भगवान् शिव का एक नाम त्रिपुरारी भी है | त्रिपुरारी अर्थात त्रिपुर का नाश करने वाला | त्रिपुर अर्थात तीन पुर (नगर) | तारकासुर के तीन पुत्र थे, जिनके नाम तारकाक्ष, विद्युन्माली तथा कमलाक्ष थे | तारकासुर की मृत्यु के बाद, उसके तीनो पुत्रों ने घोर तप करके ब्रह्मा जी से तीन नगरों को माँगा (एक सोने की, एक चांदी का और एक लोहे का) और कहा जब तक ये नगर अलग अलग रहेंगे, तब तक हमें कोई न मार सके | एक सहस्त्र (1000) वर्ष के बाद ये तीनो नगर आपस में मिलें और एकीभाव को प्राप्त हों || उस समय भगवान् शंकर, सम्पूर्ण सामग्रियों से युक्त एक असम्भव रथ पर बैठकर एक अनोखे बाण से हमारे पुरों का भेदन करें | किन्तु भगवान् शंकर सदा हम लोगों के वन्दनीय, पूज्य और अभिवादन के पात्र हैं, अतः वे हम लोगों को कैसे भस्म करेंगे – मन में ऐसी धारणा करके हम ऐसे दुर्लभ व्रत को मांग रहे हैं |
ब्रहमा जी ने तथास्तु कहते हुए मय दैत्य को ऐसे तीनो नगरों का निर्माण करने के लिए आज्ञा दी | मय ने ऐसे तीन ग्रहों का निर्माण किया जो १००० साल में एक बार वे तीनो एक सीध में आते थे | (उन्होंने तीनो नगरों के एकीकृत होने के लिए वर प्राप्त किया था,किन्तु ऐसा माना जाता है कि वो तीन ग्रह थे जो परिक्रमा करते हुए एक बार एक सीध में आते थे किन्तु ऐसा हो सकता है कि वो तीनो मिल कर एक भी हो गए हों) भगवान् शिव ने देवताओं की प्रार्थना पर उन तीनो का नाश करने के लिए प्रस्थान किया (सम्पूर्ण कथा के लिए कृपया रूद्र सहिंता, पंचम खंड, शिव पुराण देखें) पिनाक को धारण कर भगवान् विष्णु को अपना तीर बना कर उन तीनो ग्रहों को उस समय पर, जब वो तीनो एक सीध में थे, संधान कर के नष्ट किया और तीनो असुरों का नाश किया और इसीलिए भगवान् शिव का एक नाम त्रिपुरारी पड़ा |
अब हम थोडा सा बोडे का नियम देखते हैं (David Gregory’s The Elements of Astronomy, published in 1715) | इस नियम के अनुसार, संख्याएं 0,3, 6, 12, 24, 48, 96, 192, 384 जो कि पहले वाली से दुगुनी है | इनमें चार जोड़ें ताकि पृथ्वी जो सूर्य से दूरी के अनुसार तीसरा ग्रह है, उसकी दूरी 6+4 = 10 हो जाए | [a = 4 + n, जहां n = 0, 3, 6, 12 आदि ] तब ग्रहों की सूर्य से दूरी का अनुपात इस प्रकार होगा |
ग्रह | क्रम | बोडे के नियम अनुसार दूरी (AU) | वास्तविक दूरी (AU) | % त्रुटी |
Mercury | 0 | 0.4 | 0.39 | 2.56% |
Venus | 1 | 0.7 | 0.72 | 2.78% |
Earth | 2 | 1 | 1 | 0.00% |
Mars | 4 | 1.6 | 1.52 | 5.26% |
Ceres1 | 8 | 2.8 | 2.77 | 1.08% |
Jupiter | 16 | 5.2 | 5.2 | 0.00% |
Saturn | 32 | 10 | 9.54 | 4.82% |
Uranus | 64 | 19.6 | 19.2 | 2.08% |
अंतरिक्ष में लघुग्रह इन नियमो के बाद ही देखे गए |
गणितज्ञों ने देखा कि मंगल और गुरु के मध्य सूर्य से दूरी काफी अधिक है और इस नियम से उनके मध्य एक ग्रह और होना चाहिए, जो कि था नहीं | तब खगोलविदों ने दूरदर्शी की सहायता से उनके बीच जिस स्थान पर एक और ग्रह की कक्षा का अनुमान था, वहां ध्यान से देखना आरम्भ किया और उस स्थान के समीप बहुत से लघुग्रह खोजे | पहले ऐसा अनुमान था कि सौर सौर-मंडल के बनते समय इस स्थान पर कोई ग्रह होना था मगर वह किन्ही अन्य कारणों से लघु ग्रह में बदल गया | 1 जनवरी १८०१ को सिलियस गुइसैप पियाजि (General Director of the Naples and Sicily Observatories, who established an observatory at Palermo, now the Osservatorio Astronomico di Palermo – Giuseppe S. Vaiana) ने Ceras नाम सबसे बड़े क्षुद्र ग्रह का, जिसका व्यास १००० किमी है, उसको सूर्य से २.8 (EU) पर देखा | इस Ceras की कक्षा उसी स्थान पर है, जिस स्थान पर मंगल और गुरु के मध्य ग्रह होना चाहिए | (He was not able to observe it long enough as it was soon lost in the glare of the Sun. Unable to compute its orbit with existing methods, the mathematician Carl Friedrich Gauss developed a new method of orbit calculation that allowed astronomers to locate it again. After its orbit was better determined, it was clear that Piazzi’s assumption was correct and this object was not a comet but more like a small planet. Coincidentally, it was also almost exactly where the Titius-Bode law predicted a planet would be. – Wikipedia, Giuseppe Piazzi)
बाद में उन क्षुद्र ग्रहों के और अध्ययन से ज्ञात हुआ कि ये मूलतः तीन प्रकार के हैं, C-Type, S-Type and M-Type अर्थात जिनमें एक जिनमें कार्बन ज्यादा है, दुसरे जो चटानो से निर्मित हैं और तीसरे जो धातुओं से निर्मित हैं | इनमें से सरस (Ceras) में भारी धातुएं (Heavy Metals) उसकी परत के नीचे घुसी हुई हैं और उसके धरातल पर खनिज युक्त चट्टानों का निर्माण देखा गया है | (Kerrod, Robin (2000). Asteroids, Comets, and Meteors. Lerner Publications Co. ISBN 0-585-31763-1. source wikipedia)
और देखने पर ज्ञात होता है कि इन्हीं क्षुद्रग्रहों में से कई बार कुछ धरती के वायुमंडल में भी प्रवेश कर जाते हैं | आकाश में कभी-कभी एक ओर से दूसरी ओर अत्यंत वेग से जाते हुए अथवा पृथ्वी पर गिरते हुए जो पिंड दिखाई देते हैं उन्हें उल्का (meteor) और साधारण बोलचाल में ‘टूटते हुए तारे’ अथवा ‘लूका’ कहते हैं। उल्काओं का जो अंश वायुमंडल में जलने से बचकर पृथ्वी तक पहुँचता है उसे उल्कापिंड (meteorite) कहते हैं।
उल्कापिंडों का मुख्य वर्गीकरण उनके संगठन के आधार पर किया जाता है। कुछ पिंड अधिकांशत: लोहे, निकल या मिश्रधातुओं से बने होते हैं और कुछ सिलिकेट खनिजों से बने पत्थर सदृश होते हैं। पहले वर्गवालों को धात्विक और दूसरे वर्गवालों को आश्मिक उल्कापिंड कहते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ पिंडों में धात्विक और आश्मिक पदार्थ प्राय: समान मात्रा में पाए जाते हैं, उन्हें धात्वाश्मिक उल्कापिंड कहते हैं। वस्तुत: पूर्णतया धात्विक और पूर्णतया आश्मिक उल्कपिंडों के बीच सभी प्रकार की अंत:स्थ जातियों के उल्कापिंड पाए जाते हैं जिससे पिंडों के वर्ग का निर्णय करना बहुधा कठिन हो जाता है।
धात्विक उल्कापिंड़ों में भी दो मुख्य उपभेद हैं जिन्हें क्रमश: अष्टानीक (आक्टाहीड्राइट) और षष्ठानीक (हेक्साहीड्राइट) कहते हैं। ये नाम पिंडों की अंतररचना व्यक्त करते हैं और जैसा इन नामों से व्यक्त होता है, पहले विभेद के पिंडों में धात्विक पदार्थ के बंध (प्लेट) अष्टानीक आकार में और दूसरे में षष्ठीनीक आकार में विन्यस्त होते हैं। इस प्रकार की रचना को विडामनस्टेटर कहते हैं एवं यह पिंड़ों के मार्जित पृष्ठ पर बड़ी सुगमता से पहचानी जा सकती है।
धात्वाश्मिक उल्कापिंडों में भी दो मुख्य उपवर्ग हैं जिन्हें क्रमानुसार पैलेसाइट और अर्धधात्विक (मीज़ोसिडराइट) कहते हैं। इनमें से पहले उपवर्ग के पिंडों का आश्मिक अंग मुख्यत: औलीवीन खनिज से बना होता है जिसके स्फट प्राय: वृत्ताकार होते हैं और जो लौह-निकल धातुओं के एक तंत्र में समावृत्त रहते हैं। अर्धधात्विक उल्कापिंडों में मुख्यत: पाइरौक्सीन और अल्प मात्रा में एनौर्थाइट फ़ेल्सपार विद्यमान होते हैं। (विकिपीडिया – उल्कापिंड)
अभी तक इनमें 52 तत्व पाए गए हैं जिनमें सोना, चांदी और निकल और अल्युमिनियम प्रचुरता में पाए गए हैं | खनिज संरचना की दृष्टि से उल्कापिंडों और पृथ्वी में पाई गई शैल राशियों के लक्षणों में कई अंतर होते हैं। साधारणतया भूमंडलीय शैल राशियों में स्वतंत्र धातु रूप में लोहा तथा निकल अत्यंत दुर्लभ होते हैं, किंतु उल्कापिंड़ों में धातुएँ शुद्ध रूप में बहुत प्रचुरता से तथा प्राय: अनिवार्यत: पाई जाती हैं। इसके अतिरिक्त कई ऐसे खनिज हैं जो भूमडलीय शैलों में नहीं पाए जाते, पर उल्कापिंडों में मिलते हैं। इनमें से प्रमुख ओल्डेमाइट (कैल्सियम का सल्फाइड) और श्राइबेरसाइट (लोहे और निकल का फ़ॉसफ़ाइड) हैं।
उल्कापिंड़ों की उत्पत्ति का विषय बहुत ही विवादास्पद है। इस विषय पर अनेक मत समय समय पर प्रस्तावित हुए हैं, जिनमें से कुछ में इन्हें पृथ्वी, चंद्रमा, सूर्य और धूमकेतु आदि का अंश माना गया है। एक अति मान्य मत के अनुसार इनकी उत्पत्ति एक ऐसे ग्रह से हुई जो अब पूर्णतया विनष्ट हो गया है। इस विचार में यह कल्पना की जाती है कि आदि में प्राय: मंगल के आकार का एक ग्रह रहा होगा जो किसी दूसरे बड़े ग्रह के अत्यंत समीप आ जाने पर, अथवा किसी दूसरे ग्रह से टकराकर, विनष्ट हो गया, जिससे अरबों की संख्या में छोटे बड़े खंड बने जो उल्का रूप में खमंडल में विचर रहे हैं। इस मत के अनुसार धात्विक उल्का उस कल्पित ग्रह का केंद्रीय भाग तथा आश्मिक उल्का ऊपरी पृष्ठ निरूपित करते हैं। यद्यपि इस उपकल्पना से उल्कापिंडों के अनेक लक्षणों की व्याख्या हो जाती है, फिर भी अनेक बातें अनबूझी पहेली रह जाती हैं। उदाहरणार्थ कुछ धात्विक उल्कापिंडों में अष्टानीक रचना होती है जो साधारणतया 800 डिग्री सेंटीग्रेड ताप पर नष्ट हो जाती है। ऐसा विश्वास है कि उस कल्पित ग्रह के विखंडन के समय अवश्य ही उसमें अधिक ताप उत्पन्न हुआ होगा। फिर भी यह समझ में नहीं आता कि यह अष्टानीक रचना विनष्ट होने से कैसे बची। इसी प्रकार यह शंका भी बनी रहती है कि अकौंड्राइट आश्मिक उल्का में लोहा कहाँ से आया और कौंड्राइट आश्मिक उल्का में कौंडूयूल कैसे बने। (विकिपीडिया – उल्कापिंड)
जब बोडे का नियम पढ़ा (पढ़ा तो पहले भी था १२वी में लेकिन तब ऐसे नहीं पढ़ा था) और उसमें पढ़ा कि एक ग्रह और होना चाहिए था तो त्रिपुर का ध्यान आया, किन्तु त्रिपुर को तो शंकर जी ने नष्ट कर दिया तो आगे ढूँढा तो पढ़ा कि जहाँ पर ग्रह होना चाहिए था वहां क्षुद्र ग्रह पाए गए हैं जो किसी ग्रह के टुकड़े हैं जो किन्ही वजहों से टूट गया (अज्ञात कारण ?) फिर मैंने त्रिपुर के बारे में और पढ़ा तो देखा कि उनमें मुख्यतः सोना, चांदी और लोह धातु से बनाया गया था तो मुझे लगा कि देखना चाहिए कि क्या इन क्षुद्र ग्रहों में ये धातुएं पायी गयी या नहीं और खूब ढूढने के बाद पता चला कि सारे ग्रहों में केवल यही क्षुद्र ग्रह हैं जिनमें लोहे (शुद्ध अवस्था में) के साथ साथ सोना और चांदी भी प्रचुर मात्रा में पाए गए हैं जो अन्य किसी भी ग्रह में नहीं पाए जाते हैं (लोह धातु तो मिल भी जाती है पर सोना और चांदी किसी भी ग्रह में नहीं पाए गए हैं अभी तक) | मैं अपना काम कर दिया है और अब इसका क्या निष्कर्ष निकाला जाए, ये मैं पाठकों पर छोड़ता हूँ |
ॐ श्री गुरवे नमः | ॐ श्री भैरवाय नमः | ॐ श्री मातृ-पितृ चरणकमलेभ्यो नमः |
महोदय,
मैं आपके इस जानकारी का आभारी हूं। मैं भी एक नए मिशन पर चल रहा हूं जिसमें त्रिपुर का अनुसंधान जारी है। कई किताबों के पढऩें के बाद मुझे थोड़ा यह क्लू मिला कि त्रिपुर वास्तव में पृथ्वी पर ही अवस्थित है। उस समय इसका नाम कुछ और था जो अब शायद यह बदल चुका है। कुछ किताबों के हवाले से इतना पता कर चुका हुं कि पाताल को आधुनिक दुनिया में अबीसिनिया कहते हैं। इसी तरह अंतरिक्ष के लिए भी एक स्थान निहित है।
आप त्रिपोली को ध्यान से देखें तो वहां तीन जिले हैं। उसमें ही कुछ छुपा हुआ रहस्य मुझे लगता है। अभी इसी पर चल रहा हूं।
आगे जो भी होगा आपको अवश्य अवगत कराऊंगा।
धन्यवाद
अखिलेश
मुझे ऐसा नहीं लगता | जब तक कोई शोध न हो, ऐसा मानना मेरे लिए संभव नहीं है | केवल स्वयम के मानने को सही नहीं कहा जा सकता न |
gyan anant hai iski koi sima nahin jitna khojoge utna doobte jaoge
बिलकुल जैन साब !