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May 31, 2025

मातृकाम को विजानाति कतिधा किद्रशक्षराम । पञ्चपंचाद्भुतम गेहं को विजानाति वा द्विजः ।।
बहुरूपाम स्त्रियं कर्तुमेकरुपाम च वेत्ति कः । को वा चित्रकथं बन्धं वेत्ति संसारगोचरः ।।
को वार्णव महाग्राहम वेत्ति विद्यापरायणः   । को वाष्टविधं ब्रह्मंयम वेत्ति ब्राह्मणसत्तमः ।।
युगानाम च चतुर्णां वा को मूल दिवसान वदेत । चतुर्दशमनूनाम वा मूलवारम च वेत्ति कः ।।
कस्मिश्चैव दिने प्राप् पूर्व वा भास्करो रथं । उद्वेजयती भूतानि कृष्णाहिरिव वेत्ति कः ।।
को वास्मिन घोर संसारे दक्ष दक्षतमो भवेत् । पंथानावपी द्वौ कश्चिद्वेती वक्ती च ब्राह्मणः ।।
इति में द्वादश प्रश्नान ये विदुब्राह्मणोत्तमाः । ते में पूज्यत्मास्तेषा मह्माराधकश्चिरम ।।

राजा हर्ष वर्मा से भूमि प्राप्त होने के बाद नारद जी ने मन ही मन विचार किया – स्थान तो मैंने प्राप्त कर लिया है जो अत्यंत दुर्लभ था अब में उत्तम ब्राह्मण की प्राप्ति के लिए प्रयत्न प्रारम्भ करूँ । मुझे ऐसे ब्राह्मण देखने चाहिए जो सर्वश्रेष्ठ हों । इस बारे में वेदवादी विद्वानों के वचन इस प्रकार सुने जाते हैं – जैसे खेने वाले के बिना कोई नाव किसी प्राणी को पार उतारने में समर्थ नहीं है, उसी प्रकार जाती से श्रेष्ठ ब्राह्मण भी दुराचारी हो तो वह किसी का उद्धार नहीं कर सकता । जिसने शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया है, वह ब्राह्मण तिनके की आग की आग के समान शीघ्र बुझ जाता है – तेजहीन हो जाता है । अतः उसे द्रव्य प्रदान नहीं करना चाहिए, क्योंकि राख में आहुति नहीं दी जाती । दान में ली हुई भूमि विद्याहीन ब्राह्मण के अंतःकरण को नष्ट करती है । इसी प्रकार गाय उसके भोगों का, सुवर्ण उसके शरीर का, घोडा उसके नेत्र का, वस्त्र उसकी स्त्री का, घृत  उसके तेज का और तिल उसकी संतान का नाश करते हैं । अतः अविद्वान ब्राह्मण को सदैव प्रतिग्रह से डरना चाहिए । मूर्ख ब्राह्मण थोडा प्रतिग्रह लेकर भी कीचड में फँसी हुई गाय की भाँती कष्ट पाता है । इसलिए जो मूढ़ तपस्या से युक्त और गुप्त रूप से स्वाध्याय करने वाले हैं तथा जो शांत चित्त वाले हैं, उन्ही को दिया हुआ दान सदा अक्षय होता है । केवल विद्या अथवा तपस्या से सुपात्रता नहीं आती । जहाँ सदाचार है और उसके साथ ये दोनों भी हैं, उसी को उत्तम पात्र कहा गया है ।

मैं देश देश घूम कर विद्या रुपी नेत्र वाले ब्राहमण की परीक्षा करता हूँ । यदि वे मेरे प्रश्नों के उत्तर दे देंगे तब मैं उन्हें दान करूँगा । ऐसा विचार करके मैं उस स्थान से उठा और प्रश्न रूपी श्लोकों का गान करते हुए विचरण करने लगा । वे प्रश्न इस प्रकार हैं –
1. मातृका को कौन विशेषरूप से जानता है ? वह मातृका कितने प्रकार की और कैसे अक्षरों वाली है ?
2. कौन द्विज पचीस वस्तुओं के बने हुए गृह को अच्छी तरह जानता है ?
3. अनेक रूप वाली स्त्री को एक रूप वाली बनाने की कला किसको ज्ञात है ?
4. संसार में रहने वाला कौन पुरुष विचित्र कथावाली वाक्यरचना को जानता है ?
5. कौन स्वाध्यायशील ब्राह्मण समुन्द्र में रहने वाले महान ग्राह की जानकारी रखता है ?
6. किस श्रेष्ठ ब्राह्मण को आठ प्रकार के ब्राह्मणत्त्व का ज्ञान है ?
7. चारों युगों के मूल दिनों को कौन बता सकता है ?
8. चौदह मनुओं के मूल दिवस का किसको ज्ञान है ?
9. भगवान् सूर्य किस दिन पहले पहल रथ पर सवार हुए ?
10. जो काले सर्प की भाति सब प्राणियों को उद्वेग में डाले रहता है, उसे कौन जानता है ?
11. इस भयंकर संसार में कौन दक्ष मनुष्यों से भी अत्यधिक दक्ष माना गया है ?
12. कौन  ब्राह्मण दोनों मार्गों को जानता और बतलाता है ?

इस प्रकार नारद जी के बारह प्रश्नों को जिस जिस ने सुना उसने इन्हें अत्यंत कठिन मानते हुए इन्हें नमस्कार ही किया और कोई इसका समाधान नहीं कर पाया । इस प्रकार नारद जी को कोई भी उपयुक्त ब्राह्मण नहीं मिला । तब उन्होंने कलाप आश्रम जाने का निश्चय किया जहां सभी वेदाध्ययन से सुशोभित ब्राह्मण रहते हैं । यह सोच कर नारद जी ने कलाप आश्रम की ओर प्रस्थान किया ।

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