December 21, 2024

मलं मूत्रं पुरीषं च श्लेष्मनिष्ठिवितं तथा, गण्डूषमप्सु मुञ्चन्ति ये ते ब्रह्मभिः समाः |

अर्थ – जो जल में मल, मूत्र, विष्ठा, कफ, थूक और कुल्ला छोड़ते हैं, वे ब्रह्महत्यारों के सामान है |

ये श्लोक उस समय का है, जब पांडव जुए में हार कर, जंगलो में घुमते हुए माँ चंडिका के दर्शन करके उस शुभ तीर्थ में भी स्नान के लिए आये | मार्ग में थके मांदे होने के कारण वहीँ बैठ गए | उस समय द्रोपदी भी वहां पर थी और चंडिका के गण भी वहीँ उपस्थित थे | बर्बरीक ने वहां पधारे हुए पांडव वीरों को देखा, परन्तु वो उन सबको पहचानता नहीं था | पांडव भी उसे नहीं पहचानते थे क्योंकि जन्म से लेकर अभी तक पांडवों के साथ उसकी भेंट ही नहीं हुई थी | पांडवों ने अपनी गठरी आदि वहीँ खोल दी और प्यास से पीड़ित होकर उसकी ओर देखा | तब भीमसेन कुंड में पानी पीने के लिए घुसे | उस समय युधिष्टिर ने उनसे कहा – “भीमसेन ! तुम कुंड से पानी निकाल कर बाहर ही हाथ पैर धो लो, उसके बाद ही जल पीना अन्यथा तुम्हे बड़ा दोष लगेगा |” भीमसेन के नेत्र उस समय प्यास से व्याकुल हो रहे थे | उन्होंने युधिष्टिर की बात अनसुनी करते हुए ही जल पीने की इच्छा से कुंड में प्रवेश किया | जल देखकर उन्होंने वहीँ पीने का निश्चय किया और शुद्धि के लिए मुख, दोनों हाथ और दोनों पैर धोये | भीमसेन जब इस प्रकार पैर धो रहे थे, उस समय बर्बरीक ने उनसे ये वचन कहे – “ओ दुर्मते ! ये तुम क्या कर रहे हो ? तुम्हारा विचार तो बड़ा पापपूर्ण है | अहो ! तुम देवी के कुंड में हाथ, पैर और मुंह धो रहे हो | मैं देवी को सदा इसी जल से स्नान कराता हूँ | मल से दूषित जल को तो मनुष्य भी नहीं छूते, फिर देवता उसका स्पर्श कैसे कर सकते हैं ? जब तुम इतने बड़े मूढ़ हो तो तीर्थों में क्यों घूम रहे हो ?”

भीमसेन ने कहा – क्रूर राक्षसाधम ! तू क्यों ऐसी कठोर बातें कहता है ? उसका दूसरा उपयोग ही क्या है ? यह प्राणियों के भोग के लिए ही तो होता है  ! बड़े बड़े मुनीश्वरों ने भी तीर्थ में स्नान का विधान किया है | अंगों को धोना ही तो स्नान कहा गया है फिर तू मेरी निंदा क्यों करता है ? यदि स्नान और अंग प्रसाधन न किया जाय तो धर्मात्मा पुरुष किसलिए पूर्त धर्म का अनुष्ठान करते हैं ? क्यों, बावड़ी, कूप और तडाग आदि बनवाते हैं ?

बर्बरीक बोला – निस्संदेह तुम्हारा कथन सत्य है कि मुख्य मुख्य तीर्थों में स्नान करना चाहिए | ऐसी विधि है भी, परन्तु जो नदी आदि चार तीर्थ हैं – उनके जल बहते रहते हैं, उन्ही में भीतर प्रवेश करके स्नान आदि करना चाहिए | कूप, सरोवर आदि स्थावर तीर्थों में तो बाहर खड़े होकर स्नानादि करना उचित है | स्थावर तीर्थों में भी वहीँ भीतर प्रवेश करने का विधान है, जहां भक्त  पुरुष देवता स्नान कराने के लिए जल न लेते हों तथा जो सरोवर देवस्थान से सौ हाथ से भी अधिक दूर बनाया गया हो | उसके भीतर प्रवेश करने का भी यह एक क्रम है कि पहले बाहर ही दोनों पैर धोकर फिर कुण्ड में स्नान किया जाय, अन्यथा दोष बताया गया है | क्या तुमने ब्रह्मा जी का कहा हुआ श्लोक नहीं सुना है ? –

मलं मूत्रं पुरीषं च श्लेष्मनिष्ठिवितं तथा, गण्डूषमप्सु मुञ्चन्ति ये ते ब्रह्मभिः समाः |

“जो जल में मल, मूत्र, विष्ठा, कफ, थूक और कुल्ला छोड़ते हैं, वे ब्रह्महत्यारों के सामान है |”

इसलिए ओ दुराचारी ! तुम शीघ्र जल से बाहर निकल आओ | यदि तुम्हारी इन्द्रियां काबू में नहीं हैं, तो तुम तीर्थों में किसलिए घुमते हो ? नादान ! जिसके हाथ, पैर और मन भली भांति संयम में हों और जिसके द्वारा समस्त क्रियाएँ निर्विकार भाव से की जाती हों, वही तीर्थ का फल पाता है | मनुष्य पुण्यकर्म के द्वारा यदि दो घडी भी जीवित रहे, तो वह उत्तम है | परन्तु उभय लोकविरोधी पापकर्म के साथ एक कल्प की भी आयु मिले, तो उसे स्वीकार न करे |

भीमसेन बोले – कौवों की तरह तेरी कांय कांय की कर्कश ध्वनि मेरे तो कान बहरे हो गए | अब तू अपनी इच्छा के अनुसार यहाँ विलाप कर या चिंता के मारे सूख जा; मैं तो जल पीकर ही रहूँगा |

बर्बरीक ने कहा – मैं धर्म की रक्षा करने वाले क्षत्रियों के कुल में उत्पन्न हुआ हूँ, अतः किसी प्रकार भी तुम्हें पाप न करने दूंगा | हमारे इस कुण्ड से तो तुम शीघ्र ही बाहर आ जाओ नहीं तो इन ईटों के टुकड़ों से तुम्हारा मस्तक चूर चूर कर दूंगा |

यों कहकर बर्बरीक ने ईंटें उठा लिए और भीम के मस्तक को लक्ष्य करके फेंकना आरम्भ कर दिया | भीमसेन उसके प्रहार को बचाकर उछले और सरोवर से बाहर आ गए | फिर तो दोनों  भयंकर पराक्रमी वीर एक दुसरे को घुडकते हुए आपस में गुथ गए | दोनों ही युद्धविद्या में पारंगत थे | अतः अपनी विशाल भुजाओं से युद्ध करने लगे | दो ही घडी में उस राक्षस के सामने पांडव भीमसेन दुर्बल पड़ने लगे | अंत में बर्बरीक ने भीमसेन को उठा लिया और जल में फेंकने के लिए समुद्र की ओर चल दिया | समुन्द्र के किनारे पहुँचने पर भगवान् शंकर ने आकाश में स्थित हो बर्बरीक से कहा – ‘राक्षसों में श्रेष्ठ महाबली बर्बरीक ! ये भरतकुल के रत्न और तुम्हारे पितामह भीमसेन हैं, इन्हें छोड़ दो | ये तीर्थयात्रा के प्रसंग से भाइयों तथा द्रोपदी के साथ विचरते हुए इस तीर्थों में स्नान करने के लिए ही आये हैं | अतः तुम्हारे द्वारा सर्वथा सम्मान पाने योग्य हैं |’

भगवान शंकर का यह वचन सुनकर बर्बरीक ने सहसा भीमसेन को छोड़ कर उनके चरणों में गिर पड़ा और बोल उठा – हाय ! मुझे धिक्कार है | यह बड़े कष्ट की बात है, पितामह ! मुझे क्षमा कीजिये, क्षमा कीजिये |’ उसे इस प्रकार शोक करते और बार बार मोहित होते हुए देख भीमसेन ने उसे छाती से लगा लिया और स्नेह से मस्तक सूंघकर कहा – “वत्स ! जन्मकाल से ही न हम तुम्हें पहचानते हैं और न तुम हमको | केवल घटोत्कच तथा भगवान् श्रीकृष्ण से यह सुन रखा है कि तुम इस तीर्थ में निवास करते हो | किन्तु यह सब बात भी हमें भूल गयी थी, क्योंकि जो लोग अनेक प्रकार के दुखों से दुखी और मोहित होते हैं, उनकी सारी स्मरणशक्ति नष्ट हो जाती है | अतः हम पर जो यह दुःख आया है, वह सब काल की प्रेरणा से प्राप्त हुआ है | बेटा ! तुम शोक न करो | तुम्हारा इसमें तनिक भी दोष नहीं है, क्योंकि कुमार्ग पर चलने वाला कोई भी क्यों न हो, क्षत्रिय के लिए दंडनीय ही है | साधु क्षत्रिय को उचित है कि यदि कुमार्ग पर चले तो अपनी आत्मा को भी दंड दे | फिर पिता, माता, सुह्रद, भ्राता और पुत्र आदि के लिए तो कहना ही क्या है ? मुझे आज बड़ा हर्ष प्राप्त हुआ है | मैं और मेरे पूर्वज धन्य हैं, जिनका पुत्र ऐसा धर्मज्ञ और धर्मपालक है | तुम वर पाने के योग्य हो, मेरे तथा दुसरे सत्पुरुषों के द्वारा प्रशंसा पाने के अधिकारी हो | अतः यह शोक छोड़कर तुम्हें स्वस्थ हो जाना चाहिए |

बर्बरीक बोला – पितामह ! मैं पापी हूँ, ब्रहमहत्यारे से भी अधिक घृणा का पात्र हूँ | प्रशंसा के योग्य कदापि नहीं हूँ | प्रभो ! न तो आप मेरी ओर देखें और न मेरा स्पर्श ही करें | ब्राहमण लोग सभी पापों का प्रायश्चित बताते हैं परन्तु जो माता पिता का भक्त नहीं है, उसके उद्धार का कोई उपाय नहीं है | अतः जी शरीर से मैंने पितामह को पीड़ा पहुचाई है, उस अपने शरीर को आज मैं महिसागर संगम में त्याग दूंगा; जिससे अन्य जन्मो में भी ऐसा ही पातकी न होऊ कह कर बलवान बर्बरीक उछलकर समुन्द्र के भीतर चला गया | समुन्द्र भी यह सोचकर काँप उठा कि ‘मैं कैसे इसका वध करूँ’ | तदनंतर सिद्धाम्बिका तथा चारों दिशाओं की देवियाँ रूद्र के साथ वहां आ पहुंची और उसे ह्रदय से लगाकर बोली – वीरेंद्र ! अनजान में किये हुए पाप से दोष नहीं लगता, यह बात शास्त्रों में बतायी गयी है | अतः तुम्हें इसके विपरीत कोई बर्ताव नहीं करना चाहिए | देखो, तुम्हारे पितामह भीम पुत्र पुत्र पुकारते हुए तुम्हारे पीछे पीछे लगे हुए, चले आ रहे हैं | तुम्हारी मृत्यु होने पर स्वयं भी प्राण देने को उत्सुक हैं | वीर ! यदि इस समय तुम शरीर छोड़ोगे तो भीमसेन भी शरीर त्याग देंगे | उस दशा में तुम्हें बड़ा भारी पातक लगेगा | अतः महामते ! तुम ऐसा जानकर अपने शरीर को धारण करो | थोड़े ही समय में देवकी नंदन श्रीकृष्ण के हाथ से तुम्हारे शरीर का नाश होगा, ऐसा बताया गया है | वत्स ! वे साक्षात् भगवान् विष्णु हैं और उनके हाथ से शरीर का नाश होना बहुत ही उत्तम (मुक्तिदान) है | इसलिए तुम उस समय की प्रतीक्षा करो और हमारी बात मानो | देवियों की बात मानते हुए बर्बरीक उदास मन से लौट आया | “बर्बरीक चंडिका के कार्य की सिद्धि के लिए बड़ा भारी युद्ध करेगा, इसलिए संसार में चंडिल नाम से प्रसिद्द और समस्त विश्व के लिए पूजनीय होगा |” यों कह कर वहां आई हुई सब देवियाँ अन्दर्धान हो गयी | भीमसेन भी बर्बरीक को लेकर लौट आये और अन्य पांडवों से भी यही सारा समाचार कह सुनाया | सुनकर सब पांडवों को बड़ा आश्चर्य हुआ | सबने बार बार उसकी प्रशंसा की और आलस्य त्याग कर विधि के अनुसार तीर्थ स्नान किया |

 स्कन्द पुराण (माहेश्वर खंड – कुमारिका खंड)

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