अघोरी बाबा की गीता – गुरु पूर्णिमा विशेष
मैंने बाबा से बोला –
“बाबा ! आप ऐसे समझा रहे हो, बड़ा अच्छा लग रहा है । लेकिन बाक़ी लोगों का क्या ? उन्हें कौन समझाएगा ! दुनिया कहाँ से कहाँ जा रही है ! आप जैसा गुरु ही नहीं मिलता । गुरु ढूढों तो गुरु घंटाल मिलते हैं । अच्छा गुरु कैसे तलाशा जाए, ये एक बड़ी विकट समस्या है जनसामान्य के सामने ! इसका क्या समाधान है, बाबा ?”
मेरा गुरु के बारे में टॉपिक चेंज करने का आईडिया सही बैठ गया और बाबा, अब थोड़ा गंभीर हो गए ।
“क्या तुम्हें पता है, शंकराचार्य को उनके गुरु कैसे मिले ? तानसेन को उसके गुरु कैसे मिले ? सूरदास को उसके गुरु कैसे मिले ?” – सवालों की झड़ी लगा दी बाबा ने, मुझ मूर्ख के सामने । जो अभी तक उनसे सवाल पूछ रहा था, वो अब उसी से सवाल कर रहे थे !
अच्छा हुआ, बाबा ने खुद ही जवाब दिया और मेरे जवाब का इंतजार नहीं किया, नहीं तो और पोल पट्टी खुल जाती कि मैं किस स्तर का मूर्ख हूँ ।
“7 वर्ष की उम्र में शंकराचार्य, गुरु की तलाश में दो हजार किलोमीटर पैदल चलकर अपने जन्म स्थान केरल के कलाड़ी से नर्मदा किनारे ओंकारेश्वर आए थे। ओंकारेश्वर में श्री गोविन्द भगवत्पादाचार्य ने उन्हें गुरुदीक्षा दी । सूरदास जन्मांध थे और वो जब गऊघाट पहुचे तो वहां उनकी भेंट उनके गुरु बल्लभाचार्य से हुई और उन्होंने उनसे दीक्षा ली । तानसेन गुरु की खोज में ग्वालियर से मथुरा पंहुचे और वहां स्वामी हरिदास से संगीत शिक्षा ली ।“
“अब बताओ, तुमने गुरु को ढूंढने के लिए क्या किया ? या जिन्हें तुम साधारण जन कह रहे हो, उन्होंने गुरु ढूढने के लिए क्या कभी कोई प्रयास किये ? एक बच्चे को भी बिना गुरु के इतनी बैचेनी होती है कि 7 साल की उम्र में हजारों किलोमीटर चल जाता है और दूसरी तरफ कुछ लोगो को बुढापा आ जाता है, वो बस गुरु कैसे ढूंढें, कोई मिलता ही नहीं का, झंडा उठा कर घूमते रहते हैं और यही रटते रह जाते है कि हमें गुरु नहीं मिला, वास्तव में उन्होंने गुरु पाने के लिए एक कदम भी नहीं बढ़ाया होता ।“
ये तो बाबा ने मेरे ऊपर अटैक सा कर दिया । मुझे ऐसा लगा कि बाबा डायरेक्ट बता रहे हैं कि तुम एक नम्बर के कामचोर, आलसी टाइप प्राणी हो । मुझे थोड़ा बुरा लगा । मेरी चाय ख़त्म हो चुकी थी और कुल्हड़ एक ओर रखते हुए मैंने बाबा को बोला –
“पर बाबा, अब पहले जैसा जमाना थोड़े ही है, अब तो बहुत माध्यम हैं जिनसे गुरु लोगों का पता चल जाता है ।”
“यही तो, अब पहले जैसा जमाना नहीं है । सोचो, उस 7 साल के बच्चे ने कितने लोगों से रास्ता पूछा होगा !! सोचो, वो 7 साल के बच्चे ने कितनी बार ऐसा सोचा होगा, कि यार अब चला नहीं जा रहा, छोड़ो, घर वापिस चलते हैं ! कितने दुर्गम वनों, रास्तों, सड़कों से वो पैदल ही गुजरा होगा ! और अब तो तुम लोग हवाई जहाज से आते जाते हो ! किसी आदमी से कुछ पूछना भी नहीं पड़ता, सब कुछ गूगल से मिल जाता है, पर सच तो ये है कि जितनी सुविधा मिल रही है, मनुष्य उतना ही निकम्मा और आलसी हुआ जा रहा है !”
“और तुम्हें क्या लगता है कि जो लोग टी.वी. पर आ रहे हैं, आश्रम चला रहे हैं, करोड़ो रूपये का कारोबार कर रहे हैं, क्या वो गुरु हो सकते हैं ? जो स्वयं माया से मुक्त नहीं हैं, जो स्वयं योगी नहीं है, वो क्या योग सीखा सकते हैं !”
जाका गुरु है आंधरा, चेला निरा निरंध ।
अंधे अंधा ठेलिया, दोनों कूप पड़ंत ।।- (1*)
“अगर गुरु अज्ञानी है तो शिष्य ज्ञानी कैसे हो सकता हैं। अन्धे को मार्ग दिखाने वाला अगर अंधा मिल जाए, तो सही मार्ग कैसे दिखाएगा ? इस प्रकार दोनों ही नरक के कुएं में गिरते हैं ।“
“गुरु का तो काम है कुम्हार की तरह से, तुम्हारे अंदर से बुराइयों को निकाले । जैसे कुम्हार कच्ची मिट्टी के बर्तन से डेले, कंकर निकालता है, वैसे ही गुरु भी तुम्हारे अंदर से माया, मोह को चुन-चुन कर निकालता है । जब घड़ा कच्चा होता है, तो कंकड़ निकल जाते हैं किंतु यदि वह पक जाए तो वो बड़ा ही खराब बर्तन बनेगा । ऐसे ही जो लोग बिना गुरु के बड़े होते हैं, उनके चरित्र में अनेक दोष होते हैं, जो उन लोगों को स्वयं नहीं पता होते । कोई घमंडी होगा, कोई द्वेष करने वाला होगा, कोई वाचाल होगा, कोई भोगी होगा और कोई कुछ और ।“
“जो सच्चा गुरु होगा, वो तुमसे कुछ भी अपेक्षा नहीं रखेगा और कम से कम धन की तो कदापि नहीं रखेगा । जो बाबा, तुमसे धन की आशा रखता है, यकीन मानो उसका उद्देश्य तुम्हें कुछ देना नहीं अपितु तुमसे धन निकालना ही है । वो तो ज्ञान को बेचने का दोषी है । गुरु टी.वी पर ढूढ़ने से नहीं मिलेगा, उसके लिए स्वयं प्रयास करना पड़ता है, जैसे बाकी सब लोगों ने किया। जो ढूढ़ेगा, उसे मिलेगा अवश्य । “जिन खोजा तिन पाइयां..गहरे पानी पैठि..मै बपुरा बुडन डरा..रहा किनारे बैठि..!” खाली गुरु गुरु करने से और दुनिया को दिखाने से कि मुझे तो गुरु मिल ही नहीं रहा, आपको गुरु की प्राप्ति नहीं हो सकती। उसके लिए आपको हाथ पैर मारने पड़ेंगे, प्रयास करने पड़ेंगे। तब ही गुरु की प्राप्ति संभव है ।“
बाबा, बड़ी तेजी से हर समस्या को सुलझा रहे थे पर मैं क्या करूँ, जैसे ही वो एक बात सुलझाते, मुझे उसी बात में एक नयी उलझन दिख जाती है । मैंने फिर से एक बाउंसर डालने का प्रयास किया-
“पर बाबा ये कैसे पता चला चलेगा कि कौन सच्चा गुरु है ! किसको ढूंढा जाए ? क्या गुरु का भी टेस्ट लिया जाए !”
(1*) – कबीर के दोहे
जिस तेजी से सवाल हो रहे थे, उसी तेजी से जवाब भी आ रहे थे –
“गुरु का अर्थ क्या है ? गुरु का अर्थ संस्कृत में होता है – बड़ा । किस चीज में बड़ा ? जो आपसे किसी भी बात में बड़ा हो, वो गुरु हो सकता है ! जो आपसे धन में बड़ा है और आपको धन प्राप्त करना है, तो वो भी गुरु है । कुछ लोगों के लिए अमिताभ बच्चन या शाहरुख खान आदर्श है, यदि आप एक्टिंग सीखना चाहते हैं तो आपके लिए, वो भी गुरु हो सकते है ! आप क्या चाहते हैं, आपको उसके लिए स्वयं से बड़ा ढूढना पड़ेगा ! याद रखना ढूढना पड़ेगा, घर से ऑफिस और ऑफिस से घर की दिनचर्या करते-करते रोने से कि हमें तो गुरु मिला ही नहीं, इस प्रपंच से गुरु नहीं मिलेगा । जो आपको लगता है कि आध्यात्म में, वैराग्य में, ज्ञान में आपसे बड़ा है, वो भी गुरु है । ध्यान रखना, गुरु उसको मिलेगा जो स्वयं को छोटा मानेगा । जो स्वयं को ही दुनिया का सबसे अक्लमंद आदमी मानेगा, उसे गुरु नहीं मिल सकता । जब खुद को छोटा मानोगे, तब ही तो बड़ा ढूंढ पाओगे । समस्या ये है कि लोग खुद को ही विद्वान मान लेते है और गुरु न मिलने की ये एक बड़ी वजह है ।”
“शंकराचार्य ने 7 वर्ष की आयु तक अनेकों उपनिषद, पुराण, वेद सब पढ़ लिए थे फिर भी स्वयं को छोटा मानते हुए गुरु की खोज में निकल पड़े और आज का आदमी, जिसने कुछ नहीं पढ़ा है, जो खुद आध्यात्म में कुछ नहीं जानता है, वो भी स्वयं को ब्रह्म समझने लगता है । आप खुद को छोटा सिर्फ तब ही मानेंगे, जब आप सबसे पहले अपने घमंड और अभिमान का त्याग करेंगे ! आप दूसरे को गुरु तब ही मान पाएंगे जब खुद के अभिमान और घमंड का त्याग कर, स्वयं को छोटा मानना शुरू कर देंगे और ये बड़ा कष्टकर है । ये आसान नहीं है । लोग अपना घमंड, अपना अभिमान नहीं त्याग सकते हैं । वो क्षणभर को भी ये मानने को तैयार नहीं होते कि दूसरा उनसे ज्यादा जानता है, जब आप में ज्ञान की प्यास है ही नहीं तो ब्रह्मा भी आ जाये तो आपको ज्ञान नहीं दे सकते क्योंकि आपको तो प्यास है ही नहीं। जब प्यास ही नहीं तो कोई क्या प्यास बुझायेगा ? तुलसीदास ने ऐसे लोगों की तुलना बैंत से की है कि जैसे बैंत में कितना भी पानी डालने से उसमें फूल नहीं आ सकते, ऐसे ही बिना जिज्ञासा वाले व्यक्ति को ज्ञान नहीं हो सकता, चाहे ब्रह्मा जी ही स्वयं क्यों न आ जाएँ” –
मूरख हृदय न चेत, यदयपि गुरु विरंची सम,
फूलैं फलें न बैंत, यद्यपि सुधा बरसहिं जलधि । – (2*)
“इसलिए पहले ज्ञान की प्यास बढ़ानी पड़ेगी, ज्ञान की भूख तब लगेगी, प्यास तब लगेगी, जब स्वयं आप ये मानोगे कि जो भी तुम जानते हो, वो अपूर्ण है, हो सकता है दोषयुक्त भी हो । जब ये मानोगे तब ही गुरु को गुरु पहचान पाओगे । वरना गुरु सामने खड़ा होगा और आपका घमंड, उसे गुरु मानने को तैयार ही नहीं होगा और गुरु आपके सामने से मुस्कुराते हुए निकल जायेगा पर आप उसे पहचान ही नहीं पाओगे। जहां सबने गंदे कपड़े पहन रखे हों, उस शहर में कोई साफ कपड़ो के बारे में कैसे जानेगा ! वो तो गंदे कपड़ो को ही साफ समझ रहे है और यदि कोई साफ कपड़े वाला आ भी जाएगा तो उसे ही कहेंगे देखो तो कैसा विचित्र आदमी है, कैसे कपड़े पहन रखें हैं ! ऐसे भी कपड़े कोई पहनता है क्या भला और उसी की हँसी उड़ाएंगे और वो आदमी वहां पर, उन लोगों की मूर्खता पर हंसता हुआ, वहां से आगे बढ़ जाएगा ! ऐसे ही इस संसार में, लोग अपना अपना घमंड उठाये घूमते हैं । वो गुरु को पहचान ही नहीं पाते क्योंकि वो खुद को छोटा महसूस नहीं कर पाते । जब स्वयं में लघुता आएगी, गुरु आपको मिल जाएगा ।“
“वोल्टेज हमेशा ज्यादा से कम की ओर बहता है, जल हमेशा ऊपर से नीचे की ओर बहता है, ऐसे ही ज्ञान भी ज्यादा से कम की ओर बहता है। लेकिन ये घमंड आपके चारों ओर ऐसी दीवार बना देता है कि आप स्वयं में खोखले होते हुए भी, ऐसा मानने लगते हो जैसे आप पूर्ण हो, पूरा भरे हुए हो ! लेकिन वास्तव में सत्य ये होता है कि आप खोखले होते हुए भी इसी भ्रम में जीते रहते हुए पूरा जीवन काट देते हैं । ये घमंड का ही प्रताप है ।”
बाबा ने पूर्ण रूप से गुरु की महत्ता और गुरु को ढूँढ़ने का तरीका बता दिया था और मुझे सही में लगा कि लोग प्रयास तो चवन्नी तक का भी नहीं करते है फिर इस बात के कोई मायने नहीं है कि किसी को गुरु मिला या नहीं । नहीं तो जहाँ चाह, वहां राह तो बचपन से सुनता तो मैं भी आ रहा था ।