ज्ञानी
1. पहले लोग ब्रह्म ग्यानी होती थे, फिर धीरे धीरे लोगों ने गुरुओं से ज्ञान लेना प्रारंभ किया, फिर वो भी न मिले तो पुस्तकों और धर्म शास्त्रों को पढ़ कर ग्यानी हुआ पर अब आदमी बिना कुछ पढ़े भी ग्यानी हो जाता है….! यकीन नहीं आता तो फेसबुक देखिये, भारतीय धर्म ग्रंथों पर, जिसमें वेदों से लेकर शास्त्रों और पुराणों तक सब पर ऐसे ऐसे बेसिर पैर के आरोप, मनगढ़ंत बातें और कुतर्क लगाते हैं और बातें ऐसी जैसे दुनिया में बस व्यास जी की बाद ये ही पैदा हुए हैं जो सारे शास्त्र पढ़ कर बैठे हैं… पर जब पता करो तो पढ़ा कुछ नहीं, बस गूगल किया और कॉपी पेस्ट कर दिया…..है न ग्यानी बनने का शॉर्टकट…..
2, दुशासन – दुःखेन शास्यते |
दुःख से शासित होने वाला |
3. अमृतं स्याद् अयाचितं ।
जो झगडने से मिले, जो झूठ से मिले, जो कपट से मिले, सन्मार्ग का उल्लंघन करने से या फिर याचना से मिले, उनकी अलग-अलग गतियां हैं, किन्तु जो अयाचित मिले वह तो अमृत ही है !
4. सुपढ, अपढ़, कुपढ, पढ़ा-लिखा
(बाल की खाल)
आजकल फेसबुक पर प्रायः एक शब्द बहुत सी पोस्ट में देखता हूँ, “कुछ पढ़े लिखे लोग ऐसा कहेंगे” अथवा “कुछ पढ़े लिखे लोग, इस बात को नहीं मानेंगे”। पर सोचने वाली बात है कि ये पढा लिखा है कौन ? पढ़े लिखे तो बहुत से लोग होते हैं । जो उस पोस्ट के पक्ष में होंगे क्या वो पढ़े लिखे न होंगे ? क्या जो उस पोस्ट के विपक्ष में होंगे, वो ही मात्र पढ़े लिखे होंगे ? पढा लिखा होगा, तभी तो उस पोस्ट को पढ़ रहा होगा अन्यथा कैसे पढ़ेगा ? तो जो उस पोस्ट को पढ़ ही नहीं पायेगा, वो तो अपढ़ हुआ न 😊 क्या इसका मतलब ये है कि जो विपक्ष में हैं पोस्ट के, वो सब पढ़े लिखे हैं और जो पक्ष में होंगे, वो अपढ़ होंगे ? (😊) ये किस प्रकार की भाषा है ? बहुधा पढ़े लिखे लोग भी बहुत ज्ञानी हों, आवश्यक नहीं । रावण ने भी वही वेद पढ़े थे, विश्रवा ऋषि के पास जो रामचन्द्र जी ने पढ़े थे । पढ़े लिखे तो दोनों थे !!! पर क्या दोनों की सोच एक जैसी थी ? अर्थात कोई आवश्यक नहीं कि जो पढा लिखा हो, वो बहुत ज्ञानी अथवा तार्किक ही हो !!!
जो लोग पढ़लिख कर भी, अज्ञानी समान ही आचरण करते हैं, उस विद्या का, उल्टा प्रयोग करते हैं, उन्हें ही कुपढ कहा जाता है । पढ़े लिखे होने का उल्टा प्रयोग, जैसे साइबर क्राइम करने वाले । सब पढ़े लिखे होते हैं पर काम उल्टे करते हैं । जो प्राप्त की हुई विद्या का सदुपयोग करते हैं, वो सुपढ कहलाते हैं, जैसे रामचंद्र जी ।
वास्तव में पोस्ट लिखने वाला, पोस्ट के विरोध में लिखे जाने से, आतंकित है, भयाक्रांत है कि कोई मेरी पोस्ट को गलत न बोल दे, अतः पहले ही, पूर्व में ही ये घोषणा करना चाहता है कि जो भी विरोध में हैं, वो भले ही पढ़े लिखे हों, किन्तु कुपढ ही होंगे । ये पूर्वघोषणा है, उस भय के कारण क्योंकि कोई भी बात ऐसी नहीं हो सकती, जिसके पीछे तर्क न हो और कोई तर्क ऐसा नहीं ही सकता, जिसके आगे वितर्क न हो । अतः ऐसी घोषणा कि जो वितर्क करेगा, वो कुपढ ही है, ये अतिशयोक्ति और अतिरंजिता है ।
लेकिन यहां पोस्टकर्ता डर किससे रहा है ? पढ़े लिखों से ? नहीं अपितु वितर्क करने वाले से । वितर्क वही करेगा, जो विद्वान होगा । विद्वान, कोई पढा लिखा हो, कोई जरूरी नहीं किन्तु पण्डित (ज्ञानी) अवश्य होगा । उसने जीवन के मूल रहस्यों को पास देखा होगा, जो कि एक पढ़ा-लिखा अथवा अपढ़ नहीं जानता है। जो तर्क और वितर्क से निष्कर्ष निकालने पर विश्वास करता होगा । लेकिन यदि पोस्टकर्ता ये कह दे कि “कुछ विद्वान इसका ये कहकर विरोध करेंगे” तो उसकी बात ही विरोधाभासी हो जायेगी कि विपक्ष को विद्वान भी कहता है पर उसकी मानता भी नहीं है, अतः यदि वो विद्वान शब्द प्रयुक्त करेगा तो उसकी मजबूरी होगी, वाक्य को ऐसा लिखने की – “कुछ विद्वान इस पर तर्क देंगे”, जो कि एक शालीन भाषा है और वितर्क का स्वागत करती प्रतीत होगी किन्तु पोस्टकर्ता भयाक्रांत है कि उसे विपक्ष को पहले ही रूल आउट करना है, अतः वो विद्वान शब्द से बचता है और वहां प्रयोग करता है, पढालिखा शब्द क्योंकि पढा लिखा व्यक्ति तो कुपढ भी हो सकता है किंतु जो विद्वान है, वो मूर्ख नहीं हो सकता क्योंकि वो व्यक्ति विद्वान और मूर्ख, दोनों एक साथ नहीं हो सकता किन्तु पढालिखा व्यक्ति, पढालिखा और कुपढ दोनों एक साथ हो सकता है।
अतः निष्कर्ष ये है कि इस प्रकार की पोस्ट लिखने वाले, जो विपक्ष को, नकारने के लिये पूर्व में ही घोषणा कर देते है कि कुछ पढ़े लिखे लोग, इस पर ऐसा कहेंगे अथवा कुछ मूर्ख इस पर ऐसा कहेंगे (पूर्वघोषणा कि पोस्ट के विपक्ष वाले सब मूर्ख ही होंगे) आदि ऐसी पोस्ट को और पोस्टकर्ता को, वितर्क और विद्वानों से डरा हुआ मानकर, उनकी पोस्ट को, इकतरफा पोस्ट समझकर इग्नोर कर देना चाहिये । ज्ञानियों की बात पर चर्चा होती है क्योंकि वो पूर्वघोषणा नहीं करते कि सामने वाला अज्ञानी है अथवा कम जानता है ,वो उसके साथ चर्चा करके ही इस प्रकार का निष्कर्ष निकालते हैं किंतु वहां चर्चा की गुंजाइश होती है किंतु इस प्रकार की पूर्वघोषणा करने वाली पोस्ट में, वो गुंजाइश ही खत्म कर दी जाती है अतः ऐसी एकतरफा पोस्ट से बचना चाहिए क्योंकि ये एकपक्षीय होती है और प्रायः कुतर्को पर आधारित होती हैं क्योंकि कुतर्क करने वाले को ही, तर्क और वितर्क से भय लगता है ।
इति ॐ इग्नोराय नमः मंत्र सिद्धम 😊
प्रश्न – साष्टांग प्रणाम किसे कहते हैं ?
दोभ्र्यां पादाभ्यां जानुभ्यामुरसा शिरसा दृशा ।
मनसा वचसा चेति प्रणामोऽष्टांग ईरितः ।।
हाथों से, चरणों से, घुटनों से, वक्षस्थल से, सिर से, नेत्रों से, मन से और वाणी से – इन आठ अंगों से किया गया प्रणाम साष्टांग प्रणाम कहलाता है ।
२. जातस्य नियतो मृत्युः पतनं च तथोन्नतेः | विप्रयोगावसानस्तु संयोगः संचयः क्षयः ||
विज्ञाय न बुधाः शोकं न हर्षमुपयान्ति ये | तेषामेवेतरे चेष्टां शिक्षन्तः सन्ति तादृशाः ||
— ब्रह्म पुराण
अर्थ – जो जन्म ले चुका है, उसकी मृत्यु निश्चित है, जो ऊंचे चढ़ चुका है, उसका नीचे गिरना भी अवश्यम्भावी है | संयोग का अवसान वियोग ही होता है और संग्रह हो जाने के बाद क्षय होना भी निश्चित बात है | यह समझकर विद्वान पुरुष हर्ष और शोक के वशीभूत नहीं होते और इतर मनुष्य भी उन्ही के आचरण से शिक्षा लेकर वैसे ही बनते हैं |
३.कुछ परिभाषायें….बस ऐसे …http://drjatashankartripthi.blogspot.in/2011/10/blog-post_27.html
४. योग !
जैसे ज्योतिष एक विद्या हो कर भी धंधे का नाम बन गयी है, वैसे ही योग के नाम पर भी लोग अलग अलग धंधे चलाये हुए हैं | जैसे ज्योतिष को सीखने का एकमात्र उद्देश्य पैसा कमाना रह गया है वैसे ही योग का उद्देश्य भी लोगों को योग सिखाना नहीं अपितु उस से धनलाभ ही रह गया है | कुछ आश्रम लोगों को योग कराते हैं, क्या कहते हैं….योगासन करा रहे हैं और लोग उसे योग समझ रहे हैं !!! अब लोगों को खुद तो कुछ पता नहीं है तो यही योगासन ही योग होता होगा, ऐसा समझते हैं…जबकि एक सामान्य बुद्धि भी यह बता सकती है कि योगासन = योग + आसन = योग का आसन या योग के लिए आसन ! आसन यानि बैठने की विधि |
हमारे यहाँ ये योग के बृहत क्षेत्र में से एक छोटा अंग है | केवल आसन को ही योग समझना, मूर्खता है और लोग इस तरह अपना उल्लू सीधा करते हैं | क्या करते हो भैया ? अरे यार, मैं तो सुबह सुबह उठ कर योग करता हूँ ! वाह ! बस इतना ही तो है योग…ये तो कुछ भी नहीं, अब हमारे देशो में भी लोग योग को योगा कहते है ! क्या मजाक है, मतलब जिस देश ने योग दुनिया को दिया, उसी देश के लोग पश्चिम देशों की देखा देखी योग को योगा कहने लगे हैं ! अरे, हम योग को योग नहीं कहेंगे तो कौन कहेगा ? और अब तो न्यूड योगा, power योगा और पता नहीं कितने योगा आ गए हैं | क्या ये वाकई में योग हैं ? क्या कभी इन्होने जिंदगी में कभी पतंजलि योगसूत्र उठा कर भी देखा है ? क्या इन्हें पता भी है, यम, नियम, प्रत्याहार, धारणा, समाधि किस चिड़िया का नाम है ? और सिखा रहे हैं क्या – योग !धीरे धीरे लोगों ने स्वाध्याय करना छोड़ दिया, खुद कुछ नहीं जानते सो बाबाओं के पास जाओ वो ज्ञान देंगे ! खुद योग नहीं जानते तो आश्रमों में जाओ, वो सिखायेंगे योग क्या है ?
वस्तुतः हो क्या रहा है – धीरे धीरे हमारे ही ग्रंथो के नाम पर धंधे किये जा रहे हैं और भ्रम फैलाए जा रहे हैं | जब लोगों को दीखता है कि ज्योतिष के नाम पर धंधा हो रहा है तो एक सड़क चलता आदमी भी कह देता है – अरे ज्योतिष व्योतिष सब बकवास है ! चाहे उसे खुद कुछ न पता हो, पर इन धंधेबाजों ने ज्योतिष विद्या पर ही एक प्रश्न चिन्ह लगा दिया और अब लोग इसे सिरे से खारिज कर देते हैं क्योंकि १०० में से ८० धंधेबाज हैं | यही हाल गुरु-शिष्य परम्परा को हो गया है, लोगों ने गुरु और बाबा बन कर लोगो को लूटना शुरू कर दिया, एक से एक उदाहरण है और प्रश्न चिन्ह किस पर लगा…बाबाओं पर नहीं, इन तथाकथित गुरुओं पर भी नहीं….प्रश्नचिन्ह लगा – गुरु – शिष्य परम्परा पर !
ऐसे ही प्रश्नचिन्ह लग चूका है योग पर…जिसे लोगों ने धंधा बना लिया है |धीरे धीरे हमारा विश्वास हमारे ही सभी ग्रंथों से, परम्पराओं से उठ जाएगा और हम बेसहारा हो जायेंगे (काफी तो हो भी चुके हैं) | इन ग्रंथों के सहारे, इन परम्पराओं के सहारे ही हम अपनि पीढ़ी को संस्कार देते थे, पर अब वही पीढ़ी इन आडम्बरों के चलते इन पर प्रश्न चिन्ह खड़े करनी लगी है और उस से भी विरल समस्या है कि उन प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए खुद कुछ पढना भी नहीं चाहती | दिन भर नौकर की तरह फांय फांय करने के बाद एक रोना – समय नहीं मिलता जी….पर जब गाली देने की बारी आये तो योग से लेकर वेदों तक पर प्रश्नचिन्ह लगाने में एक मिनट नहीं लगता…..इसी कड़ी में आज योग के बारे में स्कन्द पुराण से आख्यान यहाँ प्रकट कर रहा हूँ, समय हो, योग को समझने की जिज्ञासा हो तो ही इसे पढ़ें और ये भी समझ लें कि ये तो संक्षेप में है, योग का एक एक अंग, अपने आप में एक एक विषय है अतः ये न समझें कि यहाँ जो लिखा है बस वही योग है, बल्कि ये योग का एक संक्षिप्त परिचय है, ऐसा समझें |
विभिन्न पुराणों में योग के ऊपर अलग अलग उदाहरण देकर अच्छे से समझाया गया है, उसे धीरे धीरे करके मैं एक जगह लाने के लिए प्रयासरत हूँ इसीलिए मैं इसे योग – 1 नाम दिया है | आपके लिए यहाँ प्रस्तुत है |http://shastragyan.apsplacementpltd.in/?p=627
५. एक तो थोडी आयु और दूसरे कम समझ। ऐसी अवस्था में संसार के मन्दभाग्य विषयी पुरूषों की आयु व्यर्थ ही बीते जा रही है – नींद में रात और व्यर्थ के कामों में दिन बीते जा रहे हैं । श्री मद्भागवत, प्रथम स्कन्ध, षोडशोध्याय
६. मद्भक्ताः क्षत्रिया वैश्याः स्त्रियः शूद्रान्त्यजातिजाः | प्राप्नुवन्ति परां सिद्धिं किं पुनस्त्वं द्विजोत्तम ||
श्व्पाकोपि च मद्भक्तः सम्यक श्रद्धासमन्वितः | प्राप्नोत्यभिमतां सिद्धिमन्येषां तत्र का कथा ||
अर्थ – श्रीभगवान् बोले – विप्रवर ! मेरे भक्त क्षत्रिय, वैश्य, स्त्री, शूद्र तथा अन्त्यज भी परम सिद्धि को प्राप्त होते हैं; फिर तुम जैसे तपोनिष्ठ ब्राह्मणों की तो बात ही क्या है ! चांडाल भी यदि उत्तम श्रद्धा से युक्त एवं मेरा भक्त हो तो उसे अभीष्ठ सिद्धि प्राप्त होती है; फिर औरों की तो चर्चा ही क्या है |– ब्रह्म पुराण
7. आज का चिंतन – जीते जी मर जाओ ! मतलब जैसे मरने के बाद आत्मा और परमात्मा एक हो जाते हैं, वैसी ही स्थिति और वैसा ही अभ्यास कीजिये जीते जी | मानिये कि मैं ही ब्रहम हूं और शरीर को आत्मा से भिन्न मानना प्रारंभ कीजिये…. जब आपकी आत्मा इस शरीर से भिन्न हो जायेगी… फिर आप मात्र आत्मा हैं (मरने के बाद की स्थिति) | फिर आप ही ईश्वर हैं, क्योकि आत्मा परमात्मा का ही रूप है | फिर आप शरीर नहीं है, शरीर तो आपने मार दिया | अब आप ही ब्रहम हैं | यही है – अहं ब्रहमास्मि | इसके लिये आपको अभ्यास करना है, आत्म चिंतन का |
8. अद्य धारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती
पण्डिताः खण्डिताः सर्वे भोजराजे दिवं गते”
आज, धार नगरी बिना आधार के है, माँ सरस्वती को कोई समर्थन नहीं है (आलम्ब नहीं है), सारे विद्वान (पंडित) अंतर्ध्यान हो चुके हैं (खंडित हो चुके हैं), राजा भोज स्वर्ग लोक को जा चुके हैं |”उपरोक्त श्लोक कालिदास ने गलती से लिखा और इसे अनुचित पाया क्योंकि राजा भोज तो मरे ही नहीं थे (ये राजा भोज ने खबर उडवाई थी देखने के लिए कि उनके मरने की खबर सुन कर कालिदास कैसी रचना करते हैं ) तो उन्होंने फिर उसे ठीक किया,
अद्य धारा सदाधारा सदालम्बा सरस्वती, पण्डिताः मण्डिताः सर्वे भोजराजे भुवं गते
आज भी बहुत कुछ को ठीक करने की जरूरत है !
९. यो विद्याचतुरो वेदान साङ्गोपानिषदो द्विजः, न चेत पुराणं सविद्यावैध्यं स ख्यातिचक्षणः ||
इतिहास्पुराणास्थां वेदं समुपर्वह्येत, विभेत्वल्प्श्रुताद वेदो मामर्थं प्रहरिष्यति |अर्थ – अङ्ग और उपनिषद के सहित चारो वेदों का अध्ययन करके भी, यदि पुराणों को नहीं जाना गया तो ब्राहमण विचक्षण नहीं हो सकता; क्योंकि इतिहास पुराण के द्वारा ही वेद की पुष्टि करनी चाहिए | यही नहीं, पुराणज्ञान से रहित अल्पज्ञ से वेद भी डरते रहते हैं, क्योंकि ऐसे व्यक्ति के द्वारा ही वेद का अपमान हुआ करता है |
१०. बलि का अर्थ, (जिसे बहुत से लोग अलग अलग सन्दर्भ में पेश करते हैं कि हमारे शास्त्रों में या वेदों में बलि का विधान है जिसमें पशु हत्या होती थी वगैरह वगैरह ) किसी का वध नहीं है, यह शुद्ध संस्कृत का शब्द है जिसका अर्थ है – भेंट | जैसे श्राद्धों में काक बलि और कुकुर बलि या श्वान बलि दी जाती है तो इसका अर्थ ये नहीं होता कि हम कौवे का या कुत्ते का वध कर देते हैं | इसका साधारण अर्थ है कि हम उन्हें भेंट दे रहे हैं | (रिफरेन्स अग्नि पुराण, शब्द कोष, व्यकारण खंड )
११. भगवान् शिव का जप रुद्राक्ष की माला से और पूजा लिंग मुद्रा में करनी चाहिए !
१२. मानसिक जप – अनामिका+अंगुष्ठ से माला उपांशु जप – तर्जनी + अंगुष्ठ से माला — अग्नि पुराण
13. षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद – बताओ क्या ? (हिंट – वेद के छंदों में इनका प्रयोग है) १४. अंशु से आक्रांत ऊहक अर्थात ॐ औषध (औ), विश्वरूप (ह), ग्यारहवीं मात्रा, सूर्यमंडल (अनुस्वार) एवं नाद से युक्त – “हौं” (बीज मन्त्र) विश्वरूप (ह) को अंशुमान (अनुस्वर) तथा ओज (ओकार) से युक्त – ‘हों’ (बीज मन्त्र) ऐसे ही सारे मन्त्र बने हैं मातृकाओं से | जैसे “हां हृदयाय नमः”, ये सम्पूर्ण मातृकाएं ही अपने आप में मन्त्र स्वरुप हैं | आधा द और पूरा य तो सद्योजात का “द्य” बनेगा…. अक्षरों के संगम से दुसरे अक्षरों की व्युत्पत्ति ! अक्षरों के संगमो से मंत्रो की व्युत्पत्ति !!! यही संस्कृत भाषा का प्रचुर सागर है जो अथाह है, आप जोड़ते जाइए और निकालते जाइए |अब इसी को किसी और भाषा जैसे अंग्रेजी पर कोशिश कीजिये क्या आप A और B को ऐसे ही मिला सकते हैं ? अंग्रेजी की लिमिट है, संस्कृत की कोई लिमिट नहीं है ! ये तो केवल अक्षरों का खेल है | अभी धातुओं को इसमें नहीं मिलाया है, क्या गजब व्याकरण है हमारी भाषा का और हम अंग्रेजी की पीछे भाग रहे हैं !!!अब सोचने वाली बात ये है – कि कैसे एक टुच्चे व्याकरण की भाषा को, जिसमें ये भी नहीं पता की A के बाद B ही क्यों आता है ? को सारे संसार ने अपनाया, चलो संसार ने अपनाया तो अपनाया, हमने भी अपना लिया, क्यों ? क्यों चीन ने नहीं अपनाया, क्यों रूस ने नहीं अपनाया ? वो तो अभी भी अपनी भाषा ही प्रयोग कर रहे हैं, जॉब भी उन्ही की भाषा में उपलब्ध होती हैं ! वो जोंब करने के लिए अंग्रेजी भाषा के मोहताज नहीं है हमारी तरह !!! फिर हम क्यों हैं ? ये विचारणीय प्रश्न है और इसका उत्तर ही संस्कृत भाषा को विराट भाषा बना सकता है | उसके पूर्ण प्राचीन रूप में ला सकता है | १५. न मान्यंती ये शास्त्रं नाचारं न बहुश्रुतान | विहितातिक्रमं कुर्युर्ये ते नरकगामिनः ||
– ब्रह्म पुराण अर्थात – जो शास्त्र और शास्त्रीय सदाचार को नहीं मानते, बहुश्रुत विद्वानों का आदर नहीं करते हैं और विहित कर्मो का उल्लंघन करते हैं, वे मनुष्य नरकगामी होते हैं | 16. !!!—: प्रश्नोपनिषद् :—!!!
===================== प्रश्न:—–प्राण स्वयं को विभक्त करके शरीर में किस प्रकार ठहरता है तथा शरीर से निकलता कैसे है ??? उत्तर :——जैसे सम्राट् अपने अधीन कर्मचारियों को अपने-अपने काम में नियुक्त करता है, किसी को इस तथा किसी को उस ग्राम में अधिष्ठाता बनाता है । इसी प्रकार यह प्राण अन्य प्राणों को पृथक्-पृथक् अपने-अपने काम में नियुक्त करता है। गुदा तथा उपस्थ भाग में “अपान”=अप+आन–नीचे की तरफ जीवन— (Alimentary System), चक्षु-श्रोत्र-मुख-नासिका में स्वयं प्राण=प्र+आन— (Respiratory System), समान=सम+आन— (Digestive System) प्रतिष्ठित होता है। समान द्वारा ही शरीर में आहुति के रूप में पडा हुआ अन्न सम करके—एक-रस बनाकर—-सब जगह पहुँचाया जाता है, जिससे शरीर में सात ज्योतियाँ जग उठती हैं। दो आँख, दो नाक, दो कान तथा एक मुख—ये सात शरीर की ज्योतियाँ हैं, जिन्हें समान द्वारा रस मिलता है। (प्र.उप.3.5) प्रश्न :——अपान, प्राण और समान के अतिरिक्त और कौन-से प्राण हैं तथा उनका क्या कार्य है ? उत्तर :—–आत्मा का निवास हृदय में है। इस हृदय के साथ मुख्य-मुख्य 101 नाडियाँ हैं। इनमें से एक-एक से सौ-सौ शाखाएँ फूटी हैं। उन शाखाओं में से भी एक-एक बहत्तर-बहत्तर हजार प्रतिशाखाएँ फूटी हैं। हृदय से लेकर इस सम्पूर्ण “रक्त-संचारिणी-संस्थान” (Circulatory System) में व्यान=वि+आन–विचरता हैः–(कठोप.6.16), छान्दो.–8.6, बृहदा.-2.1.19, 4.2.3, 4.3.20 और 4.4.2)”हृदि ह्येष आत्मा।—–व्यानश्चरति।।”(प्र.उप.3.6)हृदय से एक नाडी (Carotid Artery) ऊर्ध्व-देश को, मस्तिष्क को जाती है। उसमें उदान उद् आन–ऊपर या नीचे की तरफ जीवन रहता है। “पुण्य-लोक” में ले जाता है, पाप-कर्म करने से आत्मा को उदान “पाप-लोक” में ले जाता है, दोनों प्रकार के कर्म करने से आत्मा को “मनुष्य-लोक” में ले जाता है। (विशेष द्रष्टव्य—तै.उप. 1.6), ऐतरेय—1.3.12)प्र.उप.3.7 क्रमशः——कृपया जानकारियों से भरपूर इन तीनों पृष्ठों को लाइक करेंः—वैदिक संस्कृत
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17. अभी अभी गलती से सोनी टीवी पर एक बाबा जी को देख लिया बोलते हुए… कह रहे थे, कि शिष्य बनाना पाप है, कौन गुरु है, कौन शिष्य है ? जब एको ब्रह्म द्वितियो नास्ति, तो सब ब्रह्म है, फिर कौन गुरु और कौन शिष्य ? शिष्य बना कर आप दुसरे को छोटा कर देते हो, इसलिए शिष्य बनाना पाप है …….. मुझे तुरंत चेनल हटाना पड़ा… और कुछ लाइन याद आ गई
जा का गुरु है आंधरा, चेला निरा निरंध,
अंधे अँधा ठेलिया, दोनों कूप पडंत ||
18. प्रत्यक्षे च प्रियं वक्ति परोक्षे परुषाणि च,
अन्यादधृदि वचस्यन्यत्करोत्य न्य्त्सदैव यः |
गुरूणां शपथं कर्ता द्वेष्टा ब्राह्मणनिन्दकः
मिथ्या विनीतः पापात्मा स तु स्याद्ब्रह्मघातकः ||
— ब्रह्म पुराण
अर्थ – जो सामने प्रिय बोलता, परोक्ष में कटुवचन कहता, मन में दूसरी बात सोचता, मन में दूसरी बात सोचता, वाणी से दूसरी बात कहता और क्रियारूप में सदा दूसरा ही कार्य करता है, जो गुरुजनो की शपथ खता, द्वेष रखता, ब्राहमणों की निंदा करता और झूठ मूठ की विनय दिखाता वह पापात्मा ब्रह्म हत्यारा है | जो द्वेषवश देवता, वेद, अध्यात्म शास्त्र, धर्म और ब्राहमण के संग की निंदा करता है, वह ब्रहमघाती है |
19. काशी के लोगों का जो बिना मांगे भी उद्धार करते हैं,
ऐसे श्री भैरव नाथ जी को मैं नमस्कार करता हूँ,जिन की कृपा से इह लोक और पर लोक दोनों सुधर जाते हैं,
ऐसे श्री भैरव नाथ जी को मैं नमस्कार करता हूँ,जिनकी कुपित दृष्टी से काल को भी कहीं सरक्षण प्राप्त नहीं होता,
ऐसे भगवान् श्री भैरवनाथ जी को मैं नमस्कार करता हूँ,जिनकी दृष्टी मात्र से सभी पाप जल कर भस्म हो जाते हैं,
मेरे इस जन्म के संचित पाप और पिछले जन्मो के पापको का शोधन कीजिये,मेरे अन्दर के पाप समूह को भस्म कीजिये, भस्म कीजिये,
मुझमें पुण्य और सत्कर्मो का प्रादुर्भाव कीजिये,जिनका सिर्फ नाम लेने मात्र से सभी पाप कर्मो का शोधन हो जाता है,
ऐसे श्री भैरव नाथ जी को मैं नमस्कार करता हूँ |
२०. वञ्च्कत्वं नृशन्सत्वं चञ्चलत्वं कुशीलता |
इति स्वाभाविकं यासां ताः कथं सुखहेतवः ||
कालेन को न निहतः कोअर्थी गौरवमागतः |
श्रिया न भ्रामितः को वा योषिद्धिः को न खण्डितः ||
अर्थ – वंचना, क्रूरता, चंचलता और दुश्चरित्रता – ये जिन स्त्रियों के स्वाभाविक दुर्गुण हैं, वे सुखदायिनी कैसे हो सकती हैं ? काल ने किसको नहीं मारा | याचक होने पर किसको गौरव प्राप्त हुआ है | धन संपत्ति से किसका मन भ्रांत नहीं हुआ और युवती स्त्रियों ने किसको धोखा नहीं दिया |अंतर्ध्यान – किसी भी श्लोक का अर्थ करने में उसके सन्दर्भ का अवश्य ज्ञान होना चाहिए | ये श्लोक तब का है जब पुरूरवा अपनी तपस्या छोड़ का उर्वशी में आसक्त हो गए थे और बाद में जब उनकी तपस्या का लोप हो गया और उन्हें बहुत दुःख और पश्चाताप हो रहा था तब उनके पुरोहित ने उन्हें समझाया |इस श्लोक में अतिश्योक्ति हो सकती है | किन्तु जो इसमें बातें कही गयी हैं वह गलत प्रतीत नहीं होती | याचक के बारे में पिछली पोस्ट में बता चूका हूँ, यह भी सत्य है कि काल ने किसी को नहीं बख्शा | चाहे कोई भी योनी हो और जो स्त्रियों के बारे में कहा गया है उसमें भी पहले दुर्गुणों की बात कही गई है | इसे अन्यथा या स्त्रीविरोधी लेने की आवश्यकता नहीं है | जैसे पुरुषों के बारे में बहुत से दुर्गुण बताये गए हैं जैसे मद्यपान, द्यूत आदि आदि, शास्त्रों में ऐसे ही स्त्री के बारे में भी दुर्गुण और सगुन बताये गए हैं | क्योंकि यहाँ पुरोहित सात्वना दे रहे हैं इसलिए उन्होंने केवल दुर्गुणी स्त्री की चर्चा की है | इसमें बताया गया है कि बहुत से स्त्रियों में कुछ गुण होते हैं, कुछ दुर्गुण होते हैं |
गुण कौन कौन से हैं, ये आने वाले श्लोकों में हमें ज्ञात होगा, यहाँ दुर्गुणों की बात करते हैं |दुश्चरित्र तो सभी जानते हैं, जिसका चरित्र मलिन हो…. चंचलता, जिसका चित्त एक जगह नहीं रहता हो… कभी इसकी इच्छा, कभी उसकी कामना… प्रायः बहुत लम्बी लिस्ट होती है, जिन्हें आजकल के पुरुष पूरा करने के लिए दिन रात लगे रहते हैं | जिसे कभी एक चीज में सुख नहीं मिलता, वही स्त्री चंचल है | क्रूरता, क्रूरता भी आप देख सकते हैं, कई स्त्रियाँ होती हैं जिनके लिए अपने पति, अपनी सम्बन्धियों की भावनाए कोई मायने नहीं रखती | वह उनसे किसी भी तरह अपनी बात मनवाती हैं चाहे इसके लिए कुछ भी करना पड़े | शास्त्रों में ऐसी स्त्रियों को भेद करके चंडी नाम दिया गया है | बंटवारा करना है घर का, अब चाहे कुछ करना पड़े | चाहे पति स्वयं नहीं चाहता, चाहे घर में कोई नहीं चाहता, पर मुझे तो करना है |
वंचना (ठगना), ऐसी स्त्रियाँ भी होती हैं, जो किसी भी प्रकार से अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए अलग अलग कार्यों से अपनी बात मनवाती हैं पर ये क्रूरता से नहीं, बल्कि धीरे धीरे करती हैं, जैसे पति को अपनी मा के बारे में भड़काना, अपने भाइयों के बारे में भड़काना…. इसके पीछे उसके खुद के प्रयोजन होते हैं | ऐसी स्त्रियों को ही ठग कहा गया है |आप प्रायः देखेंगे कि लोग अपने जीवन साथी से कितने खुश हैं | आप पूछिए विवाहितों से, आपको पता चल जाएगा | ऐसा क्यों ? क्योंकि आप शादी से पहले हाव, भाव् तो देख सकते हैं लेकिन ये गुण आपको दिखाई दें, आवश्यक नहीं है | ख़ास तौर से, लव मेरिज में | प्यार तो अंधा होता है | दिल आया गधी पर तो पारी क्या चीज है | प्यार में आपको केवल अच्छी अच्छी बातें ही दिखती हैं | यहाँ तक की बुरी बातें भी अच्छी ही लगती है उस समय पर | इसीलिए हमारे यहाँ शादी का प्रचलन प्रेम विवाह नहीं रहा | शादी में बड़ों की महती भूमिका रखी गयी क्योंकि बड़े अपने अनुभव से वह देख लेते हैं जो बहुत से युवा नहीं देख पाते | उन्हें गुण और अवगुण दोनों की परख होती है (प्रायः) |
मैं ये नहीं कहता की सारी अरेंज शादियाँ सफल हैं या सारे प्रेम विवाह असफल हैं | लेकिन अगर बहुतायत की बात करें तो प्रेम विवाह प्रायः असफल होते हैं और अरेंज मेरिज सफल | क्योंकि अरेंज में सामजस्य बैठाया जाता है जबकि प्रेम विवाह में पहले आपको सब कुछ अच्छा लगता है किन्तु धीरे धीरे जब आपको शादी के बाद उसके वास्तविक गुण धर्म पता चलते हैं तब आपको चोट लगती है | आपको उम्मीद ही नहीं होती कि जिसको प्रेम किया वह ऐसा भी कर सकता है | खैर… ये इस विषय से भिन्न है इसलिए इसका यहीं पटाक्षेप करते हैं | मुद्दे की बात ये है, कि स्त्रियों में यदि अवगुण हैं तो वह सुखदाई नहीं हो सकती | इसलिए हमें कोशिश करके अवगुणी स्त्रियों से दूर ही रहना चाहिए | वह हमेशा नाश का मार्ग होती हैं | (अवगुणी स्त्रियाँ….गुणी स्त्रियाँ हमेश पुण्य के संचय में महासहायक होती है और बिना गुणी स्त्री के कुछ कर पाना भी असंभव है )
२१. त एव धन्या लोकेस्मिन येषामतिथयो गृहात |
पूर्णाभिलाषा निर्यान्ति जीवन्तोअपि मृताः परे ||
भोजने तूपविष्टे तु आत्मार्थं कल्पितं तु यत् |
अतिथिभ्यस्तु यो दद्याद्दत्ता तेन वसुन्धरा ||
अर्थ – इस संसार में वे ही धन्य हैं जिनके घर से अतिथि अपनी अभिलाषा पूर्ण करके निकलते हैं | जो अतिथि सत्कार नहीं करते, वे जीते हुए भी मृतक के सामान है | जो भोजन के लिए बैठकर भी अपने लिए बने हुए अन्न को अतिथि को दे देता है, उसने मानो पृथ्वी का दान कर दिया है |
२२. अतिथिश्चापवादी च द्वावेतौ विश्व्बान्धवो |
अपवादी हरेत्पापमतिथिः स्वर्गसंक्रमः ||
अभ्यागतं पथि श्रान्तं सावज्ञं योऽभिवीक्षते |
तत्क्षणादेव नश्यन्ति तस्य धर्मयशःश्रियः ||
अर्थ – अतिथि और निंदक – ये दोनों विश्व के बंधु हैं | निंदक तो पाप हर लेता है और अतिथि स्वर्ग की सीढ़ी बन जाता है | जो मार्ग से थक कर आये हुए अतिथि को अवहेलनापूर्वक देखता है, उसके धर्म, यश और लक्ष्मी का तत्काल नाश हो जाता है |
२३. सत्य क्या है ?
तथ्यों के आधार पर सत्य की पुष्टि होती है, ये जरूरी नहीं की जो हमें लगे, चाहे कैसे भी, देख कर, सुन कर, कैसे भी वो सत्य हो | हाँ, वो तथ्य हो सकते हैं | अब इसे विस्तार सा समझते हैं | लोग कहते हैं, अजी, मैंने अपनी आखों से देखा था, यही सच है… लोग कहते है, अजी मैंने अपने कानो से सुना था, यही सच है….. पर अब समझने वाली बात है… कि जो हो हम आँखों से देख रहे हैं, जो हम कानो से सुन रहे हैं, वो कौन देख रहा है और कौन सुन रहा है ? आँख तो केवल एक केमरा है, फोटो खींचती है ये, वो फोटो किसकी है, ये आँख को नहीं पता…. वो जो अन्दर बैठा है वो देखता है… ये आँखें उसकी हैं…. क्योंकि जब वो चला जाता है, तो आँखें तो होती हैं, पर देखती नहीं हैं… कान होते हैं पर सुनते नहीं हैं…. यानी ये सारी इन्द्रियां उस क्षेत्रज्ञ की है |ये जो इनपुट हमें मिले, आँख से, कान से या और इन्द्रियों से ये सब इनपुट हैं या कहें फैक्ट्स हैं | ये सारे फैक्ट्स कलेक्ट हो कर बुद्धि के पास जाते हैं और बुद्धि फिर जज करति है कि सत्य क्या है |
पर बुद्धि सही जज करे ये कोई जरूरी नहीं | कौर्ट होती है, कौर्ट में आपने देखा होगा, वकील अपनी अपनी दलील देते हैं, गवाह बताता है कि साब मैंने इसके हाथ में छुरा देखा था, इसके शरीर पर खून था.. खून इसी ने किया है | पर जज उन सारे फैक्ट्स को कलेक्ट करके फिर अपना जजमेंट देता है | ऐसे ही सत्य इन्हीं इनपुट और फैक्ट्स पर आधारित होता है |जिसकी बुद्धि जैसी होगी, वो वैसा ही सत्य उसमें से निकालेगी… यदि बुद्धि शुद्ध है, बुद्धा है तो आप सत्य को प्राप्त कर सकते हैं उन फैक्ट्स के आधार पर, वर्ना बहुत से लोग किसी बात का कुछ भी मतलब निकाल लेते हैं | हमारे यहाँ सत्य के बारे में कहा गया है -सत्यम ब्रूयात, प्रियं ब्रूयात, न ब्रूयात सत्यमप्रियम, प्रियं च नानृतं न ब्रूयात |सत्य बोलेन, प्रिय बोलेन… .लोग कहते हैं सच तो कडवा होता है साब !!! सच कडवा नहीं होता… कडवे होते हैं उसमें डाले गए भाव जो बोलने वाला डालता है… सच तो न मीठा होता है न कडवा होता है | और फिर कहते हैं, न ब्रूयात सत्यमअप्रियम …. जो अप्रिय सत्य है उसे न बोले | और उसके बाद आते हैं मतलब की बात पर…. प्रियं च नानृतम ब्रूयात…. प्रिय हो पर जो ऋत (अल्टीमेट ट्रुथ ) न हो, वह भी नहीं बोलना चाहिए…. यानी आप जो बात कह रहे हैं, वो पूर्णतः प्रामाणिक होनी चाहिए (न्याय शास्त्र में ४ तरह के प्रमाण बताये गए हैं, प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द) यानी फैक्ट्स आपके प्रॉपर होने चाहिए और आपको जो बोलना चाहिए उन कन्फर्म फैक्ट्स के ऊपर बोलना चाहिए..|
अब इसका पटाक्षेप करते हैं – तथ्यों की कलेक्टिव इनफार्मेशन मिला कर आप सत्य के पास पहुच सकते हैं यदि आपमें भेद बुद्धि नहीं है | तथ्य सत्य तक पहुचने का एक रास्ता है |
ॐ श्री गुरवे नमः | ॐ श्री बटुक भैरवाय नमः | ॐ श्री पितृ चरणकमलेभ्यो नमः |
२४. क्रोधस्तु प्रथमं शत्रुर्निष्फलो देह्नाशनः,
ज्ञानखड्गेन तं छित्वा परमं सुखमाप्नुयात |
तृष्णा बहुविधा माया बन्धनी पापकारिणी,
छित्वेतां ज्ञानखड्गेन सुखं तिष्ठति मानवः ||
— ब्रह्म पुराण
अर्थ – मनुष्य का पहला शत्रु है क्रोध | उसका फल तो कुछ भी नहीं है, उलटे वह शरीर का नाश करता है, अतः ज्ञान रुपी खड्ग से उसका नाश करके परम आनंद को प्राप्त करे | नाना प्रकार की तृष्णा बंधन में डालने वाली माया है, वह पाप कराती है; अतः ज्ञान रुपी खड्ग से उसका नाश कर देने पर मनुष्य सुख से रहता है |अंतर्ध्यान – ज्ञान से अज्ञान को काटना है | पर कैसे ? बहुत से पंडित, बाबा, महात्मा बताते हैं कि लोभ छोड़ो, माया छोड़ो, स्त्री छोड़ो…. ये छोड़ो, वो छोड़ो…. ज्ञान मिल जायेगा | कैसे मिल जायेगा ? अरे साब, स्त्री के पास रहना पाप होता तो कृष्ण जी के पास तो हजारों पत्नियाँ थी, जिसमें एक दो नहीं ८-८ पटरानियाँ थी | माया छोड़ो !!! अरे, जब भगवान् राम स्वयं माया के वशीभूत हो कर सीता जी को जंगल छुडवा दिए रहे तो हम और आप माया कैसे छोड़ सकते हैं ? सीता जी को तोते से श्राप पड़ा ही क्यों ? अगर वो माया के वशीभूत नहीं थी ? जब वो नहीं छोड़ पाए तो हम कैसे छोड़ेंगे ?
वास्तव में कुछ नहीं छोड़ना… !इसको और आसान करके देखते हैं | उपरोक्त श्लोक में अज्ञान एक खराब चीज है, इसे थोड़ी देर के लिए वायरस मान लेते हैं और ज्ञान एक अच्छी चीज है जो अज्ञान का नाश करता है सो इसे थोड़ी देर के लिए एंटीवायरस मान लेते हैं | और ये दोनों कहाँ रहते हैं ? हमारे शरीर में, सो इसे थोड़ी देर के लिए सिस्टम मान लेते हैं | सिस्टम में सारी प्रोग्रामिंग कहाँ होती है ? माइक्रोप्रोसेसर में, सो चित्त हमारा माइक्रोप्रोसेसर है | अब ये वायरस आते कहाँ से हैं ? ये वायरस हमें बचपन से दिए जाते हैं | जैसे ये मेरा है, ये तेरा है; ये अपना है, ये पराया है; ये अच्छा है ये बुरा है; ये पाप है, ये पुण्य है; ये सही है, ये गलत है; ये सुख है और ये दुःख है; ये सब क्या है ? ये सब भेद बुद्धि है; ये सब ही वायरस है जो हमें सिखाये गए हैं, हममें डाले गए हैं | आदमी जो कुछ सोचता है और जो कुछ करता है इन सब चीजो को ध्यान में रख कर ही करता है, यानी हमारी सोच और हमारे कार्य इन सब बातों से प्रभावित होते हैं और यही एक वायरस का काम है | जो भी प्रोसेसिंग हो, उसे एफेक्ट करना | जब कंप्यूटर में वायरस ज्यादा हो जाते हैं तो क्या करते हैं ? कंप्यूटर को फॉर्मेट कर देते हैं | मार दीजिये अपने सिस्टम को फॉर्मेट | कंप्यूटर को फॉर्मेट करते हैं तो क्या होता है ? सब खाली हो जाता है और उसके सारे वायरस भी ख़त्म हो जाते हैं, आपके भी वायरस ख़त्म हो जायेंगे, भेद बुद्धि ख़त्म हो जाएगी क्योंकि आप जिन चित्त के विकारों से भेद कर रहे थे वो सारे प्रोग्राम तो आपने फॉर्मेट कर दिए |
तब क्या होगा ? फॉर्मेट के बाद कंप्यूटर में क्या बचता है ? स्पेस !!! खाली स्पेस आपके सिस्टम में भी एक स्पेस क्रिएट होगा | अब आप उस स्पेस में कुछ भी भर सकते हैं | आप अपनी प्रोग्रामिंग खुद कर सकते हैं | हटा दीजिये सारे भेद जो आप जानते थे | जो प्रोग्राम आपमें डाले गए थे; ये सुन्दर है, ये असुंदर है, ये अच्छा है, ये बुरा है | सब हटा दीजिये | जैसे कंप्यूटर फॉर्मेट होने के बाद क्लीन हो जाता है वैसे ही आपकी बुद्धि भी शुद्ध हो जाएगी | बुद्धि शुद्ध होगी तो क्या होगा ? सारे भेद समाप्त हो जायेंगे |कीजिये अपनी प्रोग्रामिंग, मिटा दीजिये सारी भेद बुद्धि को | न कुछ अच्छा है, न कुछ बुरा है, न कोई अपना है, न कोई पराया है, न कुछ सही है और न कुछ गलत है, न कुछ पाप है और न कुछ पुण्य है, न कहीं सुख है और न कहीं दुख है | फिर क्या डालना है ? फिर डालना है सही प्रोग्राम, खुद कीजिए अपनी प्रोग्रामिंग | सब मेरे हैं, कोई पराया नहीं है | जब सब मेरे हैं तो मेरा भाई भी मेरा है, मेरा पडोसी भी मेरा भाई है, मेरा सहपाठी भी मेरा भाई है, सारे हमउम्र, सारे छोटे बड़े, सब मेरे भाई हैं, कोई पराया नहीं है क्योंकि अपने परायेपन की प्रोग्रामिंग तो आपने डिलीट कर दी, अब तो सब अपने हैं | ये मेरे पिता जी हैं और पड़ोस के अंकल भी मेरे पिता सामान ही हैं | मेरी बेटी भी मेरी है और मेरे पड़ोस में रहने वाली लड़की भी मेरी बेटी जैसी ही है | कौन पराया है फिर ? नेता लोग, अक्सर अपने स्टेज से कहते हैं – भाइयों और बहनों !!! क्यों ? क्योंकि वो दिखाना चाहते हैं कि वो कोई भेद नहीं करते पर ऐसा है क्या ? क्या कोई अपने भाई के लिए ऐसी पालिसी बनाता है, जिस से खुद के भाई बहनों का नुकसान हो, या कष्ट हो | वो सिर्फ दिखाते हैं, मानते नहीं है |
पर जो मानता है कि इस दुनिया में जो भी है, वो अपना है, मेरा है उसके लिए ही कहा गया है – “वसुधैव कुटुम्बकम”वसुधैव कुटुम्बकम उसी के लिए है जिसकी भेद बुद्धि नष्ट हो चुकी है | जो सेल्फ प्रोग्रामर है, जो खुद पर कण्ट्रोल कर लेता है |ऐसे ही कुछ भी मेरा नहीं है और कुछ भी पराया नहीं है | अरे ! जब सब अपने ही भाई बंधू हैं तो क्या मेरा और क्या तेरा ? जब तुझे जरूरत पड़ेगी, मेरे से ले और जब मुझे जरूरत पड़ेगी मैं तेरे से ले लूँगा | कहते तो हैं – इयं मम परोवेति, गणना लघुचेतसाम | सब कुछ तो हम जानते हैं | पर मानते नहीं हैं | सो अपनी प्रोग्रामिंग खुद कीजिये | ऐसे ही जितनी भी और भेद बुद्धि है, उस सब को हटा कर केवल एक चीज रखिये | जैसे न कहीं सुख है और न कहीं दुःख है – सब जगह एक ही चीज है, आनंद | सुख में भी आनंद लीजिये और दुःख में भी आनंद लीजिये | कुछ समय बाद आपको लगेगा कि साला, हम कितना फालतू की बातों पर रोता था…. और अपने आप, दुःख और सुख से परे, आनंद की स्टेट में पहुच जायेंगे (विस्तारभय से इसे यहीं छोड़ता हूँ )
अहम् ब्रह्मास्मि ! जो अपनी प्रोग्रामिंग खुद करेगा, जो सबको ब्रह्म का स्वरुप मानेगा, जो स्वयं ब्रह्म की भांति चित्त के विकारों से दूर होगा, वही ब्रह्म है | आप भी ब्रहम हैं और मैं भी ब्रह्म हूँ | हम सब ईश्वर स्वरूप हैं और विकारों से मुक्त होने के लिए ही बने हैं | कीजिये खुद को अपने चित्त के विकारों से दूर….. कीजिये खुद की सेल्फ प्रोग्रामिंग……. काटिए अपने अज्ञान को अपने ज्ञान से …… स्वयं को जानिये …… |
२५. देहीति वचनद्वारा देहस्थाः पञ्च देवताः |
सद्यो निर्गत्य गछन्ति धीश्री ह्रीशान्तिकीर्तयः ||
तावद गुणा गुरुत्वं च यावन्नार्थयते परम |
अर्थी चेत पुरुषो जातः क्व गुणाः क्व च गौरवम ||
—- ब्रह्म पुराण (१०-१३)
अर्थ – ‘मुझे कुछ दीजिये’ यह वाक्य मुंह से निकालते ही बुद्धि, श्री, लज्जा, शान्ति और कीर्ति – ये शरीर के पांच देवता तुरंत निकल कर चल देते हैं | गुण और गौरव तभी तक टिके रहते हैं, जब तक मनुष्य दूसरों के सामने हाथ नहीं फैलाता | जब पुरुष याचक बन गया, तब कहाँ गुण और कहाँ गौरव | जीव तभी तक सबसे उत्तम, समस्त गुणों का भण्डार और सब लोगों में वन्दनीय रहता है, जब तक वह दुसरे से याचना नहीं करता | प्राणियों के लिए निर्धनता सबसे बड़ा कष्ट और पाप है, क्योंकि निर्धन मनुष्य को न तो कोई आदर देता, न उससे कोई बात करता और न ही उसका स्पर्श ही करता है |अंतर्ध्यान – इसी बात के लिए कबीर जी कहते हैं – “मांगन मरण सामान है !” यानी किसी से कुछ माँगना, मृत्यु के सामान है, ऐसा है जैसे जीते जी मर गए | कितनी बड़ी तुलना की है याचना की | लेकिन आज के समय में, क्या ऐसा होता है ? नहीं होता है…. | लोग भीख मांगते हैं और आजीवन मांगते रहते हैं और तिरस्कृत रहते हैं | कई बार सुना होगा, कि फलांने भिखारी के पास लाखों रुपया निकला लेकिन किया क्या ? क्या उसने उस लक्ष्मी को भोग… नहीं | सदैव परजीवी बना रहा | भीख मांगना अपराध है | आज से ७०-८० साल पहले लोग भीख नहीं मांगते थे | अंग्रेजो के समय में भीख नहीं मांगी जाती थी | क्योंकि अंग्रेज कुछ देते ही नहीं थे और भारतियों के पास देने लायक कुछ होता नहीं था | आज भी आप नोट कीजियेगा, पंजाबी सरदार आपको कहीं भी भीख मांगता हुआ नहीं मिलेगा | चाहे कितना भी गरीब हो | जो भीख मांगते हैं, वो जीवन भर दूसरों पर आश्रित रहने के कारण सदैव मृत्युतुल्य कष्ट पाते हैं |एक बात और है | माँगना और मांग के लौटाना, ये भी कोई सार्थक चीज नहीं है | क्योंकि यह भी एक प्रकार की याचना ही है | आप देखेंगे कि यदि आप में रीढ़ की हड्डी है और आप किसी से कुछ याचना करते हैं, कि जब मेरे पास होगा तब लौटा दूंगा तो आप दिन रात इसी उधेड़बन में रहते हैं, कि कैसे करके ये कर्जा पाट दूं | रातों की नींद चली जाती है, मुस्कराहट भी गायब हो जाती है और जीवन में से प्रसन्नता भी विदा ले लेती है | होता क्या है, कि एक तो आप अपनी आवश्यकता के लिए मांग रहे हैं (आपके पास अपने दैनिक जीवन यापन के लिए भी पर्याप्त साधन नहीं है) और जो लिया है उसे लौटाने के प्रयास करते हैं वहां तक तो ठीक है लेकिन जहाँ आप उस के अलावा किसी भी चीज के लिए याचना करते हैं (यदि आप के पास दैनिक जीवन यापन के लिए समुचित साधन हैं पर किसी और कार्य की पूर्ती हेतु आप याचना करते हैं ) तो आप उपरोक्त लक्षणों को अवश्य ही महसूस करेंगे |आज के समय में बैंको ने, क्रेडिट कार्ड कंपनियों ने हम सभी को ऐसा ही बना दिया है | हम सभी याचक हैं और मानसिक कष्ट भोगते हैं | बैंक कहती हैं कि लीजिये लोन और फिर चुकाइए | क्रेडिट कार्ड वाले कहते हैं कीजिये खर्चा और फिर चुकाइए | और आप सभी ने कभी न कभी देखा होगा कि इन दोनों का ही मानसिक शांति से कितना गहरा नाता है | ये भी तो याचना ही है |कबीर जी दूसरी जगह कहते हैं –
उदर समाता मांगि ले, ताको नहीं दोष।
कहैं कबीर अधिक गहैं, ताको गति न मोष।।यदि कोई व्यक्ति अपनी आवश्यकता को पूर्ण करने हेतु, भरण पोषण के हेतु याचना करता है और बाद में लौटाने का प्रयास करता है तो वहां तक ही उचित है | अन्य किसी भी प्रकार की याचना केवल मानसिक संत्रास का कारण ही बनती है | इसे एक लाइन में ऐसे कहा जा सकता है कि सुखी वही हो सकता है जिस पर किसी की देनदारी नहीं है |
२६. लोकानामुपकारार्थमाकृतित्रितियम भवेत्,
यस्तत्वं वेत्ति परमं स च विद्वान्न चेत्तरः |
तत्र यो भेदमाचष्टे लिङ्ग्भेदि स च उच्यते,
प्रायश्चितं न तस्यास्ति यश्चैषां व्याहरेद भिदाम ||
— ब्रह्म पुराण
अर्थात – गुणों की व्यापकता के अनुसार मूर्त के भी तीन भेद हैं – ब्रह्मा, विष्णु और शिव | ये एक होते हुए भी तीन कहलाते हैं | इन तीनो देवताओं का वेद्यतत्व भी एक ही है |उसे ही परमब्रह्म कहते हैं | गुण और कर्म के भेद से एक की ही अनेक रूपों में अभिव्यक्ति होती है | लोकों का उपकार करने के लिए एक ही ब्रह्म के तीन रूप हो जाते हैं | जो इस परमतत्व को जानता है, वही विद्वान् है, दूसरा नहीं | जो इन तीनो में भेद बतलाता है, उसे लिंगभेदी कहते हैं | उसके लिए कोई प्रायश्चित्त नहीं है |अंतर्ध्यान – कई लोग कहते हैं, जितना पढो उतना दिमाग खराब होता है | शिव ग्रन्थ पढो तो वो लिखते हैं शिव जी सबसे बड़े भगवान् हैं, विष्णु पुराण पढो तो वो कहता है सबसे बड़े भगवान् विष्णु जी ही हैं केवल उनकी पूजा करो और ब्रह्म पुराण पढो तो वो कहता है कि ये ही हैं जो कुछ हैं | जबकि ऐसा नहीं है | जो लोग ऐसी बातें करते हैं उनसे कभी पूछियेगा कि कभी वाकई में कुछ पढ़ा है या केवल पुराणों के नाम से ही अंदाजा लगा रहे हैं | किसी पुराण में ऐसा कुछ नहीं लिखा है | सबमे एक ही बात है बशर्ते उनको पढो तो | समस्या ये है कि लोग पढ़ते नहीं हैं, बस बिना पढ़े भ्रम पालते हैं | अच्छा, मजेदार बात क्या है…. जिन्होंने नहीं पढ़े हैं वो पण्डे/संत/बाबा जी बन गए हैं… दुनिया को बता रहे हैं.. इस भगवान् की पूजा करो, जे ही उद्धार करेंगे, इनसे बड़ा भगवान् कोई नहीं है और तुम्हे दो चार कहानियां भी सुना डालेंगे…. अरे शंकर जी तो खुद राम चन्द्र जी के भक्त हैं… वो तो केवल राम चन्द्र जी का ही ध्यान करते हैं …. केवल राम भजो….अरे ! कृष्ण जी जैसा तो कोई भक्तवत्सल ही नहीं है…. विष्णु जी ही मोक्ष दिला सकते हैं, वही सबसे बड़े भगवान् हैं |सारी लड़ाई मानने वालो में हैं, भगवानो में कोई लड़ाई नहीं होती | कौन किस से बड़ा है | अरे ! किसी को भी मानो, मानो तो सही पहले | कोई किसी से बड़ा छोटा नहीं है, सब एक ही है | प्रकाश की किरण तो एक ही है, उसके सात भाग तो हमने उनके गुणों के आधार पर कर लिए हैं | इसकी फ्रीक्वेंसी इतनी है इसलिए ये लाल, इसकी फ्रीक्वेंसी इतनी है, इसलिए ये पीला | पर है तो सब प्रकाश ही न ! रौशनी ही न ! बस उनके गुण धर्म बदल गए हैं | ऐसी ही परमब्रह्म एक ही है | उसके गुणों के आधार पर (संसार में हर चीज त्रिगुणात्मकः प्रकृतिः के आधार पर तीन प्रकार की होती है ) संसार की हर चीज या तो रजोगुणी होगी, या तमोगुनी होगी या सतोगुणी होगी | अगर भगवान् को इस संसार में आना है तो उसे भी तीन गुणों के आधार पर तीन प्रकार का होना पड़ेगा | फिर उसे ही हम अपनी भेद बुद्धि से अलग अलग नामों से पहचानते हैं | लेकिन है सब एक ही | अलग अलग कुछ नहीं है | हमने उनको अलग अलग नाम दे दिए हैं वस्तुतः हम पूजा तो परमब्रह्म कि ही कर रहे हैं | इसलिए इसमें हमें भेद बुद्धि नहीं लगानी चाहिए और सबको एक ही मान कर जिस भगवान् की पूजा करनी हो, जो हमें सबसे अच्छा लगता हो उसकी पूजा करनी चाहिए | जैसे प्रकाश का रंग कोई भी हो, है वो प्रकाश ही | जैसे आप प्रकाश को सात रंगों में बाँट लो, फिर उन सात रंगों के कॉन्ट्रास्ट घटा बढ़ा कर और उनसे लाखों रंग (देवी देवता ) बना लो | अब किसी भी देवता कि पूजा करो, पूजा तो वस्तुतः परमब्रह्म कि ही है….! इसलिए इन्हें अलग अलग न मान कर एक ही मानना चाहिए |27. सूर्य सिद्धांत के अनुसार ग्रहों की आठ प्रकार की गतियाँ होती हैं, जैसे वक्री, मार्गी, मंद, अतिमंद, शीघ्र आदि जिन्हें यदि पृथ्वी को अचला माना जाए तो उनको सिद्ध नहीं किया जा सकता है और अनुवादक ने इसमें अपनी असमर्थता दिखाई है | मुझे लगता है अनुवादक ने इसे केवल खगोल तक रखा है, जबकि यदि इसको फलित ज्योतिष से जोड़ें तो कुछ नए तथ्य सामने आ सकते हैं | क्योंकि अनुवादक ने जैसे इन्हें सिद्ध किया है वह पाश्चात्य ज्योतिष के हिसाब से तो ठीक है किन्तु भारतीय फलित ज्योतिष से मेल नहीं खायेगा | क्योंकि फलित में ग्रहों की वक्री गति, मार्गी गति आदि का बड़ा महत्त्व है |इस से भी मजेदार ये है कि जिस तरह से इन्हें पाश्चात्य ज्योतिष सिद्ध करता है उसके अनुसार ये सारी गतियाँ आभासीय हैं, वास्तविक नहीं है ख़ास तौर से वक्री गति | पृथ्वी पर खड़े किसी मनुष्य को आभास होगा कि गति वक्रीय है जबकि वह ग्रह अपनी कक्षा में सीधा ही घूम रहा है |सोचने वाली बात ये है, कि यदि ग्रह अपनी कक्षा में सीधा ही घूम रहा है तो फलित ज्योतिष में वक्रीय (जो कि आभासी गति है, वास्तविक नहीं) ग्रह का फल अलग क्यों होता ? और यदि हमारे ऋषियों को ये पता था कि गति आठ प्रकार की होती है और उसके बाद भी वो पृथ्वी को अचला कह रहे हैं तो इसका मतलब है कि उन्होंने उसकी व्युत्पत्ति पृथ्वी को अचला मान कर ही की थी जबकि अनुवादक ने हथियार डाल दिए हैं |अब ढूंढता हूँ, किसी फलित ज्योतिष के ज्ञाता को, जो मेरी तरह उलटी खोपड़ी का हो | अरे ! कोई है क्या……!!!२८. विजय और लक्ष्मी की अपेक्षा कीर्ति ही श्रेष्ठ है |
….. ब्रह्म पुराणअंतर्ध्यान – विजय और लक्ष्मी निश्चय ही श्रेष्ठ हैं किन्तु यदि उनकी तुलना कीर्ति से हो तो कीर्ति ही अधिक श्रेष्ठ है | आपकी विजय और आपकी लक्ष्मी आपके जाने के बाद व्यर्थ सी ही हो जाती है किन्तु कीर्ति आपके जाने के बाद भी बनी रहती है | कीर्ति इस संसार में सभी को प्राप्त नहीं होती | बड़े विरले ही होते हैं जिन्हें कीर्ति और प्रसिद्धि प्राप्त होती है | आज के सन्दर्भ में यदि इसे देखें तो कहेंगे कि मुकेश अम्बानी को तो हर कोई जानता है, उसकी भी तो प्रसिद्धि है….ऐसा नहीं है | कीर्ति सदैव सद्गुणों से आती है | आपकी कीर्ति कभी धन सम्पदा की मोहताज नहीं हो सकती |रावण की कीर्ति थी जब तक वो शिव भक्त था, उसने शिव तांडव जैसी अद्भुत रचना की थी, किन्तु जब उसने अधर्म किया तो वही कीर्ति दंभ के अंतर में आते ही लुप्त हो गयी | तुलसीदास, कबीर और भी बहुत लोग आज भी याद किये जाते हैं, लोग उन से सीखते हैं ये है असल कीर्ति | भगत सिंह जीते नहीं थे, किन्तु उनकी कीर्ति, उनका नाम आज भी जीवित है | कीर्ति होती है आपके सत्कर्मों से |देखिये अपनी चारो ओर, आपको कितने लोग आपके नाम से जानते हैं, कितने लोग आपके धन वैभव के कारण जानते हैं और कितने लोग आपको आपके ओहदे से जानते हैं | इन सबको एक तरफ रख दीजिये, और अब सोचिये कि कितने लोग आपको आपके सत्कर्मों की वजह से जानते हैं ? आपको आपकी कीर्ति का अंदाजा हो जायेगा | यदि आपके पास धन, वैभव और ओहदा ना रहे तो आपको कौन जानेगा ? कीर्ति आपकी नहीं है, आपको लोग आपकी वजह से नहीं जानते, वो आपके पद, लक्ष्मी की वजह से आपको जानते हैं जब ये चले जायेंगे तो आपको कोई नहीं जानेगा, आपको कोई नहीं पूछेगा |कीर्ति मुकेश अम्बानी के नाम में नहीं अपितु उनके पिता धीरू भाई अम्बानी के नाम में है, कीर्ति गाँधी जी के नाम में है, कीर्ति मदर टेरेसा के नाम में है | आप जितना धन वैभव कमा रहे हैं, आप जितने लोगों पर दंभ से अभिभूत होकर अधिकार जमा रहे हैं, अपनी विजय मान रहे हैं, वह किस काम की है | कीर्ति को पाने का प्रयास नहीं करना पड़ता, बाकी विजय और लक्ष्मी के लिए सदैव प्रयास रत रहना पड़ता है | कीर्ति तो आपके पीछे आपकी दासी बनी घूमती है, बस अपने कर्मो को देखिये, कि हमारे कर्म कैसे हैं ?कीर्ति जब आपकी फैलती है तो आप रोल मॉडल बनते हैं, लोग आपसे शिक्षा और प्रेरणा लेते हैं | चाहे गाँधी की बात करो, चाहे कबीर की, चाहे रैदास की बात करो, चाहे भगवान् राम की जिनका मानस पढना ही इसलिए चाहिए ताकि हम भी उन जैसे बन सकें, जो पितृ भक्ति की प्रेरणा हमें उन्होंने दी, जो स्त्री रक्षा की प्रेरणा उन्होंने हमें दी वह हम में भी आये, पर आज कल जगराता करा के और राम चरित मानस का सुबह शाम पाठ करने वाले भी जब अपने बड़ो को घर से निकाल देते हैं तो पता चलता है, राम चरित मानस केवल एक किताब है जब तक आप कुछ उस से ले नहीं रहे हैं | तो जो रोल मॉडल बन कर आप आने वाले लोगो का मार्ग दर्शन करते हैं वही कीर्ति है और उसके लिए केवल अपने कर्मो में सत का सम्पुट निहित कीजिये क्योंकि कीर्ति लक्ष्मी और विजय जो कुछ समय तक आपके साथ रहती है, से अधिक श्रेष्ठ है |२९. सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता
परो ददातीति कुबुद्धिरेषा ।
अहं करोमीति वृथाभिमानः
स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो हि लोकः ॥(जीवन में) सुख-दुःख किसी अन्य के दिये नहीं होते;
कोई दूसरा मुजे सुख-दुःख देता है यह मानना व्यर्थ है । ‘मुजसे होता है’ यह मानना भी मिथ्याभिमान है ।
समस्त जीवन और सृष्टि स्वकर्म के सूत्र में बंधे हुए हैं ।३०. यद्यपि वे पूर्ण तृप्त थे तो भी अधिक देर तक माता के स्तनों का दूध इसलिए पीते रहे कि कहीं बड़े भैया कार्तिकेय भी आकर न पीने लगें | उनकी बुद्धि में बालस्वभाववश भाई के प्रति ईर्ष्या भर गयी थी | यह देखकर भगवान् शंकर ने विनोदवश कहा – ‘विघ्नराज ! तुम बहुत दूध पीते हो, इसलिए लम्बोदर हो जाओ |’ यों कह कर उन्होंने उसका नाम ‘लम्बोदर’ रख दिया |जो एक हाथ में विघ्नपाश और दुसरे हाथ से कंधे पर कुठार लिए रहते हैं तथा पूजा न पाने पर अपनी माता के कार्य में भी विघ्न डाल देते हैं, उन विघ्नराज के सामान दूसरा कौन है |
—- ब्रह्म पुराणअंतर्ध्यान – पहले बच्चो के नाम प्रायः उनके लक्षणों या किसी विशेष घटना के आधार पर रखे जाते थे और जन्म के समय का नाम नक्षत्रों के आधार पर होता था | इसका कई उदाहरण कृष्ण, विष्णु, शिव, गणेश और उसके बाद मनुष्य योनी में मार्तंड, पिप्पलाद आदि आदि हैं किन्तु आज कल के नाम प्रायः ऐसे ही रख दिए जाते हैं, न तो उनमें कोई लक्षण ही निहित होता है और न ही नक्षत्र और कालांतर में नामो के प्रकार और उनके अर्थ भी बहुधा भिन्न होते हैं |जबकि नाम का सम्बन्ध व्यक्ति की आत्मा से होता है | जैसा आप नाम रखते हैं, वैसा ही व्यकतित्व प्रायः आपका होता है | जब दस लोग सो रहे हों और कोई आपको आवाज देकर जगाये तो केवल आप ही जागते हैं, बाकि नौ लोग नहीं जागते हैं, क्योंकि आपके अन्दर आपकी पहचान उस नाम से ही है | नाम का व्यक्ति के जीवन पर बहुत प्रभाव होता है अतः नाम रखते समय हमें इन सब बातों का ख्याल रखना चाहिए |31.द्विज जब तक वेदों का अध्ययन नहीं करता,शूद्र के सामान ही होता है |
— ब्रह्म पुराण३२. पिप्पलाद ने कहा- जो पिता के मित्र और शत्रु होते हैं, उनके साथ पुत्र भी वैसा ही वर्ताव करता है | जो ऐसा करता है, वही पुत्र है | जो इसके विपरीत आचरण करता है,वह पुत्र के रूप में शत्रु माना गया है |वनस्पतियों ने समझाया -जो दूसरों के द्रोह में लगे रहते हैं, जो अपने कल्याण की बातें भूल जाते हैं तथा जो भ्रांतचित्त होकर इधर उधर भटकते हैं, वे नरक के गड्ढे में गिरते हैं |पिप्पलाद ने कुपित होकर बोला – जिसके अंतःकरण में अपमान की आग प्रज्वलित हो रही हो, उसके सामने साधुता की बातें करना व्यर्थ है |(जब पिप्पलाद को पता चला कि देवताओं की वजह से उनके पिता (दधिची) ने अपने प्राण त्याग दिए और उनकी माता ने अग्निप्रवेश कर लिए तब पिप्पलाद ने देवताओं से बदला लेने की ठान ली | वनस्पतियों ने उनको बहुत समझाया पर उन्होंने उपरोक्त बात कह कर देवताओं को दग्ध करने का निश्चय कर लिया | )३३.मुझसे किसी ने कुछ दिनो पहले कहा कि कहां इन पोथी पत्रों के चक्कर में पड़ रहे हो ! जमाना कहाँ से कहाँ पहुँच गया है, साइंस ने कितनी तरक्की कर ली है । इनमें रहोगे तो बहुत पीछे रह जाओगे । मुझे कुछ लोग ऐसा कह देते हैं, कुछ छुपा जाते हैं पर मन में भी कुछ लोग ऐसा रखते हैं ।पर एक बात है जो वो नहीं समझ पाते कि एक तो मैं खुद इंजीनियर हूँ सो विज्ञान को उनसे कुछ कम तो मैं भी नहीं जानता । दूसरी बात ये कि उन्होंने केवल मॉडर्न साइंस ही पढा है जबकि मैंने मॉडर्न साइंस और भारतीय विज्ञान दोनो पढा है तो विज्ञान के बारे में किसे ज्यादा पता होगा, उन्हें या मुझे ! तीसरी बात मैं अभी भी वैज्ञानिकों में ही उठता बैठता हूँ, क्योंकि रिसर्च मशीन ही बेचता हूँ तो अगर कोई वैज्ञानिक कहे कि मेरी विज्ञान के बारे में जानकारी, किसी विषय विशेष पर कम है तो मान भी लू लेकिन हर व्यक्ति की वात थोड़े मान लूंगा कि मुझे विज्ञान के बारे में नहीं पता है ।अरे भाई ! पहली अल्ट्रासाउंड मशीन 1949 में बनी तब जाकर पश्चिमी देशों को पता चला कि पेट के अंदर बच्चे की ग्रोथ कैसे होती है लेकिन भागवत पुराण में तो ये पहले से ही लिखा हुआ है । जाहिर है, पुराण हजारों नहीं तो सैकड़ों साल पुराने तो हैं ही । एक स्त्रीरोग डॉक्टर से पूछ लिया था कि क्या ग्रोथ ऐसी ही होती है, जैसी यहां लिखी है, ये कहते हुए, भागवत पुराण सरका दिया तो बोली, इसमें तो दिनों के हिसाब से ग्रोथ लिखी है, हमारे यहां तो हम डॉक्टर अंदाज लगाते हैं कि किस दिन से आखिरी मासिक हुआ था, वहां से सो अंदाज करीब 1 हफ्ते का आगे पीछे होता है पर जो क्रम यहां लिखा है, ऐसा ही होता है । अब बताइये कौन सा विज्ञान पढा जाए ! जगदीश चन्द्र बसु को पेड़ों में जान होती है, वो सांस लेते हैं, उनको सुख दुख पता चलता है, इसके लिए लेट 60 में नोबल प्राइज मिला लेकिन भागवत पुराण में तो ये भी पहले से लिखा है ! अब बताइये, कौन सा विज्ञान पढ़ना चाहिये !उसको आपके पश्चिमी विज्ञान ने मान्यता ही तो बाद में दी, लेकिन भारतीय विज्ञान में तो वो पहले से ही विदित है । पहली मेडिकल x ray, जापान में 1917 में गेन्जो शिमादज़ु जूनियर ने बनाई थी, अमेरिका में खोज होने के 2 साल बाद लेकिन हमारे शरीर में कितनी हड्डियां हैं, कितनी धमनियां और नसें हैं, ये तो आयुर्वेद और स्कंद पुराण में पहले से बताया हुआ है ! जिस योगा को कर कर के, अब सारी दुनिया मान रही है, उस योग को तो कृष्ण जी और पतंजलि हजारों साल पहले बता चुके हैं, विस्तार से ! जिस फ्रायड के मनोविज्ञान को पढ़ पढ़कर विदेशी मनोवैज्ञानिक रिसर्च करते हैं, उतना मनोविज्ञान तो भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में पहले ही बतला दिया है । अब आप बौधायन को नहीं जानते पर पाइथागोरस को जानते हैं, जो पश्चिमी विज्ञान ने आपको बताया है तो इसमें भारतीय विज्ञान की क्या गलती है । आपने ही कभी भारतीय मनीषियों और वैज्ञानिकों को पढ़ने की जहमत नहीं उठाई । हाँ, बिना पढ़े, जाने रिजेक्ट करने की बहुत जल्दी रहती है, उस विज्ञान को बचाने के लिये जो जुम्मा जुम्मा 100-150 साल में शैशवावस्था में पहुचा है । अभी मैंने ज्योतिष ,हब्बल दूरबीन ,रेखागणित और आयुर्वेद, शुल्ब सूत्र और सांख्य आदि की तो बात ही नहीं की ।आइये कभी शास्त्र ज्ञान के सत्र में, चर्चा कीजिये, थोड़ा भारतीय विज्ञान को नकारने से पहले, उन्हें थोड़ा पढ़ने का कष्ट तो कीजिये । भारतीय विज्ञानबको रिजेक्ट करने की ऐसी भी क्या जल्दी है कि बिना पढ़े ही, मना कर देना ! हांय ! भारतीय विज्ञान पेजर, मोबाइल की तरह की खोज नहीं करता था,जो बदलता रहता है। शाश्वत ज्ञान की कुंजी हैं, भारतीय शास्त्र । पढ़के तो देखिए । आइये इस रविवार 12.30 बजे, गाजियाबाद में । थोड़ा जानिए, समझिये, भारतीय विज्ञान को, तब ही विदेशी विज्ञान और भारतीय ज्ञान की तुलना कर पाएंगे वरना ऐसे ही, तस्वीर का एक पहलू देखकर, आधी अधूरी जानकारी से अपरिपक्व सोच बनाकर क्या पाएंगे !34.बुद्ध पूर्णिमा (निबंध)
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इस बार की बुद्ध पूर्णिमा को हमारी सोसाइटी में, एक चौपाल सजी और इसमें एक बहुत ही अच्छी चर्चा हुई | चर्चा का विषय था कि किस को, किस कार्य को करने से सुख मिलता है ! सभी लोगों ने अपने अपने मत, अपने अपने सुख के कार्य रुपी साधन बताये |मैं तभी से चिन्तन में था क्योंकि मैं समझ नहीं पा रहा था, कुछ दुविधा में था | चर्चा से यही फायदा होता है कि आपको चिंतन के लिए, विषय मिल जाता है | तभी से मैं चिन्तन में था कि किसी को, कुछ कार्य करने से सुख कैसे मिल सकता है ? इस चिन्तन में भी था कि सुख होता क्या है ? यदि किसी कार्य को करने से, सुख मिलता है तो फिर प्रसन्नता क्या है ? क्या प्रसन्नता और सुख एक दुसरे के पर्यायवाची हैं ? यदि नहीं हैं तो फिर दोनों में क्या अंतर है ! कुछ लोगों ने सुख की जगह आनंद शब्द का भी प्रयोग किया ! तो क्या सुख और आनंद भी एक दुसरे के पर्यायवाची शब्द हैं ? यदि हैं तो कैसे और यदि नहीं हैं तो फिर दोनों में क्या अंतर है ! शरीर के लिए, उत्तम औषधि है, भोजन | भोजन से ही, शरीर की वृद्धि होती है, ऐसे ही बुद्धि का भोजन है, विचार, जिससे चिन्तन रुपी क्रिया से, ज्ञान रुपी रस निकलता है | मुझे इस बुद्ध पूर्णिमा पर, समुचित भोजन मिल चुका था, जिस पर इतने समय से मैं चिन्तन ही कर रहा था कि ये सब क्या घाल मेल है ! जो समझ में आया, वही यहाँ लिखने का प्रयास है |प्रसन्नता और सुख, बहुधा एक दुसरे के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं किन्तु दोनों शब्द इकदम समान नहीं होते | प्रसन्नता शब्द, किसी क्षणिक सुख के लिए प्रयुक्त किया जाता है, जैसे आपसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई ! किसी फिल्म को देख कर मन प्रसन्न हो जाता है | किसी पूजा को करके भी मन प्रसन्न हो जाता है | सुख, बहुधा उसे कह सकते हैं, जहाँ लम्न्बे समय तक प्रसन्नता बनी रहे ! जैसे फलाना तो बड़ा सुखी है, उसकी पत्नी और उसके बच्चे बड़े आज्ञाकारी हैं, मतलब यहाँ प्रसन्नता का कारण लम्बे समय तक है या कह सकते हैं कि फलाना बड़ा सुखी है, उसके पास तो कितना धन है | ऐसा भी कहते हैं कि मैं बड़ा सुखी हूँ जो मुझे ऐसा परिवार अथवा माता-पिता मिले |प्रसन्नता का विपरीतार्थक शब्द अप्रसन्नता अथवा खिन्नता भी, थोड़ी देर के लिए ही प्रयुक्त होता है यथा मेरा मन तो उसकी शक्ल देखते ही खिन्न हो गया अथवा दिवाली में जुए पर हारने बड़ी अप्रसन्नता हुई ! यदि वही अप्रसन्नता देर तक रहे तो वही दुखी कहलाता है यथा, वो अपनी गरीबी से बड़ा दुखी है अथवा अपनी पत्नी से/पुत्रों से बड़ा दुखी है | बहुधा लम्बे समय तक चलने वाली अप्रसन्नता को ही दुःख की संज्ञा दी गयी है |सुख और दुःख को, मन के स्तर पर भी पारिभाषित किया जा सकता है कि मन के अनुकूल परिस्थिति सुख है और मन के प्रतिकूल परिस्थिति दुःख है | जो हमारे मन का न हो तो हमें दुःख होता है, कष्ट होता है, अप्रसन्नता होती है | यदि थोड़ी देर को हो तो हम उसे अप्रसन्नता कह सकते हैं, लम्बे समय तक हो तो उसे ही दुःख कह सकते हैं | जैसे मुझे AC में रहने पर अच्छा लगता है, मेरे मन के अनुकूल परिस्थिति है तो सुख है और यदि मुझे गर्मी में, धुप में पैदल चलना पड़ जाए तो इन्द्रियों को होने वाले कष्ट की वजह से, वही मन के प्रतिकूल परिस्थिति है और दुःख स्वरुप है |अतः ये कहना कि मेरे फलाना कार्य करने से मुझे सुख होता है, थोडा सा बड़ा शब्द है | हाँ, मुझे प्रसन्नता होती है, उचित हो सकता है क्योंकि प्रसन्नता में भी क्षणिक सुख निहित होता है | लेकिन लम्बे समय तक प्रसन्नता , बहुधा किसी कार्य को करने से नहीं मिलती है | किसी फिल्म को देखने से आप 3 दिन तक प्रसन्न नहीं रह सकते ! किसी पूजा को करने से, आप १ हफ्ते तक प्रसन्न नहीं रह सकते ! जब तक प्रसन्नता अथवा सुख, बाहरी कारणों पर निर्भर रहेगा, तब तक आपको कभी प्रसन्नता रहेगी, कभी अप्रसन्नता रहेगी, कभी सुख रहेगा, कभी दुःख रहेगा | कह सकते हैं कि कोई भी कार्य आपको लम्बे समय तक सुख नहीं दे सकता अथवा कोई भी परिस्थिति आपको बहुत लम्बे समय तक सुख नहीं दे सकती क्योंकि परिस्थिति बदलते ही, वही सुख, दुःख में परिवर्तित हो जाएगा | पुत्र ने बात नहीं मानी तो उसी सुख देने वाले पुत्र से दुःख, पत्नी ने कोई अप्रिय बात कह दी, उसी प्रिय लगने वाली पत्नी से दुःख ! अतः यदि आपको किसी कार्य को करने से प्रसन्नता अथवा सुख होता भी है तो भी उसकी एक मियाद है | वो चिरकाल तक नहीं रह सकता और यही बात आती है आनंद की |आनंद, सुख और प्रसन्नता का पर्यायवाची नहीं है क्योंकि आनंद चिरकाल तक रहता है | ईश्वर को सत+चित+आनंद (सत्चिदानन्द) ही कहा जाता है किन्तु यदि हमें, सत, चित और आनंद के माने ही नहीं पता होंगे तो फिर सत्चिदानन्द को लाख पूजा-पाठ के बाद भी नहीं जान सकते | आनंद, सुख से ऊपर की स्टेज है | जब हम मन को इस प्रकार बना लेते हैं कि कुछ भी उसके अनुकूल अथवा प्रतिकूल नहीं होता, न अच्छा होने पर सुख हो और न बुरा होने पर दुःख हो, जिसे कृष्ण जी, “सुखे दुखे समेकृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ” कहते हैं, वह आनंद का लक्षण है | जब आनंद प्राप्त होता है, तो आप सुख और दुःख से ऊपर उठ जाते हैं | यही परम लक्ष्य है | किसी कार्य को करने में आनंद नहीं आ सकता, सुख हो सकता है, प्रसन्नता हो सकती है किन्तु आनंद, मन के एंड पर ही होता है, वो किसी क्रिया/परिस्थिति पर निर्भर नहीं करता |अतः जो निष्कर्ष स्वरूप निकल कर आया कि यदि हमें क्षणिक सुख चाहिए तो हम किसी कार्य को करने में, प्रसन्नता का अनुभव कर सकते हैं | अपने परिवार के साथ समय व्यतीत करने में, बच्चे के साथ खेलने में, दूसरों का भला करने में आदि | यदि हमें लम्बे समय तक प्रसन्नता अर्थात सुख चाहिए, तो हमें ऐसी परिस्थिति या तो बनानी पड़ेगी अथवा उसकी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी कि हमारा मन, वहां सुख का अनुभव करे किन्तु ऐसा देखा गया है कि मन किसी भी एक चीज से लम्बे समय तक सुखी होता नहीं है, जैसे नयी कार भी एक समय बाद, पुरानी लगने लगती है, नया घर भी एक समय के बाद, सुख का कारण नहीं रह जता है | वही प्रिय लगने वाली पत्नी , एक समय पर दुःख का कारण बन जाती है, वही प्रिय लगने वाली संतान, दुःख स्वरूप सामने आ जाते हैं | अतः किसी भी कार्य से मिलने वाली प्रसन्नता अथवा सुख, चिरस्थायी नहीं हो सकता है | यदि चिरस्थायी सुख चाहिए तो एक ही उपाय है, मन को मांजना पड़ेगा, मन को सुख और दुःख के अंतर से मुक्त करना होगा | कर्मों से तो कभी सुख और कभी दुःख के जाल में ही फंसे रहेंगे, चाहे कैसा भी कर्म कर लिया जाए |एक छोटी सी चर्चा और चली थी उसी दिन कि अध्ययन से कोई लाभ नहीं होता, वरन स्वाध्याय करने से मनुष्य घमंडी हो जाता है कि मैंने तो इतना अध्ययन किया है, तुमने कितना अध्ययन किया है | जब इस पर भी बहुत चिन्तन किया तो प्रारम्भ में ये बात सही लगी किन्तु कालान्तर में ज्ञात हुआ कि ये बात सही नहीं है | अध्ययन करने से, घमंड आ ही नहीं सकता | शास्त्रों में वर्णित है कि योग करने में, सबसे पहले विचार आता है, फिर तर्क-वितर्क (चिन्तन) होता है और फिर उसके निष्कर्ष स्वरूप ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है | ये विचार, अन्तःप्रज्ञा से भी आ सकता है, जैसे बुद्ध को आया, उसने जीवन में होने वाली घटनाओं पर चिन्तन किया और निष्कर्ष स्वरूप उन्हें ज्ञान हुआ | ये विचार, गुरु से भी आ सकता है, जो आपको रास्ता दिखाता है कि ऐसे नहीं, ऐसे सोचो ! ये विचार, इस प्रकार की चर्चा, चौपालों, बैठकों से भी आ सकता है, इसीलिए हमारे यहाँ चौपालों का महत्व है और ये विचार स्वाध्याय से भी आ सकता है, जहाँ हमें विभिन्न प्रकार के विचार मिलते हैं | ज्ञान के प्रादुर्भाव के लिए विभिन्न विचार मिलने आवश्यक हैं | चिन्तन का होना आवश्यक है और चिन्तन विचारों से ही होता है और यही बुद्धि का भोजन है | शास्त्रों में ये भी कहा गया है कि विद्या ददाति विनयं, विद्या से विनयशीलता आती है, कहीं भी ऐसा नहीं लिखा है कि विद्या से घमंड आता है | अतः ये कहना कि विद्या से घमंड आता है, शास्त्रोक्त नहीं है और शास्त्र में से और किसी अन्य के कही बात में से, शास्त्रोक्त बात की महत्ता अधिक है क्योंकि उसके अनेकों उदाहरण शास्त्रों में भरे पड़े हैं |जिसने अधिक धन कमा लिया हो, जिसने अधिक अध्ययन किया हो, जिसने अधिक शिक्षा ग्रहण की हो तो ऐसा व्यक्ति, जो किसी भी चीज में अधिक हो, उसकी उस विधा का सम्मान करना चाहिए | ये व्यक्ति के ऊपर है कि वो उसे नकार देता है अथवा उसे स्वीकार कर लेता है | ये किसी इंडिविजुअल की सकारात्मकता और नकारात्मकता के ऊपर है कि वो अपने से ज्ञान में श्रेष्ठ, ईमानदारी में श्रेष्ठ अथवा किसी और गुण में श्रेष्ठ व्यक्ति को स्वीकार करता है अथवा नकार देता है | “स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते” अतः अधिक अध्ययन करने वाले को नकारने और स्वीकारने का आप्शन, स्वयं के ऊपर है कि हमारी विचारधारा कैसी है !इस प्रकार, इस बार की बुद्ध पूर्णिमा ने, बहुत सोचने के लिए, महत्वपूर्ण विचार दिए, इसके लिए, इस प्रकार की चौपाल की जितनी प्रशंसा की जाए, आयोजकों की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है | पुनः पुनः, इस प्रकार की चौपाल और विचारों का आदान-प्रदान होने के लिए, प्लेटफोर्म मिलते रहने चाहिए |धन्यवाद !35. दुर्योधन – दुःखेन युध्यते |दुःख से युद्ध करने योग्य |