ज्योतिष सीखें, आसान शब्दों में
योजनानि शतान्यष्टो भूकर्णों द्विगुणानि तु |
तद्वर्गतो दशगुणात्पदे भूपरिधिर्भवते ||
अर्थात पृथ्वी का व्यास 800 के दूने 1600 योजन है, इसके वर्ग का 10 गुना करके गुणनफल का वर्गमूल निकालने से जो आता है, वह पृथ्वी कि परिधि है |
इस श्लोक को विस्तार से आगे चर्चा करेंगे किन्तु इस श्लोक से स्पष्ट हो गया होगा कि इस अध्याय में हम खगोल की और पृथ्वी के बारे में विस्तार से अध्ययन करेंगे | आइये, कुछ परिभाषाएं और कुछ महत्वपूर्ण तथ्य पढ़ते हैं, ताकि ज्योतिष में आगे प्रयुक्त विभिन्न शब्दावली समझने में आसानी रहे | यहाँ फिर स्पष्ट करूँगा कि हमारा संकल्प ज्योतिष को सम्पूर्ण रूप से समझने का है और हम इसमें किसी भी प्रकार के आलस्य का साधन नहीं करेंगे |
सौर मंडल – सौर मंडल में 9 ग्रहों में अरूण ग्रह (यूरेनस), वरुण ग्रह (नेपच्यून) और यम (प्लूटो) को प्राचीन ज्योतिष में नहीं गिना गया है (ऐसा माना गया है कि इनसे आती हुई किरणें मनुष्य जीवन को बहुत प्रभावित नहीं करते या इनका प्रभाव नगण्य है | ) चंद्रमा और दो छाया ग्रह जिन्हें राहु, केतु माना गया है | राहु और केतु वास्तव में कोई वास्तविक ग्रह नहीं है बल्कि गणितीय गणनाओं से आई सूर्य और चंद्रमा कि कक्षाओं के मिलान बिंदु हैं |
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शुक्र और बुध, पृथ्वी और सूर्य के मध्य आते हैं अतः इन्हें “आतंरिक ग्रह” (Inner Planets or Inferior Plantes) कहा जाता है |
मंगल, गुरु और शनि पृथ्वी की कक्षाओं से बाहर की तरफ आकाश में स्थित हैं अतः इन्हें “बाहरी ग्रह” (Outer Palnets or Superior Planets) कहते हैं |
पृथ्वी अपने अक्ष पर और सूर्य के चारों ओर लगातार घूमती है | इसकी गति 30 किमी/सेकंड या 1600 किमी/मिनट या 96600000 किमी/वर्ष है |
पृथ्वी अपने अक्ष से 23.5० झुकी हुई है | धरती अपने अक्ष पर इस प्रकार झुकी हुई है जिससे कि इसका उत्तरी सिरा हमेशा उत्तरी ध्रुव तारे के सामने रहता है | जहाँ पर पृथ्वी के अक्ष के उत्तरी और दक्षिणी सिरे पृथ्वी की सतह पर मिलते हैं, उनको ही उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव कहा जाता है |
भूमध्य रेखा – यदि पृथ्वी के मध्य से जाता हुआ यदि एक Plan खींचे जो पृथ्वी के अक्ष से लम्बवत (Perpendicular) हो तो वो पृथ्वी की सतह को जब काटेगा तो वह एक वृत्त होगा, जिसे पृथ्वी कि भूमध्य रेखा (equator) कहते हैं |
उत्तरी गोलार्ध एवं दक्षिणी गोलार्ध – उस plan के उत्तरी भाग को उत्तरी गोलार्ध व दक्षिणी भाग को दक्षिणी गोलार्ध कहते हैं |
रेखांश (Longitudes) एवं अक्षांश (Latitude) – पृथ्वी की सतह को सामान भागों में Vertical एवं Horizontal भागों में बांटने को रेखांश व् अक्षांश कहते हैं | अक्षांश (अक्ष का अंश) horizontal lines एवं रेखांश Vertical lines को कहते हैं | इसे आप पृथ्वी के co-ordinates भी कह सकते हैं |
360० अक्षांश एवं 360० रेखांश मिला कर 1० का एक Post बनाते हैं जो पूरा वर्ग (square) नहीं होता क्योंकि पृथ्वी पूरी गोल नहीं है | पृथ्वी कि परिधि 40343 किमी है अतः 1० का वर्ग 110 किमीx110 किमी या 69 miles x 69 miles का होता है और उस भाग में जो शहर आते हैं उन्हें उसके रेखांश और अक्षांश से ही निकालते हैं और ये रेखांश या अक्षांश एक दूसरे से पूरी तरह सामानांतर (parallal) नहीं होती क्योंकि पृथ्वी कि भौगोलिक रचना ऐसी नहीं है | रेखांश को देशांतर भी कहते हैं |
23.5० अंश उत्तरी अक्षांश रेखा को कर्क रेखा तथा 23.5० अंश दक्षिणी अक्षांश रेखा को मकर रेखा कहते हैं |
मानक मध्यान्ह रेखा या मुख्य मध्यान्ह रेखा (Standard Meridian) – प्रत्येक देश का फैलाव उत्तर व् दक्षिण की ओर ही नहीं होता बल्कि पूर्व और पश्चिम में भी होता हो | जो देश पूर्व में होंगे वहां मध्यान्ह (दोपहर) पहले होगा बजाय उनके जो पश्चिम में होंगे | इस कारण पूर्व वाले स्थानों का स्थानीय समय पश्चिम वाले स्थानो से अधिक होगा | इससे समस्या यह आती है कि पूर्व वाला समय कुछ बताएगा और पश्चिम वाला कुछ और बताएगा | सांसारिक व्यवहार गड़बड़ा जायेगा | इस का हल यह निकाला गया कि एक देश और अधिक विस्तार वाले देशों को क्षेत्रों में बांटकर एक क्षेत्र की एक मुख मध्यान्ह रेखा/मानक मध्यान्ह रेखा हो और उस स्थान का स्थानीय समय उस सारे देश या क्षेत्र में मान्य हो अर्थात उस समयानुसार ही उस देश या क्षेत्र के सारे सांसारिक कार्य संपन्न किये जायेंगे |
प्रधान मध्यान्ह रेखा या प्रथम मध्यान्ह रेखा (Prime Meridian) – सारी रेखांश को मापने के लिए एक मध्य रेखांश चुना गया है जो ग्रीनविच से होते हुए जाता है | उसे 0०E या 0० रेखांश माना जाता है और बाकी सारे उसके सन्दर्भ में गिनते हैं पूर्व की ओर या पश्चिम कि ओर | भारत में 82.5० अंश पूर्वी रेखांश = 82०30’ के आधार पर मानक समय प्रामाणित है |
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अब हमें समझना चाहिए कि सूर्य सर्वप्रथम 180० अंश पूर्वी रेखांश पर निकालता है और धीरे धीरे ०० अंश रेखांश ग्रीनविच को पार करता हुआ 180०अंश पश्चिमी रेखांश पर पहुँच कर छिपता हुआ दृष्टिगोचर होता है | इस यात्रा में इसे २४ घंटे लगते हैं अर्थात सूर्य 180०अंश पूर्वी + 180०अंश पश्चिमी = 360० रेखांशों को २४ घंटे में पार करता है | इस प्रकार 1० रेखांश पार करने में २४ घंटे x 60 मिनट = 1440 मिनट लगते हैं यानी 1० पार करने में 1440/360० = 4 मिनट लगते हैं | यही कारण है कि 180०पूर्वी रेखांश के नजदीक जापान में जब सोमवार होता है तो 180०पश्चिमी रेखांश के नजदीक होनोलुलु में रविवार का दिन होता है | ऐसी स्थिति में विश्व के किसी भी स्थान/रेखांश पर खड़े होकर सूर्य कि स्थिति जान सकते हैं | सूर्योदय और दोपहर अर्धरात्रि अमुक समय किस स्थान पर होगी, स्पष्ट रूप से बता सकते हैं |
IST – Indian Standard Time : यह भारत का मानक समय है, जो पूरे देश में एक सामान ही रहता है | यह एक माना हुआ मानक समय है जिससे अलग अलग शहरों में समय का मान अलग अलग होगा लेकिन इस से बड़ी मुश्किल होगी क्योंकि कोई ट्रेन दिल्ली के समय से चलेगी तो कलकत्ता पहुँचने का समय बदलना पड़ेगा क्योंकि दिल्ली से कलकत्ता के समय में 44 मिनट और 38 सेकंड का फर्क है | इस से समस्या हो जायेगी तो उसको सुलझाने के लिए पूरे देश में एक मानक समय मान लिया गया जिसके अनुसार यदि दिल्ली में 1 बज रहे हैं तो चेन्नई में भी 1 ही बज रहे है और कलकत्ता में भी 1 ही बज रहे हैं ||
स्थानीय समय – भारत का मानक समय तो एक माना समय है, पूरे देश में समय को एकरूपता में लाने के लिए | किन्तु वास्तव में तो सभी जगह का समय अलग अलग ही होगा | प्रत्येक शहर का समय (सूर्य की स्थिति के हिसाब से) अलग अलग ही होगा | उस समय का वास्तविक समय, उस शहर का स्थानीय समय कहलाता है |
दोनों बातों को ध्यान में रख कर हम समय गणना को समझने का प्रयास करेंगे | ऊपर कि बातों से ये स्पष्ट है कि दो भिन्न भिन्न स्थानों के स्थानीय समयों में अंतर अवश्य आएगा (क्योंकि विभिन्न शहरों/देशो के समय ग्रीनविच समय के सापेक्ष माने गए हैं क्योंकि उसका शून्य रेक्षांश माना गया है ) जैसे दिल्ली और कोलकाता के स्थानीय समय में 44:38’ (अर्थात 44 मिनट और 38 सेकंड) का अंतर है अर्थात जब कोलकाता में 2 बजकर 44 मिनट 38 सेकण्ड होंगे तब दिल्ली में २ बजे होंगे |
किसी स्थान का किसी भी समय पर, औसत समय ज्ञात करने के लिए (1) उस स्थान का देशांतर (रेखांश/Longitude) (२) उस क्षेत्र/देश, जिसमें वह स्थान है, वहां का मानक समय (IST, भारत के सन्दर्भ में) (3) उस देश/क्षेत्र की मानक मध्यान्ह रेखा का देशांतर मालूम होना चाहिए | इसके बाद निम्न प्रक्रिया से स्थानीय समय (उस स्थान का वास्तविक समय) ज्ञात किया जा सकता है |
प्रथम चरण – स्थानीय देशांतर और देश/क्षेत्र कि मानक मध्यान्ह रेखा के देशांतर का अंतर ज्ञात कर लें |
दूसरा चरण – इस अंतर को 4 मिनट प्रति अंश के अनुसार गुना करें | (पृथ्वी 360० , 24 घंटे में घूमती है अर्थात 15० = 1 घंटा या 1० = 4 मिनट) अंश को 4 से गुना करने से मिनट व् कला को 4 से गुना करने पर सेकंड्स में समय का अंतर आ जायेगा |
तीसरा चरण – अगर वह स्थान मानक रेखा के पूर्व में हो तो दूसरे चरण वाला समय, मानक समय में जोड़ देंगे और पश्चिम में हो तो घटा देंगे | ऐसा करने पर स्थानीय समय आ जायेगा |
उदाहरण – भुवनेश्वर (उड़ीसा) में सांय 6 बज कर 25 मिनट भारतीय मानक समय पर वहां स्थानीय समय क्या था ? भुवनेश्वर का देशांतर 85० 50’ पूर्व है |
विधि (i) – भुवनेश्वर का देशांतर = 85० 50’ पूर्व
मानक रेखा का देशांतर = 82० 30’ पूर्व
दोनों का अंतर = 3 डिग्री 20 मिनट = 3०20’
इसे 4 से गुणा करने पर 3०20’ x 4 = 12 मिनट 80 सेकंड्स = 13 मिनट 20 सेकंड्स
क्योंकि यह मानक रेखा के पूर्व में है इसलिए इसका स्थानीय समय अधिक होगा |
अतः स्थानीय समय = 6:25:0 + 0:13:20 = 6:38:20 सांय
विधि (ii) – यही काम लहरी कि लग्न सारिणी ने और आसान कर दिया | लाहिरी कि लग्न सारिणी में पृष्ठ 101 पर यहाँ के लिए स्थानीय संस्कार के Coulmn में +13 मिनट 20 सेकंड दिया है |
इसे हम सीधा स्थानीय समय में परिवर्तित कर सकते हैं –
घटना का स्थानीय समय = भारतीय मानक समय + संस्कार
= 6:25:0 + 0:13:20 = 6:38:20 सांय
जो विधि (i) से मिलता है |
उदहारण २ : चेन्नई में 9 बजकर 35 मिनट भारतीय मानक समय का स्थानीय समय क्या होगा ? चेन्नई का देशांतर 80०15’ पूर्व है |
(अ) देशान्तरों का अंतर 82०30’ – 80०15’ = 2०15’
(आ) 2०15’ x 4 = 8 मिनट 60 सेकंड्स = 9 मिनट
(इ) चेन्नई का देशांतर मानक देशांतर (पूर्व) से कम है इस कारण चेन्नई मानक देशांतर वाले स्थान से पश्चिम में हुई | इसलिए 9 मिनट घटाएंगे | चेन्नई की घटना के समय स्थानीय समय 9 घंटा 35 मिनट – 9 मिनट = 9 घंटा 26 मिनट प्रातः
अब इसे हमें याद रखना होगा, आगे जाकर यह जन्म समय निकालने में काम आएगा | तब हम विदेशों के स्थानीय समय निकालना भी सीखेंगे |
आकाशीय गोल या खगोल (celestial Sphere) – जिस प्रकार हम किसी गोल गुब्बारे को फुलाते हैं तो वह छोटे से बड़ा फिर और बड़ा हो जाता है, उसी प्रकार पृथ्वी को अनन्त आकाश में फैलाने पर जो गोला बनेगा उसे आकाशीय गोला या खगोल कहते हैं | इस खगोल का केंद्र पृथ्वी का केंद्र होगा |
कान्तिवृत्त (Ecliptic) – सूर्य के तारों के बीच एक वर्ष के आभासीय भ्रमण मार्ग को इसकी कक्षा कहते हैं | जब इस कक्षा को खगोल में फैलाया जावे तो खगोल के ताल पर एक बड़ा वृत्त बनता है उसे कान्तिवृत्त कहते हैं | मॉडर्न science में पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करता है न कि सूर्य पृथ्वी की (इसको टाल्मी ने माना कि जिसे हम सूर्य का आभासीय भ्रमण कहते हैं वह पृथ्वी का भी आभासीय भ्रमण हो सकता है किन्तु यहाँ हम Modern Science को ही प्रमाण मानेगे ) इस कारण क्रांतिवृत्त की परिभाषा यह भी होती है कि पृथ्वी के वार्षिक भ्रमण मार्ग को अनन्त आकाश में फैलाने पर जिन स्थानों पर वह खगोल को काटे उस वृत्त को कान्तिवृत्त कहते हैं | यह कान्तिवृत्त विषुववृत्त (celestial Equator) पर 23०27’ का कोण बनाता है |
कान्तिवृत्त और विषुवत वृत्त
चित्र – १०
भचक्र या राशिचक्र – कान्तिवृत्त के दोनों ओर उत्तर और दक्षिण में ९० की पट्टी को भचक्र कहते हैं | इसमें वृत्त पर कान्तिवृत्त के ९० उत्तर में और व् ल कान्तिवृत्त के ९० दक्षिण में है | इसी पट्टी में चंद्रमा व् सारे ग्रह भ्रमण करते हैं | मैंने बहुत प्रयास किया किन्तु इसका चित्र में नहीं बना पा रहा हूँ, सिर्फ समझने भर के लिए मैंने ऊपर वाले चित्र को थोडा बदला है |
भचक्र और कान्तिवृत्त
चित्र – ११
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भोगांश (celestial Longitude) – कान्तिवृत्त के ध्रुवों को कदम्ब कहते हैं | कदम्बों को मिलाने वाले बड़े वृत्त कान्तिवृत्त को लम्बवत काटते हैं | आकृति १२ में प और फ कदम्ब हैं | आकाशीय पिंड की कान्तिवृत्त पर मेष के प्रथम बिंदु से कोणीय दूरी को भोगांश कहते हैं | इसे इस प्रकार समझे कि आकाशीय पिंड से कान्तिवृत्त के तल पर खगोल कि सतह के साथ लम्बवत चाप डालें और जिस स्थान पर वह कान्तिवृत्त को काटे, उस स्थान की मेष के प्रथम बिंदु से कोणीय दूरी भोगांश होती है |
चित्र १२
विक्षेप या शर (celestial Latitude) – आकाशीय पिंड से कान्तिवृत्त पर लम्बवत चाप की कोणीय दूरी को विक्षेप (शर) कहते हैं |
विशुवांश – आकाशीय पिंड से विषुवत वृत्त पर लम्बवत चाप जहाँ मिले, उस बिंदु की सायन मेष का प्रथम बिंदु से कोणीय दूरी को विशुवांश कहते हैं | यह विषुवत वृत्त का भाग या अंश होने से विशुवांश कहलाता है |
क्रान्ति (Declination) – आकाशीय पिंड से विषुवत वृत्त पर लम्बवत चाप जो कोण पृथ्वी के केंद्र (या खगोल के केंद्र) पर बनावे, वह कोण क्रांति होती है अर्थात आकाशीय पिंड की विषुवत वृत्त से लम्बवत कोणीय दूरी को क्रांति कहते हैं |
ऊपर कि आकृति में अ ब विषुवत वृत्त हैं |
क ख कान्तिवृत्त है |
म और त मेष व् तुला राशि के प्रथम बिंदु हैं | आ एक आकाशीय पिंड है |
उ और द विषुवत वृत्त के ध्रुव हैं | प और फ कान्तिवृत्त के ध्रुव हैं | उ आ च विषुवत वृत्त पर लम्बवत चाप है | प आ छ कान्तिवृत्त पर लम्बवत चाप है |
म छ चाप का कोण इस आकाशीय पिंड का भोगांश है |
आ छ चाप का कोण इसका विक्षेप है |
म च चाप का कोण इसका विशुवांश है |
ऊ च चाप का कोण इसकी क्रांति है |
क्षितिज वृत्त (Horizon) – दृष्टा या देखने वाला या प्रेक्षक को जहाँ पृथ्वी और आकाश मिलते हुए दिखाई देते हैं, उसे अनन्त आकाश में फैलाने पर जहाँ वह खगोल या आकाशीय गोले को मिले, वह वृत्त क्षितिज वृत्त कहलाता है |
शिरोबिंदु (Zenith) – प्रेक्षक जहाँ खड़ा हो उसके ठीक सिर के ऊपर जो रेखा पृथ्वी के केंद्र से सिर से होती हुई खगोल को मिले वह बिंदु शिरोबिंदु कहलाता है | यह क्षितिज वृत्त का एक ध्रुव है | यह बिंदु सिर के ऊपर होता है |
अधोबिंदु या पाताल (Nadir) – प्रेक्षक जिस स्थान पर खड़ा हो तब उसके पैरों से और पृथ्वी के केंद्र से होती हुई रेखा खगोल को जिस स्थान पर काटे, वह बिंदु अधोबिंदु कहलाता है | यह ठीक पैर के नीचे होता है | यह क्षितिज वृत्त का दूसरा ध्रुव है |
उद्वृत्त (Vertical) – किसी स्थान के शिरोबिंदु और अधोबिंदु को आकाशीय गोले के ताल पर मिलाने से जो बड़े वृत्त बनते हैं, उन्हें उद्वृत्त कहते हैं | यह क्षितिज वृत्त पर लम्बवत होते हैं |
याम्योत्तर वृत्त (celestial Meridian) – आकाशीय ध्रुवों और प्रेक्षक के शिरोबिंदु से जो वृत्त खगोल पर बनता है, उसे दर्शक का याम्योत्तर वृत्त कहते हैं | यह क्षितिज वृत्त को उत्तर व् दक्षिण बिन्दुओं को लम्बवत काटता है | दक्षिण को यम भी कहते हैं | इस प्रकार जो वृत्त किसी स्थान के दक्षिण से उत्तर तक शिरोबिंदु से होता हुआ जाए वह याम्योत्तर वृत्त हुआ |
उन्नतांश (Altitude) – किसी आकाशीय पिंड की प्रेक्षक के क्षितिज वृत्त से लम्बवत कोणीय ऊंचाई को उन्नतांश कहते हैं अर्थात दर्शक को वह पिंड किस कोण की ऊंचाई पर दिखाई दे रहा है | जिस उद्वृत्त पर वह पिंड है, उस उद्वृत्त को चाप का कोण जो वह पिंड से क्षितिज वृत्त तक बना रही है उसे उन्नतांश कहते हैं |
होरा कोण – पृथ्वी ३६०० में अपना एक चक्कर लगाती है अर्थात ३६०० =२४ घंटे या १५० = १ घंटा | इस प्रकार हम कह सकते हैं सूर्य १ घंटे में १५० घूमता हैं और कहें तो ४ मिनट में सूर्य १० घूमता है | इस प्रकार सूर्य के अंशों को घंटे में बदलने पर समय का माप आ जाता है | इसलिए यह सूर्य का समय कोण या होरा कोण कहलाता है |
नक्षत्र काल या सम्पात काल (Sidereal Period) – ग्रह या आकाशीय पिंड एक स्थिर तारे के सामने से चलकर पुनः उसी तारे के सामने आने में जितना समय लेता है वह उसका नक्षत्र काल कहलाता है |
युति (Conjunction) – बाह्य ग्रहों और पृथ्वी के मध्य सूर्य हो और ग्रह व् सूर्य दोनों के अंश सामान हों तब ग्रह की युति होती है |
अंतर्युती या निकृष्ट युति (inferior Conjunction) – जब कोई आतंरिक ग्रह (बुध और शुक्र) सूर्य और पृथ्वी के मध्य में हो अर्थात ग्रह के एक ओर सूर्य और दूसरी ओर पृथ्वी हो और सूर्य व् ग्रह दोनों के अंश सामान हों वह उस ग्रह की अंतर्युती होती है |
बहिर्युती (Superior Conjunction) – जब आतंरिक ग्रह और सूर्य दोनों के अंश सामान हों और ग्रह व पृथ्वी के मध्य सूर्य हो तब वह उस ग्रह की बहिर्युती होती है |
चित्र – १३
विपरीत युति – युति और विपरीत युति बाह्य ग्रहों की ही होती है | इस समय सूर्य और ग्रह के अंशों का अंतर १८०० (६ राशि) होता है अर्थात बाह्य ग्रह और सूर्य के मध्य पृथ्वी होती है |
संयुति काल – कोई ग्रह एक प्रकार की युति से चक्कर (अंतर्युती, बहिर्युती या विपरीत युति) पुनः उसी प्रकार की युति तक आने में जितना समय लेता है वह उस ग्रह का संयुति काल कहलाता है |
अब हम फिर से उस श्लोक की चर्चा करेंगे जहाँ से हमने ये अध्याय प्रारंभ किया था |
योजनानि शतान्यष्टो भूकर्णों द्विगुणानि तु |
तद्वर्गतो दशगुणात्पदे भूपरिधिर्भवते ||
अर्थात पृथ्वी का व्यास ८०० के दूने १६०० योजन है, इसके वर्ग का १० गुना करके गुणनफल का वर्गमूल निकालने से जो आता है, वह पृथ्वी कि परिधि है |
यदि पृथ्वी का व्यास ‘व’ मान लिया जाए तो इसकी परिधि = √व२x१० = व√१० = वx३.१६२३, जिससे सिद्ध होता है कि परिधि व्यास का ३.१६२३ गुना होती है | आज कल यह सम्बन्ध ३.१४१६ दशमलव के चार स्थानों तक शुद्ध समझा जाता है जो ३.१६२३ से बहुत भिन्न है परन्तु इस से ये नहीं समझना चाहिए कि सूर्यसिद्धांतकार को व्यास और परिधि का ठीक ठीक सम्बन्ध नहीं मालूम था; क्योंकि दूसरे अध्याय में (सूर्य सिद्धांत के) अर्धव्यास और परिधि के अनुपात ३४३८:२१६०० माना गया है जिससे परिधि व्यास का ३.१४१३६ गुना ठहरती है | इसलिए इस श्लोक में परिधि को व्यास का √१०, सुविधा के लिए, गणित की क्रिया को संक्षेप करने के लिए माना गया है | जैसे आज कल जब स्थूल रीति से काम लेना होता है तो कोई इसको २२/७ और कोई इसे ३.१४ मानते हैं और जहाँ बहुत सूक्ष्म गणना करने कि आवश्यकता होती है वहां इसको दशमलव के पांच पांच, सात सात स्थानों तक शुद्ध करना पड़ता है |
अब प्रश्न यह रह गया कि भूपरिधि नापी कैसे गयी ? भास्कराचार्य गोलाध्याय भुवनकोष के १३ वें पृष्ठ के १४ वें श्लोक में बताते हैं कि उत्तर दक्षिण रेखा पर स्थित दो स्थानों की दूरी योजनो में नाप लो | उन दो स्थानों के अक्षांशो का भी अंतर निकाल लो | फिर त्रैराशिक द्वारा यह जान लेना चाहिए कि जब इतने अक्षांशो में अंतर होने से दो स्थानों कि दूरी इतने योजन होती है तब ३६०० पर क्या होगी |
इसकी उपपत्ति इस प्रकार है –
चित्र – १४
भ – पृथ्वी का केंद्र वभ – विषुवतीय त्रिज्या
उ – उत्तरी ध्रुव या सुमेरू
स, सा – एक ही उत्तर दक्षिण रेखा (Meridian) के दो स्थान
स का अक्षांश = ∆ वभस सा का अक्षांश = ∆ वभसा
दोनों के अक्षांशों का अंतर = ∆ सभसा
फिर अनुपात निकालें तो
∆ सभसा : ३६०० :: ससा : भूपरिधि
अतः भूपरिधि = (३६०० x ससा)/ ∆सभसा
भूपरिधि इसी रीति से आज भी निकाली जाती है; केवल सूक्ष्म यंत्रों के कारण अब अधिक शुद्धता पूर्वक यह काम किया जाता है |
अब पृथ्वी कि परिकल्पना के लिए हमारे सिद्धांतों में ऐसा वृत्त लिया गया है, जिसकी त्रिज्या ३४३८ इकाइयाँ और परिधि २१६०० इकाइयाँ होती है जिसमें १-१ इकाई एक एक कला के बराबर होती है | क्योंकि परिधि एक चक्र के सामान होती है जिसमें ३६०० अथवा ३६०x६० = २१६०० कलाएं होती है | त्रिज्या का मान ३४३८ इसलिए लिया गया है कि जब परिधि कलाओं में विभाजित की जाती है तब त्रिज्या का मान ३४३७(३/४) कला आज कल कि सूक्ष्म गणना से ठहरता है जिसका निकटतम पूर्णांक ३४३८ है | आजकल के १ रेडियन में जितनी कलाएं होती है उतनी ही पूर्ण कलाओं के सामान त्रिज्या का परिमाण माना गया है |
१ रेडियन = ५७०.२९५८ = ३४६७.७४८ कला