यज्जीवितं चाचिराम्शुसमानम क्षण्भंगुरम, तच्चेधर्मक्रते याति यातु दोषोअस्ती को ननु ।
जीवितं च धनं दारा पुत्राः क्षेत्रं ग्रहाणी च, याति येषाम धर्मक्रेते त एव भुवि मानवाः ।।
सन्दर्भ – एक बार अर्जुन बारह वर्षो के लिए तीर्थयात्रा के लिए निकले । वह मणिपुर होते हुए वहां के पांच तीर्थो में स्नान करने के लिए आये । ये वही तीर्थ थे जिसे उस समय के सभी तपस्वी लोग भय से त्याग चुके थे । ये पांच तीर्थ कुमारेश, स्ताम्भेश, वर्केश्वर, महाकालेश्वर तथा सिद्धेश नामक तीर्थ थे । अर्जुन ने इन पांचो तीर्थो को दर्शन करने के पश्चात महामुनियों से पुछा – महात्माओ ! ये तीर्थ तो बड़े सुन्दर और अद्भुत प्रभावों से युक्त हैं तो भी ब्रह्मवादी मुनियों ने इनका परित्याग क्यों कर दिया । इस पर तपस्वी बोले – उन तीर्थो में पांच ग्राह निवास करते हैं जो तपस्वी मुनियों को जल मैं खींच ले जाते हैं । इसलिए ये तीर्थ त्याग दिए गए हैं । अर्जुन तुम्हें भी वहां नहीं जाना चाहिए । ग्राहों ने बहुत से मुनियों को और राजाओ को मार डाला है । तुम तो बारह वर्षों तक कई तीर्थों में स्नान कर चुके होगे तुम्हें इन पाच तीर्थों से क्या लेना है ? दीपशिखा पर जल मरने वाले पतंगों की भाँती इन तीर्थों में प्राण देने के लिए न जाओ ।
अर्जुन ने कहा – मुनिवरो । आप लोग दयालु स्वभाव के हैं , आपने जो सार बातें वताई हैं, वे ठीक हैं; तथापि अपनी ओर से मैं सेवा में कुछ निवेदन करता हूँ । जो मनुष्य धर्माचरण की इच्छा से कहीं जाता हो, उसे मना करना महात्माओ के लिए भी उचित नहीं है । जीवन बिजली की चमक के समान क्षण भंगुर है । यह यदि धर्म पालन के लिए चला जाता (नष्ट हो जाता) है, तो जाए, इसमें दोष क्या है ? जिनके जीवन, धन, स्त्री, पुत्र, खेत और घर धर्म के काम में चले जाते हैं, वे ही इस पृथ्वी मनुष्य कहलाने के अधिकारी हैं ।