धर्मदानकृतं सौख्यमधर्माद दुखःसंभवम् | तस्माधर्मं सुखार्थाय कुर्यात पापं विवर्जयेत ||
लोकद्वयेऽपि यत्सौख्यं तद्धर्मात्प्रोच्यते यतः | धर्म एव मर्ति कुर्यात सर्वकार्यातसिद्धये ||
मुहूर्तमपि जीवेद्धि नरः शुक्लेन कर्मणा | न कल्पमति जीवेश लोकद्वयविरोधिना || – स्कन्द पुराण
धर्मं और दान से सुख प्राप्त होता है और अधर्म से दुःख की उत्पत्ति होती है, अतः सुख के लिए धर्म का आचरण करे और पाप को सर्वथा त्याग दे | इस लोक और परलोक दोनों लोको में जो सुख है, उसकी प्राप्ति धर्म से ही बतायी जाती है, अतः समस्त कार्यों और मनोरथों की सिद्धि के लिए धर्म में ही मन लगाए | मनुष्य दो घडी भी पुण्य कर्म करते हुए ही जीवे | उभयलोकविरोधी कर्म के साथ कल्प भर भी जीने की इच्छा न रखे |
अंतर्ध्यान – क्या हमने कभी सोचा है कि हमें ही इतना कष्ट क्यों होता है ? किसी और को तो इतना नहीं होता, हमारे साथ ही ऐसा क्यों होता है ? क्यों कोई अंधा पैदा होता है ? क्यों बहरा पैदा होता है ? क्यों किसी के पास सब कुछ होते हुए भी, कुछ भी नहीं है (शान्ति नहीं है) ? ये सब क्या समीकरण है ? अवश्य सोचा होगा लेकिन कितनी बार समझने के लिए किसी पुस्तक का या किसी ग्यानी जन का सहारा लिया ? हमारे शास्त्रों में प्रश्नों का बड़ा महत्त्व है, विभिन्न प्रश्नों के माध्यम से ही ज्ञान के उपदेश दिए गए हैं | आज हम प्रश्न तो करते हैं लेकिन उनके समाधान के लिए कोई प्रयत्न नहीं करते | उस समीकरण को पढने की जहमत नहीं उठाते, नतीजतन हम उन प्रश्नों में उलझे ही रहते हैं | हमारे शास्त्रों ने ऐसे विभिन्न प्रश्नों के उत्तरों के लिए ही विभिन्न दर्शन दिए हैं क्योंकि इन प्रश्नों का समझाने का इस से बेहतर उपाय नहीं है (और कोई तरीका या फिलोसफी इतने विभिन्न प्रश्नों के उत्तर नहीं दे सकती है | हमारी समझ में अब ये दर्शन शास्त्र नहीं आता इसलिए कुछ लोग इसे झूठ भी मानते हैं, किन्तु सत्य ये है कि हम में उतनी कैपेसिटी नहीं है कि हम स्वयं उस level तक आयें, जहाँ तक हमारे ऋषि या मुनि गए हुए हैं और इन फिलोसफी को समझाया है उदाहरणार्थ लोग योग के नाम पर आसन करते हैं और जबकि योग में हमारे ऋषियों न साधना और समाधि तक लिखा है, जिसने खुद समाधि या साधना की होगी, वही उस स्टेज के बार में बता सकता है | किन्तु आज हम उस स्टेज में नहीं जा सकते क्योंकि हमारी कैपेसिटी ही उतनी नहीं है और हम केवल आसन तक ही रह जाते हैं, उसके आगे के यम, नियम भी नहीं करते और उसके बाद के साधना समाधि की तो बात ही छोड़ दीजिये | सो हम उसे झूठ का पुलिंदा मानते हैं जो वस्तुतः भ्रम है | ) इन प्रश्नों के उत्तर के लिए बहुत सारी फिलोसफी में से एक पार्ट यहाँ उधृत किया जा रहा है |
भगवान् सूर्य ने कहा – कमठ ! तुमने शास्त्रीय मत का आश्रय लेकर परलोक का जो यह स्वरूप बतलाया है, वह वैसा ही है | इसमें तनिक भी संदेह नहीं है; तथापि इस विषय में नास्तिक, पापाचारी तथा मंदबुद्धि मनुष्य सन्देह करते हैं | उनका संदेह दूर करने के लिए तुम कर्मो के फल का निरूपण करो | किस किस पापकर्म का कौन सा फल यही प्राप्त हो जाता है तथा किन पाप के प्रभाव से मनुष्य किन रूपों में जन्म लेता है ? इन सब बातों को यदि तुम जानते हो तो बताओ |
कमठ ने कहा – विप्रवर ! इस विषय में मेरे पिता ने जो उपदेश दिया है और मेरे चित्त में जो विचार स्थित हैं, वह सब आपको बताऊंगा | आप स्थिर हो कर सुनिए | ब्राहमण की हत्या करने वाले मनुष्य को क्षय रोग होता है, शराबे के दांत काले होते हैं, सोने की चोरी करने वाले का नख ख़राब होता है, गुरुपत्नीगामिनी के शरीर का चमड़ा खराब हो जाता है, इन सब के साथ संसर्ग रखने वाले मनुष्य को ये सभी रोग होते हैं | ये पांच प्रकार के लोग महापातकी कहलाते हैं | जो साधु पुरुषों की निंदा सुनता है, वह बहरा होता है | आप ही अपनी कीर्ति का बखान करने वाला पापी गूंगा होता है; गुरुजनों की आज्ञा का उल्लघन करने वाला मनुष्य मिर्गी के रोग से पीड़ित होता है | जो गुरुजनों का अपमान करता है, वह कीड़ा होता है | पूजनीय पुरुषों के कार्य की उपेक्षा करने वाले पुरुष की बुद्धि दूषित होती है | साधुजनों के द्रव्य की चोरी करने को जो जितने पग आगे बढाता है, वह नराधम उतने ही वर्षों तक पंगु होता है | जो दान देकर फिर छीन लेता है, वह गिरगिट की योनी में उत्पन्न होता है | जो क्रोध में भरे हुए पूजनीय पुरुषों को प्रसन्न नहीं करता उसे सिरदर्द का रोग होता है | रजस्वला स्त्री से समागम करने वाला मनुष्य चांडाल होता है | कपडा चुराने वाला सफेद कोढ़ के रोग से पीड़ित होता है | आग लगाने वाला काली कोढ़ के रोग से पीड़ित होता है | चांदी चुराने वाला मेंढक तथा झूठी गवाही देने वाला मुख का रोगी होता है | पराई स्त्रियों को काम भाव से देखने वाला नेत्र रोग का कष्ट पाता है | कुछ देने की प्रतिष्ठा करके जो नहीं देता है वह अस्पायु होता है | ब्राहमण की वृत्तिका अपहरण करने वाला सदा अजीर्ण लोग का रोगी और अधम होता है | नैष्ठिक ब्रह्मचारी को भोजन कराने से मुंह मोड़ने वाला गृहस्थ सदा रोगी रहता है | बहुत सी पत्नियों के होने पर भी किसी एक में ही अनुराग रखने वाला पुरुष मेदा के क्षयरोग से युक्त होता है |
स्वामी ने जिसे किसी धर्म के कार्य में लगा दिया हो, वह यदि अन्यायपूर्वक आचरण करता है अथवा मालिक के धन को स्वयं ही खा जाता है, तो उसे जलोदर रोग होता है | जो बलवान हो कर भी किसी के द्वारा सताए जाते हुए दुर्बल की उपेक्षा करता है – उसे बचाने का प्रयत्न नहीं करता, वह अंगहीन होता है | अन्न चुराने वाला भूख से पीड़ित होता है | व्यवहार में पक्षपात करने वाला मनुष्य जिह्वा के रोग से युक्त होता है | जो धर्म में लगे हुए मनुष्य को उससे मना कर देता है, वह पत्नी वियोगी होता है | जो अपनी ही बनायी हुई रसोई में सब से पहले स्वयं भोजन करता है, उसके गले में रोग होता है | पञ्चयज्ञों का अनुष्ठान किये बिना ही भोजन करने वाला मनुष्य गाँव का सूअर होता है | पर्वों के दिन मैथुन करने वालों को प्रमेह का रोग होता है | अर्थ संकट में पड़े हुए मित्र, बंधू, स्वामी तथा प्रिय सेवकों का परित्याग करके उनकी ओर से मन को हटा लेने वाला निर्दय मनुष्य सदा जीविका के लिए कष्ट पाता है | जो माता-पिता, गुरु और स्वामी की छल से सेवा करता है, वह बड़े कष्ट में धन पाकर भी उससे वंचित रहता है |
जो विश्वास करने वाले पुरुष के धन को हड़प लेता है, वह सडा दुखों का भागी होता है | जो धार्मिक पुरुष के प्रति क्षुद्रता पूर्ण बर्ताव करता है, वह बुन होता है | जो दुबले बैल को हल या गाडी में जोतता है, उसकी कमर में मकरी का रोग होता है | गाय की हत्या करने वाला जन्म से अँधा होता है | गौत्रों को दुःख देने वाला मनुष्य पशु से रहित होता है | जो मारने आदि के द्वारा गौओं के प्रति निर्दयता का परिचय देता है, वह मार्ग में कष्ट भोगता है | सभा में पक्षपात करने वालो को गलगंड का रोग होता है | सदा क्रोध करने वाला चांडाल होता हो | चुगली खाने वाले मनुष्य के मुंह से सदा दुर्गन्ध आती है | बकरी बेचने वाला मनुष्य बहेलिया होता है | कुण्ड (पति के जीते जी जार पुरुष से उत्पन्न पुत्र) का अन्न भोजन करने वाला मनुष्य सेवक् होता है | नास्तिक पुरुष तेली होता है और श्रद्धाहीन मनुष्य मुर्दे के समान बना रहता है | अभक्ष्य भक्षण करने वाले मनुष्य को गण्डमाला का रोग होता है | सबको दुःख देने वाला मनुष्य सदा शोक में डूबा रहता है | अन्याय से ज्ञान ग्रहण करने वाला मनुष्य मूर्ख होता है | शास्त्र चुराने वाला राक्षस होता है | नरक से लौटे मनुष्य की बुद्धि खोटी होती है | तालाब और बगीचे को नष्ट करने वाला पुरुष बिना हाथ का होता है | व्यवहार में छल का सहारा लेने वाला मनुष्य अपने सेवकों से मारा जाता है | पराई स्त्री से रति करने वाला पुरुष सदा प्रमेह रोग से पीड़ित रहता है | खोटा वैद्य वात का रोगी होता है | गुरुपत्नीगामी मनुष्य कोढ़ी होता है | पशुओं से मैथुन करने वाला भी प्रमेही होता है | अपने गौत्र की स्त्री से मैथुन करने वाला संतानहीन होता है | माता, बहिन और पतोहू से सम्भोग करने वाला मनुष्य नपुंसक होता है | कृतघ्न मनुष्य को समस्त कार्यों में असफलता प्राप्त होती है |
ब्राह्मण ! इस प्रकार मैंने आप से पापियों के लक्षण संक्षेप से बताया है | सम्पूर्ण लक्षणों का वर्णन करने में तो चित्रगुप्त भी मोहित हो सकते हैं | ये नरकों से भ्रष्ट हुए पापात्मा सहस्त्रों योनियों की यातनाएं भोगकर अंत में उपर्युक्त चिन्हों से युक्त मनुष्य रूप में उत्पन्न होते हैं | जिन का पाप नष्ट हो गया है अथवा जो स्वर्ग से लौटे हैं, वे समस्त दुर्व्यसनो से मुक्त होकर एकमात्र धर्म का ही आश्रय लेते हैं |
विप्रवर ! आपने जो कुछ पुछा है उसका मैंने अपनी शक्ति के अनुसार वर्णन किया है | यह अच्छा कहा गया हो या नहीं, उसके लिए आप क्षमा करें | अब और क्या कहूं !