खंडन 15 – कृष्ण और कर्ण संवाद की झूठी पोस्ट का खंडन
आजकल कृष्ण जी और कर्ण के मध्य एक वार्तालाप का मैसेज बहुत वायरल हो रहा है | ये पोस्ट, खंडन के लिए मेरे समक्ष आया है | अतः आज हम इसकी चर्चा करेंगे | ऐसे बहुत से मेसेज, कथा, कहानियाँ सोशल मिडिया पर वायरल की जाती हैं, जिनका शास्त्रों से दूर दूर तक का कोई लेना देना नहीं होता है | जो पूर्णतया काल्पनिक, गलत और अशस्त्रोक्त होता है किन्तु कोई बाबा, कोई कथावाचक, किसी प्रेरणा को देने के लिए, इस प्रकार के झूठे कथानक बनाते हैं | इसका नुक्सान ये होता है कि जिसने शास्त्रों को कभी पढ़ा ही नहीं, वो उन्हें सच मानने लगता है और एक गलत कथानक, उस शास्त्र अथवा ग्रन्थ के नाम पर, उसके दिमाग में बैठ जाता है और असली ग्रन्थ, जो कभी छुआ भी नहीं, उसको वो देखता तक नहीं | खैर, पुनः वापिस आते हैं, इस मनगढ़ंत कहानी पर (फेक कहानी का लिंक पोस्ट के कमेन्ट में है) |
पढने वाले जान लें, कि इस प्रकार का कोई संवाद, महाभारत में नहीं है | इस संवाद में शब्द भी गलत चुने गए हैं | पहले कर्ण अपनी परेशानी बताते हैं, पहले कर्ण कहता है कि मैं कुंती की अवैध संतान था तो इसमें मेरी क्या गलती है ? – यहाँ समझने वाली बात ये है कि कर्ण कुंती की अवैध संतान नहीं थे | कर्ण मन्त्र द्वारा, सूर्य के बंधने पर, सूर्य भगवन से प्रदत्त थे | ये अवैध कहाँ से हो गयी ? ये लोकमर्यादा के विरुद्ध था कि एक बच्चा, शादी से पहले हो गया | अवैध होने में (किसी पर पुरुष से सम्बन्ध बना कर, बच्चे को त्यागने में) और लोकमर्यादा के विरुद्ध होने में अंतर है | पर जाहिर सी बात है, माता के फैसले में, बच्चे का कोई दोष नहीं होता है |
दूसरी बात कर्ण कहता है कि उसे द्रोणाचार्य से शिक्षा नहीं मिली | जिन्होंने टीवी वाली महाभारत देखी है, उनको ये सत्य भी लगता होगा पर ऐसा है नहीं | महाभारत में ‘आदि पर्व के संभव पर्व के अध्याय 131’ में स्पष्ट लिखा है कि कर्ण ने भी द्रोणाचार्य से ही शिक्षा ली थी और वो अर्जुन से बैर रखता था | महाभारत में कर्ण और दुर्योधन पहले से एक दुसरे को जानते थे और मित्र थे, न कि जैसा टीवी में दिखाया कि केवल रंगभूमि में वो पहली बार मिले | कर्ण की शिक्षा द्रोणाचार्य के आश्रम में ही हुई थी और पूर्ण शिक्षा लेने के बाद कर्ण, ब्रह्मास्त्र सीखना चाहता था, कारण पूछने पर, अर्जुन से द्वेष बताया था तो द्रोणाचार्य ने कर्ण को मना कर दिया और उन्होंने ही स्वयं कर्ण को परशुराम को प्रसन्न करने को कहा था कि यदि वो प्रसन्न हो गए तो ब्रह्मास्त्र दे सकते हैं | (द्रोणाचार्य, बच्चों को सिखाने में, उनके कुल आदि का ध्यान रखते थे और भेदभाव भी करते थे | उन्होंने स्वयं भी अर्जुन के रसोइये से कहा था कि अर्जुन को दिन ढलने के बाद भोजन भूलकर भी न दे, इस प्रकार का भेदभाव वो करते थे | अर्जुन के शब्दभेदी बाण सीखने का सम्बन्ध, इसी भोजन से है)
तीसरी बात, कर्ण कहता है परशुराम को पता चलने पर कि मैं कुंती का पुत्र हूँ, उन्होंने मुझे श्राप दिया | ऐसा नहीं था, अव्वल तो उस समय तक कर्ण को स्वयं नहीं पता था कि वो कुंती पुत्र है अतः इस बात पर श्राप का तो प्रश्न ही नहीं उठता | श्राप मिला इसलिए क्योंकि कर्ण ने झूठ बोलकर विद्या ग्रहण की थी | गुरु से झूठ की बड़ी निंदा है | अतः यहाँ भी तथ्यों को मरोड़ दिया गया है | संभव है कि द्रोणाचार्य द्वारा आश्रम से निकालने पर, उनसे बेहतर विद्या प्राप्त करने के लिए, कर्ण परशुराम जी के पास गया हो और क्योंकि वो क्षत्रियों को नहीं सिखाते थे, अतः झूठ बोलकर ब्राह्मण होने का स्वांग रचा हो, जिसका दंड उसे अंत में मिला | गलत बात का नतीजा गलत ही होता है |
आगे कर्ण कहता है कि मेरे बाण से एक गाय मारी गयी और बिना मेरी गलती के ब्राहमण ने मुझे श्राप दे दिया | गाय का मारा जाना, सबसे जघन्य अपराधों में से एक गिना जाता था, उस समय (इस समय नहीं गिना जाता किन्तु, उस समय गाय को मारना जघन्य पाप था) | यदि बाण से गाय मारी गयी, तो ये नहीं कहा जा सकता कि कोई गलती नहीं थी | जिसके पास शक्ति होती है, उसके पास शक्ति का सही समय और सही तरह से उपयोग करने की जिम्मेदारी भी होती है | भीम चाहता तो वस्त्रहरण के समय ही, दुर्योधन को मार डालता लेकिन उस समय वो दुर्योधन का नौकर था और ये सेवकधर्म के विरुद्ध था अतः शक्ति के साथ जिम्मेदारी भी आती है | आप ये नहीं कह सकते कि मैंने तो ये कर दिया, पर इसमें मेरी कोई गलती नहीं थी |
आगे कर्ण कहते हैं कि द्रौपदी स्वयंवर में, उनका अपमान हुआ | किन्तु द्रौपदी स्वयम्वर में कर्ण का अपमान कैसे हुआ ? क्षत्राणियों का विवाह, क्षत्रिय और ब्राह्मण में ही मान्य है (अपने वर्ण से ऊपर) वैश्य अथवा शूद्र से नहीं और उस समय तक कर्ण सूतपुत्र के नाम से ही विख्यात थे | ये बात सर्वविदित थी,फिर भी कर्ण, दुर्योधन के बहकावे में आकर, उस स्वयम्वर में गया, जिसमें उसे नहीं जाना चाहिए था | ये तो उसे भी पता था कि उसका विवाह द्रौपदी से नही हो सकता है | संभवतः जब दुर्योधन उस प्रतियोगिता को नहीं जीत पाया तो उसके अपमान को पूरा करने के लिए, कर्ण ने उस प्रयास को किया हो किन्तु उसको रोकने में कुछ भी गलत नहीं था | उस समय क्षत्राणियों का विवाह, शूद्र अथवा वैश्य से नहीं होता था |
अंत में, कर्ण कहता है कि मेरे साथ इतना गलत हुआ लेकिन दुर्योधन ने मेरा साथ दिया तो अब मैं अगर दुर्योधन का साथ देता हूँ तो मैं गलत कैसे हूँ ? यहाँ ये भी जानना जरूरी है कि जैसे बहुत से लोगों को लगता है कि कर्ण ने दुर्योधन का साथ दिया, इसलिए गलत था | ऐसा नहीं है, लोग बिना महाभारत पढ़े ही, महाभारत के बारे में, ऐसे मनगढ़ंत आख्यानो से एक सोच बना लेते हैं | महाभारत में सभी पात्रों ने, स्वधर्म की रक्षा की थी | कर्ण ने भी ! उसका धर्म था कि मित्र के किये परोपकार के लिए कृतज्ञ रहे, कृतघ्नता न करे और वही उसने किया | इसमें कर्ण का कोई दोष नहीं था | ये करना ही उसका धर्म था | यदि वो ऐसा नहीं करता तो वो कृतघ्नता करता और अधर्म का अनुसरण करता | लेकिन लोग, जानबूझकर कर्ण को दोषी बताते हैं और फिर उसे जस्टिफाई करने के लिए, इस प्रकार के मनगढ़ंत कथानक गढ़ते हैं |
अब इसके बाद कृष्ण जी बताते हैं कि उनके साथ कितना कितना गलत हुआ पर उन्होंने तो कभी उफ़ तक नहीं की | परिस्तिथियों में सामजस्य होना चाहिए आदि इत्यादि | यहाँ भी एक छोटी सी गडबड है कि कृष्ण जी, ऐसी बात करें, ये संभव ही नहीं है | स्वप्रशंसा अथवा मेरे साथ तो इतना बुरा बुरा हुआ आदि कोई अन्य तो कह सकता है किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण, जिनकी उस समय तक ये स्थापना हो चुकी थी (जब असल में कृष्ण और कर्ण संवाद हुआ, तब तक शान्तिदूत बनकर कृष्ण जा चुके थे) कि कृष्ण जी भगवान् हैं | उनको साधारण मनुष्य नहीं समझा जाता था हालांकि कुछ दुष्टबुद्धि जैसे शिशुपाल, शकुनी आदि ऐसा नहीं मानते थे | अतः भगवान् यदि इस प्रकार की बातें करे कि मेरे साथ ऐसा गलत हुआ, वैसा गलत हुआ और मैंने फिर भी देखो कितने संयम से काम लिया तो बात जमती नहीं है | स्वप्रशंसा की शास्त्रों में निंदा की गयी है और कृष्ण जी के जीवन में जो भी हुआ, वो कृष्ण जी की लीला ही थी | इसमें भाग्य का कोई रोल नहीं था | अतः जिसने भगवद्गीता जैसा गूढ़ रहस्य अर्जुन को बताया वो ऐसे साधारण वाक्यों और दृष्टान्तो से, किसी की शंका निवारण करे, ऐसा सही तो नहीं लगता |
पर मनगढ़ंत तो कुछ भी बनाया जा सकता है | अपनी बात जो कहनी है, अंत में सीख जो देनी है सो कथामास्टर ने, अंत में सीख दे दी | अब कुछ लोग कह सकते हैं कि भैया, चलो मनगढ़ंत है पर सीख तो अच्छी दी है, अगर किसी मनगढ़ंत बात से भी अच्छी सीख दी जा सकती है तो आपको क्या आपत्ति है ? तो मेरा कहना है कि मनगढ़ंत कहानी बनानी है, जिसमें सीख भी दी जा सके तो बनाइये पंचतंत्र जैसी | दुनिया आपकी विद्वत्ता का लोहा मानेगी लेकिन हमारे कृष्ण जी को लेकर, ऐसी मनगढ़ंत बातें न बनाएं, जो कहीं ग्रन्थों में है ही नहीं | आप असली में से ही कथा सुना दीजिये, महाभारत में ऐसी हजारों कहानियाँ हैं, जिनमें एक से बढ़कर एक सीख है, लेकिन क्योंकि वो आपने खुद नहीं पढ़ी है सो कृष्ण जी का नाम लेकर, मनगढ़ंत कहानियों का प्रचार कर रहे हैं और लोग उन्हें शास्त्रों से उद्धृत समझ कर, वाह वाह करते हैं | हम जैसे लोग, अपना सिर फोड़ते हैं कि लो, आ गयी एक और फर्जी कहानी, सोशल मिडिया पर | अरे, कहानी मनगढ़ंत है तो ठीक पर पात्र क्यों शास्त्रों में से ले रहे हैं, वो भी मनगढ़ंत ले लीजिये.. सीख देना उद्देश्य है न ? या केवल शास्त्रों और ग्रंथो पर कुठाराघात किये बिना, आप अपनी बात कह ही नहीं सकते हैं ! ऐसी कहानी, जिसमें कर्ण को द्रोणाचार्य ने नहीं पढ़ाया था, जिसमें कर्ण को परशुराम से श्राप, कुंती का पुत्र होने की वजह से मिला, जिसमें कर्ण का स्वयंवर में अपमान हो गया … मतलब सब कुछ फर्जी |
अतः सभी से अनुरोध है कि कृपया अपने मूलग्रंथो को स्वयं पढ़ें, ऐसे कथावाचकों से बचे, जो आपको आपके ही धर्मग्रंथों से दूर कर दें और फर्जी कथानकों से, आपके मन में एक नयी प्रकार की सोच ही बना दें | यदि आप असली ग्रन्थ पढेंगे तो आपको ऐसी हजारों प्रेरणास्पद कहानियाँ मिलेंगी | आनंद आएगा, पढ़ कर तो देखिये | लेकिन शास्त्रों और धर्म को, व्हात्साप्प और फेसबुक पर पढने से बचिए क्योंकि 95% तक का मेटेरियल फर्जी और गलत ही होता है | अतः कसम खाइए कि अब से स्वयं अध्ययन प्रारम्भ करेंगे और फर्जी कहानियों से धर्म को सीखने का प्रयास नहीं करेंगे | इस पोस्ट को शेयर कीजिये ताकि जितनी दूर तक वो फर्जी कहानी गयी है, उससे आधी दूर तक कम से कम ये खंडन भी पहुचे | इसे व्हात्सप्प और फेसबुक दोनों पर शेयर करें |पं अशोकशर्मात्मज अभिनन्दन शर्मा