पाप और पुण्य क्या है ? और इनका निर्धारण कैसे होगा ?
यदि आप गीता को मानते हैं, यदि आप पुनर्जन्म को मानते हैं और यदि आप कर्मों के फल को मानते हैं तो फिर आपको कर्मो द्वारा अर्जित पाप और पुण्य को भी समझना होगा | क्योंकि इन पाप और पुण्य के हिसाब से ही हमें हमारे कर्मों का फल प्राप्त होता है (इहलोक में और परलोक में) | इसी चीज की शिक्षा देने के लिए पहले गुरुकुल हुआ करते थे | जहाँ कर्म को सत्कर्म और दुष्कर्म के रूप में परिभाषित किया जाता था और बताया जाता था, क्या कर्म करने योग्य हैं और क्या निषिद्ध हैं | सारी गीता का आधार ही ये पाप और पुण्य ही है क्योंकि अर्जुन इसी उलझन में पड़ा है कि कैसे अपने गुरु, अपने पितामह और सगे सम्बन्धियों का वध कर दूं क्योंकि ये पाप है और पूर्णतः निषिद्ध है | और इसी पाप और पुण्य से बाहर निकालने के लिए कृष्ण जी ने अर्जुन को कर्मयोग का उपदेश दिया | अतः पाप और पुण्य को समझना पड़ेगा, तभी कर्मयोग समझ में आएगा अन्यथा आप गीता पढ़ते रहे, लाभ नहीं होगा क्योंकि आपके बेसिक्स ही क्लियर नहीं होंगे | खैर, पाप और पुण्य पर आते हैं |
किसी भी मशीन के सही रिजल्ट देने के लिए, उसके कुछ स्टैण्डर्ड निर्धारित किये जाते हैं | जब वो स्टैण्डर्ड प्रयोग किये जाते हैं तो माना जाता है कि मशीन जो रिजल्ट देगी, वो सही होगा | ऐसे ही धर्म के कुछ मानक तय किये गए, जिनसे कर्म और अकर्म का बोध होता है | जिनकी कसौटी पर सभी परिस्थितियों को कसा जाता है और फिर कर्म को निर्धारण किया जाता है | गीता में कृष्ण जी अर्जुन को उन्ही मानको के बारे में बहुत डिटेल में बताते हैं | उसको बताते हैं कि जिसे तुम मानक समझ रहे हो, वो गलत मानक है और फिर उसे सही मानको का ज्ञान देते हैं | करने योग्य कर्म यानी कर्तव्य और जो कर्म नहीं करने चाहिए (जिनसे पाप की वृद्धि होती है) उन्हें दुष्कर्म समझना चाहिए | धर्म की रक्षा या पाप-पुण्यों के संचय और हिसाब में इन्हीं कर्मों का महत्व है |
भिन्न भिन्न परिस्थितयों में करने वाले कर्मों के लिए मानक बनाए गए हैं जो कि विभिन्न धर्म ग्रंथों और पुराणों में दिए गए हैं | कुछ नीचे बताता हूँ किन्तु सभी को जानने, समझने और पढने के लिए ही गुरुकुल बनाए गए थे | राजा, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र सभी के लिए वो मानक थे | किसको क्या करना चाहिए और क्या नहीं | कुछ मानक सभी वर्णों के लिए सामान थे | राजा जब प्रजा का पालन करता था तो इन्ही मानकों के हिसाब से करता था और प्रजा भी इन्ही मानको के हिसाब से अपने कर्मो का निर्धारण करती थी और पाप और पुण्य को संचित करती थी | मनु महाराज और सभी प्रजापति और बड़े बड़े राजा और ब्राहमण और वैश्य ने इन्ही मानको के हिसाब से यश अर्जित किया और प्रतिष्ठा पाई | नन्द राजा का वंश नाश, चाणक्य ने इसीलिए किया कि वह उन मानकों पर खरा नहीं उतर रहा था और पाप अर्जित कर रहा था और फिर चाणक्य ने उन्ही मानको को और अधिक पारिभाषित किया |
खैर, कुछ मानक उदाहरण देकर बताता हूँ |
१. यदि आप अपने परिवार के साथ कहीं जा रहे हैं और कुछ चोर या डाकू रात को आप पर हमला कर दें और आपकी पत्नी को बंधक बना लें तो सबसे पहला ख्याल अपनी मृत्यु का ही आता है, उसके पास हथियार हैं, आपके पास नहीं हैं | किन्तु हमारे यहाँ कहा गया है कि मनुष्य को आत्मरक्षा, कुटुंब की रक्षा और गाय की रक्षा के लिए हथियार उठाने चाहिए और मृत्यु की परवाह नहीं करनी चाहिए अर्थात युद्ध करना चाहिए और कुटुंब की रक्षा करने का प्रयत्न करना चाहिए | ये धर्म है | इसमें यदि प्राण भी जाए तो चिंता नहीं करनी चाहिए क्योंकि आपका कर्त्तव्य वही है |
२. जब इंद्र का युद्ध वृत्तासुर से हो रहा था तो वृत्तासुर की सेना देवताओ से भय खा कर भागने लगी तब वृत्तासुर ने शास्त्रसम्मत बात कहते हुए अपने सैनकों का उत्साह वर्धन किया | उसने कहा कि युद्ध से भाग कर क्यों पाप के भागी हो रहे हो | युद्ध तो किस्मत वालों को प्राप्त होता है यदि जीत गए तो सुख भोगोगे और मारे गए तो वीरगति को प्राप्त होगे | इसके तो दोनों ओर लाभ है | यदि आज इससे भाग गए तो क्या कल मरोगे नहीं ? किन्तु वो मृत्यु किसी काम नहीं आएगी जबकि युद्ध में मारे गए तो अवश्य ही सद्गति का लाभ मिलेगा | देखते क्या हो, जाओ और शत्रु को दिखा दो कि मृत्यु भी आज तुम्हारा रास्ता नहीं रोक सकती | (स्कन्द पुराण)
३. यदि किसी के भले किए लिए कोई झूठ बोला जाये तो उस से पाप नहीं लगता (महाभारत में कृष्ण)
४. चिरकारी अपने पिता की आज्ञा (अपनी माता का शीश काटना) के बारे में चिर काल तक सोचते रहे क्योंकि शास्त्र मतों से माता की हत्या जघन्य अपराध है | मां कैसी भी हो किन्तु पुत्र को उसका भरण पोषण और रक्षा करनी चाहिए | अन्यथा उस पुत्र की कहीं गति नहीं है |
ये कुछ उदाहरण हैं, ऐसे ही बहुत से नियम हैं जो कहानियों के माध्यम से बताए गए | इसके लिए कोई संविधान की रचना नहीं की गयी किन्तु ये शास्त्रों की पढ़ाई में अन्तर्निहित होते थे और लोगो को याद हो जाते थे और इन्हीं के अनुसार वो अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते थे | उन्हें बताया जाता था कि क्या करने से पुण्य मिलेगा और क्या करने से आप पाप के भागी होंगे | राजाओं के लिए भी नियम होते थे, जैसे वो ऋषि से मिलेगा तो उसको अर्घ्य देगा, उसके नीचे बैठेगा, उसके कुशल क्षेम पूछेगा, उसको जिस भी चीज की जरूरत है वो उसको दिलाएगा और ब्राहमण आज्ञा का उल्लंघन नहीं करेगा, ब्राहमणों का वध निषिद्ध था | युद्ध के बाद राम चन्द्र जी ने और युधिष्ठिर दोनों ने युद्ध में मारे गए लोगो के पाप के प्रायश्चित हेतु यज्ञ कराये थे | ब्राह्मणों के लिए भी बहुत से नियम थे कि वो कैसे वृत्ति (आय) करेंगे | भोजन कैसे प्राप्त करेंगे | बहुत ही कठिन नियम थे ब्राह्मणों के भोजन प्राप्त करने के | सुदामा तो भिक्षा पर ही आश्रित थे | भोजन खाने से पहले विभिन्न बलि (भेंट) दी जाती थी | तो इस प्रकार बहुत से कर्तव्यों का वर्णन है जिसके हिसाब से समाज की संरचना हुई और पाप कर्म और पुण्य कर्मों को पारिभाषित किया गया |
एक उदाहरण देखें | राजा राम ने बाली को छिपकर मारा था | ये पाप था कि पुण्य था ? इसका जवाब इसी के आगे मिलता है जब बाली मर रहा था तो उसने रामचन्द्र जी से पुछा कि मैं न तो आपको जानता हूँ, न मेरी आपसे कोई दुश्मनी है फिर आपने मुझे क्यों मारा ? और एक क्षत्रिय होकर आपने मुझे छिप कर मारा, ऐसा दुष्कर्म आपने क्यों किया ? जरूर इस दुष्ट सुग्रीव की संगत में रह कर ही आपमें ऐसा पापकर्म करने की बुद्धि हुई होगी | इस पर रामचन्द्र जी ने उसको बताया कि तुम मुझे पापी बता रहे हो जबकि पापाचरण तो तुमने खुद किया था ! तुमने अपने भाई मारा, उसको बार बार अपमानित किया और अपने राज्य से भी बाहर कर दिया और तो और तुमने उसकी पत्नी को भी अपने पास ही रख लिया | क्योंकि तुमने ऐसा पापकर्म किया इसलिए तुम आताताई हो और ये जो पाप तुमने किया है उसी का फल तुमको आज मिला है | रामचन्द्र जी आगे कहते हैं कि मैं इस धरा के पालक जो कि महाराज भरत हैं, मैं उनका सेवक हूँ और क्षत्रिय हूँ और क्षत्रिय का ये कर्तव्य है कि अत्याचारियों का नाश करे | अत्याचारी को मारने के लिए यदि पुन्य होता है तो उसमें क्रिया की गति नहीं देखि जाती | यदि कोई किसी की पत्नी को हर लेता है या उसकी भूमि पर जबरन कब्ज़ा कर लेता है तो ये क्षत्रिय का कर्त्तव्य है कि ऐसे आताताई से लोगो की रक्षा करे | (जैसे पुलिस वाला ही कानून और न्याय के हिसाब से क्रिमिनल को पकड़ता है और उसे जेल करता है और प्रताड़ना देता है) क्योंकि तुमने बिना किसी सही वजह के अपने भाई के ऊपर अत्याचार किया और उसकी पत्नी को भी हर लिया इसलिए ये मेरा कर्तव्य था की मैं तुम्हारा वध कर दूं और तुम्हारे भाई को न्याय दिलाऊ | इसके आगे भी रामचंद्र जी कहते हैं कि तुम एक वानर हो और एक क्षत्रिय आखेट करता है तो कोई जरूरी नहीं कि वह किसी नरभक्षी शेर के सामने ही जाए, वो उसे छिपकर भी मार सकता है वैसे ही मैंने छिपकर तुम्हारा वध किया | अतः मैंने कुछ भी गलत या पाप नहीं किया है | आगे कहते हैं – बाली, अगर फिर भी तुमको लगता है कि मैंने तुम्हारे साथ गलत किया है तो मैं अभी ये तीर निकाल कर तुमको जीवनदान दे देता हूँ | इसके बाद बाली, अपने गलती को पहचानता हुआ कहता है – जीवन तो मुझे बहुत मिल जायेंगे किन्तु ऐसी मृत्यु दुबारा नहीं मिलेगी | ये जो कुछ आपने किया है, ये मेरे ही पाप कर्मो का फल है और अपने भाई सुग्रीव पर जो मैंने अत्याचार किया है उसके प्रायश्चित हेतु मैं अपना ये हार, जिस से मैं अजेय था, अपने भाई को देता हूँ (उसने वो हार अपने पुत्र को नहीं दिया, जो वहीँ था ) इस प्रकार उसने अपने पापों का प्रायश्चित भी किया |
ऐसे ही बहुत से उदाहरण है जिन पर विचार करके ही पहले कर्म किये जाते थे | पहले ये सोचा जाता था कि किस कर्म को करने से पुण्य मिलेगा और किस को करने से पाप मिलेगा | युधिष्ठिर ने सारे जीवन में धर्म का पालन किया किन्तु केवल एक गलती की वजह से उनको नरक से होकर जाना पड़ा, क्योंकि उन्होंने एक असत्य कहा था (अश्वथामा हतोहतः, नरो वा कुंजरो वा )
इसलिए हमारे सारे शास्त्रों में कर्मों को करने से पहले पाप और पुण्य का निर्णय लेने के लिए बताया गया है और उसके हिसाब से ही कर्म करने को कहा गया है | सारी रामायण, महाभारत और अन्यान्य शास्त्रों का सार ये ही है (कृष्ण गीता के अलावा) | ये पाप और पुण्य ही हमारे जीवन को संचालित करते हैं और हम इन्हीं पाप और पुण्य का उपभोग करते हैं, इहलोक में और परलोक में | इसलिए हमें भी अपने कर्मो के करते समय सचेत रहना चाहिए |
पाप और पुण्य को और गहरे में जाकर समझने के लिये पढ़ें – अघोरी बाबा की गीता, भाग 2