ज्ञान का भण्डार – शास्त्रज्ञान का ग्रुप – 2019
शास्त्रज्ञान का एक व्हाट्सप्प ग्रुप भी है, जिस पर शास्त्रों का अध्ययन किया जाता है | इस ग्रुप पर 2019 से अनेकों शास्त्रों का अध्ययन किया गया है | ऐसे अनेकों शास्त्रों के निहित होने से, ये व्हाट्सप्प ग्रुप, बड़े महत्व का हो गया है | जिसे, हमें आप सभी के लिए, वेबसाइट पर अपलोड कर रहे है | हमें विश्वास है कि ये ग्रुप और जानकारी, जिज्ञासुओं के लिए बहुत काम में आएगी
| इस महती कार्य को करने में सहयोग देने वाले सभी मित्रों का धन्यवाद |
नोट : यथासंभव, सभी मोबाइल नंबर डिलीट कर दिए गए हैं, मैन्युअल तरीके से,फिर भी यदि कोई रह गया हो तो कृपया अवगत कराएं, ताकि उसे भी हटाया जा सके |
24/07/19, 9:55 pm – +91 11637: अनन्य भक्ति के साधन ……..
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1 … प्रार्थना ——-
प्रातः काल आँख खुलने पर
….. कर दर्शन करो और भगवान की प्रार्थना करो …
… कराग्रे वसते लक्ष्मी ,करमूले सरस्वती ।
करमध्ये तु गोविन्दः ,प्रभाते कर दर्शनम् ।।
… परन्तु आजकल प्रभात मे कप दर्शन होने लगा …
….प्रातः काल उठकर कर दर्शन करो अर्थात् मन मेँ
विचार करो कि आज मै इन हाथो से सत्कर्म ही करुँगा ताकि परमात्मा मेरे घर पधारने की कृपा करेँ …
…… हाथ क्रिया शक्ति का प्रतीक है,,,,
.,,,…. भगवान से प्रार्थना करो कि जिसप्रकार
आपने अर्जुन का रथ हाँका था उसी प्रकार
आप मेरे जीवन रथ के सारथी बनेँ ….
फिर नवग्रहोँ का ध्यान करेँ ……
“ब्रह्मामुरारिस्त्रिपुरान्तकारीभानु:शशिभूमिसुतोबुधश्च,। गुरुश्च शुक्र: शनि राहू केतव: कुर्वन्तु सर्वे मम ।।”
तब नासिका के पास हाथ ले जाकर देखे यदि दायाँ स्वर चल रहा हो दायाँ पैर , बायाँ स्वर चल रहा हो तो बायाँ पैर धरती पर रखे , पैर रखने से पूर्व प्रार्थना करेँ …….
“समुद्र वसने देवि, पर्वतस्तनमण्डले,
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे.”
माता पिता एवं गुरुजनोँ को प्रणाम करेँ । नित्य क्रिया से (शौचादि )पहले बोले ……
“उत्तिष्ठन्तु सुरा: सर्वेयक्षगन्धर्व किन्नरा,।
पिशाचा गुह्यकाश्चैव मलमूत्र करोम्यहं ।।.”
निवृत्त होकर दातुन करते समय प्रार्थना करेँ ……
“हे जिह्वे रस सारज्ञे, सर्वदा मधुरप्रिये ।
नारायणाख्य पीयूषम् पिव जिह्वे निरन्तरं.”।।
“आयुर्बलं यशो वर्च: प्रजा पशुवसूनि च, ।
ब्रह्म प्रज्ञाम् च मेघाम् च त्वम् नो देहि वनस्पते. ।।”
2 .सेवा पूजा —–
स्नान से पूर्व जल मे गंगादि का आवाहन करने हेतु पढ़े …
“गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती ,।
नर्मदे सिन्धु कावेरी जलेऽस्मिन सन्निधिँ कुरु ।।”
फिर निम्न मंत्रो को बोलते हुए स्नान करेँ ……..
“अतिनीलघनश्यामं नालिनायतलोचनम्, ।
स्मरामि पुण्डरीकाक्षं तेन स्नातो भवाम्यहम्. ।।
स्नानादि से निवृत्त होकर एकान्त मे भगवान
की सेवा पूजा करने के लिए मानसिक शुद्धि के लिए निम्न मन्त्रोँ द्वारा अपने ऊपर छल छिड़के .,….. ..
“ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थांगतोऽपि वा।
य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतर: शुचिः ।”.
निम्न मंत्रो को पढ़ते हुए शिखा बन्धन करेँ …….
“चिद्रूपिणि ! महामाये ! दिव्यतेज:समन्विते, ।
तिष्ठ देवि ! शिखामध्ये तेजो वृद्धिम् कुरुष्व में. ।।
चन्दन लगायेँ……
“चन्दनस्य महत्पुण्यं पवित्रं पापनाशनम् ।
आपदां हरते नित्यं लक्ष्मी तिष्ठति सर्वदा ।।”
3 .स्तुति —–
भगवान की स्तुति करेँ .,.,,,
” शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं ,
विश्वाधारं गगन सदृशं मेघवर्णँ शुभाङ्गं ।
लक्ष्मीकांतं कमलनयनं योगिर्भिध्यानगम्यं ,
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।”
हे नाथ आपने जब अजामिल जैसे पापी का उद्धार कर
दिया तो फिर आप मेरी ओर क्यो नहीँ देखते ?
4 ..कीर्तन —–
स्तुति के बाद एकान्त मेँ बैठकर प्रभु के नाम
का कीर्तन करो ….
श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे …. हे नाथ नारायण वासुदेव …
.,……अपना कामकाज करते समय भी प्रभु का स्मरण
करते रहो ,,,
- कथा श्रवण —–
प्रभु के प्यारे संतो का समागम करो , उनके श्रीमुख से
कथा श्रवण करो , हो सके तो रोज कथा सुनो .यदि नही सुन सकते समयाभाव मेँ , तो रामायण , भागवत की कथा का वाचन करो ।
प्रेम पूर्वक उसका पाठ करो ।
6 . स्मरण —–
समस्त कर्मो का समर्पण – रात को सोने से पहले किये हुए
कर्मो का विचार करो कि, क्या प्रभु को पसन्द आएँ ऐसे कर्म मेरे हाथ से आज हुए है । यदि अन्दर से नकारात्मक
उत्तर मिले , तो मान लेना कि वह दिन जीते हुए नही बल्कि मरते हुए निकल गया ।
अतः क्षमा प्रार्थना करेँ.,,
“अपराध सहस्राणि क्रियन्ते अर्हनिशं मया ।
दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वर ।।
.,,…. यदि कोई पाप हो जाय तो प्रायश्चित करो , और किए हुए सभी कर्म को परमात्मा को अर्पित करो … “
……….. अनेन कर्मणा श्रीलक्ष्मीनारायण प्रीयतां न मम् ।।
25/07/19, 10:31 am – Pitambar Shukla: श्री गणेशाय नमः
श्री जानकी वल्लभो विजयते
श्री राम चरित मानस
उत्तर कांड
पुरुष त्यागि सक नारिहि
जो बिरक्त मति धीर।
न तु कामी बिषयाबस बिमुख जो पद रघुबीर ।।
परन्तु जो वैराग्य वान् और धीर बुद्धि पुरुष हैं वही स्त्री को त्याग सकते है, न कि वे कामी पुरुष, जो विषयों के वश में हैं( उनके गुलाम है) और श्री रघुवीर के चरणों से विमुख हैं।।115क।।
सोउ मुनि ग्यान निधान
मृग नयनी बिधु मुख निरखि।
बिबस होइ हरिजान
नारि बिष्नु माया प्रगट।।
वे ज्ञान के भण्डार मुनि भी मृग नयनी ( युवती स्त्री ) के चन्द्र मुख को देखकर विवश (उसके अधीन ) हो जाते हैं।
हे गरुड़ जी! साक्षात् भगवान् विष्णु की माया ही स्त्री रूप से प्रकट है।।115 (ख)।।
25/07/19, 7:31 pm – +91 11637: कवीन्दुं नौमि वाल्मीकिं यस्य रामायणीं कथाम् ।
चन्द्रिकामिव चिन्वन्ति चकोरा इव कोविदाः ।।
मै कवि-चन्द्र वाल्मीकि को प्रणाम करता हूँ ,जिनकी रामायण कथा को विद्वान गण उसी प्रकार चुनते है ,जिस प्रकार चकोर चन्द्रमा की चांदनी को ।
वाल्मीकिकविसिंहस्य कवितावनचारिणः।
श्रृण्वन् रामकथा नादं को न याति परं पदम्।।
कविता रुपी वन में विचरण करनेवाले वाल्मीकि कविरुपी सिंह की रामकथा के शब्दों(घोष)को सुनकर (भला)कौन मोक्ष को प्राप्त नहीं होता ।।
कूजन्तं राम रामेति मधुरं मधुराक्षरम्।
आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकि कोकिलम्।।
मै कविता रुपी शाखा(डाली)पर आसीन होकर “राम-राम”का मधुर अक्षरों में मधुर कूजन करते हुए वाल्मीकि रुपी (नर)कोयल की वन्दना करता हूँ ।।
25/07/19, 11:24 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अ जीध्याय-६ श्लोक ७४,७५
।
हन्ति दोषत्रयं कुष्ठं वृष्या सोष्णा रसायनी। काकमाची सरा स्वर्या चाङ्गेर्यम्लाऽग्निदीपनी॥७४॥
ग्रहण्यर्शोऽनिलश्लेष्महितोष्णा ग्राहिणी लघुः।
काकमाची का वर्णन- काकमाची(मकोय की पत्तियों) का शाक तीनों दोषों का शमन करने वाला, कुष्ठरोग का विनाशक, कुछ उष्णवीर्य, रसायन गुणों से युक्त, सर(मल को सरकाने वाला) तथा स्वरयंत्र के लिए हितकर होता है।
चांगेरी (तिपतिया) का शाक- यह स्वाद मे अम्ल, अग्निवर्धक, ग्रहणीरोग, अर्शोरोग, वाताविकार तथा कफविकार नाशक होता है। यह उष्णवीर्य, मल को बांधने वाला और लघु(शीघ्र पचने वाला) होता है।
वक्तव्य- सुणिष्णक और चांगेरी के आकार में क्रमशः चार पात और तीन पात का अंतर है, ये दोनों पत्रशाक है।
पटोलसप्तलारिष्टशार्ङ्गेष्टावल्गुजाऽमृताः॥७५॥
वेत्राग्रबृहतीवासाकुतिलीतिलपर्णिकाः। मण्डूकपर्णीकर्कोटकारवेल्लकपर्पटाः॥७६॥
नाडीकलायगोजिह्वावार्ताकं वनतिक्तकम्। करीरं कुलकं नन्दी कुचैला शकुलादनी॥७७॥
कटिल्लम् केम्बुकम् शीतं सकोशातककर्कशम्। तिक्तम् पाके कटु ग्राही वातलं कफपित्तजित्॥७८॥
पटोल आदि शाक- पटोल(परवल), सप्तला(सातला), अरिष्ट(नीम), शार्ङ्गेष्टा(काकतिक्ता- चक्रपाणि), अवल्गुजा(बाकुची के पत्ते, फलियां तथा बीज), अमृता(गिलोय या गुरुच के पत्ते), वेत्राग्र(बेंत के नये अंकुर), बृहती(वनभण्टा), वासा(अडूसा), कुन्तली(छोटा तिल-विशेष का पौधा), तिलपर्णिका, मण्डूकपर्णी(ब्राह्मीभेद के पत्ते), कर्कोट(ककोड़ा का फल), कारवेल्लक(करेला), पर्पट(पितपापड़ा), नाड़ी(नाड़ीशाक), कलाय(मटर), गोजिह्वा(गाजवां), वार्ताक(बैंगन), वनतिक्तक(पथ्यसुन्दर अर्थात हरीतिकी– चक्र,टी.च.सू. २७/९५), करीर (कैर के फल या बांस के अंकुर), कुलक (छोटा जंगली करैला), नन्दी(पारसपीपल के पत्ते), कुचैला (कालीपाठा), शकुलादनी(कुटकी), कठिल्ल(दीर्घपत्रा पुनर्नवा), केम्बुक(करेमू), कोशातक(कृतबेधन तरोई) और कर्कश(स्वल्पकर्कोटकः- चक्र, कबीला का पत्र)— ये द्रव्य शीतवीर्य, स्वाद मे तिक्त, पाक में कटु है, मल को बांधने वाले है, वातकारक, कफ तथा पित्तदोषशामक है।
वक्तव्य- ऊपर जिन २८ शाकों के नाम गिनाए गए हैं, उनमें अनेक परिचय की दृष्टि से विवादास्पद है, अतएव कोई टीकाकार किसी द्रव्य का कोई पर्याय दे रहा है तो कोई कुछ। यह विवाद औषध-द्रव्य विशेषज्ञों के सामूहिक निर्णय की अपेक्षा रखता है।विशेषज्ञ भी वे हों जो पूर्वाग्रह या दुराग्रह से ग्रस्त न हों क्योंकि विगृह्मसम्भाषा से निर्णीत विषय सिद्धांत रूप मे परिणत नहीं हो पाते। ऐसा ही एक द्रव्य है वशतिक्तम् । आचार्य चक्रपाणि इसे पथ्यसुन्दरम्, श्री अरुणदत्त वत्सकः , श्री हेमाद्री- किराततिक्तकम्, शब्दमाला हरीतकी वैद्यकनि॰- लोध्रवृक्ष तथा रत्नमाला- वनतिक्तायां, पाठायाम्। इसी प्रकार अन्य अनेक द्रव्य है।
25/07/19, 11:51 pm – Shastragyan Abhishek Sharma:
25/07/19, 11:51 pm – Shastragyan Abhishek Sharma:
25/07/19, 11:52 pm – Shastragyan Abhishek Sharma:
25/07/19, 11:52 pm – Shastragyan Abhishek Sharma:
25/07/19, 11:57 pm – Shastragyan Abhishek Sharma:
25/07/19, 11:58 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: Water spinach
26/07/19, 12:00 am – Shastragyan Abhishek Sharma:
26/07/19, 9:49 am – +91 11637: स्वारथ सुकृतु न श्रम वृथा , देखि बिहंग बिचारि ।
बाजि पराएँ पानि परि ,तू पच्छीनु न मारि ।।
कविवर बिहारी जी ने राजा जयसिंह को बाज की भांति दुर्व्यहार न करने की प्रेरणा देते हुए कहा है कि हे (राजाजयसिंह रुपी) बाज ! इन छोटे पक्षियों को (अपने साथी) अर्थात छोटे राजाओं को मारने से तेरा क्या स्वार्थ सिद्ध होगा अर्थात क्या फायदा होगा । न तो ये सत्कर्म है और न ही तेरे द्वारा किया गया श्रम (काम) सार्थक है ।
अतः हे बाज !तू भलीभाँति पहले बिचार कर, उसके बाद कोई काम कर इस तरह दूसरों के बहकावे मे आकर अपने सह साथियों (पक्षियों)का संहार न कर ।
तू औरंगजेब के कहने पर अपने पक्ष के हिन्दू राजाओं पर आक्रमण करके उनका संहार मत कर क्योंकि तेरे परिश्रम का फल तुझे न मिलकर औरंगजेब को प्राप्त होता है ।।।
26/07/19, 11:14 am – Pitambar Shukla: श्री गणेशाय नमः
श्री जानकी वल्लभो विजयते
श्री राम चरित मानस
उत्तर कांड
इहां न पच्छपात कछु राखउं।
बेद पुरान संत मत भाषउं।।
मोह न नारि नारि के रूपा।
पन्नगारि यह नीति अनूपा।।
यहां मैं कुछ पक्षपात नहीं रखता।
वेद पुराण और संतों का मत ( सिद्धांत ) ही कहता हूं।
हे गरुड़ जी! यह अनुपम ( विलक्षण ) रीति है कि एक स्त्री के रूप पर दूसरी स्त्री मोहित नहीं होती।।115-1।।
माया भगति सुनहु तुम्ह दोऊ।
नारि वर्ग जानइ सब कोऊ।।
पुनि रघुबीरहि भगति पिआरी।
माया खलु नर्तकी बिचारी।।
आप सुनिए, माया और भक्ति दोनो ही स्त्री वर्ग की हैं, यह सब कोई जानते हैं।
फिर श्री रघुवीर को भक्ति प्यारी है।
माया बेचारी तो निश्चय ही नाचने वाली ( नटिनी) मात्र है।।115-2।।
26/07/19, 10:08 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi added +91
26/07/19, 10:49 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक ७९,८०
हृद्यं पटोलं कृमिनुत्स्वादुपाकं रुचिप्रदम्। पित्तलं दीपनम् भेदि वातघ्नम् बृहतीद्वयम्॥७९॥
परवल का शाक- परवल हृदय के लिए हितकारक, कृमिनाशक, पाक में मधुर तथा भोजन के प्रति रुचि को उत्पन्न करता है।
बृहतीद्वय का वर्णन- वनभण्टा तथा कण्टकारी के फलो का शाक पित्तवर्धक, जठराग्नि को प्रदिप्त करने वाला, मलभेदक तथा वातनाशक होता है।
वृषं तु वमिकासघ्नं रक्तपित्तहरं परम्। कारवेल्लं सकटुकं दीपनम् कफजित्परम्॥८०॥
अडूसा का वर्णन- अडूसा के पत्तों का शाक वमन, कास(खांसी) तथा रक्तपित्तरोग का नाश करने में उत्तम होता है।
करेला का शाक- यह कुछ कटु (तिक्त रस युक्त) अग्निदीपक तथा कफनाशक द्रव्यों में उत्तम है।
27/07/19, 12:19 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: प्रश्नोत्तरमाला – 28
किं दुर्लभं सद्गुरुरस्ति लोके
सत्संगतिर्ब्रह्मविचारणा च ।
त्यागो हि सर्वस्व शिवात्मबोधः
को दुर्जयः सर्वजनैर्मनोजः । २८ ।
प्र: संसार में दुर्लभ क्या है ?
उ: सद्गुरु, सत्संग, ब्रह्मविचार, सर्वस्व का त्याग और कल्याणरूप परमात्मा का ज्ञान ।
प्र: सबके लिए क्या जीतना कठिन है ?
उ: कामदेव ।
27/07/19, 5:49 am – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: ।। श्रीकृष्ण ।।
श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे,
हे नाथ नारायण वासुदेवाय!!!
🌹जय श्री कृष्ण🌹
27/07/19, 8:27 am – Abhinandan Sharma: वाह, बहुत सुंदर ।
27/07/19, 8:29 am – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: ये गलती से सेन्ड हो गया है sorry 🙏🙏
27/07/19, 8:30 am – Abhinandan Sharma: ये आ गयी पहली लाइन तुलसीदास जी की, ढोल गंवार टाइप । कोई अगर एक ही लाइन पढ़ेगा अबला अबल सहज जड़ जाती तो यही अर्थ करेगा कि औरत को मूर्ख कहा गया है । इसीलिये बार बार कहते हैं कि स्वयं पढिये भरम अपने आप डोर होंगे ।
27/07/19, 8:35 am – Abhinandan Sharma: इस संदर्भ में नित्यानंद जी की आज की पोस्ट का रेफेरेंस देना उचित होगा । जैसा लिखा है, सभी का कोई न कोई शत्रु है, जन्म का मृत्यु, जवानी का बुढापा आदि तो ऐसा क्या है, जिसका कोई शत्रु नहीं है, उसे क्या कहते हैं, पढिये नित्यानंद मिश्रा जी को –
‘Asapatna’ (असपत्न): such a wonderful and rare name!
The fifth ‘Brahmana’ of first chapter of the ‘Brihadaranyaka Upanishad’ describes the ‘prana’ as ‘asapatna’ (असपत्न),[1] meaning “without an enemy”. Gurudeva’s commentary on the verse says ‘asapatno niṣpratidvandvaḥ’ (असपत्नो निष्प्रतिद्वन्द्वः), i.e. the word ‘asapatna’ means “having no adversary or rival”, i.e. “unparalleled, unequalled”.
The word ‘asapatna’ is found in Vedic samhitas also, it is used several times in the tenth ‘mandala’ of the Rigveda-samhita and also in the Atharvaveda-samhita.
‘Asapatna’ is derived as follows. As per the Amara-kosha, the Samskrita word ‘sapatna’ (सपत्न) means “an enemy”.[2] In turn, ‘sapatna’ comes from the word ‘sapatnī’ which means “a woman having the same husband as another, i.e. fellow-wife”. As per the ‘Kashika’, one who is like a ‘sapatnī’ is ‘sapatna’.[3]
With ‘sapatna’ meaning “an enemy”, the word ‘asapatna’ means “one without an enemy”. The word has a similar meaning as ‘ajātaśatru’ (अजातशत्रु) or ‘anamitra’ (अनमित्र, I posted about this name some days ago.)
‘Asapatna’ is the 500th name of Shiva in the first ‘Shiva-sahasranama’ in the ‘Linga-Purana’.[4] Commenting on the name, the ‘Shivatoshini’ commentary says Shiva is ‘asapatna’ as (a) “he who has no sapatnī’, i.e. no wife other than Parvati and (b) “he who has no enemy”.[5]
The female version of ‘asapatna’ (असपत्न) is ‘asapatnā’ (असपत्ना, with the long final vowel), a word used in the Ramayana.[6] Without diacritics, both can be spelled ‘Asapatna’ or the female version can be spelt ‘Asapatnaa’.
When I checked on LinkedIn if anybody has the name ‘Asapatna’, I was pleasantly surprised to find one result: Asapatna Bandyopadhyaya in Kolkata, West Bengal. This person is most likely a male, two documents on ‘indiankanoon’ website mention a ‘Shri Asapatna Bandhyopadhyaya’ in Kolkata. The location is not surprising, as some of the rarest Samskrita names are found in Bengal. My deep respect for parents of Shri Asapatna Bandhyopadhyaya for choosing such a beautiful and rare name.
Notes—
[1] ‘स एषोऽसपत्नः’ = सः + एषः + असपत्नः (Brihadaranyaka Upanishad 1.5.12)
[2] ‘रिपौ वैरिसपत्नारिद्विषद्द्वेषणदुर्हृदः’ (Amarakosha 2.8.10)
[3] ‘सप्त्नीशब्दादपरे ऽकारम् इव अर्थे निपातयन्ति, सप्त्नीव सपत्नः’ (Kashika on व्यन् सपत्ने, Ashtadhyayi 4.1.145). On this, the ‘Nyasa’ further says: यथैव हि सपत्नी दुःखहेतुः, तथा शत्त्रुरपीति, यः सपत्नीव सपत्नः स उच्यते.
[4] ‘असपत्नः प्रसादश्च प्रत्ययो गीतसाधकः’ (Linga Purana 1.65.111)
[5] ‘नास्ति सपत्नी जगदंबिकान्यस्त्री यस्य वा न सपत्नः शत्रुर्यस्य सोऽसपत्नः’ (Shivatoshini, ibid.)
[6] ‘असपत्ना वरारोहे मेरुमर्कप्रभा यथा’ (Valmiki Ramayana 3.18.5). Although in the sense of “she who has no fellow-wife”, it also means “she who has no enemy”.
27/07/19, 8:37 am – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: यहाँ नारी औरत को नहीं । तालाब के किनारों पर उग ने बाली नारी को कहा गया है । क्या ये सही है 🙏🙏
27/07/19, 8:38 am – Abhinandan Sharma: आप चौपाई का अर्थ स्वयं देखें ।
27/07/19, 8:39 am – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: जी 🙏
27/07/19, 8:41 am – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan added Binita Kotnala Ghaziabad Shastra Gyan, Ghaziabad Shastra Gyan Pushpa,
27/07/19, 8:43 am – Abhinandan Sharma: लीजिये, संदर्भ भी मिल गया आज कि पुण्य ट्रांसफर हो सकते हैं ।
27/07/19, 8:43 am – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: आप सभी का स्वागत है 🙏🙏कृपया ग्रुप के नियम एक बार अच्छे से पड़ ले 💐स्वागतम 🙏🙏
27/07/19, 8:53 am – Abhinandan Sharma: वाह, सुन्दरदास जी ने क्या सही निचोड़ा है । बहुत सुंदर ।
27/07/19, 9:11 am – LE Onkar A-608 added +91
27/07/19, 9:41 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: जिसने वैराग्य शतक आखिर के ये कुछ श्लोक भी पढ़ लिए तो जीवन का निचोड़ समझने के लिए काफी लगते हैं 🙂 बाकी सुन्दरदास जी, तुलसीदासजी, रहीम, ज़ौक और कबीर तो रस का भण्डार हैं ।
27/07/19, 9:53 am – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: ।ॐ। शिव स्वरोदयः ।ॐ।
गमने तु चतुर्विशन्नेत्रवेदास्तु धावने।
मैथुने पञ्चषष्ठिश्च शयने च शताङ्गुलम्।२२२।
प्राणस्य तु गतिर्देविस्वभावाद्द्वादशाङ्गुलम्।
भोजने वमने चैव गतिरष्टादशाङ्गुलम्।२२३।
एकाङ्गुले कृते न्यूने प्राणे निष्कामता।
आनन्दस्तु द्वितीये स्यात्कविशक्तिस्तृतीयके।२२४।
वाचासिद्धिश्चतुर्थे च दूरदृष्टिस्तु पञ्चमे।
षष्ठे त्वाकाशगमनं चण्डवेगश्च सप्तमे।२२५।
अर्थ- चलते-फिरते समय प्राण वायु (साँस) की लम्बाई चौबीस अंगुल, दौड़ते समय बयालीस अंगुल, मैथुन करते समय पैंसठ और सोते समय (नींद में) सौ अंगुल होती है।२२२।
हे देवि, साँस की स्वाभाविक लम्बाई बारह अंगुल होती है, पर भोजन और वमन करते समय इसकी लम्बाई अठारह अंगुल हो जाती है।२२३।
भगवान शिव अब इन श्लोकों में यह बताते हैं कि यदि प्राण की लम्बाई कम की जाय तो अलौकिक सिद्धियाँ मिलती हैं। इस श्लोक में बताया गया है कि-
यदि प्राण-वायु की लम्बाई एक अंगुल कम कर दी जाय, तो व्यक्ति निष्काम हो जाता है, दो अंगुल कम होने से आनन्द की प्राप्ति होती है और तीन अंगुल होने से कवित्व या लेखन शक्ति मिलती है।२२४।
साँस की लम्बाई चार अंगुल कम होने से वाक्-सिद्धि, पाँच अंगुल कम होने से दूर-दृष्टि, छः अंगुल कम होने से आकाश में उड़ने की शक्ति और सात अंगुल कम होने से प्रचंड वेग से चलने की गति प्राप्त होती हैं।२२५।
27/07/19, 9:59 am – Abhinandan Sharma:
27/07/19, 10:01 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: वाह, बहुत सुन्दर, बुक तो करवाएं पर लिंक कहाँ है ?
27/07/19, 10:02 am – Abhinandan Sharma: आइला 😲
27/07/19, 10:02 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: यहाँ एक अंगुल कितना होगा?
27/07/19, 10:03 am – Abhinandan Sharma: https://www.amazon.in/gp/product/9388727495/ref=cm_sw_r_tw_myi?m=A2NPB25BZOO3WC
27/07/19, 12:21 pm – Pitambar Shukla: श्री गणेशाय नमः
श्री जानकी वल्लभो विजयते
श्री राम चरित मानस
उत्तर कांड
भगतिहि सानुकूल रघुराया।
ताते तेहि डरपति अति माया।।
राम भगति निरुपम निरुपाधी।
बसइ जासु उर सदा अबाधी।।
श्री रघुनाथजी भक्ति के विशेष अनुकूल रहते हैं।
इसी से माया उससे अत्यन्त डरती रहती है।
जिसके हृदय में उपमा रहित और उपाधि रहित (विशुद्ध ) राम भक्ति सदा बिना किसी बाधा के (रोक-टोक ) के बसती है;।।115-3।।
तेहि बिलोकि माया सकुचाई।
करि न सकइ कछु निज प्रभुताई।।
अस बिचारि जे मुनि बिग्यानी।
जाचहिं भगति सकल सुख खानी ।।
उसे देखकर माया सकुचा जाती है।
उस पर वह अपनी प्रभुता कुछ भी नहीं कर (चला) सकती।
ऐसा विचार कर ही जो विज्ञानी मुनि हैं,
वे भी सब सुखों की खानि भक्ति की ही याचना करते हैं।।115-4।।
27/07/19, 1:58 pm – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: 🙏🙏
27/07/19, 4:32 pm – Binita Kotnala Ghaziabad Shastra Gyan: *हिंदू त्योहार पहचानो
- 🔘 e 2. 🐍👊🙋
- 💰💸👉🍹 4. ☕ 🚶
- 👬 ✌🚶 6. ®🅰 😁
- 🐄 12 🍹 8. 6⃣
- 💩 💰💨 🚶 10. Birth 8⃣ 🙋
11.🔟 ♻ 12. 👩wall € - 9⃣ ⛺ 14. 🐘 4⃣ ☕
- ➰🅰♏ 9⃣🙋16. 👩v⛺
- ✋👍4⃣ 18. 🐊☀🎄
- 🐒🙏🎄 20. 🔫🐄
वक्त कल तक😉
27/07/19, 4:44 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: 8. छठ्ठ
- मकर संक्रांति
20.गणगौर
27/07/19, 4:48 pm – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur: 1. Holi
27/07/19, 4:48 pm – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur: 2. Nagpanchami
27/07/19, 4:48 pm – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur: 3. Dhanteras
27/07/19, 4:49 pm – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur: 4. Teeja
27/07/19, 4:49 pm – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur: 5. Bhaiduj
27/07/19, 4:53 pm – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur: 8. Chhat (suryashasthi)
27/07/19, 4:53 pm – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur: 10. Janmashtami
27/07/19, 4:53 pm – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur: 12. Deepawali
27/07/19, 4:53 pm – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur: 13. Navratra
27/07/19, 4:54 pm – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur: 15. Shree Ram navami
27/07/19, 4:54 pm – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur: 16. Shivratri
27/07/19, 4:56 pm – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur: 6 Rakhi
27/07/19, 5:00 pm – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur: 14 Ganesh chaturthi
27/07/19, 5:12 pm – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: Vinita mam yahan es tarah ka koi bhi post nahi kiya jata hai 🙏please pahle aap group ke niyam achchhi tarah se pd le 🙏please
27/07/19, 5:21 pm – Vaidya Ashish Kumar: 💐💐✅
27/07/19, 5:22 pm – Vaidya Ashish Kumar: धन्यवाद सर,दोनों बुक एक साथ ऑर्डर करना है
27/07/19, 5:39 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: कृपया कुछ भी पोस्ट करने से पहले ग्रुप के नियम पढ़ लें अन्यथा अगली ऐसी पोस्ट पर निष्कासन होगा 🙏🏼
27/07/19, 5:40 pm – LE Santosh Saxena D 706: 10 Janmashtami
27/07/19, 5:41 pm – LE Santosh Saxena D 706: 1 holi
27/07/19, 5:45 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: पहेलियां ही सुलझानी है तो कृपया दूसरा ग्रुप ढूँढिये, पोस्ट हुआ हो हुआ, उस पर उत्तर भी दिए जा रहे हैं, कृपया आगे के लिए ध्यान रखें 🙏🏼
27/07/19, 5:46 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: वैराग्य शतकं – 106
कृच्छ्रेणामेध्यमध्ये नियमिततनुभिः स्थीयते गर्भमध्ये
कान्ताविश्लेषदुःखव्यतिकरविषमे यौवने विप्रयोगः ।
वामाक्षीणामवज्ञाविहसितवसतिर्वृद्धभावोऽप्यसाधुः
संसारे रे मनुष्या वदत यदि सुखं स्वल्पमप्यस्ति किंचित् ।। १०६ ।।
अर्थ:
प्रथमावस्था में प्राणी गर्भावस्था में पड़ा रहता है । वहां वह मल-मूत्र राध लोहू प्रभृति गन्दी चीज़ों के बीच में पड़ा हुआ, बड़े बड़े कष्ट भोगता और हिल भी नहीं सकता । दूसरी अवस्था – जवानी में, वह अपनी प्यारी स्त्री की जुदाई के दुःख सहन करता है । तीसरी अवस्था – बुढ़ापे में, वह स्त्रियों से अनादृत होकर दुःख में पड़ा रहता है । हे मनुष्यों ! इस संसार में ज़रा सा भी सुख हो तो बताओ ।
गर्भावस्था
माता के खून और पिता के वीर्य से, गर्भाशय में, प्राणी की देह बनती है । चार मास बाद, उस देह में जीव आ जाता है । उस समय वह घोर अन्धकारपूर्ण कैदखाने में हाँथ-पाँव बंधा हुआ, उल्टा लटका रहता है । मुंह पर झिल्ली होने के कारण, न बोल सकता है और न रो सकता है,
जिस स्थान में वह नौ मास तक रहता है, वह स्थान – गर्भाशय, मल, मूत्र राध, खून, पीव और कफ प्रभृति महागंदे पदार्थों से भरा रहता है । वह जगह गन्दगी होने के सिवा इतनी तंग भी है कि वहां वह अच्छी तरह फैल-पसर कर रह भी नहीं सकता । उसी मैली और तंग जगह में जो साक्षात् नर्क है, वह बड़े ही कष्ट से नौ महीने काटता है । नर्क-कुण्ड के कष्टों से दुखी होकर, वह परमात्मा को याद करता है और उससे वादा करता है कि इस बार मैं जन्म लूँगा तो और कुछ न करके, केवल आपकी उपासना ही करूँगा । खैर, भगवान् दया करके उसे बाहर निकलते हैं; पर बाहर आते ही वह, माया-मोह में फंसकर, ईश्वर को भूल जाता है ।
बालावस्था
बालावस्था भी परमदुख की मूल है । इस अवस्था में प्राणी पराधीन और अतीव दीन रहता है । अशक्तता, मूर्खता, चपलता, दीनता और दुःख-सन्ताप – ये विकार इस अवस्था में आ जाते हैं । बालक एक पदार्थ की ओर दौड़ता, दुसरे को पकड़ता और तीसरे की इच्छा करता है । वह बड़ी बड़ी इच्छाएं करता है, पर उसकी इच्छाएं पूरी नहीं होती । वह सदा तृष्णा के फेर में पड़ा रहता और क्षण-क्षण में भयभीत होता है । उसे कभी शान्ति प्राप्त नहीं होती । जिस तरह कदलीवन का हाथी, सांकलों में बंधा हुआ, दीन हो जाता है; उसी तरह यह चैतन्य पुरुष, बालावस्था रुपी सांकलों में, महादीन हो जाता है । जिस तरह क्षण क्षण में द्वार की ओर दौड़ने वाले कुत्ते का अपमान होता है; उसी तरह बालक का अनादर होता है । उसे सदा माता-पिता और बांधवों का भय रहता है । यहाँ तक की अपने से बड़े बालकों और पशु-पक्षियों से भी उसे भीत रहना पड़ता है । स्त्री के नयन और नदी के प्रवाह से भी बालक और मन की चञ्चलता अधिक है । सच तो यह है कि बालक और मन कि चञ्चलता समान है; और सब की चञ्चलता, इन दोनों की चञ्चलता से नीचे है । जिस तरह वेश्या का मन एक पुरुष में नहीं ठहरता; उसी तरह बालक का मन भी एक पदार्थ में नहीं ठहरता ।
इस काम या पदार्थ से मेरा अनिष्ट होगा या कल्याण, इतना भी ज्ञान बालक को नहीं होता । जिस तरह ज्येष्ठ आषाढ़ में पृथ्वी तपती रहती है; उसी तरह सुख-दुःख और इच्छा प्रभृति दोषों से बालक जलता रहता है ।
बालक में अशक्तता और पराधीनता इतनी होती है कि, वह आप न उठ सकता है, न बैठ सकता है, न चल सकता है और न खा सकता है । कोई उठा लेता है तो गोद में आ जाता है; नहीं तो अपने मल-मूत्र में ही पड़ा रोया करता है । कोई दूध पीला देता है तो पी लेता है; नहीं तो रोता रहता है । यह शिशु अवस्था है । इस अवस्था को पार कर वह बालकावस्था में आता है; तब पढ़ने-लिखने का भार उसके सिर पर आता है । उस समय बालक गुरु से इस तरह डरता है; जिस तरह कोई यमदूत से डरता है । ज़रा भी दंगा करने या न पढ़ने से माता-पिता और गुरु प्रभृति की ताड़नाएँ सहनी पड़ती हैं । अगर उसे कुछ रोग हो जाता है, तो वह साफ़ साफ़ कह नहीं सकता और उसे सह भी नहीं सकता; भीतर ही भीतर सहता और दुःख पाता है । यह अवस्था महामूर्खतापूर्ण है । बालक कभी कहता है कि मुझे बर्फ का टुकड़ा भून दो; कभी कहता है कि आकाश का चाँद उतार दो । भोला इतना होता है कि, थाली में जल भर कर चाँद दिखाने और दूध की जगह आटा घोल कर दे देने से भी राज़ी हो जाता है । इस अवस्था में दुःख ही दुःख हैं, सुख और स्वाधीनता का नाम ही नहीं । परमात्मा यह अवस्था किसी को न दे ।
युवावस्था
बालकावस्था के बाद युवावस्था आती है । यद्यपि ये अवस्था नीचे से ऊपर चढ़ती है; पर यह और भी बुरी है । १५।१६ साल की अवस्था में शादी कर दी जाती है । इसे ‘शादी खाने आबादी’ कहते हैं, पर यह है बर्बादी । बेचारे के पैरों में ऐसी बेड़ियाँ डाल दी जाती हैं, कि उसे जन्म भर आज़ादी नहीं मिलती । लोहे और काठ की बेड़ियों से चाहे मनुष्य को छुटकारा मिल जाये; पर स्त्री रुपी बेड़ियों से जीवन-भर छुटकारा नहीं मिलता । अब तक पढ़ने लिखने की चिन्ता और गुरु प्रभृति के भय से ही दुखी रहना पड़ता था; पर अब और फ़िक्र – चिंताएं सिर पर सवार होती हैं । वही माता-पिता, जिन्होंने शादी शादी कहकर पैरों में स्त्रीरुपी बेड़ियाँ पहना दी थीं, उठती जवानी के पट्ठे को को भून-भूनकर खाते हैं । कहते हैं – “हमने तुझे पढ़ा लिखा दिया, तेरा शादी-ब्याह कर दिया; हमारा कर्तव्य पूरा हुआ; अब तू कमा । अगर नहीं कमाता है तो अपनी स्त्री को लेकर अलग हो जा ।” इस समय बेचारे की जान पर बन आती है । नौकरी या रोज़गार मिलना कोई खेल नहीं; इसलिए बेचारा भीतर ही भीतर जल-जलकर ख़ाक होने लगता है । अगर धनी घर में जन्म होता है, तो ये कष्ट भोगने नहीं पड़ते । उस अवस्था में और ही नाश के सामान आ इकट्ठे होते हैं । धन, यौवन और प्रभुता इनमें से प्रत्येक अनर्थ की जड़ है । जहाँ ये सब इकट्ठे हो जाएँ, वहां का तो कहना ही क्या ? जिस तरह धन पाने की आशा से, निर्धन लोग धनी को घेरे रहते हैं; उसी तरह इस अवस्था में, सब दोष आकर युवक को घेर लेते हैं । युवावस्था रुपी रात्रि को देखकर काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार, “आत्मज्ञान रुपी धन” को लूटते हैं; इसलिए चित्त शांत नहीं रहता और विषयों की ओर दौड़ता है । विषयों का संयोग होने से तृष्णा बढ़ती है । इस तृष्णा राक्षसी के मारे प्राणी जन्म-जन्मांतर में दुःख भोगता है ।
इस अवस्था में विषय भोगों की ओर मन ज़ियादा रहता है । स्त्री अत्यधिक प्यारी लगती है । नित नई स्त्रियों पर मन चला करता है । अगर कोई मित्र आता है, तो नवयुवक उससे कहता है – “अरे यार ! वह नाज़नी कैसी खूबसूरत है ! उसने तो मेरा दिल ही ले लिया । उसके दीदार बिना मुझे क्षण भर चैन नहीं । वह कैसे मिले ?” बस; ऐसी ही बातें अच्छी लगती हैं । अगर इच्छित स्त्री नहीं मिलती, तो मन में क्रोध होता है; क्रोध से मोह होता है और मोह से बुद्धि नष्ट हो जाती है । बुद्धि के नष्ट होने से, मनुष्य बिना पतवार की नाव की तरह से नष्ट हो जाता है । समुद्र में अगाध जल भरा है । उसमें अनन्त तरंगे उठती हैं । इतना विशाल महासागर, ईश्वर आज्ञा के विरुद्ध, मर्यादा को नहीं मेटता; पर युवावस्था शास्त्र और ईश्वर दोनों की आज्ञाओं को मेट देती है । जिस तरह अँधेरे में पदार्थों का ज्ञान नहीं रहता; उसी तरह युवावस्था में शुभ-अशुभ या भले-बुरे का ज्ञान नहीं रहता । जवानी दीवानी में लोक-लाज और हया-शर्म सब हवा हो जाती हैं ।
लिख चुके हैं, युवा अवस्था में स्त्री सबसे अधिक प्यारी लगती है । अगर किसी तरह स्त्री से वियोग हो जाता है, तो पुरुष उसकी वियोगग्नि में इस तरह जलता है, जिस तरह दावाग्नि से वन के वृक्ष जलते हैं । युवावस्था में बड़े से बड़े बुद्धिमानों की बुद्धि उसी तरह मलिन हो जाती है; जिस तरह वर्षाकाल में निर्मल नदी मलिन हो जाती है । इस अवस्था में “वैराग्य और संतोष” प्रभृति गुणों का अभाव हो जाता है ।
मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र जी ने मुनि वसिष्ठ से कहा – “हे मुनिवर ! जिस महासागर में अनन्त और अगाध जलराशि है तथा लाखों करोड़ों बड़े बड़े मगरमच्छ और घड़ियाल हैं, उसका पार करना महाकठिन है; पर मैं उसका पार करना उतना मुश्किल नहीं समझता, जितना की मैं इस युवावस्था का पार करना कठिन समझता हूँ । युवावस्था विषयों की ओर ले जाने वाली, महा अनर्थकारी और लोक-परलोक नशानेवाली है । जिस तरह आकाश में वन का होना आश्चचर्य की बात है; उसी तरह युवावस्था में सब सुखों के मूल वैराग्य, विचार, सन्तोष और शान्ति का होना आश्चर्य है ।”
महाराजा रामचन्द्र एक और जगह कहते हैं – “युवावस्था ! मुझ पर दया करके तू न आना ! मुझे तेरी जरुरत नहीं, क्योंकि मेरी समझ में तेरा आना दुखों का कारण है । जिस तरह पुत्र के मरने का सङ्कट पिता के सुख के लिए नहीं होता; उसी तरह तेरा आना भी सुख के लिए नहीं होता ।”
वृद्धावस्था
यह अवस्था, पहली दो अवस्थाओं से भी बुरी है । बाल्यावस्था महाजड़ और अशक्त है; युवावस्था अनर्थ और पापों का मूल है तथा वृद्धावस्था में शरीर जर्जर और बुद्धि क्षीण हो जाती है, खूब निकल आता है, दांत गिर पड़ते हैं, बाल सफ़ेद हो जाते हैं, बल काम हो जाता है, आँखों से काम सूझता है या सूझता ही नहीं, कानो से सुनाई नहीं देता, पैरों से चला नहीं जाता, लकड़ी तक-तक कर चलना होता है, कफ और खांसी अपना दौरा-दौरा जमा लेते हैं, हर समय सांस फूलने लगता है । बहुत क्या – सारे रोग, शत्रुओं की तरह मौका पाकर, इस अवस्था में चढ़ाई कर देते हैं । स्त्री-पुत्रादि सभी नाते-रिश्तेदार बूढ़े को उसी तरह त्याग देते हैं; जिस तरह पके फल को वृक्ष और निकम्मे बूढ़े बैल को बैलवाले त्याग देता है ।
ज़रा अवस्था या बुढ़ापा मृत्यु का पेशखीमा है । जिस तरह सांझ होने से रात निकट आती है; उसी तरह बुढ़ापे के आने से मौत निकट आ जाती है । संध्या के आने पर जो दिन की इच्छा करते हैं और बुढ़ापे के आने पर जो जीने की अभिलाषा रखते हैं, वे दोनों ही मूर्ख हैं । जिस तरह बिल्ली, चूहे को खा जाने की घात में रहती है और चाहती है कि चूहा आवे तो खाऊं; उसी तरह मौत देखती रहती है कि बुढ़ापा आवे तो मैं इसे ग्रहण करूँ । ऐसा जान पड़ता है मानो वृद्धावस्था काल की सखी है । वह आकर रोगरूपी आग से शरीर के मांस को जलाती या पकाती और उसका स्वामी – काल आकर प्राणी को भक्षण कर जाता है । अशक्तता, अङ्गपीड़ा और खांसी – ये तीनो काल की पटरानियां हैं । जिस तरह वन में बाघिन आकर पहले शब्द करती या गरजती और मृग का नाश करती है; उसी तरह शरीर रुपी वन में खांसी रुपी बाघिन आकर बल-रुपी मृग का नाश करती है । जिस तरह चन्द्रमा के उदय होने से कमलिनी खिल उठती है; उसी तरह बुढ़ापे के आने से मृत्यु प्रसन्न होती है । जरा बड़ी जबरदस्त है । इसने बड़े बड़े शत्रुहन्ताओं के मान-मर्दन कर दिए हैं । यह शरीर को आग की तरह जलाती है । जिस तरह वृक्ष में आग लगती है, तब धुंआ निकलता है; उसी तरह शरीर वृक्ष में जरा-रुपी अग्नि के लगने से तृष्णा-रुपी धुंआ निकलता है । जरा-रुपी जञ्जीर में बंधने से मनुष्य दीन हो जाता है, अंग शिथिल हो जाते हैं, बल क्षीण हो जाता है, इन्द्रियां निर्बल हो जाती हैं और शरीर जर्जर हो जाता है, पर तृष्णा उलटी बलवती हो जाती है । इस अवस्था में घोर दुःख हैं, सुख का तो लेश भी नहीं ।
जिस समय पुरुष बूढा हो जाता है, उसमें कमाने की शक्ति नहीं रहती; तब सभी उसे पागल समझकर उसकी हंसी करते और उसके पुत्र-पौत्रादि बुरी नज़र से देखते हैं । यहाँ तक की ख़ास उसकी अर्द्धांगी उससे घृणा करने लगती है । पुत्र उसे कोई चीज़ नहीं समझते और लोग भी उसे वृथा की बला समझते हैं । पुत्र और पुत्र-वधुएं उसे एक टूटी सी खाट पर, पौली में डाल देते हैं और उसके थूकने को एक ठीकरा रख देते हैं । आप समय पर अच्छे से अच्छा खाना खाते हैं; पर समय-बे-समय, जब याद आ जाती है, बचा खुचा बासी कूसी खाना, एक पुरानी और फूटी सी थाली या ठीकरे में रख कर दे आते हैं । जब उसका थूक-खखार या मल-मूत्र उठाते हैं – “अब मर क्यों नहीं जाते? जवान-जवान मरे जाते हैं, पर तुमको मौत नहीं आती !” प्रभृति । यह दुर्गति बुढ़ापे में होती है ।
अगर घर गृहस्थी में सौभाग्य से कोई दुःख नहीं होता, घरवाले स्त्री-पुत्र आदि अच्छे मिल जाते हैं, घर में परमात्मा की दया से सुखैश्वर्य के सभी सामान मौजूद होते हैं; तो दूसरों का भला न चेतने वाले, दूसरों को अच्छी अवस्था में देखकर कुढ़ने वाले ही वाले तंग करते हैं । वह अपनी ओर से उसका सर्वनाश करने में कोई बात न उठा रखते हैं । यद्यपि ऐसी बातों से उन्हें कोई लाभ नहीं होता; तो भी वो बिल्ली की सी करतूतों से बाज़ नहीं आते; हरदम नाक में दम किये रहते हैं । मतलब यह कि, संसार में दुखों की ही अधिकता है । यहाँ सुख है ही नहीं । अगर है तो उसके परिणाम में कोई लाभ नहीं; वरन हानि है ।
उस्ताद ज़ौक़ कहते हैं –
राहतो रंज ज़माने में हैं दोनों, लेकिन।
याँ अगर एक को राहत है, तो है चार को रंज ।।
निस्संदेह संसार में सुख और दुःख दोनों ही हैं – पर बहुलता दुःख की ही है, क्योंकि चार दुखियों में मुश्किल से एक सुखी मिलता है ।
उस्ताद ज़ौक़ ही एक जगह और कहते हैं –
हलावते शरमो पासदारी, जहाँ में है ज़ौक़ रंजोख्वारी ।
मज़े से गुज़री, अगर गुज़ारी किसी ने बे नामोनंग होकर ।।
संसार से दूर रहना अच्छा; यहाँ के संबंधों की जड़ में दुःख और क्लेश भरा हुआ है । जिसने अपनी ज़िन्दगी चुपचाप गुज़ार दी; सच तो ये है, उसने अच्छी गुज़ार दी ।
सारांश यह कि सभी महात्माओं ने संसार के दुखों का अनुभव करके औरों को चेतावनी दी है, कि इस मिथ्या जगत की माया में न भूलो; इससे दिल मत लगाओ, किन्तु इसके बनानेवाले के साथ दिल लगाओ । इसके साथ दिल लगाने से तुम्हारा बुरा और उसके साथ दिल लगाने से भला है ।
गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है –
सलिल युक्त शोणित समुझ, पल अरु अस्थि समेत ।
बाल कुमार युवा जरा, है सु समुझ करु चेत ।।
ऐसेही गति अवसान की, तुलसी जानत हेत ।
ताते यह गति जानि जिय, अविरल हरि चित चेत ।।
स्त्री की रज और पुरुष के वीर्य से तुम्हारे शरीर के खून, मांस और हड्डियां बनी । फिर तुम गर्भाशय से बाहर आये । फिर बालक अवस्था में रहे; उसके बाद युवावस्था आयी; फिर बुढ़ापा आया । फिर तुम मरे और कर्मफल भोगने को फिर जन्म लिया । इस तरह लोक-वासना के कारण तुम्हें बारम्बार जन्मना और मरना पड़ता है । इसमें कैसे कैसे कष्ट उठाने पड़ते हैं, इन बातों को याद करते रहो और कष्टों से बचने के लिए सावधान होकर परमात्मा से प्रीति करो; तभी तुम्हारा भला होगा । तुम्हारे सारे नातेदार मतलबी हैं; केवल एक वह सच्चा सहायक और रक्षक है । यही सब विषय नीचे के भजनो में कैसी खूबी से दिखाए हैं –
भजन (राग धनाश्री)
हरि बिन और न कोई अपना, हरि बिन और न कोई रे।
मात पिता सुत बन्धु कुटुम सब, स्वारथ के ही होई रे ।।
या काय को भोग बहुत दे, मरदन कर कर सोई रे ।
सो भी छूटत नैक न खसकी, संग न चाली धोई रे ।।
घर की नारि बहुत ही प्यारी, तन में नाहीं दोई रे ।
जीवट कहती संग चलूंगी, डरपन लागी सोई रे ।।
जो कहिये यह द्रव्य आपनो, जिन उज्जल मति खोई रे ।
आवत कष्ट राखत रखवारी, चालत प्राण ले जोई रे ।।
इस जग में कोई हितू न दीखे, मैं समझों तोई रे ।
चरणदास-सुखदेव कहैं, ये सुन लीजो सब कोई रे ।।
भजन (राग सोरठ)
सुध राखो वा दिन की कछु तुम, सुध राखो वा दिन की रे ।
जादिन तेरी यह देह छूटैगी, ठौर बसौगे बन की रे ।।
जिनके संग बहुत सुख कीने, तेरो मुख ढँक होएंगे न्यारे रे ।
जम के त्रास होएं बहु भाँती, कौन छुटावनहारे रे ।।
देहल लों तेरी नारि चलेगी, बड़ी पौल लो माई रे ।
मरघट लों सब बीर भतीजे, हंस अकेला जाए रे ।।
द्रव्य पड़ें और महल खड़े रहे, पूत रहैं घर माहीं रे ।
जिनके काज पचैं दिन राती, सो संग चालत नाहीं रे ।।
देव पितर तेरे काम न आवें, जिनकी सेवा लावे रे ।
चरणदास-सुखदेव कहत हैं, हरि बिन मुक्ति न पावे रे ।।
परमात्मा की भक्ति करो तो ऐसी करो कि परमात्मा के सिवा अन्य किसी भी देवी-देवता या संसारी पदार्थ को कुछ समझो ही नहीं; यानि उस जगदीश के सिवा सबको झूठे, निकम्मे और नाशमान समझो । केवल उसके प्रेम में गर्क हो जाओ और उससे प्रेम के बदले में कुछ मांगो नहीं; तब देखो, क्या आनन्द आता है !
कबीर साहब कहते हैं –
सुमिरन से मन लाइए, जैसे दीप पतंग।
प्रान तजै छीन एक में, जरत न मोरे अंग।।
इसी बात को उस्ताद ज़ौक़ ने किस तरह कहा है –
कहा पतंग ने यह, दारे शमा पर चढ़ कर ।
अजब मज़ा है, जो मर ले किसी के सर चढ़ कर ।।
ऐसी प्रीति को ही प्रीति कहते हैं । दीपक और पतंग, मछली और जल, नाद और कुरङ्ग, चातक और मेघ – इनकी प्रीति आदर्श प्रीति है । ऐसी प्रीति से ही सच्ची सिद्धि मिलती है – ऐसी प्रीति वालों को ही परमात्मा के दर्शन होते हैं ।
दोहा
सह्यो गर्भदुख जन्मदुःख, जौवन त्रिया वियोग।
वृद्ध भये सबहिन तज्यो, जगत किधौं यह रोग।।
27/07/19, 6:52 pm – LE Onkar A-608 added Mahendra Mishra Delhi Shastra Gyan, Sachin Tyagi Shastra Gyan,
27/07/19, 6:55 pm – LE Onkar A-608 added LE Shail Singh W Onkar Singh Ji
27/07/19, 6:57 pm – +91 97194 58113 left
27/07/19, 8:03 pm – Abhinandan Sharma: सभी नए सदस्यों की सुविधा के लिये, ग्रुप के नियम यहां डाल रहा हूँ । ये ग्रुप पहलीबार चुटकुलों के लिये नहीं है ।
27/07/19, 8:03 pm – Abhinandan Sharma: इस ग्रुप में फ़ॉर्वर्डेड पोस्ट डालना मना है | नेट से कोई भी कंटेंट, ख़ास तौर से बिना सन्दर्भ के अथवा तोडा मरोड़ा हुआ, डालना भी मना है | जो आपने स्वयं पढ़ा हो, किसी शास्त्र से, कोई दोहां, कोई चोपाई, कोई पुराण, कुछ भी, वो आप इस ग्रुप में डाल सकते हैं | ग्रुप ज्वाइन करने वाले, खुद भी कोई भी एक पुस्तक, ग्रुप एडमिन के परामर्श से प्रारंभ कर सकते हैं और उसे पढ़कर ग्रुप में अन्य मेम्बेर्स को पढने के लिए डाल सकते हैं | अभी ग्रुप में ४-5 पुस्तक इस प्रकार के प्रयास से चल रही है, जिससे सभी लोग वो ग्रन्थ पढ़ सकें | स्वागतम !
27/07/19, 8:45 pm – Shastra Gyan Kartik: वाह्ह्हह्ह्ह्ह 🙂
27/07/19, 9:16 pm –
27/07/19, 11:22 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: अगले श्लोक में दो बड़ी अच्छी और ध्यान देनेवाली कहानिया हैं, पढ़े जरूर ।🙏🏼
28/07/19, 9:46 am –
28/07/19, 11:14 am – Pitambar Shukla: श्री गणेशाय नमः
श्री जानकी वल्लभो विजयते
श्री राम चरित मानस
उत्तर कांड
यह रहस्य रघुनाथ कर बेगि न जानइ कोइ।
जो जानइ रघुपति कृपा
सपनेहु मोह न होइ।।
श्री रघुनाथजी का यह रहस्य ( गुप्त मर्म) जल्दी कोई भी नही जान पाता।
श्री रघुनाथजी की कृपा से जो इसे जान जाता है, उसे स्वप्न में भी मोह नही होता ।।116 (क)।।
औरउ ग्यान भगति कर
भेद सुनहु सुप्रबीन।
जो सुनि होइ राम पद
प्रीति सदा अबिछीन।।
हे सुचतुर गरुड़ जी! ज्ञान और भक्ति का और भी भेद सुनिए, जिसके सुनने से श्री राम जी के चरणों में सदा अविच्छिन्न ( एक तार ) प्रेम हो जाता है
।।116 (ख)।।
28/07/19, 1:37 pm – : This message was deleted
29/07/19, 8:48 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: प्रश्नोत्तरमाला – 29
पशोः पशुः को न करोति धर्मं
प्राधीतशास्त्रोऽपि न चात्मबोधः।
किन्तद्विषं भाति सुधोपमं स्त्री
के शत्रवो मित्रवदात्मजाद्याः। २९ ।
प्र: पशुओं से भी बढ़कर पशु कौन है ?
उ: शास्त्र का खूब अध्ययन करके जो धर्म का पालन नहीं करता और जिसे आत्मज्ञान नहीं हुआ ।
प्र: वह कौन सा विष है जो अमृत सा जान पड़ता है ?
उ: नारी ।
प्र: शत्रु कौन है जो मित्र सा लगता है ?
उ: पुत्र आदि ।
29/07/19, 10:59 am – Pitambar Shukla: श्री गणेशाय नमः
श्री जानकी वल्लभो विजयते
श्री राम चरित मानस
उत्तर कांड
सुनहु तात यह अकथ कहानी ।
समुझत बनइ न जाइ बखानी।।
ईस्वर अंस जीव अबिनासी।
चेतन अमल सहज सुख रासी।।
हे तात! यह अकथनीय कहानी ( वार्ता ) सुनिए ।
यह समझते ही बनती है , कही नहीं जा सकती ।
डीव ईश्वर का अंश है।
(अतएव ) वह अविनाशी, चेतन, निर्मल और स्वभाव से ही सुख की राशि है।।116-1।।
सो माया बस भयउ गोसाईं ।
बंध्यो कीर मरकट की नाईं।।
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई ।
जदपि मृषा छूटति कठिनई।।
हे गोसाईं! वह माया के वशीभूत होकर तोते और वानर की भांति अपने आप ही बंध गया।
इस प्रकार जड़ और चेतन में गांठ पड़ गई ।
यद्यपि वह ग्रंथि मिथ्या ही है, तथापि उसके छूटने में कठिनता है ।।116-2।।
29/07/19, 11:01 am – Pitambar Shukla: डीव❎
जीव✅
29/07/19, 11:23 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙏🏼🙏🏼
29/07/19, 11:39 am – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: 🙏🏻🙏🏻
29/07/19, 11:46 am – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: 🙏🙏
29/07/19, 2:43 pm – +91joined using this group’s invite link
29/07/19, 8:38 pm – +91 joined using this group’s invite link
29/07/19, 8:50 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: वैराग्य शतकं – 107
आयुर्वर्षशतं नृणां परिमितं रात्रौ तदर्धं गतं
तस्यार्धस्य परस्य चार्धमपरं बालत्ववृद्धत्वयोः ।
शेषं व्याधिवियोगदुःखसहितं सेवादिभिर्नीयते
जीवे वारितरङ्गचञ्चलतरे सौख्यं कुतः प्राणिनाम् ।। १०७ ।।
अर्थ:
मनुष्य की उम्र औसत सौ बरस की मानी गयी है । उसमें से आधी तो रात में सोने में गुज़र जाती है; बाकी में एक भाग बचपन में और एक भाग बुढ़ापे में चला जाता है । शेष में जो एक भाग बचता है – वह रोग, वियोग, पराई चाकरी, शोक और हानि प्रभृति नाना प्रकार के क्लेशों में बीत जाता है । जल तरंगवत चञ्चल जीवन में प्राणियों के लिए सुख कहाँ है ?
खुलासा: शास्त्रों में मनुष्य की आयु सौ बरस की मानी गयी है । उसमें से पचास बरस; यानि आधी आयु तो रात के समय सोने में बीत जाती है । अब रहे पचास बरस; उनके तीन भाग कीजिये । पहले १७ साल बचपन की अज्ञानावस्था और पराधीनता में बीत जाते हैं । दुसरे १७ साल वृद्धावस्था में चले जाते हैं और शेष १६ साल नाना प्रकार के रोग, शोक, वियोग, हानि-लाभ की चिन्ता और दूसरों से लड़ने-झगड़ने प्रभृतुय में बीत जाते हैं ।
दुःखपूर्ण जीवन में कहीं सुख नहीं
यद्यपि इस जीवन में ज़रा भी सुख नहीं है, क्षण-भर भी शान्ति नहीं है; तो भी मनुष्य का ऐसा मोह है कि वह मरना नहीं चाहता; मौत का नाम सुनते ही काँप उठता है । अगर इस जीवन में सुख होता, तो न जाने क्या होता ? घोर कष्ट और दुखों में भी यदि मनुष्य मरता है तो कहता है -” हम कुछ न जिए, अगर और कुछ दिन जीते तो ……………..”
किसी कवी ने कहा है –
हो उम्र खिज्र भी, तो कहेंगे बवक्ते मर्ग।
हम क्या रहे यहाँ, अभी आये अभी चले।।
चाहे हज़ारों बरस की उम्र हो जाए, मरते समय यही कहेंगे, इस संसार में कुछ भी न रहे, अभी आये अभी जाते हैं । जीने की अभिलाषा बनी ही रहती है ।
घृणित जीवन से भी क्यों घृणा नहीं होती?
मनुष्य जीवन में दुःख ही दुःख हैं; फिर भी मनुष्य इस घृणित जीवन से सन्तुष्ट क्यों रहता है ? इससे उसे घृणा क्यों नहीं होती ? जिस तरह मैले से भंगी को घृणा नहीं होती; उसी तरह जिनके स्वाभाव में मनुष्य जीवन के दुःख समा गए हैं, उन्हें इस मलिन और घृणित जीवन – दु:खपूर्ण जीवन से घृणा नहीं होती । मैले का कीड़ा मैले में ही सुखी रहता है; मैले से निकलने में उसे दुःख होता है । यही हाल उनका भी है, जिनके अन्तः कारन मलिन हैं । वे मलिन गृहस्थाश्रम में ही सही हैं ।
मनुष्य का कर्तव्य क्या है ?
मनुष्य-जन्म बड़ा दुर्लभ है । यह ८४ लाख योनियां भोगने के बाद मिलता है । अगर मनुष्य इस मानव जीवन में भी चूक जाता है – आवागमन – जन्म-मरण के फन्दे से छूटने का उपाय नहीं करता, तो पछताता और रोता है; पर यह सुअवसर उसे फिर जल्दी नहीं मिलता । इस पर एक दृष्टान्त है –
अवसर चुके पछताना होता है
किसी राजा के ३६० रानियां थीं । राजा विदेश गया था । जिस दिन वह लौटकर आया उस दिन ३६०वे नम्बर की रानी के यहाँ उसके जाने की बारी थी । रानी ने दासियों से कह दिया कि मैं सोती हूँ; जब राजाजी आवें, मुझे जगा देना । रात को राजा आया; किन्तु दासियों ने भय के मारे रानी को न जगाया । सवेरे राजा चला गया । रानी ने उठकर पुछा – “क्या राजाजी आये थे ?” दसियों ने कहा -“हाँ, आये थे । हम लोग उनके भय के मारे आपको जगा न सकीं ।” रानी बहुत रोई, पछताई । उसे ३६० दिन तक फिर राह देखनी पड़ी । बस, यही हाल उनका है, जो इस मनुष्य जन्म को वृथा गवां देते हैं । इसमें भगवत्भक्ति या उपासना नहीं करते । मर जाने पर, ८४ लाख योनियों को भोगकर, फिर कहीं ऐसा अवसर हाथ आता है । अतः मनुष्य को सब जञ्जाल छोड़कर, एकमात्र भगवत्भक्ति में लग्न चाहिए; एक क्षण भी व्यर्थ न गवाना चाहिए । दम निकले तो जगदीश्वर की याद करता हुआ ही निकले । इसी में कल्याण है । सांस का भरोसा क्या ? आया आया, न आया न आया ।
“गुरु-कौमुदी” में कहा है –
अरे भेज हरेर्नाम, क्षेमधाम क्षणे क्षणे ।
बहिस्सरति निःश्वासे विश्वासः कः प्रवर्त्तते ।।
अरे जीव ! प्रत्येक क्षण हरि का नाम भज । हरि का नाम कल्याण धाम है । जो सांस बाहर निकल जाता है, उसका क्या भरोसा ? आवे, न आवे ।
महाभारत में आयु की क्षणभंगुरता पर एक इतिहास लिखा है –
एक ब्राह्मण राह भूलकर किसी भयानक वन में जा निकला । वहां हाथी और सर्प प्रभृति भयानक हिंसक पशु घूम रहे थे । एक पिशाचिनी हाथ में फांसी लिए सामने आ रही थी । उन्हें देखकर वह डर के मारे रक्षा का स्थान खोजने लगा । उसने एक अन्धा कुआँ देखा, जिसमें घास छा रही थी तथा अनेक प्रकार की बेलें लगी थी । वह एक बेल को पकड़ कर औंधा सिर किये, कुँए में लटक गया । थोड़ी देर बाद उसने नीचे की ओर देखा तो एक बड़ा भारी सर्प मुंह फाड़े नज़र आया; ऊपर की ओर देखा तो एक मस्त हाथी खड़ा दीखा । उस हाथी के छः मुख थे । उसका शरीर आधा सफ़ेद और आधा काला था । जिस बेल को वह ब्राह्मण पकडे हुए था, उसको वह हाथी खा रहा था और सफ़ेद और काले दो चूहे चूहे उस बेल की जड़ को काट रहे थे ।
इसका मतलब यों है – वह ब्राह्मण जीव है । सघन वन यह संसार है । काम क्रोध आदि भयानक जीव, इस जीव को नष्ट करने को घूम रहे हैं । स्त्री रुपी पिशाचिनी, भोग-रुपी पाश लेकर, इस जीव के फंसने के लिए फिरती है । कुँए में जो बेल लटक रही है, वही आयु है । उसी को पकड़ कर यह जीव लटक रहा है । कुँए में जो कालसर्प है, वह इस जीव का काल है, वह अपनी घात देख रहा है; उधर रात-दिन रुपी चूहे इस आयु रुपी बेल की जड़ काट रहे हैं । वह हाथी वर्ष है । उसके छः मुख, छः ऋतुएं हैं । कृष्ण और शुक्ल दो पक्ष उस हाथी के दो वर्ण या रंग हैं । मनुष्य इस तरह मौत के मुंह में है । हर क्षण मौत उसे निगलती जा रही है; पर आश्चर्य है कि इस आफत में भी – मृत्यु-मुख में पड़ा हुआ भी – वह अपने को सुखी समझता है और इस नितान्त भयपूर्ण जीवन से सन्तुष्ट है ।
बीत गयी सो बात गयी, आगे की सुधि लो
बहुत से लोग कहा करते हैं कि हमने सारी उम्र परपीड़न या पापकर्मों में खोयी; भगवान् को कभी भूल से भी याद न किया; अब हम क्या कर सकते हैं ? यह कहना हमारी भूल है । जो समय बीत गया, वह तो लौट कर आवेगा नहीं; पर जो समय हाथ में है, उसे तो सुकर्म और ईश्वर कि याद में लगाना चाहिए । यदि बाकी उम्र भी व्यर्थ के झंझटों में गवाईं जाएगी, तो अन्तकाल में भारी पछतावा होगा ।
किसी कवी ने ठीक कहा है –
पुत्र कलत्र सुमित्र चरित्र,
धरा धन धाम है बन्धन जीको।
बारहिं बार विषय फल खात,
अघात न जात सुधारस फीको।
आन औसान तजो अभिमान,
कही सुन, नाम भजो सिय-पीको।
पाय परमपद हाथ सों जात,
गई सो गई अब राख रही को।
एक नट की उपदेशप्रद कहानी
एक राजा बड़ा ही कञ्जूस था । उसने प्रचुर धन-सञ्चय किया था; पर उससे न तो वह अपने पुत्र को सुख भोगने देता था और न खर्च के डर से अपनी कन्या की शादी ही करता था । एक दिन एक नट-नटी उसके दरबार में आये और राजा से तमाशा देखने की प्रार्थना की । राजा ने कहा -“अच्छा अमुक दिन देखा जाएगा ।” नटनी बार बार याद दिलाती रही और राजा बार बार टालता रहा । अन्त में नटनी ने वज़ीर से कहा – “अगर राजा साहब तमाशा न देखें, तो हम चले जाएँ; हमें खर्च खाते बहुत दिन हो गए ।” यह सुन वज़ीर ने राजा से कहा – “महाराज ! आप तमाशा देख लीजिये । हम लोग चन्दा करके कुछ नट को दे देंगे । अगर आप तमाशा न देखेंगे तो बड़ी बदनामी होगी ।” राजा इस बात पर राज़ी हो गया । तमाशा हुआ । तमाशा होते होते जब दो घडी रात रह गयी और राजा ने कुछ भी इनाम न दिया, तब नटनी ने नट से कहा –
रात घडी भर रह गयी, थाके पिंजर आये ।
कह नटनी सुन मालदेव, मधुरा ताल बजाय ।।
नटनी की बात सुकर नट ने कहा –
बहुत गयी थोड़ी रही, थोड़ी भी अब जाय।
कहे नाट सुन नायिका, ताल में भंग न पाय।।
एक तपस्वी भी वहां तमाशा देख रहा था । उसने ये सवाल जवाब सुनते ही नट को अपना कम्बल दे दिया, राजा के लड़के ने अपनी हीरों की जडाऊँ कड़ों की जोड़ी दे दी और राजकन्या ने अपने गले के हीरों का हार दे दिया ।
राजा यह सब देखकर चकित हो गया । उसने सबसे पहले तपस्वी से पूछा – “तुम्हारे पास यही एक कम्बल था । तुमने क्या समझकर उसे दे दिया ?” तपस्वी ने कहा – “आपके ऐश्वर्य को देखकर मेरे मन में भोगों की वासना उठ खड़ी हुई थी; पर नट के दोहे से मेरा विचार बदल गया । मैंने उससे यह उपदेश ग्रहण किया, कि बहुत सी आयु तो तप में बीत गयी; अब जो थोड़ी सी रह गयी है, उसे भोगों की वासना में क्यों ख़राब करूँ ? मुझे नट से उपदेश मिला, इससे मैंने अपना एकमात्र कम्बल – अपना सर्वस्व उसे दे दिया ।
इसके बाद राजा ने पुत्र से पूछा – “तुमने क्या समझकर अपने कड़ों की बेशकीमती जोड़ी उसे दे दी ?” राजपुत्र ने कहा – “मैं बड़ा दुखी रहता हूँ, क्योंकि आप मुझे कुछ भी खर्च करने नहीं देते । दुखी होकर मैंने यह विचार कर रखा था कि किसी दिन राजा को विष देकर मरवा दूंगा; पर इस नट के दोहे से मुझे यह उपदेश हुआ है कि राजा कि बहुत सी आयु तो बीत गयी, अब वह बूढा हो गया है; दो-चार बरस की बात और है; इस अर्से में वह आप ही मर जाएगा, अतः पितृहत्या क्यों की जाय ? इसी उपदेश के बदले में मैंने नट को कड़ों की जोड़ी दे दी ।”
फिर राजा ने राजकन्या से पूछा – “तुमने अपना कीमती हार नट को क्यों दिया ?” कन्या ने कहा – मेरी जवानी आ गयी है; आप खर्च के भय से मेरी शादी नहीं करते । कामदेव बड़ा बलवान है । काम की प्रबलता के मारे, मेरा विचार वज़ीर के लड़के के साथ निकल भागने का था; पर नट के दोहे से मुझे यह उपदेश मिला कि राजा कि बहुत सी आयु तो चली गयी; अब जो शेष रह गयी है वह भी बीतने ही वाली है । थोड़े दिनों के लिए पिता के नाम में क्यों बट्टा लगाऊं ? यह अनमोल उपदेश मुझे नट के दोहे से मिला, इसी से मैंने अपना बहुमूल्य हार उसे दे दिया । हे पिता ! नट के दोहे ने आपकी जान और इज़्ज़त बचाई है; अतः आपको भी उसे कुछ इनाम देना चाहिए ।” राजा ने यह सब बातें सोच-समझकर नट को इनाम दे विदा किया और वज़ीर के लड़के के साथ कन्या की शादी कर दी । राजपुत्र को गद्दी देकर आप वैरागी हो गया और अपनी शेष रही आयु आत्मविचार में लगा दी । इसी तरह सभी संसारियों को अपनी शेष आयु सुकर्म और ब्रह्मविचार में लगा, जन्म-मरण से पीछा छुड़ा, नित्य सुख-शान्ति लाभ करनी चाहिए ।
बाल-बच्चो का क्या किया जाय
प्रथम तो स्त्री-पुत्र प्रभृति आपके कोई नहीं; एक सराय के मुसाफिर के समान हैं । यहाँ आकर नाता जुड़ गया है । अपने अपने समय पर सब अपनी अपनी राह लगेंगे । इसके सिवा, ये आपसे सच्ची मुहब्बत भी नहीं करते । आपसे इनका काम निकलता है, पाप-पुण्य की गठरी आप बांधते हैं और सुख ये भोगते हैं; इसीसे आपको कोई “बाबूजी”, कोई “चाचाजी” और कोई “नानाजी” कहता है । अगर आप इनकी जरूरतों और फरमाइशों को पूरी न करें, तो ये आपका नाम भी न लें । ऐसे स्वार्थी लोगों को मिथ्या प्रीति के फेर में पड़कर, आप अपने अमूल्य और दुष्प्राप्य जीवन को क्यों नष्ट करते हैं ? जब आप इस देह को छोड़कर परलोक में चले जाएंगे, तब क्या ये आपके साथ जाएंगे ? हरगिज़ नहीं । कोई पौली तक और कोई श्मशान तक आपकी लाश के साथ जाएंगे । वहां पहुँच, आपको जला-बला ख़ाक कर सब भूल जायेंगे ।
आप भी मुसाफिर हैं और आपके स्त्री-पुत्र भी मुसाफिर हैं । आपकी अगली सफर बड़ी लम्बी है । यह तो बीच का एक मुकाम है । कर्म-भोग भोगने को आप यहाँ ठहर गए और कर्मवश ही आप से इन सबका मेल हो गया । ये अपने सफर का प्रबन्ध करें चाहे न करें, पर आप तो अवश्य करें । इनके झूठे मोह में आप न भूलें । अगर आप बाल-बच्चों की रोटी और कपड़ों की फ़िक्र में लगे रहेंगे तो यह फ़िक्र तो अन्त तक लगी ही रहेगी और आपको ले जाने वाली गाड़ी या मौत आ जाएगी । उस समय बड़ी कठिनाई होगी । जो लोग उम्र भर गृहस्थी के झंझटों में लगे रहे, अन्त में उनका बुरा ही हुआ । ये घर-झगडे ही तो ईश्वर-दर्शन या स्वर्ग अथवा मोक्ष की प्राप्ति में बाधक हैं ।
महात्मा शेख सादी ने कहा है –
ऐ गिरफ़्तारे पाये बन्दे अयाल।
दिगर आज़ादगी मबन्द ख़याल।।
ग़मे फ़रज़न्दों नानो जामओ कूत।
बाज़द आरद ज़े सेर दर मलकूत।।
ऐ औलाद की मुहब्बत में गिरफ्तार रहने वाले, तू किसी तरह भी बन्धन मुक्त नहीं हो सकता । सन्तान, रोटी, कपडा तथा जीविका की फ़िक्र तुझे स्वर्ग की चिन्ता से रोकती है ।
इसलिए “सब तज और हर भज”।
क्या घर में रहकर ईश्वर-उपासना नहीं की जा सकती ?
घर गृहस्थी में रहकर ईश्वर-उपासना की जा सकती है; पर घर में रहकर भक्ति करना है टेढ़ी खीर । जैसी सङ्गति होती है, वैसा ही मनुष्य हो जाता है । ज्ञानियों की सङ्गति में ज्ञान की और स्त्रियों की सुहबत में काम की उत्पत्ति होती है । घर में रहकर वैराग की उत्पत्ति होना कठिन है ।
किसी कवी ने कहा है –
जाइयो ही तहाँ ही जहां संग न कुसंग होय,
कायर के संग शूर भागे पर भागे है ।
फूलन की वासना सुहाग भरे वासन पै,
कामिनी के संग काम जागे पर जागे है ।
घर बेस घर पै बसो, घर वैराग कहाँ,
काम क्रोध लोभ मोह, पागे पर पागे है ।
काजर की कोठरी में लाखु ही सयानो जाय,
काजर की ऐक रेख लागे पर लागे है ।
संसार की संगतियों में मनुष्य संसारी हो जाता है; विषय भोगों की ओर उसका मन चलायमान होता है और स्त्री-पुत्र आदि में उसका राग बना ही रहता है; पर जो वेदान्त ग्रंथों को विचारते और महापुरुषों की सङ्गति करते हैं, उनका अन्तःकरण शुद्ध होते रहने की वजह से, उन्हें गृहस्थाश्रम में ही, वैराग्य उत्पन्न होने लगता है । गृहस्थी में एक न एक दुःख बना ही रहता है । उस दुःख के कारण मनुष्य के मन में वैराग्य भी पैदा होता रहता है । विषयों में दुःख समझना ही वैराग्य का और सुख समझना ही राग का हेतु है । महामूढ़ों को भी कुछ न कुछ वैराग्य बना ही रहता है । जिस समय कोई कष्ट आता है, स्त्री-पुत्र आदि मर जाते हैं, धन नाश हो जाता है, तब मूढ़ भी अपने तई और संसार को धिक्कारता है; लेकिन ज्योंही वह कष्ट दूर हो जाता है, उसका वैराग्य भी काफूर हो जाता है । पर वास्तव में वैराग्य का कारण है – गृहस्थाश्रम ही; क्योंकि बिना गृहस्थाश्रम तो किसी की उत्पत्ति होती ही नहीं । रामचन्द्र और वशिष्ठ प्रभृति को गृहस्थाश्रम में ही वैराग्य हुआ था । और भी बड़े-बड़े सन्यासियों को गृहस्थाश्रम में ही वैराग्य हुआ था । वैराग्य उत्पन्न होते ही, उन्होंने घर गृहस्थी त्याग, वन की राह ली थी ।
यह बात भी नहीं है कि गृहस्थाश्रम में ज्ञान होता ही न हो । जनकादि महात्मा गृहस्थाश्रम में ही ज्ञानी हुए थे । ज्ञान का कारण “वैराग्य” है । जो गृहस्थ होकर सदैव वैराग्य और विचार में मग्न रहता है, उसके ज्ञानी होने में सन्देह नहीं; पर जो सन्यासी होकर भी भोगों में राग रखता है, उसके अज्ञानी होने में संशय नहीं । “वैराग्य” ही आत्मज्ञान का साधन है । मनुष्य – ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास – किसी आश्रम में क्यों न हो, बिना वैराग्य के ज्ञान नहीं और ज्ञान बिना मोक्ष नहीं । जो पुरुष गृहस्थाश्रम में रहकर भी उसमें आसक्त नहीं होता, जल में कमल की तरह रहता है, उसकी मुक्ति में ज़रा भी सन्देह नहीं । एक दृष्टान्त इस मौके का हमें याद आया है, उससे पाठकों को अवश्य लाभ होगा –
राजा जनक और शुकदेव जी
एक बार व्यास जी ने शुकदेव जी से कहा कि तुम राजा जनक के पास जाकर उपदेश लो । शुकदेव जी जनक के द्वार पर गए । भीतर खबर कराई तो राजा ने कहला भेजा, कि द्वार पर ठहरो । शुकदेव जी तीन दिन तक द्वार पर खड़े रहे पर उन्हें क्रोध न आया । राजा ने क्रोध की परीक्षा करने के लिए ही उन्हें तीन दिन तक द्वार पर खड़ा रखा और चौथे दिन अपने पास बुलाया । वहाँ जाकर शुकदेव जी क्या देखते हैं कि राजा जनक सोने के जडाऊ सिंहासन पर बैठे हैं, सुन्दरी नवयौवना स्त्रियां उनके चरण दाब रही हैं और कुछ मोरछल और पंखे कर रही हैं । जगह-जगह विषय भोग या ऐशो आराम के सामान धरे हैं । सामने ही सुन्दर नर्तकियां नाच रही हैं । यह हाल देखकर शुकदेव जी के मन में राजा की ओर से घृणा हुई । उन्होंने मन में कहा – “नाम बड़े और दर्शन छोटे वाली बात है । यह तो भोगों में आसक्त हैं; पिताजी ने इन्हें परम ज्ञानी क्यों कहा ?” राजा जनक शुकदेव जी के मन की बात ताड़ गए । दैवात उसी समय मिथिलापुरी में भीषण आग लग गयी । बाहर से दूत दौड़े आये और कहने लगे – “महाराज ! पुरी में आग लग गयी और और राजद्वार तक आ पहुंची है ।” शुकदेव जी मन में सोचने लगे कि मेरा दण्ड-कमण्डल बाहर रखा है, कहीं वह जल न जाय । उस समय राजा ने कहा –
अनन्तवत्तु मे वित्तं यन्मे नास्ति हि किञ्चन।
मिथिलायां प्रदग्धायां न मे दह्यति किञ्चन।।
मेरा आत्मरूप-धन अनन्त है । उसका अन्त कदापि नहीं हो सकता । इस मिथिला के जलने से मेरा तो कुछ भी नहीं जल सकता ।
राजा जनक के इस वाक्य से पदार्थों में उनकी आसक्ति नहीं – अनासक्ति ही साबित होती है । अगर कोई मनुष्य गृहस्थी में रहकर, स्त्री-पुत्र-धन प्रभृति में अनासक्त रहे, उनमें ममता न रक्खे, चाहे व्यवहार सब तरह करे, वह सच्चा ज्ञानी है, उसकी मोक्ष अवश्य होगी ।
ममता ही दुखों का कारण है । जिसकी किसी भी पदार्थ में ममता नहीं, उसे दुःख क्यों होने लगा ? उसकी ओर से, वह पदार्थ मिले तो अच्छा और न मिले तो अच्छा । बचा रहे तो भला और नष्ट हो जाय तो भला । जिसकी जिस चीज़ में ममता होती है, उसे उस चीज़ के नाश होने या उसके न मिलने से अवश्य दुःख होता है ।
कहा है –
यस्मिन वस्तूनि ममता नायस्तत्र तत्रेव।
यत्नेवाहमुदासे मुदा स्वभाव संतुष्टः।।
जिस जिस चीज़ में मनुष्य की ममता है, वही-वही दुखी है और जिस जिससे उदासीनता है, वही सन्तुष्टता है । मतलब यह कि “ममता” ही दुखों का मूल है । घर-गृहस्थी में रहो और गृहस्थी के सारे कार्य-व्यवहार करो; पर किसी भी पदार्थ में ममता मत रक्खो । तुम्हारी ओर से कोई मर जाय तो शोक नहीं; धन-दौलत नष्ट हो जाय तो रंज नहीं, आ जाय तो ख़ुशी नहीं; इस तरह उदासीन भाव रक्खो । अगर इस तरह गृहस्थी में रहो, तो तुमसे बढ़कर ज्ञानी कौन है ? तुम्हें अवश्य मोक्षपद मिलेगा ।
निर्मोही पुरुष
एक मनुष्य के एक ही लड़का था । लड़का जवान हो गया था । उसकी शादी भी हो गयी थी । एक दिन पिता ने किसी उद्देश्य से शाम को एक सभा बुलाने का निमंत्रण दिया । दैवयोग से दोपहर में उसका पुत्र अचानक मर गया । उसने, उसकी लाश को बैठक में लिटाकर ऊपर से कपड़ा उढ़ा दिया और आप शान्त भाव से द्वार पर बैठकर हुक्का पीने लगा । इतने में सभा का समय हो गया; मित्र लोग आने लगे । उनमें से एक मित्र उसी बैठक में किसी ज़रूरी काम से गया । वहां एक लाश पड़ी देख उसने बाहर आकर पूछा – “यह क्या !”
उसने कहा – “भाई ! लड़का मर गया है पहले सभा का काम कर लें; तब सब मिलकर इसे शमशान घाट पर ले चलेंगे ।” मित्र लोग उस निर्मोही पिता की बात सुनकर चकित हो गए । उन्होंने कहा – “तुम तो अजब आदमी हो ! तुम्हें अपने इकलौते जवान पुत्र का भी रंज नहीं !” उसने कहा – “भाई ! मेरा इसका क्या नाता ? हम सब सराय के मुसाफिर हैं । पूर्वजन्म के कर्मवश एक दुसरे से मिल गए हैं । अपना-अपना समय होने से, अपनी-अपनी राह चले जा रहे हैं; इसमें रंज या शोक की बात ही क्या है ?” ऐसे ही मनुष्य, गृहस्थी में रहकर भी, जन्म-मरण के फन्दे से छूटकर, मोक्षलाभ करते और जीवन्मुक्त कहलाते हैं ।
काम करो, पर मन को ईश्वर में रक्खो
अगर भगवान् कृष्ण के कथनानुसार संसार के काम-धंधे किये जाएँ, तो भी हर्ज नहीं; पर मन को संसारी पदार्थों या विषय-भोगों से हटाकर एकमात्र भगवान् में लगाना चाहिए । दुनियावी काम करते रहने और मन को भगवान् में लगाए रहने से सिद्धि मिल सकती है ।
महाकवि रहीम कहते हैं –
दोहा
जो “रहीम” मन हाथ है, मनसा कहुँ किन जाहि ।
जल में जो छाया परी, काया भीजत नाहिं ।।
सारा दारोमदार मन पर है । व्यभिचारिणी स्त्री घर के धन्धे किया करती है, पर मन को हर क्षण अपने यार में रखती है । गाय जहाँ-तहाँ घास चरती फिरती है, पर मन को अपने बच्चे में रखती है । स्त्रियां जब धान कूटती हैं, तब एक हाथ से मूसल चलाती हैं और दुसरे से ओखल के धान को ठीक करती जाती हैं । इसी बीच में यदि उनका बच्चा आ जाता है, तो उसे दूध भी पिलाती रहती हैं; किन्तु उनका ध्यान बराबर मूसल में ही रहता है । अगर ज़रा भी ध्यान टूटे तो हाथ के पलस्तर उड़ जाएँ । इसी तरह मनुष्य, यदि संसार के काम-धन्धे करता हुआ भी, ईश्वर में मन लगाकर उसकी भक्ति करता रहे, तो कोई हर्ज नहीं; उसे भगवत-दर्शन अवश्य होंगे । यद्यपि इस संसार में रहकर सिद्धि लाभ करना – है बड़े शूरवीरों का काम; तो भी इस तरह अनेक लोग, गृहस्थी में रहते हुए भी मोक्षपद पा गए हैं ।
ईश्वर प्राप्ति की सहज राह कौन सी है
गृहस्थी में रहने की अपेक्षा, गृहस्थी त्यागकर, वन के एकान्त भाग में रहकर, भगवत में मन लगाना अवश्य आसान है ।” गृहस्थी में रहने से मन विषय-भोगों की ओर दौड़ता ही है । स्त्री को देखने से काम जागता ही है; पर न देखने से मन नहीं चलता । पराशर ऋषि ने मत्स्यगन्धा देखी, तो उनका मन चलायमान हुआ । विश्वामित्र ने मेनका देखी तो उनका मन बिगड़ा । शिव ने मोहिनी देखी तो उनका मन चञ्चल हुआ । इसीलिए पहले के अनेक महापुरुष अपने-अपने घर त्यागकर वन में चले गए और वहाँ उन्हें सिद्धि प्राप्त हो गयी । पर वन में जाकर भी जो मन को विषयों में लगाए रहते हैं, ममता को नहीं त्यागते; कामना को नहीं छोड़ते, वे गृहस्थी में भी बुरे हैं । वे धोबी के कुत्ते की तरह, न घर के न घाट के ।
त्याग में ही सुख है
जो धन-दौलत, राजपाट, स्त्री-पुत्र प्रभृति को त्यागकर वन में रहते हैं; किसी भी चीज़ की इच्छा नहीं रखते, यहाँ तक की खाने के लिए पाव भर आटे की भी जरुरत नहीं रखते; जहाँ जगह पाते हैं, वही पड़े रहते हैं; जो मिल जाता है, उसी से पेट भर लेते हैं – वे सचमुच ही सुखी हैं ।
शंकराचार्य महाराज ने “मोहमुद्गर” में कहा है –
सुरमन्दिरतरुमूलनिवासः शय्याभूतलमजिनंवासः ।
सर्वपरिग्रहभोगत्यागः कस्य सुखम न करोति वैराग्यः ।।
जो देवमन्दिर या पेड़ के नीचे पड़े रहते हैं, भूमि ही जिनकी चारपाई है, मृगछाला ही जिनका वस्त्र है, सारे विषय-भोग के सामान जिन्होंने त्याग दिए हैं; यानी वासना रहित हो गए हैं – ऐसे किन मनुष्यों को सुख नहीं है ? अर्थात ऐसे त्यागी सदा सुखी हैं ।
देह नहीं मन के वैराग्य से लाभ है
अनेक लोग गेरुए कपडे पहन लेते हैं, तिलक-छापे या राख लगा लेते हैं; पर उनका मन सदा भोगों में लगा रहता है । वे शरीर को वैरागियों सा बना लेते हैं; पर उनका मन भोगियों सा रहता है; इसलिए उनका जन्म वृथा जाता है । आजकल साधु-सन्यासी बनना एक प्रकार का रोज़गार हो गया है । जिनसे किसी तरह की मेहनत मज़दूरी नहीं होती, वे साधु वेश बनाकर लोगों को ठगते और घर मनीआर्डर भेजते हैं । बहुत से ढोंगी नगरों में आकर बड़े आदमियों के यहाँ डेरा लगा देते हैं, चेले-चेलियों से भेंट लेते हैं, नवयौवना सुन्दरियों को पास बिठाकर उपदेश देते हैं, अपने कदमों में रुपयों और अशर्फियों के ढेर लगवाते हैं, भला ऐसों का मन परमात्मा में लग सकता है ? जब विश्वामित्र और पराशर जैसे, हवा और पानी पर गुज़ारा करने वाले, मुनियों का मन स्त्रियों के देखते ही चञ्चल हो गया; तब रबड़ी-मलाई, मावा-मोहनभोग उड़ाने वालों का मन कैसे स्त्रियों पर न चलेगा ? ऐसा कौन है जिसका मन स्त्रियों ने खण्डित नहीं किया ?
कहा है –
कोऽर्थान् प्राप्य न गर्वितो ?
विषयिणः कस्यापदो नागताः ?
स्त्रीभिः कस्य न खण्डितं भुवि मनः ?
को नामा राज्ञां प्रियः ?
कः कालस्य न गोचरान्तरगतः ?
कोऽर्थी गतो गौरवं ?
को वा दुर्जनवागुरा निपतितः
क्षेमेण यातः पुमान् ?
किसको धन पाकर गर्व नहीं हुआ ? किस विषयी पर आफत नहीं आयी ? पृथ्वी पर किसका मन नारी ने आकृष्ट नहीं किया ? कौन राजाओं का प्यारा हुआ ? कौन काल की नज़र से बचा ? किस मँगते का गौरव हुआ ? कौन सज्जन दुष्टों के जाल में फंसकर कुशल से रहा ?
सन्यासियों को स्त्री-दर्शन भी मना है
धर्मशास्त्र में लिखा है –
सम्भाषायेत् स्त्रियं नैव, पूर्वदृष्टां च न स्मरेत ।
कथाम् च वर्जयेत्तासां, नो पश्येल्लिखितामपि ।।
यस्तु प्रव्रजितो भूत्वा पुनः सेवेत्तु मैथुनम् ।
षष्ठिवर्षसहस्त्राणि विष्ठायां जायते कृमिः ।।
यति को स्त्री से बात न करनी चाहिए, पहले की देखी हुई स्त्री की याद न करनी चाहिए तथा स्त्रियों की चर्चा भी न करनी चाहिए और स्त्री का चित्र भी न देखना चाहिए ।
जो सन्यासी होकर स्त्री के साथ मैथुन करता है, वह साठ हज़ार वर्ष तक विष्ठा का कीड़ा होता है । और विषयों से मन को रोकना उतना कठिन नहीं, जितना कि स्त्री से रोकना कठिन है; इसी से स्त्री का चित्र तक देखने की मनाही की है । जो ढोंगी, साधु-सन्यासी दुनियादारों के घर आते और स्त्रियों में बैठे रहते हैं, उनको उपदेश ग्रहण करना चाहिए ।
ढोंगी साधुओं के लिए अमूल्य उपदेश
बनावटी या ढोंगी साधुओं के सम्बन्ध में महात्मा तुलसीदास जी ने कहा है –
तन को योगी सब करें, मन को विरला कोय।
सहजे सब सिधि पाइये, जो मन योगी होय।।
जाके उर बर वासना, भई भास कछु आन।
तुलसी ताहि विडम्बना, केहि बिधि कथहि प्रमान।।
काह भयो बन बन फिरे, जो बनि आयो नाहिं।
बनते बनते बनि गयो, तुलसी घर ही माहिं।।
रामचरण परचे नहीं, बिन साधन पद-नेह।
मूँड़ मुड़ायो बादिहीं, भाँड़ भये तजि गेह।।
कीर सरस बाणी पढ़त, चाखत चाहें खाँड़।
मन राखत वैराग मँह, घर में राखत राँड़।।
जहाँ काम तहँ राह नहीं, जहाँ राम नहिं काम।
तुलसी दोनों नहिं मिलें, रवि रजनी इक ठाम।।
तब लगि योगी जगतगुरु, जब लगि रहे निरास।
जब आशा मन में जगी, जग गुरु योगी दास।।
(*व्याख्या ज्यादा होने के कारण यहाँ नहीं दी गयी है)
कोरा सन्यासी भेष धारना, नरक के सामान करना है
आजकल अनेक वेद विरुद्ध काम करने वाले, मनगढंत मत चलानेवाले, झूठ बोलनेवाले, बगुला और बिलाव की सी वृत्ति रखनेवाले फिरते हैं । गृहस्थों को चाहिए कि उनका बातों से भी सत्कार न करें । ठगों का सत्कार होने से ही ठग-साधू बढ़ रहे हैं । उनमें से कोई मूर्ती बनाकर पूजता और पुजवाता है । कोई अपने को कबीरपन्थी, कोई नानकपन्थी, कोई रामानुजी और कोई दादूपन्थी कहता है । इन पन्थों से कोई लाभ नहीं । जब तक “आत्मज्ञान” नहीं होता, तब तक सिद्धि या मोक्ष नहीं मिलती; अतः मन को सब तरफ से हटाकर, आत्मचिंतन में लगाना चाहिए । ढोंग करने से मनुष्य-जन्म वृथा जाता है । काम तो सब यतियों के से किये जाते हैं, कष्ट भी उन्ही की तरह उठाये जाते हैं; पर परिणाम में मिलता कुछ भी नहीं । बिना आत्मज्ञान या ब्रह्मविचार के कल्याण नहीं होता । गृहस्थों को भी चाहिए कि ऐसे ठगों का आदर-सम्मान न करें । ऐसे बनावटी साधु-सन्यासी आप नरक में जाते हैं और अपने शिष्यों को भी नरक में घसीट ले जाते हैं ।
किसी ने ठीक यही बात कविता में बड़ी खूबी से कही है –
आत्मभेद बिन फिरें भटकते, सब धोखे की टाटी में।
कोई धातु में ईश्वर मानत, कोई पत्थर कोई माटी में।।
वृक्ष कोई जल में कोई, कोई जंगल कोई घाटी में।
कोई तुलसी रुद्राक्ष कोई, कोई मुद्रा कोई लाठी में।
भगत कबीर कोई कहे नानक, कोई शंकर परिपाटी में।
कोई नीमार्क रामानुज है, कोई बल्लभ परिपाटी में।।
कोई दादू कोई गरीब दासी, कोई गेरू रंग की हाटी में।
कहै “आज़ाद” भेष जो धारे, चले नरक की भाटी में।।
सन्यासी एक जगह न रहे
सन्यासी का मन किसी प्रीती में न फंस जाय अथवा किसी से उसकी मुहब्बत न हो जाय; इसलिए धर्मशास्त्र में सन्यासियों को एक दिन से ज्यादा एक गाँव में रहना तक मन लिखा है ।
कहा है –
आबे दरिया बहे तो बेहतर,
इन्सां रवाँ रहे तो बेहतर।
पानी न बहे तो उसमें दुर्गन्ध आये,
खञ्जर न चले तो मोर्चा खाये।।
गिरिधर कवी कहते हैं –
कुण्डलिया
(१)
बहता पानी निर्मला, पड़ा गन्ध सो होय ।
त्यों साधू रमता भला, दाग लागे न कोय ।।
दाग लागे न कोय, जगत से रहे अलहदा ।
राग-द्वेष युग प्रेत, न चित को करें बिच्छेदा ।।
कहा “गिरिधर” कविराय, शीट उष्णादिक सहता ।
होय न कहुँ आसक्त, यथा गंगाजल बहता ।।
(२)
रहने सदा इकन्त को, पुनि भजनो भगवन्त ।
कथन श्रवण अद्वैत को, यही मतो है सन्त ।।
यही मतो है सन्त, तत्व को चितवन करनो ।
प्रत्येक ब्रह्म अभिन्न, सदा उर अन्तर धरनो ।।
कहा “गिरिधर” कविराय, बचन दुर्जन को सहनो ।
तज के जन-समुदाय, देश निर्जन में रहनो ।।
सन्यासियों के कर्तव्य कर्म
यति पञ्चक से
वेदान्तवाक्येषु सदा रमन्तो,
भिक्षान्नमात्रेण च तुष्टिमन्तः।
विशोकमन्तः करणे रमन्तः,
कौपीनंवन्तः खलु भाग्यवन्तः।।
(२)
मूलं तरो: केवलमाश्रयन्तः,
पाणिद्वयं भोक्तुममन्त्रयन्तः।
कत्थामिव श्रीमपि कुत्सयेतः,
कौपीनंवन्तः खलु भाग्यवन्तः।।
(३)
देहादिभावं परिवर्त्तयन्तः,
आत्मानमात्मन्यवलोकयन्तः।
नान्तं न मध्यं न वहिः स्मरन्तः,
कौपीनंवन्तः खलु भाग्यवन्तः।।
(४)
स्वानन्दभावे परितुष्टिमन्तः,
सुशान्त सर्वेन्द्रियतुष्टिमन्तः।
अहर्निशं ब्रह्मसुखे रमन्तः,
कौपीनंवन्तः खलु भाग्यवन्तः।।
(५)
पञ्चाक्षरं पावन मुच्चरन्तः,
पतिं पशूनां हृदि भावयन्तः।
भिक्षाशिनो दिक्षु परिभ्रमन्तः,
कौपीनंवन्तः खलु भाग्यवन्तः।।
भावार्थ:
(१)
वेदान्त वाक्य या उपनिषदों में अथवा ब्रह्मविद्या में मन लगाए रहनेवाला, केवल भिक्षा के अन्न से सन्तुष्ट रहनेवाला, मन को शोक-ताप शून्य करके सन्तुष्ट रहेवाला और कोपीन पहनने वाला योगी भाग्यवान है ।
(२)
केवल वृक्ष के मूल में आश्रय लेने वाला, दोनों हाथों को भोजन के लिए न लगाने वाला, आत्मश्लाघा की तरह लक्ष्मी की निन्दा करनेवाला अर्थात अपनी तारीफ और धन से दूर रहनेवाला एवं कोपीन धारण करनेवाला योगी सुखी है ।
(३)
सुखासक्ति, वासना को त्यागनेवाला, अपने स्वरुप में औरों को देखनेवाला, अन्त, मध्य और पुत्र कलत्र आदि को न याद करनेवाला एवं कोपीन बाँधनेवाला यति भाग्यवान है ।
(४)
अपने आत्मा में ही आनन्दमग्न रहनेवाला, आँख कान नाक जीभ प्रभृति इन्द्रियों के विषय-सुखों के त्यागने से सन्तुष्ट और आत्मसाक्षात्कार से खुश रहनेवाला और दिन-रात ब्रह्म के दर्शनों से पैदा हुए आनन्द में रहनेवाला तथा कोपीन पहनने वाला योगी सुखी है ।
(५)
“शिवाय नमः” इस पांच अक्षर के, आत्मा को शुद्ध करनेवाले, मन्त्र का उच्चारण करनेवाला, ह्रदय में पशुपति शङ्कर की भावना करता हुआ, भिक्षान्न पर गुज़ारा करके, दिशाओं में घूमनेवाला और कोपीन धारण करनेवाला योगी भाग्यवान है ।
यतिपञ्चक का फल
वास्तविक महापुरुष होने की इच्छा रखनेवालों को उपरोक्त “यति पञ्चक” कण्ठाग्र कर लेना और इस पर अमल करना चाहिए; तब उन्हें निश्चय ही शान्ति और सिद्धि मिलेगी ।
छप्पय
शतहि वर्ष की आयु में, रात में बीतत आधे।
ताके आधे आध, वृद्ध बालकपन साधे।।
रहे यहै दिन, आधि व्याधि गृहकाज समोये।
नाना विधि बकवाद करत, सबहिन को खोये।।
जल की तरंग बुदबुद सदृश, देह खेह ह्वै जात है।
सुख कहो कहाँ इन नरन कौ, जासों फूल गात है।।
29/07/19, 8:50 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: *अरे भज हरेर्नाम, क्षेमधाम क्षणे क्षणे।
बहिस्सरति निःश्वासे विश्वासः कः प्रवर्त्तते।।
29/07/19, 9:19 pm – Karunakar Tiwari Kanpur Shastra Gyan: 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
29/07/19, 9:39 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक ८१,८२
वार्ताकं कटु तिक्तोष्णं मधुरं कफवातजित्। सक्षारमग्निजननं हृद्य रुच्यमपित्तलम्॥८१॥
बैंगन का शाक- यह दो प्रकार का होता है–
१. कटु तथा तिक्त, २. मधुर ।
दोनों प्रकार के बैंगन उष्णवीर्य, कफ तथा वातनाशक होते है। इनमें कुछ क्षार अंश भी होता है। ये जठराग्नि को बढ़ाने वाले, हृदय के लिए हितकर, रुचिकर तथा कुछ पित्तकारक भी होते हैं।
वक्तव्य- ‘अपित्तलम्’ यहां पित्त शब्द के साथ जो नञ्समास किया गया है, वह इषत अर्थ में है, ऐसा समझना चाहिए। श्री हेमाद्रि कहते है- ‘अपित्तलत्वं बालपक्वञ्यतिरेकेण’। यहां श्री हेमाद्रि ने सुश्रुतसम्मत व्याख्यान् किया है। देखें- जीर्णं सक्षारपित्तलम्। (सु.सू. ४६/२६९)
करीरमाध्मानकरं कषायं स्वादु तिक्तकम्। कोशातकावल्गुजकौ भेदिनावग्निदीपनौ॥८२॥
करीर का साग– यह अध्मान(अफरा) कारक होता है, रस मे कषाय, मधु तथा तिक्त होता है।
तरोई तथा बाकुची का शाक- ये दोनों बंधे हुए मल का भेदन करने वाले तथा अग्निदीपक होते है।
29/07/19, 10:26 pm – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: धन्य हैं आप इतना लिखते हैं , सिर्फ इसलिये की हम सब पड़ सके ।🙏🙏
29/07/19, 10:26 pm – Dayadhankr Soryvanshi Hts, Akhilesh Frnd: 🙂
29/07/19, 10:27 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: अगर यहाँ लोग पढ़ रहे हैं, तो मेहनत सफल है 🙂
29/07/19, 10:29 pm – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: आप सभी धन्यवाद के पात्र है , भाग्यशाली हैं हम जो इस ग्रुप का हिस्सा है
30/07/19, 7:10 am – Abhinandan Sharma:
30/07/19, 10:30 am – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad: लेख लंबा है, लेकिन रोचक इतना है कि आद्योपांत पढ़ गया.
बहुत-बहुत धन्यवाद. लोगों को इतना वक्त कहां कि पुस्तकें निकाल कर पढ़ लें; ग्रुप ने आसान बना दिया. बेहतरीन ज्ञानवर्धन हम सबों का हो रहा है, ग्रुप को सफल कहा जा सकता है. सभी सदस्य भी अनुशासित हैं.
30/07/19, 11:11 am – Pitambar Shukla: श्री गणेशाय नमः
श्री जानकी वल्लभो विजयते
श्री राम चरित मानस
उत्तर कांड
तब ते जीव भयउ संसारी ।
छूट न ग्रंथि न होइ सुखारी।।
श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई।
छूट न अधिक अधिक अरुझाई।।
तभी से जीव संसारी( जन्मने-मरने वाला ) हो गया ।
अब न तो गाँठ छूटती है और न वह सुखी होता है।
वेदों और पुराणों ने बहुत से उपाय बतलाये हैं।
पर वह ग्रंथि छूटती नहीं वरन् अधिकाधिक उलझती ही जाती है ।।116-3।।
जीव ह्रदयँ तम मोह बिसेषी।
ग्रंथि छूट किमि परइ न देखी।।
अस संजोग ईस जब करई।
तबहुं कदाचित सो निरुअरई।।
जीव के हृदय में अज्ञान रूपी अन्धकार विशेष रूप से छा रहा है,
इससे गाँठ देख ही नहीं पड़ती,
छूटे तो कैसे?
जब कभी ईश्वर ऐसा संयोग ( जैसा आगे वर्णित किया जा रहा है ) उपस्थित कर देते हैं तब भी कदाचित् ही वह ( ग्रंथि) छूट पाती है ।।116-4।।
30/07/19, 11:22 am – : 🌹🌿सुंदर कथा.🌿🌹
कन्धे पर कपड़े का थान लादे और हाट-बाजार जाने की तैयारी करते हुए नामदेव जी से पत्नि ने कहा- भगत जी! आज घर में खाने को कुछ भी नहीं है।
आटा, नमक, दाल, चावल, गुड़ और शक्कर सब खत्म हो गए हैं।
शाम को बाजार से आते हुए घर के लिए राशन का सामान लेते आइएगा।
भक्त नामदेव जी ने उत्तर दिया- देखता हूँ जैसी विठ्ठल जीकी क्रपा।
अगर कोई अच्छा मूल्य मिला,
तो निश्चय ही घर में आज धन-धान्य आ जायेगा।
पत्नि बोली संत जी! अगर अच्छी कीमत ना भी मिले,
तब भी इस बुने हुए थान को बेचकर कुछ राशन तो ले आना।
घर के बड़े-बूढ़े तो भूख बर्दाश्त कर लेंगे।
पर बच्चे अभी छोटे हैं,
उनके लिए तो कुछ ले ही आना।
जैसी मेरे विठ्ठल की इच्छा।
ऐसा कहकर भक्त नामदेव जी हाट-बाजार को चले गए।
बाजार में उन्हें किसी ने पुकारा- वाह सांई! कपड़ा तो बड़ा अच्छा बुना है और ठोक भी अच्छी लगाई है।
तेरा परिवार बसता रहे।
ये फकीर ठंड में कांप-कांप कर मर जाएगा।
दया के घर में आ और रब के नाम पर दो चादरे का कपड़ा इस फकीर की झोली में डाल दे।
भक्त नामदेव जी- दो चादरे में कितना कपड़ा लगेगा फकीर जी?
फकीर ने जितना कपड़ा मांगा,
इतेफाक से भक्त नामदेव जी के थान में कुल कपड़ा उतना ही था।
और भक्त नामदेव जी ने पूरा थान उस फकीर को दान कर दिया।
दान करने के बाद जब भक्त नामदेव जी घर लौटने लगे तो उनके सामने परिजनो के भूखे चेहरे नजर आने लगे।
फिर पत्नि की कही बात,
कि घर में खाने की सब सामग्री खत्म है।
दाम कम भी मिले तो भी बच्चो के लिए तो कुछ ले ही आना।
अब दाम तो क्या,
थान भी दान जा चुका था।
भक्त नामदेव जी एकांत मे पीपल की छाँव मे बैठ गए।
जैसी मेरे विठ्ठल की इच्छा।
जब सारी सृष्टि की सार पूर्ती वो खुद करता है,
तो अब मेरे परिवार की सार भी वो ही करेगा।
और फिर भक्त नामदेव जी अपने हरिविठ्ठल के भजन में लीन गए।
अब भगवान कहां रुकने वाले थे।
भक्त नामदेव जी ने सारे परिवार की जिम्मेवारी अब उनके सुपुर्द जो कर दी थी।
अब भगवान जी ने भक्त जी की झोंपड़ी का दरवाजा खटखटाया।
नामदेव जी की पत्नी ने पूछा- कौन है?
नामदेव का घर यही है ना?
भगवान जी ने पूछा।
अंदर से आवाज हां जी यही आपको कुछ चाहिये
भगवान सोचने लगे कि धन्य है नामदेव जी का परिवार घर मे कुछ भी नही है फिर ह्र्दय मे देने की सहायता की जिज्ञयासा हैl
भगवान बोले दरवाजा खोलिये
लेकिन आप कौन?
भगवान जी ने कहा- सेवक की क्या पहचान होती है भगतानी?
जैसे नामदेव जी विठ्ठल के सेवक,
वैसे ही मैं नामदेव जी का सेवक हूl
ये राशन का सामान रखवा लो।
पत्नि ने दरवाजा पूरा खोल दिया।
फिर इतना राशन घर में उतरना शुरू हुआ,
कि घर के जीवों की घर में रहने की जगह ही कम पड़ गई।
इतना सामान! नामदेव जी ने भेजा है?
मुझे नहीं लगता।
पत्नी ने पूछा।
भगवान जी ने कहा- हाँ भगतानी! आज नामदेव का थान सच्ची सरकार ने खरीदा है।
जो नामदेव का सामर्थ्य था उसने भुगता दिया।
और अब जो मेरी सरकार का सामर्थ्य है वो चुकता कर रही है।
जगह और बताओ।
सब कुछ आने वाला है भगत जी के घर में।
शाम ढलने लगी थी और रात का अंधेरा अपने पांव पसारने लगा था।
समान रखवाते-रखवाते पत्नि थक चुकी थीं।
बच्चे घर में अमीरी आते देख खुश थे।
वो कभी बोरे से शक्कर निकाल कर खाते और कभी गुड़।
कभी मेवे देख कर मन ललचाते और झोली भर-भर कर मेवे लेकर बैठ जाते।
उनके बालमन अभी तक तृप्त नहीं हुए थे।
भक्त नामदेव जी अभी तक घर नहीं आये थे,
पर सामान आना लगातार जारी था।
आखिर पत्नी ने हाथ जोड़ कर कहा- सेवक जी! अब बाकी का सामान संत जी के आने के बाद ही आप ले आना।
हमें उन्हें ढूंढ़ने जाना है क्योंकी वो अभी तक घर नहीं आए हैं।
भगवान जी बोले- वो तो गाँव के बाहर पीपल के नीचे बैठकर विठ्ठल सरकार का भजन-सिमरन कर रहे हैं।
अब परिजन नामदेव जी को देखने गये
सब परिवार वालों को सामने देखकर नामदेव जी सोचने लगे,
जरूर ये भूख से बेहाल होकर मुझे ढूंढ़ रहे हैं।
इससे पहले की संत नामदेव जी कुछ कहते
उनकी पत्नी बोल पड़ीं- कुछ पैसे बचा लेने थे।
अगर थान अच्छे भाव बिक गया था,
तो सारा सामान संत जी आज ही खरीद कर घर भेजना था क्या?
भक्त नामदेव जी कुछ पल के लिए विस्मित हुए।
फिर बच्चों के खिलते चेहरे देखकर उन्हें एहसास हो गया,
कि जरूर मेरे प्रभु ने कोई खेल कर दिया है।
पत्नि ने कहा अच्छी सरकार को आपने थान बेचा और वो तो समान घर मे भैजने से रुकता ही नहीं था।
पता नही कितने वर्षों तक का राशन दे गया।
उससे मिन्नत कर के रुकवाया- बस कर! बाकी संत जी के आने के बाद उनसे पूछ कर कहीं रखवाएँगे।
भक्त नामदेव जी हँसने लगे और बोले- ! वो सरकार है ही ऐसी।
जब देना शुरू करती है तो सब लेने वाले थक जाते हैं।
उसकी बख्शीश कभी भी खत्म नहीं होती।
वह सच्ची सरकार की तरह सदा कायम रहती है।
जय जय
🌻🌻कृष्णं वन्दे🌻🌻
🌹🌾🌾🌾🌹
30/07/19, 11:53 am – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: Rekha please sb samjho yahan es tarah ke message nahi kiye jate hai .
Net se ya kahin se bhi kuch nahi hai yahan sirf hmare vedo ko pdkr hi likhte hai sabhi
30/07/19, 11:54 am – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: राम राम जी
30/07/19, 11:55 am – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: 🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
30/07/19, 11:57 am – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: ये इस ग्रुप के नियम हैं कृपया सभी पड़ लीजिये
30/07/19, 12:08 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
मनुस्मृति
द्वितीय अध्याय
चोदितो गुरुणा नित्यं अप्रचोदित एव वा ।
कुर्यादध्ययने यत्नं आचार्यस्य हितेषु च । । २.१९१ । ।
शरीरं चैव वाचं च बुद्धीन्द्रियमनांसि च ।
नियम्य प्राञ्जलिस्तिष्ठेद्वीक्षमाणो गुरोर्मुखम् । । २.१९२ । ।
नित्यं उद्धृतपाणिः स्यात्साध्वाचारः सुसंवृतः ।
आस्यतां इति चोक्तः सन्नासीताभिमुखं गुरोः । । २.१९३ । ।
हीनान्नवस्त्रवेषः स्यात्सर्वदा गुरुसन्निधौ ।
उत्तिष्ठेत्प्रथमं चास्य चरमं चैव संविशेत् । । २.१९४ । ।
प्रतिश्रावणसंभाषे शयानो न समाचरेत् ।
नासीनो न च भुञ्जानो न तिष्ठन्न पराङ्मुखः । । २.१९५ । ।
अर्थ
गुरु रोज कहे ना कहे,पर अध्ययन व आचार्य के हित के लिए सदा यत्न करना चाहिए।शरीर वाणी ,बुद्धि,ज्ञानेन्द्रिय व मन का संयम करके गुरुमुख की ओर सदा देखते हुए रहा करें। ओढ़ने के वस्त्र से दाहिना हाथ सदा बाहर रखें और गुरुआज्ञा से सामने बैठे। गुरु के पास में सदा सादा वस्त्र धारण करें व सादा भोजन ग्रहण करे। गुरु के पहले जागे व बाद में सोए। ब्रह्मचारी सोते जागते, बैठते उठते,खाते पीते, खड़े बैठे, मुँह फेरकर खड़ा हुआ गुरु से बातचीत ना करे।।
30/07/19, 12:09 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: हरी ॐ
30/07/19, 12:22 pm – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: 🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
30/07/19, 1:03 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: अंतिम श्लोक का अर्थ कृपया थोड़ा विस्तार में बताने की कृपा करें
30/07/19, 3:17 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: ।ॐ। शिव स्वरोदयः ।ॐ।
अष्टमे सिद्धयश्चैव नवमे निधयो नव।
दशमे दशमूर्तिश्च छाया चैकादशे भवेत्।२२६।
द्वादशे हंसचारश्च गङ्गामृतरसं पिबेत्।
आनखाग्रं प्राणपूर्णे कस्य भक्ष्यं च भोजनम्।२२७।
एवं प्राणविधिः प्रोक्तः सर्वकार्यफलप्रदः।
ज्ञायते गुरुवाक्येन न विद्याशास्त्रकोटिभिः।२२८।
प्रातःश्चन्द्रो रविः सायं यदि दैवान्न लभ्यते।
मध्याह्नमध्यरात्रश्च परतस्तु प्रवर्त्तते।२२९।
दूरयुद्धे जयीचन्द्रः समासन्ने दिवाकरः।
वहन्नाड्यागतः पादः सर्वसिद्धिप्रदायकः।२३०।
अर्थ- यदि श्वास की लम्बाई आठ अंगुल कम हो जाय, तो साधक को आठ सिद्धियों की प्राप्ति होती है, नौ अंगुल कम होने पर नौ निधियाँ प्राप्त होती हैं, दस अंगुल कम होने पर अपने शरीर को दस विभिन्न आकारों में बदलने की क्षमता आ जाती है और ग्यारह अंगुल कम होने पर शरीर छाया की तरह हो जाता है, अर्थात् उस व्यक्ति की छाया नहीं पड़ती है।२२६।
श्वास की लम्बाई बारह अंगुल कम होने पर साधक अमरत्व प्राप्त कर लेता है, अर्थात् साधना के दौरान ऐसी स्थिति आती है कि श्वास की गति रुक जाने के बाद भी वह जीवित रह सकता है, और जब साधक नख-शिख अपने प्राणों को नियंत्रित कर लेता है, तो वह भूख, प्यास और सांसारिक वासनाओं पर विजय प्राप्त कर लेता है।२२७।
ऊपर बताई गई प्राण-विधियाँ सभी कार्यों में सफलता प्रदान करती हैं। लेकिन प्राण को नियंत्रित करने की विधियाँ गुरु के सान्निध्य और कृपा से ही प्राप्त किया जा सकता है, विभिन्न शास्त्रों के अध्ययन मात्र से नहीं।२२८।
यदि सबेरे चन्द्र स्वर और सायंकाल सूर्य स्वर संयोग से न प्रवाहित हों, तो वे दोपहर में या अर्धरात्रि में प्रवाहित होते हैं।२२९।
दूर देश में युद्ध करनेवाले को चन्द्र स्वर के प्रवाहकाल में युद्ध के लिए प्रस्थान करना चाहिए और पास में स्थित देश में युद्ध करने की योजना हो तो सूर्य स्वर के प्रवाहकाल में प्रस्थान करना चाहिए। इससे विजय मिलती है। अथवा प्रस्थान के समय जो स्वर चल रहा हो, वही कदम पहले उठाकर युद्ध के लिए प्रस्थान करने से भी वह विजयी होता है।२३०।
31/07/19, 1:03 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: कविता
मूसे पर सांप राखै, सांप पर मोर राखै, बैल पर सिंह राखै, वाकै कहा भीती है |
पूतनिकों भूत राखै, भूत कों बिभूति राखै, छमुख कों गजमुख यहै बड़ी नीति है |
कामपर बाम राखै, बिषकों पीयूष राखै, आग पर पानी राखै सोई जग जीती है |
‘देविदास’ देखौ ज्ञानी संकर की साबधानी, सब बिधि लायक पै राखै राजनीति है |
31/07/19, 2:41 am – Pitambar Shukla: 🙏🙏🙏🙏
31/07/19, 11:29 am – LE Nisha Ji D706: बहुत खूब
31/07/19, 11:30 am – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: 🙏🙏🙏🙏
31/07/19, 11:32 am – Pitambar Shukla: श्री गणेशाय नमः
श्री जानकी वल्लभो विजयते
श्री राम चरित मानस
उत्तर कांड
सात्विक श्रद्धा धेनु सुहाई।
जौं हरि कृपाँ हृदयँ बस आई।।
जप तप ब्रत जम नियम अपारा।
जे श्रुति कह सुभ धर्म अचारा।।
श्री हरि की कृपा से यदि सात्विकी श्रद्धा रूपी सुन्दर गौ हृदय रूपी घर में आ कर बस जाय;
असंख्य जप,तप, व्रत, यम और नियमादि शुभ धर्म और आचार ( आचरण) , जो श्रुतियों ने कहे हैं,।।
तेइ तृन हरित चरै जब गाई।
भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई।।
नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा।
निर्मल मन अहीर निज दासा।।
उन्हीं( धर्माचार रूपी) हरे तृणों ( घास ) को जब वह गौ चरे और आस्तिक भाव रूपी छोटे बछड़े को पा कर वह पेन्हावे।
निवृत्ति ( सांसारिक विषयों से और प्रपंच से हटना )
नोई ( गौ के दुहते समय पिछले पैर बांधने की रस्सी ) है,
विश्वास ( दूध दुहने का ) बरतन है,
निर्मल ( निष्पाप ) मन जो स्वयं अपना दास है( अपने वश में है ), दुहने वाला अहीर है।।116-6।।
31/07/19, 1:52 pm – Abhinandan Sharma:
31/07/19, 4:36 pm – Dayadhankr Soryvanshi Hts, Akhilesh Frnd: 👏🏻
31/07/19, 5:16 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: वैराग्य शतकं – 108
ब्रह्मज्ञानविवेकिनोऽमलधियः कुर्वन्त्यहो दुष्करं
यन्मुञ्चन्त्युपभोगकांचनधनान्येकान्ततो निःस्पृहाः ।
न प्राप्तानि पुरा न सम्प्रति न च प्राप्तौ दृढप्रत्ययो
वाञ्छामात्रपरिग्रहाण्यपि परं त्यक्तुं न शक्त वयम् ।। १०८ ।।
अर्थ:
उन बुद्धिमान, निर्मल ज्ञान वाले, ब्रह्मज्ञानियों का कठिन व्रत देखकर हमें बड़ा विस्मय होता है, जो विषय-भोग, धन-दौलत, सोना-चाँदी और स्त्री-पुत्र प्रभृति को एकदम से त्याग देते हैं और फिर उनकी इच्छा नहीं रखते ।
सत् और असत् का विचार करनेवाले देह और आत्मा को अलग अलग समझनेवाले इस संसार को स्वप्न मानने वाले, इस जगत की झूठी चमक-दमक पर मोहित न होनेवाले पुरुह “ज्ञानी” कहलाते हैं । जिनके सामने माया का पर्दा हट जाता है, जिन्हे देह के नाशमान और आत्मा के नित्य और अविनाशी होने का ज्ञान हो जाता है, उन्हें परमात्मा दीखने लगता है । उन्हें परमात्मा के ध्यान में जो आनन्द आता है, उसकी बराबरी त्रिभुवन के सारे सुखैश्वर्य भी नहीं कर सकते । ऐसे ज्ञानी इस जगत से नाता क्यों जोड़ने लगे ? जब तक उन्हें ज्ञान नहीं होता; माया का पर्दा उनकी आँखों के सामने से नहीं हटता, शरीर और आत्मा का भेद मालूम नहीं होता, तभी तक वे इस संसारी जाल में फंसे रहते हैं; जहाँ उन्हें ज्ञान हुआ और उन्होंने संसार की असलियत समझी, तहाँ फ़ौरन ही इसे छोड़ा । एकबार छोड़कर, फिर इसकी इच्छा वे इसलिए नहीं करते, कि वे समझबूझकर इसे छोड़ते हैं; जबरदस्ती या किसी के बहकाने से अथवा दुकानदारी के लिए तो वे इसे छोड़ते ही नहीं, जो उनकी लालसा इनमें बनी रहे ।
जो लोग रूपया पैदा करने या पुजने के लिए घर-गृहस्थी को छोड़ते हैं, उनका मन संसार के विषय-भोगों में लगा रहता है । वे न इधर के रहते हैं न उधर के ही । वे “धोबी का कुत्ता, न घर का न घाट का” अथवा “खुदही मिला न विसाले सनम” या “दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम ” वाली कहावत चरितार्थ करते हैं । ऐसे कच्चे त्यागियों के सम्बन्ध में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं –
इत कुल की करनी तजे, उत न भजे भगवान्।
तुलसी अधवर के भये, ज्यों बघूर को पान।।
अर्थात इधर तो वे अपना घरबार और स्त्री-पुत्र तथा अपने कुल के कामों को छोड़ बैठते हैं और उधर भगवान् को भी नहीं भजते । वे हवा के बवण्डर या भभूले में चक्कर खानेवाले पत्ते की तरह अधर में ही चक्कर खाते रहते हैं
अगर वे अपने घर में ही रहते, तो अपने कुल-वर्ण के अनुसार कर्म करते और और महात्माओं की सङ्गति और सेवा-टहल से संसार की असारता, अपने नातेदारों की स्वार्थपरता एवं ईश्वर की महिमा का ज्ञान लाभ करके, ईश्वर की भक्ति करते हुए, प्रह्लाद, जनक और अम्बरीष प्रभृति की तरह, घर में रहकर ही सिद्धि लाभ करते । नादान लोग बिना पूर्ण वैराग्य और ज्ञान के, घर गृहस्थी को छोड़कर वन में चले तो जाते हैं; पर उनकी वासना – ममता अपने घरवालों अथवा पराई स्त्रियों या धन-दौलत में बनी रहती है; इसलिए वे संसारियों की निन्दा के भय से लुक-छिपकर विषयों को भोगते हैं और परमात्मा में मन नहीं लगाते । इस तरह उनके लोक-परलोक दोनों बिगड़ते हैं – वे न तो संसारी सुख ही भोग सकते हैं और न स्वर्ग या मोक्ष ही लाभ कर सकते हैं । सारांश यह, मनुष्य को संसार से पूरी विरक्ति होने पर ही संन्यास लेना चाहिए और एक बार त्यागी बनकर फिर अत्यागी न बनाना चाहिए । त्यागी होकर विषयों में लालसा रखनेवाले महानीच हैं । उनकी दोनों जहाँ में महान दुर्गति होती है ।
प्रत्येक मनुष्य को समझना चाहिए कि यह संसार वास्तव में ही मायाजाल है । कोई किसी का नहीं है । सब अपना अपना मतलब गांठते हैं । मतलब नहीं, तो कोई किसी का नहीं ।
तुलसीदास जी कहते हैं –
तुलसी स्वारथ के सगे, बिन स्वारथ कोई नाहिं।
सरस वृक्ष पंछी बसें, नीरस भये उड़ जाहिं।।
सभी स्वार्थ के सगे हैं; बिना स्वार्थ कोई किसी का नहीं । जब तक वृक्ष में फल रहते हैं, तभी तक पंछी उस पर रहते हैं; जहाँ वृक्ष फलहीन हुआ कि वे उसे छोड़कर और जगह उड़ जाते हैं । यही हाल संसार का है । सब खड़े दम का मेला है । सभी जीते जी के साथी हैं; मरते ही साड़ी मुहब्बत उड़ जाती है । जो स्त्री अर्द्धाङ्गी कहलाती है, जो पुरुष को अपना प्राण प्यारा कहती है, उसे गले से लगाती है और उसके लिए जान देने तक को तैयार रहती है, दम निकलते ही उससे डरने या भय खाने लगती है । अगर वह रोटी भी है, तो अपने सुखों के लिए रोती है; उसके लिए नहीं रोती । और कुटुम्बी – माता पिता भाई बहिन इत्यादि भी दम निकलते ही कहने लगते हैं – “जल्दी उठाओ, अब घर में रखना ठीक नहीं।”
इस मौके की एक कहानी हमें याद आयी है, उसे हम पाठकों के उपकारार्थ नीचे लिखते हैं –
सब जीते जी के साथी हैं
एक सेठ का लड़का किसी महात्मा के पास जाया करता था । सेठ को भय हुआ कि कहिं पुत्र वैराग्य न ले ले; इसलिए उसने पुत्र वधु से कला दिया कि वह पुत्र को हर तरह से अपने वश में कर ले; जिससे महात्मा की सङ्गति छूट जाय । लड़के की स्त्री उस दिन से उसकी सेवा-टहल और भी ज्यादा करने लगी; हाथों में उसका मन रखने लगी । लड़का जब घर से बाहर जाता, तभी वह कहती – “आपका वियोग मुझसे सहा नहीं जाता । क्षणभर में ही मेरे प्राण अकुलाने लगते हैं; अतः आप मुझे छोड़कर कहीं नहीं जाया करें । लड़के ने महात्मा के पास जाना काम जरूर कर दिया; पर कभी कभी वह चला ही जाता था । एक दिन वह बहुत दिन बीच में देकर पहुंचा । महात्मा ने कहा – “भाई ! आजकल तुम आते क्यों नहीं ?” उसने कहा – “मेरी स्त्री मुझे बहुत ही प्यार करती है । उसे मेरे बिना क्षणभर भी कल नहीं पड़ती; इसी से आना नहीं होता; महात्मा ने कहा – “भाई ! ये सब झूठी बातें हैं । संसार में कोई किसी को नहीं चाहता । अगर तुमको विश्वास न हो तो परीक्षा कर लो ।”
सेठ के पुत्र ने परीक्षा करना ही उचित समझा । महात्मा ने उसे प्राणायाम या सांस चढाने की क्रिया सिखा दी । जब वह प्राणायाम क्रिया में पक्का हो गया, तब महात्मा ने कहा – “आज तू घर जाकर कहना, मेरे पेट में बड़ा दर्द है । इसके बाद सांस चढ़कर पड़ जाना; पर पहले यह कह देना कि यदि मेरी मृत्यु हो जाय, तो अमुक महात्मा को बुलाये बिना मुझे मत जलाना ।” लड़का घर पहुंचा और पेट के दर्द के मारे चिल्लाने लगा । कुछ देर बाद ज़मीन पर गिर पड़ा और माता पिता से कहने लगा – “यदि मैं मर जाऊं; तो बिना अमुक महात्मा को बुलाये और दिखाए मुझे मत जलाना ।” इसके बाद उसने सांस चढ़ा लिया । घरवालों ने उसे देखा तो बोले -” अब इसमें दम नहीं, काठी-कफ़न लाओ और शमशान की तयारी करो ।” इतने में उसकी माँ बोली -“पुत्र ने अमुक महात्मा को बुलाने को कहा था, इसलिए पहले उन्हें बुलवाओ ।” सेठ ने महात्मा के पास आदमी भेजा । वह तत्काल चले आये । उन्हें देखते ही सेठ बोला – “मैं मर जाऊं तो हानि नहीं; पर मेरा पुत्र जी उठे यही मेरी इच्छा है ।” यही बात सेठानी और लड़के की स्त्री ने भी कही । महात्मा ने कहा – “मैं एक पुड़िया देता हूँ । तुममे से जो कोई इसे खा लेगा, वह मर जाएगा और लड़का जी उठेगा ।” इस बात के सुनते ही, सब लगे बगलें झाकने और बहाना करने । तब महात्मा ने कहा – “खैर तुम सब नहीं खाते तो मैं ही खा लेता हूँ ।” यह कहकर महात्मा ने पुड़िया खा ली और क्रिया द्वारा सांस उतार उसे होश में कर दिया । लड़के ने सारा हाल सुना । सुनते ही उसे संसारी मुहब्बत का सच्चा हाल मालूम हो गया और उसने घर छोड़ वैराग्य ले लिया । देखिये ! कुटुम्बियों की प्रीती का चित्र महात्मा सुन्दरदास जी कैसी उम्दगी के साथ खींचते हैं –
(१)
माता पिता युवती सुत बान्धव।
लागत है सब कूँ अति प्यारो।।
लोक कुटुम्ब खरो हित राखत।
होइ नहीं हमते कहुँ न्यारो।।
देह-सनेह तहाँ लग जानहु।
बोलत है मुख शब्द उचारो।।
“सुन्दर” चेतन शक्ति गयी जब।
बेगि कहें घर बार निकारो।।
(२)
रूप भलो तबही लग दीसत।
जौं लग बोलत-चालत आगे।।
पीवत खात सुनै और देखत।
सोइ रहे उठि के पुनि जागै।।
मात पिता भइया मिली बैठत।
प्यार करे युवती गल लागे।।
“सुन्दर” चेतन शक्ति गयी जब।
देखत ताहि सबै डरि भागे।।
माँ, बाप, स्त्री, पुत्र और नातेदार सबको पुरुष बहुत ही प्यारा लगता है । सब लोग उससे खूब मुहब्बत करते और चाहते हैं कि यह हमसे अलग न हो । लेकिन यह देह की मुहब्बत उसी समय तक है, जब तक की प्राणी अच्छी तरह बोलता चालता है । “सुन्दरदास जी” कहते हैं – जहाँ शरीर में से चेतन शक्ति – आत्मा निकल गयी कि वही सब कहने लगते हैं – “इसे जल्दी घर से बाहर निकालो।” जब तक प्राणी बोलता, चालता, खाता, पीता, सुनता और देखता है एवं सोकर फिर जाग उठता है; तभी तक माँ-बाप और भाई पास बैठते हैं और युवती गले से लगकर प्यार करती है । “सुन्दरदास जी” कहते हैं – ज्योंही चेतन शक्ति शरीर से निकल कर बाहर गयी कि लोग उसे देखते ही डर कर भागने लगते हैं ।
जिस संसार की ऐसी गति है जो नीरा माया-जाल या गोरखधन्धा है, जिसमें कुछ भी सार-तत्व नहीं है, जिसमें स्वार्थपरता या खुदगर्ज़ी कूट-कूट कर भरी है, उस पर मूर्ख ही लट्टू होते हैं । जो समझदार हैं वे उसके जाल में नहीं फंसते, अगर फंस भी जाते हैं, तो सबको छोड़-छोड़कर अलग हो जाते हैं । जितने विद्वान और महात्मा हुए हैं सभी ने कहा – “इस संसार के साथ दिल मत लगाओ; इसके बनाने वाले के साथ दिल लगाओ । इसी में आपकी भलाई और आपका कल्याण है । उसकी शरण में जाने वाले के पास दुःख और क्लेश नहीं फटकते । वह अपने शरणार्थी की सदैव रक्षा करता है । कौरव-सभा में उसी ने द्रौपदी की लाज रखी थी । जो उसे याद करता है, उसकी खबर वह अवश्य लेता है ।
कहा है-
जो तुमको सुमिरत जगदीशा, ताहि आपनो जानत ईशा ।
अभिमानी से हो तुम दूरा, सतवादी के जीवनमूरा
सुखी मीन जहँ नीर अगाधा, जिमि हरशरण न एकौ बाधा।।
दोहा
बड़े विवेकी तजत हैं, सम्पत्ति सुत पितु मात।
कंथा और कोपीन हूँ, हमसे तजो न जात।।
31/07/19, 5:41 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: ।ॐ। शिव स्वरोदयः ।ॐ।
यात्रारम्भे विवाहे च प्रवेशे नगरादिके।
शुभकार्याणि सिद्धयन्ति चन्द्रचारेषु सर्वदा।२३१।
अयनतिथिदिनेशैःस्वीयतत्त्वे च युक्ते यदि वहति कदाचिद्दैवयोगेन पुंसाम्।
स जयति रिपुसैन्यं स्तम्भमात्रस्वरेण प्रभवति नहि विघ्नं केशवस्यापि लोके।२३२।
‘जीवं रक्ष जीवं रक्ष’ जीवाङ्गे परिधाय च।
जीवो जपति यो युद्धे जीवं जयति मेदिनीम्।२३३।
भूमौ जले च कर्त्तव्यं गमनं शान्तकर्मसु।
वह्नौ वायौ प्रदीप्तेषु खे पुनर्न भयेष्वपि।२३४।
अर्थ- यात्रा, विवाह अथवा किसी नगर में प्रवेश के समय चन्द्र स्वर चल रहा हो, तो सदा सारे कार्य सफल होते हैं, ऐसा स्वर-वैज्ञानिकों का मत है।२३१।
सूर्य अथवा चन्द्रमा के अयन के समय यदि अनुकूल तत्त्व प्रवाहित हो रहा हो, कुम्भक करने मात्र से अर्थात् साँस को रोक लेने मात्र से बिना युद्ध किए विजय मिलती है, चाहे शत्रु कितना भी बलशाली क्यों न हो।२३२।
जो व्यक्ति अपनी छाती को कपड़े से ढककर ‘जीवं रक्ष’ मंत्र का जप करता है, वह विश्व-विजय करता है।२३३।
जब स्वर में पृथ्वी या जल तत्त्व का उदय हो तो वह समय चलने-फिरने और शांत प्रकृति के कार्यों के उत्तम होता है। वायु और अग्नि तत्त्व का प्रवाह काल गतिशील और कठिन कार्यों के उपयुक्त होता है। लेकिन आकाश तत्त्व के प्रवाहकाल में कोई भी कार्य न करना ही उचित है।२३४।
01/08/19, 6:49 am – Abhinandan Sharma: प्राणायाम ऐसे करना चाहिए कि नाक के आगे हाथ से सत्तू रखने पर, वो न हिले । यहां से समझा जा सकता है कि सांस की लंबाई, कितनी कम होनी चाहिए।
01/08/19, 11:43 am – Pitambar Shukla: श्री गणेशाय नमः
श्री जानकी वल्लभो विजयते
श्री राम चरित मानस
उत्तर कांड
परम धर्म मय पय दुहि भाई।
अवटै अनल अकाम बनाई।।
तोष मरुत तब छमाँ जुड़ावै।
धृति सम जावनु देइ जमावै।।
हे भाई! इस प्रकार ( धर्माचार में प्रवृत्त सात्विकी श्रद्धा रूपी गौ से भाव, निवृत्ति और वश में किये हुए निर्मल मन की सहायता से ) परम धर्म मय दूध दुह कर उसे निष्काम भाव रूपी अग्नि पर भली भाँति औटावे।
फिर क्षमा और संतोष रूपी हवा से उसे ठंडा करे और धैर्य तथा शम (मन का निग्रह ) रूपी जामन देकर उसे जमावे।।116-7।।
मुदिताँ मथै बिचार मथानी।
दम अधार रजु सत्य सुबानी।।
तब मथि काढ़ि लेइ नवनीता।
बिमल बिराग सुभग सुपुनीता।।
तब मुदिता ( प्रसन्नता ) रूपी कमोरी में तत्व विचार रूपी मथानी से दम ( इंद्रिय – दमन) के आधार पर ( दम रूपी खंभे आदि के सहारे ) सत्य और सुन्दर वाणी रूपी रस्सी लगा कर उसे मथे और मथ कर तब उसमें से निर्मल, सुन्दर और अत्यंत पवित्र वैराग्य रूपी मक्खन निकाल ले।।116-8।।
01/08/19, 12:08 pm – FB Anand Kumar Patna Shastra Gyan: Aap log jo series me Vairaagya Shatak etc likhte hai, wo kisi site par publish hota hai??
01/08/19, 12:11 pm – Abhinandan Sharma: Yes
01/08/19, 12:11 pm – Abhinandan Sharma: ji, keep the record on his blog.
01/08/19, 4:50 pm – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1118125388385110&id=100005629773129
01/08/19, 7:16 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: वैराग्य शतकं – 109
व्याघ्रीव तिष्ठति जरा परितर्जयन्ती
रोगाश्च शत्रव इव प्रहरन्ति देहम् ।
आयुः परिस्रवति भिन्नघटादिवाम्भो
लोकस्तथाप्यहितमाचरतीति चित्रम्।। १०९ ।।
अर्थ:
वृद्धावस्था भयङ्कर बाघिनी की तरह सामने खड़ी है । रोग शत्रुओं की तरह आक्रमण कर रहे हैं, आयु फूटे हुए घड़े के पानी की तरह निकली चली जा रही है । आश्चर्य की बात है, फिर भी लोग वही काम करते हैं, जिससे अनिष्ट हो ।
बुढ़ापा मौत का पेशखीमा है
बुढ़ापा मौत का पेशखीमा या बकौल “सिसरो” ज़िन्दगी के नाटक का आखिरी सीन है । इसी से चतुर पुरुष बुढ़ापे को देखते ही समझ लेते हैं कि मौत अब आने ही वाली है – हमारे जीवन नाटक का अन्तिम पर्दा गिरने ही वाला है – हमारी ज़िन्दगी का अभिनय अब समाप्त होने ही वाला है । इसी से उन्होंने अगर जवानी और बचपन के दिन वृथा जञ्जालों में भी खोये हैं; तो बुढ़ापे में चेत जाते हैं और सब तजकर हर भजने लगते हैं; पर ऐसे समझदारों की संख्या बहुत थोड़ी है । ज़ियादा तादाद उन अज्ञानियों की है, जो बुढ़ापे को सामने देखकर भी, दम और खांसी के आक्रमण होने पर भी, घरवालों से तिरस्कृत होनेपर भी, संसार की ममता नहीं छोड़ते । अनेक बूढ़े ठीक चला-चली के समय शादी-विवाह करते हैं ; अनेक बेटे-पोतों की पालना में लगे रहते हैं और अनेक धन बढ़ने की चिन्ता में ही मशगूल रहते हैं । इन सब कामों से मनुष्यों का अनिष्ट साधन होता है । न तो उन्हें इस जन्म में ही क्षण-भर को शान्ति मिलती है और न मरने पर अगले जन्म में ही । ममता और कामना के कारण उनका संसार-बन्धन दृढ़ हो जाता है और वे बारबार मरते और जन्म लेते हैं तथा इस घोर दुःख को सुख समझते हैं । भगवान् जाने उन्हें इन घोर दुखों को देखकर भी कैसे सन्तोष होता है ?
भगवान शंकराचार्य कहते हैं –
यावज्जनं तावन्मरणं, तावज्जननि जठरे शयनं।
इति संसारे स्फुटतर दोषः, कथमिह मानव ! तव सन्तोषः?।।
जब तक जन्म ग्रहण करना है, तब तक मरना और माता के पेट में सोना है । संसार में यह दोष स्पष्ट है । हे मनुष्य ! फिर भी तुझे इस जगत में कैसे सन्तोष है ?
रोज़ आँखों से देखते हैं कि इस संसार में ज़रा भी सुख नहीं है । माता के पेट में प्राणी नौ महीने तक घोर नरक-कुण्ड में पड़ा पड़ा सड़ता है । वहां परमात्मा से बारम्बार विनय करता है कि मुझे इस नरक से बाहर कीजिये । मैं बाहर जाते ही केवल आपका भजन करूँगा; पर बाहर आते ही वह सब भूल जाता है । उसे अपने वादे का ध्यान भी नहीं रहता । बाल्यावस्था वह खेल-कूद या पढ़ने-लिखने में गवां देता है; तरुणावस्था में वह तरुणी के फन्दे में फंसा रहता है और बुढ़ापे में नाती-पोतों और दोहितों का सुख देखना चाहता है । इसी तरह उसकी सारी उम्र बीत जाती है और जिस काम के लिए वह यहाँ आया था, वह काम अधूरा या बिना हुआ रह जाता है और समय पूरा होने पर, काल छोटी पकड़ कर ले जाता है । इसके बाद, वह फिर जन्म लेता और मरता है । इस तरह उसे ८४ लक्ष योनियों में जन्म लेना पड़ता है; तब कहीं फिर ऐसा अवसर उसे मिलता है; यानी जन्म-मरण की फांसी काटने वाली मनुष्य-देह मिलती है । अतः ज्ञानी को चाहिए कि अपने मन को अपने अधीन करे और एकाग्र चित्त से परमत्मा की उपासना में लवलीन हो जाय । इस दुर्लभ मनुष्य-देह को वृथा न गवाएं ।
महात्मा चरणदास ने यही सब मोह-मदिरा का नशा उतरनेवाली और गफलत को दूर करनेवाली बातें नीचे के भजन में बड़ी ही खूबी से अदा की हैं –
भजन (राग जंगला)
पीले रे प्याला हो जा मतवाला, प्याला प्रेम हरिरस का रे ।।टेक।।
पाप-पुण्य दोउ भुगतन आये, कौन तेरा और तू किसका रे?।
जो दम जीवे प्रभु के गुण गाले, धन यौवन सुपना निश का रे।।
बाल अवस्था खेल गवाँई, तरुण भय नारी-बश का रे।
वृद्ध भय कफ बाय ने घेरा, खाट परा नहिं जाय मसका रे।।
नाभ-कमल बिच है कस्तूरी, कैसे भरम मिटे पशु का रे।
मन सतगुरु यों भरमत डोले, जैसे मिरग फिरै बन का रे।।
लाख चौरासी से उबरा चाहे, छोड़ कामिनी का चसका रे।
प्रेम लगन “चरणदास” कहत है, नखसिख स्वास भरा विष का रे।।
बुढ़ापे में तो मोक्ष रुपी सोना बना लो
मनुष्य की आयु फूटे घड़े के जल की तरह नित्य निकली जा रही है । प्राणी हर क्षण काल के गाल में है । जब तक वह काल के गाल के नीचे नहीं उतरता, तभी तक खैर है । पर मज़ा यह कि मनुष्य आप काल के गाल में है; तोभी विषयों का पीछा नहीं छोड़ता । इसकी दशा उस मेंढक के समान है, जो सांप के मुंह में फंसा हुआ मछरों को मारने की चेष्टा करता था । मनुष्य नित्य देखता है कि करोड़पति, अरबपति और राजा महाराजा अपनी धन-दौलत को यहीं छोड़-छोड़ कर चले जा रहे हैं; फिर भी उसे होश नहीं होता ! भला इस बेहोशी और गफलत का भी कोई ठिकाना है ! बचपन और जवानी में ही परमात्मा से प्रीति करनी चाहिए । अगर उन अवस्थाओं में भूल हो गयी हो; तो बुढ़ापे में तो अवश्य ही सम्भल जाना चाहिए । यह काया पारसमणि है । यह इसलिए मिली है कि इससे मोक्षरूपी सोना बना लिया जाय । जो लोग देर करते हैं, अवधि बीतने पर, यह पारसमणि उनसे छीन ली जाती है और वे मोक्षरूपी सोना नहीं बना पाते; यानी मोक्षलाभ के उपाय करने के पहले ही काल उन्हें ले जाता है ।
पारस पत्थर की बटिया
एक महापुरुष के पास पारस पत्थर की बटिया थी । उन्होंने एक दरिद्र गृहस्थ पर दया कर उसे वह बटिया दे दी और कह दिया कि हम तीर्थ करने जा रहे हैं; १८ महीने बाद लौटेंगे; तब तक तुम इस बटिया से इच्छानुसार सोना बनाकर अपना दारिद्र दूर कर लेना । महात्मा चले गए । गृहस्थ ने बाजार में जाकर लोहे का भाव पूछा । भाव महंगा था, इसलिए सोचा कि जब लोहा सस्ता होगा, लाकर झट सोना बना लूँगा । इस तरह १८ महीनों में जब दो चार दिन रह गए, तब वह लोहा गाड़ियों पर लादकर लाया । विचार किया – “अब क्या देर है, झट सोना बना लेंगे।” उसे तो ख्याल रहा नहीं और १८ मास का आखिरी दिन आ गया । महात्मा भी आ गए । उन्होंने आते ही अपनी पारसमणि मांगी । गृहस्थ ने कहा – “मैं आज शाम को ही आप की बटिया दे दूंगा।” महात्मा ने कहा – “अब समय हो गया; एक क्षण भी बटिया तुम्हारे पास नहीं रह सकती ।” महात्मा ने बटिया ले ली । गृहस्थ रोटा और हाथ मलता रह गया । यह दृष्टान्त है । दृष्टान्त यह है कि समय पूरा हो जाने पर काल इस बात की प्रतीक्षा नहीं करता कि किसी का समय हुआ है कि नहीं; वह तो प्राणी को लेकर चलता बनता है; अतः समय रहते मोक्ष का उपाय करना चाहिए । आग लगने पर कुआँ खोदने से कोई लाभ नहीं । बुढ़ापा या मौत का पेशखीमा आया देखकर भी होश न करना भारी नादानी है ।
मनुष्यों ! विषयों को छोड़ो और परलोक बनाने की फ़िक्र करो; क्योंकि काल तुम्हारे सिरों पर उसी तरह मण्डरा रहा है; जिस तरह बाज़ चिड़िया की घात में मण्डराता है ।
महात्मा सुन्दरदास जी ने खूब कहा है –
तू अति गाफिल होय रह्यो शठ,
कुञ्जर ज्यूं कछु शंक न आनै।
माय नहीं तनमें अपनो बल,
मत्त भयो विषय-सुख ठानै।
खोंसत-खात सबै दिन बीतत,
नीत अनीत कछु नहीं जानै।
“सुन्दर” के हरि काल महारिपु,
दन्त उखारी कुम्भस्थल भानै।।
*इस कविता में मनुष्य को हाथी और मौत को सिंह माना है । सिंह जिस तरह हाथी के दाँत उखाड़ कर उसके कुम्भस्थल को चीर डालता है; उसी तरह काल-सिंह मनुष्य को मार डालता है । (हाथी की पेशानी के ऊपरी भाग में, सामने ही, जो दो गोले होते हैं । उन्हें “कुम्भस्थल” कहते हैं ।
अरे शठ ! तू बहुत ही गाफिल और असावधान हो रहा है । हाथी की तरह मन में भय नहीं करता । तेरे शरीर में तेरा बल नहीं समाता । मतवाला होकर विषय-भोगों का आनन्द लूट रहा है । छीनते और खाते तेरे दिन बीते जा रहे हैं । तू न्याय-अन्याय, कुछ नहीं समझता । “सुन्दरदास” कहते हैं, घोर शत्रु कालरुपी सिंह तेरे दांतों को उखाड़ कर तेरा कुम्भस्थल फाड़ देगा ।
(२)
सन्त सदा उपदेश बतावत,
केश सबै सर श्वेत भये हैं ।
तू ममता अजहुँ नहीं छाँड़त,
मौतहु आयी सन्देश दये हैं ।
आजु कि कल चलै उठी मूरख,
तेरे हि देखत केते गए हैं ।
“सुन्दर” क्यूँ नहीं राम सँभारत ?
या जगहू में कौन रहे हैं?।।
सन्त लोग सदा उपदेश देते हैं । तेरे सर के बाल सफ़ेद हो गए हैं; मौत ने अपना सन्देश भेज दिया है । अरे मूर्ख ! आज या कल तू उठ जाएगा । पर अफ़सोस ! इतनी खबर पाने पर भी तू होश नहीं करता और अब तक भी ममता नहीं छोड़ता ! अरे शठ ! तेरी आँखों के सामने, देखते देखते कितने ही चले गए; क्या तू यहीं रहेगा ? इस जगत में कौन रहा है ? अब भी तू भगवन को क्यों नहीं याद करता ?
(३)
करत करत धन्ध, कछु न जाने अन्ध।
आवत निकट दिन, अगले चपाकदे।।
जैसे बाज़ तीतर कुं, दावत है अचानक।
जैसे बक मछरी कुं, लीलट लपाकदे।।
जैसे मक्षिका की घात, मकरी करत आय।
जैसे सांप मूसक कुं, ग्रस्त गपाकदे।।
चेत रे अचेत नर, “सुन्दर” सँभार राम।
ऐसे तांहि काल आय, लेइगो टपाकदे।।
अरे अन्धे ! धन्धों में लगकर तुझे होश नहीं, तेरे अन्तिम दिन शीघ्र शीघ्र नज़दीक आ रहे हैं । जिस तरह बाज़ अचानक आकर तीतर को दबा लेता है, जिस तरह बगुला मछली को चट से निगल जाता है, जिस तरह मकड़ी, मक्खी की घात में लगी रहती है, जिस तरह सांप चूहे को गप से गपक लेता है; उसी तरह काल तुझ पर झपट्टा मारना ही चाहता है । अरे गाफिल मनुष्य ! होशकर और भगवान् को याद कर ।
(४)
मेरो देह, मेरो गेह, मेरो परिवार सब।
मेरो धन-माल, मैं तो बहु विधि भारो हूँ।।
मेरे सब सेवक, हुकम कोउ मेटे नाहिं।
मेरी युवती को मैं तो अधिक पियारो हूँ।।
मेरो वंश ऊंचो, मेरे बाप-दादा ऐसे भये।
करत बड़ाई, मैं तो जगत उजारो हूँ।।
“सुन्दर” कहत, मेरो मेरो करि जानै शठ।
ऐसे नहिं जाने, मैं तो काल ही को चारो हूँ।।
यह मेरी देह है, यह मेरा घर है, यह सब मेरा कुटुम्ब है, या मेरा धन-माल है, मैं हर तरह से बड़ा आदमी हूँ । मेरे सब नौकर हैं, जो मेरी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करते । मैं अपनी युवती का बहुत ही प्यारा हूँ; मेरा कुल और वंश ऊंचा है; मेरे बाप-दादा ऐसे नामी हुए; मैं जगत का उजियारा हूँ; इस तरह मनुष्य अपनी बड़ाई करता और शेखी बघारता है । “सुन्दरदास” कहते हैं, शठ मेरा ही मेरा करता है पर यह नहीं जानता कि मैं स्वयं मौत का चारा हूँ ।
(५)
माया जोरि जोरि, नर राखत जतन करि।
कहत है एक दिन, मेरे काम आइ है।।
तोहि तौ मरत, कछु बेर नहीं लागे शठ।
देखत ही देखत, बबूला सो बिलाई है।।
धन तो धरयो ही रहे, चालत न कौड़ी गहै।
रीते हाथन से जैसो आयो, तैसो ही जाइ है।।
करिले सुकृत, यह बेरिया न आवै फेरि।
“सुन्दर” कहत नर पुनि पछताई है।।
मनुष्य धन जोड़-जोड़ कर रखता है और कहता है कि यह एक दिन मेरे काम आएगा । अरे मूर्ख ! तुझे तो मरते देर न लगेगी; देखते देखते पानी के बबूले की तरह, बिलाय जाएगा । तेरा धन, यहाँ का यहीं रक्खा रह जायेगा; चलते समय कौड़ी भी तू साथ न ले जाएगा; जिस तरह रीते हाथों आया था, उसी तरह खाली हाथों चला जाएगा । अरे मूर्ख ! परोपकार या धर्म-पुण्य कर ले, यह मौका फिर न मिलेगा । “सुन्दरदास जी” कहते हैं, अगर हमारी चेतावनी पर ध्यान न देगा, तो अन्त समय पछ्तावेगा ।
किसी कवी ने मोह-निद्रा में सोनेवाले गाफिल को जगाने और उसे अपने कर्तव्य पर आरूढ़ करने के लिए कैसा अच्छा भजन कहा है –
भजन
मूरख छाँड़ वृथा अभिमान ।। टेक ।।
औसर बीत चल्यो है तेरो, तू दो दिन को मेहमान ।।
भूप अनेक भये पृथ्वी पर, रूप तेज बलवान ।
कौन बच्यो या काल बली से, मिट गए नामनिशान ।।
धवल धाम धार रथ गज सेना, नारी चन्द्र समान ।
अन्त समाही सबहिं को तज के, जाय बसै समसान ।।
तज सतसङ्ग भ्रमत विषयन में, जा विधि मर्घट-स्वान ।
क्षण भर बैठ सुमिरन न कीनो, जासों होत कल्याण ।।
रे मन मूढ़ ! अन्त मत भटके, मेरो कह्यो अब मान ।
“नारायण” ब्रजराज कुंवर से, बेगि करो पहचान ।।
दोहा
कुपित सिंहनी ज्यों जरा, कुपित शत्रु ज्यों रोग।
फूटे घट जल ज्यों वयस, तउ अहितयुत लोग ।।
01/08/19, 7:24 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: प्रश्नोत्तरमाला – 30
विद्युच्चलं किं धनयौवनायु-
र्दानं परं किञ्च सुपात्रदत्तम् ।
कण्ठङ्गतैरप्यसुभिर्न कार्यं
किं किं विधेयं मलिनं शिवार्चा । ३० ।
प्र: बिजली की तरह क्षणिक क्या है ?
उ: धन, यौवन और आयु ।
प्र: सबसे उत्तम दान कौन सा है ?
उ: जो सुपात्र को दिया जाय ।
प्र: कण्ठगत प्राण होने पर भी क्या नहीं करना चाहिए और क्या करना चाहिए ?
उ: पाप नहीं करना चाहिए और कल्याणरूप परमात्मा की पूजा करनी चाहिए ।
01/08/19, 7:26 pm – Pitambar Shukla: 🙏🙏🙏🙏
02/08/19, 11:39 am – Pitambar Shukla: श्री गणेशाय नमः
श्री जानकी वल्लभो विजयते
श्री राम चरित मानस
उत्तर कांड
जोग अगिनि करि प्रगट तब
कर्म सुभासुभ लाइ।
बुद्धि सिरावै ग्यान घृत
ममता मल जरि जाइ।।
तब योग रूपी अग्नि प्रकट करके उसमें समस्त शुभाशुभ कर्म रूपी ईंधन लगा दे( सब कर्मों को योग रूपी अग्नि में भस्म कर दे)।
जब ( वैराग्य रूपी मक्खन का) ममता रूपी मल जल जाय,
तब ( बचे हुए ) ज्ञान रूपी घी को ( निष्चयात्मिका) बुद्धि से ठंडा करे।।117-क।।
तब बिग्यान रूपिनी बुद्धि
बिसद घृत पाइ।
चित्त दिआ भरि धरै दृढ़
समता दिअटि बनाइ।।
तब विज्ञान रूपिणी बुद्धि उस ( ज्ञान रूपी)
निर्मल घी को पा कर उससे चित्त रूपी दिया को भर कर,
समता की दीवट बना कर,
उसे दृढ़ता पूर्वक ( जमा कर ) रखे।।117-क।।
02/08/19, 2:12 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
मनुस्मृति
द्वितीय अध्याय
आसीनस्य स्थितः कुर्यादभिगच्छंस्तु तिष्ठतः ।
प्रत्युद्गम्य त्वाव्रजतः पश्चाद्धावंस्तु धावतः । । २.१९६ । ।
पराङ्मुखस्याभिमुखो दूरस्थस्यैत्य चान्तिकम् ।
प्रणम्य तु शयानस्य निदेशे चैव तिष्ठतः । । २.१९७ । ।
नीचं शय्यासनं चास्य नित्यं स्याद्गुरुसन्निधौ ।
गुरोस्तु चक्षुर्विषये न यथेष्टासनो भवेत् । । २.१९८ । ।
नोदाहरेदस्य नाम परोक्षं अपि केवलम् ।
न चैवास्यानुकुर्वीत गतिभाषितचेष्टितम् । । २.१९९ । ।
गुरोर्यत्र परिवादो निन्दा वापि प्रवर्तते ।
कर्णौ तत्र पिधातव्यौ गन्तव्यं वा ततोऽन्यतः । । २.२०० । ।
परीवादात्खरो भवति श्वा वै भवति निन्दकः ।
परिभोक्ता कृमिर्भवति कीटो भवति मत्सरी । । २.२०१ । ।
अर्थ
गुरु आसान में बैठे हो तो शिष्य आसन से उठ कर, गुरु खडे हों तो पास जा कर, गुरु आतें हो तो सम्मुख जा कर,जाते हों तो पीछे दौड़ कर बात करनी चाहिए,गुरु पीछे हों तो सम्मुख होकर,दूर हों तो पास जा कर,लेटे हों तो प्रणाम करके आज्ञा सुनना चाहिए। गुरु के पास में आसन या बिछौना गुरु से नीचा रखना चाहिए। और उनके सामने मनमाने तौर से ना बैठे। गुरु केपीछे भी उनका अकेला नाम ले के ना बोले व उनकी चाल बोल चेष्टा की नकल ना करें। जंहा गुरुनिन्दा होती हो वँहा शिष्य अपने दोनों कान बंद कर लेवे या वँहा से अलग हट जाए, गुरु निंदा सही या झूठ करने से मर कर कुत्ता या गधा होता है।गुरु धन भोगने वाला कृमि व कुचाल करने वाला कीट होता है।।
हरी ॐ
🙏
02/08/19, 5:57 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: वैराग्य शतकं – 110
सृजति तावदशेषगुणाकरं पुरुष रत्नमलंकरणं भुवः।
तदपि तत्क्षणभङ्गि करोति चेदहह कष्टमपंडितंताविधेः।। ११० ।
अर्थ:
ब्रह्मा की यह अज्ञानता खटकती है कि वह मनुष्य को गुणों की खान, पृथ्वी का भूषण और प्राणियों में रत्नरूप बनता है; किन्तु उसे क्षणभंगुर कर देता है ।
मनुष्य, समस्त जीवधारियों में श्रेष्ठ, अशरफुल, मख़लूक़ात, गुणों का सागर और सृष्टि की शोभा है । यह सब होने पर भी, उसकी उम्र कुछ नहीं; वह पानी के बुलबुले की तरह क्षणभर में नाश हो जाता है ! ब्रह्मा गुणों की खान – पृथ्वी के शोभारूप पुरुष को बनता है, यह तो अच्छी बात है; किन्तु उसे क्षणभर में ही नाश कर देता है, यह दुःख की बात है ! यह विधाता की मूर्खता है ! यदि वह पुरुष को सदा रहनेवाला – अमर और अजर बनता, तो अच्छा होता । इसमें उसकी बुद्दिमत्ता दीखती । क्योंकि अपने बाग़ में आप ही वृक्ष लगा कर, आप ही जल से सींच कर और बढाकर, अपने ही हाथों से अपने लगाए हुए वृक्ष को कोई नहीं काटता । जो ऐसा करता है; वह मूर्ख ही समझा जाता है ।
विधाता की और भी गलतियां
इस सृष्टि की रचना में, विधाता ने अपनी अनुपम कारीगरी और चातुरी के जो काम किये हैं; उन्हें देखकर मनुष्य की अक्ल दंग रह जाती है । तरह-तरह के फल-फूल और वृक्ष लता पत्रादि; नाना प्रकार के जल, थल और आकाश में विचरने वाले प्राणी; अनगिनत तारे और सूरज-चन्द्रमा तथा नीलगगन प्रभृति को देखकर रचयिता की रचनाचातुरी की हज़ार दिल से तारीफ करनी पड़ती है । निस्सन्देह, विधाता की क्षमता और बुद्धिमत्ता, चतुरी और कारीगरी का पार पाना असंभव है; तथापि यह कहना पड़ता है कि, उस चतुर कारीगर ने भूलें भी बहुत कि हैं । जिस तरह उसने मनुष्य को, सृष्टि का सरदार बनाकर, क्षणभंगुर करने की भूल की है; उसी तरह उसने सोने में सुगन्ध और ईख में फूल न लगाने तथा चन्द्रमा को कलंकी बनाने की भूलें की हैं ।
किसी ने कहा है –
शशिनि खलु कलङ्कः, कण्टक पद्मनाले,
युवतिकुचनिपात, पक्वता केशजाले।
जलधिजलमपेयं, पण्डिते निर्धनत्वं,
वयसि धनविवेको, निर्विवेको विधाता।।
चन्द्रमा में कलङ्क, कमल की डण्डी में काँटे, युवतियों की छातियों का गिर जाना, बालों का सफ़ेद हो जाना, समुद्र के जल का पीने योग्य न होना, विद्वानों का धनहीन रहना और बुढ़ापे में धनागम की चिन्ता रहना – ये सब विधाता की मूर्खता का परिचय देते हैं ।
कहाँ तक कहें, विधाता ने ऐसी-ऐसी अनेक भूलें की हैं । हमने उसकी भूलों के चन्द नमूने यहाँ दिखा दिए हैं । ये सब भूलें मन में काँटे की तरह खटकती हैं; पर इन सब में भी, मनुष्य जैसे प्राणी का, क्षणभर में ही, बबूले की तरह बिलाय जाना सब से अधिक खटकता है ।
02/08/19, 9:52 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक ८३,८४
तण्डुलीयो हिमो रूक्षः स्वादुपाकरसो लघुः। मदापेत्तविषास्रघ्नः मुञ्जातं वातपित्तजित्त्वष॥८३॥
स्निग्धं शीतं गुरु स्वादु बृंहणं शुक्रकृत्परम्। गुर्वी सरा तु पालङ्कया मदघ्नी चाप्युपोदका॥८४॥
तणडुलीय(चौलाई) का शाक- यह शीतवीर्य, रुक्ष, रस तथा पाक में मधुर एवं लघु होता है। यह मद्यविकार(मदात्यय), पित्तविकार, विषविकार तथा रक्तविकार(विशेषकर रक्तप्रदर) का विनाश करता है।
मुञ्जातक(कन्द विशेष) का शाक- यह वात तथा पित्तविकारो का नाशक होता है। स्निग्ध, शीत, गुरु, स्वाद में मधुर, शरीर को पुष्ट करने वाला तथा शुक्रवर्धक होता है।
पालक का शाक- यह गुरु होने के कारण देर में पचता है तथा मलभेदक होता है। देशभेद से इसका स्वादभेद भी देखा जाता है।
उपोदिका(पोई) का शाक- यह भी गुरु एवं सर गुणों से युक्त होती है तथा मद का नाश भी करती है।
03/08/19, 3:47 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: कमल की डंडी में कांटे????🤔
03/08/19, 4:00 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: सार ये है कि जहाँ सुख है वहां दुःख भी होगा ही, बाकी कमल में कांटे नहीं तो गुलाब मान लीजिए ☺️
03/08/19, 4:04 am – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: 🙏🏻🙏🏻🙏🏻
03/08/19, 4:10 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: जी वह समझ गया था,,,
भूल सुधार के निमित्त लिखा 🙏
03/08/19, 6:46 am – Abhinandan Sharma: सो माया बस भयउ गोसाई,
बंध्यो कीर मरकट की नाई – इसका क्या अर्थ है ? तोते और बन्दर का उदाहरण क्यों दिया गया है ? बताइये ।
03/08/19, 6:58 am – Pitambar Shukla: आज समय मिलने पर इस विषय को जितना और जैसा मैंने समझा है, अवश्य लिखूँगा ।
03/08/19, 7:11 am – Abhinandan Sharma: बढ़िया | और किसी की समझ में आया, ऐसा क्यों लिखा गया ? केवल पढना नहीं है ? गुनना भी है ! समझना भी है ! पढ़ तो सब लेते हैं, पर अगर बाल की खाल न निकाली तो क्या लाभ ? जो लोग पढ़ लिख नहीं पाते, उन्हें अपढ़ कहते हैं और जो लोग कहते हैं, हमने तो रामायण, महाभारत, गीता सब पढ़ लिया पर वास्तव में उन्हें समझ नहीं पाते, उन पर चिन्तन नहीं करते, उन्कहें कुपढ़ कहते हैं | कुपढ़ नहीं बनना है, यही इस ग्रुप का उद्देश्य है | चितन कीजिये और सोचिये, कीर और मरकट क्यों लिखा ?
03/08/19, 8:25 am – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाईं॥
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई॥
माया में मनुष्य इस भाँति लिपटा हुआ है कि उसे लगता है कि माया ने ही उसे बाँध रखा है। जबकि वह पूर्ण रूप से स्वतंत्र है।
उसने स्वयं ही माया को पकड़ रखा है। जैसे शिकारी तोते को पकड़ने के लिए रस्सी में बाँस की पोली (पोंगी जैसे गांव में हाथ से पंखे झलने के लिए उसकी डंडी में लगाया जाता था) लगा देता है और नीचे तोते के खाने की प्रिय चीज लाल मिर्च डाल देता है, बिल्कुल उसी तरह जिस तरह हमारे लिए हमारे माँ-बाप, पत्नी, बच्चे, धन-वैभव, मान-प्रतिष्ठा इत्यादि।
अब तोता आकर उस बाँस लगी रस्सी पर बैठता है और जैसे ही मिर्ची खाने के लिए नीचे झुकता है, पोली घूम जाती है और तोता उलटा लटक जाता है।
तोता यह समझता है कि पोली ने उसे पकड़ लिया है जबकि तोता खुद ही पोली को मजबूती से पकड़े होता है। ईश्वर ने उसे पंख दिए हैं वह पोली छोड़ कर उड़ सकता है पर मिथ्या भ्रम के कारण वह वहीं लटका रहता है और शिकारी आकर उसे पकड़ कर पिजड़े में बन्द कर देता है। तोता मिथ्या भ्रम के बन्धन में बंध कर वास्तविक बंधन में बँध जाता है।
इसी प्रकार मर्कट को भी शिकारी उसके प्रिय खाद्य चने आदि को किसी सकरे मुँह वाले बर्तन में डाल देता है और जब बंदर उसमें हाथ डालकर मुट्ठी बंद कर लेता है तो उसका हाथ बर्तन में फंस जाता है और वह यही सोचता है कि मुझे बर्तन ने पकड़ लिया। जबकि वह अगर मुट्ठी छोड़ दे तो स्वतंत्र हो जाए परन्तु माया में पड़ता वह भी पराधीनता की गति को पाता है।
इसी प्रकार मनुष्य स्वयं स्वतंत्र है परन्तु मायावश मिथ्या ग्रंथि में स्वयं को स्वयं ही बाँधे है।
_गोस्वामी जी द्वारा रचित रामचरित मानस का उत्तरकांड ज्ञान का वह भंडार है जहाँ से आप सरल भाषा में मुक्ति का मार्ग मिलता है।
परन्तु जैसा कि अभिनन्दन जी ने लिखा कि सिर्फ पढ़ना ही नहीं गुनना भी है तो आप इसे पढिये और मनन कीजिये।
‘इसका अर्थ मेरे पिताजी ने एक बार हमें विस्तार से बताया था।’
03/08/19, 8:28 am – Abhinandan Sharma: 👏👏
03/08/19, 8:28 am – Abhinandan Sharma: ऐसे ही शब्दों को समझिये केवल पढिये मत, गहराई में जाइये।
03/08/19, 1:18 pm – Pitambar Shukla: 🙏🙏
03/08/19, 1:31 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: 🙏🙏🙏
03/08/19, 1:54 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: ।ॐ। शिव स्वरोदयः ।ॐ।
जीवेन शस्त्रं बध्नीयाज्जीवेनैव विकाशयेत्।
जीवेन प्रक्षिपेच्छस्त्रं युद्धे जयति सर्वदा।२३५।
आकृष्य प्राणपवनं समारोहेत वाहनम्।
समुत्तरे पदं दद्यात् सर्वकार्याणि साधयेत्।२३६।
अपूर्णे शत्रुसामग्रीं पूर्णे वा स्वबलं तथा।
कुरुते पूर्णतत्त्वस्थो जयत्येको वसुन्धराम्।२३७।
या नाडी वहते चाङ्गे तस्यामेवाधिदेवता।
सन्मुखेSपिदिशा तेषां सर्वकार्यफलप्रदा।२३८।
अर्थ- युद्ध में शत्रु का सामना करते समय जो स्वर प्रवाहित हो रहा हो, उसी हाथ में शस्त्र पकड़कर उसी हाथ से शत्रु पर प्रहार करता है, तो शत्रु पराजित हो जाता है।२३५।
यदि किसी सवारी पर चढ़ना हो साँस अन्दर लेते हुए चढ़ना चाहिए और उतरते समय जो स्वर चल रहा हो वही पैर बढ़ाते हुए उतरना चाहिए। ऐसा करने पर यात्रा निरापद और सफल होती है।२३६।
यदि शत्रु का स्वर पूर्णरूप से प्रवाहित न हो और वह हथियार उठा ले, किन्तु अपना स्वर पूर्णरूपेण प्रवाहमान हो और हम हथियार उठा लें, तो शत्रु पर ही नहीं पूरी दुनिया पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।२३७।
जब व्यक्ति की उचित नाड़ी में उचित स्वर प्रवाहित हो, अभीष्ट देवता की प्रधानता हो और दिशा अनुकूल हो, तो उसकी कभी कामनाएँ निर्बाध रूप से पूरी होती हैं।२३८।
यहाँ यह पुनः ध्यान देने की बात है कि श्लोक संख्या ७५ के अनुसार चन्द्र स्वर (बाँए) की दिशा उत्तर और पूर्व एवं सूर्य स्वर (दाहिने) की पश्चिम और दक्षिण।
03/08/19, 2:22 pm – Dayadhankr Soryvanshi Hts, Akhilesh Frnd: 🙂
03/08/19, 8:40 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: वैराग्य शतकं – 111
गात्रं संकुचितं गतिर्विगलिता भ्रष्टा च दन्तावलिः-
दृष्टिर्नश्यति वर्धते बधिरता वक्त्रं च लालायते ।
वाक्यं नाद्रियते च बान्धवजनो भार्या न शुश्रूषते
हा कष्टं पुरुषस्य जीर्णवयसः पुत्रोप्यमित्रायते ।। १११ ।।
अर्थ:
मनुष्य की वृद्धावस्था बड़ी खेदजनक है । इस अवस्था में शरीर सुकड़ जाता है, चाल मन्दी पद जाती है, दन्त-पंक्ति टूटकर गिर जाती है, दृष्टी नाश हो जाती है, बहरापन बढ़ जाता है, मुंह से लार टपकती है, बन्धुवर्ग बातों से भी सम्मान नहीं करते, स्त्री भी सेवा नहीं करती और पुत्र भी शत्रु हो जाते हैं ।
बुढ़ापे का चित्र
मनुष्य का बुढ़ापा सचमुच ही दुखों की खान है । जिस तरह शत्रु घात लगाए रहते हैं और मौका पाते ही हमला करते हैं; वैसे ही रोग जवानी में तो दबे-छिपे पड़े रहते हैं, पर बुढ़ापे की अवायी देखते ही प्रणिपार चढ़ बैठते हैं । बुढ़ापे में शरीर निकम्मा हो जाता है, खाल झूलने लगती है, इन्द्रियां बेकाम हो जाती हैं, आँखों से दिखाई नहीं देता, कानो से सुनाई नहीं देता, पैरों से चला नहीं जाता और दम चढ़ा करता है । हर समय खों-खों लगी रहती है; दांत अलग ही कष्ट देते और हिल हिल कर प्राण लेते हैं । कोई कड़ी चीज़ खाई नहीं जाती । ज़रा भी कड़ी चीज़ दांतों-टेल आने से दम निकलने लगता है । जिस समय दन्त-पीड़ा के मारे माथा और कनपटी भन्नाने लगते हैं, तब मनुष्य मृत्यु को याद करने लगता है ।
दांतो पर उस्ताद ज़ौक़ ने खूब कहा है :-
जिन दांतों से हँसते थे हमेशा, खिल-खिल।
अब दर्द से हैं वही रुलाते, हिल-हिल।।
पीरी में कहाँ, अब वह जवानी के मज़े।
ए ज़ौक़, बुढ़ापे से हैं दांता किल-किल।।
जिन दांतो से जवानी में खिल खिलाकर हंसा करते थे, अब बुढ़ापे में वही हिल हिल कर हमें रुलाते हैं । ए ज़ौक़ ! बुढ़ापे में अब वह जवानी के मज़े कहाँ हैं ? अब तो इस बुढ़ापे से दांता किल-किल है !
महाकवि नज़ीर अकबराबादी “बुढ़ापे” का क्या ही अच्छा चित्र खींचते हैं –
बुढ़ापा
क्या कहर है यारों, जिसे आ जाय बुढ़ापा।
और ऐश जवानी के तई, खाय बुढ़ापा।।
इशरत को मिला ख़ाक में, गम लाय बुढ़ापा।
हर काम को हर बात को, तरसाय बुढ़ापा।।
सब चीज़ को होता है, बुरा है बुढ़ापा।
आशिक को तो अल्लाह, न दिखलाय बुढ़ापा।।
आगे तो परीजाद ये, रखते थे हमें घेर।
आते थे चले आप, जो लगती थी ज़रा देर।।
सो आके बुढ़ापे ने किया, है ये अन्धेर।
जो दौड़ के मिलते थे, वो अब लेते हैं मुंह फेर।।
सब चीज़ को होता है, बुरा है बुढ़ापा।
आशिक को तो अल्लाह, न दिखलाये बुढ़ापा।।
क्या यारो, उलट है गया हमसे ज़माना।
जो शोख कि थे, अपनी निगाहों के निशाना।।
छेड़े है कोई डाल के, दादा का बहाना।
हंस कर कोई कहता है, कहाँ जाते हो नाना।।
सब चीज़ को होता है, बुरा है बुढ़ापा।
आशिक को तो अल्लाह, न दिखलाय बुढ़ापा।।
पूछैं जिसे कहता है, वो क्या पूंछे है बुड्ढे।
आवें तो ये गुल-शोर; कहाँ आवे है बुड्ढे।।
बैठे तो ये है धूम, कहाँ बैठे है बुड्ढे।
देखें जिसे वह कहता है, क्या देखे है बुड्ढे।।
सब चीज़ को होता है, बुरा है बुढ़ापा।
आशिक को तो अल्लाह, न दिखलाय बुढ़ापा।।
वह जोश नहीं, जिसके कोई खौफ से दहले।
वह ज़ोम नहीं, जिससे कोई बात को सहले।।
जब फस हुए हाथ, थके पाँव भी पहिले।
फिर जिसके जो कुछ शौक में आवे, सोइ कहले।।
सब चीज़ को होता है, बुरा है बुढ़ापा।
आशिक को तो अल्लाह, न दिखलाय बुढ़ापा।।
करते थे जवानी में, तो सब आपसे आ चाह।
और हुस्न दिखाते थे, वह सब आन के दिलख़्वाह।।
यह कहर बुढ़ापे ने किया, आह नज़ीर आह !
अब कोई नहीं पूछता, अल्लाह ही अल्लाह।।
सब चीज़ को होता है, बुरा है बुढ़ापा।
आशिक को तो अल्लाह, न दिखलाय बुढ़ापा।।
बुढ़ापे में निर्धनता मरण है
यदि मनुष्य जवानी में प्रचुर धन कमाकर रख देता है, तब तो बुढ़ापा सुख से पार हो जाता है; घरवाले हलवा और मोहन-भोग खिलाते, गरमागरम दूध पिलाते अथवा कोई और सुख से खाये जाने योग्य पदार्थ बना देते हैं; यदि पास पैसा नहीं होता, तो सभी घरवाले हर तरह से अनादर करते और सूखे टुकड़े सामने रखते हैं; इच्छा हो बूढ़ा खाय, इच्छा हो न खाय । अगर बूढ़े के पास धन होता है, तो स्त्री, पुत्र, पौत्र और पुत्री तथा पुत्र-वाद्यें हर समय बूढ़े की हाज़िरी में खड़े रहते हैं; मुंह से बात निकलती नहीं और काम हो जाता है । अगर बूढ़े के पास धन नहीं होता, तो सब उसे त्याग देते हैं; क्योंकि यह संसार मतलब का है; बिना स्वार्थ, बिना मतलब और बिना पैसे कोई बात नहीं करता । मतलब से ही लोग एक दुसरे के नातेदार और सम्बन्धी बने हुए हैं; वास्तव में कोई किसी का नहीं है ।
कहा है –
वृक्षं क्षीणफलं त्यज्यन्ति विहगाः, शुष्कसरः सारसाः।
पुष्पं पर्य्युषितं त्यज्यन्ति मधुपा, दग्धं वनान्तं मृगाः।।
निर्द्रव्यं पुरुषं त्यज्यन्ति गणिकाः, भृष्टश्रियं मन्त्रिणः।
सर्व्वः कार्यवशाद् जनोऽभिरमते, कस्यास्तिको वल्लभः ?।।
फलहीन वृक्ष को पक्षी त्याग देते हैं, सूखे तालाब को सारस छोड़ देते हैं, मधुहीन फूलों को भौंरे त्याग देते हैं, जले हुए वन को हिरन छोड़ देते हैं, धनहीन पुरुष को वेश्या त्याग देती है और श्रीहीन राजा को मन्त्री त्याग देते हैं । सब मतलब से एक दुसरे को चाहते हैं; नहीं तो कौन किसका प्यारा है ?
“मोहमुद्गर” में लिखा है –
यावद् वित्तोपार्जनशक्तः, तावन्निजपरिवारो रक्तः।
तदनु च जरया जर्जर देहे, वार्तां कोऽपि न पृच्छति गेहे।।
जब तक धन कमाने की सामर्थ्य रहती है, तब तक कुटुम्ब के लोग राज़ी रहते हैं; इसके बाद, बुढ़ापे से शरीर जर्जर होते ही कोई बात तक नहीं पूछता।
संसार की यही धरा है । जिस पुत्र के लिए बचपन में कहीं से धन लाते और उसे अच्छा पिलाते-खिलाते और पहनाते थे, हर तरह लाड-प्यार करते थे; पास पैसा न होने पर भी, पढ़ाने-लिखाने में अपनी शक्ति से अधिक खर्च करते थे; आप तंगी भोगते थे, पर पुत्र को तंगदस्त न होने देते थे; आप फाटे कपडे पहने फिरते थे; पर उसे अच्छे से अच्छा पहनाते थे; अब वही पुत्र मुंह से नहीं बोलता, मौका पड़ने से वह या उसके पुत्र गालियां देते और कभी कभी बूढ़े को मार तक बैठते हैं; पुत्र-वधुएं दिन-भर टनटनाया करती और कहती हैं – “ससुरजी मारें तो संकट कटे; दिन-भर पड़े पड़े खाते और थूक-थूक कर घर ख़राब करते हैं; हमसे तो रोज़ रोज़ मैला साफ़ नहीं होता।” बेटों की बहुएं तो बहुएं, ख़ास अपनी अर्धाङ्गी देखते ही आँखें चढ़ा लेती और खाऊँ-खाऊँ करती रहती है; बूढ़े पति को आलिङ्गन करना, उसकी सेवा करना तो दूर की बात है, उसे पास बैठना भी बुरा समझती है । बीमारी में सेवा-सुश्रुषा करती-करती कहने लगती है – “अब तो तुम मर जाओ तो अच्छा हो । मुझसे यह सब अब नहीं होता ।” कहाँ तक गिनाव, बुढ़ापे में ऐसे-ऐसे अनगिन्तो दुःख आ घेरते हैं; पर आश्चर्य तो यह है कि, इतने पर भी, अज्ञानियों का मोह नहीं छूटता । हमें एक मोहान्ध बूढ़े की की कहानी याद आयी है, उससे पाठकों को बहुत कुछ ज्ञान होता – उनकी आँखें खुल जाएंगी –
एक बूढ़े सेठ की दुर्दशा
किसी नगर में एक बूढ़ा सेठ रहता था । उसने जवानी में बहुत सा धन सञ्चय किया था । बुढ़ापे में पुत्रों ने सारा धन उससे अपने हाथोने में ले लिया । बूढ़े को पौली में एक टूटी सी चारपाई पर, एक फटी-पुरानी गुदडी बिछाकर पटक दिया । एक लाठी उसके हाथ में दे दी और कह दिया कि घर में चोर-चकोर या कुत्ता-बिल्ली न आने पावे। सब घर के भोजन कर लेने पर बचा खुचा खाना एक फूटी सी थाली में रखकर बाह्यें बूढ़े को दे जातीं । कुछ दिन इस तरह गुज़रे । पुत्र-वधुओं को यह भी अच्छा न लगा । उन्होंने कहा – “ससुरजी के कारण निकलने-बैठने में बार-बार घूंघट करना होता है, इससे बड़ा कष्ट होता है । अच्छा हो अगर ऊपर के चौबारे में रख दिए जाएँ और एक घण्टी इन्हें दे दी जाय । जब इन्हें किसी चीज़ की जरुरत होगी, यह घण्टी बजा देंगे ।” कलियुग में जोरू का हुक्म खुदा के हुक्म के बराबर समझा जाता है । बेटों ने अपनी घरवालियों की बात मंजूर कर ली और कह-सुन कर बूढ़े को ऊपर पहुंचा दिया और एक घण्टी उसे दे दी । बूढ़े को जब खाना या पानी वगैरह की जरुरत होती, घण्टी बजा देता । कुछ दिनों बाद एक दिन, बूढ़े का नाती ऊपर चला गया । बूढ़ा उसे खिलता रहा । शेष में, वह खेलता-खेलता घण्टी ले आया । अब तो मुश्किल हो गयी; बूढ़ा खाये-पिए बिना मर गया । २४ घण्टे बीतने पर किसी को उसकी याद आयी । देख, तो बुधिराम कूच कर गए थे । पुत्रों ने उसे श्मशान पर ले जाकर जला दिया । बुढ़ापे में ऐसी ही दुर्गति होती है ।
बुढ़ापे में ममता और भी बढ़ जाती है
एक बूढ़ा अपने मकान की पौली में पड़ा रहता था । कोई उसकी बात न पूछता था । बेचारा ज्यों त्यों करके दिन काटता था । एक दिन उसका पोता उसे मारने और गाली देने लगा । बूढ़ा भी उसे गाली देने लगा । इतने में नारदजी उधर से आ निकले । उन्होंने बूढ़े से सारा हाल पूछा । उसकी दुर्दशा का हाल सुनकर, नारद जी ने उससे कहा – “तुम्हारा जीवन वृथा है । तुम या तो वन में जाकर तप करो या हमारे साथ स्वर्ग को चलो ।” सुनते ही बूढ़ा लाल हो गया और बोलै – “महाराज ! अपनी राह लीजिये । मेरे नाती-बेटे मुझे मारें चाहें गाली दें, आप काज़ी या मुल्ला ? मैं इन्हीं में खुश हूँ ।” नारदजी संसार की मोह-ममता देखकर दंग रह गए । बात यह है कि, अज्ञानी लोगों कि तृष्णा और ममता बुढ़ापे में और भी बढ़ जाती है । वे हज़ारों तरह के कष्ट सहते और अपमानित होते हैं; पर गृहस्थाश्रम को नहीं त्यागते । इसी मिथ्या और स्वार्थपर संसार कि हाय-हाय में एक दिन मर जाते और ममता के कारण बार-बार जन्म लेते और मरते हैं । इस तरह उनके जन्म-मरण का चक्र घूमा ही करता है ।
मोह त्यागने में ही भलाई है
मोह-ममता ही संसार-बन्धन का कारण है । ज्ञानी समझते हैं कि यहाँ कोई किसी का नहीं है । सभी सराय के मुसाफिर हैं । राह चलते-चलते एक जगह एकत्र हो गए हैं । अपना-सपना समय होने पर, अपनी-अपनी राह लगते हैं । न कोई किसी कि स्त्री है और न कोई किसी का पति है; न कोई किसी का पुत्र है और न पिता; न कोई किसी का भतीजा है और न चाचा प्रभृति । स्वार्थ की जञ्जीर में सब बन्धे हुए हैं । फिर इन स्वार्थियों का साथ भी सदा-सर्वदा को नहीं । आज साथ हैं, तो कल अलग हो जाएंगे । जन्म के साथ मृत्यु निश्चित है और संयोग के साथ वियोग अटल है । जब पुरुष का स्त्री से वियोग होता है, तब उसको बड़ा कष्ट और शोक होता है । इसी तरह पुत्र के मरने पर भी महा शोक होता है । पर जो ज्ञानी हैं , तत्त्ववेत्ता हैं, वे इस जगत के नातों की असलियत को जानते हैं; अतः या तो वे गृहस्थी को तज देते हैं या कुटुम्बियों में रहते हुए भी उनमें मोह-ममता नहीं रकते । जो परिवार में रहते हुए भी, परिवार में मोह-ममता नहीं रखते, वे जीवन्मुक्त हैं । धन्य हैं ऐसे नररत्न !
एक निर्मोही राजा की कहानी सुनने और ध्यान देने योग्य है –
निर्मोही राजा
किसी नगर में एक ज्ञानी राजा था । उसे सब निर्मोही कहते थे । एक दिन उसका राजकुमार बन में शिकार खेलने गया । उसे प्यास ज़ोर से लगी । पानी की खोज में, वह एक मुनि के आश्रम में जा पहुंचा । मुनि ने उसे जल पिलाया और पूछा – “आप किसके पुत्र हैं ?” लड़के ने कहा – “मैं निर्मोही राजा का पुत्र हूँ ।” महात्मा ने कहा – “राजकुमार ! एक ही मनुष्य निर्मोही भी हो और साथ ही राजा भी हो, यह नितान्त असंभव है । जो राजा होगा, वह निर्मोही न होगा और जो निर्मोही होगा, वह राजा न होगा ।” राजकुमार ने कहा – “यदि आपको विश्वास नहीं आता; तो आप जाकर परीक्षा कर लीजिये ।” मुनि ने कहा – “अच्छा, हम नगर में जाते हैं । जब तक हम न लौटें, तब तक आप यहीं ठहरें ।” यह कहकर मुनि महाराज नगर को चले गए और राजभवन के द्वार पर जा पहुंचे । द्वार पर उन्हें एक दासी कड़ी मिली ।
मुनि ने दासी से कहा:
तू सुन चेरी श्याम की, बात सुनावौं तोहि ।
कुंवर विनास्यौ सिंह ने, आसान परयौ मोहि ।।
दासी ने जवाब दिया:
ना मैं चेरी श्याम की, नहि कोई मेरो श्याम ।
प्रारब्धवश मेल यह, सुनो ऋषि अभिराम ।।
इसके बाद ऋषि आगे चले, तो उन्हें राजकुमार की स्त्री मिली । उससे उन्होंने कहा –
।। दोहा ।।
तू सुन चातुर सुन्दरी, अबला यौवनवान ।
देवीवाहन दलमल्यौ, तुम्हरो श्रीभगवान ।।
स्त्री ने जवाब दिया:
।। दोहा ।।
तपिया पूरब जनम की, क्या जानत हैं लोक ।
मिले कर्मवश आन हम, अब विधि कीन वियोग ।।
इसके बाद ऋषि ने राजकुमार की माता से मिलना चाहा । वे रानी के पास जा पहुंचे और उससे मिलकर उन्होंने कहा –
।। दोहा ।।
रानी तुमको विपत्ति अति, सूत खायो मृगराज ।
हमने भोजन न कियो, तिसी मृतक के काज ।।
रानी ने जवाब दिया:
।। दोहा ।।
एक वृक्ष डालें घनी, पंछी बैठे आय ।
यह पाटी पीरी भई, उड़ उड़ चहुँ दिशि जाएँ ।।
इसके बाद ऋषि राज-दरबार में गए और राजा से मिले । कुशल-प्रश्न होने के बाद ऋषि ने कहा –
।। दोहा ।।
राजा मुखत में राम कहु, पल-पल जात घडी ।
सुत खायो मृगराज ने, मेरे पास खड़ी ।।
राजा ने जवाब दिया:
।। दोहा ।।
तपिया तप क्यों छांडियो, इहाँ पालक नहि सोग ।
वासा जगत सराय का, सभी मुसाफिर लोग ।।
राजा का जवाब सुनते ही ऋषि को विश्वास हो गया कि, राजा ही नहीं, राजा और राजा का सारा कुटुम्ब निर्मोही है ।
मनुष्य को प्रथम तो गृहस्थाश्रम में रहना ही नहीं चाहिए और यदि रहे भी, तो निर्मोही राजा कि तरह मोह त्याग कर रहे । ममता त्याग कर गृहस्थी में रहने से, मनुष्य भवबंधन में नहीं बांधता और संसार के दुःख-क्लेश उसे संतप्त नहीं कर सकते । ऐसे ज्ञानी को जीवन्मुक्त कहते हैं ।
पर हम देखते हैं कि बुढ़ापे में मनुष्य कि आशा-तृष्णा और भी बढ़ जाती है । बूढ़ा रात-दिन अपने बेटे-पोतों और दोहितों की चिन्ता में ही मग्न रहता है । आप मरने के किनारे बैठा रहता है; तोभी पुत्र-पौत्रों के लिए धन की चिन्ता किया करता है । उसे काम से काम इस चला चली की अवस्था में तो परमात्मा का भजन करना चाहिए; पर बूढ़े से यह नहीं होता ।
शंकराचार्य कृत *”मोहमुद्गर” *में लिखा है –
बालस्तावत् क्रीड़ासक्तः, तरुणस्तावत् तरूणीरक्तः।
वृद्धस्तावत् चिंतामग्नः, परमे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः।।
बचपन में मनुष्य खेल-कूद में लगा रहता है, जवानी में युवती स्त्री में आसक्त रहता है और बुढ़ापे में चिन्ता फ़िक्रों में डूबा रहता है; लेकिन परम ब्रह्म की चिन्तना में कोई नहीं लगा रहता ।
शोक चिन्ता करना वृथा है
शोक चिन्ता करना वृथा और नाशमान है । यहाँ कोई किसी का नहीं फिर वृथा शोच-फ़िक्र में अपनी दुर्लभ मनुष्य-देह को नाश करना और जिस काम के लिए जगत में आये हैं, उस काम की ओर ध्यान न देना, सचमुच ही भारी नादानी है । पुत्र मर गया तो क्या ? स्त्री मर गयी तो क्या ? धन चला गया तो क्या ? जिस तरह स्त्री-पुत्र, मित्र-यार प्रभृति चले गए; मर गए; उसी तरह हम भी एक दिन मर जाएंगे; फिर शोच किसका ? यदि वे चले जाते और हम सदा बने रहते; तो भी शोच सकते थे; पर जब सभी को जाना है तो कौन किसका शोच करे ?
कहा है –
अष्टकुलाचलसप्तसमुद्राः ब्रह्म-पुरन्दर-दिनकर-रुद्राः।
न त्वं नाहं नायं लोकः, तदपि किमर्थं क्रियते शोकः ।।
हिमाचल और विंध्याचल प्रभृति आठ पर्वत, सातों समुद्र, ब्रह्मा, इन्द्र, सूर्य और रूद्र सभी अनित्य और नाशमान हैं । न तू, न मैं और न यह लोक स्थायी है; तो फिर शोक किस लिए किया जाता है ?
मृत्यु से डरने और घबराने की जरुरत नहीं
जब तक मनुष्य को शरीर और शरीरी अथवा देह और आत्मा के अलग-अलग होने का ज्ञान नहीं होता, तब तक वह इस बात को नहीं समझता कि आत्मा, अमर,अविनाशी, नित्य और शाश्वत है; वह कभी नहीं मरता, उसे जल डूबा नहीं सकता, आग जला नहीं सकती, हवा सोख नहीं सकती, तलवार-बन्दूक प्रभृति मार नहीं सकती, तभी तक वह डरता और घबराता है । यह शरीर नाश होता है, आत्मा नहीं; मरना, एक कपडा उतारकर दूसरा पहनना है; शरीर आत्मा के ठहरने की धर्मशाला मात्र है; अगर यह धर्मशाला टूट जायेगी तो आत्मा दूसरी में जा रहेगा – ऐसा ज्ञान होते ही, मनुष्य के मन में भय और भावना नहीं रहती । दुःख सुख का सम्बन्ध शरीर से है, आत्मा से नहीं; आत्मा को दुःख सुख नहीं व्यापते, क्योंकि वह निराकार है – ऐसा ज्ञान होते ही, दुःख आप से आप भाग जाते हैं – हाँ मौत की याद हरदम रखनी चाहिए, क्योंकि मौत को याद रखने से पाप नहीं होते और परमात्मा की शरण में शांति लाभ करना ही अच्छा मालूम होता है; पर मौत से डरना कभी न चाहिए । जो शरीर और आत्मा में भेद नहीं समझते, वे ही मौत के नाम से काँप उठते हैं; किन्तु जो शरीर और आत्मा को जुदा-जुदा समझते हैं, जीवन में कभी पाप नहीं करते, सदा पराया भला करते और परमात्मा को हर क्षण याद करते हैं, वे हँसते-हँसते चोला छोड़ देते हैं । भीष्म-पितामह कई दिनों तक शरशय्या पर लेटे रहे उन्हें ज़रा भी कष्ट न मालूम हुआ । अन्तिम दिन उन्होंने जगदीश को याद करते करते, नश्वर चोला हँसते-हँसते त्याग दिया ।
भीष्म-पितामह आत्मतत्त्व को पूर्वतया जानने वाले थे । वे जानते थे कि मैं पहले भी था अब वर्त्तमान में भी हूँ और आगे भविष्य में भी इसी तरह रहूँगा । शत्रु मेरा बाल भी बांका नहीं कर सकते । हाँ, वे मेरी इस देह का नाश कर सकते हैं; पर देह का नाश होने से मेरी क्या हानि ? इस देह के नाश होने पर, दूसरी देह, इससे ताज़ा और नई, मुझे मिलेगी । मेरा आत्मा नित्य और अविनाशी है, उसे नाश करनेवाला जगत में कोई भी नहीं ।
गीता में कहा है –
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः ।। 23 ।।
अविनाशी तू तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ।। १७ ।।
मुझको काटे कहाँ है वह तलवार ।
दाग दे मुझको कहाँ है वह नार ।।
गरम मुझको करे, कहाँ है वह पानी ।
वह में कब ताब, सूखने की ।।
मौत को मौत न आएगी ।
क़सद मेरा जो करके जायेगी ।।
मौत का शोक दूर करने का नुस्खा
महात्मा बुद्ध के ज़माने में किसी स्त्री का इकलौता पुत्र मर गया । पुत्र-शोक, सब शोकों से भारी होता है; इसलिए वह स्त्री शोकाभिभूत होकर, महात्मा बुद्ध के पास गयी और उनसे लड़के के जिला देने की प्रार्थना की । महात्मा ने कहा – “जिस घर में कोई न मारा हो, उस घर से थोड़े राय के दाने ले आओ । अगर तुम वो दाने ले आई तो हम तुम्हारे पुत्र को ज़िन्दा कर देंगे ।” वह स्त्री घर-घर पूछती फिरी; पर उसे एक भी घर ऐसा न मिला,जिसमें मौत न हुई थी । अतः वह बैरंग वापस आयी और महात्मा से सारा हाल निवेदन कर दिया । सुनते ही महात्मा ने कहा – “मौत प्राणिमात्र के पीछे लगी हुई है; जो जन्मा है वह अवश्य मरेगा । यह संसार नाशमान है । आगे पीछे सब को इस जगत से चल देना है। कोई सदा सर्वदा के लिए यहाँ नहीं आया । इसलिए इसमें शोक की कोई बात नहीं । मूर्ख ही मरे हुए का शोच किया करते हैं, ज्ञानी नहीं । ज्ञानी जानते हैं, कि आत्मा अजर, अमर, नित्य और अविनाशी है; इसी से वे शोच नहीं करते; किन्तु मूर्ख देह को आत्मा समझते हैं; इसी से शोक करते हैं ।” महात्मा का यह उपदेश सुनते ही, स्त्री का शोक दूर हो गया और उसे परम शांति लाभ हुई ।
भगवान् की शरण में ही सुख है
इस जगत में मनुष्य को किसी भी अवस्था में सुख नहीं है । फिर बुढ़ापा तो हर तरह दुखों की खान ही है । अतः मनुष्य को जवानी में ही, आगे आनेवाले बुढ़ापे का ख्याल करके, विषयों से मन हटा लेना और परिवार वालों के नाम को भी न रखा चाहिए । सामझदार को कम से कम जवानी के उतार में तो घर जञ्जाल त्याग, वन में जा, परमात्मा की भक्ति और उपासना करनी चाहिए । मन बारम्बार दबाने और समझने से से शान्त हो जाता है और धीरे-धीरे रही सही ममता भी छूट जाती है । अभ्यास के कारण, अन्तकाल में भगवत ही मन में रहने से, मनुष्य की मुक्ति भी हो जाती है; यानि आवागमन से पीछा छूट जाता है । परब्रह्म की शरण में चले जाने से जो आनन्द आता है, उसे लिखकर बता नहीं सकते ।
बुढ़ापे का चित्र देखकर, मौत को सिर पर मँडराती समझकर, कुटुम्बियों का नाता झूठा समझकर, विषय-वासनाओं को त्यागकर, पुत्र-कलत्र और धन-दौलत की ममता छोड़कर वैराग्य में मन लगाओ । अच्छा हो यदि शरीर में शक्ति सामर्थ्य होते हुए घर से निकल कर वन में जा बसों और सबसे नाता तोड़ एकमात्र परमात्मा से नाता जोड़ लो । उसका नाता ही सच्चा नाता है; और सब नाते झूठे हैं । उसकी शरण में चले जाने से शोक-ताप सता नहीं सकते । भगवान् को भूलने से ही मनुष्य दुःख भोगता और संसारी शत्रुओं से तंग रहता है; किन्तु जो भगवान् के चरण-कमलों में चला जाता है, उसका कोई अनिष्ट नहीं कर सकता और शोक-ताप तो उससे हज़ार कोस दूर भागते हैं । याद रक्खो, परमात्मा की शरण में चले जाने वाले से काल और यमराज तक भय खाते हैं ऋद्धि सिद्धि तो उसके सामने हाथ बांधे खड़ी रहती हैं ।
भगवान् ने कहा है –
जो समीप आवै शरणाई ।
राखौं ताहि प्राण की नाई ।।
गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं –
कोटि विघ्न संकट विकट, कोटि शत्रु जो साथ।
तुलसी बल नहीं कर सकें, जो सुदृष्टि रघुनाथ।।
राखन हारा साइयाँ, मारि न सकहे कोय ।
बाल न बांका कर सकै, जो जग बैरी होय ।।
बुढ़ापे में जगदीश को याद करो
बुढ़ापा आ जाने पर भी, जो परलोक बनाने की सुध नहीं करते, स्त्री-पुरुषों की ममता में पड़कर, घर-गृहस्थी के जञ्जाल में फंसकर, उम्र पूरी कर देते हैं, उनकी भयङ्कर हानि और निन्दा होती है ।
कहा है –
मूर्खो द्विजातिः स्थविरो गृहस्थः ।
कामी दरिद्रो, धनवान तपस्वी ।।
वेश्या कुरूपा, नृपतिः कदर्य्यः ।
लोके षडेतानि विडम्बितानि ।।
मूर्ख ब्राह्मण, बूढा गृहस्थ, दरिद्री कामी, धनवान तपस्वी, कुरूपा वेश्या और स्वेच्छाचारी राजा – ये ६ अपना फजीता और लोकनिन्दा करनेवाले हैं ।
जो बुढ़ापे तक भी गर्भावस्था का किया इकरार पूरा नहीं करते, उनको विद्वान् और तत्त्ववेत्ता लोग पुरुष नहीं “नपुंसक” कहते हैं । उनको बारम्बार जन्म लेना और मरना होता है । अतः बुढ़ापे में तो मनुष्य को सब तज कर हर भजन और अपना परलोक सुधारना चाहिए ।
छप्पय
भयो संकुचित गात, दन्तु उखरि परे महि।
आँखिन दीखत नाहिं, बदन ते लार परत बहि।।
भई चाल बेचाल, हाल बेहाल भयो अति ।
बचन न मानत बन्धु, नारिहु तजि प्रीति गति ।।
यह कष्ट महा दिए वृद्धपन, कछु मुख सों नहिं कहि सकत।
निज पुत्र अनादर कर कहत, यह बूढ़ो यों ही बकत ।।
04/08/19, 12:41 am – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक ८५,८६
पालङ्कयावत्मृतश्चञ्चुः स तु सङ्ग्रहणात्मकः। विदारी वातपित्तघ्नी मूत्रला स्वादुशीतला॥८५॥
जीवनी बृंहणी कण्ठया गुर्वी वृष्या रसायनम्। चक्षुष्या सर्वदोषघ्नी जीवन्ती मधुरा हिमा ॥८६॥
चञ्चु का शाक- इसके सामान्य गुण पालक के समान होते हैं। इसका विशेष गुण है ग्राही होना।
वक्तव्य- करीर या करील को क्रकरीपत्र भी कहा गया है। यह अन्य वृक्षों की भांति बहुत पत्तों वाला नहीं होता, तथापि इसकी नवीन शाखाओं में विरल पत्ते होते है। निघण्टुकारो ने इसे ‘मरुभूरूह’ कहा है। इसकी कली तथा फलों का अचार भी बनता है। औषधीय उपयोग में इसके कली, फल एवं छाल लिए जाते है।
मुञ्जातक- एक कन्द विशेष का नाम है, इसके गुण राजनिघण्टु में देखें। इसके अभाव में तालमज्जा का प्रयोग किया जाता है। सु. सू. ३९/९ में कफनाशक द्रव्यों में इसका भी परिगणन किया गया है।
विदारी(बिलाई) कन्द- यह वात-पित्तनाशक, मल-मूत्र को निकालने वाला, स्वाद में मधुर, शीतवीर्य, जीवनी शक्ति को देने वाला, स्वास्थ्यवर्धक, कण्ठ के लिए हितकर, पाचन में गुरु, वीर्यवर्द्धक तथा रसायन होता है।
वक्तव्य- इसकी सुदीर्घ लताएं होती है, उनकी जड़ो में गांठ के रूप में यह कन्द पाया जाता है। छिलका उतारने पर दूध जैसा सफेद द्रव इसमें से निकलता है। यह। खाने में आरम्भ में मधुर किन्तु अन्त में कुछ कसैलापन इसमें पाया जाता है। पहाड़ी क्षेत्रों में यह जाड़े का मेवा है। वर्ष भर के बाद इनका स्वाद वैसा नहीं रह जाता।
जीवन्ति का शाक- यह दृष्टि के लिए हितकर, त्रिदोषनाशक, मधुर तथा शीतवीर्य है।
04/08/19, 7:51 am – Abhinandan Sharma: वाह । इतना कुछ लिखा है आपने । परोपकार सम धन नहीं भाई । बहुत सुंदर ।
अब एक बात बताइये – कायर के संग शूर भागे पर भागे है’ इसका क्या अर्थ है – केवल पढ़ना नहीं है ना ।
जो निर्मोही पुरुष की कथा दी गयी है, मुझे सबसे अधिक पसंद आयी, बहुत प्रायोगिक । आप लोगों को कौन सी कथा सबसे अच्छी लगी क्योंकि हर एक कथा, मोती की तरह है, बताइए, आपको कौन सा मोती अच्छा लगा ।
04/08/19, 7:52 am – Abhinandan Sharma: क्या तरोई और तोरई एक ही है ?
04/08/19, 7:53 am – Abhinandan Sharma: 🙏🙏
04/08/19, 8:14 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: यहाँ जो मेरी समझ आया वो ये था कि कायर के साथ से शूर भी कायर हो जाता है और श्लोक के सन्दर्भ में, संसारी संगतियो से वैराग्य आसान नहीं, टेढ़ी खीर है।
04/08/19, 8:16 am – Abhinandan Sharma: कैसे ? कोई उदाहरण ?
04/08/19, 8:33 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: ऋषभदेव का हिरन के बच्चे को पालना और उसी के ममत्व में पड़ जाना।
04/08/19, 9:11 am – Abhinandan Sharma: नहीं बात शूर और कायर की हो रही है । कैसे कायर शूर को भी कायर बना देता है ?
04/08/19, 9:15 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
मनुस्मृति
द्वितीय अध्याय
04/08/19, 9:15 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: दूरस्थो नार्चयेदेनं न क्रुद्धो नान्तिके स्त्रियाः ।
यानासनस्थश्चैवैनं अवरुह्याभिवादयेत् । । २.२०२ । ।
प्रतिवातेऽनुवाते च नासीत गुरुणा सह ।
असंश्रवे चैव गुरोर्न किं चिदपि कीर्तयेत् । । २.२०३ । ।
04/08/19, 9:15 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: अर्थ
शिष्य खुद दूर रहकर दूसरों के द्वारा गुरुपूजा ना करे, पूजा में क्रोध ना करे,गुरु अपनी स्त्री के पास हो तब पूजा ना करें।शिष्य अगर गाड़ी में बैठा हो तो उतर कर प्रणाम करे। गुरु की तरफ अगर शिष्य की तरफ से वायु प्रवाह हो रहा हो तो गुरु के सम्मुख ना बैठे। अगर गुरु ना सुन सक रहें हो तब कुछ नहीं कहना चाहिए
🙏हरी ॐ
04/08/19, 9:20 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🤔
04/08/19, 9:28 am – Abhinandan Sharma: गांव में लड़ाई हो जाये, गली में जो पिट रहा हो उसके बहुत समर्थक हों, सब उसको बचाने जा रहे हों और एक आदमी दौड़ता हुआ आये – भागो भागो, जान बचाओ, वो इधर ही आ रहे हैं । तो आधे से ज्यादा लोग वापिस घरों में घुस जाते हैं । ऐसे एक अकेला भीरु, बाकियों को भी डरा देता है ।
04/08/19, 9:29 am – Abhinandan Sharma: ऐसा ही युद्ध में, मोर्चे से एक सैनिक भागता हुआ आये, भागो भागो, सब मर जायेंगे तो पीछे के सैनिकों के भी पैर उखड़ जाते हैं ।
04/08/19, 9:30 am – Abhinandan Sharma: ऐसे एक डरपोक, बाकी शूरों को भी डरा देता है, ये सिर्फ संगत का असर है । अगर शूर ऐसे लोगों का साथ रहे ,जो मौत से न डरते हैं तो कोई भी पीछे नहीं हटेगा लेकिन जो भीरु होंगे, वो भागेंगे और देखा देखी सब भागने लगते हैं ।
04/08/19, 9:33 am – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: 🙏🏻🙏🏻🙏🏻
04/08/19, 10:16 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👌🏼
04/08/19, 11:18 am – Pitambar Shukla: श्री गणेशाय नमः
श्री जानकी वल्लभो विजयते
श्री राम चरित मानस
उत्तर कांड
तीनि अवस्था तीनि गुन
तेहि कपास ते काढ़ि।
तूल तुरीय सँवारि पुनि
बाती करै सुगाढ़ि।।
( जागृत , स्वप्न और सुषुप्ति) तीनों अवस्थाएँ और ( सत्व , रज और तम) तीनों गुण रूपी कपास से तुरीयावस्था रूपी रुई को निकालकर और फिर उसे सँवार कर उसकी सुन्दर कड़ी बत्ती बनावे।।117-ग।।
एहि बिधि लेसै दीप तेज रासि बिग्यान मय।
जातहिं जासु समीप
जरहिं मदादिक सलभ सब।।
इस प्रकार तेज की राशि विज्ञान मय दीपक को जलावे, जिसके समीप जाते ही मद आदि सब पतंगे जल जायँ।।117-घ।।
05/08/19, 10:57 am – Shastra Gyan Gaurav Valecha Katni, MP:
05/08/19, 11:15 am – Abhinandan Sharma: एडमिन हमाये बोत गुस्सेल हेंगे 😆
05/08/19, 11:16 am – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: 😃😃
05/08/19, 11:54 am – Pitambar Shukla: श्री गणेशाय नमः
श्री जानकी वल्लभो विजयते
श्री राम चरित मानस
उत्तर कांड
सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा।
दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा।।
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा।
तब भव मूल भेद भ्रम नासा।।
सोऽहमस्मि ( वह ब्रह्म मैं हूं)
यह जो अखण्ड ( तैल धारा वत् कभी न टूटने वाली) वृत्ति है
वही ( उस ज्ञान दीपक की ) परम प्रचण्ड दीप शिखा ( लौ) है।
( इस प्रकार ) जब आत्मानुभव के सुख का सुन्दर प्रकाश फैलता है, तब संसार के मूल भेद रूपी भ्रम का नाश हो जाता है ।।117-1।।
प्रबल अबिद्या कर परिवारा।
मोह आदि तम मिटइ अपारा।।
तब सोइ बुद्धि पाइ उँजिआरा।
उर गृहँ बैठि ग्रंथि निरुआरा।।
और महान् बलवती अविद्या के परिवार मोह आदि का अन्धकार मिट जाता है।
तब वही( विज्ञान रूपिणी ) बुद्धि (आत्मानुभव रूप ) प्रकाश को पाकर ह्रदय रूपी घर में बैठकर उस जड़ – चेतन की गाँठ को खोलती है ।।117-2।।
05/08/19, 12:36 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: 🙏
05/08/19, 2:26 pm – +91 11637: नागपंचमी के पावन पर्व पर ••••••••
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हिन्दू संस्कृति ने पशु-पक्षी, वृक्ष-वनस्पति सबके साथ आत्मीय संबंध जोड़ने का प्रयत्न किया है। हमारे यहां गाय की पूजा होती है। कई बहनें कोकिला-व्रत करती हैं। कोयल के दर्शन हो अथवा उसका स्वर कान पर पड़े तब ही भोजन लेना, ऐसा यह व्रत है।
हमारे यहाँ वृषभोत्सव के दिन बैल का पूजन किया जाता है। वट-सावित्री जैसे व्रत में बरगद की पूजा होती है, परन्तु नाग पंचमी जैसे दिन नाग का पूजन जब हम करते हैं, तब तो हमारी संस्कृति की विशिष्टता पराकाष्टा पर पहुंच जाती है।
गाय, बैल, कोयल इत्यादि का पूजन करके उनके साथ आत्मीयता साधने का हम प्रयत्न करते हैं, क्योंकि वे उपयोगी हैं।
लेकिन नाग हमारे किस उपयोग में आता है, उल्टे यदि काटे तो जान लिए बिना न रहे। हम सब उससे डरते हैं। नाग के इस डर से नागपूजा शुरू हुई होगी, ऐसा कई लोग मानते हैं, परन्तु यह मान्यता हमारी संस्कृति से सुसंगत नहीं लगती।
नाग को देव के रूप में स्वीकार करने में आर्यों के हृदय की विशालता का हमें दर्शन होता है।
‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ इस गर्जना के साथ आगे बढ़ते हुए आर्यों को भिन्न-भिन्न उपासना करते हुए अनेक समूहों के संपर्क में आना पड़ा। वेदों के प्रभावी विचार उनके पास पहुँचाने के लिए आर्यों को अत्यधिक परिश्रम करना पड़ा।
विभिन्न समूहों को उपासना विधि में रहे फर्क के कारण होने वाले विवाद को यदि निकाल दिया जाए तो मानव मात्र वेदों के तेजस्वी और भव्य विचारों को स्वीकार करेगा, इस पर आर्यों की अखण्ड श्रद्धा थी। इसको सफल बनाने के लिए आर्यों ने अलग-अलग पुंजों में चलती विभिन्न देवताओं की पूजा को स्वीकार किया और अलग-अलग पुंजों को उन्होंने आत्मसात करके अपने में मिला लिया। इन विभिन्न पूजाओं को स्वीकार करने के कारण ही हमें नागपूजा प्राप्त हुई होगी, ऐसा लगता है।
भारत देश कृषिप्रधान देश था और है। सांप खेतों का रक्षण करता है, इसलिए उसे क्षेत्रपाल कहते हैं। जीव-जंतु, चूहे आदि जो फसल को नुकसान करने वाले तत्व हैं, उनका नाश करके सांप हमारे खेतों को हराभरा रखता है।
साँप हमें कई मूक संदेश भी देता है। साँप के गुण देखने की हमारे पास गुणग्राही और शुभग्राही दृष्टि होनी चाहिए। भगवान दत्तात्रेय की ऐसी शुभ दृष्टि थी, इसलिए ही उन्हें प्रत्येक वस्तु से कुछ न कुछ सीख मिली।
साँप सामान्यतया किसी को अकारण नहीं काटता। उसे परेशान करने वाले को या छेड़ने वालों को ही वह डंसता है।
साँप भी प्रभु का सर्जन है, वह यदि नुकसान किए बिना सरलता से जाता हो, या निरुपद्रवी बनकर जीता हो तो उसे मारने का हमें कोई अधिकार नहीं है। जब हम उसके प्राण लेने का प्रयत्न करते हैं, तब अपने प्राण बचाने के लिए या अपना जीवन टिकाने के लिए यदि वह हमें डँस दे तो उसे दुष्ट कैसे कहा जा सकता है?
हमारे प्राण लेने वालों के प्राण लेने का प्रयत्न क्या हम नहीं करते?
साँप को सुगंध बहुत ही भाती है। चंपा के पौधे को लिपटकर वह रहता है या तो चंदन के वृक्ष पर वह निवास करता है। केवड़े के वन में भी वह फिरता रहता है। उसे सुगंध प्रिय लगती है, इसलिए भारतीय संस्कृति को वह प्रिय है।
प्रत्येक मानव को जीवन में सद्गुणों की सुगंध आती है, सुविचारों की सुवास आती है, वह सुवास हमें प्रिय होनी चाहिए।
हम जानते हैं कि साँप बिना कारण किसी को नहीं काटता। वर्षों परिश्रम संचित शक्ति यानी जहर वह किसी को यों ही काटकर व्यर्थ खो देना नहीं चाहता। हम भी जीवन में कुछ तप करेंगे तो उससे हमें भी शक्ति पैदा होगी। यह शक्ति किसी पर गुस्सा करने में, निर्बलों को हैरान करने में या अशक्तों को दुःख देने में व्यर्थ न कर उस शक्ति को हमारा विकास करने में, दूसरे असमर्थों को समर्थ बनाने में, निर्बलों को सबल बनाने में खर्च करें, यही अपेक्षित है।
कुछ दैवी साँपों के मस्तिष्क पर मणि होती है। मणि अमूल्य होती है। हमें भी जीवन में अमूल्य वस्तुओं को (बातों को) मस्तिष्क पर चढ़ाना चाहिए।
समाज के मुकुटमणि जैसे महापुरुषों का स्थान हमारे मस्तिष्क पर होना चाहिए।
हमें प्रेम से उनकी पालकी उठानी चाहिए और उनके विचारों के अनुसार हमारे जीवन का निर्माण करने का अहर्निश प्रयत्न करना चाहिए।
सर्व विद्याओं में मणिरूप जो अध्यात्म विद्या है, उसके लिए हमारे जीवन में अनोखा आकर्षण होना चाहिए। आत्मविकास में सहायक न हो, उस ज्ञान को ज्ञान कैसे कहा जा सकता है?
साँप बिल में रहता है और अधिकांशतः एकान्त का सेवन करता है।
इसलिए मुमुक्षु को जनसमूह को टालने का प्रयत्न करना चाहिए। इस बारे में साँप का उदाहरण दिया जाता है।
देव-दानवों द्वारा किए गए समुद्र मंथन में साधन रूप बनकर वासुकी नाग ने दुर्जनों के लिए भी प्रभु कार्य में निमित्त बनने का मार्ग खुला कर दिया है। दुर्जन मानव भी यदि सच्चे मार्ग पर आए तो वह सांस्कृतिक कार्य में अपना बहुत बड़ा योग दे सकता है और दुर्बलता सतत खटकती रहने पर ऐसे मानव को अपने किए हुए सत्कार्य के लिए ज्यादा घमंड भी निर्माण नहीं होगा।
दुर्जन भी यदि भगवद् कार्य में जुड़ जाए तो प्रभु भी उसको स्वीकार करते हैं, इस बात का समर्थन शिव ने साँप को अपने गले में रखकर और विष्णु ने शेष-शयन करके किया है।
समग्र सृष्टि के हित के लिए बरसते बरसात के कारण निर्वासित हुआ साँप जब हमारे घर में अतिथि बनकर आता है तब उसे आश्रय देकर कृतज्ञ बुद्धि से उसका पूजन करना हमारा कर्त्तव्य हो जाता है।
इस तरह नाग पंचमी का उत्सव श्रावण महीने में ही रखकर हमारे ऋषियों ने बहुत ही औचित्य दिखाया है।
चातुर्मास के अंतर्गत आने वाले श्रावण मास जो नागेश्वर भगवान शिव को अत्यंत प्रिय है, के शुक्ल पक्ष की पंचमी अर्थात् नाग पंचमी का क्या महत्व है, आइये यह जानते हैं। यूं तो प्रत्येक मास की शुक्ल पक्ष वाली पंचमी का अधिष्ठाता नागों को बतलाया गया है। पर श्रावण शुक्ला पंचमी एक विशेष महत्व रखती है। शायद ही कोई हो जो नाग/सर्प से अपरिचित होगा। लगभग हर जगह देखने को मिल जाते हैं ये सर्प।
नाग हमेशा से ही एक रहस्य में लिपटे हुए रहे हैं इनके विषय में फैली अनेक किंवदंतियों के कारण। जैसे नाग इच्छाधारी होते हैं, मणि धारण करते हैं, मौत का बदला लेते हैं आदि-आदि। पर जो भी हो, सर्प छेड़ने या परेशान करने पर ही काटते हैं। आप अपने रास्ते जाइए साँप अपने रास्ते चला जाएगा।
हाँ कभी मार्ग भटककर अचानक इनका घर में आ जाना डर का कारण हो सकता है पर ऐसे में या किसी भी परिस्थिति में इन साँपों को मारना नहीं चाहिए। कोशिश यही करनी चाहिए कि इनको एक सुरक्षित स्थान पर छोड़ दिया जाये।
हमारे हिन्दू धर्मग्रन्थों में भी नागों का वर्णन मिलता है कहीं भगवान शिव के गले के आभूषण के रूप में तो कहीं भगवान विष्णु के शेषनाग के रूप में।
ऐसी मान्यता है कि शेषनाग ही श्रीरामचंद्र जी के भ्राता लक्ष्मण जी के रूप में अवतरित हुए थे।
कालिय नाम के नाग का मर्दन श्रीकृष्ण द्वारा किया गया था और तारा महाविद्या को भी सर्पों के आभूषणो से युक्त बतलाया गया है।
यज्ञोपवीत का संस्कार करते समय भी उसमें रुद्रादि देवों के साथ साथ “सर्पानावाहयामि” कहकर सर्पों का आवाहन किया जाता है ताकि यज्ञोपवीत भली प्रकार द्विज की रक्षा कर सके। शास्त्रों में तो पंचमी को नागों को दूध से स्नान करवाने को कहा गया है वह भी जरूरी नहीं कि नाग असली हो, ताँबे या गोबर या मिट्टी से बने नाग का ही स्नान/अभिषेक किया जाना चाहिए।
पुराणों के अनुसार किसी भी पंचमी तिथि को जो नागों को दुग्धस्नान करवाता है उसके कुल को “वासुकि, तक्षक, कालिय, मणिभद्र, ऐरावत, धृतराष्ट्र, कर्कोटक तथा धनञ्जय” – ये सभी नाग अभयदान देते हैं ।
इस संबंध में श्रीकृष्ण द्वारा युधिष्ठिर को कही गयी एक कथा है कि
एक बार राक्षसों व देवताओं ने मिलकर जब सागर मंथन किया था तो उच्चैःश्रवा नामक अतिशय श्वेत घोड़ा निकला जिसे देख नागमाता कद्रू ने अपनी सपत्नी/सौत विनता से कहा कि,
“देखो! यह अश्व श्वेतवर्ण का है परन्तु इसके बाल काले दिखाई पड़ रहे हैं।” तब विनता बोली, “यह अश्व न तो सर्वश्वेत है, न काला है और न ही लाल रंग का।” यह सुनकर कद्रू बोली, “अच्छा? तो मेरे साथ शर्त करो कि यदि मैं इस अश्व के बालों को कृष्णवर्ण का दिखा दूँ तो तुम मेरी दासी हो जाओगी और यदि नहीं दिखा सकी तो मैं तुम्हारी दासी हो जाऊँगी।”
विनता ने शर्त स्वीकार कर ली और फिर वो दोनों क्रोध करती हुई अपने-अपने स्थानों को चली गयीं। कद्रू ने अपने पुत्रों को सारा वृत्तान्त कह सुनया और कहा, “पुत्रों! तुम अश्व के बालों के समान सूक्ष्म होकर उच्चैःश्रवा के शरीर से लिपट जाओ, जिससे यह कृष्ण वर्ण का दिखने लगेगा और मैं शर्त जीतकर विनता को दासी बना सकूंगी।”
यह सुन नाग बोले, “माँ! यह छल तो हम लोग नहीं करेंगे, चाहे तुम्हारी जीत हो या हार। छल से जीतना बहुत बड़ा अधर्म है।”
पुत्रों के ऐसे वचन सुनकर कद्रू ने क्रुद्ध होकर कहा, “तुमलोग मेरी आज्ञा नहीं मानते हो, इसलिए मैं तुम्हें शाप देती हूँ कि तुम सब, पांडवों के वंश में उत्पन्न राजा जनमेजय के सर्पयज्ञ में अग्नि में जल जाओगे।”
नागगण, नागमाता का यह शाप सुन बहुत घबड़ाये और वासुकि को साथ लेकर ब्रहमाजी को सारी बात कह सुनाई।
ब्रह्मा जी ने कहा, “वासुके! चिंता न करो।
यायावर वंश का बहुत बड़ा तपस्वी जरत्कारू नामक ब्राह्मण होगा जिसके साथ तुम अपनी जरत्कारू नाम की बहिन का विवाह कर देना और वह जो भी कहे, उसका वचन स्वीकार लेना। उनका पुत्र आस्तीक उस यज्ञ को रोक तुम लोगों की रक्षा करेगा।”
यह सुन वासुकि आदि नाग प्रसन्न हो उन्हें प्रणाम कर अपने लोक को चले गए। कालांतर में वह यज्ञ जब हुआ तो नाग पंचमी के दिन ही आस्तीक मुनि ने नागों की सहायता की थी। अतः उस दाह की व्यथा को दूर करने के लिए ही गाय के दुग्ध द्वारा नाग प्रतिमा को स्नान कराने की मान्यता है जिससे व्यक्ति को सर्प का भय नहीं रहता इसीलिए यह दंष्ट्रोद्धार पंचमी भी कहलाती है।
नागपंचमी को किसी भी समय घर के मुख्य द्वार के दोनों ओर नागों के चित्र या एक-एक गोबर से नाग बनाकर उनका दही, दूध, दूर्वा, पुष्प, कुश, गंध, अक्षत और नैवेद्य अर्पित कर पूजन करना चाहिये। तत्पश्चात ब्राह्मणों को यथाशक्ति भोजन करवाने से व्यक्ति के कुल में कभी सर्पों का भय नहीं होता।
“‘नमोsस्तु सर्व सर्पेभ्यो'”
सभी सर्पों को नाग पंचमी पर नमन🙏🙏🙏🙏🙏🙏
05/08/19, 5:35 pm – LE Onkar A-608: 🙏
05/08/19, 6:22 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: वैराग्य शतकं – 112
क्षणं बालो भूत्वा क्षणमपि युवा कामरसिकः
क्षणं वित्तैहीनं क्षणमपि च सम्पूर्णविभवः।
जराजीर्णैरङ्गैर्नट इव क्लीमंडिततनुर्नरः
संसारान्ते विशति यमधानीजवनिकाम्।। ११२ ।।
अर्थ:
मनुष्य नाटक के एक्टर के समान है; जो क्षणभर में बालक, क्षणभर में युवा और कामी रसिया बन जाता है तथा क्षण में दरिद्र और क्षण में धनैश्वर्य-पूर्ण हो जाता है । फिर; अन्त में बुढ़ापे से जीर्ण और सुकड़ी हुई खाल का रूप दिखाकर, यमराज के नगर की ओट में छिप जाता है ।
महाराज भर्तृहरि जी ने मनुष्य का नाटक के स्टेज-एंकर से खूब ही अच्छा मिलान किया है । सचमुच ही मनुष्य नाटक के किरदार सा ही काम करता है ।
मंच पर जिस तरह एक ही कलाकार कभी बालक, कभी जवान, कभी बूढ़ा, कभी धनि, कभी निर्धन, कभी राजा, कभी फ़कीर, कभी साधू, कभी असाधु तथा कभी रोगी और निरोगी, त्यागी और अत्यागी, भोगी और योगी, गृहस्थ और सन्यासी बनकर, तरह-तरह के तमाशे दिखता और शेष में नाटक के परदे के पीछे छिप जाता है; उसी तरह मनुष्य बालक और जवान, धनी और निर्धन प्रभृति के स्वांग भर और दिखाकर, अन्त में जीवन-नाटक का आखिरी सीन – बुढ़ापे का रूप – दिखा कर, यमपुरी-रुपी परदे की ओट में जाकर छिप जाता है; यानि इस दुनिया से कूच कर जाता है ।
छप्पय
छिन में बालक होत, होत छिनहि में यौवन।
छिन ही में धनवन्त, होत छिन ही में निर्धन।।
होत छिनक में वृद्ध, देह जर्जरता पावत।
नट ज्यों पलटत अंग, स्वांग नित नए दिखावत।।
यह जीव नाच नाना रचत, निचल्यो रहत न एकदम।
करके कनात संसार की, कौतुक निरखत रहत यम।।
05/08/19, 6:37 pm – LE Nisha Ji :
05/08/19, 7:09 pm – Abhinandan Sharma: क्या किसी ने श्लोक के पहले शब्द पर ध्यान दिया ? “चोदितो गुरूणाम नित्यं” बताये क्या समझ आया ?
05/08/19, 7:12 pm – Abhinandan Sharma: इसका अर्थ सुधाकर के अलावा कौन बतायेगा ? अगर समझ में नहीं आया था तो पूछा क्यों नहीं ?
05/08/19, 7:19 pm – Abhinandan Sharma: वाह, अद्भुत ।
05/08/19, 7:20 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: अभी ध्यान दिया, पर सही मतलब नहीं समझ आया।
05/08/19, 7:28 pm – Abhinandan Sharma: सुधाकर जी, plz feapond
05/08/19, 7:30 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: बता दिया गया है 🙏🏼
05/08/19, 10:11 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक ८७,८८,८९
कुष्माण्डतुम्बकालिङ्गकर्कार्वेर्वारूतिण्डिशम्। तथा त्रपुसचीनाकचिर्भटं कफवातकृत्॥८७॥
भेदि विष्टम्भ्यभिष्यन्दि स्वादुपाकरसं गुरु।
कुष्माण्ड आदि का वर्णन- कुष्माण्ड(कोहड़ा, पेठा), तुम्ब( जिसकी साधु लोग तुम्बी या कमण्डलु बनाते हैं), कलिंग( तरबूज), कर्कारु (खरबूजा), उर्वारु(ककड़ी या खारा), तिण्डिश(टिंडे), त्रपुस(बड़ा खीरा), चीनाक(चीना ककड़ी) और चिर्भट (फूट)– ये सभी कफकारक, वातकारक, मलभेदक, विष्टम्भी, अभिष्यन्दि, विपाक तथा रस मे मधुर एवं गुरु होते है।
बल्लीफलानां प्रवरं कुष्माण्डं वातपित्तजित्॥८८॥
बस्तिशुद्धिकरं वृष्यम् त्रपुसं त्वतिमूत्रलम्। तुम्बं रुक्षतरं ग्राहि कालिङ्गैर्वारुचिर्भटम्॥८९॥
बालं पित्तहरं शीतं विद्यात्पक्वमतोऽन्यथा।
कुष्माण्ड(कोहड़ा) के गुण- लताओं में फलने वाले उक्त सभी फलो में कुष्माण्ड उत्तम माना गया है। यह वात तथा पित्त का शमन करता है, बस्ति(मूत्राशय) को शुद्ध करता है और वीर्य को बढ़ाता है।
त्रपुस (बड़ा खीरा)- कुष्माण्ड आदि से अधिक मूत्रकारक होता है।
तुम्ब या तुम्बा(गोल लौआ या लौकी)- तरबूज, ककड़ी, फूट ये सब रूक्ष तथा मल को बांधने वाले होते है। ऊपर कहे गये फल जब तक बाल (मुलायम) रहते है तब तक इनका गुण पित्तनाशक होता है और ये शीतवीर्य होते है। जब ये पक जाते है, तब पित्तकारक एवं उष्णवीर्य हो जाते है।
05/08/19, 10:11 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: जी एक ही है।
05/08/19, 10:14 pm – Poonam Goyal Delhi Artist Shastra Gyan: कृपया इसका उत्तर बताए जो आपने सब से पूछा था?
05/08/19, 10:26 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: चोदितो गुरुणाम नित्यं – नित्य गुरु के प्रेरणा से
05/08/19, 10:26 pm – Ashu Bhaiya: 👏🏻👏🏻
05/08/19, 10:26 pm – Ashu Bhaiya: की
05/08/19, 11:00 pm – Poonam Goyal Delhi Artist Shastra Gyan: 😊🙏
05/08/19, 11:03 pm – FB Mrudul Tiwari Allahabad Shastra Gyan: 🙏🙏🙏🙏👌👌👌👌
05/08/19, 11:20 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: वैराग्य शतकं – 113
अहौ वा हारे वा बलवति रिपौ वा सुहृदि वा
मणौ वा लोष्ठे वा कुसुमशयनेवा दृषदि वा।
तृणे वा स्त्रैणे वा मम समदृशो यान्तु दिवसाः
क्वचितपुण्यारण्ये शिवशिवशिवेति प्रलपतः।। ११३ ।।
अर्थ:
हे परमात्मा ! मेरे शेष दिन, किसी पवित्र वन में, “शिव शिव” रटते हुए बीतें; सर्प और पुश-हार, बलवान शत्रु और मित्र, कोमल पुष्प-शय्या और पत्थर की शिला, मणि और पत्थर, तिनका और सुन्दरी कामिनियों के समूह में मेरी समदृष्टि हो जाय, मेरी यही इच्छा है ।
खुलासा – कोई विरक्त पुरुष परमात्मा से प्रार्थना करता है कि मेरी मति ऐसी कर दे कि, मुझे सर्प और हार, शत्रु और मित्र, पुष्प-शय्या और शिला, रत्न और पत्थर, तिनका और सुन्दरी स्त्री सब एक से दीखने लगें; इनमें मुझे कुछ भेद न मालूम हो; मैं समदर्शी हो जाऊं और मेरा शेष जीवन किसी पवित्र वन में “शिव शिव शिव” जपते बीते।
जब सभी शरीरों में एक ही व्यापक ब्रह्म दीखने लगे; शत्रु-मित्र में भेद न मालूम हो; हर्ष-शोक और दुःख-सुख सब में चित्त एकसा रहे; तब योगसिद्धि हुई समझनी चाहिए ।
कबीरदास कहते हैं –
सुदृष्टि सतगुरु करौ, मेरा भरम निकार।
जहाँ देखों तहाँ एक ही, साहब का दीदार।।
समदृष्टि तब जानिये, शीतल समता होय।
सब जीवन कि आत्मा, लखै एकसी सोय।।
समदृष्टि सतगुरु किया, भरम किया सब दूर।
दूजा कोई दिखे नहीं, राम रहा भरपूर।।
यही अवस्था सर्वोत्तम अवस्था है । इसी में परमानन्द है । इस अवशता में शोक और दुःख का नाम भी नहीं है; पर यह अवस्था उन्ही को प्राप्त होती है, जिन पर जगदीश कि कृपा होती है या जिनके पूर्व जन्म के सञ्चित पुण्यों का उदय होता है ।
समदर्शी होने के उपाय
समदर्शिता ही परमानन्द की सीढ़ी है
चित्त की समता ही योग है । जब समान दृष्टी हो गयी, तब योगसिद्धि में बाकी ही क्या रहा ? जब मनुष्य को इस बात का ज्ञान हो जाता है, कि समस्त जगत और जगत के प्राणियों में एक ही चेतन आत्मा है; छोटे बड़े, नीच-उंच सभी शरीरों में एक ही ब्रह्म का प्रकाश है; तब उसकी नज़र में सभी समान हो जाते हैं । जब वह राजा-महराजा, अमीर और गरीब, मनुष्य और पशु-पक्षी, हाथी और चींटी, सर्प और मगर – सब में एक ही चेतन आत्मा को व्यापक देखता है; तब उसके दिल में किसी से राग और किसी से विराग, किसी से विरोध और किसी से प्रणय-भाव रह नहीं जाता; उस समय उसे न कोई शत्रु दीखता है और न कोई मित्र । इस अवस्था में पहुँचने पर, वह न किसी को अपना समझता है, न पराया । इस समय ही उसे स्त्री और पुरुष, दोस्त और दुष्काण, सर्प और पुष्प-हार, सोना और मिट्टी प्रभृति में कोई फर्क नहीं मालूम होता । इस अवस्था में, उसके अन्तःकरण से दुखों का घटाटोप दूर होकर, परमानन्द कि प्राप्ति होती है । उस समय जो आनन्द होता है, उसको कलम से लिखकर बताना कठिन ही नहीं; असंभव है ।
समस्त जगत में एक ही आत्मा व्यापक है ?
बेशक, सारे जगत में एक ही चेतन आत्मा है । जिस तरह गुलाब-जल से भरे घड़े में, गङ्गाजल से भरे घड़े में, मूत्र से भरे घड़े में और शराब से भरे घड़े में एक ही सूर्य का प्रतिबिम्ब – अक्स पड़ता है, सबमें एक ही सूर्य दीखता है; उसी तरह मनुष्य, पशु-पक्षी और मागत-मैच प्रभृति जगत के सभी प्राणियों में एक ही चेतन ब्रह्म का प्रतिबिम्ब या प्रकाश है । अलग-अलग प्रकार के शरीरों या उपाधियों के कारण, सबमें एक ही आत्मा होने पर भी अलग-अलग दीखते हैं । लेकिन भिन्न-भिन्न शरीरों में भिन्न-भिन्न आत्मायों का होना, अज्ञानियों को ही मालूम होता है; जो सच्चे तत्ववेत्ता और पपूर्ण ज्ञानी हैं अथवा जो आत्मतत्त्व कि तह तक पहुँच गए हैं, उन्हें सभी शरीरों में एक ही आत्मा दीखता है । वे समझते हैं कि, जो आत्मा हम में है, वही समस्त जगत और जगत के प्राणियों में है । बकरी के शरीर में जो आत्मा है, वह बकरी; हाथी के शरीर में जो आत्मा है, वह हाथी और मनुष्य के शरीर में जो आत्मा है, वह मनुष्य कहलाता है । जिन जिन शरीरों में आत्मा प्रवेश कर गया है, उन्ही उन्हीं शरीरों के नाम से वह पुकारा जाता है; शरीरों या उपाधियों का भेद है; आत्मा में कोई भेद नहीं । नदी, तालाब, झील, बावड़ी, झरना, सोता और कुंआ – इन सब में एक ही जल है, पर नाम अलग-अलग है । नाम अलग अलग हैं । एक लोहे के डण्डे पर कपडा लपेट कर जो अग्नि जलाई जाती है, उसे मशाल कहते हैं और एक मिट्टी के दीवले में जो अग्नि जलती है, उसे दीपक कहते हैं । पृथ्वी एक ही है, पर उसके नाम अलग-अलग हैं । किसी को नगर, किसी को गाँव, किसी को ढानी और किसी को घर कहते हैं; पर है तो सब धरती ही । ताना और बाना एक ही सूत के दो नाम हैं; पर है दोनों में ही सूत । वन एक ही है; उस में अनेक वृक्ष हैं और उनके नाम तथा जातियां अलग-अलग हैं । बीज से वृक्ष होता है और वृक्ष से बीज होता है; अतः बीज वृक्ष है और वृक्ष बीज है । दोनों एक ही हैं, पर नाम अलग-अलग हैं । बाप से बीटा पैदा होता है; अतः बाप में और बेटे में एक ही आत्मा है, अतएव बाप बेटा है और बेटा बाप है । बहुत कहना-समझाना वृथा है । निश्चय ही सबमें एक ही चेतन आत्मा है, पर भिन्न-भिन्न प्रकार के शरीरों के कारण नाम अलग-अलग हैं । भ्रम के कारण मनुष्य को असल बात समझ नहीं पड़ती । मृगमरीचिका में जल नहीं है; पर भ्रमवश मनुष्य को जल दीख पड़ता है और वह कपडे उतार कर तैरने को तैयार हो जाता है । रस्सी-रस्सी है, सांप नहीं; पर अँधेरे में वही रस्सी सांप सी दीखती है और मनुष्य डर कर उछालता और भागता है । इसी तरह जब तक मनुष्य के ह्रदय में अज्ञान रुपी अंधकार रहता है, उसे और का और दीखता है । देख और आत्मा अलग़-अलग हैं । देह नाशमान और आत्मा अविनाशी हैं; पर अज्ञानी को, जिसके दिल में अँधेरा है, देह और आत्मा एक मालूम होते हैं तथा शरीर और आत्मा दोनों ही नाशमान जान पड़ते हैं । इसी तरह सब जगत में एक ब्रह्म व्यापक है – शरीर-शरीर में एक ही चेतन आत्मा है; पर अज्ञानी सब प्राणियों में एक ही आत्मा नहीं मानता है । अज्ञान-अंधकार के मारे, वह इस बात को नहीं समझता कि मुझमें, उधो में, माधव में, रामा में, मेरी स्त्री में, मेरे पुत्र में, माधव के पुत्र में, घोड़े में, हाथी में, सर्प में और सिंह में एक ही आत्मा है; यानी जो आत्मा मुझमें है वही समस्त जगत में है ।
बिहारीलाल कवी ने कहा है –
मोहन मूरति श्याम की, अति अद्भुत गति जोइ।
वसत सुचित अन्तर तऊ, प्रतिबिम्बित जग होइ।।
श्याम की मोहिनी मूरत की गति अति अद्भुत है । वह सुन्दर ह्रदय में रहती है, तोभी उसका प्रतिबिम्ब – अक्स – सारे जगत में पड़ता है ।
महाकवि नज़ीर कहते हैं –
ये एकताई ये यकरंगी, तिस ऊपर यह क़यामत है।
न कम होना न बढ़ना और हज़ारों घट में बंट जाना।।
ईश्वर एक है और एक रंग है – निर्विकार और अक्षय है; उसमें रूपान्तर नहीं होता और वह घटता-बढ़ता भी नहीं; लेकिन अचम्भे की बात है कि, वह घट-घट में इस तरह प्रकट होता है, जिस तरह एक सूर्य का प्रतिबिम्ब सैकड़ों जलाशयों में दिखाई देता है ।
क्या जीवात्मा और परमात्मा में भी कुछ भेद नहीं है ?
निस्संदेह; जीवात्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है । दोनों में एक ही आत्मा है । जीव की उपाधि अन्तःकरण है और परमेश्वर की उपाधि माया है । जीव की उपाधि छोटी है और परमात्मा की बढ़ी है; इसी से ईश्वर में जो सर्वज्ञता प्रभृति धर्म हैं; जीव में नहीं । गंगा की बढ़ी धरा में नाव और जहाज़ चलते है, हज़ारों मगरमच्छ और करोड़ों मछलियां तैरती हैं तथा किनारे पर लोग स्नान करते हैं । पर वही गङ्गाजल अगर एक गोलास में भर लिया जाय, तो उसमें न तो नाव और जहाज़ होंगे, न मगरमच्छ और मछलियां होंगी और न किनारे पर लोग स्नान करते होंगे । दरअसल, गंगा की बड़ी धरा में जो जल है, व्है जल गिलास में है । वह गंगा का बड़ा प्रवाह है और गिलास में थोड़ा सा जल है । जिस तरह दोनों जलों के एक होने में सन्देह नहीं; उसी तरह जीवात्मा और परमात्मा के एक होने में सन्देह नहीं । सारांश यह कि, जीवात्मा, परमात्मा और समस्त जगत में एक ही ब्रह्म है । जो इस बात कि तह तक पहुँच जाएगा, वह किस से बैर करेगा और किससे प्रीती ? जब तक मनुष्य इस बात को अच्छी तरह नहीं समझ लेता और यही बात उसके दिल पर नक्श हुई नहीं रहती कि, जो आत्मा मेरे शरीर में है वही जगत के और प्राणियों के शरीर में है, तभी तक वह किसी को अपना और किसी को पराया, किसी को अपनी स्त्री और किसी को अपना पुत्र, किसी को शत्रु और किसी को मित्र, किसी को सर्प और किसी को फूलों का हार समझता है; किसी से खुश होता है और किसी से नाराज़, किसी से विरोध करता और किसी से प्रणय । पहले के पहुंचे हुए महात्मा जो सिंहो को अपने आश्रमों में भेद बकरी कि तरह पालते और सर्पों को गले का हार बनाये रहते थे, वह क्या बात है ? और कुछ नहीं, यही बात है, कि वे भीतरी दिल से सिंह में भी और अपने में एक ही आत्मा समझते थे; इसी से वे उनसे डरते नहीं थे और सिंह तथा सर्प प्रभृति हिंसक जीव भी उन्हें कष्ट न पहुंचते थे ।
कैवल्यौपनिषद में लिखा है –
यत्परं ब्रह्म सर्वात्मा, विश्वस्यायतन महत्।
सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरं नित्यं स त्वमेव त्वमेव तत्। ।
जो ब्रह्म सब प्राणियों का आत्मा, सम्पूर्ण विश्व का आधार, सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और नित्य है, वही तुहि है और तू वही है ।
ज्ञानकाण्ड उपनिषत् ही तो वेद का निष्कर्ष और सार है । उसमें सर्वत्र आत्मा को ही ईश्वर कहा है । हमारे वेद ही नहीं, संसार के समस्त धर्मशास्त्र – कुरान और बाइबिल आदि में भी यही बात कही है । कुरान में “ला इलाहा इल्ला अन्ना” यही निचोड़ कहा है, यानी आत्मा के सिवा दूसरा और ईश्वर नहीं है । बाइबिल में भी ईसा मसीह ने कहा है – “Ye are the living temples of God अर्थात चमक ईश्वर के जीवित मंदिर हो; अर्थात “तत्वमसि” । वह तुम हो ।
समदर्शी होने से मोक्ष मिलती है
“समस्त जगत में एक ही ब्रह्म या चेतन आत्मा व्यापक है – इस बात को जाने-समझे बिना, समदर्शी हो नहीं सकता इसी से हमने यह बात विस्तार स समझायी है । अब रही यह बात कि, समदर्शी होने कि क्या जरुरत है ? समदृष्टि होने से क्या लाभ है ? इन प्रश्नों का उत्तर हम संक्षेप में ही दिए देते हैं – समदृष्टि हो जाने से मनुष्य का दुःख और क्लेशों से पीछा छूट जाता है; वर्णनातीत परमानन्द कि प्राप्ति होती है; संसार-बन्धन काट जाता है; आवागमन का झगड़ा मिट जाता है; प्राणी को बारम्बार जन्म लेना और मरना नहीं पड़ता; उस कि मोक्ष हो जाती है और वह परमपद या विष्णुत्व को प्राप्त हो जाता है । स्वामी शंकराचार्य जी महाराज कहते हैं –
शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ, मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ ।
भव समचित्तः सर्वत्र त्वं, वाञ्छस्यचिराद् यदि विष्णुत्वम् ।।
हे मनुष्य ! यदि तू शीघ्र ही मोक्ष या विष्णुत्व चाहता है, तो शत्रु और मित्र, पुत्र और बंधुओं से विरोध और प्रणय मत कर; यानी सब को एक नज़र से देख, किसी में भेद न समझ ।
सार– यदि मोक्ष, मुक्ति या परमानन्द चाहते हो, तो सब जगत में अपने ही आत्मा को देखो, किसी को अपना और किसी को पराया, किसी को शत्रु और किसी को मित्र मत समझो ।
छप्पय
सर्प सुमन को हार, उग्र बैरी अरु सज्जन।
कंचन मणि अरु लोह, कुसुम शय्या अरु पाहन।
तृण अरु तरुणी नारि, सबन पर एक दृष्टी चित।
कहूँ राग नहि रोष, द्वेष कितहुँ न कहुँ हित।।
====🙏🏼इति शतकत्रयम्🙏🏼====
05/08/19, 11:23 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: सम्पूर्ण वैराग्य शतक(दो भागों में)
https://panini-sanskrit.blogspot.com/2019/02/blog-post_27.html?m=1
05/08/19, 11:24 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: https://panini-sanskrit.blogspot.com/2019/07/temp.html?m=1
06/08/19, 11:15 am – Pitambar Shukla: श्री गणेशाय नमः
श्री जानकी वल्लभो विजयते
श्री राम चरित मानस
उत्तर कांड
छोरन ग्रंथि पाव जौं सोई।
तब यह जीव कृतारथ होई।।
छोरत ग्रंथि जानि खगराया।
बिघ्न अनेक करइ तब माया।।
यदि वह ( विज्ञान रूपिणी बुद्धि ) उस गाँठ को खोलने पावे,
तब यह जीव कृतार्थ हो।
परन्तु हे पक्षिराज गरुड़ जी! गाँठ खोलते हुए जानकर माया फिर अनेकों विघ्न करती है ।।117-3।।
रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई ।
बुद्धिहि लोभ देखावहिं आई।।
कल बल छल करि जाहिं समीपा।
अंचल बात बुझावहिं दीपा ।।
हे भाई! वह बहुत सी ऋद्धि- सिद्धियों को भेजती है,
जो आ कर बुद्धि को लोभ दिखाती हैं।
और वे ऋद्धि -सिद्धियां कल ( कला), बल और छल करके समीप जाती और आंचल की वायु से उस ज्ञान रूपी दीपक को बुझा देती है ।।117-4।।
06/08/19, 6:11 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: प्रश्नोत्तरमाला – 31
अहर्निशं किं परिचिन्तनीयं
संसारमिथ्या त्वशिवात्मतत्त्वम् ।
किं कर्म यत्प्रीतिकरं मुरारेः
क्वास्था न कार्या सततं भवाब्धौ । ३१ ।
प्र: रात-दिन विशेषरूप से क्या चिन्तन करना चाहिए ?
उ: संसार का मिथ्यापन और कल्याणरूप परमात्मा का तत्त्व ।
प्र: वास्तव में कर्म क्या है ?
उ: जो भगवान् श्रीकृष्ण को प्रिय हो ।
प्र:सदैव किसमें विश्वास नहीं करना चाहिए ?
उ: संसार-समुद्र में ।
कण्ठङ्गता वा श्रवणङ्गता वा
प्रश्नोत्तराख्या मणिरत्नमाला ।
तनोतु मोदं विदुषां सुरम्यं
रमेशगौरीशकथेव सद्यः । ३२ ।
यह प्रश्नोत्तर नाम की मणिरत्नमाला कण्ठ में या कानो में जाते ही लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु और उमापति भगवान् शंकर की कथा की तरह विद्वानों के सुन्दर आनन्द को बढ़ावे ।
🙏🏼हरि ॐ🙏🏼
इति स्वामी शंकराचार्यकृत प्रश्नोत्तरी
07/08/19, 10:07 am – Abhinandan Sharma: 👏👏 देखिये, सुधाकर जी ने इस ग्रुप के पाठकों को क्या-क्या पढवा दिया ! श्रृंगार शतक, नीति शतक, वैराग्य शतक, शंकराचार्य प्रश्नोत्तरी !!! यही संगत है, साधू की | बहुत बहुत धन्यवाद सुधाकर जी, आपके इतनी मेहनत के लिए अन्यथा वास्तविक जीवन में तो मरने की भी फुर्सत नहीं मिलती लेकिन आपने फोन ही फोन में, इतना कुछ पढवा दिया कि मजा आ गया | पुनः पुनः धन्यवाद |
07/08/19, 10:13 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: 🙏💐
07/08/19, 10:18 am – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: धन्यवाद🙏🙏
07/08/19, 10:28 am – Pitambar Shukla: 🙏🙏🙏🙏
07/08/19, 10:31 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
मनुस्मृति
🙏द्वितीय अध्याय🙏
गोऽश्वोष्ट्रयानप्रासाद प्रस्तरेषु कटेषु च ।
आसीत गुरुणा सार्धं शिलाफलकनौषु च । । २.२०४ । ।
गुरोर्गुरौ सन्निहिते गुरुवद्वृत्तिं आचरेत् ।
न चानिसृष्टो गुरुणा स्वान्गुरूनभिवादयेत् । । २.२०५ । ।
विद्यागुरुष्वेवं एव नित्या वृत्तिः स्वयोनिषु ।
प्रतिषेधत्सु चाधर्माद्धितं चोपदिशत्स्वपि । । २.२०६ । ।
श्रेयःसु गुरुवद्वृत्तिं नित्यं एव समाचरेत् ।
गुरुपुत्रेषु चार्येषु गुरोश्चैव स्वबन्धुषु । । २.२०७ । ।
बालः समानजन्मा वा शिष्यो वा यज्ञकर्मणि ।
अध्यापयन्गुरुसुतो गुरुवन्मानं अर्हति । । २.२०८ । ।
अर्थ
बैल,घोड़ा,ऊंट आदि की सवारी पर मकान की छत पर,चटाई, शिला,पाटा, व नाव पर गुरु के साथ बैठने का निषेध नहीं है। गुरु के गुरु समीप आवे तो गुरु के समान व्यवहार करें। गुरु की आज्ञा बिना अपने माता-पिता को भी प्रणाम ना करें।
विद्या गुरु पिता आदि,अधर्म से बचाने वाले,हितैषी इन से गुरु के समान व्यवहार करें। विद्या,तप से श्रेष्ठ,अपने से बड़ा सदाचारी, गुरुपुत्र व गुरु सम्बन्धी इन से भी गुरु के समान व्यवहार करना चाहिए। गुरुपुत्र अपने से छोटा या समान अवस्था का, या यज्ञकर्म में शिष्य हो तब भी वेद का अध्यापक होने से गुरु तुल्य मान्य होता है।।
हरी ॐ
🙏
07/08/19, 10:38 am – Abhinandan Sharma: पंगु कौन है और तीर्थ क्या है ? ये प्रश्न आया क्या ?
07/08/19, 10:51 am – LE Onkar A-608: कुलं पवित्रं जननी कृतार्था, वसुन्धरा पुण्यवती च तेन।
अपारसंवित्सुखसागरेऽस्मिँल्लीनंपरेब्रह्मणियस्य चेतः।
वेदान्त-सिद्धान्त मुक्तावली
जिसका मन उस अपार सच्चिदानंद समुद्र परब्रह्म में लीन हो गया है उसका कुल पवित्र हो जाता है, माता कृतकृत्य हो जाती है और उसके कारण पृथ्वी भी पुण्यवती हो जाती है।
07/08/19, 10:59 am – FB Mrudul Tiwari Allahabad Shastra Gyan: 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
07/08/19, 11:04 am – Dayadhankr Soryvanshi Hts, Akhilesh Frnd: 💐💐👏🏻👏🏻
07/08/19, 11:39 am – Pitambar Shukla: श्री गणेशाय नमः
श्री जानकी वल्लभो विजयते
श्री राम चरित मानस
उत्तर कांड
होइ बुद्धि जौं परम सयानी।
तिन्ह तन चितव न अनहित जानी।।
जौं तेहि बिघ्न बुद्धि नहिं बाधी।
तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी।।
यदि बुद्धि बहुत ही सयानी हुई,
तो वह उन (ऋद्धि -सिद्धियों) को अहित कर ( हानिकर ) समझ कर उनकी ओर ताकती नहीं।
इस प्रकार यदि माया के विघ्नों से बुद्धि को बाधा न हुई,
तो फिर देवता उपाधि( विघ्न ) करते हैं।।117-5।।
इंद्री द्वार झरोखा नाना।
तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना।।
आवत देखहिं बिषय बयारी।
ते हठि देहिं कपाट उघारी।।
इंद्रियों के द्वार हृदय रूपी घर के अनेकों झरोखे हैं।
वहाँ -वहाँ(प्रत्येक झरोखे पर) देवता थाना किए ( अड्डा जमा कर ) बैठे हैं।
ज्यों ही वे विषय रूपी हवा को आते देखते हैं त्यों ही हठ पूर्वक किवाड़ खोल देते हैं।।117-6।।
07/08/19, 1:11 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: तीर्थ क्या है? ये प्रश्न आया था
पंगु नहीं पर अँधा और बहरा कौन है? यह प्रश्न भी आया था।
07/08/19, 5:58 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👆🏼
07/08/19, 6:00 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👆🏼
07/08/19, 11:28 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक ९०,९१
शीर्णवृन्तं तु सक्षारं पित्तलं कफवातजित्॥९०॥
रोचनं दीपनं हृद्यमष्ठीलाऽऽनाहनुल्लघु।
शीर्णवृन्त-फलशाक- शीर्णवृन्त(जो शाकफल अपने डण्ठल से अलग हो गया हो) शाक कुछ खारापन, पित्तकारक, कफदोष तथा वातदोष का विनाशक, रुचिकारक, जठराग्निदीपक तथा हृदय के लिए हितकर होता है। यह वातिष्ठीला तथा आनाह(आफरा) रोगों का विनाशक एवं लघु होता है।
वक्तव्य- यहां शीर्णवृन्त शब्दझ से भलीभांति पके हुए फल का ग्रहण करना चाहिए। जैसा कि सुश्रुत ने कहा है– ‘शुक्लं लघुष्णम् सक्षारं दीपनं बस्तिशोधनम्’ (सु.सू. ४६/२१३) श्री अरुणदत्त अपनी व्याख्या में कहते है– शीर्णवृन्तं=कर्चूरम।
शीर्णवृन्त- यहां इस नाम से एक शाक विशेष का वर्णन किया गया है। ‘वृ्न्त’ शब्द का प्रयोग— फल तथा वृक्ष या लता से जुड़े हुए भाग को डण्ठी या डण्ठल कहते है। ‘शीर्ण’ का अर्थ है गला हुआ। प्रायः सब फलो के वृन्य पकने पर गल या झड़ जाते है , किन्तु लाल कुम्हड़ा या सीताफल या कद्दू नाम का एक लताफल ऐसा भी होता है, जिसका वृन्त पकने पर भी अलग नहीं होता। इसे अंग्रेजी में red gaurd कहते है जिसका अर्थ होता है लाल कुम्हड़ा। वाग्भट ने श्लोक ८८ में जिस कुष्मांड का वर्णन किया है वह पेठे की मिठाई वाला है।
मृणालबिसशालूककुमुदोत्पलकन्दकम्॥९१॥
नन्दीमाषककेलूटश्रृङ्गाटककसेरुकम्। क्रौञ्चादनं कलोड्यं च रुक्षं ग्राही हिमम् गुरु॥९२॥
मृणाल आदि का वर्णन- मृणाल(कमलनाल) , बिस(कमल की जड़ – भसौंडा), शालूक(कमलकन्द), कुमुद(कुई) एवं उत्पल के कन्द, नन्दी(तुण्डीकेरी), माषक(वास्तूल), केलूट(किस्मक नामक उदुम्बर भेद) , श्रृंगाटक(सिंघाड़ा), कसेरु, क्रौञ्चादन (मृणाल, पिप्पली, धेञ्चुलक, चिञ्चोटक) और कलोड्य(पद्य्मबीज)— ये सभी द्रव्य रुक्ष, ग्राही (मल को बांधने वाले), शीतवीर्य एवं गुरु (देर से पचने वाले) होते है।
07/08/19, 11:31 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙏🏼🙏🏼
08/08/19, 11:23 am – Pitambar Shukla: श्री गणेशाय नमः
श्री जानकी वल्लभो विजयते
श्री राम चरित मानस
उत्तर कांड
जब सो प्रभंजन उर गृहँ जाई।
तबहिं दीप बिग्यान बुझाई।।
ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा।
बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा।।
ज्यों ही वह तेज हवा हृदय रूपी घर में जाती है,
त्यों ही वह विज्ञान रूपी दीपक बुझ जाता है ।
गाँठ भी नहीं छूटी और वह (आत्मानुभव रूप ) प्रकाश भी मिट गया।
विषय रूपी हवा से बुद्धि व्याकुल हो गई ( सारा किया कराया चौपट हो गया ) ।।117-7।।
इंद्रिन्ह सुरन्ह न ज्ञान सोहाई।
बिषय भोग पर प्रीति सदाई।।
बिषय समीर बुद्धि कृत भोरी।
तेहि बिधि दीप को बार बहोरी।।
इन्द्रियों और उनके देवताओं को ज्ञान ( स्वाभाविक ही ) नहीं सुहाता;
क्योंकि उनकी विषय – भोगों में सदा ही प्रीति रहती है।
और बुद्धि को भी विषय रूपी हवा ने बावली बना दिया ।
तब फिर ( दुबारा ) उस ज्ञान दीपक को उसी प्रकार से कौन जलाए।।117-8।।
08/08/19, 11:00 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक ९३,९४,९५
कलम्बनालिकामार्षकुटिञ्जरकुतुम्कम। चिल्लीलट्वाकलोणीकाकुरूटकगवेधुकम॥९३॥
जीवन्तझुञ्झ्वेडगजयवशाकसुवर्चलाः। आलुकानि च सर्वाणि तथा सूप्यानि लक्ष्मणम्॥९४॥
स्वादु रुक्षं सलवणं वातश्लेष्मकरं गुरु। शीतलं सृष्टविण्मूत्रं प्रायो विष्टभ्य जीर्यति॥९५॥
स्विन्नं निषपीडितरसं स्नेहाढ्यं नातिदोषलम्।
कलम्ब आदि का वर्णन- कलम्ब(कदम्ब या करेमू), नालिका(नालीशाक), मार्ष(मरसा), कुटिञ्जर(ताम्रमूलक या तन्दूलक), कुतुम्बक(द्रोणपुष्पी- गूमा), चिल्ली(क्षारपत्रक शाक, लाल बथुआ), लट्वाक(गुग्गुलशाक), लोणीका(लोणार, सलूनक, कुलफा), कुरुटक (स्थितिवारक, शितिवारी), गवेधुक (तृणधान्य), जीवन्त (जीवन्ती), झुञ्झु (चुच्चु), ऐडगज (चकवड), यवशाक (छोटे पत्तो वाली चिल्ली या जौ के कोमल पत्ते), सुवर्चल (हुलहुल), सभी प्रकार के आलू, सभी प्रकार के वे अन्न जिनकी दाले बनायी जाती है (जैसे- चना, अरहर, मूंग, उड़द, मसूर, कुलथी आदि) और लक्ष्मण(मुलेठी के पत्ते)— उपर्युक्त सभी शाक स्वाद में मधुर, रुक्ष, लवणरसयुक्त, वात तथा कफ कारक, देर में पचने वाले शीतवीर्य, मल-मूत्र निकालने वाले और प्रायः ये देर से पचते है। यदि इन्हें उबालकर इनका रस निचोड़कर घी या तेल मे भलीभांति भूंज लिया जाता है, तो ये दोषकारक नहीं होते।
लघुपत्रा तु या चाल्ली सा वास्तकसमा मता॥९६॥
चिल्लीशाक का वर्णन- चिल्ली नामक शाक दो प्रकार का होता है– १. बड़े पत्ते वाला, २. छोटे पत्ते वाला । इनमें से दूसरे के गुण धर्म बथुआ के समान होते हैं।
09/08/19, 10:21 am – Sachin Tyagi Shastra Gyan:
09/08/19, 10:36 am – LE Onkar A-608: इस ग्रुप में सन्देश अग्रेषित करना वर्जित है।
09/08/19, 11:06 am – Pitambar Shukla: श्री गणेशाय नमः
श्री जानकी वल्लभो विजयते
श्री राम चरित मानस
उत्तर कांड
तब फिरि जीव बिबिधि बिधि
पावइ संसृति क्लेस।
हरि माया अति दुस्तर तरि न जाइ बिहगेस।।
( इस प्रकार ज्ञान दीपक के बुझ जाने पर)
तब फिर जीव अनेकों प्रकार के संसृति (जन्म -मरणादि) के क्लेश पाता है।
हे पक्षिराज! हरि की माया अत्यन्त दुस्तर है,
वह सहज ही में नही तरी जा सकती ।।118-क।।
कहत कठिन समुझत कठिन
साधत कठिन बिबेक।
होइ घुनाच्छर न्याय जौं
पुनि प्रत्यूह अनेक।।
ज्ञान कहने( समझाने) में कठिन,
समझने में कठिन और साधने में भी कठिन है ।
यदि घुणाक्षर न्याय से( संयोग वश) कदाचित् यह ज्ञान हो भी जाय,
तो फिर ( उसे बचाए रखने में) अनेकों विघ्न हैं।।118-ख।।
09/08/19, 4:16 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙏🏼
09/08/19, 5:09 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
मनुस्मृति
द्वितीय अध्याय
उत्सादनं च गात्राणां स्नापनोच्छिष्टभोजने ।
न कुर्याद्गुरुपुत्रस्य पादयोश्चावनेजनम् । । २.२०९ । ।
गुरुवत्प्रतिपूज्याः स्युः सवर्णा गुरुयोषितः ।
असवर्णास्तु सम्पूज्याः प्रत्युत्थानाभिवादनैः । । २.२१० । ।
अभ्यञ्जनं स्नापनं च गात्रोत्सादनं एव च ।
गुरुपत्न्या न कार्याणि केशानां च प्रसाधनम् । । २.२११ ।
अर्थ
गुरु के समान गुरुपुत्र के पैर दबाना,
तैल मलना,स्नान कराना, जूँठा खाना इत्यादि काम नही करना चाहिए। गुरुस्त्री यदि सजातीय हो, तो गुरु समान पूज्य है। नहीं तो उसको उठ कर प्रणाम करते यही सेवा है। तैल मलना,स्नान कराना,शरीर दाबना, फूलों से बाल गूँथना,ये कार्य गुरुस्त्री के नहीं करना चाहिए।।
10/08/19, 9:29 am – Abhinandan Sharma: ये पढ़ने में जितना आसान है, करने में उतना ही कठिन । यही योग का की प्रोसेस है । इसे समझना चाहिए ।
10/08/19, 9:32 am – Abhinandan Sharma: बस इतना ही ? इसके आगे नहीं है ?
10/08/19, 9:34 am – Abhinandan Sharma: कुष्मांड माने लौकी ?
10/08/19, 9:34 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: जितना था सब लिख दिया 🙂
10/08/19, 9:40 am – Abhinandan Sharma: अद्भुत । समदृष्टि पर बेहतरीन आख्यान ।
10/08/19, 9:45 am – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad: कोई बता सकते हैं महर्षि पाणिनी का व्याकरण हिन्दी भाषा टीका सहित किस प्रकाशक से प्राप्त किया जा सकता है. बता दूं कि चौखम्भा में नहीं था.
10/08/19, 9:45 am – Vaidya Ashish Kumar: नही सर,जिससे पेठा बनता है,कद्दू से छोटा
10/08/19, 9:45 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: इसके आगे टीकाकार ने प्रश्नोत्तर दिए हैं जिनके उत्तर बहुत ही सटीक और सुन्दर हैं, आज्ञा हो तो वो भी पढ़ लिए जाएँ ❓
10/08/19, 9:45 am – Vaidya Ashish Kumar: किडनी रोगों में कुष्मांड बहुत उपयोगी है।
10/08/19, 9:47 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: जितना मुझे पता है, भट्टोजी दीक्षित की लघुसिद्धांतकौमुदी से अच्छा कुछ नहीं हो सकता। बाकी @919911340906 ज्यादा अच्छा बता पाएंगे ।
10/08/19, 10:37 am – Abhinandan Sharma: गोल वाला ?
10/08/19, 10:38 am – Abhinandan Sharma: जरूर
10/08/19, 11:24 am – Pitambar Shukla: श्री गणेशाय नमः
श्री जानकी वल्लभो विजयते
श्री राम चरित मानस
उत्तर कांड
ग्यान पंथ कृपान कै धारा ।
परत खगेस होइ नहिं बारा।।
जो निर्बिघ्न पंथ निर्बहई।
सो कैवल्य परम पद लहई।।
ज्ञान का मार्ग कृपाण (दुधारी तलवार ) की धार के समान है।
हे पक्षिराज! इस मार्ग से गिरते देर नहीं लगती ।
जो इस मार्ग को निर्विघ्न निबाह ले जाता है,
वही कैवल्य ( मोक्ष) रूप परम पद को प्राप्त करता है ।।118-1।।
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद।
संत पुरान निगम आगम बद।।
राम भजत सोइ मुकुति गोसाईं।
अनइच्छित आवइ बरिआईं।।
संत, पुराण, वेदऔर ( तन्त्र आदि) शास्त्र ( सब) यह कहते हैंकि कैवल्य रूप परम पद अत्यंत दुर्लभ है;
किन्तु हे गोसाईं! वही( अत्यंत दुर्लभ) मुक्ति श्रीराम जी को भजने से बिना इच्छा किये भी जबरदस्ती आ जाती है ।।118-2।।
10/08/19, 11:41 am – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: पाणिनि की अष्टाध्यायी के लगभग २००० सूत्र हमे किसी ने भेजे थे। आपको प्रेषित कर रहे हैं।
10/08/19, 11:43 am – Shastragyan Abhishek Sharma: नहीं पेठे वाला कद्दू । आगे बताया गया है।🙏🏻
10/08/19, 12:45 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: हमारे यंहा रखिया कहते है
10/08/19, 1:03 pm – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad:
10/08/19, 1:04 pm – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad:
10/08/19, 1:05 pm – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad:
10/08/19, 1:05 pm – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad: कुम्हड़ा
10/08/19, 1:28 pm – Vaidya Ashish Kumar: ✅🙏🏻🙏🏻
10/08/19, 1:47 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar:
10/08/19, 2:18 pm – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad: हां, यह कद्दू है
10/08/19, 2:25 pm – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad: जी, बहुत-बहुत धन्यवाद! पुस्तक रुप में प्राप्त होता, तो अच्छा था. चौखम्भा में नहीं थी.
🙏🏽🙏🏽
10/08/19, 2:26 pm – Shasta Gyan Gaurav Gautam Lucknow left
10/08/19, 2:31 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: जी जो आपको भेजा है संस्कृत के एक आचार्य ने हमे भेजा था। किंतु हमारी समझ से परे था। सो संग्रहित कर लिया। आपके काम में आया हमारा संग्रहण सफल हो गया।
10/08/19, 10:54 pm – FB Rajesh Kr Mishra Sapt:
10/08/19, 10:55 pm – FB Rajesh Kr Mishra Sapt:
11/08/19, 11:08 am – Pitambar Shukla: श्री गणेशाय नमः
श्री जानकी वल्लभो विजयते
श्री राम चरित मानस
उत्तर कांड
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई।
कोटि भाँति कोउ करै उपाई।।
तथा मोच्छ सुख सुनु खग राई।
रहि न सकइ हरि भगति बिहाई ।।
जैसे स्थल के बिना जल नहीं रह सकता,
चाहे कोई करोड़ों प्रकार के उपाय क्यों न करे।
वैसे ही हे पक्षिराज! सुनिये,
मोक्ष सुख भी श्री हरि को छोड़कर नहीं रह सकता ।।118-3।।
अस बिचारि हरि भगत सयाने।
मुक्ति निरादर भगति लुभाने।।
भगति करत बिनु जतन प्रयासा।
संसृति मूल अबिद्या नासा।।
ऐसा विचार कर बुद्धिमान हरि भक्त पर लुभाए रह कर मुक्ति का तिरस्कार कर देते हैं।
भक्ति करने से संसृति( जन्म मृत्यु रूप संसार) की जड़ अविद्या बिना ही यत्न और परिश्रम के ( अपने आप ) वैसे ही नष्ट हो जाती है,।।118-4।।
11/08/19, 2:01 pm – Abhinandan Sharma: शास्त्र ज्ञान सत्र 37 लाइव
https://youtu.be/m8ylFb3XHHE
11/08/19, 3:04 pm – Abhinandan Sharma: कोई प्रश्न ?
11/08/19, 9:17 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक ९६,९७,९८
तर्कारी वरूणं साधु सतिक्तम् कफ वातजित्। वर्षाभ्वौ कालशाकं च सक्षारं कटुतिक्तकम्॥९७॥
दीपनं भेदनं हन्ति गरशोफकफानिलान्। दीपनाः कफवातघ्नाश्चिरिबिल्वाङ्कुराः सराः॥९८॥
तर्कारी शाक आदि का वर्णन- तर्कारी(अरणी) तथा वरणा के कोमल पत्तो एवं फलों का शाक स्वाद में मधुर कुछ तीतापन युक्त होता है। ये दोनों कफदोष तथा वातदोष नाशक होते है।
पुनर्नवा तथा कालशाक- दोनों प्रकार की (छोटी एवं बड़ी) पुनर्नवाओं का तथा कालशाक (काला मरसा का शाक) कुछ खारा, स्वाद मे कुछ कटु एवं कुछ तिक्त रस वाला होता है। ये दोनों शाक जठराग्नि को प्रदिप्त करते हैं, मल का भेद करके उसे निकालते है। दूषिविष, शोफ(सूजन), कफदोष तथा वातदोष का विनाश करते हैं।
करञ्ज का शाक- करंज के कोमल पत्तों या अंकुरो का शाक जठराग्नि को प्रदिप्त करने वाला, कफ एवं वातनाशक होता है और मल की रुकावट को दूर करता है।
शतवर्यङ्कुरास्तिक्ता वृष्या दोषत्रयापहाः। रूक्षो वंशकरीरस्तु विदाही वातपित्तलः॥९९॥
शतावरी के अंकुरो का शाक- यह स्वाद में हल्का तिक्तरस वाला, वीर्यवर्द्धक तथा तीनो दोषों का विनाशक होता है।
वक्तव्य-* शतावरी या शतावर वृष्य (वीर्यवर्द्धक) औषधों मे उत्तम है। नैनीताल तथा अल्मोड़ा आदि पर्वतीय क्षेत्रों में यह पर्याप्त मात्रा में पायी जाती है। इसके अंकुरो को पर्वतीय भाषा में “कैंरुआ” भी कहा जाता है। यह चैत्र मास के अंतिम दिनों से आषाढ़ मास तक अधिक मात्रा में निकलते रहते हैं। आरंभ मे ये दो-चार दिनों तक सुकोमल होते है। इनका संग्रह कर छोटे छोटे टुकड़े काटकर सब्जी बना ली जाती है। इसे रोटी के साथ खाया जाता है। यह पोष्टिक तथा रुचिवर्धक होती है। यह अंकुरशाक है।
वंशकरीर का शाक- बांस के नये अंकुरो का शाक– शतावरी के अंकुरो की भांति बांस के भी अंकुर निकलते हैं, इनका भी शाक, आचार तथा मुरब्बा बनाया जाता है। नेपाल में इसके आचार का अत्यन्त प्रचार है, वहां इसे तामा” कहते है। इसके गुण- यह रुक्ष, विदाहकारक तथा वातपित्तकारक होता है।
11/08/19, 10:54 pm – LE Onkar A-608: अरणी तथा वरना दोनो ही समझ में नहीं आए।
आज ज्ञात हुआ कि तर्कारी एक शाक विशेष है, इससे पहले मैं यह समझता था कि तरकारी का मतलब सब्जी होता है।
सब्जी मतलब जो सब्ज हो।
12/08/19, 9:06 am – Shastragyan Abhishek Sharma:
12/08/19, 9:06 am – Shastragyan Abhishek Sharma:
12/08/19, 9:16 am – Shastragyan Abhishek Sharma:
12/08/19, 9:16 am – Shastragyan Abhishek Sharma:
12/08/19, 9:17 am – Shastragyan Abhishek Sharma:
12/08/19, 9:17 am – Shastragyan Abhishek Sharma:
12/08/19, 9:33 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
मनुस्मृति
द्वितीय अध्याय
गुरुपत्नी तु युवतिर्नाभिवाद्येह पादयोः ।
पूर्णविंशतिवर्षेण गुणदोषौ विजानता । । २.२१२ । ।
स्वभाव एष नारीणां नराणां इह दूषणम् ।
अतोऽर्थान्न प्रमाद्यन्ति प्रमदासु विपश्चितः । । २.२१३ । ।
अविद्वांसं अलं लोके विद्वांसं अपि वा पुनः ।
प्रमदा ह्युत्पथं नेतुं कामक्रोधवशानुगम् । । २.२१४ । ।
मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् ।
बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसं अपि कर्षति । । २.२१५ । ।
कामं तु गुरुपत्नीनां युवतीनां युवा भुवि ।
विधिवद्वन्दनं कुर्यादसावहं इति ब्रुवन् । । २.२१६ । ।
अर्थ
पूरे बीस साल का जवान व भला बुरा जानने वाला शिष्य जवान गुरुस्त्री के पैर छू कर प्रणाम ना करे, सदा दूर से ही प्रणाम करे।
यह स्त्रियों का स्वभाव होता है कि पुरुषों को दोष लगा देना।। इसलिए बुद्धिमान सदा स्त्रियों से सावधान रहते हैं। संसार में पुरुष पण्डित हो या मूर्ख,उसको काम क्रोध मोह के वश कुमार्ग में ले जाने को स्त्रियां बड़ी समर्थ होती हैं।
माता ,बहन, व लड़की के साथ भी एकांत में ना बैठें। क्योंकि इंद्रियां ऐसी प्रबल है कि विद्वान के मन को भी खींच लेती है। यदि इच्छा हो तो युवा शिष्य युवती गुरुपत्नी को दूर से मैं अमुक हूँ कहकर प्रणाम कर लेवे।।
🙏 हरी ॐ 🙏
12/08/19, 10:28 am – Pitambar Shukla: श्री गणेशाय नमः
श्री जानकी वल्लभो विजयते
श्री राम चरित मानस
उत्तर कांड
भोजन करिअ तृपिति हित लागी।
जिमि सो असन पचवै जठरागी।।
असि हरि भगति सुगम सुखदाई ।
को अस मूढ़ न जाहि सोहाई।।
जैसे भोजन किया तो जाता है तृप्ति के लिए और उस भोजन को जठराग्नि अपने -आप ( बिना हमारी चेष्टा के ) पचा डालती है,
ऐसी सुगम और परम सुख देने वाली हरि भक्ति जिसे न सुहावे, ऐसा मूढ़ कौन होगा? 118-5।।
सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि।
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि।।
हे सर्पों के शत्रु गरुड़ जी!
मैं सेवक हूंऔर भगवान् मेरे सेव्य ( स्वामी ) हैं,
इस भाव के बिना संसार रूपी समुद्र से तरना नहीं हो सकता ।
ऐसा सिद्धांत विचार कर श्री रामचन्द्रजी के चरण कमलों का भजन कीजिए ।।119-क।।
12/08/19, 12:59 pm – Shastra Gyan Ranjana Prakash: This message was deleted
12/08/19, 5:46 pm – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: This message was deleted
12/08/19, 5:46 pm – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: This message was deleted
12/08/19, 8:10 pm – +91 88880 18360 joined using this group’s invite link
13/08/19, 8:29 am – Abhinandan Sharma:
13/08/19, 8:36 am – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: 🙏🙏
13/08/19, 8:36 am – Ghaziabad Shastra Gyan Pushpa: 🙏
13/08/19, 8:37 am – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: 🙏🏻🙏🏻🙏🏻
13/08/19, 8:46 am – Shyam Sunder Fsl: 🙏
13/08/19, 10:12 am – Poonam Goyal Delhi Artist Shastra Gyan: 👌
13/08/19, 10:54 am – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad: बहुत ही सुंदर
👌👌👌
13/08/19, 11:03 am – Pitambar Shukla: श्री गणेशाय नमः
श्री जानकी वल्लभो विजयते
श्री राम चरित मानस
उत्तर कांड
जो चेतन को जड़ करइ
जड़हि करइ चैतन्य ।
अस समर्थ रघुनायकहि
भजहिं जीव ते धन्य।।
जो चेतन को जड़ कर देता है और जड़ को चेतन कर देता है, ऐसे समर्थ श्री रघुनाथजी को जो जीव भजते हैं,
वे धन्य है ।।119-ख।।
कहेउँ ज्ञान सिद्धांत बुझाई ।
सुनहु भगति मनि कै प्रभुताई ।।
राम भगति चिंतामनि सुंदर ।
बसइ गरुड़ जाके उर अंतर।।
मैंने ज्ञान का सिद्धांत समझा कर कहा।
अब भक्ति रूपी मणि की प्रभुता( महिमा ) सुनिए ।
श्री राम जी की भक्ति सुन्दर चिन्ता मणि है।
हे गरुड़ जी! यह जिसके हृदय के अन्दर बसती है,।।119-1।।
परम प्रकास रूप दिन राती।
नहिं कछु चहिअ दिया घृत बाती।।
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा।
लोभ बात नहिं ताहि बुझावा।।
वह दिन -रात ( अपने -आप ही) परम प्रकाश रूप रहता है ।
उसको दीपक, घी और बत्ती कुछ भी नही चाहिए ।
( इस प्रकार मणि का एक तो स्वाभाविक प्रकाश रहता है)
फिर मोह रूपी दरिद्रता समीप नहीं आती ( क्योंकि मणि स्वयं धन रूप है);
और ( तीसरे ) लोभ रूपी हवा उस मणिमय दीप को बुझा नहीं सकती,
( क्योंकि मणि स्वयं प्रकाश रूप है, वह किसी दूसरे की सहायता से नही प्रकाश करती) ।।119-2।।
13/08/19, 11:19 am – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad: ये तो शतावरी ही जान पड़ता है. बांस कोपल सफेद होता है.
13/08/19, 12:29 pm – Vaidya Ashish Kumar: 💐💐
13/08/19, 12:30 pm – Vaidya Ashish Kumar: बहुत बढ़िया अभिषेक जी💐💐
13/08/19, 2:41 pm – You added Omprakash Singh LE C-105
13/08/19, 2:42 pm – Omprakash Singh LE C-105: धन्यवाद🙏🙏
13/08/19, 8:34 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: ॐ श्रीगणेशाय नमः
वाचस्पतिमिश्रकृत सांख्यतत्त्व कौमुदी
व्याख्याकार – पं श्री ज्वालाप्रसाद गौड़
अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां नमामः।
अजा ये तां जुषमाणां भजन्ते जहात्येनां भुक्तभोगां नुमस्तान्।। १ ।।
अर्थ:
हम इस चराचर विश्वरूप बहुत सी प्रजाओं की सृष्टि करनेवाली, नित्य, एक रजोगुण, सत्वगुण, तमोगुणात्मिका अर्थात त्रिगुणात्मिका प्रकृति को नमस्कार करते हैं और उन पुरुषों को भी हम नमस्कार करते हैं, जो पुरुष भी नित्य तथा अनादि हैं; एवं शब्दादि विषय सम्बन्धी उपभोगों को प्रदान करनेवाली उस प्रकृति को भजते हैं तथा अन्त में भुक्तभोग इस प्रकृति को अनात्म वास्तु समझकर छोड़ देते हैं ।
कपिलाय महामुनये मुनये शिष्याय तस्य चासुराये ।
पञ्चशिखाय तथेश्वरकृष्णायैते नमस्येमाः ।। २ ।।
अर्थ:
इसके पश्चात हम महामुनि कपिल एवं उनके शिष्य मुनि आसुरि तथा आसुरि के शिष्य पञ्चशिख और ईश्वरकृष्ण, इनको भी हम नमस्कार करते हैं ।
13/08/19, 9:37 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: 🙏😌
13/08/19, 9:40 pm – Sachin Tyagi Shastra Gyan: कोटि जन्म तोहे मरतां होगे, कुछ नहीं हाथ लगा रे।
कुकर-सुकर खर भया बौरे, कौआ हँस बुगा रे।।(1)
कोटि जन्म तू राजा किन्हा, मिटि न मन की आशा।
भिक्षुक होकर दर-दर हांड्या, मिल्या न निर्गुण रासा।।(2)
जब तक यथार्थ आध्यात्मिक ज्ञान नहीं होता तो जन-साधारण की धारणा होती है कि:-
1) बड़ा होकर पढ़-लिखकर अपने निर्वाह की खोज करके विवाह कराकर परिवार पोषण करेंगे। बच्चों को उच्च शिक्षा तक पढ़ाऐंगे। फिर उनको रोजगार मिल जाए। उनका विवाह करेंगे। परमात्मा संतान को संतान दे। फिर हमारा कर्तव्य पूरा हुआ। कई बार गाँव या गवांड (पड़ौसी गाँव) के वृद्ध इकट्ठे होते तो आपस में कुशल-मंगल जानते तो एक ने कहा कि परमात्मा की कृपा से दो लड़के तथा दो लड़की हैं। कठिन परिश्रम करके पाला-पोसा तथा पढ़ाया, विवाह कर दिया। सब के सब बेटा-बेटियों वाले हैं। मेरा कार्य पूर्ण हुआ। 75 वर्ष का हो गया हूँ। अब बेशक मौत हो जाए, मेरा जीवन सफल हुआ। वंश बेल चल पड़ी, संसार में नाम रहेगा।
विवेचन:- उपरोक्त प्रसंग में जो भी प्राप्त हुआ, वह पूर्व निर्धारित संस्कार ही प्राप्त हुआ, नया कुछ नहीं मिला।
एक व्यक्ति का विवाह हुआ। संतान रूप में बेटी हुई। मानव समाज की धारणा रही है कि पुत्रा नहीं है तो उसका वंश नहीं चलता। (परंतु आध्यात्मिक ज्ञान की दृष्टि से पुत्रा-पुत्राी में कोई अंतर नहीं माना जाता) आशा लगी कि दूसरा पुत्र तो बेटा होगा। दूसरी भी लड़की हुई। फिर आशा लगी कि परमात्मा तीसरा तो पुत्रा दे। परंतु तीसरी भी लड़की हुई। इस प्रकार कुल पाँच बेटियाँ हुई। पुत्रा का जन्म हुआ ही नहीं। इस उदाहरण से स्पष्ट होता है कि न तो मानव का चाहा हुआ और न किया हुआ। जो कुछ हुआ, संस्कारवश ही हुआ। यह परमेश्वर का विधान है। मानव शरीर प्राप्त प्राणी को वर्तमान जन्म में पूर्ण संत से दीक्षा लेकर भक्ति करनी चाहिए तथा पुण्य-दान, धर्म तथा शुभ कर्म अवश्य करने चाहिऐं, अन्यथा पूर्व जन्म के पुण्य मानव जीवन में खा-खर्च कर खाली होकर परमात्मा के दरबार में जाएगा। फिर पशु आदि के जीवन भोगने पड़ेंगे।
जैसे किसान अपने खेत में गेहूँ, चना आदि बीजता है। फिर परिश्रम करके उन्हें परिपक्व करके घर लाकर अपने कोठे (कक्ष) में भर लेता है। यदि वह पुनः बीज बो कर फसल तैयार नहीं करता है और पूर्व वर्ष के गेहूँ व चने को खा-खर्च रहा है तो वर्तमान में तो उसे कोई आपत्ति नहीं आएगी क्योंकि पूर्व वर्ष के गेहूँ-चना शेष है, परंतु एक दिन वह पूर्व वाला संग्रह किया अन्न समाप्त हो जाएगा और वह किसान परिवार भिखारी हो जाएगा। ठीक इसी प्रकार मानव शरीर में जो भी प्राप्त
हो रहा है, वह पूर्व के जन्मों का संग्रह है। यदि वर्तमान में शुभ कर्म तथा भक्ति नहीं की तो भविष्य का जीवन नरक हो जाएगा।
अध्यात्म ज्ञान होने के पश्चात् मानव बुद्धिमान किसान की तरह प्रतिवर्ष प्रत्येक मौसम में दान-धर्म, स्मरण रूपी फसल बोएगा तथा अपने घर में संग्रह करके खाएगा तथा बेचकर अपना खर्च भी चलाएगा यानि पूर्ण गुरू जी से दीक्षा लेकर उनके बताए अनुसार साधना तथा दान-धर्म प्रति समागम में करके भक्ति धन को संग्रह करेगा। इसलिए परम संत मानव को जीने की राह बताता है। उसका आधार सत्य आध्यात्मिक ज्ञान सर्व ग्रन्थों से प्रमाणित होता है।
जैसा कि पूर्वोक्त प्रसंग में एक वृद्ध ने बताया कि सर्व संतान का पाल-पोसकर विवाह कर दिया। मेरे मानव जीवन का कार्य पूरा हुआ, मेरा जीवन सफल हुआ। अब बेशक मौत आ जाए। विचारणीय विषय है कि उसने तो पूर्व का जमा ही खर्च कर दिया, भविष्य के लिए कुछ नहीं किया। जिस कारण से उस व्यक्ति का मानव जीवन व्यर्थ गया।
कबीर जी ने कहा है कि:-
क्या मांगुँ कुछ थिर ना रहाई। देखत नैन चला जग जाई।।
एक लख पूत सवा लख नाती। उस रावण कै दीवा न बाती।।
भावार्थ:- यदि एक मनुष्य एक पुत्रा से वंश बेल को सदा बनाए रखना चाहता है तो यह उसकी भूल है। जैसे श्रीलंका के राजा रावण के एक लाख पुत्रा थे तथा सवा लाख पौत्रा थे। वर्तमान में उसके कुल (वंश) में कोई घर में दीप जलाने वाला भी नहीं है। सब नष्ट हो गए। इसलिए हे मानव! परमात्मा से यह क्या माँगता है जो स्थाई ही नहीं है। यह अध्यात्म ज्ञान के अभाव के कारण पे्ररणा बनी है। परमात्मा आप जी को आपका संस्कार देता है। आपका किया कुछ नहीं हो रहा। उस वृद्ध की बात को मानें कि पुत्रा के होने से वंश वृद्धि होने से संसार में नाम बना रहता है। एक गाँव में प्रारम्भ में चार या पाँच व्यक्ति थे। उनके वंश के सैंकड़ों परिवार बने हैं। उनका वंश चल रहा है। उनका संसार में नाम भी चल रहा है। परंतु शास्त्रोक्त विधि से भक्ति न करने के कारण परमात्मा के विधानानुसार वह भला पुरूष कहीं गधा बनकर कष्ट उठा रहा होगा। वहाँ पर गधे के वंश की वृद्धि करके फिर कुत्ते का जन्म प्राप्त करके वहाँ उस कुल की वृद्धि करके अन्य प्राणियों के शरीर प्राप्त करके असंख्यों जन्म कष्ट उठाएगा। भावार्थ है कि मानव जीवन प्राप्त प्राणी को चाहिए कि सांसारिक कर्तव्य कर्म करते-करते आत्म कल्याण का कार्य भी करे। जिस कारण से परिवार से आने वाली पूर्व पाप की मार भी टलेगी, परिवार खुशहाल रहेगा। अन्यथा शुभ-अशुभ दोनों कर्मों का फल भोगने से कभी सुख तथा कभी दुःख का कहर भी झेलना पड़ता
13/08/19, 11:42 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक १००, १०१, १०२, १०३, १०४
पत्तूरो दीपनस्तिक्तः प्लीहार्शः कफवातजित्। कृमिकासकफोत्क्लेदान् कासमर्दो जयेत्सरः॥१००॥
रुक्षोष्णमम्लं कौसुम्भं गुरु पित्तकरं सरम्। गुरुष्णं सार्षपं बद्धविण्मूत्रं सर्वदोषकृत्॥१०१॥
यद्वालमव्यक्तरसं किञ्चित्क्षारं सतिक्तकम्। तन्मूलकं दोषहरं लघु सोष्णं नियच्छति॥१०२॥
गुल्मकासक्षयश्वासव्रणनेत्रगलामयान्। स्वराग्निसादोदावर्तपीनसांश्च महत्पुनः॥१०३॥
रसे पाके च कटुकमुष्णवीर्यं त्रिदोषकृत। गुर्वभिष्यन्दि च स्निग्धसिद्धं तदपि वातजित्॥१०४॥
पत्तूर(मछेछी) का शाक- यह अग्निदीपक, स्वाद मे तिक्त, कफ तथा वात दोष का नाशक है। यह प्लीहाविकार तथा अर्शोरोग को शान्त करता है।
कासमर्द( कसौंदी का शाक)- यह क्रिमिरोग, कासरोग, कफज, विकार तथा उत्क्लेद(शरीर में उत्पन्न गीलेपन) को जीत लेता है। यह मलभेदक है।
कुसुम्भ का शाक- कुसुम्भ(कुसुम) के पत्तो का शाक, रुक्ष, उष्णवीर्य, अम्ल, गुरु (देर में पचने वाला), पित्तकारक तथा सर(रेचक) होता है।
सरसों के पत्तों का शाक- यह पाचन मे गुरु, उष्णवीर्य, स्वाद मे कुछ अम्ल, मल मूत्र की प्रवृत्ति मे रुकावट डालने वाला तथा त्रिदोषकारक होता है।
वक्तव्य- साहित्यदर्पणकार श्री विश्वनाथ ने भी सर्षपशाक की प्रसंशा की है, परन्तु यह भी कह दिया है कि इसे ग्राम्य लोग बड़े चाव से खाते हैं— ‘तरुणं सर्षपशाकं’ इत्यादि। इसे पंजाब में बड़े आदर के साथ खाया जाता है,अन्यत्र भी लोग खाते ही है।
बालमूली का शाक- जो मूली कच्ची (रुढ़ न हुई हो) वह अव्यक्त रस वाली या कुछ खारापन तथा तीतापन लिए होती है। वह तीनो का नाश करती है, लघु तथा कुछ उष्णवीर्य वाली होती है। मूली गुल्म, कास, क्षय, श्वास, व्रण, नेत्रविकार, कण्ठविकार(स्वरभेद आदि), ज्वररोग, अग्निमान्द्य, उदावर्त तथा पीनस रोगों को नष्ट करती है।
वृद्धमूली का शाक- बड़ी मूली रस में विपाक, कटु, उष्णवीर्य, त्रिदोषकारक, देर मे पचने वाली तथा अभिष्यन्दि होती है।
स्नेहसिद्ध मूली का शाक- यदि बड़ी मूली को घी में भलिभाति पका लिया जाए तो यह वातनाशक होती है।
वक्तव्य- आकृति भेद से मूली दो प्रकार की होती है।– १.गोल २. लम्बी। लम्बी मूली भी छोटी- बड़ी भेद से दो प्रकार की होती है।— १. लघुमूलक और २. नेपालमूलक। ये भी नयी और पुरानी भेद से दो प्रकार की होती है। गर्मियों में मिलने वाली मूली स्वाद में कटु होती है, जाड़ो मे होने वाली मूली मधुर होती है। इसे नमक मिर्च लगाकर खाया जाता है। कच्ची मूली का शाक भी बनाया जाता है और सलाद के रूप में कच्चा खाया भी जाता है। इसी के भेद है- गाजर, चुकुदर, शलजम आदि।
मौसम मे मूली को काटकर सुखा लिया जाता है। बाद में पानी मे भिगाकर इसका भी शाक के रुप में प्रयोग होता है। यह सब वर्णन किसी भी जाति की बालमूली का है। जब यह रूढ़ हो जाती है, इसके भीतर जाली पड़ जाती है और बाहर का भाग कड़ा हो जाता है तब यह अग्राह हो जाती है। इसके विशेष गुणधर्मो के लिए देखें— सु.सू.४६/२४०-२४३। सुखाये सभु शाक विष्टम्भी तथा वातकारक होते है, केवल सुखाये हुए मूली के शाक को छोड़कर।
13/08/19, 11:47 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: प्लीहाविकार — spleenitis( तिल्ली का बढ़ना)
13/08/19, 11:54 pm – Shastragyan Abhishek Sharma:
13/08/19, 11:58 pm – Shastragyan Abhishek Sharma:
13/08/19, 11:58 pm – Shastragyan Abhishek Sharma:
14/08/19, 4:20 am – Pitambar Shukla: 🙏🙏
14/08/19, 10:09 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: शिव पुराण से
देवता त्रिपुरासुरों के विध्वंस से त्रस्त होकर शिवजी के पास जाते हैं क्योंकि वे शिवजी के अलावा किसी और मनुष्य, देवता के द्वारा अवध्य हैं परन्तु शिवजी कहते हैं – “देवगण! इस समय त्रिपुराधीश पुण्य कार्यों में लगे हुए हैं और ऐसा नियम है कि जो पुण्यात्मा हो उस पर विद्वानों को किसी प्रकार प्रहार नहीं करना चाहिए । वे तारकपुत्र सब के सब पुण्य-संपन्न हैं, यद्यपि मैं रणकर्कश हूँ, तथापि जानबूझकर मित्रद्रोह कैसे कर सकता हूँ क्योंकि पहले किसी समय ब्रह्माजी ने कहा था कि मित्रद्रोह से बढ़कर दूसरा कोई पाप नहीं है ।”
ब्रह्मघ्ने च सुरापे च स्तेने भग्नव्रते तथा।
निष्कृतिर्विहिता सद्भिः कृतघ्ने नास्ति निष्कृतिः।।
(शि. पु. रु. सं. युद्ध खण्ड, ३|५)
सत्पुरुषों ने ब्रह्महत्यारे, शराबी, चोर और व्रत भङ्ग करनेवाले के लिए प्रायश्चित का विधान किया है; परन्तु कृतघ्न के उद्धार का कोई उपाय नहीं है।
14/08/19, 10:21 am – Pitambar Shukla: श्री गणेशाय नमः
श्री जानकी वल्लभो विजयते
श्री राम चरित मानस
उत्तर कांड
प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई।
हारहिं सकल सलभ समुदाई।।
खल कामादि निकट नहिं जाहीं।
बसइ भगति जाके उर माहीं।।
( उसके प्रकाश से) अविद्या का प्रबल अंधकार मिट जाता है।
मदादि पतंगों का सारा समूह हार जाता है ।
जिसके हृदय में भक्ति बसती है, काम , क्रोध और लोभ आदि दुष्ट तो उसके पास भी नहीं जाते।।119-3।।
गरल सुधासम अरि हित होई।
तेहि मनि बिन सुख पाव न कोई ।।
ब्यापहिं मानस रोग न भारी।
जिन्ह के बस सब जीव दुखारी।।
उसके लिए विष अमृत के समान और शत्रु मित्र हो जाता है।
उस मणि के बिना कोई सुख नही पाता।
बड़े – बड़े मानस रोग,
जिनके वश हो कर सब जीव दुखी हो रहे हैं,
उसको नहीं व्यापते।।119-4।।
14/08/19, 10:30 am – +91 …..: कृतघ्न मतलब
14/08/19, 10:32 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: जो किसी का किया एहसान/उपकार न मानता हो और उसका भी बुरा करे ।
14/08/19, 10:34 am – +91 ……: 🙏🙏
14/08/19, 11:28 am – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad:
14/08/19, 11:29 am – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad: ये कासमर्द(कसौंदी) नहीं लग रहा है.
14/08/19, 11:29 am – FB Mukesh Sinha Pathalgaon CG Shastra Gyan: खरपतवार है
14/08/19, 11:30 am – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad:
14/08/19, 11:31 am – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad: कसौंदी है
14/08/19, 11:34 am – Shastragyan Abhishek Sharma: Google se uthaai hai, wahan aur bhi pics hai.
मदद करे।
14/08/19, 11:34 am – Shastragyan Abhishek Sharma: 🙏🏻
14/08/19, 11:37 am – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad: मैं जो भेजा हूं, यही कसौंदी है.
14/08/19, 11:56 am – Vaidya Ashish Kumar: धन्यवाद सर
14/08/19, 11:56 am – Vaidya Ashish Kumar: आप बहुत पुण्य कमा रहे है अभिषेक जी🌹🌹
15/08/19, 12:37 am – +91 ……..:
15/08/19, 3:05 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: कृपया कुछ भी forwarded या group के विषय से हटकर न डालें, हमें बधाई कम और पढाई की ज्यादा जरुरत है तो अगर बधाई नहीं भी आएगी तो चलेगा । आगे से किसी के लिए कोई चेतावनी नहीं होगी, तो कृपया समझदार बनें 🙏🏼🙏🏼
15/08/19, 6:37 am – LE Nisha Ji : आप सभी को स्वतंत्रता का 73 वाँ वर्ष और राखी के पर्व की बहुत बहुत बधाई।
15/08/19, 9:05 am – +91 ………..: जय हिंद
15/08/19, 10:39 am – Pitambar Shukla: श्री गणेशाय नमः
श्री जानकी वल्लभो विजयते
श्री राम चरित मानस
उत्तर कांड
राम भगति मनि उर बस जाकें।
दुख लवलेस न सपनेहु ताकें।।
चतुर सिरोमनि तेइ जग माहीं।
जे मनि लागि सुजतन कराहीं।।
श्री राम भक्ति रूपी मणि जिसके हृदय में बसती है,
उसे स्वप्न में भी लेशमात्र दुःख नहीं होता ।
जगत् में वे ही मनुष्य चतुरों के शिरोमणि हैं जो उस भक्ति रूपी मणि के लिए भली भाँति यत्न करते हैं।।119-5।।
सो मनि जदपि प्रगट जग अहई।
राम कृपा बिनु नहिं कोउ लहई।।
सुगम उपाय पाइबे केरे।
नर हतभाग्य देहिं भट भेरे।।
यद्यपि वह मणि जगत् में प्रकट ( प्रसिद्ध ) है,
पर बिना राम जी की कृपा के उसे कोई नही पा सकता ।
उसे पाने के उपाय भी सुगम ही हैं पर अभागे मनुष्य उन्हे ठुकरा देते हैं।।119-6।।
15/08/19, 10:34 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक १०५,१०६
वातश्लेष्महरम् शुष्कं सर्वं आम् तु दोषलम्। कटूष्णो वातकफहा पिण्डालुः पित्तवर्धनः॥१०५॥
सूखी मूली का शाक- सुखायी गयी सभी प्रकार की मूलियां वात एवं कफ नाशक होती है।
कच्ची मूली का शाक- सभी प्रकार की कच्ची मूलियां वात आदि दोषकारक होती है।
पिण्डालु नामक कन्द का शाक- यह कुछ कटु, उष्णवीर्य तथा पित्त को बढ़ाने वाला है।
वक्तव्य- सुश्रुत ने पिण्डालु का जो वर्णन किया है, वह उक्त वाग्भटोक्त गुणधर्मों के विपरीत है। देंखें— पिण्डालुकम् कफकरं गुरूवातप्रकोपणम् (सु.सू.४६/३०४)
आयुर्वेद मे आलुक नाम से अनेक कन्दों का ग्रहण होता है। जैसे- १. काष्ठालुक(कठालू), २. शंखालुक— यह सफेदी लिए होता है, ऐसा लगता है कि बाजार में बिकने वाला यही शंखालु ही आलू है। ३. हत्स्यालुक— बड़े से बड़े आकार का आलू, इसके दर्शन प्रदर्शनीयों मे किये जा सकते हैं। ४. पिण्डालुक— हमारी मान्यता के अनुसार यह वही है जिसका विवेचन हमने इसी प्रकरण में आगे किया है। जो इसे सुथनी मानते हैं, उन्हें इसका समावेश मध्वालुक मे अथवा रक्तालुक मे करना चाहिए क्योंकि यह लाल तथा सफेद भेद से दो प्रकार का पाया जाता है। ५. मध्वालुक- यह आकृति से दो प्रकार का होता है। छोटा तथा बड़ा। इनमें छोटा छीलने पर भीतर से सफेद तथा बड़ा छीलने पर रक्ताभ होता है। हिन्दी में इन्हे छोटी सुथनी तथा बड़ी सुथनी कहते है। ६.रक्तालुक- यह भी वर्णभेद से दो प्रकार का होता है। जंगली सफेद तथा घर में लगाया लाल रंग का। जंगली अधिक से अधिक १ या २ इंच गोलाई में मोटा, घरेलू ५ या६ इंच मोटा या इससे भी अधिक। इसे तरूड़ या रतालू भी कहते हैं। इन्ही कन्दो में एक शकरकंद भी है।यह शक्कर की भांति खाने में मीठा होता है । अतः इसे शकरकंद कहते है।
नैनीताल तथा अल्मोड़ा आदि जिलों में पिण्डालु नाम का एक कन्द मिलता है, जिसका शाक क्षेत्रिय लोगों को अतिप्रिय है। वहां इसकी खेती भी होती है। मैदानी स्थानों में इसे अरुई या घुइयां कहते है। ये पिण्डालु या पिनालु के उपकन्द है। पिण्डालू के जिस मूल अवयव को यहां बण्डा कहा जाता है, उसे पर्वतीय क्षेत्रों में गडेरी कहते है। हमारे विचार से सुश्रुत ने जिस पिण्डालु के गुण धर्मो का वर्णन किया है, वह यही पिण्डालु कन्द है।
कुठेरशिग्रुसुरससुमुखासुरिभूस्तृणम्। फणिज्जार्जकजम्बीरप्रभृति ग्राहि शालनम्॥१०६॥
विदाहि कटु रुक्षोष्णं हद्यं दीपनरोचनं। दृकशुक्रकृमिहृत्तीक्ष्णं दोषोत्क्लेशकरं लघु॥१०७॥
कुठेरक आदि शाक- कुठेरक (वनतुलसी- बवई), शिग्रु (सहजन की फली), सुरस (काली तुलसी), सुमुखा (तुलसीभेद), आसुरि (राई के पत्ते), भूस्तृण, फणिज्झक, अर्जक, जम्बीर आदि के पत्तो के शाक ग्राही (मल को बांधने वाले) तथा उत्तम होते है। यह विदाहकारी, स्वाद मे कटु, रूक्ष, उष्णवीर्य, हृदय के लिए हितकारी, जठराग्नि को प्रदिप्त करने वाले तथा रुचिकारक होते है। ये दृष्टिनाशक, शुक्र तथा क्रिमि नाशक होते है। ये गुणों में तीक्ष्ण, वात आदि दोषों को उभाड़ने वाले तथा पाचन में लघु होते हैं।
वक्तव्य- “फणिज्जार्जकजम्बीरप्रभृति” इस ‘प्रभृति शब्द से अष्टाङ्गसंग्रह अध्याय ७ मे कहे गये धान्य— तुम्बुर, शैलेय, यवानी, श्रृंगवेर, पर्णाश, गृंजन, अजाजी, कण्डीर, जलपिप्पली, खराश्वा, कालमालिका, दीप्यक, क्षवकृत, द्वीपि और वस्तगधां का ग्रहण कर लेना चाहिए। अष्टाङ्गहृदय मे उक्त द्रव्यो को ‘हरितकवर्ण’ मे गिना है।
15/08/19, 11:39 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: पत्तूर मछेछी
गूगल ने भी हाथ जोड़ लिए🙏 क्या है यह
15/08/19, 11:41 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: सरसों के शाक व सरसों के पत्ते के शाक के गुणधर्म एक ही है या अलग🙏
16/08/19, 12:08 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: हमारे तरफ मानता अनुसार इसे पुरुष ही प्रथम चीरा देते है फिर महिला काट सकती है
16/08/19, 12:20 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: यंहा कद्दू आदि का गुणधर्म कुछ खारापन लिए हुए बताया गया है सो कैसे???
16/08/19, 12:21 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: उत्तर अपेक्षित है🙏
16/08/19, 1:13 am – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: Ha ji humare yahan bhi
16/08/19, 1:34 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: उत्तर पहले ही दिया जा चुका है।
16/08/19, 1:34 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👆🏼
16/08/19, 7:25 am – FB Anand Kumar Patna Shastra Gyan: https://www.facebook.com/137392350144710/posts/466854923865116/
16/08/19, 10:25 am – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad: भारत के प्राय:क्षेत्रों में ऐसी ही मान्यता है. शाकाहारी लोग देवी की बलि इसी का देते हैं, शायद इसीलिए.
16/08/19, 10:34 am – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: हमारे यहाँ नारियल, कद्दू , कटहल, पेठा …. इन सभी को प्रथम पुरुष ही काटते हैं।
16/08/19, 10:50 am – +91………: इसका एक दुर्गुण भी हैं की इसका अगर रस बाल पर पड जाये तो बाल सफ़ेद हो जाता हैं।
16/08/19, 11:19 am – Pitambar Shukla: श्री गणेशाय नमः
श्री जानकी वल्लभो विजयते
श्री राम चरित मानस
उत्तर कांड
पावन पर्बत बेद पुराना ।
राम कथा रुचिराकर नाना।।
मर्मी सज्जन सुमति कुदारी।
ग्यान बिराग नयन उरगारी।।
वेद -पुराण पवित्र पर्वत हैं।
श्री राम जी की नाना प्रकार की कथाएँ उन पर्वतों में सुन्दर खाने हैं।
संत पुरुष (उनकी इन खानों के रहस्य को जानने वाले ) मर्मी है और सुन्दर बुद्धि ( खोदने वाली ) कुदाल है।
हे गरुड़ जी! ज्ञान और वैराग्य –ये दो उनके नेत्र हैं।।119-7।।
भाव सहित खोजइ जो प्रानी।
पाव भगति मनि सब सुख खानी।।
मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा।
राम ते अधिक राम कर दासा।।
जो प्राणी उसे प्रेम के साथ खोजता है,
वह सब सुखों की खान इस भक्ति रूपी मणि को पा जाता है।
हे प्रभो! मेरे मन में तो ऐसा विश्वास है कि श्री राम जी के दास श्री राम जी से भी बढ़ कर हैं।।119-8।।
..
16/08/19, 8:01 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक १०८,१०९,११०
हिष्माकासविषश्वासपार्श्वरुक्पूतिगन्धहा। सुरसः सुमुखो नातिविदाही गरशोफहा॥१०८॥
आर्द्रिका तिक्तमधुरा मूत्रला न च पित्तकृत। लशुनो भृशतीक्ष्णोष्णः कटुपाकरसः सरः॥१०९॥
हृद्यः केश्यो गुरुर्वृष्यः स्निग्धो रोचनदीपनः। भग्नसन्धानकृद्वल्यो रक्तपित्तप्रदूषणः॥११०॥
किलासकुष्ठगुल्मार्शोमेहक्रिमिकफानिलान। स हिष्मापीनसश्वासकासान् हन्ति रसायनम्॥१११॥
सुरसा का शाक- हिचकी, कास, विषविकार श्वास, पार्श्वशूल(पसलियों में पीड़ा का होना) तथा मुख की दुर्गन्ध का विनाश करता है।
सुमुख नामक तुलसी का शाक- यह अधिक विदाहकारक नहीं होता है। दूषीविष तथा शोथरोग का विनाश करता है।
हराधनिया का शाक- यह थोड़ा तीता तथा मधुर होता है। मूत्रल तथा पित्तकारक नहीं होता है।
लशुनकद का शाक- इसका कन्द विशेष करके तीक्ष्ण तथा उष्णवीर्य होता है।इसका विपाक कटु होता है। यह सर है, हृदय के लिए तथा केशो के लिए हितकर है, पचने में गुरु, वीर्यवर्द्धक, स्निग्ध, दीपन, पाचन, अस्थिभग्न को जोड़ने वाला, बलवर्धक, रक्त एवं पित्त को दूषित करने वाला है। यह किलास(श्वित्र), कुष्ठ, गुम, अर्श, प्रमेह, क्रिमिरोग, कफविकार, वातविकार, हिचकी, पीनस, श्वास और कास रोग का विनाश करता है। यह रसायन है।
वक्तव्य- यहां लहसुन के केवल कन्द के गुण दिये गये है। प्रसंगवश उनके अन्य अंगों का वर्णन भी प्रस्तुत है— इसके पत्र खारे तथा मधुर होते हैं और इसका मध्यभाग अधिक मधुर एवं पिच्छिल होता है। कभी कभी इसके मध्यभाग मे भी लशुनकन्द पाये जाते है, औषध मे इनका भी महत्वपूर्ण स्थान है।अष्टाङ्गहृदय उत्तरस्थान(३९/१११-१२१) मे इसकी विस्तृत रसायनविधि देंखें। इसके अतिरिक्त काश्यपसंहिता में भी इसके विविध कल्पों का अवलोकन करें।
16/08/19, 8:51 pm – LE Onkar A-608: मेरे बाबा ने अपने गांव के एक मुहल्ले के निवासियों की विशेषता बतायी थी कि “खाय मछेछी, रगड़ै गोड़!” (मछेछी खाते हैं और पैर रगड़ते हुए चलते हैं).
मेरे द्वारा मछेछी के बारे में जिज्ञासा प्रकट करने पर बताया था कि यह एक प्रकार की घास है जो तालाब के सूखे हुए भाग में उगती थी।
अब यह प्राप्य है या नहीं बुजुर्ग ग्रामीणों से पता करने का प्रयास करूँगा।
16/08/19, 9:09 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: 1 कली के लहसुन के भी विभिन्न व विशेष प्रयोग है शायद
पर रक्त व पित्त को दूषित करने वाला???₹
16/08/19, 9:34 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
🙏 श्री मनुस्मृति 🙏
विप्रोष्य पादग्रहणं अन्वहं चाभिवादनम् ।
गुरुदारेषु कुर्वीत सतां धर्मं अनुस्मरन् । । २.२१७ । ।
यथा खनन्खनित्रेण नरो वार्यधिगच्छति ।
तथा गुरुगतां विद्यां शुश्रूषुरधिगच्छति । । २.२१८ । ।
मुण्डो वा जटिलो वा स्यादथ वा स्याच्छिखाजटः ।
नैनं ग्रामेऽभिनिम्लोचेत्सूर्यो नाभ्युदियात्क्व चित् । । २.२१९ । ।
*अर्थ*
विदेश से आने पर चरणस्पर्श कर व प्रतिदिन दूर से गुरुस्त्री को प्रणाम करना चाहिए ,यही शिष्यों के आचार है ।।
जैसे पुरुष कुदाल फावड़े से भूमि खोदता हुआ जल पाता है वैसे सेवा से गुरुविद्या को पाता है।।
ब्रह्मचारी मुण्डित या शिखाधारी या जटाधारी हो उसे सूर्योदय व सूर्यास्त के समय गांव के भीतर नहीं होना चाहिए अर्थात दोनों काल में गांव के बाहर सन्ध्या गायत्री की उपासना में रहना चाहिए।।
हरी ॐ
🙏
.
17/08/19, 7:01 am – Abhinandan Sharma: ऐसा नहीं है कि लोग अब ही धर्म पर प्रश्नचिंह लगाते हैं या अभी ही धर्म की निंदा किया करते हैं | ऐसा पहले भी होता था किन्तु पहले पढ़कर निंदा की जाती है जबकि आजकल बिना पढ़े ही, बहुतेरे लोग, धर्म पर आक्षेप लगाते हैं | जब बौद्ध धर्म अपने चरम पर था भारत में तो बौद्ध धर्म कि विद्वानों ने सनातन धर्म पर विभिन्न आक्षेप लगाए और उनके आक्षेप आजकल के उथले आक्षेप नहीं होते थे, जैसे कि “जो ईश्वर अपने मंदिर की रक्षा नहीं कर सकता, वो कैसा ईश्वर ?” या फिर – “मैंने तो भगवान् की इतनी पूजा पाठ की, फिर भी मेरा बेटा मर गया, फिर ऐसे भगवान की क्यों पूजा करूँ ?” ये बहुत ही उथले आक्षेप हैं, इनमें कोई दम नहीं है | जिन लोगों ने कभी धर्म को जाना ही नहीं, वो इस प्रकार की बाते करते हैं | ऐसे लोगों से लाख गुना बेहतर तो बौद्ध धर्म के लोग थे, जिन्होंने ईश्वर पर आक्षेप लगाने के लिए तर्क का सहारा लिया | सनातन धर्म के ही सबसे विश्वसनीय ग्रन्थ को, जिसे धर्म की रक्षा के लिए, लिखा गया था, उसे ही सबसे पहले निशाना बनाया | उस शास्त्र का नाम था – तर्कशास्त्र (न्याय शास्त्र)
बौद्ध विद्वान नागार्जुन (३०० ई) ने गौतम ऋषि द्वारा रचित न्याय शास्त्र में ही कमियां निकालीं | ये यहाँ, गलत लिखा है, इसकी व्याख्या यहाँ गलत है | ऐसा गलत लिखा है, वैसा गलत लिखा है | इस प्रकार, पढलिख कर, लोगों ने सनातन धर्म पर आक्षेप लगाये, हमला किया | केवल उपरोक्त तरीके के मूर्खतापूर्ण आक्षेप मात्र नहीं थे, वरन तथ्यपरक बातें थी | नागार्जुन की व्याख्या को, वात्स्यायन ऋषि (400 ई) ने चेलेंज किया और न्यायशास्त्र की पुनर्व्याख्या की, और ग्रन्थ लिखा – ‘न्यायभाष्य’ | लेकिन बौद्ध कहाँ मानने वाले थे ! जैसे आजकल के कुतर्की और धर्म का ABCD भी न जानने वाले बेसिरपैर के आक्षेप लगाते हैं, उससे उलट, बौद्धों ने और मेहनत की, और उस भाष्य में भी कमियां निकालीं और बौद्ध दार्शनिक दिननांग (500 ई) ने, भाष्य में गलतियाँ निकालीं | जिनका खंडन उद्योतकराचार्य (600 ई) ने न्याय शास्त्र के ही ऊपर ‘न्यायवार्तिक’ लिख कर दिया |
सोचिये, आप जो, ईश्वर का खंडन करते हैं, उन बातों के पीछे कितना अध्ययन है ? कितनी मेहनत है ? क्या इन लोगों से ज्यादा पढ़ा है आपने ? फिर आप कहते हैं, कि मैं उस ईश्वर को नहीं मानता, मैं तो नास्तिक हूँ ! पर उसके पीछे ग्राउंड कितना मजबूत है ! देखिये बौद्धों ने कितनी मेहनत की फिर भी बार बार, तर्कशास्त्र में गलतियां निकालीं और इस बार बीड़ा उठाया, बौद्ध विद्वान धर्मकीर्ति (700 ई) ने और ग्रन्थ लिखा ‘न्यायबिंदु’ और उसमें बिंदुवार क्रम से, न्यायवार्तिक की बहुत सी बातों को गलत सिद्ध किया | सैकड़ों सालों तक ये हमला होता रहा, कोरी बातें नहीं बल्कि शास्त्रार्थ | फिर सनातन धर्म के उद्भट विद्वान वाचस्पति मिश्र ने (800 ई) ने ‘न्याय बार्तिक टीका’ करके जैसे, सनातन धर्म की रक्षा की | इन्हीं ग्रंथों को आधार बनाकर, आदिशंकराचार्य ने (७८८ ई), पूरे भारत में घूम घूम कर, बौद्धों को तर्क और शास्त्रार्थ में पराजित किया | सोचिये, वो बोद्ध, जिन्होंने आपसे सैकड़ों गुना आध्ययन किया, वर्षों तक, सनातन धर्म की जड़ें खोदीं | वो तक शंकराचार्य के और वाचस्पति मिश्र के सामने न टिक सके तो फिर आपके तर्कों की तो जमीन ही नहीं है | फिर भी आप समझते हैं कि आपके प्रश्न बड़े ही तार्किक हैं ! जो तर्कशास्त्र को जानता है, वो आपकी बातों को सुनकर हँसता है और कभी कभी ROFL भी हो जाता है |
सनातन धर्म, ईश्वर, आत्मा आदि के बारे में एक आम राय है कि वो तो भक्ति से प्राप्त होते हैं, वो ज्ञान से, तर्क से प्राप्य नहीं है । मेरा स्पष्ट मत इससे कुछ भिन्न है । तर्क क्या करता है ? तर्क (logic) आपको सत्य तक पहुचने में मदद करता है । सत्य क्या है ? जिसकी सत्ता है, वह सत है और जिसकी सत्ता ही नहीं है, वह असत है । ईश्वर की सत्ता यदि है, यदि ईश्वर सत्य है तो वह तर्क से अवश्य दिखेगा। यदि आत्मा है, तो वह तर्क से अवश्य प्रकाशित होगी ।
यदि ईश्वर तर्क से प्राप्य नहीं है, यदि आत्मा, तर्क से प्रमाणित नहीं है, तो वो निश्चित ही नहीं है । सोचिये, यदि ये तर्क से प्रमाणित न होते और सिर्फ मानने होने की ही बाध्यता होती तो फिर शंकराचार्य ने बौद्धों को कैसे मनवाया कि ईश्वर है ? क्या वो सभी बौद्ध गुरुओं से ये जाकर कहते थे कि अरे ! आपका तो विश्वास ही नहीं है ईश्वर में, आपको तो वो मिलेगा ही कैसे ? पहले ईश्वर को मानो, वह ज्ञान से नहीं आस्था से मिलेगा, आस्था करो और उनकी ये बातें सुनकर सभी बौद्ध अपनी हार मान लेते होंगे ! है ना ?
पर नहीं, ऐसा नहीं होता था । भारतीय सनातन धर्म एकमात्र ऐसा धर्म है, जिसमें धर्म की रक्षा तर्कशास्त्र करता है । गौतम ऋषि ने इसी कारणवश इसकी रचना की | इसी तर्कशास्त्र से, बौद्धों के आक्रमण से धर्म की रक्षा हुई। आज भी अगर कोई ये कहता है कि धर्म, ईश्वर, आत्मा, मानने की चीज है तो मैं आपसे कहता हूँ कि नहीं ये सब जानने की चीज है, मानने की नहीं । अभी आपको बहुत अध्ययन करना है |
https://youtu.be/egRlssoPtCI
17/08/19, 7:21 am – FB Mrudul Tiwari Allahabad Shastra Gyan: 🙏🙏🙏🙏🙏
17/08/19, 7:29 am – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: 🙏
17/08/19, 8:11 am – Pitambar Shukla: 🙏🌹🌹🙏
17/08/19, 8:15 am – Pitambar Shukla: मछेछी= मत्यसाक्षी
लोक प्रचलित मान्यता के अनुसार इसको पीस कर मिश्री के साथ सेवन करने से नेत्र- ज्योति का वर्धन होता है ।
17/08/19, 8:17 am – Pitambar Shukla: मत्यसाक्षी ❎
मत्स्याक्षी✅
17/08/19, 11:37 am – FB Vikas Delhi Shastra Gyan: 🙏🙏
17/08/19, 11:41 am – Pitambar Shukla: श्री गणेशाय नमः
श्री जानकी वल्लभो विजयते
श्री राम चरित मानस
उत्तर कांड
राम सिंधु घन सज्जन धीरा।
चंदन तरु हरि संत समीरा।।
सब कर फल हरि भगति सुहाई ।
सो बिनु संत न काहू पाई।।
श्री राम चंद्र जी समुद्र हैं,
तो धीर संत पुरुष मेघ हैं।
श्री हरि चन्दन के वृक्ष हैं,
तो संत पवन हैं।
सब साधनों का फल सुन्दर हरि भक्ति ही है ।
उसे संत के बिना किसी ने नही पाया ।।119-9।।
अस बिचारि जोइ कर सतसंगा।
राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा।।
ऐसा विचार कर जो भी संतों का संग करता है,
हे गरुड़ जी! उस के लिए श्री राम जी की भक्ति सुलभ हो जाती है ।।119-10।।
17/08/19, 12:02 pm – LE Onkar A-608: मछेछी की खोज में, पहचानने वाले के साथ तालाब में ढूंढ़ा किन्तु अभी नहीं उगी है।
उसने बताया कि यह कार्तिक के महीने में बहुतायत से पायी जाती है।
17/08/19, 12:40 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: 🙏 इतने प्रयास के लिए धन्यवाद
17/08/19, 12:41 pm – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: 🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
17/08/19, 1:38 pm – You added LE B 204 Amit Srivastava
17/08/19, 1:40 pm – You added LE Raju Tomar F Tower
17/08/19, 1:41 pm – LE Ravi Parik C Block Pragati Maidan joined using your invite
17/08/19, 1:54 pm – LE Raju Tomar F Tower: 😊 धन्यवाद अभिनंदन जी
17/08/19, 1:55 pm – Abhinandan Sharma: 🙏 सभी नए मेंबर कृपया ग्रुप के नियम एक बार अवश्य देख लें
17/08/19, 2:36 pm – LE Raju Tomar F Tower: नियम कृपया पुनः प्रसारित करिए
17/08/19, 2:57 pm – Abhinandan Sharma: इस ग्रुप में फ़ॉर्वर्डेड पोस्ट डालना मना है | नेट से कोई भी कंटेंट, ख़ास तौर से बिना सन्दर्भ के अथवा तोडा मरोड़ा हुआ, डालना भी मना है | जो आपने स्वयं पढ़ा हो, किसी शास्त्र से, कोई दोहां, कोई चोपाई, कोई पुराण, कुछ भी, वो आप इस ग्रुप में डाल सकते हैं | ग्रुप ज्वाइन करने वाले, खुद भी कोई भी एक पुस्तक, ग्रुप एडमिन के परामर्श से प्रारंभ कर सकते हैं और उसे पढ़कर ग्रुप में अन्य मेम्बेर्स को पढने के लिए डाल सकते हैं | अभी ग्रुप में ४-5 पुस्तक इस प्रकार के प्रयास से चल रही है, जिससे सभी लोग वो ग्रन्थ पढ़ सकें | स्वागतम !
17/08/19, 2:57 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: इस ग्रुप में फ़ॉर्वर्डेड पोस्ट डालना मना है | नेट से कोई भी कंटेंट, ख़ास तौर से बिना सन्दर्भ के अथवा तोडा मरोड़ा हुआ, डालना भी मना है | जो आपने स्वयं पढ़ा हो, किसी शास्त्र से, कोई दोहां, कोई चोपाई, कोई पुराण, कुछ भी, वो आप इस ग्रुप में डाल सकते हैं | ग्रुप ज्वाइन करने वाले, खुद भी कोई भी एक पुस्तक, ग्रुप एडमिन के परामर्श से प्रारंभ कर सकते हैं और उसे पढ़कर ग्रुप में अन्य मेम्बेर्स को पढने के लिए डाल सकते हैं | अभी ग्रुप में ४-5 पुस्तक इस प्रकार के प्रयास से चल रही है, जिससे सभी लोग वो ग्रन्थ पढ़ सकें | स्वागतम !
17/08/19, 3:02 pm – LE Raju Tomar F Tower: 🤔फिर तो 😟पढ़ना पड़ेगा 😢
17/08/19, 9:45 pm – LE Onkar A-608: मत्स्याक्षी का सेवन करके महिलाएँ मीनाक्षी हो सकती हैं।
18/08/19, 10:24 am – Pitambar Shukla: श्री गणेशाय नमः
श्री जानकी वल्लभो विजयते
श्री राम चरित मानस
उत्तर कांड
ब्रह्म पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर आहिं।
कथा सुधा मथि काढ़हिं
भगति मधुरता जाहिं।।
ब्रह्म ( वेद) समुद्र है,
ज्ञान मन्दराचल है और संत देवता हैं, जो उस समुद्र को मथ कर कथा रूपी अमृत निकालते हैं,
जिसमें भक्ति रूपी मधुरता बसी रहती है।।120-क।।
बिरति चर्म असि ज्ञान मद
लोभ मोह रिपु मारि।
जय पाइअ सो हरि भगति
देखु खगेस बिचारि।।
वैराग्य रूपी ढाल से अपने को बचाते हुए और ज्ञान रूपी तलवार से मद, लोभ और मोह रूपी वैरियों को मार कर जो विजय प्राप्त करती है,
वह हरि भक्ति ही है;
हे पक्षिराज! इसे विचार कर देखिए ।।120-ख।।
18/08/19, 11:03 am – Abhinandan Sharma: वात, पित्त और कफ ! तो क्या कफ को संस्कृत में भी कफ ही कहते हैं ? क्या इसका मतलब ये निकाला जाए कि अंग्रेजी का कफ शब्द भी, संस्कृत से आया है ? अंग्रेजी में cough की etymology क्या है ?
18/08/19, 11:04 am – Abhinandan Sharma: 😲
18/08/19, 11:15 am – Abhinandan Sharma: क्या हम सांख्य शास्त्र को कंटिन्यू करने वाले हैं ?
18/08/19, 11:32 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: 🤔
18/08/19, 12:03 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: अवश्यमेव आएगा परंतु जब समझ आएगा तभी, सोमवार तक का समय दीजिये समय दीजिये 🙏🏼
18/08/19, 12:18 pm – Shastragyan Abhishek Sharma:
18/08/19, 12:32 pm – Abhinandan Sharma: Cough तो दिखा ही नहीं रहा ?
18/08/19, 12:38 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: यहां cough की spelling cuff दी है शायद ??
Google translate भी cuff का अर्थ कफ ही बताता है। किन्तु cuff और cough मे अंतर नहीं मिला।
18/08/19, 1:36 pm – Dr PL Sharma White Cottege Ghaziabad Shastr Gyan joined using this group’s invite link
18/08/19, 1:38 pm – LE Ravi Parik C Block Pragati Maidan : Welcome Prof. Dr. P L Sharma from White Cottage. 🙏🏻
18/08/19, 1:42 pm – Dr PL Sharma White Cottege Ghaziabad Shastr Gyan: Thanks🙏😄😄
18/08/19, 10:02 pm – LE Onkar A-608: यह अवधी भी कितनी सुसंस्कृत है🙏
19/08/19, 10:18 am – Pitambar Shukla: श्री गणेशाय नमः
श्री जानकी वल्लभो विजयते
श्री राम चरित मानस
उत्तर कांड
पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ।
जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ।।
नाथ मोहिं निज सेवक जानी।
सप्त प्रस्न मम कहहु बखानी ।।
पक्षिराज गरुड़ जी फिर प्रेम सहित बोले—
हे कृपालु! यदि मुझ पर आप का प्रेम है,
तो हे नाथ! मुझे अपना सेवक जान कर मेरे सात प्रश्नों उत्तर बखान कर ( विस्तार पूर्वक ) कहिए ।।120-1।।
प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा।
सब ते दुर्लभ कवन सरीरा।।
बड़ दुख कवन कवन सुख भारी।
सोइ संछेपहिं कहहु बिचारी।।
हे नाथ! हे धीर बुद्धि! पहले तो यह बताइये कि सबसे दुर्लभ कौन सा शरीर है?
फिर सबसे बड़ा दुःख कौन है और सबसे बड़ा सुख कौन है,
यह भी विचार कर संक्षेप में ही कहिये।।120-2।।
19/08/19, 6:02 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: Cuff – हाथ का कलाई वाला हिस्सा, जहाँ से हम कमीज की बाज़ू मोड़ते हैं। जैसे की handcuff.
Cough – a sudden, usually noisy expulsion of air from the lungs, often involuntarily.
Origin of cough –
Dutch -> kuchen(to cough)
German -> keuchen(to pant)
दोनों ही english कफ(cuff, cough) अलग हैं और हिन्दी के कफ से मेल नहीं खाते।
19/08/19, 6:05 pm – Abhinandan Sharma: cough – इस कफ में और वात, पित्त और कफ वाले कफ में, क्या अंतर है ?
19/08/19, 6:08 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: Cough – जैसा की google बाबा और dictionary बता हैं, केवल खखारने की क्रिया है गला साफ़ करने के लिए तथा सांस का रास्ता साफ करने के लिए।
19/08/19, 6:12 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: This message was deleted
19/08/19, 6:13 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: कफ – इसके बारे में ज्यादा पढ़ना अभी बाकी है पर जैसा समझ आया, यह शरीर में उपस्थित द्रव है।
19/08/19, 6:15 pm – Abhinandan Sharma: हम्म…. good ! मतलब दोनों अलग अलग हैं !
19/08/19, 6:16 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: जी
19/08/19, 9:05 pm – Dr PL Sharma White Cottege Ghaziabad Shastr Gyan: 🕉 हिन्दू (सनातन) धर्म के आधार ग्रंथ वेद हैं। जिनके अनुसार परमात्मा सत् चित् आनन्द मय है। वह सबका आधार है। सर्व व्यापक एवं अजन्मा है।
उसका मुख्य नाम ओउ्म है। इसी को प्रणव कहा जाता है।
19/08/19, 9:34 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: सांख्यतत्त्व कौमुदी – 1
दुःखत्रयाभिघाताज्जिज्ञासा तदभिघातके हेतौ ।
दृष्टे सापार्था चेन्नैकान्तात्यन्ततोऽभावात् ॥ १ ॥
अन्तःकरण वर्ती त्रिविध दुःखों से चैतन्य शक्ति को भी अपाय होता है, ऐसी भावना उत्पन्न होने पर इनका प्रतिकार किन उपायों से होगा, यह जानने की अभिलाषा होना सहज सिद्ध बात है, यदि कोई कहे कि लोक सिद्ध दृष्ट उपाय सुकर होते हैं, तो शास्त्रीय उपाय का क्या काम? परन्तु यह कहना ठीक नहीं होगा क्योंकि लौकिक उपायों से दुःख अवश्य ही निवृत्त हो जाएगा, ऐसा नहीं कह सकते, अतएव दुःखत्रयों के निवृत्ति होने के लिए शास्त्रीय उपायों को काम में अवश्य लाना चाहिए ।
इस शास्त्र के विषय में विद्वानों की जिज्ञासा नहीं होवेगी, ऐसा हम प्रतिपादन करते परन्तु कब ?
यदि संसार में दुःख – इस पदार्थ का अभाव होता ? अथवा दुःख होकर भी उसका नाश किसी को अभीष्ट नहीं होता ।
अथवा दुःख नाश करने की इच्छा होते हुए भी दुःख नाश करना अशक्य होता (क्योंकि शास्त्रों में दुःख पदार्थ नित्य बताया गया है अर्थात नित्य होने से नाश होना अशक्य ही है )
तीसरा विकल्प कहते हैं,
अथवा दुःख नाश जब भी शक्य है तो शास्त्र विषय का ज्ञान होना यह सच्चा उपाय न होता ।
चौथा, अथवा कोई दूसरा सुलभ उपाय होता, तब हम प्रतिपादन करते, परन्तु उपरोक्त प्रकार में से यहाँ पर एक भी नहीं है, यदि कहें कि कैसे ? तो नीचे लिखा जाता है, संसार में दुःख है ही नहीं अथवा होकर भी उसका नाश किसी को अभीष्ट नहीं, ऐसा तो कह ही नहीं सकते, क्योंकि इस संसार में आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक; तीन प्रकार का दुःख अनुभव से जाना जाता है ।
उपरोक्त दुःखत्रयों में पहिला जो आध्यात्मिक दुःख है उसके दो भेद हैं, शारीर और मानस, शरीरान्तर्गत वात, पित्त और कफ इन तीनो दोषों के विषमता से होने वाला दुःख शारीरिक दुःख कहलाता है तथा काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, ईर्ष्या, विषाद इष्ट वस्तु का अदर्शन इत्यादि के योग से होने वाला दुःख मानस कहलाता है । यह सब शरीर के आन्तरिक उपाय से साध्य होने के कारण आध्यात्मिक कहलाते हैं ।
शरीर को छोड़कर उसके बाहरी उपाय द्वारा साध्य-दुःख के आधिभौतिक और आधिदैविक, ऐसे दो प्रकार हैं ।
उक्त प्रकार में – मनुष्य, पशु, मृग, पक्षी, सर्प, वृक्षादि स्थावर पदार्थ; इनके योग से होनेवाला दुःख आधिभौतिक दुःख है तथा यज्ञ, राक्षस, विनायक ग्रह, इनके योग से होने वाला जो दुःख है, वह आधिदैविक दुःख है ।
उपरोक्त त्रिविध दुःख प्रत्येक प्राणी के अनुभव में आने योग्य हैं तथा वे दुःखत्रय, रजोगुण का ही एक प्रकार का परिणाम है, इस कारण वे दुःखत्रय नहीं हैं, ऐसा किसी काल में नहीं कह सकते तथा अन्तः करण के ऊपर धर्मरूप से रहने वाले इन त्रिविध दुःखों से चैतन्य शक्ति का “यह वस्तु हमको अनिष्टप्रद है” इस भावना से सम्बन्ध होने के कारण इस अनिष्ट दुःख का नाश हो, ऐसी जिज्ञासा होना योग्य ही है, दुःख, यह रजोगुण का कार्य है, और रजोगुण नित्य है अतः नित्य होने के कार्य का नाश होना, यह बात अशक्य है । अर्थात कारण का अस्तित्व रहने से कार्य का भी आस्तित्व रहता ही है क्योंकि कारण रहते हुए कार्य का सर्वथैव नाश नहीं होता । यह सत्य है, परन्तु उसका अभिभव अर्थात – प्रतिकार होना शक्य है, उस दुःख का प्रतिकार कैसे कर सकते हैं, इसका विवेचन आगे बतलाया गया है ।
यदि यहाँ पर कोई ऐसी शंका करे कि दुःख है तथा यह नाशवान भी है और इसका प्रतिकार भी शक्य है तथा दुःखप्रतिकारार्थ शास्त्रीय उपाय भी है, तब लोक-प्रसिद्ध सुलभ उपायों को छोड़कर अनेक जन्मों में वह भी महत्कष्ट से साध्य होनेवाले शास्त्रीय उपायों के झंझट में कौन पड़ेगा ? क्योंकि आज समाज में भी कहावत है कि गृहाङ्गण में जो शहत मिल जावे, तो फिर उसके लिए पर्वत पर कौन जावेगा ? वैसे ही अभीष्टार्थ यदि सहज में ही सिद्ध हो, तो उसके लिए ऐसा कौन विद्वान् है जो यत्न करेगा ? “अब दुःख प्रतिकारार्थ सुलभ दृष्ट उपाय बतलाते हैं” शारीरिक दुःख के प्रेतकारार्थ उत्तम वैद्यों के बतलाये हुए सैकड़ों उपाय हैं और मानसिक दुःख निवारणार्थ भी उत्तम स्त्री, अन्न, पान, अभ्यंग, वस्त्र, अलंकार इत्यादि उपाय हैं तथा इनके प्राप्त होने से दुःख का प्रतिकार होना शक्य है । ऐसे ही – आधिभौतिक दुःख के प्रीकारार्थ निति शास्त्राभ्यास निपुणता, शान्त स्थान में वास्तव्य इत्यादि सहज उपाय हैं और आधिदैविक दुःख के लिए मन्त्र, मणि, औषध इत्यादि उपाय अति सुलभ हैं और प्रतिकार भी तुरन्त हो सकता है इस कारण से शास्त्रीय उपायों की जिज्ञासा होना अयुक्त है “परन्तु इन लौकिक उपायों से अभिलषित दुःख निवृत्त होना हिमजल तुल्य है, किन्तु यह स्थूल दृष्टी वालों को क्या मालूम ।
पूर्वोक्त शंकाओं का निराकरण करते हैं कि यह पूर्वोक्त स्थूल दृक मनुष्य कृतविधान ठीक नहीं है, क्योंकि दृष्ट उपाय हैं परन्तु उन उपायों से दुःख निवृत्त अवश्यमेव होगा ही, ऐसा नहीं कह सकते यदा कदाचित हो भी जावे तो भी उस दुःख कि तथात्सदृश अन्य दुःखों की उत्पत्ति नहीं होवेगी ऐसा अवाधित सिद्धान्त नहीं कह सकते, अस्तु, प्रकृति शास्त्र को दुःख निवृत्ति ही मात्र अभीष्ट नहीं है किन्तु एकान्तिकात्यन्तिक दुःख निवृत्ति अभीष्ट है । ‘एकान्त’ कहते हैं अवश्यमेव दुःख निवृत्त होने को और ‘अत्यन्त’ कहते हैं, एक बार निवृत्त दुःख के पुनः न उत्पन्न होने को तो इन दोनों बातों को दृष्ट उपायों में अभाव है अतः मूल में “एकान्तात्यन्ततो भावाद् ” कहा है।
यथाविधि रसायन, कामिनी निति शस्त्राभ्यास, मणि, मंत्रादि यद्यपि लौकिक उपाय सुकर हैं तथापि आध्यात्मिक दुःख निवृत्त्यर्थ उनकी कुछ भी उपयोगिता नहीं देखी जाती इसी कारण इनका वे ‘अनैकान्तकत्व’ कोटि में समझना चाहिए । क्वचित स्थल में उनकी उपयोगिता भी देखी जाती है परन्तु दुःख की अत्यन्त निवृत्ति नहीं होती अतैव इनको ‘अनात्यन्तिकत्व’ कहते हैं अर्थात पूर्वोक्त प्रकार के दोषों द्वारा ग्रस्त होने से (मृगजलवत) नोरूप योगी दृष्ट उपायों के झगडे में न पढ़कर विद्वानों को शास्त्रीय(आध्यात्मिक) उपाय आवश्यकीय है ।
19/08/19, 10:25 pm – LE Ravi Parik C Block Pragati Maidan : https://youtu.be/RlWN68hhkUY
19/08/19, 11:18 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक ११२,११३,११४
पलाण्डुस्तद्रुणन्यूनः श्लेष्मलो नातिपित्तलः। कफवातार्शसां पथ्याः स्वेदेऽभ्यवहृतौ तथा॥११२॥
तीक्ष्णो गृञ्जनको ग्राही पित्तिनां हितकृन्न सः। दीपनः सूरणो रूच्यः कफघ्नो विशदो लघुः॥११३॥
विशेषादर्षसां पथ्याः भूकन्दस्त्वतिदोषलः। पत्रे पुष्पे फले नाले कन्दे च गुरुता क्रमात्॥११४॥
पलाण्डु(प्याज) का शाक- यह लहसुन से कुछ कम गुणों वाला होता है। यह कफकारक है तथा पित्तकारक कम होता है।
गृञ्जनक का शाक- यह कफविकार, वातविकार तथा अर्शोरोग में हितकर होता है। व्रणशोथ आदि पर इसका लेप करके स्वेदन किया जाता है तथा शाक बनाकर इसे खाया भी जाता है। गाजर का शाक तीक्ष्ण गुणों वाला, मल को बांधने वाला तथा यह पित्तविकारों के लिए हितकर नहीं है।
वक्तव्य- वास्तव में उक्त ११२वें पद्य को ‘पलाण्डु…….तथा’। इस प्रकार दो पंक्तियों में पूरा होना चाहिए था। ऐसा मत श्री अरुणदत्त एवं श्रीचन्द्रनन्दन का था, किन्तु हेमाद्रि का कथन है कि ये गुण धर्म पलाण्डु के नहीं अपितु गृञ्जन के है। अतः उक्त दो पंक्तियों को यहां एकसाथ रखा है। वास्तव में स्वेदन के लिए पलाण्डु तथा गृञ्जन दोनों का ही प्रयोग होता है। देखें च.सू.२७/१७४।
सूरण का शाक- यह अग्निदीपक, रुचिकारक, कफनाशक, विशद(पिच्छिलतानाशक), लघु (शीघ्र पचने वाला), विशेष करके यह अर्शोरोग के लिए हितकर होता है।
वक्तव्य- अर्शोनाशक ‘शूरणमोदक’ योग देखें— भैषज्यरत्नावली- अर्शोरोगाधिकार में १. स्वल्प – शूरणमोदक, २. बृहतशूरणमोदक तथा अन्य अनेक योग। सूरण परिचय- यह दो प्रकार का होता है- एक वह जिसे खा लेने से मुख तथा गले में कांटे जैसे चुभते से प्रतीत होते है। दूसरा वह जो पहले की तुलना में कम कष्टकारक होता है। पाककर्मकुशल व्यक्ति दोनो की सब्जी सूखी अथवा रसेदार बनाते हैं, बड़े शौक से खायी भी जाती है। वे इसके टुकड़ो को इमली (किसी प्रकार के अम्ल), चूना या फिटकरी आदि में डालकर, उबालकर घी में तलकर इसका पाक किया करते है। कुछ टीकाकारो ने सुरण को ही भूकन्द माना है। ‘कन्द’ शब्द की दृष्टि से उनका सोचना उचित ही है, किन्तु सूरण के उक्त गुणों के बाद उसे अतिदोषज कहना कहां तक युक्तिसंगत होगा?
भूकन्द का शाक- यह अत्यन्त दोषकारक तथा दोषवर्धक होता है।
वक्तव्य- भूकन्द के सम्बन्ध में विद्वानो के मतभेद- कोई इसे जिमिकन्द, दूसरे विद्वान उसे ‘भूस्फोटाऽऽख्यः प्रावृड् उद्भवः’ अर्थात यह संस्वेद शाक है। हिन्दी में इसे— भुईछत्ता, खुमी आदि कहते है। अंग्रेजी में mashroom कहते है। यह वर्षाऋतच में वर्षा होने पर सहसा पैदा हो जाता है। इसका आकार छाता का जैसा होता है। रंग सफेद या बादामी सफेद होता है। यह भक्ष्य(खाने योग्य) तथा अभक्ष्य (जहरीला) भेद से दो प्रकार का होता है।
शाको मे उत्तरोत्तर गुरुता- पत्रशाको से पुष्पशाक गुरु, इनसे अधिक फलशाक, फलशाको से अधिक गुरु नालशाक(सरसो के नाल= गन्दल), इनसे भी अधिक गुरु कन्दशाक होते हैं।
वक्तव्य- श्री हेमाद्रि उक्त श्लोक का क्रम पुष्पे पत्रे इस प्रकार चाहते हैं, क्योंकि। सुश्रुत ने एक तो नालशाक का ग्रहण नहीं किया और दूसरा जहां हेमाद्रि लघवः पाठ को उद्धृत करते हैं, यहां सुश्रुत ने गुरुवः पाठ दिया है जो सर्वथा युक्तियुक्त है। देखें। सु.सू. ४६/२४३। गुरुवः के स्थान पर लघवः शब्द का छप जाना सम्पादकीय प्रमाद प्रतीत होता है।
19/08/19, 11:23 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: कृपया कोई भी forwarded, video या image न डालें, केवल वही डाले जो खुद से पढ़ा हो, वो भी typed, कोई image नहीं। इनका अधिकार केवल admin के ही पास है 🙏🏼🙏🏼
20/08/19, 12:20 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
श्री मनुस्मृति
तं चेदभ्युदियात्सूर्यः शयानं कामचारतः ।
निम्लोचेद्वाप्यविज्ञानाज्जपन्नुपवसेद्दिनम् । । २.२२० । ।
सूर्येण ह्यभिनिर्मुक्तः शयानोऽभ्युदितश्च यः ।
प्रायश्चित्तं अकुर्वाणो युक्तः स्यान्महतैनसा । । २.२२१ । ।
आचम्य प्रयतो नित्यं उभे संध्ये समाहितः ।
शुचौ देशे जपञ् जप्यं उपासीत यथाविधि । । २.२२२ । ।
यदि स्त्री यद्यवरजः श्रेयः किं चित्समाचरेत् ।
तत्सर्वं आचरेद्युक्तो यत्र चास्य रमेन्मनः । । २.२२३ । ।
अर्थ
यदि ब्रह्मचारी इच्छा से सोता रहे और सूर्योदय हो जाय या नगर में ही बिना जाने सूर्यास्त हो जाय तो प्रायश्चित में एक दिन का उपवास करे व गायत्री जाप करे।। यदि सूर्योदय व सूर्यास्त के समय सोता रह जाय व प्रायश्चित्त ना करे तो महापातक लगता है।।
रोज़ दोनों सन्ध्या में एकाग्रमन होकर पवित्र स्थान में गायत्रीजाप करे।।
यदि किसी धर्म का स्त्री या शूद्र आचरण करता हो और उसमें उसका मन लगता हो तो उसी का पालन करे,या जिसमें अपना चित्त प्रसन्न हो वही करे।।
हरी ॐ
🙏
20/08/19, 12:24 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: कफ पृथ्वी और जल तत्व से बना है सो रंग में सफ़ेद, चिकनाई वाला, गुरु, मीठा होता है। इसकी शरीर में मुख्य स्थिति छाती और पेट में होती है।
20/08/19, 12:27 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙏🏼🙏🏼
20/08/19, 12:44 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: भूकन्द के भक्ष्य-अभक्ष्य होने का कैसे पता लगेगा?
20/08/19, 12:44 am – G B Malik Delhi Shastra Gyan:……………. बहुत दिनों से मेरे मन में एक प्रश्न है, जिज्ञासा है, जो मैं आज पूछना चाहता हूँ, वो यह कि हिन्दू धर्म /सनातन धर्म के अनुसार, भगवान की क्या परिभाषा है? अगर भगवान को परिभाषित करेंगे तो कैसे करेंगे?
20/08/19, 12:47 am – G B Malik Delhi Shastra Gyan: जब से मैंने इस मेसेज को पढ़ा है, तब से मेरी जिज्ञासा और ज्यादा बढ़ी है, क्या यह भगवान की ki परिभाषा हो सकती है?
20/08/19, 12:48 am – G B Malik Delhi Shastra Gyan: कृपया मार्गदर्शन करें, अति कृपा होगी
धन्यवाद
20/08/19, 12:53 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: धीरज धरो महाराज, ये @918010855550 जी बताएँगे, शायद सो गए हों अभी 🙂
20/08/19, 4:28 am – Pitambar Shukla: 🙏🙏
20/08/19, 5:27 am – Ashu Bhaiya: भगवान – सभी ऐश्वर्यों का मालिक
ईश्वर – सभी पर शासन (ईशन) करने वाला
20/08/19, 6:15 am – Abhinandan Sharma: बहुत सुंदर ।
20/08/19, 6:20 am – Mummy Hts:
20/08/19, 6:34 am – Abhinandan Sharma: वाह, क्या तात्विक विवेचन है । बहुत सुंदर आरम्भ । तर्कशास्त्र का भी उद्देश्य, दुख से परमानेंट मुक्ति ही है ।
20/08/19, 7:35 am – LE Onkar A-608: ब्रह्म मुहूर्त में पढ़ने पर भी कोई ऐसा वाक्य नही रहा कि कई बार न पढ़ना पड़ा हो। बहुत ही अधिक समय लगा। ऐसा एकाग्रता का अभाव या अत्यल्पज्ञता के कारण हो सकता है।
एकान्त और अत्यन्त के अर्थ ने इनके बारे में मेरे पूर्वज्ञान को तिरोहित कर दिया। 🙏
20/08/19, 8:19 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: इसीलिए लिखने में भी समय लगा, 2 अलग पुस्तकों से और कम से कम तीन बार पढ़ा तब कहीं जाकर दिमाग में घुसा की क्या बताया गया है।
20/08/19, 8:32 am – LE Onkar A-608: आप के परिश्रम के लिए नमन 🙏
कृपया इसे पोस्ट करने का समय ऐसा रखें कि लोग पढ़ सकें।
दिन में इतना विशद एवं गूढ विषय व्यस्तता के कारण पढ़ना एवं समझना अत्यन्त दुष्कर है।
20/08/19, 8:38 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: इसीलए यहाँ text form में पोस्ट करना जरुरी किया गया है ताकि हम इसे दो दिन, दो हफ्ते, दो महीने और दो साल बाद भी पढ़ सकें। समय की परेशानी सभी के साथ है, तो जब आपके पास समय हो तभी पढ़ें।
20/08/19, 8:42 am – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: 🙏🙏
20/08/19, 10:31 am – Pitambar Shukla: श्री गणेशाय नमः
श्री जानकी वल्लभो विजयते
श्री राम चरित मानस
उत्तर कांड
संत असंत मरम तुम्ह जानहु ।
तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु।।
कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला।
कहहु कवन अघ परम कराला।।
संत और असंत का मर्म ( भेद) आप जानते हैं,
उनके सहज स्वभाव का वर्णन कीजिए ।
फिर कहिए कि श्रुतियों में प्रसिद्ध सबसे महान् पुण्य कौन सा है और सबसे महान् भयंकर पाप कौन है?।।120-3।।
मानस रोग कहहु समुझाई।
तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई।।
तात सुनहु सादर अति प्रीती।
मैं संछेप कहउँ यह नीती।।
फिर मानस रोगों को समझा कर कहिए।
आप सर्वज्ञ हैं और मुझ पर आपकी कृपा भी बहुत है।
( काग भुशुण्डि जी ने कहा )—
हे तात! अत्यंत आदर और प्रेम के साथ सुनिये।
मैं यह नीति संक्षेप से कहता हूं।।120-4।।
20/08/19, 9:08 pm – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad: भूकन्द मेरे समझ से सूरणकन्द को ही कहते हैं ; जिस सूरणकंद के पौधे में फूल लग जाते हैं, वह भूकंद है. जाति एक ही है. यह त्रिदोषकारक होता है और ऐसी मान्यता है कि इसे खाने से गलित कुष्ठ होता है.
20/08/19, 10:02 pm – +91 …………:
20/08/19, 10:05 pm – +91 …………: 😊👌👌
20/08/19, 10:18 pm – Abhinandan Sharma: हमाए एडमिन साब भोत गुस्से वाले हैं, ये बात नये मेंबर जान लें और इस वीडियो को उनके दिखने से पहले हटा लें । फिर मत कहिएगा की बताया क्यों नई ।
20/08/19, 10:29 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: 🙏
20/08/19, 10:35 pm – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: 😄😄🙏
20/08/19, 10:49 pm – FB Rahul Gupta Kanpur: एक बार मुझसे ऐसी भूल (सच में भूल ही थी) हो गयी थी। मैंने तुरन्त क्षमा याचना करके तथा post हटाकर भूल सुधार कर लिया था।
20/08/19, 10:53 pm – FB Rahul Gupta Kanpur: मानस रोग प्रसंग को युगतुलसी श्रीरामकिंकर जी ने बहुत सुंदर ढंग से समझाया है।
21/08/19, 5:19 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
श्री मनुस्मृति
धर्मार्थावुच्यते श्रेयः कामार्थौ धर्म एव च ।
अर्थ एवेह वा श्रेयस्त्रिवर्ग इति तु स्थितिः । । २.२२४ । ।
आचार्यश्च पिता चैव माता भ्राता च पूर्वजः ।
नार्तेनाप्यवमन्तव्या ब्राह्मणेन विशेषतः । । २.२२५ । ।
आचार्यो ब्रह्मणो मूर्तिः पिता मूर्तिः प्रजापतेः ।
माता पृथिव्या मूर्तिस्तु भ्राता स्वो मूर्तिरात्मनः । । २.२२६ । ।
यं मातापितरौ क्लेशं सहेते संभवे नृणाम् ।
न तस्य निष्कृतिः शक्या कर्तुं वर्षशतैरपि । । २.२२७ । ।
अर्थ
कोई अर्थ व धर्म को, कोई काम व अर्थ को, कोई अर्थ को और कोई धर्म को ही अच्छा मानते हैं।। पर धर्म,अर्थ, व काम इन तीनों का आचरण करने से भला होता है यह धर्म शास्त्र की आज्ञा है।।
आचार्य ब्रह्मा की मूर्ति,पिता प्रजापति की मूर्ती,माता पृथ्वी की मूर्ती, और बड़ा भाई अपनी ही मूर्ती है,,इन से दुखी होने पर भी इनका अपमान ना करें।।
और ब्राह्मण का तो कभी ना करें, मनुष्यों की उत्पत्ति व पालन पोषण में माता पिता जो दुख सहते हैं उसका बदला सैकड़ों वर्ष सेवा से भी नहीं हो सकता ।।
हरी ॐ
🥢
21/08/19, 9:35 am – LE Ravi Parik C Block Pragati Maidan : क्या मनु ने प्रलय देखा था, कैसा प्रलय था। कृपया थोड़ा प्रकाश डाले
21/08/19, 10:13 am – Abhinandan Sharma: इस ग्रुप में, किसी भी पोस्ट से संबंधित प्रश्न ही मान्य हैं । यदि आपके पास, विषय से हटकर कोई प्रश्न है तो कृपया ग्रुप के संबंधित सदस्य, जिसे उचित समझें, उससे अलग से पूछ लें ।
21/08/19, 10:19 am – Pitambar Shukla: श्री गणेशाय नमः
श्री जानकी वल्लभो विजयते
श्री राम चरित मानस
उत्तर कांड
नर तन सम नहिं कवनिउ देही।
जीव चराचर जाचत जेही।।
नरक स्वर्ग अपवर्ग निसेनी।
ग्यान बिराग भगति सुभ देनी ।।
मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नही है ।
चर और अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं।
यह मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याण कारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देने वाला है ।।120-5।।
सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर।
होहिं बिषय रत मंद मंद तर।।
काँच किरिच बदले ते लेहीं।
कर ते डारि परस मनि देहीं।।
ऐसे मनुष्य शरीर को धारण ( प्राप्त ) करके भी जो लोग श्री हरि का भजन नही करते और नीच से भी नीच विषयों में अनुरक्त रहते हैं,
वे पारस मणि को हाथ से फेंक देते है और बदले में काँच के टुकड़े ले लेते हैं।।120-6।।
21/08/19, 10:24 am – LE Ravi Parik C Block Pragati Maidan : Ji. 😊
फिर भी यदि कोई चर्चा इस विषय पर कभी हो पाए तो जरूर कीजियेगा। धन्यवाद🙏🏻
21/08/19, 10:32 am – Abhinandan Sharma: जब चर्चा में प्रलय विषय आये, तब आप ये प्रश्न रखियेगा🙏
21/08/19, 10:35 am – LE Ravi Parik C Block Pragati Maidan : उचित हैं 🙏🏻
21/08/19, 2:54 pm – +91 80765 70922:
21/08/19, 2:55 pm – +91 ………: This message was deleted
21/08/19, 2:55 pm – Abhinandan Sharma: कृपया दोनो वीडियो तुरन्त हटा लें, कहीं हमाए एडमिन न देख लें !
21/08/19, 4:41 pm – Abhinandan Sharma: ऐसा स्ट्रिक्ट ग्रुप देखा है कहीं और 😊
21/08/19, 4:53 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: कृपया सभी नए सदस्य ध्यान दें
इस ग्रुप में फ़ॉर्वर्डेड पोस्ट डालना मना है | नेट से कोई भी कंटेंट, ख़ास तौर से बिना सन्दर्भ के अथवा तोडा मरोड़ा हुआ, डालना भी मना है | जो आपने स्वयं पढ़ा हो, किसी शास्त्र से, कोई दोहां, कोई चोपाई, कोई पुराण, कुछ भी, वो आप इस ग्रुप में डाल सकते हैं | ग्रुप ज्वाइन करने वाले, खुद भी कोई भी एक पुस्तक, ग्रुप एडमिन के परामर्श से प्रारंभ कर सकते हैं और उसे पढ़कर ग्रुप में अन्य मेम्बेर्स को पढने के लिए डाल सकते हैं | अभी ग्रुप में ४-5 पुस्तक इस प्रकार के प्रयास से चल रही है, जिससे सभी लोग वो ग्रन्थ पढ़ सकें | स्वागतम !
21/08/19, 4:56 pm – LE Ravi Parik C Block Pragati Maidan : Dhanyawad. अभी कौन 2 सी पुस्तक चल रही है।
21/08/19, 5:04 pm – Abhinandan Sharma: अष्टांग हृदय (आयुर्वेद), रामचरित मानस, मनु स्मृति, सांख्यतत्व कौमुदी (अभी इस पर विचार चल रहा है कि इसको कंटिन्यू करना है या नहीं), शिव स्वरोदय ।
21/08/19, 5:05 pm – LE Ravi Parik C Block Pragati Maidan : अति सुंदर🙏🏻
21/08/19, 5:05 pm – Abhinandan Sharma: भृतहरि के तीनों शतक (श्रृंगार, नीति और वैराग्य, शंकराचार्य का प्रश्नोत्तरमाला, गोविब्द दामोदर स्तोत्र, कृष्णअष्टक समाप्त हो चुके हैं अभी तक ।
21/08/19, 5:07 pm – Pitambar Shukla: कुछ समय तक वाल्मीकि रामायण भी चल चुकी है ।
21/08/19, 5:08 pm – Abhinandan Sharma: मेरी तो उसकी इच्छा थी 😊
21/08/19, 5:11 pm – +91 ………: चाणक्य सूत्राणि कैसा रहेगा ?????
21/08/19, 5:12 pm – Abhinandan Sharma: 😲 बहुत बढ़िया रहेगा !!! सुदर्शन जी, क्या विचार है । अर्थशास्त्र से शुरू करें या किसी और से ?
21/08/19, 5:13 pm – Abhinandan Sharma: आप कर पाएंगे ?
21/08/19, 5:13 pm – +91 ……..: जी । प्रतिदिन एक सूत्र
21/08/19, 5:13 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: चाणक्य ही सही रहेंगे ।
21/08/19, 5:14 pm – Abhinandan Sharma: बहुत सुन्दर ।
21/08/19, 5:14 pm – Abhinandan Sharma: शुभारंभ कीजिये ।
21/08/19, 5:14 pm – +91 ……..: ठीक हैं हम उनका एक सूत्र अभी सायं ६.00 से भेजते हैं।
21/08/19, 5:17 pm – Abhinandan Sharma: 👏👏
21/08/19, 5:19 pm – LE Ravi Parik C Block Pragati Maidan : कृपया श्रीमद्भागवत भी शुरू करिये 🙏🏻
21/08/19, 5:24 pm – Abhinandan Sharma: नहीं । बहुत बड़े और विस्तारित ग्रन्थ की बजाय, छोटे, समाप्त हो सकने वाले और uncommon ग्रंथों को प्राथमिकता दी जाएगी।
21/08/19, 5:25 pm – Abhinandan Sharma: जैसे भगवद्गीता सभी ने पढ़ी होगी लगभग लेकिन चाणक्यनीति ओरिजिनल शायद ही किसी ने पढ़ी हो या चाणक्य का अर्थशास्त्र। सो उसको वरीयता रहेगी ।
21/08/19, 5:27 pm – Abhinandan Sharma: शिव स्वरोदय, अष्टांग हृदय, त्रिशतक, सब ऐसे ही ग्रन्थ हैं । रामचरितमानस तो पीताम्बर जी की इच्छा थी, सो वो कर रहे हैं । आप यदि स्वयं भागवत पुराण रोज डालना चाहें, तो अवश्य डाल सकते हैं, उसके लिये कोई मना नहीं है।
21/08/19, 5:27 pm – +91 ……….: जन्माष्टमी 23 अगस्त को है 24 अगस्त को इस पर कुछ प्रकाश डालिए
21/08/19, 5:30 pm – Abhinandan Sharma: विषय से हटकर प्रश्न अलग से पूछे कृपया । ये प्रश्न आप अलंकार जी से अलग से पूछ लीजिये ।
21/08/19, 5:33 pm – LE Ravi Parik C Block Pragati Maidan : जी जरूर, पर अभी नही। अभी काफी अच्छे विषय चल रहे है,।
21/08/19, 5:33 pm – FB Rahul Gupta Kanpur: 🌟 श्रीकृष्ण जन्माष्टमी काल-निर्णय
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का उत्सव भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को होता है। इस व्रत में सप्तमी-सहित अष्टमी का ग्रहण निषिद्ध है।
इस विषय में दो मत प्रचलित हैं। स्मार्त लोग अर्धरात्रि का स्पर्श होने पर या रोहिणी नक्षत्र का योग होने पर सप्तमी सहित अष्टमी में भी उपवास करते हैं, किन्तु वैष्णव लोग सप्तमी का किंचिन्मात्र स्पर्श भी ग्रहण नहीं करते। उनके यहाँ सप्तमी का स्पर्श होने पर अगले दिन उपवास किया जाता है, चाहे अगले दिन अष्टमी कला-काष्ठा मात्र ही हो।
निम्बार्क सम्प्रदायी वैष्णव तो पूर्वदिन अर्धरात्रि से कुछ पल भी सप्तमी अधिक हो तो भी अष्टमी को उपवास न करके नवमी को ही उपवास करते हैं। यही मत रामानन्द सम्प्रदायियों को भी मान्य है।
रामानुज सम्प्रदाय वाले नक्षत्र को ही प्रधानता देते हैं। उनके यहाँ सिंह-संक्रांति में रोहिणी नक्षत्र जब भी आता है तभी जन्माष्टमी मनाई जाती है। शेष वैष्णवों के यहाँ उदयव्यापिनी अष्टमी को ही मान्यता दी जाती है।
जय श्रीकृष्ण 🌏
21/08/19, 5:55 pm – +91 ………..: चाणक्य नीति और चाणक्य सूत्राणि अलग अलग ग्रन्थ हैं।
अभी चाणक्य के ग्रंथो में अभी लघुचाणक्य, वृद्धचाणक्य ,चाणक्य नीतिदर्पण(जन प्रचलित) , चाणक्य राजनीतिशास्त्र ,उनका अर्थशास्त्र , श्लोक परिमाण ग्रन्थ , और चाणक्य सूत्राणि या उनका सूत्र ये ग्रंथ मिलते हैं।
उसी मे से उनका यह ग्रन्थ हैं चाणक्य सूत्राणि जो लगभग ५७१ सूत्र हैं।
21/08/19, 6:01 pm – Abhinandan Sharma: Give me some time to decide
21/08/19, 6:07 pm – +91…………: चाणक्य_सूत्राणि
चाणक्य सूत्राणि पर यह पुस्तक पंडित श्री रामावतार विद्याभास्कर जी की हैं जो इस पुस्तक के भाषान्तरकार तथा व्याख्याकार हैं हैं।
*सूत्र १*
*सुखस्य मूलं धर्मे: 11१11*
अर्थ– धर्म ( नीति या मानोवोचित कर्तव्य का पालन ) सुख का मूल हैं।
विवरण– जगत् ( समाज ) का धारण या प्लान करने वाली नीतिमत्ता या कर्तव्यपालन ही मनुष्य का धर्म हैं। धर्म (नीति) ने ही समस्त जगत् को धारण कर रखा हैं। नहीं तो वह कभी का लड़ झगड़कर नष्ट हो गया होता। अधर्म आपतदृष्टि से सुख का मूल दिखने पर भी दुःख का मूल हैं। धर्म पालन से दुःखदायी पाप की संभावनायें नष्ट हो जाती हैं। मानसिक अभ्युज्ञान और ऐहिक अभ्युदय दोनों को समानरूप से साथ साथ सिद्ध करने वाली नीति “धर्म” कहलाती हैं। इस लिए जो लोग राज्याधिकार के लेना और उससे सुख अर्थात् दोनों प्रकार का अभ्युदय पाना चाहे वे सावधान हो जाये और उससे भी पहले धर्म ( नीतिमत्ता ) को अपनायें। नीति का अनुसरण किये बिना मनुष्य लो मानसिक अभ्युस्थानमूलक सुख ही सुख है। मानसिक पतन से मिलनेवाला सुख सुख न होकर सुखभ्रम या अनन्त दुःखदायक ही है।
पुस्तकान्तर में इससे प्रथम यह स्वतंत्र सूत्र उपलब्ध है।
*सा श्रीर्वो$व्यात्।।*
अर्थ- वह परमसंपत्तिदात्री ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री देवता राज्यश्री आप राज्याधिकारियों को सुमति देकर रक्षा करे।
विवरण- राज्यश्री आप लोगो के पास आकर आप को श्रीमदमत्त न बनाकर , समाजसेवा के सर्वोत्तम क्षेत्र राज्यसंख्या का सुधारूप से सञ्चालन करने की सुमति प्रदान करे। आप लोग राज्य को अपने राष्ट्र की पवित्र धरोहर मानकर इसे राष्ट्रसेवा का तपोवन बनाकर रखे।
भादप्रद कृष्ण षष्ठी , परिधावी सवंत्सर (२१/०८/२०१९)🙏🙏
21/08/19, 7:15 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: ।ॐ। शिव स्वरोदयः ।ॐ।
आदौ तु क्रियते मुद्रा पश्चाद्युद्धं समाचरेत्।
सर्पमुद्रा कृता येन तस्य सिद्धिर्न संशयः।२३९।
चन्द्रप्रवाहेSप्यथ सूर्यवाहे भटाः समायान्ति च योद्धुकामाः।
समीरणस्तत्त्वविदां प्रतीतो या शून्यता सा प्रतिकार्यनाशिनी।२४०।
यां दिशां वहते वायुर्युद्धं तद्दिशि दापयेत्।
जयत्येव न सन्देहः शक्रोऽपि यदि चाग्रतः।२४१।
यत्र नाड्यां वहेद्वायुस्तदङ्गे प्राणमेव च।
आकृष्य गच्छेत्कर्णातं जयत्येव पुरन्दरम्।२४२।
अर्थ- युद्ध करने के पहले मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए, तत्पश्चात युद्ध करना चाहिए। जो व्यक्ति सर्पमुद्रा का अभ्यास करता है, उसके कार्य की सिद्धि में कोई संशय नहीं रह जाता।२३९।
जब चन्द्र स्वर या सूर्य स्वर में वायु तत्त्व प्रवाहित हो रहा हो, तो एक योद्धा के लिए युद्ध हेतु प्रस्थान करने का उचित समय माना गया है। पर यदि अनुकूल स्वर प्रवाहित न हो रहा हो और सैनिक युद्ध के लिए प्रस्थान करता है, तो उसका विनाश हो जाता है, इसमें कोई संशय नहीं।२४०।
जिस स्वर में वायु तत्त्व प्रवाहित हो रहा हो, उस दिशा में यदि योद्धा बढ़े तो वह इन्द्र को भी पराजित कर सकता है।२४१।
किसी भी स्वर में यदि वायु तत्त्व प्रवाहित हो, तो प्राण को कान तक खींचकर युद्ध के लिए प्रस्थान करने पर योद्धा पुरन्दर (इन्द्र) को भी पराजित कर सकता है।
21/08/19, 7:15 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: 🙏🙏🙏
21/08/19, 7:27 pm – LE Raju Tomar F Tower: प्रणाम,
आज एक व्यक्ति ने मुझको मेरी जड़ों से तोड़ने का असफल प्रयास कियाl दुख तो इस बात का है कि वह स्वयं अपनी जड़ों से टूटा हुआ था और उन जड़ों से भी टूट चुका था जिनसे उसका परिवार अच्छी तरह से जुड़ा थाl कुछ लोग ऐसे व्यक्ति की बात मानकर अपना नाम भी बदलने को तैयार हो जाते हैं जिस व्यक्ति ने स्वयं अपने माता-पिता द्वारा दिया गया नाम नहीं बदलाl
मैं संत रामपाल के एक शिष्य की बात कर रहा हूं
🙏
21/08/19, 8:11 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: कृपया यहाँ इसकी बात न करें, अगला ऐसा message और आप निष्काषित कर दिए जाएंगे
21/08/19, 8:12 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: सांख्यतत्त्वकौमुदी – 2
दृष्टवादानुश्रविकः स ह्यविशुद्धि क्षयातिशययुक्तः ।
तद्विपरीतः श्रेयान् व्यक्ताव्यक्तज्ञ विज्ञानात् ।। २ ।।
अर्थ:
जब कि वह वैदिक उपाय अविशुद्धि(मलिन), क्षय(नाशवान) तथा अतिशय आदि दोषयुक्त है, तब वैदिक कर्म कलाप भी लौकिक उपाय के सदृश ही है और ऐसा होने के कारण उस दोषयुक्त वैदिक उपाय से विपरीत अर्थात अशुद्धता रहित हमारा वैदिक उपाय ही अति उत्तम है क्योंकि इसकी (हमारे शास्त्रीय उपाय की ) उत्पत्ति व्यक्त(व्यक्त्कार्य) और अव्यक्त(कारण) तथाज्ञ(चैतन्य पुरुष) इनके विवेक ज्ञान से होती है ।
व्याख्या – गुरु पाठ के अनन्तर जो श्रवण किया जाता है अर्थात जिसका केवल गुरु परंपरा से श्रवण होता है तथा कोई व्यक्ति विशेष से ग्रथित नहीं किया जाता, वही अनुभव अर्थात वेद है (तत्रेति) उसमें रहनेवाला या उससे मिला हुआ या उससे प्राप्त किया गया जो कर्म समूह है, वह ‘आनुश्रविक’ है । परन्तु वह आनुश्रविक कर्मसमूह भी लोकसिद्ध उपाय सदृश ही है,(एकान्तिकेति) क्योंकि त्रिविध दुःखों का नियम से तथा समूल नाश करने में (उपयोगिता) कारिणीभूत न होना यह दोष उभयत्र सदृश ही है ।
यद्यपि इस कारिका में आनुश्रविक अर्थात वैदिक, ऐसा यद्यपि सामान्यतः निर्देश किया है, तथापि उस शब्द का ‘कर्मकलाप’ मात्र अभिप्राय समझना अर्थात वैदिक कर्मसमूह मात्र दुःखोच्छेद के लिए निरुपयोगी है, अन्य भाग नहीं, क्योंकि विवेक ज्ञान, यह भी तो आनुश्रविक ही है, जैसे वेद ही ने विवेक ज्ञान विषय में “अये मैत्रेयी आत्मा को जानना चाहिए” ऐसा विधान किया है, आत्मा को जानना, इसका अर्थ आत्मा को प्रकृति से भिन्न समझना ऐसा है (न स ) तद्वत “जो आत्मा को जानता है, वह पुनः जन्म मरण की परम्परा में नहीं गिरता” ऐसी श्रुति आत्म ज्ञान का परम फल बतलाती है ।
कर्मसमूह दुःखोच्छेद के लिए निरुपयोगी है, इसका कारण बतलाते हैं –
(सह्य) वह वैदिक उपाय अविशुद्ध, क्षय, अतिशय इन तीनो दोषों से युक्त है, (अविशुद्धि:) सोम यागादि सत्र, पशुओं की हिंसा, बीजों का नाश इत्यादि दोषयुक्त कर्मों के सहाय से साध्य होता है, बस यही उसकी (अविशुद्धि) अपवित्रपना है, जैसे भगवान् पञ्चशिखाचार्य जी ने वैदकीक कर्म समूह को स्वल्प सङ्कर, सपरिहार तथा साप्रत्यव मर्ष, ऐसा बतलाया है, अब प्रत्येक शद्बों का अर्थ बतलाता हूँ –
स्वल्प सङ्कर – इसका अर्थ यह है कि ज्योतिष्टोम आदि यज्ञों से उत्पन्न होने वाले प्रधान अपूर्व का तथा पशु हिंसादिकों से उत्पन्न हुआ अनर्थकारक स्वल्प अपूर्व से संसर्ग होना अर्थात मेल होना स्वल्प सङ्कर कहलाता है अर्थात ज्योतिष्टोम आदि यज्ञों से उत्पन्न होने वाला प्रधानीभूत धर्म का पशु हिंसादि अनर्थकारक अप्रधानीभूत अधर्म का एक समानाधिकरण में रहना ही सङ्कर कहलाता है, पुण्य की अपेक्षा अलप होने से स्वल्प कहा है ।
सपरिहारः – बहुत से प्रायश्चितों द्वारा उसका परिहार (निष्कृति) हो सकता है, परन्तु प्रमाद से या स्मृति विभ्रम से भूल कर, प्रायश्चित न किया गया तो प्रधान कर्म के विपाक समय में अर्थात मुख्य कर्म का स्वर्गादिक फल जिस समय प्राप्त होता है, उसी समय अप्रधान हिंसाजन्य अधर्म भी दुःख रूप से अनुभव करने में आता है, परन्तु यद्यपि ऐसा प्रकार है, तथापि यावत्काल पर्यन्त वह अनर्थ उत्पन्न करते रहे, तावत् काल पर्यन्त वह सप्रत्यव मर्ष रहता है अर्थात सहिष्णुता के साथ रहता है सारांश फल भोगने वाला पुरुष उसको सहता है ।
चिरकालिक पुण्य संचय से प्राप्त स्वर्ग रुपी अमृत सरोवर में स्नान करने वाले कुशल कर्म ही अल्प पाप से प्राप्त दुखाग्नि की चिंगारी को सहन करते हैं अर्थात बहुत सी सुख राशि के सामने दुःख कणिका कुछ भी मालूम नहीं पड़ती, यहाँ तक पूर्वोक्त पञ्च शिखाचार्य का मत बतलाया गया तथा उससे वैदिक कर्मसमूह अविशुद्ध है यह निश्चित हुआ, परन्तु इस पर मीमांसकों की कोटि नहीं है ऐसा नहीं, जो कोटि है वह आगे बतलाई जाती है, यदि मीमांसक कहें कि –
किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो, यह सामान्य शास्त्र (अग्नि शोमीयं पशुमालभेत) अग्निष्टोम सम्बन्धी पशुओं की हिंसा करें, इस विशेष शास्त्र से बाधित होता है, परन्तु यह मीमांसकों का कथन हमको युक्त नहीं मालूम पड़ता क्योंकि उपरोक्त सामान्य और विशेष वाक्य में हमको किञ्चित भी विरोध नहीं देख पड़ता, अतः वे जैसा कहते हैं, वैसा यहाँ नहीं है, कारण जिन दोनों में विरोध हुआ करता है, उनमें से जो बली होता है, वह दुर्बल को बाधा किया करता है, ऐसा नियम तथा अनुभव भी है, परन्तु उपरोक्त वाक्यों में विरोध न होकर उनका भिन्न-२ विषय है; यदि कहो कि कैसे? तो बताता हूँ – “किसी प्राणी की हिंसा मत करो” यह निषेध हिंसा को अनर्थ हेतुत्व सूचित कराता है – अर्थात हिंसा का अर्थोत्पादक है, परन्तु यज्ञ के उपयोगी नहीं है, ऐसा सूचित नहीं कराता तथा ‘अग्निष्टोम में हिंसा करें’ यह जो दूसरा वाक्य है, वह यह सूचित करता है कि पशुओं की हिंसा यज्ञ के उपयोगी है, बस इतना ही कहना है परन्तु उससे अनर्थ नहीं होता ऐसा कुछ वह नहीं कहता ।
हिंसा अनर्थ का हेतु होना तथा यज्ञ के उपयोगी होना, इन दोनों में किसी तरह का विरोध नहीं है, इस उपरोक्त शास्त्रार्थ से – हिंसा, पुरुष को दोषी भी करेगी तथा यज्ञ के उपयोगी भी होवेगी यह सिद्ध हो चुका, अस्तु, मूल कारिका में जो “क्षयातिशय” कहा, अब वह वैदिक उपाय क्षय तथा अतिशय दोष युक्त कैसे हैं, यह बतलाते हैं ।
क्षय (नाश) तथा अतिशय ये दोष वस्तुतः स्वर्गादि फलों में विद्यमान रहते हैं, न कि यज्ञों में, परन्तु उन्हीं दोषों का यज्ञ में उपचार किया जाता है ।
अब स्वर्गादिकों में अतिशय दोष कैसे है, यह बतलाया जाता है । ज्योतिष्टोम यज्ञ केवल स्वर्ग के साधक हैं तथा वाजपेयादि यज्ञ स्वराज्य के भी साधक हैं अर्थात उससे इन्द्र बना जा सकता है; तो इन दोनों में अतिशय दोष आ गया, क्योंकि दुसरे की संपत्ति का उत्कर्ष हुआ देख, जिसकी संपत्ति हीन है, ऐसे पुरुष को दुःख होना प्रकृति सिद्ध बात है । एक की अपेक्षा दुसरे को उत्तम स्थिति में रहना, यही अतिशय कहाता है ।
अब मीमांसकों का अमरत्व के विषय में क्या कहना है, वो बताते हैं । हमनें सोमपान किया और अमर हुए, प्रकृत वाक्य में ‘अमर’ का अर्थ है चिरकाल तक स्थिर रहने वाला । उपरोक्त अर्थ करने के विषय में प्रमाण भी है । प्रलय पर्यन्त स्थिर रहनेवाले स्थान को अमृतत्व, ऐसा कहा जाता है ।
यागादिकों से अमृतत्व की प्राप्ति नहीं होती, यह जो पूर्व में प्रतिज्ञा की गयी है, उसी के दृढीकरणार्थ श्रुति की साक्षी देते हैं । यथा – कर्म से, प्रजा से तथा धन से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, वह तो केवल त्याग साध्य विवेक ज्ञान से ही लाभ होता है, तद्वत ‘हृदयान्तर्गत स्थित सुखरूप एवं स्वयंप्रकाश ब्रह्म ज्ञान से प्राप्त करके महात्मा यति उसी में लीन हो जाते हैं ।
तथा कर्म करनेवाले, द्रव्य की इच्छा करनेवाले, संतति उत्पन्न करनेवाले ऋषि मृत्यु को प्राप्त हुए (मृत्यु अर्थात स्वर्गादि क्षयी फल) दुसरे ज्ञानी ऋषिकर्म के योग से अप्राप्य अमृतत्व (मोक्ष) को ज्ञान से प्राप्त हुए इत्यादि अनेक श्रुतियाँ, कर्म से मोक्ष प्राप्त नहीं होती, ऐसा स्पष्ट प्रतिपादन करती हैं ।
इन सब बातों का विचार करके ग्रन्थकार कहते हैं, वह सोमयागादि यज्ञ अविशुद्ध, अनित्य व सातिशय फल देने वाले दुःखनाशक वैदिक उपाय से विपरीत (भिन्न) हिंसादि दोषरहित नित्य व निरतिशय फल देनेवाला उपाय अतिश्रेष्ठ है, क्योंकि वह पुरुष पुनः जन्म मरण की परम्परा में नहीं प्राप्त होता, इस अर्थ की श्रुति साक्षी है ।
परन्तु हमारे उपरोक्त कथन में एक शंका उत्पन्न हो सकती है, कि विवेक ज्ञान से प्राप्त होने वाला मोक्ष, यह भी अनित्यत्व मोक्षग्रस्त है क्योंकि “जो जो कार्य हैं, वे वे अनित्य हैं”, इस व्याप्ति से मोक्ष को भी अनित्यता प्राप्त होती है, परन्तु यह शंका मिथ्या है क्योंकि जो जो भाव कार्य में हैं वे वे अनित्य हैं अर्थात कार्यत्वेन अनित्यता सिद्ध करना ठीक नहीं है, कार्यत्वेन भाव कार्य को ही अनित्यता प्राप्त होती है, दुःखध्वंस अर्थात दुःख का नाश वह कार्य है परन्तु भावरूप नहीं है, अतएव दुःखाभावरूप मोक्ष अनित्य नहीं है ।
इस उपरोक्त विवेचन का यह सार है कि उस दुःखनाशक वैदिक उपाय से, सत्वपुरुषान्यता प्रत्यय (प्रधान व पुरुष, ये दोनों भिन्न हैं ऐसा साक्षात्कार होना हिन् सत्वपुरुषान्यता प्रत्यय कहलाता है ) यह दुःखनाशक उपाय विपरीत है तथा इसी कारण से वह अधिक कल्याणकारक है । वैदिक उपाय, वेदविहित होने के कारण तथा उन उपायों से दुःख का भी किञ्चित नाश होने के कारण प्रशस्त है, तद्वत प्रकृति और पुरुष भिन्न हैं, यह प्रत्यय भी प्रशस्त है, परन्तु इन दोनों प्रशस्त उपायों में से दूसरा अधिक श्रेयस्कर है, क्योंकि इसमें हिंसा दोष बिलकुल न होकर इसके द्वारा मिला हुआ फल, नित्य और निरतिशय होता है ।
इस विवेक ज्ञान की उत्पत्ति कैसे होती है, यह बताते हैं । व्यक्त, अव्यक्त तथा ‘ज्ञ’, इन तीनों के ज्ञान द्वारा इसकी उत्पत्ति होती है । विज्ञान-विवेक द्वारा होनेवाला ज्ञान, यह पृथक-पृथक हैं, ऐसा ज्ञान(व्यक्त ज्ञान) व्यक्त अर्थात कार्य, इसी का प्रथम ज्ञान होता है, पश्चात् उसके कारण का, अर्थात अव्यक्त का ज्ञान होता है तथा ये दोनों (व्यक्ताव्यक्त) कोई और ही के लिए हैं, ऐसा मालूम होकर इनसे पृथक (किसी तरह से सम्बन्ध न रखनेवाला) आत्मा का ज्ञान होता है, सारांश ज्ञान प्राप्त होने का क्रम ऐसा ही होने के कारण यहाँ भी व्यक्त, अव्यक्त, ज्ञ ऐसा क्रम से ही कहा गया है ।
21/08/19, 9:25 pm – LE Raju Tomar F Tower: क्या यह मेरे लिए है
21/08/19, 9:34 pm – LE Raju Tomar F Tower: धन्यवाद सुदर्शन जी,
संभवतः मेरा ज्ञान आप जैसे महान ज्ञानी मनीषियों के समक्ष कुछ भी नहीं है, अतः कोई संभावना नहीं बनती कि मैं व्यर्थ में इस ग्रुप में रहूं और आप जैसे महान ज्ञानी जनों का समय नष्ट करूंl हो सकता है मैं पुनः इस प्रकार का कोई विवरण प्रस्तुत कर दूं और आप को टोकना पड़ेl ज्ञानियों की गूढ़ विषय वस्तुओं को मेरे जैसा सहज सरल और सामान्य व्यक्ति समझ भी कैसे सकता है? अभी तक आपने मुझको सहन किया इसके लिए मैं आपका बड़ा आभारी हूंl
धन्यवाद, चलता हूं
प्रणाम
21/08/19, 9:44 pm – Abhinandan Sharma: मेरी ही गलती थी, बिना पूछे एड कर लिया था 😔
21/08/19, 10:09 pm – Vaidya Ashish Kumar: कफ जो गले से निकलता है,दिखता है वो शरीर का असामान्य स्राव है जो विकृत है इस कफ को बलगम कहते है।
कफ जो त्रिदोष वाला है वो पंच महाभूत से बना है एवं मुख्यतः पृथ्वी और जल तत्व से और पूरे शरीर मे प्राकृत रहने पर हमेशा बहता रहता है।
22/08/19, 12:09 am – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक ११५,११६
वरा शाकेषु जीवन्ती सार्षपं त्वरम् परम्।
*इति शाकवर्ग॥*
उत्तम अधम निर्णय- शाकवर्ग मे परिगणित शाको मे जीवन्ती (डोड़ी) शाक उत्तम तथा सरसों की पत्तियों तथा नाल का शाक अधम माना गया है।
वक्तव्य- शाकवर्ग के प्रारम्भ में छः प्रकार के शाको का परिगणन किया गया था। तदनुसार यहां कहा गया भूकन्द संस्वेदज शाको मे गिना जाता है। संक्षेप में शाक परिचय—
१. पत्रशाक- बथुआ, पोई, मरसा , चौलाई आदि।
२.पुष्पशाक- गोभी, अगस्तिया के फूल, केले के फूल, सेमल के फूल आदि।
३. फलशाक- पेठा, लौकी, करेला, बैंगन, परवल, टिण्डा आदि।
४.नालशाक- सरसों, राई आदि के नाल।
५. कन्दशाक- मूली, सूरण(जिमिकन्द), आलू, पिण्डालू, रक्तालू, वाराहीकन्द, गेठी, तरूड़ आदि।
६. संस्वेदज शाक- छत्रक, खूंब आदि। आचार्य खरनाद ने कहा है कि भोजन कर लेने के बाद फलों का सेवन करना चाहिए, अतः अब इसके बाद यहां फलवर्ग का प्रस्ताव है।
*अथ फलवर्गः*
द्राक्षा फलोत्तमा वृष्या चक्षुष्या सृष्टमूत्रविट्॥११५॥
स्वादुपाकरसा स्निग्धा सकषाया हिमा गुरुः। निहन्यनिलपित्तासृतिक्तास्यत्वमदात्ययान्॥११६॥
तृष्णाकासश्रमश्वाससस्वरभेदक्षतक्षयान्।
द्राक्षा परिचय- द्राक्षा (दाख या मुनक्का) सब फलो मे उत्तम है। यह वीर्यवर्द्धक, आंखों के लिए उत्तम, मल-मूत्र को सुचारू रूप से निकालती है। विपाक तथा रस में मधुर, स्निग्ध, कुछ काषाय रसयुक्त, शीतवीर्य तथा देर में पचने वाली है। यह वात, पित्त, तथा रक्त विकारों का नाश करती है। मुख का तीतापन, मदात्ययरोग, तृष्णा(प्यास का अधिक लगना), कास, श्रम, श्वास, स्वरभेद, क्षत(उरःक्षत) एवं क्षय इन रोगों का विनाश करती है।
वक्तव्य- अंगूर आकार भेद से दो प्रकार के होते हैं।— १. छोटे, जिनके किशमिश बनाये जाते है और २. बड़े, जो आकार में लम्बे होते है, जिनके मुनक्का बनाये जाते हैं। फिर ये बीजवाले तथा बीजरहित भेद से भी दो प्रकार के होते हैं। स्वाद भेद से भी ये दो प्रकार के होते हैं— खट्टे और मीठे। वर्णभेद से भी ये दो प्रकार के होते हैं।— काले तथा सफेद या हरिताभ सफेद। मुनक्का या किशमिश बनाने के लिए इन्हें थोड़ा पकाना पड़ता है, नहीं तो ये जल्दी सूखते नहीं अपितु सड़ जाते है।।
22/08/19, 12:43 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: जीवन्ति शाक????
22/08/19, 9:39 am – FB Susheel Pareek Jaipur Shastra Gyan: Your order for Aghori Baba Ki Geeta (Vigyan ki p… is cancelled. If you have already paid, refund will be initiated shortly. Details: http://amzn.in/d/7O7rBZ0
22/08/19, 10:00 am – Shastra Gyan Ranjana Prakash: प्राण को कानों तक खींच कर,मतलब क्या?
22/08/19, 10:31 am – Pitambar Shukla: श्री गणेशाय नमः
श्री जानकी वल्लभो विजयते
श्री राम चरित मानस
उत्तर कांड
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं।
संत मिलन सम सुख जग नाहीं।।
पर उपकार बचन मन काया।
संत सहज सुभाउ खगराया ।।
जगत् में दरिद्रता के समान दुःख नही है तथा संतों के मिलन के समान जगत् में सुख नही है ।
और हे पक्षिराज! मन , वचन और शरीर
से परोपकार करना,
यह संतों का सहज स्वभाव है।।120-7।।
संत सहहिं दुख पर हित लागी ।
पर दुख हेतु असंत अभागी।।
भूर्ज तरू सम संत कृपाला।
पर हित निति सह बिपति बिसाला।।
संत दूसरों की भलाई के लिए दुःख सहते हैं और अभागे असंत दूसरों को दुःख पहुँचाने के लिए ।
कृपालु संत भोज के वृक्ष के समान दूसरों के हित के लिए भारी विपत्ति सहते हैं( अपनी खाल तक उधड़वा लेते हैं)।।120-8।।
22/08/19, 11:32 am – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: ।ॐ। शिव स्वरोदयः ।ॐ।
प्रतिपक्षप्रहारेभ्यः पूर्णाङ्गं योSभिरक्षति।
न तस्य रिपुभिः शक्तिर्बलिष्ठैरपि हन्यते।२४३।
अङ्गुष्ठतर्जनीवंशे पादाङ्गुष्ठे तथा ध्वनिः।
युद्धकाले च कर्त्तव्यो लक्षयोद्धु जयीभवेत्।२४४।
निशाकरे रवौ चारे मध्ये यस्य समीरणः।
स्थितो रक्षेद्दिगन्तानि जयकाञ्क्षी गतः सदा।२४५।
श्वासप्रवेशकाले तु दूतो जल्पति वाञ्छितम्।
तस्यार्थः सिद्धिमायाति निर्गमे नैव सुन्दरि।२४६।
अर्थ- युद्ध के समय शत्रु के प्रहारों से अपने सक्रिय स्वर की ओर के अंगों की रक्षा कर ले, तो उसे शक्तिशाली से शक्तिशाली शत्रु भी उसे कोई क्षति नहीं पहुँचा सकता।२४३।
युद्ध के दौरान हाथ के अंगूठे तथा तर्जनी से अथवा पैर के अंगूठे से ध्वनि करने वाला योद्धा बड़े-बड़े बहादुर को भी युद्ध में पराजित कर देता है।२४४।
विजय चाहनेवाला वीर चन्द्र अथवा सूर्य स्वर में वायु तत्त्व के प्रवाहकाल के समय यदि किसी भी दिशा में जाय तो उसकी रक्षा होती है।२४५।
भगवान शिव कहते हैं, हे सुन्दरी (माँ पार्वती), एक दूत को अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए उसे साँस लेते समय अपनी मनोकामना व्यक्त करनी चाहिए। परन्तु यदि वह श्वास छोड़ते समय अपनी मनोकामना व्यक्त करता है, तो उसे सफलता नहीं मिलती।२४६।
22/08/19, 12:18 pm – LE Ravi Parik C Block Pragati Maidan : चन्द्र स्वर या सूर्य स्वर क्या हुआ? क्या ओर भी कोई स्वर है, कृपया प्रकाश डाले।
22/08/19, 12:20 pm – Abhinandan Sharma: सर, आपका पहले का भाग छूट गया है | अभी आगे से ही करें और पढ़ते रहे, कुछ न कुछ नया मिलता ही रहेगा | शोर्ट में चन्द्र स्वर और सूर्य स्वर, इड़ा और पिंगला नाडी है |
22/08/19, 12:21 pm – LE Ravi Parik C Block Pragati Maidan : ओ के जी 🙏🏻😊
22/08/19, 2:12 pm – Abhinandan Sharma: आप इस लिंक पर दुबारा आर्डर करें – https://amzn.to/2Zk2dJd
22/08/19, 2:36 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: यदि बायें नाक से साँस चल रही हो तो चन्द्र स्वर और दाहिनें नाक से साँस चल रही हो तो सूर्य स्वर एेसा समझें।
22/08/19, 4:41 pm – LE Ravi Parik C Block Pragati Maidan : Ji🙏🏻
22/08/19, 4:41 pm – LE Ravi Parik C Block Pragati Maidan : Thank you. 😊
22/08/19, 6:59 pm – +91 ………….: चाणक्य_सूत्राणि
*सूत्र०२*
*धर्मस्य मुलमर्थः।।२।।*
अर्थ- धर्म का मूल अर्थ हैं।
विवरण- धर्म अर्थात नीतिमत्ता को सुरक्षित रखने में राज्य श्री ( अर्थात सुदृढ़ सुपरिक्षित सुचिंतित राज्यवस्था ) का महत्वपूर्ण ध्यान हैं। जगत् को धारण करने ( जगत को ऐहिक अभ्युदय तथा मानसिक उत्कर्ष देने ) वाली नीति को राष्ट्र में सुरक्षित रखने में अर्थ अर्थात राज्यश्री ही मुख्य कारण होती हैं। राज्य में दरिद्रता आ जाने पर प्रजा में अनीति की बाढ़ आ जाती हैं। क्योंकि तब राज्य के पास अनीति को रोकने का साधन नहीं होता। राज्यसंख्या जितनी ही संपन्न और तेजस्वी होती है, प्रजा उतनी ही नीतिपरायण रहती हैं। राजकोष में दरिद्रता आ जाने पर राष्ट्र व्यवस्था ग्रीष्मकालीन कुनदियो के सामान लुप्त हो जाती हैं।
*सूत्र०३*
अर्थस्य मूलं राज्यम्।।०३।।
अर्थ- राज्य ( राज्य की स्थिरता ) ही अर्थ (धन-धन्यादि संपत्ति या राज्यैश्वर्य ) का मूल (प्रधान कारण) होता हैं।
विवरण- राज्य की स्थिरता ही ऐश्वर्य को स्थिर रखने वाली वास्तु है। ऐश्वर्यहीन राज्य परस्पर व्याहृत अव्यव्यहरिक कल्पना है। राज्य तो हो पर उसे स्थिर रखने वाला ऐश्वर्य उसके पास न हो तो राज्य श्थिर नहीं रह पाता। राजा और प्रजा दोनो ही अर्थ से ऐहिक अभ्युदय वाले कर्म करके जीवन यात्रा करते हैं। राजा को राष्ट्र , दुर्ग, सेना, मंत्री, राजकर्मचारी, शस्त्रास्त्र , आदि विविध प्रकार के यान आदि संग्रह करके प्रजा की रक्षा-शिक्षा भरण-पोषण आदि में विपुल धन की आवश्यकता होती है। क्योंकि अर्थागम् राज्य के सुप्रबंधपर ही निर्भर होता हैं,इस लिए राज्याधिकारी लोग राज्य कको सर्वप्रिय बनाकर स्थिर बनाने में प्रमाद काम न ले।
भादप्रद कृष्ण सप्तमी, परिधावी सवंत्सर 🙏🙏🌺
22/08/19, 7:00 pm – Vaidya Ashish Kumar:
22/08/19, 7:05 pm – Dayadhankr Soryvanshi Hts, Akhilesh Frnd: 👏🏻
22/08/19, 7:15 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙏🏼🙏🏼
22/08/19, 9:46 pm – ~ BATMAN😈 left
22/08/19, 9:54 pm – +91 ……………: राधे राधे ॥ आज का भगवद चिन्तन ॥
22-08-2019
कृष्ण तत्व
भगवान श्री कृष्ण एक तरफ वंशीधर हैं तो दूसरी तरफ चक्रधर, एक तरफ माखन चुराने वाले हैं तो दूसरी तरफ सृष्टि को खिलाने वाले। वो एक तरफ बनवारी हैं तो दूसरी तरफ गिरधारी, वो एक तरफ राधारमण हैं तो तो दूसरी तरफ रुक्मणि हरण करने वाले हैं।
कभी शांतिदूत तो कभी क्रांतिदूत, कभी यशोदा तो कभी देवकी के पूत। कभी युद्ध का मैदान छोड़कर भागने का कृत्य , तो कभी सहस्र फन नाग के मस्तक पर नृत्य। जीवन को पूर्णता से जीने का नाम कृष्ण है। जीवन को समग्रता से स्वीकार किया श्री कृष्ण ने। परिस्थितियों से भागे नहीं उन्हें स्वीकार किया।
भगवान श्री कृष्ण एक महान कर्मयोगी थे, उन्होंने अर्जुन को यही समझाया कि हे अर्जुन, माना कि कर्म थोड़ा दुखदायी होता है लेकिन बिना कर्म किये सुख की प्राप्ति भी नहीं हो सकती। अगर कर्म का उद्देश्य पवित्र व शुभ हो तो वही कर्म सत्कर्म बन जाता है।
संजीव कृष्ण ठाकुर जी
वृन्दावन
https://www.youtube.com/user/sanjivkrishnathakur
22/08/19, 10:01 pm – Dayadhankr Soryvanshi Hts, Akhilesh Frnd: जन्माष्टमी कब है ???
22/08/19, 10:07 pm – Abhinandan Sharma: इसे देख लेवे ।
22/08/19, 10:11 pm – Ashu Bhaiya: जो वैष्णव नहीं हैं (अर्थात स्मार्त हैं) (अर्थात वैष्णव सम्प्रदाय में दीक्षा नहीं ली है) वे 23-अगस्त को मनाएं । यदि वैष्णव हैं तो सम्प्रदाय के अनुसार 24-अगस्त को मनाएं ।
22/08/19, 10:28 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक ११७,११८,१२०,१२१
उद्रिक्तपित्ताञ्जयति त्रीन्दोषान्स्वादु दाडिमम्॥११७॥
पित्तावारोधि नात्युष्णमम्लं वातकफापहम्। सर्वं हृद्यं लघु स्निग्धं ग्राहि रोचनदीपनम्॥११८॥
दाड़िम-फल का वर्णन- यह स्वादभेद से दो प्रकार का होता है— १. मधुर और २. अम्ल(खट्टा)। मधुर दाडिम के गुण— इसी को अनार कहते है। यह पित्त- प्रधान तीनों दोषों को शान्त करता है। खट्टा दाडिम— यह खट्टा होने पर पित्तदोष को प्रकुपित नहीं करता। यह अधिक उष्ण भी नहीं होता है। यह वात तथा कफदोष का विनाशक होता है।
सभी प्रकार का दाड़िम हृदय के लिए हितकर, शीघ्र पचने वाले, स्निग्ध, ग्राहि(मल को बांधने वाले), रुचि तथा जठराग्नि को बढ़ाने वाले होते हैं।
वक्तव्य- पर्वतीय क्षेत्रों में दाड़िम के वृक्ष पर्याप्त रूप में पाये जाते हैं। इसके वृक्ष चिरायु होते है। स्थानीय लोग खट्टे तथा मीठे दाड़िमों की चटनी बनाकर रख लेते हैं। इसे काली चटनी कहते है। यह लाल तथा सफेद वर्णभेद से दो प्रकार का होता है। इसके छिलकों को धूप में सुखाकर चूर्ण बनाकर रख लिया जाता है। यह चूर्ण पित्तातिसार, प्रवाहिका, कास, बच्चो के दांत निकलने तथा टाउन्सिल मे प्रयोग किया जाता है।यद्यपि सभी अम्ल पदार्थ पित्तवर्धक तथा उष्णवीर्य होते है, तथापि अनार एवं आंवला फल इसके अपवाद है।
मोचखर्जुरपनसनारिकेलपरूषकम्। आम्राततालकाश्मर्यराजादनमधूकजम्॥११९॥
सौवीरबदराङ्कौल्लफलगुश्लेषमातकोद्भवम्। वातामाभिषुकाक्षोडमुकूलकनिकोचकम्॥१२०॥
उरुमाणं प्रियालं च बृंहणं गुरु शीतलम्। दाहक्षतक्षयहरं रक्तपित्तप्रसादनम्॥१२१॥
स्वादुपाकरसं स्निग्धम् विष्टम्भी कफशुक्रकृत्।
केला आदि फलों का वर्णन- मोच(केले का फल), खर्जूर(खजूर या छुहारा), पनस(कटहल), नारियल, परूषक(फालसा), आम्रात(आमड़ा), तालफल, काश्मर्य( गम्भारी का फल), राजादन(खिरनी), महुआ का फल, सौवीर(बड़ा बेर का फल), बेर का फल, अंकोर, फल्गु(गूलर), श्लेषमातक(लसोड़ा), बादाम, अभिषुक(पिस्ता), अखरोट, मुकूलक(यह भी पिस्ता की जाति है), निकोचक(चिलगोजा—चीड़ का बीज), उरूमाण(खुमानी या खुरमानी) और प्रियाल(चिरौंजी)— ये सभी फल बृंहण(शरीर को बढ़ाने वाले), गुरु (देर में पचने वाले) तथा शीतवीर्य होते हैं। दाह, क्षत(उरःक्षत) तथा अन्य स्थानों में लगे घावों का शमन करते है। रक्त तथा पित्त को शुद्ध करते हैं। ये सभी विपाक मे मधुर है, स्निग्ध, विष्टम्भकारक (मलावरोधक), कफ एवं शुक्रधातु को बढ़ाते है।
22/08/19, 10:28 pm – LE Onkar A-608: इस ग्रुप में फार्वर्डेड मेसेज भेजना प्रतिबंधित है।
कृपया description पढ़ लें।
22/08/19, 10:29 pm – LE Ravi Parik C Block Pragati Maidan : बहुत बढ़िया। 👌🏼
मेरे पास एक आईडिया है। जब अगली पोस्ट डाले तक कृपया पहले वाली पोस्ट को सेलेक्ट कर उसके अंदर लिखें जैसे कि ये मैसेज ताकि एक एक करके ऊपर की पोस्ट पर पहुच जाए वार्ना पहले का पोस्ट सर्च करना पड़ता है जिसमे बहुत समय लग जाता है ओर निरंतरता का भी एहसास नही होता है। 🕉🙏🏻
22/08/19, 10:29 pm – LE Ravi Parik C Block Pragati Maidan: तब
22/08/19, 10:33 pm – Abhinandan Sharma: कर्मयोगः पर ऐसी फ़ॉर्वर्डेड पोस्ट ने ही योग का सत्यानाश किया है । कृपा करके ऐसी कोई भी फ़ॉर्वर्डेड पोस्ट इस ग्रुप पर न डालें । कृपया ग्रुप इनफार्मेशन अवश्य पढ़ लें ।
22/08/19, 10:35 pm – LE Ravi Parik C Block Pragati Maidan : ये मेरा एक कॉमन आईडिया है किसी पोस्ट विशेष के लिए नही। 🙏🏻😊
22/08/19, 10:35 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: उत्तम सलाह। अगली post से apply करूंगा।
22/08/19, 10:36 pm – LE Ravi Parik C Block Pragati Maidan : अरे वाह। 😊👌🏼
22/08/19, 10:38 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: इसे कहते हैं खोज 🙂
22/08/19, 10:40 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: 🙏🙏🙏
22/08/19, 10:41 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: सामान्य सा उपाय था और हम slack तक की यात्रा करके आ गये।😊😊
22/08/19, 10:46 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: ।ॐ। शिव स्वरोदयः ।ॐ।
लाभादीन्यपि कार्याणि पृष्ठानि कीर्तितानि च।
जीवे विशति सिद्धयन्ति हानिर्निःसरणे भवेत्।२४७।
नरे दक्ष स्वकीया च स्त्रियां वामा प्रशस्यते।
कुम्भको युद्धकाले च तिस्रो नाड्यस्त्रयीगतिः।२४८।
हकारस्य सकारस्य विना भेदं स्वरः कथम्।
सोऽहं हंसपदेनैव जीवो जपति सर्वदा।२४९।
शून्याङ्गं पूरितं कृत्वा जीवाङ्गे गोपयेज्जयम्।
जीवाङ्गे घातमाप्नोति शून्याङ्गे रक्षते सदा।२५०।
अर्थ- जो कार्य साँस लेते समय किए जाता है, उसमें सफलता मिलती है। पर साँस छोड़ते समय किए गए कार्य में हानि होती है।२४७।
दाहिना स्वर पुरुष के लिए और बाँया स्वर स्त्री के लिए शुभ माना गया है। युद्ध के समय कुम्भक (श्वास को रोकना) फलदायी होता है। इस प्रकार तीनों नाड़ियों के प्रवाह भी तीन प्रकार के होते हैं।२४८।
स्वर ज्ञान “हं” और “सः” में प्रवेश किए बिना प्राप्त नहीं होता। “सोऽहं” अथवा “हंस” पद (मंत्र) के सतत जप द्वारा स्वर ज्ञान की प्राप्ति होती है।२४९।
आपत्ति सदा सक्रिय स्वर की ओर से आती है। अतएव आपत्ति के आने की दिशा ज्ञात होने पर निष्क्रिय स्वर को सक्रिय करने का प्रयास करना चाहिए। निष्क्रिय स्वर सुरक्षा देता है।२५०।
22/08/19, 10:47 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: सही है इस तरह भेजना 🙂👍🏻
22/08/19, 10:47 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: 😊👍🏻
22/08/19, 11:19 pm – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad: शंका
अष्टाङ्ग हृदय के अलावे आयुर्वेद की सभी पुस्तकों में बादाम, पिस्ता, चिल्गोजा, अखरोट आदि को उष्ण वीर्य बताया गया है. सिर्फ चिरौंजी/प्रियाल को शीत वीर्य बताया गया है. ऐसा क्यों?
23/08/19, 5:47 am – Abhinandan Sharma: श्रीमान, अभी तो हम सब बस पढ़ रहे हैं | अभी रिसर्च नहीं कर सकते हैं | आपको यदि ज्ञात है, तो आप ही बताएं |
23/08/19, 5:50 am – Vaidya Ashish Kumar: This message was deleted
23/08/19, 5:51 am – Vaidya Ashish Kumar: सुंदर एवं उपयोगी विचार🙏🏻🙏🏻
23/08/19, 8:12 am – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: ।ॐ। शिव स्वरोदयः ।ॐ।
वामे वा यदि वा दक्षे यदि पृच्छति पृच्छकः।
पूर्णे घातो न जायेत शून्ये घातं विनिर्दिशेत्।२५१।
भूतत्त्वेनोदरे घातः पदस्थानेऽम्बुना भवेत्।
उरुस्थानेऽग्नितत्त्वेन करस्थाने च वायुना।२५२।
शिरसि व्योमतत्त्वे च ज्ञातव्यो घातनिर्णयः।
एवं पञ्चविधो घातः स्वरशास्त्रे प्रकाशितः।२५३।
युद्धकाले यदा चन्द्रः स्थायी जयति निश्चितम्।
यदा सूर्यप्रवाहस्तु यायी विजयते सदा।२५४।
अर्थ- जब कोई प्रश्नकर्ता युद्ध के विषय में सक्रिय स्वर की ओर से प्रश्न पूछ रहा हो और उस समय कोई भी स्वर, चाहे सूर्य या चन्द्र स्वर प्रवाहित हो, तो युद्ध में उस पक्ष को कोई हानि नहीं होती। पर अप्रवाहित स्वर की दिशा से प्रश्न पूछा गया हो, तो हानि अवश्यम्भावी है।२५१।
अगले दो श्लोकों में होनेवाली हानियों पर प्रकाश डाला गया है।
यदि प्रश्न-काल में उत्तर देनेवाले साधक के स्वर में पृथ्वी तत्त्व प्रवाहित हो, समझना चाहिए कि पेट में चोट लगने की सम्भावना, जल तत्त्व, अग्नि तत्त्व और वायु तत्त्व के प्रवाह काल में क्रमशः पैरों, जंघों और भुजा में चोट लगने की सम्भावना बतायी जा सकती है।२५२।
आकाश तत्त्व के प्रवाह काल में सिर में चोट लगने की आशंका का निर्णय बताया जा सकता है। स्वरशास्त्र इस प्रकार चोट के लिए पाँच अंग विशेष बताए गए हैं।२५३।
यदि युद्धकाल में चन्द्र स्वर प्रवाहित हो रहा हो, तो जहाँ युद्ध हो रहा है वहाँ का राजा विजयी होता है। किन्तु यदि सूर्य स्वर प्रवाहित हो रहा हो, समझना चाहिए कि आक्रामणकारी देश की विजय होगी।२५४।
23/08/19, 9:48 am – Pitambar Shukla: सन इव खल बंधन करई।
खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई।।
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी।
अहि मूषक इव सुनु उरगारी ।।
किन्तु दुष्ट लोग सन की भांति दूसरों को बाँधते हैं और ( उन्हे बाँधने के लिए ) अपनी खाल खिंचवा कर विपत्ति सह कर मर जाते हैं।
हे सर्पों के शत्रु गरुड़ जी! सुनिये; दुष्ट बिना किसी स्वार्थ के साँप और चूहे के समान अकारण ही दूसरों का अपकार करते हैं।।120-9।।
पर संपदा बिनासि नसाहीं।
जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं।।
दुष्ट उदय जग आरति हेतू।
जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू।।
वे पराई संपत्ति का नाश करके स्वयं नष्ट हो जाते हैं, जैसे खेती का नाश करके ओले नष्ट हो जाते हैं।
दुष्ट का अभ्युदय ( उन्नति) प्रसिद्ध अधम ग्रह केतु के उदय की भांति जगत् के दुःख के लिए ही होता है ।।120-10।।
23/08/19, 12:48 pm – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad: जिज्ञासा के लिए पूछा, जानकारी नहीं है.
23/08/19, 1:38 pm – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: ऐसी मेरी भी इच्छा थी
23/08/19, 1:48 pm – LE Ravi Parik C Block Pragati Maidan : देखिये ना कितना मजा आ रहा है अब पढ़ने का।
23/08/19, 5:04 pm – Abhinandan Sharma: आपने बहुत अच्छा सुझाव दिया है पारीक जी | धन्यवाद !
23/08/19, 5:05 pm – Abhinandan Sharma: हम लोगों ने तो इसके लिए न जाने कितने सॉफ्टवेर, स्लेक, टेलीग्राम और जाने क्या क्या ढूंढा पर आपने इतना आसान तरीका बता दिया कि अब पाठकों के लिए कुछ भी ढूंढना पहले से बहुत आसान है |
23/08/19, 5:09 pm – LE Ravi Parik C Block Pragati Maidan : 🙏🏻
23/08/19, 7:30 pm – +91 ………….: चाणक्य_सूत्राणि
*सूत्र०४*
*राज्यमूलमिन्द्रियजय:।।०४।।*
अर्थ- अपनी इंद्रियों पर अपना आधिपत्य प्रतिष्टित रखना राज्य का (राज्य में राज्य श्री आने और उसके बाद चिरकाल तक ठहरने का ) मुख्य कारण है।
विवरण- राज्याधिकारियों की स्वेच्छाचारिता , विषयलोलुपता और स्वार्थपरायणता राज्य के लिये हलाहल का काम करती है, जब भोगलोलुप राज्याधिकारी राजशक्ति के दबाव से अपनी व्यक्तिगत भोग इच्छा पूरी करने से मतवाले बन जाते हैं। तब वह राज्य संस्था प्रजा के अनुमोदन से वंचित होकर नष्ट हो जाती है। राज्य-संस्था को प्रजा का हार्दिक अनुमोदन मिलते रहने के लिए राज्याधिकारियों में स्वेच्छचारितापर पूरा अंकुश रखे तब किसी राज्य का वैभव् सुरक्षित रह सकता है। इंद्रियों पर विजय न पानेवाले राज्यधिकरी को लोग जनता को राज्य का शत्रु बना लेते हैं। विषम लोभी राज्याधिकारियों की भूले अपनी राज्य संस्था को अपयश दिलाने वाली होती है। उसे अश्रद्वेष तथा घृणास्पद बना डालने वाली होती है।
*सूत्र०५*
*इंद्रियजयस्य मूलं विनयः।।५।।*
अर्थ- विनय ही इंद्रियों पर विजय आने का सुख का साधन हैं।
विवरण- विनितो की संगत में रहकर उनसे ज्ञानसंबंधी सत्यासत्य का विचार सीखकर सत्य को पहचानकर , सत्य के माधुर्य से मधुमय होकर , अहंकार त्यागकर सत्य के बोझ के नीचे डकार नष्ट हो जाना विनयः अर्थात् सत्याधीन हो जाना है। पात्रापत्रपरिचय , व्यवहारकुशलता , सुशीलता , शिष्टाचार सहिष्णुता , उचित्तज्ञता, तथा कार्याक्रयविवेक आदि के विनय ही व्यवहारिक रूप हैं।
विनयी मनुष्य की इंद्रियां उसकी सुविचारित स्पष्ट आज्ञा के बिना संसार में कही एक पैर भी नहीं डालती। उसकी इंद्रियों के पैरो में शमकी वह भरी श्रृंखला पड़ी रहती हैं। जो उन्हें कुमार्ग में जाने ही नहीं देती। नम्रता सुशीलता आदि सब विनीत मन के धर्म हैं। मन के धर्मपरायण होते ही इंद्रियां अपने आप विजित हो जाती हैं , अर्थात विजिट मन के प्रति आत्मसमर्पण करके रहने लगती हैं। विनयी मानव अपनी स्थिरता तथा धीरता के प्रभाव से अपनी इंद्रियों पर वशीकार पाकर रहता है। अविनीत मनुष्य अविमृश्यकारी होता हैं। उसकी इंद्रियां प्रत्येक समय उसे अधिकारहीन तथा अनुचीत भोगो के लिए उत्तेजित करती रहती हैं। राज्याधिकारी लोग विनय से ही राष्ट्र के लोकमत को वश में रख सकते हैं। इतिहास बताता है की बहुत से राजा लोग अविनय से ऐश्वर्यसहित ध्वस्त हो चुके हैं। इसके विपरीत बहुत से लोग झोपड़ी में निवास कर भी राज्य पाकर रह गए हैं। इसलिए राज्याधिकारी लोग पवित्र ज्ञानवृद्ध को संगत किया करे और उनसे विनय सीखकर विनीत बने। यदि वे विनीत नहीं बंनेंगे तो वे मस्तक से माला उतार फेंकनेवाले मस्त हाथी के समान राज्यश्री को नष्ट-भ्रष्ट कर डालेंगे। विनय के बिना उनकी स्वेच्छाचारित रुकना असंभव है, और उसके रहते हुए उनका राज्य खो बैठना सुनिश्चित हैं।
भाद्रपद कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि , परिधावी संवत्सर (२३/०८/२०००) 😊
23/08/19, 10:13 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक १२२,१२३
फलं तु पित्तलं तालं सरं काश्मर्यजं हिमम्॥१२२॥
शकृन्मूत्रविसन्धघ्नं केश्यं मेध्यं रसायनम्। वातामाद्युष्णवीर्य तु कफंपित्तकरं सरम्॥१२३॥
परं वातहरं स्निग्धमनुष्णम् तु प्रियालजम्।प्रियालमज्जा मधुरो वृष्यः पित्तानिलापहा॥१२४॥
कोलमज्जा गुणैस्तद्वत्तृट्छर्दिः कासजिच्च सः।
ताल आदि फलों का वर्णन- ताल(ताड़) का फल पित्तकारक तथा सर होता है। गभ्भार का फल शीतवीर्य, मल तथा मूत्र की रुकावट को दूर करता है। बालो एवं मेधा (धारणाशक्ति) के लिए हितकर, रसायन गुणों से युक्त होता है।
बादाम आदि फलों के गुण- ये उष्णवीर्य, कफकारक, पित्तकारक, सर, वातनाशक द्रव्यों में श्रेष्ठ तथा स्निग्ध होते हैं, किन्तु प्रियाल (चिरौंजी) उष्णवीर्य नहीं होता।
प्रियालमज्जा के गुण- चिरौंजी की गिरि मधुर, वीर्यवर्द्धक, पित्त तथा वातविकार का नाश करती है।
बेर की मज्जा के गुण- इसके गुण भी प्राय प्रियालमज्जा के समान होते है, किन्तु यह तृष्णा तथा कास का विनाश करती है।
वक्तव्य- ‘वातामादि’ यहां आदि शब्द से अभिषुक(पिस्ता), मकूलक, निकोचक(चिलगोजा) तथा उरुमाण(खुमानी) तक के द्रव्यो को लेना चाहिए। उरुमाण फल पर्वतीय प्रदेशों (नैनीताल, अल्मोड़ा, शिमला, मंसूरी, काश्मीर आदि) में होता है। इसका बाहरी गूदा भी और भीतर की गिरि भी खायी जाती है, जो बादाम के आकार की तथा स्वाद में मधुर होती है। यह आकार भेद से छोटी तथा बड़ी दो प्रकार की होती है। बड़ी खुमानी के भीतर से निकलने वाली गिरि के ये गुण है।
24/08/19, 1:49 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
श्री मनुस्मृति
तयोर्नित्यं प्रियं कुर्यादाचार्यस्य च सर्वदा ।
तेष्वेव त्रिषु तुष्टेषु तपः सर्वं समाप्यते । । २.२२८ । ।
तेषां त्रयाणां शुश्रूषा परमं तप उच्यते ।
न तैरनभ्यनुज्ञातो धर्मं अन्यं समाचरेत् । । २.२२९ । ।
त एव हि त्रयो लोकास्त एव त्रय आश्रमाः ।
त एव हि त्रयो वेदास्त एवोक्तास्त्रयोऽग्नयः । । २.२३० । ।
पिता वै गार्हपत्योऽग्निर्माताग्निर्दक्षिणः स्मृतः ।
गुरुराहवनीयस्तु साग्नित्रेता गरीयसी । । २.२३१ । ।
त्रिष्वप्रमाद्यन्नेतेषु त्रीन्लोकान्विजयेद्गृही ।
दीप्यमानः स्ववपुषा देववद्दिवि मोदते । । २.२३२ । ।
इमं लोकं मातृभक्त्या पितृभक्त्या तु मध्यमम् ।
गुरुशुश्रूषया त्वेवं ब्रह्मलोकं समश्नुते । । २.२३३ । ।
सर्वे तस्यादृता धर्मा यस्यैते त्रय आदृताः ।
अनादृतास्तु यस्यैते सर्वास्तस्याफलाः क्रियाः । । २.२३४ । ।
यावत्त्रयस्ते जीवेयुस्तावन्नान्यं समाचरेत् ।
तेष्वेव नित्यं शुश्रूषां कुर्यात्प्रियहिते रतः । । २.२३५ । ।
अर्थ
इस लिए सदा माता पिता और आचार्य का प्रिय कार्य करें,इन तीनों के सन्तुष्ट होने से सब तप पूरे हो जाते हैं।। इन तीनों की सेवा परम् तप कहा जाता है।। इनकी आज्ञा लेकर ही दूसरे धर्मों का आचरण करना चाहिए। ये ही तीनों लोक, पृथ्वी अंतरिक्ष व स्वर्ग है, तीनों आश्रम,तीनों वेद व तीनों
अग्नि है ।।
पिता गार्हपत्य अग्नि,माता दक्षिणाग्नि और गुरु आवहनियाग्नि का स्वरूप है। ये तीनों अग्नि संसार में बड़े है।। इन तीनों की भक्तिसेवा से तीनों लोक गृहस्थ जीतता है। और स्वर्ग में देवताओं के भांति सुख पाता है।।
मातृ भक्ति से यह लोक,पितृभक्ति से मध्यलोक व गुरुभक्ति से ब्रह्म लोक को पता है। जिसनें इन तीनों का आदर किया उसने सब धर्मों का पालन किया।।जिसने इन तीनों का अनादर किया उसके सब धर्म कर्म निष्फल हैं । जब तक माता पिता व गुरु जीवित हैं तब तक इनकी सेवा में विशेष लगा रहे।।
24/08/19, 10:49 am – FB Abhijit Rajkot Shastra Gyan: This message was deleted
24/08/19, 11:01 am – Pitambar Shukla: संत उदय संतत सुख कारी।
बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी।।
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा ।
पर निंदा सम अघ न गरीसा।।
और संतों का अभ्युदय सदा ही सुख कर होता है,
जैसे चन्द्रमा और सूर्य का उदय विश्व भर के लिए सुख दायक है ।
वेदों में अहिंसा को परम धर्म माना है और परनिंदा के समान भारी पाप नही है ।।120-11।।
हर गुर निंदक दादुर होई।
जन्म सहस्र पाव तन सोई।।
द्विज निंदक बहु नरक भोग करि।
जग जनमइ बायस सरीर धरि।।
शंकर जी और गुरु की निन्दा करने वाला मनुष्य ( अगले जन्म में ) मेढक होता है और वह हजार जन्म तक वही मेढक का शरीर पाता है।
ब्राह्मणों की निंदा करने वाला व्यक्ति बहुत से नरक भोग कर फिर कौए का शरीर धारण कर के जन्म लेता है।।120-12।।
24/08/19, 6:12 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: दक्षिणाग्नि?
24/08/19, 6:22 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: अग्नि 3 प्रकार की होती है (3 संख्यासूचक)
1) गार्हपत्य (gārhapatya) – पश्चिम दिशा – गृहों का आधिपत्य ही गृहपत्य माना गया है। यह गृहपत्य जिस अग्नि में प्रतिष्ठित है, वही ‘गार्हपत्य अग्नि’ के नाम से प्रसिद्ध है।
2) दक्षिण (dakshina) – दक्षिण-पश्चिम – जो अग्नि यजमान को दक्षिण मार्ग से स्वर्ग में ले जाता है, उस दक्षिण में रहने वाले अग्नि को ब्राह्मण लोग ‘दक्षिणाग्नि‘ कहते हैं।
3) आहवनीय (āhavanīya) – पूर्व दिशा – सब प्रकार के हव्य को स्वीकार करने वाला वह्नि ‘आहवनीय अग्नि’ कहलाता है।
24/08/19, 6:29 pm – +91 …………..: चाणक्य_सूत्राणि
*सूत्र_०६* *विनयस्य मूलं वृद्धोपसेवा।।०६।।*
अर्थ- ज्ञानवृद्धो के सेवा विनय का मूल है।
विवरण- विनय अर्थात नैकिकता,नम्रता, उचितज्ञता,शासनकुशलता,आदि रूपोंवाली स्थिर संपत्ति अनुभवी ज्ञानवृद्ध लोगो की सेवा में श्रद्धापूर्वक बार-बार ज्ञानार्थी रूप में उपस्थित होते रहने से ही प्राप्त होता हैं।मनुष्य विद्या,तपस्या, और अनुभव से ज्ञानवृद्ध बनता है। ज्ञानवृद्ध लोगो के पास जाकर उनकी योग्य परिचर्या करते हुए जिज्ञासु बने रहना वृद्ध सेवा कहलाती हैं। ज्ञानवृद्धो के पास बार बार जाते रहने से उनकी विद्या,तपस्या तथा उनके दीर्घकालीन अनुभवों से लाभ उठाने का अवसर मिल जाता हैं। ज्ञानवृद्ध लोग पात्र से बाहर बहना त्यागकर भंडार में आ जाने वाली शरत्कालीन नदियों के सामान मर्यादापालक तथा कार्याकार्यविवेकसम्पन्न होते हैं। दंडनीति तथा व्यवहारकुशलता के पाठ ऐसे ज्ञानवृद्ध से ही सीखे जा सकते हैं। ज्ञानवृद्धो की सेवा विनीत राजा से ही प्रजा को विनय का पाठ सिखा जा सकता हैं और राज्य भोग्य सकता हैं।
*सूत्र_०७* *वृद्धसेवाया विज्ञानम्।।०७।।*
अर्थ- विजिगीषु मनुष्य वृद्धो के सेवा से व्यव्यहार कुशलता या कर्तव्याकर्तव्य पहचानना सीखे।
विवरण- विज्ञान अर्थात ज्ञान की परिपक्ववस्था अर्थात यथार्थ ज्ञान की प्रप्ति किवां अपने ज्ञान की व्यव्हारभूमि में ला खड़ा करने की कला अर्थात कार्यकुशलता या कर्तव्याकर्तव्य का समुचित परिचय तब प्रपात हैं, जब मनुष्य आग्रह और श्रद्धा से ज्ञानवृद्धो के पास निरन्तर उठता बैठता रहता,उनके वातावरण का अंग बनकर रहता ,उन्हें अपनी भूले बताने और उनपर निशंक टोकते रहने का अप्रतिहृत असीम अधिकार देकर रखता है। ज्ञानवृद्धो की श्रद्धामयी सेवा से जहाँ विनय प्राप्त होता हैं वहां विज्ञानं अर्थात कार्यकुशलता भी आ जाती हैं।
*न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा*
*न ते वृद्धा ये न वदन्ति धर्मम्।*
*नासो धर्मो यत्र न सत्यमस्ति*
*न तत्सत्यं यच्छलेनाभ्युपेतम्।।*
जिन सभाओं या समाजो में अनुभवी वृद्ध न होकर अवृद्धसेवी तथा अनुभवहीन लोग भर लिए जाते या उन्ही का बोलबाला हो जाता है, वे सभायें सभा, और वे समाज सभ्य समाज नहीं कहे जा सकते। वे वृद्ध, वृद्ध नहीं होते, जो (आत्मविक्रय करके, दलगत राजनीती के भाग बनकर अपनी स्वार्थकलुषित महत्वकांक्षा परितृप्त करने की दुरभिसंधि से, व्यवस्थापरिषदो में व्वयस्थानिर्माता और सामाजिक विवाद प्रसंगों में निर्णायक बनकर जा बैठते है परन्तु ) धर्म या न्याय की बात मुँह पर नहीं ला सकते। (जो धर्म के निःशेक वक्ता नहीं होते, वे किसी प्रकार वृद्ध विद्वान् या विवेकी नहीं कहे जा सकते) वह धर्म, धर्म नहीं हैं, जिसमे सत्य नहीं हैं, (अर्थात जिस धर्म में मनुष्य की अंतरात्मा नहीं बोल रही है, जिसे मनुष्य किसी संसारी प्रभाव में आकार ऊपरवाले मन से कहता हैं वह धर्म नहीं होता ) वह सत्य, सत्य नहीं ,जिसमे छल का मिश्रण होता हैं ( और जिसमे बातो को तोड-मरोडकर घुसा-फिराकर कहा जाता हैं।)
*सूत्र_०८* *विज्ञानेनात्मानम् सम्पादयेत्।।०८।।*
अर्थ- राज्यभिलाषी लोग विज्ञान (व्यव्यहारकुशलता या कर्तव्याकर्तव्य का परिचय) प्राप्त करके ( अर्थात सत्य को व्यव्यहार भूमि में लाकर या अपने व्यव्यहार को परमार्थ का रूप देकर ) अपने आप को योग्य शासक बनाये।
विवरण- आदर्शशासक तथा चतुरशासक बनना राज्यभिलाषियो का मुख्य कर्तव्य हैं। अपने को ऐसा बनाना राज्योपार्जन से भी अधिक महत्व रखता हैं। इसलिए शासकीय विभाग में जाने के इच्छुक लोग शाषन विभाग योग्यता संपादन के महत्वपूर्ण काम में प्रमाद न करें। यदि ये इसमें प्रमाद करेंगे तो न तो स्वयं कही के रहेंगे औ न राज्यसत्ता को स्थिर रहने देंगे।
यदि राजकीय विभागों में जाने वाले लोग जिनेंद्रियंता को अपना आदर्श बना ले, योग्य बने, अपने आप को प्रजा के सामने अनुकरणीय चरित, आदर्श पुरुष के रूप में रखे, तो अनुकरणीयमार्गी संसार राजचरित का अनुसरण करके धर्मारूढ हो जाय और तब दुश्चरित्र देश से स्वयमेव निर्वासित हो जाय। राज्यधिकरी लोगो ले धर्म को पालने लगने पर प्रजा में अपने आप धर्म की रक्षा होने लगती है।
भारत में ठीक कहा है–
*आत्मनमात्मना रक्षन् चरिष्यमि विशांपते।*
मैं अपने विज्ञानी विवेकी मन से अपनी रोक-थाम करता हुआ राज्य से व्यव्हार चलाया करूँगा।
भादप्रद कृष्ण पक्ष अष्टमी ,परिधावी संवत्सर (२४/०८/२०१९) 🙏💐💐
24/08/19, 6:41 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: ।ॐ। शिव स्वरोदयः ।ॐ।
जयमध्येऽपि संदेहे नाडीमध्ये तु लक्षयेत्।
सुषुम्नायां गते प्राणे समरे शत्रुसङ्कटम्।२५५।
यस्यां नाड्यां भवेच्चारस्तां दिशं युधि संश्रयेत्।
तदाऽसौ जयमाप्नोति नात्रकार्या विचारणा।२५६।
यदि सङ्ग्रामकाले तु वामनाडी सदा वहेत्।
स्थायिनो विजयं विद्याद्रिपुवश्यादयोऽपि च।२५७।
यदि सङ्ग्रामकाले च सूर्यस्तु व्यावृतो वहेत्।
तदा यायी जयं विद्यात् सदेवासुरमानवे।२५८।
अर्थ- विजय में यदि किसी प्रकार का संदेह हो, तो देखना चाहिए कि क्या सुषुम्ना स्वर प्रवाहित हो रहा है। यदि ऐसा है, तो समझना चाहिए कि शत्रु संकट में पड़ेगा।२५५।
यदि कोई योद्धा युद्ध के मैदान में अपने क्रियाशील स्वर की ओर से दुश्मन से लड़े तो उसमें उसकी विजय होती है, इसमें विचार करने की आवश्यकता नहीं होती।२५६।
यदि युद्ध के समय बायीं नाक से स्वर प्रवाहित हो रहा हो, तो जहाँ युद्ध हो रहा है, उस स्थान के राजा की विजय होती है, अर्थात् जिस पर आक्रमण किया गया है, उसकी विजय होती है और शत्रु पर काबू पा लिया जाता है।२५७।
पर यदि युद्ध के समय लगातार सूर्य स्वर प्रवाहित होता रहे, तो समझना चाहिए कि आक्रमणकारी राजा की विजय होती है, चाहे देवता और दानवों का युद्ध हो या मनुष्यों का।२५८।
24/08/19, 6:54 pm – +91 …………: (१)मानवीय जीवने संस्कृतस्य महत्वम्।
(२)संस्कृते व्यवसायानां अवसर:।
(३)संस्कृते पर्यावरणस्य रक्षणोपाय:।
किसी के पास तीनों में से कोई भी संस्कृत निबंध होगा तो भेजें।
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
24/08/19, 7:48 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: इसे और आसान समझाने का कष्ट करें🙏
24/08/19, 10:42 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: निष्काम यज्ञ यज्ञ की अग्नि के तीन भेद होते हैं —
(१)
गार्हपत्य अग्नि = गृहपति की अग्नि,जिसमें पाकयज्ञ आदि सारे गृहकर्म होते हैं । यह अग्नि सदैव प्रज्जवलित रखनी पड़ती है ।
पुत्र जब गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है तो पिता उसे गार्हपत्य अग्नि सौंपता है जिसे अगली पीढ़ी को सौंपने के लिये बचाकर रखना पुत्र का कर्तव्य है । घर में इसे सुरक्षित रखने का पवित्र स्थल नियत रहता है । वेदों और कल्पसूत्रों में इसका विस्तार से वर्णन है ।
(२)
आहवनीय अग्नि =देवकर्म की अग्नि ।
यज्ञ के हवन कुण्ड वाली अग्नि ।
गृहस्थों के सामान्य यज्ञों में गार्हपत्य अग्नि द्वारा ही आहवनीय अग्नि प्रज्जवलित की जाती है किन्तु कई विशिष्ट यज्ञों के लिये विशेष लकड़ी अरणि एवं अधर द्वारा आहवनीय अग्नि को प्रज्जवलित करते हैं । अरणि एवं अधर एक ही प्रकार की लकड़ी से बनते हैं,ऊपर वाले को अरणि तथा नीचे वाले को अधर कहते हैं जिनको आपस में रगड़कर हवन की अग्नि प्रज्जवलित की जाती है ।
(३)
दक्षिणाग्नि = पितृकर्म की अग्नि ।
गार्हपत्य अग्नि द्वारा ही इसे प्रज्जवलित करते हैं । दक्षिणाग्नि यज्ञशाला के दक्षिणभाग में स्थापित की जाती है ।
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दो अतिरिक्त अग्नियों को मिलाकर “पञ्चाग्नि” कहलाती है —
(४)सभ्याग्नि तथा
(५)आवसथ्याग्नि
जो क्रमशः सभा और गृह के विशेष कर्मों में प्रयुक्त होते हैं । इन पाँचों अग्नियों के समुचित प्रयोग की विद्या “पञ्चाग्नि−विद्या” कहलाती है ।
गार्हपत्य अग्नि के नियम आदि का विधान कल्पसूत्रों में है ।
सभ्याग्नि तथा आवसथ्याग्नि की विद्यायें गूढ़ हैं । अपहरण होने पर जानकी जी ने आवसथ्याग्नि की आराधना की थी ।
गार्हपत्य अग्नि द्वारा गृह और वासियों का पालन होता है अतः वह पिता है ।
दक्षिणाग्नि पितरों को तुष्ट करके वंशरक्षा करता है अतः माता है ।
आहवनीय अग्नि सांसारिक दायित्वों के निर्वाहन हेतु साधन भी देता है और मुक्ति हेतु ज्ञान भी,अतः गुरु है ।
आज भी दक्षिण भारत में बहुत से लोग गार्हपत्य अग्नि बचाकर रखते हैं और दैनिक अग्निहोत्र करते हैं जो सभी ब्राह्मणों का अनिवार्य दैनिक कर्म है । किन्तु उत्तर भारत में म्लेच्छों का उत्पात अधिक मचा जिस कारण ब्राह्मणों और अन्य हिन्दुओं का रहन−सहन अस्तव्यस्त हो गया और वैदिक कर्म छूट गये
24/08/19, 10:50 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: 🙏🙏
24/08/19, 10:50 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: 🙏
24/08/19, 11:48 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: 🙏🏻🙏🏻
25/08/19, 11:01 am – Pitambar Shukla: सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी ।
रौरव नरक परहिं ते प्रानी ।।
होहिं उलूक संत निंदा रत।
मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत।।
जो अभिमानी जीव देवताओं और वेदों की निंदा करते है,
वे रौरव नरक में पड़ते हैं।
संतों की निंदा में लगे हुए लोग उल्लू होते हैं,
जिन्हें मोह रूपी रात्रि प्रिय होती है और ज्ञान रूपी सूर्य जिनके लिए बीत गया (अस्त हो गया ) रहता है ।।120-13।।
सब कै निंदा जे जड़ करहीं।
ते चमगादुर होइ अवतरहीं।।
सुनहु तात अब मानस रोगा।
जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा।।
जो मूर्ख मनुष्य सबकी निंदा करते हैं,
वे चमगादड़ हो कर जन्म लेते हैं।
हे तात! अब मानस रोग सुनिए,
जिनसे सब लोग दुःख पाया करते हैं।।120-14।।
25/08/19, 11:03 am – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: ।ॐ। शिव स्वरोदयः ।ॐ।
रणे हरति शत्रुस्तं वामायां प्रविशेन्नरः।
स्थानं विषुवचारेण जयः सूर्येण धावता।२५९।
युद्धे द्वये कृते प्रश्न पूर्णस्य प्रथमे जयः।
रिक्ते चैव द्वितीयस्तु जयी भवति नान्यथा।२६०।
पूर्णनाडीगतः पृष्ठे शून्याङ्गं च तदाग्रतः।
शून्यस्थाने कृतः शत्रुर्म्रियते नात्र संशयः।२६१।
वामाचारे समं नाम यस्य तस्य जयी भवेत्।
पृच्छको दक्षिणभागे विजयी विषमाक्षरः।२६२।
अर्थ- जो योद्धा बाएँ स्वर के प्रवाहकाल में युद्ध भूमि में प्रवेश करता है, तो उसका शत्रु द्वारा अपहरण हो जाता है। सुषुम्ना के प्रवाहकाल में वह युद्ध में स्थिर रहता है, अर्थात् टिकता है। पर सूर्य स्वर के प्रवाहकाल में वह निश्चित रूप से विजयी होता है।२५९।
यदि कोई सक्रिय स्वर की ओर से युद्ध के परिणाम के विषय में प्रश्न पूछे, तो जिस पक्ष का नाम पहले लेगा उसकी विजय होगी। परन्तु यदि निष्क्रिय स्वर की ओर से प्रश्न पूछता है, तो दूसरे स्थान पर जिस पक्ष का नाम लेता है उसकी विजय होगी।२६०।
जब कोई सैनिक सक्रिय स्वर की दिशा में युद्ध के लिए प्रस्थान करे, तो उसका शत्रु संकटापन्न होगा। पर यदि निष्क्रिय स्वर की दिशा में युद्ध के लिए जाता है, तो शत्रु से उसका सामना होने की संभावना होगी। यदि युद्ध में शत्रु को निष्क्रिय स्वर की ओर रखकर वह युद्ध करता है, तो शत्रु की मृत्य अवश्यम्भावी है।२६१।
यदि प्रश्नकर्त्ता स्वरयोगी से उसके चन्द्र स्वर के प्रवाहकाल में बायीं ओर या सामने से प्रश्न करता है और उसके नाम में अक्षरों की संख्या सम हो, तो समझना चाहिए कि कार्य में सफलता मिलेगी। यदि वह दक्षिण की ओर से प्रश्न करता है और उसके नाम में वर्णों की संख्या विषम हो, तो भी सफलता की ही सम्भावना समझना चाहिए।२६२।
25/08/19, 6:42 pm – +91 ………: चाणक्य_सूत्राणि
*सूत्र_०९*
सम्पादितात्मा जितात्मा भवति।।०९।।
अर्थ- शासकोचित्त सत्य व्यव्यहार करना सीख लेनेवाला ही जितेंद्रिय हो सकता है।
विवरण- मनुष्य की सत्यनिष्ठा या कर्तव्यपरायणता ही उसके जितेन्द्रियता होती है। मनुष्य के अंतरात्मा की प्रसन्नता निर्मलता स्वच्छता या निष्कामता ही उसके जितात्मता है। जितात्मता होना ही संसार विजय है। नीति तथा विज्ञान से युक्त मानव को सम्पादितात्मा कहा गया है। सत्य ही नीति का सार या सर्वस्व है। सत्य के बिना मनुष्य का आत्मविकास नहीं होता। सत्यदर्शन के बिना समस्त प्रजागण में राज्याधिकारियों की वह आत्मबुद्धि (अर्थात समस्त प्रजावर्ग को अपना ही रूप में देखने की वह उदात्त भावना) नहीं हो सकती जो एक अच्छा लोककल्याणी राज्य चलाने वाले राजाओ या राज्याधिकारियों की अनिवार्य आवश्यकता है। जितात्मा का अर्थ सुपरिष्कृत मन तथा सुपरिष्कृत इंद्रियों वाला बन जाना हैं। जितात्मा मानव न्यायान्यायविवेक करके अपनी क्षुद्र प्रवित्तियों को ,विष को अपने गले में रोक रखने वाले विषकंठ महादेव के सामान; कभी न उभरने देने के लिए अपने मानस में दाबकर बैठ जाता हैं। राजा को प्रजा की दृष्टि में पूज्य बुद्धि मिलने से राजकाज अपने आप हल्का होता चला जाता हैं। तब राजा का आदर्श चरित्र ही प्रजापर शाषन करने लगता हैं। यदि राजा लोग न्यायान्याया तथा कर्तव्याकर्तव्य विवेक न रखकर केवल लोलुप होकर उत्तरदायित्वविहीन मन से राज्यशासन जैसे उत्तरदायित्वपूर्ण काम में हाथ डाल देते हैं ,तो वे अपने साथ राज्यसत्ता को भी ले डूबते हैं। राजनीती के आचार्य बृहस्पति कह गए हैं- ” आत्मवान् राजा” – राजा लोग अच्छे शासक बनने के लिए प्रजा पर शासन करने से पहले अपने उपर शासन करना सीखे। राजा या राज्यधिकरी लोग राजसत्ता हाथ में सम्भालने से पहले अपने जीवनो को वेद-वेदांतो की मूर्तिमती टीका तथा भाष्यो का रूप देकर रखे। राजकीय विभागों में जानेवाले लोग को सोचना चाहिए की दुष्टनिग्रह और शिष्टपालन ही राज्य का मुख्य कर्तव्य हैं। सोचिये तो सही की जो राजकर्मचारी अपनी ही दूष्ट अभिलाषाओं पर शासन नहीं कर सकता वह शासनदंड का उचित प्रयोग कैसे कर सकता हैं????? जिससे अपना अकेला मन में वश में नहीं रखा जाता वह विशाल राष्ट्र को कैसे वश में रख सकता हैं???
एकस्यैव हि यो$शक्तो मनसः सन्निबर्हणे।
महीम् सागरपर्यंताम् स कथ ह्यवजेष्यति।।
जो सबसे पहले अपनी दूष्ट अभिलाषओ पर शासन कर सकेगा वही प्रजा की दूष्ट प्रवित्तियो को पकड और रोक सकेगा। जैसे अपनी संतान को सुधारना पिता के आत्मसुधा से अलग वस्तु नहीं हैं इसी प्रकार प्रजा पर शासन करना राजा के आत्मसम्मान से अलग कोई वस्तु नहीं हैं। राज्याधिकार संभालना बहुत बड़ा उत्तरदायित्व हैं। आदर्श मनुष्य ही राज्याधिकार संभाल सकता हैं। राजा राज्य संस्था रूपी तपोवन का कुलपति हैं। समस्त प्रजा के कल्याण अकल्याण से सम्बन्ध रखने वाली राज्य जैसे सार्वजानिक संस्था को अपने व्यक्तिगत क्षुद्र स्वार्थो से बिगाड डालना देशद्रोह तथा आत्मनाश हैं। अपने को बिना सुधारे राज्याधिकार संभाल बैठना अगारुडिक ( सर्प विद्या को न जानने वाले) का साँप से खेलने जैसा भयंकर अनिष्ट कर डालने वाला व्यापार हैं।
25/08/19, 9:23 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: सिद्धान्तबिन्दु प्रथम श्लोक
न भूमिर्न तोयं न तेजो न वायुर्न खं नेन्द्रियं वा न तेषां समूहः ।
अनैकान्तिकत्वात्सुषुप्त्येकसिद्धस्तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। १ ।।
‘अहं’ अहमर्थ का अवलम्बन, न भूमि है, न जल है, न तेज है, न वायु है, न आकाश है, न प्रत्येक इन्द्रिय है, न भूमि आदि का समूह है; क्योंकि ये सब व्यभिचारी(विनाशी) हैं । सुषुप्ति में एक साक्षीरूप से सिद्ध, अद्वितीय, अविनाशी, निर्धर्मक, शिव जो है, वही मैं हूँ।
25/08/19, 10:57 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक १२५,१२६,१२७,१२८,१२९
पक्वं सुदुर्जरं बिल्वं दोषलं पूतिमारूतम्॥१२५॥
दीपनं कफवातघ्नम् बालं ग्राह्युभयं च तत्। कपित्थमामं कण्ठघ्नं दोषलं, दोषघाति तु॥१२६॥
पक्वं हिध्मावमथुजित् , सर्वं ग्राहि विषापहम्। जाम्बवं गुरु विष्टिम्भि शीतलं भृशवातलम्॥१२७॥
सङ्ग्राहि मूत्रशकृतोरकण्ठयं कफपित्तजित्। वातपित्तास्रकृद्वालं, बद्धास्थि कफपित्तकृत्॥१२८॥
गुर्वाम्रं वातजित्पक्वं स्वाद्वम्लं कफशुक्रकृत्। वृक्षाम्लं ग्राहि रुक्षोष्णं वातश्लेष्महरं लघु॥१२९॥
बिल्व का पका फल- पका हुआ बेल का फल बड़ी कठिनता से पचता है, दोषकारक होता है तथा इसका सेवन करने से अपान वायु दुर्गन्धयुक्त निकलता है। कच्चा बेल का फल अग्नि प्रदिप्त करता है, कफ तथा वातदोष का नाश करता है। ये दोनों प्रकार के बेल ग्राहि(मल को बांधने वाले होते हैं।
कैथ का कच्चा फल- यह कण्ठ (स्वरयन्त्र) को हानि पहुंचाता है, दोषकारक होता है।कैर का पका फल दोषशामक, हिचकी तथा वमन का विनाश करता है। ये दोनो प्रकार के कैथ ग्राहि होते हैं और विषविकार को नष्ट करते हैं।
- जामुन का फल-* यह गुरु (देर मे पचने वाला), विष्टम्भी, शीतवीर्य, वातविकार को अत्यन्त बढ़ाने वाला, मल मूत्र को रोकने वाला, स्वरयन्त्र के लिए अहितकर, कफ तथा पित्त विकार को जीतने वाला होता है।
वक्तव्य- राजजम्बू को संस्कृत में ‘फलेन्द्रा’ तथा हिन्दी में ‘फरेना’ कहते है। इसके अतिरिक्त जामुन के ये भेद पाये जाते हैं।— शूद्रजम्बू, काकजम्बू, भुमिजम्बू तथा जलजम्बू। राजजम्बू का ही वर्णन महाकवि कालिदास जी ने मेघदूत में इस प्रकार किया है— ‘श्यामजम्बूवनान्ताः’। (पूर्वमेघ)
आम का वर्णन- जिसमें अभी गुठली नहीं पड़ी हो ऐसा बाल(छोटा) आम वातकारक, पित्तकारक तथा रक्तधातु को दूषित करता है।गुठली पड़ जाने पर अर्थात कुछ बड़ा होने पर वह कफकारक तथा पित्तकारक होता है। पका हुआ आम पाक में गुरु, वातनाशक, स्वाद में मधुर होता है। पका हुआ खट्टा आम कफकारक तथा शुक्रवर्धक होता है।
वृक्षाम्ल का वर्णन- वृक्षाम्ल(विषांविल, कोकम) का फल ग्रा
ही, रूक्ष, उष्णवीर्य वात तथा कफदोषनाशक तथा पाचन मे लघु होता है।
वक्तव्य- इसकी उत्पत्ति कोकण, कनारा आदि दक्षिण प्रान्तों में होती है।बीज निकाल कर सुखाये हुए फल को अमसूल या कोकम कहते है। इनके बीजों का तेल निकाला जाता है। इसे कोकम का घी या तेल कहते है। यह तेल स्तम्भन एवं व्रणरोपण होता है। इसके छिलकों की चटनी बनायी जाती है। अतिसार, रक्तातिसार आदि में इसका फाण्ट(चाय) बनाकर दिया जाता है तथा पित्तजनित विकारों में इसे घोलकर इसका शरबत बनाकर दिया जाता है। इससे लाभ भी होता है।
26/08/19, 6:23 am – Abhinandan Sharma: You deleted this message
26/08/19, 6:25 am – Abhinandan Sharma:
26/08/19, 6:32 am – Abhinandan Sharma: बहुत सुंदर ।
26/08/19, 6:56 am – Abhinandan Sharma:
26/08/19, 7:10 am – Abhinandan Sharma: वाह, अद्भुत व्याख्या ।
26/08/19, 7:10 am – Abhinandan Sharma: 🙏
26/08/19, 7:18 am – Abhinandan Sharma: आजकल ऐसे किसी सन्त, बाबा को जानते हैं ?
26/08/19, 7:20 am – Abhinandan Sharma: 😊 सांस लेते समय मनोकामना । नयी बात !
26/08/19, 7:24 am – Abhinandan Sharma: 👏👏
26/08/19, 8:18 am – LE Ravi Parik C Block Pragati Maidan : बहुत अच्छा है अगर मंत्रोच्चार गायन भी डाला जाए।
अच्छा लगा अभिनंदन जी
26/08/19, 9:02 am – Abhinandan Sharma: जब हम विभिन्न शास्त्रों को पढ़ते हैं तो ज्ञात होता है कि तर्कशास्त्र कितना महत्वपूर्ण है | इसको पढ़े बिना, धर्म को जानना नितांत असम्भव है | तर्क ही धर्म की रक्षा करता है क्योंकि यही वो चीज है, जो धर्म को कुतर्कों और दुराग्रहों से बचा सकता है | भारतीय मनीषियों ने समय समय पर तर्कशास्त्र को बचा कर रखा और उसकी बारम्बार व्याख्या की ताकि आने वाली पीढ़ी भी धर्म की रक्षा कर सके किन्तु अब लोग शास्त्र पढ़ते ही नहीं हैं, सो धर्म को समझते भी नहीं है और बाबाओं के चक्कर में पड़ जाते हैं |
लोग ईश्वर के न होने, पुनर्जन्म न होने पर बचकाने कुतर्क रखते हैं और समझते हैं कि उनसे पहले तो किसी ने ये सब विचारा ही नहीं । लेकिन वौद्ध भी तो यही मानते थे, वो भी अनीश्वरवादी हुए और स्वर्ग, नर्क, पुनर्जन्म नहीं मानते थे किंतु जब आदिशंकराचार्य से शास्त्रार्थ हुआ तो बौद्ध धर्म के बड़े बड़े धुरंधर पराजित हुए !! कैसे ? तर्क से !!! क्या आपको अभी भी ये भरम है कि आपने उनसे भी ज्यादा शास्त्र पढ़ लिये हैं ? आपकी तर्कशीलता, उनसे भी अधिक है ? वो भी बिना कुछ अध्ययन किये !
इस बार के वीडियो में हम बात करेंगे, तर्कशास्त्र की आवश्यकता पर | तर्क, वितर्क और कुतर्क के कुछ उदाहरणों से उसे समझने का प्रयास करेंगे | तर्क के कितने भाग और विषय होते हैं, तर्क कैसे स्थापित किया जाता है, विज्ञान और धर्म, दोनों तर्क के बिना जानने असम्भव हैं ! ये सभी इस वीडियो में बताया गया है | वीडियो में क्वालिटी थोड़ा खराब है फिर भी विषय इतना महत्वपूर्ण है कि उसे कान मे इयर फोन लगाकर पूरा सुना जाना चाहिए ।
https://youtu.be/xaiCInXDENY
26/08/19, 9:10 am – Abhinandan Sharma: पढ़कर, अपना रिव्यु अवश्य शेयर करें ।
26/08/19, 9:11 am – Vaidya Ashish Kumar: जी सर,जरूर
26/08/19, 9:17 am – Abhinandan Sharma: अब देखिये कितनी इम्पोर्टेन्ट बातें हैं पट हम शास्त्रीय अर्थ की गहराई को नहीं समझ पाते और मात्र अर्थ पढ़कर समझते हैं कि हमने तो पढ़ लिया । सोचिये जरा, युद्ध के समय कुम्भक क्यों अच्छा है ?
26/08/19, 9:50 am – Abhinandan Sharma: ये इसलिये नहीं डाला ही कि ग्रुप पर हर कोई बोलकर रिकॉर्डिंग डाले अपितु एक आईडिया दिया है कि जब संस्कृत के श्लोक, छंद पढ़ें तो उन्हें गाकर देखा जाना चाहिए । इससे संस्कृत को पढ़ने का भय समाप्त हो जाता है और छंदों में मजा आने लगता है । लयइन जब लिखे गये हैं तो लय में पढ़ा क्यों न जाये, कोशिश लॉरेन, सभी लोग अपने स्तर पर, बस उसके लिये एक उदाहरण है ।
26/08/19, 10:31 am – Pitambar Shukla: मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला।
तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।
काम बात कफ लोभ अपारा।
क्रोध पित्त नित छाती जारा।।
सब रोगों की जड़ मोह ( अज्ञान ) है।
उन व्याधियों से फिर और बहुत से शूल उत्पन्न होते हैं।
काम वात है,
लोभ अपार ( बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है।।120-15।।
प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई ।
उपजइ सन्यपात दुखदाई ।।
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना।
ते सब सूल नाम को जाना।
यदि कहीं ये तीनों भाई
( वात पित्त और कफ) प्रीति कर लें ( मिल जायँ) तो दुःख दायक सन्निपात रोग उत्पन्न होता है ।
कठिनता से प्राप्त ( पूर्ण) होने वाले जो विषयों के मनोरथ हैं,
वे ही सब शूल ( कष्ट दायक रोग ) हैं;
उनके नाम कौन जानता है ( अर्थात् वे अपार हैं)।।120-16।।
26/08/19, 10:33 am – +91 ………: क्या प्रतिदिन एक छन्द गायन हो सकता हैं ????
26/08/19, 10:34 am – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: 🙏
26/08/19, 10:36 am – Dr PL Sharma White Cottege Ghaziabad Shastr Gyan: सनातन वैदिक धर्म विज्ञान सम्मत है, समझने के लिए अध्ययन आवश्यक है।
27/08/19, 10:16 am – Pitambar Shukla: ममता दादु कंडु इरषाई।
हरष बिषाद गरह बहुताई।।
पर सुख देखि जरनि सोइ छई।
कुष्ठ दुष्टता मन कुटिलई।।
ममता दाद है,
ईर्ष्या (डाह ) खुजली है,
हर्ष – बिषाद गले के रोगों की अधिकता है( गलगंड, कण्ठमाला या घेघा आदि रोग हैं),
पराए सुख को देखकर जो जलन होती है, वही क्षयी है।
दुष्टता और मन की कुटिलता ही कोढ़ है।।120-17।।
अहंकार अति दुखद डमरुआ।
दंभ कपट मद मान नेहरुआ।।
तृस्ना उदर बृद्धि अति भारी।
त्रिबिधि ईषना तरुन
तिजारी।।
अहंकार अत्यंत दुःख देनेवाला डमरू(गाँठ का) रोग है।
दम्भ, कपट, मद और मान नहरुआ ( नसों का) रोग है।
तृष्णा बड़ा भारी उदर बृद्धि ( जलोदर) रोग है।
तीन प्रकार (पुत्र, धन और मान) की प्रबल इच्छाएँ प्रबल तिजारी हैं।।120-18।।
जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका।
कहँ लगि कहौं कुरोग अनेका।।
मत्सर और अविवेक दो प्रकार के ज्वर हैं।
इस प्रकार अनकों बुरे रोग हैं, जिन्हें कहाँ तक कहूं।।120-19।।
27/08/19, 1:00 pm – +91 : 🙏🏻
27/08/19, 1:01 pm – +91 : (१)मानवीय जीवने संस्कृतस्य महत्वम्।
(२)संस्कृते व्यवसायानां अवसर:।
(३)संस्कृते पर्यावरणस्य रक्षणोपाय:।
किसी के पास तीनों में से कोई भी संस्कृत निबंध होगा तो भेजें।
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
27/08/19, 8:18 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: सिद्धान्तबिन्दु द्वितीय श्लोक
न वर्णा न वर्णाश्रमाचारधर्मा
न मे धारणाध्यान योगादयोऽपि।
अनात्माश्रयाहंममाध्यासहानात्
तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। २ ।।
न वर्ण हैं, न वर्णो के आचार-धर्म हैं, न आश्रमों के आचार-धर्म हैं, न मेरी धारणा है, न ध्यान है, न योगादि ही है; क्योंकि अविद्या से उत्पन्न अहङ्कार और ममकार अध्यास का तत्वज्ञान से नाश हो जाता है, इसलिए तत्प्रयुक्त वर्णाश्रम आदि व्यवहार भी नहीं रहते। सब प्रमाणों के बाढ़ होने पर भी अबाधित, अद्वितीय, निर्धर्मक, शिव मैं हूँ ।
27/08/19, 8:30 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: ।ॐ। शिव स्वरोदयः ।ॐ।
यदा पृच्छति चन्द्रस्य तदा संधानमादिशेत्।
पृच्छेद्यदा तु सूर्यस्य तदा जानीहि विग्रहम्।२६३।
पार्थिवे च समं युद्धं सिद्धिर्भवति वारुणे।
युद्धेहि तेजसो भङ्गो मृत्युर्वायौ नभस्यपि।२६४।
निमित्ततः प्रमादाद्वा यदा न ज्ञायतेऽनिलः।
पृच्छाकाले तदा कुर्यादिदं यत्नेन बुद्धिमान्।२६५।
निश्चलं धरणं कृत्वा पुष्पं हस्तान्निपातयेत्।
पूर्णाङ्गे पुष्पपतनं शून्यं वा तत्परं भवेत्।२६६।
अर्थ- यदि प्रश्न पूछते समय चन्द्र स्वर प्रवाहित हो, तो संधि की सम्भावना समझनी चाहिए। लेकिन यदि उस समय सूर्य स्वर चल रहा हो, तो समझना चाहिए कि युद्ध के चलते रहने की सम्भावना है।२६३।
चन्द्र स्वर या सूर्य स्वर प्रवाहित हो, लेकिन यदि प्रश्न के समय सक्रिय स्वर में पृथ्वी तत्त्व प्रवाहित हो, समझना चाहिए कि युद्ध कर रहे दोनों पक्ष बराबरी पर रहेंगे। जल तत्त्व के प्रवाह काल में जिसकी ओर से प्रश्न पूछा गया है उसे सफलता मिलेगी। प्रश्न काल में स्वर में अग्नि तत्त्व के प्रवाहित होने पर चोट लगने की सम्भावना व्यक्त की जा सकती है। किन्तु यदि वायु या आकाश तत्त्व प्रवाहित हो, तो पूछे गए प्रश्न का उत्तर मृत्यु समझना चाहिए।२६४।
इन श्लोकों में भी कुछ पिछले अंकों की भाँति ही नीचे के प्रथम दो श्लोकों में प्रश्न का उत्तर जानने की युक्ति बतायी गयी है। शेष तीन श्लोकों में कार्य में सफलता प्राप्त करने के कुछ तरीके बताए गए हैं।
समझने की सुविधा को ध्यान में रखते हुए नीचे के प्रथम दो श्लोकों को एक साथ लिया जा रहा है-
यदि किन्हीं कारणों से प्रश्न पूछने के समय यदि स्वर-योगी सक्रिय स्वर का निर्णय न कर पाये, तो सही उत्तर देने के लिए वह निश्चल हो बैठ जाय और ऊपर की ओर एक फूल उछाले। यदि फूल प्रश्नकर्त्ता के पास उसके सामने गिरे, तो शुभ होता है। पर यदि फूल प्रश्नकर्त्ता के दूर गिरे या उसके पीछे जाकर गिरे, तो अशुभ समझना चाहिए।२६५-२६६।
27/08/19, 8:43 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: ममकार अध्यास?
27/08/19, 8:51 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: अध्यास – एक वस्तु में दूसरी वस्तु का ज्ञान अध्यास कहलाता है ।
ममकार -> ममत्व
27/08/19, 8:52 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: 🙏
27/08/19, 8:53 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: बाढ़❌
बाध✅
27/08/19, 9:00 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: अध्यास के दो भाग माने जाते हैं – सत्य और मिथ्या।
अँधेरे में हम रस्सी को सांप समझ लेते हैं तो वहाँ सांप होने का ज्ञान मिथ्या है ।
यहाँ रस्सी सत्य है और सर्प का ज्ञान मिथ्या है ।
27/08/19, 9:10 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: जी
27/08/19, 9:11 pm – LE Ravi Parik C Block Pragati Maidan : काम = वात
लोभ = कफ
क्रोध = पित्त
27/08/19, 9:15 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👌🏼
28/08/19, 9:48 am – Pitambar Shukla: एक ब्याधि बस नर मरहिं
ए असाधि बहु ब्याधि।
पीड़हिं संतत जीव कहुं
सो किमि लहै समाधि।।
एक ही रोग के वश हो कर मनुष्य मर जाते है,
फिर ये तो बहुत – से असाध्य रोग हैं।
ये जीव को निरंतर कष्ट देते रहते है,
ऐसी दशा में वह समाधि( शांति) को कैसे प्राप्त करे?।।121-क।।
नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।
भेषज पुनि कोटिन्ह
नहिं रोग जाहिं हरिजान ।।
नियम, धर्म, आचार (उत्तम आचरण),तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा और भी करोड़ो औषधियां हैं,
परन्तु हे गरुड़ जी!
उनसे ये रोग नही जाते।।121-ख।।
28/08/19, 1:11 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
🙏श्री मनुस्मृति🙏
तेषां अनुपरोधेन पारत्र्यं यद्यदाचरेत् ।
तत्तन्निवेदयेत्तेभ्यो मनोवचनकर्मभिः । । २.२३६ । ।
त्रिष्वेतेष्वितिकृत्यं हि पुरुषस्य समाप्यते ।
एष धर्मः परः साक्षादुपधर्मोऽन्य उच्यते । । २.२३७ । ।
श्रद्दधानः शुभां विद्यां आददीतावरादपि ।
अन्यादपि परं धर्मं स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि । । २.२३८ । ।
विषादप्यमृतं ग्राह्यं बालादपि सुभाषितम् ।
अमित्रादपि सद्वृत्तं अमेध्यादपि काञ्चनम् । । २.२३९ । ।
स्त्रियो रत्नान्यथो विद्या धर्मः शौचं सुभाषितम् ।
विविधानि च शील्पानि समादेयानि सर्वतः । । २.२४० । ।
अर्थ
इसके सिवा जो कर्म करे वो इनको निवेदन कर देवे , उन तीनों की सेवा से पुरुष के कर्तव्य पूरे पड़ जाते हैं। यह मुख्य धर्म है और गौण धर्म माना जाता है
श्रद्धामय पुरुष उत्तम विद्याओं को हीनजाति से भी सीखे और चण्डाल से भी लोक मर्यादा सीखे व हीनकुल से भी सुशील स्त्रियों से विवाह करे, विष से भी अमृत और बालक से भी हितवचन ग्रहण कर ले । शत्रु से भी सदाचार व अपवित्र से भी सुवर्ण निकाल लेवे,
स्त्री,रत्न,विद्या,धर्म,शौच, व अच्छे वचन और भांति भांति की शिल्पकला आदि सब से सिख लेवे।।
28/08/19, 1:34 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: मुख्य धर्म है औऱ गौण धर्म माना जाता है????
28/08/19, 1:35 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: हीनजाति???
हीनकुल समझ आया पर,,,,🤔
28/08/19, 1:36 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: शौच???
28/08/19, 1:37 pm – Ashu Bhaiya: स्वछता
28/08/19, 1:41 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: जी पर इसमें हीनकुल से सीखने जैसा क्या है🙏
28/08/19, 1:44 pm – Ashu Bhaiya: “स्त्री,रत्न,विद्या,धर्म,शौच, व अच्छे वचन और भांति भांति की शिल्पकला आदि सब से सिख लेवे।”
28/08/19, 1:44 pm – Ashu Bhaiya: सब से
29/08/19, 9:46 am – Pitambar Shukla: एहि बिधि सकल जीव जग रोगी।
सोक हरष भय प्रीति बियोगी ।।
मानस रोग कछुक मैं गाए।
हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए।।
इस प्रकार जगत् में समस्त जीव रोगी हैं,
जो शोक, हर्ष, भय, प्रीति और वियोग के दुःख से और भी दुखी हो रहे हैं।
मैंने ये थोड़े से मानस रोग कहे हैं।
ये हैं तो सबको, परन्तु इनको जान पाए हैं बिरले ही।।121-1।।
जाने ते छीजहिं कछु पापी।
नास न पावहिं जन परितापी।।
बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे।
मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे।।
प्राणियों को जलाने वाले ये पापी( रोग) जान लिए जाने से कुछ क्षीण अवश्य हो जाते हैं,
परन्तु नाश को नहीं प्राप्त होते।
विषय रूप कुपथ्य पा कर ये मुनियों के हृदय में अंकुरित हो उठते हैं,
तब बेचारे साधारण मनुष्य तो क्या चीज हैं।।121-2।।
29/08/19, 9:59 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: सत्य वचन 🙏🏼🙏🏼
29/08/19, 12:50 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: 🙏
29/08/19, 4:47 pm – +91 ………: उपपद विभक्ति या विभक्ति (धातव:) के कोई भी नोट्स हो तो भेजें।
29/08/19, 4:53 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: Group में ऐसी कोई request मान्य नहीं है। कृपया अलग से किसी से पूछ लें 🙏🏼🙏🏼
29/08/19, 4:54 pm – +91 ………..: OK
29/08/19, 5:52 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: सिद्धान्तबिन्दु तृतीय श्लोक
न माता न पिता वा न लोका न देवा
न वेदा न यज्ञा न तीर्थं ब्रुवन्ति ।
सुषुप्तौ निरस्ताति शून्यात्मकत्वात्
तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। ३ ।।
न माता है, न पिता है, न लोक हैं, न वेद हैं, न यज्ञ हैं, न तीर्थ हैं । सुषुप्ति में निरस्त अति शून्यात्मक होने से एक, अविशेष, केवल, शिव, मैं हूँ ।
29/08/19, 6:00 pm – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: 🙏🏻🙏🏻🙏🏻
29/08/19, 9:39 pm – Omprakash Singh LE C-105: 🙏🙏
29/08/19, 9:59 pm – Karunakar Tiwari Kanpur Shastra Gyan: 🙏🙏🙏🙏
29/08/19, 10:00 pm – Omprakash Singh LE C-105: सामान्यत: प्रसिद्ध धार्मिक ग्रंथ श्री रामचरितमानस के लंकाकांड को असुरों के साथ संग्राम और अंत में रावण वध की कथा से संबंधित माना जाता है और सुंदरकांड की तरह इसका बारंबार पाठ नहीं किया जाता लेकिन इसमें उच्च जीवन मूल्यों को प्रेरित करने वाला एक प्रभावी अंश है जो नीचे हिंदी भावार्थ के साथ प्रस्तुत है।
रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि विभीषन भयउ अधीरा।।
अधिक प्रीति मन भा संदेहा। बंदि चरन कह सहित सनेहा।।
नाथ न रथ नहीं तन पद त्राना। केहि बिधि जितब बीर बलवाना।।
सुनहु सखा कह कृपा निधाना। जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना।।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका।।
बल बिवेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे।।
ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना।।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। बर बिज्ञान कठिन कोदंडा।।
अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जन नियम सिलीमुख नाना।।
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम विजय उपाय न दूजा।।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें।।
महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।
जाके अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर।।
इसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार से है-
रावण को रथ पर ओर श्री रधुवीर को बिना रथ के देख कर विभीषण अधीर हो गये। प्रेम अधिक होने से उनके मन में संदेह हो गया कि वे बिना रथ के, रावण को कैसे जीत सकेंगे। श्रीराम जी के चरणों की वंदना करके वे स्नेह पूर्वक कहने लगे- हे नाथ! आपके न रथ है, न तन की रक्षा करने वाला कवच है और न जूते ही हैं। वह बलवान् वीर रावण किस प्रकार जीता जायेगा। कृपानिधान श्री रामजी ने कहा हे सखे। सुनो, जिससे जय होती है, वह रथ दूसरा ही है। शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिये हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम (इंन्द्रियों का वश में होना) और परोपकार- ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं। ईश्वर का भजन ही उस रथ को चलाने वाला चतुर सारथि है। वैराग्य ढाल है और सन्तोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है। निर्मल (पाप रहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना), (अहिंसादि) यम और (शौचादि) नियम, ये बहुत से बाण हैं। ब्राह्मणों और गुरू का पूजन अभेद्य कवच है। इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है। हे सखे। ऐसा धर्ममय रथ जिसके हो उसके लिये जीतने को कहीं शत्रु ही नहीं है। हे धीर बुद्धि वाले सखा। सुनो, जिसके पास ऐसा दृढ़ रथ हो, वह वीर संसार (जन्म-मृत्यु) रूपी महान् दुर्जय शत्रु को भी जीता जा सकता है, (रावण की तो बात ही क्या है)।
29/08/19, 10:36 pm – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: 🙏🙏
29/08/19, 11:08 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक १३०,१३१
शम्या गुरुष्णम् केशघ्नं रुक्षम् पीलु तु पित्तलम्। कफवातहरं भेदि प्लीहार्शःकृमिगुल्मनुत्॥१३०॥
सतिक्तम् स्वादु यत्पीलु नात्युष्णं तत्त्रिदोषजित्। त्वक्तिक्तकटुका स्निग्धा मातुलुङ्गस्य वातजित्॥१३१॥
बृंहणं मधुरं मांसं वातपित्तहरं गुरु। लघु तत्केसरं कासश्वासहिध्मामदात्ययान॥१३२॥
आस्यशोषानिलश्लेष्मविबन्धच्छर्द्यरोचकान्। गुल्मोदरार्शःशूलानि मन्दाग्नित्वं च नाशयेत॥१३३॥
शमी का फल– यह पाक में गुरु, उष्णवीर्य, केशनाशक तथा रुक्ष होता है।
वक्तव्य- शमी को हिन्दी में छोकर कहते है। इषका वर्णन भवप्रकाश तथा धनवन्तरि निघण्टुओं मेभी आया है। यह छोटी व बड़ी भेद से दो प्रकार की होती है। धार्मिक कार्यों में इसका बड़ा महत्व है। इसकी कच्ची फलियों का शाक बनाकर मारवाड़ तथा पंजाब में खाया जाता है, दशहरे के पुण्य पर इसके वृक्ष की पूजा की जाती है। विशेष देखें— च.सू.२७/१४९ सु.सू. ४६/१९३
पीलु का फल- यह पित्तकारक, कफ तथा वातनाशक, मलभेदक (दस्तावर), प्लीहारोग, अर्शोरोग, क्रिमिरोग तथा गुल्मरोग नाशक होता है। जो पीलु कुछ तीता एवं मधुर होता है, वह अधिक उष्ण नहीं होता और वह त्रिदोषनाशक भी होता है।
वक्तव्य- इसके वृक्ष राजस्थान, बिहार, कोंकण, दक्षिणप्रदेश, कर्नाटक, बलूचिस्तान आदि सूखे प्रान्तों में पाये जाते हैं। यह पीलु छोटा बड़ा भेद से दो प्रकार का होता है।
मातुलुंग(बिजौरा) नींबू की त्वचा- यह तिक्त एवं कटु होती है और स्निग्ध तथा वातनाशक होती है। उसका मांस(गूदा) बृंहण, मधुर, वात तथा पित्त नाशक और गुरु होता है। बिजौरानींबू का केशर लघु, कास, श्वास, मदात्यय, हिचकी, मुखशोष, वातरोग, कफरोग, विबन्ध(कब्जियत), वमन, अरोचक, गुल्मरोग, उदररोग, अर्शोरोग, शूलरोग एवं मन्दाग्नि का विनाश करता है।
वक्तव्य- नैनीताल अल्मोड़ा आदि पर्वतीय स्थानों में बिजौरानींबू पर्याप्त रूप में पाया जाता है।इसका छिलका बाहरी और भीतरी भेद से दो प्रकार का कहा गया है। बाहरी छिलका को त्वक्, भीतरी छिलका को मांस और भीतर मिलने वाले अम्ल पदार्थ को केसर कहा गया है। अब आप इसका अर्थ इस प्रकार लगाये— बाहरी छिलका को अत्यन्त पतला छीलकर फेक दिया जाता है, उसके गुण है त्वक्तिक्ता…..वातजित्। इस बाहरी छिलका में तेल का अंश पाया जाता है जो छीलने वाले के हाथ में लग जाता है। इसका वह भाग जिसे वाग्भट ने मांस कहा है, इसे मित्रमण्डली या परिजनों के साथ बैठकर खाया जाता है, जिसे सौगात = स्वागत कहा जाता है। यह अत्यन्त कोमल तथा मधुर होता है।
इसी का एक भेद मतकाकड़ी भी है, जिसे आयुर्वेद में मधुकर्कटी कहा है। इसके विपरीत जो निघण्टु ग्रन्थों में इसे चकोतरा कहा है, यह भ्रम है। आप देखें— मधुकर्कटी और मतकाकड़ी शब्दों में कितना साम्य है? इसी प्रकार बिजौरानींबू और मतकाकड़ी में छोटे-बड़े मात्र का अंतर है। इसी बहाने आप पर्वतीय यात्रा करें और देखें— इन दोनों फलों को। चकोतरा जिसे कहते है उसका बाहर का छिलका फेक दिया जाता है और भीतर का केशर मीठा होने के कारण खाया जाता है।उक्त बिजौरानींबू तथा मतकाकड़ी का केशर खट्टा होता है। ये दोनों के परस्पर विभेदक लक्षण है।
29/08/19, 11:08 pm – Shastragyan Abhishek Sharma:
29/08/19, 11:08 pm – Shastragyan Abhishek Sharma:
29/08/19, 11:09 pm – Shastragyan Abhishek Sharma:
29/08/19, 11:09 pm – Shastragyan Abhishek Sharma:
30/08/19, 7:01 am – Abhinandan Sharma: 👌
30/08/19, 7:05 am – Abhinandan Sharma: तभी मैं सोचूं कौवे इतने क्यों बढ़ते जाता रहे हैं 😊
30/08/19, 7:11 am – Abhinandan Sharma: 👌
30/08/19, 8:00 am – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: 👍
30/08/19, 8:01 am – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: 🙏🙏🙏🙏
30/08/19, 8:50 am – Shyam Sunder Fsl: This message was deleted
30/08/19, 9:40 am – Shyam Sunder Fsl: 🙏 sorry By mistake
30/08/19, 9:55 am – Pitambar Shukla: राम कृपा नासहिं सब रोगा।
जौं एहि भाँति बनै संजोगा।।
सदगुर बैद बचन बिस्वासा ।
संजम यह न बिषय कै आसा।।
यदि श्री राम जी की कृपा से इस प्रकार का संयोग बन जाय तो ये सब रोग नष्ट हो जायँ।
सद्गुरु रूपी वैद्य के वचन में विश्वास हो।
विषयों की आशा न करे,
यही संयम ( परहेज) हो।।121-3।।
रघुपति भजन सजीवन मूरी।
अनूपान श्रद्धा मति पूरी।।
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं।
नाहीं त जतन कोटि नहिं जाहीं।।
श्री रघुनाथ जी की भक्ति संजीवनी जड़ी है।
श्रद्धा से पूर्ण बुद्धि ही अनुपान ( दवा के साथ लिया जाने वाला मधु आदि) है।
इस प्रकार का संयोग हो तो वे रोग भले ही नष्ट हो जायं,
नहीं तो करोड़ों प्रयत्नों से नहीं जाते।।121-4।।
30/08/19, 10:19 am – LE Onkar A-608 left
30/08/19, 2:58 pm – LE Onkar A-608 joined using this group’s invite link
30/08/19, 5:47 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: This message was deleted
30/08/19, 5:50 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: सिद्धान्तबिन्दु चतुर्थ श्लोक
न सांख्यं न शैवं न तत्पाञ्चरारात्रं
न जैनं न मीमांसकादेर्मतं वा ।
विशिष्टानुभूत्या विशुद्धात्मकत्वात्
तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। ४ ।।
न सांख्य का मत श्रेष्ठ है, न शैव, न पाञ्चरात्र, न जैन, न मीमांसकों का ही मत उचित है, विशिष्टानुभूति से विशुद्धात्मक होने से एक, अविशिष्ट, अद्वितीय, शिव मैं हूँ ।
30/08/19, 8:27 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: ।ॐ। शिव स्वरोदयः ।ॐ।
तिष्ठन्नुपविशंश्चापि प्राणमाकर्षयन्निजम्।
मनोभङ्गमकुर्वाणः सर्वकार्येषु जीवति।२६७।
न कालो विविधं घोरं न शस्त्रं न च पन्नगः।
न शत्रु व्याधिचौराद्याः शून्यस्थानाशितुं क्षमाः।२६८।
जीवेनस्थापयेद्वायु जीवेनारम्भयेत्पुनः।
जीवेन क्रीडते नित्यं द्युते जयति सर्वदा।२६९।
खड़े होकर अथवा बैठकर अपने प्राण (श्वास) को एकाग्र चित्त होकर अन्दर खींचते हुए यदि कोई व्यक्ति जो कार्य करता है उसमें उसे अवश्य सफलता मिलती है।२६७।
यदि कोई व्यक्ति सुषुम्ना के प्रवाहकाल में ध्यानमग्न हो, तो न कोई शस्त्र, न कोई समर्थ शत्रु और न ही कोई सर्प उसे मार सकता है।२६८।
यदि कोई व्यक्ति सक्रिय स्वर से श्वास अन्दर ले और अन्दर लेते हुए कोई कार्य प्रारम्भ करे तथा जूआ खेलने बैठे और सक्रिय स्वर से लम्बी साँस ले, तो वह सफल होता है।२६९।
30/08/19, 11:20 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: This message was deleted
30/08/19, 11:22 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक १३०,१३१
शम्या गुरुष्णम् केशघ्नं रुक्षम् पीलु तु पित्तलम्। कफवातहरं भेदि प्लीहार्शःकृमिगुल्मनुत्॥१३०॥
सतिक्तम् स्वादु यत्पीलु नात्युष्णं तत्त्रिदोषजित्। त्वक्तिक्तकटुका स्निग्धा मातुलुङ्गस्य वातजित्॥१३१॥
बृंहणं मधुरं मांसं वातपित्तहरं गुरु। लघु तत्केसरं कासश्वासहिध्मामदात्ययान॥१३२॥
आस्यशोषानिलश्लेष्मविबन्धच्छर्द्यरोचकान्। गुल्मोदरार्शःशूलानि मन्दाग्नित्वं च नाशयेत॥१३३॥
शमी का फल– यह पाक में गुरु, उष्णवीर्य, केशनाशक तथा रुक्ष होता है।
वक्तव्य- शमी को हिन्दी में छोकर कहते है। इषका वर्णन भवप्रकाश तथा धनवन्तरि निघण्टुओं मेभी आया है। यह छोटी व बड़ी भेद से दो प्रकार की होती है। धार्मिक कार्यों में इसका बड़ा महत्व है। इसकी कच्ची फलियों का शाक बनाकर मारवाड़ तथा पंजाब में खाया जाता है, दशहरे के पुण्य पर इसके वृक्ष की पूजा की जाती है। विशेष देखें— च.सू.२७/१४९ सु.सू. ४६/१९३
पीलु का फल- यह पित्तकारक, कफ तथा वातनाशक, मलभेदक (दस्तावर), प्लीहारोग, अर्शोरोग, क्रिमिरोग तथा गुल्मरोग नाशक होता है। जो पीलु कुछ तीता एवं मधुर होता है, वह अधिक उष्ण नहीं होता और वह त्रिदोषनाशक भी होता है।
वक्तव्य- इसके वृक्ष राजस्थान, बिहार, कोंकण, दक्षिणप्रदेश, कर्नाटक, बलूचिस्तान आदि सूखे प्रान्तों में पाये जाते हैं। यह पीलु छोटा बड़ा भेद से दो प्रकार का होता है।
मातुलुंग(बिजौरा) नींबू की त्वचा- यह तिक्त एवं कटु होती है और स्निग्ध तथा वातनाशक होती है। उसका मांस(गूदा) बृंहण, मधुर, वात तथा पित्त नाशक और गुरु होता है। बिजौरानींबू का केशर लघु, कास, श्वास, मदात्यय, हिचकी, मुखशोष, वातरोग, कफरोग, विबन्ध(कब्जियत), वमन, अरोचक, गुल्मरोग, उदररोग, अर्शोरोग, शूलरोग एवं मन्दाग्नि का विनाश करता है।
वक्तव्य- नैनीताल अल्मोड़ा आदि पर्वतीय स्थानों में बिजौरानींबू पर्याप्त रूप में पाया जाता है।इसका छिलका बाहरी और भीतरी भेद से दो प्रकार का कहा गया है। बाहरी छिलका को त्वक्, भीतरी छिलका को मांस और भीतर मिलने वाले अम्ल पदार्थ को केसर कहा गया है। अब आप इसका अर्थ इस प्रकार लगाये— बाहरी छिलका को अत्यन्त पतला छीलकर फेक दिया जाता है, उसके गुण है त्वक्तिक्ता…..वातजित्। इस बाहरी छिलका में तेल का अंश पाया जाता है जो छीलने वाले के हाथ में लग जाता है। इसका वह भाग जिसे वाग्भट ने मांस कहा है, इसे मित्रमण्डली या परिजनों के साथ बैठकर खाया जाता है, जिसे सौगात = स्वागत कहा जाता है। यह अत्यन्त कोमल तथा मधुर होता है।
इसी का एक भेद मतकाकड़ी भी है, जिसे आयुर्वेद में मधुकर्कटी कहा है। इसके विपरीत जो निघण्टु ग्रन्थों में इसे चकोतरा कहा है, यह भ्रम है। आप देखें— मधुकर्कटी और मतकाकड़ी शब्दों में कितना साम्य है? इसी प्रकार बिजौरानींबू और मतकाकड़ी में छोटे-बड़े मात्र का अंतर है। इसी बहाने आप पर्वतीय यात्रा करें और देखें— इन दोनों फलों को। चकोतरा जिसे कहते है उसका बाहर का छिलका फेक दिया जाता है और भीतर का केशर मीठा होने के कारण खाया जाता है।उक्त बिजौरानींबू तथा मतकाकड़ी का केशर खट्टा होता है। ये दोनों के परस्पर विभेदक लक्षण है।
30/08/19, 11:23 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक १३४,१३५
भल्लातकस्य त्वङ्गमांसं बृंहणं स्वादु शीतलम्। तदस्थ्यग्निसमं मेध्यं कफवातहरं परम्॥१३४॥
स्वाद्वम्लं शीतमुष्णम् च द्विधा पालेवतं गुरु। रुच्यमत्यग्निशमनं रुच्यं मधुरमारुकम्॥१३५॥
पक्वमाशु जरां याति नात्युष्णगुरुदोषलम्।
भिलावा का वर्णन- भिलावा का छिलका तथा गूदा बृंहण(शरीर को स्थूल करने वाला), रस में मधुर तथा शीतवीर्य होता है।भिलावा की गुठली अग्नि के समान तीक्ष्ण(दाहक), बुद्धिवर्धक एवं अत्यन्त कफ एवं वातनाशक होती है।
वक्तव्य- भिलावा के फल हृदयाकृति होने पर भी ये दो भागों में मूलतः विभक्त होते है। जब इसका ऊपरी भाग दाहक होता है और नीचे का भाग पकी नारंगी के सदृश हो जाता है, तब उसे खाया जाता है। इसी का वर्णन ऊपर प्रथम पंक्ति द्वारा किया गया है।
पारेवत का वर्णन- पारेवत मधुर तथा अम्ल भेद से दो प्रकार का होता है। मीठा पारेवत शीतवीर्य होता है तथा अम्ल पारेवत उष्णवीर्य होता है। ये दोनों पारेवत पाचन में गुरु, रूचिकारक तथा अत्यग्नि(भस्मक रोग) का शमन करते हैं।
वक्तव्य- उक्त गुण-धर्मों से युक्त द्रव्य को चरक ने “पारावत” कहा है। देखें— च.सू.२७/१३४। यह फल कामरूप(आसाम) आदि देशों में पाया जाता है।(चक्रपाणि)
आरुक फल का वर्णन- आडुफल रुचिकारक तथा रस मे मधुर होता है। यह पका हुआ शीघ्र पच जाता है। यह अधिक गरम नहीं होता किन्तु गुरु तथा दोषकारक होता है।
वक्तव्य- यह पर्वतीय क्षेत्रों का फल है। इसके अनेक भेद- उपभेद होते हैं। तदानुसार यह बैशाख से पकना प्रारम्भ होते और जातिभेद से आश्विन तक पकते रहते हैं। अब इसकी कुछ जातियां मैदानी भागों में भी पायी जाने लगी है, फिर भी पर्वतीय जलवायु का स्वाद कुछ और ही होता है।
30/08/19, 11:25 pm – Shastragyan Abhishek Sharma:
30/08/19, 11:25 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: This message was deleted
30/08/19, 11:28 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: भिलावा फल
31/08/19, 6:47 am – LE Nisha Ji : इस फल का क्या नाम है,इसे मैंने चिकमंगलूर में लोगों को खाते देखा है।
31/08/19, 10:53 am – Shastragyan Abhishek Sharma: चकोतरा
31/08/19, 11:03 am – Pitambar Shukla: जानिय तब मन बिरुज गोसाँई।
जब उर बल बिराग अधिकाई।।
सुमति छुधा बाढ़इ नित नई ।
बिषय आस दुर्बलता गई ।।
हे गोसाईं! मन को नीरोग हुआ तब जानना चाहिये,
जब हृदय में वैराग्य का बल बढ़ जाय,
उत्तम बुद्धि रूपी भूख नित नई बढ़ती रहे और विषयों की आशा रूपी दुर्बलता मिट जाय।।121-5।।
बिमल ग्यान जल जब सो नहाई।
तब रह राम भगति उर छाई।।
सिव अज सुक सनकादिक नारद।
जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद।।
( इस प्रकार सब रोगों से छूट कर ) जब मनुष्य निर्मल ज्ञान रूपी जल में स्नान कर लेता है,
तब उसके हृदय में राम भक्ति छा रहती है।
शिव जी, ब्रह्मा जी, शुक देव जी, सनकादि और नारद आदि ब्रह्म विचार में परम निपुण जो मुनि हैं।।121-6।।
31/08/19, 7:53 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: सिद्धान्तबिन्दु पञ्चम श्लोक
न चोर्ध्वं न चाधो न चान्तर्न बाह्यं
न मध्यं न तिर्यङ् न पूर्वापरा दिक् ।
वियद्वयापकत्वादखण्डैकरूप –
स्तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। ५ ।।
न उर्ध्व है, न अधः है, न अन्दर है, न बाह्य है, न मध्य है न तिर्य्यक है, न पूर्व दिशा है, न पश्चिम दिशा । आकाश के समान व्यापक होने से अखण्डैकरूप, एक, अविशिष्ट, शिव मैं हूँ ।
01/09/19, 12:44 am – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: ।ॐ। शिव स्वरोदयः ।ॐ।
स्वरज्ञानीबलादग्रे निष्फलं कोटिधा भवेत्।
इहलोके परत्रापि स्वरज्ञानी बली सदा।२७०।
दशशतायुतं लक्षं देशाधिपबलं क्वचित्।
शतक्रतु सुरेन्द्राणां बलं कोटिगुणं भवेत्।२७१।
श्री देवि उवाच
परस्परं मनुष्याणां युद्धे प्रोक्तो जयस्त्वया।
यमयुद्धे समुत्पन्ने मनुष्याणां कथं जयः।२७२।
ईश्वरोवाच
ध्यायेद्देवं स्थिरो जीवं जुहुयाज्जीव सङ्गमे।
इष्टसिद्धिर्भवेत्तस्य महालाभो जयस्तथा।२७३।
अर्थ– जब एक करोड़ बल निष्फल हो जाते हैं, तब भी स्वरज्ञानी बलशाली बना सबसे अग्रणी होता है, अर्थात् भले ही एक करोड़ (हर प्रकार के) बल निष्फल हो जायँ, लेकिन स्वरज्ञानी का बल कभी निष्फल नहीं होता। स्वरज्ञानी इस लोक में और परलोक या अन्य किसी भी लोक में सदा शक्तिशाली होता है।२७०।
एक मनुष्य के पास दस, सौ, दस हजार, एक लाख अथवा एक राजा के बराबर बल होता है। सौ यज्ञ करनेवाले इन्द्र का बल करोड़ गुना होता है। एक स्वरयोगी का बल इन्द्र के बल के तुल्य होता है।२७१।
इसके बाद माता पार्वती ने भगवान शिव से पूछा
कि हे प्रभो, आपने यह तो बता दिया कि मनुष्यों के पारस्परिक युद्ध में एक योद्धा की विजय कैसे होती है। लेकिन यदि यम के साथ युद्ध हो, तो मनुष्यों की विजय कैसे होगी?२७२।
यह सुनकर भगवान शिव बोले-
हे देवि, जो व्यक्ति एकाग्रचित्त होकर तीनों नाड़ियों के संगम स्थल आज्ञा चक्र पर ध्यान करता है, उसे सभी अभीष्ट सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं, महालाभ होता है (अर्थात् ईश्वरत्व की प्राप्ति होती है) और सर्वत्र सफलता मिलती है।२७३।
01/09/19, 9:07 am – Abhinandan Sharma: 👌
01/09/19, 9:08 am – Abhinandan Sharma: ऐसा तो कोई नेता ही नहीं है अब हमारे देश में, जो संसद में बैठकर पोर्न देखते हों और फिर किसी राज्य के उपमुख्यमंत्री बन जाएं, इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा इस देश का !!! हतोभाग्य भारत ।
01/09/19, 9:10 am – Abhinandan Sharma: स्तम्भन समझ रहे हैं ना 😊
01/09/19, 9:20 am – Abhinandan Sharma: काम – वात, लोभ को कफ और क्रोध कक पित्त की उपमा क्यों दी गयी है ?
01/09/19, 9:37 am – Abhinandan Sharma: वाह क्या उत्तम उपमाएं दी गयी हैं, इससे बेहतर उपमा हो ही नाहिं सकती ।
01/09/19, 9:39 am – Abhinandan Sharma: 👍
01/09/19, 9:39 am – Abhinandan Sharma: कैसे ?
01/09/19, 9:49 am – LE Onkar A-608: वात प्रकोप होने पर हमें यह नहीं पता चलता कि समस्या कहां है, अभी कष्ट एक जगह है थोड़ी देर बाद कहीं अनयत्र। जैसे वात में चञ्चलता होती है, जितनी वातकारक परिस्थिति होती है यह बढ़ते बढ़ते व्यक्ति को असहाय कर देता है वैसा ही काम भी होता है अनंग रहकर भी कष्ट देते हुए अंततः अशक्त कर देता है।वात का सवाद फीका और कामान्त भी फीका।
कफ की प्रकृति मधुर एवं स्निग्ध होती है ऐसे ही लोभ भी हमें अत्यन्त प्रिय होता है और धीरे धीरे करके हमें सबका अप्रिय बना देता है।
पित्त और क्रोध सबकुछ, जो भी उसके सम्पर्क में आता है उसे जला देता है।
01/09/19, 9:58 am – Pitambar Shukla: सब कर मत खगनायक एहा।
करिअ राम पद पंकज नेहा।।
श्रुति पुरान सब ग्रंथ कहाहीं।
रघुपति भगति बिना सुख नाहीं।।
हे पक्षिराज! उन सबका मत यही है कि श्री राम जी के चरणों में प्रेम करना चाहिए ।
श्रुति, पुराण और सभी ग्रंथ कहते हैं कि श्री रघुनाथजी की भक्ति के बिना सुख नही है ।।121-7।।
कमठ पीठ जामहिं बरु बारा।
बंध्या सुत बरु काहुहि मारा।।
फूलहिं नभ बरु बहुबिधि फूला।
जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला।।
कछुए की पीठ पर भले ही बाल उग आवें,
बांझ का पुत्र भले ही किसी को मार डाले,
आकाश में भले ही अनेक प्रकार के फूल खिल उठें;
परन्तु श्री राम से विमुख हो कर जीव सुख नहीं प्राप्त कर सकता ।।121-8।।
01/09/19, 10:01 am – Pitambar Shukla: 🙏🙏
01/09/19, 10:02 am – Abhinandan Sharma: इसमें कुछ और भी ध्यान देनेंयोग्य है जैसे वात की स्थिति शरीर में कहां बतायी गयी है ? कफ की तो तुलसीदास जी ने खुद ही कफ को छाती बता दिया है ऐसे ही सभी की शरीर में स्थिति को तुलसीदास जी ने माना है बाकी जो आपने गुण बतायें हैं, वो भी मान्य हैं ।
01/09/19, 10:03 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: इन श्लोकों में वशीकरण के तरीके बताए गए हैं। इनपर लिखते समय यह विचार आया कि इसे छोड़ दिया जाय, पर ऐसा करने से यह अधूरा रह जाता जो अनुचित होता।
श्लोक संख्या 285 तक स्त्रियों को वश में करने के तरीके बताए गए हैं और श्लोक संख्या 286 से 300 तक गर्भाधान के तरीके बताए गए हैं।
कृपया इसे पढ़कर अन्यथा न लें, यह एक ग्रन्थ है इसे इसी रूप में ही पढ़ें।
01/09/19, 10:04 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: ।ॐ। शिव स्वरोदयः ।ॐ।
निराकारात्समुत्पन्नं साकारं सकलं जगत्।
तत्साकारं निराकारं ज्ञाने भवति तत्क्षणात्।२७४।
श्रीदेव्युवाच
नरयुद्धं यमयुद्धं त्वया प्रोक्तं महेश्वर।
इदानीं देव देवानां वशीकारणकं वद।२७५।
ईश्वरोवाच
चन्द्रं सूर्येण चाकृष्य स्थापयेज्जीवमंडले।
आजन्मवशगा रामा कथितं यं तपोधनैः।२७६।
जीवेन गृह्यते जीवो जीवो जीवस्य दीयते।
जीवस्थाने गतो जीवो बाला जीवान्तकारकः।२७७।
अर्थ- यह सम्पूर्ण दृश्य साकार जगत निराकार सत्ता से उत्पन्न है। जो व्यक्ति साकार जगत से ऊपर उठ जाता है, अर्थात् भौतिक चेतना से ऊपर उठकर सार्वभौमिक चेतना को प्राप्त कर लेता है, तभी उसे पूर्णत्व प्राप्त हो जाता है।२७४।
माँ पार्वती भगवान शिव से कहती हैं
कि हे देवाधिदेव, आपने हमें बताया कि मनुष्यों और यम के साथ युद्ध में विजय कैसे पाया जाय। साथ ही मोक्ष आदि के सम्बन्ध में भी बताया। अब आप कृपा कर बताएँ कि दूसरों को अपने वश में किस प्रकार किया जाता है।२७५।
भगवान शिव कहते हैं
कि हे देवि, तपस्वी लोगों का कहना है कि यदि पुरुष अपने सूर्य स्वर से स्त्री के चन्द्र स्वर को ग्रहण कर अपने अनाहत चक्र में धारण करे, तो वह स्त्री आजीवन उसके वश में रहेगी।२७६।
पुरुष यदि स्त्री के प्रवाहित स्वर को अपने प्रवाहित स्वर के द्वारा ग्रहण करे और पुनः उसे स्त्री के सक्रिय स्वर में दे, तो वह स्त्री सदा उसके वश में रहती है।२७७।
01/09/19, 10:17 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: ग्रन्थ नहीं शास्त्र की तरह पढ़ें।
01/09/19, 11:59 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
🙏 श्री मनुस्मृति 🙏
अब्राह्मणादध्यायनं आपत्काले विधीयते ।
अनुव्रज्या च शुश्रूषा यावदध्यायनं गुरोः । । २.२४१ । ।
नाब्राह्मणे गुरौ शिष्यो वासं आत्यन्तिकं वसेत् ।
ब्राह्मणे वाननूचाने काङ्क्षन्गतिं अनुत्तमाम् । । २.२४२ । ।
यदि त्वात्यन्तिकं वासं रोचयेत गुरोः कुले ।
युक्तः परिचरेदेनं आ शरीरविमोक्षणात् । । २.२४३ । ।
आ समाप्तेः शरीरस्य यस्तु शुश्रूषते गुरुम् ।
स गच्छत्यञ्जसा विप्रो ब्रह्मणः सद्म शाश्वतम् । । २.२४४ । ।
न पूर्वं गुरवे किं चिदुपकुर्वीत धर्मवित् ।
स्नास्यंस्तु गुरुणाज्ञप्तः शक्त्या गुर्वर्थं आहरेत् । । २.२४५ । ।
क्षेत्रं हिरण्यं गां अश्वं छत्रोपानहं आसनम् ।
धान्यं शाकं च वासांसि गुरवे प्रीतिं आवहेत् । । २.२४६ । ।
अर्थ
आपत्ति काल में क्षत्रिय, वैश्य से भी सीखने का विधान है,पर ऐसे गुरु की सेवा अध्ययन काल तक ही करनी चाहिए।
जो गुरु ब्राह्मण ना हो या सामवेद का ज्ञाता ना हो तो मोक्षार्थी ब्रह्मचारी जीवन भर गुरुकुलवास ना करे।।
यदि नैष्ठिक ब्रह्मचारी जीवन भर गुरुकुलवास चाहे तो देहांत तक सावधानी से गुरुसेवा में लगा रहे।।
जो ब्राह्मण देहांत तक गुरु की सेवा सुश्रूभा करता है वह मोक्ष को पाता है, धर्मज्ञ ब्रह्मचारी अध्ययन के पहले दक्षिणा आदि से गुरु का कुछ भी उपकार ना करे। किन्तु समावर्तन के बाद गुरु की आज्ञा से शक्तिअनुसार गुरुदक्षिणा देनी चाहिए।।
खेत,सोना,गौ,घोड़ा,छतरी,जुटा,आसन,अन्न,शाक व वस्त्र आदि अर्पण करके गुरु को प्रसन्न करें
ॐ
02/09/19, 4:12 am – Abhinandan Sharma: ये वैसे भी स्वर योगी के लिए हैं, आमजन के लिये नहीं सो चलने दीजिये, कोई इनका प्रयोग तब ही कर पायेगा, जब स्वर को साधना सीख पायेगा 😊
02/09/19, 4:53 am – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: 🙏
02/09/19, 7:33 am – FB Mukesh Sinha Pathalgaon CG Shastra Gyan: भगवान गणेश जी आप के घर धन वैभव ऐश्वर्य के साथ पधारे
गणेश चतुर्थी की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं
*🙏🙏🙏🙏🙏*
02/09/19, 9:29 am – Pitambar Shukla: तृषा जाइ बरु मृग जल पाना।
बरु जामहिं सस सीस बिषाना।।
अंधकार बरु रबिहि नसावै।
राम बिमुख न जीव सुख पावै
हिम ते अनल प्रगट बरु होई।
बिमुख राम सुख पाव न कोई ।।
मृगतृष्णा के जल को पीने से भले ही प्यास बुझ जाए,
खरगोश के सिर पर भले ही सींग निकल आवें,
अंधकार भले ही सूर्य का नाश कर दे;
परन्तु श्री राम से विमुख हो कर जीव सुख नहीं पा सकता ।।
बर्फ से भले ही अग्नि प्रकट हो जाय,( ये सब अनहोनी बातें चाहे हो जायँ),
परन्तु श्री राम से विमुख हो कर कोई भी सुख नही पा सकता ।।121-9/10।।
02/09/19, 9:54 am – Mummy Hts:
02/09/19, 2:05 pm – Dinesh Arora Gurgaon Shastra Gyan joined using this group’s invite link
02/09/19, 3:56 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: ।ॐ। शिव स्वरोदयः ।ॐ।
रात्र्यन्तयामवेलायां प्रसुप्ते कामिनिजने।।
ब्रह्मजीवं पिबेद्यस्तु बालाप्राणहरो नरः।२७८।
अष्टाक्षरं जपित्वा तु तस्मिन् काले गते सति।
तत्क्षणं दीयते चन्द्रो तु मोहमायाति कामिनी।२७९।
शयने वा प्रसङ्गे वा युवत्यालिङ्गनेऽपि वा।
यः सूर्येण पिबेच्चन्द्रं स भवेन्मकरध्वजः।२८०।
शिव आलिङ्ग्यते शक्त्या प्रसङ्गे दक्षिणेऽपि वा।
तत्क्षणाद्दापयेद्यस्तु मोहयेत्कामिनीशतम्।२८१।
अर्थ- रात्रि में सो रही महिला के ब्रह्म-जीव (सक्रिय स्वर से निकलने वाली साँस) को यदि पुरुष अपने सक्रिय स्वर से अन्दर खींचता है, तो वह स्त्री उसके वश में हो जाती है।२७८।
यदि पुरुष अष्टाक्षर मंत्र का जपकरके अपने चन्द्र स्वर को स्त्री के भीतर उसके सक्रिय स्वर में प्रवाहित करे, तो वह स्त्री उसके वश में हो जाती है।२७९।
यदि पुरुष लेटकर आलिंगन के समय अपने सूर्य स्वर से स्त्री के चन्द्र स्वर का पान करे, तो वह स्त्री उसके वश में हो जाती है।२८०।
संभोग के समय यदि स्त्री का चन्द्र स्वर और पुरुष का सूर्य स्वर प्रवाहित हो और दोनों के स्वर परस्पर संयुक्त हो जायँ, तो पुरुष को सौ स्त्रियों को वश में करने की शक्ति मिल जाती है।२८१।
02/09/19, 8:24 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: सिद्धान्तबिन्दु षष्ठ श्लोक
न शुक्लं न कृष्णं न रक्तं न पीतं
न कुब्जं न पीनं न ह्रस्वं न दीर्घम् ।
अरूपं तथा ज्योतिराकारकत्वात्
तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। ६ ।।
न शुक्ल है, न कृष्ण है, न लाल है, न पीला है, न कुब्ज है, न पीन है, न ह्रस्व है और न दीर्घ है, स्वप्रकाश ज्योतिस्वरूप होने से अप्रमेय एक अवशिष्ट अद्वितीय शिव मैं हूँ ।
02/09/19, 8:27 pm – Shastra Gyan Kartik: जय शिव 🙏
02/09/19, 10:51 pm – +91 11637: कालियकृत स्तुति
वयं खलाः सहोत्पत्या तामसा दीर्घन्यवः।
स्वभावो दुस्त्यजो नाथ लोकानां यदसद्ग्रहः।।
हे नाथ! हम जन्म से ही दूसरों को दुःख देने वाले तामसी और बड़े क्रोधी हैं। प्राणियों के लिए स्वभाव छोड़ना अति कठिन है। इसी (स्वभाव) से प्राणियों को असत् देह आदि में अहन्ता, ममतादि रूप दुराग्रह होता है।।
त्वया सृष्टमिदं विश्वं धातर्गुणविसर्जनम्।
नानास्वभाववीर्योजोयोनिबीजाशयाकृति।।
हे विधातः! विविध प्रकार के स्वभाव (घोर शान्त वृत्ति) वाले तथा देहशक्ति, इंद्रियशक्ति, मातृशक्ति, पितृशक्ति और वासनास्वरूप वाले इस विश्व को विविध प्रकार के गुणों से आपने उत्पन्न किया है।।
वयं च तत्र भगवन् सर्पा जात्युरुमन्यवः।
कथं त्यजामस्त्वन्मायां दुस्त्यजां मोहिताः स्वयम्।।
इस सृष्टि में हम जन्म से ही अति क्रोधी सर्प हैं। हे भगवान्! हम आपकी माया से मोहित हैं। पकी माया का त्याग कैसे कर सकते हैं (जिसका कि ब्रह्मादि भी त्याग नहीं कर सके। अर्थात् आपके अनुग्रह के बिना हम उसका त्याग कैसे कर सकते हैं)।।
भवान् हि कारणं तत्र सर्वज्ञो जगदीश्वरः।
अनुग्रहं निग्रहं वा मन्यसे तद्विधेहि नः।।
हे जगदीश्वर! हे सर्वज्ञ! आप ही उस माया का त्याग कराने में कारण हैं। (यदि हमें परतंत्र समझते हैं) तो हमारे ऊपर अनुग्रह कीजिए। (यदि हमें स्वतंत्र मानते हैं) तो हमको जो दंड देना उचित हो वह दीजिए।।
02/09/19, 10:52 pm – Manvendra Singh Bilaspur joined using this group’s invite link
02/09/19, 11:34 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक १३६,१३७,१३८,१३९
द्राक्षापरुषकं चार्द्रमम्लं पित्तकफप्रदम्॥१३६॥
गुरुष्णवीर्य वातघ्नं सरं सकरमर्दकम्। तथाऽम्लं कोलकर्कन्धुलकुचाम्रातकारुकम्॥१३७॥
ऐरावतं दन्तशठं सतूदं मृगलिण्डिकम्। नातिपित्तकरं पक्वं शुष्कं च करमर्दकम्॥१३८॥
दीपनं भेदनं शुष्कमम्लीकाकोलयोः फलम्। तृष्णाश्रमक्लमच्छेदि लीघ्विष्टं कफवातयो॥१३९॥
कच्चै दाख आदि के फल- द्राक्षा (मुनक्का) एवं परूषक (फालसा) के कच्चे फल स्वाद मे खट्टे होते है। ये पित्त तथा कफवर्धक होते है।
करमर्द (करौंदा) के कच्चे फल- यह पाचन मे गुरु उष्णवीर्य वातनाशक तथा सर होते है।
कोल-कर्कन्धु-वर्णन- कोल(बड़ा बेर) तथा कर्कन्दु(छोटा बेर), वकुच(बड़हल), आम्रातक(आमड़ा), ऐरावत(नारंगी- वै॰नि॰), दन्तशठ(जम्बीरीनीबू), तूद(शहतूत), मृगलिण्डिक ( बड़े शहतूत) ये सभी फल कच्ची दाख के समान गुणधर्म वाले होते हैं। इनमें सूखा तथा पका हुआ करौंदा अधिक पित्तकारक नहीं होता।
ईमली तथा बेर के सूखे फल- ये अग्नि को प्रदिप्त करने वाले तथा मलभेदक (दस्तावर) होते हैं। ये दोनों प्यास, शारीरिक एवं मानसिक थकावट को दूर करते हैं, कफ एवं वातविकार मे लाभदायक तथा पाचन में लघु होते हैं।
03/09/19, 12:37 am – FB Rahul Gupta Kanpur: क्या इतनी ही स्तुति है?
03/09/19, 9:50 am – Pitambar Shukla: बारि मथे घृत होइ बरु
सिकता ते बरु तेल ।
बिनु हरि भजन न भव तरिय,
यह सिद्धांत अपेल।।
मसकहि करइ बिरंचि प्रभु
अजहि मसक ते हीन।
अस बिचारि तजि संसय
रामहि भजहिं प्रबीन।।
जल को मथने से भले ही घी उत्पन्न हो जाय और बालू( को पेरने) से भले ही तेल निकल आवे;
परन्तु श्री हरि के भजन बिना संसार रूपी समुद्र से नही तरा जा सकता;
यह सिद्धांत अटल है।।122-क।।
प्रभु मच्छर को ब्रह्मा कर सकते हैं और ब्रह्मा को मच्छर से भी तुच्छ बना सकते हैं।
ऐसा विचार कर चतुर पुरुष सब सन्देह त्याग कर श्रीराम जी को ही भजते हैं।।122-ख।।
विनिश्चितं वदामि ते
न अन्यथा वचांसि मे।
हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते।।
मैं आपसे भली-भांति निश्चित किया हुआ सिद्धांत कहता हूं—–
मेरे वचन अन्यथा ( मिथ्या ) नही है कि जो मनुष्य श्री हरि का भजन करते हैं;
वे अत्यंत दुस्तर संसार सागर को( सहज ही) पार कर जाते हैं।।122-ग।।
समाप्तमिदं प्रकरणम्।
🙏🙏🙏🙏
03/09/19, 11:18 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: This message was deleted
03/09/19, 11:18 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक १४०,१४१,१४२
फलानामवरं तत्र लकुचं सर्वदोषकृत। हिमानलोष्णदुर्वातव्याललालादिदूषितम्॥१४०॥
जन्तुजुष्टम् जले मग्नमभुमिजमनार्तवम्। अन्यधान्ययुतं हीनवीर्यं जीर्णतयाऽति च॥१४१॥
धान्यं त्यजेत्तथा शाकं रुक्षसिद्धमकोमलम। असञ्जातरसं तद्वच्छुष्कं चान्यत्र मूलकात्॥१४२॥
बड़हर के फल- फलों मे बड़हर का फल अधम गुणों वाला होता है तथा यह वात आदि सभी दोषों को उभाड़ने वाला होता है।
त्याज्य धान्य, शाक एवं फल- हिम(बरफ) गिरने से,ओले पड़ने से, कड़ी धूप लगने से या आग से झुलस जाने से, जल में डूब जाने से, विपरीत(अपने प्रतिकूल) गुणों वाली भुमि में उत्पन्न होने से, विपरीत ऋतु में उत्पन्न होने से, विपरीत गुण वाले धान्य(अनाज) के साथ मिला देने से, शक्तिहीन हो जाने से अथवा अधिक पुराने हो जाने से धान्य अपने गुणों से रहित हो जाते हैं। ऐसे धान्यों का सेवन न करें। इसी प्रकार के शाक भी त्याज्य होते हैं तथा जो शाक घी-तेल स्नेहों से बिना ही बनाये गये हो और जो कोमल न हों वे भी अखाद्य होते हैं। जिन शाकों मे स्वाभाविक रस, गुण आदि की उत्पत्ति न हुई हो अथवा जो शाक सूख गये हो वेभी खाने योग्य नहीं होते।
सुखाये गये कन्दशाक(मूली आदि) खाये जा सकते हैं। जैसा कि इसी अध्याय के १०५वें पद्य के पूर्वार्द्ध में कहा गया है। इसी प्रकार के फल भी खाने योग्य नहीं होते, किन्तु सुखाया गया कच्चा बेल का फल खाया जा सकता है, अन्य कच्चे फलों को नहीं खाना चाहिए।
इति फलवर्गः॥
*अथौषधवर्गः*
03/09/19, 11:20 pm – Dinesh Arora Gurgaon Shastra Gyan: Jai ho Prabhu!!! 🙏🙏🙏🙏
04/09/19, 7:47 am – Abhinandan Sharma: चलिये, अब शक की कोई गुंजाइश नहीं है । पार्ट 2 में किशोर जी से सीखने की बात पर ये सन्दर्भ दिया जा सकता था ।
04/09/19, 10:33 am – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: 😊🙏
04/09/19, 12:42 pm – Abhinandan Sharma: नास्तिक
मेरे एक मित्र ने नास्तिकता पर एक पोस्ट की | उसमें नास्तिक होने की एक परिभाषा उन्होंने दी | आजकल वैसे भी सोशल मीडिया पर ये सबसे आम टॉपिक है | मैंने कहा कि वो परिभाषा गलत है | उनकी दी हुइ परिभाषा के अनुसार, नास्तिक लोग, किसी स्पष्ट प्रमाण के अभाव में, ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानते हैं |
मैं बार बार कहता हूँ, कि किसी भी बात को लिखने और कहते समय आपको ये पता होना चाहिए कि आप क्या कह और लिख रहे हैं | इसीलिए पढ़ना चाहिए, बहुत पढना चाहिए वरना बिना पढ़े लिखे लोग, मत (मनमानी बात) तो बना सकते हैं लेकिन जब बात तर्क की आएगी तो मुंह की खायेंगे | जब हम लिखते हैं कि किसी प्रमाण के अभाव में तो हमें पता होना चाहिए कि प्रमाण क्या होता है ? किसे प्रमाण कहते हैं ? ईश्वर की बात तो बाद में करेंगे, पहले ये तो पता चले कि जिस प्रमाण के बेसिस पर हम उस ईश्वर को ढूँढने चले हैं, वो प्रमाण क्या होता है ?
प्रमाण शब्द बनता है, प्रमा से | अब प्रमा माने क्या ? प्रमा माने होता है, कोई चीज जैसी है, वैसे ही उसका ज्ञान प्राप्त होना | एक तरह से जो सत्य है, उसका ज्ञान होना, ये प्रमा है | ये भैंस है, काली है, दो सींग है, चार पैर है, दूध देती है, मुझे दिख भी रही है – ये प्रमा है | अप्रमा इसका ठीक उल्टा होता है, जो दीखता हो, पर हो नहीं | दुसरे शब्दों में कहें तो – भ्रम | जैसे मृग मरीचिका | रेगिस्तान में जायेंगे तो दूर पानी दिखेगा तो सही, पर होगा नहीं | जैसे गर्मी में कई बार, सड़क पर पेड़ की छाया, दूर से पानी जैसी दिखती है | ये अप्रमा है | रस्सी में सांप और साप में रस्सी का भ्रम, अप्रमा है | वो दीखता है कुछ और, पर होता है कुछ और | बिना कारण के कार्य नहीं हो सकता है (नोट, ये बहुत इम्पोर्टेन्ट लाइन है, इस अकेली लाइन पर १० पेज की व्याख्या लिखी जा सकती है और इसको समझने के लिए, बहुत पढने की आवश्यकता है) इसी प्रकार, बिना प्रमाण के प्रमा नहीं हो सकती है |
अब फिर से वापिस आते हैं प्रमाण पर | प्रमाण क्या है ? – “प्रमाता येनार्थे प्र्मि्णोंति तत् |” अर्थात जिस साधन के द्वारा प्रमाता (जानने वाले को) को प्रमेय (सम्बंधित विषय) का ज्ञान होता है, वो प्रमाण कहलाता है | जैसे तराजू से किसी भी वस्तु के भार का ज्ञान होता है, वैसे ही प्रमाण से, किसी भी विषय के सत्य होने का मूल्यांकन किया जाता है | प्रमाण कितने प्रकार का होता है ? किसको माने कि वो प्रमाण है ? ये जानना आवश्यक है, तब तो आप ईश्वर को जान पायेंगे | जब प्रमाण को ही नहीं जानेगे तो ईश्वर को कैसे जानेगे ! अतः अब आते प्रमाण कितने प्रकार का होता है |
इसमें सबसे घटिया और बेकार परिभाषा, चार्वाक ने दी | जिसे आजकल लोग मानते हैं | चार्वाक कहता है, जो दिखाई देता है, वही प्रमाण होता है | यही परिभाषा आजकल ज्यादातर खुद को नास्तिक मानने वाले लोग मानते हैं | जो दिखाई नहीं देता, वो नहीं होता | लेकिन दिखाई तो हवा भी नहीं देती , लेकिन हवा तो है | पत्ते उड़ते हैं, हम सांस लेते हैं, धुल उडती है, आंधी आती है तो हम कहते हैं कि हवा है पर दिखाई नहीं देती | दिखाई तो परमाणु भी नहीं देता, इलेक्ट्रान भी नहीं देता, लेकिन वैज्ञानिकों ने इनको बिना देखे ही, थ्योरी बेस (तर्क और प्रमाण के आधार पर) पर माना कि ये हैं | (उठा कर इनकी खोज का इतिहास पढ़ लें) | मान लीजिये आप किसी जंगल से जा रहे हैं, आपने सुन रखा है कि जंगल में शेर है | अब अगर आपको शेर की दहाड़ सुनाई दे तो भी क्या आप नहीं मानेंगे कि शेर है ? यहाँ आकर चार्वाक का सिद्धांत फेल हो जाता है और हमें वापिस आना पड़ता है, तर्कशास्त्र /प्रमाणशास्त्र के रचियता गौतम ऋषि के पास |
उनके अनुसार, प्रमाण चार प्रकार के होते हैं – प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द | पोस्ट लम्बी होती जा रही है ! इसके आगे पढना है या बस करें ? ध्यान रखिये नास्तिक बनिए या आस्तिक, इससे भगवान् के सेहत पर चवन्नी का भी फर्क नहीं पड़ता | पर जो भी बनिए, उसके लिए केवल मनगढ़ंत मत बन बनाइये और न ही उस मनगढ़ंत मत के गुलाम बनिए | बल्कि उस मत के पक्ष और विपक्ष दोनों को गहराई से जानिये | बिना जाने तो जो भी मानेंगे वो क्या होगा – अप्रमा अर्थात भ्रम | पास जाइए और फिर बताइए, सड़क पर पेड़ की छाँव है या पानी ? ऐसे ही पहले पढ़िए, फिर बताइये, ईश्वर है या नहीं ? (ये लेख जानबूझ कर आधा छोड़ा गया है 😁)
04/09/19, 12:55 pm – G B Malik Delhi Shastra Gyan: बहुत ही बढ़िया लेख👌🏻👏🏻👍🏻
04/09/19, 1:00 pm – Sachin Tyagi Shastra Gyan: 👌👌👌👏👏👏
04/09/19, 1:02 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: बाकी का भी लिख डालिये , जितना ज्यादा पढ़ो उतना अच्छा, सत्र में प्रमाण के बारे में जानने के बाद दोबारा पढ़ने से और ज्यादा समझ आने लगता है। 🙂
04/09/19, 1:09 pm – Pitambar Shukla: लेख के शेषांश की प्रतीक्षा रहेगी ।
04/09/19, 1:20 pm – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: Pura padna hai🙏
04/09/19, 1:22 pm – Pitambar Shukla: मैं एक-एक अक्षर पढ़ता हूं, यदि विषय मेरी रुचि के अनुरूप है ।🙏
04/09/19, 1:27 pm – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: बहुत सुंदर संदर्भ सहित
आगे भी लिखिये प्रतीक्षा है
04/09/19, 1:37 pm – Shastra Gyan Ranjana Prakash: आगे सुधाकर लिखने की कोशिश करें तो कैसा रहे?
04/09/19, 1:40 pm – Abhinandan Sharma: अभी नहीं ! सुधाकर जी उसमें हाथ आजमायें, जो वो पढ़ चुके हैं | जो नहीं पढ़ा है, उसमें कोशिश नहीं करनी चाहिए 😌
04/09/19, 2:12 pm – Abhinandan Sharma: पूरा लेख – नास्तिक
मेरे एक मित्र ने नास्तिकता पर एक पोस्ट की | उसमें नास्तिक होने की एक परिभाषा उन्होंने दी | आजकल वैसे भी सोशल मीडिया पर ये सबसे आम टॉपिक है | मैंने कहा कि वो परिभाषा गलत है | उनकी दी हुइ परिभाषा के अनुसार, नास्तिक लोग, किसी स्पष्ट प्रमाण के अभाव में, ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानते हैं |
मैं बार बार कहता हूँ, कि किसी भी बात को लिखने और कहते समय आपको ये पता होना चाहिए कि आप क्या कह और लिख रहे हैं | इसीलिए पढ़ना चाहिए, बहुत पढना चाहिए वरना बिना पढ़े लिखे लोग, मत (मनमानी बात) तो बना सकते हैं लेकिन जब बात तर्क की आएगी तो मुंह की खायेंगे | जब हम लिखते हैं कि किसी प्रमाण के अभाव में तो हमें पता होना चाहिए कि प्रमाण क्या होता है ? किसे प्रमाण कहते हैं ? ईश्वर की बात तो बाद में करेंगे, पहले ये तो पता चले कि जिस प्रमाण के बेसिस पर हम उस ईश्वर को ढूँढने चले हैं, वो प्रमाण क्या होता है ?
प्रमाण शब्द बनता है, प्रमा से | अब प्रमा माने क्या ? प्रमा माने होता है, कोई चीज जैसी है, वैसे ही उसका ज्ञान प्राप्त होना | एक तरह से जो सत्य है, उसका ज्ञान होना, ये प्रमा है | ये भैंस है, काली है, दो सींग है, चार पैर है, दूध देती है, मुझे दिख भी रही है – ये प्रमा है | अप्रमा इसका ठीक उल्टा होता है, जो दीखता हो, पर हो नहीं | दुसरे शब्दों में कहें तो – भ्रम | जैसे मृग मरीचिका | रेगिस्तान में जायेंगे तो दूर पानी दिखेगा तो सही, पर होगा नहीं | जैसे गर्मी में कई बार, सड़क पर पेड़ की छाया, दूर से पानी जैसी दिखती है | ये अप्रमा है | रस्सी में सांप और साप में रस्सी का भ्रम, अप्रमा है | वो दीखता है कुछ और, पर होता है कुछ और | बिना कारण के कार्य नहीं हो सकता है (नोट, ये बहुत इम्पोर्टेन्ट लाइन है, इस अकेली लाइन पर १० पेज की व्याख्या लिखी जा सकती है और इसको समझने के लिए, बहुत पढने की आवश्यकता है) इसी प्रकार, बिना प्रमाण के प्रमा नहीं हो सकती है |
अब फिर से वापिस आते हैं प्रमाण पर | प्रमाण क्या है ? – “प्रमाता येनार्थे प्र्मि्णोंति तत् |” अर्थात जिस साधन के द्वारा प्रमाता (जानने वाले को) को प्रमेय (सम्बंधित विषय) का ज्ञान होता है, वो प्रमाण कहलाता है | जैसे तराजू से किसी भी वस्तु के भार का ज्ञान होता है, वैसे ही प्रमाण से, किसी भी विषय के सत्य होने का मूल्यांकन किया जाता है | प्रमाण कितने प्रकार का होता है ? किसको माने कि वो प्रमाण है ? ये जानना आवश्यक है, तब तो आप ईश्वर को जान पायेंगे | जब प्रमाण को ही नहीं जानेगे तो ईश्वर को कैसे जानेगे ! अतः अब आते प्रमाण कितने प्रकार का होता है |
इसमें सबसे घटिया और बेकार परिभाषा, चार्वाक ने दी | जिसे आजकल लोग मानते हैं | चार्वाक कहता है, जो दिखाई देता है, वही प्रमाण होता है | यही परिभाषा आजकल ज्यादातर खुद को नास्तिक मानने वाले लोग मानते हैं | जो दिखाई नहीं देता, वो नहीं होता | लेकिन दिखाई तो हवा भी नहीं देती , लेकिन हवा तो है | पत्ते उड़ते हैं, हम सांस लेते हैं, धुल उडती है, आंधी आती है तो हम कहते हैं कि हवा है पर दिखाई नहीं देती | दिखाई तो परमाणु भी नहीं देता, इलेक्ट्रान भी नहीं देता, लेकिन वैज्ञानिकों ने इनको बिना देखे ही, थ्योरी बेस (तर्क और प्रमाण के आधार पर) पर माना कि ये हैं | (उठा कर इनकी खोज का इतिहास पढ़ लें) | मान लीजिये आप किसी जंगल से जा रहे हैं, आपने सुन रखा है कि जंगल में शेर है | अब अगर आपको शेर की दहाड़ सुनाई दे तो भी क्या आप नहीं मानेंगे कि शेर है ? यहाँ आकर चार्वाक का सिद्धांत फेल हो जाता है और हमें वापिस आना पड़ता है, तर्कशास्त्र /प्रमाणशास्त्र के रचियता गौतम ऋषि के पास |
उनके अनुसार, प्रमाण चार प्रकार के होते हैं – प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द |
इसके आगे – मान लीजिये, किसी जंगल में बाघ है, ये ज्ञान आपको ४ प्रकार से हो सकता है |
१. अपनी आँख से बाघ को देखकर – ये प्रत्यक्ष प्रमाण हुआ |
२. मान लीजिये कि आप बाघ को देखते नहीं है लेकिन उसके गुर्राने की आवाज आपको सुनाई देती है, इससे आपको निश्चित हो जाता है कि जंगल में बाघ है | यह अनुमान प्रमाण है |
- मान लीजिये कि आपने बाघ को पहले कभी देखा नहीं है, लेकिन इतना सुना है कि वो चीते के समान होता है, अब आपको जंगल में ऐसा जंतु विशेष दिखाई देता है, जो देखने में चीते से मिलता जुलता है तो भी आपको बाघ के होने का ज्ञान हो जाएगा | इसे उपमान प्रमाण कहते हैं |
४. अगर कोई जानकार और विश्वस्त आदमी जिसने अपनी आँखों से जंगल में बाघ को देखा है, आपसे आकर कहे तो बिना देखे और अनुमान किये भी, आपको जंगल में बाघ के होने का ज्ञान प्राप्त हो जाएगा | इसे शब्द प्रमाण कहते हैं |
अतः ये समझना कि केवल आँखों से देखना ही प्रमाण है, ये बचकानी और कम जानी हुई बात है | प्रमाण और भी प्रकार के होते हैं किन्तु इतना काफी है, ये समझने के लिए, कि कोई चीज, भले ही दीखे या न दिखे, हो सकती है | ऐसे ही ईश्वर और आत्मा को जानने के लिए भी बहुत से प्रमाण उपलब्ध हैं | बशर्ते कि आप जानते हों, क्या प्रमाण है और क्या नहीं है | केवल सनातन धर्म में ही ये ख़ास बात है कि यहाँ तर्कशास्त्र/प्रमाणशास्त्र नामक ग्रन्थ लिखा गया (अन्य धर्मों की भांति केवल कहा नहीं गया कि एक परम शक्ति होती है, एक soul होती है, एक ईश्वर होता है, बल्कि तर्कों से उसे सिद्ध भी किया गया है |) जिसमें बाकयदा ईश्वर और आत्मा, कर्म और पुनर्जन्म को, प्रमाणों से सिद्ध किया गया है | जिसने तर्कशास्त्र नहीं पढ़ा है, उसे बच्चा कहा गया है | क्योंकि बच्चे का बालसुलभ मन तर्क-वितर्क नहीं कर पाता | अतः अगली बार जब आप कहें कि नास्तिक कौन है तो बताइयेगा कि न+अस्ति = नास्तिक | न माने नहीं और अस्ति माने है | क्या है और क्या नहीं है ?
जो ये मानता है कि जो मैं जानता हूँ, उसके आगे भी कुछ है – वो आस्तिक है | अस्ति+क = है + प्रत्यय | जो ये मानता है कि जो मैं जानता हूँ, उसके आगे कुछ नहीं है | जो मेरी नोलेज है, thats all. उसके आगे कुछ नहीं है, वो नास्तिक है – न+अस्ति | आस्तिक आदमी सदैव पॉजिटिव होगा, क्योंकि वो ये मानता है कि अभी बहुत कुछ है, जो मुझे नहीं पता है और नास्तिक आदमी सदैव नेगेटिव होगा क्योंकि वो ये मानता ही नहीं कि मेरी नोलेज के आगे भी कुछ है | जो ये कहता है कि सितारों के आगे जहाँ और भी है – वो आस्तिक है | कोई वैज्ञानिक, बिना आस्तिक हुए, वैज्ञानिक हो ही नहीं सकता क्योंकि उसे ये मानना पड़ेगा कि जो अभी तक खोज हुई है, उसके आगे भी कुछ है |
जब वेद लिखे गए तो ऋषियों ने कहा कि जो हम जानते हैं, उसके आगे वेद हैं और नास्तिकों ने कहा, वेद कुछ भी नहीं है केवल कागजों की पोटली है | अतः वेदों को मानने वाले, और ये समझने वाले कि हमें जो पता है , उसके आगे भी संभावना है, ज्ञान की, वो आस्तिक हैं और जो वेदों को नहीं मानते, जो कहते हैं कि जो हमें पता है, वही अंतिम सत्य है, वो नास्तिक हैं |
04/09/19, 2:26 pm – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: 🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
04/09/19, 2:42 pm – Pitambar Shukla: 🙏🙏
04/09/19, 2:50 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: सुन्दर और सुलझा हुआ लेख।
04/09/19, 2:52 pm – Shastra Gyan Ranjana Prakash: 😃,एक सत्र में यह चर्चा हुई थी।
04/09/19, 2:56 pm – Abhinandan Sharma: जी !
04/09/19, 5:50 pm – FB Rajesh Singhal Ghaziabad Shastra Gyan: 🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻अद्भुत
04/09/19, 11:09 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक १४३,१४४
विष्यन्दि लवणं सर्वं सूक्ष्मं सृष्टमलं मृदु॥१४३॥
वातघ्नं पाकि तीक्ष्णोष्णम् रोचनं कफपित्तकृत्। सैन्धवं तत्र सस्वादु वृष्यं हृद्यं त्रिदोषनुत्॥१४४॥
लघ्वनुष्णं दृशः पथ्यमविदाह्यग्निदीपनम्।
फलों का वर्णन करने के बाद अब यहां से विविध प्रकार के लवणों का वर्णन प्रारम्भ होता हैं।
लवण-सामान्य के गुण- ये विष्यन्दनकारक अर्थात अभिष्यन्दि, सूक्ष्म, मल को सरकाने वाले, मृदु, वातविकारनाशक, भोजन को पचाने वाले, तीक्ष्ण, उष्ण, रुचि को बढ़ाने वाले और कफ तथा पित्तकारक होते हैं।
वक्तव्य- सूक्ष्म लवण(नमक) छोटे से भी छोटे स्रोतों मे प्रवेश कर जाते है, यही कारण है कि नाड़ी व्रणविनाशक मलहमों मे घृत, मधु तथा लवण आदि द्रव्यों का प्रमुख रूप से प्रयोग होता है।
पाकि— बनते हुए भोजन(दाल आदि) को शीघ्र गला देता है, पकने के बाद आहार को पचाता है और व्रणशोथ(फोड़े) को भी पका देता है।
सेंधानमक के गुण- सभी नमकों मे सेंधानमक तीक्ष्णता की कमी के कारण कुछ मधुर, वीर्यवर्द्धक, हृदय के लिए हितकर, त्रिदोषशामक, लघु , कुछ उष्णवीर्य वाला, नेत्रों के लिए हितकारी, अविदाही(यह विदाहकारक नहीं होता) होने पर भी जठराग्नि को प्रदिप्त करता है।
04/09/19, 11:56 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: उत्तम
04/09/19, 11:56 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: ।ॐ। शिव स्वरोदयः ।ॐ।
सप्त नव त्रयः पञ्च वारान्सङ्गस्तु सूर्यभे।
चन्द्रे द्विचतुःषट्कृत्वा वश्या भवति कामिनी।२८२।
सूर्यचन्द्रौ समाकृष्य सर्वाक्रान्त्याSधरोठयोः।
महापद्म मुखं स्पृष्ट्वा बारम्बारमिदं चरेत्।२८३।
आप्राणामिति पद्मस्य यावन्निद्रावशं गता।
पश्चाज्जागृति वेलायां चोष्यते गलचक्षुषी।२८४।
अनेन विधिना कामी वशयेत्सर्वकामिनीः।
इदं न वाच्यमस्मिन्नित्याज्ञा परमेश्वरि।२८५।
अर्थ- सूर्य स्वर के प्रवाह काल में यदि पुरुष का किसी स्त्री के साथ पाँच बार, सात बार या नौ बार संयोग हो अथवा चन्द्र स्वर के प्रवाह काल में दो बार, चार बार या छः बार संयोग हो, तो वह स्त्री सदा के लिए उस पुरुष के वश में होती है।२८२।
पुरुष के सूर्य स्वर तथा चन्द्र स्वर सम हों, तो उस समय पुरुष को अपनी साँस अन्दर खींचकर अपना पूरा ध्यान स्त्री के निचले होठ पर केन्द्रित करना चाहिए और जैसे ही सूर्य स्वर प्रधान हो, स्त्री के चेहरे को बार-बार स्पर्श करना चाहिए।२८३।
जब स्त्री गहरी निद्रा में सो रही हो, उस समय पुरुष को उसके होठों को बार-बार उसके जगने तक चुम्बन करना चाहिए और उसके बाद उसके नेत्रों और गरदन का चुम्बन करना चाहिए।२८४।
हे पार्वती, इस प्रकार प्रेमी समस्त कामिनियों को अपने वश में कर सकता है। स्त्रियों को वश में करने का अन्य कोई उपाय नहीं है।२८५।
05/09/19, 12:22 am – +91 98259 18791: अदभुत, श्रीमान्!! जेसे आपने बताया, ईश्वर और आत्मा, कर्म और पुनर्जन्म को प्रमाणो से सिध्द किया गया है। कृपया ईस पर भी सविस्तार लेख दीजीए।
05/09/19, 4:09 am – Abhinandan Sharma: महोदय, इसके ऊपर 300 पेज की तर्कशास्त्र की पुस्तक है, उसे पढ़ना पड़ेगा जो यहा व्हाट्सएप्प पर डालना सम्भव नहीं है अतः क्षमा ।
05/09/19, 6:52 am – Abhinandan Sharma: You deleted this message
05/09/19, 6:53 am – Abhinandan Sharma:
05/09/19, 6:54 am – Abhinandan Sharma:
05/09/19, 6:55 am – Abhinandan Sharma: गाकर देखिये, बड़ा अच्छा लगेगा 😊
05/09/19, 6:55 am – Abhinandan Sharma: ये एक दूसरे से लिंक का आईडिया बड़ा अच्छा है, तुरन्त पहले के श्लोक भी मिल जाए रहे हैं 👍
05/09/19, 6:56 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: सुन्दर, पढ़ते समय मैंने भी गाया था, बहुत ही बढ़िया लगा 🙂
05/09/19, 7:04 am – Abhinandan Sharma: इसमें पहली लाइन में मात्रा पूरी नहीं हो रही क्योंकि गाने में असुविधा है, क्या आप चेक करेंगे, पहली लाइन में कोई टंकण त्रुटि तो नहीं है !
05/09/19, 7:06 am – Ashu Bhaiya: “रा” एक्स्ट्रा है |
05/09/19, 7:06 am – Ashu Bhaiya: न सांख्यं न शैवं न तत्पाञ्चरात्रं
05/09/19, 7:07 am – Abhinandan Sharma: सुधाकर जी, इससे क्या बात समझ आयी ?
05/09/19, 7:09 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: Keypad कभी कभी धोखा दे देता है। 🙂
05/09/19, 7:10 am – Abhinandan Sharma: ध्यान देने वाली बात है कि यदि आप किसी भी छंद को गाते हैं तो आप उस श्लोक में मिलावट, टंकण त्रुटि, बिना संस्कृत जाने भी पकड़ सकते हैं । है ना कमाल की बात 😋
05/09/19, 7:12 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: ये तो सही कहा, अब से पढ़ने की जगह गा कर चेक करूँगा ☺
05/09/19, 7:16 am – Abhinandan Sharma:
05/09/19, 7:21 am – Abhinandan Sharma:
05/09/19, 7:26 am – Abhinandan Sharma: किसी न इस पर विचारा ?
05/09/19, 7:30 am – Abhinandan Sharma: वाह ! अतिसुन्दर । क्या ये इतनी ही है या इसके आगे भी है ?
05/09/19, 7:34 am – +91 11637: प्रभू भागवत मे इतनी ही है ,
05/09/19, 7:35 am – Abhinandan Sharma: 🙏 बड़ी जल्दी खत्म हो गयी, और होती तो पढ़ने में और मजा आता ।
05/09/19, 7:38 am – Shastra Gyan Saurabh Muzaffarpur Bihar: Sir Book ka naam bhi bata dijiye
तर्कशास्र ke basic pustak ka naam bhi bata dijiye
05/09/19, 7:46 am – Abhinandan Sharma: सोमवार शाम को पूछियेगा, तब दे पाऊंगा ।
05/09/19, 7:47 am – Shastra Gyan Saurabh Muzaffarpur Bihar: Ji
05/09/19, 5:53 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: सिद्धान्तबिन्दु सप्तम् श्लोक
न शास्ता न शास्त्रं न शिष्यो न शिक्षा
न च त्वं न चाहं न वाऽयं प्रपञ्चः।
स्वरूपावबोधो विकल्पासहिष्णु-
स्तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम्।। ७ ।।
न शास्ता है, न शास्त्र है, न शिष्य है, न शिक्षा है, न तुम हो, न मैं हूँ, न यह प्रपञ्च है, स्वरूपज्ञान विकल्प का सहन नहीं करता इसलिए एक अवशिष्ट अद्वितीय शिव मैं हूँ ।
शास्ता– उपदेश करनेवाला गुरु
शास्त्र – जिसके द्वारा उपदेश किया जाता है
शिष्य – उपदेश-भाजन
शिक्षा – उपदेश-क्रिया
तुम – श्रोता
मैं – वक्ता
सब प्रमाणों के सन्निधापित देह, इन्द्रिय आदि रूप, यह प्रपञ्च परमार्थतः नहीं हैं ।
05/09/19, 6:08 pm – Abhinandan Sharma: 🙏
05/09/19, 9:17 pm – Abhinandan Sharma: https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.271983/page/n41 – Bharatiya Darshan Parichay Nyay Darshan
05/09/19, 9:24 pm – +91 11637: नारद ऋषि भगवान के हृदय हैं। सब क्रियाएँ हृदय (मन) की प्रेरणा से होती हैं।
यही कारण है कि भगवान के कार्य सिद्ध करने के लिए नारद जी कभी राक्षसों को सलाह देते हैं और कभी देवताओं को प्रेरणा करते हैं।
इस समय नारद जी भगवान् की स्तुति करते हुए आगे कार्य की सूचना करते हैं…..
कृष्ण कृष्णाप्रमेयात्मयोगेश जगदीश्वर।
वासुदेवाखिलावास सात्वतां प्रवर प्रभो।।
त्वामात्मा सर्वभूतानामेको ज्योतिरिवैधसाम्।
गूढो गुहाशयः साक्षी महापुरुष ईश्वरः।।
हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे अपरिच्छिन्नरूप! हे योगेश्वर! हे जगदीश्वर! हे वासुदेव! हे जगन्निवास! हे यादवश्रेष्ठ! हे प्रभो! आप जीवों की भाँति परिच्छिन्न नहीं हैं, किन्तु घट-घट-व्यापी एक आत्मा हैं। जैसे कष्ठों में अग्नि रहती है वैसे ही सब प्राणियों में आप स्थित हैं, तो भी अतिगूढ़ होने के कारण आपको वे नहीं देख पाते; क्योंकि आप बुद्धिरूप गुहा में रहने वाले सबके साक्षी महापुरुष ईश्वर हैं।
आत्मनात्माश्रयः पूर्वं मायया ससृजे गुणान्।
तैरिदं सत्यसंकल्पः सृजस्यत्स्यवसीश्वरः।।
(शंका- मैं ईश्वर हूँ और सब ईशितव्य है यह कैसे जाना? समाधान-) आपको किसी साधन की आवश्यकता नहीं, आप स्वतंत्र सत्यसंकल्प और ईश्वर हैं। आप पहले अपनी मायाशक्ति से गुणों (सत्त्व, रज, तम) को उत्पन्न करते हैं, फिर उनसे संपूर्ण ब्रह्माण्ड की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं।।
स त्वं भूधरभूतानां दैत्यप्रमथरक्षसाम्।
अवतीर्णो विनाशाय सेतूनां रक्षणाय च।।
वही आप राजारूपी दैत्य, प्रमथ और राक्षसों का संहार करने के लिए और धर्म मर्यादा की रक्षा के लिए प्रकट हुए हैं।।
दिष्ट्या ते निहतो दैत्यो लीलयायं हयाकृतिः।
यस्य हेषितसन्त्रस्तास्त्यजन्त्यनिमिषा दिवम्।।
इस घोड़े के रूप को धारण करने वाले केशी दैत्य को आपने अनायास मार डाला, यह अच्छा ही हुआ। जिसके हिनहिनाने से भयभीत देवता स्वर्ग को छोड़कर भाग जाते थे।।
चाणूरं मुष्टिकं चैव मल्लानन्यांश्च हस्तिनम्।
कंसं च निहतं द्रक्ष्ये परश्वोऽहनि ते विभो।।
हे प्रभो! मैं परसो चाणूर, मुष्टिक, अन्यान्य योद्धाओं, कुवलयापीड हाथी और कंस को आपके हाथ से मारे हुए देखूंगा।।
तस्यानु शंखयवनमुराणां नरकस्य च।
पारिजातपहरणमिन्द्रस्य च पराजयम्।।
इसके पश्चात् शंखासुर, कालयवन, मुर और नरकासुर का वध, पारिजातवृक्ष का हरण तथा इन्द्र की पराजय देखूँगा।।
उद्वाहं वीरकन्यानां वीर्यशुल्कादिलक्षणाम्।
नृगस्य मोक्षणं पापाद् द्वारकायां जगत्पते।।
फिर पराक्रमादि ही जिनका मूल्य है अर्थात पराक्रम से पायी हुई राजकन्याओं के साथ विवाह देखूंगा और हे जगत्पते! तदनन्तर द्वारका में राजा नृग का पाप से (गिरगिटयोनि से) छुटकारा पाना देखूँगा।।
स्यमन्तकस्य च मणेरादानं सह भार्यया।
मृतपुत्रप्रदानं च ब्राह्मणस्य स्वधामतः।।
जाम्बवती के साथ स्यमन्तक मणि को लाना और ब्राह्मण के मरे हुए पुत्रों को महाकाल से लाकर उसे देना।।
पौण्ड्रकस्य वधं पश्चात्काशिपुर्याश्च दीपनम्।
दन्तवक्त्रतस्य निधनं चैद्यस्य च महाक्रतौ।।
पौण्ड्र का वध, काशीपुरी का दहन, दन्तवक्त्र का वध, राजसूय यज्ञ में शिशुपाल का वध।।
यानि चान्यानि वीर्याणि द्वारकामावसन्भवा।
कर्ता द्रक्ष्याम्यहं तानि गेयानि कविभिर्भुवि।।
और द्वारका में रहते हुए पृथ्वी पर कवियों द्वारा गाये जाने योग्य आप जो-जो पराक्रमपूर्ण कार्य करेंगे उन सबको मैं देखूंगा।।
अथ ते कालरूपस्य क्षपयिष्णोरमुष्य वै।
अक्षौहिणीनां निधनं द्रक्ष्याम्यर्जुनसारथेः।।
फिर पृथ्वी के भार को हरने वाले कालरूप आपको अर्जुन के सारथि के रूप में अक्षौहिणी सेनाओं का संहार करते हुए देखूँगा।।
विशुद्धविज्ञानघनं स्वसंस्थाया समाप्तसर्वार्थममोघवाञ्छितम्।
स्वतेजसा नित्यनिवृत्त
मायागुणप्रवाहं भगवन्तमीमहि।।
(इस प्रकार विज्ञापन करके फिर दो श्लोक से भगवान को नमस्कार करते हैं-) केवल शुद्धज्ञानमूर्ति परमानन्द रूप, अपनी स्थिति से आप्तकाम, सत्यसंकल्प तथा अपनी चेतनशक्ति से रची हुई माया के कार्यरूप गुणप्रवाह से सदा निवृत्त आपको नमस्कार है।।
त्वामीश्वरं स्वाश्रयमात्ममायया विनिर्मिताशेषविशेषकल्पनम्।
क्रीडार्थमद्यात्तमनुष्यविग्रहं नतोऽस्मि
धुर्यं यदुवृष्णिसात्वताम्।।
आप ईश्वर हैं और दूसरे के वश में नहीं रहने वाले हैं। अतएव आपने अपने अधीन रहने वाली माया से संपूर्ण विशेषों की (यादवों की) रचना की है और इस समय क्रीड़ा के लिए मनुष्य शरीर धारण किया है। मैं, यादव, वृष्णि और सात्वतों में सर्वश्रेष्ठ आपको नमस्कार करता हूँ।।
05/09/19, 11:09 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक १४५,१४६
लघु सौवर्चलं हृद्यं सुगन्ध्युग्दारशोधनम्॥१४५॥
कटुपाकं विबन्धघ्नं दीपनीयं रुचिप्रदम्। ऊर्ध्वाधःकफवातानुलोमनं दीपनं विडम्॥१४६॥
विबन्धानाहविष्टम्भशूलगौरवनाशनम्।
सौवर्चलनमक के गुण- इसी को सज्जीखार कहते है। यह लघु, हृदय के लिए हितकर, सुगन्धित, उद्गार(डकार) को शुद्ध करने वाला, विपाक मे कटु, मल-मूत्र की रुकावट को हटाने वाला, जठराग्नि को प्रदिप्त करने वाला तथा रुचिकारक होता है।
विड(विरिया) नमक के गुण- इसका सेवन करने से कफ ऊपर की ओर से निकलने लगता है और अपान वायु नीचे की ओर से निकलता है अर्थात यह कफ एवं वायु की गति का अनुलोमन करता है, अग्नि को प्रदिप्त करता है, मल-मूत्र की रुकावट, आनाह, विष्टम्भ(आंतो की गति की रुकावट को), शूल तथा भारीपन का नाश करता है।
वक्तव्य- सुश्रुत ने इसे कफ का अनुलोमक नहीं कहा है, केवल वातानुलोमक ही कहा है। देखें—४६/३१६। आचार्य डल्हण कहते है— यह नमक स्रोतों की शुद्धि करता है, अतएव रुका हुआ वातदोष अनुलोम हो जाता है
कालानमक निर्माण विधि- ४० सेर सेंधानमक, हरड़ के छिलके, आंवला का सूखा गूदा और सज्जीखार— ये द्रव्य प्रत्येक आधा-आधा सेर लेकर किसी लोहे या मिट्टी के पात्र में लेकर पकाते हैं। जब हरड़ और आंवला गलकर मिल जाता है तो शीतल होने पर नमक निकाल लिया जाता है। इसी को मराठी में ‘ पादेलोण’ कालानमक कहते है।
सौवर्चल लवण- कुछ विद्वानों ने इसे कालालवण माना है। फारसी में सौंचरनमक को ही नमकस्याह कहते है। कुछ लोगों का मत है कि सौवर्चल नमक गंधरहित होता है। वह “कालालवण” है। डा॰ देसाई कहते है कि रसग्रन्थों मे सौवर्चल शोरे को कहते है। श्री द.अ. कुलकर्णी जी कहते है— जिस मिट्टी से शोरा प्राप्त होता है उसे लुणिया मिट्टी कहते है, इसमें कुछ मात्रा नमक की भी रहती है। शोरा के साथ प्राप्त होने के कारण इसे सौंचर या सौवर्चल कहते है। अस्तु।
06/09/19, 7:51 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: सिद्धान्तबिन्दु अष्टम् श्लोक
न जागन्न मे स्वप्नको वा सुषुप्तिः
न विश्वो न वा तैजसः प्राज्ञको वा।
अविद्यात्मकत्वात्त्रयाणां तुरीय-
स्तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। ८ ।।
न मेरा जागरण है, न स्वप्न है, न सुषुप्ति है, न मैं विश्व हूँ, न तैजस हूँ, न प्राज्ञ । ये तीनों अविद्या के कार्य हैं, अतः इनमें चतुर्थ, एक, अवशिष्ट, अद्वितीय, शिव मैं हूँ ।
06/09/19, 7:51 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: इस बार गाकर check कर लिया है श्लोक को 🙂
06/09/19, 8:08 pm – Abhinandan Sharma: शास्त्र ज्ञान का सत्र (बड़ों के लिये) कल दोपहर 12 बजे से आदित्य वर्ल्ड सिटी, गाजियाबाद में होगा ।
06/09/19, 9:09 pm – +91 11637: कुन्तीकृत स्तुति
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नमस्ये पुरुषं त्वाद्यमीश्वरं प्रकृतेः परम्।
अलक्ष्यं सर्वभूतानामन्तर्बहिरवस्थितम्।
कुन्ती भगवान की बुआ थीं, अतः रिस्ते में और अवस्था में बड़ी थीं तो उन्होंने क्यों नमस्कार किया?
समाधान- आप प्रकृति से पर आद्यपुरुष हैं, आपको नमस्कार है; क्योंकि आप ईश्वर हैं (प्रकृति के नियन्ता हैं) और परिपूर्ण होने से सकल जीवों के भीतर और बाहर व्याप्त हैं तथापि आपको कोई नहीं देख सकता है।।
मायाजवनिकाच्छन्नमज्ञाधोक्षजमव्ययम्।
न लक्ष्यसे मूढदृशा नटो नाट्यधरो यथा।।
(इसका हेतु कहती हैं-) आप मायारूप परदे से ढके हुए हैं, इन्द्रियों से नहीं जाने जाते हैं, इस कारण अपरिच्छिन्न हैं। जिस प्रकार साधारण पुरुष बहुरूपियों के स्वरूपों को नहीं पहचान सकते हैं कि वे एक ही व्यक्ति के हैं- या भिन्न-भिन्न व्यक्ति के। वैसे ही देहाभिमानी पुरुष आपको नहीं देख सकते। (अतः मै भक्तियोग को न जानने वाली मूढ नारी केवल आपको प्रणाम करती हूँ)।।
तथा परमहंसानां मुनीनाममलात्मनाम्।
भक्तियोगविधानार्थं कथं पश्येमहि स्त्रियः।।
तथा आत्मानात्म विचार करने वाले मननशील और रागादि से निवृत्त पुरुष भी अपनी अलौकिक महिमा से आपको नहीं देख सकते हैं। (जब उनकी यह दशा है) तो भक्तियोग का आचरण करने के लिए या भक्तियोग का स्थापन करने के लिए अवतीर्ण हुए आपको हम स्त्रियाँ कैसे जान सकती हैं?।।
कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनन्दनाय च।
नन्दगोपकुमाराय गोविन्दाय नमो नमः।।
(ज्ञान और भक्तियोग करने में अपनी अशक्ति बतलाकर केवल नमस्कार ही करती हैं-) आप कृष्ण, वासुदेव, देवकीनन्दन, नन्दगोपकुमार, गोविन्द को नमस्कार है।।
नमः पंकजनाभाय नमः पंकजमालिने।
नमः पंकजनेत्राय नमस्ते पंकजाङ्घ्रये।।
जिनके नाभि में पंकज है, जो पकंजों की माला धारण करने वाले हैं, जिनके पंकज के समान प्रसन्न नेत्र हैं और जो पंकज से अंकित चरण वाले हैं, ऐसे आपको नमस्कार है।।
यथा हृषीकेश खलेन देवकी
कंसेन रुद्धातिचिरं शुचार्पिता।
विमोचिताहं च सहात्मजा विभो त्वयैवनाथेनमुहुर्विपदग्णात्।।
(अब यह कहती हैं कि आपकी मेरे ऊपर अपनी माता से भी अधिक प्रीति है; क्योंकि) हे हृषीकेश! आपने जिस प्रकार दुष्ट कंस के बन्दीगृह में पुत्रशोक से चिरसन्तप्त देवकी को विपत्ति से छुड़ाया, उसी प्रकार हे विभो! पुत्रों के साथ मेरी आपही ने बार-बार विपत्तियों से रक्षा की है।
विषान्महाग्नेः पुरुषाददर्शनादसत्सभाया
वनवासकृच्छ्रतः।
मृधे मृधेऽनेकमहारथास्रतो द्रौण्यस्रतश्चास्म हरेऽभिरक्षितः।।
(अपनी विपत्तियों को गिनती हैं-) हे हरे! दुर्योधन द्वारा खिलाये विष से, लाह के घर में लगी हुई अग्नि से, हिडम्बादि राक्षसों के भयानक दर्शन से, द्यूतस्थान से, वनवास के दुखों से, प्रत्येक युद्ध में भीष्म आदि के अस्त्रों से और अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से आपने सदा हमारी रक्षा की है।।
विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो।
भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम्।।
हे जगद्गुरो! हमें सर्वत्र ही बार-बार विपत्तियाँ प्राप्त हों; क्योंकि उस समय आपका दर्शन मिलता है जिससे फिर जन्म-मरणरूप संसार प्राप्त नहीं होता।।
जन्मैश्वर्यश्रुतश्रीभिरेधमानमदः पुमान्।
नैवार्हत्यभिधातुं वै त्वामकिञ्चनगोचरम्।।
(अब कहती हैं कि संपत्तियाँ तो मोक्षमार्ग में बाधा डालती हैं-) जिसका मद उत्तम कुल में जन्म लेने से, ऐश्वर्य से, विद्या से और संपत्ति से बढ़ गया है, वह पुरुष धन आदि में आसक्त न रहने वाले पुरुषों को प्रत्यक्ष दर्शन देने वाले आपके राम, कृष्ण, गोविन्दादि नामों का उच्चारण नहीं कर सकता।।
नमोऽकिञ्चनवित्ताय निवृत्तगुणवृत्तये।
आत्मारामाय शान्ताय कैवल्यपतये नमः।।
जिसके अकिञ्चन (भक्त) ही सर्वस्व हैं, जिनकी धर्म, अर्थ और काम-विषयिणी वृत्तियाँ निवृत्त हो गयी हैं, जो आत्मा में रमण करने वाले हैं, जो रागादि दोषों से रहित हैं और कैवल्यपद (मोक्ष) के देने को समर्थ हैं, ऐसे आपको मैं नमस्कार करती हूँ।।
मन्ये त्वां कालमीशानमनादिनिधनं विभुम्।
समं चरन्तं सर्वत्र भूतानां यन्मिथः कलिः।।
शंका- मैं तो देवकी का पुत्र हूँ, इस प्रकार मेरी स्तुति क्यों करती हो?
समाधान- मैं आपको कालरूप समझती हूँ, देवकी का पुत्र नहीं समझती क्योंकि आप सबके नियन्ता, आदि अंत रहित, विभु, सर्वत्र समभाव रखने वाले हैं (मैं तो अर्जुन का सारथी हूँ मुझ में समभाव कैसे बन सकता है?
समाधान-प्राणियों में जो कलह होता है वह उनकी विपरीत बुद्धि से होता है, उसका आप से कोई संबंध नहीं है।।
न वेद कश्चिद्भगवंश्चिकीर्षितं
तवेहमानस्य नृणां विडम्बनम्।
न यस्य कश्चिद्दयितोऽस्ति कर्हिचिद्-
द्वेष्यश्च यस्मिन्विषमा मतिर्नृणाम्।।
हे भगवान! आपका कोई प्रिय या शत्रु नहीं है इससे मनुष्यों में आपकी विषम बुद्धि नहीं है (अर्थात आप पाण्डवों के मित्रों पर अनुग्रह और शत्रुओं का निग्रह नहीं करते)। अवतार लेकर मनुष्यों के अनुसार आपके कर्म करने पर भी यह समझ में नहीं आता कि आपके मन में क्या करने की इच्छा है?।।
जन्म कर्म च विश्वात्मन्नजस्याकर्त्तुरात्मनः।
तिर्यङ्नृषिषु यादस्सु तदत्यन्तविडम्बनम्।।
हे विश्वात्मन! सबके आत्मा, अज और अकर्ता आपका पशुओं में वाराहादि रूप से, मनुष्यों में रामादि रूप से, ऋषियों में वामनादि रूप से, जलचरों में मत्स्यादि रूप से जन्म लेना और तत्संबंधी कर्म करना विडम्बना मात्र ही तो है, अर्थात आपका शुद्ध स्वरूप आत्मा है और कर्म केवल लीलामात्र है।।
गोप्याददे त्वयि कृतागसि दाम ताव-
द्या ते दशाश्रुकलिलाञ्जनसभ्रमाक्षम्।
वक्त्रं निनीय भय भावनया स्थितस्य
सा मां विमोहयति भीरपि यद्विभेति।।
आपका मनुष्यों की नकल करना अत्यंत आश्चर्यजनक है, आपने जिस समय यशोदा का अपराध किया था अर्थात दही के बर्तन फोड़ डाले थे और यशोदा ने आपको बाँधने के लिए रस्सी ली थी उस समय आपने जो अपनी दशा उसको दिखायी थी वह मुझे अत्यंत मोह में डालती है। यद्यपि आपसे भय भी डरता है तथापि उस समय भय के मारे आपने मुँह नीचा किया था और आपके नेत्र कज्जलसहित अश्रुजल से भरे व्याकुल हो रहे थे।।
केचिदाहुरजं जातं पुण्यश्लोकस्य कीर्त्तये।
यदोः प्रियस्यान्ववाये मलयस्येव चन्दनम्।।
आप दुर्जय हैं, क्योंकि जगत् को मोहित करते हैं इस हेतु आपके जन्म के अनेक कारण कहे जाते हैं, इसी विषय का चार श्लोकों से प्रतिपादन करती हैं,कोई कहते हैं कि जैसे मलयगिरि की कीर्ति बढ़ाने के लिए चन्दन उत्पन्न होता है, वैसे ही अजन्मा होकर भी आपने पुण्यकीर्ति युधिष्ठिर का यश फैलाने के लिए यदु के वंश में जन्म लिया है।।
अपरे वसुदेवदस्य देवक्यां याचितोऽभ्यगात्।
अजस्त्वमस्य क्षेमाय वधाय च सुरद्विषाम्।।
दूसरे कहते हैं कि अजन्मा होकर भी आपने देवकी और वसुदेव जी की पूर्व प्रार्थना को पूर्ण करने के लिये, वसुदेव जी की पत्नी देवकी के गर्भ से जन्म लिया।।
( देवकी और वसुदेव जी पूर्व जन्म में पृश्नि और सुतपा थे। उन्होंने प्रार्थना की थी कि भगवान हमारे पुत्र हों। इसीलिए भगवान ने इनके यहाँ पुत्ररूप से जन्म लिया )
भारावताराणायान्ये भुवो नाव इवोदधौ।
सीदन्त्या भूरिभारेण जातो ह्यात्मभुवार्थितः।।
कोई कहते हैं कि दैत्यों के अतिभार से समुद्र में डूबती हुई नाव के समान क्लेश पाती हुई पृथ्वी का भार हरने के लिए ब्रह्मा जी की प्रार्थना से भगवान ने अवतार लिया। (यह अवतार का प्रधान कारण प्रतीत होता है)।।
भवेऽस्मिन् क्लिश्यमानानामविद्याकामकर्मभिः।
श्रवणस्मरणार्हाणि करिष्यन्निति केचन।।
और कोई दूसरे कहते हैं कि आप ऐसे चरित्र करने के लिए जन्म लेते हैं जिनका वे पुरुष श्रवण और स्मरण करें जो अविद्या काम कर्म से दुख पा रहे हैं (परमानन्द स्वरूप का अज्ञान अविद्या है उससे काम (देहाभिमान) होता है और तब मनुष्य शुभाशुभ कर्म करता है)।।
श्रृण्वन्ति गायन्ति गृणन्त्यभीक्ष्णशः
स्मरन्ति नन्दन्ति तवेहितं जनाः।
त एव पश्यन्त्यचिरेण तावकं
भवप्रवाहोपरमं पदाम्बुजम्।।
जो पुरुष आपके चरित्रों का सर्वदा श्रवण, गान, कीर्तन, स्मरण और आदर करते हैं, वे ही भय के प्रवाह से (जन्म-मरण रूप प्रवाह से) बचाने वाले आपके चरण कमलों का शीघ्र दर्शन पाते हैं।।
अप्यद्य नस्त्वं स्वकृतेहित प्रभो
जिहाससि स्वित्सुहृदोऽनुजीविनः।
येषां न चान्यद्भवतः पदाम्बुजा-
त्परायणं राजसु योजितांहसाम्।।
हे प्रभो! हे भक्तकामद! आपकी ही कृपा से जीवित रहने वाले भक्तों को, जो राज्य छीन लेने के कारण झंझट में पड़े हैं और जिनको आपके चरण कमल से अन्य का भरोसा नहीं है, आप अभी मत छोड़िये।।
के वयं नामरूपाभ्यां यदुभिः सह पाण्डवाः।
भवतोऽदर्शनं यर्हि हृषीकाणामिवेशितुः।।
यदि हमारे ऊपर आपका कृपाकटाक्ष न हो तो ख्याति और समृद्धि से प्रसिद्ध होकर भी पाण्डव यदुओं के सहित दीन ही हैं, जैसे कि इन्द्रियों के स्वामी जीव के देह से निकल जाने पर नेत्र आदि इन्द्रियाँ निरर्थक हो जाती हैं।।
नेयं शोभिष्यते तत्र तथेदानीं गदाधर।
त्वत्पदैरंकिता भाति स्वलक्षणविलक्षितैः।।
हे गदाधर! इस समय यहाँ की भूमि आपके वज्र, अंकुशादि चरणचिह्नों से जैसी विलक्षण शोभा पा रही है, आपके द्वारका चले जाने पर वैसी शोभित नहीं होगी।।
इमे जनपदाः स्वृद्धाः सुपक्वौषधिवीरुधः।
वनाद्रिनद्युदन्वन्तो ह्येधन्ते तव वीक्षितैः।।
आपके दर्शनमात्र से हमारे देश की व्रीहि-यवादिक औषधियाँ और द्राक्षादि लताएँ उत्तम प्रकार से हुई हैं। हमारे देश, वन, नदी और समुद्र सकल संपत्तियों से वृद्धि पा रहे हैं।।
अथ विश्वेश विश्वात्मन्विश्वमूर्ते स्वकेषु मे।
स्नेहपाशमिमं छिन्धि दृढ़ पाण्डुषु वृष्णिषु।।
हे विश्ववेश! हे विश्वात्मन्! हे विश्वमूर्ते! यादव और पाण्डवों के प्रति मेरे स्नेहरूपी दृढ़ पाश को काट डालिये। (भाव यह है यदि आप द्वारका गये तो पाण्डवों को दुख होगा, यदि न गये तो यादवों को दुख होगा, इस कारण यह प्रार्थना है)।।
त्वयि मेऽनन्यविषया मतिर्मधुपतेऽसकृत्।
रतिमुद्वहतादद्धा गंगेवौघमुदन्वति।।
हे मधुपते! जैसे गंगा जी सब रूकावटों को हटाती हुई समुद्र की ओर बहती जाती हैं, इसी प्रकार मेरी बुद्धि किसी दूसरे विषय में न लगकर निरन्तर अनन्य भाव से आपमें अखण्डित प्रीति करे।।
श्रीकृष्ण कृष्णसख वृष्ण्यृषभावनिध्रु-
ग्राजन्यवंशदहनानपरवर्गवीर्य।
गोविन्द गोद्विजसुरार्तिहरावतार
योगेश्वरखिलगुरोभगवन्नमस्ते।।
हे श्रीकृष्ण! हे अर्जुन सखा! हे यादवों में श्रेष्ठ! हे पृथ्वी के भारभूत दुष्ट राजाओं के वंश को अग्नि के समान ध्वस्त करने वाले! हे अक्षीणप्रभाव! हे गोविन्द! हे गौ, ब्राह्मण और देवताओं का दुख दूर करने के लिए अवतार धारण करने वाले! हे योगेश्वर! हे अखिलगुरो! हे भगवान! आपको नमस्कार है।।
07/09/19, 4:48 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
श्री मनुस्मृति
🙏 द्वितीय अध्याय🙏
आचार्ये तु खलु प्रेते गुरुपुत्रे गुणान्विते ।
गुरुदारे सपिण्डे वा गुरुवद्वृत्तिं आचरेत् । । २.२४७ । ।
एतेष्वविद्यमानेषु स्थानासनविहारवान् ।
प्रयुञ्जानोऽग्निशुश्रूषां साधयेद्देहं आत्मनः । । २.२४८ । ।
एवं चरति यो विप्रो ब्रह्मचर्यं अविप्लुतः ।
स गच्छत्युत्तमस्थानं न चेह जायते पुनः । । २.२४९ । ।
अर्थ
गुरु के मर जाने पर विद्वान गुरुपुत्र,गुरुस्त्री या गुरु के सहोदर भाई आदि हो तो उनको गुरु समान समझना चाहिए।।
और ये मौजूद ना हो तो गुरुस्थान में उनकी अग्नि की सेवा करें और उपासना से निज देह को ब्राह्मालय के लायक किया करें।।
इस प्रकार जो ब्राह्मण अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करता है वह परमात्मा में लय को पाकर फिर इस लोक में जन्म नही पाता ।।
🙏
दूसरा अध्याय समाप्त 🙏 ॐ
07/09/19, 12:00 pm – Abhinandan Sharma: शास्त्र ज्ञान सत्र 38 लाइव – थोड़ी देर में शुरू होगा |
https://youtu.be/XxyoqZCe3N0
07/09/19, 12:21 pm – Shastra Gyan Saurabh Muzaffarpur Bihar: Thank u sir
09/09/19, 11:45 am – ABKG Shastragyan Avnish Dubey, Bharuch joined using this group’s invite link
09/09/19, 7:40 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: सिद्धान्तबिन्दु नवम् श्लोक
अपि व्यापकत्वाद्धितत्वप्रयोगात्
स्वतःसिद्धभावादनन्याश्रयत्वात् ।
जगत्तुच्छमेतत्समस्तं तदन्यत्
तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। ९ ।।
साक्षी से अन्य समस्त जगत तुच्छ है । साक्षी तुच्छ नहीं है, क्योंकि वह व्यापक है, पुरुषार्थरूप है, स्वतःसिद्ध भाव पदार्थ है, स्वतंत्र है । एक अवशिष्ट, अद्वितीय, शिव मैं हूँ ।
10/09/19, 8:59 am – Ravi CA Known: द्वारे ठाडे हैं द्विज बामन।
चारों वेद पढत मुख आगर,
अति सुकंठ-सुरगावन ।
बानी सुनी बलि पूछन लागे,
इहा बिप्र कत आवन ?
चरचित चंदन नील कलेवर,
बरषत बूँदनि सावन।
चरन धोई चरनोदक लीनौ,
कह्यौ बिप्र मन-भावन ।
तीनि पँड बसुधा हाँ चाहोँ,
परनकुटी कोँँ छाबन ।
इतनौ कहा बिप्र तुम माँग्यौ,
बहुत रतन देउँ गावँन।
” सूरदास ” प्रभु बोलि,छले बलि,
धर्यौ पीठी पग पावन ।।५।।
…….भावार्थ….
बलि राजा के द्वार पर,श्रीवामन भगवान ब्राह्मण रुप में,प्रभु खडे हैं।
वे मुख से चार वेद अति मधुर कंठ से सस्वर उच्चारित कर रहे हैं। उनकी वाणी सुन,बलि पूछने लगे,आप यहाँ कैसे पधारे ?
प्रभु का श्याम बदन चंदन से लिप्त है जो श्रावण की बूंद समान बरस रहा हैं,बलिने उनके चरण धोकर चरणामृत लिया-वह कहा कुछ मांगो । बलि का यह कहने पर प्रभुने बलि से त्रण पग भूमि माँ दो,जिस पर मैं पर्णकुटी बनाऊँ,-
बलिराजा बोले,” ईतना सा क्या माँगा ? मैं तुम्हें कई गाँव व रत्न दूंगाँ।
श्रीसूरदासजी कहते हैं प्रभु ने बलि को छल कर,उसकी पीठ पर पवित्र पाँव रख दिया ।
10/09/19, 9:44 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
🙏 श्री मनुस्मृति 🙏
तृतीय अध्याय
षट्त्रिंशदाब्दिकं चर्यं गुरौ त्रैवेदिकं व्रतम् ।
तदर्धिकं पादिकं वा ग्रहणान्तिकं एव वा । । ३.१ । ।
वेदानधीत्य वेदौ वा वेदं वापि यथाक्रमम् ।
अविप्लुतब्रह्मचर्यो गृहस्थाश्रमं आवसेत् । । ३.२ । ।
तं प्रतीतं स्वधर्मेण ब्रह्मदायहरं पितुः ।
स्रग्विणं तल्प आसीनं अर्हयेत्प्रथमं गवा । । ३.३ । ।
गुरुणानुमतः स्नात्वा समावृत्तो यथाविधि ।
उद्वहेत द्विजो भार्यां सवर्णां लक्षणान्विताम् । । ३.४ । ।
असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितुः ।
सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने । । ३.५ । ।
महान्त्यपि समृद्धानि गोऽजाविधनधान्यतः ।
स्त्रीसंबन्धे दशैतानि कुलानि परिवर्जयेत् । । ३.६ । ।
हीनक्रियं निष्पुरुषं निश्छन्दो रोमशार्शसम् ।
क्षयामयाव्यपस्मारि श्वित्रिकुष्ठिकुलानि च । । ३.७ । ।
अर्थ
गुरुकुल में तीनों वेद छत्तीस वर्ष या अठारह वर्ष या नौ वर्षो तक ब्रह्मचारी पढ़े या जितने काल में हो सके उतने काल तक ही पढ़े व ब्रह्मचर्य का पालन करे।।
तीन या दो नहीं तो कम से कम एक वेद ही पढ़कर ब्रह्मचर्य की रक्षा करके गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करे
ऐसे वेदज्ञ ब्रह्मचारी को आसन पर बैठा कर पिता या आचार्य पुण्यमाला पहनाकर मधुपर्क विधि से पूजा करे।
फिर गुरु की आज्ञा से स्न्नान,समावर्तन करने के बाद ,अपने वर्ण की शुभ लक्षण वाली कन्या से विवाह कर।।
जो माता की सपिण्ड सात पीढ़ी में ना हो और पिता के गोत्र में ना हो,ऐसी कन्या द्विजों के लिए विवाह योग्य होती है।
यदि गौ,बकरी, भेड़, धन और धान्य से खूब धनी हो तब भी विवाह सम्बन्ध जात कर्म संस्कार रहित,कन्यामात्र पैदा करने वाला,वेदपाठ रहित,शरीर में बहुत बाल वाला,बवासीर वाला,क्षय रोगी,मन्दाग्नि,मृगी,श्वेतकुष्ठ,और गलित कुष्ठ इन दस कुलों में नही करना चाहिए।।
10/09/19, 10:43 am – Pitambar Shukla: 🙏🙏
10/09/19, 9:02 pm – +91 joined using this group’s invite link
10/09/19, 9:35 pm – +91 वसुदेव कृत स्तुति……..
…………………….
विदितोऽसि भवान्साक्षात्पुरुषः प्रकृतेः परः।
केवलानुभवानन्दस्वरूपः सर्वबुद्धिदृक्।।
स एव स्वप्रकृत्येदं सृष्ट्वाग्रे त्रिगुणात्मकम्।
तदनु त्वं ह्यप्रविष्टः प्रविष्ट इव भाव्यसे।।
वसुदेव जी ने पहले पुत्रबुद्धि से देखा फिर उस बुद्धि को त्यागकर वे कहने लगे-
हे ईश्वर! मैंने आपको जान लिया- आप प्रकृति से पर साक्षात पुरुष हैं, केवल अनुभव तथा आनन्द स्वरूप हैं और संपूर्ण प्राणियों की बुद्धि के साक्षी (अन्तर्यामी) हैं।।
शंका- देवकी के उदर में प्रविष्ट होने वाले की अधिक स्तुति क्यों करते हो
समाधान-हे भगवान! वही आप सृष्टि के आरंभ में अपनी माया द्वारा इस त्रिगुणात्मक जगत को उत्पन्न करके तदनन्तर इसमें प्रविष्ट न होकर भी प्रत्यक्ष अथवा सद्रूप से भी प्रविष्ट हुए- से प्रतीत होते हैं। (श्रुति भी प्रतिपादन करती है ‘तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्’ इस प्रकार देवकी के उदर में प्रविष्ट से भासते हैं)।।
प्रथेमेऽविकृता भावास्तथा ते विकृतैः सह।
नानावीर्याः पृथग्भूता विराजं जनयन्ति हि।।
संनिपत्य समुत्पाद्य दृश्यन्तेऽनुगता इव।
प्रागेव विद्यमानत्वान्न तेषामिह संभवः।।
इसमें दृष्टान्त देते हैं-
जिस प्रकार से महत् अहंकार पञ्चतन्मात्रा, (महदादि विकार) अपञ्चीकृत पञ्चमहाभूत जब तक एक से एक भिन्न होकर रहते हैं तब तक किसी विशेष कार्य को उत्पन्न नहीं करते; फिर जब ये विकृत होकर सोलह तरह के विकार पृथिव्यादि (पाँच महाभूत और ग्यारह इंद्रियों) को प्राप्त होकर मिलते हैं तो ब्रह्माण्ड को उत्पन्न कर देते हैं और उत्पन्न होने के अनन्तर उसमें प्रविष्ट हुए- से दीखते हैं परंतु उसमें प्रविष्ट नहीं होते हैं, क्योंकि कार्य की उत्पत्ति के पूर्व कारण रूप से विद्यमान होने के कारण फिर उनका प्रवेश करना संभव नही है। (यहाँ ‘तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्’ श्रुति का अर्थ यही हुआ कि ईश्वर ने प्रवेश सा किया, जैसे मृत्पिण्ड से जब घट बनता है तब आकाश उसमें प्रवेश नहीं करता। आकाश व्यापक होने के हेतु पहले से ही है। कपाल को जोड़ दिया घटाकाश बन गया। आकाश ने प्रवेश नहीं किया। ऐसे ही ईश्वर जब सृष्टि करता है तब शरीर- निर्माण करने पर साक्षात् प्रवेश नहीं करता है किन्तु प्रवेश सा करता है। इसी प्रकार भगवान् ने देवकी के गर्भ में प्रवेश सा किया, वास्तविक प्रवेश नहीं किया। जो जन्म दीखा वह सब माया का कार्य था।।
एवं भवान् बुद्धय्नुमेयलक्षणैर्ग्राह्यैर्गुणैः सन्नपि तद्नुणाग्रहः।
अनावृतत्त्वाद्वहिरन्तरं न ते सर्वस्व सर्वात्मन् आत्मवस्तुनः।।
य आत्मनोदृश्यगुणेषु सन्निति व्यवस्यते स्वव्यतिरेकतोऽबुधः।
विनानुवादं न च तन्मनीषितं सम्यग्यतस्त्यक्तमुपाददत्पुमान्।।
यहाँ सिद्ध किया कि ……
भगवान अप्रविष्ट होकर भी प्रविष्ट से भासते हैं, फिर यह शंका होती है कि यदि भगवान का अच्युत स्वरूप है और कारण रूप से कार्यों में रहते हैं तो जब कार्यों का ग्रहण इंद्रियों से होता है तब भगवान का ग्रहण क्यों नहीं होता?
अतः समाधान करते हैं-
इस प्रकार यद्यपि आप, बुद्धि से जिनके स्वरूपों का ज्ञान होता है, ऐसे इंद्रियग्राह्य गुणों (विषयों) के साथ वर्तमान रहते हैं, तथापि उन गुणों के साथ आपका ग्रहण नहीं होता।
क्योंकि ग्रहण करने योग्य वस्तु के साथ रहने से ही अन्य वस्तुओं का भी ग्रहण हो जाता है- ऐसा नियम नहीं है। गुणों के ग्रहण में इंद्रियों की शक्ति कारण है और उस शक्ति का ज्ञान एकमात्र कार्य के द्वारा ही होता है; तात्पर्य यह कि कार्य के अनुसार ही शक्ति की कल्पना होती है। अतः जिस प्रकार फलादि में रूप, रसादि साथ-साथ रहते हैं पर नेत्र से केवल रूप का ज्ञान होता है, रसादि का नही होता, जिह्वा से केवल रस का ज्ञान होता है, रूपादि का नहीं होता। उसी प्रकार हे प्रभो! आप विषयों के साथ वर्तमान रहते हैं, परंतु विषयों के ज्ञान के साथ आपका ज्ञान नहीं होता।
आप सर्वरूप सर्वात्मा और परमार्थ वस्तु हैं अतः आवरणरहित हैं, इसीलिए आपमें बाहर या भीतर का विभाग नहीं है। अतः आपका प्रवेश नहीं बन सकता। फिर देवकी के गर्भ में प्रविष्ट हुए यह कहना तो बनता ही नहीं।।
शंका- ऊपर के श्लोक में कहे गये अनावृतत्त्वादि चार हेतु प्रपञ्च के अवस्तुरूप होने पर घट सकते हैं किन्तु प्रपञ्च की असत्यता संभव नहीं है क्योंकि उसका सत्यत्वरूप से ज्ञान होता है ।
अतः- समाधान… जो पुरुष आत्मा के दृश्य गुण- देहादि में आत्मा से पृथक अस्तित्व का निश्चय करता है वह अविद्वान है क्योंकि विचार करने से देखा गया है कि वे सत मान गये देहादि संपूर्ण पदार्थ केवल वाणी से उच्चारणमात्र करने के लिए हैं; इसके सिवा उनमें कुछ तथ्य नहीं है। इसीलिए अवास्तविक रूप से बाधित वस्तु का वस्तुरूप से स्वीकार करने वाला पुरुष अज्ञानी है। मृत्ति का गोलाकार बनायी गयी तो उसका नाम घट हो गया। विचार करके देखा जाय तो घट केवल मृत्तिका ही है, ‘घट’ नाम केवल कहने के लिए है;
श्रुति भी कहती-
“‘वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्”।।
त्वत्तोऽस्य जन्मस्थितिसंयमान्विभो वदन्त्यनीहाद्गुणादविक्रियात्।
त्वयीश्वरे ब्रह्मणि नो विरुध्यते
त्वदाश्रयत्वादुपचर्यते गुणैः।।
हे व्यापक! यद्यपि आप निष्काम, निर्गुण और निर्विकार हैं तो भी वेदादि कहते हैं कि इस जगत् के जन्म, स्थिति और नाश आपही से होते हैं।
यहाँ शंका होती है कि भगवान व्यापार शून्य हैं अतः उनका कर्तृत्व किस प्रकार बन सकता है? यदि कर्तृत्व हुआ तो निर्विकारत्व किस प्रकार हो सकेगा?
इसका समाधान करते हैं- निर्गुण होने से आप में निर्विकारित्व है और माया शबल होने से कर्तृत्व है इस कारण विरोध नहीं है।
यथा- अयस्कान्तमणि (चुम्बक) में विकार के बिना कर्तृत्व होता है।
आपमें कर्तृत्व कहने का अभिप्राय इतना ही है कि आप गुणों के आश्रय हैं। जिस प्रकार सेवक द्वारा किये गये कार्यों का कर्तृत्व राजा में माना जाता है उसी प्रकार गुणों से किए गये सृष्ट्यादि कार्यों का कर्तृत्व आप में माना जाता है।
तथापि वास्तव में आप अकर्ता और निर्विकार हैं।।
सत्त्वं त्रिलोकस्थितये स्वमायया
बिभर्षि शुक्लं खलु वर्णमात्मनः।
सर्गाय रक्तं रजसोबृंहितं
कृष्णं च वर्ण तमसा जनात्यये।।
वही आप परमेश्वर अपनी माया के द्वारा त्रिलोकी की रक्षा करने के लिए अपना शुभ्र वर्ण, (सत्त्वगुणात्मक विष्णुमूर्ति) उत्पत्ति के लिए रक्तवर्ण (रजोगुणात्मक ब्रह्मरूप) और संपूर्ण सृष्टि का प्रलय करने के लिए कृष्णवर्ण (तमोगुणात्मक रुद्रमूर्ति) धारण करते हैं ,इससे यह स्पष्ट हो गया कि ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र ये तीन पृथक देवता नहीं है किन्तु परमेश्वर के ही कार्य के अनुसार पृथक्-पृथक् रूप हैं।।
त्वमस्य लोकस्य विभो रिरक्षिषुर्गृहेऽवतीर्णोऽसि ममाखिलेश्वर।
राजन्यसंज्ञासुरकोटियूथपैर्निर्व्यूह्यमाना निहनिष्य से चमूः।।
हे व्यापक! हे अखिलेश्वर! इस लोक के रक्षण की इच्छा से आप इस समय मेरे गृह में (श्रीकृष्णमूर्ति धारणकर) अवतीर्ण हुए हैं, इस कारण (साधुओं की रक्षा करने के लिए) आप राजा नामधारी जो कोटिशः दैत्यसमूह के सेनापति हैं, उनसे इधर-उधर नियत करके भेजी जाने वाली सेनाओं का संहार करेंगे।।
अयं त्वसभ्यस्तव जन्म
नौ गृहे श्रुत्वाग्रजांस्ते न्यवधीत्सुरेश्वर।
स तेऽवतारं पुरुषैः समर्पितं
श्रुत्वाधुनैवाभिसरत्युदायुधः।।
वसुदेव जी इतना जानते हुए भी प्रेम से मोहित होकर कहते हैं-
हे सुरेश्वर! आपका जन्म हमारे घर में होगा, यह सुनकर इस खल कंस ने आपके छः बड़े भाई मार डाले, वह इसी समय अपने अनुचरों से आपके अवतीर्ण होने का हाल सुनकर हाथ में शस्त्र लेकर आ ही पहुँचेगा। (इस कारण आप सावधान हो जाइये।)।।
10/09/19, 11:05 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक १४७,१४८,१४९
विपाके स्वादु सामुद्रं गुरु श्लेष्मविवर्धम्॥१४७॥
सतिक्तकटुकक्षारं तीक्ष्णमुत्क्लेदि चौद्भिदम्। कृष्णे सौवर्चलगुणा लवणे गन्धवर्जितः॥१४८॥
रोमकं लघु, पांसूत्थं सक्षारं श्लेष्मलं गुरु। लवणानां प्रयोगे तु सैन्धवादी प्रयोजयेत॥१४९॥
सामुद्र लवण के गुण- समुद्रलवण(समुद्र के जल को सुखाकर बनाया गया नमक) रस में नमकीन किन्तु विपाक मे मधुर, गुरु तथा कफदोष को बढ़ाता है।
औद्भिदलवण के गुण- औद्भिदलवण( रेह या ऊषर नमक), कुछ तिक्त एवं कटु रस वाला, क्षार गुण युक्त, तीक्ष्ण तथा क्लेदकारक होता है।
वक्तव्य- रेह मिट्टी को जल में घोलकर, उस पानी को सुखाकर जो नमक तैयार किया जाता है, उसे औद्भिदलवण कहते हैं। जिससे धोबी कपड़े धोते हैं, वही रेह मिट्टी है।
कृष्णलवण के गुण- इसमें सौंचर नमक के समान गुण होते हैं किन्तु उसके जैसी गंध इसमें नहीं होती है।
रोमकलवण के गुण- इसकी उत्पत्ति धूलि से होती है। यह लघु, कुछ खारा, कफकारक तथा गुरु होता है।
वक्तव्य- इसी वर्ग मे सज्जीखार तथा सोराखार भी आते हैं। इसी को संस्कृत में सुवर्चिकाखार (कलमीसोरा)भी कहते हैं।
सामान्य निर्देश- जहां केवल इस प्रकार का शास्त्र निर्देश हो कि इस योग में लवण का प्रयोग करें वहां निश्चिन्त होकर सैन्धवलवण का प्रयोग करना चाहिए।
वक्तव्य- जहां एक लवण का प्रयोग करना हो वहां सैन्धवलवण का, जहां दो नमकों का प्रयोग करना हो, जैसे- हिंग्वष्टक चूर्ण मे द्विपटु, यहां १. सैन्धव तथा २. सौवर्चल का, जहां तीन लवण का प्रयोग करना हो वहां— १. सैन्धव, २.सौवर्चल, ३. विड का प्रयोग करना चाहिए। इसी प्रकार चतुर्लवण तथा पंचलवण का भी प्रयोग करना चाहिए। चरक ने “सैन्धवं लवणानां हिततमम्” । (च.सू. – २५/३८) तथा “ऊषरं लवणानाम्हिततमम्” ।(च.सू.-२५/३९) अर्थात सभी नमकों में सेंधानमक उत्तम होता है और ऊषर नमक अहित होता है।
10/09/19, 11:06 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: ” ऊषरं लवणानामहिततमम्”
12/09/19, 8:01 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: सिद्धान्तबिन्दु दशम् श्लोक
न चैकं तदन्यद् द्वितीयं कुतः स्याद्
न वा केवलत्वं न चाऽकेवलत्वम् ।
न शून्यं न चाशून्यमद्वैतकत्वात्
कथं सर्ववेदान्तसिद्धं ब्रवीमि ।। १० ।।
एक भी नहीं है, उससे अन्य द्वितीय कहाँ से होगा ? आत्मा में केवलत्व (एकत्व) भी नहीं है । अकेवलत्व (अनेकत्व) भी नहीं है । न शून्य है, न अशून्य है । अद्वैत होने से सब वेदान्तों से सिद्ध को मैं कैसे कहूं ?
——इति सिद्धान्तबिन्दु——-
13/09/19, 8:22 pm – LE Onkar A-608: This message was deleted
13/09/19, 8:24 pm – LE Onkar A-608: This message was deleted
13/09/19, 8:31 pm – LE Onkar A-608: इतनी चुप्पी क्यों शान्ति यहाँ,
सबको अनन्त का का ज्ञान मिला?
या ढूंढ़ रहे उस सीपी को,
जिसे स्वाति बिन्दु का पान मिला?
13/09/19, 8:32 pm – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: 🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
13/09/19, 9:56 pm – LE Onkar A-608: प्रलयकाल के बाद जब परमात्मा जाग कर जम्हाई लेते हैं तो जो अनुनाद होता है वही बिग बैंग है?
13/09/19, 10:52 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक १५०,१५१
गुल्महृद्ग्रहणीपाण्डुप्लीहानाहग्रलामयान्। शश्वासार्शः कफकांसाश्च शमयेद्यवशूकजः॥१५०॥
क्षारः सर्वश्च परमं तीक्ष्णोष्णः कृमिजिल्लघु। पित्तासृग्दूषणः पाकी छेद्यहृद्यो विदारणः॥१५१॥
अपथ्य कटुलावण्याच्छुक्रौजः केशशचक्षुषाम्।
यवक्षार के गुण- यवक्षार(जौखार) गुल्मरोग, हृदयरोग, ग्रहणीरोग, पाण्डुरोग, प्लीहारोग, आनाह(आफरा रोग), स्वरयन्त्र के रोग, श्वासरोग, अर्शोरोग, कफरोग तथा कासरोग को नष्ट करता है।
सभी प्रकार के क्षार- सभी क्षार अत्यन्त तीक्ष्ण, उष्णवीर्य, कृमानाशक तथा लघु होते हैं। यह पित्त तथा रक्त को दूषित करते हैं। आहार तथा व्रणशोथ(फोड़े) को पका देते हैं। छेदक(अर्श के मस्सों एवं बालों की जड़ों को काट देते) हैं, हृदय के लिए अहितकर है, पके हुए व्रणशोथ को फ़ाड़ दैते है, कटु तथा लवण रस प्रधान होने के कारण ये शुक्र, ओजस, केश तथा नेत्रों के लिए अहितकर होते है।
वक्तव्य- पलाश (ढाक) तथा अर्क (मदार) की सूखी लकड़ियों को जला दे। उस भस्म को लेकर चौगुना जल डालकर मिट्टी के पात्र में रातभर रहने दें। इस प्रकार राख नीचे जम जायेगी और क्षारयुक्त जल ऊपर रहेगा, इसे सावधानी के साथ एक दूसरे पात्र में ले लें। इस जल को अग्नि पर रखकर सुखायें। सूखने पर सफेद रंग का क्षार मिलेगा, उसे खुरचकर रख ले, क्षार तैयार है। यह दो प्रकार का होता है— १. प्रतिसारणीय क्षार चूर्ण के रूप में,। २. पानीय क्षार क्वाथ के रूप में। विशेष देखें सु.सू. ११ पूर्ण। क्षारों का अधिक उपयोग नहीं करना चाहिए। देखें— च.वि. १/१५। और भी देखें “क्षारः पुंस्त्वोपघातिनां श्रेष्ठः” । (च.सू. २५/४०) इनका अधिक सेवन करने से पुरुष नपुंसक हो जाता है।
14/09/19, 1:00 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
श्री मनुस्मृति
🙏 तृतीय अध्याय🙏 नोद्वहेत्कपिलां कन्यां नाधिकाङ्गीं न रोगिणीम् ।
नालोमिकां नातिलोमां न वाचाटां न पिङ्गलाम् । । ३.८ । ।
न र्क्षवृक्षनदीनाम्नीं नान्त्यपर्वतनामिकाम् ।
न पक्ष्यहिप्रेष्यनाम्नीं न च भीषननामिकाम् । । ३.९ । ।
अव्यङ्गाङ्गीं सौम्यनाम्नीं हंसवारणगामिनीम् ।
तनुलोमकेशदशनां मृद्वङ्गीं उद्वहेत्स्त्रियम् । । ३.१० । ।
यस्यास्तु न भवेद्भ्राता न विज्ञायेत वा पिता ।
नोपयच्छेत तां प्राज्ञः पुत्रिकाधर्मशङ्कया । । ३.११ । ।
अर्थ
जिसके देह में लाल बाल हो,अधिक अंग वाली,रोगी,जिसके देह में बाल ना हो या अधिक बाल हो,अधिक बोलने वाली,या पिले आंखों वाली से कदापि विवाह ना करें।
नक्षत्र,वृक्ष, नदी,म्लेच्छ, पर्वत,पक्षी,सांप,शुद्र नाम वाली व भयदायक नाम वाली स्त्री से विवाह ना करें।।
सुंदर अंग वाली,सुंदर नाम वाली, हंस व गज सी चाल वाली,पतले रोम वाली बाल व दांत वाली,कोमल शरीर वाली कन्या से विवाह करना चाहिए।।
जिसका भाई ना हो,जिसके पिता का पता ना हो,ऐसी कन्या से पुत्रिकाधर्म से डरकर विवाह नही करना चाहिए।।
🙏 *हरी ॐ* 🙏
14/09/19, 1:00 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: बाल व दांत वाली????
14/09/19, 1:01 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: पुत्रिका धर्म????
14/09/19, 7:36 am – Karunakar Tiwari Kanpur Shastra Gyan: 🙏🙏🙏🙏☝
14/09/19, 2:48 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: पुत्रिकाधर्म – जिस पिता के कोई पुत्र नहीं होता वो अपनी पुत्री का विवाह इस वचन के साथ करता है कि पुत्री से होने वाला पुत्र, पिता का हो जायेगा ।
14/09/19, 7:11 pm – LE Onkar A-608: प्रथम् पुत्र
14/09/19, 7:13 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: शायद पहला ही होगा 🙂
14/09/19, 8:28 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: दांत की कोई निश्चित संख्या या क्या???
14/09/19, 9:02 pm – LE Onkar A-608: तनुलोमकेशदशनां
जिसके रोम, केश और दांत पतले हों।
आप संस्कृत का पाठ देखें।
अनुवाद में पतले रोम के बाद वाली शब्द आ जाने से संशय हुआ होगा।
14/09/19, 11:19 pm – Abhinandan Sharma: अर्जुन का विवाह चित्रांगदा से इसी शर्त पर हुआ था, जिसके बेटे द्वारा अर्जुन का वध हुआ था ।
14/09/19, 11:21 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: अर्जुन का वध???
ये पूरी कथा जानने की इच्छा है
14/09/19, 11:23 pm – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: 👌🙏
14/09/19, 11:24 pm – FB Vikas Delhi Shastra Gyan: 🙏🙏
14/09/19, 11:31 pm – Abhinandan Sharma: कल ढूंढता हूँ, मैंने लिखी थी ये कथा कभी, अपनी भाषा में ।
15/09/19, 7:54 am – Binita Kotnala Ghaziabad Shastra Gyan:
15/09/19, 7:58 am – Binita Kotnala Ghaziabad Shastra Gyan:
15/09/19, 8:01 am – Binita Kotnala Ghaziabad Shastra Gyan:
15/09/19, 9:10 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: कृपया जो भी post करना है typed form के करें, images डालना मना है ।
15/09/19, 3:35 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक १५२,१५३,१५४,१५५,१५६,१५७
हिङ्गु वातकफनाहशूलघ्नं पित्तकोपनम्॥१५२॥
कटुपाकरसं रूच्यं दीपनं पाचनं लघु। कषाया मधुरा पाके रुक्षा विलवणाः लघुः॥१५३॥
दीपनी पाचनी मेध्या वयसः स्थापनी परम्। उष्णवीर्या सराऽऽयुष्या बुद्धिन्द्रियबलप्रदा॥१५४॥
कुष्ठवैवर्ण्यवैस्वर्यपुराणविषमज्वरान्। शिरोऽक्षिपाण्डुहृद्रोगकामलाग्रहणीगदान॥१५५॥
सशोषशोफातिसारमेदमोहवमीक्रिमीन्।श्वासकासप्रसेकार्शः प्लीहानाहगरोदरम्॥१५६॥
विबन्धस्रोतसां गुल्ममूरूस्तम्भमरोचकम्। हरीतकी जयेद्वयाधींस्तांस्तांश्च कफवातजान्॥१४७॥
हींग का वर्णन- वातज रोगों , कफज रोगों, आनाह(आफरा) तथा शूलरोगों को यह नष्ट करती है, पित्त को प्रकुपित करती है एवं विपाक व रस में कटु होती है। हींग रूचिकारक, अग्निप्रदीपक, पाचक, तथा लघु है।
वक्तव्य- हींग अनेक प्रकार की पायी जाती है। उन सबमें १. हीरा हींग और २. तालाब हींग अच्छी होती है। आजकल नकली हींग की प्राप्ति अच्छी हींग की तुलना में अधिक है। हींग के वृक्ष काबुल, फारस, अफगानिस्तान आदि देशों में अधिक पाये जाते हैं। इन वृक्षों की गोंद को ही हींग कहते हैं। देशी हींग की तुलना में काबुली हींग उत्तम होती है। अच्छी हींग को पानी में घिसने से दुधिया घोल बनता है, दूसरों का नहीं, यही इसकी पहचान है।
हरीतकी का वर्णन- यह रस में कसैली, विपाक में मधुर, गुण में रुक्ष, केवल लवण रस से रहित अर्थात लवण के अतिरिक्त इसमें शेष सभी रस रहते हैं। यह लघु, अग्निको दीप्त करती है, भोजन को पचाती है, बुद्धिवर्धक है, दीर्घायु प्रदान करने वाले द्रव्यों में सर्वश्रेष्ठ है, उष्णवीर्य है, सर(रेचक), आयु के लिए हितकर, बुद्धि तथा ज्ञानेन्द्रियों को बल देने वाली है।
यह कुष्ठरोग, विवर्णता, स्वरभेद, जीर्णज्वर, विषमज्वर, शिरोरोग, नेत्ररोग, पाण्डुरोग, हृदयरोग, कामलारोग, ग्रहणीरोग, शोष(राजयक्ष्मा), सूजन, अतिसार, मेदोरोग, मोह(मूर्च्छा), वमन, क्रिमिरोग, श्वास, कास, प्रसेक(लालास्राव तथा योनिस्राव), अर्शोरोग, प्लीहारोग, आनाह(अफरा), गरविष, उदररोग, स्रोतों की रूकावट, गुल्मरोग, उरूस्तम्भ तथा अरोचक आदि कफज एवं वातज रोगों का विनाश करती है।
वक्तव्य- आयुर्वेदशास्त्र में हरीतकी(हरड़), लहसुन तथा शिलाजीत इन तीनों द्रव्यों का विशेष महत्व है। हरीतकी की तो यहां तक प्रशंसा की गई है— “कदाचित् कुप्यति माता नदोरस्था हरीतकी” अर्थात माता तो अपने बालक पर कभी रूष्ट भी हो सकती है, परन्तु पेट के भीतर गयी हुयी हरीतकी कभी कुपित नहीं होती। सचमुच यह इसके गुणों की वास्तविकता है, न कि अतिशयोक्ति।
16/09/19, 5:35 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: This message was deleted
16/09/19, 5:39 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: This message was deleted
16/09/19, 5:42 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: 🙏🙏🙏, कुछ शब्दों के अर्थ कम समझ आये किन्तु आशा है आगे के प्रेषित्रों से स्पष्ट हो जायेंगे।
आनन्द आएगा।कोटिशः आभारः
16/09/19, 5:45 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: ।। श्री गणेशाय नमः ।।
भारवि कृत
किरातार्जुनीय महाकाव्य
भूमिका
किरातार्जुनीय संस्कृत के सुप्रसिद्ध महाकाव्यों में से अन्यतम है जो छठी शताब्दी या उसके पहले लिखा गया है । इसको महाकाव्यों की ‘बृहत्त्रयी’ में प्रथम स्थान प्राप्त है । महाकवि कालिदास की कृतियों के अनन्तर संस्कृत साहित्य में भारवि के किरातार्जुनीय का ही स्थान है । बृहत्त्रयी के दुसरे महाकाव्य ‘शिशुपाल वध’ तथा ‘नैषध’ हैं । किरातार्जुनीय राजनीति प्रधान महाकाव्य है । राजनीति वीररस से अछूती क्योंकर हो सकती है ? फलतः इसका प्रधान रस ‘वीर’ है ।
इसके नायक मध्यम पाण्डव अर्जुन हैं । किरातार्जुनीय में किरात वेषधारी शङ्कर जी और अर्जुन के युद्ध का प्रमुख रूप से वर्णन है । यह कथा महाभारत के वन पर्व से ली गयी है । महाकाव्य का आरम्भ इस प्रकार से हुआ है, जैसे किसी नाटक का रंगमंच पर अभिनय आरम्भ हो रहा हो । कौरवों की कपट द्यूतक्रीड़ा से पराजित पाण्डव जब द्वैतवन में निवास कर रहे थे तब उन्हें यह चिन्ता हुई कि दुर्योधन का शासन किस प्रकार चल रहा है, इसका पता लगाना चाहिए । क्योंकि अवश्य ही वह अपने क्रूर और कपटी स्वभाव वाले सहयोगियों के कारण प्रजाजन का विद्वेषी सिद्ध हुआ होगा । प्रजा के आन्तरिक असन्तोष के कारण किसी भी राजा का शासन दीर्घ-कालव्यापी नहीं हो सकता । अतः किसी प्रकार से हस्तिनापुर के लिए एक गुप्तचर भेजकर वहां की स्थिति की जानकारी प्राप्त करनी ही चाहिए । इसी उद्देश्य से उन्होंने एक वनवासी किरात को चुना, जो ब्रह्चारी का वेश धारण कर हस्तिनापुर गया और वहां कुछ काल तक रहकर सब बातें अपनी आँखों से देखकर लौट आया ।
भारवि के विकट चित्रबन्धों में यद्यपि काव्य की आत्मा रस का पूर्ण परिपाक नहीं हुआ है, तथापि तात्कालिक संस्कृतज्ञ-समाज की अभिरुचि के आग्रह से उन्हें ऐसा करना पड़ा होगा । क्योंकि इन विकट चित्रबन्धों की रचना किसी सामान्य काव्य-कौशल की बात नहीं है । भारवि के अर्धभ्रमक, सर्वतोभद्र, एकाक्षर पाद, एकाक्षर श्लोक, द्वयक्षर श्लोक, निरौष्ठव, पादान्तादियमक, पदादि यमक, प्रतिलोमानुलोमपाद, प्रतिलोमानुलोमार्द्ध आदि विकट बन्धों को देखकर सामान्य बुद्धि को विस्मित हो जाना पड़ता है । किरातार्जुनीय का समूचा पन्द्रहवाँ सर्ग मानो इसी अद्भुत पाण्डित्य-प्रदर्शन के ही लिए रचा गया हो । एक श्लोक ऐसा भी दिया है जिसके भिन्न भिन्न तीन अर्थ होते हैं तथा इसी प्रकार एक श्लोक ऐसा भी दिया है, जिसमें केवल एक अक्षर ‘न’ का प्रयोग हुआ है । दोनों के नमूने नीचे दिए जा रहे हैं ।
अर्थत्रयवाची श्लोक –
जगती शरणे युक्तो हरिकान्त सुधासित ।
दानवर्षी कृताशसो नागराज इवाबभौ ।।
सर्ग १५, ४५
एकाक्षर श्लोक –
न नोन नुन्नो नुन्नानो नाना नानानना ननु ।
नुन्नोऽनुन्नो ननुन्नेनो नानेना नुन्ननुन्ननुत् ।।
सर्ग १५, २४
इसी प्रकार भारवि के काव्य शिल्प का उत्कृष्ट नमूना हम निम्न लिखित सर्वतोभद्र बन्ध में भी देखते हैं ।
दे वा का नि नि का वा दे
वा हि का स्व स्व का हि वा
का का रे भ भ रे का का
नि स्व भ व्य व्य भ स्व नि
इस सर्वतोभद्र बन्ध की विशेषता यह है कि इसे जिस ओर से भी पढ़िए पूरा श्लोक बन जाता है । श्लोक का वास्तविक स्वरुप निम्नलिखित है जो आठों कोष्ठकों के चतुष्टय के क्रमश चारों ओर से बन जाता है ।
देवकानि निकावादे वाहिकास्व स्वकाहिवा ।
काकारेभभरे काका निस्वभव्य व्यभस्वनि ।।
सर्ग १५, श्लोक २५
16/09/19, 5:46 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: कुछ शब्द गड़बड़ थे जो ठीक कर दिए हैं। 🙂
16/09/19, 5:46 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: 🙏🙏
16/09/19, 7:12 pm – FB Mrudul Tiwari Allahabad Shastra Gyan: 🙏🙏🙏🙏🙏👍👍👍👍
17/09/19, 10:58 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक १५८,१५९
तद्वदाम्लकं शीतमम्लम् पित्तकफापहम्। कटु पाके हिमं केश्यमक्षमीषच्च तदगुणम्॥१५८॥
इयं रसायवरा त्रिफलाऽक्ष्यामयापहा। रोपणी तग्गदक्लेदमेदोमेहकफास्रजित्॥१५९॥
आमलक के गुण- आंवला के गुण भी हरीतकी(हरड़) के समान ही होते है, परन्तु आंवला शीतवीर्य होता है और रस में अम्ल(खट्टा) होता है। यह पित्त तथा कफ का विनाशक होता है।
बिभीतक का वर्णन- यह भी हरीतकी के समान गुण धर्मो वाला होता है, किन्तु यह विपाक मे कटु, केशो के लिए हितकर होता है, फिर भी हरीतकी तथा आंवला से कुछ कम गुणों वाला होता है।
वक्तव्य- हरड़, बहेड़ा, आंवला का सम्मिलित नाम त्रिफला है। तन्त्रान्तर मे कहा है— ” अभयैका प्रदातव्या द्वावेव तु विभीतकौ। धात्रीफलानि चत्वारि त्रिफलेयं प्रकीर्तिता॥” अर्थात एक हरीतकी, दो बहेड़ा और तीन आंवला— इनको इस अनुपात में मिलाकर त्रिफला का निर्माण होता है।
त्रिफला का वर्णन- उक्त तीनों फलों के विधिवत मिश्रण का नाम त्रिफला है। यह उत्तम कोटि का रसायन है। यह नेत्ररोगों का विनाश करती है, व्रणरोपण , त्वचा में होने वाली सड़न, मेदोदोष, प्रमेह कफजरोग एवं रक्तज रोगों का विनाश करती है।
18/09/19, 12:07 am – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: प्रतीक्षा में🙏🙏
18/09/19, 12:10 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 1
श्रियः कुरूणामधिपस्य पालनीं प्रजासु वृत्तिं यमयुङ्क्त वेदितुम् ।
स वर्णिलिङ्गी विदितः समाययौ युधिष्ठिरं द्वैतवने वनेचरः ।। १.१ ।।
अर्थ: कुरूपति दुर्योधन के राज्यलक्ष्मी की रक्षा करने में समर्थ, प्रजावर्ग के साथ किये जाने वाले उसके व्यवहार को भली भाँति जानने के लिए जिस किरात को नियुक्त किया गया था, वह ब्रह्मचारी का (छद्म) वेश धारण कर, वहां की सम्पूर्ण परिस्थिति को समझ-बूझकर द्वैत वन में (निवास करने वाले ) राजा युधिष्ठिर के पास लौट आया ।
टिप्पणी: इस महाकाव्य की कथा का सन्दर्भ महाभारत से लिया गया है । जैसा कि सुप्रसिद्ध है, पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर, भीम एवं अर्जुन आदि से धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन कि तनिक भी नहीं पटती थी । एक बार फुसलाकर दुर्योधन ने युधिष्ठिर के साथ जुआ खेला और अपने मामा शकुनि कि धूर्तता से युधिष्ठिर को हरा दिया । युधिष्ठिर न केवल राजपाट के अपने हिस्से को ही गँवा बैठे, प्रत्युत यह दांव भी हार गए कि वे अपने सब भाइयों के साथ बारह वर्ष तक वनवास और एक वर्ष तक अज्ञातवास करेंगे । फल यह हुआ कि अपने चारों भाइयों तथा पत्नी द्रौपदी के साथ यह बारह वर्षों तक जगह-जगह ठोकर खाते हुए घूमते फिरते रहे । एक बार वह सरस्वती नदी के किनारे द्वैतवन में निवास कर रहे थे कि उनके मन में आया की किसी युक्ति से दुर्योधन का राज्य के प्रजावर्ग के साथ किस प्रकार का व्यवहार है, यह जाना जाय । इसी जानकारी को प्राप्त करने के लिए उन्होंने एक चतुर वनवासी किरात को नियुक्त किया, जिसने ब्रह्मचारी का वेश धारण कर हस्तिनापुर में रहकर दुर्योधन की प्रजानीति के सम्बन्ध में गहरी जानकारी प्राप्त की । प्रस्तुत कथा सन्दर्भ में उसी जाकारी को वह द्वैतवन में निवास करने वाले युधिष्ठिर को बताने के लिए वापस लौटा है ।
इस पूरे सर्ग में कवी ने वशस्थ वृत्त का प्रयोग किया है, जिसका लक्षण है – “जतौ तु वशस्थमुदीरित जरौ ।” अर्थात जगण, तगण, जगण और और रगण के संयोग से वशस्थ छन्द बनता है । श्लोक की प्रथम पंक्ति में वने वनेचर” शब्दों में ‘वने’ की दो बार आवृत्ति होने से ‘वृत्यानुप्रास’ अलङ्कार है, महाकवि ने मांगलिक ‘श्री’ शब्द से अपने ग्रन्थ का आरम्भ करके वस्तुनिर्देशात्मक मङ्गलाचरण किया है ।
18/09/19, 12:18 am – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: 🙏🙏🙏 द्वैत वन साधारण वन का ही नाम है अथवा कुछ विशिष्ट है इसमें?
साधारण प्रत्युतपन्न जिज्ञासा.🙏
18/09/19, 12:20 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: इसके लिए तो आपको ही मेहनत करनी पड़ेगी, पता कीजिये और हमें भी बताइये 😊
18/09/19, 12:48 am – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: देखते हैं कुछ मिलता है क्या😊🙏
18/09/19, 1:05 am – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: एक तपोवन जिसमें युधिष्ठिर वनवास के समय कुछ समय रुके थे
18/09/19, 7:08 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
श्री मनुस्मृति
तृतीय अध्याय
सवर्णाग्रे द्विजातीनां प्रशस्ता दारकर्मणि ।
कामतस्तु प्रवृत्तानां इमाः स्युः क्रमशोऽवराः । । ३.१२ । ।
शूद्रैव भार्या शूद्रस्य सा च स्वा च विशः स्मृते ।
ते च स्वा चैव राज्ञश्च ताश्च स्वा चाग्रजन्मनः । । ३.१३ । ।
न ब्राह्मणक्षत्रिययोरापद्यपि हि तिष्ठतोः ।
कस्मिंश्चिदपि वृत्तान्ते शूद्रा भार्योपदिश्यते । । ३.१४ । ।
हीनजातिस्त्रियं मोहादुद्वहन्तो द्विजातयः ।
कुलान्येव नयन्त्याशु ससन्तानानि शूद्रताम् । । ३.१५ । ।
अर्थ
ब्राह्मण,क्षत्रिय,व वैश्य को अपने वर्ण की कन्या से ही विवाह श्रेष्ठ है, पर कामवश होकर जो विवाह होता है वो अधम विवाह है।
शूद्र पुरूष शूद्र कन्या के साथ,वैश्य पुरूष वैश्य व शूद्र कन्या के साथ,क्षत्रिय पुरूष क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र कन्या के साथ, और ब्राह्मण पुरूष ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, व शूद्र कन्या के साथ विवाह कर सकता है यह अधम विवाह है।
ब्राह्मण व क्षत्रिह को आपत्ति काल में भी शूद्र कन्या से विवाह नही करना चाहिए। जो द्विजाति मोहवश हींन जाती की कन्या से विवाह करता है वह अपने कुल व परिवार को ही शूद्र कर देता है
18/09/19, 10:33 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: This message was deleted
18/09/19, 10:33 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG:
18/09/19, 10:34 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: अगर किसी को विस्मृति हुई है उस के लिए🙏
18/09/19, 10:34 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: आप तो जानते हैं images मना हैं ग्रुप में 😒
18/09/19, 10:36 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: माफ कीजियेगा
पर उपयोगी लगा सो,,,,,🙏😔
18/09/19, 10:37 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙏🏼🙏🏼
18/09/19, 1:36 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: 🙏
18/09/19, 3:02 pm – +91 : भाईसाहब हमारे एडमिन जी के देखने से पहले आप इसे डिलीट कर दे ।
सादर !
18/09/19, 3:06 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi removed +91 94159 57117
18/09/19, 3:48 pm – Dr PL Sharma White Cottege Ghaziabad Shastr Gyan: वर्ण व्यवस्था जन्म से या कर्म से समझनी चाहिए?
18/09/19, 3:49 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: हीन जाती.??
18/09/19, 3:56 pm – Abhinandan Sharma: कर्म से ।
18/09/19, 3:57 pm – Abhinandan Sharma: You deleted this message
18/09/19, 3:58 pm – Abhinandan Sharma: जो द्विज नहीं है, वो ।
18/09/19, 4:01 pm – Dr PL Sharma White Cottege Ghaziabad Shastr Gyan: 👌🙏🕉
18/09/19, 4:18 pm – LE Ravi Parik C Block Pragati Maidan : गुणों से
18/09/19, 5:46 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: क्या हीन सही शब्द है उनके लिए जो द्विज नहीं?
18/09/19, 5:51 pm – Abhinandan Sharma: हीन माने जिसके पास कोई चीज न हो, द्विज न होने से, दूसरा जन्म नहीं होता, इसलिए हीन कहा गया है ।
18/09/19, 6:03 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👍🏼
18/09/19, 6:04 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: फिर क्या विधान है शूद्रों के लिए
18/09/19, 6:05 pm – Abhinandan Sharma: किस चीज के बारे में ?
18/09/19, 6:11 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: जन्म के बारे में
18/09/19, 6:12 pm – Abhinandan Sharma: कुछ नहीं, बस उनका द्विज संस्कार नहीं होता !
18/09/19, 7:35 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 1 श्लोक 2
कृतप्रणामस्य महीं महीभुजे जितां सपत्नेन निवेदयिष्यतः ।
न विव्यथे तस्य मनो न हि प्रियं प्रवक्तुमिच्छन्ति मृषा हितैषिणः ।। १.२ ।।
अर्थ: उस समय के लिए उचित प्रणाम करने के अनन्तर शत्रुओं (कौरवों) द्वारा अपहृत पृथ्वीमण्डल (राज्य) की यथातथ्य बातें राजा युधिष्ठिर से निवेदन करते हुए उस वनवासी किरात के मन को तनिक भी व्यथा नहीं हुई । (ऐसा क्यों न होता) क्योंकि किसी के कल्याण की अभिलाषा करने वाले लोग (सत्य बात को छिपा कर केवल उसे प्रसन्न करने के लिए) झूठ-मूठ की प्यारी बातें (बना कर) कहने की इच्छा नहीं करते ।
टिप्पणी: क्योंकि यदि हितैषी भी ऐसा करने लगें तो निश्चय ही कार्य-हानि हो जाने पर स्वामी को द्रोह करने की सूचना तो मिल ही जायेगी । इस श्लोक में भी ‘मही मही’ शब्द की पुनरावृत्ति से वृत्यनुप्रास अलङ्कार है और वह अर्थान्तरन्यास से ससृष्ट है ।
18/09/19, 8:12 pm – Abhinandan Sharma: ये नारद जी की स्तुति कहाँ से ली है ,प्रभु । यदि संदर्भ भी दे देंगे तो बड़ी कृपा होगी 🙏
18/09/19, 8:14 pm – Abhinandan Sharma: इन दोनों नमकों के आजकल के नाम क्या हैं ? कृपया स्पष्ट करें ।
18/09/19, 8:20 pm – Abhinandan Sharma: 🙏🙏
18/09/19, 8:29 pm – +91: श्रीमद्भागवत से उद्धृत है प्रभू 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
18/09/19, 8:30 pm – +91 : 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
18/09/19, 8:48 pm – Abhinandan Sharma: सेंधा नमक और काला नमक में कौन सा श्रेष्ठ है ? सफेद नमक से कोई तुलना ?
18/09/19, 10:28 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: This message was deleted
18/09/19, 10:28 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक १६०,१६१,१६२
सकेसरं चतुर्जातं त्वक्पत्रैलं त्रिजातकम्। पित्तप्रकोपि तीक्ष्णोष्णं रूक्षं रोचनदीपनं॥१६०॥
रसे पाके च कटुकं कफघ्नं मरिचं लघु। श्लेष्मला स्वादुशीताऽऽर्द्रा गुर्वो स्निग्धा च पिप्पली॥१६१॥
सा शुष्का वितरीताऽतः स्निग्धा वृष्या रसे कटुः। स्वादुपाकाऽनिलश्लेष्मश्वासकासापहा सरा॥१६२॥
न तामत्युपयुञ्जीत रसायनविधिं बिना।
त्रिजात का वर्णन- दालचीनी, तेजपत्ता और बड़ी इलायची इन तीन द्रव्यों के संयोग का नाम त्रिजात या त्रिजातक है। ये दोनों शब्द शास्त्रीय प्रयोगों में पाये जाते हैं।
चातुर्जात का वर्णन- उक्त त्रिजात में नागकेसर द्रव्य को मिला देने से इसे चातुर्जात या चातुर्जातक कहा जाता है। उक्त योगों के गुण धर्म— ये पित्तवर्धक, तीक्ष्ण, उष्णवीर्य, रूक्ष, अग्नि को प्रदिप्त कर भोजन के प्रति रुचि को बढ़ाते है।
पिप्पली के गुण- हरी पिप्पली, कफकारक, स्वाद मे मधुर, शीतवीर्य, देर में पचने वाली तथा कुछ स्निग्ध होती है। वही पिप्पली जब सूख जाती है तो उक्त गुणों से विपरीत हो जाती है। तब यह स्निग्ध, वीर्यवर्द्धक, रस में कटु और विपाक मे मधुर होती है। यह वातनाशक, कफनाशक, श्वास तथा कास नाशक एवं सर(मलभेदक) है। ‘पिप्पलीरसायन’ विधि के अतिरिक्त पिप्पली का अधिक सेवन नहीं करना चाहिए।
वक्तव्य- चरक में भी इसके अधिक सेवन का निषेध किया है। देखें —च.वि. १/१५
18/09/19, 10:32 pm – Sushant: सेंधा नमक एवं काला नमक दोनो ही उत्कृष्ट हैं और आम सफेद नमक (जिसे जहर भी कहा जा सकता है) से गुणवत्ता एवं स्वाथ्य के दृष्टिकोण से सरवोत्तम है.
18/09/19, 10:33 pm – Sushant: हालांकि मैं आयुर्वेद का ज्ञानी नहीं हूँ, फ़िर भी नमक के विषय पर व्यक्तिगत रुचि होने की वजह से विस्तार में अध्ययन किया है.
18/09/19, 10:34 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: सौवर्चल नमक को सज्जीखार भी कहते हैं। इसे पापड़खार भी कहते हैं।
18/09/19, 10:34 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: विड नमक – नौसादर
18/09/19, 10:36 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: क्या नौसादर व सुहागा 1 ही है
18/09/19, 10:36 pm – Ashu Bhaiya: अलग अलग
18/09/19, 11:06 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: अब नमक पर बात चल रही है तो सैन्धव शब्द पर भी प्रकाश डालें🙏
19/09/19, 7:11 am – LE Onkar A-608: समुद्र लवण आज का प्रचलित सफेद नमक है।
19/09/19, 7:39 am – Sushant: सैन्धव शब्द की उत्पत्ति इस लवण के स्रोत (सिंध प्रांत-पाकिस्तान) से है
19/09/19, 7:42 am – Sushant: थोड़ा इतिहास देखें तो इस प्रकार का लवण भारतवर्ष में सन 1930 (नमक सत्याग्रह) से पहले बिल्कुल प्रचलन में नहीं था.
19/09/19, 8:44 am – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad: नहीं
19/09/19, 11:23 am – Shastragyan Abhishek Sharma: This message was deleted
19/09/19, 11:51 am – Abhinandan Sharma: आप लोगों को बता दूं कि सुशांत जी, ISRO में, वैज्ञानिक पद पर प्रतिष्ठित हैं | ये ग्रुप में शायद पिछले १ साल से हैं, लेकिन इनकी पहली टिप्पणी देखकर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ है और मुझे ये भी नहीं पता था कि इन्हें नमक के बारे में इतना पता होगा ! बढ़िया सुशांत भाई 😁
19/09/19, 12:16 pm – Sushant: 🙏🏻. इस अद्भुत ग्रुप की सदस्यता पाकर मैं खुद को गौरवान्वित महसूस करता हूँ. श्री अभिनंदन जी को आभार.
व्यक्तिगत रूप के खुद को धनी कृष्णों के बीच विपन्न सुदामा सरीखा ही पाता हूँ.
ग्रुप में सक्रिय भागीदारी का पुरजोर प्रयास करूंगा.
19/09/19, 12:24 pm – Abhinandan Sharma: 😯😯 इतनी शुद्ध हिंदी !!! घनघोर आश्चर्य सुशांत भाई ! सबको जानकार आश्चर्य होगा कि सुशांत जी की अंग्रेजी बेहतरीन है | मैंने खुद इनको कभी इतनी शुद्ध हिंदी में बात करते हुए नहीं सुना और देखा.. good चेंज यार 👍👍
19/09/19, 12:30 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: वाह, क्या बात है 👌🏼
19/09/19, 12:37 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: 🙏
19/09/19, 12:41 pm – Sushant: 😊 इस मित्रवत हास्य के अल्पविराम को यहीं पूर्ण करना ही बेहतर होगा.
अन्य सदस्य ‘बोर’ हो सकते हैं.
19/09/19, 12:43 pm – Sushant: वैसे भी इस ग्रुप के कठोर नियमों का मैं डरपूर्वक अनुपालन करता हूँ. 🙏🏻
19/09/19, 12:46 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: नियम पालन डरपूर्वक की जगह सहजतापूर्ण हो तो ज्यादा प्रसन्नता होती है सभी को🙏
19/09/19, 12:48 pm – Sushant: 😊
19/09/19, 12:50 pm – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: Ji ha edhar bhi yahi hai 🙏🙏🙏🙏🙏
19/09/19, 1:06 pm – Alok Dwivedi Ghaziabad Shastra Gyan joined using this group’s invite link
19/09/19, 1:08 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: This message was deleted
19/09/19, 1:09 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
श्री मनुस्मृति
तृतीय अध्याय
शूद्रावेदी पतत्यत्रेरुतथ्यतनयस्य च ।
शौनकस्य सुतोत्पत्त्या तदपत्यतया भृगोः । । ३.१६ । ।
शूद्रां शयनं आरोप्य ब्राह्मणो यात्यधोगतिम् ।
जनयित्वा सुतं तस्यां ब्राह्मण्यादेव हीयते । । ३.१७ । ।
दैवपित्र्यातिथेयानि तत्प्रधानानि यस्य तु ।
नाश्नन्ति पितृदेवास्तन्न च स्वर्गं स गच्छति । । ३.१८ ।
*अर्थ*
शूद्र कन्या के साथ विवाह करने वाला ब्राह्मण पतित हो जाता है। यह अत्रि व उतथ्य के पुत्र गौतम ऋषि का मत है।
शौनक ऋषि के मत से क्षत्रिय शूद्र कन्या में सन्तान पैदा करने से पतित होता है।
व भृगु ऋषि मत से शूद्र कन्या से विवाह करने वाले वैश्य के पौत्र हो जाने पर वह पतित होता है।
ब्राह्मण शूद्र स्त्री के संयोग से पतित होता है,व सन्तानोतपत्ति से
ब्राह्मणत्व से हीन हो जाता है।
शूद्रा स्त्री की प्रधानता में देव व पितर श्राद्ध में अन्न का ग्रहण नही करते,और वह पुरुष स्वर्गगामी नहीं होता।।
19/09/19, 1:10 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: हरी ॐ🙏
19/09/19, 1:34 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: This message was deleted
19/09/19, 1:35 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 1 श्लोक 3
द्विषां विघाताय विधातुमिच्छतो रहस्यनुज्ञामधिगम्य भूभृतः ।
स सौष्ठवौदार्यविशेषशालिनीं विनिश्चितार्थामिति वाचमाददे ।। १.३ ।।
अर्थ: एकांत में उस वनवासी किरात ने शत्रुओं का विनाश करने के लिए प्रयत्नशील राजा युधिष्ठिर की आज्ञा प्राप्तकर सरस सुन्दर शब्दों में असन्दिग्ध अर्थ एवं निश्चित प्रमाणों से युक्त वाणी में इस प्रकार से निवेदन किया ।
टिप्पणी: इस श्लोक से यह ध्वनित होता है कि उक्त वनवासी किरात केवल निपुण दूत ही नहीं था, एक अच्छा वक्ता भी था । उसने जो कहा, सुन्दर मनोहर शब्दों में सुस्पष्ट तथा निश्चयपूर्वक कहा । उसकी वाणी में अनिश्चयात्मकता अथवा सन्देह की कहीं गुञ्जाइश नहीं थी । उसके शब्द सुन्दर थे और अर्थ स्पष्ट तथा निश्चित ।
इसमें सौष्ठव और औदार्य – इन दो विशेषणों के साभिप्राय होने के कारण ‘परिकर’ अलङ्कार है, जो ‘पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग’ से अनुप्राणित है। यद्यपि ‘आङ्’ उपसर्ग के साथ ‘दा’ धातु का प्रयोग लेने के अर्थ में ही होता है किन्तु यहाँ पर सन्दर्भानुरोध से कहने के अर्थ में ही समझना चाहिए ।
(किरात को भय है कि कहीं मेरी अप्रिय कटु बातों से राजा युधिष्ठिर अप्रसन्न न हो जाएँ अतः वह सर्वप्रथम क्षमा-याचना के रूप में निवेदन करता है ।)
20/09/19, 4:55 pm – Abhinandan Sharma:
20/09/19, 4:56 pm – Abhinandan Sharma: इस ग्रुप के सभी मेम्बर्स इस कार्यक्रम में सादर आमंत्रित हैं 🙏
20/09/19, 4:58 pm – LE Ravi Parik C Block Pragati Maidan : 🙏🏻
20/09/19, 4:58 pm – Karunakar Tiwari Kanpur Shastra Gyan: 🙏🙏🙏🙏🙏
20/09/19, 6:07 pm – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur: 🙏🏻🙏🏻
20/09/19, 6:16 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: 🙏💐
20/09/19, 6:20 pm – FB Mrudul Tiwari Allahabad Shastra Gyan: 🙏🙏🙏🙏🙏🙏
20/09/19, 6:23 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👍🏼
20/09/19, 6:25 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 1 श्लोक 4
क्रियासु युक्तैर्नृप चारचक्षुषो न वञ्चनीयाः प्रभवोऽनुजीविभिः ।
अतोऽर्हसि क्षन्तुमसाधु साधु वा हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः ।। १.४ ।।
अर्थ: कोई कार्य पूरा करने के लिए नियुक्त किये गए (राज) सेवकों का यह परम कर्त्तव्य है कि वे दूतों की आँखों से ही देखने वाले अपने स्वामी को (झूठी तथा प्रिय बातें बता कर) न ठगें ।
इसलिए मैं जो कुछ भी अप्रिय अथवा प्रिय बातें निवेदन करूँ उन्हें आप क्षमा करेंगे, क्योंकि सुनने में मधुर तथा परिणाम में कल्याण देने वाली वाणी दुर्लभ होती है ।
टिप्पणी: दूत के कथन का तात्पर्य यह है कि मैं अपना कर्तव्य पालन करने के लिए ही आप से कुछ अप्रिय बातें करूँगा, वह चाहे आपको अच्छी लगें या बुरी। अतः कृपा कर उनके कहने के लिए मुझे क्षमा करेंगे क्योंकि मैं अपने कर्तव्य से विवश हूँ।
इस श्लोक में ‘पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग’ अलङ्कार है, जो चतुर्थ चरण में आये हुए अर्थान्तरन्यास अलङ्कार से ससृष्ट है। यहाँ अर्थान्तरन्यास को सामान्य से विशेष के समर्थन रूप में जानना चाहिए।
20/09/19, 8:12 pm – Shastra Gyan Ranjana Prakash: This message was deleted
20/09/19, 8:13 pm – Shastra Gyan Ranjana Prakash: 🙏
20/09/19, 9:26 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक १६३,१६४
नागरं दीपनं वृष्यं ग्राहि हृद्यं विबन्धनुत॥१६३॥
रुच्यं लघु स्वादुपाकं स्निग्धोष्ण कफवातजित्। तद्वदार्रकमेतच्च त्रयं त्रिकटुकं जयेत्॥१६४॥
स्थौल्याग्निसदनश्वासकासश्लीपदपीनसान्।
नागर(सौंठ) के गुण- यह जठराग्नि को प्रदिप्त करता है, वीर्यवर्द्धक है, मल को बांधता है, हृदय के लिए हितकर है।स्रोतो को शुद्ध करता है, रूचिवर्धक, लघु, विपाक मे मधुर, स्निग्ध, उष्ण, कफ तथा वातनाशक है।
आर्द्रक के गुण- सोंठ के समान ही इसके भी गुण होते हैं। ये तीनों (सोंठ, मरिच, पीपल) मिलकर ‘त्रिकटु’ कहलाते हैं। इसी को “कटुत्रय” या “त्रयूषण” भी कहते हैं।
त्रिकटु के गुण- यह स्थूलता(मोटापा), मन्दाग्नि, श्वास, कास, श्लीपद(फीलपांव) तथा पीनस रोगों का विनाश करता है।
20/09/19, 10:55 pm – Sushant: 🙏🏻💐
21/09/19, 1:05 pm – Shastra Gyan Ranjana Prakash: मरिच क्या है?
21/09/19, 2:00 pm – Shastra Gyan Mukesh Mishra Allahabad: मरिच गलती से टाइप हुआ होगा, मिर्च होगा, सम्भवतः काली मिर्च
21/09/19, 2:33 pm – LE Onkar A-608: मरिच गलत नहीं है।
21/09/19, 2:36 pm – Shastra Gyan Mukesh Mishra Allahabad: अच्छा महोदय, सामान्यतः मिर्च ही कहते हैं इसलिये मुझे लगा शायद वही होगा।
21/09/19, 2:41 pm – LE Nisha Ji : 1
21/09/19, 4:42 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 1 श्लोक 5,6,7 और 8
(वंशस्थ छन्द)
स किंसखा साधु न शास्ति योऽधिपं हितान्न यः संशृणुते स किंप्रभुः ।
सदानुकूलेषु हि कुर्वते रतिं नृपेष्वमात्येषु च सर्वसम्पदः ।। १.५ ।।
अर्थ: जो मित्र अथवा मन्त्री राजा को उचित बातों की सलाह नहीं देता वह अधम मित्र अथवा अधम मन्त्री है तथा (इसी प्रकार) जो राजा अपने हितैषी मित्र अथवा मन्त्री की हित की बात नहीं सुनता वह राजा होने योग्य नहीं है । क्योंकि राजा और मन्त्री के परस्पर सर्वदा अनुकूल रहने पर ही उनमें सब प्रकार की समृद्धियाँ अनुरक्त होती हैं ।
टिप्पणी: दूत के कहने का तात्पर्य यह है कि इस समय मैं जो कुछ निर्भय होकर कह रहा हूँ वह आपकी हित-चिन्ता ही से कह रहा हूँ । मेरी बातें ध्यान से सुनें ।
इस श्लोक में कार्य से कारण का समर्थन रूप अर्थान्तरन्यास अलङ्कार है ।
निसर्गदुर्बोधमबोधविक्लवाः क्व भूपतीनां चरितं क्व जन्तवः ।
तवानुभावोऽयमबोधि यन्मया निगूढतत्त्वं नयवर्त्म विद्विषाम् ।। १.६ ।।
अर्थ: स्वभाव से ही दुर्बोध(राजनीतिक रहस्यों से भरा) राजाओं का चरित कहाँ और अज्ञान से बोझिल मुझ जैसा जीव कहाँ ? (दोनों में आकाश पाताल का अन्तर है) । (अतः) शत्रुओं के अत्यन्त गूढ़ रहस्यों से भरी जो कूटनीति की बातें मुझे (कुछ) ज्ञात हो सकी हैं, यह तो (केवल) आपका अनुग्रह है ।
टिप्पणी: दूत की वक्तृत्व कला का यह सुन्दर नमूना है । अपनी नम्रता को वह कितनी सुन्दरता से प्रकट करता है । इस श्लोक में विषम अलङ्कार है ।
विशङ्कमानो भवतः पराभवं नृपासनस्थोऽपि वनाधिवासिनः ।
दुरोदरच्छद्मजितां समीहते नयेन जेतुं जगतीं सुयोधनः ।। १.७ ।।
अर्थ: राज सिंहासन पर बैठा हुआ भी दुर्योधन (राज्याधिकार से च्युत) वन में निवास करनेवाले आप से अपनी पराजय कि आशङ्का रखता है । अतएव जुए द्वारा कपट से जीती हुई पृथ्वी को वह न्यायपूर्ण शासन द्वारा अपने वश में करने कि इच्छा करता है ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि यद्यपि दुर्योधन सर्व-साधन सम्पन्न है और आपके पास कोई साधन नहीं है, फिर भी आप से वह सदा डरा रहता है कि कहीं आपके न्याय-शासन से प्रसन्न जनता आपका साथ न दे दे और आप उसे राजगद्दी से न उतार दें । इसलिए वह यद्यपि जूआ में समूचे राजपाट को आपसे जीत चुका है, फिर भी प्रजा का ह्रदय जीतने के लिए न्यायपरायणता में तत्पर है । वह आपकी ओर से तनिक भी असावधान नहीं है, क्योंकि आप सब को वह वनवासी होने पर भी प्रजावल्लभ होने के कारण अपने से अधिक बलवान समझता है । अतः जनता को अपने प्रति आकृष्ट कर रहा है ।
पदार्थहेतुक काव्यलिंग अलङ्कार
[किस प्रकार की न्याय बुद्धि से वह पृथ्वी को जीतना चाहता है – आगे इसे सुनिए]
तथाऽपि जिह्मः स भवज्जिगीषया तनोति शुभ्रं गुणसम्पदा यशः ।
समुन्नयन्भूतिमनार्यसंगमाद्वरं विरोधोऽपि समं महात्मभिः ।। १.८ ।।
अर्थ: आप से सशङ्कित होकर भी वह कुटिल प्रकृति दुर्योधन आप को पराजित करने की अभिलाषा से दान-दाक्षिण्यादि सद्गुणों से अपने निर्मल यश का(उत्तरोत्तर) विस्तार कर रहा है क्योंकि नीच लोगों के सम्पर्क से वैभव प्राप्त करने की अपेक्षा सज्जनो से विरोध प्राप्त करना भी अच्छा ही होता है ।
टिप्पणी: सज्जनों का विरोध दुष्टों की सङ्गति से इसलिए अच्छा होता है क्योंकि सज्जनों के साथ विरोध करने से और कुछ नहीं तो उनकी देखा-देखी स्पर्धा में उनके गुणों की प्राप्ति के लिए चेष्टा करने की प्रेरणा तो होती ही है । जब कि दुष्टों की सङ्गति तात्कालिक लाभ के साथ ही दुर्गति का कारण बनती है । क्योंकि दुष्टों की सङ्गति से बुरे गुणों का अभ्यास बढ़ेगा, जो स्वयं दुर्गति के द्वार हैं ।
इस श्लोक में सामान्य से विशेष का समर्थन रूप अर्थान्तरन्यास अलङ्कार है, जो पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग से अनुप्राणित है ।
22/09/19, 9:34 am – Abhinandan Sharma: धन्यवाद सुधाकर जी, सिद्धांत बिंदु को पूरा करने के लिये । इस प्रकार हमने शंकराचार्य जी की एक और कृति पढ़ ली । आपके इस कार्य के लिये आपका पुनः धन्यवाद ।🙏
22/09/19, 9:37 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙏🏼🙏🏼
22/09/19, 9:38 am – Abhinandan Sharma: ग्रुप में शंकराचार्य कृत गुरुस्तव कौन प्रारम्भ कर सकता है ? Any volunteer !
22/09/19, 9:41 am – Abhinandan Sharma: इस कथा से पहले की कथा (अर्जुन और चित्रांगदा का विवाह भी अभी शेयर करता हूँ पर यहाँ अर्जुन की मृत्यु डिटेल में है ।
https://hi.krishnakosh.org/%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3/%E0%A4%85%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%A8_%E0%A4%94%E0%A4%B0_%E0%A4%AC%E0%A4%AD%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%A8_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%AF%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%A7_%E0%A4%8F%E0%A4%B5%E0%A4%82_%E0%A4%85%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%A8_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%81
22/09/19, 9:43 am – Abhinandan Sharma: अर्जुन और चित्रांगदा की कहानी शार्ट में
http://hi.krishnakosh.org/%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3/%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%A6%E0%A4%BE
22/09/19, 9:45 am – Abhinandan Sharma: 🧐🧐 ऐसा क्या !!! कोई हरड़ लाओ रे ! बब्बा रामदेव का यहां मिलेगी क्या ?
22/09/19, 10:03 am – FB Rajesh Kr Mishra Sapt: नोएडा सेक्टर 61 में त्रिफला पार्क में सैकड़ों पेड़ लगे हैं। बटोर ले जाइए।
22/09/19, 10:24 am – G B Malik Delhi Shastra Gyan: अभिनंदन जी, आपके हाथरस से बढ़िया हींग भला कहाँ मिल सकती है 🙏🏻
22/09/19, 10:38 am – Shastr Gyan Pranav Dvivedi Lucknow: हींग और हरड़ अलग होती है शायद
22/09/19, 11:05 am – Shastra Gyan Kartik: ✋
22/09/19, 11:33 am – Abhinandan Sharma: बढ़िया ।
22/09/19, 11:34 am – Shastra Gyan Kartik: Pdf फ़ाइल है तो दे दीजिये, आज से ही श्री गणेश कर देते है
22/09/19, 11:37 am – Abhinandan Sharma: गूगलाइये
22/09/19, 1:06 pm – Vaidya Ashish Kumar: ✅✅
22/09/19, 1:06 pm – Vaidya Ashish Kumar: 👌🏻👌🏻🌹🌹
22/09/19, 3:15 pm – LE Onkar A-608: मरिचादि तेल का घटक मरिच क्या है?
अनेक स्थानों पर बचपन से मिर्च और मरिच सुनता पढ़ता आ रहा हूँ।
22/09/19, 5:12 pm – Shastra Gyan Kartik: या तो गूगल बाबा समझ नी पा रहे मैं क्या मांग कर रहा हु या फिर उनके पास है नहीं जो मुझे चाहिए 🤔
22/09/19, 5:30 pm – Abhinandan Sharma: ततः किं, ततः किम टाइप कोजिये
22/09/19, 5:42 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ततः किं, ततः किम
22/09/19, 5:50 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: ततः किं, ततः किम्
22/09/19, 5:50 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: अब ये क्या पहेली है?
22/09/19, 5:57 pm – Abhinandan Sharma: गूगल पर टाइप कीजिये इसे
22/09/19, 5:57 pm – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: गुरु अष्टकम् ही न ???
आद्य शंकराचार्य कृत
22/09/19, 5:59 pm – Abhinandan Sharma: कुछ लोग इसे गुरु स्तव बोलते हैं ।
22/09/19, 6:00 pm – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: अच्छा जी
22/09/19, 6:04 pm – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: गूगल कर के भेज दिया हूँ
22/09/19, 7:07 pm – Shastra Gyan Kartik: धन्यवाद 🙏
22/09/19, 9:53 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 1 श्लोक 9, 10
(वंशस्थ छन्द)
कृतारिषड्वर्गजयेन मानवीमगम्यरूपां पदवीं प्रपित्सुना ।
विभज्य नक्तंदिवमस्ततन्द्रिणा वितन्यते तेन नयेन पौरुषम् ।। १.९ ।।
अर्थ: (वह दुर्योधन) काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद एवं अहङ्कार रूप प्राणियों के छहों शत्रुओं को जीतकर, अत्यन्त दुर्गम मनु आदि नीतिज्ञों की बनाई हुई शासन-पद्धति पर कार्य करने की लालसा से आलस्य को दूर भागकर, रात-दिन के समय को प्रत्येक काम के लिए अलग-अलग करके, नैतिक शक्ति द्वारा अपने पुरुषार्थ को सबल बना रहा है ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि दुर्योधन अब वही जुआरी और आलसी दुर्योधन नहीं रह गया है। उसने छहों दुर्गुणों को दूर करके स्वयम्भुव मनु के दुर्गम आदर्शों के अनुरूप अपने को राजा बना लिया है । उसमें आलस्य तो तनिक भी नहीं रह गया है । दिन और रात – सब में उसके पृथक-पृथक कार्य नियत हैं। उसके पराक्रम को नैतिक शक्ति का बल मिल गया है और इस प्रकार वह दुर्जेय बन गया है ।
परिकर अलङ्कार ।
सखीनिव प्रीतियुजोऽनुजीविनः समानमानान्सुहृदश्च बन्धुभिः ।
स सन्ततं दर्शयते गतस्मयः कृताधिपत्यामिव साधु बन्धुताम् ।। १.१० ।।
अर्थ: वह दुर्योधन अब निरहङ्कार होकर सर्वदा निष्कपट भाव से सेवा करने वाले सेवकों को प्रीतिपात्र मित्रों की तरह मानता है। मित्रों को निजी कुटुम्बियों की तरह सम्मानित करता है तथा अपने कुटुम्बियों को राज्याधिकारी की भांति आदर देता है।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि उसमें अब वह पूर्व अभिमान नहीं है। यह अत्यन्त उदार ह्रदय बन गया है। उसने पूरे राज्य में बन्धुता का विस्तार कर दिया है, उसका यह व्यवहार सदा-सर्वथा रहता है, दिखावट कि गुंजाइश नहीं है। और उसके इस व्यवहार से सब लोग सन्तुष्ट होते हैं। वह ऐसा करके यह दिखाना चाहता है कि मुझमें अहङ्कार का लेश नहीं है।
22/09/19, 9:56 pm – +91 : न धर्मनिष्ठोऽस्मि न चात्मवेदी,
न भक्तिमांस्त्वच्चरणारविन्दे।
अकिञ्चनोऽनन्यगतिश्शरण्यं,
त्वत्पादमूलं शरणं प्रपद्ये ।।
भावार्थ : हे शरणागत प्रतिपालक ! मैँ धर्म मेँ निष्ठा रखने वाला नहीँ हूँ , आत्मज्ञानी भी नहीँ हूँ तथा आपके श्रीचरणोँ मेँ पूर्ण एवं अनन्य भक्तिभावा भी नहीँ हूँ । मै सव प्रकार के मोक्ष साधनोँ से शून्य अतएव अकिञ्चन हूँ। मेरी रक्षा करने वाला कोई दूसरा नहीँ अपितु एकमात्र आप ही हैँ , अतएव मैँ अनन्यगति हूँ और इसी कारण से मैँ आपके श्रीचरणकमलो के मूल मेँ ही शरण ग्रहण करता हूँ ।।
न निन्दितं कर्म तदस्ति लोके,
सहस्रशो यन्न मया व्यधायि।
सोऽहं विपाकावसरे मुकुन्दः ,
क्रन्दामि सम्प्रत्यगतिस्तवाग्रे ।।
भावार्थ : हे भोग एवं मोक्ष को प्रदान करनेवाले मुकुन्द ! संसार मेँ ऐसा कोई निन्दित कर्म नहीँ बचा है जिसे मैँने हजारो बार नही किए हैँ । ऐसे भयंकर महान पापोँ को करने वाला मैँ अब जब समस्त कृत पाप पककर फल देने की अवस्था मेँ पहुँच गये हैँ तब दुःखो से अपनी रक्षा हेतु अन्य को रक्षक न पाकर आपके सामने रो रहा हूँ ।।
श्रीमद्स्वामी श्रीयामुनाचार्य जी <
23/09/19, 3:29 am – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad: This message was deleted
23/09/19, 3:38 am – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad: महामरिच्यादि तैल के घटक द्रव्यों में से मरिच (काली मिर्च) एक घटक द्रव्य हैै.
23/09/19, 3:43 am – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad: आयुर्वेद की पुस्तकों में मरिच लिखा रहने पर काली मरिच ही समझना चाहिए, जहां दोनों मरिच हों, वहां सफेद गोल मरिच व काली गोल मरिच समझना चाहिए.
23/09/19, 5:56 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 1 श्लोक 11, 12
(वंशस्थ छन्द)
असक्तमाराधयतो यथायथं विभज्य भक्त्या समपक्षपातया ।
गुणानुरागादिव सख्यमीयिवान्न बाधतेऽस्य त्रिगणः परस्परम् ।। १.११ ।।
अर्थ: यथोचित विभाग कर, किसी के साथ कोई विशेष पक्षपात न करके वह दुर्योधन अनासक्त भाव से धर्म, अर्थ और काम का सेवन करता है, जिससे ये तीनों भी उसके (स्पृहणीय) गुणों से अनुरक्त होकर उसके मित्र-से बन गए हैं और परस्पर उनका विरोध भाव नहीं रह गया है ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि दुर्योधन धर्म, अर्थ, काम का ठीक-ठीक विभाग कर प्रत्येक का इस प्रकार आचरण करता है कि किसी में आसक्त नहीं मालूम पड़ता। सब का समय नियत है, किसी से कोई पक्षपात नहीं है। उसके गुणों पर ये तीनो भी रीझ उठे हैं। यद्यपि ये परस्पर विरोधी हैं, तथापि उसके लिए इनमें मित्रता हो गयी है और प्रतिदिन इनकी वृद्धि हो रही है।
वाच्योतप्रेक्षा अलङ्कार
निरत्ययं साम न दानवर्जितं न भूरि दानं विरहय्य सत्क्रियां ।
प्रवर्तते तस्य विशेषशालिनी गुणानुरोधेन विना न सत्क्रिया ।। १.१२ ।।
अर्थ: उस दुर्योधन कि निष्कपट साम नीति दान के बिना नहीं प्रवर्तित होती तथा प्रचुर दान सत्कार के बिना नहीं होता और उसका अतिशय सत्कार भी बिना विशेष गन के नहीं होता। (अर्थात वह अतिशय सत्कार भी विशेष गुनी तथा योग्य व्यक्तियों का ही करता है। )
टिप्पणी: राजनीति में चार नीति कही गयी हैं – साम, दाम, दण्ड और भेद । दुर्योधन इन चारों उपायों को बड़ी निपुणता से प्रयोग करता है। अपने से बड़े शत्रु को वह प्रचुर धन देकर मिला लेता है। उसका देना भी सम्मानपूर्वक होता है अर्थात धन और सम्मान दोनों के साथ साम-नीति का प्रयोग करता है किन्तु इसमें यह भी नहीं समझना चाहिए कि वह ऐरे-गैरे सभी लोगों को इस प्रकार धन-सम्मान देता है। नहीं, केवल गुणियों को ही, सब को नहीं। पूर्ववर्ती विशेषणों से परवर्ती वाक्यों की स्थापना के कारण एकावली अलङ्कार इस श्लोक में है।
[आगे दुर्योधन की दण्ड-नीति का प्रकार कवि बतला रहा है। ]
23/09/19, 8:55 pm – Shastra Gyan Kartik: शंकराचार्य कृत गुरूत्सव
श्लोक 1-2
शरीरं सुरुपं तथा वा कलत्रं
यशश्चारू चित्रं धनं मेरुतुल्यम् ।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 1 ॥
कलत्रं धनं पुत्रपौत्रादि सर्वं
गृहं बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम् ।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 2 ॥
अर्थ – 1 ॥ यदि शरीर रुपवान हो, पत्नी भी रूपसी हो और सत्कीर्ति चारों दिशाओं में विस्तरित हो, मेरु पर्वत के तुल्य अपार धन हो, किंतु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इन सारी उपलब्धियों से क्या लाभ?
2 ॥ सुन्दरी पत्नी, धन, पुत्र-पौत्र, घर एवं स्वजन आदि प्रारब्ध से सर्व सुलभ हो किंतु गुरु के श्रीचरणों में मन की आसक्ति न हो तो इस प्रारब्ध-सुख से क्या लाभ?
23/09/19, 10:48 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक १६५,१६६
चाविकापिप्पलीमूलं मारिचाल्पान्तरं गुणैः॥१६५॥
चित्रकोऽग्निसमः पाके शोफार्शःकृमिकुष्ठहा। पञ्चकोलकमेतच्च मरिचेन विना स्मृतम्॥१६६॥
गुल्मप्लीहोदरानाहशूलघ्नं दीपनं परम्।
चव्य तथा पीपलामूल के गुण- चव्य तथा पीपलामूल ये दोनों द्रव्य गुणों में मरिच के गुणों से कुछ ही कम है अर्थात लगमग वैसे ही गुणों वाले होते हैं।
चित्रक के गुण- चित्रक के जड़ की छाल पाक में अग्नि के समान है। यह शोफ(सूजन), अर्श(बवासीर), क्रिमिरोग तथा कुष्ठरोग का विनाश करती है।
पञ्चकोल के गुण- यह “पञ्चकोल” के संयोग के बिना ही माना गया है अर्थात इस योग में— पीपल, सोंठ, चव्य, पीपलामूल और चीता की छाल ये पांच द्रव्य है। यह गुल्म, प्लीहारोग, उदररोग, आनाह(आफरा) तथा शूलरोगों का विनाशक है और उत्तम अग्निदीपक है।
वक्तव्य- श्लोक १६१ से १६६ तक में वर्णित द्रव्यों मे से मरिच को छोड़कर शेष कहे गए द्रव्यों का नाम “पञ्चकोल” है। क्योंकि इस योग में इन द्रव्यों की मात्रा १-१ कोल(आधा-आधा तोला) होती है। इस पञ्चकोल में यदि मरिच का संयोग कर दिया जाता है, तो इसे “षडूषण” कहते हैं अर्थात छह उष्ण द्रव्यों का योग।
24/09/19, 10:38 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक १६७,१६८
बिल्बकाश्मर्यतर्कारीपाटलाटिण्टुकैर्महत्॥१६७॥
जयेत्कषायतिक्तोष्णं पञ्चमूलं कफानिलौ। ह्रस्वं बृहत्यंशुमतीद्वयगोक्षुरकैः स्मृतम्॥१६८॥
स्वादुपाकरसं नातिशीतोष्णं सर्वदोषजित्।
बृहत्पञ्चमूल के योग- बेल की गिरी, गम्भार, अरणी, पाढ़ल और सोनापाठा की छाल— इन पांच द्रव्यो के योग का नाम “बृहतपञ्चमूल” है। यह रस में काषाय, तिक्त तथा उष्णवीर्य होता है। यह कफ एवं वात विकारों का विनाशक होता है।
लघुपञ्चमूल के गुण- वनभण्टा, कण्टकारी, शालपर्णी, पृश्निपर्णी एवं गोखरू — इस योग को लघुपञ्चमूल कहते हैं। यह विपाक एवं रस में मधुर, समशीतोष्ण तथा सभी दोषों का शामक है।
25/09/19, 6:37 am – Shastra Gyan Kartik: शंकराचार्य कृत गुरूत्सव
श्लोक 3-4
षडंगादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या
कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति ।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 3 ॥
विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यः
सदाचारवृत्तेषु मत्तो न चान्यः ।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 4 ॥
अर्थ – 3 ॥ वेद एवं षटवेदांगादि शास्त्र जिन्हें कंठस्थ हों, जिनमें सुन्दर काव्य-निर्माण की प्रतिभा हो, किंतु उसका मन यदि गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो इन सदगुणों से क्या लाभ?
4 ॥ जिन्हें विदेशों में समादर मिलता हो, अपने देश में जिनका नित्य जय-जयकार से स्वागत किया जाता हो और जो सदाचार-पालन में भी अनन्य स्थान रखता हो, यदि उसका भी मन गुरु के श्रीचरणों के प्रति अनासक्त हो तो इन सदगुणों से क्या लाभ?
25/09/19, 6:59 am – LE Ravi Parik C Block Pragati Maidan : कृपया गुरु पे प्रकाश डाले। कोन गुरु
25/09/19, 7:00 am – LE Ravi Parik C Block Pragati Maidan : बहुत ही सुंदर काव्य। 🙏🏻😊🕉
25/09/19, 7:32 am – Abhinandan Sharma: महोदय, कृपया इसे गुरुस्तव कर लें !
25/09/19, 7:33 am – Abhinandan Sharma: गुरु के बारे में कुछ भी कहना, कम ही होता है | फिर भी तीन लिंक दे रहा हूँ, इनको अच्छे से पढ़ें, आपको गुरु के बारे में ज्ञात हो जाएगा | (शोर्ट में पढने के लिए, आप अघोरी बाबा की गीता भी पढ़ सकते हैं, सोसाइटी लाइब्रेरी में )
https://www.ptbn.in/%e0%a4%b8%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%97%e0%a5%81%e0%a4%b0%e0%a5%81-%e0%a4%95%e0%a5%8c%e0%a4%a8-%e0%a4%b9%e0%a5%88-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%97%e0%a5%81%e0%a4%b0%e0%a5%81-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%86/
25/09/19, 7:34 am – Abhinandan Sharma: https://www.ptbn.in/%e0%a4%b8%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%97%e0%a5%81%e0%a4%b0%e0%a5%81-%e0%a4%95%e0%a5%8c%e0%a4%a8-%e0%a4%b9%e0%a5%88-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%97%e0%a5%81%e0%a4%b0%e0%a5%81-%e0%a4%95%e0%a4%bf-%e0%a4%86/
25/09/19, 7:34 am – Abhinandan Sharma: https://www.ptbn.in/%e0%a4%b8%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%97%e0%a5%81%e0%a4%b0%e0%a5%81-%e0%a4%95%e0%a5%8c%e0%a4%a8-%e0%a4%b9%e0%a5%88-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%97%e0%a5%81%e0%a4%b0%e0%a5%81-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%86-2/
25/09/19, 7:46 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: This message was deleted
25/09/19, 8:14 am – LE Ravi Parik C Block Pragati Maidan C1107: 👍🙏🏻
25/09/19, 8:23 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 1 श्लोक 13, 14
वसूनि वाञ्छन्न वशी न मन्युना स्वधर्म इत्येव निवृत्तकारणः ।
गुरूपदिष्टेन रिपौ सुतेऽपि वा निहन्ति दण्डेन स धर्मविप्लवं ।। १.१३ ।।
अर्थ: इन्द्रियों को वश में रखनेवाला वह दुर्योधन न तो धन के लोभ से और न क्रोध से (ही किसी को दण्ड देता है) अपितु लोभादि कारणों से रहित होकर, इसे अपना ( राजा का ) धर्म समझ कर ही वह अपने गुरु द्वारा उपदिष्ट ( शास्त्र सम्मत ) दण्ड का प्रयोग करके शत्रु हो या अपना निज का पुत्र हो, अधर्म का उपशमन करता है ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि वह दण्ड देने में भी पक्षपात नहीं करता । न तो किसी को धन-सम्पत्ति या राज्य पाने के लोभ से दण्ड देता है और न किसी को क्रोधित होने पर । बल्कि दण्ड देने में वह अपना एक धर्म समझता है । शास्त्रों के अनुसार जिसको जिस किसी अपराध का दण्ड उचित है वही वह देगा । दण्डनीय चाहे शत्रु हो या अपना ही पुत्र क्यों न हो । दुष्ट ही उनके शत्रु हैं और शिष्ट ही उसके मित्र हैं ।
पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।
[ अब आगे दुर्योधन कि भेदनीति का वर्णन है । ]
विधाय रक्षान्परितः परेतरानशङ्किताकारमुपैति शङ्कितः ।
क्रियापवर्गेष्वनुजीविसात्कृताः कृतज्ञतामस्य वदन्ति सम्पदः ।। १.१४ ।।
अर्थ: सर्वदा अशुद्ध चित्त रहने वाला वह दुर्योधन सर्वत्र चारों ओर अपने आत्मीय जनों को रक्षक नियुक्त करके अपने को सब का विश्वास करने वाला प्रदर्शित करता है । कार्यों की सफल समाप्ति पर राज-सेवकों को पुरस्कार रूप में प्रदान की गयी धन-सम्पत्ति उसको कृतज्ञता की सूचना देती हैं ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि दुर्योधन ने राज्य के सभी उच्च पदों पर अपने आत्मीय जनों को नियुक्त कर रखा है तथापि वह सर्वदा सशंक रहता है और प्रकट में ऐसा व्यवहार करता है मानो सब का विश्वास करता है । किसी भी कर्मचारी को वह यह ध्यान नहीं आने देता कि वह राजा का विश्वासपात्र नहीं है । यही नहीं, जब कभी उसका कोई कार्य सफल समाप्त होता है तब वह उसमें लगे हुए कर्मचारियों को प्रचुर धन-सम्पत्ति पुरस्कार रूप में देता है । वही धन-सम्पत्तियाँ ही उसकी कृतज्ञता का सुन्दर विज्ञापन करती हैं । इस प्रकार के कृतज्ञ एवं उपकारी राजा में सेवकों कि सच्ची भक्ति होना स्वाभाविक ही है ।
पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।
25/09/19, 9:06 pm – Poonam Goyal Delhi Artist Shastra Gyan: बिल्कुल सही!!!
यह सत्य को दर्शाता है।👌
25/09/19, 10:12 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 1 श्लोक 15, 16, 17, 18
अनारतं तेन पदेषु लम्भिता विभज्य सम्यग्विनियोगसत्क्रियाम् ।
फलन्त्युपायाः परिबृंहितायतीरुपेत्य संघर्षमिवार्थसम्पदः ।। १.१५ ।।
अर्थ: उस दुर्योधन द्वारा भलीभांति, समझ-बूझकर यथायोग्य पात्र में प्रयोग किये जाने से सत्कृत साम, दाम, दण्ड और भेद – ये चारों उपाय, एक दुसरे से परस्पर स्पर्धा करते हुए – से उत्तरोत्तर बढ़ने वाली धन-सम्पत्ति एवं ऐश्वर्य राशि को सर्वदा उत्पन्न किया करते हैं ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि दुर्योधन साम दामादि नीतियों का यथायोग्य पात्र में खूब समझ-बूझकर प्रयोग करता है और इससे उत्तरोत्तर उसकी अचल धन-सम्पत्ति एवं ऐश्वर्य की वृद्धि होती चली जा रही है ।
अनेकराजन्यरथाश्वसंकुलं तदीयमास्थाननिकेतनाजिरं ।
नयत्ययुग्मच्छदगन्धिरार्द्रतां भृशं नृपोपायनदन्तिनां मदः ।। १.१६ ।।
अर्थ: छितवन (सप्तपर्ण) के पुष्प की सुगन्ध के समान गन्ध वाले राजाओं द्वारा भेंट में दिए गए हाथियों के मद जल, अनेक राजाओं के रथी और घोड़ों से भरे हुए उसके (दुर्योधन के) सभा-भवन के प्रांगण को अत्यन्त गीला बनाये रखते हैं ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि दुर्योधन की सभा में देश-देशान्तर के राजा सर्वदा जुटे रहते हैं और उनके रथों, घोड़ों और हाथियों की भीड़ से उसके सभाभवन का प्रांगण गीला बना रहता है । अर्थात उसका प्रभाव अब बहुत बढ़ गया है ।
उदात्त अलङ्कार
सुखेन लभ्या दधतः कृषीवलैरकृष्टपच्या इव सस्यसम्पदः ।
वितन्वति क्षेममदेवमातृकाश्चिराय तस्मिन्कुरवश्चकासति ।। १.१७ ।।
अर्थ: चिरकाल से प्रजा के कल्याण के लिए यत्नशील उस राजा दुर्योधन के कारण नदी और नहरों आदि की सिंचाई की सुविधा से समन्वित कुरुप्रदेश की भूमि मानो वहां के किसानों के बिना अधिक परिश्रम उठाये ही बड़ी सुविधा के साथ स्वयं प्राप्त होने वाले अन्नों की समृद्धि से सुशोभित हो रही है ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि दुर्योधन केवल राजनीती पर ही ध्यान नहीं दे रहा है, वह प्रजा की समृद्धि को भी बढ़ा रहा है । उसने समूचे कुरु-प्रदेश को अब वर्षा के जल पर ही नहीं निर्भर रहने दिया है, नहरों व कुओं से सिंचाई की सुविधा कर दी है । समूचा कुरु-प्रदेश धन-धान्य से भरा-पूरा हो गया है ।
उत्प्रेक्षा अलङ्कार
महौजसो मानधना धनार्चिता धनुर्भृतः संयति लब्धकीर्तयः ।
न संहतास्तस्य न भेदवृत्तयः प्रियाणि वाञ्छन्त्यसुभिः समीहितुम् ।। १.१८ ।।
अर्थ: महाबलशाली, अपने कुल एवं शील का स्वाभिमान रखनेवाले, धन-सम्पत्ति द्वारा सत्कृत, युद्धभूमि में कीर्ति प्राप्त करनेवाले, परोपकार परायण तथा एक कार्य में सब के सब लगे रहने वाले धनुर्धारी शूरवीर उस दुर्योधन को अपने प्राणों से ( भी ) प्रिय करने की अभिलाषा रखते हैं ।
टिप्पणी: धनुर्धारियों के सभी विशेषणों के साभिप्राय होने से परिकर तथा पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार की ससृष्टि इस श्लोक में है ।
25/09/19, 11:05 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक १६९,१७०, १७१, १७२
बलापुनर्नवैरण्डशूर्पपर्णीद्वयेन तु॥१६९॥
मध्यमं कफवातघ्नं नातिपित्तकरं सरम्। अभीरूवीराजीवन्तीजीवकर्षभकैः स्मृतम्॥१७०॥
जीवनाख्यं तु चक्षुष्यं वृष्यं पित्तानिलापहम्। तृणाख्यं पित्तजिद्दर्भकासेक्षुशरशालिभिः॥१७१॥
*इत्यौषधवर्गः।*
मध्यमपञ्चमूल के गुण- बला, पुनर्नवा, रेड़ की जड़, माषपर्णी और मुद्गपर्णी—इन पांच द्रव्यो के योग का नाम मध्यमपञ्चमूल है। यह कफ तथा वात दोष का नाशक तथा सर होता है। यह अधिक पित्तकारक नहीं होता है।
जीवनपञ्चमूल के गुण- शतावरी, मेदा, जीवन्ती, जीवक और ऋषभक— इन द्रव्यों के योग का नाम जीवनपञ्चमूल है। यह आंखों के लिए हितकर, वीर्यवर्द्धक, पित्तदोष तथा वातदोष का शमन करता है।
तृणपञ्चमूल के गुण- दर्भ (डाभ या कुश), कास (कांस), ईख की जड़, शर (सरपत) और शालिधान्यों की जड़— इनके योग का नाम तृणपञ्चमूल है। यह पित्तशामक होता है।
वक्तव्य- अष्टाङ्गसंग्रह में दो पञ्चमूलो का संग्रह और मिलता है। यथा— वल्लीपञ्चमूल- मेढासिंगी, हल्दी, विदारीकन्द, सारिवा तथा गिलोय। दूसरा है कण्टकपञ्चमूल — गोखरू, शतावरी, कटसरैया, अहींस तथा करौंदा। देखें— अ.स.सू. १२/६१-६२।
शूकशिम्बीजपक्वान्नमांसशाकफलौषधैः। वर्गितैरन्नलेशोऽयमुक्तो नित्योपयोगिकः॥१७२॥
उपसंहार- १.शुकधान्यवर्ग, २.शिम्बीधान्यवर्ग, ३.पक्वान्नवर्ग, ४.मांसवर्ग, ५. शाकवर्ग, ६.फलवर्ग और ७. औषधवर्ग—इस प्रकार के वर्गीकरण द्वारा आहारद्रव्यों का लेशमात्र (अत्यन्त उपयोगी द्रव्यों का) वर्णन यहां कर दिया गया है।
वक्तव्य- उक्त वर्गो के बीच बीच में कुछ अन्य वर्गों का भी वर्णन इस अध्याय में हुआ है। यथा— फलवर्ग के अन्त में लवणवर्ग, इसके बाद ही ‘हिंगु’ का वर्णन संहिताकार ने किया है। प्राचीन निघण्टु ग्रन्थों मे द्रव्यों का वर्गीकरण स्वतन्त्र रूप से देखा जाता है।
इति श्रीवैद्यपतिसिंहगुप्तसूनुश्रीमद्वाग्भटविरचितायामष्टाङ्गहृदयसंहितायां प्रथमे सूत्रस्थानेऽन्नस्वरूपविज्ञानीयो नाम षष्ठोऽध्यायः॥६॥
26/09/19, 8:51 am – Shastra Gyan Ranjana Prakash: 🤚🏻
26/09/19, 9:07 am – Abhinandan Sharma: वाह, क्या बात कही है । सज्जनों का विरोध भी, दुष्टों की संगत से अच्छा होता है ।
26/09/19, 9:09 am – Abhinandan Sharma: 🙏🙏
26/09/19, 9:12 am – Abhinandan Sharma: You deleted this message
26/09/19, 9:17 am – Abhinandan Sharma:
26/09/19, 9:19 am – Abhinandan Sharma:
26/09/19, 9:22 am – Abhinandan Sharma: अब आएगा मजा ।
26/09/19, 10:06 am – Pravin Jodhpur Shastra Gyan left
26/09/19, 1:39 pm – Abhinandan Sharma: इस ग्रुप के बहुत से सदस्यों के शहर मुझे ज्ञात नहीं हैं । कृपया जी लोग दिल्ली, गाजियाबाद, नोएडा, हाथरस, अलीगढ़, मथुरा और आगरा से हैं, कृपया अपना नाम और शहर कन्फर्म करें 🙏
26/09/19, 1:44 pm – Vikas Paliwal Delhi Shastra Gyan: विकास पालीवाल, गांव है इगलास के पास अलीगढ़ जिले में, अभी दिल्ली में रह रहा हूँ राजनगर नियर द्वारका
26/09/19, 1:44 pm – Ghaziabad Shastra Gyan Pushpa: Mrs.Pushpa,GhZiabad
26/09/19, 1:44 pm – Ghaziabad Shastra Gyan Pushpa: Indirapuram
26/09/19, 1:52 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: 🙏🏻🙏🏻Aniket Gupta
Uttar Pradesh
Gorkhpur
26/09/19, 1:55 pm – Anuj Kolkata Shastra Gyan: Anuj from kolkata
26/09/19, 2:17 pm – Siddharth Dwivedi Delhi Shastra Gyan: Siddharth Dwivedi ,New Delhi
26/09/19, 3:11 pm – Arpit Pandey Lucknow Shastra Gyan: अर्पित पांडेय
जिला:- लखनऊ
26/09/19, 3:23 pm – Hem Singh Jaipur Shastra Gyan: Hem Singh Hada
Jaipur
26/09/19, 3:56 pm – Sachin Tyagi Shastra Gyan left
26/09/19, 3:33 pm – Akhileshwar Gupta Shahjahanpur Shastra Gyan: अखिलेश्वर नाथ गुप्त, शाहजहांपुर उ०प्र०
26/09/19, 4:05 pm – Happy Singh Banaras Shatra Gyan joined using this group’s invite link
26/09/19, 3:34 pm – Manvendra Singh Bilaspur: कुँवर मानवेन्द्रसिंह , अस्थायी पता : मेट्रो कालोनी शास्त्री पार्क नई दिल्ली 8अक्टूबर 2019 तक
26/09/19, 3:41 pm – G B Malik Delhi Shastra Gyan: गुलबहार मलिक,
भागीरथी विहार – 2,
दिल्ली – 110094
26/09/19, 3:43 pm – Kamleshwar Yadav Nainesh San: Kamleshwar Yadav
Ahmebad, Gujarat.
26/09/19, 3:43 pm – +91: नरेंद्र तिवारी
रीवा-मध्य प्रदेश
26/09/19, 3:43 pm – Shastra Gyan Vikas Sharma Ravi Ca Ref: Vikas Sharma
Halwai Khana
Hathras
26/09/19, 3:47 pm – +91 : Devsharan Mishra nizampur badaun
26/09/19, 4:10 pm – +91 joined using this group’s invite link
26/09/19, 3:48 pm – +91 : Kolhapur🙏🏻
26/09/19, 3:55 pm – LE Sandeep Srivastava : Sandeep Srivastava New Delhi
26/09/19, 3:57 pm – Abhishek Lucknow Shastra Gyan: अभिषेक, उन्नाव/लखनऊ
26/09/19, 4:12 pm – Abhinandan Sharma: नाम ?
26/09/19, 4:12 pm – Nikhil Gupta Delhi Shastra Gyan: Nikhil / delhi
26/09/19, 4:13 pm – Kumar Gaurav Delhi Shastra Gyan joined using this group’s invite link
26/09/19, 4:13 pm – +91 : मणिकांत दुबे
गोरखपुर
उप्र.
26/09/19, 4:13 pm – +91 : 🙏🙏
26/09/19, 4:14 pm – Happy Singh Banaras Shatra Gyan: Happy singh
26/09/19, 4:14 pm – Happy Singh Banaras Shatra Gyan: BHU varanshi
26/09/19, 4:14 pm – Kumar Gaurav Delhi Shastra Gyan: Kumar gaurav
Delhi
26/09/19, 4:16 pm – +91 : Pankaj Panda
Thane
26/09/19, 4:19 pm – +91 joined using this group’s invite link
26/09/19, 4:19 pm – +91 : Rushi joshi
Surat ,gujrat.
26/09/19, 4:21 pm – Kundali Dipesh Rajauriya joined using this group’s invite link
26/09/19, 4:21 pm – Kundali Dipesh Rajauriya: दीपेश जैरिया
इंदौर
26/09/19, 4:26 pm – +91 joined using this group’s invite link
26/09/19, 4:30 pm – +91 : Arun Zinjurde
Beed Maharashtra
26/09/19, 4:30 pm – +91 : https://chat.whatsapp.com/1WUwAUAIxFEHfO3rDZwW8R
26/09/19, 4:31 pm – Abhinandan Sharma: श्रीमान, आते ही विज्ञापन 😁
26/09/19, 4:31 pm – FB Rajesh Kr Mishra Sapt: राजेशकुमारमिश्रोsहं ग्रेटरनोएडावास्तव्यः सर्वे यथायोग्यमभिवादनं स्वीकुर्वन्तु।
26/09/19, 4:31 pm – +91 : 🤪
26/09/19, 4:31 pm – Vivek Tripathi Allahabad Shastra Gyan joined using this group’s invite link
26/09/19, 4:32 pm – Lokesh Bharti Udaypur FB joined using this group’s invite link
26/09/19, 4:32 pm – Lokesh Bharti Udaypur FB: 🙏🏻
26/09/19, 4:33 pm – Vivek Tripathi Allahabad Shastra Gyan: विवेक त्रिपाठी
प्रयागराज, उ0 प्र0
26/09/19, 4:35 pm – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad: उमाशंकर प्रसाद
वैद्यनाथ देवघर
झारखंड
26/09/19, 4:37 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: सभी नए सदस्यों से अनुरोध
इस ग्रुप में फ़ॉर्वर्डेड पोस्ट डालना मना है | नेट से कोई भी कंटेंट, ख़ास तौर से बिना सन्दर्भ के अथवा तोडा मरोड़ा हुआ, डालना भी मना है | जो आपने स्वयं पढ़ा हो, किसी शास्त्र से, कोई दोहां, कोई चोपाई, कोई पुराण, कुछ भी, वो आप इस ग्रुप में डाल सकते हैं | ग्रुप ज्वाइन करने वाले, खुद भी कोई भी एक पुस्तक, ग्रुप एडमिन के परामर्श से प्रारंभ कर सकते हैं और उसे पढ़कर ग्रुप में अन्य मेम्बेर्स को पढने के लिए डाल सकते हैं | अभी ग्रुप में ४-5 पुस्तक इस प्रकार के प्रयास से चल रही है, जिससे सभी लोग वो ग्रन्थ पढ़ सकें | स्वागतम !
26/09/19, 4:37 pm – ABKG Suman Singh Mumbai MH joined using this group’s invite link
26/09/19, 4:40 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: प्रकाश जैन
भिलाई
Cg
26/09/19, 4:40 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: 🙏
26/09/19, 4:41 pm – Kundali Abhishek Yadav Tanda, UP joined using this group’s invite link
26/09/19, 4:45 pm – Madhukar Varshney Delhi Shastra Gyan joined using this group’s invite link
26/09/19, 4:48 pm – +91 : किसी भी बिगिनर्स के लिये कौनसी पुस्तक सही रहेगी कृपया मार्गदर्शन करें क्योंकि मूल गीता पढ़ने की कोशिशें कई बार हुई लेकिन बहुत नीरसता का अनुभव हुआ तो छोड़ दिया कृपया मार्गदर्शन करें
26/09/19, 4:50 pm – +91 : मयंक तिवारी , इंदौर, मध्यप्रदेश।
26/09/19, 4:51 pm – Abhinandan Sharma: जल्द ही बताया जाएगा, पहले नए लोगों के आने का सिलसिला थोड़ा थम जाए ।
26/09/19, 4:52 pm – +91 : 🙏🙏
26/09/19, 5:00 pm – +91 : ज्ञान प्रकाश आकुल
लखीमपुर खीरी, उ०प्र०
26/09/19, 5:02 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: दद्दा…. स्वागत है🙏🙏🙏🙏
26/09/19, 5:02 pm – Aparna Singh Ayodhya Shastra Gyan joined using this group’s invite link
26/09/19, 5:03 pm – Aparna Singh Ayodhya Shastra Gyan: मैं अपर्णा सिंह, अयोध्या
26/09/19, 5:04 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: आकुल दद्दा हिंदी भाषा के बहुत ही उत्कृष्ट कवि हैं। भारतीय पौराणिक विषयवस्तु पर इनका काव्य लेखन अति उत्कृष्ट है। बुद्ध पर गीत शतक लिख चुके हैं और आज के मूर्धन्य साहित्य कारों में से एक हैं। जो लोग भी आधुनिक हिंदी काव्य में रूचि रखते हैं वह इनसे परिचित होंगे।
26/09/19, 5:12 pm – Abhinandan Sharma: 🙏 स्वागत है ।
26/09/19, 5:13 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: This message was deleted
26/09/19, 5:20 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: आसुर और पैशाच विवाह भी धर्म ही है 😳
26/09/19, 5:24 pm – Ruby Singh Lucknow Shastra Gyan joined using this group’s invite link
26/09/19, 5:26 pm – +91 : 🙏
26/09/19, 5:44 pm – Shastra Gyan Alka Delhi: अलका
दिल्ली
26/09/19, 5:46 pm – Madhukar Varshney Delhi Shastra Gyan: शर्मा जी, सभी ज्ञान देंगे ? या आप
26/09/19, 5:46 pm – +91 : श्यामकिशोर मिश्र
जेएनयू, दिल्ली
26/09/19, 5:47 pm – Abhinandan Sharma: यहां कोई ज्ञान नही देता, सब बस पढ़ते हैं विभिन्न शास्त्रों को, जहां संदर्भ दिया जाता है, कहाँ से क्या कहा गया है, कॉपी पेस्ट नही होता ।
26/09/19, 5:48 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: This message was deleted
26/09/19, 5:51 pm – LE Ravi Parik C Block Pragati Maidan : 😄
26/09/19, 5:52 pm – Abhinandan Sharma: देखिये, सब गायब हो गया 😌
26/09/19, 5:53 pm – Sachin Tyagi Shastra Gyan joined using this group’s invite link
26/09/19, 5:53 pm – Abhinandan Sharma: अभी नये लोग प्रॉपर जुड़ जाएं,इस ग्रुप की शांति को और नियमों को समझ जाएं, फिर कुछ शुरू करेंगे।
26/09/19, 5:55 pm – Abhinandan Sharma: सभी नये जुड़े हुए लोग, अपना नाम और शहर बताने का कष्ट करें ।
26/09/19, 5:56 pm – Rama Arya Badmer Shastra Gyan joined using this group’s invite link
26/09/19, 5:56 pm – Manvendra Singh Bilaspur: 🙏🏻🙏🏻👍👍
26/09/19, 5:56 pm – +91 : Mukul kumar agrawal, aligarh
26/09/19, 5:56 pm – Madhukar Varshney Delhi Shastra Gyan: मधुकर, दिल्ली
26/09/19, 5:57 pm – Rama Arya Badmer Shastra Gyan: रामा आर्य, बाड़मेर, राजस्थान
पीएचडी योग विज्ञान
26/09/19, 5:57 pm – Mukesh Nagar Ajmer Shastra Gyan joined using this group’s invite link
26/09/19, 6:02 pm – Ruby Singh Lucknow Shastra Gyan: Ruby singh Lucknow
26/09/19, 6:08 pm – ABKG Reader Vikas Kr Dubey Bhadohi UP joined using this group’s invite link
26/09/19, 6:10 pm – +91: मनीष खण्डेलवाल डिडवाना (राजस्थान)
26/09/19, 6:11 pm – ABKG Reader Vikas Kr Dubey Bhadohi UP: विकास दूबे, भदोही, उत्तर प्रदेश
26/09/19, 6:12 pm – Shastragyan Viral Parekh joined using this group’s invite link
26/09/19, 6:21 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: 🤭
26/09/19, 6:27 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: This message was deleted
26/09/19, 6:32 pm – Aparna Singh Ayodhya Shastra Gyan: अपर्णा सिंह अयोध्या
26/09/19, 6:37 pm – Prahalad Krishn Chittod Shastra Gyan joined using this group’s invite link
26/09/19, 6:38 pm – Prahalad Krishn Chittod Shastra Gyan: जय श्री कृष्णा में प्रहलाद कृष्ण चितोड़गढ़ (राजस्थान)से हु
26/09/19, 6:39 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: Bhaiya ji 🙏🏻🙏🏻🙏🏻
26/09/19, 6:40 pm – Naresh Goyal Delhi Shastra Gyan joined using this group’s invite link
26/09/19, 6:41 pm – +91 : रविभान सिंह सुलतानपुर
26/09/19, 6:42 pm – Naresh Goyal Delhi Shastra Gyan: नरेश दिल्ली
नौकरी
26/09/19, 6:43 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 1 श्लोक 19, 20
(वंशस्थ छन्द)
उदारकीर्तेरुदयं दयावतः प्रशान्तबाधं दिशतोऽभिरक्षया ।
स्वयं प्रदुग्धेऽस्य गुणैरुपस्नुता वसूपमानस्य वसूनि मेदिनी ।। १.१९ ।।
अर्थ: महान यशस्वी, परदुःखकातर, समस्त उपद्रवों एवं बाधाओं को शान्त कर प्रजावर्ग की सुरक्षा की सुव्यवस्था का सम्पादन करनेवाले, कुबेर के समान उस दुर्योधन के गुणों से रीझी हुई धरती (नवप्रसूता दुधारू गौ की भांति) धन-धान्य (रुपी दूध स्वयं दे रही है।) को स्वयं उत्पन्न करती है ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि दुर्योधन के दया-दाक्षिण्य आदि गुणों ने पृथ्वी को द्रवीभूत सा कर दिया है । इसका परिणाम यह हुआ है कि समूचे कुरु प्रदेश की धरती मानो द्रवित होकर स्वयमेव दुर्योधन को धन-धान्य रुपी दूध दे रही है ।
समासोक्ति अलङ्कार । अतिशयोक्ति का भी पुट है ।
महीभृतां सच्चरितैश्चरैः क्रियाः स वेद निःशेषमशेषितक्रियः ।
महोदयैस्तस्य हितानुबन्धिभिः प्रतीयते धातुरिवेहितं फलैः ।। १.२० ।।
अर्थ: आरम्भ किये हुए कार्यों को समाप्त करके ही छोड़ने वाला वह दुर्योधन अपने प्रशंसनीय चरित्र वाले राजदूतों के द्वारा अन्य राजाओं की सारी कार्यवाहियां जान लेता है । (किन्तु) ब्रह्मा के समान उसकी इच्छाओं की जानकारी, उनकी महान समाप्ति के फलों द्वारा ही होती है ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि दुर्योधन के गुप्तचर समग्र भूमण्डल में फैले हुए हैं । वह समस्त राजाओं की गुप्त बातें तो मालूम कर लेता है किन्तु उसकी इच्छा तो तभी ज्ञात होती है जब कार्य पूरा हो जाता है ।
काव्यलिङ्ग से अनुप्राणित उपमा अलङ्कार है ।
26/09/19, 6:43 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: आज तो मेला सा लग रहा है समूह में😊
26/09/19, 6:47 pm – Webinar Chinmay Vashishth SG joined using this group’s invite link
26/09/19, 6:50 pm – Abhinandan Sharma: हां, बदलाव होते रहने चाहिए । ग्रुप को करीब 2 साल हो गये, अच्छे से चलते हुए तो सोचा, अब कुछ देर के लिये ओपन कर सकते हैं । 200 मेंबर होते ही, फेसबुक से पोस्ट हटा ली जाएगी ।
26/09/19, 6:51 pm – FB Abhijit Rajkot Shastra Gyan: बहुधा लोगोने प्रवेश लिया। लगता है एडमिन जी ने ग्रुप का कोई विज्ञापन किया हो😄
26/09/19, 6:52 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: केवल एक स्थान रिक्त है। जल्दी करें😄
26/09/19, 6:52 pm – Abhinandan Sharma: जी, आज लिंक फेसबुक पर डाला था।
26/09/19, 6:53 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: जन्मदिवस के उपलक्ष्य पर😊
26/09/19, 6:54 pm – Mukesh Nagar Ajmer Shastra Gyan: सभी को प्रणाम, आभार🙏
मुकेश राम नागर
सीनियर सेक्शन इंजिनियर
रेलवे, अजमेर
26/09/19, 6:55 pm – Abhinandan Sharma: 198 reached.
26/09/19, 6:54 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: 199 मेंबर है, लिंक revoke भी किया जा सकता है, फेसबुक से पोस्ट हटाने की कोई आवश्यकता नही है 🙏🏻
26/09/19, 6:57 pm – Abhinandan Sharma: नहीं, फिर लोग कंप्लेंट करेंगे ।
26/09/19, 6:57 pm – Mukesh Nagar Ajmer Shastra Gyan: अभी महाभारत पर सरल भाषा-शैली में मौलिक लिखने का प्रयास कर रहा हूँ, hindi.pratilipi.com पर 40 कड़ियां लगभग 300 पेज प्रकाशित हैं। यदि अनुमति होगी तो यहाँ रख सकता हूँ।🙏
26/09/19, 6:57 pm – FB Abhijit Rajkot Shastra Gyan: अच्छा लगता है जब सुनिश्चित हेतु लोग जुड़ते है। नही तो व्हाट्सअप पे वृथा ही समय व्यापन होता है।
26/09/19, 6:57 pm – Webinar Chinmay Vashishth SG: सभी सभी सदस्यों को राम राम । ग्रुप की सदस्यता के लिए धन्यवाद । मेरा नाम चिन्मय वशिष्ठ है । मैं हाथरस से हूँ तथा एक इंजिनीरिंग कॉलेज में अध्यापक हूँ ।
26/09/19, 6:58 pm – Abhinandan Sharma: हम डिसकस करेंगे इस पर।
26/09/19, 6:59 pm – Mukesh Nagar Ajmer Shastra Gyan: जी..🙏🌹
26/09/19, 6:59 pm – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: ये सुंदर है, मेरी ओर से सहमति है
26/09/19, 6:59 pm – Abhinandan Sharma: 199
26/09/19, 7:00 pm – Abhinandan Sharma: राजऋषि जी, धैर्य रखें । इस ग्रुप पर हम ख्यातिलब्ध शास्त्रों को ही लेते हैं, स्वरचित रचनाओं को नहीं ।
26/09/19, 7:00 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👌🏼👌🏼
26/09/19, 7:00 pm – +91 : सुरेँदर कुमार अग्रवल
कालाहांडी उड़ीसा
व्यपार करता हूं
26/09/19, 7:00 pm – Abhinandan Sharma: इस पर अभी विचारेंगे ।
26/09/19, 7:01 pm – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: जी वैसे मैं आगे लिखने वाला था कि पहले प्रतिलिपि पर जा कर पढ़ लेता हूं। क्या कंटेंट है
26/09/19, 7:01 pm – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: 🙏🏻🙏🏻
26/09/19, 7:06 pm – Mukesh Nagar Ajmer Shastra Gyan: मेरा सौभाग्य..
mukesh nagar
नाम से सर्च कर सकते हैं।
🙏
26/09/19, 7:06 pm – Shastra Gyan Suresh Jhajjar joined using this group’s invite link
26/09/19, 7:07 pm – Mahendra Mishra Delhi Shastra Gyan: Mahendra Mishra , New Delhi
26/09/19, 7:08 pm – Shastra Gyan Suresh Jhajjar: सुरेश कुमार
झज्जर
हरियाणा
🙏🚩
26/09/19, 7:08 pm – Abhinandan Sharma: 200 complete. Now removing fb post
26/09/19, 7:13 pm – Abhinandan Sharma: सभी नवागन्तुको का ग्रुप में स्वागत है । इस ग्रुप के कुछ खास नियम हैं, जिनमें से कुछ मैं नीचे दे रहा हूँ । कृपया अवलोकन करें ।
26/09/19, 7:14 pm – Abhinandan Sharma: 1. इस ग्रुप में फ़ॉर्वर्डेड पोस्ट डालना मना है | नेट से कोई भी कंटेंट, ख़ास तौर से बिना सन्दर्भ के अथवा तोडा मरोड़ा हुआ, डालना भी मना है | जो आपने स्वयं पढ़ा हो, किसी शास्त्र से, कोई दोहां, कोई चोपाई, कोई पुराण, कुछ भी, वो आप इस ग्रुप में डाल सकते हैं | ग्रुप ज्वाइन करने वाले, खुद भी कोई भी एक पुस्तक, ग्रुप एडमिन के परामर्श से प्रारंभ कर सकते हैं और उसे पढ़कर ग्रुप में अन्य मेम्बेर्स को पढने के लिए डाल सकते हैं | अभी ग्रुप में ४-5 पुस्तक इस प्रकार के प्रयास से चल रही है, जिससे सभी लोग वो ग्रन्थ पढ़ सकें | स्वागतम !
26/09/19, 7:14 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: फिर कोई 199 कर गया🤭
26/09/19, 7:15 pm – Abhinandan Sharma: 2. ग्रुप पर ओपन क्वेश्चन allow नहीं हैं । किसी पोस्ट से सम्बंधित विषय में प्रश्न पूछे जा सकते हैं । यदि आपके पास कोई स्वतन्त्र प्रश्न है तो आप ग्रुप के विभिन्न उचित प्रतिभागियों से वो अलग से पूछ सकते हैं ।
26/09/19, 7:16 pm – Abhinandan Sharma: 3. कोई चुटकुला, इमेज, फॉरवर्ड आदि शेयर करने पर 1 बार वार्निंग दी जाती है और दूसरी बार में ग्रुप से निष्कासन हो जाता है ।
26/09/19, 7:17 pm – Abhinandan Sharma: 4. ग्रुप भले 10 दिन खाली पड़ा रहे पर लिखना वही है जो आपने स्वयं अपने शास्त्रों से, ग्रंथों से पढ़ा है अन्यथा नहीं लिखना है, बस पढ़ना है ।
26/09/19, 7:19 pm – Abhinandan Sharma: You deleted this message
26/09/19, 7:20 pm – Abhinandan Sharma: You deleted this message
26/09/19, 7:21 pm – Abhinandan Sharma: You deleted this message
26/09/19, 7:21 pm – Abhinandan Sharma: 5. आप मे से कोई भी, ग्रुप एडमिन के परामर्श से, कोई ग्रन्थ पढ़ना प्रारम्भ कर सकते हैं और पढ़कर इस ग्रुप में लिख सकते हैं, ताकि ग्रुप के अन्य सदस्य भी उसे पढ़ सकें । जैसे कि किरातार्जुनीय चल रही है । ये एक प्रकार से ग्रुप स्टडी है । एक पढ़कर, दूसरों को बताता है और एक बार में हम बिना किसी किताब को हाथ लगाए, whatsap का सदुपयोग करके, बहुत कुछ पढ़ सकते हैं ।
26/09/19, 7:22 pm – Abhinandan Sharma: आशा है, ये सबको स्पष्ट हो गया होगा । कुछ दिन धैर्य बना कर रखें, जल्द ही ग्रुप पर कैसे पोस्ट करते है, इसका आईडिया हो जाएगा ।
26/09/19, 7:23 pm – +91 : 🙏🏻
26/09/19, 7:45 pm – +91 : 👏👏👏👏
26/09/19, 8:17 pm – +91 : चन्द्रभूषण कुमार
तिर्हुत क्षेत्र , मुजफ्फरपुर ,बिहार ।
Indology के अध्येता
26/09/19, 9:08 pm – +91 : Madhur Mishra
Advocate
Bhopal,MP
26/09/19, 9:19 pm – FB Sanjay Kr Singh Saptarshi: इस समूह का लिंक
🙏🙏🙏
26/09/19, 10:10 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: This message was deleted
26/09/19, 10:11 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-७
श्लोक १,२
*अथ सप्तमोध्यायः*
अथातोऽन्नरक्षाध्यायं व्याख्यास्मः।
इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः।
अब हम यहां से अन्नरक्षा नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे। जैसा कि इस विषय में आत्रेय आदि महर्षियों ने कहा था।
निरुक्ति- इस प्रकरण में ‘ अन्न’ शब्द पकाकर तैयार किये गये तथा खाये जाने योग्य पदार्थो का वाचक है। यथा— ‘ अन्न भुक्ते च भुक्ते स्यात’ । इति मेदिनी। अन्यत्र इसके और भी अर्थ होते हैं। इसी अन्न की किस प्रकार और किसलिए रक्षा करनी चाहिए, यही इस अध्याय का प्रधान विषय है।यद्यपि आगे कहा जा रहा है कि राजा या महाराजा अपने घर के पास चिकित्सक के रहने की व्यवस्था करें।
संक्षिप्त सन्दर्भ संकेत- च.सू. ११,२१,२६। च.शा. ८। च.सि. १२। सु.सू. २०,३४। सु.शा. ४। सु.चि. २४। सु.क. १ तथा अ. सं. सू. ८,९ में देखें।
राजा राजगृहासन्ने प्राणाचार्यं निवेशयेत्। सर्वदा स भवत्येवं सर्वत्र प्रतिजागृविः॥१॥
प्राणाचार्य की नियुक्ति- राजा का कर्तव्य है कि वह अपने राजभवन के समीप शास्त्रज्ञ कुशल चिकित्सक को सदा रखे, उसकी नियुक्ति करे अथवा उसके रहने की व्यवस्था करें। ऐसा करने पर वह चिकित्सक राजा के आहार विहार आदि के प्रति जागरूक (सचेष्ट) रहेगा।
अन्नपानं विशाद्रक्षेद्विशेषेण महीपतेः। योगक्षेमौ तदायत्तौ धर्माद्या यन्निबन्धना॥२॥
चिकित्सक का कर्त्तव्य- राजा या श्रीमान पुरुष जिस अन्नपान का सेवन करे, उसमे कहीं से किसी प्रकार विष का प्रयोग तो नहीं हुआ है, इसकी परीक्षा कर उनकी रक्षा चिकित्सक करता रहे। क्योंकि राजा की रक्षा होने पर ही उससे योगक्षेम (जीविका एवं कुशलता) तथा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का लाभ प्राप्त हो सकता है।
वक्तव्य- उक्त श्लोक में अन्नपान एक प्रधान विषय कह दिया है, इसके अतिरिक्त वस्त्र, माला, गुलदस्ता, रूमाल, प्रसाधन सामग्री आदि पर भी चिकित्सक को ध्यान रखना चाहिए। विषकन्याओं का प्रयोग होता था, आज भी उसके प्रकारान्तर है, इनसे सावधान रहें। वैसे शत्रुओं से सभी को सदा सावधान रहना चाहिए। महर्षि चाणक्य ने तो इससे भी एक कदम आगे बढ़कर कहा है— “न विश्वसेत् कुमित्रे च मित्रे चापि श विश्वसेत्। कदाचित् कुपितं मित्रं सर्व गुह्यं प्रकाशयेत्’ । (चा.नि. २/६)
26/09/19, 10:12 pm – +91 : राकेश कुमार अग्रवाल
दुर्ग, छत्तीसगढ़
26/09/19, 10:39 pm – +91 : मन को शांत रखने के लिए क्या पढ़ना जरूरी है ??
26/09/19, 10:41 pm – Abhinandan Sharma: ग्रुप का ये वाला नियम 😊
26/09/19, 10:41 pm – Abhinandan Sharma: आप अभी जॉइन किये हैं तो आपको ये नियम नहीं पता अतः दुबारा डाल देता हूँ ।
26/09/19, 10:42 pm – Abhinandan Sharma: वैसे सिर्फ आपने ही जॉइन किया है, उसके बाद सो आपको अलग से भेज देता हूँ ।
26/09/19, 10:45 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: पोस्ट से अलग सवाल पूछने के लिए कुछ विद्वजनों के नाम व सम्बन्धित विषय का भी खुलासा कर दीजिए नए लोगो के लिये
26/09/19, 10:46 pm – Abhinandan Sharma: धीरे धीरे पता चल जाएगा, तब तक धैर्य रखें अभी नये आगन्तुक ।
26/09/19, 10:47 pm – +91 : 🙏🙏
26/09/19, 11:10 pm – Gurgaon Shastra Gyan Vivek: Vivek gurugram
26/09/19, 11:20 pm – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: 🤔🤔🤔🤔
27/09/19, 5:57 am – +91 : चाणक्य कह गये –
धनधान्य प्रयोगेषु विद्या सङ्ग्रहेषु च।
आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत्॥
पाँच जगह लज्जा नहीं करनी चाहिये –
धन और धान्य के लेन-देन में, विद्या प्राप्त करते समय प्रश्न पूछने में, भोजन में तथा आपसी व्यवहार में लज़्ज़ा न करनेवाला सुखी रहता है ।
💐💐💐
27/09/19, 7:11 am – Abhinandan Sharma: श्रीमान, चाणक्य ऐसा कहाँ कर गए हैं, उसका सन्दर्भ भी देने का कष्ट करें ।🙏
27/09/19, 7:16 am – +91: नाम सत्यम कुमार
स्थान मथुरा वृन्दावन
कार्य ग्राफ़िक डिज़ाइनर
27/09/19, 8:15 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातर्जुनीय सर्ग 1 श्लोक 21, 22
न तेन सज्यं क्वचिदुद्यतं धनुर्न वा कृतं कोपविजिह्ममाननम् ।
गुणानुरागेण शिरोभिरुह्यते नराधिपैर्माल्यमिवास्य शासनम् ।। १.२१ ।।
अर्थ: उस (दुर्योधन) ने कहीं भी अपने सुसज्जित धनुष को नहीं चढ़ाया तथा (उसने) अपने मुंह को भी (कहीं) क्रोध से टेढ़ा नहीं किया । (केवल उसके) दया-दाक्षिण्य आदि उत्तम गुणों के प्रति अनुरक्त होने के कारण उसके शासन को सभी राजा लोग माला की भांति अपने शिर पर धारण किये रहते हैं ।
टिप्पणी: दुर्योधन की नीतिमत्ता का यह फल है कि वह न तो कहीं धनुष का प्रयोग करता है और न कहीं मुंह से ही क्रोध प्रकट करने की उसे आवश्यकता होती है, किन्तु फिर भी सभी राजा उसके शासन को शिरसा स्वीकार करते हैं । यह केवल उसके दया-दाक्षिण्य आदि गुणों का प्रभाव है ।
पूर्वार्द्ध में साभिप्राय विशेषणों से प्रकार अलङ्कार है तथा उत्तरार्द्ध में पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग से अनुप्राणित उपमा अलङ्कार है ।
स यौवराज्ये नवयौवनोद्धतं निधाय दुःशासनमिद्धशासनः ।
मखेष्वखिन्नोऽनुमतः पुरोधसा धिनोति हव्येन हिरण्यरेतसम् ।। १.२२ ।।
अर्थ: अप्रतिहत आज्ञा वाला (जिसकी आज्ञा या आदेश का पालन सब करते हैं) वह दुर्योधन नवयौवन-सुलभ उद्दण्डता से पीड़ित दुःशासन को युवराज पद पर आसीन करके स्वयं पुरोहित की अनुमति से बड़ी तत्परता के साथ आलस्य छोड़कर यज्ञों में हवनीय सामग्रियों द्वारा अग्निदेवता को प्रसन्न करता है ।
टिप्पणी: अर्थात अब वह शासन के छोटे-मोटे कामों के सम्बन्ध से भी निश्चिन्त है और धर्म-कार्यों में अनुरक्त है । धर्म कार्य में अनुरक्त ऐसे राजा का अनिष्ट भला हो ही कैसे सकता है ।
काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।
27/09/19, 8:16 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: 🙏
27/09/19, 10:56 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-७ श्लोक ३,४
ओदनो विषवान् सान्द्रो यात्यविस्राव्यतामिव। चिरेण पच्यते पक्वो भवेत्पर्युषितोपमः॥३॥
मयूरकण्ठतुल्योष्मा मोहमूर्च्छाप्रसेककृत। हीयते वर्णगन्धाद्यैः क्लिद्यते चन्द्रिकाचितः॥४॥
विषैले भात के लक्षण- विष मिला हुआ भात कुछ गीला सा रहता है, ऐसा लगता है, मानो उसमें से मांड न निकाला गया हो। यदि पकते समय ही विष डाल दिया गया हो तो चावल देर में पकते हैं। यदि पके हुए भात में विष मिला दिया गया हो तो वह बासी भात जैसा दिखलाई देता है, उसमे से जो भात निकलती है वह मोर के कण्ठ के समान वर्ण वाली (नीली) होती है। उस भाप के लगने से अथवा उस भाप को खोलने से मोह, मूर्च्छा होती है, तथा मुख से लार निकलने लगती है। वह विषैला भात अपने स्वाभाविक रूप और गन्ध वाला नहीं रह जाता है, उसमे गलन या सड़न सी पैदा हो जाती हैं और उसमें चन्द्रिकाएं जैसी दिखलाई पड़ती है।
28/09/19, 5:39 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 1 श्लोक 23, 24
प्रलीनभूपालमपि स्थिरायति प्रशासदावारिधि मण्डलं भुवः ।
स चिन्तयत्येव भियस्त्वदेष्यतीरहो दुरन्ता बलवद्विरोधिता ।। १.२३ ।।
अर्थ: वह दुर्योधन (शत्रु) राजाओं के विनष्ट हो जाने के कारण सुस्थिर भूमण्डल पर समुद्र पर्यन्त राज्य शासन करते हुए भी आप की ओर से आनेवाली विपदा के भय से चिन्तित ही रहता है । क्यों न ऐसा हो, बलवान के साथ का वैर-विरोध अमङ्गलकारी ही है ।
टिप्पणी: समुद्रपर्यन्त भूमण्डल का शत्रुहीन राजा भी अपने विरोधी से भयभीत है ।
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।
कथाप्रसङ्गेन जनैरुदाहृतादनुस्मृताखण्डलसूनुविक्रमः ।
तवाभिधानाद्व्यथते नताननः स दुःसहान्मन्त्रपदादिवोरगः ।। १.२४ ।।
अर्थ: बातचीत के प्रसङ्ग में लोगों द्वारा लिए जानेवाले आप के नाम से इन्द्रपुत्र अर्जुन के भयङ्कर पराक्रम को स्मरण करता हुआ वह दुर्योधन (विष की औषधि करने वाले मन्त्रवेत्ता द्वारा गरुड़ और वासुकि के नामों से युक्त ) मन्त्रों के प्रचण्ड पराक्रम को न सह सकने वाले सर्प की भांति नीचे मुख करके व्यथा का अनुभव करता है ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि आप का नाम सुनते ही उसे गहरी पीड़ा होती है । अर्जुन के भयङ्कर पराक्रम का स्मरण करके वह मंत्रोच्चारण से सन्तप्त सर्प की भांति शिर नीचे कर लेता है ।
उपमा अलङ्कार ।
28/09/19, 5:43 pm – Abhinandan Sharma: ग्रुप में बहुत समय से रामचरितमानस नहीं आयी !!
28/09/19, 5:45 pm – Pitambar Shukla: अक्टूबर के प्रथम सप्ताहांत से क्रम प्रारंभ कर सकूंगा ।
28/09/19, 5:47 pm – Abhinandan Sharma: 🙏 धन्यवाद ।
28/09/19, 5:47 pm – Abhinandan Sharma: कार्तिक जी, गुरु स्तव कहाँ तक पहुचा ?
28/09/19, 8:14 pm – Vaidya Ashish Kumar: सेंधा नमक श्रेष्ठ है,इसको छोड़कर बाकी सभी नमक उष्ण है।
आजकल आयोडीन युक्त नमक का प्रचार बहुत है,लेकिन उसकी अधिक मात्रा से रोग बढ़ रहे हैं।
28/09/19, 8:38 pm – Abhinandan Sharma: योग वसिष्ठ कौन प्रारम्भ कर सकता है, ग्रुप में ?
28/09/19, 8:44 pm – Abhinandan Sharma: काव्य प्रकाश , रसगंगाधर , कुवलयानन्द – इनमें से कोई पुस्तक कोई प्रारम्भ कर सकता है क्या ?
28/09/19, 9:05 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: ज्ञानप्रद 👌
28/09/19, 9:12 pm – Rama Arya Badmer Shastra Gyan left
28/09/19, 10:14 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-७ श्लोक ५,६
वयञजनान्याशु शूष्यन्ति ध्यामक्वाथानि तत्र च। हीनाऽतिरिक्ता विकृता छाया दृश्येत नैव वा॥५॥
फेनोर्ध्वराजीसीमन्ततन्तुबुद्बुदसम्भवः। विच्छिन्नविरसा रागाः खाण्डवाः शाकमामिषम्॥६॥
विषैले व्यञ्जनों के लक्षण- विषयुक्त व्यञ्जन(शाक तरकारी आदि) जल्दी सूख जाते हैं और उनके रस मलिन पड़ जाते हैं।उन रसों में यदि छाया दिखलाई भी पड़ती है तो वह हीन अंगो वाली या अतिरिक्त अंगो वाली अथवा विकृत छाया दिखती है अथवा नहीं दिखाई देती है। उन व्यञ्जनों में विष के कारण ऊपर की ओर झाग उठने लगती है, रेखाएं दिखलाई देती है, बीच में फटा हुआ सा तन्तु (तांत) जैसा, बुलबुले जैसे उठना— ये लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं। राग(रायते), खांडव(खट्टे रस वाली सब्जियां), शाक तथा मांसरसों के आकार कटे फटे से दिखलाई पड़ते हैं और खाने पर उनका रस विकृत जान पड़ता है।
29/09/19, 9:34 am – Manvendra Singh Bilaspur: “सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके शरण्ये त्रयम्बके गौरी नारायणी नमोस्तुते”
सुख, शान्ति एवम समृध्दि की मंगलमयी कामनाओं के साथ आप एवं आप के परिवार जनो को नवरात्रि पर्व की हार्दिक मंगल कामनायें । माँ अम्बे आपको सुख समृद्धि वैभव ख्याति प्रदान करे।
||नवरात्री पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं ll
29/09/19, 9:37 am – Shyam Sunder Fsl: 🙏🙏
29/09/19, 10:44 am – Mukesh Nagar Ajmer Shastra Gyan:
29/09/19, 11:17 am – Webinar Chinmay Vashishth SG: न तातो न माता न बन्धुर्न दाता
न पुत्रो न पुत्री न भृत्यो न भर्ता।
न जाया न विद्या न वृत्तिर्ममैव
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि॥१॥
भावार्थ-हे भवानी! पिता, माता, भाई बहन, दाता, पुत्र, पुत्री, सेवक, स्वामी, पत्नी, विद्या और व्यापार – इनमें से कोई भी मेरा नहीं है, हे भवानी माँ! एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो, मैं केवल आपकी शरण हूँ।
29/09/19, 11:22 am – +91 : 🙏🙏🙏🙏🌹🌹
29/09/19, 11:54 am – Mukesh Nagar Ajmer Shastra Gyan:
29/09/19, 6:49 pm – Poonam Goyal Delhi Artist Shastra Gyan: शंकराचार्य कृत गुरूत्सव
श्लोक 5-8
क्षमामण्डले भूपभूपालवृन्दैः
सदा सेवितं यस्य पादारविन्दम् ।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 5 ॥
यशो मे गतं दिक्षु दानप्रतापात्
जगद्वस्तु सर्वं करे सत्प्रसादात् ।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 6 ॥
न भोगे न योगे न वा वाजिराजौ
न कान्तासुखे नैव वित्तेषु चित्तम् ।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 7 ॥
अरण्ये न वा स्वस्य गेहे न कार्ये
न देहे मनो वर्तते मे त्वनर्घ्ये ।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 8 ॥
5 ॥ जिन महानुभाव के चरणकमल पृथ्वीमण्डल के राजा-महाराजाओं से नित्य पूजित रहा करते हों, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्री चरणों में आसक्त न हो तो इसे सदभाग्य से क्या लाभ?
6 ॥ दानवृत्ति के प्रताप से जिनकी कीर्ति दिगदिगान्तरों में व्याप्त हो, अति उदार गुरु की सहज कृपादृष्टि से जिन्हें संसार के सारे सुख-ऐश्वर्य हस्तगत हों, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों में आसक्तिभाव न रखता हो तो इन सारे ऐश्वर्यों से क्या लाभ?
7 ॥ जिनका मन भोग, योग, अश्व, राज्य, धनोपभोग और स्त्रीसुख से कभी विचलित न हुआ हो, फिर भी गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न बन पाया हो तो इस मन की अटलता से क्या लाभ?
8 ॥ जिनका मन वन या अपने विशाल भवन में, अपने कार्य या शरीर में तथा अमूल्य भंडार में आसक्त न हो, पर गुरु के श्रीचरणों में भी यदि वह मन आसक्त न हो पाये तो उसकी सारी अनासक्तियों का क्या लाभ?
29/09/19, 8:12 pm – Madhukar Varshney Delhi Shastra Gyan left
29/09/19, 9:11 pm – Happy Singh Banaras Shatra Gyan left
29/09/19, 11:02 pm – Abhinandan Sharma: नागर जी, क्या ये किसी ने मांगा था आपसे ? इस ग्रुप पर फारवर्ड मैसेज भेजना मना है । कृपया अगली बार ऐसा न करें 🙏
30/09/19, 5:21 am – Mukesh Nagar Ajmer Shastra Gyan left
30/09/19, 10:48 am – Madhukar Varshney Delhi Shastra Gyan joined using this group’s invite link
30/09/19, 7:44 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 1 श्लोक 25, 26
तदाशु कर्तुं त्वयि जिह्ममुद्यते विधीयतां तत्रविधेयमुत्तरम् ।
परप्रणीतानि वचांसि चिन्वतां प्रवृत्तिसाराः खलु मादृशां धियः ।। १.२५ ।।
अर्थ: अतएव आप के साथ कपट एवं कुटिलता का आचरण करने में उद्यत उस दुर्योधन के साथ उचित उत्तर देने वाली कार्यवाही आप शीघ्र करें । दूसरों की कही गयी बातों को भुगताने वाले सन्देशहारी मुझ जैसे लोगों की बातें तो केवल परिस्थिति की सूचना मात्र देती हैं ।
टिप्पणी: दूत का तात्पर्य है कि अब आपको उस दुर्योधन के साथ क्या करना चाहिए, इसका शीघ्र निर्णय कर लें । इस सम्बन्ध में मेरे जैसे लोग तो यही कर सकते हैं कि जो कुछ वहां देखकर आये हैं, उसकी सूचना आप को दे दें । क्या करना चाहिए, इस सम्बन्ध में सम्मति देने के अधिकारी हम जैसे लोग नहीं हैं ।
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।
इतीरयित्वा गिरमात्तसत्क्रिये गतेऽथ पत्यौ वनसंनिवासिनाम् ।
प्रविश्य कृष्णा सदनं महीभुजा तदाचचक्षेऽनुजसन्निधौ वचः ।। १.२६ ।।
अर्थ: उपर्युक्त बातें कहकर, पारितोषिक द्वारा सत्कृत उस वनवासी चर के (वहां से) चले जाने के अनन्तर राजा युधिष्ठिर द्रौपदी के भवन में प्रविष्ट हो गए और वहां उन्होंने अपने छोटे भाइयों की उपस्थिति में वे सारी बातें द्रौपदी को कह सुनाईं ।
टिप्पणी: वह वनवासी चर दुर्योधन की गोपनीय बातों की सूचना देकर उचित पुरस्कार द्वारा सम्मानित होकर जब चला गया, तब राजा युधिष्ठिर ने वे सारी बातें अपने छोटे भाइयों से तथा द्रौपदी से भी जाकर बता दीं ।
पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार
30/09/19, 9:44 pm – Poonam Goyal Delhi Artist Shastra Gyan: शंकराचार्य कृत गुरूत्सव
श्लोक -9
अनर्घ्याणि रत्नादि मुक्तानि सम्यक्
समालिंगिता कामिनी यामिनीषु ।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥
9 ॥ अमूल्य मणि-मुक्तादि रत्न उपलब्ध हो, रात्रि में समलिंगिता विलासिनी पत्नी भी प्राप्त हो, फिर भी मन गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न बन पाये तो इन सारे ऐश्वर्य-भोगादि सुखों से क्या लाभ?
समाप्त।।
30/09/19, 9:46 pm – Naresh Goyal Delhi Shastra Gyan left
30/09/19, 10:42 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-७, श्लोक ७,८,९,१०,११
नीला राजी रसे, ताम्रा क्षीरे, दधनी दृश्यते। श्यावाऽऽपीतासिता तक्रे, घृते पानीयसन्निभा॥७॥
मस्तुनि स्यातकपोताभा, राजी कृष्णा तुषोदके। काली मद्याम्भसोः , क्षौद्रे हरित्तैलेऽरूणोपमा॥८॥
पाकं फलानामामानां पक्वानां परिकोथनम् द्रव्याणामार्द्रशुष्काणां स्यातां ग्लानिविवर्णते॥९॥
मृदूनां कठिनानां च भवेत्स्पर्शविपर्ययः। माल्यस्य स्फुटिताग्रत्वं म्लानिर्गन्धान्तरोद्भवः॥१०॥
ध्याममण्डलता वस्त्रे, शदनं तन्तुपक्ष्मणाम्।धातुमौक्तिककाष्ठाश्मरत्नादिशु मलाक्तता॥११॥
स्नेहस्पर्शप्रभाहानिः, सप्रभत्वं तु मृण्मये।
विषैली वस्तुओं के विशिष्ट लक्षण- विषैले मांसरस में नीली रेखाएं, दूध में लाल, दही में काली, पीली या सफेद मठा में, घी में पानी की जैसी, मस्तु(दही के पानी) में कबूतर के वर्ण जैसी, तुषोदक(कौंजी) में काली रेखाएं, मद्य मे तथा जल में काली रेखाएं, मधु मे हरे वर्ण वाली, तैल मे अरुण वर्ण(ईट के रंग ) जैसी रेखाएं दिखलाई पड़ती है।
विष के प्रभाव से कच्चे फल शीघ्र पक जाते हैं, पके हुए फलों में सड़न पैदा हो जाती है। गीले अथवा सूखे पदार्थ विषप्रयोग से मलिन तथा विकृत वर्ण के हो जाते हैं। कोमल एवं कठोर द्रव्यों के स्पर्श मे अन्तर पड़ जाता है। अथवा इसे इस प्रकार से समझे— विष-प्रयोग से मृदु द्रव्य कठोर और कठोर द्रव्य मृदु स्पर्श वाले हो जाते है। माला में फूलों के अगले हिस्से फूट जाते है, वे मलिन पड़ जाते हैं और उनकी गन्ध विकृत हो जाती है। वस्त्रों पर सूखापन, चकते पड़ जाना, उनके धागे या रोएं ढीले पड़ जाते हैं या टूटने लगते हैं। सोना आदि धातु के आभूषणों, मोती आदि में, लकड़ी से बने हुए कुर्सी, टेबल, चौकी, छड़ी आदि में, पत्थर से गढ़े गए पात्रों पर, हीरे आदि उत्तम रत्नों में मैलापन आ जाता है। उनमें से स्पर्शप्रियता, प्रभा की हानि हो जाती है और मिट्टी के पात्रों में चमकीलापन आ जाता है।
01/10/19, 10:50 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-७, श्लोक ७,८,९,१०,११
नीला राजी रसे, ताम्रा क्षीरे, दधनी दृश्यते। श्यावाऽऽपीतासिता तक्रे, घृते पानीयसन्निभा॥७॥
मस्तुनि स्यातकपोताभा, राजी कृष्णा तुषोदके। काली मद्याम्भसोः , क्षौद्रे हरित्तैलेऽरूणोपमा॥८॥
पाकं फलानामामानां पक्वानां परिकोथनम् द्रव्याणामार्द्रशुष्काणां स्यातां ग्लानिविवर्णते॥९॥
मृदूनां कठिनानां च भवेत्स्पर्शविपर्ययः। माल्यस्य स्फुटिताग्रत्वं म्लानिर्गन्धान्तरोद्भवः॥१०॥
ध्याममण्डलता वस्त्रे, शदनं तन्तुपक्ष्मणाम्।धातुमौक्तिककाष्ठाश्मरत्नादिशु मलाक्तता॥११॥
स्नेहस्पर्शप्रभाहानिः, सप्रभत्वं तु मृण्मये।
विषैली वस्तुओं के विशिष्ट लक्षण- विषैले मांसरस में नीली रेखाएं, दूध में लाल, दही में काली, पीली या सफेद मठा में, घी में पानी की जैसी, मस्तु(दही के पानी) में कबूतर के वर्ण जैसी, तुषोदक(कौंजी) में काली रेखाएं, मद्य मे तथा जल में काली रेखाएं, मधु मे हरे वर्ण वाली, तैल मे अरुण वर्ण(ईट के रंग ) जैसी रेखाएं दिखलाई पड़ती है।
विष के प्रभाव से कच्चे फल शीघ्र पक जाते हैं, पके हुए फलों में सड़न पैदा हो जाती है। गीले अथवा सूखे पदार्थ विषप्रयोग से मलिन तथा विकृत वर्ण के हो जाते हैं। कोमल एवं कठोर द्रव्यों के स्पर्श मे अन्तर पड़ जाता है। अथवा इसे इस प्रकार से समझे— विष-प्रयोग से मृदु द्रव्य कठोर और कठोर द्रव्य मृदु स्पर्श वाले हो जाते है। माला में फूलों के अगले हिस्से फूट जाते है, वे मलिन पड़ जाते हैं और उनकी गन्ध विकृत हो जाती है। वस्त्रों पर सूखापन, चकते पड़ जाना, उनके धागे या रोएं ढीले पड़ जाते हैं या टूटने लगते हैं। सोना आदि धातु के आभूषणों, मोती आदि में, लकड़ी से बने हुए कुर्सी, टेबल, चौकी, छड़ी आदि में, पत्थर से गढ़े गए पात्रों पर, हीरे आदि उत्तम रत्नों में मैलापन आ जाता है। उनमें से स्पर्शप्रियता, प्रभा की हानि हो जाती है और मिट्टी के पात्रों में चमकीलापन आ जाता है।
01/10/19, 10:50 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-७, श्लोक ७,८,९,१०,११
नीला राजी रसे, ताम्रा क्षीरे, दधनी दृश्यते। श्यावाऽऽपीतासिता तक्रे, घृते पानीयसन्निभा॥७॥
मस्तुनि स्यातकपोताभा, राजी कृष्णा तुषोदके। काली मद्याम्भसोः , क्षौद्रे हरित्तैलेऽरूणोपमा॥८॥
पाकं फलानामामानां पक्वानां परिकोथनम् द्रव्याणामार्द्रशुष्काणां स्यातां ग्लानिविवर्णते॥९॥
मृदूनां कठिनानां च भवेत्स्पर्शविपर्ययः। माल्यस्य स्फुटिताग्रत्वं म्लानिर्गन्धान्तरोद्भवः॥१०॥
ध्याममण्डलता वस्त्रे, शदनं तन्तुपक्ष्मणाम्।धातुमौक्तिककाष्ठाश्मरत्नादिशु मलाक्तता॥११॥
स्नेहस्पर्शप्रभाहानिः, सप्रभत्वं तु मृण्मये।
विषैली वस्तुओं के विशिष्ट लक्षण- विषैले मांसरस में नीली रेखाएं, दूध में लाल, दही में काली, पीली या सफेद मठा में, घी में पानी की जैसी, मस्तु(दही के पानी) में कबूतर के वर्ण जैसी, तुषोदक(कौंजी) में काली रेखाएं, मद्य मे तथा जल में काली रेखाएं, मधु मे हरे वर्ण वाली, तैल मे अरुण वर्ण(ईट के रंग ) जैसी रेखाएं दिखलाई पड़ती है।
विष के प्रभाव से कच्चे फल शीघ्र पक जाते हैं, पके हुए फलों में सड़न पैदा हो जाती है। गीले अथवा सूखे पदार्थ विषप्रयोग से मलिन तथा विकृत वर्ण के हो जाते हैं। कोमल एवं कठोर द्रव्यों के स्पर्श मे अन्तर पड़ जाता है। अथवा इसे इस प्रकार से समझे— विष-प्रयोग से मृदु द्रव्य कठोर और कठोर द्रव्य मृदु स्पर्श वाले हो जाते है। माला में फूलों के अगले हिस्से फूट जाते है, वे मलिन पड़ जाते हैं और उनकी गन्ध विकृत हो जाती है। वस्त्रों पर सूखापन, चकते पड़ जाना, उनके धागे या रोएं ढीले पड़ जाते हैं या टूटने लगते हैं। सोना आदि धातु के आभूषणों, मोती आदि में, लकड़ी से बने हुए कुर्सी, टेबल, चौकी, छड़ी आदि में, पत्थर से गढ़े गए पात्रों पर, हीरे आदि उत्तम रत्नों में मैलापन आ जाता है। उनमें से स्पर्शप्रियता, प्रभा की हानि हो जाती है और मिट्टी के पात्रों में चमकीलापन आ जाता है।
02/10/19, 10:07 pm – Vaidya Ashish Kumar added Shastra Gyan Pradeep Kanesh MP
03/10/19, 5:03 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙏🏼🙏🏼
03/10/19, 5:06 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 1 श्लोक 25, 26
निशम्य सिद्धिं द्विषतामपाकृतीस्ततस्ततस्त्या विनियन्तुमक्षमा ।
नृपस्य मन्युव्यवसायदीपिनीरुदाजहार द्रुपदात्मजा गिरः ।। १.२७ ।।
अर्थ: द्रुपदसुता शत्रुओं की सफलता सुनकर, उनके द्वारा होने वाले अपकारों को दूर करने में अपने को असमर्थ समझ कर राजा युधिष्ठिर के क्रोध को प्रज्ज्वलित करने वाली वाणी में (इस प्रकार) बोली ।
टिप्पणी: स्त्रियों को पति के क्रोध को उद्दीप्त करने वाली कला खूब आती है । दुर्योधन के अभ्युदय की चर्चा सुन कर द्रौपदी को वह सब विपदाएं स्मरण हो आईं, जो अतीत में भोगनी पड़ी थीं । उसने अनुभव किया कि ये हमारे निकम्मे पति अभी तक उसका प्रतिकार भी नहीं कर सके । अतः उसने युधिष्ठिर के क्रोध को उत्तेजित करने वाली बातें कहना आरम्भ किया ।
पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार
भवादृशेषु प्रमदाजनोदितं भवत्यधिक्षेप इवानुशासनम् ।
तथापि वक्तुं व्यवसाययन्ति मां निरस्तनारीसमया दुराधयः ।। १.२८ ।।
अर्थ: (यद्यपि) आप जैसे राजाओं के लिए स्त्रियों द्वारा कही गयी अनुशासन सम्बन्धी बातें (आप के) तिरस्कार के समान हैं तथापि नारी जाति सुलभ शालीनता को छुडानेवाली (छोड़ने के लिए विवश करने वाली) ये मेरी दुष्ट मनोव्यथाएं मुझे बोलने के लिए विवश कर रही हैं ।
टिप्पणी: द्रौपदी कितनी बुद्धिमती थी । उसकी भाषण-पटुता देखिये । कितनी विनम्रता से वह अपना अभिप्राय प्रकट करती है । उसके कथन का तात्पर्य यह है कि दुखी व्यक्ति के लिए अनुचित कर्म भी क्षम्य होता है ।
काव्यलिङ्ग और उपमा की समृष्टि ।
03/10/19, 7:03 pm – Vaidya Ashish Kumar: द्रोपदी ने बहुत चतुराई से अपनी बात कही।👌🏻👌🏻🙏🏻🙏🏻
03/10/19, 7:05 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: शायद इसीलिए कहा गया है, समर्थ को कोउ दोष नाहीं
और ये शाश्वत सत्य ही प्रतीत होता है कलयुग में भी 🙏🏻
03/10/19, 10:03 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-७ श्लोक १४,१५,१६,१७,१८
म्रियन्ते मक्षिकाः प्राश्य काकः क्षामस्वरो भवेत्॥१४॥
उत्क्रोशन्ति च दृष्टवैतच्छुकदात्यूहसारिकाः। हंसः प्रस्खलति ग्लानिर्जीवञ्जीवस्य जायते॥१५॥
चकोरस्याऽक्षिवैराग्यं, क्रौञ्चस्य स्यान्मदोदयः। कपोतपरभृद्दक्षचक्रवाका जहत्यसून्॥१६॥
उद्वेगं याति मार्जारः, शकृन्मुञ्चति वानरः। हृष्येनमयूरस्तद्दृष्टया मन्दतेजो भवेद्विषम॥१७॥
इत्यन्नं विषवज्ज्ञात्वा त्यजेदेवं प्रयत्नतः। यथा तेन विपद्येरन्नपि न क्षुद्रजन्तवः॥१८॥
विषैले अन्न का प्रभाव- विषैले अन्न को खाकर मक्खियां मर जाती है, कौए का स्वर क्षीण हो जाता है और ऐसे अन्न को देखते ही सुग्गा, दात्यूह(जलमुर्गा या कौआ या चातक पक्षी) तथा मैना— ये पक्षी चिल्लाते लगते हैं। हंस लड़खड़ाने लगते हैं, जीवंजीव(कोषकार कहते हैं कि इसके देखने मात्र से विष का नाश हो जाता है) पक्षी विष को देखकर दुखी हो जाता है, चकोर की आंखों का रंग बिगड़ जाता है, क्रौञ्च को नशा चढ़ जाता है, कबूतर, कोयल, मुर्गा, चकवा ये मर जाते हैं। बिलाव घबड़ा जाता है, बन्दर देखते ही मलत्याग कर देता है तथा मोर विष को देखकर प्रसन्न हो जाता है और इसके देखने मात्र से विष का प्रभाव कम हो जाता है।(अतएव यह विषैले सांपों को भी खा जाता है)। इन परीक्षाओं से उस अन्न को विष के समान समझकर छोड़ दें और उस अन्न को ऐसे स्थान पर डाल दे जिससे क्षूद्र प्राणी भी उसे खाकर न मरे।
वक्तव्य- “प्रमादो धीमतामपि” अर्थात सूझ बूझ सम्पन्न लोग भी जब भूल कर बैठते हैं तो श्रीमान पुरुषों की तो बात ही क्या कहना है! यदि किसी प्रकार विष प्रयोग हो ही गया हो तो उसका निराकरण इस प्रकार करें।
04/10/19, 1:38 am – +91 : This message was deleted
04/10/19, 2:06 am – +91 : 🌸
क्या इस ग्रुप में तांत्रिक ग्रन्थों के नीति-परक उद्धरण एवं अर्थ दिए जा सकते हैं ?
04/10/19, 3:08 am – +91 : योगवाशिष्ठ(मुख्य-मुख्य)
अशेषेण परित्यागो वासनानां य उत्तमः।
मोक्ष इत्युच्येत ब्रह्मन् स एवं विमल क्रमः।। (३-८)
निःशेष रुप से वासनाओं का जो परित्याग है , वह उत्तम मोक्ष कहा जाता है वही विमलक्रम है।
04/10/19, 7:26 am – Dinesh Arora Gurgaon Shastra Gyan: This message was deleted
04/10/19, 4:39 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: *पिछले श्लोक 27, 28 थे
किरातार्जुनीय सर्ग 1 श्लोक 29, 30, 31, 32
अखण्डमाखण्डलतुल्यधामभिश्चिरं धृता भूपतिभिः स्ववंशजैः ।
त्वया स्वहस्तेन मही मदच्युता मतङ्गजेन स्रगिवापवर्जिता ।। १.२९ ।।
अर्थ: इन्द्र के समान पराक्रमशाली अपने वंश में उत्पन्न होनेवाले भरत आदि राजाओं द्वारा चिरकाल तक सम्पूर्ण रूप से धारण की हुई इस धरती को तुमने मद चुवाने वाले (मदोन्मत्त) गजराज द्वारा माला की भांति अपने ही हाथों से (तोड़फोड़) कर त्याग दिया है ।
टिप्पणी: भरत आदि पूर्ववंशजों के महान पराक्रम की याद दिलाकर द्रौपदी युधिष्ठिर को लज्जित करना चाहती है । कहाँ थे वह लोग और कहाँ हो तुम कि अपने ही साम्राज्य को अपने ही हाथों से नष्ट कर दिया । अपने ही अवगुणों से यह अनर्थ हुआ है ।
उपमा अलङ्कार ।
व्रजन्ति ते मूढधियः पराभवं भवन्ति मायाविषु ये न मायिनः ।
प्रविश्य हि घ्नन्ति शठास्तथाविधानसंवृताङ्गान्निशिता इवेषवः ।। १.३० ।।
अर्थ: वे मूर्ख बुद्धि के लोग पराजित होते हैं जो (अपने) मायावी (शत्रु) लोगों के साथ मायावी नहीं बनते, क्योंकि दुष्ट लोग उस प्रकार के सीधे-सादे निष्कपट लोगो में, उघाड़े हुए अंगों में तीक्ष्ण बाणों की भांति प्रवेश करके उनका विनाश कर देते हैं ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि मायावी दुर्योधन को जीतने के लिए तुम को अपनी या धर्मात्मापने की नीति छोड़नी होगी । तुम्हें भी उसी तरह मायावी बनना होगा । जिस तरह उघडे शरीर में तीक्ष्ण बाण घुस कर अंगों का नाश कर देते हैं, उसी तरह से निष्कपट रहनेवालों के बीच में उसके कपटी शत्रु भी प्रवेश कर लेते हैं और उसका सत्यानाश कर देते हैं ।
अर्थान्तरन्यास से अनुप्राणित उपमा अलङ्कार ।
गुणानुरक्तां अनुरक्तसाधनः कुलाभिमानी कुलजां नराधिपः ।
परैस्त्वदन्यः क इवापहारयेन्मनोरमां आत्मवधूं इव श्रियं ।। १.३१ ।।
अर्थ: सब प्रकार के साधनों से युक्त एवं अपने उच्च कुल का अभिमान करनेवाला तुम्हारे सिवा दूसरा कौन ऐसा राजा होगा, जो सन्धि आदि (सौन्दर्य आदि) राजोचित गुणों से (स्त्रियोचित गुणों से) अनुरक्त, वंश परम्परा द्वारा प्राप्त (उच्च कुलोत्पन्न) मन को लुभानेवाली अपनी पत्नी की भांति राज्यलक्ष्मी को दूसरों से अपहृत कराएगा ।
टिप्पणी: स्त्री के अपहरण के समान ही राज्यलक्ष्मी का अपहरण भी मानहानिकारक है । तुम्हारे समान निर्लज्ज ऐसा कोई दूसरा राजा मेरी दृष्टी में नहीं है, जो अपने देखते हुए अपनी पत्नी की भांति अपनी राज्यलक्ष्मी को अपहरण करने दे रहा है ।
मालोपमा अलङ्कार
भवन्तं एतर्हि मनस्विगर्हिते विवर्तमानं नरदेव वर्त्मनि ।
कथं न मन्युर्ज्वलयत्युदीरितः शमीतरुं शुष्कं इवाग्निरुच्छिखः ।। १.३२ ।।
अर्थ: हे राजन ! ऐसा विपत्ति का समय आ जाने पर भी, वीर पुरुषों के लिए निंदनीय मार्ग पर खड़े हुए आप को (मेरे द्वारा) बढ़ाया हुआ क्रोध, सूखे हुए शमी वृक्ष को अग्नि की भांति क्यों नहीं जला रहा है ।
टिप्पणी: अर्थात आप को तो ऐसी विपदावस्था में उद्दीप्त क्रोध से जल उठना चाहिए था । शत्रु द्वारा उपस्थित की गयी ऐसी दुर्दशाजनक परिस्थिति में भी आप कायरों की भान्ति शान्तचित्त हैं, इसका मुझे आश्चर्य हो रहा है ।
उपमा अलङ्कार ।
05/10/19, 6:21 am – Abhinandan Sharma: जब युधिष्दुठिर ने दुर्योधन को बोला कि अगर हम पांडवों में से किसी एक को भी हरा दोगे तो हम अपनी पराजय स्वीकार कर लेंगे और तुम जीते हुए माने जाओगे और सारा राज्य तुम्हारा | ये सुनते ही दुर्योधन तालाब से बाहर आ गया | यह देखकर कृष्ण जी ने युधिष्ठिर को बुरी तरह फटकारा और कहा – कि तुम्हारी जुआ खेलने की आदत गयी नहीं अभी तक | तुम तो पैदा ही, जंगल में रहने के लिए हो ! अगर दुर्योधन ने भीम के अलावा अर्जुन, तुम्हें या किसी और को युद्ध के लिए चुन लिया तो तुम्हारा जीतना असम्भव है |
कृष्ण जी ने, दुर्योधन के तालाब से बाहर आते ही, भीम द्वारा दुर्योधन को ललकारने का इशारा किया और भीम के ललकारने पर, दुर्योधन ने उसे ही चुना | जब युद्ध शुरू हुआ, तो भीम के लाख प्रयास करने पर भी, भीम दुर्योधन पर हावी नहीं हो पाया और दुर्योधन ने भीम की अच्छी पिटाई कर दी | ये देख कर पांडव घबरा गए और अर्जुन ने कृष्ण से पूछा कि इस युद्ध में कौन जीतेगा ? कृष्ण ने कहा, भीम के पास ताकत भले अधिक है किन्तु दुर्योधन के पास अभ्यास की अधिकता है | उसने 14 वर्ष तक, भीम का पुतला बना कर, उस पर विभिन्न दांव पेंचों का अभ्यास किया है | अगर ताकर और अभ्यास में युद्ध होगा तो अभ्यास जीतेगा, अतः इस युद्ध में भीम का जीतना असम्भव है |
अर्जुन के निवेदन पर, कृष्ण जी द्वारा भीम की जांघ पर गदा मारने का इशारा और भीम द्वारा, दुर्योधन की जांघ तोडना | यह देखकर, बलदाऊ जी का हल लेकर, भीम को मारने दौड़ना और कृष्ण जी द्वारा बीच बचाव किया गया | बलदाऊ जी, भीम को श्राप देकर चले गए | अब आगे की परीक्षित जन्म की कहानी, इस वीडियो में |
https://youtu.be/z1bJ7xsHu-Y
05/10/19, 11:35 am – FB Piyush Khare Hamirpur: 👌🏻
05/10/19, 11:38 am – LE Ravi Parik : आवाज की कमी है
05/10/19, 11:43 am – Abhinandan Sharma: जी,इयर फोन की आवश्यकता पड़ेगी ।
05/10/19, 5:45 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 1 श्लोक 33, 34
(वंशस्थ छन्द)
अवन्ध्यकोपस्य निहन्तुरापदां भवन्ति वश्याः स्वयं एव देहिनः ।
अमर्षशून्येन जनस्य जन्तुना न जातहार्देन न विद्विषादरः ।। १.३३ ।।
अर्थ: जिसका क्रोध कभी निष्फल नहीं होता – ऐसे विपत्तियों को दूर करने वाले व्यक्ति के वश में लोग स्वयं ही हो जाते हैं (किन्तु) क्रोध से विहीन व्यक्ति के साथ प्रेम भाव पैदा होने से मनुष्य का आदर नहीं होता और न शत्रुता होने से भय ही होता है ।
टिप्पणी: तात्पर्य है कि जिस मनुष्य में अपने अपकार का बदला चुकाने की क्षमता नहीं होती उसकी मित्रता से न कोई लाभ होता है और न शत्रुता से कोई भय होता है । क्रोध अथवा अमर्ष से विहीन प्राणी नगण्य होता है । मनुष्य को समय पर क्रोध करना चाहिए और समय पर क्षमा करनी चाहिए ।
परिभ्रमंल्लोहितचन्दनोचितः पदातिरन्तर्गिरि रेणुरूषितः ।
महारथः सत्यधनस्य मानसं दुनोति ते कच्चिदयं वृकोदरः ।। १.३४ ।।
अर्थ: (पहले) लाल चन्दन लगाने के अभ्यस्त, रथ पर चलनेवाले (किन्तु सम्प्रति) धूल से भरे हुए, पैदल – एक पर्वत से दूसरे पर्वत पर भ्रमण करनेवाले यह भीमसेन क्या सत्यपरायण (आप) के चित्त को खिन्न नहीं करते हैं ?
टिप्पणी: ‘सत्यपरायण’ यहाँ उलाहने के रूप में उत्तेजना देने के लिए कहा गया है । छोटे भाइयों की दुर्दशा का चित्र खीञ्च कर द्रौपदी युधिष्ठिर को अत्यन्त उत्तेजित करना चाहती है । उसके इस व्यङ्ग्य का तात्पर्य यह है कि ऐसे पराक्रमी भाइयों की ऐसी दुर्गति हो रही है और आप उन मायावियों के साथ ऐसी सत्यपरायणता का व्यवहार कर रहे हैं ।
परिकर अलङ्कार ।
06/10/19, 5:38 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 1 श्लोक 35, 36, 37, 38
विजित्य यः प्राज्यं अयच्छदुत्तरान्कुरूनकुप्यं वसु वासवोपमः ।
स वल्कवासांसि तवाधुनाहरन्करोति मन्युं न कथं धनंजयः ।। १.३५ ।।
अर्थ: इन्द्र के समान पराक्रमी जिस (अर्जुन) ने सुमेरु के उत्तरवर्ती कुरुप्रदेशों को जीत कर प्रचुर सुवर्ण एवं राशि लाकर आपको दी थी वही अर्जुन अब वल्कलों का वस्त्र धारण कर तुम्हारे ह्रदय में क्रोध को क्यों नहीं पैदा कर रहा है ?
टिप्पणी: जिसने जीवनपर्यन्त सुखभोग के लिए पर्याप्त धनराशि अपने पराक्रम से जीत कर आपको दी थी, वही आप के कारण आज वल्कलधारी है, यह देखकर भी आप में क्रोध क्यों नहीं होता – यह आश्चर्य है ।
वनान्तशय्याकठिनीकृताकृती कचाचितौ विष्वगिवागजौ गजौ ।
कथं त्वं एतौ धृतिसंयमौ यमौ विलोकयन्नुत्सहसे न बाधितुं ।। १.३६ ।।
अर्थ: वन की विषम भूमि में सोने से जिनका शरीर कठोर बन गया है, ऐसे चारों ओर बाल उलझाए हुए, जङ्गली हाथी की भान्ति, इन दोनों जुड़वें भाइयों (नकुल और सहदेव) को देखते हुए, (तुम्हारे) धैर्य और सन्तोष तुम्हें छोड़ने को क्या नहीं तैयार होते ।
टिप्पणी: भीम और अर्जुन की पराक्रम-चर्चा के साथ सौतेली माता के सुकुमार पुत्रों की दुर्दशा की चर्चा भी युधिष्ठिर को और अधिक उत्तेजित करने के लिए की गयी है । इसमें तो उनके धैर्य और सन्तोष की खुले शब्दों में निन्दा भी की गयी है कि ऐसा धैर्य और सन्तोष कहीं नहीं देखा गया ।
उपमा अलङ्कार
इमां अहं वेद न तावकीं धियं विचित्ररूपाः खलु चित्तवृत्तयः ।
विचिन्तयन्त्या भवदापदं परां रुजन्ति चेतः प्रसभं ममाधयः ।। १.३७ ।।
अर्थ: मैं (इतनी विपत्ति में भी आपको स्थिर रखनेवाली) आपकी बुद्धि को नहीं समझ पाती । मनुष्य-मनुष्य की चित्तवृत्ति अलग-अलग विचित्र होती है । आप की इन भयङ्कर विपत्तियों को (तो) सोचते हुए (भी) मेरे चित्त को मनोव्यथाएं अत्यन्त व्याकुल कर देती हैं ।
टिप्पणी: अर्थात आप जिस विपत्ति को झेल रहे हैं वह तो देखने वालों को भी परेशान कर देती है, किन्तु आप हैं जो बिलकुल निश्चिन्त और निष्क्रिय हैं । यह परम आश्चर्य है ।
पुराधिरूढः शयनं महाधनं विबोध्यसे यः स्तुतिगीतिमङ्गलैः ।
अदभ्रदर्भां अधिशय्य स स्थलीं जहासि निद्रां अशिवैः शिवारुतैः ।। १.३८ ।।
अर्थ: जो आप पहले अत्यन्त मूल्यवान शय्या पर सोकर स्तुति पाठ करनेवाले बैतालिकों के मङ्गल गान से जगाये जाते थे, वहीँ आप अब कुशों से आकीर्ण वनस्थली में शयन करते हुए अमङ्गल की सूचना देनेवाली शृगालियों के रुदन शब्दों से निद्रा-त्याग करते हैं ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है की विपदा ही क्यों, आप की भी तो दुर्दशा हो रही है ।
विषम अलङ्कार
06/10/19, 10:51 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-७, श्लोक १९,२०,२१
स्पृष्टे तु कण्डुदाहोषाज्वरार्तिस्फोटसुप्तयः। नखरोमच्युतिः शोफः सेकाद्याः विषनाशनाः॥१९॥
शस्तास्तत्र प्रलेपाश्च सेव्यचन्दनपद्मकैः । ससोमवल्कतालीसपत्रकुष्ठामृतानतैः॥२०॥
स्पर्शज विष चिकित्सा- विषैले पदार्थों (माला, वस्त्र आदि) का स्पर्श हो जाने पर खुजली, जलन, उष्मा (गरम गरम भाप जैसी निकलना), ज्वर हो जाना, पीड़ा, उस स्थान पर फफोलों का निकलना, सुन्न पड़ जाना, नख तथा रोमों का उखड़ जाना आदि लक्षण हो जाते हैं। इस स्थिति में शीघ्र ही विषनाशक स्नान, अभ्यंग, अवगाहन तथा लेप-प्रलेपों की व्यवस्था करें। यथा—खस, सफेद चन्दन, पद्मकाष्ठ (पद्माख), कायफल का छिलका (इसकी नस्य भी बनायी जाती है)), तालीसपत्र, कूठ (यह सुगन्धित द्रव्य है), गिलोय तथा तगर के कल्क का लेप करें और क्वाथ को पिलायें अथवा इनके क्वाथों का उन अवयवों में सेचन करें।
लाला जिह्वौष्ठयोर्जाड्यमूषा चिमिचिमायनम्।दंतहर्षो रसाज्ञत्वं हनुस्तम्भश्च वक्त्रगे॥२१॥
सेव्याद्यैस्तत्र गण्डूषाः सर्व च विषजिद्धितम्।
मुख में विष का प्रभाव- यदि मुख के भीतरी प्रदूश में किसी विष का प्रभाव हो गया हो तो उनमें ये लक्षण होते हैं—मुख से बार बार लार निकलना, जीभ तथा होठों मे जड़ता, जलन का होना, चुनचुनाहट का होना, दंतहर्ष, रसों का ज्ञान न होना (यह जिह्वा की जड़ता है) तथा हनुस्तम्भ। इनकी चिकित्सा—२०वें श्लोक में कहे गए खस आदि द्रव्यों के क्वाथ बनाकर उसके गण्डूष(कुल्ले) करें और भी जो विषनाशक चिकित्सा हो, उसे करें, ये सब हितकर होती है।
07/10/19, 6:14 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 1 श्लोक 39, 40
पुरोपनीतं नृप रामणीयकं द्विजातिशेषेण यदेतदन्धसा ।
तदद्य ते वन्यफलाशिनः परं परैति कार्श्यं यशसा समं वपुः ।। १.३९ ।।
वंशस्थ छन्द
अर्थ: हे राजन ! आपका जो यह शरीर पहले ब्राह्मणों के भोजनादि से शेष अन्न द्वारा परिपोषित होकर मनोहर दिखाई पड़ता था, वही आज जङ्गली फल-फूलों के भक्षण से, आपके यश के साथ, अत्यन्त दुर्बल हो गया है ।
टिप्पणी: अर्थात न केवल शरीर ही दुर्बल हो गया है, वरन आपकी कीर्ति भी धूमिल हो गयी है ।
सहोक्ति अलङ्कार
अनारतं यौ मणिपीठशायिनावरञ्जयद्राजशिरःस्रजां रजः ।
निषीदतस्तौ चरणौ वनेषु ते मृगद्विजालूनशिखेषु बर्हिषां ।। १.४० ।।
वंशस्थ छन्द
अर्थ: सर्वदा मणि के बने हुए सिंहासन पर विश्राम करनेवाले आप के जिन दोनों पैरों को (अभिवादन के लिए झुकने वाले) राजाओं के मस्तक की मालाओं की धूलि लगती थी, (अब) वही दोनों चरण हरिणो अथवा ब्राह्मणों के द्वारा छिन्न कुशों के वनों में विश्राम पाते हैं ।
टिप्पणी: इससे बढ़कर विपत्ति अब और क्या आएगी ।
विषम अलङ्कार
08/10/19, 12:23 pm – LE Ravi Parik : दो अलग अलग समय मे लिखी गई रचनाओं से एक तुलनात्मक अध्धयन।।
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ४ श्लोक ७
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम ।।
जब जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब – तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगो के सम्मुख प्रकट होता हूँ।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड सोo १२० (ख) चौ० ३, ४
गौरी भगवान श्री शंकर जी से पूछती है कि हरि का अवतार किस कारण से होता है तो शंकर जी कहते है –
तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही। समुझि परइ जस कारन मोही।।
जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी।।
करहिं अनीति जाइ नहीं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी।। तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।
जब जब धर्म का ह्रास होता है और नीच अभिमानी राक्षस बढ़ जाते है और अन्याय करते है तब तब वे कृपानिधि
प्रभु भांति भांति के (दिव्य) शरीर धारण करते है।
08/10/19, 4:32 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-७ श्लोक २२,२३,२४,२५,२६
आमाशयगते स्वेदमूर्च्छाध्यानमदभ्रमाः॥२२॥
रोमहर्षो वमिर्दाहश्चक्षुर्हृदयरोधनम्। बिन्दुभिश्चाचयोऽङ्गानाम् पक्वाशयगते पुनः॥२३॥
अनेकवर्ण वमति मूत्रयत्यतिसार्यते। तन्द्रा कृशत्वं पाण्डुत्वमुदरं बलसङ्क्षयः॥२४॥
तयोर्वान्तविरिक्तस्य हरिद्रे कटभीं गुडम्। सिन्दुवारितनिष्पावबाष्पिकाशतपर्विका॥२५॥
तण्डुलीयकमूलानि कुक्कुटाण्डमवल्गुजम्। नावनाञ्जनपानेषु योजयेद्विषशान्तये॥२६॥
आमाशयगत विष के लक्षण- पसीना का आना, मूर्च्छा, आध्मान (आफरा), मद (नशा का होना), चक्कर आना, रौंगटे खड़े होना, वमन, जलन, आंखों के सामने अंधेरा छा जाना, हृदय की गति में रुकावट का होना तथा शरीर के अवयवों पर पानी के फफोले जैसे बिन्दुओं का उभड़ आना।
पक्वाशयगत विष के लक्षण- अनेक रंग के वमनो का होना, मूत्र का अधिक होना, अतिसार का होना, तन्द्रा (उंघाई का आना), कृशता, शरीर में पीलापन का होना, उदररोग तथा बल का क्रमशः क्षय होना।
उक्त दोनों की चिकित्सा- ऊपर वर्णित लक्षणों में वमन तथा अतिसार का वर्णन है, उस स्थिति में आप देखें कि वमन-विरेचन आवश्यकता के अनुसार हो गये है, तो आगे की चिकित्सा इस प्रकार है—हल्दी, दारूहल्दी की छाल, कटभी(अपराजिता), गुड़, सिन्दुवार(मेवड़ी के पत्ते), निष्पाव (मटर), हिंगुपत्री, बालवच, चौलाई की जड़, मुर्गी के अंडे का रस तथा बाकुची— इनका प्रयोग नस्य अञ्जन तथा क्वाथ बनाकर पीने के रूप में करें, इससे विषविकार शान्त हो जाते हैं।
वक्तव्य- आमाशयगत विष प्रारम्भ में वमनो द्वारा और पक्वाशयगत विष विरेचनों द्वारा निकल जाता है, शेष उक्तनिर्दिष्ट औषधयोग से शान्त हो जाता है। विष मे घृतपान अत्यन्त लाभकारी होता है, उसमे भी गाय का घृत और भी उत्तम होता है।
09/10/19, 9:39 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: This message was deleted
09/10/19, 9:40 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-७ श्लोक २७,२८
विषभुक्ताय दद्याच्च शूद्धायोर्ध्वमधस्तथा। सूक्ष्मं ताम्ररजः काले सक्षौद्रं हृद्विशोधनम्॥२७॥
शुद्धे हृदि ततः शाणं हेमचूर्णस्य दापयेत्।
ताम्र एवं स्वर्ण भस्म प्रयोग- जिस व्यक्ति ने विष खाया है उसे वमन-विरेचन विधियों से ऊपर नीचे शुद्ध हो जाने पर प्रतिदिन १ रत्ती ताम्रभस्म १ तोला मधु के साथ प्रातः सायं सेवन के लिए देना चाहिए। इससे विशेषरुप से हृदय का शोधन हो जाता है। जब हृदय शुद्ध हो जाये तब इस रोगी को १ शाण स्वर्णभस्म का सेवन करने के लिए दें।
वक्तव्य- ४शाण=१माषा, ६रत्ती=१माषा, ६x४=२४ रत्ती अर्थात १-१ रत्ती की मात्रा मेंमधु के साथ विषमुक्त रोगी को २४ दिनों तक इसका सेवन कराना चाहिए।
न सज्जते हेमपाङ्गे पद्मपत्रेऽम्बुवद्विषम्॥२८॥
जायते विपुलं चायुर्गरेऽप्येष विधिः स्मृतः।
स्वर्णभस्म का प्रभाव- जो सदा इस प्रकार स्वर्णभस्म का सेवन करता है, उसके शरीर में विष का प्रभाव उस प्रकार नहीं होता, जिस प्रकार कमलपत्र पर जल का स्पर्श नहीं हो पाता। स्वर्ण का सेवन करने से आयु बढ़ती है। गरविषों तथा मूलविषों की चिकित्सा भी इसी प्रकार की जाती है।
वक्तव्य- अष्टाङ्गहृदय-उत्तरस्थान अध्याय ३४ से ३८ तक विविध प्रकार के विषों की चिकित्साओं का वर्णन विस्तार से किया गया है।
विरुद्धमपि चाहारं विद्याद्विषगरोपमम्॥२९॥
विरोधी आहार- विरूद्ध अथवा परस्पर विरोधी आहार भी विष(स्थावर, जंगम) तथा गरविष(कृत्रिम विष) के समान होता है।
वक्तव्य- विरुद्ध अन्नपानों के सेवन का निषेध तो वाग्भट ने किया है, किन्तु उनका शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है, स्पष्टरूप से उसका निर्देश नहीं किया है। इसे चरक के अनुसार इस प्रकार समझे— “षाण्ढयान्ध्य•••••••हेतुम्”॥ (च.सू. २६/१०२-१०३) अर्थात विरूद्ध आहारो के सेवन से होने वाले रोग—नपुंगसकता, अंधापन, विसर्प, जलोदर, विस्फोट, उन्माद, भगन्दर, मूर्च्छा, मदरोग, आध्मान, गले के रोग, पाण्डुरोग, अलसक(गुमहैजा), विसूचिका, किलास(श्वेत कुष्ठ), कुष्ठ ग्रहणीरोग, शोष, रक्तपित्त, ज्वर, प्रतिश्याय, सन्तानदोष(गर्भावस्था में माता द्वारा सेवन करने से भ्रूण का गर्भ में मर जाना या पैदा होकर मर जाना आदि) तथा मृत्यु— ये कारण होते हैं। इसी प्रकार के निर्देश अ.स.सू. ९/२९ में भी देखें।
09/10/19, 9:41 pm – FB Sanjay Kr Singh Saptarshi: आप सभी से निवेदन है कि इस प्रश्न का सटिक उत्तर दीजिए🙏🚩👇🏻👇🏻
कृष्ण राज्य और राम राज्य में क्या अंतर है ?
10/10/19, 8:24 am – Abhinandan Sharma: कृपया करके, ऐसे प्रश्न ग्रुप पर म पूछें 🙏🙏 जिस व्यक्ति को ग्रुप में उचित समझें, उससे अलग से पूछ लें ।
10/10/19, 8:24 am – Anuj Kolkata Shastra Gyan left
10/10/19, 10:08 am – Abhinandan Sharma: पूरा विज्ञान सर पटकते मर जायेगा, पर इसे सिद्ध न कर पायेगा 😆 वैसे कोई है, ऐसे प्रयोग करके देखने वाला ?
10/10/19, 6:57 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 1 श्लोक 43, 44
पुरःसरा धामवतां यशोधनाः सुदुःसहं प्राप्य निकारं ईदृशं ।
भवादृशाश्चेदधिकुर्वते परान्निराश्रया हन्त हता मनस्विता ।। १.४३ ।।
वंशस्थ छन्द
अर्थ: तेजस्वियों में अग्रगामी, यश को सर्वस्व माननेवाले आप जैसे शूरवीर अत्यन्त कठिनाई से सहने योग्य, इस प्रकार से शत्रु द्वारा होने वाले अपमान को प्राप्त करके यदि सन्तोष करते हैं तो हाय ! स्वभिमानिता बेचारी निराश्रय होकर नष्ट हो गयी ।
टिप्पणी: अर्थात आप जैसे तेजस्वी तथा यश को ही जीवन का उद्देश्य माननेवाला भी यदि शत्रु द्वारा प्राप्त दुर्दशा को सहन करता है तो साधारण मनुष्य के लिए क्या कहा जाय ? अतः पराक्रम करना ही अब आपका धर्म है ।
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार
अथ क्षमां एव निरस्तसाधनश्चिराय पर्येषि सुखस्य साधनं ।
विहाय लक्ष्मीपतिलक्ष्म कार्मुकं जटाधरः सञ्जुहुधीह पावकं ।। १.४४ ।।
वंशस्थ छन्द
अर्थ: अथवा (अपनी सूर्य तेजस्विता का नहीं धारण करना चाहते और) अपने पराक्रम का त्याग कर चिरकाल तक शान्ति को ही सुख का कारण मानते हो तो राजचिन्ह से चिन्हित धनुष को फेंककर जटा धारण कर लो और इस तपोवन में अग्नि में हवन करो ।
टिप्पणी: अर्थात बलवानों के लिए भी यदि शान्ति ही सुखदायी हो तो विरक्तों की तरह बलवानों को भी धनुष धारण करने से क्या लाभ है ? उसे फेंक देना चाहिए ।
10/10/19, 8:20 pm – Dayadhankr Soryvanshi Hts, Akhilesh Frnd: Waah !👌🏻
10/10/19, 11:36 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-७ श्लोक ३०,३१,३२
आनूपमामिषं माषक्षौद्रक्षीरविरूढकैः। विरुध्यते सह बिसैर्मूलकेन गुडेन वा॥३०॥
विशेषात्पयसा मत्स्या मत्स्येष्वपि चिलीचिमः। विरुद्धमम्लं पयसा सह सर्व फलं तथा॥३१॥
तद्वत्कुलस्थवरककङ्गुवल्लमकुष्टकाः।
आनूपदेशीय(सुअर आदि का मांस)- उड़द, मधु, दूध, अंकुरित धान्यों(चना, गेहूं, मूंग,मोठ, मटर आदि) के साथ परस्पर गुणों मे विपरीत होता है तथा बिस(भैसीड़ा), मूली एवं गुड़ के साथ भी विरूद्ध होता है। विशेष कर दूध के साथ मछलियों का सेवन न करें, उनमें भी चिलचिम नामक मछली का तो दूध के साथ सेवन कभी भी नहीं करना चाहिए।
वक्तव्य- विरूद्ध आहार इस प्रकरण में जिन जिन को कहा जायेगा, उनमें से कौन क्या विकार करता है, यह निश्चित रूप से नहीं कहा गया है। तथापि इनसे रक्त दूषित होकर अनेक विस्फोट आदि विकृतियां होती है। ये सभी खाद्य पदार्थ है, इनका एक ही समय में एक साथ खाना ही विरूद्ध कहा गया है। स्वतन्त्र रुप से क्रमशः इनका सेवन किया ही जाता है, तब कोई दोष भी नहीं होता है। यही मत चरक, सुश्रुत आदि का भी है।
दुग्धपान-विचार- अम्लरस प्रधान सभी पदार्थ तथा फल दूध के साथ नहीं खाने चाहिए, क्योंकि ये परस्पर विरूद्ध होते हैं। इसी प्रकार कुलथी, वरक(उद्दालक), कंगुनी (कौणी), मटर, मोठ आदि भी दूध के साथ नहीं खाने चाहिए।
वक्तव्य- सर्व फलं— ऐसा नहीं है कि दूध के साथ कोई फल नहीं खाया जाता हो। बादाम, छुहारा, किशमिश आदि के साथ दूध का प्रयोग किया ही जाता है। दूध के साथ किन फलों को नहीं खाना चाहिए, देखें— *”आम्रातक•••••चानयानि। (च.सू. २६/८४) इसी प्रकार सु. सू. २०/८ का भी अवलोकन करें।
भक्षयित्वा हरितकम् मूलकादि पयस्त्यजेत्॥३२॥
विरूद्ध आहार के लक्षण- मूली आदि हरे पदार्थों को खाकर उनके तत्काल बाद भी दूध नहीं पीना चाहिए।
10/10/19, 11:46 pm – ~ Pankaj Panda left
11/10/19, 6:48 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 1 श्लोक 45, 46
न समयपरिरक्षणं क्षमं ते निकृतिपरेषु परेषु भूरिधाम्नः ।
अरिषु हि विजयार्थिनः क्षितीशा विदधति सोपधि संधिदूषणानि ।। १.४५ ।।
पुष्पिताग्रा छन्द
अर्थ: नीचता पर उतारू शत्रुओं के रहते हुए आप जैसे परम तेजस्वी के लिए तेरह वर्ष की अवधि की रक्षा की बात सोचना अनुचित है, क्योंकि विजय के अभिलाषी राजा अपने शत्रुओं के साथ किसी न किसी बहाने से सन्धि आदि को भङ्ग कर ही देते हैं ।
टिप्पणी: जो शक्तिमान होते हैं, उनके लिए सर्वदा अपना कार्य करना ही कल्याणकारी है, समय अथवा प्रतिज्ञा की रक्षा कायरों के लिए उचित है ।
काव्यलिङ्ग और अर्थान्तरन्यास अलङ्कार
विधिसमयनियोगाद्दीप्तिसंहारजिह्मं शिथिलबलं अगाधे मग्नं आपत्पयोधौ ।
रिपुतिमिरं उदस्योदीयमानं दिनादौ दिनकृतं इव लक्ष्मीस्त्वां समभ्येतु भूयः ।। १.४६ ।।
मालिनी छन्द
अर्थ: देव और कालचक्र के कारण अगाध विपत्ति समुद्र में डूबे हुए, प्रताप के नष्ट हो जाने से अप्रसन्न, विनष्ट धन-सम्पत्ति, शत्रुरूपी अन्धकार को विनष्ट कर उदित होने वाले आप को प्रातः काल के (कालचक्र के कारण पश्चिम समुद्र में निमग्न, प्रकाश के नष्ट हो जाने से निस्तेज एवं अन्धकार को दूर कर उदित होने वाले) सूर्य की भान्ति राज्यलक्ष्मी (कान्ति) फिर से प्राप्त हो ।
टिप्पणी: रात्रि भर पश्चिम के समुद्र में डूबे हुए निस्तेज सूर्य को प्रातः काल उदित होने पर जिस प्रकार पुनः उसकी कान्ति प्राप्त हो जाती है उसी प्रकार इतने दिनों तक विपत्तियों के अगाध समुद्र में डूबे हुए, निस्तेज एवं निर्धन आप को भी आपकी राज्यलक्ष्मी जल्द ही प्राप्त हो – यह मेरी कामना है ।
सर्ग का आरंभ श्री शब्द से हुआ था और उसका अन्त भी लक्ष्मी शब्द से हुआ । मंगलाचरण के लिए ऐसा ही शास्त्रीय विधान है । यह मालिनी छन्द है, जिसका लक्षण है, “ननमयययुतेय मालिनी भोगिलोकौ ।” छन्द में पूर्णोपमा अलङ्कार है ।
इति भारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जुनीये प्रथमः सर्गः ।।
11/10/19, 8:25 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-७ श्लोक ३३,३४,३५,३६
वाराहं श्वाविधा नाद्याद्दध्ना पृषतकुक्कुटी। आममांसानि पित्तेन, माषसूपेन मूलकम॥३३॥
अविं कुसुम्भ शाकेन, बिसैः सह विरूढकम्। माषसूपगुडक्षीरदध्याज्यैर्लाकुचं फलम्॥३४॥
फलं कदल्यास्तक्रेण दध्ना तालफलेन वा। कणोषणाभ्यां मधुना काकमाचीं गुडेन वा॥३५॥
सिद्धां वा मत्स्यपचने पचने नागरस्य वा। सिद्धामन्यत्र वा पात्रे कामात्तामुषितां निशाम्॥३६॥
वाराह(सुअर) का मांस साही(सेह या सौल) के मांस के साथ मिलाकर न खाएं।चितकबरा हरिन तथा मुर्गा का मांस दही के साथ नहीं खाना चाहिए। कच्चे मांसो को प्राणियों के पित्तद्रव के साथ न खाएं, उड़द की दाल के साथ मूली न खाएं, भेड़ के मांस को कुसुम्भ के शाक के साथ न खाएं। बिस(भंसीडा) के साथ अंकुरित धान्यों को बड़हर के फल को उड़द की दाल,गुड, दूध, दही तथा घी के साथ नहीं खाना चाहिए। केले के पके फल को मठा, दही अथवा ताड़ के फल के साथ, मकोय को पीपल तथा मरिच के साथ, मधु अथवा गुड़ के साथ नहीं खाना चाहिए। जिस पात्र में मछली पकायी गयी हो अथवा सोंठ पकायी गयी हो उसी पात्र में पकाया गया मकोय का शाक न खाएं। यदि दूसरे पात्र में मकोय का शाक पकाया गया हो, किन्तु रात भर का बासी हो, उसे भी भरपेट न खाएं।
12/10/19, 4:01 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙏🏼🙏🏼
12/10/19, 11:15 am – Abhinandan Sharma: योगवासिष्ठ बहुत दिनों से नहीं आयी । कृपया उसे क्रमवार, प्रत्येक श्लोक सहित ग्रुप पर डालने का कष्ट करें, जिससे हम सब उसे पढ़ सकें ।
12/10/19, 11:16 am – LE Ravi Parik : रामचरित मानस नही आ रही !
12/10/19, 11:52 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: Kya mai apna path shuru kru🙏
12/10/19, 12:34 pm – Abhinandan Sharma: योगवासिष्ठ, शुरू से प्रारम्भ कर सकते हैं ?
12/10/19, 12:39 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: मनुस्मृति समाप्त हो गयी क्या??
12/10/19, 1:05 pm – Abhinandan Sharma: नहीं, मनुस्मृति भी नहीं दिख रही बहुत समय से ।
12/10/19, 1:20 pm – Vaidya Ashish Kumar: बहुत महत्वपूर्ण(सबको शेयर करने की अनुमति देवें।)
12/10/19, 1:34 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: उत्तमानां स्वभावोऽयं परदुःखसहिष्णुता।।
स्वयं दुःखं च् संप्राप्तम् मन्यतेऽन्यस्य वार्यते।
दयालुरमदस्पर्श उपकारी जितेन्द्रियः।।
एतैश्च पुण्यस्तम्भैस्तु चतुर्भिर्धार्यते मही।
शि पु कोटि सं २४| २४ – २६
उत्तम पुरुषों का यह स्वभाव ही है कि वे दूसरों के दुःख को सहन नहीं कर पाते । अपने को दुःख प्राप्त हो जाय, इसे भी स्वीकार कर लेते हैं, किन्तु दूसरों के दुःख का निवारण ही करते हैं । दयालु, अभिमानशून्य, उपकारी और जितेंद्रिय – ये पुण्य के चार खम्भे हैं, जिनके आधार पर या पृथ्वी टिकी हुई है ।
12/10/19, 1:42 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: अपराधं बिना तस्मै क्रुध्यतां हानिरेव च ।।
उपस्कृतं पुरा यैस्तु तेभ्यो दुःखं हितं नहि ।
यदा च दीयते दुःखं तदा नाशो भवेदिह।।
शि. पु. कोटि. सं. २५| १४ – १५
बिना किसी अपराध के उन पर क्रोध करने से तुम्हारी हानि ही होगी । जिन्होंने पहले उपकार किया हो उन्हें यदि दुःख दिया जाय तो वह अपने लिए हितकारक नहीं होता । जब उपकारी को दुःख दिया जाता है, तब उससे इस जगत में अपना ही नाश होता है ।
12/10/19, 1:46 pm – Abhinandan Sharma: वाह, बहुत सुंदर
12/10/19, 1:55 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: 🙏🙏🙏
12/10/19, 3:25 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
श्री मनुस्मृति
तृतीय अध्याय
शूद्रावेदी पतत्यत्रेरुतथ्यतनयस्य च ।
शौनकस्य सुतोत्पत्त्या तदपत्यतया भृगोः । । ३.१६ । ।
शूद्रां शयनं आरोप्य ब्राह्मणो यात्यधोगतिम् ।
जनयित्वा सुतं तस्यां ब्राह्मण्यादेव हीयते । । ३.१७ । ।
दैवपित्र्यातिथेयानि तत्प्रधानानि यस्य तु ।
नाश्नन्ति पितृदेवास्तन्न च स्वर्गं स गच्छति । । ३.१८ ।
*अर्थ*
शूद्र कन्या के साथ विवाह करने वाला ब्राह्मण पतित हो जाता है। यह अत्रि व उतथ्य के पुत्र गौतम ऋषि का मत है।
शौनक ऋषि के मत से क्षत्रिय शूद्र कन्या में सन्तान पैदा करने से पतित होता है।
व भृगु ऋषि मत से शूद्र कन्या से विवाह करने वाले वैश्य के पौत्र हो जाने पर वह पतित होता है।
ब्राह्मण शूद्र स्त्री के संयोग से पतित होता है,व सन्तानोतपत्ति से
ब्राह्मणत्व से हीन हो जाता है।
शूद्रा स्त्री की प्रधानता में देव व पितर श्राद्ध में अन्न का ग्रहण नही करते,और वह पुरुष स्वर्गगामी नहीं होता।।
12/10/19, 3:26 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: वृषलीफेनपीतस्य निःश्वासोपहतस्य च ।
तस्यां चैव प्रसूतस्य निष्कृतिर्न विधीयते । । ३.१९ । ।
चतुर्णां अपि वर्णानं प्रेत्य चेह हिताहितान् ।
अष्टाविमान्समासेन स्त्रीविवाहान्निबोधत । । ३.२० । ।
ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथासुरः ।
गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोऽधमः । । ३.२१ । ।
यो यस्य धर्म्यो वर्णस्य गुणदोषौ च यस्य यौ ।
तद्वः सर्वं प्रवक्ष्यामि प्रसवे च गुणागुणान् । । ३.२२ । ।
षडानुपूर्व्या विप्रस्य क्षत्रस्य चतुरोऽवरान् ।
विट्शूद्रयोस्तु तानेव विद्याद्धर्म्यानराक्षसान् । । ३.२३ । ।
चतुरो ब्राह्मणस्याद्यान्प्रशस्तान्कवयो विदुः ।
राक्षसं क्षत्रियस्यैकं आसुरं वैश्यशूद्रयोः । । ३.२४ । ।
पञ्चानां तु त्रयो धर्म्या द्वावधर्म्यौ स्मृताविह ।
पैशाचश्चासुरश्चैव न कर्तव्यौ कदा चन । । ३.२५ । ।
पृथक्पृथग्वा मिश्रौ वा विवाहौ पूर्वचोदितौ ।
गान्धर्वो राक्षसश्चैव धर्म्यौ क्षत्रस्य तौ स्मृतौ । । ३.२६ । ।
अर्थ
शूद्रा का अधर चुम्बन से व उसकी सांस लगने से उस पुरुष की व उसकी सन्तान की पापशुद्धि का कोई उपाय नही है।
चारों वर्णों का लोक परलोक में
हित-अहित करने वाला आठ प्रकार का विवाह होता है। ब्राह्म,दैव,आर्य,प्रजापत्य,आसुर,गान्धर्व,राक्षश और पैशाच।।
जिस वर्ण का जो विवाह धर्मानुकूल हो और जो गुण-दोष जिसमें है उनके उतपन्न सन्तानों में जो है उनको मैं कहता हूं।।
ब्राह्मण को क्रम से पहले के छः विवाह धर्म है।अंतिम के चार क्षत्रिय,वैश्य, व शूद्र को धर्म है। पर राक्षस विवाह किसी के लिए अच्छा नही है।
ब्राह्मण के लिए प्रथम के चार विवाह श्रेष्ठ हैं। क्षत्रिय के लिए एक राक्षस,वैश्य और शूद्र के लिए एक असुर विवाह श्रेष्ठ माना गया है। पांच विवाहों में तीन प्रजापत्य,गान्धर्व, और राक्षस धर्म कहा गया है और दो पैशाच और आसुर अधम है, इस लिए इन दोनों को नहीं करना चाहिये।
पहले कहे हुए विवाह अलग-अलग या मिले हुए गान्धर्व और राक्षस क्षत्रियों के धर्म सम्बन्धी है।।
12/10/19, 9:26 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 2 श्लोक 1, 2
विहितां प्रियया मनःप्रियां अथ निश्चित्य गिरं गरीयसीम् ।
उपपत्तिमदूर्जिताश्रयं नृपं ऊचे वचनं वृकोदरः ।। २.१ ।।
अर्थ: द्रौपदी के कथन के अनन्तर भीमसेन प्रियतमा द्रौपदी द्वारा कही गयी मन को प्रिय लगने वाली वाणी को अर्थ-गौरव से संयुक्त मानकर राजा युधिष्ठिर से युक्तियुक्त एवं गंभीर अर्थों से युक्त वचन (इस प्रकार) बोले ।
टिप्पणी: द्रौपदी की उत्तेजक बातों से भीम मन ही मन प्रसन्न हुए थे, और उनमें उन्हें अर्थ की गंभीरता भी मालूम पड़ी थी । अतः उसी का अनुमोदन करने के लिए वह तर्कसंगत एवं अर्थ-गौरव से युक्त वाणी में आगे स्वयं युधिष्ठिर को समझाने का प्रयत्न करते हैं ।
पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।
यदवोचत वीक्ष्य मानिनी परितः स्नेहमयेन चक्षुषा ।
अपि वागधिपस्य दुर्वचं वचनं तद्विदधीत विस्मयं ।। २.२ ।।
अर्थ: क्षत्रिय कुलोचित स्वाभिमान से भरी द्रौपदी ने स्नेह से पूर्ण नेत्रों से (ज्ञान नेत्रों से) चारों ओर देखकर जो बातें (अभी) कहीं हैं, बृहस्पति के लिए भी कठिनाई से कहने योग्य उन बातों से सब को विस्मय होगा । अथवा कठिनाई से भी न कहने योग्य उन बातों से बृहस्पति को भी आश्चर्य होगा ।
टिप्पणी: भीमसेन के कथन का तात्पर्य यह है कि द्रौपदी ने जो कुछ कहा है वह यद्यपि स्त्रीजन सुलभ शालीनता के विरुद्ध होने के कारण विस्मयजनक है । तथापि उसमें बृहस्पति को भी आश्चर्यचकित करने वाली बुद्धि की बातें हैं, उन्हें आपको अङ्गीकार करना ही उचित है ।
वाक्यार्थहेतुक काव्यलिंग अलङ्कार ।
12/10/19, 10:25 pm – Shastra Gyan Pradeep Kanesh MP: तृष्णा बहुविधा माया बन्धनी पापकारिणी।
छित्त्वैतां ज्ञानखड्गेन सुखं तिष्ठति मानवः।।
ब्रह्मपुराण १३९/१४
“नाना प्रकार की तृष्णा बंधन में डालने वाली माया है, वह पाप कराती है: अतः ज्ञान रूपी रूपी खड्ग से उसका नाश कर देने पर मनुष्य सुख से रहता है ।”
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एकादशीव्रतं सम्यक्सेवनं कार्त्तिकस्य च ।।
एतद्व्रतद्वयं कांते ममातीव प्रियंकरम् ।
भुक्तिमुक्तिकरं सम्यक्पुत्रसंपत्तिकारकम् ।।
पद्मपुराण, उ०ख०,८९/९-१०
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं- ”एकादशी व्रत और कार्तिक मास का सेवन- यह दोनों व्रत मुझे बहुत ही प्रिय है और भोग और मोक्ष देने वाले और पुण्य, पुत्र और संपत्ति देने वाले हैं ।”
13/10/19, 2:20 am – +91 91721 66059:
13/10/19, 7:17 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: फोटो इस ग्रुप के लिए मान्य नहीं, अगर कुछ डालना ही है तो कृपया टाइप या कॉपी/पेस्ट कर सकते हैं पर फोटो डालने से बचें 🙏🏼
13/10/19, 7:22 am – Abhinandan Sharma: पर मैंने देखा, ये फोटो फॉरवर्ड नहीं दिखा रहा है इसलिए चल जायेगी |
13/10/19, 7:35 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👍🏼
13/10/19, 7:37 am – Ashu Bhaiya: कोई भी फोटो डाउनलोड करो और शेयर करो, फारवर्ड का चिह्न नहीं आएगा । लेकिन है तो अग्रप्रेषण ही ।
13/10/19, 7:46 am – Abhinandan Sharma: ठीक है, महोदय ! पहली बार कोई बात नहीं पर अगली बार कृपया हमें सहयोग करें और इस प्रकार के फोटो ग्रुप पर न डालें |🙏
13/10/19, 7:50 am – +91 : 🙏🏻
13/10/19, 9:26 am – Shastra Gyan Pradeep Kanesh MP: This message was deleted
13/10/19, 9:26 am – Shastra Gyan Pradeep Kanesh MP: शाठ्येनापि नरा नित्यं ये स्मरन्ति जनार्दनम्।
तेऽपि यान्ति तनुं त्यक्त्वा विष्णुलोकमनामयम्।।
ब्रह्मपुराण २१६/८८
“जो लोग शठता से भी सदा भगवान जनार्दन का स्मरण करते हैं, वे भी देह त्याग के पश्चात रोग-शोक से रहित श्रीविष्णुधाम को प्राप्त होते हैं ।”
—⚜—
आश्विनस्य तु मासस्य या शुक्लैकादशी भवेत्।
कार्तिकव्रतनियमं तस्यां कुर्यादतंद्रितः ।।
पद्मपुराण, उ०ख०,९२/३
भूयः शृणुष्व विप्रेंद्र कार्तिकस्य च वैभवम् ।
दशमीदिनमारभ्य दशम्यां तु समापयेत् ।।
पौर्णमासीं समारभ्य पौर्णमास्यां समापयेत् ।
आश्विनस्य हरिदिनीं समारभ्य तु भक्तिमान् ।।
स्कन्दपुराण, वै०ख०,का०मा०३/१-२
मासों में श्रेष्ठ, भगवान विष्णु को प्रिय कार्तिक मास के व्रत को आश्विन शुक्ल पक्ष की दशमी से आरंभ कर कार्तिक शुक्ल दशमी को समाप्त करें अथवा अश्विन की पूर्णिमा को आरंभ करके कार्तिक की पूर्णिमा को पूरा करें अथवा आश्विन महीने में शुक्ल पक्ष की एकादशी से आरम्भ करे ।
13/10/19, 5:53 pm – +91: 😂😉
13/10/19, 6:25 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: अर्थात??
13/10/19, 7:42 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 2 श्लोक 3, 4
विषमोऽपि विगाह्यते नयः कृततीर्थः पयसां इवाशयः ।
स तु तत्र विशेषदुर्लभः सदुपन्यस्यति कृत्यवर्त्म यः ।। २.३ ।।
अर्थ: नीतिशास्त्र बड़ा ही दुरूह और गहन विषय है, फिर भी जलाशय की भान्ति अभ्यास आदि (सन्तरण आदि) करने से उसमें प्रवेश किया जा सकता है । किन्तु इस प्रसङ्ग से ऐसा व्यक्ति मिलना अत्यन्त दुर्लभ है, जो सन्धि विग्रह आदि कार्यों को (स्नानादि कार्यों को) देश काल की परिस्थिति के अनुसार (गड्ढा, पत्थर, ग्राह आदि की जानकारी) प्रस्तुत करता है ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है की नीतिशास्त्र बड़ा गम्भीर है । यह उस जलाशय के समान है जिसमें बन्धे हुए घाट के बिना प्रवेश करना बड़ा दुष्कर है । पता नहीं कहाँ उसमें गहरा गड्ढा है, कहाँ शिलाखण्ड है, कहाँ ग्राह बैठा है ? राजनीति में भी इसी तरह की गुत्थियां रहती हैं, उसमें धीरे धीरे प्रवेश के अभ्यास द्वारा ही गति की जा सकती है । जैसे कोई विरला ही सरोवर की भीतरी बातों को जानता है और स्नानार्थी को सब सूचनाएं देकर स्नान के लिए प्रस्तुत करता है, उसी प्रकार सन्धि-विग्रह आदि कार्यों को जाननेवाला कोई विरला ही होता है, जो समय समय पर उनके उपयोग की आवश्यकता समझाकर राजनीति सिखानेवालों दक्ष बनाता है । सभी लोग ऐसा नहीं कर सकते । द्रौपदी में वह सब गुण हैं, जो विस्मयजनक है किन्तु वह जो कुछ इस समय कह रही है, उसका हमें पालन करना चाहिए
परिणामसुखे गरीयसि व्यथकेऽस्मिन्वचसि क्षतौजसां ।
अतिवीर्यवतीव भेषजे बहुरल्पीयसि दृश्यते गुणः ।। २.४ ।।
अर्थ: परिणाम में लाभदायक और श्रेष्ठ किन्तु क्षीण शक्ति वालों (दुर्बल पाचनशक्ति वालों) के लिए भयङ्कर दुःखदायी, स्वल्प मात्रा में भी अत्यन्त पराक्रम देनेवाली औषधि की भान्ति द्रौपदी की (इस) वाणी में अत्यन्त गुण दिखाई पड़ रहे हैं ।
टिप्पणी: जिस प्रकार उत्तम औषधि की अल्प मात्रा में भी आरोग्य, बल, पोषण आदि अनेक गुण होते हैं, परिणाम लाभदायक होता है, किन्तु वही क्षीण पाचन शक्ति वालों के लिए भयङ्कर कष्टदायिनी होती है, उसी प्रकार द्रौपदी की यह वाणी भी यद्यपि संक्षिप्त है, किन्तु श्रेष्ठ है । इसका परिणाम उत्तम है और इसके अनुसार आचरण करने से निश्चय ही आपके ऐश्वर्य एवं पराक्रम की वृद्धि होगी । मुझे तो इसमें मानरक्षा, राज्यलक्ष्मी की पुनः प्राप्ति आदि अनेक गुण दिखाई पड़ रहे हैं ।
उपमा अलङ्कार।
14/10/19, 5:27 am – Abhinandan Sharma: बहुत सुंदर 👍 हाथी और माला से कौन सी कथा याद आती है ?
14/10/19, 5:29 am – Abhinandan Sharma: 👏👏👍
14/10/19, 5:31 am – Abhinandan Sharma: जय हो युधिष्ठिर महाराज । आपका धैर्य अप्रतिम है 🙏
14/10/19, 5:35 am – Abhinandan Sharma: इसी प्रकार से, अन्य स्थानों पर भी महाभारत और रामायण से लोगों ने बहुत कुछ कहा है बस कहने का तरीका अलग है । कबीर पूरा समय गीता ही बांचते रहे, लोग समझ ही न पाए।
14/10/19, 5:40 am – Abhinandan Sharma: आप इस ग्रुप से कुछ भी कॉपी करें । इस ग्रुप का उद्देश्य ही, असल ग्रंथों और शास्त्रों का प्रसारण है। व्हाट्सएप्प और फेसबुक द्वारा धर्म के दुष्प्रचार को, केवल शास्त्रों के असल प्रचार से ही काटा जा सकता है ।
14/10/19, 5:45 am – Abhinandan Sharma: 👍
14/10/19, 5:55 am – Abhinandan Sharma: माता-पिता के लिए सबसे बड़ी दुविधा है कि बच्चों को झूठ बोलने से कैसे रोकें ! वो भी तब जब स्वयं झूठ बोलते हों | आम जीवन में, ऑफिस में, घर में, पचासों बार, झूठ बोलना पड़ता है | पर ये समझना चाहिए कि कोई झूठ क्यों बोलता है | झूठ केवल 3 ही परिस्थितियों में बोला जाता है – पहला, जब आपका कोई लोभ हो, तब व्यक्ति झूठ बोलता है, दूसरा, जब आपको कोई भय हो, जान का या मार का या कोई और, तब व्यक्ति झूठ बोलता है और तीसरा, जब किसी का भला करना हो | आपको ये मनन करना चाहिए, कि हम झूठ क्यों बोलते हैं | ऐसी क्या बिजली गिर जायेगी, अगर हम झूठ नहीं बोलेंगे तो | सत्य बोलने का अभ्यास कैसे करें, ये समझना चाहिए तब ही आप अपने बच्चों को समझा पायेंगे | इसी बात को अलग तरीके से रखता हुआ, शास्त्र ज्ञान का ये वीडियो |
https://youtu.be/2R1BOWUtKWw
14/10/19, 7:20 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: This message was deleted
14/10/19, 7:25 am – +91: 👍🏻
14/10/19, 7:35 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🤔 गजेन्द्र मोक्ष के अलावा तो और कोई कथा ध्यान नहीं आती।
14/10/19, 8:28 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: इसमें समलिंगिता विलासिनी पत्नी का अर्थ या परिभाषित कीजिये🙏
14/10/19, 8:32 am – LE Ravi Parik C Block Pragati Maidan C1107: इंद्र देव के अभिमान की कथा
14/10/19, 8:33 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: सही🙏
14/10/19, 8:56 am – Abhinandan Sharma: इंद्र को श्राप वाली ? जिसमें ऐरावत, इंद्र को दी हुई माला को कुचल देता है !!!
14/10/19, 8:58 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙂 दोबारा पढ़नी पड़ेगी ।
14/10/19, 9:00 am – LE Ravi Parik: Ji
14/10/19, 9:01 am – Abhinandan Sharma: कामिनी का अर्थ विलासिनी कर दिया गया है, जबकि समलिंगीता कामिनी का अर्थ होगा, जिससे मिलकर पुरुषत्व पूरा हो (स्त्री) और जो कामनाओं को पूरा करने वाली हो। रात की बात हो रही है, शायद इसलिए अनुवाद करने वाले ने, कामिनी की जगह विलासिनी शब्द का प्रयोग किया है ।
14/10/19, 9:13 am – Shastra Gyan Pradeep Kanesh MP: श्रीमद्भागवत्स्यापि श्रवणं यः समाचरेत ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः परं निर्वाणमृच्छति।।
स्क०पु०वै०का०मा० ६/२०
“जो श्रीमद्भागवत का श्रवण (कार्तिक मास में) करता है वह सब पापों से मुक्त होकर, शांति को प्राप्त होता है ।”
—⚜—
*एतदेव सुजातानां लक्षणं भुवि देहिनाम्। *
कृपार्द्रं यन्मनो नित्यं तेषामप्यहितेषु हि।।
ब्रह्मपुराण १७०/८३
“इस पृथ्वी पर उत्तम कुल में उत्पन्न हुए साधु पुरुषों का यही लक्षण है कि अहित करने वालों के प्रति भी उनके मन में सदा करुणा ही भरी रहती है ।”
14/10/19, 9:33 am – Webinar Chinmay Vashishth SG: देवासुर संग्राम की नींव यही से रखी गयी थी । यहां ऋषि दुर्वासा इंद्र को श्रीहीन होने का श्राप देते है।
14/10/19, 11:41 am – +91 : 👍🏻👌🏻
14/10/19, 12:11 pm – Shastra Gyan Pradeep Kanesh MP: 🙏🏻🌸🙏🏻
14/10/19, 11:06 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-७ श्लोक३७,३८
मत्स्यनिस्तलनस्नेहे साधिताः पिप्पलीस्त्यजेत्। कांस्ये दशाहमुषितं सर्पिरूष्णं त्वरुष्करे॥३७॥
जिस स्नेह(तैल या घी) में मछली का मांस तला गया हो,उसी स्नेह में तली गयी पिप्पली का सेवन न करें। कांसा के पात्र में दस दिन तक रखे हुए घी (यह घी देखने में हरा या नीला हो जाता है और खा लेने पर इससे वमन होने लगते है, अतः इस) को न खाएं। भिलावा के सेवनकाल में उष्णताकारक आहार-विहारो का सेवन न करें।
भासो विरूध्यते शूल्यः कम्पिल्लस्तक्रसाधितः। एकध्यं पायसुराकृशराः परिवर्जयेत्॥३८॥
भास(गीध) का मांस शूल(लोहे की छड़) पर लपेट कर अंगारों में पकाया गया विरूद्ध होता है। मठा के साथ पकाया गया काम्पिल्य (कबीला) विरूद्ध होता है।
पायस (खीर, खोया या मलाई) आदि पदार्थों को सुरा (मद्यभेद) एवं खिचड़ी के साथ नहीं खाना चाहिए।
14/10/19, 11:51 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-७ श्लोक ३९,४०
मधुसर्पिर्वसातैलपानीयानिद्विशस्त्रिशः। एकत्र वा समांशानि विरुध्यन्ते परस्परम्॥३९॥
भिन्नांशे अपि मध्वाञ्ये दिव्यवार्यनुपानतः। मधुपुष्करबीजं च मधुमैरेयशाकरम्॥३९॥
मन्थानुपानः क्षैरेयो, हारिद्रः कटुतैलवान्।
समान भाग मधु-घृत, वसा (प्राणिज स्नेह), तैल, जल— इश द्रव्यों को दो-दो करके अथवा तीन-तीन को एकसाथ मिलाकर सेवन करना विरूद्ध होता है।
वक्तव्य- केवल इन्हीं द्रव्यों का परस्पर संयोग विरूद्ध होता है। इनके साथ और भी द्र्व्य मिलाये गये हो तो कोई हानि नहीं होती। जैसे— अगस्त्यलेह। यह दो-दो या तीन-तीन का जो योग कहा गया है, यह उपलक्षण मात्र है। यह संयोग चार-पांच द्रव्यों का भी हो सकता है
कम-ज्यादा परिमाण मे भी मिलाये गये मधु-घृत वर्षाजल के अनुपात से विरुद्ध हो जाते हैं। मधु तथा कमलबीज(कमलगट्टा), मधु तथा मैरेय(धान्यासव— चन्द्रनन्दन के अनुसार, खर्जूरासव (अरूणदत्त एवं इन्दु के अनुसार) तथा शर्करासव येभी परस्पर विरूद्ध होते हैं। खीर, मठा या सत्तू के घोल के साथ और हारिद्रक(पीले रंग का छत्राक नामक कन्द-विशेष, इसको संस्वेदज शाक कहा है) को सरसों के तेल में तलकर नहीं खाना चाहिए।
15/10/19, 12:06 am – FB Piyush Khare Hamirpur: ये आप स्वयं टाइप करते है 😌
15/10/19, 12:09 am – Shastragyan Abhishek Sharma: जी समूह के सभी सदस्य स्वप्रेषित post ही डालते हैं।
15/10/19, 12:25 am – FB Susheel Pareek Jaipur Shastra Gyan: कहते हैं कि ब्रह्मा जी का विश्व में एक ही मंदिर है और इसके पीछे कोई कथा है जानना चाहता हूं क्या वास्तव में कोई ऐसी कथा या कहानी है और क्या कोई इसके बारे में मुझे विस्तार से बता सकता है यह मेरी उत्सुकता है सहयोग अपेक्षित है।
15/10/19, 11:30 am – Shastra Gyan Pradeep Kanesh MP: कार्तिके मासि विप्रेंद्र यस्तु गीतां पठेन्नरः ।
तस्य पुण्यफलं वक्तुं मम शक्तिर्न विद्यते ।।
गीतायास्तु समं शास्त्रं न भूतं न भविष्यति ।
सर्वपापहरा नित्यं गीतैका मोक्षदायिनी ।।
स्क०पु०वै०का०मा० २/४९-५०
ब्रह्माजी नारदजी से कहते हैं- “हे देवर्षि ! जो मनुष्य कार्तिक मास में प्रतिदिन गीता का पाठ करता है उसके पुण्य फल का वर्णन करने की शक्ति मुझ में नहीं । गीता के समान कोई शास्त्र ना तो हुआ है और ना होगा । एक मात्र गीता ही सदा सब पापों को हरने वाली और मोक्ष देने वाली है ।”
15/10/19, 12:20 pm – You added Nainesh Dhanani
15/10/19, 12:22 pm – Nainesh Dhanani: Dhanyawad
15/10/19, 12:31 pm – Abhinandan Sharma: इस ग्रुप में फ़ॉर्वर्डेड पोस्ट डालना मना है | नेट से कोई भी कंटेंट, ख़ास तौर से बिना सन्दर्भ के अथवा तोडा मरोड़ा हुआ, डालना भी मना है | जो आपने स्वयं पढ़ा हो, किसी शास्त्र से, कोई दोहां, कोई चोपाई, कोई पुराण, कुछ भी, वो आप इस ग्रुप में डाल सकते हैं | ग्रुप ज्वाइन करने वाले, खुद भी कोई भी एक पुस्तक, ग्रुप एडमिन के परामर्श से प्रारंभ कर सकते हैं और उसे पढ़कर ग्रुप में अन्य मेम्बेर्स को पढने के लिए डाल सकते हैं | अभी ग्रुप में ४-5 पुस्तक इस प्रकार के प्रयास से चल रही है, जिससे सभी लोग वो ग्रन्थ पढ़ सकें | स्वागतम 🙏
15/10/19, 12:33 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: एक बड़े भैया मनुस्मृति पढ़ा रहे थे, वो एक msg किये उसके बाद से फिर भेजे ही नही 😒
15/10/19, 12:40 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 2 श्लोक 5, 6
इयं इष्टगुणाय रोचतां रुचिरार्था भवतेऽपि भारती ।
ननु वक्तृविशेषनिःस्पृहा गुणगृह्या वचने विपश्चितः ।। २.५ ।।
अर्थ: सुन्दर अर्थों से युक्त द्रौपदी की यह वाणी गुणग्राही आप के लिए भी रुचिकर होनी चाहिए । क्योंकि गुणों को ग्रहण करनेवाले विद्वान् लोग (किसी) वाणी में वक्ता की स्पृहा नहीं रखते ।
टिप्पणी: अर्थात गुणग्राही लोग किसी भी बात के अच्छे को तुरन्त स्वीकार कर लेते हैं, वे यह नहीं देखते कि उसका वक्ता कोई पुरुष है या स्त्री है ।
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।
चतसृष्वपि ते विवेकिनी नृप विद्यासु निरूढिं आगता ।
कथं एत्य मतिर्विपर्ययं करिणी पङ्कं इवावसीदति ।। २.६ ।।
अर्थ: हे राजन ! आन्वीक्षिकी आदि चारों विद्याओं में प्रसिद्धि को प्राप्त करनेवाली आपकी विवेकशील बुद्धि, दलदल में फसी हुई हथिनी की भान्ति विपरीत अवस्था को प्राप्त करके क्यों विनष्ट हो रही है ?
टिप्पणी: अर्थात जैसे हथिनी दलदल में फंसकर विनष्ट हो जाती है उसी प्रकार चारों विद्याओं में निपुण आपकी बुद्धि आज की विपरीत परिस्थिति में फंसकर क्यों नष्ट हो रही है ?
उपमा अलङ्कार।
15/10/19, 12:44 pm – Abhinandan Sharma: आएगी, आएगी, मनुस्मृति भी आएगी ।
15/10/19, 2:32 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: माफ कीजियेगा विलम्ब के लिए🙏
16/10/19, 12:16 am – Shastra Gyan Pradeep Kanesh MP added +91 77488 61007
16/10/19, 10:32 am – Shastra Gyan Pradeep Kanesh MP: यावंतः कार्तिके मासि वर्तंते पितृतर्पणे
तिलास्तत्संख्यकाब्दानि पितरः स्वर्गवासिनः
पद्मपुराण, उ०ख०, ९३/२१
“कार्तिक मास में पितरों के तर्पण में जितने तिल होते हैं, उतने ही वर्ष तक पितृ स्वर्ग में वास करते हैं ।”
—⚜—
कृत्वाऽपि बहुशः पापं नरा मोहसमन्विताः।
न यान्ति नरकं नत्वा सर्वपापहरं हरिम्।।
ब्रह्मपुराण २१६/८७
“मोह में पड़कर अनेकों बार पाप कर लेने पर भी यदि मानव सर्वपापहरी श्रीहरी को नमस्कार करते हैं तो वे नरक में नहीं पड़ते ।”
16/10/19, 10:51 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: मानव वर्षो तक या पित्र वर्षो तक पितृ स्वर्ग में वास करते हैं
16/10/19, 11:13 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: This message was deleted
16/10/19, 11:14 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
श्री मनुस्मृति
तृतीय अध्याय
: आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतशीलवते स्वयम् ।
आहूय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तितः । । ३.२७ । ।
यज्ञे तु वितते सम्यगृत्विजे कर्म कुर्वते ।
अलङ्कृत्य सुतादानं दैवं धर्मं प्रचक्षते । । ३.२८ । ।
एकं गोमिथुनं द्वे वा वरादादाय धर्मतः ।
कन्याप्रदानं विधिवदार्षो धर्मः स उच्यते । । ३.२९ । ।
अर्थ
वेदज्ञ व सुशील वर को आमंत्रित करके उसका पूजन-सत्कार करके कन्यादान को ब्राह्म विवाह कहते हैं।बड़े यज्ञ में ऋत्विक ब्राह्मण को,वस्त्र-आभूषण से सुशोभित कन्या का दान ” दैव विवाह कहा जाता है।
एक एक या दो दो गौ और बैल यज्ञ के लिए वर से लेकर जो विवाह होता है उसे आर्ष विवाह कहते हैं।
16/10/19, 11:14 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ,
16/10/19, 12:18 pm – Shastra Gyan Pradeep Kanesh MP: इसका स्प्ष्ट उल्लेख यहाँ आगे नही दिया गया है ।
16/10/19, 12:20 pm – Abhinandan Sharma: पितर वर्ष |
16/10/19, 12:43 pm – Shastra Gyan Pradeep Kanesh MP: जी
16/10/19, 1:06 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: 🙏
16/10/19, 5:35 pm – Abhinandan Sharma: बालसंस्कारशाला
सभी पुराने श्लोकों की पुनरावृत्ति और अभ्कयास कराया गया |
१. अभिवादनस्य शीलस्य नित्यं वृद्धो पसेविनः ….
२. शुक्लाम्बरधरंदेवं शशिवर्णं ….
- कर्पूरगौरं करुणावतारं …..
४. या कुन्देन्दुतुषारहार धवला…. - त्वमेव माता च पिता त्वमेव …
६. ब्रह्मामुरारीस्त्रिपुरान्त्कारी …..
इस बार यजुर्सेवेद से, बच्चो को पहली बार कोई मन्त्र याद कराया, जो स्वस्तिवाचन के नाम से प्रसिद्ध है |
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः। स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः। स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
कथा- इसके बाद बच्चों को भस्मासुर की कहानी सुनाई गयी जिसमें एक राक्षस शिवजी को प्रसन्न करके, वरदान प्राप्त करता है कि वो जिसके सर पर हाथ रखे, वो भस्म हो जाए | वरदान मिलते ही, सबसे पहली टेस्टिंग शिवजी के ऊपर ही करने का प्रयास करता है | फिर विष्णु जी, मोहिनी रूप धारण करके, शिवजी को भस्मासुर से बचाते हैं | इस कथा से बच्चो को सिखाया गया कि अपना काम स्वयं नहीं बिगाड़ना चाहिए | जैसे अगर घर पर स्कूल का होमवर्क नहीं करेंगे, तो अपना काम स्वयं ही बिगाड़ेंगे, होमवर्क न करने से मम्मी, पापा का कोई नुक्सान नहीं होगा, बल्कि बच्चो का ही नुक्सान होता है | ऐसे ही, अगर कोई काम मिला है तो याद से उसे कर लिया जाए, वरना बाद में, काम न करने की वजह से नुक्सान उठाना पड़ता है और उस आलस के चक्कर में, हम अपना काम खुद ही बिगाड़ लेते हैं |
इसके बाद बच्चो को १ से 12 तक के square याद कराये, अनुप्रास अलंकार का पुनर्भ्यास कराया गया |
महाभारत – इसके बाद बच्चो को महाभारत की कथा सुनाई गयी, जिसमें द्रोणाचार्य द्वारा, कौरव और पांडवों को अस्त्र और शास्त्र की शिक्षा (बच्चो को अस्त्र और शस्त्र में अंतर भी बतलाया गया) | अश्वत्थामा को अलग से शिक्षा, अर्जुन का नोटिस करना और खुद भी सीखना | अर्जुन द्वारा गुरु सेवा और द्रोणाचार्य का रसोइये को बोलना कि अर्जुन को अँधेरे में खाना न दे | अर्जुन द्वारा अँधेरे में भोजन करना और शब्दभेदी बाण चलाना सीखना | द्रोणाचार्य का प्रसन्न होना और एकलव्य की कथा |
इस कहानी से बताया कि विद्या तीन ही प्रकार से प्राप्त होती है – धन देकर, विद्या के बदले विद्या या फिर गुरु की सेवा से | चौथा विद्या प्राप्त करने का कोई तरीका नहीं है |
कथा – बच्चो को शरद पूर्णिमा के चलते, चन्द्रमा को श्राप की कथा बताई गयी | इस कथा के माध्यम से, बच्चो को 27 नक्षत्रों के बारे में बताया गया | शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष के बारे में भी बताया गया |
शरद पूर्णिमा की रात को बच्चो को चन्द्रमा को शशांक क्यों कहते हैं, वो भी बताया गया |
Youtube Link – https://youtu.be/jnEwGPMKxSg
16/10/19, 10:14 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: This message was deleted
16/10/19, 10:14 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-७ श्लोक ४१,४२,४३,४४
उपोदकाऽतिसाराय तिल्कल्केन साधिता॥४१॥
बलाका वारूणीयुक्ता कुलमाषैश्च विरुध्यते। भृष्टा वराहवसया सैव सद्यो निहन्त्यसून्॥४२॥
तिल की चटनी के साथ पकाया गया (उपोदिका या उपोदका) का शाक विरूद्ध होता है। इसका सेवन करने से अतिसार होने लगता है।
बलाका (बगुला की स्त्री) का मांस वारुणी (सुरा) तथा कुल्माष (उबले हुए चना, मटर, मूंग) के साथ खाने से विरूद्ध होते हैं। बलाका का मांस सुअर की चर्बी में तल कर खाने से शीघ्र ही मारक हो जाता है।
तद्वत्तित्तिरिपत्राढ्यगोधालावकपिञ्जलाः। ऐरण्डेनाग्निना सिद्धास्तत्तैलेन विमूर्च्छिताः॥४३॥
तीतर आदि निम्नलिखित प्राणियों के मांस रेंड की लकड़ियों की आग में और रेंड के तेल में तले जाने पर ऊपर कहे गए बलाका-मांस की भांति मारक होते हैं। प्राणियों के नाम— तीतर, पत्राढ्य(मोर), गोह, लवा एवं गौरेया।
हारितमांसं हारिद्रशूलकप्रोतपाचितम्। हरिद्रावह्निना सद्यो व्यापादयति जीवितम्॥४४॥
हारीत(हारिल) पक्षी का मांस दारूहल्दी की लकड़ी में पिरोकर या लपेटकर हल्दी की लकड़ी की आग में पकाया गया शीघ्र मारक होता है।
16/10/19, 11:55 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
श्री मनुस्मृति
तृतीय अध्याय*
सहोभौ चरतां धर्मं इति वाचानुभाष्य च ।
कन्याप्रदानं अभ्यर्च्य प्राजापत्यो विधिः स्मृतः । । ३.३० । ।
ज्ञातिभ्यो द्रविणं दत्त्वा कन्यायै चैव शक्तितः ।
कन्याप्रदानं स्वाच्छन्द्यादासुरो धर्म उच्यते । । ३.३१ । ।
इच्छयान्योन्यसंयोगः कन्यायाश्च वरस्य च ।
गान्धर्वः स तु विज्ञेयो मैथुन्यः कामसंभवः । । ३.३२ । ।
हत्वा छित्त्वा च भित्त्वा च क्रोशन्तीं रुदन्तीं गृहात् ।
प्रसह्य कन्याहरणं राक्षसो विधिरुच्यते । । ३.३३ । ।
सुप्तां मत्तां प्रमत्तां वा रहो यत्रोपगच्छति ।
स पापिष्ठो विवाहानां पैशाचश्चाष्टमोऽधमः । । ३.३४ । ।
अर्थ
तुम दोनों साथ धर्माचरण करो"" ऐसा कहकर वर-कन्या का पूजन करके जो कन्यादान होता है उसे प्रजापत्य विवाह कहते है
वर के माता-पिता को वह कन्या को यथाशक्ति धन देकर जो इच्छापूर्वक कन्यादान हो वह आसुर विवाह कहलाता है।
कन्या और वर के इच्छा से जो संयोग होता है उसे गान्धर्व विवाह कहते है । यह कामवश भोगमात्र के लिए है धर्मार्थ नही।
मारकर,दुख देकर, रोती हुई कन्या को जबरदस्ती हर कर ले जाना राक्षश विवाह कहलाता है।
सोती,नशे में,बेसुध कन्या के साथ एकांत में सभोग करना पैशाचविवाह होता है यह महाअधम व पापपूर्ण विवाह है
16/10/19, 11:55 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: This message was deleted
17/10/19, 4:30 am – +91 94373 27330: चना मटर मुग साथ खाने से विरूध्द है
क्या चना और मुग साथ खाने से ठीक है या?
17/10/19, 8:48 am – Shastra Gyan Pradeep Kanesh MP: This message was deleted
17/10/19, 8:48 am – Shastra Gyan Pradeep Kanesh MP: This message was deleted
17/10/19, 8:49 am – Shastra Gyan Pradeep Kanesh MP: तदक्षयं हि लभते अन्नदानं विशेषतः ।
उदधीनां च विप्रर्षे क्षयो नैवोपपद्यते ।।
स्कन्दपुराण, ०१/३३
‘‘कार्तिक मास में अन्न दान का महत्व अधिक है । उससे पापों का सर्वथा नाश हो जाता है ।
—⚜—
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत ्ँ समाः ।
यजुर्वेद ४०/२
‘‘इस लोक में कर्मशील रहते हुए ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करे ।‘‘
—⚜—
17/10/19, 4:10 pm – Manvendra Singh Bilaspur changed their phone number to a new number. Tap to message or add the new number.
17/10/19, 10:17 pm – Shastra Gyan Pradeep Kanesh MP left
18/10/19, 10:35 am – +91 : संप्राप्तं कार्तिकं दृष्ट्वा परान्नं यस्तु वर्जयेत् ।
दिनेदिनेऽतिकृच्छ्रस्य फलं प्राप्नोत्ययत्नतः ।।
स्कन्दपुराण, ०१/३४-३६
‘‘जो कार्तिक मास प्राप्त हुआ देख पराये अन्न को सर्वथा त्याग देता है, वह अतिकृच्छ्र यज्ञ का फल प्राप्त करता है ।‘‘
—⚜—
केवलाघो भवति केवलादी ।
ऋग्वेद १/११७/६
‘‘जो मनुष्य अकेले खाता है, वह अकेले पाप का भागी होता है।‘‘
18/10/19, 10:40 am – Poonam Goyal Delhi Artist Shastra Gyan: मनुष्य के अकेले खाने से तात्पर्य भोजन से है?
18/10/19, 10:44 am – Dayadhankr Soryvanshi Hts, Akhilesh Frnd: अतिक्रक्स यज्ञ क्या होता है ।।
18/10/19, 11:06 am – +91 : जी
18/10/19, 11:06 am – +91 : थोड़ी प्रतिक्षा करे
18/10/19, 2:34 pm – Nainesh Dhanani left
18/10/19, 9:26 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 2 श्लोक 7
विधुरं किं अतः परं परैरवगीतां गमिते दशां इमां ।
अवसीदति यत्सुरैरपि त्वयि सम्भावितवृत्ति पौरुषं ।। २.७ ।।
अर्थ: शत्रुओं द्वारा आपके इस दयनीय अवस्था में पहुंचाए जाने पर, देवताओं द्वारा भी प्रशंसित आपका जो पुरुषार्थ नष्ट हो रहा है उससे बढ़कर कष्ट देने वाली दूसरी बात (भला) क्या होगी ?
टिप्पणी: अर्थात आपके जिस ऐश्वर्य एवं पराक्रम की प्रशंसा देवता लोग भी करते थे, वह नष्ट हो गया है, अतः इससे बढ़कर कष्ट की क्या बात होगी । शत्रुओं ने आपको ऐसी दुर्दशाजनक स्थिति में पहुँचा दिया है, इसका आपको बोध नहीं हो रहा है ।
काव्यलिङ्ग अथवा अर्थापत्ति अलङ्कार ।
19/10/19, 12:40 am – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-७ श्लोक ४५,४६
भस्मपांशुपरिध्वस्तम् तदेव च समाक्षिकम्। यत्किञ्चद्दोषमुत्क्लेश्य न हरेत्तत्समासतः॥४५॥
विरुद्धम् शुद्धिरत्रेष्टा शमो वा तद्विरोधिभिः। द्रव्यैस्तैरेव वा पूर्वं शरीरस्याभिसंस्कृतिः॥४६॥
भस्म(राख) तथा धूल से धूसरित (मलिन) एवं मधु मिलाकर खाया गया हरित पक्षी का मांस तत्काल मारक होता है।
जो कोई आहार-पदार्थ वात आदि दोषों को उभाड़कर उन्हें निकालता नहीं, वह आहार संयोगविरूद्ध कहा जाता है।
वक्तव्य- यहां केवल संयोगविरूद्ध की चर्चा की गयी है। चरक संहिता में इसके अनेक भेदों का इस प्रकार वर्णन किया है। देखें— देशविरुद्ध, कालविरूद्ध, अग्निविरूद्ध, मात्राविरूद्ध, सात्म्यविरूद्ध, दोषविरूद्ध, संस्कारविरूद्ध, वीर्यविरूद्ध, कोष्ठविरूद्ध, अवस्थाविरूद्ध, क्रमविरूद्ध, परिहारविरूद्ध, उपचारविरूद्ध, पाकविरूद्ध, संयोगविरूद्ध, सम्पद्विरूद्ध और विधिविरूद्ध। देखे— च.सू. २६/८६-१०१।
19/10/19, 6:23 pm – Abhinandan Sharma:
19/10/19, 6:23 pm – Abhinandan Sharma:
19/10/19, 6:23 pm – Abhinandan Sharma:
19/10/19, 6:23 pm – Abhinandan Sharma:
19/10/19, 6:24 pm – SAIP Charu: Gud job sir👍
19/10/19, 6:25 pm – Abhinandan Sharma:
19/10/19, 6:26 pm – Abhinandan Sharma: आज की बालसंस्कारशाला St Xavier high School में आयोजित की गयी, जिसमें कक्षा 3 से कक्षा 7 तक के बच्चों ने भाग लिया | सत्र में बच्चों को ब्रह्मा मुरारि त्रिपुरांतकारी वाला श्लोक कंठस्थ कराया और उसी श्लोक से, राहु और केतु की कथा सुनाई | उसी राहु और केतु को, किस प्रकार भारतीय ज्योतिष में छाया ग्रह कहा जाता है, ये बताया और कैसे राहु और केतु से सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण होता है |
ये भी बताया कि भारतीय ज्योतिष में, सूर्य, चंद्रमा को भी ग्रह क्यों माना गया है, जबकि वेस्टर्न साइंस इनको ग्रह क्यों नहीं मानता | इसके अलावा बच्चों को निम्न टॉपिक भी सिखाये –
१. देवता कौन होते हैं ? कितने होते हैं ? प्रथम देवता – माता-पिता, फिर गुरु और उसके बाद सारे देवता |
२. कंठव्य, तालव्य, ओष्ठ्व्य आदि और क के बाद ख ही क्यों आता है ? त के बाद थ ही क्यों आता है ? आदि
- ड़, ञ्, ण आदि अक्षरों कहाँ प्रयोग होते है ? अंडा, डंडा, शंकर, नंदन ये सब कैसे गलत हैं और बिंदी का प्रयोग कहाँ होता है और कहाँ नहीं !
४. अनुप्रास अलंकार क्या होता है ? उदाहरण, घर से बनाकर लिखकर लाने का होमवर्क | - संस्कृत में शून्य = आकाश (ख), १ = चन्द्र, २ = चक्षु, हस्त 3 = राम (तीन राम कौन कौन से हैं ?), ४ = वेद (वेद क्या होते हैं ? कितने होते हैं ?), 5 = बाण
ये सत्र बहुत अच्छा रहा | आप भी अपने बच्चों के स्कूल को एप्रोच कीजिये और वहां के प्रिंसिपल और HM से इस प्रकार की बालसंस्कारशाला आयोजित करने के लिए कहिये | क्योंकि नैतिक मूल्यों की शिक्षा उतनी ही आवश्यक है, जितनी आवश्यक आधुनिक शिक्षा | अपने शास्त्रों का ज्ञान होगा, तो बड़े होकर ये बच्चे, अपना रास्ता खुद ढूंढ लेंगे और ये खाली लुढकने वाले लोटे नहीं होंगे, जिन्हें कोई भी बाबा / राजनीतिक पार्टी धर्म के नाम पर बरगला सके |
आपका सहयोग आवश्यक रूप से अपेक्षित है | इस वीडियो को और मैसेज को अन्य ग्रुप्स पर शेयर करें 🙏
19/10/19, 6:59 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👌🏼👌🏼
19/10/19, 8:58 pm – FB Sanjay Kr Singh Saptarshi: २,३,४, पर विस्तृत विवरण यहाँ उपलब्ध हो सकता है तो🙏🙏🙏राहु केतु भी
19/10/19, 11:13 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: बहुत बढ़िया कार्य कर रहे हैं आप… धन्यवाद शर्माजी
20/10/19, 12:10 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 2 श्लोक 8, 9, 10
द्विषतां उदयः सुमेधसा गुरुरस्वन्ततरः सुमर्षणः ।
न महानपि भूतिं इच्छता फलसम्पत्प्रवणः परिक्षयः ।। २.८ ।।
वियोगिनी छन्द
अर्थ: ऐश्वर्य की कामना करनेवाले व्यक्ति, क्षय-पर्यवसायी शत्रु की उन्नति को सह लेते हैं किन्तु अभ्युदयकारी शत्रु की वर्तमान कालिक अवनति की भी उपेक्षा नहीं करते ।
पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार
अचिरेण परस्य भूयसीं विपरीतां विगणय्य चात्मनः ।
क्षययुक्तिं उपेक्षते कृती कुरुते तत्प्रतिकारं अन्यथा ।। २.९ ।।
वियोगिनी छन्द
अर्थ: ऐश्वर्याभिलाषी चतुर व्यक्ति शत्रु के क्षीयमाण अभ्युदय की तो उपेक्षा करते हैं किन्तु अभ्युदोन्मुख विपदग्रस्त शत्रु की वे कथमपि उपेक्षा नहीं करते ।
टिप्पणी: महाकवि भारवि का राजनैतिक तलस्पर्शी ज्ञान यहाँ सुस्पष्ट प्रतीत होता है । शत्रु की उपेक्षा कब करनी चाहिए और कब उसका प्रतिकार करना चाहिए इसका विवेचन, मनन करने योग्य है ।
पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार
राजनीति शास्त्र के विरुद्ध उपेक्षात्मक आचरण करने का फल अनिष्ट होता है यह बतलाते हुए महाकवि भारवि भीमसेन के द्वारा कहते हैं –
अनुपालयतां उदेष्यतीं प्रभुशक्तिं द्विषतां अनीहया ।
अपयान्त्यचिरान्महीभुजां जननिर्वादभयादिव श्रियः ।। २.१० ।।
वियोगिनी छन्द
अर्थ: जो पृथ्वीपति उत्साह के अभाव में शत्रुओं की बर्धिष्णु प्रभुशक्ति की उपेक्षा करते हैं, उनकी राज्यलक्ष्मी मानो जनापवाद (लोकनिन्दा) के भय से छोड़कर अन्यत्र अविलम्ब चली जाती है ।
हेतुत्प्रेक्षालङ्कार
20/10/19, 8:17 am – +91 : अति सुंदर 👌🏻🙏🏻
20/10/19, 8:17 am – +91 : वनस्पतीनां तुलसी मासानां कार्तिक प्रियः।
एकादशी तिथीनां च क्षेत्राणां द्वारका मम।।
पद्मपुराण,उ०ख० ११४/३
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं- “वनस्पतियों में तुलसी, मासों में कार्तिक मास, तिथियों में एकादशी तथा पुण्य क्षेत्रों में द्वारकापुरी मुझे विशेष प्रिय है ।”
—⚜—
न स सखा यो न ददाति सख्ये ।
ऋग्वेद १०/११७/४
‘‘जो मित्र की सहायता नहीं करता, वह मित्र नहीं है ।‘‘
20/10/19, 12:48 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: शास्त्र ज्ञान सत्र 39 – थोड़ी देर में
https://lm.facebook.com/l.php?u=https%3A%2F%2Fyoutu.be%2FDyLAQV1tnag%3Ffbclid%3DIwAR37IgRZA7N-zTBlWG4KGduzEqEWhx14kyWa0DIe0F5Z74hSbv8OIsFf09I&h=AT1cNGy75twVrxAJs1-ezFEfF5ipgG9hSsjwb8u3DOQiaWfPnenWQTQ3pm-SdPFPJr65Ll8gjEDn1hk9bP0AFAXlWkayoU-UifcIF0nUVphOEK_fUNBabrCdHgCzbFxIvuRyDwFZirdhBrbsJzyD
20/10/19, 1:01 pm – Abhinandan Sharma: You deleted this message
20/10/19, 1:01 pm – Abhinandan Sharma: शास्त्र ज्ञान सत्र 39 – 15 मिनट में
https://youtu.be/DyLAQV1tnag
20/10/19, 1:45 pm – Abhinandan Sharma: शास्त्र ज्ञान सत्र 39, पार्ट २
https://youtu.be/B6iO1nuEoZQ
21/10/19, 7:41 am – FB Mrudul Tiwari Allahabad Shastra Gyan: 🙏🙏🙏👍👍👍👌👌👌
21/10/19, 8:21 am – Dayadhankr Soryvanshi Hts, Akhilesh Frnd: प्रशंसनीय📚📚
21/10/19, 11:46 am – +91 : 😊👏👏👏👏
21/10/19, 10:24 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 2 श्लोक 11
क्षययुक्तं अपि स्वभावजं दधतं धाम शिवं समृद्धये ।
प्रणमन्त्यनपायं उत्थितं प्रतिपच्चन्द्रं इव प्रजा नृपं ।। २.११ ।।
वियोगिनी छन्द
अर्थ: हे राजन ! जिस प्रकार परिक्षीण प्रतिपच्चन्द्र को बर्धिष्णु होने से लोग प्रणाम करते हैं उसी प्रकार परिस्थिति विशेष से जो राजा क्षीणबल हो गया हो किन्तु प्रजाकल्याणार्थ उत्साह-तेज से सम्पन्न हो उस राजा को भी लोग नतमस्तक होकर प्रणाम करते हैं, उसकी आज्ञा को शिरोधार्य करते हैं । उत्साह तेज-सम्पन्न राजा को जन-बल स्वतः ही प्राप्त रहता है अतः शत्रु का प्रतिकार करने में अपने को हीन बल न समझो !
टिप्पणी: बर्धिष्णु चन्द्र जिस प्रकार वंदनीय होता है उसी प्रकार उत्साह सम्पन्न राजा क्षीणवाल होने पर भी प्रजाजनों के द्वारा आदरणीय होता है । पूर्णचन्द्र क्षय-पर्यवसायी होने से सन्तोषजनक नहीं होता जितना बर्धिष्णु प्रतिपच्चन्द्र होता है । इस सुप्रसिद्ध उपमान के द्वारा राजा युधिष्ठिर को शत्रु का प्रतिकार करने हेतु उत्साह धारण करने के लिए भीमसेन प्रेरित करता है । प्रतिपच्चन्द्र क्षीणवत होने पर भी केवल बर्धिष्णु होने के कारण जैसे वंदनीय होता है उसी प्रकार राजा युधिष्ठिर सम्प्रति आप, क्षीणबल होने पर भी यदि लोक-कल्याणार्थ उत्साह धारण करोगे तो आप भी प्रजा के आदरणीय बन जाओगे । राजा दुर्योधन इस समय भले ही बल सम्पन्न हो किन्तु वह पूर्णचन्द्र कि तरह उत्साह सम्पन्न न होने से बर्धिष्णु नहीं है अतः प्रजा का समर्थन उसे प्राप्त नहीं है । उत्साह सम्पन्न राजा ही प्रजा को सर्वाधिक प्रिय होता है । यह गम्भीर भाव महाकवि भारवि ने बड़ी खूबी से यहाँ हृदयङ्गम कराया है ।
21/10/19, 11:18 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-७ श्लोक ४६,४७,४८
विरूद्धम् शुद्धिरत्रेष्टा शमो वा तद्विरोधिभिः। दैव्येस्तैरेव वा पूर्वं शरीरस्याभिसंस्कृतिः॥४६॥
इस प्रकार विरूद्ध आहारो का सेवन करने से जो विकार उत्पन्न हो गये हो उनको दूर करने के लिए वमन विरेचन द्वारा शरीर का शोधन करना चाहिए अथवा उन उन आहारों के विरोधी आहारों द्वारा उनकी शमन-चिकित्सा करनी चाहिए।
वक्तव्य- विरूद्ध भोजन भी निरन्तर सेवन करते रहने से सात्म्य (प्राकृत के अनुकूल) कर लिये जाते है।इस विवशता का एक उदाहरण है। जैसे— रात को नौकरी करने वाले दिन मे सोकर रात की नींद पूरी कर लेते है। फिर भी यह प्रकृति के नियमों के विरुद्ध तो है ही।
व्यायामस्निग्धदीप्ताग्निवयःस्थफलशालिनाम। विरोध्यपि न पीडायै सात्म्यमल्पं च भोजनम्॥४७॥
विरोधी आहारों का सेवन- प्रतिदिन व्यायाम करने वाले, स्निग्ध शरीर वाले, जिनकी जठराग्नि दीप्त है, युवक(युवती), बलवान पुरूषों (स्त्रियों) को विरोधी अन्न पानों से कोई हानि नहीं होती। यदि वे पदार्थ सात्म्य हो तथा स्वल्प मात्रा में खाये गये हो तो वे हानिकारक नहीं होते।
वक्तव्य- उक्त उदाहरण व्यक्ति-
विशेष तथा परिस्थिति-विशेष का है। इस पद्य का सन्निवेश यहां इसलिए किया गया है कि कोई मनचला व्यक्ति आयुर्वेद के प्रति आक्षेप न करें कि अमुक व्यक्ति ने विरूद्ध आहार का सेवन किया , वह स्वस्थ है। वास्तव में विरूद्ध आहारो का सेवन न करें।
पादेनापथ्यमभ्यस्तम् पादपादेन वा त्यजेत्। निषेवेत हितं तद्वदेकद्वित्र्यन्तरीकृतम्॥४८॥
अपथ्य का त्याग, पथ्य का सेवन- प्रतिदिन थोड़ा थोड़ा सेवन करने के कारण अभ्यास किये गये अपथ्य(विरूद्ध आहार-विहार)को भी एक एक चौथाई क्रम से छोड़ते जाना चाहिए। यदि इतनी मात्रा मे छोड़ने पर भी हानि होने की संभावना हो तो उसे सोलवें हिस्से से छोड़ना आरम्भ करे और उसी क्रम से एक, दो, तीन दिन का अन्तर देकर उसे छोड़ देना चाहिए। इसी क्रम से हितकर आहार विहार का सेवन प्रारम्भ करना चाहिए।
22/10/19, 12:42 pm – ~ Surendra Kumar Agrawal left
22/10/19, 11:27 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-७ श्लोक ४९,५०
अपथ्यमपि हि त्यक्तं शीलितं पथ्यमे्व वा। सात्म्यासात्मयविकाराय जायते सहसाऽन्यथा॥४९॥
सहसा त्याग का निषेध- यदि उक्त प्रकार से व्यवहार न करके आपने सहसा अपथ्य का परित्याग कर दिया और पथ्य का सेवन कर दिया तो सहसा सात्म्य पदार्थों को छोड़ने और असात्म्य पदार्थों के सेवन करने के कारण अनेक प्रकार के विकार(रोग) उत्पन्न हो सकते हैं।
क्रमेणापाचिता दोषाः क्रमेणापाचिता गुणाः। सन्तो यान्त्यपुनर्भावमप्रकम्प्या भवन्ति च॥५०॥
दोषों का ह्वास, गुणों की वृद्धि- क्रमशः घटाये गये वात आदि दोष पुनः बढ़ नहीं पाते तथा संचित किये गये गुण चिर स्थिर होते है अर्थात उन्हें कोई डिगा नहीं पाता।
अत्यन्तसन्निधानानां दोषाणां दूषणात्मनाम्। अहितैर्दूषणं भूयो न विद्वान् कर्तुमर्हति॥५१॥
दोषों को दूषित न करें- शरीर मे वात आदि दोष सदा रहा करते है, उनका स्वभाव है, वे शरीर को दूषित किया करते है। अतएव पथ्य तथा अपथ्य को जानकर विद्वान वैद्य अहितकर आहार एवं विहार द्वारा उन दोषों को दूषित न होने दें अर्थात चिकित्सा की आज्ञा के अनुकूल मनुष्य आहार विहार करे।
22/10/19, 11:32 pm – +91 : यत्किंचित्क्रियते पुण्यं विष्णुमुद्दिश्य कार्तिके ।
तस्य क्षयं न पश्यामि मयोक्तं तव नारद ।।
स्कन्दपुराणम,वै०ख०,का०मा०, ०१/ २४
‘‘ब्रम्हाजी नारदजी से कहते है कि- कार्तिक मास भगवान विष्णु के उद्देश्य से जो कुछ पुण्य किया जाता है, उसका नाश में नहीं देखता।‘‘
—⚜—
कार्तिके मुनिशार्दूल शालिग्रामशिलार्चनम् ।
स्मरणं वासुदेवस्य कर्तव्यं पापभीरुणा ।।
स्कन्दपुराणए ०१/३९
‘‘पाप से डरने वाले मनुष्य को कार्तिकमास में शालग्रामशिला का पूजन और भगवान् वासुदेव का स्मरण अवश्यक करना चाहिये ।‘‘
23/10/19, 8:00 am – Abhinandan Sharma: तर्कशास्त्र, धर्म और तात्विक ज्ञान के लिए अति आवश्यक है | तर्क से, धर्म और तत्व को समझा जा सकता है | इसी विषय को आगे बढाते हुए, आज बाते करेंगे प्रमाण (Proof) की | हमें पता होना चाहिए कि जब कोई बात कही जाती है तो उसको कैसे चेक करें, कैसे पता करें कि वो प्रमाणित है या नहीं ! किसे प्रमाण कहा जाएगा | आइये आज समझते हैं, प्रत्यक्ष प्रमाण और अनुमान प्रमाण के प्रकारों को |
https://youtu.be/mrAo2fR2v7Q
23/10/19, 4:29 pm – Shastra Gyan Suresh Jhajjar: अभिनंदन जी आवाज साफ नहीं है । ऐसी ही रिकॉर्डिंग की दिक्कत बाकी संस्कार कक्षाओं में भी होती है । कृपया इस पक्ष पर ध्यान दें ।
🙏🚩
23/10/19, 4:38 pm – Shastra Gyan Suresh Jhajjar: इसमें आवाज साफ है जी 👌🙏🚩
23/10/19, 4:48 pm – Shastra Gyan Punit, Palwal left
23/10/19, 5:06 pm – Abhinandan Sharma: माहोदय, ये आवाज के लिए नहीं था, ये सिर्फ आपको अवगत कराने के लिये था कि इस प्रकार की कक्षा ,अंग्रेजी स्कूलों में भी दी जा सकती है और आप भी अपने बच्चों के स्कूल में इस प्रकार की कक्षा की बात करें ।
23/10/19, 5:07 pm – Abhinandan Sharma: इसको सबको सुनने के लिये ही रिकॉर्ड किया जाता है 🙏
23/10/19, 5:32 pm – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad: आवाज धीमी है.
23/10/19, 5:53 pm – Abhinandan Sharma: पर ये तो ऐसा कह रहे हैं
23/10/19, 5:54 pm – Abhinandan Sharma: थोड़ा अधिक आवाज के लिए ईयरफोन का प्रयोग अपेक्षित है 🙏
23/10/19, 6:48 pm – Shastra Gyan Suresh Jhajjar: 🙏🚩
24/10/19, 12:53 am – LE Nisha Ji:
24/10/19, 1:35 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
श्री मनुस्मृति
तृतीय अध्याय
अद्भिरेव द्विजाग्र्याणां कन्यादानं विशिष्यते ।
इतरेषां तु वर्णानां इतरेतरकाम्यया । । ३.३५ । ।
यो यस्यैषां विवाहानां मनुना कीर्तितो गुणः ।
सर्वं शृणुत तं विप्राः सर्वं कीर्तयतो मम । । ३.३६ । ।
दश पूर्वान्परान्वंश्यानात्मानं चैकविंशकम् ।
ब्राह्मीपुत्रः सुकृतकृन्मोचयत्येनसः पितॄन् । । ३.३७ । ।
दैवोढाजः सुतश्चैव सप्त सप्त परावरान् ।
आर्षोढाजः सुतस्त्रींस्त्रीन्षट्षट्कायोढजः सुतः । । ३.३८ । ।
ब्राह्मादिषु विवाहेषु चतुर्ष्वेवानुपूर्वशः ।
ब्रह्मवर्चस्विनः पुत्रा जायन्ते शिष्टसम्मताः । । ३.३९ । ।
अर्थ
वर के हाथ मे जल देकर कन्यादान ब्राह्मणों के लिए उत्तम पक्ष है।दूसरे वर्णो में इच्छानुसार बिना जल ,वचनमात्र से ही विवाह हो जाता है। भृगु ने ब्राह्मणों से कहा- इन सब विवाहों में जिसका जो गुण मनु ने कहा है वह आप लोग सुनिए:- ब्राह्म विवाह से पैदा हुआ पुत्र सुकर्म करे तो अपने पिता -पितामह आदि दस पूर्व पुरुषों को और पुत्र पौत्र आदि दस आगे के वंशजों को तथा इक्कीसवें अपनी आत्मा को पाप से मुक्त करता है।
दैव विवाह का पुत्र सात पीढ़ी पूर्ववर्ती व सात आगे की,
आर्य विवाह की तीन पहले व तीन आगे कि और प्रजापत्य विवाह की छः पीढ़ी पहले व छः आगे की व अपने को तारता है।क्रम से ब्राह्म आदि चार विवाह से जो सन्तान होती है वह तेजस्वी और शिष्ट पुरुषों में मान्य होती है।।
24/10/19, 8:38 am – Abhinandan Sharma: निशा जी, इस ग्रुप में फ़ॉर्वर्डेड पोस्ट डालना मना है । कृपया इस पोस्ट को हटा लें । ये ग्रुप दस दिन खाली रहे, चलेगा लेकिन कोई फ़ॉर्वर्डेड पोस्ट इस ग्रुप की शोभा न बढ़ाये, ऐसा निवेदन है 👍
24/10/19, 9:51 am – FB Piyush Khare Hamirpur: किसी ने कुछ भेज दिया, अब कहा से कोई हटा लेगा 🙄
24/10/19, 11:39 am – Abhinandan Sharma: पोस्ट रिमूव हो जाती है मित्र ।
24/10/19, 12:13 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: Only in a certain period of time
24/10/19, 12:15 pm – Abhinandan Sharma: Oh… I didn’t knew it.
24/10/19, 12:15 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: That’s why I conveyed you 😄
24/10/19, 10:42 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-७ श्लोक ५२,५३
आहारशयनाब्रह्मचर्यैर्युक्त्या प्रयोजितैः। शरीरं धार्यते नित्यमागारमिव धारणैः॥५२॥
तीन उपस्तम्भ- शरीर के तीन उपस्तम्भ है— १.आहार, २.शयन(निद्रा) तथा ३.ब्रह्मचर्य। इन तीनों का शास्त्रीय निर्देशो के अनुसार युक्तिपूर्वक उपयोग करने से शरीर का उस प्रकार धारण होता है जिस प्रकार खम्भो मे मकान स्थिर रहता है।
वक्तव्य- इस विषय का प्रतिपादन चरक ने भी किया है— त्रय°°°°°°°देक्ष्यते (च.सू. ११/३५)। अर्थात आहार, शयन तथा ब्रह्मचर्य इन तीनों उपस्तम्भो के विधिवत प्रयोग करने से शरीर जीवनभर बल, कान्ति तथा पुष्टि से युक्त रहता है, किन्तु इस बीच में अहितकर आहार विहारों का यदि सेवन किया जाता है, तो उक्त लाभ नहीं मिलते। इन विषयों का वर्णन हम इसी अध्याय में आगे करेंगें।
आहारो वर्णितस्तत्र तत्र तत्र च वक्ष्यते। निद्रायत्तं सुखं दुःखं पुष्टिः कार्श्य बलाबलम्॥५३॥
वृषता क्लीबता ज्ञानमज्ञानं जीवितं न च।
आहार नामक उपस्तम्भ- शरीर को धारण करने में जिन तीन उपस्तम्भो का वर्णन किया गया है, उनमें पहला उपस्तम्भ आहार है। इसके पहले अ.हृ.सू. ३ मे तथा अ.हृ.सू. ५,६ और ७वें अध्याय में इसका वर्णन कर दिया गया है, इसके आगे भी यथास्थान किया जायेगा।
वक्तव्य- “अन्नं वै प्राणिणां प्राणा”; “दगदन्नै प्रतिष्ठितम्” तथा “अन्नं वृत्तिकराणाम् श्रेष्ठम्” (च.सू. २५/४०) और “इष्टवर्णगन्धसंस्पर्शंविधाविहितमन्नपानं प्राणिणां प्राणिसंज्ञकानां प्राणमाचक्षते कुशलाः प्रत्यक्षफलदर्शनात्”। (च.सू. २७/३) इसके आगे (च.सू. २८/३) भी देखें। वासतव मे जीवन की रक्षा करने वाले भावो मे अन्न सर्वश्रेष्ठ भाव है। इसी विषय का समर्थन सुश्रुत मे भगवान धन्वंतरि ने इस प्रकार किया है— *प्राणिणां पुनर्मूलमाहारो बलवर्णौर्जसां च। (सु.सू. ४६/३)
निद्रा नामक उपस्तम्भ- दूसरा उपस्तम्भ है निद्रा— शयन (सुख से सोना)। इसी के ऊपर आगे कहे जाने वाले भाव निर्भर करते है। यथा— सुख, पुष्टि, बल, वृषता(मैथुन करने ई शक्ति), ज्ञान तथा दीर्घ जीवन का लाभ नींद आ जाने पर मिलते हैं और नींद न आने पर इनके विपरीत भावों की प्राप्त करती है। यथा-* दुख, कृशता , दुर्बलता, क्लीबता(नपुंसकता-रतिशक्ति का अभाव), अज्ञान तथा मृत्यु।
25/10/19, 6:56 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 2 श्लोक 12, 13
प्रभवः खलु कोशदण्डयोः कृतपञ्चाङ्गविनिर्णयो नयः ।
स विधेयपदेषु दक्षतां नियतिं लोक इवानुरुध्यते ।। २.१२ ।।
वियोगिनी
अर्थ: सहायक, कार्य साधन के उपाय, देश और काल का विभाग तथा विपत्ति प्रतिकार, इन कार्य सिद्धि के पाँचों अंगों का सम्यक निर्णय करने वाली नीति, राजकोष और चतुरङ्गिणीसेना की उत्पादक होती है । यह नीति कर्त्तव्य-कर्म में नैपुण्य प्रदान करती है । जैसे कृषक वर्ग दैवानुसारी होता है उसी प्रकार प्रभु शक्ति भी उत्साह शक्ति का अनुसरण करती है । तात्पर्य यह है कि कार्य की सिद्धि में मुख्यतः उत्साह शक्ति ही कारण होती है ।
उपमा अलङ्कार
टिप्पणी:
-कामन्दकीय नीतिशास्त्र में कार्यसिद्धि के पांच अंग बताये गए हैं ।
-सभी कार्य प्रायः द्रव्य-साध्य होते हैं अथवा दण्डसाध्य होते हैं ।
-द्रव्य(कोश) और दण्डकी उत्पादक मन्त्रणा-नीति होती है । किन्तु नीति की सफलता उत्साह-मूलक है । उत्साह के साथ क्षिप्रकारिता (अदीर्घसूत्रता) का होना अत्यावश्यक है । अन्यथा ‘कालः पिबति तद्रसम्’
-कृषक गण नियति (दैव)वादी हो सकते हैं क्षात्रधर्मावलम्बी राजा तो नीति वादी होता है । नीति के माध्यम से कार्य सिद्धि के पञ्चाङ्गों का निश्चय कर, कार्यसिद्धि प्राप्त करने में नैपुण्य प्राप्त किया जाता है । नीति ही राजकोश और दण्ड (चतुरङ्गिनी सेना) की जननी है ।
- नीति का साफल्य उत्साह शक्ति पर ही सर्वथा निर्भर होता है ।
- नियतिवादी परतन्त्र होता है और नीति वादी स्वतन्त्र । राजनीति के गूढ़तम रहस्यों को उद्घाटित करने में महाकवि भारवि सिद्ध-हस्त हैं ।
अभिमानवतो मनस्विनः प्रियं उच्चैः पदं आरुरुक्षतः ।
विनिपातनिवर्तनक्षमं मतं आलम्बनं आत्मपौरुषं ।। २.१३ ।।
वियोगिनी
अर्थ: स्वाभिमान धारण करने वाले मनुष्य को अपने अभीष्ट उन्नत स्थान पर प्रतिष्ठित होते समय उसे अपने स्वयं के पुरुषार्थ (पराक्रम) का ही सहारा लेना पड़ता है । अभीष्ट स्थान की प्राप्ति में आने वाली विघ्न-बाधाओं का निवारण करने में समर्थ, अपने स्वयं के पराक्रम का ही सहारा उसे लेना पड़ता है । क्योंकि मनस्वी पुरुषों का एकमात्र आलम्बन उनका स्वयं का ही एकमात्र पुरुषार्थ होता है । मनस्वी पुरुष सदा स्वावलम्बी होते हैं ।
25/10/19, 7:28 am – Abhinandan Sharma: बहुत बड़ा विषय है, यहां लिखना सम्भव नहीं होगा 🙏 जल्द ही किसी सत्र में इनका वीडियो बना कर, शेयर कर दिया जायेगा ।
25/10/19, 7:28 am – Abhinandan Sharma: धन्यवाद पांडेय जी 🙏
25/10/19, 11:06 am – +91 : `ॐ भूरिदा भूरि देहिनो, मा दभ्रं भूर्या भर।
भूरिरेदिन्द्र दित्ससि।
ॐ भूरिदा त्यसि श्रुत: पुरूत्रा शूर वृत्रहन्।
आ नो भजस्व राधसि।।´
भावार्थ : हे लक्ष्मीपते ! आप दानी हैं, साधारण दानदाता ही नहीं बहुत बड़े दानी हैं। आप्तजनों से सुना है कि संसार भर से निराश होकर जो याचक आपसे प्रार्थना करता है, उसकी पुकार सुनकर उसे आप आर्थिक कष्टों से मुक्त कर देते हैं – उसकी झोली भर देते हैं। हे भगवान, मुझे अर्थ संकट से मुक्त कर दो।
25/10/19, 11:53 am – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रम्
दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः ।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि न मुञ्चत्याशावायुः ।।१।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।
प्राप्ते सन्निहिते मरणे नहि नहि रक्षति डुकृञ् करणे ।।
(ध्रुवपदम्)
अग्रे वह्निः पृष्ठे भानू रात्रौ चिबुकसमर्पितजानुः ।
करतलभिक्षा तरुतलवासस्तदपि न मुञ्चत्याशापाशः । भज० ।।२।।
यावद्वित्तोपार्जनसक्तस्तावन्निजपरिवारो रक्तः ।
पश्चाद्धावति जर्जरदेहे वार्तां पृच्छति कोऽपि न गेहे ।
भज० ।।३।।
जटिलो मुण्डी लुञ्चितकेशः काषायाम्बरबहुकृतवेषः ।
पश्यन्नपि च न पश्यति लोको ह्युदरनिमित्तं बहुकृतशोकः । भज० ।।४।।
भगवद्गीता किञ्चिदधीता गङ्गाजललवकणिकापीता ।
सकृदपि यस्य मुरारिसमर्चा तस्य यमः किं कुरुतेचर्चाम् । भज० ।।५।।
अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम् ।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशा पिण्डम् । भज० ।।६।।
बालस्तावत्क्रीडासक्तस्तरुणस्तावत्तरुणीरक्तः ।
वृद्धस्तावच्चिन्तामग्नः पारे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः । भज० ।।७।।
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम् ।
इह संसारे खलु दुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ।
भज० ।।८।।
पुनरपि रजनी पुनरपि दिवसः पुनरपि पक्षः पुनरपि मासः ।
पुनरप्ययनं पुनरपि वर्षं तदपि न मुञ्चत्याशामर्षम् ।
भज० ।।९।।
वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः ।
नष्टे द्रव्ये कः परिवारो ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः ।
भज० ।।१०।।
नारीस्तनभरनाभिनिवेशं मिथ्यामायामोहावेशम् ।
एतन्मांसवसादिविकारं मनसि विचारय बारम्बारम् । भज० ।।११।।
कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः का मे जननी को मे तातः ।
इति परिभावय सर्वमसारं विश्वं त्यक्त्वा स्वप्नविचारम् । भज० ।।१२।।
गेयं गीतानामसहस्रं ध्येयं श्रीपतिरूपमजस्रम् ।
नेयं सज्जनसङ्गे चित्तं देयं दीनजनाय च वित्तम् ।
भज० ।।१३।।
यावज्जीवो निवसति देहे कुशलं तावत्पृच्छति गेहे ।
गतवति वायौ देहापाये भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये । भज० ।।१४।।
सुखतः क्रियते रामाभोगः पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः ।
यद्यपि लोके मरणं शरणं तदपि न मुञ्चतिपापाचरणम् । भज० ।।१५।।
रथ्याचर्पटविरचितकन्थः पुण्यापुण्यविवर्जितपन्थः ।
नाहं न त्वं नायं लोकस्तदपि किमर्थं क्रियते शोकः । भज० ।।१६।।
कुरुते गङ्गासागरगमनं व्रतपरिपालनमथवा दानम् ।
ज्ञानविहीनः सर्वमतेन मुक्तिं न भजति जन्मशतेन । भज० ।।१७।।
इति श्रीशङ्कराचार्यविरचितं चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
25/10/19, 11:54 am – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: स्त्रोत रत्नावली से..
25/10/19, 3:30 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: *स्तोत्र
25/10/19, 7:56 pm – Ashutosh Mishr Ranchi Shastra Gyan changed their phone number to a new number. Tap to message or add the new number.
25/10/19, 10:44 pm – Vaidya Ashish Kumar: 🌹🌹🙏🏻🙏🏻धन्यवाद सर
26/10/19, 2:41 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 2 श्लोक 14, 15, 16
विपदोऽभिभवन्त्यविक्रमं रहयत्यापदुपेतं आयतिः ।
नियता लघुता निरायतेरगरीयान्न पदं नृपश्रियः ।। २.१४ ।।
वियोगिनी
अर्थ: विपत्तियां पराक्रम शून्य पुरुष पर ही आक्रमण करती हैं । विपदग्रस्त मनुष्य का भविष्य अन्धकारमय होता है । विपत्ति से घिरने पर उन्नति में बाधा उत्पन्न होती है । नष्ट गौरव पुरुष राज्यलक्ष्मी पाने का पात्र नहीं होता है । ये सभी दोष एकमात्र पौरुष का आश्रय करने से दूर हो जाते हैं ।
तदलं प्रतिपक्षं उन्नतेरवलम्ब्य व्यवसायवन्ध्यतां ।
निवसन्ति पराक्रमाश्रया न विषादेन समं समृद्धयः ।। २.१५ ।।
वियोगिनी
अर्थ: इसलिए उन्नति में बाधक होने वाली उद्योग शून्यता का (अनुत्साह का) आश्रय करना अनुचित है, क्योंकि सर्वप्रकार की समृद्धियाँ पराक्रमी एवं सतत उद्योगशील व्यक्ति को ही संवरण करती हैं । उत्साहरहित(आलसी) मनुष्य का समृद्धियाँ परित्याग करती हैं ।
टिप्पणी: अभ्युदयाकांक्षी पुरुष को सतत उद्योग प्रवण रहना चाहिए, इस बात को कवी ने बहुत ही रोचक ढंग से कहा है ।
अर्थान्तरन्यास तथा काव्यलिङ्ग अलङ्कार
अथ चेदवधिः प्रतीक्ष्यते कथं आविष्कृतजिह्मवृत्तिना ।
धृतराष्ट्रसुतेन सुत्यज्याश्चिरं आस्वाद्य नरेन्द्रसम्पदः ।। २.१६ ।।
अर्थ: अब यदि आप अवधि की प्रतीक्षा कर रहे हैं तो (यह सोचने की भूल है कि) जिसने अब तक अपने अनेक छल-कपटपूर्ण कार्यों का परिचय दिया है, वह धृतराष्ट्र का पुत्र दुर्योधन, चिरकाल तक राज्यश्री का सुख अनुभव करके उसे आसानी से कैसे छोड़ देगा ?
टिप्पणी: अर्थात जिस कुटिल दुर्योधन ने अधिकार होते हुए भी हमारे भाग को हड़प लिया है वह इतने दिनों तक उसका उपभोग करके हमारी वनवास की अवधि बीतने के अनन्तर उसे सुख से लौटा देगा – ऐसा समझना भूल है । आप को इसी समय जो कुछ करना है, करना चाहिए ।
अर्थापत्ति अलङ्कार।
26/10/19, 7:19 pm – +91 : सादर नमस्कार|
👣👣👣👣👣👣👣👣
💰25 oct : धन तेरस 🚖
श्री कुबेर जी आपका भंडार हमेशा भरा रखे… 🏘
🌠 26 oct : चौउदस🌅
असफलता,दुख,निराशा,दरिद्रता
और मुश्किलें आपसे कोसों दूर रहे ।______________
🕯 27 oct : दीपावली 🕯
💥💥💥💥 💥💥
पूरे साल आपके घर मे खुशियों की रौशनी जगमगाती रहे…💡💡
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
🐄 28 oct : गोवर्धन पूजा 🐄
भगवान गोवधर्न आपके घर आंगन को सुख ,शान्ति और समृद्धि से
भरा रखें । 🐕 🙏
💁🙇💁🙇💁🙇💁🙇
💇🙍♂29 oct: भाई दूज🙍♂💇
भाई – बहन का प्यार हमेशा आसमान की ऊँचाइयों पर रहे …
👯👯👯👯👯👯👯👯
आप और आपके परिवार को पांच दिवसीय त्योैहार की
हार्दिक और अग्रिम बधाइयां………
🐾🐾🐾🐾🐾🐾🐾🐾🐾🎁🎁
*
आने वाला नव वर्ष समृध्दि भरा हो. 🙏🙏👍👍🌹🌹
26/10/19, 7:27 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: कृपया forwarded पोस्ट से बचें।
इस group में 100 से अधिक लोग हैं, अगर हर कोई केवल एक forward भी करता है तो सभी के लिए परेशानी की बात होगी और सब को अलग से प्रार्थना भी करना असंभव ही है इसलिए कृपया किसी भी तरह की forward से बचें, group पढ़ने और पढ़ाने के लिए है, इसे उसी तक सीमित रखें । धन्यवाद 🙏🏼🙏🏼
26/10/19, 9:56 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 2 श्लोक 17, 18
द्विषता विहितं त्वयाथवा यदि लब्धा पुनरात्मनः पदं ।
जननाथ तवानुजन्मनां कृतं आविष्कृतपौरुषैर्भुजैः ।। २.१७ ।।
वियोगिनी
अर्थ: अथवा हे राजन ! शत्रु दुर्योधन द्वारा लौटाए गए अपने राज्य सिंहासन को यदि आप पुनः प्राप्त कर लेंगे तब आपके छोटे भाइयों (अर्जुन आदि) की उन भुजाओं से फिर लाभ क्या होगा, जिनका पराक्रम अनेक बार प्रकट हो चुका है ।
टिप्पणी: शत्रु की कृपा द्वारा यदि आपको सिंहासन मिल भी जाता है तब हमारी भुजाओं का पराक्रम व्यर्थ ही रह जाएगा ।
अर्थापत्ति अथवा परिकर अलङ्कार
मदसिक्तमुखैर्मृगाधिपः करिभिर्वर्तयति स्वयं हतैः ।
लघयन्खलु तेजसा जगन्न महानिच्छति भूतिं अन्यतः ।। २.१८ ।।
वियोगिनी
अर्थ: सिंह अपने द्वारा मारे गए मुख भाग से मद चूने वाले हाथियों से ही अपनी जीविका निर्वाहित करता है । अपने तेज से संसार को पराजित करने वाला महान पुरुष किसी अन्य की सहायता से ऐश्वर्य की अभिलाषा नहीं किया करता ।
टिप्पणी: तेजस्वी पुरुष किसी दुसरे द्वारा की गई जीविका नहीं ग्रहण करते । ‘मदसिक्तमुखैः’ यह विशेषण मदोन्मत्त गजेन्द्र का विनाशक होने का सूचक है और ‘मृगाधिप’ पद का ग्रहण करने से राजाओं में सिंह सदृश तू (युधिष्ठिर) मदोन्मत्त गजरावत भीष्म-द्रोणादिक का विनाशकर राज्य को पुनः पा सकता है । इसका सूचक है ।
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार
27/10/19, 6:24 am – FB Gagan Sharma Shastta Gyan: 🕯”May all the darkness disappear from your life as you light the diyas of contentment, may the festival illuminate your life and may you and your family reap happiness and prosperity.” 🕯
Have a Happy & Safe Diwali! 🎆🏮
27/10/19, 8:46 am – FB Rajesh Singhal Ghaziabad Shastra Gyan: इस दीपावली जन जन के राम, हमारे राम जी का अयोध्या मैं भव्य मंदिर का निर्माण प्रारंभ हो, ऐसी ही विश्व के हर हिन्दू के मन की कामना पूर्ण हो के साथ आप सभी को सपरिवार दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं।
साधना एवम राजेश सिंघल
27/10/19, 9:03 am – Prakash Deepak Hts, Reporter: शुभम करोति कल्याणम,
अरोग्यम धन संपदा
शत्रु-बुद्धि विनाशायः
दीपःज्योति नमोस्तुते
दीपोत्सव के इस पावन पर्व पर माँ लक्ष्मी आपको व आपके परिवार को सुख, शांति, सफलता, समृद्धि, सौहार्द एवं स्वास्थ्य के साथ दीर्घायु व अपार खुशियां प्रदान करे।
मेरे व मेरे परिवार की ओर से हार्दिक शुभकामनाएं।
शुभेच्छु
दीपेश भारद्वाज “पत्रकार”
प्राइम न्यूज़ चैनल
(उप्र-उत्तराखंड)
हाथरस
9219606598
9412173221
27/10/19, 9:45 am – FB Susheel Pareek Jaipur Shastra Gyan: प्रेम प्यार में वृद्धि हो, बढे नेह व्यवहार।
सुख समृद्धि आपके, खड़ी रहे घर द्वार।
27/10/19, 10:20 am – FB Abhijit Rajkot Shastra Gyan: महाशय, इस ग्रुप को ऐसी फॉरवर्ड पोस्ट से बक्शे। अन्यत्र आप प्रेषित कर सकते है। इस ग्रुप मे यदि स्वयं टाइप किया है तो उचित रहेगा।🙏🏻
27/10/19, 10:23 am – FB Mukesh Sinha Pathalgaon CG Shastra Gyan: आप सभी को दीपावली की राम राम
प्रभु श्री रामचंद्र जी के अयोध्या लौटने पर आप सबको बहुत बहुत बधाई
27/10/19, 12:16 pm – FB Susheel Pareek Jaipur Shastra Gyan: प्रेम प्यार में वृद्धि हो, बढे नेह व्यापार।
सुख समृद्धि आपके, खड़ी रहे घर द्वार।।
मान बढे शोभा बढे, हो सम्मान दिगंत ।
वैभव तो इतना बढे,जिसका आदि न अंत ।।
27/10/19, 1:29 pm – Mahendra Mishra Delhi Shastra Gyan: The festival of light enlighten you and your family with lots of happiness, sweet memories & brings smile in the face of every individuals. Wish you and your family A Happy & safe Dewali..🌾🌾🎉🎉💐💐💰
Best Regards:
Mahendra Mishra & Family
27/10/19, 5:03 pm – Ravi CA Known: ईश्वर: त्वाम् च: सदा: रक्षतु
पुण्य कर्मणा कीर्तिमार्जय
जीवनम् तव भवतु सार्थकम्
इति सर्वदा मुदम्: प्रार्थयामहे
ईश्वर सदैव आपकी रक्षा करे
समाजोपयोगी कार्यों से यश प्राप्त करे
आपका जीवन सबके लिए कल्याणकारी हो
हम आपके लिए यही प्रार्थना करते हैं।
शुभं करोति कल्याणं आरोग्यं धन संपदः |
शत्रु बुद्धि विनाशाय दीपंज्योति नमोऽस्तु ते||
दीपक की जो ज्योति हमारे जीवन में सौभाग्य, स्वास्थ्य, प्रगति का मार्ग प्रशस्त करते हुए अंधकार रुपी नकारात्मक शक्तियों का नाश करती है, उस दीप ज्योति को हम नमन करते है।
सत्याधारस्तपस्तैलं दयावर्ति: क्षमाशिखा।
अंधकारे: प्रवेष्टव्ये: दीपो यत्नेन वार्यताम्॥
घना अंधकार फैल रहा हो, ऑंधी सिर पर बह रही हो,तो हम जो दिया जलाएं, उसकी दीवट सत्य की हो, उसमें तेल तप का हो, उसकी बत्ती दया की हो और लौ क्षमा की हो। आज समाज में फैले अंधकार को नष्ट करने के लिए ऐसा ही दीप प्रज्जवलित करने की आवश्यकता है।
आनंद: कर्दम: श्रीदश्चिकलीत इति विश्रुता
ऋषय: श्रिय: पुत्राश्व मयि श्रीर्देवी देवता||
⚜⚜⚜⚜⚜⚜⚜⚜⚜⚜
आप को,आपके सपरिवार को,व् आपके सभी ईष्ट मित्रो व् मयकुटुंब, के लिये धन की अधिराष्ठ्री माँ महालक्ष्मी, प्रधमपुज्य श्री गणेश बुद्धि प्रदाता माँ सरस्वती, धनकुबेरपति से इस दीपावलीपर्व पर आपके लिए शुभाशीष माँगते हुऐ राजपरिवार की ऒर से आपको हार्दिक शुभकामनाएं।
इस पर्व के अवसर पर आपको जीवन की सारी खुशियां मिले……
आपकी हर मनोकामना पूरी हो “राजपरिवार” की यही माता रानी और श्रीकुबेरजी से प्रार्थना होगी….
राजपरिवार की ऒर से दीपावलीपर्व की हार्दिक शुभकामनाऐ
⚜⚜⚜⚜⚜⚜⚜⚜⚜⚜
27/10/19, 7:07 pm – Webinar Chinmay Vashishth SG: सुख के मेघ सदा ही बरसे
रिद्धि सिद्धि की नदियाँ हरषे
आत्मतोष का दीप जले तो
सब अंधियारे भागे घर से
आपको एवम आपके परिवार को दीपोत्सव की शुभकामनाएं 💐💐
27/10/19, 8:09 pm – Abhinandan Sharma: You deleted this message
27/10/19, 8:20 pm – Abhinandan Sharma: अयं दीपावली महोत्सवः भवत्कृते भवत्परिवारकृते च क्षेमस्थैर्य आयुः आरोग्य ऐश्वर्य अभिवृद्घिकारकः भवतु अपि च श्रीसद्गुरुकृपाप्रसादेन सकलदुःखनिवृत्तिः आध्यात्मिक प्रगतिः श्रीभगवत्प्राप्तिः च भवतु इति||
।।शुभ दीपावल्या:||
यह दीपावली महोत्सव, आपके और आपके परिवार के लिए आरोग्य, आयु, कुशल, ऐश्वर्य की अभिवृद्धि करने वाली हो | साथ ही ,गुरुकृपाप्रसाद से सभी दुखों की निवृत्ति और अध्यात्मिक प्रगति और श्री भगवान् की प्राप्ति कराने वाली हो |
||शुभ दीपावली ||
अभिनन्दन शर्मा और परिवार की ओर से ,हार्दिक शुभकामनाएं |
27/10/19, 11:06 pm – FB Rajesh Singhal Ghaziabad Shastra Gyan: 🙏🏻🙏🏻
28/10/19, 8:07 am – Lokesh Bharti Udaypur FB: 🍁आपको सपरिवार दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें🍁
शुभम करोति कल्याणम,
अरोग्यम धन संपदा,
शत्रु-बुद्धि विनाशायः,
दीपःज्योति नमोस्तुते !
दीपोत्सव आपके जीवन को सुख, समृद्धि, सुख-शांति, सौहार्द एवं अपार खुशियों की रोशनी से जग-मग करे….
…. लोकेश, मीना, आर्ष व अर्हत भारती, बाल शिक्षा सदन माध्यमिक विद्यालय, राजदेव शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय, उदयपुर
28/10/19, 10:34 am – +91: 🙏🙏
28/10/19, 11:01 am – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: 🙏🙏
28/10/19, 11:47 am – +91: 👏🏼👏🏼🌹🌹
28/10/19, 5:19 pm – +91 :
28/10/19, 5:20 pm – +91 :
28/10/19, 5:20 pm – +91 : 😎🚊
28/10/19, 5:21 pm – +91 : Hay
28/10/19, 5:25 pm – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: कृपया शुभकामनाएं देना व दैनिक नमस्कार प्रणाम पाती जैसे संदेश प्रेषित न करें
28/10/19, 5:27 pm – LE Ravi Parik : ???
28/10/19, 7:49 pm – Shyam Sunder Fsl: Pl इस ग्रुप को ऐसी फॉरवर्ड पोस्ट से बक्शे। इस ग्रुप मे यदि स्वयं टाइप किया है तो उचित रहेगा।🙏🏻
28/10/19, 8:38 pm – Abhinandan Sharma: इससे पता चलता है कि ग्रुप के सदस्य इस ग्रुप को इसके मूल स्वरूप में रखने के लिये कितने कटिबध्द हैं । सभी से निवेदन है, कृपया फ़ॉरवर्ड पोस्ट न डालें और टाइप कर के ही शुभकामनाएं दें 🙏
28/10/19, 9:05 pm – Ravi CA: This message was deleted
28/10/19, 9:14 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: 😂
28/10/19, 9:17 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 2 श्लोक 19, 20
अभिमानधनस्य गत्वरैरसुभिः स्थास्नु यशश्चिचीषतः ।
अचिरांशुविलासचञ्चला ननु लक्ष्मीः फलं आनुषङ्गिकं ।। २.१९ ।।
वियोगिनी
अर्थ: अपनी जाति कुल और मर्यादा की रक्षा को ही अपना सर्वस्व समझने वाले (पुरुष) अपने अस्थिर (नाशवान) प्राणो के द्वारा स्थिर यश की कामना करते हैं । इस प्रसङ्ग में (उन्हें) बिजली की चमक के समान चञ्चला (क्षणिक) राज्यश्री (यदि प्राप्त हो जाती है तो वह) अनायास ही प्राप्त होने वाला फल है ।
टिप्पणी: महाकवि भारवि ने वस्तु विनिमय करते हुए किस बात का महत्व है इसे बहुत ही प्रभावी ढंग से निरूपित किया है । महाकवि कालिदास ने भी रघुवंश में इस विषय पर विवेचन किया है ‘एकान्त विध्वंसिषु मद्विधानां पिण्डेध्वनास्था खलु भौतिकेषु’ दोनों महाकवियों का वर्णन नैपुण्य प्रशंसनीय है । तात्पर्य यह कि मनस्वी पुरुष केवल यश के लिए अपने प्राण गँवाते हैं, धन के लिए नहीं । क्योंकि यश स्थिर है और लक्ष्मी बिजली की चमक के समान चञ्चला है । उन्हें लक्ष्मी की प्राप्ति भी होती है, किन्तु उनका उद्देश्य यह नहीं होता । उसकी प्राप्ति तो अनायास ही हो जाती है ।
परिवृत्ति अलङ्कार
ज्वलितं न हिरण्यरेतसं चयं आस्कन्दति भस्मनां जनः ।
अभिभूतिभयादसूनतः सुखं उज्झन्ति न धाम मानिनः ।। २.२० ।।
वियोगिनी
अर्थ: मनुष्य राख की ढेर को तो अपने पैरो आदि से कुचल देते हैं किन्तु जलती हुई आग को नहीं कुचलते । इसी कारण से मनस्वी लोग अपने प्राणो को तो सुख के साथ छोड़ देते हैं किन्तु अपनी तेजस्विता अथवा मान-मर्यादा को नहीं छोड़ते ।
टिप्पणी: मानहानिपूर्ण जीवन से अपनी तेजस्विता के साथ मर जाना ही अच्छा है ।
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।
संस्कृत भाषा अखिल विश्व की भाषाओं में सर्वाधिक समृद्ध भाषा है । संस्कृत भाषा में अग्निवाचक ३४ शब्द हैं । ‘हिरण्यरेता’ यह भी अग्नि के अनेक नामों में से एक है ।
28/10/19, 9:27 pm – Ravi CA: 🙏 sorry to all member of this group
31/10/19, 8:29 pm – +91 : अजीत कुमार
पटना
31/10/19, 9:12 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
श्री मनुस्मृति
रूपसत्त्वगुणोपेता धनवन्तो यशस्विनः ।
पर्याप्तभोगा धर्मिष्ठा जीवन्ति च शतं समाः । । ३.४० । ।
इतरेषु तु शिष्टेषु नृशंसानृतवादिनः ।
जायन्ते दुर्विवाहेषु ब्रह्मधर्मद्विषः सुताः । । ३.४१ । ।
अनिन्दितैः स्त्रीविवाहैरनिन्द्या भवति प्रजा ।
निन्दितैर्निन्दिता नॄणां तस्मान्निन्द्यान्विवर्जयेत् । । ३.४२ । ।
पाणिग्रहणसंस्कारः सवर्णासूपदिश्यते ।
असवर्णास्वयं ज्ञेयो विधिरुद्वाहकर्मणि । । ३.४३ । ।
अर्थ
ब्राह्म आदि विवाहों से पैदा हुए पुत्र,सुरूप,सत्वगुणी,धनवान,
यशस्वी,भोगी,धार्मिक होते हैं और सौ वर्ष जीते है। और दूषित विवाहों से पैदा हुए कुकर्मी,झूठे व धर्म निंदक होते हैं। अच्छे विवाहों से अच्छी व बुरे विवाहों से बुरी सन्तान पैदा होती है। इसलिए निंदित विवाहों को नहीं करना चाहिए। विवाह संस्कार अपने वर्ण जाति की कन्या के साथ करना उत्तम है।
और दूसरे वर्ण की कन्या के साथ विवाह विधि संस्कार इस प्रकार जाननी चाहिए
31/10/19, 9:45 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 2 श्लोक 21, 22
किमपेक्ष्य फलं पयोधरान्ध्वनतः प्रार्थयते मृगाधिपः ।
प्रकृतिः खलु सा महीयसः सहते नान्यसमुन्नतिं यया ।। २.२१ ।।
वियोगिनी
अर्थ: (भला) सिंह किस फल की आशा से गरजते हुए बादलों पर आक्रमण करता है । मनस्वी लोगों का यह स्वभाव ही है कि जिसके कारण से वे दूसरों(शत्रु) की अभ्युन्नति को सहन नहीं करते । शत्रु को आतङ्कित करने में किसी प्रयोजन की आवश्यकता ही नहीं होती है अतः हे राजन! आप चुप न बैठो, अपने पराक्रम से शत्रु का शीघ्र विध्वंस करो ।
टिप्पणी: अपने उत्कर्ष के इच्छुक मनस्वी लोग दूसरों की वृद्धि या अभ्युन्नति को सहन भी नहीं कर सकते । मनस्वियों का यही पुरुषार्थ है कि वे दूसरों को पीड़ा पहुंचाकर अपनी कीर्ति बढ़ायें ।
यहाँ ‘पयोधर’ पद का प्रयोग मेघ का ही द्योतक मानना चाहिए । सजल मेघ का गर्जन गंभीर होता है और वही सिंह के कोप को उद्दीप्त करने में समर्थ होता है ।
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार
कुरु तन्मतिं एव विक्रमे नृप निर्धूय तमः प्रमादजं ।
ध्रुवं एतदवेहि विद्विषां त्वदनुत्साहहता विपत्तयः ।। २.२२ ।।
वियोगिनी
अर्थ: हे राजन युधिष्ठिर! इसलिए आप अपनी असावधानी से उत्पन्न मोह को दूर कर पुरुषार्थ में ही अपनी बुद्धि लगाइये । (दूसरा कोई उपाय नहीं है। ) शत्रुओं की विपत्तियां केवल आपके अनुत्साह के कारण से रुकी हुई हैं – यह निश्चय जानिये ।
टिप्पणी: अर्थात यदि आप तनिक भी पुरुषार्थ और उत्साह धारण कर लेंगे तो शत्रु विपत्तियों में निमग्न हो जाएंगे ।
काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।
01/11/19, 1:23 am – ~ पंशिवप्रसादत्रिपाठीआचार्य left
01/11/19, 6:23 am – Abhinandan Sharma: बहुत महत्वपूर्ण है नींद के विषय और इसके महत्व को जानना । आज के समय मनुष्य बढ़ते स्ट्रेस लेवल के चलते, प्रायः अनिद्रा और नींद पूरी ना होने के रोग से परेशान हैं, जिसकी वजह से सूत्र मे लिखी, समस्याएं सामने आती हैं, जैसे कम जीवन, दुर्बलता, अज्ञान (याददाश्त कमजोर होना), कृशता (आंखों के नीचे काले गड्ढे आना) आदि । इसके अलावा कुछ मॉडर्न परेशानियां भी आती हैं, जैसे कि ड्राइव करते में झपकी आना (30% एक्सीडेंट इस वजह से होते हैं) यदि आपको भी ये सिम्टम्स हैं तो आपको अपनी नींद पर तुरन्त ध्यान देने की आवश्यकता है । नींद को दुरुस्त रखेंगे तो अवसाद, कुंठा आदि का इलाज अपने आप हो जाएगा, अन्यथा आप विभिन्न प्रकार के मानसिक रोगों के शिकार भी होते जायेंगे अतः नींद का (तीनों आधार स्तम्भों) का विशेष ध्यान रखें और आगे अष्टांगहृदय पर धयान दे। 🙏
01/11/19, 6:27 am – Abhinandan Sharma: बहुत सुंदर । भाग्यवादी और कर्मवादी की उत्तम विवेचना । ये कामन्दिय नीतिशास्त्र क्या होता है ?
01/11/19, 6:28 am – Abhinandan Sharma: कृपया संदर्भ देवें !
01/11/19, 6:29 am – Abhinandan Sharma: क्या आप इसके एक एक श्लोक को अर्थ समेत, इस ग्रुप पर क्रमपूर्वक डाल सकते हैं । ये बहुत उत्तम स्तोत्र है ।
01/11/19, 6:31 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: कामन्दकीय नीतिसार, राज्यशास्त्र का एक संस्कृत ग्रंथ है। रचयिता – कामन्दकि/कामंदक। रचना – 700-750 ईस्वी के बीच की
01/11/19, 6:32 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: मैं कर सकता हूँ 🙂
01/11/19, 6:33 am – Abhinandan Sharma: उन्हें भी उत्तर देने दीजिये । पहले वो बतायें फिर यदि वो नहीं कर पाएंगे तो आप कीजियेगा ।
01/11/19, 6:34 am – Abhinandan Sharma: ये पॉइंट नोट करने वाला है – धन के पीछे मत भागिये, यश प्राप्ति कैसे हो, उसको विचारिये । धन तो अपने आप पीछे आएगा ।
01/11/19, 12:08 pm – Pitambar Shukla: श्री पुष्प दन्त विरचित
शिव महिम्नः स्तोत्र
महिम्नः पारं ते परम विदुषो यद्यसदृशी
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः।
अथावाच्यः सर्वः स्वमति परिणामावधि गृणन्
ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः।।
( गंधर्व राज पुष्प दन्त भगवान् शंकर की स्तुति के उपक्रम में कहते हैं—)
‘ हे पाप हरण करने वाले शंकर जी! आप की महिमा के आर-पार के ज्ञान से रहित सामान्य (अल्पज्ञ) व्यक्ति के द्वारा की गयी आप की स्तुति यदि आप के स्वरूप-(माहात्म्य) वर्णन के अनुरूप नहीं है तो (फिर) ब्रह्मादि देवों की वाणी भी आपकी स्तुति के अनुरूप नहीं है;( क्योंकि वह भी आपके गुणों का सर्वथा वर्णन नही कर सकते)।
किन्तु जब सभी लोग अपनी-अपनी बुद्धि ( की शक्ति) के अनुसार स्तुति करते हुए उपालम्भ के योग्य नही है माने जाते हैं;
तब मेरा भी स्तुति करने का (यह) प्रयास अपवाद रहित ही होना चाहिए ( यह प्रयास खण्ड नीय नही है)।।1।।
01/11/19, 2:08 pm – Poonam Goyal Delhi Artist Shastra Gyan: वचन सत्य है
किन्तु
आज के जीवन में काम का भार आधिक हो गया है।
काम पूरा करने के लिए जागना पड़ता है।
यदि नींद पूरी करे तो काम रह जाता है।
इस स्थिति के लिए क्या कोई ओर उपाय है?
01/11/19, 2:16 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: https://youtu.be/gexxRG54zQk
01/11/19, 9:38 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 2 श्लोक 23, 24, 25, 26
द्विरदानिव दिग्विभावितांश्चतुरस्तोयनिधीनिवायतः ।
प्रसहेत रणे तवानुजान्द्विषतां कः शतमन्युतेजसः ।। २.२३ ।।
वियोगिनी
अर्थ: हे राजन ! आपके हम चारों भाई दिग्गजों की तरह हैं । चारों समुद्र जैसे सर्वत्र चारों दिशाओं में प्रसिद्ध हैं । शत्रुओं के द्वारा सर्वथा अजेय हैं । रणभूमि में आते हुए इन्द्र के समान पराक्रमशाली आप के कनिष्ठ (चारों) भाइयों को शत्रुओं में से कौन सहन कर सकता है ?
टिप्पणी: अर्थात ऐसे परम पराक्रमशील एवं तेजस्वी भाइयों के रहते हुए आप किस बात की चिन्ता कर रहे हैं । आप को निःशंक होकर दुर्योधन से भिड़ जाना चाहिए ।
उपमा तथा अर्थापत्ति अलङ्कार
भीमसेन शुभाकांक्षा के बहाने परिणाम का कथन करते हुए कहता है कि –
ज्वलतस्तव जातवेदसः सततं वैरिकृतस्य चेतसि ।
विदधातु शमं शिवेतरा रिपुनारीनयनाम्बुसन्ततिः ।। २.२४ ।।
वियोगिनी
अर्थ: हे राजन युधिष्ठिर! आपके ह्रदय में शत्रु द्वारा निरन्तर प्रज्वलित क्रोधाग्नि की शान्ति शत्रुओं की विधवा स्त्रियों की आँखों से निरन्तर झरने वाली आंसुओं की झड़ी करें ।
(भीमसेन की कामना इस वचनावली से सुस्पष्ट है । वनवास के असहनीय कष्टों ने भीमसेन के मुख से मुखरिता प्राप्त की है । भीमसेन भी धीरोदात्त एवं गम्भीर स्वभाव का है किन्तु शत्रु कृत अपमान और असंख्य कष्टों से विवश होकर उसे ऐसा निर्णय लेकर कहने के लिए विवश होना पड़ा है । बड़े भाई की आज्ञा शिरोधार्य कर वनवास स्वीकार करने वाला भीमसेन जब ऐसा कह रहा है तब उसका कारण भी वैसा ही अवश्य होना चाहिए । )
टिप्पणी: यहाँ जल सिञ्चन के साथ शत्रुवध का सादृश्य गम्य है ।
उपमा अलङ्कार
भीम को अत्यधिक क्रुद्ध जानकर धर्मराज युधिष्ठिर उसको सांत्वना देते हैं ।
इति दर्शितविक्रियं सुतं मरुतः कोपपरीतमानसं ।
उपसान्त्वयितुं महीपतिर्द्विरदं दुष्टं इवोपचक्रमे ।। २.२५ ।।
वियोगिनी
अर्थ: जब राजा युधिष्ठिर ने भीमसेन में बढ़ा हुआ क्रोध उसके कठोर भाषण से जाना तो भीमसेन उन्हें बिगड़े हुए क्रोधोन्मत्त हाथी कि तरह जान पड़ा और युधिष्ठिर ने समझ लिया कि यदि युक्ति से तथा सामोपचार से इसे सांत्वना न देने पर यह काबू से बाहर होकर हाथ से निकल जावेगा क्योंकि क्रोधोन्मत्त व्यक्ति में विचार-शक्ति नष्ट हो जाती है । अतः समजस राजा युधिष्ठिर ने भेजें के कठोर भाषण का उत्तर कठोर शब्दों से देना उचित न समझकर सौम्य शब्दों से ही समझाना आरम्भ किया । क्योंकि ठण्डा लोहा ही गरम लोहे को काट पता है ।
टिप्पणी: यहाँ भीमसेन का नाम ग्रहण टाल कर उसे मरुतसुत (वायुपुत्र) कहने का तात्पर्य यह है कि वायु जिस प्रकार वात्या(आंधी) आदि रूपों में क्षण-क्षण में अपने रूप बदलती है । ‘पितुश्चरित्र पुत्र एवानुकुरुते’ इस नियम के अनुसार वृकोदर होने से (वायु संसर्गजन्य गुण-दोषों से तत्काल प्रभावित होता है उसी प्रकार द्रौपदी सान्निध्य से) वह भी कुपित हो गया है । यह अभिव्यञ्जित करने हेतु ‘मरुतसुतम्’ कहा गया है ।
राजा को अपने अप्रसन्न बन्धु-बान्धवों को मृदु वचनों के द्वारा बिगड़े हुए हाथी कि तरह अपने वश में करने का प्रयत्न को करना ही चाहिए – यह नीति कि बात है ।
पूर्णोपमा अलङ्कार
राजा युधिष्ठिर भीमसेन को प्रथम स्तुति के द्वारा प्रसन्न करने का प्रयास करते हुए कहते हैं –
अपवर्जितविप्लवे शुचय्हृदयग्राहिणि मङ्गलास्पदे ।
विमला तव विस्तरे गिरां मतिरादर्श इवाभिदृश्यते ।। २.२६ ।।
वियोगिनी
अर्थ: भीमसेन से युधिष्ठिर कहते हैं कि – जिस प्रकार निर्मल लौह आदि से विनिर्मित सुन्दर और माङ्गलिक दर्पण में प्रतिबिम्ब सुस्पष्ट दिखाई देता है, तद्वत पवित्र और निर्मल तुम्हारी वाणी में तुम्हारी निर्मल बुद्धि सुस्पष्ट दिखाई पड़ती है ।
टिप्पणी: वचन कि विशुद्धता में ही बुद्धि का वैशद्य भी दिखाई पड़ता है ।
उपमा अलङ्कार
01/11/19, 10:42 pm – +91 : पूर्णतः सहमत
01/11/19, 11:38 pm – Poonam Goyal Delhi Artist Shastra Gyan: 🙂
02/11/19, 1:04 pm – Pitambar Shukla: शिव महिम्न स्तोत्र के श्लोकों का हिन्दी में भावानुवाद किन्ही कवि वर ने किया है, जो बहुत सुंदर बन पड़ा है ।
उद्धृत कर रहा हूं।
कवि महोदय का शुभ नाम ज्ञात नही है ।
जानत न रावरी अनंत महिमा कौ अंत
याते अनुचित जो महेस गुन गाइबौ।
हम तौ अग्यानी तो मैं ग्यानी ब्रह्म आदि हू की
बानी को लखात चूकि मूक बनि जाइबो।
मति अनुरूप रूप गुन के निरूपन मैं
होत जो न काहू पै कलंक अंक लाइबो,
दोष आसुतोस!तौ न मानिए हमारौ आज
गुन गाइबे को कमर कसि आइबो।।1।।
02/11/19, 9:32 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 2 श्लोक 27, 28
स्फुटता न पदैरपाकृता न च न स्वीकृतं अर्थगौरवं ।
रचिता पृथगर्थता गिरां न च सामर्थ्यं अपोहितं क्वचिथ् ।। २.२७ ।।
वियोगिनी
अर्थ: हे भीमसेन ! तुम्हारे भाषण के सभी वाक्य अत्यन्त सुस्पष्ट हैं । उनमें अर्थगाम्भीर्य भी प्रचुर मात्रा में है । कहीं पर भी पुनरुक्ति दोष श्रवणगोचर नहीं हुआ ।
टिप्पणी: वाक्य में एकाधिक निषेधार्थक ‘न’ होने पर उसका अर्थ निषेध न होकर स्वीकार होता है । । यहाँ ‘पदै गिराम् अर्थ गौरव स्वीकृत न इति न’ इस वाक्य में ‘न’ दो बार प्रयुक्त हुआ है, अतः उसका अर्थ पदों के द्वारा वाणी का गौरव स्वीकार नहीं किया गया, ऐसा नहीं अपितु, स्वीकार किया गया है । केवल एक ‘न’ का प्रयोग होने पर उसका निषेध-परक ही अर्थ होता है । जैसाकि मनुस्मृति में मांसभक्षण, मद्यपान आदि का निषेध करते हुए ‘न मासभक्षणे दोष न च मद्ये, इस मनु वचन का अर्थ मास भक्षण और मद्यपान करने में दोष बताकर निषेध करने में ही है क्योंकि इसमें भी एकाधिक ‘न’ कार का प्रयोग हुआ है ।
मनुवचन का अर्थ मांसभक्षण में और मद्य पीने में दोष नहीं है ऐसा करना भूल है । अन्यथा अर्थ की संगती नहीं होगी ।
दीपक अलङ्कार
उपपत्तिरुदाहृता बलादनुमानेन न चागमः क्षतः ।
इदं ईदृगनीदृगाशयः प्रसभं वक्तुं उपक्रमेत कः ।। २.२८ ।।
वियोगिनी
अर्थ: (राजा युधिष्ठिर भीमसेन से कहते हैं) हे भीमसेन ! तुमने अपनी शक्ति के अनुरूप ही सशक्त तर्क अपने भाषण में प्रस्तुत किये हैं । उपस्थित किये गए तर्कों के द्वारा शास्त्रमत का खण्डन भी नहीं हुआ । अतः वे तर्क शास्त्र के अविरोधी हैं । अतः तुम्हारा कथन शास्त्र सम्मत ही है । तुम्हारे भाषण को क्षत्रियोचित न कहने का सामर्थ्य कौन रखता है ? कोई भी इसे क्षात्रधर्म विरुद्ध नहीं कह सकता है ।
टिप्पणी: यह श्लोक निन्दा-परक नहीं समझना चाहिए । युधिष्ठिर जैसे सरल ह्रदय एवं मातृवत्सल व्यक्ति का अभिप्राय अन्यथा नहीं हो सकता ।
अर्थापत्ति अलङ्कार
02/11/19, 11:10 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-७ श्लोक ५४,५५
अकालेऽतिप्रसङ्गाच्च न च निद्रा निषेविता॥५४॥
सुखायुषी पराकुर्यात् कालरात्रिरिवापरा। रात्रि जागरणं रूक्षं, स्निग्धं प्रस्वपनम् दिवा॥५५॥
अरूक्षमनभिष्यन्दि त्वासीनप्रचलायितम्।
निद्रा के गुण दोष- रात्रि में जागने से शरीर में रूक्षता हो जाती है, दिन में सोने से शरीर में स्निग्धता हो जाती है (इसमें मूल कारण कफदोष की वृद्धि है)। सोने के एक प्रकार और है— बैठे बैठे ऊंघना या झपकियां लेते रहना। यह न तो रूक्षता करता है न ही कफ को ही बढ़ाता है।
वक्तव्य- चरक ने निद्रा की इस स्थिति को “असीनप्रचलायिता” की संज्ञादी है। देखे च.सू. २१/५०
ग्रीष्मे वायुचयादानरौक्ष्यरात्र्यल्पभावतः॥५६॥
दिवास्वप्नो हितोऽन्यस्मिन् कफपित्तकरो हि सः। मुक्त्वा तु भाष्ययानाध्वमद्यस्त्रीभारकर्मभिः॥५७॥
क्रोधशोकभयेः क्लान्तान् श्वासहिध्मातिसारिणः। वृद्धबालाबलक्षीणक्षतृटशूलपीडितान्॥५८॥
अजीर्ण्यभिहतोन्मत्तान् दिवास्वप्नोचितान्यपि। धातुसाम्यं तथा ह्योषां श्लेष्मा चाङ्गानि पुष्यति॥५९॥
निद्रा सम्बन्धी विचार- ग्रीष्म ऋतु में वातदोष का संचय होने से, आदानकाल के कारण होने वाली रूक्षता से एवं इन दिनों रात्रि के छोटी हो जाने से दिन में सोना हितकर होता है। इसके अतिरिक्त अन्य ऋतुओं में दिन में सोना कफकारक होता है।
अधिक बोलने से, सवारी करने से, रास्ता चलने से, मद्यपान करने से, स्त्री सहवास करने से, क्रोध से, शोक से, भय से, थके हुए पुरूषों को, श्वास, हिक्का (हिचकी) एवं अतिसार रोगियों को, बालक, वृद्ध, दुर्बल (कमजोर), क्षीण (कृश), क्षत (उरःक्षत), प्यास तथा शूलरोगों से पीड़ित, अजीर्णरोगी, घायल(चोट लगे हुए), उन्मत्त(पागल) व्यक्ति को और जिन्हें शास्त्र ने दिन में सोने की अनुमति दे रखी है, उन्हें तथा ऊपर कहे गए रोगियों को दिन में सोना उचित है, क्योंकि दिन में सोने से इनका धातु साम्य हो जाता है कफ इनके शरीरावयवों को पुष्ट कर देता है।
02/11/19, 11:19 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: आदानकाल
02/11/19, 11:36 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: कृपया forward न प्रेषित करें 🙏🏼
02/11/19, 11:38 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: This message was deleted
02/11/19, 11:38 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: आदानकाल – शिशिर, बसन्त तथा ग्रीष्म नामक ऋतुओं में होने वाले छः मासों का नाम उत्तरायण है। इसी का दूसरा नाम आदानकाल हैं, क्योंकि यह काल अपनी प्रकृति से प्रतिदिन प्राणियों के बल को लेता रहता है अर्थात उनके बल का अपहरण करता रहता है।
03/11/19, 12:06 am – +91 : इस समय सूर्य दिन प्रतिदिन प्रवल होता है , और प्राणियों के बल का ह्रास होता है । यह दिन उत्तरायण से शुरू होता है , जो सूर्य की उत्तर की ओर गति दर्शाता है( मकर संक्रांति)
03/11/19, 4:02 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👍🏼
03/11/19, 4:02 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👍🏼
03/11/19, 9:12 am – Shastragyan Abhishek Sharma: ✅
03/11/19, 9:55 am – Abhinandan Sharma: आजकल हिन्दू धर्म को लेकर बड़े भ्रम की स्थिति है | जिस विषय पर गहन अध्ययन और चिन्तन की आवश्यकता है, उस पर बिना तह तक जाए, नारे लगाए जाते हैं | हमें समझना चाहिए कि हिन्दू क्या होता है ? रिलिजन का अर्थ भी प्रायः धर्म कर दिया जाता है, ये भी समझना चाहिए कि रिलिजन का क्या अर्थ है और धर्म रिलिजन से कैसे अलग है ? जब तक हम इतने बेसिक्स नहीं समझेंगे, हम अपने धर्म को ही नहीं जानेंगे | ये वीडियो बहुत महत्वपूर्ण है अतः इस सभी को देखना चाहिए | आप ये वीडियो देखिये और बताइए कि आपको कैसा लगा | अच्छा लगे तो शेयर करें, लाइक करें, और सबस्क्राइब करें |
03/11/19, 3:30 pm – +91 : श्री पुष्प दन्त विरचित
श्री शिव महिम्न स्तोत्र
अतीतः पन्थानं तव च महिमा वांग्मनसयो रतद्व्यावृत्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि।
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः।।
आपकी महिमा वाणी और मन की पहुँच से परे है।
आप की उस महिमा को वेद भी (आश्चर्य-) चकित(भयभीत) हो कर ( निषेध- मुखेन) नेति-नेति कहते हुए आशय रूप में वर्णन करते हैं ।
फिर तो ऐसे अचिन्त्य महिमामय आप किस की स्तुति के विषय (वर्ण्य) हो सकते है?
अर्थात् किसी की स्तुति तदर्थ समर्थ नही हो सकती; क्योंकि आप के गुण न जाने कितने प्रकार के हैं अर्थात् अनन्त है ।
फिर भी हे प्रभो! नवीन परम रमणीय आप के ( सगुण) रूप के विषय में वर्णन करने के लिए किस का मन आसक्त नहीं होता और किसकी वाणी उसमेँ प्रवृत्त नहीं होती?
अर्थात्–सब के मन-वचन सगुण रूप में संलग्न हो जाते हैं—सभी अपनी वाणी को प्रेरित कर वर्णन में लगा देते हैं।।2।।
03/11/19, 3:32 pm – Pitambar Shukla left
03/11/19, 3:35 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: 👌🏻👌🏻👌🏻
03/11/19, 9:56 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-७ श्लोक ६०,६१,६२,६३
बहुमेदः कफः स्वप्युः स्नेहनित्याश्च नाहनि। विषार्तः कण्ठरोगी च नैव जातु निशास्वपि॥६०॥
दिन में न सोने का निर्देश- जिन मनुष्यों के शरीर में मेदोधातु एवं कफदोष बढ़ा हुआ हो, और जो प्रतिदिन स्निग्ध आहारों का सेवन करते है, उन्हें दिन में नहीं सोना चाहिए। विषरोग से गले के रोग से पीड़ित रोगी को रात में भी नहीं सोना चाहिए।
अकालशयनान्मोहज्वरस्तैमित्यपीनसाः। शिरोरूक्शोफहृल्लासस्रोतोरोधाग्निमन्दताः॥६१॥
अकाल शयन से हानि- असमय मे सोने से मोह, ज्वर, स्तैमित्य(गीले कपड़े से ओढ़े हुए का जैसा अनुभव होना ), पीनस(प्रतिश्याय), शिरोरोग, सूजन, जी मिचलाना, रसवाही स्रोतों में रूकावट तथा मन्दाग्नि हो जाती है।
तत्रोपवासवमनस्वेदनावनमौषधम्। योजयेदतिनिद्रायाम् तीक्ष्णं प्रच्छर्दनाञ्जनम्॥६२॥
नावनं लङ्घनं चिन्तां व्यवायं शोकभीक्रुधः। एभिरेव च निद्राया नाशः श्लेषमातिसङ्क्षयात्॥६३॥
चिकित्सा-निर्देश- उक्त स्थिति में रोगी को उपवास, वमन, स्वेदन और नस्य कारक औषधों का प्रयोग करें। अतिनिद्रा की स्थिति में तीक्ष्ण वमन, अञ्जन(सूरमा) एवं नस्य दें। उसे लंघन, चिन्ता, व्यवाय, शोक, भय तथा क्रोध करायें जिससे रोगी के कफ का नाश होकर निद्रा का भी नाश हो सके।
वक्तव्य- ऊपर कहे गये ६२ तथा ६३वें श्लोकों में केवल कफनाशक उपायों का वर्णन किया गया है, कफदोष की निवृति हो जाने पर अतिनिद्रा स्वयं शान्त हो जाती है।
04/11/19, 8:05 am – Abhinandan Sharma: हम कोमल शब्दों में भी कठिन तर्क दे सकते हैं ।
आजकल बहुधा एक खास प्रकार की फेसबुक और व्हाट्सएप्प पोस्टों का चलन है, जिनमें जानबूझकर कुछ शब्दों का प्रयोग किया जाता है, जिनमें एक खास वर्ग विशेष पर अथवा किसी व्यक्ति विशेष के बारे में लिखा जाता है, किन्तु कुछ अपशब्दों के साथ । ऐसी पोस्ट में मनगढंत तथ्य होते हैं और भाषा का स्तर हद दर्जे तक निम्न होता है । जैसे कि -“अब कुछ दोगले कहेंगे”, “ऐसे देशद्रोहियों के हिसाब से”, कुछ पढ़े लिखे मूर्ख इस बात को नहीं मानेंगे” आदि इसके अलावा, इन्हीं पोस्ट के क्रम में, बहुधा गालियों का भी प्रयोग होता है, करीब इसी तरह से, जो किसी खास व्यक्ति विशेष अथवा वर्ग विशेष को दी जाती है ।
इस प्रकार की पोस्ट का जो मुख्य उद्देश्य होता है, वो सायकोलोजीकल होता है कि यदि किसी ने उन पोस्ट पर अथवा उस पोस्ट के घटिया कुतर्कों पर कुछ कहा तो वो अपने आप मूर्खों की, दोगलों की, देशद्रोही की श्रेणी में आ गया क्योंकि पोस्ट लिखने वाले के हिसाब से, पोस्ट के विचारों के विपक्ष में बोलने वाला अथवा असहमत होने वाला, जाहिर तौर पर मूर्ख ही है।
इस प्रकार की पोस्ट, प्रायः दो तरह की होती हैं, एक राजनैतिक और दूसरी धर्म को केंद्र में रख कर लिखी गयी। जो राजनीतिक है, वो तो चलो राजनीतिक है ही, उसके बारे में तो क्या ही कहा जाए, ये धंधा है उनका, एकतरफा बात रखने का लेकिन जो धार्मिक पोस्ट होती हैं, उनका एकमात्र उद्देश्य समाज में भरम फैलाना और समाज को बांटना होता है । या तो पोस्ट की बकवास से सहमत हो जाइए अन्यथा मूर्ख होने का सर्टिफिकेट प्राप्त कीजिये, तुरन्त, जवाब देते ही । इसके भी कुछ उदाहरणार्थ पोस्ट देता हूँ – “भाई कैसा हो, रावण जैसा हो”, “कर्ण ने कृष्ण से अपनी बदनसीबी के बारे में पूछा और कृष्ण ने अपनी बदनसीबी के बारे में बताया” वाली पोस्ट, “कौए की बीट से पीपल का पेड़ पैदा होता है इसलिए श्राद्ध में कौए को खिलाया जाता है” और भी बहुत सारी पोस्ट आती रहती हैं, जिनका कोई सिर पैर नहीं हैं लेकिन सिर्फ उथले कुतर्कों के बेसिस और नाजानकारी के चलते ऐसी पोस्ट बनाई जाती हैं, एक खास उद्देश्य से, आपको भृमित करने के लिये । ऐसे लोगों ने न तो शास्र पढ़े, न किसी धार्मिक ग्रंथ यथा रामायण, महाभारत का ही अध्ययन किया मात्र सुनी सुनाई बातों के बेसिस पर, चंद लाइक इकट्ठे करने के लिये, इस प्रकार की घटिया पोस्ट बनाई जाती हैं । ऐसे लोगों को जब आप, पोस्ट पर रिप्लाई करते हैं तो उनकी भाषा और घटिया हो जाती है, उनसे तर्कों की अपेक्षा, गालियां, पर्सनल आक्षेप आदि मिलते हैं सो बात करने की और इच्छा नहीं होती कि इनको सही जानना ही नहीं है तो बताया क्यों जाए लेकिन समाज के वर्ग का, ये लोग, अपनी घटिया पोस्ट से, नाश कर चुके होते हैं क्योंकि बहुतायत में लोगों ने सनातन शास्त्र नहीं पढ़े हैं और इस प्रकार की बेसिरपैर की पोस्ट को ही, बहुधा जनता सत्य मान लेती है। नुकसान, धर्म का, शास्त्रों का, मनुष्य का ।
हमें ये समझना चाहिये कि यदि आप सही हैं, आपकी विचारधारा सही है तो उसे सम्मान आपके तर्कों से मिलेगा, उनमें कितनी गहराई है, उनसे मिलेगा, न कि दूसरों को, असहमत होने वालों को मूर्ख, दोगला, देशद्रोही टाइप पूर्व घोषणा करने के। स्वामी विवेकानंद से जो लोग असहमत होते थे, क्या वो उनको मूर्ख कहने लग जाते थे ? क्या जो उनकी वातें नहीं समझ पाते थे, उनको सर्टिफिकेट बांटने लगते थे ? क्या शंकराचार्य और मण्डन मिश्र जब आपस में शास्त्रार्थ करते होंगे तो क्या क्रोध से तमतमाने लगते होंगे ? क्या पर्सनल कमेंट करते होंगे ? क्या विपक्ष को, अरे तुम तो बौद्ध धर्म के अनुयायी हो, तुम क्या समझोगे, सनातन के महान दर्शन को, ऐसा बोलकर पल्ला झाड़ लेते होंगे ? नहीं । कदापि ऐसा नहीं होता था।
एक विद्वान, दूसरे विद्वान का सम्मान करता है । जीत हार प्रतिष्ठा का विषय हो सकता है किंतु विद्वान उसकी वजह से, तर्कों में हारने से, अपने आप पर काबू नहीं खोते थे। हर बार हारने पर, कुछ नया सीखते थे, ये सीखने का एक तरीका था। आप सौम्य भाषा में, मधुर भाषा में भी, एक कठिन और अकाट्य तर्क दे सकते हैं । बशर्ते आपकी बात मे दम हो । यदि नही होगा, यदि पोस्ट का उद्देश्य मात्र कुछ लाइक्स और वह वाही पाना होगा तो आप पहले से ही, इस प्रकार की पूर्व निर्धारित कंडीशन रख देंगे कि असहमत होने वाला मूर्ख ही होगा जबकि वास्तव में, इस प्रकार की कंडीशन, आपकी स्वयं की मूर्खता, तर्कों में हारने का भय प्रदर्शित करता है। तर्क शास्त्र में, इस प्रकार की बातों को और इस प्रकार की भरम फैलाने वाले कथ्यों को, वितंडा कहते हैं । आपको इस प्रकार की पोस्ट पढ़ते समय ही सचेत हो जाना चाहिए कि ऐसी एकतरफा पोस्ट में जो लिखा है, वो निश्चित ही बकवास होगा, जो कि उसकी भाषा से परिलाक्षित हो जाएगा। इस प्रकार आपने, इस पोस्ट में तर्कशास्त्र की दो बातें सीख ली – 1. आप बिना कठोर शब्दों के भी, अकाट्य तर्क रख सकते हैं और 2. वितण्डा पोस्ट को सोशल मीडिया पर कैसे पहचानें और धर्म की हानि होने से कैसे बचाएं ।
पूरा निबंध ही हो गया ये तो । चलिये, सुबह की राम-राम ।
पं अशोकशर्मात्मज अभिनन्दन शर्मा
श्री पितृ चरण कमलेभ्यो नमः ।
04/11/19, 8:08 am – +91 : पढ़ रही हूँ ,लेकिन जितना पढ़ी ,पूर्णतः सत्य है !!👍
04/11/19, 8:14 am – G B Malik Delhi Shastra Gyan: सर् , बहुत ही सुंदर लिखा आपने
आज की परिस्थिति का बेहद सटीक विश्लेषण
👏🏻👏🏻👏🏻
धन्यवाद🙏🏻
04/11/19, 8:15 am – +91 : आभार आदरणीय🙏😊
04/11/19, 8:20 am – FB Rajesh Singhal Ghaziabad Shastra Gyan: 👌🏻👌🏻👌🏻
04/11/19, 8:52 am – Shyam Sunder Fsl: 🙏बहुत अच्छा 💐
04/11/19, 9:26 am – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: 🙏🙏😊 राम राम…
04/11/19, 9:29 am – FB Vikas Delhi Shastra Gyan: सहमत भाई जी🙏
04/11/19, 9:31 am – Webinar Chinmay Vashishth SG: ऐसी पोस्ट को पढ़कर मन ही मन बहुत हंसी आती है। अच्छा लिखा है । और एक बात ये सच मे आँखे खोलने वाली पोस्ट है। 🙂
04/11/19, 10:02 am – FB Piyush Khare Hamirpur: 👌🏻🙏🏻🙏🏻
04/11/19, 10:23 am – Shastr Gyan Pranav Dvivedi Lucknow: पूर्णतया सहमत।
लेकिन अनर्गल वायरल हो रहे मेसेज सनातन परंपरा का अपमान कर रहे है। इनको रोकने अथवा सही करने का क्या उपाय हो सकता है।
04/11/19, 10:37 am – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: यही सबसे बड़ी बिडम्बना है ।
04/11/19, 10:42 am – Abhinandan Sharma: You deleted this message
04/11/19, 10:44 am – Abhinandan Sharma: शास्त्रों का अध्ययन, शास्त्र ज्ञान ग्रुप को जॉइन करना, शास्त्र ज्ञान सत्र के सभी वीडियो को देखना और अघोरी बाबा की गीता को पढ़ना और पढाना, अभी ये सब उपाय किये जा सकते हैं । स्वय इतना जानना होगा, जिससे कोई आपको भरमा न सके ।
04/11/19, 10:52 am – Abhinandan Sharma: एक उपाय, साथ साथ करने का और है पर अधिक मेहनत वाला है, पता किया जाये कि ऐसी पोस्ट फेसबुक पर या व्हाट्सएप्प पर पहले पहल किसने लिखी और फिर उस आदमी की उसी की वाल पर मजम्मत की जाये। ये थोड़ा मुश्किल है, वो ताकत मे ज्यादा हो सकता है, वो संगठन में आपसे ज्यादा हो सकता है, हो सकता है ये उसका काम हो, वो सैलरी लेता हो लेकिन रोकना उसे ही होगा ।
04/11/19, 10:53 am – FB Rahul Gupta Kanpur: 📢 मूर्खों से वाद में उलझना उन्हीं को बल देता है। इससे अपनी ही ऊर्जा का अपव्यय होता है। हर मनुष्य को हम तर्क से संतुष्ट भी नहीं कर सकते। अतः ऐसे महापुरुषों की उपेक्षा कर देनी चाहिए। 🌏
04/11/19, 10:54 am – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: ये बहुत ही मुश्किल होगा ।
04/11/19, 10:55 am – FB Rahul Gupta Kanpur: अनेक posts तो वर्षों से तैर रही हैं।
04/11/19, 11:05 am – FB Yogi Advaithnath Shastra Gyan Jabalpur: 🙏🏻🙏🏻🙏🏻
04/11/19, 11:06 am – Shastr Gyan Pranav Dvivedi Lucknow: इसका दूसरा पहलू यह हो सकता है कि जिस प्रकार हम ग्रुप में अनेक शास्त्र पढ़ रहे है उसी प्रकार साप्ताहिक 1 वायरल मेसेज का शास्त्रोक्त तार्किक विश्लेषण करके अपने अपने सोशल मीडिया सर्किल में भेजें ।
जिस प्रकार पितृ पक्ष, भगवद गीता के भ्रामक मेसेज समाज मे फैल रहे है,उसी प्रकार हमारे मेसेज कथा कहानी आदि के रूप में समाज मे जाने चाहिए।
शुरुआत स्वयं से करते हुए मैं साप्ताहिक रूप से 2 घंटे इस कार्य को दे सकता हूँ।
04/11/19, 11:21 am – Abhinandan Sharma: ह्म्म्म, इस तरह से भी हो सकता है, किन्तु उसमें पूरे ग्रुप का साथ चाहिये, उस पोस्ट को आगे बढाने में, जो भी सम्भव ग्रुप हों, उनमें । मेरी नजर में जो भी इस प्रकार की पोस्ट आयेगी, मैं कोशिश करूंगा कि अब उन पर एक छोटी टिप्पणी लिखह सकूं और आप लोग उसे आगे बढ़ा सकें ।
04/11/19, 11:24 am – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: 👍👌
04/11/19, 11:27 am – +91 : पथ सौं अतीत मन बानी के महत्व तत्व
स्रुतिहू चकित नेति -नेति जो बदति है,
कौन गुन गावै, है कितेक गुनवारो वह
काकी उतै अलख अगोचर लौं गति है।
भगत उधारन कौं धारन करौ जो रूप
विविध अनूप जाहि जोइ रही मति है,
काकौ मन वाकौं सदा ध्याइबो चहत नायँ
काकी गिरा नायँ गुन गाइबो चहति है।।2।।
04/11/19, 11:40 am – FB Piyush Khare Hamirpur: धर्म और राजनीति दोनो पृथक पृथक विषय है, लेकिन आज के समय मे लोग अपनी राजनीति को चमकाने के लिए धर्म का सहारा लेते है। और सफल भी हो रहे है, राजनीतिक फायदे के लिए धर्म को अपने हिसाब से तोड़ मरोड़ कर पेश करना एक विशेष पार्टी की आईटी सेल करना बखूबी जानती है। और ये कोई छोटा मोटा नेटवर्क नही है, बहुत बड़ा और बहुत ही सिस्टेमेटिक नेटवर्क है, और झूठ फैलाना ही उन लोगो का काम है, इसी से उनका जीवन यापन चल रही है।
अतार्किक बिना सर पैर की बातें फैलाते है। इनसे भिड़ना सिर्फ स्वयं के बाल नुचवाने जैसा है।
ये मेरा व्यक्तिगत राय है, कुछ लोग असहमत भी हो सकते है।
04/11/19, 11:41 am – +91 : आप लेखन कीजिए ।
भ्रम निवारण हो।
जो भी सहमत होंगे प्रसार अवश्य करेंगे ।
ऐसे आलेखों की प्रतीक्षा रहेगी ।
यह अभियान स्तुत्य है।
हमारी हार्दिक मंगल कामना।🌷
04/11/19, 11:48 am – +91 : राजनीति को किनारे रखा जाय।
इसका एक ही सिद्धान्त होता है येन- केन प्रकारेण सत्ता की प्राप्ति ।
कौटिल्य ने बहुत पहले ही कह रखा है—-
वारांगनेव नृप नीतिः(राजनीति वेश्या के समान होती है)
किन्तु जहां पर धर्म के विषय में भ्रम फैलाया जा रहा हो, वहाँ डट कर प्रतिवाद किया जाए ।
भले ही इसमें बाल नुच जाएँ ।
04/11/19, 11:52 am – FB Piyush Khare Hamirpur: Once a intellectual person said:- Never underestimate the power of stupid people in a large group. 🙏🏻
04/11/19, 11:52 am – Shastragyan Abhishek Sharma: ✅ अवश्य।
04/11/19, 12:07 pm – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: 👍
04/11/19, 12:11 pm – +91 : हमारे यहां अवध क्षेत्र में एक कहावत है–‘
खटमल के डर से कथरी नहीं छोड़ी जाती ।
कथरी बचानी है तो खटमल दूर करने का उपाय करना होगा ।🙏
04/11/19, 12:24 pm – Abhinandan Sharma: ठीक है, पीताम्बर जी और अन्य सदस्यों के अनुसार इस पर कार्य करते हैं। बाकी पीयूष जी की भी बात ठीक है, हमें किसी से नहीं सर मारना, बस किसी एक पोस्ट पर, राइट अप लिखकर, उसे शेयर करना है, विभिन्न ग्रुप्स में । बिना पोस्ट करने वाले से बहस किये । जैसे उसने अपनी बात आगे बढ़ा दी, हम भी बढ़ा देंगे । बस ।
04/11/19, 12:25 pm – +91: पूर्णतः सहमत ।
04/11/19, 1:21 pm – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: 👍
04/11/19, 5:32 pm – FB Vikas Delhi Shastra Gyan: ,👍👍
04/11/19, 5:33 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: सहमति…. 🙏
04/11/19, 7:44 pm – +91 : इस लेख से प्रेरित होकर आज मैंने एक प्रश्न किया ,उस पर कई लोगों ने अपने विचार व्यक्त किये
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=685712948584077&id=100014361342419
04/11/19, 8:26 pm – Ashu Bhaiya: किन शब्दों को आप गाली मानती हैं ? बहुत से शुद्ध संस्कृत में प्रचलित शब्द रहे हैं । जैसे आपके सविता गायत्री में भी गाली है 😀
04/11/19, 8:29 pm – Ashu Bhaiya: और वहां का चिंतन देख लिया है
04/11/19, 8:37 pm – +91 : “गाली ” यह शब्द ही अपने मे एक गन्दा शब्द है ।
04/11/19, 9:38 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: This message was deleted
04/11/19, 9:38 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 2 श्लोक 29, 30
अवितृप्ततया तथापि मे हृदयं निर्णयं एव धावति ।
अवसाययितुं क्षमाः सुखं न विधेयेषु विशेषसम्पदः ।। २.२९ ।।
वियोगिनी
अर्थ: (यद्यपि तुमने सभी बातों का अच्छी तरह निर्णय कर दिया है) तथापि संशयग्रस्त होने के कारण मेरा ह्रदय अभी तक निर्णय का विचार ही कर रहा है । सन्धि-विग्रह आदि कर्तव्यों के निर्णय में, उनके भीतर आनेवाली विशेष सम्पत्तिया अनायास ही अपना स्वरुप प्रकट करने में समर्थ नहीं होती ।
टिप्पणी: मुख्य कार्य करने का निश्चय करने के पहले उस कार्य के भीतर आनेवाली छोटी-मोटी बातों का भी गहराई से विचार कर लेना चाहिए, क्योंकि वे सब सरलतापूर्वक समझ में नहीं आती ।
काव्यलिङ्ग अलङ्कार
विचारोत्तर कार्य करने के लाभ तथा अविवेक से किये जाने वाले कार्यों से होने वाली हानि को धर्मराज युधिष्ठिर भीमसेन को बतलाते हुए कहते हैं कि –
सहसा विदधीत न क्रियां अविवेकः परं आपदां पदं ।
वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयं एव सम्पदः ।। २.३० ।।
वियोगिनी
अर्थ: बिना सोचे-समझे कोई कार्य नहीं करना चाहिए । अविवेक (कार्याकार्य विचार शून्यता) अनेक आपत्तियों का कारण होता है । निश्चित रूप से सर्वविध सम्पत्तियाँ गुणवान विवेकी पुरुष का स्वयं वरण करती हैं । अर्थात यदि कोई बलात राज्यादि सम्पत्ति अपने वश में कर लेता है तो सम्पत्ति स्वयं उसका परित्याग कर देती है । सोच-समझकर कार्य करनेवाले पुरुष को ही सम्पत्ति अपना स्वामी बनाना पसन्द करती है । अन्य (अविमृष्यकारी) को नहीं चाहती है ।
टिप्पणी: तर्कशास्त्र में अन्वय-व्यतिरेक के द्वारा पुष्ट तर्क की प्रतिष्ठा है । महाकवि भारवि युधिष्ठिर के मुख से अब भीमसेन के द्वारा प्रस्तुत तर्कों का खण्डन करते हुए तर्कशास्त्रोक्त अन्वय व्यतिरेक की कसौटी पर अपने तर्कों को खरा सिद्ध करते हैं ।
अन्वय और व्यतिरेक की सुबोध परिभाषा इस प्रकार है –
‘तत् सत्वे तत् सत्ता – अन्वयः।’
‘तद् असत्वे तद् असत्ता -व्यतिरेकः ।’
यहाँ विवेक के अभाव में परमापत् प्राप्ति है । वही सम्पत्ति की असत्ता (अभाव) है । यही व्यतिरेक का स्वरुप है ।
इस पद्य में पूर्वार्ध में वर्णित अर्थ को ही उत्तरार्ध में अन्वय के माध्यम से कहा गया है जैसे –
विमृष्यकारित्वम् = विवेकः तत् सत्वे सम्पदः सत्ता इत्यन्वयः । विमृष्यकारित्वम् का अर्थ विवेक है अर्थात विवेक (आगा पीछा खूब सोच समझकर कार्य करने की प्रवृत्ति) की सत्ता (आस्तित्व) होने पर सम्पत्ति की सत्ता होती है ।
तर्कशास्त्र में अन्वयव्याप्ति का उदाहरण –
“यत्र यत्र धूमः तत्र तत्र अग्निः अस्ति ।”
व्यतिरेक व्याप्ति की उदारहण –
“यत्र यत्र धूमः नास्ति तत्र तत्र अग्निः अपि नास्ति ।”
इसके अनुसार कह सकते हैं कि – “यत्र यत्र विमृष्यकारिता अस्ति तत्र तत्र सम्पत्तिः अस्ति ।” इत्यन्वयः ।
“यत्र यत्र च सम्पत्तिः नास्ति तत्र तत्र विवेकः (विमृष्यकारिता) आपि नास्ति ।” इति व्यतिरेकः ।
*इस पद्य के कारण भारवि को सवालाख सुवर्ण मुद्रा कि प्राप्ति हुई थी, ऐसी जनश्रुति है ।
04/11/19, 10:21 pm – +91 : यह एक गम्भीर समस्या बनती जारही है ,युवक युवतियाँ बेधड़क भद्दी भाषा का प्रयोग खुलेआम कर रहें हैं ,बिना गन्दे शब्दों का प्रयोग कोई वाक्य की नहीं बोलते ! ऐसे भी लोग हैं !
04/11/19, 10:49 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-७ श्लोक ६४,६५
निद्रानाशादङ्गमर्दशिरोगौरवजृम्भिकाः। जाड्यग्लानिभ्रमापक्तितन्द्रा रोगाश्च वातजाः॥६४॥
निद्रानाश के लक्षण- निद्रा के समुचित रूप से ना आने पर शरीर में मसल देने की पीड़ा, सिर मे भारीपन, बार बार जंभाइयों का आना, शरीर में जड़ता, हर्षक्षय, चक्करो का आना, भुक्त आहार का न पचना, उंघाई आदि वातविकार सम्बन्धी रोग हो जाते हैं।
यथाकालमतो निद्रां रात्रौ सेवेत सात्म्यतः। असात्म्याज्जागरादर्धं प्रातः स्वप्यादभुक्तवान्॥६५॥
निद्रासेवन निर्देश- अतएव रात्रि में समय पर सो जाना चाहिए। यहां सात्म्यतः का अर्थ है— जिसे जितनी नींद आती हो उतना ही सोये, अर्थात कोई रात में दो पहर, कोई तीन पहर सोता है, तदानुसार सोयें। जो पूरी रात भली भांति न सो सका हो वह प्रातःकाल भोजन करके आधी नींद सो जाये।
05/11/19, 12:13 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙏🏼🙏🏼
05/11/19, 7:11 am – LE Ravi Parik : व्यर्थ बाते करने से अच्छा है हम सब लोग ग्रुप के मूलभूत उद्देश्य पर चलें। विशुद्ध शास्त्र ज्ञान।
05/11/19, 8:28 am – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: 🙏
05/11/19, 8:42 am – +91 : सहमत 🙏
05/11/19, 8:50 am – +91 : 👍👍
05/11/19, 8:51 am – +91 : कटु सत्य
05/11/19, 10:47 am – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur: मैं इससे सहमत हूं कि इस ग्रुप के मूल उद्देश्य से हमें नहीं भटकना चाहिए और यह जो सोशल मीडिया पर तर्क कुतर्क चलते हैं अगर इनका प्रतिकार करने के लिए अच्छे तर्क देने हैं तो उसके लिए एक अलग ग्रुप बना लेना ज्यादा बेहतर रहेगा जिससे कि इस ग्रुप का मुख्य उद्देश्य कभी भी कमजोर ना पड़े
05/11/19, 10:56 am – +91 : बिल्कुल सहमत 🙏
05/11/19, 10:57 am – FB Rajesh Singhal Ghaziabad Shastra Gyan: 🙏🏻🙏🏻🙏🏻
05/11/19, 11:01 am – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan:
05/11/19, 11:17 am – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur: दिक्कत यह हो जाएगी की ग्रुप में भेजे जाने वाले कमैंट्स की क्वालिटी काफी घट सकती है और क्योंकि ग्रुप में कोई जरूरी जानकारी one to one लेने के लिए ही प्रोत्साहित किया जाता है इसलिए शास्त्र ज्ञान के अलावा यहां पर शास्त्रार्थ शुरू हो जाएगा और हम मूल उद्देश्य से भटक जाएंगे
05/11/19, 11:18 am – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: 🤔
05/11/19, 11:28 am – Abhinandan Sharma: ठीक है, इस कार्य के लिए एक अलग से ग्रुप बनाया जाएगा और इस ग्रुप को, इसके वर्तमान तरीके से ही चलाया जाएगा, जिससे इस पर कोई बहस न हो |
05/11/19, 11:28 am – Abhinandan Sharma: जल्द ही, नए ग्रुप की इनफार्मेशन शेयर की जायेगी |
05/11/19, 11:29 am – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: 🤗
05/11/19, 11:36 am – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur: 🙏🏻🙏🏻dhanyawad
05/11/19, 11:48 am – +91: मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतस्तव
ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम्।
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः
पुनामीत्यर्थेस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता।।
‘ हे भगवन्! मधु से सिक्त सी अत्यंत मधुर एवम् परम उत्तम अमृत रूप वेद वाणी की रचना करने वाले देवाधिदेव ब्रह्म देव की वाणी भी क्या आपके गुणों को प्रकाशित कर आपको चमत्कृत कर सकती है? (कदापि नही)
फिर भी हे त्रिपुरारि!मेरी बुद्धि आपके गुणानुवाद जनित पुण्य से अपनी इस (मलिन वासना से भरी अतएव अपवित्र) वाणी को पवित्र करने के लिए ( ही) आपके गुण कथन के द्वारा ( की जाने वाली) स्तुति के विषय में उद्यत है।
न कि अपने स्तुति कौशल से आप का अनुरञ्जन करूँगा—–यह मेरा अभिप्राय है ।।3।।
05/11/19, 11:49 am – +91: शिव महिम्न स्तोत्र ।
05/11/19, 11:55 am – Abhinandan Sharma: कृपया, पुराने श्लोक को भी टैग कर दिया करें, जब नया श्लोक डालें ताकि, यदि कोई पुराना श्लोक देखना चाहे तो आपके पोस्ट से पुराने श्लोक तक पहुच सके
05/11/19, 12:08 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: यही सही होगा कि भ्रांतियों और कुतर्कों को काटने के लिए अलग से ग्रुप बना लें। यह ग्रुप इसी तरह से चलता रहे बिना किसी बहस के। group को साफ सुथरा रखने के लिए कृपया admin को छोड़ और कोई अब इस विषय पर न बोले 🙏🏼🙏🏼
05/11/19, 12:14 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
श्री मनुस्मृति
शरः क्षत्रियया ग्राह्यः प्रतोदो वैश्यकन्यया ।
वसनस्य दशा ग्राह्या शूद्रयोत्कृष्टवेदने । । ३.४४ । ।
ऋतुकालाभिगामी स्यात्स्वदारनिरतः सदा ।
पर्ववर्जं व्रजेच्चैनां तद्व्रतो रतिकाम्यया । । ३.४५ । ।
ऋतुः स्वाभाविकः स्त्रीणां रात्रयः षोडश स्मृताः ।
चतुर्भिरितरैः सार्धं अहोभिः सद्विगर्हितैः । । ३.४६ । ।
तासां आद्याश्चतस्रस्तु निन्दितैकादशी च या ।
त्रयोदशी च शेषास्तु प्रशस्ता दशरात्रयः । । ३.४७ । ।
युग्मासु पुत्रा जायन्ते स्त्रियोऽयुग्मासु रात्रिषु ।
तस्माद्युग्मासु पुत्रार्थी संविशेदार्तवे स्त्रियम् । । ३.४८ । ।
अर्थ
ब्राह्मण के साथ क्षत्रिय कन्या का विवाह हो तो वर का हाथ ना पकड़ कर उसके हाथ का अग्र भाग पकड़े।
वैश्य की कन्या प्रतोद(पशु हांकने का दण्ड को और शूद्र कन्या पहने वस्त्र का किनारा पकड़ लेवे।
ऋतुकाल में अपनी स्त्री से सम्भोग करे व अमावस्या आदि पांच पर्व तिथियां छोड़ देवे।स्त्रियों की स्वाभाविक ऋतुरात्री सोलह है उन में शुरू के चार दिन निंदित है,उन शुरू की चार रात्रियों के साथ ग्यारहवीं व तेरहवी भोग के लिए निंदित है बाकी दसरात्री अच्छी है।
युग्म -सम- छ्ठी, आठवीं,दसवीं,आदि रात्रि में भोग करने से पुत्र व अयुग्म,पांचवी,सातवीं,नवमी तिथियों में भोग करने से कन्या उत्तपन्न होती है इसलिए पुत्र प्राप्ति के लिए युग्म रात्रि में भोग करना चाहिए।।
05/11/19, 12:30 pm – +91 : नित्य करता हूँ ।
आज असावधानी हो गई ।
भविष्य में अवश्य सचेत रहने का प्रयास अवश्य करूंगा ।
05/11/19, 1:06 pm – Abhinandan Sharma: 🙏
05/11/19, 1:07 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: 🙏💐
05/11/19, 4:59 pm – Abhinandan Sharma: You deleted this message
05/11/19, 5:01 pm – Abhinandan Sharma: You deleted this message
05/11/19, 5:08 pm – Abhinandan Sharma: दो बातें बड़े काम की – गर्म लोहे के ठंडा लोहा ही काट सकता है, अतः गुस्सैल स्वभावी की नर्म भाव से ही वश में किया जा सकता है । बहुत उत्तम । इसके अलावा, लोहे के बने हुए दर्पण !!!
05/11/19, 5:13 pm – Abhinandan Sharma: व्याकरण का अद्भुत उदाहरण । @919560269954 जी, क्या आप दो बार निषेध में स्वीकार होने के कुछ और उदाहरण दे सकते हैं ! मनुस्मृति के उदाहरण के बाद भी कुछ संशय बचा रह गया है ।
इसके अलावा (-)+(-) = (+) नियम की भी व्युत्पत्ति होती है ।
05/11/19, 5:19 pm – Abhinandan Sharma: Good to know
05/11/19, 5:20 pm – FB Rahul Gupta Kanpur: सहमत 🙏🏻
05/11/19, 5:33 pm – Abhinandan Sharma: 👏👏
05/11/19, 6:50 pm – Shastra Gyan Mukesh Mishra Allahabad: न्याय की ज्ञानमीमांसा का सुंदर उपयोग किया महाकवि भारवि ने ‘संपत्ति’ और ‘विवेक’ में ‘व्याप्ति’ सम्बन्ध स्थापित करने में।
गोस्वामी तुलसीदास जी भी सुन्दरकाण्ड में लगभग यही बात तो कहते हैं
“जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना”
05/11/19, 8:49 pm – Abhinandan Sharma:
05/11/19, 8:51 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: This message was deleted
05/11/19, 8:51 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: 🙏🙏🙏🙏🙏
05/11/19, 8:52 pm – Abhinandan Sharma:
05/11/19, 8:55 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: 🙏🙏🙏🙏
05/11/19, 8:55 pm – Abhinandan Sharma: ये वाला नहीं पढ़ा जा रहा, मात्रा में गड़बड़ है ।
05/11/19, 9:02 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: Sanskrit is second toughest language in the world, it’s not easy to pronounce clearly, well done sharma ji 🙏🏻
05/11/19, 9:05 pm – +91: परमममृतम् करके पढ़ने का प्रयास कीजिए ।
05/11/19, 9:06 pm – Abhinandan Sharma: नहीं, फिर भी मात्रा ज्यादा हो रही हैं ।
05/11/19, 9:06 pm – Abhinandan Sharma: आप try कीजिये
05/11/19, 9:06 pm – Abhinandan Sharma: दूसरी लाइन में भी कुछ गड़बड़ लग रही है म
05/11/19, 9:07 pm – +91 :
05/11/19, 9:07 pm – Abhinandan Sharma: और आगे लाइन ठीक हैं तो मतलब गाने वाला भी गड़बड़ हो सकता है 😆
05/11/19, 9:08 pm – Abhinandan Sharma: निर्मितवतस्तव – ये सही है !
05/11/19, 9:09 pm – Abhinandan Sharma: यस शुद्ध है –
मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतः।
तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम्।।
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः।
पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता।। ३।।
05/11/19, 9:10 pm – +91 : निर्मितवतः+तव = निर्मितवतस्तव
05/11/19, 9:10 pm – Abhinandan Sharma: इसी वजह से गड़बड़ हो रही थी । जो मैंने डाला है, उससे लय बन रही है ।
05/11/19, 9:11 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👌🏼
05/11/19, 9:12 pm – +91 : मुझे अभ्यास है अतः मुझे कोई असुविधा नहीं प्रतीत हुई।
05/11/19, 9:12 pm – Abhinandan Sharma: 🙏
05/11/19, 10:43 pm – Abhinandan Sharma: शास्त्र – क्या सच, क्या झूठ: आप यहां से जॉइन कर सकते हैं https://chat.whatsapp.com/BLj37x4i8OME19niKe6qqh
05/11/19, 10:48 pm – Shastr Gyan Pranav Dvivedi Lucknow: सोशल मीडिया पर सनातन धर्म से संबंधित भरमात्मक पोस्ट पर स्पष्टीकरण और शास्त्रोक्त और तार्किक दृष्टि से विश्लेषण हेतु बनाया गया ग्रुप जिसमे भारत के विद्वान शास्त्रज्ञ सम्मिलित है।
यदि आप भी सनातन धर्म के विश्व विजयी अभियान में सहयोग करने हेतु भरमात्मक पोस्ट आदि का तार्किक विश्लेषण प्राप्त करना चाहते है तो ग्रुप जॉइन कर सकते है।
आशा है ग्रुप के मेंबर उस स्पष्टीकरण को अन्य सभी सम्भव ग्रुप्स में पोस्ट करेंगे ।
शास्त्र – क्या सच, क्या झूठ: आप यहां से जॉइन कर सकते हैं https://chat.whatsapp.com/BLj37x4i8OME19niKe6qqh
05/11/19, 10:49 pm – Shastr Gyan Pranav Dvivedi Lucknow: ऐसा मेसेज अपने कुछ मित्रों से शेयर कर रहा हु। 🙏🏻
05/11/19, 10:50 pm – Abhinandan Sharma: कुछ ज्यादा अच्छा तो नही हो जायेगा 😃
05/11/19, 10:51 pm – Shastr Gyan Pranav Dvivedi Lucknow: मुझे जैसा समझ आया लिख दिया। 🙂
05/11/19, 10:51 pm – Abhinandan Sharma: वैसे बाकी लोग भी इस मेसेज को अन्य ग्रुप में भेज सकते हैं, अच्छा मेसेज है
06/11/19, 8:53 am – Abhinandan Sharma:
06/11/19, 12:28 pm – +91 : तवैश्वर्यं यत् तज्जगदुदयरक्षा प्रलय कृत्
त्रयीवस्तुव्यस्तं तिसृषु गुणभिन्नासु तनुषु।
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं
विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः।।
‘ हे वर देने वाले शिव जी! आप विश्व की सृष्टि, पालन एवं संहार करते हैं—–ऐसा ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद( वेदत्रयी) निष्कर्ष रूप से वर्णन करते हैं ।
इसी प्रकार तीनों गुणों से विभिन्न त्रिमूर्तियों( ब्रह्मा- विष्णु-महेश-)में बँटा हुआ जो इस ब्रह्माण्ड में आप का यह प्रख्यात ( रचनात्मक,पालनात्मक एवं संहारात्मक) ऐश्वर्य है,उसके विषय में खंडन करने के लिए कुछ जड़बुद्धि, अकल्याणभागी( मन्दों) अभागों ( नास्तिकों) को मनोहर लगने वाला पर वास्तव में अशोभनीय व्यर्थ का मिथ्या प्रलाप उठाते हैं ।।4।।
07/11/19, 4:30 am – Abhinandan Sharma:
07/11/19, 11:26 am – +91: किमीहः किं कायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च।
अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसरदुःस्थो हत धियः
कुतर्कोऽयं कांश्चिन्मुखरयति मोहाय जगतः।।
हे वरद भगवन्! वह विधाता त्रिभुवन का निर्माण करता है तो उसकी कैसी चेष्टा होती है?
उसका स्वरूप क्या है?
फिर उसके साधन क्या हैं?
आधार अर्थात् जगत् का उपादान कारण क्या है?
—–इस प्रकार का कुतर्क, सब तर्कों से परे अचिन्त्य ऐश्वर्य वाले आप के विषय में निराधार एवम् नगण्य ( उपेक्षित) होता हुआ भी सांसारिक ( साधारण) जनों को भ्रम में डालने के लिए कुछ मूर्खों को वाचाल बना देता है।।5।।
07/11/19, 2:14 pm – Abhinandan Sharma: हम सनातनी हैं, हम धार्मिक भी हैं, हम धर्म को जानना भी चाहते हैं, हमें शास्त्रों के बारे में और उसकी गूढ़ बातें यथा योग, ज्योतिष, नाट्य, भाव आदि भी जानने में रुचि है। यदि उपरोक्त में से कोई भी बात सही है, तो यहां अगली बात आती है कि सनातन धर्म को समझने के लिये, शास्त्रों को और उनकी गूढ़ बातों को जानने के लिये, हमने अभी तक क्या प्रयास किया है ! एक ईमानदार प्रश्न कीजिये अपने आप से । इसके सम्भावित उत्तर भी देता हूँ, जो उत्तर सही प्रतीत हो, उसे सेलेक्ट करें –
- हमने हमारे ग्रंथों को पढा है और पढ़ रहे हैं जैसे वाल्मीक रामायण, महाभारत, पतंजलि योगसूत्र आदि । – हाँ/नहीं
- हमने उपरोक्त ग्रन्थ तो नहीं पढ़े हैं लेकिन रामचरितमानस, गीता आदि पूरी पढ़ी है ।- हाँ/नहीं
3.हमने ज्यादा पढा और देखा तो नहीं है, देखा भी था तो अब याद नहीं है, इसलिए अब हम किसी के पास जाते हैं, ये सब सीखने के लिये और धर्म को समझने के लिये – हाँ/नहीं
यदि आप उपरोक्त में से कुछ नहीं करते तो क्या आपकी धर्म के बारे में जानकारी निम्न बातों से है –
A. हमने उपरोक्त में से कुछ तो नहीं पढ़ा है लेकिन हमने tv पर रामायण, महाभारत, महादेव आदि पूरे देखे हैं । – हाँ/नहीं
B हमने पूरे तो नहीं देखे लेकिन बीच में से कुछ देखे थे, बाकी हमने सुन रखा है । – हाँ/नहीं
C. हम tv पर, फेसबुक पर, व्हाट्सअप पर जो धार्मिक पोस्ट आती हैं, उनको अच्छे से पढ़ते हैं और उनको शेयर भी करते हैं ताकि दूसरे लोग भी ऐसी ज्ञान की बातें पढ़ सकें । – हाँ/नहीं
D. हम धार्मिक पुस्तकें पढ़ते हैं जैसे अमीश त्रिपाठी की शिवा, the triology या सीता, the warrior आदि ।
अब आप एक ईमानदार सेल्फ एनालिसिस करें कि यदि आआपका उत्तर पहले तीनों ऑप्शन के लिये, नहीं है तो फिर आप अपने धर्म को, स्वयं को, शास्त्रों को, सनातनी होते हुए, जानने के लिये क्या कर रहे हैं ! क्या प्रयास हैं आपके !
यदि आपका उत्तर A से D तक कुछ भी है तो ये तय है कि आपको धर्म के नाम पर बड़ी आसानी से भरमाया जा सकता है । तो असल ज्ञान को प्राप्त करने के लिये आप क्या कर सकते हैं !
मैं बताता हूँ, अपने लिये थोड़ा समय निकालिए, निश्चय कीजिये कि अब कुछ जानना है, जिंदगी तो ऐसे ही चलती रहेगी पर यदि सनातन होते हुए भी सनातन धर्म को न समझा तो क्या लाभ अतः अब कुछ सीरियस efforts करने हैं । इस बार के शास्त्र ज्ञान के सत्र में आइये, बैठिए, चाय पीजिये और समझिये, शास्त्रों के विभिन्न कॉन्सेप्ट्स को और अपने जीवन को सुगम, सरल और स्ट्रेस फ्री बनाइये ।
आशा है, इस बार आप एक सीरियस एफर्ट अवश्य करेंगे और इस मौके का फायदा उठाएंगे क्योंकि ये फ्री है, कोई आडम्बर नहीं है, कुछ भी पूछ सकते हैं (एकतरफा प्रवचन नहीं हैं बाबाओं की तरह से) ! तो क्या सोचा, आ रहे हैं ना इस बार के शास्त्र ज्ञान के सत्र में, करने चाय पर चर्चा, रविवार, 12.30 बजे ।
07/11/19, 2:24 pm – +91 : स्पष्ट एवम सुंदर 😊👌
07/11/19, 3:33 pm – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: This message was deleted
07/11/19, 6:09 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: उत्तम कार्य
07/11/19, 7:39 pm – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad: इसका ऑनलाइन प्रशारण हो सकता है?
07/11/19, 7:41 pm – Abhinandan Sharma: जी, यूट्यूब लाइव और फेसबुक लाइव किया जाता है ।
07/11/19, 9:25 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 2 श्लोक 31, 32, 33 और 34
क्या साहसिक को फल सिद्धि प्राप्त होती हुई दिखाई नहीं देती ? तो विवेक की क्या आवश्यकता है ? इस आशंका का समाधान करते हुए धर्मराज युधिष्ठिर भीमसेन से कहते हैं – अभिवर्षति योऽनुपालयन्विधिबीजानि विवेकवारिणा ।
स सदा फलशालिनीं क्रियां शरदं लोक इवाधितिष्ठति ।। २.३१ ।।
वियोगिनी
अर्थ: हे भीमसेन ! जो नीतिमान पुरुष स्व-कर्त्तव्य रूप कार्य विषयों को बीजतुल्य संरक्षणीय समझकर उचित देश-काल का विचार करने के पश्चात उचित समय में और उचित स्थान में बोकर विवेक रूप जल से उनको सींचता रहता है वह पुरुष ही शरद्काल सम्प्राप्त होने पर फल से सुशोभित सस्य सम्पत्ति को प्राप्त करता है । अन्य जन नहीं ।
साहसिक को होने वाली कार्यसिद्धि “काकतालीयन्याय” से यदा-कदा ही होती है किन्तु विवेकी पुरुष को होने वाली कार्य सिद्धि सुनिश्चित ही होती है ।
टिप्पणी: काकतालीय न्याय – किसी ताल वृक्ष पर बैठा हुआ कौआ उड़ा, उसके उड़ते ही वह तालवृक्ष किसी कारणान्तर से गिरने पर लोग कहते हैं कि कौवे ने ताल को गिरा दिया । यही काकतालीय न्याय है । वस्तुतः ताल के गिरने में कारण कौवा न होकर अन्य कोई कारण होता है । उसी प्रकार अविवेकी पुरुष कि कार्य सिद्धि भी काकतालीय न्याय जैसी ही होती है । उसे विश्वसनीय नहीं माननी चाहिए किन्तु विवेकी पुरुष की कार्य सिद्धि सुनिश्चित ही होती है ।
श्लेषमूलक अतिश्योक्ति, उपमा अलङ्कार
शुचि भूषयति श्रुतं वपुः प्रशमस्तस्य भवत्यलंक्रिया ।
प्रशमाभरणं पराक्रमः स नयापादितसिद्धिभूषणः ।। २.३२ ।।
वियोगिनी
अर्थ: हे भीमसेन ! गुरु परम्परा से सम्प्राप्त शास्त्र शुद्ध (शास्त्रानुमोदित) उपदेश के द्वारा शरीर की शोभा होती है । उस शास्त्रोपदेश की शोभा शांतिप्रियता है । शांतिप्रियता की शोभा यथा समय स्व-विक्रम प्रदर्शन है तथा नीति द्वारा उपार्जित विवेक से प्राप्त कार्य सिद्धि ही उस विक्रम(पराक्रम) की शोभा होती है ।
एकावली अलङ्कार
मतिभेदतमस्तिरोहिते गहने कृत्यविधौ विवेकिनां ।
सुकृतः परिशुद्ध आगमः कुरुते दीप इवार्थदर्शनं ।। २.३३ ।।
वियोगिनी
अर्थ: युधिष्ठिर कहते हैं – हे भीमसेन ! जैसे हवा से सुरक्षित दीपक की रोशनी (प्रकाश) अन्धकार में पड़ी हुई वस्तु को प्रकाशित करने में समर्थ होती है, उसी प्रकार सोच-समझकर कार्य करने वाले विवेकी पुरुष की वृद्धि भ्रम रूप अन्धकार(अज्ञान) से आच्छन्न(ढके हुए) गहन कार्यों के मार्गों का अच्छा(भली प्रकार से) बाध कराती है ।
टिप्पणी: जिस प्रकार अन्धेरे पथ को वायु आदि के विघ्नों से रहित दीपक आलोकित करता है उसी प्रकार से विवेकी पुरुष का शास्त्रज्ञान भी कर्तव्याकर्तव्य के मोह में पड़े व्यक्ति का पथ प्रदर्शन करता है ।
पूर्णोपमा अलङ्कार
स्पृहणीयगुणैर्महात्मभिश्चरिते वर्त्मनि यच्छतां मनः ।
विधिहेतुरहेतुरागसां विनिपातोऽपि समः समुन्नतेः ।। २.३४ ।।
वियोगिनी
अर्थ: प्रशंसनीय गुण सम्पन्न महापुरुषों के द्वारा आचरित मार्ग में मन लगाने वालों की कदाचित दैववश अवनति भी हो जावे तो वह अवनति पाप अथवा अपराधों के कारण नहीं होती । सत्पथानुयायी जनों की अवनति भी समुन्नति के तुल्य होती है ।
07/11/19, 9:44 pm – Abhinandan Sharma: वाह, श्लोके 2.31 बहुत अच्छा है और ध्यान रखने योग्य है । काकतालीय न्याय हमने शास्त्रज्ञान सत्र में तर्कशास्त्र के अध्ययन के समय पढ़ा था, पुनः याद हो गया । करीब 60 प्रकार के न्याय पढ़े थे उस समय पर याद कुछेक ही हैं !
07/11/19, 9:45 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: जी🙏🏼
07/11/19, 10:38 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-७ श्लोक ६६,६७
शीलयेन्मन्दनिद्रस्तु क्षीरमद्यरसान् दधि। अभ्यङ्गोद्वर्तनस्नानमूर्धकर्णाक्षितपर्णम्॥६६॥
कान्ताबाहुलताश्लेषो निर्वृत्तिः कृतकृत्यता। मनोऽनुकूला विषयाः कामं निद्रासुखप्रदाः॥६७॥
ब्रह्मचर्यरतेर्ग्राम्यसुखनिः स्पृहचेतसः। निद्रासंतोषतृप्तस्य स्वं कालं नातिवर्तते॥६८॥
पूर्णनिद्रा प्राप्तविधि- जिसे पूर्ण निद्रा न आती हो वह दूध, मांसरस, दही का सेवन करें। अभ्यंग, उबटन, स्नान करे तथा सिर में,कानो में एवं आंखों में तर्पण स्नेह का प्रयोग करें। सामान्य रूप से स्त्री या पुरुष जिसे नींद न आती हो वे अपने प्रिय या प्रिया का आलिंगन करके सोयें। निवृति(सुख), कृतकृत्यता(मैंने अपना कार्य क लिया), मन के अनुकूल शब्द(स्नेहपूर्ण कथायें या सुरीले गीत) आदि विषयों की चर्चा—पर्याप्त निद्रासुख को देते हैं।
ब्रह्मचर्य नामक उपस्तम्भ- जिसकी ब्रह्मचर्य के पालन में रति है, जिसका मन स्त्री सहवास की ओर से निःस्पृह (विरक्त) रहता है और जो सदा संतोष से तृप्त रहता है, उसे अपने समय से निद्रा आ जाती है। अर्थात उसकी निद्रा कभी भी अपने समय का अतिक्रमण नहीं करती है।
वक्तव्य- श्री अरूणदत्त एवं हेमाद्रि की टीकाओं से युक्त अष्टाङ्गहृदय में उक्त ६८वें पद्य को निद्रावर्णन सम्बन्धी अन्य श्लोकों के साथ केवल इसलिए जोड़ दिया कि उक्त श्लोक के उत्तरार्द्ध में निद्रा शब्द आया है। वास्तव में ६८वां पद्य ब्रह्मचर्य नामक उपस्तम्भ का परिचायक होने के कारण स्वतन्त्र है।
निद्रा का वर्णन प्राचीन संहिताओं में इस प्रकार उपलब्ध होता है।— च.सू. २१/३४ से ५१ तक और सु.शा. ४/३२ से ४७ तक। चरक ने निद्रा के अनेक भेद इस प्रकार किये है— “तमोओभवा श्लेष्मसमुद्भवा च मनःशरीरश्रमसम्भवा च। आगन्तुकी व्याध्यनुवर्तिनी च रात्रिस्वभावप्रभवा च निद्रा॥” (च.सू. २१/५८)। चरक ने उक्त भाव को पुनः अपने शब्दों मे इस प्रकार कहा है— “रात्रिस्वभावप्रभवा मता या तां भूतधात्री प्रवदन्ती निद्राम्॥” (च.सू. २१/५१)। अर्थात जो स्वस्थ पुरुष को रात्रि के समय स्वभाव से निद्रा आती है, उसे “भूतधात्री (समस्त प्राणियों की उपमाता के समान)” कहते हैं, जो समस्त प्राणियों का धारण पोषण करती है। यही निद्रा सभी प्रकार की निद्राओं में उत्तम है। तामसिक नींद भैस, शेर बाघ आदि प्राणियों को आती है, फलतः ये रात दिन सोते रहते हैं। राजस व्यक्ति कभी भी अपनी नींद पूरी कर लेते हैं। सात्विक नींद जिन्हें आती है, वे सन्त रात्रि के समय थोड़ा सा सो लेते हैं। एक निद्रा है— अनवबोधिनी जिस नींद के आने पर प्राणी फिर जागता नहीं, अर्थात मर जाता है। यह मृत्युकाल की निद्रा का नाम है।
सुश्रुत ने ग्रीष्म ऋतु में दिन में सोने का विधान इस प्रकार किया है— ‘ सर्वर्तुषु दिवास्वापः प्रतिषिद्धैऽन्यत्र ग्रीष्मात्’। (सु.शा. ४/३८) इसके अतिरिक्त भी उन्होंने अनेक विकल्पो की चर्चा की है— ” निद्रा सात्म्यीकृता यैस्तु रात्रौ च यदि वा दिवा। दिवारात्रौ च ये नित्यं स्वप्नजागरणोचिताः। न तेषां स्वपतां दोषो जाग्रतां वापि जायते॥’ (सु.शा. ४/४१)
अर्थात जिन लोगों ने रात में अथवा दिन में सोने का अभ्यास बना लिया है, जो मनुष्य दिन में या रात में सोने या जागने के अभ्यासी हो गये है, उन्हें दान मे सोने अथवा रात में जागने से किसी प्रकार का दोष नहीं होता। वास्तव में तमोगुण और निद्रा का सम्बन्ध कफदोष से है, यहि कारण है कि भोजन करते ही कफ की वृद्धि होने के कारण नींद आती है या आने लगती है। निद्र का प्रारम्भिक स्वरूप है तन्द्रा।
07/11/19, 11:06 pm – Webinar Chinmay Vashishth SG: सुंदर व्याख्यान
07/11/19, 11:12 pm – +91 👌🏻👌🏻👌🏻
08/11/19, 11:49 am – LE Ravi Parik : आज तुलसी विवाह है, कृपया थोड़ा इस प्रसंग पर प्रकाश डाले
08/11/19, 11:58 am – +91 : अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगता-
मधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति।
अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो
यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे।।
हे देव! श्रेष्ठ अवयव वाले ( शरीर धारी) होते हुए भी ये लोक क्या बिना जन्म के ही हैं?
( नहीं कदापि नहीं;) क्या विश्व की सृष्टि- पालन- संहार आदि क्रियाएं बिना ( अधिष्ठान) कर्ता के माने संभव हो सकती हैं?
या ईश्वर के बिना कोई सामान्य जीव ही अधिष्ठान या कर्ता हो सकता है?
(नहीं , क्योंकि)यदि असमर्थ जीव ही कर्ता है तो चौदह भुवनों की सृष्टि के लिए उसके पास क्या साधन हो सकता है?
(इस प्रकार आपके अस्तित्व के प्रमाण सिद्ध होने पर भी) यतः वे ( जड़बुद्धि) शंका करते हैं; अतः वे बड़े अभागी हैं ।।6।।
08/11/19, 2:44 pm – Lokesh Bharti Udaypur FB: हमारे शब्द हमारा संसार बनाते है … हम कहते है हम #ईमानदार समाज बनाते हैं …#ईमानदार मतलब होता है जो अल्लाह और मौहमम्द पर ईमान लाये ….. तो अनजाने में हम पूरे देश को इस्लाम की ओर धकेल रहें हैं ….. बोलिये हम देश को #सत्यनिष्ठ और #धर्मनिष्ठ बनायेंगे !!!!
08/11/19, 3:01 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: आज से पूर्व हमको पता ही नही था कि ईमानदार का मतलब यह होता है जो अल्लाह और मोहहमद पर ईमान लाये🙏🏻
08/11/19, 7:58 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: कृपया उद्देश्य से न भटकें, कुछ शास्त्रों से पढ़ा हुआ डालें या फिर group की किसी post पर चर्चा कर सकते हैं पर कोई नया प्रश्न या व्याख्या न डालें इससे सभी को असुविधा हो सकती है और ग्रुप का उद्देश्य भी पूरा नही होता ।
08/11/19, 8:01 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 2 श्लोक 35 और 36
शिवं औपयिकं गरीयसीं फलनिष्पत्तिं अदूषितायतिं ।
विगणय्य नयन्ति पौरुषं विजितक्रोधरया जिगीषवः ।। २.३५ ।।
वियोगिनी
अर्थ: विजय की इच्छा करने वाले पुरुष अशुभ क्रोध के संवेग का दमन कर स्वप्रयोजन की सिद्धि और उसकी भावी स्थिरता का विचार करके वे अपने पुरुषार्थ(पराक्रम) को लोककल्याण के कार्य में प्रयुक्त करते हैं । ऐसा राजा युधिष्ठिर ने भीमसेन से कहा ।
अपनेयं उदेतुं इच्छता तिमिरं रोषमयं धिया पुरः ।
अविभिद्य निशाकृतं तमः प्रभया नांशुमताप्युदीयते ।। २.३६ ।।
वियोगिनी
अर्थ: राजा युधिष्ठिर भीमसेन से कहते हैं कि अभ्युदयेच्छु पुरुष को चाहिए कि वह सबसे पहले अपनी बुद्धि निर्मल करे, अज्ञान रूप तिमिर को अपनी बुद्धि से अलग करे । सूर्य भगवान् भी निशान्धकार का विनाश करके ही उदय को प्राप्त होते हैं । रात्रि-जन्य तम का विनाश किये बिना सूर्य का भी उदय नहीं होता है ।
टिप्पणी: जब परम तेजस्वी भास्कर भी ऐसा करते हैं तब साधारण मनुष्य को तो ऐसा करना ही चाहिए ।
विशेष के द्वारा सामान्य का समर्थन होने से “अर्थान्तरन्यास” नामक अलङ्कार है ।
08/11/19, 8:05 pm – Shastra Gyan Mukesh Mishra Allahabad: 👌
08/11/19, 10:56 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-७ श्लोक ६९,७०,७१
ग्राम्यधर्मे त्यजेन्नारीमनुत्तानां रजस्वलाम्। अप्रियामप्रियाचाराम् दुष्टसङ्कीर्णमेहनाम्॥६९॥
अतिस्थूलकृशां सूतां गर्भिणीमन्ययोषितम्। वर्णिनीमन्ययोनिं च गुरुदेवनृपालयम्॥७०॥
चैत्यश्मशानाऽऽयतनचत्वराम्बुचतुष्पथम्। पर्वाण्यङ्गं दिवसं शिरोहृदयताडनम्॥७१॥
स्त्री सहवास का वर्णन- ग्राम्यधर्म (मैथुनकाल) मे इस प्रकार की स्त्री का परित्याग करें—जो उस समय चित लेटी न हो, जो रजस्वला धर्म से निवृत्त न हुई हो, जो प्रिय (मनोनुकूल) न हो अथवा जिसका आचरण (व्यवहार) रुचिकर न हो, जिसका भग उपदंश आदि रोगों से दूषित हो अथवा संकीर्ण हो, जो अत्यन्त मोटी या अत्यन्त कृश हो, जिसे अभी ४०-४५ दिन पूर्व प्रसव हुआ हो, जो पहले से गर्भिणी हो या दूसरे की स्त्री हो, जो ब्रह्मचारिणी हो, जो अन्यजातीया हो, इनको त्याग देना चाहिए।
निषिद्ध स्थान- गुरुगृह, देवगृह, राजगृह, चैत्य (यज्ञमण्डप, वेदी आदि), श्मशानभुमि, बाध्यभुमि, चबूतरा, जलस्थान (नदीतट आदि) और चौराहा।
निषिद्ध दिन- संक्रान्ति, सूर्य-चन्द्र ग्रहण, पूर्णिमा, अमावस्या, भग के अतिरिक्त (मुख आदि) अंगो मे दिन में सहवास न करें। इस सम्भोग काल में हृदय तथा शिरः ताडन न करें।
वक्तव्य- ‘दुष्टसंकीर्णमेहनाम्’— श्रीअरूणदत्त तथा श्रीहेमाद्रि ने ‘मेहनाम्’ शब्द का अर्थ ‘योनि’ किया है। जब कि मेहनन शब्द पुरुष की मूत्रेन्द्रिय के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। देखें— ‘मेढ्रं मेहनशेफसी’ (अमरकोश) तथा ‘मेहनं मूत्रशिश्नयोः’ । (मेदिनी) ‘मेहनम्’ क्ली° लिङ्गे। (यै.श.सि.) सुश्रुत ने उक्त विषय का वर्णन करते हुए कहा है— ‘योनिदोषसमन्विताम्’। (सु.चि. २४/११५)
वाचां भटः = वाग्भट के उक्त प्रयोग पर दोषदृष्टि डालने से पहले हम चक्त शब्द के परिवेश का पर्यालोचन करा देना चाहते है। वेद मे पुरुष को “द्यौ” तथा स्त्री को “पृथिवी” तथा वात्स्यायन-कामसूत्र में पुरूष को “कर्ता” और स्त्री को “अधिकरण” कहा है। आकाश से वर्षा पृथिवी पर होती है। अर्थात कर्ता (गर्भाधानकर्ता अर्थात बीज बोने वाले पुरुष) का अधिकरण (आधार) स्त्री है। ठीक इन्ही परम्पराओं के आधार को लेकर सुधि वाग्भट ने ‘करणाधिकरणयोश्च’ (३/३/११७) सूत्र से अधिकरण अर्थ मे ‘मिह सेचने’ धातु तथा ल्युट् ध्रत्ययानत मेहन शब्द से ‘ इध्मप्रव्रश्चनः कुठारः’ तथा ‘गोदोहनी स्थाली’ की भांति ‘मेहना’ प्रयोग बुद्धिपूर्वक किया है। अब इसका अर्थ होगा ‘योनि’ जिसमें वीर्य का सेचन होता है। यहां टित् के अनित्य होने से ‘टाप’ प्रत्यय हुआ है।
अप्रियाम् अन्ययोषितम्- इन सभी विषयों का विचार स्त्रियों को पुरुषों के प्रति भी कर लेना चाहिए। अर्थात नारी ऐसे नर से सहवास न करें। स्त्री पुरुष दोनों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि यह सहवास पुत्र संतान प्राप्ति के लिए ही किया जा रहा है।
शिरोहृदयताडनम्- यद्यपि शिरःताडन, हृदयताडन, केषाकर्षण, नखक्षत आदि रतिकलह सम्बन्धी विषयों का वर्णन वात्स्यायन-कामसूत्र मे मिलता है, तथापि इस स्वास्थ्यशास्त्र में उसका पूर्ण रूप से निषेध किया गया है।
08/11/19, 11:17 pm – Abhinandan Sharma: अभी ग्रुप में कुछ और पुस्तकों को पढने के लिये स्वयंसेवक आगे आएं । एक ज्योतिष और एक तर्कशास्त्र की पुस्तक का अध्ययन प्रारम्भ करना है ।
09/11/19, 3:38 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi added +91 97192 69809
09/11/19, 7:49 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 2 श्लोक 37 और 38
दुर्बल के लिए ऐसा हो सकता है लेकिन बलवान को तो क्रोध से ही कार्य सिद्धि होती है, इस आशंका का समाधान करते हुए कहते हैं कि –
बलवानपि कोपजन्मनस्तमसो नाभिभवं रुणद्धि यः ।
क्षयपक्ष इवैन्दवीः कलाः सकला हन्ति स शक्तिसम्पदः ।। २.३७ ।।
वियोगिनी
अर्थ: राजा युधिष्ठिर भीमसेन से कहते हैं कि – बलसम्पन्न पुरुष भी क्रोध से उत्पन्न मोह रूप तम को रोकने में जब असमर्थ होता है तब कृष्णपक्षीय चन्द्रमा की तरह वह क्रमशः उत्तरोत्तर समस्त कला सम्पत्ति(तीनो शक्तियों से समन्वित सम्पत्ति) को खो बैठता है । क्रोधान्ध व्यक्ति क्रोधजनित मोह के आक्रमण को रोकने में असमर्थ होता है अतः सर्वप्रथम क्रोध का ही त्याग करना चाहिए । प्रभु-मन्त्र और उत्साह रूप शक्ति से रहित राजा स्वयं अपना अस्तित्व खो देता है ।
टिप्पणी: विशिष्ट समय पर ही सब कार्य होते हैं इसी हेतु से काल सबका कारण है । इसलिए कृष्णपक्ष(काल विशेष) कलाक्षय का कारण है । अन्धकार की वृद्धि कृष्णपक्ष में होती है इस कारण से ही कृष्णपक्ष का उल्लेख किया गया है । अन्धकार जो कृष्णपक्ष में वृद्धिमान होता है उसमें कारण है उसकी वृद्धि को न रोकना । अन्धकार को न रोकने से चन्द्रमा जैसे की भी शक्तिसम्पदा का विनाश हो जाता है, जैसे कृष्णपक्षीय चन्द्र तम की अभिवृद्धि को न रोकने के कारण कलाक्षय को प्राप्त होता है उसी प्रकार जो मनुष्य प्रभूत बल सम्पन्न होने पर भी क्रोधजन्य तम (अज्ञान) की वृद्धि को नहीं रोकता है वह भी अटूट शक्ति सम्पदा को गँवा बैठता है ।
*राज्यं नाम शक्तित्रयायत्तम् । – दशकुमारे
राज्य शक्ति के तीन तत्त्व – प्रभाव शक्ति, मन्त्र शक्ति तथा उत्साह शक्ति ।
त्रिसाधनाशक्तिरिवार्थ सञ्चयम् । – रघु. ३।१३
समवृत्तिरुपैति मार्दवं समये यश्च तनोति तिग्मतां ।
अधितिष्ठति लोकं ओजसा स विवस्वानिव मेदिनीपतिः ।। २.३८ ।।
वियोगिनी
अर्थ: जो समचित्तवृत्ति को धारण करने वाला राजा है, आवश्यकतानुसार समय-समय पर कोमल और कठोर वृत्ति को प्रकट करता रहता है वह राजा सूर्य के समान अपने तेज से सम्पूर्ण जगत को अभिभूत करता है । सूर्य कभी कोमल और कभी प्रचण्ड अपने तेज से सम्पूर्ण जगत को प्रभावित करने से आदरणीय होता है अतः हे भीमसेन ! केवल क्रोध को ही न अपनाओ । क्रोध भी उपादेय है किन्तु सर्वदा सर्वत्र नहीं ।
टिप्पणी: समय-समय पर मृदुता तथा तीक्ष्णता धारण करने वाला मनुष्य सूर्य की भांति अपने तेज से सब को वशवर्ती बनता है ।
उपमा अलङ्कार
09/11/19, 11:13 am – Abhinandan Sharma: बधाई हो सब को 🙏
09/11/19, 11:14 am – Abhinandan Sharma: जय श्री राम !
09/11/19, 11:14 am – FB Vikas Delhi Shastra Gyan: जय जय श्री राम
09/11/19, 11:14 am – Ravi CA: Jai shri ram.
09/11/19, 11:14 am – Kundali Dipesh Rajauriya: दीपावली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं
जय श्री राम🚩🚩
09/11/19, 11:14 am – ABKG Shastragyan Avnish Dubey, Bharuch: जय श्री राम
09/11/19, 11:15 am – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: Jai Shree Ram
09/11/19, 11:16 am – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: आपको को भी..💐💐💐🙏
09/11/19, 11:16 am – FB Piyush Khare Hamirpur: जय श्री राम 🚩
09/11/19, 11:17 am – ABKG Reader Vikas Kr Dubey Bhadohi UP: मंदिर वही बनाएँगे।🙏🏽🙏🏽
09/11/19, 11:17 am – SAIP Charu: Jai Shree ram👍
09/11/19, 11:18 am – +91 : कार्तिक शुक्ल द्वादशी दिवाली की अनेकों मंगलकामनाये💥💥
09/11/19, 11:20 am – Kamleshwar Yadav Nainesh San: Aapko bhi.
Jai Shree Ram
09/11/19, 11:24 am – +91 : Almost in tears ….. 370 and now Ram Mandir !
Seems like Satyug is back !!!
Jai Shree Ram !!!
09/11/19, 11:24 am – Radheshyam Singh, Bikaner: 🙏
09/11/19, 11:24 am – Webinar Chinmay Vashishth SG: भारत के प्रथम स्वर राम को प्रणाम
09/11/19, 11:24 am – Webinar Chinmay Vashishth SG: जय श्री राम
09/11/19, 11:25 am – +91 : 🙏🙏🙏🙏🙏😊😊 बहुत खुश हूं आज !!
09/11/19, 11:26 am – Ashu Bhaiya:
09/11/19, 11:27 am – Abhinandan Sharma: 👏👏👏
09/11/19, 11:27 am – Ghaziabad Shastra Gyan Pushpa: 🙏☺👏🏻
09/11/19, 11:27 am – +91 :
09/11/19, 11:28 am – +91 : Great !!!!😊
09/11/19, 11:39 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: बधाई🙏
09/11/19, 11:40 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: इसका अर्थ क्या होगा???🙏
09/11/19, 11:46 am – FB Piyush Khare Hamirpur: देखने वाले की आँखे खुली की खुली रह जाये,, इतना भव्य मंदिर बनना चाहिए,,
जय श्री राम 🚩🙏🏻
09/11/19, 11:49 am – Ghaziabad Shastra Gyan Pushpa: Totally agree
09/11/19, 11:52 am – Shastra Gyan Mukesh Mishra Allahabad: इससे अच्छा फैसला क्या होगा कि राम जन्मभूमि का मालिकाना हक़ किसी पक्ष, अखाड़ा,बोर्ड को न देकर स्वयं रामलला को दिया गया।
बहुत बढ़िया। सभी को बधाई।
09/11/19, 11:52 am – +91: त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां
नृणमेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्ण इव।।
ऋक्, यजुः , साम—- ये वेद, सांख्य शास्त्र, योग शास्त्र, पाशुपत त, वैष्णव मत आदि विभिन्न मत मतान्तर है ।
इनमें ( सभी लोग हमारा) यह मत उत्तम है,हमारा मत लाभ प्रद है(दूसरों का नहीँ)–इस प्रकार की रुचियों की विचित्रता से सीधे-टेढ़े नाना मार्गों से चलने वाले साधकों क लिए एकमात्र प्राप्तव्य( गन्तव्य) आप ही हैं ।
जैसे सीधे-टेढ़े मार्गों से बहती हुई सभी नदियां अन्त में समुद्र में ही पहुँचती हैं, उसी प्रकार सभी मतानुयायी आप के ही पास पहुँचते हैं ।।7।।
09/11/19, 11:55 am – FB Piyush Khare Hamirpur: बहुत अच्छा फैसला है, हाई कोर्ट जैसा विवादित निर्णय नही है, सभी को इस फैसले का स्वागत करना चाहिए 🙏🏻
09/11/19, 11:56 am – Ashu Bhaiya:
09/11/19, 11:59 am – +91 : 🌸श्री सीताराम 🌸राम प्राणप्रिय जीवन जी के, स्वारथ रहित सखा सबहि के ।।
09/11/19, 12:21 pm – FB Rajesh Singhal Ghaziabad Shastra Gyan: 🙏🏻🙏🏻🙏🏻
09/11/19, 12:30 pm – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur:
09/11/19, 12:33 pm – FB Rajesh Singhal Ghaziabad Shastra Gyan: 🙏🏻🙏🏻🙏🏻
09/11/19, 12:35 pm – Mahendra Mishra Delhi Shastra Gyan: समस्त हिन्दू भाइयों को बहुत-बहुत बधाई!! जय श्री राम🕉️🕉️🙏🙏🇮🇳🇮🇳
09/11/19, 12:46 pm – Ghaziabad Shastra Gyan Pushpa: आज पंचपरमेश्वर (पांच जज) द्वारा दिया गया फैसला देश की जीत है……असली दीपाबली आज है सभी अपने द्वार पर कम से कम एक दिया जरूर प्रज्वलित करें
जय श्री राम🚩🚩
09/11/19, 12:47 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: खुश होइये कि चार सौ सत्तासी वर्षों की लम्बी प्रतीक्षा का अंत हुआ। यह हमारी या आपकी विजय नहीं, यह भारत की विजय है। राम तो यहाँ के कण-कण में हैं, आज भारत का स्वाभिमान लौटा है। यहाँ न कोई पक्ष हारा है न कोई पक्ष जीता है, आज भारतीय स्वाभिमान की गर्दन पर रखी गयी समरकन्द की तलवार टूटी है।
गर्व कीजिये कि आपने आज का दिन देखा है। हम पिछली पच्चीस पीढ़ियों में सबसे सौभाग्यशाली पीढ़ी में जन्मे हैं, जो हमने अयोध्या के माथे पर लगे कलंक को मिटते देखा है। हमने पच्चीस पीढ़ियों के अधूरे स्वप्न को पूरा होते देखा है। हमनें इतिहास को बनते देखा है…
स्वाभिमान का युद्ध शस्त्रों से नहीं, संयम और बलिदान से जीता जाता है। यह भारत के संयम और असंख्य गुमनाम योद्धाओं के बलिदान की विजय है। आज रात्रि को यदि छतों पर दीपक जलें तो दो दीपक कोठारी बन्धुओं के लिए, और एक उनकी पूज्य माताजी के लिए भी जलें।
गोगोई बाबू! सारा कहा-सुना माफ साहेब! आपको हम क्या, शताब्दियाँ याद रखेंगी। आज से हजार वर्ष बाद भी बच्चे पढ़ेंगे, “अयोध्या पुनरुत्थान का निर्णय श्रीमान रंजन गोगोई जी ने दिया था।”
सन दो हजार उन्नीस, भारतीय इतिहास में उन्नीस सौ सैंतालीस के बाद का सबसे सुन्दर वर्ष है। केवल मनुष्य ही नहीं, समय भी कभी कभी अमर हो जाता है। यह वर्ष अमर हो गया है।
अयोध्या युद्ध के बाद प्रभु राम ने दोनों पक्ष के सारे सैनिकों को प्रणाम किया था। सबकी जय हो… हम सदैव ही विश्व का कल्याण मनाने वाले लोग हैं। कल जब प्रभु का मंदिर बनेगा तो उसमें भी यही अर्चना होगी कि विश्व का कल्याण हो… आज कोर्ट ने विश्व के कल्याण के लिए ही यह निर्णय दिया है।
मेरे गोपालगंज के ही थे रसूल चचा!कोई पूछता तो कहते थे कि राम जी का लड़का हूँ। आज होते तो झूम झूम कर नाच उठते और गाते, “चमकता जगमगाता है अनोखे राम का सेहरा…”
भारत बना रहे, भारत का स्वाभिमान बना रहे, भारत की सुंदरता बनी रहे… धर्म की जय हो…
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।
09/11/19, 12:50 pm – +91 :
09/11/19, 12:54 pm – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: सभी देश बसियो को बधाई हो 🙏
09/11/19, 12:54 pm – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: जय श्री राम🙏💐🎂🎈🎈🎈🎈
09/11/19, 1:45 pm – Abhinandan Sharma: कल 12.30 बजे सोसाइटी में किसी और कार्यक्रम की व्यवस्था है। अतः शास्त्र ज्ञान का सत्र कल 3 बजे से होगा ।
09/11/19, 2:08 pm – LE Ravi Parik : कृपया किसी भी तरह की भावनाओ में ना बहें। टिप्पणी, बयानबाजी, फॉरवर्ड मैसेज करने से परहेज करे।
09/11/19, 4:07 pm – Abhinandan Sharma: ??
09/11/19, 6:15 pm – Shastra Gyan Ranjana Prakash: सेवा देने का विचार करना चाहिए।
09/11/19, 6:20 pm – Shastra Gyan Ranjana Prakash: सब की जय हो,निर्माण अतिसुन्दर हो,नयी पीढी के विकास का ख्याल रख कर बने।
09/11/19, 6:21 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: 🙏🏻
09/11/19, 6:22 pm – LE Ravi Parik: चर्चा करने के लिए एक अलग से ग्रुप बनाया गया है, कृपया वहां विचार व्यक्त करें😊
09/11/19, 7:05 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: बधाइयां तो बहुत आईं पर शास्त्र पढ़ने के लिए कोई आगे नहीं आया, ये इस बात पर प्रश्नचिन्ह लगाता है कि क्या हम सच मे कुछ पढ़ भी रहे हैं या ये केवल भ्रम है कि लोग इससे लाभ ले रहे हैं ।
09/11/19, 7:11 pm – +91 : मैं पढ़ी ,4 बजे
09/11/19, 8:12 pm – Abhinandan Sharma: उनका कहने का तात्पर्य है कि करीब २०० लोगों के ग्रुप से, कोई भी वोलुन्तीयर आगे नहीं आ रहा, नई पुस्त्तक प्रारम्भ करने के लिए | अभी ग्रुप में किरातार्जुनीय चल रही है, मनु स्मृति चल रही है, अष्टांगह्रदय चल रही है और शिवमहिम्न स्त्रोत्र ही चल रहा है | २०० लोगो के ग्रुप में केवल ४ चीजें चल रही है, जब किसी नयी चीज के लिए बोला तो कोई आगे नहीं आ रहा | खुद से भी थोडा आगे आना चाहिए |
09/11/19, 8:31 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: शर्मा जी हम सुने है, कितना भी शास्त्र पढ़ लो, अगर न्याय दर्शन नही पढ़ा तो सब अधूरा है। न्याय दर्शन के बारे में आपकी क्या राय है ???
09/11/19, 8:38 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: अभिनन्दन शर्मा जी मैं सोच रहा था कि ग्रुप का कोई नया सदस्य आगे आए लेकिन शायद किसी को कोई रूचि नहीं है।
आप पीडीएफ भेजिए मैं शुरू करता हूँ।
09/11/19, 8:56 pm – Abhinandan Sharma: न्याय दर्शन की ही बात कर रहा हूँ । न्याय दर्शन को ही तर्क शास्त्र भी कहते हैं ।
09/11/19, 8:56 pm – Abhinandan Sharma: धनयवाद, आपके आगे आने के लिये । और कोई ?
09/11/19, 8:57 pm – +91 : सत्य कहे शर्मा जी 🙏
09/11/19, 8:57 pm – Webinar Chinmay Vashishth SG: मैं न्याय शुरू करना चाहता हूं ।
09/11/19, 8:58 pm – Webinar Chinmay Vashishth SG: न्याय दर्शन
09/11/19, 8:58 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: अति सुंदर 👌
09/11/19, 8:59 pm – Abhinandan Sharma: ठीक है, फाइनल । चिन्मय जी तर्क शास्त्र और राजेश जी, ज्योतिष । पुस्तकें जल्दी ही बतायी जायेंगी।
09/11/19, 8:59 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: धन्यवाद
09/11/19, 8:59 pm – Webinar Chinmay Vashishth SG: 🙏🏻🙏🏻
09/11/19, 9:00 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👌🏼👌🏼
09/11/19, 9:05 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: उत्तम🙏🏻🙏🏻😊
09/11/19, 9:07 pm – +91 मैं एक विद्यार्थी हूँ इस समूह में 😊🙏
09/11/19, 9:35 pm – Abhinandan Sharma: पंचतंत्र के लिए भी ग्रुप से एक सदस्य ने कन्फर्म किया है | क्या कोई वाल्मिक रामायण कर सकता है ?
09/11/19, 9:37 pm – Abhinandan Sharma: इसको बिलकुल शुरू से प्रारम्भ कीजियेगा | जहाँ सूत्र और अर्थ न हो, वहां, एक दिन में एक पैराग्राफ डाल सकते हैं | https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.271983/page/n37
09/11/19, 9:46 pm – Abhinandan Sharma: इसमें प्रत्येक दिन एक पैराग्राफ लिखने का ही रखियेगा | एक मूल ग्रन्थ और प्रारम्भ करेंगे जल्दी ही, उसके बारे में बाद में बताऊंगा | ये बेसिक्स के लिए है (कुछ के लिए, ये भी कठिन हो सकता है लेकिन एक दूसरा ग्रन्थ भी चलाएंगे, ज्योतिष का बाद में) – ज्योतिष के लिए अलंकार जी, किसी भी विषय पर प्रकाश डालेंगे और किसी भी विषय पर मदद करेंगे, जिससे कि विभिन्न चीजों को समझने में मदद मिले 🙏
https://ia801600.us.archive.org/30/items/in.ernet.dli.2015.342310/2015.342310.Sugam-Jyotish.pdf
09/11/19, 9:55 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: This message was deleted
09/11/19, 9:56 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-७ श्लोक ७२,७३
अत्याशितोऽधृतिः क्षुद्वान् दुःस्थिताङ्गः पिपासितः। बालो वृद्धोऽन्यवेगार्तस्त्यजेद्रोगी च मैथुनम्॥७२॥
मैथुन के अयोग्य स्थिति- जिसने बहुत भोजन किया हो, अधीर (घबराया हुआ) हो, जिसे भूख लगी हो, दुस्थिताङ्ग अर्थात अनुचित आसन में स्थित होकर, जो प्यासा हो, जो बालक (अभी युवा न हुआ) हो, जो बूढ़ा हो गया हो, जिसे मल-मूत्र आदि का वेग प्रवृत्त हो तथा रोगी पुरुष मैथुन कर्म न करें।
वक्तव्य- उक्त विधि निषेध नर-नारी दोनों के लिए है, क्योंकि ‘मैथुन’ मिथुन का कर्म है। निषेध के कारण स्पष्ट है। इस प्रसंग में वृद्धवाग्भट के वचनों का भी अनुसन्धान कर लेना चाहिए। देखें—अ.सं.सू. ९/८१-८४। अर्थात इन निर्देशों का उल्लङ्घन वही कर सकता है जिसे दीर्घजीवन की कामना न हो। देखें- *”आयुष्कामो नरः स्त्रीभिः संयोगं कर्तुमर्हति’। क्योंकि शुक्रधातु शरीर का बहुमूल्य पदार्थ है। जिसके सम्बन्ध में कहा गया है— ‘मरणं बिन्दुपातेन जीवनं बिन्दुधारणात्’। यहां तक आहार,निद्रा, ब्रह्मचर्य नामक शरीर को धारण करने वाले तीन उपस्तम्भो का वर्णन कर दिया गया है।
सेवेत कामतः कामं तृप्तो वाजीकृतां हिमे। त्र्यहाद् बसन्तशरदोः पक्षाद् वर्षानिदाधयोः॥७३॥
मैथुन सम्बन्धी अन्य निर्देश- वाजीकरण औषधो एवं आहारो से तृप्त फलतः परिपुष्ट शरीरावयवों वाले नर-नारी हिमकाल (हेमन्त तथा शिशिर ऋतुओं) में इच्छानुसार मैथुन का सेवन करें। बसन्त एवं शरद ऋतुओं में तीन दिनों तथा गर्मी और वर्षा ऋतुओं में पन्द्रह दिनों में मैथुन करें।
09/11/19, 10:03 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: रामायण प्रारम्भ से या जहां से छोड़ी गयी थी, वहां से ??
09/11/19, 10:05 pm – Abhinandan Sharma: जहाँ से छोड़ी थी, वहां से !
10/11/19, 12:38 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: पुमान्पुंसोऽधिके शुक्रे स्त्री भवत्यधिके स्त्रियाः ।
समेऽपुमान्पुं स्त्रियौ वा क्षीणेऽल्पे च विपर्ययः । । ३.४९ । ।
निन्द्यास्वष्टासु चान्यासु स्त्रियो रात्रिषु वर्जयन् ।
ब्रह्मचार्येव भवति यत्र तत्राश्रमे वसन् । । ३.५० । ।
न कन्यायाः पिता विद्वान्गृह्णीयाच्छुल्कं अण्वपि ।
गृह्णञ् शुल्कं हि लोभेन स्यान्नरोऽपत्यविक्रयी । । ३.५१ । ।
स्त्रीधनानि तु ये मोहादुपजीवन्ति बान्धवाः ।
नारी यानानि वस्त्रं वा ते पापा यान्त्यधोगतिम् । । ३.५२ । ।
आर्षे गोमिथुनं शुल्कं के चिदाहुर्मृषैव तत् ।
अल्पोऽप्येवं महान्वापि विक्रयस्तावदेव सः । । ३.५३ । ।
यासां नाददते शुल्कं ज्ञातयो न स विक्रयः ।
अर्हणं तत्कुमारीणां आनृशंस्यं च केवलम् । । ३.५४ । ।
अर्थ
पुरुष का वीर्य अधिक होने पर पुत्र औरस्त्री के अधिक होने पर कन्या होती है। और दोनों के समान होने पर नपुसंक या जुड़वा सन्तान पैदा होती है,वीर्य क्षीण होने से सन्तान नही होती।
पहले वर्णित आठ दूषित रात्रियों को छोड़कर बाकी की रात्रि जिस आश्रम का पुरूष स
स्त्रीभोग करता है वह ब्रह्मचारी के समान माना जाता है।
विद्वान पिता कन्यादान के बदले में कुछ भी मूल्य ना लेवे,यदि वह कुछ भी मूल्य ले लेवे तो वह सन्ताम बेचने वाला है। कन्या का धन ,वाहन,या वस्त्र जो पिता या भाई अपने भोग में लाते है वह नरक में पड़ते है
आर्य विवाह में जो एक या दो बैल वर से लिया जाता है,कोई आचार्य कहते हैं वह मूल्य है पर यह मिथ्या है क्योंकिविक्रय का मूल्य कभी कम या ज्यादा होता है पर वह नीयत है इसलिए मूल्य नही है।
जिस कन्या का वर का दिया हुआ धन पिता आदि ना लें कन्या को ही दे दें वह भी मूल्य नहीं है,कन्या का पूजन सत्कार मात्र है।।
10/11/19, 12:38 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
10/11/19, 12:46 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: शिरःताड़न
हृदय ताड़न????
10/11/19, 12:50 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: अगर अत्यंत मोटी या क्रिश कन्या मैथुन लिए वर्जित या त्याज्य हो तो क्या इनसे विवाह ही निषिद्ध मानना चाहिए???
10/11/19, 12:53 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: निषिद्ध दिन वाला पैराग्राफ क्या कोई सरल कर देंगे भले ही व्यक्तिगत तौर पर ही सही🙏
10/11/19, 12:55 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: जैसे अमावस्या के बाद क्या अल्पविराम आएगा या पूर्ण विराम… क्योंकि इससे अर्थ ही बदल जा रहा है
10/11/19, 5:21 am – LE Ravi Parik : वो तो रामचरितमानस चल रही थी ना!
10/11/19, 5:34 am – +91 : पिछले वर्ष मैं वाल्मीकि रामायण का लेखन कर रहा था।
लम्बे प्रवास पर चले जाने का क्रम भंग हो गया ।
अब अपने मूल स्थान पर वापस आ गया हूँ ।
किंतु वाल्मीकि रामायण की जो प्रति मेरे पास है, उसके अक्षर छोटे हैं , जो अब वृद्धावस्था के कारण मुझसे आसानी से पढ़े नहीं जाते।
अतः कोई सज्जन उस कार्य को आगे बढ़ाएं, ऐसी कामना है।
राम चरित मानस के स्फुट प्रसंगों का लेखन मैं ही कर रहा थाऔर आगे भी करूंगा ।
अभी कुछ आंतरिक प्रेरणा से शिव महिम्न स्तोत्र का लेखन कर रहा हूं ।
कुछ अंतराल के उपरांत राम चरित मानस के स्फुट प्रसंगों का लेखन पुनः करूंगा ।
यह समस्त लेखन प्रक्रिया मैं प्रिय अभिनन्दन जी की सहमति ले कर ही करता हूं ।🙏
10/11/19, 5:35 am – +91: लम्बे प्रवास पर चले जाने से क्रम भंग हो गया।
10/11/19, 6:29 am – Shastra Gyan Suresh Jhajjar: इल्लुमिनाति का भारत मे शिक्षा व्यवस्था पर षड्यंत्र!
भाग-9
मित्रो प्राचीन भारतीय इतिहास में मानव सभ्यता के विकास के विषय में बताते हुए स्कूली किताबो में लिखा जाता है कि आकाश से बिजली गिरते देखकर, फिर जंगलो में आग लगते देखकर मनुष्य ने आग के विषय में जाना,सीखा, फिर गुफा में आग जलाने लगे!
अब आप ये बताये कि बिजली क्या गर्मी के मौसम में कड़कती है जोकि जमीन तक पहुचकर आग लगाएगी या बारिश के मौसम में बिजली कड़कने पर ऐसा आग लगना सम्भव है??
और कितने वीर लोग है जोकि बिजली कड़कने पर उसके पास जाकर बीड़ी जलाते है या लकड़ी जलाकर आग घर तक ले आते है?
ये हास्यपद मूर्खतापूर्ण तथ्य मैक्समूलर ने यूरोप में पढ़ाई जाने किताबो के आधार पर भारतीय स्कूलों में लिखवाया लेकिन पंडित रविशंकर शुक्ल, मालवीय जी, गोविन्द बल्लभ पंत जैसे अनेक विद्वानों के होते हुवे भी इस झूठ का विरोध क्यों नही हुआ??
जबकि हमारे ऋग्वेद का प्रथम मन्त्र ही अग्नि देव को समर्पित है और वेद पृथ्वी पर अवतरित हुआ प्रथम ज्ञान का भंडार है ऋग्वेद में यज्ञ संपन्न करने का पूरा विवरण दिया हुआ है अर्थात ना केवल आग बल्कि अनाज, औषधि आदि के विषय में हमारे पूर्वज ऋषि लाखो साल पहले जानकार थे और मानव सभ्यता के भी पहले, पृथ्वी निर्माण के पहले,वेद पुराणो में अंतरिक्ष की घटनाओ के विषय में, सूर्य को अग्नि का गोला बताया गया है।
जब सृष्टि के प्रथम मानव 7 सप्तऋषियों, को अग्नि विज्ञान के बारे में बहुत कुछ ज्ञात था तो किसके इशारे पर यूरोप का झूठा और जूठा ज्ञान भारत के स्कूली बच्चों के दिमाग में डाला गया??
और आश्चर्य की बात ये है कि यही झूठा ज्ञान IAS जैसे उच्च परीक्षाओं में भी पूछा जाता है अर्थात भारत में इतिहास के झूठ का बोलबाला पहली कक्षा से लेकर नौकरी के उच्चतम शिखर पर?
फिर सत्य प्रकट करेगा कौन??
1947 के बाद से अभी तक इस झूठ को प्रचारित, प्रसारित, प्रतिष्ठित करने का दोषी कौन ??
संज्ञान लीजिये!
जय श्री राम
⚔️🦁🚩
10/11/19, 6:46 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: चाहे जितना कोशिश कर लो पर कहीं न कहीं से ज्ञान अपना रास्ता बना ही लेता है 😒
10/11/19, 6:48 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: भगवन, न भेजिए ऐसे messages, कोई नही पढ़ना चाहता इन्हें यहां, केवल खालिस शास्त्रों की आवश्यकता है, कुछ पढ़ कर डालें शास्त्रों से और हम सबका ज्ञान बढ़ाएं ।
10/11/19, 6:52 am – +91 : सही , दावानल या दावाग्नि वनों में प्रकट होती है, IAS का विद्वता या विज्ञान से क्या लेना देना ।
10/11/19, 7:25 am – Abhinandan Sharma: मेरे पास बड़े अक्षरों में सॉफ्ट कॉपी है | यदि आवश्कता पड़े तो |
10/11/19, 7:27 am – Abhinandan Sharma: कृपया करके ऐसी पोस्ट इस ग्रुप पर न डालें और दूसरों को मूर्ख कहने की इतनी जल्दबाजी न दिखाएँ | इस ग्रुप पर आप सिर्फ मूल ग्रन्थ डालें | ये ग्रुप मात्र पठन-पाठन के लिए है |
10/11/19, 7:27 am – +91 : मुझे साफ्ट कापी से लेखन मैं सुविधा अनुभव नहीँ होगी ।
10/11/19, 7:28 am – Abhinandan Sharma: जी, कोई बात नहीं | जैसा आपको उचित लगे 🙏
10/11/19, 8:03 am – Webinar Chinmay Vashishth SG: जी धन्यवाद । 🙏
10/11/19, 9:22 am – Shastragyan Abhishek Sharma: हम प्रारम्भ करें ? 🙏🏻
10/11/19, 9:39 am – Abhinandan Sharma: पर आप तो पहले से ही अष्टांगहृदय पढ़ रहे हैं महोदय ! एक साथ दो दो कैसे करेंगे, मुश्किल होगी आपको ।
10/11/19, 10:01 am – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-७ श्लोक ७४,७५
भ्रमक्लमोरूदौर्बल्यबलधात्विन्द्रयक्षयाः। अपर्वमरणं च स्यादन्यथा गच्छतःस्त्रियम्॥७४॥
विपरीत व्यवहार का फल- उक्त नियमों के विपरीत मैथुन करने पर भ्रम, क्लम(सुस्ती), उरूओं में कमजोरी, कृशता तथा बल , रस आदि शुक्र पर्यन्त धातुओं का क्षय, इन्द्रियोंकी शक्ति का क्षय अथवा असमय मृत्यु भी हो सकती है।
स्मृतिमेधायुरारोग्यपुष्टीन्द्रिययशोबलैः। अधिका मन्दजरसो भवन्ति स्त्रीषु संयताः॥७५॥
संयम का महत्व- जो पुरुष-स्त्री सहवास में अपने को वश में रखते है, उनकी स्मरणशक्ति, मेधा, दीर्घायु,आरोग्य(स्वास्थ्य), शारिरिक पुष्टि, इन्द्रियबल, सुयश, शारीरिक एवं मानसिक बल अधिक होता है, वे देर में वृद्ध होते है।
वक्तव्य- वृद्धवाग्भट ने इस मैथुन को तथा इसी प्रकार के अन्य भावों को भी ‘तदात्व सुखसंज्ञक’ कहा है। देखें— अ.सं.सू. ९/८५। इसी विषय का प्रतिपादन भगवद्गीता में भी किया गया है— “ये तु संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः॥’ (गीता) इसे पुरुष के लिए स्त्रीस्पर्शज और स्त्री के लिए पुरुषस्पर्शज सुखभोग कहा जाता है। इस प्रकार के सुखभोगों मे समझदार स्त्री-पुरूष विशेष आसक्त नहीं होते।
10/11/19, 10:04 am – Shastragyan Abhishek Sharma: आप pdf दीजिए, कम से कम दो श्लोक प्रतिदिन प्रेषित करुंगा नियम से।🙏🏻😊
10/11/19, 10:05 am – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् यथावत् रहेगी।
10/11/19, 11:11 am – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: #ॐ श्री गणेशाय नमः#
सुगम ज्योतिष प्रवेशिका
प्रथम भाग – जातक विचार
पहला प्रकरण
आकाश – परिचय
ज्योति या ‘ज्योतिष्’ का अर्थ है प्रकाश। तेज पुञ्ज – चमकीली वस्तु या पदार्थ। अकाश अनेक तेज पुञ्जों से प्रकाशमान है। आकाश का विस्तार कितना है, इसका अभी तक कोई पता नहीं लगा पाया। प्रकाश या रोशनी प्रदान करने वाले कितने सूर्य या तारागण आकाश में हैं, इसका पूर्ण ज्ञान अभी तक नहीं है। हां यह अवश्य है कि हमारे सूर्य की अपेक्षा और भी अधिक प्रकाशमान् , इससे भी बड़े और प्रभावशाली तेज पुञ्ज (तारागण) आकाश में हैं। वह हमारी पृथ्वी से इतनी दूर हैं कि उस दूरी को है ‘अरबों’ ‘खरबों’ मीलों में भी नहीं व्यक्त कर सकते।
प्रकाश या रोशनी की रफ्तार एक सेकंड में १,८६,००० एक लाख छियासी हजार मील है। अर्थात यदि पृथ्वी से १,८६,००० मील दूर कोई तेज प्रकाश पुंज आविर्भूत हो तो उस रोशनी की प्रकाश किरणों को पृथ्वी पर पहुंचने में एक सेकेंड का समय लगेगा। बहुत से तारागण पृथ्वी से कितनी दूर है कि उनके प्रकाश को पृथ्वी तक पहुंचने में सैकड़ों वर्ष लगते हैं। इसी से उनकी दूरी का अनुमान लगाया जा सकता है। ब्रह्म-पुराण के अध्याय २४ में आकाश के अपरिमित विस्तार का वर्णन दिया गया है और २५वें अध्याय में भगवान नारायण का, शिशुमार-आकृति का जो आकाश में विराट रूप है उसका वर्णन करते हुए लिखते हैंः
10/11/19, 11:37 am – +91 : महोक्षः खट्वांगं परशुरजिनं भस्म फणिनः
कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम्।
सुरास्तां तामृद्धिं दधति च भवद्भ्रूप्रणिहितां
न हि स्वात्मारामं विषय मृगतृष्णा भ्रमयति।।
हे वरदानी शंकर! बूढ़ा बैल , खटिए का पावा, फरसा, चर्म, भस्म, सर्प, कपाल– बस इतनी ही आप के कुटुम्ब पालन की सामग्री है।
फिर भी इन्द्रादि देवताओं ने आप के कृपा कटाक्ष से ही उन अपनी विलक्षण(अतुलनीय) समृद्धियों (भोगों) को प्राप्त किया है; किन्तु आप के पास भोग की कोई वस्तु नहीं है; क्योंकि विषय वासना रूपी मृग तृष्णा स्वरूप भूत चैतन्य आत्माराम में रमण करने वाले को भ्रमित नहीं कर पाती है।।8।।
10/11/19, 11:42 am – +91 : धन्यवाद 🙏
10/11/19, 12:27 pm – Abhinandan Sharma: देखिये, यहां एक मेंबर2 पुस्तकें साथ पढ़ने की कह रहा है और बाकी सदस्य न आगे आ रहे हैं और न ही उत्साहवर्धन कर रहे हैं । ये तो ठीक नहीं है। ये पढ़ने वाले और ग्रुप में लिखने वाले क्यों इतनी मेहनत कर रहे हैं ! ताकि हम सब पढ़ सकें, ये एक पुण्य का कार्य है । यदि आप नहीं भी कर पा रहे हैं तो कम से कम,उत्साहवर्धन तो कर ही सकते हैं । ऐसा लगे तो सही कि जिनके लिये मेहनत की जा रही है, वो लोग पढ़ भी रहे हैं ।
मैं आपको पीडीएफ जल्दी ही दूंगा ।
10/11/19, 12:40 pm – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: 🙏👌
10/11/19, 1:03 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: दिक्कत यही है कि अधिकतर को लेखन या वाचन से ज़्यादा ऐसे msz कॉपी पेस्ट या फॉरवर्ड करने में सुगमता और मनोनुकूलता रहती है,,,,
10/11/19, 1:04 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: अगर कोई झिझक हो रही हो तो मैं अज्ञानी भी मात्र थोड़ी हिम्मत जुटा लेने से मनुस्मृति बांच रहा हूँ🙏
10/11/19, 1:51 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: जी 🙏🏻
10/11/19, 2:02 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👌🏼👌🏼
10/11/19, 2:03 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: खट्वांग क्या खटिये का पाया होता है?
10/11/19, 2:10 pm – +91: ऐसा ही प्रतीत होता है ।
10/11/19, 3:55 pm – Abhinandan Sharma: शास्त्र ज्ञान सत्र 40, अब से 15 मिनट में प्रारंभ होगा, लाइव |
10/11/19, 3:56 pm – Dinesh Arora Gurgaon Shastra Gyan: 🙏🙏
10/11/19, 5:49 pm – Abhinandan Sharma: https://youtu.be/MtjMV9KhVXY – थोड़ी देर में प्रारंभ होगा |
10/11/19, 6:09 pm – +91 : 🙏
11/11/19, 11:42 am – +91 : ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं
परो ध्रौव्याध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये।
समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव
स्तुवञ्जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता।।
हे त्रिपुरारि!
कोई वादी इस सम्पूर्ण जगत् को ध्रुव ( नित्य) कहता है,
कोई इस सबको अध्रुव( असत् या अनित्य) बताता है
और कोई तो विश्व के समस्त पदार्थों में कुछ नित्य और कुछ अनित्य है—ऐसा कहता है।
उन सब वादों से आश्चर्य चकित सा मैं, उन्हीं वादों ( स्तुति-प्रकारों) से आप की स्तुति करता हुआ लज्जित नहीँ हो रहा हूँ;
क्योंकि मुखरता(वाचालता) धृष्ट होती ही है (उसे लज्जा कहाँ)।।9।।
11/11/19, 11:51 am – +91 : महाभारत: आदि पर्व: त्रयस्त्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
राजकुमारों का रंगभूमि में अस्त्र-कौशल दिखाना
वैशम्पायन जी कहते हैं- भारत! जब द्रोण ने देख कि धृतराष्ट्र के पुत्र तथा पाण्डव अस्त्र-विद्या की शिक्षा समाप्त कर चुके, तब उन्होंने कृपाचार्य, सोमदत्त, बुद्धिमान् बाह्लीक, गंगानन्दन भीष्म, महर्षि व्यास तथा विदुर जी के निकट राजा धृतराष्ट्र से कहा- ‘राजन्! आपके कुमार अस्त्र-विद्या की शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं। कुरुश्रेष्ठ! यदि आपकी अनुमति हो तो वे अपनी सीखी हुई अस्त्र संचालन की कला का प्रदर्शन करें।’ यह सुनकर महाराज धृतराष्ट्र अत्यन्त प्रसन्न चित्त से बोले।
धृतराष्ट्र ने कहा- द्विजश्रेष्ठ भरद्वाजनन्दन! आपने (राजकुमारों को अस्त्र की शिक्षा देकर) बहुत बड़ा कार्य किया है। आप कुमारों की अस्त्र-शिक्षा के प्रदर्शन के लिये जब जो समय ठीक समझें, जिस स्थान पर जिस-जिस प्रकार का प्रबन्ध आवश्यक मानें, उस-उस तरह की तैयारी करने के लिये स्वयं ही मुझे आज्ञा दें। आज मैं नेत्रहीन होने के कारण दुखी होकर, जिनके पास आंखें हैं, उन मनुष्यों के सुख और सौभाग्य को पाने के लिये तरस रहा हूं; क्योंकि वे अस्त्र-कौशल का प्रदर्शन करने के लिये भाँति-भाँति के पराक्रम करने वाले मेरे पुत्रों को देखेंगे।
(आचार्य से इतना कहकर राजा धृतराष्ट्र विदुर से बोले-) ‘धर्मवत्सल! विदुर! गुरु द्रोणाचार्य जो काम जैसे कहते हैं, उसी प्रकार उसे करो। मेरी राय में इसके समान प्रिय कार्य दूसरा नहीं होगा’। तदनन्तर राजा की आज्ञा लेकर विदुर जी (आचार्य द्रोण के साथ) बाहर निकले। महाबुद्धिमान् भरद्वाजनन्दन द्रोण ने रंगमण्डप के लिये एक भूमि पसंद की और उसका माप करवाया। वह भूमि समतल थी। उसमें वृक्ष या झाड़-झंखाड़ नहीं थे। वह उत्तर दिशा की ओर नीची थी। वक्ताओं में श्रेष्ठ द्रोण ने वास्तु पूजन देखने के लिये डिण्डिम- घोष कराके वीर समुदाय को आमन्त्रित किया और उत्तम नक्षत्र से युक्त तिथि में उस भूमि पर वास्तु पूजन किया। तत्पश्चात् उनके शिल्पियों ने उस रंगभूमि में वास्तु–शास्त्र के अनुसार विविधपूर्वक एक अति विशाल प्रेक्षागृह[1] की नींव डाली तथा राजा और राजघराने की स्त्रियों के बैठने के लिये वहाँ सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न बहुत सुन्दर भवन बनाया। जनपद् के लोगों ने अपने बैठने के लिये वहाँ ऊंचे और विशाल मञ्च बनवाये तथा (स्त्रियों को लाने के लिये) बहुमूल्य शिबिकाऐं तैयार करायीं।
तत्पश्चात् जब निश्चित दिन आया, तब मन्त्रियों सहित राजा धृतराष्ट्र भीष्म जी तथा आचार्यप्रबर कृप को आगे करके बाह्लीक, सोमदत्त, भूरिश्रवा तथा अन्यान्य कौरवों और मन्त्रियों को साथ ले नगर से बाहर उस दिव्य प्रेक्षागृह में आये। उसमें मोतियों की झालरें लगी थीं, वैदूर्य मणियों से उस भवन को सजाया गया था तथा दीवारों में स्वर्ण खण्ड मढ़े गये थे। विजयीवीरों में श्रेष्ठ जनमेजय! परम सौभाग्यशालिनी गान्धारी, कुन्ती तथा राजभवन की सभी स्त्रियां वस्त्राभूषणों से सज-धजकर दास-दासियों और आवश्यक सामग्रियों के साथ उस भवन में आयीं तथा जैसे देवांगनाऐं मेरु पर्वत पर चढ़ती हैं, उसी प्रकार वे हर्षपूर्वक मञ्चों पर चढ़ गयीं। ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि चारों वर्णों के लोग कुमारों का अस्त्र-कौशल देखने की इच्छा से तुरंत नगर से निकलकर आ गये। क्षणभर में वहाँ विशाल जनसमुदाय एकत्र हो गया। अनेक प्रकार के बाजों के बजने से तथा मनुष्यों के बढ़ते हुए कौतुहल से वह जनसमूह उस समय क्षुब्ध महासागर के समान जान पड़ता था।
11/11/19, 12:00 pm – Abhinandan Sharma: अब आया न मजा, ज्योतिष, आयुर्वेद, महाभारत, किरातार्जुनीय, शिव महिम्न स्तोत्र !! यदि कोई पूछे कि व्हात्सप्प का सबसे बढ़िया प्रयोग क्या है तो उसका एक ही जवाब है – आइये, शास्त्र ज्ञान ग्रुप ज्वाइन करके देखिये | न कोई jokes, न कोई फॉरवर्ड, Only Group STUDY. 👏👏
11/11/19, 12:02 pm – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: 🙏🙏
11/11/19, 12:09 pm – +91: बिल्कुल 😊👍
11/11/19, 12:28 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: 👌🏻
11/11/19, 1:59 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ???
11/11/19, 1:59 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ??
11/11/19, 2:01 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ??
11/11/19, 2:06 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: इसमें उल्लेख आया है कि
कोई आचार्य कहते हैं वह मूल्य है
प्रश्न यह है कि जब यह ग्रन्थ स्वयं मनु महाराज ऋषीयों को बांच रहे है तो उनके पूर्व और कौन से आचार्य हो गए???
11/11/19, 2:07 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: #ॐ श्री गणेशाय नमः#
सुगम ज्योतिष प्रवेशिका
प्रथम भाग – जातक विचार
पहला प्रकरण
आकाश – परिचय
तारामयं भगवतः शिशुमाराकृतिप्रभोः।
दिवि रूपं हरेर्यत्तु तस्य पुच्छे स्थितो ध्रुवः।।
‘श्रीमद् भागवत’ पंचम स्कंध के अध्याय २२-२५ मैं भी आकाश का विस्तृत वर्णन किया गया है। शिशुमार चक्र का वर्णन करते हुए कहते हैं सप्तऋषियों (सात तारों का मंडल) से तेरा लाख योजन ऊपर ध्रुवलोक है। काल द्वारा जो ग्रह नक्षत्रादि ज्योतिर्गण निरंतर घुमाए जाते हैं उन सब के आधार स्तंभ रूप से ध्रुव है। बहुत से शास्त्रों में इन आकाशीय विस्तृत तारामंडल का ‘शिशुमार’ इस नाम से वर्णन है। शिशुमार ‘सु स’ को कहते हैं हैं। यह शिशुमार कुंडली मारे हुए है और इसका मुख नीचे की ओर है। इसकी पूँछ के सिर पर ध्रुव स्थित है। इसके कटी प्रदेश में ‘सप्तर्षि’ हैं। यह शिशुमार दाहिनी ओर को सिकुड़ कर कुंडली मारे हुए है। ऐसी स्थिति में अभिजित से लेकर पुनर्वसु तक १४ नक्षत्र इसके दाहिने भाग में हैं तथा पुष्य से लेकर उत्तराषाढ़ पर्यंत १४ नक्षत्र इसके बाएं भाग में हैं। इसके पीठ में अजवीथी (मूल, उत्तराषाढ़ और पूर्वाषाढ़ नामक नक्षत्रों के समूह) हैं और उदर में आकाशगंगा है। इसके दाहिने और बाएं कटी तटों में पुनर्वसु और पुष्य नक्षत्र हैं, पीछे के दाहिने और बाएं चरणों में आर्द्रा और अश्लेषा नक्षत्र हैं कथा दाहिने और बाएं नथुनों में क्रमशः अभिजित एवं उत्तराषाढ़ नक्षत्र हैं। इसी प्रकार दाहिने और बाएं नेत्रों में श्रवण एवं पूर्वाषाढ़ नक्षत्र एवं दाहिने एवं बाय कानों में धनिष्ठा एवं मूल नक्षत्र है। मघा, पूर्वा फाल्गुनी, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा यह आठ नक्षत्र शिशुमार की बाई पसलियों में तथा मृगशिर, रोहिणी, कृतिका, भरणी, अश्वनी, रेवती, उत्तराभाद्र, पूर्वाभाद्र नक्षत्र इस ‘कुंडलीभूत’ ‘नारायण’ की दाहिनी पसलियों में हैं। शतभिषा और ज्येष्ठा यह दो नक्षत्र क्रमशः दाहिने और बाएं कंधों की जगह हैं। इस ‘शिशुमार’ की ऊपर की थूथनी में अगस्त्य नीचे की ठोड़ी में नक्षत्र-रूप यम, मुखों में मंगल, लिंग-प्रदेश में शनि, ककुद् में बृहस्पति, छाती में सूर्य, हृदय में नारायण, मन में चंद्रमा, नाभि में शुक्र, स्तनों में अश्विनीकुमार, प्राण और अपान में बुध, गले में राहु, समस्त अंगों में केतु और रोमों में संपूर्ण तारागढ़ स्थित है।
11/11/19, 2:07 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: कृपया शंका समाधान करें🙏
11/11/19, 2:10 pm – Ashu Bhaiya: इस कल्प में, ये 7वें मनु हैं वैवस्वत, इनसे पहले 6 और हो गए हैं । आचार्य, ज्ञान, देवता, इंद्र, व्यास सभी बदलते हैं । व्यवस्था चक्रीय है, पाश्चात्यों की तरह रैखिक नहीं ।
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11/11/19, 9:21 pm – +91: राधे राधे ठाकुर साहब
11/11/19, 9:47 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-७ श्लोक ७६,७७
स्नानानुलेपनहिमानिलखण्डखाद्यशीताम्बुदुग्धरसयूषसुराप्रसन्नाः। सेवेत चानु शयनं विरतौ रतस्य तस्यैवमाशु वपुषः पुनरेति धाम॥७६॥
मैथुनोत्तर कर्तव्य- मैथुन क्रिया से निवृत होकर स्नान करें अथवा लिंग एवं योनि को भलिभातिं धो लें। ऋतु के अनुसार चन्दन, कस्तूरी आदि का अनुलेपन लगायें, शीतल वायु का सेवन करें, मिश्री, मिठाई आदि, शीतल जल, दूध, मांसरस, उड़द आदि का जूस, सुरा, प्रसन्ना आदि का सेवन कर पुनः सो जायें। ऐसा करने से पुनः उनके शरीर में तेजस् का संचार हो जाता है।
वक्तव्य- इस सन्दर्भ से सम्बन्धित विषय की चर्चा सुश्रुत ने (सु.चि.२४/११० से १३२ में) की है,आप उसे देखें। इस प्रकरण में सुश्रुत ने यह भी निर्देश दिया है— मैथुन करते समय आये हुए शुक्र के वेग को रोकना नहीं चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से ‘शुक्राश्मरी’ रोग पैदा हो जाती है, जो बाद में कष्टप्रद होती है। सुश्रुत ने इसी प्रसंग के १२०वें श्लोक में ‘मूर्धावरणमेव च’ का उल्लेख किया है। इस तथ्य की ओर ध्यान दें—शिश्न के अगले भाग पर स्थित मणि के ऊपर आवरण चढ़ाना, यहीं से योनि के भीतर शुक्र का क्षरण होता है। क्या यह मूर्धावरण सुश्रुत के समय का कोई कृत्रिम उपाय था जो फ्रैञ्चलैदर की भांति संतानोत्पत्ति न चाहने की इच्छा से प्रयुक्त होता हो?
मैथुन की प्रवृत्ति युवा-युवती के परस्पर एक दूसरे के प्रति आकर्षण में कारण है, इसका धार्मिक दृष्टिकोण है— पुत्रोत्पादन का लक्ष्य, जिसे वाग्भट ने अ.हृ.शा. १/३० में स्वीकार किया है। दूसरा है आलिङ्गनपूर्वक स्पर्शसुख की प्राप्ति, फैंञ्चलैदर इसमें बाधक होता है,क्योकि इसके लगा लेने से स्पर्शसुख मे बाधा आ जाती है। तीसरा लक्ष्य है— विसृष्टिसुख अर्थात शुक्र के निकलने का सुख। खेल-खेल मे भी मैथुन करने का निषेध है। देखें—’क्रीडायामपि°°°°°परिवर्जयेत्। (सु.चि. २४/१२१)
राजा महाराजाओं अर्थात धनसम्पन्न लोगों के आत्मीय जनों से अधिक उनके शत्रु होते है, जो उन्हें लूटने खसोटने मे लगे रहते हैं।इनसे भी अधिक सावधान रहना चाहिए, जो विषकन्या आदि के प्रयोग से उन्हे मार डालना चाहते है।इसका विस्तृत विवेचन विषकन्या नाम से अ.सं.सू. ८/८६ से ८९ में दिया है, इसे पढ़े। यदि राजा आदि श्रीमान पुरुष चिकित्सक की सलाह से दैनिक व्यवहार करते है तो वह उन्हें सावधान कर बाहर से उस सुन्दरी भीतर से घातक स्त्री का स्पर्श भी नहीं होने देता, फलतः वे सुरक्षित रह जाते है।
श्रुतचरितसमृद्धे कर्मदक्षे दयालौ भिषजि निरनुबन्धं देहरक्षां निवेश्य। भवति विपुलतेजःस्वास्थयकीर्तिप्रभावः स्वकुशलफलभोगी भुमिपालश्चिरायुः॥७७॥
राजा आदि का कर्त्तव्य- शास्त्रज्ञ, चरित्रवान, चिकित्साकार्यकुशल, प्राणियों पर दया करने वाले चिकित्सक पर निशंक होकर अपनी रक्षा का भार डालकर राजा महाराजा या श्रीमान पुरुष अत्यन्त तेजस्वी, स्वस्थ(नीरोग), कीर्तिमान, प्रभावशाली तथा अपने जीवन के सुखों का उपभोग करता हुआ दीर्घायु होता है।
इति श्रीवैद्यपतिसिंहगुप्तसूनुश्रीमद्वाग्भटविरचितायामष्टाङ्गहृदयसंहितायाम् प्रथमे सूत्रस्थानेऽन्नरक्षा नाम सप्तमोध्यायः॥७॥
11/11/19, 10:30 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: Asa
12/11/19, 6:44 am – Shastra Gyan Suresh Jhajjar:
12/11/19, 6:44 am – Shastra Gyan Suresh Jhajjar: इल्लुमिनाति का भारत मे शिक्षा व्यवस्था पर षड्यंत्र
भाग-11
मित्रो भारत में 1947 के बाद अंग्रेजी भाषा में लिखित विषय स्कूलों में इस तर्क के साथ आरम्भ किया गया कि यूरोप का समस्त विज्ञान अंग्रेजी में है इसलिये स्कूलों में अंग्रेजी आवश्यक है।
क्या ये आश्चर्य की बात नहीं कि 1950 में भारत की 35 करोड़ आबादी में यदि 5 करोड़ स्कूली विद्यार्थी थे तो केवल 3 विषय भौतिक विज्ञान physics, रसायन विज्ञान chemistry, जीव विज्ञान Biology की शायद 40 किताबो को पढ़ाने के लिये 5 करोड़ विद्यार्थियों को अंग्रेजी सिखाने की आवश्यकता क्यो पड़ी?
जबकि इन 40 किताबो को हिंदी में एवं अन्य प्रचलित भाषाओं में अनुवाद किया जा सकता था केवल 40 अनुवादक ही 1 माह मेहनत करते तो 5 करोड़ विद्यार्थीं और आज के 30 करोड़ विद्यार्थी भाषा की परेशानी से बच जाते कि पहले अंग्रेजी सीखो फिर विज्ञान सीखो।
साथ ही अब जबकि अंग्रेजी के स्कूल/कालेज गावो तक में खुल चुके है तो विज्ञान, कार्मस ,आर्ट्स आदि की किताब एवं समस्त किताबे अंग्रेजी में हो चुकी है।
और अंग्रेजी मॉध्यम में पढ़ने वाला विद्यार्थी जब अंग्रेजी जानने, समझने लगा है और अपने विज्ञान, कॉमर्स आदि विषय की भाषावाली से परिचित हो चुका है।
तो अंग्रेजी मीडियम में होने के कारण कक्षा 9 से 12 की हर किताब अंग्रेजी में है और स्कुल में कक्षा 9 से 12 तक अंग्रेजी साहित्य की 3 या 4 किताबे पढ़ाई जाती है जिसमे शेक्सपियर के फालतू नाटक, व्यर्थ की अंग्रेजी कविताये, टाल्सटाय की कहानियां आदि रहती है।
जिससे पाठ्यक्रम का बोझ बढ़ता है बैग का बोझ बढ़ता है और इन व्यर्थ की किताबो से कोई ज्ञान प्राप्त नहीं होता।
अर्थात इससे साफ पता चलता है विदेशी लेखकों, विदेशी साहित्य की तरफ बाल बुद्धि को आकर्षित करके भविष्य में विदेशी प्रकाशकों की किताबें बिकवाना ही उद्देश्य है जोकि रेलवे स्टेशनों के बुक स्टालों में स्पष्ट दिखाई पड़ता है।
यदि अंग्रेजी साहित्य ही पढ़ाना है तो अंग्रेजी में अनुवादित चाणक्य नीति, कौटिल्य अर्थशास्त्र, पंचतंत्र , मालगुडी डेज आदि क्यों नहीं पढ़ाये जाते जो कि बच्चों को बेहतर समझ आते हो?
जानबूझकर भारतीय साहित्य की उपेक्षा और विदेशी साहित्य को प्रसिद्ध करते जाने का 1947 से लेकर अब तक का दोषी कौन है??
सरकार बदलती गई पर कोई भी नीति 1 इंच भी नही बदली इन्हें संचालित करने वाला परदे के पीछे कौन है???
संज्ञान लीजिए
जय श्री राम
⚔️🦁🚩
12/11/19, 7:33 am – You removed Shastra Gyan Suresh Jhajjar
12/11/19, 8:51 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 2 श्लोक 39 और 40
क्व चिराय परिग्रहः श्रियां क्व च दुष्टेन्द्रियवाजिवश्यता ।
शरदभ्रचलाश्चलेन्द्रियैरसुरक्षा हि बहुच्छलाः श्रियः ।। २.३९ ।।
वियोगिनी
अर्थ: धर्मराज युधिष्ठिर भीमसेन को कहते हैं कि कहाँ प्रदीर्घकाल तक लक्ष्मी को अपने आधिपत्य में रखना और कहाँ बेलगाम घोड़ों की भांति विषयासक्त निरंकुश बेकाबू इन्द्रियों को स्वाधीन रखना ?
लक्ष्मी (सम्पत्ति) शारदीय मेघों जैसी अत्यन्त चञ्चल तथा अनेक बहानो से छोड़ कर जाने वाली होती है ।
अतः अवशेन्द्रिय पुरुषों के द्वारा लम्बे समय तक लक्ष्मी को स्वाधीन रखना सम्भव नहीं है । दोनों का एकाधिकरण्य असम्भव है । दोनों एकत्र (एक स्थान में) एक साथ नहीं रह सकते हैं ।
टिप्पणी: किसी प्रकार से एक बार प्राप्त की गयी लक्ष्मी चञ्चल इन्द्रिय वालों के वश में चिरकाल तक नहीं ठहर सकती ।
इस पद्य में दो बार प्रयुक्त ‘क्व’ शब्द लक्ष्मी का चिरकालिक परिग्रह और दुष्टैन्द्रियवाजिवश्यता के महदन्तर का सूचन करता है ।
वाक्यार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार
किं असामयिकं वितन्वता मनसः क्षोभं उपात्तरंहसः ।
क्रियते पतिरुच्चकैरपां भवता धीरतयाधरीकृतः ।। २.४० ।।
वियोगिनी
अर्थ: हे भीमसेन ! स्वभावतः ही अतिचञ्चल मन को असमय में ही क्षुभित होने का अवसर देते हुए आप अपने धीरज से पहले ही जिस समुद्र को तिरस्कृत कर चुके हो उसे ही पुनः क्यों श्रेष्ठ बनाते हो । गम्भीरता में समुद्र की महानता पहले से ही सर्वविदित है किन्तु आपने तो अपनी गम्भीरता में उसे पूर्व में ही तिरस्कृत बना दिया था अर्थात उस समुद्र से अधिक धीरज आप में है यह अनेक बार सिद्ध कर चुकने के पश्चात अब पुनः द्रुत गति प्राप्त मन को असामयिक क्षोभ का अवसर देकर गम्भीरता में समुद्र को ही आपसे अधिक गम्भीर होने का अवसर क्यों प्रदान करते हो । समुद्र अपनी मर्यादा का उल्लंघन कभी करता नहीं है किन्तु आज आप असामयिक घबड़ाहट को प्रश्रय देकर समुद्र को ही सर्वाधिक महान होना क्यों सिद्ध करना चाहते हो ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि तुम तो समुद्र से भी बढ़कर धीर-गम्भीर थे, फिर क्यों आज वेगयुक्त मन की चञ्चलता को बढ़ा रहे हो । धैर्य में तुमसे पराजित समुद्र भी क्षोभ में अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता और तुम अपनी मर्यादा छोड़ कर उसे अपने से ऊंचा बना रहे हो । अपने से पराजित को कोई भी ऊंचा नहीं बनाना चाहता ।
पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार
12/11/19, 8:55 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙏🏼
12/11/19, 9:00 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: सिर के ऊपर से गया 😕
12/11/19, 9:19 am – Abhinandan Sharma: वाह, क्या बात कही है । अब कोई बताइये कि क्रोधजनित मोह किसे कहा गया है ? ये कैसा होता है ? उदाहरण ?
12/11/19, 9:21 am – Abhinandan Sharma: 🙏🙏
12/11/19, 9:25 am – Abhinandan Sharma: बहुत अच्छा सन्दर्भ ।
12/11/19, 9:28 am – Abhinandan Sharma: बहुत अच्छी व्याख्या ।
12/11/19, 9:29 am – Abhinandan Sharma: रतिकाळ में बालों को खींचना, हृदयस्थल पर घूंसे मारना आदि । (संदर्भ नहीं मिला क्योंकि कामसूत्र नहीं पढ़ा है, किसी ने पढ़ा हो तो कन्फर्म करें)
12/11/19, 9:30 am – Abhinandan Sharma: निषिद्ध नहीं है किंतु हाँ त्याज्य अवश्य है ।
12/11/19, 9:30 am – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: जी कामसूत्र में विस्तृत चर्चा है इस बात की
12/11/19, 9:31 am – Abhinandan Sharma: क्या अर्थ यही है, जो बताया गया है ?
12/11/19, 9:31 am – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: क्षमा मैं उपरोक्त पोस्ट अभी नहीं पढ़ा हूँ पढ़ कर देखता हूँ
12/11/19, 9:32 am – Abhinandan Sharma: मैं इसकी बात कर रहा हूँ जहां शिरः ताड़न और हृदय ताड़न के बारे में कहा गया है ।
12/11/19, 9:32 am – Abhinandan Sharma: सभी दिनों के बाद अल्पविराम ही है ।
12/11/19, 9:35 am – Abhinandan Sharma: बहुत सुंदर ।
12/11/19, 9:35 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: क्रोधजनित मोह यानी क्रोध के कारण में आसक्ति जिससे बुद्धि काम करना बन्द कर देती है
12/11/19, 9:36 am – Abhinandan Sharma: वाह, बहुत सुंदर । उच्च रक्तचाप भी इसी वजह से होता है । 👌
12/11/19, 9:39 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: सबसे आसान उदाहरण यही होगा कि अगर दूसरे के बच्चे ने बाल नोच दिए तो गुस्सा आता है और यही अगर अपना बच्चा करे तो प्यार आता है ।
12/11/19, 10:06 am – Abhinandan Sharma: क्या आपका उदाहरण, इस से मेच कर रहा है ? शायद नहीं !
12/11/19, 10:12 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: हम्म सही नही है, कुछ और सोचना पड़ेगा 🤔
12/11/19, 10:15 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: अपनी किसी प्यारी चीज़ का नुकसान होने से क्रोध आना, जैसे गाड़ी में खरोंच लग जाये या कुछ टूट जाये तब क्रोध आता है और हम नुकसान करनेवाले को खरी खोटी सुना देते हैं ।
12/11/19, 10:27 am – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: #श्री गणेशाय नमः#
सुगम ज्योतिष प्रवेशिका
प्रथम भाग – जातक विचार
पहला प्रकरण
आकाश – परिचय
“एतद् है व भगवतो विष्णोः सर्वदेवतामयं रूपम्” अर्थात यह भगवान विष्णु का सर्वदेवमय स्वरूप है।
उपर्युक्त विस्तृत वर्णन के लिए देखिए श्रीमद्भागवत के पंचम स्कन्ध के अध्याय २२-२५ तथा ‘विष्णु पुराण’ द्वितीय अंश के अध्याय ७-१२।
इस विष्णुस्वरूप द्वारा अनंत-ब्रम्हांडनायक पृथ्वी के चराचर प्राणियों की – स्थावर जंगम सभी पदार्थों की – सृष्टि स्थिति विलय करते हैं। इसी नारायणी शक्ति का पृथ्वी के जीवो पर, अन्न आदि पदार्थों पर, सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्थाओं पर, आर्थिक तथा व्यापारिक जगत् पर क्या प्रभाव पड़ता है – यह ज्योतिष का विषय है।
यह पौराणिक मत है। शुद्ध ज्योतिष के दृष्टिकोण से हमारी पृथ्वी ब्रह्मांड का एक ‘अणु’ मात्र है जो समस्त सौर (सूर्य) – मंडल, अनंत कोटि तारागण, ग्रहों आदि से प्रभावित है।
दार्शनिक मत से ‘नारायण’ के शरीर में ग्रह-संचार से जो कुछ होता है उसका प्रभाव ‘नर’ (मनुष्य) पर भी पड़ता है।
“यत्पिंडे तत्ब्रह्मांडे” यह दर्शन का सुपरिचित और सुप्रसिद्ध सिद्धांत है – जिसके व्याख्यान की आवश्यकता नहीं। अर्थात जो-कुछ इस शरीर ‘पिंड’ में है वही ‘ब्रह्मांड’ में है। ब्रह्मांड बड़े पैमाने पर शरीर ‘पिंड’ है। इस शरीर ‘पिंड’ के अंतर्गत रहने वाला मायावच्छिन्न आत्मा है। अखिल ब्रह्मांड की केंद्रीय चित् शक्ति परमात्मा है।
12/11/19, 11:15 am – Shastra Gyan Mukesh Mishra Allahabad: वस्तुत: ‘मोह’ मन की वह दशा है, जिसमें मनुष्य भ्रम के कारण ‘सत्य’ को समझ पाने में असमर्थ रह जाता है।
यहाँ ‘मोह’ का यही अर्थ लेना चाहिये।
12/11/19, 11:15 am – Shastra Gyan Mukesh Mishra Allahabad: क्रोध की अवस्था में भी मन की ऐसी ही दशा हो जाती है, इस प्रकार ‘मोह’ उत्पन्न होता है।
12/11/19, 6:50 pm – Abhinandan Sharma: 👌👌
12/11/19, 6:52 pm – Abhinandan Sharma: वाह, क्या घुमा कर बात कही है 👏
12/11/19, 6:56 pm – Abhinandan Sharma: https://hi.m.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%82%E0%A4%A1%E0%A4%B2
12/11/19, 6:59 pm – Abhinandan Sharma: ये परिणाम है, क्रोध से उतपन्न मोह नहीं । आपका ही उदाहरण, आपके ही परिभाषा से मैच नहीं कर रहा ।
12/11/19, 7:01 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: This message was deleted
12/11/19, 8:27 pm – +91 : त्रयस्त्रिंशदधिकशततम (133) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व) महाभारत: आदि पर्व:
त्रयस्त्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-30 का हिन्दी अनुवाद तदनन्तर श्वेत वस्त्र और श्वेत यज्ञोपवीत धारण किये आचार्य द्रोण ने अपने पुत्र अश्वत्थामा के साथ रंगभूमि में प्रवेश किया; मानो मेघरहित आकाश में चन्द्रमा ने मंगल के साथ पदार्पण किया हो। अचार्य के सिर और दाढ़ी-मूंछ के बाल सफेद हो गये थे। वे श्वेत पुष्पों की माला और चन्दन से सुशोभित हो रहे थे। बलवानों में श्रेष्ठ द्रोण ने यथा समय देव-पूजा की और श्रेष्ठ मन्त्रवेत्ता ब्राह्मणों से मंगल पाठ कराया। उस समय राजा धृतराष्ट्र ने सुवर्ण, मणि, रत्न तथा नाना प्रकार के वस्त्र आचार्य द्रोण और कृप को दक्षिणा के रूप में दिये। फिर सुखमय पुण्यवाचन तथा दान-होम आदि पुण्यकर्मों के अनन्तर नाना प्रकार की शस्त्र-सामग्री लेकर बहुत-से मनुष्यों ने उस रंगमण्डप में प्रवेश किया। उसके बाद भरतवंशियों में श्रेष्ठ वीर राजकुमार बड़े-बड़े रथों के साथ दस्ताने पहने, कमर कसे, पीठ पर तूणीर बांधे और धनुष लिये उस रंगमण्डप के भीतर आये। नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर आदि उन राजकुमारों ने जेठे-छोटे के क्रम से स्थित हो उस रंगभूमि के मध्य भाग में बैठे हुए आचार्य द्रोण को प्रणाम करके द्रोण और कृप दोनों आचार्यों की यथोचित पूजा की। फिर उनसे आर्शीवाद पाकर उन सबका मन प्रसन्न हो गया। तत्पश्चात् पूजा के पुष्पों से आच्छादित अस्त्र-शस्त्रों को प्रणाम करके कौरवों ने रक्त चन्दन और फलों द्वारा पुन: स्वयं उनका पूजन किया वे सब-के-सब लाल चन्दन से चर्चित तथा लाल रंग की मालाओं से विभूषित थे। सब के रथों पर लाल रंग की पताकाऐं थीं। सभी के नेत्रों के कोने लाल रंग के थे। तदनन्तर तपाये हुए स्वर्ण के आभूषणों से विभूषित एवं शत्रुओं को संताप देने वाले कौरव-राजकुमारों ने आचार्य द्रोण की आज्ञा पाकर पहले अपने अस्त्र एवं धनुष लेकर डोरी चढ़ायी और उस पर भाँति-भाँति की आकृति के बाणों का संधान करके प्रत्यञ्चा का टंकार करते और ताल ठोकते हुए समस्त प्राणियों का आदर किया। तत्पश्चात् वे महापराक्रमी राजकुमार वहाँ परम अद्भुत अस्त्र-कौशल प्रकट करने लगे। कितने ही मनुष्य बाण लग जाने के डर से अपना मस्तक झुका देते थे। दूसरे लोग अत्यन्त विस्मित होकर बिना किसी भय के सब कुछ देखते थे। वे राजकुमार घोड़ों पर सवार हो अपने नाम के अक्षरों से सुशोभित और बड़ी फुर्ती के साथ छोड़े हुए नाना प्रकार के बाणों द्वारा शीघ्रतापूर्वक लक्ष्य भेद करने लगे। धनुष-बाण लिये राजकुमारों के उस समुदाय को गन्धर्व नगर के समान अद्भुत देख वहाँ समस्त दर्शक आश्चर्यकित हो गये। जनमेजय! सैकड़ों और हजारों की संख्या में एक-एक जगह बैठे हुए लोग आश्चर्यचकित नेत्रों से देखते हुए सहसा ‘साधु-साधु (वाह-वाह)’ कहकर कोलाहल मचा देते थे। उन महाबली राजकुमारों ने पहले धनुष-बाण के पैतरे दिखाये। तदनन्तर रथ-संचालन के विविध मार्गों (शीघ्र ले जाना, लौटा लाना, दायें, बाऐं और मण्डलाकार चलाना आदि) का अवलोकन कराया। फिर कुस्ती लड़ने तथा हाथी और घोड़े की पीठ पर बैठकर युद्ध करने की चातुरी का परिचय दिया। इसके बाद वे ढाल और तलवार लेकर एक-दूसरे पर प्रहार करते हुए खड्ग चलाने के शास्त्रोक्त मार्ग (ऊपर-नीचे) और अगल-बगल में घुमाने की कला का प्रदर्शन करने लगे। उन्होंने रथ, हाथी, घोड़े और भूमि- इन सभी भूमियों पर यह युद्ध-कौशल दिखाया।
12/11/19, 8:39 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙂 सटीक नहीं है ये तो पता लग गया था पर इससे अच्छा मुझे कुछ सूझा ही नही । आप ही बताओ ।
12/11/19, 11:23 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: रामायण बालकाण्ड पंचदश सर्ग श्लोक १,२,३,४
मेधावी तु ततो ध्यात्वा स किंचिदिदमुत्तरम्। लब्धसंज्ञस्ततस्तं तु वेदज्ञो नृपमब्रवीत्॥१॥
मेधावी वेदज्ञ ऋष्यश्रृङ्ग जी कुछ काल तक ध्यान करके महाराज दशरथ से बोले कि
इष्टिं तेऽहं करिष्यामि पुत्रीयां पुत्रकारणात्। अथर्वशिरसि प्रौक्तैर्मन्त्रैः सिद्धां विधानत्ः॥२॥
हे राजन्! मै तेरे लिए अथर्ववेद में कही हुई पुत्रेष्टि यज्ञ की विधि के अनुसार सिद्धी देने वाला पुत्रेष्टि यज्ञ करूंगा जिससे तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा।
ततः प्रक्रम्य तामिष्टिं पुत्रीयां पुत्रकारणात्। जुहाव चाग्नौ तेजस्वी मन्त्रदृप्टेन कर्मणा॥३॥
यह कहकर पुत्र प्राप्ति के लिए उन्होंने पुत्रेष्टि यज्ञ प्रारम्भ किया और विधिवत मन्त्र पढ़कर,वें आहुति देने लगे।
ततो देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षय:। भागप्रतिग्रहार्थं वै समवेता यथाविधि॥४॥
तब तो देवता गन्धर्व सिद्ध और महर्षि, अपना-अपना यज्ञ भाग लेने को आकर जमा हुए।
12/11/19, 11:26 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: पीताम्बर जी ने बालकाण्ड का चतुर्दश सर्ग पूरा किया था। अतः उसके आगे से प्रारम्भ किया है।🙏🏻
13/11/19, 4:19 am – +91: 🙏🌷🙏🌷🙏
13/11/19, 6:01 am – +91: तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरि विरञ्चिर्हरिरधः
परिच्छेत्तुं यातावनलमनलस्कन्धवपुषः।
ततो भक्तिश्रद्धाभरगुरुगृणद्भ्यां गिरिश यत्
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति।।
हे गिरिश!
(अग्नि-स्तम्भ के समान) आप का जो लिंगाकार तेजस रूप (ऐश्वर्य) प्रकट हुआ उसके ओर- छोर जानने के लिए ऊपर की ओर ब्रह्मा तथा नीचे की ओर विष्णु बड़े प्रयत्न से गए; पर,(वे दोनों ही) पार पाने में असमर्थ रहे ।
तब उन दोनों ने श्रद्धा और भक्ति से पूर्ण बुद्धि से नत मस्तक हो आपकी स्तुति की ।
(तब उनकी स्तुति से प्रसन्न हो) आप उन दोनों के सामने समक्ष स्वयं प्रकट हो गये।
हे भगवन्! श्रद्धा- भक्ति पूर्वक की गयी आपकी सेवा( स्तुति) क्या फलीभूत नहीं होती?(अर्थात् अवश्य फलीभूत होती है)।।10।।
13/11/19, 6:59 am – Abhinandan Sharma: आपने परिभाषा दी थी कि क्रोध के कारण में आसक्ति होने से, जो मूढ़ता आती है, उसे ही क्रोध से उतपन्न मोह कहा गया है । आपने बिल्कुल सही परिभाषा दी थी । इसका उदाहरण होगा – जैसे बड़े भाई ने कोई कार्य विशेष किया, जिससे छोटे भाई को अपना अपमान लगा, तो बजाय उस कार्यविशेष की विवेचना करने के और उसके अन्य पहलू देखने के, छोटे भाई ने अपने अपमान का बदला लेने के लिये, बदले में बड़े भाई का भरी सभा में अपमान कर दिया और हो सकता है, गुस्से में गाली गलौज भी कर दी और हो सकता है कि अपने क्रोध की पूर्ति के लिये, वहीं सभा में, भाई को नीचा दिखाने के लिये, अपनी पत्नी और बच्चों को मारे-पीटे या कोई और तमाशा करे ।
यहां, छोटे भाई का क्रोध के कारण, यानि उस अपमान में मोह है । वो उस अपमान से आगे, पीछे कुछ नहीं सोच पा रहा । वो ये नहीं देखता की कितने मौकों पर बड़े भाई ने उसकी मदद की, कितने मौके ऐसे आये, जब बड़े भाई ने किसी काम की सारी जिम्मेदारी खुद ले ली और उसे परेशानियों में नहीं डाला, वो दोनों भाई कैसे प्रेम से साथ साथ खेलते थे, वो सब भूल गया, इसे ही मोहजनित अज्ञान कहते हैं और उस क्रोध के कारण को ही मुख्य मानते हुए, भाई को नीचा दिखाने के लिये, बदले की भावना से, उसने एक ऐसा कार्य कर दिया, जिसकी भरपाई सम्भव नहीं । सभी के बीच में बड़े भाई का अपमान करके, उसने माफी के सारे रास्ते भी बंद कर लिए क्योंकि बात अब दो भाइयों के बीच में नहीं रही । क्रोध में बड़े भाई से गाली गलौज भी कर दी, अर्थात छोटे बड़े का अंतर भी भूल गया ,इसे ही मोह जनित मूढ़ता कहते हैं, इसमें बुद्धि काम करना बंद कर देती है । वो सही गलत, स्थान आदि का विचार नही करती और बुद्धि से तेज जीभ चलती है । ये क्रोध के कारण में मोह है ।
13/11/19, 7:11 am – Abhinandan Sharma: बहुत बहुत धन्यवाद 👌
13/11/19, 9:24 am – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: #श्री गणेशाय नमः#
सुगम ज्योतिष प्रवेशिका
प्रथम भाग – जातक विचार
पहला प्रकरण
आकाश – परिचय
“जीवो ब्रह्मैव नापारः” जो ‘जीव’ है वही ‘ब्रह्म’ है – यह वेदांत सिद्धांत विदित ही है। जिस तरह उपर्युक्त वर्णित तारामय विष्णु का विराट शरीर कोटि-कोटि ब्रम्हांड के विराटतम विष्णु परिमाण के मुकाबले में एक अणुमात्र है उसी प्रकार शिशुमार-रूपी विष्णु शरीर के मुकाबले में मनुष्य शरीर एक अणु मात्र है, किंतु ‘नारायण’ का अंश होने से नर में भी सब कुछ है – जो ‘नारायण’ में है वह ‘नर’ में है।
सभी को विदित है कि सूर्य और पृथ्वी के संबंध से ऋतु-परिवर्तन होता है – कभी ग्रीष्म, कभी वर्षा, कभी जाड़ा ये सब सूर्य और पृथ्वी की भिन्न-भिन्न परिस्थितियों के कारण होते हैं। वर्षा ना हो तो उपज ना हो; अन्न ना हो तो प्राण धारी नष्ट हो जावे। जो कुछ भी खाया जाए उसे ‘अन्न’ कहते हैं। इस विस्तृत- निस्सीम आकाश में ‘पृथ्वी’ की कोई गणना ही नहीं। एक नारंगी की अपेक्षा जितनी बड़ी पृथ्वी है – पृथ्वी की अपेक्षा उतना ही बड़ा सूर्य है। इससे अनुमान हो सकता है कि सूर्य कितना बड़ा है।*
- यह दृष्टांत केवल यह बताने के लिए है कि पृथ्वी की अपेक्षा सूर्य बहुत बड़ा है वास्तव में पृथ्वी और सूर्य में वही अनुपात है जो १ और १३८४४७२ में। पृथ्वी सूर्य से साढ़े नौ करोड़ मील दूर है।
13/11/19, 12:57 pm – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: ।।पंचतंत्र।।
कथामुख
कहा जाता है कि भारत के दक्षिण में स्थित महिलारोप्य नामक एक प्रसिद्ध नगर किसी राज्य की राजधानी था, जहां का राजा अत्यन्त प्रचण्ड प्रतापी अमरसिंह था, जो सभी कलाओं का मर्मज्ञ, विनम्र और उदार भी था।
राजा अमरसिंह के बहुशक्ति, उग्रशक्ति और अनन्तशक्ति नामक तीन पुत्र थे, जो दुर्भाग्यवश इतने मूर्ख थे कि राज्य का उत्तराधिकारी बनने के योग्य नहीं थे। इस कारण राजा अमरसिंह सदा चिन्तित रहा करता था।
विशाल राज्य का अधिपति होने पर भी राजा का मन अशान्त रहता था। एक दिन राजा अमरसिंह ने अपने मन्त्रियों को बुलाकर उन्हें अपनी चिन्ता से अवगत कराते हुए उनसे कहा—आप सब मेरे और मेरे राज्य के शुभचिन्तक हैं और आपको पता है कि मेरे तीनों पुत्र अविवेकी एवं बुद्धिहीन हैं। इसीलिए मेरी रातों की नींद और दिन का चैन उड़ गया है।
आपने नीतिकारों को यह वचन तो सुना ही होगा—
अजातमृतमूर्खेभ्यो मृताजातौ सुतौ वरम् ।
यतस्तौ स्वल्पदुःखाय यावज्जीवं जडो दहेत्।।
पुत्र का पैदा न होना, होकर मर जाना और अत्यन्त मूर्ख होना—इन तीनों स्थितियों में पुत्र का अत्यन्त मूर्ख होना सर्वाधिक दुःखद होता है। मूर्ख पुत्र जीवन-भर तड़पाता रहता है। यही दुःख मुझे भी तड़पा रहा है और मेरे दुःख की मात्रा दिनों-दिन बढ़ती जा रही है।
13/11/19, 2:06 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: 👌🏻
13/11/19, 2:27 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: रामायण बालकाण्ड – पंचदश सर्ग, श्लोक ५,६,७,८,९,१०
ताः समेत्य यथान्यायं तस्मानसदसि देवताः। अब्रुवल्लोककर्नारं ब्रंह्माणं वचनं महत्॥५॥
इस यज्ञ में यथाक्रम एकत्र हो देवताओं ने सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी से विनय की।
भगवंस्त्वत्प्रसादेन रावणो नाम राक्षसः।सर्वान्नो वाधते वीर्याच्छासितुं तं न शक्नुम॥६॥
हे भगवन!आपकी कृपा से रावण नामक राक्षस हम सबको बहुत सताता है और हम उसका कुछ भी नहीं कर सकते हैं।
त्वया तस्मै वरो दत्तः प्रीतेन भगवन्पुरा। मानयन्तश्च तं सर्वं तस्य क्षमामहे॥७॥
क्योंकि आपने प्रसन्न हो उसे पहले वरदान दे दिया है, इसलिए हम सब कहते है और कुछ नहीं बोलते।
उद्वेजयति लोकांस्त्रीनुच्छ्रितान्द्वेष्टि दुर्मतिः। शक्रं त्रिदशराजानं प्रधर्षयितुमिच्छति॥८॥
वह तीनो लोकों को सता रहा है और लोकपालों से शत्रुता बांध कर, स्वर्ग के राजा इन्द्र को भी नीचा दिखाना चाहता है।
ऋषीन्यक्षान्सगन्धर्वानसुरान्ब्राह्मणांस्तथा। अतिक्रामति दुर्धर्षो वरदानेन मोहितः॥९॥
क्या ऋषि, क्या यक्ष, क्या देवता, क्या गन्धर्व, क्या ब्राह्मण, आपके वरदान के प्रभाव से वह दुर्धर्ष किसी को कुछ भी तो नहीं समझता।
नैनं सूर्यैः प्रतप्रति पार्श्वे वावि न मारूतः। चलोर्मिमाली त्वं दृष्ट्वा समुद्रोऽपि न कम्पते॥१०॥
उसे न तो सूर्य ही गर्मी पहुंचा सकते हैं न वायुदेव ही उसके समीप वेग से चल सकते है। उसे देखतेही समुद्र भी अपना लहराना बंद कर, शान्त हो जाता है।
13/11/19, 6:23 pm – +91: आप सबों को शुभ संध्या। मैं कुमार अमृतेश हूँ। पेशे से एक कर्मठ असिस्टेंट लेबर कमीश्नर (सेंट्रल), हूँ और अंडमान में हूँ। इस ग्रुप में जुड़ने का अवसर मुझे अभिनंदन शर्मा जी के माध्यम से मिला है। मैं बहुत हर्षित हूँ की मेरे शास्त्र-ज्ञानार्जन की यात्रा का प्रारंभ आज से हो रहा है। धन्यवाद।
13/11/19, 6:54 pm – +91 : शुभसँध्या अमृतेश जी 😊🙏🌹
13/11/19, 7:07 pm – Shastra Gyan Ranjana Prakash: महीन बातें धर्म की
13/11/19, 8:21 pm – You added Shastra Gyan Suresh Jhajjar
13/11/19, 9:13 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: #श्री गणेशाय नमः#
सुगम ज्योतिष प्रवेशिका
प्रथम भाग – जातक विचार
पहला प्रकरण
आकाश – परिचय
भचक्र – यहां एक शंका होना स्वाभाविक है कि जब इस विराट आकाश में अनंत कोटि तारागण हैं तो भारतीय ज्योतिष ने अपने गणित, फलित आदि में २७ नक्षत्र और ९ ग्रहों को ही प्रधानता क्यों दी? इसका कारण यह है कि आकाश में एक प्रायः गोल (कुछ लंबोतरा) मार्ग है।
इस मार्ग में पृथ्वी निरंतर चक्कर लगाया करती है। आकाश मैं कोई सड़क नहीं है, न कोई मील के पत्थर लगे हैं तब यह मालूम कैसे पड़े कि पृथ्वी कितना चल चुकी और अब कहाँ है? इस समस्या को हल करने के लिए – जिस मार्ग पर पृथ्वी घूमती है – उस पर या उसके आसपास स्थित नक्षत्रों में से २७ नक्षत्र चुन लिए गए हैं। ये स्थिर नक्षत्र हैं। ग्रह (चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि) तो घूमते रहते हैं किंतु नक्षत्र अपनी जगह स्थिर रहते हैं। इन २७ नक्षत्रों से वही काम लिया जाता है जो मील के पत्थरों से लिया जाता है। यदि कोई मोटर दिल्ली से कोलकाता के लिए रवाना हो और हम कहें कि वह २७० वें मील पर है तो दिल्ली से कोलकाता जो सड़क जाती है उसका नक्शा पास में होने से, हम तुरंत यह जान सकते हैं कि इस समय मोटर कहाँ है। इसी प्रकार पृथ्वी के गोलाकार मार्ग को २७ नक्षत्रों में बांटने की व्यवस्था इसलिए की गई है कि आकाश में निश्चित स्थान का निर्देश किया जा सके।
नक्षत्र – यह २७ नक्षत्र निम्नलिखित हैंः
१. अश्विनी, २. भरणी, ३. कृतिका, ४. रोहिणी, ५. मृगशिर् , ६. आर्द्रा, ७. पुनर्वसु, ८. पुष्य, ९. अश्लेषा, १०. मघा, ११. पूर्वा फाल्गुनी, १२. उत्तरा फाल्गुनी, १३. हस्त, १४. चित्रा, १५. स्वाति, १६. विशाखा, १७. अनुराधा, १८. ज्येष्ठा, १९. मूल, २०. पूर्वाषाढ़, २१. उत्तराषाढ़, २२. श्रवण, २३. धनिष्ठा, २४. शतभिषा, २५. पूर्वाभाद्र, २६. उत्तराभाद्र और २७. रेवती।
किसी समय वैदिक काल में ‘उत्तराषाढ़’ और ‘श्रवण’ के बीच में ‘अभिजित’ नामक नक्षत्र की गणना और की जाती थी। किंतु अब कहीं-कहीं (जैसा कि ऊपर दिए गए ब्रह्म पुराण श्रीमद्भागवत आदि उद्धरणों से स्पष्ट है) अभिजित् की चर्चा आती है। किन्ही-किन्ही ज्योतिष के चक्रों में भी अभिजित् का प्रयोग किया गया है, किंतु ९९ फीसदी ज्योतिष के विचार में २७ नक्षत्रों को ही भचक्र (पृथ्वी-परिभ्रमण के मार्ग) का आधार माना है। ‘भ’ कहते हैं ‘नक्षत्र’ को। ‘चक्र’ कहते हैं गोलाकार घूमने वाली वस्तु को। ‘चक्र’ से ही चक्कर शब्द बना है। इस कारण ‘भचक्र’ का अर्थ है वह नक्षत्रों का गोलाकार चक्कर जिस पर कोई चीज घूमती हो। इस नक्षत्र-चक्र पर पृथ्वी घूमती है। वर्ष के प्रारंभ में पृथ्वी अश्विनी नक्षत्र के प्रारंभिक बिंदु पर रहती है। वर्ष-भर भरणी, कृतिका, रोहिणी इस क्रम से समस्त नक्षत्रों पर घूमती हुई वर्ष के अंत में फिर अश्विनी नक्षत्र के प्रारंभिक बिंदु पर आ जाती है।
नवग्रह – हम लोग पृथ्वी के जीव हैं। पृथ्वी पर बात करते हैं अतः पृथ्वी के प्रभाव से प्रभावित होते हैं। यह समझ लीजिए कि हम पृथ्वी के अंग हैं और पृथ्वी सूर्य के चारों ओर भ्रमण करती है। पृथ्वी के परिभ्रमण का मार्ग २७ नक्षत्रों का चक्र है। चंद्रमा पृथ्वी के चारों ओर भ्रमण करता है। चंद्रमा के प्रकाश और प्रभाव से पृथ्वी की सारी वनस्पति पैदा होती है। समस्त जड़ी-बूटी, पेड़-पौधे सब चंद्रमा से पोषण प्राप्त करते हैं। इसी कारण चंद्रमा को ‘औषधिपति’ कहते हैं। समुद्र में ज्वार-भाटे का कारण भी चंद्रमा ही है। इस कारण हम चंद्रमा से भी प्रभावित हैं।
बाकी मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि यह पांचों ग्रह सूर्य के चारों ओर भ्रमण करते हैं। जैसे पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है अर्थात सूर्य की प्रदक्षिणा करती रहती है वैसे ही यह पांचों ग्रह भी सूर्य की प्रदक्षिणा करते रहते हैं। इस कारण इन ग्रहों का भी हम पृथ्वीवासियों पर प्रभाव पड़ता है। हमारी पृथ्वी सूर्य के चारों ओर प्रदक्षिणा करती है, इस कारण जिन नक्षत्रों के पास से वह जाती है उन २७ नक्षत्रों का तथा जो ग्रह सूर्य के चारों ओर प्रदिक्षणा करते हैं उनका विशेष प्रभाव पृथ्वी पर पड़ता है। अतः भारतीय ज्योतिष का आधार ९ ग्रह और २७ नक्षत्र हैं। मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि – इन पांच ग्रहों के अतिरिक्त राहु और केतु दो ग्रह और भारतीय ज्योतिष में माने गए हैं तथा हर्षल, नेपच्यून एवं प्लूटो यह तीन ग्रह पाश्चात्य ज्योतिषी और मांगते हैं।*
- राहु और केतु* – राहु और केतु दो उपग्रह हैं। ये कोई दिखाई देने वाले ग्रह नहीं है इसी कारण इन्हें ‘छाया-ग्रह’ भी कहते हैं। पृथ्वी का सूर्य के चारों ओर भ्रमण का एक मार्ग है। चंद्रमा का पृथ्वी के चारों ओर भ्रमण का एक अन्य मार्ग है। जहां यह दोनों मार्ग एक दूसरे को काटते हैं उस बिंदु का नाम ‘राहु’ है। चंद्र अपने मार्ग पर चलता हुआ जब ‘भचक्र’ के उस स्थान पर पहुंचता है जिसको पार करने पर वह उत्तर को चला जायेगा उस बिंदु को ‘राहु’ कहते हैं। अतः अंग्रेजी ज्योतिष में इसे राहु ना कहकर ‘North Node of the Moon’s कहते हैं। चंद्रमा चक्कर पूरा करता हुआ जब ‘भचक्र’ के उस बिंदु पर पहुंचता है जिसे पार करने पर दक्षिण को चला जावेगा तो उस बिंदु को ‘केतु’ कहते हैं। इसी कारण अंग्रेजी ज्योतिष में इसे ‘South Node of the Moon’ कहते हैं।
राहु का स्वरूप सर्प की भांति माना गया है। राहु को सर्प का सिर तथा केतु को पूँछ कहते हैं। यह जो पृथ्वी के मार्ग और चंद्रमा के मार्ग का – एक-दूसरे को काटने वाला ‘चौराहा’ या ‘बिंदु’ है वह स्थिर नहीं है। वह सरकता रहता है और १८ वर्ष में मंडलाकार घूम कर फिर अपने पूर्व स्थान पर आ जाता है। इसलिए लोक-व्यवहार में कहते हैं कि राहु को पृथ्वी की परिक्रमा करने में १८ वर्ष का समय लगता है यह जो ‘राहु’ का स्थान है (दोनों मार्ग जहां एक दूसरे को काटते हैं वह चौराहा) वह पीछे की ओर सरकता रहता है। अश्विनी नक्षत्र से रेवती नक्षत्र, रेवती से उत्तराभाद्र, उत्तराभाद्र से पूर्वाभाद्र इसी क्रम में पीछे की ओर कुछ-कुछ हटता रहता है। अतः लोक व्यवहार में कहते हैं कि राहु उल्टा चलता है या ‘वक्री’ है ‘वक्र गति’ कहते हैं टेढ़ा या उल्टा चलने को।
सूर्य-चंद्र देदीप्यमान ग्रह हैं, चमकते हैं। राहु-केतु कल्पित बिंदु मात्र हैं, देखे नहीं जा सकते। ‘छाया’ ग्रह हैं। सूर्य चंद्र सदैव आगे की ओर अश्विनी से भरनी, भरनी से कृतिका, कृतिका से रोहिणी – इस क्रम से आगे चलते हैं। इस कारण से सूर्य-चंद्र आदि को ‘देवता’ कहते हैं (दिव-चमकना) तथा इनसे विरुद्ध धर्म, गुण, स्वभाव वाले राहु-केतु को ‘असुर’ कहा गया है। यही पौराणिक कथाओं का आधार है।
सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र व शनि आकाश में किस स्थान पर हैं यह पंचांग में दिया रहता है। जब जन्म कुंडली, वर्ष कुंडली या प्रश्न कुंडली बनानी हो तब अभीष्ट समय में कौन-कौन सा ग्रह कहाँ है यह शुद्ध पंचांग में देखना चाहिए। कुंडली बनाना, लग्न तथा ग्रह स्पष्ट, भाव स्पष्ट करना आगे बतलाया गया है।
- सूर्य और चंद्रमा यह दो तो प्रधान ग्रह है ही।
13/11/19, 9:17 pm – +91 : त्रयस्त्रिंशदधिकशततम (133) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व) महाभारत: आदि पर्व: त्रयस्त्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 31-35 का हिन्दी अनुवाद दर्शकों ने उन सब-के ढाल-तलवार के प्रयोगों को देखा।
उस कला में उनकी फुर्ती, चतुरता, शोभा, स्थिरता और मुट्ठी की दृढ़ता का अवलोकन किया। तदनन्तर सदा एक-दूसरे को जीतने का उत्साह रखने वाले दुर्योधन और भीमसेन हाथ में गदा लिये रंगभूमि में उतरे। उस समय वे एक-एक शिखर वाले दो पर्वतों की भाँति शोभा पा रहे थे। वे दोनों महाबाहु कमर कसकर पुरुषार्थ दिखाने के लिये आमने-सामने डटकर खड़े थे और गर्जना कर रहे थे, मानो दो मतवाले गजराज किसी हथिनी के लिये एक-दूसरे से भिड़ना चाहते और चिग्घाड़ते हों। वे दोनों महाबली योद्धा अपनी-अपनी गदा को दायें-बायें मण्डलाकार घुमाते हुए मदोन्नमत्त हाथियों की भाँति मण्डल के भीतर विचरने लगे। विदुर धृतराष्ट्र को और पाण्डवजननी कुन्ती गान्धारी को उन राजकुमारों की सारी चेष्टाऐं बताती जाती थी। इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में अस्त्रकौशल दर्शनविषयक एक सौ तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
13/11/19, 10:51 pm – Aparna Singh Ayodhya Shastra Gyan: राजेश जी आपने इतनी सुगमता से बताया कि मुझ जैसे सर्वथा अनभिज्ञ को भी सब कुछ सरलता से समझ आ गया..धन्यवाद आपका..
13/11/19, 10:55 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: जी ये तो मैं लिखा हुआ ही लिख रहा हूँ परन्तु धन्यवाद आप लोगों का जो आप लोग हर एक लेख को ध्यान से पढ़ते हैं।
यही इस ग्रुप की सार्थकता है।
13/11/19, 10:57 pm – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: Bahut jyada likha 🤔kitna mushkil kaam kr rahe hai aap sabhi 🙏🙏
13/11/19, 10:59 pm – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: इस के बाद भी ना पड़े तो अभागे ही कह लाएंगे इस ग्रुप के लोग 🙏
13/11/19, 10:59 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: जी थोड़ा बड़ा लेख जरूर था लेकिन एक बार में ही पढ़ने से अच्छी तरह समझ में आ सकता था इसीलिए पूरा लिखना पड़ा।
13/11/19, 11:00 pm – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: बहुत बहुत धन्यवाद 🙏
13/11/19, 11:06 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-८, श्लोक १,२*अष्टमोध्याय*
अथातो मात्राशितीयमध्यायं व्याख्यास्यामः।
इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः।
अब हम यहां से मात्राशितीय नामक अध्याय का व्याख्यान करेंगे, जैसा कि इस विषय पर आत्रेय आदि ऋषियों ने कहा था।
उपक्रम- इसके पहले ७/५३ में कहा गया है— “आहारो वर्णितस्तत्र तत्र तत्र च वक्ष्यते”। अतएव इस८वें अध्याय मे उस आहार का किस मात्रा के अनुकूल सेवन करना चाहिए, इस विषय की चर्चा की जा रही है, क्योंकि यहां जो मात्रा शब्द का प्रयोग किया है, इसका अर्थ है सम्यक्योग । यह अशन या आहार सात प्रकार का होता है।—१. संकीर्णाशन, २.विरूद्धाशन, ३.अमात्राशन, ४. अजीर्णाशन, ५. समशन, ६. अध्यशन तथा ७.विषमासन। इनमे दो के उदाहरण आगे इसी अध्याय मे दिये जायेंगे।
संक्षिप्त सन्दर्भ संकेत- च.सू.५, च.सू.२७, च.वि.२, च.चि.१५, च.सि.१२, सु.सू.४६, सु.उ.५६ एवं अ.सं.सू.१० तथा ११ में।
मात्राशी सर्वकालं स्यानमात्रा ह्यग्नेः प्रवर्तिका। मात्रां द्रव्याण्यपेक्षन्ते गुरण्यपि लघुन्यपि॥१॥
गुरुणामर्धसौहित्यं लघुनां नातितृप्तता। मात्राप्रमाणं निर्दिष्टं सुखं यावद्विजीर्यति॥२॥
आहारमात्रा का वर्णन- मनुष्य को सदा मात्रा के अनुसार आहार(भोजन) करना चाहिए, क्योंकि उचित मात्रा मे किया गया भोजन जठराग्नि को प्रदिप्त करता है। मात्रा का निर्धारण गुरु तथा लघु द्रव्यो को देखकर करना चाहिए, जैसा आगे कहा जायेगा।
वक्तव्य- मात्रा का विचार च.सू. ५/४ में संक्षेप से नपे तुले शब्दो में किया गया है। इसके आगे च.वि. २/३ में कुछ विशेष ढंग से इसे कहा है— ‘आहार करते समय पुरुष को आमाशय की खाली जगह को तीन भागों में इस प्रकार बांट देना चाहिए। यथा- एक भाग ठोस आहार-द्रव्यो के लिए,एक भाग द्रव द्रव्यों के लिए और एक भाग आत, पित्त तथा कफ के लिए रखें। वाग्भट ने इस विषय को प्रकारान्तर से आगे कहा है— ‘अन्नैन कुक्षेर्द्वावंशौ पानेनैकं प्रपूरयेत्। आश्रयं पवनादीनां चतुर्थमवशेषयेत्’। (अ.हृ.सू. ८/४६) अर्थात भोजन करते समय आमाशय के दो भागों को रोटी, दाल, भात आदि से भर ले तीसरे भाग को भर ले और शेष चौथे भाग को वात-पित्त-कफ की क्रिया के लिये सुरक्षित करें। इसके पहले भी श्रीवाग्भट ने मात्रा का विचार करते हुए कहा है— ‘मात्रा°°°°चहारराशिः’। (अ.सं.सू. १०/९) अर्थात मात्रा वह है जो आहार के सभी पदार्थों के परिमाण से तथा प्रत्येक द्रव्य के गुरु लघु आदि गुणों के समुदाय
से ‘आहारराशि’ कही जाती है।
मात्रा में गुरु लघु विचार- गुरु भोजन-पदार्थों को आधी तृप्ति हो जाने पर खाना छोड़ दें और लघु भोजन-पदार्थों को अधिक तृप्त होने तक न खायें। वास्तव में भोजन की उचित मात्रा वही है जो सुखपूर्वक पच जाये।
13/11/19, 11:34 pm – +91 : Adbhut…!!
Explained with very good details.
14/11/19, 5:38 am – +91 : अयत्नादापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं
दशास्यो यद् बाहूनभृत रणकण्डूपरवशान्।
शिरः पद्मश्रेणीरचितचरणाम्भोरुहबलेः
स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम्।।
हे त्रिपुरारि!
दशमुख रावण ने तीनों भुवनों का निष्कंटक राज्य बिना प्रयत्न ( अनायास) प्राप्त कर जो अपनी भुजाओं की युद्ध करने की खुजलाहट न मिटा सका(प्रतिभट से युद्ध करने की इच्छा पूर्ण न कर सका; क्योंकि कोई प्रतिभट मिला ही नहीं),
यह आपके चरण कमलों में अपने दस सिर रूपी कमलों की बलि प्रदान करने में प्रवृत्त आप में अविचल भक्ति का ही प्रभाव है।।11।।
14/11/19, 5:55 am – LE Onkar A-608: सुगम, सुबोध, सुग्राह्य बतकही।
होइहैं विज्ञ, अज्ञ जो अबही।
14/11/19, 7:41 am – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: ।।पंचतंत्र।।
कथामुख
इसी सम्बन्ध में आचार्य विष्णु शर्मा का कथन है—
वरं गर्भस्रावो वरमृतुषु नैवाभिगमनं वरं जातप्रेतो वरमपि च कन्यैव जनिता।
वरं वन्ध्या भार्य्या वरमपि च गर्भेषु वसति-र्न चाविद्वान् रूपद्रविणगुणयुक्तोऽपि तनयः ।।
निम्नलिखित छह दुःखद स्थितियों की अपेक्षा मूर्ख पुत्र का उत्पन्न होना सर्वाधिक दुःखदायक होता है—
प्रथम—गर्भ का न ठहरना अथवा समय से पूर्व नष्ट हो जाना,
द्वितीय—पत्नी के गर्भधारण योग्य होने पर भी पुरुष द्वारा उसमें गर्भ-स्थापन न करना,
तृतीय—बालक का गर्भ में ही मर जाना अथवा मृत बालक का जन्म लेना,
चतुर्थ—पुत्र की अपेक्षा पुत्री का जन्म लेना,
पञ्चम—पत्नी का बांझ होना तथा
षष्ठ—उपयुक्त समय पर भी बालक का गर्भ से बाहर न आ पाना अथवा उसके स्थान पर मांस के लोथड़े का बाहर आना।
उपर्युक्त सभी स्थितियां गहन दुःखदायक हैं, परन्तु हृष्ट-पुष्ट बालक के उत्पन्न होने पर भी उसका मूर्ख निकलना सर्वाधिक दुःखदायक होता है; क्योंकि ऐसा व्यक्ति सदा उपेक्षा का पात्र बना रहता है। जिस प्रकार दूध न देने वाली गाय सर्वथा निरर्थक और उपेक्षित हो जाती है, उसी प्रकार अशिक्षित सन्तान के जन्म लेने का भी कोई लाभ नहीं होता, अपितु ऐसे पुत्र का होना, उसके न होने से कहीं अधिक कष्टदायक होता है। इसीलिए मूर्ख पुत्र के जीवन की अपेक्षा उसकी मृत्यु की कामना की जाती है।
14/11/19, 8:24 am – Abhinandan Sharma: क्या मजा आ रहा है, बहुत सुंदर । एक सुभाषित पढा था कहीं, जिसमें लिखा था कि जो विद्वान होते हैं उनका समय शास्त्रों की चर्चा और अध्ययन, अध्यापन में जाता है जबकि मूर्ख अपना समय लड़कर अथवा सोकर व्यतीत करते हैं । इस ग्रुप को देखकर लगता है कि इस ग्रुप में सभी विद्वान हैं और जिनको लगता है कि वो नहीं हैं, वो भी चिंता न करें क्योंकि उनके लक्षण विद्वानों वाले ही हैं अतः समय के साथ और इतना अध्ययन के साथ वो भी विद्वान हो जाएंगे । सभी कोशिश करें कि इन सभी मे से, नोट्स की एक अलग कॉपी अवश्य बनायें अन्यथा मात्र एक बार पढ़कर लाभ नहीं होगा । महत्वपूर्ण चीजों के नोट्स अवश्य बना लें 🙏
14/11/19, 8:27 am – +91: काव्य शास्त्र विनोदेन
कालो गच्छति धीमताम्।
व्यसनेन हि मूर्खानां
निद्रया कलहेन वा।।
14/11/19, 8:27 am – Abhinandan Sharma: 👏 जी यही ।
14/11/19, 8:35 am – Abhinandan Sharma: बहुत मेहनत की है आपने । आप यदि टुकड़ों में लिखेंगे तो आसानी होगी यथा भचक्र के बारे में एक बार और ग्रह/नक्षत्रादि के बारे में अगली बार । थोड़ा आराम भी किया कीजिये 👌
14/11/19, 8:39 am – Abhinandan Sharma: इसमें तीसरे भाग को कैसे भरें वो स्पष्ट नहीँ है, शायद छूट गया है, कृपया पुनरअवलोकन करके ठीक करने का कष्ट करें
14/11/19, 8:40 am – Abhinandan Sharma: 👏👏
14/11/19, 8:51 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: This message was deleted
14/11/19, 8:52 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: क्या नक्षत्र भी चलायमान रहते हैं या स्थिर रहते हैं?
यदि राहु केतु वे बिन्दु हैं जहां पृथ्वी और चंद्रमा का परिक्रमा मार्ग एक दूसरे को काटता है तो इस तरह तो हर महीने राहु-केतु की स्थिति होनी चाहिए क्योंकि चन्द्रमा 27 दिन में परिक्रमा पूरी करता है । क्या ऐसा ही है?
14/11/19, 8:56 am – Ashu Bhaiya: ‘न क्षरति (चलति) इति नक्षत्र’
14/11/19, 8:57 am – Ashu Bhaiya: चलते हैं पर इतनी कम वेग से कि व्यावहारिक रूप से स्थिर माने जा सकते हैं |
14/11/19, 9:00 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: इसका अर्थ नक्षत्र हमारे सौरमण्डल से बहुत अधिक दूर होंगे क्योंकि तभी ऐसी स्थिति संभव है !!
14/11/19, 9:00 am – Ashu Bhaiya: बिलकुल सही, नक्षत्र वास्तव में तारा-मण्डल हैं
14/11/19, 9:01 am – Ashu Bhaiya: ग्रहों कि तरह 1-तारा नहीं
14/11/19, 9:03 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙏🏼🙏🏼
14/11/19, 11:52 am – Shastra Gyan Suresh Jhajjar: अति उत्तम जी । छाया ग्रह का शास्त्र ज्ञान की कक्षा में भी देखा था लेकिन आवाज साफ न होने से स्पष्ट समझ नहीं हुआ था । अब समझ आया ।🙏🚩
14/11/19, 2:53 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: #श्री गणेशाय नमः#
सुगम ज्योतिष प्रवेशिका
प्रथम भाग – जातक विचार
दूसरा प्रकरण
काल – परिचय
सभी देशों में अनादिकाल से समय को व्यक्त करने का कोई ना कोई क्रम चला आया है। भारतीय पद्धति निम्नलिखित है।
३ लव का १ निमेष
३ निमेष का १ क्षण
५ क्षण की १ काष्ठा
१५ काष्ठा का १ लघु
१५ लघु की १ घड़ी*
२ घड़ी का १ मुहूर्त
६० घड़ी का १ दिन-रात
७ दिन-रात का १ सप्ताह
- नोटः- १ घड़ी=२४ मिनट। इस आधार पर ये ज्ञात कर सकते हैं कि भारतीय पद्धति कितनी सूक्ष्म है।
14/11/19, 4:45 pm – Abhinandan Sharma:
14/11/19, 4:46 pm – Abhinandan Sharma: कल “जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी, सोनीपत” में “Leadership in Ancient Literature” विषय पर MBA के स्टूडेंट्स को लेक्चर के लिए invite किया गया 👆 | इस संबोधन में, रामायण, महाभारत से, बिजनेस के कुछ शाश्वत नियम और लीडरशिप के मुख्य तत्वों की बात की गयी और पुराने जमाने में, लोग बिना डिग्री के कैसे बिजनेस के मूलभूत सिद्धांतो को समझते थे, वो बताया गया |
रामायण से, दशरथ और कैकयी के दोनों वरदानो के सन्दर्भ में, बताया गया कि अपने शब्दों पर, अपने प्रोमिस को पूरा करना बिजनेस में कितना इम्पोर्टेन्ट होता है | यदि आप बिजनेस में अपने वेंडर्अ के साथ अपना वायदा पूरा करते हैं, तो वेंडर्स आपका भरोसा करते हैं | जब आपको जितने रिसोर्स/रॉ मेटेरिअल की आवश्यकता होगी, वो आपके साथ खड़े मिलेंगे, बशर्ते आप अपनी जुबान की कीमत समझते हों | पुराने जमाने में सारा बिजनेस ही जुबान पर होता था और जुबान की कीमत होती थी, आज नहीं है, इसीलिए आज कॉन्ट्रैक्ट्स किये जाते हैं क्योंकि आदमी अपनी जुबान से फिर जाता है | किसी कंपनी की रेपुटेशन, डिपेंड करती है, कि वो अपने कमिटमेंट कितने पूरे करती है | यदि कंपनी अपने किये हुए वायदों पर खरी नहीं उतरती तो रेपुटेशन खत्म होना तय है और जिस कंपनी की रेपुटेशन नहीं होती, वो कंपनी नहीं चल सकती |
इसके आगे, बच्चों को महाभारत से, युधिष्ठिर के जुए में हारने की कथा सुनाई गयी कि कैसे द्रौपदी और भीम ने युधिष्ठिर को खरी खोटी सुनाई और युधिष्ठिर वन में अकेले चले गए और वहां एक साधु ने डिप्रेस युध्ष्ठिर को मोटिवेशन दिया | जब युधिष्ठिर ने खुद को बेचारा और अपनी बुरी स्थिति बखानी तो साधु ने रामचंद्र जी का उदाहरण दिया कि तुम्हारे पास ४ भाई तो हैं, रामचंद्र जी के पास तो एक ही भाई था ! तुम्हारे पास तुम्हारी पत्नी तो है, रामचंद्र जी की तो पत्नी को ही रावण उठाकर ले गया था ! सो तुम्हारी स्थिति अभी जैसी भी है, वो ठीक है, वरना ये और बुरी भी हो सकती थी | युधिष्ठिर जब नहीं माने तो साधु ने नल-दमयंती की कथा युधिष्ठिर को सुनाई |
कैसे नल-दमयंती का विवाह हुआ | स्वयंवर में जब इंद्र, अग्नि, जल, यम आदि नल का ही रूप बना कर आये तो दमयंती ने कैसे असली नल को पहचाना | कैसे सभी ने, नल को वरदान दिए | नल का भाई से जुए में सब कुछ हारना | वन में केवल धोती पहन कर जाना | वन में कुछ पक्षियों को देखकर उनको पकड़ने का विचार आना और अपनी एकमात्र धोती को उन पर फेंकना | पक्षियों का धोती को लेकर उड़ जाना | नल का लज्जित होकर पत्नी की साडी से स्वयं को ढकना | लज्जावश दमयंती को छोड़ कर जाना | दमयंती का अपने पिता के पास पहुचना | नल का कर्कोटक (शेषनाग का भाई) नाग को, जन्मेजय के नागयज्ञ में जलने से बचाना | कर्कोटक द्वारा नल को काटना और नल का विष के प्रभाव से काला होना | कर्कोटक का ठीक करने का उपाय बताना और एक राजा के पास नौकरी के लिए भेजना |
नल का सारथि की नौकरी करना | दमयंती को संदेह होना कि फलाने राज्य के राजा के पास नया सारथि नल ही है | ये चेक करने के लिए, दुबारा स्वयंवर का स्वांग रचाना और राजा को खबर भेजना कि कल सुबह तक ही आना है | राजा का दुखी होना, नल का आश्वस्त करना और हवा के वेग से रथ को चलाना | राजा का प्रसन्न होना और नल को द्यूत विद्या में और गणित में निपुण करने का आश्वासन | अगले दिन सुबह पहुचना | दमयंती का पुनः नल की परीक्षा लेना और पूरे घर के लिए खाना बनाने को कहना और सारी लकड़ियाँ और जल छुपा देना | नल द्वारा भोजन की व्यवस्था करना, दमयंती द्वारा पहचाना जाना | दोनों का मिलना | राजा द्वारा द्यूत विद्या की शिक्षा देना | नल द्वारा भाई से पुनः जुआ खेलने को बुलाना और जीतना | पुनः अपना राज्य ग्रहण करना |
इस कथा को कहने के बाद साधु का युधिष्ठिर को कहना कि तुम्हारे पास कम से कम धोती तो है, नल के पास तो धोती तक नहीं थी | तुम्हारे साथ अभी बहुत कुछ सही है | तुम धर्म को जानते हो, जाओ, अपने परिवार वालों को धर्म के बारे में अवगत कराओ कि धर्म क्या होता है |
युधिष्ठिर का वापिस जाना और भाइयों को धर्म का मर्म समझाना और धर्म के लक्षणों की व्याख्या करना | बच्चो को धर्म के लक्षणों से, बिजनेस में कैसे काम करना चाहिए और किन बातों का ख्याल रखना चाहिए, इसके बारे में बताना | संबोधन में निम्न बातों पर ख़ास चर्चा हुई –
१. अपने अच्छे समय में, बिजनेस के अच्छे समय में, दूसरों की मदद करते रहना, जैसे नल ने कर्कोटक की सहायता की, जिसके बदले में कर्कोटक ने, नल की सहायता की |
२. सीसीडी के MD द्वारा सुसाइड और माल्या के भाग जाने के सन्दर्भ में, धैर्य को समझाना (धर्म का लक्षण) | बिजनेस में लीडर को धैर्य रखना पड़ता है, युधिष्ठिर ने 14 वर्ष तक धैर्य रखा | बदला लिया, किन्तु सही समय आने पर |
- अक्रोध (धर्म का लक्षण) की विशेषता और धी (धर्म का लक्षण) के प्रयोग से, अपने बुरे समय को काटना |
४. अक्रोध को क्षमा (धर्म का लक्षण) से काटना | इसकी बिजनेस में उपयोगिता |
- नल द्वारा इंद्र की सहायता न करने से, मित्रता में भी, कभी बिजनेस की इनर डिटेल्स किसी से शेयर न करना |
६. राजा द्वारा जुआ खेलने की विद्या को सिखाने के सन्दर्भ में, ज्ञान कैसे मिलता है ये बताना और give और take का प्रिंसिपल बताना |
७. दशरथ के सन्दर्भ में अपने प्रोमिस की महत्ता बताना क्योंकि आपका वेंडर यदि आपके खराब समय में आपके साथ है, तो आपका कोई ख़राब समय नहीं है | यदि आप वेंडर से वादा निभायेंगे तो वो बुरे वक्त में, बिना ब्याज के माल देगा, भरोसे में ! लेकिन यदि ऐसा नहीं कर पाओगे तो बुरे वक्त में सबसे पहले आपके वेंडर आपको छोड़ देंगे और आपको लोन ले कर मेटेरिअल लेना पड़ेगा |
इसके आलावा विभिन प्रश्नों पर चर्चा भी हुई | यदि आपके आस पास कोई कॉलेज है, जिसमें इस प्रकार की कक्षा की कोई आवश्यकता है तो अवश्य अवगत कराएं |
14/11/19, 5:19 pm – Shastr Gyan Pranav Dvivedi Lucknow: अरे वाह। इसपर तो पूरी किताब लिखी जा सकती है।
अघोरी बाबा की गीता के बाद अगली किताब ‘Corporate leadership lessons from ancient indian literature’ विषय पर किताब?
14/11/19, 5:59 pm – Abhinandan Sharma: जी, कल मैंने भी इस विषय पर विचार किया था | ऐसा सोचा जा सकता है किन्तु अघोरी बाबा की गीता, इतनी बड़ी है कि पता नहीं, इसका नम्बर कब आएगा ! अभी अघोरी बाबा की गीता, भाग 3 पर काम चल रहा है और उसके कम से कम 5 भाग आयेंगे, ऐसा लगता है | तब तक के लिए, इसे पोस्टपोंड ही करना पड़ेगा |
14/11/19, 6:06 pm – Lokesh Bharti Udaypur FB: एवं रणनीतिक एप्रोच भी।
14/11/19, 10:18 pm – Abhinandan Sharma: भारतीय पद्धति कितनी सूक्ष्म है, ये घड़ी के मान से पता नहीं चलेगा । अब नीचे का उदाहरण देखिये, सूक्ष्मता के लिए –
1 घड़ी = 24 मिनट = 15 लघु
1 लघु = 24/15 = 1.6 मिनट = 15 काष्ठा = 96 सेकण्ड्स
यहीं से बनी है लघुशंका
1 काष्ठा = 96/15 = 6.4 सेकण्ड्स = 5 क्षण
1 क्षण = 6.4/5 = 1.28 सेकण्ड्स = 3 निमेष
यहीं से कथाओं में कहा जाता था कि नायक ने बिना कोई क्षण गंवाए, आक्रमण किया अथवा क्षणिक सुख है अथवा क्षणभंगुर जीवन है आदि ।
1 निमेष = 1.28/3 = 0.42 सेकण्ड्स = 3 लव
ये निमेष नाम के देव हैं, जो आंखों में रहते हैं, जिनकी वजह से, आंखें झपकती हैं । पलक झपकने के समय को 1 निमेष कहा जाता है ।
1 लव = 0.42/3 = 0.14 सेकण्ड्स
इतनी सूक्ष्म समय की गणना तो हमारे ऋषियों ने, बिना यंत्रों के कर ली थी । आशा है, अब समय की सूक्ष्म गणना का कुछ अंदाज हुआ होगा 😌
14/11/19, 10:20 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: 🙏🙏🙏
14/11/19, 10:22 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: *रामायण बालकाण्ड – पंचदश सर्ग, श्लोक ११,१२,१३,१४
सुमहन्नो भयं तस्माद्राक्षसाद्घोरदर्शनात्। वधार्थ तस्य भगवन्नुपायं कर्तुमर्हसि॥११॥
उस भयानक राक्षस को देखने ही से हमें बड़ा डर लगता है। अतः हे भगवन्! उसके वध के लिए कोई उपाय कीजिए।
एवमुक्तः सुरैः सर्वैश्चिन्तयित्वा ततोऽब्रवीत्। हन्तायं विहितस्तस्य वधोपायो दुरात्मनः॥१२॥
उन सब देवताओं के ये वचन सुन, ब्रह्मा जी कुछ सोच कर बोले— मैंने उस दुरात्मा के मारने का उपाय सोच लिया है।
तेन गन्धर्वयक्षाणां देवदानवरक्षसाम्। अवध्योस्मीति वागुक्ता तथेत्युक्तं च तन्मया॥१३॥
रावण के वर मांगने पर हमने उसे गन्धर्व, यक्ष, देवता, दानव और राक्षसों द्वारा अवध्य होने का वरदान तो अवश्य दे दिया है।
ताकीर्तयदवज्ञानात्तद्रक्षो मानुपांस्तदा। तस्मात्स मानुपाद्वध्यो मृत्युर्नान्योऽस्य विद्यते॥१४॥
किन्तु उसने मनुष्यों को कुछ भी न समझ वरदान में मनुष्यों का नाम नहीं लिया था। अतः वह सिवाय मनुष्य के और किसी के द्वारा नहीं मारा जा सकता।
एतच्छु त्वा प्रियं वाक्यं ब्रह्मणा समुदाहृतम्। देवा महर्षयः सर्वे प्रहृष्टास्तेऽभवंस्तदा॥१५॥
ब्रह्मा जी का यह प्रिय वचन सुन, सब देवता महर्षि आदि बहुत प्रसन्न हुए।
14/11/19, 10:23 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-८ श्लोक ३,४,५
भोजनं हीनमात्रं तु न बलौपचयौजसे। सर्वेषां वातरोगाणां हेतुतां च प्रपद्यते॥३॥
हीन मात्रा वाले आहार से हानि- हीन(कम) मात्र वाला भोजन, बल शरीरपुष्टि तथा ओजस् को नहीं बढ़ाता है और इस प्रकार का भोजन सभी प्रकार की वातव्याधियों की उत्पत्ति का कारण होता है।
अतिमात्रं पुननः सर्वनाशु दोषान् प्रकोपयेत्। पीड्यमाना हि वाताद्या युगपत्तेन कोपिताः॥४॥
अमेनान्नेन दुष्टेन तदेवाविश्य कुर्वते। विष्टम्भयन्तोऽलसकं च्यावयन्तो विसूचिकाम्॥५॥
अधरोत्तरमार्गाभ्यां सहसैवाजितात्मनः।
अधिक मात्रा वाले आहार से हानि- मात्रा से अधिक किया गया आहार वात आदि सभी प्रकार के दोषों को शीघ्र ही प्रकुपित कर देता है।
विसूचिका का वर्णन- ऊपर कहे गये अतिमात्रा वाले आहार का सेवन कर लेने से पीड़ित वात आदि दोष उस आम (न पचे हुए) तथा दूषित आहार से एक साथ कुपित होकर एवं उसी आहार में मिल कर आमाशय की गति को रोककर ‘अलसक’ नामक रोग को पैदा कर देते हैं। उस अजितात्मा पुरुष के ऊपर तथा नीचे के मार्ग से अर्थात मुख एवं गुदा मार्ग से क्रमशः वमन तथा अतिसार के रूप में आहार पदार्थ को निकालते हुए विसूचिका नामक रोग को पैदा कर देते हैं।
15/11/19, 1:30 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 2 श्लोक 41
श्रुतं अप्यधिगम्य ये रिपून्विनयन्ते स्म न शरीरजन्मनः ।
जनयन्त्यचिराय सम्पदां अयशस्ते खलु चापलाश्रयं ।। २.४१ ।।
वियोगिनी
अर्थ: हे भीमसेन ! नीति आदि शास्त्रों का ज्ञान उपार्जित कर लेने पर यदि जो लोग शरीरज काम-क्रोधादि षडरिपुओं को अपने अधीन नहीं करते हैं तो सचमुच वे शीघ्र ही अपनी मूर्खता के कारण सम्पत्ति विनाशजन्य अपयश के पात्र बन जाते हैं ।
काम-क्रोधादि शत्रुओं से परास्त पुरुषों को वे नीति आदि शास्त्र पढ़े हुए होने पर भी लक्ष्मी उनका परित्याग कर देती है । लक्ष्मी द्वारा परित्यक्त होने पर वे निन्दा के पात्र बन जाते हैं ।
नीति आदि शास्त्रों का ज्ञान उपार्जित करने का फल शरीरज षडरिपुओं को जीतकर स्वाधीन कर लेना है, यदि कोई पुरुष नीति आदि शास्त्रों में पारङ्गत होकर भी यदि अपने शरीरज षडरिपुओं को स्वाधीन नहीं करता है तो उसका शास्त्रीय ज्ञान व्यर्थ है । वह शास्त्रीय ज्ञान होने पर भी मूर्ख ही है । यही मूर्खता व्यवहार में चपलता(प्रमाद) उत्पन्न करती है । व्यवहार में प्रमाद उत्पन्न होने पर लक्ष्मी उस पुरुष को त्याग देती है । लक्ष्मी व्यावहारिक दक्षता में अनुरक्त होती है, कोरे शास्त्र ज्ञान में नहीं । लक्ष्मी द्वारा परित्यक्त होने पर वह पुरुष शास्त्रीय ज्ञान होने पर भी निन्दनीय बन जाता है ।
वाक्यार्थ हेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार
15/11/19, 1:33 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: *षडरिपु -> काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य
15/11/19, 7:23 am – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: *।।पंचतंत्र।।*
कथामुख
अपने दुःख को अपने मन में दबाते हुए महाराज अमरसिंह बोले—
गुणिगणगणनारम्भे न पतति कठिनी ससम्भ्रमाद् यस्य।
तेनाम्बा यदि सुतिनी वद बन्ध्या कीदृशी भवति।।
आचार्य विष्णु शर्मा के अनुसार मूर्ख पुत्र को जन्म देने वाली स्त्री की स्थिति तो बन्ध्या से भी निकृष्ट होती है। कुछ देर के उपरान्त राजा अमरसिंह ने अपने मन्त्रियों से पूछा—क्या मेरे तीनों अयोग्य पुत्र गुणवान नहीं बन सकते? क्या मेरे राज्य में कोई भी ऐसा समर्थ ब्राह्मण नहीं, जो मेरे बेटों को शिक्षित बना सके? यह सुनकर एक मन्त्री बोला—महाराज! ज्ञान तो अनन्त और असीम है, परन्तु उसे सीखने के लिए समय की अपेक्षा होती है। देखिये न, व्याकरण के शिक्षण के लिए बारह वर्षों की अवधि अपेक्षित कही जाती है। इसके अतिरिक्त मनुस्मृति-जैसे धर्मशास्त्र के ग्रन्थों, चाणक्य नीति-जैसे अर्थशास्त्र के ग्रन्थों तथा वात्स्यायन आदि द्वारा प्रणीत कामशास्त्र सम्बन्धी ग्रन्थों की जानकारी के लिए समय तो चाहिए ही।
राजा को उदास, हताश एवं व्यथित देखकर सुमति नामक मन्त्री बोला—महाराज! मैं अपने साथी के मन्तव्य का खण्डन तो नहीं करता; क्योंकि यह सत्य है कि शास्त्र अनन्त एवं असीम हैं और इनकी जानकारी के लिए बहुत अधिक समय चाहिए, किन्तु आपके बालकों को योग्य बनाने के लिए कोई सरल उपाय ढूंढ़ना पड़ेगा। महाराज! हमारे राज्य में विष्णु शर्मा नामक एक विद्वान् ब्राह्मण हैं, जो सम्पूर्ण विद्याओं और शास्त्रों के ज्ञाता हैं। यदि आप आचार्य विष्णु शर्मा को सहमत कर सकें और अपने पुत्र उन्हें सौंप दें, तो वह निश्चित ही आपके पुत्रों को विद्वान् बनाकर आपको चिन्तामुक्त कर सकते हैं।
राजा अमरसिंह को अपने मन्त्री सुमति की बात डूबते को तिनके के सहारे के समान लगी और उन्होंने तुरन्त ही आचार्य विष्णु शर्मा को ससम्मान बुला लाने का सन्देश दिया। आचार्य विष्णु शर्मा के आने पर राजा ने उनका स्वागत-सत्कार किया और फिर विनम्र एवं मधुर स्वर में उनसे निवेदन किया—आदरणीय महोदय! यदि आप मेरे इन तीन मूर्ख पुत्रों को शिक्षित बनाने की कृपा करें, तो मैं पुरस्कार के रूप में आपको सौ ग्रामों का अधिकार सौंप दूंगा।
प्रत्युत्तर में आचार्य विष्णु शर्मा ने कहा—
राजन्! आप मुझे किसी प्रकार का प्रलोभन देने की चेष्टा न करें। मेरे जीवन में भोग-विलास के लिए कोई स्थान नहीं रह गया है और मैं अपनी विद्या को बेचने के लिए यहां नहीं आया हूं।
हां, आपके दुःख से दुःखी होकर आपकी प्रार्थना को स्वीकार करता हूं। मैं आपकी सभा में आपके तीनों बेटों को छह महीनों में ही कुशल राजनीतिज्ञ और व्यावाहरिक ज्ञान में सिद्धहस्त बनाने की घोषणा करता हूं और यह प्रतिज्ञा करता हूं कि यदि मैं छह महीनों में अपने उद्देश्य में सफल न हुआ, तो अपना मुंह दिखाने के लिए जीवित नहीं रहूंगा।
इस उद्घोष के उपरान्त आचार्य विष्णु शर्मा ने राजा से कहा—महाराज! अब आप आज के दिन से गिनती आरम्भ कर दीजिये और इस वृद्ध ब्राह्मण को छह मास की अवधि दीजिये। यथासमय परिणाम आपके सामने आ जायेगा। आचार्य विष्णु शर्मा की इस प्रतिज्ञा को असम्भव जानकर भी राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई। सभी उपस्थित लोगों ने अत्यधिक विस्मित होने पर भी वृद्ध ब्राह्मण के वचन का स्वागत किया और राजा को इसके लिए बधाई दी। राजा ने भी आचार्य विष्णु शर्मा के प्रति आभार प्रकट करते हुए उनका यथोचित अभिनन्दन किया और अपने तीनों पुत्र उन्हें सौंप दिये। इससे राजा को चिन्ता से मुक्ति प्राप्त हुई।
15/11/19, 11:27 am – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: #श्री गणेशाय नमः#
सुगम ज्योतिष प्रवेशिका
प्रथम भाग – जातक विचार
दूसरा प्रकरण
काल – परिचय
सप्ताह– यह प्रायः सबको विदित है कि ७ अहोरात्र (दिन-रात) का सप्ताह होता है। सूर्यादि ७ दखरबों के नाम से ७ वार होते हैं। सूर्यवार (रविवार), चन्द्रवार(सोमवार), मंगलवार, बुधवार, वृहस्पतिवार (गुरुवार), शुक्रवार तथा शनिवार। वारों का नाम इसी क्रम में क्यों रखा गया। पंडित गोपेश कुमार ओझा की पुस्तक अंक-विद्या में विस्तार से दिया गया है जो कि निम्न हैं-
ग्रहों में सबसे अधिक दूर शनि है फिर बृहस्पति उसके बाद मंगल फिर सूर्य, उसके बाद शुक्र फिर बुध और सबसे समीप है चन्द्र। इसलिए शनिवार को प्रथम होरा (सूर्य से प्रथम घंटा) शनि का, दूसरा होरा (घंटा) बृहस्पति का, तीसरा मंगल का, चौथा सूर्य का, पाँचवा शुक्र का, छठा बुध का और सातवाँ चन्द्र का होरा होगा। इसी क्रम में ८वें से १४वें तक पुनः शनि, बृहस्पति, मंगल, सूर्य, शुक्र, बुध और चन्द्र। पुनः इसी क्रम में १५वें से २१वें तक इस प्रकार २२वां होरा शनि का २३वां बृहस्पति का २४वां मंगल का २५वां सूर्य का चूँकि दिन में २४ होरा(घंटा) ही होता है तो २५वां होरा अर्थात अगले दिन की शुरूआत (नये दिन का पहला होरा) सूर्य का हुआ, इसीलिए वह दिन भी सूर्यवार (रविवार) होगा अर्थात शनिवार के दूसरे दिन रविवार होगा। इस प्रकार रविवार को सातवाँ, चौदहवाँ और एक्कीसवाँ होरा मंगल का होगा २२वां सूर्य, २३वां शुक्र, २४वां बुध और २५वां चन्द्र का होरा होने से चन्द्रवार (सोमवार) होगा। इसी क्रम में सातों दिनों को रखा गया है।
15/11/19, 11:58 am – +91 : अमुष्य त्वत्सेवासमधिगतसारं भुजवनं
बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः।
अलभ्या पातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठ शिरसि
प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः।।
हे त्रिपुरारि!
आपकी सेवा से रावण की भुजाओं में शक्ति प्राप्त हुई थी।
अभिमान में आ कर वह अपना भुजबल आपके निवास स्थान कैलास के उठाने में भी तौलने लगा,
पर आपने जो पैर के अंगूठेकी नोक से जरा सा कैलास को दबा दिया तो उस रावण की प्रतिष्ठा ( स्थिति) पाताल में भी दुर्लभ हो गयी ।( वह नीचे ही नीचे खिसकता चला गया ।)
प्रायः यह निश्चित है कि नीच व्यक्ति समृद्धि को पा कर मोह में फंस जाता है(कृतघ्न हो जाता है)।।12।।
15/11/19, 12:08 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: दखरबों???
15/11/19, 12:09 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ग्रह??
15/11/19, 12:10 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: निमेष से ही बना निर्निमेष
15/11/19, 12:39 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: कृपया दखरबों की जगह ग्रहों पढ़ें।
Typing mistake
क्षमाप्रार्थी हूँ 🙏🙏🙏
15/11/19, 12:47 pm – G B Malik Delhi Shastra Gyan: बहुत ही शानदार व्याख्या👏🏻
15/11/19, 2:41 pm – +91 : चतुस्त्रिंशदधिकशततम (134) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व) महाभारत: आदि पर्व:
चतुस्त्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
भीमसेन, दुर्योधन तथा अर्जुन के द्वारा अस्त्र-कौशल का प्रदर्शन वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! जब कुरुराज दुर्योधन और बलवानों श्रेष्ठ भीमसेन रंगभूमि में उतरकर गदा युद्ध कर रहे थे, उस समय दर्शक जनता उनके प्रति पक्षपातपूर्ण स्नेह करने के कारण मानो दो दलों में बंट गयी थी। कुछ कहते, ‘ अहो! वीर कुरुराज कैसा अद्भुत पराक्रम दिखा रहे हैं।’ दूसरे बोल उठते, ‘वाह! भीमसेन तो गजब का हाथ मारते हैं।’ इस तरह की बातें करने वाले लोगों की भारी आवाजें वहाँ सहसा सब ओर गूंजने लगीं। फिर तो सारी रंगभूमि में क्षुब्ध महासागर के समान हल-चल मच गयी। यह देख बुद्धिमान् द्रोणाचार्य ने अपने प्रिय पुत्र अश्वत्थामा से कहा।
द्रोण बोले- वत्स! ये दोनों महापराक्रमी वीर अस्त्र-विद्या में अत्यन्त अभ्यस्त हैं। तुम इन दोनों को युद्ध से रोको, जिससे भीमसेन और दुर्योधन को लेकर रंगभूमि में सब ओर क्रोध न फैल जाय। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर अश्वत्थामा ने बड़े वेग से उठकर भीमसेन और दुर्योधन को रोकते हुए कहा- ‘भीम! तुम्हारे गुरु की आज्ञा है, गान्धारीनन्दन! तुम्हारे आचार्य का आदेश है, तुम दोनों का युद्ध बंद होना चाहिये। तुम दानों ही योग्य हो, तुम्हारा एक-दूसरे के प्रति वेगपूर्वक आक्रमण अवांछनीय है। तुम दोनों का यह दु:साहस अनुचित है। अत: इसे बंद करो।’
इस प्रकार कहकर प्रलयकालीन वायु से विक्षुप्त उत्ताल तरंगों वाले दो समुद्रों की भाँति गदा उठाये हुए दुर्योधन और भीमसेन को गुरु पुत्र अश्वत्थामा ने युद्ध से रोक दिया। तत्पश्चात् द्रोणाचार्य ने महान् मेघों के समान कोलाहल करने वाले बाजों को बंद करवाकर रंगभूमि में उपस्थित हो यह बात कही- ‘दर्शकगण! जो मुझे पुत्र से भी अधिक प्रिय है, जिसने सम्पूर्ण शस्त्रों में निपुणता प्राप्त की है तथा जो भगवान् नारायण के समान पराक्रमी है, उस इन्द्रकुमार कुन्तीपुत्र अर्जुन का कौशल आप लोग देखें’। तदनन्तर आचार्य के कहने से स्वस्तिवाचन कराकर तरुणवीर अर्जुन गोह के चमड़े के बने हुए हाथ के दस्ताने पहने, बाणों से भरा तरकस लिये धनुष सहित रंगभूमि में दिखायी दिये। वे श्याम शरीर पर सोने का कवच धारण किये ऐसे सुशोभित हो रहे थे, मानो सूर्य, इन्द्रधनुष, विद्युत और संध्याकाल से युक्त मेघ शोभा पाता हो।
फिर तो समूचे रंगमण्डप में हर्षोल्लास छा गया। सब ओर भाँति-भाँति के बाजे और शंख बजने लगे। ‘ये कुन्ती के तेजस्वी पुत्र हैं। ये ही पाण्डु के मझले बेटे हैं। ये देवराज इन्द्र की संतान हैं। ये ही कुरुवंश के रक्षक हैं। अस्त्र-विद्या के विद्वानों में ये सबसे उत्तम हैं। ये धर्मात्मओं और शीलवानों में श्रेष्ठ हैं। शील और ज्ञान की तो ये सर्वोत्तम निधि हैं।’ उस समय दर्शकों से मुख से तुमुल ध्वनि के साथ निकली हुई ये बातें सुनकर कुन्ती के स्तनों से दूध और नेत्रों से स्नेह के आंसू बहने लगे। उन दुग्ध मिश्रित आंसुओं से कुन्तीदेवी का वक्ष:स्थल भीग गया। वह महान् कोलाहल धृतराष्ट्र के कानों में भी गूंज उठा तब नरश्रेष्ठ धृतराष्ट्र प्रसन्नचित्त होकर विदुर से पूछने लगे- ‘विदुर! विक्षुब्ध महासागर के समान यह कैसा महान् कोलाहल हो रहा है? यह शब्द मानो आकाश को विदीर्ण करता हुआ रंगभूमि में सहसा व्यक्त हो उठा है।
15/11/19, 2:51 pm – Abhinandan Sharma: वाह, बहुत बढ़िया |
15/11/19, 2:53 pm – Abhinandan Sharma: पिछली पोस्ट को, नयी पोस्ट से टैग अवश्य किया करें, ताकि जिस, पुराना सन्दर्भ देखना हो, वो देख सके |
15/11/19, 3:05 pm – Abhinandan Sharma: ये कितनो को समझ आया ? अगर नहीं आया तो पूछा क्यों नहीं ?
15/11/19, 3:06 pm – Abhinandan Sharma: नोट करें – श्याम शरीर वाला अर्जुन ! जबकि नाटकों में अर्जुन को कैसा दिखाते हैं ? गोरा, चिट्टा ! जानते हैं पांडवों में सबसे सुंदर कौन था ?
15/11/19, 3:10 pm – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: क्षमाप्रार्थी हुं। अगली पोस्ट से गलती का पुनरावर्तन नही होगा।
15/11/19, 3:10 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: नकुल !!
15/11/19, 3:13 pm – Abhinandan Sharma: 👏👏
15/11/19, 3:33 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: अभी पढ़ा।
भाग्यवश यह पहले school time में पढ़ा था तो समझ आ गया । यहां एक बात जो साफ तरह से नही कही गयी, वो यह कि हर दिन की पहली होरा जिस ग्रह की होती है उसी के नाम से दिन का नाम होता है जैसे शनिवार के 24 होरा के बाद 25वी होरा सूर्य की होती है तो अगला दिन सूर्यवार होता है । होराक्रम याद नही था सो यहां पढ़कर जान लिया।
15/11/19, 3:51 pm – Abhinandan Sharma: यदि समझ आ गया तो बताइये मंगल के बाद सूर्य कैसे ?
15/11/19, 3:55 pm – LE Ravi Parik : Nahi aaya samajh😂
15/11/19, 3:57 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: पृथ्वी से दूरी के आधार पर
15/11/19, 3:58 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: पृथ्वी से मंगल की दूरी, पृथ्वी से सूर्य की दूरी से अधिक है।
15/11/19, 3:59 pm – Abhinandan Sharma: क्या पृथ्वी से सूर्य की दूरी, शुक्र से पृथ्वी की दूरी से कम है ? गूगल करें और बतायें ।
15/11/19, 4:12 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi:
15/11/19, 4:12 pm – Abhinandan Sharma: प्रश्न का स्पष्ट उत्तर दें, ज्यादा है या कम है । कितनी ज्यादा या कितनी कम है ।
15/11/19, 4:13 pm – Abhinandan Sharma: सूर्य की दूरी फोटो में नहीं है ।
15/11/19, 4:13 pm – Abhinandan Sharma: और वैसे भी ये दूरी का माना हुआ मानक है, रेश्यो है, एक्चुअल नहीं है ।
15/11/19, 4:15 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: अभी तो लिख ही रह था 😊
Murcury – बुध
Venus – शुक्र
यह जो दूरी दी गईं हैं वे सूर्य से पृथ्वी के बीच की दूरी को 1 मानकर दी हैं।
इस तरह बुध और शुक्र 1 से कम हैं यानी सूर्य से पृथ्वी की दूरी शुक्र और बुध दोनों से अधिक है ।
15/11/19, 4:17 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: यह AU(astronomical unit) में है।
1AU = पृथ्वी और सूर्य की औसत दूरी।
15/11/19, 4:21 pm – Abhinandan Sharma: तो शुक्र पास होगा धरती से या सूर्य ?
15/11/19, 4:22 pm – Shastra Gyan Suresh Jhajjar: 👌👌👌 अति उत्तम जी 🙏
नल दमयंती की रागनी के किस्से चलते थे हरियाणा में । कभी सुना नहीं लेकिन आज इसको पढ़कर उत्सुकता जाग उठी है पढ़ने की ।
🙏🚩
15/11/19, 4:25 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: शुक्र पास होगा
15/11/19, 4:27 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: यहां पृथ्वी से दूर से पास के क्रम में ऐसा बताया है
शनि
बृहस्पति
मंगल
सूर्य
शुक्र
बुद्ध
चन्द्र
15/11/19, 4:32 pm – Abhinandan Sharma: यही तो ध्यान देने वली बात थी । सिर्फ पढ़ना नहीं ही, मथना भी है कि मंगल और पृथ्वी के बीच मे सूर्य क्या कर रहा है ! ध्यान से पढिये, तब ही कुछ नया निकाल पाएंगे, जैसे अर्जुन काला था, प्रत्येक वार का नाम कैसे पड़ा आदि ।
15/11/19, 4:32 pm – Abhinandan Sharma: नहीं आया तो शनिवार को चाय पिलाइये तब अच्छे से समझाया जाएगा 😋
15/11/19, 4:45 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: एक और प्रश्न निकल आया।
क्या पहले लोग दाढ़ी मूंछ साफ करते थे या नहीं, क्योंकि आजकल जो tv में दिखाते है उस तरह से तो लगता है कि पाण्डव भी gillette से कम कुछ प्रयोग ही न करते होंगे ।
15/11/19, 4:48 pm – Abhinandan Sharma: Question out of syllabus 🤣 plz ask when such topic start.
15/11/19, 4:51 pm – Abhinandan Sharma: वैसे महाभारत में प्रतिबिम्ब देखने की व्यवस्था थी (धातु में) ऐसा संदर्भ में देख चुका हूँ । यदि प्रतिबिम्ब दिखता था तो साज सज्जा भी होती होगी हालांकि केश (दाढ़ी, मूंछ आदि) कटाने का संदर्भ नहीं मिला भी तक कहीं ! बल्कि बहुत जगह निषेध ही है ।
15/11/19, 4:51 pm – Abhinandan Sharma: कृपया इस प्रकार के प्रश्न बाहर से न पूछें, केवल जो टॉपिक चल रहा हो, उससे संबंधित ही करें 🙏
15/11/19, 4:55 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: यहाँ मेरा मानना है जो मुझे समझ आया वो यह कि पृथ्वी से जो सबसे दूर ग्रह है पहले उस तरफ से गिना गया फिर पृथ्वी के दूसरी तरफ से जो सबसे दूर ग्रह है वहाँ ये गिना गया है।
बाकी आप लोग अपनी राय व्यक्त करें।
15/11/19, 4:58 pm – Shastr Gyan Pranav Dvivedi Lucknow: प्रतिबिम्ब देखने के कारण ही तो द्रोपदी-दुर्योधन विवाद हुआ था।
15/11/19, 5:01 pm – Shastr Gyan Pranav Dvivedi Lucknow: सम्भव नही। परिक्रमा कक्ष में शुक्र तथा वुध पृथ्वी और सूर्य के मध्य आते है।
15/11/19, 5:10 pm – Abhinandan Sharma: दौपदी दुर्योधन में कौन सा विवाद हुआया था भाई ।
15/11/19, 5:16 pm – Rajesh Da left
15/11/19, 5:17 pm – Shastr Gyan Pranav Dvivedi Lucknow: https://youtu.be/pm9sxqZR5kY
15/11/19, 5:18 pm – Shastr Gyan Pranav Dvivedi Lucknow: अभी पढ़ा तो पाया कि महाभारत ग्रन्थ में इसका वर्णन नही है।
क्या ऐसी घटनाओ पर भी सत्यता वाली पोस्ट बना सकते है हम लोग?
15/11/19, 5:33 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙏🏼माफी
वैसे पाण्डवों के रूप की बात हुई थी यही सोचकर पूछ लिया था ।
15/11/19, 5:38 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: इस विषय के मूल लेख में स्पष्ट कहा गया है कि सभी होरा पृथ्वी से ग्रहों की दूरी के क्रम में हैं तो अलग राय होने का प्रश्न ही नही ।
15/11/19, 5:40 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: पृथ्वी से ग्रहों की दूरी एंव क्रमः-
सूर्य – 1.0 AU
शुक्र – 0.61AU
बुध – 0.28 AU
चन्द्र – 0.002569 AU
पृथ्वी – 0.00 AU
मंगल – 0.52 AU
बृहस्पति – 4.20 AU
शनि – 8.58 AU
इस प्रकार से पहले शनि, गुरू, मंगल और फिर सूर्य, शुक्र, बुध और सबसे समीप चन्द्र होने के कारण अन्त में लिया गया।
15/11/19, 5:48 pm – Abhinandan Sharma: जी, इसिलोये वो ग्रुप बनाया है । कृपया अब और विषय से न भटकें । अंधे का बेटा अंधा जैसी कोई बात द्रोपदी ने नहीं कही थी।
15/11/19, 5:50 pm – Abhinandan Sharma: क्या आपको ये सही लगता है कि लेखक ने सूर्य से दूरी को आधार बनाया है ? सिर्फ हाँ या न में उत्तर दें !
15/11/19, 6:11 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: सुदर्शनजी मैंने मूल लेख को पहले पढ़ने के बाद ग्रहों की पृथ्वी से दूरी ही निकाला।
उससे यह निष्कर्ष निकला जो मैंने उपर लिख दिया है बाकी शास्त्रों पर अविश्वास नहीं कर रहा हूँ।🙏🙏🙏
15/11/19, 6:12 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: न
15/11/19, 6:16 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: जो आपने अभी बताया वो पृथ्वी से सभी ग्रहों की दूरी का क्रम है, इसमें पृथ्वी के एक तरफ या दूसरी तरफ जैसा कुछ नहीं है और शायद हो भी नहीं सकता क्योंकि चलायमान होने से सभी ग्रह एक दूसरे के कभी इधर और कभी उधर होते हैं।
15/11/19, 6:22 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: नहीं मेरा वो तात्पर्य नहीं था, मेरा तात्पर्य है सूर्य के केन्द्र से ग्रहों की दूरी और उसके सापेक्ष पृथ्वी से दूरी, बाकी का मुझे बहुत ज्ञान नहीं है। कृपया मार्ग दर्शन करें विषय रोचक है।
15/11/19, 6:26 pm – Shastra Gyan Suresh Jhajjar:
15/11/19, 6:29 pm – Abhinandan Sharma: ये होरा की claculation के बारे में है ,न कि ग्रहों की दूरी। अब आप सब पहले ये समझें कि लेखक ने ये ग्रहों की दूरी के सम्बंध में नहीं लिखा है, ठीक है ।
15/11/19, 6:32 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: इसी लिए जरूरी है शास्त्रों को पढ़ना।
सब कुछ होते हुए भी कुछ समझ न आना।
मतलब जब ज्ञान न हो तो काला अक्षर भैंस बराबर.
मेरे ऊपर ही ये कहावत आज चरित्रार्थ हो रही हैं।
15/11/19, 6:34 pm – Abhinandan Sharma: दो बातें ध्यान देने की हैं कि एक तो आगे से, जब भी कभी आप अंदाजा लगाएं तो अंदाजे वाली बात का पुख्ता कर लें अन्यथा हम मे और सोशल मीडिया में तुक्के लगाने वाले और मनगढंत निष्कर्ष निकालने वालों में क्या अंतर रह जायेगा । हमने चेक नहीं किया कहने से पहले कि क्या दूरी फिट बैठ रही है या नहीं पर सब एक ही बात कहने लगे।
15/11/19, 6:35 pm – Abhinandan Sharma: दूसरी बात ये है कि इस क्रमः का कोई संबंध दूरी से नहीं है, किस्से है, ये थोड़ी देर में बताता हूँ, अभी जरा ट्रेन में बैठने की जुगाड़ कर लूं । जोधपुर से RAC मिली है, रात बर्बाद हो गयी मेरी तो ।
15/11/19, 6:35 pm – Shastra Gyan Suresh Jhajjar: अब तो अभिनव जी ही समझाएंगे इस रहस्य को 🙂
15/11/19, 6:36 pm – Shastra Gyan Suresh Jhajjar: 🙏🚩
15/11/19, 6:37 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: 🙏🙏😊
15/11/19, 6:40 pm – Shastra Gyan Suresh Jhajjar: इन ग्रहों की दूरी सूर्य से ली है । पृथ्वी की जगह सूर्य को रखा है इसमें। चंद्रमा को सबसे नजदीक रखा है लेकिन क्यों ये नहीं पता ।
15/11/19, 6:41 pm – Abhinandan Sharma: प्रतीक्षा करें कृपया
15/11/19, 6:41 pm – Abhinandan Sharma: पर ये बात ध्यान देने वाली है कि पृथ्वी की जगह सूर्य को रखा है।
15/11/19, 7:15 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi:
15/11/19, 7:26 pm – Abhinandan Sharma: यही तो कह रहा हूँ, इतनी देर से कि ये दूरी के क्रम में नहीं हैं | अभी थोड़ी देर और रुको !
15/11/19, 7:37 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: धन्यवाद राजेश जी का जिनकी आपत्ति के चलते ये गड़बड़ समझ आई वरना तो सुई वहीं अटकी रहती🙏🏼🙏🏼
15/11/19, 7:46 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: धन्यवाद आप सभी महानुभावों का जो इतना खोजबीन करके अनुपम प्रस्तुति देते हैं। जिससे ज्ञान वृद्धि के साथ-साथ विवेक भी साथ देने लगता है और हमें ज्ञात होता है कि हम शास्त्रों को न पढ़कर कितने पिछड़े हुए हैं।
15/11/19, 8:10 pm – Ashu Bhaiya: The key is Geocentric and Heliocentric models
15/11/19, 8:11 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: ये क्या बला है 🤔
15/11/19, 8:12 pm – Ashu Bhaiya: “रविजामारेज्यभूपुत्रसूर्यशुक्रेंदुजेंदव :”
15/11/19, 8:15 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: और अधिक कहाँ पढ़ सकते हैं इसके बारे में ?
15/11/19, 8:16 pm – Ashu Bhaiya: रविजामरेज्यभूपुत्रसूर्यशुक्रेंदुजेंदव:
15/11/19, 8:16 pm – Abhinandan Sharma: सारा राज खोल दिया आपने 🙂
15/11/19, 8:17 pm – Ashu Bhaiya: सूर्यसिद्धान्त की पंक्ति है | पर एक ही पंक्ति है |
15/11/19, 8:17 pm – Ashu Bhaiya: प्रेशर आ गया था सब पर 🤭
15/11/19, 8:18 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: उससे तो तौबा है, धुंआ निकलने लगता है सिर से।
15/11/19, 8:19 pm – Ashu Bhaiya: पूरी मत पढ़ो, सन्दर्भ ग्रन्थ की तरह से देखो
15/11/19, 8:19 pm – Ashu Bhaiya: Over to you !!
15/11/19, 8:19 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: जी 🙏🏼
15/11/19, 8:19 pm – Abhinandan Sharma: ठीक है, दो सिद्धांत है, खगोल में | एक भूकेंद्रित और दूसरा सूर्यकेन्द्रित | भारतीय ज्योतिष पृथ्वी को केंद्र मानता है और मानता है कि सूर्य इसकी परिक्रमा करता है जबकि पश्चिमी विज्ञान सूर्य को केंद्र मानता है कि बाकी सभी ग्रह उसकी परिक्रमा करते हैं |
15/11/19, 8:21 pm – Abhinandan Sharma: दोनों सिद्धांत ठीक हैं क्योंकि दोनों को ही अभी तक गलत सिद्ध नहीं किया जा सका है | बहुत से लोग, आधुनिक विज्ञान के भरोसे बोलते हैं कि ऐसा कैसे संभव है, सिद्ध है कि सूर्य केंद्र में है, पृथ्वी इसके चारों ओर चक्कर लगा रही है | किन्तु ये इतना आसान नहीं है क्योंकि आधुनिक विज्ञान ने भी ये देखा नहीं है | कैसे ?
15/11/19, 8:21 pm – Ashu Bhaiya: बात और आगे बढे तो पहले ही सावधान कर दूं, केन्द्रित होने का अर्थ ये नहीं है कि केन्द्र पर पृथ्वी या सूर्य है, केन्द्र थोड़ा इधर-उधर भी हो सकता है |
15/11/19, 8:24 pm – Abhinandan Sharma: जैसे कि एक तालाब में एक छोटे द्वीप पर एक व्यक्ति खड़ा हो और एक नौका से उसका चक्कर लगाया जाए तो नौका के सापेक्ष द्वीप में खड़ा व्यक्ति घूम रहा है और द्वीप पर खड़े व्यक्ति के सापेक्ष नौका (ये उदाहरण सूर्य सिद्धांत में दिया गया है)| दोनों एक दुसरे के सापेक्ष घूम रहे हैं | दोनों की दूरी, गति इत्बयादि राबर होगी | सका एक और उदाहरण लेते हैं कि यदि आप एक हाथ के चारों ओर दूसरा हाथ घुमाते हैं तो सामने खड़ा व्यक्ति देख कर बता नहीं सकता कि कौन सा हाथ किसके चक्कर काट रहा है |
15/11/19, 8:24 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: थोड़ा इधर उधर होने से क्या तात्पर्य है? पृथ्वी पर ही थोड़ा इधर उधर या कुछेक AU इधर उधर या फिर कुछ और?
15/11/19, 8:24 pm – Aparna Singh Ayodhya Shastra Gyan: 😲, अर्थात वारो के नाम भी वैज्ञानिक विधि से रखे गए हैं!!, शनि के बाद युरेनस नेप्च्यून का प्रभाव अत्यंत दूरस्थ होने के कारण संभवतः पृथ्वी पर नही पड़ता..इसी कारण उनका नाम नही लिया जाता है
15/11/19, 8:24 pm – Abhinandan Sharma: भाई ठहर जा ! पहले एक हो जान दे 🙏
15/11/19, 8:25 pm – Abhinandan Sharma: थोड़ी देर प्रतीक्षा करें, कृपया | अब एक टोपिक पूरा होने दें 🙏 फिर ट्रेन में सिग्नल चला जाएगा 😫😫
15/11/19, 8:27 pm – Abhinandan Sharma: तो कहने का तात्पर्य ये है कि दोनों ही सिद्धातों से खगोलीय गणना में अंतर नहीं आता है | भारतीय ज्योतिष पृथ्वी को स्थिर (केवल अपनी कीली पर घूमता हुआ) मानता है और पश्चिमी विज्ञान इसका उल्टा | इसी वजह से मंगल के बाद सूर्य का नाम आया है क्योंकि सूर्य पृथ्वी के चक्कर लगा रहा है (भारतीय ज्योतिष के हिसाब से) अब बात ये आती है कि इसे कैसे सत्य माने ?
15/11/19, 8:33 pm – Abhinandan Sharma: हब्बल की दूरबीन का आविष्कार १९२० में हुआ था और पहला setelite अमेरिका न १९५५ के आस पास छोड़ा था | खगोल का इतिहास और उसकी प्रामाणिकता में हमारे पूर्वजों का योगदान उल्लेखनीय और अविश्वसनीय है कि कैसे उन्होंने महाभारत काल/रामायण काल/सूर्य सिद्धांत के लिखे जाने के समय, बिना किसी यंत्र के, सभी ग्रहों की दूरी, परिभ्रमण काल, उनके द्वारा शरीर पर पड़ने और धरती पर पड़ने वाले प्रभावों, सूर्य के सात घोड़े (७ रंग), सूर्य के सारथि (अरुण, गरुण के भाई और वेस्टर्न साइंस के हिसाब से, अरोरा) आदि का सटीक आंकलन किया था | सूर्य सिद्धांत में बहुत सी गणनाएं ऐसी हैं, जिन पर विस्वास करना संभव नहीं है, कि ये बिना किसी यंत्र के, मात्र गणित से, सभी ग्रहों का, धरती का, व्यास, दूरी, प्रकाश की गति आदि निकाली गयी है | ऐसा प्रतीत होता है कि ऋषियों के पास इसके अलावा भी शक्ति थी क्योंकि बहुत सी बाते ऐसी हैं, जो बिना अन्तरिक्ष में जाए, बताना, लगभग असम्भव प्रतीत होता है | अतः हम भारतीय, ऋषियों की कही बातों को, क्योंकि उन्होंने वो गणित से सिद्ध करके दिखाया है, अधिक प्रमाणिक मानते हैं और पश्चिमी विज्ञान, जो कि अभी मात्र १००-150 वर्ष पुराना है, उसे कम प्रामाणिक मानते हैं | सो इस प्रकार, सूर्य सिद्धांत और अन्य ज्योतिषीय ग्रंथो को ध्यान में रखते हुए, मंगल के बाद, सूर्य दिखाया गया है |
धन्यवाद |
15/11/19, 8:34 pm – Aparna Singh Ayodhya Shastra Gyan: कुछ भी हो आज की चर्चा के प्रारम्भ होने से इस समूह कु सार्थकता फिर से सिद्ध हो रही है
15/11/19, 8:34 pm – Aparna Singh Ayodhya Shastra Gyan: की
15/11/19, 8:35 pm – Abhinandan Sharma: ये केंद्र का फंडा अलग है | इसका इस पोस्ट से कोई सम्बन्ध नहीं है | इस विषय पर थोडा गूगल करें तो आपको और गहराई प्राप्त होगी | अभी बात सिर्फ इतनी है कि पृथ्वी के चक्कर अन्य ग्रह काट रहे हैं या सूर्य के ! और भारतीय ज्योतिष पृथ्वी को स्थिर मानता है, जैसा कि ऊपर कहा है |
15/11/19, 8:36 pm – Abhinandan Sharma: 🙏
15/11/19, 8:37 pm – Abhinandan Sharma: धरती के चारों और चक्कर लगाने के सिद्धांत को geocentric और सूर्य के चारों और चक्कर लगाने वाले सिद्धांत को Heliocentric कहा जाता है |
15/11/19, 8:38 pm – Abhinandan Sharma: हमारे यहाँ यम, अरुण और वरुण को ज्योतिष में ग्रह नहीं समझा गया है, क्योंकि उनकी दूरी इतनी ज्यादा है, कि उससे पृथ्वी पर कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता | और सूर्य (आधुनिक व्याख्या से स्टार), चन्द्र (आधुनिक व्याख्या से उपग्रह), राहु और केतु (आधुनिक विज्ञान से केवल २ पॉइंट) को ग्रह इसीलिए माना गया है क्योंकि इन सभी से धरती पर बहुत असर पड़ता है |
15/11/19, 8:39 pm – Abhinandan Sharma: और इस प्रकार, ज्योतिष वाली पोस्ट का समापन होता है 🙏🙏
15/11/19, 9:32 pm – Abhinandan Sharma: अरे, किसी ने पढ़ा कि नही ? कुछ समझ आया !
15/11/19, 9:37 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: जी थोड़ा थोड़ा 🙏🏼
15/11/19, 9:39 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: यही हाल सभी का है, जी थोड़ा थोड़ा समझ आया।
15/11/19, 9:51 pm – Abhinandan Sharma: एक बार फिर दुबारा पढिये, समझ आयेगा ।
15/11/19, 9:55 pm – +91 : 🙏🙏
15/11/19, 10:55 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-८ श्लोक ६,७
प्रयाति नोर्ध्वं नाधस्तादाहारो न च पच्यते॥६॥
आमाशयेऽलसीभूतस्तेन सोऽलसकः स्मृतः। विविधैर्वेदनोद्भेदैर्वाय्वादिभृशकोपतः॥७॥
सूचिभिरिव गात्राणि विध्यतीति विसूचिका।
अलसक की परिभाषा- अलसक रोग होने के पहले जो आहार खाया गया था, वह न तो ऊपर (मुख) की ओर से निकलता है और न नीचे (गुदामार्ग) से निकलता है, न वह पचता ही है। वह आमाशय में आलसी की भांति पड़ा रहता है, अतएव इस रोग को “अलसक” कहा जाता है।
विसूचिका की परिभाषा- वात आदि दोषों के अत्यन्त प्रकुपित हो जाने के कारण अनेक प्रकार की वेदनाओं की उत्पत्ति होने से, जो बार-बार सुई की भांति शरीरावय को बेंधती रहती है, उसे “विसूचिका” कहते हैं।
वक्तव्य- ‘विसूचिका’ शब्द में ष,श,स इन तीनों का प्रयोग यत्र तत्र देखा जाता है। जैसे— कलश, कलस आदि। इसमें आम आहार वमन एवं विरेचन के रूप में बार बार निकलता रहता है।
अलसक– इसमें आम आहार आमाशय में ही पड़ा र हता है और पचता भी नहीं। इसका उक्त इसके लक्षणों के अनुरूप है।
15/11/19, 10:56 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: *रामायण बालकाण्ड – पंचदश सर्ग, श्लोक १६,१७
एतस्मिन्नन्तरे वाष्णुरूपयतो महाद्युतिः। शंखचक्रंगदापाणिः पीतवासा जगत्पतिः॥१६॥
इतने ही में शंख चक्र गदा धारण किये और पीताम्बर धारण किये महातेजस्वी जगत्पति विष्णु भगवान वहां पर आये।
ब्रह्मणा च समागम्य तत्र तस्थो समाहितः। तमव्रुवन्सुराः सर्वे समभिष्टूय संनताः॥१७॥
जब विष्णु भगवान ब्रह्मा जी से मिलकर उनके पास बैठे तब देवताओं ने बड़ी नम्रता के साथ उनकी स्तुति की और बोले
15/11/19, 11:12 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: 🤔😳😰🙏
16/11/19, 12:03 am – Aparna Singh Ayodhya Shastra Gyan: 😲
16/11/19, 5:48 am – Shastra Gyan Suresh Jhajjar: This message was deleted
16/11/19, 5:48 am – Shastra Gyan Suresh Jhajjar: This message was deleted
16/11/19, 5:50 am – Shastra Gyan Mukesh Mishra Allahabad: This message was deleted
16/11/19, 5:51 am – Shastra Gyan Suresh Jhajjar: This message was deleted
16/11/19, 5:51 am – Shastra Gyan Mukesh Mishra Allahabad: This message was deleted
16/11/19, 5:56 am – +91 : यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सती
मधश्चक्रे बाणः परिजन विधेय त्रिभुवनः।
न तच्चित्रं सम्यग्वरिवसितरि त्वच्चरणयो
र्न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसत्य्यवनतिः।।
हे वरदानी शंकर!
त्रिभुवन को वशवर्ती बनाने वाले बाणासुर ने इन्द्र की अपार( परमोच्च) सम्पत्ति को भी जो अपने समक्ष नीचा कर दिया,
वह आपके चरणों के शरणागत(सेवक) उस बाणासुर के विषय में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है;
क्योंकि आपके समक्ष सिर झुकाना(नत मस्तक होना) किसकी (किस-किस विषय की) उन्नति के लिए नहीँ होता?
अर्थात् आपके चरणों में सिर झुकाने से सबकी सब प्रकार उन्नति होती है।।13।।
16/11/19, 6:34 am – FB Mrudul Tiwari Allahabad Shastra Gyan: अच्छा हुआ हम सब यहां शास्त्र पढ़ने के उत्सुक हैं
नही तो तर्क शास्त्र चल रहा होता कि पृथ्वी स्थिर कैसे…..
2 बार पढ़े हब्बल टेलिस्कोप वाली पोस्ट
16/11/19, 6:36 am – FB Mrudul Tiwari Allahabad Shastra Gyan: 🙏🙏🙏🙏🙏
16/11/19, 7:55 am – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: आचार्य विष्णु शर्मा राजकुमारों को अपने साथ अपने आवास पर ले आये और उनके सुविधाजनक निवास और भोजन आदि की व्यवस्था की। उसके उपरान्त उन्होंने राजकुमारों को सुशिक्षित बनाने के लिए निम्नलिखित पांच तन्त्रों वाले ग्रन्थ—पञ्चतन्त्र—की रचना की—
1. मित्रभेद—इस अध्याय में शत्रु के मित्रों में फूट डालने, उन्हें आपस में लड़ाने तथा शत्रु को क्षीण बनाने के विभिन्न उपायों का वर्णन है।
2. मित्र सम्प्राप्ति—इस अध्याय में अपनी शक्ति एवं सामर्थ्य को बढ़ाने के लिए उपयोगी व्यक्तियों को मित्र बनाने और उनके साथ मित्रता निभाने के विभिन्न उपाय दिये गये हैं।
3. काकोलूकीय—इस अध्याय में शत्रु के साथ परिस्थितिवश मैत्री सम्बन्ध स्थापित हो जाने पर भी उस पर अन्धविश्वास न करके, उससे सावधान रहने और गुप्तचरों की भूमिका के महत्त्व का प्रतिपादन किया गया है।
4. लब्धप्रणाश—इस अध्याय में शत्रु की विजय को मिट्टी में मिलाने के उपायों का वर्णन है।
5. अपरीक्षित कारक—इस अध्याय में ऊंच-नीच व हानि-लाभ आदि की भली प्रकार समीक्षा किये बिना किसी भी काम में हाथ डालने से पहले उस पर ध्यानपूर्वक मनन करने योग्य साधनों का वर्णन किया गया है।
पञ्चतन्त्र की रचना करके आचार्य विष्णु शर्मा ने राजकुमारों को पढ़ाना प्रारम्भ कर दिया। आचार्यजी के अध्यापन की शैली के कारण राजकुमार भी मन लगाकर अध्ययन करने लगे, जिसके परिणामस्वरूप आचार्य विष्णु शर्मा की प्रतिज्ञा सत्य सिद्ध हुई और तीनों राजकुमार छह महीनों में ही नीति-निपुण और बुद्धिमान् बन गये।
इसीलिए ‘पञ्चतन्त्र’ को बालकों के लिए लोक-व्यवहार में प्रशिक्षित करने का आदर्श ग्रन्थ मान लिया गया
और ग्रन्थ की प्रशंसा में कहा गया यह वचन सत्य सिद्ध हुआ।
अधीते यः इदं नित्यं नीतिशास्त्रं शृणोति च।
न पराभवमाप्नोति शक्रादपि कदाचन।।
इस ‘पञ्चतन्त्र’ नामक ग्रन्थ का अध्ययन करने वाला अथवा सुनने वाला व्यक्ति व्यवहारकुशल हो जाता है कि वह इन्द्र-जैसे प्रबल शत्रु से भी पराजित नहीं हो सकता तथा धूर्त लोगों को भी पराजित कर देने में समर्थ हो जाता है।
16/11/19, 8:39 am – Shastra Gyan Suresh Jhajjar: 👌🙏🚩
16/11/19, 8:41 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: This message was deleted
16/11/19, 8:45 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
श्री मनुस्मृति
तृतीय अध्याय
पितृभिर्भ्रातृभिश्चैताः पतिभिर्देवरैस्तथा ।
पूज्या भूषयितव्याश्च बहुकल्याणं ईप्सुभिः । । ३.५५ । ।
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः । । ३.५६ । ।
शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम् ।
न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा । । ३.५७ । ।
जामयो यानि गेहानि शपन्त्यप्रतिपूजिताः ।
तानि कृत्याहतानीव विनश्यन्ति समन्ततः । । ३.५८ । ।
तस्मादेताः सदा पूज्या भूषणाच्छादनाशनैः ।
भूतिकामैर्नरैर्नित्यं सत्करेषूत्सवेषु च । । ३.५९ । ।
संतुष्टो भार्यया भर्ता भर्त्रा भार्या तथैव च ।
यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम् । । ३.६० । ।
यदि हि स्त्री न रोचेत पुमांसं न प्रमोदयेत् ।
अप्रमोदात्पुनः पुंसः प्रजनं न प्रवर्तते । । ३.६१ । ।
अर्थ
विषय- स्त्रियों का आदर
पिता,भाई, पति,देवर को स्त्रियों का सत्कार व आभूषण आदि से भूषित करना चाहिए। इससे बड़ा शुभ फल होता है। जिस कुल में स्त्रियों का सत्कार किया जाता है उस कुल पर देवता प्रसन्न रहते है,जंहा नही होता वँहा सब धर्म कर्म निष्फल होते है।
जिस कुल में स्त्रियां शोक में रहती है वह शीघ्र ही बिगड़ जाता है और जंहा प्रसन्न रहती है वह सदा बढ़ता जाता है।।
जिस कुल में स्त्रियों का सत्कार नहीं है वह नष्ट हो जाता है जैसे मारण करने से हो जाता है,इसलिए सत्कार के मौके पर सत्कार व उत्सव के अवसर पर गहने, वस्त्र व भोजन से स्त्रियों को सन्तुष्ट करना चाहिए।जिस कुल मे स्त्री अपने पति से व पति अपनी स्त्री से सन्तुष्ट रहते है वँहा अवश्य कल्याण होता है।। यदि स्त्री शोभित नही हो पति को प्रसन्न नहीं कर सकती व बिना खुशी के सुसंतान नही हो सकती।।
16/11/19, 10:06 am – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: This message was deleted
16/11/19, 10:09 am – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: #श्री गणेशाय नमः#
सुगम ज्योतिष प्रवेशिका
प्रथम भाग – जातक विचार
दूसरा प्रकरण
काल – परिचय
पक्ष— आमावास्या उस रात्रि को कहते हैं जिस दिन चन्द्रमा बिल्कुल दिखाई नहीं देता। पूर्णिमा उस रात्रि को कहते हैं जिस दिन पूरा चन्द्रमा आकाश में दिखाई देता है। यह तो वास्तव में बच्चों को समझाने वाली परिभाषा है। ज्योतिष के अनुसार ‘तिथि’ का निर्णय होता है सूर्य और चन्द्रमा की पारस्परिक ‘दूरी’ की नाप से।
सूर्य और चन्द्रमा की दूरी फुटों, गजों या मीलों में नहीं नापी जाती है बल्कि डिग्री और अंशों में नापी जाती है। पृथ्वी सूर्य के चारो ओर घूमती है और चन्द्रमा पृथ्वी के चारो ओर घूमता है। इस भ्रमण के चक्कर में कभी तो पृथ्वी से देखने वाले को सूर्य और चन्द्रमा एक ही डिग्री (अंश) में दिखाई देते हैं और कभी १८० डिग्री दूर। यह नीचे के चित्र से स्पष्ट किया जाता है।
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स। प च
० ० ०
सूर्य। पृथ्वी चन्द्रमा
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० चन्द्रमा – च (१)
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० सूर्य – स (१)
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यदि पृथ्वी प स्थान पर है सूर्य स स्थान पर है और चन्द्रमा च स्थान पर – तो ‘स’ और ‘च’ में १८० डिग्री का फसला होने से पूर्णिमा हुई। किन्तु यदि पृथ्वी ‘प’ स्थान पर है चन्द्रमा ‘च (१)’ और सूर्य ‘स (१)’ स्थान पर तो पृथ्वी से देखने वाले को ‘स’ और ‘च’ एक ही डिग्री में दिखाई देने के कारण आमावास्या हुई। जैसे चाँदे से रेखा गणित में डिग्री नापी जाती है वैसे ही ज्योतिष में भी। जब सूर्य और चन्द्रमा एक ही डिग्री (अंश) पर आ जाते हैं तो सूर्य की रफ्तार धीरे और चन्द्रमा की तेज होने के कारण चन्द्रमा आगे-आगे भागता जाता है और क्रमशः सूर्य और चन्द्रमा में अन्तर बढ़ता जाता है। इसी अंतर को बताने वाली ‘तिथि’ है।
16/11/19, 12:34 pm – Dr PL Sharma White Cottege Ghaziabad Shastr Gyan: By mistake
16/11/19, 1:25 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙏🏼🙏🏼
16/11/19, 5:43 pm – Abhinandan Sharma:
16/11/19, 5:45 pm – Abhinandan Sharma: 🙏
16/11/19, 5:49 pm – +91 : 🙏🙏🙏
16/11/19, 8:15 pm – Aparna Singh Ayodhya Shastra Gyan: 👍🏻👍🏻, इस पोस्ट की प्रतीक्षा रने लगी है
16/11/19, 9:00 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: *रामायण बालकाण्ड – पंचदश सर्ग, श्लोक १८,१९,२०,२१,२२
त्वां नियोक्ष्यामहे विष्णो लोकानां हितकाम्यया। राज्ञो दशरथस्य त्वयोध्याधिपतेः प्रभोः॥१८॥
धर्मज्ञस्म वदान्यस्य महर्षिसमतेजसः। तस्य भार्यासु तिसृषु हीश्रीकीर्त्युपमासु च॥१९॥
विष्णो पुत्रत्वमागच्छ कृत्वाऽऽत्मानं चतुर्विधम्। तत्र त्वं मानुषो भूत्वा प्रवृद्धं लोककण्टकं॥२०॥
अवध्यं दैवतैर्विप्णो समरे जहि रावणम्। स हि देवान्सगन्धर्वान्सिद्धांश्च मुनिसत्तमान्॥२१॥
राक्षसो रावणो मूर्खो वीर्योत्सेकेन वाधते। ऋषयस्तु ततस्तेन गन्धर्वाप्सरसस्तथा॥२२॥
हम लोग आपसे सब की भलाई के लिए यह प्रार्थना करते हैं कि आप धर्मात्मा, दानी और ऋषिवत् तेजस्वी अयोध्याधिपति महाराज दशरथ की ही श्री और कीर्ति के समान तीन राशियों में अपने चार अंशों से पुत्रभाव स्वीकार करें। आप मनुष्य शरीर धारण कर महाभिमानी लोककण्टक उस रावण को, जो हम (देवताओं) से भी अवध्य है, युद्ध में परास्त करें। क्योंकि वह मूर्ख राक्षस रावण देवता, गन्धर्व, सिद्ध और मुनियों को अपने बल से बहुत सताता है।
16/11/19, 9:02 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-८ श्लोक ८,९,१०,११
तत्र शूलभ्रमानाहकम्पस्तम्भादयोऽनिलात्॥८॥
पित्ताज्जवरातिसारान्तर्दाहतृटप्रलयादयः। कफाच्छर्द्यङ्गगुरुतावाक्सङ्गष्ठीवनादयः॥९॥
विसूचिका के लक्षण- वातदोष से शूल, चक्करो का आना, आनाह, कंपकंपी का होना तथा स्तम्भ(जड़ता) ये लक्षण होते है। पित्तदोष से ज्वर, अतिसार, भीतर से जलन, बार-बार प्यास का लगना एवं प्रलाप(अंट-संट बकना) ये लक्षण होते हैं। कफ दोष से छर्दि(वमन), शरीर के अवयवों में भारीपन, बोलने में रुकावट तथा लार का चूना ये लक्षण होते हैं।
विशेषाद्दुर्बलस्याल्पवह्नेवेगविधारिणः। पीड़ितं मारुतेनान्नं श्लेष्मणा रूद्धमन्तरा॥१०॥
अलसं क्षोभितं दोषैः शल्यत्वेनैव संस्थितम्। शूलादीन् कुरुते तीव्राश्छर्द्यतीसारवर्जितान्॥११॥
अलसक का वर्णन- यह रोग विशेष करके दुर्बल, मन्द अग्निवाले, वात, मूत्र तथा मल के वेगों को रोकने वाले पुरुषों को होता है। इसमें खाया गया आहार वात द्वारा पीड़ित एवं कफ के कारण आमाशय में रोका गया स्वयं वह गतिहीन हो जाता है। वात आदि दोषों द्वारा हिलाया डुलाया जाने पर भी वह आमाशय में शल्य के रूप में स्थित रहता है तथा कष्टकारक शूल आदि विकारों को तो करता है, किन्तु इसमें वमन-विरेचन नहीं होते, अतः इस रोग को अलस या अलसक कहते हैं।
16/11/19, 9:44 pm – LE Onkar A-608: तो कहने का तात्पर्य ये है कि दोनों ही सिद्धातों से खगोलीय गणना में अंतर नहीं आता है | भारतीय ज्योतिष पृथ्वी को स्थिर (केवल अपनी कीली पर घूमता हुआ) मानता है और पश्चिमी विज्ञान इसका उल्टा |………. सूर्य पृथ्वी के चक्कर लगा रहा है (भारतीय ज्योतिष के हिसाब से) अब बात ये आती है कि इसे कैसे सत्य माने ?
स्कूली पढ़ाई से यह बात मस्तिष्क में भली भांति बैठ चुकी है कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है, किन्तु ज्योतिष के अनुसार सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करता है।
जब ज्योतिष में भी यह बताया जाता है कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है तो ऐसा लगता है भारतीय और पाश्चात्य विचारों का घालमेल हो रहा है।
16/11/19, 9:49 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: जी आपने सत्य कहा इसमें अर्थात ‘सुगम ज्योतिष प्रवेशिका’ में तो ऐसा ही लिखा है।
16/11/19, 10:20 pm – ABKG Reader Vikas Kr Dubey Bhadohi UP: उसमे ऐसा इसलिए कहा गया होगा क्योंकि उसमे जो भी बात कही गयी है वो सभी पृथ्वी के सापेक्ष कहि गयी है। जैसे ऊपर कल या परसो की चर्चा में नक्षत्रों को स्थिर बताया गया था ( या इतने धीरे है कि स्थिर माना जाता है)। वो इसलिए कि वो हमसे इतने दृर है कि उनकी गति का पृथ्वी पर वो प्रभाव नघई। उनकी गति पृथ्बी के सापेक्ष बहुत ही धीमी है। करोडो साल गुजर जाने पर शायद स्थिति कुछ बदले, पर फिर भी तब के मनुष्यों के लिए ज्योतिष के अध्ययन के लिए तब भी उनको स्थिर ही माना जाएगा। उसी तरह ज्योतिष में पृथ्वी को स्थिर मान कर बाकी पिंडो को उसके सापेक्ष चलायमान माना जाता है। हालांकि और शास्त्रों के अध्ययन से ये बात साफ हो जाएगी कि तब भी सबको पता था कि कौन किसकी परिक्रमा करता है। सूर्यग्रहण चन्द्रग्रहण इसका अच्छा उदाहरण है। बिना पृथ्वी के परिक्रमा के ज्ञान के शायद ये बताना सम्भव नही, वो भी इतनी सटीकता के साथ कि कब सूर्य ग्रहण या चंद्र ग्रहण होगा।
16/11/19, 10:29 pm – LE Onkar A-608: बिहारी का एक दोहा पढ़ा था
दुसह दुराज प्रजानु के, क्यों न बढ़ै दुख द्वन्द।
अधिक अंधेरो ज्यों करैं, मिलि मावस रवि चन्द।
इससे यह तो पता चल गया था कि सूर्येन्दु अमावश्या को एक ही राशि मे रहकर अंधेरा करते हैं।
आपने जो सूर्य, चन्द्र एवं पृथ्वी की स्थिति को दर्शाने वाला अमावस का रेखाङ्कन किया है उससे स्पष्ट हो गया कि अमावश्या की रात अंधेरा क्यों होता है
16/11/19, 10:31 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: नहीं यहाँ बात हो रही है कि ‘सुगम ज्योतिष प्रवेशिका’ में भी दिया गया है कि पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है, परन्तु कल की चर्चा में बताया गया कि ज्योतिष में सूर्य पृथ्वी का चक्कर लगाता है।
आगे अभी और बढ़ते है तब और ज्ञान प्राप्त होगा । अभी तो प्रवेशिका में शुरू ही किये हैं।
16/11/19, 10:33 pm – LE Onkar A-608: जी मैं यही कहना चाह रहा था
16/11/19, 10:34 pm – ABKG Reader Vikas Kr Dubey Bhadohi UP: ये तो लिखने वाले के व्यवहारिक ज्ञान पर है कि वो कैसे निरूपित करता है चीजो को। हालांकि दोनों चीजे एक ही है बस नजरिया अलग है।🙏
16/11/19, 10:37 pm – LE Onkar A-608: आगे आगे देखिये होता है क्या
16/11/19, 10:41 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: जी, वास्तव में जिनके ज्ञान है, उन्हें सब दिखाई पड़ता है बिहारी जी को ज्ञात रहा होगा। तभी तो इतनी बड़ी लिख दी।
16/11/19, 10:46 pm – LE Onkar A-608: This message was deleted
16/11/19, 10:51 pm – LE Onkar A-608: जी, आपने सत्य कहा🙏
वो बिहारी थे
16/11/19, 11:54 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: तीसरे भाग को पेय पदार्थों से भर लें यहां त्रुटि हो गई थी।🙏🏻
16/11/19, 11:55 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-८, श्लोक १,२
*अष्टमोध्याय*
अथातो मात्राशितीयमध्यायं व्याख्यास्यामः।
इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः।
अब हम यहां से मात्राशितीय नामक अध्याय का व्याख्यान करेंगे, जैसा कि इस विषय पर आत्रेय आदि ऋषियों ने कहा था।
उपक्रम- इसके पहले ७/५३ में कहा गया है— “आहारो वर्णितस्तत्र तत्र तत्र च वक्ष्यते”। अतएव इस८वें अध्याय मे उस आहार का किस मात्रा के अनुकूल सेवन करना चाहिए, इस विषय की चर्चा की जा रही है, क्योंकि यहां जो मात्रा शब्द का प्रयोग किया है, इसका अर्थ है सम्यक्योग । यह अशन या आहार सात प्रकार का होता है।—१. संकीर्णाशन, २.विरूद्धाशन, ३.अमात्राशन, ४. अजीर्णाशन, ५. समशन, ६. अध्यशन तथा ७.विषमासन। इनमे दो के उदाहरण आगे इसी अध्याय मे दिये जायेंगे।
संक्षिप्त सन्दर्भ संकेत- च.सू.५, च.सू.२७, च.वि.२, च.चि.१५, च.सि.१२, सु.सू.४६, सु.उ.५६ एवं अ.सं.सू.१० तथा ११ में।
मात्राशी सर्वकालं स्यानमात्रा ह्यग्नेः प्रवर्तिका। मात्रां द्रव्याण्यपेक्षन्ते गुरण्यपि लघुन्यपि॥१॥
गुरुणामर्धसौहित्यं लघुनां नातितृप्तता। मात्राप्रमाणं निर्दिष्टं सुखं यावद्विजीर्यति॥२॥
आहारमात्रा का वर्णन- मनुष्य को सदा मात्रा के अनुसार आहार(भोजन) करना चाहिए, क्योंकि उचित मात्रा मे किया गया भोजन जठराग्नि को प्रदिप्त करता है। मात्रा का निर्धारण गुरु तथा लघु द्रव्यो को देखकर करना चाहिए, जैसा आगे कहा जायेगा।
वक्तव्य- मात्रा का विचार च.सू. ५/४ में संक्षेप से नपे तुले शब्दो में किया गया है। इसके आगे च.वि. २/३ में कुछ विशेष ढंग से इसे कहा है— ‘आहार करते समय पुरुष को आमाशय की खाली जगह को तीन भागों में इस प्रकार बांट देना चाहिए। यथा- एक भाग ठोस आहार-द्रव्यो के लिए,एक भाग द्रव द्रव्यों के लिए और एक भाग आत, पित्त तथा कफ के लिए रखें। वाग्भट ने इस विषय को प्रकारान्तर से आगे कहा है— ‘अन्नैन कुक्षेर्द्वावंशौ पानेनैकं प्रपूरयेत्। आश्रयं पवनादीनां चतुर्थमवशेषयेत्’। (अ.हृ.सू. ८/४६) अर्थात भोजन करते समय आमाशय के दो भागों को रोटी, दाल, भात आदि से भर ले तीसरे भाग को पेय पदार्थों से भर ले और शेष चौथे भाग को वात-पित्त-कफ की क्रिया के लिये सुरक्षित करें। इसके पहले भी श्रीवाग्भट ने मात्रा का विचार करते हुए कहा है— ‘मात्रा°°°°चहारराशिः’। (अ.सं.सू. १०/९) अर्थात मात्रा वह है जो आहार के सभी पदार्थों के परिमाण से तथा प्रत्येक द्रव्य के गुरु लघु आदि गुणों के समुदाय
से ‘आहारराशि’ कही जाती है।
मात्रा में गुरु लघु विचार- गुरु भोजन-पदार्थों को आधी तृप्ति हो जाने पर खाना छोड़ दें और लघु भोजन-पदार्थों को अधिक तृप्त होने तक न खायें। वास्तव में भोजन की उचित मात्रा वही है जो सुखपूर्वक पच जाये।
17/11/19, 12:19 am – Shastragyan Abhishek Sharma: अति उत्तम🙏🏻😊
17/11/19, 12:23 am – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: ।।पंचतंत्र।।
प्रथम तन्त्र
मित्रभेद (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
पञ्चतन्त्र के प्रथम अध्याय मित्रभेद का पहला श्लोक इस प्रकार है—
वर्द्धमानो महान्स्नेहः सिंहगोवृषयोर्वने।
पिशुनेनातिलुब्धेन जम्बुकेन विनाशितः।।
किसी वन में एक सिंह और एक बैल साथ-साथ रहा करते थे और उनमें बड़ी गहरी दोस्ती थी। लेकिन एक धूर्त और चुगुलख़ोर गीदड़ ने उन दोनों की दोस्ती को दुश्मनी में बदल डाला। इससे यह सिद्ध होता है कि व्यक्ति को धूर्त लोगों की बातों में आकर अपने मित्रों पर अविश्वास नहीं करना चाहिए। इसका परिणाम निःसन्देह बड़ा भयंकर होता है।
इस बात के समर्थन में आचार्य विष्णु शर्मा ने राजकुमारों को निम्नलिखित कथा सुनायी—
भारत के दक्षिण में महिलारोप्य नामक नगर में वर्धमान नामक एक बनिया रहा करता था, जो धन कमाने में बड़ा निपुण था। एक रात सोते समय उसे एक विचार आया कि मैं अपनी आवश्यकता से अधिक धन भले ही कमा लूं, लेकिन व्यापारी को कभी सन्तुष्ट नहीं होना चाहिए। उसे तो सदैव महत्त्वाकांक्षी और असन्तुष्ट ही रहना चाहिए।
न हि तद्विद्यते किञ्चिद्यदर्थेन न सिद्ध्यति।
यत्नेन मतिमांस्तस्मादर्थमेकं प्रसाधयेत्।।
इस संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं, जिसे धन के द्वारा प्राप्त न किया जा सके। आजकल धन ही संसार में सर्वोत्तम साधन माना जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि बुद्धिमान् व्यक्ति को अधिकाधिक धन प्राप्त करना चाहिए।
अपने विचार पर सोचता हुआ वर्धमान बनिया अपने आपसे कहने लगा
यस्यार्थास्तस्य मित्राणि मस्यार्थास्तस्य बान्धवाः।
यस्यार्थाः स पुमाँल्लोके यस्यार्थाः स च पण्डितः।।
सभी लोग धनवान् व्यक्ति के साथ मित्रता बनाना चाहते हैं, लेकिन धनहीन व्यक्ति से इस प्रकार दूर भागते हैं, मानो उसे कोई छूत की बीमारी हो। धनी व्यक्ति को ही बुद्धिमान् समझा जाता है, जबकि धनहीन व्यक्ति विद्वान् होने पर भी हर जगह उपेक्षित किया जाता है। इससे सिद्ध होता है कि संसार में धन की महत्ता अपरम्पार है।
17/11/19, 5:42 am – +91 : अकाण्डब्रह्माण्डक्षय चकित देवासुर कृपा-
विधेयस्यासीद् यस्त्रिनयनविषं संहृतवतः।
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रिय महो
विकारोऽपिश्लाघ्यो भुवन भयभंगव्यसनिनः।।
हे त्रिनेत्र शंकर!
समुद्र मंथन से उत्पन्न विष की विषम ज्वाला से असमय में ही ब्रह्माण्ड के नाश के भय से चकित देवों और दानवों पर दयार्द्र हो कर विषपान करने वाले आपके कण्ठ में जो कालापन( नीला धब्बा) है, वह क्या आपकी शोभा नहीं बढ़ा रहा है?
(अर्थात् महोपकार के कार्य से उत्पन्न होने के कारण और अधिक शोभा बढ़ा रहा है)।
वस्तुतः संसार के भय को दूर करने के स्वभाव वाले महापुरुषों का विकार भी प्रशंसनीय होता है ।।14।।
17/11/19, 10:40 am – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: #श्री गणेशाय नमः#
सुगम ज्योतिष प्रवेशिका
प्रथम भाग – जातक विचार
दूसरा प्रकरण
काल – परिचय
जब चन्द्रमा और सूर्य के ठीक एक अंश पर आकर चंद्रमा आगे बढ़ने लगता है तब इन पन्द्रह तिथि के पखवाड़े को शुक्ल पक्ष कहते हैं।
शुक्ल पक्ष की तिथि
० डिग्री से १२ डिग्री तक १ प्रतिपदा
१२ डिग्री से २४ डिग्री तक २ द्वितीया
२४ डिग्री से ३६ डिग्री तक ३ तृतीया
३६ डिग्री से ४८ डिग्री तक ४ चतुर्थी
४८ डिग्री से ६० डिग्री तक ५ पंचमी
६० डिग्री से ७२ डिग्री तक ६ षष्ठी
७२ डिग्री से ८४ डिग्री तक ७ सप्तमी
८४ डिग्री से ९६ डिग्री तक ८ अष्टमी
९६ डिग्री से १०८ डिग्री तक ९ नवमी
१०८ डिग्री से १२० डिग्री तक १० दशमी
१२० डिग्री से १३२ डिग्री तक एकादशी
१३२ डिग्री से १४४ डिग्री तक द्वादशी
१४४ डिग्री से १५६ डिग्री तक त्रयोदशी
१५६ डिग्री से १६८ डिग्री तक चतुर्दशी
१६८ डिग्री से १८० डिग्री तक पूर्णिमा
यह तिथियों को जानने का प्रकार है, जब चन्द्रमा सूर्य से ठीक १८० डिग्री पर पहुँच जाता है तो दोनों का फासला कम होना शुरू हो जाता है और तिथियों का मान निम्नलिखित प्रकार से होता हैः
इन १५ तिथियों के पखवाड़े को कृष्ण पक्ष कहते हैं
कृष्ण पक्ष की तिथि
१८० डिग्री से १६८ डिग्री तक १ प्रतिपदा
१६८ डिग्री से १५६ डिग्री तक २ द्वितीया
१५६ डिग्री से १४४ डिग्री तक ३ तृतीया
१४४ डिग्री से १३२ डिग्री तक ४ चतुर्थी
१३२ डिग्री से १२० डिग्री तक ५ पंचमी
१२० डिग्री से १०८ डिग्री तक ६ षष्ठी
१०८ डिग्री से ९६ डिग्री तक ७ सप्तमी
९६ डिग्री से ८४ डिग्री तक ८ अष्टमी
८४ डिग्री से ७२ डिग्री तक ९ नवमी
७२ डिग्री से ६० डिग्री तक १० दशमी
६० डिग्री से ४८ डिग्री तक ११ एकादशी
४८ डिग्री से ३६ डिग्री तक १२ द्वादशी
३६ डिग्री से २४ डिग्री तक १३ त्रयोदशी
२४ डिग्री से १२ डिग्री तक १४ चतुर्दशी
१२ डिग्री से ० डिग्री तक १५ अमावस्या
नोटः- डिग्री को ही अंश कहते हैं। अंश के कई अर्थ होने के कारण यहाँ ‘डिग्री’ शब्द का प्रयोग किया गया है।
17/11/19, 11:18 am – Shastra Gyan Suresh Jhajjar: 🙏🚩
17/11/19, 12:15 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: 1 प्रश्न था
अगर कोई मनुष्य का जन्म चांद पर हो तो उसकी लग्न कुंडली कैसे बनेगी और उस पर क्या दस ग्रह होंगे या आठ???
17/11/19, 12:19 pm – Abhinandan Sharma: No point asking hypothetical question plz..
17/11/19, 12:23 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: 🙏
17/11/19, 1:51 pm – Dr PL Sharma White Cottege Ghaziabad Shastr Gyan: 🕉 ज्योतिष विज्ञान सही है परन्तु फलित ज्योतिष ज्ञान पर विश्वास नहीं हो सकता।
एक ही समय में जन्म लेने वाले हर दृष्टि से भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं।
17/11/19, 2:27 pm – Abhinandan Sharma: अभी और अध्ययन अपेक्षित है । एक ही समय से कोई मतलब नहीं है क्योंकि जन्मस्थान, समय दोनो की महत्ता है और जुड़वा बच्चे भी एक ही साथ पैदा नहीं होते हैं ।
17/11/19, 2:27 pm – Abhinandan Sharma: अभी प्रतीक्षा करे और निष्कर्ष से बचें 🙏
17/11/19, 2:47 pm – Mummy Hts: Jyotish isa vast cent re of Gyan it can not. Be taught like this ,and not to everyone. ,miisuse ki possibility jyada hai ,Thora seekh ke hi log maha Gyani bank na sttartt kertey hai
17/11/19, 4:56 pm – LE Onkar A-608: कुछ लोग समुद्र से मछलियाँ पकड़ते है, कुछ मूंगा मोती पाकर अभिमानी हो जाते हैं किन्तु कुछ लोग तो बिना गोता लगाए ही समुद्र से नीचे स्थित पेट्रोलियम भी निकाल कर निरभिमानी रहकर और अधिक की खोज में लगे रहते हैं।
सबकी क्षमता अलग अलग होती होती है।
एक ही विद्यालय में एक साथ बैठ कर पढ़े विद्यार्थियों में कुछ अपने क्षेत्रों में शीर्ष पर पहुँच जाते हैं तो कुछ अपने सहपाठियों के अधीन रहकर उनके लिए काम करते हैं।
ज्ञान का प्रवाह समानरूप से होता रहे, जिसकी जितनी आवश्यकता एवं क्षमता होगी वह उतना ही ले पायेगा।
17/11/19, 5:02 pm – Abhinandan Sharma: बहुत उत्तम बात कही, ओंकार जी आपने । सभी से निवेदन है कि बिना विषय को पढ़े, गहराई में जाये, निष्कर्ष निकालने और जजमेंटल होने से बचे 🙏 यही इस ग्रुप की सार्थकता है कि हम गहरे में जा रहे हैं और असल शास्त्रों को पढ़ रहे हैं ।
17/11/19, 5:04 pm – LE Onkar A-608: 🙏
17/11/19, 5:15 pm – +91 : 👌
17/11/19, 5:19 pm – ABKG Reader Vikas Kr Dubey Bhadohi UP: एक प्रश्न था मन मे, की ऐसा कब और कैसे होता है कि एक ही तिथि दो दिन तक या फिर एक दिन में दो तिथि हो जाती है कभी कभी। जैसे नवरात्र कभी 8 दिन तो कभी 10 दिन। ऐसा कैसे होता है??
17/11/19, 6:06 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: This message was deleted
17/11/19, 6:08 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: अगर आप तिथियों का वर्णन ठीक से पढ़ेंगे और विचार करेंगे तो समझ में आ जाएगा कि तिथियों को डिग्री में नापते हैं। अगर अगर १२ डिग्री से आगे चन्द्रमा जायेगा तो द्वितीया तिथि होगी, और यह दिन के बारह बजे भी हो सकता है।
धैर्य रखिए आगे और पढ़ने पर जानकारी प्राप्त होगी।
17/11/19, 6:09 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: धन्यवाद 🙏😊
17/11/19, 6:09 pm – ABKG Reader Vikas Kr Dubey Bhadohi UP: ये तो समझ मे आ गया की हर 12 डिग्री पर एक तिथि बदल रही है। मेरा प्रश्न इसके बाद मन मे आया।
17/11/19, 6:29 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: This message was deleted
17/11/19, 6:31 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: *रामायण बालकाण्ड – पंचदश सर्ग, श्लोक २३,२४,२५,१६,२७,२८
क्रीडन्तो नन्दनवने क्रूरेण काल हिंसिताः। वधार्थ वयमायातास्तस्य वै मुनिभिः सह॥२३॥
देखिए उस दुष्ट ने (इन्द्र के) नन्दनवन नामक उद्यान मे क्रीड़ा करते हुए अनेक गन्धर्वो तथा अप्सराओं को मार डाला। उसी को मरवाने के लिए हम यहां मुनियों सहित आये है।
सिद्धगन्धर्वयक्षाश्च ततस्त्वाम् शरणं गतः। त्वं गतिः परमा देव सर्वेषां नः परन्तप॥२४॥
हम सिद्ध, गन्धर्व और यक्षो सहित आपकी शरण में आए है। हे देव हमारी दौड़ तो आप तक ही
है।
वधाय देवशत्रुणां नृणां लोके मनः कुरुः। एवमुक्तस्तु देवेशो विष्णुस्त्रिदशपुङ्गवः॥२५॥
अतः आप देवताओं के शत्रु रावण का वध करने के लिए मनुष्यलोक में अवतीर्ण होइये। इस प्रकार देवताओं ने भगवान विष्णु की स्तुति की।
पितामहपुरोगांस्तान्सर्वलोकनमस्कृतः। अव्रवीत्र्रिदशानसर्वान्समेतान्धर्मसंहितान्॥२६॥
सर्वलोकों से नमस्कार किये जाने वाले अर्थात सर्वपूज्य भगवान विष्णु ने शरण आये हुए एकत्रित ब्रह्मादि देवताओं से कहा।
भयं त्यजत भद्रं वो हितार्थं युधि रावणम्। सुपुत्रपौत्रं सामात्यं समित्रज्ञातिवान्धवम्॥२७॥
हत्वा क्रूरं दुरात्मानं देवर्षीणां भयावहम्। दशवर्ष सहस्त्राणि दशवर्ष शतानि च। वत्स्यामि मानुषे लोके पालयन्पृथिविमिमाम्॥२८॥
हे देवताओं तुम्हारा मंगल हो, तुम अब मत डरो। तुम्हारे हित के लिए मैं रावण से लड़ूंगा। मैं पुत्र, पौत्र, मंत्रि, मित्र जाति वालों तथा बन्धु बान्धव सहित उस क्रूर, दुष्ट और देवताओं तथा ऋषियों के लिए भयप्रद रावण को मार और ग्यारह हजार वर्ष तक मर्त्यलोक में रहकर, इस पृथिवी का पालन करूंगा।
17/11/19, 6:37 pm – Shastragyan Abhishek Sharma:
17/11/19, 7:08 pm – LE Onkar A-608: This message was deleted
17/11/19, 7:09 pm – LE Onkar A-608: क्रीडन्तो नन्दनवने क्रूरेण काल हिंसिता।
क्या इसका तात्पर्य मार डालने से ही है?
अमरलोक में मृत्यु ?
17/11/19, 7:12 pm – Abhinandan Sharma: इसका उत्तर अलंकार जी दे सकते हैं ।
17/11/19, 8:03 pm – Shastra Gyan Ranjana Prakash: 🥳
17/11/19, 8:44 pm – LE Onkar A-608 added ABKG Nand Kr Yadav Sultanpur UP, S Tyagi Properties Luxuria, +91 6393 973 274, +91 70652 06530, +91 72177 52480, +91 73557 38213, +91 80574 02418, +91 80769 23986, +91 81889 59261, +91 83030 37108, +91 83681 83684, +91 84472 42525, +91 88401 64436, +91 89330 83660, +91 89579 50543, +91 90267 22748, +91 93100 76114, +91 93508 75744, +91 94151 18555, +91 94159 46943, +91 94500 45045, +91 94501 81943, +91 94520 51523, +91 94536 96977, +91 94552 63326, +91 96963 40667, +91 97233 53172, +91 97600 84282, +91 97925 86708, +91 98107 00128, +91 98182 23892, +91 98387 09925, +91 98736 93753, +91 98917 24999, +91 98998 71567, +91 99100 52883, +91 99184 75393, +91 99189 97507, +91 99305 36797, +91 99685 82994 and +91 99992 86428
17/11/19, 8:45 pm – LE Onkar A-608: इस ग्रुप में फ़ॉर्वर्डेड पोस्ट डालना मना है | नेट से कोई भी कंटेंट, ख़ास तौर से बिना सन्दर्भ के अथवा तोडा मरोड़ा हुआ, डालना भी मना है | जो आपने स्वयं पढ़ा हो, किसी शास्त्र से, कोई दोहां, कोई चोपाई, कोई पुराण, कुछ भी, वो आप इस ग्रुप में डाल सकते हैं | ग्रुप ज्वाइन करने वाले, खुद भी कोई भी एक पुस्तक, ग्रुप एडमिन के परामर्श से प्रारंभ कर सकते हैं और उसे पढ़कर ग्रुप में अन्य मेम्बेर्स को पढने के लिए डाल सकते हैं | अभी ग्रुप में ४-5 पुस्तक इस प्रकार के प्रयास से चल रही है, जिससे सभी लोग वो ग्रन्थ पढ़ सकें | स्वागतम !
17/11/19, 8:50 pm – ABKG Nand Kr Yadav Sultanpur UP:
17/11/19, 8:50 pm – ABKG Nand Kr Yadav Sultanpur UP: Today attend the abacus class at asha devi degree college pithla kumarganj .
Every students calculation very fast 2&3 digit subtraction and addition without calculator and pen.
17/11/19, 8:51 pm – ABKG Nand Kr Yadav Sultanpur UP:
17/11/19, 9:06 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi removed ABKG Nand Kr Yadav Sultanpur UP
17/11/19, 9:07 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: कृपया इस प्रार्थना को पूरी संजीदगी से समझें 🙏🏼🙏🏼
17/11/19, 9:22 pm – Ashu Bhaiya: यहीं उड़ेलूँ क्या ? या व्यक्तिगत रूप से ?
17/11/19, 9:22 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: यहीं
17/11/19, 9:51 pm – ABKG Reader Vikas Kr Dubey Bhadohi UP: दोनो ही सूरतों में स्वागत है। यद्यपि ज्ञान अगर समूह में बांटा जाय तो ज्यादा अच्छा रहेगा। इससे कम मेहनत में ज्यादा लोगो तक बात पहुचेगी।
17/11/19, 9:52 pm – +91 : वायु शुद्ध करने में भारतीय वैदिक तकनीक पूरी तरह सफल
आज का विज्ञान फेल
पढ़कर तो देखें तब चिन्तन करें, सोचें और विचारें
यही वैज्ञानिकता है।
*प्रदूषण की विकरालता के चलते दिल्ली एनसीआर में स्वास्थ्य आपातकाल* घोषित कर दिया गया है। बच्चों के *स्कूल बंद कर दिये गये हैं*।सरकार लाखों खर्च कर पचास हजार मास्क खरीद रही है और ये स्थिति दिल्ली या भारत की ही नहीं लगभग *पूरा विश्व प्रदूषण की समस्या से जूझ रहा है।*
इससे मुक्ति पाने का सबसे सरल और तुरत उपाय है यज्ञ का करना।
*पूरे देश में बड़े पैमाने पर यदि यज्ञ करवाये जायें तो चंद दिनों में ही इस समस्या का समाधान संभव है।*
यज्ञ आत्मिक आनन्द और पारलौकिक सुख तो देता ही है इसी के साथ *यज्ञ पर्यावरण को शुद्ध कर हमें आरोग्य भी प्रदान करता है।*
कुछ लोगों का मानना है कि इतनी महंँगाई में घृत आदि महंँगे पदार्थों को खाने की अपेक्षा अग्नि में जलाकर नष्ट कर देना उचित नहीं है बल्कि जलाने की अपेक्षा खाया जाए तो अधिक लाभप्रद होगा।
*महर्षि दयानन्द* इस शंका का समाधान करते हुए लिखते हैं *"जो तुम पदार्थ विद्या जानते तो कभी ऐसी बात ना कहते"*
क्योंकि किसी द्रव्य (पदार्थ) का अभाव नहीं होता।
विज्ञान से भी यही तथ्य सिद्ध होता है।----
“द्रव्य की अविनाशिता के नियम” के अनुसार भी पदार्थ कभी नष्ट नहीं होता।
पदार्थों को अग्नि में जलाने या पदार्थों पर किसी रासायनिक क्रिया करने से पदार्थों के अपने स्वरूप में ही परिवर्तन होता है। परिवर्तनों होने पर पदार्थ की बहुत कम मात्रा नवीन पदार्थ में बदल जाती है लेकिन निस्तापन व भर्जन आदि क्रियाओं द्वारा पदार्थ का अधिकतम भाग गैसीय रूप में बदल जाता है।
वातावरण में उपस्थित धूल मिट्टी के कण कोलॉइडी आकार में कोहरे {फॉग (Fog)} के रूप में वातावरण में प्रदूषण उत्पन्न करते हैं।
इस फॉग (Fog) रूपी वातावरण के प्रदूषण को दूर करने के यज्ञ विज्ञान को निम्न उदाहरण से समझा जा सकता है। —
यदि बहुत धूलभरे वातावरण में किसी ऐसे व्यक्ति को भेजा जाए जिसकी कमीज (शर्ट) की एक बाँह पर गाय का घी लगा हो तथा दूसरी बाँह पर घी नहीं लगा हो और वह व्यक्ति एक-दो घण्टे रुककर वहाँ से लौटकर अपनी शर्ट उतार कर झाड़े तो शर्ट की जिस बाँह पर घी लगा था उससे धूल मिट्टी झड़ेगी नहीं।
इससे पता चला कि घी में धूल मिट्टी के कोलॉइडी कणों को पकड़ने (खींचने) की बड़ी ताकत (शक्ति) है।
प्रात: कालीन बेला (ब्रह्ममुहूर्त) में जब वातावरण का ताप न्यूनतम होता है तब ओस पड़ती है तो उस समय धूल मिट्टी लगे गैसीय घी के कणों पर वायु की जलवाष्प भी जम जाती है और वह भारी होकर ओस के साथ वातावरण से भूमि पर आ जाते हैं और वातावरण शुद्ध व साफ हो जाता है।
यज्ञ में जलवाष्प को संघनित (Condense) करने वाले आर्द्रताग्राही (Moisturizer) पदार्थ हवन सामग्री के साथ प्रयोग करके वृष्टि यज्ञ किया जाता है।
यज्ञ में विशिष्ट औषधियों का प्रयोग करके पुत्रेष्टि यज्ञ भी किया जाता था।
रामायण काल में श्रंगि ऋषि ने पुत्रेष्टि यज्ञ किया था और राम,लक्ष्मण,भरत एवं शत्रुध्न जैसे महान् पुत्र उत्पन्न हुए।
इसी प्रकार गो संरक्षण एवं संवर्धन के लिए गोमेघ यज्ञ राष्ट्र की सुख-समृद्धि एवं संगठित रखने के लिए अश्वमेघ यज्ञ किए जाते थे।
यज्ञ में विभिन्न प्रकार की अग्नियों को उत्पन्न करके यज्ञ से अलग-अलग प्रकार के लाभों को प्राप्त करते थे। जैसे सूखे मेवे युक्त सामग्री की आहुति देने से गैस, BP, ह्रदय, शुगर आदि रोगों में लाभ होता है।
इसी प्रकार अलग-अलग वक्षों जैसे आम, पीपल, गूलर,बरगद ,पलास के पौधों की समिधा (आहुति की लकड़ी) का प्रयोग करके अलग-अलग लाभ प्राप्त होते हैं। अंगारों की अग्नि या ज्वाला अग्नि का भी अलग-अलग लाभ मिलता है।
इसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण यह है कि हर पदार्थ की ज्वाला का रंग भी भिन्न-भिन्न होता है अर्थात् उनके गुण भी भिन्न-भिन्न ही होंगे और जब गुण भिन्न-भिन्न होंगे तो उनके लाभ भी भिन्न-भिन्न प्राप्त होते हैं।
प्रायोगिक तौर पर भी देखने में आता है कि चूल्हे की आग पर सेकी गईं रोटियांँ गैस पर सिकी रोटियों की अपेक्षा पचने में अधिक आसान होती हैं।
रसायन विज्ञान में पदार्थों का जब ज्वाला परीक्षण करते हैं तो उसमें पदार्थ को ज्वाला में रखकर गर्म किया जाता है तो जो ज्वाला का रंग बनता है वह विशेष होता है और उसी से उस पदार्थ की पहचान कर ली जाती है।
यह ज्वाला के भिन्न-भिन्न रंग पदार्थों में उपस्थित इलेक्ट्रॉनों के इलेक्ट्रॉनिक विन्यास पर निर्भर होते हैं। इन्हीं रंगों से पदार्थ की पहचान कर ली जाती है।
इस प्रकार वातावरण को शुद्ध और पवित्र करने की यज्ञ के अलावा और दूसरी कोई भी तकनीक (Technique) विधि नहीं है जो इतने कम खर्च में इतना अत्यंत व्यापक असर कर सके। यज्ञ तो कहीं भी कोई गरीब भी कर सकता है
महत्वपूर्ण बात तो यह है कि यज्ञ करने के लिए तो किसी भी तरह के यंत्र या मशीन की भी जरूरत ही नहीं होती है और कहीं भी कभी भी किया जा सकता है।
प्रत्येक व्यक्ति वातावरण में पसीना, मलमूत्र एवं स्वास में CO२ विसर्जन कर वातावरण को गंदा तो नित्य करता है
परन्तु जो व्यक्ति नित्य इस प्रर्यावरण को गंदा या प्रदूषित कर रहा है कि उसी का दायित्व है कि वह नित्य इसे शुद्ध भी करे।
प्राचीन समय में प्रत्येक व्यक्ति दैनिक यज्ञ करके वातावरण के प्रदूषण को नित्य दूर करता था परन्तु आज का व्यक्ति संस्कारहीन शिक्षा के कारण इस कर्त्तव्य से ही अनभिज्ञ है। पता नहीं यह जाग्रति कब आयेगी ?
परन्तु वह अपने इस दायित्व को निभाता क्यों नहीं है? वह अपने दायित्व को भूला हुआ है।
मीडिया, नेता , खिलाड़ी या अभिनेता अथवा वैज्ञानिक सभी अपने इस वातावरण शुद्धिकरण के दायित्व को निभाने के लिए यज्ञ के प्रति दुराग्रहपूर्ण भावना रखे हुए हैं और इस ओर ध्यान ही नहीं दे रहे हैं
वरना मीडिया तो इस सर्वहितकारी यज्ञ का प्रचार-प्रसार का अभियान चलाकर जन-जन को इतना जागरूक व प्रेरित कर सकता है कि फिर शायद अन्य की जरूरत ही न पड़े।
यदि व्यक्ति यज्ञ के द्वारा इसको शुद्ध भी किया करें तो प्रदूषण की समस्या उत्पन्न ही नहीं होगी।
आज यज्ञ के इस विज्ञान के प्रचार-प्रसार की महती आवश्यकता है।
शास्त्रों में यज्ञ को इसी वैज्ञानिकता के कारण सर्वोत्तम कर्म माना गया है।
पदार्थ में उपस्थित गुण सूक्ष्म रूप धारण कर अधिक शक्तिशाली होकर और अधिक लाभदायक हो जाते हैं।
विज्ञान के अनुसार रासायनिक प्रक्रिया स्थूल पदार्थ की अपेक्षा सूक्ष्म कणों वाले पदार्थों में अधिक तेजी से होती है।
लकड़ी या कोयला धीरे-धीरे जलता है पेट्रोल-डीजल-केरोसिन कुछ तेजी से जलते हैं और कुकिंग गैस या कोई ईंधन गैस अत्यंत तीव्र गति से जलती है।
रसायनिक क्रिया में पदार्थ के अणु भाग लेते हैं जो अत्यंत सूक्ष्म हैं ।अतः पदार्थ जितना अधिक सूक्ष्म होगा वह क्रिया में उतनी ही जल्दी भाग लेगा एवं क्रिया तेज होगी। रासायनिक प्रक्रिया ठोस और द्रव की अपेक्षा गैस में सबसे अधिक तेजी से होती है।
यज्ञाग्नि मेंआहूत किए गए द्रव्य की शक्ति और उसका व्यापार क्षेत्र उसके सुक्ष्म होने से अनेक गुणा बढ़ जाता है।
स्थूल वनस्पति और औषधियों की यज्ञाग्नि में हवि देने से उसके औषधीय गुण कई गुना बढ़ जाते हैं। यज्ञ में जो हव्यद्रव्य आहुत किए जाते हैं वे अत्यंत सूक्ष्म होकर गैस रुप में आ जाते हैं।हल्के होकर शीघ्र ही संपूर्ण वायु में फैल जाते हैं।
यह वैज्ञानिक सत्य है स्थूल पदार्थ से उसके चूर्ण में,चूर्ण से तरल में और तरल से वायु या गैस रूप में अधिक शक्ति होती है।
मिर्च को खाने और अग्नि में डालकर उसको सूँघने से यह अंतर स्पष्ट हो जाता है। जैसे मिर्च खाने से केवल खाने वाले व्यक्ति पर ही उसका प्रभाव पड़ता है परंतु उसी मिर्च को जलाने से बहुत लोगों पर उसकी तीक्ष्ण गंध का प्रभाव होता है। इससे यह भी विदित होता है कि अग्नि में जल जाने से मिर्चों का नाश नहीं होता निश्चय ही उसका अस्तित्व अपने परिवर्तित रूप में वायु में बना रहता है।यही बात यज्ञाग्नि में भस्म हुए पदार्थों की है। सूक्ष्म रूप में वे सदा आकाश में बने रहते हैं।
आयुर्वेद चिकित्सा प्रणाली में प्रयुक्त की जाने वाली बिभिन्न भस्में सूक्ष्मीकरण के सिद्धांत के आधार पर तैयार की जाती हैं। यदि हमारे शरीर को लौह खनिज की आवश्यकता होती है तो चिकित्सक लोहे को स्थूल रूप में नहीं देते हैं वह लोह भस्म देते हैं।जो औषधि का कार्य करती है।
जिस धातु में अग्नि की जितनी पुट होगी उतनी ही अधिक शक्तिशाली होगी।
यजुर्वेद का मंत्र….
अहुतमसि हविर्धानं………यच्छनतां पञ्च।।(यजु०१/९)
अर्थात् अग्नि में डाला गया पदार्थ परिवर्तित होकर नैंनो कणों (Particles) के रूप में सूक्ष्म बन जाता है ।स्थूल होने से कोई भी पदार्थ वायुमंडल में नहीं फैल सकता।
पदार्थ सूक्ष्म होकर शक्तिशाली बन जाता है [(होम्योपैथी की दवाओं की पोटेंसी (शक्ति) का सिद्धांत भी नैंनो Particles की सूक्ष्मता के आधार पर ही है।)] और वातावरण में फैलकर वायु जल और आकाश को सुगंधमय बना देता है।व्यापक किरणों वाला सूर्य भी उन सुगंधमयी औषधियुक्त हवियों को अंतरिक्ष में फैलाकर दुर्गंधादि दोषों का नाश करता हुआ वायु को शुद्ध और सुखकारक बनाताहै।
यज्ञ द्वारा वायुमण्डल में ओजोन (O3) की व्रृद्धि होती है और ओजोन परत में छिद्र नहीं हो पाते जिससे पराबैंगनी किरणें पृथ्वी पर नहीं आती और वे हानि नहीं कर पातीं।
यदि हमें स्वस्थ रहना है और सभी को स्वस्थ रखना है, रोगों से मुक्ति पानी है तो अपने घर-परिवार, गली-मोहल्ले या पार्क आदि में यज्ञ करना ही होगा वातावरण को शुद्ध करने का दूसरी कारगर व सर्वसुलभ कोई तकनीक (तरीका) ही नहीं है।
ऐसा करके आप न केवल अपनी संस्कृति का प्रचार करेंगे वरन मानवमात्र के कल्याण का पुण्य भी प्राप्त करेंगे।
अतः यह कार्य अभी से प्रारम्भ कर दें क्योंकि शुभ कर्म को देरी क्या?
खुद यज्ञ करें, दूसरों से करवायें तथा दूसरों को प्रेरित करें एवं जहांँ भी हो जैसे भी हो यज्ञ का प्रचार-प्रसार करने में समर्पित होकर सहायक और सहयोगी बनें। 🙏
यदि आपको यह सर्वकल्याणकारी, सर्व हितकारी प्रतीत हो तो आगे Forward करने में विलम्ब नहीं करना।
धन्यवाद्।
17/11/19, 9:56 pm – LE Ravi Parik : This message was deleted
17/11/19, 9:57 pm – FB Mukesh Sinha Pathalgaon CG Shastra Gyan: क्या ये सही।है
17/11/19, 9:58 pm – +91 :
17/11/19, 10:15 pm – LE Onkar A-608: कृपया आप लोग धैर्य पूर्वक आने वाले सन्देशों को पढ़े।
अब तक आप लोग व्हाट्सएप पर फालतू के सन्देशों का आदान प्रदान करते रहे हैं।
बे सिर पैर के सन्देश अग्रेषित करने के बजाय शुद्ध शास्त्रीय ज्ञान की प्रमाणिक जानकारी प्राप्त करने के लिए यह शास्र ज्ञान ग्रुप है।
इसमें किसी भी तरह के सन्देश फारवर्ड करना अति निन्दनीय कर्म की श्रेणी में आता है।
17/11/19, 10:22 pm – Ashu Bhaiya: आंग्ल दिनांक और वार रात्रि 12 बजे परिवर्तित माना जाता है, परंतु अपनी तिथि और वार प्रातः सूर्योदय पर गिना जाता है ।
ज्योतिष के अनुसार, सूर्योदय के समय पर जो तिथि है वही उस दिन की तिथि मानी जाती है, जैसे कि वार में भी है ।
अब यदि एक ही तिथि दो सूर्योदय को स्पर्श करती है तो वह तिथि अधिक कहलाती है, और यदि किसी सूर्योदय को स्पर्श न करे तो क्षय ।
हालांकि तिथि मध्य में से गायब नहीं होती, मात्र सूर्योदय पर नहीं रहती तो क्षय कहते हैं ।
इन सभी ज्योतिषीय क्रमचय-संचय की स्थितियों में व्रत-पर्व-उत्सव के निर्धारण के लिए पृथक निर्णय धर्मशास्त्रों के विषय हैं ।
17/11/19, 10:23 pm – Dayadhankr Soryvanshi Hts, Akhilesh Frnd: क्या यह सही है ? इसकी कोई प्रामाणिक पुस्तक है ?
17/11/19, 10:34 pm – FB Mrudul Tiwari Allahabad Shastra Gyan: सभी नए लोग कृपया ध्यान दें इस ग्रुप में फारवर्ड या किसी भी अन्य प्रकार के शुभकामना , गुड़ मॉर्निंग फ़ोटो या वीडियो प्रकार के मैसेज करना मना है।
यहां मात्र स्वयम के द्वारा ही लिखे गए शास्त्र सम्बंधित पोस्ट करिये।
नए जुड़े सदस्यों से प्रार्थना है कि वो 2 या 3 दिन इस ग्रुप में आने वाले मैसेज को पढ़ें और समझें, उसके बाद ही किसी प्रकार की टिप्पणी करें।
17/11/19, 10:35 pm – LE Onkar A-608: यदि सभी तिथियों का अंश समान है तो उतने अंश की दूरी तय करने में चन्द्रमा को समान समय ही लगना चाहिए।
इस तरह तो सभी तिथियों किसी न किसी अंश पर सूर्योदय मिलना चाहिए।
किन्तु आगे मैं अपनी जिज्ञासा को कुछ स्वाध्यायानन्तर व्यक्त करूंगा। 🙏
17/11/19, 10:41 pm – Ashu Bhaiya: बिल्कुल स्वाध्याय करें निवारण हो जाएगा ।
17/11/19, 11:33 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-८ श्लोक १२,१३,१४
सोऽलसः अत्यर्थदुष्टास्तु दोषा दुष्टामबद्धखाः। यान्तस्तिर्यक्तनुं सर्वां दण्डवत्स्तम्भयन्ति चेत्॥१२॥
दण्डकालसकं नाम तं त्यजेदाशुकारिणम्।
दण्डालसक का वर्णन- ऊपर कहे गए कारणों से वात आदि दोष अत्यन्त कुपित तथा दूषित होकर आम (अपक्व) अन्न द्वारा मुख एवं गुदामार्ग के रुक जाने के कारण ये तिर्यग्वाहि अर्थात रसवाही स्रोतों द्वारा समस्त शरीर में फैलकर सम्पूर्ण शरीर को दण्ड (डण्डे) के समान जड़ कर देते हैं। अतः इस रोग को दण्डालसक कहते हैं। यह रोग शीघ्र मारक होता है। इसकी चिकित्सा करना छोड़ देनी चाहिए।
वक्तव्य-* अ.सं.सू.११/५१ में विसूचिका के असाध्य लक्षणों का वर्णन किया है।इनका अवलोकन कर लें।
विरुद्धाध्यशनाजीर्णशीलिनो विषलक्षणम्॥१३॥
आमदोषं महाघोरं वर्जयेद्विषसंज्ञकम्। विषरूपाशुकारित्वाद्विरूद्धोपक्रमत्वतः॥१४॥
आमविष का वर्णन- विरूद्धअशन (अ.हृ.सू. ७/३१), अध्यशन (इसी अध्याय का ३४वां पद्य) तथा अजीर्ण अवस्था में भी आहार करने वाले पुरुष का आमदोष अत्यन्त कष्टदायक होता है, इसलिए इसे ‘आमविष’ कहते हैं। यह विष के समान अपना शीघ्र प्रभाव दिखलाता है और इसकी यदि चिकित्सा की जाती है तो उसका प्रभाव भी विपरीत ही होता है।
वक्तव्य- ‘विरूद्धोपक्रमत्व’- यह आमविष के समान गुणों वाला होता है, अतः विष की शीत प्रधान चिकित्सा की जाती है और आमदोष मे उष्ण उपचार करने का विधान है। अतएव यह विरूद्धोपक्रम होता है, जिसकी सफलता नहीं मिल पाती। चरक ने उक्त विषय का प्रतिपादन इस प्रकार किया है— “विरूद्धाध्यशनाजीर्णाशनशीलिनः पुनरामदोषमामविषमित्याचक्षते भिषजः”। (च.वि. २/१२) ठीक इसी का पद्यानुवाद श्रीवाग्भट ने किया है। यद्यपि विषरोगी की चिकित्सा की जाती है, वह निरोग भी होता है, किन्तु यहां (आमविष में) परिस्थिति का भेद है, अतएव यह विरूद्धोपक्रम होता है। इस आमविष का जब प्रकोप होता है तो ऐठन या मरोड़ के साथ चावल के धोवन का जैसा वमन या विरेचन होता देखा जाता है। प्राय इसका स्वरूप “आमातिसार” जैसा होता है।
17/11/19, 11:47 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 2 श्लोक 42 और 43
अतिपातितकालसाधना स्वशरीरेन्द्रियवर्गतापनी ।
जनवन्न भवन्तं अक्षमा नयसिद्धेरपनेतुं अर्हति ।। २.४२ ।।
वियोगिनी
अर्थ: हे भीमसेन ! काल(समय) और सहायता की अतिक्रमण-कारिणी और अपनी ही इन्द्रियों को कष्ट प्रदायिनी असहिष्णुता (असहनशीलता) सामान्य मनुष्य की तरह आपको नीतिसाध्य फल की प्राप्ति (सिद्धि) से वञ्चित करने में समर्थ नहीं होगी ।
*अक्षमा = असहिष्णुता (क्रोध की चरमसीमा)
उपकारकं आयतेर्भृशं प्रसवः कर्मफलस्य भूरिणः ।
अनपायि निबर्हणं द्विषां न तितिक्षासमं अस्ति साधनं ।। २.४३ ।।
वियोगिनी
अर्थ: आने वाले समय में अत्यन्त उपकारक(हितकारी) तथा कर्म के फलों को बहुत बड़ी मात्रा में देने वाला और अपनी किसी भी प्रकार की हानि न करते हुए शत्रुओं का विनाशक,तितिक्षा(क्षमा) के बराबर अन्य कोई भी साधन नहीं है । क्षमा भी शत्रु का विनाश करने का अमोघ साधन है । शत्रु के विनाश के अन्यान्य साधन हैं किन्तु उनके प्रयोग से प्रयोक्ता की भी न्यूनाधिक हानि अवश्य होती ही है । किन्तु क्षमा एक ऐसा साधन है जिसके प्रयोग से प्रयोक्ता को किसी भी प्रकार की हानि नहीं होती । क्षमा के कारण कर्मफलों की पर्याप्त मात्रा में प्राप्ति होती है । क्षमावान का यश बढ़ता है और जिसे क्षमा की जाती उसकी हानि अनिवार्य रूप से होती है । शक्ति-सम्पन्न वीरों के लिए क्षमाकारिता निश्चित रूप से भूषण है । क्षमा से ही शत्रु की एकांतिक और आत्यन्तिक हानि सम्भव है । अन्य किसी भी उपाय से नहीं, युद्ध से तो कदापि नहीं ।
टिप्पणी: क्षमा के अनेक गुण हैं किन्तु क्षमा सबलों के लिए भूषण है, निर्बलों के लिए कदापि नहीं । निर्बल व्यक्ति के द्वारा यदि क्षमा करने की बात भी की जाय तो उपहासास्पद होता है । परिग्रहवान ही जैसे त्याग कर सकता है उसी प्रकार सबल व्यक्ति ही क्षमा करने का पात्र होता है । अभावग्रस्त जैसे त्याग करने का अधिकारी नहीं होता उसी प्रकार निर्बल व्यक्ति भी क्षमा करने का अधिकारी नहीं है ।
पाण्डव शक्ति सम्पन्न हैं अतः उनके द्वारा क्षमा करना भूषणास्पद है । सबके लिए नहीं और सर्वदा नहीं ।
कोप बलवान के लिए भी हानिकारक है निर्बलों का कोप ही उनका सम्पूर्ण विनाश कर देता है । सबलों का कोप भी (स्वयं के लिए भी) हानिकारक ही है । कोप अन्तः शत्रु है ।
यहाँ उपमान से उपमेय का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया जाने के कारण व्यतिरेक अलङ्कार है ।
17/11/19, 11:49 pm – ABKG Reader Vikas Kr Dubey Bhadohi UP: परन्तु यदि सभी आकाशीय पिंडो के घूमने की गति निरंतर एक जैसी है। उनमे प्रतिदिन अंशो के रूप में जो दूरी होती जाती है वो भी एक है तो फिर कोई तिथि दो सूर्योदय को कैसे स्पर्श कर सकती है। उसे तो एक समान होना चाहिए पूरे वर्ष।
18/11/19, 5:23 am – +91 : असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्
स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः।।
हे जगदीश!
जिस कामदेव के बाण देव, असुर एवं नर समूह रूप विश्व में नित्य विजेता रहे,
कहीं भी असफल हो कर नही लौटते थे
वही कामदेव जब आपको अन्य देवताओं के समान (जेय) समझने लगा, तब आपके देखते ही वह स्मृति मात्र शेष रह गया ( भस्म हो गया)
और ( सच है कि) जितेन्द्रियों का अपमान ( उन्हें विचलित करने का उपक्रम) कल्याण कारी नहीं ( अपितु घातक ) होता है ।।15।।
18/11/19, 6:04 am – Abhinandan Sharma: इसके लिये प्रतीक्षा करें, विषय आगे आएगा ।
18/11/19, 6:18 am – ABKG Reader Vikas Kr Dubey Bhadohi UP: 🙏🏽
18/11/19, 6:31 am – Ashu Bhaiya: गति एक सी है ? ये कहाँ से मिला…… सब की गति और कक्षाएं पृथक-पृथक हैं अतः कोणीय गतियाँ भी पृथक-पृथक हैं ।
सूर्य 1 राशि (30 अंश) को 1 माह में चलते हैं वहीं चन्द्रमा इतना चलने के लिए लगभग 2.5 दिन लेता है, और शनि 2.5 वर्ष । एक सी गति नहीं है ।
द्वितीय शंका का निवारण यह है कि सूर्योदय एक घटना है और सूर्य और चंद्रमा की स्थिति में 12 अंश का अंतर दूसरी घटना है । इनका परस्पर सम्बन्ध न होने से ये कैसे भी हो सकती हैं । सूर्योदय पड़े न पड़े और तिथि परिवर्तित हो जाये यह संभव है । ध्यान रखें कक्षा दीर्घवृत्ताकार हैं वृत्तीय नहीं ।
18/11/19, 6:50 am – ABKG Reader Vikas Kr Dubey Bhadohi UP: मेरा कहने का मतलब था, सबकी अपनी जो भी चाल है वो समान है। अगर पृथ्वी 10 किमी प्रतिघन्टे की रफ्तार है तो वही है शुरू से, अगर चन्द्र की 25 किमी है तो वही है। मेरा ये मतलब था। और जब सबकुछ समान है तो जो परिणाम पहले दिन आया तो हर बार वही परिणाम हर दिन आना चाहिए।
18/11/19, 6:51 am – ABKG Reader Vikas Kr Dubey Bhadohi UP: आगे शायद शंका निवारण हो। अभी मैं शायद ऊपर ऊपर ही देख पा रहा हूँ।🙏🏽
18/11/19, 6:52 am – Ashu Bhaiya: मनन करें । रेखीय गति, कोणीय गति और कक्षा को ध्यान में रखें ।
रेल में यात्रा करते समय पास का खम्भा सेकंड में और दूर का वृक्ष इतनी देर में आंखों से ओझल कैसे होता है ।
18/11/19, 7:26 am – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: ।।पंचतंत्र।।
प्रथम तन्त्र
मित्रभेद (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
धन की महत्ता पर मुग्ध होकर वर्धमान अपने मन में कहने लगा—
न सा विद्या न तद्दानं न तच्छिल्पं न सा कला।
न तत्स्थैर्य्यं हि धनिनां याचकैर्यन्न गीयते।।
धन के बिना न कोई विद्या प्राप्त की जा सकती है, न कोई कला सीखी जा सकती है और न ही किसी प्रकार की साधना की जा सकती है। भले ही सेवा आदि करके यदि कुछ सीख भी ले, तो भी व्यक्ति अधूरा ही कहलाता है। इसीलिए धनी लोगों का गुणगान करने वाले उन्हें धर्म और संस्कृति का रक्षक बताकर उनकी प्रशंसा करते अघाते नहीं।
इह लोके हि धनिनां परोऽपि स्वजनायते।
स्वजनोऽपि दरिद्राणां सर्वदा दुर्जनायते।।
प्रायः यह भी देखने को मिलता है कि धनिकों से पराये लोग भी सम्बन्ध जोड़ने के लिए प्रयत्न करते रहते हैं, लेकिन ग़रीबों के सगे-सम्बन्धी भी उन्हें अपनाने में संकोच करते हैं।
अर्थेभ्योऽपि हि वृद्धेभ्यः संवृत्तेभ्यस्ततस्ततः।
प्रवर्त्तन्ते क्रियाः सर्वाः पर्वतेभ्य इवापगाः।।
जिस प्रकार पर्वत से निकलने वाली नदी लोगों का कल्याण करने के साथ-साथ उनके धन में भी वृद्धि करती है, उसी प्रकार धन से ही संसार में सभी कार्य सम्पन्न होते हैं।
पूज्यते यदपूज्योऽपि यदगम्योऽपि गम्यते।
वन्द्यते यदवन्द्योऽपि स प्रभावो धनस्य च ।।
धन की महिमा का वर्णन नहीं किया जा सकता। धन आ जाने पर धनहीन व्यक्ति भी कुलीन बन जाता है। इस प्रकार धन के महत्त्व को नकारने की मूर्खता कोई नहीं कर सकता।
18/11/19, 7:36 am – Abhinandan Sharma: ज्योतिर्लिंग की कथाएँ, लिंग का अर्थ, पापों के प्रकार, संध्या क्या होती है – शास्त्र ज्ञान
शास्त्र ज्ञान के इस सत्र में हमने विभिन्न ज्योतिर्लिन्ग् के उद्भव के बारे में चर्चा की |
खैर, आगे इस सत्र में, विभिन्न प्रकार के पापों के बारे में बात की गयी है और संध्या (जो कि कुल 5 होती हैं, दिनरात में) किन्तु मुख्य 3 होती होती हैं | उनके बारे में बताया गया है |
https://youtu.be/nIlnB9wj6Pc
18/11/19, 8:38 am – Alok Dwivedi Ghaziabad Shastra Gyan left
18/11/19, 10:54 am – +91 : Om Nama shivaya
18/11/19, 11:30 am – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: This message was deleted
18/11/19, 11:37 am – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: #श्री गणेशाय नमः#
सुगम ज्योतिष प्रवेशिका
प्रथम भाग – जातक विचार
दूसरा प्रकरण
काल – परिचय
उदाहरणः जिस समय चन्द्रमा व सूर्य का अंतर ९६ डिग्री से कम होना प्रारंभ होता है। उस समय कृष्ण पक्ष की अष्टमी प्रारंभ हो जावेगी। इसी को बताने के लिए पंचांग में लिखा रहता है “आज सप्तमी ३२ घड़ी १५ पल” “कल अष्टमी २९ घड़ी २७ पल” इसका अर्थ हुआ जिस स्थान के हिसाब से पंचांग बनाया है उस स्थान पर सूर्योदय के उपरांत ३२ घड़ी १५ पल पर सूर्य और चंद्रमा का अंतर ९६ डिग्री हो जावेगा और दूसरे दिन (उसी पंचांग के स्थान पर) सूर्योदय के उपरांत २९ घड़ी २७ पल पर सूर्य चंद्रमा का अंदर ८४ डिग्री रह जावेगा अर्थात अष्टमी समाप्त हो जावेगी।
प्रायः विभिन्न पंचांगो में तिथियों का समय भिन्न-भिन्न दिया रहता है। आजकल अधिकतर पंचांग अपंडित या अर्ध-पंडित के बनाये अशुद्ध बिक रहे हैं। अतः जो सस्ता पंचांग हुआ उसे ही शुद्ध मान लोग बाग उसके अनुसार ही तिथि निर्णय कर लेते हैं।
नोटः चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से संवत्सर प्रारंभ होकर वैशाख कृष्ण अमावस्या को एक चंद्रमास पूरा होता है इसी कारण अमावस्या को ३० और पूर्णिमा को १५ लिखा जाता है।
18/11/19, 11:46 am – Vaidya Ashish Kumar: 🌹🌹👌🏻👌🏻
18/11/19, 5:24 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किसी ने पूछा नहीं, सम्भवतः सभी को श्लोक 42 का अर्थ समझ आ गया होगा, मुझे नही समझ आया था सो दूसरे शब्दों में दोबारा यहाँ लिख रहा हूँ।
किरातार्जुनीय सर्ग 2 श्लोक 42
बिना समय का क्रोध अपने ही शरीर को क्रोध और सन्ताप देने के अतिरिक्त कोई दूसरा परिणाम नहीं देता ।
18/11/19, 5:39 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 2 श्लोक 44 और 45
क्या तितिक्षापूर्वक समय बिताने से दुर्योधन सभी अन्य राजाओं को अपने वश में कर लेगा ।’ इस आशंका का समाधान करते हुए युधिष्ठिर कहते हैं कि –
प्रणतिप्रवणान्विहाय नः सहजस्नेहनिबद्धचेतसः ।
प्रणमन्ति सदा सुयोधनं प्रथमे मानभृतां न वृष्णयः ।। २.४४ ।।
वियोगिनी
अर्थ: हे भीमसेन ! मनस्वी जनों में अग्रगण्य वृष्णिकुल भूषण यादव लोग उनके प्रति विनम्र भाव से उन्हें सदा प्रणाम करने में तत्पर हम पाण्डवों को छोड़कर वे कौरवों का पक्ष कभी नहीं लेंगे क्योंकि उनका चित्त हम पाण्डवों में सदा ही स्वाभाविक प्रेम से आबद्ध है ।
यादव लोग अपने वास्तविक बल से घमण्डी हैं और कौरव लोग मिथ्या अहङ्कारी हैं । यादवों के प्रति सहज स्नेहवश हम पाण्डव विनम्र भाव रखते हैं, और वे भी हमारे विनय के वशीभूत होकर हम से प्रेम करते हैं वे हमारे पक्ष को छोड़कर अहङ्कारी कौरवों का पक्ष कभी भी नहीं स्वीकार करेंगे । क्योंकि वे यादव भी हमीं से अकृत्रिम स्नेह रखते हैं ।
दुर्योधन मिथ्या अहङ्कारी होने से वह यादवों के समक्ष नत-मस्तक नहीं हो सकता और वे यादव लोग स्वभावतः ही मनस्वी होने के कारण कौरवो का औद्धित्य सह नहीं सकते । अतः निरन्तर यादव कौरवों के वश में रहना असम्भव है । सम्प्रति भले ही किसी कारण कौरवों के पक्षधर हों किन्तु अन्ततोगत्वा यादव हम पाण्डवों का ही पक्ष लेंगे क्योंकि उनका भी स्वाभाविक प्रेम हमारे विनय भाव के कारण हम पाण्डवों में ही है ।
सुहृदः सहजास्तथेतरे मतं एषां न विलङ्घयन्ति ये ।
विनयादिव यापयन्ति ते धृतराष्ट्रात्मजं आत्मसिद्धये ।। २.४५ ।।
वियोगिनी
अर्थ: यही नहीं, इन यदुवंशियों के जो सहज मित्र हैं तथा जो कृत्रिम मित्र हैं, वे इनकी (यदुवंशियों की) इच्छा का उल्लंघन नही करते । ये दोनों प्रकार के लोग तो अपने अपने स्वार्थों के लिए धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन के साथ विनम्र जैसा व्यवहार रखते हैं ।
टिप्पणी: जब अनुकूल अवसर आएगा तो वे सब के सब यदुवंशियों के पक्ष में होकर हमारी ही सहायता करेंगे ।
18/11/19, 7:35 pm – S Tyagi Properties Luxuria:
18/11/19, 7:37 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi removed S Tyagi Properties Luxuria
18/11/19, 7:42 pm – LE B 204 Amit Srivastava added K P Singh Ji
18/11/19, 7:51 pm – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur: कृपया कोई भी इस तरह का मैसेज इस ग्रुप में ना भेजें
18/11/19, 8:00 pm – LE B 204 Amit Srivastava added LE Shailesh A-805
18/11/19, 8:05 pm – Abhinandan Sharma:
18/11/19, 8:16 pm – Abhinandan Sharma: This can’t be typed in whatsapp
18/11/19, 8:21 pm – Abhinandan Sharma: देवता भी मारे जाते थे तो फिर गंधर्वों और अप्सराओं की तो बात क्या !
18/11/19, 8:25 pm – LE Onkar A-608: 🤔 मैं तो यह समझता था कि देव लोक में सब अजर अमर होते हैं।
18/11/19, 8:41 pm – LE Onkar A-608: कह रहीम कैसे निभे, बेर केर को सङ्ग।
वैडोलत रस आपने, उनके फाटत अङ्गं।
कटीली झाड़ियों का सफाया ही एक मात्र उपाय लगता है।
18/11/19, 9:06 pm – Ashu Bhaiya: This message was deleted
18/11/19, 9:07 pm – Ashu Bhaiya: अव्रवीत्त्रिदशान्सर्वान्स मेतान्धर्मसंहितान् ।
18/11/19, 9:16 pm – Abhinandan Sharma: मूल में किसी और प्रकार लिखा है शायद, इसलिए मैंने ऐसा कहा ।
18/11/19, 9:58 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi added +91 82003 18169
18/11/19, 10:48 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: जी धन्यवाद🙏🏻
18/11/19, 10:49 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: *रामायण बालकाण्ड – पंचदश सर्ग, श्लोक २९,३०,३१
एवं दत्वा वरं देवो देवानां विष्णुरात्मवान्। मानुषे चिन्तयामास जन्मभूमिमथात्मनः॥२९॥
इस प्रकार भगवान विष्णु देवताओं को वरदान दे अपने जन्म लेने योग्य मनुष्यलोक में स्थान खोजने लगे।
ततः पद्मपलाशाक्षः कृत्वाऽऽत्मनं चतुर्विधम्। पितरं रोचयामास तदा दशरथं नृपं॥३०॥
कमलनयन भगवान विष्णु ने अपने चार रूपों से महाराज दशरथ को अपना पिता बनाना अर्थात उनके घर में जन्म लेना पसंद किया।
ततो देवर्षिगन्धर्वाः सरूद्राः साप्सरोगणाः। स्तुतिभिर्दिव्यरूपाभिस्तुष्टवुर्मधुसूदनम्॥३१॥
तब देवर्षि, गंधर्व, रुद्र, अपसरागण— इन सब ने मधुसूदन भगवान की स्तुति कर उनको प्रसन्न किया।
18/11/19, 10:56 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: This message was deleted
18/11/19, 10:57 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-८ श्लोक १५,१६
अथाममलसीभूतं साध्यं त्वरितमुल्लिखेत्। पीत्वा सोग्रापटुफलं वार्युष्णं योजयेत्ततः॥१५॥
स्वेदनं फलवर्तिं च मलवातानुलोमनीम्। नाम्यमानानि चाङ्गानि भृशं स्विन्नानि वेष्टयेत्॥१६॥
आमदोष की चिकित्सा- जब आमदोष अलसक के रूप में परिणत हो गया हो और साध्यता के लक्षणों से युक्त हो, तब उसे बालवच, पटु (नमक) एवं फल (मैनफल ) को गरम पानी में मिलाकर पिलायें, जिससे शीघ्र ही वमन हो अर्थात उस रोगी को यह वमनकारक पेय पिलाकर शीघ्र वमन करायें। उसके बाद उसे स्वेदन करायें और फिर उसे मल तथा अपानवायु को अनुलोम कराने वाली फलवर्ति का प्रयोग करायें। यदि इस समय आमदोष की विकृति के कारण उसके अंगों में सिकुड़न आ रही हो तो उन्हें पर्याप्त सेवन कराकर वस्त्र आदि से कसकर बांध दे।
वक्तव्य- ‘फलवर्ति’ नामक जिस योग की चर्चा यहां खारणादि ने की है वह इस प्रकार है— ‘शूले तु स्तिमिते सामे स्वेदः शस्तो मुहुर्मुहुः। रूक्षौष्णेः कटुकेः पांशुकरीषसिकतादिभिः॥ पिप्पल्योऽगारधूमश्च मदनं सर्षपास्त्रिवृत। हेमक्षीरी वचा किण्वं कुण्ठं दन्ति यवाग्रजः॥ समूत्रलवणाभ्यक्ता फलवर्ति रियं हिता। संस्वेद्यालसके शूलविबन्धानाहनाशिनी॥’ अर्थ प्राय स्पष्ट है। दूसरी फलवर्ति का योग चक्रपाणि ने ‘उदावर्त चिकित्सा’ श्लोक १३ चक्रदत्त में दिया है। श्रीअरुणदत्त ने अपनी व्याख्या में एक फलवर्ति का योग इस प्रकार दिया है— ‘ विपाच्यमूत्रम्लमधूनि दन्तीपिण्डीतकृष्णाविडधूमकुष्ठैः। वर्तिं कराङ्गुष्ठनिभां घृताक्तां गुदे रूजानाहहरीं विदध्यात्’॥ यदि ये वर्तियां समय पर उपलब्ध न हो तो किसी अन्य मल तथा वात को अनुलोमन करने वाली वर्ति का प्रयोग किया जा सकता है।
19/11/19, 6:19 am – +91 : मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदं
पदं विष्णोर्भ्राम्यद्भुजपरिघरुग्णग्रहगणम्।
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृतजटाताडिततटा
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता।।
हे ईश! जब आप ताण्डव नर्तन करते हैं तब आपके पेरौं के आघात से पृथ्वी अचानक संशय(संकट) को प्राप्त हो जाती है;
आकाश मंडल के ग्रह-नक्षत्र -तारे आपकी घूमते हुए भुजदण्ड ( की चोट) से पीड़ित हो जाते है
(अतः आकाश मण्डल भी संकट ग्रस्त हो जाता है)।
स्वर्ग आपकी खुली हुई( बिखरी) जटाओं के किनारों को चोट से बारम्बार दुःखद स्थिति को प्राप्त हो जाता है ।
यद्यपि आप जगत् की रक्षा के लिए ही ताण्डव करते हैं;
फिर भी आपकी प्रभुता (तो) वाम(क्षोभद) हो ही जाती है।
( सच है सम्पत्ति वाले का उचित कार्य भी विक्षोभ उत्पन्न कर देता है)।।16।।
19/11/19, 8:40 am – Abhinandan Sharma: वाह, अतिउत्तम । आजकल क्षमा को व्यर्थ समझकर त्याग दिया जाता है, किन्तु यहां क्षमा के बारे में उचित दर्शन प्रस्तुत किया गया है ।
19/11/19, 8:43 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: परन्तु
“क्षमा शोभती उस भुजङ्ग को जिसके पास गरल हो”
और जो कमज़ोर हो वो क्या करे?
19/11/19, 8:54 am – Abhinandan Sharma: ये भी लिखा है, उसमे । पुनः पढ़ें ।
19/11/19, 9:01 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: जो मुझे समझ आया वो ये कि क्षमा केवल सबल को ही शोभा देती है जबकि कोप सबल और निर्बल दोनों का ही विनाश करता है।
अब निर्बल का क्षमा करना तो बनता नहीं और कोप करना भी सही नही, इसके आगे अगर कुछ बताया है यहां तो शायद मुझे समझ नहीं आया। कृपया समझाएं।
19/11/19, 9:39 am – Abhinandan Sharma: You deleted this message
19/11/19, 9:40 am – Abhinandan Sharma: You deleted this message
19/11/19, 9:41 am – Abhinandan Sharma: निर्बल के बल राम !
जो, धन/बल से सक्षम न हो, वो किसी से बैर न बांधे (आँख बंद करके दुश्मनी न करे) किन्तु यदि कोई दुर्जन, उसकी अस्मिता के साथ, उसके आत्म सम्मान के साथ अनुचित करे तो परिस्थिति का भली भांति पूर्नावलोकन करके, अपने प्रतिकार की विधि को निश्चित करे | जो अपने पिता के, परिवार के, स्वयं के अपमान का प्रतिकार नहीं करता, उसके जिवित रहने और उसके मृत होने में कोई भेद नहीं है | अतः धैर्य पूर्वक विचार करके, क्रोध को त्याग कर (मूढ़ता से आसन्न), प्रतिकार अवश्य करे | जिस प्रकार, एक शूल, एक हाथी को भी भयंकर पीड़ा पहुचा कर, वश में कर लेता है, उसी प्रकार, निर्बल/निर्धन, संसाधनों से विहीन व्यक्ति भी, भली भांति विचार करके, बुद्धि का समुचित प्रयोग करके, बड़े से बड़े शत्रु को वश में कर सकते हैं |
क्षमा वीरों का आभूषण है किन्तु क्षमा होनी सभी के पास चाहिए | आपको जज करना है कि आप किस हद तक, सामने वाले को क्षमा कर सकते हैं जैसे गांधी जी कहते थे कि वीर में अपमान को पीने की क्षमता होनी चाहिए | ये आपको जज करना है कि आप कितना कडवा घूँट पी सकते हैं क्योंकि जैसा युधिष्ठिर ने कहा, ये भी दुर्जन का नाश ही करने वाला होता है | क्षमा सभी के लिए आवश्यक गुण है, थोडा या बहुत, ये व्यक्ति के ऊपर है | यदि शक्तिशाली है तो रावण तक को क्षमा कर दे (रामचंद्र जी सीता को लौटा देने पर, शरण में जाने पर, रावण को भी क्षमा कर देते, ऐसा विभीषण का सुझाव था, रावण को क्योंकि रामचंद्र जी का ह्रदय समुद्र से भी विशाल है ) किन्तु यदि आप शक्तिहीन हैं तो भी स्वयं को शक्तिहीन न समझें क्योंकि निर्बल के बल तो राम होते ही हैं |
19/11/19, 10:31 am – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: ।।पंचतंत्र।।
प्रथम तन्त्र
मित्रभेद (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
अशनादिन्द्रियाणीव स्युः कार्याण्यखिलान्यपि।
एतस्मात्कारणाद्वित्तं सर्वसाधनमुच्यते।।
सच तो यह है कि जिस प्रकार भोजन द्वारा शरीर के सभी अंगों को कार्य करने की क्षमता प्राप्त होती है, उसी प्रकार धन के द्वारा संसार के सभी कार्यों को सम्पन्न करना भी सम्भव हो जाता है।
अर्थार्थी जीवलोकोऽयं श्मशानमपि सेवते।
त्यक्त्वा जनयितारं स्वं निःस्वं गच्छति दूरतः।।
धन प्राप्त करने के लिए व्यक्ति वह कार्य भी करने को तैयार हो जाता है, जिनमें प्राणों की आशंका होती है। यहां तक की पुत्र भी अपने धनहीन पिता को छोड़ने में देर नहीं लगाता।
गतवयसामपि पुंसां येषामर्था भवन्ति ते तरुणाः।
अर्थेन तु ये हीना वृद्धास्ते यौवनेऽपि स्युः।।
धनहीन व्यक्ति अनेक प्रकार के रोग, अभाव एवं चिन्ताओं के कारण भरी जवानी में बूढ़ा हो जाता है, लेकिन धनी व्यक्ति कभी वृद्ध नहीं होता। बुढ़ापा भी उससे दूर भागता है।
वर्धमान बनिया सोचते-सोचते इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि धन-प्राप्ति के छह साधन हैं—
- भिक्षा,
- नौकरी,
- खेती-बाड़ी,
- कोई शिल्प अथवा अध्यापन या ज्योतिष आदि,
- साहूकारी,
- व्यापार।
लेकिन इन साधनों में धन-प्राप्ति के लिए व्यापार ही सर्वोत्तम साधन है।
19/11/19, 10:44 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙏🏼🙏🏼
19/11/19, 11:11 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: This message was deleted
19/11/19, 12:48 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: #श्री गणेशाय नमः#
सुगम ज्योतिष प्रवेशिका
प्रथम भाग – जातक विचार
दूसरा प्रकरण
काल – परिचय
- मासः* ३० तिथियों का या दो पक्षों का चन्द्रमास होता है या चन्द्रमा का महीना होता है। १२ चन्द्रमास का १ वर्ष होता है। १२ मासों के नाम क्रम से निम्नलिखित हैंः
१) चैत्र
२) वैशाख
३) ज्येष्ठ
४) आषाढ़
५) श्रावण
६) भाद्र
७) अश्विन
८) कार्तिक
९) मार्गशीर्ष
१०) पौष
११) माघ
१२) फाल्गुन।
संवत्सरः उत्तर भारत में प्राया चैत्र शुक्ल १ (प्रतिपदा) से विक्रम संवत्सर का प्रारंभ मानते हैं। किन्तु गुजरात प्रदेश में, मुंबई आदि दक्षिण-पश्चिम प्रांतों में कार्तिक शुक्ल १ (प्रतिपदा) से विक्रम संवत्सर का प्रारंभ मानते हैं।
जब पृथ्वी सूर्य का एक पूरा चक्कर लगा लेती है तो एक सौर-वर्ष (सूर्य का वर्ष) होता है। यह ३६५ दिन १५ घड़ी २२ पल व ५७ विपल का होता है।
19/11/19, 12:50 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: #श्री गणेशाय नमः#
सुगम ज्योतिष प्रवेशिका
प्रथम भाग – जातक विचार
दूसरा प्रकरण
काल – परिचय
मासः ३० तिथियों का या दो पक्षों का चन्द्रमास होता है या चन्द्रमा का महीना होता है। १२ चन्द्रमास का १ वर्ष होता है। १२ मासों के नाम क्रम से निम्नलिखित हैंः
१) चैत्र
२) वैशाख
३) ज्येष्ठ
४) आषाढ़
५) श्रावण
६) भाद्र
७) अश्विन
८) कार्तिक
९) मार्गशीर्ष
१०) पौष
११) माघ
१२) फाल्गुन।
संवत्सरः उत्तर भारत में प्राया चैत्र शुक्ल १ (प्रतिपदा) से विक्रम संवत्सर का प्रारंभ मानते हैं। किन्तु गुजरात प्रदेश में, मुंबई आदि दक्षिण-पश्चिम प्रांतों में कार्तिक शुक्ल १ (प्रतिपदा) से विक्रम संवत्सर का प्रारंभ मानते हैं।
जब पृथ्वी सूर्य का एक पूरा चक्कर लगा लेती है तो एक सौर-वर्ष (सूर्य का वर्ष) होता है। यह ३६५ दिन १५ घड़ी २२ पल व ५७ विपल का होता है।
19/11/19, 1:15 pm – FB Abhijit Rajkot Shastra Gyan:
19/11/19, 1:21 pm – Abhinandan Sharma: 👌👌
19/11/19, 7:01 pm – Abhinandan Sharma: बहुत सुंदर । इसी प्रकार सभी को गाने का प्रयास करना चाहिये । इससे संस्कृत न पढ़ पाने का भरम मिट जाएगा और आप देखेंगे कि आप न सिर्फ पढ़ पॉय रहे हैं बल्कि गा भी रहे हैं ।
19/11/19, 7:04 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-८ श्लोक १७,१८,
विसूच्यामतिवृद्धायां पार्ष्ण्योर्दाहः प्रशस्यते।तदहश्चोपवास्यैनं विरक्तिवदुपाचरेत्॥१७॥
पार्ष्णिदाह प्रयोग- यदि विसूचि (हैजा) रोग का वेग अधिक बढ़ गया हो तो दोनों एड़ियों में दाहकर्म करना चाहिए, इसकी प्रसंशा की गयी है। उस दिन इस रोगी को उपवास कराकर विरिक्त की भांति इसका उपचार करें।
वक्तव्य- विसूचि के वेग के अधिक बढ़ जाने पर जो ऊपर पार्ष्णिदाह की चर्चा की गई है, वह वास्तव में रोगी की बेहोशी को दूर करने के लिए है। इसका उल्लेख सुश्रुत में भी है। देखें— सु.उ.५६/१२। ध्यान दे— सुश्रुत ने कहा है कि यह दाह कर्म तभी करें जब रोगी साध्य हो। विरिक्तवदुपाचरेत— वमन कराने के बाद रोगी को संसर्जन क्रम में रखा जाता है, इसके बाद में पेया, विलेपी देकर स्वस्थ होने पर भोजन दिया जाता है। इसकी विस्तृत विधि देखें— अ.हृ.सू.१८।
तीव्रार्तिरपि नाजीर्णी पिबेच्छूलघ्नमौषधम्। आमसन्नोऽनल नालं पंक्तुदोषौषधाशनम्॥१८॥
निहन्यादपि चेतैषां विभ्रमः सहसाऽऽतुरम्।
अन्य उपचार- अत्यन्त वेदना होने पर भी अजीर्ण का रोगी शूलनाशक औषधि का पान न करें, क्योंकि आमदोष के कारण मन्द जठराग्नि वात आदि दोषों, औषध तथा अशन (पहले खाये गये आहार) को पचाने में समर्थ नहीं होता है। कभी ऐसा भी होता है कि दोष, औषध एवं आहार का विभ्रम (समुचित प्रयोग न हो पाना) रोगी को सहसा मार सकता है।
वक्तव्य- च.वि.२/१३ का यह गद्य वाग्भट के उक्त पद्यरचना का मूल स्रोत रहा है।
19/11/19, 7:24 pm – Shastra Gyan Ranjana Prakash: ?
19/11/19, 7:28 pm – +91: वैदिक गणित और कुछ नहीं ,जिसका व्यवसायीकरण कर लिया गया है
19/11/19, 7:33 pm – Shastra Gyan Ranjana Prakash: 👍🏾
19/11/19, 7:42 pm – Shastra Gyan Ranjana Prakash: थोडा और सामान्य भाषा में कोई जन लिखें,क्योंकि यह एक अचानक होनेवाला रोग है।
19/11/19, 7:49 pm – Shastra Gyan Ranjana Prakash: This message was deleted
19/11/19, 7:49 pm – Shastra Gyan Ranjana Prakash: यहाँ नहीं होना चाहिए।
19/11/19, 11:06 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: # श्री गणेशाय नमः#
न्याय-दर्शन
विषय- प्रवेश
न्याय शब्द का अर्थ-‘न्याय’ शब्द का प्रयोग अनेक अर्थो में किया जाता है।
(1) साधारणत ‘ न्याय’ शब्द का अर्थ होता हैं, “नियमेन ईयते” अर्थात् नियमयुक्त व्यवहार। न्यायालय, न्यायकर्ता आदि प्रयोग इसी अर्थ को लेकर हैं।
(2) प्रसिद्ध द्दष्टान्त के साथ ‘सद्दश’अर्थ में भी ‘न्याय’ शब्द का व्यवहार होता है।यथा, बीजांकुरन्याय काकतालीय न्याय, स्थलीपुलाक न्याय इत्यादि।
किन्तु दार्शनिक साहित्य में न्याय का अर्थ होता है-
नियते प्रप्यते विवक्षितार्थसिद्धिनेन इति न्यायः
अर्थात् जिसके द्वारा किसी प्रतिपाद्य विषय की सिद्धि की जा सके, जिसकी सहायता से किसी निश्चित सिद्धान्त पर पहुँचा जा सके, उसी का नाम ‘ न्याय’ है।
एक द्दष्टान्त ले लीजिए। सामने पहाड़ पर धुंआ देखकर आप अनुमान करते हैं कि वहाँ जरूर आग है। इस विषय को सिद्ध करने के लिए निम्नोक्त तर्क प्रणाली का अनुसरण करना पड़ेगा।
1 पर्वत पर अग्नि हैं…….(प्रतिज्ञा)
2 क्योंकि वहाँ धुंआ है…..(हेतु)
3 जहाँ धुंआ रहता है, वहाँ आग भी रहती हैं, जैसे रसोईघर में…(उदहारण)
4 पर्वत पर भी धुंआ है…..(उपनय)
5 इसलिये पर्वत पर अग्नि है…..(निगमन)
यहां प्रतिपाद्य विषय है’पर्वत पर अग्नि का होना।’ यह साध्य वा प्रतिज्ञा है।इसका साधन वा प्रमाण है’ पर्वत पर धुंआ दिखलाई पड़ना’।यह हेतु है।धुंआ अग्नि के अस्तित्व का सूचक चिन्ह क्यों है? इसलिए कि सर्वत्र धुंए का सम्बंध आग के साथ पाया जाता है, जैसे रसोईघर में।यह उदहारण है।रसोईघर की तरह पहाड़ पर भी धुंआ पाया जाता है।यह उपनय है।इसलिए पहाड़ पर भी आगहोगी।यह निगमन या निष्कर्ष है।
उपयुर्क्त पांचो अवयव(1 प्रतिज्ञा 2 हेतु 3 उदहारण 4उपनय 5 निगमन) मिलकर प्रतिपाद्य विषय को सिद्ध करने में समर्थ होते है। इन्ही पंचावयवो से युक्त वाक्यसमुह को ‘न्याय’ अथवा ‘ न्याय प्रयोग’ कहते है।
19/11/19, 11:11 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: रामायण बालकाण्ड – पंचदश सर्ग श्लोक ३२,३३
तमुद्धतम् रावणमुग्रतेजसं प्रवृद्धदर्पं त्रिदशेश्वरद्विषं। विरावणं साधु तपस्विकण्टकं तपस्विनामुद्धरं तं मयावहम्॥३२॥
त्वमेव हत्वा सबलं सवान्धवं विरावणं रावणमुग्रपौरूषं। स्वलेकिमागच्छ गतज्वरश्चिरं। सुरेन्द्रगुप्तं गतदोषकल्मषं॥३३॥
और कहा, हे प्रभु! इस उद्दण्ड, बड़े तेजस्वी, अत्यन्त अहंकारी, देवताओं के शत्रु, लोकों को रूलाने वाले, साधु तपस्वियों को सताने वाले और भयदाता रावण का नाश कीजिये। उस लोकों को रूलाने वाले और उग्र पुरुषार्थी रावण को बंधु, बांधव तथा सेना सहित मार कर और संसार के दुखों को दूर कर, इन्द्रपालित तथा पाप एवं दोषशून्य स्वर्ग में पधारिये।
*इति पंचदश सर्गः॥*
19/11/19, 11:24 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👌🏼
20/11/19, 2:53 am – Shastra Gyan Mukesh Mishra Allahabad: बहुत अच्छा
20/11/19, 5:43 am – +91 : Rig Vedic Mantra Before Food Beautiful Meaning
20/11/19, 5:43 am – +91 :
20/11/19, 7:40 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: पहले भी कई बार ये कहा जा चुका है कि कोई भी forwarded video, image या post allowed नहीं हैं। कृपया इसके आगे और कोई भी, किसी भी तरह का video न डालें 🙏🏼धन्यवाद🙏🏼
20/11/19, 8:31 am – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: ।।पंचतंत्र।।
प्रथम तन्त्र
मित्रभेद (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
कृता भिक्षाऽनेकैर्वितरति नृपो नोचितमहो
कृषिः क्लिष्टा विद्या गुरुविनयवृत्त्यतिविषमा।
कुसीदाद्दारिद्रयं परकरगतग्रन्थिशमना-
न्न मन्ये वाणिज्यात्किमपि परमं वर्त्तनमिह।।
छहों साधनों की तुलना करते हुए वर्धमान अपने आपसे कहने लगा—
भिक्षावृत्ति को अपनाने वाले इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि इससे पेट भरना भी सम्भव नहीं होता।
सेवा, अर्थात् दूसरों का आदेश पालन करना और उनके अधीन रहना है। भले ही इसमें एक निश्चित समय पर बंधा हुआ वेतन मिल जाये, लेकिन अधिक कमाने के लिए कोई अवसर सुलभ नहीं होता।
खेती-बाड़ी में एक ओर अत्यधिक परिश्रम करना होता है, वहीं वर्षा के रूप में प्रकृति पर निर्भर होना पड़ता है।
शिल्प,अध्यापन अथवा ज्योतिष आदि किसी कार्य में सफलता प्राप्त करके धन प्राप्त करने के लिए गुरु को प्रसन्न करना होता है।
साहूकारी में कई बार ब्याज तो ब्याज, मूलधन भी गंवाना पड़ जाता है।
इन पांचों साधनों पर विचार करने के पश्चात् मैं तो व्यापार को ही सर्वोत्तम साधन मानता हूं।
उपायानां च सर्वेषामुपायः पण्यसंग्रहः।
धनार्थं शस्यते ह्येकस्तदन्यः संशयात्मकः।।
व्यापार में असीम लाभ की आशा रहती है। आवश्यक वस्तुओं का संग्रह करके और उन्हें ऊंचे दामों पर बेचकर लाभ प्राप्त किया जा सकता है। इसमें न किसी की नौकरी होती है और न अधिक परिश्रम की आवश्यकता होती है। यदि अधिक श्रम और धन का निवेश किया जाये, तो लाभ भी अधिक होता है। इस प्रकार मेरे विचार से व्यापार ही धन-प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन है।
व्यापार पर विचार करते हुए वर्धमान ने निश्चय किया कि सात प्रकार के पदार्थों का व्यापार किया जा सकता है—
- सौंदर्य वर्धक प्रसाधनों का क्रय-विक्रय करना।
- आभूषण आदि गिरवी रखकर ब्याज पर ऋण देना। यह एक प्रकार की साहूकारी ही है, परन्तु इसमें धन डूबने की कोई आशंका नहीं रहती।
- पालतू पशुओं का क्रय-विक्रय करना।
- ग्राहकों का विश्वास जीतकर उन्हें घटिया माल देना।
- कम दाम में ख़रीदकर वस्तुओं को ऊंचे दाम पर बेचना।
- नाप-तोल में हेराफेरी करना।
- सीधे उत्पादकों से सस्ते दाम पर ख़रीदे पदार्थों को अधिक दाम में बेचना।
20/11/19, 9:52 am – +91: 👌🏻👌🏻🙏🏻
20/11/19, 12:03 pm – +91 : वियद् व्यापी तारा गण गुणित फेनोद्गम रुचिः
प्रवाहो वारां यः पृषतलघु दृष्टः शिरसि ते।
जगद् द्वीपाकारं जलधि वलयं तेन कृतमि–
त्यनेनैवोन्नेयं धृत महिम दिव्यं तव वपुः।।
हे जगदीश!
समस्त आकाश में फैले तारों के सदृश फेन की शोभा वाला जो गंगाजल का प्रवाह है,
वह आपके सिर पर जल विन्दु के समान ( छोटा) दिखाई पड़ा
और ( सिर से नीचे गिरने पर) उसी जल विन्दु ने समुद्र रूपी करधनी( वलय-) के भीतर संसार को द्वीप के समान बना दिया ।
बस इसी से आप का दिव्य शरीर सर्वोत्कृष्ट है—यह अनुमेय हो जाता है ।
20/11/19, 6:07 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: #श्री गणेशाय नमः#
सुगम ज्योतिष प्रवेशिका
प्रथम भाग – जातक विचार
दूसरा प्रकरण
काल – परिचय
अधिक मासः सूर्य और चंद्रमा के वर्षों में भेद होता है सूर्य का वर्ष ३६५ दिनों से कुछ अधिक और चांद्र-वर्ष (चन्द्रमा के पृथ्वी के १२ चक्कर) करीब ३५४ दिन का होता है। इस कारण दोनों प्रकार के वर्षों में अन्तर यदि कायम रखा जावे तो कभी तो ‘भाद्र’ का महिना पड़े वर्षा ऋतु में, कभी प्रचण्ड गर्मी में और कभी जाड़े में। ऐसा ना हो इसलिए दोनों प्रकार के बरसों में ११ दिन के फर्क को मिटाने के लिए ‘मल’ मास या अधिक मास (जिसे पुरुषोत्तम मास भी कहते हैं) की योजना कर दी गई है।*
- नोटः जब दो संक्रांति उनके बीच एक चंद्रमास पड़ जाता है तो उसे अधिक मास कहते हैं मुसलमानी ज्योतिष में यह व्यवस्था नहीं है तो उनके ताजिये और रोजे (चांद्रमास के हिसाब से) कभी जाड़े में तो कभी गर्मी में होते हैं।
20/11/19, 9:28 pm – Abhinandan Sharma:
20/11/19, 10:28 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: *रामायण बालकाण्ड – षोडश सर्ग श्लोक १,२,३,४,५*षोडशः सर्गः*
ततो नारायणो देवो नियुक्तः सुरसत्तमैः। जानन्नपि सुरानेवं श्लक्षणं वचनमब्रवीत्॥१॥
देवताओं की स्तुति सुन सब जानने वाले साक्षात परब्रह्म नारायण, देवताओं के सम्मानार्थ यह मधुर वचन बोले।
उपायः को वधे तस्य राक्षसाधिपतेः सुराः। यमहं तं समास्थाय निहन्यामपिकण्टकम्॥२॥
हे देवताओं! यह बतलाओ कि, उस राक्षसों के राजा और मुनियों के कण्टक को हम किस उपाय से मारें।
एवमुक्ताः सुराः सर्वे प्रत्यूचुर्विष्णुमव्ययम्। मानुषीं तनुमास्थाय रावणं जहि संयुगे॥३॥
यह सुन देवताओं ने अव्यय विष्णु से कहा—मनुष्य रूप में अवतीर्ण हो रावण को युद्ध में मारिये।
स हि तेपे तपस्तीव्रं दीर्घकालमरिन्दम्। येन तुष्टोऽभवद्ब्रह्मा लोककृल्लोकपूजितः॥४॥
हे अरिन्दम! उसने बहुत दिनों तक कठोर तप कर लोककर्ता और लोकपूजित ब्रह्मा को प्रसन्न किया।
संतुष्टः प्रददौ तस्मै राक्षसाय वरं प्रभुः। नानविधेभ्यो भूतेभ्यो भयं नान्यत्र मानुषात्॥५॥
तब उन्होंने प्रसन्न हो उस राक्षस को यह वर दिया कि, मनुष्य के सिवाय हमारी सृष्टि के किसी भी जीव के मारे तुम न मरोगे।
20/11/19, 11:01 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-८ श्लोक १९,२०,२१
जीर्णाशने तु भैषज्यं युञ्ज्यात् स्तब्धगुरुदरे॥१९॥
दोषशेषस्य पाकार्थमग्नेः सन्धुक्षणाय च।
भोजन के पच जाने पर भी यदि पेट में स्तब्धता एवं भारीपन प्रतीत होता है, तो शेष दोष को पचाने के लिए और जठराग्नि को सुलगाने अर्थात तीव्र करने के लिए औषध-योगों का प्रयोग करें।
शान्तिरामविकाराणां भवति त्वपतर्पणात्॥२०॥
त्रिविधं त्रिविधे दोषे तत्समीक्ष्य प्रयोजयेत्।
अपतर्पण प्रयोग- आमदोष जनित विकारो की शान्ति के लिए अपतर्पण (तर्पण = चकाचक भोजन करना, इसके विपरीत उपवास-लंघन = अपतर्पण) का प्रयोग करना चाहिए और उस अपतर्पण का प्रयोग तीन प्रकार के दोषों में तीन प्रकार (अल्प, मध्य, प्रधान भेद) से विचार करके करना चाहिए।
तत्राल्पे लङ्घ्नं पथ्यं, मध्ये लड्घ्नपाचनम्॥२१॥
प्रभूते शोधनं, तद्धि मूलादुन्मूलयेन्मलान्।
यदि आमदोष अल्प मात्रा में हो तो लंघन(उपवास) कराना ही हितकर होता है। मध्यम श्रेणी का आमदोष हो तो लंघन के साथ-साथ दोष को पचाने वाले औषध-द्रव्यो का भी प्रयोग कराना चाहिए। यदि आमदोष अधिक मात्रा में हो तो वमन तथा विरेचन करायें, क्योंकि यह शोधन कर्म उक्त आमदोष को जड़ से उखाड़ देता है।
21/11/19, 6:09 am – +91: रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो
रथांगे चन्द्रार्कौ रथ चरण पाणिः शर इति।
दिधिक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बरविधि
र्विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः।।
हे परमेश्वर!
त्रिपुरासुर रूपी तृण को दग्ध करने के इच्छुक आपने पृथ्वी को रथ, ब्रह्मा को सारथि, सुमेरु पर्वत को धनुष, चन्द्र और सूर्य को रथ के दोनों चक्के और चक्रपाणि विष्णु को (जो) बाण बनाया, (तो) यह सब आडम्बर (समारम्भ) करने का क्या प्रयोजन था?
( सर्व समर्थ आप उसे अपने इच्छा मात्र से जला सकते थे)
निश्चय ही अपने वशवर्ती (हाथ में स्थित)
खिलौनों से खेलती हुई ईश्वर की बुद्धि पराधीन नहीँ होती (अर्थात् वह स्वतंत्र रूप से अपने खिलौनों से खेलती रहती है)।।18।।
21/11/19, 7:17 am – Shastra Gyan Suresh Jhajjar: This message was deleted
21/11/19, 9:00 am – +91: राधे – राधे – आज का भगवद चिंतन।।
19-11-2019
🎄 श्रीराम वो उदार चरित्र हैं जिन्होंने अपने जीवन का एक भी दिन अपने लिए नहीं जिया है। उनका जीवन सदा - सर्वदा परोपकार, परमार्थ एवं लोकहित में ही संलग्न रहा।
🎄 कभी ऋषि वशिष्ठ जी के होकर जिए तो कभी महर्षि विश्वामित्र जी के। कभी निषाद राज के होकर जिए तो कभी देवी भीलनी के। कभी गिद्ध राज जटायु के होकर जिए तो कभी कपिराज सुग्रीव के।
🎄 प्रभु श्रीराम के जीवन का एक एक दिन मानो किसी दूसरे की प्रसन्नता के लिए ही रहा। पारिवारिक समरसता के भी वो जीवंत उदाहरण हैं। परिवार और समाज की समरसता और प्रसन्नता के लिए जो त्याग प्रभु श्री राम का रहा वह शायद ही किसी और का रहा हो।
🎄 राम कथा ही वो कथा है जो हमें त्याग की शिक्षा देती है। इसलिए ये बात कही जाए कि राम कथा परोपकारी, लोकसेवी और परमार्थी बनाने का विद्यालय है तो कोई अतिशयोक्ति भी नहीं होगी।
🎄 निचोड़ केवल इतना ही कि प्रभु राम की मंगलमय जीवन गाथा हमें स्वार्थी नहीं परमार्थी बनाती है अथवा यूँ कहें कि पदार्थवादी नहीं परमार्थवादी बनाने की प्रेरणा प्रदान करती है।
बिना श्री राम से प्रेरणा लिए जीवन में देवत्व और शुभत्व नहीं घटता।
💐🍀🌷🌺🌷🙏🙏🍀💐🌷🌺
21/11/19, 9:03 am – Abhinandan Sharma: क्या ये चिंतन स्वयं आपका है मान्यवर !!
21/11/19, 9:08 am – Shastra Gyan Maniah Patiala: वानस्यायन कहते है :-
साध्य विषय की सिद्धि के हेतु जो अवशयक अवयवसवरुप पंचवाक्य है उनका समूह ही न्याय है| प्रतिज्ञा ,हेतु,आदि अवयव ” न्यावयव“कहलाते है | सम्पूर्ण न्याय प्रयोग का फलितार्थ या निचोड़ है अंतिम निगमन |अतएव यह ‘ परमन्याय‘ कहलाता है|
उपयुत्क पंचावयव अनुमान के अंग है| दुसरो के समक्ष प्रतिपाद्य विषय को स्थापित करने के लिए ही इन पांचो महावाक्यो का सहारा लेना पड़ता है| अंत: इनके प्रयोग को ‘परार्थानुमान’ कहते है|
इस तरह न्याय शब्द से परार्थानुमान का ग्रहण होता है| अंतः माधवाचार्य सर्वदर्शन संग्रह में न्याय को परार्थानुमान का अपर पर्याय बतलाते है|
यदि सूक्षम दृष्टि से देखा जाय तो न्याय अथवा परार्थानुमान में सभी प्रमाणों का संघटन हो जाता है| प्रतिज्ञा में शब्द , हेतु में अनुमान , उदाहरण में प्रत्यक्ष , और उपनय में उपमान, इस प्रकार सभी प्रमाण आ जाते है| इन सबो के योग से ही निगमन वा फलितार्थ निकलता है| अतएव न्यायवर्तितका में कहा गया है –
समस्त प्रमाणों के व्यापार के द्वारा किसी निष्कर्ष या फल की प्राप्ति होना ही’ न्याय‘ हैं।
इस प्रकार न्याय शब्द की व्यामि उन सभी विषयों में हो जाती है जहाँ प्रमाण की सहायता से पदार्थ का विवेचन किया गया हो। इसलिए प्रत्येक शास्त्र की न्याय संज्ञा हो सकती है।इसी कारण मीमाँसा प्रभृति के कतिपय ग्रन्थों के नाम में भी न्याय शब्द देखने में आता है। यथा-मीमाँसान्यायप्रकाश, न्यायरत्नाकर इत्यदि। इन स्थालों में ‘ न्याय‘ शब्द का अर्थ है ‘ युक्तिसंगत विवेचना‘ ।
21/11/19, 9:31 am – Abhinandan Sharma: ये सबको समझ आ गया ?
21/11/19, 9:50 am – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech:
21/11/19, 9:50 am – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: 🙏
21/11/19, 12:31 pm – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: ।।पंचतंत्र।।
प्रथम तन्त्र
मित्रभेद (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
पण्यानां गान्धिकं पण्यं किमन्यैः काञ्चनादिभिः।
यत्रैकेन च यत्क्रीतं तच्छतेन प्रदीयते।।
इन सभी प्रकार के व्यापारों पर विचार करते हुए वर्धमान ने सोचा कि सौंदर्य प्रसाधन का व्यापार सोने-चांदी के व्यापार से अच्छा तो है, लेकिन इन पदार्थों के पुराना होकर नष्ट होने का ख़तरा होता है।
निक्षेपे पतिते हर्म्ये श्रेष्ठी स्तौति स्वदेवताम्।
निक्षेपी म्रियते तुभ्यं प्रदास्याम्युपयाचितम्।।
साहूकारी के धन्धे में कोई मूल्यवान् वस्तु हाथ में आ जाने पर व्यक्ति भगवान् से ऋणी के मर जाने अथवा उसके अस्वस्थ हो जाने की कामना करने लगता है, ताकि वह ऋण न चुका सके और उस वस्तु पर उसका अधिकार हो जाये।
गोष्ठिककर्मनियुक्तः श्रेष्ठी चिन्तयति चेतसा हृष्टः।
वसुधा वसुसम्पूर्णा मयाद्य लब्धा किमन्येन।।
पशुओं आदि का व्यापारी अपने आपको सारे संसार का स्वामी समझकर झूठे अहंकार में फंस जाता है।
परिचितमागच्छन्तं ग्राहकमुत्कण्ठया विलोक्यासौ।
हृष्यति तद्धनलुब्धो यद्वत्पुत्रेण जातेन।।
परिचित ग्राहक को अपनी ओर आता देखकर व्यापारी इतना प्रसन्न हो उठता है, मानो उसे पुत्र प्राप्त हो गया हो, लेकिन यह प्रसन्नता क्षण-भर की होती है।
पूर्णापूर्णे माने परिचितजनवञ्चनं तथा नित्यम्। मिथ्याक्रयस्य कथनं प्रकृतिरियं स्यात्किरातानाम्।।
नाप-तौल में हेरा-फेरी करके ग्राहक को मूर्ख बनाना एक बार तो अच्छा लगता है, लेकिन ऐसी बेईमानी हमेशा नहीं चल सकती।
21/11/19, 9:04 pm – FB Abhijit Rajkot Shastra Gyan: 👌🏻👌🏻
21/11/19, 9:41 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: This message was deleted
21/11/19, 10:09 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: रामायण बालकाण्ड- षोडश सर्ग श्लोक ६,७,८,९,१०
अवज्ञाताः पुरा तेन वरदानेन मानवाः। एवं पितामहात्तस्माद्वरं प्राप्य स दर्पितः॥६॥
वह मनुष्य को तुच्छ समझता था।अतः उसने मनुष्यों से अभय रहना न मांगा। ब्रह्मा जी के वर से वह गर्वित हो गया।
उत्सादयति लोकांस्त्रीन्स्त्रयश्चाप्यापकर्पति। तस्मात्तस्य वधो दृष्टो मानुषेभ्यः परन्तप॥७॥
इस समय वह तीनों लोकों को उजाड़ता है और स्त्रियों को पकड़कर ले जाता है, अतएव वह मनुष्य के हाथ से ही मर सकता है।
इत्येद्वचनं श्रुत्वा सुराणां विष्णुरात्मवान्। पितरं रोचयामास तदा दशरथं नृपं॥८॥
देवताओं की इन बातों को सुनकर भगवान विष्णु ने महाराज दशरथ को अपना पिता बनाना पसंद किया।
स चाप्यपुत्रो नृपतिस्तस्मिनकाले महाद्युतिः। अयजत्पुत्रियामिष्टिं पुत्रेप्सुररिसूदनः॥९॥
उसी समय पुत्रहीन, महाद्युतिमान, शत्रुहन्ता महाराज दशरथ ने पुत्रप्राप्ति के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ करना आरंभ किया।
स कृत्वा निश्चयं विष्णुरामन्त्र्य च पितामहम्। अन्तर्धानं गतो देवैः पूज्यमानो महर्षिभिः॥१०॥
इस प्रकार महाराज दशरथ के घर में जन्म लेने का निश्चय कर और ब्रह्मा जी से बातचीत कर भगवान विष्णु वहां से अन्तर्धान हो गये।
21/11/19, 10:11 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
श्री मनुस्मृति
तृतीय अध्याय
स्त्रियां तु रोचमानायां सर्वं तद्रोचते कुलम् ।
तस्यां त्वरोचमानायां सर्वं एव न रोचते । । ३.६२ । ।
कुविवाहैः क्रियालोपैर्वेदानध्ययनेन च ।
कुलान्यकुलतां यान्ति ब्राह्मणातिक्रमेण च । । ३.६३ । ।
शिल्पेन व्यवहारेण शूद्रापत्यैश्च केवलैः ।
गोभिरश्वैश्च यानैश्च कृष्या राजोपसेवया । । ३.६४ । ।
अर्थ
स्त्री भूषित हो तो कुल की शोभा होती है नहीं तो परिवार की शोभा नही होती ।
दूषित विवाहों से या कर्म के लोप से,वेद के ना पढनें से,ब्राह्मणों का अपमान करने से उत्तम कुल भी अधम हो जाता है
शिल्प-भांति भांति की कारीगरी करने से,लेन-देन करने से,सिर्फ शुद्रा स्त्री से सन्तान पैदा करने से।
गौ,घोड़ा,सवारी की खरीदी बिक्री करने से,खेती और राजा की चाकरी करने से उत्तम कुल भी बिगड़ जाता है।
ॐ
21/11/19, 10:13 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: कृपया तीसरे दोहे का तत्वार्थ स्पस्ट करें🙏
21/11/19, 10:14 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: #श्री गणेशाय नमः#
सुगम ज्योतिष प्रवेशिका
प्रथम भाग – जातक विचार
दूसरा प्रकरण
काल – परिचय
राशिः पृथ्वी के (सूर्य के चारों ओर परिभ्रमण के) मार्ग को १२ हिस्सों में बांटा गया है। इस मार्ग के प्रत्येक स्थल की पहचान केवल तारों के विविध प्रकार के झुंडों से होती है। इस ‘झुंड’ या ‘ढे़र’ को संस्कृत में राशि कहते हैं। अलौकिक भाषा में भी ‘रास’ ढ़ेर या समूह को कहते हैं।
इस मार्ग के १२ भागों को १२ राशि कहते हैं। जब सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में जाता है तो इसे ‘जाना’ – एक स्थान से दूसरे स्थान में प्रवेश करना- या संस्कृत में संक्रमण कहते हैं। किसी से संक्रांति शब्द बना है। बंगाल तथा पंजाब में सौर सूर्य मास विशेष प्रचलित है जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है तो वैशाख मास प्रारंभ होता है क्रमशः सूर्य संक्रांति के विचार से १२ मास होते हैं।
21/11/19, 10:18 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: This message was deleted
21/11/19, 10:19 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: किन्तु न्याय शब्द ऐसे व्यापक अर्थ में विशेष प्रचलित नहीं है| वह गौतमीय दर्शन के अर्थ में रूढ़ हो गया है | गौतमरचित सूत्र और उस पर जो भाष्य वृत्ति आदि का विशद साहित्य निर्मित हुआ है, वही न्याय के नाम से प्रसिद्ध है | इसका कारण यह है कि गौतम और उनके अनुयायियों ने न्याय (अनुमान) और उसके अवयवों की विवेचना को ही अपना केन्द्रीभूत विषय बनाया है|
इतना ही नहीं न्याय शब्द के अन्यान्य अर्थ भी गौतमीय दर्शन पर लागू होते है | यह शास्त्र युक्ति का नियम निर्धारण कर सत् और असत् पक्ष का निर्णय करता है| अंतः यह प्रचलित अर्थ में भी न्यायकर्त्ता कहा जा सकता है | नैयायिक गण उदहारण या दृष्टान्त के बल पर अपना पक्ष सिद्ध करते है ( जैसे रसोईघर में धुए के साथ आग है तो पहाड़ पर भी ऐसा ही होगा )| इस अर्थ में भी न्याय शब्द सार्थक हो जाता है | इस प्रकार गौतमीय शास्त्र की न्याय सज्ञा सभी दृष्टियो से उपयुक्त और समीचीन है|
21/11/19, 10:45 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: आपकी किरपा से आ गया समझ, पर अभी भी कई बार पढ़ने की आवश्यकता है, सो कर रहा हूँ 🙏🏼
22/11/19, 12:08 am – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur: यह तो बड़ा मुश्किल है, अभी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा लेकिन पड़ता जरूर रहूंगा
22/11/19, 1:22 am – Shastra Gyan Mukesh Mishra Allahabad: *वात्स्यायन
22/11/19, 5:13 am – Abhinandan Sharma: 👌
22/11/19, 5:14 am – Abhinandan Sharma: बच्चों को ये सब कहानियों में सुनाना चाहिए ताकि वो एनालिसिस और तार्किक विवेचन सीख सकें और बड़े होकर भावों में बहकर गलत फैसले ने लें।
22/11/19, 5:15 am – Abhinandan Sharma: मगर पूरी पंचतन्त्र को जानवरों की कहानियों के नाम पर प्रचारित और कॉमिक्स बनाने से, उसके असल मूल्य गायब हो गए ।
22/11/19, 5:16 am – Abhinandan Sharma: ध्यान दें, जो लोग रावण को महान बनाने और कहने से नहीं चूकते, वो भूल जाते हैं कि स्त्रियों को उठाना रावण की आदत थी ।
22/11/19, 5:20 am – Abhinandan Sharma:
22/11/19, 5:30 am – Abhinandan Sharma:
22/11/19, 5:31 am – Abhinandan Sharma:
22/11/19, 5:34 am – Abhinandan Sharma:
22/11/19, 5:37 am – Abhinandan Sharma:
22/11/19, 5:52 am – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: 🙏🙏🙏 सुन्दर व्याख्या सुप्रभातं
22/11/19, 6:36 am – +91 : Ati sunder
22/11/19, 6:55 am – +91 :
22/11/19, 7:02 am – Abhinandan Sharma: महोदय, इस ग्रुप में फ़ॉर्वर्डेड पोस्ट डालना निषेध है। कृपया ग्रुप संबधी नियमों को ग्रुप इन्फॉर्मेशन पर एक बार पढ़ लें और इस वीडियो को हटा लें 🙏
22/11/19, 7:20 am – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: *।।पंचतंत्र।।*
प्रथम तन्त्र
मित्रभेद (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
द्विगुणं त्रिगुणं वित्तं भाण्डक्रयविचक्षणाः।
प्राप्नुवन्त्युद्यमाल्लोकाः दूरदेशान्तरं गताः।।
सीधे उत्पादक से ख़रीदकर लाये पदार्थों को मांग के समय अधिक दाम पर बेचने से अवश्य ही अधिक लाभ मिलता है। इस प्रकार वर्धमान को इन सब प्रकार के व्यवसायों में से कम दाम पर पदार्थ ख़रीदकर महंगे दाम पर बेचने का व्यवसाय ही अच्छा लगा। उसने तुरन्त शुभ मुहूर्त निकलवाकर बैलगाड़ी पर अपना सामान लादा और-उत्तर भारत के प्रमुख व्यापारिक केन्द्र मथुरा की ओर चल पड़ा।
उसने अपनी गाड़ी में सञ्जीवक और नन्दक नामक दो बैलों को जोता हुआ था। दोनों ही बैल स्वस्थ एवं भली प्रकार बोझ ढो सकने वाले थे। लेकिन यमुना के कछार पर पहुंचकर दोनों बैल दलदल में धंस गये और सञ्जीवक तो लंगड़ा होकर वहीं बैठ गया। उसमें खड़ा होने की सामर्थ्य ही नहीं रह गयी थी। बैल के प्रति अपने लगाव के कारण वर्धमान तीन दिन तक वहां रुका रहा, किन्तु बैल स्वस्थ न हो सका। इस पर बनिये के साथियों ने उसे समझाते हुए कहा—सेठजी! एक बैल के लिए आपको इतना मोह नहीं करना चाहिए। इस जंगल में शेर, चीता, बाघ एवं भालू आदि अनेक जंगली जानवर रहते हैं। इसके साथ ही यह भी कौन जाने कि कल क्या होगा? क्या पता कहीं चोर-डाकू ही हमें लूट लें या मारकर परलोक ही पहुंचा दें।
शास्त्रों में भी कहा गया है—
न स्वल्पस्य कृते भूरि नाशयेन्मतिमान्नरः।
एतदेवात्र पाण्डित्यं यत्स्वल्पाद् भूरिरक्षणम्।।
कि थोड़े लाभ के लिए बड़े लाभ को छोड़कर ख़तरा मोल लेना समझदारी की बात नहीं है। आप सोच-समझ से काम लीजिये और यहां से आगे चलिये। वर्धमान को यह बात उचित लगी और उसने पास के गांव से एक नया बैल ख़रीदकर गाड़ी में जोता और अपनी राह पर चल दिया।
हां, अपने बैल की देख-रेख के लिए उसने अपने दो नौकरों को सञ्जीवक के पास छोड़ दिया। नौकरों ने दो-एक दिन सञ्जीवक की देखभाल की, किन्तु उसके न उठने पर,
वे भी उसे छोड़कर वहां से चल दिये। यमुनातट की स्वच्छ वायु से सञ्जीवक के प्राण जाग उठे। वह बल लगाकर उठा तथा हरी व कोमल घास खाकर और स्वच्छ जल पीकर कुछ ही दिनों में स्वस्थ हो गया। अब वह अपने को इस क्षेत्र का राजा समझने लगा। शिवजी के वाहन नन्दी के समान सञ्जीवक अपने सींगों से रेत के टीलों को उखाड़ने लगा तथा गर्जन-तर्जन करने लगा।
शास्त्रकारों ने उचित ही कहा है—
अरक्षितं तिष्ठति दैवरक्षितं सुरक्षितं दैवहतं विनश्यति।
जीवत्यनाथोऽपि वने विसर्जितः कृतप्रयत्नोऽपि गृहे विनश्यति।।
जिसका कोई रक्षक नहीं होता, उसकी रक्षा भगवान् करते हैं और जिसकी रक्षा लोग किया करते हैं, भाग्य को स्वीकार न होने पर भी वह बच नहीं पाता। भाग्य अच्छा हो, तो जंगल में छोड़ा प्राणी भी जीवित बच रहता है। लेकिन भाग्य के अनुकूल न होने पर भरपूर सेवा-शुश्रूषा किये जाने पर भी व्यक्ति का जीवित रहना निश्चित नहीं होता।
सञ्जीवक का भाग्य अच्छा था, इसलिए वह मौत के मुंह में जाकर भी वापस लौट आया।
एक दिन अपने परिवार के साथ वन में घूमता-फिरता पिंगलक नामक एक सिंह वहीं आ पहुंचा, जहां सञ्जीवक बैल गर्जन करता-फिरता था। सिंह प्यासा था और यमुना सामने थी, किन्तु सिंह ने आज तक जंगल में सञ्जीवक बैल के समान विशालकाय पशु नहीं देखा था। सञ्जीवक की चेष्टाओं को देखकर पिंगलक की प्यास जाती रही और वह सोचने लगा कि यह मुझसे भी अधिक बलवान् पशु कौन है?
पिंगलक ने अपने मन्त्री शृगाल के दो पुत्रों—करटक और दमनक—को उनके पिता के न रहने पर मन्त्री पद नहीं दिया था। इसलिए वे दोनों उससे रुष्ट थे, किन्तु फिर भी वे पिंगलक के आगे-पीछे चलते रहते थे।
दोनों ने बिना प्यास बुझाये सिंह को वापस लौटते देखा, तो दमनक ने करटक से कहा— अरे! हमारा स्वामी जल पीने के लिए यमुनातट पर आया था, किन्तु जल पिये बिना ही उदास क्यों बैठा है?
दमनक की बात सुनकर करटक बोला—मित्र! हमें इन व्यर्थ की बातों से क्या लेना-देना?
नीतिकारों का कथन है—
अव्यापारेषु व्यापारं यो नरः कर्तुमिच्छति।
स एव निधनं याति कीलोत्पाटीव वानरः।।
कि दूसरों के काम में व्यर्थ हस्तक्षेप करने वाला व्यक्ति दो लकड़ियों के बीच में फंसायी गयी कील को उखाड़ने के चक्कर में अपने प्राण गंवाने वाले बन्दर के समान अपने ही विनाश को बुलावा देता है।
22/11/19, 9:51 am – Webinar Chinmay Vashishth SG: इसमे भाग्य के बारे में बताया गया है । हम कहते है कि किसी का भाग्य अच्छा है, किसी का नही। अब प्रश्न ये है कि भाग्य क्या है ?
22/11/19, 10:09 am – Abhinandan Sharma: भाग्य, प्रारब्ध का ही दूसरा नाम है । प्रारब्ध को ज्योतिष में पूर्व जन्मों के कर्म, जिनका फल नहीं भोगा गया है, के रूप में बताया गया है। वही इस जन्म मेम विभिन्न परिस्थितियों के संयोग में फलते हैं ।
22/11/19, 10:23 am – Sachin Tyagi Shastra Gyan: 👌👌🙏🙏🙏
22/11/19, 10:30 am – Webinar Chinmay Vashishth SG: 🙏🏻🙏🏻
22/11/19, 10:56 am – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur: This message was deleted
22/11/19, 10:57 am – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur: शर्मा जी नमस्कार ,
बहुत-बहुत धन्यवाद आपने न्याय शास्त्र के बारे में जो कुछ आसान भाषा में बताने की पहल की है,उससे इस विषय को आगे समझने में आसानी होगी🙏🏻
22/11/19, 11:22 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: 🙏💐 धन्यवाद
22/11/19, 11:35 am – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: एक बार पूज्य पूरी पीठ के शंकराचार्यजी के मुख से सुना था कि प्रारब्ध के तीन प्रकार से उदित होता है।
१. जाती(जन्म), २. आयु , और ३. भोग
पिछले जन्मो के अच्छे बुरे संचित कर्म जो फल देने के लिए क्रियान्वित होते है उसको प्रारब्ध कहते है।
22/11/19, 1:03 pm – +9: हरिस्ते साहस्रं कमलबलिमाधाय पदयो—
र्यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्र कमलम्।
गतो भक्त्युद्रेकः परिणितमसौ चक्रवपुषा
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुर हर जागर्ति जगताम्।।
हे त्रिपुरारि!
भगवान् विष्णु ने आपके चरणों में एक हज़ार कमल चढ़ाने का संकल्प किया था ।
उनमें जो एक कमल कम पड़ गया तो उन्होंने अपना ही नेत्र कमल उखाड़ कर चढ़ा दिया ।
बस , उनकी यही भक्ति की पराकाष्ठा सुदर्शन चक्र का स्वरूप धारण कर त्रिभुवन की रक्षा के लिए सदा जागरूक है।
( भगवान् शंकर ने प्रसन्न हो कर श्री विष्णु को चक्र प्रदान कर दिया था, जो विश्व का संरक्षण अनुग्रह- निग्रह द्वारा कररता है।।19।।
22/11/19, 1:04 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: ये पृष्ठ साफ नही था ।इस भाग में कुछ शब्द समझ नही आये इसलिए कुछ गलतियां हो गई ।
22/11/19, 1:28 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: न्याय शास्त्र के अन्यान्य नाम – न्याय शास्त्र अपनी बीजावस्था में ‘ आन्वीक्षिकी विद्या‘ के नाम से प्रसिद्ध था | आन्वीक्षिकी का अर्थ है – प्रत्यक्ष वा आगम के द्वारा उपलब्ध विषय का पुनः आन्वीक्षण ( अनु= पश्चात , ईक्षण= अवलोकन ) करना ही आन्वीक्षा है | इसलिए तर्क के द्वारा किसी विषय का अनुसंधान करने की संज्ञा आन्वीक्षिकी हुई | यही आन्वीक्षिकी विद्या कालांतर में न्याय वा तर्क के नाम से प्रसिद्ध हुई |
आदुनिक समय में ‘ न्याय शास्त्र ‘ वा ‘ तर्क शास्त्र ‘ शब्द ही विशेष प्रचलित है| इस शास्त्र के अध्ययन से वाद करने की कला में प्रवीणता प्राप्त होती है अंतः इसे ‘ वाद विद्या‘ भी कहते है| न्याय दर्शन में प्रणाम का ही महत्व सर्वोपरि है अंतः इसे’ प्रमाण शास्त्र ‘भी कहते है | साध्य वस्तु को प्रमाणित करने के लिए सबसे मुख्य वस्तु है ‘हेतु’ | बिना हेतु दिये प्रतिज्ञा का कुछ भी मूल्य नहीं | इसलिए नैयायिक गण हेतु को बड़ा ही प्रमुख स्थान देते है| इसी कारण न्याय शास्त्र को ‘ हेतु विद्या ‘ भी कहते है|
न्याय दर्शन का मूल स्वरूप जो सूत्र ग्रन्थ है उसके रचयिता है गौतम मुनि | अंतः न्याय दर्शन को ‘ गौतमीय शास्त्र ‘ कहते है| गौतम का इक नाम अक्षपाद भी है | अंतः सर्वदर्शन संग्रह में न्याय के लिए ‘अक्षपाद दर्शन ‘ शब्द मिलते है|
22/11/19, 7:41 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: #श्री गणेशाय नमः#
सुगम ज्योतिष प्रवेशिका
प्रथम भाग – जातक विचार
दूसरा प्रकरण
काल – परिचय
मेष राशि में जब सूर्य प्रवेश करता है तो ‘सौर’ वैशाख प्रारंभ होता है। जब बृषभ में प्रवेश करता है तब ज्येष्ठ। इसी प्रकार मिथुन में अषाढ़, कर्क में श्रावण, सिंह में भाद्र, कन्या में अश्विन, तुला में कार्तिक, वृश्चिक में अग्रहण (मार्गशीर्ष), धनु में पौष, मकर में माघ, कुम्भ में फाल्गुन और मीन राशि में सूर्य की स्थिति होने पर चैत्र होता है।
यह तारीखें सूर्य के अंश के अनुसार होती हैं। उदाहरण के लिए सूर्य सिंह राशि में १७ अंश पर हुआ तो १७ भादो हुई।
पहले ‘घड़ी-पल’ द्वारा ही ‘काल’ या ‘समय’ व्यक्त किया जाता था। अब घंटों और मिनटों में व्यक्त किया जाता है।
१ घंटा = २-१/२ घड़ी, १ घड़ी = २-१/२ पल
पृथ्वी के परिभ्रमण के मार्ग को (किसी भी गोल दायरे में ३६० डिग्री या अंश होते हैं) ‘भचक्र’ या ‘नक्षत्र-मंडल’ कहते हैं।*
- नोटः- इस मार्ग या दूरी को व्यक्त करने के लिए निम्नलिखित शब्द व्यवहार में लाए जाते हैंः राशि, अंश, कला, विकला।
22/11/19, 8:04 pm – Abhinandan Sharma: देखिये, जरा सी देर में कितनी शिक्षा दे दी, कहानीकार ने !
22/11/19, 8:04 pm – Abhinandan Sharma: 🙏🙏
22/11/19, 8:05 pm – Abhinandan Sharma:
22/11/19, 8:08 pm – Abhinandan Sharma: ये स्पष्ट हुआ ? आसान शब्दों में आन्वीक्षिकी = research = re+search = पुनः अवलोकन ।
22/11/19, 8:10 pm – Shastragyam Bhavsar Prakash Maliwal joined using this group’s invite link
22/11/19, 8:15 pm – Abhinandan Sharma: 🙏🙏
22/11/19, 10:27 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: *रामायण बालकाण्ड – षोडश सर्ग श्लोक ११,१२,१३,१४,१५
ततो वै यजमानस्य पावकादतुलप्रभम्। प्रादूर्भूतं महद्भूतं महावीर्यं महाबलम्॥११॥
कृष्णं रक्ताम्बरधरं रक्ताक्षं दुन्दुभिस्वनम्। स्निग्धहर्यक्षतनुजश्मश्रुप्रवरमूर्धजम्॥१२॥
शुभलक्षणसम्पन्नं दिव्याभरणभूषितम्। शैलश्रृङ्गसमुत्सेधं दृप्तशार्दुलविक्रमम्॥१३॥
दिवाकरसमाकारं दीप्तानलशिखोपमम्। तप्तजाम्बूनदमयीं राजतान्तपरिच्छदाम्॥१४॥
दिव्यपायससम्पूर्णां पात्रीं पत्नीमिव प्रियाम्। प्रग्रह्य विपुलां दोर्भ्यां स्वयं मायामयीमिव॥१५॥
उधर महाराज दशरथ के अग्निकुण्ड के अग्नि से महाबली, अतुल प्रभा वाला, काले रंग का, लाल वस्त्र धारण किये हुए, लाल रंग के मुंह वाला, नगाड़े जैसा शब्द करता हुआ, सिंह के रोम जैसे रोम और मूंछों वाला, शुभ लक्षणों से युक्त, सुन्दर आभूषणों को धारण किये हुए, पर्वत के शिखर के समान लम्बा, सिंह जैसी चाल वाला, सूर्य के समान तेजस्वी और प्रज्वलित अग्नि शिखा की तरह रूप वाला, दोनों हाथों से सोने के थाल में, जो चांदी के ढकने में ढका हुआ था, पत्नी की तरह प्रिय और दिव्य खीर लिए हुए मुस्कुराता हुआ एक पुरूष निकला।
22/11/19, 11:22 pm – +91 : अति सुंदर !!👌👌🙏
23/11/19, 9:23 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग २ श्लोक 46, 47
अभियोग इमान्महीभुजो भवता तस्य ततः कृतावधेः । प्रविघाटयिता समुत्पतन्हरिदश्वः कमलाकरानिव ।। २.४६ ।।
वियोगिनी
अर्थ:दुर्योधन ने जो हमारे वनवास की अवधि बाँध दी है, उसके भीतर यदि आप उसके (दुर्योधन के) ऊपर अभियान करते हैं तो हमारा यह कार्य इन यदुवंशी तथा इनके मित्र राजाओं को, हरे रंगों के अश्वोंवाले सूर्य द्वारा कमलों की पंखुड़ियों की भांति, उदय होते ही छिन्न-भिन्न कर देगा।
टिप्पणी: अन्यायी का साथ कोई नहीं देगा और इस प्रकार आपका असमय का अभियान अपने ही पक्ष को छिन्न-भिन्न करने का कारण बन जाएगा ।
उपमा अलङ्कार
उपजापसहान्विलङ्घयन्स विधाता नृपतीन्मदोद्धतः । सहते न जनोऽप्यधःक्रियां किं उ लोकाधिकधाम राजकं ।। २.४७ ।।
वियोगिनी
अर्थ:अभिमान के मद में मतवाला वह दुर्योधन अन्य राजाओं का अपमान कर उन्हें भेदयोग्य बना देगा और जब साधारण मनुष्य भी अपना अपमान नहीं सहन कर सकते तो साधारण लोगों की अपेक्षा अधिक तेजस्वी राजा लोग फिर क्यों सहन करेंगे ?
टिप्पणी: अपमानित लोग टूट जाते ही हैं और ऐसी स्थिति में समय आने पर सम्पूर्ण राजमण्डल हमारे पक्ष में हो जाएगा
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार
23/11/19, 11:07 am – Shastra Gyan Maniah Patiala: न्याय शास्त्र का उदेश्य और प्रयोजन –
न्याय शास्त्र का उद्देस्य है प्रमाण द्वारा ज्ञान के सत्यासत्यत्व की परीक्षा करना | इसलिए न्याय प्रमाण शास्त्र वा परीक्षा शास्त्र कहा जाता है | प्रमाण लक्षण के द्वारा वास्तु सिद्धि की यथार्थ रीती निर्धारित करना ही न्याय शास्त्र का प्रधान लक्ष्य है |
बिना प्रमाण के यथार्थ ज्ञान नहीं हो सकता और बिना ज्ञान के मुक्ति नहीं हो सकती | इस तरह न्याय शास्त्र मोक्ष शास्त्र के लिये सोपान स्वरूप वा परमार्थसाधक है |
न्यायसूत्रकार पहले ही सूत्र में कहते है :-
प्रमाणादि विषयो का तत्वज्ञान निःश्रेयस या चरम कल्याण का विधायक है| यही न्याय दर्शन का अंतिम धेय्य है
|जब अज्ञात विषयो के संबंध में भिन्न भिन्न मत पाये जाते है तब स्वभावतः मन में यह शंका उठती है की इनमे कौन सत्य है और कौन असत्य | इस शंका का समाधान करने के लिये युक्तिवाद का आश्रय लेना पड़ता है अथार्त यह विचार करना होता है की कौन पक्ष युक्तिसंगत है और कौन अयुक्तिसंगत | यह मालूम कैसे होगा ? इसके लिये कोई मानदण्ड होना आवश्यक है | जो पक्ष प्रमाण की कसोटी में खरा उतरता है वही सत्य माना जाता है | इसी कसोटी को तैयार करने के लिये न्यायशास्त्र का प्रयोजन हुआ |
23/11/19, 12:49 pm – +91 : क्रतौ सुप्ते जाग्रत्वमसि फलयोगे क्रतुमतां
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते।
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान प्रतिभुवं
श्रुतौ श्रद्धां बद्ध्वा दृढ परिकरः कर्मसु जनः।।
हे त्रिपुरारि!
(बिना फल दिए ही) यज्ञादि के समाप्त हो जाने पर यज्ञ कर्ताओं का यज्ञ फल से संबंध करने के लिए (फल दिलाने के लिये) आप तत्पर रहते हैं ।
कर्म तो करने के बाद नष्ट हो जाता है ( वह जड़ है)
अतः चेतन परमेश्वर की आराधना के बिना वह नष्ट कर्म फल देने में समर्थ नहीं होता है।
अतः आप को यज्ञों में फल देने में समर्थ दाता देख कर पुण्यात्मा लोग वेद-वाक्यों में श्रद्धा- विश्वास रख कर (यज्ञ) कर्म में तत्पर रहते हैं ।।20।।
23/11/19, 5:45 pm – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: ।।पंचतंत्र।।
प्रथम तन्त्र
मित्रभेद (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
कथा क्रम : एक
किसी सेठ ने नगर के समीप एक मन्दिर के निर्माण का निश्चय किया। काम में लगे कारीगर भोजन के लिए नगर में चले जाते थे। लकड़ी चीरने वाले कारीगरों ने आधे चिरे वृक्ष के दो हिस्सों को आपस में मिल जाने से रोकने के लिए उन दोनों के बीच में एक खूंटी लगा रखी थी।
कारीगरों के चले जाने पर वहां पहुंचा बन्दरों का एक झुण्ड उछल-कूद करने लगा। इसी बीच एक बन्दर अधचिरे वृक्ष के बीच लगायी गयी खूंटी को निकालने लगा। ज्यों ही बन्दर ने खींचकर खूंटी निकाली, त्यों ही उसका अण्डकोश वृक्ष के हिस्सों के बीच में फंस गया और बन्दर की मृत्यु हो गयी।
इस कहानी को सुनाकर करटक बोला—मित्र! जिस काम से हमें कुछ लेना-देना नहीं, हम उस काम में अपनी टांग क्यों अड़ायें? हमें अपने स्वामी से भोजन मिल जाता है और उससे हमारी भूख मिट जाती है। हम क्यों बेकार में ‘आ बैल मुझे मार’ को चरितार्थ करें?
दमनक बोला—मित्र! क्या तुम अपने जीवन का उद्देश्य केवल ‘पेट भरना’ ही मानते हो? मैं तुम्हारे इस विचार से सहमत नहीं।
शास्त्रों में भी में कहा गया है—
सुहृदामुपकारकारणाद् द्विषतामप्यपकारकारणात्।
नृपसंश्रय इष्यते बुधैर्जठरं को न बिभर्ति केवलम्।।
अपना पेट तो किसी-न-किसी प्रकार सभी भर लेते हैं, यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। जीवन का उद्देश्य तो मित्रों का उपकार करना और शत्रुओं का अपकार करना है। मित्रों को लाभ और शत्रुओं को हानि पहुंचाने के लिए शक्ति और सामर्थ्य की आवश्यकता होती है, जिसके लिए बुद्धिमान् व्यक्ति राजाओं का आश्रय लेते हैं।
यस्मिन् जीवति जीवन्ति बहवः सोऽत्र जीवतु।
वयांसि किं न कुर्वन्ति चञ्च्वा स्वोदरपूरणम्।।
मित्र! तनिक सोचो, तुम्हें पता चलेगा कि दूसरों के लिए उपयोगी व्यक्ति का जीवन कितना महत्त्वपूर्ण होता है, अन्यथा पक्षी भी दाना चुगकर अपना पेट भर लेते हैं।
यज्जीव्यते क्षणमपि प्रथितं मनुष्यै- र्विज्ञानशौर्यविभवार्य्यगुणैः समेतम् ।
तन्नाम जीवितमिह प्रवदन्ति तज्ज्ञाः काकोऽपि जीवति चिराय बलिं च भुंक्ते।।
मित्र! कौवे के समान फेंका हुआ अन्न खाकर, किसी प्रकार जीने को जीना नहीं कहा जाता, अपितु अपनी शूरता व दक्षता आदि गुणों से दूसरों का हित साधन करते हुए जीना कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण होता है।
विद्वानों का निश्चित मत है—
यो नात्मना न च परेण न च बन्धुवर्गे दीने दयां न कुरुते न च मर्त्यवर्गे।
किं तस्य जीवितफलं हि मनुष्यलोके काकोऽपि जीवति चिरञ्च बलिं च भुंक्ते।।
कि अपनी, दूसरों की और दीन-दुखियों के हित की चिन्ता न करने वाले व्यक्ति का जीवन कौवे के जीवन से भिन्न नहीं होता। ऐसा व्यक्ति तो पृथ्वी पर भाररूप होता है।
सुपूरा स्यात्कुनदिका सुपूरो मूषिकाञ्जलिः।
सुसन्तुष्टः कापुरुषः स्वल्पकेनापि तुष्यति।।
जिस प्रकार छिछली नदी थोड़े पानी से और चूहे की हथेली अन्न के थोड़े-से दानों से भर जाती है, उसी प्रकार ओछे व्यक्ति भी थोड़े-से लाभ से सन्तुष्ट हो जाते हैं।
23/11/19, 6:11 pm – Shastra Gyan Mukesh Mishra Allahabad: वाह बहुत सुंदर, आभार🙏
23/11/19, 6:14 pm – +91 : 👌👌👌
23/11/19, 6:17 pm – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: 🙏🏻
23/11/19, 6:59 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: #श्री गणेशाय नमः#
सुगम ज्योतिष प्रवेशिका
प्रथम भाग – जातक विचार
तीसरा प्रकरण
पंचाग – परिचय
दिनमानः इसका अर्थ है दिन कितना बड़ा होगा। ६० घड़ी में से दिनमान कम करने से रात्रिमान निकल आता है। गर्मी में दिन बड़ा होता है रात्रि छोटी होती है इस कारण दिनमान अधिक होता है रात्रिमान कम। जाड़े में इसके विपरीत होता है।
तिथिः काल परिचय वाले प्रकरण में समझाया गया है कि तिथि किसे कहते हैं। यह भी घड़ी-पलों* में दी होती है। आज यदि कोई तिथि ३२ घड़ी १५ पल दी है तो इसके बाद (३२ घड़ी १५ पल के बाद) आगे वाली तिथि लग जावेगी यह जानना चाहिए।
वारः हिंदू ज्योतिष में आज सूर्योदय से दूसरे दिन तक वार मानते हैं। अर्थात यदि आज बुधवार है तो कल सूर्योदय होने पर बृहस्पतिवार माना जावेगा। सूर्योदय होने से १ सेकेंड पहले बुधवार की रात्रि मानी जावेगी।
नोटः घ०प०=घड़ी-पल
६० विकला की १ कला
६० कला का १ अंश (डिग्री)
३० अंश की १ राशि
१२ राशि का १ भचक्र
23/11/19, 9:34 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: *रामायण बालकाण्ड – षोडश सर्ग श्लोक १६,१७,१८,१९,२०
समवेक्ष्याव्रवीद्वाक्यमिदं दशरथं नृपं। प्राजापत्यं नरं विद्धि मामिहाभ्यागतं नृप॥१६॥
वह महाराज दशरथ की ओर देखकर बोला- “महाराज मैं प्रजापति के पास से आया हूं।
ततः परं तदा राजा प्रत्युवाच कृताञ्जलिः। भगवन्स्वागतं तेऽस्तु किमहं करवाणि ते॥१७॥
यह सुन महाराज दशरथ ने हाथ जोड़कर कहा- भगवन! आपका मैं स्वागत करता हूं कहिये, मेरे लिए क्या आज्ञा है।
अथो पुनरिदं वाक्यं प्रजापत्यो नरोऽब्रवीत्। राजन्नर्चयता देवानद्य प्राप्तमिदं त्वया॥१८॥
इस पर प्रजापति के भेजे उस मनुष्य ने फिर कहा— देवताओं का पूजन करने से आज तुमको यह पदार्थ मिला है।
इदं तु नरशार्दुल पायसं देवनिर्मितं। प्रजाकरं गृहाण त्वं धन्यमारोग्यवर्धनम्॥१९॥
हे नरशार्दुल! यह देवताओं की बनायी हुयी खीर है, जो सन्तान की देने वाली तथा धन और ऐश्वर्य की बढ़ाने वाली है, इसे आप लीजिए।
भार्याणामनुरूपाणामश्नीतेति प्रयच्छ वै। तासु त्वं लप्स्यसे पुत्रान्यदर्थं यजसे नृप॥२०॥
और इसको अपने अनुरूप रानियों को खिलाइये। इसके प्रभाव से आपकी रानियों के पुत्र उत्पन्न होंगे, जिसके लिए आपने यह यज्ञ किया है।
24/11/19, 7:55 am – FB Mukesh Sinha Pathalgaon CG Shastra Gyan: अघोरी बाबा की गीता – ३
जैसे ही मैंने श और ष में अंतर पूछा, बाबा का चेहरा झुझला गया |
ओह ! तो अब क्या व्याकरण भी पढ़ाना पड़ेगा ? ऊपर की तरफ देखते हुए बाबा बोले – इसे गीता पढ़ानी थी ! इसे तो क ख ग भी सिखाना पड़ेगा पहले !!!
अब फिर से बातें सर के ऊपर से जा रही थी, ये किस से बात कर रहे थे ? क्या ये किसी के कहने से मुझसे मिल रहे हैं ? वैसे बाबाओ की बात समझ भी नहीं आती | कब बडबडाते हैं, कब चिल्ला देते हैं, कुछ समझ में नहीं आता |
तेरा ध्यान किधर है मूर्ख ? स को ३ बार बोल – बाबा का आदेश हुआ |
मैंने तीन बार स को धीरे धीरे बोला | जीभ कहाँ लगी है ? – बाबा अब शायद थोड़े गुस्से में थे या शायद झुझ्लाये हुए थे | होठो कि मुस्कराहट कहीं गुम हो गयी थी और अब थोडा कडक हो गए थे |
मैंने बताया – जीभ दांतों पर लगी है और हवा बाहर जा रही है |
अब श बोल ३ बार और बता जीभ कहाँ लग रही है ? – बाबा रोष में बोले |
मैंने बताया – दांतों से पहले थोडा ऊपर तालू में लग रही है और हवा निकल रही है |
अब जीभ को और पीछे लेकर के जा और हवा निकाल और बोल – देख मुंह से क्या निकलता है !
मैंने जीभ को और मोड़ा, पीछे लेकर के गया और हवा निकाली | मुझे ऐसा लगा जैसे मेरा श दब गया है और एक भारी से आवाज निकल रही है |
यही ष का उच्चारण है – बाबा ने थोडा शांत होते हुए बोला | कभी सुना है – सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङुलम् || – अगर सही उच्चारण नहीं होगा तो इसको कैसे बोलोगे ? – अब वो थोडा मुस्कुरा भी रहे थे | शायद समझाने के उद्देश्य से उन्होंने ये बोला ।
पर मेरी परेशानी तो कुछ और ही थी ! मैंने बाबा को अपनी परेशानी बताने में देर भी नहीं की | मैंने तो अभी तक सहस्रशीर्षा पुरुख ही सूना था ! ये सहस्रशीर्षा पुरुषः कैसे हो गया ? मैंने क्या गलत सुना है बाबा ?
उच्चारण जीभ की लचक पर आधारित होता है | जीभ जिसकी जितनी लचीली होगी, वो उतना साफ़ उच्चारण कर पायेगा ! दक्षिण भारत के लोग अच्छा उच्चारण करते हैं, क्योंकि वहां गर्मी ज्यादा पड़ती है और शरीर में लचक होती है जबकि पंजाब के, कश्मीर के, उत्तराखंड के पंडित सही से उच्चारण नहीं कर पाते क्योंकि वहां ठण्ड पड़ती है और जीभ कठोर हो जाती है, लचक नहीं रह पाती, ऊपर से प्रयास भी नहीं होते | जब जीभ नहीं मुड़ेगी, तो ष का ख हो जायेगा | पंजाबियों में देखना, वो भ्राता को प्रा ही बोल पाते हैं, उनके यहाँ शिष्य भी सिख हो जाता है ! गुरु गोविन्द सिंह कौन थे, गुरु ही तो थे और बाकी कौन थे, उनके शिष्य थे लेकिन शिष्य के लिए जीभ का मुड़ना जरुरी है इसलिए वो आसानी से सिख हो जाता है | अंग्रेज कभी त नहीं बोल पाते क्योंकि वो हमेशा ट ही बोलते रहे हैं अंग्रेजी में और त का कभी अभ्यास भी नहीं किया सो वो तुम की जगह जब भी बोलेंगे टुम बोलेंगे | जीभ की लचक, कम ज्यादा होने से, उच्चारण में दोष पैदा करती है |
ये तो बड़े आश्चर्य की बात बताई बाबा, इसका मतलब तो ये हुआ कि जो आदमी गूंगा है, वो तो बेचारा कभी बोल ही नहीं सकता, वो तो कोई मन्त्र पढ़ ही नहीं सकता ! मेरे उच्चारण पर इत्ता ध्यान दे रहे हैं, उसको क्या बोलेंगे ?? हमारे उच्चारण में दोष है तो भाव बदल रहा है, वो तो बोल ही नहीं सकता ! उसका भाव कैसे पता चलेगा ?? वो साधना कैसे करेगा ? – मैंने इस बार एक ओवर की छहों गेंदे एक ही बार में डालने की कोशिश की |
ईश्वर साधना के लिए मन्त्र नहीं – योग की आवश्यकता होती है | जाप में कितने लोगों को बोलते हुए सुना है ? जाप मन में होता है ! मन की आवाज ज्यादा तेज है, शब्द वहां तक नहीं पहुँच पाते | जिसके पास जिह्वा है, वो स्तुति कर सकता है अपने मन के भावों को प्रकट कर सकता है पर जो नहीं प्रकट कर सकता है, उसका भी कोई दोष नहीं है, वो मन में ही अपनी बात कह सकता है | ऊपर की तरफ ऊँगली करके बाबा बोले – उसके पास सब पहुँचता है | कृष्ण जी ने खुद को यज्ञों में जाप यज्ञ इसीलिए कहा है | जिसके हाथ नहीं है, क्या वो नमन नहीं कर सकता ? अगर हाथो से नमस्कार नहीं कर पायेगा तो घुटनों के बल बैठ कर, गर्दन को नीचा करके नमन कर लेगा | योग के लिए, इन्द्रियों की आवश्यकता नहीं होती |
बाबा आपने तो बड़ी गूढ़ बात बतायी है बिलकुल ऋषियों मुनियों जैसी – मैंने बाबा को मस्का लगाने की कोशिश की | पर उनके दिमाग में पता नहीं क्या चल रहा था,
बोले – किसके जैसी ?
ऋषियों मुनियों जैसी | – मैंने दोहराया
रिशी नहीं होता है ॠषि होता है | – अब फिर दिमाग का दही ! मैं तो ऐसे ही बोलता और सुनता आ रहा हूँ | मैंने बाबा से पुछा – बाबा, क्या गीता पढने के लिए ये सब भी आवश्यक है ? क्या हम सीधे गीता की बात नहीं कर सकते हैं ?
बाबा बोले – बेटा, PhD करने के लिए शुरू की कक्षाएं तो पढनी ही पड़ेंगी न और वैसे भी मैं जो बता रहा हूँ, वो कहीं न कहीं गीता से ही जुड़ा हुआ है | सबमें गीता है और गीता में सब है | जल्दी क्या है ? वो भी सीखेंगे | पहले ॠ बोलना सीख | जब उच्चारण ठीक होगा, तो चीजें आसानी से समझ में आयेंगे | विषयांतर मत कर |
मैंने पुछा – बाबा, पर हम तो ऐसे ही बोलते आ रहे हैं | कभी किसी अध्यापक ने नहीं बोला कि हम गलत बोल रहे हैं, कोई तो बोलता अगर गलत होता तो !
बेटा – ज्ञान लुप्त हो रहा है, तू कलियुग में जी रहा है, धीरे धीरे सब भ्रष्ट हो जाएगा, इक्का दुक्का ही बचेंगे जिन्हें ज्ञान प्राप्त होगा | और किसी ने टोका नहीं का मतलब ये नहीं होता कि वो सही है | खुद से अनुसंधान करना चाहिए | अब बातें मत घुमा, र को तीन बार बोल – फिर से बाबा का आदेश हुआ |
मैंने र को तीन बार बोला |
अब उ को तीन बार बोला और देख जीभ कहाँ लग रही है ! – मुझे ऐसा लग रहा था जैसे किसी पहली कक्षा के बच्चे को क, ख, ग पढाया जा रहा है पर बात तो ये भी थी कि कभी किसी ने ऐसे नहीं पढाया था |
मैंने उ को तीन बार बोला और देखा कि जीभ ऊपर जा ही नहीं रही थी, नीचे ही चिपकी हुई थी | मैंने बाबा को बताया कि जीभ तो नीचे ही है, कहीं लग ही नहीं रही है |
अब बाबा बोले – अब उ बोल और जीभ को ऊपर ले जा और ऊपर के तालू से पहले वहां रोक दे, जहाँ तक कि जीभ उ की आवाज में व्यवधान न पैदा कर दे और र जैसे आवाज व्यवधान के साथ न निकले | तीन बार ऐसा कर |
मैंने कोशिश की और एक विचित्र सी आवाज निकली जो पहले कभी नहीं निकली थी | कुछ रु जैसी आवाज थी पर थोड़ी परेशानी से निकल रही थी |
अब बाबा बोले, अब जीभ को और पीछे ले जा, जहाँ से ष का उच्चारण हुआ था और इसी प्रकार आवाज निकाल, वो जो उच्चारण है, वह ऋ का उच्चारण है |
मैंने कोशिश की और पाया कि इस प्रकार मैंने कभी ऋ नहीं बोला था इस से पहले | पर अब एक बात और विचित्र थी – कि फिर उत्तर भारत के लोग ऋ का उच्चारण रि जैसा क्यों करते हैं ? बाबा एक बात बताते थे तो मेरे दिमाग में २ सवाल यक्ष रूप में खड़े हो जाते थे !
क्रमशः
अभिनन्दन शर्मा
दिल से….
अघोरीबाबाकी_गीता
24/11/19, 8:07 am – +91 : गजब….👌🙏
24/11/19, 8:18 am – ABKG Reader Vikas Kr Dubey Bhadohi UP: ये टॉपिक तो भाग एक मे ही लिखा गया है। फिर तीसरे संस्करण में फिर से लिख रहे है क्या??
24/11/19, 8:55 am – Abhinandan Sharma: ये अघोरी बाबा की गीता, भाग 1 में ही है लेकिन जब फेसबुक पर लिखी जा रही थी, तब 3 क्रमांक की थी, इसलिए 3 लिखा गया है
24/11/19, 9:04 am – Abhinandan Sharma: आज के शास्त्र ज्ञान सत्र (बड़ों के लिये) में दिल्ली से कोई नहीं आ पायेगा अतः आज यदि कुछ नए लोग जॉइन करते हैं तो सत्र शुरू से कहा जायेगा, क्लास 1-2 से ! अतः यदि कोई आना चाहें जो शुरू से क्लास लेना चाहते हों तो आ सकते हैं, तब ही आज क्लास होगी अन्यथा नहीं ।
सत्र 12.30 से आदित्य लक्ज़रिया के क्लब में प्रारम्भ होगी ।
24/11/19, 9:39 am – ABKG Reader Vikas Kr Dubey Bhadohi UP: अच्छा, मैंने उसका गलत अर्थ (भाग 3) लगा लिया।
24/11/19, 3:30 pm – +91 : क्रिया दक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृता–
मृषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुरगणाः।
क्रतुभ्रेषस्तत्वः क्रतुफलविधानव्यसनिनो
ध्रुवं कर्तुः श्रद्धाविधुरमभिचाराय हि मखाः।।
हे शरण दाता शंकर!
कार्य में कुशल प्रजाजनों का स्वामी प्रजापति दक्ष यज्ञ का यजमान (क्रतुपति) बना था।
त्रिकाल दर्शी ऋषिगण याज्ञिक (यज्ञ कराने वाले होता आदि) थे।
देवगण यज्ञ के सामान्य सदस्य थे।
फिर भी यज्ञ के फल वितरण के व्यसनी आप से ही यज्ञ का विध्वंस हो गया ।
अतः यह निश्चित है कि अश्रद्धा से किए गए यज्ञ (कर्म) कर्ता के विनाश के लिए ही सिद्ध होते हैं ।
(दक्ष ने श्रद्धा वर्जित यज्ञ किया था)।।21।।
24/11/19, 3:40 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: बिना प्रयोजन के प्रवृति नहीं होती| ” प्रयोजन मनुद्दिश्य न मन्दोsपि प्रवर्त्तते | न्यायशास्त्र की उत्पति भी प्रयोजन वश हुई | जब वेदोक्त विषयो का स्वार्थियों द्वारा अनर्थ और दुरूपयोग होने लगा तब वेद के सच्चे अर्थ का निर्णय और युक्ति द्वारा उसकी पुष्टि करने की आवस्यकता आ पड़ी | कुतर्कियो से वेद की रक्षा करने के लिए ही गौतमीय शास्त्र का जन्म हुआ | सर्व सिद्धांत संग्रहकार भी इस बात का समर्थन करते है:
न्याय कर्ता गौतम वेद को प्रमाणिक और सत्य माना है | पीछे बौद्ध और जैन तार्किको ने न्याय के अस्त्रों से ही न्यायशास्त्र पर प्रहार करना शुरू किया और वेद को असत्य ठहरने लगे | इनके आक्षेपों का उत्तर देने के लिए नैययिको को अपनी शक्ति और भी सुदृढ़ करने की आवश्यकता पड़ी | फलत न्यायशास्त्र का सूक्षमतिसूक्षम परिमार्जन और अनुशीलन होने लगा | विपक्षियों के आक्रमण से अपने को बचने के लिए तरह – तरह के वाग्जाल रूपी अभेद्य कवच तैयार किये गए । धीरे- धीरे वाग्युद्ध मैं विजय प्राप्त करना ही नैययिको का मुख्य लक्ष्य बन गया | येनकेन प्रकारेण वाक् छलादि द्वारा प्रतिपक्षियो को परास्त करने में ही पराक्रम समझा जाने लगा | इस प्रकार वाद के स्थान पर जल्प और वितण्डा की प्रधानता हो गई |
25/11/19, 1:11 am – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: #श्री गणेशाय नमः#
सुगम ज्योतिष प्रवेशिका
प्रथम भाग – जातक विचार
तीसरा प्रकरण
पंचाग – परिचय
नक्षत्र— समस्त ‘भचक्र’ या ‘नक्षत्र-मंडल’ को २७ हिस्सों में बाँटा गया है। इस कारण ३६०/२७=१३ डिग्री (अंश) २० कला – यह एक नक्षत्र का हिस्सा है। सारे ‘भचक्र’ को निम्नलिखित २७ हिस्सों में बाँटा गया है। जिस हिस्से में जो प्रमुख तारा स्थित है उसी के नाम से वह (आकाश का) भाग ख्यात हो गया है।
विभाग रा०-अं०-क० से रा० अं० क० तक नक्षत्र
(१) ० – ० – ० ” ० – १३ – २० ” अश्विनी
(२) ० – १३ – २० ” ० – २६ – ४० ” भरणी
(३) ० – २६ – ४० ” १ – १० – ० ” कृत्तिका
(४) १ – १० – ० ” १ – २३ – २० ” रोहिणी
(५) १ – २३ – २० ” २ – ०६ – ४० ” मृगशिर्
(६) २ – ०६ – ४० ” २ – २० – ० ” आर्द्रा
(७) २ – २० – ० ” ३ – ०३ – २० ” पुनर्वसु
(८) ३ – ०३ – २० ” ३ – १६ – ४० ” पुष्य
(९) ३ – १६ – ४० ” ४ – ०० – ०० ” आश्लेषा
(१०) ४ – ०० – ०० ” ४ – १३ – २० ” मघा
(११) ४ – १३ – २० ” ४ – २६ – ४० ” पूर्वा फाल्गुनी
(१२) ४ – २६ – ४० ” ५ – १० – ०० ” उत्तरा फाल्गुनी
(१३) ५ – १० – ०० ” ५ – २३ – २० ” हस्त
(१४) ५ – २३ – २० ” ६ – ०६ – ४० ” चित्रा
(१५) ६ – ०६ – ४० ” ६ – २० – ०० ” स्वाति
(१६) ६ – २० – ०० ” ७ – ०३ – २० ” विशाखा
(१७) ७ – ०३ – २० ” ७ – १६ – ४० ” अनुराधा
(१८) ७ – १६ – ४० ” ८ – ०० – ०० ” ज्येष्ठा
(१९) ८ – ०० – ०० ” ८ – १३ – २० ” मूल
(२०) ८ – १३ – २० ” ८ – २६ – ४० ” पूर्वाषाढ़
(२१) ८ – २६ – ४० ” ९ – १० – ०० ” उत्तराषाढ़
(२२) ९ – १० – ०० ” ९ – २३ – २० ” श्रवण
(२३) ९ – २३ – २० ” १० – ६ – ४० ” धनिष्ठा
(२४) १० – ६ – ४० ” १० – २० – ००” शतभिषा
(२५) १० – २० – ००” ११ – ०३ – २०” पूर्वाभाद्र
(२६) ११ – ०३ – २०” ११ – १६ – ४०” उत्तराभाद्र
(२७) ११ – १६ – ४०” १२ – ०० – ००” रेवती
नोट – १२ राशियां = २७ नक्षत्र। इसलिए १ राशि=२-१/४(सवा दो) नक्षत्र।
25/11/19, 6:11 am – +91 97192 69809: श्रीठाकुजी का अद्भुत गौप्रेम!
गोपालाजिरकर्दमे विहरसे विप्राध्वरे लज्जसे
ब्रूषे गोधन-हंकृतैः स्तुतिशतैर्मौनं विधत्से सताम्।
दास्यं गोकुल – पुंश्चलीषु कुरुषे स्वाम्यं न दान्तात्मसु-
ज्ञातं कृष्ण तवांघिपंकजयुगं प्रेमैकलभ्यं मुहुः॥
(हे कृष्ण ! आप ब्रजकी कीच (जो कि गोमुत्र एवं गोमय से सनी रहती है) में तो विहार करते हैं, पर ब्राह्मणोंके यज्ञमें पहुँनेमें आपको लज्जा आती है। गायोंके हुँकार करनेपर, बछड़ोके हुँकार करनेपर उनके हुँकारवाली भाषाको आप समझ लेते हैं और बड़े-बड़े ज्ञानी स्तुति करने लग जाते हैं तब आप चुप खड़े रहतें हैं। गोकुल की बालाओं के दास्य के लिए भी आपकी कितनी साध रहती है, किन्तु जितेन्द्रिय महात्माओं का स्वामीत्व स्वीकार करने में आपको घोर आपत्ति होती हैं । पर मैं समझ गया, आपके श्रीचरणकमल एकमात्र प्रेम से ही मिलते हैं।)
श्रीबिल्वमङ्गलदेवाचार्य कृत श्रीकृष्णकर्णामृतम् से।
*ध्यान रहें यह श्लोक वेदाध्ययन, वेदपाठ, यज्ञकर्म आदि का विरोध नहीं कर रहा है। अपितु यह तो श्रीभगवान नन्दनन्दनके प्रति परमपुरुषार्थ भगवत्प्रेम की महिमा को दर्शा रहा हैं। और यह भी दिखा रहा हैं कि उनको गौवंश -गोप-गोपीजनों से कितना अद्भुत प्रेम है, अतः हमको भी यदि उनको रिझाना हो तो निष्कामभावसे केवल भगवत्-प्रीत्यर्थ गोपाल बनकर गौवंशकी सेवा करनी चाहिये।
25/11/19, 6:16 am – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: *।।पंचतंत्र।।*
प्रथम तन्त्र
मित्रभेद (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
कथा क्रम : एक
किं तेन जातु जातेन मातुर्यौवनहारिणा।
आरोहति न यः स्वस्य वंशस्याग्रे ध्वजो यथा।।
माता-पिता के नाम को रौशन न करने वाले पुत्र को जन्म देने वाली मां भी ऐसे पुत्र को जन्म देकर अपने यौवन को धिक्कारती ही है।
परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते ।
जातस्तु गण्यते सोऽत्र यः स्फुरेच्च श्रियाधिकः ।।
शास्त्रों के अनुसार उत्पन्न हुए व्यक्ति की मृत्यु और मृत व्यक्ति के जन्म का चक्र निरन्तर चलता ही रहता है। अतः जन्म लेना महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण तो अधिकाधिक धन अर्जित करना है।
जातस्य नदीतीरे तस्यापि तृणस्य जन्मसाफल्यम् ।
तत्सलिलमज्जनाकुलजनहस्तालम्बनं भवति ।।
जो व्यक्ति किसी के काम न आ सके, उसकी अपेक्षा नदी के किनारे पर उगे घास के तिनके का कहीं अधिक महत्त्व होता है, जो नदी में डूब रहे व्यक्ति को बचाने का साधन बन जाता है।
स्तिमितोन्नतसञ्चारा जनसन्तापहारिणः ।
जायन्ते विरला लोके जलदा इव सज्जनाः।।
वायुमण्डल में ऊपर-नीचे व दायें-बायें घूम-घूमकर लोगों के कष्टों को दूर करने वाले मेघों के समान सज्जन व्यक्ति तो इस संसार में विरले ही मिलते हैं।
निरतिशयं गरिमाणं तेन जनन्याः स्मरन्ति विद्वांसः ।
यत्कमपि वहति गर्भं महतामपि यो गुरुर्भवति ।।
तत्त्वदर्शी विद्वान् लोक-कल्याण में अपने जीवन का बलिदान करने वाले बालक की मां को ही वास्तव में ‘रत्नप्रसू’ मानकर उसे गौरव प्रदान करते हैं।
अप्रकटीकृतशक्तिः शक्तोऽपि जनस्तिरस्क्रियां लभते ।
निवसन्नन्तर्दारुणि लंघ्यो वह्निर्न तु ज्वलितः ।।
शक्ति होने पर भी उसका उपयोग या प्रदर्शन न करने वाले व्यक्ति को कभी आदर नहीं मिल पाता। लकड़ी में आग के अप्रकट रहने पर लकड़ियों को फेंक दिया जाता है। क्या कोई जलती हुई लकड़ी को हाथ लगाने का साहस कर सकता है?
दमनक के इस भाषण को सुनकर करटक बोला—मित्र! तुम्हारा कहना उचित है, परन्तु हम किस स्थिति में हैं, क्या तुमने इस तथ्य पर भी विचार किया है? हम राजा के नौकर नहीं हैं, केवल अपने स्वार्थ के कारण उसके आगे-पीछे चल रहे हैं। क्या उसने कभी हमारी आवश्यकता समझी है? क्या वह हमारी सलाह को कभी मानेगा? हमें इस झञ्झट में पड़ने की आवश्यकता नहीं है?
नीतिकारों ने कहा है—
अपृष्टोऽत्राप्रधानो यो ब्रूते राज्ञः पुरः कुधीः ।
न केवलमसम्मानं लभते च विडम्बनम् ।।
जो व्यक्ति बिना पूछे सलाह देने का प्रयास करता है, उसे निश्चित ही उपहास का पात्र बनना पड़ता है।
25/11/19, 8:29 am – Abhinandan Sharma: खीर से पुत्र कैसे उत्पन्न हो सकते हैं, जानने के लिये पढ़ें, अघोरी बाबा की गीता, भाग 2 😊😊
25/11/19, 8:42 am – Abhinandan Sharma:
25/11/19, 8:45 am – Abhinandan Sharma: आशा है सभी लोग समझ गए होंगे कि न्यायशास्त्र अथवा तर्कशास्त्र की आवश्यकता क्यों है ? यही वो शास्त्र है, जो धर्म की रक्षा करता है । यही वो शास्त्र है, जिसके द्वारा शंकराचार्य ने विधर्मियों को, विशुद्ध तर्क से हराया था और सनातन धर्म का परचम लहराया था और यही वो शास्त्र है जिसकी वजह से हम कह सकते है कि सनातन धर्म केवल श्रद्धा और भक्ति तक सीमित नहीं है अपितु विशुद्ध तार्किक भी है। अतः सभी को इसको ध्यान लगाकर पढ़ना चाहिए ।
25/11/19, 8:51 am – Abhinandan Sharma: सभी सदस्यों की तरफ से, राजेश पांडेय जी का विशेष धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ । देखिये, कितनी मेहनत कर रहे हैं, कैसे टाइप किया होगा ये सब, कितनी मेहनत लगी होगी ! किसलिए ? ताकि इस ग्रुप के सदस्य ज्योतिष पढ़ सकें !! यही परोपकार है !! पुनः साधुवाद ।
25/11/19, 9:01 am – Abhinandan Sharma: देखिये तर्क कैसे होती है, क्या किसी भी एक उदाहरण को व्यर्थ कहा कहा जा सकता है ? सभी उदाहरण विषय की स्थापना करने में पूर्ण समर्थ, कोई व्यर्थ बकवाद नहीं । इसी प्रकार के अकाट्य और सौम्य तर्क ही बात की श्रेष्ठता प्रमाणित करते हैं । बहस भी देखिये कितनी सौम्यता से हो रही है । दूसरा असहमत है तो असहमति भी तर्क से ही है, सीधे रिजेक्शन नहीं है कि अरे नहीं, तुम तो बेकार की बात कर रहे हो, मैं जो कह रहा हूँ वही सही है । बल्कि दूसरा भी बात काटेगा तो तर्क और उदाहरण से ही काटेगा। आज के समय में इस प्रकार के तर्क वितर्क का सर्वथा अभाव देखने को मिलता है । बस अपनी बात मनवाने का उपक्रम दिखता है, वो भी बिना किसी तार्किक बात के ।
25/11/19, 9:39 am – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: प्रोत्साहन देने के लिए आप सभी का धन्यवाद
25/11/19, 12:31 pm – +91 : प्रजानाथं नाथ प्रसभमधिकं स्वां दुहितरं
गतं रोहिद्भूतां रिरमयिषुमृश्यस्य वपुषा।
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं
त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः।।
हे स्वामिन्!
(एक बार) कामुक ब्रह्मा ने अपनी दुहिता से हठ पूर्वक रमण करने की इच्छा की।
वह लज्जा से मृगी बन कर भागी; तब ब्रह्मा भी मृग बन कर उसके पीछे दौड़े ।
आपने भी उनको दण्ड देने के लिए मृग के शिकारी के वेग के समान हाथ में धनुष लेकर बाण चला दिया ।
स्वर्ग में भी जाने पर ब्रह्मा आपके बाण से भयभीत हो रहे हैं ।
उन्हें बाण ने आज भी नहीं छोड़ा है, अर्थात् ब्रह्मा ‘मृगशिरा’ नक्षत्र बन कर भागे तो बाण”आर्द्रा” नक्षत्र बनकर आज भी उनका पीछा करता है ।
(ये दोनों आकाश मण्डल में आगे-पीछे देखे जा सकते हैं)।।22।।
25/11/19, 2:44 pm – Abhinandan Sharma: You deleted this message
25/11/19, 2:44 pm – Abhinandan Sharma: You deleted this message
25/11/19, 5:25 pm – Abhinandan Sharma: अरे भाई कोई आद्रा और मृगशिरा नक्षत्र का फोटो डालिये !
25/11/19, 5:26 pm – Abhinandan Sharma:
25/11/19, 5:27 pm – Abhinandan Sharma: You deleted this message
25/11/19, 5:28 pm – Abhinandan Sharma: इसे और कौन गा सकता है ? थोड़ा try कीजिये ।
25/11/19, 5:31 pm – Vaidya Ashish Kumar:
25/11/19, 5:32 pm – Vaidya Ashish Kumar: 🌹🌹👌🏻👌🏻👏🏻👏🏻🙏🏻🙏🏻
25/11/19, 5:35 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: 🙋🏻♂
25/11/19, 5:36 pm – Abhinandan Sharma: भेजिये रिकॉर्डिंग 👍
25/11/19, 5:42 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: जी🙏
25/11/19, 5:43 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: This message was deleted
25/11/19, 5:44 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech:
25/11/19, 5:52 pm – Shastra Gyan Suresh Jhajjar: 👌🙏🚩
25/11/19, 5:59 pm – +91 :
25/11/19, 6:00 pm – Shastra Gyan Suresh Jhajjar: उत्तम जी 🙏🚩
25/11/19, 6:09 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: 🙏🙏🙏
25/11/19, 6:22 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar:
25/11/19, 6:22 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar:
25/11/19, 6:39 pm – +91: 👏🏼👏🏼👌🏻👌🏻
25/11/19, 6:45 pm – +91 :
25/11/19, 7:33 pm – Abhinandan Sharma: Both pics are same
25/11/19, 7:33 pm – Abhinandan Sharma: Other people also try
25/11/19, 7:33 pm – Abhinandan Sharma: You deleted this message
25/11/19, 7:33 pm – Abhinandan Sharma: Sing
25/11/19, 9:45 pm – Aparna Singh Ayodhya Shastra Gyan: ये तो ओरियन नेबुला है
25/11/19, 9:45 pm – Shastra Gyan Suresh Jhajjar:
25/11/19, 9:59 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: ओरियन तारामंडल ही आद्रा नक्षत्र
25/11/19, 10:35 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: *रामायण बालकाण्ड – षोडश सर्ग श्लोक २१,२२,२३,२४,२५
तथेति नृपतिः प्रीतः शिरसा प्रतिगृह्य ताम्। पात्रीं देवान्नसम्पूर्णां देवदत्ता हिरण्मयीम्॥२१॥
इस बात को सुन महाराज ने प्रसन्न हो, उस देवताओं की बनाई हुई और भेजी हुई खीर से भरे सुवर्णपात्र को ले अपने माथे चढा़या।
अभिवाद्य च तद्भूतमद्भुतं प्रियदर्शनम्। मुदा परमया युक्तश्चकाराभिप्रदिक्षणम्॥२२॥
तदन्तर उस अद्भुत एवं प्रियदर्शन पुरुष को महाराज ने प्रणाम किया और परम प्रसन्न हो उसकी परिक्रमा की।
ततो दशरथः प्राप्य पायसं देवनिर्मितम्। व्रभूव परमप्रीतः प्राप्य वित्तविमाधनः॥२३॥
उस देवनिर्मित खीर को पाकर महाराज दशरथ उसी तरह परम प्रसन्न हुए जिस तरह कोई निर्धन पुरुष धन पाकर परम प्रसन्न होता है।
ततस्तद्भुतप्रख्यं भूतं परसभास्वरम्। संवर्तयित्वा तत्कर्म तत्रैवान्तरधीयत्॥२४॥
वह महातेजस्वी अद्भुत पुरुष महाराज दशरथ को पायसपात्र देकर वहीं अन्तर्ध्यान हो गया।
हर्षरश्मिभिरूद्दयोतं तस्यान्तःपुरमाभवभौ। शारदस्याभिरामस्य चन्द्रस्येव नमोशुभिः॥२५॥
महाराज की रानियां भी यह सुख संवाद सुन, शरदकालीन चन्द्रमा की किरणों से आकाश की भांति (प्रसन्नता से) खिल उठी, अर्थात शोभायमान हुंई।
25/11/19, 11:34 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: #श्री गणेशाय नमः#
सुगम ज्योतिष प्रवेशिका
प्रथम भाग – जातक विचार
तीसरा प्रकरण
पंचाग – परिचय
चंद्रमा जिस राशि अंश कला विकला में होता है उस भाग का स्वामी जो नक्षत्र माना गया है ‘वह नक्षत्र है’ ऐसा व्यवहारिक भाषा में कहा जाता है।
“आज अश्विनी नक्षत्र २८ घड़ी २५ पल है”। इसका क्या अर्थ? अश्विनी नक्षत्र तो सदैव था और सदैव रहेगा। अश्विनी नक्षत्र आज २८ घड़ी २५ पल है इसका अर्थ है कि जिस स्थान के हिसाब से पंचांग बनाया गया है उस स्थान पर सूर्योदय के २८ घड़ी २५ पल तक चंद्रमा प्रथम राशि की १३ अंश २० कला वाले भाग में (जो अष्टमी के नाम से ख्यात है)रहेगा। ठीक २८ घड़ी २५ पल व्यतीत हो जाने पर चंद्रमा प्रथम राशि के १३ अंश २० कला वाले भाग को पार कर आगे वाले भाग में (जो भरणी नक्षत्र के नाम से ख्यात है) चला जावेगा। इसलिए ‘नक्षत्र’ है इस वाक्य का वास्तविक अर्थ हुआ “…….नक्षत्र वाले भाग में चंद्रमा इस समय तक रहेगा।
लौकिक भाषा में कहते हैं – कि आपका ‘जन्म-नक्षत्र’ क्या है? इसका अर्थ है कि “जब आपका जन्म हुआ उस समय चंद्रमा किस नक्षत्र वाले आकाशीय विभाग में था।” इसी प्रकार जब किसी से पूछा जाता है कि “आप की राशि क्या है?” तब इसका वास्तविक अर्थ होता है, “जब आप का जन्म हुआ तब चंद्रमा किस राशि में था।”
26/11/19, 6:33 am – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: ।।पंचतंत्र।।
प्रथम तन्त्र
मित्रभेद (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
कथा क्रम : एक
वचस्तत्र प्रयोक्तव्यं यत्रोक्तं लभते फलम् ।
स्थायी भवति चात्यन्तं रागः शुक्लपटे यथा ।।
जिस प्रकार सफ़ेद कपड़े पर ही रंग अपना उचित प्रभाव दिखा सकता है, उसी प्रकार उचित व्यक्ति को ही सलाह देने का लाभ हो सकता है।
अप्रधानः प्रधानः स्यात्सेवते यदि पार्थिवम् । प्रधानोऽप्यप्रधानः स्याद्यदि सेवाविवर्जितः ।।
दमनक बोला—मित्र! मैं तुम्हारे विचार को उचित नहीं मानता। राजा की सेवा करने वाला साधारण व्यक्ति भी मुखिया बन सकता है। जबकि सेवा न करने वाला मुखिया भी साधारण बन जाता है।
आसन्नमेव नृपतिर्भजते मनुष्यं विद्याविहीनमकुलीनमसंस्कृतं वा।
प्रायेण भूमिपतयः प्रमदा लताश्च यत्पार्श्वती भवति तत्परिवेष्टयन्ति ।।
शास्त्रों का वचन और जीवन का अनुभव यह है कि राजा, स्त्रियां और बेलें अपने पास रहने वाले को ही अपना लेती हैं, भले ही वह अशिक्षित और असंस्कृत ही क्यों न हो। इसी प्रकार सदा पास रहने वाला व्यक्ति भी राजाओं और स्त्रियों का प्रिय बन जाता है।
कोपप्रसादवस्तूनि ये विचिन्वन्ति सेवकाः ।
आरोहन्ति शनैः पश्चाद् धुन्वन्तमपि पार्थिवम् ।।
एक विचारणीय बात यह भी है कि स्वामी का कृपापात्र बनने के लिए सेवक को यह जान लेना चाहिए कि स्वामी को किस बात से क्रोध आता है और किस बात से वह प्रसन्न होता है; क्योंकि स्वामी के हृदय को जीतने का यही उपयुक्त अवसर होता है।
विद्यावतां महेच्छानां शिल्पविक्रमशालिनाम् ।
सेवावृत्तिविदाञ्चैव नाश्रयः पार्थिवं विना ।।
महत्त्वाकांक्षी विद्वानों, शिल्पकारों, कलाकारों तथा सेवावृत्ति के इच्छुक व्यक्ति को अपनी आकांक्षा की पूर्ति के लिए राजाश्रय ही उपयुक्त साधन होता है।
ये जात्यादिमहोत्साहान्नरेन्द्रान्नोपयान्ति च ।
तेषामामरणं भिक्षा प्रायश्चित्तं विनिर्मितम् ।।
अपनी जाति, विद्या अथवा किसी गुण के कारण राजाश्रय की उपेक्षा करने वाले व्यक्ति अपने ही पैरों पर अपने आप कुल्हाड़ी मार लेते हैं। ऐसे व्यक्ति जीवन-भर अभाव में रहते हैं और प्रायश्चित्त की आग में जलते रहते हैं।
ये च प्राहुर्दुरात्मानो दुराराध्या महीभुजः ।
प्रमादालस्यजाड्यानि ख्यापितानि निजानि तैः ।।
राजा को दुराराध्य कहने वाले व्यक्ति मूर्ख, आलसी और कामचोर होते हैं। जब प्रयत्न करने पर पत्थर को भी पिघलाया जा सकता है, तो राजा को प्रसन्न क्यों नहीं किया जा सकता?
सर्पान् व्याघ्रान् गजान् सिंहान् दृष्टोपायैर्वशीकृतान् ।
राजेति कियती मात्रा धीमतामप्रमादिनाम् ।।
यदि सांप, बाघ, हाथी और सिंह आदि हिंसक पशुओं को वश में किया जा सकता है, तो राजा को क्यों नहीं प्रसन्न किया जा सकता?
राजानमेव संश्रित्य विद्वान् याति परां गतिम् ।
विना मलयमन्यत्र चन्दनं न प्ररोहति ।।
जिस प्रकार चन्दन का वृक्ष मलय पर्वत पर ही होता है, उसी प्रकार राजाश्रय मिलने पर ही विद्वान् व्यक्ति की विद्वत्ता के गुणों का सम्मान होता है।
26/11/19, 7:05 am – Aparna Singh Ayodhya Shastra Gyan: ओह्हो!धन्यवाद
26/11/19, 9:28 am – Abhinandan Sharma: इस ग्रुप में फारवर्ड पोस्ट डालना मना है महोदय । कृपया एक बार ग्रुप इनफार्मेशन अवश्य पढ़ लें।
26/11/19, 12:04 pm – +91 : (यह पौराणिक कथा है कि एक बार ब्रह्मा अपनी दुहिता सन्ध्या को अत्यंत रूप- लावण्य वती देख कर मोहित हो गए।
उन्होने उपगमन करना चाहा।
सन्ध्या लज्जा के कारण मृगी बनकर भाग चली।
ब्रह्मा ने मृग रूप बना लिया और पीछा किया ।
इस अनर्थ को देख कर भगवान् भूत भावन ने प्रजा नाथ को दण्डित करने के लिए पिनाक चढ़ा कर बाण छोड़ दिया ।
उससे पीड़ित तथा लज्जित हो कर ब्रह्मा मृग शिरा नक्षत्र हो गए।
फिर रुद्र का बाण भी आर्द्रा नक्षत्र होकर उनके पीछे भाग में लग गया ।
वह आज भी उनके पीछे लगा हुआ दीखता है।)
26/11/19, 3:53 pm – Aparna Singh Ayodhya Shastra Gyan: ddr mishra sir 1.vcf (file attached)
26/11/19, 3:53 pm – Aparna Singh Ayodhya Shastra Gyan: अनुरोध है कि इस नम्बर को भी शामिल कर लिया जाय, ये नम्बर, श्री सूरज नारायण मिश्र ,उप निदेशक, माध्यमिकशिक्षा विभाग,अयोध्या मंडल के पद पर कार्यरत हैं, उन्होंने अनुरोध किया है..
26/11/19, 4:04 pm – +91 : This message was deleted
26/11/19, 4:06 pm – Aparna Singh Ayodhya Shastra Gyan: धन्यवाद
26/11/19, 4:14 pm – +91 : 🙏🏻
26/11/19, 6:44 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: #श्री गणेशाय नमः#
सुगम ज्योतिष प्रवेशिका
प्रथम भाग – जातक विचार
तीसरा प्रकरण
पंचाग – परिचय
जन्म के समय चंद्रमा जिस नक्षत्र में हो उसके अनुसार अक्षर चुनकर जन्म नाम रखने की प्रथा है। प्रसिद्ध नाम माता-पिता अपने अनुसार चुनकर कुछ भी रख सकते हैं।
प्रत्येक नक्षत्र का भाग १३ अंश २० कला है। इस को ४ से भाग देने पर प्रत्येक का भाग हुआ ३ अंश २० कला का। इस प्रत्येक भाग को पाद (पैर) या चरण कहते हैं। नक्षत्र के जिस चरण में जन्म हो उसके अनुसार नाम का प्रथम अक्षर निम्नलिखित प्रकार से चुना जाता है।
नामाक्षरः-
अश्विनी (चू चे चो ला);
भरणी ( ली लू ले लो);
कृतिका (अ इ उ ए);
रोहिणी (ओ वा वी वू)
मृगशिर् (वे वो का की)
आर्द्रा (कू घ ड छ)
पुनर्वसु (के को हा ही)
पुष्य (हू हे हो डा)
आश्लेषा (डी डू डे डो)
मघा (मा मी मू मे)
पूर्वाफाल्गुनी (मो टा टी टू)
उत्तराफाल्गुनी (टे टो पा पी)
हस्त (पू ष ण ढ)
चित्रा (पे पो रा री)
स्वाति (रू रे रो ता)
विशाखा (ती तू ते तो)
अनुराधा (ना नी नू ने)
ज्येष्ठा (नो या यी यू)
मूल (ये यो भा भी)
पूर्वाषाढ़ (भू घा फा ढा)
उत्तराषाढ़ (भे भो जा जी)
श्रवण (खी खू खे खो)
धनिष्ठा (गा गी गू गे)
शतभिषा (गो सा सी सू)
पूर्वाभाद्र (से सो दा दी)
उत्तराभाद्र (दू थ झ ञ)
रेवती (दे दो च ची)।
उदाहरणः- कोई बच्चा रेवती नक्षत्र के प्रथम चरण में उत्पन्न हुआ। (किस समय से किस समय तक चंद्रमा रेवती नक्षत्र में था यह देखिए उस समय को चार हिस्सों में बाँटिये।पहले हिस्से में जो समय आता है वह रेवती नक्षत्र का प्रथम चरण हुआ। दूसरे हिस्से का समय द्वितीय चरण, तीसरे हिस्से का समय तृतीय चरण और चौथे हिस्से का समय चतुर्थ चरण कहलावेगा।) उस बच्चे को नाम “दे” अक्षर से प्रारंभ कर देवनाथ, देवदत्त, देवीसहाय आदि रखा जावेगा।
26/11/19, 6:47 pm – Shastr Gyan Pranav Dvivedi Lucknow: क्या राशि-जन्म नक्षत्र द्वारा रखे गए नाम का जीवन पर प्रभाव पड़ता है?
26/11/19, 6:50 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: इसका उचित उत्तर श्रीमान अलंकार शर्माजी दे पायेंगे।
26/11/19, 10:21 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-८ श्लोक २२,२३,२४,२५
एवमन्यानपि व्याधीन् स्वनिदानविपर्ययात्॥२२॥
चिकित्सेदनुबन्धे तु सति हेतुविपर्ययम। त्यक्त्वा यथायथं वैद्यो युञ्जाद्व्याधिविपर्ययम्॥२३॥
हेतुविपरीत आदि चिकित्सा- इस प्रकार ज्वर आदि अन्य रोंगों की भी अपने-अपने निदान (हेतु) के विपरीत चिकित्सा करें। यदि ऐसा करने पर भी रोग शान्त न हो तो उसे छोड़कर चिकित्सक यथोचित अवसर देखकर व्याधि विपरीत औषध-योगों का प्रयोग करें।
तदर्थकारि वा, पक्वे दोषे त्विद्धे च पावके। हितमभ्यञ्जनस्नेहपानबस्त्यादि युक्तितः॥२४॥
विपरीतार्थकारी चिकित्सा- अथवा विपरीतार्थकारी चिकित्सा-विधि का प्रयोग करना चाहिए।जब इस प्रकार दोष का पाचन हो जाता है और जठराग्नि प्रदिप्त हो जाती है, तो विधिपूर्वक अभ्यञ्जन(तैलमर्दन), स्नेहपान तथा बस्ति आदि का प्रयोग कराना चाहिए।
वक्तव्य- ‘तदर्थकारि’— तत अर्थात निदान, व्याधिविपर्यय द्वारा साध्य, जो ‘अर्थ’ रोगशान्तिरूप लक्षण को करने का स्वभाव है, जिसका इस प्रकार की चिकित्सा अथवा जैसे मदात्यय रोग में पुनः मद्यपान कराना, अतिसार में विरेचन कराना आदि। ‘बस्त्यादि’— यहां आदि शब्द से रसायन आदि चिकित्सा-विधियों की ओर संकेत है।
अजीर्ण च कफादामं तत्र शोफोऽक्षिगण्डयोः। सद्योभुक्त इवोद्गारः प्रसेकोत्क्लेशगौरवम्॥२५॥
आमाजीर्ण के लक्षण- कफदोष के प्रकोप से आमाजीर्ण होता है। इसके लक्षण— आंखों तथा गालो पर शोथ, तत्काल खाये हुए आहारों के अनुरूप उद्गारों (डकारों) का आना, लालास्राव, जी मिचलाना तथा शरीर में भारीपन— ये लक्षण होते हैं।
26/11/19, 10:22 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: *रामायण बालकाण्ड – षोडश सर्ग श्लोक २६,२७,२८,२९,३०
सोन्तःपुरं प्रविश्यैव कौसल्यामिदमव्रवीत्। पायसं प्रतिगृह्णीप्व पुत्रीयं त्विदमात्मनः॥२६॥
महाराज दशरथ रनवास में गये और महारानी कौशल्या जी से यह बोले— “लो यह खीर है, इससे तुमको पुत्र की प्राप्ति होगी।
कौसल्यायै नरपतिः पायसार्धं ददौ तदा। अर्धादर्धं ददौ चापि सुमित्रायै नराधिपः॥२७॥
तदन्तर महाराज दशरथ ने उस खीर में से आधी तो कौशल्या जी को और बची हुई आधी में से आधी सुमित्रा को दी।
कैकेय्यै चावशिष्टार्धं ददौ पुत्रार्थकारणात्। प्रददौ चावशिष्टार्धं पायसस्यामृतोपमम्॥२८॥
अनुचिन्त्य सुमित्रायै पुनरेव महीपतिः। एवं तासां ददौ राजा भार्याणां पायसं पृथक्॥२९॥
उस खीर का आठवां हिस्सा कैकयी को दिया और उस अमृतोपम खीर का बचा हुआ आठवां भाग, कुछ सोचकर फिर सुमित्रा को दे दिया। इस प्रकार महाराज ने अपनी रानियों को अलग-अलग हिस्से कर खीर बांटी।
तास्त्वेतत्पायसं प्राप्य नरेन्द्रस्योत्तमाः स्त्रियः। सम्मानं मेनिरे सर्वाः प्रहर्षोदिवचेतसः॥३०॥
उस खीर को खाकर महाराज की कौशल्यादि सुन्दरी रानियां बहुत प्रसन्न हुई और अपने को अत्यन्त भाग्यवती माना।
26/11/19, 10:34 pm – +91 : चतुस्त्रिंशदधिकशततम (134) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: चतुस्त्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 16-32 का हिन्दी अनुवाद
विदुर ने कहा- महाराज! ये पाण्डुनन्दन अर्जुन कवच बांध कर रंगभूमि में उतरे हैं। इसी कारण यह सारी आवाज हो रही है। धृतराष्ट्र बोले- महामते! कुन्ती रूपी अरणि से प्रकट हुए इन तीनों पाण्डव रूपी अग्नियों से मैं धन्य हो गया। इन तीनों के द्वारा मैं सवर्था अनुगृहीत और सुरक्षित हूँ। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार आनन्दातिरेक से मुखरित हुआ वह रंगमण्डप जब किसी तरह कुछ शान्त हुआ तब अर्जुन ने आचार्य को अपनी अस्त्र-संचालन की फुर्ती दिखानी आरम्भ की। उन्होंने पहले आग्नेयास्त्र से आग पैदा की, फिर वारुणास्त्र से जल उत्पन्न करके उसे बुझा दिया। वायव्यास्त्र से आंधी चला दी और पर्जन्यास्त्र से बादल पैदा कर दिये। उन्होंने भौमास्त्र से पृथ्वी से पार्वतास्त्र से पर्वतों को उत्पन्न कर दिया; फिर अन्तर्धानास्त्र के द्वारा वे स्वयं अदृश्य हो गये। वे क्षणभर में बहुत लंबे हो जाते औ रक्षणभर में ही बहुत छोटे बन जाते थे। एक क्षण में रथ के धुरे पर खड़े होते तो दूसरे क्षण रथ की बीच में दिखाई देते। फिर पलक मारते-मारते पृथ्वी पर उतरकर अस्त्र-कौशल दिखाने लगते। अपने गुरु प्रिय शिष्य अर्जुन ने बड़ी फुर्ती और खूबसूरती के साथ सुकमार, सूक्ष्य और भारी निशाने को भी बिना हिलाये-डुलाऐ नाना प्रकार के बाणों द्वारा बींध दिया। रंगभूमि में लोहे का बना हुआ सूअर इस प्रकार रखा था कि वह सब ओर चक्कर लगा रहा था। उस घूमते हुए सूअर के मुख में अर्जुन ने एक ही साथ एक बाण की भाँति पांच बाण मारे। वे पांचों बाण एक-दूसरे से सटे हुए नहीं थे। एक जगह गाय का सींग एक रस्सी में लटकाया गया था, जो हिल रहा था। महापराक्रमी अर्जुन ने उस सींग के छेद में लगातार इक्कीस बाण गड़ा दिये।
निष्पाप जनमेजय! इस प्रकार उन्होंने बड़ा भारी अस्त्र-कौशल दिखाया। खड्ग, धनुष और गदा आदि के भी शस्त्र कुशल अर्जुन ने अनेक पैंतरे और हाथ दिखलाये। भारत! इस प्रकार अस्त्र-कौशल दिखाने का अधिकांश कार्य जब समाप्त हो चला, मनुष्यों का कोलाहल बाजे-गाजे का शब्द जब शांत होने लगा, उसी समय दरवाजे की ओर से किसी का अपनी भुजाओं पर ताल ठोकने का भारी शब्द सुनायी पड़ा; मानों वज्र आपस में टकरा रहे हों। वह शब्द किसी वीर के महात्म्य तथा बल का सूचक था। उसे सुनकर लोग कहने लगे ‘कहीं पहाड़ तो नहीं फट गये! पृथ्वी तो नहीं विदीर्ण हो गयी! अथवा जल की धारा से परिपूर्ण घनीभूत बादलों की गंभीर गर्जना से आकाश मण्डल तो नहीं गूंज रहा है?’ राजन्! उस रंगमण्डप में बैठे हुए लोगों के मन में क्षणभर में उपर्युक्त विचार आने लगे। उस समय सभी दर्शक दरवाजे की ओर मुंह घुमाकर देखने लगे। इधर कुन्तीकुमार पांचों भाइयों से घिरे हुए आचार्य द्रोण पांच तारों वाले हस्त नक्षत्र से संयुक्त चन्द्रमा की भाँति शोभा पा रहे थे। शत्रुहन्ता बलवान दुर्योधन भी उठकर खड़ा हो गया। अश्वत्थामा सहित उसके सौ भाइयों ने आकर उसे चारों ओर से घेर लिया। हाथों में आयुध उठाये खड़े हुए अपने भाइयों से घिरा हुआ गदाधारी दुर्योधन पूर्वकाल में दानव संहार के समय देवताओं से घिरे देवराज इन्द्र के समान शोभा पाने लगा।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में अस्त्रदर्शनविषयक एक सौ चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
27/11/19, 6:02 am – +91: स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत्
पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि।
यदि स्त्रैणं देवी यम निरत देहार्धघटना–
दवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः।।
हे त्रिपुरारि!
हे यम नियम परायण!
हे वरद शंकर!
—–अपने सौंदर्य से शिव पर विजय प्राप्त कर लूंगा—इस सम्भावना से हाथ में धनुष उठाए हुए कामदेव को सामने ही तुरन्त आपके द्वारा तिनके की भांति भस्म होता हुआ देख कर भी यदि देवी ( पार्वतीजी) अर्ध नारीश्वर ( आधे शरीर में पार्वती को स्थान देने) के कारण आपको स्त्री भक्त जानती हैं तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि स्त्रियां ( स्वभावतः) अज्ञानी होती हैं ।।23।।
27/11/19, 12:00 pm – +91: पंचत्रिंशदधिकशततम (135) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: पंचत्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
कर्ण का रंगभूमि में प्रवेश तथा राज्याभिषेक
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! आश्चर्य से आंखें फाड़-फाड़कर देखते हुए द्वारपालों ने जब भीतर जाने का मार्ग दे दिया, तब शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वाले कर्ण ने उस विशाल रंगभूमि में प्रवेश किया। उसने शरीर के साथ ही उत्पन्न हुए दिव्य कवच को धारण कर रखा था। दोनों कानों के कुण्डल उसके मुख को उद्भासित कर रहे थे। हाथ में धनुष लिये और कमर में तलवार बांधे वह वीर पैरों से चलने वाले पर्वत की भाँति सुशोभित हो रहा था। कुन्ती ने कन्यावस्था में ही उसे अपने गर्भ में धारण किया था। उसका यश सर्वत्र फैला हुआ था। उसके दोनों नेत्र बड़े-बड़े थे। शत्रु समुदाय का संहार करने वाला कर्ण प्रचण्ड किरणों वाले भगवान् भास्कर का अंश था। उसमें सिंह के समान बल, सांड के समान वीर्य तथा गजराज के समान पराक्रम था, वह दीप्ति से सूर्य, कान्ति से चन्द्रमा तथा तेजस्वी गुण से अग्नि के समान जान पड़ता था। उसका शरीर बहुत ऊंचा था, अत: वह सुवर्णमय ताड़ के वृक्ष-सा प्रतीत होता था। उसके अंगों की गठन सिंह जैसी जान पड़ती थी। उसमें असंख्य गुण थे। उसकी तरुण अवस्था थी। वह साक्षात् भगवान् सूर्य से उत्पन्न हुआ था, अत: (उन्हीं के समान) दिव्य शोभा से सम्पन्न था। उस समय महाबाहु कर्ण ने रंगमण्डप में सब ओर दृष्टि डालकर द्रोणाचार्य और कृपाचार्य को इस प्रकार प्रणाम किया, मानो उनके प्रति उसके मन में अधिक आदर का भाव न हो। रंगभूमि में जितने लोग थे, वे सब निश्चल होकर एकटक दृष्टि से देखने लगे। यह कौन है, यह जानने के लिये उनका चित्त चञ्चल हो उठा। वे सब-के-सब उत्कण्ठित हो गये। इतने में ही वक्ताओं में श्रेष्ठ सूर्यपुत्र कर्ण, जो पाण्डवों का भाई लगता था, अपने अज्ञात भ्राता इन्द्रकुमार अर्जुन से मेघ के समान गम्भीर वाणी में बोला। ‘कुन्तीनन्दन! तुमने इन दर्शकों के समक्ष जो कार्य किया है, मैं उससे भी अधिक अद्भुत कर्म कर दिखाऊंगा। अत: तुम अपने पराक्रम पर गर्व न करो’। वक्ताओं में श्रेष्ठ जनमेजय! कर्ण की बात अभी पूरी ही न हो पायी थी कि सब ओर से मनुष्य तुरंत उठकर खड़े हो गये, मानो उन्हें किसी यन्त्र से एक साथ उठा दिया गया हो। नरश्रेष्ठ! उस समय दुर्योधन के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई और अर्जुन के चित्त में क्षणभर में लज्जा और क्रोध का संचार हो आया। तब सदा युद्ध से ही प्रेम करने वाले महाबली कर्ण ने द्रोणाचार्य की आज्ञा लेकर, अर्जुन ने वहाँ जो-जो अस्त्र-कौशल प्रकट किया था, वह सब कर दिखाया। भारत! तदनन्तर भाईयों सहित दुर्योधन ने वहाँ बड़ी प्रसन्नता के साथ कर्ण को हृदय से लगाकर कहा। दुर्योधन बोला- महाबाहो! तुम्हारा स्वागत है। मानद! तुम यहाँ पधारे, यह हमारे लिये बड़े सौभाग्य की बात है। मैं तथा कौरवों का यह राज्य सब तुम्हारे हैं। तुम इनका यथेष्ट उपभोग करो। कर्ण ने कहा- प्रभो! आपने जो कुछ कहा है, वह सब पूरा कर दिया, ऐसा मेरा विश्वास है। मैं आपके साथ मित्रता चाहता हूँ और अर्जुन के साथ मेरी द्वन्द्व-युद्ध करने की इच्छा है।
27/11/19, 4:41 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: रामायण बालकाण्ड – षोडश सर्ग श्लोक ३१,३२
ततस्तु ताः प्राश्य तदुत्मस्त्रियो महीपतेरूत्तमपायसं पृथक्। हुताशनादित्यसमानतेजसश्चिरेण गर्भान्प्रतिपेदिरे तदा॥३१॥
तदन्तर उन उत्तम रानियों ने महाराज की पृथक-पृथक दी हुयी खीर खाकर अग्नि और सूर्य के समान तेज वाले गर्भ शीघ्र धारण किये।
ततस्तु राजा प्रसमीक्ष्य ताः स्त्रियः प्ररूढगर्भाः प्रतिलब्धमानसः। वभूव हृष्टस्त्रिदिवे यथा हरिः सुरेन्द्रसिद्धर्षिगणाभिपूजितः॥३२॥
महाराज दशरथ भी अपनी रानियों को गर्भवती और अपना मनोरथ पूर्ण होता देख, उसी प्रकार प्रसन्न हुए, जिस प्रकार भगवान विष्णु देवताओं और सिद्धों से पूजित हो, स्वर्ग में प्रसन्न होते हैं।
*इति षोडशः सर्गः॥*
27/11/19, 5:08 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: यद्द्पि न्याय शास्त्र का असली उदेश्य तत्वबोध हे , तथापि आजकल अधिकतर लोग पांण्डित्य प्रदर्शन तथा शास्त्रार्थ में विजय प्राप्ति की कामना से ही न्याय के अध्ययन में प्रवृत होते है | किन्तु यथार्थ नैयायिक उसी को समझना चाहिए जो जिगीषु नहीं होकर तत्व-बुभुत्सु (तत्व का भूखा) हो | व्यक्तिगत लाभ हानि की ओर जरा भी ध्यान न देकर सत्यपक्ष का ग्रहण और असत्य पक्ष का परित्याग करना ही नैयायिक का सच्चा धर्म है | जो इस उदेश्य से प्रेरित होकर न्याय का अध्ययन करता है, उसीकी विद्या सार्थक हे |
27/11/19, 5:19 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: @919106474252 जी आपकी इतनी मेहनत के लिए बहुत बहुत धन्यवाद 🙏🏼🙏🏼
27/11/19, 5:22 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: 🙏🙏🙏
27/11/19, 5:27 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
श्री मनुस्मृति
तृतीय अध्याय
अयाज्ययाजनैश्चैव नास्तिक्येन च कर्मणाम् ।
कुलान्याशु विनश्यन्ति यानि हीनानि मन्त्रतः । । ३.६५ । ।
मन्त्रतस्तु समृद्धानि कुलान्यल्पधनान्यपि ।
कुलसंख्यां च गच्छन्ति कर्षन्ति च महद्यशः । । ३.६६ । ।
वैवाहिकेऽग्नौ कुर्वीत गृह्यं कर्म यथाविधि ।
पञ्चयज्ञविधानं च पक्तिं चान्वाहिकीं गृही । । ३.६७[५७ं] । ।
पञ्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः ।
कण्डनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन् । । ३.६८[५८ं] । ।
अर्थ
अनाधिकारी को यज्ञ कराने से,श्रौत-स्मार्त कर्मो में अश्रद्धा से और वेद ना पढ़ने से उत्तम कुल भी शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। जो कुल निर्धन भी वेदाध्ययन रूप सम्पत्ति वाले हैं वह बड़े कुलों में गिने जाते हैं और यशभागी होते हैं।
जिस अग्नि की साक्षी में विवाह किए जाता है उसे वैवाहिक कहते हैं।उस में सांयः प्रातः होम,वैश्व देव,शान्ति पौष्टिक कर्म,नित्य पाक आदि वैदिक कर्म गृहस्थ को करना चाहिए।
गृहस्थ के यंहा हिंसा के पांच स्थान होते हैं
चूल्हा,चक्की,बुहारी,ओखली व जल का घड़ा, इनको काम में लाने से पाप लगता है।।
ॐ
27/11/19, 5:35 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: गृहस्थ के पांच स्थान हिंसा के!! कैसे ?
27/11/19, 5:38 pm – Ashu Bhaiya: अरे पढ़ो तो भैया…….
27/11/19, 6:05 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: चुल्ली पेषणी उपस्करः कण्डनी च उदकुम्भ: च गृहस्थस्य पञ्च सूनाः याः तु वाहयन् बध्यते ।
चुल्ली(चूल्हा) चक्की, झाड़ू-पोंछने के साधन, सिल-बट्टा तथा पानी का घड़ा, ये पांच पाप के कारण हैं जिनका व्यवहार करते हुए मनुष्य पापों से बंधता है ।
अर्थात इनका प्रयोग करते समय कुछ न कुछ पापकर्म हो ही जाता है, जैसे घुन-कीड़े जैसे जीवों की हत्या हो ही जाती है। भारतीय धार्मिक मान्यताओं के अनुसार किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए लेकिन जीवन धारण के कार्य में ऐसे पापों से बचना संभव नहीं है ।
27/11/19, 6:20 pm – +91 : 👌🏻
27/11/19, 6:36 pm – LE Ravi Parik : Really very nice and interesting..
27/11/19, 6:36 pm – LE Ravi Parik : Thank you for you efforts
27/11/19, 6:38 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: 🙏🙏🙏
27/11/19, 7:07 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: सिल बट्टे की जगह मूल पाठ में ओखली दिया गया है
27/11/19, 7:19 pm – Vaidya Ashish Kumar: 🌹🌹🌹🌹🌹
27/11/19, 7:23 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: यह शब्दशः नहीं भावार्थ है, दोनों में अर्थ कूटना/पीसना ही है ।
27/11/19, 7:23 pm – Shastra Gyan Mukesh Mishra Allahabad: 👌🏻👌🏻
27/11/19, 10:27 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-८ श्लोक २६,२७
विष्टब्धमनिलाच्छूलविबन्धाध्मानसादकृत्। पित्ताद विदग्धं तृण्मोहभ्रमाम्लोद्गारदाहवत्॥२६॥
विष्टब्धाजीर्ण के लक्षण- वातदोष के प्रकोप से विष्टब्धाजीर्ण होता है। इसमें पेट में शूल, मल-मूत्र एवं अपानवायु के निकलने में रूकावट, अफरा एवं शरीर में ढीलापन— ये लक्षण होते हैं।
विदग्धाजीर्ण के लक्षण- पित्तदोष के प्रकोप से विदग्धाजीर्ण होता है। इसमें बार-बार प्यास लगना, मोह (बेहोशी), चक्करों का आना, खट्टे डकारों का आना एवं जलन का होना— ये लक्षण होते है।
लङ्घनं कार्यमामे तु, विष्टब्धे स्वेदनं भृशम्। विदग्धे वमनं, यद्वा यथावस्थं हितं भवेत्॥२७॥
चिकित्सा सूत्र- आमाजीर्ण मे रोग के अनुसार पूर्ण लङ्घन (उपवास) करें या लघुभोजन करें। विष्टब्धाजीर्ण में बार-बार पेट के ऊपर स्वेदन करें, इससे वातदोष का अनुलोमन होता है। विष्टब्धाजीर्ण में तब तक वमन कराना चाहिए, जब तक वमन में पित्त का दर्शन न हो जाय। अन्य लक्षणों की शान्ति के लिए परिस्थिति के अनुसार समयोचित चिकित्सा करनी चाहिए।
27/11/19, 10:44 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: #श्री गणेशाय नमः#
सुगम ज्योतिष प्रवेशिका
प्रथम भाग – जातक विचार
तीसरा प्रकरण
पंचाग – परिचय
योग – पंचांग में दो प्रकार के योग दिए रहते हैंः (१) वार और नक्षत्र के योग से जो आनन्द, काल, दंड आदि २८ योग होते हैं, वे ३१वे प्रकरण में आगे बताए गए हैं।
(२) दूसरे प्रकार के योग २७ हैं, जो निम्नलिखित हैंः-
(१) विष्कुम्भ, (२) प्रीति, (३) आयुष्मान, (४) सौभाग्य, (५) शोभन, (६) अतिगड, (७) सुकर्मा, (८) धृति, (९) शूल, (१०) गड, (११) वृद्धि, (१२) ध्रुव,(१३) व्याघात, (१४) हर्षण, (१५) वैर, (१६) सिद्धि, (१७) व्यतिपात, (१८) वरीयान, (१९) परिघ, (२०) शिव, (२१) सिद्ध, (२२) साध्य, (२३) शुभ, (२४) शुक्ल (शुक्र), (२५) ब्रह्म, (२६) इन्द्र तथा (२७) वैधृति।
इस ‘योग’ का अर्थ है सूर्य और चन्द्रमा के राशि, कला, विकला का योग या जोड़।
उदाहरण के लिए तारीख १८ सितंबर १९५८ को प्रातः काल ५-१/२ बजे (भारतीय स्टैंडर्ड टाइम)।
रा० अ० क० वि०
सूर्य स्पष्ट ५- १- १७- ३३
चन्द्र स्पष्ट। ७- ३- ३५- ६
______
१२- ४- ५२- ३९
राशियों में यदि १२ का भाग लग सके तो १२ का भाग देकर राशि के स्थान पर केवल शेष रखना चाहिए इस प्रक्रिया के बाद रहा ०- ४- ५२- ३९।
अब आप देखिए ‘भचक्र’ के जो २७ विभाग किए गए हैं उसमें यह संख्या किस विभाग में आती है। ०-०-० से ०-१३-२० तक (१) विभाग है। अब उपर योग के क्रम (१) के आगे विष्कुम्भ लिखा है – इसलिए १८ सितम्बर १९५८ को प्रातः ५-१/२ बजे ‘विष्कुम्भ’ योग हुआ।
28/11/19, 7:13 am – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: 👌🏻👌🏻
28/11/19, 9:27 am – +91 : Bahot hi badhiyaa har har mahadev शंभू
28/11/19, 9:49 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: यहां बहुत से लोग केवल अपनी मनमानी करने ही आ रहे हैं । इसके बाद कोई और unrelated video या forward post डाले गए तो किसी तरह के अनुरोध की संभावना नहीं । इस ग्रुप में कुछ लोग मेहनत कर रहे हैं कुछ विशेषज्ञ हैं जो समय समय पर विषयों को समझने में सहायता करते हैं और बहुत से लोग समझने की कोशिश कर रहे हैं, कृपया सभी की मेहनत को सार्थक बनाने में सहयोग दें और बिना admin के परामर्श के, केवल विषय सम्बन्धित प्रश्न ही डालें और कुछ नहीं । धन्यवाद 🙏🏼
28/11/19, 10:07 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 2 श्लोक 48
असमापितकृत्यसम्पदां हतवेगं विनयेन तावता ।
प्रभवन्त्यभिमानशालिनां मदं उत्तम्भयितुं विभूतयः ।। २.४८ ।।
अर्थ: कार्य को अधूरा छोड़ने वाले अभिमानी व्यक्तियों की सम्पत्तियाँ ऊपर से धारण किये गए स्वल्प विनय के द्वारा प्रतिहत वेग अभिमान को बढ़ने में समर्थ हो जाती हैं ।
टिप्पणी: अर्थात वह अपने स्वार्थों के कारण बगुला भगत बना रहता है, किन्तु किसी कार्य की समाप्ति के भीतर तो उसका अभिमान प्रकट होकर ही रहता है क्योंकि थोड़ी देर के लिए चिकनी-चुपड़ी, विनयभरी बातों से उसके न्यून वेग वाले अभिमान को बढ़ावा ही मिलता है । लोग समझ जाते हैं कि यह बनावटी विनयी है, सहज नहीं ।
काव्यलिङ्ग अलङ्कार
28/11/19, 10:10 am – +91 : ऐसों से पाला पड़ चुका है !😊
28/11/19, 10:12 am – +91 : 👏👏👏👏👏👏
28/11/19, 10:13 am – +91 : इस बात का सभी को ध्यान रखने की आवश्यकता है।
28/11/19, 11:41 am – Shastra Gyan Maniah Patiala: न्याय शास्त्र का महत्व –
विद्वानों की मण्डली में न्याय शास्त्र का बड़ा ही आदर है | बिना न्याय पढ़े कोई पंडित की गणना ही में नहीं आ सकता | व्याकरण और न्याय ये दोनों विषय पंडित के लिए अनिवार्य है | इसलिए प्राचीन समय से यही परिपाटी चली आती है की विधार्थी को लघुसिद्धांतकौमुदी (व्याकरण ) और तर्क संग्रह (न्याय) से विद्याध्ययन
का श्रीगणेश कराया जाता है|
न्याय का बोध हो जाने पर सभी शास्त्रों में सुगमतया प्रवेश हो जाता है| कहा भी हे —
” गौतमप्रथित शास्त्र सर्वशास्त्रोपकारक्म“
28/11/19, 11:47 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙏
28/11/19, 11:50 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: *अभिमान द्वारा होने वाले अनर्थ की चर्चा(अगले दो श्लोक)
किरातार्जुनीय सर्ग 2 श्लोक 49 और 50
मदमानसमुद्धतं नृपं न वियुङ्क्ते नियमेन मूढता ।
अतिमूढ उदस्यते नयान्नयहीनादपरज्यते जनः ।। २.४९ ।।
अर्थ: दर्प और अहँकार से उद्धत राजा को मूर्खता अवश्य ही नहीं छोड़ती । अत्यन्त मूर्ख राजा न्यायपथ से पृथक हो जाता है और अन्यायी राजा से जनता अलग हो जाती है ।
टिप्पणी: अर्थात कार्य का अवसर आने पर अभिमान के कारण देश के सभी राजा तथा जनता भी दुर्योधन से पृथक हो जायेगी ।
कारणमाला अलङ्कार
अपरागसमीरणेरितः क्रमशीर्णाकुलमूलसन्ततिः ।
सुकरस्तरुवत्सहिष्णुना रिपुरुन्मूलयितुं महानपि ।। २.५० ।।
अर्थ: द्वेष की वायु से प्रेरित, धीरे-धीरे चञ्चल बुद्धि मन्त्रियों आदि अनुगामियों से विनष्ट शत्रु यदि महान भी है, तब भी (भयङ्कर तूफ़ान से प्रकम्पित तथा क्रमशः डालियों और जड़ समेत विनष्ट ) वृक्ष की भांति क्षमाशील पुरुष द्वारा विनष्ट करने में सुगम हो जाता है ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि क्षमाशील पुरुष धीरे-धीरे बिना प्रयास के ही अपने शत्रुओं का समूल नाश कर डालता है ।
कारणमाला और उपमा अलङ्कार
28/11/19, 1:27 pm – Poonam Goyal Delhi Artist Shastra Gyan: पंचत्रिंशदधिकशततम (135) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: पंचत्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 16-33 का हिन्दी अनुवाद
दुर्योधन बोला- शत्रुदमन! तुम मेरे साथ उत्तम भोग भोगो। अपने भाई-बन्धुओं का प्रिय करो और समस्त शत्रुओं के मस्तक पर पैर रखो। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! उस समय अर्जुन ने अपने-आपको कर्ण द्वारा तिरस्कृत-सा मानकर दुर्योधन आदि सौ भाइयों के बीच में अविचल-से खड़े हुए कर्ण को सम्बोधित करके कहा। अर्जुन बोले – कर्ण! बिना बुलाये आने वालों और बिना बुलाये बोलने वालों को जो (निन्दनीय) लोक प्राप्त होते हैं, मेरे द्वारा मारे जाने पर तुम उन्हीं लोकों में जाओगे।
कर्ण ने कहा- अर्जुन! यह रंगमण्डप तो सबके लिये साधारण है, इसमें तुम्हारा क्या लगा है? जो बल और पराक्रम में श्रेष्ठ होते हैं, वे ही राजा कहलाने योग्य हैं। धर्म भी बल का ही अनुसरण करता है। भारत! आक्षेप करना तो दुर्बलों का प्रयास है। इससे क्या लाभ है? साहस हो तो बाणों से बाचचीत करो। मैं आज तुम्हारे गुरु के सामने ही बाणों द्वारा तुम्हारा सिर धड़ से अलग किये देता हूँ।
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! तदनन्तर शत्रुओं के नगर को जीतने वाले कुन्तीनन्दन अर्जुन आचार्य द्रोण की आज्ञा ले तुरंत अपने भाइयों से गले मिलकर युद्ध के लिये कर्ण की ओर बढ़े। तब भाइयों सहित दुर्योधन ने भी धनुष-बाण ले युद्ध के लिये तैयार खड़े हुए कर्ण का आलिंगन किया। उस समय बकपंक्तियों के व्याज से हास्य की छटा बिखेरने वाले बादलों ने बिजली की चमक, गड़गड़ाहट और इन्द्रधनुष के साथ समूचे आकाश को ढक लिया। तत्पश्चात् अर्जुन के प्रति स्नेह होने के कारण इन्द्र को रंगभूमि का अवलोकन करते देख भगवान् सूर्य ने भी अपने समीप बादलों को छिन्न-भिन्न कर दिया। तब अर्जुन मेघ की छाया में छिपे हुए दिखायी देने लगे और कर्ण भी सूर्य की प्रभा से प्रकाशित दीखने लगा। धृतराष्ट्र के पुत्र जिस ओर कर्ण था, उसी ओर खड़े हुए तथा द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और भीष्म जिधर अर्जुन थे, उस ओर खड़े थे। रंगभूमि के पुरुषों और स्त्रियों में भी कर्ण और अर्जुन को लेकर दो दल हो गये।
कुन्तिभोजकुमारी कुन्ती देवी वास्तविक रहस्य को जानती थीं (कि ये दोनों मेरे ही पुत्र हैं), अत: चिन्ता के कारण उन्हें मूर्च्छा आ गयी। उन्हें इस प्रकार मूर्च्छा में पड़ी हुई देख सब धर्मों के ज्ञाता विदुर जी ने दासियों द्वारा चन्दन मिश्रित जल छिड़कवाकर होश में लाने की चेष्टा की। इससे कुन्ती को होश तो आ गया; किंतु अपने दोनों पुत्रों को युद्ध के लिये कवच धारण किये देख वे बहुत घबरा गयीं। उन्हें रोकने का कोई उपाय उनके ध्यान में नहीं आया। उन दोनों को विशाल धनुष उठाये देख द्वन्द्व-युद्ध की नीति-रीति में कुशल और समस्त धर्मों के ज्ञाप शरद्वान् के पुत्र कृपाचार्य ने इस प्रकार कहा- ‘कर्ण! ये कुन्तीदेवी के सबसे छोटे पुत्र पाण्डुनन्दन अर्जुन कुरुवंश के रत्न हैं, जो तुम्हारे साथ द्वन्द्व-युद्ध करेंगे। महाबाहो! इसी प्रकार तुम भी अपने माता-पिता तथा कुल का परिचय दो और उन नरेश के नाम बताओ, जिनका वंश तुमसे विभूषित हुआ है। इसे जान लेने के बाद यह निश्चय होगा कि अर्जुन तुम्हारे साथ युद्ध करेंगे या नहीं; क्योंकि राजकुमार नीच कुल और हीन आचार-विचार वाले लोगों के साथ युद्ध नहीं करते।’
28/11/19, 2:26 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: 🙏🙏🙏
28/11/19, 2:55 pm – +91: श्मशानेश्वा क्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचरा–
श्चिता भस्मा लेपः स्रगपि नृकरोटी परिकरः।
अमंगल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं
तथापि स्मर्तृणां वरद परमं मंगलमसि।।
हे कामरिपु!
हे वरद शंकर जी!
आप श्मशानों में क्रीडा करते है,
प्रेत पिशाच गण आपके साथी हैं,
चिता की भस्म आपका अंग राग है,
आपकी माला भी मनुष्य की खोपड़ियों की है।
इस प्रकार यह सब आप का अमंगल स्वभाव ( स्वांग) देखने में भले ही अशुभ हो,
फिर भी स्मरण करने वाले भक्तो के लिए तो आप परम मंगलमय ही हैं ।।24।।
28/11/19, 8:18 pm – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: ।।पंचतंत्र।।
प्रथम तन्त्र
मित्रभेद (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
कथा क्रम : एक
धवलान्यातपत्राणि वाजिनश्च मनोरमाः।
सदा मत्ताश्च मातङ्गाः प्रसन्ने सति भूपतौ ।।
राजा के प्रसन्न होने पर उसके आश्रित व्यक्ति को अनेक बहुमूल्य एवं दुर्लभ पदार्थ, जैसे श्वेत छत्र, मनोरम अश्व, सदा मस्त रहने वाले हाथी तथा अनेक प्रकार के वस्त्राभूषण और खाद्य-पदार्थ आदि सुलभ हो जाते हैं।
राजा के प्रति दमनक के प्रबल आग्रह को देखकर करटक ने पूछा—मित्र! तुम क्या करना चाहते हो?
इस पर दमनक बोला—मित्र! इस समय हमारा स्वामी पिंगलक किसी अज्ञात आशंका से ग्रस्त प्रतीत होता है। हमें उसके पास चलकर कारण का पता लगाना चाहिए और फिर नीति का आश्रय लेकर उसकी सेवा करनी चाहिए। इस प्रकार हम उसका हृदय जीतने में सफल हो जायेंगे।
करटक ने कहा—मित्र! तुम यह कैसे कह सकते हो कि हमारा स्वामी किसी आशंका से ग्रस्त है?
दमनक ने उत्तर दिया—यह भी कोई पूछने की बात है?
उदीरितोऽर्थः पशुनापि गृह्यते हयाश्च नागाश्च वहन्ति चोदिताः ।
अनुक्तमप्यूहति पण्डितो जनः परेङ्गितज्ञानफला हि बुद्धयः ।।
मित्र! यह तो स्पष्ट है कि कहने पर तो मूढ़ व्यक्ति को भी पता चल जाता है, समझदारी तो बिना कुछ कहे ही दूसरे के चेहरे से उसके मनोभावों को जान लेने में है। हाथी-घोड़े आदि पशु भी अपने स्वामी के संकेत को समझते हैं और भार उठाने को तैयार हो जाते हैं। लेकिन पण्डित तो वही है, जो बिना कहे ही दूसरों के मन के रहस्य को जान ले। यदि पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी इतना योग्य न हो, तो उसका पढ़ना-लिखना व्यर्थ ही कहलायेगा।
मनु ने भी कहा है—
आकारैरिङ्गितैर्गत्या चेष्टया भाषणेन च ।
नेत्रवक्त्रविकारैश्च लक्ष्यतेऽन्तर्गतं मनः ।।
किसी व्यक्ति के मन के भावों का पता उसके चेहरे के हाव-भाव तथा उसकी विभिन्न चेष्टाओं, गतिविधियों, चाल-ढाल, बातचीत करने के ढंग, उसके नेत्रों की स्थिति व उसके चेहरे के भावों से हो जाता है।
लाख चेष्टा करने पर भी वास्तविकता छिप नहीं सकती।
यदि मैं भयग्रस्त स्वामी के भय का कारण जानकर उसे भयमुक्त कर सका, तो मुझे पूरा विश्वास है कि वह मुझे सचिव पद सौंपने में देर नहीं लगायेंगे।
मुझे तो लगता है कि उनको वश में करने का यह सबसे उत्तम अवसर है।
करटक बोला—लगता है कि तुम्हें इन स्वामी के स्वभाव की कोई जानकारी नहीं है।
दमनक ने कहा—तुम ऐसा कैसे कह सकते हो? यह तो मैंने पिताजी से ज्ञान प्राप्त करते समय ही सीख लिया था।
तुम कहो, तो तुम्हें बता दूं।
सुवर्णपुष्पितां पृथ्वीं विचिन्वन्ति नरास्त्रयः ।
शूरश्च कृतविद्यश्च यश्च जानाति सेवितुम् ।।
सबसे पहले तो यह मानकर चलना होगा कि इस संसार में तीन प्रकार के लोग सफल होते हैं :
1. पराक्रमी, 2. विद्वान् तथा 3. सेवाकार्य में निपुण।
28/11/19, 8:50 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: #श्री गणेशाय नमः#
सुगम ज्योतिष प्रवेशिका
प्रथम भाग – जातक विचार
तीसरा प्रकरण
पंचाग – परिचय
इसके आगे वाला ‘प्रीति’ योग कब प्रारंभ होगा? ०-०-० से प्रारंभ कर ०-१३-२० तक ‘१’ ला विभाग है, इस कारण जब सूर्य स्पष्ट और चन्द्र स्पष्ट का योग (जोड़) ०-१३-२० हो जावेगा तब ‘प्रीति’ योग प्रारम्भ होगा। ‘प्रीति’ योग कब समाप्त होगा? दूसरा विभाग ०-१३-२० से ०-२६-४० तक है। इस कारण जब सूर्य स्पष्ट और चन्द्र स्पष्ट का योग (अर्थात जोड़) ०-२६-४० हो जावेगा तब ‘प्रीति’ योग समाप्त होकर, इसके आगे वाला योग ‘आयुष्मान’ प्रारंभ हो जावेगा।
पंचांग करता गणित करके, घड़ी-पलों में यह देते हैं कि किस समय तक अमुक योग है। पंचांग में प्रायः योग का प्रथम अक्षर दिया रहता है।
28/11/19, 9:07 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👌🏼
28/11/19, 11:26 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: *रामायण बालकाण्ड – सप्तदश सर्ग श्लोक १,२,३,४,५,६
पुत्रत्वं तु गते विष्णौ राज्ञस्तस्य महात्मनः। उवाच देवताः सर्वाः स्वयंभूभर्गवानिदम्॥१॥
महात्मा महाराज दशरथ के घर में भगवान विष्णु को पुत्र रूप से अवतीर्ण होते देख, ब्रह्मा जी ने सब देवताओं से कहा।
सत्यसंघस्य वीरस्य सर्वेषां नो हितैषिणः। विष्णोः सहायान्बलिनः सृजध्वं कामरूपिणः॥२॥
मायाविदश्च शूरांश्च वायुवेगसमाञ्जवे। नयज्ञान्बुद्धिसम्पन्नान्विष्णुतुल्यपराक्रमान्॥३॥
असंहार्यानुपायज्ञान्सिंहसंहननान्वितान्। सर्वास्त्रगुणसम्पन्नानमृतप्राशनानिव॥४॥
अप्सरःसु च मुख्यासु गन्धर्वीणां तनुषु च। किंनरीणां च गात्रेषु वानरीणां तनूषु च॥५॥
यक्षपन्नगकन्यासु ऋक्षिविद्याधरीषु च। सृजध्वं हरिरूपेण पुत्रांस्तुल्यपराक्रमान्॥६॥
सत्यसंघ, वीर और सब का हित चाहने वाले भगवान विष्णु की सहायता चाहने वाले तुम लोग भी बलवान, कामरूपी (जैसा चाहे वैसा रूप बनाने वाले), माया को जानने वाले, वेग में पवन तुल्य, नीतिज्ञ, बुद्धिमान, पराक्रम में विष्णु के ही समान, जिनको कोई मार न सके, उद्यमी, दिव्य शरीर वाले, अस्त्र विद्या में निपुण और देवताओं के सदृश वानरों को, अप्सराओं, गन्धर्व की स्त्रियों और यक्षो एवं नागों की कन्याओं, ऋक्षियों, विद्याधरियों, किन्नरियों और वानरों से उत्पन्न करो।
29/11/19, 6:07 am – +91: मनः प्रत्यक् चित्ते सविधमवधायत्तमरुतः
प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमद सलिलोत्संगितदृशः।
यदा लोक्याह्लादं हृद इव निमज्ज्यामृतमये
दधत्यन्तस्तत्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान्।।
हे प्रभो!
(शम -दम आदि साधनों से संपन्न) यमी लोग शास्त्रोपदिष्ट विधि से — वायु रोक कर (प्राणायम कर) हृदय कमल में बहिर्मुखी ( संकल्प- विकल्पात्मक) मन को सभी वृत्तियों से शून्य करके अपने भीतर जिस किसी विलक्षण ( आनंद रूप परब्रह्म चिन्मात्र) तत्व का दर्शन कर रोमांचित हो जाते हैं और उनकी आंखें आनन्द के आँसुओं से भर जाती हैं,
उस समय मानो वे अमृत के समुद्र में अवगाहन कर दिव्य आनंद का अनुभव करते हैं;
वह निर्गुण आनन्द स्वरूप ब्रह्म निश्चय रूप से आप ही हैं ।।25।।
29/11/19, 9:22 am – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: #श्री गणेशाय नमः#
सुगम ज्योतिष प्रवेशिका
प्रथम भाग – जातक विचार
तीसरा प्रकरण
पंचाग – परिचय
करण– तिथि ३० होती है १५ शुक्ल पक्ष की तथा १५ कृष्ण पक्ष की। यह दूसरे प्रकरण में बताया गया है। तिथि के आधे भाग को ‘करण’ कहते हैं। किस तिथि के किस आधे भाग को कौन सा करण कहते हैं यह नीचे चक्र से स्पष्ट होगाः
कृष्ण पक्ष
तिथि – प्रथम भाग – द्वितीय भाग
१ वालव – कौलव
२ तैतिल – गरज
३ वणिज – विष्टि
४ वव – वालव
५ कौलव – तैतिल
६ गरज – वणिज
७ विष्टि – वव
८ वालव – कौलव
९ तैतिल – गरज
१० वणिज – विष्टि
११ वव – वालव
१२ कौलव – तैतिल
१३ गरज – वणिज
१४ विष्टि – शकुन
३० चतुष्पाद – नाग
शुक्ल पक्ष
तिथि – प्रथम भाग – द्वितीय भाग
१ किंस्तुघ्न – वव
२ वालव – कौलव
३ तैतिल – गरज
४ वणिज – विष्टि
५ वव – वालव
६ कौलव – तैतिल
७ गरज – वणिज
८ विष्टि – वव
९ वालव – कौलव
१० तैतिल – गरज
११ वणिज – विष्टि
१२ वव – वालव
१३ कौलव – तैतिल
१४ गरज – वणिज
१५ विष्टि – वव
पाठक देखेंगे कि वव, वालव, कौलव, तैतिल, वणिज, गरज, विष्टि इन ७ करणो की तो बारम्बार पुनरावृत्ति होती है और बाकी चार – शकुन, चतुष्पाद, नाग और किंस्तुघ्न – एक मास में केवल एक बार होते हैं।
‘विष्टि’ करण को ही ‘भद्रा’ कहते हैं। ‘भद्रा’ का विशेष विचार किसी पुस्तक के ३२ में प्रकरण में किया गया है।
तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण ये पांच बातें काल ज्ञान के लिए परम आवश्यक हैं। इन पंच (५) अंगों का परिचय-पत्र ही पंचांग कहलाता है।
- नोट- पंचांग को लौकिक भाषा में पत्रा, पतड़ा, पंजिका, जंत्री आदि भी कहते हैं।
29/11/19, 11:45 am – Shastra Gyan Maniah Patiala: न्याय की तर्क शैली और उसके पारिभाषिक शब्द भारतीय संस्कृति मैं घुलमिलकर उसके आवश्यक अंग बन गए है | यह तक कि अन्यान्य दर्शन भी जो न्याय से मतभेद रखते है, न्याय के ही पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग करते है| न्याय के किसी सिद्धांत खण्डनं करने के लिए भी उन्हें न्यायानुमोदित पद्धति का ही प्रयोजन करना पड़ता है| इससे बढ़कर न्यायशास्त्र की व्यापकता और उपयोगिता का प्रमाण और क्या हो सकता है ?
मनु , याज्ञवल्कय आदि के समय में भी न्यायशास्त्र आदर की दृष्टि से देखा जाता था
मनुजी कहते है:-
आर्ष धर्मोपदेश च वेदशास्त्रविरोधिना |
यस्तर्केणानुसधत्ते स धर्म वेद नेतर | मनु स्मृति 12।106
अथार्त जो तर्क के द्वारा वेदशास्त्र के अर्थ का तत्वान्वेषण करता है वही धर्म के यथार्थ मर्म को समझ सकता है , दूसरा नहीं |
29/11/19, 8:47 pm – Poonam Goyal Delhi Artist Shastra Gyan: पंचत्रिंशदधिकशततम (135) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व) महाभारत: आदि पर्व: पंचत्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 34-41 का हिन्दी अनुवाद वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! कृपाचार्य के यों कहने पर कर्ण का मुख लज्जा से नीचे झुक गया। जैसे वर्षा के पानी से भीगकर कमल मुरझा जाता है, उसी प्रकार कर्ण का मुंह म्लान हो गया। तब दुर्योधन ने कहा- आचार्य! शास्त्रीय सिद्वान्त के अनुसार राजाओं की तीन योनियां हैं- उत्तम कुल में उत्पन्न पुरुष, शूरवीर तथा सेनापति (अत: शूरवीर होने के कारण कर्ण भी राजा ही हैं)। यदि ये अर्जुन राजा से भिन्न पुरुष के साथ रणभूमि में लड़ना नहीं चाहते तो मैं कर्ण को इसी समय अंगदेश के राज्य पर अभिषिक्त करता हूँ। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! तदनन्तर दुर्योधन ने राजा धृतराष्ट्र और गंगानन्दन भीष्म की आज्ञा ले ब्राह्मणों द्वारा अभिषेक का सामान मंगवाया। फिर उसी समय महाबली एवं महारथी कर्ण को सोने के सिंहासन पर बिठाकर मन्त्रवेत्ता ब्राह्मणों ने लावा और फूलों से युक्त सुवर्णमय कलशों के जल से अंगदेश के राज्य पर अभिषिक्त किया। तब मुकुट, हार, केयूर, कंगन, अंगद,राजेचित चिह्न तथा अन्य शुभ आभूषणों से विभूषित हो वह छत्र, चंवर तथा जय-जयकार के साथ राज्य श्री से सुशोभित होने लगा। फिर ब्राह्मणों से समादृत हो राजा कर्ण ने उन्हें असीम धन प्रदान किया। राजन्! उस समय उसने कुरुश्रेष्ठ दुर्योधन से कहा- ‘नृपतिशिरोमणे! आपने मुझे जो यह राज्य प्रदान किया है, इसके अनुरूप मैं आपको क्या भेंट दूं? बताइये, आप जैसा कहेंगे वैसा ही करूंगा।’ यह सुनकर दुर्योधन ने कहा- ‘ अंगराज! मैं तुम्हारे साथ ऐसी मित्रता चाहता हूं, जिसका कभी अन्त न हो’। उसके यों कहने पर कर्ण ने ‘तथास्तु’ कहकर उसके साथ मैत्री कर ली। फिर वे दोनों बड़े हर्ष से एक दूसरे को हृदय से लगाकर आनन्दमग्न हो गये। इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में कर्ण के राज्याभिषेकविषयक एक सौ पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।
29/11/19, 10:31 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: *रामायण बालकाण्ड – सप्तदश सर्ग श्लोक ७,८,९,१०,११,१२,१३,१४,१५,१६
पूर्वमेवमया सृष्टो जाम्बवानृक्षपुङ्गवः। जृम्भमाणस्य सहसा मम वक्त्रादजातय॥७॥
मैंने भी पहले भालुओं में श्रेष्ठ जाम्बवान नामक रीछ को पैदा किया था, हम वह जमुहाई लेते समय मेरे मुख से सहसा निकल पड़ा था।
ते तथोक्ता भगवता तत्प्रतिश्रुत्य शासनम्। जनयामासुरेवं ते पुत्रानवानरूपिणः॥८॥
ऋंषयश्च महात्मानः सिद्धविद्याधरोरगाः चारणाश्च सुतान्वीरान्ससृजुर्वनचारिणः॥९॥
ब्रह्मा जी के इस आज्ञानुसार, ऋक्षों, सिद्धों, चारणो, विद्याधरों और नागों ने वानर रूपी पुत्रों को उत्पन्न किया।
वानरेन्द्रं महेन्द्राभमिन्द्रो वालिनमूर्जितम्। सुग्रीवं जनयामास तपनस्तपतां वरः॥१०॥
बृहस्पतिस्त्वजनयत्तारं नाम महाहरिम्। सर्ववानरमुख्यानाम् बुद्धिमन्तमनुत्तमम्॥११॥
धनदस्य सुतः श्रीमान्वानरो गन्धमादनः। वाश्वकर्मा त्वजनमान्नलं नाम महाहरिम्॥१२॥
पावकस्य सुतः श्रीमान्नीलोऽग्निसदृशप्रभः। तेजसा यशसा वीर्यादत्यरिच्यत वानरान्॥१३॥
रूपद्रविणसम्पन्नावश्विनौ रूपसंभतौ। मैन्दं च द्विविदं चैव जनयामासतुः स्वयम्॥१४॥
वरूणो जनयामास सुषेणं नाम वानरम्। शरभं जनयामास पर्जन्यस्तु महाबलम्॥१५॥
मारुतस्यात्मजः श्रीमान्हनुमान्नाम वानरः। वज्रसंहननोपेतो वैनतेयसमो जवे॥१६॥
इन्द्र ने महेनद्राचल की तरह बालि, सूर्य ने सुग्रीव, बृहस्पति ने तार जो सब वानरों में मुख्य और अति चतुर था, कुबेर ने गन्धमादन, विश्वकर्मा ने नल, अग्नि ने नील, जो अग्नि के समान ही तेजस्वी था तथा यश और पराक्रम में जो अपने पिता से भी बढ़कर था, अश्विनी कुमारों ने मैन्द और द्वविद, वरूण ने सुषेण, मेघ ने शरम और पवन ने हनुमान नामक वानर उत्पन्न किया। इनकी देह वज्र के समान दृढ़ थी और यह वेग में गरूड़ के समान थे।
29/11/19, 11:35 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-८ श्लोक २८,२९
गरीयसो भवेल्लीनादामादेव विलम्बिका। कफवातानुबद्धाऽऽमलिङ्गा ततसमसाधना॥२८॥
विलम्बिका के लक्षण- भयावह आमदोष जो लीन(छिपा) रहता है, उसी से यह विलम्बिका रोग हो जाता है। इसमें कफ एवं वातदोष युक्त आमाजीर्ण के लक्षण होते है और ऊपर कहे गए कफ-वात दोष सम्बन्धित अजीर्णो के समान ही इसकी भी चिकित्सा होती है।
वक्तव्य- “लीन” शब्द की चरितार्थता— वमन विरेचन से सामान्य आमदोष निकल जाता हैं, ऐसा ऊपर कहा गया है किन्तु यह आमदोष उक्त उपायों से भी नहीं निकल पाता, अतएव इसे लीन (सटा हुआ) कहा गया है। सुश्रुत ने इसका वर्णन इस प्रकार किया है—’ दुष्टं तु भुक्तं कफमारुताभ्यां प्रवर्तते नौर्ध्वमधश्च यस्य। विलम्बिकां तां भृशदुश्चिकित्स्यामाचक्षते शास्त्रविदः पूराणाः’॥ (सु.उ. ५६/९) सुश्रुत ने इसे अन्य आमदोषो से अतिकष्टसाध्य कहा है। अतएव इसका नाम भी विलम्बिका (लीचड़ रोग) रखा है।महर्षि वाग्भट ने इस आमदोष के लिए ‘लीन’ शब्द (सट जाने वाला) का युक्तियुक्त प्रयोग किया है।
अश्रद्धा हृद्वव्यथा शूद्धेऽप्युद्गारे रसशेषतः। शयीत किञ्चदेवात्र सर्वश्चानाशितो दिवा॥२९॥
स्वप्यादजीर्णी, सञ्जातबुभुक्षोऽद्यान्मितं लघु।
रसशेषाजीर्ण चिकित्सा- रसशेषाजीर्ण मे आहार के पच जाने पर भी जब रस का परिपाक नहीं हो पाता है, तब यै लक्षण होते हैं—उद्गारों (डकारों) के शुद्ध आने पर भी रस के अपक्व रह जाने से भोजन के प्रति अरुचि तथा हृदय मे पीड़ा होती रहती है।
उपचार- इस दशा में दिन में कुछ खाये पिये बिना थोड़ा सो जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त अन्य अजीर्ण रोगी भी दिन में सो जायें और भलिभातिं भूख लगने पर थोड़ी मात्रा में लघु (सुपाच्य) आहार का सेवन करें।
30/11/19, 5:52 am – +91 : त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवह—
स्त्वमापस्त्वं व्योमत्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च।
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रतु गिरं
न विद्मस्तत्तत्वं वयमिह तु यत्वं न भवसि।।
हे भगवन्!
परिपक्व बुद्धि वाले प्रौढ़ विद्वान्—-‘
आप सूर्य हैं, आप चंद्र हैं, आप पवन हैं, आप अग्नि हैं;
आप जल हैं, आप आकाश हैं, आप पृथ्वी हैं, आत्मा हैं—
इस प्रकार की सीमित अर्थ युक्त वाणी आपके विषय में कहते रहे हैं;
पर हम तो विश्व में ऐसा कोई तत्व (वस्तु) नहीं देखते(जानते) जो स्वयं साक्षात् आप न हों।।26।।
30/11/19, 8:05 am – Shastra Gyan Suresh Jhajjar: 👌👌👌👌👌
30/11/19, 8:06 am – Shastra Gyan Maniah Patiala: चतुर्दश विद्याओ के अंतर्गत न्याय का भी स्थान है | याज्ञवल्कय स्मृत्ति में कहा गया है–
पुराणन्यायमीमांसाशास्त्रागमिश्रिता |
वेदास्थानानिविद्याना धर्मस्य च चतुर्दश |
चौदह विद्याये ये है- (१) चार वेद ,(२) छःवेदांग (१ शिक्षा ,२ कल्प ,३ व्याकरण ,४ निरुक्त , ५ छंद, ६ ज्योतिष), (३)
चार उपांग (१ पुराण , २ न्याय , ३ मीमांसा , ४ धर्मशास्त्र ) । न्याय शास्त्र वेद का उपांग है ऐसा वचन पुराण में भी पाया जाता है|
कौटिलीय अर्थशास्त्र के विद्यासमुदेश प्रकरण में चार प्रकार की विद्याये मुख्य बतलाई गई है | ये चार विद्याये है – (१) त्रयी (तीनो वेद ) ,(२) दंडनीति (राजनीति ), (३) आन्वीक्षिकी (तर्क और दर्शनशास्त्र ) तथा (४) वार्ता (अर्थशास्त्र)|
30/11/19, 10:05 am – Abhinandan Sharma:
30/11/19, 10:41 am – Webinar Chinmay Vashishth SG: सभी लोगो का आकर्षण आज केवल लाभ बनकर रह गया है । लाभ माने पैसा और उस पर भी तात्कालिक लाभ । स्कूली शिक्षा से सभी को पता है कि इंटरमीडिएट के बाद डॉक्टर आई एस या इंजीनियर ही बनेगा। लोग यह सोचते है कि शास्त्र पढ़कर क्या लाभ मिलेगा । यही कारण है कि शास्त्रो को पढ़ना ही नही चाहते । बस यही से पतन की शुरुआत होती है । तो सबसे पहली बात है कि लोगो को जागरूक करने के लिए आपको इस सत्र को करते रहना चाहिए ।
30/11/19, 10:42 am – Abhinandan Sharma: और अगर लोगों को चाहिए नहीं तो ? ४ लोग में से भी सिर्फ १ लेडी हैं जो दिल्ली से गाजियाबाद तक सफर करके आती हैं १
30/11/19, 10:42 am – Abhinandan Sharma: मुझे ही ऐसा लगता है कि उन्हें मेरी वजह से, इस उम्र में इतना कष्ट उठाना पड़ता है !
30/11/19, 10:44 am – Abhinandan Sharma: अगर मैं ये शास्त्र ज्ञान बंद कर दूं तो वो एक को, कम से कम कुछ आराम तो मिलेगा ! ५५ वर्ष की आयु के बाद भी वो इतना लंबा सफर तय करती हैं, २ घंटे लगते हैंसिर्फ आने में ! जबकि बाकी लोग, गाजियाबाद से निकल कर नहीं आ पाते ? तो फिर क्यों कंटिन्यू किया जाए और उनको आराम ही क्यों न दिया जाए !
30/11/19, 10:45 am – Abhinandan Sharma: वो अकेले परेशान होती हैं, मुझे भी अजीब सा लगता है कि कैसे उनको बोलूँ कि इस रविवार सत्र होगा ! क्योंकि किसी और ने तो आना नहीं है, फिर उनको ही क्यों कष्ट दिया जाए !
30/11/19, 11:08 am – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: आज तो सबकी क्लास लग गयी है ।
पर कोई भी बोल नहीं रहे हैं।।कुछ तो जबाब दीजिये ग्रुप मेमबर्स ।।।
30/11/19, 11:13 am – +91 : नहीं !! आप बन्द न कीजिए यह शाला भले एक ही विद्यार्थी क्यों नहो
30/11/19, 11:16 am – +91 : अभी मैं अपनी सहकर्मी से इसी पर चर्चा कर रही थी, सच मे अभद्रता ही फैल रही आज के स्कूली बच्चों में !
मैं स्वयं 7 बच्चों को सस्पेंड की ,उनकी कॉउंसलिंग की ।
पता चला उनके अभिभावकों में ही कमी
30/11/19, 11:21 am – Abhinandan Sharma: पिछले कई महीनों से ऐसे ही चल रही है ! मुझे कोई कष्ट नहीं है, मुझे उनकी चिंता है ! अगर कोई और भी हो तो उनको कम से कम अकेलापन तो न लगे !
30/11/19, 11:22 am – +91 : मैं तो कोलकाता में हूँ , नहीं तो उ का साथ ज़रूर देती
30/11/19, 11:22 am – +91 : उनका*
30/11/19, 12:22 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: ज्ञान सत्र में कम लोगों के आने के कारणो पर ध्यान दे तो
1 शायद प्रचार की कमी
2 जो समय निर्धारित किया गया हो वो
3 लोगों में ज्ञान के प्रति कोई रुचि नही है मात्र आप ये कह दे कि सत्र के बाद कुंडली या हस्त रेखा देखी जाई गई फिर देखे क्योंकि लोगों को ज्ञान से कोई मतलब नही है मात्र दिखावा ओर अपना कोई लाभ हो तभी धर्म काम का अन्यथा नही
30/11/19, 12:24 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: प्रचार में पैसा लगता है और कोई एक इंसान जो अपना समय, बुद्धि और ताकत लोगो को समझाने और प्रश्नों का उत्तर देने में लगा रहा हो वही सब कुछ करे ऐसा जरूरी नहीं। कुछ ज़िम्मेदारी सुनने और पढ़नेवालों की भी बनती है
30/11/19, 12:24 pm – Abhinandan Sharma: हम्म ! बहुत सही एनालिसिस !
30/11/19, 12:25 pm – Abhinandan Sharma: तो क्या किया जाए ! क्या सुझाव है !
30/11/19, 12:27 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: यूट्यूब पर कंटेंट शेयर करे, शास्त्र सम्बन्धी ज्ञान की इच्छा रखने वाले लोग वहाँ से देख सके🙏🏻
30/11/19, 12:27 pm – Abhinandan Sharma: पहले से किया जाता है और youtube चैनल भी बना हुआ है |
30/11/19, 12:27 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: मुझे लगता है, हमें प्रचार के लिए आर्थिक योगदान करना चाहिए जो कि किसी भी तरह के प्रचार के लिए आवश्यक है और अगर ये एक से न होकर सभी की तरफ से थोड़ा थोड़ा होगा तो अधिक कारगर होगा।
30/11/19, 12:28 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: प्रचार हम सभी लोग कर सकते है ऑनलाइन अपने फेसबुक वाल पे
30/11/19, 12:28 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: जी देखता हूँ मैं, वीडियो की क्वालिटी बेहतर करे, साउंड ठीक से नही आता कभी तो वीडियो ठीक से नही आता, परफेक्शन की आवश्यकता है वीडियो बनाने में
30/11/19, 12:29 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: ये भी ठीक है
30/11/19, 12:29 pm – Abhinandan Sharma: हम्म ! ग्रुप सदस्यों की क्या राय है ? क्या ऐसा किया जा सकता है कि हर महीने एक मिनिमम अमाउंट, सदस्य शेयर करें और उस पैसे को, इस प्रकार के कंटेंट की, सत्र के प्रमोशन की, बालसंस्कारशाला के प्रमोशन में, youtube वीडियो प्रमोशन में आदि में प्रयोग कर सकें ? क्या हर महीने मिनिमम १०० रूपये शेयर किये जा सकते हैं ?
30/11/19, 12:29 pm – +91 : हो सकता है हम जैसे इंसान आपके लिए कुछ भी नही कह पा रहे है लेकिन उसके बाद भी चाहते है आप यह ज्ञान की गंगा हुम् जैसे अलप ज्ञानियों के लिए प्रवाहित करते रहे
30/11/19, 12:31 pm – +91 : पूर्णतः सहमत
स्वागत है इस अभियान का।
30/11/19, 12:31 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: मैं तरफ से स्वीकार है
30/11/19, 12:32 pm – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad: मेरी राय सकारात्मक है. यह हर महीने नहीं. 3 महीने या चार महीने पर लिया जाये —1200 ÷4 या 1200 ÷3
30/11/19, 12:34 pm – Vikas Paliwal Delhi Shastra Gyan: 👍
30/11/19, 12:35 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: एक प्रचार टीम भी बनाई जाए
30/11/19, 12:39 pm – Abhinandan Sharma: बनाई थी, पर जो लोग जोश जोश में जुड़े थे, फिर समय की कमी होने की वजह से अलग हो गए !
30/11/19, 12:39 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: बेझिझक हो सकता है, जहां आप इतनी मेहनत कर रहे हैं इतना तो किया ही जा सकता है
30/11/19, 12:40 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: जरूर किया जा सकता है।
30/11/19, 12:43 pm – Abhinandan Sharma: जो लोग, आर्थिक सहयोग के लिए सहमत हैं, वो इस ग्रुप को ज्वाइन करें ! आगे की चर्चा, इसी ग्रुप में की जायेंगी |
https://chat.whatsapp.com/BVISW2wZnec3rUphVTfZ05
30/11/19, 12:46 pm – +91 : Nivedan hai ki hatotsahit na hon.Apni uplabdhi jitni bhe hai bahut hai.
30/11/19, 12:48 pm – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad: प्रचार के लिए तो आसान उपाय है, सोशल मिडिया पर—
1.हम जितने भी सदस्य हैं सभी फेशबुक पर होंगे ही.
2.एक नया फेशबुक खाता या पेज खोला जाय, जिसका बढ़िया नाम चयन कर लिया जाय. बेहतर पेज ही होगा. एक से अधिक व्यक्ति भी हैंडल कर सकते हैं.
- उसपर पोस्ट डाला जाय
4.हम सभी को उस पोस्ट को अपने-अपने फेसबुक पेज पर शेयर करना होगा.
5.हमें उस पेज को लाइक करने के लिए अपने फेसबुक मित्रों को भी आमंत्रण करना होगा. - इस प्रकार तुरंत घंटे भर में हजारों लोग देख लेंगें
- तुरंत अधिक से अधिक फॉलोअर बढ़ाने की जिम्मेदारी निभा सकता हूं.
इस प्रकार तुरंत प्रचार हो जायेहा
30/11/19, 12:49 pm – Abhinandan Sharma: ऐसा ग्रुप पहले से बना हुआ है, नाम है – शास्त्र ज्ञान | जो पिछले 3 साल से चल रह है और करीब ३००० मेंबर पहले से हैं |
30/11/19, 12:50 pm – Abhinandan Sharma: मैं इस मत से सहमत हूँ कि जब तक पेड प्रमोशन नहीं होगा, बात नहीं बनेगी | पेड प्रमोशन से ही बात बन सकती है और वो आवश्यक है |
30/11/19, 12:51 pm – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad: इस तरह करने से ज्वाइन कराने में कठिनाई आयेगी, कोई अन्य उपाय कृपया करें
30/11/19, 12:51 pm – Abhinandan Sharma: any मेम्बर अपने विचार रखें |
30/11/19, 12:52 pm – Abhinandan Sharma: ये ग्रुप मात्र उन लोगों के लिए हैं जो हर महीने कुछ अमाउंट दे सकते हैं | इसमें कैसे काम होगा, वो बताया जायेगा | ये पढ़ाई के लिए नहीं होगा और मात्र प्रमोशन स्ट्रेटजी के लिए होगा |
30/11/19, 12:52 pm – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad: इसे 1 लाख से ऊपर क्यों नहीं किया जा सकता? किया जा सकता है. यह पेज है या व्यक्तिगत खाता?
30/11/19, 12:52 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: Mai tyr hu sir
30/11/19, 12:53 pm – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad: हां, ये समझ गया, पर आर्टिकल कुछ और लिखना होगा सर
30/11/19, 12:54 pm – Abhinandan Sharma: यह पब्लिक ग्रुप है | १ लाख लोग भी जुड़ सकते हैं, बशर्ते मैं इस पर बकवास और मनगढंत पोस्ट लिखनी शुरू कर दूं, जैसी और ग्रुप करते हैं | १ लाख लोग जोड़ना नहीं, बल्कि १० एक्टिव लोग, जो पेड प्रमोशन कर सकते हैं अथवा स्ट्रेटेजी बना सकते हैं, वो ज्यादा आवश्यक है | फ्यूल एक्टिव वालंटियर हैं न कि १ लाख, काम न करने वाले लोग !
30/11/19, 12:55 pm – Abhinandan Sharma: ठीक है, अभी ग्रुप ज्वाइन करें, आगे कैसे करेंगे, इस पर विचार करेंगे !
30/11/19, 12:55 pm – Abhinandan Sharma: धन्यवाद, आप भी ग्रुप ज्वाइन करें !
30/11/19, 12:57 pm – Abhinandan Sharma: ये वाला ग्रुप, लोग ज्वाइन करें, जो शास्त्रों के प्रसार के इस प्रयास को पेदागे बढ़ाना चाहते हैं और १०० रूपये महीने का सहयोग कर सकते हैं
30/11/19, 1:03 pm – Abhinandan Sharma: अन्य ग्रुप मेम्बर कृपया अपना मत रखें |
30/11/19, 1:08 pm – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad: सही है.
30/11/19, 1:09 pm – Shastra Gyan Vaidhya US Prasad: कृपया लिंक भेजें
30/11/19, 1:15 pm – Shastragyam Bhavsar Prakash Maliwal: भैया एकसाथ 3 या 4 गुना दिखेगा, महीने के हिसाब से ही ठीक हो सकता है ।
ये मेरा वयक्तिगत विचार है । अगर त्रैमासिक या चातुर्मासिक भी होता है तो मैं तैयार हूँ 🙏🏻🙏🏻
30/11/19, 1:15 pm – Shastragyam Bhavsar Prakash Maliwal: जरूर करें 👍🏻👍🏻
30/11/19, 3:17 pm – Shastra Gyan Suresh Jhajjar: मेरी तरफ से हाँ है । वीडियो व आवाज की गुणवत्ता अच्छी रखें ।
30/11/19, 3:17 pm – Shastra Gyan Suresh Jhajjar: 💯🙏🚩
30/11/19, 4:38 pm – Abhinandan Sharma: जैसा कि पहले भी बता चुका हूँ कि ये सारे वीडियो पुराने हैं | पिछले साल के | तब साउंड कम ही थी क्योंकि वीडियो मोबाइल से बनाये जाते थे | फिर अप्रैल के आस पास, इसी ग्रुप के कुछ सदस्यों और फेसबुक के कुछ सदस्यों द्वारा कुछ धन इकट्ठा करके, एक अच्छा वेबकैम खरीदा गया था और उसके बाद के वीडियो में आवाज और वीडियो, दोनों अच्छे हैं | अतः जब, इस वर्ष के वीडियो आयेंगे तो आवाज और वीडियो दोनों सही होंगे | तब तक, आपको सिर्फ इतना करना है कि इयरफोन का प्रयोग करके वीडियो सुने |
30/11/19, 4:47 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: #श्री गणेशाय नमः#
सुगम ज्योतिष प्रवेशिका
प्रथम भाग – जातक विचार
चौथा प्रकरण
ग्रह और राशि – परिचय
राहु-केतु सहित सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि ये ९ ग्रह हैं। मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ, मीन ये १२ राशियां हैं। सारे राशि मंडल को एक वृहत् (विराट) काल पुरुष मानते हुए मेष को सिर, वृषभ को मुख, मिथुन को बाहु तथा गला या वक्षस्थल, कर्क को हृदय, सिंह को कुक्षी (कोख) या पेट, कन्या राशि को (पेट का नीचे का भाग) कटि (कमर), तुला को वस्ति तथा जननेंद्रिय, वृश्चिक को गुदा, धनु को कूल्हे तथा जांघ, मकर को घुटने, कुंभ को पिंडलियों, मीन को पैर माना है। यह शरीर के बाहरी अवयवों का विभाग है।
भीतरी अवयवों पर १२ राशियों का क्रमशः निम्नलिखित प्रकार से अधिपत्य हैः
(१) दिमाग, (२) कंठ की नली, टॉन्सिल (३) फेफड़े, श्वास लेना, (४) पाचन शक्ति, (५) दिल, ह्रदय (६) अतड़ियां – पेट के भीतर का निचला हिस्सा (७) गुर्दे, (८) मूत्रेन्द्रिय, जननेंद्रिय, (९) स्नायुमंडल तथा नसें जिनमें रक्त प्रवाहित होता रहता है, (१०) हड्डियां तथा अंगों के जोड़, (११) रक्त तथा रक्त प्रवाह, (१२) शरीर में सर्वत्र कफोत्पादन।
जन्म के समय जिस राशि में शुभ ग्रह होते हैं, शरीर का वह भाग पुष्ट होता है। जिस राशि में पाप ग्रह होते हैं शरीर का वह भाग कृश, रोगयुक्त, व्रणाकित, पीड़ित होता है।
30/11/19, 6:03 pm – +91 : Abhinandan ji ,pls add this number
+919529613051
Deepak Bansal ji
30/11/19, 6:03 pm – +91: From Jaipur
30/11/19, 6:55 pm – Vaidya Ashish Kumar: 👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻
30/11/19, 6:56 pm – Vaidya Ashish Kumar: सर का 1 फेसबुक पेज है जो बहुत सफल है।
30/11/19, 8:49 pm – Abhinandan Sharma: Ask him to click here
https://chat.whatsapp.com/2SkmoWFteIVLupbet6bqMM
30/11/19, 9:12 pm – Abhinandan Sharma: शास्त्र ज्ञान का सत्र कल सुबह 10 बजे से, आदित्य लुकजुरिया, के क्लब में आयोजित किया जाएगा ।
30/11/19, 9:15 pm – +91 : ये कहां पर हैं❓
30/11/19, 9:15 pm – +91: हम मुंबई से है।
30/11/19, 9:16 pm – Abhinandan Sharma: शास्त्र ज्ञान का सत्र गाजियाबाद में आयोजित किया जाता है।
30/11/19, 9:18 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: दूसरे शहर के लोग facebook live में जुड़ सकते हैं।
30/11/19, 9:18 pm – Shastra Gyan Dinesh Sharma joined using this group’s invite link
30/11/19, 9:32 pm – +91 : जी धन्यवाद
30/11/19, 9:41 pm – Abhinandan Sharma: लगता है, आज ग्रुप फूल हो जाएगा 😋
30/11/19, 9:42 pm – Shastra Gyan Dinesh Sharma: Karna padega
30/11/19, 9:44 pm – Hts Sandeep Seksariya: Sir security should be tite for other types messages
🙏🙏
30/11/19, 9:46 pm – +91: श्रीमान कहो समूह पूरा भर जाएगा न के ग्रुप फुल हो जाएगा।
30/11/19, 9:46 pm – Abhinandan Sharma: हमाओ एडमिन सख्त लौंडा है । तुरन्त बाहर कर देता है ।
30/11/19, 9:47 pm – Abhinandan Sharma: जी, वही।
30/11/19, 9:48 pm – +91: Please try to use only one language at one time. This HINGLISH culture is destroying us.
30/11/19, 9:48 pm – Shastra Gyan Dinesh Sharma: जी
30/11/19, 9:49 pm – +91 : ये क्या लिखा है। सिर्फ हिदी दीजियेगा
30/11/19, 9:49 pm – +91 : बिलकुल श्रीमान।
30/11/19, 9:49 pm – Hts Sandeep Seksariya: 👆👆✅✅
30/11/19, 10:03 pm – +91 : 👍🏻🌹
30/11/19, 10:21 pm – +91 : वर्तमान परिपेक्ष्य में इस प्रकार के अध्यात्मिक एवं ज्ञान गंगा से परिपूर्ण भक्ति ग्रुप का निर्माण करने के लिए निश्चित ही ग्रुप एडमिन बधाई के पात्र हैं🙏🏻🌹🙏🏻🌹
30/11/19, 10:25 pm – Abhinandan Sharma: ग्रुप के नए सदस्य कृपया ग्रुप इन्फॉर्मेशन अवश्य पढ़ लें –
इस ग्रुप में फ़ॉर्वर्डेड पोस्ट डालना मना है | नेट से कोई भी कंटेंट, ख़ास तौर से बिना सन्दर्भ के अथवा तोडा मरोड़ा हुआ, डालना भी मना है | जो आपने स्वयं पढ़ा हो, किसी शास्त्र से, कोई दोहां, कोई चोपाई, कोई पुराण, कुछ भी, वो आप इस ग्रुप में डाल सकते हैं | ग्रुप ज्वाइन करने वाले, खुद भी कोई भी एक पुस्तक, ग्रुप एडमिन के परामर्श से प्रारंभ कर सकते हैं और उसे पढ़कर ग्रुप में अन्य मेम्बेर्स को पढने के लिए डाल सकते हैं | अभी ग्रुप में ४-5 पुस्तक इस प्रकार के प्रयास से चल रही है, जिससे सभी लोग वो ग्रन्थ पढ़ सकें | स्वागतम !
01/12/19, 12:10 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 2 श्लोक 51 और 52
*यदि कहिये की थोड़े से अन्तर्भेद के कारण वह सुसाध्य कैसे हो गया तो यह सुनिए –
*अणुरप्युपहन्ति विग्रहः प्रभुं अन्तःप्रकृतिप्रकोपजः ।*
अखिलं हि हिनस्ति भूधरं तरुशाखान्तनिघर्षजोऽनलः ।। २.५१ ।।
वियोगिनी
अर्थ: अणुमात्र भी अन्तरङ्ग सचिवादि की उदासीनता से उत्पन्न वैर राजा का विनाश कर देता है । क्योंकि वृक्षों की शाखाओं के परस्पर संघर्ष से उत्पन्न अग्नि समूचे पर्वत को जला देती है ।
टिप्पणी: जैसे मामूली वृक्षों की डालियों की रगड़ से उत्पन्न दावाग्नि विशाल पर्वत को जला देती है, उसी प्रकार राजाओं के साधारण सेवकों में उत्पन्न पारस्परिक कटुता या विरोध राजा को नष्ट कर देता है ।
दृष्टान्त अलङ्कार
*यद्यपि दुर्योधन का उत्कर्ष हो रहा है, तथापि इस समय तो उसकी उपेक्षा ही करना उचित है क्योंकि-
*मतिमान्विनयप्रमाथिनः समुपेक्षेत समुन्नतिं द्विषः ।*
सुजयः खलु तादृगन्तरे विपदन्ता ह्यविनीतसम्पदः ।। २.५२ ।।
वियोगिनी
अर्थ: बुद्धिमान व्यक्ति अविनयी, उद्दण्ड, मदोन्मत्त अतएव प्रमादशील शत्रु की उपेक्षा करता रहे उसकी उन्नति की चिन्ता न करे क्योंकि ऐसे अविनयी शत्रु स्वभावतः ही प्रभावशील होते हैं, वे अपने किये हुए प्रमाद के द्वारा ही विपत्तियों को आमन्त्रित करते हैं । विपद प्राप्त शत्रु को जीतना सरल होता है क्योंकि अविनयी व्यक्ति को प्राप्त हुई सम्पत्ति, वह रक्षण करने में अपने ही स्वभावदोष के कारण असमर्थ होता है । अविनयी पुरुष की सम्पत्तियों का अन्त उसी के द्वारा बुलाई गयी विपत्तियों से हुआ करता है । अविनयी पुरुष के पास सम्पत्ति टिकती नहीं है । अतः वर्धमान अविनयी शत्रु की बुद्धिमान पुरुष उपेक्षा करते हैं । जो सहज साव्य है उसके लिए प्रयत्न करने में शक्ति का व्यय क्यों किया जाय ?
टिप्पणी: अविनयी शत्रु को उपेक्षा से ही जीता जा सकता है ।
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार
01/12/19, 5:49 am – +91 : त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरा—-
नकारैद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः
समस्तं व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम्।।
हे शरण देने वाले!
ओम् यह शब्द अपने व्यस्त (पृथक्- पृथक् अक्षर वाले) अकार,उकार, मकार से तीनों वेद (ऋक्,यजुः,साम), तीनों अवस्था (जाग्रत् -स्वप्न- सुषुप्ति),
तीनों लोक( स्वर्ग-भूमि-पाताल), तीनों देवता (ब्रह्मा-विष्णु- महेश) ,
तीनों शरीर ( स्थूल- सूक्ष्म- कारण), तीनों रूप ( विश्व – तैजस-प्राज्ञ)
आदि के रूप में आपका ही प्रतिपादन करता है तथा अपने अवयवों के समष्टि-(संयुक्त-समस्त-) रूप ( ओम्-) से निर्विकार निष्कल तीन अवस्था एवं त्रिपुटियों से रहित आप के तुरीय स्वरूप की सूक्ष्म ध्वनियों से ग्रहण कर प्रतिपादन करता है ।
(ओम् आपके स्वरूप का सर्वतः निर्वचन करता है)।।27।।
01/12/19, 6:26 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: तैजस और प्राज्ञ रूप क्या हैं?
01/12/19, 6:33 am – +91 : मैं अल्पज्ञ हूँ ।
कोई अधिकारी विद्वान इसका अर्थ स्पष्ट करने की कृपा करें ।
01/12/19, 9:03 am – Abhinandan Sharma: विश्व – प्रकृति रूप, तैजस – तेजरूप, प्राज्ञ – न्यायस्वरूप अर्थात विद्वान
01/12/19, 9:13 am – Abhinandan Sharma: स्पष्टीकरण – कल मैंने दो पोस्ट की थीं | जिनमें प्रथम पोस्ट में, कुछ प्रश्न पूछे थे और दूसरी पोस्ट में, उन प्रश्नों पर विभिन्न व्यक्तियों द्वारा की गयी चर्चास्वरूप निष्कर्ष शेयर किया था | जिसके अनुसार कुछ लोगों द्वारा, धर्म के विस्तार के प्रयास को और तेज करने के लिए आर्थिक सहयोग का विचार प्रस्तावित था | इस प्रकार, एक नए व्हात्सप्प ग्रुप को बनाया गया, जिसमें अभी तक २५ सदस्य हो चुके हैं |
यहाँ ये भ्रम की स्थिति हो रही है कि ये मेरी पर्सनल मदद की जा रही है और मैं अब अपने कार्यों के बदले धन ले रहा हूँ | यहाँ स्पष्टीकरण की आवश्यकता आन पड़ी |
मैं स्पष्ट करता हूँ कि मैंने पहले कभी, किसी भी सत्र के लिए, बच्चो को शास्त्राध्ययन कराने के लिए अथवा शास्त्रों से समबन्धित किसी भी प्रकार के कार्य के लिए, बदले में कभी कोई धन नहीं लिया है और आगे भी लेने का कोई विचार नहीं है | ये कार्य सभी के लिए फ्री ही रहेंगे और इसके लिए किसी से कोई धन, मैं यानि अभिनन्दन शर्मा नहीं लूँगा क्योंकि ये मेरी कुलपरम्परा नहीं है और मैं भी वैसा ही करूँगा |
ये जो भी आर्थिक सहयोग हो रहा है अथवा होगा, ये मेरा व्यक्तिगत आर्थिक सहयोग न समझा जाए | मेरे द्वारा इस टीम के द्वारा दिए गए धन का, किसी भी व्यक्तिगत कार्य में, खर्च नहीं किया जाएगा | जो भी खर्च होगा, वो टीम को अवगत कराया जाएगा और बता कर ही खर्च किया जाएगा | इसका प्रयोग मेरे द्वारा चलाये जा रहे, विभिन्न धार्मिक कार्यों के प्रमोशन में ही खर्च किया जाएगा, न कि मेरे व्यक्तिगत/पारिवारिक कार्यों में | इसका उद्देश्य धार्मिक आयोजनों यथा शास्त्रज्ञान सत्र, बालसंस्कारशाला, शास्त्रज्ञान व्हात्सप्प ग्रुप पर शास्त्रों के अध्ययन, शास्र-क्या सच, क्या झूठ द्वारा, सोशल मीडिया पर फैलाये जा रहे भ्रामक धार्मिक पोस्टों का खंडन, समय समय पर विभिन्न धार्मिक आख्यानों का आयोजन आदि के प्रोमोशन में उपयोग किया जाएगा जिससे कि धर्म का प्रचार और प्रसार हो | मेरे पास, भगवान् की कृपा से, पर्याप्त धन उपलब्ध है, अपने परिवार को चलाने के लिए और उसके लिए मुझे किसी के धन की आवश्यकता नहीं है | स्पेशली धार्मिक कार्यों के बदले स्वरुप | वो फ्री उपलब्ध थे और फ्री ही रहेंगे, सभी के लिए | इसी क्रम में, शास्त्र ज्ञान का सत्र आज, रविवार, सुबह १० बजे, गाजियाबाद में आयोजित किया जाएगा |
01/12/19, 9:20 am – Abhinandan Sharma: सभी नवागन्तुकों से निवेदन है कि वो ग्रुप उद्देश्य अवश्य पढ़ लें। इस ग्रुप में 2-3 शांति से, इस ग्रुप के कार्यकलाप देखें और फिर समझें कि ये ग्रुप कैसे कार्य करता है । ग्रुप में चर्चा मात्र, ग्रुप में डाली गयी पोस्ट पर ही होती है अतः धैर्य धारन करके, चल रही चर्चा में भाग लें । सभी का स्वागत है 🙏
01/12/19, 9:21 am – Abhinandan Sharma: ये भाग सभी को समझ आ गया ? क्या अब आप लोग, जो कुंडली देखना नहीं जानते, अपनी जन्मराशि और नक्षत्र, स्वयं देखकर बता सकते हैं ? अब तो आप ज्योतिष पढ़ रहे हैं ।
01/12/19, 9:59 am – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: यहाँ किसी प्रकार की स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है। लोग समझदार हैं।
01/12/19, 10:01 am – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: जिन लोगों ने यह यह ग्रुप ज्वाइन किया है उन्हें अगर अभी नहीं पता है तो आगे पता चल जाएगा कि इस ग्रुप का मोटिव क्या है।
01/12/19, 11:02 am – Abhinandan Sharma: शास्त्र ज्ञान सत्र – लाइव – 15 मिनट में प्रारंभ होगा | इस सत्र में एक सुभाषित, एक कथा, योग और तर्कशास्त्र की चर्चा की जायेगी | अंत में प्रश्न-उत्तर रखे जायेंगे |
https://youtu.be/K2KRNwG1w0c
01/12/19, 12:08 pm – Webinar Anish Kumar Gurgaon joined using this group’s invite link
01/12/19, 12:57 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: आन्वीक्षिकी विद्या के विषय में कौटिल्य आगे चल कर कहते है —
आन्वीक्षिकी सभी विद्याओ को दीपक की तरह प्रकाश देने का काम करती है | यह समस्त कार्यो का साधन और सभी धर्मो का आश्रय स्वरूप है |
इस देश में विद्याध्ययन की जो प्राचीन परम्परा चली आती है, उसमे उसमे आज भी ये पांच विषय प्रधान है-
(१) काव्य (२) नाटक (३) अलंकार (४) व्यकरण और (५) तर्क | तर्कशास्त्र यथार्थत सभी शास्त्रों के लिए प्रकाश स्वरूप है |
01/12/19, 1:27 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: 🙏🙏🙏👍🏻
01/12/19, 3:04 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: #श्री गणेशाय नमः#
सुगम ज्योतिष प्रवेशिका
प्रथम भाग – जातक विचार
चौथा प्रकरण
ग्रह और राशि – परिचय
सिर प्रदेश पर सूर्य का विशेष अधिकार है, मुख के आसपास चन्द्रमा का, कंठ पर मंगल का, बुध का नाभि के निकट स्थल पर, बृहस्पति का नासा (नाक) के मध्य में, नेत्रों और पैरों पर शुक्र का, तथा शनि, राहु और केतु का पेट पर विशेष अधिकार है। सूर्य ‘अस्थि’ हड्डी का, चन्द्रमा रक्त का, मंगल मज्जा का, बुध त्वचा का, बृहस्पति मेद (चरबी) का, शुक्र धातु (वीर्य) का और शनि स्नायु का स्वामी है।
सूर्य और मंगल पित्त के, चंद्रमा वातकफात्मक, बुद्ध पित्त वातकफात्मक (तीनों दोषों) का, बृहस्पति कफ का, शुक्र वात तथा कफ का एंव शनि वायु का अधिपति है। जब पीड़ा कारक ग्रह की दशा होती है तब उसके विशेष अधिकार वाले अंग में विशेष पीड़ा होने की संभावना रहती है।
सूर्य ‘आत्मा’ का अधिष्ठाता होता है, चन्द्रमा ‘मन’ का, मंगल ‘सत्व’ (हिम्मत) का, बुध ‘वाणी’ (वाक् शक्ति) का, बृहस्पति ‘ज्ञान’ और ‘सुख’ का, शुक्र ‘काम’ का, शनि ‘दुःख’ का एवं राहु ‘मद’ का अधिष्ठाता है। सूर्य बलवान होगा तो आत्मा बलवान होगी। चन्द्रमा बलवान होगा तो मन बलवान होगा। इस प्रकार सर्वत्र समझना चाहिए। किन्तु शनि बलवान होगा तो दुःख बलवान नहीं होगा; दुःख कम होगा अर्थात शनि के विषय में उल्टा है।
01/12/19, 3:49 pm – Vaidya Ashish Kumar: 😘😘😘😘🌹🌹👍🏻👏🏻
01/12/19, 5:05 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: This message was deleted
01/12/19, 5:05 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: This message was deleted
01/12/19, 5:06 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: Sorry
01/12/19, 5:30 pm – Abhinandan Sharma: ? बताइये अपनी कुंडली देखकर कि आपकी जन्म राशि और नक्षत्र कौन सा है ?
01/12/19, 5:33 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: यहां अपनी कुण्डली का ही नही पता, जन्म राशि, नक्षत्र कहा देखें 🙂
01/12/19, 5:34 pm – Abhinandan Sharma: अन्य लोग !
01/12/19, 5:34 pm – +91 : अपने बच्चों का तो मालूम होगा
01/12/19, 5:36 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: वृषभ राशि, रोहिणी नक्षत्र, प्रथम चरण
01/12/19, 5:40 pm – +91 : मिथुन
मृग शिरा
01/12/19, 5:42 pm – +91 : द्वितीय चरण
01/12/19, 5:45 pm – Shastra Gyan Dinesh Sharma: मीन राशि, रेवती नक्षत्र, चतुर्थ चरण
01/12/19, 5:50 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: प्रतिसाद अच्छा मिल रहा है 😊
01/12/19, 5:51 pm – +91 : Rohini, brishav
01/12/19, 5:52 pm – +91 : Ashtami
01/12/19, 5:53 pm – +91 : आपकी मेहनत को धन्यवाद…🙏🙏
01/12/19, 6:04 pm – Abhinandan Sharma: वमन शायद विदग्धाजीर्ण में होगा, न कि विषताबधाजीर्ण में ।
01/12/19, 6:36 pm – Shastra Gyan Mukesh Mishra Allahabad: मेष राशि , अश्विनी नक्षत्र, चतुर्थ चरण
01/12/19, 6:41 pm – Abhinandan Sharma: ये वीडियो बहुत अच्छा है । ये कन्नड़ भाषा का कार्यक्रम है, जिसमें फाइनल विनर ने ये गाया है । आवाज कमाल है और गायक अनीस खान है । इसको गाने के बाद, प्रथम पुरस्कार दिया गया।
पर इस ग्रुप में कृपया कोई भी वीडियो, फोटो फारवर्ड न करें । ग्रुप के उद्देश्य को निभाना भी महत्वपूर्ण है । वरना सभी लोग एक एक फारवर्ड भी करने लगे तो ये ग्रुप किसी काम का नहीं बचेगा ।
01/12/19, 6:50 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: कुम्भ, उत्तर भाद्रपद
01/12/19, 7:00 pm – Abhinandan Sharma: 🙏🙏
01/12/19, 7:09 pm – Abhinandan Sharma: यही 9 ग्रह क्यों लिये गए ? जबकि चन्द्रमा उपग्रह है, सूर्य तारा है और राहु और केतु तो कोई स्थूल ग्रह ही नहीं है ? क्या किसी ने विचारा ?
01/12/19, 7:20 pm – Abhinandan Sharma: 👏👏
01/12/19, 7:24 pm – Shastra Gyan Suresh Jhajjar: इनका प्रभाव मानव जीवन पर सीधा पड़ता है
01/12/19, 7:32 pm – Abhinandan Sharma: सही । ज्योतिष में उन सभी को ग्रह माना गया है, जो धरती के निकट हैं और जीवन को प्रभावित करते हैं, चाहे छाया ग्रह ही क्यों न हो ।
01/12/19, 7:33 pm – Shastra Gyan Dinesh Sharma: 👍
01/12/19, 8:57 pm – +91 : राहु और केतु दो ग्रहो के बीच मे तीसरे ग्रह के पड़ने से उत्पन्न होने वाली छाया के प्रतिफल में उन ग्रहो द्वारा उत्पन्न विकिरण के मानव जीवन और धरती पर होने वाले प्रभाव को दर्शाते हैं
वैसे सात ग्रह ही है सूर्य और चंद्रमा को मिलाकर पर इन सातों के द्वारा अंतरिक्ष मे चक्कर लगाने के दौरान ग्रहण जैसी स्थिति उत्पन्न होती है ।
01/12/19, 9:02 pm – LE Ravi Parik : 12 राशि और 24 नक्षत्र ।।
01/12/19, 9:02 pm – LE Ravi Parik : थोड़ा इनदोनो को ओर स्पष्ठ करिये।
01/12/19, 9:03 pm – LE Ravi Parik : कुछ confusion हो गया
01/12/19, 9:05 pm – LE Ravi Parik : राशि और नक्षत्र में मूलभूत अंतर स्पष्ठ नही हुआ
01/12/19, 9:14 pm – Abhinandan Sharma: यहां से पुनः पढे ।
01/12/19, 10:29 pm – Vaidya Ashish Kumar: 👏🏻👏🏻👏🏻👌🏻👌🏻ग्रुप नियम जरूरी है।
01/12/19, 10:50 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: यहां अष्टाङ्गहृदयम् मे विष्टब्धाजीर्ण ही दिया है, या तो misprint होगा या फिर यही सही है!!🙄
आशीष वैद्य जी- आप कुछ सहायता करें।
01/12/19, 10:52 pm – Vaidya Ashish Kumar: अष्टाङ्ग हृदय सही है।
विष्टब्ध अजीर्ण वायु के प्रकोप से होता है ,इसलिए इसमे चिकित्सा में स्वेदन बताया है जो एकदम सही है।(अन्य ग्रंथो में और अनुभव में भी ऐसा ही है।👍🏻👍🏻🌹🌹
01/12/19, 10:52 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-८ श्लोक ३०,३१,३२
विबन्धोऽतिप्रवृत्तिर्वा ग्लानिर्मारुतमूढ़ता॥३०॥
अजीर्णलिङ्गं सामान्यं विष्टम्भो गौरवं भ्रमः।
अजीर्ण का सामान्य लक्षण- अजीर्ण के सामान्य लक्षण इस प्रकार है— मल का खुलकर न होना अथवा अधिक (अतिसार के रूप में) निकलना, ग्लानि (मन का मलिन रहना), वायु का अनुलोम न होना अर्थात ठीक ढंग से डकार एवं अपान वायु के रूप में न निकल पाना, विष्टम्भ (आमाशय में स्वाभाविक गति का न होना), पेट तथा सम्पूर्ण शरीर में भारीपन का होना एवं चक्करों का आना।
न चातिमात्रमेवान्नमामदोषायकेवलम्॥३१॥
द्विष्टविष्टम्भिदग्धामगुरूरूक्षहिमाशुचि। विदाही शुष्कमत्यम्बुप्लुतं चान्नं न जीर्यति॥३२॥
उपतप्तेन भुक्तं च शोकक्रोधक्षुदादिभिः॥३३॥
अजीर्ण के विविध कारण- केवल अधिक मात्रा में खाया हुआ आहार ही आमदोष का कारण नहीं होता, अपितु इसके अन्य अनेक कारण हैं। यथा— द्विष्ट (जिसे खाने की इच्छा न हो), विष्टम्भकारक, जला हुआ, आम (भलिभांति न पका हुआ), गुरु (देर में पचने वाला), रूक्ष (स्नेह रहित), शीत (बासी), अपवित्र, विदाहकारक, अत्यन्त सूखा, अधिक पानी पीने से अथवा थोड़ा भी जल न पीने से खाया हुआ भोजन नहीं पचता। बड़ी देर से भूख लगने के बाद में खाया हुआ भोजन भी नहीं पचता तथा शोक, क्रोध आदि से पीड़ित होने के बाद में खाया हुआ भोजन भी ठीक प्रकार से नहीं पचता।
वक्तव्य- ‘क्षुदादिभिः’— यहां प्रयुक्त आदि शब्द से काम, क्रोध, लोभ, मोह, लज्जा, अपमान, तिरिस्कार, भय और घबराहट की स्थिति में खाया गया आहार समुचित प्रकार से नहीं पचता है। ऊपर की चतुर्थ पंक्ति का अर्थ इस प्रकार करना चाहिए— ‘ शोकक्रोधक्षुदादिभिः उपतप्तेन (पुंसा) भुक्तम्’। शोक, क्रोध आदि मानसिक विकृतियां भोजन करते समय जो तन्मयता होनी चाहिए, उसमें बाधा पहुंचाती है, क्योंकि चरक का आदेश है— ‘तन्मना भुञ्जीत’ (च.वि. १/२५)। इसके अतिरिक्त इस अध्याय में भोजन कैसे करना चाहिए, इसका विधिपूर्वक वर्णन किया है, इसे पढ़कर तब भोजन करें। आज भी जो अनशन किया करते है, उन्हें पहले फलों का रस ही दिया जाता है, न कि पूर्ण भोजन।
01/12/19, 10:53 pm – Abhinandan Sharma: आशीष जी, असल प्रश्न ये है म
01/12/19, 10:53 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: किन्तु पित्त के दर्शन तक वमन की बात कही है वहां शंका है🙏🏻
01/12/19, 10:55 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: *रामायण बालकाण्ड – सप्तदश सर्ग श्लोक १७,१८,१९,२०,२१,२२
सर्ववानरमुख्येषु बुद्धिमान्बलवानपि । ते सृष्टा बहुसाहस्त्रा दशग्रीववधेरताः॥१७॥
हनुमान जी बुद्धि और पराक्रम में अन्य सब वानरों से बढ़ चढ़ कर थे। इनके अतिरिक्त हजारों और भी बंदर , रावण के वध के लिए उत्पन्न किए गए।
अप्रमेयवला वीरा विक्रान्ताः कामरूपिणीः। ते गजाचलसंकाशा वपुप्मन्तो महाबलाः॥१८॥
जितने वानर उत्पन्न हुए वे सब के सब अत्यन्त बलवान, स्वेच्छाचारी, गज और भूधराकार शरीर वाले हुए।
ऋक्षवानरगोपुच्छाः क्षिप्रमेवाभिजज्ञिरे। यस्य देवस्य यद्रूपं वेषो यश्च पराक्रमः॥१९॥
अजायत समस्तेन तस्य तस्य सुतः पृथक्। गोलाङ्गुलीषु चोत्पन्नाः केचित्संमतविक्रमा॥२०॥
रीक्ष, बंदर, लंगूर सब ऐसे ही थे। जिस देवता का जैसा रूप वेश व पराक्रम था, उनके अलग-अलग वैसे वैसे ही पुत्र भी हुए— बल्कि इन योनियों में विशेष पराक्रमी हुए।
ऋक्षीषु च तथा जाता वानराः किंनरीषु च। देवा महर्षिगन्धर्वास्तार्क्ष्या यक्षा यशस्विनः॥२१॥
नागाकिंपुरुषाश्चैव सिद्धविद्याधरोरगाः। वहवो जनयामासुर्हृष्टास्तत्र सहस्त्रशः ॥२२॥
इनमें से कोई तो लंगूरियों से, कोई रीक्षनियों से और कोई किन्नरियों से उत्पन्न हुआ। यशस्वी देवता, ऋषि, गन्धर्व, उरग, यक्ष, नाग, किन्नर, विद्याधर आदि ने हजारों हृष्ट-पुष्ट पुत्र उत्पन्न किए।
01/12/19, 10:56 pm – Hts Sandeep Seksariya: Aashish ji प्रकट hoiye
01/12/19, 10:56 pm – Vaidya Ashish Kumar: हिंदी में अर्थ में चिकित्सा में आपने गलत लिख दिया है,गुरु अभिनन्दन जी की बात सही है।
विदग्ध में वमन है जो कि श्लोक में भी है,उसके अर्थ में गलत लिख गया या छप गया है।
क्योकि आमाशय का आधा ऊपर का हिस्सा कफ का और नीचे का पित्त दोष है है इसलिये वमन में पित्त दर्शन तक वमन कराने(वैद्य मार्गदर्शन में) निर्देश है।
01/12/19, 10:57 pm – Vaidya Ashish Kumar: 👆🏻👆🏻
01/12/19, 10:57 pm – Vaidya Ashish Kumar: 🙂🙏🏻
01/12/19, 10:58 pm – Vaidya Ashish Kumar: विदग्धे वमनं✅✅
01/12/19, 11:00 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: धन्यवाद जी🙏🏻🙏🏻😊
01/12/19, 11:04 pm – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur: भूधराकार?
01/12/19, 11:12 pm – Hts Sandeep Seksariya: पृथ्वी per hai car
😃😃
01/12/19, 11:12 pm – +91 : षटत्रिंशदधिकशततम (136) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: षटत्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
भीमसेन के द्वारा कर्ण का तिरस्कार और दुर्योधन द्वारा उसका सम्मान
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर लाठी ही जिसका सहारा था, वह अधिरथ कर्ण को पुकारता हुआ-सा कांपता-कांपता रंगभूमि में आया। उसकी चादर खिसक कर गिर पड़ी थी और वह पसीने से लथपथ हो रहा था। पिता के गौरव से बंधा हुआ कर्ण अधिरथ को देखते ही धनुष त्यागकर सिंहासन से नीचे उतर आया। उसका मस्तक अभिषेक जल से भीगा हुआ था। उसी दशा में उसने अधिरथ के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया। अधिरथ ने अपने दोनों पैरों को कपड़े के छोर से छिपा लिया और ‘बेटा! बेटा! ’ पुकारते हुए अपने को कृतार्थ समझा। उसने स्नेह से विह्बल होकर कर्ण को हृदय से लगा लिया और अंगदेश के राज्य पर अभिषेक होने से भीगे हुए उसके मस्तक को आंसुओं से पुन: अभिषिक्त कर दिया।
अधिरथ को देखकर पाण्डुकुमार भीमसेन यह समझ गये कि कर्ण सूतपुत्र है; फिर तो वे हंसते हुए- से बोले- ‘अरे ओ सूतपुत्र! तू तो अर्जुन के हाथ से मरने योग्य भी नहीं है। तुझे तो शीघ्र ही चाबुक हाथ में लेना चाहिये; क्योंकि यही तेरे कुल के अनुरूप है। नराधम! जैसे यज्ञ में अग्नि के समीप रखे हुए पुरोडाश को कु्त्ता नहीं पा सकता, उसी प्रकार तू भी अंगदेश का राज्य भोगने योग्य नहीं है’। भीमसेन के यों कहने पर क्रोध के मारे कर्ण का होठ कुछ कांपने लगा और उसने लंबी सांस लेकर आकाश मण्डल में स्थित भगवान् सूर्य की ओर देखा। इसी समय महाबली दुर्योधन कुपित हो मदोन्मत्त गजराज की भाँति भ्रात-समूह रूपी कमल वन से उछल कर बाहर निकल आया। उसने वहाँ खड़े हुए भयंकर कर्म करने वाले भीमसेन से कहा –
‘ वृकोदर! तुम्हें ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। क्षत्रियों में बल की ही प्रधानता है। बलवान् होने पर क्षत्रबन्धु (हीन क्षत्रिय) से भी युद्ध करना चाहिये (अथवा मुझ क्षत्रिय का मित्र होने के कारण कर्ण के साथ तुम्हें युद्ध करना चाहिये। शूरवीरों और नदियों की उत्पत्ति के वास्तविक कारण को जान लेना बहुत कठिन है। जिसने सम्पूर्ण चराचर जगत् को व्याप्त कर रखा है, वह तेजस्वी अग्नि जल से प्रकट हुआ है। दानवों का संहार करने वाला वज्र महर्षि दधीचि की हड्डियों से निर्मित हुआ है। सुना जाता है, सर्वगुह्यस्वरूप भगवान् स्कन्ददेव अग्नि, कृत्तिका, रुद्र तथा गंगा- इन सबके पुत्र हैं। कितने ही ब्राह्मण क्षत्रियों से उत्पन्न हुए हैं, उनका नाम तुमने भी सुना होगा तथा विश्वामित्र आदि क्षत्रिय भी अक्षय ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो चुके हैं। समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ हमारे आचार्य द्रोण का जन्म कलश से हुआ है। महर्षि गौतम के कुल में कृपाचार्य की उत्पत्ति भी सरकंडों के समूह से हुई है।
01/12/19, 11:18 pm – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur: मतलब
01/12/19, 11:27 pm – Abhinandan Sharma: मजाक
01/12/19, 11:28 pm – Abhinandan Sharma: बहुत विशाल आकार वाले
01/12/19, 11:42 pm – Abhinandan Sharma: क्या वमन के अलावा और कोई इलाज है ? आसान इलाज 🙃
01/12/19, 11:43 pm – Vaidya Ashish Kumar: सर ये तो अंतिम विकल्प है।
रोग की अंतिम अवस्था मे जब किसी से लाभ न हो तब।
सामान्य पथ्य और औषधि से ठीक हो जाता है।
01/12/19, 11:44 pm – Abhinandan Sharma: कोई आसान व्यवस्था बताइये, अलग से ।
01/12/19, 11:48 pm – Vaidya Ashish Kumar: विदग्ध अवस्था मे दाड़ीमष्टक चूर्ण
विष्टब्ध में हिंग्वाष्टक
आमाजीर्ण में शिवाक्षार पाचन
इस तरह से कई औषधि योग का वर्णन है।
सामान्यतः रोगी कई मिक्स रोग और जीर्ण अवस्था मे आता है,शास्त्र एक इशारा है रोग को समझने के लिये युक्ति पूर्वक अवस्था देखकर उपशय अनुपश्य के सहारे से औषध आहार विहार से चिकित्सा करते है।इनसे न हो तब पंचकर्म।
02/12/19, 5:58 am – +91 : भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहां—
स्तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम्।
अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि
प्रियायास्मैधाम्ने प्रविहितनमस्योऽस्मि भवते।।
हे महादेव!
आपके जो आफ अभिधान (नाम)—
भव, शर्व, रुद्र, पशु पति, उग्र, महादेव, भीम, ईशान — हैं,
उनमें प्रत्येक में वेद मन्त्र भी पर्याप्त मात्रा में विचरण करते हैं और वेदानुगामी पुराण भी इन नामों में विचरते हैं;
अर्थात् वेद- पुराम सभी उन आठ नामों का अतिशय प्रतिपादन करते हैं ।
अतः परम प्रिय एवं प्रत्यक्ष समस्त जगत् के आश्रय आपको मैं साष्टांग प्रणाम करता हूँ ।।28।।
02/12/19, 5:59 am – +91 : आफ✖
आठ ✔
02/12/19, 6:00 am – +91 : वेद- पुराम✖
वेद- पुराण✔
02/12/19, 10:05 am – Abhinandan Sharma: https://youtu.be/nene1QvEkos
02/12/19, 11:13 am – Shastra Gyan Maniah Patiala: गौतम के सोलह पदार्थ
गौतम निम्नलिखित सोलह पदार्थो के नाम गिनाते है –
(१) प्रमाण (means of knowledge)
(२) प्रमेय (object of knowledge)
(३) संशय (doubt)
(४) प्रयोजन (purpose)
(५) दृष्टान्त (example)
(६) सिद्धांत (conclusion)
(७) अवयव (members of syllogism)
(८) तर्क (hypothesis)
(९) निर्णय (verification)
(१०) वाद (argument)
(११) जल्प (wrangling)
(१२) वितण्डा (sophistry)
(१३) हेत्वाभास (fallacy)
(१४)छल(cavilling)
(१५) जाति(futile refutation)
(१६) निग्रहस्थान (points of defeat)
गौतम ने उपर्युक्त सोलह पदार्थो की जो लम्बी तालिका पेश की है,उसपर काफी नुक्ताचीनी की गई है | अवयव, दृष्टान्त प्रभृति प्रमाण के अंतर्गत ही आ जाते है| फिर उनका पृथक नाम निर्देश क्यों किया गया ? वस्तुतः देखा जाये तो प्रमाण और प्रमेय इन दोनों के अंतर्गत ही समस्त विषय आ जाते है | बल्कि यो कहा जा सकता है कि केवल प्रमेय में ही सभी पदार्थो का अतंर्भाव हो जाता है: क्योकि प्रमाण आदि पदार्थ भी ज्ञान का विषय होने पर प्रमेय कोटि में ही आ जाते है | जैसे तुलादण्ड स्वयं मान का साधन होते हुए भी मान का विषय (परिमेय ) हो सकता है|
02/12/19, 1:04 pm – Abhinandan Sharma: ये पोस्ट समझने में थोड़ी क्लिष्ट लग सकती है क्योंकि अभी तर्क की शब्दावली से हम लोग परिचित नहीं है किन्तु जैसे जैसे पुस्तक आगे बढ़ेगी, वैसे वैसे, ये सभी शब्द स्पष्ट हो जायेंगे | अभी के लिए, आप सभी सिर्फ, इन 16 के नाम अवश्य पढ़ लें कि ये विषय आगे आयेंगे | बहुत मजा आने वाला है, तर्कशास्त्र में |
02/12/19, 1:13 pm – Webinar Anish Kumar Gurgaon: Guys mujhe chama kare.. Meri taraf se koi contribution na hoo payega tark mein coz.. Mein agyani hu
02/12/19, 1:28 pm – Abhinandan Sharma: कोई बात नहीं। आप बस पढ़ते रहें ।
02/12/19, 1:29 pm – Abhinandan Sharma: बहुत लोग, इस ग्रुप में सिर्फ पढ़ते ही हैं । लिखने वाले तो कुल जमा 10 लोग हैं ।
02/12/19, 1:34 pm – +91 : मेरी तरह अगर सब लोग पढ़ें भी तो दस लोग ही काफी हैं राह दिखाने के लिए।
02/12/19, 1:39 pm – +91 : Thanks a lot to these 10 Contributors who are doing Hardwork to provide us Treasure of knowledge !!!
Through this group, First time it feels that WhatsApp is Useful for gaining knowledge.
👌👍🙏
02/12/19, 1:40 pm – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: ।।पंचतंत्र।।
प्रथम तन्त्र
मित्रभेद (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
कथा क्रम : एक
सा सेवा या प्रभुहिता ग्राह्या वाक्यविशेषतः ।
आश्रयेत्पार्थिवं विद्वांस्तद्द्वारेणैव नान्यथा ।।
वास्तव में, सेवा वही कहलाती है, जिससे परमात्मा का हित हो और स्वामी को प्रसन्नता प्राप्त हो। सेवक की समझदारी इसी में है कि वह इस बात को समझे और उसी के अनुरूप आचरण भी करे।
यो न वेत्ति गुणान् यस्य न तं सेवेत पण्डितः ।
न हि तस्मात्फलं किञ्चित्सुकृष्टादूषरादिव ।।
जिस प्रकार ऊसर धरती में बढ़िया बीज डालने और कठोर परिश्रम करने पर भी अपेक्षित फल नहीं मिलता, उसी प्रकार सेवक के गुणों का उचित सम्मान न करने वाले स्वामी की सेवा करने से भी कोई लाभ नहीं होता। ऐसे स्वामी को छोड़ देने में ही भलाई होती है।
द्रव्यप्रकृतिहीनोऽपि सेव्यः सेव्यगुणान्वितः ।
भवत्याजीवनं तस्मात्फलं कालान्तरादपि ।।
यदि धनहीन स्वामी गुणों को परखने वाला और कृतज्ञ हो, तो उसकी सेवा अवश्य करनी चाहिए; क्योंकि साधन-सम्पन्न होने पर ऐसा स्वामी अपने सेवकों का उपकार कर देता है।
अपि स्थाणुवदासीनः शुष्यन्परिगतः क्षुधा ।
नत्वेवानात्मसम्पन्नाद्वृत्तिमीहेत पण्डितः ।।
कृतघ्न स्वामी की सेवा करके सुखमय जीवन जीने की अपेक्षा भूखा मरना तथा मूर्ख के समान जीवन व्यतीत करना ही अच्छा है।
सेवकः स्वामिनं द्वेष्टि कृपणं परुषाक्षरम् ।
आत्मानं किं स न द्वेष्टि सेव्यासेव्यं न वेत्ति यः ।।
अपने स्वामी की कंजूसी के लिए उसकी निन्दा करने वाला सेवक मूर्ख होता है। उसे तो अपनी निन्दा करनी चाहिए कि उसने योग्य स्वामी को क्यों नहीं चुना? स्वामी की सही परख न कर पाने के लिए सेवक को स्वयं ही अपनी निन्दा करनी चाहिए।
यमाश्रित्य न विश्रामं क्षुधार्त्ता यान्ति सेवकाः ।
सोऽर्कवन्नृपतिस्त्याज्यः सदा पुष्पफलोऽपि सन् ।।
सेवकों के लिए वस्त्र, भोजन व आवास आदि की पूर्ति न करने वाला स्वामी समस्त पृथ्वी का स्वामी होने पर भी आक के वृक्ष के समान त्याज्य होता है। उसे छोड़ने में एक पल की भी देरी करना उचित नहीं होता।
राजमातरि देव्यां च कुमारे मुख्यमन्त्रिणि ।
पुरोहिते प्रतिहारे च सदा वर्त्तेत राजवत् ।।
जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए सेवक को स्वामी के साथ-साथ राजमाता, पटरानी, राजकुमार, प्रधानमन्त्री, पुरोहित और द्वारपाल के साथ भी स्वामी के समान ही व्यवहार करना चाहिए
जीवेति प्रब्रुवन् प्रोक्तः कृत्याकृत्यविचक्षणः ।
करोति निर्विकल्पं यः स भवेद्राजवल्लभः ।।
उचित और अनुचित तथा करणीय एवं अकरणीय की जानकारी होने पर भी बिना विचार किये स्वामी की आज्ञा का आंख मींचकर पालन करने वाला सेवक अपने स्वामी का कृपापात्र बन जाता है।
02/12/19, 1:56 pm – Abhinandan Sharma: 🙏🙏 Technology given to fools help nothing but given to wise, can create wonder. बन्दर के हाथ में उस्तरा आ जाए तो काट लेता है और आदमी उसी उस्तरे से काम कर लेता है | अन्य ग्रुप्स में आप फालतू के चुटकुले, जिन्हें पढ़कर हंसी भी नहीं आती | बेकार के वीडियो, जिनका कोई सार नहीं होता, फालतू के फॉरवर्ड, good मोर्निंग, good नाईट ! इन सब में लोग अपना समय व्यर्थ करते हैं और देखिये, इस ग्रुप के 250 लोग मिलकर, कैसे ग्रुप स्टडी कर रहे हैं | एक दुसरे से ही सीख रहे हैं और सिखा रहे हैं !
यहाँ वैद्य भी हैं, आचार्य और ज्योतिषी भी हैं, शास्त्रों के ज्ञाता भी हैं और सीखने वाले भी हैं और इतने धैर्यवान लोग भी हैं, जो इतने संयम से रहते हैं कि यदा-कदा ही कोई फॉरवर्ड पोस्ट आती है | शुद्ध ज्ञान का ग्रुप है ये ! (जो अब फुल हो गया है )
02/12/19, 1:56 pm – +91 : 🙏🙏🙏🙏🙏🙏
02/12/19, 1:58 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: 🙏🏻🙏🏻🙏🏻
02/12/19, 1:58 pm – +91 : 🙏🙏🙏🙏
02/12/19, 1:59 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: इतना बड़े ग्रुप में इतना अनुशासन क़ाबिल ए तारीफ है ❤
02/12/19, 2:01 pm – +91 : जहाँ विद्वान हों वहां सब सुलभ है।💐
02/12/19, 2:51 pm – Webinar Anish Kumar Gurgaon: Thanks sir jee
02/12/19, 2:54 pm – Webinar Anish Kumar Gurgaon: This!!
02/12/19, 2:54 pm – Webinar Anish Kumar Gurgaon: Im eagerly waiting ki sir ki aghori baba 2 without shipping offer hoo
02/12/19, 2:55 pm – Webinar Anish Kumar Gurgaon: Abhi mujhe part first bhi dubera padna hai
02/12/19, 2:56 pm – Webinar Anish Kumar Gurgaon: Kya buk likhi hai sir mee 5 stars bi km hai
02/12/19, 3:15 pm – Abhinandan Sharma: 🙏🙏
02/12/19, 4:33 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
श्री मनुस्मृति
तृतीय अध्याय
*तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थं महर्षिभिः ।
पञ्च क्ल्प्ता महायज्ञाः प्रत्यहं गृहमेधिनाम् । । ३.६९[५९ं] । ।
अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम् ।
होमो दैवो बलिर्भौतो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम् । । ३.७०[६०ं] । ।
पञ्चैतान्यो महाअयज्ञान्न हापयति शक्तितः ।
स गृहेऽपि वसन्नित्यं सूनादोषैर्न लिप्यते । । ३.७१[६१ं] । ।
देवतातिथिभृत्यानां पितॄणां आत्मनश्च यः ।
न निर्वपति पञ्चानां उच्छ्वसन्न स जीवति । । ३.७२[६२ं] । ।
अहुतं च हुतं चैव तथा प्रहुतं एव च ।
ब्राह्म्यं हुतं प्राशितं च पञ्चयज्ञान्प्रचक्षते । । ३.७३[६३ं] । ।
जपोऽहुतो हुतो होमः प्रहुतो भौतिको बलिः ।
ब्राह्म्यं हुतं द्विजाग्र्यार्चा प्राशितं पितृतर्पणम् । । ३.७४[६४ं] । ।
स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्याद्दैवे चैवेह कर्मणि ।
दैवकर्मणि युक्तो हि बिभर्तीदं चराचरम् । । ३.७५[६५ं] । ।*
हरि ॐ
इन दोषों को मिटाने के लिए महर्षियों ने गृहस्थों के लिए पांच महायज्ञ नित्य करने को रचा है,उनके नाम है
ब्रह्म यज्ञ-पढ़ाना
पितृयज्ञ-पितरों को तर्पण
देवयज्ञ-होम
भूतयज्ञ-प्राणियों को बलि देना
मनुष्ययज्ञ-अतिथियों का सत्कार करना
इन पांच महायज्ञों को जो सद्गृहस्थ शक्ति भर ना छोड़े वह हिंसादोष का भागी नहीं होता।जो पुरूष देवता,अतिथि,सेवक,मातापिता आदि और आत्मा इन पांचों को अन्न नहीं देता वह जीते जी भी मरा हुआ सा है।
– -कोई ऋषी इन पांच महायज्ञों को
अहुत
हुत
प्रहुत
ब्राह्महुत
और प्राषित नाम से भी कहते है।
अहुत-जप
हुत-होम
प्रहुत-भूतबलि
ब्राह्म-ब्राह्मणों की पूजा
प्राशित- नित्य श्राद्ध को कहते हैं।
द्विज सदा वेदाध्ययन और अग्निहोत्र में सदा लगा रहे,जो देवकर्म में लगा रहता है वह इस जगत का पोषण करता है।।
ॐ
02/12/19, 4:41 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: This message was deleted
02/12/19, 4:43 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: प्रमाणस्य प्रमेयत्वं तुलाप्रामाण्यवत्
इस तरह प्रमाण प्रभृति यावतीय विवेच्यमान पदार्थ प्रति (ज्ञान ) का विषय होने के कारण प्रमेय बन जाते हैं। फिर गौतम ने सोलह नाम क्यों गिनाये ?
इस प्रश्न के उत्तर में यह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार कणाद ने वैशेषिक सूत्र में पदार्थों का वर्गीकरण किया है, इस प्रकार भिन्न-भिन्न मूल तत्वों का निरूपण करना गौतम का अभिप्राय नहीं था। वे सिर्फ उन्हीं प्रमुख विषयों की सूची ( Table of contents ) बतलाते हैं, जिनका सविस्तर वर्णन करना उन्हें अभीष्ट है।
02/12/19, 5:18 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: अत: गौतमोक्त पदार्थों को मूल
पदार्थ ( Category ) न समझकर न्यायसूत्र के ‘ विवेच्य विषय (Topic) मात्र समझना चाहिये।
02/12/19, 5:48 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: न्यायशास्त्र का विषय
गौतमरचित न्यायसूत्र न्याय दर्शन का मूल ग्रन्थ है। न्यायसूत्र पाँच अध्यायों में विभक्त है। प्रत्येक अध्याय में दो ‘ अहिक‘ ( खण्ड) है। समस्त सूत्रों की संख्या ४०० के करीब है। न्यायसूत्र के विषय का विवरण नीचे दिया जाता है।
(१) प्रथम अध्याय
प्रथम आहिक में पहले प्रमाण प्रमेय आदि षोडश पदार्थों का नाम निर्देश किया गया है। फिर प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान, शब्द, इन चतुर्विध प्रमाणों के लक्षण दिये गये है। तदनन्तर प्रमेय के लक्षण और विभाग किये गये है। प्रमेयों के अंतर्गत आत्मा शरीर, इन्द्रिय अर्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रत्यभाव (पुनर्जन्म), फल, दुःख और अपवर्ग (मोक्ष) का निरूपण किया गया है तब संशय, प्रयोजन और दृष्टान्त के निरूपण के बाद सिद्धान्त का लक्षण और विभाग किया गया है। सर्वतन्त्र, पारितंत्र, अधिकरण और अभ्युपगम-ये चार प्रकार के सिद्धान्त बतलाये गये है। फिर न्याय के भिन्न-भिन्न अवयव प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय, और निगमन समझाये गये है। तदनन्तर तर्क और निर्णय को विवेचना की गई है।
02/12/19, 5:53 pm – Abhinandan Sharma: ध्यान दें ! तर्क से, आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ, बुद्धि, मन, दोष, पुनर्जन्म, मोक्ष आदि की स्थापना की गयी है | जब लोग, इन विषयों को समझा नहीं पाते तो कहते हैं कि भक्ति में लग जाओ | बाबा लोग समझा देते हैं कि भक्ति ही सबसे आसान तरीका है | जबकि ऐसा नहीं है | लोग भक्ति में अंधे होकर बहुधा बाबाओं के ही भक्त बन के रह जाते हैं और ईस्वर के भक्त नहीं हो पाते हैं | जब हम तर्कशास्त्र पढेंगे तो एक एक चीज को समझेंगे | जब कार में पता चल जाएगा कि ब्रेक किधर है, क्लच किधर है, स्टीयरिंग किधर है तो कार चलानी आसान हो जायेगी | यही तर्कशास्त्र का उद्देश्य है कि जब आप कहें कि आत्मा को परमात्मा से मिलाओ, तो आपको पता हो कि आत्मा कौन है ? परमात्मा कौन है ? जब आप कहते हैं कि इन्द्रियनिग्रह ही, सब योगों का मूल है तो आपको पता होना चाहिए कि इन्द्रियाँ कैसे फंक्शन करती हैं, तब ही आप उन्हें निग्रह कर पायेंगे ! इसीलिए तर्कशास्त्र को पढना परम आवश्यक है |
02/12/19, 6:41 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👌🏼
02/12/19, 8:50 pm – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: 👌🏻
02/12/19, 10:26 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 2 श्लोक 53 और 54
*अविनीत शत्रु को उपेक्षा से कैसे जीता जा सकता है – यह सुनिए
*लघुवृत्तितया भिदां गतं बहिरन्तश्च नृपस्य मण्डलं ।*
अभिभूय हरत्यनन्तरः शिथिलं कूलं इवापगारयः ।। २.५३ ।।
वियोगिनी
अर्थ: हे भीमसेन ! मदोन्मत्त अभिमानी राजा अपने तुच्छ व्यवहार के कारण पडोसी राजाओं को तथा अपने राज्य के मन्त्री वर्ग और प्रजावर्ग को कुपित करता रहता है फलतः अपने और पराये, घर के और बाहर के सभी लोगों का प्रेम वह खो बैठता है और आपस में फूट (भेद) पैदा होती है । मित्र राजाओं में तथा अपने मन्त्रीवर्ग और प्रजावर्ग में क्रमशः भेद बुद्धि पनपने पर जिस तरह नदी के वेग से जर्जरित हुए दोनों किनारों को स्वयं नदी ही गिराकर नष्ट कर डालती है उसी प्रकार आन्तरिक भेद से जर्जरित मित्रराजमण्डल एवं अमात्यादिप्रकृति-मण्डल वाला दुर्वृत्ति राजा अपने ही तुच्छ व्यवहार के कारण विनाश को प्राप्त होता है ।
टिप्पणी: परस्पर भेद के कारण अविनयी राजा का विनाश सुगम रहता है ।
उपमा अलङ्कार
अनुशासतं इत्यनाकुलं नयवर्त्माकुलं अर्जुनाग्रजं ।
स्वयं अर्थ इवाभिवाञ्छितस्तं अभीयाय पराशरात्मजः ।। २.५४ ।।
वियोगिनी
अर्थ: इस प्रकार से (शत्रु द्वारा हुए अपमान का स्मरण करने के कारण) क्षुब्ध भीमसेन को सुन्दर न्याय-पथ का उपदेश करते हुए युधिष्ठिर के पास मानो अभिलषित मनोरथ की भांति वेदव्यास जी स्वयमेव आ पहुंचे ।
उत्प्रेक्षा अलङ्कार
02/12/19, 10:29 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: *रामायण बालकाण्ड – सप्तदश सर्ग श्लोक २३,२४,२५,२६,२७
वानरान्सुमहाकायान्सर्वान्वै वनचारिणः। सिंहशार्दूलसदृशा दर्पेण च बलेन च॥२३॥
ये सब वानर बड़े भारी डील डौल के थे और दर्प तथा बल में सिंह और शार्दूल के समान थे।
शिलाप्रहरणाः सर्वे सर्वे पादपयोधिनः। नखदंष्ट्रायुधाः सर्वे सर्वे सर्वास्त्रकोविदाः॥२४॥
सब के सब शिलाओं, पर्वतो, नखों और दांतों से प्रहार करने वाले तथा सब अस्त्रों के चलाने में पण्डित थे।
विचालयेयुः शैलैन्द्रानभेदयेयुः स्थिरान्द्रुमान्। क्षोभयेयुश्च वेगेन समुद्रं सरितां पतिम्॥२५॥
ये लोग बड़े बड़े पर्वतो को हिला देने वाले, बड़े बड़े जमें हुए पेड़ों को उखाड़ देने वाले और अपने वेग से समुद्र को भी विचलित करने वाले थे।
दारयेयुः क्षितिं पद्मयामाल्पवेयुर्महार्णवम्। नभस्थलं विशेयुश्च गृह्णीयुरपि तोयदान्॥२६॥
ये अपने पैर के प्रहार से पृथिवी को फोड़ने वाले, समुद्र के पार जाने वाले, आकाश में उड़ने वाले और बादलों को भी पकड़ने वाले थे।
गृह्णीयुरपि मातङ्गान्मत्तान्प्रब्रजतो बने। नर्दमानाश्च नादेन पातयेयुर्विहङ्गमान्॥२७॥
ये वानर जंगलों में घूमने वाले, मदमस्त हाथियों को पकड़ने वाले और किलकारी मारकर आकाश मे उड़ने वाले पक्षियों को गिराने की सामर्थ्य रखने वाले थे।
02/12/19, 10:50 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-८ श्लोक ३३,३४
मिश्रं पथ्यमपथ्यं च भुक्तम् शमशनं मतम्॥३३॥
विद्यादध्यशनं भूयो भुक्तस्योपरिभोजनम्। अकाले बहु चाल्पं वा भुक्तं तु विषमाशनम्॥३४॥
त्रीण्यप्येतानि मृत्युं वा घोरान् व्याधीन् सृजन्ति वा।
समशन आदि के लक्षण- पथ्य (हितकर) तथा अपथ्य (अहितकर) प्रकार के भोजनों को मिलाकर जो खाया जाता है, उसे “समशन” कहते हैं। अभी भोजन किया है, वह पचा नहीं, तब तक जो पुनः भोजन कर लिया जाता है उसे “अध्यशन” कहते हैं। असमय मे अधिक या थोड़ा जो भोजन किया जाता है, उसे “विषमासन” कहते हैं।ये तीनों प्रकार के अशन घोर (कष्टकारक) रोगों को उत्पन्न कर देते है अथवा मृत्युकारक होते हैं।
वक्तव्य- चरक विमानस्थान १/२५ में निर्दिष्ट विधियों के विपरीत ये तीनों अशन है, अतएव ये हानिकारक होते है। ‘समशन’ शब्द उक्त अर्थ में आयुर्वेद ने स्वीकार किया है। अन्यत्र इसका अर्थ— ‘ सम्यक् अशन भी हो सकता है। आहार जीवन को धारण करने वाले उपस्तम्भों में सर्वप्रथम है, अतः इसका विधिवत सेवन करना ही चाहिए। उक्त तीनों प्रकार के अशन आहार की विकृतियां है। सुश्रुत में आहार विधि का उत्तम वर्णन किया है। आप भी देखें, पढ़े तथा इसे व्यवहार में लाये— सु.सू. ४६/४४६ से ४९५ तक और देखें— अ.सं.सू. ११/६३।
02/12/19, 11:09 pm – Vaidya Ashish Kumar: 🌹🌹🌹👌🏻👌🏻👌🏻
02/12/19, 11:14 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: This message was deleted
02/12/19, 11:17 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: #श्री गणेशाय नमः#
सुगम ज्योतिष प्रवेशिका
प्रथम भाग – जातक विचार
चौथा प्रकरण
ग्रह और राशि – परिचय
पुरुष और स्त्री राशि तथा ग्रह – मेष, मिथुन, सिंह, तुला, धनु और कुंभ पुरुष राशि हैं। वृषभ, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर तथा मीन स्त्री राशि हैं। सूर्य, मंगल, बृहस्पति पुरुष ग्रह हैं। चंद्रमा तथा शुक्र स्त्री ग्रह हैं। बुद्ध पुरुष-नपुंसक है। शनि स्त्री-नपुंसक है।
उच्च, नीच स्वराशि-चक्र – सूर्य आदि ग्रहों का उच्च नीच स्वराज तथा मूल त्रिकोण राशि चक्र नीचे दिया जाता हैः
ग्रह स्वराशि उच्च नीच मूल
राशि राशि त्रिकोण
सूर्य ५¤ १ ७ ५¤
चंद्र ४ २¤ ८ २¤
मंगल ¤१,८ १० ४ १¤
बुध ३,६¤ ६ १२ ६¤
बृहस्पति¤९,१२ ४ १० ९¤
शुक्र २,७¤ १२ ६ ७¤
शनि १०,११¤ ७ १ ११¤
सिंह राशि में २० अंश तक सूर्य का मूल त्रिकोण और उसके बाद ३० अंश तक स्वराशि। वृषभ में ३ अंश तक चन्द्रमा का उच्च, उसके बाद मूलत्रिकोण। मंगल का मेष राशि में १२ अंश तक मूलत्रिकोण बाकी स्वराशि। बुध का कन्या में १५ अंश तक उच्च, उसके बाद २० अंश तक (१५-२०) मूल त्रिकोण, शेष अंशो में स्वराशि। बृहस्पति का धनु में १० अंश तक मूल त्रिकोण, उसके बाद स्वाराशि। शुक्र का तुला राशि में ५ अंश तक मूल त्रिकोण, उसके बाद स्वराशि। कुंभ में २० अंक तक शनि का मूल त्रिकोण बाकी स्वराशि।
*नोट – पाठक देखेंगे कि ग्रहों की जो मूल त्रिकोण राशि है वे प्रायः वही हैं, जो उन ग्रहों की उच्च राशि या स्वराशियाँ हैं। ऐसी राशियों पर ऊपर तारे का चिन्ह ¤ लगा दिया गया है। तब यह कैसे मालूम हो कि अमुक ग्रह स्वराशि में समझा जावे या मूल त्रिकोण राशि में? यह ऊपर समझाया गया है।
*टिप्पणी – १ का अर्थ मेष, २ का वृषभ, ३ का मिथुन, ४ का कर्क, इस प्रकार क्रमशः १२ का अर्थ मीन समझना चाहिए। ज्योतिष की यही परिपाटी है।*
02/12/19, 11:20 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: कृपया लैंडस्केप में पढ़ें
03/12/19, 12:28 am – +91 : मुझे भूत प्रेत के बारे में जानने की प्रबल इच्छा है, यूट्यूब पर बहुत वीडियो देख लिए लेकिन नतीजा कुछ नहीं, कृपया यहाँ कोई मेरी मदद कर सकता है? बहुत कृपा होगी🙏💜
03/12/19, 5:15 am – Hts Sandeep Seksariya: Ye kuch bhi nahi hota. Ye dhongi baba type ke logo ne paise banane ke liye kuch samaj main confusion phela rakha hai .
03/12/19, 5:32 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: कृपया किसी पोस्ट से इतर कोई प्रश्न न पूछें, अगर कोई प्रश्न पूछना है तो अलग से किसी से पूछ लें परन्तु ग्रुप में नहीं। ग्रुप में केवल किसी पोस्ट से संबंधित प्रश्न ही मान्य हैं । 🙏🏼
03/12/19, 5:35 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👍🏼
03/12/19, 5:43 am – +91 : नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमो
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः।
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमो
नमः सर्वस्मै ते तदिदमिति सर्वाय च नमः।।
हे अति निकट वर्ती और एकान्त ( निर्जन) वन विहार के प्रेमी!
आप को प्रणाम है;
अति दूरवर्ती आप को प्रणाम है।
हे कामारि!
अति लघु;( सूक्ष्म रूप धारी) आप को प्रणाम है।
हे त्रिनेत्र! वृद्धतम आप को नमस्कार है;
अत्यंत युवक आप को प्रणाम है।
सर्व स्वरूप आप को नमस्कार है;
परोक्ष, प्रत्यक्ष पद से परे अनिर्वचनीय सब के अधिष्ठान स्वरूप आप को नमस्कार है।।29।।
03/12/19, 6:28 am – +91 : 👌👌🙏🙏🙏
03/12/19, 9:13 am – Shastra Gyan Maniah Patiala: द्वितीय आहिक(खण्ड) में पहले वाद, जल्प और वितण्डा के लक्षण बतलाये गये है। फिर हेत्वाभास के प्रभेद दिये गये है। तब त्रिविध छल के लक्षण कहे गये है। अंत में जाति और निग्रहस्थान की परिभाषा की गई है ।
(२) द्वितीयअध्याय
इसमें निम्नलिखित विषय है- संशय सम्बन्धी पूर्व पक्ष और उसका समाधान – प्रमाणचतुष्टय सम्बन्धी पूर्व पक्ष और अंतिम सिद्धान्त– प्रत्यक्ष के लक्षण में आक्षेप और उसका परिहार अनुमान और उपमान के विषय में शंका और उनका समाधान – शब्द प्रमाण पर आक्षेप और उसका निराकरण , शब्द का अनित्यत्व-साधन-व्यक्ति प्रकृति और जाति का लक्षण ।
(३) तृतीय अध्याय
इसमें मुख्यतः: ये विषय है- आत्मा आदि द्वादश प्रमेयों की परीक्षा– इन्द्रिय चैतन्यवाद, शरीरात्मवाद प्रभृति नास्तिक मतों का खंडन आत्मा का नित्यत्व– प्रतिपादन-इन्द्रिय और विषय का भौतिकत्व – बुद्धि और मन की परीक्षा।
(४) चतुर्थ अध्याय
इसमें प्रवृत्ति और दोष की व्याख्या- जन्मान्तर के सम्बन्ध में सिद्धान्त- दुःख और अपवर्ग की समीक्षा- अवयव और अवयवी का सम्बन्ध-आदि विषय वर्णित है।
03/12/19, 9:56 am – FB Piyush Khare Hamirpur: 😂😂😂😂😂😂😂😂😂😂😂😂😂😂😂🤣🤣🤣🤣🤣🤣🤣🤣
03/12/19, 10:27 am – FB Piyush Khare Hamirpur: भूत पिशाच निकट नही आवे, महावीर जब नाम सुनावै,
It’s clearly mentioned in Hanuman Chalisa, you are denying. @918010855550 pls elaborate such kind of topic, pls enlighten people 🙏🏻If here is God there is Demon too.
03/12/19, 10:35 am – Abhinandan Sharma: पीयूष जी, पहली बात तो ये कि ग्रुप में इस प्रकार के प्रश्न, जो सन्दर्भ से हटकर हों, उनको इग्नोर किया जाता है क्योंकि यदि एक को जवाब दिया तो फिर सभी के पास अपने अपने प्रश्न हैं | 250 लोगों ने प्रश्न पूछा तो ग्रुप पर खिचड़ी पक जायेगी | ग्रुप का उद्देश्य प्रभावित होगा | अतः आपसे निवेदन है कि आप अलग से ये प्रश्न पूछें | जो भी संभव उत्तर होगा, देने का प्रयास करूँगा |
03/12/19, 11:03 am – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: ।।पंचतंत्र।।
प्रथम तन्त्र
मित्रभेद (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
कथा क्रम : एक
प्रभुप्रसादजं वित्तं सुप्राप्तं यो निवेदयेत् ।
वस्त्राद्यं च दधात्यङ्गे स भवेद्राजवल्लभः ।।
स्वामी द्वारा पुरस्कार के रूप में दिये पदार्थों पर प्रसन्न होने वाला तथा स्वामी द्वारा दिये गये वस्त्राभूषणों आदि को मुख्य अवसरों पर धारण करने वाला सेवक स्वामी के हृदय को जीत लेता है।
अन्तःपुरचरैः सार्द्धं यो न मन्त्रं समाचरेत् ।
न कलत्रैर्नरेन्द्रस्य स भवेद्राजवल्लभः ।।
अन्तःपुर के कर्मचारियों तथा राजमहिषियों से दूर रहने वाला तथा उनके प्रति आसक्ति न रखने वाला सेवक स्वामी का प्रिय बन जाता है।
द्यूतं यो यमदूताभं हालां हालाहलोपमाम् ।
पश्येद्दारान्वृथाकारान्स भवेद्राजवल्लभः ।।
जुए को यमदूत के समान, शराब को विष के समान और सुन्दर स्त्रियों को श्मशान की मटकियों के समान मानते हुए उनसे दूर रहने वाला सेवक ही राजा को प्रिय होता है।
युद्धकालेऽग्रतो यः स्यात्सदा पृष्ठानुगः पुरे ।
प्रभोर्द्वाराश्रितो हर्म्ये स भवेद्राजवल्लभः ।।
शान्ति के समय सदा राजा के पीछे-पीछे चलने वाला, महल के द्वार पर सदा उपस्थित रहने वाला तथा संकट के समय सदा आगे रहने वाला सेवक ही स्वामी को प्रिय होता है
सम्मतोऽहं विभोर्नित्यमिति मत्वा व्यतिक्रमेत् ।
कृच्छ्रेष्वपि न मर्यादां स भवेद्राजवल्लभः ।।
राजा का कृपापात्र बनकर कठिन परिस्थितियों में भी अपने कर्तव्य का निर्वाह करने वाला और अपनी मर्यादा का त्याग न करने वाला सेवक ही स्वामी को प्रिय होता है।
द्वेषिद्वेषपरो नित्यमिष्टानामिष्टकर्मकृत् ।
यो नरो नरनाथस्य स भवेद्राजवल्लभः ।।
स्वामी के शत्रुओं से दूर रहने वाला तथा उसके इष्टजनों की सेवा करने वाला सेवक ही स्वामी को प्रिय लगता है।
प्रोक्तः प्रत्युत्तरं नाहं विरुद्धं प्रभुणा च यः ।
न समीपे इसत्युच्चैः स भवेद्राजवल्लभः ।।
स्वामी के विरुद्ध कभी अपना मुंह न खोलने वाला तथा उसके सामने न हंसने वाला सेवक ही स्वामी को प्रिय लगता है।
यो रणं शरणं तद्वन्मन्यते भयवर्जितः ।
प्रवासं स्वपुरावासं स भवेद्राजवल्लभः ।।
युद्धभूमि को अपना घर तथा परदेस को अपना देश समझने वाला और स्वामी के हित को प्राथमिकता देने वाला सेवक भी स्वामी को प्रिय लगता है।
न कुर्य्यान्नरनाथस्य योषिद्भिः सह सङ्गतिम् ।
न निन्दां न विवादं च स भवेद्राजवल्लभः ।।
किसी भी व्यक्ति के सामने राजा की निन्दा न करने वाला, राजा से कभी विवाद न करने वाला तथा राजा की प्रेमिकाओं से लगाव न रखने वाला सेवक ही स्वामी का प्रिय हो सकता है।
दमनक के यह कहने पर करटक को विश्वास हो गया कि दमनक राजनीति में निपुण है।
फिर उसने पूछा—तुम राजा से किस प्रकार सम्पर्क बनाओगे? मुझे बताओ।
उत्तरादुत्तरं वाक्यं वदतां सम्प्रजायते ।
सुवृष्टिगुणसम्पन्नाद्बीजाद्बीजमिवापरम् ।।
दमनक ने कहा—इस बारे में सोच-विचार करने की क्या आवश्यकता है? जिस प्रकार धरती में पड़ा बीज वर्षा हो जाने पर फलने लगता है, उसी प्रकार मिलने पर बातचीत भी होने लगती है। मैं तुम्हें बता चुका हूं कि मैं बचपन में ही राजनीति की शिक्षा प्राप्त कर चुका हूं, अतः मैं अवसर देखकर ही बात छेड़ूंगा। मैं जानता हूं
03/12/19, 2:02 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: (५) पंचम अध्याय
इसमें प्रथम आह्निक में जाति के चौबीस प्रभेद समझाये गये हैं । द्वितीय आह्निक में *बाईस प्रकार के *निग्रह-स्थान* बतलाये गये हैं। इस तरह यह सूत्र ग्रन्थ समाप्त हुआ है।
न्याय-दर्शन का क्रमिक विकास
न्यायसूत्र पर वात्स्यायन कृत प्रसिद्ध, प्राचीन, और प्रामाणिक भाष्य है । वात्स्यायन दाक्षिणात्य ब्राह्मण थे । इनका दूसरा नाम पक्षिल स्वामी भी मिलता है। वात्स्यायन-भाष्य देखने से पता चलता है कि उसकी रचना न्यायसूत्र के बहुत पीछे हुई है। दोनों में कई शताब्दियों का व्यवधान है। वात्स्यायन गौतम को बहुत ही प्राचीन मुनि समझते है । किसी-किसी सूत्र पर उन्होंने दो-दो प्रकार के वैकल्पिक अर्थ दिये है। इससे सूचित होता है कि वात्स्यायन के बहुत पहले से न्यायसूत्र की पठन-पाठन-परम्परा चली आती थी, और कतिपय सूत्रों के भिन्न-भिन्न अर्थ भी प्रचलित थे।
वात्स्यायन-भाष्य में स्थान-स्थान पर सूत्रों की व्याख्या में श्लोकबद्ध सिद्धान्त भी पाये जाते है। यह लक्षण वार्तिक ग्रन्थों का है। इससे जान पड़ता है कि वात्स्यायन के पूर्व से ही गौतमीय न्याय पर वाद-विवाद की परिपाटी प्रचलित थी, और विवादास्पद विषयों पर आचार्यों ने अपने अपने सिद्धान्त स्थिर किये थे जिनका उद्धरण भाष्य में पाया जाता है।
वात्स्यायन ने अपने भाष्य में पतंजलि के महाभाष्य तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र से भी उद्धरण दिये है। इन्होंने जगह-जगह पर बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन के आक्षेपो का भी उत्तर दिया है। इससे जान पडता है कि भाष्य की रचना नागार्जुन के बाद हुई है। और भाष्य में बौद्धमत का जो खणडन किया गया है उसका प्रत्युत्तर दिङ्नाग आचार्य ने दिया है। इससे सूचित होता है कि वात्स्यायन नागार्जुन से पीछे दिङ्नाग आचार्य से पहले हुए थे । नागार्जुन का समय प्रायः ३०० ई और दिनागाचार्य का समय ५०० ई० के लगभग माना जाता है। इसलिए अधिकतर विद्वान वात्स्यायन-भाष्य का रचना-काल ४०० ई० के आसपास कायम करते हैं
03/12/19, 3:44 pm – Abhinandan Sharma: 🙏 आपके अथक प्रयास के लिए धन्यवाद |
03/12/19, 7:31 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: 🙏🙏
03/12/19, 8:21 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: This message was deleted
03/12/19, 8:21 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
श्री मनुस्मृति
तृतीय अध्याय
अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यं उपतिष्ठते ।
आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः । । ३.७६[६६ं] । ।
यथा वायुं समाश्रित्य वर्तन्ते सर्वजन्तवः ।
तथा गृहस्थं आश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमाः । । ३.७७[६७ं] । ।
यस्मात्त्रयोऽप्याश्रमिणो ज्ञानेनान्नेन चान्वहम् ।
गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्ज्येष्ठाश्रमो गृही । । ३.७८[६८ं] । ।
स संधार्यः प्रयत्नेन स्वर्गं अक्षयं इच्छता ।
सुखं चेहेच्छतात्यन्तं योऽधार्यो दुर्बलेन्द्रियैः । । ३.७९[६९ं] । ।
ऋषयः पितरो देवा भूतान्यतिथयस्तथा ।
आशासते कुटुम्बिभ्यस्तेभ्यः कार्यं विजानता । । ३.८०[७०ं] । ।
स्वाध्यायेनार्चयेत र्षीन्होमैर्देवान्यथाविधि ।
पितॄञ् श्राद्धैश्च नॄनन्नैर्भूतानि बलिकर्मणा । । ३.८१[७१ं] । ।
कुर्यादहरहः श्राद्धं अन्नाद्येनोदकेन वा ।
पयोमूलफलैर्वापि पितृभ्यः प्रीतिं आवहन् । । ३.८२[७२ं] । ।
एकं अप्याशयेद्विप्रं पित्रर्थे पाञ्चयज्ञिके ।
न चैवात्राशयेत्किं चिद्वैश्वदेवं प्रति द्विजम् । । ३.८३[७३ं] । ।
अर्थ
क्योंकि अग्नि में आहुति देने से सूर्य को मिलती है,सूर्य के कारण वर्षा होती है, वर्षा से अन्न व अन्न से प्रजा का पालन होता है।जैसे सब प्राणी प्राणवायु के सहारे जीते हैं वैसे ही सभी आश्रम गृहस्थ के सहारे रहते हैं।तीनों आश्रमों को विद्या व अन्न दान से गृहस्थ ही धारण करता है इसलिए सब आश्रम से गृहस्थ आश्रम वाला ही बड़ा है।।
इस लोक और परलोक में सुख चाहनेवालों को गृहस्थआश्रम का धारण सावधानी से करना चाहिये क्योंकि ऋषी, पितर, देवता, प्राणी और अतिथि सभी गृहस्थों से आशा रखते हैं।
वेदाध्ययन से ऋषियों का,होम से देवताओं का श्राद्ध से पितरों का,अन्न से मनुष्यों का व बलि से भूत जीवों का सत्कार करे। गृहस्थ को पितरों की प्रसन्नता के लिए जल तिल, यव आदि अन्नो से या दूध कन्द,फलों से नित्य श्राद्ध करना चाहिए।पंचमहायज्ञों में पित्रयज्ञ के लिए एक ब्राह्मण को भी भोजन देना भी कॉफी है।लेकिन वैश्व देव में सामर्थ्य ना हो तो ना भोजन दे पर एक ब्राह्मण को नहीं खिलाना चाहिए।।
हरी ॐ
03/12/19, 10:27 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: रामायण बालकाण्ड – सप्तदश सर्ग श्लोक २८,२९,३०,३१,३२
ईद्दशानां प्रसूतानि हरीणां कामरूपिणाम्। शतं शयसहस्त्राणि यूथपानां महात्मनां॥२८॥
इस प्रकार कामरूपी वानरों की उत्पत्ति हुई। वे ऐसे महाबली लाखों के यूथो के यूथपति हुए।
ते प्रधानेषू यूथेषु हरीणां हरियूथपाः। बभूवुर्यूथपश्रेष्ठा वीरांश्चाजनयन्हरीन्॥२९॥
इन प्रधान यूथपो से अनेकों वीर यूथपश्रेष्ठ वानर उत्पन्न हुए।
अन्ये ऋक्षंवतः प्रस्थानुपतस्थुः सहस्त्रशः। अन्ये नानाविधाञ्शैलान्भेजिरे काननानि च॥३०॥
इनमें से हज़ारों ऋक्षवान् पर्वत के शिखरों पर और शेष वानर जगह जगह पर्वतों और वनों में बसने लगे।
सूर्यपुत्रं च सुग्रीवं शकपुत्रं च वालिनम्।भ्रातरावुपतस्थुस्ते सर्व एव हरीश्वराः॥३१॥
सूर्यपुत्र सुग्रीव और इन्द्र पुत्र बालि, इन दोनों भाइयों के पास ये सब वानर रहने लगे।
नलं नीलं हनूमन्तमन्यांश्च हरियूथपान्। ते तार्क्ष्यबलसम्पन्नाः सर्वे युद्धविशारदाः॥३२॥
और बहुतों ने नल, नील, हनुमान तथा अन्य यूथपतियों का सहारा लिया। वे सब गरूड़ के समान बलवान् और युद्ध में कुशल थे।
03/12/19, 10:33 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 2 श्लोक 55 और 56
*धर्मराज युधिष्ठिर के पास आये हुए व्यासमुनि कैसे हैं इसका वर्णन महाकवि भारवि युग्मश्लोकों द्वारा करते हैं –
*मधुरैरवशानि लम्भयन्नपि तिर्यञ्चि शमं निरीक्षितैः ।*
परितः पटु बिभ्रदेनसां दहनं धाम विलोकनक्षमं ।। २.५५ ।।
सहसोपगतः सविस्मयं तपसां सूतिरसूतिरेनसां ।
ददृशे जगतीभुजा मुनिः स वपुष्मानिव पुण्यसंचयः ।। २.५६ ।।
वियोगिनी
अर्थ: अपने शान्तिपूर्ण दृष्टिनिक्षेप से प्रतिकूल स्वभाव वाले पशु-पक्षियों को भी शान्ति दिलाते हुए, चारों ओर से उज्जवल तथा देखने योग्य तेज को धारण करने वाले, अकस्मात् आये हुए तपस्या के मूल कारण तथा आपत्तियों के निवारणकर्ता उन भगवान् वेदव्यास को मानो शरीरधारी पुण्यपुञ्ज की भांति राजा युधिष्ठिर ने बड़े विस्मय के साथ देखा ।
द्वितीय श्लोक में उत्प्रेक्षा अलङ्कार
*युग्मश्लोक – जहाँ दो श्लोकों का एकत्र अन्वय कर अर्थ पूर्ण होता है ।
03/12/19, 11:39 pm – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur: सब बड़ा कल्पनिक व अविश्वसनीय लगता हैं
03/12/19, 11:45 pm – Shastra Gyan Ruma Verma Lucknow: Inputs plz
03/12/19, 11:46 pm – Shastra Gyan Ruma Verma Lucknow:
03/12/19, 11:46 pm – Shastra Gyan Ruma Verma Lucknow: कैसा है ?
04/12/19, 5:42 am – +91 : बहुल रजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः
प्रबल तमसे तत्संहारे हराय नमो नमः।
जन सुख कृते सत्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः।।
विश्व की सृष्टि के लिए रजोगुण की अधिकता धारण करने वाले ब्रह्मा रूप धारी ( आप को) बारम्बार नमस्कार है ।
विश्व के संहार के लिए तमोगुण की अधिकता धारण करने वाले हर(रूद्र) रूप धारी आप को बारम्बार नमस्कार है ।
समस्त जीवों के सुख (पालन) के लिए सत्व गुण की अधिकता धारण करने वाले विष्णु रूप धारी आप को बारम्बार नमस्कार है ।
स्वयं प्रकाश मोक्ष के लिए त्रिगुणातीत,
समस्त द्वैत से रहित मंगलमय अद्वैत (आप) शिव को बार-बार नमस्कार है ।।30।।
04/12/19, 6:38 am – Abhinandan Sharma: अच्छा है ।
04/12/19, 6:38 am – Abhinandan Sharma: 👏👏
04/12/19, 7:40 am – Abhinandan Sharma: वाह, बहुत सुंदर ।
04/12/19, 7:58 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙏🏼🙏🏼
04/12/19, 8:27 am – Abhinandan Sharma: अंतिम पंक्ति समझ ना आई ।
04/12/19, 10:05 am – Abhinandan Sharma: 🙏
04/12/19, 12:37 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: शायद 1 से अधिक ब्राह्मण का तात्पर्य है
04/12/19, 12:42 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: वात्स्यायन के अनन्तर जो सबसे महत्वपूर्ण न्याय ग्रन्थ प्रणीत हुआ, वह उद्योतकर का न्यायवार्तिक है। भाष्य पर दिङ्नाग आचार्य ने जो आक्षेप किये थे उनका वार्तिककार ने अच्छी तरह निराकरण किया है।
बौद्धों और नैयायिकों के विवाद का इतिहास बड़ा ही मनोरंजक है। गौतम ने न्यायसूत्र की रचना की। बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन (३०० ई०) ने उसमें दोष निकाले । वात्स्यायन (४०० ई०) ने अपने भाष्य में उन दोषों का उद्धार किया । दिङनागाचार्य (५०० ई०) ने वात्स्यायन की भूले दिखलाई । उद्योतकर (६०० ई०) ने अपने वार्तिक में उनका जवाब दिया। धर्मकीर्ति (७०० ई०) ने अपने न्यायबिन्दु नामक ग्रन्थ में वार्तिककार का प्रत्युत्तर किया । धर्मोत्तर ने न्यायविन्दु पर टीका की रचना कर दिङ्नाग और धर्मकीर्ति का समर्थन किया। तब उद्भट विद्वान् वाचस्पति मिश्र (८०० ई०) ने न्याय वार्तिक-तात्पर्य-टीका की रचना कर बौद्ध आक्षेपो का खंडन करते हुए न्याय वार्तिक का उद्धार किया। जैसा ये स्वयं कहते है __
इच्छामि किमपि पुण्यं दुस्तरकुनिबन्धकमग्नानाम् । उद्योतकरगवीनामतिजरतीनां समुद्धरणात् ।
वाचस्पति मिश्र अद्वितीय विद्वान थे । इनका जन्म मिथिला-प्रान्त के एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण-वंश में हुआ था| ये अपूर्व प्रतिभाशाली थे। इनकी प्रगति सभी शास्त्रों में समान रूप से थी। प्रायः ऐसा कोई दर्शन नहीं जिसपर इन्होंने भाष्य अथवा टीका की रचना नहीं की हो। और जिस विषय को इन्होंने लिया है उसीमें अपने प्रकाण्ड पाण्डित्य का परिचय दिया है।
सांख्य पर उनकी सांख्यत्वकौमुदी देखिये तो मालूम होगा कि ये सांख्यमत के कट्टर समर्थक है । वेदान्त पर इनकी भामती टीका पढ़िये तो ज्ञात होगा कि ये घोर वेदान्ती है । और न्याय पर इनकी तात्पर्यटीका देखिये तो जान पड़ेगा कि ये प्रचंड नैयायिक हैं ।
04/12/19, 2:04 pm – Abhinandan Sharma: ये देखिये, बौद्धों ने, ३०० ई से 800 ई तक सनातन धर्म पर आक्षेप लगाये और हमारे विद्वानों ने और पीढ़ियों ने, अपना पूरा जीवन लगा कर, शास्त्रों को व्याख्यायित किया और बौद्धों को तर्क में हराया | शंकराचार्य तो उसमें आखिरी कील थे लेकिन ये सैकड़ों वर्षों के बौद्धिक युद्ध का परिणाम था | ऐसे ही आज भी जो, धर्म के ऊपर तथ्यविहीन आक्षेप लगते हैं, धर्म के बारे में जो, भ्रम फैलाया जा रहा है | उसकी एक ही काट है – अपने ही शास्त्रों का अध्ययन | उन्हीं का अध्ययन करके, ऐसे धर्म के आरोपों और आक्षेपों का प्रयुत्तर देना | वो भी ऐसा, जिसकी कोई काट न हो | यही वजह है कि हम असल ग्रन्थ पढ़ रहे हैं | यही वो कुंजी है, जो धर्म को बचाएगी | जब हमारे पूर्वजों ने पूरी जिन्दगी लगा दी, तो हमारा कुछ तो कॉन्ट्रिब्यूशन होना ही चाहिए | हम भी अपने पूर्वजों की अमर संताने हैं |
04/12/19, 2:11 pm – +91 : आपने दिल की बात कह दी।वास्तव में आज इसी की आवश्यकता है।
04/12/19, 2:27 pm – Shastra Gyan Ranjana Prakash: 😄
04/12/19, 2:31 pm – Shastra Gyan Ranjana Prakash: This message was deleted
04/12/19, 2:31 pm – Shastra Gyan Ranjana Prakash: 😊
04/12/19, 3:27 pm – Shastra Gyan Suresh Jhajjar: 💯✔
लेकिन आजकल का नवबौद्ध न बौद्ध की मानते हैं न अम्बेडकर की। आँख कान बन्द करके पेरियार का अनुसरण कर रहे हैं । तर्क उसके साथ किया जाता है जो तर्क करने के लिए तैयार हो । फिर भी सैकड़ो सनातनी लगे हैं आपकी तरह प्रयास करने में जिसका फल अवश्य मिलेगा । कर्म पर हमारा अधिकार है और वो हम सभी को करना है बाकि अघोरी बाबा सीखा देगा तेरा ध्यान किधर है?🙂
नवबौद्धों को जवाब देने के लिए डॉ त्रिभुवन सिंह की लिखी पुस्तक तथ्यों के आलोक में डॉ अम्बेडकर -शुद्र कौन थे -अवलोकन और समीक्षा का अध्ययन अवश्य करना चाहिए ।
🙏🚩
04/12/19, 4:03 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: ✔✔
04/12/19, 4:06 pm – Abhinandan Sharma: असहमत ! तर्क इसीलिए आवश्यक है क्योंकि आपकी सोच तार्किक बने ! न कि किसी को तर्क से हारने मात्र में ! शास्त्रार्थ अब पुराने जमाने की चीज है लेकिन जब आप बोलेन तो लगे कि कोई बोल रहा है | आपकी बातों में तर्क ऐसे हों, जो अकाट्य हों | कोई शास्त्रार्थ करने आये या न आये | चाहे वो आंबेडकर को माने या पेरियार को, क्या फर्क पड़ता है | जब तार्किक बात होगी, तो आपको सुना जाएगा, चाहे कोई भी हो, किसी को भी मानने वाला हो | पहली शर्त ये है कि आप तार्किक बनें | किसी को, किसी के, मानने भर से रिजेक्ट करना बंद कीजिये | संवाद कीजिये, बात कीजिये, चर्चा कीजिये, तर्क कीजिये, अकाट्य तर्क | ये सब हमारे पढने के लिए पहले है, बाद में दूसरों के लिए है और अब शास्त्रार्थ के लिए तो कदापि नहीं है |
04/12/19, 4:49 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: इसलिये ये षड्दर्शनवनल्लभ या सर्वतन्त्रस्वतंत्र नाम से विख्यात है । इनकी स्त्री का नाम भामती था । इन्हीं के नाम पर उन्होंने ब्रह्मसूत्र पर भामती नामक टीका की रचना की है। स्थान-स्थान पर उन्होंने अपने गुरु त्रिलोचन का भी नामोल्लेख किया है।
वाचस्पति मिश्र का जन्म नवीं शताब्दी में हुआ था। बौद्धों के प्रबल आक्रमण से न्यायशास्त्र का उद्धार करना इन्हीं ने दुर्द्धर्ष महारथी का काम था । न्याय-साहित्य में इनकी तात्पर्यटीका का बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसी कारण ये तात्पर्याचार्य कहे जाते है । न्याय दर्शन पर इनकी दो और कृतियाँ मिलती है (१)- न्यायसूत्र उद्धार और (२) न्यायसूची-निबन्ध । ये दोनों ग्रन्थ भी बहुत उपयोगी हैं। न्याय सूची निबंध के अन्त में प्रन्थ का रचना-काल यों वर्णित है।
इसके अनुसार ग्रन्थप्रणयन काल ८६८ संवत् निकलता है । इस से वाचस्पति मिश्र के समय के विषय में सन्देह नही रह जाता।
वाचस्पति मिश्र के बाद न्याय के आकाश में एक और जाज्वल्यमान नक्षत्र का उदय हुआ। ये थे उदयनाचार्य । ये न्यायाचार्य नाम से भी प्रख्यात है। इन्होंने न्याय-साहित्य के भंडार को अपने अनुपम रत्नों से परिपूर्ण कर दिया है । नीचे इनकी प्रसिद्ध कृतियों के नाम दिये जाते है-
(१) तात्पर्यपरिशुद्धि-इसमें वाचस्पति कृत तात्पर्यटीका के कठिन अंशो की सूक्ष्म व्याख्या है । पंडित-मंडली में इसका बड़ा आदर है
(२) न्यायकुसुमाञ्जलि-इसमें चमत्कृत युक्तियों के द्वारा ईश्वर का अस्तित्व प्रमाणित किया गया है। ईश्वरवाद का यह सबसे प्रसिद्ध और और सुन्दर ग्रन्थ समझा जाता है । नास्तिक बौद्धों के कुतर्कों का मुंहतोड़ जवाब देते हुए उदयनाचार्य ने अनीश्वरवादियों से ईश्वर की रक्षा की है। इस विषय में उनकी गर्वोक्ति सुनने लायक है-
” ऐश्वर्यमदमत्तोऽसि मामवज्ञाय वर्त्तसे
उपस्थितेषु बौद्धेषु मदधीना तव स्थिति: ।”
ये ईश्वर को संबोधित कर कहते है -‘ तुम अपने घमंड में फूले बैंठे हो। मेरी परवा क्यों करने लगे ? पर इतना जान रक्खो कि नास्तिक बौद्धों के बीच तुम्हारा अस्तित्व मेरे ही ऊपर निर्भर है ।”
( ३ ) आत्मतन्वविवेक– इसमे आत्मा के अस्तित्व का युक्तिपूर्ण प्रतिपादन किया गया है। आर्य कीर्ति प्रभृति अनात्मवादी बौद्धों के मत की इसमे भरपूर खिल्ली उड़ाई गई है। इसलिये यह ग्रन्थ बौद्धधिकार नाम से भी प्रसिद्ध है ।
04/12/19, 4:57 pm – Abhinandan Sharma: देखिये, कैसे उद्भट विद्वान् हमारे देश में हुए हैं ! लोग कहते हैं, ईश्वर के होने का क्या प्रमाण है जबकि यहाँ के विद्वानों ने नास्तिकों (बौद्धों) को भी मनवा दिया कि ईश्वर और आत्मा होती है | यदि ग्रुप में से कोई न्याय कुसुमांजलि और आत्मतंवविवेक को पढने का इच्छुक हो, तो आगे आये |
04/12/19, 5:00 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: न्याय कुसुमांजलि मुझे भेज दे में तैयार हूं।🙏🙏
04/12/19, 5:03 pm – Shastragyam Bhavsar Prakash Maliwal: जी हम इच्छुक हैं 🙏🏻🙏🏻
04/12/19, 5:07 pm – Abhinandan Sharma: मेरे पास नहीं है | आप ही को ढूढनी पड़ेगी |
04/12/19, 5:07 pm – Abhinandan Sharma: सुधाकर जी से मदद ले सकते हैं |
04/12/19, 8:28 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: Sir Add please
Prince Sharma 6388473238
04/12/19, 8:28 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: Rohit Pal
7565980071 sir add
04/12/19, 8:29 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: 🙏🙏🙏🙏🙏
04/12/19, 8:30 pm – Abhinandan Sharma: Only 1 place is there
04/12/19, 8:31 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: Sir please add this person
04/12/19, 8:39 pm – Shastra Gyan Suresh Jhajjar: 🙏🚩🏹
04/12/19, 8:39 pm – +91 : इस ग्रुप में सभी भाइयों को रोहित कुमार का प्रणाम
04/12/19, 11:12 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: This message was deleted
04/12/19, 11:13 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: रामायण बालकाण्ड – सप्तदश सर्ग श्लोक ३३,३४,३५
विचरन्तोर्ऽदयन्दर्पात्सिंहव्याघ्रमहोरगान्। तांश्च सर्वान्महाबाहुर्बाली विपुलविक्रमः॥३३॥
जुगोप भुजवीर्येण ऋक्षगोपुच्छवानरान्। तैरियं पृथिवी शूरैः सपर्वतवनार्णवा। कीर्णा विविधसंस्थानैर्नानावयञ्जनलक्षणैः॥३४॥
वे सब वानर घूमते हुए सिंह, व्याघ्र और सांपों को भी मर्दन करने लगे। महाबली और महाबाहु बालि अपने विपुल विक्रम और अपनी भुजाओं के बल से बंदर रीछ और लंगूरों का पालन करने लगा। उन शूरवीर कपियों से, जिनके विविध प्रकार के रूप रंग थे,पर्वत, वन, समुद्र और पृथिवी के अनेक स्थान परिपूर्ण हो गये।
तैमेर्घवृन्दाचलकूटकल्पैर्महाबलैर्वानरयूथपालैः। बभूव भूर्मीमशरीररूपैः समावृतारामसहायहेतोः॥३५॥
मेघो और पर्वतो के समान भीम शरीर वाले महाबली जो यूथप बंदर श्रीरामचन्द्रजी की सहायता के लिए उत्पन्न हुए थे उनसे सारी पृथिवी भर गयी।
*इति सप्तदशः सर्गः॥*
05/12/19, 5:11 am – +91 : कृशपरिणति चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं
क्व च तव गुणसीमोल्लंघिनी शश्वदृद्धिः।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्
वरद चरणयोस्ते वाक्य पुष्पोपहारम्।।
हे वरद शिव!
(अविद्या आदि) कष्टों के वशीभूत (अल्प शक्ति युक्त) कहाँ तो यह मेरा चित्त और कहाँ सम्पूर्ण गुणों की सीमा के बाहर पहुंची सदा (त्रिकाल) स्थायिनी आप की ऋद्धि( विभूति) ।(दोनों में बहुत असमानता है)।
इसी भय से ग्रस्त आपके चरणों की भक्ति ने मुझे उत्साहित कर आप के चरणों में मुझसे वाक्य रूपी पुष्पोपहार,कुसुमञ्जलि, वाक्य चय की स्तुति रूपी अञ्जलि समर्पित कराई है।।31।।
05/12/19, 5:12 am – +91 : This message was deleted
05/12/19, 5:12 am – +91 :
05/12/19, 7:59 am – +91 :
05/12/19, 9:26 am – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech:
05/12/19, 11:18 am – Abhinandan Sharma: 👏👏
05/12/19, 12:16 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: (४) किरणावली–यह प्रशस्नपाद के भाष्य (वैशेषिक ) पर पांडित्यपूर्ण टीका है।
( ५ ) न्यायपरिशिष्ट-इसमें न्याय-वैशेषिक के विविध विषयों की सूक्ष्म आलोचना की गई है। इसका दूसरा नाम ‘ प्रबोधसिद्धि भी है ।
(६ ) लक्षणावली-इसमें न्याय मतानुसार लक्षण निर्धारित किये गये है। इस ग्रन्थ के शेष मे रचना-काल इस प्रकार दिया हुआ है
तर्काम्बराङकप्रमितष्यतीतेषु शकान्ततः
वर्षषूदयनश्चक्रे सुबोधां लक्षणावलीम् ।
इसके अनुसार ६०६ शकाब्द का समय निकलता है। उदयनाचार्य मैथिल ब्राह्मण थे। दरभंगा जिले में ‘ करियन‘ नामक एक गाँव है। वहीं इनका जन्म स्थान माना जाता है। भक्ति महात्म्य नामक ग्रन्थ में इनकी प्रशंसा में यह श्लोक मिलता है
भगवानपि तत्रैव मिथिलायां जनार्दन: । श्रीमदुदयनाचार्यरूपेणावततार ह ( ३१२.३ )
दसवीं शताब्दी में न्याय के दो और प्रसिद्ध ग्रन्थकार हुए हैं (१) जयन्त भट्ट और (२) भासर्वज्ञ ।
जयन्त भट्ट ने गौतम के चुने हुए सूत्रों पर अपनी टीका की है जो न्याय मंजरी नाम से प्रसिद्ध है। न्यायमंजरी जयंत के समय में इतनी लोकप्रिय हो उठी कि जयन्त भट्ट वृत्तिकार कहलाने लगे।
भासर्वज्ञ प्रायः काश्मीरी ब्राह्मण थे। उन्होंने ‘न्यायसार’ नामक मौलिक ग्रन्थ की रचना की है। इसमें न्याय का सारभाग वर्णित है। इसकी विशेषता यह है कि लेखक ने जगह-जगह पर न्याय की प्राचीन परिपाटी का उल्लंघन कर दिया है। जैसे, न्याय अनुमोदित चार प्रमाण न मानकर इन्होंने तीन ही प्रमाण माना है और उपमान को स्वतन्त्र प्रमाण स्वीकृत नही किया है। इसी तरह इन्होंने अनध्यवसित नामक एक छठा हेत्वाभास भी माना है।
न्याय और वैशेषिक का ऐसा सम्मिश्रण होता आया है कि दोनों के साहित्य का पृथक्करण करना कठिन है। शिवादित्य की सप्तपदार्थी, वरदराज की तार्किकरक्षा, केशव मिश्र की तर्कभाषा, ये सब न्याय वैशेषिक की उभयनिष्ठ पुस्तकें है ।
05/12/19, 2:16 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: श्री मदुदयनाचार्यविरिचित:
न्यायकुसुमंजली:
श्री हरिदासविरचित विवर्त्या विभूषित:
प्रथम स्तबक:
प्रत्येक शुभ कार्यके प्रारम्भ में भगवान का स्मरण करनेसे मार्गमें आने वाली बाधाओ पर विजय प्राप्त करने की शक्ति और कार्यको निर्विघन समाप्त करनेका उत्साह प्राप्त होता है और उसके साथ ही उस कार्यको भगवदर्पण बुदिसे करनेकी भावना भी अभिव्यक्त होती है इसलिए आस्तिक समाज में प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारम्भ में भगवान का स्मरण करनेकी प्रथा प्रचलित है। ग्रन्थ-रचनाके प्रारम्भ में भी इसी कारण भगवान के स्मरण रूप मङ्गलाचरण करनेकी परम्परा रही है। यद्यपि भगवान का स्मरण मानसिक व्यापार है परन्तु शिष्य लोग भी इस प्रकार करते रहें, इसलिए शिष्य-शिक्षार्थ ग्रन्थकार उस मंगलाचरण ग्रन्थारम्भमें अंकित कर देते हैं। श्री उदयनाचार्य विरचित न्यायकुसुमाञ्जलि कारिकाओ की सरल व्याख्या प्रारम्भ करते समय प्रकृत ग्रन्थकार” श्री हरिदास भट्टाचार्य अपने आराध्यदेवका बालकृष्णके रूपमें स्मरण करते हैं। इस मङ्गल श्लोक में आये हुए विद्या शब्द मुख्य अर्थ ज्ञान है परन्तु इसके व्याख्याकार श्री कामाख्यानाथ तर्कवागीश लक्षणा से उसे वाणी का बोधक माना है। वाच्यार्थ या लच्यार्थ दोनोंकी दृष्टिले उसकी व्याख्या निम्न प्रकार होगी
05/12/19, 2:18 pm – Abhinandan Sharma: Wow !!! मुझे लगा, न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी | धन्यवाद इसे प्रारम्भ करने के लिए !
05/12/19, 2:19 pm – Abhinandan Sharma: पर आप दोनों कर पायेंगे ! क्या कोई और है, जो इसे करना चाहेगा ?
05/12/19, 2:43 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: जी निश्चित रहे🙏🙏🙏
05/12/19, 2:43 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: भव ( अर्थात् संसार का हेतु भूत मिथ्या ज्ञान वासना) कर्म और ( उनके फल रूप) जन्मके नाश( द्वारा मुक्ति प्राप्ति )के लिए ।( बाल जनोचित ) हम स्वाभाविक ज्ञान तथा अव्यक्त तोतली वाणीसे पिता तथा माताके आनन्दको धीरे-धीरे बढानेवाले किन्हीं अनिर्वचनीय( बाल कृष्ण रूप ) ग्वाल बाल को नमस्कार करते हैं ।
किसी किसी संस्करणमें ‘भवकर्मजन्मनां के स्थानपर ‘भवजन्मकर्मणां’ पाठ मिलता है । उस दशा में भव अर्थात् संसारमें जन्मके हेतुभूत जो कर्म उनके नाशके लिए ऐसा अर्थ होगा।
ब्रह्म प्रतिपादक सत् शब्द का प्रयोग रूप अपने इष्ट देवता का कीर्तन और मङ्गलाचरण करते हुए ही कारिकाकार श्री उदयनाचार्य अपने न्याय कुसुमाँजली नामक प्रकृत ] ग्रन्थ का नाम [ भी ] कहते हैं–
भगवान चरणयुगलमें समर्पित, सुन्दर खिली हुई पंखुड़ियोंसे युक्त, श्लेपफष्मादि रहित शुद्ध घाणेन्द्रियवाले सज्जनोंको [ अपनी ] सुवासकी अनुभूतिसे आल्हादित करनेवाला, [ हाथोंकी ] रगड़ लगनेपर भी न मुर्झनेवाला अमृत सदृश [ मधुर] रसको प्रवाहित करनेवाले मधु [शहद का उत्पत्तिस्थान, यह निर्दोष न्याय रूप कुसुमो का अञलि भृङ्ग के समान [ परमानन्द की प्राप्ति के लिए इतस्तत: ] घूमते हुए मेरे चित्तको विघ्न बाधा रहित ( करके सदा] आह्लादित करे।
05/12/19, 9:05 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: रामायण बालकाण्ड – अष्टदशः सर्गः श्लोक १,२,३,४,५
निर्वृत्ते तु क्रतौ तस्मिन्हयमेधे महात्मनः। प्रतिग्रह्य सुरा भागान्प्रतिजग्मुर्यथागतम्॥१॥
महाराज दशरथ का अश्वमेघ यज्ञ समाप्त होने पर देवता अपना अपना भाग लेकर अपने अपने स्थानों को चले गये।
समाप्यदीक्षानियमः पत्नीगणसमन्वितः। प्रविवेश पुरीं राजा सभृत्यवलवाहनः॥२॥
महाराज भी यज्ञदीक्षा के नियमों को समाप्त कर रानियों, सेवकों, सेना और वाहनों सहित राजधानी में चले गए।
यथार्हं पूजितास्तेन राज्ञा वै पृथिवीश्वराः। मुदिताः प्रययुर्देशान्प्रणस्य मुनिपुङ्गवम्॥३॥
बाहर से न्योते में आये हुए राजा भी यथोचित रीत्या सत्कारित हो और वशिष्ठ जी को प्रणाम कर, सहर्ष अपने अपने देशों को लौट गये।
श्रीमतां गच्छतां तेषां स्वपुराणि पुरात्ततः। बलानि राज्ञां शुभ्राणि प्रहृष्टानि चकाशिरे॥४॥
वहां से अपने नगरों को उन राजाओं के जाने पर उन राजाओं की सेनाएं नाना प्रकार के भूषण वस्त्र आदि पाकर और प्रसन्न हो, अयोध्या से अपने पुरों को विदा हुई।
गतेषु पृथवीशेषु राजा दशरथस्तदा। प्रविवेश पुरीं श्रीमान्पुरस्कृत्य द्विजोत्तमान्॥५॥
सब राजाओं के विदा हो जाने के बाद महाराज दशरथ ने श्रेष्ठ ब्राह्मणों को आगे कर पुरी में प्रवेश किया।
05/12/19, 9:22 pm – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: ।।पंचतंत्र।।
प्रथम तन्त्र
मित्रभेद (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
कथा क्रम : एक
अप्राप्तकालं वचनं बृहस्पतिरपि ब्रुवन् ।
लभते बह्वज्ञानमपमानं च पुष्कलम् ।।
कि बिना उपयुक्त अवसर के तो बृहस्पति द्वारा कही गयी बात को भी कोई गौरव नहीं देता। तभी तो उनको भी अपमान सहना पड़ता है। करटक बोला—बन्धु! मैं मानता हूं
दुराराध्या हि राजानः पर्वता इव सर्वदा ।
व्यालाकीर्णाः सुविषमाः कठिना दुष्टसेविताः ।।
कि जिस प्रकार ऊबड़-खाबड़ तथा सर्प एवं व्याघ्र आदि भयंकर जीवों से भरे पर्वत कठोर होते हैं, उसी प्रकार राजा लोग भी कठोर-हृदय होते हैं और सदैव दुष्ट लोगों से घिरे रहते हैं। उन्हें प्रसन्न करना कोई सरल काम नहीं होता।
द्विजिह्वाः क्रूरकर्माणोऽनिष्टाश्छिद्रानुसारिणः ।
दूरतोऽपि हि पश्यन्ति राजानो भुजगा इव ।।
जिस प्रकार सांप की दो जीभें होती हैं, वे दूसरों को डसने का ही काम करते हैं, सदा बिल की खोज करते रहते हैं और दूर रखे जाते हैं, उसी प्रकार राजा भी दो जीभों वाले होते हैं। उनके कथन पर विश्वास नहीं किया जा सकता। वे दूसरों को दण्डित करने के आदी होते हैं, अतः उनसे भी सांपों की तरह दूर रहना ही उचित होता है।
दुरारोहं पदं राज्ञां सर्वलोकनमस्कृतम् ।
स्वल्पेनाप्यपकारेण ब्राह्मण्यमिव दुष्यति ।।
राजा का कृपापात्र बनना सरल काम नहीं होता। जिस प्रकार साधारण-सा पापकर्म करने से भी ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार राजा के प्रति किये गये साधारण-से अपराध का भी बड़ा भारी दण्ड भुगतना पड़ता है।
भर्तुश्चित्तानुवर्त्तित्वं सुवृत्तं चानुजीविनाम् ।
राक्षसाश्चापि गृह्यन्ते नित्यं छन्दानुवर्तिभिः ।।
राजनीति के अनुसार राजा की चित्तवृत्ति का अनुसरण करना ही सदाचार कहलाता है और इसका पालन करने वाला व्यक्ति राक्षस स्वभाव वाले राजा को भी अपने वश में कर सकने में सफल हो जाता है।
06/12/19, 12:41 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 😳
06/12/19, 5:03 am – +91 : असित गिरि समं स्यात्कज्जलं सिन्धु पात्रे
सुरतरु वर शाखा लेखनी पत्रमुर्वी।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति।।32।।
हे ईश!
यदि काले पर्वत के समान स्याही हो,
समुद्र की दावात हो,
कल्प वृक्ष की शाखाओं की कलम बने,
पृथ्वी कागज बने
ओर इन साधनों से यदि सरस्वती ( स्वयं) सर्वदा(जीवन पर्यंत) आपके गुणों को लिखें तब भी वे आपके गुणों का पार नहीं पा सकेंगी।।32।।
06/12/19, 5:05 am – +91 : श्री शिव महिम्न स्तोत्र का स्तुति प्रकरण लेखन महादेव की कृपा से संपन्न हुआ ।🙏
06/12/19, 5:05 am – +91 :
06/12/19, 5:06 am – +91: आपका आभार…🙏🙏
06/12/19, 5:06 am – +91 : 🙏🙏
06/12/19, 5:07 am – +91 :
06/12/19, 7:13 am – Abhinandan Sharma: बहुत बहुत धन्यवाद । आपकी वजह से शिवमहिम्न स्तोत्र हमने पढा और गाया भी । मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि जो भी इस ग्रुप में विभिन्न ग्रन्थ पढ़ रहे हैं, वो निश्चित तौर पर पंडित हो जाने वाले हैं तो फिर जो लिख रहे हैं, उनके बारे में तो कहना ही क्या ! वो न सिर्फ बुद्धि से और शास्त्रों से परिपूर्ण बुद्धि को प्राप्त होंगे अपितु विद्या और शास्त्रों के ज्ञान के दान को देने से, असीम पुण्यों की भी प्राप्ति करेंगे । आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद 🙏
06/12/19, 7:26 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 2 श्लोक 57, 58 और 59
अथोच्चकैरासनतः परार्ध्यादुद्यन्स धूतारुणवल्कलाग्रः ।
रराज कीर्णाकपिशांशुजालः शृङ्गात्सुमेरोरिव तिग्मरश्मिः ।। २.५७ ।।
उपजाति वृत्ति
अर्थ: इसके बाद (वेदव्यास जी के स्वागतार्थ) अपने श्रेष्ठ ऊंचे सिंहासन से उठते हुए राजा युधिष्ठिर के लाल रङ्ग की किरण-पुञ्जों को विस्तृत करने वाले सुमेरु पर्वत से ऊपर उठते हुए सूर्य की भांति सुशोभित हुए ।
टिप्पणी: जिस प्रकार से सुमेरु के शिखर से ऊंचे उठते हुए सूर्य सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार अपने ऊंचे सिंहासन से भगवान् वेदव्यास के स्वागतार्थ उठते हुए राजा युधिष्ठिर सुशोभित हुए ।
उपमा अलङ्कार
अवहितहृदयो विधाय स अर्हां ऋषिवदृषिप्रवरे गुरूपदिष्टां ।
तदनुमतं अलंचकार पश्चात्प्रशम इव श्रुतं आसनं नरेन्द्रः ।। २.५८ ।।
पुष्पिताग्रा
अर्थ: धर्मराज युधिष्ठिर ने स्वस्थचित्त होकर गुरुजन परम्परा से ज्ञात विधि से अनुसार ऋषिश्रेष्ठ की ऋषिजनोचित पूजा कर चुकने के पश्चात उनके द्वारा अनुमत आसन को अलङ्कृत किया जैसे शम(क्षमा) शास्त्राध्ययन (शास्त्रीय ज्ञान) को विभूषित करता है ।
टिप्पणी: जिस प्रकार से क्षमा शास्त्रज्ञान को सुशोभित करती है उसी प्रकार से युधिष्ठिर ने वेदव्यास जी की आज्ञा से अपने सिंहासन को सुशोभित किया ।
व्यक्तोदितस्मितमयूखविभासितोष्ठस्तिष्ठन्मुनेरभिमुखं स विकीर्णधाम्नः ।
तन्वन्तं इद्धं अभितो गुरुं अंशुजालं लक्ष्मीं उवाह सकलस्य शशाङ्कमूर्तेः ।। २.५९ ।।
वसन्ततिलका
अर्थ: मुस्कुराने के कारण छिटकी हुई दांत की किरणों से राजा युधिष्ठिर के दोनों ओंठ उद्भासित हो रहे थे । उस समय चतुर्दिक व्याप्त तेजवाले वेदव्यास जी के सम्मुख बैठे हुए यह प्रदीप्त तेज की किरण-पुञ्जों को फैलाते हुए बृहस्पति के सम्मुख बैठे पूर्ण चन्द्रमा की कान्ति को धारण कर रहे थे ।
टिप्पणी: देवगुरु बृहस्पति के सम्मुख बैठे हुए चन्द्रमा के समान राजा युधिष्ठिर सुशोभित हो रहे थे ।
उपमा और निदर्शना अलङ्कार
महाकाव्य के काव्य शास्त्रीय लक्षणों के अनुसार सर्ग में प्रायः एक ही वृत्त हो किन्तु अन्त में छन्द भेद होना चाहिए । इस नियम का निर्वाह करते हुए कवि ने काव्य सर्जन नैपुण्य प्रदर्शन करते हुए इस द्वितीय सर्ग में आरम्भ से ५६वें श्लोक तक वियोगिनी छन्द का अप्रतिहत प्रयोग किया है । ५७ से उपजाति, पुष्पिताग्रा, वसन्ततिलका छन्द का क्रमशः प्रयोग कर भिन्न छन्द में सर्गान्त करने के नियम का निर्वाह किया है । महाकवि भारवि ने सम्पूर्ण काव्य में प्रति सर्ग के अन्तिम श्लोक में लक्ष्मी शब्द का प्रयोग किया है । श्री शब्द का प्रयोग इस काव्य के आरम्भ में किया है ।
।। इति भारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जुनीये द्वितीयः सर्गः ।।
06/12/19, 7:48 am – +91 :
06/12/19, 8:20 am – Shastra Gyan Maniah Patiala: न्यायकुसुमाञ्जलि ग्रन्थ मूलतः श्री उदयनाचार्य का लिखा हुआ है। इस ग्रन्थ में कारिका और उनकी व्याख्या यह दो भाग हैं। श्री उदयनाचार्य ने स्वयं अपनी कारिकाओंकी जो व्याख्या लिखी है वह बहुत प्रौढ़ और विस्तृत ग्रन्थ है । इसलिए वह सर्वसाधारणके समझने योग्य नहीं है। परन्तु उस ग्रन्थका प्रतिपाद्य विषय ईश्वर-सिद्धि है जिसका परिज्ञान सर्वसाधारणके लिए अत्यंत आवश्यक है। यह देखकर श्री हरिदास भट्टाचार्य ने श्री उदयनाचार्य की मूल कारिकाओंको लेकर उनकी सरल और सुबोध यह व्याख्या लिखी है। इसका पहिला श्लोक ‘ईषदीषत्’ इत्यादि व्याख्याकार श्री हरिदास का मंगलाचरण श्लोक है, और ‘सत्पक्षप्रसर:’ इत्यादि श्लोक मूल ग्रन्थकार श्री उदयनाचार्य मंगलाचरण श्लोक है। श्री उदयनाचार्य के इस मंगलाचरण श्लोक के दो अर्थ हैं। एक तो पुष्पाञ्जलि परक और दूसरा ‘न्यायकुसुमाञ्जलि’ ग्रन्थ परक । जिसमें पुष्पाञ्जलि परक अर्थ प्रायः सीधा सरल है। उसमें ‘सत्पक्षप्रसरः के,
‘सता समीचीनेन पक्षेण अनुकूलेन रविकिरणादिना प्रसरः विकासो यस्य सः सत्पक्षप्रसरः’
अर्थात् सुन्दर अनुकूल सूर्य किरण आदिसे जिसका विकास होता है अथवा ‘सन् शोभनः पक्षप्रसरः पत्रविकासो यस्य सः’ यह दोनों अर्थ हो सकते हैं। इस पक्ष में सतांका अर्थ ‘अनुपहतघ्राणानाम्’ अर्थात जिनकी घ्राणेन्द्रिय नासिका श्लेष्मादिसे दूषित नहीं यह किया गया है। शेष अर्थ साधारण है जैसा कि ऊपर लिख दिया गया है।
दूसरा अर्थन्यायकुसुमाञ्जलि ग्रन्थ के पक्ष में लगता है और वह क्लिष्ट है। उसका भाव पहिले समझ लेनेके बाद ही शब्दार्थ ठीक तरहसे समझमें आएगा। अतः पहिले उसका भाव प्रदर्शन करनेके बाद ही शब्दार्थ दिया जायगा। श्री उदयनाचार्य ने अपने इस ग्रन्थ को ईश्वर की सिद्धि के लिए लिखा है। उसमें न्याय शास्त्रकी पद्धति के अनुसार विविध अनुमानोंद्वारा ईश्वर की सिद्धि का प्रयत्न किया गया है। परन्तु तत्वदृष्टिसे ईश्वरका साधक मुख्य प्रमाण ‘शब्द’ है और उसका उपोद्वलक या सहकारी अनुमान हो सकता है। इसीलिए योगदर्शन के व्यासभाष्य में लिखा है कि सामान्यमात्रोपसंहारे कृतोपक्षयमनुमानं न विशेषप्रतिपत्तौ समर्थमिति संज्ञादि विशेषप्रतिपत्तिरागमतः पर्यन्वेष्या’ । शारीरक भाष्यमें श्री शंकराचार्य ने भी_
सत्सु तु वेदान्तवाक्येषु जगतो जन्मादिकारणवादिषु तदर्थग्रहणदार्ढायायानुमान- मपि वेदान्तवाक्यविरोधी प्रमाणं भवन्न निवार्यते ।
06/12/19, 9:08 am – FB Abhijit Rajkot Shastra Gyan: Bahut sundar👌🏻
06/12/19, 11:29 am – Shastra Gyan Maniah Patiala: १२ वीं शताब्दी में मिथिला देश में एक ऐसे महातविद्वान् का आविर्भाव हुआ जिन्होंने न्याय के क्षेत्र में युगांतर उपस्थित कर दिया। इनका नाम था गंगेश उपाध्याय इन्होंने अपनी विलक्षण बुद्धि और असाधारण प्रतिभा के बलपर न्यायशास्त्र की शैली और विचारधारा में अद्भुत परिवर्तन कर दिखाया । यहाँ तक कि इनका निरूपित न्याय नव्य न्याय कहलाने लगा। इनका रचित ‘तत्त्वचिन्तामणि नव्य न्याय का प्रथम और आधारभूत ग्रन्थ है। इसमें चार खणड है-१) प्रत्यक्ष खण्ड (२) अनुमान खण्ड (३) शब्द खणड और (उपमान खण्ड । ‘तत्वचिन्तामगि’ सचमुच चिन्तामणि स्वरूप है। इसमें प्रामाण्यवाद, प्रत्यक्षकरणावाद, मनोऽणुतत्ववाद, व्याप्तिग्रहोपाय आदि गहन विषयों की ऐसी गंभीर मीमांसा की गई है, जिसे देखकर बड़े-बड़े मेधावी विद्यादिग्गजों की बुद्धि चकरा जाती है। यह ग्रन्थ गूढ विषयो का रत्नभाण्डागार है।
प्राचीन न्याय मुख्यतः पदार्थ शास्त्र था; नव्य न्याय मुख्यतः प्रमाण शास्त्र रह गया। प्राचीन न्याय में जहाँ केवल सीधी सादी भाषा में उदेश लक्षण और परीक्षा का व्यवहार था, वह नव्य न्याय में अवच्छेदक अवच्छेद्य, निरूपक निरूष्य, अनुयोगी-प्रतियोगिता, विषयों प्रकारता आदि नवीन शब्दों का प्रयोग होने लगा । इन जटिल लच्छेदार शब्दों की सृष्टि से न्याय की भाषा अत्यन्त ही दुरूह, और क्लिष्टबोध्य हो उठी । किन्तु यह कोरा आडम्बरपूर्ण वाग्जाल ही नहीं था। नवीन पारिभाषिक शब्दों से सूक्ष्मातिसूक्ष्म भावों का विश्लेषण आसानी के साथ होने लग गया ।
गंगेश के ‘तत्वचिन्तामणि’ पर जितनी टीकाएँ लिखी गई है उतनी बहुत ही कम ग्रन्थों पर होंगी। उनका यह ग्रन्थ ‘चिन्तामणि’ या केवल ‘मणि’ नाम से भी नैयायिकों के बीच में प्रसिद्ध है ।
07/12/19, 5:21 am – +91 : श्रीमद्भागवतान्तर्गत गजेन्द्र कृत भगवान् का स्तवन
गजेन्द्र मोक्ष
श्री शुक उवाच- श्री शुकदेव जी ने कहा—-।
एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि।
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम्।।1।।
बुद्धि के द्वारा पिछले अध्याय में वर्णित रीति से निश्चय कर के तथा मन को हृदय देश में स्थिर कर के वह गजराज अपने पूर्व जन्म में सीख कर कण्ठस्थ किए हुए सर्वश्रेष्ठ एवं बार- बार दुहराने योग्य निम्नलिखित स्तोत्र का मन – ही- मन पाठ करने लगा।।1।।
गजेन्द्र उवाच = गजराज ने( मन ही मन) कहा—–
ओउम् नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम्।
पुरुषायादि बीजाय परेशायाभिधीमहि।।2।।
जिनके प्रवेश करने पर ( जिनकी चेतनता को पा कर) ये जड़ शरीर और मन आदि भी चेतन बन जाते हैं ( चेतन की भांति व्यवहार करने लगते हैं) , ओम् शब्द के द्वारा लक्षित तथा सम्पूर्ण शरीरों में प्रकृति एवं पुरुष रूप से प्रविष्ट हुए उन सर्व समर्थ परमेश्वर को हम मन ही मन नमन करते हैं ।।2।।
07/12/19, 6:06 am – +91 : 🙏
07/12/19, 7:31 am – Abhinandan Sharma: शास्त्र ज्ञान सत्र 41 में, निम्न विषयों पर चर्चा हुई |
१. योग – इसमें चित्त की वृत्तियों को कैसे कण्ट्रोल करें (योगश्चित्त वृत्ति निरोधः – पतंजलि योगसूत्र) इस विषय पर आगे चर्चा की गयी | पिछली बार, भगवद्गीता में कृष्ण जी ने क्या तरीका बताया था, इस पर चर्चा की गयी थी और इस बार उसी बात को और आगे बढाया गया | इस बार, ईशावास्य उपनिषद से, योग को समझने के लिए निम्न मन्त्र पढ़ा गया –
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ।|
इस मन्त्र में त्याग करके भोग करने को कहा गया है (तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा) अब त्याग करके भोग कैसे हो ? या तो त्याग ही होगा या भोग ही होगा, दोनों एक साथ कैसे हो सकते हैं ? इसके लिए, होता का उदाहरण दिया गया कि जिस प्रकार होटल में जाने पर, हमें उसके पर्दों से, उसकी साफ़ सफाई से, उसकी चादर से मोह नहीं होता ! हम उसे अपना नहीं समझते और जितना प्रयोग करते हैं, उतने का पेमेंट करके चले आते हैं, इसे ही जीवन में भी किसी चीज से मोह नहीं करना चाहिए | कैसे ? इसके विभिन्न उदाहरण दिए गए | यदि मोह किया तो फिर उसका फल चुकाना पड़ेगा क्योंकि गीता में कृष्ण जी स्पष्ट कहते हैं कि सङ्गात् संजायते कामः अर्थात संग से, यानि राग से, कामनाएं उत्पन्न होती हैं | कामना उत्पन्न हुई तो फिर उसका फल भी चुकाना पड़ेगा | फिर बताया गया कि कैसे राग न करने से, चित्त की वृत्तियों का निरोध होता है और फिर कैसे उससे चित्त शुद्ध होता है और आत्मा को मुक्ति मिलती है | इसी सन्दर्भ में, निष्काम कर्म का असल मतलब बताया गया | (वीडियो का लिंक कमेन्ट में दिया गया है |)
तर्कशास्त्र – इस बार प्रत्यक्ष प्रमाण के बारे में विस्तार से चर्चा हुई कि प्रत्यक्ष प्रमाण किसे कहते हैं ? इन्द्रियों + पदार्थ के संयोग से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वो प्रत्यक्ष प्रमाण होता है | किन्तु क्या सदैव ऐसा ही होता है कि हम किसी विषय को इन्द्रियों से देखकर ज्ञान कर पाते हैं ? नहीं ! बहुत बार ऐसा होता है कि इन्द्रियां विषयों को देखती सुनती हैं किन्तु हमें पता नहीं चलता है ! इसके विभिन्न उदाहरण दिए गए | ऐसा क्यों होता है ? क्योंकि मन इन्द्रियों के साथ नहीं होता है | अतः मन भी एक इन्द्रिय है | मन क्या करता है ? मन, इन्द्रियों से प्राप्त इनफार्मेशन को आत्मा तक पहुचाता है | आत्मा क्या करती है ? इस सन्दर्भ में गीता के श्लोक द्वारा, आत्मा को उपदृष्टा बताया गया | कैसे आत्मा उपदृष्टा है ? इसका उदाहरण दिया गया ! इसको स्पष्ट करने के बाद, तर्कशास्त्र से, मन के लिए तीन सूत्र दिए गए | जिसमें बताया गया कि मन जब इन्द्रियों के साथ जुड़ा रहता है, तब ही प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, अथवा नहीं | इन सूत्रों से निष्काम कर्म को और स्पष्ट किया गया और योग कैसे किया जाए, ये बताया गया | ये सूत्र ही कर्मयोग की सीढ़ी है | कैसे ? इसके उदाहरण | (वीडियो का लिंक नीचे कमेन्ट में दिया गया है |)
इसके बाद मन इन्द्रिय में और अन्य इन्द्रियों में क्या अंतर है और मन १ ही है, ये कैसे पता ? इसको बताया गया | मन कैसे काम करता है, इसको उदाहरणों द्वारा समझाया गया |
कथा – (स्कन्दपुराण से घटोत्कच की कथा) घटोत्कच का युधिष्ठिर की सभा में आना | युधिष्ठिर का कुशल मंगल पूछना | युधिष्ठिर द्वारा कृष्ण जी से, घटोत्कच के लिए किसी लड़की के बारे में पूछना, जिससे विवाह किया जा सके | कृष्ण जी द्वारा, काम्कंटका के बारे में बताना और उसकी प्रशंसा करना | काम्कंटका कौन थी और कृष्ण जी का उससे युद्ध क्यों हुआ और क्यों वो घटोत्कच के योग्य है, ये बताना | काम्कंत्का की विवाह के लिए शर्त कि जो उसे किसी प्रश्न पर निरुत्तर कर देगा, उसी से विवाह करेगी अन्यथा प्रश्न करने वाले को मार डालेगी | ये सुनकर युधिष्ठिर का मना करना | किन्तु अर्जुन और भीम का घटोत्कच पर विशवास दिखाना | घटोत्कच द्वारा प्रतिज्ञा करना कि वो कामकंटका को जीत कर ले आएगा, सभा से जाना | घटोत्कच द्वारा, काम्कंटका से, एक पहेली पूछना | काम्कंटका का हारना, घटोत्कच से युद्ध का प्रयास, फिर हारना | पत्नी होना स्वीकारना, घटोत्कच का परिवार में ले जाकर, विवाह करना | पुत्र होना, भीम द्वारा, पुत्र का नाम बार्बरीक रखना (यही बर्बरीक खाटू श्याम जी के नाम से जाने जाते है |) – विस्तृत कथा के लिए, वीडियो लिंक कमेन्ट में दिया गया है |
सुभाषित –
अन्नदानं परं दानं विद्यादानमतः परम् ।
अन्नेन क्षणिका तृप्तिर्यावज्जीवं च विद्यया ॥
इसका अर्थ कि अन्नदान और विद्यादान दोनों ही दान श्रेष्ठ हैं किन्तु अन्न दान से, विद्यादान अधिक श्रेष्ठ है | क्यों ? कैसे ? इसकी विस्तृत व्याख्या और ज्ञान और विद्या में अंतर | (वीडियो का लिंक कमेन्ट में दिया गया है |)
प्रयास कीजिये, अगले शास्त्र ज्ञान सत्र में आप भी आ सकें |
https://youtu.be/K2KRNwG1w0c
07/12/19, 7:39 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👌🏼 अभी पूरा सत्र नही सुना पर जितना सुना बहुत रोचक था।
- क्या घटोत्कच की कथा केवल खाटू श्याम जी के बारे में थी या कोई और सीख भी थी इसमें?
07/12/19, 9:59 am – Shastra Gyan Maniah Patiala: न्याय दर्शन
प्रमाण
[प्रमाण का अर्ध-प्रमा-करण-प्रमाता, प्रमेय और प्रमाण-प्रमाण का लक्ष्य-प्रमाण का महष-प्रमाणों की संख्या-न्याय के चतुर्षिध प्रमाण ]
प्रमाण का अर्थ- *प्रमाण का अर्थ है,
*प्रमायाः करणं प्रमाणम्* ।
– तर्कभाषा
जो प्रमा का करण हो वहीं प्रमाण‘ कहलाता है। उपयुक्त परिभाषा में दो शब्द है, ( १ ) प्रमा और ( २) करण । अब उनके अर्थ समझिये ।
(क ) प्रमा-प्रमा का अर्थ है।
“तद्वति तत्प्रकारकानुभवः प्रमा।” तर्कसंग्रह
अर्थात् जो वस्तु जैसी हो उसको उसी प्रकार की जानना ही ‘प्रमा’ है।
यदि आपके सामने बालू का रेतीला मैदान हो और आप उसे ठीक बालुकामय समझ रहे है तो आपका ऐसा अनुभव यथार्थ ज्ञान वा ‘प्रमा’ कहलायगा। इसके विपरीत यदि आप उस बालुकाराशि को जल की धारा समझ बैठते हैं तो आपको ऐसा समझना अयथार्थ ज्ञान वा ‘अप्रमा’ कहलायेगा।
दूसरे शब्दों में ये कहिये कि जहाँ जो वस्तु है, उसे वहाँ जानना प्रमा है।
“यत्र यदस्ति तत्र तस्यानुभव: प्रमा।”
इसके विपरीत, जो वस्तु जहाँ नहीं है, उसे वहाँ कल्पित या आरोपित कर लेना ‘अप्रमा’ है।
यत्र यत्रास्ति तत्र तस्य ज्ञानम् अप्रमा ।
रज्जु के स्थान में सर्प का भान होना, सीप की जगह चाँदी का भान होना, अप्रमा वा भ्रम के उदाहरण है। क्योंकि वहाँ जिस विषय का बोध होता है, उसका वस्तुतः अभाव है।
विषय के वस्तु विद्यमान रहने पर तद्विषयक ज्ञान ‘प्रतिमा’ है। विषय का अभाव रहने पर भी वहाँ तद्विषयक ज्ञान का आभास होना अप्रमा है।
तदभाववति तत्प्रकारकानुभवः अप्रमा ।” — तर्कसंग्रह
07/12/19, 10:04 am – Shastra Gyan Mukesh Mishra Allahabad: अंतिम पंक्तियों में ‘प्रतिमा’ संभवतः टाइपिंग की गलती है, ‘प्रमा’ होना चाहिये
07/12/19, 10:19 am – Shastra Gyan Maniah Patiala: जी किताब में प्रतिमा ही लिखा हुआ है🙏
07/12/19, 10:23 am – Shastra Gyan Maniah Patiala: मुझे भी लगा बाकी आप सभी ज्ञानी जन बताये🙏🙏
07/12/19, 10:29 am – Ashu Bhaiya: Prama is anuman related, but Pratima is when the proof is there which could be seen, Pratima.
07/12/19, 10:29 am – Ashu Bhaiya: My Anuman
07/12/19, 10:29 am – Ashu Bhaiya: So there should be Pratima, not Prama
07/12/19, 10:50 am – Ujjwal Maurya Ajmer Shastra Gyan: https://www.wisdomlib.org/definition/prama
07/12/19, 10:51 am – Ujjwal Maurya Ajmer Shastra Gyan:
07/12/19, 11:00 am – Shastra Gyan Mukesh Mishra Allahabad: But Sir, ‘Prama’ is not only related to ‘anuman ie inference’ it is related to all the pramanas which are ‘pratyaksh ie perception’ ‘anuman ie inference’ , ‘upmana ie comparison’ and ‘shabda ie testimony’ as per ‘Nyaya Shastra’.
Still the use of word ‘Pratima’ here is ambiguous. Please clarify.
07/12/19, 11:17 am – Shastra Gyan Maniah Patiala: मैंने दूसरी किताब में देखा है प्रमा है।
कृपा सभी नोट करें कि प्रतिमा की जगह प्रमा पढ़े🙏🙏
07/12/19, 11:18 am – Shastra Gyan Mukesh Mishra Allahabad: 🙏🏻 धन्यवाद
07/12/19, 11:36 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: क्या प्रमाद भी प्रमा से सम्बंधित है
07/12/19, 3:16 pm – Aparna Singh Ayodhya Shastra Gyan: 🙏🏻
07/12/19, 4:13 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: न्यायकुसुमंजली
लिखकर इसकी पुष्टि की है। अतएव, श्री उदयनाचार्य ने अपने न्यायकुसुमांजलि नामक ग्रन्थ को ‘ईशस्य पदयुगे निवेशित:’ ईश्वर के पदयुग में निवेशित किया है। यहाँ ‘ पद ’का अर्थ होगा ‘पद्यते ज्ञायतेsनेन, इति पदं प्रत्यायकं, तद्युगं प्रमाणतर्करूपम’ अर्थात ईश्वर के बोधक प्रमाण और तर्क होंगे और यह न्यायकुसुमंजलि को उस ‘पदयुग ’अर्थात ईश्वर साधक प्रमाण तर्क के उपोद्वलक रूप में प्रस्तुत होने से ‘ईशस्य पदयुगे निवेशित:’ अर्थात् ईश्वर के साधक प्रमाण और तर्क के परिपोषक रूप में विरचित है।
‘अनघः’ विशेषण निर्दोषत्व का सूचक है। अनुमान वाक्य में, जो यहाँ न्याय शब्द का अर्थ है, दो प्रकारके दोष सम्भव हो सकते हैं। एक शब्द दोष और दूसरे अर्थ दोष या विषय दोष। इसमेंसे अनुमान वाक्य के विषय दोष का परिहार करने के लिये ग्रन्थकार ने श्लोक के पूर्वार्द्ध में अनेक विशेषण रखे हैं। उन विशेषणो के द्वारा ही अर्थ दोषों का निराकरण हो जाता है। अतएव उत्तरार्द्ध के इस ‘अनघः’ पदका अभिप्राय शब्द दोष राहित्य सूचन करना ही है। ‘अनघः’ अर्थात् ‘शब्ददोषरहितः उत्तरार्ध का शेष अर्थ प्रथम अर्थ के समान ही हैं। श्लोक के पूर्वार्द्ध में जो अनेक विशेषण दिए गए हैं वे ‘समस्तरूपोपपन्न’ लिङ्ग प्रतिपादक वाक्य’ अर्थात् अनुमान वाक्य रूप न्याय में आनेवाले दोषो के निराकरण के लिये ही दिये गये हैं। इन दोनों में मुख्यतः पांच प्रकार के ‘हेत्वाभास’ आते हैं और इन विशेषणोंसे उन हेत्वाभास का ही निराकरण करने का प्रयत्न ग्रन्थकार ने किया है ।
07/12/19, 10:29 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: यहां तक सभी ने समझ लिया, यदि सभी ने समझ लिया हो तो आगे लिखना शुरू करूं।
07/12/19, 10:38 pm – +91 : बिलकुल। राजेश जी..🙏🙏
07/12/19, 10:41 pm – Abhinandan Sharma: मुझे अभी समय ही नहीं मिला । आप आगे बढिये, मैं कवर करके, जो समझ आएगा, वो बताऊंगा।
07/12/19, 11:04 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: This message was deleted
07/12/19, 11:09 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: इसके अतिरिक्त आचार्यों ने यह भी बताया है कि उच्च राशि में भी किस अंश में परमोच्च समझा जावे। सूर्य के मेष में १० अंश, चंद्रमा के वृषभ में ३ अंश, मंगल के मकर में २८ अंश, बुध के कन्या में १५ अंश, बृहस्पति के कर्क में ५ अंश, शुक्र के मीन में २७ अंश, शनि के तुला में २० अंश परम उच्च होते हैं। इतने ही अंशों पर क्रमशः तुला आदि में सूर्य का परम नीच स्थान है। तुला के १० अंश पर सूर्य का, वृश्चिक के ३ अंश पर चन्द्रमा का। इसी प्रकार अन्यत्र समझना चाहिए।¤
कोई भी ग्रह अपने गृह में बली, मूल त्रिकोण स्थान में और भी बलि और उच्च राशि में अति बलशाली होता है। नीच राशि में निर्बल परम नीच अंशो में अत्यंत निर्बल समझना चाहिए।
¤ राहु और केतु की कौन सी स्वराशि हुआ कौन सी उच्च राशि है – इस विषय में विद्वानों में मतभेद है। बहुत से वृषभ को राहु का उच्च स्थान, वृश्चिक को केतु का उच्च स्थान मानते हैं। बहुत से मिथुन को राहु का उच्च राशि धनु को केतु की उच्च राशि, धन को केतु की उच्च राशि मानते हैं। उच्च राशि से सातवीं, प्रत्येक ग्रह की नीच राशि होती है।
07/12/19, 11:13 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: इतनी सुगम नहीं पर प्रयत्न हो रहा है “शनैः शनैः” 🙂
आप अपना कार्य जारी रखें 🙏🏼🙏🏼
07/12/19, 11:14 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: 😊 धन्यवाद🙏🙏🙏
07/12/19, 11:22 pm – Abhinandan Sharma: मेरे ख्याल से, इन विषयों जिज़ परमोच्च आदि को समझने तक थोड़ा रुकना चाहिए । मैं इनकी आसान डिटेल निकालता हूँ, फिर आगे बढ़ेंगे ।
07/12/19, 11:23 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: सही है, मैं प्रतीक्षा करता हूँ।
07/12/19, 11:51 pm – FB Mrudul Tiwari Allahabad Shastra Gyan: 🙏🙏🙏🙏🙏🙏👍👍👍👍👍
07/12/19, 11:55 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: परमोच्च, स्वराशि, मूलत्रिकोण आदि नही समझ आया कि क्या है।
08/12/19, 5:12 am – +91 : यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयम्।
योऽस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम्।।3।।
जिनके सहारे यह विश्व टिका है,
जिनसे यह निकला है,
जिन्होंने इस की रचना की है और जो स्वंय ही इसके रूप में प्रकट हैं—-
फिर भी जो इस दृश्य जगत् से एवम् उसकी कारण भूता प्रकृति से सर्वथा परे( विलक्षण) एवम् श्रेष्ठ हैं — उन अपने आप—-बिना किसी कारण के—-बने हुए भगवान् की मैं शरण लेता हूँ ।।3।।
यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं
क्वचिद्विभातं क्व च तत्तिरोहितम्।
अविद्धदृक् साक्ष्युभयं तदीक्षते
स आत्ममूलोऽवतु मां परात्परः।।4।।
अपनी संकल्प शक्ति के द्वारा अपने ही स्वरूप में रचे हुए और इसीलिये सृष्टि काल में प्रकट और प्रलय काल में उसी प्रकार अप्रकट रहने वाले इस शास्त्र प्रसिद्ध कार्य कारण रूप जगत् को जो अकुण्ठित- दृष्टि होने के कारण साक्षी रूप से देखते रहते हैं—-
उनसे लिप्त नहीं होते ,
वे चक्षु आदि प्रकाशकों के भी परम प्रकाशक प्रभु मेरी रक्षा करें ।।4।।
08/12/19, 6:08 am – +91 : 🙏🙏
08/12/19, 6:36 am – +91 : प्रोत्साहन के लिए आभार 🙏
08/12/19, 7:07 am – Shyam Sunder Fsl: This message was deleted
08/12/19, 8:51 am – Abhinandan Sharma: क्या आपने नोट किया कि काव्य के इस नियम की ही वजह से, बहुत सी स्तुतियों में अंत में छंद बदल दिया जाता है । अभी हमने शिवमहिम्न स्तोत्र पढा, उसमें भी अंतिम छंद, प्रारम्भ के छंदों से अलग थे । ये सब बातें नोट किया कीजिये, सिर्फ पढिये मत, उनका प्रायोगिक प्रयोग भी देखिये । read between the linesm
08/12/19, 8:55 am – +91 : प्रथम से लेकर ३० श्लोक शिखरिणी के उसके बाद एक श्लोक १७ वर्णो का हरिणी और अंतिम श्लोक वाचनप्रिय मालिनी का है शिवमहिम्न में ।
08/12/19, 8:59 am – Abhinandan Sharma: विद्वान उदयानाचार्य जी की कारिकाएँ, सर्वसाधारण के समझने योग्य नहीं है, इसका क्या अर्थ है ? इसका अर्थ है कि वो ग्रन्थ पीएचडी के ग्रन्थ हैं और जिन लोगों ने कभी महाभारत नहीं पढ़ी है, वो क्या उस ग्रन्थ को पढ़ेंगे पर यहां एक समस्या और है । संस्कृत के विद्वान तो बहुत मिलेंगे किन्तु संस्कृत विद्वान, इस प्रकार के तर्कशास्त्र, ज्योतिष आआदि विषयों में निष्णात नहीं होते और यही वजह है कि ऐसे बहुत से, अमूल्य ग्रंथों की हिंदी टीका उपलब्ध ही नहीं है । बहुत से ग्रन्थ सिर्फ संस्कृत या अंग्रेजी रूपांतरण में ही प्राप्त हैं और इस प्रकार अपनी मौत स्वयं मरने को अभिशप्त हैं । उस समय के लोगों ने तो उन्हें पढा, जब न टेक्नोलॉजी थी और न इतनी बड़ी रीच थी पर आज के मोस्ट मॉडर्न युग में, उन अमूल्य ग्रंथों को पढ़ने और अनुवाद करने योग्य लोग ही उपलब्ध नहीं है । हमारे यहां के विद्वानों का इससे बड़ा क्या अपकर्ष होगा ।
08/12/19, 8:59 am – Abhinandan Sharma: 🙏🙏 धन्यवाद ।
08/12/19, 9:05 am – Abhinandan Sharma: इस कथा के बारे में इन बड़ी बात अगले सत्र में आयेगी, जब बर्बरीक की कथा होगी।
08/12/19, 9:09 am – Abhinandan Sharma: भाई, हिंदी समझ में आ रही है ना सबके 😃
08/12/19, 9:24 am – Abhinandan Sharma: अब ज्योतिष के कुछ आसान नोट्स मैं, इस ग्रुप पर प्रेषित करूँगा | आप सभी से निवेदन है कि उसका ध्यान से अध्ययन करें |
08/12/19, 9:30 am – Abhinandan Sharma: ज्योतिष अध्ययन, भाग १
लोकानामन्तकृत्कालः कालोन्यः कल्नात्मकः |
स द्विधा स्थूल सुक्ष्मत्वान्मूर्त श्चामूर्त उच्यते || (सूर्य सिद्धांत)
अर्थात – एक प्रकार का काल संसार का नाश करता है और दूसरे प्रकार का कलानात्मक है अर्थात जाना जा सकता है | यह भी दो प्रकार का होता है (१) स्थूल और (२) सूक्ष्म | स्थूल नापा जा सकता है इसलिए मूर्त कहलाता है और जिसे नापा नहीं जा सकता इसलिए अमूर्त कहलाता है |
ज्योतिष में प्रयुक्त काल (समय) के विभिन्न प्रकार :
प्राण (असुकाल) – स्वस्थ्य मनुष्य सुखासन में बैठकर जितनी देर में श्वास लेता व छोड़ता है, उसे प्राण कहते हैं |
६ प्राण = १ पल (१ विनाड़ी)
६० पल = १ घडी (१ नाडी)
६० घडी = १ नक्षत्र अहोरात्र (१ दिन रात)
अतः १ दिन रात = ६०६०६ प्राण = २१६०० प्राण (अर्थात एक स्वस्थ्य मनुष्य सुखासन में बैठकर २१६०० श्वास लेता है |)
इसे यदि आज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो
१ दिन रात = २४ घंटे = २४ x ६० x ६० = ८६४०० सेकण्ड्स
अतः १ प्राण = 86400/२१६०० = ४ सेकण्ड्स अर्थात एक श्वास में मनुष्य को लगभग इतना समय लगता है |
08/12/19, 11:49 am – Vaidya Ashish Kumar: हाँ🙂🙏🏻
08/12/19, 11:50 am – FB Gagan Sharma Shastta Gyan:
08/12/19, 11:53 am – FB Gagan Sharma Shastta Gyan: Contains hari hara putra(ayyappa) sahasranamam, Vishnu sahasranamam, Lalita sahasranamam and Hanuman Chalisa
Sent by an old friend and I thought to share🙏
08/12/19, 12:33 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: This message was deleted
08/12/19, 12:34 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: न्याय दर्शन
वात्स्यायन कहते है.
यदर्थविज्ञानं सा प्रमा
अर्थात् विषय की यथार्थ प्रतीति ही प्रमा है। सीप को सीप और चाँदी को चाँदी जानना प्रमा है। इसके विरुद्ध सीप को चाँदी या चाँदी को सीप जानना अप्रमा है। जो वस्तु जैसी नहीं है उसे इस प्रकार की जानना ‘अप्रमा’, ‘भ्रम’ व ‘विपर्यय’ कहलाता है।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि यथार्थ अनुभव वा सत्यज्ञान का नाम ‘प्रमा’ और अयथार्थ अनुभव वा मिथ्या ज्ञान का नाम ‘अप्रमा’ है। तर्ककौमुदीकार भी यही सीधी-सादी परिभाषा देते हैं।
( प्रमाणजन्य: ) यथार्थानुभव: प्रमा ।
( प्रमाणाभासजन्यः ) अयथार्थानुभव: अप्रमा ।
( ख ) करण-अब ‘करण’ शब्द पर आइये । करण का अर्थ हैं
साधकतमं करणम्
-पाणिनि ( १।४।४२)
क्रिया की सिद्धि में जो उपकरण सहायक होता है, वह साधन कहलाता है। जैसे, हिरण को वेधकर मारने में धनुष, बाण, प्रत्यंचा, शिकारी का हाथ, ये सब सहायक होते है । अतः ये सभी साधन या साधक कह जा सकते हैं।
अब देखिये, इन सभी साधनों में भी सबसे चरम साधन कौनसा है ? धनुष, प्रत्यंचा और शिकारी का हाथ क्रिया के उपकारक होते हुए भी आरादुपकारक अर्थात् दूरवर्ती कारण है। उनमें और क्रिया के फल (वेधन) में अन्तराल या व्यवधान है। इसलिये वे साधक होते हुए भी ‘साधकतम’ नहीं कहे जा सकते।
08/12/19, 7:39 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: परन्तु ऐसा भर्तृहरि के किसी भी शतक में नही है, उनमें कई अलग अलग प्रकार के छंद प्रयोग हुए हैं ।
08/12/19, 7:45 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👌🏼
08/12/19, 7:48 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: खड़ी बोली सुनने वाले कानो के लिए इतनी आसान नहीं, मेहनत लगेगी सो छुट्टी होने की प्रतीक्षा है।
08/12/19, 7:53 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: इसके प्रकार से १ घड़ी = 24 minute.
क्या ये सही होगा?
08/12/19, 7:59 pm – Ashu Bhaiya: हां
08/12/19, 8:00 pm – Ashu Bhaiya: 2.5 घड़ी का 1 घंटा
08/12/19, 8:05 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👍🏼
08/12/19, 8:10 pm – +91 : ढ़ाई पल = १ मिनट
ढ़ाई विपल = १ सैकण्ड
08/12/19, 8:18 pm – G B Malik Delhi Shastra Gyan: बहुत ही उम्दा जानकारी👍🏻
08/12/19, 8:22 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 3 श्लोक 1, 2, 3 और 4
ततः शरच्चन्द्रकराभिरामैरुत्सर्पिभिः प्रांशुं इवांशुजालैः ।
बिभ्राणं आनीलरुचं पिशङ्गीर्जटास्तडित्वन्तं इवाम्बुवाहं ।। ३.१ ।।
प्रसादलक्ष्मीं दधतं समग्रां वपुःप्रकर्षेण जनातिगेन ।
प्रसह्य चेतःसु समासजन्तं असंस्तुतानां अपि भावं आर्द्रं ।। ३.२ ।।
अनुद्धताकारतया विविक्तां तन्वन्तं अन्तःकरणस्य वृत्तिं ।
माधुर्यविस्रम्भविशेषभाजा कृतोपसम्भाषं इवेक्षितेन ।। ३.३ ।।
धर्मात्मजो धर्मनिबन्धिनीनां प्रसूतिं एनःप्रणुदां श्रुतीनां ।
हेतुं तदभ्यागमने परीप्सुः सुखोपविष्टं मुनिं आबभाषे ।। ३.४ ।।
अर्थ: (मुनिवर वेदव्यास के आदेश से आसन पर बैठ जाने के) अनन्तर शरद ऋतु के चन्द्रमा के समान आनन्ददायी, ऊपर फैलते हुए प्रभापुञ्ज से मानो उन्नत से, श्यामल शरीर पर पीले वर्ण की जटा धारण करने के कारण मानो बिजली से युक्त मेघ की भांति, प्रसन्नता की सम्पूर्ण शोभा से समलङ्कृत, लोकोत्तर शरीर-सौन्दर्य के कारण अपरिचित लोगों के चित्त में भी अपने सम्बन्ध में उच्च भाव पैदा करनेवाले, अपनी शान्त आकृति से अन्तःकरण की (स्वच्छ पवित्र) भावनाओं को प्रकट करते हुए, अपनी अति स्वाभाविक सौम्यता तथा विश्वासदायकता से युक्त अवलोकन के कारण मानो (पहले ही से) सम्भाषण किये हुए की तरह एवं अग्निहोत्र आदि धर्मूं के प्रतिपादक तथा पापों के विनाशकारी वेदों के व्याख्याता व्यास जी से, जो सुखपूर्वक आसन पर विराजमान(हो चुके) थे, उनके आगमन का कारण जानने के लिए, धर्मराज युधिष्ठिर ने (यह) निवेदन किया ।
टिप्पणी: तीनों श्लोकों के सब विशेषण व्यासजी के लोकोत्तर व्यक्तित्व से सम्बन्धित हैं । अलौकिक सौन्दर्य के कारण लोगों में उच्च भाव पैदा होना स्वाभाविक है । प्रथम श्लोक में दो उत्प्रेक्षाएँ हैं । द्वितीय में काव्यलिङ्ग तथा तृतीया में भी उत्प्रेक्षा अलंकार है । चतुर्थ में पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग है ।
08/12/19, 8:35 pm – Ashu Bhaiya: इसीलिए ढैय्या (ढाई का पहाड़ा) ज्योतिषियों के लिए नेमत है ।
08/12/19, 8:42 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 😳
08/12/19, 8:55 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: 😄
08/12/19, 9:12 pm – Abhinandan Sharma: ढैया का पहाड़ा कोई बोल कर दिखाए तो बात बने । क्या सवैया को भी सवैया इसीलिये कहा जाता था !
08/12/19, 9:14 pm – Mummy Hts: To learn jyotish pa used to say first learn tables of Savva, 2,1/2,,2,3/4
08/12/19, 9:16 pm – +91 :
08/12/19, 9:16 pm – +91 : ☝☝☝☝☝☝
08/12/19, 9:25 pm – Abhinandan Sharma: 👏👏👏
08/12/19, 9:36 pm – +91 : .
08/12/19, 9:58 pm – +91
09/12/19, 5:06 am – +91 : कालेन पञ्चत्वमितेषु कृत्स्नशो
लोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु।
तमस्तदाऽऽसीद् गहनं गभीरं
यस्तस्य पारेऽभिविराजते विभुः।।5।।
समय के प्रवाह से सम्पूर्ण लोकों के एवम् ब्रह्मादि लोकपालों के पञ्चभूतों में प्रवेश कर जाने पर तथा पञ्चभूतों से लेकर महत्तत्व पर्यन्त सम्पूर्ण कारणों के उनकी परम कारण रूपा प्रकृति में लीन हो जाने पर उस समय दुर्ज्ञेय तथा अपार अंधकार रूप प्रकृति ही बच रही थी
उस अंधकार के परे अपने परम धाम में जो सर्व व्यापक भगवान् सब ओर प्रकाशित रहते हैं;
वे प्रभु मेरी रक्षा करें ।।5।।
न यस्य देवा ऋषयः पदं विदु—
र्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम्।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो
दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु।।6।।
भिन्न-भिन्न रूपों में नाट्य करने वाले अभिनेता के वास्तविक स्वरूप को जिस प्रकार साधारण दर्शक नहीं जान पाते,
उसी प्रकार सत्व प्रधान देवता अथवा ऋषि भी जिनके स्वरूप को नहीं जानते,
फिर दूसरा साधारण जीव तो कौन जान अथवा वर्णन कर सकता है—-
वे दुर्गम चरित्र वाले प्रभु मेरी रक्षा करें ।।6।।
09/12/19, 5:10 am – FB Gagan Sharma Shastta Gyan: Table of 2.5 is very easy to recite , just add one more decimal to table of 25
For 1.25 , make half of 2.5
Which is again not tough for someone with mathematical apptitude🙏
09/12/19, 5:15 am – +91 : दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलं
विमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः।
चरन्त्य लोकव्रतमव्रणं वने
भूतात्मभूताः सुहृदः स मे गतिः।।7।।
आसक्ति से सर्वथा छूटे हुए;
सम्पूर्ण प्राणियों में आत्म बुद्धि रखने वाले;
सबके अकारण हितू
एवम् अतिशय साधु- स्वभाव मुनि गण जिनके परम मंगलमय स्वरूप का साक्षात्कार करने की इच्छा से वन में रह कर अखण्ड ब्रह्मचर्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते हैं;
वे प्रभु ही मेरी गति हैं ।।
09/12/19, 5:17 am – +91 :
09/12/19, 5:57 am – +91 : न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा
न नाम रूपे गुण दोष एव वा।
तथापि लोकाप्ययसम्भवाय यः
स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति।।8।।
जिनका हमारी तरह कर्म वश न तो जन्म होता है
और न जिनके द्वारा अहंकार प्रेरित कर्म ही होते हैं
जिनके निर्गुण स्वरूप का न तो कोई नाम है न रूप ही
फिर भी जो समयानुसार जगत् की सृष्टि एवं प्रलय ( संहार) के लिए स्वेच्छा से जन्म आदि को स्वीकार करते हैं ।।8।।
तस्मै नमः परेशाय ब्रह्मणेऽनन्त शक्तये।
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे।।
उन अनन्त शक्ति संपन्न परब्रह्म परमेश्वर को नमस्कार है ।
उन प्राकृत आकार रहित एवम् अनेकों आकार वाले अद्भुत कर्मा भगवान् को बार-बार नमस्कार है ।।9।।
09/12/19, 6:18 am – Abhinandan Sharma: 🙏🙏🙏
09/12/19, 8:32 am – +91 : https://www.myindiamyglory.com/2017/12/27/300-bc-book-indica-megasthenes-dispels-caste-theories-india/
09/12/19, 4:41 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: न्याय दर्शन
साधकतम का अर्थ है जो साधन क्रिया का प्रकृष्टोपकारक अर्थात् सबसे अधिक समीपवर्ती हो– जिसका व्यापार होते ही क्रिया की फल-निष्पत्ति हो जाय, बीच में किसी दूसरी वस्तु का व्यवधान नहीं रहे। अत: ‘साधकतम’ शब्द की व्याख्या इस प्रकार की गई है
स्वनिष्ठव्यापाराव्यवधानेन फलनिष्पादकम् इदमेव साधकतमम् ।। लघुमंजूषा
उपयुक्त उदाहरण में बाण लगते ही वेधन क्रिया हो जाती है। दोनों के बीच में कोई व्यवधान नहीं रहता। इसलिये धनुष, डोरी आदि अनेक सहायक कारण होते हुए भी ‘साधकतम’ या ‘करण’ बाण ही है। इसीलिये कहा जाता है।
*वाणेन हतो मृगः*
अर्थात् हरिण बाण के द्वारा मारा गया। ‘धनुष, डोरी या हाथ के द्वारा हरिण मारा गया’ ऐसा नहीं कहा जाता।
सारांश यह कि अव्यवहित रूप से क्रिया की निष्पत्ति करनेवाला साधन प्रकष्टोपकारक कारण कहलाता है। इसीका नाम साधकतम या ‘करण’ है।
“यद्व्यापाराव्यवधान क्रियानिष्पत्ति स्तत्प्रकृष्टं बोध्यम । प्रकृष्टोपकारकं करणसज्ञ स्यात् ।
अब प्रमाण शब्द के अर्थ पर आइए। जो प्रमा या यथार्थ ज्ञान का कारण अथवा साधकतम हो, वह ‘प्रमाण’ कहलाता है।
मान लीजिये, आपके सामने वर्षा हो रही है। आप जानते हैं कि वर्षा हो रही है। यह जानने की क्रिया कैसे उत्पन्न होती है ? देखने से । देखने के साथ ही यह ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। इसलिये यहाँ विषय का प्रत्यक्ष दर्शन ही प्रमा का कारण अथवा प्रमाण है।
प्रमा का साधकतम कारण प्रमाण कहलाता है। बिना कारण के कार्य नहीं हो सकता है इसलिये बिना प्रमाण के प्रमा नहीं हो सकती । प्रमाण के व्यापार का फल ही ‘प्रमा’ वा ‘प्रमिति है।
09/12/19, 5:07 pm – Abhinandan Sharma: 👏
09/12/19, 5:12 pm – Abhinandan Sharma: You deleted this message
09/12/19, 5:13 pm – Abhinandan Sharma: बाबा लोग कहते हैं कि ईश्वर आस्था का विषय है, आत्मा होती है, मान लो ! पर कैसे मान लें कि ईश्वर है ? कैसे मालूम कि आत्मा होती है ? क्या मालूम, ईश्वर न होता हो, आप हमें लल्लू बनाते हो !!! ऐसा नहीं है ।
हमारे सनातन धर्म मे कोई भी बात बिना प्रमाण के नहीं की जाती थी। ईश्वर है, क्योंकि वो तर्क (लॉजिक) से प्रमाणित है । आत्मा है क्योंकि उसका भी प्रमाण है। जब भारत में बौद्ध भिक्षुओं में ये प्रचार कर दिया कि कोई ईश्वर नही होता तो भारतीय मनीषियों ने, उसके खण्डन के लिये, तर्कशास्त्र को 500 साल लगाकर, पीढियां लगाकर, पुनर्भाषित किया और सिद्ध किया कि ईश्वर मात्र आस्था का विषय नहीं है । (इसके लिये पढ़ें उदयाणाचार्य कृत न्याय कुसुमांजलि और आत्मा की सिद्धि के लिए पढ़ें आत्मतन्वविवेक)
इसी क्रम में इस बार हमने समझा कि प्रमाण क्या होता है ? कैसे समझें कि कौन सी चीज प्रमाण है ! इस संदर्भ में चर्चा हुई कि हम हिन्दू कैसे बने । हम इंडियंस कैसे बने । आप भी देखिये और समझिये इस महत्वपूर्ण वीडियो से ।
https://youtu.be/cMpNF4OwfR8
09/12/19, 5:24 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👌🏼
09/12/19, 5:27 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👌🏼👌🏼
09/12/19, 5:31 pm – +91 : 🙏🙏
09/12/19, 5:57 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: बहुत ही सुन्दर तरीके से समझाया।
आपने बताया कि मन ग्यारहवीं इन्द्रिय है जो बाकी इंद्रियों की तरह भौतिक नहीं, अभौतिक है। तो क्या यह सूक्ष्म शरीर का भाग होगा?
अगर मन भौतिक ही नही तो ये कैसे कह जा सकता है कि मन एक ही है?
09/12/19, 5:58 pm – Mahendra Mishra Delhi Shastra Gyan: https://www.facebook.com/LpuTransformingEducationAwards/videos/805789919881266 Home – Education Awards
09/12/19, 6:01 pm – Abhinandan Sharma: मन एक ही है, इसका उत्तर वीडियो मे ही दिया गया है । किस शरीर का भाग है, इसका उत्तर जल्दी ही अघोरी बाबा की गीता में आएगा।
09/12/19, 6:37 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙏🏼
09/12/19, 6:40 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 3 श्लोक 5 और 6
अनाप्तपुण्योपचयैर्दुरापा फलस्य निर्धूतरजाः सवित्री ।
तुल्या भवद्दर्शनसम्पदेषा वृष्टेर्दिवो वीतबलाहकायाः ।। ३.५ ।।
अर्थ: पुन्यपुञ्ज सञ्चित न करनेवाले लोगों के लिए दुर्लभ, अभिलाषाओं को सफल करनेवाली, रजोगुणरहित यह आपके (मङ्गलदायी) दर्शन की सम्पत्ति बादलों से विहीन आकाश की वर्षा के समान (आनन्ददायिनी) है ।
टिप्पणी: बिना बादल की वृष्टि के समान यह आपका अप्रत्याशित शुभ दर्शन हमारे लिए सर्वथा किसी न किसी कल्याण का सूचक है ।
उपमा अलङ्कार
अद्य क्रियाः कामदुघाः क्रतूनां सत्याशिषः सम्प्रति भूमिदेवाः ।
आ संसृतेरस्मि जगत्सु जातस्त्वय्यागते यद्बहुमानपात्रं ।। ३.६ ।।
अर्थ: आज के दिन मेरे किये हुए यज्ञों के अनुष्ठान फल देने वाले बन गए । इस समय भूमि के देवता ब्राह्मणों के आशीर्वचन सत्य हुए । आपके इस आगमन से (आज मैं) जब से इस सृष्टि की रचना हुई है तब से आज तक संसार भर में सब से अधिक सम्मान का भाजन बन गया हूँ ।
टिप्पणी: सम्पूर्ण सत्कर्मों के पुण्य प्रभाव से ही आपका यह मंगलदायी दर्शन हुआ है । मुझसे बढ़कर इस सृष्टि में कोई दूसरा भाग्यशाली व्यक्ति आज तक नहीं हुआ ।
पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।
10/12/19, 5:02 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायावि ब्रह्म शाश्वतम् ।
अभिन्नम् तद्वपुर्ज्ञात्वा मुच्यते भवबन्धनात् ।।
शि. पु. उ. सं. ५१|१२
प्रकृति को माया जाने और सनातन ब्रह्म को मायावी अथवा मायां का स्वामी समझें । उन दोनों के स्वरूप को एक-दूसरे से अभिन्न जानकर मनुष्य संसार-बन्धन से मुक्त हो जाता है ।
10/12/19, 5:15 am – +91 : नम आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि।।10।।
स्वयं प्रकाश एवम् सबके साक्षी परमात्मा को नमस्कार है ।
उन प्रभु को, जो मन,वाणी एवम् चित्त वृत्तियों से भी सर्वथा परे है,
बार – बार नमस्कार है ।।10।।
सत्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता।
नमः कैवल्य नाथाय निर्वाण सुख संविदे।।11।।
विवेकी पुरुष के द्वारा सत्व गुण विशिष्ट निवृत्ति धर्म के आचरण से प्राप्त होने योग्य,
मोक्ष सुख के देने वाले तथा मोक्ष सुख की अनुभूति रूप प्रभु को नमस्कार है ।।11।।
नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञान घनाय च।।12।।
सत्व गुण को स्वीकार कर के शान्त,
रजोगुण को स्वीकार कर के घोर एवम् तमोगुण को स्वीकार कर के मूढ- से प्रतीत होने वाले, भेद रहित;
अतएव सदा सम भाव से स्थित ज्ञान घन प्रभु को नमस्कार है ।।12।।
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे।
पुरुषायात्ममूलाय मूल प्रकृतये नमः।।13।।
शरीर, इंद्रिय आदि के समुदाय रूप सम्पूर्ण पिण्डों के ज्ञाता,
सबके स्वामी एवं साक्षी रूप आपको नमस्कार है ।
सबके अंतर्यामी, प्रकृति के भी परम कारण, किन्तु स्वयं कारण रहित प्रभु को नमस्कार है ।।13।।
सर्वेन्द्रिय गुणद्रष्टे सर्व प्रत्यय हेतवे।
असताच्छाययोक्ताय सदा भासाय ते नमः।।14।।
सम्पूर्ण इंद्रियों एवं उनके विषयों के ज्ञाता ,
समस्त प्रतीतियों के कारण रूप,
सम्पूर्ण जड- प्रपञ्च एवं सबकी मूल भूता अविद्या के द्वारा सूचित होने वाले तथा सम्पूर्ण विषयों में अविद्या रूप से भासने वाले
आप को नमस्कार है।।14।।
10/12/19, 5:20 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙏🏼🙏🏼
10/12/19, 5:37 am – +91 : 🙏🌹🙏
10/12/19, 6:02 am – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: ।।पंचतंत्र।।
प्रथम तन्त्र
मित्रभेद (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
कथा क्रम : एक
सरुषि नृपे स्तुतिवचनं तदभिमते प्रेम तदि्द्वषि द्वेषः ।
तद्दानस्य च शंसा अमन्त्रतन्त्रं वशीकरणम् ।।
राजा को वश में करने के लिए कुछ आवश्यक नियम इस प्रकार हैं—
- राजा का कोपभाजन बने व्यक्ति से कोई भी सम्बन्ध न रखना तथा उसे अपने पास भी न फटकने देना।
- राजा के सम्मुख अथवा उसकी पीठ पीछे भी सदैव उसकी प्रशंसा करना तथा उसके क्रुद्ध होने पर भी उसका स्तुतिगान ही करना।
- सदा ही राजा को प्रिय लगने वाले विषय की प्रशंसा करना और उसे अप्रिय लगने वाले विषय की निन्दा करना।
- राजा की उदारता एवं उसकी दानशीलता का इस प्रकार गुणगान करना कि राजा को हर ओर से वही सुनाई दे।
करटक बोला—बन्धु! यदि तुम स्वामी के पास जाना ही चाहते हो, तो जाओ। मैं तुम्हारी सफलता के लिए ईश्वर से प्रार्थना करूंगा।
इस पर दमनक अपने मित्र करटक का अभिवादन करके पिंगलक की ओर चल दिया। दमनक को अपनी ओर आता देखा,
तो पिंगलक ने अपने द्वारपाल से कठोर स्वर में कहा—
वेत्रपाल! दमनक हमारे पूर्व मन्त्री का बेटा है, इसे हमारे पास आने का अधिकार है। द्वारपाल ने ‘जो आज्ञा महाराज’ कहते हुए सिंह की आज्ञा का पालन किया। दमनक ने भी पिंगलक को देखते ही उसे प्रणाम किया और फिर उसके द्वारा निर्दिष्ट आसन पर चुपचाप जा बैठा।
पिंगलक ने दमनक को आशीर्वाद दिया और उससे पूछा—अरे दमनक! तुम तो बहुत दिनों बाद दिखाई दिये हो, सब कुशल तो है?
दमनक ने अत्यन्त विनीत स्वर में कहा—स्वामी! आपकी दया से मैं कुशल से हूं। लेकिन अब मुझे आपसे कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है, फिर भी, आपसे कुछ कहना आवश्यक समझकर ही मैं आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूं।
आप तो जानते ही हैं कि राजाओं को सभी प्रकार के लोगों से समय-समय पर काम पड़ता रहता है। यह कोई अनोखी बात नहीं है। हम तो वंश-परम्परा से आपके शुभचिन्तक और सुख-दुःख में साथ देने वाले रहे हैं।
आज हमारे पास कोई अधिकार नहीं है, हम अपने सभी अधिकारों से वञ्चित कर दिये गये हैं।
स्थानेष्वेव नियोक्तव्या भृत्याश्चाभरणानि च ।
नहि चूडामणिः पादे प्रभवामीति बध्यते ।।
यदि सेवक और आभूषण नियत स्थान पर ही रहें, तब ही उनकी शोभा होती है। यदि मुकुट को पैरों में बांध दिया जाये, तो इससे मुकुट का अपमान तो होता ही है, उसे धारण करने वाले की अज्ञानता का भी पता चल जाता है।
अनभिज्ञो गुणानां यो न भृत्यैरनुगम्यते ।
धनाढ्योऽपि कुलीनोऽपि क्रमायातोऽपि भूपतिः ।।
यह तो आप भी जानते होंगे कि धनी, कुलीन और वंश-परम्परा से राजा के गुणी सेवक भी अपने गुणों को महत्त्व न देने वाले स्वामी को छोड़कर चले जाते हैं। महाराज! आप मुझे बहुत दिनों के बाद दिखाई देने का उलाहना दे रहे हैं, तो इसका कारण भी जान लीजिये।
सव्यदक्षिणयोर्यत्र विशेषो नास्ति हस्तयोः ।
कस्तत्र क्षणमप्यार्यो विद्यमानगतिर्वसेत् ।।
जहां दायें व बायें हाथ में अन्तर नहीं किया जाता, गुणी सेवक तथा गुणरहित सेवक में अन्तर नहीं किया जाता,
दोनों के साथ एक-जैसा ही व्यवहार किया जाता है, वहां स्वाभिमानी सेवक कब तक टिक सकता है?
काचे मणिर्मणौ काचो येषां बुद्धिर्विकल्प्यते ।
न तेषां सन्निधौ भृत्यो नाममात्रोऽपि तिष्ठति ।।
कांच को मणि और मणि को कांच समझने वाले बुद्धिहीन स्वामी के पास गुणी सेवक कब तक टिक सकता है, इसे तो आप भली प्रकार जानते हैं।
10/12/19, 7:24 am – +91 : 💐💐💐 मानस चिंतन 💐💐💐
9 दिसम्बर – श्रीरामचरितमानस
बिनु सतसंग बिबेक न होई ।
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ।।
सतसंगत मुद मंगल मूला ।
सोइ फल सिधि सब साधन फूला
( बालकांड )
राम राम बंधुओं , सत्संग की महिमा बताते हुए गोस्वामी जी कहते हैं कि बिना सत्संग के विवेक नहीं होता है और सत्संग राम कृपा के बिना संभव नहीं है । सत्संग आनंद व कल्याण की जड है इसकी प्राप्ति ही फल है अन्य साधन तो फूल है ।
मित्रों , जीवन में जो कुछ भी प्राप्य है सब कुछ राम कृपा से ही संभव है । उसकी निरंतरता हेतु एक ही नाम , श्रीराम जय राम जय जय राम 🚩🚩🚩
10/12/19, 7:36 am – Vaidya Ashish Kumar: 🌹🌹🌹
10/12/19, 7:40 am – Vaidya Ashish Kumar: 🌹🌹🌹🌹🌹👌🏻👌🏻
10/12/19, 8:39 am – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: 🙏बहुत बड़ी कृपा है , प्रभु श्री राम की , आप जैसे महान विद्वान लोगो का सत्संग दिया है ।🙏🙏
10/12/19, 10:33 am – Shastra Gyan Maniah Patiala: प्रमाता, प्रमेय और प्रमाण-प्रमा वा ज्ञान का अस्तित्व तीन वस्तु की अपेक्षा रखता है। ये है-(१) प्रमाता (२) प्रमेय और (३) प्रमाण ।
(क) प्रमाता-(Subject of Cognition )। ज्ञान का अर्थ है जानना । और जानने की क्रिया किसी चेतन व्यक्ति में ही हो सकती है। इसलिये ज्ञान का अस्तित्व ज्ञातृसापेक्ष है। बिना ज्ञाता के ज्ञान नहीं हो सकती । ज्ञाता जो ज्ञान विशेष का आधार होता है, ‘प्रमाता’ कहलाता है।
(ख) प्रमेय ( Object of Cognition) ज्ञान जब होगा तब किसी विषय का। निर्विषयक व शून्य ज्ञान असम्भव है। ज्ञान का व्यापार जिस विषय पर फलित होता है ( अर्थात् जो विषय गृहीत वा उपलब्ध होता है) वह ‘प्रमेय’ कहलाता है। घट, पट आदि समस्त विषय जिनका हमें ज्ञान प्राप्त होता है, प्रमेय कोटि में आते है ।
(ग) प्रमाण ( Means of Cognition ) ज्ञाता भी रहे और ज्ञय पदार्थ भी रहे, किन्तु यदि जानने का साधन नहीं हो तो ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता। सामने धट रहते हुए भी दृष्टिहीन व्यक्ति को उसका अनुभव नहीं इसलिये ज्ञान को ज्ञान-प्राप्ति का साधन होना आवश्यक है यह सारा प्रमाण कहलाता है।
मान लीजिये, आपके सामने एक घोड़ा है। आप देख रहे हैं कि यह घोड़ा है। यहाँ आप प्रमाता है, घोड़ा प्रमेय है, देखना प्रमाण है, और ‘यह घोड़ा है’ ऐसा जो फलस्वरूप ज्ञान उत्पन्न होता है वह ‘प्रमा’ है।
यदि केवल घोड़ा ( प्रमेय ) ही रहता पर उसे देखने वाला ( प्रमाता) कोई नहीं रहता, तो उपयुक्त ज्ञान किसको होता ? इसलिये ज्ञान के हेतु प्रमाता का होना आवश्यक है। इसी तरह यदि केवल प्रमाता ही मौजूद रहता, किन्तु उसके सामने कोई विषय नहीं रहता तो फिर ज्ञान किसका होता ? इसलिये प्रमेय का होना भी आवश्यक है। इसी तरह, प्रमाता और प्रमेय के रहते हुए भी यदि दृष्टिशक्ति का अभाव रहता, तो फिर प्रमेय का ज्ञान कैसे होता ? इसलिये प्रमाण का होना भी आवश्यक है। इस तरह प्रमाता, प्रमेय और प्रमाण ये तीनों प्रमा के हेतु अनिवार्य है।
10/12/19, 10:36 am – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: 🙏🙏🙏
10/12/19, 10:40 am – Shastr Gyan Pranav Dvivedi Lucknow: क्या राजा को वश में रखने के ये उपाय वर्तमान में भी इतने ही प्रभावी है?
10/12/19, 12:10 pm – Abhinandan Sharma: जी, ये शाश्वत नियम हैं, ह्यूमन behavior के ! ये ऐसे ही रहेंगे |
10/12/19, 2:11 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: “हितं मनोहारी च दुर्लभं वचः”
किरातार्जुनीय में किरात राजा युधिष्ठिर से कहता है कि ऐसे वचन जो मनोहारी और हितकारी भी हों, ऐसा दुर्लभ है।
तो क्या सही होगा, राजा की प्रशंसा करते रहना या उसे सत्य से अवगत कराना?
10/12/19, 2:22 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: समयानुकूल स्थिति देख विवेकपूर्ण फैसले लेना चाहिए
10/12/19, 2:24 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: अगर समयानुकूल ही फैसला लेना है तो इतना पढ़ने की क्या आवश्यकता 🤔
10/12/19, 2:24 pm – Ashu Bhaiya: मतलब ? 😀
10/12/19, 2:27 pm – Ashu Bhaiya: युधिष्ठिर का उत्तर स्मरण है ना ?
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां
10/12/19, 2:28 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: जी 🙂
10/12/19, 2:28 pm – Ashu Bhaiya: यहां देश-काल-परिस्थिति के अनुसार कर्म ही धर्म है ।
10/12/19, 2:30 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: यह “सदा” का प्रयोग किया है तो कुछ गड़बड़ लगा । क्योंकि अगर सदा ही प्रशंसनीय बोलेंगे तो देश, काल, परिस्थिति की बात ही नही आएगी
10/12/19, 2:59 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: इतना स्वाध्याय से ही बुद्धि व विवेक जागृत होंगे🙏
10/12/19, 3:01 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
श्री मनुस्मृति
तृतीय अध्याय
वैश्वदेवस्य सिद्धस्य गृह्येऽग्नौ विधिपूर्वकम् ।
आभ्यः कुर्याद्देवताभ्यो ब्राह्मणो होमं अन्वहम् । । ३.८४[७४ं] । ।
अग्नेः सोमस्य चैवादौ तयोश्चैव समस्तयोः ।
विश्वेभ्यश्चैव देवेभ्यो धन्वन्तरय एव च । । ३.८५[७५ं] । ।
कुह्वै चैवानुमत्यै च प्रजापतय एव च ।
सह द्यावापृथिव्योश्च तथा स्विष्टकृतेऽन्ततः । । ३.८६[७६ं] । ।
एवं सम्यग्घविर्हुत्वा सर्वदिक्षु प्रदक्षिणम् ।
इन्द्रान्तकाप्पतीन्दुभ्यः सानुगेभ्यो बलिं हरेत् । । ३.८७[७७ं] । ।
मरुद्भ्य इति तु द्वारि क्षिपेदप्स्वद्भ्य इत्यपि ।
वनस्पतिभ्य इत्येवं मुसलोलूखले हरेत् । । ३.८८[७८ं] । ।
उच्छीर्षके श्रियै कुर्याद्भद्रकाल्यै च पादतः ।
ब्रह्मवास्तोष्पतिभ्यां तु वास्तुमध्ये बलिं हरेत् । । ३.८९[७९ं] । ।
हरी ॐ
अर्थ
विश्वेदेव के निमित्त गृह्याग्नि में द्विजों को नित्य होम करना चाहिए,वह आहुति पहले अग्नि और सोम को,फिर दोनों को एक बार में फिर विश्वेदेव को उसके बाद धन्वंतरि को देना चाहिए।*(८४-८५)
*(इस प्रकार आहुति करने में यों बोलना
अग्नेय स्वाहा
सोमाय स्वाहा
अग्निसोमाभ्यां स्वाहा
विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा
धनवन्त्र्यै स्वाहा)
कुहू अमावस्या, अनुमति पूर्णिमा और प्रजापति को आहुति दें,धावा व पृथ्वी को साथ में दे,और अंत मे स्विष्टकृत को आहुति देना चाहिए।
इस प्रकार अच्छी विधि से होम करके सब दिशाओं में प्रदक्षिणा करना चाहिए।
इंद्र यम वरुण,चन्द्र व इनके अनुचरों को बलि दें।घर के द्वार में मरुत को बलि दें,जल मूसल,ओखली और वनस्पति को बलि देना चाहिए।
वास्तुपुरुष के शिर पर अर्थात घर के ईशान कोण पर श्रियै नमः कह कर बलि दें,वास्तु के चरण में भद्रकाल्यै नमः कह कर,मध्य में अर्थात घर के बीच में ब्रह्मवास्तोप्यतीभ्यां नमः कह कर बलि दें।। (८७-८९)
हरी ॐ
10/12/19, 3:04 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: लिखते नहीं बन रहा था इस कारण धावा व पृथ्वी को साथ में दे लिख दिया है धावा नहीं होगा शायद
10/12/19, 3:05 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: Ghya का उच्चारण है
10/12/19, 3:08 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: प्रजापति
धावा
स्विष्टकृत का अर्थ स्पस्ट करें🙏
10/12/19, 3:36 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: सम्भवतः
द्यौ….. या आकाश का देवता
अर्थात आकाश…
dyau द् यौ
10/12/19, 5:16 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: द्यावा सही उच्चारण है मुझे लिखना नही आ रहा था😓
10/12/19, 5:34 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
श्री मनुस्मृति
तृतीय अध्याय
विश्वेभ्यश्चैव देवेभ्यो बलिं आकाश उत्क्षिपेत् ।
दिवाचरेभ्यो भूतेभ्यो नक्तंचारिभ्य एव च । । ३.९०[८०ं] । ।
पृष्ठवास्तुनि कुर्वीत बलिं सर्वात्मभूतये ।
पितृभ्यो बलिशेषं तु सर्वं दक्षिणतो हरेत् । । ३.९१[८१ं] । ।
शूनां च पतितानां च श्वपचां पापरोगिणाम् ।
वयसानां कृमीणां च शनकैर्निर्वपेद्भुवि । । ३.९२[८२ं] । ।
हरि ॐ
अर्थ
विश्वेदेव के निमित्त आकाश में बलि देंवे,दिन देवता व रात्रि देवता को बलि देंवे,घर के सब से ऊँचे भाग में सर्वात्मभूतये नमः कहकर बलि देंवे और बलिशेष को “पृतेभ्यो नमः कहकर दक्षिण दिशा में पितरो को बलि देना चाहिए।
कुत्ता पतित,चांडाल,कोढ़ी,पापी,रोगी,कौवा,कीड़ों को धीरे से जमीन में ही बलि देना चाहिए
हरी ॐ
10/12/19, 6:33 pm – Abhinandan Sharma: मेरे पास ऐसा सुझाव आया है, जो पहले भी कई बार आ चुका है कि मैं जिज्ञासुओं के प्रश्नों के उत्तर भी देने का प्रयास करूं | लोगों के पास प्रश्नों और जिज्ञासाओं का भण्डार है, ऐसा मुझे लगता है और उसी को सुलझाने के लिए, अघोरी बाबा की गीता चल रही है, उन सभी प्रश्नों को समेटते हुए लेकिन वो भी कम ही पड़ रही है शायद | इसलिए लोग बार बार, अलग से प्रश्नों के उत्तर देने के लिए, एक ग्रुप और बनाने को कह रहे हैं | मेरा मत इसमें ऐसा है कि लोगों के पास बहुत से प्रश्न होते हैं लेकिन उससे भी अधिक दुविधा ये है कि एक ही प्रश्न १००० लोग, बार बार पूछते हैं | तो कोई ऐसा तरीका निकालना पड़ेगा कि लोगों को बार बार, एक ही उत्तर देने की आवश्यकता न पड़े और मेरी सारी ऊर्जा, प्रश्नों के उत्तर देने में ही न निकल जाए क्योंकि सोशल मिडिया पर उत्तर देना और सामने बैठ कर उत्तर देना, दो अलग अलग बात हैं | जो बात में 15 मिनट में कह सकता हूँ, उसके लिए मुझे १ घंटे तक लिखना पड़ता है |
अतः, निम्न समाधान समझ में आया है, कृपया आप लोग उसको देखकर अपने सुझाव देने का कष्ट करें –
१. ये सुविधा अन्य ग्रुप्स की भांति फ्री नहीं रहेगी । जो धर्म रक्षक शास्त्रज्ञ ग्रुप में है और धार्मिक कार्यों के लिये सहयोग कर रहा है, मात्र उसके ही प्रश्नों के उत्तर दिए जाएंगे । हो सकता है, वो प्रश्न और भी 100 लोगों का हो, उन्हें उस उत्तर से मदद मिल जाएगी किन्तु प्रश्न पूछने में प्राथमिकता ग्रुप सदस्यों को ही मिलेगी ।
२. क्योंकि मेरे पास अब समय कम ही है किंतु सेवा भी करनी है तो सेवा लेने वाले का भी टेस्ट होना चाहिए कि वो सनातन धर्म के लिये क्या कर रहा है । यदि कुछ नहीं कर रहा है तो स्वयं अध्ययन करे, शास्त्र ज्ञान ग्रुप से जुड़े, शास्त्र ज्ञान सत्र में आये, वहां प्रश्न पूछ लें, अघोरी बाबा की गीता से अपने प्रश्नों के उत्तर प्राप्त कर ले अथवा शास्त्र, क्या सच, क्या झूठ से ज्ञात कर ले किन्तु प्रश्न पूछने में वरीयता केवल धर्म रक्षक शास्त्रज्ञ ग्रुप के सदस्यो को ही मिलेगी ।
- किस प्रश्न का उत्तर देना है, उसका चुनाव मेरा ही रहेगा | जितनी जानकारी होगी, उतना देने का प्रयास करूँगा | एक हफ्ते में १ ही प्रश्न का उत्तर दिया जाएगा क्योंकि इससे अधिक की संभावना नहीं है किन्तु प्रश्न वो लिया जाएगा, जो बहुतायत में होगा और ज्यादा महत्वपूर्ण होगा | बाकी जो प्रश्न का उत्तर तुरंत दिया जा सकता होगा अथवा पहले कहीं दिया जा चुका होगा, वहां का लिंक ढूंढकर तुरंत दे दिया जाएगा |
४. प्रश्न का उत्तर फेसबुक और व्वेहात्बसप्साप के अलावा वेबसाइट पर भी डाला जाएगा ताकि वो गूगल में भी दिखे और अन्य लोग भी, जिनके पास सेम प्रश्न हो, वो वहां उत्तर पढ़ सकें और बाद में लोगों को उसका लिंक भी दिया जा सके | फेसबुक और व्हात्सप्प पर लिखने का कोई फायदा नहीं होता क्योंकि वहां पोस्ट कुछ समय बाद गायब हो जाती है लेकिन वेबसाइट पर ऐसा नही होगा | अतः हमेशा के लिए एक उत्तम प्रश्न और उसका उत्तर इन्टरनेट पर आ जाएगा, सभी के लिए | ये मुख्य उद्देश्य रहेगा |
आप लोगों की क्या राय है, कृपया अवगत कराएँ |
10/12/19, 6:43 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: साधु साधु,,,
अतिउत्तम🙏👌
10/12/19, 6:43 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: 😊😊
10/12/19, 6:45 pm – +91 : ।। श्री हरिः ।।
*श्रीमद्भगवद्गीता*
*अथ प्रथमोध्यायः*
*धृतराष्ट्र उवाच*
धर्मक्षेत्रे कुरूक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।।
धृतराष्ट्र बोले– हे संजय ! धर्म भूमि कुरूक्षेत्र में एकत्रित , युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ? ।।१।।
10/12/19, 6:46 pm – +91 :
10/12/19, 6:51 pm – Abhinandan Sharma: 👏
10/12/19, 6:52 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙏🙏
10/12/19, 6:57 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: बहुत ही सुन्दर शुरुआत
गीता पहले पढ़ी थी पर कभी समझ नहीं आयी । अब इतने सारे शास्त्र ज्ञान के सत्र सुनने के बाद और अघोरी बाबा की गीता को पढ़ने बाद गीता समझ लेने की आशा है। 👌🏼👌🏼
10/12/19, 7:01 pm – +91 : बिना एडमिन महोदय के पोस्ट डालने पर इस अल्पज्ञ की तरफ से क्षमा याचना भी स्वीकार करें।
🙏🌹🙏🌹🙏
10/12/19, 7:01 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: 🙏🙏🙏
10/12/19, 7:02 pm – +91 : बिना एडमिन महोदय की अनुमति के बिना पोस्ट डालने पर इस अल्पज्ञ की तरफ से क्षमा याचना भी स्वीकार करें।
🙏🌹🙏🌹🙏
10/12/19, 7:03 pm – Abhinandan Sharma: 🙏 जो आपने स्वयं पढ़ा हो, किसी शास्त्र से, कोई दोहां, कोई चोपाई, कोई पुराण, कुछ भी, वो आप इस ग्रुप में डाल सकते हैं | ग्रुप ज्वाइन करने वाले, खुद भी कोई भी एक पुस्तक, ग्रुप एडमिन के परामर्श से प्रारंभ कर सकते हैं और उसे पढ़कर ग्रुप में अन्य मेम्बेर्स को पढने के लिए डाल सकते हैं | अभी ग्रुप में ४-5 पुस्तक इस प्रकार के प्रयास से चल रही है, जिससे सभी लोग वो ग्रन्थ पढ़ सकें | स्वागतम !
10/12/19, 7:05 pm – +91 : आत्मिक आभार। अभिनन्दन जी का अभिनन्दन….🙏🙏
10/12/19, 9:40 pm – +91 : बिजली बिल जमा करने का ऐसा एनाउंसमेंट नही सुना होगा ।
10/12/19, 9:40 pm – +91 :
10/12/19, 9:43 pm – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur: इस तरह का मैसेज कृपया इस ग्रुप में न भेजें ,ग्रुप की गंभीरता और मर्यादा बनाए रखें।
10/12/19, 9:48 pm – LE Ravi Parik : Nice start.
10/12/19, 10:16 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi removed +91 99992 86428
11/12/19, 5:23 am – +91 : नमो नमस्तेऽखिल कारणाय
निष्कारणायाद्भुत कारणाय।
सर्वागमाम्नाय महार्णवाय
नमोऽपवर्गाय परायणाय।।15।।
सबके कारण किंतु स्वयं कारण रहित तथा कारण होने पर भी परिणाम रहित होने के कारण
अन्य कारणों से विलक्षण आपको बारम्बार नमस्कार है ।
सम्पूर्ण वेदों एवं शास्त्रों के परम तात्पर्य,
मोक्ष रूप एवम् श्रेष्ठ पुरुषों की परम गति भगवान् को नमस्कार है ।।15।।
गुणारणिच्छन्नचिदूष्मपाय
तत्क्षोभविस्फूर्जित मानसाय।
नैष्कर्म्य भावेन विवर्जितागम–
स्वयं प्रकाशाय नमस्करोमि।।16।।
जो त्रिगुण रूप काष्ठों में छिपे हुए ज्ञान मय
अग्नि हैं,
उक्त गुणों में हलचल हो जाने पर जिनके मन में सृष्टि रचने की बाह्य वृत्ति जाग्रत हो जाती है तथाआत्म तत्व की भावना के द्वारा विधि निषेध रूप शास्त्र से ऊपर उठे हुए ज्ञानी महात्माओं में जो स्वयं प्रकाशित रहते हैं,
उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ ।।16।।
11/12/19, 5:36 am – +91 : 🙏🙏
11/12/19, 11:57 am – Abhinandan Sharma: वेबसाइट का डिजाईन बदल दिया गया है और क्वेश्चन और आंसर पेज बना दिया है, जिससे कि लोग अपने प्रश्न पूछ सकें – https://shastragyan.apsplacementpltd.in/%e0%a4%9a%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%9a%e0%a4%be-%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b7%e0%a5%87%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0/dwqa-ask-question/
11/12/19, 11:58 am – Abhinandan Sharma: ज्योतिष अध्ययन, भाग २
प्राचीन काल में पल का प्रयोग तोलने की इकाई के रूप में भी किया जाता था |
१ पल = ४ तौला (जिस समय में एक विशेष प्रकार के छिद्र द्वारा घटिका यंत्र में चार तौले जल चढ़ता है उसे पल कहते हैं | )
जितने समय में मनुष्य की पलक गिरती है उसे निमेष कहते हैं |
१८ निमेष = १ काष्ठा
३० काष्ठा = १ कला = ६० विकला
३० कला = १ घटिका
२ घटिका = ६० कला = १ मुहूर्त
३० मुहूर्त = १ दिन
इस प्रकार १ नक्षत्र दिन = ३० x २ x ३० x ३० x 18 = ९७२००० निमेष
उपरोक्त गणना सूर्य सिद्धांत से ली गयी है किन्तु स्कन्द पुराण में इसकी संरचना कुछ भिन्न मिलती है | उसके अनुसार
१५ निमेष = १ काष्ठा
३० काष्ठा = १ कला
३० कला = १ मुहूर्त
३० मुहूर्त = १ दिन रात
इसके अनुसार
१ दिन रात = ३० x ३० x ३० x १५ = ४०५०० निमेष
यहाँ हम सूर्य सिद्धांत को ज्यादा प्रमाणित मानते हैं क्योंकि वो विशुद्ध ज्योतिष ग्रन्थ है और उसकी गणना भी ज्योतिषी द्वारा ही की गयी है जबकि स्कन्द पुराण में मात्र अनुवाद मिलता है जो गलत भी हो सकता है क्योंकि कोई आवश्यक नहीं की अनुवादक ज्योतिषी भी हो |
अब
१ दिन = २१६०० प्राण = ८६४०० सेकण्ड्स = ९७२००० निमेष
१ प्राण = ९७२०००/२१६०० = ४५ निमेष
१ सेकंड = ९७२०००/८६४०० = ११.२५ निमेष
11/12/19, 12:44 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: प्रमाण का लक्षण-जिस साधन के द्वारा प्रमाता को प्रमेय का ज्ञान होता है, वह प्रमाण कहलाता है।
प्रमाता येनार्थ प्रमिणोति तत् (प्रमाणम् )
– वात्स्यायन (१।११)
ज्ञाता और विषय-ज्ञान के बीच में सम्बन्ध स्थापित करनेवाला साधन प्रमाण ही है। उदयनाचार्य कहते हैं-
मितिः सम्यक परिच्छित्तिस्तद्वत्ता च प्रमातृता । तदयोगव्यवच्छेदः प्रामाण्यं गौतमे मते ।
न्यायकुसुमाञ्जलि
दुसरे शब्दों में यों कहिये कि विषयज्ञान का हेतु ‘प्रमाण’ कहलाता है । उद्योतकर यही परिभाषा देते है।
अर्थोपलब्धिहतु: प्रमाणम् ।
न्याय वार्तिक
अर्थोपलब्धि कभी-कभी भ्रमात्मक वा संशयात्मक भी हो सकती है। इसलिये जयन्त भट्ट ने उपयुक्त परिभाषा में अर्थोपलब्धि के पहले (१) अव्यभिचारिणी और (२) असन्दिग्धा, ये दो विशेषण जोड़ दिये हैं।
प्रमाण की परिभाषा भिन्न-भिन्न आचार्यों ने भिन्न-भिन्न रूप से की है। किंतु प्रमाण का प्रमाजनकत्व प्रायः सभी स्वीकार करते है ।
प्रमाण का महत्व– प्रमाण ही ज्ञान का मापक तुलादंड है । कोई ज्ञान सत्य है या असत्य इसकी जांच करने की कसौटी प्रमाण ही है। कहा भी है,
मानाधीना मेयसिद्धिः
जिस प्रकार तराजू के पलड़े पर रखने से किसी वस्तु का परिमाण निर्धारित होता है, उसी प्रकार प्रमाण के मानदण्ड द्वारा किसी ज्ञान का मूल्य आंका जाता है।
प्रमीयते परिच्छिद्यते अनेन इति प्रमाणम् ।
बिना प्रमाण के कोई भी पदार्थ माननीय नहीं समझा जा सकता। इसलिये वृत्तिकार (विश्वनाथ) कहते है।
न्यायशास्त्र में प्रमाण का महत्व सर्वोपरि है। यहां तक कि न्याय का नाम ही प्रमाणशास्त्र’ पड़ गया है। नैयायिकगण प्रमाण को ईश्वर के समक्ष ही समझते है। कही-कही तो विष्णु के अर्थ में भी प्रमाण शब्द का प्रयोग देखने में आता है। उदयनाचार्य प्रमाण की उपमा साक्षात् शिव से देते हैं ।
11/12/19, 12:55 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: सूर्य सिद्धान्त के अनुसार
२ घटी(24×2=48min) = १ मुहूर्त
स्कन्द पुराण के अनुसार
१ घटी(24min) = १ मुहूर्त
क्या इतना अन्तर हो सकता है?
11/12/19, 12:56 pm – Abhinandan Sharma: इतना अंतर ही है इसीलिए सूर्य सिद्धांत को प्रमाण माना गया है |
11/12/19, 12:56 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👍🏼
11/12/19, 5:14 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: प्रमाण की संख्या– प्रमाण कितने हैं ? इस प्रश्न पर भिन्न-भिन्न दर्शनकारों के भिन्न-भिन्न मत है। प्रमाणों की संख्या एक से लेकर आठ तक मानी गई है।
लोकायत मत के प्रवर्तक चार्वाक केवल एक ही प्रमाण मानते हैं। वह है प्रत्यक्ष । बौद्ध और वैशेषिक दो प्रमाण मानते है, प्रत्यक्ष और अनुमान । सांख्य में इन दोनों के अलावे शब्द प्रमाण भी माना गया है । नैयायिकगरण एक चौथा प्रमाण उपमान भी इनमें सम्मिलित कर देते हैं। प्रभाकर मीमांसक एक पाँचवाँ प्रमाण अर्थापत्ति जोड़ देते हैं। भट्ट मीमांसक और वेदान्ती इन पाँचों के अतिरिक्त एक छठा प्रमाण भी मानते हैं। वह है अभाव या अनुपलब्ध । पौराणिक गण इन सब प्रमाणों के साथ-साथ संभव और ऐतिह्म नामक दो और प्रमाण मानते हैं । नीचे के कोष्ठक से यह बात स्पष्ट हो जाएगी।
–——————————––——–
दर्शन। प्रमाण
—-–—–———————————-
चार्वाक। १ प्रत्यक्ष
—————————––————–
वैशेषिक। १ प्रत्यक्ष, २ अनुमान
सांख्य। १ प्रत्यक्ष, २ अनुमान, ३ शब्द
न्याय। १ प्रत्यक्ष, २ अनुमान, ३ शब्द, ४ उपमान
––——————————————
प्रभाकर मीमांसा ।१ प्रत्यक्ष, २ अनुमान, ३ शब्द, ४ उपमान, ५ अर्थापत्ति
भट्ट मीमांसा। १ प्रत्यक्ष, २ अनुमान, ३ शब्द, ४ उपमान, ५ अर्थापत्ति वेदान्त ६ अनुपलब्धि
———–———————————–
11/12/19, 5:16 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙏🏼🙏🏼
11/12/19, 6:35 pm – +91 : ।। श्री हरिः ।।
*श्रीमद्भगवद्गीता*
*अथ प्रथमोध्यायः*
*संजय उवाच*
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् ।।
संजय बोले– उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूह रचना युक्त पाण्डवों की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा।।२।।
11/12/19, 6:36 pm – +91 :
11/12/19, 6:45 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 3 श्लोक 7 और 8
श्रियं विकर्षत्यपहन्त्यघानि श्रेयः परिस्नौति तनोति कीर्तिम् ।
संदर्शनं लोकगुरोरमोघं तवात्मयोनेरिव किं न धत्ते ।। ३.७ ।।
अर्थ: ब्रह्मा के समान जगत्पूज्य आप का यह अमोघ (कभी व्यर्थ न होने वाला) पुण्यदर्शन लक्ष्मी की वृद्धि करनेवाला है, पापों का विनाशक है, कल्याण का जनक है तथा यश का विस्तारक है । वह क्या नहीं कर सकता है ।
टिप्पणी: अर्थात उससे संसार में मनुष्य के सभी मनोरथ पूरे होते हैं ।
पूर्वार्द्धमें समुच्चय अलङ्कार है तथा उत्तरार्द्ध में उपमा एवं अर्थापत्ति अलङ्कार
च्योतन्मयूखेऽपि हिमद्युतौ मे ननिर्वृतं निर्वृतिमेति चक्षुः ।
समुज्झितज्ञातिवियोगखेदं त्वत्संनिधावुच्छ्वसतीव चेतः ।। ३.८ ।।
अर्थ: अमृत परिस्रवण करनेवाली किरणों से युक्त हिमांशु चन्द्रमा में भी शान्ति न प्राप्त करनेवाले मेरे नेत्र आपके (इस) दर्शन से तृप्त हो रहे हैं तथा मेरा चित्त छूटे हुए बन्धु-बान्धवों के वियोग-जनित दुःख को भूल कर मानो पुनः जीवित सा हो रहा है ।
टिप्पणी: आपके इस पुण्यदर्शन से मेरे नेत्र सन्तुष्ट हो गए और मेरा मन नूतन उत्साह से भर गया ।
पूर्वार्द्ध में विशेषोक्ति और उत्तरार्द्ध में उत्प्रेक्षा अलङ्कार
11/12/19, 10:32 pm – Shastra Gyan Ruma Verma Lucknow: https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=997671050606761&id=100010916267019&sfnsn=scwspwa&extid=rjUe0Zq58G1Nugcp&d=w&vh=i
11/12/19, 11:16 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: रामायण बालकाण्ड – अष्टदश सर्ग श्लोक ६,७,८,९,१०
शान्तया प्रययौ सार्धमृश्यश्रृङ्गः सुपूजितः। आन्वीयमानो राज्ञाऽथ सानुयात्रेण धीमता॥६॥
ऋष्यश्रङ्ग भी अपनी पत्नी शान्ता सहित महाराज से विदा हो अपने स्थान को चल दिए। महाराज उनको पहुंचाने के लिए कुछ दूर तक उनके साथ गये।
एवं विसृज्य तखन्सर्वान्राजा सम्पूर्णमानसः। उवास सुखितस्तत्र पुत्रोत्पत्तिं विचिन्तयन्॥७॥
इस प्रयोग उन सब को विदा कर महाराज दशरथ सफल मनोरथ हो, सन्तानोत्पत्ति की प्रतीक्षा करते हुए रहने लगे।
ततो यज्ञे समाप्ते तु ऋतूनां षट् समत्ययुः। ततश्च द्वादशे मासे चैत्रे नावगिके तिथौ॥८॥
यज्ञ होने के दिन से जब छः ऋतुएं बीत चुकी और बारहवां महीना लगा, तब चैत्र मास की नवमी तिथि को।
नक्षत्रे ऽदितिदेवत्ये स्वोच्चसंस्थेपु पञ्चसु। ग्रहेषू कर्कटे लग्ने वाक्पताबिन्दुना सह॥९॥
पुनर्वसु नक्षत्र में सूर्य, मंगल, शनि, बृहस्पति और शुक्र के उच्चस्थानों में प्राप्त होने पर अर्थात क्रमशः मेष, मकर, तुला, कर्क और मीन राशियों में आने पर और जब चन्द्रमा बृहस्पति के साथ हो गए, तब कर्क लग्न के उदय होते ही।
प्रोद्यमाने जगन्नाथं सर्वलोकनमस्कृतं। कौसल्याजनयद्रामं दिव्यलक्षणसंयुतम्॥१०॥
सर्वबन्ध जगत के स्वामी, दिव्य लक्षणो से युक्त श्रीरामचन्द्र जी का जन्म कौशल्या जी के गर्भ से हुआ।
12/12/19, 12:45 am – Shyam Sundar Lucknow changed their phone number to a new number. Tap to message or add the new number.
12/12/19, 5:13 am – +91 : मादृक् प्रपन्न पशु पाश विमोक्षणाय
मुक्ताय भूरि करुणाय नमोऽलयाय।
स्वांशेन सर्व तनुभृन्मनसिप्रतीत–
प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते ।।17।।
मुझ जैसे शरणागत पशु तुल्य( अविद्या ग्रस्त) जीव की अविद्या रूपी फाँसी को सदा के लिए पूर्ण रूप से काट देने वाले अत्यधिक दयालु एवं दया करने में कभी आलस्य न करने वाले नित्य मुक्त प्रभु को नमस्कार है ।
अपने अंश से सम्पूर्ण जीवों के मन में अंतर्यामी रूप से प्रकट रहने वाले सर्व नियंता अनन्त परमात्मा आपको नमस्कार है ।।17।।
आत्मात्मजाप्त गृह वित्त जनेषु सक्तै—
र्दुष्प्रापणाय गुण संग विवर्जिताय।
मुक्तात्मभिः स्व हृदये परिभाविताय
ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय।।18।।
शरीर, पुत्र, मित्र, घर ,सम्पत्ति एवम् कुटुम्बियों में आसक्त लोगों के द्वारा कठिनता से प्राप्त होने वाले तथा मुक्त पुरुषों के द्वारा अपने हृदय में निरन्तर चिंतित ज्ञान स्वरूप, सर्व समर्थ भगवान् को नमस्कार है ।।18।।
12/12/19, 5:15 am – +91 :
12/12/19, 6:18 am – FB Mukesh Sinha Pathalgaon CG Shastra Gyan: 🤔🤔🤔
12/12/19, 7:45 am – +91 :
12/12/19, 7:46 am – +91 : 🙏🌹🙏
12/12/19, 8:59 am – FB Mukesh Sinha Pathalgaon CG Shastra Gyan: 12 महीने समझ नही आया 🤔🤔🤔
12/12/19, 9:16 am – Abhinandan Sharma: जिस गर्भ में यदि तेज अधिक होता है, वो गर्भ में अधिक समय लेता है। पहले अधिक तेज वाले बच्चे, देर से पैदा होते थे, चाहे गरुड़ हों या मारुत या विवस्वान । 9 महीने एक एवरेज वैल्यू है, कोई शाश्वत नियम नहीं है । बच्चे कभी जल्दी अथवा देर से पैदा होते थे, डिपेंड करता है कि गर्भ में कितना तेज है ।
जो बच्चे 9 महीने से पहले पैदा होते हैं, आपने देखा होगा कि वो बुद्धि से अथवा इम्यून सिस्टम से, अथवा किसी न किसी रोग से ग्रस्त रहते हैं अथवा नार्मल बच्चों जितने हृष्ट पुष्ट नहीं होते । बहुधा उनकी आयु और यश भी कम ही होता है । मेरी सोसाइटी में, एक महिला को दसवां महीना लगा और वो नार्मल थी, बात मुझ तक आयी तो मैंने श्रीमती जी से कहा कि उसको बोलना नार्मल डिलीवरी ही कराए और जितना भी समय लगे, घबराए नहीं । वो भी मान गयी, रिपोर्ट्स भी सारी नार्मल थीं पर दसवें महीने में जब डॉक्टर के पास पहुची तो डॉक्टर ने इतना डरा दिया कि पहला बच्चा है, क्यों रिस्क लेना, कोई कॉम्प्लिकेटेशन न हो जाये तुरन्त एडमिट करके सिजेरियन कर दिया । अतः गर्भ के महीनों से संशय में न पड़ें ।
12/12/19, 10:50 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: बारह मास में छह ऋतु????
12/12/19, 10:50 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: बारह भी नही ग्यारह मास में
12/12/19, 11:00 am – Abhinandan Sharma: महोदय, ऋतुएं कितनी होती हैं, नाम बताए ।
12/12/19, 11:06 am – Shastragyan Abhishek Sharma: बसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त, शिशिर ऋतु प्रत्येक दो मास की।
12/12/19, 11:06 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: शरद, बसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, हेमन्त और शिशिर।
*ये क्रमशः नहीं हैं।
12/12/19, 11:08 am – Shastragyan Abhishek Sharma: शरद ऋतु तो शरद पूर्णिमा के आसपास होती है।
12/12/19, 11:08 am – Abhinandan Sharma: तो एक ऋतु 2 मास की ही हुई न ! और 11वें मास में छठी ऋतू लग चुकी होती है, जो 12 वें में समाप्त हो जाती है। ठीक है, अब क्लियर है ।
12/12/19, 11:09 am – Abhinandan Sharma: जी ।
12/12/19, 11:09 am – Shastragyan Abhishek Sharma: 🙏🏻
12/12/19, 11:50 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: जी
12/12/19, 1:25 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: *न्याय के चतुर्विध प्रमाण-महर्षि गौतम चार प्रमाण मानते है १ प्रत्यक्ष, २ अनुमान, ३ उपमान और शब्द*
“प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि”
- न्या० सू० १ । १ । २
मान लीजिये, किसी वन मे बाघ है। अब यह ज्ञान आपको चार प्रकार से हो सकता है।
(१) अपनी आँख से बाघ को देखकर । यह प्रत्यक्ष प्रमाण होगा।
(२) मान लीजिये, आप बाघ को देखते नहीं है। किन्तु उसके गुर्राने की आवाज आपको सुनाई पड़ती है। इससे आपको निश्चय हो जाता है कि वन में बाघ है । यह अनुमान प्रमाण है ।
(३) मान लीजिये, आपने बाघ को पहले कभी देखा नही है, किन्तु इतना सुन रखा है कि वह चीते के समान होता है। अब वन में जाने पर आपको एक जन्तु विशेष दिखलाई पड़ता है, जो अ आकार-प्रकार में चीते के सदृश है। बस, आपको बाघ का ज्ञान हो जाता है । यह उपमान प्रमाण है।
(४) यदि कोई जानकार और विश्वस्त आदमी जिसने अपनी आंखों से वन मे बाघ को देखा हो आकर ऐसा कहे तो (बिना देखे या अनुमान किये भी ) वन में बाघ होने का ज्ञान प्राप्त हो जायगा। यह शब्द प्रमाण है।
अब इनमें प्रत्येक प्रमाण का सविस्तार परिचय आगे दिया जाता है।
12/12/19, 5:11 pm – +91 : ।। श्री हरिः ।।
*श्रीमद्भगवद्गीता*
*अथ प्रथमोध्यायः*
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्। व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।।
हे आचार्य!आपके बुद्धिमान् शिष्य द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डु पुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिए।।३।।
12/12/19, 5:12 pm – +91 :
12/12/19, 5:35 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: प्रत्यक्ष का अर्थ-प्रत्यक्ष की व्युत्पत्ति है, ‘प्रति + अक्ष्ण’ अर्थात् जो आँख के सामने हो । अथवा,
“अक्षमक्षं प्रतीत्योत्पद्यते इति प्रत्यक्षम्”
आँख-कान आदि इन्द्रियों के द्वारा जो ज्ञान उत्पन्न हो वह प्रत्यक्ष ज्ञान है। अतएव प्रत्यक्ष सबसे पहला प्रमाण माना जाता है । जो आँख के सामने मौजूद है, उसके लिये और प्रमाण देने की क्या आवश्यकता है ? इसीलिये लोकोक्ति है–
“प्रत्यक्षे कि प्रमाणम् “
और प्रमाणों के द्वारा हम किसी वस्तु का ज्ञान तो प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु उसका साक्षात्कार नही कर सकते । अतः गङ्गेश उपाध्याय कहते है।
“प्रत्यक्षस्य साक्षात्कारित्वं लक्षणम् ।”
यह लक्षण प्रत्यक्ष के सिवा और किसी प्रमाण में नहीं पाया जाता ।मान लीजिये, किसी विश्वस्त व्यक्ति ने आप से कहा – पहाड़ पर अग्नि है । इससे आप जान गये कि वहाँ अग्नि है। यह शब्द प्रमाण हुआ । लेकिन आप चाहते है कि अग्नि होने का कोई लक्षण भी देखने में आवे तो अच्छा होता। उसके बाद आपने देखा कि पर्वत पर धुओं उठ रहा है। अब आपका निश्चय और भी पका हो गया कि वहाँ आग है तभी तो धुआं उठ रहा है । यह अनुमान प्रमाण हुआ किन्तु तो भी असली वस्तु (अग्नि) से अभी तक आपका साक्षात सम्बन्ध नहीं हुआ है। वह आपसे परोक्ष ही है। अतएव उसके विषय में लाख विश्वास होने पर भी आपके मन में दिदृक्षा ( देखने की अभिलाषा ) बनी ही हुई है।
12/12/19, 8:45 pm – +91 : यं धर्म कामार्थ विमुक्त कामा
भजन्त इष्टां गति माप्नुवन्ति।
किं त्वाशिषो रात्यपि देह मव्ययं
करोतु मेऽदभ्रदयो विमोक्षणम्।।
जिन्हें धर्म, अभिलषित भोग, धन एवम् मोक्ष की कामना से भजने वाले लोग अपनी मन चाही गति पा लेते हैं,
अपितु जो उन्हें अन्य प्रकार के अयाचित भोग एवं अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं,
वे अतिशय दयालु प्रभु मुझे इस विपत्ति से सदा के लिए उबार लें ।।19।।
एकान्तिनो यस्य न कञ्चनार्थं
वाञ्छन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलम्
गायन्त आनंद समुद्र मग्नाः।।20।।
जिनके अनन्य भक्त– जो वस्तुतः एकमात्र उन भगवान् के ही शरण हैं—
धर्म, अर्थ आदि किसी भी पदार्थ को नहीं चाहते,
अपितु उन्हीं के परम मंगलमय एवं अत्यंत विलक्षण चरित्रों का गान करते हुए आनन्द के समुद्र में गोते लगाते रहते हैं ।।20।।
12/12/19, 9:28 pm – +91 :
12/12/19, 9:28 pm – +91 : 🙏🌹🙏
13/12/19, 8:18 am – Abhinandan Sharma: 👏
13/12/19, 8:32 am – Abhinandan Sharma: वाह, अद्भुत ।
13/12/19, 8:35 am – Abhinandan Sharma: इसको अच्छे से समझने का प्रयास अवश्य करें ।
13/12/19, 8:36 am – Abhinandan Sharma: यदि आपको राजा का प्रिय होना है तो ऐसा करना आवश्यक है। इसीलिये करटक साथ नहीं गया क्योंकि उसे राजा का सेवक होना पसन्द नहीं था।
13/12/19, 8:37 am – Abhinandan Sharma: राजा की सेवा में होने पर और उसकी विश्वासप्रियता प्राप्त करने के लिये आपको राजा की प्रशंसा करनी ही होगी और उपरोक्त गुणों को धारण करना ही होगा ।
13/12/19, 8:38 am – Abhinandan Sharma: राजा का विश्वासपात्र बनने के लिये सदा ही ऐसा करना पड़ेगा ।
13/12/19, 8:46 am – Abhinandan Sharma: कृपया करके, इसके सभी मन्त्र और बलि (भेंट) कैसे देनी है, इसको गूगल सर्च अथवा अन्यत्र पढ़कर डिटेल में लिखने का कष्ट करें ताकि जो भी इसे करना चाहें, वो प्रयास कर सकें 🙏
13/12/19, 8:54 am – Abhinandan Sharma: क्या अब ये स्पष्ट हुआ कि चार्वाक को महर्षि क्यों कहा जाता है ? क्योंकि चार्वाक ने एक पूरा का पूरा सिद्धांत प्रतिपादित किया था, वो विचारक थे किंतु मात्र 1 प्रमाण को ही अंतिम मानने से, उनके सिद्धांत की मान्यता अधिक नहीं हुई किन्तु फिर भी, इनको बिना पढ़े ही, इनको मानने वाले आजकल बहुतायत में हैं ।
13/12/19, 9:02 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👍🏼👍🏼
13/12/19, 2:42 pm – +91 : अभिनन्दन सर, बहुत सुन्दर विश्लेषण ।
बहुत सम्मान और प्रेम 😀
13/12/19, 3:22 pm – Abhinandan Sharma: 🙏
13/12/19, 3:53 pm – +91 : तमक्षरं ब्रह्म परं परेश-
मव्यक्तमाध्यात्मिक योगगम्यम्।
अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूर-
मनंतमाद्यं परिपूर्णमीडे।।21।।
उन अविनाशी, सर्वव्यापक,सर्वश्रेष्ठ,ब्रह्मादि के भी नियामक, अभक्तों के लिए अप्रकट होने पर भी भक्ति योग द्वारा प्राप्त करने योग्य,
अत्यंत निकट होने पर भी माया के आवरण के कारण अत्यंत दूर प्रतीत होने वाले,
इंद्रियों के द्वारा अगम्य तथा अत्यंत दुर्विज्ञेय,
अन्त रहित किंतु सबके आदि कारण एवं सब ओर से परिपूर्ण उन भगवान् की मैं स्तुति करता हूँ ।।21।।
यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः।
नाम रूप विभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः।।22।।
ब्रह्मादि समस्त देवता, चारों वेद तथा सम्पूर्ण चराचर जीव नाम और आकृति के भेद से जिनके अत्यंत क्षुद्र अंश के द्वारा रचे गये हैं ।।22।।
यथार्चिषोऽग्नेः सवितुर्गभस्तयो
निर्यान्ति संयान्त्यसकृत् स्वरोचिषः।
तथा यतोऽयं गुणसम्प्रवाहो
बुद्धिर्मनः खानि शरीर सर्गाः।।
जिस प्रकार प्रज्जवलित अग्नि से लपटें,
तथा सूर्य से किरणें बार-बार निकलती हैं और पुनः अपने कारण में लीन हो जाती हैं,
उसी प्रकार बुद्धि, मन, इंद्रियां और नाना योनियों के शरीर—
यह गुणमय प्रपञ्च जिन स्वयम्प्रकाश परमात्मा से प्रकट होता है और पुनः उन्हीं में लीन हो जाता है ।।23।।
13/12/19, 3:56 pm – +91 : प्रज्जवलित ✖
प्रज्वलित✔
13/12/19, 4:07 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: किन्तु जब आप अपनी आँखों पर्वत पर अग्नि को देख लेते है तब फिर किसी बात की अपेक्षा नहीं रहती। शंका या तर्क-वितर्क का कोई स्थल ही नहीं रह जाता । जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश में किसी रोशनी की जरूरत नहीं होती, उसी प्रकार प्रत्यक्ष दर्शन में किसी और वस्तु की जिज्ञासा नहीं रहती। जैसा वात्स्यायन कहते है “जिज्ञासितमर्थमाप्तोपदेशात् प्रतिपद्यमानो लिङ्गदर्शनेनापि बुभुत्सते ।
लिङ्गदर्शनानुमितं च प्रत्यक्षतो दिदृज्ञते । उपलब्धेऽर्थे जिज्ञासा निवर्तते ।”
न्यायसूत्रभाष्य
अतएव प्रत्यक्ष निर्विवाद और निरपेक्ष होता है। वह किसी दूसरे प्रमाण की अपेक्षा नहीं करता । और-और प्रमाण ही उसकी अपेक्षा रखते है। दूसरे शब्दों में यों कहिये कि सभी ज्ञान का मूल है प्रत्यक्ष । इसलिये प्रत्यक्ष का मूल दूसरा कोई ज्ञान नहीं कहा जा सकता। अतएव प्रत्यक्ष का लक्षण यों भी किया गया है।
“ज्ञानाकारणकं ज्ञानं प्रत्यक्षम् ।”
प्रत्यक्ष ज्ञान स्वयं मूलस्वरूप है। उसका कारण दूसरा ज्ञान नहीं हो सकता। अतएव जिस ज्ञान का कारण ज्ञानान्तर नहीं हो, वही प्रत्यक्ष है।
साधारणतः प्रत्यक्ष की परिभाषा यों की जाती है –
“इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्न ज्ञानं प्रत्यक्षम् ।”
अर्थात् जो ज्ञान इन्द्रिय (Sense-organ ) और पदार्थ ( Object ) के सन्निकर्ष ( संयोग, Contact ) से उत्पन्न हो, वह ‘प्रत्यक्ष’ कहलाता है ।
अब इस सूत्र का एक-एक अंश लेकर अर्थ समझिये ।
(१) इन्द्रिय
इन्द्रियाँ दो प्रकार की होती है -(१) कर्मेन्द्रिय और (२) ज्ञानेन्द्रिय । शरीर के जो अवयव क्रिया करने में साधक होते हैं उन्हें कर्मेन्द्रिय कहते है। और जो ज्ञान प्राप्ति में साधक होते है, उन्हें ‘ज्ञानेन्द्रिय’ कहते है । हाथ-पर आदि पाँच कर्मेन्द्रियाँ है और ऑख कान आदि पॉच ज्ञानेन्द्रियाँ है। यहाँ इन्द्रिय से ज्ञानेन्द्रिय का अर्थ समझना चाहिये। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ये हैं–
(१) चक्षुष् (आँख) (२) रसना (जीभ), (३) घ्राण (नाक) (४) त्वक् (त्वचा) (५) श्रोत्र (कान) । इनसे क्रमश: (१) रूप (२) रस (३) गन्ध (४) स्पर्श और (५) शब्द का ज्ञान होता है। इनके आधारभूत द्रव्य है पंच महाभूत (१ पृथ्वी २ जल ३ तेजस् ४ वायु ५ आकाश ) ।
13/12/19, 4:09 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙏🏼🙏🏼
13/12/19, 4:10 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙏🏼
13/12/19, 6:04 pm – Abhinandan Sharma: ज्योतिष अध्यय, भाग 3
मासादि के नाम – शुक्ल का ‘शु’ और दिवस का ‘दि’ से ‘शुदि’ शब्द बना | बाहुल्य दिवस (कृष्ण पक्ष) में से बाहुल्य का ‘ब’ और दिवस का ‘दि’, इससे ‘बदि’ शब्द बना, जिससे कृष्ण पक्ष का बोध होता है |
देखने से ये ज्ञात होता है कि जिस मास की पूर्णिमा को चित्रा नक्षत्र (नक्षत्र का विवरण आगे इसी अध्याय में दिया गया है ) पडा उसका नाम चैत्र हुआ और जिस मास की पूर्णिमा को विशाखा नक्षत्र पडा उसका नाम बैसाख पडा | इसी रीति से ज्येष्ठा के पड़ने से ज्येष्ठ, पूर्वाषाढ़ के पड़ने से आषाढ़, श्रवणा से श्रावण, पूर्वाभाद्रपद से भाद्रपद (भादों), अश्विनी से अश्विन, कृत्तिका से कार्तिक, मृगशिरा से मार्गशीर्ष (अगहन), पुष्य से पौष और मघा से माघ और पूर्वा फाल्गुनी से फाल्गुन हुआ | (इस नियम में अब युग परिवर्तन के कारण तथा नक्षत्रों की गति परिवर्तन से यदा-कदा किसी मास में कुछ परिवर्तन नजर आते हैं |)
13/12/19, 6:19 pm – Abhinandan Sharma: ज्योतिष अध्ययन, भाग 4
सौर मास, चन्द्र मास, नाक्षत्रमास और सावन मास – ये ही मास के चार भेद हैं । सौरमास का आरम्भ सूर्य की संक्रांति से होता है । सूर्य की एक संक्रांति से दूसरी संक्रांति का समय ही सौरमास है । (सूर्य मंडल का केंद्र जिस समय एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है, उस समय दूसरी राशि की संक्रांति होती है | एक संक्रांति से दूसरी संक्राति के समय को सौर मास कहते हैं | १२ राशियों के हिसाब से १२ ही सौर मास होते हैं | ) यह मास प्रायः तीस-एकतीस दिन का होता है । कभी कभी उनतीस और बत्तीस दिन का भी होता है । चन्द्रमा की ह्र्वास वृद्धि वाले दो पक्षों का जो एक मास होता है, वही चन्द्र मास है । यह दो प्रकार का होता है – शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होकर अमावस्या को पूर्ण होने वाला ‘जमांत’ मास मुख्य चंद्रमास है । कृष्ण प्रतिपदा से पूर्णिमा तक पूरा होने वाला गौण चंद्रमास है । यह तिथि की ह्र्वास वृद्धि के अनुसार २९, २८, २७ एवं ३० दिनों का भी हो जाता है ।
13/12/19, 8:03 pm – Hts Sandeep Seksariya: हैदराबाद कांड में दिव्या रेड्डी (प्रियंका रेड्डी)का देवलोकगमन होना केवल एक डॉ. का अंत नही बल्कि शासन द्वारा पुरस्कृत एक वेटेरनरी साइंटिस्ट और रीसर्चर षड़यंत्र पूर्वक हवस की भेट चढ़ गया। यह पूरी दुनिया के लिए महान क्षति है। चार गंदी मछलियाँ कुचल दी गयी । षड़यंत्र मे गिरोह के मगरमच्छ बच गये !!!
विडियो देखकर अनुमान लगाया जा सकता है भारत ने ही नही विश्व ने अनमोल रत्न खोया है ।।
13/12/19, 8:03 pm – Hts Sandeep Seksariya:
13/12/19, 8:04 pm – Hts Sandeep Seksariya: Watch above video carefully . If we can save more cows than our future will be very bright. Share in all groups will be appreciated
🙏🙏
13/12/19, 8:05 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi removed Hts Sandeep Seksariya
13/12/19, 8:23 pm – Abhinandan Sharma: हमारा एडमिन जिंदाबाद 🤣🤣
13/12/19, 8:25 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: रामायण बालकाण्ड – अष्टदश सर्ग श्लोक ११,१२,१३,१४,१५
विष्णोरर्धं महाभागं पुत्रमैक्ष्वाकवर्धनम्। कौसल्या शुशुभे तेन पुत्रेणामिततेजसा॥११॥
यथा वरेण देवानामदितिर्वज्रपाणिना। भरतो नाम कैकेय्या जज्ञे सत्यपराक्रमः॥१२॥
इक्ष्वाकु वंश को बढा़ने वाले विष्णु भगवान का आधा भाग कौशल्या के गर्भ से पुत्र रुप में उत्पन्न हुआ। इस अमित तेजस्वी पुत्र के उत्पन्न होने पर कौशल्या जी की वैसी ही शोभा हुई, जैसी कि देवताओं के वरदान से इन्द्र द्वारा अदिति की हुई थी।सत्य पराक्रमी भरत कैकयी के गर्भ से उत्पन्न हुए।
साक्षाद्विष्णोश्चतुर्भागः सर्वेः समुदितो गुणैः। अथ लक्ष्मणशत्रुघ्नो सुमित्राजनयत्सुतौ॥१३॥
*भरत जी भगवान विष्णु के चतुर्थांश थे और सब गुण से युक्त थे। सुमित्रा के गर्भ से लक्ष्मण और शत्रुघ्न उत्पन्न हुए।
सर्वास्त्रकुशलौ वीरौ विष्णोरर्धसमन्वितो। पुष्ये जातस्तु भरतो मीनलग्ने प्रसन्नधीः॥१४॥
ये दोनों भगवान विष्णु के अष्टमांश थे और सब प्रकार के अस्त्र शस्त्र चलाने की विद्या मे कुशल शूरवीर थे। पूष्य नक्षत्र और मीन लग्न मे सदा प्रसन्न रहने वाले भरत जी का जन्म हुआ।
सार्पे जातो च सौमित्री कुलीरेऽभ्युदिते रवौ। राज्ञाः पुत्रा महात्मानश्चत्वारो जज्ञिरे पृथक्॥१५॥
श्लेषा नक्षत्र और कर्क लग्न में, सूर्योदय के समय लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म हुआ। महाराज के चारो पुत्र पृथक पृथक गुणों वाले पैदा हुए।
13/12/19, 8:26 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: This message was deleted
13/12/19, 8:27 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-८ श्लोक ३५,३६,३७,३८
काले सात्म्यं शुचि हितं स्निग्धोष्णं लघु तन्मनाः॥३५॥
षड्रसं मधुरप्रायं नातिद्रुतविलम्बितम्। स्नातः क्षुद्वान् विविक्तस्थो धोतपादकराननः॥३६॥
तर्पयित्वा पितृन् देवानतिथीन् बालकान् गुरुन्। प्रत्यवेक्ष्य तिरश्चोऽपि प्रतिपन्नपरिग्रहान्॥३७॥
समीक्ष्य सम्यगात्मानमनिन्दन्नब्रुवन द्रवम्। इष्टमिष्टैः सहास्नीयाच्छुविभक्तजनाहृतम्॥३८॥
शास्त्रीय भोजन विधि- उचित समय पर, सात्म्य (प्रकृति के अनुकूल), पवित्र, स्वास्थ्यवर्धक, स्निग्ध, गरमागरम, लघु (सुपाच्य), मन लगाकर, छः रसो से युक्त, जिसमें मधुररस वाले पदार्थ अधिक हो, इस प्रकार के भोज्य पदार्थों को न बहुत जल्दी और न बहुत देर करके खाना चाहिए। स्नान करके, भूख लग जाने पर, एकान्त में बैठ कर, हाथ, मुख तथा पैरों को धोकर, पितरों, देवताओं, अतिथियों, बच्चों तथा बूढ़ो को तृप्त कराकर, पशु पक्षियों का ध्यान देकर, अतिथियों एवं परिजनों के भोजन की व्यवस्था करके, अपने शरीर की वर्तमान स्थिति का विचार करते हुआ, भोजन की निन्दा न करता हुआ, मौन होकर, मित्रों के साथ बैठकर, पवित्र सेवकों द्वारा परोसा गया रूचिकर एवं द्रवप्राय भोजन का सेवन करें।
वक्तव्य- श्लोक की रचना में पदों को व्यवस्थित करने की एक समस्या होती है, उन्हें व्यवस्थित करने के लिए अन्वय का सहारा लेना पड़ता है। इस दृष्टिकोण से आप उक्त पद्यो को देखें— ‘स्नातः विविक्तस्थः देवान् (ऋषीन्) पितॄन् तर्पयित्वा, प्रतिपन्नपरिग्रहान् तिरश्चोपि प्रत्यवेक्ष्य सम्यक् आत्मानं समीक्ष्य°°°°°°°धौतपादकराननः इष्टैः सह शुचिभक्तजनाहृतं इष्टं, द्रव च अश्नीयात्’।
13/12/19, 8:29 pm – FB Mukesh Sinha Pathalgaon CG Shastra Gyan: क्या जन्म का समय स्थान ग्रह नक्षत्र एक ही हो तो भी कुंडली में फर्क पड़ता है क्या 🤔🤔🤔🤔
13/12/19, 8:29 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙏🏼🙏🏼
क्या आधा भाग, चतुर्थांश या अष्टमांश होने से भी गुणों में या किसी भी और तरह का अन्तर हो सकता है ?
13/12/19, 8:43 pm – +91 : ।। श्री हरिः ।।
*श्रीमद्भगवद्गीता*
*अथ प्रथमोध्यायः*
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि। युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः।।
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्।पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः।।
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।
सौभद्रो द्रोपदेयाश्च सर्व एव महारथाः।।
इस सेना में बड़े-बड़े धनुषोंवाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सात्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद, धृष्टकेतुऔर चेकितान तथा बलवान् काशिराज, पुरुजित,कुन्तिभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य,पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान् उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र -ये सभी महारथी हैं।।४-६।।
13/12/19, 8:47 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: क्या “जमान्त” और “गौण” ही “अमावस्यान्त” और “पूर्णिमान्त” होते हैं या कुछ अलग है?
13/12/19, 8:49 pm – +91 : This message was deleted
13/12/19, 8:50 pm – +91 :
13/12/19, 8:51 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙏🙏
13/12/19, 8:51 pm – +91 : 🙏🌹🙏
13/12/19, 8:53 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: भगवत गीता शुरू हो गयी क्या ❤❤❤
13/12/19, 8:53 pm – +91 : हां।प्रभु ….🙏 आज तीसरा दिन है।
13/12/19, 9:03 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: पिछली पोस्ट से टैग कर दिया करिये।🙏🏻🙏🏻
13/12/19, 9:07 pm – +91 : आगे से ध्यान रखेंगे।असुविधा के लिए खेद है।🙏🙏
13/12/19, 9:08 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: आभार आपका आदरणीय 🙏🏻
13/12/19, 9:15 pm – LE Onkar : कृपया इसमें प्रारब्ध भी सम्मिलित करें।
संभवतः पूर्वजों के कृत्य भी प्रभाव डालेंगे।
13/12/19, 9:21 pm – FB Mukesh Sinha Pathalgaon CG Shastra Gyan: तो फिर ऊपर लखन satrughan के समय ग्रह नक्षत्र एक ही है पूर्वज भी एक ही है तो अलग अलग क्यों फल मिला एक को वनवास और एक को ayoudhaya एक को आराम एक को परेशानी 🤔🤔🤔🤔
13/12/19, 9:32 pm – LE Onkar : जुड़वा बच्चों के जन्म समय में जो समयान्तराल होता है कुछ उसका भी प्रभाव होगा।
शेष विद्वज्जन प्रकाश डालेंगे।
13/12/19, 9:36 pm – +91 : ग्रहों के उपनक्षत्र अलग-अलग होने से कुण्डली पर फर्क पड़ना स्वाभाविक ही है।यही नियम जुड़वाँ बच्चों के लिए लागू होता है।
13/12/19, 9:53 pm – FB Mukesh Sinha Pathalgaon CG Shastra Gyan: ऊपर लखन शत्रुघ्न के समय तो एक ही है
13/12/19, 9:56 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: क्षमा चाहूँगा, एक प्रश्न पूछना चाहता हूं, एक समय पर एक ही स्थान पर जन्म लेने वाले दोनो बच्चो के जीवन कभी एक से नही रहते? दोनो के लिए समान स्तिथि परिस्थिति ज्योतिष अनुसार अलग क्यों ?? शंका दूर करे🙏🏻
13/12/19, 9:58 pm – Abhinandan Sharma: धैर्य धारण करें। सभी के प्रश्न आ चुके हैं । अलंकार जी समय निकालकर उत्तर अवश्य दे देंगे।
13/12/19, 10:03 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: एक और प्रश्न पूछना चाहता हूं, कुछ लोग जन्म से किसी का हाथ नही है, किसी का पैर नही है, किसी के हाथ पैर दोनो नही है, दिव्यांग है, ये लोग क्या अपने पूर्व जन्म का फल भोग रहे है या इंसान को अपने कर्मो का फल इसी जन्म में भोगना पड़ता है, कुछ लोग नित्य प्रतिदिन पाप कर्म में रत रहकर भी सांसारिक सुखों का भोग करके बैकुण्ठ लोक को चले जाते🙏🏻
13/12/19, 10:06 pm – +91 : जैसाकि बताया गया कि दोनों के जन्म समय में अल्प समय का अन्तराल तो अवश्य ही होगा।और इससे सब लार्ड( उप नक्षत्र ) बदल जायेंगे और दोनों के जीवन में जमीन आसमान का अन्तर होगा।
13/12/19, 10:07 pm – +91 : यह सब संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण कर्मों के अधीन होने का परिणाम है।
13/12/19, 10:08 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: कृपया थोड़ा विस्तृत उत्तर दे 🙏🏻
14/12/19, 7:56 am – Abhinandan Sharma: इस श्लोक में कहीं भी, ऐसा नहीं दिया गया है कि कोई भी दो भाई, एक साथ पैदा हुए थे अथवा जुड़वां थे । मात्र, ग्रह, नक्षत्र और सूर्योदय का वर्णन है, न मास का पता है और न वर्ष का। अतः सब एक साथ पैदा नहीं हुए थे ।
14/12/19, 7:57 am – Abhinandan Sharma: क्यों नही हो सकता । 1000 वाट का आधा, चतुर्थांश और अष्टमांश की वैल्यू अलग अलग नहीं होगी क्या ?
14/12/19, 7:58 am – Abhinandan Sharma: महारथी कौन ?
14/12/19, 7:58 am – Abhinandan Sharma: ये अलंकार जी ही बता सकते हैं ।
14/12/19, 8:01 am – Abhinandan Sharma: दोनो का समय एक ही है, ये कैसे ज्ञात हुआ ? ग्रह और नक्षत्र विभिन्न मास मे आते रहते हैं । पहले भी कहा जा चुका है कि जुड़वां बच्चों तक की कुंडली और भाग्य एक जैसा नहीं होता ।
एक और बात, प्रारब्ध सभी का अलग अलग होता है । किंतु इन चारों का कोई प्रारब्ध नहीं था क्योंकि ये चारों विष्णु जी के ही रूप थे और उनकी इच्छा से ही एक उद्देश्य के लिए पैदा हुए थे ।
14/12/19, 8:01 am – Abhinandan Sharma: You deleted this message
14/12/19, 8:04 am – Abhinandan Sharma: अलंकार जी बतायेंगे ।
14/12/19, 8:07 am – Abhinandan Sharma: पूर्व जन्म के प्रारब्ध से मनुष्य अल्पांग होता है (दिव्यांग नहीं) । मनुष्य आपने पापों का फल इस लोक में और परलोक में और अगले जन्म, तीनों में भोगता है । ये एक भरम है कि मनुष्य पाप करके भी बैकुंठ जाते हैं, ये सम्भव नहीं है । पाप करके कोई बैकुंठ नहीं जाता, सब नरक ही जाते हैं । जब पांडव तक नर्क में गए तो आम मनुष्य की तो बात ही क्या !
14/12/19, 8:11 am – Abhinandan Sharma: क्रियमाण कर्म – कर्म मन के स्तर पर होता है और हाथ पैरों से मात्र क्रिया होती है । जो कर्म मन के स्तर से होते हुए, क्रियाओं में परिवर्तित होते हैं उन्हें क्रियमाण कर्म कहते हैं । इन कर्मों का फल प्रायः इसी जन्म में अथवा परलोक में मिलता है ।
संचित कर्म – जो कर्म क्रियाओं में परिवर्तीत नहीं होते, मात्र मन के स्तर पर ही रह जाते हैं, वो संचित कर्म कहलाते हैं । जैसे किसी लड़की को देखकर दुर्विचार लाना अथवा किसी को देखकर सोचना कि इसने मेरा अपमान किया था कहीं अकेले में मिल जाये तो इसको मार ही डालूं । ये मानसिक कर्म ही संचित कर्म है, इसका फल प्रायः अगले जन्मों में मिलता है ।
प्रारब्ध – पुर्व जन्मों के संचित कर्मों के फल को प्रारब्ध कहते हैं ।
14/12/19, 8:19 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: कमठ ने कहा: जीव के जन्म लेने में तीन प्रकार का कर्म कारण होता है, पुण्य, पाप और उभय मिश्रित । अर्थात कर्म तीन प्रकार के हैं – सात्विक, राजस, तामस ।
जो सात्विक है वो स्वर्ग में जाता है फिर समयानुसार जब स्वर्ग से गिरता है तो संसार में धनि, धर्मी और सुखी होता है ।
जो तमोगुणी है, वो नरक में पड़ता है और वहां नाना प्रकार की यातनाएं भोगने के पश्चात् स्थावर योनि में जन्म लेता है । दीर्घकाल तक उस योनि में रहते हुए महात्मा पुरुषों के दर्शन, स्पर्श और उपभोग आदि से स्थावर शरीर से मुक्त होकर मनुष्य होता है परन्तु तब भी वह दुखी, दरिद्रता से घिरा और विकलेन्द्रिय(अँधा, बहरा, काना, कुबड़ा, लंगड़ा, लूला आदि) होता है
जो पाप और पुण्य दोनों से मिश्रित कर्म वाला पुरुष है, वह पशु-पक्षी आदि की योनि को प्राप्त होता है, तत्पश्चात मनुष्य योनि प्राप्त करके यदि पुण्य अधिक और पाप कम हैं तो पहले दुखी होकर पीछे सुखी होता है अन्यथा पहले सुखी होकर पीछे दुखी होता है ।
सूर्य-कमठ संवाद – स्कन्दपुराण
14/12/19, 8:21 am – Abhinandan Sharma: 👌
14/12/19, 8:29 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: एक प्रश्न – लक्षमण जी को तो शेषनाग का अवतार कहा जाता है तो भगवान विष्णु के अंश से कैसे हुए?
14/12/19, 9:01 am – Abhinandan Sharma: हमने अभी अभी पढ़ा कि भगवान् विष्णु के अवतार थे | अब जब पढेंगे कहीं कि शेषनाग के अवतार थे, तब विचारेंगे |
14/12/19, 9:05 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: जी
14/12/19, 10:03 am – Abhinandan Sharma:
14/12/19, 10:16 am – +91 : कई लोग कुटिल भी कहते हैं और तर्क देते हैं कि इसी लिए उनका नाम कौटिल्य पड़ा कृपया स्पष्ट कीजिए🙏
14/12/19, 10:20 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: कुछ ऐसे ही तर्क, होनहार लेखक “अमीष त्रिपाठी” ने अपने उपन्यास के चरित्रों को उचित ठहराने के लिए दिए थे एक साक्षात्कार में।
14/12/19, 10:30 am – Abhinandan Sharma: कुटिल से कौटिल्य 😊😊
14/12/19, 10:31 am – Abhinandan Sharma: कूटनीतिज्ञ क्यों नहीं हो सकता ?
14/12/19, 10:33 am – Abhinandan Sharma: You deleted this message
14/12/19, 10:57 am – Shastragyan Abhishek Sharma: ऐसा भी होना चाहिए कि भविष्य में हम ऐसे लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करें, जिससे ऐसे लोगों की दुकान भी बंद हो और इनसे सबक ले अन्य सुधरें।🙏🏻
14/12/19, 11:13 am – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: ।।पंचतंत्र।।
प्रथम तन्त्र
मित्रभेद (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
कथा क्रम : एक
परीक्षका यत्र न सन्ति देशे नार्घन्ति रत्नानि समुद्रजानि ।
आभीरदेशे किल चन्द्रकान्तं त्रिभिर्वराटैर्विपणन्ति गोपाः ।।
जांच-परख न कर सकने वाले लोगों के हाथ में आये समुद्र से निकले सच्चे मोतियों का कुछ भी मूल्य नहीं होता। तभी तो आभीर देश में ग्वाले दुर्लभ मणि को दो-दो, तीन-तीन कौड़ियों में बेच देते हैं।
निर्विशेषं यदा स्वामी समं भृत्येषु वर्त्तते ।
तत्रोद्यमसमर्थानामुत्साहः परिहीयते ।।
छोटे-बड़े सभी प्रकार के सेवकों के साथ एक-जैसा व्यवहार करने वाले राजा के कर्मचारियों की आकांक्षाएं नष्ट हो जाती हैं और उनकी मौलिक प्रवृत्ति समाप्त हो जाती है, जो राजाओं के लिए उचित नहीं होता।
न विना पार्थिवो भृत्यैर्न भृत्याः पार्थिवं विना ।
तेषां च व्यवहारोऽयं परस्परनिबन्धनः ।।
यह एक निर्विवाद सत्य है कि राजा के बिना सेवकों का और सेवकों के बिना राजा का काम नहीं चल सकता। एक के बिना दूसरे का कोई अस्तित्व ही नहीं होता।
भृत्यैर्विना स्वयं राजा लोकानुग्रहकारिभिः ।
मयूखैरिव दीप्तांशुस्तेजस्वपि न शोभते ।।
जिस प्रकार किरणों के बिना सूर्य की कोई शोभा नहीं होती, उसी प्रकार सेवकों के बिना स्वामी की भी शोभा नहीं होती।
शिरसा विधृता नित्यं स्नेहेन परिपालिताः ।
केशा अपि विरज्यन्ते निःस्नेहाः किं न सेवकाः ।।
जिस प्रकार सिर के केश, नित्य साफ़ न किये जाने पर रूखे और कठोर हो जाते हैं, क्या उसी प्रकार पुरस्कार आदि न मिलने के कारण सेवक दुखी नहीं होंगे?
राजा तुष्टो हि भृत्यानामर्थमात्रं प्रयच्छति ।
ते तु सम्मानमात्रेण प्राणैरप्युपकुर्वते ।।
सेवकों के किसी कार्य पर प्रसन्न होकर राजा उन्हें धन-मान आदि देकर पुरस्कृत करता है, लेकिन सच्चा सेवक तो अपने स्वामी के लिए अपने प्राणों की आहुति देने के लिए भी सदा तैयार रहता है।
एवं ज्ञात्वा नरेन्द्रेण भृत्याः कार्या विचक्षणाः ।
कुलीनाः शौर्य्यसंयुक्ताः शक्ता भक्ताः क्रमागतः ।।
इन सब बातों को देखते हुए बुद्धिमान् राजा को कुलीन, शूरवीर, चतुर, निष्ठावान् एवं समर्पित व्यक्तियों को ही महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्त करना चाहिए।
यः कृत्वा सुकृतं राज्ञो दुष्करं हितमुत्तमम् ।
लज्जया वक्ति नो किञ्चित्तेन राजा सहायवान् ।।
राजा के लिए अपने प्राणों को जोखिम में डालकर भी अपना विज्ञापन न करने वाले सेवकों का सम्मान करने वाला राजा ही उन्नति करता है।
यस्मिन् कृत्यं समावेश्य निर्विशङ्केन चेतसा ।
आस्यते सेवकः स स्यात्कलत्रमिव चापरम् ।।
वास्तव में, सच्चा एवं विश्वस्त सेवक वही है, जिसे कोई भी कार्य सौंपकर स्वामी निश्चिन्त हो जाये। ऐसे सेवकों के अतिरिक्त सेवक तो स्त्रियों के समान भाररूप होते हैं।
14/12/19, 11:30 am – Shastra Gyan Maniah Patiala:
14/12/19, 11:47 am – +91 : 🙏🙏
14/12/19, 1:01 pm – Abhinandan Sharma: ?
14/12/19, 1:03 pm – +91 : स वै न देवासुर मर्त्य तिर्यं
न स्त्री न षण्ढो न पुमान् न जन्तुः।
नायं गुणः कर्म न सन्न चासन्
निषेध शेषो जयतादशेषः
वे भगवान् वास्तव में न तो देवता हैं न असुर,
न मनुष्य हैं न तिर्यक्( मनुष्य से नीची—पशु पक्षी आदि किसी) योनि के प्राणी हैं ।
न वे स्त्री हैं न पुरुष और न नपुंसक ही हैं ।
न वे ऐसे कोई जीव हैं, जिनका इन तीनो ही श्रेणियों में समावेश न हो सके।
न वे गुण हैं न कर्म,
न कार्य हैं न तो कारण ही।
सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बच रहता है,
वही उनका स्वरूप है और वे ही सब कुछ है ।
ऐसे भगवान् मेरे उद्धार के लिए आविर्भूत हों।।24।।
जिजीविषे नाहमिहामुया किम्
अंतर्बहिश्चावृतयेभयोन्या।
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लव–‘
स्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम्।।25।।
मैं इस ग्राह के चंगुल से छूट कर जीवित रहना नहीँ चाहता;
क्योंकि भीतर और बाहर— सब ओर से अज्ञान के द्वारा ढके हुए इस हाथी के शरीर से मुझे क्या लेना है ।
मैं तो आत्मा के प्रकाश को ढक देने वाले उस अज्ञान की निवृत्ति चाहता हूँ,
जिसका काल- क्रम सेअपने आप नाश नहीं होता,
अपितु भगवान् की दया से अथवा ज्ञान के उदय से होता है।।25।।
14/12/19, 1:35 pm – +91 : राजा द्रुपद
14/12/19, 1:38 pm – Abhinandan Sharma: नाम नहीं, महारथी कौन होता है ?
14/12/19, 1:44 pm – FB Anand Kumar Patna Shastra Gyan: Maheshwas means bade dhanush / mahaan dhanush Arjun Bheem jaise shoorveer bade dhanush wale yoddha aur Yuyudhan, Virat aur Drupad jaise Mahaathi hain…
14/12/19, 1:44 pm – +91 : अभी राजकीय विद्यालय में हूँ।शाम तक स्पष्ट करने की कोशिश करता हूँ
14/12/19, 1:56 pm – Abhinandan Sharma: Are u talking about maharathi ?
14/12/19, 2:49 pm – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: रथी – वह योद्धा जो एक साथ ५००० युद्ध सैनिको से युद्ध करने मे समर्थ हो उसे रथी कहते है।
(दसरथ, जटायु, जनक , विभीषण ये सब रथी थे)
अतिरथी – वह योद्धा जो एक साथ १२ रथी या ६०,००० (५०००*१२) योद्धाओ से युद्ध करने मे समर्थ हो। (भरत, सुग्रीव, द्रुपद)
महारथी – वह योद्धा जो एक साथ १२ अतिरथी या ७,२०,००० योद्धाओ से युद्ध करने मे समर्थ हो । (प्रभु राम, रावण, हनुमान, कुम्भकरण , वाली, लक्ष्मण, बलराम, भीष्म, द्रोण, कर्ण, अश्वत्थामा, अर्जुन, अभिमन्यु, जरासंध, कंस)
अतिमहारथी – वह योद्धा जो एक साथ १२ महारथी से युद्ध करने मे समर्थ हो। ( श्री कृष्ण, देवराज इंद्र, महिषासुर, रावण पुत्र इंद्रजीत(मेघनाद)।
14/12/19, 3:06 pm – Abhinandan Sharma: उत्तम । सही है। जब दुर्योधन युद्ध में सेनापति की चर्चा करता हुआ, बार बार कर्ण की तारीफ करता है और उसे बार बार बार अतिरथी बताता है तो भीष्म कर्ण का अपमान करते हुए कहते हैं कि ये तो अतिरथी तो क्या रथी भी नहीं है और कर्ण की तारीफ (व्यंग्य) करते हुए कहा कि ये वही है ना जो गंधर्वों से युद्ध में भाग कर वापिस आ गया था। ये वही कर्ण है न, जो द्रुपद के युद्ध में वापिस आ गया था और दोनों युद्ध अर्जुन ने जीते थे ।
14/12/19, 3:06 pm – G B Malik Delhi Shastra Gyan: बहुत ही कमाल की जानकारी👍🏻
14/12/19, 3:13 pm – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: धन्यवाद। अभिनंदन जी। इस ग्रुप मे जानकारी शेर करने का अवसर दिया।🙏🏻
14/12/19, 3:16 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👌🏼👌🏼
14/12/19, 3:28 pm – +91 : 🙏🙏
14/12/19, 3:30 pm – +91 : 26 डिसेंबर के सूर्य ग्रहण के समय में क्या क्या करना है, ओर
क्या नहीं करना है? कृपया मार्गदर्शन कीजिए 🙏🏼
14/12/19, 3:32 pm – Abhinandan Sharma: एक और बात, भीष्म के ऐसा अपमान करने पर, कर्ण ने कहा कि जब तक भीष्म सेनापति रहेंगे , वो युद्ध नहीं करेगा और कर्ण युद्ध मे तब तक नहीं लड़ा, जब तक भीष्म सेनापति रहे।
14/12/19, 3:34 pm – Abhinandan Sharma: इसीलिये कहता हूँ कि ध्यान देकर पढिये, एक एक शब्द को । गीता में अभी आगे ऐसा बहुत कुछ आआने वाला है, जब आपको ये भी लगेगा कि अभिनंदन जी ये क्या कह रहे हैं 😃
14/12/19, 3:43 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: 👌🏻👌🏻👌🏻🙏🏻
14/12/19, 3:44 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: कर्ण और अर्जुन में कौन बड़ा धनुर्धर था ??
14/12/19, 4:11 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: Kar tha
14/12/19, 4:11 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: Sir
14/12/19, 4:12 pm – FB Anand Kumar Patna Shastra Gyan: अर्जुन था…
14/12/19, 4:13 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: This message was deleted
14/12/19, 4:13 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: 🙄
14/12/19, 4:13 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: Nhi sir kar tha
14/12/19, 4:13 pm – FB Anand Kumar Patna Shastra Gyan: किस हिसाब से ? 🙂
14/12/19, 4:21 pm – Abhinandan Sharma: दो मिनट का धैर्य रखें कृपया।
14/12/19, 4:22 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: Firstly sir wh sidha pasuram ji vidhaya prapt kiya tha
14/12/19, 4:32 pm – Abhinandan Sharma: महाभारत में तीन धनुर्धरों का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है, एक अर्जुन, दूसरा कर्ण और एकलव्य । और ये भी प्रश्न आता है की इनमें सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कौन था । कोई एकलव्य को श्रेष्ठ बताता है, कोई कर्ण को और कोई अर्जुन को।
किन्तु हमें ये समझना चाहिए कि धनुर्धर किसे कहते हैं। यदि तीर चलाने की श्रेष्ठता की बात करें तो एकलव्य सबसे तेज था, फिर कर्ण और आखिर में अर्जुन किन्तु बड़ा धनुर्धर वो होता था, जिसके पास सबसे अधिक दिव्यास्त्र होते थे और वो अर्जुन के पास सर्वाधिक थे, फिर कर्ण के पास और अंत में एकलव्य के पास । अतः सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन ही था।
इन तीनों से भी श्रेष्ठ महाभारत में दो ही धनुर्धर थे, एक द्रोणाचार्य और दूसरा भीष्म। इनमें भी भीष्म किसी के भी द्वारा अवध्य थे और उन्होंने परशुराम को भी युद्ध में पराजित कर दिया था (उनके शिष्य होते हुए भी) । कह सकते हैं कि भीष्म सर्वश्रेठ योद्धा और धनुर्धर थे किन्तु क्योंकि वो इन तीनों के दादा की उम्र के थे अतः प्रायः उनकी तुलना इन तीनों के साथ नहीं होती है।
14/12/19, 4:33 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: To sir birbk bhi tha sir
14/12/19, 4:33 pm – Abhinandan Sharma: बिर्बक ?
14/12/19, 4:33 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: Ji
14/12/19, 4:34 pm – Abhinandan Sharma: ये कौन था ? कहीं आप बर्बरीक की बात तो नहीं कर रहे ?
14/12/19, 4:35 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: Ji sir
14/12/19, 4:36 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: Sir yh thin tir ma Mahabharata khtm kar skta tha
To sir mahan dhnurdhar kaun hai
14/12/19, 4:36 pm – FB Mukesh Sinha Pathalgaon CG Shastra Gyan: उसे शायद वरदान था और कर्ण अर्जुन में अर्जुन ही बढ़िया था
14/12/19, 4:39 pm – Abhinandan Sharma: पहले एक बात तो खत्म कर लेते 🙃 अर्जुन, कर्ण और एकलव्य का स्पष्ट हो गया हो तो बर्बरीक की बात करें।
14/12/19, 4:40 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: Ji sir
14/12/19, 4:40 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: Nhi sir galt baat
14/12/19, 4:40 pm – Abhinandan Sharma: बर्बरीक नाम का कोई कैरेक्टर महाभारत में नहीं था 😋
14/12/19, 4:41 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: To sir bheem ka beta ka beta Kain tha sir
14/12/19, 4:41 pm – Abhinandan Sharma: पूरी महाभारत में बर्बरीक का कहीं नाम नहीं है । बर्बरीक की जो कथा प्रासिद्ध है, वो स्कंद पुराण से है, न कि महाभारत से ।
14/12/19, 4:41 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: Sir ahkar bada ki daan bada
14/12/19, 4:42 pm – Abhinandan Sharma: ?
14/12/19, 4:42 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: Ku sir par mai jo bhi Mahabharata dekha hu usma dekhiya gya hai
14/12/19, 4:43 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: 🙏🙏🙏🙏
14/12/19, 4:43 pm – Abhinandan Sharma: भाईसाहब, tv वाली रामायण और tv वाली महाभारत को अब त्याग दीजिये।
14/12/19, 4:44 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: Nhi sir mera par Dada bhi yh Kahani sunaya jo wh Gita se padha hai
14/12/19, 4:47 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: जी बर्बरीक की कथा स्कन्दपुराण में है जहां भीम युद्ध जीतने का श्रेय अर्जुन को देते हैं तो कृष्ण से उनका मतभेद होता है – जितना मुझे अभी ध्यान है। महाभारत, पढ़ी नही तो जो आप कह रहे हैं वो ही मान्य है।
14/12/19, 4:49 pm – Abhinandan Sharma: महोदय, आपने अवश्य कथा सुनी होगी । बहुत लोगों ने सुनी है लेकिन वो महाभारत से नहीं बल्कि स्कंद पुराण से है।
14/12/19, 4:49 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: Nhi sir bheem jb wh apna beta se milna jata tb uski mtbhat bheem ka beta ka beta se hota hai
14/12/19, 4:49 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: Sorry sir brbarik se
14/12/19, 4:49 pm – Abhinandan Sharma: हाँ, भाई कह तो रहा हूँ कि ये कथा स्कंद पुराण से है, महाभारत से नहीं ।
14/12/19, 4:49 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: Sir
14/12/19, 4:50 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: But Mahabharata dekhiya gya to usi sa n boluga sir
14/12/19, 4:51 pm – Abhinandan Sharma: अनिकेत जी, बार बार कह रहा हूँ कि tv की रामायण और महाभारत में बहुत कुछ ऐसा है जो असल रामायण और महाभारत में नहीं है। आपने अवश्य देखा होगा, उसकी कौन मना कर रहा है लेकिन अब हमारी भी मान लीजिए कि ये कथा महाभारत से नहीं है।
14/12/19, 4:52 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: Sir jo Gita ma hai aur Bharat ka kitab ma hai wh sir
14/12/19, 4:56 pm – Abhinandan Sharma: अरे भाई, कहना क्या चाहते हो ☺️
14/12/19, 4:57 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: 🙏🙏Sir….. ……… ……………….ku…………………….kuch nhi 😇😇😇😇😇
14/12/19, 5:10 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: मैं भी महाभारत पढ रहा हूँ मुझे बर्बरीक की कथा कही नही मिली उसमें🙏🙏
महाभारत पढ़ने पर आपकी या किसी की भी बहुत सी भ्रांतियां अपने आप दूर हो जाती है?
14/12/19, 5:11 pm – Abhinandan Sharma: जो, यही तो कह रहा था इतनी देर से ।
14/12/19, 5:12 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: Please continue our all page serial by serial chapter
Than u know who barbarik oky sir
14/12/19, 5:13 pm – Abhinandan Sharma: अरे भाई, हमें पता है कि बर्बरीक कौन था 🙏
14/12/19, 5:13 pm – Abhinandan Sharma: पर वो महाभारत में नहीं था ।
14/12/19, 5:14 pm – FB Vikas Delhi Shastra Gyan: @918010855550 जी आपने बताया कि महाभारत में बर्बरीक का जिक्र ही नही है ..स्कन्दपुराण में है
तो क्या जिस प्रकार से आजकल बर्बरीक जी को खाटू श्याम के रूप में प्रचारित किया जा रहा है उस पर आपके क्या विचार है, क्या वो भगवान के समान है
14/12/19, 5:15 pm – Ashu Bhaiya: 🙂🙂😀😀🙂😐
पढ़ने से ज्यादा…….शेष सब कुछ !
14/12/19, 5:16 pm – Ashu Bhaiya: This message was deleted
14/12/19, 5:16 pm – Ashu Bhaiya: ज्ञान पाने की शीघ्रता 😀
14/12/19, 5:18 pm – FB Vikas Delhi Shastra Gyan: कंफ्यूज़न ही इतना है इसलिए शीघ्रता है
14/12/19, 5:18 pm – Abhinandan Sharma: इसीलिये प्रश्न उत्तर मना किया हुआ है। अब सभी लोग केवल इस लिंक पर अपने प्रश्न पूछें –
http://shastragyan.apsplacementpltd.in/चर्चा-क्षेत्र/dwqa-ask-question/
14/12/19, 5:18 pm – Ashu Bhaiya: जब कंप्लेसिटी होगी तो शीघ्र काम कैसे होगा ?
14/12/19, 5:19 pm – Ashu Bhaiya: कंप्लेक्सिटी
14/12/19, 5:20 pm – Abhinandan Sharma: जिसके पास भी कोई प्रश्न हैं, वो इस लिंक पर अपने प्रश्न डालें । आगे से किसी भी रेपेटेड प्रश्न का उत्तर यहीं से मिलेगा।
14/12/19, 5:23 pm – FB Vikas Delhi Shastra Gyan: महोदय मै कभी इस ग्रुप पर कोई क्वेश्चन पूछता ही नही क्योकि मुझे ग्रुप के नियम पता है और मै उन्हें फॉलो भी करता हूँ पर मुझे आज लगा कि अनिकेत जी प्रश्नों को अभिनंदन जी उत्तर दे ही रहे तो एक प्रश्न मेरा भी सॉल्व हो ही जायेगा
14/12/19, 5:24 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: Ji sir
14/12/19, 5:24 pm – Abhinandan Sharma: इस प्रश्न को भी उपरोक्त लिंक पर डालिये कोई ।
14/12/19, 5:24 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: Sir mai aapko yh answers de skta hu
14/12/19, 5:26 pm – Abhinandan Sharma: भाई, उत्तर ऊपर पहले ही दिया जा चुका है।
14/12/19, 5:27 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: Sir kar
14/12/19, 5:27 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: Tha
14/12/19, 5:47 pm – Mahendra Mishra Delhi Shastra Gyan left
14/12/19, 5:52 pm – +91 : इस नियम का पालन पूरी गंभीरता के साथ होना चाहिए ।
शास्र ज्ञान समूह को मात्र पठन- पाठन के लिए रखा जाए ।
यह विनती है ।🙏
14/12/19, 6:30 pm – +91 : अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।
नायका मम सैन्यस्य सन्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते।।
हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! अपने पक्ष में भी जो प्रधान हैं, उनको आप समझ लीजिये।आपकी जानकारी के लिये मेरी सेना के जो-जो सेनापति हैं, उनको बतलाता हूँ।।७।।
14/12/19, 6:32 pm – +91 :
14/12/19, 6:38 pm – +91 : महारथी:-जो शास्त्र व शस्त्रविद्या दोनों में प्रवीण हो तथा युद्ध में अकेले ही एक साथ दस हजार धनुर्धारी योद्धाओं का संचालन कर सकता हो वह वीर पुरूष “महारथी”कहलाता है।
14/12/19, 6:40 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 3 श्लोक 9 और 10
निरास्पदं प्रश्नकुतूहलित्वं अस्मास्वधीनं किमु निःस्पृहाणाम् ।
तथापि कल्याणकरीं गिरं ते मां श्रोतुमिच्छा मुखरीकरोति ।। ३.९ ।।
अर्थ: (आप के आगमन के प्रयोजन का) प्रश्न पूछने का मेरा जो कौतुहल था वह शान्त हो गया, क्योंकि आप जैसे निस्पृह वीतराग महापुरुषों का हम लोगों के अधीन है ही क्या ? किन्तु फिर भी आपकी मंगलकारिणी वाणी को सुनने की इच्छा मुझे मुखर (बोलने को विवश) कर रही है ।
इत्युक्तवानुक्तिविशेषरम्यं मनः समाधाय जयोपपत्तौ ।
उदारचेता गिरं इत्युदारां द्वैपायनेनाभिदधे नरेन्द्रः ।। ३.१० ।।
अर्थ: उक्त प्रकार की सुन्दर विचित्र उक्तियों से मनोहर वाणी बोलने वाले उदारचेता महाराज युधिष्ठिर से, उनकी विजय की अभिलाषा में चित्त लगा कर महर्षि द्वैपायन इस प्रकार की उदार वाणी में बोले ।
14/12/19, 6:59 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 3 श्लोक 11 और 12
चिचीषतां जन्मवतां अलघ्वीं यशोवतंसां उभयत्र भूतिं ।
अभ्यर्हिता बन्धुषु तुल्यरूपा वृत्तिर्विशेषेण तपोधनानां ।। ३.११ ।।
अर्थ: गम्भीर, कीर्ति को विभूषित करनेवाले, इस लोक तथा परलोक में सुखदायी कल्याण की इच्छा रखनेवाले शरीरधारी को (भी) अपने कुटुम्बियों के प्रति समान व्यवहार करना उचित है और तपस्वियों के लिए तो यह समान व्यवहार विशेष रूप से उचित है ।
टिप्पणी: संसार में समस्त शरीरधारी को अपने कुटुम्बी-जनों के लिए समान व्यवहार करना उचित है किन्तु तपस्वी को तो विशेष रूप से सम-व्यवहार करना ही चाहिए, उसे किसी के साथ पक्षपात नहीं करना चाहिए ।
पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।
तथापि निघ्नं नृप तावकीनैः प्रह्वीकृतं मे हृदयं गुणौघैः ।
वीतस्पृहाणां अपि मुक्तिभाजां भवन्ति भव्येषु हि पक्षपाताः ।। ३.१२ ।।
अर्थ: किन्तु ऐसा होते हुए भी हे राजन ! तुम्हारे उत्तम गुणों के समूहों से आकृष्ट मेरा ह्रदय तुम्हारे वश में हो गया है । (यदि यह कहो कि तपस्वी के ह्रदय में यह पक्षपात क्यों हो गया है तो) वीतराग मुमुक्षुओं के ह्रदय में भी सज्जनों के प्रति पक्षपात हो ही जाता है ।
टिप्पणी: सज्जनों के प्रति पक्षपात करने से मुमुक्षु तपस्वियों का तप खण्डित नहीं होता, यह तो स्वाभाविक धर्म है ।
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।
14/12/19, 7:52 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: This message was deleted
14/12/19, 7:52 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
श्री मनुस्मृति
तृतीय अध्याय
एवं यः सर्वभूतानि ब्राह्मणो नित्यं अर्चति ।
स गच्छति परं स्थानं तेजोमूर्तिः पथा र्जुना । । ३.९३[८३ं] । ।
कृत्वैतद्बलिकर्मैवं अतिथिं पूर्वं आशयेत् ।
भिक्षां च भिक्षवे दद्याद्विधिवद्ब्रह्मचारिणे । । ३.९४[८४ं] । ।
यत्पुण्यफलं आप्नोति गां दत्त्वा विधिवद्गुरोः ।
तत्पुण्यफलं आप्नोति भिक्षां दत्त्वा द्विजो गृही । । ३.९५[८५ं] । ।
भिक्षां अप्युदपात्रं वा सत्कृत्य विधिपूर्वकम् ।
वेदतत्त्वार्थविदुषे ब्राह्मणायोपपादयेत् । । ३.९६[८६ं] । ।
नश्यन्ति हव्यकव्यानि नराणां अविजानताम् ।
भस्मीभूतेषु विप्रेषु मोहाद्दत्तानि दातृभिः । । ३.९७[८७ं] । ।
विद्यातपःसमृद्धेषु हुतं विप्रमुखाग्निषु ।
निस्तारयति दुर्गाच्च महतश्चैव किल्बिषात् । । ३.९८[८८ं
अर्थ
हरी ॐ
इस प्रकार जो गृहस्थ ब्राह्मण बलि दे कर प्राणियों का सत्कार करता है वह तेजस्वी परमधाम को प्राप्त करता है। बलिकर्म के बाद अतिथिसत्कार करें,फिर सन्यासी और ब्रह्मचारी को भिक्षा दान करना चाहिए।
गुरु को गोदान करने से जो पुण्य फल मिलता है वह सन्यासी व ब्रह्मचारी को भिक्षा देने से मिलता है।
विधिविशारद ब्राह्मण का आदर करके भिक्षा व एक जलपात्र देंवे। वेदपाठ रहित मूर्ख ब्राह्मण को अज्ञान से जो भोजन दान दिया जाता है वह सब निष्फल हो जाता है।
विद्या और तप से युक्त ब्राह्मणों के मुखरूप अग्नि में जो भोजन हवन करवाता है वह महादुःख व पापों से उबरता है ।
हरी ॐ
14/12/19, 8:05 pm – Abhinandan Sharma: प्रकाश चोपड़ा जी, इस निवेदन पर ध्यान देने का कष्ट करें ।
14/12/19, 8:08 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: जरूर
14/12/19, 8:08 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: 🙏
14/12/19, 9:51 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: 👌🏻👌🏻👌🏻
15/12/19, 4:30 am – +91 : ☝जब तक एक दूसरे की मदद करते रहेंगे कभी नही गिरेंगे चाहे व्यापार हो या परिवार हो या समाज। देखे video
15/12/19, 4:30 am – +91 :
15/12/19, 5:42 am – +91 : सोऽहं विश्व सृजं विश्वमविश्ववं विश्ववेदसम्।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोऽस्मि परं पदम् ।।26।।
इस प्रकार मोक्ष का अभिलाषी मैं,
विश्व के रचयिता,
स्वयं विश्व के रूप में प्रकट तथा विश्व से सर्वथा परे,
विश्व को खिलौना बना कर खेलने वाले,
विश्व में आत्मा रूप से व्याप्त,
अजन्मा,
सर्व व्यापक एवं प्राप्तव्य वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ श्री भगवान को केवल प्रणाम ही करता हूँ—-
उनकी शरण में हूँ ।।26।।
योग रन्धित कर्माणो हृदि योगविभाविते।
योगिनो यं प्रपश्यंति योगेश॔ तं नतोनस्म्यहं।।27।।
जिन्होंने भगवद्भक्ति रूप योग के द्वारा कर्मों को जला डाला है,
वे योगी लोग उसी योग के द्वारा शुद्ध किए हुए अपने हृदय में जिन्हें प्रकट हुआ देखते हैं,
उन योगेश्वर भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ ।।27।।
15/12/19, 7:45 am – +91 :
15/12/19, 9:05 am – Abhinandan Sharma: ज्योतिष अध्ययन, भाग 5
सूर्य जब पृथ्वी के पास होता है (जनवरी के प्रारंभ में ) तब उसकी कोणीय गति तीव्र होती है और जब पृथ्वी से दूर होता है (जुलाई के आरम्भ में) तब इसकी कोणीय गति मंद होती है | जब कोणीय गति तीव्र होती है तब वह एक राशि शीघ्र पार कर लेता है और सौर मास छोटा होता है, इसके विपरीत जब कोणीय गति मंद होती है तब सौर मास बड़ा होता है |
सौर मास का औसत मान = ३०.४४ औसत सौर दिन
जितने दिनों में चंद्रमा अश्वनी से लेकर रेवती के नक्षत्रों में विचरण करता है, वह काल नक्षत्रमास कहलाता है । यह लगभग २७ दिनों का होता है । सावन मास तीस दिनों का होता है । यह किसी भी तिथि से प्रारंभ होकर तीसवें दिन समाप्त हो जाता है । प्रायः व्यापार और व्यवहार आदि में इसका उपयोग होता है । इसके भी सौर और चन्द्र ये दो भेद हैं । सौर सावन मास सौर मास की किसी भी तिथि को प्रारंभ होकर तीसवें दिन पूर्ण होता है । चन्द्र सावन मास, चंद्रमा की किसी भी तिथि से प्रारंभ होकर उसके तीसवें दिन समाप्त माना जाता है ।
नोट १ : यहाँ पर नक्षत्र एवं राशियों को संक्षेप में लिखा गया है, इनके बारे में विस्तृत चर्चा खगोल अध्ययन में की जाएगी जहाँ पर इनके बारे में सम्पूर्ण व्याख्या दी जाएगी
15/12/19, 9:33 am – +91 : विश्वमविश्वं —-【२६】√
नतोस्म्यहम् —-【२७】√
सुधार किया गया है।🙏🙏
15/12/19, 9:35 am – +91 :
15/12/19, 10:01 am – +91 : क्या?
15/12/19, 10:10 am – +91 : विश्वमविश्ववं– सही नहीं।जो आपने लिखा।
इसी तरह २७ वें श्लोक का अंतिम पद पर भी गौर करें।
15/12/19, 10:32 am – +91 : श्लोक 26 बिलकुल शुद्ध लिखा गया है ।
श्लोक 27 में एक त्रुटि है।
दो निवेदन और हैं–‘ल
पहला यह कि आप स्वयं “श” और “स” का भेद पूर्वक उच्चारण करने का अभ्यास कर लीजिए ।
दूसरा यह कि ब्रह्म का उच्चारण ब्रम्ह नहीँ है ।सुधार लीजिएगा ।
आपके आज के आडियो के संदर्भ में यह बात है।
आप के अशुद्ध उच्चारण से मैं व्यथित था किंतु टोकना ठीक नहीं समझा।
उद्देश्य पठन- पाठन है ।
व्यर्थ में टंकण की छोटी – मोटी त्रुटियों को लेकर इंगित करना अभीष्ट नहीँ है।
इस प्रकार की चर्चा समूह में करना नियम विरुद्ध है।
भविष्य में मेरे ह्वाट्स ऐप पर मार्ग दर्शन देने की कृपा कीजिएगा ।🙏🙏
15/12/19, 10:37 am – Abhinandan Sharma: ज्ञानी से ज्ञानी मिले, रस की लूटम लूट 👏👏
15/12/19, 11:01 am – +91 : उत्तम अति उत्तम
बहुत ही अदभुत और सुंदर है।
इस पवित्र श्रीमदभगवद गीता पुस्तक की श्री चरणों मे एक छोटे से भक्त का नमन ।।
15/12/19, 11:58 am – +91 : मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ कि तालव्य , मूर्धन्य और दन्तव्य ”श”ष”स” मे क्या अन्तर है।?
पहली बात तो यह है कि यदि मेरे द्वारा लिखने में या बोलने में जो गलतियां हुई या हो रही हैं तो समूह में ही , समूह के विद्वान गण मुझे टोक कर सुधार करवाया जाय। और मेरी प्रशंसा कभी भी न करें।
क्योंकि जो जो त्रुटियाँ ( चाहे छोटी हो या बड़ी )या उच्चारण में अशुद्धियाँ आ रही है तो समूह में ही मेरे को टोकने से अन्य मेरे प्रिय बन्धुओं को फायदा ही होगा।और इससे मुझे दोहरी खुशी ही मिलेगी।
२६ श्लोक, भी गीताप्रेस, गोरखपुर की पुस्तक में है।सो भेज रहा हूँ।
15/12/19, 12:01 pm – +91 :
15/12/19, 12:02 pm – +91 : सब प्रकार प्रभु तुम सन हारे।
छमहु नाथ अपराध हमारे ।।
जीवन के अस्सीवें सोपान पर अब मैं इस वाद- विवाद में नहीं पड़ना चाहता ।।
15/12/19, 12:12 pm – Abhinandan Sharma: आदित्य जी, आपके उच्चारण में दोष तो है लेकिन ये भी देख रहा हूँ कि आप स और श स्पष्ट बोल पा रहे हैं लेकिन विश्व का उच्चारण विस्व कर रहे हैं । क्यों, पता नहीं किन्तु आपके विश्व का उच्चारण सही नहीं है ।
15/12/19, 12:17 pm – +91 : बहुत बहुत आभार। अभिनन्दन जी।🙏🙏
तभी तो ऑडियो समूह में भेजता हूँ।इसी प्रकार मुझे उपकृत करते रहे।
शेष भगवत् कृपा।🙏🙏
15/12/19, 12:17 pm – ABKG Reader Vikas Kr Dubey Bhadohi UP: ज्यादातर पूर्वी उत्तर प्रदेश की तरफ वाले स और श में भेद नही कर पाते। शायद वही कारण है जो आपने अपनी किताब में लिखा है। रामचरित मानस में भी कई जगह मैंने स की श देखा है है। हालांकि ये गलत है पर क्षेत्र की वजह से ये डिफरेंस है।
15/12/19, 12:18 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: कोई तीनो स श ष का स्पष्ट उच्चारण पृथक पृथक कर सकता है 🙏🏻
15/12/19, 12:20 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: स और श में भेद तो हो जाता है, ष का उच्चारण ठीक से नही हो पाता 🙏🏻
15/12/19, 12:20 pm – +91 :
15/12/19, 12:20 pm – +91 : कोशिश पुनः की गई☝🙏
15/12/19, 12:20 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: 👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻🙏🏻
15/12/19, 12:21 pm – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: Ji
15/12/19, 12:21 pm – Abhinandan Sharma: बेहतर है किंतु श और ष में अभी और प्रयास की आवश्यकता है ।
15/12/19, 12:22 pm – Abhinandan Sharma:
15/12/19, 12:23 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: 👌🏻
15/12/19, 12:24 pm – +91 : 👌👌🙏🙏
15/12/19, 12:29 pm – +91 : हमारा पठन-पाठन तभी सार्थक है जब हम त्रुटि रहित होने का प्रयास करते रहें, और शुद्धता की ओर अग्रसर होते रहें।
बहुत ही अच्छा समूह👏👏
15/12/19, 12:40 pm – Dr PL Sharma White Cottege Ghaziabad Shastr Gyan: 🕉🙏बहुत अच्छा, आप कृतार्थ करते रहें।
15/12/19, 12:45 pm – Webinar Anish Kumar Gurgaon: Are bohot hi badiya video jee.. Kaha se order kr sakte hain??
15/12/19, 1:21 pm – Abhinandan Sharma: How it is useful, except for the old people, who can’t read or can’t see smaller text ?
15/12/19, 1:22 pm – Abhinandan Sharma: Bhgvadgeeta, hindi audio, sanskrit audio, video, text all are already available but how this book is useful or better then that ?
15/12/19, 1:40 pm – Webinar Anish Kumar Gurgaon: Baat to apki bhi thik hai sir.. I guess this book will give old pple a feel of holding d book in their hands..
15/12/19, 2:24 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi removed +91 94500 45045
15/12/19, 5:10 pm – Abhinandan Sharma: कोई पढ़ रहा है इसे या नहीं !!!
15/12/19, 5:17 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: जी पढ़ रहे हैं ।
15/12/19, 5:18 pm – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: जी
15/12/19, 5:19 pm – +91 : Ji
15/12/19, 5:19 pm – +91 : बिलकुल।👌👌🙏
15/12/19, 5:31 pm – Abhinandan Sharma: चलो, फिर ठीक है म
15/12/19, 6:00 pm – Shastragyam Bhavsar Prakash Maliwal: इस ग्रुप की कोई ऐसी पोस्ट नहीं जो जुड़ा हूँ जब से नहीं पढ़ी हो 😊🙏🏻
15/12/19, 6:01 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: इतने गहन विषय पर भी कोई प्रश्न नही हुआ, इसलिए पूछा अभिनन्दन जी ने 🙂
15/12/19, 6:03 pm – Shastragyam Bhavsar Prakash Maliwal: अभी प्रश्न करने लायक नहीं हुए हम प्रभु, जब होंगे तब प्रश्न अपने आप ही निकलेंगे 🙏🏻🙏🏻
15/12/19, 6:25 pm – +91 : This message was deleted
15/12/19, 6:26 pm – +91 :
15/12/19, 6:27 pm – +91 : भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिन्जयः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च।।८।।
आप–द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्राम विजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा।।८।।
15/12/19, 6:28 pm – +91 : भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिन्जयः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च।।८।।
आप–द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्राम विजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा।।८।।
15/12/19, 6:42 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 3 श्लोक 13, 14, 15 और 16
सुता न यूयं किं उ तस्य राज्ञः सुयोधनं वा न गुणैरतीताः ।
यस्त्यक्तवान्वः स वृथा बलाद्वा मोहं विधत्ते विषयाभिलाषः ।। ३.१३ ।।
अर्थ: आप लोग क्या उस राजा धृतराष्ट्र के पुत्र नहीं हैं? क्या अपने उत्तम गुणों से आप लोगों ने दुर्योधन को पीछे नहीं छोड़ दिया है ? जो उसने बिना किसी कारण के ही आप लोगों को छोड़ दिया है । अथवा (यह सच है कि) विषयों की अभिलाषा (मनुष्य को) बलपूर्वक अविवेकी ही बना देती है ।
टिप्पणी: अर्थात धृतराष्ट्र की विषयाभिलाषा ही उसके अविवेक का कारण है ।
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।
जहातु नैनं कथं अर्थसिद्धिः संशय्य कर्णादिषु तिष्ठते यः ।
असाद्युयोगा हि जयान्तरायाः प्रमाथिनीनां विपदां पदानि ।। ३.१४ ।।
अर्थ: जो कर्ण प्रभृति दुष्ट मन्त्रियों पर सन्देहजनक कार्यों के निर्णयार्थ निर्भर रहता है, उस धृतराष्ट्र को प्रयोजनों की सिद्धियां क्यों न छोड़े । क्योंकि दुष्टों का सम्पर्क विजय का द्योतक (ही नहीं होता, प्रत्युत) ध्वंस करने वाली विपत्तियों का आधार (भी) होता है ।
टिप्पणी: दुष्टों की सङ्गति न केवल विजय में ही बाधा डालती है, प्रत्युत वह अनर्थकारिणी भी होती है । ऐसे दुष्टों के सम्पर्क से धृतराष्ट्र का अवश्य विनाश हो जाएगा ।
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।
पथश्च्युतायां समितौ रिपूणां धर्म्यां दधानेन धुरं चिराय ।
त्वया विपत्स्वप्यविपत्ति रम्यं आविष्कृतं प्रेम परं गुणेषु ।। ३.१५ ।।
अर्थ: शत्रुओं के पथ से भ्रष्ट शत्रुओं की सभा में चिरकाल तक धर्म के साथ अपना कर्त्तव्य पूरा करके आपने विपत्तियों में भी अविपत्ति अर्थात सुख-शान्ति के समय शोभा देनेवाले सात्विक गुणों के साथ ऊँचा प्रेम प्रदर्शित किया है ।
टिप्पणी: असहनीय कष्टों को भी आपने सुख के साथ बिताकर अच्छा ही किया है ।
विरोधाभास अलङ्कार ।
विधाय विध्वंसनं आत्मनीनं शमैकवृत्तेर्भवतश्छलेन ।
प्रकाशितत्वन्मतिशीलसाराः कृतोपकारा इव विद्विषस्ते ।। ३.१६ ।।
अर्थ: शान्ति के प्रमुख उपासक आप के साथ छल करके उन शत्रुओं ने अपना ही विनाश किया है और ऐसा करके उन्होंने आपकी सद्बुद्धि एवं शील सदाचरण का परिचय देते हुए मानो आपका उपकार ही किया है ।
टिप्पणी: ऐसा करके उन्होंने अपनी दुर्जनता तथा आपकी सज्जनता का अच्छा प्रचार किया है । चन्दन की भांति सज्जनों की विपत्ति भी उनके गुणों का प्रकाशन ही करती है ।
उत्प्रेक्षा अलङ्कार ।
15/12/19, 8:59 pm – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: ।।पंचतंत्र।।
प्रथम तन्त्र
मित्रभेद (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
कथा क्रम : एक
अनादिष्टोऽपि भूपस्य दृष्ट्वा हानिकरं च यः ।
यतते तस्य नाशाय स भृत्योऽर्हो महीभुजाम् ।।
अपने राजा के विरुद्ध चल रही किसी विरोधी गतिविधि को नष्ट करने के लिए अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा देने वाला सेवक ही वास्तव में सेवक कहलाने योग्य होता है।
न क्षुधा पीड्यते यस्तु निद्रया न कदाचन ।
न च शीतातपाद्यैश्च स भृत्योऽर्हो महीभुजाम् ।।
स्वामी के काम के लिए अपनी भूख-प्यास, निद्रा तथा सुख-सुविधा को भूलकर अपने कर्तव्य का पालन करने वाला व्यक्ति ही सच्चा सेवक होता है।
सीमावृद्धिं समायाति शुक्लपक्ष इवोडुराट् ।
नियोगसंस्थिते यस्मिन् स भृत्योऽर्हो महीभुजाम् ।।
सीमा पर सतर्क रहकर अपने स्वामी की सुरक्षा करने वाला और शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की भांति सीमा को बढ़ाने वाला सैनिक ही सच्चा सेवक कहलाता है।
कौशेयं कृमिजं सुवर्ण-
मुपलाद् दूर्वापि गोरोमतः
पङ्कात्तामरसं शशाङ्क
उदधेरिन्दीवरं गोमयात् ।
काष्ठादग्निरहेः फणादपि
मणिर्गोपित्ततो रोचना
प्राकाश्यं स्वगुणोदयेन
गुणिनो गच्छन्ति किं जन्मना ।।
यह कहने के उपरान्त दमनक बोला—
स्वामी! मुझे साधारण गीदड़ समझकर आपको मेरी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए थी। जन्म अथवा जाति से गुणों का कोई सम्बन्ध नहीं होता। रेशम का जन्म कीड़े से होता है, सोना पत्थर से निकाला जाता है, दूर्वा की उत्पत्ति गाय के रोमों से होती है, कमल का जन्म कीचड़ से होता है और चन्द्रमा की उत्पत्ति सागर से होती है। इन्दीवर कमल गोबर से, अग्नि लकड़ी से, मणि सांप के फन से और गोरोचन गाय के पित्त से उत्पन्न होता है। इन सबकी उत्पत्ति के स्थानों के तुच्छ होने पर भी, अपने गुणों के कारण ही इनकी प्रतिष्ठा है।
किं भक्तेनासमर्थेन किं शक्तेनापकारिणा ।
भक्तं शक्तं च मां राजन् नावज्ञातुं त्वमर्हसि ।।
जिस प्रकार कुछ भी करने में असमर्थ सेवक के समर्पित होने पर भी उसकी कोई उपयोगिता नहीं होती, उसी प्रकार समर्थ सेवक के समर्पित न होने पर उसकी भी कोई उपयोगिता नहीं होती। उपयोगिता तो केवल समर्थ और समर्पित सेवक की ही होती है।
अपि स्वल्पतरं कार्य्यं यद्भवेत्पृथिवीपतेः ।
तन्न वाच्यं सभामध्ये प्रोवाचेदं बृहस्पतिः ।।
आचार्य बृहस्पति का कथन है कि राजा को अपने किसी छोटे-से कार्य की चर्चा भी किसी सभा में नहीं करनी चाहिए।
15/12/19, 9:18 pm – Ruby Singh Lucknow Shastra Gyan left
15/12/19, 9:56 pm – +91 : नमो नमस्तुभ्यमसह्य वेग-
शक्ति त्रयायाखिलधीगुणाय।
प्रपन्न पालाय दुरन्त शक्तये
कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने।।28।।
जिनकी त्रिगुणात्मक सत्ता( सत्व- रज- तम रूप) शक्तियों का रागरूप वेग असह्य है,
जो सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषय रूप में प्रतीत हो रहे हैं,
तथापि जिनकी इंद्रियां विषयों में ही रची – पची रहती हैं–‘
ऐसे लोगों को जिनका मार्ग भी मिलना असम्भव है—
उन शरणागत रक्षक एवं अपार शक्तिशाली आप को बार-बार नमस्कार है ।।28।।
नायं वेद स्वमात्मानं यच्छक्त्याहंधिया हतम्।
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम्।।29।।
जिनकी अविद्या नामक शक्ति के कार्यरूप अहंकार से ढके हुए अपने स्वरूप को यह जीव जान नहीं पाता,
उन अपार महिमा वाले भगवान् की मैं शरण आया हूँ ।।29।।
श्री शुक उवाच — शुकदेव जी ने कहा–
एवं गजेन्द्रमुपवर्णित निर्विशेषं
ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः।
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात्
तत्राखिलामरमयो हरिराविरासीत्।।30।।
जिसने पूर्वोक्त प्रकार से भगवान् के भेद रहित निराकार स्वरूप का वर्णन किया था,
उस गजराज के समीप जब ब्रह्मा आदि कोई भी देवता नहीँ आए,
जो भिन्न- भिन्न प्रकार के के विशिष्ट विग्रहों को ही अपना स्वरूप मानते हैं ,
तब साक्षात् श्री हरि —- जो सबके आत्मा होने के कारण सर्व देव स्वरूप हैं—- वहां प्रकट हो गए।।30।।
तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासः
स्तोत्रम् निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भिः।
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमान–‘
श्चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः।।31।।
उपर्युक्त गजराज को उस प्रकार दुःखी देखकर तथा उसके द्वारा पढ़ी हुई स्तुति को सुन कर सुदर्शन – चक्रधारी जगदाधार भगवान् इच्छानुरूप वेग वाले गरुड़ जी की पीठ पर सवार हो स्तवन करते हुए देवताओं के साथ तत्काल उस स्थान पर पहुँच गए,
जहाँ वह हाथी था।।31।।
सोऽन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो
दृष्ट्वा गरुत्मति हरिं ख उपात्त चक्रम्।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छ्रा–
नारायणाखिल गुरो भगवन् नमस्ते।।32।।
सरोवर के भीतर महाबली ग्राह के द्वारा पकड़े जा कर दुःखी हुए उस हाथी ने आकाश में गरुड़ की पीठ पर चक्र को उठाए हुए भगवान् श्री हरि को देख कर अपनी सूंड को —-
जिसमें उसने ( पूजा के लिए) कमल का एक फूल ले रखा था-‘–
ऊपर उठाया और बड़ी कठिनता से
‘ सर्व पूज्य भगवान् नारायण!
आपको प्रणाम है ‘
यह वाक्य कहा।।32।।
तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य
सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार।
ग्राहाद् विपाटित मुखादरिणा गजेन्द्रं
सम्पश्यतां हरिरमूमुचदुस्त्रियाणाम्।।33।।
उसे पीड़ित देखकर अजन्मा श्री हरि एकाएक गरुड़ को छोड़कर नीचे झील पर उतर आए ।
वे दया से प्रेरित हो ग्राहसहित उस गजराज को तत्काल झील से बाहर निकाल लाए और देवताओं के देखते – देखते चक्र से उस ग्राह का मुंह चीरकर उसके चंगुल से हाथी को उबार लिया ।।33।।
प्रभु कृपा से श्री गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र का लेखन जैसा बन पड़ा, संपन्न हुआ ।।🙏
15/12/19, 9:58 pm – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: 🙏
15/12/19, 9:59 pm – +91 : न्नारायणाखिलगुरो भगवन् नमस्ते।।
15/12/19, 10:38 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: इस समूह का लिंक भेज दे कृपया 🙏🏻 एक मित्र जुड़ना चाहते है
15/12/19, 11:25 pm – +91 : Upvas krna chahiye
16/12/19, 5:56 am – Abhinandan Sharma: https://chat.whatsapp.com/2SkmoWFteIVLupbet6bqMM
16/12/19, 7:11 am – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-८ श्लोक ३९,४०,४१
भोजनं तृणकेशादिजुष्टमुष्णिकृतं पुनः। शाकावरान्नभूयिष्ठमत्युष्णलवणं त्यजेत्॥३९॥
त्याज्य भोजन- जिस भोजन में तिनके, केश (बाल), मक्खी आदि पड़े हो, जो फिर से गर्म किया गया हो अर्थात एक बार ठण्डा हो चुका हो, जिसमें शाक अथवा कुत्सित (निर्वीय) अन्न अधिक मात्रा में डाले गये हो, जो अत्यन्त गर्म हो या उष्णवीर्य हो या जिसमें अधिक नमक पड़ा हो, ऐसे भोजन पदार्थों का परित्याग कर देना चाहिए।
किलाटदधिकुर्चीकाक्षारशुक्तममूलकम्। कृशशुष्कवराहाविगोमत्स्यमहिषामिषम्॥४०॥
माषनिष्पावशालूकबिसपिष्टविरूढ़कम्। शुष्कशाकानि यवकान् फाणितं च न शीलयेत्॥४१॥
असेवनीय आहार- किलाट, दही, कुर्चिका, क्षार, शुक्त, कच्ची मूली, कृश प्राणी का मांस, सुखाया गया मांस, सूअर, गाय, मछली तथा भैस का मांस, उड़द, निष्पाव (उबले हुए धान्य), शालूककन्द, बिसकन्द, पीठी के द्वारा निर्मित पदार्थ, अंकुरित अन्न, सुखाये गये शाक, यवक (जई) नामक अन्न एवं राब— इनका अधिक मात्रा में निरन्तर सेवन न करें।
16/12/19, 7:13 am – Shastragyan Abhishek Sharma: *रामायण बालकाण्ड – अष्टदश सर्ग श्लोक १६,१७,१८,१९,२०
गुणवन्तोऽनुरूपाश्च रूच्या प्रोष्ठपदोपमाः। जगुः कलं च गन्धर्वा ननृतुश्चापसरोगणाः॥१६॥
देवदुन्दुभयो नेदुः पुष्पवृष्टिश्च खाच्च्यूता। उत्सवश्च महानासीदयोध्यायां जनोकुलाः॥१७॥
चारों पुत्र गुणवान और पूर्वा व उत्तरा भाद्रपद नक्षत्रों के तुल्य कान्तियुक्त थे। इनके जन्म के समय गन्धर्वो ने मधुर गान किया, अप्सरायें नाची, देवताओं ने बाजे बजाये और आकाश से पुष्पों की वर्षा हुई। इस प्रकार अयोध्या में बड़ी धूमधाम से उत्सव हुआ और लोगों की बड़ी भारी भीड़ हुयी।
रथ्याश्च जनसंवाधा नटनर्तकङ्कुलाः। गायनैश्च विराविण्यो वादकैश्च तथापरैः॥१८॥
अयोध्या के घर घर आनन्द की बधाई बजने लगी। गली कूचों में जिधर देखो उधर लोगों की भीड़ लगी हुई थी और वैश्या नट, नटी आदि गा बजा रही थी।
प्रदेयाश्च ददौ राजा सूतमागधमन्दिनाम्। ब्राह्मणेभ्यो ददौ वित्तं गोधनानि सहस्त्रशः॥१९॥
इस उत्सव मे महाराज दशरथ ने सूत, मागध और वन्दीगण को पारितोषिक यानि “सिरोपा” और ब्राह्मणों को धन और बहुत सी गौवें दीं।
अतीत्यैकादशाहं तु नामकर्म तथाऽकरोत्। ज्येष्ठं रामंर महात्मानं भरतं कैकयीसुतम्॥२०॥
बाहरवें दिनचारों शशिशुओं का नाम-करण संस्कार किया गया। सबसे बड़े अर्थात कौशल्यानन्द-वर्धन का नाम श्रीरामचन्द्र और कैकयी के पुत्र का नाम भरत रखा गया।
16/12/19, 10:25 am – Shastra Gyan Maniah Patiala: मान लीजिये, आपके सामने एक नारंगी हो । आप नेत्र के द्वारा उसका रंग-रूप, और आकार-प्रकार देखते हैं। यह ‘चाक्षुष’ प्रत्यक्ष हुभा । फिर आप उसको हाथ में लेते है। छूने से वह चिकनी, मुलायम और ठंढी मालूम होती है। यह ‘त्वाचिक’ प्रत्यक्ष हुआ। तब आप उसको नाक पास ले जाकर सुँधते है; उसकी मीठी महक लेते है। यह ‘घ्राणज’ प्रत्यक्ष हुआ। इसके बाद आप एक फाक लेकर जिह्वा पर रखते है । उसका स्वाद मीठा लगता है । यह ‘रासन’ प्रत्यक्ष हुआ । खाते-खाते जिव्हा और तालु के संघर्ष से जो शब्द उत्पन्न होता है वह आपको सुनाई देता है। यह ‘श्रावण’ प्रत्यक्ष हुआ।
(२) अर्थ
प्रत्यक्ष ज्ञान के लिये किसी वस्तु’ या पदार्थ का होना आवश्यक है। घट है तब तो आपको उसका प्रत्यक्षीकरण होता है। यदि घट रहता ही नहीं तो आप देखते क्या ? आँख का धर्म है, देखना। किन्तु सामने कोई पदार्थ रहेगा तब तो वह देखेगी। शून्य में क्या दिखलाई पड़ेगा ? इसलिये अकेली इन्द्रिय कुछ नहीं कर सकती। बाह्य पदार्थ का भी होना आवश्यक है। जब किसी पदार्थ के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध होता है तभी प्रत्यक्ष ज्ञान की उपलब्धि होती है। नोट-नैयायिक लोग बाह्म पदार्थ की सत्ता को स्वयंसिद्ध मानते है। इसको ‘वस्तुवाद’ (Realism ) कहते है। वेदान्त का कहना है कि जो कुछ हम देखते हैं सब भ्रम मात्र है। संसार माया है और अविद्या के कारण उसे हम सत्य मानते है वेदान्त का कहना है कि जो कुछ हम देखते हैं सब भ्रम मात्र है। संसार माया है और अविद्या के कारण उसे हम सत्य मानते है । बाह्य पदार्थों की यथार्थ सत्ता नहीं है। केवल एक मात्र ‘ब्रह्म’ सत्य है और सब कुछ मिथ्या है। इस मत को मायावती ( Phenomenalism) कहते है। बौद्ध दर्शन भी ‘विज्ञानवाद’ (Subjectivism) का अवलम्बन कर कहता है कि हमें जो प्रत्यक्षादि अनुभव होते है, वे केवल मानसिक संवेदन ( Sensation) मात्र हैं । मन के बाहर कोई पदार्थ नहीं। अतएव बाह्य जगत् कोई चीज नहीं, कल्पना मात्र है। कुछ लोग तो इससे भी आगे बढ़कर ‘शून्यवाद’ ( Nihilism ) का समर्थन करते हुए कहते हैं कि बाह्य या आंतरिक कोई वस्तु भी नहीं है, सब कुछ शून्य है। इन मतों के विरुद्ध आवाज उठाते हुए न्याय-वैशेषिक पदार्थों की सत्ता निर्विवाद मानता है । उसका कहना है कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से जितने पदार्थ जाने जाते हैं, सभी सत्य हैं और अपनी पृथक-पृथक सत्ता रखते है। न्याय-वैशेषिक दर्शन सात्त पदार्थ मिलता है: (१) द्रव्य (२) गुण (३) कर्म (४) सामान्य (५) विशेष (६) समवाय और (७) अभाव ।
16/12/19, 11:28 am – Shastra Gyan Ranjana Prakash: “अच्छे संदेश “बस मनु इतना भर समझ कर भी जी सकता है।
16/12/19, 11:32 am – Shastra Gyan Ranjana Prakash: 🙏
16/12/19, 11:34 am – Shastra Gyan Ranjana Prakash: ज्ञानामृत बहाने के लिए सबको प्रेम।
16/12/19, 11:48 am – FB Piyush Khare Hamirpur: 👌👌
16/12/19, 3:17 pm – Abhinandan Sharma: ज्योतिष अध्ययन, भाग 6
तिथि – चन्द्रमा आकाश में चक्कर लगाता हुआ जिस समय सूर्य के बहुत पास पहुच जाता है उस समय अमावस्या होती है | ( जब चंद्रमा सूर्य और पृथ्वी के बिलकुल मध्य में स्थित होता है तब वह सूर्य के निकटतम होता है |) अमावस्या के बाद चंद्रमा सूर्य से आगे पूर्व की ओर बढ़ता जाता है और जब १२० अंश आगे हो जाता है तब पहली तिथि (प्रथमा) बीतती है | १२० से २४० अंश का जब अंतर रहता है तब दूज रहती है | २४० से २६० तक जब चंद्रमा सूर्य से आगे रहता है तब तीज रहती है | इसी प्रकार जब अंतर १६८०-१८O० तक होता है तब पूर्णिमा होती है, १८O०-१९२० तक जब चंद्रमा आगे रहता है तब १६ वी तिथि (प्रतिपदा) होती है | १९२०- २O४० तक दूज होती है इत्यादि | पूर्णिमा के बाद चंद्रमा सूर्यास्त से प्रतिदिन कोई २ घडी (४८ मिनट) पीछे निकालता है |
चन्द्र मासों के नाम इस प्रकार हैं – चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष या मृगशिरा, पौष, माघ और फाल्गुन |
16/12/19, 3:21 pm – FB Mukesh Sinha Pathalgaon CG Shastra Gyan:
16/12/19, 3:42 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: पाठक कृपया १२० को १२° और १८0 को १८०° पढ़ें।
मुझे थोड़ा कन्फयुजन हुआ था इसीलिए लिख दिया है।
16/12/19, 3:45 pm – Abhinandan Sharma: 😉😉
16/12/19, 3:54 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: मनु स्मृति बन्द हो गयी क्या ???
16/12/19, 3:55 pm – Abhinandan Sharma: You deleted this message
16/12/19, 4:00 pm – Abhinandan Sharma: नहीं चल तो रही है | वैसे क्या कोई बता सकता है कि इस समय ग्रुप में कौन कौन सी पुस्तकें चल रही हैं ? मैं कोशिश करता हूँ, जो भूल जाऊं तो एड कराईयेगा –
१. मनुस्मृति
२. ज्योतिष
- तर्कशास्त्र
४. वाल्मीकि रामायण - अष्टांग ह्रदय
६. गजेन्द्र मोक्ष
७. किरातार्जुनीय
८. पंचतंत्र
९. भगवद्गीता
१०. महाभारत (जो बहुत दिनों से नहीं आई है !)
क्या इनके अलावा भी कोई और ग्रन्थ/पुस्तक चल रही है ग्रुप में ?
16/12/19, 4:03 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: मनु स्मृति कछुए से भी धीमी रफ़्तार से चल रही है, नियमित कम से कम एक msg तो आना चाहिए, जैन साहब शायद चला रहे थे, अति व्यवस्तता की वजह से काफी दिन से भेजे नही कुछ, सम्भव हो तो शर्मा जी आप ही क्यों नही पढ़ा देते
16/12/19, 4:13 pm – +91 : गजेन्द्र मोक्ष का लेखन कल संपन्न हो गया ।
16/12/19, 4:14 pm – Abhinandan Sharma: भाईसाहब, शनिवार को ही भाग आया था | कृपया कच्छप गति जैसे विशेषण न लगाएं क्योंकि यहाँ सभी लोग अपने ब्यस्त जीवन से समय निकाल कर, आपके लिए, इतना सब कुछ आपके लिए टाइप करते हैं जिसमें बहुत समय लगता है, मेहनत लगती है | अतः जो जैसे डाल पा रहा है, कृपया उसका उत्साहवर्धन करें, न कि कच्छप गति जैसा विशेषण दें | ऐसा निवेदन है 🙏
16/12/19, 4:15 pm – Abhinandan Sharma: मैं ज्योतिष पर लिख तो रहा हूँ |
16/12/19, 4:29 pm – Abhinandan Sharma: 🙏🙏 आपका बहुत बहुत धन्यवाद पीताम्बर जी | जो आपने इस उम्र में भी, यहाँ बच्चों को भी पछाड़ रखा है |
16/12/19, 4:32 pm – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: 🙏🙏
16/12/19, 4:33 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: जी आपने सही कहा पीताम्बरजी का बहुत बहुत धन्यवाद।
16/12/19, 4:46 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: क्षमा 🙏🏻🙏🏻🙏🏻
16/12/19, 4:47 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: 👌🙏🏻🙏🏻🙏🏻
16/12/19, 4:45 pm – Abhinandan Sharma: कुछ मिस तो नहीं हो रहा है न ? सुधाकर जी, थोडा देख कर बताइए |
16/12/19, 4:57 pm – +91 : आभार 🙏🙏
16/12/19, 4:58 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: रहा तो कुछ नही, पर कुछ धुंधलासा याद आ रहा है कि शायद मानस भी चल रही थी, रामचरितमानस
16/12/19, 5:00 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙏🏼🙏🏼
16/12/19, 5:00 pm – +91 : शीघ्र ही लेखन का प्रयास अवश्य करूंगा ।
स्फुट प्रसंगों का लेखन क्रम चल रहा था।
वैसे ही करना चाहूँगा ।🌹
16/12/19, 5:02 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙏🏼
16/12/19, 5:04 pm – LE Ravi Parik : 🙏🏻
16/12/19, 5:04 pm – Abhinandan Sharma: ठीक है तो अब समस्या ऐसा है कि इस ग्रुप पर लोग जुड़ना चाहते हैं, हम इसे पब्लिक भी नहीं करते, ताकि भीड़ कम बनी रहे लेकिन फिर भी इस ग्रुप के विभिन्न सदस्यों के पारिवारिक लोग भी इस ग्रुप से जुड़ना चाहते हैं | ऐसे में, इस ग्रुप की लिमिट २५७ की आड़े आती है | क्या इस ग्रुप को टेलीग्राम पर भी रखना शुरू किया जाए और पैरेलल चलाया जाय ? उसमें सदस्यों की संख्या कितनी भी हो सकती है | आप सभी की क्या राय है ? कृपया अवगत कराएं |
16/12/19, 5:07 pm – LE Ravi Parik : I dont know Telegraph
16/12/19, 5:07 pm – Abhinandan Sharma: जो इसमें हैं, वो यहीं रहेंगे | नए लोग और कुछ लोग यहाँ से, उसमें जुड़ जायेंगे |
16/12/19, 5:13 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: टेलीग्राम उतना पॉपुलर नही है, लोग टेलीग्राम जो use भी करते है वो भी उतना नियमित नही देखते। व्हाट्सएप फिर भी लोग रोज देखते है, बाकी जैसी हुकुम की इच्छा 🙏🏻
16/12/19, 5:26 pm – Abhinandan Sharma: व्हात्सप्प तो चलता ही रहेगा, जैसे चल रहा है | बस अगर २५७ से अधिक लोग जुड़ना चाहें तो उनके लिए भी स्थान हो, आगे उनकी मर्जी, चेक करें या ना करें | क्या कहते हैं ? करना चाहिए ?
16/12/19, 5:32 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: अभिनन्दन जी और अब मैं क्या करूँ?
16/12/19, 5:33 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: व्हाट्सएप पर ही एक नया ग्रुप बना लेना बेहतर होगा🙏🏻
16/12/19, 5:34 pm – +91 : समर्थन
16/12/19, 5:50 pm – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur: शास्त्र ज्ञान 2 के नाम से
16/12/19, 5:55 pm – Abhinandan Sharma: फिर 550 के बाद यही प्रॉब्लम आएगी जबकि टेलीग्रम में ऐसा कुछ नहीं होगा । टेलीग्राम में एक और सुविधा है कि नया मेंबर पुराने मेसेज भी पढ़ और देख सकता है ।
16/12/19, 5:55 pm – +91 : Telegram एक संभावना है । ज्यादा लोगो के लिए
16/12/19, 6:12 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: ये ठीक है उसमें ये भी है कि आदमी जब भी जुड़े वो पुरानी पोस्ट भी पढ़ सकेगा और संख्या की भी कोई लिमिट नही🙏🙏
16/12/19, 6:22 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: Telegram is a good option.
16/12/19, 6:24 pm – Abhinandan Sharma: You deleted this message
16/12/19, 6:25 pm – Abhinandan Sharma: अब अपने मित्रों और परिवार को आप यहां जोड़ सकते हैं ।
16/12/19, 6:26 pm – +91 : अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्त जीविताः।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः।।९।।
और भी मेरे लिए जीवन की आशा त्याग देने वाले बहुत-से शूरवीर अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित और सब-के-सब युद्ध में चतुर हैं ।।९।।
16/12/19, 6:27 pm – +91 :
16/12/19, 6:27 pm – FB Rajesh Singhal Ghaziabad Shastra Gyan: अभी टेलीग्राम मैं चैट एक्सिस्ट नही कर रही है।
लिख कर आ रहा है
16/12/19, 6:31 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: This message was deleted
16/12/19, 6:32 pm – Webinar Anish Kumar Gurgaon: Telegram whatsapp se sau guna badiya hai.. I use it more then whtapp…
16/12/19, 6:32 pm – Webinar Anish Kumar Gurgaon: Bt xhat doesnt exist ka message aa ra hai
16/12/19, 6:32 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: नही भाई साहब,
घर में कुछ हॉस्पिटल सम्बन्धीआवश्यक कार्य आ जाने के कारण थोड़ा विलम्ब हो रहा है क्षमा प्रार्थी हूँ🙏
16/12/19, 6:35 pm – Abhinandan Sharma: Is anyone able to join group ?
16/12/19, 6:35 pm – +91 : Not exist बता रहा है भैया
16/12/19, 6:37 pm – Abhinandan Sharma: You deleted this message
16/12/19, 6:37 pm – +91 : टेलीग्राम मे विधर्मी लोग बड़े पैमाने पर घुसपैठ करेंगे।
16/12/19, 6:37 pm – Abhinandan Sharma: https://t.me/joinchat/JnQC2xNYIWhJBBUgNY0ZqA
16/12/19, 6:37 pm – Abhinandan Sharma: उसके लिए हमारे पास कड़क एडमिन है 😄
16/12/19, 6:38 pm – Abhinandan Sharma: इस लिंक पर क्लिक करके देखिए जरा ।
16/12/19, 6:39 pm – +91 : Out of Control की स्थिति हो जायेगी। शर्मा जी।
16/12/19, 6:41 pm – Abhinandan Sharma: देखते हैं… वहां अगर घुसपैठिये हैं तो यहां भी 250 लोग तैयार हैं। संघे शक्ति कलियुगे और अब हमारे पास कम से कम 250 लोगों का एक सुसंगठित संघ है।
16/12/19, 6:43 pm – +91 : 👏👏👏👏
16/12/19, 6:43 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: 👌🙏🏻🥳
16/12/19, 6:44 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: जॉइन करते ही सभी लोग उपस्थिति दर्ज कराते जाए टेलीग्राम में 🙏🏻
16/12/19, 6:44 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: कोई बात नही 🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
16/12/19, 6:49 pm – FB Sanjay Kr Singh Saptarshi: Link does not exist बता रहा है
16/12/19, 6:50 pm – FB Sanjay Kr Singh Saptarshi: यह है
16/12/19, 8:56 pm – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: 💪
16/12/19, 8:56 pm – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: 🙏🙏🙏🙏
16/12/19, 9:36 pm – Shastragyam Bhavsar Prakash Maliwal: 🙏🏻🙏🏻😊
16/12/19, 9:37 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 3 श्लोक 17 और 18
लभ्या धरित्री तव विक्रमेण ज्यायांश्च वीर्यास्त्रबलैर्विपक्षः ।
अतः प्रकर्षाय विधिर्विधेयः प्रकर्षतन्त्रा हि रणे जयश्रीः ।। ३.१७ ।।
अर्थ: तुम पराक्रम के द्वारा (ही) पृथ्वी को प्राप्त कर सकते हो । तुम्हारा शत्रु पराक्रम और अस्त्रबल में तुमसे बढ़ा-चढ़ा है । इसलिए तुम्हें भी अपने उत्कर्ष के लिए उपाय करना होगा, क्योंकि युद्ध में विजयश्री उत्कर्ष के ही अधीन रहती है ।
टिप्पणी: बलवान एवं पराक्रमी ही रण में विजयी होते हैं, बलहीन और आलसी नहीं ।
काव्यलिंग और अर्थान्तरन्यास की ससृष्टि ।
त्रिःसप्तकृत्वो जगतीपतीनां हन्ता गुरुर्यस्य स जामदग्न्यः ।
वीर्यावधूतः स्म तदा विवेद प्रकर्षं आधारवशं गुणानां ।। ३.१८ ।।
अर्थ: इक्कीस बार धरती के राजाओं का जो संहार करनेवाला है, वह धनुर्वेद का शिक्षक सुप्रसिद्ध जमदग्नि का पुत्र परशुराम जिस(भीष्म) के पराक्रम से पराजित हो गया और यह जान सका कि गुणों का उत्कर्ष पात्र के अनुसार ही होता है ।
टिप्पणी: जमदग्नि के पुत्र परशुराम ने अपने पिता के वैर का बदला चुकाने के लिए समस्त भूमण्डल के क्षत्रिय राजाओं का इक्कीस बार विनाश कर दिया था, यह सुप्रसिद्ध पौराणिक कथा है । वही परशुराम भीष्म के धनुर्विद्या के आचार्य थे, किन्तु अम्बिका-स्वयंवर के समय उन्हें अपने ही शिष्य भीष्म से पराजित हो जाने पर यह स्वीकार करना पड़ा कि गुणों का विकास पात्र के अनुसार होता है । किसी साधारण पात्र में पड़कर वही गुण अविकसित अथवा अधविकसित होता है और किसी विशेष पात्र में पड़कर वह पूर्व की अपेक्षा अत्यधिक मात्रा में विकसित होता है ।
पदार्थहेतुक काव्यलिंग अलङ्कार
16/12/19, 9:44 pm – LE Ravi Parik : Is this the same book
16/12/19, 9:46 pm – Abhinandan Sharma: नहीं, ये मेरे बनाये हुए नोट्स हैं।
16/12/19, 10:30 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: रामायण बालकाण्ड – अष्टदश सर्ग श्लोक २१,२२,२३,२४,२५,२६
सौमित्रिं लक्ष्मणमिति शत्रुघ्नमपरं तथा। वसिष्ठः परमप्रीतो नामानि कृतवांस्तदा॥२१॥
सुमित्रा जी के पुत्रों का नाम लक्ष्मण और शत्रुघ्न रखा गया। यह नाम-करण संस्कार बड़े हर्ष के साथ वशिष्ठ जी ने किया।
ब्राह्मणान्भोजयामास पौरजानपदानपि। अददद्ब्राह्मणानां च रत्नौघममितं बहु॥२२॥
इस दिन पुरवासियों को बाहर से आये हुए ब्राह्मणों को महाराज ने भोजन कराये और ब्राह्मणों को बहुत से रत्न बांटे।
तेषां जन्मक्रियादीनि सर्वकर्माण्यकारयत्। तेषां केतुरिव ज्येष्ठो रामोः रतिकरः पितु॥२३॥
इन सब बालकों के जातकर्म, अन्नप्राशनादि संस्कार महाराज ने यथासमय करवाये। इन चारों में कुल की पताका के समान श्रीरामचन्द्र अपने पिता दशरथ को अत्यन्त प्यारे थे।
बभूव भूयो भूतानां स्वयंभूरिव संमतः। सर्व वेदविदः शूराः सर्वे लोकहिते रताः॥२४॥
यही नहीं, बल्कि वे ब्रह्माजी की तरह सब लोगों के प्रेमास्पद थे। चारों राजकुमार वेद के जानने वाले, शूर और सब लोगों के हितैषी थे।
सर्वे ज्ञानोपसंम्पन्नाः सर्वे समुदिता गुणैः। तेषामपि महातेजा रामः सत्यपराक्रमः॥२५॥
यद्यपि सब राजकुमार परमज्ञानी और सर्वगुण संपन्न थे, तथापि उनमें महातेजस्वी और सत्यपराक्रमी श्री रामचन्द्रजी।
इष्टः सर्वस्य लोकास्य शशाङ्क इव निर्मलः। गजस्कन्धेऽश्वपृष्ठे च रथचर्यासु संमतः॥२६॥
निर्मल चन्द्रमा की तरह सबके प्यारे थे। उनको हाथी के कंधे पर और घोड़े की पीठ पर तथा रथ पर बैठना बहुत पसंद था। अर्थात हाथी, घोड़ा और रथ स्वयं हांकने का शौक था।
17/12/19, 8:21 am – Abhinandan Sharma: वाह ! केश और प्रोत्साहन को क्या जोड़ा है 👍
17/12/19, 8:23 am – Abhinandan Sharma: ये बहुत महत्वपूर्ण है कि ये असल इंद्रियां नहीं है, जिन्हें हम इंद्रियां समझते हैं ।
17/12/19, 8:26 am – Abhinandan Sharma: 🙏🙏
17/12/19, 8:32 am – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: ।।पंचतंत्र।।
प्रथम तन्त्र
मित्रभेद (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
कथा क्रम : एक
षट्कर्णो भिद्यते मन्त्रश्चतुष्कर्णः स्थिरो भवेत् ।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन षट्कर्णं वर्जयेत्सुधीः ।
दमनक चाहता है कि वह पिंगलक से एकान्त में कुछ बात करे। उसके सबके सामने कुछ न कहने का कारण यह है कि कोई भी बात दो व्यक्तियों के बीच होने पर ही गुप्त रहती है, तीसरे व्यक्ति के कानों में पड़ते ही उसकी गोपनीयता नष्ट हो जाती है।
अतः बुद्धिमान् व्यक्ति को अपना रहस्य दो व्यक्तियों तक ही सीमित रखना चाहिए। इसलिए मैं कहता हूं कि मैं आपसे एकान्त में बात करना आवश्यक समझता हूं। पिंगलक का कथन सुनकर पास बैठे व्याघ्र, गेंडा, बगुला आदि सब उठकर चल दिये।
एकान्त होने पर दमनक ने उससे पूछा—आप तो अपनी प्यास बुझाने के लिए गये थे, फिर बिना जल पिये क्यों लौट आये? पिंगलक ने हंसते हुए उत्तर दिया—कोई विशेष बात नहीं थी, मन नहीं किया, तो वापस लौट आया।
दमनक ने कहा—स्वामी! आप नहीं बताना चाहते, तो मैं आपसे कुछ भी नहीं पूछूंगा;
नीतिकारों ने कहा है—
दारेषु किञ्चित्स्वजनेषु किश्चिद्गोप्यं वयस्येषु सुतेषु किञ्चित् ।
युक्तं न वा युक्तमिदं विचिन्त्य वदेद्विपश्चिन्महतोऽनुरोधात्।।
कि बुद्धिमान् व्यक्ति को कुछ बातें स्त्रियों से,
कुछ बातें अपने सम्बन्धियों से और
कुछ बातें मित्रों तक से भी छिपाकर रखनी चाहिए।
इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि कहने योग्य और न कहने योग्य का विचार करके विश्वस्त व्यक्ति को गुप्त बात भी बता देनी चाहिए; क्योंकि किसी समस्या के समाधान के लिए ऐसा करना आवश्यक होता है।
दमनक के वचनों पर विचार करने के पश्चात् पिंगलक को लगा कि वह समझदार है, अतः मुझे इसके सामने सब कुछ स्पष्ट कर देना चाहिए।
सुहृदि निरन्तरचित्ते गुणवति भृत्येऽनुवर्तिनि कलत्रे।।
स्वामिनि सौहृदयुक्ते निवेद्य दुःखं सुखी भवति ।।
क्योंकि विश्वस्त मित्र से, निष्ठावान् सेवक से, आज्ञाकारिणी पत्नी से तथा शुभचिन्तक स्वामी से अपना दुःख-सुख कहने में संकोच नहीं करना चाहिए;
क्योंकि यही लोग—मित्र, सेवक, पत्नी और स्वामी—कुछ उपाय कर सकते हैं।
यही सोचकर पिंगलक ने दमनक से कहा—दमनक! दूर से आती यह गर्जन ध्वनि तुम्हें भी सुनाई दे रही होगी।
दमनक बोला—हां स्वामी! सुन रहा हूं, परन्तु इसमें चिन्ता करने की क्या बात है?
पिंगलक ने कहा—मैं इस जंगल को छोड़कर किसी दूसरे जंगल में जाने की सोच रहा हूं।
दमनक चौंककर बोला—इस जंगल में कौन-सा आकाश गिरने वाला है?
पिंगलक ने कहा—मुझे लगता है कि यहां कोई नया जीव आ गया है, यह हृदयविदारक गर्जन उसी का लगता है। मुझे तो लगता है कि वह अत्यन्त बलशाली भी होगा।
दमनक बोला—क्षमा करें देव! केवल गर्जन सुनकर ऐसी कल्पना कर लेना तो उचित नहीं।
अम्भसा भिद्यते सेतुस्तथा मन्त्रोऽप्यरक्षितः ।
पैशुन्याद्भिद्यते स्नेहो भिद्यते वाग्भिरातुरः ।।
जिस प्रकार जल के प्रबल प्रवाह से पुल टूट जाता है, गुप्त न रखे जाने पर रहस्य की जानकारी दूसरों को हो जाती है, चुगुली सुनकर प्रिय व्यक्ति के प्रति स्नेह घट जाता है, उसी प्रकार व्याकुल होकर प्राणी किसी की आवाज़ से भी घबरा जाता है।
मेरे विचार से तो आपका गर्जन के भय से इस जंगल को छोड़ देना उचित नहीं। यह आवश्यक तो नहीं कि यह गर्जन किसी जीवित प्राणी का ही हो। बांस, वीणा, ढोल, नगाड़ा तथा दो वृक्षों की टकराहट से भी आवाज़ निकल सकती है। केवल आवाज़ को सुनकर डर जाना तो बुद्धिमत्ता की बात नहीं।
अत्युत्कटे च रौद्रे च शत्रौ प्राप्ते न हीयते ।
धैर्य्यं यस्य महीनाथ न स याति पराभवम् ।।
किसी भयंकर अथवा शूरवीर शत्रु के आ जाने पर भी धैर्य बनाये रखने वाला राजा कभी पराजित नहीं हो सकता।
यस्य न विपदि विषादः सम्पदि हर्षो रणे न भीरुत्वम् ।
तं भुवनत्रयतिलकं जनयति जननी सुतं विरलम् ।।
विपत्ति के समय विषादग्रस्त न होने वाले, धन-सम्पत्ति पाकर हर्षोन्मत्त न होने वाले तथा युद्ध में भयभीत न होने वाले जीव विरले ही होते हैं तथा ऐसे ही जीव अपनी माता के नाम को उज्ज्वल कर तीनों लोकों की शोभा बढ़ाते हैं।
शक्तिवैकल्यनम्रस्य निःसारत्वाल्लघीयसः ।
जन्मिनो मानहीनस्य तृणस्य च समा गतिः ।।
शक्ति से घबराकर झुक जाने वाले और अपने को छोटा समझने वाले कायरों को कहीं भी सम्मान नहीं मिलता। उनकी स्थिति तो किसी तिनके के समान होती है। अतः आपको ये सब बातें सोचकर अधीर नहीं होना चाहिए। मात्र एक गर्जन सुनकर घबरा जाना तो समझदारी नहीं।
पूर्वमेव मया ज्ञातं पूर्णमेतद्धि मेदसा ।
अनुप्रविश्य विज्ञातं तावच्चर्म च दारु च ।।
किसी नायक ने आवाज़ सुनकर यह समझा कि आवाज़ करने वाला कोई जीवित प्राणी है, परन्तु पास पहुंचकर उसने देखा कि वह तो केवल चमड़ा और लकड़ी था। पिंगलक के मन को शान्त करने के लिए दमनक ने उसे यह कथा सुनायी।
17/12/19, 8:44 am – Abhinandan Sharma: उत्तम 🙏
17/12/19, 8:45 am – Abhinandan Sharma: कृपया आगे बढ़ने से पहले समाधान करें 🙏
17/12/19, 8:53 am – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: जैसा कि यहाँ कहा गया है कि कुछ बातें छुपानी चाहिए , छुपाने के लिए झूठ का सहारा लेना होता है , झूठ बोलना पाप होता है तो इस स्थिति में क्या करना चाहिए ।।🙏
कृपया प्रकाश डाले । 🙏
17/12/19, 9:04 am – Abhinandan Sharma: बात न बोलना और झूठ बोलने में अंतर है । झूठ बोलना पाप है किन्तु गुप्त बात को, गुप्त ही रखना उचित है । यदि अयोग्य व्यक्ति को गुप्त बात बता दी तो स्वयं का नाश भी हो सकता है ।
17/12/19, 9:08 am – Abhinandan Sharma: इसे कहते हैं विनम्रता 🙏 ग्रुप के सभी सदस्यों को इस प्रकार की विनम्रता सीखनी चाहिए कि यदि आप कुछ नया सीख सकते हैं तो सदैव तैयार रहे और सहर्ष स्वीकार करें और यदि उचित नहीं भी समझते तो भी विनम्र प्रतिकार करें । शब्दों का उचित प्रयोग आवश्यक है और किसी की भी विनम्रता, उसके विद्वान होने का प्रमाण होती है । पीताम्बर जी ने भी वाद-विवाद में न पड़ते हुए, विनम्रता से इससे दूर हट गये। ये सीखने योग्य बात है।
17/12/19, 9:27 am – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: ज्यादातर औरतों को झूठ बोलना पड़ता है कि मेरे पास पैसे नहीं है , पर होते हैं और घर की जरूरतों के लिए ही रखती हैं छुपाकर।
इस झूठ का पाप लगेगा या ….🙏
17/12/19, 9:47 am – Abhinandan Sharma: झूठ बोलना गलत ही है और इसका पाप लगेगा ही लगेगा | मिथ्याभाष्ण सदैव निंदनीय है | कुछ दिन बीरबल और तेनालीराम को पढिये कि वो लोग कैसे चतुराई से सच बताते थे । उनके सामने तो राजा होता था, झूठ बोलने पर भी जान से मार सकता था और सच बोलने पर भी। फिर कैसे वो चतुराई से सच बोला करते थे,, ये सीखने योग्य है । जैसे एक उदाहरण देता हूँ – मान लीजिये आपने चाय में चीनी बहुत डाल दी और पतिदेव कहें – क्यों !!! डिब्बे में और चीनी नहीं बची थी क्या ? अब इस तरह से कहेंगे तो आपको डायरेक्ट बुरा भी नहीं लगेगा और समझ में भी आ जाएगा कि हाँ, चाय में चीनी ज्यादा हो गयी है | ऐसे ही दूसरा उदाहरण लीजिये – मान लीजिये आपके पास, आपके बचाए हुए पैसे हैं जो आप पतिदेव को नहीं देना चाहती | पतिदेव ने पूछा कि तुम्हारे पास पैसे हैं क्या थोड़े ? और आपने मुस्कुराते हुए कहा – हाँ, मेरे पास तो बहुत सारे पैसे हैं, आप जो भी देते हैं, उसमें से मैं बहुत सारा पैसा बचा लेती हूँ और अब कुछ समय में मेरे अकाउंट में लाखों रूपये हो जायेंगे, फिर मैं आपको लोन दिया करुँगी !!! और वहां से निकल लीजिये | यकीन मानिए – इसका मतलब यही निकाला जाएगा कि आपके पास पैसे नहीं है 😄
कहने का तात्पर्य मात्र इतना है कि वाक्चातुर्य सीखने की चीज है | किसी बात को कैसे कहना है कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे, इसके लिए अकबर बीरबल और तेनालीराम को पढ़िए और थोडा प्रक्टिकल उदाहरण बनाइये |
17/12/19, 10:22 am – Shastra Gyan Maniah Patiala: प्रत्यक्ष के लिये द्रव्य का होना आवश्यक है। गुण-कर्म आदि भी द्रव्य के ही आश्रित रहते है। अतएव उनका पृथक प्रत्यक्ष नहीं होता, द्रव्य के साथ ही होता है। या यों कहिये कि प्रत्यक्ष ज्ञान मुख्य रूप से द्रव्य का होता है और गौण रूप से उसके गुण आदी का। आपके सामने एक गाय खड़ी है। यही आपके प्रत्यक्ष ज्ञान का मुख्य विषय है। गाय में जो शुक्लत्व ( गुण ) है, अथवा दौड़ना ( कर्म ) है, अथवा गोत्व ( जाति ) है, उसे आप गाय से अलग नहीं देखते।
नोट- केवल ‘शब्द’ मात्र ही एक सा पदार्थ है, जो गुण होते हुए भी स्वतंत्र रूप से प्रत्यक्ष होता है।
(३) सन्निकर्ष
पदार्थो के साथ इन्द्रियों का जो सम्बन्ध होता है, उसे सन्निकर्ष कहते है। यह कैसे होता है सो भी सुनिये। आपके सामने एक गुलाब का फूल है आप की चक्षुरिन्द्रिय वहाँ तक जाती है और उसके रूप का संस्कार लेकर लौटती है। अर्थात् विषय तक पहुँचकर अपना कार्य करती है। इसलिये चहु को ‘प्राप्यकारी’ ( जाकर काम करनेवाला ‘ कहते है।
इस मत को प्राप्यकारितावाद कहते है चाक्षुए प्रत्यक्ष के अतिरिक्त और प्रत्यक्षो में यह बात नहीं होती। शाब्दिक प्रत्यक्ष में श्रोत्र ईन्द्रिय कहीं बाहर नहीं जाती । शब्द उत्पन्न होने पर वायु की तरंगों में लहराता हुआ स्वयं आपके कर्णस्थित आकाश तक पहुँच जाता है। गन्धेन्द्रिय भी बाहर नहीं जाती । सुरभित द्रव्य वा परिमल के सूक्ष्मातिसूक्ष्म अणु ही हवा में उड़कर उसके समीप पहुँच जाते हैं । तब वह सुगन्ध लेती है।
इसी तरह रसना त्वचा आदि इन्द्रियाँ भी अपने अधिष्ठान से बाहर नहीं जातीं, अपने स्थान में रहती हैं और जब विषय से उनका सम्पर्क होता है तब वे संस्कार ग्रहण करती हैं। इसलिये कोई-कोई इन इन्द्रियों को प्राप्यकारी नहीं कहते ।
17/12/19, 10:31 am – Binita Kotnala Ghaziabad Shastra Gyan: 🙏
17/12/19, 11:08 am – Shastra Gyan Suresh Jhajjar: दूर्वा की उतपत्ति गाय के रोमों से होती है– कृपया इसको स्पष्ट करें ।
17/12/19, 11:08 am – FB Sanjay Kr Singh Saptarshi: बिल्कुल सही है भले ही रास्ता शायद गलत हो
कभी कभी यह और ऐसी बचत जीवन मृत्यु की रेखा तक का निर्माण कर जाते हैं।
🙏🙏🙏
17/12/19, 11:46 am – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: धन्यवाद आप जनों को शायद नहीं पता आपने कितनी बड़ी समस्या का समाधान कर दिया है या फिर ये कहा जाए समस्या ही खत्म कर दी है ।
पुनः धन्यवाद 🙏🙏हम सभी बढ़ भागी है जो इस ज्ञान की सरिता का अमृत पान कर रहे हैं।
🙏
17/12/19, 12:33 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: 👌
17/12/19, 12:34 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: 🤣🤣🤣
17/12/19, 12:35 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: 👌👌👌👌🥳
17/12/19, 12:49 pm – Kundali Abhishek Yadav Tanda, UP left
17/12/19, 12:49 pm – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: ये सत्य है परंतु सभी हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं बोलने की 😜
17/12/19, 1:18 pm – Lekhendra Sharma LE : श्रीकृष्ण ने कहा है सत्य वह नहीँ जो यथार्थ कहा जाता है l सत्य वह होता है जो लोक हित में हो. चाहे वह कितना भी बड़ा झूठ बोला गया हो l झूठ जिससे हानि की अपेक्षा लाभ ज्यादा लोगोँ को मिले वह झूठ सत्य से कई गुना बढ़ा है l
17/12/19, 1:18 pm – Lekhendra Sharma LE : ओ. के.
17/12/19, 1:21 pm – Abhinandan Sharma: कृपया सन्दर्भ देने का कष्ट करें कि कृष्ण जी ने ऐसा कहाँ कहा है !!
17/12/19, 1:39 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: Indeed❤👌
17/12/19, 1:42 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: स्टार प्लस वाली महाभारत में अर्जुन को उपदेश देते समय, हम भी देखे है।
🙏🏻 मनगढ़ंत भी हो सकता है, क्योंकि शास्त्र वाली बाते ही शास्वत सत्य है।
17/12/19, 1:44 pm – Abhinandan Sharma: जब सन्दर्भ की बात आती है तो शास्त्र ही मान्य हैं, टीवी सीरियल नहीं 😄 यदि शास्त्रोक्त सन्दर्भ नहीं मिलेगा, इतनी बड़ी बात का तो कृष्ण जी के नाम पर कुछ भी लिखा जा सकता है | सोचिये, युधिष्ठिर भी लोकहित में कितना झूठ बोल सकते थे ? मैं वन में रहा, अज्ञातवास में रहा और मजे से किसी मित्र यथा कृष्ण जी के यहाँ रह लेते !!! यदि झूठ बोलने का ये पैमाना होता तो हम राजा हरिश्चंद्र और राजा युधिष्ठिर के बारे में कभी नहीं सुन पाते कि वो सत्यवादी थी |
17/12/19, 1:49 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: हमें तो सिर्फ महाभारत में इतना समझ आया, पितामह भीष्म ने अगर राजमाता सत्यवती की बात न मानी होती तो इतना बड़ा युद्ध न होता, लेकिन विधि का विधान यही था। 🙏🏻
17/12/19, 1:51 pm – +91 : 👍
17/12/19, 2:03 pm – SAIP Charu: 👍
17/12/19, 2:03 pm – Abhinandan Sharma: ऐसे ही बातें बढती हैं | पहले एक बात ही स्पष्ट नहीं हुई, झूठ वाली और अब दूसरी बात भी आ गयी | थोडा ठहरिये महोदय |
17/12/19, 2:04 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: 🙈
17/12/19, 2:04 pm – Abhinandan Sharma: पहले लोकहित में बोला गया झूठ, सत्य से बढ़कर है, ऐसा कृष्ण जी ने कहा था, इसे तो आने दीजिये |
17/12/19, 3:07 pm – G B Malik Delhi Shastra Gyan: जी, आपने बिल्कुल सही कहा अभिनंदन सर्
जब मैं दसवीं कक्षा में था तब
मैंने, 1997-98 में “कर्ण” पुस्तक पढ़ी, उसके बाद ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षा में “सूत पुत्र” पुस्तक पढ़ी।
इन दोनों पुस्तकों से बहुत कुछ सीखा,
टीवी पर आने वाली महाभारत और किताबों द्वारा प्राप्त किये गए ज्ञान में बहुत अंतर होता है क्योंकि आजकल टीवी वालों को टीआरपी भी चाहिए होती है।
17/12/19, 3:13 pm – Lekhendra Sharma LE : Go through the krnaparva mahabharat statement of lord krishna where He tells five times when lie is not sin a d also read the statement of bhishma in this concern then question again. Although teettareeya उपनिषद has different opinion. I agree with lord krishna. and bhishma.
17/12/19, 3:15 pm – Lekhendra Sharma LE : भीष्म statement in shanti parv.
17/12/19, 3:15 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: कृपया पूरा संदर्भ दीजिए, श्लोक सहित।
17/12/19, 3:17 pm – Lekhendra Sharma LE : For.
17/12/19, 3:19 pm – Abhinandan Sharma: सुधाकर जी, चेक कर लेते हैं । ऐसे पूरी महाभारत में से संदर्भ देना सभी के लिये सम्भव नहीं है । हो सकता है इनकी स्मृति में हो और सही भी हो । एक बार कर्ण पर्व मैं देख लेता हूँ ।
17/12/19, 3:20 pm – Lekhendra Sharma LE : Reference given is sufficient. take pain and go through the book.
17/12/19, 3:21 pm – Lekhendra Sharma LE : Sharma ji I do not talk without proof.
17/12/19, 3:24 pm – Abhinandan Sharma: i understand sir and that’s why ready to check myself
17/12/19, 3:27 pm – Lekhendra Sharma LE : However if book is not available then I will make you available. I have mahabharat by gita press gorakhpur in six parts.
17/12/19, 3:34 pm – Abhinandan Sharma: I have it. I will check and update
17/12/19, 3:36 pm – Lekhendra Sharma LE : ओ. के.
17/12/19, 3:41 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: Do you really have Mahabharat???😳
17/12/19, 3:53 pm – Lekhendra Sharma LE : Yes I have.
17/12/19, 4:02 pm – Lekhendra Sharma LE : Sharmaji you may also go through quora. FIVE occasions when one may lie.
17/12/19, 4:10 pm – Abhinandan Sharma: i don’t believe Quora. i’ll check mahabharat
17/12/19, 4:11 pm – Lekhendra Sharma LE : You may check any of them. I have read it.
17/12/19, 5:36 pm – +91 70739 56344: अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्।।१०।।
भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है ।।१०।।
17/12/19, 5:36 pm – +91 :
17/12/19, 6:52 pm – Abhinandan Sharma: 👍
17/12/19, 7:19 pm – Abhinandan Sharma: मै इसको ऐसे लेता हूँ कि जब कोई बात समझ न आये, लेकिन उसके आस पास ही, वैसे ही, बहुत से उदाहरण दिए हों तो 6 के साथ 7वां भी तथ्य सही जानना चाहिये, भले ही उस समय समझ न आये । मुझे ये समझ नहीं आया कि दूर्वा कैसे बनती है लेकिन बाकी के उदाहरणों को देखते हुए ,मैं इसे भी सही मानता हूँ । आगे कभी दुबारा पढूंगा इस बारे में (पक्ष या विपक्ष में) तो शायद और स्पष्ट हो जाये और तब ही अपना कोई स्पष्ट मत बनाता हूँ ।
17/12/19, 8:13 pm – Lekhendra Sharma LE : Reference is in भविष्य पुराण when Ocean was churned hair of lord vishnu fell down. and further reached the earth and grew as doorba / doob/ cynodon dactylon. Taken fromm net
Ija e no भविष्य पुराण to make Confirm.
17/12/19, 8:21 pm – Abhinandan Sharma: आप आज पूरा कर्ण पर्व पढ़वा रहे हैं, आपका धन्यवाद । नकुल जान बचा कर भाग चुके हैं। 23 अध्याय पढ़ चुका हूँ और कुल 96 अध्याय हैं । कम से कम अगली बार अध्याय अवश्य बता दीजियेगा 😌
17/12/19, 8:25 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: रामायण बालकाण्ड – अष्टदश सर्ग श्लोक २७,२८,२९,३०,३१,३२,३३,३४,३५
धनुर्वेदे च निरतः पितृशुश्रूषणे रतः। वाल्यात्प्रभृति सुस्निग्धो लक्ष्मणो लक्ष्मीवर्धनः॥२७॥
रामस्य लोकरामस्य भ्रातुर्ज्येष्ठस्य नित्यशः। सर्वप्रियकरस्तस्य रामस्यापि शरीरतः॥२८॥
ये धनुर्विद्या में निपुण थे और सदा पिता की सेवा में लगे रहते थे। लक्ष्मी के बढ़ाने वाले लक्ष्मण जी लड़कपन से ही अपने लोकहितैषी अथवा लोकाभिराम ज्येष्ठ भ्राता श्रीरामचन्द्रजी की आज्ञा में सदा रहते थे और श्रीरामचन्द्रजी को अपने शरीर से बढ़ कर चाहते थे।
लक्ष्मणो लक्ष्मीसंपन्नो वहिःप्राण इवापरः। न च तेन बिना निद्रां लभते पुरुषोत्तमः॥२९॥
मृष्टमन्नमुपानीतमश्नाति न हि तं बिना। यदा हि हयमारूढो मृगयां याति राघवः॥३०॥
लक्ष्मी से सम्पन्न लक्ष्मण जी को रामचन्द्रजी अपना दूसरा प्राण ही मानते थे और इतना चाहते थे कि बिना उनके न तो सोते थे न ही कोई मिठाई खाते थे। जब रामचन्द्रजी घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने जाते।
तदैनं पृष्ठतोऽभ्येति सघनुः परिपालयन्। भरतस्यापि शत्रुघ्नो लक्ष्मणावरजो हि सः॥३१॥
प्राणैः प्रियतरो नित्यं तस्य चासीत्तथा प्रियः। स चतुर्भिर्महाभागैः पुत्रैर्दशरथः प्रियैः॥३२॥
तब लक्ष्मण जी धनुष हाथ मे ले उनके पीछे-पीछे हो लिया करते थे। भरत जी को भी शत्रुघ्न उसी प्रकार प्राणों के समान प्रिय थे, जिस प्रकार श्रीरामचन्द्र जी को लक्ष्मण। इन चारों महाभाग्यशाली पुत्रों से महाराज दशरथ।
बभूव परमप्रीतो वेदैरिव पितामहः। ते यदा ज्ञानसम्पन्नाः सर्वे समुदिता गुणैः॥३३॥
वैसे ही प्रसन्न रहते थे जैसे चारों वेदों से ब्रह्माजी। उन चारों ज्ञानी, सब गुणों से युक्त।
हीमन्तः कीर्त्तिमन्तश्च सर्वज्ञा दीर्घदर्शिनः। तेषामेवंप्रभावानां सर्वेषां दीप्ततेजसाम्॥३४॥
लज्जालु, कीर्तिमन्त, सर्वज्ञ, दूरदर्शी पुत्रों का प्रभाव व तेज देख।
पिता दशरथो हृष्टो ब्रह्मा लोकाधिपो यथा। ते चापि मनुजव्याघ्रा वैदिकाध्ययने रताः॥३५॥
उनके पिता महाराज दशरथ वैसे ही प्रसन्न होते थे जैसे ब्रह्मा जी लोकपालो से अथवा दिक्पालों से। वे चारों पुरूषसिंह राजकुमार वेदाध्ययन मे निरत रहते थे।
17/12/19, 8:26 pm – +91 : इस समूह में आप सभी गुनी जन से संपर्क में आने का सुअवसर प्राप्त हुआ, इससे अनुग्रहीत हूँ। किन्तु मुझे इन शास्त्र और इतिहास के ज्ञान से अधिक वर्तमान में आने वाली चुनौतियों से निपटने के इंतजाम खोजने हैं। किसी के पास जीवन का शास्त्र भी हो तो साझा करें🙏
क्षमा करें, महाभारत और त्रेता काल मे क्या हुआ उसमे मुझे रुचि नहीं है।
17/12/19, 8:32 pm – Abhinandan Sharma: आप पंचतन्त्र से जीवन में आने वाली चुनौतियों से निबट सकते है अथवा युधिष्ठिर से, चुनौतियों से कैसे लड़ा जाए, ये सीख सकते हैं । अष्टांग हृदय से विभिन्न खान पान से रोग पर नियंत्रण रख सकते हैं, तर्कशास्त्र से आफिस में कैसे बहस में, सेमिनार में अपनी बात रखनी चाइये, ये सेवख सकते हैं । ये सब कथा कहानी (किसी भी युग की) आलम्बन मात्र है, आपको इनके द्वारा दी गयी विभिन्न शिक्षाओं को जीवन में उतारना है । सीखने वाला, कहीं से भी सीख लेता है, मकड़ी के जाल बनाने तक से सेवख लेता है फिर यहां तो उदाहरणों का अम्बार है । इनको सिर्फ ऐसे पढिये जैसे सारः सारः को गही लए, थोथा देय उडाय । यदि फिर भी उचित न लगे, साम्य न लगे तो ये ग्रुप आपके लिये उचित नहीं है ।
17/12/19, 8:32 pm – +91 : वर्तमान में धर्म एवम सत्य की स्थापना हेतु क्या कार्य किये जाने चाहिए और उनका क्रियान्वयन कैसे हो, इसपर अधिक रुचि है।
17/12/19, 8:33 pm – Abhinandan Sharma: वर्तमान में धर्म को समझने के लिये भी इन्हीं सब को पढ़ना पड़ेगा, जब धर्म को ही नहीं समझेंगे, धर्मराज को ही नहीं पढ़ेंगे तो फिर धर्म को बचाएंगे कैसे ? नहीं बचा सकते, भरम में न रहें । विषय में पहले डूबिये, फिर विषय मे क्या करना है उस पर विचार कीजिये।
17/12/19, 8:34 pm – +91 : 👌👌🥰
17/12/19, 8:34 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: 👌👌👌👌👌
17/12/19, 8:36 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: 👌👌👌👌
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्
17/12/19, 8:36 pm – Abhinandan Sharma: इस विषय को आगे न बढ़ाएं कृपया क्योंकि इस ग्रुप में स्वतन्त्र चर्चा नहीं होती है । कोई विषय आये, उस पर पीयूष जी की तरह अथवा अन्य सदस्यों की तरह चर्चा करें । इससे धर्म को, शास्त्रों को, तथ्यों को समझने में मदद होगी और कुछ वर्षों में आप भी जीवन में बहुत कुछ धर्म के लिए कर पायेंगे। अन्यथा जो इनको नहीं समझा, वो इनके लिये कुछ कर भी नहीं सकता, इसमें सुनिश्चित रहें ।
17/12/19, 8:50 pm – Lekhendra Sharma LE : This message was deleted
17/12/19, 8:51 pm – Lekhendra Sharma LE : Try help of Index.
17/12/19, 9:21 pm – FB Piyush Khare Hamirpur:
17/12/19, 9:24 pm – +91 : ✅✅
17/12/19, 9:42 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: में अभी 12 ही पढ़ पाया 🙄
17/12/19, 9:42 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-८ श्लोक ४२,४३,४४
शीलयेच्छालिगोधूमयवषष्टिकजाङ्गलम्। सुनिषण्णकजीवन्तीबालमूलकवास्तुकम्॥४२॥
पथ्यामलकमृद्वीकापटोलीमुद्गशर्कराः। घृतदिव्योदकक्षीरक्षौद्रदाडिमसैन्धवम्॥४३॥
सेवनीय आहार- शालिधान्य, गेहूं, जौ, साठी, जांगल देश के प्राणियों के नाम, सुनिषण्णक, जीवन्ती, मुलायम मूली, बथुआ, हरीतकी, आंवला, मुनक्का, परवल, मूंग, चीनी, घृत, दिव्योदक (गंगा का जल), दूध, मधु, दाडिम (अनार) तथा सेंधानमक— इन द्रव्यों का सदा सेवन करें।
त्रिफलां मधुसर्पिर्भ्यां निशि नेत्रबलाय च।स्वास्थ्यानुवृत्तिकृद्यच्च रोगोच्छेदकरं च यत्॥४४॥
रात में सेवनीय पदार्थ- दृष्टि की शक्ति बढ़ाने के लिए रात में मधु या घी में मिलाकर त्रिफला का सेवन करें। जो-जो द्रव्य स्वास्थ्य की रक्षा करने वाला तथा रोगनाशक हो उस-उस का भी निरन्तर सेवन करें।
18/12/19, 10:44 am – Abhinandan Sharma: अभी तक ६० अध्याय हो गए हैं 😄 कर्ण ने नकुल और युधिष्ठिर को हरा दिया है और जीवित छोड़ दिया है | अश्वत्थामा ने धृष्टद्युम्न को मारने की प्रतिज्ञा ले ली है | और ये भी पता चला कि द्रोणाचार्य को अर्जुन ने नहीं मारा था 🙃
18/12/19, 10:48 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: Spoiler 😱
18/12/19, 10:53 am – Abhinandan Sharma: ज्योतिष अध्ययन, भाग 7
देवताओं का एक दिन – मनुष्यों के एक वर्ष को देवताओं के एक दिन माना गया है । उत्तरायण तो उनका दिन है और दक्षिणायन रात्रि । पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव पर देवताओं के रहने का स्थान तथा दक्षिणी ध्रुव पर राक्षसों के रहने का स्थान बताया गया है | साल में २ बार दिन और रात सामान होती है | ६ महीने तक सूर्य विषुवत के उत्तर और ६ महीने तक दक्षिण रहता है | पहली छमाही में उत्तरी गोल में दिन बड़ा और रात छोटी तथा दक्षिण गोल में दिन छोटा और रात बड़ी होती है | दूसरी छमाही में ठीक इसका उल्टा होता है | परन्तु जब सूर्य विषुवत वृत्त के उत्तर रहता है तब वह उत्तरी ध्रुव (सुमेरु पर्वत पर) ६ महीने तक सदा दिखाई देता है और दक्षिणी ध्रुव पर इस समय में नहीं दिखाई पड़ता | इसलिए इस छमाही को देवताओ का दिन तथा राक्षसों की रात कहते हैं | जब सूर्य ६ महीने तक विषुवत वृत्त के दक्षिण रहता है तब उत्तरी ध्रुव पर देवताओं को नहीं दिख पड़ता और राक्षसों को ६ महीने तक दक्षिणी ध्रुव पर बराबर दिखाई पड़ता है | इसलिए हमारे १२ महीने देवताओं अथवा राक्षसों के एक अहोरात्र के समान होते हैं |
देवताओं का १ दिन (दिव्य दिन) = १ सौर वर्ष
18/12/19, 10:55 am – Lekhendra Sharma LE : Sudarshan ji is right. Jeev can’t be compared to God. We cannot justify rape of vindya by lord krishna. Rama said to sumant not to stop chariot no matter dashrath was crying to stop and asked sumant to pretend to tell a lie that he did not listen to the king.
18/12/19, 10:57 am – LE Ravi Parik : 👌🏻
18/12/19, 10:57 am – LE Ravi Parik : It is a very good idea to follow message with voice
18/12/19, 10:58 am – Lekhendra Sharma LE E 605: There is a distinct line between neetij and religion.
18/12/19, 11:23 am – +91 : आभार🙏🙏
18/12/19, 11:31 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: क्या देवता उत्तरी ध्रुव और राक्षस दक्षिणी ध्रुव पर सही में रहते हैं? क्या किसी तरह का व्यवहारिक उदाहरण या संकेत है उनके ध्रुवों पर होने का?
देवता तो स्वर्ग में रहते हैं, तो क्या स्वर्ग उत्तरी ध्रुव पर माना जाए?
अगर देवता स्वर्ग में ही रहते हैं और स्वर्ग उत्तरी ध्रुव पर नहीं पृथ्वी से अलग, डोर भी हो सकता है तो पृथ्वी से उनका दिन/रात कैसे माना गया ?
18/12/19, 11:32 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: डोर❌
दूर✅
18/12/19, 11:41 am – Dr PL Sharma White Cottege Ghaziabad Shastr Gyan: श्रीकृष्ण को योगीराज कहा जाता है, इस तरह के बातें निराधार है।
18/12/19, 11:44 am – Dr PL Sharma White Cottege Ghaziabad Shastr Gyan: देवता और राक्षस मनुष्य के ही रूप हैं।
18/12/19, 11:47 am – Ashu Bhaiya: जी श्रीमान !
18/12/19, 11:48 am – Abhinandan Sharma: ये बात आई कहाँ से ? ये विषय किस पोस्ट के संदर्भ में है ? कुछ स्पष्ट नहीं हो रहा । कृपया स्वतन्त्र विषय, डिबेट मात्र के लिए, ग्रुप पर न डालें ।
18/12/19, 11:50 am – Abhinandan Sharma: ये समझ नहीं है कि इसे क्यों देवता और राक्षसों से सम्बद्ध किया गया है । सम्भवतः पूर्वकाल में, जब देवता पृथ्वी पर रहते थे, उस समय उनके ये प्रदेश हुआ करते होंगे। आज के समय में इसका कोई प्रमाण नहीं है, यहां सिर्फ ज्योतिष को ही संज्ञान में लेते हुए, दिव्य दिन को समझ लें।
18/12/19, 11:52 am – Dr PL Sharma White Cottege Ghaziabad Shastr Gyan: मेरा अभिप्राय है कि श्रीकृष्ण योगीराज थे उन पर दुराचारी होने का आरोप विंद्या के संदर्भ में लगाना उचित नहीं।
18/12/19, 11:53 am – Abhinandan Sharma: मैं भी उसी पोस्ट की बात कर रहा हूँ | वो पोस्ट, बिना किसी सन्दर्भ के डाली गयी है | ग्रुप में वैसी कोई चर्चा नहीं चल रही है अतः कृपया उस पोस्ट पर रेस्पोंस न दें |
18/12/19, 11:53 am – Ashu Bhaiya: अच्छा मैं तो विपरीत समझा था
18/12/19, 11:54 am – Dr PL Sharma White Cottege Ghaziabad Shastr Gyan: ठीक है।
18/12/19, 12:32 pm – Lekhendra Sharma LE: If the Indian scriptures are baseless. then how can you say. Your. Statement has base
18/12/19, 12:39 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: जयन्तभट्ट प्रभृति कुछ आचार्यों का कहना है कि चक्षु के अतिरिक्त और-और इन्द्रियों में भी प्राप्यकारिता कही जानी चाहिये । क्योंकि वे भी तो विषय को पाकर ही संस्कार ग्रहण करती हैं। अंतर इतना ही है कि वे स्वयं विषय के पास नहीं जाती, विषय ही उनके पास आता है। इसलिये यदि प्राप्यकारी का अर्थ ‘विषय को पाकर काम करनेवाला’ लिया जाय तो सभी इन्द्रियों ही प्राप्यकारी हैं।
नोट-बौद्ध-दर्शन प्राप्यकारितावाद का जोरों में खण्ड़न करता है दिङ्नागाचार्य ने इसके विरुद्ध ये युक्तियाँ दी है–
(1) चक्षुरिन्दिय तो शरीर का अवयव है। फिर आँख की पुतली शरीर के बाहर जाकर कैसे कार्य करेगी ?
(२) यदि चक्षुरिन्द्रिय बाहर जाती तो निकटस्थ वस्तु तुरन्त और दूर की वस्तु देर से प्रत्यक्ष होती किन्तु यह बात तो नहीं है । हम जैस ही अखि खोलते है कि समीपवर्ती वृक्ष और दूरवर्ती चन्द्रमा दोनो साथ ही दिखाई पड़ता है। इससे सिद्ध होता है कि नेत्रेन्द्रिय कहीं बाहर नहीं जाती।
(३) यदि चक्षु में प्राप्यकारिता होती तो पर्वत जैसे विशाल पदार्थ का प्रतिबिम्ब हमारी छोटी आँख में कैसे समाता!
(४) अवरख या सीसा के उस पार की वस्तुएं भी देखने में आती हैं । किन्तु चक्षुरिन्द्रिय उन तक पहुँच नहीं सकती ( बीच में व्यवधान होने के कारण)। अतएव चक्षु प्राप्यकारी नहीं है।
18/12/19, 12:50 pm – Abhinandan Sharma: श्रीमान आप किस सन्दर्भ में बात कर रहे हैं ? किसने यहाँ कृष्ण जी के बारे में कोई बात कही है ? सुदर्शन जी का आपने नाम लिया, उन्होंने कौन सी बात की है, जिसका आपने समर्थन किया है ? आपकी पोस्ट समझ में नहीं आ रही है | वैसा कोई डिस्कशन ग्रुप में नहीं चल रहा है, आपने किस सन्दर्भ में कहा है, मेरी समझ में नहीं आ रहा है | और फिर मैंने ये कब कहा कि शास्त्रों की बातें गलत हैं या मैं उन्हें नहीं मानता हूँ ! मैंने तो ऐसा कुछ कहा ही नहीं है !
18/12/19, 1:48 pm – Lekhendra Sharma LE : It has been commented by p l sharma. discussion about lies and truth is not over. Abhinandan ji I make humble request to you nobody can satisfy with the answers in case of religious matters. You are an expert writer utilize your energy in that. It will be more fruitful and creative.
18/12/19, 2:14 pm – ABKG Reader Vikas Kr Dubey Bhadohi UP: अगर हम अपनी सोच को थोड़ा वैज्ञानिक विस्तार दे तो शायद ये कहा जा सकता है कि वो वही रहते हो पर किसी दूसरे आयाम में। जैसे किसी संगरीला घाटी का जिक्र मैंने बार बार सुना है जहां सिद्ध पुरुष रहते है। विंध्य पर्वत की कंदराओं में भी उनका जिक्र आता है और उधर के किस्से कहानियों में किसी प्रत्यक्षदर्शी का जिक्र मिलता है जिसने देखा था। लेकिन बाद में वो सब गायब मिले और कोई गुफा नही थी वहां।
कहने का तात्पर्य इतना था कि हो सकता है आज भी वो वही रहते हो, पर हम देख नही सकते भौतिक नजरो से। जैसे भगवान के दिव्य रूप को देखने के लिए अर्जुन को दिव्य नजरो की जरूरत पड़ी, कुछ उसी तरह।
18/12/19, 2:19 pm – ABKG Reader Vikas Kr Dubey Bhadohi UP: कोई भी चीज बिना बेस के नघई होती। बस ये होता है कि हमे जब नही समझ मे आता उसे हम बेसलेस, अंधविश्वास जैसा नाम दे देते है। इसे इस तरह समझे कि भारतीय शास्त्र कोडेड भाषा मे है। जिसे भाषा, व्याकरण आदि का ज्ञान होगा जो उन नियमो को फॉलो करता होगा वही समझ सकता है की क्या बेस है क्या नही? और इन सब चीजो को समझने के लिए सर की लिखी हुई किताब बेहतरीन है जो कम से कम आपको बेस तो बता ही देगी, या उसको समझना सीखा देगी।
18/12/19, 2:27 pm – Abhinandan Sharma: श्रीमान, यदि शास्त्रोक्त होगा तो क्यों नहीं देखा जा सकता है | कल से अभी तक ६० अध्याय क्या मैंने ऐसे ही पढ़ लिए ? आपने शास्त्र का उद्धरण दिया, इतना काफी है | अब जिसे चेक करना हो, वो करे | माने या न माने, ये उसकी मर्जी | आपने तो सन्दर्भ दे दिया न | जब सन्दर्भ दे ही दिया है तो अब आप निश्चिन्त रह कर मामला खत्म कीजिये | कौन उसको oppose कर रहा है ! कोई भी तो नहीं ! किसी ने कुछ भी नहीं कहा ! फिर ये कृष्ण जी भगवन हैं, विन्द्या की बात कहाँ से आ गयी !!! कृपया कर अब इस विषय को समाप्त करें | मैं पढ़ रहा हूँ, आपका संदर्भ देख रहा हूँ, यदि कुछ भी इतर मिलेगा तो अवश्य शेयर करूँगा | तब तक के लिए, कृपया इस विषय को विराम दें |
18/12/19, 5:07 pm – Vaidya Ashish Kumar: 🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🙏🏻
18/12/19, 5:09 pm – Vaidya Ashish Kumar: 💓🙏🏻🙏🏻
18/12/19, 5:20 pm – Abhinandan Sharma: अरे भाई, ग्रुप पर महाभारत क्यों नहीं चल रही है, बहुत दिन से कोई पोस्ट ही नहीं आई |
18/12/19, 5:49 pm – Abhinandan Sharma: सर्वप्रथम लोकेन्द्र जी को प्रणाम, जिनकी वजह से, मैंने दो दिन में कर्ण पर्व के करीब ७० अध्याय पढ़ डाले | ऐसी प्रेरणा देने के लिए, आपको साधुवाद | आपकी कही बात में और कर्ण पर्व में लिखी बात में काफी अंतर है क्योंकि लोकहित एक बड़ा शब्द है जबकि कृष्ण जी ने केवल पांच जगह झूठ बोलने पर पाप न लगने की बात कही है | कृष्ण जी कहते है –
“सत्य बोलना उत्तम है। सत्य से बढ़कर दूसरा कुछ नहीं है; परंतु यह समझ लो कि सत्पुरुषों द्वारा आचरण में लाये हुए सत्य के यथार्थ स्वरुप का ज्ञान अत्यन्त कठिन होता है। जहाँ मिथ्या बोलने का परिणाम सत्य बोलने के समान मंगलकारक हो अथवा जहाँ सत्य बोलने का परिणाम असत्य भाषण के समान अनिष्टकारी हो, वहाँ सत्य नहीं बोलना चाहिये। वहाँ असत्य बोलना ही उचित होगा। विवाह काल में, स्त्रीप्रसंग के समय, प्राणों पर संकट आने पर, सर्वस्व का अपहरण होते समय तथा ब्राह्मण की भलाई के लिये आवश्यकता हो तो असत्य बोल दे; इन पांच अवसरों पर झूठ बोलने से पाप नहीं होता। जब किसी का सर्वस्व छीना जा रहा हो तो उसे बचाने के लिये झूठ बोलना कर्त्तव्य है। वहाँ असत्य ही सत्य और सत्य ही असत्य हो जाता है। जो मूर्ख है, वही यथाकथंचित व्यवहार में लाये हुए एक जैसे सत्य को सर्वत्र आवश्यक समझता है। केवल अनुष्ठान में लाया गया असत्यरुप सत्य बोलने योग्य नहीं होता, अत: वैसा सत्य न बोले।”
अतः मैं इसे वैसे ही देखता हूँ कि इन पांच परिश्थितियों के अलावा, किसी भी अन्य स्थिति में बोला गया असत्य पापकारी ही होता है | पुनः आपका धन्यवाद, जो आपने ऐसा सन्दर्भ दिया |
18/12/19, 5:59 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👌🏼
18/12/19, 6:13 pm – Vaidya Ashish Kumar: धन्यवाद सर,अगर इसका संधर्भ भी बताएं तो बहुत ही कृपा होगी।समय मिलने पर अपनी इच्छानुसार/सुविधानुसार बताइएगा🙏🏻🙏🏻
18/12/19, 6:15 pm – Abhinandan Sharma: कर्ण पर्व, अध्याय 69, महाभारत ।
18/12/19, 6:53 pm – LE Santosh Saxena : Uttam
18/12/19, 7:37 pm – Lekhendra Sharma LE : आपके के लिए प्रणाम में अल्प ग्यान से यह कह सकता हूँ कि चाहे jese हो पर asatya की आज्ञा दी हैlpost पूरा padha होता तो पता होता कि teettareeya उपनिषद का रेफरेंस देकर asatya का निषेध किया था. मेरा नेम Lekhendra sharma है. अपने सब की जिज्ञासा शामन करने का संकल्प लिया है तो आप ही पढ़ेंगेshree राम ने भी sumant से झूठ बोलने को कहा था. समर्थ को…. मुझमें वह. Samarthya. कहाँ जो आपके महान ग्यान की समता करूँ.l
18/12/19, 7:44 pm – Abhinandan Sharma: लेखेंद्र जी, क्षमा करें, अंग्रेजी में समझ नहीं आया | अब समझ गया हूँ कि आपका नाम लेखेंद्र जी है | मुझे पता नहीं कि आप कटाक्ष में कह रहे हैं या कोई और ही बात है किन्तु मैं कोई ज्ञानी नहीं हूँ महोदय | इस ग्रुप में कोई भी ज्ञानी नहीं है और यदि कोई खुद को ज्ञानी समझता है तो वो इस ग्रुप के योग्य ही नहीं है क्योंकि यहाँ छात्रों की आवश्यकता है, ज्ञानियों की नहीं | आप मेरे बारे में ऐसे विचार न रखें और मुझ पर अनुग्रह ही रखें | इस ग्रुप में जितने भी बड़े हैं, वो सभी इस ग्रुप के छोटों पर अनुग्रह रखें और उनके द्वारा किये गए, प्रश्नों और जिग्यासों को, ज्ञानी होने के सन्दर्भ में कदापि न देखें | ऐसा निवेदन है | 🙏
18/12/19, 7:59 pm – Lekhendra Sharma LE : I am not passing comments. I want to request you what I have already said noboy. can satisfy everyone. religious things are so. comlecated that different scriptures. have different views on the matter. Besides this some people’s have their belief or viw up to the depth. it is not. Possible to change their mind set. so I further request you to write useful literature in which you can do much better. Or do what you like. Make energy creative.
18/12/19, 8:02 pm – Lekhendra Sharma LE : Mistakes complicated view same matter or topic.
18/12/19, 8:04 pm – Abhinandan Sharma: मैं फिर स्पष्ट करता हूँ कि यहाँ किसी का कोई ओपिनियन नहीं है और न ही किसी को कुछ मनवाना है । जो शास्त्रोक्त है, वो सभी को मान्य है ।
18/12/19, 8:11 pm – Lekhendra Sharma LE E 605: I have read some messages. Somebody said. I have no interest in what happened in dwapar and treta. If any one has solutions related to life. In my opinion solution related to life are in our scriptures. Can you solve problems of. life person to person.
18/12/19, 8:13 pm – +91 : 👏👏👏👏👏🙏🙏😊😊
18/12/19, 8:13 pm – Abhinandan Sharma: मुझे लगता है ये चर्चा हम अलग से भी कर सकते हैं । अब मैं इस विषय को विराम देता हूँ।
18/12/19, 8:14 pm – Lekhendra Sharma LE E 605: ओ. के.
18/12/19, 8:15 pm – Dinesh Arora Gurgaon Shastra Gyan: 🙏🙏😂😂
18/12/19, 8:53 pm – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: 🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
18/12/19, 8:53 pm – Vaidya Ashish Kumar: Dhnywad sir
18/12/19, 9:10 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: 👌👌👌👌
18/12/19, 9:13 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: 👌🙏🏻 विनम्रता ही बड़प्पन है🙏🏻
18/12/19, 9:19 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: शर्मा जी एक ग्रुप चर्चा के लिए भी होना चाहिए, जहाँ सार्थक वार्ता हो सके और यहाँ भी कोई बीच मे डिस्टर्ब नही होगा, लोगो के मन ने प्रश्न होते है, जिज्ञासा होती है, उनकी शंका समाधान हो जाएगा, इतने बुद्धिजीवी गुणी विद्वानों का समूह है, सब का लाभ हो सभी का कल्याण हो, और लोगो से भी पूछ लें।
करबद्ध निवेदन🙏🏻
18/12/19, 9:33 pm – FB Sanjay Kr Singh Saptarshi: 🙏🙏🙏
मेरे जैसे साधारण लोगों का भला हो जाएगा
18/12/19, 9:33 pm – Abhinandan Sharma: प्रश्नों के लिए वेबसाइट पर लिंक बना दिया गया है – https://shastragyan.apsplacementpltd.in/चर्चा-क्षेत्र/dwqa-ask-question/
18/12/19, 9:34 pm – Abhinandan Sharma: दो प्रश्न आ भी चुके हैं ।
18/12/19, 9:34 pm – FB Sanjay Kr Singh Saptarshi: व्हाट्सएप सही रहता
सम्भवतः
🙏🙏🙏
18/12/19, 9:35 pm – Abhinandan Sharma: बाकी चर्चा बहुधा बहुत लंबी होती हैं, यहां विषयों पर चर्चा हो ही जाती है, इतना ही सम्भव है ।
18/12/19, 9:36 pm – +91 : 👌🏻
18/12/19, 9:37 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: वहाँ पर मैने भी कोशिश की थी, लेकिन प्रश्न सबमिट नही हो रहा था, और व्हाट्सएप से बेहतर कुछ नही है, आपके पास समयाभाव रहता है, तो और लोग भी सहयोग करके उत्तर दे सकेगे। जैसे बच्चा स्कूल भी जाता है, लेकिन उसको ट्यूशन तो पढ़ाया ही जाता ही है न।
18/12/19, 9:38 pm – Abhinandan Sharma: आपमें से जिसको प्रश्न पूछना हो, अलग से पूछ सकते हैं, उसकी कोई मना नहीं है, यदि सही में जानना हो चाहते हैं तो।
18/12/19, 9:41 pm – Shastragyam Bhavsar Prakash Maliwal: विद्या ददाति विनयम – आज देखने को भी मिल गया 🙏🏻🙏🏻💐
18/12/19, 9:51 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: This message was deleted
18/12/19, 9:52 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-८ श्लोक ४५,४६
बिसेक्षुमोचचोचाम्रमोदकोत्कारिकादिकम्। अद्याद्द्रव्यं गुरु स्निग्धं स्वादु मन्दं स्थिरं पुरः॥४५॥
विपरीतमतश्चान्ते मध्येऽम्ललवणोत्कटम्।
अन्न पदार्थों को खाने की विधि- बिस (कमलकन्द), ईख, केला, चोच (नारियल, तालफल, बड़हर या कटहर), आम, लड्डू, उत्कारिका (लपसी या हलुआ) तथा अन्य गुरु, स्निग्ध, स्वादु , मन्द एवं स्थिर पदार्थों को भोजन के आरम्भ में खाना चाहिए। उक्त द्रव्यों के विपरीत गुणधर्म वाले आहारद्रव्यों को अन्त में खाये और बीच में अम्ल तथा लवण रस प्रधान द्रव्यों का सेवन करें।
वक्तव्य- उक्त विवेचन का निष्कर्ष यह निकला कि वातशामक भोजनद्रव्यो का प्रयोग आरम्भ में, कफशामक द्रव्यों का अन्त में और अग्निवर्धक द्रव्यों का प्रयोग भोजन के मध्य में करना चाहिए। अर्थात लवण आदि रसों के अन्त में “मधुरेण समापयेत्” सूक्ति का अनुसरण करें और मधुररस प्रधान आहार द्रव्यों के अन्त में “भोजनान्ते पिबेत तक्रम” का स्मरण अवश्य कर लेना चाहिए क्योंकि ‘न तक्रसेवी व्यथते कदाचित्’।
अन्नेन कुक्षेर्द्वावंशौ पानेनैकं प्रपूरयेत्॥४६॥
आश्रयं पवनादीनां चतुर्थमवशेषयेत्।
आमाशय के चार भाग- कुक्षि (आमाशय) को चार भागों में बांट कर उसके दो भागों को अन्न (दाल, भात, रोटी, तरकारी आदि) से भर ले और शेष चौथे भाग में वात-पित्त-कफ दोष अपनी क्रिया कर सकें, इसके लिए खाली छोड़ दें।
वक्तव्य- यह पद्य अविकलरूप से अ.सं.सू. १०/७४ में भी आया है। चरक ने कुक्षि के तीन भाग करने को कहा है, यह अपनी व्यवस्था है। देखें— च.वि. २/३। इनके अनुसार भक्ष्य एवं पेय आदि को दो भागों में और एक भाग दोषों को दोषों की गति के लिए छोड़ना चाहिए। इस विधि से अजीर्ण आदि रोग नहीं हो पाते। उक्त पद्य अन्यत्र इस प्रकार देखा जाता है— “द्वौ भागौ पूरयेदन्नं तोयेमेकेन पूरयेत्। मारूतस्य प्रचारार्धं चतुर्थमवशेषयेत्॥” आशय दोनों का समान है। उक्त प्रकार के कुक्षि विभाजन से ‘अर्धसौहित्य’ तथा ‘नातितृप्तता’ का अनुमान सुखपूर्वक लगाया जा सकता है।
18/12/19, 9:55 pm – Abhinandan Sharma: अभिषेक जी, टेलग्राम पर भी डालना है 🙏
18/12/19, 9:55 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: जी🙏🏻
18/12/19, 10:36 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: रामायण बालकाण्ड – अष्टदश सर्ग श्लोक ३६,३७,३८,३९, ४०,४१
पितृशुश्रूषणरता धनुर्वेदे च निष्ठिताः। अथ राजा दशरथस्तेषां दारक्रियां प्रति॥३६॥
चिन्तयामास धर्मात्मा सोषाध्यायः सवान्धवः। तस्य चिन्तयमानस्य मन्त्रिमध्ये महात्मनः॥३७॥
अभ्यागच्छन्महातेजा विश्वामित्रों महामुनिः। स राज्ञो दर्शनाकाङ्क्षी द्वाराध्यक्षानुवाच ह॥३८॥
वे पिता की सेवा किया करते थे तथा धनुर्विद्या में निष्ठा रखते थे। उनके विवाह के लिए महाराज दशरथ उपाध्यायों और कुटुम्बियों तथा मंत्रियों से सलाह कर रहे थे कि, इसी बीच में महामुनि महातेजस्वी विश्वामित्र पधारे।वे महाराज से मिलने की अभिलाषा से ड्योढीदार से बोले।
शीघ्रमख्यात मां प्राप्तं कौशिकं गाधिनः सुतम्। तच्छ्रुत्वा वचनं त्रासाद्राज्ञो वेश्म प्रदुद्रुवुः॥३९॥
तुरन्त जाकर महाराज को सूचना दो कि, गाधि के पुत्र आयें है। यह सुन और भयभीत हो द्वारपाल राजगृह की ओर दौड़े।
संभ्रान्तमनसः सर्वे तेन वाक्येन चोदिताः। ते गत्वा राजभवनं विश्वामित्रमृषिं तदा॥४०॥
प्राप्तमावेदयामासुर्नृषायैक्ष्वाकवे तदा। तेषां तद्वचनं श्रुत्वा सपुरोधाः समाहितः॥४१॥
विश्वामित्र जी के कहने पर उन्होंने बड़े आदर के साथ राजभवन में जाकर विश्वामित्र जी के आने का संवाद, महाराज दशरथ से निवेदन किया। उनका आगमन सुन, महाराज दशरथ प्रसन्न हो और वशिष्ठ जी को साथ ले।
19/12/19, 6:21 am – Abhinandan Sharma: यहां दो भाग अन्न से भरने के लिये का मतलब है कि भोजन,, आधा पेट ही किया जाये। 4 रोटी की भूख है तो 2 ही खाई जाएं, इससे पेट हल्का रहेगा, गैस नहीं बनेगी और भोजन पाचन आसानी से होगा ।
19/12/19, 7:31 am – Shastra Gyan Ranjana Prakash: इन पदों की सबको बहुत जरूरत थी,धन्यवाद अभिषेक बेटा।
19/12/19, 7:41 am – Shastra Gyan Ranjana Prakash: This message was deleted
19/12/19, 7:43 am – Shastra Gyan Ranjana Prakash: अर्धसौहित्य व नातितृप्तता का मतलब डाल दो,अगर संभव हो तो।
19/12/19, 8:08 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: यहां आमाशय के चार में से केवल दो भागों में भोजन से भरने का अर्थ होगा आधा पेट खाना या दूसरे शब्दों में, भरपेट न खाना। क्या ये सही है ?
19/12/19, 8:12 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 🙂 माफी,
इसे बाद में पढ़ा इसलिए पूछ लिया था । वैसे लगता है अनजाने में ये काम बिल्कुल सही किया करता हूँ जो कभी पेट भर खाना नहीं खाता । नहीं पता था कि आयुर्वेद भी यही कहता है ।
19/12/19, 8:12 am – Abhinandan Sharma: यहां दो भाग अन्न से भरने के लिये का मतलब है कि भोजन,, आधा पेट ही किया जाये। 4 रोटी की भूख है तो 2 ही खाई जाएं, इससे पेट हल्का रहेगा, गैस नहीं बनेगी और भोजन पाचन आसानी से होगा ।
19/12/19, 9:56 am – FB Abhijit Rajkot Shastra Gyan: यही हमारे ग्रुप का शीर्षक हो सकता है। कुछ भी पोस्ट करते पहले एक बार ये बात ध्यान में भी रहेगी !! क्या कहते है अभिनंदन महोदय, अलंकार जी।😇😇
19/12/19, 10:29 am – +91 : वर्तमान शीर्षक ही उचित प्रतीत होता है।
19/12/19, 10:49 am – Shastragyan Abhishek Sharma: गुरुणां अर्धसौहित्यं लघुनां नातितृप्तता।
इसका अर्थ— गुरु अन्न तृप्ति होने से आधा कम खायें
तथा लघु अन्न अति तृप्त हो कर न खायें।
19/12/19, 11:25 am – Shastra Gyan Maniah Patiala: उदयनाचार्य किरणावली में इन सभी तर्कों का उत्तर क्रमश इस प्रकार देते हैं
(१) चक्षुरिन्द्रिय का अर्थ नेत्र की पुतली नहीं है । इन्द्रिय है तेजस् । तेजस् नेत्र से निकलकर जाता है और प्रकाशवत् जिस पदार्थ पर पड़ता उसका संस्कार ग्रहण करता है।
(२) तेजस् की गति इतनी तीव्र है कि चन्द्रमा तक पहुँचते भी उसे अणुमात्र देर नहीं होती । इसीसे हमें वृक्ष और चन्द्रमा के दर्शन में समय का अन्तर नहीं जान पढ़ता।
(३) तेजस् सम्पूर्ण दृष्टि क्षेत्र में व्यापक होता है। इसलिये छोटी बची जो वस्तुएँ उसके पथ में आती है, उनका रूप-संस्कार वह ग्रहण करता है।
(४) अवरख और सीसा पारदर्शक होने के कारण तेजस् की गतिका अवरोध नहीं करते । इससे चक्षु की प्राप्यकारिता मे बाधा नहीं पाती।
इन्द्रियार्थ संयोग-पदार्थ का इन्द्रिय के साथ जो सम्बन्ध होता
है, उसे ‘इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष’ कहते हैं। यह छः प्रकार का माना गया है
(१) संयोग (२) संयुक्त समवाय (३) संयुक्त समवेत समवाय {४) समवाय ( ५)- समवेत समवाय और (६) विशेषण भाव ।
इनमें प्रत्येक का अर्थ यहाँ समझाया जाता है।
(१) सहयोग–
दो पदार्थों का विच्छेद्य सम्बन्ध (अर्थात् वह सम्बन्ध जो टूट सकता है) ‘संयोग’ कहलाता है । जब इन्द्रिय के साथ किसी द्रव्य (जैसे घट) का संयोग होता है, तब वह ‘संयोग सन्निकर्ष’ कहलाता है। आप ऑँख से गुलाब के फूल को देखते हैं । यहाँ आँख से गुलाब के फूल का जो सम्बन्ध है, वह संयोग का उदाहरण होगा, क्योंकि यह सम्बन्ध स्थायी नहीं है।
19/12/19, 11:54 am – Ashu Bhaiya: भाई इधर विद्या अभी न्यून है, तो विनय भी अधिक आई नहीं है 😷
19/12/19, 12:40 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 😁
19/12/19, 12:41 pm – Lekhendra Sharma LE E 605: ग्यान, विद्या, बुद्धि, विवेक, प्रज्ञा और ब्रह्म varchas में क्या फर्क़ है? कृपया सरल भाषा मेें समझाएं. l हिन्दी टंकण कम आता है क्षमा करें l
19/12/19, 12:45 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: बहुत सही प्रश्न🙏
19/12/19, 12:49 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: आत्मा मन और चित्त में भी क्या अंतर है ?? ये भी
19/12/19, 12:51 pm – +91 : 👌
19/12/19, 1:16 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
श्री मनुस्मृति
तृतीय अध्याय
संप्राप्ताय त्वतिथये प्रदद्यादासनोदके ।
अन्नं चैव यथाशक्ति सत्कृत्य विधिपूर्वकम् । । ३.९९[८९ं] । ।
शिलानप्युञ्छतो नित्यं पञ्चाग्नीनपि जुह्वतः ।
सर्वं सुकृतं आदत्ते ब्राह्मणोऽनर्चितो वसन् । । ३.१००[९०ं] । ।
तृणानि भूमिरुदकं वाक्चतुर्थी च सूनृता ।
एतान्यपि सतां गेहे नोच्छिद्यन्ते कदा चन । । ३.१०१[९१ं] । ।
एकरात्रं तु निवसन्नतिथिर्ब्राह्मणः स्मृतः ।
अनित्यं हि स्थितो यस्मात्तस्मादतिथिरुच्यते । । ३.१०२[९२ं] । ।
नैकग्रामीणं अतिथिं विप्रं साङ्गतिकं तथा ।
उपस्थितं गृहे विद्याद्भार्या यत्राग्नयोऽपि वा । । ३.१०३[९३ं] । ।
हरी ॐ
अर्थ
गृहस्थ को आये हुए अतिथि का आसन,अन्न व जल से यथाशक्ति संस्कार करना चाहिए।
जो उञ्छवृत्ति"खेतों से अन्न बीनकर निर्वाह करता हो व पँचाग्नि में हवन करता हो वह भी यदि अतिथि सत्कार ना करे तो वह अतिथि उसके सब पुण्य को ले लेता है। यदि अन्न ना भी हो तो तृणासन,भूमि,जल,मीठी बातें यह तो सद्पुरुषों के यंहा सदा ही उपलब्ध रहता है। जो ब्राह्मण एक रात्रि के लिए गृहस्थ के यंहा निवास करता है उसे अतिथि कहते हैं, वह नित्य नहीं रहता इसलिए उसे अतिथि कहलाता है। एक गांव में रहने वाला,हंसीमजाक करके साथ रहनेवाला, स्त्री व अग्निहोत्री ब्राह्मण को अतिथि नही मानना चाहिए
हरी ॐ
19/12/19, 1:17 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: अतिथि अगर ब्राह्मण ना हो कर अन्य द्विज हो तो क्या अतिथि नही कहलायेगा
19/12/19, 1:17 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ??
19/12/19, 1:19 pm – : मैं असहमत हूँ इससे
19/12/19, 1:19 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: Genuine question, somebody Reply please. 🙏🏻
19/12/19, 1:21 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG:
19/12/19, 1:21 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: ब्राह्मण अतिथि और अग्निहोत्री ब्राह्मण नहीं ?
19/12/19, 1:23 pm – +91 : विद्याधारण करने वाला दान पर क्यों जी रहा है? उसे तो दक्षिणा लेकर अनुग्रहीत करना चाहिए न।
अनपढ़ व्यक्ति के लिए दान की व्यवस्था होनी चाहिए क्योंकि वह दक्षिणा लेने के योग्य नहीं है।
कोई सज्जन समझाए
19/12/19, 1:23 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ,
19/12/19, 1:46 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: शिव संहिता
श्लोक 33-34
सूर्यमण्डलमध्यस्थः कलाद्वादशसंयुतः
वस्तिदेशे ज्वलद्वह्निर्वर्तते चान्नपाचकः – 33
एष वैश्वानरोग्निर्वै मम तेजोंशसस्थवः
करोति विविधं पाकं प्राणिनां देहमास्थितः -34
अर्थ – द्वादशकलासंयुक्त सूर्यमण्डल के मध्यम में प्रज्वलीत अग्नि है सो बस्तीदेश में अन्न का पाचन करती है वह वैश्वानर अग्नि हमारे तेज़ से उत्पन्न है प्राणी के शरीर में स्तिथ होकर ना ना प्रकार का पाक करती है 🙏
19/12/19, 1:46 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: शिव संहिता
श्लोक 35
आयुः प्रदायको वह्निर्बलं पुष्टिं ददाति सः
शरीरपाटवञ्चापि ध्वस्तरोगसमुव्यवः
अर्थ – सो वैश्वानर अग्नि, आयु, बल और पुष्टता और शरीर में कान्ति का देने वाला है और यावत रोगों को नाश करने वाला है !
श्लोक 36
तस्माद्वैश्वानरायिञ्च प्रज्वाल्य विधिवत्सुधीः
तस्मिन्नत्रं हुनेद्योगी प्रत्यहं गुरुशिक्षया
अर्थ – इस वैश्वानर अग्नि को गुरु के शिक्षा पूर्वक प्रज्वलित करके नित्य उसमे अन्न का होम करे अर्थात भोजन करे 🙏
19/12/19, 1:48 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: कार्तिक जी द्वारा पूर्व में पढ़ाई हुई शिव संहिता से🙏
19/12/19, 1:58 pm – Abhinandan Sharma: स्वतंत्र प्रश्न इस ग्रुप में नहीं पूछे जाते हैं । यदि कोई पोस्ट उस से सम्बंधित आती है तो उस पर ही चर्चा सम्भव है 🙏यदि फिर भी कोई जिज्ञासा है तो ग्रुप में योग्य व्यक्ति से, अलग से पूछ सकते हैं।
19/12/19, 1:59 pm – Abhinandan Sharma: स्वतंत्र प्रश्न इस ग्रुप में नहीं पूछे जाते हैं । यदि कोई पोस्ट उस से सम्बंधित आती है तो उस पर ही चर्चा सम्भव है 🙏यदि फिर भी कोई जिज्ञासा है तो ग्रुप में योग्य व्यक्ति से, अलग से पूछ सकते हैं।
19/12/19, 2:00 pm – Abhinandan Sharma: कृपया शाम तक की प्रतीक्षा करें।
19/12/19, 2:00 pm – Abhinandan Sharma: कृपया शाम तक की प्रतीक्षा करें।
19/12/19, 2:01 pm – Abhinandan Sharma: कृपया शाम तक की प्रतीक्षा करें।
19/12/19, 2:09 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: इस प्रश्न को शास्त्र क्या सच क्या झूठ मे डिस्कशन के लिए के आइए महोदय 🙏🏻
19/12/19, 3:02 pm – Kundali Ravindra अमरानिया Badauda, Gujarat joined using this group’s invite link
19/12/19, 4:54 pm – +91 : 🙏🙏
19/12/19, 6:23 pm – Abhinandan Sharma: दूर्वा के बारे में ये मैंने भी पढ़ा है ।
19/12/19, 6:28 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: अब क्या रिप्लाई कर रहे है आप, लेखेंद्र जी हम सबको छोड़कर चले गये
19/12/19, 6:32 pm – Abhinandan Sharma: मैंने उनको नहीं अपितु जिन्होंने दूर्वा के बारे में प्रश्न किया है, उनको उत्तर दिया है।
19/12/19, 6:33 pm – Abhinandan Sharma: और भाई, ऐसा मत कहो कि वो हम सब को छोड़ कर चले गए 😄 ऐसा बोलो की अब इस ग्रुप में नहीं है । दोनो बातों में बड़ा अंतर हो जाता है भाई 🤣
19/12/19, 6:36 pm – Abhinandan Sharma: यहां, यह भी ध्यान दीजिए कि भोजन में मीठा, भोजन से पहले खाना चाहिये, न कि भोजन के अंत में ।
19/12/19, 6:36 pm – Shastra Gyan Ranjana Prakash: कृप्या नीचे की दो पंक्तियाँ(जीवन मृत्यु रेखा)और सरल भाषा में स्पष्ट कर दें।
19/12/19, 6:42 pm – Abhinandan Sharma: इस प्रश्न का उत्तर, जल्द ही वेबसाइट पर डाला जायेगा
19/12/19, 6:43 pm – Abhinandan Sharma: यह, लिखने वाला विषय नहीं है। इसके लिये आपको स्वयं आना पड़ेगा।
19/12/19, 6:43 pm – +91
19/12/19, 6:43 pm – Abhinandan Sharma: ठीक है, इस प्रश्न 👆 का उत्तर भी वेबसाइट पर दिया जाएगा। कोशिश करता हूँ, जितना कह सकता हूँ ।
19/12/19, 6:44 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: 🙈
19/12/19, 6:53 pm – Abhinandan Sharma: किसी और द्विज के अतिथि होने का संदर्भ अभी तक नहीं मिला है । सभी जगह ब्राह्मण के अतिथि होने की ही कथाएं पढ़ी है अतः अभी इस पर स्पष्ट नहीं कह सकता किन्तु आशा है ,आगे उत्तर मिल जाएगा, कही न कहीं ।
19/12/19, 6:53 pm – Abhinandan Sharma: सही कहा 🙏
19/12/19, 6:55 pm – Abhinandan Sharma: जी, अग्निहोत्री ब्राह्मण को सुबह शाम की संध्या में अग्निहोत्र करना होता है अतः उसको अतिथि नही कहा जाता है । वह पहले ही बता कर आता है, जहां भी जाता है मतलब व्यवस्था करके । अन्य ब्राहमणों के लिये ऐसा निश्चित नहीं है।
19/12/19, 6:57 pm – Abhinandan Sharma: ब्राह्मण 8 प्रकार के होते हैं और सभी अध्यापन कार्य नहीं करते हैं । जो अध्यापन कार्य नहीं करते और धर्म को ही फॉलो करते हैं, वो दान लेकर अपना कार्य करते हैं । दान लेना गलत नहीं है यदि आप प्रतिग्रह को काट सकते हैं तो । (आशा है आप दान को भीख नही समझ रहे होंगे )
19/12/19, 7:02 pm – Abhinandan Sharma: वैसे तर्कशास्त्र में पिछले 3 पोस्ट में, इतनी जबरदस्त बात चली प्राप्यकारिता को लेकर, किसी ने ध्यान दिया ? यदि समझ नहीं आया तो पूछा क्यों नहीं ?
19/12/19, 7:10 pm – Kundali Ravindra अमरानिया Badauda, Gujarat: Durva ke bane asan ke bare me kutch batane ke krupa kare
19/12/19, 7:28 pm – Abhinandan Sharma: भाई कुशा का आसन तो सुना था, दूर्वा का आसन तो कभी न सुना, न देखा ।
19/12/19, 7:31 pm – +91 : अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि।।११।।
इसलिए सब मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आपलोग सभी निःसंदेह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें।।११।।
19/12/19, 7:32 pm – +91 :
19/12/19, 7:44 pm – Abhinandan Sharma:
19/12/19, 7:55 pm – Kundali Ravindra अमरानिया Badauda, Gujarat: Muje darbhasan or durvassan me confusion he
19/12/19, 8:11 pm – Abhinandan Sharma: दर्भ माने कुशा 😊
19/12/19, 8:24 pm – Kundali Ravindra अमरानिया Badauda, Gujarat: Oh ok🙏🙏🙏
19/12/19, 8:34 pm – +91 : ब्राह्मण तो धर्म को फॉलो करने के लिए अध्ययन करते ही हैं, ऐसे में जो ब्राह्मण अनपढ़ हैं उन्हें दान देना चाहिए क्योंकि वह ही इसके अधिकारी हुए। जिसने सत्य को जाना है वह धार्मिक अनुष्ठान संपन्न कराए और दक्षिणा ले न!
19/12/19, 8:36 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: इसका उत्तर ???
19/12/19, 8:36 pm – Abhinandan Sharma: जैसा मैंने बताया ब्राह्मण के कई प्रकार होते हैं, सभी न पढाते हैं और न ही पुरोहित्य करते हैं । फिर कहता हूँ दान लेना कोई गलत बात नहीं है ।
19/12/19, 8:37 pm – +91 : ब्राह्मण बन्धुओं के लिए सन्ध्या एक अति आवश्यक कर्म है।जिसका भी आजकल अभाव सा हो गया है।
19/12/19, 8:37 pm – Abhinandan Sharma: इसका उत्तर वेबसाइट पर डाला जाएगा क्योंकि ये स्वतन्त्र प्रश्न है ।
19/12/19, 8:37 pm – Abhinandan Sharma: जी । बहुत से लोग, इसकी विधि भी नहीं जानते । आप शेयर कर सकते हैं, सबकी जानकारी के लिये तो उत्तम रहेगा।
19/12/19, 8:39 pm – +91 : दान बिना किसी सेवा के ग्रहण करने योग्य मूल्य है और दक्षिणा किसी सेवा के एवज में, कोई भी सज्जन व्यक्ति सिवाय विपरीत परिस्थितियों के क्यों बिना किसी श्रम से धन अर्जित करेगा?
19/12/19, 8:40 pm – +91 : जी।जरूर।लेकिन रोज थोड़ा थोड़ा ही लिख पाऊंगा।पहले इसके महत्व के बारे में लिखने की शुरूआत करेंगे।
19/12/19, 8:40 pm – Abhinandan Sharma: इसका अर्थ है कि आप दान को भीख के समतुल्य रख रहे हैं ।आपको इन दोनों में अंतर समझना चाहिए ।
19/12/19, 8:43 pm – +91 : नहीं मुझे लगता है कि हमारी संस्कृति में भीख नहीं है, दान और दक्षिणा ही हैं, दान सामाजिक कर्तव्य है और दक्षिणा सेवा का मूल्य
19/12/19, 8:44 pm – +91 : इससे अतिरिक्त कुछ बताना चाहें तो स्वागत है🙏
19/12/19, 8:44 pm – Abhinandan Sharma: हां, तो दान लेना कोई गलत बात नहीं है। जो लोग वन में रहते थे, ऋषि अथवा मुनि, वो भिक्षा से ही निर्वाह करते थे ।
19/12/19, 8:44 pm – Abhinandan Sharma: स्वयं के लिए यज्ञ करते थे, पुरोहित्य नहीं करते थे, वो भिक्षाटन से ही जीविका चलाते थे।
19/12/19, 8:45 pm – +91 : पर किसी अनपढ़ को न देने की बात अस्वीकार्य है
19/12/19, 8:47 pm – Abhinandan Sharma: अनपढ़ को न देना, ये कहां लिखा है ?
19/12/19, 8:48 pm – Dr PL Sharma White Cottege Ghaziabad Shastr Gyan: 🕉भिक्षा किसी भी को दी जा सकती है परन्तु दान सुपात्र को ही दिया जाता है।
19/12/19, 8:50 pm – +91 : वह अनपढ भी इसी समाज का हिस्सा है और उसका जीवन यापन भी समाज का कर्तव्य हुआ।
19/12/19, 8:50 pm – +91 : यहाँ
19/12/19, 8:51 pm – Abhinandan Sharma: भाई, अनपढ़ को नहीं देना है, ऐसा कहाँ लिखा है ?
19/12/19, 8:51 pm – +91 : 👆🏻
19/12/19, 8:51 pm – Abhinandan Sharma: इसमें अनपढ़ शब्द कहाँ हैं ?
19/12/19, 8:52 pm – +91 : वेदपाठ रहित मूर्ख ब्राह्मण
19/12/19, 8:52 pm – +91 : मेरे हिसाब से अनपढ ही हुआ इसका मतलब
19/12/19, 8:53 pm – Abhinandan Sharma: ये अनपढ़ कैसे हुआ !!! सीधा लिखा हुआ है कि वेदविहीन ब्राह्मण, जिसको सत्य, असत्य, धर्म, अधर्म, नैतिक अनैतिक आआदि का ज्ञान ना हो अर्थात मूर्ख हो, उसेअपात्र जानकर उसे दान नहीं देना चाइये । इसमें क्या गलत है।
19/12/19, 8:54 pm – : पहले लोग की शिक्षा में वेद पढ़ना अनिवार्य था, इतिहास में किसी भी व्यक्ति की शिक्षा वेद अध्ययन के बिना पूर्ण नहीं होती थी
19/12/19, 8:54 pm – +91 : तो वह व्यक्ति अनपढ ही हुआ न
19/12/19, 8:54 pm – Abhinandan Sharma: आप दान के बारे में पहले पूरा पढिये । नारद जी का बहुत बड़ा आख्यान है इस पर।
19/12/19, 8:55 pm – : मैं पढ़ना चाहता हूँ, उपलब्ध कराइये
19/12/19, 8:55 pm – : कृपा होगी
19/12/19, 8:56 pm – Abhinandan Sharma: यहां काफी मसाला डाला था मैंने –
http://shastragyan.apsplacementpltd.in/दान-की-परिभाषा-और-प्रकार-2/
19/12/19, 8:56 pm -: 🙏धन्यवाद सर
19/12/19, 8:58 pm – Abhinandan Sharma: यही वेबसाइट का फायेदा है, इसीलिये प्रश्न वेबसाइट पर ही पूछे जिससे कि वो बाद में सभी के लिए उपलब्ध हो सकें ।
19/12/19, 9:00 pm -: इधर केवल चर्चा ही होती है क्या ।कोई post नही डालते
19/12/19, 9:00 pm -: पता नही मुझे🙏
19/12/19, 9:01 pm – Abhinandan Sharma: नहीं, इधर चर्चा नहीं होती है, केवल जो पोस्ट डाली जाती है, उसी से सम्बंधित प्रश्न allow हैं । ये चर्चा एक पुरानी पोस्ट पर है । जल्द ही आपको नयी पोस्ट मिलनी शुरू होंगी ।
19/12/19, 9:02 pm – FB Rajesh Singhal Ghaziabad Shastra Gyan: कई बार गलती से left का बटन दबा जाता है।
कृपया उन्हें जॉइन का लिंक भेज दें।
19/12/19, 9:02 pm – +91 : मैं चाहता हूँ कि मैं अपने कॉलेज फ्रेंड्स के साथ एक ग्रुप बना लूँ और यहाँ की सामग्री वहां फॉरवर्ड करता रहूं, लोगों को हकीकत नहीं मालूम रहती अधिकतर और यूट्यूब औऱ टीवी के माध्यम से मिली जानकारी को प्रमाणिक मान लेते हैं
19/12/19, 9:04 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: जी काफी बार क्लियर चैट करो तो गलती से लेफ्ट हो जाता है, वो हमें नही जानते, शर्मा जी से आग्रह करिये। 🙏🏻 वो एडमिन है और उनके जानने वाले भी होंगे👌
19/12/19, 10:04 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-८ श्लोक ४७,४८,४९,५०
अनुपानं हितं वारि यवगोधूमयोर्हितम्॥४७॥
दध्नि मद्ये विषे क्षौद्रे, कोष्णं पिष्टमयेषु तु। शाकमुद्गादिविकृतौ मस्तुतक्राम्लकाञ्जिकम्॥४८॥
सुरा कृशानां पुष्टयर्थं स्थूलानां तु मधूदकम्। शोषे मांसरसो, मद्यं मांसे स्वल्पे च पावके॥४९॥
व्याध्यौषधाध्वभाष्यस्त्रीलङ्घनातपकर्मभिः। क्षीणे वृद्धे च बाले च पयः पथ्यं यथाऽमृतम्॥५०॥
विविध प्रकार के अनुपान- गेहूं तथा जौ का, दही, मद्य, विष या विषयुक्त औषध-द्रव्यों तथा मधु का अनुपान शीतल है। पीठी आदि से बने हुए (कचौड़ी आदि) भक्ष्य पदार्थों का अनुपान गुनगुना जल है। विविध प्रकार के शाकों, मूंग, उड़द आदि द्वारा बनाये गये बड़ा आदि पदार्थों का अनुपान मस्तु (दही का पानी), मठा, खट्टी कांजी है। कृश (दुबले) पुरूषों को पुष्ट करने के लिए सुरा अनुपान के रूप में दें। स्थूल पुरूषों को कृश करने के लिए मधु मिला हुआ जल पीने के लिए दें। शोष (क्षय) रोग में मांसरस (शोरबा) पीने के लिए दें। मांस खाने के बाद तथा अग्नि के मन्द पड़ जाने पर अनुपान के रूप में मद्य पीने को दें। रोग, औषधसेवन, रास्ता चलने से थकने पर, भाषण, मैथुन (स्त्रीसहवास), लंघन, धूप लगना, काम करने से क्षीण, बालक तथा वृद्ध— इन सबको अनुपान में दूध दें। यह इनके लिए अमृत के समान हितकर होता है।
19/12/19, 10:05 pm – Abhinandan Sharma: कर चुका हूँ । उनके स्वतन्त्र प्रश्न पूछने को मना करने पर उन्हें बुरा लग गया । अब वो नहीं आएंगे
19/12/19, 10:06 pm – Abhinandan Sharma: अभी ग्रुप में पहले से करीब 10 पुस्तकें चल रही हैं । महाभारत का क्रम टूट गया है, आप महाभारत पढ़ सकते हैं ।
19/12/19, 10:40 pm – +91 : 🙏
20/12/19, 12:12 am – Aparna Singh Ayodhya Shastra Gyan: जी बिल्कुल
20/12/19, 12:13 am – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: जी मैं पढ़ रहा हूँ
20/12/19, 6:32 am – Abhinandan Sharma: ये पक्का कोई नही पढ़ रहा !
20/12/19, 7:52 am – LE Ravi Parik : Bhagwat shuru kare pl koi
20/12/19, 9:27 am – FB Rajesh Singhal Ghaziabad Shastra Gyan: ग्रुप मैं एक साथ कई शास्त्र चलते है तो एक दूसरे मैं गडमड हो जाते है कम से कम मेरे जैसे के लिए।
2 या 3 शास्त्रों पर ही विचार हो तो स्पष्टता बनी रहेगी।
बाकी तो सीखने को बहुत मिल रहा है।
20/12/19, 9:35 am – FB Sanjay Kr Singh Saptarshi: जी। इस समस्या से मैं भी ग्रसित हूँ।सब उलझ जाता है।🙏
20/12/19, 9:40 am – Abhinandan Sharma: अभी कोई नयी पुस्तक नहीं प्रारंभ करेंगे क्योंकि १० से अधिक नहीं करना है |
20/12/19, 10:13 am – FB Rajesh Singhal Ghaziabad Shastra Gyan: 10 भी बहुत है, हमारे लिए, अनुरोध है 4 से अधिक नही।
बाकी जैसा आप उचित समझें।
सादर
20/12/19, 10:21 am – Shastra Gyan Swadha Pandey: हमें भी बहुत confusion है। हालांकि हम बस पढ़ने वालों में हैं लेकिन लगता यही है कि एक एक ग्रंथ खत्म किया जाए।
20/12/19, 10:22 am – Abhinandan Sharma: अभी जो चल रहे हैं, चलने दीजिये | आगे देखंगे | कुछ ग्रन्थ कुछ के मतलब के हैं, कुछ किसी और के | अतः अब जितने चल रहे हैं, ठीक हैं, किसी को बीच में रोकना ठीक नहीं |
20/12/19, 10:23 am – FB Rajesh Singhal Ghaziabad Shastra Gyan: 🙏🏻🙏🏻
20/12/19, 10:46 am – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: ।।पंचतंत्र।।
प्रथम तन्त्र
मित्रभेद (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
कथा क्रम : दो
भूख से बेचैन गोभायु नामक एक गीदड़ घूमते-घूमते अचानक उस जंगल में जा पहुंचा, जहां दो सेनाओं में भीषण युद्ध हो चुका था। वहां उसने हवा के वेग से कांप रही वृक्ष की शाखाओं की आवाज़ सुनी।
गीदड़ ने सोचा कि यह आवाज़ मेरे पास पहुंचे, इससे पहले ही यहां से निकल भागना चाहिए। तभी अचानक उसे यह विचार आया कि क्या बाप-दादा के ज़माने से चले आ रहे अपने इस निवासस्थान को इस प्रकार अचानक छोड़ जाना उचित होगा?
शास्त्रकारों का कथन है—
भये वा यदि वा हर्षे सम्प्राप्ते यो विमर्शयेत् ।
कृत्यं न कुरुते वेगान्न स सन्तापमाप्नुयात् ।।
हर्ष अथवा भय का अवसर आ जाने पर सदा सोच-विचार कर काम करने वाले व्यक्ति को कभी पछताना नहीं पड़ता। अतः उसने निश्चय किया कि पहले मुझे यह पता लगाना चाहिए कि यह आवाज़ कैसी है? भयभीत होते हुए भी उसने अपना साहस बटोरा और धीरे-धीरे उस ओर बढ़ना आरम्भ किया, जिधर से वह आवाज़ आ रही थी। पास पहुंचने पर उसे एक नगाड़ा दिखाई दिया, तो वह उसे बजाने लगा। फिर उसने सोचा कि बहुत दिनों के बाद आज मुझे इतना सुस्वादु भोजन मिला है। इस नगाड़े में तो गोश्त, चर्बी आदि बहुत कुछ भरा होगा। यह सोचकर प्रसन्न एवं उन्मत्त हुए गीदड़ ने नगाड़े में छेद किया और उसके भीतर घुसकर बैठ गया, लेकिन वहां उसे केवल काठ के सिवा कुछ भी नहीं मिला। सूखे चमड़े को फाड़ते हुए उसकी दाढ़ें भी टूट चुकी थीं।
फिर वह यह कहते हुए बाहर निकला—
मैंने तो सोचा था कि इसमें मांस, चर्बी आदि बहुत कुछ होगा, परन्तु यहां तो सूखे चमड़े और लकड़ी के सिवा कुछ भी नहीं है।
पिंगलक ने कहा—
मेरा पूरा परिवार इसी आवाज़ से भयभीत होकर यहां से भागने का निश्चय कर चुका है। फिर मैं अकेला यहां कैसे रह सकता हूं?
इस पर दमनक ने कहा—स्वामी! आप अपने परिजनों को दोष मत दीजिये। वे सब तो आपको भयभीत देखकर घबरा गये हैं।
20/12/19, 11:07 am – Shastra Gyan Maniah Patiala: (२) संयुक्त समवाय
दो पदार्थों के अविच्छेद सम्बन्ध को (अर्थात उस सम्बन्ध को जो टूट नहीं सकता) समवाय कहते है । जैसे गुलाब का जो गुलाबी रग है वह गुलाब से अलग नहीं किया जा सकता। दोनों में समवाय का सम्बन्ध है । जब हम गुलाब देखते हैं तब उसका समवेत (समवाययुक्त) गुलाबी रंग भी देखते हैं। यहाँ हमारी इन्द्रिय से संयोग है गुलाब का, और गुलाब में समवाय है गुलाबी रंग का । इस तरह इन्द्रिय से संयुक्त गुलाब का समवेत (गुलाबी रंग) भी प्रत्यक्ष होता है। यहाँ नेत्रेन्द्रिय के साथ गुलाबी रंग का ‘संयुक्त समवाय’ सम्बन्ध है।
(३) संयुक्त समवेत समवाय
गुलाबी रंग में उसकी सामान्य जाति भी समवेत रूप से वर्तमान है। अतएव गुलाबी रंग के साथ-साथ आप उसकी जाति (सामान्य) को भी देखते है। यहाँ गुलाब आपकी इन्द्रिय से संयुक्त है। गुलाब का रंग उस संयुक्त पदार्थ (गुलाब) में समवेत है। (अर्थात् संयुक्त समवेत है। ) गुलाबी रंग का सामान्य (गुलाबी) इस संयुक्त समवेत (गुलाबी रंग) में भी समवेत है। अर्थात संयुक्त समवेत समवेत है। इसलिये गुलाब के साथ जो गुलाबीपने की जाति प्रत्यक्ष होती है, उसका इन्द्रिय के साथ संयुक्त समवेत समवाय सम्बन्ध जानना चाहिए।
20/12/19, 11:42 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: इस के हिंदी अनुवाद के शब्द भी बड़े क्लिष्ट हैं,
इसे अगर हर पद को कोई सरल भाषा में समझाये तभी यह सब के लिए उपयोगी होगा वरना कुछ विशेष प्रबुद्ध जन के लिए ही उपयोगी होगा
20/12/19, 11:53 am – Abhinandan Sharma: भाई कोई पूछे तो सही ! इतना बढ़िया विषय निकल गया, प्राप्य्कारिता का, किसी ने ध्यान ही नहीं दिया |
20/12/19, 11:54 am – Abhinandan Sharma: कोई पूछे कि इसका अर्थ बताया जाए, या इसमें क्या कहा गया है तो बताया जाए लेकिन लोगों की समझ में नहीं आता, पर लोग पूछते भी नहीं ! फिर ऐसे पढने से क्या लाभ ! कुछ समझ नही आता है तो पूछना चाहिए न !
20/12/19, 12:59 pm – Abhinandan Sharma: You deleted this message
20/12/19, 1:06 pm – +91 : Bhag 7 भेजिए कृपया
20/12/19, 1:07 pm – Shastragyam Bhavsar Prakash Maliwal: This message was deleted
20/12/19, 1:08 pm – Abhinandan Sharma: भाग 7 का लिंक दिया हुआ है, भाग 8 में ।
20/12/19, 1:09 pm – Shastragyam Bhavsar Prakash Maliwal: 1 त्रेतायुग = 1296000 सौर वर्ष
(12956000 शायद गलती से लिखा गया है) 🙏🏻
20/12/19, 1:18 pm – LE Nisha: मैं भी अपना पूरा ध्यान पढ़ने और उसे समझने लगा रही हूँ।
20/12/19, 1:19 pm – Abhinandan Sharma: जी, धन्यवाद ।
20/12/19, 1:29 pm – Shastragyam Bhavsar Prakash Maliwal: 🙏🏻🙏🏻😊
20/12/19, 1:33 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: गणना में कुछ गड़बड़ लग रहा है क्यों कि चारों युगों का जोड़ 43,20,000 होता है।
परन्तु 1200×360= 4,32,000 ही होता है।
जो की कलियुग के वर्षों के बराबर है।
20/12/19, 1:35 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: या तो 12000 दिव्यवर्षों के बराबर एक चतुर्युग होगा।
20/12/19, 1:42 pm – Abhinandan Sharma: rajesh जी – इस पर ध्यान दें – चतुर्युग के दसवें भाग का चार गुना सतयुग (4०%), तीन गुना (3०%) त्रेतायुग, दोगुना (2०%) द्वापर युग और एक गुना (10%) कलियुग होता है |
20/12/19, 1:42 pm – Abhinandan Sharma: 1 त्रेता युग = 12956000 सौर वर्ष – ये गलत है | सही वैल्यू 1296000 सौर वर्ष रहेगी |
20/12/19, 1:45 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: जी पर क्या 1 चतुर्युग में चारो युग(सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग) होते हैं?
20/12/19, 1:47 pm – Abhinandan Sharma: चतुर्युग का अर्थ ही हुआ – ४ युग !
20/12/19, 1:49 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: तब तो चारों युगों का योग 43,20,000 सौर वर्ष होता है।
20/12/19, 1:56 pm – Abhinandan Sharma: कृपया मुझे 5 मिनट का समय दें | शायद टाइपिंग में कुछ गलतिहुई है
20/12/19, 1:56 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: 🙏
20/12/19, 1:59 pm – Abhinandan Sharma: दिव्य वर्ष = 360 मनुष्य वर्ष है; अत: 12000 x 360 = 4320000 वर्ष चतुर्युग का मानुष परिमाण हुआ। तदनुसार सत्ययुग = 1728000; त्रेता = 1296000; द्वापर = 864000; कलि = 432000 वर्ष है।
20/12/19, 2:00 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: जी अब सही है।
20/12/19, 2:01 pm – Abhinandan Sharma: ज्योतिष अध्ययन, भाग 8
दिव्य वर्ष – जैसे 360 सावन दिनों से एक सावन वर्ष की कल्पना की गयी है उसी प्रकार 360 दिव्य दिन का एक दिव्य वर्ष माना गया है | यानी 360 सौर वर्षों का देवताओं का एक वर्ष हुआ | अब आगे बढ़ते हैं |
1200 दिव्य वर्ष = १ चतुर्युग = 1200 x 360 = 432000 सौर वर्ष
चतुर्युग में सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग होते हैं | चतुर्युग के दसवें भाग का चार गुना सतयुग (4०%), तीन गुना (3०%) त्रेतायुग, दोगुना (2०%) द्वापर युग और एक गुना (10%) कलियुग होता है |
अर्थात 1 चतुर्युग (महायुग) = 432000 सौर वर्ष
1 कलियुग = 432000 सौर वर्ष
1 द्वापर युग = 864000 सौर वर्ष
1 त्रेता युग = 1296000 सौर वर्ष
1 सतयुग = 1728000 सौर वर्ष
जैसे एक अहोरात्र में प्रातः और सांय दो संध्या होती हैं उसी प्रकार प्रत्येक युग के आदि में जो संध्या होती है उसे आदि संध्या और अंत में जो संध्या आती है उसे संध्यांश कहते हैं | प्रत्येक युग की दोनों संध्याएँ उसके छठे भाग के बराबर होती हैं इसलिए एक संध्या (संधि काल ) बारहवें भाग के सामान हुई | इसका तात्पर्य यह हुआ कि
कलियुग की आदि व अंत संध्या = 3600 सौर वर्ष वर्ष
द्वापर की आदि व् अंत संध्या = 72000 सौर वर्ष
त्रेता युग की आदि व अंत संध्या = 108000 सौर वर्ष
सतयुग की आदि व अंत संध्या = 144000 सौर वर्ष
20/12/19, 3:36 pm – Abhinandan Sharma: चलिये एक प्रयास करता हूँ, ऑडियो से स्पष्ट करने का, इस पुरे प्रकरण को ।
20/12/19, 3:55 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: प्राप्यकरिता पढ़ा, समझ में भी आया पर अभी आगे का भाग पढ़ना बाकी है, शायद आप जिसकी बात कर रहे हैं वाह्यां अभी नहीं पहुंचा। केवल चक्षु को प्राप्यकारी कहा, इतना ही पढ़ा है।
20/12/19, 6:36 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 3 श्लोक 19 और 20
यस्मिन्ननैश्वर्यकृतव्यलीकः पराभवं प्राप्त इवान्तकोऽपि ।
धुन्वन्धनुः कस्य रणे न कुर्यान्मनो भयैकप्रवणं स भीष्मः ।। ३.१९ ।।
अर्थ: जिन महापराक्रमी(भीष्म) के सम्बन्ध में अपने ऐश्वर्य की विफलता के कारण दुःखी होकर मृत्यु का देवता यमराज भी मानो पराजित सा हो गया है, वही भीष्म रणभूमि में अपने धनुष को कँपाते हुए किस वीर के मन को नितान्त भयभीत नहीं बना देंगे ।
टिप्पणी: भीष्म स्वेच्छामृत्यु थे, यमराज का भी उन्हें भय नहीं था । तब फिर उनके धनुष को देखकर कौन ऐसा वीर था जो भयभीत न होता ?
पदार्थहेतुक काव्यलिंग अलङ्कार
सृजन्तं आजाविषुसंहतीर्वः सहेत कोपज्वलितं गुरुं कः ।
परिस्फुरल्लोलशिखाग्रजिह्वं जगज्जिघत्सन्तं इवान्तवह्निं ।। ३.२० ।।
अर्थ: अपने विकट बाणों के समूहों को बरसाते हुए, क्रोध से जाज्वल्यमान, जीभ की भांति भयङ्कर लपटें छोड़ते हुए मानो समूचे संसार को खा जाने के लिए उद्यत प्रलय काल की अग्नि की तरह रणभूमि में स्थित द्रोणाचार्य को, आप की ओर कौन ऐसा वीर है जो सहन कर सकेगा ?
टिप्पणी: अर्थात आप के पक्ष में ऐसा कोई वीर नहीं है, जो रणभूमि में क्रुद्ध द्रोणाचार्य का सामना कर सके।
उत्प्रेक्षा अलङ्कार
20/12/19, 7:42 pm – Abhinandan Sharma: You deleted this message
20/12/19, 7:26 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: सूरज जी अति आवेश में आकर आपने यह पोस्ट इस ग्रुप पर भेज दिया लेकिन यह ग्रुप इसके लिए नहीं है।
20/12/19, 7:26 pm – G B Malik Delhi Shastra Gyan: जी,
इतनी नफरत भरी और ज्वलंत शील पोस्ट के लिए
ढेर सारा प्यार मेरी तरफ से❤
वैसे ये ग्रुप इन सब चीजों के लिए नहीं है।
उम्मीद करता हु एडमिन जी जल्द ही इसका संज्ञान लेंगे।
20/12/19, 7:41 pm – +91: तस्य सन्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः।सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान्।।१२।।
कौरवों में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन के ह्दय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंह की दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया।।१२।।
20/12/19, 7:41 pm – +91 :
20/12/19, 8:13 pm – Abhinandan Sharma: ये गीता में क्या हुआ, कुछ समझ आया !
20/12/19, 8:53 pm – +91 :
20/12/19, 8:54 pm – +91 : इस सार्थक समूह में मेरा ये छोटा सा अनुभव, जो जीवन से मैंने सीखा एवम जाना है..🙏
21/12/19, 5:16 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: यहां समवेत, समवाय का क्या अर्थ है?
ग़ुलाब ठीक, गुलाबी रंग भी ठीक परन्तु गुलाबीपने की जाति का क्या अर्थ है?
21/12/19, 5:19 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: अगर तेजस आंखों से जाकर वस्तु का संस्कार ग्रहण करता है तो इसका अर्थ हुआ कि हम जिस वस्तु की तरफ देखते हैं उस तक आंशिक गर्माहट पहुंचती होगी क्योंकि तेजस तो अग्नि ही है। क्या ये सही होगा ?
21/12/19, 5:20 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: नज़र लगना जिसे कहा जाता है, क्या उसका कारण ये आंखों से निकलने वाला तेज ही है?
21/12/19, 5:59 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: प्रत्यक्ष के लिए द्रव्य का होना कैसे आवश्यक है?
21/12/19, 6:06 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 😱
इस तरह तो office जानेवालों को खाना लेकर नहीं जाना चाहिए क्योंकि खाने के समय तक तो कहना ठण्डा होगा ही, या तो आप उसे वैसा ही खाएंगे या फिर दोबारा गर्म करके।
21/12/19, 6:06 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: कुत्सित अन्न ??
21/12/19, 6:33 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: यहां “सर्वत्र” क्या होगा?
21/12/19, 6:44 am – Shastra Gyan Mukesh Mishra Allahabad: सभी गुलाबी रंग एक ही तरह नहीं होते, सामान्य रूप से समझे तो गुलाब का गुलाबी रंग कमल के गुलाबी रंग से भिन्न होता है और इसी प्रकार अलग अलग टोन और प्रकृति के गुलाबी रंग हो सकते हैं, यही गुलाबी रंग की जातियाँ हैं, जिन्हें संयुक्त समवेत समवय द्वारा व्यक्त किया गया है।
21/12/19, 6:47 am – Shastra Gyan Mukesh Mishra Allahabad: गुलाब में कई प्रकार के गुलाबी रंग हो सकते हैं, जैसे हल्का गुलाबी, गहरा गुलाबी
21/12/19, 7:05 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: भीष्म अपनी पूरी शक्ति से पांडवों से युद्ध करेंगे इसमें दुर्योधन को संशय था इसलिए उसे संतुष्ट करने के लिए भीष्म ने ऐसा किया।
21/12/19, 7:06 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👍🏼
21/12/19, 8:19 am – Vaidya Ashish Kumar: 💐💐💐👏🏻👏🏻👏🏻
21/12/19, 8:37 am – Abhinandan Sharma: शेड
21/12/19, 8:39 am – Abhinandan Sharma: पुराने समय मे आफिस का कांसेप्ट नहीं था, अतः तब आफिस के बारे में सोचकर नियम नहीं बताये गए थे 😊 अब आप सोचिये कि गर्म कैसे खायेंगे !
21/12/19, 8:43 am – Abhinandan Sharma: दुर्योधन डरा हुआ था, इसलिए गुरु द्रोणाचार्य के पास जाकर विरोधी और अपनी पक्ष की सैन्य शक्ति बताता है ताकि द्रोण उसे जीतने का आश्वासन दें और उसका थोड़ा उत्साहवर्धन हो किन्तु सब कुछ सुनकर भी द्रोण कुछ नहीं बोले ।तब भीष्म ने, दुर्योधन की इस हरकत को बचकानी समझते हुए, क्योंकि भीष्म दादा भी थे, उस शंख से उसका उत्साहवर्धन किया ।
21/12/19, 8:44 am – Abhinandan Sharma: भाईसाहब, यहां तेज का अर्थ प्रकाश के संदर्भ में है, अग्नि के नही । प्रकाश भी तेज (अग्नि) का ही रूप है ।
21/12/19, 8:45 am – Abhinandan Sharma: ऐसा कुछ नहीं होता, ये मुस्लिम मोमिनों द्वारा चलाया गया प्रपंच है ।
21/12/19, 8:45 am – Abhinandan Sharma: बिना द्रव्य के देखोगे क्या !!!
21/12/19, 8:46 am – Abhinandan Sharma: प्रमाता, प्रमेय, दोनों का होना आवश्यक है ।
21/12/19, 8:48 am – Abhinandan Sharma: खराब कहे गये अन्न ।
21/12/19, 8:49 am – Abhinandan Sharma: जो मूर्ख होते हैं, वही एक जैसे सत्य को सभी जगह (सर्वत्र) बोलने को धर्म समझते हैं ।
21/12/19, 9:35 am – +91 : कुछ समझ नही आया 🙏कोई समझाए कृपया
21/12/19, 9:40 am – Abhinandan Sharma: ये इस पोस्ट के संदर्भ में है जहां कृष्ण जी, पांच स्थानों पर झूठ बोलने से पाप नहीं लगता, बता रहे हैं । उसी पोस्ट से, कृष्ण जी द्वारा कही एक पांक्ति लिखी है ।
21/12/19, 9:41 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: “सर्वस्व का अपहरण” यहाँ सर्वस्व क्या होगा?
21/12/19, 9:47 am – Abhinandan Sharma: लूट । धन का अपहरण ।
21/12/19, 10:08 am – +91 : जिस विषय में आलोचना हो रही है ।अनुरोध है फिर से post किया जाए🙏🙏🙏🙏
21/12/19, 11:49 am – Abhinandan Sharma: ऐसी चर्चा तो चलती रहेंगी आगे भी। आप आगे देखें तो अच्छा रहेगा क्योंकि पुरानी चर्चा के स्पष्टीकरण भी फिर दुबारा डालने पड़ेंगे 🙏
21/12/19, 11:55 am – Shastra Gyan Maniah Patiala: (४) समवाय–
शब्द आकाश का गुण है। इसलिये आकाश के साथ शब्द का समवाय सम्बन्ध है। और आकाश एक ही हैं। श्रवणेन्द्रिय भी कर्णकुहर स्थित आकाश ही है। अतएव उसमें भी शब्द समवेत रूप से वर्तमान है। इसलिये शब्द का श्रवणेन्द्रिय के साथ संयोग सम्बन्ध नहीं माना जा सकता; क्योंकि दोनों में समवाय सम्बन्ध है। इसलिये जब आपको कोई शब्द सुनाई पड़ता है तब शब्द का इन्द्रिय के साथ संयोग नहीं कहा जा सकता। इस सम्बन्ध को समवाय ही मानना पड़ेगा। अतएव श्रावण प्रत्यक्ष में इन्द्रिय का पदार्थ (शब्द ) के साथ जो संबंध होता है उसे समवाय जानना चाहिये।
(५) समवेत समवाय-
शब्द में उसकी जाति ( शब्दत्व ) समवेत रहती है। जब आप कोई शब्द सुनते हैं तब यह जाति भी प्रत्यक्ष होती है। अर्थात् समवेत पदार्थ ( शब्द ) में जिसका समवाय है उसके साथ भी आपकी इन्द्रिय का सन्निकर्ष होता है। इस सम्बन्ध को ‘समवेत समवाय’ कहते है।
(६) विशेष्य विशेषण भाव-
अब आप किसी वस्तु का अभाव देखते हैं वो स्वतः अभाव को नहीं देखते; किन्तु उस अभाव से युक्त आधार को देखते है। जैसे आप देखते है कि जमीन पर घड़ा नहीं है।
‘घटाभाववद् भूतलम्’ ।
अर्थात् भूतल घट के अभाव से युक्त है। जहाँ भूतल विशेष्य है और घटाभाव उसका विशेषण। और विशेष्य (भूतल ) के साथ-साथ उसका विशेषण (घटाभाव ) भी देखते है। अंतः ऐसे प्रत्यक्ष में इन्द्रिय का पदार्थ (अभाव ) के साथ जो सम्बन्ध होता है, वह ‘विशेषणता’ कहलाता है|
नोट-अभाव विषयक प्रत्यक्ष को लेकर न्याय और अन्यान्य दर्शनों में खूब ही झगड़ा है । बहुतों का मत है कि अभाव का ज्ञान प्रत्यक्ष के द्वारा नहीं, किंतु अनुमान के द्वारा होता है। वेदान्त अभाव ज्ञान के लिये एक स्वतन्त्र ही प्रमाण ( अनुपलब्धि ) का आश्रय लेता है। न्याय इन सबके विरुद्ध अभाव ज्ञान को प्रत्यक्षमूलक बतलाता है।
21/12/19, 12:06 pm – Abhinandan Sharma: मैं उज्जैन की यात्रा में हूँ अतः तर्कशास्त्र को विस्तार नहीदे पा रहा, किन्तु जल्दी ही समय मिलने पर करूँगा ।
21/12/19, 12:12 pm – FB Mukesh Sinha Pathalgaon CG Shastra Gyan: उज्जैन में मंगलनाथ का जन्मस्थान है मंगलनाथ उसका कोई त्रिपुरारी (तीन छोटे ग्रह) टाइप का कोई वैज्ञानिक आधार हो तो बताए
21/12/19, 12:39 pm – Mummy Hts: Bahan kai famous mandir haiin time mile to see them,bherionji. Paas me hain
21/12/19, 1:18 pm – Abhinandan Sharma: आपने शायद अघोरी बाबा की गीता से त्रिपुरारी का रहस्य नहीं पढ़ा 😊
21/12/19, 1:44 pm – FB Mukesh Sinha Pathalgaon CG Shastra Gyan: पढ़ लिया था इसलिए तो याद है इसलिए तो पूछा मंगलनाथ का
21/12/19, 2:31 pm – Abhinandan Sharma: ठीक है, अवश्य जायेंगे
21/12/19, 2:43 pm – +91 joined using this group’s invite link
21/12/19, 2:57 pm – Shastragyam Bhavsar Prakash Maliwal: इंदौर आएंगे क्या आप??
21/12/19, 3:07 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: दुबले पुरुषों को पुष्ट करने के लिए सुरा अनुपान में दे, सुरा क्या है ???
21/12/19, 3:07 pm – +91 left
21/12/19, 3:22 pm – Abhinandan Sharma: नहीं भाई ।
21/12/19, 3:23 pm – Abhinandan Sharma: बड़ा टाइट schedule है ।
21/12/19, 3:25 pm – Abhinandan Sharma: सुरा एक औषधि थी, जो अब अप्राप्य है ।
21/12/19, 3:28 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: 😒
21/12/19, 4:33 pm – +91 : अप्राप्य क्यों है
21/12/19, 4:43 pm – Abhinandan Sharma: क्योंकि अब वो पौधा/पेड़ नहीं पाया जाता, इसलिए अप्राप्य है 😊
21/12/19, 4:45 pm – Shastragyam Bhavsar Prakash Maliwal: आतिथ्य का मौका नहीं मिलेगा मतलब 😔
21/12/19, 4:48 pm – Abhinandan Sharma: 🙏 धन्यवाद मित्र
21/12/19, 4:55 pm – Shastragyam Bhavsar Prakash Maliwal: मित्र भी और धन्यवाद भी 🙏🏻🙏🏻
21/12/19, 5:37 pm – Abhinandan Sharma: तीवारी जी, आपकी आवाज तो बहुत ही अद्भुत है
21/12/19, 5:37 pm – Abhinandan Sharma: आप बहुत बढ़िया गायक हैं ।
21/12/19, 5:39 pm – Abhinandan Sharma: कविता भी बहुत उत्तम है, अनेकों साधुवाद 🙏🙏
21/12/19, 5:41 pm – +91 : सहृदय आभार🙏☺
21/12/19, 7:13 pm – +91 : ततः शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोभवत्।।१३।।
इसके पश्चात् शंख और नगारे तथा ढोल , मृदंग और नरसिंघे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे।उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ।।१३।।
21/12/19, 7:14 pm – +91 :
21/12/19, 11:02 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: [ॐ
श्री मनुस्मृति
तृतीय अध्याय
[
आसनावसथौ शय्यां अनुव्रज्यां उपासनाम् ।
उत्तमेषूत्तमं कुर्याद्धीने हीनं समे समम् । । ३.१०७[९७ं] । ।
वैश्वदेवे तु निर्वृत्ते यद्यन्योऽतिथिराव्रजेत् ।
तस्याप्यन्नं यथाशक्ति प्रदद्यान्न बलिं हरेत् । । ३.१०८[९८ं] । ।
न भोजनार्थं स्वे विप्रः कुलगोत्रे निवेदयेत् ।
भोजनार्थं हि ते शंसन्वान्ताशीत्युच्यते बुधैः । । ३.१०९[९९ं] । ।
न ब्राह्मणस्य त्वतिथिर्गृहे राजन्य उच्यते ।
वैश्यशूद्रौ सखा चैव ज्ञातयो गुरुरेव च । । ३.११०[१००ं] । ।
यदि त्वतिथिधर्मेण क्षत्रियो गृहं आव्रजेत् ।
भुक्तवत्सु च विप्रेषु कामं तं अपि भोजयेत् । । ३.१११[१०१ं] । ।
अर्थ
आसन, स्थान,शैय्या,सेना,और अरदली में जाना,इन सबका उत्तम अतिथि उत्तम,मध्यम को मध्यम और साधारण से उसके लायक बर्ताव करना चाहिए।
वैश्वदेव के बाद जो कोई अतिथि आ जावे तो उसको भी भोजन बनाकर खिलावे, पाक में से बलि ना देवें ।।
विप्र को भोजन के लिए अपना कुल,गोत्र न बताना चाहिए,यदि बतलावे तो वह वान्ताशी ” उगलन खाने वाला कहा जाता है, ब्राह्मण के घर क्षत्रिय,वैश्य,शूद्र, अपना मित्र,जातीय पुरुष और अपना गुरु ये सब अतिथि नही माने जाते, यदि क्षत्रियअतिथि बनकर आवे तो ब्राह्मण भोजन के बाद उसे भी भोजन खिलावें।।
21/12/19, 11:03 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: पाक में से बलि ना देंवे???
21/12/19, 11:04 pm – Vaidya Ashish Kumar: कृपया पिछला भी कैप्शन में लिया करें🙏🏻🙏🏻
21/12/19, 11:05 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: माफ कीजियेगा इस बार छूट गया🙏
21/12/19, 11:23 pm – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur: तर्कशास्त्र बहुत ही अद्भुत और रोचक लग रहा है लेकिन उसका हिंदी में ट्रांसलेशन बहुत ही दुरूह हो जा रहा है जिसकी वजह से बहुत कम ही समझ में आ रहा है
अगर हो सके तो आसान व साधारण हिंदी में समझा सकें तो बड़ी कृपा होगी
21/12/19, 11:31 pm – Abhinandan Sharma: अवश्य, किन्तु अभी यात्रा पर हूँ । थोड़ा समय लगेगा ।
21/12/19, 11:42 pm – Kundali Ravindra अमरानिया Badauda, Gujarat: Krupya earth samjayiey iska
21/12/19, 11:43 pm – ABKG Reader Vikas Kr Dubey Bhadohi UP: अर्थ है उसमें नीचे। कृपया पूरा पोस्ट देखे।🙏🏽
21/12/19, 11:47 pm – Kundali Ravindra अमरानिया Badauda, Gujarat: Yes, but conclusion samaj me nahi aa raha he🙏🙏🙏
21/12/19, 11:49 pm – ABKG Reader Vikas Kr Dubey Bhadohi UP: अच्छा, आपको भावार्थ समझना है। क्षमा कीजियेगा, मैं समझ नही पाया आपके भाव को। वो अभिनंदन सर संज्ञान में लेंगे। वही मास्टर है मेरे हिसाब से।
22/12/19, 4:24 am – Abhinandan Sharma: देखिये, मुझे जो समझ में आया वो ये है कि एक तो संध्या भोजन अतिथि को भोजन कराकर ही करे। यदि किसी ब्राह्मण अतिथि के बाद, कोई क्षत्रिय अथवा अन्य वर्ण का व्याक्ति अतिथि बनकर आये, तो जो बना हुआ भोजन है (पाक) उसमें से न खिलावे बल्कि उसके लिये नया भोजन बनाये ।मेरी यही समझ में आया, किसी को कुछ और समझ आया हो तो अवश्य बतायें ।
22/12/19, 10:42 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: बलि ना देंवे का अर्थ यही समझें
22/12/19, 11:50 am – Abhinandan Sharma: बलि का अर्थ होता है – भेंट । काक बलि मतलब काक को भेंट । श्वान बलि मतलब श्वान को भेंट ।
22/12/19, 11:58 am – +91 : बलि पर मैंने अजेष्ठ त्रिपाठी जी का एक लंबा लेक save करके रखा है
22/12/19, 12:06 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: शेयर करिये
22/12/19, 12:08 pm – Abhinandan Sharma: इस ग्रुप पर नहीं
22/12/19, 12:08 pm – Abhinandan Sharma: उसे खण्डन पर डालिये
22/12/19, 12:11 pm – +91 : ठीक है
23/12/19, 8:35 am – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: पन्त्रतंत्र बहुत ज्ञानप्रद साबित हो रही है
23/12/19, 8:36 am – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: इसमें जो वैश्वदेव का उद्धरण है वो एक प्रकार का यज्ञ कर्म होता है। वैश्वदेव यज्ञ में पके हुए अन्न से आहुति दी जाती है इसलिए इस यज्ञ में आहुति देने हेतु जो जो भोजन पाक होता है। उसे यज्ञ में ही प्रयोग किया जाए।
उस पाक भोजन से किसी को भोजन न कराएं। ये कहा गया है।
23/12/19, 8:38 am – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: और पाक में से बलि न देवे का अर्थ भी यही है कि यज्ञ कर्म में आहुति देने हेतु जो भोजन बना है। वो बच जाने पर ब्रह्मानों को भी भेंट नहीं करना चाहिए।
बल्कि यज्ञ हेतु जो भोजन बनती है उसे यज्ञ में प्रयोग करें।
23/12/19, 10:25 am – Shastra Gyan Maniah Patiala: प्रत्यक्ष की उत्पत्ति-उपर्युक्त पंक्तियों से सिद्ध हुआ कि प्रत्यक्ष ज्ञान के लिये इन्द्रिय और पदार्थ का सम्बन्ध होना आवश्यक है किन्तु, केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है। कभी-कभी इन्द्रिय और पदार्थ का सन्निकर्ष होने पर भी प्रत्यक्ष ज्ञान की उपलब्धि नहीं होती।
मान लीजिये, आप अपने कमरे में बैठे पढ रहे हैं। आप पढने में इतने मशगूल है कि और किसी बात की ओर आपका ध्यान नहीं है। कोई आता है और आप की आँख के सामने से चला जाता है। लेकिन आपको इसकी कुछ भी खबर नहीं होती। आपकी आँख ने उसे देखा होगा जरूर, लेकिन आपका मन वहाँ नही था। इसलिये आप कुछ नहीं जानते । इससे सिद्ध होता है कि प्रत्यक्ष ज्ञान में इन्द्रिय के साथ मन भी अपना कार्य करता है। । यदि मन का सहयोग नहीं हो तो इन्द्रिय और विषय का सम्बन्ध होते हुए भी आपको प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होने का।
मन, इन्द्रिय और आत्मा के बीच में रहकर संदेशवाहक का काम करता है। इन्द्रिय विषय-ज्ञान लेकर आती है, मन उसको ग्रहण कर आत्मा तक पहुंचा देता है । इन्द्रिय स्वयं अपना संदेश आत्मा तक नहीं पहुंचा सकती। मन का माध्यम होना जरूरी है। आँख-कान मानों प्रहरी हैं, जो किले के बाहर की बाते लाकर फाटक के भीतर पहुंचा देते है। मन रूपी मन्त्री इन खबरों को लेकर राजा ( आत्मा ) तक पहुँचा देता है। यदि मन्त्री दूसरी जगह है तो प्रहरी की बात राजा तक नहीं पहुँच सकती।
जिस तरह इन्द्रिय विषय से सन्निकृष्ट होकर मन को प्रत्यक्ष ज्ञान कराती है, उसी तरह मन भी इन्द्रिय से सन्निकृष्ट होकर आत्मा को प्रत्यक्ष ज्ञान कराता है। अतएव वात्स्यायन मुनि के अनुसार प्रत्यक्ष ज्ञान की तीन खाड़ियाँ होती है
“आत्मा मनसा संयुज्यते । मन इन्द्रिचयेण । इन्द्रियमर्थेन।
( न्या. स. भा.)
23/12/19, 10:28 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: फिर मन को छठी इन्द्रिय क्यों नही माना गया
23/12/19, 12:20 pm – Abhinandan Sharma: मन को इन्द्रिय माना गया है, ये भी आएगा ।
23/12/19, 4:35 pm – +91 joined using this group’s invite link
23/12/19, 7:19 pm – +91 : ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः।।१४।।
इसके अनन्तर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्रीकृष्ण महाराज और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाये।।१४।।
23/12/19, 7:20 pm – +91 :
23/12/19, 7:38 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👌🏼
23/12/19, 8:30 pm – +91 : “नाग “और “सर्प ” का इतिहास बताने की कष्ट कीजिये 🙏🏼
23/12/19, 8:32 pm – Abhinandan Sharma: कोई संदर्भ तो आने दीजिये 🙏
23/12/19, 9:43 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: This message was deleted
23/12/19, 9:45 pm – Abhinandan Sharma: अलग से चर्चा न करें कृपया 🙏
23/12/19, 9:46 pm – Abhinandan Sharma: मनीष जी, अलग से डायरेक्ट उन्हीं को बता दीजिए, स्वतन्त्र प्रश्नों की चर्चा कृपया न करें 🙏
23/12/19, 9:47 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: जी आगे से ध्यान रखूंगा🙏🙏
23/12/19, 9:58 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-८ श्लोक ५१,५२
विपरीतं यदन्नस्य गुणैः स्यादविरोधी च। अनुपानं समासेन, सर्वदा तत्प्रशस्यते॥५१॥
उत्तम अनुपान- संक्षेप में उत्तम अनुपान का यह सूत्र है— जो अन्न आहार के गुणों से विपरीत गुण वाला हो, किन्तु उन आहार-द्रव्यों का विरोधी न हो, वह अनुपान सदा प्रशंसनीय माना जाता है।
वक्तव्य- विपरीत तथा विरोधी का अन्तर आप इस प्रकार समझे— शीतल आहारों के साथ उष्ण और उष्ण आहारों के साथ शीत अनुपान उत्तम होता है। इसी प्रकार रूक्ष आहार-द्रव्यों के साथ स्निग्ध और स्निग्ध के साथ रूक्ष पेय अनुपान में हितकर होते है।
अनुपानं करोत्यूर्जां तृप्तिं व्याप्तिं दृढा़ङ्गताम्। अन्नसङ्घातशैथिल्यविक्लित्तिजरणानि च॥५२॥
अनुपान सेवन का फल- उचित अनुपान का सेवन उर्जा ( बल एवं दीर्घ जीवन), तृप्ति, आहाररस को फैलाना, अंगों को दृढ़ करना, खाये हुए अन्न समूह को ढीला करना, उसे गीला करना तथा उसे पचाना—इन कार्यों को करता है।
वक्तव्य- सुश्रुत सूत्रस्थान अध्याय ४६/४३४ से ४४५ में एक अनुपानवर्ग दिया गया है।इसका परिशीलन अवश्य कर लें और इस श्लोक को याद कर लें— सर्वेषांनुपानानाम् माहेन्द्रम् तोयमुत्तमम्। सात्म्य वा यस्य यत्तोयं तत् तस्मै हितमुच्यते॥ उष्णं वाते कफे तोयं पित्ते रक्ते च शीतलम्॥ (सु.सू. ४६/४३४)
23/12/19, 10:07 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अनुपान – औषधि के साथ या ऊपर से लिया जाने वाला पदार्थ।
उदाहरण – यह दवा गर्म जल से ले।
या दूध के साथ लें।
या शहद के साथ लें।
यहां दूध, गर्म जल, शहद इत्यादि अनुपान है।
24/12/19, 9:06 am – You added Deepak Sharma Treasurar, Alg
24/12/19, 11:13 am – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: 🙏🙏🙏
24/12/19, 12:09 pm – Abhinandan Sharma: ज्योतिष अध्ययन, भाग 9
अब और आगे बढ़ते हैं |
71 चतुर्युगों का एक मन्वंतर होता है, जिसके अंत में सतयुग के समान संध्या होती है | इसी संध्या में जलप्लव् होता है | संधि सहित 14 मन्वन्तरों का एक कल्प होता है, जिसके आदि में भी सतयुग के समान एक संध्या होती है, इसलिए एक कल्प में 14 मन्वंतर और 15 सतयुग के सामान संध्या हुई |
अर्थात 1 चतुर्युग में 2 संध्या
1 मन्वंतर = 71 x 432000= 306720000 सौर वर्ष
मन्वंतर के अंत की संध्या = सतयुग की अवधि = 172800 सौर वर्ष
= 14 x 71 चतुर्युग + 15 सतयुग
= 994 चतुर्युग + (15 x 4)/10 चतुर्युग (चतुर्युग का 40%)
= 1000 चतुर्युग = 1000 x 12000 = 1200000 दिव्य वर्ष
= 1000 x 432000= 432000000 सौर वर्ष
ऐसा मनुस्मृति में भी मिलता है किन्तु आर्यभट की आर्यभटीय के अनुसार
1 कल्प = 14 मनु (मन्वंतर)
1 मनु = 72 चतुर्युग
और आर्यभट्ट के अनुसार
14 x 72 = 1008 चतुर्युग = 1 कल्प
जबकि सूर्य सिद्धांत से 1000 चतुर्युग = 1 कल्प
जो की ब्रह्मा के 1 दिन के बराबर है | इतने ही समय की ब्रह्मा की एक रात भी होती है | इस समय ब्रह्मा की आधी आयु बीत चुकी है, शेष आधी आयु का यह पहला कल्प है | इस कल्प के संध्या सहित 6 मनु बीत गए हैं और सातवें मनु वैवस्वत के 27 महायुग बीत गए हैं तथा अट्ठाईसवें महायुग का भी सतयुग बीत चूका है |
इस समय 2019 में कलियुग के 5053 वर्ष बीते हैं |
महायुग से सतयुग के अंत तक का समय = 1970784000 सौर वर्ष
यदि कल्प के आरम्भ से अब तक का समय जानना हो तो ऊपर सतयुग के अंत तक के सौर वर्षों में त्रेता के 1286000 सौरवर्ष, द्वापर के 864000 सौर वर्ष तथा कलियुग के 5053 वर्ष और जोड़ देने चाहिए |
बीते हुए ६ मन्वन्तरों के नाम हैं – (१) स्वायम्भुव (२) स्वारोचिष (३) औत्तमी (४) तामस (५) रैवत (६) चाक्षुष | वर्तमान मन्वंतर का नाम वैवस्वत है | वर्तमान कल्प को श्वेत कल्प कहते हैं, इसीलिए हमारे संकल्प में कहते हैं –
प्रवर्तमानस्याद्य ब्राह्मणों द्वितीय प्रहरार्धे श्री श्वेतवराहकल्पे वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशति तमे कलियुगे कलि प्रथम चरणे ……………बौद्धावतारे वर्तमानेस्मिन वर्तमान संवत्सरे अमुकनाम वत्सरे अमुकायने अमुक ऋतु अमुकमासे अमुक पक्षे अमुक तिथौ अमुकवासरे अमुकनक्षत्रे संयुक्त चन्द्रे …. ….. तिथौ ………
24/12/19, 12:11 pm – Vaidya Ashish Kumar: 🌹🌹🌹🌹💐💐
24/12/19, 12:17 pm – +91joined using this group’s invite link
24/12/19, 2:15 pm – +91 joined using this group’s invite link
24/12/19, 2:43 pm – +91 : अत्तीसुण्दर जानकारी
साधु साधु साधु
🙏🙏
24/12/19, 6:14 pm – +91 : 👌👌🙏
24/12/19, 6:35 pm – Abhinandan Sharma: फाइनली, कर्ण पर्व आज समाप्त हुआ और बहुत ज्ञान की और नयी नयी बातें ज्ञात हुई |
24/12/19, 6:40 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: शेयर कीजिये फिर कुछ
24/12/19, 6:44 pm – Abhinandan Sharma: 1. Dron was not killed by arjun
24/12/19, 6:45 pm – Abhinandan Sharma: 2. कर्ण की लंबाई करीब 8.81 फुट थी ।
24/12/19, 6:46 pm – Abhinandan Sharma: 3. युधिष्ठिर और अर्जुन में आपस में कलह हुई थी, जिसमें अर्जुन युधिष्ठिर का सिर काटने को उद्यत हो गए थे ।
24/12/19, 6:47 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: Then who killed ??
24/12/19, 6:49 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👌🏼में अभी भी अध्याय 12 पर ही हूँ 😊
24/12/19, 6:54 pm – Abhinandan Sharma: 4. युधिष्ठिरने अर्जुन को यहाँ तक कहा कि तुम माता कुंती के गर्भ में ही क्यों न मर गए ।
24/12/19, 6:55 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: युधिष्ठिर ने अर्जुन को या अर्जुन ने युधिष्ठिर को ??
24/12/19, 6:55 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: अश्वत्थामा अमर है क्या…??? किसी को जानकारी है
24/12/19, 7:05 pm – Abhinandan Sharma: 5. जब कृष्ण ने अर्जुन का तलवार वाला हाथ पकड़ लिया तो अर्जुन ने भी युधिष्ठर का अपमान किया और बोला कि तू मुझे कुछ भी कहने लायक नहीं है । युधिष्ठिर को जुआरी और भी बहुत कुछ कहा ।
24/12/19, 7:06 pm – Abhinandan Sharma: 6. द्रौपदी के 5 पति थे, इसके भी 2 बहुत स्पष्ट प्रमाण मिले ।
24/12/19, 7:07 pm – Abhinandan Sharma: 7. कर्ण की बहु प्रसिद्ध कथा कि अर्जुन का रथ 100 कोस पीछे जाता था और कर्ण का 10 कोस, वैसी कोई कथा नहीं मिली ।
24/12/19, 7:08 pm – Abhinandan Sharma: 8. भीम ने रौद्र रूप धरते हुए दुःशासन की भुजाएं उखाड़ कर्ज़ उन्हीं भुजाओं से उसे मारा।
24/12/19, 7:09 pm – Abhinandan Sharma: 9. अश्वत्थामा ने दुर्योधन को सन्धि के लिये समझाया किन्तु दुर्योधन ने मना कर दिया ।
24/12/19, 7:09 pm – Abhinandan Sharma: उपरोक्त मोटी मोटी बातें पता चलीं ।
24/12/19, 7:10 pm – Abhinandan Sharma: युधिष्ठिर ने अर्जुन को ।
24/12/19, 7:10 pm – Abhinandan Sharma: आप बताओ, आपको अभी तक क्या ज्ञात है ?
24/12/19, 7:10 pm – Abhinandan Sharma: अमर है ।
24/12/19, 7:11 pm – Deepak Sharma Treasurar, Alg left
24/12/19, 7:20 pm – Shastragyam Bhavsar Prakash Maliwal: This message was deleted
24/12/19, 7:22 pm – Shastragyam Bhavsar Prakash Maliwal: द्रोणाचार्य को ध्रुपद पुत्र धृष्टयद्युम्न ने मारा था
24/12/19, 7:57 pm – +91 : अमर हैं।
अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषणः।कृप परशुरामश्च सप्तैते चिरंजीविनः।सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यम् मार्कण्डेयमथाष्टकम्।जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्व व्याधि विवर्जितः।।
24/12/19, 8:28 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: रामायण बालकाण्ड – अष्टदश सर्ग श्लोक ४२,४३,४४,४५,४६
प्रत्युज्जगाम तं हृष्टो ब्रह्माणमिव वासवः। स दृष्ट्वा ज्वलितम् दीप्त्या तापसम् संशितव्रतम्॥४२॥
विश्वामित्र जी से मिलने उसी प्रकार गये जिस प्रकार ब्रह्माजी से मिलने इन्द्र जाते हैं। तेज से दैदीप्यमान, महातपस्वी, अति कड़े नियमों का पालन करने वाले और प्रसन्नमुख विश्वामित्र जी को खड़ा देख
प्रहृष्टवदनो राजा ततोऽर्घ्यं समुषाहरत्।स राज्ञः च प्रतिगृह्यार्ध्यं शास्त्रदृष्टेन कर्मणा॥४३॥
महाराज ने प्रसन्न हो शास्त्र विधि के अनुसार उनको अर्ध्य प्रदान किया। महाराज से अर्ध्य ले।
कुशलं चाव्ययं चैव पर्यपृच्छन्नराधिपम्। पुरे कोशे जनपदे बान्धवेषु सुहृत्सु च॥४४॥
विश्वामित्र जी ने महाराज से पुर, कोश, राज्य, कुटुम्भ और इष्टमित्रों की कुशल पूछीं।
कुशलं कौशिको राज्ञः पर्यपृच्छत्सुधार्मिकः।अपि ते सन्नताः सर्वे सामन्ता रिपवो जिताः॥४५॥
विश्वामित्र ने कुशल पूछते हुए अत्यन्त धार्मिक महाराज से पूछा— आपके समस्त सामन्त आपके आधीन रहते हैं? आपने अपने शत्रुओं को तो जीत कर अपने वश में कर रखा है?
दैवं च मानुषं चापि कर्म ते साध्वनुष्ठितम्। वासिष्ठं च समागम्य कुशलं मुनिपुङ्गवः॥४६॥
यज्ञादि देवकर्म, तथा अतिथियों का सत्कार आदि कर्म भलि भांति होते हैं? फिर विश्वामित्र जी ने मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठ जी से कुशल पूछीं।
24/12/19, 8:48 pm – Shastr Gyan Pranav Dvivedi Lucknow: ये सन्दर्भ रोचक लग रहा
24/12/19, 8:59 pm – Shastra Gyan Ranjana Prakash: पोस्ट के लिए धन्यवाद
24/12/19, 9:09 pm – Webinar Anish Kumar Gurgaon: Ye mujhe bhi pata tha.. He he
24/12/19, 9:34 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: जब द्रौपदी के पाँच पति थे तो युधिष्ठर ने कैसे दांव में अकेले बिना सबकी सहमति से लगा दिया ? ये तो न न्याय संगत है या धर्म संगत
24/12/19, 9:58 pm – Abhinandan Sharma: इतनी जल्दी क्या है, निष्कर्ष निकालने की। थोड़ा धैर्य रखकर पढ़ने का प्रयास तो कीजिये ! समस्या तो सारी यहीं स्व शुरू होती है कि हम पढ़ते पेज भर भी नहीं है पर थोड़ी सी बात पढ़कर या सुनकर जजमेंट सुना देते हैं। इस आदत को बदलने की आवश्यकता है।
24/12/19, 9:59 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: जी अवश्य, युधिष्ठिर को धर्मराज कहा जाता है, इसलिए ये प्रश्न मन मे उठा,
24/12/19, 10:00 pm – Abhinandan Sharma: तो कोई ऐसे ही तो नहीं कहा जाता होगा। महाभारत पढिये कि ऐसा करने के बाद भी न तो उसकी पत्नी ने उसे छोड़ा, न भाइयों ने तो फिर हम कैसे गलत कह सकते हैं, जब उन लोगों ने गलत नहीं कहा तो।
24/12/19, 10:01 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: This message was deleted
24/12/19, 10:03 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: Bheem objected there, but yudhishthir didn’t listen him.
24/12/19, 10:05 pm – Abhinandan Sharma: जी, मुझे पता है और भीम ने वहां प्रतिज्ञा भी की थी।
24/12/19, 10:05 pm – ~ Tarun left
24/12/19, 10:05 pm – Abhinandan Sharma: पर पूरी महाभारत पढिये, सब क्लियर हो जाएगा।
24/12/19, 10:05 pm – Abhinandan Sharma: अभी सिर्फ कर्ण पर् ही ध्यान दें 🙏
24/12/19, 10:05 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: 🙏🏻
24/12/19, 10:06 pm – Abhinandan Sharma: नयी बात जानें । बाकी जब पढ़ेंगे तब उनकी चर्चा भी करेंगे ।
24/12/19, 10:06 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: बहुत आभार आपका 🙏🏻❤
24/12/19, 10:21 pm – Kundali Ravindra अमरानिया Badauda, Gujarat: Maharaj Yudhishthir ka rath jamin se upar chalta tha, kya ye sahi he?
24/12/19, 10:37 pm – Abhinandan Sharma: हाँ, सुना तो मैंने भी यही है ।
24/12/19, 10:37 pm – Abhinandan Sharma: पर सुनी तो वो 10 कोस और 100 कोस वाली कथा भी थी, जो नहीं मिली ।
24/12/19, 10:39 pm – FB Mukesh Sinha Pathalgaon CG Shastra Gyan: ये शायद महाभारत के अंत में कृष्ण जी ने अर्जुन से कही थी
24/12/19, 10:40 pm – FB Mukesh Sinha Pathalgaon CG Shastra Gyan: जिसका पता अर्जुन को युद्ध के समय नही चला होगा
24/12/19, 10:41 pm – Abhinandan Sharma: अच्छा । हो सकता है, कर्ण पर्व में तो नहीं मिली ।
24/12/19, 10:42 pm – Kundali Ravindra अमरानिया Badauda, Gujarat: Four fingers above the ground, aisa suna tha.
24/12/19, 10:44 pm – FB Mukesh Sinha Pathalgaon CG Shastra Gyan: यूट्यूब वाली वीडियो का लिंक दूंगा जो सीरियल में था तो शायद कुछ क्लियर हो जाये
24/12/19, 10:44 pm – FB Mukesh Sinha Pathalgaon CG Shastra Gyan: Timeing को लेकर जो अभी नही मिल रहा है
24/12/19, 10:58 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: This message was deleted
24/12/19, 11:04 pm – FB Mukesh Sinha Pathalgaon CG Shastra Gyan: शायद कहा जाए तो वो जितने भी पात्र थे जो महामानव के रूप में थे वो सब शायद परग्रही हो और विशेष कार्य और वास्तुकला में महारत रखते थे जिनका ज्ञान बहुत ही उन्नत था।और उसे आगे बढ़ाने के लिए ही।पृथ्वी पर आये थे
24/12/19, 11:10 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: स्वतंत्र चर्चा के लिए शर्मा जी मना करते है, इसलिये डिलीट कर दिए थे। ये सच में बहुत चमत्कारी है, जब कोई प्राचीन मंदिर देखो तो सम्मोहन से होना लगता, उस समय की वास्तुकला का उदाहरण अपने आप मे बहुत जबरदस्त है।🙏🏻
24/12/19, 11:13 pm – FB Mukesh Sinha Pathalgaon CG Shastra Gyan: शर्माजी ने फारवर्ड।msg के लिए मना किया।है न कि शास्त्र और ज्ञान से सम्बंधित
25/12/19, 12:28 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: This message was deleted
25/12/19, 12:29 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
श्री मनुस्मृति
तृतीय अध्याय
वैश्यशूद्रावपि प्राप्तौ कुटुम्बेऽतिथिधर्मिणौ ।
भोजयेत्सह भृत्यैस्तावानृशंस्यं प्रयोजयन् । । ३.११२[१०२ं] । ।
इतरानपि सख्यादीन्सम्प्रीत्या गृहं आगतान् ।
प्रकृत्यान्नं यथाशक्ति भोजयेत्सह भार्यया । । ३.११३[१०३ं] । ।
सुवासिनीः कुमारीश्च रोगिणो गर्भिणीः स्त्रियः ।
अतिथिभ्योऽग्र एवैतान्भोजयेदविचारयन् । । ३.११४[१०४ं] । ।
अर्थ
गृहस्थ ब्राह्मण के घर अगर वैश्य या शूद्र भी अतिथि के रूप में आ जाये तो उन्हें भी नौकरों के साथ खिला देना चाहिए ।
और भी मित्र सम्बंधी आदि प्रेम के साथ अपने घर यदि आ जाये तो स्त्री के साथ उन्हें भी अच्छा भोजन देना चाहिए,।
नवीन विवाह वाली कन्या,रोगी और गर्भवती इनको अतिथि के पहले ही बिना विचार किये खिला देना चाहिए
हरी ॐ
25/12/19, 12:39 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
श्री मनुस्मृति
तृतीय अध्याय
अदत्त्वा तु य एतेभ्यः पूर्वं भुङ्क्तेऽविचक्षणः ।
स भुञ्जानो न जानाति श्वगृध्रैर्जग्धिं आत्मनः । । ३.११५[१०५ं] । ।
भुक्तवत्स्वथ विप्रेषु स्वेषु भृत्येषु चैव हि ।
भुञ्जीयातां ततः पश्चादवशिष्टं तु दम्पती । । ३.११६[१०६ं] । ।
देवानृषीन्मनुष्यांश्च पितॄन्गृह्याश्च देवताः ।
पूजयित्वा ततः पश्चाद्गृहस्थः शेषभुग्भवेत् । । ३.११७[१०७ं] । ।
अघं स केवलं भुङ्क्ते यः पचत्यात्मकारणात् ।
यज्ञशिष्टाशनं ह्येतत्सतां अन्नं विधीयते । । ३.११८[१०८ं] । ।
अर्थ
इस प्रकार सबको भोजन दिए बिना जो पहले आप ही खा लेता है मरने पर उसके मांस को कुत्ते व गिद्ध खाते हैं।
ब्राह्मण,अतिथि व सम्बंधी आदि को खिलाकर पीछे बचा हुआ अन्न आप व स्त्री खाएं।
देवता,ऋषि,मनुष्य,पितर व घर के पूज्य देवताओं का पूजन करके शेष अन्न गृहस्थ को खाना चाहिए।
जो अपने लिए ही भोजन तैयार करता है वह केवल पाप को ही खाता है।क्योंकि उत्तम पुरुषों को पञ्च महायज्ञ से बचे अन्न का ही भोजन ही फलदायक होता है।।
हरी ॐ
25/12/19, 3:15 am – +91 : वैश्य अथवा शुद्र को नौकरों के साथ ही क्यों खिलाना चाहिए?
25/12/19, 8:09 am – Abhinandan Sharma: 🙏 धन्यवाद ।
25/12/19, 8:17 am – Abhinandan Sharma: स्वतन्त्र चर्चा, मतलब यहां चल रही पोस्ट से भिन्न प्रश्न न पूछा जाए । इसके लिये मना किया है क्योंकि बहुधा चर्चा लम्बी हो जाती है और अन्य सदस्यों को भी वो चर्चा पसन्द आये, जरूरी नहीं । बहुधा ऐसी स्वतन्त्र चर्चा के बाद एक या दो लोग ग्रुप से निकल जाते हैं, ऐसा देखा गया है। अतः जो पोस्ट आये, मात्र उस पर ही चर्चा करें ।
25/12/19, 8:23 am – Abhinandan Sharma: भाई, उस समय के नौकर को आज जैसा ट्रीटमेंट देने वाला न समझें । यहां जो मुख्य बात कही गई है कि कोई भी आये तो भोजन अवश्य कराया जाना चाहिए । यही भाव मुख्य है और इसी को ग्रहण करें । पुराने जमाने में वैश्य और शूद्र, दोनों सेवक ही माने जाते थे (पौराणिक काल अथवा वैदिक काल में) इन दोनों का ही सामाजिक स्तर ब्राह्मणों के बराबर का नहीं था अतः उन्हें सेवकों के साथ ही खिलाने को कहा है । किसी भी श्लोक में मुख्य बात पे गौर करना चाहिए और गौण को छोड़ देना चाहिये, जैसे आज के समय में हो सकता है, शूद्र का सामाजिक स्तर, ब्राह्मण से भी ऊंचा हो तो जाहिर है, उसे सेवकों के साथ नहीं खिलाया जा सकता किन्तु क्योंकि ये गौण बात है अतः इसे छोड़ा जा सकता है किंतु मुख्य बात कि उसे भोजन अवश्य करायें, इसे न त्यागें क्योंकि मुख्य बात यही है ।
…….सार सार को गही लये, थोथा देय उडाय ।
25/12/19, 8:25 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👌🏼👌🏼
25/12/19, 8:26 am – LE Ravi Parik : Too many messages and books , I m not able to follow.. any solution?
25/12/19, 8:40 am – Abhinandan Sharma: हम कोशिश कर रहे हैं कि स्वतन्त्र चर्चा इस ग्रुप पर न हो । बहुत सी किताबों के संदर्भ में कह सकते हैं कि पढिये सब, पर जो अच्छा लगे, उसके नोट्स बानाइये । पढ़कर तो सब भूल ही जायेंगे जैसे ज्योतिष । अतः नोट्स आवश्यक हैं बाकी पढ़ते रहें, जहां दुविधा हो वहां चर्चा कर लें 🙏
25/12/19, 8:51 am – Abhinandan Sharma: तर्कशास्त्र के बेसिक्स और समझने वाली बातें, जो उपरोक्त पोस्ट में आई हैं, उनके सहज मूलरूप को कहता हूँ। महत्वपूर्ण बातों को नोट कर सकते हैं।
25/12/19, 8:51 am – Abhinandan Sharma:
25/12/19, 9:00 am – Abhinandan Sharma:
25/12/19, 9:05 am – Abhinandan Sharma:
25/12/19, 9:08 am – Abhinandan Sharma:
25/12/19, 9:11 am – Abhinandan Sharma:
25/12/19, 9:18 am – Abhinandan Sharma:
25/12/19, 9:23 am – Abhinandan Sharma:
25/12/19, 9:35 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: आंख वायु तत्व से और त्वचा तेज तत्व से?
25/12/19, 9:38 am – Abhinandan Sharma: नहीं, उल्टा ।
25/12/19, 9:39 am – Abhinandan Sharma: शायद मैंने उल्टा बोल दिया है, आंख तेज से और त्वचा वायु तत्व से बनी है।
25/12/19, 9:39 am – Abhinandan Sharma: जब ये सारे सुन लेंगे फिर आत्मा, इन्द्रिय और मन के सम्बंध की बात करेंगे।
25/12/19, 9:46 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👌👌वाह, आपने तो crash course करवा दिया । वो भी आसानी से समझ आने वाला।
25/12/19, 9:46 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: मैंने तो पूरा सुन लिया 🙂
25/12/19, 1:14 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: Delete it now , otherwise admin may remove you.
25/12/19, 1:15 pm – +91 : I m exiting
25/12/19, 1:15 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: 👍🏻
25/12/19, 3:15 pm – Abhinandan Sharma: फ़ॉरवर्ड करने की आदत इतनी आवश्यक है कि लोग ऐसे usefull ग्रुप को भी छोड़ जाते हैं।
25/12/19, 3:22 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: मुझे एक बात समझ नही आती, दुनिया भर के ग्रुप है, वहाँ भेज दो फ़ॉर्वर्डेड, लेकिन ऐसा पता नही क्या है , यही भेजना चाहते है।😌
25/12/19, 3:27 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: 👆🏻 और हर msg के बाद एक एक कर के तपस्वी परम् महाज्ञानी लोग जो निकल जाते है, इनका भी कुछ समझ नही आता, हर चीज सभी के लिए प्रासंगिक हो जरूरी तो नही है, सिम्पली msg इग्नोर करके आगे बढ़ो।🙏🏻
अब प्लीज कोई लेफ्ट मत करना
🙏🏻
25/12/19, 3:38 pm – +91 : अभिनंदन सर आपने कहा कोई कुछ पूछे तो उसके जवाब में पूरी किताब पढ़ने को नही बोलना चाहिए मेरा मानना है वाल्मीकि रामायण व महाभारत ग्रन्थ तो सभी हिन्दू को अनिवार्य रूप से पढ़ लेना चाहिए हिंदी में ही सही प्रश्न उत्तर और बहस गूढ़ विषयो पर होने चाहिए रामायण और महाभारत के परिप्रेक्ष्य में तो अवश्य ही हम सभी काम करने वाले हैं हम अपने ग्रन्थ लेकर घूम नही रहे न ही सब कुछ कंठस्थ है पेज पैरा श्लोक नम्बर आदि डिटेल्स के साथ और अगर मैं किसी को वाल्मीकि रामायण पढ़ने को बोल रहा हूँ तो कहाँ से गलत है ।
25/12/19, 4:17 pm – LE Onkar :
25/12/19, 4:27 pm – Abhinandan Sharma: 😄😄
25/12/19, 4:28 pm – Abhinandan Sharma: यही तो इस ग्रुप की उपयोगिता है कि यहाँ हम मूल ग्रंथों को पढ़ते हैं | रामायण और महाभारत सभी को पढने चाहिए पर पढता तो कोई नहीं | इसीलिए तो भ्रम फैलते हैं |
25/12/19, 4:29 pm – Abhinandan Sharma: वाह, बहुत बढ़िया | 👏👏
25/12/19, 4:49 pm – Webinar Anish Kumar Gurgaon: Ye dhaniya hai sir?
25/12/19, 4:51 pm – Shastragyam Bhavsar Prakash Maliwal: जितनी भी बार पढ़ो, कुछ न कुछ नया मिलता ही है ।
एक बार में सब समझ में आ जाये, ऐसे बहुत ही कम लोग होंगे 🙏🏻🙏🏻😊
25/12/19, 4:52 pm – : Ok ji
25/12/19, 5:11 pm – : नहीं, धनिया के पत्ते जैसा अवश्य है लेकिन धनिया नहीं ,धनिया के पत्ते के नीचे ओर डण्डी अत्यधिक हरी और मजबूत रहती है…. नीचे का कुछ भाग जो जड़ रहता है वह काला रहता है ।
यह धनिया नहीं है ।
हाँ, पत्ती की सादृश्यता है ।
25/12/19, 5:25 pm – Webinar Anish Kumar Gurgaon: Sir naam kya hai and what is the uae
25/12/19, 5:39 pm – +91 : अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक १००,
पत्तूरो दीपनस्तिक्तः प्लीहार्शः कफवातजित्। कृमिकासकफोत्क्लेदान् कासमर्दो जयेत्सरः॥१००॥
पत्तूर(मछेछी) का शाक- यह अग्निदीपक, स्वाद मे तिक्त, कफ तथा वात दोष का नाशक है। यह प्लीहाविकार तथा अर्शोरोग को शान्त करता है।
इसको मिश्री के साथ मिश्रित करके खाने पर नेत्र- ज्योति वर्धन होता है , ऐसी लोक मान्यता है।
समूह में कभी चर्चा हुई थी इस पर उसी का संपेक्ष ।
25/12/19, 5:42 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ,👆🙏
25/12/19, 5:44 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-६ श्लोक १०५,१०६
वातश्लेष्महरम् शुष्कं सर्वं आम् तु दोषलम्। कटूष्णो वातकफहा पिण्डालुः पित्तवर्धनः॥१०५॥
सूखी मूली का शाक- सुखायी गयी सभी प्रकार की मूलियां वात एवं कफ नाशक होती है।
कच्ची मूली का शाक- सभी प्रकार की कच्ची मूलियां वात आदि दोषकारक होती है।
पिण्डालु नामक कन्द का शाक- यह कुछ कटु, उष्णवीर्य तथा पित्त को बढ़ाने वाला है।
वक्तव्य- सुश्रुत ने पिण्डालु का जो वर्णन किया है, वह उक्त वाग्भटोक्त गुणधर्मों के विपरीत है। देंखें— पिण्डालुकम् कफकरं गुरूवातप्रकोपणम् (सु.सू.४६/३०४)
आयुर्वेद मे आलुक नाम से अनेक कन्दों का ग्रहण होता है। जैसे- १. काष्ठालुक(कठालू), २. शंखालुक— यह सफेदी लिए होता है, ऐसा लगता है कि बाजार में बिकने वाला यही शंखालु ही आलू है। ३. हत्स्यालुक— बड़े से बड़े आकार का आलू, इसके दर्शन प्रदर्शनीयों मे किये जा सकते हैं। ४. पिण्डालुक— हमारी मान्यता के अनुसार यह वही है जिसका विवेचन हमने इसी प्रकरण में आगे किया है। जो इसे सुथनी मानते हैं, उन्हें इसका समावेश मध्वालुक मे अथवा रक्तालुक मे करना चाहिए क्योंकि यह लाल तथा सफेद भेद से दो प्रकार का पाया जाता है। ५. मध्वालुक- यह आकृति से दो प्रकार का होता है। छोटा तथा बड़ा। इनमें छोटा छीलने पर भीतर से सफेद तथा बड़ा छीलने पर रक्ताभ होता है। हिन्दी में इन्हे छोटी सुथनी तथा बड़ी सुथनी कहते है। ६.रक्तालुक- यह भी वर्णभेद से दो प्रकार का होता है। जंगली सफेद तथा घर में लगाया लाल रंग का। जंगली अधिक से अधिक १ या २ इंच गोलाई में मोटा, घरेलू ५ या६ इंच मोटा या इससे भी अधिक। इसे तरूड़ या रतालू भी कहते हैं। इन्ही कन्दो में एक शकरकंद भी है।यह शक्कर की भांति खाने में मीठा होता है । अतः इसे शकरकंद कहते है।
नैनीताल तथा अल्मोड़ा आदि जिलों में पिण्डालु नाम का एक कन्द मिलता है, जिसका शाक क्षेत्रिय लोगों को अतिप्रिय है। वहां इसकी खेती भी होती है। मैदानी स्थानों में इसे अरुई या घुइयां कहते है। ये पिण्डालु या पिनालु के उपकन्द है। पिण्डालू के जिस मूल अवयव को यहां बण्डा कहा जाता है, उसे पर्वतीय क्षेत्रों में गडेरी कहते है। हमारे विचार से सुश्रुत ने जिस पिण्डालु के गुण धर्मो का वर्णन किया है, वह यही पिण्डालु कन्द है।
कुठेरशिग्रुसुरससुमुखासुरिभूस्तृणम्। फणिज्जार्जकजम्बीरप्रभृति ग्राहि शालनम्॥१०६॥
विदाहि कटु रुक्षोष्णं हद्यं दीपनरोचनं। दृकशुक्रकृमिहृत्तीक्ष्णं दोषोत्क्लेशकरं लघु॥१०७॥
कुठेरक आदि शाक- कुठेरक (वनतुलसी- बवई), शिग्रु (सहजन की फली), सुरस (काली तुलसी), सुमुखा (तुलसीभेद), आसुरि (राई के पत्ते), भूस्तृण, फणिज्झक, अर्जक, जम्बीर आदि के पत्तो के शाक ग्राही (मल को बांधने वाले) तथा उत्तम होते है। यह विदाहकारी, स्वाद मे कटु, रूक्ष, उष्णवीर्य, हृदय के लिए हितकारी, जठराग्नि को प्रदिप्त करने वाले तथा रुचिकारक होते है। ये दृष्टिनाशक, शुक्र तथा क्रिमि नाशक होते है। ये गुणों में तीक्ष्ण, वात आदि दोषों को उभाड़ने वाले तथा पाचन में लघु होते हैं।
वक्तव्य- “फणिज्जार्जकजम्बीरप्रभृति” इस ‘प्रभृति शब्द से अष्टाङ्गसंग्रह अध्याय ७ मे कहे गये धान्य— तुम्बुर, शैलेय, यवानी, श्रृंगवेर, पर्णाश, गृंजन, अजाजी, कण्डीर, जलपिप्पली, खराश्वा, कालमालिका, दीप्यक, क्षवकृत, द्वीपि और वस्तगधां का ग्रहण कर लेना चाहिए। अष्टाङ्गहृदय मे उक्त द्रव्यो को ‘हरितकवर्ण’ मे गिना है।
25/12/19, 5:44 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: मेरे बाबा ने अपने गांव के एक मुहल्ले के निवासियों की विशेषता बतायी थी कि “खाय मछेछी, रगड़ै गोड़!” (मछेछी खाते हैं और पैर रगड़ते हुए चलते हैं).
मेरे द्वारा मछेछी के बारे में जिज्ञासा प्रकट करने पर बताया था कि यह एक प्रकार की घास है जो तालाब के सूखे हुए भाग में उगती थी।
अब यह प्राप्य है या नहीं बुजुर्ग ग्रामीणों से पता करने का प्रयास करूँगा।
25/12/19, 5:44 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: मछेछी= मत्यसाक्षी
लोक प्रचलित मान्यता के अनुसार इसको पीस कर मिश्री के साथ सेवन करने से नेत्र- ज्योति का वर्धन होता है ।
25/12/19, 5:44 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: मछेछी की खोज में, पहचानने वाले के साथ तालाब में ढूंढ़ा किन्तु अभी नहीं उगी है।
उसने बताया कि यह कार्तिक के महीने में बहुतायत से पायी जाती है।
25/12/19, 5:44 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: मत्स्याक्षी का सेवन करके महिलाएँ मीनाक्षी हो सकती हैं।
25/12/19, 5:45 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: जो बाद में शामिल हुए है उनके लिए अगस्त माह में आये मछेछी के संदर्भ
25/12/19, 8:24 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: जहाँ तक मुझे जानकारी है नेत्र ज्योति का वर्धन नही होता, अगर किसी औषधि से विज़न बढ़ता हो तो, अवश्य बताये जो आसानी से उपलब्ध भी हो सके 🙏🏻
25/12/19, 8:28 pm – +91 : Vaah 👌👌👌
25/12/19, 9:08 pm – LE Ravi Parik : ये मिलती कहा हैं
25/12/19, 9:26 pm – Webinar Anish Kumar Gurgaon: Waah sir thank you.. Mein bhi laagauga kabhi sir.. Flats mein rehne wale logo ke liye mushkil hai.. Gurgaon mein to uff
25/12/19, 9:30 pm – Webinar Anish Kumar Gurgaon: Sir ye jo bajaar mein muli milti hai usko sukha ke kha lo bas..?? Cough nashak hoga jee??.. Or kachi muli nahi khani chaiye??
25/12/19, 9:31 pm – Webinar Anish Kumar Gurgaon: Dhanyvaad sir bt bada durlabh lag ra iaka milna gurugram mwin
25/12/19, 10:22 pm – Abhinandan Sharma: ग्रुप में महाभारत क्यों नहीं आ रही भाई ।
25/12/19, 11:41 pm – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur: बहुत-बहुत धन्यवाद अभिनंदन जी जो इतनी मेहनत करके हम सबके लिए तर्कशास्त्र को समझने में हमारी मदद की
आगे भी आप से यही अपेक्षा रहेगी कि इसी प्रकार आप कठिन विषयों पर हमारा मार्गदर्शन आसानी से समझने वाली भाषा में करते रहेंगे
🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
26/12/19, 12:22 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: वाह,
अलंकार जी के लिए है,उनका दिया ज्ञान था ये🙏
26/12/19, 12:28 am – FB Rahul Gupta Kanpur: 🌟 जी नहीं, 🙏🏻 अश्वत्थामा की मृत्यु से शोक में डूबे द्रोणाचार्य आकाशवाणी की प्रेरणा से शस्त्र रखकर युद्धभूमि में ही समाधिस्थ हो गए थे तथा उसे अवस्था में उन्होंने स्वयं अपना प्राण अपनी देह से विलग कर लिया था।
धृष्टद्युम्न ने उनकी निष्प्राण देह का ही शीश काटा था। 🌏
26/12/19, 6:22 am – Abhinandan Sharma: उन्होंने अपना प्राण, अपनी देह से अलग कर लिया था, क्या इसका सन्दर्भ है आपके पास महोदय, महाभारत से ?
26/12/19, 7:33 am – ABKG Reader Vikas Kr Dubey Bhadohi UP: 11 को भेजना था तो 256 को क्यो भेज दिये?? एक ही बात को कितनी बार कोई समझाए?
26/12/19, 8:05 am – Shastra Gyan Maniah Patiala: द्रोण पर्व में है। आचार्य द्रोण के वध
इधर आचार्य शस्त्र त्यागकर परमज्ञानस्वरूपमें स्थित हो गये और योगधारणाके द्वारा मन-ही-मन पुराणपुरुष विष्णुका ध्यान करने लगे। उन्होंने मुँहको कुछ ऊपर उठाया और सीनेको आगेकी ओर तानकर स्थिर किया, फिर विशुद्ध सत्त्वमें स्थित हो हृदयकमलमें एकाक्षर ब्रह्म—प्रवणकी धारणा करके देवदेवेश्वर अविनाशी परमात्माका चिन्तन किया। इसके बाद शरीर त्यागकर वे उस उत्तम गतिको प्राप्त हुए, जो बड़े-बड़े संतोंके लिये भी दुर्लभ है। जब वे सूर्यके समान तेजस्वी स्वरूपसे ऊर्ध्वलोकको जा रहे थे, उस समय सारा आकाशमण्डल दिव्य ज्योतिसे आलोकित हो उठा था। इस प्रकार आचार्य ब्रह्मलोक चले गये और धृष्टद्युम्न मोहग्रस्त होकर वहाँ चुपचाप खड़ा था। महाराज! योगयुक्त महात्मा द्रोणाचार्य जिस समय परमधामको जा रहे थे, उस समय मनुष्योंमेंसे केवल मैं, कृपाचार्य, श्रीकृष्ण, अर्जुन और युधिष्ठिर—ये ही पाँच उनका दर्शन कर सके थे। और किसीको उनकी महिमाका ज्ञान न हो सका।
26/12/19, 8:07 am – Shastra Gyan Maniah Patiala: धृष्टद्युम्नको यह एक मौका हाथ लगा। उसने धनुष और बाण तो रख दिया और तलवार हाथमें ले ली। फिर कूदकर वह सहसा द्रोणके निकट पहुँच गया। द्रोणाचार्य तो योगनिष्ठ थे और मस्तक काट लिया और बड़ी उमंगमें भरकर उस कटारको घुमाता हुआ सिंहनाद करने लगा। आचार्यके शरीरका रंग साँवला था, उनकी आयु पचासी वर्षकी हो चुकी थी, ऊपरसे लेकर कानतकके बाल सफेद हो गये थे; तो भी आपके हितके लिये वे संग्राममें सोलह वर्षकी उम्रवाले तरुणकी भाँति विचरते थे।
26/12/19, 8:42 am – FB Jaydeep Purohit Rajkot Shastra Gyan: ।।पंचतंत्र।।
प्रथम तन्त्र
मित्रभेद (मित्रों के बीच में फूट डालने के उपाय)
कथा क्रम : दो
अश्व: शस्त्रं शास्त्रं वीणा वाणी नरश्च नारी च ।
पुरुषविशेषं प्राप्ता भवन्त्ययोग्याश्च योग्याश्च ।।
सत्य तो यह है कि निम्नोक्त सातो की मानसिकता अपने स्वामी के व्यवहार पर निर्भर करती है। स्वामी इन्हें जिस रूप मे ढालना चाहते है, ये वैसा ही आचरण करने लगते है।
१. घोड़ा, शस्त्र, शास्त्र, विणा , वाणी ,नर ,और नारी- ये सब जिस प्रकार के पुरुष के साथ रहते हैं, उसी के अनुसार अपने आप को ढाल लेते हैं।
कहने का अभिप्राय यह है कि आपके परिजनों का डर उनका अपना नहीं है, वे तो आपको भयभीत देखकर ही डर रहे हैं।
स्वाम्यादेशात्सुभृत्यस्य न भीः सञ्जायते क्वचित्
प्रविशेन्मुखमाहेयं दुस्तरं वा महार्णवम् ।।
आप मुजे थोड़ा-सा समय दीजिये। मै इस भयंकर शब्द की जानकारी लेकर आता हूं, तब तक आप मेरी प्रतीक्षा करे। उसके बाद ही आप जो उचित समजे, वह करे।
पिंगलक ने पूछा- क्या तुम हमारे लिए स्वयं को खतरे मे डालोगे?
दमनक ने उत्तर दिया- महाराज!स्वामी के लिए कुछ भी करना सेवक का धर्म है। यही कहा गया है कि स्वामी का कार्य करते समय सेवक को सुरक्षा – असुरक्षा का विचार नही करना चाहिए।
स्वामी के लाभ के लिए तो उसे अजगर वं सांप के मुंह मे हाथ डालने और अथाह सागर मे डूबने के लिए भी सदा तैयार रहना चाहिए।
स्वाम्यादिष्टस्तु यो भृत्यः समं विषममेव च ।
मन्यते न स सन्धार्यो भूभुजा भूतिमिच्छता ।।
अपनी समृद्धि मे वृद्धि के इच्छुक राजा को अपनी आज्ञा की चिंता करने वाले सेवक को तुरंत सेवा से निकाल देना चाहिए।
इस पर पिंगलक बोला- तब ठीक है, तुम जाओ, ईश्वर तुम्हारी सहायता करे।
इस पर पिंगलक को प्रणाम निवेदन कर दमनक आवाज का पीछा करता हुआ सज्जाविक ओर चल दिया।
अब पिंगलक यह सोचने लगा कि कही दमनक को अपने मन का रहस्य बताकर मैंने कोई गलती तो नही की, कही यह मुझसे अपने को पद से हटाए जाने का बदला तो नही लेगा?
ये भवन्ति महीपस्य सम्मानितविमानिताः ।
यतन्ते तस्य नाशाय कुलीना अपि सर्वदा ।।
पद से हटाए गये व्यक्ति कुलीन होने पर भी राजा के विनाश का अवसर मिलने पर बदला लेने से नही चूकते।
पिंगलक सोच मे पड़ गया कि यदि दमनक मुजे मारने के लिए उस भयंकर प्राणी को अपने साथ लेकर यहा आ गया, तो मुझे तुरंत ही किसी सुरक्षित स्थान पर चले जाना चाहिये?
नीतिकारो ने भी कहा है-
न वध्यन्ते ह्यविश्वस्ता बलिभिर्दुर्बला अपि ।
विश्वस्तास्त्वेव वध्यन्ते बलवन्तोऽपि दुर्बलैः ।।
कि दूसरों पर विश्वास न करने वाले दुर्बल व्यक्ति भी बलवान शत्रु का शिकार होने से बच जाते है, जबकि दुसरो पर विश्वास करने वाले बलवान व्यक्ति भी सहज ही अपने शत्रु का शिकार बन जाते है।
26/12/19, 8:46 am – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: सूर्य ग्रहण
Kuch boliya aap sir
26/12/19, 9:10 am – +91 : इसका प्रथम श्लोक, क्या शास्त्र को भी अपने अनुरूप ढाला जा सकता है?
26/12/19, 8:59 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi removed +91 94507 15575
26/12/19, 9:22 am – Shastr Gyan Rajrishi Kumar Bihar: ये एक तरह से ऐसा ही है कि अर्थ का अनर्थ पढ़ने वाला निकालने लगे श्लोक का।
शास्त्र को पढ़कर अपने अनुसार अर्थ गढ़ ले……
क्योंकि शास्त्र कक बहुत बातें गूढ़ और प्रतीकात्मक होती है।
26/12/19, 9:59 am – Abhinandan Sharma: धन्यवाद । यही फर्क है, जब आपने स्वयं पढा होता है तो आप स्पष्ट होते हैं । ऐसा सुना है, किसी ने बताया था, फलाने बाबा ने कहा था, जैसी बातें नहीं होती हैं । देखिये, सीधा और स्पष्ट उद्धरण ।
26/12/19, 10:50 am – +91 : 🙏
26/12/19, 11:08 am – Aniket Gupta Gorakhpur Shastra Gyan: सूर्य ग्रहण
Sir time kya hai ग्रहण ka
26/12/19, 11:14 am – +91 : 🤣🤣🤣🤣🤣🤣
26/12/19, 11:42 am – Ashu Bhaiya: समाप्त हो चुका है अब तो पौने घंटे पहले…….अब आनंद कीजिये 😀
26/12/19, 11:44 am – Kubdali LE : Kuch log 1.36 pm tak bata rahe hai 🙏🏻
26/12/19, 11:45 am – Ashu Bhaiya: ग्रहण नहीं सूतक
26/12/19, 11:45 am – Kubdali LE : Ji dhanyawad 🙏🏻
26/12/19, 12:45 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: अर्थात (१) विषय के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध होता है।
(२) इन्द्रिय के साथ मन का सम्बन्ध होता है।
(३) मन के साथ आत्मा का सम्बन्ध होता है। तब जाकर प्रत्यक्ष ज्ञान की उपलब्ध होती है।
नोट-इन्द्रियों का जो व्यवसाय है ( विषय का साक्षात्कार ), मन का भी वही व्यवसाय है। अतएव मन को आभ्यन्तरिक ( भीतरी) इन्द्रिय कहा जाता है। किन्तु तथापि मन और इन्द्रिय में निम्नलिखित भेद हैं .
(१) इन्द्रियों पंचभूतों से बनी है । मन भौतिक ( Immaterial ) है
(२) इन्द्रियों के विषय नियत है । ( जैसे, नेत्र का विषय है रूप, कान का शब्द इत्यादि ) किन्तु मन सर्वविषयक होता है।
(३) इन्द्रियाँ अनेक है। मन एक ही है। मन की एकता का यह प्रमाण दिया गया है कि एक ही क्षण में हम एक से अधिक प्रत्यक्ष ज्ञान का अनुभव नहीं कर सकते। आपाततः ऐसा जान पड़ता है कि एक ही समय में हम देख और सुन दोनों सकते हैं। किन्तु यथार्थतः ऐसी बात नहीं । जिस क्षण में हम देखते हैं उसी क्षण में सुनते नहीं, जिस क्षण में सुनते हैं उस क्षण में देखते नहीं। किन्तु दोनों में समय का इतना सूक्ष्म अन्तर रहता है कि पौर्वापर्य ( Succession) के बदले यौगपद्य (Simultaneity) जान पड़ता है। जैसे, सुई से किताब में छेद करने पर जान पडता है कि एक साथ ही सभी पृष्ठों में छेद हो गया। किन्तु बात ऐसी नहीं एक पृष्ठ के बाद ही दूसरे में छेद होता है।
26/12/19, 10:27 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-८ श्लोक ५३,५४,५५
नोर्ध्वजत्रुगदश्वासकासोरःक्षतपीनसे। गीताभाष्यप्रसङ्गे च स्वरभेदे च तद्धितम्॥५३॥
१.अनुपान का निषेध- जत्रु (ग्रीवास्थी या हंसुली) के ऊपरी भाग में होने वाले रोगों ( मुख, कर्ण, नेत्र तथा शिर के रोगों) में श्वास, कास, उरःक्षत, पीनस (नासारोग) में गाने, भाषण आदि में तथा स्वरभेद में अनुपान(पेय पदार्थ) हितकर नहीं होते है।
प्रक्लिन्नदेहमेहाक्षिगलरोगव्रणातुराः। पानं त्यजेयुः सर्वश्च भाष्याध्वशयनं त्यजेत्॥५४॥
पीत्वा भुक्त्वाऽऽतपं वह्निं यानं प्लवनवाहनम्।
२.अनुपान का निषेध- जिनके शरीर में क्लिन्नता (कहीं भी सड़न या गलन) हो, जो प्रमेहरोग, नेत्ररोग, गलेरोग तथा व्रणरोग से पीड़ित हो, ये भी उक्त अनुपानों का सेवन न करें।
३. अनुपान का निषेध- सभी स्वस्थ अथवा रोगी अनुपान (पेय पदार्थ) का सेवन करके भाषण, रास्ता चलना तथा दिन में सोना छोड़ दें। खाना खाकर एवं पानी पीकर धूप सेंकना, आग सेंकना, यान (सवारी द्वारा यात्रा करना), कूदना-फांदना तथा घोड़े की सवारी न करें।
वक्तव्य- चरक ने (सूत्रस्थान २७/३२७-३२८) में उक्त विषय का इस प्रकार वर्णन किया है— भोजन के बाद पिया हुआ जल कण्ठ तथा उरःप्रदेश में स्थित आहार के स्नेह को नहीं रोक कर उसके न पचने से दोष को बढ़ाने में समर्थ हो जाता है। यहां ‘हत्वा’ का अर्थ प्राप्त होकर यह भी हो सकता है, किन्तु ‘हन धातु’ का अर्थ हिंसा और गति भी है। अर्थात अनुपान के रूप में पिया गया जल आहार के स्नेह को प्राप्त होकर तथा आमाशय को दूषित कर दोष को बढ़ा देता है। इस सन्दर्भ में सु.सू.४६ का अनुपानवर्ग भी देखें।
प्रसृष्टे विण्मूत्रे हृदि सुविमले दोषे स्वपचगे विशुद्धे चोद्गारे क्षुदुपगमने वातेऽनुसरति। तथाऽग्नावुद्रिक्ते विशदकरणे देहे च सुलघौ प्रत्युञ्जीताहारं विधिनियमितं, कालः स हि मतः॥५५॥
भोजन समय का निर्देश- मल-मूत्र के भलि-भांति निकल जाने पर , हृदय के शुद्ध अतएव विमल हो जाने पर, वात आदि दोषों के अपने अपने मार्ग की ओर प्रवृत्त हों जाने पर, शुद्ध (दोषरहित) डकार के आने पर, भूख के लगने पर, अपानवायु के अनुकूल ढंग से निकलने पर, जठराग्नि के प्रदीप्त हो जाने पर, इन्द्रियों के निर्मल हो जाने पर तथा शरीर के हल्का हो जाने पर विधिपूर्वक आहार (भोजन) करें। यहि आहार करने का उचित समय है।
वक्तव्य- इसी अध्याय के ३५वें श्लोक में “काले सात्म्यं शुचि हितं” का यह उत्तर है। ऐसे समय में किया गया भोजन सम्पूर्ण इन्द्रियों सहित शरीर को तृप्त कर देता है। इस समय किये गये भोजन से जठराग्नि प्रदीप्त हो जाती है, लोभ आदि कारणों से इसके आगे-पीछे किया गया भोजन हानिकारक होता है। इस विषय में महर्षि पुनर्वसु के उपदेशों पर ध्यान दें। देखें— च.सू. २७/३४५ से ३५० तक।
इति श्रीवैद्यपतिसिंहगुप्तसूनुश्रीमद्वाग्भटविरचितायामष्टाङ्गहृदयसंहितायां प्रथम सूत्रस्थाने मात्राशितीयो नामष्टमोध्यायः॥
27/12/19, 6:52 am – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: 🙏🙏🙏
27/12/19, 7:57 am – Dinesh Arora Gurgaon Shastra Gyan: 🤣🤣
27/12/19, 11:22 am – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
श्री मनुस्मृति
तृतीय अध्याय
राजर्त्विक्स्नातकगुरून्प्रियश्वशुरमातुलान् ।
अर्हयेन्मधुपर्केण परिसंवत्सरात्पुनः । । ३.११९[१०९ं] । ।
राजा च श्रोत्रियश्चैव यज्ञकर्मण्युपस्थितौ ।
मधुपर्केण संपूज्यौ न त्वयज्ञ इति स्थितिः । । ३.१२०[११०ं] । ।
सायं त्वन्नस्य सिद्धस्य पत्न्यमन्त्रं बलिं हरेत् ।
वैश्वदेवं हि नामैतत्सायं प्रातर्विधीयते । । ३.१२१[१११ं] । ।
पितृयज्ञं तु निर्वर्त्य विप्रश्चन्द्रक्षयेऽग्निमान् ।
पिण्डान्वाहार्यकं श्राद्धं कुर्यान्मासानुमासिकम् । । ३.१२२[११२ं] । ।
पितॄणां मासिकं श्राद्धं अन्वाहार्यं विदुर्बुधाः ।
तच्चामिषेणा कर्तव्यं प्रशस्तेन प्रयत्नतः । । ३.१२३[११३ं] । ।
तत्र ये भोजनीयाः स्युर्ये च वर्ज्या द्विजोत्तमाः ।
यावन्तश्चैव यैश्चान्नैस्तान्प्रवक्ष्याम्यशेषतः । । ३.१२४[११४ं] । ।
द्वौ दैवे पितृकार्ये त्रीनेकैकं उभयत्र वा ।
भोजयेत्सुसमृद्धोऽपि न प्रसज्जेत विस्तरे । । ३.१२५[११५ं] । ।
सत्क्रियां देशकालौ च शौचं ब्राह्मणसंपदः ।
पञ्चैतान्विस्तरो हन्ति तस्मान्नेहेत विस्तरम् । । ३.१२६[११६ं] । ।
अर्थ
राजा,ऋत्विक,स्नातक,गुरु,मित्र,जमाता,प्रिय पुरुष,श्वसुर,मामा एक साल के बीतने पर घर आवें तो मधु-पर्क से पूजन करना चाहिए।राजा एवम वेदज्ञ ब्राह्मण यदि साल के भीतर भी यदि यज्ञ के मौके पर आजाएं तो भी मधुपर्क से पूजन करना चाहिए।अगर यज्ञ में ना आये हो तो मधुपर्क से पूजन ना करें।स्त्री को शाम को पकाये अन्न में से बिना मन्त्र पढ़े ही बलि देना चाहिए।इस बलि को वैश्व देव कहते हैं।यह सांयः काल व प्रातः काल करना चाहिए।
अग्निहोत्री द्विज अमावस्या को पितृयज्ञ पूरी करके प्रतिमास पिएडान्वाहार्यक श्राद्ध को करे,पितरों को हर मास में जो श्राद्ध होता है उसको अन्वाहार्यक श्राद्ध कहते हैं। वह उत्तम मांस से करना चाहिए,उसमें जो ब्राह्मण ग्राह्य है और जो त्याज्य है जितने भोजन कराने चाहिए।और जो अन्न चाहिए उसका विस्तार इस प्रकार है-
देवकर्म में दो ब्राह्मण व पितृकर्म में तीन ब्राह्मण या दोनों में एक-एक ही ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए, धनी पुरुष भी अधिक ब्राह्मणों के भोजन में ना लगे। विस्तार करने से ब्राह्मणों का सत्कार,देश,काल,पवित्रता और श्रेष्ठ ब्राह्मण इन पांचों को नष्ट करता है इसलिए जियादा फैलाव कभी नहीं करना चाहिए।।
हरी ॐ
27/12/19, 11:40 pm – FB Rahul Gupta Kanpur:
28/12/19, 7:43 am – Webinar Anish Kumar Gurgaon: Sir ye mahabharta kaun c wali hI jee?? Geet prezs waali??
28/12/19, 8:08 am – Abhinandan Sharma: ये पहले ही इस ग्रुप में आ चुका है 🙏
28/12/19, 10:36 am – Abhinandan Sharma: जब आपको थोडा स जुकाम हो जाए या खांसी हो जाए और आप उस पर ध्यान न दो तो क्या नुक्सान हो सकता है ? थोड़ी सी सर्दी, खांसी ही तो है, है न ! लेकिन शास्त्रों में लिखा है कि रोग और शत्रु, थोडा सा भी हो तो उसे हलके में नहीं लेना चाहिए अन्यथा भविष्य में बड़ा होकर, अधिक नुक्सान करते हैं लेकिन जिन्होंने ये उक्ति नहीं पढ़ी है, वो डॉक्टर की फीस बचाने के लिए, ऐसी छोटी मोटी बीमारियों को हलके में लेते हैं या डॉक्टर की फीस बचाने के लिए, डॉक्टर के पास जाते ही नहीं, ख़ास तौर से लेडिज |
पर कभी कभी, ये छोटी बीमारी ही, बड़ी हो जाती है, ध्यान न देने की वजह से | फिर जो काम छोटी सी फीस से हो जाता, उसी में बड़ा खर्चा हो जाता है | मुश्किल और परेशानियां भी अधिक हो जाती हैं क्योंकि वो छोटा सा रोग, अपनी जड़ें जमा लेता है |
ऐसे ही, आप अपने बच्चे की छोटी छोटी शैतानियाँ, बदमाशियां, बद्त्मिजियों को नजरअंदाज कर देते हैं, पर ऐसा भी हो सकता है कि वो सब गलत हरकतें, उनके पीछे की मानसिक परिस्थति बच्चे में अपनी जड़ें जमा लें | जैसे बच्चे को पता चल जाए कि मम्मी-पापा मुझे रोता हुआ नहीं देखना चाहते तो वो बार बार रोकर आपको ब्लैकमेल करने लगता है और फिर ये उसकी आदत बन जाती है | ऐसे ही, अगर उसे पता चल जाता है कि पापा-मम्मी मेरी जिद के आगे हार जाते हैं तो वो बार बार जिद करने लगता है, जिद्दी हो जाता है और फिर वो जिद, उसके बड़े होने तक चलती रहती है, वो उसकी नेचर बन जाती है | ऐसे ही बहुत सी बातें होती हैं, जो बच्चे, दोस्तों से सीखते हैं और जो बातें, बड़े होने पर भी उनकी नेचर का हिस्सा बन जाती हैं | बच्चो का चुप चुप रहना, बच्चों का दूसरों में न घुलना-मिलना | बच्चो का गुस्सैल, चिडचिडा होना ! अतिवादी (बहुत बोलना) अथवा दब्बू होना | बच्चों का बड़ों का रेस्पेक्ट नहीं करना, तो बड़े होकर भी वो वैसे ही रहते हैं और बड़ों की भावनाओं को नहीं समझते | बहुत से बच्चों में कांफिडेंस का न होना आदि इत्यादि और पेरेंट्स | वो बेचारे, इन चीजों को समझ ही नहीं पाते कि ऐसा क्यों हो रहा है या सोचते हैं कि ये तो कुछ समय की बात है, जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा पर जैसे रोग अपनी जड़ें जमा लेता है ऐसे ही मानसिक विकार,बड़े होने पर भी बने रह जाते हैं यदि इन पर ध्यान न दिया जाये तो |
इसका इलाज है, आसान इलाज है | जैसे रोग, चाहे कितना भी छोटा हो, उस पर ध्यान दिया जाए और उसे जड़ से उखाड़ा जाए और उसे जड़ें जमाने का मौका न दिया जाए, ऐसे ही बच्चों की गलत हरकतों, बदतमीजियों को इग्नोर न किया जाए बल्कि उसे ऐसी क्लासेस में भेजा जाए, जहाँ उसे नैतिक शिक्षा मिले, उसकी बुद्धि का विकास, निर्णय क्षमता का विकास हो, उसे आधुनिक विज्ञान की पढ़ाई के साथ-साथ पुराने संस्कार भी मिलें | क्या कहा, आप ऐसी किसी क्लास को नहीं जानते !!!
अरे भाई ! ऐसी क्लासेस भी हैं और फ्री भी हैं, जिसमें बच्चों को विज्ञान, ज्योतिष, सुभाषित, श्लोक, नैतिक शिक्षा, बनैठी (आत्मरक्षा), शास्त्रोक्त कहानियाँ, रामायण, महाभारत (जो आज के बच्चों ने नहीं सुनी, आपने तो देखी थी पर आजकल के बच्चे तो डोरेमोन और शिनचैन से ही बाहर नहीं आ पा रहे तो हरकतें भी उनकी वैसी ही हैं), विज्ञान की बातें, जो शास्त्रों में हैं, जैसे छन्दशास्त्र से अलंकार, रस, कोडिंग आदि ये सब सिखाया जाता है | अब ये आपके ऊपर है कि आप अपने बच्चों को डांस क्लासेस में भेजते हैं, ड्राइंग क्लासेज में भेजते हैं अथवा इस प्रकार की क्लासेस को भी उतना ही वेटेज देते हैं और इनमें भी भेजते हैं या नहीं | ये फ्री हैं, ये फायदा भी है (क्योंकि आपके ऊपर कोई आर्थिक भार नहीं आएगा) और नुक्सान भी (क्योंकि फ्री की चीज की वैल्यू नहीं होती) अब ये आपका निर्णय है कि आप रोग को पनपते देते हैं, जड़ें जमाने देते हैं, डॉक्टर की फीस बचाते हैं या दूरगामी परिणाम सोचकर, आज ही कदम आगे बढाते हैं | अगली क्लास, आदित्य ल्क्जुरिया, गाजियाबाद में, कल दोपहर 12 बजे से होगी |
(उचित समझें तो इस पोस्ट को आगे बढ़ाये और शेयर करें |)
संपर्क करें – अलंकार शर्मा, पैरामाउंट गोल्फ फॉरेस्ट,
(सेक्टर जीटा के सामने), D-109, 1st लेन, ग्रेटर नोएडा ।
0120-7133344, 9911 340 906,
इंटरकॉम – 4109
Skype ID : PTBN.Hathras
संपर्क करें – अभिनान्दन शर्मा,
D-1506, आदित्य लक्ज़रिया,
आदित्य वर्ल्ड सिटी,
गाजियाबाद
08010855550
28/12/19, 10:52 am – FB Rahul Gupta Kanpur: जी हाँ
28/12/19, 10:54 am – FB Sanjay Kr Singh Saptarshi: यह दो भाग में है पूरा महाभारत
संक्षिप्त महाभारत
गीता प्रेस
28/12/19, 10:55 am – Shastra Gyan Maniah Patiala: प्रत्यक्ष के भेद- -प्रत्यक्ष की दो कोटियाँ मानी गयी है–
(१) निर्विकल्प ( Indeterminate Perception )
(२) सविकल्प ( Determinate Perception)
अब इनका अर्थ समझिये।
(१) सविकल्प-मान लीजिये, आप एक आम का पेड़ देख रहे है। यहाँ जो पदार्थ प्रत्यक्ष है,उसकी संज्ञा (आम) आप जानते है। उसका सामान्य है वृक्षत्व (जाति = Genus) । विशेष है आम्रत्व (विशेष = Species)। पेड़ के साथ-साथ आप सब कुछ देख रहे है। आपकी इन्द्रिय का विषय ( आमवृक्ष) नाम, जाति और विशेषता से युक्त होकर प्रत्यक्ष होता है। अर्थात् आप केवल वस्तु का ‘आकार ही नहीं देखते, उसका ‘प्रकार (विशेषण) भी देखते हैं। ऐसे प्रत्यक्ष को सविकल्प कहते है।
“सप्रकारकं ज्ञानं संविकल्पम्” – तर्कसंग्रह
अर्थात् जो प्रत्यक्ष में प्रकारता ( विशेषण-विशेष्यभाव ) का ज्ञान हो उसे सविकल्प ( विशिष्ट ज्ञान ) समझना चाहिये।
(२) निर्विकल्प-इसके विपरीत जहाँ केवल वस्तु मात्र की ही उपलब्धि हो, उसकी प्रकारता (विशेषण) का ज्ञान नहीं हो, उसे ‘निर्विकल्प’ कहते हैं।
“निष्प्रकारकं ज्ञानं निर्विकल्पम् ।”तर्कसंग्रह
जैसे, अबोध शिशु जब पीपल का पेड़ देखता है, तब वह यह नहीं जानता कि यह वस्तु अमुक-अमुक नाम गुण-सामान्य विशेष आदि से युक्त है। वह केवल स्वरूप मात्र देखता है । यह नहीं पहचानता कि यह क्या है। वह सिर्फ देखता ही है, समझता नहीं। ऐसे विशेषण ज्ञान-शून्य प्रत्यक्ष को निर्विकल्प कहते हैं।
28/12/19, 11:08 am – FB Rahul Gupta Kanpur: यह प्रथम भाग है।
28/12/19, 11:24 am – Shastra Gyan Mukesh Mishra Allahabad: 👌🏻
28/12/19, 11:48 am – LE Nisha Ji : 👏🏻👏🏻
28/12/19, 12:36 pm – Shastragyam Bhavsar Prakash Maliwal: 🙏🏻🙏🏻
28/12/19, 12:44 pm – ABKG Reader Vikas Kr Dubey Bhadohi UP: प्रथम संख्या में जो लिखा है वो थोड़ा अजीब लग रहा है। इंद्रियां पंचभूतों से बनी है ये ठीक है, परन्तु मन भौतिक (immaterial) है थोड़ा पच नही रहा। अगर आप विस्तार दे सकते तो कृपा होती।
28/12/19, 12:55 pm – Shastra Gyan Mukesh Mishra Allahabad: Immaterial का अर्थ तो अभौतिक होता है, कुछ गलती हुई है।
28/12/19, 12:56 pm – ABKG Reader Vikas Kr Dubey Bhadohi UP: हा, इसीलिए मेंरा ध्यान गया उधर। शायद टाइपो एरर है।
28/12/19, 12:59 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: धन्यवाद
ये अभौतिक है टाइपिंग में गलती हुई है🙏🙏
28/12/19, 1:20 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: This message was deleted
28/12/19, 1:20 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: रामायण बालकाण्ड – अष्टदश सर्ग श्लोक ४७,४८,४९,५०,५१
ऋषीश्चान्यान्यथन्यायं महाभागानुवाच ह। ते सर्वे हृष्टमनसस्तस्य राज्ञो निवेशनम्॥४७॥
इसके बाद विश्वामित्र जी ने यथाक्रम अन्य ऋषियों (जाबालादि) से कुशल मंगल पूछा। तब वे सब प्रसन्नमन महाराज के सभाभवन में गये।
विविशुः पूजितास्तत्र निषेदुश्च यथार्हतः। अथ हृष्टमना राजा विश्वामित्रं महामुनिम्॥४८॥
यहां वे लोग यथोचित पूजे जाकर यथोचित आसन पर बैठ गए। तब महाराज दशरथ प्रसन्न हो, महामुनि विश्वामित्र जी से बोले।
उवाच परमोदारो हृष्टस्तमभिपूजयन्। यथाऽमृतस्य सम्प्राप्तिर्यथा वर्षमनूदके॥४९॥
यथा सदृशदारेषु पुत्रजन्माप्रजस्य च। प्रनष्टस्य यथा लाभो यथा हर्षो महोदये॥५०॥
तथैवागमनं मन्ये स्वागतं ते महामुने। कं च ते परमं कामं करोमि किमु हर्षितः॥५१॥
परमदाता महाराज आदरपूर्वक बोले— हे महर्षे! आपके आगमन से मुझे वैसा ही सुख प्राप्त हुआ है जैसा कि, अमृत के मिलने से, सूखती हुई खेती को वर्षा होने से, अपुत्रक को पुत्र के जन्म से और टोटा उठाने वाले को लाभ होने से सुख प्राप्त होता है। हे महामुने! मै आपका सहर्ष स्वागत करता हूं; कहिए मेरे लिए क्या आज्ञा है।
पात्रभूतेऽसि में ब्रह्मन्दिष्टया प्राप्तोऽसि धार्मिक। अद्य मे सफलं जन्म जीवितं च सुजीवितम्॥५२॥
आपकी कृपादृष्टि मेरे ऊपर पड़ने से मै सुपात्र और धार्मिक बन गया। आज मेरा जन्म सफल हुआ और मेरा जीवन सुजीवन हुआ।
पूर्वं राजर्षिशब्देन तपसा द्योतितप्रभः। ब्रह्मर्षित्वमनुप्राप्तः पूज्योऽसि बहुधा मया॥५३॥
आप प्रथम जब राजर्षि थे, तभी आप बड़े तेजस्वी थे, फिर अब तो आप ब्रह्मर्षि पदवी को प्राप्त होने से सब प्रकार से मेरे लिए अत्यन्त पूज्य है।
28/12/19, 1:31 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: 👌👌👌🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
28/12/19, 6:53 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 3 श्लोक 21, 22, 23 और 24
निरीक्ष्य संरम्भनिरस्तधैर्यं राधेयं आराधितजामदग्न्यं ।
असंस्तुतेषु प्रसभं भयेषु जायेत मृत्योरपि पक्षपातः ।। ३.२१ ।।
अर्थ: अपने क्रोध से दूसरों के धैर्य को दूर करने वाले परशुराम के शिष्य राधसुत कर्ण को देखकर मृत्यु को भी अपरिचित भय से हठात् परिचय हो जाता है ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि मृत्यु भी कर्ण से डरती है तो दूसरों की बात ही क्या ?
अतिशयोक्ति अलङ्कार
यया समासादितसाधनेन सुदुश्चरां आचरता तपस्यां ।
एते दुरापं समवाप्य वीर्यं उन्मीलितारः कपिकेतनेन ।। ३.२२ ।।
महत्त्वयोगाय महामहिम्नां आराधनीं तां नृप देवतानां ।
दातुं प्रदानोचित भूरिधाम्नीं उपागतः सिद्धिं इवास्मि विद्यां ।। ३.२३ ।।
अर्थ: जिस विद्या के द्वारा अत्यन्त कठोर तपस्या करके पाशुपत-अस्त्र रुपी साधन प्राप्त करने वाले अर्जुन दूसरों के लिए दुर्लभ तेज प्राप्त कर इन सब (भीष्म आदि) का विनाश करेंगे । हे उचित दान के पात्र राजन ! उसी महनीय महिमा से समन्वित, देवताओं के लिए भी आराध्य तथा परम शक्तिशालिनी विद्या को सिद्धि की भांति उत्कर्ष प्राप्ति के निमित्त मैं(अर्जुन को) देने के लिए यहाँ आया हूँ ।
टिप्पणी: इस विद्या से शिव की प्रसन्नता से प्राप्त पाशुपत अस्त्र के द्वारा अर्जुन उन भीष्म आदि का संहार करेंगे । पूर्व श्लोक में वाक्यार्थ हेतुक काव्यलिङ्ग तथा दुसरे में उपमा अलङ्कार
इत्युक्तवन्तं व्रज साधयेति प्रमाणयन्वाक्यं अजातशत्रोः ।
प्रसेदिवांसं तं उपाससाद वसन्निवान्ते विनयेन जिष्णुः ।। ३.२४ ।।
अर्थ: इस प्रकार के बातें करते हुए सुप्रसन्न वेदव्यास जी के समीप अर्जुन राजा युधिष्ठिर के इस वाक्य – “जाओ और (इस सिद्धि की) साधना करो।” को स्वीकार करते हुए छात्र की भांति सविनय उपस्थित हो गए ।
टिप्पणी: उपमा अलङ्कार
29/12/19, 7:43 am – Shastra Gyan Ranjana Prakash: 👍
29/12/19, 3:51 pm – Vaidya Ashish Kumar: इसके बाद की बात यानि इन्द्रिय और मन की बात का इंतजार है।🙏🏻🙂
29/12/19, 5:22 pm – Abhinandan Sharma: जी, जल्द ही करता हूँ | अभी मेरे पास शास्त्र ज्ञान सत्र २१ से सत्र २३ के ऑडियो हैं | इनके वीडियो नहीं है अतः इन्हें youtube पर नहीं डाला जा सकता है | यदि इस ग्रुप के सदस्य इच्छुक हों तो मैं उन्हें इस ग्रुप में पार्ट्स में डाल सकता हूँ | इन ऑडियो में तर्कशास्त्र, योग, ज्योतिर्लिंग, आयुर्वेद आदि के बारे में चर्चाएँ हैं | कृपया अपनी राय से अवगत कराएं |
29/12/19, 5:30 pm – +91 : 🙏
29/12/19, 5:34 pm – Shastra Gyan Vikrant Garg Nagpur: बहुत अच्छा रहेगा,जरूर भेज दीजिये इस ग्रुप में
29/12/19, 6:33 pm – LE Onkar: This message was deleted
29/12/19, 6:35 pm – LE Onkar: लघु आडियो क्लियर धुन, क्लिष्ट शब्द समझाय।
कृपया ग्रुप पर डालिए, मेरी है यह राय।
29/12/19, 6:44 pm – Shastragyam Bhavsar Prakash Maliwal: जी भगवन, प्रतीक्षा है
29/12/19, 7:25 pm – Abhinandan Sharma: 😄😄👌
29/12/19, 7:25 pm – Abhinandan Sharma:
29/12/19, 8:37 pm – You added Pitambar Shukla
29/12/19, 9:25 pm – ABKG Shastragyan Avnish Dubey, Bharuch: आज एक महानुभाव से शाकाहार के बारे में बहस के दौरान सवाल आया कि पौधों में भी जीवन होता है तो उसे क्यों खाते हैं?
क्या आपकी इस विषय पर कोई पोस्ट है?
29/12/19, 9:28 pm – +91 : गोवर्धन मठ के शंकराचार्य स्वामी श्री निश्चलानंद सरस्वती जी का वीडियो हैं।
29/12/19, 9:28 pm – +91 : https://youtu.be/2kZOijoEDzo
29/12/19, 10:04 pm – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: पहले भी कई बार बताया जा चुका है, प्रश्न केवल किसी पोस्ट पर ही आधारित होने चाहिए । कृपया इस बात का ध्यान रखें। और ये भी कहा है कि ऐसे प्रश्नों पर कोई reply नही होगा परन्तु वो भी हो रहा है। अगर आपको उत्तर देना ही है तो अलग से दिया जा सकता है। आगे के लिए कृपया सभी इसका ध्यान रखें। धन्यवाद 🙏🏼🙏🏼
29/12/19, 10:18 pm – +91 : Ok
29/12/19, 10:19 pm – +91 : माफी चाहता हूँ। अगली बार से अवश्य ध्यान रखूंगा।
29/12/19, 10:40 pm – ABKG Shastragyan Avnish Dubey, Bharuch: क्षमा चाहता हूँ
30/12/19, 5:25 am – Abhinandan Sharma: ऐसे प्रश्नों में वैद्य आशीष जी को टैग कर दिया करें । वो भी इसी ग्रुप में हैं ।
30/12/19, 6:25 am – Abhinandan Sharma:
30/12/19, 6:31 am – Abhinandan Sharma:
30/12/19, 6:38 am – Abhinandan Sharma: ये तो सभी को समझ आ ही गया होगा अतः इसके बारे में ऑडियो नहीं बनाया है ।
30/12/19, 6:57 am – FB Piyush Khare Hamirpur: हम नेत्र ज्योति वर्धन के लिए पूछे थे कुछ हो, कोई जवाब ही नही दिया। आप पूछ लीजिये विज़न बढ़ाने का कुछ हो तो 🙏🏻
30/12/19, 8:47 am – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech: Sorry for the comment….
लेकिन जब भी इस प्रश्न का उत्तर हो चाक्षुषी विद्या के जो भी मन्त्र उनपर भी बात हो
30/12/19, 8:49 am – FB Mukul Allahahabd Shastra Gyan Iit Roorkee Physics Quantum Mech:
30/12/19, 9:24 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: अबोध बालक जो भी कुछ देखेगा, सभी कुछ निर्विकल्प ही होगा पर जैसे जैसे हम बड़े होते हैं केवल सविकल्प ही देखते हैं। क्या निर्विकल्प के लिए और कोई उदाहरण मिल सकता है जो किसी समझवाले विकसित मनुष्य पर आधारित हो
30/12/19, 9:31 am – Abhinandan Sharma: क्या ये दोनों ऑडियो सुन लिए गए हैं ?
30/12/19, 9:32 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: अभी नहीं सुने, अघोरी बाबा की गीता 118 पढ़कर नंबर लगेगा 🙂
30/12/19, 9:33 am – Abhinandan Sharma: तो फिर सविकल्प और निर्विकल्प कृपया उन वीडियो के बाद में लीजियेगा
30/12/19, 9:34 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👍🏼
30/12/19, 9:55 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: जिस विषय का इन्द्रिय से संयोग होता है पर मन से नहीं, उसका क्या होता है? क्या वह खो जाती है, कहीं दिमाग में ही जागृत का सुषुप्तावस्था में रहती है या शरीर, इन्द्रिय, मन आदि में उसका कोई अस्तित्व ही नहीं होता।
30/12/19, 10:01 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: मन हमेशा ही किसी न किसी विषय मे लगा ही रहता है, उसे सभी विषयों से हटाने के एक साधन बताया गया कि भगवान का ध्यान करें या किसी एक मंत्र की शरण लें परन्तु एक बार अभ्यस्त हो जाने पर वो केवल क्रिया ही रह जाती है और मन वापस अपने काम पर लग जाता है। इसका कोई उपाय? या फिर निर्विकल्प होने के लिए कोई और साधन भी होता है?
30/12/19, 10:01 am – Abhinandan Sharma: कोई अस्तित्व ही नहीं रहता क्योंकि वो मन तक पहुची ही नहीं | जैसे कोई अतिथि दरवाजे पर आया किन्तु बिना खटखटाए ही चला जाए, ऐसे ही वो विषय और इन्द्रियों का संयोग, मन तक नहीं पहुचता और लुप्त हो जाता है |
30/12/19, 10:03 am – Abhinandan Sharma: बहुत साधन हैं, ये सबसे आसान है कि मन को क्रियाओं से हटाकर, किसी अन्य बिंदु पर लगाया जाए, जिसमें ईश्वर जप और ध्यान मुख्य है | ईश्वर का चिन्तन, मनन और जप करते रहे, बाकी क्रियाएँ, कर्मेन्द्रियों द्वारा करते रहे किन्तु उनमें अपना मन न लगायें |
30/12/19, 10:03 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: 👍🏼
30/12/19, 11:50 am – Shastra Gyan Maniah Patiala: नोट-पाश्चात्य मनोविज्ञान भी इस प्रकार का भेद मानता है। केवल संवेदना मात्र Sensation कहलाता है जब वह विशिष्ट ज्ञान ( Meaning ) से संयुक्त होता तब Perception कहलाता है।
निर्विकल्प प्रत्यक्ष ही ज्ञान की प्राथमिक अवस्था है। क्योंकि विशिष्ट ज्ञान आरंभ ही से तो नहीं हो सकता। आप देखते हैं कि ‘एक ब्राह्मण हाथ में लाठी लिये आ रहा है। यह विशिष्ट ज्ञान हुआ। किन्तु यदि आपको ‘एक’ ‘ब्राह्मण’ ‘हाथ’ ‘लाठी’ ‘लेना’ और ‘आना’, इन सबका पृथक्-पृथक् ज्ञान नहीं रहता, तब यह विशिष्ट ज्ञान कैसे हो सकता था? यदि ये सब उपादान पहले से आपके मन में नहीं मौजूद रहते तो आप इन सबको एक साथ मिलाते कैसे ? अतः अनुमान से सिद्ध होता है कि प्रत्येक पदार्थ का विशिष्ट ज्ञान होने से पहले उसका अविशिष्ट ज्ञान होना जरूरी है। यही अविशिष्ट या निर्विकल्प ज्ञान सविकल्प ज्ञान का मूल है।
जब कोई पहले-पहल घट को देखता है. तब उसकी जाति ( घटत्व ) से परिचित नहीं होता। अर्थात वह यह नहीं जानता कि “मै घड़ा देख रहा है।” उसी अवस्था का नाम है निर्विकल्प।
“प्रथमतोघटवटत्वयो वैशिष्ट्यानवगाहि ज्ञान जायते । तदेव निर्विकल्पम्”_-सिद्धान्त मुक्तावली
इस अवस्था में यथार्थ प्रत्यक्ष ज्ञान ( Cognition ) नहीं होता । क्योंकि यथार्थ ज्ञान में विषयि-विषयता सम्बन्ध ( Subject-Object Relation ) रहता है। सो यहाँ नहीं है। किन्तु तथापि निर्विकल्प प्रत्यक्ष की उपेक्षा नही की जा सकती। क्योंकि बीज अस्फुट होते हुए भी स्फुटित अंकुर का मूल स्वरूप होता है । इसी तरह निर्विकल्प अस्फुट ज्ञान होते हुए भी स्फुटित ज्ञान का मूल है।
30/12/19, 12:52 pm – Shastra Gyan Alka Delhi: 👏👏👏🙏दिल्ली में भी सम्भव है क्या🙏
30/12/19, 1:04 pm – Abhinandan Sharma: बड़ों के लिये सत्र कहीं भी हो सकता है, बच्चों के लिये सभी जगह सम्भव नहीं है। यदि कोई रुचि से आरम्भ करना चाहे तो उसे सिलेबस दे सकता हूँ और गाइड कर सकता हूँ कि वो किस प्रकार शास्त्र ज्ञान के ही नाम से इस सत्र को दिल्ली में आयोजित कर सके ।
30/12/19, 4:21 pm – Vaidya Ashish Kumar: सप्तामृत लौह 500mg नाम की औषधि आती है,इसको त्रिफला घृत गुनगुना कर एवं इसमे विषम मात्रा में शहद मिलाकर रात्रि में भोजन के बाद निरन्तर 6 माह लेवें,इसके साथ आंखों का व्यायाम करें।रोज आंवला साथ मे लेवें।
30/12/19, 4:21 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: कोई इस विषय पर बात ही तो नही करता है, सब चुप्पी साध लेते है, जबकि आज के समय की सबसे बड़ी समस्या है, डिजिटल युग मे लैपटॉप मोबाइल कंप्यूटर से आँखे कमजोर हो रही है, यहाँ तक कि छोटे छोटे बच्चे चश्मे लगा रहे है, ये देखकर बहुत दुःख होता है, इतनी बड़ी चिन्ता का विषय होकर कोई भी सजग नही है, ये अत्यन्त दुःखद बात है, शर्मा जी को खुद हमने मोटे लेंस का चश्मा लगाये लेकर फेसबुक लाइव पर देखा है, ये कोई चश्मे वाली उम्र है, चश्मा एक अच्छे स्वास्थ्य का सूचक नही है। ये बीमारी बहुत तेजी से फैल रही है, मेरे बाबा इंटर कॉलेज में थे, पूरा जीवन उनका अध्ययन अध्यापन मे बीता, उसके बाद भी 85 वर्ष की उम्र तक उनको चश्मा नही लगा जबकि वो प्रतिदिन 6 से 7 घण्टे किताबें पढ़ते थे, बिना कुछ पढ़े उनको दिन खाली लगता था, bibliophile स्वभाव था उनका, माता जी के भी हमारे अभी जब रिटायरमेंट के करीब आयी तब जाकर चश्मा लगा, लेकिन इतनी कम उम्र मे लोग चश्मा लगा रहे, और जागरूक नही है।
इतने बड़े बड़े वैद्य आयुर्वेद के जानकर लोग है, फिर भी कोई इस ओर ध्यान नही देता।
Humble request to all of you to take concern about it and enlighten people how to take care of eyes🙏🏻
Sorry for off topic message
Inconvenience cause is deeply regretted🙏🏻
30/12/19, 4:28 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: बहुत धन्यवाद आपका 🙏🏻❤
30/12/19, 4:33 pm – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: 👌
30/12/19, 4:36 pm – +91 : आपसे सहमत हूँ।
30/12/19, 4:39 pm – Vaidya Ashish Kumar: इस पर बात करने से अधिक लाभ नही है और यह उचित मंच भी नही है,आधुनिकता की दौड़ और हर कार्य के पीछे धन प्राप्ति के विचार के कारण भोजन और वातावरण दूषित है।जन्म के समय भी माँ और पिता और वातावरण पर भी बहुत सारी चीजें निर्भर हैं अतः जागरूक रह कर जितना शरीर को रख सकते है उतना परिश्रम करते रहें,ग्रुप में स्वास्थ्य के विषय मे अष्टाङ्ग हृदय के द्वारा सारी जानकारी प्राप्त हो रही है।कृपया उस पर श्रद्धा रखकर पालन करें।अन्य सभी के अच्छे गुणों पर ध्यान देवें।🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
30/12/19, 4:40 pm – Vaidya Ashish Kumar: बहुत बहुत धन्यवाद सर🙏🏻🙏🏻🌹
30/12/19, 5:03 pm – FB Piyush Khare Hamirpur:
30/12/19, 5:12 pm – Vaidya Ashish Kumar: महाभारत में भी धृतराष्ट्र और राजा पांडु भी जन्म से रोग ग्रस्त थे।🙏🏻🙏🏻
30/12/19, 5:13 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: धृतराष्ट्र तो जन्मान्ध थे, पाण्डु को क्या समस्या थी
30/12/19, 5:58 pm – +91 : पांडु राजा को श्राप मिला था उसके बाद उन्हें पिलाया रोग हुआ था।
ये स्टोरी मैंने अपने दादा जी से सुना था ज्यादा और इस विषय मे नही पता है
30/12/19, 8:44 pm – Shastra Gyan Alka Delhi: 🙏
30/12/19, 9:50 pm – Aparna Singh Ayodhya Shastra Gyan: पीलिया था
30/12/19, 9:55 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: रामायण बालकाण्ड अष्टदश सर्ग श्लोक ५४,५५,५६,५७,५८
तदद्भुतमिदं ब्रह्मन् पवित्रं परमं मम्।शुभक्षेत्रगतश्चाहं तव संदर्शनात्प्रभो॥५४॥
आपका आगमन अति पवित्र और अद्भुत होने से आपके शुभदर्शन कर मेरा शरीर भी पवित्र हो गया अथवा यह स्थान पवित्र हो गया।
ब्रूहि यत्प्रार्थितं तुभ्यं कार्यमागमनं प्रति। इच्छाम्यनुगृहीतोऽहं त्वदर्थपरिवृद्धये॥५५॥
आप जिस काम के लिए पधारे हों वह बतलाइए। मैं चाहता हूं कि आपकी सेवा कर मैं अनुगृहीत होऊं।
कार्यस्य न विमर्शं च गन्तुमर्हसि कौशिक। कर्ता चाहमशेषेण देवतं हि भवान्मम्॥५६॥
हे कौशिक! आप किसी बात के लिए संकोच न करें। मैं आपके सब कार्य करूंगा। क्योंकि आप तो मेरे देवता है।
मम चायमनुप्राप्तो महानभ्युदयो द्विज। तवागमनजः कृत्स्नो धर्मश्चानुत्तमो मम॥५७॥
*हे ब्रह्मर्षि! आपके पधारने से मेरा मानो भाग्य जागा और बड़ा पुण्य हुआ।
इति हृदयसुखं निशम्य वाक्यं श्रुति सुखमात्मवता विनीतमुक्तम्। प्रथितगुणयशा गुणैर्विशिष्टः परमऋषिः परमं जगाम हर्षम्॥५८॥
महाराज दशरथ के इन हृदय को सुख देने वाले, शास्त्रानुमोदित और विनम्र वचन सुनकर, बड़े यशस्वी और सर्वगुण संपन्न महर्षि विश्वामित्र जी परम प्रसन्न हुए।
*इति अष्टदशः सर्गः॥*
30/12/19, 11:15 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: This message was deleted
30/12/19, 11:15 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् सूत्रस्थानम् अध्याय-९ श्लोक १,२
अथातो द्रव्यादिविज्ञानीयमध्यायं व्याख्यास्यामः।
इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः।
अब हम यहां से द्रव्यादिविज्ञानीय अर्थात द्रव्य, रस, गुण, वीर्य, विपाक तथा प्रभाव का वर्णन इस अध्याय में करेंगे। ऐसा प्राचीन आत्रेय आदि महर्षियों ने कहा था।
उपक्रम- इससे पहले अध्याय में अन्न-पान के उपयोगी द्रव्यों का सामान्य रूप से वर्णन तथा आहार-विधि का उपदेश किया गया था। अब इस अध्याय द्वारा द्रव्य और उसमें आश्रित रहने वाले रस, गुण, वीर्य, विपाक तथा प्रभाव का इसलिए वर्णन किया जायेगा कि इनकी परीक्षा करके ही अन्न-पान के उपयोग का उपदेश किया जायेगा।अतएव प्रस्तुत अध्याय की उपस्थापना की जा रही है।
संक्षिप्त सन्दर्भ संकेत- च.सू.२६, सु.सू.४०-४१, अ.सं.सू. १७ में देखें।
द्रव्यमेव रसादीनां , श्रेष्ठं ते ही तदाश्रयाः। पञ्चभूतात्मकं तत्तुक्ष्मामधिष्ठाय जायते॥
द्रव्य की प्रधानता- रस, गुण, वीर्य, विपाक एवं प्रभाव द्रव्य मे रहने वाले इन धर्मों में हरीतकी आदि द्रव्यों को ही श्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि ये रस आदि द्रव्य में ही आश्रित होते हैं। अर्थात ये रस आदि भाव द्रव्य में प्राप्त होते हैं।
वक्तव्य- चरक ने द्रव्य की परिभाषा इस प्रकार की है— “यत्राश्रिताः कर्मगुणाः कारणं समवायियत्’। तद द्रव्यम्” (च.सू. १/५१) अर्थात जिसमें कर्म एवं गुण आश्रित है और जो द्रव्य गुण-कर्म का समवायिकारण है, वह द्रव्य है। इसका विस्तृत व्याख्यान सुरभारती प्रकाशन चौखम्बा, वाराणसी से प्रकाशित “चरकसंहिता” प्रथम भाग में यथास्थान देखें।
द्रव्य का स्वरुप- वह द्रव्य पृथिवी, जल, तेज (अग्नि), वायु, आकाश— इन पंचमहाभूतों के संयोग वाला है।
द्रव्यों की उत्पत्ति- यह द्रव्य पृथिवी का आश्रय पाकर उस प्रकार उत्पन्न होता है, जैसे मिट्टी से घड़ा उत्पन्न होता है।
अम्बुयोन्यग्निपवननभसां समवायतः। तन्निर्वृत्तिर्विशेषश्चव्यपदेशस्तु भूयसा॥२॥
उत्पत्ति के कारण- जिस द्रव्य में जिस महाभूत तत्व की विशेषता होती है, वह उसी नाम से कहा जाता है। जैसे— पार्थिव, आग्नेय, वायव्य, नाभस आदि व्यवहार के लिए उस-उस की संज्ञाएं होती है।
31/12/19, 12:02 am – ABKG Reader FB Sudarshan Ibm Delhi: किरातार्जुनीय सर्ग 3 श्लोक 25, 26 और 27
निर्याय विद्याsथ दिनादिरम्याद्बिम्बादिवार्कस्य मुखान्महर्षेः ।
पार्थाननं वह्निकणावदाता दीप्तिः स्फुरत्पद्मं इवाभिपेदे ।। ३.२५ ।।
अर्थ: तदनन्तर चिंगारी की भांति उज्जवल वह विद्या, प्रातः काल के मनोहर सूर्य मण्डल के समान महर्षि वेदव्यास के मुख से निकलकर (सूर्य की) किरणों से विक्सित होनेवाले कमल के समान अर्जुन के मुख में प्रविष्ट हो गयी ।
टिप्पणी: प्रातः काल में सूर्य-मण्डल से निकली हुई किरणें जैसे कमल में प्रवेश करती हैं वैसा ही वेदव्यास के मुख से निकली हुई वह विद्या अर्जुन के मुख में प्रविष्ट हुई ।
उपमा अलङ्कार
योगं च तं योग्यतमाय तस्मै तपःप्रभावाद्विततार सद्यः ।
येनास्य तत्त्वेषु कृतेऽवभासे समुन्मिमीलेव चिराय चक्षुः ।। ३.२६ ।।
अर्थ: मुनिवर वेदव्यास ने परम योग्य अर्जुन को वह योग विद्या अपने तपबल के प्रभाव से शीघ्र ही प्रदान कर दी, जिसके द्वारा प्रकृति महदादि चौबीस पदार्थों का साक्षात्कार हो जाने का कारण अर्जुन के नेत्र चिरकाल के लिए माना खुले हुए से हो गए ।
टिप्पणी: अंधे को द्रष्टिलाभ के समान अर्जुन को कोई नूतन ज्ञान प्राप्त हो गया, जिससे उन्हें ऐसा अनुभव हुआ मानों आँखें खुल गयी हों ।
उत्प्रेक्षा अलङ्कार ।
आकारं आशंसितभूरिलाभं दधानं अन्तःकरणानुरूपं ।
नियोजयिष्यन्विजयोदये तं तपःसमाधौ मुनिरित्युवाच ।। ३.२७ ।।
अर्थ: मुनिवर वेदव्यास महाभाग्य के सूचक एवं अन्तः करण के अनुरूप आकार(आकृति) धारण करनेवाले अर्जुन को विजय लाभ दिलानेवाली तपस्या के नियमों में नियुक्त करने की इच्छा से इस प्रकार बोले ।
टिप्पणी: पदार्थहेतुक काव्यलिंग अलङ्कार ।
31/12/19, 1:48 am – LE Onkar : बहुत कठिन है पन्थ यह, चलता विरला कोय।
दया करें आशीष जी, मुझसे यह न होय।
31/12/19, 8:56 am – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् संक्षिप्त पुनरावलोकन
समूह के सभी सदस्यों को मेरा प्रणाम🙏🏻
अष्टाङ्गहृदयम् के सूत्रस्थान भाग में हमने अब तक आठ अध्याय पूरे कर लिए है। अतः आज हम अब तक पढ़े गए भाग का संक्षिप्त पुनरावलोकन करेंगे, जिससे हमें तक समूह के नये लोगों को भी लाभ होगा।
*प्रथम अध्याय*
इस अध्याय में सबसे पहले मंगलाचरण करते हुए यह बताया गया है कि राग,द्वेष आदि भाव विकार भी रोग ही है जिसकी वजह से शरीर में उत्सुक्ता, मोह, बेचैनी आदि उत्पन्न होते हैं।धर्म, अर्थ और सुख नामक तीनों पुरूषार्थों की कामना करने वाले पुरुष को आयुर्वेदो मे निर्दष्ट उपदेशों मे परम आदर करना चाहिए।
ब्रह्माजी ने सबसे पहले आयुर्वेदशास्त्र का स्मरण करके दक्षप्रजापति को ग्रहण कराया उन्होंने अश्विनीकुमारों को पढाया था, अश्विनीकुमारों ने देवराज इन्द्र को, उन्होने अत्रिपुत्र (आत्रेय,पुनर्वसु) आदि महर्षियो को पढाया था। आत्रेय आदि ने अग्निवेश, भेड़, जतुकर्ण, पराशर, हारीत, क्षारपाणि आदि को पढ़ाया था और फिर अग्निवेश आदि महर्षियो ने अलग-अलग तत्वों (आयुर्वेदशास्त्रो) की विस्तार के साथ रचना की। महर्षि वाग्भट जी ने इन बिखरे हुये उन प्राचीन तन्त्रो मे से उत्तम से उत्तम (सार) भाग को लेकर यह उच्चय (संग्रह) किया है। जिसे अष्टाङ्गह्रदयम् कहा गया है। यह न अत्यन्त संक्षेप मे है न अत्यन्त विस्तार से कहे गये है।
कायचिकित्सा, बालतन्त्र (कौमारभृत्य), ग्रहचिकित्सा (भूतविद्या), उर्ध्वांगचिकित्सा (शालाक्यतन्त्र), शल्यचिकित्सा (शल्यतन्त्र), दंष्ट्राविषचिकित्सा (अगदतन्त्र), जरा चिकित्सा (रसायनतन्त्र) तथा वृषचिकित्सा (वाजीकरण तन्त्र) यही आठ अङ्ग कहे गये है।इन्ही अंगो मे संपूर्ण चिकित्सा आश्रित है।
यह शरीर पंचतत्वों से बना है, जिसमें आकाश तत्व रिक्त स्थान के रूप में, पृथिवी तत्व आधारस्वरूप है, अतः यह निष्क्रिय है, शेष वायु तत्व वात् के रूप में, जल तत्व कफ के रूप में तथा अग्नि तत्व पित्त के रूप में शरीर में सदा व्याप्त रहते हैं। यह तीनों तत्व (वात, पित्त और कफ) शरीर में सम (न कम न ज्यादा अर्थात निश्चित) रहने पर आरोग्यता प्रदान करते हैं और विकृत (अनिश्चित) होने पर रोगों को उत्पन्न करते हैं, इसलिए आयुर्वेद में यें दोष कहे जाते हैं। शरीर में नाभि से नीचे वात, नाभि तथा हृदय के मध्य में पित्त तथा हृदय से ऊपरी भाग में कफ व्याप्त रहता है। बाल्यकाल में, भोर में (अर्थात दिन के प्रारम्भ में) तथा भोजन के तुरंत बाद कफ का प्रभाव रहता है। युवावस्था में, दोपहर में तथा भोजन के पाचन क्रिया के मध्य में पित्त का प्रभाव रहता है। वृद्धावस्था में, रात्रि में तथा भोजन पचने के बाद वात का प्रभाव रहता है।
वात दोष के प्रभाव से जठराग्नि विषम, पित्त से तीक्ष्ण तथा कफ से मन्द हो जाती है। जिसके सापेक्ष कोष्ठ क्रमशः क्रूर, मृदु तथा मध्यम हो जाता है।
वातदोष के गुण- यह रूक्ष, लघु, शीत, खर, सूक्ष्म तथा चल(सदा गतिशील) होता है।
पित्तदोष के गुण – यह कुछ स्निग्ध, तीक्ष्ण, उष्ण, लघु, विस्र(आम गन्ध वाला), सर तथा द्रव होता है।
कफदोष के गुण- स्निग्ध, शीत, गुरू, मन्द, श्लक्ष्ण, मृत्स्न तथा स्थिर होता है।
आयुर्वेदीय परिभाषा के अनुसार किन्ही दो दोषो के एकसाथ क्षय या वृद्धि होने का नाम सन्सर्ग है।तीनो दोषो के एकसाथ क्षय या वृद्धि होने का नाम सन्निपात है।
आयुर्वेदशास्त्र मे रस, रक्त, मांस, मेदा, मज्जा, अस्थि तथा शुक्र ये सात ‘धातु’ कहे जाते है और जब ये वात आदि दोषो द्वारा दूषित किये जाते है तो इन्हे दूष्य कहते है।मूत्र, पूरीष तथा स्वेद आदि मल कहे जाते है।
तीनो दोष, सातो धातु व मल ही शरीर के मूल है।
[ मुख्य परिभाषाएं
धातु – जो द्रव्य शरीर का धारण एवंं पोषण करते है धातु कहलाते है।इसीलिये सम अवस्था मे स्थित वात आदि दोषो को भी धातु कहा गया है।
दोष- जो दूसरो को दूषित करे।
दूष्य – जो स्वयं दूषित हो ।
मल भी दूष्य है।
धातु के मल-
रस का मल – कफ
रक्त का मल – पित्त
मांस का मल – नाक, कान आदि छिद्रो से निष्कासित मल
मेदस् का मल – स्वेद
अस्थि का मल – नख,रोम,केश
मज्जा का मल – त्वचा का स्नेह (तैलीयता)
शुक्र का मल – ओजस् ]
आयुर्वेद में रसों की संख्या छह है— स्वादु(मीठा), अम्ल(खट्टा), लवण(नमकीन), तिक्त(नीम तथा चिरायता आदि), ऊष्ण(कटु- कालीमिर्च आदि) तथा कषाय(कसैला)। ये सभी रस भिन्न-भिन्न द्रव्यो मे पाये जाते है।ये रस अन्त की ओर से आगे की ओर को बलवर्धक होते है अर्थात मधुर रस सबसे अधिक बलवर्धक होता है और इसके बाद सभी उत्तरोत्तर बलनाशक होते है। इनमें प्रथम तीन (मधुर, अम्ल, लवण) रस वातदोष को नष्ट करते हैं, तिक्त, कटु, कषाय कफदोष को नष्ट करते हैं तथा कषाय, तिक्त , मधुर पित्तदोष को नष्ट करते है। इससे विपरीत रस वात, पित्त तथा कफ दोषो को बढ़ाते है।
विधिभेद से द्रव्य तीन प्रकार का होता है- शमन (वात आदि दोषो का शमन करने वाला), कोपन (वात आदि दोषो को कुपित करने वाला), स्वस्थहित ( स्वस्थ पुरूष के स्वास्थ को बनाये रखने वाला)
द्रव्यो मे शीतगुण तथा उष्णगुण की अधिकता से दो प्रकार का वीर्य माना जाता है।
संसार में सभी पदार्थ या तो शीत है या उष्ण। अतः दो प्रकार का वीर्य होना स्वाभाविक ही है, किन्तु वायु द्रव्य ऐसा है जो अनुष्णाशीतस्पर्श वाला है। अनुष्णाशीतस्पर्श अर्थात जो न उष्ण है न शीत अर्थात मौसम के अनुसार।
क्रमशः🙏🏻
31/12/19, 9:04 am – Vaidya Ashish Kumar: 🌹🌹💓💓🙏🏻🙏🏻👍🏻👍🏻
31/12/19, 10:15 am – LE Ravi Parik : बहुत ही सुंदर वर्णन । धन्यवाद🙏🏻
31/12/19, 10:16 am – LE Ravi Parik : कृपया ऐसा रिविज़न अन्य ग्रंथो का भी करें तो सब समझ आ जाएगा।
31/12/19, 10:22 am – FB Mukesh Sinha Pathalgaon CG Shastra Gyan: 👍🏻👍🏻👍🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
31/12/19, 11:10 am – Shastra Gyan Suresh Jhajjar: 🙏🚩⚔🏹
31/12/19, 1:48 pm – FB Sanjay Kr Singh Saptarshi: This message was deleted
31/12/19, 4:02 pm – Shastra Gyan Maniah Patiala: निर्विकल्प के विषय में बहुत ही मतभेद है । शाब्दिकगण ( वैयाकरण ) निर्विकल्प ज्ञान की सत्ता ही नहीं मानते । उनका कहना है कि बिना संज्ञा (नाम ) के कोई ज्ञान ही नहीं हो सकता। अतएव शाब्दिकवर्णनरहित निर्विकल्प ज्ञान की कोटि में नहीं आ सकता। इसके विपरीत वेदान्ती निर्विकल्प को ही ज्ञान कहते है। उनके अनुसार नामरूप युक्त ज्ञान भ्रममात्र है। अनिर्वचनीय ज्ञान ही यथार्थ ज्ञान है। बौद्ध-दर्शन भी इसी बात का समर्थन करता है। किन्तु न्याय वैशेषिक मध्यम मार्ग का अनुसरण करता है और दोनों को सत्य मानता है गौतम ने प्रत्यक्ष की परिभाषा में ये विशेषण भी दिये है
(१) अव्यपदेश्यम् और (२) व्यवसायात्मकम् । “इन्द्रियार्थसभिकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमयभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्।”
न्या. सू १।१।४
अध्यपदेश्य का अर्थ है अनिर्वचनीय अर्थात् संज्ञा ज्ञान से रहित। व्यवसायात्मक का अर्थ है असंदिग्ध अर्थात् निश्चित। अतएव नवीन नैयायिक इससे यह अर्थ निकालते हैं कि गौतम ने निर्विकल्प और सविकल्प दोनों तरह के ज्ञान माने हैं।
31/12/19, 5:19 pm – Shastra Gyan Mukesh Mishra Allahabad: ‘अध्यपदेश्य’ की जगह ‘अव्यापदेश्य’ पढ़ा जाए।
प्रत्यक्ष की उक्त परिभाषा में चार महत्वपूर्ण बातें हैं,
- इंद्रियार्थ सन्निकर्ष- sense object contact
- अव्यापदेश्य- अनिर्वचनीय अर्थात inexpressible
- अव्याभिचारी- non erroneous , त्रुटिहीन
- व्यावसायात्मक- well defined
31/12/19, 5:33 pm – Shastra Gyan Prakash Chopda Bhilai, CG: ॐ
श्री मनुस्मृति
प्रथिता प्रेतकृत्यैषा पित्र्यं नाम विधुक्षये ।
तस्मिन्युक्तस्यैति नित्यं प्रेतकृत्यैव लौकिकी । । ३.१२७[११७ं] । ।
श्रोत्रियायैव देयानि हव्यकव्यानि दातृभिः ।
अर्हत्तमाय विप्राय तस्मै दत्तं महाफलम् । । ३.१२८[११८ं] । ।
एकैकं अपि विद्वांसं दैवे पित्र्ये च भोजयेत् ।
पुष्कलं फलं आप्नोति नामन्त्रज्ञान्बहूनपि । । ३.१२९[११९ं] । ।
अर्थ
अमावस्या के प्रेतकर्म को पितृकर्म कहते हैं।उसको जो करता है वह नित्य लौकिक फल को पाता है।वेदपाठी, सदाचारी व ब्राह्मण को ही देवकर्म व पितृकर्म का अन्न आदि देना चाहिए ऐसा दान महाफल को देता है।देवकर्म व पितृकर्म में एक एक भी विद्वान ब्राह्मण को भोजन देने से बड़ा फल मिलता है। पर बहुत से मूर्खो को खिलाने से भी वह फल नहीं मिलता।।
हरी ॐ
31/12/19, 5:40 pm – Abhinandan Sharma: No new year msg please 🙏
31/12/19, 5:40 pm – Shastra Gyan Rajesh Pandey Ankleshwar: This message was deleted
31/12/19, 5:43 pm – Poornima Singh Ghaziabad Shastra Gyan: This message was deleted
31/12/19, 5:52 pm – Dayadhankr Soryvanshi Hts, Akhilesh Frnd: Nhi….hm nii manate
31/12/19, 6:08 pm – Abhinandan Sharma: मनाते हैं, तो भी कृपया न डालें 🙏
31/12/19, 6:26 pm – FB Piyush Khare Hamirpur: 😻
31/12/19, 9:29 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: अष्टाङ्गहृदयम् संक्षिप्त पुनरावलोकन
अध्याय १ गतांक से आगे
प्राय सभी प्रकार के रस वाले द्रव्यो का भोजन के पाचनकाल के पश्चात वह रस जठराग्नि द्वारा पाक हो जाने पर उनका विपाक उपर्युक्त तीन प्रकार का पाया जाता है।
१. मधुर तथा लवण रस वाले द्रव्यो का मधुर।
२. अम्ल रस वाले द्रव्यो का अम्ल
३. तिक्त, कटू, काषाय रस वाले द्रव्यो का कटु विपाक होता है।
द्रव्यो मे परस्पर विपरीत यह २० गुण पाये जाते है।-
गुरू – भारी, लघु – हल्का, मन्द – चिरकारी (जो न शीघ्र लाभ करता है न हानि), तीक्ष्ण – तीखा(जो शीघ्र लाभ या हानि करे), शीत-शीतल, उष्ण – गरम, स्निग्ध – चिकना, रुक्ष – रूखा, श्लक्ष्ण – साफ, खर – खुरदुरा, सान्द्र – गाढा, द्रव – पतला, मृदु – कोमल, कठिन – कठोर, स्थिर – अचल, सर – चल(फैलने वाला) , सूक्ष्म – बारीक(छोटे से छोटे स्रोतो मे प्रवेश करने वाला), स्थूल – मोटा, विशद – टूटने वाला, पिच्छिल – लसलसा (लसीला)।
काल, अर्थ और कर्म का सम्यक योग आरोग्यता का कारण होता है।वही इनका हीनयोग, मिथ्यायोग एवं अतियोग रोगों को उत्पन्न करता है।
काल- यह आयुर्वेदिक दृष्टि से तीन प्रकार का होता है- शीतकाल, उष्णकाल तथा वर्षाकाल।
इन कालो मे क्रमशः शीत, उष्ण तथा वर्षा का अधिक होना अतियोग, कम होना हीनयोग तथा सीमा के विपरीत होना मिथ्यायोग है।
अर्थ- श्रोत्र आदि ज्ञानेन्द्रियो द्वारा जिन-जिन विषयो का ग्रहण किया जाता है उन्हे ही अर्थ कहा गया है।इन अर्थो का अपनी-अपनी इन्द्रियो द्वारा अधिक संयोग अतियोग, कम संयोग हीनयोग तथा अनिष्टकारक संयोग होने को मिथ्यायोग कहते है।
कर्म – वाणी, मन तथा शरीर
की पृवत्ति या चेष्टा का नाम कर्म है।
वात, पित्त, कफ इन दोषो क विषमता का नाम रोग है। सामान्य रूप से रोग दो प्रकार के होते है। निज ( वात आदि भीतरी दोषो की विषमता से होने वाले), आगन्तुज ( अभिघात आदि बाहरी कारणों से होने वाले)। रोगो के अधिष्ठान (आश्रयस्थान) भी दो होते है।- काय(शरीर) तथा मन। मन के दो दोष है- रजस् तथा तमस्।
दर्शन, स्पर्शन (छू कर) तथा रोग सम्बन्धित विविध प्रश्न पूछकर रोगी की परीक्षा करनी चाहिए।
निदान, पूर्वरूप, लक्षण, उपशय तथा सम्प्राप्ति नामक रोगज्ञान के उपायो से रोग की परीक्षा करनी चाहिए।
आयुर्वेदिक दृष्टि से देश दो प्रकार का होता है। भुमिदेश तथा देहदेश। शरीर के विभिन्न अवयवो को यहां देहदेश कहा गया है।।
भुमिदेश तीन प्रकार का कहा गया है
जांगल देश – रूखा सूखा मरुस्थल जैसे बीकानेर, जैसलमेर, बाहरी अरब प्रदेश, अफ्रीका आदि। ये प्रायः जल तथा वृक्षरहित देश है। यहां पित्तज, रक्तज् तथा वातज् रोग अधिक होते हैं।
आनुप देश – बिपुल जल तथा पर्वतो से युक्त देश। जैसे – आसाम, ब्रह्मा, बंगाल की खाड़ी,नदी नालो से युक्त प्रदेश। यहां कफज् तथा वातज् रोग अधिक होते है।
साधारण देश – इसमें वात आदि सभी रोग सम रहते है।जैसे उत्तर प्रदेश, पंजाब आदि के निवासी।
आयुर्वेद मे दो प्रकार का काल माना जाता है
१. क्षण अर्थात प्रातःकाल तथा सायंकाल
।
२.रोग की अवस्था ( आमावस्था तथा जीर्णावस्था)।
इन दोनो कालो के अनुसार भेषजयोग( चिकित्सा का प्रयोग) किया जाता है।
यहां क्षण शब्द दिन और रात के विभाजन में प्रयुक्त होता है। कालभेद का प्रयोग शास्त्र मे इस प्रकार देखा जाता है।जैसे – प्रातःकाल वमनकारक औषधियों को देना चाहिए, मध्यान्ह मे विरेचन करना चाहिए फिर कुछ समय रुककर बस्ति का प्रयोग करना चाहिए।
सक्षिप्त रूप से ओषध(चिकित्सा) दो प्रकार की होती है।
१.शोधन अर्थात यमन विरेचन आदि विधियो से दोषो को निकालना।
२. शमन अर्थात उभरे हुए वात आदि रोगो को शान्त करने का उपचार।
शरीर सम्बन्धी दोषो की उत्तम चिकित्सा क्रमशः इस प्रकार है।
वातदोष की चिकित्सा बस्ति प्रयोग, पित्तदोष की चिकित्सा विरेचन प्रयोग तथा कफदोष की चिकित्सा वमन प्रयोग है। वातदोष मे तेल, पित्तदोष मे घी, और कफदोष मे मधु का प्रयोग शमन चिकित्सा है। मानसिक (रजस् तथा तमस्) दोषो की उत्तम चिकित्सा है – बुद्धि तथा धैर्य से व्यवहार करना और आत्मादि विज्ञान( कौन मेरा है, क्या मेरा बल है, यह कौन देश तथा कौन मेरे हितैषी है) का विचार कर कार्य करना।
चिकित्सा धर्म के चार पाद (चरण) माने जाते है ।
जैसे – १. भिषक (वैध),
२. द्रव्य ( मैनफल आदि शोधन द्रव्य, गुरुच आदि शमन द्रव्य तथा बस्ति आदि शोधन उपकरण ),
३. उपस्थाता (परिचायक या नर्स) तथा
४. रोग।
इन चारो मे प्रत्येक मे चार चार गुण होने चाहिए।
वैध के चार लक्षण – १.दक्ष(कुशल),
२.तीर्थ( आचार्य ) से शास्त्र(आयुर्वेद शास्त्र)के अर्थ को ग्रहण कर चुका हो।
३.दृष्टकर्मा( चिकित्सा की विधियों को अनेक बार देख चुका हो।
४. जो शुचि( शरीर तथा आचरण से पवित्र)हो।
औषध द्रव्य के चार लक्षण – १.बहुकल्प(जो स्वरस,क्वाथ, फाण्ट,अवलेह, चूर्ण आदि अनेक रूपों में दिया जा सकता) हो।
२. बहुगुण (जो औषध के सभी गुणो से सपन्न) हो।
३.सपन्न(जो अपने गुणों की सम्पत्ति से युक्त) हो।
४. योग्य(जो रोग, रोगी, देश, काल आदि के अनुकूल ) हो।
परिचारक के चार लक्षण –
१. अनुरक्त(रोगी से स्नेह रखने वाला)।
२. शुचि( साफ सफाई रखने वाला)।
३.दक्ष(कुशल)
४.बुद्धिमान होना चाहिए।
रोगी के चार लक्षण –
१. आढय( धन जन आदि से सम्पन्न)।
२. भिग्वश्य( वैध की आज्ञानुसार औषधि सेवन करने वाला।
३.ज्ञापक(अपने सुख दुख कहने मे सक्षम)।
४.सत्त्ववान्(मानसिक शक्ति सम्पन्न तथा चिकित्सालय मे होने वाले कष्टो से न घबराने वाला) हो।
साध्य तथा असाध्य इस प्रकार रोग के दो भेद होते है। इन दोनो के पुनः दो भेद होते है।
साध्य के भेद –
सुखसाध्य तथा कृच्छ्र ((कष्ट) साध्य।
असाध्य के भेद –
याप्य (कुछ दिन चिकित्सा द्वारा चलाने योग्य) तथा
अननुपक्रम अर्थात चिकित्सा के अयोग्य ( जवाब देकर चिकित्सा करने योग्य)।
सुखसाध्य रोग के लक्षण- जिस रोगी का शरीर सभी प्रकार की चिकित्साविधियो को सहन करने में सक्षम हो, जो युवक( बालक या वृद्ध न ) हो, जो जितेन्द्रिय हो, जिसका रोग किसी मर्मस्थल मे उत्पन्न न हुआ हो, जिस रोग के उत्पादन हेतु (कारण), पूर्वरूप, रूप, आदि थोड़े एवं सामान्य( उग्र न) हो, जिसमें अभी तक कोई उपद्रव पैदा न हुए हों तथा जिस्म दूष्य, देश, ऋतु एवं प्रकृति समान न हो, चिकित्सालय मे उक्त चारो पाद अपने अपने गुणों से सम्पन्न हो, सूर्य- चन्द्र आदि ग्रह अनुकूल हो, रोग एक दोष से उत्पन्न हो, एकमार्गगामी हो और रोग नया हो।
संक्षेप में जो रोग आराम से ठीक हो जाये वह सुखसाध्य है।
कष्टसाध्य रोग के लक्षण- कृच्छ्र शब्द का अर्थ है कष्ट। कष्टसाध्य रोग वे होते है जिनमे शस्त्र क्षार अग्नि( दाह) कर्म तथा विष आदि के प्रयोग किए जाते है।जिन रोगो मे ऊपर कहे गए सुखसाध्य के लक्षण संकर( मिले जुले) हो अर्थात पूर्णरूप से विद्यमान न हो।
याप्य रोग के लक्षण – उस रोग को याप्य कहते है जिसमें सुखसाध्य के लक्षणो से विपरीत लक्षण हो, किन्तु आयु के शेष रहने के कारण तथा पथ्य( हितकर) आहार विहार तथा औषध के अभ्यास(लगातार सेवन) के कारण रोगी चल फिर सक रहा हो।
अर्थ –
प्रत्याख्येय रोग के लक्षण – उस रोग को अनुपक्रम भी कहते है जो सुखसाध्य लक्षणो से अत्यन्त विपरीत हो और जो औत्सुक्य, मोह तथा अरति(बेचैनी) लक्षणो वाला हो, जिसमे अरिष्ट(मृत्युकारक) लक्षण दिखाई दे रहे हो एवं जिसमें ज्ञानेन्द्रियो का नाश हो गया हो।
औत्सुक्य भाव को रोगी मे इस प्रकार देखेंगे – अधिक प्रसन्न होना, उठ उठ कर दौड़ना, आदि या मोह, बेहोशी, प्रलाप(अंट संट बकना) आदि। अरति(बेचैनी), हाथ पांव पटकना, सिर घुमाना आदि।
त्याज्य रोगी – चिकित्सक को चाहिए कि निम्न प्रकार के रोगी की चिकित्सा न करें –
१. जिससे राजा या महाजन द्वेष करता हो या जो स्वयं अपना द्वेषी हो।
२. जो राजाओं (श्रीमानो ) से द्वेष करता हो।
३. वैध से द्वेष करता हो।
४. जिसके पास चिकित्सा के उपयोगी साधन न हो।
५. जो व्यग्र हो अर्थात चिकित्सा कराने मे सक्रिय न हो, इधर उधर भटकता रहता हो।
६. जो रोगी चिकित्सक की आज्ञानुसार चलना स्वीकार न करता हो।
७. जो गतायु हो ( इसका ज्ञान ज्योतिषी आदि से किया जा सकता है)।
८. जो अत्यन्त क्रोधी हो।
९. शोकातुर हो अर्थात स्त्री, पुत्र, धन आदि के नाश से दुखी हो।
१०. जो भीरू(डरपोक) हो अर्थात पंचकर्म आदि क्रियाओ से डरता हो।
११. कृतघ्न अर्थात दूसरो द्वारा किये गये उपकारो को न मानता हो।
१२. जो वैधमानी हो अर्थात जिसमे वैध का ज्ञान न हो फिर भी अपने आप को वैध मानता हो।
अब यहां से सम्पूर्ण अष्टाङ्गह्रदय के आध्यायो के संग्रह का वर्णन किया जा रहा है।
सूत्रस्थान के अध्यायो की गणना की जा रही है- १. आयुष्कामीय, २. दिनचर्या, ३.ऋतुचर्या, ४. रोगानुत्पादनीय, ५. द्रवद्रव्यविज्ञानीय, ६. अन्नस्वरूपविज्ञानीय, ७. अन्नरक्षाध्याय, ८. मात्राशितीय, ९. द्रव्यादिविज्ञानीय, १०. रसभेदीय, ११. दोषादिविज्ञानीय, १२. दोषभेदीय, १३. दोषोपक्रमणीय, १४. द्विविधोपक्रमणीय, १५. शोधनादिगणसंग्रह, १६. स्नेहविधि, १७. स्वेदविधि, १८. वमन विरेचनविधि, १९. बस्तिविधि, २०. नस्यविधि, २१. धुम्रपानविधि, २२. गण्डूषाविधि, २३. अश्चोतनाञ्जनविधि, २४. तर्पणपुटपाकविधि, २५. यन्त्रविधि, २६. शस्त्रविधि, २७. सिराव्यधविधि, २८. शल्याहरणविधि, २९. शस्त्रकर्मविधि, ३०. क्षाराग्निकर्मविधि ये अध्याय सूत्रस्थान मे है।
शरीरस्थान के अध्यायो की गणना की जा रही है।- १. गर्भावक्रान्ति, २. गर्भव्यापद, ३. अङ्गविभाग, ४. मर्मविभागीय, ५. विकृतिविज्ञानीय तथा ६. दूषादिविज्ञानीय। ये अध्याय शरीरस्थान मे है।
निदानस्थान के अध्याय – १. सर्वरोगनिदान, २.ज्वरनिदान, ३.ऐ रक्तपित्तकासनिदान, ४. श्वासहिक्कानिदान, ५. राजयक्ष्मानिदान,६. मदात्पयनिदान, ७. अर्शोनिदान, ८. अतिसारग्रहणीरोगनिदान, ९. मूत्रघातनिदान, १०. प्रमेहनिदान, ११. विद्रधिवृद्धि – गुल्म-निदान, १२. उदररोगनिदान, १३. पाण्डुरोगशोफविसर्पनिदान, १४. कुष्ठश्वित्रक्रिमिनिदान, १५. व्यातव्याधिनिदान तथा १६. वातशोणितनिदान।
चिकित्सितस्थान के अध्याय- १. ज्वर, २. रक्तपित्त, ३. कास, ४. श्वासहिक्का, ५. राजयक्ष्मादि, ६. छर्दिहृद्रोगतृष्णा, ७. मदात्ययादि, ८. अर्शसाम्ऽचिकित्सित, ९. अतिसार, १०. ग्रहणीरोग, ११. मूत्राघात, १२. प्रमेह, १३.विद्रधिवृद्धि, १४. गुल्म, १५. उदर, १६. पाण्डुरोग, १७.श्वयथु, १८. विसर्प, १९. कुष्ठ, २०. श्वित्रक्रिमि, २१. वातव्याधि तथा २२. वातशोणित।
कल्प-सिद्धिस्थान के अध्याय- १. वमनकल्प, २. विरेचनकल्प, ३. वमनविरेचनसिद्धि, ४.बस्तिकल्प, ५.अस्तिव्यापत्सिद्धि, तथा ६. भेषजकल्प।
उत्तरस्थान के अध्याय- १. बालोपचरणीय, २. बालामयस्रतिषेध, ३. बालग्रहप्रतिषेध, ४. भूतविज्ञानीय, ५. भूतप्रतिषेध, ६. उन्मादप्रतिषेध, ७. परस्मार(स्मृतिभन्श)प्रतिषेध, ८. वर्त्मरोगविज्ञानीय, ९. वर्त्मरोगप्रतिषेध, १०.सन्धिसितासितरोगविज्ञानीय, ११. सन्धिसितासितरोगप्रतिषेध, १२. दृष्टिरोगविज्ञानीय, १३. तिमिरप्रतिषेध, १४.लिङ्गनाशप्रतिषेध, १५. सर्वाक्षिरोगविज्ञानीय, १६. सर्वाक्षिरोगप्रतिषेध, १७. कर्णरोगविज्ञानीय, १८. कर्णरोगप्रतिषेध, १९. नासारोगविज्ञानीय, २०. नासारोगप्रतिषेध, २१. मुखरोगविज्ञानीय, २२. मुखरोगप्रतिषेध, २३. शिरोरोगविज्ञानीय, २४. शिरोरोगप्रतिषेध, २५. व्रणविज्ञानीय, २६. सद्योव्रणप्रतिषेध, २७. भङ्गप्रतिषेध, २८. भगन्दरप्रतिषेध, २९. ग्रन्थि-अर्बुद-श्लीपद-अपची-नाडीविज्ञानीय, ३०. ग्रन्थि-अर्बुद-श्लीपद-अपची-नाडीप्रतिषेध, ३१. क्षुद्ररोगविज्ञानीय, ३२. क्षुद्ररोगप्रतिषेध, ३३. गुह्यरोगविज्ञानीय, ३४. गुह्यरोगप्रतिषेध,३५. विषप्रतिषेध, ३६. सर्पविषप्रतिषेध, ३७. कीटलूतादिप्रतिषेध, ३८. मुषिकलार्कविषप्रतिषेध, ३९. रसायनध्याय तथा ४०. वाजीकरणध्याय।
इस प्रकार सम्पूर्ण अष्टाङ्गह्रदय के अध्यायो की गणना उक्त छह स्थानो में कर दी गयी है।
इति प्रथमोध्यायः॥
31/12/19, 9:31 pm – Shastragyan Abhishek Sharma: रामायण बालकाण्ड एकोनविंशः सर्ग श्लोक १,२,३,४,५
तच्छ्रुत्वा राजसिंहस्य राजमद्भुतविस्तरम्।हृष्टरोमा महातेजा विश्वामित्रोभ्यभाषत॥१॥
राजसिंह महाराज दशरथ के अद्भुत और विस्तृत वचन सुन महातेजस्वी विश्वामित्र हर्षित हो कहने लगे।
सदृशं राजशार्दूल तवैतद्भुवि नान्यथा। महावंशप्रसूतस्य वशिष्ठव्यपदेशिनः॥२॥
हे राजशार्दूल! ऐसे वचन आप जैसे इक्ष्वाकुवंशी और वशिष्ठ जी के यजमान को छोड़कर और कौन कहेगा।
यत्तु मे हृढ्गतं वाक्यं तस्य कार्यस्य निश्चयम्। कुरूष्व राजशार्दूल भव सत्यप्रतिश्रवः॥३॥
हे राजशार्दूल! अब मैं अपने मन की बात कहता हूं। उसके अनुसार कार्य करके आप अपनी प्रतिज्ञा को सत्य कीजिए।
अहं नियममातिष्ठे सिद्धयर्थं पुरूषर्षभ। तस्य विघ्नकरौ द्वौ तु राक्षसो कामरूपिणौ॥४॥
हे नरश्रेष्ठ! जब मैं फल प्राप्ति के लिए यज्ञदीक्षा ग्रहण करता हूं, तब दो कामरूपी राक्षस आकर विघ्न किया करते हैं।
व्रते मे बहुशश्चीर्णे समाप्त्यां राक्षसाविमौ। तौ मांसरूधिरौघेण वेदिं तामभ्यवर्षताम्॥५॥
जब बहुत दिनों तक किया हुआ यज्ञ पूरा होने को होता है, तब वे राक्षस आकर यज्ञवेदि पर मांस और रुधिर बरसाते हैं।
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