प्रदोष व्रत एवं शिव पूजा
सन्दर्भ – ये उस समय की बात है जब विश्वकर्मा ने इंद्र से बदला लेने के लिए कठोर तप कर के ब्रह्मा जी से वृत्तासुर नामक पुत्र का आशीर्वाद लिया । वह असुर प्रतिदिन सौ धनुष (चार सौ हाथ) बढ़ता था । उसने सम्पूर्ण भूमंडल ढक लिया और इंद्र को युद्ध के लिए ललकारने लगा । तिस पर इंद्र ने गुरु बृहस्पति से बोला की क्योंकि वृत्तासुर ब्राह्मण का पुत्र है अर्थात वह भी ब्राह्मण है जिसका वध करने पर मुझे ब्रह्म हत्या का महा पाप लगेगा (इंद्र को ब्रह्म हत्या का पाप पहले ही एक बार लग चुका था जब उन्होंने अपने गुरु विश्वरूप की हत्या कर दी थी और उसका इंद्र को बड़ा भरी प्रायश्चित करना पड़ा था और उसे अपना सिहांसन छोड़ कर सरोवर में शरण लेनी पड़ी थी ) । यह कथन सुन कर गुरु बृहस्पति ने इंद्र को भगवान् शिव की पूजा करने का उपाय बताया और कहा “देवराज ! यदि कोई आततायी मारने की इच्छा से आ रहा हो तो वह आततायी तपस्वी ब्राह्मण ही क्यों न हो, उसे अवश्य मार डालने की इच्छा करें । ऐसा करने से वह ब्रह्म हत्यारा नहीं हो सकता ।”
जब इंद्र वृत्तासुर से युद्ध करने पंहुचा तो सम्पूर्ण सेना के होते हुए भी वृत्तासुर के भयानक रूप को देख कर भयभीत हो गया और गुरु बृहस्पति जी के बताये अनुसार बड़े विश्वास के साथ तत्काल ही विधिपूर्वक शिवलिंग का पूजन किया । तब गुरु बृहस्पति जी ने इंद्र को शिव पूजा को विस्तार मैं समझाया ।
“देवराज ! कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष में शनिवार के दिन यदि पूरी त्रयोदशी मिले तो यह समझना चाहिए की मुझे सब कुछ प्राप्त हो गया है । उस दिन प्रदोष काल मैं सब कामनाओ की सिद्धि की लिए लिंगरूप धारी भगवान् शिव का पूजन करना चाहिए । दोपहर के समय स्नान करके तिल और आंवले के साथ गंध, पुष्प और फल आदि के द्वारा शिव जी की पूजा करे । गाँव के बाहर जो शिवलिंग स्थित है, उसके पूजन का फल गाँव के अपेक्षा सौ गुना अधिक है । उस से भी सौ गुना अधिक महात्म्य उस शिवलिंग पूजन का है, जो वन में स्थित हो । वन की अपेक्षा भी सौ गुना पुण्य पर्वत पर स्थित शिवलिंग पूजन का है । पर्वतीय शिवलिंग की अपेक्षा तपोवन में स्थित शिवलिंग के पूजन का फल दस हजार गुना अधिक है । वह महान फलदायक है । अतः विद्वानों को इस विभाग के अनुसार शिवलिंग का पूजन करना चाहिए और तडाग आदि तीर्थों में विधिवत स्नान आदि करना चाहिए । मिटटी के पांच पिंड निकाले बिना किसी बावड़ी मैं स्नान करना शुभकारक नहीं है । कुऐं में से अपने हाथ से जल निकाल कर नहीं स्नान करना चाहिए (रस्सी आदि की सहायता से किसी पात्र में जल निकल कर ही स्नान करना चाहिए) । पोखर से मिटटी के दस पिंड निकाल करना ही स्नान करना चाहिए । नदी में स्नान करना सबसे उत्तम है । सब तीर्थो में गंगा का स्नान सर्वोत्तम है ।
प्रदोष काल में स्नान करके मौन रहना चाहिए । भगवान् के समीप एक हजार दीपक जलाकर प्रकाश करना चाहिए । इतना संभव न हो तो सौ अथवा बत्तीस दीपो से भी भगवान् शिव के समीप प्रकाश किया जा सकता है । शिव की प्रसन्नता के लिए घी से दीपक जलना चाहिए । इसी प्रकार फल, धूप, नैवैध्य, गंध और पुष्प आदि षोडश उपचारों से लिंगरूप भगवान् सदाशिव की प्रदोषकाल में पूजा करनी चाहिए । वे भगवान् संपूर्ण मनोरथो को सिद्ध करने वाले हैं । यदि जलहरी का जल न उलांघना पड़े तो पूजन के पश्चात भगवान् शिव की 108 बार परिक्रमा करनी चाहिए । फिर यत्नपूर्वक 108 बार ही नमस्कार करना चाहिए । इस प्रकार परिक्रमा और नमस्कार से भगवान् सदाशिव को प्रसन्न करना उचित है । तत्पश्चात सौ नामों से विधिपूर्वक भगवान् रूद्र की स्तुति करनी चाहिए ।
नमो रुद्राय नीलाय भीमाय परमात्मने । कपर्दी सुरेशाय व्योमकेशाय वै नमः ।।
वृषभद्वजाय सोमाय सोमनाथाय शम्भवे । दिगम्बराय भर्गाय उमाकान्ताय वै नमः ।।
तपोमयाय भव्याय शिवश्रेष्ठाय विष्णवे । व्यालप्रियाय व्यालाय व्यलानाम पतये नमः ।।
महीधराय व्याघ्राय पशुनाम पतये नमः । पुरान्तकाय सिंहाय शार्दुलाय मखाय च ।।
मीनाय मीननाथाय सिद्धाये परमेष्ठिने । कामान्ताकाय बुद्धाय बुद्धिनाम पतये नमः ।।
कपोताय विशिष्टाय शिष्टाय सकलात्मने । वेदाय वेद्जीवाय वेद्गुह्याय वै नमः ।।
दीर्घाय दीर्घ रूपाय दीर्घार्थयाविनाशिने । नमो जगत्प्रतिष्ठाय व्योमरूपाय वै नमः ।।
गजासुर महाकालायन्धकासुरभेदिने । नीललोहित शुक्लाय चंड मुण्ड प्रियाय च ।।
भक्तिप्रियाय देवाय ज्ञात्रे ज्ञानव्याय च । महेशाय नमस्तुभ्यं महादेव हराय च ।।
त्रिनेत्राय त्रिवेदाय वेदान्गाय नमो नमः । अर्थाय चार्थरूपाय परमार्थाय वै नमः ।।
विश्वभूपाय विश्वाय विश्वनाथाय वै नमः । शंकराय च कालाय कालावयवरूपणे ।।
अरुपाय विरूपाय सूक्ष्मसूक्ष्माय वै नमः । शम्शानवासिने भूयो नमस्ते क्रत्तिवासिसे ।।
शशांक शेखराये शायोग्रभूमिशयाय च । दुर्गायाय दुर्गपाराय दुर्गावयवसाक्षिणे ।।
लिंगरूपाय लिंगाय लिगानाम पतये नमः । नमः प्रलयरूपाय प्रणवार्थय वै नमः ।।
नमो नमः कारणकारणाय मृत्युन्जयायात्मभवस्वरूपणे ।
श्री त्र्यम्बकायासितकंठशर्व गौरीपते सकलमंगाल्हेतवे नमः ।।
(स्क मा के 17 । 76 – 90)
प्रदोष व्रत करने वाले को महादेव जी के इन सौ नामों का पाठ अवश्य करना चाहिए । महामते इंद्र ! इस प्रकार तुमसे मैंने शिव प्रदोष व्रत की विधि बतायी है । महाभाग ! शीघ्रता पूर्वक इस व्रत का पालन करो, तत्पश्चात युद्ध करना ।भगवान् शिव की कृपा से तुम्हें विजय आदि सब कुछ प्राप्त होगा ।
नोट 1 – प्रदोष व्रत की पूजा विधि (शिव मूर्ति, पूजा विधि, मंत्र आदि) के लिए स्कंध पुराण के अध्याय 17 के श्लोक 121 से 136 तक आये हैं ।