December 22, 2024

aghori baba ki gita, अघोरी बाबा की गीता

अघोरी की बाबा की गीता 

जैसे ही मैंने श और ष में अंतर पूछा, बाबा का चेहरा झुझला गया |

ओह ! तो अब क्या व्याकरण भी पढ़ाना पड़ेगा ? ऊपर की तरफ देखते हुए बाबा बोले – इसे गीता पढ़ानी थी ! इसे तो क ख ग भी सिखाना पड़ेगा पहले !!!

अब फिर से बातें सर के ऊपर से जा रही थी, ये किस से बात कर रहे थे ? क्या ये किसी के कहने से मुझसे मिल रहे हैं ? वैसे बाबाओ की बात समझ भी नहीं आती | कब बडबडाते हैं, कब चिल्ला देते हैं, कुछ समझ में नहीं आता |

तेरा ध्यान किधर है मूर्ख ? स को ३ बार बोल – बाबा का आदेश हुआ |

मैंने तीन बार स को धीरे धीरे बोला | जीभ कहाँ लगी है ? – बाबा अब शायद थोड़े गुस्से में थे या शायद झुझ्लाये हुए थे | होठो कि मुस्कराहट कहीं गुम हो गयी थी और अब थोडा कडक हो गए थे |

मैंने बताया – जीभ दांतों पर लगी है और हवा बाहर जा रही है |
अब श बोल ३ बार और बता जीभ कहाँ लग रही है ? – बाबा रोष में बोले |
मैंने बताया – दांतों से पहले थोडा ऊपर तालू में लग रही है और हवा निकल रही है |

अब जीभ को और पीछे लेकर के जा और हवा निकाल और बोल – देख मुंह से क्या निकलता है !

मैंने जीभ को और मोड़ा, पीछे लेकर के गया और हवा निकाली | मुझे ऐसा लगा जैसे मेरा श दब गया है और एक भारी से आवाज निकल रही है |

यही ष का उच्चारण है – बाबा ने थोडा शांत होते हुए बोला | कभी सुना है – सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङुलम् || – अगर सही उच्चारण नहीं होगा तो इसको कैसे बोलोगे ? – अब वो थोडा मुस्कुरा भी रहे थे | शायद समझाने के उद्देश्य से उन्होंने ये बोला ।

पर मेरी परेशानी तो कुछ और ही थी ! मैंने बाबा को अपनी परेशानी बताने में देर भी नहीं की | मैंने तो अभी तक सहस्रशीर्षा पुरुख ही सूना था ! ये सहस्रशीर्षा पुरुषः कैसे हो गया ? मैंने क्या गलत सुना है बाबा ?

उच्चारण जीभ की लचक पर आधारित होता है | जीभ जिसकी जितनी लचीली होगी, वो उतना साफ़ उच्चारण कर पायेगा ! दक्षिण भारत के लोग अच्छा उच्चारण करते हैं, क्योंकि वहां गर्मी ज्यादा पड़ती है और शरीर में लचक होती है जबकि पंजाब के, कश्मीर के, उत्तराखंड के पंडित सही से उच्चारण नहीं कर पाते क्योंकि वहां ठण्ड पड़ती है और जीभ कठोर हो जाती है, लचक नहीं रह पाती, ऊपर से प्रयास भी नहीं होते | जब जीभ नहीं मुड़ेगी, तो ष का ख हो जायेगा | पंजाबियों में देखना, वो भ्राता को प्रा ही बोल पाते हैं, उनके यहाँ शिष्य भी सिख हो जाता है ! गुरु गोविन्द सिंह कौन थे, गुरु ही तो थे और बाकी कौन थे, उनके शिष्य थे लेकिन शिष्य के लिए जीभ का मुड़ना जरुरी है इसलिए वो आसानी से सिख हो जाता है | अंग्रेज कभी त नहीं बोल पाते क्योंकि वो हमेशा ट ही बोलते रहे हैं अंग्रेजी में और त का कभी अभ्यास भी नहीं किया सो वो तुम की जगह जब भी बोलेंगे टुम बोलेंगे | जीभ की लचक, कम ज्यादा होने से, उच्चारण में दोष पैदा करती है |

ये तो बड़े आश्चर्य की बात बताई बाबा, इसका मतलब तो ये हुआ कि जो आदमी गूंगा है, वो तो बेचारा कभी बोल ही नहीं सकता, वो तो कोई मन्त्र पढ़ ही नहीं सकता ! मेरे उच्चारण पर इत्ता ध्यान दे रहे हैं, उसको क्या बोलेंगे ?? हमारे उच्चारण में दोष है तो भाव बदल रहा है, वो तो बोल ही नहीं सकता ! उसका भाव कैसे पता चलेगा ?? वो साधना कैसे करेगा ? – मैंने इस बार एक ओवर की छहों गेंदे एक ही बार में डालने की कोशिश की |

ईश्वर साधना के लिए मन्त्र नहीं – योग की आवश्यकता होती है | जाप में कितने लोगों को बोलते हुए सुना है ? जाप मन में होता है ! मन की आवाज ज्यादा तेज है, शब्द वहां तक नहीं पहुँच पाते | जिसके पास जिह्वा है, वो स्तुति कर सकता है अपने मन के भावों को प्रकट कर सकता है पर जो नहीं प्रकट कर सकता है, उसका भी कोई दोष नहीं है, वो मन में ही अपनी बात कह सकता है | ऊपर की तरफ ऊँगली करके बाबा बोले – उसके पास सब पहुँचता है | कृष्ण जी ने खुद को यज्ञों में जाप यज्ञ इसीलिए कहा है | जिसके हाथ नहीं है, क्या वो नमन नहीं कर सकता ? अगर हाथो से नमस्कार नहीं कर पायेगा तो घुटनों के बल बैठ कर, गर्दन को नीचा करके नमन कर लेगा | योग के लिए, इन्द्रियों की आवश्यकता नहीं होती |

बाबा आपने तो बड़ी गूढ़ बात बतायी है बिलकुल ऋषियों मुनियों जैसी – मैंने बाबा को मस्का लगाने की कोशिश की | पर उनके दिमाग में पता नहीं क्या चल रहा था,
बोले – किसके जैसी ?
ऋषियों मुनियों जैसी | – मैंने दोहराया

रिशी नहीं होता है ॠषि होता है | – अब फिर दिमाग का दही ! मैं तो ऐसे ही बोलता और सुनता आ रहा हूँ | मैंने बाबा से पुछा – बाबा, क्या गीता पढने के लिए ये सब भी आवश्यक है ? क्या हम सीधे गीता की बात नहीं कर सकते हैं ?

बाबा बोले – बेटा, PhD करने के लिए शुरू की कक्षाएं तो पढनी ही पड़ेंगी न और वैसे भी मैं जो बता रहा हूँ, वो कहीं न कहीं गीता से ही जुड़ा हुआ है | सबमें गीता है और गीता में सब है | जल्दी क्या है ? वो भी सीखेंगे | पहले ॠ बोलना सीख | जब उच्चारण ठीक होगा, तो चीजें आसानी से समझ में आयेंगे | विषयांतर मत कर |

मैंने पुछा – बाबा, पर हम तो ऐसे ही बोलते आ रहे हैं | कभी किसी अध्यापक ने नहीं बोला कि हम गलत बोल रहे हैं, कोई तो बोलता अगर गलत होता तो !

बेटा – ज्ञान लुप्त हो रहा है, तू कलियुग में जी रहा है, धीरे धीरे सब भ्रष्ट हो जाएगा, इक्का दुक्का ही बचेंगे जिन्हें ज्ञान प्राप्त होगा | और किसी ने टोका नहीं का मतलब ये नहीं होता कि वो सही है | खुद से अनुसंधान करना चाहिए | अब बातें मत घुमा, र को तीन बार बोल – फिर से बाबा का आदेश हुआ |

मैंने र को तीन बार बोला |

अब उ को तीन बार बोला और देख जीभ कहाँ लग रही है ! – मुझे ऐसा लग रहा था जैसे किसी पहली कक्षा के बच्चे को क, ख, ग पढाया जा रहा है पर बात तो ये भी थी कि कभी किसी ने ऐसे नहीं पढाया था |

मैंने उ को तीन बार बोला और देखा कि जीभ ऊपर जा ही नहीं रही थी, नीचे ही चिपकी हुई थी | मैंने बाबा को बताया कि जीभ तो नीचे ही है, कहीं लग ही नहीं रही है |

अब बाबा बोले – अब उ बोल और जीभ को ऊपर ले जा और ऊपर के तालू से पहले वहां रोक दे, जहाँ तक कि जीभ उ की आवाज में व्यवधान न पैदा कर दे और र जैसे आवाज व्यवधान के साथ न निकले | तीन बार ऐसा कर |

मैंने कोशिश की और एक विचित्र सी आवाज निकली जो पहले कभी नहीं निकली थी | कुछ रु जैसी आवाज थी पर थोड़ी परेशानी से निकल रही थी |

अब बाबा बोले, अब जीभ को और पीछे ले जा, जहाँ से ष का उच्चारण हुआ था और इसी प्रकार आवाज निकाल, वो जो उच्चारण है, वह ऋ का उच्चारण है |

मैंने कोशिश की और पाया कि इस प्रकार मैंने कभी ऋ नहीं बोला था इस से पहले | पर अब एक बात और विचित्र थी – कि फिर उत्तर भारत के लोग ऋ का उच्चारण रि जैसा क्यों करते हैं ? बाबा एक बात बताते थे तो मेरे दिमाग में २ सवाल यक्ष रूप में खड़े हो जाते थे !

मैं उत्तर भारतीयों के ऋ और रि के उच्चारण के बारे में बाबा से कुछ पूछ पाता, इस से पहले बाबा ने ही मेरे से पूछा –

चाय पिएगा ?

मैं इशारा समझ के, उठने के लिए प्रयासरत हुआ कि अच्छा बाबा, लेकर आता हूँ, वो बोले – बैठ ! बस ये बता, चाय पिएगा ?

मैंने कहा – हाँ, बाबा – पी लेंगे |

मेरा इधर हाँ कहना था और उधर से एक लड़का करीब १८-२० साल का हाथ में दो चाय के कुल्हड़ लेता हुआ आ गया | जैसे उसे पता था कि मैं हाँ ही बोलूँगा और उसके पास दो चाय पहले से तैयार रखी हों | मजेदार बात ये, कि न तो बाबा ने चाय के लिए किसी को आवाज दी थी और न ही मैंने उनको किसी को इशारे करते हुए देखा था क्योंकि वो पूरी तरह से मेरी तरफ मुखातिब थे और मैं उनकी | ये तो इच्छा करते ही पूरी हो जाने जैसी बात थी ! शायद बाबा बड़े वाले योगी भी थे या फिर ये कल्पवृक्ष का प्रभाव था | जो भी था, चाय तुरंत आ चुकी थी वो भी गरम गरम |

बाबा ने चाय का सुड्का मारते हुए खुद ही रि और ऋ की बात को आगे बढ़ाया – सब जीभ की लचक का खेल है | जैसा पहले बताया ष बोलने के लिए जीभ को ज्यादा मोड़ना पड़ेगा और ऐसे ही ऋ बोलने के लिए भी जीभ को ज्यादा मोड़ना पड़ेगा अतः दक्षिण भारत के लोग तो इसको ऐसे ही बोल पाते हैं लेकिन उत्तर भारत के लोग क्योकि ठण्ड के अभ्यस्त होते हैं और जीभ थोड़ी कठोर होती है तो आसान तरीका है कि ऋ को ऋ न बोलकर रि बोल दिया जाए या तो उत्तर भारत के लोग भी अभ्यास करें अन्यथा आसान तरीका अपनाएँ और उत्तर भारत के पंडितों ने आसान तरीका अपनाया हुआ है |

उत्तर भारत में तो मैं भी आता हूँ सो मैंने बाबा से पूछ ही लिया कि जब आसान तरीका है कि जीभ को दांतों से पहले तालू तक ले जाने पर भी रु जैसी आवाज निकल रही है तो पीछे क्यों ले जाना है ? ये भी तो आसान तरीका है !

नहीं, अगर ऐसा करोगे तो ऋषि का सही उच्चारण नहीं कर पाओगे, कृषि का सही उच्चारण नहीं कर पाओगे क्योंकि जीभ ऋ के उच्चारण के तुरंत बाद ष बोलने के लिए पीछे नहीं जा पाती जबकि यदि ऋ के बाद ष का उच्चारण करना है तो जीभ को पीछे ले जाना ही पड़ेगा और ऐसा सिर्फ तब ही सम्भव है जब आप ऋ का उच्चारण भी वही से करें जहां से ष का किया था तब आप ऋषि और कृषि आसानी से बोल पाएंगे हालांकि तब भी थोड़ा अभ्यास तो करना ही पड़ेगा पर जब थोडा अभ्यास कर लोगे तो फिर आदत हो जाएगी | – बाबा ने समझाते हुए कहा |

चाय की चुस्कियां चलती जा रही थी और बाबा की बातों की गहराई बढती जा रही थी | अब मुझे धीरे धीरे ऐसा लगने लगा था कि हर बात गूगल बाबा नही सीखा सकते । कोई तो है जो शायद गूगल से ज्यादा जानता है नही तो अभी तक तो हर चीज के लिए गूगल बाबा की शरण में ही जाना पड़ता था । मुझे पहली बार गूगल का ज्ञान सीमित लग रहा था, वरना मेरे घर में तो मेरी बेटी तक गूगल को ही बाबा बोलती है ।

अब आगे सुन, जो आवाज कंठ से आती हैं और उस से जो अक्षर बनते हैं उन्हें “कंठव्य” कहते हैं, जैसे – क, ख, ग, घ | इस उच्चारण की खासियत ये है कि अगर एक मोमबत्ती को अपने होठों के सामने रख कर इनका उच्चारण करोगे तो “क” पर लौ नहीं हिलेगी पर “ख” पर हिलेगी, ऐसे ही “ग” पर नहीं हिलेगी पर “घ” पर हिलेगी | अतः कंठ से ये चार प्रकार की ही आवाज निकल सकती है, क में हवा रोक कर और ख में हवा छोड़ कर, ग में हवा रोक कर और घ में हवा छोड़ कर | पांचवी आवाज आप कंठ से नहीं निकाल सकते |

मैंने बाबा की बात को टेस्ट करने करने के लिए एक हल्का सा प्रयास भी किया और इस बात को सही पाया ।

ऐसे ही तालु की मदद से होने वाले उच्चारण “तालव्य” कहलाते हैं, जैसे च, छ, ज, झ और इसमें भी ऐसे ही मोमबत्ती की लौ कर नियम रहेगा और इनके आलावा तालु से और कोई आवाज संभव नहीं है |

इस बार मैंने प्रयास ही नही किया क्योंकि मुझे लग गया था कि बाबा की बातें संदेह से परे ही हैं, चाहे मेरी समझ में आएं या न आएं । संदेह करना मेरी मूर्खता ही होगी ।

मूर्धा से (कंठ के थोडा ऊपर का ) होने वाले उच्चारण “मूर्धन्य” कहलाते हैं जैसे – ट, ठ, ड, ढ, ण | दांतों की मदद से बोले जाने वाले वर्ण “दंतव्य” कहे जाते हैं जैसे त, थ, ध, द, न और होठों से बोले जाने वाले वर्ण “ओष्ठव्य” कहलाते हैं जैसे प, फ, ब, भ, म | आप इनके आलावा और किसी और अक्षर का उच्चारण नहीं कर सकते | अब बताओ क्या सीखा ? – बाबा ने अब टेस्ट लेना शुरू किया कि मेरी कुछ समझ में भी आ रहा है या मैं ऐसे ही मुंडी हिला रहा हूं ।

मैंने कहा कि मुझे आपने अक्षर के बारे में बताया, और उन अक्षरों की उत्पत्ति और उच्चारण कैसे होता है, इसके बारे में बताया और मुझे ये भी समझ आया कि क के बाद ख ही क्यों आता है और ख के बाद ग और ग के बाद घ ही क्यों आता है और इन अक्षरों के अलावा कोई और आवाज इन अंगों से नहीं निकल सकती है |

वो बोले, अब सबसे काम की बात ध्यान लगा के सुन – क्षर माने क्या ? क्षर माने जिसका क्षय हो जाए, जो नित्य नहीं है, जिसका नाश हो सकता हो या जो घटती जाए और अक्षर माने इसका उल्टा | जो नित्य रहे, जो अविनाशी हो | अक्षर दुनिया में केवल एक है – आत्मा, जो कि अविनाशी है और इसी से अक्षर को ब्रह्म कहा गया है और इस आत्मा को, इस ब्रह्म को उच्चारित करने के लिए एकाक्षर है – ॐ | इसीलिए कहा गया है – ओंकार बिंदु संयुक्तं, नित्यं ध्यायन्ति योगिनः ! योगीजन किसका ध्यान करते हैं ? उस आत्मा का, उस ब्रह्म का चिंतन करते हैं और कैसे करते हैं ? ओमकार स्वरुप में जिसको ॐ से उच्चारित किया जाता है |

ओह ! ये तो बात कहीं से कहीं आ गयी । अभी तक तो बाबा व्याकरण और वर्णमाला ही समझा रहे थे अब ये अचानक एकाक्षरी मंत्र और आत्मा, कहाँ से आ गए ! मुझे पूछना ही पड़ा –

ॐ का अर्थ क्या है बाबा ?

बाबा बड़ी गंभीरता से समझाने लगे – तुमको अगर किसी वस्तु के बारे में बताना हो तो तुम उसका नाम लोगे, ताकि और लोग समझ जाएं कि तुम किसकी बात कर रहे हो । तुम अपने भाव को उस वस्तु के नाम से संप्रेषित करोगे जैसे टमाटर शब्द एक वस्तु के लिए निर्धारित है, जिसके उच्चारण से टमाटर से परिचित लोगों के मन में समान आकार की वृत्ति उत्पन्न होती है। यदि तुमको लगेगा कि लोगो की समझ मे नही आ रहा है तो तुम उस भाव को अन्य प्रकार के वर्णन करके समझाने का प्रयत्न करोगे । जिस सीमा तक तुम, टमाटर के रूप, रंग, स्वाद और अन्य गुणों के संबंध में श्रोता के मन में चित्र को स्पष्ट करोगे, उस सीमा तक श्रोताओं को उसके प्रतिपाद्य विषय का ज्ञान होगा। भाषा का काम यही होता है, जो आपके भावों को संप्रेषित करती है, आपके भावों को व्यक्त करती है । अब सोचो कि तुम्हें कोई ऐसी वस्तु को व्यक्त करना है ,जो नित्य है, अविनाशी है, तो उस भाव को कैसे व्यक्त करोगे ? उसके लिए ऋषियों ने एक ऐसे शब्द की परिकल्पना की, जो उस नित्य का ,उस अविनाशी का सूचक हो । वह शब्द है – ॐ, जिसे ओंकार या प्रणव भी कहते हैं। दस बीज मंत्रो में, वेदमन्त्रों में प्रणवमन्त्र महानतम है तथा आध्यात्मिक जगत् में आज तक साधकों के ध्यान के लिए आलम्बन के रूप में इस शब्द प्रतीक का उपयोग किया जाता है । इसीलिए कृष्ण जी ने गीता में स्वयम को एकाक्षर अर्थात ॐ स्वरूप बताया है | ये ॐ उस आत्मा की अभिव्यक्ति है जो नित्य है, जो अविनाशी है और जो ब्रह्म स्वरूप है |

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ।। – 1*

जो मनुष्य — इस एक अक्षर प्रणवका उच्चारण करके और भगवान् का स्मरण करके शरीर छोड़कर जाता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है |

प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते ।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत ।। – २*

इस ॐ को धनुष रूप में जानो और आत्मा को बाण रूप में इस पर संधान करो और फिर ब्रहम रुप में उसका लक्ष्य निर्धारण करो, जैसे बाण लक्ष्य बेधन के बाद ही रुकता है ऐसे ही उस ब्रह्म रूप को पाने से पहले आत्मा और प्रणव का एकाकार रुकना नहीं चाहिए |

बाबा, धाराप्रबाह बोले जा रहे थे, पर सच बताऊ, मुझे ऐसा लग रहा था, जैसे मैं बिना ऑक्सीजन के पानी के अन्दर जा रहा हूँ | जब आप दो तीन दिन का खाना एक साथ खा लेते हो तो ऐसा ही होता है, एक शब्द में कहूं तो – अपच ! मेरा दिमाग इतनी जल्दी पचा नहीं पा रहा था जितनी तेजी से बाबा की तरफ से प्रवाह हो रहा था | चोक कम कैपेसिटी का हो और वोल्टेज ज्यादा आ जाये तो फुक जाता है, वैसा ही कुछ मुझे लग रहा था, अगर ये ऐसे ही भारी भरकम ज्ञान थोड़ी देर और देते रहे तो कहीं मेरा फ्यूज न उड़ जाए | एक ही उपाय था, विषयान्तर !

मैंने बाबा से बोला – बाबा ! आप ऐसे समझा रहे हो, बड़ा अच्छा लग रहा है | लेकिन बाक़ी लोगों का क्या ? उन्हें कौन समझाएगा ! दुनिया कहाँ से कहाँ जा रही है ! आप जैसा गुरु ही नहीं मिलता | गुरु ढूढों तो गुरु घंटाल मिलते हैं | अच्छा गुरु कैसे तलाशा जाए, ये एक बड़ी विकट समस्या है जनरल लोगों के सामने ! इसका क्या समाधान है, बाबा ?

क्रमशः
अभिनन्दन शर्मा
दिल से….

1* भगवद गीता – (8। 13)
२* मुन्डकोपनिषद्-मुन्डक २ खन्ड २ श्लोक-४

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