।।पंचतंत्र।।
कथामुख
अपने दुःख को अपने मन में दबाते हुए महाराज अमरसिंह बोले —
गुणिगणगणनारम्भे न पतति कठिनी ससम्भ्रमाद् यस्य।
तेनाम्बा यदि सुतिनी वद बन्ध्या कीदृशी भवति।।
आचार्य विष्णु शर्मा के अनुसार मूर्ख पुत्र को जन्म देने वाली स्त्री की स्थिति तो बन्ध्या से भी निकृष्ट होती है। कुछ देर के उपरान्त राजा अमरसिंह ने अपने मन्त्रियों से पूछा—क्या मेरे तीनों अयोग्य पुत्र गुणवान नहीं बन सकते? क्या मेरे राज्य में कोई भी ऐसा समर्थ ब्राह्मण नहीं, जो मेरे बेटों को शिक्षित बना सके? यह सुनकर एक मन्त्री बोला—महाराज! ज्ञान तो अनन्त और असीम है, परन्तु उसे सीखने के लिए समय की अपेक्षा होती है। देखिये न, व्याकरण के शिक्षण के लिए बारह वर्षों की अवधि अपेक्षित कही जाती है। इसके अतिरिक्त मनुस्मृति-जैसे धर्मशास्त्र के ग्रन्थों, चाणक्य नीति-जैसे अर्थशास्त्र के ग्रन्थों तथा वात्स्यायन आदि द्वारा प्रणीत कामशास्त्र सम्बन्धी ग्रन्थों की जानकारी के लिए समय तो चाहिए ही।
राजा को उदास, हताश एवं व्यथित देखकर सुमति नामक मन्त्री बोला—महाराज! मैं अपने साथी के मन्तव्य का खण्डन तो नहीं करता; क्योंकि यह सत्य है कि शास्त्र अनन्त एवं असीम हैं और इनकी जानकारी के लिए बहुत अधिक समय चाहिए, किन्तु आपके बालकों को योग्य बनाने के लिए कोई सरल उपाय ढूंढ़ना पड़ेगा। महाराज! हमारे राज्य में विष्णु शर्मा नामक एक विद्वान् ब्राह्मण हैं, जो सम्पूर्ण विद्याओं और शास्त्रों के ज्ञाता हैं। यदि आप आचार्य विष्णु शर्मा को सहमत कर सकें और अपने पुत्र उन्हें सौंप दें, तो वह निश्चित ही आपके पुत्रों को विद्वान् बनाकर आपको चिन्तामुक्त कर सकते हैं।
राजा अमरसिंह को अपने मन्त्री सुमति की बात डूबते को तिनके के सहारे के समान लगी और उन्होंने तुरन्त ही आचार्य विष्णु शर्मा को ससम्मान बुला लाने का सन्देश दिया। आचार्य विष्णु शर्मा के आने पर राजा ने उनका स्वागत-सत्कार किया और फिर विनम्र एवं मधुर स्वर में उनसे निवेदन किया—आदरणीय महोदय! यदि आप मेरे इन तीन मूर्ख पुत्रों को शिक्षित बनाने की कृपा करें, तो मैं पुरस्कार के रूप में आपको सौ ग्रामों का अधिकार सौंप दूंगा।
प्रत्युत्तर में आचार्य विष्णु शर्मा ने कहा—
राजन्! आप मुझे किसी प्रकार का प्रलोभन देने की चेष्टा न करें। मेरे जीवन में भोग-विलास के लिए कोई स्थान नहीं रह गया है और मैं अपनी विद्या को बेचने के लिए यहां नहीं आया हूं।
हां, आपके दुःख से दुःखी होकर आपकी प्रार्थना को स्वीकार करता हूं। मैं आपकी सभा में आपके तीनों बेटों को छह महीनों में ही कुशल राजनीतिज्ञ और व्यावाहरिक ज्ञान में सिद्धहस्त बनाने की घोषणा करता हूं और यह प्रतिज्ञा करता हूं कि यदि मैं छह महीनों में अपने उद्देश्य में सफल न हुआ, तो अपना मुंह दिखाने के लिए जीवित नहीं रहूंगा।
इस उद्घोष के उपरान्त आचार्य विष्णु शर्मा ने राजा से कहा—महाराज! अब आप आज के दिन से गिनती आरम्भ कर दीजिये और इस वृद्ध ब्राह्मण को छह मास की अवधि दीजिये। यथासमय परिणाम आपके सामने आ जायेगा। आचार्य विष्णु शर्मा की इस प्रतिज्ञा को असम्भव जानकर भी राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई। सभी उपस्थित लोगों ने अत्यधिक विस्मित होने पर भी वृद्ध ब्राह्मण के वचन का स्वागत किया और राजा को इसके लिए बधाई दी। राजा ने भी आचार्य विष्णु शर्मा के प्रति आभार प्रकट करते हुए उनका यथोचित अभिनन्दन किया और अपने तीनों पुत्र उन्हें सौंप दिये। इससे राजा को चिन्ता से मुक्ति प्राप्त हुई।
आचार्य विष्णु शर्मा राजकुमारों को अपने साथ अपने आवास पर ले आये और उनके सुविधाजनक निवास और भोजन आदि की व्यवस्था की। उसके उपरान्त उन्होंने राजकुमारों को सुशिक्षित बनाने के लिए निम्नलिखित पांच तन्त्रों वाले ग्रन्थ—पञ्चतन्त्र—की रचना की—
1. मित्रभेद — इस अध्याय में शत्रु के मित्रों में फूट डालने, उन्हें आपस में लड़ाने तथा शत्रु को क्षीण बनाने के विभिन्न उपायों का वर्णन है।
2. मित्र सम्प्राप्ति — इस अध्याय में अपनी शक्ति एवं सामर्थ्य को बढ़ाने के लिए उपयोगी व्यक्तियों को मित्र बनाने और उनके साथ मित्रता निभाने के विभिन्न उपाय दिये गये हैं।
3. काकोलूकीय — इस अध्याय में शत्रु के साथ परिस्थितिवश मैत्री सम्बन्ध स्थापित हो जाने पर भी उस पर अन्धविश्वास न करके, उससे सावधान रहने और गुप्तचरों की भूमिका के महत्त्व का प्रतिपादन किया गया है।
4. लब्धप्रणाश — इस अध्याय में शत्रु की विजय को मिट्टी में मिलाने के उपायों का वर्णन है।
5. अपरीक्षित कारक — इस अध्याय में ऊंच-नीच व हानि-लाभ आदि की भली प्रकार समीक्षा किये बिना किसी भी काम में हाथ डालने से पहले उस पर ध्यानपूर्वक मनन करने योग्य साधनों का वर्णन किया गया है।
पञ्चतन्त्र की रचना करके आचार्य विष्णु शर्मा ने राजकुमारों को पढ़ाना प्रारम्भ कर दिया। आचार्यजी के अध्यापन की शैली के कारण राजकुमार भी मन लगाकर अध्ययन करने लगे, जिसके परिणामस्वरूप आचार्य विष्णु शर्मा की प्रतिज्ञा सत्य सिद्ध हुई और तीनों राजकुमार छह महीनों में ही नीति-निपुण और बुद्धिमान् बन गये।
इसीलिए ‘पञ्चतन्त्र’ को बालकों के लिए लोक-व्यवहार में प्रशिक्षित करने का आदर्श ग्रन्थ मान लिया गया और ग्रन्थ की प्रशंसा में कहा गया यह वचन सत्य सिद्ध हुआ।
अधीते यः इदं नित्यं नीतिशास्त्रं शृणोति च।
न पराभवमाप्नोति शक्रादपि कदाचन।।
इस ‘पञ्चतन्त्र’ नामक ग्रन्थ का अध्ययन करने वाला अथवा सुनने वाला व्यक्ति व्यवहारकुशल हो जाता है कि वह इन्द्र-जैसे प्रबल शत्रु से भी पराजित नहीं हो सकता तथा धूर्त लोगों को भी पराजित कर देने में समर्थ हो जाता है।
।।पंचतंत्र।।
प्रथम तन्त्र
मित्रभेद (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
पञ्चतन्त्र के प्रथम अध्याय मित्रभेद का पहला श्लोक इस प्रकार है—
वर्द्धमानो महान्स्नेहः सिंहगोवृषयोर्वने।
पिशुनेनातिलुब्धेन जम्बुकेन विनाशितः।।
किसी वन में एक सिंह और एक बैल साथ-साथ रहा करते थे और उनमें बड़ी गहरी दोस्ती थी। लेकिन एक धूर्त और चुगुलख़ोर गीदड़ ने उन दोनों की दोस्ती को दुश्मनी में बदल डाला। इससे यह सिद्ध होता है कि व्यक्ति को धूर्त लोगों की बातों में आकर अपने मित्रों पर अविश्वास नहीं करना चाहिए। इसका परिणाम निःसन्देह बड़ा भयंकर होता है।
इस बात के समर्थन में आचार्य विष्णु शर्मा ने राजकुमारों को निम्नलिखित कथा सुनायी—
भारत के दक्षिण में महिलारोप्य नामक नगर में वर्धमान नामक एक बनिया रहा करता था, जो धन कमाने में बड़ा निपुण था। एक रात सोते समय उसे एक विचार आया कि मैं अपनी आवश्यकता से अधिक धन भले ही कमा लूं, लेकिन व्यापारी को कभी सन्तुष्ट नहीं होना चाहिए। उसे तो सदैव महत्त्वाकांक्षी और असन्तुष्ट ही रहना चाहिए।
न हि तद्विद्यते किञ्चिद्यदर्थेन न सिद्ध्यति।
यत्नेन मतिमांस्तस्मादर्थमेकं प्रसाधयेत्।
इस संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं, जिसे धन के द्वारा प्राप्त न किया जा सके। आजकल धन ही संसार में सर्वोत्तम साधन माना जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि बुद्धिमान् व्यक्ति को अधिकाधिक धन प्राप्त करना चाहिए।
अपने विचार पर सोचता हुआ वर्धमान बनिया अपने आपसे कहने लगा
यस्यार्थास्तस्य मित्राणि मस्यार्थास्तस्य बान्धवाः।
यस्यार्थाः स पुमाँल्लोके यस्यार्थाः स च पण्डितः।।
सभी लोग धनवान् व्यक्ति के साथ मित्रता बनाना चाहते हैं, लेकिन धनहीन व्यक्ति से इस प्रकार दूर भागते हैं, मानो उसे कोई छूत की बीमारी हो। धनी व्यक्ति को ही बुद्धिमान् समझा जाता है, जबकि
धन की महत्ता पर मुग्ध होकर वर्धमान अपने मन में कहने लगा—
न सा विद्या न तद्दानं न तच्छिल्पं न सा कला।
न तत्स्थैर्य्यं हि धनिनां याचकैर्यन्न गीयते।।
धन के बिना न कोई विद्या प्राप्त की जा सकती है, न कोई कला सीखी जा सकती है और न ही किसी प्रकार की साधना की जा सकती है। भले ही सेवा आदि करके यदि कुछ सीख भी ले, तो भी व्यक्ति अधूरा ही कहलाता है। इसीलिए धनी लोगों का गुणगान करने वाले उन्हें धर्म और संस्कृति का रक्षक बताकर उनकी प्रशंसा करते अघाते नहीं।
इह लोके हि धनिनां परोऽपि स्वजनायते।
स्वजनोऽपि दरिद्राणां सर्वदा दुर्जनायते।।
प्रायः यह भी देखने को मिलता है कि धनिकों से पराये लोग भी सम्बन्ध जोड़ने के लिए प्रयत्न करते रहते हैं, लेकिन ग़रीबों के सगे-सम्बन्धी भी उन्हें अपनाने में संकोच करते हैं।
अर्थेभ्योऽपि हि वृद्धेभ्यः संवृत्तेभ्यस्ततस्ततः।
प्रवर्त्तन्ते क्रियाः सर्वाः पर्वतेभ्य इवापगाः।।
जिस प्रकार पर्वत से निकलने वाली नदी लोगों का कल्याण करने के साथ-साथ उनके धन में भी वृद्धि करती है, उसी प्रकार धन से ही संसार में सभी कार्य सम्पन्न होते हैं।
पूज्यते यदपूज्योऽपि यदगम्योऽपि गम्यते।
वन्द्यते यदवन्द्योऽपि स प्रभावो धनस्य च ।।
धन की महिमा का वर्णन नहीं किया जा सकता। धन आ जाने पर धनहीन व्यक्ति भी कुलीन बन जाता है। इस प्रकार धन के महत्त्व को नकारने की मूर्खता कोई नहीं कर सकता।
अशनादिन्द्रियाणीव स्युः कार्याण्यखिलान्यपि।
एतस्मात्कारणाद्वित्तं सर्वसाधनमुच्यते।।
सच तो यह है कि जिस प्रकार भोजन द्वारा शरीर के सभी अंगों को कार्य करने की क्षमता प्राप्त होती है, उसी प्रकार धन के द्वारा संसार के सभी कार्यों को सम्पन्न करना भी सम्भव हो जाता है।
अर्थार्थी जीवलोकोऽयं श्मशानमपि सेवते।
त्यक्त्वा जनयितारं स्वं निःस्वं गच्छति दूरतः।।
धन प्राप्त करने के लिए व्यक्ति वह कार्य भी करने को तैयार हो जाता है, जिनमें प्राणों की आशंका होती है। यहां तक की पुत्र भी अपने धनहीन पिता को छोड़ने में देर नहीं लगाता।
गतवयसामपि पुंसां येषामर्था भवन्ति ते तरुणाः।
अर्थेन तु ये हीना वृद्धास्ते यौवनेऽपि स्युः।।
धनहीन व्यक्ति अनेक प्रकार के रोग, अभाव एवं चिन्ताओं के कारण भरी जवानी में बूढ़ा हो जाता है, लेकिन धनी व्यक्ति कभी वृद्ध नहीं होता। बुढ़ापा भी उससे दूर भागता है।
वर्धमान बनिया सोचते-सोचते इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि धन-प्राप्ति के छह साधन हैं —
1. भिक्षा,
2. नौकरी,
3. खेती-बाड़ी,
4. कोई शिल्प अथवा अध्यापन या ज्योतिष आदि,
5. साहूकारी,
6. व्यापार।
लेकिन इन साधनों में धन-प्राप्ति के लिए व्यापार ही सर्वोत्तम साधन है।
कृता भिक्षाऽनेकैर्वितरति नृपो नोचितमहो
कृषिः क्लिष्टा विद्या गुरुविनयवृत्त्यतिविषमा।
कुसीदाद्दारिद्रयं परकरगतग्रन्थिशमना-
न्न मन्ये वाणिज्यात्किमपि परमं वर्त्तनमिह।।
छहों साधनों की तुलना करते हुए वर्धमान अपने आपसे कहने लगा—
भिक्षावृत्ति को अपनाने वाले इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि इससे पेट भरना भी सम्भव नहीं होता।
सेवा, अर्थात् दूसरों का आदेश पालन करना और उनके अधीन रहना है। भले ही इसमें एक निश्चित समय पर बंधा हुआ वेतन मिल जाये, लेकिन अधिक कमाने के लिए कोई अवसर सुलभ नहीं होता।
खेती-बाड़ी में एक ओर अत्यधिक परिश्रम करना होता है, वहीं वर्षा के रूप में प्रकृति पर निर्भर होना पड़ता है।
शिल्प,अध्यापन अथवा ज्योतिष आदि किसी कार्य में सफलता प्राप्त करके धन प्राप्त करने के लिए गुरु को प्रसन्न करना होता है।
साहूकारी में कई बार ब्याज तो ब्याज, मूलधन भी गंवाना पड़ जाता है।
इन पांचों साधनों पर विचार करने के पश्चात् मैं तो व्यापार को ही सर्वोत्तम साधन मानता हूं।
उपायानां च सर्वेषामुपायः पण्यसंग्रहः।
धनार्थं शस्यते ह्येकस्तदन्यः संशयात्मकः।।
व्यापार में असीम लाभ की आशा रहती है। आवश्यक वस्तुओं का संग्रह करके और उन्हें ऊंचे दामों पर बेचकर लाभ प्राप्त किया जा सकता है। इसमें न किसी की नौकरी होती है और न अधिक परिश्रम की आवश्यकता होती है। यदि अधिक श्रम और धन का निवेश किया जाये, तो लाभ भी अधिक होता है। इस प्रकार मेरे विचार से व्यापार ही धन-प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन है।
व्यापार पर विचार करते हुए वर्धमान ने निश्चय किया कि सात प्रकार के पदार्थों का व्यापार किया जा सकता है—
1. सौंदर्य वर्धक प्रसाधनों का क्रय-विक्रय करना।
2. आभूषण आदि गिरवी रखकर ब्याज पर ऋण देना। यह एक प्रकार की साहूकारी ही है, परन्तु इसमें धन डूबने की कोई आशंका नहीं रहती।
3. पालतू पशुओं का क्रय-विक्रय करना।
4. ग्राहकों का विश्वास जीतकर उन्हें घटिया माल देना।
5. कम दाम में ख़रीदकर वस्तुओं को ऊंचे दाम पर बेचना।
6. नाप-तोल में हेराफेरी करना।
7. सीधे उत्पादकों से सस्ते दाम पर ख़रीदे पदार्थों को अधिक दाम में बेचना।
पण्यानां गान्धिकं पण्यं किमन्यैः काञ्चनादिभिः।
यत्रैकेन च यत्क्रीतं तच्छतेन प्रदीयते।।
इन सभी प्रकार के व्यापारों पर विचार करते हुए वर्धमान ने सोचा कि सौंदर्य प्रसाधन का व्यापार सोने-चांदी के व्यापार से अच्छा तो है, लेकिन इन पदार्थों के पुराना होकर नष्ट होने का ख़तरा होता है।
निक्षेपे पतिते हर्म्ये श्रेष्ठी स्तौति स्वदेवताम्।
निक्षेपी म्रियते तुभ्यं प्रदास्याम्युपयाचितम्।।
साहूकारी के धन्धे में कोई मूल्यवान् वस्तु हाथ में आ जाने पर व्यक्ति भगवान् से ऋणी के मर जाने अथवा उसके अस्वस्थ हो जाने की कामना करने लगता है, ताकि वह ऋण न चुका सके और उस वस्तु पर उसका अधिकार हो जाये।
गोष्ठिककर्मनियुक्तः श्रेष्ठी चिन्तयति चेतसा हृष्टः।
वसुधा वसुसम्पूर्णा मयाद्य लब्धा किमन्येन।।
पशुओं आदि का व्यापारी अपने आपको सारे संसार का स्वामी समझकर झूठे अहंकार में फंस जाता है।
परिचितमागच्छन्तं ग्राहकमुत्कण्ठया विलोक्यासौ।
हृष्यति तद्धनलुब्धो यद्वत्पुत्रेण जातेन।।
परिचित ग्राहक को अपनी ओर आता देखकर व्यापारी इतना प्रसन्न हो उठता है, मानो उसे पुत्र प्राप्त हो गया हो, लेकिन यह प्रसन्नता क्षण-भर की होती है।
पूर्णापूर्णे माने परिचितजनवञ्चनं तथा नित्यम्।
मिथ्याक्रयस्य कथनं प्रकृतिरियं स्यात्किरातानाम्।।
नाप-तौल में हेरा-फेरी करके ग्राहक को मूर्ख बनाना एक बार तो अच्छा लगता है, लेकिन ऐसी बेईमानी हमेशा नहीं चल सकती।
द्विगुणं त्रिगुणं वित्तं भाण्डक्रयविचक्षणाः।
प्राप्नुवन्त्युद्यमाल्लोकाः दूरदेशान्तरं गताः।।
सीधे उत्पादक से ख़रीदकर लाये पदार्थों को मांग के समय अधिक दाम पर बेचने से अवश्य ही अधिक लाभ मिलता है। इस प्रकार वर्धमान को इन सब प्रकार के व्यवसायों में से कम दाम पर पदार्थ ख़रीदकर महंगे दाम पर बेचने का व्यवसाय ही अच्छा लगा। उसने तुरन्त शुभ मुहूर्त निकलवाकर बैलगाड़ी पर अपना सामान लादा और-उत्तर भारत के प्रमुख व्यापारिक केन्द्र मथुरा की ओर चल पड़ा।
उसने अपनी गाड़ी में सञ्जीवक और नन्दक नामक दो बैलों को जोता हुआ था। दोनों ही बैल स्वस्थ एवं भली प्रकार बोझ ढो सकने वाले थे। लेकिन यमुना के कछार पर पहुंचकर दोनों बैल दलदल में धंस गये और सञ्जीवक तो लंगड़ा होकर वहीं बैठ गया। उसमें खड़ा होने की सामर्थ्य ही नहीं रह गयी थी। बैल के प्रति अपने लगाव के कारण वर्धमान तीन दिन तक वहां रुका रहा, किन्तु बैल स्वस्थ न हो सका। इस पर बनिये के साथियों ने उसे समझाते हुए कहा—सेठजी! एक बैल के लिए आपको इतना मोह नहीं करना चाहिए। इस जंगल में शेर, चीता, बाघ एवं भालू आदि अनेक जंगली जानवर रहते हैं। इसके साथ ही यह भी कौन जाने कि कल क्या होगा? क्या पता कहीं चोर-डाकू ही हमें लूट लें या मारकर परलोक ही पहुंचा दें।
शास्त्रों में भी कहा गया है—
न स्वल्पस्य कृते भूरि नाशयेन्मतिमान्नरः।
एतदेवात्र पाण्डित्यं यत्स्वल्पाद् भूरिरक्षणम्।।
कि थोड़े लाभ के लिए बड़े लाभ को छोड़कर ख़तरा मोल लेना समझदारी की बात नहीं है। आप सोच-समझ से काम लीजिये और यहां से आगे चलिये। वर्धमान को यह बात उचित लगी और उसने पास के गांव से एक नया बैल ख़रीदकर गाड़ी में जोता और अपनी राह पर चल दिया।
हां, अपने बैल की देख-रेख के लिए उसने अपने दो नौकरों को सञ्जीवक के पास छोड़ दिया। नौकरों ने दो-एक दिन सञ्जीवक की देखभाल की, किन्तु उसके न उठने पर, वे भी उसे छोड़कर वहां से चल दिये। यमुनातट की स्वच्छ वायु से सञ्जीवक के प्राण जाग उठे। वह बल लगाकर उठा तथा हरी व कोमल घास खाकर और स्वच्छ जल पीकर कुछ ही दिनों में स्वस्थ हो गया। अब वह अपने को इस क्षेत्र का राजा समझने लगा। शिवजी के वाहन नन्दी के समान सञ्जीवक अपने सींगों से रेत के टीलों को उखाड़ने लगा तथा गर्जन-तर्जन करने लगा।
शास्त्रकारों ने उचित ही कहा है—
अरक्षितं तिष्ठति दैवरक्षितं सुरक्षितं दैवहतं विनश्यति।
जीवत्यनाथोऽपि वने विसर्जितः कृतप्रयत्नोऽपि गृहे विनश्यति।।
जिसका कोई रक्षक नहीं होता, उसकी रक्षा भगवान् करते हैं और जिसकी रक्षा लोग किया करते हैं, भाग्य को स्वीकार न होने पर भी वह बच नहीं पाता। भाग्य अच्छा हो, तो जंगल में छोड़ा प्राणी भी जीवित बच रहता है। लेकिन भाग्य के अनुकूल न होने पर भरपूर सेवा-शुश्रूषा किये जाने पर भी व्यक्ति का जीवित रहना निश्चित नहीं होता।
सञ्जीवक का भाग्य अच्छा था, इसलिए वह मौत के मुंह में जाकर भी वापस लौट आया।
एक दिन अपने परिवार के साथ वन में घूमता-फिरता पिंगलक नामक एक सिंह वहीं आ पहुंचा, जहां सञ्जीवक बैल गर्जन करता-फिरता था। सिंह प्यासा था और यमुना सामने थी, किन्तु सिंह ने आज तक जंगल में सञ्जीवक बैल के समान विशालकाय पशु नहीं देखा था। सञ्जीवक की चेष्टाओं को देखकर पिंगलक की प्यास जाती रही और वह सोचने लगा कि यह मुझसे भी अधिक बलवान् पशु कौन है?
पिंगलक ने अपने मन्त्री शृगाल के दो पुत्रों—करटक और दमनक—को उनके पिता के न रहने पर मन्त्री पद नहीं दिया था। इसलिए वे दोनों उससे रुष्ट थे, किन्तु फिर भी वे पिंगलक के आगे-पीछे चलते रहते थे।
दोनों ने बिना प्यास बुझाये सिंह को वापस लौटते देखा, तो दमनक ने करटक से कहा— अरे! हमारा स्वामी जल पीने के लिए यमुनातट पर आया था, किन्तु जल पिये बिना ही उदास क्यों बैठा है?
दमनक की बात सुनकर करटक बोला—मित्र! हमें इन व्यर्थ की बातों से क्या लेना-देना?
नीतिकारों का कथन है—
अव्यापारेषु व्यापारं यो नरः कर्तुमिच्छति।
स एव निधनं याति कीलोत्पाटीव वानरः।।
कि दूसरों के काम में व्यर्थ हस्तक्षेप करने वाला व्यक्ति दो लकड़ियों के बीच में फंसायी गयी कील को उखाड़ने के चक्कर में अपने प्राण गंवाने वाले बन्दर के समान अपने ही विनाश को बुलावा देता है।
कथा क्रम : एक
किसी सेठ ने नगर के समीप एक मन्दिर के निर्माण का निश्चय किया। काम में लगे कारीगर भोजन के लिए नगर में चले जाते थे। लकड़ी चीरने वाले कारीगरों ने आधे चिरे वृक्ष के दो हिस्सों को आपस में मिल जाने से रोकने के लिए उन दोनों के बीच में एक खूंटी लगा रखी थी।
कारीगरों के चले जाने पर वहां पहुंचा बन्दरों का एक झुण्ड उछल-कूद करने लगा। इसी बीच एक बन्दर अधचिरे वृक्ष के बीच लगायी गयी खूंटी को निकालने लगा। ज्यों ही बन्दर ने खींचकर खूंटी निकाली, त्यों ही उसका अण्डकोश वृक्ष के हिस्सों के बीच में फंस गया और बन्दर की मृत्यु हो गयी।
इस कहानी को सुनाकर करटक बोला—मित्र! जिस काम से हमें कुछ लेना-देना नहीं, हम उस काम में अपनी टांग क्यों अड़ायें? हमें अपने स्वामी से भोजन मिल जाता है और उससे हमारी भूख मिट जाती है। हम क्यों बेकार में ‘आ बैल मुझे मार’ को चरितार्थ करें?
दमनक बोला—मित्र! क्या तुम अपने जीवन का उद्देश्य केवल ‘पेट भरना’ ही मानते हो? मैं तुम्हारे इस विचार से सहमत नहीं।
शास्त्रों में भी में कहा गया है—
सुहृदामुपकारकारणाद् द्विषतामप्यपकारकारणात्।
नृपसंश्रय इष्यते बुधैर्जठरं को न बिभर्ति केवलम्।।
अपना पेट तो किसी-न-किसी प्रकार सभी भर लेते हैं, यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। जीवन का उद्देश्य तो मित्रों का उपकार करना और शत्रुओं का अपकार करना है। मित्रों को लाभ और शत्रुओं को हानि पहुंचाने के लिए शक्ति और सामर्थ्य की आवश्यकता होती है, जिसके लिए बुद्धिमान् व्यक्ति राजाओं का आश्रय लेते हैं।
यस्मिन् जीवति जीवन्ति बहवः सोऽत्र जीवतु।
वयांसि किं न कुर्वन्ति चञ्च्वा स्वोदरपूरणम्।।
मित्र! तनिक सोचो, तुम्हें पता चलेगा कि दूसरों के लिए उपयोगी व्यक्ति का जीवन कितना महत्त्वपूर्ण होता है, अन्यथा पक्षी भी दाना चुगकर अपना पेट भर लेते हैं।
यज्जीव्यते क्षणमपि प्रथितं मनुष्यै- र्विज्ञानशौर्यविभवार्य्यगुणैः समेतम् ।
तन्नाम जीवितमिह प्रवदन्ति तज्ज्ञाः काकोऽपि जीवति चिराय बलिं च भुंक्ते।।
मित्र! कौवे के समान फेंका हुआ अन्न खाकर, किसी प्रकार जीने को जीना नहीं कहा जाता, अपितु अपनी शूरता व दक्षता आदि गुणों से दूसरों का हित साधन करते हुए जीना कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण होता है।
विद्वानों का निश्चित मत है—
यो नात्मना न च परेण न च बन्धुवर्गे दीने दयां न कुरुते न च मर्त्यवर्गे।
किं तस्य जीवितफलं हि मनुष्यलोके काकोऽपि जीवति चिरञ्च बलिं च भुंक्ते।।
कि अपनी, दूसरों की और दीन-दुखियों के हित की चिन्ता न करने वाले व्यक्ति का जीवन कौवे के जीवन से भिन्न नहीं होता। ऐसा व्यक्ति तो पृथ्वी पर भाररूप होता है।
सुपूरा स्यात्कुनदिका सुपूरो मूषिकाञ्जलिः।
सुसन्तुष्टः कापुरुषः स्वल्पकेनापि तुष्यति।।
जिस प्रकार छिछली नदी थोड़े पानी से और चूहे की हथेली अन्न के थोड़े-से दानों से भर जाती है, उसी प्रकार ओछे व्यक्ति भी थोड़े-से लाभ से सन्तुष्ट हो जाते हैं।
किं तेन जातु जातेन मातुर्यौवनहारिणा |
आरोहति न यः स्वस्य वंशस्याग्रे ध्वजो यथा।।
माता-पिता के नाम को रौशन न करने वाले पुत्र को जन्म देने वाली मां भी ऐसे पुत्र को जन्म देकर अपने यौवन को धिक्कारती ही है।
परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते ।
जातस्तु गण्यते सोऽत्र यः स्फुरेच्च श्रियाधिकः ।।
शास्त्रों के अनुसार उत्पन्न हुए व्यक्ति की मृत्यु और मृत व्यक्ति के जन्म का चक्र निरन्तर चलता ही रहता है। अतः जन्म लेना महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण तो अधिकाधिक धन अर्जित करना है।
जातस्य नदीतीरे तस्यापि तृणस्य जन्मसाफल्यम् ।
तत्सलिलमज्जनाकुलजनहस्तालम्बनं भवति ।।
जो व्यक्ति किसी के काम न आ सके, उसकी अपेक्षा नदी के किनारे पर उगे घास के तिनके का कहीं अधिक महत्त्व होता है, जो नदी में डूब रहे व्यक्ति को बचाने का साधन बन जाता है।
स्तिमितोन्नतसञ्चारा जनसन्तापहारिणः ।
जायन्ते विरला लोके जलदा इव सज्जनाः।।
वायुमण्डल में ऊपर-नीचे व दायें-बायें घूम-घूमकर लोगों के कष्टों को दूर करने वाले मेघों के समान सज्जन व्यक्ति तो इस संसार में विरले ही मिलते हैं।
निरतिशयं गरिमाणं तेन जनन्याः स्मरन्ति विद्वांसः ।
यत्कमपि वहति गर्भं महतामपि यो गुरुर्भवति ।।
तत्त्वदर्शी विद्वान् लोक-कल्याण में अपने जीवन का बलिदान करने वाले बालक की मां को ही वास्तव में ‘रत्नप्रसू’ मानकर उसे गौरव प्रदान करते हैं।
अप्रकटीकृतशक्तिः शक्तोऽपि जनस्तिरस्क्रियां लभते ।
निवसन्नन्तर्दारुणि लंघ्यो वह्निर्न तु ज्वलितः ।।
शक्ति होने पर भी उसका उपयोग या प्रदर्शन न करने वाले व्यक्ति को कभी आदर नहीं मिल पाता। लकड़ी में आग के अप्रकट रहने पर लकड़ियों को फेंक दिया जाता है। क्या कोई जलती हुई लकड़ी को हाथ लगाने का साहस कर सकता है?
दमनक के इस भाषण को सुनकर करटक बोला—मित्र! तुम्हारा कहना उचित है, परन्तु हम किस स्थिति में हैं, क्या तुमने इस तथ्य पर भी विचार किया है? हम राजा के नौकर नहीं हैं, केवल अपने स्वार्थ के कारण उसके आगे-पीछे चल रहे हैं। क्या उसने कभी हमारी आवश्यकता समझी है? क्या वह हमारी सलाह को कभी मानेगा? हमें इस झञ्झट में पड़ने की आवश्यकता नहीं है?
नीतिकारों ने कहा है—
अपृष्टोऽत्राप्रधानो यो ब्रूते राज्ञः पुरः कुधीः ।
न केवलमसम्मानं लभते च विडम्बनम् ।।
जो व्यक्ति बिना पूछे सलाह देने का प्रयास करता है, उसे निश्चित ही उपहास का पात्र बनना पड़ता है।
वचस्तत्र प्रयोक्तव्यं यत्रोक्तं लभते फलम् ।
स्थायी भवति चात्यन्तं रागः शुक्लपटे यथा ।।
जिस प्रकार सफ़ेद कपड़े पर ही रंग अपना उचित प्रभाव दिखा सकता है, उसी प्रकार उचित व्यक्ति को ही सलाह देने का लाभ हो सकता है।
अप्रधानः प्रधानः स्यात्सेवते यदि पार्थिवम् ।
प्रधानोऽप्यप्रधानः स्याद्यदि सेवाविवर्जितः ।।
दमनक बोला—मित्र! मैं तुम्हारे विचार को उचित नहीं मानता। राजा की सेवा करने वाला साधारण व्यक्ति भी मुखिया बन सकता है। जबकि सेवा न करने वाला मुखिया भी साधारण बन जाता है।
आसन्नमेव नृपतिर्भजते मनुष्यं विद्याविहीनमकुलीनमसंस्कृतं वा।
प्रायेण भूमिपतयः प्रमदा लताश्च यत्पार्श्वती भवति तत्परिवेष्टयन्ति ।।
शास्त्रों का वचन और जीवन का अनुभव यह है कि राजा, स्त्रियां और बेलें अपने पास रहने वाले को ही अपना लेती हैं, भले ही वह अशिक्षित और असंस्कृत ही क्यों न हो। इसी प्रकार सदा पास रहने वाला व्यक्ति भी राजाओं और स्त्रियों का प्रिय बन जाता है।
कोपप्रसादवस्तूनि ये विचिन्वन्ति सेवकाः ।
आरोहन्ति शनैः पश्चाद् धुन्वन्तमपि पार्थिवम् ।।
एक विचारणीय बात यह भी है कि स्वामी का कृपापात्र बनने के लिए सेवक को यह जान लेना चाहिए कि स्वामी को किस बात से क्रोध आता है और किस बात से वह प्रसन्न होता है; क्योंकि स्वामी के हृदय को जीतने का यही उपयुक्त अवसर होता है।
विद्यावतां महेच्छानां शिल्पविक्रमशालिनाम् ।
सेवावृत्तिविदाञ्चैव नाश्रयः पार्थिवं विना ।।
महत्त्वाकांक्षी विद्वानों, शिल्पकारों, कलाकारों तथा सेवावृत्ति के इच्छुक व्यक्ति को अपनी आकांक्षा की पूर्ति के लिए राजाश्रय ही उपयुक्त साधन होता है।
ये जात्यादिमहोत्साहान्नरेन्द्रान्नोपयान्ति च ।
तेषामामरणं भिक्षा प्रायश्चित्तं विनिर्मितम् ।।
अपनी जाति, विद्या अथवा किसी गुण के कारण राजाश्रय की उपेक्षा करने वाले व्यक्ति अपने ही पैरों पर अपने आप कुल्हाड़ी मार लेते हैं। ऐसे व्यक्ति जीवन-भर अभाव में रहते हैं और प्रायश्चित्त की आग में जलते रहते हैं।
ये च प्राहुर्दुरात्मानो दुराराध्या महीभुजः ।
प्रमादालस्यजाड्यानि ख्यापितानि निजानि तैः ।।
राजा को दुराराध्य कहने वाले व्यक्ति मूर्ख, आलसी और कामचोर होते हैं। जब प्रयत्न करने पर पत्थर को भी पिघलाया जा सकता है, तो राजा को प्रसन्न क्यों नहीं किया जा सकता?
सर्पान् व्याघ्रान् गजान् सिंहान् दृष्टोपायैर्वशीकृतान् ।
राजेति कियती मात्रा धीमतामप्रमादिनाम् ।।
यदि सांप, बाघ, हाथी और सिंह आदि हिंसक पशुओं को वश में किया जा सकता है, तो राजा को क्यों नहीं प्रसन्न किया जा सकता?
राजानमेव संश्रित्य विद्वान् याति परां गतिम् ।
विना मलयमन्यत्र चन्दनं न प्ररोहति ।।
जिस प्रकार चन्दन का वृक्ष मलय पर्वत पर ही होता है, उसी प्रकार राजाश्रय मिलने पर ही विद्वान् व्यक्ति की विद्वत्ता के गुणों का सम्मान होता है।
धवलान्यातपत्राणि वाजिनश्च मनोरमाः।
सदा मत्ताश्च मातङ्गाः प्रसन्ने सति भूपतौ ।।
राजा के प्रसन्न होने पर उसके आश्रित व्यक्ति को अनेक बहुमूल्य एवं दुर्लभ पदार्थ, जैसे श्वेत छत्र, मनोरम अश्व, सदा मस्त रहने वाले हाथी तथा अनेक प्रकार के वस्त्राभूषण और खाद्य-पदार्थ आदि सुलभ हो जाते हैं।
राजा के प्रति दमनक के प्रबल आग्रह को देखकर करटक ने पूछा—मित्र! तुम क्या करना चाहते हो?
इस पर दमनक बोला—मित्र! इस समय हमारा स्वामी पिंगलक किसी अज्ञात आशंका से ग्रस्त प्रतीत होता है। हमें उसके पास चलकर कारण का पता लगाना चाहिए और फिर नीति का आश्रय लेकर उसकी सेवा करनी चाहिए। इस प्रकार हम उसका हृदय जीतने में सफल हो जायेंगे।
करटक ने कहा—मित्र! तुम यह कैसे कह सकते हो कि हमारा स्वामी किसी आशंका से ग्रस्त है?
दमनक ने उत्तर दिया—यह भी कोई पूछने की बात है?
उदीरितोऽर्थः पशुनापि गृह्यते हयाश्च नागाश्च वहन्ति चोदिताः ।
अनुक्तमप्यूहति पण्डितो जनः परेङ्गितज्ञानफला हि बुद्धयः ।।
मित्र! यह तो स्पष्ट है कि कहने पर तो मूढ़ व्यक्ति को भी पता चल जाता है, समझदारी तो बिना कुछ कहे ही दूसरे के चेहरे से उसके मनोभावों को जान लेने में है। हाथी-घोड़े आदि पशु भी अपने स्वामी के संकेत को समझते हैं और भार उठाने को तैयार हो जाते हैं। लेकिन पण्डित तो वही है, जो बिना कहे ही दूसरों के मन के रहस्य को जान ले। यदि पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी इतना योग्य न हो, तो उसका पढ़ना-लिखना व्यर्थ ही कहलायेगा।
मनु ने भी कहा है—
आकारैरिङ्गितैर्गत्या चेष्टया भाषणेन च ।
नेत्रवक्त्रविकारैश्च लक्ष्यतेऽन्तर्गतं मनः ।।
किसी व्यक्ति के मन के भावों का पता उसके चेहरे के हाव-भाव तथा उसकी विभिन्न चेष्टाओं, गतिविधियों, चाल-ढाल, बातचीत करने के ढंग, उसके नेत्रों की स्थिति व उसके चेहरे के भावों से हो जाता है। लाख चेष्टा करने पर भी वास्तविकता छिप नहीं सकती।
यदि मैं भयग्रस्त स्वामी के भय का कारण जानकर उसे भयमुक्त कर सका, तो मुझे पूरा विश्वास है कि वह मुझे सचिव पद सौंपने में देर नहीं लगायेंगे।मुझे तो लगता है कि उनको वश में करने का यह सबसे उत्तम अवसर है।
करटक बोला—लगता है कि तुम्हें इन स्वामी के स्वभाव की कोई जानकारी नहीं है।
दमनक ने कहा—तुम ऐसा कैसे कह सकते हो? यह तो मैंने पिताजी से ज्ञान प्राप्त करते समय ही सीख लिया था। तुम कहो, तो तुम्हें बता दूं।
सुवर्णपुष्पितां पृथ्वीं विचिन्वन्ति नरास्त्रयः ।
शूरश्च कृतविद्यश्च यश्च जानाति सेवितुम् ।।
सबसे पहले तो यह मानकर चलना होगा कि इस संसार में तीन प्रकार के लोग सफल होते हैं :
1. पराक्रमी, 2. विद्वान् तथा 3. सेवाकार्य में निपुण।
सा सेवा या प्रभुहिता ग्राह्या वाक्यविशेषतः ।
आश्रयेत्पार्थिवं विद्वांस्तद्द्वारेणैव नान्यथा ।।
वास्तव में, सेवा वही कहलाती है, जिससे परमात्मा का हित हो और स्वामी को प्रसन्नता प्राप्त हो। सेवक की समझदारी इसी में है कि वह इस बात को समझे और उसी के अनुरूप आचरण भी करे।
यो न वेत्ति गुणान् यस्य न तं सेवेत पण्डितः ।
न हि तस्मात्फलं किञ्चित्सुकृष्टादूषरादिव ।।
जिस प्रकार ऊसर धरती में बढ़िया बीज डालने और कठोर परिश्रम करने पर भी अपेक्षित फल नहीं मिलता, उसी प्रकार सेवक के गुणों का उचित सम्मान न करने वाले स्वामी की सेवा करने से भी कोई लाभ नहीं होता। ऐसे स्वामी को छोड़ देने में ही भलाई होती है।
द्रव्यप्रकृतिहीनोऽपि सेव्यः सेव्यगुणान्वितः ।
भवत्याजीवनं तस्मात्फलं कालान्तरादपि ।।
यदि धनहीन स्वामी गुणों को परखने वाला और कृतज्ञ हो, तो उसकी सेवा अवश्य करनी चाहिए; क्योंकि साधन-सम्पन्न होने पर ऐसा स्वामी अपने सेवकों का उपकार कर देता है।
अपि स्थाणुवदासीनः शुष्यन्परिगतः क्षुधा ।
नत्वेवानात्मसम्पन्नाद्वृत्तिमीहेत पण्डितः ।।
कृतघ्न स्वामी की सेवा करके सुखमय जीवन जीने की अपेक्षा भूखा मरना तथा मूर्ख के समान जीवन व्यतीत करना ही अच्छा है।
सेवकः स्वामिनं द्वेष्टि कृपणं परुषाक्षरम् ।
आत्मानं किं स न द्वेष्टि सेव्यासेव्यं न वेत्ति यः ।।
अपने स्वामी की कंजूसी के लिए उसकी निन्दा करने वाला सेवक मूर्ख होता है। उसे तो अपनी निन्दा करनी चाहिए कि उसने योग्य स्वामी को क्यों नहीं चुना? स्वामी की सही परख न कर पाने के लिए सेवक को स्वयं ही अपनी निन्दा करनी चाहिए।
यमाश्रित्य न विश्रामं क्षुधार्त्ता यान्ति सेवकाः ।
सोऽर्कवन्नृपतिस्त्याज्यः सदा पुष्पफलोऽपि सन् ।।
सेवकों के लिए वस्त्र, भोजन व आवास आदि की पूर्ति न करने वाला स्वामी समस्त पृथ्वी का स्वामी होने पर भी आक के वृक्ष के समान त्याज्य होता है। उसे छोड़ने में एक पल की भी देरी करना उचित नहीं होता।
राजमातरि देव्यां च कुमारे मुख्यमन्त्रिणि ।
पुरोहिते प्रतिहारे च सदा वर्त्तेत राजवत् ।।
जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए सेवक को स्वामी के साथ-साथ राजमाता, पटरानी, राजकुमार, प्रधानमन्त्री, पुरोहित और द्वारपाल के साथ भी स्वामी के समान ही व्यवहार करना चाहिए
जीवेति प्रब्रुवन् प्रोक्तः कृत्याकृत्यविचक्षणः ।
करोति निर्विकल्पं यः स भवेद्राजवल्लभः ।।
उचित और अनुचित तथा करणीय एवं अकरणीय की जानकारी होने पर भी बिना विचार किये स्वामी की आज्ञा का आंख मींचकर पालन करने वाला सेवक अपने स्वामी का कृपापात्र बन जाता है।
प्रभुप्रसादजं वित्तं सुप्राप्तं यो निवेदयेत् ।
वस्त्राद्यं च दधात्यङ्गे स भवेद्राजवल्लभः ।।
स्वामी द्वारा पुरस्कार के रूप में दिये पदार्थों पर प्रसन्न होने वाला तथा स्वामी द्वारा दिये गये वस्त्राभूषणों आदि को मुख्य अवसरों पर धारण करने वाला सेवक स्वामी के हृदय को जीत लेता है।
अन्तःपुरचरैः सार्द्धं यो न मन्त्रं समाचरेत् ।
न कलत्रैर्नरेन्द्रस्य स भवेद्राजवल्लभः ।।
अन्तःपुर के कर्मचारियों तथा राजमहिषियों से दूर रहने वाला तथा उनके प्रति आसक्ति न रखने वाला सेवक स्वामी का प्रिय बन जाता है।
द्यूतं यो यमदूताभं हालां हालाहलोपमाम् ।
पश्येद्दारान्वृथाकारान्स भवेद्राजवल्लभः ।।
जुए को यमदूत के समान, शराब को विष के समान और सुन्दर स्त्रियों को श्मशान की मटकियों के समान मानते हुए उनसे दूर रहने वाला सेवक ही राजा को प्रिय होता है।
युद्धकालेऽग्रतो यः स्यात्सदा पृष्ठानुगः पुरे ।
प्रभोर्द्वाराश्रितो हर्म्ये स भवेद्राजवल्लभः ।।
शान्ति के समय सदा राजा के पीछे-पीछे चलने वाला, महल के द्वार पर सदा उपस्थित रहने वाला तथा संकट के समय सदा आगे रहने वाला सेवक ही स्वामी को प्रिय होता है
सम्मतोऽहं विभोर्नित्यमिति मत्वा व्यतिक्रमेत् ।
कृच्छ्रेष्वपि न मर्यादां स भवेद्राजवल्लभः ।।
राजा का कृपापात्र बनकर कठिन परिस्थितियों में भी अपने कर्तव्य का निर्वाह करने वाला और अपनी मर्यादा का त्याग न करने वाला सेवक ही स्वामी को प्रिय होता है।
द्वेषिद्वेषपरो नित्यमिष्टानामिष्टकर्मकृत् ।
यो नरो नरनाथस्य स भवेद्राजवल्लभः ।।
स्वामी के शत्रुओं से दूर रहने वाला तथा उसके इष्टजनों की सेवा करने वाला सेवक ही स्वामी को प्रिय लगता है।
प्रोक्तः प्रत्युत्तरं नाहं विरुद्धं प्रभुणा च यः ।
न समीपे इसत्युच्चैः स भवेद्राजवल्लभः ।।
स्वामी के विरुद्ध कभी अपना मुंह न खोलने वाला तथा उसके सामने न हंसने वाला सेवक ही स्वामी को प्रिय लगता है।
यो रणं शरणं तद्वन्मन्यते भयवर्जितः ।
प्रवासं स्वपुरावासं स भवेद्राजवल्लभः ।।
युद्धभूमि को अपना घर तथा परदेस को अपना देश समझने वाला और स्वामी के हित को प्राथमिकता देने वाला सेवक भी स्वामी को प्रिय लगता है।
न कुर्य्यान्नरनाथस्य योषिद्भिः सह सङ्गतिम् ।
न निन्दां न विवादं च स भवेद्राजवल्लभः ।।
किसी भी व्यक्ति के सामने राजा की निन्दा न करने वाला, राजा से कभी विवाद न करने वाला तथा राजा की प्रेमिकाओं से लगाव न रखने वाला सेवक ही स्वामी का प्रिय हो सकता है।
दमनक के यह कहने पर करटक को विश्वास हो गया कि दमनक राजनीति में निपुण है।
फिर उसने पूछा—तुम राजा से किस प्रकार सम्पर्क बनाओगे? मुझे बताओ।
उत्तरादुत्तरं वाक्यं वदतां सम्प्रजायते ।
सुवृष्टिगुणसम्पन्नाद्बीजाद्बीजमिवापरम् ।।
दमनक ने कहा—इस बारे में सोच-विचार करने की क्या आवश्यकता है? जिस प्रकार धरती में पड़ा बीज वर्षा हो जाने पर फलने लगता है, उसी प्रकार मिलने पर बातचीत भी होने लगती है। मैं तुम्हें बता चुका हूं कि मैं बचपन में ही राजनीति की शिक्षा प्राप्त कर चुका हूं, अतः मैं अवसर देखकर ही बात छेड़ूंगा। मैं जानता हूं
अप्राप्तकालं वचनं बृहस्पतिरपि ब्रुवन् ।
लभते बह्वज्ञानमपमानं च पुष्कलम् ।।
कि बिना उपयुक्त अवसर के तो बृहस्पति द्वारा कही गयी बात को भी कोई गौरव नहीं देता। तभी तो उनको भी अपमान सहना पड़ता है। करटक बोला—बन्धु! मैं मानता हूं
दुराराध्या हि राजानः पर्वता इव सर्वदा ।
व्यालाकीर्णाः सुविषमाः कठिना दुष्टसेविताः ।।
कि जिस प्रकार ऊबड़-खाबड़ तथा सर्प एवं व्याघ्र आदि भयंकर जीवों से भरे पर्वत कठोर होते हैं, उसी प्रकार राजा लोग भी कठोर-हृदय होते हैं और सदैव दुष्ट लोगों से घिरे रहते हैं। उन्हें प्रसन्न करना कोई सरल काम नहीं होता।
द्विजिह्वाः क्रूरकर्माणोऽनिष्टाश्छिद्रानुसारिणः ।
दूरतोऽपि हि पश्यन्ति राजानो भुजगा इव ।।
जिस प्रकार सांप की दो जीभें होती हैं, वे दूसरों को डसने का ही काम करते हैं, सदा बिल की खोज करते रहते हैं और दूर रखे जाते हैं, उसी प्रकार राजा भी दो जीभों वाले होते हैं। उनके कथन पर विश्वास नहीं किया जा सकता। वे दूसरों को दण्डित करने के आदी होते हैं, अतः उनसे भी सांपों की तरह दूर रहना ही उचित होता है।
दुरारोहं पदं राज्ञां सर्वलोकनमस्कृतम् ।
स्वल्पेनाप्यपकारेण ब्राह्मण्यमिव दुष्यति ।।
राजा का कृपापात्र बनना सरल काम नहीं होता। जिस प्रकार साधारण-सा पापकर्म करने से भी ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार राजा के प्रति किये गये साधारण-से अपराध का भी बड़ा भारी दण्ड भुगतना पड़ता है।
भर्तुश्चित्तानुवर्त्तित्वं सुवृत्तं चानुजीविनाम् ।
राक्षसाश्चापि गृह्यन्ते नित्यं छन्दानुवर्तिभिः ।।
राजनीति के अनुसार राजा की चित्तवृत्ति का अनुसरण करना ही सदाचार कहलाता है और इसका पालन करने वाला व्यक्ति राक्षस स्वभाव वाले राजा को भी अपने वश में कर सकने में सफल हो जाता है।
सरुषि नृपे स्तुतिवचनं तदभिमते प्रेम तदि्द्वषि द्वेषः ।
तद्दानस्य च शंसा अमन्त्रतन्त्रं वशीकरणम् ।।
राजा को वश में करने के लिए कुछ आवश्यक नियम इस प्रकार हैं—
1. राजा का कोपभाजन बने व्यक्ति से कोई भी सम्बन्ध न रखना तथा उसे अपने पास भी न फटकने देना।
2. राजा के सम्मुख अथवा उसकी पीठ पीछे भी सदैव उसकी प्रशंसा करना तथा उसके क्रुद्ध होने पर भी उसका स्तुतिगान ही करना।
3. सदा ही राजा को प्रिय लगने वाले विषय की प्रशंसा करना और उसे अप्रिय लगने वाले विषय की निन्दा करना।
4. राजा की उदारता एवं उसकी दानशीलता का इस प्रकार गुणगान करना कि राजा को हर ओर से वही सुनाई दे।
करटक बोला—बन्धु! यदि तुम स्वामी के पास जाना ही चाहते हो, तो जाओ। मैं तुम्हारी सफलता के लिए ईश्वर से प्रार्थना करूंगा।
इस पर दमनक अपने मित्र करटक का अभिवादन करके पिंगलक की ओर चल दिया। दमनक को अपनी ओर आता देखा, तो पिंगलक ने अपने द्वारपाल से कठोर स्वर में कहा—
वेत्रपाल! दमनक हमारे पूर्व मन्त्री का बेटा है, इसे हमारे पास आने का अधिकार है। द्वारपाल ने ‘जो आज्ञा महाराज’ कहते हुए सिंह की आज्ञा का पालन किया। दमनक ने भी पिंगलक को देखते ही उसे प्रणाम किया और फिर उसके द्वारा निर्दिष्ट आसन पर चुपचाप जा बैठा।
पिंगलक ने दमनक को आशीर्वाद दिया और उससे पूछा—अरे दमनक! तुम तो बहुत दिनों बाद दिखाई दिये हो, सब कुशल तो है?
दमनक ने अत्यन्त विनीत स्वर में कहा—स्वामी! आपकी दया से मैं कुशल से हूं। लेकिन अब मुझे आपसे कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है, फिर भी, आपसे कुछ कहना आवश्यक समझकर ही मैं आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूं।
आप तो जानते ही हैं कि राजाओं को सभी प्रकार के लोगों से समय-समय पर काम पड़ता रहता है। यह कोई अनोखी बात नहीं है। हम तो वंश-परम्परा से आपके शुभचिन्तक और सुख-दुःख में साथ देने वाले रहे हैं।
आज हमारे पास कोई अधिकार नहीं है, हम अपने सभी अधिकारों से वञ्चित कर दिये गये हैं।
*स्थानेष्वेव नियोक्तव्या भृत्याश्चाभरणानि च ।*
*नहि चूडामणिः पादे प्रभवामीति बध्यते ।।*
यदि सेवक और आभूषण नियत स्थान पर ही रहें, तब ही उनकी शोभा होती है। यदि मुकुट को पैरों में बांध दिया जाये, तो इससे मुकुट का अपमान तो होता ही है, उसे धारण करने वाले की अज्ञानता का भी पता चल जाता है।
*अनभिज्ञो गुणानां यो न भृत्यैरनुगम्यते ।*
*धनाढ्योऽपि कुलीनोऽपि क्रमायातोऽपि भूपतिः ।।*
यह तो आप भी जानते होंगे कि धनी, कुलीन और वंश-परम्परा से राजा के गुणी सेवक भी अपने गुणों को महत्त्व न देने वाले स्वामी को छोड़कर चले जाते हैं। महाराज! आप मुझे बहुत दिनों के बाद दिखाई देने का उलाहना दे रहे हैं, तो इसका कारण भी जान लीजिये।
*सव्यदक्षिणयोर्यत्र विशेषो नास्ति हस्तयोः ।*
*कस्तत्र क्षणमप्यार्यो विद्यमानगतिर्वसेत् ।।*
जहां दायें व बायें हाथ में अन्तर नहीं किया जाता, गुणी सेवक तथा गुणरहित सेवक में अन्तर नहीं किया जाता, दोनों के साथ एक-जैसा ही व्यवहार किया जाता है, वहां स्वाभिमानी सेवक कब तक टिक सकता है?
*काचे मणिर्मणौ काचो येषां बुद्धिर्विकल्प्यते ।*
*न तेषां सन्निधौ भृत्यो नाममात्रोऽपि तिष्ठति ।।*
कांच को मणि और मणि को कांच समझने वाले बुद्धिहीन स्वामी के पास गुणी सेवक कब तक टिक सकता है, इसे तो आप भली प्रकार जानते हैं।
परीक्षका यत्र न सन्ति देशे नार्घन्ति रत्नानि समुद्रजानि ।
आभीरदेशे किल चन्द्रकान्तं त्रिभिर्वराटैर्विपणन्ति गोपाः ।।
जांच-परख न कर सकने वाले लोगों के हाथ में आये समुद्र से निकले सच्चे मोतियों का कुछ भी मूल्य नहीं होता। तभी तो आभीर देश में ग्वाले दुर्लभ मणि को दो-दो, तीन-तीन कौड़ियों में बेच देते हैं।
निर्विशेषं यदा स्वामी समं भृत्येषु वर्त्तते ।
तत्रोद्यमसमर्थानामुत्साहः परिहीयते ।।
छोटे-बड़े सभी प्रकार के सेवकों के साथ एक-जैसा व्यवहार करने वाले राजा के कर्मचारियों की आकांक्षाएं नष्ट हो जाती हैं और उनकी मौलिक प्रवृत्ति समाप्त हो जाती है, जो राजाओं के लिए उचित नहीं होता।
न विना पार्थिवो भृत्यैर्न भृत्याः पार्थिवं विना ।
तेषां च व्यवहारोऽयं परस्परनिबन्धनः ।।
यह एक निर्विवाद सत्य है कि राजा के बिना सेवकों का और सेवकों के बिना राजा का काम नहीं चल सकता। एक के बिना दूसरे का कोई अस्तित्व ही नहीं होता।
भृत्यैर्विना स्वयं राजा लोकानुग्रहकारिभिः ।
मयूखैरिव दीप्तांशुस्तेजस्वपि न शोभते ।।
जिस प्रकार किरणों के बिना सूर्य की कोई शोभा नहीं होती, उसी प्रकार सेवकों के बिना स्वामी की भी शोभा नहीं होती।
शिरसा विधृता नित्यं स्नेहेन परिपालिताः ।
केशा अपि विरज्यन्ते निःस्नेहाः किं न सेवकाः ।।
जिस प्रकार सिर के केश, नित्य साफ़ न किये जाने पर रूखे और कठोर हो जाते हैं, क्या उसी प्रकार पुरस्कार आदि न मिलने के कारण सेवक दुखी नहीं होंगे?
राजा तुष्टो हि भृत्यानामर्थमात्रं प्रयच्छति ।
ते तु सम्मानमात्रेण प्राणैरप्युपकुर्वते ।।
सेवकों के किसी कार्य पर प्रसन्न होकर राजा उन्हें धन-मान आदि देकर पुरस्कृत करता है, लेकिन सच्चा सेवक तो अपने स्वामी के लिए अपने प्राणों की आहुति देने के लिए भी सदा तैयार रहता है।
*एवं ज्ञात्वा नरेन्द्रेण भृत्याः कार्या विचक्षणाः ।*
*कुलीनाः शौर्य्यसंयुक्ताः शक्ता भक्ताः क्रमागतः ।।*
इन सब बातों को देखते हुए बुद्धिमान् राजा को कुलीन, शूरवीर, चतुर, निष्ठावान् एवं समर्पित व्यक्तियों को ही महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्त करना चाहिए।
*यः कृत्वा सुकृतं राज्ञो दुष्करं हितमुत्तमम् ।*
*लज्जया वक्ति नो किञ्चित्तेन राजा सहायवान् ।।*
राजा के लिए अपने प्राणों को जोखिम में डालकर भी अपना विज्ञापन न करने वाले सेवकों का सम्मान करने वाला राजा ही उन्नति करता है।
*यस्मिन् कृत्यं समावेश्य निर्विशङ्केन चेतसा ।*
*आस्यते सेवकः स स्यात्कलत्रमिव चापरम् ।।*
वास्तव में, सच्चा एवं विश्वस्त सेवक वही है, जिसे कोई भी कार्य सौंपकर स्वामी निश्चिन्त हो जाये। ऐसे सेवकों के अतिरिक्त सेवक तो स्त्रियों के समान भाररूप होते हैं।
#######
*।।पंचतंत्र।।*
*_प्रथम तन्त्र_*
*मित्रभेद* (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
*कथा क्रम : एक*
*अनादिष्टोऽपि भूपस्य दृष्ट्वा हानिकरं च यः ।*
*यतते तस्य नाशाय स भृत्योऽर्हो महीभुजाम् ।।*
अपने राजा के विरुद्ध चल रही किसी विरोधी गतिविधि को नष्ट करने के लिए अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा देने वाला सेवक ही वास्तव में सेवक कहलाने योग्य होता है।
*न क्षुधा पीड्यते यस्तु निद्रया न कदाचन ।*
*न च शीतातपाद्यैश्च स भृत्योऽर्हो महीभुजाम् ।।*
स्वामी के काम के लिए अपनी भूख-प्यास, निद्रा तथा सुख-सुविधा को भूलकर अपने कर्तव्य का पालन करने वाला व्यक्ति ही सच्चा सेवक होता है।
*सीमावृद्धिं समायाति शुक्लपक्ष इवोडुराट् ।*
*नियोगसंस्थिते यस्मिन् स भृत्योऽर्हो महीभुजाम् ।।*
सीमा पर सतर्क रहकर अपने स्वामी की सुरक्षा करने वाला और शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की भांति सीमा को बढ़ाने वाला सैनिक ही सच्चा सेवक कहलाता है।
*कौशेयं कृमिजं सुवर्ण-*
*मुपलाद् दूर्वापि गोरोमतः*
*पङ्कात्तामरसं शशाङ्क*
*उदधेरिन्दीवरं गोमयात् ।*
*काष्ठादग्निरहेः फणादपि*
*मणिर्गोपित्ततो रोचना*
*प्राकाश्यं स्वगुणोदयेन*
*गुणिनो गच्छन्ति किं जन्मना ।।*
यह कहने के उपरान्त दमनक बोला—
स्वामी! मुझे साधारण गीदड़ समझकर आपको मेरी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए थी। जन्म अथवा जाति से गुणों का कोई सम्बन्ध नहीं होता। रेशम का जन्म कीड़े से होता है, सोना पत्थर से निकाला जाता है, दूर्वा की उत्पत्ति गाय के रोमों से होती है, कमल का जन्म कीचड़ से होता है और चन्द्रमा की उत्पत्ति सागर से होती है। इन्दीवर कमल गोबर से, अग्नि लकड़ी से, मणि सांप के फन से और गोरोचन गाय के पित्त से उत्पन्न होता है। इन सबकी उत्पत्ति के स्थानों के तुच्छ होने पर भी, अपने गुणों के कारण ही इनकी प्रतिष्ठा है।
*किं भक्तेनासमर्थेन किं शक्तेनापकारिणा ।*
*भक्तं शक्तं च मां राजन् नावज्ञातुं त्वमर्हसि ।।*
जिस प्रकार कुछ भी करने में असमर्थ सेवक के समर्पित होने पर भी उसकी कोई उपयोगिता नहीं होती, उसी प्रकार समर्थ सेवक के समर्पित न होने पर उसकी भी कोई उपयोगिता नहीं होती। उपयोगिता तो केवल समर्थ और समर्पित सेवक की ही होती है।
*अपि स्वल्पतरं कार्य्यं यद्भवेत्पृथिवीपतेः ।*
*तन्न वाच्यं सभामध्ये प्रोवाचेदं बृहस्पतिः ।।*
आचार्य बृहस्पति का कथन है कि राजा को अपने किसी छोटे-से कार्य की चर्चा भी किसी सभा में नहीं करनी चाहिए।
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*।।पंचतंत्र।।*
*_प्रथम तन्त्र_*
*मित्रभेद* (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
*कथा क्रम : एक*
*षट्कर्णो भिद्यते मन्त्रश्चतुष्कर्णः स्थिरो भवेत् ।*
*तस्मात्सर्वप्रयत्नेन षट्कर्णं वर्जयेत्सुधीः ।*
दमनक चाहता है कि वह पिंगलक से एकान्त में कुछ बात करे। उसके सबके सामने कुछ न कहने का कारण यह है कि कोई भी बात दो व्यक्तियों के बीच होने पर ही गुप्त रहती है, तीसरे व्यक्ति के कानों में पड़ते ही उसकी गोपनीयता नष्ट हो जाती है।
अतः बुद्धिमान् व्यक्ति को अपना रहस्य दो व्यक्तियों तक ही सीमित रखना चाहिए। इसलिए मैं कहता हूं कि मैं आपसे एकान्त में बात करना आवश्यक समझता हूं। पिंगलक का कथन सुनकर पास बैठे व्याघ्र, गेंडा, बगुला आदि सब उठकर चल दिये।
एकान्त होने पर दमनक ने उससे पूछा—आप तो अपनी प्यास बुझाने के लिए गये थे, फिर बिना जल पिये क्यों लौट आये? पिंगलक ने हंसते हुए उत्तर दिया—कोई विशेष बात नहीं थी, मन नहीं किया, तो वापस लौट आया।
दमनक ने कहा—स्वामी! आप नहीं बताना चाहते, तो मैं आपसे कुछ भी नहीं पूछूंगा;
नीतिकारों ने कहा है—
*दारेषु किञ्चित्स्वजनेषु किश्चिद्गोप्यं वयस्येषु सुतेषु किञ्चित् ।*
*युक्तं न वा युक्तमिदं विचिन्त्य वदेद्विपश्चिन्महतोऽनुरोधात्।।*
कि बुद्धिमान् व्यक्ति को कुछ बातें स्त्रियों से,
कुछ बातें अपने सम्बन्धियों से और
कुछ बातें मित्रों तक से भी छिपाकर रखनी चाहिए।
इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि कहने योग्य और न कहने योग्य का विचार करके विश्वस्त व्यक्ति को गुप्त बात भी बता देनी चाहिए; क्योंकि किसी समस्या के समाधान के लिए ऐसा करना आवश्यक होता है।
दमनक के वचनों पर विचार करने के पश्चात् पिंगलक को लगा कि वह समझदार है, अतः मुझे इसके सामने सब कुछ स्पष्ट कर देना चाहिए।
*सुहृदि निरन्तरचित्ते गुणवति भृत्येऽनुवर्तिनि कलत्रे।।*
*स्वामिनि सौहृदयुक्ते निवेद्य दुःखं सुखी भवति ।।*
क्योंकि विश्वस्त मित्र से, निष्ठावान् सेवक से, आज्ञाकारिणी पत्नी से तथा शुभचिन्तक स्वामी से अपना दुःख-सुख कहने में संकोच नहीं करना चाहिए;
क्योंकि यही लोग—मित्र, सेवक, पत्नी और स्वामी—कुछ उपाय कर सकते हैं।
यही सोचकर पिंगलक ने दमनक से कहा—दमनक! दूर से आती यह गर्जन ध्वनि तुम्हें भी सुनाई दे रही होगी।
दमनक बोला—हां स्वामी! सुन रहा हूं, परन्तु इसमें चिन्ता करने की क्या बात है?
पिंगलक ने कहा—मैं इस जंगल को छोड़कर किसी दूसरे जंगल में जाने की सोच रहा हूं।
दमनक चौंककर बोला—इस जंगल में कौन-सा आकाश गिरने वाला है?
पिंगलक ने कहा—मुझे लगता है कि यहां कोई नया जीव आ गया है, यह हृदयविदारक गर्जन उसी का लगता है। मुझे तो लगता है कि वह अत्यन्त बलशाली भी होगा।
दमनक बोला—क्षमा करें देव! केवल गर्जन सुनकर ऐसी कल्पना कर लेना तो उचित नहीं।
*अम्भसा भिद्यते सेतुस्तथा मन्त्रोऽप्यरक्षितः ।*
*पैशुन्याद्भिद्यते स्नेहो भिद्यते वाग्भिरातुरः ।।*
जिस प्रकार जल के प्रबल प्रवाह से पुल टूट जाता है, गुप्त न रखे जाने पर रहस्य की जानकारी दूसरों को हो जाती है, चुगुली सुनकर प्रिय व्यक्ति के प्रति स्नेह घट जाता है, उसी प्रकार व्याकुल होकर प्राणी किसी की आवाज़ से भी घबरा जाता है।
मेरे विचार से तो आपका गर्जन के भय से इस जंगल को छोड़ देना उचित नहीं। यह आवश्यक तो नहीं कि यह गर्जन किसी जीवित प्राणी का ही हो। बांस, वीणा, ढोल, नगाड़ा तथा दो वृक्षों की टकराहट से भी आवाज़ निकल सकती है। केवल आवाज़ को सुनकर डर जाना तो बुद्धिमत्ता की बात नहीं।
*अत्युत्कटे च रौद्रे च शत्रौ प्राप्ते न हीयते ।*
*धैर्य्यं यस्य महीनाथ न स याति पराभवम् ।।*
किसी भयंकर अथवा शूरवीर शत्रु के आ जाने पर भी धैर्य बनाये रखने वाला राजा कभी पराजित नहीं हो सकता।
*यस्य न विपदि विषादः सम्पदि हर्षो रणे न भीरुत्वम् ।*
*तं भुवनत्रयतिलकं जनयति जननी सुतं विरलम् ।।*
विपत्ति के समय विषादग्रस्त न होने वाले, धन-सम्पत्ति पाकर हर्षोन्मत्त न होने वाले तथा युद्ध में भयभीत न होने वाले जीव विरले ही होते हैं तथा ऐसे ही जीव अपनी माता के नाम को उज्ज्वल कर तीनों लोकों की शोभा बढ़ाते हैं।
*शक्तिवैकल्यनम्रस्य निःसारत्वाल्लघीयसः ।*
*जन्मिनो मानहीनस्य तृणस्य च समा गतिः ।।*
शक्ति से घबराकर झुक जाने वाले और अपने को छोटा समझने वाले कायरों को कहीं भी सम्मान नहीं मिलता। उनकी स्थिति तो किसी तिनके के समान होती है। अतः आपको ये सब बातें सोचकर अधीर नहीं होना चाहिए। मात्र एक गर्जन सुनकर घबरा जाना तो समझदारी नहीं।
*पूर्वमेव मया ज्ञातं पूर्णमेतद्धि मेदसा ।*
*अनुप्रविश्य विज्ञातं तावच्चर्म च दारु च ।।*
किसी नायक ने आवाज़ सुनकर यह समझा कि आवाज़ करने वाला कोई जीवित प्राणी है, परन्तु पास पहुंचकर उसने देखा कि वह तो केवल चमड़ा और लकड़ी था। पिंगलक के मन को शान्त करने के लिए दमनक ने उसे यह कथा सुनायी।
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*।।पंचतंत्र।।*
*_प्रथम तन्त्र_*
*मित्रभेद* (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
*कथा क्रम : दो*
भूख से बेचैन गोभायु नामक एक गीदड़ घूमते-घूमते अचानक उस जंगल में जा पहुंचा, जहां दो सेनाओं में भीषण युद्ध हो चुका था। वहां उसने हवा के वेग से कांप रही वृक्ष की शाखाओं की आवाज़ सुनी।
गीदड़ ने सोचा कि यह आवाज़ मेरे पास पहुंचे, इससे पहले ही यहां से निकल भागना चाहिए। तभी अचानक उसे यह विचार आया कि क्या बाप-दादा के ज़माने से चले आ रहे अपने इस निवासस्थान को इस प्रकार अचानक छोड़ जाना उचित होगा?
शास्त्रकारों का कथन है—
*भये वा यदि वा हर्षे सम्प्राप्ते यो विमर्शयेत् ।*
*कृत्यं न कुरुते वेगान्न स सन्तापमाप्नुयात् ।।*
हर्ष अथवा भय का अवसर आ जाने पर सदा सोच-विचार कर काम करने वाले व्यक्ति को कभी पछताना नहीं पड़ता। अतः उसने निश्चय किया कि पहले मुझे यह पता लगाना चाहिए कि यह आवाज़ कैसी है? भयभीत होते हुए भी उसने अपना साहस बटोरा और धीरे-धीरे उस ओर बढ़ना आरम्भ किया, जिधर से वह आवाज़ आ रही थी। पास पहुंचने पर उसे एक नगाड़ा दिखाई दिया, तो वह उसे बजाने लगा। फिर उसने सोचा कि बहुत दिनों के बाद आज मुझे इतना सुस्वादु भोजन मिला है। इस नगाड़े में तो गोश्त, चर्बी आदि बहुत कुछ भरा होगा। यह सोचकर प्रसन्न एवं उन्मत्त हुए गीदड़ ने नगाड़े में छेद किया और उसके भीतर घुसकर बैठ गया, लेकिन वहां उसे केवल काठ के सिवा कुछ भी नहीं मिला। सूखे चमड़े को फाड़ते हुए उसकी दाढ़ें भी टूट चुकी थीं।
फिर वह यह कहते हुए बाहर निकला—
मैंने तो सोचा था कि इसमें मांस, चर्बी आदि बहुत कुछ होगा, परन्तु यहां तो सूखे चमड़े और लकड़ी के सिवा कुछ भी नहीं है।
पिंगलक ने कहा—
मेरा पूरा परिवार इसी आवाज़ से भयभीत होकर यहां से भागने का निश्चय कर चुका है। फिर मैं अकेला यहां कैसे रह सकता हूं?
इस पर दमनक ने कहा—स्वामी! आप अपने परिजनों को दोष मत दीजिये। वे सब तो आपको भयभीत देखकर घबरा गये हैं।
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*।।पंचतंत्र।।*
*_प्रथम तन्त्र_*
*मित्रभेद* (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
*कथा क्रम : दो*
*अश्व: शस्त्रं शास्त्रं वीणा वाणी नरश्च नारी च ।*
*पुरुषविशेषं प्राप्ता भवन्त्ययोग्याश्च योग्याश्च ।।*
सत्य तो यह है कि निम्नोक्त सातो की मानसिकता अपने स्वामी के व्यवहार पर निर्भर करती है। स्वामी इन्हें जिस रूप मे ढालना चाहते है, ये वैसा ही आचरण करने लगते है।
१. घोड़ा, शस्त्र, शास्त्र, विणा , वाणी ,नर ,और नारी- ये सब जिस प्रकार के पुरुष के साथ रहते हैं, उसी के अनुसार अपने आप को ढाल लेते हैं।
कहने का अभिप्राय यह है कि आपके परिजनों का डर उनका अपना नहीं है, वे तो आपको भयभीत देखकर ही डर रहे हैं।
*स्वाम्यादेशात्सुभृत्यस्य न भीः सञ्जायते क्वचित् *
*प्रविशेन्मुखमाहेयं दुस्तरं वा महार्णवम् ।।*
आप मुजे थोड़ा-सा समय दीजिये। मै इस भयंकर शब्द की जानकारी लेकर आता हूं, तब तक आप मेरी प्रतीक्षा करे। उसके बाद ही आप जो उचित समजे, वह करे।
पिंगलक ने पूछा- क्या तुम हमारे लिए स्वयं को खतरे मे डालोगे?
दमनक ने उत्तर दिया- महाराज!स्वामी के लिए कुछ भी करना सेवक का धर्म है। यही कहा गया है कि स्वामी का कार्य करते समय सेवक को सुरक्षा – असुरक्षा का विचार नही करना चाहिए।
स्वामी के लाभ के लिए तो उसे अजगर वं सांप के मुंह मे हाथ डालने और अथाह सागर मे डूबने के लिए भी सदा तैयार रहना चाहिए।
*स्वाम्यादिष्टस्तु यो भृत्यः समं विषममेव च ।*
*मन्यते न स सन्धार्यो भूभुजा भूतिमिच्छता ।।*
अपनी समृद्धि मे वृद्धि के इच्छुक राजा को अपनी आज्ञा की चिंता करने वाले सेवक को तुरंत सेवा से निकाल देना चाहिए।
इस पर पिंगलक बोला- तब ठीक है, तुम जाओ, ईश्वर तुम्हारी सहायता करे।
इस पर पिंगलक को प्रणाम निवेदन कर दमनक आवाज का पीछा करता हुआ सज्जाविक ओर चल दिया।
अब पिंगलक यह सोचने लगा कि कही दमनक को अपने मन का रहस्य बताकर मैंने कोई गलती तो नही की, कही यह मुझसे अपने को पद से हटाए जाने का बदला तो नही लेगा?
*ये भवन्ति महीपस्य सम्मानितविमानिताः ।*
*यतन्ते तस्य नाशाय कुलीना अपि सर्वदा ।।*
पद से हटाए गये व्यक्ति कुलीन होने पर भी राजा के विनाश का अवसर मिलने पर बदला लेने से नही चूकते।
पिंगलक सोच मे पड़ गया कि यदि दमनक मुजे मारने के लिए उस भयंकर प्राणी को अपने साथ लेकर यहा आ गया, तो मुझे तुरंत ही किसी सुरक्षित स्थान पर चले जाना चाहिये?
नीतिकारो ने भी कहा है-
*न वध्यन्ते ह्यविश्वस्ता बलिभिर्दुर्बला अपि ।*
*विश्वस्तास्त्वेव वध्यन्ते बलवन्तोऽपि दुर्बलैः ।।*
कि दूसरों पर विश्वास न करने वाले दुर्बल व्यक्ति भी बलवान शत्रु का शिकार होने से बच जाते है, जबकि दुसरो पर विश्वास करने वाले बलवान व्यक्ति भी सहज ही अपने शत्रु का शिकार बन जाते है।
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*।।पंचतंत्र।।*
*_प्रथम तन्त्र_*
*मित्रभेद* (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
*कथा क्रम : दो*
*बृहस्पतेरपि प्राज्ञो न विश्वासे व्रजेन्नर:*
*य इच्छेदात्मनो वृद्धिमायुष्मं च सुखानि च।*
अपने को सुरक्षित एवं सुखी बनाने के लिए व्यक्ति को बृहस्पति के समान किसी व्यक्ति पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए।
*शपथैः सन्धितस्यापि न विश्वासे व्रजेद्रिपोः ।*
*राज्यलोभोद्यतो वृत्रः शक्रेण शपथैर्हतः ।।*
इसी प्रकार शपथ लेकर सन्धि करने वाले शत्रु पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए। इन्द्र ने भी शपथ लेकर और वृत्र का विश्वास जीतकर उसे मार डाला था। यह सोचकर पिंगलक किसी सुरक्षित स्थान में छिप गया और दमनक की राह देखने लगा।
दमनक ने सञ्जीवक को ढूंढ़ लिया और वह उसे देखकर बोला—अरे, हमारे स्वामी के डर का कारण तो यह बैल है। इसके साथ स्वामी की मित्रता अथवा युद्ध करा देने से पिंगलक को अपनी मुट्ठी में करना मेरे लिए कितना आसान हो जायेगा?
*सदैवापद्गतो राजा भोग्यो भवति मन्त्रिणाम् ।*
*अत एव हि वाञ्छन्ति मन्त्रिणः सापदं नृपम् ।।*
संकट के समय राजा को अपने अनुकूल बनाना मन्त्री के लिए बड़ा आसान होता है।
इसीलिए समझदार मन्त्री राजा के सिर पर सदा ही किसी- न- किसी संकट की तलवार लटकाये रखते हैं।
*यथा नेच्छति नीरोगः कदाचित्सुचिकित्सकम् ।*
*तथापद्रहितो राजा सचिवं नाभिवाञ्छति ।।*
जिस प्रकार स्वस्थ व्यक्ति को चिकित्सक की कोई आवश्यकता नहीं होती, उसी प्रकार किसी संकट में न पड़े हुए राजा भी अपने मन्त्रियों की चिन्ता नहीं करते।
यह सोचकर दमनक पिंगलक की ओर चल पड़ा।
पिंगलक ने दमनक को पास आते देखा, तो वह तनकर बैठ गया और
दमनक के पास आने पर उससे पूछा—
कहो, क्या कुछ पता चला कि वह प्राणी कौन है?
उत्तर में दमनक के ‘हां’कहने पर पिंगलक बोला—
कहीं तुम झूठ तो नहीं बोल रहे हो? दमनक बोला—महाराज! क्या मैं आपके सामने झूठ बोल सकता हूं?
*अपि स्वल्पमसत्यं यः पुरो वदति भूभुजाम् ।*
*देवानां च विनश्येत स द्रुतं सुमहानपि ।।*
राजा और देवता के सामने झूठ बोलने वाले को अपने पद से हाथ धोना पड़ता है।
*सर्वदेवमयो राजा मनुना सम्प्रकीर्त्तितः ।*
*तस्मात्तं देववत्पश्येन्न व्यलीके न कर्हिचित् ।।*
मनु के अनुसार राजा में सभी देवता निवास करते हैं और वह सभी देवताओं का प्रतिनिधि होता है। उसे इससे भिन्न किसी अन्य रूप में देखना भी पाप है।
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*।।पंचतंत्र।।*
*_प्रथम तन्त्र_*
*मित्रभेद* (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
*कथा क्रम : दो*
*सर्वदेवमयस्यापि विशेषो नृपतेरयम् ।*
*शुभाशुभफलं सद्यो नृपाद्देवाद्भवान्तरे ।।*
जहां अन्य देवी- देवताओं की सेवा का फल कुछ समय बाद मिलता है, वहां देवताओं के प्रतिनिधि राजा की सेवा का फल तुरन्त ही मिल जाता है।
पिंगलक बोला—जब तुम उससे मिलकर ही आ रहे हो, तो तुम सच ही कहते होगे, किन्तु शायद तुम दीनों पर दया करने को धर्म समझते हो, इसीलिए तुमने उसे छोड़ दिया होगा।
नीतिकारों ने भी कहा है
*तृणानि नोन्मूलयति प्रभञ्जनो मृदूनि नीचैः प्रणतानि सर्वतः ।*
*स्वभाव एवोन्नतचेतसामयं महान्महत्स्वेव करोति विक्रमम् ।।*
कि बड़े-बड़े और सिर तानकर खड़े वृक्षों को वायु भले ही गिरा दे, किन्तु सिर झुकाकर खड़े तिनकों और छोटी-छोटी बेलों को वह कभी नहीं उखाड़ सकता।
बलवान् अपने पौरुष का प्रदर्शन बलवानों के सम्मुख ही करना चाहते हैं।
दमनक बोला—क्षमा करें महाराज! उसके सामने हम दुर्बल भी तो सिद्ध हो सकते हैं। अब यदि आपकी आज्ञा हो, तो मैं उसे आपका सेवक बना सकता हूं।
इस पर पिंगलक ने अविश्वास के स्वर में पूछा—क्या ऐसा सम्भव है?
दमनक ने विश्वासपूर्वक कहा—
बुद्धिमत्तापूर्वक काम करने पर सब कुछ सम्भव हो सकता है।
*न तच्छस्त्रैर्न नागेन्द्रैर्न हयैर्न पदातिभिः ।*
*कार्य्यं संसिद्धिमभ्येति यथा बुद्ध्या प्रसाधितम् ।।*
अश्व-सेना, गज-सेना, रथ-सेना तथा शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित कुशल सेना के होते बुद्धिमत्तापूर्वक किये गये सभी कार्य पूरे किये जा सकते हैं।
पिंगलक ने कहा—यदि तुम ऐसा कर सको, तो मैं तुम्हें पुनः मन्त्रीपद सौंप दूंगा। आज के बाद तुम्हें अपनी प्रजा और अपने कर्मचारियों पर कृपा करने और उन्हें दण्ड देने का अधिकार भी तुम्हें ही होगा।
पिंगलक से यह आश्वासन पाकर ही दमनक तुरन्त सञ्जीवक के पास पहुंचा और उसे धमकाकर बोला—
अरे दुष्ट बैल! तू किसलिए इस प्रकार गर्जन-तर्जन करके जंगल की शान्ति को भंग कर रहा है?
क्या तुझे पता नहीं कि महाराज पिंगलक इस जंगल के स्वामी हैं?
क्या तूने उनसे इस वन में घूमने-फिरने की अनुमति ली है? चल, वह तुझे बुला रहे हैं।
दमनक की धौंस सुनकर सञ्जीवक घबरा गया और बोला—यह पिंगलक कौन है?
दमनक ने उत्तर दिया—क्या तू हमारे स्वामी को नहीं जानता? क्या तू उनका शिकार बनना चाहता है, जो इस प्रकार बोल रहा है?
वहां वटवृक्ष के नीचे हमारे स्वामी अपने सचिवों और अधिकारियों के साथ बैठे हुए हैं।
दमनक के इस कठोर व्यवहार से मौत को अपने सिर पर मंडराता जानकर सञ्जीवक निराश होकर बोला—भाई, तुम मुझे दयालु होने के साथ ही व्यवहार-कुशल भी लगते हो। क्या तुम अपने स्वामी से मेरी रक्षा करने की कृपा नहीं करोगे?
दमनक ने उत्तर दिया—भाई! मैं तुम्हारी स्थिति को समझ रहा हूं और स्वामी से तुम्हारी सिफ़ारिश भी करूंगा, किन्तु पूर्ण रूप से तुम्हें विश्वास नहीं दिला सकता;
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*।।पंचतंत्र।।*
*_प्रथम तन्त्र_*
*मित्रभेद* (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
*कथा क्रम : दो*
*पर्य्यन्ता लभ्यते भूमेः समुद्रस्य गिरेरपि ।*
*न कथञ्चिन्महीपस्य चित्तान्तः केनचित् क्वचित् ।।*
क्योंकि समुद्र की गहराई और पर्वत की ऊंचाई नापी जा सकती है, किन्तु राजाओं के मन की गहराई को कोई नहीं जान सकता।
तुम यहां ठहरकर प्रतीक्षा करो, मैं स्वामी के मन की स्थिति देखकर आता हूं, फिर तुम्हें उनके पास ले चलूंगा।
इस प्रकार सञ्जीवक को दिलासा देकर दमनक ने पिंगलक के पास जाकर कहा—
महाराज! वह कोई साधारण जानवर नहीं है, वह तो शंकर भगवान् का वाहन नन्दी है। मेरे पूछने पर वह कहने लगा कि वह किसी पिंगलक को नहीं जानता। उसे तो स्वयं महादेवजी ने यहां यमुना- किनारे घास चरने की आज्ञा देकर भेजा है। यह सुनकर पिंगलक घबरा उठा और बोला—हां, मैं भी तो कहूं कि बिना किसी देवता की कृपा के इस घने जंगल में इस प्रकार गर्जन करने का साहस कोई कैसे कर सकता है? अच्छा, तो तुमने क्या कहा?
दमनक बोला—महाराज! मैंने उससे कहा कि इस जंगल पर हमारे स्वामी भगवती के वाहन महाराज पिंगलक का अधिकार है। यदि आप अतिथि बनकर यहां रहना चाहते हैं, तो उनके पास चलकर उनसे मित्रता कर लीजिये और फिर आनन्दपूर्वक मौज- मस्ती कीजिये।
इस पर उस बैल ने कहा—ठीक है, तुम अपने स्वामी से मेरा परिचय कराओ।
दमनक की प्रशंसा करते हुए पिंगलक बोला—तुम्हारी बुद्धि की प्रशंसा करनी ही होगी। मैं उससे मित्रता करने के लिए तैयार हूं। तुम उसे शीघ्र ही यहां ले आओ और हमारी मित्रता करा दो।
*अन्तःसारैरकुटिलैरच्छिद्रैः सुपरीक्षितैः ।*
*मन्त्रिभिर्धार्य्यते राज्यं सुस्तम्भैरिव मन्दिरम् ।।*
जिस प्रकार मन्दिर दृढ़ स्तम्भों पर ही टिका रहता है, उसी प्रकार निष्ठावान्, निश्छल और निर्दोष मन्त्रियों पर ही किसी राजा का राज्य भी टिका रहता है।
*मन्त्रिणां भिन्नसन्धाने भिषजां सान्निपातिके ।*
*कर्मणि व्यज्यते प्रज्ञा स्वस्थे को वा न पण्डितः ।।*
यूं तो सभी अपने को बृहस्पति मानते हैं, परन्तु जिस प्रकार सन्निपात रोग में वैद्य की और असाध्य स्थिति में राजनेता की बुद्धि की परीक्षा होती है, उसी प्रकार दो व्यक्तियों में फूट डलवाने तथा उनमें मैत्री कराने में मन्त्री की बुद्धि की परीक्षा होती है।
पिंगलक को प्रणाम करके सञ्जीवक को बुलाने के लिए जाते हुए दमनक सोचने लगा—इस समय पिंगलक की जैसी मनःस्थिति है, उससे तो लगता है कि मुझे मेरा खोया हुआ मन्त्रीपद पुनः प्राप्त हो जायेगा। मैंने यहां आकर ठीक ही किया है।
नीतिकारों ने ठीक ही कहा है—
*अमृतं शिशिरे बह्निरमृतं प्रियदर्शनम् ।*
*अमृतं राजसम्मानममृतं क्षीरभोजनम् ।।*
जिस प्रकार सर्दियों में अग्नि जीवनदायिनी होती है, दूध से बने पदार्थों का सेवन अच्छा लगता है, उसी प्रकार राजा द्वारा मान-सम्मान का मिलना भी किसी सौभाग्य का सूचक है।
इसके पक्षात् वह सञ्जीवक के पास पहुंचकर उससे बोला—स्वामी ने तुम्हें यहां पर रहने के लिए अपनी स्वीकृति दे दी है। तुम चाहो, तो उनसे भेंट करने के लिए चल सकते हो। पर यह मत भूलना कि मेरे कारण ही राजा से तुम्हारी मित्रता हो रही है। मेरे इस उपकार को भुला मत देना। स्वामी से तुम्हारी मित्रता कराने के बदले मुझे मन्त्रीपद मिलेगा और तब राज्य का सारा भार मेरे ही कन्धों पर होगा।
हम दोनों की मित्रता बनी रहेगी, तो दोनों मौज करेंगे
*आखेटकस्य धर्मेण विभवाः स्युर्वशे नृणाम् ।*
*नृप्रजाः प्रेरयत्येको हन्त्यन्योऽत्र मृगानिव ।।*
शिकारी के धर्म का पालन करने से ही शिकार हाथ लगता है। एक व्यक्ति शिकार को हांक लगाता है, तो दूसरा उसे अपना लक्ष्य बनाता है।
*यो न पूजयते गर्वादुत्तमाधममध्यमान् ।*
*भूपसम्मानमान्योऽपि भ्रश्यते दन्तिलो यथा ।।*
गर्वोन्मत्त होकर उत्तम, मध्यम तथा अधम राज्याधिकारियों की उपेक्षा करने वाला व्यक्ति राजा का कृपापात्र होने पर भी दन्तिल की भांति अपने पद को खो देता है।
*कथा क्रम दो समाप्त*
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*।।पंचतंत्र।।*
*_प्रथम तन्त्र_*
*मित्रभेद* (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
*कथा क्रम : तीन*
सञ्जीवक के पूछने पर उसे दन्तिल की कथा सुनाते हुए दमनक कहने लगा— वर्धमान नामक नगर में दन्तिल नामक एक सेठ पूरे नगर के प्रजाजनों व राजपुरुषों में समान रूप से लोकप्रिय था। लोगों की यह धारणा बन चुकी थी कि उसके समान कुशल और श्रेष्ठ व्यक्ति न अन्य कोई हुआ है और न होगा।
*नरपतिहितकर्ता द्वेष्यतां याति लोके जनपदहितकर्त्ता त्यज्यते पार्थिवेन्द्रैः ।*
*इति महति विरोधे वर्त्तमाने समाने नृपतिजनपदानां दुर्लभः कार्य्यकर्त्ता ।।*
प्रायः राजा का शुभचिन्तक व्यक्ति प्रजाजनों को फूटी आंख नहीं सुहाता। वह तो उनकी आंख का कांटा बन जाता है। इसीलिए प्रजाजनों का हित चाहने वाला राजा के लिए भी अवाञ्छनीय बन जाता है। इस प्रकार किसी भी व्यक्ति के लिए राजा और प्रजा दोनों से समान रूप से सम्मान प्राप्त करना बड़ा कठिन होता है।
दन्तिल ने अपने विवाह के अवसर पर सभी राज्याधिकारियों को न केवल सादर आमन्त्रित किया, अपितु उन्हें अनेक प्रकार के बहुमूल्य उपहार देकर सम्मानित भी किया, किन्तु राजा के सफ़ाई कर्मचारी की उसने उपेक्षा की और राजपुरुषों के स्थान पर बैठ जाने के लिए उसका अपमान भी किया।
इस पर उस गोरम्भ नामक सफ़ाई कर्मचारी को इतना दुःख हुआ कि वह रात- भर सो भी नहीं सका और प्रतिशोध ले पाने में असमर्थ होने के लिए अपने आपको कोसता रहा। यहां तक कि वह इस अपमान को न सह पाने के लिए आत्महत्या की भी सोचने लगा।
*यो ह्यपकर्तुमशक्तः कुप्यति किमसौ नरोऽत्र निर्लज्जः ।* *उत्पतितोऽपि हि चणकः शक्तः किं भ्राष्ट्रकं भङ्क्तुम् ।।*
जिस प्रकार अकेला चना भाड़ को नहीं फोड़ सकता, उसी प्रकार असमर्थ व्यक्ति, जब किसी का कुछ नहीं बिगाड़ सकता, तो उसे किसी पर क्रोध करने का अधिकार भी समाप्त हो जाता है?
एक दिन प्रातःकाल जाग गये, परन्तु यूं ही लेटे पड़े राजा के कमरे की सफ़ाई करते- करते गोरम्भ बड़बड़ाते हुए कहने लगा—दन्तिल नगरसेठ है, तो क्या उसकी इतनी हिम्मत कि वह रानी मां को हाथ भी लगा सके! भले ही राजा ने यूं ही सुना होगा, तो भी वह एकदम उठ खड़ा हुआ और गोरम्भ से पूछने लगा—अरे गोरम्भ! क्या तूने दन्तिल सेठ को रानी को छूते देखा है?
गोरम्भ बोला—महाराज! मैंने तो ऐसा कुछ नहीं कहा। रात- भर जुआ खेलते रहने के कारण मैं कुछ उनींदा हो रहा हूं। हो सकता है मेरे मुंह से कुछ अण्ट- शण्ट निकल गया हो! मुझे क्षमा करें महाराज! यह कहता हुआ गोरम्भ तुरन्त ही कमरे से बाहर चला गया। इधर राजा का सन्देह विश्वास में बदलने लगा। उसने सोचा कि अवश्य ही दाल में कुछ काला है। गोरम्भ ने अवश्य ही कुछ देखा है, किन्तु डर के कारण बता नहीं रहा है। दन्तिल सेठ को रनिवास में आने- जाने की खुली छूट है। अब किसी के मन का क्या विश्वास? आग के पास रखा घी पिघल सकता है। यह तो स्वाभाविक है
नीतिकारों ने भी तो यही कहा है—
*यद्वाञ्छति दिवा मर्त्यो वीक्षते वा करोति वा ।*
*तत्स्वप्नेऽपि तदभ्यासाद् ब्रूतेवाऽथ करोति वा ।।*
कि जो व्यक्ति दिन में अपने मन का गुबार निकाल नहीं पाता, वह स्वप्न में या अचेतन अवस्था में उसके मुंह से निकल आता है।
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*शुभं वा यदि वा पापं यन्नृणां हृदि संस्थितम् ।*
*सुगूढमपि तज्ज्ञेयं स्वप्नवाक्यात्तथा मदात् ।।*
जागते रहने पर व्यक्ति अपने मन की किसी भी अच्छी या बुरी बात को गुप्त रखने में भले सफल हो जाये, लेकिन स्वप्न में अथवा नशे की हालत में वह गुप्त रहस्य प्रकट हो ही जाता है। इसके अतिरिक्त स्त्रियों के चरित्र पर विश्वास भी तो नहीं किया जा सकता।
*जल्पन्ति सार्द्धमन्येन पश्यन्त्यन्यं सविभ्रमम् ।*
*हृद्गतं चिन्तयन्त्यन्यं प्रियः को नाम योषिताम् ।।*
स्त्रियों के लिए पुरुषों को मूर्ख बनाना तो उनके बायें हाथ का खेल होता है। वे बात किसी और से कर रही होती हैं, किन्तु देख किसी अन्य की ओर रही होती हैं तथा चिन्तन अपने मित्र का कर रही होती हैं। ऐसे में यह कौन जान सकता है कि उनका प्रेमपात्र कौन है?
*एकेन स्मितपाटलाधररुचो जल्पन्त्यनल्पाक्षरं वीक्षन्तेऽन्यमितः स्फुटत्कुमुदिनीफुल्लोल्लसल्लोचनाः ।* *दूरोदारचरित्रचित्रविभवं ध्यायन्ति चान्यं धिया केनेत्थं परमार्थतोऽर्थवदिव प्रेमास्ति वामभ्रुवाम् ।।*
स्त्रियां अपने लाल-लाल अधरों से मुसकराती हुई किसी से भो बातें करके उसके मन में अपनी चाहत का सन्देह उत्पन्न कर देती हैं। कुमुदिनी की भांति वे अपनी खिली हुई आंखों से किसी की ओर देखकर ही उसे अपनी ओर आकर्षित कर लेती हैं तथा किसी भी पुरुष के ध्यान में अपनी सुध-बुध खो बैठती हैं। कौन कह सकता है कि वे वास्तव में किससे प्रेम करती हैं?
*रहो नास्ति क्षणो नास्ति नास्ति प्रार्थयिता नरः ।*
*तेन नारद नारीणां सतीत्वमुपजायते ।।*
ब्रह्माजी ने भी नारदजी से कहा था कि स्त्रियां तब तक ही सती बनी रहती हैं, जब तक उन्हें एकान्त, अवसर तथा आमन्त्रण देने वाला पुरुष नहीं मिल जाता। इन्हें पाते ही स्त्रियां अपने वास्तविक रूप को प्रकट कर देती हैं।
*यो मोहान्मन्यते मूढो रक्तेयं मम कामिनी ।*
*स तस्या वशगो नित्यं भवेत्क्रीडाशकुन्तवत् ।।*
मोह के कारण किसी स्त्री को अपने ऊपर मर-मिटी समझने वाले व्यक्ति को यह समझ लेना चाहिए कि वह उस स्त्री के हाथ का खिलौना बन गया है।
*अनर्थित्वान्मनुष्याणां भयात्परिजनस्य च ।* *मर्य्यादायाममर्य्यादाः स्त्रियस्तिष्ठन्ति सर्वदा ।।*
अपने किसी चाहने वाले के न मिलने तक या परिजनों के डर से ही स्त्रियां अपनी मर्यादा में रहती हैं, अन्यथा उनकी उच्छृंखलता को तो सारा विश्व जानता है।
*नासां कश्चिदगम्योऽस्ति नासाञ्च वयसि स्थितिः ।*
*विरूपं रूपवन्तं वा पुमानित्येव भुज्यते ।।*
स्त्रियों को बूढ़े-अवान, कुरूप-सुरूप और कुलीन-अकुलीन का कोई विचार नहीं रहता। उन्हें तो केवल सम्भोग-सुख देने वाला व्यक्ति चाहिए।
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*।।पंचतंत्र।।*
*_प्रथम तन्त्र_*
*मित्रभेद* (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
*कथा क्रम : तीन*
इस प्रकार के विचारों में पड़ा राजा उदास हो उठा और उसने उसी दिन से दन्तिल सेठ के अपने महल में आने-जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। राजा के व्यवहार में आये इस परिवर्तन से दन्तिल सेठ व्याकुल हो उठा और राजा के इस व्यवहार का कारण जानने का प्रयत्न करने लगा।
वह सोचने लगा—
*कोऽर्थान् प्राप्य न गर्वितो विषयिणः कस्यापदोऽस्तंगताः स्त्रीभिः कस्य न खण्डितं भुवि मनः को नाम राज्ञां प्रियः ।*
*कः कालस्य न गोचरान्तरगतः कोऽर्थी गतो गौरवं को वा दुर्जनवागुरासु पतितः क्षेमेण यातः पुमान् ।।*
ये सातों बातें अवश्य ही सत्य हैं—
1. धन पाकर किसी का भी अहंकारग्रस्त होना।
2. विषयों से ग्रस्त व्यक्ति का संकट में पड़ना।
3. स्त्रियों के सम्मोहन से अपने को न बचा पाना।
4. राजाओं का सदा ही प्रिय न बना रहना।
5. काल का ग्रास न बनना।
6. भिखारी होकर भी सम्मानित न बना रहना।
7. दुर्जनों का संग करने के कारण दुर्गति का शिकार न होना।
*काके शौचं द्यूतकारे च सत्यं सर्पे क्षान्तिः स्त्रीषु कामोपशान्तिः ।*
*क्लीबे धैर्य्यं मद्यपे तत्त्वचिन्ता राजा मित्रं केन दृष्टं श्रुतं वा ।।*
आगे दिये गये छह प्रकार के प्राणियों में निम्नोक्त गुणों की अपेक्षा नहीं की जा सकती।
उसी प्रकार राजा का कृपापात्र बने रहने की आशा भी किसी को नहीं करनी चाहिए।
कौए से पवित्रता की,
जुआरी से सच्चे व्यवहार की,
सांप से क्षमा की,
स्त्रियों से कामवासना- पूर्ति की,
नपुंसक व्यक्ति से धीरज की और
शराबी से तत्त्वचिन्ता की आशा करना व्यर्थ होता है।
इनमें ये गुण होते ही नहीं।
इसी प्रकार, राजपुरुष भी सदैव किसी पर भी अपनी कृपादृष्टि नहीं बनाये रखते। अब दन्तिल सेठ ने सोचा कि बिना कारण तो कुछ भी घटित नहीं होता, अतः राजा के मुझसे विमुख होने का कोई- न- कोई कारण अवश्य होना चाहिए।
एक दिन दन्तिल सेठ राजा से मिलने गया, तो द्वारपाल ने दन्तिल को प्रवेश की अनुमति नहीं दी। अन्य सेवकों को चुप देखकर गोरम्भ कहने लगा—
अरे, सेठजी को इस प्रकार द्वार पर रोके रखोगे, तो तुम्हारी नौकरी जाती रहेगी। तुम जानते नहीं यह सेठजी तो यहां के भी मालिक हैं। गोरम्भ के इस प्रकार उलाहना देने से दन्तिल समझ गया कि राजा के क्रोध का कारण यह नीच ही है।
सत्य तो यह है कि
*अकुलीनोऽपि मूर्खोऽपि भूपालं योऽत्र सेवते ।*
*अपि सम्मानहीनोऽपि स सर्वत्र प्रपूज्यते ।।*
राजा की सेवा करने वाला व्यक्ति अकुलीन और मूर्ख होने पर भी सब कहीं सम्मान पाता है।
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*।।पंचतंत्र।।*
*_प्रथम तन्त्र_*
*मित्रभेद* (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
*कथा क्रम : तीन*
दन्तिल सेठ को अपने विवाह के समय किया गोरम्भ का अपमान याद आ गया। वह चुपचाप अपने घर लौट आया और उसी रात उसने गोरम्भ को अपने घर बुलाया और उसे भोजन, वस्त्र एवं आभूषण आदि देकर सम्मान सहित विदा किया।
सेठ ने गोरम्भ से कहा—तुम्हारा उस दिन ब्राह्मणों के स्थान पर बैठ जाना अनुचित था, लेकिन मेरा तुम पर क्रोध करना भी उचित नहीं था। दन्तिल ने अपने व्यवहार और उपहारों से गोरम्भ को अपनी ओर मिला लिया। इस पर गोरम्भ ने भी दन्तिल सेठ को विश्वास दिलाया कि वह शीघ्र ही राजा के साथ उसके सम्बन्ध पुनः स्थापित करा देगा।
*स्तोकेनोन्नतिमायाति स्तोकेनायात्यधोगतिम् ।*
*अहो सुसदृशी चेष्टा तुलायष्टेः खलस्य च ।।*
जिस प्रकार तराज़ू के किसी पलड़े में थोड़ा बोझ डाल देने से उसकी डण्डी नीचे को झुक जाती है और थोड़ा बोझ निकाल देने पर ऊपर को उठ जाती है, उसी प्रकार ओछा व्यक्ति भी कुछ मिल जाने से अनुकूल हो जाता है और न मिलने से प्रतिकूल हो जाता है।
अगले ही दिन राजा के कमरे में झाड़ू लगाते समय गोरम्भ कुछ इस प्रकार बड़बड़ाने लगा—
हमारे महाराज की शौच जाते समय ककड़ी चबाने की आदत कब छूटेगी?
राजा ने सुना, तो वह क्रुद्ध होकर बोला— गोरम्भ! क्या कह रहा है? क्या तूने कभी मुझे शौच जाते समय ककड़ी चबाते देखा है? तू क्या कह रहा है? ऐसी बकवास करने के लिए तुझे कठोर दण्ड दिया जायेगा।
गोरम्भ राजा के चरणों में गिर पड़ा और कहने लगा-
महाराज! रात को जागते रहने के कारण यदि मेरे मुंह से यूं ही कुछ निकल गया हो, तो मुझे क्षमा करें। राजा ने सोचा कि इस प्रकार व्यर्थ बकवास करने की इसकी आदत ही है।
जब यह मुझ पर इस प्रकार का झूठा आरोप लगा सकता है, तो दन्तिल सेठ और रानी के सम्बन्ध में भी बकवास कर सकता है। इस मूर्ख की बकवास को सुनकर मैंने उस भले आदमी का बहिष्कार करके अपनी कितनी हानि कर ली? मेरे कितने काम अधूरे रह गये? यह सोचकर उसने तुरन्त दन्तिल को बुलवाया और अपने कुशल व्यवहार से उसे पुनः प्रसन्न कर दिया।
यह कथा सुनाकर दमनक सञ्जीवक से बोला—
अहंकारवश किसी छोटे व्यक्ति की उपेक्षा करने से कई बार बड़े लोगों को भी अपने किये पर पछताना पड़ता है।
सञ्जीवक बोला—दमनक! मैं तुम्हारे इस उपकार को कभी नहीं भूलूंगा। सञ्जीवक के यह कहने पर दमनक उसे अपने साथ पिंगलक के पास ले गया, तो दमनक ने पिंगलक को सादर प्रणाम किया और बोला—
महाराज! मैं सञ्जीवक को आपके पास ले आया हूं, अब आप जो भी उचित समझें, वह करें। सञ्जीवक भी पिंगलक को प्रणाम करके एक ओर बैठ गया। पिंगलक ने आशीर्वाद देने के लिए सञ्जीवक के कन्धे पर अपना हाथ रखा और पूछा—इस सूने जंगल में आप कहां से और कैसे आये हैं? सञ्जीवक ने सारी आपबीती सुना दी, तो पिंगलक ने सञ्जीवक को आश्वासन देते हुए उसे उस जंगल में रहने की अनुमति दे दी।
पिंगलक ने कहा—यूं तो इस जंगल में अनेक ऐसे भयंकर जीव हैं कि कोई नया पशु एक क्षण भी यहां नहीं टिक सकता, जो आपके समान किसी शाकाहारी पशु के लिए बहुत कठिन है, किन्तु आप हमारे मित्र बन गये हैं, अतः आप कोई चिन्ता न करें।
सञ्जीवक को इस प्रकार दिलासा देकर पिंगलक ने यमुनातट पर जाकर अपनी प्यास बुझायी और अपने निवास की ओर चल दिया।
उसी दिन से दमनक को राज्य- भार सौंपकर पिंगलक अपने मित्र सञ्जीवक के साथ ही अपना समय व्यतीत करने लगा।
महापुरुषों ने ठीक ही कहा है—
*यदृच्छयाप्युपनतं सकृत्सज्जनसंगतम् ।*
*भवत्यजरमत्यन्तं नाभ्यासक्रममीक्षते ।।*
कि यदि अचानक ही किसी सज्जन का संग हो जाये, तो वह अक्षय फल देने वाला होता है। लेकिन ऐसा अवसर सभी को सुलभ नहीं होता और न अभ्यास के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।
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*।।पंचतंत्र।।*
*_प्रथम तन्त्र_*
*मित्रभेद* (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
*कथा क्रम : तीन*
सञ्जीवक अनेक शास्त्रों का ज्ञाता और विवेकशील था। उसने अपने ज्ञान से पिंगलक को भी प्रबुद्ध बना दिया। अब पिंगलक भी सदाचारी बन गया था और दोनों साथ- साथ बैठकर शास्त्र- चर्चा भी किया करते थे।
अब तो वे दोनों दमनक और करटक से भी नहीं मिलते थे। अतः पिंगलक द्वारा पशुओं का वध न करने से उसके शिकार का बचा- खुचा न मिलने के कारण दोनों—करटक और दमनक—भी धीरे- धीरे उनसे दूर हो गये।
*फलहीनं नृपं भृत्याः कुलीनमपि चोन्नतम् ।*
*सन्त्यज्यान्यत्र गच्छन्ति शुष्कं वृक्षमिवाण्डजाः ।।*
जिस प्रकार एक वृक्ष के सूख जाने पर पक्षी उसे छोड़कर दूसरे फलों से लदे वृक्ष पर चले जाते हैं, उसी प्रकार पेट न भरने पर नौकर- चाकर भी स्वामी को छोड़कर चले जाते हैं।
*अपि सम्मानसंयुक्ताः कुलीना भक्तितत्पराः ।* *वृत्तिभंगान्महीपालं त्यजन्त्येव हि सेवकाः ।।*
यदि आजीविका ही न मिले, तो सेवक कुलीन और मर्यादा का निर्वाह करने वाले राजा को भी छोड़ने में देर नहीं लगाते।
*कालातिक्रमणं वृत्तेर्यो न कुर्वीत भूपतिः ।*
*कदाचित्तं न मुञ्चन्ति भर्त्सिता अपि सेवकाः ।।*
जबकि सेवकों को समय पर वेतन और पुरस्कार आदि देने वाले राजा के कठोर होने पर भी सेवक उसे छोड़कर कहीं अन्यत्र जाने की सोच भी नहीं सकते। यह नियम केवल सेवकों पर ही नहीं, अपितु सभी लोगों पर लागू होता है। जहां लोगों का पेट भी नहीं भरता, वहां कोई क्यों टिक सकता है?
सभी के लिए पेट की भूख ही सबसे बड़ी समस्या है।
*अत्तुं वाञ्छति शाम्भवो गणपतेराखुं क्षुधार्त्तः फणी तं च क्रौञ्चरिपोः शिखी गिरिसुतासिंहोऽपि नागाशनम् ।*
*इत्थं यत्र परिग्रहस्य घटना शम्भोरपि स्याद् गृहे तत्रान्यस्य कथं न भावि जगतो यस्मात्स्वरूपं हि तत् ।।*
पेट की भूख के कारण ही शिवजी के गले में पड़ा सांप और कार्तिकेय के वाहन मोर गणेशजी के वाहन चूहे को अपना आहार बनाना चाहते हैं। मोर को पार्वती का वाहन शेर खाना चाहता है। जब शिवजी के परिवार की यह स्थिति है, तो अन्य साधारण लोगों के विषय में भी कल्पना की जा सकती है। कहने का अभिप्राय यह है कि पेट की आग को शान्त करने के लिए ही सब कुछ किया जा रहा है।
अपने पेट की आग को बुझाने की चिन्ता से व्यथित तथा पिंगलक द्वारा पदच्युत करटक और दमनक आपस में सलाह करने लगे।
तब दमनक ने कहा—करटक! पिंगलक तो सञ्जीवक की संगति में पड़कर अपने काम की भी उपेक्षा करने लगा है और हमारे अन्य बन्धु भी यहां से चल गये हैं।
अब हम क्या करें?
करटक बोला—मित्र! तुम्हारा स्वामी तुम्हारी बात को सुनता नहीं है। फिर भी, मेरे विचार में उसे सही मार्ग पर लाने के लिए तुम्हें प्रयत्न करना चाहिए।
नीतिकारों ने कहा है—
*अशृण्वन्नपि बोद्धव्यो मन्त्रिभिः पृथिवीपतिः ।*
*यथा स्वदोषनाशाय विदुरेणाम्बिकासुतः ।।*
राजा द्वारा सुने को न सुनने पर मन्त्रियों को चाहिए कि वे राजा को सचेत करें।
धृतराष्ट्र द्वारा उपेक्षित किये जाने पर भी विदुर ने उन्हें समझाने का प्रयास करना छोड़ नहीं दिया था।