December 21, 2024
शिव कालभीति

शुद्ध और अशुद्धता पर कालभीति का शिव जी से वाद-विवाद

न जायते कुलम यस्य बीजशुद्धि बिना ततः |
तस्य खादन पिबतृ वापि साधुः सांदति तत्क्षणात् ||

कालभीति एक बिल्व वृक्ष के नीचे एक पैर के अंगूठे के अग्र भाग पर खड़े हो मंत्रों का जाप करने लगे | जाप  का नियम ग्रहण करने के पश्चात वे सौ वर्षों तक जल कि एक एक बूँद पीकर रहे | सौ वर्ष पूर्ण होने पर उनके सामने एक मनुष्य जल से भरा हुआ घड़ा लेकर आया, उसने कालभीति को प्रणाम करके बड़े हर्ष से बोला – महामते ! आज आपका नियम पूरा हो गया, यह जल ग्रहण किजिये |

कालभीति बोले – आप किस वर्ण के हैं तथा आप का आचार व्यवहार कैसा है | यह सब यथार्थ रूप से बताईये | आपके जन्म और आचार जान लेने पर ही मैं यह जल ग्रहण करूँगा, अन्यथा नही |

आगंतुक मनुष्य बोला – मैं अपने माता पिता को नही जानता हूँ, अपने आप को सदा इसी रुप में देखता हूँ, आचारो और धर्मों से मेरा कोई प्रयोजन नही है |

कालभीति ने कहा – यदि ऐसी बात है, तो मैं आपका जल कभी ग्रहण नही करूँगा | इस विषय में मेरे गुरु ने वैदिक सिद्धांत के अनुसार जो उपदेश दिया है, वह् सुनो – जिसके कुल का ज्ञान ना हो, उसका  अन्न खाने और जल पीने वाला साधु पुरुष तत्काल कष्ट में पड़़ जाता है |

आगंतुक मनुष्य बोला – तुम्हारी इस बात पर मुझे हँसी आती है | अहो ! तुम बड़े अविवेकी हो, जब सब भूतों में सदा भगवान शंकर ही निवास करते हैं, तो किसी के प्रति भी भली बुरी बात नही कहनी चाहिए क्योंकि इस से भगवान शंकर की ही निंदा होती है | जो अपने और दूसरों के बीच अंतर मानता है, उस भेददर्शी पुरुष के लिए मृत्यु अत्यंत घोर भय उपस्थित करती है, अथवा यदि शुद्धि का भी विचार किया जाए, तो बताओ इस जल में क्या अपवित्रता है ? यह घड़ा मिट्‍टी का बना हुआ है और अग्नि से पकाया गया है, फिर जल से भर दिया गया है | इन सब वस्तुओं में तो कोई अशुद्धि नही | यदि कहें कि मेरे संसर्ग से अशुद्धि आ गयी है, तो यह भी स्पष्ट नही है, क्योंकि वैसी दशा में जब मैं इस पृथ्वी पर हूँ तो आप यहाँ क्यों रहते हैं ? बताईये आप क्यों इस पृथ्वी पर चलते हैं ? आकाश में क्यों नही चलते ? अतः इस प्रकार विचार करने पर आपकी बात मूर्खो सी जान पड़ती है |

कालभीति ने कहा – यदि ऐसा कहा जाता है कि संपूर्ण भूतों में एक शिव ही हैं, तो कथन मात्र के लिए सबको शिव मानने वाले नास्तिक लोग भक्ष्य भोज्य पदार्थ को छोड़ कर मिट्‍टी क्यों नही खाते ? राख और धूल क्यों नही फांकते ? इसलिए संसार में व्यवहार सिद्धि के लिए एक मर्यादा स्थापित की गयी है, जो समय से ही सफल होती है, अन्यथा नही | आप उस मर्यादा को श्रवण करें | पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने इस पञ्च भौतिक जगत् की सृष्टि की और उसे नाममय प्रपंच से बाँध दिया | उस नाम प्रपंच के चार भेद हैं – ध्वनि, वर्ण, पद और वाक्य | ये ही नामात्मक प्रपंच के चार आधार स्थान हैं | इनमें ध्वनि ‘नाद’ स्वरूप है | ॐकारपूर्वक संपूर्ण अक्षर ही ‘वर्ण’ कहलाते हैं | ‘शिवम्‌’ यह सुयंत शब्द ‘पद’ है और ‘शिवम्‌ भजेत’ (शिव का भजन करे) यह विधि ही एक वाक्य कही गयी है | यह वाक्य भी तीन प्रकार का होता है; ऐसा श्रुति का सिद्धांत है | पहला प्रभुसम्मत, दूसरा सुहुसम्मत तथा तीसरा कान्तसंम्मत | यह त्रिविध वाक्य माने गए हैं | जैसे स्वामी सेवक को ये आदेश देते हैं कि “अमुक काम करो” – यह प्रभुसम्मत वाक्य है | इतिहास और पुराण आदि सुहुसम्मत कहे जाते हैं | ये सुह्रदयो कि भांति समझा कर मनुष्यों को यथार्थ मार्ग में लगाते हैं तथा काव्य के जो सरस एवं व्यङ्ग्पूर्ण आलाप आदि हैं उन्हें कान्तसंम्मत कहते हैं | पुरावा (जिस प्रकार प्रियतमा अपने प्रियतम को कोई आदेश नहीं देती, अपने हाव भाव, भ्रुभंग अथवा सरस आलाप से अपनी इच्छा मात्र सूचित कर देती है और प्रियतम उसकी पूर्ती के लिए स्वयं यत्नशील हो जाता है, इसी प्रकार रामायण आदि काव्य अपने सरस वर्णनों द्वारा सह्रादयों का मनोरंजन करते हुए स्वतः ह्रदय में यह भाव भर देते हैं की हमें राम आदि के आदर्श पर चलना चाहिए, रावण आदि के आदर्श पर नहीं | )

प्रभुवाक्य बाहर और भीतर से पवित्र करने वाला माना गया है तथा सुह्रदयवाक्य भी परम पवित्र है | स्वर्ग आदि उत्तम लोकों की प्राप्ति की इच्छा से उसका पालन करना चाहिए | श्रुति कहती है की भूलोक के सम्पूर्ण मनुष्यों को प्रभुसम्मत तथा सुहुसम्मत वाक्य का पालन करना चाहिए | आप यदि नास्तिकवाद का सहारा लेकर सर्वत्र व्यवहारिक समानता की बात करते हैं तो इसके अनुसार क्या वेद, शास्त्र और पुराण व्यर्थ ही हैं ? क्या पूर्वकाल में सप्तर्षि आदि जो ब्राह्मण और क्षत्रिय हो गए हैं, वे सब मूर्ख ही थे ? केवल आप ही चतुर हैं ? जो वेद, वेदांग और वेदांत का अनुसरण करने वाले एवं सत्वगुण में स्थित हैं, वे ऊपर के लोकों में गमन करते हैं और रजोगुणी मनुष्य मध्यवर्ती भूलोक में निवास करते हैं और तमोगुणी जीव नीचे के लोकों में निवास करते हैं | सात्विक आहार तथा सात्विक आचार विचार से मनुष्य स्वर्गगामी होता है | हम आपकी बातों में दोष ढूँढते हों ऐसी बात भी नहीं | हम यह नहीं कहना चाहते की सम्पूर्ण भूतों में भगवान् शिव नहीं है | भगवान् शिव तो सम्पूर्ण भूतों में हैं ही; किन्तु इस विषय में जो उपमा दे रहा हूँ, उसे  ध्यान से सुनिए – जैसे सुवर्ण के बने हुए बहुत से आभूषण होते हैं; उनमे से कोई तो विशुद्ध सुवर्ण होते हैं; और कुछ खोटे भी होते हैं | खरे, खोटे सभी आभूषणों में सुवर्ण तो है ही | इसी प्रकार ऊंच, नीच, शुद्ध, अशुद्ध सब में भगवान् सदाशिव विराजमान हैं | जैसे खोटे सुवर्ण शोभित होने पर शुद्ध सुवर्ण के साथ एकता को प्राप्त होता है, उसी प्रकार इस शरीर को भी व्रत, तपस्या और सदाचार आदि के द्वारा शोधित करके शुद्ध बना लेने पर मनुष्य निश्चय ही स्वर्गलोक में जाता है | अतः  बुद्धिमान पुरुष को उचित है की वह हीन या अपवित्र वस्तु को किसी प्रकार भी ग्रहण न करे | यदि वह अपने इस शरीर का शोधन कर ले तो शुद्ध होने पर निश्चय ही स्वर्ग लोक को प्राप्त हो सकता है | जो पुरुष व्रत, उपवास करके शुद्ध हो गया है, वह भी यदि सबसे प्रतिग्रह लेने लगे तो थोड़े ही दिनों में अवश्य पतित हो जाता है | इसलिए मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ की आपका यह जल मैं किसी तरह से ग्रहण नहीं करूँगा | यह कार्य भला हो या बुरा, मेरे लिए वेद ही परम प्रमाण हैं |

कालभीति के ऐसा कहने पर आगंतुक मनुष्य हंसने लगा | उसने दाहिने अंगूठे से भूमि को कुरेदते हुए एक बहुत बड़ा और उत्तम गड्ढा तैयार कर दिया | फिर उसी में वह सारा जल ढुलका दिया | उस से बह गड्ढा भर गया | फिर भी जल शेष रह गया तो उसने अपने पैर से ही कुरेद कर एक तालाब बना दिया और शेष बचे हुए जल से उसको भर दिया | यह परम अद्भुत दृश्य देख कर भी ब्राह्मण देवता को कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि भूत, प्रेत आदि की उपासना करने वाले लोगों में अनेक प्रकार की विचित्र बातें  होती हैं | उस विचित्रता के चक्कर में आकर अपने सनातन वैदिक मार्ग का परित्याग कभी नहीं करना चाहिए |

आगंतुक मनुष्य बोल – ब्राह्मणदेव ! आप हैं तो बड़े भारी मूर्ख; परन्तु बातें पंडितों जैसी करते हैं | क्या आपने पुराणवेत्ता विद्वानों के मुख से कहा हुआ यह श्लोक नहीं सुना है ?

कृपोस्य्स्य  घटोस्य्स्य रज्जुरंयस्य   भारत |
पायवत्येक पिबत्वेकः सर्वे ते संभागिनः ||

भारत ! कुआँ दूसरे का, घडा दूसरे का और रस्सी दूसरे की है; एक पानी पिलाता है और एक पीता है; वे सब् समान फल के भागी होते हैं |

ऐसा ही मेरा भी जल है और तुम धर्म के ज्ञाता हो; फिर क्यो इसे नही पियोगे ?

नारद जी कहते हैं – अर्जुन ! तदनन्तर कालभीति ने उक्त श्लोक के विषय मे अनेक प्रकार से विचार किया, किन्तु किस प्रकार सब् लोग समान फल के भागी होते हैं, इसका निश्चय न कर सके | फिर घट आदि साधनो द्वारा जो समान फल के भागी होने की बात कही गयी थी, उस पर विशेष विचार किया और इस निश्चय पर पहुचे की यदि एक कार्य मे अनेक सहायक हो तो सब् समान फल के भागी होते हैं | जैसे एक नौका निर्माण कराने मे यदि अनेक पुरुषों ने धन लगाया हो तो उन सबका उसमे समान भाग होता है | इसी प्रकार कर्ता को प्राप्त होने वाला  सब् फल सहकारियों मे बंट कर समान हो जाता है |

इस प्रकार पुनः पुनः विचार करके कालभीति ने उस मनुष्य से कहा  – ‘भद्रपुरुष ! आपका यह कहना ठीक है | कूप और तालाब का जल ग्रहण करने  में दोष नहीं है तथापि आपने तो अपने घड़े के जल से ही इस गड्ढे को भरा है, यह बात प्रत्यक्ष देख कर के भी मेरे जैसा मनुष्य कैसे इस जल को पी सकता है | अतः यह अच्छा हो या बुरा; मैं किसी प्रकार भी इसे नहीं पीयूँगा |

कालभीति के इस प्रकार दृण निश्चय कर लेने पर वह पुरुष हँसता हुआ वहां से अंतर्ध्यान हो गया | इस से कालभीति को बड़ा विस्मय हुआ | वे बार बार सोचने लगे की ये क्या वृतांत है | इतने में ही उस विल्बवृक्ष के नीचे पृथ्वी से सहसा एक परम सुन्दर शिवलिंग प्रकट हो गया, जो सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित कर रहा था | इंद्र ने उसके ऊपर पारिजात के फूलों की वर्षा की और देवता तथा मुनि नाना प्रकार के स्त्रोतों द्वारा स्तुति करने लगे |

तब कालभीति ने कहा – जो पाप के काल, संसार रुपी पंक के काल, काल के काल तथा काल मार्ग के भी काल हैं; जिनके कंठ में काला चिन्ह सुशोभित होता है तथा जो संसार के कालस्वरूप हैं, उन भगवान् महाकाल की मैं शरण लेता हूँ | श्रुति आपको सम्पूर्ण विद्याओं का ईश्वर बता कर स्तुति करती है | आप समस्त भूतों के ईश्वर तथा प्रपितामह हैं; ऐसी महिमा वाले महेश्वर को नमस्कार है | वेद जिसकी स्तुति करता है, उस ‘तत्पुरुष’ नामवाले आपको हम जानते हैं और आपका ही चिंतन करते हैं | देवेश्वर  ! आप हमें शरण दीजिये; आपको बारम्बार नमस्कार है |’

अर्जुन ! कालभीति के इस प्रकार स्तुति करने पर महादेव जी ने उस लिंग से निकल कर प्रत्यक्ष दर्शन दिया और अपने तेज से त्रिलोक को प्रकाशित करते हुए कहा – ब्राह्मण ! तुमने इस महातीर्थ में रहकर मेरी जो अतिशय आराधना की है, उस से मैं बहुत संतुष्ट हूँ | वत्स ! काल तुम्हारे ऊपर किसी प्रकार भी शासन नहीं कर सकता | मैं ही तुम्हारी धर्मनिष्ठ देखने के लिए मनुष्य रूप में प्रकट हुआ था | यह धर्म मार्ग धन्य है, जिसका तुम्हारे जैसे धर्मज्ञों द्वारा पालन होता है | मैंने यह गड्ढा और तालाब सब तीर्थों के जल से ही भरा है | यह परम पवित्र जल है तुम्हारे लिए ही मैंने इसका संग्रह किया है | तुमने जो मेरी स्तुति की है इसमें वैदिक मन्त्रों का रहस्य भरा हुआ है | तुम मुझ से कोई मनोवांछित वर मांगो | तुम्हारे लिए कुछ भी अदेय नहीं है |

कालभीति ने कहा – भगवान् शंकर ! यदि आप मुझ पर संतुष्ट हैं, तो मैं धन्य हूँ | मुझ पर आपका महान अनुग्रह है | आपके संतोष से ही सब धर्म सफल होते हैं अन्यथा वे केवल श्रम देने वाले ही माने गए हैं | प्रभो ! यदि आप संतुष्ट हैं तो सदा यहाँ निवास करें | आपके इस शुभ लिंग पर जो भी दान, पूजन आदि किया जाए, वह सब अक्षय हो | देव ! पांच हजार मन्त्र जपने से जो फल होता है, वाही फल मनुष्य को इस शिवलिंग का दर्शन करने से प्राप्त हो जाये | महेश्वर ! आपने काल मार्ग से मुझे छुटकारा दिलाया है, इसलिए यह शिवलिंग महाकाल के नाम से प्रसिद्द हो | जो मनुष्य इस कूप में स्नान करके पितरों का तर्पण करे, उसे सब तीर्थों का फल प्राप्त हो और उसके पितरों को अक्षय गति की प्राप्ति हो |

कालभीति की यह बात सुन कर भगवान् शंकर बोले – जहाँ स्वयंभू लिंग हो, वहां मैं नित्य निवास करता हूँ | स्वयंभू लिंग, रत्नमय लिंग, धातुज लिंग, प्रस्तर निर्मित लिंग तथा चन्दन आदि लेपित लिंग हैं | इनमें क्रमशः अंतिम लिंग की अपेक्षा पूर्व वाले लिंग दस गुना अधिक फल देने वाले हैं | तुमने विशेष रूप से जिसके लिए प्रार्थना की है वह सब पूर्ण होगा | यहाँ फूल, फल, पूजा, नैवेद्य और स्तुति निवेदन करना तथा दान या दूसरा कोई भी शुभ कर्म करना, सब अक्षय होगा | बेटा ! माघ मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को शिव योग में जो लिंगार्चन के पहले कूप में स्नान करके पितरों का तर्पण करेगा, उसे सब तीर्थों का फल प्राप्त होगा तथा उसके पितरों की अक्षय गति होगी | उसी दिन की रात्रि में जो प्रत्येक प्रहर में महाकाल का पूजन करेगा उसे सब लिंगों के समीप जागरण करने का फल प्राप्त होगा | द्विजोत्तम ! जो पुरुष जितेन्द्रिय रह कर शिवलिंग में मेरी पूजा करेगा, भोग और मोक्ष उस से कभी दूर नहीं रहेंगे | जो चतुर्दशी, अष्टमी, सोमवार तथा पर्व के दिन इस सरोवर में स्नान करके इस शिव लिंग की पूजा करेगा, वह शिव को ही प्राप्त होगा | यहाँ किया हुआ जप, तप और रूद्र जप सब अक्षय होगा | तुम नंदी के साथ मेरे दूसरे द्वारपाल बनोगे | वत्स ! काल मार्ग पर विजय पाने से तुम चिर काल तक महाकाल के नाम से प्रसिद्द होगे | यहाँ शीघ्र ही राजर्षि करन्धम आने वाले हैं,  उन्हें धर्म का उपदेश करके तुम मेरे लोक में चले आओ |

यों कह कर भगवान् रूद्र उस लिंग में ही लीन हो गए और महाकाल भी प्रसन्न हो कर वहां  बड़ी भरी तपस्या करने लगे |

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