए || १६९ ||
जो शिष्य हो , शांत हो , गुरु भक्ति परायण हो , कुलीन हो , सुभक्त हो और सूर्य भक्ति में निरत हो उसे ही बताना चाहिए || १७० ||
यह तत्वों का भी तत्व है | यह वेद और आगमों का रहस्य है | यह सर्व मंत्रमय होने से गोप्य है | अपनी जाति के समान इसकी रक्षा करनी चाहिए | || १७१ ||
* श्रीहरिः *
दयानंदी आधुनिक मतमर्दन
अर्थात्
आर्यसमाज की कीहुई शंका बाल्मीकि कृत रामायण का यथार्थ (उत्तर)
जिसको
श्रीमान श्री १०८ सिद्धान्त वागीश द्विवेदी पंडित
दशरथ शास्त्री सनाढ्य वंशोद्भव सूकर क्षेत्र (सोरों) प्रान्त एटा ने रचा |
प्रशंशित शास्त्री जी की आज्ञा से
पंडित कुन्दनलाल मास्टर प्रोग्रेसिव स्कूल [ मंत्री वैदिक सनातन धर्म सभा ] कासगंज
व पंडित श्रीकृष्ण पाठक ने सहसम्मति सभा , सज्जन पुरुषों के लाभार्थ यू ० पी ० आर्ट प्रिंटिगवर्क्स कासगंज में
मास्टर रघुनन्दनलाल के प्रबन्ध से छपवाकर प्रकाशित किया |
विशेष सूचना
प्रियवर ! यह बात याद रखने के काबिल है कि श्रीमान विद्यावारिधि पण्डित ज्वालाप्रसाद मिश्र मुरादाबाद निवासी ने (एणेयं मांस) का जो भाष्य किया है वह भाष्य अधिकांश में न होजाने की बजह से सिर्फ शब्दमात्र का ही प्रयोग कर दिया है न कि व्युत्पत्ति आदि पर्यायवाची शब्दों से मांस शब्द के असली अभिप्राय को प्रकट किया हो ; जैसा कि इस पुस्तक में लिखा गया है , इसलिए मांस शब्द का अर्थ प्रचलित मांस समझ लेना यह अज्ञानता के कारण मनुष्यत्व के विरुद्ध असम्भव है क्योंकि जिस मनुष्य ने अपने असली मन्तव्य को ही प्रकट नहीं किया तो उस पर मनगढन्त अर्थानुसार दोषारोपण कैसे हो सकता है | कदापि नहीं ! यह तो मांस पार्टी और घास पार्टी जैसा कि तिमिर भास्कर के अन्तिम लेख से विदित होता है दयानन्दी नवीन मत में ही नियत की गई है ; जिनकी कि मांस युक्त शंकाओं को पं० धूरीलाल अपने १०००, मुद्रा पारितोषिक देने वाले विज्ञापन में ता० १३ जौलाई स० १९१४ को छपा चुके हैं | परन्तु आर्यसमाज कासगंज ने यथार्थ उत्तर नहीं दिया जिसकी कि समीक्षा पुस्तक के अन्त भाग में की गई है |
हस्ताक्षर कुन्दनलाल मास्टर मंत्री
* भूमिका *
आज कल संसार में बहुत से मतमतान्तर प्रचलित हो रहे हैं , और सबका मूल मन्तव्य उन्नति के शिखर पर चढ़ने का है मगर विचार कर देखागया तो बजाय उन्नति के अधोगति को प्राप्त हुए जान पड़ते हैं क्योंकि न तो देववाणी भाषा का ही परमज्ञान है न दिमागी स्मरण शक्ति | अगर है तो क्या है कि , दिमागी क्रूरता और जिह्वा की चपलता जैसा कि आर्य्यसमाज के हस्त लिखित तथा यन्त्रालय के छपे हुए विज्ञापनों से विदित होता है जिन्होंने कि श्री महाराज रामचन्द्र जी भगवान मर्यादा पुरुषोत्तम पर भी मांस भक्ष का दोषारोपण कर दिया | जिसका उत्तर वैदिक सत्य सनातन धर्म सभा कासगंज ने भिन्न भिन्न दृष्टान्तों से व्याख्यान द्वारा तथा नोटिस द्वारा दिया | कि श्री रामचन्द्र जी ने कभी भी उपरोक्त असम्भव वर्ताव नहीं किया , इस पर असंतुष्ट हो उपरोक्त आर्य्य समाज ने क्रोधानल में तप्त हो बहुत से अनर्गल शब्दों का आरोपण करते हुए चंद श्लोक बाल्मीकीय रामायण से लेकर पुनरपि मांस भक्षण की पुष्टी निमित्त छपबाया परन्तु सत्या सत्य का कुछ भी निर्णय नहीं किया | अब श्रीमान ब्रह्मऋषि भारद्वाज गोत्र पं० कल्याणदास सनाढ्यबंशोद्भव छर्रा प्रान्त अलीगढ़ तथा (वशिष्ठ गोत्र पं० जगन्नाथप्रसाद सनाढ्यबंशोद्भव पालक पिता कासगंज) निवासी तत्पुत्र पं० कुंदनलाल मास्टर मंत्री सनातनधर्म सभा कासगंज व वशिष्ठ गोत्र पं० दामोदर पाठक सनाढ्य वंशोद्भव तत्पुत्र पं० श्रीकृष्ण पाठक कासगंज निवासी ने अपने तन , मन , धन से परिश्रम उठा , यह दयानंदी आधुनिक मतमर्दन पुस्तक धर्म के ग्राहक प्रेमी सज्जन पुरुषों के निमित्त श्रीमान श्री १०८ सिद्धान्तवागीश द्विवेदी पं० दशरथ शास्त्री जी सूकर क्षेत्र (सोरों) प्रान्त एटा निवासी से निर्माण कराया जिससे उन भोले भाले पाठक गणों को जो विपक्षियों के नोटिस पढ़ भ्रान्त चित्त हो जाते हैं , पूरणरूप से विदित हो जायगा कि श्रीमान ब्रह्मऋषि बाल्मीक कृत रामायण के उन श्लोकों का जो आर्य्य समाज ने अपने नोटिस में छपवाये हैं यथार्थ अर्थ क्या है | और मांस शब्द का वहां पर किस वस्तु से सम्बन्ध रख प्रयोग किया गया है – आशा है कि प्रियवर इस पुस्तक को आद्योपान्त पढ़ हम उपरोक्त शुभ चिंतकों के परिश्रम को सफल कर नवीन मत वेद विरोधी के झूंठे जाली विज्ञापनों पर किंचित मात्र भी ध्यान न लायेंगे | और वैदिक सत्य सनातन धर्म की उन्नति के विषयों पर विचार करते हुए धर्म फल प्राप्त कर यश के भागी बन मेरे इस सूक्षम लेख की त्रुटियों को क्षमा योग्य समझ हर एक सज्जन पुरुष पूर्व महर्षियों के यथार्थ आन्तरिक भाव को जानने की कोशिश में तत्पर रहेंगे — इति
सत्य का ग्राहक
पं० कुंदन लाल मास्टर
प्रोग्रेसिव स्कूल (मंत्री सनातनधर्म सभा)
कासगंज
|| श्रीः ||
|| आधुनिकमतमर्दनम् ||
श्रीसूकरक्षेत्रनिवासिनेदं ,
सनाढ्यवर्येण द्विवेदिना च |
सुशास्त्रिणा पङ्क्तिरथेन गीतं
मुदे नराणां गतमत्सराणाम् ||
श्रीरामचन्द्रजी महाराज ने कभी भी मांस न खाया और न पशु हिंसा का उपदेश माना और न औरों के लिए किया , और न बाल्मीक जी ने इस आशय को प्रकट किया जैसा कि आप भाषाक्षरों से प्रकट कर धर्मसमाजियों के ग्रन्थों को दूषित बताकर भोले मनुष्यों के चित्त को संकुचित कर विषैली नीति अपनाते हो , आपके ऐसे उपायों से वे कभी भी सनातनधर्म को त्याग नहीं सकेंगे और न आपको हमारे ग्रन्थों का आशय मालूम हो सकेगा | हमारे ऋषियों की ऐसी लेख प्रणाली है कि अक्षर सरल हैं और आशय अति गूढ़ हैं अतएव साधारणजन उस स्थान पर न पहुंचकर अपने मनोराज्य में मग्न होजाते हैं तिस में भी प्राचीन महर्षि कवियों के बनाये हुए रामायणादिकाव्य हैं इन में प्रति स्थान पर अनेक अलंकार भी भरे हुए हैं अतः उनके आशय समझने अति दुर्घट हैं , लोक कथा भाग जानने से ही उनके सिद्धान्त को बिना पूर्वापर ग्रन्थ विचार के नहीं जान सकते , अब आप हठ धर्मी होते हुए अयोध्याकाण्ड सर्ग १०३ में ‘‘इदं भुङ्क्ष्व महाराज प्रीतो यदशना वयम्। यदन्न: पुरुषो भवति तदन्नास्तस्यदेवताः।। २.१०३.३० ।।’’ ‘महाराज ! प्रसन्नतापूर्वक यह भोजन स्वीकार कीजिये ; क्योंकि आजकल यही हमलोगोंका आहार है | मनुष्य स्वयं जो अन्न खाता है , वही उसके देवता भी ग्रहण करते हैं |’ श्लोक ३० की भाषा तथा सर्ग १०४ में श्लोक ८ से १५ तक की भाषा को पढ़ कर-
‘‘दक्षिणाग्रेषु दर्भेषु सा ददर्श महीतले ।
पितुरिङ्गुदिपिण्याकं न्यस्तमायतलोचना ।। २.१०४.८ ।।
आगे जाकर विशाललोचना कौसल्या ने देखा कि श्रीरामने पृथ्वीपर बिछे हुए दक्षिणाग्र कुशोंके ऊपर अपने पिताके लिये पिसे हुए इङ्गुदी के फलका पिण्ड रख छोड़ा है ||८ ||
तं भूमौ पितुरार्तेन न्यस्तं रामेण वीक्ष्य सा ।
उवाच देवी कौसल्या सर्वा दशरथस्त्रिय: ।। २.१०४.९ ।।
दुःखी राम के द्वारा पिताके लिये भूमिपर रखे हुए उस पिण्ड को देखकर देवी कौसल्या ने दशरथकी सब रानियों से कहा —|| ९ ||
इदमिक्ष्वाकुनाथस्य राघवस्य महात्मन: ।
राघवेण पितुर्दत्तं पश्यतैतद्यथाविधि ।। २.१०४.१० ।।
‘बहनो ! देखो, श्रीरामने इक्ष्वाकुकुलके स्वामी रघुकुलभूषण महात्मा पिता के लिये यह विधिपूर्वक पिण्डदान किया है || १० ||
तस्य देवसमानस्य पार्थिवस्य महात्मन: ।
नैतदौपयिकं मन्ये भुक्तभोगस्य भोजनम् ।। २.१०४.११ ।।
‘देवताके समान तेजस्वी वे महामना भूपाल नाना प्रकार के उत्तम भोग भोग चुके हैं | उनके लिए यह भोजन मैं उचित नहीं मानती || ११ ||
चतुरन्तां महीं भुक्त्वा महेन्द्रसदृशो विभु: ।
कथमिङ्गुदिपिण्याकं स भुङ्क्ते वसुधाधिप: ।। २.१०४.१२ ।।
‘जो चारों समुद्रोंतककी पृथ्वीका राज्य भोगकर भूतलपर देवराज इन्द्रके समान प्रतापी थे , वे भूपाल महाराज दशरथ पिसे हुए इंगुदी-फलका पिण्ड कैसे खा रहे होंगे ? || १२ ||
अतो दु:खतरं लोके न किञ्चित् प्रतिभाति मा ।
यत्र राम: पितुर्दद्यादिङ्गुदीक्षोदमृद्धिमान् ।। २.१०४.१३ ।।
‘संसारमें इससे बढ़कर महान दुःख मुझे और कोई नहीं प्रतीत होता है , जिसके अधीन होकर श्रीराम समृद्धिशाली होते हुए भी अपने पिताको इंगुदीके पिसे हुए फलका पिण्ड दें || १३ ||
रामेणेङ्गुदिपिण्याकं पितुर्दत्तं समीक्ष्य मे ।
कथं दु:खेन हृदयं न स्फोटति सहस्रधा ।। २.१०४.१४ ।।
‘श्रीरामने अपने पिताको इंगुदीका पिण्याक (पिसा हुआ फल) प्रदान किया है — यह देखकर दुःखसे मेरे हृदय के सहस्रों टुकड़े क्यों नहीं हो जाते ? || १४ ||
श्रुतिस्तु खल्वियं सत्या लौकिकी प्रतिभाति मे ।
यदन्नः पुरुषो भवति तदन्नास्तस्य देवताः।।२.१०४.१५।।
‘यह लौकिकी श्रुति (लोक विख्यात कहावत) निश्चय ही मुझे सत्य प्रतीत हो रही है कि मनुष्य स्वयं जो अन्न खाता है उसके देवता भी उसी अन्नको ग्रहण करते हैं’ || १५ || रामायणम्/अयोध्याकाण्डम्/सर्गः १०४’’
विचारिये कि रामचन्द्रजी साधारण मांस के भक्षक तो क्या विधि विहित मांस के स्पर्शमात्र करनेवाले भी थे कि नहीं | यदि मांस भक्षक होते तो अवश्य उस समय भी लक्ष्मणादि को पशु मारने की आज्ञा देते और अपने पूजयपादपिता श्री दशरथ जी की अनन्त तृप्ति के लिये पशुमांसकेही पिण्ड देते और बेरगोंदी के फलों की मींगके पिण्ड कभी नहीं देते | अतः आपने जो आक्षेप किये हैं वे सर्वथा अयुक्त हैं | आप यदि कोशादि पुस्तकों में श्रम करते और जो पशुओं के नाम हैं वे ही अन्न फलों के भी नाम एक समान जानते तो कभी भी आक्षेप न करते | अस्तु |
अब गीताप्रेस की व्याख्या देखिये —
ऐणेयं मां समाहृत्य शालाम् यक्ष्यामहे वयम् |
कर्त्व्यम् वास्तुशमनम् सौमित्रे चिरजीवभिः || २-५६-२२
‘सुमित्राकुमार ! हम गजकन्द का गूदा लेकर उसी से पर्णशाला के अधिष्ठाता देवताओंका पूजन करेंगे ; क्योंकि दीर्घ जीवन की इच्छा करनेवाले पुरुषों को वास्तुशान्ति अवश्य करनी चाहिये || २२ ||
यहाँ ‘ ऐणेयं मांसम्’ का अर्थ है —गजकन्द नामक कन्द विशेष का गूदा | इस प्रसंग में मांसपरक अर्थ नहीं लेना चाहिये ; क्योंकि ऐसा अर्थ लेने पर ‘हित्वा मुनिवदामिषम्’ (२.२०.२९) तथा ‘‘फलानि मूलानि च भक्षयन् वने । गिरींश्च पश्यन् सरितः सरांसि च । वनं प्रविश्यैव विचित्र पादपं । सुखी भविष्यामि तवास्तु निर्वृतिः ॥२-३४-५९॥’’ एवंच ‘‘पित्रा नियुक्ता भगवन् प्रवेक्ष्यामस्तपोवनम्।
धर्ममेव चरिष्याम स्तत्र मूलफलाशनाः।।२.५४.१६।।’’ इत्यादि रूप से की हुई श्रीरामकी प्रतिज्ञाओं से पड़ेगा | इन वचनों से निरामिष रहने और फल-मूल खाकर धर्माचरण करने की ही बात कही गयी है | ‘‘तद्ब्रूहि वचनं देवि राज्ञो यदभिकाङ्क्षितम्। करिष्ये प्रतिजाने च रामो द्विर्नाभिभाषते।।२.१८.३०।।’’ इसी प्रकार ‘‘द्विः शरं नाभिसन्धत्ते द्विः स्थापयति नाश्रितान् । द्विर्ददाति न चार्थिभ्यो, रामो द्विर्नाभिभाषते ॥ (हनुमान्नाटक १-४८)’’ (श्रीराम दो तरह की बात नहीं कहते हैं , एक बार जो कह दिया , वह अटल है) इस कथन के अनुसार श्रीरामकी प्रतिज्ञा टलनेवाली नहीं है | अब दूसरी बात यह है कि मदनपाल-निघण्टु के अनुसार ‘मृग’ का अर्थ गजकन्द है |
न मांसं राघवो भुङक्ते न चाऽपि मधु सेवते।
वन्यं सुविहितं नित्यं भक्तमश्नाति पञ्चमम्।।५.३६.४१।।
चतुर्दश हि वर्षाणि वत्स्यामि विजने वने।
मधुमूलफलैर्जीवन्हित्वा मुनिवदामिषम्।।२.२०.२९।।
“वेदवेद्ये परे पुंसि जाते दशरथात्मजे।
वेदः प्राचेतसादासीत् साक्षाद् रामायणात्मना।।१०।।
जब वेदों के ज्ञेय परब्रह्म परमेश्वर दाशरथि राम के रूप में अवतीर्ण हुए, तब वेद भी साक्षात् वाल्मीकि -रामायण के रूप में प्रकट हुए |
अब आपको समझाने के लिये हम नीचे उन पदों की व्याख्या लिखते हैं जिन पदों की भाषाटीका देख कर आप चकित हुए हैं |
अब श्री पण्डित दशरथ जी शास्त्री की व्याख्या देखये —
अयोध्याकाण्ड / सर्गः ५६ श्लोक २२
“ऐणेयं मां समाहृत्य,
ऐणेयमेणीसुतं मृगमित्यर्थः मां समाहृत्य प्रापय्य वर्तस्वेति शेषः | तत् प्रयोजनमाह -वयं शालां शालाभिमानिनीदेवतां यक्ष्यामहे एतेन पर्णशालादेवतापूजने मृगः स्थापनीय इति सूचितम् | प्रसिद्धं च कर्मविशेषे मेषादीनां स्थापनम् | इति वाल्मीकि रामायण शिरोमणि टीका | ऐणेयं मृग मांसादिकस्यांस भागं माऽऽहृत्याऽनादाय | मा ,अंसं आहृत्य , इति च्छेदः | पशुबलिहरणस्य ब्राह्मणा- सम्मतत्वात् पापजनकत्वात् अस्वर्गीय त्वाच्च तद्दाने मे रुचिर्नेत्याशयः अंश शब्दो दन्त्य सान्तोऽपीति शब्दकल्पद्रुमः |
ऐणेयं मां समाहृत्य शालाम् यक्ष्यामहे वयम् |
कर्त्व्यम् वास्तुशमनम् सौमित्रे चिरजीवभिः || २-५६-२२
रामायण शिरोमणि टीका में लिखा है कि मेरे पास हिरण को ले आओ हम पर्णशालाधिष्ठातृ देव का पूजन करेंगे | हे लक्ष्मण ! पशु बलि दान देने में ब्राह्मणग्रन्थ बह्वृचादि की सम्मति न होने से तथा पापजनक होने से स्वर्गसुखका दाता न होने से मेरी रुचि नहीं है अतः पशु मांस के बिना हम वास्तु पूजा करेंगे | || २२ || मृगम् हत्वाऽऽनय क्षिप्रम् , लक्ष्मणेह शुभेक्षण । कर्तव्यः शास्त्रदृष्टो हि विधिर्धर्ममनुस्मर ॥२-५६-२३॥ अतोमृगं क्षिप्रमेवेहैवानय | हतुशब्दावेवार्थौ | रामायण शिरोमणि | अतः मृग्यते वने वनस्थतपस्विभिस्तन्मृगमन्नादिकम् | शिलोञ्छवृत्तेर्विप्राधीनत्वाद् भूपतितान्नादेरर्जनं क्षत्रियाणामनुचितमित्याशयेनाह | हत्वेति | इसलिये हे लक्ष्मण ! तुम यहाँ शीघ्र ही मृग को लाइये | रा ० शि ० | इस से (मृग) माने अन्न,फल, मूल,पत्र, पुष्पों को उखाड़ कर , तोड़ कर शीघ्र ही लाइये | || २३ ||
ऐणेयं श्रपयस्वैतच्छालां यक्ष्यामहे वयम्।
त्वर सौम्य! मुहूर्तोऽयं ध्रुवश्च दिवसोऽप्ययम्। ॥२-५६-२५॥
ऐणेयं श्रपयस्व || २५ ||
ऐणेयं ऐणेयभक्ष्यं श्रपयस्व इति | श्रपयस्वेत्यनेन अपक्वफलं मृगाय न समर्पणीयमितिव्यञ्जितम् | अत्रैणेय शब्दात्तस्येदमित्यण् | वृद्धाच्छ इत्यस्या प्रवृत्तिस्तु संज्ञापूर्वकविधेरनित्यत्वात् | इति रा० शि० एति प्रायश्चित्तेन गच्छति , इति एणं पापम् बाहुलकाण्णः | द्विरूप कोशात् | तदाख्या देवताऽस्येति, ऐणेयं हविः|
जिस फल को मृग खाते हों उसको तुम पकाओ अर्थात् पूजन के समय हिरण के लिये कच्चा फल नहीं देना चाहिये | रा० शि० पापाधिष्ठातृ देव के हवि को तुम पकालो ,
स लक्ष्मणः कृष्णमृगं हत्वा मेध्यं प्रतापवान् ।
अथ चिक्षेप सौमित्रिः समिद्धे जात वेदसि ॥२-५६-२६॥
किन्तद्धविर्यल्लक्ष्मणः पाचितवान् , इत्यत्राऽऽह | कृष्णमृगं हत्वामेध्यं ||२६|| आमेध्यमतिपवित्रमेव कृष्णमृगं कृष्ण मृगभक्ष्यपरिपक्वफलं समिद्धे प्रज्ज्वलिते जातवेदसि बन्हौ चिक्षेप | कृष्णमृगशब्दोऽर्शआद्यजन्तस्तस्येद मित्यणन्तो वा , चरमे वृध्यभावः संज्ञा पूर्वकविधेरनित्यत्वात् | कृष्णोमृगो- भक्षकत्वेन यस्येति बहुब्रीहिर्वा , हतु शब्दौ , एवार्थौ | इति रा० शि०
कृष्णं कृष्णवर्णं च तन्मृगं कृष्णवन्य तिल माषादिकमित्यर्थः हत्वा कण्डयित्वोत्पूय च | मेध्यं पवित्रं पुण्यजनकत्वाद्रोगनिवर्तकत्वाच्च || लक्ष्मण ने प्रज्वलित अग्नि में काले मृग के खाने योग्य फल को पकाया | रा० शि० | श्री रामचन्द्र जी की आज्ञा से लक्ष्मण जी ने जो हवि पकाया था वह क्या था सो वाल्मीक जी कहते हैं | काले रंग के वनोद्भव तिल उड़दों को (हत्वा) कूट कर और फटक कर | || २६ ||
तं तु पक्वं समाज्ञाय निष्टप्तं छिन्नशोणितम् ।
लक्ष्मणः पुरुष व्याघ्रमथ राघवमब्रवीत् ॥२-५६-२७॥
पाकक्रियामाह | अथचिक्षेप- छिन्न शोणितम् |२७| निष्टप्तं चिरकाल स्थापितत्वेनातितापविशिष्टमत एव च्छिन्नशोणितमारुण्यरहितमिति | रा० शि० स्थाल्यां तं प्रक्षिप्य समिद्धे जातवेदसि वन्हौ चिक्षेपाधिश्रितवान् | छिन्नं शुष्कं शोणितं जलं यस्य तत् |
बहुत काल अग्नि में रहने से अतिताप लगा इस से उस फल की लालिमा जाती रही | रा० शि०
वटलोई या देगची में भर कर प्रज्वलित अग्नि पर चढ़ा दिया और फूला तथा (छिन्नशोणितं) शुष्क जल उसको देख पका हुआ जान कर लक्ष्मण ने राम से कहा | || २७ ||
अयं सर्व: समस्ताङ्गः श्रृत: कृष्णमृगो मया।
देवतां देवसङ्काश यजस्व कुशलो ह्यसि ॥२-५६-२८॥
अयं सर्वः समस्ताङ्गः |२८|
मयाश्रितः परिपक्वः | समस्ताङ्गः सर्वावयवसम्पन्नः सर्वोऽयं कृष्णमृगः कृष्णमृगभक्ष्य इतिशेषः | इति रा० शि० समस्तान्यङ्गानि अङ्गप्रत्यङ्गानि यस्य सः | पुंस्त्वन्त्वत्र पाकशब्दाभिप्रायेणऽऽर्षत्वाद्वा |
मैंने सर्वावयव इस काले मृग के भक्षणीय फल को पकादिया है | रा० शि० | ये बिलकुल उर्द तिल सब मैंने पकादिये | २८ |
अयोध्याकाण्डम्/सर्गः ९१ श्लोक १५
अन्या: स्रवन्तु मैरेयं सुरामन्या: सुनिष्ठिताम् । अपराश्चोदकं शीतमिक्षुकाण्डरसोपमम् ।। २.९१.१५ ।। अन्या नद्यः | मा मानंतेन वा मोज्ञानस्य, रायः सुप्तिङ्गन्तसाधु शब्दास्ते सन्त्यत्र तानि-शास्त्राणि तत्र भवं मैरेयं मानपूर्वकवाक्यं ज्ञानोपयोगिवाक्यं वा स्रवन्तु प्रवदन्तु | शब्दार्थे राः, इति शब्दरत्नावली | और अन्य नदी {नदियां} (मैरेयं) ज्ञानोपदेश और मान आदर के साथ वाक्यों का उच्चारण करो |
सूर्यत अनयेति सुरा संपत्तिस्ताम् | षुर् प्रसवैश्वर्ययोः, क्विवन्ताट्टाप् अथवा- शोभनं राज्यतेऽनया इतिसुरादीप्तिस्ताम् | बाहुलकाड्डः | सुनिष्ठितां सुयुक्ताम् ||
और अन्य नदी {नदियां} (सुरा) योग्य ऐश्वर्यवती संपत्ति या शोभा को तैयार करो || १५ ||
सुरादीनि च पेयानि मांसानि विविधानि च।। २.९१.२१ ।। सुरादीप्तिरादौ येषान्तानी स्वच्छ स्वादुत्वादिविशिष्टानि | मन्यते मनोयानि तानि मांसानि रुचिकराणि, मनेर्दीर्घश्चेतिसोदीर्घश्च | मस्यन्तिदधि- दुग्धशर्करा विकारवन्तिमांसानि | मसी परिणामे, बाहुलकान्नुम् दीर्घश्चाच् प्रत्ययः मषति हिनस्ति अधिकभक्षणेन मांसःपृषोदरादिः माषपर्य्यायः, तस्य विकाराणि मांसानि |
(सुरादीनि) स्वच्छ स्वादुयुक्त (मांसानि) रुचिकर, अथवा दधि दुग्ध खाँड़ के बनाये हुए भोज्य, अथवा-उर्द की दाल आदि के बनाये हुए भक्ष्य भोज्यादि (विविधानि) अनेक भांति के मुनीश्वर के तपोबल से तैयार हुए | २१ |
सुरा: सुरापा: पिबत पायसं च बुभुक्षिता: । मांसानि च सुमेध्यानि भक्ष्यन्तां योयदिच्छति ।।२.९१.५२।। सुरां सम्पत्तिम् | सुरापाः सम्पद्दर्शना- भिलाषिणः पश्यतेति शेषः | वा पिवत पश्यत; अनेकार्थत्वात् |
जो मनुष्य जो चाहें सो यथेच्छ व्यवहार करें (सुरापा) सम्पत्ति को देखनेवाले (सुरां) सम्पदायें देखें और भूखे मनुष्य (पायसं) दही-दूध-रबड़ी-मलाई-खीर आदि को खाओ और (मेध्य) पवित्र (मांसानि) अनेक भांति के रुचिकारी खाने के योग्य भोज्यों का भोजन करो |
उच्छोद्य स्नापयन्ति स्म नदीतीरेषु वल्गुषु । अप्येकमेकं पुरुषं प्रमदा: सप्त चाष्ट च ।। २.९१.५३ ।। अत्र पात्राणीति शेषः
मनोहर नदियों के तीर पर पात्रों को स्त्रियां (उच्छोद्य) वालुओं से रगड़ रगड़ कर (स्नापयन्ति स्म) धोने लगीं और एक एक मनुष्य के पास खड़ी हो कर सात-सात आठ-आठ महिलाऐं | ५३ |
संवाहन्त्य: समापेतुर्नार्यो विपुललोचना: । परिमृज्य तदान्योन्यं पाययन्ति वराङ्गना: ।। २.९१.५४ ।।
भोज्यानि संवाहन्त्यः प्रापयन्त्यः परिवेशयन्त्यः जलेनार्द्राणि पात्राणि परिमृज्य वस्त्रादिनाशोधयित्वा ||
विशालनयनायें (संवाहयन्त्यः) भक्ष्य भोज्यादि के लाने परोसने वालीं उस समय हमाहमी के साथ (परिमृज्य) पात्रों को उठाकर साफियों से साफ कर २ (पाययन्ति) परोसकर भोजन कराने लगीं | ५४ |
नाश्वबन्धोऽश्वमाजानान्न गजं कुञ्जरग्रह: । मत्तप्रमत्तमुदिता सा चमूस्तत्र संबभौ ।। २.९१.५७ ।। यदा – भरद्वाजसंभावितैर्मनुजैरेव वाहनानि भोजितानि तदा सैनिका अश्वबन्धकादयोऽश्वादिकानि निश्चिन्त तयाऽऽजानन्नभितः सर्वथा विस्मृतवन्तः | अतएव भोज्यादिना निश्चिन्ततयाऽनिर्वचनीय मुनि संपद्दर्शनेन क्रमतो मत्तप्रमत्तमुदिता सा चमू संबभौ |
श्री भरद्वाज मुनि के द्वारा प्रयुक्त किए मनुष्यों ने ही समस्त सेना की सवारियों के पशुओं को इच्छा पूर्वक भोजन और जल दिया तब भरत की सेना के लोग निश्चिन्त होकर अपने अपने घोड़े,हाथी,बैल आदि को भूलगए | इसी से अर्थात् भोजन सुख से मत्त, और निस्फिकर होने से प्रमत्त, अनिर्वाच्य मुनि के तपोजन्य संपत्ति देखने से मुदित (खुशी) सेना वहां होगई | ५७ |
तर्पिता: सर्वकामैश्च रक्तचन्दनरूषिता: ।
अप्सरोगणसंयुक्ता: सैन्या वाचमुदीरयन् ।। २.९१.५८ ।। अद्भ्यः सरन्तीति, अप्सरसोऽनेकविधा- मुक्तादिमणयस्तैः संयुक्ता भूषितास्तुष्टावा |
समस्त मनोरथ पूर्ण लाल चन्दन धारी (अप्सरोगणसंयुक्ता:) अनेक मुक्तादि मणि जटित भूषण बसनादिसे सन्तुष्ट हुए सेना के जन ऐसा कहने लगे जो |५८| सैनिक लोग क्या कहने लगे यह श्लोक ५९ की भाषा में पढ़ लीजिये | ५९|
नैवायोध्यां गमिष्यामो न गमिष्याम दण्डकान् ।
कुशलं भरतस्यास्तु रामस्यास्तु तथा सुखम् ।। २.९१.५९ ।।
‘सैनिक लोग कहने लगे कि अब हम अयोध्या नहीं जायेंगे, दण्डकारण्य भी नहीं जायेंगे | भरत सकुशल रहें (जिनके कारण हमें इस भूतलपर स्वर्गका सुख मिला) तथा श्रीरामचन्द्रजी भी सुखी रहें (जिनके दर्शनके लिये आनेपर हमें इस दिव्य सुखकी प्राप्ति हुई)’ || ५९ ||
आजैश्चापि च वाराहैर्निष्ठानवरसञ्चयै: ।
फलनिर्यूहसंसिद्धै: सूपैर्गन्धरसान्वितै: ।। २.९१.६७ ।। अजाभिर्यवान्यजमोदादिभिः संस्कृतानि तैः | अथवा महौषध्या संस्कृतानि तैः | अजा महौषधी ज्ञेया शङ्खकुन्देन्दुपाण्डुरा इति | सुश्रुतः | वाराह्या अयं वराहः कन्दविशेषः, तस्यानेकविधानि वाराहाणि तैः वाराहीकन्द एवान्यैश्चर्मकारालुको मतः अनूपसम्भवे देशे वराह इव लोमवान् | इति भावप्रकाशः स च अंगीठी इति नाम्ना प्रसिद्धः |
सैन्यान्तर्गतश्वादि भक्ष्याणि निर्दिशन्नाह आजैरिति | फलाना- माम्रादीनां निर्यूहाः क्वाथीकृत रसास्तैः संसिद्धैः साधितैः आजैः छागमांसैः वाराहैः वाराहमांसैः || इति रा० शि० || (आजैः) अजवायन-अजमोद आदि के छोंक लगे हुए अथवा सफेद जाति की शुंठी या औषधियों की गन्धवाले शाक और (वाराहैः) अगींठे के शाक अनेक भांति के [संस्कृत में वाराहीकन्द] एक प्रकार का महाकंद जो गेंठी या जिमीकन्द कहलाता है । विशेष—कहते हैं, यह अनूप (जलप्राय) देश में होता है । इसके कंद के ऊपर सूअर के बालों के समान रोएँ होते हैं । इसका आकार प्रायः गुड़ की भेली के समान होता है | (निष्ठानवरसञ्चयै:) उत्तम व्यंजन की राशियों से पूर्ण || ६७ ||
अजा महौषधी ज्ञेया शङ्खकुन्देन्दुपाण्डुरा |
श्वेतां विचित्रकुसुमां काकादन्या समां क्षुपाम् || १८|| सुश्रुतसंहिता/चिकित्सास्थानम्/अध्याय ३०
वाराहीकन्दसंज्ञस्तु पश्चिमे गृष्टिसंज्ञकः |
वाराहीकन्द एवान्यैश्चर्मकारालुको मतः ||१७७||
अनूपसम्भवे देशे वराह इव लोमवान् |
वाराहवदना गृष्टिर्वरदेत्यपि कथ्यते ||१७८|| भावप्रकाशः/ पूर्वखण्डे भावप्रकाशनिघण्टुः / गुडूच्यादिवर्गः
वाप्यो मैरेयपूर्णाश्च मृष्टमांसचयैर्वृता: ।
प्रतप्तपैठरैश्चापि मार्गमायूरकौक्कुटै: ।। २.९१.७० ।। गजादिभक्ष्याणि निर्दिशन्नाह | वाप्य इति | मैरेयपूर्णा मद्यपूरिताः | मार्गमायूरकौक्कुटैर्मृग- मयूरकुक्कुटशरीरजनितैर्मृगमांसचयैः स्वच्छ मांस समूहैः | इति रा० शि० || निषादादिबलतृप्त्यर्थ माहेति | रा० रामाभिरामीये | उप्यन्ते ध्रियन्ते जनैर्वस्तूनि यासु ता वाप्यो मञ्जूष पेटिकाद्याः काष्ठमय्योधातुमय्यश्च | मैरेय मांसशब्दौव्याख्यातौ | अथवा माज्ञानन्तस्येरावाक् ब्रह्मज्ञानमयी वाणी अस्त्यस्मिन् तत् शास्त्रं तत्र भवं ब्रह्मज्ञानोपदेशनिस्पन्दस्तेनपूर्णाः ? इराभूवाक् सुराप्सु स्यादित्यमरः मृष्ट- मांसचयैः स्वच्छ रुचिकर पदार्थचयैः मधुरवन्यफल कन्दादि समूहैर्वा अथवा निर्मलमांसी कंकोल विकार वद्भोज्य पदार्थराशिभिर्वा | मांसं स्यादामिषे क्लीवं कक्कोलीजटयोः स्त्रियाम्, इति मेदिनी | मृग्यतेऽन्विष्यतेयत्र तन्मृगं वनं तत्रभवा मार्गा चासौ मायूरी अजमोदा तदादिभिर्द्रव्यैः संस्कृतानि मार्गमायूराणि कुक आदाने आरोहणेच कुटति कौटिल्यं दर्शयति सः कुक्कुटः शाल्मलिवृक्षः, तस्यफलानि पुष्पाणि च तत्कृतानि कौक्कुटानि शाकविशेषाणि तानिच तानि कौक्कुटानि तैस्तस्येदमित्यण् | मायूरी, अजमोदा, इति राजनिर्घण्टः |
मायूरी शिखिमोदा च मोदाढ्या वह्निदीपिका । ब्रह्मकोशी विशाली च हृद्यगन्धोग्रगन्धिका । मोदिनी फलमुख्या च वसुचन्द्राभिधा मता ॥ ५.१०९॥ राजनिघण्टुः/ पिप्पल्यादिवर्गः | अथ अजमोदाया नामानि गुणाश्च । अजमोदा खराश्वा च मायूरी दीप्यकस्तथा । तथा ब्रह्मकुशा प्रोक्ता कारवी लोचमस्तका ॥
अजमोदा कटुस्तीक्ष्णा दीपनी कफवातनुत् । उष्णा विदाहिनी हृद्या वृष्या बलकरी लघुः ॥ नेत्रामयकृमिच्छर्द्दि हिक्कावस्तिरुजो हरेत्।।
सेना के हाथी आदि बड़े बड़े पशुओं के खाने के लिये मुनीश्वर के तपोबल से मद्य तथा हिरण,मोर और मुरगाओं के स्वच्छ मांसों से पूर्ण बड़े बड़े कूंडे और हौद वहां देखे गए | रा० शि० |
(आटविक) भिल्ल आदि नीच जाति के जन जो सेनाओं में थे उनके खाने के लिये देखे गए | रामायण रामाभिरामी टीका |
अब दशरथ शास्त्री की व्याख्या:- (मैरेय) ब्रह्मानन्द ज्ञानोपदेश पूर्ण [ वाप्य ] सरस्वतीभवन, और [ मृष्ट ] स्वच्छ [ मांसचयैः ] रुचिकर भोज्यपदार्थ, अथवा मधुर वनोद्भव अनेक प्रकार के कन्द फल आदि अथवा जटामांसी-शीतलचीनी के शाक या चूर्ण वाले भोज्य पदार्थो की राशियों से [ प्रतप्त पैठरैः ] मृण्मयी आदि हांडियों में पकाए हुए [मार्गमायूरकौक्कुटैः) वनोद्भव, अजवायन अजमोद के छुके हुए सेमर के गुंठाओं के शाकों से पूर्ण बड़े बड़े डब्बे या हौद || ७० ||
तथैव मत्ता मदिरोत्कटा नरास्तथैव दिव्यागुरुचन्दनोक्षिता: । तथैव दिव्या विविधा: स्रगुत्तमा: पृथक् प्रकीर्णा मनुजै: प्रमर्दिता: ।।२.९१.८३।।
मदिरोत्कटा नराः | ८३ | माद्यत्यनया सम्पदा सा मदिरा तयोत्कटाः प्रगल्भः मुनीश्वर के तपोबल संपत्ति को भोगकर प्रफुल्लित होगए मनुष्य | ८३ |
अयोध्याकाण्ड सर्ग ९६ ” तां तथा दर्शयित्वा तु मैथिलीं गिरिनिम्नगाम् ।
निषसाद गिरिप्रस्थे सीतां मांसेन छन्दयन् ।। २.९६.१ ।।”
सीतां मांसेन छन्दयन् ।१।
मन्दाकिनी दर्शनानान्तरकालिकं वृत्तान्तमाह | तामित्यादिभिः | तां गिरिनिम्नगां मन्दाकिनीं मैथिलीं दर्शयित्वा मांसेन तापसोपभोग्य फलादिना सीतां छन्दयन् तत्प्रीतिमुत्पादयन् गिरिप्रस्थे पर्वतैक शिलायां निषसाद | रा० शि० |
आगतौ वर्णसंकरजातिविशेषौ मनुष्यौ दर्शयन्नाह | मांसेन वर्णसंकर विशिष्ट मांस जातीयजनप्रदर्शनेन छन्दयन् तज्जाति महिमानं कथयन् निषसादेति सम्बन्धः ||
मन्दाकिनी नदी के देखने के पश्चात् सामयिक वृत्तान्त रामचन्द्र कहने लगे | सीताजी को नदी की सैर करा कर श्रीरामचन्द्रजी मुनियों के खाने योग्य फलों को दिखाकर एक शिला पर बैठ कहने लगे | रा० शि० ||
आये हुए दो वर्णसंकर जाति के मनुष्यों को देख कहने लगे अर्थात उनकी जाति के माहात्म्य और आचरण का वर्णन करते हुए बैठ गये || १ ||
इदं मेध्यमिदं स्वादु निष्टप्तमिदमग्निना । एवमास्ते स धर्मात्मा सीतया सह राघव: ।। २.९६.२ ।।
छन्दन प्रकारं निरूपयन्नाह | इदमिति |
इदं फलं मेध्यं शुद्धम् अतएव इदमग्निना निष्टप्तम् एवमुक्ता सीतया सह धर्मात्मा राघवः आस्ते || इति रा० शि० || कमित्यपेक्षायामाह | इदमयमित्यर्थः | तस्योभयलिङ्गत्वात् | अन्यवन्योपजीवि वर्णसंकरजातिजन विशेषेषु मेध्यं पवित्राचरण शीलवान् जनः | अग्निना सूर्यजाग्निना घर्म्मेण निष्टप्तं संतप्तः | आर्षत्वात्क्लीवत्वम् | आदरार्थे-इदमोवीप्सा अत्रद्वयोर्वनचारिणोर्नरयोर्वर्णनमिति गम्यते | चतुरो मागधी सूते क्रूरान्मायोपजीविनः | मांसं स्वादुकरं क्षौद्रं सौगन्ध्यमिति विश्रुतम्, इति भारतेऽनुशासनपर्वणि ४८ अध्याय २२ श्लोकात् || भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति सङ्करजातीनां शीलविभागादि निरूपणम् कृतम् |
यह फल शुद्ध है और अग्नि में भुनाहुआ है ऐसा कहते हुए सीता सहित राम धर्मात्मा बैठे | रा० शि० |
यह वर्णसंकर जातियों में (मेध्यं) उत्तमाचरण शील है और यह वनचारी (स्वादु) स्वादुकर जातीय जन सूर्यके घामसे (तापसे) संतापित हो रहा है | २ |
महाभारत के श्लोक का अर्थ :- इस प्रकार मागध जातिकी सैरन्ध्री स्त्री आयोगव आदि चार जातियों से समागम करके मायासे जीविका चलानेवाले पूर्वोक्त चार प्रकार के क्रूर पुत्रों को उत्पन्न करती है | इनके सिवा दुसरे भी चार प्रकार के पुत्र मागधी सैरन्ध्री से उत्पन्न होते हैं, जो उसके सजातीय अर्थात मागध-सैरन्ध्रसे ही उत्पन्न होते हैं | उनकी मांस,स्वादुकर, क्षौद्र और सौगन्ध – इन चार नामोंसे प्रसिद्धि होती है | || २२ ||
और आर्यसमाजी मंत्री ने अपने महाभारत वनपर्व के अध्याय २०७ में श्लोक ८ व ९ में राजा रन्तिदेव के यहां का वृत्तान्त लिखा है सो वहां धर्मव्याध और एक तपस्वी का इतिहास लिखा है | वहां पर व्याध ने तपस्वी को दो श्लोक में रन्तिदेव का इतिहास सुनाया है और उसका उत्तर एक विद्वान आप के लिए दे चुके हैं अतः उसका विवरण लिखना अयोग्य जान कर यहां नहीं लिखा है |
(नोट) जहाँ पर संस्कृत व भाषा टीका में किसी का नामोल्लेख नहीं है वह लेख हमारा है |
सिंहो व्याकरणस्य कर्तुरहरत्प्राणान् प्रियान् पणिनेर्मीमांसाकृतमुन्ममाथ सहसा हस्ती मुनिं जैमिनिम्। छन्दोज्ञाननिधिं जघान मकरो वेलातटे पिङ्गलमज्ञानावृतचेतसामतिरुषां कोऽर्थस्तिरश्चां गुणैः॥ उन्ममाथ मथयामास व्यापादयामासेत्यर्थः, तिरश्चाम् पश्वादीनाम्।
व्याकरणशास्त्र के कर्ता पाणिनि को सिंह ने मार डाला था, मीमांसाशास्त्र के प्रवर्तक जैमिनि मुनि को सहसा एक हाथी ने कुचल डाला था और छन्दःशास्त्र के प्रवर्तक आचार्य पिङ्गल को समुद्र के किनारे किसी ग्राह ने मार डाला था। पशुओं को किसी के गुण से कोई प्रयोजन नहीं होता है।
|| आदित्यहृदयम् ||
आदित्यहृदयम् सूर्य देव की स्तुति के लिए वाल्मीकि रामायण के युद्ध काण्ड में लिखे मन्त्र हैं। जब राम, रावण से युद्ध के लिये रणक्षेत्र में आमने-सामने थे, उस समय अगस्त्य ऋषि ने श्री राम को सूर्य देव की स्तुति करने की सलाह दी। आदित्यहृदयम् में कुल ३१ श्लोक हैं ।
आज के समय में, आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ, नौकरी में पदोन्नति, धन प्राप्ति, प्रसन्नता, आत्मविश्वास के साथ-साथ समस्त कार्यों में सफलता पाने तथा मनोकामना सिद्ध करने के लिये किया जाता है।
आदित्यहृदय स्तोत्र
ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम् ।
रावणं चाग्रतो दृष्टवा युद्धाय समुपस्थितम् ॥१॥
दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम् ।
उपगम्याब्रवीद् राममगस्त्यो भगवांस्तदा ॥२॥
उधर श्री रामचन्द्रजी युद्ध से थककर चिन्ता करते हुए रणभूमि में खड़े थे । इतने में रावण भी युद्ध के लिए उनके सामने उपस्थित हो गया । यह देख भगवान अगस्त्य मुनि, जो देवताओं के साथ युद्ध देखने के लिए आये थे, श्रीराम के पास जाकर बोले ॥ १-२
राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्यं सनातनम् ।
येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसे ॥३॥
सबके हृदय में रमण करने वाले महाबाहो राम ! यह सनातन गोपनीय स्तोत्र सुनो । वत्स ! इसके जप से तुम युद्ध में अपने समस्त शत्रुओं पर विजय पा जाओगे ॥३॥
आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम् ।
जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम् ॥४॥
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वपापप्रणाशनम् ।
चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम् ॥५॥
इस गोपनीय स्तोत्र का नाम है आदित्यहृदय । यह परम पवित्र और सम्पूर्ण शत्रुओं का नाश करने वाला है । इसके जप से सदा विजय की प्राप्ति होती है । यह नित्य अक्षय और परम कल्याणमय स्तोत्र है । सम्पूर्ण मंगलों का भी मंगल है । इससे सब पापों का नाश हो जाता है । यह चिन्ता और शोक को मिटाने तथा आयु को बढ़ाने वाला उत्तम साधन है ॥ ४-५॥
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम् ।
पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम् ॥६॥
भगवान सूर्य अपनी अनन्त किरणों से सुशोभित (रश्मिमान्) हैं । ये नित्य उदय होने वाले (समुद्यन्), देवता और असुरों से नमस्कृत, विवस्वान् नाम से प्रसिद्ध, प्रभा का विस्तार करने वाले (भास्कर) और संसार के स्वामी (भुवनेश्वर) हैं । तुम इनका (रश्मिमते नमः, समुद्यते नमः, देवासुरनमस्कृताय नमः, विवस्वते नमः, भास्कराय नमः, भुवनेश्वराय नमः इन नाम मंत्रों के द्वारा) पूजन करो ॥६॥
सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः ।
एष देवासुरगणाँल्लोकान् पाति गभस्तिभिः ॥७॥
सम्पूर्ण देवता इन्हीं के स्वरूप हैं । ये तेज की राशि तथा अपनी किरणों से जगत को सत्ता एवं स्फूर्ति प्रदान करने वाले हैं । ये ही अपनी रश्मियों का प्रसार करके देवता और असुरों सहित सम्पूर्ण लोकों का पालन करते हैं ॥७॥
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः ।
महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः ॥८॥
ये ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कन्द, प्रजापति, इन्द्र, कुबेर, काल, यम, चन्द्रमा, वरुण, पितर, वसु, साध्य, अश्विनीकुमार, मरुद्गण, मनु, वायु, अग्नि, प्रजा, प्राण, ऋतुओं को प्रकट करने वाले तथा प्रभा के पुंज हैं ॥८॥
पितरो वसवः साध्या अश्विनौ मरुतो मनुः ।
वायुर्वन्हिः प्रजाः प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः ॥९॥
आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गर्भास्तिमान् ।
सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकरः ॥१०॥
हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान् ।
तिमिरोन्मथनः शम्भुस्त्वष्टा मार्तण्डकोंऽशुमान् ॥११॥
हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनो भास्करो रविः।
अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शंखः शिशिरनाशनः ॥१२॥
व्योमनाथस्तमोभेदी ऋम्यजुःसामपारगः ।
घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः ॥१३॥
आतपी मण्डली मृत्युः पिंगलः सर्वतापनः ।
कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभवोदभवः ॥१४॥
नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः ।
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते ॥१५॥
इन्हीं के नाम आदित्य (अदितिपुत्र), सविता (जगत को उत्पन्न करने वाले), सूर्य (सर्वव्यापक तथा सृष्टि करनेवाले), खग (आकाश में विचरने वाले), पूषा (पोषण करने वाले), गभस्तिमान् (प्रकाशमान किरणों वाले), सुर्वणसदृश, भानु (प्रकाशक), हिरण्यरेता (ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के बीज), दिवाकर (रात्रि का अन्धकार दूर करके दिन का प्रकाश फैलाने वाले), हरिदश्व (दिशाओं में व्यापक अथवा हरे रंग के घोड़े वाले), सहस्रार्चि (हजारों किरणों से सुशोभित), तिमिरोन्मथन (अन्धकार का नाश करने वाले), शम्भू (कल्याण के उदगमस्थान), त्वष्टा (भक्तों का दुःख दूर करने अथवा जगत का संहार करने वाले), अंशुमान (किरण धारण करने वाले), हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा), शिशिर (स्वभाव से ही सुख देने वाले), तपन (गर्मी पैदा करने वाले), भास्कर (दिनकर), रवि (सबकी स्तुति के पात्र), अग्निगर्भ (अग्नि को गर्भ में धारण करने वाले), अदितिपुत्र, शंख (आनन्दस्वरूप एवं व्यापक), शिशिरनाशन (शीत का नाश करने वाले), व्योमनाथ (आकाश के स्वामी), तमोभेदी (अन्धकार को नष्ट करने वाले), ऋग्वेद , यजुर्वेद और सामवेद के पारगामी, घनवृष्टि (घनी वृष्टि के कारण), अपां मित्र (जल को उत्पन्न करने वाले), विन्ध्यवीथीप्लवंगम (आकाश में तीव्रवेग से चलने वाले), आतपी (घाम उत्पन्न करने वाले), मण्डली (किरणसमूह को धारण करने वाले), मृत्यु (मौत के कारण), पिंगल (भूरे रंग वाले), सर्वतापन (सबको ताप देने वाले), कवि (त्रिकालदर्शी), विश्व (सर्वस्वरूप), महातेजस्वी, रक्त (लाल रंगवाले), सर्वभवोद्भव (सबकी उत्पत्ति के कारण), नक्षत्र, ग्रह और तारों के स्वामी, विश्वभावन (जगत की रक्षा तथा पोषण करने वाले), तेजस्वियों में भी अति तेजस्वी तथा द्वादशात्मा (आप ही बारह स्वरूपों में अभिव्यक्त) हैं । (इन सभी नामों से प्रसिद्ध हे सूर्यदेव !) आपको नमस्कार है ॥ ९-१०-११-१२-१३-१४-१५॥
नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः ।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः ॥१६॥
पूर्वगिरी उदयाचल तथा पश्चिमगिरि अस्ताचल के रूप में आपको नमस्कार है । ज्योतिर्गणों (ग्रहों और तारों) के स्वामी तथा दिन के अधिपति आपको प्रणाम है। ॥१६॥
जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः ।
नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः ॥१७॥
आप जय स्वरूप तथा विजय और कल्याण के दाता है । आपके रथ में हरे रंग के घोड़े जुते रहते हैं । आपको बारंबार नमस्कार है । सहस्रों किरणों से सुशोभित भगवान सूर्य ! आपको बारंबार प्रणाम है । आप अदिति के पुत्र होने के कारण आदित्य नाम से प्रसिद्ध है, आपको नमस्कार है ॥१७॥
नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमः ।
नमः पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते ॥१८॥
उग्र, वीर, और सारङ्ग सूर्यदेव को नमस्कार है। कमलों को विकसित करने वाले प्रचण्ड तेजधारी मार्तण्ड को प्रणाम है। ॥१८॥
ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूरायदित्यवर्चसे ।
भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः ॥१९॥
(परात्पर रूप में) आप ब्रह्मा, शिव और विष्णु के भी स्वामी हैं । सूर्य आपकी संज्ञा हैं, यह सूर्यमण्डल आपका ही तेज है, आप प्रकाश से परिपूर्ण हैं, सबको स्वाहा कर देने वाला अग्नि आपका ही स्वरूप है, आप रौद्ररूप धारण करने वाले हैं, आपको नमस्कार है ॥१९॥
तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने ।
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः ॥२०॥
आप अज्ञान और अन्धकार के नाशक, जड़ता एवं शीत के निवारक तथा शत्रु का नाश करने वाले हैं, आपका स्वरूप अप्रमेय है । आप कृतघ्नों का नाश करने वाले, सम्पूर्ण ज्योतियों के स्वामी और देवस्वरूप हैं, आपको नमस्कार है ॥२०॥
तप्तचामीकराभाय हरये विश्वकर्मणे ।
नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रवये लोकसाक्षिणे ॥२१॥
आपकी प्रभा तपाये हुए सुवर्ण के समान है, आप हरि (अज्ञान का हरण करने वाले) और विश्वकर्मा (संसार की सृष्टि करने वाले) हैं, तम के नाशक, प्रकाशस्वरूप और जगत के साक्षी हैं, आपको नमस्कार है ॥२१॥
नाशयत्येष वै भूतं तमेव सृजति प्रभुः ।
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः ॥२२॥
रघुनन्दन ! ये भगवान सूर्य ही सम्पूर्ण भूतों का संहार, सृष्टि और पालन करते हैं । ये ही अपनी किरणों से गर्मी पहुँचाते और वर्षा करते हैं ॥२२॥
एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः ।
एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम् ॥२३॥
ये सब भूतों में अन्तर्यामीरूप से स्थित होकर उनके सो जाने पर भी जागते रहते हैं । ये ही अग्निहोत्र तथा अग्निहोत्री पुरुषों को मिलने वाले फल हैं ॥२३॥
देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च ।
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमप्रभुः ॥२४॥
(यज्ञ में भाग ग्रहण करने वाले) देवता, यज्ञ और यज्ञों के फल भी ये ही हैं । सम्पूर्ण लोकों में जितनी क्रियाएँ होती हैं, उन सबका फल देने में ये ही पूर्ण समर्थ हैं ॥२४॥
एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च ।
कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव ॥२५॥
हे राघव ! विपत्ति में, कष्ट में, दुर्गम मार्ग में तथा और किसी भय के अवसर पर जो कोई पुरुष इन सूर्यदेव का कीर्तन करता है, उसे दुःख नहीं भोगना पड़ता ॥२५॥
पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम् ।
एतत् त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि॥२६॥
इसलिए तुम एकाग्रचित होकर इन देवाधिदेव जगदीश्वर की पूजा करो । इस आदित्य हृदय का तीन बार जप करने से तुम युद्ध में विजय पाओगे ॥२६॥
अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि ।
एवमुक्त्वा ततोऽगस्त्यो जगाम स यथागतम् ॥२७॥
महाबाहो ! तुम इसी क्षण रावण का वध कर सकोगे । यह कहकर अगस्त्य जी जैसे आये थे, उसी प्रकार चले गये ॥२७॥
एतच्छ्रुत्वा महातेजा, नष्टशोकोऽभवत् तदा ।
धारयामास सुप्रीतो राघवः प्रयतात्मवान् ॥२८॥
आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान् ।
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान् ॥२९॥
रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थे समुपागमत् ।
सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत् ॥३०॥
उनका उपदेश सुनकर महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी का शोक दूर हो गया । उन्होंने प्रसन्न होकर शुद्धचित्त से आदित्यहृदय को धारण किया और तीन बार आचमन करके शुद्ध हो भगवान सूर्य की ओर देखते हुए इसका तीन बार जप किया । इससे उन्हें बड़ा हर्ष हुआ । फिर परम पराक्रमी रघुनाथजी ने धनुष उठाकर रावण की ओर देखा और उत्साहपूर्वक विजय पाने के लिए वे आगे बढ़े । उन्होंने पूरा प्रयत्न करके रावण के वध का निश्चय किया ॥ २८-२९-३०॥
अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितनाः परमं प्रहृष्यमाणः ।
निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति ॥३१॥
उस समय देवताओं के मध्य में खड़े हुए भगवान सूर्य ने प्रसन्न होकर श्रीरामचन्द्रजी की ओर देखा और निशाचर राज रावण के विनाश का समय निकट जानकर हर्षपूर्वक कहा रघुनन्दन ! अब जल्दी करो ॥३१॥
|| सूर्य उपस्थानम् ||
उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः ।
दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥१॥
अप त्ये तायवो यथा नक्षत्रा यन्त्यक्तुभिः ।
सूराय विश्वचक्षसे ॥२॥
अदृश्रमस्य केतवो वि रश्मयो जनाँ अनु ।
भ्राजन्तो अग्नयो यथा ॥३॥
तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि सूर्य ।
विश्वमा भासि रोचनम् ॥४॥
प्रत्यङ्देवानां विशः प्रत्यङ्ङुदेषि मानुषान् ।
प्रत्यङ्विश्वं स्वर्दृशे ॥५॥
येना पावक चक्षसा भुरण्यन्तं जनाँ अनु ।
त्वं वरुण पश्यसि ॥६॥
वि द्यामेषि रजस्पृथ्वहा मिमानो अक्तुभिः ।
पश्यञ्जन्मानि सूर्य ॥७॥
सप्त त्वा हरितो रथे वहन्ति देव सूर्य ।
शोचिष्केशं विचक्षण ॥८॥
अयुक्त सप्त शुन्ध्युवः सूरो रथस्य नप्त्यः ।
ताभिर्याति स्वयुक्तिभिः ॥९॥
उद्वयं तमसस्परि ज्योतिष्पश्यन्त उत्तरम् ।
देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम् ॥१०॥
उद्यन्नद्य मित्रमह आरोहन्नुत्तरां दिवम् ।
हृद्रोगं मम सूर्य हरिमाणं च नाशय ॥११॥
शुकेषु मे हरिमाणं रोपणाकासु दध्मसि ।
अथो हारिद्रवेषु मे हरिमाणं नि दध्मसि ॥१२॥
उदगादयमादित्यो विश्वेन सहसा सह ।
द्विषन्तं मह्यं रन्धयन्मो अहं द्विषते रधम् ॥१३॥
ऋग्वेदीय सूर्यसूक्तम्
आङ्गिरसः कुत्स ऋषिः, सूर्योदेवता, निचृत् त्रिष्तुप् (१,२,६) ,
विराट् त्रिष्टुप् (३), त्रिष्टुप्छन्दः (४,५), धैवतः स्वरः ।
चि॒त्रं दे॒वाना॒मुद॑गा॒दनी॑कं॒ चक्षु॑र्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्या॒ग्नेः ।
आप्रा॒ द्यावा॑पृथि॒वी अ॒न्तरि॑क्षं॒ सूर्य॑ आ॒त्मा जग॑तस्त॒स्थुष॑श्च ॥ १.११५.०१
सूर्यो॑ दे॒वीमु॒षसं॒ रोच॑मानां॒ मर्यो॒ न योषा॑म॒भ्ये॑ति प॒श्चात् ।
यत्रा॒ नरो॑ देव॒यन्तो॑ यु॒गानि॑ वितन्व॒ते प्रति॑ भ॒द्राय॑ भ॒द्रम् ॥ १.११५.०२
भ॒द्रा अश्वा॑ ह॒रितः॒ सूर्य॑स्य चि॒त्रा एत॑ग्वा अनु॒माद्या॑सः ।
न॒म॒स्यन्तो॑ दि॒व आ पृ॒ष्ठम॑स्थुः॒ परि॒ द्यावा॑पृथि॒वी य॑न्ति स॒द्यः ॥ १.११५.०३
तत्सूर्य॑स्य देव॒त्वं तन्म॑हि॒त्वं म॒ध्या कर्तो॒र्वित॑तं॒ सं ज॑भार ।
य॒देदयु॑क्त ह॒रितः॑ स॒धस्था॒दाद्रात्री॒ वास॑स्तनुते सि॒मस्मै॑ ॥ १.११५.०४
तन्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्याभि॒चक्षे॒ सूर्यो॑ रू॒पं कृ॑णुते॒ द्योरु॒पस्थे॑ ।
अ॒न॒न्तम॒न्यद्रुश॑दस्य॒ पाजः॑ कृ॒ष्णम॒न्यद्ध॒रितः॒ सं भ॑रन्ति ॥ १.११५.०५
अ॒द्या दे॑वा॒ उदि॑ता॒ सूर्य॑स्य॒ निरंह॑सः पिपृ॒ता निर॑व॒द्यात् ।
तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑तिः॒ सिन्धुः॑ पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥ १.११५.०६
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमूतये मारुतं शर्धो अदितिं हवामहे ।
रथं न दुर्गाद्वसवः सुदानवो विश्वस्मान्नो अंहसो निष्पिपर्तन ॥१॥
त आदित्या आ गता सर्वतातये भूत देवा वृत्रतूर्येषु शम्भुवः ।
रथं न दुर्गाद्वसवः सुदानवो विश्वस्मान्नो अंहसो निष्पिपर्तन ॥२॥
हंसः शुचिषद् वसुरन्तरिक्षसद्. होता वेदिषद् अतिथिर्दुरोणसत् । ॥ नृषद्वरसदृतसद्वयोमसदब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत् ॥ यत्त्वा सूर्य स्वर्भानुस्तमसाविध्यदासुरः ।
अक्षेत्रविद्यथा मुग्धो भुवनान्यदीधयुः ॥५॥
यदद्य कच्च वृत्रहन्नुदगा अभि सूर्य ।
सर्वं तदिन्द्र ते वशे ॥४॥
यदद्य सूर उदितेऽनागा मित्रो अर्यमा ।
सुवाति सविता भगः ॥४॥ उत्सूर्यो बृहदर्चींष्यश्रेत्पुरु विश्वा जनिम मानुषाणाम् ।
समो दिवा ददृशे रोचमानः क्रत्वा कृतः सुकृतः कर्तृभिर्भूत् ॥१॥
स सूर्य प्रति पुरो न उद्गा एभि स्तोमेभिरेतशेभिरेवैः ।
प्र नो मित्राय वरुणाय वोचोऽनागसो अर्यम्णे अग्नये च ॥२॥
वि नः सहस्रं शुरुधो रदन्त्वृतावानो वरुणो मित्रो अग्निः ।
यच्छन्तु चन्द्रा उपमं नो अर्कमा नः कामं पूपुरन्तु स्तवानाः ॥३॥
उद्वेति सुभगो विश्वचक्षाः साधारणः सूर्यो मानुषाणाम् ।
चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्य देवश्चर्मेव यः समविव्यक्तमांसि ॥१॥
उद्वेति प्रसवीता जनानां महान्केतुरर्णवः सूर्यस्य ।
समानं चक्रं पर्याविवृत्सन्यदेतशो वहति धूर्षु युक्तः ॥२॥
विभ्राजमान उषसामुपस्थाद्रेभैरुदेत्यनुमद्यमानः ।
एष मे देवः सविता चच्छन्द यः समानं न प्रमिनाति धाम ॥३॥
दिवो रुक्म उरुचक्षा उदेति दूरेअर्थस्तरणिर्भ्राजमानः ।
नूनं जनाः सूर्येण प्रसूता अयन्नर्थानि कृणवन्नपांसि ॥४॥
यत्रा चक्रुरमृता गातुमस्मै श्येनो न दीयन्नन्वेति पाथः ।
प्रति वां सूर उदिते विधेम नमोभिर्मित्रावरुणोत हव्यैः ॥५॥
नू मित्रो वरुणो अर्यमा नस्त्मने तोकाय वरिवो दधन्तु ।
सुगा नो विश्वा सुपथानि सन्तु यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥६॥
उदु त्यद्दर्शतं वपुर्दिव एति प्रतिह्वरे ।
यदीमाशुर्वहति देव एतशो विश्वस्मै चक्षसे अरम् ॥१४॥
शीर्ष्णःशीर्ष्णो जगतस्तस्थुषस्पतिं समया विश्वमा रजः ।
सप्त स्वसारः सुविताय सूर्यं वहन्ति हरितो रथे ॥१५॥
तच्चक्षुर्देवहितं शुक्रमुच्चरत् ।
पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतम् ॥१६॥
बण्महाँ असि सूर्य बळादित्य महाँ असि ।
महस्ते सतो महिमा पनस्यतेऽद्धा देव महाँ असि ॥११॥
बट् सूर्य श्रवसा महाँ असि सत्रा देव महाँ असि ।
मह्ना देवानामसुर्यः पुरोहितो विभु ज्योतिरदाभ्यम् ॥१२॥ नमो मित्रस्य वरुणस्य चक्षसे महो देवाय तदृतं सपर्यत ।
दूरेदृशे देवजाताय केतवे दिवस्पुत्राय सूर्याय शंसत ॥१॥
सा मा सत्योक्तिः परि पातु विश्वतो द्यावा च यत्र ततनन्नहानि च ।
विश्वमन्यन्नि विशते यदेजति विश्वाहापो विश्वाहोदेति सूर्यः ॥२॥
न ते अदेवः प्रदिवो नि वासते यदेतशेभिः पतरै रथर्यसि ।
प्राचीनमन्यदनु वर्तते रज उदन्येन ज्योतिषा यासि सूर्य ॥३॥
येन सूर्य ज्योतिषा बाधसे तमो जगच्च विश्वमुदियर्षि भानुना ।
तेनास्मद्विश्वामनिरामनाहुतिमपामीवामप दुष्वप्न्यं सुव ॥४॥
विश्वस्य हि प्रेषितो रक्षसि व्रतमहेळयन्नुच्चरसि स्वधा अनु ।
यदद्य त्वा सूर्योपब्रवामहै तं नो देवा अनु मंसीरत क्रतुम् ॥५॥
तं नो द्यावापृथिवी तन्न आप इन्द्रः शृण्वन्तु मरुतो हवं वचः ।
मा शूने भूम सूर्यस्य संदृशि भद्रं जीवन्तो जरणामशीमहि ॥६॥
विश्वाहा त्वा सुमनसः सुचक्षसः प्रजावन्तो अनमीवा अनागसः ।
उद्यन्तं त्वा मित्रमहो दिवेदिवे ज्योग्जीवाः प्रति पश्येम सूर्य ॥७॥
महि ज्योतिर्बिभ्रतं त्वा विचक्षण भास्वन्तं चक्षुषेचक्षुषे मयः ।
आरोहन्तं बृहतः पाजसस्परि वयं जीवाः प्रति पश्येम सूर्य ॥८॥
यस्य ते विश्वा भुवनानि केतुना प्र चेरते नि च विशन्ते अक्तुभिः ।
अनागास्त्वेन हरिकेश सूर्याह्नाह्ना नो वस्यसावस्यसोदिहि ॥९॥
शं नो भव चक्षसा शं नो अह्ना शं भानुना शं हिमा शं घृणेन ।
यथा शमध्वञ्छमसद्दुरोणे तत्सूर्य द्रविणं धेहि चित्रम् ॥१०॥
अस्माकं देवा उभयाय जन्मने शर्म यच्छत द्विपदे चतुष्पदे ।
अदत्पिबदूर्जयमानमाशितं तदस्मे शं योररपो दधातन ॥११॥
यद्वो देवाश्चकृम जिह्वया गुरु मनसो वा प्रयुती देवहेळनम् ।
अरावा यो नो अभि दुच्छुनायते तस्मिन्तदेनो वसवो नि धेतन ॥१२॥ सूर्यो नो दिवस्पातु वातो अन्तरिक्षात् ।
अग्निर्नः पार्थिवेभ्यः ॥१॥
जोषा सवितर्यस्य ते हरः शतं सवाँ अर्हति ।
पाहि नो दिद्युतः पतन्त्याः ॥२॥
चक्षुर्नो देवः सविता चक्षुर्न उत पर्वतः ।
चक्षुर्धाता दधातु नः ॥३॥
चक्षुर्नो धेहि चक्षुषे चक्षुर्विख्यै तनूभ्यः ।
सं चेदं वि च पश्येम ॥४॥
सुसंदृशं त्वा वयं प्रति पश्येम सूर्य ।
वि पश्येम नृचक्षसः ॥५॥ विभ्राड् बृहत् पिबतु सोम्यं मध्व् आयुर् दधद् यज्ञपताव् अविह्रुतम् ।
वातजूतो यो ऽ अभिरक्षति त्मना प्रजाः पुपोष पुरुधा वि राजति ॥
उद् उ त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः ।
दृशे विश्वाय सूर्यम् स्वाहा ॥
येना पावक चक्षसा भुरण्यन्तं जनाम्२ऽ अनु ।
त्वं वरुण पश्यसि ॥
दैव्याव् अध्वर्यू ऽ आ गतम् रथेन सूर्यत्वचा ।
मध्वा यज्ञम् सम् अञ्जाथे ।
तं प्रत्नथा । अयं वेनः। चित्रं देवानाम्
आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन्मातरं पुरः ।
पितरं च प्रयन्स्वः ॥१॥
अन्तश्चरति रोचनास्य प्राणादपानती ।
व्यख्यन्महिषो दिवम् ॥२॥
त्रिंशद्धाम वि राजति वाक्पतंगाय धीयते ।
प्रति वस्तोरह द्युभिः ॥३॥
ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत ।
ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः ॥१॥
समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत ।
अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी ॥२॥
सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् ।
दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः ॥३॥
|| सूर्य देव की आरती २||
ऊँ जय कश्यप नन्दन, प्रभु जय अदिति नन्दन।
त्रिभुवन तिमिर निकंदन, भक्त हृदय चन्दन॥
॥ ऊँ जय कश्यप…॥
सप्त अश्वरथ राजित, एक चक्रधारी।
दु:खहारी, सुखकारी, मानस मलहारी॥
॥ ऊँ जय कश्यप…॥
सुर मुनि भूसुर वन्दित, विमल विभवशाली।
अघ-दल-दलन दिवाकर, दिव्य किरण माली॥
॥ ऊँ जय कश्यप…॥
सकल सुकर्म प्रसविता, सविता शुभकारी।
विश्व विलोचन मोचन, भव-बंधन भारी॥
॥ ऊँ जय कश्यप…॥
कमल समूह विकासक, नाशक त्रय तापा।
सेवत सहज हरत अति, मनसिज संतापा॥
॥ ऊँ जय कश्यप…॥
नेत्र व्याधि हर सुरवर, भू-पीड़ा हारी।
वृष्टि विमोचन संतत, परहित व्रतधारी॥
॥ ऊँ जय कश्यप…॥
सूर्यदेव करुणाकर, अब करुणा कीजै।
हर अज्ञान मोह सब, तत्वज्ञान दीजै॥
ऊँ जय कश्यप नन्दन, प्रभु जय अदिति नन्दन।
त्रिभुवन तिमिर निकंदन, भक्त हृदय चन्दन॥
।। प्रात:स्मरणम् ।।
वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटिसमप्रभ ।
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा ।। १ ।।
कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती ।
करमूले स्थिता गौरी प्रभाते करदर्शनम् ।। २ ।।
समुद्र वसने देवी पर्वत स्तन मंडिते ।
विष्णु पत्नि नमस्तुभ्यं पाद स्पर्शं क्षमश्व मे ।। ३ ।।
महाप्रसाद जननी, सर्व सौभाग्यवर्धिनी ।
आधि व्याधि हरा नित्यं, तुलसि त्वं नमोस्तुते ।। ४।।
।। गवां मंत्रः ।।
माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभिः ।।
प्रनुवोचं चिकितुषे जनाय मा गा मनागामदितिं वधिष्ट ।। ५ ।।
गावो मे अग्रतः सन्तु गावो मे संतु पृष्ठतः ।।
गावो मे हृदये संतु गवां मध्ये वसाम्यहम् ।। ६।।
शांताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं ।
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् ।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम् ।
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ।। ७ ।।
कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने ।
प्रणत्क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नम: ।। ८ ।।
या कुन्देंदुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता ।
या वीणावरदंडमंडितकरा या श्वेतपद्मासना ।
या ब्रह्माच्युत्शंकरप्रभृतिभि: देवै सदा वन्दिता ।
सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेषजाडयापहा ।। ९ ।।
ब्रह्मानंदं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिम् ।
द्वंद्वातीतं गगनसदृशं, तत्त्वमस्यादिलक्षम् ।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधी: साक्षीभूतम् ।
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरूं तं नमामि ।। १० ।।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वर: ।
गुरु: साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नम: ।। ११ ।।
पुण्यश्लोको नलो राजा पुण्यश्लोको युधिष्ठिर: ।
पुण्यश्लोको विदेहश्च पुण्यश्लोको जनार्दन: ।। १२ ।।
अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमान्श्च विभीषण: ।
कृप: परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविन: ।। १३।।
सप्तैतांश्च स्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।
जीवेद् वर्षशतः साग्रमपमृत्युविवर्जितः।। १४।।
अहल्या द्रौपदी कुन्ती तारा मंदोदरी तथा ।
पंचकन्या ना स्मरेन्नित्यं महापातकनाशनम् ।। १५।।
अविमुक्त-चरण-युगलं दक्षिणमूर्तेश्च कुक्कुट-चतुष्कम्। स्मरणं वाराणस्याः निहन्ति स्वप्नमपशकुनं च ।। १६।।
उमा उषा च वैदेही रमा गंगेति पंचकम् ।
प्रातरेव स्मरेन्नित्यं सौभाग्यं वर्धते सदा ।। १७।।
सोमनाथो वैद्यनाथो धन्वन्तरिरथाश्विनौ ।
पंचैतान् यः स्मरेन्नित्यं व्याधिस्तस्य न जायते ।। १८।।
कपिलः कालियोऽनन्तो वासुकिस्तक्षकस्तथा ।
पञ्चैतान् स्मरतो नित्यं विषबाधा न जायते ।। १९।।
हरं हरिं हरिश्चन्द्रं हनूमन्तं हलायुधम् ।
पञ्चकं वै स्मरेन्नित्यं घोरसंकटनाशनम् ।। २०।।
रामं स्कन्दं हनूमन्तं वैनतेयं वृकोदरम् ।
पञ्चैतान् स्मरतो नित्यं भव वाधा विनश्यति ।। २१।।
आदित्यश्च उपेन्द्रश्च चक्रपाणिर्महेश्वर: ।
दण्डपाणि: प्रतापी स्यात् क्षुधा तस्य न बाधते ।। २२।।
वसुर्वरुणसोमौ च सरस्वती च सागर: ।
पञ्चैतान् स्मरतो नित्यं तृषा तस्य न बाधते ।। २३।।
कर्कोटकस्य नागस्य दमयन्त्या नलस्य च । ऋतुपर्णस्य राजर्षे: कीर्तनं कलिनाशनम् ।। २४।।
कार्तविर्यार्जुनो नाम राजा बाहु सहस्रवान्।
तस्य स्मरणमात्रेण गतं नष्टं च लभ्यते ।। २५।।
प्रह्लादनारदपराशरपुण्डरीक-
व्यासाऽम्बरीषशुकशौनकभीष्मदाल्भ्यान् ।
रुक्माङ्गदाऽर्जुनवसिष्ठविभीषणादीन्
पुण्यानिमान् परमभागवतान् स्मरामि ।। २६।।
धर्मो विवर्धति युधिष्ठिरकीर्तनेन पापं प्रणश्यति वृकोदरकीर्तनेन । शत्रुर्विनश्यति धनञ्जयकीर्तनेन माद्रीसुतौ कथयतां न भवन्ति रोगाः ।। २७।।
काश्यां वै भैरवो देव: संसारभयनाशन: ।
अनेकजन्मजं पापं स्मरणेन विनश्यति ।। २८।।
वाराणस्यां पूर्वभागे व्यासो नारायण: स्वयम् ।
तस्य स्मरणमात्रेण अज्ञानी ज्ञानवान् भवेत् ।। २९।।
वाराणस्यां पश्चिमे तु भीमचण्डी महासती ।
तस्या: स्मरणमात्रेण सर्वदा विजयी भवेत् ।। ३०।।
वाराणस्यामुत्तरे तु सुमन्तुर्नाम वै द्विज: ।
तस्य स्मरणमात्रेण निर्धनो धनवान् भवेत् ।। ३१।।
वाराणस्यां दक्षिणे तु कुक्कुटो नाम ब्राह्मण: ।
तस्य स्मरणमात्रेण दु:स्वप्न: सुखदो भवेत् ।। ३२।।
विश्वेशं माधवं ढुण्ढिं दण्डपाणिं च भैरवम् ।
वन्दे काशीं गुहां गङ्गां भवानीं मणिकर्णिकाम् ।। ३३।।
त्रयोग्नयस्त्रीणि च पुष्कराणि राम त्रयं त्रीणि पदानि विष्णोः ।
रुद्रस्त्रिनेत्रस्त्रिपथा च गङ्गा एतानि दुःस्वप्न विनाशकानि ।। ३४।।
सनत्कुमारदेवर्षिशुकभीष्मप्लवङ्गमाः ।
पञ्चैतान् स्मरतो नित्यं कामस्तस्य न बाधते ।। ३५।।
अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवंतिका ।
पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिका: ।। ३६।।
सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते ।। ३७।।
भैरवस्तुतिः ।
करकलितकपालः कुण्डली दण्डपाणि-
स्तरुणतिमिरनीलव्यालयज्ञोपवीती ।
क्रतुसमयसपर्या विघ्नविच्छेदहेतु-
र्जयति वटुकनाथः सिद्धिदः साधकानाम् ।। ३८।।
रामचन्द्रस्तुतिः ।
ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्धपद्मासनस्थं
पीतं वासो वसानं नवकमलदलस्पर्द्धिनेत्रं प्रसन्नम् ।
वामाङ्कारूढसीतामुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं
नानालङ्कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डलं रामचन्द्रम् ।। ३९।।
कल्याणानां निधानं कलिमलमथनं पावनं पावनानां
पाथेयं यन्मुमुक्षोः सपदि परमपदप्राप्तये प्रस्थितस्य ।
विश्रामस्थामेकं कविवरवचसां जीवनं सज्जनानां
बीजं धर्मद्रुमस्य प्रभवतु भवतां भूतये रामनाम ।। ४०।।
कृष्णस्तुतिः ।
श्रियाश्लिष्टो विष्णुः स्थिरचरगुरुर्वेदविषयो
धियां साक्षी शुद्धो हरिरसुरहन्ताब्जनयनः ।
गदी शङ्खी चक्री विमलवनमाली स्थिररुचिः
शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णोऽक्षि विषयः ।। ४१।।
विष्णुस्तुतिः ।
यं शैवाःसमुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो
बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्तेति नैयायिकाः ।
अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः कर्मेति मीमांसकाः
सोऽयं वो विदधातु वाञ्छितफलं त्रैलोक्यनाथो हरिः ।। ४२।।
यं ब्रह्मावरुणेन्द्ररुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै-
र्वेदैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगाः ।
ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो
यस्याऽन्तं न विदुः सुराऽसुरगणाः देवाय तस्मै नमः ।। ४३।।
नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रमूर्तये सहस्रपादाक्षिशिरोरुबाहवे ।
सहस्रनाम्ने पुरुषाय शाश्वते सहस्रकोटीयुगधारिणे नमः ।। ४४।।
आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम् ।
सर्वदेवनमस्कारः केशवं प्रति गच्छति ।। ४५।।
गणेश स्मरणम् –
प्रातः स्मरामि गणनाथमनाथ बन्धु, सिन्दूर पूरपरिशोभितगण्डयुग्मम् ।
उद्दण्ड विघ्नपरिखण्डनचण्डदण्ड, माखण्डलादिसुरनायकवृन्दवन्द्यम् ।। ४६।।
विष्णु स्मरणम् –
प्रातः स्मरामि भवभीतिमहार्तिनाशं नारायणं गरुडवाहनमब्जनाभम् । ग्राहाभिभूतवरवारणमुक्तिहेतुं चक्रायुधं तरुणवारिजपत्रनेत्रम् ।। ४७।।
देवी स्मरणम् –
प्रातः स्मरामि शरदिन्दुकरोज्ज्वलाभाम् सद्रत्नवन्मकर कुण्डल हारभूषाम् । दिव्यायुधोर्जित सुनीलसहस्रहस्ताम् रक्तोत्पलाभचरणां भवतीं परेशाम् ।। ४८।।
शिव स्मरणम् –
प्रातः स्मरामि भवभीतिहरं सुरेशं गङ्गाधरं वृषभवाहनमम्बिकेशम्। खट्वाङ्गशूलवरदाभयहस्तमीशं संसाररोगहरमौषधमद्वितीयम् ।। ४९।।
सूर्य स्मरणम् –
प्रातः स्मरामि खलु तत्सवितुर्वरेण्यं रूपं हि मण्डलमृचोऽथ तनूर्यजूंषि।
सामानि यस्य किरणाः प्रभवादिहेतुं ब्रह्माहरात्मकमलक्ष्यमचिन्त्यरूपम् ।। ५०।।
ब्रह्मादि नवग्रह स्मरणम् –
ब्रह्मामुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानुः शशी भूमिसुतो बुधश्च ।
गुरुश्च शुक्र: शनिराहुकेतवः कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ।। ५१।।
ऋषि स्मरणम् –
भृगुर्वशिष्ठः क्रतुरङ्गिराश्च मनुः पुलस्त्यः पुलहश्च गौतमः ।
रैभ्यो मरीचिश्च्यवनश्च दक्षः कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ।। ५२।।
सनकादिकानां स्मरणम् –
सनत्कुमारः सनकः सनन्दनः सनातनोऽप्यासुरिपिङ्गलौ च ।
सप्त स्वराः सप्त रसातलानि कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ।। ५३।।
सप्तार्णवाः सप्त कुलाचलाश्च सप्तर्षयो द्वीपवनानि सप्त।
भूरादि कृत्वा भुवनानि सप्त कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ।। ५४।।
पृथ्वी सगन्धा सरसास्तथापः स्पर्शो च वायुर्ज्वलितं च तेजः ।
नभः सशब्दं महता सहैव कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ।। ५५।।
इत्थं प्रभाते परमं पवित्रं पठेत् स्मरेद्वा श्रृणुयाच्च तद्वत् ।
दुःस्वप्ननाशस्त्विह सुप्रभातं भवेच्च नित्यं भगवत्प्रसादात् ।। ५६।।
सप्तर्षि स्मरणम् –
कश्यपोऽत्रिर्भरद्वाजो विश्वामित्रोऽथ गौतमः ।
जमदग्निर्वसिष्ठश्च सप्तैते ऋषयः स्मृताः ।। ५७।।
हे जिह्वे रससारज्ञे सर्वदा मधुरप्रिये ।
नारायणाख्यपीयूषं पिब जिवे निरन्तरम् ।। ५८।।
सुप्तः प्रबोधितो विष्णो हृषीकेशेन यत्त्वया ।
यद्यत्कारयसे कर्म तत् करोमि तवाज्ञया।। ५९।।
प्रातः काले दर्शनयोग्यानि –
श्रौत्रियं सुभगां गाञ्च अग्निमग्निचितिंतथा।
प्रातरुत्थाय यः पश्येदापद्भ्यः स विमुच्यते ।। ६०।।
वेदपाठी, सुहागन स्त्री, गौ, अग्नि, अग्निहोत्री- इन सब को प्रातः काल उठकर जो अवलोकन करता है, वह आपत्ति से मुक्त होता है।
महालक्ष्मि ! नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं सुरेश्वरि ।
हरिप्रिये! नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं दयानिधे ।। ६१।।
रामलक्ष्मणौ सीता च सुग्रीवो हनुमान् कपि: ।
पञ्चैतान् स्मरतो नित्यं महाबाधा प्रमुच्यते ।। ६२।।
भारत सावित्री —
महार्षिर्भगवान् व्यास: कृत्वेमां संहितां पुरा ।
श्लोकैश्चतुर्भिर्धर्मात्मा पुत्रमध्यापयच्छुकम् ॥
मातापितृसहस्त्राणि पुत्रदाराशतानि च ।
संसारेष्वनुभूतानि यान्ति यास्यन्ति चापरे ॥
हर्षस्थानसहस्त्राणि भयस्थानशतानि च ।
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम् ॥
ऊर्ध्वबाहुर्विरौम्येष न च कश्चिच्छृणोति मे ।
धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थं न सेव्यते ॥
न जातु कामान्न भयान्न लोभाद् धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतो: ।
धर्मो नित्य: सुखदु:खे त्वनित्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्य: ॥
इमां भारतसावित्रीं प्रातरुत्थाय य: पठेत् ।
स भारतफलं प्राप्य परं ब्रह्माधिगच्छति ॥
नमो वशिष्ठाय महाव्रताय
पराशरं वेदनिधिं नमस्ये ।
नमोस्त्वनन्ताय महोरगाय
नमोस्तु सिद्धेभ्य इहाक्षयेभ्यः।। १० ।।
नमोस्त्वृषिभ्यः परमं परेषां
देवेषु देवं वरदं वराणाम्।
सहस्रशीर्षाय नमः शिवाय
सहस्रनामाय जनार्दनाय।। ११ ।। महाभारतम्-अनुशासनपर्व- अध्याय २५५
द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्रम् –
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम् ।
उज्जयिन्यां महाकालं ॐ कारममलेश्वरम् ॥१॥
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमाशंकरम् ।
सेतुबंधे तु रामेशं नागेशं दारुकावने ॥२॥
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यंबकं गौतमीतटे ।
हिमालये तु केदारं घुश्मेशं च शिवालये ॥३॥
एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रातः पठेन्नरः ।
सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति ॥४॥
भगवान शिव अर्थात् पार्वती के पति शंकर जिन्हें महादेव, भोलेनाथ, आदिनाथ आदि कहा जाता है, उनके बारे में यहां प्रस्तुत हैं ३५ रहस्य।
१. आदिनाथ शिव — सर्वप्रथम शिव ने ही धरती पर जीवन के प्रचार-प्रसार का प्रयास किया इसलिए उन्हें ‘आदिदेव’ भी कहा जाता है। ‘आदि’ का अर्थ प्रारंभ। आदिनाथ होने के कारण उनका एक नाम ‘आद्येश’ भी है।
२. शिव के अस्त्र-शस्त्र — शिव का धनुष पिनाक, चक्र भवरेंदु और सुदर्शन, अस्त्र पाशुपतास्त्र और शस्त्र त्रिशूल है। उक्त सभी का उन्होंने ही निर्माण किया था।
३. शिव का नाग — शिव के गले में जो नाग लिपटा रहता है उसका नाम वासुकि है। वासुकि के बड़े भाई का नाम शेषनाग है।
४. शिव की अर्द्धांगिनी — शिव की पहली पत्नी सती ने ही अगले जन्म में पार्वती के रूप में जन्म लिया और वही उमा, उर्मि, काली कही गई हैं।
५. शिव के पुत्र — शिव के प्रमुख ६ पुत्र हैं- गणेश, कार्तिकेय, सुकेश, जलंधर, अयप्पा और भूमा। सभी के जन्म की कथा रोचक है।
६. शिव के शिष्य — शिव के ७ शिष्य हैं जिन्हें प्रारंभिक सप्तऋषि माना गया है। इन ऋषियों ने ही शिव के ज्ञान को संपूर्ण धरती पर प्रचारित किया जिसके चलते भिन्न-भिन्न धर्म और संस्कृतियों की उत्पत्ति हुई। शिव ने ही गुरु और शिष्य परंपरा की शुरुआत की थी। शिव के शिष्य हैं- बृहस्पति, विशालाक्ष, शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज इसके अलावा ८वें गौरशिरस मुनि भी थे।
७. शिव के गण — शिव के गणों में भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र,चण्डीश, नंदी, श्रृंगी, भृङ्गी, रिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय प्रमुख हैं। इसके अलावा, पिशाच, दैत्य और नाग तथा अन्य पशुओं को भी शिव का गण माना जाता है। शिवगण नंदी ने ही ‘कामशास्त्र’ की रचना की थी। ‘कामशास्त्र’ के आधार पर ही ‘कामसूत्र’ लिखा गया।
८. शिव पंचायत — भगवान सूर्य, गणपति, देवी, रुद्र और विष्णु ये शिव पंचायत कहलाते हैं।
९. शिव के द्वारपाल — नंदी, स्कंद, रिटी, वृषभ, भृङ्गी, गणेश, और महाकाल।
१०. शिव पार्षद — जिस तरह जय और विजय विष्णु के पार्षद हैं उसी तरह बाण, रावण, चंड, नंदी, भृङ्गी आदि शिव के पार्षद हैं।
११. सभी धर्मों का केंद्र शिव — शिव की वेशभूषा ऐसी है कि प्रत्येक धर्म के लोग उनमें अपने प्रतीक ढूंढ सकते हैं। मुशरिक, यजीदी, साइबेरियन, सुबी, इब्राहीमी धर्मों में शिव के होने की छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। शिव के शिष्यों से एक ऐसी परंपरा की शुरुआत हुई, जो आगे चलकर शैव, सिद्ध, नाथ, दिगंबर और सूफी संप्रदाय में विभक्त हो गई।
१२. बौद्ध साहित्य के मर्मज्ञ अंतरराष्ट्रीय — ख्यातिप्राप्त विद्वान प्रोफेसर उपासक का मानना है कि शंकर ने ही बुद्ध के रूप में जन्म लिया था। उन्होंने पालि ग्रंथों में वर्णित २७ बुद्धों का उल्लेख करते हुए बताया कि इनमें बुद्ध के ३ नाम अतिप्राचीन हैं- तणंकर, शणंकर और मेघंकर।
१३. देवता और असुर दोनों के प्रिय शिव — भगवान शिव को देवों के साथ असुर, दानव, राक्षस, पिशाच, गंधर्व, यक्ष आदि सभी पूजते हैं। वे रावण को भी वरदान देते हैं और राम को भी। उन्होंने भस्मासुर, शुक्राचार्य आदि कई असुरों को वरदान दिया था। शिव, सभी आदिवासी, वनवासी जाति, वर्ण, धर्म और समाज के सर्वोच्च देवता हैं।
१४. शिव चिह्न — वनवासी से लेकर सभी साधारण व्यक्ति जिस चिह्न की पूजा कर सकें, उस पत्थर के ढेले, बटिया को शिव का चिह्न माना जाता है। इसके अलावा रुद्राक्ष और त्रिशूल को भी शिव का चिह्न माना गया है। कुछ लोग डमरू और अर्द्ध चन्द्र को भी शिव का चिह्न मानते हैं, हालांकि ज्यादातर लोग शिवलिंग अर्थात् शिव की ज्योति का पूजन करते हैं।
१५. शिव की गुफा — शिव ने भस्मासुर से बचने के लिए एक पहाड़ी में अपने त्रिशूल से एक गुफा बनाई और वे फिर उसी गुफा में छिप गए। वह गुफा जम्मू से १५० किलोमीटर दूर त्रिकूटा की पहाड़ियों पर है। दूसरी ओर भगवान शिव ने जहां पार्वती को अमृत ज्ञान दिया था वह गुफा ‘अमरनाथ गुफा’ के नाम से प्रसिद्ध है।
१६. शिव के पैरों के निशान, श्रीपद — श्रीलंका में रतन द्वीप पहाड़ की चोटी पर स्थित श्रीपद नामक मंदिर में शिव के पैरों के निशान हैं। ये पदचिह्न ५ फुट ७ इंच लंबे और २ फुट ६ इंच चौड़े हैं। इस स्थान को सिवानोलीपदम कहते हैं। कुछ लोग इसे आदम पीक कहते हैं।
रुद्र पद- तमिलनाडु के नागपट्टीनम जिले के थिरुवेंगडू क्षेत्र में श्रीस्वेदारण्येश्वर का मंदिर में शिव के पदचिह्न हैं जिसे ‘रुद्र पदम’ कहा जाता है। इसके अलावा तिरुवन्नामलाई में भी एक स्थान पर शिव के पदचिह्न हैं।
तेजपुर- असम के तेजपुर में ब्रह्मपुत्र नदी के पास स्थित रुद्रपद मंदिर में शिव के दाएं पैर का निशान है।
जागेश्वर- उत्तराखंड के अल्मोड़ा से ३६ किलोमीटर दूर जागेश्वर मंदिर की पहाड़ी से लगभग साढ़े ४ किलोमीटर दूर जंगल में भीम के मंदिर के पास शिव के पदचिह्न हैं। पांडवों को दर्शन देने से बचने के लिए उन्होंने अपना एक पैर यहां और दूसरा कैलाश में रखा था।
रांची- झारखंड के रांची रेलवे स्टेशन से ७ किलोमीटर की दूरी पर ‘रांची हिल’ पर शिवजी के पैरों के निशान हैं। इस स्थान को ‘पहाड़ी बाबा मंदिर’ कहा जाता है।
१७. शिव के अवतार — वीरभद्र, पिप्पलाद, नंदी, भैरव, महेश, अश्वत्थामा, शरभावतार, गृहपति, दुर्वासा, हनुमान, वृषभ, यतिनाथ, कृष्णदर्शन, अवधूत, भिक्षुवर्य, सुरेश्वर, किरात, सुनटनर्तक, ब्रह्मचारी, यक्ष, वैश्यानाथ, द्विजेश्वर, हंसरूप, द्विज, नतेश्वर आदि हुए हैं। वेदों में रुद्रों का जिक्र है। रुद्र ११ बताए जाते हैं- कपाली, पिंगल, भीम, विरूपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, अहिर्बुध्न्य, शंभू, चण्ड तथा भव।
१८. शिव का विरोधाभासिक परिवार — शिवपुत्र कार्तिकेय का वाहन मयूर है, जबकि शिव के गले में वासुकि नाग है। स्वभाव से मयूर और नाग आपस में दुश्मन हैं। इधर गणपति का वाहन चूहा है, जबकि सांप मूषकभक्षी जीव है। पार्वती का वाहन शेर है, लेकिन शिवजी का वाहन तो नंदी बैल है। इस विरोधाभास या वैचारिक भिन्नता के बावजूद परिवार में एकता है।
१९. तिब्बत स्थित कैलाश पर्वत पर उनका निवास है। जहां पर शिव विराजमान हैं उस पर्वत के ठीक नीचे पाताल लोक है जो भगवान विष्णु का स्थान है। शिव के आसन के ऊपर वायुमंडल के पार क्रमश: स्वर्ग लोक और फिर ब्रह्माजी का स्थान है।
२०. शिव भक्त — ब्रह्मा, विष्णु और सभी देवी-देवताओं सहित भगवान राम और कृष्ण भी शिव भक्त है। हरिवंश पुराण के अनुसार, कैलास पर्वत पर कृष्ण ने शिव को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की थी। भगवान राम ने रामेश्वरम् में शिवलिंग स्थापित कर उनकी पूजा-अर्चना की थी।
२१. शिव ध्यान — शिव की भक्ति हेतु शिव का ध्यान-पूजन किया जाता है। शिवलिंग को बिल्वपत्र चढ़ाकर शिवलिंग के समीप मंत्र जाप या ध्यान करने से मोक्ष का मार्ग पुष्ट होता है।
२२.शिव मंत्र — दो ही शिव के मंत्र हैं पहला- ॐ नम: शिवाय। दूसरा महामृत्युंजय मंत्र- ॐ हौं जू सः। ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जू हौं ॐ ॥ है।
२३. शिव व्रत और त्योहार — सोमवार, प्रदोष और श्रावण मास में शिव व्रत रखे जाते हैं। शिवरात्रि और महाशिवरात्रि शिव का प्रमुख पर्व त्योहार है।
२४. शिव प्रचारक — भगवान शंकर की परंपरा को उनके शिष्यों बृहस्पति, विशालाक्ष (शिव), शुक्र, सहस्राक्ष-महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज, अगस्त्य मुनि, गौरशिरस मुनि, नंदी, कार्तिकेय, भैरवनाथ आदि ने आगे बढ़ाया। इसके अलावा वीरभद्र, मणिभद्र,चण्डीश, नंदी, श्रृंगी, भृङ्गी, रिटी, शिलाद, गोकर्ण, घंटाकर्ण, बाण, रावण, जय और विजय ने भी शैवपंथ का प्रचार किया। इस परंपरा में सबसे बड़ा नाम आदिगुरु भगवान दत्तात्रेय का आता है। दत्तात्रेय के बाद आदि शंकराचार्य, अय्यप्प-दीक्षित, उपमन्यु, मार्कण्डेय, अघोर-आङ्गिरस, मत्स्येन्द्रनाथ और गुरुगोरखनाथ का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।
२५. शिव महिमा — शिव ने कालकूट नामक विष पिया था जो अमृत मंथन के दौरान निकला था। शिव ने भस्मासुर जैसे कई असुरों को वरदान दिया था। शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया था। शिव ने गणेश और राजा दक्ष के सिर को जोड़ दिया था। ब्रह्मा द्वारा छल किए जाने पर शिव ने ब्रह्मा का पांचवां सिर काट दिया था।
२६.शैव परम्परा — दसनामी, शाक्त, सिद्ध, दिगंबर, नाथ, लिंगायत, तमिल शैव, कालमुख शैव, कश्मीरी शैव, वीरशैव, नाग, लकुलीश, पाशुपत, कापालिक, कालदमन और माहेश्वर सभी शैव परंपरा से हैं। चन्द्रवंशी, सूर्यवंशी, अग्निवंशी और नागवंशी भी शिव की परंपरा से ही माने जाते हैं। भारत की असुर, रक्ष और आदिवासी जाति के आराध्य देव शिव ही हैं। शैव धर्म भारत के आदिवासियों का धर्म है।
२७. शिव के प्रमुख नाम — शिव के वैसे तो अनेक नाम हैं जिनमें १०८ नामों का उल्लेख पुराणों में मिलता है लेकिन यहां प्रचलित नाम जानें- महेश, नीलकंठ, महादेव, महाकाल, शंकर, पशुपतिनाथ, गंगाधर, नटराज, त्रिनेत्र, भोलेनाथ, आदिदेव, आदिनाथ, त्र्यम्बक, त्रिलोकेश, जटाशंकर, जगदीश, प्रलयंकर, विश्वनाथ, विश्वेश्वर, हर, शिव, शंभु, भूतनाथ और रुद्र।
२८.अमरनाथ के अमृत वचन — शिव ने अपनी अर्धांगिनी पार्वती को मोक्ष हेतु अमरनाथ की गुफा में जो ज्ञान दिया उस ज्ञान की आज अनेकानेक शाखाएं हो चली हैं। वह ज्ञानयोग और तंत्र के मूल सूत्रों में शामिल है। ‘विज्ञान भैरव तंत्र’ एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें भगवान शिव द्वारा पार्वती को बताए गए ११२ ध्यान सूत्रों का संकलन है।
२९. शिव ग्रंथ — वेद और उपनिषद सहित विज्ञान भैरव तंत्र, शिव पुराण और शिव संहिता, शिवसूत्र, में शिव की संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समाई हुई है। तंत्र के अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षा का विस्तार हुआ है।
३०. शिवलिंग — वायु पुराण के अनुसार प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और पुन: सृष्टिकाल में जिससे प्रकट होती है, उसे लिंग कहते हैं। इस प्रकार विश्व की संपूर्ण ऊर्जा ही लिंग का प्रतीक है। वस्तुत: यह संपूर्ण सृष्टि बिंदु-नाद स्वरूप है। बिंदु शक्ति है और नाद शिव। बिंदु अर्थात् ऊर्जा और नाद अर्थात् ध्वनि। यही दो संपूर्ण ब्रह्मांड का आधार है। इसी कारण प्रतीक स्वरूप शिवलिंग की पूजा-अर्चना है।
३१. बारह ज्योतिर्लिंग — सोमनाथ, मल्लिकार्जुन, महाकालेश्वर, ॐकारेश्वर, वैद्यनाथ, भीमशंकर, रामेश्वर, नागेश्वर, विश्वनाथ, त्र्यम्बकेश्वर, केदारनाथ, घृष्णेश्वर। ज्योतिर्लिंग उत्पत्ति के संबंध में अनेकों मान्यताएं प्रचलित है। ज्योतिर्लिंग यानी ‘व्यापक ब्रह्मात्मलिंग’ जिसका अर्थ है ‘व्यापक प्रकाश’। जो शिवलिंग के बारह रूपों में प्रकट हैं। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्म, माया, जीव, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को ज्योतिर्लिंग या ज्योति पिंड कहा गया है।
दूसरी मान्यता अनुसार शिव पुराण के अनुसार प्राचीनकाल में आकाश से ज्योति पिंड पृथ्वी पर गिरे और उनसे थोड़ी देर के लिए प्रकाश फैल गया। इस तरह के अनेकों उल्का पिंड आकाश से धरती पर गिरे थे। भारत में गिरे अनेकों पिंडों में से प्रमुख बारह पिंड को ही ज्योतिर्लिंग में शामिल किया गया।
३२. शिव का दर्शन — शिव के जीवन और दर्शन को जो लोग यथार्थ दृष्टि से देखते हैं वे सही बुद्धि वाले और यथार्थ को पकड़ने वाले शिवभक्त हैं, क्योंकि शिव का दर्शन कहता है कि यथार्थ में जियो, वर्तमान में जियो, अपनी चित्तवृत्तियों से लड़ो मत, उन्हें अजनबी बनकर देखो और कल्पना का भी यथार्थ के लिए उपयोग करो। आइंस्टीन से पूर्व शिव ने ही कहा था कि कल्पना ज्ञान से ज्यादा महत्वपूर्ण है।
३३. शिव और शंकर — शिव का नाम शंकर के साथ जोड़ा जाता है। लोग कहते हैं– शिव, शंकर, भोलेनाथ। इस तरह अनजाने ही कई लोग शिव और शंकर को एक ही सत्ता के दो नाम बताते हैं। असल में, दोनों की प्रतिमाएं अलग-अलग आकृति की हैं। शंकर को हमेशा तपस्वी रूप में दिखाया जाता है। कई जगह तो शंकर को शिवलिंग का ध्यान करते हुए दिखाया गया है। अत: शिव और शंकर दो अलग अलग सत्ताएं है। हालांकि शंकर को भी शिवरूप माना गया है। माना जाता है कि महेश (नंदी) और महाकाल भगवान शंकर के द्वारपाल हैं। रुद्र देवता शंकर की पंचायत के सदस्य हैं।
३४. देवों के देव महादेव — देवताओं की दैत्यों से प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी। ऐसे में जब भी देवताओं पर घोर संकट आता था तो वे सभी देवाधिदेव महादेव के पास जाते थे। दैत्यों, राक्षसों सहित देवताओं ने भी शिव को कई बार चुनौती दी, लेकिन वे सभी परास्त होकर शिव के समक्ष झुक गए इसीलिए शिव हैं देवों के देव महादेव। वे दैत्यों, दानवों और भूतों के भी प्रिय भगवान हैं। वे राम को भी वरदान देते हैं और रावण को भी।
३५. शिव हर काल में — भगवान शिव ने हर काल में लोगों को दर्शन दिए हैं। राम के समय भी शिव थे। महाभारत काल में भी शिव थे और विक्रमादित्य के काल में भी शिव के दर्शन होने का उल्लेख मिलता है। भविष्य पुराण अनुसार राजा हर्षवर्धन को भी भगवान शिव ने दर्शन दिए थे। 🙏