November 21, 2024

सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

 विनम्र – निवेदन 

                                                          ।। ॐ।। 

                                                   ।। ॐ विरजायै नमः ।। 

                               ।। सूकर क्षेत्र माहात्म्य विनोद रसिकान्विज्ञापयामि ।।

                                                     || अथ प्राक्कथनम् ।। 

सितमकरनिषण्णां शुभ्रवर्णां त्रिनेत्रां

    करधृतकलशोद्यत्सोपलाभीत्यभीष्टाम् ।

विधिहरिरूपां सेन्दुकोटीरचूडां 

    कलितसितदुकूलां जाह्नवी तां नमामि ॥

आदावादि पितामहस्य नियमव्यापारपात्रे जलं

    पश्चात् पन्नगशायिनो भगवतः पादोदकं पावनम् |

भूयः शंभुजटाविभूषणमणिः जहनोर्महर्षेरियं

    कन्या कल्मषनाशिनी भगवती भागीरथी दृश्यते ||

जन्हुतनया जान्हवी माँ भागीरथी के तीर बसी हुई अनादि काल से मोक्षप्रदा सूकर क्षेत्र ( सोरों ) नगरीका माहात्म्य वर्णन जो आज तक की भारतीय ऋषि परम्परा अविच्छिन्न रूप से नाना पुराणों में करती आ रही है । सकल कलि कलुष नाशिनी पतित पावनी पुण्यतोया भगवती भागीरथी और वृद्ध गंगा के पावन तटपर अनेकों  पक्के घाट छतरिया विशाल देव मन्दिर एवं गगन चुम्बी शिखरों से सुशोभित भगवान -वराह के भव्य मन्दिर की छटा दर्शनीय है । जगदात्मा भगवान विष्णु के पुराण वर्णित -तृतीयावतार भगवान वराह ने यहीं पर भू – ( पृथ्वी ) देवी का रसातल से उद्धार किया ( निकाला ) था । भगवान श्री वराह ने कहा है । 

यत्र संस्था च मे देवि ह्युद्धृतासि रसातलात् ।।

यत्र भागीरथी गङ्गा मम सौकरवे स्थिता ।। ७ ।। वराहपुराणम् अध्याय  137 

जहाँ भागीरथी गंगा मेरे सौकरव अर्थात सूकर क्षेत्र ( सोरों ) में स्थित है , वहीं  मेरा मुख्य निवास है । और वहीं  मैंने हे भू देवी ! तुझे रसातल से निकाला था । श्री हरि ने वराह रूप धारण किया तथा दैत्य हिरण्याक्ष का वध कर भू देवी पृथ्वी का उद्धार किया एवं उसी स्थान पर पृथ्वी की स्थापना की । पृथ्वी को स्थापित करने के पश्चात् सूकरक्षेत्र ( सोरों ) नाम से विख्यात हुआ । विश्राम के पश्चात् प्रभु श्री हरि वैकुण्ठ धाम को जाने के लिये उद्यत हुये उसी समय भू देवी ने स्तुति की तब देवी को उस सूकरक्षेत्र ( सोरों ) का माहात्म्य वर्णन किया । श्री हरि वराह भगवान पृथ्वी देवी को सम्बोधित करते हुये कहते हैं  – :

प्रक्षिप्तास्थि वर्गस्तु रेणु रूपः प्रजायते |

त्रिदिनान्ते वरारोहे मम क्षेत्र प्रभावतः ||

परं कोकामुखं स्थानं तथा कुब्जा म्रकं परम् ।।

परं सौकरवं स्थानं सर्वसंसारमोक्षणम् ।। ६ ।। ( व.पु.अ .137 श्लोक 06 ) 

हे वरारोहे ! मेरे क्षेत्र के प्रभाव से इस स्थान विशेष तीर्थ में अस्थि ( हड्डियाँ  ) ( विसर्जित करने ) डालने पर तीसरे दिन रेणु   ( मिट्टी ) हो जातीं  है । भगवान वराह श्री हरि ने अपने तीन ही मुख्य क्षेत्र बतलाये है यथा – ( 1 ) कोकामुख क्षेत्र ( बद्रीतीर्थ ) ( 2 ) कुब्जाम्रक क्षेत्र – हरिद्वार के समीप ( 3 ) सूकरक्षेत्र ( सोरों )  माँ भागीरथी एवं वृद्ध माँ गंगा के तीर पर जिला ( पूर्व एटा ) वर्तमान जिला कासगंज ( उ.प्र . ) । भगवान वराह श्री हरि प्रभु के तीनों  क्षेत्रों  में सूकरक्षेत्र ही प्रधान है । और पृथ्वी के समस्त तीर्थो से कोटि गुणा पुण्यतम उत्तम एवं प्राचीन है । जिस प्रकार अयोध्यापुरी , मथुरापुरी आदि अपने – अपने नाम की एक ही एक है । इसी प्रकार सूकरक्षेत्र ( सोरों ) भी अपने नामका एकमात्र ही है दूसरा नहीं है । पद्म पुराण में भगवान योगेश्वरेश्वर श्री कृष्ण ने कहा है कि हे  सत्यभामा ! अब मैं तुम्हारे समक्ष (सामने )   सूकर क्षेत्र ( सोरों )   के माहात्म्य का वर्णन करूगाँ उसमें निवास करने मात्र से मेरा सानिध्य प्राप्त होता है । पाँच योजन विस्तृत  मेरा मन्दिर ( निवास स्थान ) है । हे देवि जो इसमें निवास करता है वह गदहा हो तो भी वह मेरे चतुर्भुज स्वरूप को प्राप्त होता है ।

 हे देवि | साठ हजार वर्ष तक अन्य तीर्थों में तप करके जो फल प्राप्त होता है वही फल मेरे  सूकरक्षेत्र ( सोरों )  में आधे प्रहर ( डेढ़ घंटा ) में प्राप्त होता है । 

षष्ठि वर्ष सहस्त्राणि योऽन्यत्र कुरूते तपः तत्फलं लभते देवि प्रहराद्धेन सूकरे । 

                                                                                     ( पद्मपुराण ) 

आज उन परब्रह्म परमात्मा सर्वान्तर्यामी के चरणारविन्दों को दण्डवत् पूर्वक कोटिशः प्रणाम । जिनकी कृपा कटाक्ष से आज हमें अपने पूर्वजों का जीवन चरित्र कहने का अवसर प्राप्त हुआ । सिद्धान्त वागीश श्री पं . दशरथ जी द्विवेदी शास्त्री वैयाकरण भूषण ज्योतिषार्णव , विद्याविनोद , विद्यावारिधि का जन्म पौष कृष्ण पक्ष अष्टमी भृगुबार  सम्वत 1930 वि . 12 दिसेम्बर ईस्वी सन् 1873 सूकर क्षेत्र वाराह क्षेत्र ( सोरों ) जि . एटा वर्तमान में जिला कासगंज उ.प्र . में हुआ था आपके पिता का नाम श्री पं . नारायण जी तथा माता का नाम श्रीमती देवकी देवी था | आपके पूर्वजों  की कुल वृत्ति तीर्थ पौरोहित्य थी तथा वित्तेश्वर की उपाधि प्राप्त की थी । आप बडे ही उदार प्रकृति  सरल एवं भगवद्भक्त तपस्वी थे । इसी कारण लोग ( जनता ) आपको ऋषि जी कहकर सम्बोधित करते थे । आपने सनाढ्य शब्द को चरितार्थ कर दिखाया था ऋषि जी ने अपने पुत्र हमारे चरित्र नायक द्विवेदी जी को छ : वर्ष की अवस्था में ही अध्ययन आरम्भ करा दिया था । तत्पश्चात् कुशाग्र बुद्धि बालक ने काशी में पहुँचकर विद्याध्ययन किया ( विस्तार से जीवन वृतान्त पीछे दिया हुआ है ) विद्याध्ययन के पश्चात् काशी से आप 25 वर्ष की आयु में अपने गृह नगर लौट आये । संस्कृत विद्या के प्रचारार्थ आपने सज्जनानन्दिनी संस्कृत पाठशाला की स्थापना की जिसमें आप अवैतनिक रहकर विद्या दान करते रहे , आपके प्रशंसनीय परिश्रम से कितने ही विद्यार्थी शास्त्री , आचार्य , काव्यतीर्थ आदि – आदि उपाधि धारी अच्छे – अच्छे विद्वान हुए है । सोरों सूकर क्षेत्र में संस्कृत भाषा के प्रचार का श्रेय केवल आप ही को है । देश में जाति सुधार , सनातन , वैदिक धर्म तथा संस्कृत विद्या के प्रचारार्थ आप सदैव प्रयत्न शील रहते थे । विद्वत समाज तथा स्व . सवाई माधोसिंह जी जयपुर नरेश तथा महाराष्ट्र में नागपुर स्टेट के महाराज आदि कतिपय गुण ग्राही राजाओं द्वारा आप सम्मानित हुए । द्विवेदी जी अपने समय में भारत वर्ष में गणमान्य संस्कृत भाषा के विद्वानों में गिने जाते थे । राजा एवं महाराजा उनसे प्रभावित होकर सेवा लाभ उठाते थे । आपके तीन पुत्र हुये प्रथम पुत्र श्री पं . दैवज्ञ 

बालहरि जी जो चार विषयों में वाराणसी से आचार्य की उपाधि प्राप्त कर तथा कई विषयों में एम.ए. कर ज्योतिष विद्या के मर्मज्ञ तथा संस्कृत भाषा के कवि होने के साथ अध्यापन में जीवन समर्पण कर देव लोक गमन किया । द्वितीय पुत्र श्री पं . हरियश जी ने तीर्थ पौरोहित्य वृत्ति में ही जीवन व्यतीत कर देवलोक गमन किया । तृतीय पुत्र दैवज्ञ ज्योतिष तीर्थ श्री पं . यशोधर जी शास्त्री बड़े ही प्रभावशाली पण्डित तपोमूर्ति माँ गंगा के परमभक्त थे | पूजा  के समय माँ भगवती गंगा साक्षात् दर्शन देतीं  थी । एक समय वर्षा ऋतु में  भगवती गङ्गा  का प्रकोप बहुत बढ़ गया था तब जनता जनार्दन के निवेदन करने पर आपने माँ  भागीरथी गंगा के प्रवाह को रोक दिया तथा उनके प्रकोप को भी शान्त कर दिया | आप राजनीति के भी बड़े मर्मज्ञ थे । उनके समय के प्रधानमंत्री श्री पं . जवाहरलाल जी नेहरू , श्री लाल बहादुर जी शास्त्री , श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा मान – सम्मान पाते थे । बड़े – बड़े अधिकारी सामने आते ही चरणों में प्रणाम करते थे । अपने जीवन को ईमानदार व्यक्ति के रूप में समाज सेवा में रहकर इस लोक में सन् 1915 में आकर सन् 1985 में परलोक गमन कर गये ।

आपके भी चार पुत्र हुए । जिनमें ज्येष्ठ पुत्र श्री पं . महीधर जी शास्त्री एम.ए साहित्याचार्य भगवद् भक्ति में रहते हुए परोपकारी जीवन व्यतीत करते हैं  । लघु , पुत्र श्री पं . हलधर जी शास्त्री वर्तमान नाम श्री स्वामी हरि निर्दोषानन्द जी स्वीडन में निवासरत हैं  । वह वेदांग , व्याकरण , निरुक्त तथा छन्दों के ज्ञाता हैं  इसी प्रकार आरण्यक ग्रन्थ , संहिता ,उपनिषद , योग आदि के मर्मज्ञ है । मध्यम पुत्र श्री पं . धराधर जी द्विवेदी कृषि कार्य एवं पांडित्य कर्म करते हुए अल्पायु में ही परलोक गमन कर गये । कनिष्ठ पुत्र श्री पं . धर्मधर जी द्विवेदी पांडित्य कर्म में परम निपुण हैं  । स्वामी जी की महान अनुकम्पा के हम आभारी है हमारे पितृ पुरुष विद्वानों ने इस ग्रन्थ को अपनी वाणी रूपी अमृत से सींचकर शाखा और पल्लवों से सुशोभित किया । आज वही वृक्ष ग्रन्थ पुनः स्वामी जी के कर कमलों द्वारा पुनर्मुद्रित  होकर सुगन्धित पुष्पों की गन्ध से संसार को आनन्दित करता हुआ प्रतीत होरहा है ।  आज कितने ही सनातन धर्मावलम्बी सत्पुरुष इस बात को निर्विवाद स्वीकार करते हैं कि तीर्थ में दान और गंगा में श्रद्धा भक्ति के साथ स्नान का फल अवर्णनीय है | 

 स्वामी जी ने  पद्याऽनुवाद बहुत ही सहज भाषा में किया है क्योंकि श्लोकों का भावार्थ समझे बिना उनमें हमारी श्रद्धा उत्पन्न नहीं  होती है । स्वामी जी की अनुकम्पा से ही पुराणों का संदर्भ, ग्रन्थ को समझने में  सुविधा प्रदान करता है | इतना ही नहीं  मुद्रण एवं प्रकाशन तक की सुव्यवस्था भी उपलब्ध कराई । आपने इस विषय पर गंभीर अध्ययन किया है ।

 स्वामी की ये प्रकृति  धनलब्धि या यशोपार्जन के लिये न होकर स्वान्तःसुखाय की भावना से प्रेरित है |  आपके द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक आप लोगों  को पसन्द आये यही कामना है । कल्याण स्वरूपिणी माँ भगवती भागीरथी माँ गंगा आराधकों को सुख , समृद्धि प्रदान करें  ।

                                                                                    भवदीय

                                                                              पुष्पोद्भव  द्विवेदी

 श्रीहरिः

     प्रकाशकीय वक्तव्य

                                    ( तृतीय संस्करण  )

सूकरक्षेत्र ( सोरों ) माहात्म्यम् – मुख्यतया वराह पुराणसे  लिया हुआ है | कुछ अवान्तर सहायक सामग्री पद्मपुराण तथा ब्रह्मपुराण से ली गयी है | श्री पण्डित दशरथ जी शास्त्री से भाषा व्याख्यान कराकर     इसका प्रथम संकरण जिला नागपुर, तहसील सावनेर निवासी श्री पलीया राघोवा जी महाराज ने  करवाया था और इस पुस्तक को निर्मूल्य बांटा था | द्वितीय संस्करण

 श्रीवराहजी  के मन्दिर के मुख्य महन्त श्री सदानन्दपुरी जी तथा त्रिवाड़ी कल्याणराय जी , त्रिवाड़ी श्रीनाथ शर्मा आदि सज्जनों ने मिलकर सन् 1911 में मथुरा में छपबाया था | उसके पश्चात् निरन्तर मांगके फलस्वरूप इस तृतीय संस्करणके प्रकाशनसे हमें अत्यधिक हर्ष है |

  इस पुस्तककी प्राचीन प्रति श्री चक्रधरजी ने उपलब्ध कराई थी |  तब कहीं इसका पुनर्लेखन सम्भव होसका अतः वे धन्यवाद के पात्र हैं | एवं इसका संस्कृत में  मूलपाठ { जो कि आठ भागोंमें है } यूट्यूब पर भी सुना जासकता है | 

 ”  सूकरक्षेत्र (सोरों )माहात्म्यम् || Sokara Kshetra Mahatmyam ”   

   इस पुस्तकके उत्तर भागमें श्रीपण्डित दशरथजी द्वारा विरचित श्री वृद्ध गङ्गालहरी तथाउसकी व्याख्या एवं गङ्गापूजनविधि होनेसे इसका महत्त्व और भी बढ़ जाता है | इसके बाद में कुछ मित्रों के आग्रह पर श्रीवराहक्षेत्रका महत्त्व  अनेक वैदिक एवं पौराणिक सन्दर्भों के  साथ ‘‘ श्री सूकरक्षेत्र महिमामृतम् ’’ शीर्षक के नीचे दिया हुआ है |   पूज्य पण्डितश्रीका अनुपम दिव्य संदेश सभीके ज्ञान संवर्धनमें सहायक हो यही प्रकाशकका एकमात्र उद्देश्य है |

                                                                विनयावनत 

                                                                      स्वामी निर्दोष

  ||श्रीः|| 

          *श्री वराहो विजयतेतराम् *

||अथ सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम् || 

        * वाराह पुराणोद्धृतम् *

                        तच्च 

कासगंज वासि श्रीमदार्यवैद्य वद्रीदत्तोत्तेजित सोरों निवासि सज्जन जन  

  प्रार्थनया सकल साधारण जनोपकाराय , मारहराभिजनैय वास्तव्य 

    श्रीमद्रामनाथ शास्त्रि शिष्येण , नागपुर प्रान्तार्तर्गत सावनेर वासि ,

     आनरेरी मजिस्ट्रेट रायबहादुर.पलीया श्रीपण्डित राघोवाजी

       शर्म्माश्रित संस्कृत पाठशालाध्यापकेन , श्रीगार्ग्य द्विवेदि

        नारायणि देवकीनन्दन विद्याविनोद दशरथशर्म 

          सिद्धान्त वागीश शास्त्रिणा स्वकृत मिताक्षराख्य

           भाषा व्याख्यानेन सनाथी कृतम् | 

                                         तदेव

        श्रीवराह मन्दिरस्थायि स्वामि श्रीमहन्त सदानन्द पुरी.  

           त्रिवाडी कल्याणरायजी प्रभृतिभिः स्वकीयधनेन

                              मुद्राप्य प्रकटी कृतम् | 

           प्रत्येक पुस्तकस्याऽस्य मूल्य माणक चतुष्टयम् | 

अस्य पुनर्मुद्र्णाद्यखिलाधिकारा अनुवाद कर्त्राऽऽङ्ग्लराजकीय 

                  नियमानुसारेण स्वायत्ती कृतास्सन्ति .    

पुस्तक मूल्य |) आना                                                        

सन् 1911

             बाबू किशनलाल ने  ” बंबई भूषण  ” प्रेस मथुरा में छापा | 

||अथ सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम् || 

              || पूर्व भागः || 

                           ||  अथ सूकरक्षेत्र माहात्म्यम् || 

                                   ||   प्रथमोध्यायः   || 

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् | देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् || 1 ||

नमस्तस्मै वराहाय लीलयाेद्धरते महीम्।खुरमध्यगताे यस्य मेरुः खणखणायते।। 2 ||

दंष्ट्राग्रेणोद्धृता गौरुदधिपरिवृता पर्वतैर्निम्नगाभिः

साकं मृत्पिण्डवत् प्राग्बृहदुरुवपुषाऽनन्तरूपेण येन।

सोऽयं कंसासुरारिर्मुरनरकदशास्यान्तकृत्सर्वसंस्थः

कृष्णो विष्णुः सुरेशो नुदतु मम रिपूनादिदेवो वराहः।। 3 ||

व्यासं वसिष्ठनप्तारं शक्तेः पौत्रमकल्मषम् ।

पराशरात्मजं वन्दे शुकतातं तपोनिधिम् ॥ 4 ||

           अचतुर्वेदनोब्रह्मा द्विबाहुरपरो हरिः ।

अभाललोचनश्शम्भुः भगवान् बादरायणः ॥ 5 ||

|| श्री गणेशायनमः || अथ मिताक्षरा टीका प्रारभ्यते ||

 यद्ध्यानादचलश्चलो लघुपरः स्तव्धः स्थिरञ्जीवनं |

 वन्हिः शैत्य मुपैति  वादि जनता मूकत्व मीड् रंकति || 

 क्रोधी दुर्मनुजःशमंसुजनतामाप्नोति जाड्यंरवि |

श्चन्द्र स्सूर्य्यति मन्महे किमपि तच्छ्रीमन्महो वागलम् || १ || 

विघ्नोपविच्छेद विधौ पटीयः कार्य्यादि संस्मर्य्यवुधांगरीयः || 

सिद्धिप्रदन्तुन्दिल मास्यहस्ति देहेनरन्तत्व भजामधाम || २ ||

 मूर्खत्वं यन्निराकृत्य विद्वत्वमधिगच्छति || 

प्रस्तुमः शारदन्धामाऽपास्त शारद वैभवम् || ३ ||

 प्रोद्धृत्य यदपात्पृथ्वीं विक्षोभ्य दितिनन्दनम् ||

 तैर्थराजमहोवक्त्रे कोलं देहेनरन्नुमः || ४ ||

श्रीगुरोश्चरणाम्भोजरसार्द्र स्पन्द मात्रतः ||

 कातन्त्राम्भोनिधेः पारंदृष्टवान् तंनुमः सदा || ५  ||

 { कातन्त्र नामक व्याकरण समुद्रः पक्षे ईषत्तन्त्रशास्त्रवारिधिः ईशत्च्छास्त्राम्वुधिश्चेतिश्लिष्टोऽर्थः } 

 

श्रीमत्कासगञ्जा धिविहितवसति प्रार्य्य वैद्येश
वद्रीदत्तोत्साहात्तसोरों नगर सुमनुज प्रार्थना प्रेरितो ऽहम् ||
आनाय्याऽऽनाय्यतेभ्यः सकल वुधजनात्पुस्तकानि प्रशोध्य |
वाराहक्षेत्रमाहात्म्य मतिततितया भाषया टीकयातत् || ६ ||

 वराहेणोक्तं  यत् वलु विशिखसंख्यैर्भगवता |

 धराम्प्रत्यध्यायै परमखिल लोकोपकृतये || 

अलंकुर्वेसांघातिक विभवसम्पादनपटु  |

द्विज श्रीनाथोत्तेजित इहतु वाग्मी दशरथः || ७ ||

सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

       अथ सूकरक्षेत्रमाहात्म्ये प्रथमोऽध्यायः ।। १ ।।

अथ गृध्रजम्बुकाख्यानम् । तत्रादित्यवरप्रदानम् ।।

श्रीसूत उवाचश्रुत्वा तु विपुलं ह्येतदपराधविशोधनम् ।।

कर्म भागवतं श्रेष्ठं सर्व भागवत प्रियम् ।। १ ।।

अहो कर्म महाश्रेष्ठं भगवंस्तव भाषितम् ।।

मम चैव प्रियार्थाय तव भक्त सुखावहम् ।। २ ।।

श्रुतं ह्येव महाबाहो सर्व धर्मार्थ साधकम्।।

तव भक्तसुखार्थाय तद्भवान्वक्तुमर्हति।।३।।

किमुच्यते व्रतं चैव शुभं कुब्जाम्रके  महत् ।।

कतरच्चापि तच्छ्रेष्ठं क्षेत्रं भक्तसुखावहम् ।।४।।

श्रीवराह उवाच ।।

शृणु मे परमं गुह्यं पृष्टं वै यत्त्वया मम ।।

मम क्षेत्रं परं चैव शुद्धं भागवतप्रियम् ।।९।।

परं कोकामुखं स्थानं तथा कुब्जा म्रकं परम् ।।

परं सौकरवं स्थानं सर्वसंसारमोक्षणम् ।। ६ ।।

यत्र संस्था च मे देवि ह्युद्धृतासि रसातलात् ।।

यत्र भागीरथी गङ्गा मम सौकरवे स्थिता ।। ७ ।।

नैमिषारण्य तीर्थ में स्थित शौनकादि ऋषियों के प्रति श्री सूतजी महाराज ने कहा कि समस्त भगवद्भक्त सेव्य ,पवित्र तथा निखिल प्रायश्चित्त कर्म श्रीवराह जी से श्रवण करने के वाद || १ ||  पृथ्वीदेवी कहने लगीं कि महाराज आपका कथन अतिश्रेष्ठ ,सुखकारक भक्तप्रियार्थ है सो मैंने सुना || २ || और आपके  सर्वधर्मार्थ का साधनभूत  कुब्जाम्रक तीर्थ में कौनसा शुभब्रत तथा कौनसा भक्तसुखदाता परम श्रेष्ठ आपका तीर्थ है सो कहो || ३ ||४ ||  यह सुनकर श्रीवराह जी कहने लगे | हे पृथ्वी ! परम गुह्य जो तुमने पूंछा है सो श्रवण करो हमारा भक्तप्रिय शुद्ध परम स्थान कोकामुख और दूसरा कुब्जाम्रक तीर्थ एवं तीसरा परम पावन सर्व संसार से मुक्तिदाता  सर्वश्रेष्ठ सूकरक्षेत्र  ( सोरों स्थान ) है || ५ || ६ ||  यहां प्रतिदिन मेरा निवास है मैंने पाताल से तेरा उद्धार किया है और वही मेरा सूकर तीर्थ है जहां श्रीभागीरथी गंगा जी हैं || ७ || 

                  धरोवाच ।

केषु लोकेषु यान्तीश सौकरे ये मृताः प्रभो ।।

किं वा पुण्यं भवेत्तत्र स्नातस्य पिबतस्तथा ।। ८ ।।

कति तीर्थानि पद्माक्ष क्षेत्रे सौकरवे तव ।।

धर्मसंस्थापनार्थाय तद्विष्णो वक्तुमर्हसि ।। ९ ।।

श्रीवराह उवाच ।।

शृणु तत्त्वेन मे देवि यत्त्वं मां परिपृच्छसि ।।

यां गतिं ते प्रपद्यन्ते नराः सौकरवे मृताः।। १० ।।

यत्र स्नातस्य यत्पुण्यं गतस्य च मृतस्य च।।

यत्र यानि च तीर्थानि मम संस्थान संस्थिताः।।११।।

शृणु पुण्यं महाभागे गत्वा सौकरवं प्रति।।

प्राप्नुवन्ति महाभागे मम क्षेत्रेषु सुन्दरि।। १२ ।।

दश पूर्वापराश्चापि अपरे सप्त पंच च ।।

स्वर्गं गच्छन्ति पुरुषास्तेषां ये तत्र वै मृताः ।। १३ ।।

गमनादेव सुश्रोणि मुखस्य मम दर्शनात् ।।

सप्तजन्मान्तरे भद्रे जायते विपुले कुले ।। १४ ।।

धनधान्यसमृद्धेषु रूपवान्गुणवान् शुचिः ।।

मद्भक्तश्चैव जायेत मम कर्मपरायणः ।। १५ ।।

एवं वै मानुषो भूत्वा अपराधविवर्जितः ।।

गमनं तस्य क्षेत्रस्य मरणं तत्र कारणम् ।।१६।।

ये मृतास्तस्य क्षेत्रस्य सौकरस्य प्रभावतः ।।

शङ्खचक्रगदापद्मधनुर्हस्ताश्चतुर्भुजाः ।।१७।।

त्यक्त्वा कलेवरं तूर्णं श्वतेद्द्वीपं प्रयान्ति ते ।।

अन्यच्च ते प्रवक्ष्यामि तच्छृणुष्व वसुन्धरे ।। १८ ।।

तीर्थेषु तेषु स्नातश्च यां प्राप्नोति परां गतिम् ।।

चक्रतीर्थं महाभागे यत्र चक्रं प्रतिष्ठितम् ।। १९ ।।

शृणु पुण्यं तत्र भद्रे प्राप्नोति परमं नरः ।।

चक्रतीर्थे नरो गत्वा नियतो नियताशनः ।।  २० ।।

वैशाख द्वादशीं प्राप्य स्नायाद्यो विधिपूर्वकम् ।।

दशवर्षसहस्राणि दश वर्षशतानि च ।। २१ ।।

ऐसा श्रवण कर पृथ्वी पूछने लगी महाराज सूकर क्षेत्र में जो प्राणत्याग करते हैं वे कौन कौनसे लोकों में जाते हैं और स्नान करने का और जलपान का क्या पुण्य है || ८ || 

हे कमलनयन ! आपके सूकर तीर्थ में कितने तीर्थ हैं सो धर्म संस्थापनार्थ कहिये ||९ ||

यह सुनतेही भगवान कहने लगे | हे पृथिवी जो तुमने प्रश्न किया है उसका उत्तर सुनो सूकर क्षेत्र में प्राण त्याग कर जिस गति को मनुष्य प्राप्त होते हैं || १० || यहां स्नान का यात्रा का और प्राण त्यागने का जो पुण्य है और मेरे क्षेत्र में जो तीर्थ हैं उन्हें एवं क्षेत्र का माहात्म्य श्रवण करो || ११ || १२ || जो मेरे क्षेत्र में प्राण त्यागते हैं उन के १० पूर्व के एवं १० पिछले पुरुष पितृ कुल के , और मातृ कुल के पूर्व के सात पीछे के पांच पुरुष स्वर्ग को प्राप्त हो जाते हैं || १३ || हे पृथिवि ! मेरे क्षेत्र की यात्रा से ही तथा मेरे मुख दर्शन से ही सात जन्म पर्यन्त बड़े कुल में || १४ || धन धान्यादि युक्त रूपवान् गुणवान् पवित्र मेरा भक्त मेरे कर्म करने वाला || १५ || अपराध रहित मनुष्य होता है |  यह क्षेत्र यात्रा का फल है |  और प्राण त्यागने का फल यह है कि जो मनुष्य प्राण त्यागते हैं, वे सूकर क्षेत्र के प्रभाव से शंख चक्र गदा पद्म धनुषधारी चतुर्भुज रूप धारण कर इस शरीर को त्यागकर   श्वेतद्वीप को जाते हैं ||हे पृथिवि ! कुछ और भी मैं आपके लिए वर्णन करता हूं उसे श्रवण करें || १६ || १७ || १८ || मेरे क्षेत्रान्तर्गत तीर्थों में स्नान करने से परम गति को प्राप्त होता है |  जहां चक्र विराजमान है वह श्री चक्र तीर्थ स्थान है || १९ ||

धनधान्यसमृद्धश्च  जायते विपुले कुले ।।

मद्भक्तश्चापि जायेत मम कर्मपरायणः ।। २२ ।।

अपराधं वर्जयति दीक्षितश्चैव जायते ।।

भूत्वा वै मानुषस्तत्र तीर्थे संसारसागरम् ।। २३ ।।

तीर्त्वा चक्र गदाशंखपद्मपाणिश्चतुर्भुजः ।।

मम रूपधरः श्रीमान्मम लोके महीयते ।। २४ ।।

चक्रतीर्थे विशालाक्षि मरणे कृतकृत्यतः ।।

एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य श्रोतुकामा वसुन्धरा ।। २५ ।।

शिरस्यञ्जलिमाधाय श्लक्ष्णमेतदुवाच ह ।।

तत्र सौकरवे तीर्थे चन्द्रमास्त्वामतोषयत् ।। २६ ।।

एतदाचक्ष्व तत्त्वेन परं कौतूहलं हि मे ।।

वसुधाया वचः श्रुत्वा विष्णुर्मायाकरण्डकः ।। २७ ।।

उवाच वाक्यं मेदिन्या मेघदुन्दुभिनिःस्वनः ।।

शृणु भूमे प्रयत्नेन कथ्यमानं मयानघे ।। २८ ।।

तस्य वै कारणं येन तेन चाराधितोस्म्यहम् ।।

तस्य प्रीतोऽस्म्यहं देवि विशुद्धेनान्तरात्मना ।।२९।।

दर्शितश्च मया ह्यात्मा यो हि देवेषु दुर्लभः ।।

रूपं सोमेन तद्दृष्ट्वा विसंज्ञस्तदनन्तरम् ।। ३०।।

 हे धरणि ! उसके माहात्म्य को श्रवण करो . चक्र तीर्थ में जाकर नियमपूर्वक  परिमित भोजन करता हुआ मनुष्य विधिपूर्वक वैशाख मास द्वादशी तिथि को स्नान करे १००० वर्ष पर्यन्त मेरा भक्त धन धान्यादि  से पूर्ण मेरेलिये  कर्मकरनेवाला होने  से भी अपराध रहित ,  दीक्षित महत्कुल में उत्पन्न होता है  | मेरे तीर्थ में मानव होकर संसार सागर को पारकर चक्र गदा शंख पद्मधारी चतुर्भुज मेरे रूप को धारण कर मेरे लोक में वास करता है || २० || २१ || २२ || २३ || २४ ||

 हे पृथिवि ! चक्रतीर्थ में यह प्राणत्याग का फल होता है | यह सब सुन कर पुनः श्रवण करने की इच्छावाली पृथिवी || २५ || मस्तक पर अंजलि धारण कर सोमतीर्थ माहात्म्य के विषय में प्रश्न करने लगी . हे भगवन् सूकर क्षेत्र में चन्द्रमा ने आपको प्रसन्न किया था || २६ || यह परम कौतूहल मुझे है अतः आप वर्णन कीजिये | ऐसा पृथिवी का वाक्य श्रवण कर माया केआधार विष्णु मेघ व दुंदुभि के समान गर्जने वाले वराहाकृति भगवान कहने लगे हे पृथिवि ! जो मैं कहता हूं उसे श्रवण करो || २७ || २८ || जिस हेतु चन्द्रमा ने मुझे प्रसन्न किया था और मैंने चन्द्रमा को शुद्ध मन वाला  जान  कर प्रसन्न होकर देवदुर्लभ निजरूप दिखाया था , उसे देख  कर चन्द्रमा मूर्च्छित होगया || २९ || ३० ||

मां स द्रष्टुं न शक्नोति मम तेजःप्रमोहितः ।।

ततो निमीलिताक्षेण कृत्वा शिरसि चाञ्जलिम् ।। ३१ ।।

न शक्नोति तथा वक्तुं भीरुः सन्त्रस्तलोचनः ।।

एवमेतद्विचेष्टन्तं ब्राह्मणानामपीश्वरम्।।३२।।

वाणीं सूक्ष्मां समादाय स सोमो नोदितो मया ।।

किं वा फलं समुद्दिश्य तप्यसे सुमहत्तपः ।।३३।।

ब्रूहि तत्वेन मे सोम यत्ते मनसि वर्त्तते ।।

सर्वं सम्पादयिष्यामि त्वत्प्रसादान्न संशयः ।।३४।।

मम वाक्यं ततः श्रुत्वा ग्रहाणां प्रवरेश्वरः।।

उवाच मधुरं वाक्यं सोमतीर्थमवस्थितः ।।३५।।

भगवन् यदि तुष्टोऽसि मम चात्र गतः प्रभो।।

योगनाथो जगच्छ्रेष्ठः सर्वयोगीश्वरेश्वरः।।३६।।

यावल्लोका धरिष्यन्ति तावत्त्वयि जनार्दन ।।

अतुला त्वयि मे भक्तिर्भवेन्नित्यं सुनिश्चला।।३७।।

यच्चापि मम तद्रूपं त्वया संस्थापितं प्रभो ।।

सप्तद्वीपेषु दृश्येत तत्र तत्रैव संस्थितम् ।।३८।।

सोम इत्येव यज्ञेषु पिबन्तु मम ब्राह्मणाः।।

गतिः पारमिका तेषां दिव्या विष्णो भवेद्यथा।।३९।।

क्षीणस्तत्र त्वमावस्यां तत्र पिण्डपितृक्रियाः।।

प्रवर्त्तन्ते यथान्यायं भवेयं सौम्यदर्शनः।। ४० ।।

अधर्मे च न मे बुद्धिर्भवेद्विष्णो कदाचन।

पतित्वं चाथ गच्छेयमोषधीनां तथा कुरु ।।४१।।

यदि तुष्टो महादेव आदिमध्यान्त वर्जितः ।।

मम चैव प्रियार्थाय एषमे दीयतां वरः ।। ४२ ।।

ततः सोमवचः श्रुत्वा तत्रैवान्तर्हितोऽभवम् ।।

एवं तप्तं महाभागे तपः सोमेन निश्च यात् ।।४३।।

प्राप्ता च परमा सिद्धिः सोमतीर्थेऽन्यदुर्ल्लभा ।।

स्नायाद्यः सोमतीर्थे तु मम कर्मपरायणः ।।४४।।

अष्टमेन तु भक्तेन मम कर्मविधौ स्थितः ।।

फलं तस्य प्रवक्ष्यामि सोमतीर्थे नरस्य यत्।।४५।।

यत्र तप्तं तपस्तेन सोमेन सुमहात्मना ।।

पञ्चवर्षसहस्राणि एकपादेन तिष्ठता ।।४६।।

पञ्चवर्षसहस्राणि तथैवोर्द्ध्वमुखः स्थितः ।।

एवमुग्रं तपः कृत्वा कान्तिमानभवच्च सः ।।४७।।

ममापराधान्मुक्तश्च ब्राह्मणानां पतिस्तथा ।।

एवमेव महाभागे सोमतीर्थे कृतोदकः ।।४८।।

त्रिंशद्वर्षसहस्राणि त्रिंशद्वर्षशतानि च ।।

जायते ब्राह्मणः सुभ्रु वेदवेदाङ्गपारगः ।।४९ ।।

द्रव्यवान्गुणवांश्चैव संविभागी यशस्विनि ।।

मद्भक्तश्चैव जायेत अपराधविवर्जितः ।। ५० ।।

मेरे तेज से मोहित होकर मुझे देखने में समर्थ नहीं होसका तदनन्तर नेत्र बंद कर शिर पर अंजलि धारण कर त्रसित नेत्रों वाला भयभीत होता हुआ बोलने में असमर्थ ऐसे ब्राह्मणेश्वर चन्द्रमा को देखकर मैंने सूक्ष्म वाणी से चन्द्रमा के प्रति वाक्य कहा कि किस हेतु तुमने इतना उग्र तप किया है || ३१ || ३२ || ३३ || 

हे चन्द्रमा ! जो तुम्हारे मन में है सो कहो मैं तुम्हारे सर्व मनोरथ सिद्ध करूंगा || ३४ || इस प्रकार मेरे वाक्य को श्रवण कर सोमतीर्थ में स्थित ग्रहेश्वर चन्द्रमा बोला || ३५ || भगवन् ! जो आप मेरे ऊपर प्रसन्न हुए हैं  हे योगीश्वर सर्वश्रेष्ठ योगनाथ || ३६ ||

 हे जनार्दन ! तो जबतक चतुर्दश भुवन रहें तबतक आपके प्रति मेरी निश्चल भक्ति रहै || ३७|| हे प्रभो ! जो आपने मेरे लिए तेजस्वी रूप दिया है वह सातों द्वीपों में पूर्ण दीखा करै || ३८ || और यज्ञों में सोम मानकर ब्राह्मण लोग मेरा पान करें जिससे उनकी परम गति होवे || ३९ || और अमावास्या तिथि में जब मैं क्षीण होऊं तब पितृगण तृप्त्यर्थ पिण्डदान हुआ करै और मैं सौम्यदर्शन होऊं || ४०|| एवं अधर्म में मेरी रुचि कभी भी न होवै और औषधियों का मैं पति होऊं || ४१ || हे महादेव ! जन्म मरण रहित आप यदि मेरे ऊपर प्रसन्न हों तो यह वर मेरे लिये दीजिये || ४२ || हे पृथिवि ! चन्द्रमा का यह वाक्य श्रवण कर उसे यथोक्त वरदान देकर उसी स्थान में मैं अन्तर्धान  होगया इसप्रकार चन्द्रमा ने निश्चय से तप किया था || ४३ || सोमतीर्थ में चन्द्रमा को जो परमसिद्धि प्राप्त हुई वह अन्यत्र दुर्लभ है | जो मनुष्य सोमतीर्थ में मेरे कर्मों को करता हुआ || ४४ || सोमतीर्थ में स्नान करके मेरे ही कर्मों में स्थित दिवस के अष्टमभाग में भोजन करनेवाला है उसका फल मैं कहूंगा || ४५ || जहां महात्मा सोमदेव ने ५००० वर्ष पर्यन्त एकपाद से खड़े होकरऔर ५ हजार वर्ष ऊर्ध्वमुख स्थित होकर उग्र तप किया तब कान्तिमान हुआ || ४६ || और मेरे अपराधों से मुक्त होगया ऐसेही हे महाभागे !  जो मनुष्य सोमतीर्थ में स्नान करेगा || ४७ || वह ३ हजार वर्ष पर्यन्त ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर वेद और वेद के व्याकरणादि अंगों को जानने वाला होगा || ४८ ||तथा  हे यशवालि ! धनवान् गुणवान् अपराधरहित || ४९ || ५० ||

स एष ब्राह्मणो भूत्वा संसाराद्विप्रमुच्यते ।।

तस्य चिह्नं प्रवक्ष्यामि सोम तीर्थस्य सुन्दरि ।। ५१ ।।

तत्तीर्थं येन विज्ञेयं मम मार्गानुसारिणा ।।

वैशाखस्य तु मासस्य शुक्लपक्षस्य द्वादशी ।। ५२ ।।

प्रवृत्ते चान्धकारे तु यत्र कश्चिन्न दृश्यते।।

सोमेन च विना भूमिर्दृश्यते चन्द्रसप्रभा ।। ५३।।

आलोकश्चैव दृश्येत सोमस्तत्र न दृश्यते ।।

एवं त्वां वच्मि हे भद्रे एष वै विस्मयः परः ।। ५४ ।।

एतच्चिह्नं महाभागे पुण्ये सौकरवे मम ।।

सोमतीर्थे विशालाक्षि येन मुच्यन्ति जन्तवः ।। ५५ ।।

अन्यच्च ते प्रवक्ष्यामि तच्छृणुष्व वसुन्धरे ।।

प्रभावमस्य क्षेत्रस्य विस्मयं परमं महत् ।। ५६ ।।

अकामा तु मृता तीर्थे आत्मनः कर्मनिश्चयात् ।।

मम क्षेत्रप्रभावेण सृगाली मानुषी भवेत् ।। ५७ ।।

राजपुत्री विशालाक्षी श्यामा सर्वाङ्गसुन्दरी ।।

गुणवद्रूपसम्पन्ना चतुःषष्टिकलान्विता ।।५८।।

तस्य पूर्वेण पार्श्वेन तीर्थं गृध्रवटं स्मृतम् ।।

यत्राकामो मृतो गृध्रो मानुषत्वमुपागतः ।। ५६ ।।

वाक्यं नारायणाच्छ्रुत्वा धरणी शुभलक्षणा ।।

उवाच मधुरं वाक्यं विष्णुभक्तसुखावहम् ।। ६० ।।

होकर  ऐसा ब्राह्मण  संसार से पुनः छूट जाता है | अब  उस सोमतीर्थ का चिन्ह मैं कहता हूं ||५१ ||  जिस चिन्ह से मेरे भक्त सोमतीर्थ को पहिचान सकें वैशाख शुक्ला द्वादशी || ५२ || को रात्रि में अंधकार के कारण कुछ भी नहीं दीखता तब  चन्द्रमा के विना पृथ्वी प्रकाश युक्त और चांदनी की परछांई दीखती है| { जहाँ बिना चन्द्रमाके ही पृथ्वीपर चन्द्रिका चमकती दीखे , उसे ही सोमतीर्थ समझना चाहिये |  यह अत्याश्चर्य है || ५३ || ५४ || { यह महान आश्चर्य का विषय है कि चन्द्रमा का आलोक [ प्रकाश ] तो दीखता है , पर स्वयं चन्द्रमा वहाँ नहीं दीखते | }हे पृथ्वी ! यह  चिन्ह सोमतीर्थ का मेरे सूकरक्षेत्र में है , इसी कारण सोमतीर्थ में मनुष्य मुक्त होते हैं  || ५५ || अथ   गृध्रवट तीर्थ माहात्म्यम् || हे पृथिवी ! इस क्षेत्र का परम विस्मयकारक माहात्म्य मैं वर्णन करूंगा उसे आप श्रवण करें || ५६ || यहाँ एक शृगाली रहती थी ,जो बिना श्रद्धाके ही निष्काम  ( स्यारनी ) अपने कर्म के अनुसार दैवयोगसे मरकर मेरे तीर्थ के प्रभाव से अगले जन्ममें मनुष्य योनिको प्राप्त हुई || ५७ || वह राजकन्या बनीं बड़े बड़े नेत्रों वाली ,श्यामा { तप्तकाञ्चनवर्णाभा सा स्त्री श्यामेति कथ्यते } सदा षोड़श वर्ष की अवस्था वाली सर्वांग शोभन गुणवाली  , रूपसम्पन्न , चौंसठ कलाओंवाली || बन्धास्तु षोडशप्रोक्ताः सिंह विक्रमणादयः || तथा स्नानादिभेदेन शृङ्गाराःषोडशस्मृताः || १ ||  आलिङ्गनादि भेदेन मैथुनंचाष्टधामतम् | वाह्याभ्यन्तरयोगेन द्विविधारतिरुच्यते || २ ||

श्रवणादि विभेदेन दर्शनंस्याच्चतुर्विधम् || भावास्तु संज्ञया पञ्चप्रोक्तास्ते विभ्रमादयः || ३ || तथा हेलाप्रभृतयः प्रोक्ता हावास्त्रयोदश || एवं कामकलाः प्रोक्ताः चतुष्षष्ठिविभेदतः || ४ || अस्यार्थः | सिंहविक्रमण आदि से लेकर वन्ध १६ प्रकार के हैं , स्नानादि १६ शृंगार ,आलिंगनादि मैथुन ८ प्रकारका , वाह्य और आभ्यंतर योग से २ प्रकारकी रति , श्रवणादि भेद से दर्शन ४ प्रकार का , विभ्रमादि ५ भाव ,[भावयति ज्ञापयति हृदयगतम् ]

  हेला [ अनादरे , स्त्रीणां शृङ्गारभावजे “प्रौढ़ेच्छा याऽतिरूढ़ानां नारीणां सुरतोत्सवे । शृङ्गारशास्त्रतत्त्वज्ञैः हेला

सापरिकीर्त्तिता” इत्युक्ते  चेष्टाविशेषे । “देहात्मकं भवेत्

सत्त्वं सत्त्वात् भावः समुत्थितः । भावात् समुत्थितो

हावो हावात् हेला समुत्थिताः” हाव एव भवेद्धेला

व्यक्तं शृङ्गारसूचकः” उज्ज्वल० ३ आदि १३ हाव ,  “युवानोऽनेन हूयन्ते नारीभिर्मदनानले । 

अतो निरुच्यतेहावस्ते विलासादयो मताः” भरत नाट्यशास्त्रात् उद्धृत वाक्यम् । 

“ग्रीवारेचकसंयुक्तो भ्रूनेत्रादिविकाशकृत् । भावादीषत्प्रकाशो यः स हाव इति कथ्यते” उज्वलमणिः ।

इस प्रकार ६४ काम की कलायें हैं | || ५८ || 

अथवा – गीतादिविद्याभेदे –

१ गीतम् -2 – वाद्यम् – 3 – नृत्यम् – 4 – नाट्यम् – 5 – आलेख्यम् – 6 – विशोशकच्छेद्यम् – 7 – तण्डुलकुसुमलिविकाराः – 8 – पुष्पास्तरणम् – 

9 – दशनवसनाङ्गरागाः – 10 – मणिभूमिकाकर्म – 11 – शयनरचनम् – 

12 – उदकवाद्यम् – 13 – उदकघातः – 14 – चित्रायोगाः – 15 – माल्यग्रथनविकल्पाः – 16 – केशशेखरापीडनम् – 17 – नेपथ्ययोगाः – 18 – कर्णपत्रभङ्गाः – 19 – गन्धयुक्तिः – 20 – भूषणयोजनम् – 21 – इन्द्रजालम् – 22 – कौचुमारयोगाः – 23 – हस्तलाघवम् – 24 – चित्रशाकापूपभक्ष्यविकारक्रिया – 25 – पानकरसरागासवयोजनम् – 

26 – सूचीवापकर्म – 27 – वीणाडमरुकसूत्रक्रीडा – 28 – प्रहेलिका – 29 – प्रतिमा – 30 – दुर्वचकयोगाः – 31 – पुस्तकवाचनम् – 32 – नाटिकाख्यायिकादर्शनम् – 

33 – काव्यसमस्यापूरणम् – 34 – पट्टिकावेत्रवाणविकल्पाः – 35 – तर्कूकर्माणि – 

36 – तक्षणम् – 37 – वास्तुविद्या – 38 – रूप्यरत्नपरीक्षा – 39 – धातुवादः – 

40 – मणिरागज्ञानम् – 41 – आकरज्ञानम् – 42 – वृक्षायुर्वेदयोगाः –

43 – मेषकुक्कुटलावकयुद्धविधिम् – 44 – शुकसारिकाप्रलापनम् – 45 – उत्सादनम् – 46 – केशमार्जनकौशलम् – 47 – अक्षरमुष्टिकाकथनम् – 48 – म्लेच्छितकविकल्पाः – 49 – देशभाषाज्ञानम् – 50 – पुष्पशकटिकानिमित्तज्ञानम् – 

51 – ( अत्र निमित्तज्ञानमिति पृथक् केचित् पठन्ति  ) यन्त्रमातृका –

52 – धारणमातृका – 53 – संपाट्यम् – 54 – मानसी काव्यक्रिया – 

55 – क्रियाविकल्पाः – 56 – छलितकयोगाः – 57 – अभिधानकोषच्छन्दोज्ञानम् –

58 वस्त्रगोपनानि – 59 – द्यूतविशेषः – 60 – आकर्षणक्रीडा – 

61 – बालकक्रीडनकानि – 62 – वैनायकीनां विद्यानां ज्ञानम् –

63 – वैजयिकीनाम् विद्यानां ज्ञानम् – 64 – वैतालिकीनां विद्यानां ज्ञानम् – इति 

 उसी सोमतीर्थ के ( दुग्धेश्वर ) भूमि के पूर्व दिशा की तरफ गृध्रवट तीर्थ है जिसमें  निष्काम गृध्र प्राण त्याग करके मनुष्य योनि को प्राप्त होगया || ५९ || यह कथा नारायण से श्रवण कर शुभलक्षण वाली पृथिवी विष्णु भक्तोंको सुखकारक मधुर वाक्य कहने लगी || ६० || 

अहो तीर्थप्रभावो वै त्वया प्रोक्तो महान्मम ।।

यस्य देव प्रभावेण तिर्यग्योनित्वमागतौ ।। ६१ ||

गृध्रश्चैव शृगाली च प्राप्तौ वै मानुषीं तनुम् ।। 

स्नानेन तत्र तीर्थे च मरणाद्वा जनार्दन ।। ६२ ||

कां गतिं वै प्रपद्यन्ते तन्ममाचक्ष्व केशव ।।

चिह्नं च कीदृशं तेषां जायन्ते येन ते तथा ।। ६३ ||

अकामावपि तौ क्षेत्रे प्राप्तौ तु परमां गतिम् ।। 

ततो महीवचः श्रुत्वा विष्णुर्धर्मविदां वरः ।। ६४ ||

उवाच मधुरं वाक्यं धर्मकामो वसुन्धराम् ।।

शृणु तत्त्वेन मे भूमे यन्मां त्वं परिपृच्छसि ।। ६५ | 

उभौ तौ कारणाद्यस्मात्प्राप्तौ वै मानुषीं गतिम् ।।

तस्मिन्काले ह्यतिक्रान्ते मम कर्मविनिश्चयात् ।। ६६ ||  

त्रेतायुगे ह्युपक्रान्ते ज्ञाते च युगसंस्थितौ ।। 

 तत्र राजा महाभागः स्वधर्मकृतनिश्चयः ।। ६७ || 

भगवन् ! आपने मुझे आश्चर्य कारक तीर्थ माहात्म्य कहा और बताया कि इस तीर्थ के प्रभाव से पशु ,पक्षी भी मनुष्य योनि को प्राप्त हुए हैं || ६१ || सोमतीर्थ में स्नान करने व प्राण वियोग से शृगाली और गृध्र मनुष्य भाव को प्राप्त होगये || ६२ || उस तीर्थ में स्नानादि कर्म करने से और कौन कौन सी गतियों को प्राप्त होते हैं और हे केशव ! उनके कौन चिन्ह होता है || ६३ || जो निष्काम होते हुए भी वे दोनों परम गति को प्राप्त हुए। ऐसा पृथिवी का वाक्य सुनकर धर्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ श्रीभगवान बोले || ६४ || धर्म कामनाबाले विष्णु पृथिवी के प्रति मधुर वाक्य वोले हे पृथिवी जो आपने हमसे पूंछा है उसे श्रवण करो || ६५ || वे दोनों जिस कारण मनुष्य भाव को प्राप्त होगए . वह था उस काल में मेरे कर्मों के निश्चय से || ६६ || त्रेतायुग के जाने वाद उस युग की स्थिति जानने से अर्थात द्वापर में वह एक राजा के रूप में महाभाग्यवान निज धर्मधारी || ६७ || 

ब्रह्मदत्तेति विख्यातः पुरं काम्पिल्लमास्थितः ।। 

तस्य पुत्रो महाभागः सर्वधर्मेषु निष्ठितः ।। ६८ ।।

सोमदत्तेति विख्यातः कुमारः शुभलक्षणः ।। 

पित्रर्थे मृगयां यातो मृगलिप्सुर्वने तदा ।। ६९ ।।

अरण्ये स तदा गत्वा व्याघ्रसिंहनिषेविते ।।

न तत्र लभते किञ्चित्पितृकार्ये नराधिपः ।। ७० ।।

एवं हि भ्रमतस्तस्य शृगाली दक्षिणे तथा ।। 

अङ्गमध्ये तु विद्धा सा स्फुरन्ती सर्वमङ्गला ।।७१ ।।

तथा सा बाणसन्तप्ता व्यथया च परिप्लुता ।।

पीत्वा सा सलिलं तत्र वृक्षं शाकोटकङ्गता ।। ७२ ।।

आतपेन परिक्लान्ता बाणविद्धातुरा भृशम् ।।

अकामा मुञ्चती प्राणान् तीर्थं सोमात्मकं प्रति ।। ७३।।

एतस्मिन्नंतरे भद्रे राजपुत्रः क्षुधार्दितः ।। 

प्राप्तो गृध्रवटं तीर्थं विश्रामं तत्र चाकरोत् ।। ७४ ।।

     अथ पश्यति गृध्रं स वटशाखां समाश्रितम् ।। 

एकेन स तु बाणेन तथा  गृध्रो निपातितः ।। ७५ ।।

स तत्र पतितो गृध्रो वटमूले यशस्विनि ।। 

गतासुर्नष्टसंज्ञो वै बाणभिन्नस्तथा हृदि ।। ७६ ।।

तं दृष्ट्वा पतितं गृध्रं राजपुत्रस्तुतोष ह ।। 

तस्य च्छित्वा ततः पक्षौ गृहीत्वा राजनन्दनः ।। ७७ ।।

ब्रह्मदत्त नाम से विख्यात काम्पिल्ल नगरी का हुआ | { काम्पिल्य -फर्रूखाबाद जिलेमें कायमगंजसे ६ मील , फतेहगढ़से २८ मील पूर्वोत्तर गङ्गानदीके तटपर है | यह राजा द्रुपदकी राजधानी थी | द्रौपदीका स्वयंवर यहीं हुआ था } उसका पुत्र सर्व धर्मधारी महाभाग्यवान || ६८ || शुभलक्षण वाला राजकुमार सोमदत्त नामा पितृ श्राद्धार्थ मांस लेने के लिये वन में शिकार के लिये गया || ६९ || व्याघ्र , सिंह आदि जीवों से सेवित वन में जाकर भी राजपुत्र को पितृकार्यार्थ किसी उपयुक्त जीव की प्राप्ति नहीं हुई || ७० || इस प्रकार भ्रमण करते हुए राजा के दांहिने हाथ की तरफ से एक सियारिन निकली ( अनायास एक मृग पर छोड़े हुए उसके बाण से बिंध गयी ) सर्वाङ्ग शोभन , मध्याङ्ग में वाण से विद्ध कांपती हुई शृगाली || ७१ || वाण की वेदना से युक्त अति खेदित हुई सोमतीर्थ में जल पान कर ( शाकोटक वृक्ष )  सिहोर के वृक्ष के नीचे पहुंची  || ७२ || धूप से परेशान वाण की पीड़ा से अतिदुखी निष्काम होते हुए सोमतीर्थ में उसने प्राण त्याग दिया || ७३ || उसी समय क्षुधा पीड़ित राजपुत्र गृध्रवट तीर्थ में आकर विश्राम करने लगा || ७४ || और वटवृक्ष पर स्थित गीध को देख कर वाण से उसे मार गिराया जो उसी वृक्षकी जड़पर गिरा  || ७५ || हे पृथिवि ! वह गीध उसी वृक्ष के नीचे वेहोश हृदय में वाण लगने से प्राण रहित होकर गिर गया || ७६ || उस पड़े हुए गीध को देख राजपुत्र अति प्रसन्न हुआ और उसके पंखों को उखाड़ कर || ७७ ||

बाणपक्षान्विधातुं च सोमदत्तो गृहं ययौ ।।

सोऽपि दीर्घेण कालेन अकामोऽपि मृतः खगः ।। ७८।।

जातः कलिङ्गराजस्य सुतो गुणविभूषितः ।।

रूपवान् पण्डितश्चैव प्रजानंदकरः सदा ।। ७९।।

तस्मिन्राजनि नायासं कोऽपि कुत्रापि विंदति ।।

या सा सृगाली सञ्जज्ञे कांचीराजस्य वै सुता।। ८० || 

रूपयुक्ता गुणवती दक्षा सर्वांगसुंदरी ।। 

चतुःषष्टिकलायुक्ता कोकिलेव सुखस्वरा ।।८१ ।।

एवं प्रवर्तिते तत्र कांचीराज्ये कलिङ्गके ।।

हार्दिक्यात्सौहृदात्प्रीतिरन्योऽन्यकुलनिश्चयात् ।। ८२ ।।

भूमे मम प्रसादेन सम्बधोऽजायत स्वतः ।।

अथ दीर्घेण कालेन कांचीराजसुता तथा ।। ८३ ।।

कलिङ्गराजपुत्रेण विधिना तु विवाहिता ।।

कांचीराजस्तयोः प्रीत्या नानारत्नानि चाददत् ।।८४।।

भूषणानि च दिव्यानि गजाश्वमहिषीः स्त्रियः ।।

ततः कलिङ्गराजोऽपि सवधूकं निजं सुतम् ।। ८५ ।।

 वाणों में बांधने के लिये लेकर अपने घर को  चला और वह पक्षी भी कुछ काल के वाद निष्काम होता हुआ प्राण त्याग कर || ७८ || कलिंग देश के राजा का पुत्र सर्व गुणभूषित , प्रजानन्द कारक रूपवाला पण्डित || ७९ || हुआ | उसके राज्य में कोई भी व्यक्ति कहीं भी दुःख को प्राप्त नहीं होता था और जो शृगाली थी वह भी काञ्ची पुरी के राजा के घर में जन्मी || ८० || रूपवाली , गुणवाली , चतुर , सर्वांग सुन्दर पूर्वोक्त चौंसठ कलाओं वाली , कोयल के समान स्वरवाली || ८१ || इस प्रकार उन दोनों के { काञ्चीराज के व कलिंग देश के राजा के राज्य में } जन्मोपरान्त उभयकुल निश्चय से  हार्दिक  प्रीति और मित्रता आपस में होगयी || ८२ || 

हे पृथिवि ! तदनन्तर मेरे प्रसाद से दोनों का सम्वन्ध होगया। कुछ काल के वाद काञ्चीराज की पुत्री || ८३ || कलिंगराज के पुत्र के साथ विधिपूर्वक व्याही गई।

 उस समय उन दोनों को प्रसन्न करने के लिए काञ्ची नगरी के राजा ने अनेक रत्न दिये || ८४ || और सुन्दर सुन्दर भूषण , वस्त्र , हाथी , घोड़ा ,भैंस तथा स्त्रियों का दान किया। उसके वाद कलिंग देशका राजा पुत्रवधू सहित निज पुत्र को || ८५ ||

आदाय स्वगृहं यातस्तेन राज्ञातिमानितः ।।

एवं गच्छति काले वै दम्पत्योस्तुष्यमाणयोः ।।८६।।

अव्युच्छिन्नाऽभवत्प्रीती रोहिणीचंद्रयोरिव ।।

रेमतुस्तौ विहारेषु देवतायतनेषु च ।।८७।।

वने चोपवने चैव ये केचिन्नन्दनोपमाः ।।

भर्त्तारं सा न पश्येच्चेत्कदाचिदपि पार्श्वतः ।। ८८।।

नष्टं मन्येत चात्मानं राजपुत्री यशस्विनि ।।

न चेत्पश्यति भार्यां स्वां सोऽपि राजन्यनन्दनः।।८९।।

आत्मानं मन्यते प्रीत्या नष्टप्रायं वसुन्धरे ।।

दिने दिने तयोरेवं वर्द्धते प्रीतिरुत्तमा।। ९० ।।

नान्तरं पश्यते कश्चित् पुरुषः पुण्यकर्मणोः ।।

सोऽपि बुद्ध्या सुशीलेन कृतेन च वसुन्धरे ।।९१ ।।

कलिंगस्तोषयामास पौरान्जानपदांस्तथा ।।

अन्तःपुरे तु या नार्यः कलिंगेषु धरे तयोः ।।९२ ।।

ताभ्यां सन्तोषिताः सर्वाः शीलेन स्वगुणैस्तथा।।

एवं प्रवर्द्धिता ताभ्यां प्रीतिः पूर्वं यशस्विनि ।।९३।।

रमते तत्र चान्योन्यं शचीवासवयोरिव ।।

अथ प्रणयपूर्वं सा कांतं सर्वांगसुन्दरी।।९४।।

 साथ लेकर मान सहित अपने घर की ओर चला गया। इस प्रकार विवाह के वाद प्रसन्न दोनों स्त्री पुरुष कुछ काल के वाद || ८६ ||  रोहिणी और चन्द्रमाके समान अखण्ड प्रीति वाले देवमंदिरों में , विहारस्थानों में || ८७ || और वनों में तथा उद्यानों में जो कि नन्दन वन के समान थे उनमें रमण क्रीड़ा करने लगे . जिस समय कभी भी यदि स्त्री अपने पति  को पास न देखे || ८८ || तो राजपुत्री अपने को मृत तुल्य अनुभव करने लगे और राजपुत्र जब  अपनी प्यारी राजकन्या को न देखे तो || ८९ || हे पृथिवि ! अपने को नष्ट माना करै . इस प्रकार प्रति दिन दोनों की आपस में उत्तम प्रीति बढ़ने लगी || ९० || उन दोनों पुण्य शालियों के अन्तर को कोई नहीं देख पाते हैं . हे पृथिवि !  कलिङ्गराज का पुत्र निज स्वाभाविक शील आदि गुणों से || ९१ || पुरवासी , देशवासियों को प्रसन्न रखता था और अन्तःपुर में भी जितने नर नारी थे वे सब भी उन दोनों के शीलगुणों से प्रसन्न रहते थे इस प्रकार हे यशवाली पृथिवी !  उन दोनों की प्रीति बढ़ी || ९२ || ९३ || इन्द्र इन्द्राणी के तुल्य सर्वाङ्ग सुन्दर दोनों परस्पर प्रीति पूर्वक रमण लगे || ९४ || 

व्यजिज्ञपद्राजसुतं सौहृदेन यशस्विनी ।।

किंचिदिच्छामि ते वक्तुं राजपुत्र यशोधन ।। ९५ ।।

मम स्नेहात्प्रियं चैव तद्भवान्वक्तुमर्हति ।।

ततो भार्यावचः श्रुत्वा कलिंगस्य सुतः प्रभुः ।। ९६ ।।

उवाच मधुरं वाक्यं पद्मपत्रनिभेक्षणः ।।

यद्वदिष्यसि भद्रे त्वं यच्च तेऽस्ति मनीषितम् ।।९७ ।।

सर्वं ते कथयिष्यामि शपे सत्येन सुन्दरि ।।

सत्यं मूलं ब्राह्मणानां विष्णुः सत्ये प्रतिष्ठितः ।।९८।।

तस्य मूलं तपो राज्ञि राज्यं सत्ये प्रतिष्ठितम् ।।

नाहं मिथ्या प्रवक्ष्यामि कदाचिदपि सुन्दरि ।।९९।।

न मिथ्या पूर्वमुक्तं मे ब्रूहि किं करवाणि ते ।।

हस्त्यश्वरथरत्नानि यानानि च धनानि च ।।.१०० ।।

अथवा परमग्र्यं तु पट्टबन्धं करोमि ते ।।

सा भर्तृवचनं श्रुत्वा कांचीराजस्य चात्मजा ।। १०१ ।।

संगृह्य चोभौ चरणौ भर्त्तारमिदमब्रवीत् ।।

न चैव रत्नानीच्छामि हस्त्यश्वरथमेव च ।। १०२ ।।

पट्टबन्धेन कार्यं च यावद्ध्रियति मे गुरुः ।।

एका स्वपितुमिच्छामि मध्याह्ने तु तथाविधे ।। १०३ ।।

कुछ काल के वाद यशवाली राजकन्या प्रीति से राजपुत्र से कुछ कहने की अर्ज करने लगी। हे यशोधन राजपुत्र ! || ९५ || मेरे स्नेह से यह  प्रिय वाक्य यदि आप अपने परिवार जनों से कह सकें तो मैं आपसे निवेदन करूँ ? इस प्रकार राजसुता का वाक्य श्रवण कर राजपुत्र || ९६ || कमलदल के समान नेत्रों वाला यह मधुर वाक्य बोला हे प्यारी जो तुम कहोगी वही तेरे मनोरथ पूर्ण करूंगा || ९७ || और समस्त सम्पादन करूंगा मैं सत्य की सौगंध खाता हूँ क्योंकि ब्राह्मणों का मूल सत्य है . विष्णु भी सत्य में स्थित हैं || ९८ || तप का मूल भी सत्य ही है . राजाओं का राज्य भी सत्य से ही रहता है . हे सुन्दरी ! मैं कभी भी मिथ्या नहीं बोलूंगा || ९९ || और न कभी मिथ्या बोला है , कहो क्या करना है | जो आपको अपेक्षा हो सो कहो जैसे कि हाथी ,  घोड़ा , रथ , रत्न , अन्य सवारी , धन जो इच्छा हो सो कहो || १०० || अथवा परम श्रेष्ठ पट्टवन्ध आपके लिये बनवा दूं ऐसा पति  का वाक्य श्रवण कर राजकन्या पति के दोनों चरण पकड़ कर कहने लगी || १०१ || न रत्नों की न हाथी , घोड़ा , रथ आदि की इच्छा है || १०२ || और जब तक हमारे वृद्धजन हैं तबतक न पट्टवन्ध पहनने की इच्छा है | मध्यान्ह में केवल एकांत में शयन करने की इच्छा है  || १०३ ||  

 न चिरं वाल्पकालं तु यथा कश्चिन्न पश्यति ।।

श्वशुरो यदि वा श्वश्रूर्यथैवान्यो नराधिप ।। १०४ ।।

सुप्ता नैव च द्रष्टव्या व्रतमेतन्मुहूर्त्तकम् ।।

आत्मनो वै गृहजना ये केचित्स्वजने जनाः ।। १०५ ।।

ते मां सुप्तां प्रपश्येयुः कदाचिदपि संस्थिताम् ।।

ततो भार्यावचः श्रुत्वा कलिङ्गैश्वर्यवर्द्धनः ।। १०६ ।।

बाढमित्येव तां वाक्यं प्रत्युवाच वसुन्धरे ।।

विस्रब्धा भव सुश्रोणि कल्याणेन यशस्विनि ।। १०७ ।।

न त्वां वै द्रक्ष्यते कश्चिच्छयनीये महाव्रताम् ।।

एवं गच्छति काले तु तयोस्तु तदनन्तरे ।। १०८ ।।

कलिङ्गो जरया युक्तो पुत्रं राज्येऽभ्यषेचयत् ।।

राज्यं दत्त्वा वरारोहे यथान्यायं कुलोद्भवम् ।। १०९ ।।

कृत्वा निष्कण्टकं राज्यं दत्त्वा पंचत्वमागतः ।।

एवं प्रभुस्ततो राज्यं पितुर्दत्तं यथोचितम् ।। ११० ।।

एकाकी स्वपते तत्र यत्र कश्चिन्न पश्यति ।।

स तु दीर्घेण कालेन कलिङ्गकुलवर्द्धनः ।। १११ ।।

सुतानजनयत्पंच आदित्यसमतेजसः ।।

एवं तु मानुषं लोकं मम मायाप्रमोहितम् ।। ११२ ।।  

बहुत काल तक नहीं केवल थोड़े से समय तक मैं विल्कुल अकेली रहना चाहतीं हूँ  जिससे मुझे कोई देख न सके। चाहें वो श्वसुर हों अथवा शास अथवा अन्यजन || १०४ || शयन करती हुई मुझे कोई न देखे यही  मुहूर्त भर का मेरा प्रति दिन का व्रत है।  जो हमारे घर के अपने स्वकीय जन हैं वे भी || १०५ || शयन करती हुई मुझे कभी न देखें . स्त्री का यह वाक्य श्रवण कर कलिङ्ग देश के ऐश्वर्य को बढ़ाने वाला || १०६ || राजपुत्र जो है सो बहुत अच्छा ऐसा अंगीकार वाक्य स्त्री के प्रति कहा |  हे पृथिवी राजपुत्र  यह बोला कि हे प्यारी !  विश्वास कर , कल्याण से रह ,शय्या स्थान में तुझे कोई भी न देखेगा इस प्रकार दोनों का कुछ काल बीत जाने के वाद || १०७ || १०८ || कलिङ्ग देश का राजा  वृद्धावस्था से युक्त हुआ राजकुमार को यथायोग्य निष्कंटक राज्य गादी का दान कर मृत्यु को प्राप्त होगया | हे पृथिवि ! इस प्रकार पितृदत्त यथोचित राज्य प्राप्त कर || १०९ || ११० || अकेला शयन करने लगा जहां कोई न देखे इस प्रकार बहुत काल के वाद कलिङ्ग देशीय राजाओं के वंश को बढ़ाने वाले  राजकुमार ने || १११ || सूर्य सम तेजस्वी पांच पुत्रों को पैदा किया इस प्रकार मेरी माया से मोहित मनुष्य लोक || ११२ ||  

 आत्मकर्मसु संयुक्तं चक्रवत्परिवर्त्तते ।।

जातो जन्तुर्भवेद्बालो बालस्तु तरुणो भवेत् ।।११३।।

तरुणो मध्यमं याति पश्चाद्याति जरां ततः ।।

बालो वै यानि कर्माणि करोत्यज्ञानतः स्वयम् ।। ११४ ।।

न स लिप्यति पापेन एवमेतन्न संशयः ।।

ततः करिष्यतो राज्यं निष्कण्टकमनामयम् ।। ११५।।

सप्तसप्ततिवर्षाणि ह्यतीतानि यशस्विनि ।।

अष्टसप्ततिमे वर्षे एकान्ते तु नराधिपः ।। ११६ ।।

तमेव चिन्तयन्नर्थं मध्यसंस्थे दिवाकरे ।।

माधवस्य तु मासस्य शुक्लपक्षे तु द्वादशी ।। ११७ ।।

बुद्धिः सम्पद्यते तस्य प्रियादर्शनलालसा ।।

कोऽर्च्यस्तत्किं व्रतं चास्या एषा स्वपिति निर्जने ।।११८।।

न सुप्ताया व्रतं किंचिद्दृश्यते धर्मसंचयः ।।

न च विष्णुकृतं कर्म न चैवेश्वरचोदितम् ।।११९।।

मनुना वै कृतो धर्म एष चैव न दृश्यते ।।

न क्वाप्ययंकृतो धर्मो महानपि न योगिनाम् ।। १२० ।।

न तत्र एष विद्येत यश्चरेद्व्रतमीदृशम् ।।

बार्हस्पत्येषु धर्मेषु याम्येषु च न विद्यते ।। १२१ ।।  

निज कर्मों में फंसा चक्रवत् भ्रमण करता है . जीव जन्म लेता है बालक हुआ कुछ काल में बाल्यावस्था दूर हुई तरुण हुआ || ११३ || तारुण्य के वाद मध्यमावस्था को प्राप्त होता है एवं पश्चात् वृद्ध होता है बाल्यावस्था में अज्ञान से जिन कर्मों को करता है || ११४ || उन कर्म जन्य प्रायश्चित्तों से लिप्त नहीं होता यह असंशय है . तदनन्तर हे पृथिवी !  निष्कंटक और निरोग रहते हुए  राज्य करते करते || ११५ || ७७ वर्ष व्यतीत होगये . हे धरणि ! जब ७८वां { अठहत्तरवां } वर्ष चालू हुआ तब एकांत में राजा विचार करने लगा || ११६ || उसी प्रयोजन को चिंतन करते हुए वैशाख शुक्ला द्वादशी के दिन दोपहर के समय  || ११७ || प्रिया दर्शन लालसा वाली बुद्धि पैदा हुई और विचारने लगा कि कौन देव इसका सेव्य है ? इसका क्या ब्रत है ? जो यह अकेली निर्जन स्थान में शयन करती है || ११८ || शयन करते हुए कोई धर्म संपादक ब्रत नहीं दीखता ऐसा कर्म न तो विष्णुप्रोक्त है नाहीं शिवजी ने बताया है || ११९ ||और न मनुप्रोक्त यह कोई धर्म है न कहीं योगिजन सेव्य यह धर्म है || १२० ||  न कोई ऐसा ब्रत करता है , वार्हस्पतस्मृति तथा यमस्मृति में भी ऐसा धर्म निरूपण नहीं किया गया जो यह शयन करती हुई यह ब्रत करती है || १२१ ||  

 न एष विद्यते तत्र सुप्ता चरति यद्व्रतम् ।।

भुक्त्वा तु कामभोगानि भुक्त्वा तु पिशितोदनम् ।।१२२।।

ताम्बूलं रक्तवस्त्रं तु सुसूक्ष्मे पट्टवाससी ।।

सुगन्धैर्भूषिता गात्रे सर्वरत्नसमायुता ।। १२३ ।।

मम कान्ता विशालाक्षी किमत्र चरते व्रतम् ।।

कुप्येतापि तु सन्दृष्टा प्रिया मे कमलेक्षणा ।। १२४ ।।

अवश्यमेव द्रष्टव्या कीदृशं चरति व्रतम् ।।

किन्नरैः सुप्रलक्ष्येत वशीकरणमुत्तमम् ।। १२५ ।।

अथ योगीश्वरी भूत्वा यत्र गच्छति रोचते ।।

अथवा चान्यसंसृष्टा कामरोगेण चावृता ।। १२६ ।।

एवं चिन्तयतस्तस्य अस्तं प्राप्तो दिवाकरः ।।

संवृत्ता रजनी सुभ्रूः सर्वसार्थसुखावहा ।। १२७ ।।

ततो रात्र्यां व्यतीतायां प्रभातसमये शुभे ।।

पठन्ति मागधा बन्दिसूता वैतालिकास्तथा ।। १२८ ।।

शङ्खदुन्दुभिनादैश्च बोधितो वसुधाधिपः ।।

सर्वलोकहितार्थाय उदिते च दिवाकरे ।।१२९।।

यत्तदा चिन्तितं पूर्वं द्रष्टुकामेन तां प्रियाम् ।।

सर्वचिन्तां परित्यज्य सा चिन्ता हृदि वर्त्तते ।। १३०।।  

इच्छा पूर्वक भोग भोगकर एवं मांस -भात भोजन करके || १२२ || ताम्बूल सेवन कर बारीक रेशमी रक्त वस्त्र धारण कर सुगंधदार हार से भूषित होकर सर्वांग में रत्न जटित भूषण धारण कर || १२३ || विशालाक्षी मेरी प्रिया कौन सा ब्रत करती है कमल नयना कदाचित देखी जावै तो कुपित भी हो सकती है || १२४ || कुछ भी हो देखना अवश्य चाहिये कि यह कैसा ब्रत करती है क्या शयन करते हुए भी उत्तम वशीकरण सिद्ध होता है || १२५ || अथवा योगीश्वरी होकर इच्छा पूर्वक गमन करती है ?  अथवा कामपीड़ित होकर अन्य मनुष्य के साथ वास करती है || १२६ || इस प्रकार चिंतन मनन करते करते सूर्य अस्त होगये और सर्व सुखदायक रात्रि होगई || १२७ || तदनन्तर हे पृथ्वी रात्रि के वाद प्रातः काल में मागध , सूत , वैतालिक जन स्तोत्र पाठ करने लगे || १२८ || शंख दुन्दुभियों के शव्दों से सूर्योदय के समय सर्वलोक हितार्थ राजा जाग गए || १२९ || परन्तु पहले प्रिया दर्शनेच्छा से जो चिन्ता की थी उसी को प्राथमिकता देते हुए सारी अन्य चिन्ताओं को छोड़कर उसी चिन्ता से हृदय युक्त होगया || १३० ||   

स्नातस्तु विधिना सोऽथ क्षौमाभ्यामुपसंवृतः ।।

भूत्वा चोत्सारयामास आज्ञां दत्त्वा यथोचितम् ।। १३१ ।।

व्रतस्थं यः स्पृशेन्मां तु नारी पुरुष एव च ।।

धर्मयुक्तेन दण्डेन मम वध्यो भवेत्तु सः ।। १३२ ।।

एवमाज्ञापयित्वा तु कालिङ्गो नृपतिः किल ।।

गतश्च त्वरया धीमान्प्रविष्टस्तत्र सुव्रते ।। १३३ ।।

पर्यङ्कस्य तले तत्र राजा दर्शनलालसः ।।

विलोक्य तां वरारोहां ततश्चिन्तापरायणाम् ।। १३४।।

ततः कमलपत्राक्षी वेदनायासपीडिता ।।

रुजार्त्ता रुरुदे तत्र शिरोवेदनताडिता ।। १३५ ।।

किं मया तु कृतं कर्म पूर्वमेव सुदुष्कृतम् ।।

येनाहमीदृशीं प्राप्ता दशां पुण्यपरिक्षयात् ।। १३६ ।।

भर्त्ता च मां न जानाति क्लिश्यमानामनाथवत् ।।

अथ मां किं कथं भर्त्ता मन्यते स्वजनोऽपि वा ।। १३७।।

कथये किं शयाना तु सखीनां शयने स्थिता।।

एवमत्र न युज्येत यन्मया परिचिन्तितम् ।। १३८ ।।

किंच वात्मनि दुःखस्य सर्वमेतच्च युज्यते ।।

किंच मां वक्ष्यते भर्त्ता किं च मामितरे जनाः ।। १३९ ।।

अन्यायेन व्रतं चीर्णं सर्वतो विकृतं भवेत् ।।

कदाचिदपि काले तु गच्छेत्सौकरवं प्रति ।। १४० ।।  

राजा विधि पूर्वक स्नान करके दोनों रेशमी वस्त्र धारण कर यथायोग्य आज्ञा देकर सबलोगों को वहां से हटा दिया || १३१ || और कहा कि ब्रत में स्थित मुझे कोई भी स्त्री या पुरुष न देखे यदि देखेगा तो धर्मयुक्त दण्ड से दण्डित किया जाएगा || १३२ || इस प्रकार आज्ञा देकर राजा शीघ्र चला गया हे पृथ्वी ! जहां रानी का शयन स्थान था उसी स्थान पर पहुंचा || १३३ || और रानी को देखने की इच्छा से रानी की शय्या के नीचे प्रवेश कर गया वाद में चिंता युक्त रानी को राजा ने शय्या में देखा || १३४ || उस समय कमल नयना रानी मस्तक पीड़ा से युक्त होकर अत्यन्त रुदन कर रही थी || १३५ || और कहने लगी कि पूर्व जन्म में मैंने क्या दुष्कृत किया है जिससे मेरे पुण्य नष्ट होने से मैं ऐसी दशा को भोग रही हूं || १३६ || अनाथ के समान मुझ दुखिया को मेरे पति नहीं जानते हैं . पति तो क्या अन्य गृहजन भी नहीं जानते वे लोग मेरे वारे में क्या सोचते होंगे || १३७ || पलंग में पड़ी पड़ी मैं सखियों से भी क्या कहूं ? जो कुछ भी मैं विचारती हूं सो कुछ भी योग्य नहीं है || १३८ || और न ऐसा दुःख होना मुझे योग्य है , मुझसे मेरे पति और अन्य गृहजन क्या कहेंगे  || १३९ || अन्याय से ब्रत किया और सारा खेल बिगड़गया है . यदि कभी भी सूकरक्षेत्र में चलूं तो || १४० ||  

ततो ब्रूयामिदं वाक्यं यन्मे हृद्यवतिष्ठते ।।

ततः प्रियावचः श्रुत्वा समुत्थाय ततो नृपः ।। १४१ ।।

दोर्भ्यामालिङ्ग्य वै भार्यां वाक्यमेतदुवाच ह ।।

किमिदं भाषसे भद्रे आत्मानं न प्रशंससि ।।१४२ ।।

अशोच्या शोचिता या तु यच्च निन्दसि चात्मनि ।।

भिषजः किं न विद्यन्ते अष्टकर्मसमाहिताः ।।१४३।।

ये तु संस्थापयेयुस्ते शिरसो वेदनां पराम् ।।

त्वया पूर्वं व्रतमिषाद्वेदना यदि गोपिता ।।१४४।।

येन वै क्लिश्यसे भद्रे शिरस्यसुखपीडिता ।।

वायुना कफपित्तेन शोणितेन कफेन वा ।। १४५ ।।

सन्निपातस्य दोषेण येनेदं पीड्यते शिरः ।।

काले विकाले कृत्वा वै पित्तोद्रेकं यशस्विनि  ।। १४६ ।।

अश्नासि पिशितं चान्नं तेनेदं दूष्यते शिरः ।।

क्रियतेऽत्र शिरावेधो रुधिरस्राव एव च ।। १४७ ।।

दीयते चेच्छिरोऽभ्यङ्गः कथं तिष्ठति वेदना ।।

किमेतद्गोपितं भद्रे मयि तन्न निवेदितम् ।। १४८ ।।

त्वया व्रतमिषेणायमात्मा संक्लिश्यते वृथा ।।

या त्वं वै भाषसे वाक्यं सौकरे गमनं प्रति ।। १४९ ।।

तत्र गोप्यं किमस्तीति येन ते परिवेदना ।।

ततः कमलपत्राक्षी सव्रीडा दुःखपीडिता ।। १५० ।।

निज हृदयगत यह वार्ता कहूं ऐसा प्रियावाक्य श्रवण कर राजा उठ बैठा || १४१ || और दोनों हाथों से प्रिया को उठाकर  हृदय से लगाकर यह वाक्य बोला हे प्रिये ! यदि यह बात है तो आपने अपनी दशा अबतक क्यों नहीं बताई || १४२ || जो नहीं सोचना चाहिए वह आप सोचतीं हैं और दुःखी होतीं हैं। क्या अष्टकर्म के ज्ञाता वैद्य मेरे राज्य में नहीं हैं। ( अष्टकर्म आयुर्वेद के सुश्रुतादि ग्रन्थों में प्रसिद्ध हैं ) { १ शल्य २ शालाक्य ३ कायचिकित्सा ४ भूतविद्या ५ कौमार भृत्य ६ अगदतंत्र ७ रसायनतन्त्र ८ वाजीकरण तन्त्र } इति || १४३ || जो तेरी शिरोवेदना की चिकित्सा करने में समर्थ हो सकें ? जो तूने ब्रत के बहाने शिर की पीड़ा छिपा ली || १४४ || और अब शिरदर्द से तकलीफ भोग रही हो।

 वात से ,  पित्त से , रक्त से अथवा कफ से या सन्निपात के दोष से आपके शिर में जो पीड़ा है || १४५ || हे यश वाली ! हमें तो लगता है कि आप समय असमय में जो भोजन करतीं हैं उससे पित्ताधिक्य होगया है || १४६ || और ऐसी अवस्था में आप मांसादि का भोजन करतीं हैं जिससे आपका शिर दुखता है इसमें फक्त खुलावना आदि कर्म किया जाना चाहिए || १४७ || यदि तैलादि से मालिश करी जाय तो फिर कैसे शिर में वेदना रह सकती है अबतक आपने इसे क्यों छिपाया हमसे क्यों नहीं कहा ?|| १४८ || ब्रत के बहाने से वृथा ही तूने शरीर को क्लेश दिया और जो तुम कहती हो कि सूकरक्षेत्र में चलने पर ही कहूंगी || १४९ || इस विषय में ऐसा क्या गोपनीय है जिससे तुम्हें यह दुःख है और जिसे तुम कहना नहीं चाहती हो अब राजकुमारी बड़े संकोच में पड़गयी कमलनयना लज्जायुक्त, दुःख पीड़ित || १५० || 

भर्तुर्गृहीत्वा चरणौ सा पतिं प्रत्यभाषत ।।

प्रसीद मे महाराज नेदं प्रष्टुं त्वमर्हसि ।। १५१ ।।

मम पूर्वकथां वीर दुष्टकर्मानुसारिणीम् ।।

ततो भार्यावचः श्रुत्वा कलिङ्गानां जनाधिपः ।। १५२ ।।

उवाच मधुरं वाक्यं वहितेनान्तरात्मना ।।

किमिदं गोप्यते देवि ममाग्रे वरवर्णिनि ।। १५३ ।।

तथ्यमेव महाभागे पृच्छ्यमाना यशस्विनि ।।

ततो भर्तृवचः श्रुत्वा विस्मयोत्फुल्ललोचना ।। १५४ ।।

उवाच मधुरं वाक्यं कलिङ्गानां महाधिपम् ।।

भर्त्ता धर्मो यशो भर्त्ता भर्त्तैव प्रियमात्मनः ।। १५५ ।।

अवश्यमेव तद्वाच्यं यन्मां त्वं परिपृच्छति ।।

तथापि नोत्सहे वक्तुं हृदि यत्परिवर्त्तते ।। १५६ ।।

तव पीडाकरमिति तन्मां न प्रष्टुमर्हसि ।।

एतद्दुःखं महाभाग हृदि मे परिवर्त्तते ।।१५७।।

सुखे हि वर्त्तसे नित्यं महाराजोऽसि सुन्दरः ।।

बह्व्यो मत्सदृशा भार्यास्तिष्ठन्त्यन्तःपुरे तव।।१५८।।

प्राश्नासि पिशितान्नं च प्रावारान्भूषणानि च ।।

आच्छादयसि यानैश्च हस्त्यश्वरथपृष्ठगः ।। १५९ ।।

गच्छस्यनारतं राजन् किं स्थितं च मया विना ।।

आज्ञा च तेऽप्रतिहता गन्धान्भोगांश्च सर्वशः ।। १६० ।।

रानी ने पति के चरण पकड़ लिये और कहने लगी हे महाराज ! आप मुझ पर प्रसन्न हों , यह बात आप इस समय पूंछ रहे हैं यह ठीक नहीं . || १५१ || मेरे पूर्वजन्म की कथा दुष्ट कर्मानुसार है |  तदनन्तर पत्नी की बात सुनकर कलिंगेश्वर उस नरेश ने || १५२ || सावधान होकर मधुर वाक्य कहा हे सुंदरी ! हमसे आप क्यों छिपातीं हैं || १५३ || हम प्रेम से पूंछते हैं ठीक ठीक बतला दो पति की बात सुनकर राजकुमारी की आँखें आश्चर्य  और प्रसन्नता से भर गयीं . वह मधुर वाणी में बोली कि भर्ता ही स्त्रियों का धर्म , यश और अपना प्रिय होता है || १५४ || १५५ || अतएवआप जो मुझसे पूंछ रहे हैं वह मुझे अवश्य कहना चाहिये . फिर भी जो बात मेरे हृदय में बैठ गयी है उसे कहने में मैं असमर्थ हूं || १५६ || पीड़ा पहुंचाने वाली मेरी यह बात आप मुझसे पूंछें , यह उचित नहीं जान पड़ता . हे महा भाग्यवान! यही मेरा दुःख है || १५७ || आप सदा सुखमें समय बिताते हो मेरे तुल्य बहुत सी रानियां आपके अन्तःपुर में हैं || १५८ || जिन्हें आप विविध प्रकार के अन्न और सुन्दर भूषण वस्त्र दिया करते हैं |  और वे आपकी सेवा करतीं हैं फिर मुझसे आपका क्या तात्पर्य ? ( मेरे बिना आपका कौनसा काम बिगड़ता है। )और हे राजन् आप हाथी , रथ और घोड़े पर यात्रा किया करते हैं  || १५९ || आपकी आज्ञा कभी भंग नहीं होती है और समस्त भोगों को इच्छा पूर्वक भोगते हो || १६० ||

बिभर्षि स्वेच्छया राजन्न मां संप्रष्टुमर्हसि ।।

त्वं मे देवो गुरुः साक्षाद्भर्त्ता यज्ञः सनातनः ।। १६१ ।।

धर्मश्चार्थश्च कामश्च यशः स्वर्गश्च मानद ।।

पृष्टया मे सदा वाच्यं सर्वं सत्यं प्रियं तव ।। १६२ ।।

पतिव्रतानां सर्वासामेष धर्मः सनातनः ।।

न संशये नियोक्तव्यः सुखस्थो हि पतिः स्त्रिया ।।१६३।।

एतन्निश्चित्य मे पीडां न प्रष्टुं त्वमिहार्हसि ।।

ततो भार्यावचः श्रुत्वा कलिङ्गानां जनाधिपः ।। १६४ ।।

उवाच मधुरं वाक्यं भार्यापीडाभिपीडितः ।।

शृणु तत्त्वेन मे भद्रे शुभं वा यदि वाशुभम् ।।१६५।।

अवश्यमेव वक्तव्यं पृष्टया पतिना ध्रुवम् ।।

यानि गुह्यान्यगुह्यानि स्त्रियो धर्मपथे स्थिताः ।। १६६ ।।

भर्त्तारं च समासाद्य रहस्तां गोपयन्ति न ।।

कृत्वा सुदुष्करं कर्म रागलोभप्रमोहिता ।। १६७ ।।

या सुगोपायते गुह्यं सती सा नोच्यते बुधैः ।।

एवं चिन्त्य महाभागे ब्रूहि सत्यं यशस्विनि ।।१६८।।

अधर्मस्ते न भविता गुह्यार्थकथने मम ।।

ततो भर्तृवचः श्रुत्वा सा देवी परमप्रिया ।। १६९ ।।

प्रत्युवाच प्रियं वाक्यं राजानं धर्मवादिनम् ।।

देवो राजा गुरू राजा सोमो राजेति पठ्यते ।।१७०।।

 अतः मुझसे पूंछने योग्य नहीं हो अर्थात् इस विषय में मुझसे आपको कुछ नहीं पूंछना चाहिये. आप मेरे इष्ट देवता व गुरु , पति , एवं सनातन यज्ञपुरुष हैं . हे मानदाता मेरे लिये आप धर्म , अर्थ , काम , यश और स्वर्ग सब कुछ हैं || १६१ || १६२ || आपके पूंछने पर आपके सामने मुझे चाहिये कि सदा सभी बातें सत्य एवं प्रिय कहूं क्योंकि समस्त पतिब्रताओं का यही सनातन धर्म है कि स्त्री पति को संशय में न डाले || १६३ || तथापि मेरी बातों पर निश्चित विचार करके मेरी पीड़ा के विषय में आपको नहीं पूंछना चाहिये यह रानी का वाक्य श्रवण कर || १६४ || स्त्री के दुःख से दुःखित राजा ऐसा मधुर वाक्य बोला हे प्यारी ! शुभ हो या अशुभ || १६५ || पति पूंछे तो अवश्य ही बताना चाहिये . धर्म के मार्ग पर चलने वाली स्त्री का कर्तव्य है कि अपने गुप्त और प्रकट हाल को || १६६ || पति के सामने प्रकट कर दे . जो स्त्री किसी राग या लोभ से मोहित होकर अपकर्म कर उसे पति से छिपाती है || १६७ || तो विद्वतसमाज उसे  सती नहीं कहता . यशस्विनि ! ऐसा विचार करके तुम्हें मुझसे अपनी गुप्त बात भी अवश्य कहनी चाहिये || १६८ || मेरे समक्ष इस गोपनीय बात को तुम मुझे बताओगी  तो तुम्हें अधर्म का भागी नहीं होना पड़ेगा . ऐसा पति का वाक्य श्रावण कर परम प्यारी रानी  || १६९ || धर्मवादी राजा से प्रियवाक्य बोली कि राजा ही देव , गुरु और सोम कहलाता है || १७० || 

अवश्यमेव वक्तव्यमेष धर्मः सनातनः ।।

यदि गुह्यं न मे कार्यं श्रूयतां राजसत्तम ।।१७१।।

अभिषिंचस्व राज्ये स्वे ज्येष्ठं पुत्रं कुलोचितम्।।

एहि नाथ मया सार्द्धं क्षेत्रं सौकरवं प्रति।।१७२।।

ततो भार्यावचः श्रुत्वा कलिंगानां जनाधिपः ।। ।

बाढमित्येव वाक्येन छन्दयामास तां प्रियाम्।।१७३।।

दास्यामि राज्यं पुत्राय वचनात्तव सुन्दरि।।

यथा पूर्वं मया लब्धं स्वपितुर्यद्यथाक्रमम् ।।१७४।।

इत्युक्त्वा तौ महाभागौ युक्तं चैव परस्परम् ।।

राजा च राजपुत्री च निष्क्रान्तौ तद्गृहात्ततः ।। १७५ ।।

ततः कञ्चुकिनं दृष्ट्वा प्रोवाचोच्चस्वरेण च ।।

अपसारय सर्वं वै जनमावृत्य तिष्ठति  ।। १७६।।

ज्ञानकौतूहलो योऽत्र शीघ्रं गच्छत्वितो बहिः।।

ततो हलहलाशब्दः प्रवृत्तोऽन्तःपुरे महान्।। १७७ ।।.

किमिदं कारणं वृत्तं येन चोत्सारिता वयम् ।।

     ततो भोज्यान्नपानानि भुक्त्वा रुच्या नृपः प्रियान् ।। १७८।।

समं महिष्या चाचम्य क्षणं विश्रम्य पार्थिवः ।।

अमात्यानानयामास ह्यभिषेक्तुं निजं सुतम् ।।.१७९ ।।

सम्प्राप्तान्सचिवांस्तत्र राजा वचनमब्रवीत् ।।

राजधानी संस्क्रियतां मङ्गलाचारपूर्वकम् ।। १८० ।।

और अवश्य ही उससे कहना चाहिये यही सनातन धर्म है। अतः मुझे नहीं छिपाना चाहिये तो हे महाराज सुनिये ! || १७१ || हे नाथ अपने कुल के नियम के अनुसार अपने राज्य पर बड़े राजकुमार का अभिषेक कर दीजिये और आप मेरे साथ सूकरक्षेत्र को चलिये || १७२ || पत्नी की यह बात मानकर कलिंगेश्वर प्रिया से बोला || १७३ || हे सुन्दरि ! जैसे क्रमागत राज्य मुझे मिला है उसी रीति से तुम्हारे कथनानुसार पुत्र को राज्यार्पण करूंगा || १७४ || इस प्रकार राजा रानी दोनों आपस में सलाह कर शयनागार से बाहर निकले || १७५ || और तदनन्तर दरवाजे पर कञ्चुकी को देख कर राजा ने जोर से कहा हे द्वारपाल ! मार्ग से मनुष्यों को हटादो || १७६ || यहां कुछ संमति करना है . अतः शीघ्र यहां से हटजाओ तदनन्तर रनिवास में हल्ला शव्द जोर से हुआ || १७७ || क्या कारण है जो हमको हटाया है ऐसा हल्ला हुआ , इसकेवाद राजा ने रानी के साथ अपनी रुचि के अनुसार कुछ खाने योग्य अन्न – जल ग्रहण किया || १७८ || और आचमन करके कुछ समय तक विश्राम किया . फिर उन्होंने अपने पुत्र का अभिषेक करनेके लिये मंत्रिमण्डलको बुलाया || १७९ || आये हुए मंत्रियों को देखकर राजा बोला कि हमारी राजधानी को माङ्गलिक कृत्य करके अति शोभित कराया जावै || १८० || 

वृद्धामात्यमुपास्याथ कलिङ्गो धर्मसंहितम् ।।

नीतिशास्त्रार्थतत्त्वज्ञमुवाचाविक्लवं वचः ।।१८१ ।।

कल्यमिच्छाम्यहं तात पुत्रं राज्येऽभिषेचितुम् ।।

शीघ्रं सज्जं प्रकुर्वन्तु आभिषेचनिकं विधिम् ।।१८२।।

भूतमित्येव तं प्राहुः सचिवास्तं नराधिपम् ।।

अस्माकमपि तच्चैव रोचते यत्प्रभाषसे ।।१८३।।

पुत्रस्ते राजशार्दूल सर्वलोकहिते रतः ।।

प्रजानुरागवाञ्छूरो नीतिज्ञस्तु विचारकः ।।१८४।।

मनीषितं तव विभो सम्यङ् नो मनसः प्रियम् ।।

एवमुक्त्वा गतामात्याः सूर्यश्चास्तमुपागतः ।।१८५।।

सुखेन सा गता रात्रिर्गीतगान्धर्ववादितैः ।।

बोधितः स च राजा तु सूतमागधबन्दिभिः ।।१८६।।

वैतालिकैश्च सुश्रोणि सर्वमंगलपाठकैः ।।

प्रभातायां तु शर्वर्यामुदिते च दिवाकरे ।। १८७ ।।

मुहूर्त्तं शुभमासाद्य ह्यभिषिक्तः सुतः शुचिः ।।

एवं दत्वा तदा राज्यं मूर्ध्नि चाघ्राय धर्मवित् ।। १८८ ।।

उवाच मधुरं वाक्यं पुत्रं पुत्रवतां वरः ।।

राज्यस्थेनापि ते पुत्र कर्त्तव्यं शृणु तन्मम ।। १८९।।

यदीच्छेः परमं धर्मं पितॄणां तारणं तथा ।।

दातव्यं न च हंतव्यं हंतव्याः पारदारिकाः ।। १९० ।।

इसके बाद कलिङ्ग-नरेश ने धर्म पूर्वक नीति शास्त्रार्थ जानने वाले वृद्ध मन्त्री को बुला कर यह सुन्दर वाक्य बोला || १८१ || हे तात ! प्रातःकाल पुत्र को राज्य देने की इच्छा है अतः शीघ्र ही अभिषेक विधि की तैयारी कराइये || १८२ || ऐसी आज्ञा श्रवण कर राजा से मंत्रियों ने कहा कि सब तैयार ही है और आप जो कह रहे हैं वह हम सभी को पसंद है || १८३ || हे राजशार्दूल ! आपका पुत्र सर्व जन हित में तत्पर है और प्रजा में प्रीति करने वाला शूरबीर , नीतिज्ञ तथा विचारशील है || १८४ || हे विभो ! जो आपकी इच्छा है वही हमारी इच्छा है ऐसी बात कह कर मंत्रीलोग अपने स्थान पर चले गये और भगवान सूर्य अस्त हो गये || १८५ || गान , नृत्य , वाद्यों से रात्रि सुख से व्यतीत हुई . प्रातःकाल में सूत , मागध , वन्दियों ने स्तोत्र पाठ से राजा को जगाया || १८६ || हे पृथिवी ! सर्व मंगल पाठक वैतालिक जनों के स्तुतिपाठ से रात्रि के बाद प्रातः समय सूर्योदय होने पर || १८७ || कलिङ्गनरेश जो कि धर्म का पूर्ण ज्ञाता था शुभ मुहूर्त का अवसर पाकर अपने पवित्र पुत्र का अभिषेक करके राज्य देकर राजगद्दी पर बैठाने के पश्चात् उसने राजकुमार का मस्तक सूंघा || १८८ || उत्तम पुत्रवाला  राजा पुत्र से मधुर वाक्य बोला हे पुत्र ! राज्य पर स्थित होकर तुम्हारे जो कर्तव्य हैं उन्हें सुनो || १८९ || यदि आप परम धर्म की प्राप्ति करना चाहते हैं और आपके पितर भी तर जायँ  तो दान करना और किसी को मारना नहीं तथा परदारागामी जन दण्डके पात्र हैं || १९० || 

बालघाताश्च हंतव्या हंतव्याः स्त्रीविघातकाः।।।

न लोभः परभार्यासु ब्राह्मणीषु विशेषतः ।।१९१।।

सुरूपां परनारीं तु दृष्ट्वा चक्षुर्निमीलयेः ।।

परद्रव्येषु मा लोभः अन्यायोपार्ज्जितेषु च ।।१९२।।

न चिरं तिष्ठसि क्वापि कथंचन न पश्यसि ।।

रक्षणीयश्च ते देशः कुशलन्यायसज्जितः ।। १९३ ।।

नित्योद्युक्तेन स्थातव्यममात्यवचनं कुरु ।।

अमात्यो यद्वचो ब्रूयात्तस्य कार्यं विमर्शयन् ।। १९४ ।।

अवश्यमेव कर्त्तव्यं शरीरपरिरक्षणम् ।।

प्रजा येन प्रमोदंति येन तुष्यंति ब्राह्मणाः ।। १९५ ।।

एवं ते पुत्र कर्त्तव्यं मम प्रियहितैषिणा ।।

सप्तव्यसनवर्गोऽत्र दोषो राज्ञां महान्भवेत् ।। १९६ ।।

अर्थदूषणकं चैव न कर्त्तव्यं कदाचन ।।

अमात्यं नाप्रियं ब्रूया यमिच्छे राजकर्मणि ।। १९७ ।।

नाहं निवारणीयस्ते गमनाय पथे स्थितः ।।

एतन्मे क्रियतां शीघ्रं यदीच्छसि मम प्रियम् ।। १९८ ।।

ततः पितुर्वचः श्रुत्वा राजपुत्रो यशस्विनि ।।

पितुः पादौ तु संगृह्य करुणं प्रत्युवाच तम् ।। १९९ ।।

मम किं तात राज्येन कोशेन च बलेन च ।।

यस्त्वया रहितस्तात न शक्नोमि विचेष्टितुम् ।। २०० ।।

और बालघाती , स्त्रीघातक मारने योग्य हैं | अन्य की स्त्रियों में विशेषतया ब्राह्मणियों में लोभ न करना || १९१ || हे पुत्र ! सुन्दर रूप वाली अन्य की स्त्री को देख कर आँखें मूँद लेनी चाहिये | अन्यायोपार्जित और पर धन में लोभ न करना || १९२ || पूर्वोक्त धन बहुत काल तक स्थिर नहीं रहता अतः उसकी तरफ दृष्टि न लगाना , तुम्हें न्यायपूर्वक पूरी तैयारी तथा दक्षता से अपने देश की रक्षा करनी चाहिये || १९३ || तुम सदा उद्योगशील होकर तत्पर रहना और मन्त्रियों की मन्त्रणा का पालन करना वे जो बात बतायें , उन्हें विचार पूर्वक करना || १९४ || अपने शरीर की रक्षा पर पूरा ध्यान देना | जिससे प्रजा और ब्राह्मण प्रसन्न रहें तुम्हें वही कर्म करना चाहिये || १९५ || हे पुत्र !

यदि तुम मेरा प्रिय करना चाहते हो तो तुम्हें यह सब करना चाहिये | राजाओं के लिये सात प्रकार के महान व्यसन कहे गये हैं – उनसे तुम्हें सदा दूर रहना चाहिये | यह सप्तवर्गात्मक महान दोष होता है , इसका विवरण मनुस्मृति के अध्याय ७ श्लोक ५०,५१,५२, में स्पष्ट लिखा है | तुम्हारी सम्पत्ति में किसी प्रकार का दोष आ जाय ,  ऐसा काम तुम्हें , कभी भी नहीं करना चाहिये 

पानं अक्षाः स्त्रियश्चैव मृगया च यथाक्रमम् । एतत्कष्टतमं विद्याच्चतुष्कं कामजे गणे । । ७.५० । ।
दण्डस्य पातनं चैव वाक्पारुष्यार्थदूषणे । क्रोधजेऽपि गणे विद्यात्कष्टं एतत्त्रिकं सदा । । ७.५१ । ।
सप्तकस्यास्य वर्गस्य सर्वत्रैवानुषङ्गिणः । पूर्वं पूर्वं गुरुतरं विद्याद्व्यसनमात्मवान् । । ७.५२ । ।    अस्यार्थः  मद्य पीना , जुआ खेलना , स्त्री सेवन , शिकार खेलना , कामजन्यगण  में ये चार एक से एक अधिक कठिन होते हैं  | और दण्ड देना , कठोर बोलना , धन बिगाड़ना , क्रोधजगण में ये तीन कठिन होते हैं | ये सातों सदा साथ रहते हैं इसमें एक से एक पूर्व का कठिन होता है || १९६ || 

राज्यकर्मके सम्बन्धमें अपने मन्त्रीसे तुम्हें किसी प्रकार अप्रिय वचन नहीं कहना चाहिये || १९७ || मैं इस समय तीर्थ में जाने को प्रस्तुत हूँ तुमको मुझे रोकना नहीं चाहिये | पुत्र ! यदि मुझे प्रसन्न करना चाहते हो तो इतना काम करने के लिये शीघ्र उद्यत हो जाओ || १९८ || हे पृथिवी ! उस समय पिता की बात सुनकर राजकुमार ने उनके पैर पकड़ लिये और उनसे करुणापूर्वक वचन कहना आरम्भ किया कि तात ! यदि आप यहाँ नहीं रहेंगे तो राज्य , खजाना और सेना से मुझे कोई प्रयोजन नहीं है | आपके बिना मैं जीवित नहीं रह सकता || १९९ || २०० || 

अभिषेकं राजशब्दं मम संज्ञापितं त्वया ।।

एतन्न बहुमन्येऽहं विना तात त्वया ह्यहम् ।। २०१।।

क्रीडामेवाऽत्र जानामि येन क्रीडन्ति बालकाः ।।

राज्यचिन्तां न जानामि राजानो यां तु कुर्वते ।।२०२।।

ततः पुत्रवचः श्रुत्वा कलिङ्गानां महीपतिः ।।

उवाच मधुरं वाक्यं सामपूर्वं यशस्विनि ।। २०३।।

यच्चेदं भाषसे पुत्र नाहं जानामि तद्वचः ।।

पुत्र शिक्षापयिष्यन्ति पौरजानपदास्तव ।। २०४ ।।

एवं संदिश्य तं तत्र स राजा धर्मशास्त्रतः ।।

गमनाय मतिं चक्रे क्षेत्रं सौकरवं प्रति ।। २०५।।

तं प्रयान्तं ततो दृष्ट्वा पौरजानपदास्तव ।। 

सकलत्रसुताः सर्वेऽप्यनुयान्ति नराधिपम् ।। २०६ ।।

हस्त्यश्वरथयानानि स्त्रियश्चान्तःपुरस्थिताः ।।

संहृष्टमनसः सर्वे अनुयान्ति नराधिपम् ।।२०७।।

अथ दीर्घेण कालेन प्राप्य सौकरवं तदा ।।

धनधान्यसमृद्ध्यादि प्रददौ तत्र माधवि ।।२०८।।

एवं गच्छति काले तु तयोस्तत्र वसुन्धरे ।।

प्रवर्त्तमानयोर्नित्यं धर्मे कर्मणि शुद्धयोः ।। २०९।।

ततः स पद्मपत्राक्षः कलिङ्गानां जनाधिपः ।।

उवाच मधुरं वाक्यं कांचीराजसुतां तदा ।।२१०।।

भले ही आपने अभिषेक करके मुझे राजा नाम दे दिया पर आपके बिना इसको मैं अच्छा नहीं मानता हूँ || २०१ || मैं तो केवल बालकोंके खेल जानता हूँ | राजालोग जिस प्रकार राज्यकी व्यवस्था करते हैं , उन सभीसे तो मैं सर्वथा अनभिज्ञ हूं || २०२ || अपने पुत्र की बात सुनकर कलिङ्गराज ने उससे सामपूर्वक कहा | || २०३ || हे पुत्र ! तुम जो कहते हो

 ” मैं  कुछ नहीं जानता ” तो इस विषय में समस्त शिक्षा तुम्हारे मन्त्री एवं नगरके रहनेवाले सत्पुरुष सब कुछ तुम्हें बता देंगे | || २०४ || हे पृथिवी ! इस प्रकार धर्मोपदेश करके कलिङ्गनरेश  धर्मशास्त्र की विधि के अनुसार सूकरक्षेत्र यात्रार्थ तैयार होगया  || २०५ || राजा को वहां जाते देखकर देशवासी , पुरवासी लोग भी अपनी स्त्री तथा पुत्रों के सहित सब -के- सब पीछे चल पड़े || २०६ || इतना ही नहीं , अन्तःपुरकी स्त्रियां भी बड़ी प्रसन्नता से हाथी , घोड़ा , रथ आदि सवारियोंपर चढ़कर राजा के साथ यात्रा करने लगीं || २०७ || इस प्रकार वह कलिङ्गराज बहुत समय के वाद सूकरक्षेत्र तीर्थमें पहुंचा और वहां पहुंचकर धन-धान्यका दान कर ब्राह्मणों को  प्रसन्न किया || २०८ || इस प्रकार धर्म करते हुए धीरे-धीरे समय बीतता गया राजा और रानी की चित्तशुद्धि होने लगी || २०९ || इसके वाद कमल सम नयन वाला कलिङ्ग देश का राजा काञ्ची राज पुत्री के प्रति मधुर वाक्य बोला || २१० ||  

पूर्णं वर्षसहस्रं वै जीवितं मम सुन्दरि ।।

ब्रूहि तत्परमं गुह्यं यन्मया पूर्वपृच्छितम् ।। २११ ।।

ततो भर्त्तुर्वचः श्रुत्वा प्रहस्य रुचिरेक्षणा ।।

उभौ तौ चरणौ गृह्य राजानं वाक्यमब्रवीत् ।। २१२ ।।

एवमेतन्महाभाग यन्मां त्वं परिपृच्छसि ।।

उपोष्य तु त्रिरात्रं त्वं पश्चाच्छ्रोष्यसि मानद।।२१३।।

बाढमित्येव तां राजा प्रत्युवाच यशस्विनि ।।

पद्मपत्रविशालाक्षि पूर्णचन्द्रनिभानने।।२१४।।

यथा वदसि सुश्रोणि तथैव मम रोचते ।।

दन्तकाष्ठं समादाय द्वादशांगुलमायतम् ।। २१५ ।।

स्नात्वा सङ्कल्पयामास त्रिरात्रं नियमान्वितौ ।।

उपोष्य तौ त्रिरात्रं तु विधिना नियमान्वितौ ।।

ततः स्नातौ शुची क्षौमे परिधाय तु वाससी ।।२१६ ||

प्रणम्य भूषितौ विष्णुं दम्पती तदनन्तरम् ।।

ततः सा सुन्दरी भूषां समुत्तार्य शुभेक्षणा।। २१७।।

मह्यं निवेदयामास प्रोवाच च जनेश्वरम्।।

एह्येहि नाथ गच्छावः पश्य गोप्यं मनीषितम्।। २१८।।

ततो हस्ते पतिं गृह्य उद्वाह इव सुन्दरी।।

उवाच मधुरं वाक्यं कलिंगाधिपतिं तथा।। २१९।।

सृगाली पूर्वमेवाहं तिर्य्यग्योनिव्यवस्थिता।।

विद्धास्मि सोमदत्तेन बाणेन मृगलिप्सुना।। २२० ||

हे सुन्दरि ! आज मेरे जीवन के हजार वर्ष पूरे होगये हैं | अब मैंने तुमसे जो पूंछा था ,उस परम गोपनीय विषय को मुझे बताओ || २११ || इस प्रकार पति का वचन सुनकर और हंसकर सुनयना रानी ने राजा के दोनों चरण पकड़ कर राजा के प्रति कहने लगी || २१२ || हे मानदाता ! महाभाग ! आप मुझसे जो बात पूंछ रहे हैं , उसे तीन रातोंतक उपवास करने के वाद सुनने की कृपा करें || २१३ || हे यशवाली पृथिवी ! राजा ने पत्नी के प्रति कहा  — हे कमल दल सम दीर्घ नेत्रोंवाली ! चंद्र सम मुख वाली बहुत अच्छा, { कहकर उसने पत्नी की बात का अनुमोदन किया } || २१४ || और बोला कि तुम जैसी बात कहती हो ,वह मुझे पसंद है ऐसा कहकर द्वादश अंगुल की दाँतौन करके || २१५ || स्नान कर तीन राततक नियमपूर्वक रहनेके लिये संकल्प किया तदनन्तर तीन राततक नियमपूर्वक रहकर दम्पतीने स्नान किया और पवित्र रेशमी वस्त्र पहन कर अलंकारोंसे अपने शरीरको आभूषित किया फिर स्त्री पुरुष दोनों ने विष्णु महाराज को दण्डवत करने के वाद रानी ने समस्त आभूषणों को उतार कर || २१६ || २१७ || हे पृथिवी ! मुझे  ( विष्णु -वराह को ) अर्पण कर दिया तथा उस नरेश से बोली हे नाथ ! यहां आइये ! हम दोनों एकान्त स्थानपर चलें | आपके मनमें जिस गोपनीय बातको जाननेकी इच्छा है उसे समझें || २१८ || ऐसा कहकर विवाह के समयमें जैसे हाथ पकड़ते हैं बैसे ही हाथ पकड़कर राजा के प्रति मधुर वाक्य कहने लगी || २१९ || मैं पूर्वजन्म में पशुयोनिमें एक शृगाली थी , मृग के भ्रमसे सोमदत्त नामक एक राजकुमार ने बाण चलाया और मैं उससे बिंध गयी || २२० || 

एतं शिरसि मे राजन्पश्य बाणं सुसंस्कृतम्।।

यस्य दोषेण मेऽप्येष रुजा शिरसि संस्थिता।। २२१ || 

कांचीराजकुले जन्म पित्रा दत्ता तव प्रिया।।

क्षेत्रप्रभावान्मे सैषा जाता सिद्धिर्नमोऽस्तु ते।। २२२ || 

स ततः पद्मपत्राक्षः कलिङ्गानां जनाधिपः।।

श्रुत्वा राजा प्रियां वाक्यं प्रत्युवाच स्मृतिङ्गतः।। २२३ || 

अहं गृध्रो महाभागे तेनैव वनचारिणा।।

सोमदत्तेन बाणेन एकेनैव निपातितः।। २२४ || 

ततो जातोऽस्म्यहं भद्रे कलिंगानां जनाधिपः।।

जातोऽस्मि परमा व्युष्टिः प्राप्तं राज्यं मया महत्।। २२५ || 

सिद्धिर्लब्धा वरारोहे मया सर्वांगसुन्दरि।।

अकामपतितेनापि पश्य क्षेत्रस्य वै फलम्।। २२६ || 

ये च भागवतश्रेष्ठा ये च नारायणप्रियाः।।

पौरजानपदाः सर्वे श्रुत्वा तु तदनन्तरम्।। २२७ || 

लाभालाभौ परित्यज्य सर्वकर्माण्यकारयन्।।

तत्रैव मरणं प्रापुः सर्वसंगविवर्जिताः।। २२८ || 

श्वेतद्वीपं ततः प्राप्ताः सर्व एव चतुर्भुजाः।।

सर्वे शङ्खधराश्चैव सर्वे चायुधसंयुताः ।। २२९ ।।

ताः स्त्रियश्च वरारोहे स्तुतिमान्या महौजसः।।

श्वेतद्वीपे प्रमोदन्ते सर्वभोगसमन्विताः।। २३० ।।

हे राजन् ! यह मेरे शिर में उसका चिन्ह है जिसके दोष से यह मेरे शिर में पीड़ा होती है || २२१ || और इसी तीर्थ के प्रभाव से काञ्चीनरेशके कुलमें मेरा जन्म हुआ और मुझे मेरे पिता ने आपको दिया || २२२ || इसके वाद राजाको भी अपने पूर्वजन्मकी स्मृति हो आई कमलदलसम नयन राजा अपने पूर्व जन्म का स्मरण कर रानी से कहने लगा || २२३ || हे महाभागे ! देखो मैं भी पूर्वजन्ममें एक गीध था और मुझे भी उसी वनचारी राजा सोमदत्त ने एक बाणद्वारा मार डाला था || २२४ || तदनन्तर हे कल्याण करने वाली मैं कलिङ्गदेश का राजा हुआ और इसी तीर्थ के प्रभाव से मुझे महान राज्य की प्राप्ति हुई || २२५ || हे सर्वांग शोभिनी देखो मेरे मनमें कोई भी संकल्प नहीं था फिर भी सूकरक्षेत्रकी ऐसी महिमा है कि निष्काम प्राण त्यागते हुए मुझको परम सिद्धि प्राप्त हुई | देखो !  इस क्षेत्र के फल को || २२६ || राजा रानी का यह वृत्तांत सुनकर वहां जो भी भगवद्भक्तों में श्रेष्ठ तथा नारायण के प्रेमी उपस्थित थे || २२७ || वे सभी हानिलाभ का विचार छोड़कर सर्व आसक्तियोंसे शून्य होकर समस्त कर्तव्य कर्म करते हुए शुभ ध्यानमें संलग्न हो सूकर क्षेत्र में ही मृत्यु को प्राप्त होगये || २२८ || तदनन्तर वे सभी चतुर्भुज रूप धारण कर शंख चक्रादि आयुधों से सज्जित होकर श्वेतद्वीप पहुंचे || २२९ || हे पृथिवी !  वे स्त्रियां भी स्तुति योग्य अति तेजो युक्त तथा सभी भोगों से युक्त श्वेतद्वीपमें आनन्द करने लगीं || २३० ||

एवं ते कथितं भूमे व्युष्टिः सौकरवे महत्।।

अकामपतिताश्चैव श्वेतद्वीपमुपागताः।। २३१।। 

य एतेन विधानेन वासं तीर्थे तु कारयेत्।।

मरणं च विशालाक्षि श्वेतद्वीपं च गच्छति।। २३२ ।।

अन्यच्च ते प्रवक्ष्यामि तच्छृणुष्व वसुन्धरे।।

स्नानादाखोटके तीर्थे यत्फलं समुपाश्नुते।। २३३ ।।

दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च ।।

नन्दनं समवाश्रित्य मोदन्ते चैव सर्वदा।। २३४ ।।

ततः स्वर्गात्परिभ्रष्टो जायते विपुले कुले।।

मद्भक्तश्चैव जायेत एवमेतन्न संशयः।। २३५ ।।

पुनरन्यत्प्रवक्ष्यामि स्नातो गृध्रवटे नरः।।

यत्फलं समवाप्नोति स्नानमात्रकृतोदकः।। २३६ ।।

नववर्षसहस्राणि नववर्षशतानि च।।

इन्द्रलोकं समासाद्य मोदते निर्जरैः सह।। २३७ ।।

इन्द्रलोकात्परिभ्रष्टो मम तीर्थप्रभावतः।।

सर्वसङ्गं परित्यज्य मद्भक्तश्चैव जायते।। २३८ ।।

एतत्ते कथितं भद्रे स्नानमात्रस्य यत्फलम्।।

यत्त्वया पृच्छितं पूर्वं सर्वसंसारमोक्षणम्।। २३९ ।।

ततो नारायणाच्छ्रुत्वा पृथिवी संशितव्रता।।

उवाच मधुरं वाक्यं लोकनाथं जनार्दनम्।। २४० ।।

 हे पृथिवी !  इस प्रकार मैंने तुम्हें सूकर क्षेत्रमें निवास आदि तप का फल कहा  कि निष्काम जन भी मृत्यु होनेपर  सालोक्य मुक्ति को प्राप्त कर श्वेतद्वीपको पहुंच गए है || २३१ ||  जो व्यक्ति इस प्रकार नियमके अनुसार इस तीर्थमें निवास करता है और उसकी वहां मृत्यु हो जाती है तो वह श्वेतद्वीपको अवश्य प्राप्त कर लेता है || २३२ || हे वसुंधरे ! कुछ और भी मैं तुमको सुनाऊंगा जिसे सुनकर शाकोट तीर्थ में स्नान करने से जो फल प्राप्त होता है वह सुनो || २३३ || यहाँ स्नान करने वाले प्राणी नन्दनवनमें पहुंचकर ग्यारह हजार वर्षोंतक निरन्तर परमानन्द का उपभोग करते हैं || २३४ || फिर जब वे स्वर्गसे च्युत होते  हैं तो महत्कुल में उत्पन्न होकर मेरे भक्त होते हैं – इसमें कोई संशय नहीं || २३५ || एक बात और , जो कोई मनुष्य यहाँके गृध्रवट नामक तीर्थमें स्नान करता है और संध्या , तर्पण आदि कर्म करता है , वह जो फल प्राप्त करता है , वह बतलाता हूँ || २३६ || वह इस पुण्यके प्रभावसे नौ हजार नौ सौ वर्षोंतक इन्द्रलोकमें पहुंचकर देवताओं के साथ आनन्दका उपभोग करता है || २३७ || फिर जब वह इंद्रलोकसे च्युत होता है तो मेरे इस तीर्थके प्रभावसे सारी आसक्तियों को छोड़कर मेरा भक्त बन जाता है || २३८ || हे पृथिवी ! यह सर्व संसार से मुक्त होनेका उपाय स्नानमात्र का फल जो आपने पहले पूंछा था सो कहा || २३९ || भगवान नारायणसे ऐसा सुनकर उत्तम ब्रतकाआचरण करने वाली देवी पृथ्वी समस्त लोकोंके स्वामी जनार्दनसे मधुर वचनोंमें कहने लगी || २४० || 

केन कर्मविपाकेन तीर्थं पुनरवाप्यते।।

स्नानं वा मरणं देव यथावद्वक्तुमर्हसि।। २४१ ।।

श्रीवराह उवाच ।।

शृणु देवि महाभागे पूर्वधर्मकृतो नराः ।।

केनचित्कर्मदोषेण तिर्यग्योनिमवाप्य हि ।। २४२ ।।

जन्मान्तरार्जितैः पुण्यैस्तीर्थस्नान जपादिभिः ।।

महादानैश्च लभ्येत तीर्थे पञ्चत्वमर्च्चकैः ।। २४३ ।।

जन्मान्तरकृतं कर्म यत्स्वल्पमपि वा बहु ।। 

तत्कदाचित्फलत्येव न तस्य परिसंक्षयः ।। २४४ ।।

कदाचिद्वासहायो वै पुण्यतीर्थादिदर्शनात् ।। 

दुर्बलं प्रबलम्भूत्वा प्रबलं दुर्बलम्भवेत् ।। २४५ ।।

पापान्तरं समासाद्य गहना कर्मणो गतिः ।। 

यदल्पमिव दृश्येत तन्महत्त्वाय कल्पते ।। २४६ ।।

अत एव मनुष्यत्वं प्राप्तं राजत्वमेव च ।। 

सृगाली चैव गृध्रश्च तीर्थस्यैव प्रभावतः ।।२४७ ।।

मरणादेव सम्प्राप्य क्षीणपापौ स्मृतिं पुनः ।। 

श्वेतद्वीपं ततः प्राप्तौ जानीहि त्वं वसुन्धरे ।। २४८ ।।

पुनरन्यत्प्रवक्ष्यामि तच्छृणुष्व वसुन्धरे ।।

तीर्थं वैवस्वतं नाम यत्रार्कस्तप्तवांस्तपः ।। २४९ ।।

कदाचित्पुत्रकामेन मार्त्तण्डेन महत्तपः ।।

कृतं चान्द्रायणं तत्र दशवर्षसहस्रकम् ।। २५०।।

भगवन् ! किस कर्मके फलस्वरूप प्राणीको यह तीर्थ प्राप्त होता है अथवा वहां स्नान करने और मरनेका कैसे संयोग प्राप्त होता है , इसे यथार्थरूपसे कहनेकी कृपा कीजिये || २४१ || श्री वराहजी बोले हे देवि ! तुम महान् भाग्यशालिनी हो | सुनो ! जिन मनुष्यों ने पूर्वजन्म में सद्धर्मों का पालन किया है , पर किसी बुरे कर्मके दोषसे पशुकी योनिमें जन्म पा जाते हैं || २४२ || वे किन्ही अन्य जन्मोंके उपार्जित पुण्यों तथा तीर्थ-स्नान जप एवं महादानों से तथा देवार्चनके प्रभावसे ही भक्तोंका देहपात तीर्थमें होता है || २४३ || जन्मांतर में थोड़ा या बहुत किया हुआ कर्म कभी न कभी फल अवश्य देता है उसका नाश नहीं होता है || २४४ || कदाचित्  सहायहीन भी पवित्र तीर्थादि दर्शन से दुर्वल प्रवल होता है और प्रवल दुर्वल होता है | और उसे अद्भुत पुण्यकी प्राप्ति होती है || २४५ || पापान्तरों की प्राप्ति से { प्रवल दुर्वल होता है } क्योंकि कर्मोंकी गति गहन है  जो बहुत छोटा-सा दीखता है वह बहुत बड़ा बननेकी शक्ति प्राप्त कर लेता है || २४६ || इसीसे तीर्थके ही प्रभाव से शृगाली [ स्यारनी ] और गृध्र [ गीध ] को मनुष्ययोनि एवं साम्राज्यकी प्राप्ति हुई थी || २४७ || हे पृथ्वी ! देह त्यागनेसेही पापरहित हुए उन्हें जन्मान्तर की स्मृति भी बनी रही | यह सब इस तीर्थका ही प्रभाव है और अन्तमें वे श्वेतद्वीपको प्राप्त हुए || २४८ || हे पृथ्वी ! अब अन्य तीर्थ की बात बतलाता हूँ , उसे सुनो यहाँ एक वैवस्वत नामका तीर्थ है [ सूर्यकुण्ड ]  जहाँ सूर्यदेवने तप किया था || २४९ || कभी पुत्रकी कामनासे सूर्यने दस हजार वर्षोंतक निरन्तर चान्द्रायण-व्रत  किया था || २५० ||

ततः सप्तसहस्राणि वायुभक्षस्तु संस्थितः ।। 

ततस्तुष्टोऽस्म्यहं भद्रे सूर्यस्य सुमहौजसः ।। २५१ ।।

वरेण छन्दयामास आदित्यं तदनन्तरम् ।। 

विवस्वन्तं महाभागं मम कर्मपरायणम् ।। २५२ ।।

वरं वरय भद्रं ते यस्ते मनसि वर्त्तते ।।

ततो ममवचः श्रुत्वा कश्यपस्य सुतो बली ।। २५३ ।।

मधुरं स्वरमादाय प्रत्युवाच महद्वचः ।।

यदि देव प्रसन्नोऽसि अयं मे दीयतां वरः ।। २५४ ।।

पुत्रमिच्छाम्यहं देव प्रसादात्ते सुरेश्वर ।।

विवस्वद्वचनं श्रुत्वा तुष्टोऽहं तस्य सुन्दरि ।। २५५ ।।

तस्य शुद्धेन मनसा प्रोक्तवानस्मि सुन्दरि ।। 

यमश्च यमुना चैव मिथुनं जनयिष्यसि  ।। २५६ ।।

एवं तस्य वरं दत्त्वा आदित्यस्य वसुन्धरे ।। 

आत्मयोगप्रभावेण तत्रैवान्तर्हितोऽभवम् ।। २५७ ।।

आदित्योऽपि गतो भद्रे वेश्म स्वं च महाधनम् ।।

पुण्यं सौकरवे कृत्वा सुदुष्करतरं महत् ।। २५८ ।।

अष्टमेन तु भक्तेन यस्तु स्नाति वसुन्धरे ।।

दशवर्षसहस्राणि सूर्यलोके महीयते ।। २५९ ।।

अथवा तत्र सुश्रोणि म्रियते पुण्यवान्नरः ।।

यमलोकं न गच्छेत्स  तीर्थस्यास्य प्रभावतः ।। २६० ।।

तदनन्तर सात हजार वर्षोंतक वे मात्र वायुके आहारपर रह कर तप करते रहे तब मैं सूर्य पर प्रसन्न हुआ || २५१ || और मेरे कर्म में तत्पर सूर्यको वर माँगनेके लिये मैंने कहा || २५२ || हे सूर्य ! तेरा कल्याण हो जो तेरे मनमें  हो सो वर माँग  ऐसा मेरा वाक्य श्रवण कर || २५३ || मधुर स्वरसे मुझसे कहनेलगा हे देव ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे यह वर दीजिये || २५४ || हे भगवान् मुझे एक पुत्र प्रदान करनेकी कृपा कीजिये ऐसा सूर्यका वाक्य सुनकर मैं प्रसन्न हुआ | हे पृथिवी ! || २५५ || और शुद्ध मन से मैंने यह कहा कि तुम यम और यमुना नामकी दो जुड़वीं संतानें पैदा करोगे || २५६ || इस प्रकार हे पृथिवी ! सूर्य को वर देकर अपने योग के प्रभाव से वहां पर ही अलक्षित होगया || २५७ || हे पृथिवी ! सूकरक्षेत्र में कठिन तप करके सूर्य भी अपने सुन्दर भवन को चले गये || २५८ || हे पृथिवी ! तबसे सूकरक्षेत्रके अन्तर्गतका यह तीर्थ ‘ वैवस्वततीर्थ ’ { सूर्य कुण्ड } नाम से प्रसिद्ध हुआ | जो मनुष्य वहाँ जाकर दिनके आठवें भाग में अर्थात् सूर्यास्तके कुछ पूर्व स्नानकर भोजन करता है वह दस हजार वर्षोंतक सूर्यके लोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है || २५९ || अथवा यदि [ कोई पुण्यवान वहाँ देहत्याग करता है ] या किसी प्राणीकी वहाँ अनायास मृत्यु हो जाती है तो वह इस सूर्य तीर्थ के प्रभावसे यमलोक में नहीं जाता || २६० ||

                                        ‘ वैवस्वततीर्थ ’ { सूर्य कुण्ड }

सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

एतत्ते कथितं भद्रे स्नानस्य मरणस्य च ।।

फलं चैव यथावृत्तं तीर्थे सौकरवे मम ।। २६१ ।।

आख्यानानां महाख्यानं क्रियाणां च महाक्रिया ।। 

एष जप्यः प्रमाणं च सन्ध्योपासनमेव च ।। २६२ ।।

एष तेजश्च मन्त्रश्च सर्वभागवतप्रियम्।।

पिशुनाय न दातव्यं मूर्खे भागवते न तु ।। २६३ ।।

न च वैश्याय शूद्राय येन जानन्ति मां परम् ।।

पण्डितानां सभामध्ये ये च भागवता भुवि ।। २६४ ।।

मठे ब्राह्मणमध्ये तु ये च वेदविदां वराः ।। 

दीक्षिताय च दातव्यं ये च शास्त्राणि जानते ।। २६५ ।।

एतत्ते कथितं भद्रे पुण्यं सौकरवे महत् ।।

य एतत्पठते सुभ्रु कल्य मुत्थाय मानवः ।। २६६ ।।

तेन द्वादशवर्षाणि चिन्तितोऽहं न संशयः ।।

न स जायेत गर्भेषु मुक्तिमाप्नोति शाश्वतीम् ।। २६७ ।।

यः पठेदेकमध्यायं तारयेत्स कुलान्दश ।। २६८ ।।

इति श्रीभगवच्छास्त्रे वराहपुराणे  सूकरक्षेत्रमाहात्म्ये गृध्रजम्बूकाख्याने आदित्यवरप्रदानादिकं नाम प्रथमोऽध्यायः ।। १ ।।  

इति गृध्रजम्बूकोपाख्यानं समाप्तम्।। 

भद्रे ! इस सूकरतीर्थ में स्नान और देहपात का फल तथा वहाँकी घटनाऐं मैंने तुम्हें बतला दीं || २६१ || यह आख्यान भी आख्यानोंमें महान तथा पवित्रोंमें परम पवित्र आख्यान है  क्रियाओं में महाकर्म ,  यही जपने योग्य , प्रमाण , और सन्ध्योपासन है || २६२ || यही परम तेज  व मन्त्र एवं सभी भागवत पुरुषोंका परम प्रिय रहस्य है | जिसे दूसरोंकी निन्दा करनेका स्वभाव है एवं जो अज्ञानी है , उनके सामने इसका उपदेश नहीं करना चाहिये || २६३ || और वैश्य एवं शूद्र [ जो केवल व्यापार और शोक,मोह की चिन्ता में लगे रहते हैं ] और जो भगवान को परम तत्व के रूप में नहीं जानते हैं उन्हें भी नहीं बताना चाहिये और जो ब्राह्मण वेदज्ञोंमें श्रेष्ठ हैं , पण्डितों की सभा में , मठ , मन्दिरोंमें  जिनकी भगवान में श्रद्धा है , जिन्होंने दीक्षा ले रखी है, जो सम्पूर्ण शास्त्रोंको जानते हैं  उन्हीं  लोगों के सामने यह दिव्य प्रसङ्ग सुनाना चाहिये   || २६४ || २६५ || हे पृथिवी ! यह सूकरक्षेत्र में प्राप्त होनेवाला  महान पुण्य तुमको बतला दिया | जो मनुष्य प्रातःकाल उठकर इसका पाठ करता है || २६६ || उसे बारह वर्षोंतक मेरे ध्यान करनेका फल मिलता है , इसमें कोई संदेह नहीं है और वह गर्भवास नहीं करता तथा उसे शाश्वत मुक्ति सुलभ हो जाती है || २६७ || जो केवल इस एक अध्याय का भी  पाठ कर लेता है , वह अपने दस कुलोंको तार देता है || २६८ || 

इतिश्री सूकरक्षेत्र वास्तव्य श्रीद्विवेदि नारायणात्मज श्रीरामनाथ शिष्य विद्या विनोद दशरथ शर्म सिद्धांत वागीश शास्त्रि विरचित मिताक्षराख्य भाषावृत्ति विभूषिते श्रीभगवच्छास्त्रे वाराह पुराणे सूकरक्षेत्रमाहात्म्ये गृध्रजम्बूकाख्यानादित्यवरप्रदानादिर्नाम प्रथमोऽध्यायः ।। १ ।। 

       अथ सूकरक्षेत्रमाहात्म्ये द्वितीयोऽध्यायः ।।२ ।।

अथ खंजरीटोपाख्यानम् ।।

सूत उवाच ।।

एतत्पुण्यतमं श्रुत्वा रम्ये सौकरवे तदा ।।

गुणस्तवं च माहात्म्यं जात्यानां परिवर्तनम् ।। १ ।।

ततः कमलपत्राक्षी सर्वधर्मविदां वरा ।।

विस्मयं परमं गत्वा निर्वृतेनान्तरात्मना ।। २ ।।

पुनः पप्रच्छ तं देवं विस्मयाविष्टमानसा।।

अहो तीर्थस्य माहात्म्यं क्षेत्रे सौकरवे तव ।। ३ ।।

अकामान्म्रियमाणस्य मानुषत्वमजायत ।।

किं वान्यद्वृत्तमाख्याहि क्षेत्रे सौकरवेऽमले ।। ४ ।।

शृण्वन्त्या मे महज्जातं चित्ते कौतूहलं परम् ।।

गायमानस्य किं पुण्यं वाद्यमानस्य किं फलम् ।। ५ ।।

नृत्यतः कि भवेत्पुण्यं जाग्रतो वा फलं नु किम् ।।

गोदातुरन्नदातुर्वा जलदातुस्तु किं फलम् ।। ६ ।।

संमार्जने लेपने वा गन्धपुष्पादिदानतः ।।

धूपदीपादिनैवेद्यैः किं फलं समुदीरितम् ।। ७ ।।

अन्येन कर्मणा चैव जपयज्ञादिनाऽथवा ।।

कां गतिं प्रतिपद्यन्ते ये शुद्धमनसो जनाः ।।८ ।।

तव भक्तसुखार्याय तद्भवान्वक्तुमर्हति ।।

ततो मह्या वचः श्रुत्वा सर्वदेवमयो हरिः ।। ९ ।।

उवाच मधुरं वाक्यं धर्मकामां वसुन्धराम् ।।

श्रीवराह उवाच ।।

शृणु सुन्दरि तत्त्वेन यन्मां त्वं परिपृच्छसि ।। १० ।।

सूकरक्षेत्रान्तर्वर्ती ‘ आदित्य तीर्थ  ’ का प्रभाव ( खञ्जरीट की कथा )      ( खञ्जन , खंडरिच , wagtail ) * इसे ‘ ममोला ’ या ‘ धोबिन ’ – चिड़िया भी कहते हैं | 

  [ Story of Wagtail bird ]

सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

श्रीसूतजी बोले हे शौनकादि ऋषिओ रमणीक सूकरक्षेत्र की महिमा , पवित्र गुणस्तुति , माहात्म्य और जात्यन्तर – परिवर्तनकी शक्ति सुनकर || १ || कमलनयना सर्व धर्म जाननेबाली  पृथिवी सुखपूर्वक मन में विस्मय से भर कर || २ || पूंछने लगी और कहने लगी महाराज आपके तीर्थ का बहुत अच्छा माहात्म्य है || ३ || वराहक्षेत्र में मरा हुआ प्राणी न चाहनेपर भी मनुष्य-जन्म पानेका अधिकारी हो जाता है, अतः निःसंदेह यह क्षेत्र बहुत पवित्र है | अब आप वहाँका कोई दूसरा प्रसङ्ग बतानेकी कृपा कीजिये || ४ || यह माहात्म्य सुनकर मुझे अत्याश्चर्य हुआ है भगवान् वहाँ गानेका , बजाने का क्या पुण्यफल होता है || ५ || तथा नृत्य एवं जागरण करने , गोदान , अन्नदान और जलदान करने का क्या फल है || ६ || झाडू लगानेका , लिपाई – पुताई करनेका तथा गन्ध , पुष्प , धूप , दीप और नैवेद्य आदिसे आपकी पूजा करनेका क्या फल होता है ? || ७ || और अन्य कर्मों से तथा जप , यज्ञादि करनेसे शुद्ध मनवाले प्राणी वहाँ किस गतिको प्राप्त करते हैं ? || ८ || भगवन् ! आप अपने भक्तको सुख पहुंचानेके विचारसे यह सब प्रसङ्ग बतलानेकी कृपा कीजिये ऐसा मधुर वाक्य श्रवण कर धर्मको माननेवाली पृथिवीसे श्रीवराहजी बोले हे सुन्दरि जो आपने पूँछा है उसे अच्छी तरह श्रवण करो || ९ || १० || 

सर्वं ते कथयिष्यामि पुण्यकर्म सुखावहम् ।।

तस्मिन्सौकरवे पक्षी खञ्जरीटस्तु कीटकान् ।। ११ ।।

बहून् भुक्त्वा हि वसुधे अजीर्णभृशपीडितः ।।

मरणं समनुप्राप्तः पतितः स्वेन कर्मणा ।। १२ ।।

सम्प्राप्तास्तत्र वै बालाः क्रीडन्तस्तं मृतं खगम् ।।

ग्रहीष्याम इति प्रोच्य धावन्तस्तत्र तत्र ह ।। १३ ।।

ममायं वै ममायं वै जिघृक्षन्तः परस्परम् ।।

सङ्घर्षात्कलहं चक्रुर्भृशं क्रीडनकोत्सुकाः ।। १४ ।।

तत एको गृहीत्वैनं गङ्गाम्भसि समाक्षिपत् ।।

युष्माकमेव भवतु नानेनास्मत्प्रयोजनम् ।। १५ ।।

एवं स खञ्जरीटो हि गङ्गातोयात्ततस्तदा ।।

आदित्यतीर्थसंक्लिन्नशरीरः स वसुन्धरे ।। १६ ।।

वैश्यस्य तु गृहे जातो ह्यनेकक्रतुयाजिनः ।।

धनरत्नसमृद्धे तु रूपवान् गुणवान् शुचिः ।। १७ ।।

विबुद्धश्च पवित्रश्च मद्भक्तश्च वसुन्धरे ।।

जातस्य तस्य वर्षाणि जग्मुर्द्वादश सुव्रते ।। १८ ।।

कदाचिदुपविष्टौ तौ दृष्ट्वा बालो गुणान्वितः ।।

मातरंपितरं चोभौ हर्षेण महतान्वितौ ।। १९ ।।

प्रणम्य शिरसा भूमौ बद्धाञ्जलिरयाचत ।।

मत्प्रियं यदि कर्त्तव्यमेको मे दीयतां वरः ।। २० ।।

भगवान् वराह बोले – देवि ! यह कथा अत्यन्त पुण्यप्रद एवं सुख देनेवाली है | इसी सूकरक्षेत्र में खञ्जन [ कोडीला ] पक्षी रहता था || ११ || हे पृथिवी ! उसने एक बार बहुतसे कीड़ोंको खा लिया फलतः वह अजीर्णसे अत्यन्त पीड़ित होकर निज कर्मसे मृत्यु को प्राप्त होगया  || १२ || इतनेमें ही बहुतसे बालक इधर-उधरसे दौड़ते एवं खेलते हुए वहाँ पहुंचे और उस मरे हुए पक्षी को देखकर कहने लगे हमलोग इसे पकड़ेंगे ऐसा कहकर उस तरफ दौड़ने लगे || १३ || और फिर वारंवार खेलनेमें उत्सुक उनमें परस्पर विवाद छिड़गया कोई कहता ‘ यह   मेरा  है ’ और कोई कहता कि ‘ मेरा ’ इस प्रकार खेल -खेल में ही उनमें आपस में उस पक्षी को ग्रहण करनेकी इच्छा से झगड़ा होने लग गया और महान् कलह कोलाहल मच गया || १४ || तदनन्तर उनमें से एक बालक ने उसको पकड़कर गङ्गाके जलमें फेंक दिया और बोला भाई ! यह तुम्ही लोगों का है , इससे हमारा कोई प्रयोजन नहीं है || १५ || वसुंधरे ! इस प्रकार वह मृत खञ्जरीट ( खंजन ) पक्षी गङ्गाके जलसे भीग गया | जहाँ वह गङ्गामें पड़ा था , वह ‘ आदित्य तीर्थ ’ था |  || १६ || फिर तो वह उस तीर्थके प्रभावसे अनेक उत्तम यज्ञ करनेवाले धन एवं रत्नसे परिपूर्ण किसी वैश्यके घरमें उत्पन्न हुआ | वह रूपवाला , गुणवाला , पवित्र || १७ || पण्डित , विवेकी तथा मुझमें भक्ति रखनेवाला पुरुष हुआ | सुब्रते ! इस प्रकार उस बालकके बारह वर्ष बीत गये || १८ || एक बार जब उसके माता और पिता सुखसे बैठे हुए थे उनपर उस गुणी बालककी दृष्टि पड़ी उन्हें अत्यानन्दसे युक्त देखकर || १९ || उसने पृथ्वीपर सिर रखकर उन्हें प्रणाम पूर्वक अंजलि बांध कर उनसे याचना करने लगा कि यदि आपलोग मेरा प्रिय करना चाहते हों तो मुझे एक वर देनेकी कृपा करें || २० || 

न चाहं वारणीयो वै पित्रा मात्रा कथंचन ।।

सत्यं शपामि गुरुणा यथा ननु कृतं भवेत् ।। २१ ।।

पुत्रस्य वचनं श्रुत्वा दम्पती तौ मुदान्वितौ ।।

ऊचतुस्तं प्रियं वाक्यं बालं कमललोचनम् ।। २२ ।।

यद्यत्त्वं वक्ष्यसे वत्स यद्यत्ते हृदि वर्त्तते ।।

सर्वं तत्तत्करिष्यावो विस्रब्धं वद साम्प्रतम् ।। २३ ।।

त्रिंशत्सहस्रं गावो हि सर्वाश्च शुभदोहनाः ।।

यद्यत्र रोचते पुत्र देहि त्वमविचारितम् ।। २४ ।।

पुनरन्यत्प्रवक्ष्यामि आवयोः पुत्र कारणात् ।।

वाणिज्यं नः स्मृतं कर्म तत्ते पुत्र यदीप्सितम् ।। २५ ।।

तत्कुरुष्व यथान्यायं मित्रेभ्यो दीयतां धनम् ।।

धनधान्यानि रत्नानि देहि पुत्र अवारितः ।। २६ ।।

कन्या वै रमणीयाश्च सजातीयाः कुलोद्भवाः ।।

आनयिष्याव भद्रं ते उद्वाहेन क्रमेण ते ।। २७ ।।

यदीच्छसि पुनश्चान्यद्यज्ञैर्यष्टुं सुपुत्रक ।।

विधिना पूवर्दृष्टेन वैश्या येन यजन्ति च ।। २८ ।।

अष्टौ सम्पूर्णधुर्याणां हलानां तावतां शतम् ।।

वैश्यकर्म समादाय किं पुनः प्राप्तुमिच्छसि ।। २९ ।।

यावद्भोजनतृप्तान्वा द्विजानिच्छसि तर्पितुम् ।।

सर्वं निजेच्छया पुत्र कर्त्तुमर्हसि साम्प्रतम् ।। ३० ।।

मेरी प्रार्थना यह है कि आप दोनों मेरे मनोरथ में किसी प्रकारकी बाधा न डालें पिताजी ! मैं सत्यकी शपथ खाकर कहता हूँ , आप मेरे गुरु हैं , जैसा आप कहेंगे वही होगा || २१ || अपने पुत्रकी यह बात सुनकर दम्पती हर्षसे भरगये और उन्होंने सुन्दर नेत्रोंवाले बालकसे यह बात कही || २२ || हे पुत्र ! तुम जो – जो कहोगे और जो कुछ तुम्हारे हृदयमें बात हो , हमलोग वह सब कर देंगे | बस , अब तुम विश्वासपूर्वक बोलो || २३ || हमारी तीस हजार  गायें हैं जो सभी खूब दूध देतीं हैं | उनमें से जिस गौ का दान करनेकी इच्छा हो उसी का दान बिना विचारे करो || २४ || यदि तुम चाहो तो हमारा व्यापारका काम बहुत विख्यात है , उसका भी सारा अधिकार तुम्हें सौंप दूँ || २५ || हे पुत्र !  तुम न्यायपूर्वक उसकी व्यवस्था करो अथवा मित्रोंको धन बाँट दो | तुम धन – धान्य , रत्न आदि जिसे जो भी चाहो , उसे दे सकते हो इसमें कोई प्रतिबन्ध नहीं है || २६ || हम अच्छे कुल तथा जातिमें उत्पन्न सुन्दर रूपवाली कन्याको भी विवाह विधिके द्वारा तुम्हें प्राप्त करा सकते हैं || २७ || हे पुत्र ! यदि तुम्हारे मनमें जैसे पूर्वके वैश्यलोग वेदमें कहे हुए विधानके अनुसार यज्ञ करते थे –वैसे यज्ञकी इच्छा हो तो तुम उसे भी कर सकते हो || २८ || वैश्यका कर्म खेती है | इसके लिये आठ – आठ बलवान् बैलोंद्वारा चलनेवाले एक सौ हल भी हमारे पास हैं | फिर तुम और क्या पाना चाहते हो और तुम्हारी क्या इच्छा है सो कहो || २९ || और जितने ब्राह्मणोंको भोजन कराकर तुम तृप्त करना चाहते हो वह सब स्वेच्छानुसार इसी समय सम्पन्न कर सकते हो || ३० || 

पितृमातृ वचः श्रुत्वा स बालो धर्मसंयुतः ।।

चरणावुपसंगृह्य पितरौ पुनरब्रवीत् ।। ३१ ।।

गोप्रदाने न मे कार्यं मित्रं वापि न चिन्तितम् ।।

कन्यालाभे न चेच्छास्ति न च यज्ञफले तथा ।। ३२ ।।

नाहं वाणिज्यमिच्छामि कृषिगोरक्षमेव च ।।

न च सर्वातिथित्वं वा मम चित्ते प्रसज्जति ।। ३३ ।।

एकं मे परमं चिन्त्यं यन्ममेच्छा तपोधृतौ ।।

चिन्ता नारायणक्षेत्रं गाढं सौकरवं प्रति।।३४।।

ततः पुत्रवचः श्रुत्वा मम कर्मपरायणौ ।।

करुणं परिदेवन्तौ रुदन्तौ तावुभौ तथा ।। ३५ ।।

अद्य द्वादश वर्षाणि तव जातस्य पुत्रक ।।

किमिदं चिन्तितं वत्स त्वया नारायणाश्रयम् ।। ३६ ।।

चिन्तयिष्यसि भद्रं ते यदा तत्प्राप्नुया वयः ।।

अद्यापि भोजनं गृह्य धावमानास्मि पृष्ठतः ।। ३७ ।।

किमिदं चिन्तितं वत्स गमने सौकरं प्रति ।।

अद्यापि मत्स्तनौ धन्यौ प्रस्रुतौ हि दिवानिशम् ।। ३८ ।।

पुत्र त्वत्स्पर्शनाशायाः किमेतच्चिन्तितं त्वया ।।

रात्रौ सुप्तोऽसि वत्स त्वं शय्यासु परिवर्त्तितः ।। ३९ ।।

अम्बेति भाषसेऽद्यापि कथमेतद्विचिन्तितम् ।।

स्पृशंति तव नार्योऽपि क्रीडमानस्य पुत्रक ।।.४० ।। 

ऐसे अपने माता – पिताकी बात सुनकर उस धर्मात्मा बालकने उनके चरण पकड़ लिये और उनसे कहने लगा || ३१ || हे मातः ! हे पितः ! गोदानसे मेरा कोई प्रयोजन नहीं है , न मित्रोंके विषयमें ही मुझे कोई चिन्ता है | कन्यालाभ [ विवाह ] की भी इच्छा नहीं है और यज्ञके फल भी मुझे अभीष्ट नहीं हैं || ३२ || और न व्यापारके कार्य में मेरी कोई रुचि है ,

और न कृषि { खेती } और गोरक्षामें मेरा समय व्यतीत हो अथवा सम्पूर्ण अतिथियोंका सत्कार करूँ – इन बातोंके लिये भी मेरे हृदयमें कोई आसक्ति नहीं है || ३३ || मेरे मनमें तो बस तप करनेकी इच्छा है और नारायण के सूकरक्षेत्र जानेकी  ही एक प्रगाढ़ चिन्ता है || ३४ || देवि ! बालकके माता – पिता दोनों ही मेरे उपासक थे , उन्होंने पुत्रकी यह बात सुनी तो वे दोनों ही दुःखमें भरकर करुण विलाप करने लग गये || ३५ || और कहने लगे  ( माता कहती है ) – बेटा ! अभी तुम्हें जनमे केवल बारह वर्ष ही बीते हैं , वत्स ! भगवान् नारायणकी शरणमें जानेकी चिन्ता तुम्हें अभीसे कैसे हो गयी ? || ३६ || जिस समय तुम्हें उसके योग्य आयु प्राप्त होगी , तब उस विषयमें विचार करना | अभी तो मैं भोजन लेकर तुम्हारे पीछे – पीछे दौड़ती चलती हूँ || ३७ || हे पुत्र ! तुम सूकरक्षेत्र में जानेकी बात अभी क्यों सोचते हो ? तुम तो अभी दुधमुंहे बच्चे हो | मेरे स्तन धन्य हैं , जिससे सदा दूध स्रवित होता है  ( और तुम उसे पीते हो ) || ३८ || बेटा ! तुमने अपने स्पर्शसुखकी आशा लगानेवाली मुझ माँ के प्रति यह क्या सोचा ? जब तुम रातमें सोकर करवटें बदलते हो || ३९ || तो उस समय अब भी मुझे माँ -माँ कहकर पुकारते हो | फिर  ( वराहक्षेत्र जाने तथा नारायणके आश्रमकी ) इस प्रकारकी बातें क्यों सोचते हो ? तुम जब खेलते हो तो अन्य स्त्रियाँ भी बड़े स्नेहसे तुम्हारा स्पर्श करती हैं फिर तुम ऐसे विचार क्यों करते हो ? || ४० || 

अपराधो न विद्येत पुत्र क्षेत्रगृहेष्वपि ।।

न वा स्वजनभृत्याद्यैः परुषं ते प्रभाषितम् ।। ४१ ।।

रुष्टेन वापि भीषायै गृह्यते चैव यष्टिका।।

पुत्रहेतुं न पश्येहं तव निर्वेदकारणम् ।। ४२ ।।

इति मातुर्वचः श्रुत्वा स वैश्यकुलनन्दनः ।।

उवाच मधुरं वाक्यं जननीं संशितव्रतः ।। ४३ ।।

उषितोऽस्मि त्वदंगेषु गर्भस्थः कुक्षिसंभवः ।।

क्रीडतोस्मि यथान्यायं तवोत्संगे यशस्विनि ।। ४४ ।।

स्तनौ ह्येतौ मया पीतौ ललितेन विजृम्भितौ ।।

अङ्गं तव समारुह्य पांसुभिर्गुण्ठिता तनुः ।। ४५ ।।

अम्ब त्वं मयि कारुण्यं कुरुष्व खलु चोचितम् ।।

मुंच पुत्रकृतं शोकं त्यज मातरनिन्दिते ।। ४६ ।।

आयान्ति च पुनर्यान्ति गता गच्छन्ति चापरे।।

दृश्यते च पुनर्नष्टो न दृश्येत पुनः क्वचित्।।४७।।

कुतो जातः क्व संबद्धः कस्य माता पिताथवा ।।

इमां योनिमनुप्राप्तो घोरे संसारसागरे ।। ४८ ।।

मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च।।

जन्मजन्मनि वर्त्तन्ते कस्य ते कस्य वा वयम् ।। ४९ ।।

एवं चिन्तां समासाद्य मा शुचो जननि क्वचित् ।।

एवं तौ पितरौ श्रुत्वा विस्मयात्पुनरूचतुः ।। ५० ।।

वत्स ! किसीने भी कहीं खेलमें , घरपर , खेतपर अथवा अपने परिजनमें तुम्हारा कोई अपराध तो नहीं किया , नोकरोंने तुम्हें कोई कटुवचन तो नहीं कहे || ४१ || तुम्हें डरानेके लिये भी मैंने कभी अपने हाथमें छड़ी नहीं ली | फिर पुत्र ! तुम्हारे इस निर्वेद  ( वैराग्य ) – का कारण क्या है ? || ४२ || माताकी यह बात सुनकर उस ब्रतधारी वैश्यबालकने उससे मधुर वचनोंमें कहा  || ४३ || – माँ ! मैं तुम्हारे गर्भमें रह चुका हूँ , तुम्हारे उदरसे ही मेरा जन्म हुआ है , तुम्हारी गोदमें खेला हूँ || ४४ || प्रेमसे मैंने तुम्हारे स्तनोंका पान किया है | धूल लगे हुए शरीरसे तुम्हारी गोदमें बैठा हूँ || ४५ || हे माता तुम मुझपर जो इतनी करुणा करती हो यह तुम्हारे लिये उचित ही है, किन्तु मेरी पूजनीया माँ !  तुम अब पुत्र – सम्बन्धी मोहका परित्याग करो हे विचारशील इस पुत्र वियोग जन्य शोक को छोड़दो || ४६ || यह संसार एक घोर महासागरके समान है | यहाँ प्राणी आते हैं और चले जाते हैं , कुछ लोग तो चले गये और कुछ लोग जा रहे हैं | कोई जीव दीखता है , फिर वह नष्ट हो जाता है और आगे कभी दिखायी नहीं पड़ता || ४७ || इस घोर संसार समुद्र में कौन किससे जनमा , कहाँ उसका सम्बन्ध हुआ , किसकी कौन माता हुई और कौन किसका पिता हुआ इसका कोई ठिकाना नहीं है || ४८ || हजारों माता – पिता , सैकड़ों पुत्र और स्त्रियाँ प्रत्येक जन्ममें आते-जाते रहते हैं | फिर वे किस-किसके हुए या हम ही किसके रहे ? || ४९ || अतः माँ ! इस प्रकारकी चिन्तामें पड़कर तुम्हें कभी भी सोच नहीं करना चाहिये |पुत्रकी इस प्रकारकी बातें सुनकर माता और पिताको बड़ा आश्चर्य हुआ , अतः वे फिर बोले || ५० || 

अहो बत महद्गुह्यं किमेतत्तात कथ्यताम् ।।

एतद्वचनमाकर्ण्य स वैश्यकुलबालकः ।। ५१ ।।

उवाच मधुरं वाक्यं जननीं पितरं तथा।।

यदि श्रुतेन वः कार्यं गुह्यस्य परिनिश्चयात् ।। ५२ ।।

तत्पृच्छ्यतां भवद्भ्यां हि गुह्यं सौकरवं प्रति ।।

तत्राहं कथयिष्यामि स्वस्य गुह्यं महौजसम् ।।५३ ।।

सूर्यतीर्थं समासाद्य यत्तात परिपृच्छसि ।।

बाढमित्येव पुत्रं तौ दम्पती प्रोचतुश्च तम् ।। ५४ ।।

गमने कृतसंकल्पौ ततः सौकरवं प्रति ।।

सर्वद्रव्यसमायुक्तौ गतौ सौकरवं प्रति ।। ५५ ।।

गतः स पद्मपत्राक्ष आभीराणां जनेश्वरः ।।

गावो विंशसहस्राणि प्रेषयत्यग्रतो द्रुतम् ।। ५६ ।।

अग्रे सर्वास्ताः प्रययुर्द्रव्येण च समायुताः ।।

यच्च किंचिद्गृहे वास्ति कृतं नारायणं प्रति ।। ५७ ।।

ततः पूर्वार्द्धयामेन माघमासे त्रयोदशी ।।

सर्वं स्वजनमामन्त्र्य सम्बद्धं च यथाविधि ।। ५८ ।।

मुहूर्त्तेन च तेनैव गमनं कुरुते ततः ।।

स्नात्वा च कृतशौचास्ते नारायणमुदावहाः ।। ५९ ।।

अथ दीर्घेण कालेन नारायणमुदावहाः ।।

वैशाखस्य तु द्वादश्यां मम क्षेत्रमुपागताः ।। ६० ।।

बेटा ! अहो ! यह तो बड़ी गुह्य बात है | पुत्र ! इसका रहस्य बतलाओ | उनकी यह बात सुनकर वह वैश्यकुमार || ५१ || मधुर वाणीमें अपने माता – पितासे कहने लगा ‘ पूज्यवरो ! यदि इस गुह्य बातको सुनकर और विचारकर आप कुछ कहना चाहते हैं और इस वृत्तान्तको सुनना ही चाहते हैं || ५२ || तो आपको सूकरक्षेत्र का रहस्य पूँछना चाहिये और उसे सुननेके लिये सूकरक्षेत्र में ही पधारनेकी कृपा कीजिये और वहीं यह गुह्य विषय आपलोगोंको पूँछना समुचित होगा | वहीं मैं अपनी भी एक आश्चर्यकारी बात बतलाऊंगा  || ५३ || पिताजी ! सूकरक्षेत्र में एक  ‘ सूर्य कुण्ड ’ नामक सूर्यतीर्थ है वहाँ पहुंच जानेपर यह बात बतलाऊंगा ’ इसपर दम्पतीने पुत्रसे कहा – ‘ बहुत अच्छा ’ || ५४ || फिर उस बालकके माता – पिता दोनोंने सूकरक्षेत्र में जानेका संकल्प किया | उन्होंने सब प्रकारके द्रव्य साथमें लिये और सूकरक्षेत्र के लिये चल पड़े || ५५ || कमलपत्रके समान बड़े – बड़े नेत्रोंवाले उस वैश्योंके नेताने अपने जानेके पहले बीस हजार गायोंको ही सबसे आगे हँकवाया || ५६ || फिर उसके सभी परिजन द्रव्योंसहित प्रस्थित हुए | उनके घरमें जो कुछ था , सब कुछ उन्होंने भगवान् नारायणको समर्पित कर दिया || ५७ || फिर माघमासकी त्रयोदशी तिथिके दिन पूर्वान्हकाल में डेढ़घण्टा दिन चढ़नेके समय अपने सभी स्वजनों और सम्बन्धियोंको बुलाकर || ५८ || विधिपूर्वक शुभ मुहूर्तमें शौचस्नानादि कर्म करके उसने स्वयं भी नारायण प्रीत्यर्थ यात्रा कर दी || ५९ ||    

 ‘ भगवान् नारायणका दर्शन होगा ’  इससे उनके मनमें बड़ा हर्ष था | श्रीहरिके प्रेममें प्रवाहित वे सभी लोग बहुत समयके पश्चात् वैशाखमासकी द्वादशी तिथिके दिन मेरे क्षेत्रमें आ गये || ६० ||  

स्नाताः सन्तर्प्य च पितॄन्मम वस्त्रविभूषिताः ।।

गावो विंशतिसाहस्रा याः पूर्वमुपकल्पिताः ।। ६१ ।।

तत्र भङ्गुरसो नाम मम कर्मपरायणः ।।

तेनैव ता गृहीता वै विधिदृष्टेन कर्मणा ।। ६२ ।।

ततः स प्रददौ तस्य विंशा गावो महाधनाः ।।

मङ्गल्याश्च पवित्राश्च सर्वाश्च वरदोहनाः ।। ६३ ।।

प्रददौ धनरत्नानि नित्यमेव दिने दिने ।।

मोदते सह पुत्रेण भार्यया स्वजनेन च ।। ६४ ।।

एवं तु वसतस्तस्य वर्षाकाल उपागतः ।।

प्रावृडुपस्थिता तत्र सर्वसस्यप्रवर्द्धिनी।।६५।।

पुष्पितानि कदम्बानि कुटजार्ज्जुनकानि च।।

एवं दुःखमनुप्राप्ता स्त्रियो या रहिताः प्रियैः।।६६।।

गर्ज्जतां गुञ्जतां चैव धारापातनिपातिताः।।

मेघाः सविद्युतश्चैव बलाकाङ्गदभूषिताः।।६७।।

नदीनां चैव निर्घोषो मयूराणां च निःस्वनः।।

कुटजार्ज्जुनगन्धाश्च कदम्बार्ज्जुनपादपाः।।६८।।

वाताः प्रवान्ति ते तत्र शिखीनां च सुखावहाः।।

शोकेन कामिनीनां च भर्त्रा च रहिताश्च याः।।६९।।

गच्छत्येवं स कालो हि मेघदुन्दुभिनादितः।।

ततः शरदनुप्राप्ता अगस्तिरुदितो महान्।। ७०।।

वहाँ पहुंचनेपर सभीने विधिपूर्वक स्नानकर पितरोंका तर्पण किया | उस वैश्यने दिव्य वस्त्रोंसे विभूषित प्रथम संकल्पित बीस हजार गौओंको साथ ले लिया था || ६१ || और उन्हें शास्त्रोक्त विधिपूर्वक विष्णुकी भक्तिमें तत्पर रहनेवाले भंगुरस नामवाले ब्राह्मणको वहीं दान कर दिया || ६२ || तदनन्तर वह वैश्य शुभलक्षणयुक्त , पवित्र , बहुत दूध देनेवाली बीस गायोंको वस्त्र अलंकार सहित प्रतिदिन बहुत -से धन और रत्न के साथ दानमें बाँटने लगा |इस प्रकार अपने स्त्री- पुत्र और स्वजनोंके साथ आनन्द के साथ रहने लगा   || ६३ || ६४ || इस तरह वहाँ रहते-रहते सभी  ( सस्य – ) धान्य – पौधों को संवर्धन और पालन करनेवाली  ‘ वर्षा – ऋतु ’ आ गयी || ६५ || जिससे कदम्ब , कुटज  ( कोरैया ,इन्द्रयव ,धौ ) और अर्जुन आदि वृक्ष पुष्पित हो गये तथा प्रिय विरहित स्त्री जन दुःखित हुए || ६६ || , गरजते हुए बादल ,भौंरोंका गुञ्जन , बिजली की चमचमाहट के साथ धाराओं को छोड़ते हुए  मेघ , वगुलाओंकी कतारोंसे शोभित आकाश  || ६७ || नदियोंके गर्जन , मोरोंके मधुर स्वर , कोरैया , अर्जुन ,और कदम्ब आदि वृक्षोंकी सुखद गन्ध || ६८ || एवं मंद शीत  पवनका प्रवाह मयूरों को सुखदायक तथा पति विरहित स्त्रियों को दुःखदायक चलने लगा || ६९ || वियोगिनी नायिकाओं को शोकप्रद , मेघदुंदुभि शब्द से नादित वह समय वीता  – यह सब उस ऋतुकी विशेषता थी | फिर शरद् ऋतुका प्रवेश हुआ और अगस्त्य – नक्षत्रका उदय हुआ || ७० ||

तडागानि प्रसन्नानि कुमुदोत्पलवन्ति च।।

पद्मषण्डैः सुरम्याणि पुष्पितानि समन्ततः।।७१।।

प्रवान्ति सुसुखा वाताः सुगन्धाश्च सुशीतलाः।।

सप्तपर्णसुगन्धाश्च शीतलाः कामिवल्लभाः।।७२।।

एवं शरदि निर्वृत्ते कौमुदे समुपागते।।

सा तस्मिन्मासि सुश्रोणि शुक्लपक्षान्तरे तदा।।७३।।

एकादश्यां ततः सुभ्रु स्नातौ क्षौमविभूषितौ।।

उभौ तौ दम्पती तत्र पुत्रमूचतुरात्मनः।।७४।।

उषितास्त्वत्र षण्मासान्सुखं च द्वादशी भवेत्।।

किन्नो न वक्ष्यसे गुह्यं येन वै वारिता वयम्।।७५।।

पित्रोस्तु वचनं श्रुत्वा स पुत्रो धर्मनिष्ठितः।।

उवाच मधुरं वाक्यं तयोस्तु कृतनिश्चयः।।७६।।

एवमेतन्महाभाग यत्त्वया परिभाषितम्।।

कल्यं ते कथयिष्यामि इदं गुह्यं महौजसम्।।७७।।

एषा वै द्वादशी तात प्रभुनारायणप्रिया।।

मंगला च विचित्रा च विष्णुभक्तसुखावहा।।७८।।

ददतेऽस्यां प्रहृष्टाश्च द्वादश्यां कौमुदे सिते।।

दीक्षितास्ते योगिकुले विष्णुभक्तिपरायणाः।।७९।।

तेन दानप्रभावेण विष्णुतोषकरेण च।।

तरन्ति दुस्तरं तात घोरं संसारसागरम्।।८०।।

तड़ागोंके जलमें स्वच्छता आ गयी और उनमें कमल , कुमुद आदि पुष्प खिल गये | अन्य सुरम्य कमल – फूलोंसे भी सर्वत्र शोभाकी वृद्धि होने लगी || ७१ || अब शीतल , सुगन्ध एवं परम सुखदायी वायु बहने लगी और शीतल कामिजन प्रिय { सप्तपर्ण } का गन्ध आने लगा || ७२ ||   ( सप्तपर्ण (वानस्पतिक नाम:Alstonia scholaris) [ ऐल्स्टोनिया स्कोलरिस ] का वृक्ष बहुत बड़ा होता है। इसे हिन्दी में छितवन भी कहते हैं। ) 

इस प्रकार शरदऋतु प्रवृत्त होने पर हे पृथिवी ! ‘‘ कौमुद मास  ’’  

 { कुशब्देन मही ज्ञेया मुदो हर्षे ततो द्वयम् |

 धातुज्ञैर्नियमैश्चैव तेनैषा कौमुदी स्मृता || १ ||

कौमोदन्ते  जनायस्यां नानाभावैः परस्परम् | 

हृष्टतुष्टाः सुखापन्नास्तेनैषा कौमुदी स्मृता || २ || } इति साच कार्तिकी आश्वयुजीचज्ञेया तत्र पूर्वापरग्रन्थप्रसंगविरोधादाश्वयुजीं परित्यज्य कार्तिक्येवग्राह्या साऽस्ति पूर्णिमाऽस्मिन्सकौमुदः कार्तिको मासः | अर्थ  :- कु शव्द का अर्थ है पृथिवी , मुद शव्द का अर्थ है आनन्द इन दोनों शब्दों के मेल से यह अण प्रत्ययान्त शव्द से ङ्गीप प्रत्यय करने से नियमानुकूल प्रकृति प्रत्ययार्थज्ञ पण्डितोंकी सम्मति से कौमुदी शव्द सिद्ध होता है || 1 || अथवा प्रसन्न , सन्तुष्ट , सर्व सुख सम्पन्न जन पृथ्वी पर जिस पूर्णिमाकी  रात्रिमें आनन्दित होवैं वह पूर्णिमा कौमुदी नामिका कही गयी है || 2 || आश्विनी और कार्तिकी पूर्णिमा को कौमुदी कहते हैं परन्तु यहां पूर्वापर कथा प्रसंग में विरोध आने से आश्विनी पूर्णिमा को त्यागकर कार्तिकी पूर्णिमा लेना योग्य है , वह पूर्णिमा जिस मास में हो वह मास कौमुदनामा होता है अर्थात् कार्तिकमास शुक्लपक्ष के वाद || ७३ || फिर धीरे धीरे यह ऋतु भी समाप्त हो चली और कार्तिक महीनेके शुक्लपक्षकी एकादशी तिथि आयी | हे सुभ्रु ! उस समय उस वैश्य दम्पतीने स्नानकर , रेशमी वस्त्र धारण किया और सूर्यकुण्ड तीर्थमें स्थित होकर अपने पुत्रसे कहने लगे || ७४ || हे पुत्र ! हमलोग यहाँ छः महीने सुखपूर्वक रह चुके | आज द्वादशी तिथि आ गयी है , अब वह गोपनीय बात हमलोगोंको तुम क्यों नहीं बताते , जिसे तुमने यहाँ आकर बतानेको कहा था || ७५ || देवि ! अपने माता – पिता की बात सुनकर उस धर्मात्मा पुत्रने उनसे मधुर वचनोंमें कहा  || ७६ || महाभाग ! आपने जो बात पूँछी है , वह प्रसङ्ग बड़ा रहस्यपूर्ण एवं गोपनीय है | इसे मैं कल प्रातः आपलोगोंको बतलाऊंगा || ७७ || पिताजी ! आज यह द्वादशी तिथि है | यह पवित्र , मङ्गलकारक , नारायणप्रिया और विष्णुभक्तोंको विचित्र सुख देनेवाली है || ७८ || इस पुण्य अवसर पर जो मनुष्य प्रसन्न होकर इस कार्तिक शुक्ला द्वादशी को अन्न आदि दान करते हैं वे योगियोंके कुलमें उत्पन्न होकर दीक्षित विष्णुभक्त होते हैं || ७९ || विष्णु तृप्तिकारक उस दानके प्रभावसे वे भगवत्कृपासे भयंकर , दुस्तर संसार-सागरको पार कर जाते हैं || ८० || 

एवं कथयतां तेषां प्रभाता रजनी शुभा।।

ततः सन्ध्यामुपास्याथ उदिते सूर्यमण्डले।।८१।।

शुचिर्भूत्वा यथान्यायं क्षौमवस्त्रविभूषितः।।

प्रणम्य शिरसा देवं शंखचक्रगदाधरम्।।८२।।

उभौ तच्चरणौ गृह्य पितरौ समभाषत।।

शृणु तात महाभाग यदर्थं समुपागतः।।८३।।

यद्भवान्पृच्छते तात गुह्यं सौकरवं प्रति।।

खञ्जरीटो ह्यहं तात पक्षियोनिसमुद्भवः।।८४।।

भक्षिताश्च पतंगा मे अजीर्णेनातिपीडितः।।

अहं तेनैव दोषेण न शक्नोमि विचेष्टितुम्।।८५।।

दृष्ट्वा मां विह्वलं बाला गृहीत्वा क्रीडितुं गताः।।

हस्ताद्धस्तेन क्रीडन्तश्चान्योन्यपरिहासया।।८६।।

त्वया दृष्टो मया दृष्टो ह्ययं चेति कलिः कृतः।।

तत एकेन बालेन भ्रामयित्वाऽक्षयेम्भसि।।८७।।

न ममेति तवेत्युक्त्वा ह्यादित्यं तीर्थमुत्तमम्।।

क्रोधेनादाय तीव्रेण क्षिप्तो गङ्गाम्भसि त्वरा।। ८८।।

तत्र मुक्ता मया प्राणाः सूर्यतीर्थे महौजसि।।

अकामेन विशालाक्षि तत्प्रभावादहं ततः ।। ८९ ।।

जातस्तव सुतो मातस्तदेतद्दिनमुत्तमम् ।।

अकामान्म्रियमाणस्य वर्षाण्यद्य त्रयोदश ।। ९० ।।

इस प्रकार उन लोगोंमें परस्पर बात करते – करते मङ्गलमयी रात्रि समाप्त हो गयी और फिर दिन-रात्रिकी संधिका समय आ गया सूर्यमण्डलोदय के समय सन्ध्योपासन कर्म करके || ८१ || तब वह बालक यथाविधि स्नानादिसे शुद्ध होकर रेशमी वस्त्र धारणकर शंख – चक्र एवं गदा धारण करनेवाले भगवान् श्रीहरिको शिर से प्रणाम करके || ८२ || माता – पिता के दोनों चरणोंको पकड़कर बोला ‘ महाभाग ! पिताजी ! जिस प्रयोजनसे हमलोग यहाँ आये हुए हैं उसे सुनें || ८३ || सूकरक्षेत्र के विषय में जो बात आप मुझसे पूंछ रहे हैं एवं जिस गोपनीय बातको इस  ‘ सूकरक्षेत्र ’  में कहनेके लिये मैंने प्रतिज्ञा की थी वह प्रसङ्ग इस प्रकार है — ‘‘ मैं पूर्वजन्ममें पक्षि योनि समुत्पन्न एक खञ्जरीट  ( खञ्जन ) नामा पक्षी था || ८४ || एक बार मैं बहुत – से पतंगा आदि कीडोंको खाकर अजीर्ण – ग्रस्त होकर हिलने – डुलनेमें भी असमर्थ हो गया || ८५ || उसी समय कुछ बालकोंने मुझे पकड़ लिया और खेल – खेलमें एकके हाथसे दूसरे लेते रहे || ८६ ||  एक कहता ‘ इसे मैंने देखा ’ और दूसरा कहता ‘ मैंने ’ इस प्रकार वे आपसमें झगड़ने लगे | इसी बीच विवादसे ऊबकर एक बालकने क्रोधित होकर मुझे जोरसे घुमाकर हमारा तुम्हारा किसीका नहीं ऐसे कहकर गङ्गाके ‘ सूर्यतीर्थ  ’ नामक स्थानपर जलमें शीघ्रतासे फेंक दिया || ८७ || ८८ || जहाँ मेरे प्राण प्रयाण कर गये | यद्यपि मेरे मनमें कोई अभिलाषा न थी , फिर भी उस तीर्थके प्रभाव से मुझे || ८९ || आपलोगोंका पुत्र होनेका सौभाग्य मिला आज यह वही दिन है | जब निष्काम भावसे प्राण त्यागे हुए मुझे आज  इस प्रकार तेरह वर्ष पूरे हो चुके हैं || ९० || 

व्यतीतानि च गुह्यं ते कथनं मम चैव यत् ।।

एतत्ते कथितं तात गुह्यमागमनं प्रति ।। ९१ ।।

अहं कर्म करिष्यामि गच्छ तात नमोऽस्तु ते ।।

ततो माता पिता चैव पुत्रं पुनरुवाच ह ।। ९२ ।।

विष्णुप्रोक्तानि कर्माणि यं यं कारयिता भवान् ।।

तान् वयं च करिष्यामो विधिदृष्टेन कर्मणा ।। ९३ ।।

घटमाला यथान्यायं कर्मसंसारमोक्षणम् ।।

तेऽपि दीर्घेण कालेन मम कर्मपरायणाः ।। ९४ ।।

कृत्वा तु विपुलं कर्म ततः पंचत्वमागताः ।।

मम क्षेत्रप्रभावेण चात्मनः कर्मनिश्चयात् ।। ९५ ।।

विमुक्ताः सर्वसंसाराच्छ्वेतद्वीपमुपागताः ।।

योऽसौ परिजनः कश्चिद्गृहेभ्यश्च समागतः ।। ९६ ।।

सर्वः श्रिया युतस्तत्र रोगव्याधिविवर्जितः ।।

सर्वे च योगिनस्तत्र सर्वे चोत्पल गन्धयः ।। ।। ९७ ।।

मोदन्ते तु यथान्यायं प्रसादात्क्षेत्रजान्मम ।।

एतत्ते कथितं देवि महाख्यानं महौजसम् ।। ९८ ।।

पुनरन्यत्प्रवक्ष्यामि यद्वृत्तं सौकरे मम ।।

एषा व्युष्टिर्महाभागे क्षेत्रे यत्क्रियते महत् ।। ९९ ।।

तिर्यग्योनिविनिर्मुक्ताः श्वेतद्वीपमुपागताः ।।

य एतत्पठते नित्यं कल्यमुत्थाय मानवः ।। १०० ।।

स कुलं तारयेत्तूर्णं दश पूर्वान्दशावरान् ।।

न पठेन्मूर्खमध्ये तु पापिष्ठे शास्त्रदूषके ।। १०१ ।।

न पठेत्पिशुनानां च एकाकी तु पठेद्गृहे ।।

पठेद्ब्राह्मणमध्ये च ये च वेदविदां वराः ।। १०२ ।।

वैष्णवानां च पुरतो ये वै शास्त्रगुणान्विताः ।।

विशुद्धानां विनीतानां सर्वसंसारमोक्षणम् ।। १०३ ।।

इति श्रीवराहपुराणे अष्टत्रिंशदधिकशततमेध्याये खञ्जरीटोपाख्यान वर्णनं नाम सूकरक्षेत्र माहात्म्ये द्वितीयोऽध्यायः ।।२ ।। 

इति खञ्जरीटोपाख्यानं समाप्तम् ।।

यही वह गोपनीय बात थी , जिसे मैंने आपसे कह दी | यही यहाँ आनेका प्रयोजन था || ९१ || हे पिताजी ! अब मैं यहाँ भगवत्प्रीत्यर्थ कर्म करूंगा और आप अब घरकी तरफ लौट जाइये , आपको नमस्कार है | इसपर माता – पिता पुनः बोले || ९२ || पुत्र ! भगवान् विष्णुके बतलाये जितने कर्म हैं , उनमें तुम जिस जिस कर्मको कराओगे , उन्हें हम भी विधिपूर्वक सम्पन्न करेंगे || ९३ || तदनन्तर पुत्रोक्त यथायोग्य  ‘‘तच्छृणुष्व वरारोहे कर्मसंसारमोक्षणम् ’’ इत्यादि १२७ अध्यायोक्त संसारमोक्षण कर्म [ दीक्षा ] पूर्वक भगवत्कर्म  करने लगे || ९४ ||  शास्त्र कहते है कि ‘ घटमाला ’ कर्म संसारसे मुक्त करनेके लिये परम साधन है , अतः वे सभी कुछ दिनोंतक उसका आचरण करते हुए मेरी उपासनामें संलग्न रहे , बहुत काल के बाद बड़े -बड़े कर्म करके पर्याप्त धर्मानुष्ठानके बाद मेरे क्षेत्रके प्रभावसे और निज कर्मोंके कारण उनका नश्वर शरीर छूट गया || ९५ || और वे अपने धर्म के प्रभावसे सर्व संसार जालसे मुक्त होकर श्वेतद्वीपमें पधारे | और जो लोग उनके साथ आये थे , || ९६ || वे सभी लक्ष्मी सम्पन्न , रोगव्याधि रहित होकर योगमें निरत हो गये | उनके शरीरसे कमलके समान गन्ध निकलती थी || ९७ || देवि ! मेरे क्षेत्रके प्रसादसे वे भी यथायोग्य आनन्दका उपभोग करने लगे | इस प्रकार यह अति पवित्र इतिहास मैंने तुम्हारे प्रति वर्णन किया || ९८ || हे पृथिवी ! पुनः अन्य भी मेरे सूकरक्षेत्रका माहात्म्य कहूँगा [ व्युष्टि ] { समृद्ध या संपन्न होने की अवस्था या भाव } जो मेरे क्षेत्रके फल से प्राप्त होती है || ९९ || इस क्षेत्रके प्रभावसे बहुत – से प्राणी पशु ,पक्षी योनिसे छूटकर श्वेतद्वीपमें पहुंच गये | जो व्यक्ति इस इतिहासको  प्रातःकाल उठकर नित्य पाठ करता है , वह अपने कुल के दस आगे और दस पीछेके पुरुषोंको तार देता है | मूर्ख , पापी , शास्त्रनिन्दक || १०० || १०१ || और चुगलखोर व्यक्तियोंके सामने इसकी व्याख्या या पाठ नहीं करना चाहिये | ब्राह्मणोंके समाजमें अथवा अकेले एकान्त स्थानमें , घरमें || १०२ || इसका अध्ययन करे ; शास्त्र गुणयुक्त , शुद्ध , सुशिक्षित , विष्णुभक्तोंके समक्ष इस मुक्ति दायक इतिहास को पढ़े क्योंकि यह सम्पूर्ण संसारसे मुक्त करनेके लिये परम साधन है || १०३ ||

अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठे।

आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः॥ ३१.४ ॥ ब्रह्मपुराण 

इतिश्री सूकरक्षेत्र वास्तव्य श्रीद्विवेदि नारायणात्मज श्रीरामनाथ शिष्य विद्या विनोद दशरथ शर्म सिद्धांत वागीश शास्त्रि विरचित मिताक्षराख्य भाषावृत्ति विभूषिते श्रीभगवच्छास्त्रे वाराह पुराणे सूकरक्षेत्रमाहात्म्ये खञ्जरीटोपाख्यान वर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ।।२ ।।

सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

     || अथ सूकरक्षेत्रमाहात्म्ये तृतीयोऽध्यायः|| ३ || 

अथ सौकरमाहात्म्यम् ।।


सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

श्रीवराह उवाच ।।

शृणु तत्त्वेन मे देवि लिप्यमानस्य यत्फलम् ।।

सर्वं ते कथयष्यामि यथा प्राप्नोति मानवः ।। १ ।।

गृहीत्वा गोमयं भूमे मम वेश्मोपलेपयेत् ।।

न्यस्तानि तत्र यावन्ति पदानि च विलिम्पतः ।। २ ।।

तावद्वर्षसहस्राणि दिव्यानि दिवि मोदते ।।

यदि द्वादशवर्षाणि लिप्यते मम कर्मसु ।।३।।

जायते विपुले शुद्धे धनधान्यसमाकुले ।।

दिव्यैर्नमस्कृतो देवि कुशद्वीपं च गच्छति ।। ४ ।।

कुशद्वीपमनुप्राप्य सहस्राणि च जीवति ।।

दश चैव तु वर्षाणां मम भक्तो महाञ्छुचिः ।। ५ ।।

कुशद्वीपात्परिभ्रष्टो मम कर्मपरायणः।।

राजा वै जायते सुभ्रु सर्वधर्मेषु निष्ठितः ।। ६ ।।

तेन तस्य प्रभावेण मम कर्मपरायणः ।।

भक्तौ व्यवस्थितश्चापि सर्वशास्त्राणि पृच्छति ।।७।।

देवि कारयते सर्वं मम चायतनानि च।।

कारयित्वा यथान्यायं मम लोकं स गच्छति।।८।।

गोमयस्य तु वक्ष्यामि तच्छृणुष्व वसुन्धरे।।

गोमयन्तु समासाद्य यावल्लोकोऽनुगच्छति ।।९।।

समीपे यदि वा दूरे गत्वा नयति गोमयम्।।

यावन्ति तत्पदान्यस्य तावद्वर्ष सहस्रकम्।।१०।।

भगवान् के मन्दिरमें लेपन एवं संकीर्तनका माहात्म्य 

भगवान् वराह कहते हैं – हे देवि ! मेरे मन्दिरका गोमयसे लेपन करनेवालेको जो वास्तविक फल प्राप्त होता है , वह ध्यान देकर मुझसे सुनो || १ || हे पृथिवी ! गोमय

 [ गोबर ] ग्रहण कर मेरे मन्दिरको लीपते हुए मनुष्य जितने पग चलता है , || २ || उतने हजार वर्षोंतक वह दिव्य लोकोंमें आनन्द करता है | यदि कोई मेरा भक्त व्यक्ति बारह वर्षोंतक मन्दिर लीपनेका कार्य करता है || ३ || तो वह धन और धान्यसे भरे – पूरे किसी शुद्ध एवं विशाल कुलमें जन्म पाता है और देवताओंद्वारा अभिवन्दित होता हुआ कुशद्वीपको प्राप्त करता है || ४ || और वहाँ दस हजार वर्षोंतक निवास करता है | वहाँ मेरा भक्त जीवनधारणकर परम पवित्र || ५ || विष्णु प्रीतिकारक कर्ममें तत्पर कुशद्वीपसे च्युत होकर पृथ्वी पर एक धर्मनिष्ठ राजा के रूपमें प्रतिष्ठित होता है || ६ || उसी कर्मके प्रभावसे वह मेरे कर्मोंमें तत्पर मेरा भक्त सभी शास्त्रोंके विषयमें जिज्ञासा करता है { प्रश्न करता है } || ७ || फिर वह पृथिवी पर सर्वत्र मेरे मन्दिरों का निर्माण करवाता है और अन्तमें मेरे लोक को जाता है || ८ || शुभे ! देवि ! जो मेरे अन्तर्गृहका स्वयं लेपन करता है अथवा न्यायपूर्वक दूसरोंसे लेपन कराता है , वह मेरे लोकको प्राप्त होता है | वसुंधरे ! अब मैं गोबरकी महिमा बताता हूँ , तुम उसे सुनो || ९ ||  मन्दिर लीपनेके लिये जो प्राणी किसी समीपके स्थानसे अथवा कहीं दूर जाकर जितने पग चलकर गोमय लाता है , वह  ( गोबरको लानेवाला व्यक्ति )  उतनेही हजार वर्षोंतक  || १० || 

गोमयानां च नेता वै स्वर्गलोके महीयते।।

ततः स शाल्मली द्वीपे रमते च मुदा युतः।।११।।

एकादशसहस्राणि एकादशशतानि च ।।

शाल्मलात्तु परिभ्रष्टो राजा भवति धार्मिकः।।१२।।

मद्भक्तश्चैव जायेत सर्वधर्मविदां वरः ।।

अथ द्वादशवर्षाणि मच्छ्रितः सुदृढव्रतः।।१३।।

वहते गोमयं सुष्ठु मम लोकं स गच्छति ।।

स्नानोपलेपने भूमे सलिलं यो ददाति च ।। १४ ।।

तस्य पुण्यं महाभागे शृणु तत्वेन निष्कलम् ।।

यावन्तो बिन्दवस्तत्र पानीयस्य वसुन्धरे ।। १५ ।।

तावद्वर्षसहस्राणि स्वर्गलोके महीयते ।।

स्वर्गलोकात्परिभ्रष्टः क्रौञ्चद्वीपं च गच्छति ।। १६ ।।

 क्रौञ्चद्वीपात्परिभ्रष्टो राजा भवति धार्मिकः ।।

तेनैव गुणयोगेन श्वेतद्वीपं च गच्छति ।। १७ ।।

संमार्ज्जनं प्रवक्ष्यामि तच्छृणुष्व वसुन्धरे ।।

यां गतिं पुरुषा यान्ति स्त्रियो वा कर्मसु स्थिताः ।। १८ ।।

शुचिर्भागवतः शुद्धो अपराधविवर्जितः ।।

यावन्तः पांसवो भूमेरुड्डीयन्ते तु चालिताः ।। १९ ।।

तावद्वर्षशतान्याशु स्वर्गलोके महीयते ।।

स्वर्गलोकात्परिभ्रष्टः शाकद्वीपं स गच्छति ।। २० ।।

स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठा पाता है | स्वर्गकी अवधि समाप्त हो जानेपर वह शाल्मलीद्वीपमें 

 ( जन्म प्राप्तकर ) आनन्दका उपभोग करता है || ११ ||  और वहाँ बारह हजार एकसौ वर्षोंतक निवास करता है | फिर वह भारतवर्षमें परम धार्मिक राजा होकर || १२ ||  मेरा भक्त होता है तथा सभी धर्मज्ञोंमें वह श्रेष्ठ तथा मेरा उपासक होता है | नियमपूर्वक मेरा भक्त बारह वर्षोंतक प्रतिदिन || १३ || गोमय ला करके मेरे मन्दिरका लेपन करता है उसके फलस्वरूप मेरे लोकको प्राप्त होता है | कोई गौको स्नान करा रहा हो या गायके गोबरसे मेरे मन्दिरका उपलेपन करता हो , उस समय जो व्यक्ति उसके पास जल पहुंचाता है , || १४ || उसका भी सम्पूर्ण फल श्रवण करो हे वसुंधरे ! वह उस जलकी बूँदोँके तुल्य  { जितने जलके बिन्दू हों  } || १५ || उतने सहस्र वर्षोंतक स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है और वहाँसे जब भ्रष्ट होता है तो वह क्रौञ्चद्वीपमें जाता है || १६ || और क्रौञ्चद्वीपसे भ्रष्ट होकर भूमण्डलपर धार्मिक राजा होता है | पुनः उसी पुण्यके प्रभावसे वह प्राणी मेरे श्वेतद्वीपमें पहुंचता है || १७ || हे वसुंधरे ! सम्मार्जन का फल कहूंगा ( झाडू लगानेका ) जो स्त्री – पुरुष मेरे मन्दिरमें मार्जन कर्म करते ( झाड़ू लगाते ) हैं वे जिस गति को जाते हैं || १८ || वे पवित्र , विष्णुभक्त , शुद्ध, परम भागवत  तथा सभी अपराधोंसे मुक्त होकर स्वर्गलोकमें सम्मानपूर्वक निवास करते हैं | तथा झाड़ू लगाते समय धूलके जितने कण उड़ते हैं || १९ || उतने सौ वर्षोंतक स्वर्गलोकमें निवास करते  हैं और वहॉंसे च्युत होनेपर वे शाकद्वीपको प्राप्त होते हैं || २० || 

तत्र स्थित्वा चिरङ्कालं राजा भवति धार्मिकः ।।

ततो भुक्त्वा सर्वभोगान्स्थित्वा संसारसागरे ।। २१ ।।

श्वेतद्वीपं ततो गच्छेन्मत्कर्मनिरतः शुचिः ।।

अन्यच्च ते प्रवक्ष्यामि शृणुष्व गदतो मम ।। २२ ।।

गायनं ये प्रकुर्वन्ति मम कर्मपरायणाः ।।

तेषां यद्यत्फलं भूमे शृणुष्व गदतो मम ।। २३ ।।

गायमानस्य गीतस्य यावदक्षरपङ्क्तयः ।।

तावद्वर्षसहस्राणि इन्द्रलोके महीयते ।। २४ ।।

रूपवान्गुणवान् सिद्धः सर्ववेदविदां वरः ।।

नित्यं पश्यति तत्रस्थो देवराजं न संशयः ।। २५ ।।

मद्भक्तश्चैव जायेत इन्द्रलोकपथे स्थितः ।।

सर्वकर्मगुणश्रेष्ठस्तत्रापि मम पूजकः ।। २६ ।।

इन्द्रलोकात्परिभ्रष्टो मम गीतपरायणः ।।

नन्दनोपवने रम्ये रमन्देवगणैः सह ।। २७।।

ततः स भूमौ जायेत वैष्णवैः सह संस्थितः ।।

गायन्मम यशो नित्यं भक्त्या परमया युतः ।। २८ ।।

मत्प्रसादात्स शुद्धात्मा मम लोकं हि गच्छति 

सूत उवाच ।।

तस्य तद्वचनं श्रुत्वा माधवस्य यशस्विनी ।। २९ ।।

कृताञ्जलिपुटा भूयः प्रत्युवाच वसुन्धरा  ।। 

धरण्युवाच ।।

अहो गीतप्रभावो वै यस्त्वया कीर्त्तितो महान्  ।। ३० ।।

के च गीतप्रभावेण सिद्धिं प्राप्ता महौजसः ।। 

वराह उवाच ।।

सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

तत्रैव चाश्रमे भद्रे चाण्डालः कृतनिश्चयः ।। 

दूराज्जागरणे याति मम भक्तौ व्यवस्थितः ।। ३१ ।।

गायमानश्च गीतानि संवत्सरगणान्बहून् ।। ३२ ।।

शाकद्वीपमें चिरकाल तक निवासकर फिर संसारसागरमें स्थित रहता हुआ पवित्र भारतभूमिपर धार्मिक राजा होता है और सब प्रकारके भोगोंको भोगकर|| २१ || श्वेतद्वीपको प्राप्तकर मुझको तृप्ति देनेवाले कर्म करता है | देवि ! अब तुम्हें कुछ अन्य बातें बताता हूँ , वह सुनो || २२ || जो प्राणी मेरी आराधनाके समय पद्य गान करते हैं , उन्हें जो फल प्राप्त होता है , उसे बतलाता हूँ तुम सावधान होकर सुनो || २३ || गाये जानेवाले पद्यकी पङ्क्तियोंके जितने अक्षर होते हैं , उतने हजार वर्षोंतक गायक पुरुष इन्द्रलोकमें प्रतिष्ठा पाता है || २४ || रूपवान , गुणवान , सिद्ध , सर्व वेदवेत्ताओं श्रेष्ठ होताहुआ नित्य ही देवराजका दर्शन करता है , इसमें संशय नहीं || २५ || वहाँ भी वह उत्तम कर्म और श्रेष्ठ गुणोंसे युक्त होकर  मेरी भक्ति , सेवा , पूजा में ही निरन्तर निरत रहता है || २६ || गायनमें सदा परायण रहनेवाला मेरा वह भक्त इंद्रलोक तथा रमणीय नन्दनवनमें देवताओंके साथ आनन्द करनेके बाद जब वहाँसे च्युत होता है || २७ || तो भूमण्डलमें  वैष्णव कुलमें जन्म पाकर वैष्णवोंके साथ ही निवास करता है और वहाँ भी भक्तिके साथ मेरे यशोगानमें संलग्न रहता है || २८ || फिर आयु समाप्त होनेपर शुद्ध अन्तःकरणवाला वह पुरुष मेरी कृपासे मेरे ही लोकमें चला जाता है | सूतजी यह कहकर शौनकादि ऋषियोंसे कहने लगे हे  ऋषि गणों ऐसा श्रीपतिका  वाक्य श्रवण कर यशस्विनी पृथिवी अञ्जलि बाँधकर पुनः बोली || २९ || अहो ! भक्ति – संगीतका कैसा विस्मयकारी प्रभाव है , अतः अब मैं सुनना चाहती हूँ कि इस गायनके प्रभावसे कितने पुरुष सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं ? || ३० || यह सुनकर वराहजी बोले देवि ! सूकरक्षेत्रमें मेरे मन्दिरके पास एक चाण्डाल रहता था , जो मेरी भक्तिमें तत्पर रहकर सारी रात जगकर मेरा यश गाता रहता था || ३१ || कभी वह सुदूर अन्य प्रदेशतक भ्रमण करते हुए मेरा भक्ति – संगीत गाता रहता | इस प्रकार उसने बहुत-से संवत्सर व्यतीत कर दिये || ३२ ||   

सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

श्वपाकः स गुणज्ञश्च मद्भक्तश्चैव सुन्दरि ।। 

कौमुदस्य तु मासस्य शुक्लपक्षे तु द्वादशी ।। ३३ ।।

सुप्ते गते येन जाते वीणामादाय चंक्रमत् ।।

जाग्रंस्तत्र स चाण्डालो गृहीतो ब्रह्मरक्षसा ।। ३४ ।।

अल्पप्राणः श्वपाको वै बलवान्ब्रह्मराक्षसः ।। 

दुःखशोकेन सन्तप्तो न शक्नोति विचेष्टितुम् ।। ३५।। 

तेन प्रोक्तः श्वपाकेन बलवान्ब्रह्मराक्षसः ।।

किं त्वया चेष्टितं मह्यं यस्त्वेवं परिधावसि ।। ३६ ।।

श्वपाकवचनं श्रुत्वा तेन वै ब्रह्मरक्षसा ।।

ततः प्रोवाच तं श्वादं मानुषाहारलोलुपः ।। ३७ ।।

अथेह दशरात्रं मे निराहारस्य तिष्ठतः ।।

विधात्रा विहितस्त्वं च आहारः पारणाविधौ ।। ३८ ।।

अद्य त्वां भक्षयिष्यामि सवसामांसशोणितैः ।।

तृप्तिं यास्यामि परमां विधात्रा विहितां मम ।। ३९ ।।

सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

ब्रह्मरक्षोवचः श्रुत्वा श्वपाको गीतलालसः ।। 

राक्षसं छन्दयामास मम भक्त्या व्यवस्थितः ।। ४० ।।

एवमेतन्महाभाग भक्ष्योऽहं समुपागतः ।। 

अवश्यमेतत्कर्तव्यं धात्रा दत्तं यथा तव ।।४१ ।।

किं त्वहं देवदेवस्य भक्त्या गातुं च जागरे ।।

उद्यतस्तत्र गत्वाहमुपास्य विधिना हरिम् ।। ४२ ।।

पश्चात्खादस्व मां रक्षो जागराद्विनिवर्तितम् ।। 

विष्णोः सन्तोषणार्थाय यतो मे व्रतमास्थितम् ।। ४३ ।।

हे पृथिवी ! एक समय की बात है , वह गुणज्ञ मेरा चाण्डाल भक्त कार्तिकमासके शुक्लपक्षकी द्वादशीकी  || ३३ || रातमें जब सभी लोग सो गये थे , उसने वीणा उठायी और भक्ति – गीत गाते हुए भ्रमण करना प्रारम्भ किया और जागरण के लिये चला | इसी बीच उसे एक ब्रह्मराक्षसने पकड़ लिया || ३४ || चाण्डाल बेचारा निर्बल था और ब्रह्मराक्षस अत्यन्त बली , अतः वह अपनेको उससे छुड़ा न सका और दुःख एवं शोकसे व्याकुल होकर वह निश्चेष्ट – सा हो गया  || ३५ || फिर उस बलिष्ठ ब्रह्मराक्षससे कहने लगा  ‘ अरे ! मुझसे तुम्हारा क्या अभीष्ट सिद्ध होनेवाला है , जो तुम इस प्रकार मुझपर चढ़ बैठे हो ? || ३६ || उसकी यह बात सुनकर मनुष्योंके मांसके लोभी ब्रह्मराक्षसने चाण्डालसे कहा || ३७ ||  ‘ आज दस रातोंसे मुझे कोई भोजन नहीं मिला है | विधाताने मेरे भोजनके लिये ही पारणा के समय तुम्हें यहाँ भेज दिया है || ३८ || अतः आज मैं परमात्माके भेजे हुए  मज्जा , मांस और रक्तसे भरे – पूरे तेरे शरीरका भक्षण करूँगा | इससे मेरी परम तृप्ति हो जायगी || ३९ || चाण्डाल मेरे गुणगानके लिये लालायित था | अतःउस चाण्डालने ब्रह्मराक्षससे प्रार्थना की || ४० ||  ‘ महाभाग ! मैं तुम्हारी बात मानता हूँ | ब्रह्माने तुम्हारे खानेके लिये ही मुझे भेजा है अतः वैसा ही अवश्य करना चाहिये || ४१ || परंतु परम प्रभुकी भक्तिसे सम्पन्न होकर इस जागरणमें मैं भक्तिपूर्वक गान करने जारहा हूँ , देवाधिदेव जगदीश्वरके पद्यगानके लिये समुत्सुक हूँ | अतः वनमें उनके आवासस्थलके पास जाकर संगीत सुनाकर विधिपूर्वक उपासना करके || ४२ || जागरणसे निवृत्त होकर मैं लौट आऊं , तब तुम मुझे खा लेना परंतु इस समय मुझे जाने दो , क्योंकि मैंने विष्णु प्रीत्यर्थ यह ब्रत धारण कर रखा है || ४३ || 

सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

जागरे विनिवृत्ते मां भक्षय त्वं यदीच्छति ।। 

श्वपाकस्य वचः श्रुत्वा ब्रह्मरक्षः क्षुधार्दितः ।। ४४ ।।

उवाच परुषं वाक्यं श्वपाकं तदनन्तरम् ।। 

मिथ्या किं भाषसे मूढ पुनरेष्यामि तेऽन्तिकम् ।। ४५ ।।

मृत्योर्मुखमनुप्राप्य पुनर्जीवति मानवः ।। 

रक्षसो मुखविभ्रष्टः पुनरागन्तुमिच्छसि ।। ४६ ।।

राक्षसस्य वचः श्रुत्वा चाण्डालस्तमथाब्रवीत् ।। 

यद्यप्यहं हि चाण्डालः पूर्वकर्मविदूषितः ।। ४७ ।।

सम्प्राप्तो मानुषं भावं विहितेनान्तरात्मना ।।

शृणु मत्समयं रक्षो येनाहं पुनरागमम् ।। ४८ ।।

दूराज्जागरणं कृत्वा लोकस्य द्विजराक्षस।।

सत्येन पुनरेष्यामि मन्यसे यदि मुंच माम् ।। ४९ ।।

सत्यमूलं जगत्सर्वं लोकाः सत्ये प्रतिष्ठिताः।।

सत्येन सिद्धिं प्राप्ता हि ऋषयो ब्रह्मवादिनः ।। ५० ।।

सत्येन दीयते कन्या सत्यं जल्पन्ति ब्राह्मणाः ।। 

सत्यं जयन्ति राजानस्त्रीण्येतान्यब्रुवन्नृतम् ।। ५१ ।।

सत्येन गम्यते स्वर्गो मोक्षः सत्येन चाप्यते ।। 

सत्येन तपते सूर्यः सोमः सत्येन रज्यते ।। ५२ ।।

षष्ठ्यष्टमीममावास्यामुभे पक्षे चतुर्दशी ।। 

अस्नातानां गतिं यास्ये यद्यहं नागमे पुनः ।। ५३ ।।

कि निशीथ  ( आधीरात ) – में भगवान् श्रीहरिको प्रसन्न करनेके लिये भक्तिसंगीत सुनाया करूँगा | ब्रत पूरा होनेपर तुम मुझे खा लेना | इसपर क्षुधार्त ब्रह्मराक्षस || ४४ || कठोर शब्दोंमें बोला –  ‘‘ अरे मूर्ख चाण्डाल ! क्यों ऐसी झूठी बात बनाता है ? तू कहता है कि  ‘ तुम्हारे पास फिर मैं लौटकर आऊंगा ’ || ४५ || भला ऐसा कौन मनुष्य है , जो मृत्युके मुखमें पहुंचकर फिर जीवित लौट जाय ? तुम ब्रह्मराक्षसके मुखमें पड़कर भी फिर जानेकी इच्छा करते हो | ऐसा कौन है जो ब्रह्मराक्षसके फन्दे से बचकर पुनः उसीमें आकर फँसनेकी इच्छा करेगा ? || ४६ || चाण्डाल बोला –  ‘ ब्रह्मराक्षस ! मैं यद्यपि पहलेके निन्दित कर्मोंके प्रभावसे इस समय चाण्डाल बना हूँ || ४७ || तथापि मेरे अन्तःकरणमें धर्म स्थित है ,इसीलिये मुझे मनुष्य योनि मिली है | तुम मेरी प्रतिज्ञा सुनो | जिससे तुम्हें विश्वास हो जायगा कि मैं फिर लौटकर आऊंगा || ४८ || दूरसे जागरण करके लौटकर आऊंगा मैं सत्यकी सौगंद करता हूँ , यदि तुम मानो तो मुझे छोड़दो | मैं धर्मानुसार पुनः निश्चित आऊंगा | ब्रह्मराक्षस ! अपने जागरणब्रतको पूराकर मैं लौटकर यहाँ अवश्य आऊंगा || ४९ || देखो , सम्पूर्ण जगत सत्यके आधारपर ही टिका है | अन्य सब लोक भी सत्यपर ही आधृत हैं | ब्रह्मवादी ऋषियोंने सत्यके द्वाराही सिद्धि प्राप्त की थी || ५० || कन्या सत्यप्रतिज्ञापूर्वक ही दान की जाती है | ब्राह्मणलोग भी सदा सत्य ही बोलते हैं | राजालोग सत्यभाषण करनेके प्रभावसे ही तीनों लोकोंपर विजय प्राप्त करते हैं | ये तीन सत्य से ही हैं  || ५१ || स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्ति भी सत्यके प्रभावसे ही सुलभ होती है | सूर्य भी सत्यके प्रतापसे ही तपते हैं और चन्द्रमा भी सत्यके ही  प्रभावसे जगतको रञ्जित – आनन्दित करते हैं || ५२ || मैं सत्यतापूर्वक  प्रतिज्ञा करता हूँ कि  ‘ यदि मैं लौटकर तुम्हारे पास फिर न आऊं तो षष्ठी , अष्टमी , अमावास्या , दोनों पक्षकी चतुर्दशी – इन तिथियोंमें जो स्नानतक नहीं करता , उसकी जो दुर्गति होती है , वह गति मुझे प्राप्त हो || ५३ || 

सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

गुरुपत्नीं राजपत्नीं योऽभिगच्छति मोहितः।। 

तां गतिं सम्प्रपद्येऽहं यद्यहं नागमे पुनः।। ५४ ।।

याजकानां च ये लोका ये च मिथ्याभिभाषिणाम्।।

तां गतिं सम्प्रपद्येऽहं यद्यहं नागमे पुनः।। ५५ ।।

ब्रह्मघ्ने च सुरापे वा स्तेने भग्नव्रते तथा।।

तेषां गतिं प्रपद्येऽहं यद्यहं नागमे पुनः।। ५६ ।।

श्वपाकवचनं श्रुत्वा तुष्टो ब्राह्मणराक्षसः।।

उवाच मधुरं वाक्यं गच्छ शीघ्रं नमोऽस्तु ते।। ५७ ।।

ब्रह्मराक्षसमुक्त्वा तु श्वपाकः कृतनिश्चयः।।

पुनर्गायति मह्यं वै मम भक्तौ व्यवस्थितः।। ५८।। 

अथ प्रभाते विमले गीते नृत्ये च जागरे।।

नमो नारायणायेति श्वपाकः परिवर्त्तते।। ५९ ।।

ततस्त्वरितमागत्य पुमांस्तस्याग्रतः स्थितः।। ६० ।।

उवाच मधुरं वाक्यं चाण्डालं कृतनिश्चयम्।। 

क्व यासि त्वरितः साधो न च त्वं गन्तुमर्हसि।।६१।।

जानन्कौणपपं तं च न त्वं मर्त्तुमिहार्हसि।।

पुरुषस्य वचः श्रुत्वा चाण्डालः पुनरब्रवीत्।।६२।।

समयो मे कृतः पूर्वं राक्षसेन हि भक्षता।।

तेन तत्र गमिष्यामि सत्यं च परिपालयन्।।६३।।

जो व्यक्ति अज्ञान तथा मोहमें पड़कर गुरुपत्नी और राजाकी पत्नीके साथ गमन करता है , उसे जो गति मिलाती है , वही गति यदि मैं फिर न लौटूँ तो मुझे प्राप्त हो || ५४ || मिथ्या यज्ञ करनेवाले व करानेवाले  पुरुषोंको तथा मिथ्या भाषण करनेवाले लोगोंको जो गति प्राप्त होती है वही गति मुझे प्राप्त हो यदि मैं पुनः न आ सकूँ || ५५ || ब्राह्मणका वध करनेपर , मदिरा -पान , चोरी और ब्रतभङ्ग करनेपर मनुष्यको जो गति प्राप्त होती है , यदि मैं पुनः न लौटूँ तो वह मुझे प्राप्त हो || ५६ || उस समय चाण्डालकी बात सुनकर वह ब्रह्मराक्षस प्रसन्न हो गया | अतः वह मधुर वाणीमें कहने लगा –  ‘ अच्छा तुम जाओ , नमस्कार | ’ || ५७ || इस प्रकार अपने निश्चयमें अडिग चाण्डाल ब्रह्मराक्षससे ऐसा कहकर मेरी भक्तिमें तत्पर गान संगीतमें तल्लीन हो गया || ५८ || उसके नाचते -गाते सम्पूर्ण रात्रि बीत गयी | प्रातःसमय ॐ नमो नारायणाय ऐसे मुझे दण्डवत प्रणाम करके लौटा || ५९ || जब वह ब्रह्मराक्षसके पास वापस चला तो इतनेमें कोई पुरुष उसके सामने आकर खड़ा हो गया || ६० || और उसने उससे मधुर वाक्य कहा –  ‘ साधो ! ( हे सरल बुद्धिवाले चाण्डाल ) तुम इतनी शीघ्रतासे कहाँ चले जा रहे हो ? तुम्हें उस ब्रह्मराक्षसके पास कदापि नहीं जाना चाहिये || ६१ || वह ब्रह्मराक्षस तो शवतकको खा जाता है ; अतः यह जानते हुए भी तुम्हें वहाँ प्रत्यक्ष मृत्युमुखमें नहीं जाना चाहिये  ’ || ६२ || चाण्डालने कहा –  ‘ पहले जब मुझे ब्रह्मराक्षस खानेको तैयार था , तब मैंने उसके सामने प्रतिज्ञा की थी कि मैं वापस आ जाऊंगा  | सत्यका पालन करना परम आवश्यक है || ६३ ||    

ततः स पद्मपत्राक्षः श्वपाकं प्रत्युवाच ह।।

मधुरां गिरमादाय विहितेनान्तरात्मना।।६४।।

मा गच्छ तत्र चाण्डाल यत्रासौ पापराक्षसः।।

जीवितार्थाय सत्यस्य न दोषः परिहापनात्।।६५।।

ततस्तस्य वचः श्रुत्वा श्वपाकः संशितव्रतः।।

उवाच मधुरं वाक्यं मरणे कृतनिश्चयः।।६६।।

नाहमेवं करिष्यामि यन्मां त्वं परिभाषसे।।

न चाहं नाशये सत्यमेतन्मे निश्चितं व्रतम्।।६७।।

सत्यमूलं जगत्सर्वं कुलं सत्ये प्रतिष्ठितम्।।

सत्यमेव परो धर्म आत्मा सत्ये प्रतिष्ठितः।।६८।।

न चैवाहं तदुत्सृज्य असत्यः स्यां कदाचन।।

नाहं मिथ्या चरिष्यामि गच्छ तात नमोऽस्तु ते।।६९।।

एवमुक्त्वा श्वपाकोपि नित्यं सत्यव्रते स्थितः।।

राक्षसं समनुप्राप्तस्तमुवाचाथ पूजयन्।। ७०।।

आगतोऽस्मि महाभाग मा विलम्बय भक्षय।।

त्वत्प्रसादादहं गन्ता वैष्णवं स्थानमुत्तमम्।।७१।।

एतानि मम गात्राणि भक्षयस्व यथेष्टतः।।

पिबोष्णं रुधिरं मह्यं पीडितोऽसि क्षुधा भृशम्।।७२।।

तर्पयस्व स्वमात्मानं कुरुष्व मम वै हितम्।।

श्वपाकस्य वचः श्रुत्वा ततः स ब्रह्मराक्षसः।।७३।।

उवाच मधुरं वाक्यं श्वपाकं तदनन्तरम्।।

साधु तुष्टोऽस्म्यहं वत्स सत्यं धर्मं च पालितम्।।७४।।

चण्डालस्याविधिज्ञस्य यस्य ते मतिरीदृशी।।

ब्रह्मरक्षोवचः श्रुत्वा श्वपाकः सत्यसङ्गरः।।७५।।

इस पर उस कमलनयन पुरुषने उस चाण्डालके  हितकी इच्छासे कहा || ६४ || हे चाण्डाल ! वहाँ उस पापी राक्षसके पास मत जाओ ; क्योंकि जीवनकी रक्षाके लिये सत्यत्यागका दोष नहीं होता || ६५ || किन्तु चाण्डाल अपने ब्रतमें अटल था | अतः वह मधुर वाणीमें बोला || ६६ || हे पुरुष ! तुम जो कह रहे हो , वह मुझे अभीष्ट नहीं है | मुझसे सत्यका त्याग नहीं हो सकता ; क्योंकि मेरा ब्रत अचल है || ६७ || जगतका मूल सत्य है और सत्यपर ही यह सारा संसार टिका है | सत्यसे ही कुल रहता है |  सत्यही परम धर्म है | परमात्मा भी सत्यपर ही प्रतिष्ठित है || ६८ || अतः मैं किसी प्रकार भी असत्यका आचरण नहीं करूँगा | ’ हे तात ! आपको मेरा नमस्कार है अब आप पधारये || ६९ || इस प्रकार कहकर वह चाण्डाल ब्रह्मराक्षसके पास चला गया और उसका सम्मान करते हुए बोला || ७० ||  ‘ महाभाग ! मैं आ गया हूँ | अब मुझे भक्षण करनेमें तुम विलम्ब न करो तुम्हारी कृपासे अब मैं भगवान् विष्णुके उत्तम स्थानको जाऊंगा || ७१ || अब तुम अपनी इच्छाके अनुसार मेरे शरीरके इन अङ्गोंको खा सकते हो , मेरा उष्ण रुधिर पान करो , क्योंकि आप बहुत दिनोसे भूँखे हो || ७२ || अपने आपको तृप्त करो और मेरा भी हित करो | अब चाण्डालकी ऐसे बात सुनकर वह ब्रह्मराक्षस || ७३ || मधुर वाणीमें कहने लगा   ‘ साधु वत्स ! साधु ! मैं तुमसे संतुष्ट हो गया , क्योंकि तुमने सत्य – धर्मका भलीभाँति पालन किया है || ७४ || चाण्डालोंको प्रायः किसी धर्मका ज्ञान नहीं होता , पर तुम्हारी बुद्धि पवित्र है | ब्रह्मराक्षसकी बात सुनकर सत्यवक्ता चाण्डाल  || ७५ || 

उवाच मधुरं वाक्यं ब्रह्मराक्षसमेव तु।।

यद्यप्यहं वै चाण्डालः सर्वकर्मविवर्जितः।।७६।।

तथापि सत्यं वक्तव्यं ब्रह्मराक्षस नित्यशः।।

श्वपाकवचनं श्रुत्वा ब्रह्मरक्षो भयानकम् ।। ७७ ।।

उवाच मधुरं वाक्यं श्वपाकं संशितव्रतम् ।।

यत्त्वया गीयते रात्रौ विष्णोर्जागरणं प्रति ।। ७८ ।।

फलं गीतस्य मे देहि यदीच्छेर्जीवितं स्वकम् ।।

ततो मोक्ष्यामि कल्याण भक्ष्यामि न च भीषणः ।।७९।।

ब्रह्मरक्षोवचः श्रुत्वा श्वपाकः प्रत्युवाच ह।।

मनोऽज्ञातमिदं वाक्यं ब्रह्मरक्षो निभाषसे ।। ८० ।।

भक्षयामीति चोक्त्वा मां गीतपुण्यं किमिच्छसि ।।

श्वपाकवचनं श्रुत्वा ब्रह्मरक्षोऽब्रवीत्पुनः ।। ८१ ।।

देहि मे त्वेकयामीयं पुण्यं गीतस्य वै परम् ।।

ततो मोक्ष्यसि भक्ष्येण संगतः पुत्रदारकैः।। ८२ ।।

श्रुत्वा राक्षसवाक्यानि चाण्डालो गीतलोभितः ।।

उवाच मधुरं वाक्यं राक्षसं कृतनिश्चयः ।। ८३ ।।

न गायनफलं दद्मि ब्रह्मरक्षस्तवेप्सितम् ।।

भक्षयस्व यथान्यायं रुधिरं पिब चेप्सितम् ।। ८४ ।।

श्वपाकवचनं श्रुत्वा राक्षसः पुनरब्रवीत् ।।

एकगीतस्य मे देहि यत्त्वया विष्णुसंसदि ।। ८५ ।।

ब्रह्मराक्षसके प्रति मधुर वाक्य बोला , यद्यपि  सर्व कर्म रहित मैं चाण्डाल हूँ || ७६ || तथापि हे ब्रह्मराक्षस ! नित्य सत्य ही बोलना चाहिये ऐसा भयानक चाण्डालका वाक्य श्रवण कर ब्रह्मराक्षस बोला || ७७ || भद्र ! ब्रतधारी ! यदि तुम्हें जीनेकी इच्छा है तो विष्णु मन्दिर के पास जाकर गत रातमें तुमने जो गान किया है || ७८ || उसका फल मुझे दे दो , मैं तुम्हें छोड़ दूँगा , हे कल्याण करनेवाले ! न तो मैं तुम्हें खाऊंगा और न डराऊंगा || ७९ || ब्रह्मराक्षसकी बात सुनकर चाण्डाल बोला –   ‘  ब्रह्मराक्षस ! तुम्हारे इस वाक्यका क्या अभिप्राय है ? मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ || ८० || पहले ‘ मैं खाना चाहता हूँ  ’ –  ‘ यह कहकर अब तुम भगवद्गुणानुवादका पुण्य फल क्यों चाहते हो ? ’ चाण्डालकी बात सुनकर ब्रह्मराक्षस बोला || ८१ ||  ‘ बस , तुम अपने एक पहरके गीतका ही पुण्य मुझे दे दो | फिर मैं तुम्हें छोड़ दूँगा और स्त्री – पुत्रके साथ तुम जीवित रह सकोगे || ८२ || पर उस चाण्डालको गीतके पुण्यका लोभ था | इसलिये वह निश्चयपूर्वक बोला || ८३ || हे ब्रह्मराक्षस ! मैं संगीतका फल नहीं दे सकता | तुम अपने नियमके अनुसार मुझे खा जाओ और मनोऽभिलषित रुधिरका पान करलो || ८४ ||  अब वह ब्रह्मराक्षस कहने लगा ,  ‘ तात ! तुमने जो विष्णुके मन्दिरमें गायन – कार्य किये हैं , उनमेंसे केवल एक गीतका ही फल मुझे देनेकी कृपा करो || ८५ || 

एतेन तारितोऽस्मीति तव गीतफलेन वै ।।

श्रुत्वा वाक्यानि चाण्डालो राक्षसस्य निवारयन् ।। ८६ ।।

उवाच मधुरं वाक्यं चाण्डालो विस्मयान्वितः ।।

किं त्वया विकृतं कर्म तद्ब्रूहि मम राक्षस ।। ८७ ।।

कर्मणो यस्य दोषेण राक्षसत्वं समागतः ।।

श्वपाकवचनं श्रुत्वा ब्रह्मरक्षो महायशाः ।। ८८ ।।

 उवाच मधुरं वाक्यं दुःखसन्तप्तमानसः ।।

नाम्ना वै सोमशर्माहं चरको ब्रह्मयोनिजः ।। ८९ ।।

सूत्रमन्त्रपरिभ्रष्टो यज्ञकर्मसु निष्ठितः ।।

ततोऽहं याजयाम्यज्ञान् लोभमोहप्रपीडितः ।। ९० ।।

प्रवर्तमाने यज्ञे तु कदाचिद्दैवयोगतः ।।

उदरे जातशूलोऽहं तेन पंचत्वमागतः ।। ९१ ।।

अथ पञ्चमहारात्रे ह्यसमाप्ते क्रतौ तथा ।।

अस्य यज्ञस्य दोषेण मातंग शृणु मे वचः ।।९२।।

राक्षसत्वमनुप्राप्तस्तेन दुष्टेन कर्मणा ।।

मंत्रहीनं मया तत्र स्वरहीनं च तत्कृतम् ।। ९३ ।।

सूत्रहीनं तथा तत्र प्राग्वंशादि कृतं मया ।।

परिमाणं च रूपं च मया तत्रोपलक्षितम् ।।९४।।

कृतस्य तस्य दोषेण योनिं प्राप्तोऽस्मि राक्षसीम् ।।

स्वगीतफलदानेन निस्तारयितुमर्हसि ।।९५।।

तुम्हारे इस एक गीतके फलसे ही मैं तर सकता हूँ  | और अपने परिवारको भी तार सकता हूँ | ’ इसपर चाण्डालने उसे हटाते हुए , सान्त्वना देते हुए , || ८६ || आश्चर्यचकित होकर उससे पूंछा –  ‘ ब्रह्मराक्षस ! तुमने कौन – सा विकृत कर्म किया है ,वो मुझे बताओ || ८७  ||  जिस दोषसे तुम्हें ब्रह्मराक्षस होना पड़ा है | ऐसा चाण्डाल का वचन सुनकर यशस्वी ब्रह्मराक्षस बोला || ८८ || मेरा मन बहुत दुःखी है , –   ‘ मैं पूर्वजन्ममें चरकगोत्रीय सोमशर्मा नामका एक यायावर ब्राह्मण था || ८९ || मुझे यद्यपि वेदके सूत्र और मन्त्र कुछ भी ठीक -ठीक ज्ञात न थे , फिर भी मैं यज्ञक्रियाके वाह्याडम्बरों में कुशल था इसलिये मैंने यज्ञ करानेका धन्धा अपना लिया और यज्ञादि कर्म करानेमें लगा रहता था | लोभ और मोहसे आकृष्ट होकर फिर मैं मूर्खोंका पौरोहित्य करने लगा || ९० || उनके यज्ञ , हवन आदिका कार्य कराने लगा | कदाचित दैवयोगसे यज्ञ कराते समय मेरे उदर में शूल रोग हुआ और उसीसे मृत्युको प्राप्त होगया || ९१ || संयोगवश उस समय मैं एक  ‘ पाञ्चरात्र ’ संज्ञक यज्ञ करा रहा था कि इतनेमें ही मुझे उदरशूल उत्पन्न हुआ और मेरे प्राण निकल गये | और उस पाँच रात्रियोंमें समाप्त होनेवाले यज्ञकी पूर्णाहुति नहीं हुई | अतः मेरी यह स्थिति हुई है | उस दूषित कर्मके प्रभावसे ही , हे मातङ्ग !  मैं ब्रह्मराक्षस हो गया  || ९२ || कल्पशास्त्र के चारों विभागोंके ज्ञानसे रहित  ( कल्पसूत्र , गृह्यसूत्र ,श्रौतसूत्र और शुल्वसूत्र ) मैंने  उस यज्ञमें मन्त्रहीन , स्वरहीन कर्म किया || ९३ || और नियमविरुद्ध प्राग्वंश आदिकी स्थापना की थी  ( परिमाण , रूप और दिशा ज्ञानसे  शून्य ) { प्राग्वंशः प्राग् हविर्गेहात् , यजमान सदसस्पतियों के स्थित्यर्थ होता है } [ यह वेदीके पूर्वकी  ओरमें बनी हुई पत्नी – शाला है , जिसमें घरके स्त्री , बच्चे आदि बैठते हैं | द्रष्टव्य -श्रौतकोश भाग ३ ,  ‘ श्रौतपदार्थनिर्वचनम् ’ 3 | 13 – 15 |  ( यज्ञशाला के पूर्वभागमें जो गृह बनाया जाता है उसको प्राग्वंश कहते हैं ) हवन भी अविधिपूर्वक ही कराया था || 94 || उसी कर्म – दोषके परिणामस्वरूप मुझे यह राक्षसी योनि प्राप्त हुई है | अब तुम अपने गीतका फल देकर मेरा उद्धार करो || ९५ || 

मोचयस्वाधमं पापाद्विष्णुगीतेन सत्वरम् ।।

ब्रह्मरक्षोवचः श्रुत्वा श्वपाकः संशितव्रतः ।।९६।।

बाढमित्येव तद्वाक्यं राक्षसं प्राब्रवीत्तदा ।।

एतस्य मम गीतस्य सुस्वरस्य फलं तु यत् ।।९७ ।।

ददामि राक्षस त्वं चेन्मुच्यसे शुद्धमानसः ।।

यस्तु गायति संयुक्तं गीतकं विष्णुसन्निधौ ।।९८।।

स तारयति दुर्गाणीत्युक्त्वा तद्दत्तवान् फलम् ।।

एवं तस्मात्फलं प्राप्य श्वपाकाद्राक्षसस्तदा।।९९।।

जातः सुविमलो भद्रे शरदीव यथा शशी।।

श्वपाकश्चापि सुश्रोणि मम चैवोपगायकः।। १००।।

कृत्वा सुविपुलं कर्म स ब्रह्मत्वमुपागतः।।

एतद्गीतफलं देवि प्राप्नोति मनुजो भुवि।।१०१।।

मह्यं जागरतो भद्रे गीयमानं मनस्विनि।।

यस्तु गायति सुश्रोणि कौमुदीं द्वादशीं प्रति।।१०२।।

सर्वसंगं परित्यज्य मम लोकं स गच्छति।।

यस्तु गायति गीतानि मम जागरणे सदा।।१०३।।

सर्वसंगात्प्रमुक्तो वै मम लोकं स गच्छति।।

एतत्ते कथितं देवि गायनस्य फलं महत्।।१०४।।

यस्य गीतस्य शब्देन तरेत्संसारसागरम्।।

वादित्रस्य प्रवक्ष्यामि तच्छृणुष्व वसुन्धरे।।१०५।।

विष्णुगीतके पुण्यद्वारा अब मुझ अधमको शीघ्र ही इस पापसे मुक्त कर दो | देवि ! वह चाण्डाल एक उत्तमब्रती व्यक्ति था | ब्रह्मराक्षसकी बात सुनकर || ९६ || उसके वचनोंका सहर्ष उसने अनुमोदन किया , साथही बोला –  ‘ राक्षस ! यदि मेरे गीतके फलसे तुम शुद्धमना एवं क्लेशमुक्त हो सकते हो तो लो , मैंने अत्यन्त सुन्दर स्वरोंसे जो सर्वोत्कृष्ट गान किया है उसीका फल || ९७ || मैं तुम्हें प्रदान करता हूँ | जिससे तुम शुद्धात्मा होकर पापसे छूट जाओगे |  जो पुरुष श्रीहरिके सामने इस भक्ति -संगीतका गान करता है || ९८ || वह लोगोंको अत्यन्त कठिन परिस्थितियोंसे भी तार देता है | ’ ऐसा कहकर उस चाण्डालने उस गीतका फल ब्रह्मराक्षसको दे दिया | भद्रे ! फलतः वह ब्रह्मराक्षस तत्काल || ९९ || एक दिव्य पुरुषके रूपमें परिवर्तित हो गया | ऐसा जान पड़ता था , मानो वह शरद्-ऋतुका चन्द्रमा हो | और हे वसुन्धरे ! मेरा गायक भक्त वह चाण्डाल भी || १०० || अत्याश्चर्यजनक अत्युत्तम कर्मोंको करके ब्राह्मयोनि को प्राप्त हुआ | मेरे गुणयुक्त गीतोंका फल अनन्त है | इस प्रकार पृथ्वीपर  मेरे गीतोंका फल मनुष्योंको प्राप्त होता है || १०१ || हे पृथिवी ! जो मनुष्य मेरे लिये कार्तिकशुक्ला द्वादशी को जागरण करता है , गान करता है || १०२ || वह मेरे जागरण में गान करनेके प्रभावसे सभी प्रकारकी आसक्तियोंसे रहित हो कर मेरे लोक को जाता है || १०३ || वह सब द्वन्दों से मुक्त होकर मेरे लोकमें जाता है | देवि ! यह मैंने भक्ति -संगीतके गायनके श्रेष्ठ फलका वर्णन कर दिया || १०४ ||  जिस गीतके एक शब्दके प्रभावसे मनुष्य संसार -सागरसे तर जाता है | अब जो

( वाद्य का ) बाजा बजानेका फल होता है , उसे बताता हूँ , सुनो || १०५ ||                                 

प्राप्तवान्मानुषो येन देवेभ्यः सबलां स्वयम्।।

शम्पातालप्रयोगेण सन्निपातेन वा पुनः।।१०६।।

नववर्षसहस्राणि नववर्षशतानि च ।।

कुबेरभवनं गत्वा मोदते वै यदृच्छया।।१०७।।

कुबेरभवनाद्भ्रष्टः स्वच्छन्दगमनालयः।।

शम्पादि तालसम्पातैर्मम लोकं स गच्छति।।१०८।।

नृत्यमानस्य वक्ष्यामि तच्छृणुष्व वसुन्धरे।.

मानवो येन गच्छेत्तु च्छित्त्वा संसारबन्धनम्।।१०९।।

त्रिंशद्वर्षसहस्राणि त्रिंशद्वर्षशतानि च।।

पुष्करद्वीपमासाद्य स्वच्छन्दगमनालयः।। ११०।।

फलं प्राप्नोति सुश्रोणि मम कर्मपरायणः।।

रूपवान् गुणवाञ्छूरः शीलवान्सत्पथे स्थितः।।१११।।

मद्भक्तश्चैव जायेत संसारपरिमोचितः।।

यस्तु जागरितो नित्यं गीतवाद्येन नर्त्तकः।।११२।।

जम्बूद्वीपं समासाद्य राजराजस्तु जायते।।

सर्वकर्मसमायुक्तो रक्षिता वै महीपतिः।।११३।।

मद्भक्तश्चैव जायेत मम कर्मपरायणः।।

उपहार्याणि पुष्पाणि मम कर्मपरायणः।।११४।।

यो मामुपनयेद्भूमे मम कर्मपथे स्थितः।।

पुष्पाणि तत्र यावन्ति मम मूर्द्धनि धारयेत्।।११५।।

इसकी सहायतासे वशिष्ठने देवताओंसे शवला नामकी गौको प्राप्त किया था | अथवा जिससे मनुष्य देवताओंके समान बलवाली योनिको प्राप्त होता है |* शम्पा नामक ताल ,और सन्निपात नामक ताल के प्रयोगसे अथवा इनके संयोग -प्रयोगसे || १०६ ||  मनुष्य ९९०० नौ हजार नौ सौ वर्षोंतक कुबेरके भवनमें जाकर इच्छानुसार आनन्दका उपभोग करता है || १०७ ||

   * ( शम्पा और सन्निपात ) 

शम्पा दक्षिणहस्तस्य तालो वामकरस्य तु ९

उभयोः संनिपातः स्यात्तासां मार्गवशान्मितिः १०  सङ्गीतरत्नाकरः पञ्चमस्तालाध्यायः

यह गान्धर्ववेद विषयक नारद संहितान्तर्गत है , वाक्यार्थ यह  है कि दक्षिणहस्तके  अथवा वामहस्तके तालका नाम शम्पा  , और दोनों हाथोंके तालका नाम सन्निपात है | यह मार्ग भेदसे वहाँ पर अच्छी तरह दिखाया है |

  तदनन्तर कुबेर के स्थानसे च्युत होनेपर स्वछन्द गति वाला वह मनुष्य शम्पादि ताल प्रयोगोंसे सम्पन्न होकर स्वतन्त्रतापूर्वक मेरे लोकमें पहुंच जाता है || १०८ || अब जो मनुष्य मेरी आराधनाके समय नृत्य करता है , उसका पुण्य कहता हूँ , सुनो | इसके फलस्वरूप वह संसार – बन्धनको काटकर || १०९ || स्वेच्छानुसार गमनशील होनेकी सिद्धिसे सम्पन्न होकर ३३००० वर्षोंतक पुष्कर द्वीप में जाकर || ११० || मुझको तृप्ति देनेवाले कर्म करता है और रूप ,गुण तथा सुन्दर शीलसे युक्त और सन्मार्गगामी तथा शूरबीर होता है || १११ || जो मानव जागरण करके गीत और वाद्यके साथ मेरे सामने नृत्य करता है , वह मेरा भक्त संसार सागरसे पार होकर शुभ फल प्राप्त करता है || ११२ || तथा वह जम्बूद्वीपमें जन्म पाकर राजाओंका भी राजा होता है और सम्पूर्ण धर्मोंसे सम्पन्न होकर वह सम्पूर्ण पृथ्वीका रक्षक होता है || ११३ || मेरा भक्त मेरी प्रसन्नताके लिये मुझे पुष्प और उपहार अर्पणकर मेरी उपासनामें तत्पर रहता है || ११४ || वसुंधरे ! जो सत्कर्मके पथपर पैर रखकर मेरी पूजा करता है तथा मेरे मस्तक पर जितने पुष्प चढ़ाता है || ११५ || 

स कृत्वा पुष्कलं कर्म मम लोकं स गच्छति।।

एतत्ते कथितं देवि भक्तानां तु महौजसाम्।।११६।।

मम भक्तसुखार्थाय सर्वसंसारमोक्षणम्।।

य एतत्पठते भूमे कल्यमुत्थाय मानवः।।११७।।

स तु तारयते जन्तुर्दश पूर्वान्दशापरान्।।

न पठेन्मूर्खमध्ये तु पिशुनानां पुरो न च।।११८।।

पठेद्भागवतानां च मध्ये मुक्तिरतात्मनाम्।।

अश्रद्दधाने क्रूरे वा न पठेद्देवले तथा।।११९।।

यदीच्छेत्सिद्धिकल्याणं मंगलं च मम प्रियम्।।

धर्माणां परमो धर्मः क्रियाणां परमा क्रिया।। १२०।।

मा पठेच्छास्त्रदूषाय अध्यायं वा कदाचन।।

यदीच्छेत्परमां सिद्धिं मम लोके महीयते।।१२१।।

इति श्रीवराहपुराणे भगवच्छास्त्रे सौकरे चाण्डालब्रह्मराक्षससंवादे सौकरमाहात्म्यं नामैकोनचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।।१३९।। इति तृतीयोऽध्यायः ।। ३ ।। 

उतने ही वर्ष पर्यन्त मेरे लोकमें वास करता है और वह महान् उत्तम कर्मका सम्पादन कर लेता है , अतः वह मेरे लोकमें जानेका अधिकारी हो जाता है | हे देवि ! इस प्रकार मैंने महान् भक्तोंका उपाख्यान वर्णन किया || ११६ || मेरे भक्तोंको सुख देनेके लिये तथा समस्त संसारसे मुक्ति देनेवाले इस माहात्म्यको जो मनुष्य प्रातःकाल उठकर इसका पाठ करता है || ११७ || वह अपने पूर्वकी दस तथा आगे होनेवाली दस पीढ़ियोंको तार देता है | मूर्खों एवं निन्दकोंके सामने इसका प्रवचन नहीं करना चाहिये || ११८ || केवल श्रद्धालु ,मुमुक्षु तथा भगवद्भक्तोंके मध्य ही पढ़े और श्रद्धारहित , क्रूर , शठ तथा देवपूजा करके धनोपार्जन करनेवाले के समक्ष न पढ़े || ११९ || जो अपनी कल्याण सिद्धि चाहें और मुझे प्रसन्न करना चाहें तो उन्हें इन नियमोंका पालन करना चाहिये | क्योंकि यह धर्मोंमें परम धर्म और क्रियाओंमें परम क्रिया है || १२० || जो परम सिद्धिकी इच्छा हो , तो शास्त्रकी निन्दा करनेवाले व्यक्तिके सामने कभी भी इस अध्यायका  कथन नहीं करना चाहिये | इसका पाठ करने से मेरे लोकमें निवास करता है || १२१ || 

इतिश्री सूकरक्षेत्र वास्तव्य श्रीद्विवेदि नारायणात्मज श्रीरामनाथ शिष्य विद्या विनोद दशरथ शर्म सिद्धांत वागीश शास्त्रि विरचित मिताक्षराख्य भाषावृत्ति विभूषिते श्रीभगवच्छास्त्रे वाराह पुराणे सूकरक्षेत्रमाहात्म्यं नाम  एकोनचत्वारिंशदधिकशततमेऽध्याये  चाण्डालब्रह्मराक्षससंवाद वर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ।। ३ ।। 

     ||अथ सूकरक्षेत्रमाहात्म्ये चतुर्थोऽध्यायः ||४ ||

सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

पुनरन्यत्प्रवक्ष्यामि  तच्छ्रुणुष्व वसुन्धरे ।।

सूकरक्षेत्रमाहात्म्यं यथाभूतं महद्धरे ।। १ ।।

शत्रुघ्नेन पुरा घोरो लवणः सूदितो यथा ।।

द्विजानुग्रहकामार्थमन्नमुग्रस्वरूपिणम् ।। २ ।।

द्वादश्यां मार्गशीर्षस्य उपोष्य नियतः शुचिः ।।

यः करोति वरारोहे शत्रुघ्नचरितं यथा ।। ३ ।।

द्विजानां प्रीणनं कृत्वा स्वधान्नवहुभोजनैः ।।

लवणस्य वधादेव शत्रुघ्नस्य शरीरके ।। ४ ।।

हर्षस्तु सुमहाञ्जातो रामस्याक्लिष्टकर्मणः ।।

अयोध्यातः समायातो रामः सबलवाहनः ।। ५ ।।

महोत्सवं च कर्तुं स शत्रुघ्नस्य महात्मनः ।।

सितामाग्रहणीं प्राप्य शूकरं  राक्षसान्तकः ।। ६ ।।

एकादश्यां सोपवासः स्नात्वा विश्रान्तिसंज्ञके ।।

कृत्वा महोत्सवं तत्र कुटुम्बसहितः पुरा ।। ७ ।।

तस्मिन्भुक्त्वा यथाकामं ब्राह्मणान्वै प्रतर्प्य च ।।

देवर्षिपितृन्सन्तर्प्य पिण्डंदत्वा यथाविधि ।। ८ ।।

अयोध्याधिपतिः श्रीमान् अव्रवीत्स्वजनान्तदा ।।

आदिकल्पे च वाराही तनुमास्थाय भो जनाः ।। ९ ।।

दानवेन्द्रं पुराजित्वा धरामुद्धृत्य दंष्ट्रया ।।

ऊषलेषु महत्पुण्यं ज्ञात्वा शौकरवं भुवि ।। १० ।।

मार्गशीर्षिं सितांपुण्यां सम्प्राप्यैकादशीं तिथिम्  ।।

उपवासन्ततः कृत्वा रात्रिजागरणन्तथा  ।। ११ ।।

ततः प्रभाते विमले स्नात्वा शौचं विधाय च ।।

चैतन्यांशे स्वचैतन्यं संयोज्याभ्युदितेरवौ ।। १२ ।।

द्वादश्यां शौकरीं मूर्तिं त्यक्त्वाऽगां निज मन्दिरम्  ।।

एषा च महतीपुण्या मोक्षदा पापनाशिनी ।। १३ ।।

हे वसुंधरे ! अब और भी जैसा कि घटित हुआ है वह सूकरक्षेत्र माहात्म्य का वर्णन करूँगा , उसे श्रवण करो || १ || भगवान् वराह कहते हैं – देवि ! प्राचीन समयकी बात है – मथुरामें लवण नामक एक राक्षस था | ब्राह्मणोंकी रक्षाके लिये सूर्यवंशीय राजपुत्र शत्रुघ्नने उसका वध किया था और देवद्विजहितार्थ परम पावन अन्नादि की रक्षा की || २ || मार्गशीर्ष शुक्ला द्वादशी तिथिके अवसरपर वहाँ संयमपूर्वक पवित्र रहकर स्नान करना , उपवास करना और शत्रुघ्नके चरित्रका वर्णन करना चाहिये ( शत्रुघ्नलीला करनी चाहिये ) || ३ ||  लवणासुरके वध करनेसे शत्रुघ्नको अपने शरीरमें पापकी आशङ्का हो गयी थी | उसे दूर करनेके लिये उन्होंने सुस्वादु अन्नोंसे ब्राह्मणोंको तृप्त किया था || ४ ||  इस समाचारसे अक्लिष्ट कर्मा भगवान् श्रीरामको अत्यन्त आनन्द मिला | अतः वे अपनी सेनाके साथ  अयोध्यासे मथुरा आये || ५ || महात्मा शत्रुघ्नके महोत्सवार्थ  उन्होंने इसके उपलक्ष्यमें महान् उत्सव किया फिर मथुराकी तरफ यात्रा करते हुए मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी को सूकरक्षेत्रमें पधारे || ६ || 

एकादशीके दिन स्नान करके विश्रान्त नामक स्थानपर उपवास पूर्वक कुटुम्ब तथा साथमें आये हुए अन्य जनों के साथ महोत्सव किया || ७  ||  देव ,ऋषि , पितृ तर्पण एवं यथाविधि पिण्डदान करने के बाद ब्राह्मणों को इच्छा भोजन से तृप्त किया || ८  || अयोध्यानाथ श्रीरामचन्द्रने अपने स्वजनों से कहा कि कल्पके आदि में मैंने वराह रूप धारण किया था || ९ || और दैत्येश्वर हिरण्याक्ष को मारकर , अपनी दाढ़पर पृथ्वीको उठाया और नौ ऊषरों में अतिपवित्र सूकरनामा ऊषर को सर्वश्रेष्ठ जानकर पृथ्वीको यहाँ स्थापित किया || १० || तदनन्तर मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी के दिन उपवास करके रात्रिमें जागरण किया || ११ || तदुपरान्त प्रातःकाल में स्नान शौचादि कर्मसे निवृत्त होकर सूर्योदय के समय अपने व्यष्टि चैतन्यांशको समष्टिके शुद्ध चैतन्यांशमें युक्तकर || १२ || द्वादशी के दिन वाराहमूर्तिको त्यागकर  निज वैकुण्ठ धामको चला गया | अतः यह तिथि अतिपवित्र , पाप नाशकर्त्री तथा मोक्षदात्री है || १३ || 

अस्यां दृष्ट्वाच मां धीमान् स्नात्वा संतर्प्य मानवः || 

पीत्वा गंगोदकं लोके पुनर्जन्म न विद्यते  || १४  || 

एवमेव करिष्यन्ति मानवाश्च कलौ भुवि || 

इत्युक्त्वा तरसा रामो विमानवरमास्थितः || १५ || 

क्षणादेवगतस्तैश्च मथुरां लवणान्तकम् || 

शत्रुघ्नं च परिष्वज्य स्नात्वा विश्रान्ति संज्ञके || १६ ||

कृत्वा जयोत्सवं तत्र कुटुम्बसहितस्तदा || 

भोजयित्वा यथाकामं नानाभोज्यैश्च माथुरान् || १७ || 

मुमोद भ्रातृभिः सार्धं किञ्चिद्वास मकल्पयत् || 

जगाम च पुनर्रामो अयोध्यां स्वजनैः सह || १८ || 

तस्मिन्नहनि यः कुर्यात्सतत्रैव  महोत्सवम् ।।

सर्वपापविनिर्मुक्तः पितृभिः सह मोदते ।। १९ ।।

स्वर्गलोके चिरं कालं यावत्स्थित्यन्तजन्मनः ।। २० ।।

इति श्रीवराहपुराणे भगवच्छास्त्रे शत्रुघ्नलावणे रामतीर्थयात्रा वर्णन नाम्नि  अष्टसप्तत्यधिकशततमेऽध्याये सित मार्गशीर्ष द्वादशी महोत्सव वर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः  ।। ४ ।।

इस  तिथिको स्नान तर्पणादि करके गंगाजलका पान करके जो मेरे दर्शन करता है , उसका संसारमें पुनः जन्म नहीं होता है अर्थात् जीवन मरण से छूट जाता है || १४ || 

कलियुगमें पृथ्वीपर मनुष्य इस उत्सव को ऐसेही करेंगे ऐसा कहकर श्रीरामचन्द्रजी शीघ्रही पुष्पक नामक विमानपर बैठकर || १५ || क्षणमात्रमें मथुराधाम  पहुंचगये और लवणासुर नाशक शत्रुघ्नसे मिलकर विश्रान्त नामक स्थानपर स्नान किया || १६ || तदनन्तर कुटुम्ब सहित मथुरामें जयोत्सव मनाया गया और नानाप्रकारके भोज्य पदार्थोंसे माथुर ब्राह्मणोंको इच्छाभोजन कराया || १७ || तथा लक्ष्मणादि भाइयों के साथ आनन्द मनातेहुए कुछ कालतक मथुरामें ही निवास किया फिर स्वजनों सहित तीर्थयात्रा समाप्तकर अयोध्याकी तरफ प्रस्थान किया || १८ || उस द्वादशी दिन जो वहाँ मथुरामें उत्सव मनाता है , वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर पितरोंके साथ आनन्द करता है || १९ || और कल्पके आदिसे अबतक जितने जन्म हुए हों उतने वर्षोंतक अथवा  दीर्घ कालतक अर्थात् प्रलयपर्यन्त स्वर्गलोकमें निवास करता है   ।। २० ।।

सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

इतिश्री सूकरक्षेत्र वास्तव्य श्रीरामनाथशास्त्रि  शिष्य विद्याविनोद दशरथशर्म 

सिद्धांत वागीश शास्त्रि विरचित मिताक्षराख्य भाषावृत्ति विभूषिते श्रीभगवच्छास्त्रे वराह पुराणे शत्रुघ्नलावणे रामतीर्थयात्रावर्णनं  नाम्न्यष्टसप्तत्यधिकशततमेऽध्याये सित मार्गशीर्ष द्वादशी महोत्सव वर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः ।। ४ ।। 

          || अथ सूकरक्षेत्रमाहात्म्ये पञ्चमोऽध्यायः ||५ ||

सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

धरण्युवाच ।।

तवापराधाद्देवेश वर्ज्योऽयं वैष्णवेन च ।।

विनापराधो मनुजः सापराधश्च जायते ।। १ ।।

कर्मणाचरणेनैव करणेन जुगुप्सितः ।।

तच्च पूजाफलं सर्वं ज्ञायते तद्वदस्व मे ।। २ ।।

श्रीवराह उवाच ।।

कर्मणा मनसा वाचा ये पापरुचयो जनाः ।।

भक्षणं दन्तकाष्ठस्य राजान्नस्य तु भोजनम् ।। ३ ।।

मैथुनं शवसंस्पर्शं पुरीषोत्सर्गमेव च ।।

सूतक्युदक्याप्रेक्षा च स्पर्शनं मेहनं तथा ।। ४ ।।

अभाष्य भाषणं कोषं  पिण्याकस्य च भक्षणम् ।।

रक्तपारक्यमलिनवस्त्रधारित्वनीलिजम् ।। ५ ।।

गुरोश्चालीकनिर्बन्धः पतितान्नस्य भक्षणम् ।।

अभक्ष्य भक्षणं चैव तण्डुलीयविभीतकम् ।। ६ ।।

अदानं तुवरान्नस्य जालपादवराकयोः ।।

भक्षणं देवतागारे सोपानत्कोपसर्पणम् ।। ७ ।।

तथैव देव पूजायां निषिद्धकुसुमार्च्चनम् ।।

अनुत्तार्य च निर्माल्यं पूजा क्षीणान्धकारयोः ।। ८ ।।

पानं सुराया देवस्य अन्धकारे प्रबोधनम् ।।

तावत्कर्मार्च्चने विष्णोरनमस्करणं तथा ।। ९।।

अपराधास्त्रयस्त्रिंशत्समाख्याता मया धरे ।।

एभिर्युक्तस्तु पुरुषो विष्णुं नैव प्रपश्यति ।। १० ।।

पृथ्वी बोली हे देवेश ! जो अपराधी जन बिष्णुभक्तोंके लिये अस्पृश्य हैं और निरपराधी जन भी जिन कारणों से अपराध युक्त माने जाते हैं || १ || तथा जिन कर्मोंके करने और न करने से समस्त  पूजा फल निन्दित जाना जाता है  इस विषय को विस्तार से बताने की कृपा करें || २ ||  भगवान वराह कहते हैं – मन , वाणी अथवा कर्म किसी प्रकार से भी पाप -कर्ममें रुचि रखना अपराध है | मैं तुम्हें अपराधों की सूची बताता हूँ |       

  ( १ ) दंतधावन न करना | 

  ( २ ) राजाके अन्न का खाना | 

  ( ३ ) ऋतु को त्याग कर मैथुन करना | 

  ( ४ ) मुर्दा का स्पर्श करना | 

  ( ५ ) मल त्यागकर अशुद्ध रहना | 

  ( ६ ) जनन सूतकवाली स्त्रीका स्पर्श संगमादि , सूतकवाले व्यक्तिका जलग्रहण , स्पर्श | 

  ( ७ ) रजस्वला का देखना | 

  ( ८ ) रजस्वला का स्पर्श | 

  ( ९ ) रजस्वला का भोग करना | 

  ( १०) नीच { म्लेच्छ ,पतित ,नास्तिकादि } के साथ सम्भाषण करना | 

  (११ ) दूसरेके द्वारा एकत्रित धनको हड़प लेना | 

  (१२ ) तिलकल्क { तिलकी खली } को खाना अथवा लोवान का स्पर्श ,धूपादि देना | 

  (१३ ) रुधिर जैसे रंगीन वस्त्रको धारण करना | 

  ( १४) दूसरेके धारण किये हुए वस्त्रको धारण करना | 

  (१५ ) मलिन वस्त्र धारण करना | 

  (१६ ) नीले रंग वाला वस्त्र धारण करना || ३ || ४ || ५ ||  

  ( १७) गुरुकी आज्ञा का भंग करना { गुरुसे असत्य भाषण करना } | 

  (१८ ) पतितके अन्नका भक्षण करना | 

  (१९ ) अभक्ष्य भक्षण करना | 

  (२० ) चौराई { चौलाई } के शाक का खाना | 

  (२१ ) बहेड़े का खाना || ६ || 

  (२२ ) श्रेष्ठ अन्नको न देना | 

  (२३ ) शीप , घोंघा,बतक आदि नीच जल जंतुओंका भक्षण | 

  (२४ ) लुटेरे आदिका धन लेना | 

  (२५ ) मन्दिर में देवमूर्तिके समक्ष भोजन करना | 

  (२६ ) उपानह { जूता } सहित देव मन्दिरमें जाना || ७ ||  

  (२७) देव पूजनमें निषिद्ध पुष्पोंको चढ़ाना | 

  (२८ ) देव निर्माल्यको को विना उतारे पूजन करना | 

  (२९ ) अंधकार में देवपूजन करना | 

  (३० ) क्षीण [ विधि रहित ] देवपूजन करना || ८ || 

  (३१ ) मदिरा पीना | 

  (३२ ) अन्धकारमें इष्टदेवताको जगाना | 

  (३३ ) भगवान् को नमस्कार न करना || ९ || 

 भगवान की पूजा किये बिना सांसारिक काम में प्रवृत्त हो जाना – ये सभी अपराध हैं | वसुधे ! इस प्रकार के तैंतीस अपराधों को मैंने स्पष्ट कर दिया | इन अपराधों से युक्त पुरुष परम प्रभु श्रीहरिका दर्शन नहीं पा सकता || १० || 

दूरस्थाने  नमस्कारं कुर्यात्पूजा तु राक्षसी।।

एकरात्रं द्विरात्रं वा त्रिरात्रं स्नानमेव च ।। ११ ।।

सवासाः पंचगव्याशी मलसंवस्त्रकं क्रमात् ।।

नीलीवस्त्रापनोदार्थं गोमयेन प्रघर्षणम् ।। १२ ।।

प्राजापत्येन शुद्धिः स्यान्नीलीवस्त्रस्य धारणात् ।। 

चान्द्रायणद्वयं कुर्याद्गुरोः क्षयितमुत्तमम् ।। १३ ।।

चान्द्रायणं पराकं च पतितान्नस्य भक्षणात् ।। 

चान्द्रायणं पराकं च प्राजापत्यं तथैव च ।। १४ ।।

गोप्रदानं च भोज्यं च अभक्षस्य च भक्षणे ।। 

उपवासस्तु पंचाहं पंचगव्येन शुद्ध्यति।। १५ ।।

सोपानत्कश्चरेत्पाद कृच्छ्रस्य द्विरभोजनम् ।।

पुष्पाभावेऽर्च्चनं स्नानं देवस्पर्शं च कारयन् ।। १६ ।।

अनिर्माल्यनमस्कारं स्नानं पंचामृतेन तु ।। 

सुरापाने द्विजातीनां चान्द्रायणचतुष्टयम् ।। १७ ।।

तथैव द्वादशाब्दं तु प्राजापत्यत्रयं चरेत् ।। 

ब्रह्मकूर्च्चेन शुद्धिः स्याद्गोप्रदानत्रयेण च ।। १८ ।।

त्रयाणामेकरात्रेण पंचामृतनिषेवणात् ।। 

मुच्यते त्वपराधैस्तु तथा विष्णोः स्तवं पठन् ।। १९ ।।

एतत्ते कथितं गुह्यं किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि ।। 

पुनः पुनरुवाचेदं देवदेवो जनार्दनः ।। २० ।।

यदि वह दूर रहकर भी पूजा एवं नमस्कार करे तो उसका वह कर्म राक्षसी माना जाता है | अथवा पूजाकाल में दूर खड़ा रहे एवं नमस्कार न करे तो वह पूजा राक्षसी होती है | अब क्रमशः इनकी शुद्धिका प्रकार यह है – मैले वस्त्रसे दूषित व्यक्ति एकवार ,दो वार या तीनवार जितने अपराध बनपड़े हों उतनी ही रात्रि क्रमसे एक रात , दो रात अथवा तीन रातोंतक || ११ ||  ब्रत करे और उतने ही वार वस्त्र पहने ही स्नान करे और पञ्चगव्य

 { गोमूत्रं गोमयं गव्यं दधि दुग्ध   घृतं तथा ।। पञ्चगव्यमिदम्प्राहुर्मनुजादीर्घदर्शिनः।। }पिये तो उसकी शुद्धि हो जाती है | नीला वस्त्र पहननेके पापसे बचनेके लिये मानव गोमयद्वारा अपने शरीरकी भलीभाँति मालिस करे || १२ || और ‘ प्राजापत्य ’ ब्रत करे तो वह पवित्र हो जाता है |तथा चोक्तम् – त्र्यहं नक्तस्त्र्यहं प्रातस्त्र्यहमद्यादयाचितम् | 

 त्र्यहं  चोपवसेदेवं प्राजापत्यं चरन् द्विजः । अर्थात् तीन दिन रात को भोजन करे , तीन दिन प्रातः , तीन दिन  अयाचित और तीन दिन उपवास करने से प्राजापत्य व्रत होता है |  गुरुके प्रति बने हुए पापसे मुक्तिके लिये मनुप्रोक्त दो  ‘ चान्द्रायण ’ ब्रत करने का विधान है  || १३ ||  “तिथिवृद्ध्या चरेत्पिण्डान् शुक्लेशिख्यण्डसंमितान् । एकैकं ह्रासयेत् कृष्णे, पिण्डञ्चान्द्रायणञ्चरन्”  अर्थात् शुक्लपक्ष में एक एक ग्रास बढ़ाता जाय और कृष्णपक्ष में एक एक ग्रास घटाता जाय तथा अमावास्याको उपवास करनेसे चांद्रायण व्रत होता है  | पतितका अन्न खा लेनेपर   ‘ चान्द्रायण ’ और   ‘ पराक ’ ब्रत करनेसे शुद्धि होती है | { 12 दिनों का सर्वथा उपवास ‘ पराक व्रत है ’ }  और अभक्ष्य भक्षण जन्य दोषकी निवृत्तिके लिये एक चान्द्रायण तदनन्तर प्राजापत्य ब्रत करे || १४ || और गोदान , ब्राह्मणोंको भोजन , जातीय जनोंको भोजन दान करे तथा पाँच दिनके  उपवास के बाद पञ्चगव्यप्राशन करनेसे शुद्धि होती है || १५ || जूता पहनकर मन्दिरमें जानेवाला मानव ‘ कृच्छ्रपाद ’ ब्रत और दो दिन उपवास करे | ‘ कृच्छ्रपाद ’ ब्रत अनेक प्रकारका होता है ,सामान्य रूपसे तीन दिनतक दिनमें एकवार पञ्चगव्य प्राशन से कृच्छ्र व्रत संपन्न होता है तथा सात दिनतक करने से सन्तापन व्रत सम्पन्न होता है | और जबतक शुद्धिकी प्रकिया चले तबतक सवारी आदिका परित्याग करदेवे | और पुष्पोंके बिना पूजा , और स्नान बिना देवताओंका स्पर्श || १६ ||  और निर्माल्यको हटाए बिना पूजा तथा पूजाके समयमें नमस्कार न किया हो तो  ‘‘ दधि दुग्ध घृतं गव्यं शर्करा मधु वारि च || गांगं पञ्चामृतं प्रोक्तं शास्त्रविद्भिश्च सूरिभिः || ’’  इत्युक्त लक्षण पञ्चामृतसे स्नान करे | मदिरा -पानके पापसे शुद्ध होनेके लिये ब्राह्मण , क्षत्रिय और वैश्यको चाहिये कि चार ‘ चान्द्रायण ’ ब्रत करे || १७ || तदनन्तर बारह वर्षोंतक तीन  ‘ प्राजापत्य ’ ब्रत करे और ब्रह्मकूर्च से समन्त्रक स्नान करे तथा तीन गोदान करे || १८ || तीनों द्विजाति वर्ण  ( ब्राह्मण , क्षत्रिय और वैश्य ) नीचस्पर्श ,नीचसंग , नीच सम्भाषण करें तो एक रात्रि पञ्चामृत सेवन करनेसे शुद्ध होता है तथा विष्णु स्तोत्रोंका पाठ करनेसे मनुष्य अपराधोंसे मुक्त होता है || १९ || हे पृथिवी ! यह गुह्य मैंने तुम्हें बताया अब और क्या सुनना चाहती हो ? ऐसे बार बार देवाधिदेव वराह भगवान कहने लगे || २० || 

मोहङ्गता तु शृणुते नष्टसंज्ञेव लक्ष्यते ।।  

मुहुर्त्तमात्रे सा देवी संज्ञां प्राप्येदमब्रवीत् ।। २१ ।।

अपराधे कृते देव सूतकी हि प्रजायते ।। 

प्रायश्चित्तानि भूरीणि कृतानि तु नरैः सदा ।। २२ ।।

तेन मे मनसो मोहः दुःखदो यः समभ्ययात् ।। 

अस्ति कश्चिदुपायोऽत्र येन त्वं नृषु तुष्यसि ।। २३ ।।

पूजितः सफलश्चासि अपराधविशोधनम् ।। 

श्रीवराह उवाच ।।

संवत्सरस्य मध्ये तु तीर्थे सौकरवे मम ।। २४ ।।

कृतोपवासः स्नानेन गंगायां शुद्धिमाप्नुयात् ।। 

मथुरायां तथाप्येवं सापराधः शुचिर्भवेत् ।। २५ ।।

अनयोस्तीर्थयोरेवं यः सेवेत सकृन्नरः ।। 

सहस्रजन्मसु कृतानपराधाञ्जहाति सः ।। २६ ।।

स्नानात्पानात्तथा ध्यानात्कीर्त्तनाद्धारणात्तथा ।।

श्रवणान्मननाच्चैव दर्शनाद्याति पातकम् ।। २७ ।।

पृथिव्युवाच ।।

मथुरा सूकरं चैव द्वावेतौ तव वल्लभौ ।। 

विशिष्टमनयोः किं च सत्यं ब्रूहि सुरेश्वर ।। २८ ।।

श्रीवराह उवाच ।।

पृथिव्यां यानि तीर्थानि आसमुद्रसरांसि च ।। 

कुब्जाम्रकं प्रशंसन्ति सदा मद्भावभाविताः ।। २९ ।।

तस्मात्कोटिगुणं गुह्यं सौकरं तीर्थमुत्तमम् ।।

एकाहं मार्गशीर्ष्यां च द्वादश्यां सितवैष्णवम् ।। ३० ।।

पृथ्वी देवी मोहित सी हो कर यह सब सुनती रही और वेहोश जैसी दिखने लगी | फिर थोड़ी देरके बाद कुछ सावधान हो कर बोली || २१ || हे देव ! अपराध करनेसे मनुष्य सूतकी होता ही है और उन अपराधोंकी निवृत्तिके लिये बहुतसे दुष्कर प्रायश्चित्तोंका विधान है || २२ ||  यह सब सुनकर मेरे मनमें दुःख देनेवाला मोह उत्पन्न हो गया है | अतः कोई अन्य सुकर उपाय हो तो कहिये जिससे आप मनुष्यों पर प्रसन्न हो सकें || २३ || और पूजन करनेसे आप फल दे सकें  तथा अपराधोंकी शुद्धि हो सके | यह सुनकर वराहजी बोले , हे पृथिवी ! वर्षमें एकबार भी मेरे सूकरक्षेत्रमें || २४ || उपवास करके यदि गङ्गा स्नान करे तो सर्व अपराधोंसे रहित हो कर शुद्धि को प्राप्त करता है | और उसी प्रकार मथुरामें भी स्नान -उपवास करनेसे अपराधी मानवकी  शुद्धि सम्भव है || २५ || जो मनुष्य इन दोनों तीर्थोंका उक्त प्रकारसे एक बार भी सेवन करता है तो वह हजार जन्मोंके किये हुए पापोंसे मुक्त हो जाता है || २६ || श्रीगङ्गाजी और यमुनाजी में स्नान ,जलपान तथा भगवान् के ध्यान – धारणा , नामकीर्तन से, मेरे भजन से तथा मेरे चरित्रके श्रवण से एवं मेरे दर्शन करने से भी समस्त पातक पलायन कर जाते हैं || २७ || पृथ्वी ने पूछा – सुरेश्वर ! मथुरा और सूकरक्षेत्र ये दोनों ही तीर्थ आपको अधिक प्रिय हैं | परन्तु इन दोनों में विशिष्ट कौनसा है ? यह बात सच सच बतानेकी कृपा कीजिये  || २८ ||  भगवान् वराह कहते हैं – वसुधे ! छोटी -छोटी नदियोंसे लेकर समुद्रपर्यन्त पृथ्वीपर जितने तीर्थ हैं , उन सबमें   ‘ कुब्जाम्रक ’ तीर्थ { ऋषिकेश }  श्रेष्ठ माना जाता है | मेरी श्रद्धासे सम्पन्न सत्पुरुष सदा उसकी प्रशंसा करते हैं || २९ ||  कुब्जाम्रकसे भी कोटिगुना अधिक फलदाता , परम गुह्य , अतिपवित्र, सर्वोत्तम सूकरक्षेत्र है | जिसमें मार्गशीर्ष शुक्ला द्वादशीको स्नान करने से मनुष्य जीवन्मुक्त पदको प्राप्त करता है क्योंकि उस दिवस श्वेतवराह नामक पर्व होता है || ३० ||  

गंगासागरिकं नाम पुराणेषु च पठ्यते ।। 

गुह्याद्गुह्यतरं पुण्यं माथुरं मम मण्डलम् ।। ३१ ।।

फलं परार्द्धगुणितं सिततीर्थान्न संशयः ।। 

अटित्वा सर्वतीर्थानि कुब्जाम्रादीनि नित्यशः ।। ३२ ।।

अघं विनश्यते क्षिप्रं मथुरामागतस्य च ।। 

तथैव सूकरक्षेत्रं मनुजस्य वसुन्धरे ।। ३३ ।। 

विश्रमणाच्च विश्रान्तिस्तेन संज्ञा वरा मम ।।

सारात्सारतरं स्नानं गुह्यानां गुह्यमुत्तमम् ।। ३४ ।। 

गतिरन्वेषणीयानां मथुरा परमा गतिः ।।

कुब्जाम्रके सौकरे च मथुरायां विशेषतः ।। ३५ ।। 

विना सांख्येन योगेन मुच्यते नात्र संशयः ।।

या गतिर्योगयुक्तस्य ब्राह्मणस्य मनीषिणः ।। ३६ ।। 

सा गतिस्त्यजतः प्राणान्मथुरायां न संशयः ।।

एतत्ते कथितं सारं मया सत्येन सुव्रते ।। ३७ ।। 

न तीर्थं मथुराया हि न देवः केशवात्परः ।। 

ततोऽति पुण्यफलदं सूकरं जान्हवीतटे  ।। ३८ ।। 

इति श्री भगवच्छास्त्रे वराहपुराणे  अपराधप्रायश्चित्तमाहात्म्यनाम्न्यूनाशीत्यधिक शततमेऽध्याये  सूकरक्षेत्र माहात्म्यवर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः  ।। ५ ।।

एक समयकी बात है -मार्गशीर्षके शुक्ल पक्षकी द्वादशी तिथिको मैं  ‘ सितवैष्णव ’ तीर्थ  

 ( गङ्गासागर ) तीर्थमें गया | पुराणोंमें सितवैष्णव ’ तीर्थ को   ( गङ्गासागर ) तीर्थ कहा गया है | उस गङ्गासागर से भी अधिक फलदाता अति पवित्र मेरा मथुरा मण्डल है || ३१ || यहाँ मथुरामें उस  ‘ सिततीर्थसे ’ ( गङ्गासागरसे )  परार्ध गुना अधिक फल सुलभ होता है | इसमें कोई संशय नहीं है |  ‘ कुब्जाम्रक ’ आदि सभी तीर्थोंमें नित्यही भ्रमण करनेके पश्चात् || ३२ || जब मानव मथुरामें आता है तब उसके समस्त पाप शीघ्रही नष्ट हो जाते हैं | और उसी प्रकार सूकरक्षेत्र में आये हुए मनुष्यके पाप शीघ्रही नष्ट हो जाते हैं || ३३ || इन तीर्थोंमें पापोंका विश्राम ( नाश ) होनेसे इसकी विश्रान्ति संज्ञा है | अथवा भ्रमण करते हुए जहाँ मैंने विश्राम किया इसलिये उस स्थानका नाम  विश्रान्तितीर्थ  पड़गया | वह स्थान सारोंका सार , गोपनीयोंमें भी परम गोपनीय है | वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य निष्पाप होता है , उसे परम उत्तम फल मिलता है || ३४ || [  उग्रः संवत्सरो दक्षो विश्रामो विश्वदक्षिणः॥४५॥ ] विष्णु सहस्रनाम

गतिका अन्वेषण करनेवाले व्यक्तियोंके लिये मथुरा परम गति है | मुमुक्षुजनों को मुक्तिदात्री मथुरा पुरी है |

 ‘ कुब्जाम्रक ’ और सूकरक्षेत्र तथा मथुरापुरीमें || ३५ || सांख्ययोग और कर्मयोगके अनुष्ठानके बिना भी इन तीर्थोंकी कृपासे मानव मुक्त हो जाता है , इसमें कोई संशय नहीं है | योगसे सम्पन्न विद्वान् ब्राह्मणके लिये जो गति निश्चित है || ३६ ||  वही गति मथुरामें प्राण – त्याग करनेसे साधारण व्यक्तिको भी प्राप्त हो जाती है | यह निःसन्देह है | सुब्रते ! यह सत्यका सार मैंने तुम्हें कहा है || ३७ || मथुरासे उत्तम न कोई दूसरा तीर्थ है और न केशवसे श्रेष्ठ कोई देवता है | मथुरासे अधिक पुण्य फलदाता श्रीगङ्गाजी के तट पर मेरा सूकरक्षेत्र है || ३८ ||   

सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

इतिश्री सूकरक्षेत्र वास्तव्य श्रीद्विवेदि नारायणात्मज श्रीरामनाथशास्त्रि  शिष्य विद्याविनोद दशरथशर्म सिद्धांत वागीश शास्त्रि विरचित मिताक्षराख्य भाषावृत्ति विभूषिते श्रीभगवच्छास्त्रे वराह पुराणे अपराधप्रायश्चित्तमाहात्म्यनाम्न्यूनाशीत्यधिक शततमेऽध्याये     सूकरक्षेत्र माहात्म्यवर्णनं नाम  पञ्चमोऽध्यायः ।। ५ ।। 

                         || अथ सूकरक्षेत्रमाहात्म्ये   षष्ठोऽध्यायः || ६ || 

सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

ये वसंति महाभागे मथुरामितरे जनाः ।। 

तेऽपि यान्ति परां सिद्धिं मत्प्रसादान्न संशयः ।। १।।

कुब्जाम्रके सौकरवे मथुरायां विशेषतः ।। 

विना सांख्येन योगेन मत्प्रसादान्न संशयः ।।२।। अध्याय १५२ श्लोक २० ,२१ || 

विश्रान्तिसंज्ञकं नाम तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम् ।। 

यस्मिन्स्नातो नरो देवि मम लोकं प्रपद्यते ।। ३।।

न च यज्ञैर्न तपसा न ध्यानैर्न च संयमैः ।।

तत्फलं लभते स्नातो यथा विश्रान्तिसंज्ञके ।। ४ ।।अध्याय १५२ श्लोक ३३ ; ३४ 

सोमवारे त्वमायां वै पिण्डदानं करोति यः ।। 

पितरस्तस्य तृप्यन्ति कोटिवर्षशतान्यलम् ।। ५ ।। अध्याय १५७ श्लोक ३० 

सोमवत्याममायाञ्च पितृपक्षे क्षयाह्वके ।। 

पितृणां यादृशी तृप्तिः पिण्डदानाद्वसुन्धरे ।। ६ ।।

सौकरवे मत्प्रसादात्तादृषी तु दिनेदिने ।।

गयायां च प्रयागे च गङ्गासागर संगमे ।। ७ ।।

नैमिषे पुष्करे पृथ्वि सूकरे च विशेषतः ।।

तृप्तिं प्रयान्ति पितरो अक्षयां मत्प्रसादतः ।। ८  ।। 

{ गोकर्ण ज्येष्ट संबादप्रस्ताव वर्णन पुरस्सरं पृथिविम्प्रत्याराम माहात्म्यम् } 

।।  गोकर्ण उवाच ।।

आराम कर्तुः किञ्चात्र फलं भवति यादृशम् ।। 

करणात्कूप देवानां तस्य पुण्य फलं वद ।। ९ ।।

।। ज्येष्टो वाच ।।

इष्टापूर्तं द्विजातीनां प्रथमं धर्म साधनम् ।।

इष्टेन लभते स्वर्गं पूर्ते मोक्षं च विन्दति ।। १० ।।

 हे पृथिवी ! जो मानव मथुराजी में निवास करते हैं वे भी मेरे प्रसादसे निःसंदेह सिद्धि को प्राप्त होते हैं || १ ||  और  कुब्जाम्रक , सूकरक्षेत्र और मथुराजी में बिना सांख्य व योग के केवल निवास करने से ही मुक्ति मेरी कृपाके प्रभावसे होती है  – ये परम विशिष्ट तीर्थ हैं , जहाँ योग -तपकी साधना न रहनेपर भी इन स्थानोंके निवासी सिद्धि पा जाते हैं , इसमें कोई संशय नहीं है || २ || इति सूकरक्षेत्र निवास माहात्म्यम् ||  सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

 हे पृथिवी त्रिलोकमें विख्यात विश्रान्ति नामक तीर्थ में स्नान करके मनुष्य मेरे लोकको प्राप्त होता है ।। ३ ।।

जो फल न यज्ञ से , न तप से , न ध्यान करनेसे और न संयमादि योग से सुलभ हो पाता है , वह केवल विश्रांति तीर्थमें  स्नानसे उपलब्ध हो जाता है ||४||  इति विश्रांति स्नानफलम् ।। 

हे वसुन्धरे ! सोमवती अमावास्या तिथिको जो पिण्डदान करता है , उसके पितर सौ करोड़ वर्षोंतक तृप्त रहते हैं  ।। ५ ।। और आश्विन कृष्ण पितृपक्ष में यदि सोमवती अमावास्या को क्षयाह हो तो उसदिन पिण्डदान करनेसे जैसी तृप्ति पितरोंको होती है || ६ || वैसी ही तृप्ति मेरे प्रसादसे प्रतिदिन सूकरक्षेत्रमें प्राप्त होती है | गयाजी व प्रयाग तथा गङ्गासागर संगमतीर्थ || ७ || और नैमिषारण्य , पुष्कर एवं  विशेषतः सूकरक्षेत्र में  पिण्डदान करनेसे मेरे प्रसादसे पितरोंकी अक्षय तृप्ति होती है || ८ || इति पिण्डदान माहात्म्यम् ||  अब भगवान् वराह उद्यानकी अधिष्ठात्री देवी ज्येष्ठादेवी और गोकर्णके  बीच हुए  संवाद में बगीचा लगानेके माहात्म्यका वर्णन करते हैं  | { यह कथा वराह पुराणके अध्याय १७२ में है } गोकर्ण ने पूछा देवी ! संसारमें बगीचा लगानेवालेको क्या फल मिलता है तथा जो कुआँ तथा देवमन्दिरका निर्माण करता है , उसे कौन-सा पुण्यफल प्राप्त होता है आप यह सब मुझे बतानेकी कृपा करें ||९||  यह सुनकर ज्येष्ठा बोली –  ‘‘ आर्य ! ब्राह्मण , क्षत्रिय और वैश्य – इन द्विजाति वर्णोंके लिये धर्मका पहला साधन है –  ‘ इष्टापूर्त ’ का पालन करना |  उसमें   ‘ इष्ट ’ अर्थात् यज्ञ के प्रभावसे स्वर्ग मिलता है और ‘ पूर्त ’ से मोक्ष मिलता है  || १० ||  

वापी कूप तडागानि देवतायतनानि च ।।

पतितान्युद्धरेद्यस्तु स पूर्त फलमश्नुते ।। ११ ।।

भूमिदानेन ये लोका गोदानेन च कीर्तिताः ।।

ते लोकाः प्राप्यते पुंभिः पादपानां प्ररोपणे ।। १२ ।।

अश्वत्थमेकं पिचुमन्दमेकं न्यग्रोधमेकं दशपुष्पजातिः ।।

द्वे द्वे तथा दाडिम मातुलिङ्गे पंचाम्ररोपी नरकं न याति ।। १३  ।।  

यथा सुपुत्रः कुलमुद्धरेद्धि यथाऽतिकृच्छ्रान्नियमप्रयत्नात् ।।

तथाऽत्र वृक्षाः फलपुष्पवन्तः  स्वं स्वामिनं नरकादुद्धरन्ति ।। १४ ।।

 वराहपुराण – अध्याय १७२ श्लोक –  ३२,३३,३४, ३५,३६,३७, 

 ।। पृथिव्युवाच ।।

तस्मिन् क्षेत्रे महाभागे यत्कृतं धर्मनिश्चयम्  ।।

स्नानं ब्रतं तथा दानं तत्सर्वं कथयस्वमाम्  ।। १५ ।।

 ।। श्री वराह उवाच  ।।

चैत्रे मासे सितेपक्षे त्रिरात्रे भास्करस्य तु  ।।

पंचम्यादौ सूर्य्यतीर्थे द्वादशादित्यसंज्ञके  ।। १६ ।।

स्नात्वा देवर्षि पितृंश्च प्रतर्प्य दीपदोऽनिशम् ।।

द्वादशादित्यमुद्दिश्य अष्टम्यां स्नाप्य भास्करम्  ।। १७ ।।

दानं दद्याद्यथाशक्त्या सर्वपातक नाशनम् ।।

तथा वैशाख मासे तु नवम्यां शुक्ल पक्षके ।। १८।।

त्रिरात्रं सूकरे कार्य्यं सर्व संसार मोक्षणम् ।। 

यावज्जन्मकृतं पापं ब्रतत्याग समुद्भवम्   ।। १९ ।।

महापातकमन्यच्च तत्सर्वं भस्मसाद्भवेत्   ।। 

स्नात्वा वसुन्धरे कुण्डे त्रिरात्रं सूकरस्य तु   ।। २० ।।

जो पुरुष बिगड़ते हुए वापी , कुआँ , तालाब ,धर्मशाला अथवा देवमन्दिरोंका जीर्णोद्धार कराता है अथवा परोपकारार्थ नवीन निर्माण कराता है , वह पूर्तके पुण्य -फलका भागी होता है || ११ || भूमि -दान और गोदान करनेसे पुरुषोंके लिये जो पुण्य बताया गया है , वैसा ही फल वृक्षोंके लगानेसे मानव प्राप्त कर लेते हैं || १२ || एक पीपल अथवा एक पिचुमन्द ( निम्ब ) , एक बड़ , दस फूलवाले पौधे  , दो अनार , दो नारङ्गी और पाँच आम्रके वृक्षोंका जो आरोपण करता है , वह नरकमें नहीं जाता है || १३ || जिस प्रकार सुपुत्र कुलका उद्धार कर देता है तथा प्रयत्नपूर्वक नियमसे किया गया ‘ अतिकृच्छ्र  ’ व्रत उद्धारक होता है , वैसे ही फलों और फूलोंसे सम्पन्न वृक्ष अपने स्वामीका नरकसे उद्धार कर देते हैं || १४ || इति वृक्षारोपणादि माहात्म्यम् ||

सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

 पृथिवी पुनः प्रश्न करने लगी भगवन् ! उस सूकरक्षेत्रमें जो धर्मनिश्चय किया हो उस स्नान ,दान तथा व्रत के विषयमें सब कुछ बतानेकी  कृपा करें || १५ || यह सुनकर वराहजी बोले पृथिवी ! चैत्र शुक्ला पञ्चमी से लेकर अष्टमी तक तीन रात्रिका भास्कर पर्व होता है | उन दिनोमें द्वादशादित्य नामक सूर्यतीर्थमें || १६ || स्नान करके देव ,ऋषि और पितृतर्पणके बाद सायंकाल में प्रतिदिन भगवान् सूर्यके निमित्त दीपदान करे और फिर अष्टमी को भगवान् भास्करको स्नान कराकर || १७ || समस्त पापोंके नाशके लिये यथाशक्ति दान देवै || इति सूर्य तीर्थ माहात्म्यम् ||  

सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

 इसी प्रकार वैशाख शुक्ला नवमी से || १८ ||  लेकर त्रिरात्र पर्यन्त सूकरक्षेत्रमें समस्त संसारसे मुक्ति प्राप्त करनेके लिये तथा जन्मसे लेकर अबतक जितने भी व्रतत्याग आदिसे जो  पाप उत्पन्न  हुए हों उनसे छुटकारा पानेके लिये || १९ || श्रीवराह कुण्ड में स्नान करे तो अन्य महापातक भी इस त्रिरात्र व्रतके प्रभावसे सब के सब सम्पूर्णतया  भस्म हो जाते हैं || २० || 

सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

 द्वादश्यां स्नापनं कुर्याच्छूकरस्य यथाविधि ।। 

दानं दद्याद्यथाशक्ति तेन सर्व कृतं भवेत्  ।। २१ ।।

दारिद्र्य दुःख पापानि नाशयेत्पुरुषोत्तमः   ।। 

तथा श्रावणमासे तु दशम्यां शुक्लपक्षके ।। २२ ।।

ताम्रपात्रे घृतंकृत्वा दानं दद्याद्विजातये ।। 

दत्वा सद्गतिमाप्नोति विष्णुलोकाय गच्छति ।।  २३ ।।

।। धरोवाच ।।

कुब्जाम्रकात्परं गुह्यं श्रेष्ठं परम दुर्लभम् ।।

तीर्थं च वद कल्याण तीर्थानामुत्तमोत्तम्   ।। २४ ।।

।। श्रीवराह उवाच ।। 

भूयएव विशालाक्षि शृणुमे परमं वचः ।। 

क्षेत्रं मम प्रियं भद्रे यच्च भागवत प्रियम् ।। २५ ।।

न विद्यते च पाताले नान्तरिक्षे न मानुषे ।। 

समं तु सूकरस्येह प्रियं मम वसुन्धरे ।। २६ ।।

पञ्चयोजनविस्तीर्णं सूकरं मम मन्दिरम् ।। 

तस्मिन्निपतितो देवि गर्दभोऽपि चतुर्भुजः  ।। २७ ।।

षष्ठिवर्षसहस्राणि योऽन्यत्र कुरुते तपः  ।।

तत्फलं लभते देवि प्रहरार्धेन सूकरे ।। २८ ।।

पद्मपुराणम्/खण्डः ६ (उत्तरखण्डः)/अध्यायः ११९

यागतिर्मरणे काश्यां यागतिर्गोग्रहेषु च ।।

सागतिः स्नानमात्रेण मम क्षेत्रे वसुन्धरे  ।। २९ ।।

महामाघ्यां प्रयागेतु यत्फलं लभतेनरः ।।

तत्फलं लभते देवि सूकरे तु दिने दिने   ।। ३० ।।

इस प्रकार नवमी से लेकर एकादशी पर्यन्त इस त्रिरात्र व्रतको स्नान दानादि से सम्पन्न करके द्वादशी को श्रीवराहजी को विधि पूर्वक स्नान करावे तथा यथाशक्ति दान देवै तब यह व्रत सम्पूर्णतया सफल होता है || २१ || इस कर्म के फलस्वरूप श्री पुरुषोत्तम भगवान् दारिद्र्य , दुःख और पापोंका नाश करते है | एवं श्रावण शुक्ला दशमीको || २२ || ताम्रपात्र को घृतसे पूर्ण करके ब्राह्मणको देवै | ऐसा करनेसे दानकर्ता विष्णुलोकको जाता है || २३ || यह सुनकर पृथिवी बोली भगवन् ! कुब्जाम्रक से भी अधिक गोपनीय , श्रेष्ठ तथा परम दुर्लभ तीर्थोंमें उत्तम आपका कौनसा तीर्थ है , यह बतानेकी कृपा करें || २४ || 

यह सुनकर भगवान् श्रीवराहजी बोले हे विशालाक्षि ! तीनों लोकोंमें मुझे अतिप्रिय तथा विष्णुभक्तोंको प्रिय सूकरतीर्थ के समान कोई क्षेत्र नहीं है || २५ || २६ || वह सूकरतीर्थ क्षेत्र पाँच योजन विस्तार वाला है | ( ५ योजन =२० कोस = ६२. ४  किलोमीटर ) [1 कोस = 2 मील 1 मील = 1.56 किलो मीटर इसलिये 1 कोस = 3.12 किलो मीटर.]  उस सूकरतीर्थ में मरनेवाला गधा भी चतुर्भुज [ विष्णु पार्षद ] होता है || २७ || जो फल अन्य तीर्थोंमें साठ हजार वर्षोंतक तप करनेसे मिलता है , वह सूकरक्षेत्रमें आधे प्रहरमें { ९० मिनिट में } मिलता है || २८ ||  जो गति काशीमें तथा गोशाला में प्राणत्याग करनेसे मिलती है , वसुन्धरे ! वही गति मेरे  सूकरक्षेत्रमें स्नान मात्रसे प्राप्त होती है || २९ || जब सूर्य मकर राशिमें संक्रमण करते हैं तब प्रयागमें स्नान करनेसे जो फल प्राप्त होता है , वह सूकरक्षेत्रमें प्रतिदिन मिलता है || ३० || 

स्नात्वायस्तु कुरुक्षेत्रे राहुग्रस्ते दिवाकरे  ।।

तत्फलं लभते देवि सूकरे तु क्षणेन हि  ।। ३१ ।। 

सूकरन्तु परित्यज्य योन्यत्र कुरुते रतिम् ।। 

मूढो भ्रमति संसारे मोहितो मम मायया ।। ३२।। 

अन्यत्र दीयते लक्ष्यं सु विधानेन यत्नतः ।। 

इह चैकेन दत्तेन सूकरे तत्समं भवेत् ।। ३३ ।।

सौकरे च तथा वेण्यां गङ्गासागर संगमे ।। 

सकृदेव तु यः स्नातः स जीवन्मुक्त उच्यते ।। ३४ ।।

एतत्ते सर्वमाख्यातं सूकरस्य महत्फलम् ।। 

पठतां शृण्वतां चैव सर्वपाप क्षयो भवेत् ।। ३५ ।।

यः शृणोति महाभागे मम क्षेत्र कथामृतम् ।।

स यास्यति वरारोहे मम लोके महीयते ।। ३६ ।।

कुरुक्षेत्र समा गङ्गा यत्र कुत्र विगाहिता ।।

काश्यांदशगुणाप्रोक्ता वेण्यां शतगुणा भवेत् ।। ३७ ।।

सहस्रगुणिताप्रोक्ता गङ्गासागरसंगमे ।।

अनन्ता देवि विख्याता सूकरे मम मन्दिरे ।। ३८ ।।

पद्मपुराणम्/खण्डः ६ (उत्तरखण्डः)/अध्यायः ११९

गवामर्धप्रसूतानां लक्षन्दत्वा तु यत्फलं ।।

गंगास्नानान्नरस्यापि मेषस्थे च दिवाकरे ।। ३९।। 

प्रवाहमवधिंकृत्वा योजनं हि प्रमाणतः ।।

मा विकल्पं कुरु तत्र तत्सर्वं जान्हवीजलं ।। ४० ।।

कुरुक्षेत्रमें सूर्य पर्वके अवसर पर स्नान करनेसे जो फल मिलता है , वह सूकरक्षेत्रमें स्नान करनेसे क्षण भर में मिलता है || ३१ || सूकरक्षेत्र को त्यागकर जो अन्य स्थानोंमें प्रीति करता है , वह मूढ़ मेरी मायासे मोहित होकर संसारमें भ्रमण करता है || ३२ || जो अन्य तीर्थोंमें अति विधानसे यत्नपूर्वक एक लाख मुद्राओंका दान करनेसे पुण्यफलका लाभ होता है , वह यहाँ सूकरक्षेत्रमें  साधारण विधिसे केवल एक मुद्रा के दानसे समान फलका भागी होता है { दोनों का समान फल होता है } || ३३ || सूकरक्षेत्रमें , प्रयागमें व गङ्गासागर संगममें एकबार स्नान करनेसे मनुष्य जीवन्मुक्त होता है || ३४ || इस प्रकार सूकरक्षेत्रका फल कहा | इसके पढ़नेवालेके तथा सुननेवालेके समस्त पापोंका नाश होता है || ३५ || हे पृथिवी ! जो मेरे इस क्षेत्रमाहात्म्य  के कथारूप अमृतका  पान करता है , वह मेरे लोकमें निवास कर महिमामण्डित होता है || ३६ || जहाँ कहीं भी गँगामें स्नान करनेसे कुरुक्षेत्रके समान फल होता है | परन्तु काशीमें स्नान करनेसे उससे दशगुणा अधिक फल देती है , त्रिवेणी में { प्रयाग में } सौ गुना फल देती है || ३७ || श्रीगङ्गा सागर संगम में हजारगुना फल होता है और हे पृथिवी ! मेरे सूकरक्षेत्रमें अनन्तगुण फल देनेवाली श्रीगङ्गाजी हैं || ३८ || एक लाख अर्ध प्रसूत  ( आधा बच्चा जिसके भीतर हो और आधा बाहर हो उसको उभयमुखी -अर्ध प्रसूत कहते हैं ) गोदान करनेसे जो फल मिलता है वह मेष संक्रांतिमें गङ्गास्नानसे मिलता है || ३९ || प्रवाह से चार कोस { 12 .48 किलोमीटर } इधर और चार कोस उधर सामनेकी तरफ जितना जल है वह सब श्रीगङ्गाजी का ही जल है , इसमें विकल्प { संशय }  करना अयोग्य है || ४० || 

सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

दिवा वा यदि वा रात्रौ भुक्ताभुक्ता च सूतके ।।

न काल नियमः कश्चिद्गंगाम्प्राप्य सरिद्वरां ।। ४१ ।।

शतवर्ष सहस्राणि पापं यत्पूर्व सञ्चितं ।।

तत्क्षणान्नश्यति क्षिप्रं तिमिरं भानुना यथा ।।४२ ।।

चान्द्रायण सहस्रेण वाजिमेधेन चैव हि ।।

गवां कोटि प्रदानेन सूर्य्यस्य ग्रहणेन च ।।४३ ।।

यत्फलं समवाप्नोति पिण्डदानेन यत्फलं ।। 

यत्र यत्र नरः स्नायाद्गंगाम्प्राप्य सरिद्वरां ।। ४४ ।।

अनेक जन्मजनितं महापातक नाशनम् ।।

ज्येष्ठशुक्लनवम्यां च स्नात्वा गंगोदके नरः ।। ४५ ।।

सूकरे तु त्रिरात्रं च मानवो दीपदः सकृत् ।।

दत्वादानं यथाशक्त्या सर्वपापैः प्रमुच्यते ।। ४६ ।।

   वराहपुराणम्/अध्यायः १७६ श्लोक  ८१  ,  ८२

अन्यत्र हि कृतं पापं तीर्थमासाद्य गच्छति ।।

तीर्थे तु यत्कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति ।। ४७ ।।

तत्रैव अध्याय १६५ श्लोक ५७ 

चैत्रमासे सितेपक्षे चतुर्दश्यामुपोषितः ।।

सोमतीर्थे नरः स्नात्वा दृष्ट्वा सोमं शिवं ततः ।। ४८ ।।

पौर्णमास्याम्पञ्चामृतैः स्नायाद्दद्यात्प्रदीपकम् ।।

गन्धपुष्पोपहारैश्च स गच्छेदीश्वरालयम् ।। ४९ ।।

संक्रान्त्यां विषुवेचैव तथैवऋणमोचने ।।

स्नानन्तर्पण पिण्डञ्च कृत्वासोऽनृणतां व्रजेत्  ।। ५० ।।

दिवस हो या रात्रि हो , भोजन किया हो या न किया हो अथवा सूतक हो, प्रत्येक परिस्थिति में  श्रीगङ्गाजी में स्नान करना चाहिये | क्योंकि श्रीगङ्गाजी के पास जानेमें समय आदि का  कोई नियम नियत   नहीं है || ४१ ||  गङ्गामें  स्नान करनेसे एक लाख वर्षोंमें  इकठ्ठे किये हुए पाप एक क्षणमें शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं , जैसे सूर्योदय से अन्धकार दूर होता है || ४२ || एक हजार चान्द्रायण व्रत , एक हजार अश्वमेध यज्ञ तथा एक करोड़ गोदान करनेसे और सूर्यग्रहण में स्नान करनेसे || ४३ || जो फल प्राप्त होता है वह फल श्रीगङ्गाजी में  पिण्डदान करनेसे मिलता है | और कलियुग में ही क्या अन्य युगों में भी जो धर्म ,दान तथा व्रतादि से फल होता है उससे अधिक फलदात्री श्रीगङ्गाजी का माहात्म्य पुराणों में महर्षियों ने कहा है | और विशेष कर कलियुगमें दान ,पुण्य करनेके लिये गङ्गाजीका माहात्म्य अधिक लिखा है | जैसा कि महाभारत में ” गंगायां च गयायां च पिण्डदानं समं मतम् || विशेषतः कलियुगे गंगा पिण्डं प्रशष्यते || भावार्थ यह है कि गंगाजी और गयाजी में पिण्डदान का फल समान है , परन्तु विशेष कर कलियुग में श्रीगंगाजी में  पिण्डदान का फल अधिक होता है | जहाँ कहीं भी नदीश्रेष्ठ श्रीगङ्गाजी में स्नान करनेसे अनेक जन्मोंके महापापोंका नाश होता है | ज्येष्ठ शुक्ला नवमी को श्रीगङ्गाजलमें स्नान करके मनुष्यको  || ४४ || ४५ || सूकरक्षेत्र में तीन रात्रि दीपदान करना चाहिये फिर इसके बाद यथाशक्ति दान देने से समस्त पापोंसे रहित होता है || ४६ 

|| इति सूकरस्थ श्रीगङ्गा माहात्म्यम् ||

सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

अन्य स्थानमें किया हुआ पाप तीर्थमें नष्ट होता है , और तीर्थमें किया हुआ पाप बज्रलेप के समान होता है | अतः तीर्थमें पाप नहीं करना चाहिये  || ४७ || इति तीर्थे पापाचरण निषेधः || चैत्र मास शुक्ला चतुर्दशी को उपवास पूर्वक सोमतीर्थमें { मोतिया थल में } स्नान करके सोमेश्वर { दूधेश्वर }  शिव के दर्शन करना चाहिये || ४८ ||

सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

इसी  { मोतिया थल में } के आस पास के जलाशयों को  ऋणमोचन तीर्थ तथा  हंस तीर्थ कहते  हैं | { दिवाकर निर्भय }

 तदनन्तर पञ्चामृतसे शिव को स्नान कराकर गन्ध , पुष्पादिसे पूजन करके दीपदान करनेसे शिवलोक { कैलास धाम } को प्राप्त करता है || ४९ || इति सोमेश्वर माहात्म्यम् || एवं विषुव [ मेष और तुला ] संक्रांति में ऋणमोचनतीर्थ में स्नान , तर्पण तथा श्राद्ध और पिण्डदान करनेसे पितृगणों की अक्षय तृप्ति होनेके कारण पितृ ऋण से मुक्त होता है || ५० || इति  ऋणमोचन माहात्म्यम् || 

अक्षयं लभतेश्राद्धं पितृणां नात्र संशयः ।।

अमायां च व्यतीपाते हरिवासर संक्रमे ।। ५१ ।।

पापमोचनतीर्थे च स्नात्वाचम्य शुचिर्भवेत् ।।

दत्वादानं हरन्दृष्ट्वा मुक्तीशं मानवो धरे ।। ५२ ।।

अनन्तजन्मजात्पापान्त्रिविधाद्रहितो भवेत् ।।

हंसस्थाने नरः स्नात्वा जीवन्मुक्तो धरेभवेत् ।। ५३।। 

न तत्र काल नियमो यतोऽहं सूक्ष्मरूपधृक् ।।

भाद्रेशुक्ले तथा षष्ठ्यां वत्सक्रीडनके महि ।। ५४ ।।

सकृदेव नरः स्नात्वा गोलोके स महीयते ।।

वत्सैर्गोपसहितेन मया क्रीडा कृता यतः ।। ५५ ।।

एवमन्यानि गुह्यानि तीर्थे मम वसुन्धरे ।।

तेषु स्नात्वा च गत्वा च अक्षयं लभते नरः ।। ५६ ।।

एकादश्यांञ्च विश्रान्तौ द्वादश्यां सौकरे तथा ।।

त्रयोदश्यां नैमिषे च प्रयागे च चतुर्दशीम् ।। ५७ ।।

कार्तिक्यां पुष्करे चैव कार्तिकस्यासितासिते ।।

कालेष्वेषु नरः स्नात्वा सर्व पापं व्यपोहति ।। ५८ ।।

अध्याय १७६ श्लोक ६७,६८

रूपतीर्थे नरःस्नात्वा तच्छ्रुणुस्व वसुन्धरे ।।

महापातकिनश्चापि तत्र गत्वा दृढब्रताः ।। ५९ ।।

कार्तिकस्य तु मासस्य शुक्लपक्षे तु द्वादशी ।। 

तारिताः पितरस्तेन तथैव च पितामहाः ।। ६० ।।

अमावास्या , व्यतीपात , द्वादशी और संक्रान्ति के दिन पापमोचन तीर्थमें स्नान तथा आचमन करके पवित्र होकर दान देकर मुक्तिनाथ शिवके दर्शन करनेसे मानसिक , कायिक तथा वाचिक अनेक जन्मोंके पापोंसे रहित होता है || ५१ || ५२ || इति पापमोचन माहात्म्यम् || हे पृथिवी ! इसी प्रकार हंस स्थान में जाकर स्नान करनेसे मनुष्य जीवन्मुक्त होता है || ५३ || और इस हंसस्थान में जाने का तथा स्नानादि कर्म करनेका कोई समय नियत नहीं है , कभी भी कर सकते हैं | क्योंकि मैं वहाँ पर सूक्ष्म रूप धारण कर निवास करता हूँ || इति हंसस्थान माहात्म्यम् || हे पृथिवी ! ” वत्सक्रीड़नक तीर्थ ” जिसको आजकल { बाछरू } कहते हैं , उस बाछरू तीर्थ में भाद्रपद शुक्ला षष्ठी को || ५४ ||  एक बार ही स्नानदि कर्म  करनेसे मेरे गोलोक में निवास करता है | [ बाछरू में भादों सुद छठ का मेला प्रसिद्ध है ] 

क्योंकि उस बाछरू तीर्थमें मैंने वत्स { बछड़ों } और गोपों सहित क्रीड़ा की है || ५५ ||

 इति ” वत्सक्रीड़नक तीर्थ ” [ बाछरू ] माहात्म्यम् || हे पृथिवी ! ऐसे ही और भी गुह्य तीर्थ मेरे सूकरक्षेत्र में हैं , जिनमें जाने व स्नान करनेसे अक्षय फल मिलता है || ५६ || हे पृथिवी ! अब मैं अपने अति प्रिय पंच तीर्थों में स्नान का समय बताता हूँ | 

 ( १ ) एकादशी को विश्रांति घाट में 

 ( २ ) द्वादशी को  सूकरक्षेत्र { सोरों } में 

 ( ३ ) त्रयोदशी को नैमिषारण्य में 

 ( ४ ) चतुर्दशी को प्रयाग में || ५७ || और 

 ( ५ ) कार्तिक की पूर्णिमा और अमावास्या को पुष्कर में स्नान करके मनुष्य समस्त पापोंसे रहित हो जाता है || ५८ || अब रूपतीर्थ [ रूपेश्वर महादेव ] की महिमाका वर्णन करता हूँ | वसुन्धरे ! सावधान होकर श्रवण करो | ब्रह्म हत्यादिक महापाप करनेवाले भी रूप तीर्थमें जाकर  दृढ़ व्रत धारण करके || ५९ || कार्तिक शुक्ला द्वादशी को जो मानव स्नानादि कर्म करता है , उसके न केवल पिता , पितामह , प्रपितामह आदि पितर ही अपितु || ६० || 

दशसप्त व्यतीताश्च पञ्चैवान्यान्परां तथा ।।

यावन्ति जलविन्दूनि तद्गात्राद्वै पतन्ति च ।। ६१ ।।

तावद्वर्षसहस्राणि मद्भक्तश्चैव मोदते ।।

रूपवान् गुणवाँश्चैव भवेदिहदृढब्रताः ।। ६२ ।।

सुविनीता ततो भार्या मद्भक्ता च पतिब्रता ।।

दाता च जायते ताभ्याम्पुत्रो रोगविवर्जितः ।। ६३।।

सुविभागी सुशीलश्च मद्भक्तश्च सुखावहः ।।

तरेच्च सर्वसंसार मम कर्म परायणः ।।६४ ।।

कुर्वन्ति मरणं यत्र मद्भक्तश्चैव ये नराः ।।

मृतास्तत्र विशालाक्षि रूपतीर्थे महौजसः ।। ६५ ।।

दीप्तिमन्तश्च जायन्ते द्युतिमन्तश्चतुर्भुजाः ।।

तस्य चिन्हं प्रवक्ष्यामि रूपतीर्थस्य सुन्दरि ।। ६६ ।।

येन विज्ञायते तीर्थं मम कर्म परायणैः ।।

दृश्यते तत्र भूभाग लोहितो दक्षिणोत्तरे ।। ६७।।

तत्र बृक्षो महांश्चास्ते तस्योत्तरत एव च  ।।

पुष्यते माधवेमासि कामिनीहृदि शोषकः ।। ६८ ।।

तच्च मुख्यं च सुश्रोणि कार्तिकस्य तु द्वादशीम् ।।

तस्य चिन्हं महाभागे मम सौकरवे प्रति ।। ६९ ।।

पुनरन्यत्प्रवक्ष्यामि तस्मिन्सौकरवे मम  ।। 

योगतीर्थमितिख्यातं दुर्विज्ञेयं सुरैरपि ।। ७० ।।

उसके कुल के सत्रह पूर्व के पुरुष और पांच आगे होनेवाले पुरुष भी तर जाते है |

 { पिछली १७ पीढ़ी और अगली ५ पीढ़ी भी मुक्त हो जाती हैं } और उसके शरीर से जितने जलके बिन्दु पृथ्वी पर गिरते हैं || ६१ || उतने हजार वर्षोंतक मेराभक्त  मेरे लोकमें आनन्द पूर्वक निवास करता है | इतना ही नहीं अपितु इस भूलोक में भी पूर्वोक्त स्नानादि कर्म करनेवाला , रूपवान , गुणवान और दृढ़ व्रतधारी होता है || ६२ || तथा उसकी पत्नी भी  सुशील , पतिव्रता और मेरी भक्तिसे युक्त होती है | और उनका पुत्र भी दानशील तथा रोग रहित होता है || ६३ || एवं मेराभक्त सभी लोगोंको सुख देनेवाला ,  सुविभागी { विवेक सम्पन्न } सुशील { सदाचार से युक्त } और मेरे कर्मोंमें परायण होनेके कारण संसार सागरसे तर जाता है || ६४ || और हे वसुन्धरे ! जो मेरे भक्तजन रूपतीर्थमें प्राण त्यागते हैं || ६५ || वे तेजस्वी , ” दीप्तिमान ” { प्रकाशवाले- कान्तिवाले } चतुर्भुज रूपधारी होते हैं | अब मैं उस रूपतीर्थके परिज्ञानार्थ चिन्ह कहूँगा || ६६ || जिससे मेरे भक्त उस तीर्थको पहचान सकें | उस तीर्थके दक्षिण, उत्तर का भूमिभाग लाल रंगवाला दिखाई देता है || ६७ || वहाँ पर उत्तर की तरफ एक महान बृक्ष है | और वह बृक्ष वैशाख मासमें पुष्प देता है | तथा कामिनी स्त्रीजनों के हृदय को दुःख देता है || ६८ || मेरे सूकरक्षेत्रमें  वही उसका मुख्य चिन्ह कार्तिक मास की द्वादशीको होता है || ६९ || हे पृथिवी ! मेरे उसी सूकरक्षेत्रमें और भी तीर्थ हैं | उन्हें बताता हूँ | योगतीर्थ नाम से प्रसिद्ध एक धर्मस्थल है ,वह योगिजनों व देवगणों को भी दुर्ज्ञेय है || ७० || 

योगतीर्थे नराः स्नात्वा ममकर्म्म परायणाः ।।

योगं हि ते प्रपद्यन्ते मम कर्म्मसु कौशलाः ।। ७१ ।।

दशवर्ष सहस्राणि दश वर्ष शतानि च ।।

मद्भक्ताश्चैव जायेरन् अपराध विवर्जिताः  ।। ७२ ।।

क्रोध लोभ विनिर्मुक्ताः मतिमत्कृतनिश्चयाः ।। 

एतत्पुण्यं महाभागे योगतीर्थे प्रियेमम ।। ७३ ।।

अहो रात्रं नरस्तत्र यः करोति यशस्विनि ।।

सर्व पाप विनिर्मुक्तः श्वेतद्वीपाय गच्छति ।। ७४ ।।

ततः प्राणान्परित्यज्य मम भक्ति परायणः ।। 

सर्वायुध समायुक्तो दीप्तिमान्सचतुर्भुजः  ।। ७५ ।।

योगयुक्तस्ततो भूत्वा श्वेतद्वीपाय गच्छति ।।

एतत्ते कथितं भद्रे योगतीर्थस्य यत्फ़लम् ।। ७६ ।। 

योगिनो यत्र गच्छन्ति ममकर्म परायणाः ।। 

तस्य चिन्हं प्रवक्ष्यामि योगतीर्थस्य सुन्दरि ।। ७७ ।।

तीर्थं विज्ञायते येन ममकर्मपरायणैः ।। 

मार्गशीर्षस्य मासस्य शुक्लपक्षस्य द्वादशी ।। ७८ ।।

अकस्माच्च ततोलिङ्गन्तस्मिन्तीर्थे च जायते ।। 

त्रीणि हस्त सहस्राणि त्रीणि हस्त शतानि च ।। ७९ ।।

पद्मपुराणम्/खण्डः ६ (उत्तरखण्डः)/अध्यायः ११९

हस्तत्रय विशालञ्च परिमाणं विधीयते ।।

एतच्चिन्हं ततो दृष्ट्वा मरणन्तत्र कारयेत् ।। ८० ।।

योगतीर्थ में स्नान करके मेरे कर्मों में तत्पर मनुष्य योगको प्राप्त होते हैं || ७१ || तथा इस योगतीर्थ के प्रभावसे  ग्यारह हजार वर्षोंतक मेरे भक्त अपराध रहित होते हैं || ७२ || और वे क्रोध व लोभसे रहित होकर आगामी कर्तव्यों के निर्णयमें कुशल होते हैं | महाभागे ! यह मेरे प्रिय योगतीर्थका माहात्म्य है || ७३ || हे यशस्विनि ! जो मनुष्य उस योगतीर्थमें रात्रि -दिवस निवास करता है , वह श्वेतद्वीप को जाता है || ७४ || इस प्रकार मेरी भक्तिमें परायण जो मानव वहीं योगतीर्थमें निवास करते हुए प्राणत्याग करता है , वह  सर्व आयुध धारी , प्रकाशवाला , चारभुजाओं से सम्पन्न || ७५ ||  योगयुक्त हुआ श्वेतद्वीप को जाता है | भद्रे ! इस प्रकार मैंने योगतीर्थका माहात्म्य कहा || ७६ || जहाँ पर मेरी प्रसन्नतार्थ कर्म करनेवाले योगिजन जाते हैं | सुन्दरि ! उस योगतीर्थका चिन्ह कहूँगा || ७७ || जिस चिन्ह से  मेरे भक्तों द्वारा वह जाना जा सके | मार्गशीर्ष शुक्ला द्वादशी को || ७८ || उस तीर्थ में अकस्मात् एक लिङ्ग का उदय होता है | जिसका परिमाण तीन हजार तीन सौ हाथ लम्बा और || ७९ ||  तीन हाथ चौड़ा होता है | यह चिन्ह देखकर स्नान पूर्वक वहीं प्राणत्याग करना चाहिये || ८० ||

स्नानन्तत्र विशालाक्षि पूर्वोक्तं लभते गतिम् ।।

एतच्चिन्हं महाभागे योगतीर्थे मयोदितम् ।। ८१ ।।

सेवते सिद्धिकामस्तु यदीच्छेत्परमां गतिम् ।। 

अन्यच्च ते प्रवक्ष्यामि महदाश्चर्यकारकम् ।। ८२ ।।

तच्छ्रुणुस्व महाभागे तीर्थे सौकरवे मम ।।

यावन्त्यस्थीनि मत्कुण्डे प्रक्षिप्यन्ते नरैर्धरे ।। ८३ ।।

तावद्वर्षसहस्राणि मम लोके वसुन्धरे ।।

भुक्त्वा भोगान् यथाकामं राजराजस्तु जायते ।। ८४ ।।

प्रक्षिप्तास्थि वर्गस्तु रेणुरूपः प्रजायते ।।

त्रिदिनान्ते वरारोहे मम क्षेत्रप्रभावतः ।। ८५ ।।

सूकरस्य च माहात्म्यं यथा ते वर्णितं पुरा ।। 

यः शृणोति वरारोहे श्रद्धया परयायुतः ।। ८६ ।।

पठते प्रातरेवाऽपि न स पापेन लिप्यते ।।

सप्तजन्मकृतं पापं तस्य सर्वं व्यपोहति   ।। ८७ ।।

फलञ्चगोशतस्यापि दत्तस्य समवाप्नुयात् ।।

अमृतत्वञ्च लभते स्वर्गलोकञ्च गच्छति ।। ८८ ।।

अध्याय १७६ श्लोक ९१ ,९२, ९३ 

मधौशुक्ले नवम्याञ्च स्नात्वा शाकोटतीर्थके  ।।

दृष्ट्वा गौरीञ्च सोमेशमाचम्य सोमतीर्थके ।। ८९ ।।

यथाशक्तिविधानेन दत्वादानं द्विजातये ।। 

धनधान्य सुताँल्लव्ध्वा ममलोकेमहीयते  ।। ९० ।। 

सूर्यतीर्थे नरः स्नात्वा दत्वादानान्यनेकशः  ।। 

वृक्षारोपी वास्तुकारः सूर्यलोके महीयते  ।। ९१ ।।  

पुनश्च मानुषोभूत्वा धनधान्यसमृद्धिमान् ।।

सपुत्रस्तु वरारोहे ममलोकेमहीयते    ।। ९२ ।। 

स्नात्वा वाराहतीर्थे च पादुके मम पूज्य हि  ।। 

संतोष्य ब्राह्मणान्दानैः सर्वधर्माधिकृद्भवेत् ।। ९३ ।। 

दीक्षितश्च विशुद्धात्मा मत्कर्मनिरतः शुचिः ।। 

सर्व भोगैश्च संयुक्तो मद्भक्तश्चैव जायते ।। ९४ ।। 

इहलोके सुखंभुक्त्वा परत्र मोक्षमाप्नुयात्  ।। ९५ ।। 

इति श्री भगवच्छास्त्रे वाराहपुराणे सूकरक्षेत्रसंकीर्ण तीर्थ माहात्म्यवर्णनो नाम षष्ठोध्यायः  ।। ६ ।।

 हे विशालाक्षि ! उस योगतीर्थमें स्नान करनेसे पूर्वोक्त [ श्वेतद्वीपकी ] गति प्राप्त होती है | महाभागे ! यही चिन्ह योगतीर्थमें मेरे द्वारा बताया गया है || ८१ || यदि परम गतिकी इच्छा हो और परम सिद्धि की कामना हो तो उस योगतीर्थका सेवन करना चाहिये | अब और भी अत्याश्चर्य कारक || ८२ || सूकरक्षेत्रका महान चमत्कार कहूँगा | महाभागे ! उसका श्रवण करो | मेरे सूकर क्षेत्रान्तर्गत कुण्ड में मनुष्य जितनी अस्थियों का प्रक्षेपण करते हैं || ८३ ||  उनके पितृ उतने ही हजार वर्षोंतक मेरे लोक में यथेष्ट भोगों को भोगकर हे वसुन्धरे ! पृथ्वी पर राजाओंके भी राजा [ चक्रवर्ती सम्राट ] होते हैं || ८४ || और हे पृथिवि ! प्रक्षेपण किया हुआ अस्थि वर्ग { हड्डी का समुदाय } भी मेरे क्षेत्र के प्रभाव से तीन दिवस के बाद ही रेणु रूप हो जाता है || ८५ || हे पृथिवि !मैंने तुमको  सूकरक्षेत्रका माहात्म्य जैसा था वैसा वर्णन किया , जो व्यक्ति परम श्रद्धासे युक्त होकर इसे सुनता है || ८६ || अथवा प्रातःकाल में पाठ करता है , वह पापोंसे लिप्त नहीं होता है | उसके सात जन्मोंके किये हुए समस्त  पाप नष्ट हो जाते हैं || ८७ || तथा सौ गोदान का फल और स्वर्ग व मोक्ष मिलता है || ८८ || चैत्र शुक्ला नवमी को शाकोट तीर्थ में  स्नान करके दुर्गा और सोमेश्वर के दर्शन करने के उपरान्त सोमतीर्थ [ मोतिया थल ] में आचमन करके || ८९ || 

सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

                      शाकोट तीर्थ { शाकोटेश्वर महादेव } 

  अनल्प संकल्पज कल्पनानामाकल्पनेनाल्पित कल्पशाखी |

        शाकोटनाथः ससदा नतानां तानांतनोतु त्वरितं श्रियं नः ||

           || बाल शास्त्री कृत शाकोटेश्वर स्तुति || 

सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

ब्राह्मणार्थ यथाशक्ति विधि पूर्वक दान देने के प्रभावसे धन ,धान्य और सुपुत्रों को प्राप्त कर मेरे लोकमें वास करता है || ९० || सूर्य तीर्थ में स्नान कर अनेक दानोंको देनेवाला एवं वृक्ष लगानेवाला और धर्मशालादि स्थान बनवाने वाला सूर्य लोकमें वास करता है || ९१ || तथा पुनः मनुष्य जन्म प्राप्त कर धन धान्यादि समृद्धिसे सम्पन्न हो कर हे पृथ्वि ! अपने पुत्रों के साथ मेरे लोकमें वास करता है || ९२ || वराह क्षेत्र में स्नानकर मेरी पादुका 

 ( श्री महाप्रभु ) का पूजन कर , दानों से ब्राह्मणोंको सन्तुष्ट करनेसे  सभी उत्तम कर्मोंका अधिकारी हो जाता है || ९३ || इस प्रकार शुद्ध अन्तःकरण वाला होनेसे  दीक्षा युक्त , तथा मेरे प्रसन्नतार्थ कर्मोंमें तत्पर , पवित्र , समस्त भोगोंसे युक्त मेरा भक्त होता है || ९४ || अन्तमें इस लोकके सुख भोग कर मुक्ति को प्राप्त होता है || ९५ || 

सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्
सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

 इतिश्री सूकरक्षेत्र वास्तव्य श्रीद्विवेदि नारायणात्मज श्रीरामनाथशास्त्रि  शिष्य विद्याविनोद दशरथशर्म सिद्धांत वागीश शास्त्रि विरचित मिताक्षराख्य भाषावृत्ति विभूषिते श्रीभगवच्छास्त्रे वराहपुराणे सूकरक्षेत्रस्य संकीर्ण तीर्थमाहात्म्य वर्णनोनाम षष्ठोध्यायः।।६ ।।

वेद षण्णव चन्द्राब्द ऊर्ज्जेऽसिते मृगाङ्कजे | 

नवम्यां वैक्रमीये च भाषावृत्तिः समासतः || १ || 

पूर्णा दशरथाख्येन कृता लोक हितायच | 

सैषास्यात्प्रीतये विष्णोलक्ष्मीकान्तस्य मे कृति || २||

||इति सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम् || 

||उत्तर भागः || 

||अथ श्री वराह चालीसा || 

सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

|| श्री वराह चालीसा ||  

 अन्तर्यामी जगत के सुमिरत शुद्धि अपार |                                                            बरनऊँ वरदाता विरुद अखिल मही आधार ||  

 जाकी महिमा ते मिटे शोक मोह भय भार |                                                               हृदय गुहा में विचरते परमात्मा अविकार ||  

  जय वराह गुणनिधि सुखकारी , नारायण सूकर अवतारी || १ ||  

हिरण्याक्ष हन्ता बल भारी , प्रलय पयोधि कोल वपु धारी || २ ||

 सुप्त भाग्य को जाग्रत करवा , भज वराह सब संकट तरवा || ३ ||

   शंख , चक्र, अरु गदा, पद्म धर, बनमाला शोभित धरणी धर || ४ ||

  नर वराह रूपी भगवाना , वसुंधरा रक्षक बलवाना || ५ || 

 राष्ट्र वृद्धि हित शत्रु विदार्यो , श्री विष्णु सूकर वपु धार्यो || ६ ||

रसातलगता भूमि उवारी , आदिवराह उपाधि धारी || ७ || 

 यज्ञवराह रूप जो ध्यावे , भूमी ,धन, सुखसंपति पावे || ८ ||

 क्रतुवराह के वेदपाद हैं , अग्निजिह्व अरु यूप दाढ हैं || ९ || 

जलक्रीडारुचि सूकर वपु धरि , प्रविसि पताल भूमि लाये हरि || १० || 

हिरण्याक्ष ने बहु तप कीन्हा , ब्रह्मा मुदित भये वर दीन्हा || ११ || 

भूमि,गगन अरु स्वर्गलोक तें, अवध होउ पशु ,देव ,मनुज तें || १२ || 

तातें जाइ पताल में मार्यो , नरवराह बनि असुरकों तार्यो || १३ ||

हर्षित देव करें परणामा , सूकरखेत बनायो धामा || १४ || 

 पताल से भूमि के त्राता , श्वेतवराहकल्प विख्याता || १५ ||

 प्रथम वृक्ष आरोपण कीन्हा , आदि गृद्धवट नाम सो चीन्हा || १६ || 

चक्रतीर्थ में चक्कर स्थाप्यो , तीन लोक तातें यश व्याप्यो || १७ || 

 जे चक्रेश्वर दर्शन करिहैं , तिनके सब भवलोक सुधरिहैं || १८ || 

  सूर्य देव ने जंह तप कीन्हा , सो वैवस्वत तीर्थ प्रवीना || १९ ||  

  कश्यपसुत से कहा बुझाई , वर मांगहु लोकन सुखदाई || २० ||  

  जो प्रसन्न मो पै सर्वेश्वर , पुत्र प्रसाद दीजिये यह वर || २१ || 

 यम यमुना संतति वर पाई , सो भये त्रिभुवन कों सुखदाई || २२ ||

  जे यंह स्नान दान आचरिहंहि , ते यमलोक में न संचरिहंहि || २३ ||

  योजन पञ्च वितति सूकर की , पुण्यक्षेत्र भूमि हरि हर की || २४ || 

  हरि प्रसाद तें भूमि पाई , हर प्रसाद तें गंगा आई || २५ ||

 साठ हजार वर्ष तपै कोई , अर्धप्रहर में सो फल होई || २६ || 

 तीन हजार तीनसौ तीना , कर प्रमान तीरथ सो चीन्हा || २७ || 

 जेहि दिन हरि भूमि पर आए , तेहि दिन विरजा संग सुहाए || २८ || 

 आदि नदी भूमि पर आई , तातें गंगा बृद्ध कहाई || २९ || 

  प्लावित अस्थि तीन दिन मांहीं , विलय होंहि सबलोग सराहीं || ३० ||  

 स्नान दान विधिवत जे करते , श्वेतद्वीप मांहि संचरते || ३१ || 

 औरहु जे सकाम नर नारी , वराहमहिमा होंहि सुखारी || ३२ || 

 चारों जुग प्रताप अति भारी , प्रेत मुक्ति सब पाप विदारी || ३३ ||  

मुक्तिकाम जिनके मन माहीं , हरिप्रसाद सों दुर्लभ नांहीं || ३४ ||

भक्ति ज्ञान की जिनको आशा , सिद्ध होइ उनकी अभिलाषा || ३५ ||  

 परम पवित्र ज्ञान गुन खानी , पाहि पाहि गंगे महारानी || ३६ || 

 शीतलजल सुखप्रद अघहरा , भव भय तारिणि श्री सरिद्वरा || ३७ || 

 सर्वकाल जे सुमिरन करहीं , अन्तकाल ते भवनिधि तरहीं || ३८ || 

 जो अनन्यगति शरणमें आवे , निज इच्छाफल तुरतहि पावे || ३९ ||  

  जो सुमिरै गंगा वराह को , रोग दोष निर्मूल ताहिको || ४० ||

जय गंगा वाराह जी मुद मंगल केमूल ||                                                                     सुख शान्ति बरसे सदा मिटैं सकल भवशूल || 

महीनाथ कों सुमिरिकें कर्म करो चित चारु ||                                                                        निरवधि सुख संपति मिले निर्दोषत्व सुचारु ||  

 श्री वराह जी को समर्पित |

श्रीवराहाष्टोत्तरशतनामावलिः 

श्रीवराहपुराणतः

श्रीवराहाय नमः । महीनाथाय । पूर्णानन्दाय । जगत्पतये ।

निर्गुणाय । निष्कलाय । अनन्ताय । दण्डकान्तकृते । अव्ययाय ।

हिरण्याक्षान्तकृते । देवाय । पूर्णषाड्गुण्यविग्रहाय ।

लयोदधिविहारिणे । सर्वप्राणिहिते रताय । अनन्तरूपाय । अनन्तश्रिये ।

जितमन्यवे । भयापहाय । वेदान्तवेद्याय । वेदिने नमः ॥ २०

वेदगर्भाय नमः । सनातनाय । सहस्राक्षाय । पुण्यगन्धाय ।

कल्पकृते । क्षितिभृते । हरये । पद्मनाभाय ।

सुराध्यक्षाय । हेमाङ्गाय । दक्षिणामुखाय । महाकोलाय ।

महाबाहवे । सर्वदेवनमस्कृताय । हृषीकेशाय । प्रसन्नात्मने ।

सर्वभक्तभयापहाय । यज्ञभृते । यज्ञकृते ।

साक्षिणे नमः ॥ ४०

यज्ञाङ्गाय नमः । यज्ञवाहनाय । हव्यभुजे । हव्यदेवाय ।

सदाव्यक्ताय । कृपाकराय । देवभूमिगुरवे । कान्ताय । धर्मगुह्याय ।

वृषाकपये । स्रुवतुण्डाय । वक्रदंष्ट्राय । नीलकेशाय । महाबलाय ।

पूतात्मने । वेदनेत्रे । देहहर्तृशिरोहराय । वेदादिकृते ।

वेदगुह्याय । सर्ववेदप्रवर्तकाय नमः ॥ ६०

गभीराक्षाय नमः । त्रिधर्मणे । गम्भीरात्मने । महेश्वराय ।

आनन्दवनगाय । दिव्याय । ब्रह्मनासासमुद्भवाय । सिन्धुतीरनिषेविणे ।

क्षेमकृते । सात्वतां पतये । इन्द्रत्रात्रे । जगत्त्रात्रे ।

महेन्द्रोद्दण्डगर्वघ्ने । भक्तवश्याय । सदोद्युक्ताय । निजानन्दाय ।

रमापतये । स्तुतिप्रियाय । शुभाङ्गाय ।

पुण्यश्रवणकीर्तनाय नमः ॥ ८०

सत्यकृते नमः । सत्यसङ्कल्पाय । सत्यवाचे । सत्यविक्रमाय ।

सत्येन गूढाय । सत्यात्मने । कालातीताय । गुणाधिकाय । परस्मै ज्योतिषे ।

परस्मै धाम्ने । परमाय पुरुषाय । पराय । कल्याणकृते । कवये ।

कर्त्रे । कर्मसाक्षिणे । जितेन्द्रियाय । कर्मकृते ।

 कर्मकाण्डस्यसम्प्रदायप्रवर्तकाय । सर्वान्तकाय नमः ॥ १००

सर्वगाय नमः । सर्वार्थाय । सर्वभक्षकाय । सर्वलोकपतये ।

श्रीमते श्रीमुष्णेशाय । शुभेक्षणाय । सर्वदेवप्रियाय ।

साक्षिणे नमः ॥ १०८

नमस्तस्मै वराहाय हेलयोद्धरते महीम् ।

खुरमध्यगतो यस्य मेरुः खुरखुरायते ॥

इति श्रीवराहाष्टोत्तरशतनामावलिः समाप्ता ।

॥ वराहस्तोत्रम् ॥

श्री गणेशाय नमः ॥ ऋषय ऊचुः ॥

जितं जितं तेऽजित यज्ञभावना त्रयीं तनुं स्वां परिधुन्वते नमः ।

यद्रोमगर्तेषु निलिल्युरध्वरास्तस्मै नमः कारणसूकराय ते ॥ १॥

ऋषियों ने कहा- भगवान् अजित्! आपकी जय हो, जय हो। यज्ञपते! आप अपने वेदत्रयीरूप विग्रह को फटकार रहे हैं; आपको नमस्कार हैं। आपके रोम-कूपों में सम्पूर्ण यज्ञ लीन हैं। आपने पृथ्वी का उद्धार करने के लिये ही यह सूक्ष्मरूप धारण किया है; आपको नमस्कार है।

रूपं तवैतन्ननु दुष्कृतात्मनां दुर्दर्शनं देव यदध्वरात्मकम् ।

छन्दांसि यस्य त्वचि बर्हिरोमस्वाज्यं दृशि त्वङ्घ्रिषु चातुर्होत्रम् ॥ २॥

देव! दुराचारियों को आपके इस शरीर का दर्शन होना अत्यन्त कठिन है; क्योंकि यह यज्ञरूप है। इसकी त्वचा में गायत्री आदि छन्द, रोमावली में कुश, नेत्रों में घृत तथा चारों चरणों में होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा- इन चारों ऋत्विजों के कर्म हैं।

स्रुक्तुण्ड आसीत्स्रुव ईश नासयोरिडोदरे चमसाः कर्णरन्ध्रे ।

प्राशित्रमास्ये ग्रसने ग्रहास्तु ते यच्चर्वणं ते भगवन्नग्निहोत्रम् ॥ ३॥

 ईश! आपकी थूथनी (मुख के अग्रभाग) में स्रुक् है, नासिका-छिद्रों में स्रुवा है, उदर में इडा (यज्ञीय भक्षण पात्र) है, कानों में चमस है, मुख में प्राशित्र (ब्रह्म भाग पात्र) है और कण्ठछिद्र में ग्रह (सोमपात्र) है।

दीक्षानुजन्मोपसदः शिरोधरं त्वं प्रायणीयोदयनीयदंष्ट्रः ।

जिह्वा प्रवर्ग्यस्तव शीर्षकं क्रतोः सभ्यावसथ्यं चितयोऽसवो हि ते ॥ ४॥

भगवन्! आपका जो चबाना है, वही अग्निहोत्र है। बार-बार अवतार लेना यज्ञस्वरूप आपकी दीक्षणीय इष्टि है, गरदन उपसद (तीन इष्टियाँ) हैं; दोनों दाढ़ें प्रायणीय (दीक्षा के बाद की इष्टि) और उदयनीय (यज्ञसमाप्ति की इष्टि हैं; जिह्वा प्रवर्ग्य (प्रत्येक उपसद के पूर्व किया जाने वला महावीर नामक कर्म) है, सिर सभ्य (होमरहित अग्नि) और आवसथ्य  (औपासनाग्नि) हैं तथा प्राण चिति (इष्टकाचयन) हैं। 

सोमस्तु रेतः सवनान्यवस्थितिः संस्थाविभेदास्तव देव धातवः ।

सत्राणि सर्वाणि शरीरसन्धिस्त्वं सर्वयज्ञक्रतुरिष्टिबन्धनः ॥ ५॥

देव! आपका वीर्य सोम है; आसन (बैठना) प्रातःसवनादि तीन सवन हैं; सातों धातु अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम नाम की सात संस्थाएँ हैं तथा शरीर की सन्धियाँ (जोड़) सम्पूर्ण सत्र हैं। इस प्रकार आप सम्पूर्ण यज्ञ (सोमसहित याग) और क्रतु (सोमरहित याग) रूप है। यज्ञानुष्ठानरूप इष्टियाँ आपके अंगों को मिलाये रखने वाली मांसपेशियाँ हैं। 

नमो नमस्तेऽखिलमन्त्र देवता द्रव्याय सर्वक्रतवे क्रियात्मने ।

वैराग्यभक्त्यात्मजयानुभावित ज्ञानाय विद्यागुरवे नमो नमः ॥ ६॥

समस्त मन्त्र, देवता, द्रव्य, यज्ञ और कर्म आपके ही स्वरूप हैं; आपको नमस्कार है। वैराग्य, भक्ति और मन की एकाग्रता से जिस ज्ञान का अनुभव होता है, वह आपका स्वरूप ही है तथा आप ही सबके विद्यागुरु है; आपको पुनः-पुनः प्रणाम है। 

दंष्ट्राग्रकोट्या भगवंस्त्वया धृता विराजते भूधर भूः सभूधरा ।

यथा वनान्निःसरतो दता धृता मतङ्गजेन्द्रस्य सपत्रपद्मिनी ॥ ७॥

पृथ्वी को धारण करने वाले भगवन्! आपकी दाढ़ों की नोक पर रखी हुई यह पर्वतादि-मण्डित पृथ्वी ऐसी सुशोभित हो रही है, जैसे वन में से निकलकर बाहर आये हुए किसी गजराज के दाँतों पर पत्रयुक्त कमलिनी रखी हो। 

त्रयीमयं रूपमिदं च सौकरं भूमण्डलेनाथ दता धृतेन ते ।

चकास्ति श‍ृङ्गोढघनेन भूयसा कुलाचलेन्द्रस्य यथैव विभ्रमः ॥ ८॥

आपके दाँतों पर रखे हुए भूमण्डल के सहित आपका यह वेदमय वराहविग्रह ऐसा सुशोभित हो रहा है, जैसे शिखरों पर छायी हुई मेघमाला से कुलपर्वत की शोभा होती है।

संस्थापयैनां जगतां सतस्थुषां लोकाय पत्नीमसि मातरं पिता ।

विधेम चास्यै नमसा सह त्वया यस्यां स्वतेजोऽग्निमिवारणावधाः ॥ ९॥

नाथ! चराचर जीवों के सुखपूर्वक रहने के लिये आप अपनी पत्नी इन जगन्माता पृथ्वी को जल पर स्थापित कीजिये। आप जगत् के पिता हैं और अरणि में अग्निस्थापन के समान आपने इसमें धारण शक्तिरूप अपना तेज स्थापित किया है। हम आपको और इस पृथ्वीमाता को प्रणाम करते हैं।

कः श्रद्दधीतान्यतमस्तव प्रभो रसां गताया भुव उद्विबर्हणम् ।

न विस्मयोऽसौ त्वयि विश्वविस्मये यो माययेदं ससृजेऽतिविस्मयम् ॥ १०॥

 प्रभो! रसातल में डूबी हुई इस पृथ्वी को निकालने का साहस आपके सिवा और कौन कर सकता था। किंतु आप तो सम्पूर्ण आश्चर्यों के आश्रय हैं, आपके लिये यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आपने ही तो अपनी माया से इस अत्याश्चार्यमय विश्व की रचना की है ।

विधुन्वता वेदमयं निजं वपुर्जनस्तपःसत्यनिवासिनो वयम् । सटाशिखोद्धूतशिवाम्बुबिन्दुभिर्विमृज्यमाना भृशमीश पाविताः ॥ ११॥

 जब आप अपने वेदमय विग्रह को हिलाते हैं, तब हमारे ऊपर आपकी गरदन के बालों से झरती हुई शीतल बूँदें गिरती हैं। ईश! उनसे भीगकर हम जनलोक, तपलोक और सत्यलोक में रहने वाले मुनिजन सर्वथा पवित्र हो जाते हैं। 

स वै बत भ्रष्टमतिस्तवैष ते यः कर्मणां पारमपारकर्मणः ।

यद्योगमायागुणयोगमोहितं विश्वं समस्तं भगवन् विधेहि शम् ॥ १२॥

जो पुरुष आपके कर्मों का पार पाना चाहता है, अवश्य ही उसकी बुद्धि नष्ट हो गयी है; क्योंकि आपके कर्मों का कोई पार ही नहीं है। आपकी योगमाया के सत्वादि गुणों से यह सारा जगत् मोहित हो रहा है। भगवन्! आप इसका कल्याण कीजिये।

एवं हिरण्याक्षमसह्यविक्रमं

     स सादयित्वा हरिरादिसूकरः ।

जगाम लोकं स्वमखण्डितोत्सवं

     समीडितः पुष्करविष्टरादिभिः ॥ ३१ ॥

यो वै हिरण्याक्षवधं महाद्‍भुतं

     विक्रीडितं कारणसूकरात्मनः ।

श्रृणोति गायत्यनुमोदतेऽञ्जसा

     विमुच्यते ब्रह्मवधादपि द्विजाः ॥ ३७ ॥

इति श्रीमद्भागवतपुराणान्तर्गतं वराहस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

                                                    || श्री पुष्पोद्भव जी की पुस्तक से ||

{ बृद्ध गंगा लहरी ( श्री पंडित दशरथ जी शास्त्री द्वारा विरचित }

Vriddha Ganga Lahari by Dasharath Shastri

{ वृद्धगंगा (बूढ़ी गंगा) की वर्तमान भौगोलिक स्थिति –

महमूदपुर पुख्ता से फर्रुखाबाद तक

118 किलोमीटर जनपद कासगंज में  और 21 किलोमीटर ज़िला फ़र्रुख़ाबाद में

कुल लंबाई– 139 किलोमीटर (लगभग)। राहुल प्रभाकर वासिष्ठ की डायरी से }

|| वृद्ध गङ्गा लहरी मूलपाठ || 

                     ||  ध्यानम् ||

शारच्चन्द्र प्रभाङ्गी सितवसनधरा फुल्लकाशाभकेशा,

वृद्धागङ्गा विशुष्का वलिविचितवपुः शेष कङ्काल गात्री।

ध्येयावन्द्या दयालुः सुरमुनिदितिजैः प्राणशिष्टाचलासा,

कम्पद् हस्तङ्घ्रिपद्मा निपतित दशना यष्टिकालम्ब देहा॥१॥

अये वृद्धे गङ्गे विधृत भवगर्भेऽब्धिमहिले,

कला काष्ठा तारा रविशशि कुजादेर्जननदेः।

वराहस्याप्यादे रवतरणदे भूद्धृतिमिषा-

न्नमस्तुभ्यम् मातस्सकल तटिनी सागर भरे॥२॥

प्रशूस्त्वंनैवासीः भवतिभुवने कुत्रजनता,

वसेदन्नं चापः कथमपि न विन्दे दशनतः।

न जीवेच्छं यायान्नहि तरणतास्याद् बृजनतो,

न वा मुक्तेर्वार्ता श्रवण पथमीयाज्जनमुखात्॥३॥

न चाकूपाराम्भः  प्रभुच नहि भागीरथि जलम्,

न चान्यासान्नीरं पतन समयाद्  वै त्रिदिनतः।

विधातुं कङ्कालं जगति जलरूपत्वमखिल-

मयोध्यानातीर्थैः  सरसि सलिलं चेत्तवविभोः॥४॥

विना ते हे मातर्जल जनित विन्दोर्मिलनतो,

नवाऽऽरे ताम्रे वा कनकमय रौप्येऽपि किमुत।          

न नागे हैमे वा त्रपुजनित पात्रे जसदजे,

स्थिरत्वं नोयायान्नृपति दुहिता नीरमपि च॥५॥

तवैवायं मातर्जयति खलु लोकेषु महिमा,

यतोऽव्ध्यादेर्माता  त्वमिह परिपातास्यविरतम्।

प्रसिद्धा मातॄणां प्रकृतिरिह दृष्टाखिल जनैः,

स्वबालानां रक्षा भरण भरिता प्रेमवशतः॥६॥

त्वदीये पूताङ्गे विविध विहरन्तोऽर्भकगणा-

स्त्यजन्तो विण्मूत्रं मुख जनित नासोद्भवमलम्।

मुधा सत्या सभ्यार्थक बिलपितान्येव सहसे,

तदज्ञानं तेषा मिति ह विहसन्तीव विदुषाः ॥७॥

सदा प्रेम्णापूर्णा तदपि निज दासेषु दयसे,

द्रवन्ति त्वं गङ्गे  ग्लपितमनसा त्तान्निज करैः।

समालिङ्गन्तीतान्स्पृशसि च निजाङ्के निदधति,

शुभोक्त्या  सत्कारैः परिचरसि  लोकेतिजरठे॥८॥

परिल्किन्नासित्वं निज जनित पाल्यानकयुतान्,

विलोक्य द्राग् दुःख परिहरसि तेषां विधिवशात्।                                        

ददाना सन्तोषं धनवसन भौज्यैरिह दिवि,

विमुक्तिं मायाया अचल पदवासं च ददसे॥९॥

तवाम्भः पानार्थं विहित मति मद्भक्त जनता,

गृहद्वारान्मुक्ताः पथि च बहु लुण्ठाकगणतः।

अनन्त व्याध्योघानपिच सहमाना बहुविधा-

न्समागच्छन्त्येव द्रविण बहुलाजीर्ण वसनाः॥१०॥

द्विजानामादेशात् किरि नगर पार्श्वे घनवने,

स्वपूर्वोद्धाराय स्तुति विधि परो भूपतिरिह।

त्वयि स्थित्वा याञ्चां बहुल समयं सोविहितवान्,

स्थिराहं मे भगनीं सुरपुर बसन्तीं स्तुहिगिरौ॥११॥

प्रसन्ना सा भूत्वा त्वदभिलषितं  द्राग् वितरसे ,

महादेवान्तेऽतस्त्वमिह नृपते सागर भव।

कनिष्ठा  कल्याणी  भवसि महती त्वं च जगति,

प्रभावस्ते मातर्व्युदयति निजीयोत्सव दिने॥१२॥

जगद्रीतेर्नीतिः सकल जन सिद्धा त्रिभुवने,

नियोज्यन्ते कार्ये पथिषु प्रवणाः  भूप तरुणाः।

अहं वृद्धा यातुं कपिल मुनि दग्धांस्तव पितॄन्

न शक्ता वृद्धत्वात् पवितुमिह नीरैर्निज भवैः ॥१३॥

यदा यूनां आसम्  प्रबल तरुणा प्रोन्नतकरा,

वलिष्टाभ्यां पदभ्यामगमपि नच  स्वीय भवनात्।

प्रफुल्लैः काशैर्वा शिरसि जनितैश्चर्मवलिभि-

र्विशुष्कै सृङ्मासैर्विततिधमनीभिश्चित वपुः॥१४॥

चलद्हस्ताद्यङ्गैः  क्वचिदपि पतन्ती क्वचिदपि-

चलन्ती सोच्छवासैः क्वचिदपि च तिष्ठामि भुवि च।

कथं गच्छाम्यद्य नृपति  तव सङ्गे निजभुवम् ,

परित्यज्य क्षेत्रं विहरण मतिर्मे न भवति    ॥१५॥

पुराराधाकृष्णाद्यखिल सुर गन्धर्व मिलितो,

महादेवोद्गानाच्छ्रवणमिषतः पावन करी।

गवां लोके जाता सलिलमय मूर्तिः श्रुतिमुखा-

च्छ्रुताद्धा सैवत्वं स्फुट नयन दृष्टा किरि पुरे॥१६॥

गिरीशोऽप्यालोच्याखिल सुर समज्यां जलमयीम्,

स्वनेत्राभ्यां दृष्टा  निज मनसि खिन्नः स्ववचनात्।

जटायान्तान्दघ्रे कृत कलुष शान्त्यै द्रुततया,

प्रमग्नः सस्स्वान्तेऽलभदिह च गङ्गाधर पदम्॥१७॥

तवाम्भः सम्पीत्वा  ह्यघ विरहिताः शान्त मनसो,

नवोच्चैर्देवत्वं नयन विषये मुक्ति मपिनो।

समिच्छ्न्तो मातस्तवतटनिवासः प्रतिदिनम्,

न काङ्क्षन्ते यातुं वहिरपि कदाचिन्मनुजताः॥१८॥

त्वदम्भस्त्वन्मृत्स्ना तटग पवनस्ते त्वमपि च,

तव स्नानालोकौ यदि मिलति लोके सहजतः।

महापापव्राताल्लघु कलुष राशेः किमुभयम्,

जनानां लोकेऽस्मिञ्छमन जनिता भीरपि कुतः॥१९॥

ततस्तां कैलाशे हर  निकटमित्वो परिगता-

म्प्रसन्नां तां चक्रे विधि मुनि नुतान्दिव्य गतिदाम्।

प्रवेगात्तल्लोकाच्छिव शिरशि संघूर्ण्य  गिरितः,

पतन्ती फ़ेनोद्यैर्द्रुत गति विधानैस्तदनुगा॥२०॥

मिलित्वा वृद्धायाः प्रथम जनितायाश्च चरणौ

मुदा संस्पृश्याथो स्वसृ जननि वक्त्रं विकसितम् ।

विचुम्व्याम्भोजं च निज शुभ कराभ्यान्निदधती,

स्वकीयाङ्के पश्चात्वरितगति भूयः सगरजान् ॥२१॥

कृतान्तस्स्वान्दूतानुपदिशति नित्यं प्रतिपलम्,

वराह श्रीमातुर्भजन निरतान्पूजन परान्।

कृतस्नानान्  गङ्गा रजतिलकितानम्बु पिवतः,

स्मरन्तो दूरात्तानपि नरगणान्प्रोञ्झ्य च परान्॥२२॥

परस्त्री संगन्तान् द्विज विबुध वित्तस्य च हरो,

गुरुस्त्री गामीयः स्वसृदुहितृ गामीच्छ्ल करो।

चरा आनीयन्तां हरिहर जुगुप्सा श्रुति परो,

जनो यो वृद्धानां भजन विमुखास्तान्मम पुरे॥२३॥

यदादूराद् वृद्धा स्व पद पठतो रक्षणकरी,

भवेत् दूरं  तस्य मम नरक कुण्डानि च पुनः।

कदाचिद् विस्मृत्या नरकसहितः कोऽपि पतितः,

स्मरेद् गङ्गां गङ्गां मदधिकृत नाशोप्यऽभविता॥२४॥

यदा लोके गङ्गा सकल तटिनी वाचक पदं,

तदान्यासां शक्तिः स्फुरति नहि दूरात्कथमपि।

स्मृतौतस्मादेव  पदमिह तु  वृद्धा पद परम्,

विभेम्येतन्नाम्नः प्रभववलतस्तारण करात्॥२५॥

स्वयं सर्वत्रैव प्रतिपल भ्रमन्त्याश्चर गणा –

नुपेक्षन्त्यास्तस्याः किमपि नहि गुप्तं क्वचिदपि।

परान्स्वान्भक्तांश्च स्मरति सततं विस्मरति नो,

नचैवाज्ञाभङ्गं प्रभुरपि विधातुं हरिरिति॥२६॥

महिम्नः पारं को गमयितु मलं स्यादिह सुरो,

न यक्षो गन्धर्वो न च दितिज शेषादिरपि वा।

न वाक् स्वान्तन्नो वा श्रुतिरपि च  सन्देग्धि सततम्,

पुराणं किं कुर्यादितिमनसि जानन्तु च सदा॥२७॥

इयं वृद्धा शुद्धा ह्यचल पद रूपान्त रहिता,

सुखा विद्यारूपा निखिल जननी पावन करी।

सदा सेव्या ब्रह्मद्रव विपुलराशिः सुखकरी,

बुधैर्मूर्खैर्वन्द्याऽसुर विवुध यक्षादिभिरपि॥२८॥

भुजङ्गास्तरङ्गाः सदैनो विभङ्गाः,

सुरङ्गा दिवङ्गाः मदङ्गाः निपान्तु।

इमे वृद्ध गङ्गा शुभाङ्गाः पतङ्ग-

 प्रभाङ्गा सदालोकनीयामलाङ्गाः॥२९॥

दाशरथ्यां कृतौ पूर्णा वृद्ध गङ्गोर्मयः शुभाः।

भूनासत्द्विसहस्राऽब्दे सितेमाघे च दिक्तिथौ॥३०॥

इति श्री वृद्ध गङ्गायाः लहरीस्यात्सदा मुदे।           

गङ्गाधरस्य साम्बस्य  अर्पितास्तु पुनातु या॥३१॥

श्री वृद्धा स्तोत्र पाठेन आरोग्यं लभते पुमान् ।

   प्रदक्षिणाऽर्चनं कृत्वा सर्वान् कामानवाप्नुयात् ॥  

अनेक रोगैः परिपीडितोऽहम् ,  गङ्गे त्वमेवासि निदान मेकम् ।

त्वदंबुपानात्तव दर्शनाच्च , अत्युग्ररोगाः क्षयमाशुयान्ति ॥

यत्र भागीरथी गङ्गा वृद्धया सह सङ्गता ।

तत्रैव सूकरक्षेत्रे वराहेणोऽद्ध्रिता मही ॥

यः प्राग् क्रोडपुरी तथा किरिपुरी ख्याता धरामण्डले

                       वृद्धायाऽमृत पूर्ण ज्ञान नगरी दिव्यात्मभिः शोभिता ॥

सूकरक्षेत्र महिम्नि सा तु अधुना सोरों इति ज्ञायते

                         वन्दे तां भुवि भोग मोक्ष वरदां विप्रै स्सदा सेविताम् ॥

संबत २००२ में बृद्ध गंगा लहरी लिखी गयी तदनुसार 1945 ईस्वी सन में  

|| वृद्ध गङ्गा लहरी व्याख्या ||

*ध्यानम्–*

शारच्चन्द्र प्रभाङ्गी सितवसनधरा फुल्लकाशाभकेशा,

वृद्धागङ्गा विशुष्का वलिविचितवपुः शेष कङ्काल गात्री।

ध्येयावन्द्या दयालुः सुरमुनिदितिजैः प्राणशिष्टाचलासा 

कम्पद् हस्तङ्घ्रिपद्मा निपतित दशना यष्टिकालम्ब देहा॥१॥

हे दयार्द हृदय वृद्ध गङ्गे ! आप देव,मुनि ,दैत्यों द्वारा ध्येय एवं वन्दनीय हो ,आपके अङ्ग की कान्ति शरत्कालीन चन्द्रमा के समान है ,आपने श्वेत वस्त्र धारण किये हैं आपके केशों की आभा फ़ूले हुए कांश के समान श्वेत है ,सूखा हुआ   एवं झुर्रियों से भरा हुआ शरीर हड्डियों का ढांचा मात्र शेष है ,हे अचले आपके प्राण मात्र शेष हैं ,आपके हाथ पांव कांपते हैं ,दांत सब गिर गये हैं और आप छडी का सहारा लिये हुए हो .आपका वृद्ध स्वरूप परम शोभनीय है ।॥१॥

*श्लोक–*

अये वृद्धे गङ्गे विधृत भवगर्भेऽब्धिमहले,

कला काष्टा तारा रविशशि कुजादेर्जननदेः।

वराहस्याप्यादे र वतरणदे भूद्धृतिमिषा-

न्नमस्तुभ्यम् मातस्सकल तटिनी सागर भरे॥२॥ भवे 

हे मां वृद्ध गंगे ! आप अपने गर्भ में संसार को धारण किये हुए हो ,आप समुद्र की पत्नी हो ,कला ,काष्ठा , तारा ,सूर्य ,चन्द्र ,मंगल आदि सभी ग्रहों को जन्म देने वाली हो ,जल में मग्न पृथ्वी के उद्धार के वहाने से आदिवराह को  अवतार देने वाली हे माता ! आपको नमस्कार है ,आपही समस्त नदियों और समुद्र आदि को अमृतमय जल से भरने वाली हो ,भवे ऐसा भी पाठ है ,अर्थात् सभी नदी जलाशयादि आपसे ही उत्पन्न हुए हैं ।॥२॥

भगवती वृद्धागङ्गा की ब्रह्मरूपता 

प्रशूस्त्वंनैवासीः भवतिभुवने कुत्रजनता,

वसेदन्नं चापः कथमपि न विन्देदशनतः।

न जीवेच्छं यायान्नहि तरणतास्याद् बृजनतो,

न वा मुक्तेर्वार्ता श्रवण पथमीयाज्जनमुखात्॥३॥

हे मातः  यदि आप प्रकट न होतीं  ,  तो संसार में जनता कहाँ से होती ? और कहाँ निवास करती ? { भुवने जनता कुत्र वसेत् }  तथा खाने , पीनेके लिये अन्न , जल भी कहाँ से प्राप्त होता ? और जीनेकी इच्छा तथा पापोंसे , दुःखसे छुटकारा पानेकी इच्छा भी कहाँसे होती ? यह बात जन समुदायके मुखसे सुननेमें आई है || ३|| 

  विशेष :-    इस श्लोक में वेदान्त के तत्वज्ञान पर प्रकाश डाला गया  है । (  त्वं प्रसूः नैवासीः ) आप उत्पत्ति रहित हो | न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः। न मुमुक्षुर्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थता॥ १०॥ माण्डूक्य कारिका तथा न जायते म्रियते वा कदाचित् ऐसा भगवद्गीता में लिखा है अतः इस श्लोक में वेदान्त के मूर्धन्य विद्वान हमारे चरित्रनायक श्री पण्डित दशरथ जी शास्त्री ब्रह्मस्वरूपिणी वृद्धागंगा को संवोधित करते हुए कहते हैं कि हे मातः यद्यपि आप उत्पत्ति रहित हो ।जन्म तो शरीरादि का होता है आत्माका नहीं यदि जन्म होगा तो मृत्युभी होगी अतः आत्मा शरीरसे भिन्न है इसीलिये अमरणधर्मा है|  तो जब कारण की उत्पत्ति ही नहीं हुई तो कार्य की उत्पत्ति कहां से होगी  ( भुवने जनता कुत्र भवति ) तो संसार में जनता कहां से हो सकती है  ।  { अथवा जन्माद्यस्य यतः यदि तुम न होतीं तो जगतका जन्म ही कैसे सम्भव होता  यदि त्वं नैवासीः तदा भुवने जनता कुत्र भवति } यह तो चैतन्य में प्रतिभास मात्र है  । फ़िर (वसेत्  वासः अन्नं भोग्यं  आपः जलं  ) ब्रहम के लिये कोई घर नहीं हो सकता और अद्वितीय होने से वह किसी अन्न को भोग्य भी  नहीं बना सकता ( अशनतः कथं केन वा विन्देत् ) भोग्य के रूप में वह कैसे ,किसे और किसके द्वारा प्राप्त करे । {   न तस्य कार्यं करणं च विद्यते ,  न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिपः } श्वेताश्वतरोपनिषत्  अतः अन्न तथा जल का सुसमृद्ध भण्डार उसके किसी उपयोग में नहीं आता ,न उसे जीने की इच्छा है क्योंकि जब जन्म मरण ही नहीं हैं तो जिजीविषा कहां से होगी । यह सब तो देह और मन की उपाधि को स्वीकार कर लेने पर होता है | महाभूतान्यहंकारो ,  बुद्धिरव्यक्तमेव च। इन्द्रियाणि दशैकं च, पञ्च चेन्द्रियगोचराः।।5 || 

इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं,  संघातश्चेतना धृतिः। एतत्क्षेत्रं समासेन, सविकारमुदाहृतम।।।।6 || गीता ,अध्याय १३ 

 यह सब तो संघातकी स्वीकृति में होता है । अतः जो स्वरूपस्थ है उसे दुःख से छुटकारा पाने की इच्छा भी नहीं होती (  न वा मुक्तेर्वार्ता  ) इच्छा तो मन में होती है साक्षी में नहीं ।इसलिये जो आपके भक्त हैं ,आपसे विभक्त नहीं हैं अर्थात् योगयुक्त हैं।

 योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।

सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥ ७ ॥ भगवद्गीता ५ अध्याय 

जो योगयुक्त (कर्मयोगयुक्त), जितेन्द्रिय, अंतःकरण को वश किया हुआ, विशुद्ध अंतःकरणवाला है, और सब प्राणियों से आत्मभाव रखता है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता ।

   तात्पर्य कि आप निराकार परब्रह्म हो । आपके द्वारा ही यह संसार प्रवाह चल रहा है | तत्व ज्ञानियों के मुख से द्वैत प्रपञ्च की बातें सुनने में नहीं आतीं ।॥३॥

यहां  चतु:श्लोकी भागवत और  नासदीय सूक्त स्मरणीय है | 

 !! चतु:श्लोकी भागवत !!

अहमेवासमेवाग्रे नान्यद यत् सदसत परम।

पश्चादहं यदेतच्च योSवशिष्येत सोSस्म्यहम ॥१॥

ऋतेSर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।

तद्विद्यादात्मनो माया यथाSSभासो यथा तम: ॥ २॥

यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।

प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम॥ ३॥

एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाSSत्मन:।

अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा॥ ४॥

सृष्टि से पूर्व केवल मैं ही था। { अहमेव आसम् और कहा आसम् एव }  सत्, असत या उससे परे मुझसे भिन्न कुछ नहीं था। सृष्टि न रहने पर (प्रलयकाल में) भी मैं ही रहता हूँ। यह सब सृष्टि  रूप भी मैं ही हूँ और जो कुछ इस सृष्टि ,   स्थिति तथा प्रलय से बचा रहता है, वह भी मैं ही हूँ। (१)

जो मुझ मूल तत्त्व को छोड़कर प्रतीत होता है और आत्मा में प्रतीत नहीं होता, उसे आत्मा की माया समझो। जैसे (वस्तु का) प्रतिबिम्ब अथवा अंधकार (छाया) होता है। (२)

जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) संसार के छोटे-बड़े सभी पदार्थों में प्रविष्ट होते हुए भी उनमें प्रविष्ट नहीं हैं, वैसे ही मैं भी विश्व में व्यापक होने पर भी उससे असंपृक्त हूँ। (३)

आत्मतत्त्व को जानने की इच्छा रखनेवाले के लिए इतना ही जानने योग्य है की अन्वय ( सृष्टि ) अथवा व्यतिरेक (प्रलय) क्रम में जो तत्त्व सर्वत्र एवं सर्वदा रहता है, वही आत्मतत्त्व है। (४)

यहां नासदीय सूक्त स्मरणीय है नासदीय सूक्त ऋग्वेद के 10 वें मंडल का  129 वां सूक्त है। इसका सम्बन्ध ब्रह्माण्ड विज्ञान और ब्रह्मांड की उत्पत्ति के साथ है 

सृष्टि-उत्पत्ति सूक्त

नासदासीन्नो सदासात्तदानीं नासीद्रजो नोव्योमा परोयत्।

किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नंभः किमासीद् गहनंगभीरम् ॥१॥

अन्वय– तदानीम् असत् न आसीत् सत् नो आसीत्; रजः न आसीत्; व्योम नोयत् परः अवरीवः, कुह कस्य शर्मन् गहनं गभीरम्।

अर्थ– उस समय अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति से पहले प्रलय दशा में असत् अर्थात् अभावात्मक तत्त्व नहीं था। सत्= भाव तत्त्व भी नहीं था, रजः=स्वर्गलोक मृत्युलोक और पाताल लोक नहीं थे, अन्तरिक्ष नहीं था और उससे परे जो कुछ है वह भी नहीं था, वह आवरण करने वाला तत्त्व कहाँ था और किसके संरक्षण में था। उस समय गहन= कठिनाई से प्रवेश करने योग्य गहरा क्या था, अर्थात् वे सब नहीं थे। क्योंकि सदसत भाव सापेक्ष होते हैं | 

न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।

अनीद वातं स्वधया तदेकं तस्मादधान्यन्न पर किं च नास ॥२॥

अन्वय-तर्हि मृत्युः नासीत् न अमृतम्, रात्र्याः अह्नः प्रकेतः नासीत् तत् अनीत अवातम, स्वधया एकम् ह तस्मात् अन्यत् किञ्चन न आस न परः।

अर्थ – उस प्रलय कालिक समय में मृत्यु नहीं थी और अमृत = मृत्यु का अभाव भी नहीं था। रात्री और दिन का ज्ञान भी नहीं था उस समय वह ब्रह्म तत्व ही केवल प्राण युक्त, क्रिया से शून्य और माया के साथ जुड़ा हुआ एक रूप में विद्यमान था, उस माया सहित ब्रह्म से भिन्न कुछ भी नहीं था और उस से परे भी कुछ नहीं था।

तम आसीत्तमसा गूढमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदं।

तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकं॥३॥

अन्वय -अग्रे तमसा गूढम् तमः आसीत्, अप्रकेतम् इदम् सर्वम् सलिलम्, आःयत्आभु तुच्छेन अपिहितं आसीत् तत् एकम् तपस महिना अजायत।

अर्थ –सृष्टिके उत्पन्नहोनेसे पहले अर्थात् प्रलय अवस्था में यह जगत् अन्धकार से आच्छादित था और यह जगत् तमस रूप मूल कारण में विद्यमान था,अज्ञात यह सम्पूर्ण जगत् सलिल=जल रूप में था। अर्थात् उस समय कार्य और कारण दोंनों मिले हुए थे { जल कारण है और पृथ्वी कार्य है } यह जगत् है वह व्यापक एवं निम्न स्तरीय अभाव रूप अज्ञान से आच्छादित था इसीलिए कारण के साथ कार्य एकरूप होकर यह जगत् ईश्वर के संकल्प और तप की महिमा से उत्पन्न हुआ।

कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।

सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ॥४॥

अन्वय-अग्रे तत् कामः समवर्तत;यन्मनसः अधिप्रथमं रेतःआसीत्, सतः बन्धुं कवयःमनीषाहृदि प्रतीष्या असति निरविन्दन् |

अर्थ – सृष्टि की उत्पत्ति होने के समय सब से पहले काम=अर्थात् सृष्टि रचना करने की इच्छा शक्ति उत्पन्न हुयी, जो परमेश्वर के मन में सबसे पहला बीज रूप कारण हुआ; भौतिक रूप से विद्यमान जगत् के बन्धन-कामरूप कारण को क्रान्तदर्शी ऋषियो ने अपने ज्ञान द्वारा भाव से विलक्षण अभाव में खोज डाला। { सच्चत्यच्चाभवत् अर्थात् अग्नि,जल,पृथ्वीको सत् कहते हैं और वायु तथा आकाशको त्यत् कहते हैं अदृश्य होनेके कारण } 

तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासी३दुपरि स्विदासी३त्।

रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ॥५॥

अन्वय-एषाम् रश्मिःविततः तिरश्चीनः अधःस्वित् आसीत्, उपरिस्वित् आसीत् रेतोधाः आसन् महिमानःआसन् स्वधाअवस्तात् प्रयतिः पुरस्तात्।

अर्थ-पूर्वोक्त मन्त्रों में नासदासीत् , कामस्तदग्रे , मनसोरेतः में अविद्या, काम-सङ्कल्प और सृष्टि बीज-कारण की सूर्य-किरणों के समान बहुत व्यापकता उनमें विद्यमान थी। यह सबसे पहले तिरछा था या मध्य में या अन्त में? क्या वह तत्त्व नीचे विद्यमान था या ऊपर विद्यमान था? वह सर्वत्र समान भाव से भाव उत्पन्न था इस प्रकार इस उत्पन्न जगत् में कुछ पदार्थ बीज रूप कर्म को धारण करने वाले जीव रूप में थे और कुछ तत्त्व आकाशादि महान रूप में प्रकृति रूप थे; स्वधा=भोग्य पदार्थ निम्नस्तर के होते हैं और भोक्ता पदार्थ उत्कृष्टता से परिपूर्ण होते हैं।

को आद्धा वेद क इह प्रवोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।

अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ॥६॥

अन्वय-कः अद्धा वेद कः इह प्रवोचत् इयं विसृष्टिः कुतः कुतः आजाता, देवा अस्य विसर्जनेन अर्वाक् अथ कः वेद यतः आ बभूव।

अर्थ – कौन इस बात को वास्तविक रूप से जानता है और कौन इस लोक में सृष्टि के उत्पन्न होने के विवरण को बता सकता है कि यह विविध प्रकार की सृष्टि किस उपादान कारण से और किस निमित्त कारण से सब ओर से उत्पन्न हुयी। देवता भी इस विविध प्रकार की सृष्टि उत्पन्न होने से बाद के हैं अतः ये देवगण भी अपने से पहले की बात के विषय में नहीं बता सकते इसलिए कौन मनुष्य जानता है जिस कारण यह सारा संसार उत्पन्न हुआ।

इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।

यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ॥७॥

अन्वय– इयं विसृष्टिः यतः आबभूव यदि वा दधे यदि वा न। अस्य यः अध्यक्षः परमे व्यामन् अङ्ग सो वेद यदि न वेद।

अर्थ – यह विविध प्रकार की सृष्टि जिस प्रकार के उपादान और निमित्त कारण से उत्पन्न हुयी इस का मुख्या कारण है ईश्वर के द्वारा इसे धारण करना। इसके अतिरिक्त अन्य कोई धारण नहीं कर सकता। इस सृष्टि का जो स्वामी ईश्वर है, अपने प्रकाश या आनंद स्वरुप परमेव्योमन् में प्रतिष्ठित है। हे प्रिय श्रोताओं ! वह आनंद स्वरुप परमात्मा ही इस विषय को जानता है उस के अतिरिक्त (इस सृष्टिके उत्पत्ति तत्व को) कोई नहीं जानता है। इस प्रकार सृष्टि और प्रलय परमात्मा के अधीन है।

*जलप्रशस्ति–*

न चाकूपाराम्भः  प्रभुच नहि भागीरथि जलम्,

न चान्यासान्नीरं पतन समयाद्  वै त्रिदिनतः।

विधातुं कङ्कालं जगति जलरूपत्वमखिल-

मयोध्यानातीर्थैः  सरसि सलिलं चेत्तवविभोः॥४॥

प्राणीमात्र की हड्डी को गलाने शक्ति किसी भी नदी के जल में तथा भागीरथी के जल में भी नहीं पाई जाती ,और न अकूपार  जल में    ( समुद्र जल में )यह सामर्थ्य है कि हड्डी डालने के तीन दिन वाद उसे जल रूप बनादे । यह शक्ति तो मात्र आपके ही जल में पाई जाती है । अतः आप सर्व तीर्थ जलों केलिए अयोध्या हैं । { न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते । } अर्थात आपकी समता कोई तीर्थ जल नहीं कर सकता ।॥४॥

समुद्रोऽब्धिरकूपारः पारावारः सरित्पतिः। उदन्वानुदधिः सिन्धुः सरस्वान्सागरोऽर्णवः॥इत्यमरः 

न कुत्-सितं पारं गन्तव्यदेशो यस्य      (न कूपारः । नञ्समासः । कुं पृथिवीं पिपर्त्ति इति कूपारः । पॄ पालन-पूरणयोः 

कुं  पृथिवीं पिपर्ति पूरयति अण् पूर्व्वदीर्घः ।

विना ते हे मातर्जल जनित विन्दोर्मिलनतो,

नवाऽऽरे ताम्रे वा कनकमय रौप्येऽपि किमुत।          

न नागे हैमे वा त्रपुजनित पात्रे जसदजे,

स्थिरत्वं नोयायान्नृपति दुहिता नीरमपि च॥५॥

 हे वृद्ध गंगे ,हे माँ महाराज जन्हु की कन्या जान्हवी गंगा के  जल में  यदि आपके जल विन्दु न मिलाये जांय तो फ़िर वह जल भी चाहे किसी भी धातु के पात्र में रखा जाये जैसे कि ताम्र (तांबेके) पात्र में , सुवर्ण के पात्र में , चांदी के पात्र में  अथवा स्वर्णमिश्रितचांदी  के पात्र में  ,नाग (शीशे) के पात्र में   और नाहीं शुद्ध स्वर्ण के पात्र , और नांही त्रपु    (टीन) के पात्र अथवा जस्ते के बनेहुए पात्रों में चिरकाल स्थायी नहीं होगा । अतः चिरकाल तक ठहरने के लिये आपका जल मिलाना अत्यावश्यक है । जैसे दूध में दही का जामिन दिया जाता है ।॥५॥

*मातृकर्तव्यम्–*

तवैवायं मातर्जयति खलु लोकेषु महिमा,

यतोऽव्ध्यादेर्माता  त्वमिह परिपातास्यविरतम्।

प्रसिद्धा मातॄणां प्रकृतिरिह दृष्टाखिल जनैः,

स्वबालानां रक्षा भरण भरिता प्रेमवशतः॥६॥

माताऔं की प्रकृति जन समुदाय में प्रसिद्ध ही है कि वे प्रेमवश अपने आश्रित बालकों की रक्षा तथा भरण पोषण करतीही हैं । क्योंकि आप समुद्रों की माता हैं और निरन्तर उनका रक्षण करती हैं अतः आपकी महिमा निश्चय ही सर्वोत्कृष्ट विजयिनी है ॥६॥

*मातृवात्सल्यम्–*

त्वदीये पूताङ्गे विविध विहरन्तोऽर्भकगणा-

स्त्यजन्तो विण्मूत्रं मुख जनित नासोद्भवमलम्।

मुधा सत्या सभ्यार्थक बिलपितान्येव सहसे,

तदज्ञानं तेषा मिति ह विहसन्तीव विदुषाः ॥७॥

       हे माता ! आपके पवित्र जल में बालक समुदाय विविध प्रकार से विहार करते हैं तथा जल में ही विष्ठा ,मूत्र ,कफ़ और नासोद्भव मल का त्याग कर देते हैं ,अनेक प्रकार के  असभ्यार्थक शव्दों का प्रयोग करते हैं । यह सब आप सहन करतीं हैं ।विद्वान् लोग उन बालकों का अज्ञान देखकर हंसते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि — 

सोऽभिध्याय शरीरात्स्वात्सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः । अप एव ससर्जादौ तासु वीर्यं अवासृजत् । । १.८ । ।
तदण्डं अभवद्धैमं सहस्रांशुसमप्रभम् । तस्मिञ् जज्ञे स्वयं ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः । । १.९ । । यह मनु वाक्य है । तथा वेद में भी आपो वा इदमग्रे सलिलमासीत् । तेन प्रजापतिरश्राम्यत् १८ब्राह्मण ग्रन्थ कहते हैं कि प्राणरूप आपः की धाराएं आदि में ‘सलिल’ थी जगत का मूलभूत तत्व जल ही है। यही परम भेषज है, महोषधि है, और भी अमृतं वा आपः । अमृतस्यानन्तरित्यै, इति । नाप्सु मूत्रपुरीषं कुर्यात् । न निष्ठीवेत् । न विवसनः स्नायात् । गुह्यो वा एषोऽग्निः । एतस्याग्नेरनतिदाहाय, इति । न पुष्करपर्णानि हिरण्यं वाऽधितिष्ठेत् । एतस्याग्नेरनभ्यारोहाय, इति । न कूर्मस्याश्नीयात् । नोदकस्याघातुकान्येन मोदकानि भवन्ति । अघातुका आपः । आदि ….

 परन्तु वात्सल्यमयी मां करुणापूर्ण हृदयसे सबकुछ क्षमा कर देती हैं ।॥७॥

सदा प्रेम्णापूर्णा तदपि निज दासेषु दयसे,

द्रवन्ति त्वं गङ्गे    ग्लपितमनसस्त्तान्निज करैः।

समालिङ्गन्तीतान्स्पृशसि च निजाङ्के निदधति,

शुभोक्त्या सत्कारैः परिचरसि लोकेतिजरठे || ८ ||

हे मां , वृद्ध गङ्गे! आप सदा प्रेम से परिपूर्ण हो ,अपने भक्तों पर दया करनेवाली हो ,आर्त भक्तों पर आपका हृदय पिघल जाता है ,अपने कर कमलों द्वारा उनका आलिङ्गन करती हो ,स्पर्श करती हो ,अपनी गोद में बिठाती हो तथा मधुरवाणी युक्त सत्कारों द्वारा सद् व्यवहार करती हो ,तभी आप संसार में जरठे  ( वृद्धे ) नाम से प्रसिद्ध हो ॥८॥

परिल्किन्नासित्वं निज जनित पाल्यानकयुतान्,

विलोक्य द्राग् दुःख परिहरसि तेषां विधिवशात्।                                        

ददाना सन्तोषं धनवसन भौज्यैरिह दिवि,

विमुक्तिं मायाया अचल पदवासं च ददसे॥९॥

आप अपने पाल्य बालकों को { अक युतान् – पाप युक्तान् }   दुःखी भक्तों  को देख कर करुणा रस से आर्द्र हो जाती हो । तथा अपने आश्रित जन समुदाय को भाग्यवश प्राप्त हुए दुःख को देखकर उसे शीघ्र ही दूर करती हो । उन्हें संतोष ,धन ,वस्त्र ,भोज्य पदार्थ इस लोक में देकर ,देवलोक में क्रमसे मुक्ति प्रदान करती हो ,अथवा अज्ञान भ्रान्ति रूप माया से मुक्त कर परिनिष्ठित कूटस्थ ,अचलपद वास प्रदान करती हो । ॥९॥

*यात्र्यागमनदशा–*

तवाम्भः पानार्थं विहित मति मद्भक्त जनता,

गृहद्वारान्मुक्त्वा पथि च बहु लुण्टाकगणतः।

अनन्त व्याध्योघानपिच सहमाना बहुविधा-

न्समागच्छन्त्येव द्रविण बहुलाजीर्ण वसनाः॥१०॥

हे मां , वृद्ध गङ्गे! तुम्हारे जलपान ,और स्नान करने के विचार से बहुत से भक्तजन अपना घर छोडने के पश्चात् मार्ग में अनेक धन हरण करनेवाले ठग ,लुटेरों से मिलते हैं ,तथा अनेकानेक रोगों को सहन करते हुए धनिक यात्री धनवान होते हुए भी पुराने मलिन वस्त्र धारण करके आते हैं।  हे मां , वृद्ध गङ्गे    आपकी महिमा धन्य है । ॥१०॥

*भगीरथागमनम्–*

द्विजानामादेशात् किरि नगर पार्श्वे घनवने,

स्वपूर्वोद्धाराय स्तुति विधि परो भूपतिरिह।

त्वयि स्थित्वा याञ्चां बहुल समयं सोविहितवान्,

*वृद्धगङ्गोक्ति–*

स्थिराहं मे भगनीं सुरपुर बसन्तीं स्तुहिगिरौ॥११॥

यहां राजा भगीरथ ने अपने पूर्वजों के उद्धार के लिये ब्राह्मणों की आज्ञा से किरिनगर  ( सूकर नगर ) सोरों के पास घने वन में तपस्या की ,फ़िर हे मां तुम्हारे तट पर वराह घाट पर निवास करके आपकी चिरकाल सेवा तपस्या में लगे रहे ।तब आपने कहा कि -मैं स्थिर हूं , स्वर्गलोक में निवास करने वाली मेरी बहिन को पर्वत पर जाकर आप प्रार्थना द्वारा प्रसन्न कीजिये ॥११॥

प्रसन्ना सा भूत्वा त्वदभिलषितं  द्राग् वितरसे ,

महादेवान्तेऽतस्त्वमिह नृपते सागर भव।

*भगीरथोक्ति–*

कनिष्टा कल्याणी  भवसि महती त्वं च जगति,

प्रभावस्ते मातर्व्युदयति निजीयोत्सव दिने॥१२॥

हे सगरकुलोत्पन्न राजा भगीरथ आप सगर कुलोद्धारार्थ श्री महादेव के समीप जाकर श्री गंगाजी को प्रसन्न कीजिये ,वह प्रसन्न होकर                  शीघ्र ही आपकी इच्छा पूर्ण करेंगी । ” भगीरथोक्ति ” संसार में आप सबसे बडी हैं , वह स्वर्गतरङ्गिणी गंगा आपसे छोटी है ,हे माता आपके प्रभाव से आपकी जलमयी मूर्ति साकार रूप धारण कर जनता के दर्शनार्थ वैशाख शुक्ल सप्तमी को प्रत्यक्ष दर्शन देकर आपके प्रभाव को प्रकट करता है ।

( उक्त दिन यदि विधिपूर्वक गङ्गा सूक्त से अर्चन किया जाय तो पात्र से जल उछलता  है ) ॥१२॥

वैशाखशुक्लसप्तम्यां जह्नुना जाह्नवी स्वयम् ।।

क्रोधात्पीता पुनस्त्यक्ता कर्णरंध्रात्तु दक्षिणात् ।। ११६-११ ।।

तां तत्र पूजयेत्स्नात्वा प्रत्यूषे विमले जले ।।

गंधपुष्पाक्षताद्यैश्च सर्वैरेवोपचारकैः ।। ११६-१२ ।।

श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे बृहदुपाख्याने चतुर्थपादे द्वादशमासस्थितसप्तमीव्रतनिरूपणं नाम षोडशाधिकशततमोऽध्यायः ।। ११६ ।।

                                                             ॥  गङ्गा सूक्तम् ॥

                    प्र सु व आपो महिमानमुत्तमं कारुर्वोचाति सदने विवस्वतः ।
                  प्र सप्तसप्त त्रेधा हि चक्रमुः प्र सृत्वरीणामति सिन्धुरोजसा ॥१॥
                  प्र तेऽरदद्वरुणो यातवे पथः सिन्धो यद्वाजाँ अभ्यद्रवस्त्वम् ।
                  भूम्या अधि प्रवता यासि सानुना यदेषामग्रं जगतामिरज्यसि ॥२॥
                  दिवि स्वनो यतते भूम्योपर्यनन्तं शुष्ममुदियर्ति भानुना ।
                  अभ्रादिव प्र स्तनयन्ति वृष्टयः सिन्धुर्यदेति वृषभो न रोरुवत् ॥३॥
                  अभि त्वा सिन्धो शिशुमिन्न मातरो वाश्रा अर्षन्ति पयसेव धेनवः ।
                  राजेव युध्वा नयसि त्वमित्सिचौ यदासामग्रं प्रवतामिनक्षसि ॥४॥
                  इमं मे गङ्गे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमं सचता परुष्ण्या ।
                  असिक्न्या मरुद्वृधे वितस्तयार्जीकीये शृणुह्या सुषोमया ॥५॥
                   तृष्टामया प्रथमं यातवे सजूः सुसर्त्वा रसया श्वेत्या त्या ।
                   त्वं सिन्धो कुभया गोमतीं क्रुमुं मेहत्न्वा सरथं याभिरीयसे ॥६॥
                   ऋजीत्येनी रुशती महित्वा परि ज्रयांसि भरते रजांसि ।
                   अदब्धा सिन्धुरपसामपस्तमाश्वा न चित्रा वपुषीव दर्शता ॥७॥
                    स्वश्वा सिन्धुः सुरथा सुवासा हिरण्ययी सुकृता वाजिनीवती ।
                   ऊर्णावती युवतिः सीलमावत्युताधि वस्ते सुभगा मधुवृधम् ॥८॥
                   सुखं रथं युयुजे सिन्धुरश्विनं तेन वाजं सनिषदस्मिन्नाजौ ।
                   महान्ह्यस्य महिमा पनस्यतेऽदब्धस्य स्वयशसो विरप्शिनः ॥९॥  (10.75) ऋग्वेद 

*वृद्धोक्ति–*

जगद्रीतेर्नीतिः सकल जन सिद्धा त्रिभुवने,

नियोज्यन्ते कार्ये पथिषु प्रवणाः  भूप तरुणाः।

अहं वृद्धा यातुं कपिल मुनि दग्धांस्तव पितॄन् 

न शक्ता वृद्धत्वात् पवितुमिह नीरैर्निज भवैः ॥१३॥

    हे राजन्  संसार में परम्परया यह नीति देखी जाती है कि तीनों लोकों में प्राणीमात्र के कार्य साफ़ल्यार्थ महापुरुष अपने कनिष्ठ पुरुषों को जो कार्य करने में सक्षम हैं और अपने धर्म के प्रति समर्पित हैं उनको आज्ञा देकर कार्य करवाते हैं ।मैं वृद्धावस्था के कारण कपिल मुनि द्वारा दग्ध तुम्हारे पितरों को स्वयं पृथ्वी से निकले हुए मेरे अपने  श्रोत द्वारा पवित्र जल से पवित्र करने में असमर्थ हूं ॥१३॥

*गङ्गादशा–*

यदा यूनां आसम्  प्रबल तरुणा प्रोन्नतकरा,

वलिष्टाभ्यां पदभ्यामगमपि नच  स्वीय भवनात्।

प्रफुल्लैः काशैर्वा शिरसि जनितैश्चर्मवलिभि-

र्विशुष्कै सृङ्मासैर्विततिधमनीभिश्चित वपुः॥१४॥

   जब मैं युवावस्था में थी तब प्रवल तारुण्य के कारण मेरी तरङ्गे बहुत ऊंची हुआ करती थीं और मेरी गमनशक्ति भी तीव्र थी उस समय भी मैं कहीं नहीं गयी अर्थात्  मैंने अपना निवासस्थान सूकरक्षेत्र नहीं छोड़ा। तो अब जब कि वाल कांश के फ़ूल के समान श्वेत हो चुके हैं ,और चमड़ी में झुर्रियां पड़ी हुई हैं ,रुधिर मांस सूख चुका है ,नाड़ियां (शिराएं ) विस्तृत हो कर सारे शरीर में व्याप्त हो गयी हैं तब ऐसी अवस्था में मैं  भला कहां जाऊंगी ।  ॥१४॥

चलद्हस्ताद्यङ्गैः  क्वचिदपि पतन्ती क्वचिदपि-

चलन्ती सोच्छवासैः क्वचिदपि च तिष्ठामि भुवि च।

कथं गच्छाम्यद्य नृपति  तव सङ्गे निजभुवम् ,

परित्यज्य क्षेत्रं विहरण मतिर्मे न भवति    ॥१५॥ 

   इस समय वृद्धावस्था में माँ अपनी दशा का वर्णन कर रहीं हैं , हस्तपादादि अंग कम्पित हैं , चलते चलते कभी कंही गिर जाती हूं ,कभी श्वास दीर्घगति से चलने लगती है तो कंही जमीन पर ही मुझे बैठना पड़ता है । अब ऐसी दशा में आज मैं कैसे जाऊं । 

   हे राजा भगीरथ अपना निवास क्षेत्र छोड़कर कंही घूमने फिरने का विचार मेरे मन में नहीं होता है ।॥१५॥

                          *गङ्गोत्पत्ति–*

पुराराधाकृष्णाद्याखिल सुर गन्धर्व मिलितो,

महादेवोद्गानाच्छ्रवणमिषतः पावन करी।

गवां लोके जाता सलिलमय मूर्तिः श्रुतिमुखा-

च्छ्रुताद्धा सैवत्वं स्फुट नयन दृष्टा किरि पुरे॥१६॥

पूर्व समयमें  गोलोक में श्री राधाकृष्ण के महारास  सभामें  समस्त देव ,मुनि ,गन्धर्व आदि एकत्र हुए ,वहां सरस्वती के गान से मुग्ध होकर महादेवजी ने गाना आरम्भ किया तब उस गान के प्रभाव से वेदस्वरूप  राधाकृष्ण द्रवित होगये ,जलमय होगये । महादेव के गान का वहाना बनाकर ब्र्ह्मद्रव  स्वरूपा आपकी पावनी अमृतमयी जलमूर्ति का आविर्भाव हुआ । यह आश्चर्यमयी घटना हमने श्रुतिमुखसे सुनी है ,और खुली आंखो से किरिपुर (सूकरपुर ,सूकरक्षेत्र सोरों ) में देखा है । जो सबसे पहले गोलोक में प्रकट हुई धारा निश्चय ही आप वही हैं ।॥१६॥

यह कथा ब्रह्मवैवर्तपुराण के  ४. श्रीकृष्णजन्मखण्डः के ३४ वें अध्याय दृष्टव्य है ।

तथा 

शिवसंगीतसंमुग्ध श्रीकृष्णांगसमुद्भवाम् ।।

राधांगद्रवसंयुक्तां तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।।१८।।

यज्जन्म सृष्टेरादौ च गोलोके रासमंडले ।।

सन्निधाने शंकरस्य तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ।। १९ ।।

गोपैर्गोपीभिराकीर्णे शुभे राधामहोत्सवे ।।

कार्त्तिकी पूर्णिमायां च तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।।9.12.२०।।

श्रीदेवीभागवते महापुराणे नवमस्कन्धे द्वादशोऽध्यायः 

राधाकृष्णाङ्‌गसम्भूता या देवी द्रवरूपिणी ।

नवयौवनसम्पन्ना सुशीला सुन्दरी वरा ॥ ४ ॥

 श्रीदेवीभागवते महापुराणे नवमस्कन्धे चतुर्दशोऽध्यायः

कृष्णविग्रहसम्भूतां कृष्णतुल्यां परां सतीम् ।। वह्निशुद्धांशुकाधानां रत्नभूषणभूषिताम् ।।

कृते तु सर्वतीर्थानि त्रेतायां पुष्करं परम्  ।

द्वापरे तु कुरुक्षेत्रं कलौ गङ्गा विशिष्यते  ॥

(नारद पुराण 2.40.21)

 ज्येष्ठे मासि क्षितिसुतदिने शुक्लपक्षे दशम्यां हस्ते शैलादवतरदसौ जाह्नवी मर्त्यलोकम् ।।

पापान्यस्यां हरति हि तिथौ सा दशैषाद्यगंगा पुण्यं दद्यादपि शतगुणं वाजिमेधक्रतोश्च ।। ४०-२१ ।।

परद्रव्येष्वभिध्यानं मनसानिष्टचिन्तनम् । वितथाभिनिवेशश्च त्रिविधं कर्म मानसम् । । १२.५ । ।
पारुष्यं अनृतं चैव पैशुन्यं चापि सर्वशः । असंबद्धप्रलापश्च वाङ्मयं स्याच्चतुर्विधम् । । १२.६ । ।
अदत्तानां उपादानं हिंसा चैवाविधानतः । परदारोपसेवा च शारीरं त्रिविधं स्मृतम् । । १२.७ । ।  एतैर्दशविधैः पापैः कोटिजन्मसमुद्भवैः मुच्यते नात्र सन्देहो ब्रह्मणो वचनं यथा मनुस्मृति वैशाख शुक्ल सप्तम्यां जह्नुना जान्हवी स्वयम्  क्रोधात्पीता पुनस्त्यक्ता कर्णरन्ध्रात्तु दक्षिणात् ११६-११ ।।नारदपुराणम्- पूर्वार्धः *शिवावस्था–* गिरीशोऽप्यालोच्याखिल सुर समज्यां जलमयीम्, स्वनेत्राभ्यां दृष्टा  निज मनसि खिन्नः स्ववचनात्। जटायान्तान्दघ्रे कृत कलुष शान्त्यै द्रुततया, प्रमग्नः सस्स्वान्तेऽलभदिह च गङ्गाधर पदम्॥१७॥          

   भगवान शंकर ने जब उस दैवी सभा में सभान होकर विचार किया और  संपूर्ण समागत समाज को अपनी आंखो  जलमय देखा तो उनके मनमें खिन्नता हुई कि यह सब मेरे ही गान के कारण हुआ है तबतो शीघ्रही प्राणिमात्रकृत समस्त पापों का शमन करने वाली उस अमृतद्रव रूपा गङ्गा को शीघ्रही अपनी जटाऔं में धारण कर लिया तब उनके मन में प्रसन्नता हुई ,और गङ्गाधर पदवी को प्राप्त किया ।॥१७॥

*निवासिस्वभावः–*

तवाम्भः सम्पीत्वा  ह्यघ विरहिताः शान्त मनसो,

नवोच्चैर्देवत्वं नयन विषये मुक्ति मपिनो।

समिच्छ्न्तो मातस्तवतटनिवासः प्रतिदिनम्,

न काङ्क्षन्ते यातुं वहिरपि कदाचिन्मनुजताः॥१८॥

   लेखक महाशय ने यहां अम्भ शव्द का प्रयोग किया है ,जैसा कि वेद में जल की चार अवस्थायें बताई हैं ,अम्भो मरीचीमरमापो दोऽम्भःपरेण दिवं दृौ प्रतिष्ठान्तरिक्ष मरीचय: पृथिवी मरो या अधस्तात्ता आपः। २। एतरेयोपनिषत् 

१ अम्भ २ मरीची  ३ मर ४ आप  उनमें से अम्भ ब्रह्मलोक में ,मरीची द्युलोक में मर पृथ्वी पर तथा आप पृथ्वी से नीचे अर्थात् जो आपके जल को अम्भ भावना से ब्रह्मभावना से पान करते हैं वे निष्पाप होकर शान्त मानस हो जाते हैं । फ़िर उनके मन में उच्च देवत्व प्राप्त करने की इच्छा अथवा मुक्ति की अभिलाषा भी नहीं रहती । ऐसे भक्तजन तो प्रतिदिन आपके तट पर ही निवास की आकांक्षा करते हैं और कभीभी मनुष्य योनिसे बाहर जाने की आकांक्षा भी नहीं करते ।॥१८॥

त्वदम्भस्त्वन्मृत्स्ना तटग पवनस्ते त्वमपि च,

तव स्नानालोकौ यदि मिलति लोके सहजतः।

महापापव्राताल्लघु कलुष राशेः किमुभयम्,

जनानां लोकेऽस्मिञ्छमन जनिता भीरपि कुतः॥१९॥

   हे मां ! प्राणिमात्र को पूर्वकृत शुभकर्मों के फ़लस्वरूप बड़ी ही सरलता से आपके दर्शन एवं जलपान ,स्नान ,मृत्तिकाधारण ,आपके जलसे स्पर्श करती हुई वायु मिल जाने पर बड़े बड़े पाप समुदाय भी शांत होजाते हैं फिर छोटे छोटे पापों की तो बात ही क्या करना । यहां” कैमुतिकन्याय ” का प्रयोग किया है ( कैमुतिक न्याय—जिसने बडे़ बडे़ काम किए उसे कोई छोटा काम करते क्या लगता है। ) अतः संसार में लोगों के मन में पापजनित दुःख से अशान्ति का भय भी कहां से हो ? अर्थात् पापों से दुःखी मन में उत्पन्न भय शीघ्र ही नष्ट हो जाता है तथा हृदय को परम शान्ति प्राप्त होती है ।॥१९॥

*शिवशिरसिमन्दाकिनीपतनम्–*

ततस्तां कैलाशे हर  निकटमित्वो परिगता-

म्प्रसन्नां तां चक्रे विधि मुनि नुतान्दिव्य गतिदाम्।

प्रवेगात्तल्लोकाच्छिव शिरशि संघूर्ण्य  गिरितः,

पतन्ती फैनोद्यैर्द्रुत गति विधानैस्तदनुगा॥२०॥

  इसके पश्चात् राजा भगीरथ ने कैलाश में त्रिताप हर शंकर के समीप पहुंच कर शिवाजटानिवासिनी  ( तां )  मन्दाकिनी को

  ( दिव्यगतिदाम् ), दिव्यगति प्रदान करने वाली, ( विधि मुनिनुताम् ), ब्रह्मा आदि ऋषि मुनि गणों से वन्दित , को प्रसन्न किया । फ़िर प्रवल बेग से शिवके शिरोदेश में घूमती हुई पर्वत पर गिरीं तथा पुनः पर्वत से  फ़ेनों के समुदाय से सुशोभित हो, बड़े वेग से  गिरती हुई राजा भगीरथ की अनुगामिनी हुईं । ॥२०॥

*गङ्गायाः  वृद्धासङ्गमः–*

मिलित्वा वृद्धायाः प्रथम जनितायाश्च चरणौ 

मुदा संस्प्रिश्याथो  स्वसृ जननि वक्त्रं विकसितम् ।

विचुमव्याम्भोजं च निज शुभ कराभ्यान्निदधती,

स्वकीयाङ्के पश्चात्वरितगति भूयः सगरजान् ॥२१॥

श्री भागीरथी गङ्गासे पूर्व उत्पन्न श्री वृद्धागङ्गा से सूकरक्षेत्र  में मिलकर बड़ी प्रसन्नता से भागीरथी गङ्गा ने वृद्धा गङ्गा के चरणों का स्पर्श किया |  और माता तुल्य अपनी बड़ी बहन के विकसित मुखारविंद का चुम्वन कर अपने सुकोमल करकमलों द्वारा अपनी गोदी में बैठारती हुई प्रणाम संमानादि से सत्कृत कर त्वरित गति से सगरजों का उद्धार करने के लिये आगे प्रवाहित हुईं ।॥२१॥

*यमोक्ति–*

कृतान्तस्स्वान्दूतानुपदिशति नित्यं प्रतिपलम्,

वराह श्रीमातुर्भजन निरतान्पूजन परान्।

कृतस्नानान्  गङ्गा रजतिलकितानम्बु पिवतः,

स्मरन्तो दूरात्तानपि नरगणान्प्रोञ्झ्य च परान्॥२२॥

धर्मराज अपने यमदूतों को नित्य प्रतिपल आदेश देते हैं ,ध्यान से सुनिये ,भगवान श्री वराह एवं श्रीमाता वृद्ध गङ्गा के पूजन में नित्य निरत (लगे हुये ) स्नान करने वाले ,गङ्गामृत्तिका को  ललाट पर धारण करने वाले ,गङ्गाजल पान करने वाले तथा प्रदक्षिणा में प्रतिपद गङ्गा का स्मरण वालों को दूर से ही छोड़कर अन्य दुराचारियों को ही पकड़ कर लाना । ॥२२॥

( गङ्गा नाम की निरुक्ति : अम्बर से गां /पृथिवी की ओर गता  ‘ गयी ’  होने से गङ्गा नाम धारण का उल्लेख ),( गङ्गा यद्गाङ्गताम्बरात् ।  ) अथवा ” गम्यते प्राप्यते भगवत्पदं विष्णुपदं यया सा गङ्गा “

(गमयति प्रापयति ज्ञापयति वा भगवतपदं या शक्तिः यद्वा गम्यते प्राप्यते ज्ञाप्यते मोक्षार्थिभिर्या । अथवा गां -गच्छति इति गंगा अथवा गगनं व्याप्य गच्छति इति गंगा | 

वराहपुराण में” हिमवच्छिखरान्मुक्ता नाम्ना मन्दाकिनी नदी॥  गां गता सा भवेद्गङ्गा मायैषा मम कीर्तिता ॥१२५.२४

( मन्दाकिनी की निरुक्ति : { मन्दं मन्दं अकति , इति मन्दाकिनी } नदी का गौ को जाना / गां गता ), तथा वराह पुराण में ही ( मृत खञ्जरीट पक्षी का गङ्गाजल में प्रक्षेपण, गङ्गाजल के प्रभाव से पक्षी का ऐश्वर्य सम्पन्न वैश्य गृह में जन्म लेना )  एवं स खंञ्जरीटो हि गङ्गातोयात्ततस्तदा आदित्य तीर्थ संक्लिन्नशरीरः स वसुन्धरे॥आदि ,१३८.१५….

परस्त्री संगन्तान् द्विज विबुध वित्तस्य च हरो,

गुरुस्त्री गामीयः स्वसृदुहितृ गामीच्छ्ल करो।

चरा आनीयन्तां हरिहर जुगुप्सा श्रुति परो,

जनो यो वृद्धानां भजन विमुखास्तान्मम पुरे॥२३॥ आनीयतां 

   यमराज कहते हैं हे दूतों ! जो परस्त्री से प्रेम करते हैं ,ब्राह्मणों तथा विद्वानों का धन हरण करते हैं ,जो गुरुपत्नी गामी हैं एवं बहिन ,पुत्री के साथ दुष्कृत्य निरत हैं ,छल ,कपट करते हैं ,हरिहर की निन्दा सुनते हैं अथवा वेदनिन्दक हैं ,तथा अपने वृद्ध पुरुषों की सेवा नहीं करते ऐसे दुष्ट पुरुषों को मेरे लोक में नरक में पकड़ कर लाना है  ॥२३॥

यदादूराद् वृद्धा स्व पद पठतो रक्षणकरी,

भवेत् दूरं  तस्य मम नरक कुण्डानि च पुनः।

कदाचिद् विस्मृत्या नरकसहितः कोऽपि पतितः,

स्मरेद् गङ्गा गङ्गां मदधिकृत नाशोप्यऽभविता॥२४॥

  कोई भी मनुष्य अपने पैरों से चलते हुए रक्षा करने वाली माँ वृद्ध गंगा का स्मरण करता हुआ आता है ,उससे नरक कुंड दूर हो जाते हैं । यदि पुनः कदाचित्  विस्मृति से कभी वृद्ध गंगा का स्मरण न करता हुआ नरक में गिर भी पड़े और वहां पर भी अगर गंगा गंगा को नाम से स्मरण करें तो मेरे अधिकृत दण्डों से मुक्त होजाता है । उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं ।॥२४॥

यदा लोके गङ्गा सकल तटिनी वाचक पदं,

तदान्यासां शक्तिः स्फुरति नहि दूरात्कथमपि।

स्मृतौतस्मादेव  पदमिह तु  वृद्धा पद परम्,

विभेम्येतन्नाम्नः प्रभववलतस्तारण करात्॥२५॥

   जब इस संसार में किसी  भी मानव के द्वारा  “माँ गंगे” इस पद का उच्चारण करने मात्र से सकल मनोरथ पूर्ण होते हैं  क्योंकि गङ्गा शब्द सभी पुण्य नदियों का बाचक पद है | तथा अन्य देव देवियों की शक्ति किसी भी प्रकार से  कोई भी बाधा उत्पन्न नहीं कर सकती । इसीलिये मैं उन्ही की स्मृति में माँ वृद्ध गंगा का स्मरण कर और उनके महत्त्व को जानकर निरंतर ही माँ वृद्ध गंगे गंगे का जप करता हूं । माँ वृद्ध गंगा के पावन करों में  “तरंगो में ” जो इस संसार सागर से तारण करनेकी शक्ति है वह किसी अन्य में नहीं है । ” इसीलिये मैं इस नाम से डरता हूं ”   (ऐसा यमराज का कथन है )  ॥२५॥    

सकल तटिनी वाचक पदमिति व्याख्यास्यामः :- 

 “गङ्गा ” यह पद “शव्द ” समस्त नदियों का और जलमात्र का वाचक है ।

अद्भ्यो वा इदं समभूत् । तस्मादिदं सर्वं ब्रह्म स्वयंभ्विति, इति ।

प्रधानांशस्वरूपा सा गङ्‌गा भुवनपावनी ।

विष्णुविग्रहसम्भूता द्रवरूपा सनातनी ॥ ६० ॥

पापिपापेध्मदाहाय ज्वलदग्निस्वरूपिणी ।

सुखस्पर्शा स्नानपानैर्निर्वाणपददायिनी ॥ ६१ ॥

गोलोकस्थानप्रस्थानसुखसोपानरूपिणी ।

पवित्ररूपा तीर्थानां सरितां च परावरा ॥ ६२ ॥

चन्द्रपद्मक्षीरनिभा शुद्धसत्त्वस्वरूपिणी ।

निर्मला निरहङ्‌कारा साध्वी नारायणप्रिया ॥ ६४ ॥

 श्रीमद्देवीभागवत महापुराण  नवमस्कन्ध प्रथमोध्यायः ॥ १ ॥

*वृद्धागङ्गाव्याप्तिः–*

स्वयं सर्वत्रैव प्रतिपल भ्रमन्त्याश्चर गणा –

नुपेक्षन्त्यास्तस्याः किमपि नहि गुप्तं क्वचिदपि।

परान्स्वान्भक्ताश्च स्मरति सततं विस्मरति नो,

नचैवाज्ञाभङ्गं प्रभुरपि विधातुं हरिरिति॥२६॥

  माँ वृद्ध गंगा से कुछ भी गुप्त नहीं है वे सर्वत्र सदैव विद्यमान हैं । आप अपने भक्तों की रक्षाके लिये सतत सावधान रहकर  स्वयं सर्वत्र सगुण साकार रूपसे भ्रमण करती रहतीं हैं | ( जैसे लकड़ीके खम्भेमें से नृसिंह का प्राकट्य )

(वर्तमान और विद्यमान का अन्तर  ध्यान में लीजिये ” घडा वर्तमान होता है और मिट्टी विद्यमान होती है ”  ) तथा जो यमराज के दूत इस संसार में प्रतिपल भ्रमण करते रहते हैं उनकी उपेक्षा करके, अपने तथा पराये भक्तों का( जो भी ईश्वर के किसी भी रूप की शरण में जाते हैं )  उनका  सदैव स्मरण रखतीं हैं कभी भूलती नहीं ,कभी भी भेदभाव नहीं करतीं । सदा सबको सब प्रकार से स्मरण कर सुखी बनातीं हैं । माँ की आज्ञा को भंग करने का सामर्थ्य परम प्रभु में भी नहीं है ।क्योंकि वे ईश्वरों की भी परमेश्वरी हैं ।॥२६॥

महिम्नः पारं को गमयितु मलं स्यादिह सुरो,

न यक्षो गन्धर्वो न च दितिज शेषादिरपि वा।

न वाक् स्वान्तन्नो वा श्रुतिरपि च  सन्देग्धि सततम्,

पुराणं किं कुर्यादितिमनसि जानन्तु च सदा॥२७॥

 माँ श्री वृद्ध गंगा की महिमा के पार को पाने में सभी असमर्थ हैं ,देव ,यक्ष ,गन्धर्व ,दैत्य और शेषादि बड़े बड़े विद्वानों की बुद्धि भी जिसका इदमित्थं करके निर्वचन नहीं कर सकती तथा ”  नवाक् ” वाणी कर्मेन्द्रियों का उपलक्षण है, अर्थात् कर्मेन्द्र्यों की गति नहीं है । ” स्वान्तन्नो ” अर्थात् अपना अन्तःकरण भी नहीं ( अन्तःकरण ४ हैं  १ मन २ बुद्धि ३ चित्त ४ अहंकार की भी गति नहीं है ) तथा श्रुति भी आपकी महिमा के विषय में सतत ,नित्य ही संदिग्ध चकित ही रहती है फ़िर विचारे पुराण क्या करें क्योंकि स्मृतिः श्रुत्यनुसारिणी । अतः   सर्वदा मन में ऐसा निश्चय जानिये कि श्री वृद्धा गङ्गा माताजी की महिमा अनिर्वचनीय है । ( इति मनसि जानन्तु च सदा ) ॥२७॥

इयं वृद्धा शुद्धा ह्यचल पद रूपान्तर हिता,

सुखा विद्यारूपा निखिल जननी पावन करी।

सदा सेव्या ब्रह्मद्रव विपुलराशिः सुखकरी,

बुधैर्मूर्खैर्वन्द्याऽसुर विवुध यक्षादिभिरपि॥२८॥

   यह श्री वृद्धा गङ्गा ” शुद्ध” अर्थात् मायारहित , ” अचल पद ” अर्थात् कूटस्थ , अपरिवर्तन्शील , ” रूपान्तर हिता ” सभी रूपों के पीछे प्रहिता ,अन्तर्हिता ,छुपी हुई  ढकी हुई ,प्रच्छन्न जैसे घड़े में मिट्टी ,आभूषण में स्वर्ण बैसे ही नाम रूप के पीछे सच्चिदानंद छिपा हुआ है । ” सुखा ” सुखनिधि ,आनंदघन ” विद्या ” ज्ञानस्वरूपा , अखिल प्राणि मात्र की जननी ,पवित्र करने वाली

 ” सदासेव्या ” भजनीया ,उपासनीया ” ब्रह्मद्रव ” करुणा से द्रवित हुआ जगत का अधिष्ठान ,शाश्वती सत्ता ,रसवती ,सरस्वती 

किरणा धूतपापा च पुण्यतोया सरस्वती ।। गंगा च यमुना चैव पंचनद्यः पुनंतु माम् ।। ९ ।।स्कन्द पुराण 

ॐ पञ्च नद्यः सरस्वतीम्, अपि यन्ति सस्रोतसः। सरस्वती तु पंचधा, सो देशेऽभवत्सरित्। ॐ गङ्गायै नमः।

यजुर्वेद 34.11 ” विपुलराशिः सुखकरी ” अनन्त सुख शान्ति कारिणी हैं । विद्वान ,मूर्ख ,देव, दैत्य ,यक्ष ,रक्ष ,ऋषि ,मुनि ,तपस्वियों द्वारा सदा वन्दनीय हैं ॥२८॥

भुजङ्गास्तरङ्गाः सदैनो विभङ्गाः,

सुरङ्गा दिवङ्गाः मदङ्गानि पान्तु।

इमे वृद्ध गङ्गा शुभाङ्गाः पतङ्ग-

प्रभाङ्गाः सदालोकनीयाऽमलाङ्गाः॥२९॥

  भुजङ्गों  के समान तरङ्गों  वाली ” सदैनो विभङ्गाः” एनः पापः ( सदा ही पापनाशिनी  ) 

, सुरङ्गा ( सुराङ्गना, स्वर्ग तरङ्गिणी , स्वर्ग विहारिणी  ) दिवङ्गाः , (  दिव्याङ्गी , द्युलोक विहारिणी  )   ”   मदङ्गानि पान्तु  ”    हमारे सभी अंगों को पवित्र करें ( नितरां पान्तु पुनातु रक्षतु वा ) ये हमारी वृद्ध गङ्गा के अङ्ग पतङ्ग ( सूर्य ) की प्रभा के समान  सौन्दर्य वर्धक चन्द्रिका सम उज्वल निर्मल श्री वृद्ध गङ्गा माता की लहरों को शुद्ध अन्तःकरण से  देखा करें । स्नान ध्यान धारणा से अवलोकनीय हैं । ॥२९॥

‘पतङ्गः शलभे सूर्य्ये पतङ्गः पक्षिणि स्मृतः ॥  खगत्वसामान्योपचारात् ।

दाशरथ्यां कृतौ पूर्णा वृद्ध गङ्गोर्मयः शुभाः।

भूनासत्द्विसहस्राऽब्दे सितेमाघे च दिक्तिथौ॥३०॥

        पं . श्री विद्यावारिधि , सिद्धान्तवागीश  स्व.श्री दशरथजी द्वारा वृद्ध गङ्गालहरी की रचना    ” भूनासत्द्विसहस्त्राऽब्दे” विक्रम संवत् २०११ माघ शुक्ला दशमी १० मंगलवार को पूर्ण हुई  ।  भू – पृथ्वी एकसंख्या बाचक है  और नासत् अर्थात् ब्रह्म भी एक संख्या बाचक है  इस प्रकार 11 की प्राप्ति हुई  “न असत् इति नासत् और द्विसहस्राब्दे तो स्पष्ट ही है  इस प्रकार 2011 ॥३०॥

इति श्री वृद्ध गङ्गाया लहरीस्यात्सदा मुदे।

गङ्गाधरस्य साम्बस्य  अर्पितास्तु पुनातु या॥३१॥

मातृ- पितृ मोदकारी यह वृद्ध गङ्गालहरी ” गङ्गा की तरङ्गावलि  ”  सर्वदा प्रसन्नता प्रदान करें ,श्री जगज्जननी उमा और गङ्गाधर के चरणों में समर्पित हो हमें पवित्र करें ।या अस्मान् पुनातु ॥३१॥

॥इति श्री वृद्ध गङ्गा लहरी॥

   श्री वृद्धा स्तोत्र पाठेन आरोग्यं लभते पुमान् ।

    प्रदक्षिणाऽर्चनं कृत्वा सर्वान् कामानवाप्नुयात् ॥  

श्री वृद्ध गङ्गा लहरी स्तोत्र का पाठ करने से मनुष्य आरोग्य एवं चिरायु प्राप्त करता है तथा पूजन परिक्रमा करने से सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं ।

     अनेक रोगैः परिपीडितोऽहम् ,  गङ्गे त्वमेवासि निदान मेकम् । 

                                               त्वदम्बुपानात्तव दर्शनाच्च , अत्युग्ररोगाः क्षयमाशुयान्ति ॥ 

  हे माता वृद्धे गङ्गे मैं अनेक रोगों से पीडित हूं , आप ही एकमात्र मेरेलिये  निदान हो ,औषधि हो , हे माँ तुम्हारे जलपान से तथा दर्शन मात्र से कठिन से कठिन रोग शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं ॥ 

                              ॥इति श्री वृद्ध गङ्गा लहरी सम्पूर्णा ॥ शुभं भवतुतमाम् 

यत्र भागीरथी गङ्गा वृद्धया सह सङ्गता ।

तत्रैव सूकरक्षेत्रे वराहेणोऽद्ध्रिता मही ॥

यः प्राक् क्रोडपुरी तथा किरिपुरी ख्याता धरामण्डले।

                       वृद्धायाऽमृत पूर्ण ज्ञान नगरी दिव्यात्मभिः शोभिता ॥

सूकरक्षेत्र महिम्नि सा तु अधुना सोरों इति ज्ञायते।

                         वन्दे तां भुवि भोग मोक्ष वरदां विप्रै स्सदा सेविताम् ॥

–वास्तव मे सर्वव्यापी परमब्रह्म परमात्मा जो ब्रह्मा, शिव और मुनिजनों का स्वामी है, जो संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का कारण है, वही गंगा रूप में जल रूप हो गया है-

ब्रह्म जो व्यापक वेद कहैं, गमनाहिं गिरा गुन-ग्यान-गुनी को।

जो करता, भरता, हरता, सुर साहेबु, साहेबु दीन दुखी को।

सोइ भयो द्रव रूप सही, जो है नाथ विरंचि महेस मुनी को।

मानि प्रतीति सदा तुलसी, जगु काहे न सेवत देव धुनी को।। 

(कवितावली-उत्तरकाण्ड 146)

॥ ॐश्री गणेशाय नमः  ॥          ॥  श्री वृद्धा गङ्गा देव्यै नमः ॥       ॥  ॐ श्री वराहो विजयते तराम् ॥


  || * अथ श्री गङ्गा पूजन विधिः *|| 

ॐ नारायणाय नमः ।  ॐ पर ब्रह्मणे नमः    ॐ द्रव ब्रह्मणे नमः  ॐ जगद्वीजरूप अकूपाराय नमः इति वृद्धाङ्गानि  

 ॐ भगीरथाय नमः   ॐ जन्हवे नमः    ॐ महाभिषाय नमः   ॐ शिवाय नमः   ॐ ब्रह्मणे नमः  ॐ विष्णवे नमः   ॐ ऋषिभ्यो नमः इति भागीरथ्याङ्गानि   । 

 ध्यानम्   

   सूक्ष्मा सौम्यस्वरूपा निखिल जनमते बीजभूता हि सत्या ।

    नित्याऽनन्ताऽचलाया प्रथम भवमती व्यापिका व्यापकोद्भः ॥

  आद्याब्धि प्रेयसी श्री विबुधगणनुता  सूत्र सम्भूति दात्री ।

  माता सर्वस्य वृद्धा जगति वितनुतान्नोऽचलां सम्पदां सा  ॥१ ॥

चतुर्भुजां त्रिनेत्रां च सर्वावयवशोभिताम्  ।

रत्नकुंभसितांभोजवराभयकरां शुभाम्  ॥ २,४१.३३ ॥

श्वेतवस्त्रपरीधानां मुक्तामणिविभूषिताम्  ।

सुप्रसन्नां सुवदनां करुणार्द्रहृदंबुजाम्  ॥ २,४१.३४ ॥

सुधाप्लावितभूपृष्ठां त्रैलोक्यनमितां सदा  ।

ध्यात्वा जलमयीं गङ्गां पूजयन्पुण्यभाग्भवेत् ॥ २,४१.३५ ॥

        ॥   ॐ भूर्भुवः स्वः गङ्गा देव्यै नमः ध्यानार्थे पुष्पाणि समर्पयामि ॥  

आवाहनम् –

कुमारी धनदा नन्दा विमला मंगला वला ।

त्वमेव जननाथा च मत्स्यि त्वां पूजयाम्यहम् ॥  २ ॥  

 ॥   ॐ भूर्भुवः स्वः मत्स्यै नमः इहागच्छ , इहतिष्ठ , आवाहनार्थे पुष्पाणि समर्पयामि ॥ 

आवाहनम् –

धृतपृष्ठ गरिष्ठ भूतलामरुणाक्षीं जलकेलि लालसां ।

चतुरागम सच्च्तुष्पदा मिह तां कच्छपिका महंभजे ॥  ३ ॥ 

॥  ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ कच्छप्यै नमः  इहागच्छ , इहतिष्ठ , आवाहनार्थे पुष्पाणि समर्पयामि ॥ 

आवाहनम् –

रणे दुर्जयै र्दानवै र्हन्यमानान्सुरान् पायितुं या स्वयं स्वस्यपृष्ठे ।

अधान्मन्दरं तद्धराध्धूम्रनेत्रां  नमस्कुर्महे कूर्मिकां धर्मरूपाम् ॥  ४ ॥ 

॥  ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ कूर्म्यै नमः इहागच्छ , इहतिष्ठ , आवाहनार्थे पुष्पाणि समर्पयामि ॥ 

आवाहनम् –

वराहरूपां वाराहीं दंष्ट्राग्रोद्धृत काश्यपीम् ।

क्रोधाद्दैत्यान्मर्दयन्तीं  पद्महस्तां  वरांभजे ॥  ५ ॥ 

 ॥  ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ वाराह्यै नमः इहागच्छ , इहतिष्ठ , आवाहनार्थे पुष्पाणि समर्पयामि ॥ 

आवाहनम् –

यया  संसृज्यते  सर्वं  जगदेतच्चराचरम् ।

पुष्यते च सदा तस्यै भगवत्यै नमोनमः ॥  ६ ॥ 

 ॥ ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः  आवाहनार्थे पुष्पाणि समर्पयामि ॥

प्रतिष्ठापनम् –

देवेशि भक्ति सुलभे परिवार समन्विते ।

यावत्वां पूजयिष्यामि तावत्वं सुस्थिरा भव ॥  ७ ॥ 

॥  ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः सपरिवारायै प्रतिष्ठापयामि ॥ 

आसनम्- 

जलाशयेषु  सर्वत्र  स्थिरेषु  प्रवहत्सु  च ।

ऋषिस्मृता व्यापिनी च तस्यै देव्यै नमोनमः ॥  ८ ॥ 

॥  ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः  आसनम्  समर्पयामि ॥

अर्घ्यम् –

सरित्तटाक  वापीषु  सागरेषु  सरस्सु  च ।

त्वमेव जलरूपासि तदेवार्घ्यं गृहाण  भोः ॥  ९ ॥ 

॥ ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः  अर्ध्यम्   समर्पयामि ॥

पाद्यम् –

चराचरं त्वमेवासि भिन्ना ध्येयादि भेदतः ।

जलं त्वदीय मेतत्ते पाद्यं यच्छामि भक्तितः ॥  १० ॥ 

॥ ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः  पादयोः पाद्यम्   समर्पयामि ॥

आचमनम् –

वाह्याभ्यन्तरतः पासि यतः सर्वस्य कारणम् ।

पावयस्यात्मजन्तस्मा दाचामार्थं च गृह्यताम् ॥  ११ ॥

॥ ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः  आचमनम्   समर्पयामि ॥

स्नानम् –

रेवादौ सागरादौ च यज्जलं तावकं हि तत् ।

ह्रिया  तुभ्यं प्रयच्छामि गङ्गे स्नानाय स्वीकुरु ॥  १२ ॥

॥ ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः  स्नानम्    समर्पयामि ॥

पञ्चामृतम् –

शर्करा मधु गोदुग्ध दध्याज्येषु त्वमेव हि  |

भक्त्या दत्तेन तेन त्वं स्नाहि देवि क्षमस्व मे ॥  १३ ॥

॥ ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः पञ्चामृत  स्नानम्    समर्पयामि ॥

शुद्धोदक स्नानम् –

निर्मला शोधनं व्यर्थं स्वेन कोपि न सिध्यति  |

तथाप्यस्मत्प्रदत्तेन गङ्गे स्नाहि स्व वारिणा ॥  १४ ॥

॥ ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः शुद्धोदक   स्नानम्    समर्पयामि ॥

अंग प्रोन्छनम् –

रोमशं मृदु मद्दत्तं सूक्ष्म तन्तु विनिर्मितम्  |

अन्गोच्छममंशुकं गङ्गे प्रोन्छनाय गृहाण भोः ॥  १५ ॥

॥ ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः अंग प्रोन्छनं   समर्पयामि ॥

यज्ञोपवीतम् –

सूत्र  रूपेण  सर्वत्र  व्याप्तत्वात्सूत्र्रूपिणी  |

स्त्रीत्वादनर्हं  सूत्रं  वा  लिङ्गत्वा दुररी कुरु ॥  १६ ॥

॥ ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः यज्ञोपवीतं   समर्पयामि ॥

वस्त्रोऽपवस्त्रम् –

चारु चैलद्वयं सूक्ष्मं कौसुम्भं स विचित्रकम्  |

परिधानाय मद्दत्तं गङ्गे स्वीकुरु शोभनम् ॥१७ ॥

॥ ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः वस्त्रद्वयं   समर्पयामि ॥

मधुपर्कम् 

कापिलं दधि कुन्देन्दु धवलं मधु संयुतम्  |

प्रत्यक्षरूपां तां गङ्गां मधुपर्कं समर्पये ॥१८ ॥

॥ ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः मधुपर्कं समर्पयामि ॥

आभूषणम् 

रत्न कङ्कण वैदूर्य मुक्ताहार युतानि च  |

सुप्रसन्नेन मनसा दत्तानि स्वीकुरुष्व मे ॥१९ ॥

॥ ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः आभूषणानि समर्पयामि ॥ 

रक्तचन्दनम् 

रक्त चन्दन संमिश्रं गङ्गा तोये क्षिपाम्याहम्  |

मया दत्तं गृहाणाशु चदनं गन्ध संयुतम् ॥२०॥

॥ ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः रक्त चन्दनं समर्पयामि ॥ 

सिन्दूरम् 

सिन्दूरं रक्तवर्णश्च सिन्दूर तिलकप्रिये  |

भक्त्या दत्तं मया गङ्गे सिदूरं प्रतिगृह्यताम् ॥२१॥ 

॥ ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः सिन्दूरं समर्पयामि ॥ 

कुङ्कुमम् 

देवीभूत परं ब्रह्म परमानन्द दायिनी  |

कुंकुमं कामदं दिव्यं गङ्गे मे प्रतिगृह्यताम् ॥२२ ॥

॥ ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः कुंकुमं समर्पयामि ॥ 

अबीर गुलालम् 

अबीरश्च गुलालं च हरिद्रा चन्दनं तथा  |

शृङ्गारार्थं मया दत्तं देवि गङ्गे गृहाण भोः ॥२३ ॥

॥ ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः अबीर गुलालं  समर्पयामि ॥ 

सुगन्धित द्रव्याणि 

तैलानि च सुगन्धीनि द्रव्याणि विविधानि च  |

सर्व पापहरे गङ्गे गृहाण परमेश्वरि ॥२४॥ 

॥ ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः  सुगन्धित तैलं समर्पयामि ॥ 

गन्धम्  

श्रीखण्डं चन्दनं दिव्यं   गन्द्याढयं सुमनोहरम् ।

 विलेपनं देवि गङ्गे  चन्दनं प्रतिगृह्यताम् ॥२५॥ 

॥ ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः चन्दनं समर्पयामि ॥ 

अक्षतानि 

अक्षताश्च त्रिपथगे कुंकुमाक्ताः सुशोभिताः |

. मया निवेदिता भक्त्या गृहाण परमेश्वरि ||२६॥ 

॥ ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः अक्षतान् समर्पयामि ॥ 

पुष्पाणि 

ऋतुपुष्पैः यथाप्राप्त तुलसी विल्व संयुतैः  |

पूजयामि गुणातीतां  प्रसीद परमेश्वरि ॥२७ ॥

॥ ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः पुष्पं समर्पयामि ॥ 

धूपम् 

 वनस्पति रसोद्भूतं  गन्धाढ्यः  सुमनोहरः  |

आनन्दामृतवर्षिण्यै  धूपोयं प्रतिवेदितम्  ॥२८ ॥

॥ ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः धूपं आघ्रापयामि ॥ 

दीपम् 

 साज्यं त्रिवर्ति संयुक्तं वन्हिना योजितं मया  |

दीपं गृहाण देवेशि ! कलि कल्मषनाशिनी ॥२९ ॥

 ॥ ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः दीपं  दर्शयामि समर्पयामि ॥ 

नैवेद्यम् 

    पायसापूप भोज्यानि लेह्य चोष्य फ़लानि च  |

    हृष्टेन मनसा दत्तं मोदकाः मण्डलान्यपि ॥३०॥ 

॥ ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः  नैवेद्यं  निवेदयामि ॥ 

आचमनम् 

  पानीयं च समानीतं मुखप्रक्षालनार्थकम्  |

   गृहाण देवि कृपया गङ्गा दिव्य वपुर्धरा ॥३१ ॥

॥ ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः आचमनीयं करोद्वर्तनार्थे चन्दनं समर्पयामि ॥ 

ताम्बूलम् 

एला लवन्ग सहितं नागवल्ली दलैर्युतम्  |

कर्पूरेण समायुक्तं ताम्बूलं स्वीकुरुस्व भोः ॥३२ ॥

॥ ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः मुखवासार्थे पूगीफ़लसहितं ताम्बूलं समर्पयामि ॥ 

दक्षिणाम् 

  हिरण्य रत्न मुद्रादि चन्द्रायुतसमप्रभे  |

  भ्क्त्योपाहृत सर्वं वै गङ्गायै ते नमोनमः ॥३३ ॥

॥ ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः सुवर्ण पुष्प दक्षिणां समर्पयामि ॥ 

आरार्तिक्यम् 

चन्द्रादित्यौ च धरणी विद्युदग्नि तथैव च  |

त्वमेव सर्व ज्योतींषि आरार्तिं प्रतिगृह्यताम् ॥३४ ॥

॥ ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः नीराजनं समर्पयामि ॥ 

प्रदक्षिणाम् 

मन्दाकिन्यै नमस्तेस्तु मङ्गलायै नमोनमः  |

प्रसन्ना भव संतुष्टा सर्वतः परिपाहि माम् ॥३५ ॥

॥ ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः प्रदक्षिणं समर्पयामि ॥ 

वन्दनम् पुष्पाञ्जलिः 

उत्फ़ुल्लामल पुण्डरीक रुचिरा कृष्णेश विध्यात्मिका 

कुम्भेष्टाऽभय तोयजानि दधती श्वेताम्बराऽलंकृता  | |

हृष्टास्या शशिशेखराऽखिलनदी शोणादिभिः सेविता 

ध्येया पापविनाशिनी मकरगा भागीरथी साधकैः  ॥३६ ॥

॥ ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ गङ्गा देव्यै नमः भागीरथ्यै नमः 

प्रार्थनापूर्वकं नमस्कारान् समर्पयामि ॥ 

प्रणाम  –

 ॥  अथ मन्त्रः     ॐगंङ्गायै नारायण्यै शिवायै च नमोनमः  ॥

प्रार्थनाम् –

श्री गङ्गा मकरासना द्युतिमयी पीयूष कल्लोलिनी 

सर्वैश्वर्यप्रदायिनी गुणमयी शान्तिप्रदा योगिनी 

चित्तस्था भव देवि देहि अभयं माताऽतिश्वेतांबरा

तां वाचं मयि संप्रसादय सदा वेदान्तवेद्या परा  ॥३७  ॥

सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

तीर्थं च सौकरं नाम महापुण्यं शुभे शृणु  ।

यस्मिन्नाविरभूत्पूर्वं वाराहाकृतिरच्युतः  ॥ २,४०.३१ ॥

शतस्याग्निचितां पुण्यं ज्योतिष्टोमद्वयस्य च  ।

अग्निष्टोमसहस्रस्य फलमाप्नोति मानवः  ॥ २,४०.३२ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणोत्तरभागे मोहिनीवसुसंवादे गंगामाहात्म्ये स्थलविशेषस्नानफलकथनं नाम चत्वारिंशत्तमोऽध्यायः ।। ४० ।।

नारद २.४३.९१ (गंगा व गौरी में अभेद)

यथा गौरी तथा गङ्गा तस्माद्गौर्यास्तु  पूजने

विधिर्यो विहितः  सम्यक्सोऽपि गङ्गाप्रपूजने ९१

            || श्री गङ्गोत्पत्ति || 

  बृद्ध गंगा की  छोटी बहन गंगानदीकी उत्पत्ति तथा उनके मन्दाकिनी ,भागीरथी ,  जान्हवी आदि नामों का विवरण – स्वर्ग में इन्हें मन्दाकिनी कहते हैं , पृथ्वी पर भागीरथी तथा पाताल में भोगवती कहलातीं हैं |

सोरों में महाराज भगीरथ की गुफा उनकी प्रसिद्ध तपस्थली है |

गां गच्छति इति गंगा के अनुसार पृथ्वी पर गमन करनेबाले सभी जलप्रवाह गंगा की ही शाखायें हैं |

नदति इति नदी अर्थात् जो नाद करती हुई चलती है अथवा जो शंकर के नाद से उत्पन्न हुई वह नदी | 

एकवार वैकुण्ठ की सभा में सभी देवगण उपस्थित हुए भगवान शंकर भी वहां आये | उनके मुखपर मुस्कराहट थी | वे सारे अंगोंमें विभूति लगाए बृषभराज नंदिकेश्वर की पीठ पर बैठे थे |  

व्याघ्रचर्म का वस्त्र , सर्पमय यज्ञोपवीत , सिरपर सुनहरे रंग की जटाका भार , ललाट में अर्धचंद्र , हाथोंमें त्रिशूल , पट्टिश तथा उत्तम खट्वाङ्ग धारण किये , श्रेष्ठ रत्नों के सारतत्व से निर्मित स्वर -यन्त्र  ( रूद्रवीणा ) लिये  भगवान शिव शीघ्र ही वाहन से उतरे और भक्तिभाव से मस्तक झुका कमलाकांत को  प्रणाम करके उनके वामभाग में बैठे | फिर इंद्र आदि समस्त देवता , मुनि, आदित्य, वसु, रूद्र , मनु , सिद्ध और चारण वहां पधारे | उन सबने पुरुषोत्तम की स्तुति की | उस समय उनके सारे अंग पुलकित होरहे थे | फिर समस्त देवताओं ने सिर झुकाकर भगवान शिव को प्रणाम किया | तदनन्तर स्वरयन्त्र लिये भगवान शंकर ने सुमधुर तालस्वर के साथ संगीत आरम्भ किया | श्रीकृष्ण कहते हैं प्रिये ! उस संगीत में हम दोंनों के गुणों तथा रास सम्बन्धी सुन्दर पदों का गान होने लगा | मन को मोह लेनेबाले सामयिक राग , कण्ठकी एकतानता , मनोहर ” गान ”  ( संगीत शास्त्र के अनुसार ताल में  विराम ) गुरू -लघु के क्रम से पद -भेद – विराम , अतिदीर्घ ” गमक ”  ( संगीत में एक स्वर से दुसरे स्वर पर जाने का एक प्रकार ) तथा  मधुर आनन्द के साथ उन्होंने प्रेमपूर्वक स्वयं -निर्मित ऐसा संगीत छेड़ा , जो संसार  में अत्यंत दुर्लभ है | उस समय भगवान् शिव के सम्पूर्ण अङ्गोंमें रोमाञ्च हो आया था और वे नेत्रों से बारंबार आँसू बहाते थे | प्रिये ! उस संगीत को सुनने मात्र से वहाँ बैठे हुए मुनि तथा देवता मूर्छित एवं वेसुध हो द्रव ( जल- ) रूप हो गये | श्रीहरि के पार्षदों तथा ब्रह्मा जी की भी यही दशा हुई |  भगवान नारायण , लक्ष्मी तथा गान करनेबाले स्वयं शिव भी द्रवरूप हो गये |

 प्राणेश्वरि ! उस समय वैकुण्ठधाम को जल से पूर्ण हुआ देख मुझे शंका हुई | तब वहाँ जाकर मैंने उन सब देवता आदि की मूर्तियों ( शरीरों- ) का पूर्ववत निर्माण किया | तदनन्तर उस जलराशि के लिए वैकुण्ठके चारोंओर स्थान बनाया ; फिर उसकी अधिष्ठात्री देवी ( गंगा ) अपने उस वासस्थान में आयीं | समस्त देवताओं के शरीरों से उत्पन्न हुई वह दिव्य जलराशि ही देवनदी गङ्गा के नाम से प्रख्यात हुई | वह मुमुक्षुओं को मोक्ष और भक्तों को हरि -भक्ति प्रदान करने वाली है | उसकी महिमा का सम्यक् निरूपण असंभव है | 

गंगा का उल्लेख नदीसूक्त  (ऋग्वेद 10.75) में किया गया है, इ॒मं मे॑ गङ्गे यमुने सरस्वति॒ शुतु॑द्रि॒ स्तोमं॑ सचता॒ परु॒ष्ण्या ।अ॒सि॒क्न्या म॑रुद्वृधे वि॒तस्त॒यार्जी॑कीये शृणु॒ह्या सु॒षोम॑या ॥५

ऋग्वेद 3.58.6 में लिखा गया है “आपका प्राचीन घर, आपकी पवित्र मित्रता, हे वीरों, आपकी संपत्ति जाह्नवी (जह्नोःइयं पुत्री) के तट पर है”।

पुराणमोकः सख्यं शिवं वां युवोर्नरा द्रविणं जह्नाव्याम् ।

पुनः कृण्वानाः सख्या शिवानि मध्वा मदेम सह नू समानाः ॥६॥

जह्नाव्याम् । जह्नोः संबन्धिनीत्यर्थे ‘

सरस्वतीदृषद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम्

तं देवनिर्मितं देशं ब्रह्मावर्तं प्रचक्षते || ९ || वामनपुराणे

आर्यावर्तः पुण्यभूमिः मध्यं विन्ध्य हिमालयोः अमरकोषतः 

हिमालयात्  समारभ्य यावत् इंदु सरेावरम् | तं देवनिर्मितं देशं हिंदुस्थानं प्रचक्षते |बृहस्पति आगम

हिमवद्विंध्यधरयोर्यदंतरमुदाहृतम् ।।

प्रत्यगेव प्रयागाच्च मध्यदेशः प्रकीर्तितः ।।

आसमुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात् ।। 

तयोरेवांतरं गिर्योरार्यावर्तं विदुर्बुधाः ।। भविष्य पुराणे 

अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा |

यः स्मरेत् सूकरक्षेत्रं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ||

दूरस्थोऽपि किरिक्षेत्रे गच्छामि च वसाम्यहम् |

एवं यः सततं ब्रूयात् सोऽपि पापैः प्रमुच्यते || किरिक्षेत्रे अर्थात्  वराहक्षेत्रे

राजा भगीरथ इस देवनदी को भूतल पर लाये थे, इसलिये यह भागीरथी नामसे प्रसिद्ध हुई |  वे एक वर्ष तक पैरके अँगूठेके सहारे खड़े होकर महादेवजीकी तपस्या करते रहे। केवल वायुके अतिरिक्त उन्होंने किसी अन्य वस्तु का भक्षण नहीं किया। अन्तमें इस महान भक्तिसे प्रसन्न होकर महादेवजी ने भगीरथको दर्शन देकर कहा कि हे भक्तश्रेष्ठ! हम तेरी मनोकामना पूरी करनेके लिये गंगाजी को अपने मस्तक पर धारण करेंगे। इसकी सूचना पाकर विवश होकर गंगाजी को सुरलोकका परित्याग करना पड़ा। उस समय वे सुरलोकसे कहीं जाना नहीं चाहती थीं, इसलिये वे यह विचार करके कि मैं अपने प्रचण्ड वेग से शिव जी को बहा कर पाताल लोक ले जाऊँगी वे भयानक वेग से शिव जी के सिर पर अवतरित हुईं। गंगा के इस वेगपूर्ण अवतरण से उनका अहंकार शिव जी से छुपा न रहा। महादेवजी ने गंगा की वेगवती धाराओं को अपने जटाजूट में उलझा लिया। गंगा जी अपने समस्त प्रयत्नोंके बाद भी महादेव जी के जटाओं से बाहर न निकल सकीं। गंगा जी को इस प्रकार शिवजी की जटाओं में विलीन होते देख भगीरथने फिर शंकरजी की तपस्या की। भगीरथकी इस तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने गंगाजी को हिमालय पर्वत पर स्थित बिन्दुसर में छोड़ा। छूटते ही गंगा जी सात धाराओं में बँट गईं। गंगा जी की तीन धाराएँ ह्लादिनी, पावनी और नलिनी पूर्व की ओर प्रवाहित हुईं। सुचक्षु, सीता और सिन्धु नाम की तीन धाराएँ पश्चिम की ओर बहीं और सातवीं धारा महाराज भगीरथ के पीछे पीछे चली। जिधर जिधर भगीरथ जाते थे, उधर उधर ही गंगाजी जाती थीं। स्थान स्थान पर देव, यक्ष, किन्नर, ऋषि-मुनि आदि उनके स्वागतके लिये एकत्रित हो रहे थे। जो भी उस जल का स्पर्श करता था, भव-बाधाओं से मुक्त हो जाता था। चलते चलते गंगा जी उस स्थान पर पहुँचीं जहाँ ऋषि जह्नु यज्ञ कर रहे थे। गंगा जी अपने वेग से उनकी यज्ञशाला को सम्पूर्ण सामग्री के साथ बहाकर ले जाने लगीं। इससे ऋषि को बहुत क्रोध आया और उन्होंने क्रुद्ध होकर गंगा का सारा जल पी लिया। यह देख कर समस्त ऋषि मुनियों को बड़ा विस्मय हुआ और वे गंगाजी को मुक्त करने के लिये उनकी स्तुति करने लगे। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर जह्नु ऋषि ने गंगाजी को अपने कानों से निकाल दिया और उन्हें अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार कर लिया। तब से गंगा जाह्नवी कहलाने लगीँ। इसके पश्चात् वे भगीरथ के पीछे चलते चलते समुद्र तक पहुँच गईं और वहाँ से सगर के पुत्रों का उद्धार करने के लिये रसातल में चली गईं। उनके जल के स्पर्श से भस्मीभूत हुये सगर के पुत्र निष्पाप होकर स्वर्ग गये। उस दिन से गंगा के तीन नाम हुये, त्रिपथगा, जाह्नवी और भागीरथी।   

वैशाख शुक्ल सप्तमी के दिन महर्षि जह्नु ने अपने दाहिने कान से गंगा को पृथ्वी पर छोड़ा था। अत: यह गंगा उत्पत्ति का दिन है। ध्येय है कि गंगा के प्रवाह एवं कोलाहल से क्रुद्ध हो महर्षि जह्नु ने अपने तपबल से उन्हे पी लिया। बाद में उन्हे मुक्त कर दिया। तब से गंगा का नाम जाह्नवी पड़ा। यह गंगा के जन्म का पुण्यदायक प्रसंग ब्रह्मवैवर्त पुराण से लिया है |

      || श्री वृद्ध गङ्गा का इतिहास ||

परम पवित्र बृद्धगंगा की उत्पत्तिकी कथा जन्म कर्म के बन्धन का खण्डन करने बाली है | मुक्तिबीज का कारण तथा भवसागर से तरने का उपाय है | श्री वराह के चरण कमलों में प्रीति बढाने की सीढी है | जब श्रीराधा जी ने श्रीदामा को शंखचूड बनने का शाप दिया तो श्रीदामा ने भी श्रीराधाजी को शाप दे दिया कि आप भी मानवी योनि को प्राप्त हों और व्रज में व्रजाङ्गना बनकर महीतल पर विचरण करें | श्रीदामा के शाप से डरी हुई राधाजी ने श्रीकृष्ण से कहा कि मुझे तो गोपी बनना पड़ेगा हे भयभञ्जन श्रीकृष्ण कोई उपाय बताइये आपके बिना तो मैं एक क्षण भी नहीं रह सकती , मैं तो देह मात्र धारण करती हूँ मेरे प्राण,मन, आत्मा तो आप ही हैं | तब श्रीकृष्ण ने अपनी प्रेयसी को अभय देते हुए कहा महीतलं गमिष्यामि वाराहे च वरानने ।।मया सार्धं भूगमनं जन्म तेऽपि निरूपितम् ।।१४।।श्वेतवाराह कल्प में जब मैं भूमि पर जाऊंगा तब मेरे साथ ही आपका भी आगमन होगा | व्रजं गत्वा व्रजे देवि विहरिष्यामि कानने ।।मम प्राणाधिका त्वं च भयं किं ते मयि स्थिते ।।१५।।इसपर नारदजी ने पूंछा कि श्रीदामा और राधा जी के बीच कलह का कारण क्या था ?तब नारायण ने कहा एकबार गोलोक के निर्जन महारण्य में स्वयं श्रीहरि रासमंडल में राधिका के साथ विहार करते हुए इतने आनन्दाभिभूत होगये कि अपने पराये का होश ही खो बैठे और विहार करते करते राधा से बिना पूंछे ही राधा को छोड़कर एक अन्य गोपी विरजा का श्रृंगार करने चलेगये , गोलोक के वृंदारण्य में विरजा राधा के समान ही सौभाग्यशालिनी थी | विरजा की करोड़ों गोपियां सेविकाऐं थीं जब विरजा अपने अन्तःपुर में रत्नसिंहासन पर विराजमान थी तब उस शरच्चंद्रनिभानना , श्वेताम्बरविभूषिता ने समीप में ही श्रीहरि को देखते ही मनोहरस्मित से स्वागत किया, पुलकितसर्वाङ्गी विरजा का श्रीहरि ने उस रत्नमंडप में शृंगार किया | कृष्ण के शृंगारकौतुक से विरजा मूर्च्छा अवस्था को प्राप्त हुई तब भगवान श्रीकृष्णने उसे उठाकर रत्नसिंहासन पर बिठाया | इसीसमय राधा की सखियों ने श्रीकृष्ण को विरजासक्त देखकर श्रीराधाजी से निवेदन किया ,यह सुनकर राधा जी कुपित होगयीं और उन्होंने कहा यदि यह सत्य है तो अभी मेरे साथ चलकर मुझे दिखाओ आज उस गोपी को और कृष्ण को भी यथोचित फल चखाऊंगी देखती हूँ आज कौन उनकी रक्षा करता है | उस समय किसीका भी कुछभी बोलने का साहस नहीं होता था राधाजी तुरन्त ही एक दिव्य रथ पर आरूढ़ होकर करोड़ों गोपियों के साथ विरजा के भवन की ओर चलपडीं | यहां पुराणकारने विरजा के उद्यान का और भवन का बहुत ही विस्तृत एवं भव्य वर्णन किया है | रथ से उतरकर शीघ्रही राधादेवी रत्नमंडप के द्वार पर पहुंच गईं , द्वारदेश में लाखों गोपों से घिरे हुए द्वारपाल ,श्रीकृष्ण के प्रियकिंकर,मुस्कराते हुए श्रीदामा को देखा , देखतेही कोपारुणलोचना देवी ने कहा हट रे रतिलंपटकिंकर मैं मुझसे अन्य तुम्हारे प्रभु की कांता को देखना चाहती हूँ | राधिका की बात सुनकर वेत्रपाणि श्रीदामा निःशंक डटकर खड़ा होगया और अंदर नहीं जाने दिया | तो राधिका की सखियोंने श्रीदामा को उसके सभी सखाओं केसाथ धक्का देकर हटाने का प्रयास किया , धक्कमधुक्की का कोलाहल सुनकर तथा राधा को कुपित जानकर श्रीकृष्ण अंतर्धान होगये | विरजा भी राधिका को कोपायमान जानकर और श्रीकृष्ण को अंतर्धान हुआ जानकार भयार्त होकर योग से प्राणत्याग कर दिया और शीघ्रही उसका शरीर सरिता के रूप में परिवर्तित होगया |

विरजा राधिकाशब्दादंतर्धानं हरेरपि ।।दृष्ट्वा राधां भयार्ता सा जहौ प्राणांश्च योगतः ।। ६६ ।।सद्यस्तत्र सरिद्रूपं तच्छरीरं बभूव ह ।।व्याप्तं च वर्तुलाकारं तया गोलोकमेव च ।। ६७ ।।कोटियोजनविस्तीर्णं प्रस्थेऽतिनिम्नमेव च ।।दैर्घ्ये दशगुणं चारु नानारत्नाकरं परम् ।। ६८ ।। ।।श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे विरजानदीप्रस्ताववर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ।। २ ।।

नानारत्नों से परिपूर्ण करोड़ योजन चौड़ी और दशकरोड़ योजन लम्बी गोलोक को वर्तुलाकार घेरती हुई स्थित हुई | राधा ने जब रतिगृह में प्रवेश किया तो हरि को वहां नहीं देखा और विरजा नदी बनगई थी इसलिए वे अपने घर लौट गईं | श्रीकृष्ण ने जबअपनी प्रिया विरजा को नदीरूप में देखा तो विरजा के नीरमनोहरतीर पर बड़ीजोर से रोने लगे और बोले हे प्रिये मेरे पास आओ मैं तुम्हारे बिना कैसे जीबित रह सकूंगा तुम सभी नदियों की अधिष्ठात्री हो कृपया अब मूर्तिमती होजाओ मेरे आशीर्वाद से रूपवती सुंदरी योषिता होकर पूर्वरूप से अधिक सौभाग्यशालिनी होकर प्रकट होओ , उत्तम शरीर धारण करके जल से उठकर बाहर आओ | मैं तुम्हें आठों सिद्धियां देता हूँ | तदनन्तर श्रीकृष्ण की आज्ञासे साक्षात् राधा की तरह सुंदर रूप धारण कर विरजा प्रकट हुई | पीले वस्त्र पहनकर मुस्करातेहुए ,गजेंद्रमंदगामिनी सुंदरी विरजा को श्रीकृष्ण ने देखा और प्रेमोद्रेक से भरकर गाढ़ आलिंगन दिया | फलतः विरजा गर्भवती हुई | ईश प्रदत्त गर्भ को विरजा ने  सौ वर्षों तक धारण किया और अंत में सात मनोहर पुत्रों को जन्म दिया | अपने सातों पुत्रोंसहित श्रीकृष्णकी प्रियासती विरजा गोलोक के वृंदावन में ही सुख से निवास करने लगी | एकवार एकांत में शृंगारासक्तमानसा विरजा श्रीहरि के साथ विहार कर रही थी इसीबीच उसका सबसे छोटा पुत्र अपने भाइयों से पीड़ित तथा भयभीत होकर अपनी माताकी गोद में आया , अपने पुत्र को भयभीत देखकर श्रीकृष्ण राधाजी के घरकी ओर चलेगये | बालक को बहलाने के बाद विरजा ने देखा कि श्रीकृष्ण वहां नहीं है तो श्रृंगार से अतृप्त मन बाली वह अनेक प्रकारसे विलाप करने लगी और बालक को शाप दिया कि वह क्षारसमुद्र होजाए और तेरे जल को कोई नहीं पियेगा , अन्य बालकों को भी शाप दिया कि तुम सभी नीचे पृथ्वी पर मनोहर जम्बूद्वीप में चलेजाओ और तुम सभी मिलकर कभी भी एकसाथ नहीं रहोगे तुम्हारी स्थिति अलग अलग द्वीपों में होगी और उन उन द्वीपों की नदियों के साथ क्रीड़ा करो , छोटा बेटा माता के शाप से क्षारसमुद्र बनगया ,अन्य सभी बालक भी माता के शाप को सुनकर धरणीतल पर चले गए | और माता तथा भ्राताओं केसाथ वियोग होने के कारण शोकयुक्त हुए , इधर माता विरजा भी पुत्रों तथा कान्त के वियोग से मूर्छित होगयीं | श्रीकृष्ण ने जब विरजा को शोकसागर में मग्न देखा तो पुनः मुस्कराते हुए उसके पास आगये , श्रीहरि को निकट पाकर विरजा आनन्दसागर में मग्न होगयी तभी श्रीहरि ने संतुष्ट होकर विरजा को वर दिया कि मैं निश्चित ही तुम्हारे स्थान में आऊंगा ,और तुम मुझे राधाके समान प्रिय होओगी और मेरे वरके प्रभाव से नित्यही अपने पुत्रों को भी देख सकोगी | इसप्रकार पद्मकल्प में ही वराहकल्प से पहले ही विरजा माता बृद्धागंगा के रूप में सोरों में आगईं |

वरं तस्यै ददौ प्रीत्या प्रसन्नवदनेक्षणः ।।कांते नित्यं तव स्थानमागमिष्यामि निश्चितम् ।। ३७ ।।यथा राधा तत्समा त्वं भविष्यसि प्रिया मम ।।पुत्रान्द्रक्ष्यसि नित्यं त्वं मद्वरस्य प्रसादतः ।। ३८ ।।

आसीत्तु सप्तमः कल्पः पद्मो नाम द्विजोत्तम।वाराहः साम्प्रतस्तेषां तस्य वक्ष्यामि विस्तरम् ।। २१.११ ।। वायु पुराण

श्वेतवाराहकल्पे च वराहाद्विष्णुरुद्भवः । । १३७विष्णोर्नाभेश्च स ब्रह्मा ततो जातो विराडयम् । श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखण्डापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चयवर्णनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः । २५

कल्पे कल्पे च धरणीमुद्धरत्येवमेव हि । श्वेतवराहरूपेण धरणी चोद्धृता यतः ।। ८ ।। श्वेतवाराहकल्पः स्यादाख्यया मुनयो ह्ययम् । ।

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्।।9.7।। श्रीमद् भगवद्गीता

 || श्री सूकरक्षेत्र महिमामृतम् ||

                        || ॐ सच्चिदेकं ब्रह्म ||

जगदुत्पति स्थल सूकरक्षेत्र [( सोरों ) by Swami Nirdosha

पुनः पप्रच्छ तं देवं विस्मयाविष्टमानसा।।

अहो तीर्थस्य माहात्म्यं क्षेत्रे सौकरवे तव ।। ३ ||वराहपुराणम् अध्यायः १३८

सोरों नाम कैसे पड़ा –

सौकरः,  (सूकरस्यायमिति । सूकर + अण् ।)

 ( 1 )   पृथिव्यां यानि तीर्थानि आसमुद्रसरांसि च ।। २८ ।।

कुब्जाम्रकं प्रशंसन्ति सदा मद्भावभाविताः ।।

तस्मात्कोटिगुणं गुह्यं सौकरं तीर्थमुत्तमम् ।।२९।।

  वराहपुराणम्     अध्याय १७९

 ( 2 )   पञ्चयोजनविस्तीर्णं सौकरं  मम मन्दिरम् ।। 

तस्मिन्निपतितो देवि गर्दभोऽपि चतुर्भुजः  ।। २७ ।।

पाठभेद

पंचयोजनविस्तीर्णे सूकरे हरिमंदिरे

यस्मिन्वसति यो जीवो गर्दभोऽपि चतुर्भुजः ६ पद्मपुराणम्‎ | खण्डः ६ (उत्तरखण्डः)अध्याय 119

  ( 3 ) चंडकृत प्राकृत व्याकरणके अनुसार ‘‘ क ग च ज त द प य बां प्रायो लुक्  ’’ इत्यादि से सौकर का सोरों होगया  है | क् ग् च् ज् त् द् प् य् ब्  इन अल्पप्राण वर्णों का लोप होजाता है |   अथवा सोरों में आदित्य तीर्थ की महिमा इतनी बढी कि इसका नाम ही सौरम् पड गया बाद में अपभ्रंश होते होते सोरों हो गया |

 { आज भी यात्री लोग कहते हैं सोरम जी घाट } जैसे पहले इस देश का नाम अजनाभवर्ष था कालान्तर में भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत की महिमा के कारण इस देश का नाम भारतवर्ष पड गया |

इसीप्रकार जैसे कि शिव को ही परमतत्व मानने बाले शैव कहे जाते हैं |वैष्णव , शैव, शाक्त ,गाणपत्य और सौर ये पांच तरह के सनातनी हैं जो कि क्रमशः विष्णु , शिव , शक्ति, गणपति और सूर्य के उपासक होते हैं ये अपने उपास्य को ईश्वर तथा अन्य चारों को देवता मानकर उनकी आराधना करते हैं । अतः शैव वो हैं तो शिव को ईश्वर और अन्य को देवता मानते हैं और वैष्णव वो हैं जो विष्णु को ईश्वर और अन्य समस्त को देवता मानते हैं । सौर वे हैं जो सूर्य को ईश्वर और अन्यों को देवता मानते हैं |

ब्राह्मणों का मुख्य कर्म सन्ध्योपासना सूर्योपासना ही है |

विप्रो वृक्षस्तस्य मूलं च सन्ध्या वेदाः शाखा धर्मकर्माणि पत्रम्।

तस्मान्मूलं यत्नतो रक्षणीयं छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम्॥

ब्राह्मण रूपी वृक्ष की जड़ तो संध्या और स्वाध्याय ही है और ब्राह्मण रूपी वृक्ष की डालियां वेद हैं । धर्म कर्म आदि उस वृक्ष के पत्ते हैं इस लिए जड़ की बड़े यत्नों से रक्षा करनी चाहिए क्यों की जड़ के नष्ट हो जाने से न तो पत्ते रहते हैं ना ही डालियां आदि। ब्राह्मण रूपी वृक्ष की जड़ संध्या है धर्म के लिए उसकी रक्षा करें ।

करोत्यशुद्धां सन्ध्यां वा न सन्ध्यां वा करोति च ।

त्रिसन्ध्यं वर्जयेद्यो वा सन्ध्याहीनश्च स द्विजः ॥ ८२ ॥

वैष्णवं च तथा शैवं शाक्तं सौरं च गाणपम् ।

योऽहङ्‌कारान्न गृह्णाति मन्त्रं सोऽदीक्षितः स्मृतः ॥ ८३ ॥ देवीभागवतपुराणम्‎ | स्कन्धः ०९

तीर्थं वैवस्वतं नाम यत्रार्कस्तप्तवांस्तपः ।।

कदाचित्पुत्रकामेन मार्त्तण्डेन महत्तपः ।।251 ।।वराहपुराणम् अध्यायः 137

कृतं चान्द्रायणं तत्र दशवर्षसहस्रकम् ।।ततः सप्तसहस्राणि वायुभक्षस्तु संस्थितः ।। ५२ ।।

यहां एक वैवस्वत नाम का तीर्थ है , जहां पुत्र की कामना से कभी सूर्यदेवने कठोर तपस्या की थी और बाद में उन्होंने वहां दस हजार वर्षों तक निरन्तर चान्द्रायण व्रत भी किया था, फिर सात हजार वर्षोंतक वे मात्र वायुके आहार पर रहे |

ततस्तुष्टोऽस्म्यहं भद्रे सूर्यस्य सुमहौजसः ।।वरेण छन्दयामास आदित्यं तदनन्तरम् ।। 253 |। 

वराहपुराणम् अध्यायः 137

विवस्वन्तं महाभागं मम कर्मपरायणम् ।।वरं वरय भद्रं ते यस्ते मनसि वर्त्तते ।।५४ ।।

भद्रे ! तब मैं उनपर संतुष्ट हुआ और उनसे वर मांगनेके लिये कहा |

ततो ममवचः श्रुत्वा कश्यपस्य सुतो बली ।।मधुरं स्वरमादाय प्रत्युवाच महद्वचः ।।५५।।

यदि देव प्रसन्नोऽसि अयं मे दीयतां वरः ।।पुत्रमिच्छाम्यहं देव प्रसादात्ते सुरेश्वर ।।५६।।।

इसपर उन्होंने कहा – भगवन् ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे एक पुत्र प्रदान करनेकी कृपा कीजिये |

विवस्वद्वचनं श्रुत्वा तुष्टोऽहं तस्य सुन्दरि ।।तस्य शुद्धेन मनसा प्रोक्तवानस्मि सुन्दरि ।। ५७ ।।

यमश्च यमुना चैव मिथुनं जनयिष्यतः ।।एवं तस्य वरं दत्त्वा आदित्यस्य वसुन्धरे ।। ५८ ।।

फिर मेरे वरदान से यम और यमुना नामकी उन्हें दो जुड़वीं संतानें हुईं | तबसे सौकरव क्षेत्र के अंतर्गत का यह तीर्थ वैवस्वततीर्थ नाम से प्रसिद्ध हुआ |

आत्मयोगप्रभावेण तत्रैवान्तर्हितोऽभवम् ।।आदित्योऽपि गतो भद्रे वेश्म स्वं च महाधनम् ।।५९।।

पुण्यं सौकरवे कृत्वा सुदुष्करतरं महत् ।।अष्टमेन तु भक्तेन यस्तु स्नाति वसुन्धरे ।।137.२६० ।।

दशवर्षसहस्राणि सूर्यलोके महीयते ।।अथवा तत्र सुश्रोणि म्रियते पुण्यवान्नरः ।।६१ ।।

वसुंधरे ! जो मनुष्य वहां जाकर दिनके आठवें भागमें अर्थात् सूर्यास्तके कुछ पूर्व स्नानकर भोजन करता है वह दस हजार वर्षोंतक सूर्यके लोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है |

यमलोकं न गच्छेत्तु तीर्थस्यास्य प्रभावतः ।।एतत्ते कथितं भद्रे स्नानस्य मरणस्य च ।।६२।।

फलं चैव यथावृत्तं तीर्थे सौकरवे मम ।।आख्यानानां महाख्यानं क्रियाणां च महाक्रिया ।।263 ।।

यदि किसी प्राणीकी वहां अनायास मृत्यु हो जाती है तो वह इस तीर्थ के प्रभाव से यमपुरीमें नहीं जाता | भद्रे ! इस सौकरव तीर्थ वराहक्षेत्र में स्नान करने और मरने का फल तथा वहां की घटनाऐं मैंने तुम्हें बतला दीं | यह आख्यान भी आख्यानोंमें महान तथा पवित्रों में परम पवित्र आख्यान है तथा यह सौकरव तीर्थोंमें परम श्रेष्ठ तीर्थ है | 

षष्टिवर्षसहस्राणि  योऽन्यत्र कुरुते तपः

तत्फलं लभते देवि प्रहरार्द्धेन शूकरे।। ८।।पद्मपुराणे उत्तरखण्डे अध्याय 119

प्रक्षिप्तास्थि वर्गस्तु रेणुरूपः प्रजायते ।।

त्रिदिनान्ते वरारोहे मम क्षेत्रप्रभावतः ।। ८५ ||

तीर्थं च सौकरं नाम महापुण्यं शुभे श्रृणु ।।

यस्मिन्नाविरभूत्पूर्वं वाराहाकृतिरच्युतः ।। ४०-३१ ।। नारदपुराणम्- उत्तरार्धः/अध्यायः ४०

सूर्यतीर्थे नरः स्नात्वा दत्वादानान्यनेकशः  ।।

वृक्षारोपी वास्तुकारः सूर्यलोके महीयते  ।। ९० ।।

आपः क्षीरं कुशाग्राणि घृतं दधि तथा मधु  ॥ २,४१.२२ ॥

रक्तानि करवीराणि तथा वै रक्तचन्दनम्  ।

अष्टाङ्गैरेष युक्तोऽर्घो भानवे परिकीर्तितः  ॥ २,४१.२३ ॥

श्रीवराह की उपासना से श्रवण और धारणा करने की शक्ति बढती है | भगवान विष्णु के दो अवतारों का विशेष महत्व है एकतो वराह और दूसरा हयग्रीव एक ने भूमि का उद्धार किया और दूसरे ने वेदों का | श्रीमद्भागवत में भगवान वराह को वेदमूर्ति तथा यज्ञमूर्ति कहा गया है |

तेषां सतां वेदवितानमूर्तिः ब्रह्मावधार्यात्मगुणानुवादम् ।

विनद्य भूयो विबुधोदयाय गजेन्द्रलीलो जलमाविवेश ॥ २६ ॥

भगवान्‌ के स्वरूप का वेदों में विस्तारसे वर्णन किया गया है; अत: उन मुनीश्वरों ने जो स्तुति की, उसे वेदरूप मानकर भगवान्‌ बड़े प्रसन्न हुए और एक बार फिर गरजकर देवताओं के हित के लिये गजराजकी-सी लीला करते हुए जल में घुस गये ॥ २६ ॥

जितं जितं तेऽजित यज्ञभावन त्रयीं तनुं स्वां परिधुन्वते नमः ।

यद् रोमगर्तेषु निलिल्युरध्वराः तस्मै नमः कारणसूकराय ते ॥ ३४ ॥

ऋषियों ने कहा— भगवान् अजित्! आपकी जय हो, जय हो। यज्ञपते! आप अपने वेदत्रयीरूप विग्रह को फटकार रहे हैं; आपको नमस्कार हैं। आपके रोम-कूपों में सम्पूर्ण यज्ञ लीन हैं। आपने पृथ्वी का उद्धार करने के लिये ही यह सूकररूप धारण किया है; आपको नमस्कार है॥34॥

आप जीत गए, जीत गए! ‘नमः कारणसूकराय’ आप कारणसूकर हैं। कारणसूकर के दो अर्थ होते हैं एक अर्थ है- ये वराह रूप में- सूकर रूप में, कार्य के रूप में दिखाई तो दे रहे हैं, लेकिन ये कार्य नहीं हैं- समस्त जगत् के कारण हैं । तो सूकर रूप में दिखाई देते हुए भी ये जगत् के कारण हैं। भगवान कार्य भी हैं और कारण भी और सर्वकारणकारणम् भी वे ही हैं | जैसे मटका कार्य है , मिट्टी कारण है और जल अथवा नारायण कारण के भी कारण हैं | इसप्रकार देश,काल,वस्तु सबके परमकारण श्रीवराह ही हैं |

श्रीमद्‌भागवत के तृतीयस्कन्ध में वराहप्रादुर्भावानुवर्णनं त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥

भूमि अर्थात् अन्न एवं वेद अर्थात् ज्ञान इन दोनों के बिना जीवन में परमानन्द की संपत्ति का लाभ होना संभव नहीं है | ये दोनों अवतार हमें श्रवण , धारण, और वेग तथा बल अर्थात् प्राणशक्ति और प्रज्ञाशक्ति की ओर प्रोत्साहित करते हैं | जब हम श्रीवराहायनमः कहते हैं तो इसमें वराह और हय दोंनों ही आ जाते हैं | वं वरुण का बीज है , रं अग्नि का बीज है , हं आकाश का बीज है तथा यं वायु का बीज है | और रा में जो आ है तथा हा में जो आ है वह आदिदेव आदित्य का बीज है | इन सब बीजों में जब भगवान की क्रियाशक्ति प्रयुक्त होती है तभी पृथ्वी तथा जीबों की उत्पत्ति होती है और भगवान वराहय हमें वराभय देते हैं | एकअन्य व्युत्पत्ति के अनुसार वर+अह= वराह वर अर्थात् श्रेष्ठ और अह अर्थात् दिन दोंनों को मिलाकर बना वराह अर्थात् श्रेष्ठ दिवस जिस दिन सृष्टि का शुभारंभ हुआ वही दिन शुभदिन था इसीलिये इसको श्वेतवाराहकल्प कहते हैं ब्रह्मा के एक दिन को कल्प कहते हैं इसमें 1000 बार चारों युगों का आवर्तन होता है | कल्प हिन्दू समय चक्र की बहुत लम्बी मापन इकाई है। युगों की अवधि इस प्रकार है – सत्ययुग १७,२८,००० वर्ष; त्रेता १२,९६,००० वर्ष; द्वापर ८,६४,००० वर्ष और कलियुग ४,३२,००० वर्ष। अतएव एक कल्प १००० चतुर्युगों के बराबर यानी चार अरब बत्तीस करोड़ (4,32,00,00,000) मानव वर्ष का हुआ। हम आज जीवित हैं इसीलिये आज का दिन शुभ दिन अर्थात् वराह है | |

आइये अब देखिये वेदों में वराह तत्व ! क्योंकि  वेदप्रणिहितो धर्मो ह्यधर्मस्तद्विपर्ययः ।

वेदो नारायणः साक्षाय् स्वयम्भूः इति शुश्रुम ॥ ४० ॥

(भागवत महापुराण – षष्ठ स्कंध, प्रथम अध्याय, श्लोक – ४०)

वेदो वेदविदव्यङ्गो वेदाङ्गो वेदवित् कविः ॥

इति विष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् ॥

 वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम् ।

आचारश्चैव साधूनां आत्मनस्तुष्टिरेव च । । २.६ । ।

श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः ।

ते सर्वार्थेष्वमीमांस्ये ताभ्यां धर्मो हि निर्बभौ । । २.१० । ।मनु स्मृतिः 

  सर्वेषामेव भूतानां वेदश्चक्षुः सनातनः

अधीयीताप्ययं नित्यं ब्राह्मण्याद्धीयतेऽन्यथा ||४६|| 

 पद्मपुराण / खण्ड 3 ( स्वर्ग खण्डः ) अध्याय 53

  इसी बात को अथर्ववेद भी वराहावतारकी महिमा को अपने शब्दों में कहता है | 

पैप्पलादसंहिता/काण्डम् १७

मल्वं बिभ्रती गुरुभृद् भद्रपापस्य निधनं तितिक्षुः । सूकरेण पृथिवी संविदाना वराहाय वि जिहीते मृगाय ।।६।।

पैप्पलादसंहिता/काण्डम् ०६

कश्यपश्च सुपर्णश्च यन् मरीच्यामतिष्ठताम् ।

सुपर्ण: पर्यवापश्यत्समुद्रे भूमिमावृताम् ।।१।।

यां सुपर्णः पर्यपश्यदन्तर्महत्यर्णवे ।

तां सूकर त्वं मायया त्रि: समुद्रादुदाभर: ।२।

यं समुद्रादुदभरो भूमिं सूकर मायया ।

सैषा विषस्य दूषण्यस्मै भवतु भेषजी ।। ३ ।।

 अथर्ववेदः/काण्डं १२/सूक्तम् ०१

मल्वं बिभ्रती गुरुभृद्भद्रपापस्य निधनं तितिक्षुः ।

वराहेण पृथिवी संविदाना सूकराय वि जिहीते मृगाय ॥४८॥

आपो वा इदम् अग्रे सलिलम् आसीत् तस्मिन् प्रजापतिर् वायुर् भूत्वाऽचरत् स इमाम् अपश्यत् |

तां वराहो भूत्वाऽहरत् | तां विश्वकर्मा भूत्वा व्य् अमार्ट् साऽप्रथत सा पृथिव्यभवत् तत् पृथिव्यै पृथिवित्वम् ।

तस्याम् अश्राम्यत् प्रजापतिः स देवान् असृजत वसून् रुद्रान् आदित्यान् ते देवाः प्रजापतिम् अब्रुवन्

प्र जायामहा इति सो ऽब्रवीत् | कृष्‍णयजुर्वेदः‎ | काण्डम् ७‎ | प्रपाठकः १ अनुवाक 5 

यह सब पहले जल ही था उसमें प्रजापति वायु होकर विचरण करने लगे वायु जब अंदर घुसता है सू सू ध्वनि करता है वायौ वीसीति शब्दनम् , इसीलिए सूकर था | और जले बुलु बुलु ध्वनिः । जब वायु जल से बाहर निकलता है तब बुलु बुलु ध्वनि करता है इसीलिए वराह हुआ | स इमाम् अपश्यत् , उसने इस पृथ्वी को वहां देखा | तां वराहो भूत्वाऽहरत् , तां पृथ्वीं उस पृथ्वी को वराह होकर बाहर निकाला | फिर उसने विश्वकर्मा बनकर उसको समतल बनाया पृथुल होने से ही पृथिवी का पृथिवीपना है | फिर उसी पृथिवी में वराह रूपी प्रजापति ने विश्राम किया |

स देवान् असृजत वसून् रुद्रान् आदित्यान् , फिर उसने देवताओं की सृष्टि की , वसुओं की , रुद्रों की , आदित्यों की रचना की | फिर उन देवताओं ने प्रजापति से कहा कि  अब हमें प्रजाओं का विस्तार करने की अनुमति दीजिये |

यदिदं किञ्च जगत्सर्वं प्राण एजति नि:सृतम्। महद्भयं वज्रमुद्यतं य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति॥

जो कुछ भी इस जगत में कंपन होरहा है ,चेष्टा , क्रिया ,विक्रिया , प्रक्रिया , संस्क्रिया वो सब प्राण रूपी वायु से ही हो रहा है | सर्वं जगत् वायौ प्रतिष्ठाय एजते। एज् धातुरूप – ए॑जृँ॑ कम्पने – भ्वादिः – सम्पूर्ण जगत वायु के द्वारा ही चलायमान है |

वायौ हि प्रवर्तमाने विद्युद् निर्वर्तते, वृष्टि: निर्वर्तते, अशनि: निर्वर्तते इति महद्भयं वायुनिमित्तमेव।

वायुके प्रवृत्त होने से ही विद्युत क्रियाशील होती है ,जब विजलियां कडक़तीं हैं तब जल का निर्माण होता है |

वायुविज्ञानादमृतत्वम् – ‘ वायुरेव व्यष्टि: वायु: समष्टिरप पुनर्मृत्युं जयति य एवं वेद’।

वायु अर्थात वराह के विज्ञान से अमृतत्व लाभ होता है | व्यष्टि में इसे वायु कहते हैं , समष्टि में जल या जीवन कहते हैं | वायु का विज्ञान होने पर जीब मृत्युञ्जय हो जाता है | शंकराचार्य ने लिखा है कि

यावत्पवनो निवसति देहे, तावत् पृच्छति कुशलं गेहे। गतवति वायौ देहापाये, भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये॥६॥

 अर्थात् :- जब तक शरीर में प्राण रहते हैं तब तक ही लोग कुशल पूछते हैं। शरीर से प्राण वायु के निकलते ही पत्नी भी उस शरीर से डरती है ॥ 6॥

प्र काव्यमुशनेव ब्रुवाणो देवो देवानां जनिमा विवक्ति ।

महिव्रतः शुचिबन्धुः पावकः पदा वराहो अभ्येति रेभन् ॥७॥  ऋग्वेदः मण्डल 9 ऋग्वेदः सूक्तं  ९७

अ॒स्येदु॑ मा॒तुः सव॑नेषु स॒द्यो म॒हः पि॒तुं प॑पि॒वांचार्वन्ना॑ ।

मु॒षा॒यद्विष्णुः॑ पच॒तं सही॑या॒न्विध्य॑द्वरा॒हं ति॒रो अद्रि॒मस्ता॑ ॥७ ऋग्वेदः मण्डल 1 ऋग्वेदः सूक्तं  61

येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृळ्हा येन स्वः स्तभितं येन नाकः । यो अन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥५॥सूक्तं १०.१२१

वराहम् । वरमुदकमाहारो यस्य । यद्वा । वरमाहरतीति वराहारः सन् पृषोदरादित्वात् वराह इत्युच्यते । अत्र निरुक्तं- वराहो मेघो भवति वराहारः । वरमाहारमाहार्षीरिति च ब्राह्मणम् ‘ (निरु. ५. ४) इति । यज्ञपक्षे तु वरं च तदहो वराहः । वरं च तदहश्च वराहः । ऋग्वेदः सूक्तं १.६१

सुपर्णस्त्वा ऽन्वविन्दत् सूकरस्त्वाखनन्नसा ।

इन्द्रस्त्वा चक्रे बाह्वोरसुरेभ्य स्तरीतवे।।२।।

इत्यथर्ववेदे पैप्पलाद संहितायां पञ्चर्चोनाम द्वितीय: काण्डः

“सः पुरुषः “भूमिं ब्रह्माण्डगोलकरूपां “विश्वतः सर्वतः “वृत्वा परिवेष्ट्य “दशाङ्गुलं दशाङ्गुलपरिमितं देशम् “अत्यतिष्ठत् अतिक्रम्य व्यवस्थितः । दशाङ्गुलमित्युपलक्षणम् । ब्रह्माण्डाद्बहिरपि सर्वतो व्याप्यावस्थित इत्यर्थः॥  

स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाड्गुलम्.. (१) विराट् पुरुष के हजार शीर्ष, हजार आंखें और हजार चरण हैं. वह धरती को चारों ओर से घेरकर उससे दस अंगुल अधिक स्थित हैं.  

उसी जगत्पावनी सोरों नगरी में प्रसिद्ध गृद्धवट तीर्थ है | वटवृक्ष जगद्गुरु शिवजी का प्रतीक माना जाता है | यहाँ वटुक भैरव ,भद्रकाली तथा श्रीयंत्र प्रतिष्ठित हैं |

तस्य पूर्वेण पार्श्वेन तीर्थं गृध्रवटं स्मृतम् ।

यत्राकामो मृतो गृध्रो मानुषत्वमुपागतः ।। ५६ ।। वराहपुराणे 137

ततो गृध्रवटं गच्छेत्स्थानं देवस्य धीमतः।

स्नायीत भस्मना तत्र अभिगम्य वृषध्वजम् ।।

ब्राह्मणेन भवेच्चीर्णं व्रतं द्वादशवार्षिकम्।

इतरेषां तु वर्णानां सर्वपापं प्रणश्यति ।।

उद्यन्तं च ततो गच्छेत्पर्वतं गीतनादितम्।

सावित्र्यास्तु पदं तत्र दृश्यते भरतर्षभ ।।

तत्रसंध्यामुपासीत ब्राह्मणः संशितव्रतः।

उपासिता भवेत्संध्या तेन द्वादशवार्षिकी ।।

योनिद्वारं च तत्रैव विश्रुतं भरतर्षभ।

तत्राभिगम्य मुच्येत पुरुषो योनिसंकरात् ।।

महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-082

कपिलाह्रदं गृध्रवटं सावित्रीह्रदमेव च।

प्रभासनं सीतवनं योनिद्वारञ्च धेनुकम्॥ २५.६९ ॥ ब्राह्मे महापुराणे तीर्थमाहात्म्यवर्णनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः॥ २५

ततो गृध्रवटं गच्छेत्स्थानं देवस्य शूलिनः |

स्नायात्तु भस्मना तत्र संगम्य वृषभध्वजम् ११ श्रीपाद्मेमहापुराणे स्वर्गखंडे गयादितीर्थमाहात्म्यकथनं नाम अष्टत्रिंशोऽध्यायः ३८

यत्किंचिदशुभं कर्म तेषां तन्निश्यति क्षणात् ।

ततो गृध्रवटं गच्छेत्स्थानं देवस्य धीमतः ।। ४४-७२ ।।

स्नायीत भास्मना तत्र अभिगम्य वृषध्वजम् ।

ब्राह्मणानां भवेद्देवि व्रतं द्वादशवार्षिकम् ।। ४४-७३ ।। श्रीबृहन्नारदीयपुराणोत्तरभागे मोहिनीवसुसंवादे गयामाहात्म्यं नाम चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ।। ४४ ।।

लोकायनाय त्रिदशायनाय ब्रह्मायनायात्मभवायनाय ।नारायणायात्महितायनाय महावराहाय नमस्कुरुष्व ।।

लक्ष्मीनारायणसंहिता/खण्डः १ (कृतयुगसन्तानः)/अध्यायः १७८

सर्वसम्पत्प्रदे माये प्रसीद जगदम्बिके ।

लक्ष्मीर्नारायणक्रोडे स्रष्टुर्वक्षसि भारती ।।३६ ।।

मम क्रोडे महामाया विप्णुमाये प्रसीद मे ।

कालरूपे कार्यरूपे प्रसीद दीनवत्सले ।। ३७।।।

लक्ष्मीर्नारायणक्रोडे स्रष्टुर्वक्षसि भारती ।।३६ ।। मम क्रोडे महामाया विप्णुमाये प्रसीद मे || 

ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः)/अध्यायः ०४३

लक्ष्मीर्नारायणक्रोडे स्रष्टुर्वक्षसि भारति ।।

मम क्रोडे महामाये विष्णुमाये प्रसीद मे ।। ८१ ।

अथ वराहः त्रिविधो आदिवराहः प्रलयवराहो यज्ञवराह इति |

ततः समुत्क्षिप्य धरां स्वदंष्ट्रया महावराहः स्फुटपद्मलोचनः ।

रसातलादुप्तलपत्रसन्निभः समुत्थितो नील इवाचलो महान् ॥२६॥ विष्णुपुराणम्‎ | प्रथमांशः 

आपने भगवान विष्णु के वराह अवतार का नाम तो जगद्विख्यात है जिन्होंने हिरण्याक्ष का वध किया था। लेकिन वे दरअसल आदि वराह थे। आदि वराह से पहले नील वराह और उनके बाद श्वेत वराह हुए जिनके बारे में कम ही लोग जानते होंगे। तीनों के काल को मिलाकर वराह काल कहा गया जो वर्तमान में भी जारी है। नील वराह का अवतरण हिमयुग के अंतिम चरण में जब हुआ जब धरती पर जल ही जल फैलने लगा था और रहने के लिए कोई जगह नहीं बची थी।1. नील वराह काल : पाद्मकल्प के अंत के बाद महाप्रलय हुई। सूर्य के भीषण ताप के चलते धरती के सभी वन-जंगल आदि सूख गए। समुद्र का जल भी जल गया। ज्वालामुखी फूट पड़े। सघन ताप के कारण सूखा हुआ जल वाष्प बनकर आकाश में मेघों के रूप में स्थिर होता गया। अंत में न रुकने वाली जलप्रलय का सिलसिला शुरू हुआ। चक्रवात उठने लगे और देखते ही देखते समस्त धरती जल में डूब गई। यह देख ब्रह्मा को चिंता होने लगी, तब उन्होंने जल में निवास करने वाले विष्णु का स्मरण किया और फिर विष्णु ने नील वराह रूप में प्रकट होकर इस धरती के कुछ हिस्से को जल से मुक्त किया।अचिरेण स्वशरीरं वर्धयन् गदापाणिः वराहः रसातलं प्राविवेश |पुराणकार कहते हैं कि इस काल में महामानव नील वराह देव ने अपनी पत्नी नयनादेवी के साथ अपनी संपूर्ण वराही सेना को प्रकट किया और धरती को जल से बचाने के लिए तीक्ष्ण दातों, पाद प्रहारों, द्वारा धरती को समतल कर रहने लायक बनाया। इसके लिए उन्होंने पर्वतों का छेदन तथा गर्तों के पूरण हेतु मृत्तिका के टीलों को जल में डालकर भूमि को बड़े श्रम के साथ समतल करने का प्रयास किया। यह एक प्रकार का यज्ञ ही था इसलिए नील वराह को यज्ञ वराह भी कहा गया। नील वराह के इस कार्य को आकाश के सभी देवदूत देख रहे थे। प्रलयकाल का जल उतर जाने के बाद भगवान के प्रयत्नों से अनेक सुगंधित वन और पुष्कर-पुष्करिणी सरोवर निर्मित हुए, वृक्ष, लताएं उग आईं और धरती पर फिर से हरियाली छा गई। संभवत: इसी काल में मधु और कैटभ का वध किया गया था।

हमारी सभी धार्मिकक्रियाओं में सबसे पहले संकल्प किया जाता है |

संकल्पेन विना कर्म यत्किञ्चित्कुरुते नरः |

फलं चाप्यल्पकं तस्य धर्मस्यार्धक्षयो भवेत् || ( भविष्यपुराणम् )

संकल्प्य च तथा कुर्यात् स्नानदानव्रतादिकम् |

अन्यथा पुण्यकर्माणि निष्फलानि भवन्ती हि |

मार्कंडेय पुराण के इस श्लोक के अनुसार संकल्प के बिना किया हुआ पुण्यकर्म विफल होता है,उसका कोई फल नहीं मिलता|

उसीसंकल्प में कहा जाता है श्वेतवाराहकल्पे दश अवतारों में से तीसरा वराहावतार गंगाजी द्वारा पाबित भूभाग भारतवर्ष के भरतखण्ड में आर्यावर्तः पुण्यभूमिःमध्ये विन्ध्यहिमालयोः 32 कल्पों में से श्वेतवराहकल्प वैवस्वत मन्वन्तर 28 वां कलियुग

5 वटों में से गृद्धवट- सोरों ‘सूकरक्षेत्र’, अक्षयवट- प्रयाग, सिद्धवट- उज्जैन और वंशीवट- वृन्दावन। भद्रवट कैलाश पर्वत के समीप {यदाऽभिषिक्तो भगवान्सैनापत्ये तु पावकिः।तदा संप्रस्थितः श्रीमान्हृष्टो भद्रवटं हरः ।। } महाभारतम्/आरण्यकपर्व अध्याय 231 

नाम्ना भद्रवटं नाम त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्

तत्राभिगम्य चेशानं गोसहस्रफलं लभेत् ११पद्मपुराणम्‎ | खण्डः ३ (स्वर्गखण्डः) अध्याय 12 तथा महाभारतम्/आरण्यकपर्व अध्याय 80 

 हेमाद्रि में २ जगह सोरों ‘सूकरक्षेत्र का उल्लेख है एक तो चतुर्दश गुह्यों में और दूसरे नव ऊषरों में इस धरती पर सात पुरियां , तीन ग्राम , नौ अरण्य , नौ ऊषर और चौदह गुह्य , मुक्ति के द्वार हैं |

पुराणानुसार ये सात नगर या तीर्थ जो मोक्षदायक कहे गये हैं। वे हैं:- अयोध्या,; मथुरा,; माया (हरिद्वार),; काशी,; कांची,; अवंतिका (उज्जयिनी) और; द्वारका। 

अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवंतिका ।

पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिका: ।। १० ।।

१४ चतुर्दश गुह्य

कोंकत हिरण्यशृंग कुब्जार्बुद मणिकर्णीवट शालग्राम सूकर मथुरा गया निष्क्रमण लोहार्गल पोतस्वामि प्रभास बदरी इति चतुर्दश गुह्य विलसिते |

९ नौ ऊषर

रेणुकाद्वय सूकर काशी कांची कलिकाल वटेश्वर कालंजर महाकालेतिनवोषरयुते |

रेणुकायाश्च तत्रैव तीर्थं देवनिषेवितम् |

सप्त पुर्यस्त्रयो ग्रामा नवारण्या नवोषराः ।।

३ तीन ग्राम

शालिग्रामो महायोगे शंभलो हरिमन्दिरे |

नंदिग्रामः कौशले तु त्रयो ग्रामाः प्रकीर्तिताः ॥

९ नौ अरण्य

दंडकं सैधवारण्यं जंबुमार्गं च पुष्कलम् ॥१५॥

उत्पलावर्तमारण्यं नैमिषं कुरुजांगलम् |

अर्बुदं हेमवंतं च नवारण्यानि वै विदुः ॥१६॥

स्नात्वा तत्र भवेद्विप्रो विमलश्चंद्रमा इव ३२ श्रीपाद्मे महापुराणे स्वर्गखंडे चतुर्विंशोऽध्यायः

९ नौ ऊषर का विवरण

रेणुकाद्वय सूकर काशी कांची कलिकाल वटेश्वर कालंजर महाकालेतिनवोषरयुते |

रेणुका तीर्थ २हैं | रेणुका झील, हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले में, नाहन से 40 किमी की दूरी पर स्थित है। दूसरा है मातृकुंडिया – जिसे मेवाड़ का हरिद्वार कहाजाता है | कहते हैं कि रेणुकाजी पद्म से उत्पन्न अयोनिजा थीं। प्रसेनजित इनके पोषक पिता थे।रेणुका राजा प्रसेनजित अथवा राजा रेणु की कन्या, परशुराम की माता और जमदग्नि ऋषि की पत्नी थी जिनके पाँच पुत्र थे।

{ कलिकालकाल } कलिकालस्य, कलियुगस्य,कालः मृत्युस्वरूपः, कल्किरूपेण शम्भलग्रामे |

{ बटेश्वर } आगरा जिले में स्थित एक तहसील है।

सप्तजन्मकृतैः पापैर्मुच्यते नात्र संशयः |

वटेश्वरं ततो गच्छेत्सर्वतीर्थमनुत्तमम् ५४ || श्रीपाद्मेमहापुराणे स्वर्गखंडे अष्टादशोऽध्यायः

{ कालंजर } चित्रकूट केपास

 तत्र कालंजरं गत्वा गोसहस्रफलं लभेत्

आत्मानं साधयेत्तत्र गिरौ कालंजरे नृप ५४

कलिंजरो ब्रह्मक्षेत्रं माथुरो मानवाहकः

मायाकांती तथान्यानि दिव्यानि विविधानि च ३४

{ महाकाल } उज्जैन

हिरण्यशृंग को कैलाश अथवा कुबेर गिरि भी कहते हैं |

हिरण्यशृंगं वरुणं प्रपद्ये तीर्थं मे देहियाचितः ।

यन्मया भुक्तमसाधूनां पापेभ्यश्च प्रतिग्रहः ॥११॥इति श्रीमहानारायणोपनिषदि चतुर्थः खण्डः ॥४॥

गंगा च नर्मदा पुण्या चंद्रभागा सरस्वती |

देविका बिंबिका कुब्जा कुंजला मंजुला श्रुता ||

कोकामुखे शूकरे च मथुरायां मरुस्थले।

शालग्रामे वायुतीर्थे मन्दरे सिन्धुसागरे।। ६४.४ ।। इति श्रीमहापुराणे आदिब्राह्मे स्वयंभुऋषिसंवादे महाज्येष्ठीप्रशंसावर्णनं नाम चतुःषष्टितमोऽध्यायः।। ६४ ।।

एकतो मथुरातीर्थे वाराणस्यां च शूकरे |

एकतः कार्तिको वत्स सर्वदा केशवप्रियः २१ श्रीपाद्मे महापुराणे पंचपंचाशत्सहस्रसंहितायामुत्तरखंडे कार्तिकमाहात्म्ये श्रीशिवषडाननसंवादे सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः ११७

कोकामुखे शूकरे च मथुरायां मरुस्थले ।

शालग्रामे वायुतीर्थे मंदरं सिंधुसागरे ।। ६०-२२ ।।श्रीबृहन्नारदीयपुराणोत्तरभागे वसुमोहिनीसंवादे पुरुषोत्तममाहात्म्येऽभिषेको नाम षष्टितमोऽध्यायः ।। ६० ।।

चन्द्रग्रहे तु काश्यां वै फाल्गुने नैमिषे तथा ।

एकादश्यां सूकरे च कार्तिक्यां गणमुक्तिदे ॥ ३२ ॥श्रीगर्गसंहितायां गिरिराजखण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादेगिरिराजमाहात्म्यं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥

यस्य हस्तौ च पादौ च मनश्चैव सुसंयतम् |

विद्या तपश्च कीर्त्तिश्च स तोर्थफलमश्नुते॥ २५.२ ॥

मनो विशुद्धं पुरुषस्य तीर्थं वाचां तथा चेन्द्रियनिग्रहश्च।

एतानि तीर्थानि शरीरजानि, स्वर्गस्य मार्गं प्रतिबोधयन्ति॥ २५.३ ॥

चित्तमन्तर्गतं दुष्टं तीर्थस्नानैर्न शुध्यति।

शतशोऽपि जलैर्धौतं सुराभाण्डमिवाशुचिः ||

न तीर्थानि न दानानि न व्रतानि न चाश्रमाः।

दुष्टाशयं दम्भरुचिं पुनन्ति व्युत्थितेन्द्रियम्॥ २५.५ ॥

इन्द्रियाणि वशे कृत्वा यत्र यत्र वसेन्नरः।

तत्र तत्र कुरुक्षेत्रं प्रयागं पुष्करं तथा॥ २५.६ ॥

योगतीर्थं सोमतीर्थं तीर्थं साकोटकं  तथा।

तीर्थं कोकामुखं पुण्यं बदरीशैलमेव च॥ २५.१३ ॥

महाबलं कोटितीर्थं सर्व्वपापहरं तथा।

रूपतीर्थं शूकरवं चक्रतीर्थं महाफलम्॥ २५.१२ ॥

कपिलाह्रदं गृध्रवटं सावित्रीह्रदमेव च।

प्रभासनं सीतवनं योनिद्वारञ्च धेनुकम्॥ २५.६९ ॥  श्रीब्राह्मे महापुराणे

          || श्री पण्डित दशरथ जी द्विवेदी ||

सिद्धान्त वागीश श्री पण्डित दशरथ जी द्विवेदी शास्त्री वैयाकरण भूषण का जन्म पौष कृष्ण अष्टमी भृगुवार विक्रम संवत १९३० तदनुसार12-दिसंबर-1873  ईशवी सन को सोरों  वराहक्षेत्र  जिला कासगञ्ज में हुआ था | निधन तिथि संबत २०१४ चैत्र शुक्ल त्रयोदशी तदनुसार 11april 1957 ईशवी सन को ब्रह्मलीन हुए |

आपके पिता का नाम पण्डित नारायण जी तथा माता का नाम देवकी था आपका गोत्र भारद्वाज ,यजुर्वेद ,त्रिप्रवर (भारद्वाज, आङ्गिरस ,वार्हस्पत्य )दक्षिणपाद ,दक्षिण शिखा ,दक्षिण द्वार ,कात्यायन श्रौतसूत्र एवं त्रिवेदी उपाधि है

किन्तु आपके वृद्ध प्रपितामह पण्डित मयाराम जी द्विवेदी कुल के दौहित्र थे इनके द्विवेदी मातामह के कोई पुत्र न था ,अतः उन्होने अपने दौहित्र(धेवते )को अपनी गोद (दत्तक )रख लिया था !और तभी से आपके प्रपितामह पण्डित मयारामादि पूर्वज तथा स्वयं भी द्विवेदी करके प्रसिद्ध रहे !

आपके पूर्वजो की की कुल-वृत्ति तीर्थ पौरोहित्य थी !आपके पिताजी बडे ही उदार प्रकृति, सरल एवं भगवद्भक्त तपस्वी थे इसी कारण लोग इनको ऋषी जी कहकर सम्बोधित करते थे ! उन्होने सनाढ्य -शव्द को चरितार्थ कर दिखाया था

सनस्य मूलं ह्रदयं सनस्य   सनस्य बीजं सनकादि वन्द्यम् ; सनेन वेद्यं सनके प्रतिष्ठितं   सनातनं त्वां शरणं प्रपन्नाः !!१!!

सनेन ब्रह्मा स्वसुतान् ससर्ज विप्रान सनाढ्यान्   सनकादि संज्ञान् ;धर्म प्रचाराय सनाढ्य  पुत्रान्  सनातनोअव्यात्सततं सनातनान् !!२!!

नारायण ऋषिजी ने (अपने पुत्र )हमारे चरित्रनायक दशरथ जी द्विवेदी को ६ वर्ष की आयु में हिन्दी वर्णमाला का आरम्भ करा दिया था

कुशाग्र बुद्धि  पण्डितजी ने ८ वर्ष की आयु में हिन्दी लिखने पढने की अच्छी योग्यता प्राप्त करली थी  ९ वर्ष की अवस्था होने पर स्वकीय  तीर्थ पौरोहित्य कर्म भी भली भांति संपादन करने लगे थे ११ वर्ष की आयु तक देवस्तोत्र – पाठ

फ़ुटकर मन्त्रादि कंठस्थ  करते रहे ! आपका चित्त पढने में खूब लगता था ,और इसी कारण आपसे अध्यापक प्रसन्न रहते थे !

१२ वर्ष की आयु में पण्डित लक्ष्मण जी मिश्र ने सोरों से अमरकोष और लघु सिधान्त कौमुदी का प्रारम्भ किया !

१४ वर्ष की आयु में मारहरा निवासी पण्डित रामनाथ जी गौड शास्त्री से अन्तिम भाग कौमुदी समाप्त कर अष्टाध्यायी एवं महाभाष्य ,काव्य आदि यथाक्रम प्रारम्भ कर १९ वर्ष की अवस्था में समाप्त किये !साथ ही साथ अपनी प्रखर बुद्धि के बल से ज्योतिष एवं बैद्यक का अभ्यास कर आपने श्रीपण्डित मेवारामजी मिश्र-कृत  बैद्य-कौस्तुभ  नामक

चित्र -काव्य (आयुर्वेद विषयक एक क्लिष्ट ग्रन्थ ) की मिताक्षरा शाण नामक संस्कृत टीका की

आपकी अवस्था अभी १९ वर्ष  ही की पूर्ण नहीं होने पाई थी कि आपके पिताजी स्वर्गगामी हो गये विद्यार्थी अवस्था में आप पितृहीन होने पर तथा गृहस्थी का सब भार आपके ऊपर आ पडने पर तथा और भी अनेकानेक कठिनाइयों के होते हुये भी आपने विद्याध्ययन में किसी प्रकार की त्रुटी नहीं होने दी

२० से २३ वर्ष की आयु तक आपने स्वामी आत्मानन्दजी पुरी से वेदान्त विषयक पञ्चदशी ,सान्ख्यतत्व कौमुदी,साङ्ख्य प्रवचनीय भाष्य और स्वामी प्रकाशानन्द जी पुरी से प्रस्थानत्रय का अध्ययन किया !पश्चात उपर्युक्त स्वामी प्रकाशानन्द जी पुरी के काशी  प्रस्थान करने पर आप भी काशी चले गये ,और उक्त स्वामी जी से ही माथुरी ,जागदीशी ,पक्षता ,व्यधिकरण आदि नव्य न्याय ग्रन्थो का  तथा गोपाल मन्दिर में पण्डित राम शास्त्रीजी से व्याकरण के शेखरादि टीका ग्रन्थो का अध्ययन कर २५ वर्ष की आयु में अपने गृह सोरों लौट आये !

सोरों में संस्कृत विद्या के प्रचारार्थ आपने सज्जनानन्दिनी नामक पाठशाला स्थापित की ,जिसमें कई वर्ष तक आप अवैतनिक अध्यापक रहकर लगभग ८० विद्यार्थियौं को विद्यादान करते रहे ! आपके प्रशंसनीय परिश्रम से आपके कितने ही विद्यार्थी शास्त्री ,आचार्य ,काव्यतीर्थ आदि आदि उपाधिधारी अच्छे अच्छे विद्वान् हुए !

सोरों तीर्थ में संस्कृत भाषा के प्रचार का श्रेय आपको ही अत्यधिक हे आप व्याकरण और संस्कृत साहित्य के

महान विद्वान होने के अतिरिक्त आयुर्वेद के पूर्ण मर्मज्ञ थे ,तथा उच्चकोटि के प्रतिभाशाली कवि थे !आप ईश्वरभक्त ,षट्कर्म परायण ,वेदाध्यायी ,धर्मनिष्ठ ,साधुप्रकृति  के व्यक्ति थे !देश में जातिसुधार ,सनातन वैदिक धर्म तथा संस्कृत विद्या के प्रचारार्थ आप सदैव प्रयत्नशील रहते थे !विद्वत्समाज तथा स्वर्गीय सवाई माधौसिंहजी जयपुर नरेश आदि कतिपय गुणग्राही राजाऔं  द्वारा भी आप संमानित थे

२६ वर्ष की आयु से ५३ वर्ष की आयु तक अध्यापन कार्य के अतिरिक्त आपने निम्नलिखित १८ पुस्तकों की रचना की थी !तथा दो पुस्तकों (वैद्यकौस्तुभ काव्य तथा सूकरक्षेत्र माहात्म्य ) की संस्कृतऔर भाषा टीका की थी

(1)  कृषिशासनम्

(2)  विधानमार्तण्ड

(3)  आधुनिक मतमर्दन

(4)  कातन्त्रचन्द्रिका

(5)  श्लोकबद्ध लघुसिद्धान्तकौमुदी

(6)  वियोगिनीवल्लभ काव्य

(7)  सर्पचिकित्सा

(8)  विषोपविष मीमांसा

(9)  समस्यापूर्ति काव्य

(10)  देवस्तोत्र

(11)  गोत्रकौमुदी काव्य

(12)   प्रतिनिधि काव्य

(13)  दिल्लगी दर्पण भाण

(14)  डुकरिया पुराण (बुढिया पुराण )

(15) सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम् 

(16) गोस्वामी तुलसीदासजीकी जीवनी

(1७) वृद्ध गङ्गालहरी 

(1८) वैद्य कौस्तुभ की मिताक्षरा शाण नामक संस्कृत टीका की

इनमें उपर्युक्त प्रथम तीन पुस्तकों को छोड शेष सब अप्रकाशित हे !आपकी कविता के कुछ नमूने निम्नलिखित हैं

इच्छा गोदारणाद्येन येनाकृष्यात्म काश्यपीम् ,

उप्तं संपादितं विश्वं महः किमपि मन्महे !!१!!

असारे खलु संसारे घोरापत्ति सुदुस्तरे ,

धर्मज्ञो ना कथं जीवे द्यत एतद्विचार्यते !!२!!

कृषिक्रिया सर्बयुगेषु पूजिता

       द्विजैर्न निन्द्या कथिता कदापि च

अतः सुसेव्या भुवने द्विजाग्रजैः

        सदा चतुर्वर्ग फ़लेप्सुभिर्जनैः !!३!!

सुसूक्ष्म दृष्टि प्रविचारितोपि

         भातीति नो स्थूलदृशा कदापि

वेदान्त सिद्धान्त विचार दक्षः

           पाथःपतिर्वै भृगवे समूचे

जिसने इच्छारूपी हल से मन रूप भूमि को जोतकर प्रलय कारण निज में सूक्ष्म रूप से लीन हुए बीज को बोया और पुनः उसीको बृहत अनेक रूपात्मक संसार को यथावत संपादन (सर्जन ) किया उसी अनिर्वचनीय तेजोरूप ईस्वर को हम प्रणाम करते है  !! अथवा !! श्री विष्णु अवतारधारी कर्षक ने क्षुधापीडित प्रजा के प्रार्थनावश उत्पन्न निज इच्छा से दयापूर्वक पर्वत विदारण समर्थ धनुष कोटि से निज मण्डल मध्यगामिनी भूमि को भूमि प्रार्थना से समान (जल स्थिर होने योग्य ) कर और चौरभयसे भूमि ग्रसित अन्नादि बीज जातिको युक्ति (कृषि क्रिया ) से फ़ल रूपतया संपादन किया उस अनिर्वचनीय पराक्रमादि युक्त पृथु नामधारी को हम नमस्कार करते है  !

घोर विपत्ति ग्रसित अति कठिन असार संसारमें धर्मग्य मनुष्य कैसे जीवन करै यह विचारा जाता है

कृषिकार्य सर्वयुगों में महनीय मानागया है और द्विजोत्तमों द्वारा कभी भी निंद्य नहीं कहा गया है ! अतएव धर्म अर्थ काम मोक्ष के फ़लेच्छुक द्विजों द्वारा यह कृषिकार्य सदा आदरणीय एवं करणीय है !

अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर भी मुझे उत्कृष्ट हालत कभी भी दृष्टिगोचर नहीं हुई है (अन्नं ब्रह्म अन्नं बहु कुर्वीत ) इस प्रकार वेदान्त सिद्धान्त के पारगामी समुद्र ने भृगु जी से कहा !

प्रकर्षकाः धर्म्य कृषिक्रियापराः

       स्वाध्याय यागादि रता अदंभिनः

सद्ब्राह्मणाः पूज्यतमाः प्रकीर्तिताः

        हव्येषु काव्येषु च पङ्क्तिपावनाः !!१!!

जो वेदादि सच्छास्त्र पठन पाठनशील होगा वही निश्छल निर्दंभ और धर्म्य कृषिकर्म कर्ता होगा ऐसे कर्षक ब्राह्मण देवकार्य यज्ञों और पितृश्राद्धों में भोजनीय पङ्क्तिपावन होनेसे पूजनीय भी कहे है

षट्कर्माणि कृषिं ये च कुर्युज्ञात्वा विधिं द्विजाः ,

देवादिभ्यो वरं प्राप्य स्वर्गलोकमवाप्नुयुः !!२!!

जो ब्राह्मण शास्त्रीय विधि पूर्वक दैनिक षट्कर्म और कृषि को करते है ,वे देवादिकों से वर प्राप्त कर स्वर्ग पाते है

अन्य काव्यों से

रागिण्यः किं नागदेव ललना गन्धर्ववालाः किमु

            किं वा यतीसु दक्ष लोल नयनाः किं वाप्सरः संचयाः

किं वा चञ्चलविद्युतः सुनयनाः कि मेघमालागणाः

             एताः सुन्दरभूषणांवरधरा आयान्ति गायन्ति किम् !!३!!

जो मनोहर वस्त्राभूषणों को धारण करने  वाली ये सुनयनियां आ रही हैं और गारही हैं वे क्या गाती हुई सर्पराज की ललनायें हैं या गन्धर्वों की कन्यकायें हैं अथवा लयों में चतुर एवं चपलाक्षी अप्सराऔं के समूह हैं ! या चञ्चल विजलियां हैं अथवा सगर्ज मेघमालायें हैं !

रक्तांवरा सुवर्णाभा  विम्वाधरा हसन्त्यसौ ,

उद्गच्छन्ती शुभा भाति पूर्वा संध्या वधूरिव !!४!!

रक्त वस्त्रों को धारण करने वाली गौरवर्ण वाली रक्तौष्ठवाली हंसती हुई जाती हुई यह कोई नायिका मनोहारिणी पूर्व संध्या के समान शोभायमान होती है

कान्ते कोकिलकोमलस्वरकले कन्जाक्षि कुम्भस्तनि

   कामं मुञ्च मृडालबाहुलतिकाबद्धं च मां मानिनी ,

यातो निन्णगरे धुना प्रियतमे बाले समुत्ताडितो

     होलीडिण्डिमकः प्रबोधयति नृनेकादषी मागताम् !!५!!

अयि कोकिलवत्कोमलस्वरधारिणी कमलनेत्री !कलशस्तनी मानिनी !प्रियतमा !मृडाल समान बाहुवल्लीबद्ध मुझको छोडो !इस समय संपूर्ण नगर में व्याप्त ,ताडित होली के नगाडे का  शव्द मनुष्यों के होली की एकादशी के आगमन को सूचित करता है !

अलिलसिता कोकिलरवरम्या        नवदल हृद्या कुसुमविचित्रा ,

प्रमितसुवाता  ललितनमेरु  र्ननु विपिनालिर्भवति  वसन्ते  !!६!!

वसंत ऋतु में विपिन पंक्ति भ्रमरों से शोभित कोकिलाऔं के कुहूकारौं से मनोहर ,नूतन पल्लवौं से हरी भरी ,पुष्पौं से नानावर्णमयी ,मन्द वायुवाहिनी और ह्रिदयहारी कल्पबृक्षौं से सुशोभित होरही है

द्विषन्तु निन्दन्तु नुवन्तु नित्यं

        भजन्तु सन्तं प्रणमन्तु तस्य

पुनर्निजानन्द निलीनकस्य

         न कापि हानिर्न च कोपि लाभः

सतत अविकारी उस देव से कोई भी व्यक्ति सदा इच्छानुसार द्वेष करे उसकी निन्दा ,स्तुति वा पूजा करे तथा उसको नमस्कार भी करे , किन्तु सतत स्वात्मानुभव में लीन उन भगवान को उन बातों से हानि और लाभ (राग- द्वेष ) कुछ भी नहीं है !

नियमित परिखेदा तच्छिरश्चन्द्रपादै

       र्हिमगिरितनया तन्निष्क्रियं रोचमाना

स्मितवदनसरोजा भ्रूविलासान्किरन्ती

          कृतदृढभुजपाशा वल्लभं स्वालिलिङ्ग !!

श्री गिरीश के शेखरस्थ चन्द्रकिरणों की तरावट से थकावट रहित स्थिरता शोभित होती हुई ,हास्य युक्त मुखकमल को धारण करने वाली कटाक्षों को फ़ेकने वाली  पार्वती ने महादेव क गाढालिङ्गन किया  !!

साहित्यशास्त्र रसपान विलोलुपानां

      विद्यावतां सदसि लोलदृषां विलासः

दोषोज्झितो गुणयुतः कविवाक्यगुम्फ़ो

          भूशायुतो वितनुते सरसः प्रसादम्

साहित्यशास्त्र के रसपान में लोलुप विद्वानों की सभा में दोषातीत सगुण कवि वचनों की रचना -विशिष्ट अलंकारयुक्त ललनाऔं का सरस विलास प्रसन्नता उत्पादन करे !!

वाग्जालसिन्धु परपार समाश्रितानां

               वक्ता सभा सुवद साधु गिरोजनानाम् ,

कोस्तीति निर्दिशति कान्तजनो निशम्य

                 दक्षः प्रिये स इह पाणिनियोग एव

कृष्ण चरित्र की रचना से =

हे कंस !नीतिनिपुण !स्मृतिदक्ष !बीर !

               खेअटित वाचमविचार्य विनापराधम् ,

आर्यस्य सत्कुलभवस्य वधो भगिन्या

                 न्याय्यस्तवाद्य  नहि पाणिनियोग एव

कोई देवी भगिनीसुतसंहारक  कंस से कह रही है  कि हे कंस !आप तो नीतिनिपुण ,स्मरणशील और बीर हो तुम्हें आकाशोत्पन्न ,अनिश्चयात्मक वचन पर पूर्वापर विचार किये विना ही भगिनी की निरपराध संतान पर दुष्ट पाणिप्रहार करना उचित नहीं !

     राम चरित्र की रचना से =

विमान मारुह्य     ससैनिकानुजः 

           प्रयान्पुरीं तां रणवृत्तकं वदन् ,

तदेत्युवाचेय मभूद्वदामि      किं

            प्ल्वङ्गरक्षस्तरसा  #र सारसा !!   

श्री रामचन्द्रजी सैनिकों और लक्ष्मण सहित विमानारूढ होकर सीता से युद्ध के वृत्तान्त को कहते हुए अयोध्या को रवाना हुए !उस समय पृष्ट सीता बोली कि उस समय दुष्टग्रहों से पीडित मैं अब क्या कहूं कि वानरों राक्षसों के सैन्य से क्या पुरुषार्थ हुआ !

#

(आर ) = दुष्टग्रह  !

पृथ्वीश प्रशंसा काव्य =

देवाः प्रसन्नाः व्यवसन्यथासुखं

              देवाधिराजे त्रिदिवं मुदावति

श्रीकान्तमन्तः  सुखिनो  जनास्तथा

               श्रीलश्करेशे   पृथिवीं  प्रशासति

जैसे स्वर्ग का इन्द्रराज के द्वारा पालन हुए आनन्दित देवगण सुखपूर्वक रहते हैं ! उसी प्रकार लश्कर महाराज के द्वारा पृथ्वी का पालन होते हुए सुखित जनता श्रीविष्णु भगवान में बस गई  (लीन हो गई )

हिन्दी कविताओं के नमूने

मिथिलेश सुता हरि कै तुमने कछु ना फ़ल उत्तम पाय लियो ,

सब मन्त्रि सखा प्रिय जाति पुरोहित कौ कहनो तुमने ण कियो !

कपि एक यहां सुत मारि जराय पुरी पहुंचो  सुनि वानरि हौं ,

दल चारि दिशा बिच छाय गयो कुलदीपकजू अब का करिहौ ?

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विलोकि कर धनु भौंह धरि शर लाल नयन चलाइए ,

अति कंज वदनी फ़रकि करि बिम्बाधरन न चबाइए !

कछु कहत सुनत न पूंछति सब चतुरता निफ़लाइए ,

चलि आप दशरथ साझि गुनगन गाइकै सु रिझाइए !

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आपके द्वारा रचित छत्रबंन्धौं में से उदाहरणार्थ एक छत्रबंन्ध भी देहिये

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सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्

चतुर्वेदः १  खलच्छेत्ता २  चक्रधारी  सदावतात्  !

पदरीति ३ प्रदः  कृष्णोपखः ४  स नन्दनन्दनः   !!

(1)  चतुर्भिर्वेदैर्वेदो  ज्ञानं यस्य , (2)  दुष्ट नाशक (3)  पदरीतेः प्रचारस्य प्रदो दाता (4)अपगतः खेभ्यः इन्द्रियेभ्यः  इन्द्रियागोचरः  ||  मम पितृभ्यः प्रणामाः

            Sri Dasharatha Shastri’s biography (english)   Sidhhanta Vagish (great grammarian) Shri Pandit Dasharatha Ji Dvivedi (master in two Vedas) Shaastri (master in scriptures) Vaiyaakarana Bhushana (also means great grammarian) was born on Pausha Krishna Ashtami Friday 1930 Bikram Sambat, accordingly the 12th December 1879 A.D., in Soron Varaah Chetra (field) district Kaasaganja. His father’s name was Pandit Narayan Ji and his mother’s name was Devaki. His original Gotra is Bharadvaj, Yajur Veda, Triprabar (Bharadvaj, Angiras, Vaarhaspatya) Dakshinapaad, Dakshina Shikhaa, Dakshina Dvaar, Katyaana Shrautasutra and Trivedi are titles.   But your great grandfather Pandit Mayarama Ji was adopted to the Dvivedi family tradition. His Dvivedi mother’s father did not have any son and therefore he was adopted by his mother’s father. Since then, your great grandfather Pandit Mayarama and his successors became famous as Dvivedis.   His ancestors’ livelihood was Paurohitya (priesthood). His father was very generous, simple, and devoted to God, ascetic and that’s why people used to call him Rishi Ji. He had exemplified the Sanaadya-term (follower of universal religion).   सनस्य मूलं ह्रदयं सनस्य   सनस्य बीजं सनकादि वन्द्यम् ;  सनेन वेद्यं सनके प्रतिष्ठितं   सनातनं त्वां शरणं प्रपन्नाः !!१!! सनेन ब्रह्मा स्वसुतान् ससर्ज विप्रान सनाड्यान सनकादि संज्ञान् ; धर्म प्रचाराय सनाड्य पुत्रान्  सनातनोअव्यात्सततं सनातनान् !!२!!   Narayan Rishi JI had started Hindi alphabet study for (his son) our main character Dasharath Ji Dvivedi Ji at the age of six. Sharp minded Pandit Ji had acquired sound skill of reading and writing Hindi by the age of eight. When he was nine years old, he had started to skillfully perform Svakiya Tirtha Paurohitya Karma (own family profession). By the age of eleven, he had memorized Deva-Stotra Patha (divine hymns) and some Mantras. He was very interested in study and therefore his teachers used to remain pleased with him.   At the age of twelve, he started study of Amarakosha and Laghu Sidhhanta Kaumudi from Pandit Laxman Ji Mishra at Soron. At the age of 14, he finished learning final part of Kaumudi from Pandit Ramnath Ji Gauda Shastri who lived at Maarharaa. Then, he started study of Astadhyayi and Mahabhasya, Kavya, etc., as per order and finished them at the age of 19. Besides, with his sharp intellect, he practiced Jyotish (astrology) and Baidyak (medical science) and wrote a Sanskrit commentary called Mitakshyara-Shana on Sri Pandit Mevaramji Mishra’s Baidya Kaustubha which was a Chitra Kavya (a difficult work related to Ayurveda). He had just completed his 19th year when his father passed away. While still a student, after his father’s demise, all the responsibilities of his family came upon him. Despite of this and many other difficulties, he did not let any of those take toll on his study.   Between the age of 20 and 23, he studied Vedantic works Panchadashi, Sankhyatatva Kaumudi, Sankhya Pravachaniya Bhasya from Swami Atmananda Ji Puri, and Prasthanatrayi from Swami Prakashananda Ji Puri.   After that, when abovementioned Swami Prakashananda Ji Puri shifted to Kashi, he also went to Kashi. Then, from the Swami Ji, he studied Navya Nyaya works like Mathuri, Jagadishi, Pakshyata, Vyadhikaran, etc. He also studied Vyakarana’s Shekaradi Tika works from Pandit Rama Shastri Ji in Gopal Mandir. Then, at the age of 25, he returned to his home in Soron.   To promote Sanskrit knowledge in Soron, he established Sajjananandini School and kept teaching there without salary for many years, to about 80 students.   Because of his appreciable effort, many of his students became good scholars with various titles like Shastri, Acharya, Kavyatirtha, etc.   The credit for publicity of Sanskrit language in Soron goes mainly to him. In addition to being a great scholar of Grammar and Sanksrit literature, he also had deep insight into Ayurveda, and was a high class genius poet! He was a God devotee, Shatkarma Parayana (devoted to his prescribed duties according to scriptures), learner of Veda, devout to virtues, noble person! He always used to be active in improvement of caste system of country, and publicity of Sanatana Vaidik Dharma (eternal dharma) and Sanskrit knowledge! He was also respected by society of scholars and kings who were grateful to him, like late king of Jayapur Savai Madhau Singh Ji, etc.   From 26 to 53 years old, besides teaching, he had also written following 14 books! And, he had written Sanskrit and Hindi commentary of two books (Vaidya Kaustubha Kavya and Sookar Shetra Mahatmya).   (1)  Krishi Shasana  (2)  Vidhana Martanda (3)  Adhunik Mata Mardana  (4)  Katantra Chandrika  (5)  Shlokabaddha Laghu Sidhanta Kaumudi  (6)  Viyogini Vallabha Kavya  (7)  Sarpa Chikitsa  (8)  Vishopa Visha Mimansa  (9)  Samasya Purti Kavya  (10)  Deva Sotra  (11)  Gotra Kaumudi Kavya  (12)   Prati Nidhi Kavya  (13)  Dillagi Darpana Bhana  (14)  Dukariya Purana (Budhiya Purana)              (15) sukar ( soron  )kshetra mahatmyam              (16) Goswami tulasi das ji ki jivani               (17) vriddha ganga lahari               (18)  vaidya kaustubha   Except the above mentioned first three books, all the rest are unpublished! Some samples of his poem are given below:    इच्छा गोदारणाद्येन येनाकृष्यात्म काश्यपीम् , उप्तं संपादितं विश्वं महः किमपि मन्महे !!१!!   असारे खलु संसारे घोरापत्ति सुदुस्तरे , धर्मज्ञो ना कथं जीवे द्यत एतद्विचार्यते !!२!!   कृषिक्रिया सर्बयुगेषु पूजिता          द्विजैर्न निन्द्या कथिता कदापि च  अतः सुसेव्या भुवने द्विजाग्रजैः           सदा चतुर्वर्ग फ़लेप्सुभिर्जनैः !!३!!   सुसूक्ष्म दृष्टि प्रविचारितोपि            भातीति नो स्थूलदृशा कदापि  वेदान्त सिद्धान्त विचार दक्षः              पाथःपतिर्वै भृगवे समूचे !!४!!   We salute that indescribable effulgent God who sowed the seed (hidden in shuttle form in his own substratum) by ploughing the earth (in form of his mind) with a plough (in form of his wish); and again created the world which appears in various forms. Or, we salute indescribably valorous one named Prithu. He was incarnation of Sri Vishnu, and adorned as the first incarnation. He appeared as a farmer incarnation. People prayed to him because of hunger, and the payer gave birth to his wish. He kindly flattened his Earth (according to Earth’s prayer) so that water could be stable, with the edge of his bow which is capable in tearing mountains. Earth had hidden grains or seeds because of fear from thieves or misusers. Prithu made agriculture possible so that those grains could sprout. -1   Thought is given to how a person who knows Dharma makes living in tough and meaningless world suffering from strong unfortunate. -2   Agriculture has been considered respectable in all times and never criticized by the Brahmans! That’s why agriculture is always respectable and doable for twice-born who desire fruit from Dharma, Artha, Kama, Moksha! -3   Even after thinking from a very subtle perspective, I have never perceived the great state (grain is the highest source of energy, that’s why make plenty of grain). In this way, one who has crossed ocean of Vedanta philosophy said to Bhrigu Ji. -4   प्रकर्षकाः धर्म्य कृषिक्रियापराः          स्वाध्याय यागादि रता अदंभिनः  सद्ब्राह्मणाः पूज्यतमाः प्रकीर्तिताः           हव्येषु कव्येषु च पङ्क्तिपावनाः !!१!!   Those Brahmans who do agricultures and are engaged in studying good scriptures like Vedas, they are sincere, honest, and Dharma-aligned workers doing agriculture work. Such Brahmans are also called worshippable because they are holy (so holy that they make others holy) in fire-ceremony (for Gods) and water-ceremony (for ancestors), and one should feed such Brahmans.    षट्कर्माणि कृषिं ये च कुर्युज्ञात्वा विधिं द्विजाः , देवादिभ्यो वरं प्राप्य स्वर्गलोकमवाप्नुयुः !!२!!   Those Brahmans who perform daily six-Karmas (duties as prescribed by Vedas) according to rules of Scriptures and do agriculture, they get boons from Gods and obtain heaven.    रागिण्यः किं नागदेव ललना गन्धर्ववालाः किमु               किं वा यतीसु दक्ष लोल नयनाः किं वाप्सरः संचयाः किं वा चञ्चलविद्युतः सुनयनाः कि मेघमालागणाः                एताः सुन्दरभूषणांवरधरा आयान्ति गायन्ति किम् !!३!!   Those who are adorned with beautiful dresses and jewelleries, have beautiful eyes, are coming and are singing. Are they the wives of king of snakes who are singing? Or are they daughters of Gandharvas (heavenly musicians)? Or are they group of Apsaras (heavenly damsels) who are experts in Layas (rhythms) and have moving eyes? Or are they moving lightnings? Or are they garlands of clouds making sounds?   रक्तांवरा सुवर्णाभा  विम्वाधरा हसन्त्यसौ , उद्गच्छन्ती शुभा भाति पूर्वा संध्या वधूरिव !!४!!   This some lady who is wearing red clothes and has white complexion and red lips, is laughing and going, looks charming like beautiful early Sandhya (early morning).     From other Kavyas (poetry works)   कान्ते कोकिलकोमलस्वरकले कन्जाक्षि कुम्भस्तनि      कामं मुञ्च मृडालबाहुलतिकाबद्धं च मां मानिनी , यातो निन्णगरे धुना प्रियतमे बाले समुत्ताडितो        होलीडिण्डिमकः प्रबोधयति नृनेकादषी मागताम् !!५!!   Oh one with soft voice like a cuckoo, with eyes like lotus, with breasts like pitcher, proud one, dearest, with arms which are very soft like a thread that comes out of root of lotus! you have embraced me with those arms of yours, now please release me from your embrace. This time, the whole town is filled with sounds of drums of Holi, and it indicates the coming of humans’ Ekadashi (11th day of waxing moon) of Holi.   अलिलसिता कोकिलरवरम्या        नवदल हृद्या कुसुमविचित्रा , प्रमितसुवाता  ललितनमेरु  र्ननु विपिनालिर्भवति  वसन्ते  !!६!!   In spring season, forest is being adorned with heart stealing trees, made beautiful with lines of bees, attractive with Kuhu sounds of cuckoos, green and filled with new tender leaves, with multiple colors because of flowers, and flowing smooth wind.    द्विषन्तु निन्दन्तु नुवन्तु नित्यं           भजन्तु सन्तं प्रणमन्तु तस्य  पुनर्निजानन्द निलीनकस्य            न कापि हानिर्न च कोपि लाभः   According to one’s wish, any person may always hate, praise, or worship, and do Namaskar to that always-unchanging enlightened being, but those treatments do neither good nor bad (neither like nor dislike)  to him who is always immersed in experience of self.   नियमित परिखेदा तच्छिरश्चन्द्रपादै          र्हिमगिरितनया तन्निष्क्रियं रोचमाना  स्मितवदनसरोजा भ्रूविलासान्किरन्ती             कृतदृढभुजपाशा वल्लभं स्वालिलिङ्ग !!   Parvati, the daughter of himalaya, lovingly embraced her dearest Mahadev with her firm arms- that Parvati whose fatigue is removed by the nectar rays of Moon in Mahadev’s head, who looks very charming and stable, who is smiling with lotus like face, and spreading charms of her eye movements. साहित्यशास्त्र रसपान विलोलुपानां         विद्यावतां सदसि लोलदृषां विलासः  दोषोज्झितो गुणयुतः कविवाक्यगुम्फ़ो             भूशायुतो वितनुते सरसः प्रसादम्    In the assembly of scholars who are interested in drinking nectar of literature, happiness and eye movements of learned women get amplified by sentences beautifully arranged by the poets which are void of mistakes and decorated with good qualities.   वाग्जालसिन्धु परपार समाश्रितानां                  वक्ता सभा सुवद साधु गिरोजनानाम् , कोस्तीति निर्दिशति कान्तजनो निशम्य                    दक्षः प्रिये स इह पाणिनियोग एव    Some woman is telling Kansa who is killer of sister’s son – Hey Kansa, you are expert in policies, have good memory power, and brave. It is not fit for you to treat innocent children of sister with bad hand-punch, without thinking well through the non deterministic statements that came from Sky.         From Ram Charitra composition (meaning composition of heroic Ram’s character) =   विमान मारुह्य     ससैनिकानुजः               प्रयान्पुरीं तां रणवृत्तकं वदन् , तदेत्युवाचेय मभूद्वदामि      किं              प्लवङ्गरक्षस्तरसा  #र सारसा !!      Sri Ramchandra, while telling stories of war to Sita, left for Ayodhya in Plane along with soldiers and Laxman. When Sita was asked to tell about the war, she told that she cannot tell if monkey-army or demon-army were more valorous, because at that time she was suffering from bad faith.  # (Aar ) = Bad Planet   Prithvisha Prashansa Kavya (composition) =   देवाः प्रसन्नाः व्यवसन्यथासुखं                 देवाधिराजे त्रिदिवं मुदावति  श्रीकान्तमन्तः  सुखिनो  जनास्तथा                  श्रीलश्करेशे   पृथिवीं  प्रशासति    As the groups of Gods who live happily under care of Indra King in heaven, similarly, the people were happy while the earth was being cared by Lashkar Maharaj. Those happy people stayed fearless as if they were merged in Sri Vishnu Bhagvan.    Samples of Hindi poems  मिथिलेश सुता हरि कै तुमने कछु ना फ़ल उत्तम पाय लियो , सब मन्त्रि सखा प्रिय जाति पुरोहित कौ कहनो तुमने ण कियो ! कपि एक यहां सुत मारि जराय पुरी पहुंचो  सुनि वानरि हौं , दल चारि दिशा बिच छाय गयो कुलदीपकजू अब का करिहौ ? ************************************************************** विलोकि कर धनु भौंह धरि शर लाल नयन चलाइए , अति कंज वदनी फ़रकि करि बिम्बाधरन न चबाइए ! कछु कहत सुनत न पूंछति सब चतुरता निफ़लाइए , चलि आप दशरथ साझि गुनगन गाइकै सु रिझाइए ! *****      ******       *******       *******          ******* One ChatraBandha (poems like umbrella) as an example from many ChatraBhandas that he composed.   सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्   चतुर्वेदः १  खलच्छेत्ता २  चक्रधारी  सदावतात्  ! पदरीति ३ प्रदः  कृष्णोपखः ४  स नन्दनन्दनः   !!   (1)  चतुर्भिर्वेदैर्वेदो  ज्ञानं यस्य ,   (2)  दुष्ट नाशक    (3)  पदरीतेः प्रचारस्य प्रदो दाता    (4) अपगतः खेभ्यः इन्द्रियेभ्यः  इन्द्रियागोचरः         Salutations to my parents.    सूकर (सोरों )क्षेत्र माहात्म्यम्                        

                                      टंकण कर्ता : स्वामी निर्दोष 

        ||  श्री दशरथ दशकम् || 

श्री नारायणसूनु परमगुरु दशरथ देशिक मे शरणम् |

विद्यावारिधि मोदप्रदायक देवकिनन्दन मे शरणम्  ||

सर्वकलाकोविद पाण्डितवर अशुभविनाशक मे शरणम् |

गर्गकुलोद्भव रामनाथगुरु शिष्य निरन्तर मे शरणम्  || 1 || 

भस्म विभूषित भाल प्रदेशे विद्याविनोद मे शरणम् |

सूकरक्षेत्र निवासि पुरोहितवर्य वेदविन्मे शरणम् ||

ज्योतिष आयुर्वेद कल्प शिक्षा विद गुरुवर मे शरणम् |

करुणावरुणालय कवि तार्किक न्याय शिरोमणि मे शरणम्  || 2 || 

व्याकरणे सिद्धान्त वाक्पति छन्द रचयिता मे शरणम् |

आगम निगम पुराण शास्त्रवित् योगीश्वर भव मे शरणम् ||

शुद्ध सात्विक वृत्तिनिष्ठ जपनिष्ठ सदा भव मे शरणम् |

  गुरु सेवा संयम शुचि मूर्ति सनाढ्यभूषण मे शरणम् || 3 || 

चिदानन्दघन शान्त सदाशिव भक्तिनिष्ठ भव मे शरणम् | 

आम्नायालोडनतत्पर गुरु परमप्रगल्भं मे  शरणम् ||

धर्मसेतु महिदेव भजेऽहं भागीरथिपति मे शरणम्  |

वैदिकधर्मपरायण मनुजोद्धारक देशिक मे शरणम्  || 4 || 

गङ्गा वराह चरितोद्धारक महा मनषी मे शरणम् |

बालहरि हरियश यशोधर पूज्य तात भव मे शरणम् ||

लौकिक प्रपञ्च विरहित माया मोह निरस्तं मे शरणम् |

त्रिगुणातीत निरञ्जन  पद रत ब्रह्मनिष्ठ भव मे शरणम् || 5 || 

दश विद्या पारंगत दश इन्द्रिय गण विजितं मे शरणम् |

दश दिक्षु विस्तारित कीर्तिं देह रथेन मे शरणम् || 

ऋग् यजु सामाथर्वन् षडङ्ग शिक्षा तत्पर मे शरणम् | 

दश वायु दश विषय समाहित दयासिन्धु भव मे शरणम् || 6 || 

षण्मुख भक्त्या  षडूर्मि  षड्रिपु विजितं येन स मे  शरणम् |

प्रयाणकाले प्रणव ध्वनिना प्राण विसर्जित मे शरणम्  || 

श्मशानदेशे शवपट वितरण रक्षा विधान मे शरणम् | 

आधिव्याधि हर अङ्ग वस्त्र तव लोक प्रसिद्धं मे शरणम् || 7 || 

चिन्तित फलदाता वेदोद्गाता सिद्धमूर्ति भव मे शरणम् | 

शिष्य हितेच्छुक भवभयत्राता लोकपितामह मे शरणम् || 

भक्तावनदीक्षित जनमनरञ्जन तपोमूर्ति भव मे शरणम् | 

प्रणतार्ति निवारण ध्यानपरायण कर्मनिष्ठ गुरु मे शरणम् || 8 || 

सदानन्द पूर्णं निरानन्द शून्यं |

सदास्वावलम्बी सदारोगहीनः ||

सदा योगयुक्तो सुकैवल्यनिष्ठः | 

सदा आत्मनिष्ठो सदा ब्रह्मनिष्ठः || 9 || 

एषा  नारायणिः गाथा यः पठेत् प्रयतः पुमान् | 

 अखण्डामृततृप्तः सन् निर्दोषत्वं स गच्छति || 10 ||

 एषा  नारायणेर्गाथा  यः पठेत् प्रयतः पुमान् | 

 अखण्डामृततृप्तः सन् निर्दोषत्वं स गच्छति ||

सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञं सर्वविद्याविशारदं ।निर्मोहं निरहंकारं वन्दे नारायणात्मजम् ॥11॥

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