नेत्युवाच ततो वैश्यः सुखं धर्मे प्रतिष्ठितं | पापे दुखं भयं शोको दारिद्रयं क्लेश एव च |
यतो धर्मस्ततो मुक्तिः स्वधर्मं किं विनश्यति | (१७०/२६)
धर्ममेव परम् मन्ये यथेच्छसि तथा कुरु | ब्रह्मणाश्च गुरून देवान वेदान धर्मं जनार्दंनं ||
यस्तु निन्द्यते पापो नासौ स्पृश्यते पापकृत् | उपेक्ष्णीयो दुर्वृतः पापात्मा धर्मदूषकः || (१७०/४५-४६)
— ब्रह्म पुराण
अर्थ – यहाँ एक धनाभिलाषी ब्राहमण और एक वैश्य में चर्चा हो रही है, जिसमें एक ब्राहमण वैश्य से कहता है – ‘पाप से जीवों की उन्नति होती है और वे मनोवांछित सुख प्राप्त करते हैं | संसार में धर्मात्मा लोग दुःख के भागी देखे जाते हैं | अतः एक मात्र दुःख ही जिसका फल है, उस धर्म से क्या लाभ |’
इसका उत्तर वह वैश्य उपरोक्त श्लोक में देता है | वैश्य कहता है – ‘ऐसी बात नहीं है | धर्म में ही सुख की स्थिति है | पाप में तो केवल दुःख, भय, शोक, दरिद्रता और क्लेश ही रहते हैं | जहाँ धर्म है, वही मुक्ति है | भला, अपना धर्म क्या नष्ट हो सकता है ?’
इसी सन्दर्भ में आगे दुसरे श्लोक में वैश्य ने अन्यत्र कहा है | मैं तो धर्म को ही बड़ा मानता हूँ, तुम्हारी जैसी इच्छा हो कर लो | “जो ब्राहमण, गुरु, देवता, वेद, धर्म और भगवान् विष्णु की निंदा करता है, वह पापाचारी मनुष्य पापरूप है | वह स्पर्श करने योग्य नहीं है | धर्म को दूषित करने वाले उस दुराचारी पापात्मा का परित्याग कर देना चाहिए |”
अंतर्ध्यान – बड़े ही खेद का विषय है की कुछ धर्म के ठेकेदार, साधारण जनमानस को धर्म तक पहुचने ही नहीं देना चाहते | वो कुछ श्लोकों से ही धर्म की व्याख्या कर देते हैं और अर्थ का अनर्थ करते हैं | अब इसी सन्दर्भ को लें तो आधे लोग कहेंगे, ऐसा कैसे हो सकता है कि एक ब्राहमण ऐसी बातें कहे (क्योंकि पूर्ण सन्दर्भ के बिना इन श्लोको भी गलत समझा जा सकता है | ) समस्या ये है कि धर्म जैसे गूढ़ विषय पर विस्तृत चर्चा की बजाय लोग शोर्टकट ढूँढने लगे हैं | यहाँ मेरा उद्देश्य किसी की भी भावनाओ को ठेस पहुचाना नहीं है | किन्तु धर्म के बारे में कुछ भ्रांतियां हैं जिन्हें मैं यहाँ पर उठाना चाहूँगा |
सर्वप्रथम हमें यह समझना चाहिए कि धर्म क्या है ? धर्म शब्द ‘धृ’ धातु से बना है जिसका अर्थ होगा है, धारण करना | ‘धृ’ धातु से और भी शब्द बने हैं, जैसे धरती (जो हम सबको, पेड़ों को, पर्वतों को, मनुष्य को, इमारतों को धारण करती है |), ‘धृ’ धातु से बनता है धैर्य, इसे भी धारण किया जाता है और भी बहुत से उदाहरण है | महाभारत में युधिष्ठिर, जो स्वयं धर्मराज के नाम से जाने जाते हैं, ने कहा है –
“धारणात धर्मं इत्याहू: तस्मात् धारयते प्रजाः ।” महाभारत शान्ति पर्व १०९ ११
अब धर्म को कौन धारण करता है ? धर्म को धारण करता है ये शरीर | शरीर है तो धर्म है, धर्म है तो शरीर है | इसे ऐसे समझ सकते हैं कि यदि कहीं अग्नि होगी, तो वहां उसकी प्रॉपर्टी “ताप” अवश्य होगा और यदि ताप होगा तो अग्नि अवश्य होगी | ऐसे ही इस शरीर की प्रॉपर्टी है धर्म | इसके लिए हमारे यहाँ कहा गया है |
“शरीर माध्यम खलु धर्म साधनं।”
शरीर ही धर्म के साधन का माध्यम है | अब ये शरीर धर्म को कैसे धारण करता है ? तो हमारे यहाँ उसे भी बताया गया है (समस्या ये है कि ये सब एक जगह नहीं मिलेगा क्योंकि हमारे शास्त्र कोई पुस्तक नहीं है, वो मूलतः संवाद है, चर्चाएँ हैं और प्रश्न उत्तर के रूप में हैं, अतः कोई भी विषय केवल एक जगह नहीं हैं, जहाँ जैसा शिष्य या कोई और पूछता है, वहां गुरु उस विषय पर उत्तर देता है, इसकी कोई विषय सूची नहीं है, कि पहले level 1 आएगा फिर २ आएगा | ये तो चर्चाएँ हैं, उन सभी तथ्यों को एकत्रित करना पड़ेगा, तब कुछ सार निकलेगा |)
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥६-९२॥
ये धर्म के दस लक्षण है | धृति (धैर्य), क्षमा, दम (दमन करना, मन की वृत्तियों का), अस्तेय (बाहर भीतर से एक जैसा, कोई दिखावा नहीं, कोई चोरी नहीं), शौच (अन्तरङ्ग और बाह्य शुचिता), इन्द्रिय निग्रहः (इन्द्रियों को वश मे रखना), धी (बुद्धिमत्ता का प्रयोग) , विद्या (अधिक से अधिक ज्ञान की पिपासा) , सत्य (मन वचन कर्म से सत्य का पालन) और अक्रोध (क्रोध न करना) | ये धर्म के दस लक्षण बताये गए हैं जो एक शरीर को धारण करने चाहिए | जो इन्हें धारण करता है वो धर्म का साधन करता है, वो धर्म का ज्ञाता है और धर्मी है और जो इनका पालन नहीं करता है वो विधर्मी है | ये प्रॉपर्टीज जब तक मनुष्य में हैं, थोड़ी या बहुत, तब तक मनुष्यता है, जिस दिन ये प्रॉपर्टीज ख़त्म हो जाएँगी, मनुष्यता भी ख़त्म हो जाएगी | उदाहरण हम सब जानते हैं, जो कुछ ईराक में हो रहा है, वहां आप देखिये, क्या धैर्य है ? क्या क्षमा है ? क्या दम है ? क्या इंद्रीयनिग्रह है ? कुछ भी नहीं है | जिस देश में ये है, वो अभी सुरक्षित हैं | मेरी बात का ये अर्थ कदापि न निकला जाए कि में किसी वर्ग विशेष या मत विशेष की बात कर रहा हूँ | मैं मनुष्य की बात कर रहा हूँ | क्योंकि ये दस लक्षण किसी भी मत के मनुष्य में हो, वो धर्मी है | चाहे वो सनातनी हो, मुस्लिम मत का हो, ईसाई मत का हो, सिख मत का हो | किसी भी मत का हो | धर्म तो ये ही है |
पर फिर एक समस्या कि अगर धर्म मनुष्य शरीर की प्रॉपर्टी है और सभी मनुष्यों में थोड़ी या बहुत होती है (जो भी इन में से किसी एक प्रॉपर्टी को भी साध लेते हैं, हम उन्हें संत कहते हैं जैसे मदर टेरेसा, नेल्सन मंडेला, महात्मा गाँधी, संत रैदास, संत कबीर, साईं बाबा, महात्मा बुद्ध) तो फिर ये सब हिन्दू, मुस्लिम, सिख ये क्या है ? और फिर क्या हिन्दू धर्म नहीं है ? अगर नहीं है तो फिर हिन्दू का क्या मतलब है ? और जो धर्म ऊपर वर्णित किया गया है, उसका क्या नाम है ?
प्रश्न पर प्रश्न आयेंगे, पर आइये, बैठिये धी का प्रयोग कीजिये और चिंतन कीजिये, केवल किसी को follow मत कीजिये, फलाने बाबा के पास बहुत लोग आते हैं, वो जो कह रहे होंगे सही ही कह रहे होंगे ! अरे प्रश्न पूछिए, अपने बाबाओं से, तथाकथित पंडों से, हमारे यहाँ गुरुओं से और ग्यानी जनो से प्रश्न पूछने की ही परंपरा रही है | डरिये मत, केवल भाषण सुन कर मत आइये क्योंकि इस से कोई लाभ नहीं होने वाला | आप मार्किट जाओ पर कुछ खरीद के न लाओ तो मार्किट जाने का क्या लाभ ? आप सत्संग में गए, किसी गुरु के पास गए, किसी बाबा के पास गए तो क्यों गए ? जिज्ञासा शांत करने, अपने भ्रम दूर करने या भाषण सुनने ? अगर आपने अपने भ्रमो, अपने संशयों का निवारण नहीं किया तो व्यर्थ है सत्संग में जाना, किसी बाबा के पास जाना | जब तक आप अपनी धी का प्रयोग नहीं करेंगे, जब तक आप स्वयं चिंतन मनन नहीं करेंगे आप धर्म तक नहीं पहुच सकते | धर्म के ठेकेदार आपको ठगेंगे क्योंकि आप ठगने के लिए ही बने हैं क्योंकि आप स्वयं की बुद्धि का प्रयोग तो करना ही नहीं चाहते | आइये आगे के प्रश्नों का उत्तर देखते हैं |
ये जो धर्म के दस लक्षण हैं, इसे हमारे यहाँ सनातन धर्म कहा गया है | सनातन धर्म यानी सन+आतन | सन यानी तप (सन्यासी शब्द यहीं से बना है, जो तप करता है, तपस्वी | यहाँ ये भी बता दूं तप का मतलब किसी पूजा विशेष या कर्म काण्ड से नहीं है ) और आतन यानी निकाला हुआ | जो बहुत तप के बाद निकाला गया है, बड़े विचार मंथन और चिंतन मनन के बाद निकाला गया है, वह है सनातन धर्म | अतः धर्म का अर्थ religion नहीं है, सनातन धर्म का अर्थ है Properties of Human Being.
हमारे सनातन धर्म में होते हैं सम्प्रदाय | इसी सम्प्रदाय को अंग्रेजी में religion कहा गया है | religion का जो लोग अर्थ धर्म लगाते हैं वैसा नहीं है क्योंकि जैसा बताया गया है धर्म तो प्रॉपर्टीज हैं | अच्छा, फिर ये सम्प्रदाय या religion क्या है ? सम्प्रदाय यानी 1 पुस्तक, एक आराध्य (भगवान्) और एक पूजा का तरीका (way of worship) जैसे शाक्त सम्प्रदाय जिसमें एक पुस्तक होती है देवी भागवत महापुराण, एक आराध्य होती हैं माँ शक्ति और एक उनके पूजा का तरीका होता है | ऐसे ही शैव सम्प्रदाय जिसमें एक पुस्तक है शिव पुराण, एक आराध्य हैं भगवान् शिव और एक ही उनके पूजा का तरीका है | ऐसे ही अनेकों सम्प्रदाय हुए वैष्णव सम्प्रदाय, सिख सम्प्रदाय (Sikh religion) एक पुस्तक गुरु ग्रन्थ साहिब, एक आराध्य उनके गुरु जी और एक पूजा का तरीका | ऐसे ही क्रिश्चियन, एक पुस्तक होली बाइबल, एक आराध्य ईसा मसीह और एक पूजा का तरीका | ऐसे ही मुस्लिम, एक पुस्तक कुरआन शरीफ, एक भगवान् – खुदा और एक उनके पूजा का तरीका | ऐसे ही बौद्ध, जैन, ये सारे religion हैं लेकिन धर्म नहीं है सम्प्रदाय हैं | क्योंकि सनातन धर्म में तो अनेकों देवी देवतायें होते हैं, अनेको पुस्तक और शास्त्र हैं और बहुत वृहत इसका क्षेत्र है इसलिए ये religion नहीं है, ये सम्प्रदाय नहीं है | सनातन धर्म तो प्रॉपर्टीज हैं human being की |
अब हम इस निष्कर्ष पर पहुचे कि religion अलग है और धर्म अलग है और जो धर्म है उसके लिए अंग्रेजी में कोई शब्द नहीं है इसलिए हम प्रॉपर्टीज से काम चला रहे हैं और हम जिसे धर्म कहते हैं क्रिश्चियन धर्मं, मुस्लिम धर्म ये सब धर्म नहीं है, ये सब सम्प्रदाय हैं | अब आगे, हमारे यहाँ सम्प्रदाय के भी भाग किये गए हैं | जिन्हें हम मत कहते हैं | एक सम्प्रदाय में विभिन्न मत हो सकते हैं | जैसे जैनों में दो अलग अलग मत हैं श्वेताम्बर और पीताम्बर | मुस्लिमों में भी अलग अलग मत हैं – शिया और सुन्नी | आपको तहों में घुसना पड़ेगा, हर चीज को समझने के लिए | इन्हीं मतों को बाद कुछ जगहों पर हमारे यहाँ मठ कहा गया |
ये बात हो गयी धर्म, religion, सम्प्रदाय और मत की | अब अगला सवाल ये है कि इसमें कहीं हिन्दू तो आया ही नहीं | तो क्या हिन्दू धर्म नहीं है | क्या हम हिन्दू नहीं है ? इसका जवाब है हम हिन्दू हैं लेकिन हमारा धर्म हिन्दू नहीं है | कैसे ? हमारे देश की पहले केवल एक भाषा हुआ करती थी – संस्कृत | पूरे देश में बस यही एक माध्यम था बोलने और लिखने का | किन्तु फिर धीरे धीरे और धर्म के लोगों ने हम पर आक्रमण किये | उनमें से जो इरानी थे उन्होंने सिन्धु नदी के पार की जगह के सिंध के नाम पर ही हिन्द रखा (क्योंकि वो स शब्द का उच्चारण नहीं कर पाते थे जैसे अंग्रेज त को ट बोलते हैं ऐसे ही वो स को ह उच्चारित करते थे ) और जो हिन्द में रहते थे, उन्हें हिन्दू कहा | हिन्दू शब्द का प्रयोग एक क्षेत्र विशेष के लोगो के लिए किया गया था | उस समय हिन्दू का अर्थ था, सिन्धु नदी के पार रहने वाला, यानी भारतीय या indian. हिन्दू nationality के लिए प्रयुक्त हुआ | मंगोल और अरबी लोगों के यहाँ ये प्रचलन में था | उन शासकों ने हम पर राज करते में हमें बताया कि तुम हिन्द (तख्ते हिन्द) में रहते हो, तुम हिन्दू हो | जैसा मालिक ने बताया गुलामो ने मान लिया क्योंकि गुलामो को काम है शासक की बात मानना |
फिर हम पर मुस्लिम आक्रमणकारियों ने शासन किया | जिन्होंने इसे हिंदुस्तान का नाम दिया और पहली बार हमारे धर्म को हिन्दू बताया, क्योंकि हिन्दू तो हम पहले से ही थे और भाषा,जो हम बोलते थे, वो हिंदी हो गयी | हमारे यहां की जो भाषा थी जो पहले केवल संस्कृत थी, उसे बाद में भाषा कहा जाने लगा (हमारे यहाँ हिंदी नाम की कोई भाषा नहीं थी ) | भारतीय कवि केशवदास जी लिखते हैं –
भाषा बोलीन जानीं है जिनके कुल के दास । भाषा कवि भी मन्दर्मत तेहि कुल केशवदास ।।
जिनके कुल के दास भी भाषा नहीं बोलते, संस्कृत बोलते हैं ऐसे महान कुल में मैं भाषा का मंदबुद्धि कवि केशवदास पैदा हुआ हूँ |
और ऐसे हम जो भाषा बोलते थे वो हिंदी हो चुकी थी ऐसे ही हम जिस धर्म को मानते थे वो हिन्दू धर्म कर दिया गया और क्योंकि हम गुलाम थे सो हमने ये भी मान लिया | लेकिन मुस्लिम शासक भी हिन्दू और मुस्लिम को उतना अलग नहीं कर पाए जितना अंग्रेजो ने और आजादी के बाद के कुछ राजनेताओं ने कर दिया | उन्होंने हिन्दू और मुस्लिम दो अलग अलग धर्म और दो अलग अलग देश बना दिए | क्योंकि ये उनकी राजनीति के लिए फायदे का सौदा था और आज भी है | इसीलिए आपको हिन्दू कहा जाता है, आपको बताया जाता है कि गर्व से कहो हम हिन्दू हैं (जबकि हिन्दू का मतलब है भारतीय, भारत में रहने वाला, चाहे वो कोई भी हो) और हमारा जो वास्तविक मूल धर्म था जो वैदिक काल से चला आ रहा था वो कहीं नेपथ्य में चला गया | उसके जो मूल्य थे वो कहीं नेपथ्य में चले गए | और क्योंकि वास्तविक धर्म, सनातन धर्म का ह्र्वास हुआ, जिसकी वजह से समाज में विषमताएं बढती ही चली जा रही हैं और आगे भी बढती ही जायेंगी क्योंकि जो हमारे धर्म के अनुसार हमारी बेसिक प्रॉपर्टीज हैं, उन्हें हम खोते जा रहे हैं |
हमें हर काम तुरंत चाहिए, एक्सप्रेस काफी, एक्सप्रेस way, हर चीज इंस्टेंट चाहिए, पैसे से लेकर सफलता तक सब कुछ, इसलिए धैर्य को हम खोते जा रहे हैं | जितना धैर्य खोते जा रहे हैं उतना ही छोटी छोटी बातों पर झगडे बढ़ रहे हैं | क्योंकि एक तो धैर्य की कमी ऊपर से क्षमा को भी ख़त्म करने पर आमादा हैं | क्षमा अब केवल अपनों के लिए रह गयी है | मेरा भाई है, चलो कोई बात नहीं अगर दुसरे का है तो क्षमा नहीं है | मेरा बेटा है, दुसरे का सर भी फोड़ के आये तो क्या हुआ, मेरा बेटा है उसके लिए क्षमा है पर दुसरे ने कुछ कह दिया तो उसके लिए क्षमा नहीं है | जब क्षमा नहीं है तो इंद्रीयनिग्रह कैसे होगा ? गुस्सा आया, हाथ चल गया ! हमारे यहाँ तो कहा गया कि अपने मन तक को काबू में रखो जिसकी गति प्रकाश से भी तेज है और हम अपने हाथ पैरों जैसी स्थूल इन्द्रियों तक पर काबू नहीं रख पा रहे | जीभ को मसालेदार चाहिए, चलो चाट पकोड़ी खाते हैं, चाहे बाद में पेट ही पकड़ना पड़े | आँखों के सुख के लिए लड़कियों को निहारते हैं, कहाँ है इन्द्रियनिग्रह ? हम स्वयं अपने धर्म का विनाश करने पर तुले हैं और इसके केवल २ कारण है | एक हमारी अज्ञानता और ज्ञान प्राप्ति के प्रति उदासीन दृष्टिकोण (खुद कौन पढ़े, फलाने बाबा बता तो रहे हैं, ऐसा ही होगा) और स्वाध्याय की समाप्ति और दूसरा धर्म के ठेकेदार, जो हमें जान बूझ कर सत्य की ओर नहीं जाने दे रहे हैं |
आप लोगों को लग रहा होगा कि मैं ज्ञान दे रहा हूँ | नहीं ! मैं ज्ञान नहीं दे रहा हूँ, ज्ञान तो कोई किसी को दे ही नहीं सकता | ज्ञान transferable property ही नहीं है, विद्या दी जा सकती है, ज्ञान नहीं दिया जा सकता | मैं ज्ञान नहीं दे रहा हूँ, मैं ज्ञान दिखा रहा हूँ ताकि अगर एक में भी स्वाध्याय की लगन लगी, एक में भी स्वयं ज्ञान तक पहुचने की लालसा उठी तो बस मैं समझूंगा कि मेरा जो उद्देश्य था स्वाध्याय और खुद ही सत्य तक पहुचने के लिए तर्क वितर्क की जिज्ञासा उठाने का वो पूर्ण हो गया | ऐसे ही आप विचार मंथन कीजिये, मन क्या है ? बुद्धि क्या है ? चित्त क्या है ? संकर्षण क्या है ? जीवन क्या है ? मृत्यु क्या है ? आत्मा क्या है ? परमात्मा क्या है ? हम क्यों पैदा हुए हैं ? आप भी विचारिये और फिर उसे किसी योग्य आदमी से चर्चा कीजिये | गुरु बनाइये ! गुरु शिष्य परम्परा ही इस देश की प्रगति को आगे ले जा सकती है |
(उपरोक्त मूल विचार और मंथन मेरे पिता जी और गुरु श्री डा अशोक शर्मा जी द्वारा किया गया था जिसे मैं मात्र आगे प्रेषित कर रहा हूँ | मूल लेख के लिए कृपया वेबसाइट पर जाएँ | )
ॐ श्री गुरवे नमः ! ॐ श्री भैरवाय नमः ! ॐ श्री मातृ पितृ चरणकमलेभ्यो नमः !