भूमिका :-
योगेन चित्तस्य पदेन वाचां, मलं शरीरस्य च वैद्यकेन।
योऽपाकरोत् तं प्रवरं मुनीनां, पतंजलि प्रांजलिरानतोऽस्मि।।
‘योगशास्त्र से मन का, व्याकरण शास्त्र से वाणी का और वैद्यक शास्त्र से शरीर के मल नष्ट करने वाले पतंजलि मुनि के सम्मुख मैं नतमस्तक हूँ।
कायवाग्बुद्धिविषया ये मलाः समवस्थिताः ।
चिकित्सालक्षणाध्यात्मशास्त्रैस्तेषां विशुद्धयः ।।१४६।। वाक्यपदीयम् (ब्रह्मकाण्डम्)
शरीर , वाणी और बुद्धि के मलों को दूर करने के लिये जिन्होंने तीन शास्त्रों की रचना की।
योगशास्त्र के आद्य प्रवर्तक हिरण्यगर्भ माने जाते हैं। हिरण्यगर्भ से प्रारम्भ हुई योगशास्त्र परम्परा गुरु और शिष्य के उपदेश द्वारा पतंजलि तक अखंड चलती रही। पतंजलि ने उस परम्परा को सूत्रबद्ध करके संग्रहीत किया। अत: योगशास्त्र की परम्परा अन्य शास्त्रों के समान अति प्राचीन काल से जारी है। इस बात की पुष्टि करने वाले अनेक प्रमाण प्राचीन वेद वाङ्मय में मिलते हैं। योगसूत्र के पहले ही सूत्र से यह स्पष्ट है। यह पहला सूत्र है ‘अथ योगानुशासनम्’। इस सूत्र में अनुशासन शब्द का अर्थ है ‘बाद में किया हुआ उपदेश’। मुमुक्षु के लिए चित्तवृत्ति निरोध रूप योग साधना अनिवार्य है। मोक्ष की सिद्धि प्राप्त करने के लिए पतंजलि मुनि के द्वारा प्रकाशित योगमार्ग अत्युत्कृष्ट तथा अत्यावश्यक है। पतंजलि प्रणीत राह के राहियों को राह में आने वाले विघ्नों, खतरों तथ संकटों से मानवीय मन का स्वरूप ध्यान में रखकर स्पष्टतया सावधान किया गया है।
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।४.१।।श्रीमद् भगवद्गीता
श्रीभगवान् ने कहा — मैंने इस अविनाशी योग को विवस्वान् (सूर्य देवता) से कहा (सिखाया); विवस्वान् ने मनु से कहा; मनु ने इक्ष्वाकु से कहा।
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।१३.२।। श्रीमद् भगवद्गीता।
समस्त कार्य? करण और विषयोंके आकारमें परिणत हुई त्रिगुणात्मिका प्रकृति पुरुषके लिये भोग और अपवर्गका सम्पादन करनेके निमित्त देहइन्द्रियादिके आकारसे संहत ( मूर्तिमान् ) होती है? वह संघात ही यह शरीर है? उसका वर्णन करनेके लिये श्रीभगवान् बोले –, इदम् इस सर्वनामसे कही हुई वस्तुको शरीरम् इस विशेषणसे स्पष्ट करते हैं। हे कुन्तीपुत्र शरीरको चोट आदिसे बचाया जाता है इसलिये? या यह शनैःशनैः क्षीण — नष्ट होता रहता है इसलिये? अथवा क्षेत्रके समान इसमें कर्मफल प्राप्त होते हैं इसलिये? यह शरीर क्षेत्र है इस प्रकार कहा जाता है। यहाँ इति शब्द एवम् शब्दके अर्थमें है। इस शरीररूप क्षेत्रको जो जानता है — चरणोंसे लेकर मस्तकपर्यन्त ( इस शरीरको ) जो ज्ञानसे प्रत्यक्ष करता है अर्थात् स्वाभाविक या उपदेशद्वारा प्राप्त अनुभवसे विभागपूर्वक स्पष्ट जानता है उस जाननेवालेको क्षेत्रज्ञ कहते हैं। यहाँ भी इति शब्द पहलेकी भाँति एवम् शब्दके अर्थमें ही है? अतः क्षेत्रज्ञ ऐसा कहते हैं। कौन कहते हैं उनको जाननेवाले अर्थात् उन क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ दोनोंको जो जानते हैं वे ज्ञानी पुरुष ( कहते हैं )।
एकाग्रता —
‘चित्तवृत्तिनिरोध’ का अभिप्राय है मन की आत्यंतिक या परमावधि की एकाग्रता। यही योग दर्शन का उद्देश्य है। इस एकाग्रता की साधना और फल योगसूत्रों में सुस्पष्ट किये गए हैं। पातंजलि योग अष्टांगयोग के नाम से भी प्रसिद्ध है, क्योंकि पतंजलि ने योग के यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्यहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये आठ अंग बताए हैं। आठ अंगों के लक्षण और उनके अनुष्ठान से प्राप्तव्य, लौकिक तथा अलौकिक लाभ आदि का विवेचन भी पतंजलि ने किया है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच यम होते हैं। शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान, ये पांच नियम हैं। इनमें यम सार्वभौम हैं, यह पतंजलि का मत है। इनके आचरण के लिए देश काल परिस्थिति का कोई बंधन नहीं है। ये महाव्रत हैं और किसी भी कारण इनका आचरण टाला नहीं जा सकता। एक दृष्टि से हम यह भी कह सकते हैं कि पांच यम समाज धारणा के लिए अत्यावश्यक हैं। अत: वे सामाजिक कर्तव्य सिद्ध होते हैं। शौच आदि नियम वैयक्तिक कर्तव्य रूप हैं। व्यक्ति जीवन विकास के लिए उनका आचरण आवश्यक है। यमों का पालन न करने वाला, अर्थात् हिंसक, असत्यभाषी, चोरकर्मी, कामासक्त और अत्यधिक लोभी मनुष्य सामाजिक स्वास्थ्य के लिए घातक सिद्ध होता है। परन्तु नियमों की अवज्ञा करने वाला अर्थात् मलिन, असंतुष्ट, उच्छृंखल, शास्त्रों का अनभ्यासी और नास्तिक मनुष्य, यद्यपि समाज धारणा को प्रत्यक्षत: अस्त व्यस्त तो नहीं करेगा, पर वैयक्तिक जीवन ज़रूर बरबाद करेगा।
यह योगशास्त्र चार पादों या भागों में विभक्त है-
समाधि पाद (५१ सूत्र)
साधना पाद (५५ सूत्र)
विभूति पाद (५५ सूत्र)
कैवल्य पाद (३४ सूत्र)
कुल सूत्र = १९५
समाधिपाद :-
समाधिपाद में चित्तवृत्तिनिरोध का फल वर्णित है। वह है ‘जीव का स्वस्वरूप में अवस्थान’। यह बताते हुए निरोध रहित स्थिति में जीव किन किन वृत्तियों में अवगुंठित हो जाता है, वृत्तियां कितनी और कौन कौन सी हैं, आदि बातें पतंजलि ने बतायी हैं। पतंजलि बताते हैं कि प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम ज्ञान के साधन अर्थात् प्रमाण हैं। इसी पाद में शब्द से विकल्पात्मक ज्ञान होता है, यह कल्पना पतंजलि ने प्रस्तुत की है। पतंजलि ने विकल्प का लक्षण बताया है ‘शब्दाज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्प:’ कभी, शब्दोच्चार के तुरन्त बाद किसी विषय का ज्ञान होता है। परन्तु इस ज्ञान में ज्ञात विषय अर्थात् वस्तु का कहीं भी अस्तित्व में नहीं रहता। जैसे, वंध्यापुत्र, खरगोश का सींग, गोल त्रिकोण, पुरुष का चैतन्य आदि शब्द प्रयोग सुन लेने के बाद कुछ ज्ञान होता है, परन्तु ज्ञात वस्तु का संसार में अस्तित्व कभी होता नहीं है। एष वन्ध्यासुतो याति खपुष्पकृतशेखरः । मृगतृष्णाम्भसि स्नातः शशशृङ्गधनुर्धरः ॥ अहो , कितना आश्चर्य ! यह देखो वंध्या स्त्री का पुत्र जा रहा है । उसके बालों में आकाशपुष्प की माला है और उसने मृगतृष्णा के जल में स्नान किया है । और उसके हाथ में खरगोश के सींग से तैय्यार किया हुआ धनुष्य है । सब आश्चर्यकारक ही है । एक बहरे ने सुना कि गूँगे ने कहा है कि अन्धे ने देखा है कि लंगड़ा दौड़ रहा है | बोलने वाला किसी वस्तु की स्थूल कल्पना करके बोलता है तथा सुनने वाला भी कल्पित वस्तु का ज्ञान पाता है। यह मनुष्यमात्र का अनुभव है और इसी की ओर निर्देश पतंजलि ने किया है। इस विकल्प रूप पदार्थ को हम सत्य भी नहीं कह सकते तथा सर्वथा असत्य भी नहीं कह सकते। क्योंकि बन्ध्या स्त्री भी संसार में होती ही है और पुत्र भी सभीको देखने में आते ही हैं। पतंजलि द्वारा प्रस्तुत इस विकल्प की कल्पना अभिनव तथा मौलिक है। इसी पाद में पतंजलि ईश्वर का स्वरूप और उसकी आवश्यकता बताते हैं। ईश्वर अविद्या, अस्मिता आदि पांच क्लेशों से तथा कर्म, जन्म-मरण और वासना से सदैव मुक्त रहता है। जीवन का मूल स्वरूप भी यही है। अविद्योपाधिः सन् आत्मा जीव इत्युच्यते । नैयायिकों ने ईश्वर का अस्तित्व अनुमान से सिद्ध किया है। क्षित्यंकुरादि सृष्टि का उत्पादक कोई अवश्य होना चाहिए। मर्त्य मनुष्य तो इस सृष्टि का सृजन कभी नहीं कर सकता। नित्यज्ञान, नित्य इच्छा और नित्यकृति इन तीन गुणों से मंडित ईश्वर अनुमान के आधार पर सिद्ध होता है। ‘लक्षण प्रमाणाभ्यां वस्तुसिद्धिः’ इस न्याय के अनुसार वस्तु के अस्तित्व का अवलोकन करने वाली लक्षण और प्रमाण, ये दो ही आँखेंं हैं। ईश्वर का स्वरूप और उसके उपयोग के साथ साथ प्रथम पाद में समाधि के प्रकार, चित्त की प्रसन्नता प्राप्त करने के साधन आदि विषय चर्चित हैं।
साधनपाद :-
दूसरे साधनपाद में क्लेश, द्रष्टा का अर्थात् पुरुष का स्वरूप, अविद्या का कारण, योग के आठ अंग और उनकी फलश्रुति आदि वर्णित हैं।
विभूतिपाद :-
तीसरे विभूतिपाद में योग के अंतरंग साधन, योगानुष्ठान से प्राप्त होने वाली विभिन्न सिद्धियाँ आदि विषयों का प्रतिपादन करते हुए पतंजलि ने सूचित किया है कि सिद्धियों का मोह करना समाधि के लिए अनिष्टकारी तथा कैवल्य प्राप्ति के मार्ग में विघ्न ही है। कुछ फल सबकी अनुभूति का विषय हो सकते हैं तथा वर्तमान काल में भी स्वीकारणीय हैं। अहिंसावृत्ति दृढ़ होते ही वैरभाव छूट जाता है। संतोष से उत्कृष्ट सुख का लाभ होता है इत्यादि।
कैवल्य पाद :-
चौथे पाद में विज्ञानवाद के खंडन के साथ साथ स्वरूप प्रतिष्ठा अर्थात् कैवल्य का वर्णन किया है। चित्तवृत्तिनिरोध से द्रष्टाअपने केवल विशुद्ध रूप में रहता है और वही है स्वरूप प्रतिष्ठा या कैवल्य। । इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि पतंजलि ने योगसूत्र की रचना करके एक अतीव उपयुक्त शास्त्र की परम्परा प्रदीप्त की और मनुष्य जाति को ऐहिक तथा पारलौकिक आनंद का अखंड निर्मल आत्मनिर्भर निर्झर उपलब्ध करा दिया।
“नत्वा पतञ्जलिमृषिं वेदव्यासेन भाषिते । संक्षिप्तस्पष्टबह्नर्था भाष्ये व्याख्या विधास्यते॥’
विषय सूची
१. समाधिपाद
२. साधनपाद
३. विभूतिपाद
४. कैवल्यपाद
५. पातञ्जल-योग-सूत्र-पाठ
योगसूत्र व्याख्या – समाधिपाद
व्याख्याता — स्वामी निर्दोष
अथ समाधिपादः
अथ योगानुशासनम् ॥१.१॥
योग का तात्पर्य है एकीभाव को प्राप्त हो जाना , मिलजाना , जुड़जाना किसके साथ ? द्रष्टा के साथ अथवा अपने स्वरूप के साथ क्योंकि हम भ्रान्तिवश दृश्य के साथ जुड़े हुए हैं इसीलिये जीवन में दुःख है, भय है, शोक है और चिन्ता है | योग एक उपाय है , विधि है जिससे हम दृश्य से हटकर द्रष्टारूप होकर बैठजायें जैसे एक कुशल किसान जिस प्रकार अपने खेत को तैयार करता है वैसे ही हम अपने चित्त की भूमि को कैसे तैयार करें इसके लिए महर्षि पतञ्जलि ने उत्तम अधिकारियों के लिए सर्वप्रथम समाधिपाद की रचना की। अर्थात् मन को समाहित करने की शिक्षा का आरम्भ जिसके द्वारा लक्षण, भेद, उपाय और फलों के सहित शिक्षा दी जाए अर्थात् व्याख्या की जाय उसको अनुशासन कहते हैं इसीलिए ‘अथ योगानुशासनम्’। इसके अर्थ हुए कि अब लक्षण, भेद, उपाय और फलों सहित योग की शिक्षा देनेवाले शास्त्र को आरम्भ करते हैं | कुछ लोग योग को समाधि कहते हैं यद्यपि समाधि योग का अङ्ग है योग का फल नहीं। योग का अन्तिम तात्पर्य, परिणाम उसका फल तो सत्वान्यताख्याति अथवा पुरुषख्याति है , प्रकृति-पुरुष का विवेक होकर के पुरुष में तादात्म्यापत्ति योग का फल है। लेकिन जब तक चित्त समाहित नहीं होता, समाधिस्थ नहीं होता तब तक इस भूमिका को प्राप्त नहीं किया जा सकता। ‘युजिर् योगे, संयोजने’ और ‘युज् समाधौ’ – इन दो धातुओं से योग शब्द की निष्पत्ति होती है। “संयोगोयोग इत्युक्तो जीवात्मपरमात्मनो:” — जीवात्मा का परमात्मा से संयोग, यही योग है। जीव की उपाधि अन्तःकरण है (मन है) और ईश्वर की माया समष्टि मन है) इन दोनों उपाधियों को यदि हटा दिया जाए और शुद्ध चेतन में स्थिति हो जाए तो योग सिद्ध हुआ समझो। “समाधिःसमतावस्था जीवात्मपरमात्मनो: ब्रह्मण्येवस्थितिर्यासासमाधि: प्रत्यगात्मनः ” — जब जीवात्मा और परमात्मा एक सम अवस्था में अवस्थित हो जाएँ अर्थात प्रत्यगात्मा की ब्रह्म में सम्यक् स्थिति हो जाए उसी का नाम समाधि है। योगी याज्ञवल्क्य ने कहा है कि —
‘‘इज्याध्ययन-दानानि तपः स्वाध्याय-कर्म च ।
अयं तु परमो धर्मो यद् योगेनात्मदर्शनम् ॥’’
बाह्य चित्त वृत्ति के निरोध से जो आत्माका यथार्थ ज्ञान होता है, यह परम धर्म है । इस प्रकार सभी व्याख्याकारों ने मुख्यतः व्यास जी ने यहाँ पर योग का अर्थ समाधि में ही लिया है और समाधि की सारी भूमियों में (सारी अवस्थाओंमें) में जो चित्त का धर्म है। वह तीन भूमियों में, तीन अवस्थाओं में दबा रहता है और केवल दो भूमियों में प्रकट होता है। चित्तकी पांच भूमियां है, पांच अवस्थाएं हैं — क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध इनका विस्तारपूर्वक वर्णन आगे किया जाएगा। इनमें से अत्यन्त चञ्चल चित्त को क्षिप्त, जैसे किसी शान्त सरोवर में किसीने ढेला डाल दिया अथवा चित्तकी जो stressed अवस्था है वह क्षिप्त अवस्था है। जैसे कि व्यक्ति अनेक इच्छाओं को एक साथ पूरा करना चाहता है, उसको क्षिप्त अवस्था कहते हैं। दूसरी है मूढ़ अवस्था, इसमें निद्रा, तन्द्रा और आलस्य आदि से युक्त जो चित्त है इसको मूढ़ कहते हैं। क्षिप्त से जो श्रेष्ठ चित्त है अर्थात् जिसमें कभी कभी स्थिरता होती है ऐसे चित्त को विक्षिप्त चित्त कहा जाता है। {वि} — उपसर्ग है, इसका अर्थ विगत, विरुद्ध, विपरीत और विशेष, इस प्रकार से इस उपसर्गके अर्थ होते हैं – “विगतः क्षिप्तत्वं यस्मात्” अथवा “क्षिप्तत्वेन विपरीतम्” । ऐसा जो चित्त है, उसको विक्षिप्त चित्त कहेंगे। इस अवस्था में कुछ कुछ स्थिरता रहती है। क्षिप्त और मूढ़ चित्त में तो योगकी गन्ध भी नहीं होती और विक्षिप्त चित्त में जो कभी कभी क्षणिक स्थिरता होती है उसकी भी योगपक्ष में गिनती नहीं है क्योंकि यह स्थिरता दीर्घकाल तक स्थिर नहीं रहने पाती, शीघ्र ही प्रबल चञ्चलता से नष्ट हो जाती है इसलिए विक्षिप्त भूमि भी योगरूप नहीं है। जिसका एक ही अग्र विषय हो अर्थात् एक ही विषय में विलक्षण वृत्ति के व्यवधान से रहित, बीच-बीच में कोई दूसरी बात न आ जाये, इस प्रकार एक ही वृत्ति का जो प्रवाह होता है उसको एकाग्रचित्त कहते हैं। ऐसी एकाग्रता नृत्य में भी हो जाती है, गायन, वादन में भी हो जाती है इष्टपदार्थ के भोजन में भी हो जाती है, इष्टमित्र के संयोग में भी ऐसी एकाग्रता हो जाती है। यह ‘एकाग्र’ नाम वाली जो चित्त की वृत्ति है अथवा अवस्था है, ये अपने आत्मा के सत्स्वरूप को प्रकाशित करने में और क्लेशों का नाश करने में, बन्धन को ढीला करने में और निरोधवृत्ति के प्रति अभिमुख करने में सहायक होती है। इसी एकाग्रवृत्ति में सम्प्रज्ञात-समाधि अथवा सम्प्रज्ञात-योग प्राप्त होता है। इसके चार भेद हैं – वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत और अस्मितानुगत। ये सब विषय आगे आएंगे। इसके बाद जब सारी वृत्तियों का निरोध हो जाता है उस – सर्ववृत्ति निरोधस्वरूप – जो चित्त की वृत्ति है उस निरुद्ध चित्त में असम्प्रज्ञात समाधि घटित होती है, उसी को असम्प्रज्ञात-योग कहते हैं। इस समाधि अवस्था को प्राप्त करने के लिए महर्षि पतञ्जलि ने आठ साधन बताये हैं, वो योग के आठ अंग कहे जाते हैं — यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि — ये आठ अंग हैं। योग के आदिवक्ता हिरण्यगर्भ हैं – हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्यः पुरातनः।
सांख्यस्य वक्ता कपिलः परमर्षि: स उच्यते।
इदं हि योगेश्वर योगनैपुणं हिरण्यगर्भो भगवाञ्जगाद यत्।
ये वचन, याज्ञवल्क्य स्मृति, महाभारत और श्रीमद्भागवत से लिए हैं। ऋग्वेद में भी कहा है —
हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।।१०.१२१.१|| (ऋग्वेदः)
सभी उत्पत्तिशील पदार्थों और प्राणियों का एक ही स्वामी हिरण्यगर्भ (परम पिता परमेश्वर) है ईश्वर ही पृथ्वी को धारण कर समस्त चर अचर जीवों का भरण पोषण करने वाला है हम यज्ञ कर्म द्वारा उस परमेश्वर की स्तुति कर पूजा करते हैं | इस मन्त्र में ‘कस्मै’ शब्द का अर्थ ‘एकस्मै’ ले लेना चाहिए, ये वहां पर अध्याहृत कर लेना चाहिए। वह एक ही देव है जिसने ‘द्यौ’ व ‘पृथ्वी’ को धारण किया हुआ है।
अथ य एषोऽन्तरादित्ये हिरण्मयः पुरुषो दृश्यते
हिरण्यश्मश्रुर्हिरण्यकेश आप्रणखात् सर्व एव सुवर्णः।- (छान्दोग्य उपनिषद्. १. ६. ६)
हिरण्यगर्भो द्युतिमान् य एषच्छन्दशि स्तुतः।
योगै: सम्पूज्यते नित्यं स च लोके विभु: स्मृतः।। — महाभारत
हिरण्यगर्भो भगवान् एष बुद्धिरिति स्मृत:।
महानिति च योगेषु विरञ्चीति तथाप्यजः।।
हिरण्यगर्भो जगदान्तरात्मा (अद्भुत रामायण)
इस प्रकार ये हिरण्यगर्भ भगवान् ही योग के और वेदों के आदि-प्रवक्ता हैं, इन्होने कहा है —
तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम्।
अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ।।२.३.११ || (कठोपनिषद)”
उस स्थिर दशा को जिसमें इन्द्रियां मन की धारणा की अवस्था के अधीन हैं, ‘योग’ कहते हैं; उस दशा में मनुष्य सर्वथा सचेतन-जागरूक हो जाता है; क्योंकि ‘योग’ ही पदार्थों का उद्भव तथा लय दोनों ही है।
”यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिश्च न विचेष्टते तामाहुः परमां गतिम् || २.३.१० ||” (कठोपनिषद्)
जब पाँचो इन्द्रियाँ शान्त होकर स्थिर हो जाती हैं तथा मन भी उनके साथ स्थिर हो जाता है, और ‘बुद्धि’ की प्रक्रियाएँ भी शान्त हो जाती हैं तो वह उच्चतम अवस्था (परमा गति) होती है, ऐसा मनीषीगण कहते है। अर्थात् जब पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ मन के साथ स्थिर हो जाती हैं प्रत्याहार के द्वारा अन्तर्मुख हो जाती हैं और बुद्धि भी चेष्टा रहित हो जाती है, चित्त की सब वृत्तियों का निरोध हो जाता है, तब उसको परम गति — सबसे ऊंची अवस्था कहते हैं, उसी को योग मानते हैं। जो इन्द्रियों की निश्चल धारणा है, शरीर स्थिर, प्राण स्थिर, मन स्थिर, इन्द्रियां स्थिर उस समय वह योगी जो प्रमाद से अपने स्वरूप को भूला हुआ जो वृत्ति-सारूप्य प्रतीत हो रहा था, उससे रहित हो जाता है अर्थात् शुद्ध परमात्म-भाव में अवस्थित हो जाता है क्योंकि योग, प्रभव और अप्यय निरोध के संस्कारों के प्रादुर्भाव अर्थात प्रकट होने और व्युत्थान के संस्कारों के अभिभव अर्थात दबने का जो स्थान है, जहाँ व्युत्थान नहीं होता और निरोध की अवस्था स्थिर रहती है, उसी को योग कहते हैं।
गीता में भी भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है —
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रह ||६.१० ||
शरीर और मन को संयमित किया हुआ योगी एकान्त स्थान पर अकेला रहता हुआ आशा और परिग्रह से मुक्त होकर निरन्तर मन को आत्मा में स्थिर करे। अर्थात् योगी पुरुष अकेला एकान्त स्थान में बैठकर, एकाग्रचित्त होकर, आशा और सङ्ग्रह को त्यागकर निरन्तर आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़े।
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् || ६. ११ || (श्रीमद् भगवद्गीता)
शुद्ध (स्वच्छ) भूमि में कुश, मृगशाला और उस पर वस्त्र रखा हो ऐसे अपने आसन को न अति ऊँचा और न अति नीचा स्थिर स्थापित करके।
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये || ६. १२ || (श्रीमद् भगवद्गीता)
वहाँ (आसन में बैठकर) मन को एकाग्र करके, चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में किये हुये आत्मशुद्धि के लिए योग का अभ्यास करे | समं काय शिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः। संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् || ६. १३ || काया, सिर और ग्रीवा को समान और अचल धारण किये हुए स्थिर होकर अपनी नासिका के अग्र भाग को देखकर अन्य दिशाओं को न देखता हुआ | अर्थात सर गर्दन और धड़ एक सीध में, अचल और स्थिर करके, स्थिर रहे हुए, इधर उधर न देखता हुआ, नासिका के अग्रभाग में दृष्टी रख। नासिका का अग्रभाग माने, नासिका का मूल जहाँ पर है अर्थात आज्ञाचक्र में, वृत्ति को स्थिर करे। थोड़ा सा अधखुली आँखों से, थोड़ा ऊपर देखते हुए शाम्भवी मुद्रा में जल्दी एकाग्रता आ जाती है |
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्पर: || ६.१४ || (श्रीमद् भगवद्गीता)
(साधक को) प्रशान्त अन्त:करण, निर्भय और ब्रह्मचर्य ब्रत में स्थित होकर, मन को संयमित करके चित्त को मुझमें लगाकर मुझे ही परम लक्ष्य समझकर बैठना चाहिए |
युञ्जन्नेवं सदाऽऽत्मानं योगी नियतमानसः।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति।।६. १५ ।। (श्रीमद् भगवद्गीता)
इस प्रकार सदा मन को स्थिर करने का प्रयास करता हुआ संयमित मन का योगी मुझमें स्थित परम निर्वाण (मोक्ष) स्वरूप शांति को प्राप्त होता है |
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन || ६. ४६ ||(श्रीमद् भगवद्गीता)
क्योंकि योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है और (केवल शास्त्र के) ज्ञान वालों से भी श्रेष्ठ माना गया है तथा कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है, इसलिए हे अर्जुन तुम योगी बनो।।
प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्यायुक्तो योगबलेनचैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैतिदिव्यम् || ८. १० ||
वह (साधक) वह भक्तियुक्त चित्त वाला पुरुष अन्तकाल में योगबल से प्राण को भ्रकुटि के मध्य सम्यक् प्रकार स्थापन करके निश्चल मन से भक्ति युक्त होकर उस परम दिव्य पुरुष परमात्मा को प्राप्त होता है |
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्।।८.१२।। (श्रीमद् भगवद्गीता)
हे अर्जुन ! सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर अर्थात इन्द्रियों को विषयों से हटाकर तथा मन को हृद्देश में स्थित करके और प्राण को अपने ब्रह्मरन्ध्र में स्थापन करके योगधारणा में स्थिर होकर –
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।८.१३।। (श्रीमद् भगवद्गीता)
जो पुरुष (ॐ) ऐसे, इस एक अक्षर रूप ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ , परमात्मा का चिन्तन करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह पुरुष परमगति को प्राप्त होता है। इन श्लोकों का तात्पर्य है कि हृदय बहुत सी नाड़ियों का केन्द्रस्थान है वहां से एक नाड़ी ब्रह्मरन्ध्र की तरफ जाती है। जैसा कि श्रुति बतलाती है —
शतं चैका च हृदयस्य नाड्यस्तासां मूर्धानमभिनिःसृतैका ।
तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विष्वङ्ङ्न्या उत्क्रमणे भवन्ति ।। २ .३ .१६ ।। (कठोपनिषत्)
एक सौ एक हृदय की नाड़ियां हैं उनमें से एक, ‘सुषुम्ना’ नाम वाली नाड़ी मूर्धा की ओर निकलती है उस नाड़ी से ऊपर चढ़ता हुआ योगी अमृतत्व, ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है। दूसरी नाड़ियों से निकलने में भिन्न-भिन्न गति की प्राप्ति होती है। जो योगी प्रत्याहार द्वारा मन को हृदय में स्थिर करके, पूरे मनोबल से, सारे प्राण को उस मुख्य नाड़ी से, प्राण को ब्रह्मरन्ध्र में ले जाता है और वहां योगधारणा का आश्रय किये हुए ‘ॐ’ का जाप करता हुआ और उसके अर्थभूत ईश्वर का चिन्तन करता हुआ शरीर त्यागता है वह परमगति को प्राप्त होता है, किन्तु इस प्रक्रिया को अन्तसमय में वही कर सकता है जिसने जीवनकाल में इसका अच्छी प्रकार अभ्यास कर लिया हो। योगदर्शन का परम प्रयोजन स्वरूप स्थिति है, इसको अत्यन्त सुगमता से, सरलता से नियम तथा ज्ञानपूर्वक इसको क्रियात्मक रूप कैसे दिया जाए इसका सुन्दरतम वर्णन योगदर्शन में किया गया है। साधनों के भेद से योग को राजयोग, ध्यानयोग, ज्ञानयोग, सांख्ययोग, कर्मयोग, निष्काम कर्मयोग, अनासक्ति योग, भक्तियोग, हठयोग, लययोग इत्यादि श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है। इस दर्शन का मुख्य विषय राजयोग अर्थात ध्यानयोग है पर उपर्युक्त सब प्रकार के योग इसके ही अन्तर्गत हैं।
केवलं राजयोगाय हठविद्योपदिश्यते || १. २ || (हठयोग प्रदीपिका)
केवल राजयोग के लिए ही हठविद्या का उपदेश किया जाता है।
हकारः कीर्तितः सूर्यष्ठकारश्चंद्र उच्यते।
सूर्यचंद्रमसोर्योगाद्धठयोग निगद्यते।। (सिद्धसिद्धान्तपद्धति)
सूर्य – पिङ्गला नाड़ी अथवा दाहिनी नासिका अथवा प्राणवायु इसको ह-कार कहते हैं और चन्द्र – इड़ा नाड़ी अथवा अपान वायु और बायीं नासिका, इसको ठ-कार कहते हैं। ह-कार सूर्य, ठ-कार चन्द्रमा। इन सूर्य और चन्द्र अर्थात पिङ्गला और इड़ा नाड़ियों से बहने वाला जो प्राण का प्रवाह है अथवा प्राण और अपान वायु को मिलाने का नाम हठयोग है।
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ || ५. २७ || (श्रीमद् भगवद्गीता)
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः।।५ .२८।। (श्रीमद् भगवद्गीता)
बाह्य पदार्थोंको बाहर ही छोड़कर और नेत्रोंकी दृष्टिको भौंहोंके बीचमें स्थित करके तथा नासिकामें विचरनेवाले प्राण और अपान वायुको सम करके जिसकी इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि अपने वशमें हैं, जो मोक्ष-परायण है तथा जो इच्छा, भय और क्रोधसे सर्वथा रहित है, वह मुनि सदा मुक्त ही है |
अपाने जुह्वति प्राण प्राणेऽपानं तथाऽपरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः || ४. २९ || (श्रीमद् भगवद्गीता)
अन्य (योगीजन) अपानवायु में प्राणवायु को हवन करते हैं, तथा प्राण में अपान की आहुति देते हैं, प्राण और अपान की गति को रोककर, वे प्राणायामके परायण हुए योगीलोग अपानमें प्राणका पूरक करके, प्राण और अपानकी गति रोककर फिर प्राणमें अपानका हवन करते हैं | इस प्रकार प्राणायाम और प्रत्याहार से मनोवृत्तियों को एकाग्र और निरुद्ध दशा की तरफ आगे बढ़ाया जा सकता है। यम और नियम, ये न केवल व्यक्तिगत रूप से, विशेषतया योगियों के लिए बल्कि सामान्य रूप से सभी वर्णों, आश्रमों तथा मत-मतान्तरों, जातियों, देशों और समस्त मनुष्य समाज के लिए माननीय हैं, मुख्य कर्तव्य हैं, परम धर्म हैं। इस प्रकार इस पातञ्जल योगदर्शन में सब प्रकार के योगों का समावेश हो गया है। दूसरा सूत्र है –
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥१.२॥
चित्त की वृत्तियों को रोकना, यही योग है। निरोध अर्थात रोकना। जो बहिर्मुख वृत्तियाँ हैं जो संसार की तरफ, जो बाह्य विषयों की तरफ जा रही हैं, वहां से उनको लौटा कर, उलटाकर, अन्तर्मुख करके अपने चित्त में लीन कर लेना, यही योग है। ऐसा यह निरोध सब चित्त की भूमियों में, सब प्राणियों का धर्म है जो कभी किसी के चित्त में प्रकट हो जाता है प्रायः यह चित्तों में छिपा हुआ ही रहता है अर्थात चित्त से तमरूपी मल का जो आवरण है उसको हटाकर और राजस की जो विक्षेपरूप चञ्चलता है उससे निवृत्त होकर सत्व के प्रकाश में जो एकाग्र वृत्ति से रहे उसको योग समझना चाहिए। सारी सृष्टि, सत्व, रजस और तमस, इन तीन गुणों का ही परिणाम रूप है। एक धर्म, आकार अथवा रूप को छोड़कर, धर्मान्तर के ग्रहण अर्थात दुसरे धर्म, आकार अथवा रूप के धारण करने को परिणाम कहते हैं। चित्त इन गुणों का सबसे प्रथम सत्व प्रधान परिणाम है इसीलिए इसको चित्तसत्व भी कहते हैं, यह इसका अपना व्यापक स्वरुप है। यह सारा स्थूल जगत जिसमें हमारा व्यवहार चल रहा है। रज तथा तम प्रधान गुणों का परिणाम है। बाह्य जगत के रज और तम प्रधान पदार्थों और विषयों से जब इस चित्त का संपर्क होता है तो उसको चित्तवृत्ति कहते हैं। इस विषय को और स्पष्ट रूप से समझना चाहिए, मानो चित्त एक अगाध, परिपूर्ण सागर का जल है। जिस प्रकार पृथ्वी के सम्बन्ध से खाड़ी, झील, तलाव, कुआं, सरोवर इत्यादि अनेक प्रकार के परिणाम (परिमाण) को जल प्राप्त हो जाता है इसी प्रकार चित्त अपने अन्तर में राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय इत्यादि आकारों को धारण कर लेता है और जिस प्रकार वायु आदि के वेग से जल में तरंगे उठती हैं इसी प्रकार चित्त, इन्द्रियों द्वारा बाह्य विषयों से आकर्षित होकर उनके जैसे ही आकारों के रूप में परिणित हो जाता है – यह सब चित्त की वृत्तियाँ कहलाती हैं जो कि अनन्त है और प्रतिक्षण उदय होती रहती हैं जैसे जल, वायु आदि के अभाव में तरंग आदि आकारों को परिणामों को त्याग कर अपने ही स्वभाव में, शान्त स्वभाव में अवस्थित हो जाता है वैसे ही जब चित्त, बाह्य तथा आभ्यन्तर विषयाकार परिणाम को त्यागकर अपने स्वरुप में अवस्थित हो जाता है तब उसको चित्तवृत्ति निरोध कहते हैं। ये वृत्तियाँ रजोगुणी, तमोगुणी और सतोगुणी होती हैं। जब उसमें रजोगुण और तमोगुण, इन दोनों का मेल होता है तब ऐश्वर्य और विषय प्रिय लगते हैं। जब यह तमोगुण से युक्त होता है तब अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य, अनैश्वर्य को प्राप्त होता है। वही चित्त जब तमोगुण के नष्ट होने पर रजोगुण के अंश से युक्त होता है तब धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य को प्राप्त होता है। वही चित्त जब रजोगुण के लेशमात्र मल से भी रहित होता है तब वह अपने स्वरूप में स्थिर होता है, प्रतिष्ठित कहलाता है। तब चित्त में सत्व और पुरुष की भिन्नता का ज्ञान होता है जिसको विवेक-ख्याति अथवा भेदज्ञान कहते हैं। विवेकख्याति के परिपक्व होने पर धर्म-मेघ समाधि की अवस्था प्राप्त होती है अर्थात वहां धर्म बरसता है, ब्रह्मानन्द अपना आत्मानन्द अपना ही स्वरूप है उसमें वो सराबोर हो जाता है। इस प्रकार चित्त से साक्षी पुरुष को भिन्न देखना ही विवेकख्याति कहलाती है। अब तीसरा सूत्र है –
तदा द्रष्टु: स्वरुपेSवस्थानम् ॥ १.३॥
तदा – उस समय (निरोध की अवस्था में) द्रष्टु: – द्रष्टा की – स्वरूपे – अपने ही रूप अर्थात् चेतन-मात्र में अवस्थानम् – स्थिति हो जाती है । क्योंकि इसमें कोई सांसारिक, प्राकृतिक विषय नहीं रह जाता और जब अविवेक की अवस्था होती है अर्थात जब विवेक नहीं होता है उस समय यह चित्त अपनी स्वाभाविक पांच अवस्थाओं में रहता है उनके नाम पहले गिनाये थे – मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध। ये पाँच चित्त की भूमियाँ (भूमिकायें) हैं। इनमें पहली तीन भूमियाँ सामान्य संसारी लोगों की होती हैं और अन्तिम दो भूमियां (एकाग्र और निरुद्ध) योग में सहायक होती हैं।
मूढ़ अवस्था में तमोगुण प्रधान और सत्वगुण गौण होता है अर्थात दबा हुआ होता है , तमोगुण की प्रधानता होती है इसलिए निद्रा, तन्द्रा, मोह, भय, आलस्य, दीनता, भ्रम इत्यादि इसके गुण है।
दूसरी अवस्था है क्षिप्त अवस्था – इसमें रजोगुण प्रधान होता है तथा तम और सत्वगुण गौण होते हैं। दुःख, चञ्चलता, चिन्ता, शोक और संसार के कामों में प्रवृत्ति, अज्ञान, अधर्म, राग, अनैश्वर्य, और ज्ञान, धर्म, वैराग्य और ऐश्वर्य इन सबमें मिली-जुली प्रवृत्ति इस क्षिप्त अवस्था में होती है। कभी धर्म का विचार करता है कभी अधर्म का विचार करता है।
तीसरी अवस्था है विक्षिप्त अवस्था – यह सत्व प्रधान है, इसमें रज और तमोगुण गौण हैं, दबे हुए रहते हैं। इस अवस्था में सुख, प्रसन्नता, क्षमा, श्रद्धा, धैर्य, चैतन्यता, उत्साह, वीर्य, दान और दया और विशेषकर के ज्ञान, धर्म, वैराग्य और ऐस्वर्य की वृत्तियों की प्रबलता रहती है।
चौथी अवस्था है एकाग्र अवस्था – इस अवस्था में भी सत्व गुण ही प्रधान रहता है, रज और तम, ये नाममात्र के लिए रहते हैं। इस अवस्था में वस्तु का यथार्थ ज्ञान होता है। इस अवस्था में तटस्थता आती है। यह इष्ट अवस्था है, प्राप्त करने जैसी स्थिति है।
और अगली है पांचवीं निरुद्ध अवस्था – ये तीनों गुणों से बाहर है। यहाँ सारे चित्त के परिणाम बन्द हो जाते हैं केवल संस्कार शेष रहते हैं। इसी अवस्था में दृष्टा की स्वरूपस्थिति होती है। यह ऊँचे योगियों की स्थिति है। जब चित्त की वृत्तियों का सम्पूर्णतया निरोध हो जाता है तो – तदा द्रष्टुः स्वरूपे अवस्थानं – तदा माने तब ऐसी स्थिति में वह अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है और यदि नहीं होता तो चौथा सूत्र है —
वृत्तिसारूप्यम् इतरत्र ॥ १.४ ॥
वृत्तिसारूप्यम् इतरत्र – जब वह शुद्ध द्रष्टा की स्थिति में नहीं होता तब वृत्ति की ही समानरूपता को धारण कर लेता है। अब ये वृत्तियाँ पांच प्रकार की होती है। पतञ्जलि ने वृत्तियों का विभाग किया है, पांच में उनको बाँट दिया है। वो कौन कौन सी होती हैं यह अगले प्रकरण में विचार करेंगे। वृत्ति विमर्श :- योगका अर्थ है, स्वयं के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान कराना लेकिन इसका यथार्थ ज्ञान इसलिए नहीं होता है कि प्रकृति से यह मिला हुआ है, प्रकृति में इसका प्रतिबिम्ब पड़ता है और अन्तः करण प्रकृति का परिणाम है । मूल प्रकृति तीनों गुणों की साम्यावस्था है, उसमें जब क्षोभ होता है तो प्रकृति से विकृति उत्पन्न होती है। पहली विकृति है महत्तत्व, महत्तत्व से फिर अहङ्कार का जन्म होता है और अहङ्कार से पञ्च तन्मात्राओं का जन्म होता है और फिर उन पञ्च तन्मात्राओं से पञ्चमहाभूत, पञ्च ज्ञानेन्द्रिय, पञ्च कर्मेन्द्रिय और मन, इन सबकी उत्पत्ति होती है, तो मूल रूप से यह त्रिगुण रूप का ही चमत्कार है। इस त्रिगुण के कारण ही मन में शान्त, घोर और मूढ़ – ये तीन प्रकार की अवस्थाएं हमेशा रहती हैं। जब सत्वगुण प्रधान होता है तब शान्त अवस्था होती है; जब रजोगुण बलवान होता है तो घोर अवस्था होती है और जब तमोगुण प्रधान हो जाता है तो मूढ़ावस्था आ जाती है। इन्ही के अवान्तर भेद करके पञ्च अवस्थाएं कही गयी हैं – मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध। मूढ़, में तमोगुण की और क्षिप्त में रजोगुण की और विक्षिप्त में सतोगुण की प्रधानता रहती है और एकाग्र में सत्व बहुत ज्यादा बढ़ जाता है, यह अवस्था समाधी के बहुत ही करीब है और निरुद्ध तो सम्पूर्ण योग ही है। जब सारी वृत्तियाँ निरुद्ध हो जाती हैं, शान्त हो जाती हैं, तब पुरुष अपने स्व के रूप में प्रतिष्ठित, अवस्थित हो जाता है और यदि वृत्तियाँ निरुद्ध नहीं हुईं तो यह पुरुष वृत्तियों के आकार जैसा ही दिखता है :- जैसे लाल फूल के ऊपर आप स्फटिक रख दीजिये तो स्फटिक भी लाल लाल दिखता है लेकिन अगर वहां से फूल को हटा दो या लाल कपडे को हटा दो तो स्फटिक अपने शुद्ध रूप में सफ़ेद, शुभ्र, जैसा है वैसा दिखता है। जैसे कोई लाल चश्मा लगा ले तो सारी बिल्डिगें , पेड़-पौधे सब लाल-लाल दिखें और पीला चश्मा लगा ले तो पीले दिखें, हरा चश्मा लगा ले तो हरे हरे दिखें ऐसे ही जो जो वृत्ति होती है उसी वृत्ति की स्वरूपता को यह धारण कर लेता है। अब यह वृत्तियाँ हज़ारों होती हैं। मिठाई के आकार की वृत्ति, साइकिल के आकार की वृत्ति, घर के आकार की वृत्ति, स्त्री के आकार की वृत्ति, पुरुष के आकार की वृत्ति यमाकार वृत्ति , नियमाकार वृत्ति , आसनाकार वृत्ति आदि | परन्तु इनको अच्छी तरह से समझने के लिए महर्षि पतञ्जलि ने इनको पांच विभागों में बाँट दिया है। उनका विवरण पांचवें सूत्र में है — पांचवां सूत्र है-
वृत्तयः पञ्चतय्यःक्लिष्टाSक्लिष्टा:॥१.५॥
वृत्तियाँ पांच प्रकार की होती हैं – क्लिष्ट अर्थात रागद्वेषादि क्लेशों की हेतु और अक्लिष्ट अर्थात रागद्वेषादि क्लेशों को नाश करनेवाली। बाह्य पदार्थ असंख्य होने के कारण उनसे उत्पन्न होने वाली वृत्तियाँ भी असंख्य हैं। इन सबका सुगमता से ज्ञान हो सके इसलिए उन सब निरोद्धव्य वृत्तियों को पांच श्रेणियों में विभक्त किया गया है। इन पांच प्रकार की वृत्तियों में से कोई क्लिष्ट रूप होती हैं और कोई अक्लिष्ट रूप। सत्व प्रधान वृत्तियाँ अक्लिष्ट रूप होती हैं और तमस प्रधान वृत्तियाँ क्लिष्ट रूप होती हैं अर्थात जिन वृत्तियों के हेतु अविद्या आदि पांच क्लेश हैं और जो कर्माशय, अर्थात अन्तःकरण में कर्मों के संस्कार इकठ्ठा करती हैं, कर्मों के समूह की उत्पत्ति की भूमियां हैं वे क्लिष्ट कहलाती हैं और जहाँ अविद्या आदि दोष नहीं हैं वहां कर्माशय के समूह का भी नाश हो जाता है इसलिए वे अक्लिष्ट कहलाती हैं | विवेकख्याति रूप वृत्ति अक्लिष्ट कहलाती है | यद्यपि क्लिष्ट वृत्तियों के संस्कार बहुत गहरे जमे होते हैं तथापि उनके छिद्रों में सत्शास्त्र, सत्सङ्ग, गुरुजनों के उपदेश से, अभ्यास और वैराग्य से अक्लिष्ट वृत्तियाँ भी वर्तमान रहती हैं अर्थात उनके द्वारा अक्लिष्ट वृत्तियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। वृत्तियों का यह स्वभाव है कि वे अपने सदृश संस्कारों को उत्पन्न करती हैं। क्लिष्ट वृत्तियाँ क्लिष्ट संस्कारों को उत्पन्न करती हैं और अक्लिष्ट वृत्तियाँ अक्लिष्ट संस्कारों को। इस प्रकार छिपी हुई अक्लिष्ट वृत्तियाँ उत्पन्न होकर अक्लिष्ट संस्कारों को और अक्लिष्ट संस्कार अक्लिष्ट वृत्तियों को उत्पन्न करते रहते हैं। यह चक्र यदि निरन्तर चलता रहे तो क्लिष्ट वृत्तियों का निरोध हो जाता है पर इनके संस्कार सूक्ष्म रूप से वृत्तियों के छिद्रों के रूप में बने रहते हैं जब उनका भी नाश हो जाए तब निर्बीज समाधि सम्पन्न होती है । उपर्युक्त विधि के अनुसार जब क्लिष्ट वृत्तियाँ यहाँ-वहां सब जगह से दब जाती हैं तबअक्लिष्ट वृत्तियों का भी निरोध परवैराग्य से हो जाता है और इन सब वृत्तियों का निरोध ही असम्प्रज्ञात योग है। अब इन पांच वृत्तियों के नाम बतलाते हैं।
प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः॥ १.६॥
ये हैं – प्रमाण, विपर्यय , विकल्प, निद्रा और स्मृति। ये पांच प्रकार की वृत्तियाँ हैं। प्रमाण वृत्ति के तीन भेद हैं | इन वृत्तियों में सबसे पहले प्रमाण वृत्ति के स्वरूप को बताते हैं |
प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि ॥१.७॥
प्रत्यक्ष , अनुमान ,और आगम (वेद, शास्त्र तथा आप्त-पुरुष के वचन) ये तीन प्रमाण वृत्तियाँ हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम ज्ञान के साधन अर्थात् प्रमाण हैं। सबसे पहली वृत्ति है प्रमाणवृत्ति, जिसमें हमारा सारा लौकिक व्यवहार चलता है। वो प्रमाण हैं तीन – प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम। प्रत्यक्ष – अक्षं अक्षं प्रति जायमानं इति प्रत्यक्षं | जो प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय से जाना जाय सो प्रत्यक्ष प्रमाण | अनुमान – अप्रत्यक्ष पदार्थ का ज्ञान जो प्रत्यक्ष के सहारे से हो सो | प्रत्यक्षं अनु , जैसे अनुज होता है , अनुयायी होता है | ऐसे ही अनुमान प्रत्यक्ष का अनुगमन करता है | (और) आगमाः – वेद, शास्त्र तथा आप्त-पुरुषों के वचन – (ये तीन) प्रमाणानि – प्रमाण (वृत्तियाँ हैं) । प्रत्यक्ष प्रमाण वो होता है, जिसका हमको ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान होता है – रूप, रस, शब्द, स्पर्श और गन्ध इन सबका ज्ञान हमको आँख, कान, नाक, रसना , त्वचा और मन से होता है। ये प्रत्यक्ष ज्ञान के करण हैं। ज्ञान को प्रमा कहते हैं और करण को प्रमाण अर्थात करण को ज्ञान का साधन कहते हैं और ज्ञाता को प्रमाता कहते हैं। ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय, प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय; यह त्रिपुटी है। प्रमा माने यथार्थ ज्ञान और उस यथार्थ ज्ञान, यथार्थ प्रमा का जो साधन है उसको प्रमाण कहते हैं और चक्षु आदि इन्द्रियां उस ज्ञान के साधन हैं इसलिए वो प्रमाण हैं और रूप, रस, गन्धादि प्रमेय हैं तो मैं देखता हूँ, मैं सुनता हूँ, मैं सुखी हूँ, मैं दुखी हूँ ये सब प्रत्यक्ष प्रमाण हैं और यह बात मैं अनुमान से जानता हूँ और यह बात मैं वेद-शास्त्र के द्वारा जानता हूँ इस प्रकार से तीन प्रमाण होते हैं – प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम।
अनुमान प्रमाण के तीन भेद होते हैं – पूर्ववत् , शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट। पूर्ववत् अनुमान वो होता है जैसे कारण को देख के कार्य का अनुमान करना, बादलों के देखकर के होने वाली वर्षा का अनुमान कर लेना। दूसरा होता है शेषवत् , कार्य से कारण का अनुमान जैसे नदी के मटीले पानी के देखकर ऊपर पहाड़ में कहीं वर्षा हुई है ऐसा अनुमान कर लेना; इसको शेषवत् कहते हैं और एक होता है सामान्यतोदृष्ट – जो सामान्य रूप से देखा गया हो जैसे एक बच्चे के साथ एक पुरुष जाता हो तो उन्हें देख कर पिता-पुत्र का अनुमान कर लेना | प्रत्येक कार्य के पीछे निमित्त कारण सामान्य रूप से देखा जाता है | परन्तु विशेष रूप से न देखा गया हो जैसे घड़ा, जैसे मिटटी के बने हुए घड़े को देखकर उसके बनाने वाले कुम्हार का अनुमान कर लेना क्योंकि प्रत्येक बनी हुई वस्तु का कोई न कोई चेतन, निमित्त कारण सामान्य रूप से देखा जाता है। अनुमान का मूल प्रत्यक्ष ही है क्योंकि पूर्व प्रत्यक्ष द्वारा ही अनुमान होता है | व्याप्तिग्रह के बिना अनुमान नहीं होता | अनुमान के विषय में उदयनाचार्य की यह उक्ति बहुत ही प्रसिद्ध है ” कार्यायोजनधृत्यादेः पदात् प्रत्ययतः श्रुतेः । वाक्यात् संख्याविशेषाच्च साध्यो विश्वविदव्ययः ॥”न्यायकुसुमांजलि. ५.१ ’’ उदयनाचार्य ने तर्क के {अनुमान के} द्वारा ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने का प्रयास किया है। कुसुमांजलि में ईश्वर के अस्तित्व की सिद्धि के लिये निम्नलिखित आठ ‘प्रमाण’ दिये हैं —
(१) कार्यात्- अर्थात् कार्यं दृष्ट्वा कारणमनुमेयं सृष्टेः निमित्तकारणं परमात्मा एव । यह जगत् कार्य है अतः इसका निमित्त कारण अवश्य होना चाहिए। जगत् में सामंजस्य एवं समन्वय इसके चेतन कर्ता से आता है। अतः सर्वज्ञ चेतन ईश्वर इस जगत् के निमित्त कारण एवं प्रायोजक कर्ता हैं।
(२) आयोजनात् — जड़ होने से परमाणुओं में आद्य स्पन्दन नहीं हो सकता और बिना स्पंदन के परमाणु द्वयणुक आदि नहीं बना सकते। जड़ होने से अदृष्ट भी स्वयं परमाणुओं में गतिसंचार नहीं कर सकता। अतः परमाणुओं में आद्यस्पन्दन का संचार करने के लिए तथा उन्हें द्वयणुकादि बनाने के लिए चेतन ईश्वर की आवश्यकता है।
(३) धृत्यादेः — जिस प्रकार इस जगत् की सृष्टि के लिए चेतन सृष्टिकर्ता आवश्यक है, उसी प्रकार इस जगत् को धारण करने के लिए धर्ता एवं इसका प्रलय में संहार करने के लिए चेतन संहर्ता की आवश्यकता है. और यह कर्ता-धर्ता-संहर्ता ईश्वर है। “एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्याचन्द्रमसौ तिष्ठतः ।९। ” (बृहदारण्यकोपनिषद्-३.८.९) “अविनाशी भगवान की शक्ति के नियंत्रण में सूर्य और चन्द्रमा अपनी कक्षा में घूमते रहते हैं।”
(४) पदात् — अर्थात शब्दों से , पदों में अपने अर्थों को अभिव्यक्त करने की शक्ति ईश्वर से आती है। “इस पद से यह अर्थ बोद्धव्य है”, यह ईश्वर-संकेत पद-शक्ति है। वेदेषु ईश्वरादि पदात् परमात्मा ईश्वरः अनुमेयः । “स : पूर्वेषामपिगुरुः कालेनानवच्छेदात्”
(५) प्रत्ययतः — प्रत्यय माने विश्वास या निश्चय | धर्म और अधर्म के बीच में धर्म का निश्चय करना | कर्तव्य और अकर्तव्य के मध्य कर्तव्य का निर्णय करना | तथा पाप और पुण्य का निर्णय भी ईश्वर की प्रेरणा के बिना नहीं हो सकता | अतः इन विषयों में प्रामाण्य और विश्वास परमेश्वर के माध्यम से ही होता है । वृत्तियों के उदय और अस्त होने में भी ईश्वरेच्छा ही प्रमाण है ‘‘मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।’’ मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (उनका अभाव भी ) होता है।
(६) श्रुतेः — अर्थात् वेदात् , वेद पौरुषेय है आयुर्वेद के समान वेद होने से | ‘‘सर्वे वेदाः यत्पदमामनन्ति’’ जिस (परम) पद का सभी वेद महिमागान करते हैं | वेद के बिना ईश्वर का ज्ञान नहीं हो सकता ‘‘नावेदविन्मनुते तं बृहन्तम् ।’’ अर्थात् जो वेद नहीं जानता वह ईश्वर को नहीं जान सकता । तथा ‘‘वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो’’ समस्त वेदों के द्वारा मैं ही वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ
(७) वाक्यात् — ‘वाक्यत्वात्’ वेद पौरुषेय है , महाभारत आदि के समान वाक्य होने से।
‘‘निश्वसितमस्य वेदाः वीक्षितमेतस्य पञ्च भूतानि ।
स्मितमेतस्य चराचरमस्य च सुप्तं महाप्रलयः ।।२।।भामती’’
‘‘तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥’’
‘उसका’ ही ज्ञान प्राप्त करके व्यक्ति मृत्यु की पकड़ से परे चला जाता है तथा इस महद्-गति के लिए दूसरा कोई मार्ग ही नहीं है।
(८) संख्याविशेषात् — नैयायिकों के अनुसार द्वयणुक का परिणाम उसके घटक दो अणुओं के परिमाण्डल्य से उत्पन्न नहीं होता, अपितु दो अणुओं की संख्या से उत्पन्न होता है। संख्या का प्रत्यय चेतन द्रष्टा से सम्बद्ध है, सृष्टि के समय जीवात्मायें जड़ द्रव्य रूप में स्थित हैं एवं अदृष्ट, परमाणु, काल, दिक्, मन आदि सब जड़ हैं. अतः दो की संख्या के प्रत्यय के लिए चेतन ईश्वर की सत्ता आवश्यक है। अदृष्टात्- अदृष्ट जीवों के शुभाशुभ कर्मसंस्कारों का आगार है। ये संचित संस्कार फलोन्मुख होकर जीवों को कर्मफल भोग कराने के प्रयोजन से सृष्टि के हेतु बनते हैं. किन्तु अदृष्ट जड़ है, अतः उसे सर्वज्ञ ईश्वर के निर्देशन तथा संचालन की आवश्यकता है। अतः अदृष्ट के संचालक के रूप में सर्वज्ञ ईश्वर की सत्ता सिद्ध होती है।
और तीसरा है आगम प्रमाण अथवा शब्द प्रमाण क्योंकि अलौकिक विषय में वेद ही प्रमाण हो सकते हैं।
स्वर्गकामो यजेत् – अब स्वर्ग किसने देखा है और जब देखा ही नहीं तो अनुमान भी कैसे कर सकते हैं तो उसमें केवल वेद ही, आप्त वचन ही प्रमाण हैं। {अन्य सभी प्रमाण इन तीनों के अन्तर्गत ही है जैसे कि उपमान , अर्थापत्ति , अनुपलब्धि , ऐतिह्य , सम्भव और चेष्टा संकेत आदि } यह प्रमाणों का विषय शास्त्रों में बड़ी ही जटिल भाषा में और बड़े ही विस्तार से वर्णन किया गया है, यहाँ तो हम संक्षेप में केवल परिचय मात्र ही दे रहे हैं। तो पांच वृत्तियों में से पहली वृत्ति है प्रमाण और दूसरी वृत्ति है विपर्यय । विपर्यय माने – मिथ्या ज्ञान, विपरीत ज्ञान, यथार्थ ज्ञान से भिन्न। जिसका वर्णन अगले आठवें सूत्र में करते हैं।
विपर्ययो मिथ्याज्ञानम् अतद्रूपप्रतिष्ठम् ॥१.८॥
पांच वृत्तियों में से दूसरी वृत्ति है विपर्यय। विपर्यय वृत्ति को अविद्या और तम आदि नामों से भी जाना जाता है। जो निज रूप में प्रतिष्ठित ज्ञान है वह तो प्रमाण ज्ञान है और इसके विपरीत (उलटा) जो ज्ञान है उसको विपर्यय ज्ञान कहते हैं। इसीलिये विपर्यय वृत्ति को प्रमाण नहीं कहा जा सकता क्योकि प्रमाणवृत्ति से यह कट जाती है। संशय ज्ञान भी विपर्ययज्ञान के अन्तर्गत ही है क्योंकि जब यथार्थ ज्ञान होता है तब ये दोनों बाधित हो जाते हैं। ” विपर्ययो नाम मिथ्याज्ञानं अतद्रूपप्रतिष्ठम् “- सूत्र है – विपर्ययो मिथ्याज्ञानम् अतद्रूपप्रतिष्ठम् ||
अतद्रूपप्रतिष्टं यज्ज्ञानं सत्यत्ववर्जितम्।
अविद्याख्यं भवेद्योगे संज्ञा तस्य विपर्ययः ॥ २० ॥ योगसूत्रसारः”
यह विपर्यय नाम वाली चित्त की वृत्ति अविद्या कही जाती है। फिर आगे चल कर इसी के पाँच भेद हो जाते हैं जो समस्त संसार में दुःख के महाकारण हैं। इन भेदों का विवरण दूसरे पाद में (साधनपादके तीसरे सूत्र में) किया जायगा। भेद केवल इतना ही है कि विपर्यय चित्त की एक वृत्तिरूप है और पञ्च क्लेश वृत्तियों के संस्कार रूप होते हैं। विपर्यय: – विपर्यय (का अर्थ है) मिथ्या ज्ञान, उलटा ज्ञान , विपरीत ज्ञान (जो) अतद्रूप – उस (वस्तु के) स्वरूप में प्रतिष्ठित नहीं है । विपर्यय माने मिथ्या ज्ञान और अतद्रूपप्रतिष्ठम् – जो उस पदार्थ के निज रूप में प्रतिष्ठित नहीं है अर्थात जो उस पदार्थ के वास्तविक रूप को प्रकाशित नहीं करता। ऐसा ज्ञान विपर्ययज्ञान या मिथ्या ज्ञान है। जैसे सीपी में चांदी देखना, एक चन्द्रमा में दो चन्द्रमा देखना, रज्जु में सर्प देखना, स्थाणु में पुरुष देखना या चोर की कल्पना करना ये सब विपर्यय ज्ञान के उदहारण हैं । तत्त्व-पक्षपातो हि धियां स्वभाव इति । सत्य तत्व का पक्षपात करना ही बुद्धि का स्वभाव होता है। सत्य से विपरीत को विपर्यय कहते हैं। इस विपर्यय के पांच अन्य नाम बताए हैं-तम, मोह, महामोह, तामिस्र और अंधतामिस्र। इनके रहते आत्मस्वरूप का दर्शन नहीं हो सकता। योग दर्शन में विपर्यय का स्वरूप —
‘‘तमो मोहो महामोहस्तामिस्त्रो ह्यन्धसंज्ञितः ।
अविद्या पञ्चपर्वैषा प्रादुर्भूता महात्मनः ।। २.२६ ।। वराहपुराणम्’’
सर्वप्रथम है तम (अज्ञान), दूसरा है मोह, माने अविवेक तीसरा है महामोह (भोगेच्छा), चौथा है तामिस्र (क्रोध) एवं पाँचवां अन्धतामिस्र (अभिनिवेश) माने शरीर को मैं और मेरा मानकर मृत्यु से भयभीत होना नामक पंचपर्वा (पाँच प्रकार की) अविद्या उत्पन्न हुई । ये ही विपर्यय के पाँच भेद हैं।
“मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा॥ रामचरितमानस उत्तरकाण्ड” सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वात है, लोभ अपार (बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है।
अब विपर्यय के प्रतिभेदों की विस्तृत चर्चा करते है —
“भेदस्तमसोऽष्टविधो मोहस्य च दशविधो महामोहः ।
तामिस्रोऽष्टादशधा तथा भवत्यन्धतामिस्रः ॥ ४८॥ सांख्यकारिका”
भावार्थ — (विपर्यय के पाँच भेद — तमस्, मोह, महामोह, तामिस्र और अंधतामिस्र है। उसमें से अनुक्रम से) तमस् के आठ, मोह के भी आठ, महामोह के दस, तामिस्र के अठारह और अंधतामिस्र के भी अठारह प्रकार है। अब विपर्यय के भेद-प्रतिभेद का विस्तृत वर्णन बताते है। (१) तमस् ; आत्मा से भिन्न – मूल प्रकृति, महत् तत्व , अहंकार और पञ्चतन्मात्राओं को ही आत्मा मान लेना पहला तमस् नामक भेद है। जिसे अविद्या भी कहते है। योगसूत्र में इसे ही अन्य चार भेदों का मूल माना है। वहां इसकी परिभाषा करते हुए – ‘अनित्य, अशुचि, दुःख तथा अनात्मा को क्रमशः नित्य, शुचि, सुख और आत्मा मान लेना ही अविद्या कहा गया है। प्रकृति के मूल आठ भेद – १. मूलप्रकृति, २. महत्तत्व , ३. अहंकार और ५. पञ्चतन्मात्राएं / यद्यपि ये ‘पुरुष’ नहीं है इन्हीं में से किसी एक को अथवा सभी को पुरुष (आत्मा) मान लेना ही आठ प्रकार की अविद्या अथवा तमस् के भेद है। ज्ञान का आवरक होने से इसे तम कहते हैं। प्रकृति का ज्ञान रखने और वैराग्य होने पर भी पुरुष के विषय में इस प्रकार का अज्ञान होने के कारण उपासक को अपवर्ग की प्राप्ति नहीं होती। (२) मोह , यह भी आठ प्रकार का होता है अणिमादि आठ ऐश्वर्यों में {अणिम, महिमा, लघिमा, गरिमा प्राप्ति प्राकाम्य ईशित्व और वशित्व में ममता का होना } अस्मिता होना यह मोह है। (३) महामोह राग रूप है और दस प्रकार का है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गन्ध लौकिक और अलौकिक (दृष्टानुश्रविक) के भेद से दस प्रकार का होता है। (४) तामिस्र — द्वेष रूप है और यह अठारह १८ प्रकार का है। आठ प्रकार का अणिमादि ऐश्वर्य और शब्दादि दस प्रकार के विषय मिलकर अठारह हो जाते हैं और फिर ये परस्पर टकराकर द्वेष (क्रोध) उत्पन्न करते हैं। (५) अन्धतामिस्र — भी इसी तरह अठारह प्रकार का है और यह अभिनिवेश रूप है। अर्थात ये १८ नष्ट हो जायंगे इस प्रकार का भय बना रहता है। इस प्रकार ये सब मिल कर खूब दुःख देते हैं। मोह दशमौलि, तदभ्रात अहँकार, पाकारिजित काम विश्रामहारी । लोभ अतिकाय, मत्सर महोदर दुष्ट, क्रोध पापिष्ठ – विबुधांतकारी ॥४॥ विनय पत्रिका||
विपर्यय वृत्ति किस प्रकार अक्लिष्ट रूप हो सकती है ? इस शंका के निवारण के लिये कुछ उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। यह सारा त्रिगुणात्मक जगत ‘अविद्या है’, ‘माया है’, ‘स्वप्न है ’, ‘शून्य है’, ‘विज्ञान है’, इत्यादि कल्पनायें ‘अविद्यावादी’ ‘मायावादी’, ‘स्वप्नवादी’, ‘शून्यवादी’ ‘विज्ञानवादी’, इत्यादि की भ्रममूलक, अयथार्थ और विपर्ययरूप हैं; क्योंकि त्रिगुणात्मक जड़तत्व को ‘अविद्या’, ‘माया’, अथवा ‘शून्य’, मानने में उसीके अन्तर्गत होनेके कारण सारे वेद- शास्त्र, साधन-सम्पत्ति, पुरुषार्थ, योग-अभ्यास और स्वयं ये सिद्धान्त और युक्तियाँ भी ‘अविद्या’, ‘माया’, ‘स्वप्न’, अथवा ‘शून्य’ रूप होकर विपर्यय सिद्ध होंगी और सारे सांसारिक तथा पारमार्थिक व्यवहार दूषित हो जायँगे। इस लिये त्रिगुणात्मक जड़तत्व को ‘अविद्या’, ‘माया’, ‘स्वप्न’, अथवा ‘शून्य’ मानना विपर्यय वृत्ति है। वास्तव में इस त्रिगुणात्मक जड़तत्व को आत्मा से भिन्न अनात्मतत्व मानना ही प्रमाण वृत्ति है। इस अनात्मतत्व में आत्मा का भान होना अर्थात् उसमें आत्माध्यासरूप विपर्यय-वृत्ति ही सारे बन्धनों का कारण होने से अत्यन्त क्लिष्टरूप है। इस अनात्मतत्व से आत्माध्यास को हटाना ही मनुष्य का मुख्य प्रयोजनऔर परम पुरुषार्थ है। इसलिये उपर्युक्त ‘अविद्यावादी’ ‘मायावादी’ और ‘शून्यवादियों’ की विपर्यय-वृत्ति सम्बन्धी बाह्य वाद-विवाद को छोड़कर अन्तर्मुख होते समय जड़तत्व से आत्माध्यास हटाने में साधनरूपसे जब सहायक हो तो अक्लिष्टरूप धारण कर लेती है। इसी प्रकार विज्ञान अर्थात चित्त आत्मा को बाह्य जगत दिखलाने के लिये त्रिगुणात्मक करण अर्थात साधन रूप ही है। इसलिये इससे अतिरिक्त बाह्य जगत को न मानना भी विपर्यय है; किंतु अन्तर्मुख होते समय जब साधनरूपसे जडतत्वसे आत्माध्यास हटाने में सहायक हो , तब यह विपर्यय-वृत्ति भी अक्लिष्टरूप धारण कर लेती है। मिथ्या ज्ञान कराना यही इस वृत्ति की विशेषता है और यह संसार के समस्त अनर्थों का बीज है, अतः यह अवश्य ही निरोद्धव्य है, यह भाव है । “सन्ध्ये सृष्टिराह हि ।। ३. २.१ ।। ब्रह्मसूत्र।” मध्यवर्ती अवस्था में (स्वप्न का) होता है (वास्तविक) सृजन; क्योंकि उपनिषद ऐसा कहते हैं। तथा “पराभिध्यानात्तु तिरोहितं ततो ह्यस्य बन्धविपर्ययौ ॥ ३.२.५॥ ब्रह्मसूत्र। ” हालांकि, परम भगवान के ध्यान से, जीव की तिरोहित शक्तियां और उसका स्वरूप प्रकट हो जाता है जो कि अज्ञान काल में अस्पष्ट रहता है; क्योंकि आत्मा का बंधन और मुक्ति उसी के ध्यान से प्राप्त होती है।
‘‘त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।२.४५।।श्रीमद् भगवद्गीता’’ जो इस प्रकार विवेकबुद्धिसे रहित लोग हैं उन कामपरायण पुरुषों के लिये वेद त्रैगुण्यविषयक हैं अर्थात् तीनों गुणोंके कार्यरूप संसारको ही प्रकाशित करनेवाले हैं। परंतु हे अर्जुन तू असंसारी हो कर निष्कामी हो। तथा निर्द्वन्द्व हो अर्थात् सुखदुःखके हेतु जो परस्पर विरोधी ( युग्म ) पदार्थ हैं उनका नाम द्वन्द्व है उनसे रहित हो कर और नित्य सत्त्वस्थ हो अर्थात् सदा सत्त्वगुणके आश्रित हो। तथा निर्योगक्षेम हो। अप्राप्त वस्तुको प्राप्त करनेका नाम योग है और प्राप्त वस्तुके रक्षणका नाम क्षेम है योगक्षेमको प्रधान माननेवालेकी कल्याणमार्गमें प्रवृत्ति होनी अत्यन्त कठिन है अतः तू योगक्षेमको न चाहनेवाला हो। तथा आत्मवान् हो अर्थात् (आत्मविषयोंमें ) प्रमादरहित हो। तुझ स्वधर्मानुष्ठानमें लगे हुए के लिये यह उपदेश है।
अब विकल्प-वृत्ति का लक्षण बताते हैं —
शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः ॥१.९॥
तीसरी वृत्ति है विकल्प — शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्योविकल्पः। शब्दज्ञान से उत्पन्न जो ज्ञान, उसका अनुगामी अर्थात उसके पीछे चलने वाला और वस्तु से शून्य, वस्तु की सत्ता की अपेक्षा नहीं रखता हो उसको विकल्पवृत्ति कहते हैं। जैसे राहु का सिर, मनुष्य ब्राह्मण है। राहु और सिर कोई अलग अलग वस्तु नहीं है; ब्राह्मण और मनुष्य कोई अलग अलग वस्तु नहीं है। यह शर्मा जी ब्राह्मण हैं अब शर्मा तो ब्राह्मण होता ही है। यह पुरुष चैतन्य है; पुरुष का चैतन्य, भैय्या चैतन्य के सिवाय पुरुष होता ही कहाँ है ? काले कोट वाला देवदत्त है, अब काले कोट वाले तो न जाने कितने वकील हैं , ये तो देवदत्त का कोई लक्षण नहीं हुआ। निष्क्रियः पुरुषः, अब आदमी कुछ न कुछ तो करता ही रहता है फिर भी शब्द व्यवहार होता है कि यह आदमी निकम्मा है आदि-आदि। तो शब्दों में तो जिसका व्यवहार हो लोक में, परन्तु वस्तु से शून्य हो {जिसमें वास्तविकता न हो} उसका नाम विकल्प है। इसी प्रकार अनुत्पत्तिधर्मा पुरुषः — पुरुष उत्पत्ति के धर्म वाला नहीं है तो पुरुष तो उत्पत्ति के धर्म वाला है ही नहीं फिर भी ऐसा शब्द व्यव्हार होता है। जैसे काठ की पुतली; पुतली तो काठ की ही होती है। मिटटी का घड़ा; घड़ा तो मिटटी का ही होता है। पुरुष का चैतन्य; पुरुष है तो चैतन्य ही होगा तो जहाँ अभेद में भेद और भेद में अभेद की कल्पना होती है उसको विकल्प वृत्ति कहते हैं। राहु और शिर, काठ और पुतली, यह दो-दो वस्तु नहीं है तथापि अभेद में भेद का आरोप किया गया है। लोहा और आग अथवा पानी और आग – यह दो-दो वस्तु हैं तथापि लोहे का गोला जलाने वाला है अथवा पानी से हाथ जल गया; इस कथन में भेद में अभेद का आरोप किया गया है तो शब्दज्ञानानुपाती — शब्द से तो जिसका व्यवहार हो लेकिन वास्तविकता में जो न हो। जैसे कलकत्ता यहाँ से पूरब में है लेकिन जापान में खड़े हो जाओ तो कलकत्ता पूरब में रहेगा? इसी प्रकार कवि लोग अनेक प्रकार की उत्प्रेक्षायें कर देते हैं जैसे कि “चन्द्रमुखी ललना”, धूमस्तम्भः, {धुऐं का खम्भा} आदि — तो ये सब जो देश, काल और वस्तु से सापेक्ष होता है ये सब विकल्पवृत्ति ज्ञान के अन्तर्गत है। जो ज्ञान शब्दजनित ज्ञान के साथ-साथ होनेवाला है; और वस्तु की सत्ता से शून्य हो, वह विकल्प अर्थात कल्पना मात्र है । वस्तु का अभाव होने से यह विकल्प वृत्ति शब्दों का आभास मात्र है इसलिये यह प्रमाण नहीं है। इसमें भी क्लिष्ट और अक्लिष्ट भाव से विकल्प वृत्ति दुख और सुख देने वाली होती है। जैसे कि उपासना के लिये शालग्राम शिला में चतुर्भुज विष्णु बुद्धि, नर्मदेश्वर शिवलिङ्ग में पञ्चवक्त्र और त्रिनेत्र महेश्वर की बुद्धि, यह अक्लिष्ट विकल्प वृत्ति का उदाहरण है। अब क्लिष्ट विकल्प वृत्ति के उदाहरण देखिये —
“यस्यात्मबुद्धि: कुणपे त्रिधातुके स्वधी: कलत्रादिषु भौम इज्यधी: ।
यत्तीर्थबुद्धि: सलिले न कर्हिचिज्जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखर:॥ १०.८४.१३ ॥ श्रीमद्भागवत”
भावार्थ — वसुदेवजीके यज्ञ महोत्सव में श्री कृष्णजी उपदेश देते हैं — हे महत्माओ एवं सभासदो ! जो मनुष्य कफ, वात और पित्त इन तीन धातुओं से बने हुए शव तुल्य शरीर को ही अपना “आत्मा या “मैं” ऐसा समझता है तथा स्त्री पुत्र आदि को ही अपना समझता है और मिट्टी, पत्थर, लकडी आदि पार्थिव विकारों को ही “इष्टदेव” मानता है तथा जो केवल जल को ही तीर्थ समझता है लेकिन ज्ञानी महापुरुषों (चल तीर्थों) को तीर्थ नहीं समझता है, वह मनुष्य होने पर भी पशुओं में नीच गधा के समान अज्ञानी है।
पाषाण खण्डेश्वपि रत्न बुद्धिः कान्तेति धीः शोणितमांसपिण्डे।
पञ्चात्मके वर्ष्मणि चात्मभावो जयत्यसौ काचन मोहलीला ||
पत्थरके टुकड़ों में रत्नबुद्धि , शोणित और मांस के पिण्ड में प्रिय बुद्धि, पञ्चभूतात्मक देह में आत्मबुद्धि यह सब मोहलीला का चमत्कार है। ‘अहं वृत्ति’ भी एक विकल्प वृत्ति ही है, क्योंकि इसमें चेतन और अहंकार के भेद में अभेद का आरोप किया जाता है। पल, घड़ी, दिन, मास आदिकी ज्ञानरूप वृत्तियां भी विकल्प-वृत्तियाँ हैं; क्योंकि क्षणों के भेद में अभेद का आरोप किया जाता है। गौ आदि शब्दों में शब्द, अर्थ और ज्ञान के भेद में अभेदसे भासनेवाली वृत्ति भी विकल्प वृत्ति ही है।
अब चौथी वृत्ति है – निद्रा —
अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्रा ॥ १.१०॥
अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्रा — अभाव की प्रतीति को आश्रय करने वाली, अभाव प्रत्यय का आलम्बन करनेवाली जो वृत्ति है; वह निद्रा वृत्ति है। मैंने कुछ नहीं जाना, मैंने कुछ नहीं देखा सबका अभाव था, न पदार्थ था न मैं था, न दृष्टा था न दृश्य था, प्रतीति मात्र का अभाव था। अभाव की प्रतीति को आश्रय करनेवाली जो वृत्ति है वो निद्रा है। निद्रा वृत्ति ही है, इसको सूचित करने के लिए सूत्र में वृत्ति शब्द का ग्रहण किया। कई आचार्य निद्रा को वृत्ति नहीं मानते किन्तु योग के आचार्य आत्मस्थिति के अतिरिक्त चित्त की प्रत्येक अवस्था को वृत्ति ही मानते हैं। अभाव शब्द से जागृत और स्वप्नावस्था की वृत्तियों का अभाव अर्थात जागृत और स्वप्न की वृत्तियों के अभाव का जो हेतु तमोगुण है उसको जानना चाहिए। रजोगुण का धर्म, क्रिया और प्रवृत्ति है। जागृत अवस्था में चित्त में रजोगुण प्रधान होता है इसलिए वह सत्वगुण को गौणरूप से अपना सहकारी बनाकर अस्थिर रूप से क्रिया में अर्थात विषयों में प्रवृत्त करने में लगा रहता है। तमोगुण का धर्म है स्थिति, दबाना, रोकना अर्थात प्रकाश को और क्रिया को रोकना। सुषुप्ति अवस्था में तमोगुण, रजस तथा सत्व को प्रधान रूप से दबा देता है इसलिए चित्त में तमोगुण का ही परिणाम प्रधान रूप से होता रहता है। उस समय में अभाव की ही प्रतीति होती रहती है। जिस प्रकार एक अँधेरे कमरे में सब वस्तुएं छिप जाती हैं किन्तु सब वस्तुओं को छिपाने वाला अन्धकार दिखलाई देता है जो वस्तुओं के अभाव की प्रतीति कराता है। प्राण चलता रहता है, रुधिराभिसरण होता रहता है, करवटें बदलते रहते हैं लेकिन कुछ पता नहीं लगता; काम तो सारे चल रहे हैं और आत्मा तो कभी सोता ही नहीं वो तो नित्य चैतन्य है। इस प्रकार तमोगुण सुषुप्ति अवस्था में चित्त की सब वृत्तियों को दबा कर स्वयं स्थिर रूप से प्रधान रहता है किन्तु रजोगुण का नितान्त अभाव नहीं होता, तनिक मात्रा में रहता हुआ वह इस अभाव की प्रतीति कराता रहता है | चित्त के ऐसे परिणाम को निद्रावृत्ति कहते हैं। तब चित्त में तमोगुण वाली, मैं सोता हूँ, इस प्रकार की वृत्ति होती है, इस वृत्ति के संस्कार चित्त में उत्पन्न होते हैं फिर उससे स्मृति होती है कि मैं सोया, मैंने कुछ नहीं जाना। यहाँ पर इतना विशेष यह भी जान लेना कि जिस निद्रा में सत्वगुण के लेशसहित तमोगुण का प्रचार होता है उस निद्रा से उठकर पुरुष को, मैं सुख से सोया मेरा मन प्रसन्न है और मेरी प्रज्ञा स्वच्छ है इस प्रकार की स्मृति होती है और जिस निद्रा में रजोगुण के लेशसहित तमोगुण का सञ्चार होता है उससे उठने पर इस प्रकार की स्मृति होती है कि मैं दुःखपूर्वक सोया, मेरा मन अस्थिर और घूमता सा है और जिस निद्रा में केवल तमोगुण का प्राबल्य होता है तो उससे उठने पर, मैं एकदम बेसुध सोया, मेरे शरीर के अंग भारी हो रहे हैं, मेरा चित्त व्याकुल है इस प्रकार की स्मृति होती है। यदि उस वृत्ति का प्रत्यक्ष न हो तो उसके संस्कार भी न हों और संस्कार न होने से स्मृति भी नहीं हो सकती इसलिए निद्रा एक वृत्ति है, वृत्तिमात्रका अभाव नहीं है। श्रुति और स्मृतियोंने भी निद्रा को वृत्ति ही माना है —
जाग्रत् स्वप्नः सुषुप्तं च, गुणतो बुद्धिवृत्तयः ।
तासां विलक्षणो जीवः साक्षित्वेन विनिश्चितः ॥ ११. २७ ॥ श्रीमद्भागवत ||
जागृत, स्वप्न और निद्रा — ये गुणों से बुद्धि की वृत्तियाँ हैं। एकाग्रता के तुल्य होते हुए भी निद्रा तमोमयी होने से सबीज तथा निर्बीज समाधि की विरोधिनी है इसलिए रोकने योग्य है। नशा तथा क्लोरोफार्म आदि से उत्पन्न हुई मूर्छित अवस्था भी निद्रावृत्ति के अन्तर्गत ही है।
‘‘त्रिषुधामसु यद्भोग्यं भोक्ता भोगश्च यद्भवेत् ।
तेभ्यो विलक्षणः साक्षी चिन्मात्रोऽहं सनातनः ॥ कैवल्योपनिषत्- १-१८’’
तीनों अवस्थाओं (जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति) में जो कुछ भी भोक्ता, भोग्य और भोग के रूप में है, उनसे विलक्षण, साक्षीरूप, चिन्मय स्वरूप, वह सदाशिव स्वयं मैं ही हूँ। मैं ही स्वयं वह ब्रह्मरूप हूँ, मुझमें ही यह सब कुछ प्रादुर्भूत हुआ है, मुझमें ही यह सभी कुछ स्थित है और मुझमें ही सभी कुछ विलीन हो जाता है; वह अद्वय ब्रह्मरूप परमात्मा मैं ही हूँ॥ ” मुग्धेऽर्धसम्पत्तिः परिशेषात् ॥ ३.२.१० ॥ ब्रह्मसूत्र ||” जैसे दूसरी सभी वृत्तियों की तरह सुख ,दुःख और मोहात्मक वृत्तियाँ भी समाधि की विरोधिनी होने से निद्रा वृत्ति भी निरोद्धव्य ही हैं।
“जाग्रद्वृत्तिस्तथा वृत्तिः स्वाप्निकी तमसा यदा।
अभिभूते भवेतां सा वृत्तिर्निद्रेति कथ्यते ॥ २२ ॥
अभावश्चान्यवृत्तीनां तामसो जायते तदा।
मलिना चित्तसत्त्वस्य वृत्तिर्निद्रेति कीर्तिता ॥ २३ ॥
निद्राया वृत्तिरूपत्त्वं स्मरणादेव बुध्यते।
जागृतौ यादृशी दृष्टा स्मृतिर्निद्रा च तादृशी ॥ २४ ॥
विना वृत्तिं कथं ज्ञानम् ज्ञानाभावे कथम् स्मृतिः।
तस्मान्निद्रा भवेद्वृत्ति स्मृत्यास्सत्त्वाद्धि जागृतौ ॥ २५ ॥
जाग्रत् स्वप्नवृत्ती यदा तमसा मोहकारिणाऽभिभूयेते, वृत्त्यन्तराणाम् तामसेऽभावे जाते तदा चित्तस्य सद्वृत्तिरुपिणी मलिना वृत्तिः `निद्रा’ इति कथ्यते। जाग्रदवस्थायां निद्राया अनन्तरं यादृशी स्मृतिः जायते निद्रा तादृशीति ज्ञातव्या। स्मृतिरनुभवाधीना, अनुभवश्च वृत्याधीनः। अतः निद्रा चित्तवृत्तिः।
जब मन पुरीतत नाड़ी में प्रवेश करता है तब सामान्य ज्ञान का अभाव हो जाता है तब निद्रा होती है।
‘‘यत्र सुप्तो न कञ्चन कामं कामयते न कञ्चन स्वप्नं पश्यति तत् सुषुप्तम्। सुषुप्तस्थान एकीभूतः प्रज्ञानघन एवानन्दमयो ह्यानन्दभुक् चेतोमुखः प्राज्ञस्तृतीयः पादः ॥५॥ माण्डुक्योपनिषद्’’
जब कोई सोता है तथा किसी भी कामना की अभिलाषा नहीं करता, न किसी स्वप्न को देखता है, तब वह है पूर्ण सुषुप्तावस्था। सुषुप्ति जिसका स्थान है, जो ‘एकीभूत’ हो गया है, जो प्रज्ञानघन अर्थात् स्वयं में घनीभूत प्रज्ञा है जो केवल आनन्दमय है, जो निरपेक्ष आनन्द का रसास्वाद करता है, सचेतन मन जिसके लिए द्वार है ‘प्राज्ञ’ ‘प्रज्ञा का ईश’, ‘वह’ तृतीय पाद है। बिना अनुभव के स्मृति नहीं होती अतः निद्रा वृत्ति रूप है।
अब अगली पांचवीं और अन्तिम वृत्ति है स्मृति —
अनुभूतविषयासंप्रमोष: स्मृतिः ॥ १.११ ॥
अनुभूत विषय असम्प्रमोषः स्मृतिः — अनुभव किया हुआ जो विषय है और उसमें असम्प्रमोश, घटाया बढ़ाया नहीं, चुराया नहीं, इधर उधर से कुछ जोड़ा या तोड़ा नहीं ,बस तन्मात्र ही, बस जितना है उतना ही ज्ञान होना, इसको स्मृति कहते हैं। अनुभूत — (प्रमाण, विपर्यय, विकल्प और निद्रा के) अनुभव किए हुए विषयों का असम्प्रमोष: — न छिपना अर्थात् संस्कारवश उनका ज्ञान के स्तर पर प्रकट हो जाना स्मृति कहलाता है। {असम्प्रमोष माने अस्तेय = अनपहरण अर्थात् चोरी न करना } सभी प्रकार की स्मृतियाँ प्रमाण- विपर्यय- विकल्प और निद्रा- की स्मृतियाँ अनुभव के बाद ही प्रकट होतीं हैं। ‘संस्कार मात्र जन्यं ज्ञानं स्मृतिः’, ज्ञातविषयं ज्ञानं स्मृतिः, अर्थात् स्मृति वह ज्ञान है जिसका विषय पहले से ही ज्ञात हो। स्मृति से भिन्न ज्ञान का नाम अनुभव है।
‘‘गृहीतग्राहिणी वृत्तिश्चित्तस्य स्मृतिरुच्यते।
ऊना स्यादनुभूतेस्मा नाधिका तु कदाचन॥ २६ ॥ योगसूत्र सारः’’
अनुभवसे ज्ञात, जानी हुई जो वस्तु है उसको अनुभूत कहते हैं। जब किसी दृष्ट या श्रुत, देखी या सुनी हुई वस्तु का ज्ञान होता है तब एक प्रकार का उस अनुभूत वस्तु का तदाकार संस्कार चित्त में पड़ जाता है फिर जब किसी समय जब कोई उद्बोधक सामग्री उपस्थित होती है तो वो संस्कार प्रफुल्लित हो उठता है और तब चित्त इस संस्कार विषयक परिणाम को प्राप्त हो जाता है। यह अनुभूत पदार्थ विषयक चित्त का तदाकार परिणाम स्मृति नाम की वृत्ति कहलाता है। यह स्मृति अनुभूत विषय से कुछ कम तो हो सकती है लेकिन ज्यादा कभी नहीं। इस प्रकार से संक्षेप में पाँच वृत्तियाँ बतायीं और इनका निरोध कैसे करना ? इसके लिये कहते हैं कि अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इनका निरोध होता है ये बात अगले सूत्र की व्याख्या में करेंगे। अब तक जो पाँच वृत्तियाँ बतायीं — प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति; ये वृत्तियाँ सात्विक, राजस और तामस होने से सुख, दुःख और मोह रूप परिणाम देती हैं। सात्विक वृत्तियाँ सुख देती हैं, राजस दुःख देती हैं और तामस मोह की कारण हैं और सुख-दुःख-मोह ये क्लेशरूप हैं। ये सब वृत्तियाँ ही निरोध करने योग्य हैं। मोह तो स्वयं ही अविद्यारूप होने से सब दुखों का मूल है। मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥ सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) ही है। उन व्याधियों से फिर और बहुत से शूल उत्पन्न होते हैं। दुःख की वृत्तियाँ स्वयं ही दुःखरूप हैं। सुख की वृत्तियाँ सुख के विषयों और उनके साधनों में राग उत्पन्न करती हैं — सुखानुशयी रागः — सुखभोग के पश्चात् जो उसकी वासना रहती है वह राग है। उन सुख के विषयों तथा उन सुख के साधनों में विघ्न होने पर द्वेष उत्पन्न होता है। दुःखानुशयी द्वेषः — इसलिए क्लेशजनक सुख, दुःख और मोहस्वरूप होने से ये सभी प्रकार की वृत्तियाँ त्याज्य हैं। इनका निरोध होने पर एकाग्रता रूप सम्प्रज्ञात योग और उसके बाद परवैराग्य के उदय होने पर असम्प्रज्ञात योग सिद्ध होता है। इसीको स्वस्वरूपावस्थान अथवा सत्वान्यथाख्याति, सत्व से {अंतःकरण से} मैं अलग हूँ, सत्व माने अन्तः करण, सत्व माने चित्त, चित्त से पुरुष, जीवात्मा, शुद्धचैतन्य अलग है; वो सबका साक्षी है, सबका दृष्टा है — साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च — ये स्वरूप है, इसको ही पुरुषान्यथाख्याति, सत्वान्यथाख्याति आदि नामों से कहा गया है | जिसको कि योग का फल बताया है। स्मृति चाहे सुखकी हो या दुःखकी, है तो विक्षेप रूप ही और तत्व साक्षात्कार में बाधक ही है। इसलिये निरोद्धव्य है।
अब इन पाँचों वृत्तियोंके निरोध का उपाय क्या है ? इसके उत्तर में कहते हैं —
अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥१.१२॥
अब अगला बारहवां सूत्र है — अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः — इन सारी वृत्तियों का निरोध अभ्यास और वैराग्य से होता है। चित्त की वृत्तियों का निरोध करने के लिए दो उपाय हैं; अभ्यास और वैराग्य। चित्त का स्वाभाविक बहिर्मुख प्रवाह वैराग्य द्वारा निवृत्त होता है और अभ्यास द्वारा आत्मोन्मुख, आन्तरिक प्रवाह स्थिर हो जाता है। भगवान् वेद व्यास जी ने अभ्यास और वैराग्य को बड़े सुन्दर रूपक से वर्णन किया है जो इस प्रकार है – चित्त एक उभयतोवाहिनी नदी है जिसमें वृत्तियों का प्रवाह बहता रहता है, इसकी दो धाराएं हैं; एक संसार-सागर की ओर, दूसरी कल्याण-सागर की ओर बहती रहती है। जिसने पूर्व-जन्म में सांसारिक विषयों के भोगार्थ कार्य किये हैं उसकी वृत्तियों की धारा उन संस्कारों के कारण विषय मार्ग से बहती हुई संसार-सागर में जा मिलती है और जिसने पूर्व-जन्म में कैवल्यार्थ प्रयास किया है, काम किये हैं उसकी वृत्तियों की धारा उन संस्कारों के कारण विवेक मार्ग में बहती हुई कल्याण-सागर में जा मिलती है। संसारी लोगों की प्रायः पहली धारा तो जन्म से ही खुली होती है किन्तु दूसरी धारा को शास्त्र, गुरु तथा आचार्य की सेवा से एवं ईश्वर चिन्तन से खोलते हैं। पहली धारा को बन्द करने के लिए विषयों के श्रोत पर वैराग्य का बन्ध लगाया जाता है और अभ्यास की कुदाली से दूसरी धारा का मार्ग गहरा खोद कर वृत्तियों के समस्त प्रवाह को विवेक के श्रोत में डाल दिया जाता है तब प्रबल वेग से वह सारा प्रवाह कल्याण रुपी सागर में जा कर लीन हो जाता है। इस कारण अभ्यास तथा वैराग्य दोनों ही इकट्ठे मिलकर चित्त की वृत्तियों के निरोध के साधन हैं।
“आत्मा नदी संयम पुण्यतीर्था सत्योदका शील शमादियुक्ता । तस्यां स्नातः पुण्यकर्मा पुनाति न वारिणा शुद्धयति चान्तरात्मा। (वामन पुराण, ४३.२५)”
आत्मा नदीरूप है, संयम और पुण्य इसके तीर्थ हैं। इसमें सत्य का जल बह रहा है और सदाचार और शान्ति आदि से युक्त है। इस आत्मा रुपी नदी में जो स्नान करता है वह पवित्र हो जाता है। जल से अन्तरात्मा शुद्ध नहीं होती और आत्मा शब्द, चित्त और मन का ही पर्यायवाची है।
आत्मा चित्ते धृतौ यत्ने धिषणायां कलेवरे।
परमात्मनि जीवेर्के हुताशन समीरयोः।। अनेकार्थसङ्ग्रहः
आत्मा कलेवरे यत्ने स्वभावे परमात्मनि ।
चित्ते धृतौ च बुद्धौ च परव्यावर्तनेऽपि च ।। इति धरणिः ।
यह श्लोक धरणी कोश से लिया है। जिस प्रकार पक्षी का आकाश में उड़ना दोनों ही पंखों के अधीन होता है न केवल एक पंख के ऊपर; इसी प्रकार समस्त वृत्तियों का निरोध न केवल अभ्यास से ही और न केवल वैराग्य से ही हो सकता है किन्तु उसके लिए अभ्यास और वैराग्य, दोनों का ही समुच्चय होना आवश्यक है। तमोगुण की अधिकता से चित्त में लयरूप निद्रा, आलस्य, निरुत्साह आदि मूढ़ावस्था का दोष उत्पन्न होता है और रजोगुण की अधिकता से चित्त में चञ्चलता रूप विक्षेप दोष उत्पन्न होता है। अभ्यास से तमोगुण की निवृत्ति होती है और वैराग्य से रजोगुण की। योग के जो आठ प्रधान अंग बताये जाते हैं – उनमें से यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार ये पांच बहिरंग हैं, उनकी सिद्धि में अभ्यास अधिक सहायक होता है और तीन अंतरंग हैं – धारणा, ध्यान और समाधि यहाँ वैराग्य सहायता करता है। गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन को मन को रोकने के उपाय बताते समय अभ्यास और वैराग्य दोनों को ही समुच्चय रूप से साधन बतलाया है।
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।। श्रीमद्भगवद्गीता।।६.३५।।
अर्थ — श्रीभगवान् कहते हैं — हे महबाहो ! नि:सन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है; परन्तु, हे कुन्तीपुत्र ! उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है।
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः।। श्रीमद्भगवद्गीता।।६.३६।।
अर्थ — असंयत मन के पुरुष द्वारा योग प्राप्त होना कठिन है, परन्तु स्वाधीन मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा उपाय से योग प्राप्त होना संभव है, यह मेरा मत है।
यहाँ भगवान् ने अर्जुन को सम्बोधित करते हुए कहा हे महाबाहो ! ऐसा कह के सम्बोधन किया है, अर्थात् आपके हाथ बहुत लम्बे हैं — यानि के आप यह कर सकते हो। पहले भी दुसरे अध्याय में भी कहा था क्लैव्यं मा स्म गम: पार्थ – हे अर्जुन ! तू नपुंसकता को ग्रहण न कर। तू कर सकता है। हे महाबाहो ! निस्संदेह मन चञ्चल है और कठिनता से वश में होने वाला है परन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! अभ्यास और वैराग्य के द्वारा ये वश में हो जाता है। दूसरा सम्बोधन है कौन्तेय। अर्थात कुन्ती का पुत्र। कुन्त, भाला की नोक को कहते हैं अर्थात कुशाग्र बुद्धि वाला, शब्दों के यथार्थ तात्पर्य को समझ के उनको प्रयोग में लाने वाला। जिसने मन को वश में नहीं किया है उसको योग की प्राप्ति कठिन है; ऐसा भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं किन्तु स्वाधीन मन वाला प्रयत्नशील, अभ्यास करनेवाला पुरुष इस सिद्धि को प्राप्त कर सकता है।
‘‘आदित्यस्य गतागतैरहरहः संक्षीयते जीवितम्
व्यापारैर्बहुकार्य भारगुरुभिः कालो न विज्ञायते ।
दृष्ट्वा जन्म जरा विपत्ति मरणं त्रासश्च नोत्पद्यते
पीत्वा मोहमयीं प्रमाद मदिरा मुन्मत्त भूतं जगत् ।। ७।। ( वैराग्य शतकम्)’’
सूर्य के उदय और अस्त के साथ मनुष्यों की ज़िन्दगी रोज -रोज घटती जाती है । समय भागा जाता है, पर कारोबार में मशगूल रहने के कारण वह भागता हुआ नहीं दीखता । लोगों को पैदा होते, बूढ़े होते, विपत्ति ग्रसित होते और मरते देखकर भी उनमें भय नहीं होता । इससे मालूम होता है कि मोहमाया की प्रमादरूपी मदिरा के नशे में संसार मतवाला हो रहा है। सुरेश्वराचार्य ने कहा है कि —
‘‘अपामार्गलतेवायं विरुद्धफलदो भवः। प्रत्यग्दृशां विमोक्षाय संसाराय पराग्दृशाम् ।। २७ ।। बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्यवार्तिकम्’’
अर्थ — यह संसार अपामार्ग ( हिन्दी में इसे ‘चिरचिटा’, ‘लटजीरा’, ‘चिरचिरा ‘ आदि नामों से जाना जाता है। इसे लहचिचरा भी कहा जाता है। कहीं-कहीं इसे कुकुरघास भी कहा जाता है।) की लता के समान है , यदि अपामार्ग की लता को नीचे से ऊपर की तरफ स्पर्श करें तो बड़ा ही सुकोमल, सुखस्पर्श होता है और यदि ऊपर से नीचे की ओर स्पर्श करें तो उँगलियों को फाड़ देता है , बैसे ही अन्तर्दृष्टि वाले को योग सुलभ है और बहिर्दृष्टि वाले को संसार में फँसा देता है। विषयों में दोषदर्शन करना ही वैराग्य का कारण है और लक्ष्य की प्रक्रिया को बार-बार दोहराना ही अभ्यास है। इस प्रकार इन दोनों से {अभ्यास और वैराग्य से } चित्त की वृत्तियों का निरोध होता है। जैसे बाढ़ में आई हुई नदी ग्राम , नगरादि को डुबा भी सकती है और नहर , नाली आदि के निर्माण से खेतों में सिंचाई के काम भी आ सकती है | बैसे ही चित्त नदी को वैराग्य से बाँध कर विषयों की तरफ दौड़ने से रोका जाता है और निद्रा आदि दोषों को योग क्रियाओं के अभ्यास से हटाकर आत्माभिमुख प्रवाह वाली बनाया जाता है। अब वृत्तियों को रोकने के उपाय, अभ्यास और वैराग्य में से प्रथम अभ्यास का स्वरूप और प्रयोजन अगले सूत्र में बतलाते हैं।
तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यास: ॥१.१३॥
तत्रस्थितौ यत्नोभ्यासः — तत्र, उस द्रष्टाभाव में ( चित्त के शान्त स्वरूप में ) स्थिति प्राप्त करने के लिए उन दोनों, अभ्यास और वैराग्य में; स्थितौ, चित्त की शान्त स्थिति में; यत्नः, यत्न करना अभ्यास है क्योंकि दृष्टा के स्वरूप में स्थित होना है तो उस स्थिति में चित्त को स्थिर करने का नाम, बारम्बार उसको touch करने का नाम अभ्यास है। चित्त के वृत्ति रहित होकर शांत प्रवाह में बहने की स्थिति को स्थिति कहते हैं। उस स्थिति को प्राप्त करने के लिए वीर्य, पूर्ण सामर्थ्य और उत्साह पूर्वक यत्न करना अभ्यास कहलाता है। यम-नियम आदि योग के आठों अंगों का बार बार अनुष्ठान रूप प्रयत्न अभ्यास का स्वरूप है और चित्त वृत्तियों का निरोध होना अभ्यास का प्रयोजन है। संसार व्यवहार में भी पठन-पाठन, लेखन, पाकक्रिया में कुशलता, क्रय-विक्रय, नृत्य-गायन,वादन आदि सर्वकार्य अभ्यास से ही सिद्ध होते हैं। अभ्यास के बल से रस्सी पे चढ़े हुए नट तथा सर्कस आदि में न केवल मनुष्य किन्तु सिंह, अश्व आदि पशु भी अपनी प्रकृति के विरुद्ध आश्चर्यजनक कार्य करते हुए देखे जाते हैं। अभ्यास के प्रभाव से अतिदुस्साध्य कार्य भी सिद्ध हो सकते हैं इसलिए जब मुमुक्षु चित्त की स्थिरता के लिए अभ्यासनिष्ठ होगा तो वह स्थिरता भी उसको अवश्य प्राप्त होकर, चित्त वशीभूत हो जाएगा क्योंकि अभ्यास के आगे कोई भी कार्य दुष्कर नहीं है |
“विजेतव्या लङ्का चरणतरणीयो जलनिधि-
र्विपक्षः पौलस्त्य रणभुवि सहायाश्च कपयः ।
पदातिर्मर्त्योऽसौ सकलमवधीद्राक्षसकुलं
क्रियासिद्धिः सत्त्वे भवति महतां नोपकरणे ॥ १७० ॥भोजप्रबन्धः||”
अर्थ — अजेय लंका नगरी को जीतना था , पयोनिधि को चरणों से पार करना था, प्रतिपक्षी पुलस्त्यका पौत्र रावण था, संग्राम भूमि में सहायक थे बंदर, पैदल मानव राम, उन्होंने संहारा सारा राक्षस कुल, बड़े जनों की क्रियासिद्धि पौरुष से होती है; न कि साधनों से । यहाँ “क्रियासिद्धिः सत्त्वे भवति महतां नोपकरणे” – यहाँ पर सत्व शब्द का अर्थ उत्साह और संकल्प की दृढ़ता में ही है समुद्र की प्रेरणा से राम ने अथवा तो नल ने या सब वानरों ने मिलकर के इतने लम्बे-चौड़े समुद्रके ऊपर बड़ा भारी पुल बना दिया था, यह सब उत्साह और दृढ़ संकल्पशक्ति का ही परिणाम था। सूत्र का तात्पर्य है कि चित्त की प्रशान्त स्थिति को प्राप्त करने के लिये जो प्रयत्न किया जाता है, वह अभ्यास है।
“श्रुत्वा स्पृष्ट्वा च भुक्त्वा च दृष्ट्वा ज्ञात्वा शुभाशुभम्।
न हृष्यति ग्लायति यः स शान्त इति कथ्यते ॥ ३२ ॥ महोपनिषद् चतुर्थोऽध्यायः”
अर्थात् जो व्यक्ति शुभ या अशुभ को सुनकर, स्पर्शकर, देखकर, स्वाद लेकर अर्थात् खाकर तथा सूंघकर भी (ये पांचो ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं सुनकर यह श्रोत्र कान का, स्पर्श अर्थात् छूकर यह त्वक् इन्द्रिय का विषय है। देखकर यह नेत्रेन्दिय का, स्वाद लेकर यह रसनेन्द्रिय का, तथा सूंघकर यह घ्राणेन्द्रिय का विषय है ।) इन सबको प्राप्त कर अनुकूलता में न तो हर्षित होता है और न ही प्रतिकूलता में विषाद करता है वही सही अर्थों में शान्त है और वही सच्चा योगी है । वृत्तिरहित चित्त का स्वरूपनिष्ठ जो परिणाम है वही स्थिति कहलाता है, उसी स्थिति को प्राप्त करने का यत्न उत्साह कहलाता है, पुनः पुनः अपने चित्त में उस शान्त स्थिति का निवेशन अभ्यास कहलाता है। सूत्र में {स्थितौ} शब्द सप्तमी विभक्ति में है अतः इस शंका के निवारण के लिये महाभाष्य से एक उदाहरण देते हैं “उदाहरणम् — चर्मणि द्वीपिनं हन्ति, दन्तयोर्हन्ति कुंजरम् । केशेषु चमरीं हन्ति, सीम्नि पुष्कलको हत: ।। (महाभाष्यम्) चर्मणि द्वीपिनं हन्ति — चमडे के लिये बाघ को मारता है । दन्तयोर्हन्ति कुंजरम् — दांतों के लिये हांथी को मारता है । केशेषु चमरीं हन्ति — बालों के लिये चमरी हिरण को मारता है । सीम्नि पुष्कलको हत: — अण्डकोश में विद्यमान कस्तूरी के लिये कस्तूरी-मृग को मारता है ।
यदि फलवाचक निमित्तशब्दस्य कर्मणा सह संयोग उत समवायसम्बन्ध: भवति चेत् निमित्त (फलवाचक) शब्देन सह सप्तमी विभक्ति: भवति ।
हिन्दी — यदि फलवाचक निमित्त शब्द का कर्म के साथ संयोग या समवाय सम्बन्ध हो तो निमित्त वाचक (फलवाचक) शब्द के साथ सप्तमी विभक्ति होती है ।
“उत्साहः साहसं धैर्यं बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः ।
षडेते यत्र तिष्ठन्ति तत्र देवोऽपि तिष्ठति ॥
उत्साह ,साहस, दृढ़ता, ज्ञान, शक्ति और वीरता। जहां ये छह हैं, वहां भगवान सहायता करते हैं। अब हमारे अभ्यास में जो विघ्नरूप राजस और तामस वृत्तियों के अनादि प्रबल संस्कार चित्त की एकाग्रता के जो विरोधी हैं उनसे प्रतिबद्ध, उनसे घिरा हुआ अभ्यास और एकाग्रतारूप जो स्थिति है उसको सम्पादन करने में हम कैसे समर्थ हो सकते हैं इस शङ्का की निवृत्ति के लिए अगले सूत्र में अभ्यास की दृढ़-भूमि कैसे प्राप्त हो इसका उपाय बताते हैं।
स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः ॥१.१४॥
स: तु दीर्घकाल नैरन्तर्य सत्कारासेवितो दृढभूमिः। सः माने वह, जो पूर्वोक्त स्थिति को प्राप्त करने के लिये किया गया अभ्यास है वह। तु माने किन्तु दीर्घकाल — माने बहुत लम्बे काल पर्यन्त नैरन्तर्य = निरन्तर अर्थात लगातार, व्यवधान रहित सत्कार आसेवितः – सत्कार से आदरपूर्वक ठीक ठीक सेवन किया हुआ अर्थात् श्रद्धा, वीर्य और भक्ति पूर्वक अनुष्ठान किया हुआ अभ्यास- दृढ़भूमिः — दृढ़ अवस्था वाला हो जाता है। विषयभोग और वासनाजन्य व्युत्थान के संस्कार मनुष्य के चित्त में अनादि जन्म-जन्मान्तरों से पड़े चले आ रहे हैं उनको थोड़े ही समय में बीज-सहित नष्ट कर देना अत्यन्त कठिन कार्य है। वे निरोध के संस्कारों को तनिक सी भी असावधानी होने पर दबा के धर-दबोचते हैं इस कारण अभ्यास को दृढ़ भूमि बनाने के लिए धैर्य के साथ दीर्घकाल पर्यन्त लगातार श्रद्धा और उत्साहपूर्वक प्रयत्न करते रहना चाहिए। ये दृढ़ भूमि प्राप्त करने के लिए सूत्र में तीन विशेषण दिए हैं।
पहला विशेषण है ‘दीर्घकाल’ वहां दीर्घकाल से दस-बीस आदि वर्षों का नियम नहीं है क्योंकि योग के अधिकारी भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। जिन्होंने पूर्व-जन्मों में अभ्यास के संस्कारों को दृढ़ कर लिया है और जिनका वैराग्य भी तीव्र है उनको शीघ्र या अतिशीघ्र समाधि का लाभ हो जाता है। इतरजनों को शीघ्र समाधि-लाभ नहीं होता तो उन्हें निराश नहीं होना चाहिए किन्तु धैर्य के साथ चिरकाल तक एकाग्रता के निमित्त दृढ़ अवस्था के लिए अभ्यास का सेवन करते रहना चाहिए।
दूसरा विशेषण है ‘नैरन्तर्य’ — अर्थात् अभ्यास को लगातार, निरन्तर, व्यवधान रहित करते रहना चाहिए। रोज एक ही समय पर और जितना काल निश्चित कर लिया है उतने काल के लिए, ऐसा न हो कि एक मास अभ्यास किया और फिर दस दिन के लिए छोड़ दिया और फिर तीन मास किया और फिर एक मास के लिए छोड़ दिया। इस प्रकार व्यवधान के साथ किया हुआ अभ्यास बहुत समय में भी दृढ़भूमि नहीं हो पाता इसलिए बिना व्यवधान के, बिना अन्तराल के, बिना रुकावट के अभ्यास को निरन्तर करते रहना चाहिए। जैसे आप यदि दूध को उबालना चांहते हैं और एक -एक मिनिट के अग्निताप को बन्द कर देते हैं तो आप उस दूध को कभी भी उबाल नहीं पायेंगे। जबतक न उबले तबतक निरन्तरता आवश्यक है।
तीसरा विशेषण है ‘सत्कार आसेवितः’ — वह अभ्यास ठीक ठीक अभ्यास पूर्वक श्रद्धा, भक्ति, वीर्य, ब्रह्मचर्य और उत्साहपूर्वक अनुष्ठान किया जाना चाहिए। दीर्घकाल तक निरन्तर सेवन किया हुआ अभ्यास भी बिना इस विशेषण के दृढ़ अवस्था वाला नहीं हो सकेगा। इन तीनो विशेषणों से युक्त अभ्यास, व्युत्थानरूप जो राजस, तामस वृत्तियाँ हैं उनके संस्कारों को प्रतिबद्ध कर सकेगा और इन संस्कारों को तिरोभूत करके चित्त की स्थिरता रूप प्रयोजन को सिद्ध करने में समर्थ हो सकेगा। अतः अभ्यासी जनों को थोड़े काल में हीअभ्यास से घबराना नहीं चाहिये किन्तु दृढ़भूमि प्राप्ति के लिए दीर्घकाल, निरन्तर सत्कार से अभ्यास करते रहना चाहिए। इस सूत्र में जो सत्कार शब्द है उसका अर्थ श्रद्धा होता है – श्रद्धा योगिनं जननीमिवपाति – श्रद्धा माता की तरह योगी की रक्षा करती है। गीता में भी भगवान् ने श्रद्धा को तीन तीन रूपों में बांटा है —
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु।। १७-२।। (श्रीमद् भगवद्गीता)
श्रीभगवान् बोले — मनुष्योंकी वह स्वभावसे उत्पन्न हुई श्रद्धा सात्त्विकी तथा राजसी और तामसी — ऐसे तीन तरहकी ही होती है, उसको तुम मेरेसे सुनो। सात्त्विक मनुष्य देवताओंका पूजन करते हैं, राजस मनुष्य यक्षों और राक्षसोंका और दूसरे जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेतों और भूतगणोंका पूजन करते हैं। गीता के सत्रहवें अध्याय का नाम ही है — श्रद्धा त्रय विभाग योग।
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहि प्रकृति भेदतः। सात्विकी राजसी चैव तामसी च बुभुत्सवः ।।८२ ।।
तासां तु लक्षणं विप्राः शृणुध्वं भक्तिभावतः। श्रद्धा सा सात्विकी ज्ञेया विशुद्धज्ञानमूलिका ।।८३ ।।
प्रवृत्तिमूलिका चैव जिज्ञासा मूलिकापरा। विचारहीनसंस्कारमूलिका त्वन्तिमा मता।।८४ ।। विष्णुगीता,अध्याय ३ ।।
अर्थात देहधारियों की प्रकृति के भेदानुसार सात्विक, राजसिक और तामसिक तीन प्रकार की श्रद्धा होती है। विशुद्ध ज्ञानमूलक श्रद्धा सात्विक है, प्रवृत्ति और जिज्ञासामूलक श्रद्धा राजसिक है और विचारहीन संस्कारमूलक श्रद्धा तामसिक है। इनमें सात्विक श्रद्धा ही श्रेष्ठ है। श्रद्धा कीदृशी ? श्रद्धा का स्वरूप क्या है ? गुरुवेदान्तवाक्यादिषु विश्वासः श्रद्धा। गुरू और वेदान्त के वाक्यों में विश्वास ही श्रद्धा है। सूत्र में इसी श्रद्धा को ‘सत्कार’ शब्द से अनुष्ठान करना बतलाया गया है। भक्तियोगः क्रियायोगः चर्यायोगस्तथैव च। कर्मयोगो हठो मन्त्रो ज्ञानयोगो लयस्तथा ॥ ४६ ॥ अद्वैतोलक्ष्ययोगश्च सिद्धिर्ब्रह्मस्तथा शिवः। वासनाध्यानयोगौ च सर्वे सूत्रेषु दर्शिताः ॥ ४७ ॥योगसूत्रसारः
अब अगला सूत्र वैराग्य के विषय में है। ये वैराग्य दो प्रकार होता है – अपर वैराग्य और पर वैराग्य। अगले सूत्र में प्रथम अपर वैराग्य का रूप बताते हैं —
दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ॥१.१५॥
अभ्यास का लक्षण बताने के बाद अब वैराग्य का लक्षण बताते हैं। दृष्ट-आनुश्रविक-विषय-वितृष्णस्य। दृष्ट माने देखे हुए और आनुश्रविक माने सुने हुए तो देखे और सुने हुए विषयों में जिसको कोई तृष्णा नहीं है उसका “वशीकार संज्ञा वैराग्यं”, वशीकार नाम वाला ये वैराग्य है। दृष्ट माने देखे हुए — बम्बई, कलकत्ता देखा हुआ है, वहां पर कोई वासना इकट्ठी हो जाए और स्वर्गादि के सुने हुए हैं, उसके विषय में {रम्भा, तिलोत्तमा, अमृत, कल्पवृक्ष आदि में} कोई तृष्णा हो जाए, तो इनका वश में होना, तृष्णा का वश में होना। देखे और सुने हुए विषयों में जो तृष्णा है, प्राप्त करने की इच्छा है उसका वश में होना उसी का नाम है वशीकार वैराग्य। इस वैराग्य का नाम है वशीकार वैराग्य और इसी को अपर वैराग्य भी कहते हैं। विषय दो प्रकार के होते हैं दृष्ट और आनुश्रविक। दृष्ट वे हैं जो इस लोकमें दृष्टिगोचर होते हैं जैसे रूप, रस, गन्ध, स्पर्श; रसमलाई, मलाईपूरी, कचौरी, रबड़ी और धन-सम्पत्ति, स्त्री, राज्य, ऐश्वर्य और आनुश्रविक वे हैं जो वेदों और शास्त्रों में जिनका वर्णन हुआ है — वैकुण्ठ, गोलोक, स्वर्ग, अमरावती, अलकावती, भोगवती ये सब विषय दो प्रकार होते हैं — शरीरान्तर वेद्य जैसे देवलोक, स्वर्ग, विदेह और प्रकृतिलय का आनन्द और अवस्थान्तर वेद्य जैसे दिव्यरस, दिव्यागन्ध अथवा तीसरे पाद में वर्णित, अर्जित की हुई सिद्धियां; इन दोनों प्रकार के — दिव्य और अदिव्य, सांसारिक और पारलौकिक इन विषयों की उपस्थिति में जब चित्त प्रसंख्यान ज्ञान के बल से, इनमें दोषदृष्टि के बल से इनको देखता हुआ “इनके संग दोष से सर्वथा रहित हो जाता है”, इस प्रकार विचार करता हुआ जब इनको न ग्रहण करता है न इनसे परे हटता है, तब वीतराग अवस्था में, इनमें उसका ग्रहण करने वाला राग और उससे परे हटने वाला द्वेष ये दोनों ही निवृत्त हो जाते हैं। जैसा कि कहा गया है —
विकारहेतौ सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त एव धीराः।
ये कुमारसम्भव का बड़ा ही प्रसिद्ध श्लोक है कि विकार का हेतु, विकार का कारण उपस्थित होनेपर भी जिनके चित्तों में विकार उत्पन्न नहीं होता वे ही धीर पुरुष हैं। पूरा श्लोक इस प्रकार है —
प्रत्यर्थिभूतामपितां समाधे: शुश्रूषमाणां गिरिशोनुमेने । विकारहेतौ सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त एव धीराः।। १.५९।। (कुमारसम्भवम्)
समाधि में विघ्नस्वरुप वो जो गिरिराज की कन्या, गिरिराज की अनुमति से भगवान् शङ्कर के सेवा में लगी हुई थी उसकी उपस्थिति होनेपर भी सेवा करते हुए भी भगवान् शङ्कर के चित्त में कोई विकार नहीं हुआ उनकी समाधि खण्डित नहीं हुई – येषां न चेतांसि त एव धीराः, भगवान् ने गीता में भी कहा है — मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदा।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।
ये जो शब्दस्पर्शादि विषय हैं ये आगमापायी हैं, आने-जाने वाले हैं; इनको प्राप्त करके मोहित न हो जाना, इनको सहन कर लो। तो इस प्रकार जो धीर
पुरुष हैं उनका चित्त एकरस बना रहता है। चित्त की ऐसी अवस्था का नाम ही वशीकार संज्ञा वैराग्य है। इसी को अपर वैराग्य भी कहते हैं जिसकी अपेक्षा से दूसरे सूत्र में पर वैराग्य बतलाया है। किसी विषय के केवल त्यागने को वैराग्य नहीं कहते क्योंकि रोगादि होने के कारण भी विषयों से अरुचि हो जाती है जिससे उनका त्यागना हो जाता है। किसी विषय के अप्राप्त होने पर भी उसका भोग नहीं किया जा सकता। दिखावे के लिए तथा भय, लोभ और मोह के वशीभूत होकर अथवा दूसरों के आग्रह से भी किसी विषय को त्यागा जा सकता है। डॉक्टर मना कर दे, शुगर मत खाओ, तो फिर मजबूरी है, क्या करें , परन्तु उसकी तृष्णा सूक्ष्म रूप से बनी रहती है। विवेक के द्वारा विषयों को “अनन्त दुःख रूप हैं और बन्धन का कारण है”, ऐसा समझ कर उनमें पूर्णतया अरुचि का हो जाना तथा उसमें सर्वथा संगदोष से निवृत्त हो जाना, यही वैराग्य का लक्षण है। न जातु कामः कामानां उपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ।। ये राजा ययाति की प्रसिद्ध उक्ति है — विषयों की कामना विषयों के भोग से कभी शान्त नहीं होती किन्तु जैसे अग्नि में हवि डालने से अग्नि की ज्वाला और अधिक प्रज्वलित होती है, बढ़ती है इस तरह से भोगने से भोग की अभिलाषा और बढ़ती जाती है। भर्तृहरि जी ने भी कहा है —
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः ।
कालो न यातो वयमेव याताः तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः।।
अर्थात भोग नहीं भोगे गए, (भोगों को हमने नहीं भोगा) भोगों ने ही हमको भोग लिया किन्तु हमीं भोगे गए; तप नहीं तपे, हमीं तप गए; समय नहीं बीता किन्तु हम ही बीत गए; तृष्णा जीर्ण नहीं हुई किन्तु हम ही जीर्ण हो गए। इसलिए वैराग्य ही सुख का कारण है — तदुक्तम् —
वैराग्यमाद्यं यतमानसंज्ञं क्वचिद्विरागो व्यतिरेकसंज्ञकः ।
एकेन्द्रियाख्यं हृदि रागसौक्ष्म्यं तस्याप्यभावस्तु वशीकृताख्यम्, इति ॥
वैराग्य की चार संज्ञाएं हैं , चार नाम हैं — यतमान वैराग्य, व्यतिरेक वैराग्य, एकेन्द्रिय वैराग्य और वशीकार वैराग्य।
यतमान वैराग्य — वह है जैसे कि चित्त में रागद्वेष पहले से ही जमे हुए हैं, उनके संस्कार हैं, जैसे कि कुछ अच्छा लगता है, कुछ बुरा लगता है तो इन्द्रियों को अपने अपने विषयों में वो रागद्वेष को प्रवृत्त करते हैं। उन रागद्वेषादि दोषों को बार बार चिन्तनरूप प्रयत्न से जिससे कि वो इन्द्रियों को उन विषयों में प्रवृत्त न कर सकें, वो यतमान संज्ञक वैराग्य है।
व्यतिरेक वैराग्य — फिर विषयों में दोषों का चिन्तन करते करते निवृत्त और विद्यमान चित्त मलरूप दोषों का व्यतिरेक निश्चय अर्थात इतने मल निवृत्त हो गए हैं और इतने निवृत्त हो रहे हैं और इतने निवृत्त होनेवाले हैं। इस प्रकार जो निवृत्त और विद्यमान चित्त-मलों का पृथक-पृथक रूप से जो ज्ञान है, वह व्यतिरेक संज्ञक वैराग्य है।
एकेन्द्रिय वैराग्य — जब यह चित्त मलरूपी रागादि दोष बाह्य इन्द्रियों को तो विषयों में प्रवृत्त करने में असमर्थ हो गए हों किन्तु सूक्ष्म रूप से मन में निवास करते हों जिससे विषयों की सन्निधि जब उपस्थित हो तो फिर से चित्त में क्षोभ उत्पन्न कर सकें। तो इस प्रकार जब केवल मन में सूक्ष्म रूप से विषय की वासना बनी रहती है तो उसको एकेन्द्रिय वैराग्य, उसका नाम उस वैराग्य की संज्ञा हो जाती है एकेन्द्रिय वैराग्य, यह केवल एक इन्द्रिय में , केवल मन में रहता है, राग या तृष्णा के रूप में |
वशीकार वैराग्य — और वशीकार संज्ञा उसकी होती है कि जब सूक्ष्मरूप से भी जब चित्त के मल, रागादि दोषों की निवृत्ति हो जाए और दिव्य-अदिव्य, सुने हुए, देखे हुए समस्त विषयों के उपस्थित होनेपर भी उपेक्षा बुद्धि बनी रहे, अपेक्षा-बुद्धि न रहे तब यह तीनों संज्ञाओं से परे, उसका नाम होता है वशीकार संज्ञक वैराग्य अर्थात् यह ज्ञान कि “ममैते वश्या नाहं एतेषां वश्य इति”, ये मेरे वशीभूत हैं, मैं इनके वशीभूत नहीं हूँ। ये पहली तीन भूमि वाले वैराग्य निरोध के साक्षात हेतु नहीं हैं। निरोध का साक्षात हेतु तो यह चौथी भूमि वाला वशीकार संज्ञक वैराग्य ही है। इसलिए सूत्रकार ने इसी वशीकार संज्ञा वाले वैराग्य का वर्णन किया है । किन्तु ये जो वशीकार संज्ञा वाला वैराग्य है यह पहली तीन भूमियों को पार करके ही प्राप्त होता है। जब तक इन तीन भूमियों को लांघकर नहीं जाएगा तब तक ये चौथी भूमिवाले वशीकारसंज्ञक वैराग्य तक नहीं पहुँच पायेगा और इसी का दूसरा नाम है अपर वैराग्य और इसका फल है एकाग्रता और सम्प्रज्ञात समाधि जिसकी सबसे ऊंची भूमि पुरुष और चित्त की भिन्नता प्रतीत करानेवाली विवेकख्याति है। वैराग्य के बिना विवेक होता नहीं किन्तु यह भी त्रिगुणात्मक चित्त की ही एक वृत्ति है इससे भी विरक्त हो जाना पर वैराग्य है और उसका फल है असम्प्रज्ञात समाधि। विषयों में दोष दर्शन करने से ही वैराग्य हो सकता है। प्राचीनकाल में सौभरि नाम के एक परम तपस्वी थे, दोष दर्शन के अभाव में उन्हें दुःखी होना पड़ा और वे दुःखी होकर शोक से कहने लगे कि — अहो इमं पश्यत मे विनाशं तपस्विन: सच्चरितव्रतस्य। अन्तर्जले वारिचरप्रसङ्गात् प्रच्यावितं ब्रह्म चिरं धृतं यत् ॥९.६.५०॥ (श्रीमद्भागवतम्)
अर्थात् हे मनुष्यों! तुम में से जो लौकिक पदार्थों से सुख प्राप्त करना चाहते हैं, वे सावधान हो जाएँ। मेरे अधोपतन की ओर देखें कि पहले मैं कहाँ था और अब मैं कहाँ पर हूँ। मैंने योग शक्ति द्वारा पचास शरीर धारण किए तथा सहस्रों वर्षों तक पचास स्त्रियों के साथ विहार करता रहा फिर भी इन्द्रिय भोगों से तृप्ति नहीं हुई, अपितु और अधिक तुष्टि की लालसा बनी रही। अतः मेरे अधोपतन से शिक्षा लें और सावधान रहकर इस दिशा की ओर न भटकें।” गीता में भी भगवान ने कहा है कि —
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरूषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥२.६०॥ (श्रीमद्भगवद्गीता)
हे कुन्तीनन्दन! (रसबुद्धि रहनेसे) यत्न करते हुए विद्वान् मनुष्यकी भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ उसके मनको बलपूर्वक हर लेती हैं। इन्द्रियाँ इतनी प्रबल होती हैं कि वे विवेकशील और आत्म नियंत्रण का अभ्यास करने वाले मनुष्य के मन को भी अपने वश में कर लेती है।
‘‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।५.२२।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
क्योंकि हे कुन्तीनन्दन ! जो इन्द्रियों और विषयोंके संयोगसे पैदा होनेवाले भोग (सुख) हैं, वे आदि-अन्तवाले और दुःखके ही कारण हैं। अतः विवेकशील मनुष्य उनमें रमण नहीं करता। इसलिये भी (इन्द्रियोंको विषयोंसे) हटा लेना चाहिये क्योंकि विषय और इन्द्रियोंके सम्बन्धसे उत्पन्न जो भोग हैं वे सब अविद्याजन्य होनेसे केवल दुःखके ही कारण हैं क्योंकि आध्यात्मिक आदि (तीनों प्रकारके) दुःख उनके ही निमित्तसे होते हुए देखे जाते हैं। एव शब्दसे यह भी प्रकट होता है कि ये जैसे इस लोकमें दुःखप्रद हैं वैसे ही परलोकमें भी दुःखद हैं। संसारमें सुखकी गन्धमात्र भी नहीं है यह समझकर विषयरूप मृगतृष्णिकासे इन्द्रियोंको हटा लेना चाहिये। ये विषयभोग केवल दुःखके कारण हैं इतना ही नहीं किंतु ये आदिअन्तवाले भी हैं विषय और इन्द्रियोंका संयोग होना भोगोंका आदि है और वियोग होना ही अन्त है। इसलिये जो आदिअन्तवाले हैं वे केवल बीचके क्षणमें ही प्रतीतिवाले होनेसे अनित्य हैं। हे कौन्तेय परमार्थतत्त्वको जाननेवाला विवेकशील बुद्धिमान् पुरुष उन भोगोंमें नहीं रमा करता। क्योंकि केवल अत्यन्त मूढ़ पुरुषोंकी ही पशु आदिकी भाँति विषयोंमें प्रीति देखी जाती है। कल्याणके मार्गका प्रतिपक्षी यह ( कामक्रोधका वेगरूप ) दोष ब़ड़ा ही दुःखदायक है सब अनर्थोंकी प्राप्तिका कारण है और निवारण करनेमें अति कठिन भी है। इसलिये भगवान् कहते हैं कि इसको नष्ट करनेके लिये खूब प्रयत्न करना चाहिये।
सम्प्रज्ञात समाधि के साधन अपर वैराग्य को बतला कर अब अगले सूत्र में असम्प्रज्ञात समाधि का साधन जो पर वैराग्य है उसका वर्णन अगले सूत्र में करते हैं ।
तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम् ॥१.१६ ॥
अपर-वैराग्य ही परवैराग्यकी जन्मभूमि है । स्वरूप ज्ञान की पराकाष्ठा ही पर – वैराग्य है। पुरुष के वास्तविक स्वरूप के ज्ञान से जो प्रकृति के गुणों में तृष्णा रहित हो जाना है – वह पर-वैराग्य है। तत् माने वह =वैराग्य ; परम् = पर (सबसे ऊंचा) है जो पुरुषख्यातेः = प्रकृति – पुरुष विषयक विवेकज्ञान -अथवा उसको सत्व – पुरुषान्यथा – ख्याति कहें — ऐसी विवेकख्याति के उदय होने से ; गुण – वैतृष्ण्यम् = गुणों में तृष्णा रहित हो जाना है | विवेकख्याति द्वारा पुरुष के असल स्वरूप के ज्ञान से जो प्रकृति के गुणों में तृष्णा रहित हो जाना है – वह पर-वैराग्य है। इस पर वैराग्य से गुणों से साथ तादात्म्य टूट जाता है। यह ज्ञान की परम सीमा है। इस पर-वैराग्य में रजोगुण और तमोगुण का गन्धमात्र भी नहीं रहता। इस वैराग्य के उदय होनेपर योगी मानता है कि जो प्राप्त करने योग्य था वह प्राप्त हो गया, जो नाश करने योग्य पाँच क्लेश थे वे नष्ट हो गये, अब संसार का संक्रम (चक्र, सिलसिला) टूट गया है, जिसके टूटे बिना मनुष्य उत्पन्न होकर मरता है और मरकर उत्पन्न होता है। इस तरह यह वैराग्य तृष्णा का विरोधी है। इसीके निरन्तर अभ्यास से कैवल्य पद प्राप्त होता है |
त्यज धर्ममधर्मं च उभे सत्यानृते त्यज।
उभे सत्यानृते त्यक्त्वा येन त्यजसि तत् त्यज।। २.१७ ।। (संन्यासोपनिषद्)
धर्म-अधर्म तथा सत्य-असत्य (तामसी और सात्विकी वृत्ति) दोनों का ही परित्याग कर देना चाहिए। तदनन्तर जिसके द्वारा इस प्रकार सत्य-असत्य का परित्याग किया जाता है, उसका भी त्याग कर देना चाहिए | इन सब विषय भोगों में तृष्णा का अभाव होना पर-वैराग्य है | इसका फल असम्प्रज्ञात समाधि है। विवेकख्याति (प्रसंख्यान) की स्थायी अवस्था का नाम धर्ममेघ-समाधि है।
धर्ममेघमिमं प्राहुस्समाधिं योगवित्तमाः।
वर्षत्येष यतो धर्मामृतधारास्सहस्रशः ॥ ६० ॥ (वेदान्तपंचदशी)
योग वेत्ताओं में श्रेष्ठ तत्त्वज्ञ पुरुष इस निर्विकल्प समाधि को धर्ममेघ कहते हैं, क्योंकि यह धर्मरूप अमृत की हजारों धाराओं को बरसाने लगती है।
‘‘वैराग्यं हि परं हेतुस्समाधेर्यस्य विद्यते।
असम्प्रज्ञातनामाऽसौ समाधिः काशते तदा ॥ ३८ ॥योगसूत्रसारः’’
इस प्रकार चित्त आसक्ति रहित होकर सर्ववृत्तिशून्य हो जाता है और इसीको असम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं।
‘‘संप्राप्यैनमृषयो ज्ञानतृप्ताः कृतात्मानो वीतरागाः प्रशान्ताः।
ते सर्वगं सर्वतः प्राप्य धीरा युक्तात्मानः सर्वमेवाविशन्ति ॥३.२.५॥ मुण्डकोपनिषद्’’
‘उसे’ प्राप्त करके, ज्ञान की पूर्णता से संतृप्त ऋषिगण जिन्होंने ‘आत्मा’ की पूर्णता प्राप्त कर ली है, जो समस्त कामनाओं से मुक्त (वीतराग) हैं, प्रशान्त हैं, उस सर्वव्यापी को सब ओर से प्राप्त करते हैं तथा उससे स्वयं को युक्त करके ये विद्वान् उस ‘सर्वात्म-रूप’ में पूर्णरूप से प्रवेश कर जाते हैं।
“अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वत: . नित्यं सन्निहितो मृत्यु: कर्तव्यो धर्म्मसङ्ग्रहः॥ २,४७.२४ ॥ गरुडपुराणम्-(धर्मकाण्डः)-अध्यायः ४७”
हमारा शरीर सदा रहने वाला नहीं है, धन भी हमेशा टिका नहीं रहता और मृत्यु सदा साथ रहती है, अत: मनुष्य को चाहिए कि वह धर्म के कार्यों को करता रहे। न जाने जीवन कब समाप्त हो जाए। इसलिए धर्मसंग्रह ही परम कर्त्तव्य है । माना कि अन्धेरा घना है लेकिन दिया जलाना कहाँ मना है। पहला वैराग्य विषयों के प्रति है और दूसरा वैराग्य गुणों के प्रति है। यह दूसरा वैराग्य ही निरोध समाधि के लिये अनुकूल है।
‘‘त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।२.४५।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
हे अर्जुन वेदों का विषय तीन गुणों से सम्बन्धित (संसार से) है तुम त्रिगुणातीत, निर्द्वन्द्व, नित्य सत्त्व (शुद्धता) में स्थित, योगक्षेम से रहित और आत्मवान् बनो। वेद त्रैगुण्यविषयक हैं अर्थात् तीनों गुणोंके कार्यरूप संसारको ही प्रकाशित करनेवाले हैं। परंतु हे अर्जुन तू असंसारी हो निष्कामी हो। तथा निर्द्वन्द्व हो अर्थात् सुखदुःखके हेतु जो परस्पर विरोधी (युग्म) पदार्थ हैं उनका नाम द्वन्द्व है उनसे रहित हो और नित्य सत्त्वस्थ हो अर्थात् सदा सत्त्वगुणके आश्रित हो। तथा निर्योगक्षेम हो। अप्राप्त वस्तुको प्राप्त करनेका नाम योग है और प्राप्त वस्तुके रक्षणका नाम क्षेम है योगक्षेमको प्रधान माननेवालेकी कल्याणमार्गमें प्रवृत्ति होनी अत्यन्त कठिन है अतः तू योगक्षेमको न चाहनेवाला हो। तथा आत्मवान् हो अर्थात् (आत्मविषयोंमें) प्रमादरहित हो। तुझ स्वधर्मानुष्ठानमें लगे हुएके लिये यह उपदेश है।
इस प्रकार निरोध के उपायभूत अभ्यास और वैराग्य का लक्षण बताकर अब अगले सूत्र में इन दोनों उपायों से सिद्ध होनेवाली सम्प्रज्ञात समाधि के अवान्तर भेदों का निरूपण करते हैं |
वितर्कविचारानन्दास्मितारूपानुगमात् संप्रज्ञातः ॥१.१७॥
ध्यान के रथ के दो पहिये हैं, एक है अभ्यास और दूसरा है वैराग्य। ऐसे रथ में बैठ कर जैसे कोई धनुर्धर पहले स्थूल वस्तु को लक्ष्य बनाता है फिर सूक्ष्म वस्तु को बैसे ही योगी भी पहले सम्प्रज्ञात समाधि का अभ्यास करता है फिर असम्प्रज्ञात समाधि का। समाधि का उपाय अभ्यास और वैराग्य को बतलाकर अब उपेय का निरूपण करते हैं। यह उपेय चार प्रकार का है। (१) वितर्कानुगत सम्प्रज्ञात समाधि (२) विचारानुगत सम्प्रज्ञात समाधि (३) आनंदानुगत सम्प्रज्ञात समाधि (४) अस्मितानुगत सम्प्रज्ञात समाधि। किसी एक प्रकार की वृत्ति की अनुवृत्ति करना , और फिर उसी वृत्ति में एकाग्र हो जाना सम्प्रज्ञात समाधि है। वितर्क, विचार, आनन्द, अस्मिता, रूप, अनुगमात् , (युक्त हो जाना) संप्रज्ञातः ॥सम्प्रज्ञात समाधि कहलाती है। तर्क्यन्ते प्रमिति विषयी क्रियन्ते, पञ्चभूतादयः विषयाः इति तर्काः। विशेषेण तर्कणं, अवधारणं इति व्युत्पत्तिः। विशेष रूप से समझना ही वितर्क है। यह सम्प्रज्ञात समाधि चार प्रकार की होती है। ये चारों समाधियाँ सालम्ब समाधि कहलातीँ हैं। सबसे पहली है — १.) स्थूल विषयों की ग्राह्य भावना वितर्कानुगत सम्प्रज्ञात है। २.) विशेषेण सूक्ष्मपर्यन्तं चरणमिति विचारः। सूक्ष्मभूत विषयक पाँच तन्मात्राओं की ग्राह्य भावना विचारानुगत सम्प्रज्ञात है। ३.) तन्मात्राओं तथा इन्द्रियों के कारणरूप सत्वप्रधान अहंकार-विषयक केवल ग्रहण भावना का नाम आनन्दानुगत सम्प्रज्ञात है। इसमें आनन्द विषयाकार ‘अहं’ वृत्ति रहती है। ४.) और अस्मिता जो कि अहंकार का भी कारण है इसलिए अहंकार से भी सूक्ष्मतर है, अर्थात् चेतन से प्रतिबिम्बित चित्तसत्व बीजरूप अहंकारसहित-विषयक गृहीतृ भावना का नाम अस्मितानुगत सम्प्रज्ञात है। इसमें अस्मिता विषयाकार ‘अस्मि’ वृत्ति रहती है। उपनिषद में इसका वर्णन इस प्रकार किया गया है —
यच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञान आत्मनि।
ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेत्तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि ॥१३॥ (कठोपनिषद्)
प्रज्ञावान् व्यक्ति अपनी वाणी को मन में नियन्त्रित रखे, उस मन को ज्ञानस्वरूप आत्मा अर्थात बुद्धि में नियन्त्रित रखे तथा ज्ञान को अर्थात बुद्धि को ‘महान् आत्मा’ (महत्तत्व) में लय करे, नियन्त्रित रखे और उस महत्तत्व को पुनः उस ‘आत्मा’ में नियन्त्रित रखे जो शान्त-स्वरूप है।
भक्तियोगः, क्रियायोगः, चर्यायोगस्तथैव च।
कर्मयोगो, हठो, मन्त्रो, ज्ञानयोगो, लयस्तथा ॥ ४६ ॥
अद्वैतो,लक्ष्ययोगश्च, सिद्धिर्ब्रह्मस्तथा शिवः।
वासना,ध्यानयोगौ, च सर्वे सूत्रेषु दर्शिताः ॥ ४७ ॥ (योगसूत्रसारः)
ये सभी १५ प्रकार के साधन समाधि के उपाय रूप हैं। गीता में भी भगवान ने कहा है कि —
‘‘सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः।।६.२१।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
जो सुख आत्यन्तिक, अतीन्द्रिय और बुद्धिग्राह्य है, उस सुखका जिस अवस्थामें अनुभव करता है और जिस सुखमें स्थित हुआ यह ध्यानयोगी फिर कभी तत्त्वसे विचलित नहीं होता।
‘‘यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।।६.२२।।’’
जिस लाभकी प्राप्ति होनेपर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके माननेमें भी नहीं आता और जिसमें स्थित होनेपर वह बड़े भारी दुःखसे भी विचलित नहीं किया जा सकता।
‘‘तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा।।६.२३।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
जिसमें दुःखोंके संयोगका ही वियोग है, उसीको ‘योग’ नामसे जानना चाहिये। (वह योग जिस ध्यानयोगका लक्ष्य है,) उस ध्यानयोगका अभ्यास बिना उकताये हुए चित्तसे निश्चयपूर्वक करना चाहिये।
इस प्रकार अपर वैराग्यजन्य संप्रज्ञात समाधि का निरूपण करके अब पर-वैराग्यजन्य असंप्रज्ञात समाधि का लक्षण कहते हैं |
विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्व: संस्कारशेषोऽन्यः ॥१.१८॥
विराम-(सभी वृत्तियों के निरोध का) प्रत्यय= प्रतीति का कारण (जो परवैराग्य है; उसका अभ्यास जिसकी पूर्व-अवस्था है और जिसमें चित्त का स्वरूप ‘संस्कार’ मात्र ही शेष रह जाता है, वह योग अन्य है अर्थात् असम्प्रज्ञात समाधि है।
योऽकामो निष्काम आप्तकामो आत्मकाम न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति ब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्येति॥ (बृहदारण्यकोपनिषत् ४-४-६)
जो अकाम है, निष्काम है, पूर्णकाम है, आत्मकाम है जो कामनाओं से रहित है उसके प्राणोंका उत्क्रमण नहीं होता; वह ब्रह्म ही होकर ब्रह्मको प्राप्त होता है।
‘कार्यात्यये तदध्यक्षेण सहातः परमभिधानात् ॥ ४.३.१० ॥ (ब्रह्मसूत्र)
कार्यब्रह्मलोकप्रलयप्रत्युपस्थाने सति तत्रैव उत्पन्नसम्यग्दर्शनाः सन्तः, तदध्यक्षेण हिरण्यगर्भेण सह अतः परं परिशुद्धं विष्णोः परमं पदं प्रतिपद्यन्ते — इतीत्थं क्रममुक्तिः अनावृत्त्यादिश्रुत्यभिधानेभ्योऽभ्युपगन्तव्या । न ह्यञ्जसैव गतिपूर्विका परप्राप्तिः सम्भवतीत्युपपादितम् ॥ १० ॥
ब्रह्मलोक (आदित्यलोक =विशुद्ध सत्वमय चित्त) में पहुंच कर वह कार्य {शबल ब्रह्म} को लाँघकर उस कार्य से परे जो उसका अध्यक्ष परब्रह्म है, उसके साथ ऐश्वर्य को भोगता है। इसको क्रममुक्ति कहते हैं।
यावद्बद्धो मरुद् देहे यावच्चित्तं निराकुलम्।
यावद्द्रॄष्टिभ्रुवोर्मध्ये तावत्कालभयं कुत:।।
जब तक शरीर में सांस रोक दी जाती है तब तक मन अबाधित रूप से स्थिर रहता है और जब तक ध्यान दोनों भौहों के बीच लगा है तब तक मृत्यु से कोई भय नहीं है।
‘‘यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।।६.२२।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
जिस लाभकी प्राप्ति होनेपर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके माननेमें भी नहीं आता और जिसमें स्थित होनेपर वह बड़े भारी दु:ख से भी विचलित नहीं होता है।
‘‘आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते।।८.१६।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
हे अर्जुन ! ब्रह्मलोकतक सभी लोक पुनरावर्ती है; परन्तु हे कौन्तेय ! मुझको (शुद्ध परमात्मतत्व को) प्राप्त होनेपर पुनर्जन्म नहीं होता। यही असम्प्रज्ञात समाधि है | इस प्रकार असम्प्रज्ञात समाधि का स्वरूप दिखलाकर अब अगले सूत्र में यह बतलाते हैं कि जिन योगियों ने पिछले जन्म में विचारअनुगत से ऊंची आनन्दानुगत अथवा अस्मितानुगत सम्प्रज्ञात समाधि की भूमि को प्राप्त कर लिया है , उनको असम्प्रज्ञात-समाधि की प्राप्ति के लिये अन्य साधारण मनुष्यों जैसी पुरुषार्थ की अपेक्षा नहीं होती। वे तो जन्म से ही पिछले योगबल के कारण इसके प्राप्त करने की योग्यता रखते हैं। यह असम्प्रज्ञात योग दो प्रकार का होता है। एक उपाय प्रत्यय और दूसरा भव प्रत्यय।
भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम् ॥१.१९॥
जन्म से ही जिन्हें ज्ञान होता है उन योगियों को ‘भवप्रत्यय’ कहते हैं। ‘भवात् प्रत्ययः भवप्रत्ययः’ विदेह और प्रकृतिलय योगियों को जन्म से ही असंप्रज्ञात समाधि की प्रतीति होती है। षाटकौशिक स्थूलशरीर जिनको नहीं होता वे विदेह कहलाते हैं। [ विदेह माने देव ] स्थूल शरीर के ये छः कोश (त्वचा, रक्त, मांस, स्नायु, मज्जा और अस्थि) हैं। अर्थात् जिस योगी का देह का अहंकार निवृत्त हो गया वह विदेह है। अब अहंकार से आगे अन्तर्मुख होने पर जब ज्ञाता, भोक्ता अहंकार का भी नाश हो जाता और अस्मिता मात्र शेष रहती है तब उसे प्रकृतिलय कहते हैं। जो लोग अस्मिता रूप प्रकृति की उपासना करते हैं वे प्रकृतिलय कहलाते हैं। रामचरित मानस में इस चिति शक्ति का निरूपण इन शब्दों में किया है।
‘‘भव भव विभव पराभव कारिनि । विश्व बिमोहिनि स्ववश बिहारिनि ।।’’
पहले भव शब्द का अर्थ है जन्म, दूसरे भव शब्द का अर्थ है संसार और विभव शब्द का अर्थ है उस संसार का वैभव अर्थात स्थिति तथा पराभव माने प्रलय करने वाली। तथापि अपने मूल स्वरूप में तटस्थ है। जिन योगियों ने स्वरूपावस्थिति को शरीर-त्याग से पूर्व लाभ नहीं कर पाया है उनकी गति योगभ्रष्ट कह करके भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार बतलाई है —
‘‘पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद् दुर्गतिं तात गच्छति॥।।६.४०।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
हे पार्थ ! उस पुरुष का, न तो इस लोक में और न ही परलोक में ही नाश होता है; हे तात ! कोई भी शुभ कर्म करने वाला दुर्गति को नहीं प्राप्त होता है।
‘‘प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।।६.४१।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों के लोकों को प्राप्त होकर वहाँ दीर्घकाल तक वास करके शुद्ध आचरण वाले श्रीमन्त (धनवान) पुरुषों के घर में जन्म लेता है।
‘‘अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्।।६.४२।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
अथवा, वह (साधक) ज्ञानवान् योगियों के ही कुल में जन्म लेता है, परन्तु इस प्रकार का जन्म इस लोक में नि:संदेह अति दुर्लभ है।
‘‘तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन।।६.४३।।श्रीमद् भगवद्गीता ’’
हे कुरुनन्दन ! वहाँपर उसको पूर्वजन्मकृत साधन-सम्पत्ति अनायास ही प्राप्त हो जाती है। फिर उससे वह साधनकी सिद्धिके विषयमें पुनः विशेषतासे यत्न करता है।
‘‘पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते।।६.४४।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
उसी पूर्वाभ्यास के कारण वह अवश हुआ योग की ओर आकर्षित होता है। जो केवल योग का जिज्ञासु है वह शब्दब्रह्म का अतिक्रमण करता है। अर्थात् (वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंका अतिक्रमण कर जाता है।)
‘‘प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्।।६.४५।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
परन्तु प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करने वाला योगी सम्पूर्ण पापों से शुद्ध होकर अनेक जन्मों से (शनै: शनै:) सिद्ध होता हुआ, तब परम गति को प्राप्त होता है। इस प्रकार विदेह और प्रकृतिलयोंकी असम्प्रज्ञात-समाधि की जन्मसिद्ध योग्यता बतलाकर अर्थात भव प्रत्यय योगियों का वर्णन करके अब साधारण योगियों के लिये उपाय से समाधि को प्राप्त करना बतलाते है अर्थात् उपाय प्रत्यय योगियों का वर्णन करते हैं।
मोक्षस्य नहि वासोस्ति ग्रामान्तरवनेथवा।
अज्ञानहृदयग्रन्थि नाशो मोक्ष इति स्मृतः।।
‘‘वेदान्तानामशेषाणामादि मध्यावसानतः ।
ब्रह्मात्मन्येव तात्पर्यमितिधीः श्रवणं भवेत् ॥ १००॥पञ्चदशी’’
वेदान्त में ‘श्रवण’ यह एक पारिभाषिक शब्द है। सभी वेदान्त वाक्यों का तात्पर्य है कि जो ब्रह्म है वही प्रत्यागात्मा है और जो आत्मा है वही ब्रह्म है, इस प्रकार के निश्चय को श्रवण कहते हैं। इसलिये अब सावधानी पूर्वक श्रवण कीजिये क्योंकि अब काम की बात शुरू होती है। उपाय बताते हैं।
श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम् ॥१.२०॥
दूसरे साधकों को जो उपाय प्रत्यय के अधिकारी हैं उनको , श्रद्धा , वीर्य , स्मृति, समाधि और प्रज्ञापूर्वक (वह असम्प्रज्ञात समाधि) जो योग का इष्ट साध्य है; इतरेषाम् = दूसरों की अर्थात् जो विदेह और प्रकृतिलय नहीं हैं उन साधारण योगियों की होती है। ये श्रद्धा आदि पाँच योग के उपाय हैं। योग के विषय में चित्त की प्रसन्नता ही श्रद्धा है; उत्साह ही वीर्य है; जाने हुए विषय का न भूलना ही स्मृति है; चित्त की एकाग्रता ही समाधि है; और अपने ज्ञेय का ज्ञान होना ही प्रज्ञा है।
‘‘श्रद्धा स्नेहः शेमुषीपात्रमेषा वर्तिवृत्तिः ज्योतिरात्मा प्ररूढः।
ध्वान्तोऽविद्या तद्विनाशो विमोक्षः साक्षी ब्रह्मैवेति वेदान्ततत्वम्।।’’
व्यास भाष्य के अनुसार श्रद्धा एक माता की तरह कल्याणकारी बनके योगी की रक्षा करती है । ‘‘सा हि जननीव कल्याणी योगिनं पाति । तस्य हि श्रद्दधानस्य विवेकार्थिनो वीर्यम् उपजायते । समुपजात-वीर्यस्य स्मृतिरुपतिष्ठते । स्मृत्युपस्थाने चित्तम् अनाकुलं समाधीयते । समाहित-चित्तस्य प्रज्ञा-विवेक उपावर्तते । येन यथावद् वस्तु जानन्ति । तद्-अभ्यासात् तद्-विषयाच्च वैराग्यादसम्प्रज्ञातः समाधिर्भवति ॥२०॥ व्यास भाष्य।’’ अर्थात् श्रद्धा , वीर्य , स्मृति , समाधि और प्रज्ञा के क्रम से सभी साधक समाधि के मार्ग में अग्रसर हो सकते हैं। इस प्रकार श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा ये पाँच साधन समाधि प्राप्त करने के उपाय हैं। और फिर इन पाँचों साधनों के अभ्यास से और पर-वैराग्य से असम्प्रज्ञात समाधि की सिद्धि होती है। अब शीघ्रतम समाधि का लाभ किसको होता है इसका वर्णन अगले सूत्र में करते हैं —
तीव्रसंवेगानाम् आसन्न: ॥ १.२१ ॥
तीव्रसंवेगानाम् = जो तीव्र संवेग वाले हैं उनको समाधिलाभ; आसन्नः = शीघ्रतम = निकटतम होता है। इस सूत्र के आदि में भाष्यकारों ने ‘‘अधिमात्रोपायानाम्’’ अधिमात्र उपायवालों को’ इतना पाठ और सम्बद्ध किया है तथा ‘समाधिलाभः समाधिफलं च भवति इति।’ समाधि का लाभ और उसके फल का लाभ होता है ये शब्द सूत्र के अन्त में लगाने चाहिये। अब ये पांचों उपाय यदि तीव्र संवेग वाले हों तो समाधिलाभ शीघ्रतम होता है। अर्थात जिनकी साधन की गति तीव्र है, उनकी समाधि शीघ्र सिद्ध होती है । और यह तीव्र संवेग भी मृदु, मध्य, और अधिमात्र के भेद से तीन प्रकार का होता है।
‘‘विनिष्पन्नसमाधिस्तु मुक्तिं तत्रैव जन्मनि।
प्राप्नोति योगी योगाग्निदग्ध कर्म चयोऽचिरात् || ६.७.३५ || (विष्णुपुराणम्)
जो योगी विनिष्पन्न समाधि हो जाता है, वह योग रूप अग्नि के सम्पर्क से कर्म समूह के दग्ध हो जाने से , उसी जन्म में शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है।
संवेग माने अभ्यास में वेग, इस प्रकार वैराग्य एवं अभ्यास वाले योगियों को अतिशीघ्र ही समाधि एवं समाधि के फल की प्राप्ति होती है। अब ये तीव्र संवेग योगियों के पुरुषार्थ के अनुसार कितने प्रकार के होते हैं यह अगले सूत्र में बतलाते हैं —
मृदुमध्याधिमात्रत्वात् ततोऽपि विशेषः ॥ १.२२ ॥
मृदु — हल्का या मन्द, मध्य — मध्यम (बीचवाला) या सामान्य और अधिमात्रत्वात् — तीव्र या उच्च कक्षा का ये तीन भेद का होने से; ततः = उस (मृदुतीव्र संवेगवाले और मध्यतीव्र संवेगवाले के समाधिलाभ) से; अपि = भी; विशेषः = (अधिमात्र माने अतिशय तीव्र संवेग वाले को समाधि-लाभ में) विशेषता होती है। अर्थात तीव्र पुरुषार्थ (अभ्यास और वैराग्य) करने वाले को शीघ्र ही समाधिलाभ हो जाता है। अब इस अधिमात्र तीव्र संवेग से ही समाधि लाभ होता है अथवा दूसरा भी कोई सुगम उपाय है या नहीं ? ऐसी आशंका होने पर समाधि का एक अन्य उपाय बताते हैं |
ईश्वरप्रणिधानाद्वा ॥ १.२३ ॥
ईश्वर – प्रणिधानाद् , भक्ति-विशेषात् = ईश्वर के प्रणिधान से ; वा = अथवा (शीघ्रतम समाधि लाभ होता है) अथवा ईश्वर के प्रति आत्मनिवेदन करने से शीघ्र ही समाधिलाभ होता है।
‘‘तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।१८.६२।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
हे भारत ! तुम सम्पूर्ण भाव से उसी (ईश्वर) की शरण में जाओ। उसके प्रसाद से तुम परम शान्ति और शाश्वत स्थान को प्राप्त करोगे।
‘‘यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।९.२७।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
हे कौन्तेय ! तुम जो कुछ कर्म करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ हवन करते हो, जो कुछ दान देते हो और जो कुछ तप करते हो, वह सब तुम मुझे अर्पण करो।
‘‘क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मानावीशते देव एकः। तस्याभिध्यानाद्योजनात्तत्त्वभावात् भूयश्चान्ते विश्वमायानिवृत्तिः॥१०॥ श्वेताश्वतरोपनिषद्’’
प्रकृति नाशवान है और जीवात्मा अविनाशी है। वह, एक मात्र ईश्वर नाशवानप्रकृति और जीवात्मा दोनों पर शासन करता है। उस एकं पर ध्यान करने से और उसके साथ संयुक्त तथा तादात्म्य हो जाने से अन्त में समस्त अज्ञान या भ्रान्ति से मुक्ति मिल जाती है।
‘‘तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।१०.१०।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
उन (मुझ से) नित्य युक्त हुए और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करने वाले भक्तों को, मैं वह ‘बुद्धियोग’ देता हूँ जिससे वे मुझे प्राप्त होते हैं।
‘‘मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।९.३२।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
हे पृथानन्दन ! जो भी पापयोनिवाले हों तथा जो भी स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र हों, वे भी सर्वथा मेरे शरण होकर निःसन्देह परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं।
‘‘दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।७.१४।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
यह दैवी त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है। अर्थात् जिससे पार होना बड़ा कठिन है ऐसी है। इसलिये जो सब धर्मोंको छोड़कर अपने ही आत्मा मुझ मायापति परमेश्वर की ही सर्वात्मभावसे शरण ग्रहण कर लेते हैं वे सब भूतोंको मोहित करनेवाली इस मायासे तर जाते हैं, वे इसके पार हो जाते हैं अर्थात् संसारबन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। ईश्वर की भक्ति से सारे विघ्न समाप्त हो जाते हैं। अब अगले सूत्र में उस ईश्वर के स्वरूप का निरूपण करते हैं ।
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वरः ॥ १.२४ ॥
“क्लेश”, क्लिश्नन्तीति क्लेशाः जो दुःख देते हैं वे क्लेश कहलाते हैं। ये क्लेश पांच प्रकार के हैं अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश, इनका विस्तृत विवेचन आगे किया जायेगा। “कर्म”, विहित, निषिद्ध और मिश्ररूप इस तरह से तीन प्रकार कर्म होते हैं । “विपाक” (विपच्यन्त इति विपाकाः) जो परिपक्व हो जाते हैं वे विपाक कहलाते हैं माने उन कर्मों का फल जैसे कि जाति, (जन्म) आयु (उम्र) और भोग (सुख दुःखादि) ही विपाक कहलाते हैं। और “आशय”, आफलविपाकाच्चित्तभूमौ शेरत इत्याशयाः” जबतक फल का पाक न हो तबतक वे वासना के संस्कार चित्त में सोते रहते हैं इसलिये उस चित्त को आशय कहते हैं। उन आशयै: माने और उन कर्मों की वासना का संस्कार जिस अन्तःकरण में रहता है , उससे अपरामृष्ट: माने असम्बद्ध, पुरुषविशेष: माने जो अन्य संसारी पुरुषों से विलक्षण है, विशेष है। वह “ईश्वरः” ईशनशील इच्छामात्र से सकल जगत के उद्धार में समर्थ चेतन जो सदा ही मुक्त है वह ईश्वर है। ईश्वर इन अविद्यादि पाँचों क्लेशों से मुक्त है। ये क्लेश, कर्म, सुखदुःखादि तो मन में रहते हैं लेकिन व्यवहार में ऐसा कहा जाता है कि ये तुम में (पुरुष में) हैं, जैसे जय, पराजय सैनिकों में होती है लेकिन कहा जाता है कि राजा या भारत जीत गया या हार गया बैसे ही तुम्हारे सबसे भीतर की चेतना भी इन पाँचों क्लेशों से परे है फिर भी मन के सम्बन्ध से हम इनको अपने में आरोपित कर लेते हैं। वास्तब में राजा न जीता न हारा क्योंकि वह तो लड़ा ही नहीं। इसी प्रकार मैं धनी हूँ या दरिद्र हूँ अथवा सुखी हूँ या दुःखी हूँ अथवा सफल हूँ या असफल हूँ इत्यादि प्रकार का ज्ञान जो मन के सम्बन्ध से होता है वही अविद्या है। देखिये रामचरित मानस में ईश्वर का स्वरूप —
राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा।।
सहज प्रकाशरूप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना।।
हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना।।
राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानन्द परेस पुराना।।
राम सच्चिदानंदस्वरूप सूर्य हैं। वहाँ मोहरूपी रात्रि का लवलेश भी नहीं है। वे स्वभाव से ही प्रकाश स्वरूप और (षडैश्वर्ययुक्त) भगवान है, वहाँ तो विज्ञानरूपी प्रातःकाल भी नहीं होता (अज्ञानरूपी रात्रि हो तब तो विज्ञानरूपी प्रातःकाल हो; भगवान तो नित्य ज्ञानस्वरूप हैं)। हर्ष, शोक, ज्ञान, अज्ञान, अहंता और अभिमान- ये सब जीव के धर्म हैं। श्री रामचन्द्रजी तो व्यापक ब्रह्म, परमानन्दस्वरूप, परात्पर प्रभु और पुराण पुरुष हैं। इस बात को सारा जगत जानता है॥ और जीव का स्वरूप बताया है —
‘‘आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ॥ कठोपनिषद्’’
‘वह’ जो ‘जीव आत्मा’, है वह मन तथा इन्द्रियों से युक्त है और वह कर्ता तथा भोक्ता है। उपनिषद में ईश्वर की विशेषता इस प्रकार बताई गई है —
‘‘न तस्य कार्यं करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते। परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया || ८ || श्वेताश्वतरोपनिषद्’’
न उस ‘देव’ का मनुष्य जैसा कोई देह है और करणीय कर्म भी कुछ है ही नहीं, न ही उसके कर्म का कोई करण (साधनभूत अंग) इन्द्रियां हैं, न ही कोई ‘उससे’ बढ़कर है न ही हमें ‘उसके’ समान कोई दिखायी पड़ता है क्योंकि ‘उसकी’ शक्ति अन्य सबसे बहुत अधिक बढ़कर है, सबसे परे है, मनुष्य केवल विविध नामों तथा विविध रूपों में उसका वर्णन सुनते हैं। वस्तुतः ‘उसका’ बल, ‘उसकी’ क्रियाएँ तथा ‘उसका’ ज्ञान स्वभावतः आत्म-समर्थ तथा स्वयं ही स्वयं का कारण हैं। उस ईश्वर के ज्ञान, बल और क्रिया ये तीनों स्वाभाविक और नित्य हैं। गीता में भी ईश्वर का स्वरूप स्पष्ट किया है जैसे कि —
‘‘उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन् पुरुषः परः ॥[गीता १३.२२]’’
(यह आत्मा) उपद्रष्टा है अर्थात् स्वयं क्रिया न करता हुआ पासमें स्थित होकर देखनेवाला है। जैसे कोई यज्ञविद्यामें कुशल अन्य पुरुष स्वयं यज्ञ न करता हुआ, यज्ञकर्ममें लगे हुए पुरोहित और यजमानोंद्वारा किये हुए कर्मसम्बन्धी गुणदोषोंको तटस्थभावसे देखता है, उसी प्रकार कार्य और करणों के व्यापारमें स्वयं न लगा हुआ उनसे अन्य विलक्षण आत्मा उन व्यापारयुक्त कार्य और करणों को समीपस्थ भावसे देखनेवाला है। अथवा देह, चक्षु, मन, बुद्धि और आत्मा — ये सभी द्रष्टा हैं। उनमें बाह्य द्रष्टा शरीर है और उससे लेकर उन सबकी अपेक्षा अन्तरतम – समीपस्थ द्रष्टा अन्तरात्मा है। जिसकी अपेक्षा और कोई आन्तरिक द्रष्टा न हो ! वह अतिशय सामीप्य भावसे देखनेवाला होनेके कारण उपद्रष्टा होता है (अतः आत्मा उपद्रष्टा है)। अथवा (यों समझो कि) यज्ञके उपद्रष्टाकी भाँति सबका अनुभव करनेवाला होनेसे आत्मा उपद्रष्टा है। तथा यह अनुमन्ता है — क्रिया करनेमें लगे हुए अन्तःकरण और इन्द्रियादिकी क्रियाओंमें सन्तोषरूप अनुमोदनका नाम अनुमनन है। उसका करनेवाला है। अथवा यह इसलिये भी अनुमन्ता है कि कार्यकरणकी प्रवृत्तिमें स्वयं प्रवृत्त न होता हुआ भी उनके अनुकूल प्रवृत्त हुआ सा दीखता है। अथवा अपने व्यापारमें लगे हुए अन्तःकरण और इन्द्रियादिको उनका साक्षी होकर भी कभी निवारण नहीं करता इसलिये अनुमन्ता है। तथा यह भर्ता है चैतन्यस्वरूप आत्माके भोग और अपवर्गकी सिद्धिके निमित्तसे संहत हुए चैतन्यके आभासरूप शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदिका स्वरूप धारण करना भी भरण है और वह चैतन्यरूप आत्माका ही किया हुआ है, इसलिये आत्माको भर्ता कहते हैं। आत्मा भोक्ता है। अग्निके उष्णत्वकी भाँति नित्यचैतन्य आत्मसत्तासे समस्त विषयोंमें पृथक्पृथक् होनेवाली जो बुद्धिकी सुख, दुःख और मोहरूप जो प्रतीतियाँ हैं वे सब चैतन्य आत्माद्वारा ग्रस्त की हुई सी दीखती हैं, अतः आत्माको भोक्ता कहा जाता है। आत्मा महेश्वर है। वह सबका आत्मा होनेके कारण और स्वतन्त्र होनेके कारण महान् ईश्वर है इसलिये महेश्वर है। वह परमात्मा है। अविद्याद्वारा प्रत्यक् आत्मारूप माने हुए जो शरीरसे लेकर बुद्धिपर्यन्त (आत्मशब्दवाच्य पदार्थ) हैं। उन सबसे उपद्रष्टा आदि लक्षणोंवाला आत्मा परम ( श्रेष्ठ ) है — इसलिये वह परमात्मा है। यह देहमें रहता हुआ भी देहसे पर (सम्बन्ध-रहित) ही है।
‘‘द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥ १ ॥ मुण्डकोपनिषद्’’
दो सुन्दर पंखों वाले पक्षी, घनिष्ठ सखा, समान वृक्ष पर ही रहते हैं; उनमें से एक वृक्ष के स्वादिष्ट फलों को खाता है, अन्य खाता नहीं अपितु अपने सखा को केवल देखता है।
‘‘कार्योपाधिरयं जीवः कारणोपाधिरीश्वरः।
कार्यकारणतां हित्वा पूर्णबोधोऽवशिष्यते॥ ४२ ॥ शुकरहस्योपनिषद्’’
यह जीव कार्यरूप उपाधि वाला और ईश्वर कारण रूप उपाधि वाला है। इन कार्य और कारण रूप उपाधियों को छोड़ देने पर विशुद्ध ज्ञान रूप ब्रह्म ही शेष रहता है॥ इस प्रकार उपाधि के भेद से ही जीव और ईश्वर में भेद है निरुपाधिक शुद्ध स्वरूप में स्वतः कोई भेद नहीं। ईश्वर वह पुरुष है अथवा चेतना है जो इन अविद्यादि पांच क्लेशों और कर्म तथा कर्माशय और उनके फल सुखदुःखादि से मुक्त है, परे है। इन सबका तीनों कालों में भी ईश्वर से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसीलिये उस ईश्वर को {पुरुष-विशेष} कहा है। क्योंकि वह दूसरे सामान्य पुरुषों से अलग है।
‘‘तत्र यः परमात्मा हि स नित्यं निर्गुणः स्मृतः।
स हि नारायणो ज्ञेयः सर्वात्मा पुरुषो हि सः || (महाभारत शा० ३५१/१४ )’’
इनमें जो परमात्मा है, वह नित्य निर्गुण माना गया है। उसीको नारायण नामसे जानना चाहिये। वही सर्वात्मा पुरुष है।
‘‘एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च॥ ६.११ ॥ श्वेताश्वतरोपनिषद्’’
उस ‘एकमेव देव’ का ही अस्तित्व है, प्रत्येक प्राणी में ‘वही’ गूढ़ रूप से छिपा हुआ है क्योंकि ‘वही’ सर्वव्यापी एवं समस्त प्राणियों का ‘अन्तरात्मा’ है, ‘वह’ सभी कर्मों का अध्यक्ष-स्वामी है, एवं सभी जीवसत्ताओं का आवास है। ‘वही’ सकल जगत-व्यापारों का ‘महान् साक्षी’ है जो विचारों में परस्पर सम्बद्धता लाता है, ‘वह’ है ‘निरपेक्ष’ एवं निर्गुण, जिसमें न कोई मनोभाव है न कोई गुण है। “तत्त्वमसि।” आदि श्रुतियाँ भी इसी अभेद ज्ञान का ही निरूपण करतीं हैं क्योंकि अभेदज्ञान ही मोक्षफलक सुना गया है। जिसमें ऐश्वर्य की परमावधि है उसे ईश्वर कहते हैं।
‘‘पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव।।११.४३।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
आप ही इस चराचर संसारके पिता हैं, आप ही पूजनीय हैं और आप ही गुरुओंके महान् गुरु हैं। हे अनन्त प्रभावशाली भगवन् ! जब कि सारे त्रिभुवनमें आपके समान ही दूसरा कोई नहीं है फिर अधिक तो कोई हो ही कैसे सकता है। जिससे किसी वस्तुकी समानता की जाय उसका नाम प्रतिमा है, जिन आपके प्रभावकी कोई प्रतिमा नहीं है, वह आप अप्रतिमप्रभाव हैं। इस प्रकार हे अप्रतिमप्रभाव अर्थात् हे निरतिशयप्रभाव । इस त्रिलोकीमें आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है, फिर अधिक तो हो ही कैसे सकता है !
“आद्यस्तु मोक्षो ज्ञानेन द्वितीयो रागसंक्षयात् ।
कृच्छ्रक्षयात् तृतीयस्तु व्याख्यातं मोक्षलक्षणम् ॥ पञ्चशिखाचार्य || ज्ञानोद्रेकादविद्यानिवृत्तिरूप एकः रागसंक्षयादिन्द्रियोपशमरूपो द्वितीयः कृच्छ्रक्षयाद्धर्माधर्मकरणरूपाद्धर्माधर्मानुत्पादरूपस्तृतीयः । एतत्त्रयं ज्ञानद्वारभूतत्वाद् गौणं मोक्षत्रयम् । आत्यन्तिकत्रिविधदुःखनिवृत्तिरेव मुख्यो मोक्षः । तदुक्तं गोतमेन सूत्रेण दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तराभावादपवर्ग इति ।
“आकाशमेकं हि यथा घटादिषु पृथग् भवेत् ।
तथात्मैको ह्यनेकेषु जलाधारेष्विवांशुमान् ।। ३७६.१४ ।। (अग्निपुराण)
जैसे एक ही आकाश अनेक घड़ाओं अनेक जैसा दीखता है तथा जैसे अनेक जलाधारों में एक ही सूर्य अनेक रूप से प्रतिबिम्बित होता है बैसे ही एक आत्मा अनेक अन्तःकरणों में अनेक जैसा प्रतीत होता है। इस प्रकार ईश्वर का स्वरूप बताकर अब अगले सूत्र में ईश्वर की सर्वज्ञता सिद्ध करते हैं।
तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम् ॥ १.२५ ॥
तत्र निरतिशयं सर्व-ज्ञ-बीजम् । तत्र = तस्मिन् भगवति, अर्थात उस (ईश्वर में) सर्वज्ञ-बीजम् – सर्वज्ञत्वस्य, सर्वज्ञत्व का बीज अर्थात् ज्ञान – निरतिशयम् – अतिशयता से रहित है ; अर्थात अनन्त ज्ञान है , निरतिशय है । माने सम्पूर्ण ज्ञान है। जो वस्तु किसीकी अपेक्षा से कम या ज्यादा हो , वह सातिशय कही जाती है और जो काष्ठा (सीमा) को प्राप्त होकर कहीं विश्रान्त हो जाय , वह निरतिशय कही जाती है। जिस ज्ञान के बराबर अथवा अधिक ज्ञान हो उसको सातिशय ज्ञान ; और जिसके बराबर अथवा अधिक ज्ञान न हो अर्थात जो काष्ठा को प्राप्त हो जाय , उसको निरतिशय ज्ञान कहते हैं। जिस प्रकार ज्ञान की सर्वोच्च सीमा का आधार ईश्वर को बतलाया है, इसी प्रकार धर्म, वैराग्य, ऐश्वर्य, यश, श्री (चल सम्पत्ति), और सम्पत्ति (अचल सम्पत्ति) की काष्ठा का भी आधार ईश्वर को जानना चाहिये।
‘‘उत्पत्तिं प्रलयं चैव भूतानामागतिं गतिम्।
वेत्ति विद्यामविद्यां च स वाच्यो भगवानिति (विष्णु पुराण ६।५।१८)’’
जो सृष्टि और प्रलय, प्राणियों की उत्पत्ति और विनाश , ज्ञान और अज्ञान को समझता है, उसे भगवान कहा जाना चाहिए। सर्व के ज्ञान का सर्वोत्कृष्ट बीज जिसमें रहता है सो ईश्वर है। इसीलिये वह पुरुषविशेष भी है। कोई थोड़ा जानता है, कोई अधिक जानता और कोई बहुत अधिक जानता है, ये सब ज्ञान की सीमायें हैं, इन सभी सीमाओं से परे जो सर्वोच्च ज्ञान का स्वामी है वही निरतिशय ज्ञानी है।
‘‘सर्वज्ञता तृप्तिरनादिबोधः स्वतन्त्रता नित्यमलुप्तशक्तिः ।
अनन्तशक्तिश्च विभोविधिज्ञाः षडाहुरङ्गानि महेश्वरस्य ।।१२.३१।। वायुपुराणम्’’
विधि तत्त्व को जानने वाले व्यक्तियों ने प्रभु महेश्वर के षडङ्ग तत्व को इस प्रकार बताया है, सर्वज्ञता, तृप्ति, अनादिबुद्धि, स्वतन्त्रता, नित्य (हमेशां रहनेवाली) अविनश्वर शक्ति और अनन्त शक्ति || ३१ ||
‘‘ईश्वरः परमाणुत्वाद्भावग्राह्यो मनीषिणाम् ।
ज्ञानं वैराग्यमैश्वर्यन्तपः सत्यं क्षमा धृतिः ।। ३९.२१५ ।।
द्रष्टृत्वमात्मसम्बन्धमधिष्ठानत्वमेव च।
अव्ययानि दशैतानि तस्मिंस्तिष्ठति शङ्करे ।। ३९.२१६ ।। वायुपुराणम्’’
तथा च ‘‘ब्रह्मविष्णुशिवा ब्रह्मन् प्रधाना ब्रह्मशक्तयः।
ततश्च देवा मैत्रेय न्यूना दक्षादयस्ततः ॥ १,२२.५८ ॥ विष्णुपुराणम्’’
{ ब्रह्मविष्णु शिवादीनां यः परः स महेश्वरः। }
एवं च ‘‘समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।९.२९।।श्रीमद्भगवद्गीता’’
मैं समस्त भूतों में सम हूँ; न कोई मुझे अप्रिय है और न प्रिय; परन्तु जो मुझे भक्तिपूर्वक भजते हैं, वे मुझमें और मैं भी उनमें हूँ।
‘‘वैषम्यनैर्घृण्ये न सापेक्षत्वात्तथाहि दर्शयति ॥२.१.३४ ॥ ब्रह्मसूत्रम्’’
(वैषम्य) सबके साथ समान वरताव न करना (नैर्घृण्य) दया से शून्य होना (न) नहीं है जिसमें क्योंकि (सापेक्षत्वात्) कर्म की अपेक्षा से होने के कारण (तथा) ऐसे ही (हि) निश्चय (दर्शयति) श्रुति दिखाती है।
‘न साधुना कर्मणा भूयान्नो एवासाधुना कनीयान्। एष ह्येव साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषत एष उ एवासाधु कर्म कारयति तं यमधो निनीषते’ (कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद्. ३ । ९) इति,
‘यह न तो अच्छे कर्म से वृद्धि को प्राप्त होता है और न ही बुरे कर्म से छोटा होता है। यह प्राण एवं प्रज्ञा रूप चैतन्य युक्त परब्रह्म ही इस देहाभिमानी पुरुष से श्रेष्ठ कार्य करवाता है। वह ऐसे श्रेष्ठ कृत्य उसी से करवाता है, जिसे वह इन प्रत्यक्ष लोकों से ऊर्ध्व की तरफ ले जाना चाहता है और जिसे वह इन श्रेष्ठ लोकों की अपेक्षा नीचे ले जाना चाहता है, उससे अशुभ कार्य करवाता है।
‘‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।४.११।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
जो मुझे जैसे भजते हैं, मैं उन पर वैसे ही अनुग्रह करता हूँ; हे पार्थ सभी मनुष्य सब प्रकार से, मेरे ही मार्ग का अनुवर्तन करते हैं। पृथ्वी में से गन्ना मीठे परमाणुओं आकर्षित कर लेता है और मिर्ची तीखे परमाणुओं को।
‘‘यः सर्वज्ञः यः सर्ववित् यस्य ज्ञानमयं तपः।
तस्मात् एतत् ब्रह्म नाम रुपम् अन्नं च जायते ॥९॥ मुण्डकोपनिषद्’’
जो ‘सर्वज्ञ’ है, सर्वविद् है, ‘वह’ जिसका तप ज्ञानमय है, ‘उससे’ ही यह ‘ब्रह्म’, यह ‘नाम’ ‘रूप’ एवं ‘अन्न’ उत्पन्न होते हैं।
‘‘न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।५.१४।।श्रीमद्भगवद्गीता’’
परमेश्वर मनुष्योंके न कर्तापनकी, न कर्मोंकी और न कर्मफलके साथ संयोगकी रचना करते हैं; किन्तु स्वभाव ही बरत रहा है। उन जीवों की प्रकृति ही (सब कुछ) करती है। अतः ईश्वर में सर्वज्ञता के बीज की निरतिशयता अर्थात् पराकाष्ठा है।
‘‘यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।
तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ॥ ६.२२॥श्वेताश्वतरोपनिषद्’’
जिसके हृदय में ‘ईश्वर’ के प्रति परम प्रेम तथा परमा भक्ति है तथा जैसी ‘ईश्वर’ के प्रति है वैसी ही ‘गुरु’ के प्रति भी है, ऐसे ‘महात्मा’ पुरुष को जब ये महान् विषय बताये जाते हैं, तब वे स्वतः अपने आन्तर अर्थों को उद्घाटित कर देते हैं, सचमुच, उस ‘महात्मा’ के लिए वे स्वतः प्रकाशित हो जाते हैं। गुरुभक्ति भी अवश्य करनी चाहिये इस बात को बताने के लिये , सबका गुरू ईश्वर है तथा वह ब्रह्मादिकों से भी श्रेष्ठ है, यह बात बतलाने के लिये अगले सूत्र में ईश्वर में क्या विशेषता है यह बतलाते हैं।
पूर्वेषाम् अपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ॥ १.२६ ॥
पूर्वेषाम् = पूर्वकाल में उत्पन्न ब्रह्मा – विष्णु – महेश्वरादि का भी गुरु और सनकादिकों का ; अपि = भी गुरुः = (वह ईश्वर) ही उपदेष्टा है ; कालेन – अनवच्छेदात् = क्योंकि वह काल से अवच्छिन्न (परिमित) नहीं है। अर्थात सदा ही विद्यमान है। काल का भी हेतु होने से ईश्वर को नित्य कहा जाता है।
‘‘यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै। तं ह देवंआत्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये॥६.१८॥ श्वेताश्वतरोपनिषद्’’
जो सृष्टि के पूर्व ‘सृष्टिकर्ता ब्रह्मा’ को उत्पन्न करता है तथा जो वेदों को उन्हें (ब्रह्मा को) प्रदान करता है, जो ‘आत्मा’ तथा ‘बुद्धि’ में प्रकाशित हो रहा है, मैं मोक्ष की कामना से उसी ‘देव’ की शरण ग्रहण करता हूँ। ‘तेने ब्रह्म हृदा य आदि कवये मुह्यन्ति यत् सूरयः’ = ब्रह्मणे। आदि कवि जो ब्रह्मा है, उनके हृदय में जिसने ब्रह्म (वेद) विस्तृत किया,
‘‘इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।४.१।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
श्रीभगवान् ने कहा — मैंने इस अविनाशी योग को विवस्वान् (सूर्य देवता) से कहा (सिखाया); विवस्वान् ने मनु से कहा; मनु ने इक्ष्वाकु से कहा।
‘‘प्रचोदिता येन पुरा सरस्वती वितन्वताजस्य सतीं स्मृतिं हृदि । स्वलक्षणा प्रादुरभूत्किलास्यतः स मे ऋषीणामृषभः प्रसीदताम् ॥२.४.२२॥ श्रीमद्भागवत’’
जिन्होंने सृष्टिकाल में ब्रह्मा के हृदय में पूर्व कल्प की स्मृति जागृत (जगाने) करने के लिए ज्ञान की अधिष्ठात्री सरस्वती देवी को प्रेरित किया और वे अपने अंगों सहित वेद के रूप में उनके मुख से प्रकट हुईं, वे ज्ञान के मूल कारण मुझ पर कृपा करें और मेरे हृदय में प्रकट हों।
‘‘मौनव्याख्या प्रकटितपरब्रह्मतत्वंयुवानं
वर्शिष्ठान्तेवसदृषिगणैरावृतं ब्रह्मनिष्ठैः ।
आचार्येन्द्रं करकलित चिन्मुद्रमानन्दमूर्तिं
स्वात्मारामं मुदितवदनं दक्षिणामूर्तिमीडे ॥१॥’’
मैं उस दक्षिणामूर्ति की स्तुति और प्रणाम करता हूं, कौन हैं वे? – जो दक्षिण दिशा की ओर मुख करके विराजमान हैं । और जो उनकी मौन स्थिति से,परम ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप की व्याख्या करते हैं , जो दिखने में जवान हैं , जो पुराने, बृद्ध साधुओं और शिष्यों से घिरे हैं , जिनका मन ब्रह्म तत्व पर टिका हुआ है, शिक्षकों में जो सबसे बड़े हैं , जो अपने हाथ से चिन्मुद्रा को दिखाते हैं , जो अपने आत्म आनन्द के साकार विग्रह हैं , जो अपने भीतर चरम आनंद की स्थिति में हैं ,और जिनका चेहरा मुस्कुराता हुआ है।
गुरु बिन भव निधि तरइ न कोई ।
जौ बिरंचि संकर सम होई ।। रामचरित मानस ||
गुरु के बिना कोई भवसागर नहीं तर सकता, चाहें वह ब्रह्माजी और शंकरजी के समान ही क्यों न हो !” सदगुरु का अर्थ शिक्षक या आचार्य नहीं है । शिक्षक अथवा आचार्य हमें थोड़ा-बहुत ऐहिक ज्ञान देते हैं लेकिन सदगुरु तो हमें निजस्वरूप का ज्ञान दे देते हैं । जिस ज्ञान की प्राप्ति के बाद मोह उत्पन्न न हो, दुःख का प्रभाव न पड़े और परब्रह्म की प्राप्ति हो जाए ऐसा ज्ञान गुरुकृपा से ही मिलता है । उसे प्राप्त करने की भूख जगानी चाहिए । इसीलिये कहा गया है —
गुरु गोबिन्द दोउ खड़े, काके लागु पाँव ।
बलिहारी गुरु आपकी, जिन गोबिन्द दियो बताय ।।
“गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥
किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटिशतैरपि।
दुर्लभा चित्तविश्रान्तिः विना गुरुकृपां पराम्॥१२८॥ स्कंदपुराणे-गुरुगीता।”
बहुत कहने से क्या ? करोडों शास्त्रों से भी क्या ? चित्त की परम् शांति, गुरु कृपा के बिना मिलना दुर्लभ है ।
प्रेरकः सूचकश्वैव वाचको दर्शकस्तथा। शिक्षको बोधकश्चैव षडेते गुरवः स्मृताः।। प्रेरणा देनेवाले, सूचन देनेवाले, (सच) बतानेवाले, (रास्ता) दिखानेवाले, शिक्षा देनेवाले, और बोध करानेवाले — ये सब गुरु समान है।
योगीन्द्रः श्रुतिपारगः समरसाम्भोधौ निमग्नः सदा
शान्ति क्षान्ति नितान्त दान्ति निपुणो धर्मैक निष्ठारतः।
शिष्याणां शुभचित्त शुद्धिजनकः संसर्ग मात्रेण यः
सोऽन्यांस्तारयति स्वयं च तरति स्वार्थं विना सद्गुरुः।।
भावार्थ — योगियों में श्रेष्ठ, श्रुतियों को समझा हुआ, (संसार/सृष्टि) सागर में समरस हुआ, शांति-क्षमा-दमन ऐसे गुणोंवाला, धर्म में एकनिष्ठ, अपने संसर्ग से शिष्यों के चित्त को शुद्ध करनेवाले, ऐसे सद्गुरु बिना स्वार्थ अन्य को तारते हैं और स्वयं भी तर जाते हैं।
सङ्गति — इस प्रकार गुरु रूप ईश्वर का निरूपण करके अब उसका प्रणिधान किस प्रकार करना चाहिये ; यह बतलाने के लिये तथा उपासना की सुविधा के लिये उसका वाचक (नाम) अगले सूत्र में बतलाते हैं।
तस्य वाचकः प्रणवः ॥ १.२७ ॥
उस ईश्वर का वाचक (नाम) प्रणव अर्थात् ॐ कार है । ओंकार को ही आदिध्वनि कहा जाता है। प्रकर्षेण नूयते स्तूयतेऽनेनेति नौति स्तौतीति वा प्रणव ओङ्कारः । जिसके द्वारा नम्रता से स्तुति की जाय अथवा भक्त जिसकी उत्तमता से स्तुति करता है वह प्रणव कहलाता है।
भगवान श्रीकृष्ण ने भी कहा है कि —
‘‘ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा।।१७.२३।।श्रीमद्भगवद्गीता’’
ओम्, तत्, और सत् — यह तीन प्रकारका ब्रह्मका निर्देश है। जिससे कोई वस्तु बतलायी जाय उसका नाम निर्देश है। अतः यह ब्रह्मका तीन प्रकारका नाम है। ऐसा वेदान्तमें ब्रह्मज्ञानियों द्वारा माना गया है। पूर्वकालमें इस तीन प्रकारके नामसे ही ब्राह्मण, वेद और यज्ञ ये सब रचे गये हैं।
आचार्य पुष्पदन्त ने भी शिवमहिम्न स्तोत्र में ॐ की महिमा बताई है —
‘‘त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरा नकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत्तीर्णविकृति।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः
समस्तं व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम्॥२७॥’’
अर्थात् — हे सर्वेश्वर! ॐ तीन तत्वों से बना है अ, ऊ, म जो तीन वेदों (ऋग, साम, यजु), तीन अवस्था (जाग्रत, स्वप्न, सुसुप्त), तीन लोकों, तीन कालों, तीन गुणों तथा त्रिदेवों को इंगित करता है। हे ॐकार आप ही इस त्रिगुण, त्रिकाल, त्रिदेव, त्रिअवस्था, और त्रिवेद के समागम हैं।
अजपा मन्त्र के मूल में भी ॐ ही है। {हंसः , सोऽहं} यह अजपा मन्त्र है।
‘‘हकारेण बहिर्याति सकारेण विशेत्पुनः।
हंसहंसेत्यमुं मन्त्रं जीवो जपति सर्वदा || ३१ || योगचूडामण्युपनिषद्’’
श्वास ‘स’ कार ध्वनि (वायु) के माध्यम से भीतर और ‘ह’ कार के साथ बाहर आती है। इस तरह यह जीव हंस-हंस (हंसमंत्र) का जप सदैव करता रहता है ॥ सोऽहं – इसका विपरीत होता है।
गीता में भी कहा है कि — ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्। यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।८.१३।। जो पुरुष ओऽम् इस एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है।
‘‘अकारं चाप्युकारं च मकारं च प्रजापतिः ।
वेदत्रयान्निरदुहद्भूर्भुवः स्वरितीति च ।।२.७६।। मनुस्मृतिः ||’’
(प्रजापतिः) परमात्मा ने अकारम् उकारं च मकारं ओम् शब्द के ‘अ’ ‘उ’ और ‘म्’ अक्षरों को (अ+ उ + म् = ओम्) (च) तथा (भूः भुवः स्वः इति) ‘भूः’ ‘भुवः’ ‘स्वः’ गायत्री मन्त्र की इन तीन व्याहृतियों को वेदत्रयात् निरदुहत् तीनों वेदों से दुहकर साररूप में निकाला है । ‘‘जो अकार उकार और मकार के योग से ‘ओम्’ यह अक्षर सिद्ध है, सो यह परमेश्वर के सब नामों में उत्तम नाम है । जिसमें सब नामों के अर्थ आ जाते हैं । जैसा पिता और पुत्र का प्रेम सम्बन्ध है, वैसे ही ओंकार के साथ परमात्मा का सम्बन्ध है । इस एक नाम से ईश्वर के सब नामों का बोध होता है ।’’
‘‘प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते ।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥२.२.४॥- मुण्डकोपनिषत् ’’
प्रणव धनुष है, [ सोपाधिक ] आत्मा बाण है और ब्रह्म उसका लक्ष्य कहा जाता है । उसका सावधानतापूर्वक वेधन करना चाहिये और बाणके समान तन्मय हो जाना चाहिये। जैसे बाण लक्ष्य के अन्दर घुस जाता है।
‘‘वह्नेर्यथा योनिगतस्य मूर्तिः न दृश्यते नैव च लिङ्गनाशः ।
स भूय एवेन्धनयोनिगृह्यः तद्वोभयं वै प्रणवेन देहे ॥ – श्वेताश्वतरोपनिषत् १-१३’’
जैसे कि अग्नि की मूर्ति अपने उद्गम अरणि में स्थित होते हुए भी तब तक दिखाई नहीं देती जब तक इसे रगड़ कर अग्नि को प्रज्जवलित नहीं किया जाता यद्यपि अग्नि का सूक्ष्म रूप अरणि में हमेशा विद्यमान रहता है। तथापि नीचे वाले अरणि को रगड़ कर पुनः उत्तरारणी के द्वारा मन्थन से अग्नि को प्राप्त किया जा सकता है। इसी प्रकार प्रणव पर ध्यान करके आत्मा को अभिव्यक्त रूप में देखा जाता है जो ध्यान से पूर्व भी अव्यक्त रूप में मौजूद ही था ।
‘‘स्वदेहमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम्।
ध्याननिर्मथनाभ्यासाद्देवं पश्यन्निगूढवत्॥१४॥ श्वेताश्वतरोपनिषद्’’
अपनी देह को अरणि बनाकर उसे प्रणव रूपी ऊपरी अरणि के साथ ध्यान की क्रिया रूपी रगड़ के अभ्यास द्वारा गूढ़ अग्नि की भांति उस भगवान की परम ज्योति को देखना चाहिये।
‘‘यदा वा ऋचमाप्नोत्योमित्येवातिस्वरत्येवꣳसामैवं यजुरेष उ स्वरो यदेतदक्षरमेतदमृतमभयं तत्प्रविश्य देवा अमृता अभया अभवन् ॥ १.४.४ ॥ छान्दोग्योपनिषत् ॥’’
जब कोई उपासक व्यक्ति ऋग्वेद में महारथ हासिल कर लेता है तो वह जोर से ऊंचे स्वर से ओम का उच्चारण करता है; इसी प्रकार जब उसने सामवेद और यजुर्वेद में भी महारथ हासिल कर ली हो। तब यही स्वर शब्दांश ओम उसकी अन्तरात्मा में प्रकाशित हो जाता है; यही मूल नाद है तथा यह अमर और निडर है। इसमें प्रवेश कर जैसे देवता अमर और निडर हो गये वैसे ही वह अमर और अभय हो जाता है।
‘‘ओमिति ब्रह्म। ओमितीदं सर्वम्।ओमित्येतदनुकृतिर्ह स्म वा अप्यो श्रावयेत्याश्रावयन्ति। ओमिति सामानि गायन्ति। ओं शोमिति शस्त्राणि शंसन्ति। ओमित्यध्वर्युः प्रतिगरं प्रतिगृणाति। ओमिति ब्रह्मा प्रसौति। ओमित्यग्निहोत्रमनुजानाति।ओमिति ब्राह्मणः प्रवक्ष्यन्नाह ब्रह्मोपाप्नवानीति। ब्रह्मैवोपाप्नोति || १ || तैत्तिरीयोपनिषद् शिक्षावल्ली अष्टमोऽनुवाकः’’
‘ओम्’ ही ब्रह्म है, ‘ओम्’ ही यह समस्त विश्व है। ‘ओम्’ ही अनुमोदन सूचक अक्षर है ‘ओम्’ कहकर ही वे कहते हैं, अब हम सुनें तथा वे ‘ओम्’ कहकर ही प्रवचन का आरम्भ करते हैं। ‘ओम्’ से ही सामवेद की ऋचाओं का गान करते हैं; ‘ओम्’ ‘शोम्’ कह कर ही वे शास्त्रों का उच्चार करते है। ‘ओम्’ से यज्ञ का होता (अध्वर्यु) प्रत्युत्तर देता है। ‘ओम्’ से ब्रह्मा सृष्टि का आरम्भ करते हैं (अथवा ‘ओम्’ से मुख्य होता (ब्रह्मा) अनुमति देता है।) ‘ओम्’ से ही अग्निहोत्र की अनुमति दी जाती है। ज्ञान की व्याख्या करने के पूर्व ब्राह्मण ‘ओम्’ का उच्चार करके कहता है- ”मैं ब्रह्म (वेद) को प्राप्त करूँ।” इस प्रकार वास्तव में वह ‘ब्रह्म’ को प्राप्त कर लेता है।
‘‘ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं भूतं भवद् भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव। यच्चान्यत् त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव ॥१॥ माण्डुक्योपनिषद् ’’
‘ओम्’ ही है यह ‘अक्षर-शब्द’, ‘ओम्’ ही समस्त ‘विश्व’ है और यह ‘ओम्’ की ही व्याख्या है! भूत, वर्तमान तथा भविष्य अर्थात् जो कुछ था, जो कुछ है तथा जो कुछ होगा, वह सब ‘ओम्’ है। इसी प्रकार ‘काल’ (त्रिकाल) की सीमा से परे जो कुछ भी हो सकता है वह भी ‘ओम्’ ही है।
‘‘सोऽयमात्माध्यक्षरमोङ्कारोऽधिमात्रं पादा मात्रा मात्राश्च पादा अकार उकारो मकार इति ॥८॥ माण्डुक्योपनिषद्’’
वह , यह ‘आत्मा’है , और ‘अक्षर दृष्टि से मात्राओं वाला -शब्द’ है ‘ओम्’; और ‘उसके’ पाद (अंश) हैं उसके वर्णाक्षर, तथा वर्णाक्षर हैं ‘उसके’ पादांश-‘अकार’, ‘उकार’ तथा ‘मकार’।
‘‘अमात्रश्चतुर्थोऽव्यवहार्यः प्रपञ्चोपशमः शिवोऽद्वैत एवमोङ्कार आत्मैव संविशत्यात्मनात्मानं य एवं वेद य एवं वेद ॥१२ ॥माण्डूक्योपनिषद्’’
चौथा पाद मात्रारहित है , इसलिये उसको चतुर्थ कहते हैं। यह (अमात्रा), ‘अव्यवहार्य’ है , उसमें कोई व्यवहार नहीं है। इस (सृष्टि) प्रपञ्च का उपशम अर्थात् अन्त है , वह परम मंगलकारी-‘शिव’, और ‘अद्वैत’ (अद्वितीय) ऐसा है ‘ओम्’। ‘आत्मा’ ही आत्मा के द्वारा ‘आत्मा’ में प्रवेश करके ‘आत्मा’ को जानता है, जो यह जानता है, वही सबकुछ जानता है।
‘मन्त्राणां प्रणवः सेतुः स्तत्सेतुः प्रणवः स्मृतः ।
स्रवत्यनोंकृतं पूर्व्वं परस्ताच्च विशीर्य्यते ॥’
माङ्गल्यं पावनं धर्म्यं सर्वकाम प्रसाधनम्।
ओंकारः परमं ब्रह्म सर्वमन्त्रेषु नायकम् ||
‘‘सर्वेषामेव मन्त्राणां कारणं प्रणवः स्मृतः।
तस्मात् व्याहृतियोजातास्ताभ्यो वेद त्रयं तथा।। -वृद्धहारीत’’
अर्थ — ओंकार समस्त मन्त्रों का हेतुभूत है, ओंकार से व्याहृतियाँ उत्पन्न हुईँ और व्याहृतियों से तीनों वेद उत्पन्न हुए।
‘‘प्रणवस्य जपान्नित्यं तथा तस्यार्थभावनात्।
एकाग्रं जायते चित्तं परमात्मा प्रकाशते ॥ ५१॥
तस्मादीशप्रणिध्यानादन्तराया भवन्ति न।
स्वरूपज्ञानमप्यस्य योगिनस्सम्प्रजायते ॥ ५२ ॥ योगसूत्रसारः ||
योगी याज्ञवल्क्य ने कहा है कि —
अदृष्टविग्रहो देवो भावग्राह्यो मनोमयः।
तस्योंकारः स्मृतो नाम तेनाहूतः प्रसीदति।।
ॐ के बारे में बहुत कुछ लिखा जा सकता है लेकिन लिखने , पढ़ने से कुछ काम बनने वाला नहीं है , कम से कम १०८ बार लम्बे प्रणव का जप रोज कर लेना चाहिये। अब ईश्वर प्रणिधान का लक्षण और उनके के नाम का जप कैसे करना चाहिए यह उपासनात्मक बात अगले सूत्र में बताई है।
तज्जपस्तदर्थभावनम् ॥ १.२८ ॥
तत् जपः- उस प्रणव का (ॐ कार का) जप ; तदर्थ = उस प्रणव के अर्थस्वरूप (का) भावनम् = पुनः पुन: चिन्तन करना ,ध्यान करना (ईश्वर – प्रणिधान है) अभिप्राय यह है कि ॐ का जप उसके अर्थ की भावना के साथ करना चाहिये | {प्रणव-जपेन सह ब्रह्म-ध्यानं प्रणिधानम्।} महर्षि वेदव्यासजी महाराज ने इस योगसूत्र की व्याख्या में लिखा है —
‘‘स्वाध्यायाद् योगमासीत योगात् स्वाध्यायमामनेत्।
स्वाध्याययोगसम्पत्त्या परमात्मा प्रकाशते॥६.६.२॥ विष्णुपुराणम्’’
स्वाध्याय से योग=चित्तवृत्तियों के निरोध की प्राप्ति करे, योग=चित्तवृत्तियों का निरोध करके स्वाध्याय=वेद का अध्ययन करे। स्वाध्याय और योग की सम्मिलित शक्ति से आत्मा में भगवान् स्वयं प्रकाशित हो जाते हैं। यह है स्वाध्याय का महान् फल । जपात् श्रान्तश्चरेद् ध्यानं ध्यानात् श्रान्तश्चरेज्जपम्। जप-ध्यान-परिश्रान्त आत्मतत्वं विचारयेत्।। यदि जप में थकान मालूम हो तो आँख बन्द करके ध्यान करो और ध्यान में तबीयत ऊबने लगे तो माला लेकर जप करो। यदि दोनों में थकान मालूम पड़े तो स्वाध्याय करो, पढ़ो , पाठ करो!
प्रणवेन परं ब्रह्म ध्यायीत नियतो यतिः।
जपंश्च प्रणवं मन्त्रं ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम् ।।
कोटिसूर्यसमं तेजो ध्यायेदात्मनि निर्मलम् ।। ३३-५९ ।। नारदपुराणम्
‘‘अरा इव रथनाभौ संहता यत्र नाड्यः स एषोऽन्तश्चरते बहुधा जायमानः। ओमित्येवं ध्यायथ आत्मानं स्वस्ति वः पाराय तमसः परस्तात् ॥६॥ मुण्डकोपनिषद् द्वितीयो मुण्डकः द्वितीयः खण्डः ॥ रथ के चक्र की नाभि में जुडे़ हुए अरों की भाँति जहाँ नाड़ियाँ एकत्रित हो जाती हैं, ‘वह’ ही है जो अन्तर में विचरण करता है,- ‘वही’ बहुविध रूप में जन्म लेता है। ‘आत्मा’ का ‘ओम्’, के रूप में ध्यान करो, तथा अन्धतमस् से परे उस पार जाने का तुम्हारा मार्ग मंगलमय (स्वस्ति) हो। इस सूत्र का अर्थ लिङ्ग पुराण में बहुत ही स्पष्ट रूप में प्रदर्शित किया गया है —
‘‘अविद्ययास्य संबंधो नातीतो नास्त्यनागतः।।
भवेद्रागेण देवस्य शंभोरंगनिवासिनः।। ९.३६ ।।
कालेषु त्रिषु संबंधस्तस्य द्वेषेण नो भवेत्।।
मायातीतस्य देवस्य स्थाणोः पशुपतेर्विभोः।। ९.३७ ।।
तथैवाभिनिवेशेन संबंधो न कदाचन।।
शंकरस्य शरण्यस्य शिवस्य परमात्मनः।। ९.३८ ।।
कुशलाकुशलैस्तस्य संबंधो नैव कर्मभिः।।
भवेत्कालत्रये शंभोरविद्यामतिवर्तिनः।। ९.३९ ।।
विपाकैः कर्मणां वापि न भवेदेव संगमः।।
कालेषु त्रिषु सर्वस्य शिवस्य शिवदायिनः।। ९.४० ।।
सुखदुःखैरसंस्पृश्यः कालत्रितयवर्तिभिः।।
स तैर्विनश्वरैः शंभुर्बोधानंदात्मकः परः।। ९.४१ ।।
आशयैरपरामृष्टः कालत्रितयगोचरैः।।
धियां पतिः स्वभूरेष महादेवो महेश्वरः।। ९.४२ ।।
अस्पृश्यः कर्मसंस्कारैः कालत्रितयवर्तिभिः।।
तथैव भोग संस्कारैर्भगवानंतकांतकः।। ९.४३ ।।
पुंविशेषपरो देवो भगवान्परमेश्वरः।।
चेतनाचेतना युक्त प्रपंचादखिलात्परः।। ९.४४ ।।
लोके सातिशयत्वेन ज्ञानैश्वर्यं विलोक्यते।।
शिवेनातिशयत्वेन शिवं प्राहुर्मनीषिणः।। ९.४५ ।।
प्रतिसर्गं प्रसूतानां ब्रह्मणं शास्त्रविस्तरम्।।
उपदेष्टा स एवादौ कालावच्छेदवर्तिनाम्।। ९.४६ ।।
कालावच्छेदयुक्तानां गुरूणामप्यसौ गुरुः।।
सर्वेषामेव सर्वेशः कालावच्छेदवर्जितः।। ९.४७ ।।
अनादिरेष संबंधो विज्ञानोत्कर्षयोः परः।।
स्थितयोरीदृशः सर्वः परिशुद्धः स्वभावतः।। ९.४८ ।।
आत्मप्रयोजनाभावे परानुग्रह एव हि।।
प्रयोजनं समस्तानां कार्याणां परमेश्वरः।। ९.४९ ।।
प्रणवो वाचकस्तस्य शिवस्य परमात्मनः।।
शिवरुद्रादिशब्दानां प्रणवोपि परः स्मृतः।। ९.५० ।।
शंभोः प्रणववाच्यस्य भावना तज्जपादपि।।
या सिद्धिः स्वपराप्राप्या भवत्येव न संशयः।। ९.५१ ।।
ज्ञानतत्त्वं प्रयत्नेन योगः पाशुपतः परः।।
उक्तस्तु देवदेवेन सर्वेषामनुकंपया।। ९.५२ ।। लिङ्गपुराणम् – उत्तरभागः/अध्यायः ९’’
‘जप’ इस शब्द से मन्त्रयोग बता दिया और ‘अर्थभावन’ इस शब्द से विवेकज्ञान अभ्यासरूपी ज्ञानयोग बता दिया तथा अभेदभावरूप अद्वैतयोग भी इसीसे समझ लेना चाहिये।
‘‘व्यक्ताव्यक्ते च पुरुषस्तिस्रो मात्राः प्रकीर्तिताः।
अर्धमात्रा परं ब्रह्म ज्ञेयमध्यात्मचिन्तकैः।। गरुड़ पुराण ||’’
इस प्रकार जप करने से मन्त्रयोग तथा उस मन्त्र के अर्थ की भावना करने से ज्ञानयोग और अभेदभावना करने से अद्वैतयोग सिद्ध होता है | एकाग्रता का उपाय बतलाकर अब आगे अगले सूत्र में असम्प्रज्ञात समाधि से पूर्व ईश्वर प्रणिधान रूपी उपासना का विशेष फल बतलाते हैं।
ततः प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च ॥ १.२९ ॥
ततः = उस ईश्वर प्रणिधान से , नाम जप से और अर्थ भावना से ; प्रत्यक्-चेतना =अन्तरात्मा (जीवात्मा) का ; अधिगम:= ज्ञान, प्राप्ति, साक्षात्कार; अपि = भी होता है; अन्तराय अभाव: च = और विघ्नों का, अन्तरायों का (बाधाओं का ) अभाव होता है। तात्पर्य यह है कि अर्थभावना के साथ किये गए जप से साधक को स्वयं के स्वरूप का ज्ञान मिलता है और योग मार्ग में आने वाली बाधाओं से भी मुक्ति प्राप्त हो जाती है। {प्रतीपं विपरीतम् अञ्चति विजानातीति प्रत्यक्, स चासौ चेतनश्च} जो विपरीत को जानता है और चेतन है उसको प्रत्यक् चेतन कहते हैं। अर्थात अविद्याविशिष्ट जीव। (विषयप्रातिकूल्येन स्वान्तःकरणाभिमुखमञ्चति या चेतना दृक्षक्तिः सा प्रत्यक्चेतना तदधिगमो ज्ञानं भवतीत्यर्थः। (भोजवृत्ति) जो दृक् शक्ति विषयों को छोड़ कर अपने अन्तःकरण में सम्मुख प्रवृत्त होती है , वह प्रत्यक्चेतना है |
वेद में भी कहा है कि —
‘‘तस्य ह न देवाश्च नाभूत्यै ईशते । आत्मा ह्येषां स भवति ॥ – बृहदारण्यकोपनिषत् १-४-१०’’
अर्थात् — देवता भी उस ज्ञानी के लिये विघ्न करने में समर्थ नहीं होते क्योंकि वह उन देवताओं का भी आत्मा हो जाता है।
‘‘यदात्मतत्त्वेन तु ब्रह्मतत्त्वं दीपोपमेनेह युक्तः प्रपश्येत्। अजं ध्रुवं सर्वतत्त्वैर्विशुद्धं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपापैः॥२.१५॥ श्वेताश्वतरोपनिषद्’’
जब योगी इस शरीर में स्थित आत्म तत्व के सत्य के द्वारा ब्रह्म तत्व के सत्य को आत्म-प्रकाशित सत्ता के रूप में अनुभव कर लेता है, तब उस सत्ता को अजन्मा, शाश्वत तथा प्रकृति के सभी तत्वों सें मुक्त और शुद्ध जान कर वह सभी बन्धनों से छूट जाता है। श्रीमद्भागवत में भी ईश्वर को बताने के लिये ‘प्रत्यक्’ शब्द का प्रयोग किया है —
‘‘ज्ञानं विशुद्धं परमार्थमेक
मनन्तरं त्वबहिर्ब्रह्म सत्यम्।
प्रत्यक्प्रशान्तं भगवच्छब्दसंज्ञं
यद्वासुदेवं कवयो वदन्ति ।।५.१२.११ ।।श्रीमद्भागवतपुराणम्’’
विशुद्ध परमार्थरुप ज्ञान ही अद्वितीय भीतर बाहर के भेद से रहित सत्य वस्तु है। वह सर्वान्तर्वर्ती (सबका प्रत्यगात्मा) और सर्वथा निर्विकार है। वही भगवान है और उसी को विद्वान वासुदेव भी कहते है।
“तस्मान्मुमुक्षोः सुसुखो मार्गः श्रीविष्णुसंश्रयः ।
चित्तेन चिन्तयानेन वञ्च्यते ध्रुवमन्यथा ॥”
इसलिये मुमुक्षु को सर्वान्तर्यामी , सर्वव्यापक भगवान वासुदेव की शरण ग्रहण करनी चाहिये। यही सबसे सरल मार्ग है, अन्यथा निश्चय ही ठगा जाता है।
‘‘त्वां सेवतां सुरकृता बहवोऽन्तरायाः स्वौकः विलङ्घ्य परमं व्रजतां पदं ते । नान्यस्य बर्हिषि बलीन् ददतः स्वभागान् धत्ते पदं त्वमविता यदि विघ्नमूर्ध्नि ॥ १० ॥ श्रीमद्भागवत पुराणम्/स्कन्धः ११/अध्यायः ४’’
आपके भक्त आपकी भक्ति के प्रभाव से देवताओं की राजधानी अमरावती का उल्लंघन करके आपके परम-पद को प्राप्त होते हैं। इसलिये जब वे भजन करने लगते हैं, तब देवता लोग तरह-तरह से उनकी साधना में विघ्न डालते हैं। किन्तु जो लोग केवल कर्मकाण्ड में लगे रहकर यज्ञादि के द्वारा देवताओं को बलि के रूप में उनका भाग देते रहते हैं, उन लोगों के मार्ग में वे किसी प्रकार का विघ्न नहीं डालते। परन्तु प्रभो! आपके भक्तजन उनके द्वारा उपस्थित की हुई विघ्न-बाधाओं से गिरते नहीं। बल्कि आपके करकमलों की छत्रछाया में रहते हुए वे विघ्नों के सिर पर पैर रखकर आगे बढ़ जाते हैं, अपने लक्ष्य से च्युत नहीं होते।।
‘‘मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते।।१४.२६।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा मेरी सेवा अर्थात् उपासना करता है, वह इन तीनों गुणों से मुक्त होकर , अतीत होकर ब्रह्म बनने के लिये योग्य हो जाता है। और भी कहा है कि —
‘‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रय: || ३.१८ || श्रीमद् भगवद्गीता’’
उस (कर्मयोगसे सिद्ध हुए) महापुरुषका इस संसारमें न तो कर्म करनेसे कोई प्रयोजन रहता है, और न कर्म न करनेसे ही कोई प्रयोजन रहता है, तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें (किसी भी प्राणीके साथ) इसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता। ‘‘मायाप्रवर्तके विष्णौ कृता भक्तिर्दृढा नृणाम् । सुखेन प्रकृतेरन्यं स्वं दर्शयति दीपवत् ॥ नारदपुराण ||’’ माया के प्रवर्तक भगवान विष्णु में यदि दृढ़ भक्ति हो तो सुख पूर्वक आत्मसाक्षात्कार हो जाता है जैसे दूसरी चीजों से दीपक अलग ही दीखता है। शुद्ध भक्ति के बिना भगवान के दर्शन होने पर भी बुद्धि शुद्ध नहीं होती और ना ही भक्ति या मुक्ति मिलती, दुर्योधनादि जैसों के हजारों दृष्टान्त हैं।
शुद्ध भक्ति की परिभाषा भक्तिरसामृत सिन्धु में इस प्रकार की गई है —
अन्याभिलाषिताशून्यं ज्ञानकर्माद्यनावृतम्।
आनुकूल्येन कृष्णानुशीलनं भक्तिरुत्तमा || (१.१.११)
अर्थात्, अन्य अभिलाषाओं से शून्य एवं स्मार्त्त-कर्मादि से अनावृत होकर आनुकूल्येन कृष्ण स्मरण ही भक्ति है।
‘‘यदात्मतत्त्वेन तु ब्रह्मतत्त्वं दीपोपमेनेह युक्तः प्रपश्येत्।
अजं ध्रुवं सर्वतत्त्वैर्विशुद्धं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपापैः॥२.१५॥ श्वेताश्वतरोपनिषद्’’
जब योगी इस शरीर में स्थित आत्म तत्व के सत्य के द्वारा ब्रह्म तत्वके सत्यको आत्म-प्रकाशित सत्ता के रूप में अनुभव कर लेता है, तब उस सत्ता को अजन्मा, शाश्वत तथा प्रकृति के सभी तत्वों से मुक्त और शुद्ध जान कर वह सभी बन्धनों से छूट जाता है।
‘‘न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।।४.१४।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
कर्म मुझे लिप्त नहीं करते; न मुझे कर्मफल में स्पृहा है। इस प्रकार जो मुझे तत्व से जानता है, वह भी कर्मों से नहीं बन्धता है।
‘‘तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च। मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्।।८.७।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे।
‘‘लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः।
येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः॥१५॥ पाण्डवगीता’’
अर्थ — जिनके हृदयमें नीलकमल के समान श्याम रंगके जनार्दनका वास है, उन्हें सदैव यश और लाभ मिलता है , उनकी सदैव जय होती है, उनका पराजय कैसे संभव है !
यामुनाचार्य जी कहते हैं कि — मम नाथ यदस्ति योऽस्म्यहं सकलं तद्धि तवैव माधव । नियतस्वमिति प्रबुद्धधीः अथवा किं नु समर्पयामि ते ।। ५३ ।।
हे मेरे नाथ! महापुरुषों के संगसे मुझे ऐसा ज्ञात हुआ है कि मैं भी आपका हूँ और मेरे पास जो कुछ है वह भी आपका ही है तो फिर मैं समर्पण करूँ तो क्या करूँ ? अर्थात मैं समर्पण करता हूँ, ऐसा यदि कहता हूँ तो यह भी एक प्रकारका मेरा कहना अपराध होगा । इस प्रकार ईश्वर प्रणिधान से जिन विघ्नों का नाश होता है और जो चित्त को विक्षिप्त करके एकाग्रता का भङ्ग करने वाले हैं उन योग के विघ्नों का स्वरूप अगले सूत्र में बताते हैं।
व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः ॥ १.३० ॥
अब समाधि के नौ ९ (विघ्नों का) विरोधियों का वर्णन करते है। व्याधि (रोग), स्त्यान – अकर्मण्यता , (मानसिक जड़ता) संशय – संदेह, प्रमाद – बुद्धि की शिथिलता (प्रज्ञामान्द्य) , आलस्य – शरीर की शिथिलता , अविरति – विषयतृष्णा, भ्रान्ति-दर्शन – मिथ्या अनुभव, अलब्ध-भूमिकत्व – समाधि नहीं लग पाना , अनवस्थितत्व – समाधि लाभ होने पर भी अधिक देर तक समाधि में नहीं ठहर पाना। ते – ये चित्त (के ९ नौ) विक्षेपाः – क्षोभ हैं और ये ही अन्तरायाः – विघ्न या बाधाएं हैं । सबसे पहले शरीर के स्वास्थ्य के बारे में बताते हैं — (१) व्याधि :- शरीर की धातु , रस और करण की विषमता से उत्पन्न ज्वरादि रोग व्याधि कहलाते हैं। महर्षि चरक ने संक्षेप में रोग और आरोग्य का लक्षण यह लिखा है- वात, पित्त और कफ इन तीनों दोषों का सम मात्रा (उचित प्रमाण) में होना ही आरोग्य और इनमें विषमता होना ही रोग है। सुश्रुत ने स्वस्थ व्यक्ति का लक्षण विस्तार से दिया है —
समदोषः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः।
प्रसन्नात्मेन्द्रियमनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते ॥
जिसके सभी दोष (वात, पित्त और कफ) सम मात्रा में हों, अग्नि सम हो, धातु, मल और उनकी क्रियाएं भी सम (उचित रूप में) हों तथा जिसकी आत्मा, इंद्रिय और मन प्रसन्न (शुद्ध) हों उसे स्वस्थ समझना चाहिए। इसके विपरीत लक्षण हों तो अस्वस्थ समझना चाहिए। रोग को विकृति या विकार भी कहते हैं। अत: शरीर, इंद्रिय और मन के प्राकृतिक (स्वाभाविक) रूप या क्रिया में विकृति होना ही रोग है।
मनुस्मृति में शरीर के बारह मल इस प्रकार से बताये गये हैं —
‘‘वसा शुक्रं असृङ्मज्जा मूत्रविट्घ्राणकर्णविट् ।
श्लेश्माश्रु दूषिका स्वेदो द्वादशैते नृणां मलाः ।। ५.१३५।। मनुस्मृतिः’’
मनुष्य देह के बारह मल निम्नोक्त रूप से हैं– (१) वसा (चर्बी), (२) वीर्य, (३) रक्त, (४) मज्जा, (५) मूत्र, (६) विष्ठा, (७) आँख का मल , (८) नाक का मल , (९) कान का मल, (१०) आँसू, (११) कफ और (१२) पसीना।
भुक्त -पीत (खाये -पीये) अन्न -जल के परिपाक दशा को प्राप्त हुए सार का नाम रस है। उस रस का ठीक से न पचना रस की विषमता है।
करण — नेत्रादि इन्द्रियों का नाम है। कम देखना, कम सुनना आदि करण की विषमता है।
(२) स्त्यान माने थकाबट (चित्त की अकर्मण्यता या मानसिक जड़ता) अर्थात इच्छा होने पर भी किसी कार्य को करने की (योग साधना की) सामर्थ्य का न होना।
(३) संशय — (संदेह) मैं योग साधन कर सकूंगा या नहीं , योग सिद्ध होगा या नहीं ” इस प्रकार की दुविधा होना संशय है।
(४) प्रमाद — कामादि की प्रवलता से समाधि के साधनों में उदासीनता , समाधि के साधनों का अनुष्ठान न करना ही प्रमाद है। योगशास्त्रानुसार समाधि के साधनों की भावना न करना । या उन्हें ठीक से न समझना । असावधानी; लापरवाही; गफलत; अंतःकरण की दुर्बलता; उपेक्षा, ये सब प्रमाद की कक्षा में आते हैं।
“प्रमादो वै मृत्युः” प्रमादाद्वै असुराः पराभवन् अप्रमादाद्ब्रह्मभूताः सुराश्च। महाभारतम्-०५ -उद्योगपर्व-अध्याय ४२ ||
‘‘कुरङ्गमातङ्गपतङ्गभृङ्ग- मीना हताः पञ्चभिरेव पञ्च।
एकः प्रमादी स कथन्न हन्यते यः सेवते पञ्चभिरेव पञ्च ॥११५.२१॥ गरुडपुराणम्’’
हिरन, हाथी, पतिंगा, भौंरा और मछली क्रमशः शब्द,स्पर्श,रूप,गन्ध तथा रस इनमें से केवल एकमें आसक्त होकर मारे जाते हैं। तथा जो प्रमादी व्यक्ति,इन पाँचों इन्द्रियों के अधीन हुआ है वह कैसे बच सकता है?
‘‘अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन।।१४.१३।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
हे कुरुनन्दन ! तमोगुण के प्रवृद्ध होने पर अप्रकाश, अप्रवृत्ति, प्रमाद और मोह ये सब उत्पन्न होते हैं।
‘‘लक्ष्यच्युतं चेद्यदि चित्तमीषद् बहिर्मुखं सन्निपतेत्ततस्ततः । प्रमादतः प्रच्युतकेलिकन्दुकः सोपानपङ्क्तौ पतितो यथा तथा।।३२५।। विवेकचूडामणिः’’
जैसे खेलने की गेंद यदि असावधानी वश सीढ़ियों पर गिरकर स्वतः नीचे-नीचे चली जाती है, वैसे ही यदि साधक का चित्त (ब्रह्मरूपी) लक्ष्य से जरा-सा भी बहिर्मुख हुआ, तो क्रमशः पतित होता चला जाता है। प्रमा माने यथार्थ बोध उस यथार्थज्ञान का जो दमन करदे वह प्रमाद है। अथवा प्रकृष्ट मद (नशा या मस्ती) ही प्रमाद है।
‘‘यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्।।१८.३९।। श्रीमद् भगवद्गीता ’’
जो सुख प्रारम्भ में और परिणाम (अनुबन्ध) में भी आत्मा (मनुष्य) को मोहित करने वाला होता है, वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा जाता है। विवेक विहीनता का नाम प्रमाद है।
‘‘यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।।६.२६।। श्रीमद् भगवद्गीता ’’
यह अस्थिर और चञ्चल मन जहाँ-जहाँ विचरण करता है, अथवा जिन कारणों से (विषयों में) विचरण करता है,वहाँ-वहाँसे हटाकर इसको एक परमात्मामें ही लगाये। अर्थात् आत्मा में स्थिर करे।
(५) आलस्य — चित्त अथवा शरीर के भारी होने के कारण ध्यान का न लगना। शरीर का भारीपन कफ आदि के प्रकोप से होता है और चित्त का भारीपन तमोगुण की अधिकता से होता है। {आलस्यं ज्ञानसाधनेष्वप्रवृत्तिः।}
‘‘आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपु:।
नास्त्युद्यमसमो बन्धु: कुर्वाणो नावसीदति।।८६।। नीतिशतकम् ’’
आलस्य ही मनुष्य के शरीर में रहने वाला सबसे बड़ा शत्रु होता है, तथा परिश्रम के जैसा कोई मित्र नहीं होता, क्योंकि परिश्रम करने वाला व्यक्ति कभी दुखी नहीं होता, जबकि आलस्य करने वाला व्यक्ति सदैव दुखी रहता है।
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:।।१३८।। (पञ्चतन्त्रम्)
व्यक्ति के मेहनत करने से ही उसके काम पूरे होते हैं। सिर्फ इच्छा करने से उसके काम पूरे नहीं होते। जैसे सोये हुए शेर के मुंह में हिरण स्वयं नहीं आता, उसके लिए शेर को परिश्रम करना पड़ता है।
(६) अविरति — विरति माने वैराग्य का न होना ही अविरति है। विषयों में तृष्णा बनी रहना अर्थात विषयेन्द्रिय – संयोग से चित्त की विषयों में तृष्णा होने से वैराग्य का अभाव अविरति है।
‘‘नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ॥१.२.२४॥ कठोपनिषद्’’
जो दुष्कर्मों से विरत नहीं हुआ है, जो शान्त नहीं है, जो अपने में एकाग्र (समाहित) नहीं है अथवा जिसका मन शान्त नहीं है वासनाओं से भरा है , ऐसे किसी को भी यह ‘आत्मा’ प्राप्त नहीं हो सकता। वह केवल बुद्धिवाद से आत्मतत्त्व को नहीं पा सकता। तो फिर कैसे प्राप्त कर सकता है ?
प्रज्ञानेन, ब्रह्मविज्ञानेन एनं प्रकृतमात्मानम् आप्नुयात्, यस्तु दुश्चरिताद्विरत इन्द्रियलौल्याच्च, समाहितचित्तः समाधान फलादप्युपशान्तमानसश्चाचार्यवान् प्रज्ञानेन एवं यथोक्तमात्मानं प्राप्नोतीत्यर्थः ॥
ब्रह्म विज्ञान से ही प्राप्त किया जा सकता है।
(७) भ्रान्तिदर्शन — मिथ्याज्ञान (योग के साधनों तथा उनके फल को मिथ्या जानना ) भ्रान्ति दर्शनं माने विपर्यय-ज्ञानम् (उलटा ज्ञान)। शास्त्रोक्त अर्थ से विपरीतनिश्चय करना।
‘‘अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसाऽऽवृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी।।१८.३२।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
हे पार्थ ! तमस् (अज्ञान अन्ध:कार) से आवृत जो बुद्धि अधर्म को ही धर्म मानती है और सभी पदार्थों को विपरीत रूप से जानती है, वह बुद्धि तामसी है।
(८) अलब्धभूमिकत्वं (समाधि-भूमेः अलाभः।) मधुमती आदि जो समाधि की भूमिकायें आगे बताई जांयगी उनमें स्थिति न होना। अलब्धभूमिकत्व माने किसी प्रतिबन्धक वश समाधि-भूमि को न पाना अर्थात समाधि में न पहुंचना।
(९) अनवस्थितत्वं — (अनवस्थितत्वं लब्धायां भूमौ चित्तस्याप्रतिष्ठा ।) प्राप्त हुई समाधि भूमि को पाकर भी उसमें चित्त का न ठहरना अर्थात ध्येय का साक्षात्कार करने से पूर्व ही समाधि का छूट जाना। इसलिये यह अस्थिरता भी दोष है।
उपर्युक्त नौ विघ्न एकाग्रता से हटाने वाले हैं और चित्त की ५ वृत्तियों के साथ होते हैं, उनके अभाव में नहीं होते। इसलिए ये सब चित्त के विक्षेप, योग के मल , योग के अन्तराय, और योग के विरोधी, विघ्न या दुश्मन कहलाते हैं। केवल ये नौ ही योग के प्रतिबन्धक नहीं हैं, किन्तु उनके वर्तमान होने पर अन्य प्रतिबन्धक भी उपस्थित हो जाते हैं, जिनका निर्देश अगले सूत्र में करते हैं —
दुःखदौर्मनस्याङ्गमेजयत्वश्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुवः ॥ १.३१ ॥
पिछले सूत्र में कहे हुए नौ प्रतिबन्धों के साथ साथ ये पाँच अन्य प्रतिबन्धक भी उपस्थित हो जाते हैं। १. दुख, २. दौर्मनस्य, (मन खराब होना) ३. अंगमेजयत्व, (अंगों में एक प्रकार का कम्पन या अङ्गों अकड़-जाना या जकड़-जाना) ४. श्वास और ५. प्रश्वास। (श्वास लेने में और छोड़ने में एक अनियमित एवं अनियंत्रित गति भी एक प्रकार का विक्षेप है।)
(१) दु:ख = “प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम्” पीड़ा तीन प्रकार की होती है।
आध्यात्मिक दुःख — जो दुख शरीर और मन के कारणों से प्राप्त होता है।
अधिभौतिक दुःख — जो दुख हमें अन्य जीवों से प्राप्त होता है।
आधिदैविक दुःख — जो दुख हमें प्रकृति से प्राप्त होता है।
दैहिक = देह से संबंधित रोग और काम, क्रोध जन्य मानस परिताप (शरीर और मन के दुःख आध्यात्मिक दुःख कहलाते हैं।)
और भौतिक ताप = सिंह, सर्प चोर, ड़ाकू आदि दुष्ट प्राणियों से उत्पन्न पीड़ा (आधिभौतिक) । भौतिक आपदायें हैं।
दैविक = ग्रह, नक्षत्र जन्य पीड़ा , विद्युत-पात (बिजली का गिरना) अतिवर्षा, अनावृष्टि, अतिवायु, या फिर अचानक ही घर में या जँगल में आग लग जाना तथा महामारी आदि ये सब (आधिदैविक) दैवीय प्रकोप ,पीड़ायें हैं। पर्यावरण में असंतुलन के कारण प्राकृतिक आपदाएं अधिक आती हैं अतः सभी सामूहिक रूप से पर्यावरण का संतुलन बनाये रखने का प्रयास करें तो ये दुःख कम हो सकते हैं।
(२) दौर्मनस्य — इच्छा की पूर्ति न होने पर मन का खराब होना। इसके लिए ऋषि , मुनियों ने त्रिकाल सन्ध्या का विधान किया है। यह निष्काम कर्म के अभ्यास का अद्भुत उपाय है। निष्काम होना कोई साधारण सी बात नहीं है यह एक उच्च कोटि की उपलब्धि है।
‘‘विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति।।२.७१।।श्रीमद्भगवद्गीता’’
जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग करके स्पृहारहित, ममतारहित और अहंकाररहित होकर आचरण करता है, वह शान्तिको प्राप्त होता है।
(३) अङ्गमेजयत्व — शरीर के अङ्गों का काँपना। कभी कभी अफीम आदि नशीली वस्तुओं की आदत पड़ जाने से और उनके अभाव में आदमी हाथ पाँव पटकने लगता है , उसके शरीर में संतुलन नहीं रहता है। यह जो शरीर के अङ्गों का काँपना है यह योगाङ्ग आसन का वाधक है।
(४) श्वास — श्वास रेचक का विरोधी है। बिना इच्छा के बाहर के वायु का नासिका द्वारा अंदर आना श्वास नाम का प्रतिबन्धक है।
(५) प्रश्वास — प्रश्वास पूरक का विरोधी है। बिना इच्छा के भीतर के वायु का नासिका छिद्रों के द्वारा बाहर निकलना प्रश्वास है – जब व्यक्ति शारीरिक या मानसिक रूप से असंतुलित हो जाता है तब श्वास , प्रश्वास की गतिविधि भी स्वाभाविक नहीं रह पाती है। रेचक और पूरक प्राणायाम ,अर्थात योग के अंग हैं अतः ये हमारे स्वामित्व में ही होने चाहिये। श्वास, प्रश्वास का अनियंत्रित चलना योगके अङ्गभूत प्राणायाम का विरोधी है। इस प्रकार (ये पाँच उपविघ्न या उपविक्षेप हैं ) जो कि विक्षेप-सहभुव: – विक्षेपों के साथ-साथ होनेवाले हैं। इसलिए कहा कि —
“प्रमादो ब्रह्मनिष्ठायां न कर्तव्यःकदाचन ।
प्रमादो मृत्युरित्याहुर्विद्यायां ब्रह्मवादिनः ॥१४॥ अध्यात्मोपनिषत्||”
ब्रह्मनिष्ठा में कभी प्रमाद न करे, क्योंकि प्रमाद ही मृत्यु है (अपनी आत्मा के अनुसन्धान को छोड़कर जीवन बिताना प्रमाद है), ऐसा विद्या के ज्ञाता (विद्यावान्) ब्रह्मवादी कहते हैं ॥ विद्यावान गुनी अति चातुर । राम काज करिबे को आतुर।। विद्यावान तो वही है जो अपने आत्माराम को सुखी करने के लिए आतुर है । महायोगी हनुमान जी ने कहा कि —
‘‘यावत्तव कथा लोके विचरिष्यति पावनी । तावत्स्थास्यामि मेदिन्यां तवाज्ञामनुपालयन् ।। ७.१०८.३६ ।। रामायणम् / उत्तरकाण्डम् / सर्गः १०८’’
जब तक आपका जीवनचरित संसार के जीवों के विचार को पवित्र करता रहेगा तब तक मैं स्थिर होकर आपकी आज्ञा पालन करने के लिए धरती पर रहूँगा” | इन सभी दुःखों से छूटने का बहुत ही सरल उपाय गीता जी में बताया है।
‘‘मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः।।१२.८।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
तुम अपने मन और बुद्धि को मुझमें ही स्थिर करो, तदुपरान्त तुम मुझमें ही निवास करोगे, इसमें कोई संशय नहीं है।
‘‘अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।।१२.९।।श्रीमद् भगवद्गीता’’
हे धनंजय ! यदि तुम अपने मन को मुझमें स्थिर करने में समर्थ नहीं हो, तो अभ्यासयोग के द्वारा तुम मुझे प्राप्त करने की इच्छा (अर्थात् प्रयत्न) करो। {चित्तको सब ओरसे खींचकर बारंबार एक अवलम्बनमें लगानेका नाम अभ्यास है उससे युक्त जो समाधानरूप योग है ऐसे उस अभ्यासयोगके द्वारा — मुझ — विश्वरूप परमेश्वरको प्राप्त करनेकी इच्छा कर।
‘‘अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि।।१२.१०।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
यदि तुम अभ्यास में भी असमर्थ हो तो मत्कर्म परायण बनो; अर्थात् मेरे लिये कर्म करनेको ही प्रधान समझनेवाला हो। इस प्रकार मेरे लिए कर्मों को करते हुए भी तुम सिद्धि को प्राप्त करोगे।
‘‘अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्।।१२.११।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
और यदि इसको भी करने के लिए तुम असमर्थ हो, तो आत्मसंयम से युक्त होकर मेरी प्राप्ति रूप योग का आश्रय लेकर, तुम समस्त कर्मोंके फलका त्याग करो। अर्थात सबकुछ भगवानको सौंप दो। यह प्रेमयोग का अभ्यास है।
“कामतोऽकामतो वाऽपि यत्करोमि शुभाशुभम् ।
तत्सर्वं त्वयि संन्यस्तं त्वत्प्रयुक्तः करोम्यहम् “
किसी कामना से या बिना किसी कामना के जो शुभ या अशुभ कर्म मैं कर रहा हूँ, वह सब तुम्हें (ईश्वर) को समर्पित कर दे रहा हूँ, क्योंकि तुम्हारे द्वारा ही प्रेरित होकर मैं वे कर्म करता हूँ।
‘‘साधु वाऽसाधु वा कर्म यद्यदाचरितं मया ।
तत्सर्वं कृपया देव गृहाणाराधनं मम ॥’’
अच्छा या बुरा जो कुछ भी मुझसे बन पड़ा, वह सब आपकी कृपा से ही सम्भव हो सका है। अतः हे देव ! कृपया मेरी आराधना को स्वीकार करें।
उपर्युक्त विक्षेप और उपविक्षेप विक्षिप्त चित्तवालों को ही होते हैं , एकाग्र चित्त वालों को नहीं होते। इन समाधि के शत्रुओं को अभ्यास और वैराग्य द्वारा निरोध करना चाहिये। उन दोनों में से (अभ्यास और वैराग्य में से) अभ्यास के विषय का उपसंहार करने के लिये अगला सूत्र है —
तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यासः ॥ १.३२ ॥
तत् – उन (विक्षेपों को) प्रतिषेधार्थम् – दूर करने के लिए एक तत्त्व का “एकं तत्त्वम् ईश्वरः।” अभ्यासः — अभ्यास (करना चाहिए) । उन पूर्वोक्त विक्षेप तथा उपविक्षेपोंको दूर करने के लिये एकतत्व का अभ्यास करना चाहिये अर्थात किसी एक अभिमत (इष्ट) तत्व द्वारा चित्त की स्थिति के लिये यत्न करना चाहिये। एक तत्व का अर्थ होता है प्रधानतत्व अथवा ईश्वरतत्व। इस प्रकार एक तत्व में एकाग्रता होने पर सारे विक्षेप समाप्त हो जाते हैं। एकाग्रता ईश्वर-चैतन्य में करनी चाहिये विषयों में नहीं। जैसे ॐ, राम, शिव, कृष्ण, दुर्गा, सूर्य, गणेश, साकार, निराकार, गुरु या आत्मा आदि कोई भी हो सकता है, पर एकतत्त्व का ही अभ्यास होना चाहिये। उसी एक इष्टतत्व में ही चित्त को बार -बार लगाना चाहिये।
“विक्षेपैस्तैर्यदा चित्तं बाधते योगिनं तदा।
अभ्यासेन च संस्कर्तुं प्रयतेत स संयमी ॥ ५६॥ योगसूत्रसारः”
वह एक ॐ ही सबका आत्मा है। सभी प्रकार विक्षेपों से बचने के लिये उसी एक दीर्घ प्रणव का अभ्यास करना चाहिये।
‘‘अभियोगात्सदाभ्यासात्तत्रैव च विनिश्चयात् ।।
पुनःपुनरनिर्वेदात्सिध्येद्योगो न चान्यथा ।। ४५ ।।
दृढ़ता और चिरस्थायी अभ्यास से, तथा उसके दृढ़ पालन से और निराशा से दूर रहकर, योग सिद्ध किया जा सकता है अन्यथा नहीं।
आत्मक्रीडस्य सततं सदात्ममिथुनस्य च ।।
आत्मन्येव सु तृप्तस्य योगसिद्धिर्न दूरतः ।। ४६ ।।
जो हमेशा स्वयं के साथ खेलता है, जो हमेशा सर्वोच्च आत्मा के संपर्क में रहता है, जो हमेशा स्वयं से संतुष्ट रहता है, उसके लिए योग में पूर्णता दूर नहीं है।
अत्रात्मव्यतिरेकेण द्वितीयं यो न पश्यति ।।
आत्मारामः स योगींद्रो ब्रह्मीभूतो भवेदिह ।। ४.४१.४७।। स्कन्दपुराणम्’’
जो आत्मा से भिन्न किसी अन्य वस्तु को नहीं देखता वह महान (पूर्ण) योगी है। वह अपने आत्मा में पूर्ण आनंद लेता है। वह यहीं ब्रह्म से तादात्म्य स्थापित कर लेता है।
‘‘एतद्ध्येवाक्षरं ब्रह्म एतद्ध्येवाक्षरं परम्।
एतद्ध्येवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत् ॥१.२.१६॥ कठोपनिषद्’’
यही ‘अक्षर’ है ‘ब्रह्म’, यही ‘अक्षर’ है ‘परम-तत्त्व’। यदि इस ‘अक्षर’ को कोई जान ले, तो वह जिसकी भी इच्छा करता है, वही उसे प्राप्त हो जाता है।
”यह श्रेष्ठ आलम्बन है, यह परम आलम्बन है। इस आलम्बन को जानकर व्यक्ति ब्रह्मलोक में महिमान्वित होता है।
‘‘एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा। कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च॥६.११॥ श्वेताश्वतरोपनिषद्’’
उस ‘एकमेव देव’ का ही अस्तित्व है, प्रत्येक प्राणी में ‘वही’ गूढ़ रूप से छिपा हुआ है क्योंकि ‘वही’ सर्वव्यापी एवं समस्त प्राणियों का ‘अन्तरात्मा’ है, ‘वह’ सभी कर्मों का अध्यक्ष-स्वामी है, एवं सभी जीवसत्ताओं का आवास है। ‘वही’ सकल जगत-व्यापारों का ‘महान् साक्षी’ है जो विचारों में परस्पर सम्बद्धता लाता है, ‘वह’ है ‘निरपेक्ष’ एवं निर्गुण, जिसमें न कोई मनोभाव है न कोई गुण है।
‘‘एको देवः केशवो वा शिवो वा एकं मित्रं भूपतिर्वा यतिर्वा। एको वासः पत्तने वा वने वा एका नारी सुन्दरी वा दरी वा।।६९।। नीतिशतकम् – भर्तृहरि:’’
इष्टदेव एक ही हो चाहे केशव हो या शिव ; मित्र भी एक ही हो चाहे राजा हो या संन्यासी ; निवास भी एक ही हो चाहे शहर हो या जंगल ; पत्नी भी एक ही हो या तो सुंदरी या फिर पर्वत की गुफा । सुन्दरी और दरी ये दोनों शब्द स्त्रीलिङ्ग में हैं। प्रीति एक ही से करनी चाहिये – वह चाहे सुन्दरी स्त्री से हो अथवा निर्जन पर्वतगुहा (स्त्री संसर्ग से दूर ब्रह्मचर्य) से हो । तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को अपना चित्त स्थिर रखना चाहिए और एक में ही मन को रमाना चाहिए। मन को कभी भटकने नहीं देना चाहिए। किसी एक ही देवता में मन रमाने से सभी देवता प्रसन्न हो जाते हैं। मित्रता भी स्थाई होनी चाहिए तब चाहे वह किसी सम्पन्न के साथ हो अथवा विपन्न के साथ तथा व्यक्ति को निवास का एक स्थान निश्चित करना चाहिए और एक ही स्त्री से सम्पर्क करना चाहिए। वस्तुतः यही चित्त की एकाग्रता है यही उचित माना गया है। भटकाव के, प्रलोभन के अनेक साधन हैं, किन्तु प्रयास कर इन भटकावों से,प्रलोभनों से दूरी बनानी चाहिए। द्वैध भाव से मनुष्य का कल्याण सम्भव नहीं है, इसलिए निश्चयपूर्वक एक ही प्रकार का मार्ग अपनाना चाहिए ।
‘‘अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्।।८.८।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
हे पार्थ अभ्यासयोगयुक्त अनन्यगामी चित्तद्वारा अर्थात् चित्तसमर्पणके आश्रयभूत मुझ एक परमात्मामें ही विजातीय प्रतीतियोंके व्यवधानसे रहित तुल्य प्रतीतिकी आवृत्तिका नाम अभ्यास है वह अभ्यास ही योग है ऐसे अभ्यासरूप योगसे युक्त उस एक ही आलम्बनमें लगा हुआ विषयान्तरमें न जानेवाला जो योगीका चित्त है उस चित्तद्वारा शास्त्र और आचार्यके उपदेशानुसार चिन्तन करता हुआ योगी परम निरतिशय — दिव्य पुरुषको जो आकाशस्थ सूर्यमण्डलमें परम पुरुष है — उसको प्राप्त होता है।
न वासुदेवभक्तानामशुभं विद्यते क्वचित् । (महा॰ अनु॰१४९।१३१).
‘भगवान्के भक्तोंका कहीं कभी भी अशुभ नहीं होता ।
संसारी से प्रीतड़ी, सरै न एको काम |
दुविधा में दोनों गये, माया मिली न राम ||
कबीरदास जी कहते हैं कि संसारियों से प्रेम जोड़ने से, कल्याण का एक काम भी नहीं होता| दुविधा में तुम्हारे दोनों चले जयेंगे, न माया हाथ लगेगी न स्वस्वरूप स्थिति होगी,
अतः जगत से निराश होकर अखंड वैराग्य करो। सर्व सुख सार परमात्मा से प्रेम करो। अनिश्चय की स्थिति में व्यक्ति दोनों से हानि उठाता है |
सङ्गति — जब चित्त में असूया, ईर्ष्या आदि मल होते हैं तब वह शान्त स्थिति को प्राप्त नहीं कर सकता अतः चित्त को निर्मल करने का उपाय तथा व्यवहार दशा में योगी का आचरण कैसा होना चाहिये यह बात अगले सूत्र में बतलाते हैं।
मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्त प्रसादनम् ॥ १.३३ ॥
१.) मैत्री =मित्रता (सौहार्द) , २.) करुणा =दया (पराये दुःखों को निवृत्त करने की इच्छा), ३.) मुदिता =हर्ष और ४.) उपेक्षा =उदासीनता इन चार धर्मों की सुखी, दु:खी, पुण्यात्मा और पापात्मा के विषय में (यथाक्रम) भावना करने से चित्त प्रसन्न अर्थात निर्मल होता है। राग और द्वेष की विरोधी मैत्री आदि भावना से चित्त निर्मल होकर एकाग्रता और स्थिरता का लाभ प्राप्त कर सकता है। इसी को चर्या योग कहा गया है। मुख्य चर्यायोग तो वैराग्य ही है। गीता में भी कहा है कि
‘‘रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।२.६४।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
आसक्ति और द्वेषको (राग-द्वेष) कहते हैं इन दोनोंको लेकर ही इन्द्रियोंकी स्वाभाविक प्रवृत्ति हुआ करती है। परंतु जो मुमुक्षु होता है वह स्वाधीन अन्तःकरणवाला अर्थात् जिसका अन्तःकरण इच्छानुसार वश में है ऐसा पुरुष रोगद्वेषसे रहित और अपने वशमें की हुई श्रोत्रादि इन्द्रियोंद्वारा अनिवार्य विषयोंको ग्रहण करता हुआ प्रसादको प्राप्त होता है। प्रसन्नता और स्वास्थ्य को प्रसाद कहते हैं।
‘‘प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।२.६५।। श्रीमद् भगवद्गीता ’’
प्रसाद के होने पर सम्पूर्ण दुखों का अन्त हो जाता है और प्रसन्नचित्त पुरुष की बुद्धि भी शीघ्र ही स्थिर हो जाती है। क्योंकि (उस) प्रसन्नचित्तवाले की अर्थात् स्वस्थ अन्तःकरणवाले पुरुष की बुद्धि शीघ्र ही सब ओरसे आकाशकी भाँति स्थिर हो जाती है, केवल आत्मरूपसे निश्चल हो जाती है। इस वाक्यका अभिप्राय यह है कि इस प्रकार प्रसन्नचित्त और स्थिरबुद्धिवाले पुरुषको कृतकृत्यता मिलती है।
“प्राणा यथात्मनोऽभीष्टा भूतानामपि ते तथा ।
आत्मौपम्येन सर्वत्र दयां कुर्वन्ति साधवः ॥ ११ ॥ हितोपदेशः”
जैसे हम को हमारे प्राण ही बहुत प्यारे होते हैं, वैसे ही सभी प्राणियों को भी अपने प्राण प्यारे होतें हैं । सज्जन लोग अपने आप पर जितनी दया करते हैं, उतनी ही दया सभी प्राणियों पर करते हैं । इसलिए सुखी लोगों के साथ मैत्री ,प्रेम और सौहार्द, रखने से ईर्ष्या नामवाले कालुष्य की निवृत्ति होती है , दुःखी लोगों पर करुणा और दया करने से असूया नामवाला कालुष्य निवृत्त होता है , पुण्यशाली लोगों के प्रति हर्ष का भाव रखने से द्वेष नामवाला कलुष दूर हो जाता है और अपुण्यशाली (पातकी तथा कृतघ्न) पुरुषों के प्रति उपेक्षा का भाव रखने से अमर्ष (असहिष्णुता) नामवाला कालुष्य दूर होता है। मुख्य रूप से राग (विषयों में इच्छा) , द्वेष (वैर, अनिष्टों में रोष) ये दो ही चित्त के विक्षेपक हैं। यदि ये दोनों ही जड़ से उखाड़ दिये जाँय तो चित्त की प्रसन्नता होने से एकाग्रता होती है। अब एक दूसरा उपाय अगले सूत्र में बताते हैं।
प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य ॥ १.३४ ॥
वा = अथवा , प्रच्छर्दन विधारणाभ्याम् , (इन दोनों क्रियाओं से भी) नासिका द्वारा बारम्बार श्वास को बाहर फेंकने और रोकने से (इन दोनों प्रक्रियाओं से) प्राणस्य = प्राणवायु को स्थिर करने से भी चित्त स्थिर होता है । प्रच्छर्दन माने वमन या रेचन और विधारण माने कुम्भक । इन दोनों क्रियाओं से भी चित्त को निर्मल (प्रसन्न) करना चाहिये। इस सूत्र में प्राणायाम के केवल दो भेद रेचक और कुम्भक बतलाये हैं। रेचक के लिये यहाँ प्रच्छर्दन शब्द का प्रयोग किया है जिसका मतलब है कोष स्थित वायु को जोर से बाहर फेंकना और कुम्भक के लिये विधारण शब्द का प्रयोग हुआ है। यह प्राणायाम कपालभाति से मिलता – जुलता है। पॉंच बार या इक्कीस बार रेचक करके श्वास को बाहर ही रोक देना चाहिये , इस प्रकार कम से कम तीन बार करें। “कौष्ठय्स्य वायोर्नासिकापुटाभ्यां प्रयत्नविशेषाद्वमनं प्रच्छर्दनम्, विधारणं प्राणायामस्ताभ्यां वा मनसः स्थितिं संपादयेत्। (व्यास भाष्य)” प्राणों को एक आयाम देना (एक स्थिरता देना) यही प्राणायाम है। मनु जी ने कहा है कि — “प्राणायमैर्दहेद्दोषान्धारणाभिश्च किल्बिषम् ।
प्रत्याहारेण संसर्गान्ध्यानेनानीश्वरान्गुणान् ।। ६.७२ ।। मनुस्मृतिः/षष्ठोध्यायः”
अर्थात् नियमपूर्वक प्राणायाम करने से शारीरिक दोष दूर होते हैं, कुम्भक से शरीर और मन दोनों ही मलरहित होते हैं, धारणा से पाप नष्ट होता है, प्रत्याहार से इन्द्रियों का संसर्ग छूटता है तथा ध्यान से सबके शासक परमेश्वर का ज्ञान होता है।
‘‘रुचिरं रेचकं चैव वायोराकर्षणं तथा ।
प्राणायामा-स्त्रयः प्रोक्ता रेचकपूरककुम्भकाः ॥१०॥ अमृतनादोपनिषत् ’’
पूरक, रेचक और कुम्भक के रूप में की जाने वाली तीन क्रियाओं को प्राणायाम कहते हैं।
“प्राणायाम इति प्रोक्तो रेचपूरककुम्भकैः ।
वर्णत्रयात्मका ह्येते रेचपूरककुम्भकाः ॥ ११.१.४० ॥ देवीभागवतपुराणम्”
प्राणायाम सभी प्रकार के पापों का नाश करता है। पाप निवृत्ति होने से चित्त लक्ष्य में एकाग्र हो जाता है।
‘‘हकारेण तु सूर्यः स्यात्सकारेणेन्दुरुच्यते ।
सूर्याचन्द्रमसोरैक्यं हठ इत्यभिधीयते ॥ १३३॥ योगशिखोपनिषत्’’
राग , द्वेष और मोह ये तीन दोष कहे गये हैं और प्राणायाम को समस्त दोषों का क्षय करने वाला कहा गया है। दोष निवृत्त होने पर एकाग्रता बड़ी सरलता से हो जाती है। ‘‘द्वे बीजे चित्तवृक्षस्य प्राणस्पन्दनवासने ।
एकस्मिंश्च तयोः क्षीणे क्षिप्रं द्वे अपि नश्यतः ॥ २७॥ मुक्तिकोपनिषत् ’’ चित्त रूप वृक्ष के दो बीज हैं पहला है प्राणस्पंदन और दूसरा है वासना इन दोनों में से एक के क्षीण हो जाने से दोनों ही नाश को प्राप्त होते हैं।
‘‘दह्यन्ते ध्मायमानानां धातूनां हि यथा मलाः ।
तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात् । । ६.७१ । । मनुस्मृतिः’’
जैसे अग्नि में तपाने और गलाने से धातुओं के मल नष्ट हो जाते हैं वैसे ही प्राणों के निग्रह से मन आदि इन्द्रियों के दोष भस्मीभूत हो जाते हैं । ‘ प्राण ’ तत्व का ज्ञान भी योग मार्ग के पथिक को आवश्यक है। प्राण श्वास नहीं है। श्वास तो वायु है। प्राण आत्मा भी नहीं है जैसा कि कुछ लोग समझते हैं , किन्तु प्राण वह जड़तत्व है जिससे श्वास – प्रश्वास आदि समस्त क्रियायें एक जीवित शरीर में होती हैं। प्रश्नोपनिषद में प्राणतत्व का अधिक विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है- ‘‘सः ईक्षाञ्चक्रे कस्मिन् उत्क्रान्ते अहम् अपि उत्क्रान्तः भविष्यामि। कस्मिन् प्रतिष्ठिते प्रतिष्ठास्यामी ॥३॥ प्रश्नोपनिषद् षष्ठः प्रश्नः’’
उसने ‘स्वयं’ के विषय में विचार किया। ‘वह कौन हो सकता है जिसके उत्क्रमण करने (निकल जाने) से मैं इस शरीर से निकल (उत्कान्त हो) जाऊँगा तथा जिसके स्थित रहने से मैं स्थित रहूँगा?’
“स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवीन्द्रियं मनोऽन्नमन्नाद्वीर्यं तपोमंत्राः कर्मलोकालोकेषु च नाम च। -प्रश्नोपनिषद् ६.४ ||”
अर्थात्- परमात्मा ने सबसे प्रथम प्राण की रचना की। इसके बाद श्रद्धा उत्पन्न की । तत्पश्चात् आकाश और फिर वायु, फिर ज्योति फिर जल फिर पृथ्वि, फिर इन्द्रियाँ एवं मन तथा अन्न, फिर अन्न से वीर्य को तथा वीर्य से तप तथा तप से मन्त्रों को, इन मन्त्रों से कर्म, कर्म से लोकों को, फिर लोकों में नाम को रचा; ‘आत्मा’ से इस क्रम में समस्त पदार्थों का जन्म हुआ। मनुष्य के शरीर में क्रिया के भेद से प्राण को दस भिन्न – भिन्न नामों में विभक्त किया गया है।
‘‘सततं प्राणवाहिन्यः सोमसूर्याग्निदेवताः । प्राणापानसमानाख्या व्यानोदानौ च वायवः ॥ ||२२||
नागः कूर्मोऽथ कृकरो देवदत्तो धनंजयः ।
हृदि प्राणः स्थितो नित्यमपानो गुदमण्डले ॥ ||२३||
समानो नाभिदेशे तु उदानः कण्ठमध्यगः ।
व्यानः सर्वशरीरे तु प्रधानाः पञ्च वायवः ॥ ||२४||
उद्गारे नाग आख्यातः कूर्म उन्मीलने तथा।
कृकरः क्षुत्करो ज्ञेयो देवदत्तो विजृम्भणे ॥ ||२५||
न जहाति मृतं वापि सर्वव्यापी धनंजयः।
एते नाडीषु सर्वासु भ्रमन्ते जीवजन्तवः ॥ ||२६|| योगचूडामण्युपनिषद् ’’
प्राणों के नाम, स्थान और कार्य :- हमारा शरीर जिस तत्व के कारण जीवित है, उसका नाम ‘प्राण’ है। शरीर में हाथ-पाँव आदि कर्मेन्द्रियां, नेत्र-श्रोत्र आदि ज्ञानेंद्रियाँ तथा अन्य सब अवयव-अंग इस प्राण से ही शक्ति पाकर समस्त कार्यों को करते है। प्राण से ही भोजन का पाचन, रस, रक्त, माँस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य, रज, ओज आदि सभी धातुओं का निर्माण होता है तथा व्यर्थ पदार्थों का शरीर से बाहर निकलना, उठना, बैठना, चलना, बोलना, चिंतन-मनन-स्मरण-ध्यान आदि समस्त स्थूल व सूक्ष्म क्रियाएँ होती है। प्राण की न्यूनता-निर्बलता होने पर शरीर के अवयव शिथिल व मृतप्राय हो जाते है। प्राण के बलवान होने पर समस्त शरीर के अवयवों में बल, पराक्रम आते है और पुरुषार्थ, साहस, उत्साह, धैर्य, आशा, प्रसन्नता, तप, क्षमा, आदि की प्रवृत्ति होती है। शरीर के बलवान व निरोग होने पर ही भौतिक व आध्यात्मिक लक्ष्यों की प्राप्ति की जा सकती है। इसलिए हमें प्राणों की रक्षा करनी चाहिए अर्थात शुद्ध आहार, प्रगाढ़ निद्रा, ब्रह्मचर्य, प्राणायाम आदि के माध्यम से शरीर को प्राणवान बनाना चाहिए। ईश्वर इस प्राण को जीवात्मा के उपयोग के लिए प्रदान करता है। जैसे ही जीवात्मा किसी शरीर में प्रवेश करता है प्राण भी उसके साथ शरीर में प्रवेश करता है और जीवात्मा के शरीर में से निकलते ही शरीर से प्राण भी निकल जाता है।
मुख्यत: प्राण ५ बताए गए हैं- प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान। उपप्राण भी ५ ही बताए हैं- नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय। १. प्राण — इसका स्थान नासिका से हृदय तक है। भुक्त अन्न-जल को पचाना और अलग करना, अन्न को पुरीष ;पानी को पसीना और मूत्र तथा रसादि को वीर्य बनाना प्राण वायु का मुख्य काम है। नेत्र, श्रोत्र, मुख आदि अवयव इसी के सहयोग से कार्य करते है। यह सभी प्राणों का राजा है। जैसे राजा अपने अधिकारियों को विभिन्न स्थानों पर विभिन्न कार्यों के लिए नियुक्त करता है, वैसे ही यह भी अन्य प्राणों को विभिन्न स्थानों पर विभिन्न कार्यों के लिए नियुक्त करता है। २. अपान — इसका स्थान नाभि से पाँव तक है। यह गुदा इंद्रिय द्वारा मल व वायु तथा मूत्रेन्द्रिय द्वारा मूत्र व वीर्य को तथा योनि द्वारा रज व गर्भ को शरीर से बाहर निकालने का कार्य करता है। ३. समान — इसका स्थान नाभि से हृदय तक है। यह खाए हुए अन्न को पचाने तथा पचे हुए अन्न से रस, रक्त आदि धातुओं को बनाने का कार्य करता है। ४. उदान — यह कण्ठ से शिर (मस्तिष्क) तक के अवयवों में रहता है। शब्दों का उच्चारण, वमन आदि के अतिरिक्त यह अच्छे कर्म करने वाले जीवात्मा को उत्तम योनि में व बुरे कर्म करने वाले जीवात्मा को बुरे लोक (सूअर, कुत्ते आदि की योनि) में तथा जिस मनुष्य के पाप-पुण्य बराबर हो, उसे मनुष्य लोक(मनुष्य योनि) में ले जाता है। ५. व्यान — यह सम्पूर्ण शरीर में रहता है। हृदय से मुख्य १०१ नाड़ियाँ निकलती हैं, प्रत्येक नाड़ी की १००-१०० शाखाएँ है तथा प्रत्येक शाखा की भी ७२००० उपशाखाएँ है। इस प्रकार कुल ७२७२१०२०१ नाड़ी शाखा-उपशाखाओं में यह रहता है। समस्त शरीर में रक्त संचार, प्राण-संचार का कार्य यही करता है तथा अन्य प्राणों को उनके कार्यों में सहयोग भी देता है। उपप्राण — १. नाग — यह कण्ठ से मुख तक रहता है। डकार, हिचकी ,छींकना आदि कर्म इसी के द्वारा होते है। २. कूर्म — इसका स्थान मुख्य रूप से नेत्र गोलक है। यह नेत्र गोलकों में रहता हुआ उन्हें दाएँ-बाएँ, ऊपर-नीचे घुमाने की तथा पलकों को खोलने बंद करने की क्रिया करता है। आँसू भी इसी के सहयोग से निकलते है।
३. कृकल — यह मुख से हृदय तक के स्थान में रहता है तथा जंभाई, भूख, प्यास आदि को उत्पन्न करने का कार्य करता है। ४. देवदत्त — यह नासिका से कण्ठ तक के स्थान में रहता है। इसका कार्य आलस्य, तन्द्रा, निद्रा आदि को लाने का है। ५. धनंजय — यह सम्पूर्ण शरीर में व्यापक रहकर पोषणादि का कार्य करता है। इसका कार्य शरीर के अवयवों को खींचे रखना, माँसपेशियों को सुंदर बनाना आदि है। शरीरमें से जीवात्माके निकल जाने पर भी यह नहीं निकलता, फलत: इस प्राण के होने से ही शरीर फूल जाता है। अतः इसको निकालने के लिये हिन्दू लोग ३ या ४ घन्टे के बाद शरीर को जला देते हैं।
‘‘अपाने जुह्वति प्राण प्राणेऽपानं तथाऽपरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः।।४.२९।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
तथा (कोई अन्य (योगीजन)) अपानवायुमें प्राणवायुका हवन करते हैं अर्थात् पूरक नामक प्राणायाम किया करते हैं। वैसे ही अन्य कोई प्राणमें अपानका हवन करते हैं अर्थात् रेचक नामक प्राणायाम किया करते हैं। मुख और नासिकाके द्वारा वायुका बाहर निकलना प्राणकी गति है और उसके विपरीत ( पेटमें ) नीचेकी ओर जाना अपानकी गति है। उन प्राण और अपान दोनोंकी गतियोंको रोककर कोई अन्य लोग प्राणायामपरायण होते हैं अर्थात् प्राणायाममें तत्पर हुए वे केवल कुम्भक नामक प्राणायाम किया करते हैं। सूक्ष्म प्राण का वर्णन — नाड़ी शक्ति —
“सुषुम्नेडा पिंगला च गांधारी हस्तिजिह्विका।
कुहूः सरस्वती पूषा शंखिनी च पयस्विनी || २.१४ ||
वारुण्यलम्बुषा चैव विश्वोदरी यशस्विनी।
एतासु त्रिस्रो मुख्याः स्युः पिंगलेडासुषुम्निका — शिवसंहिता || २. १५ ||
हमारे शरीर में प्राण शक्ति के प्रवाह के लिए असंख्य नाड़ीयाँ होती हैं इनमें से १५ नाड़ियाँ मुख्य होती हैं। (१) सुषुम्णा (सरस्वती) (२) इड़ा ( गंगा) (३) पिंगला (यमुना) (४) गांधारी , {वामनेत्र से वाम अंगूठे तक में } (५) हस्तजिह्वा , { दक्षिण नेत्र से दक्षिण अंगूठे तक में } (६) पूषा , {दक्षिण कर्ण में} (७) यशस्विनी , {वाम कर्ण में} सुनने के लिये और (८) शूरा – गन्ध ग्रहणार्थ नासिका देश में भ्रूमध्य पर्यन्त जाती है , (९) कुहू , लिङ्ग देश में रहती है , (१०) सरस्वती (विद्या) जिह्वा के अग्रभाग पर्यन्त रहकर वाक्यों को प्रकट करती है , (११) वारुणी (वारुणी नाड़ी मूत्र विसर्जन करती है ।) (१२) अलम्बुषा {मुखमण्डल में} (१३) विश्वोदरी , {विश्वोदरी नाड़ी से चार प्रकार के अन्न खाद्य, पेय, चोस्य,लेह्य ग्रहण करने का सामर्थ्य व पचाने का सामर्थ्य नियंत्रित होता है।} (१४) शंखिनी , {गुदास्थान में} (१५) चित्रा , {चित्रा नाड़ी या सिवनी नामक नाड़ी शिश्न से शुक्राणु को निकालने का काम करती है।} “एतन्नाडीमहाचक्रं ज्ञातव्यं योगिभिः सदा ।
इडा वामे स्थिता भागे दक्षिणे पिङ्गला स्थिता ॥ १८॥
सुषुम्ना मध्यदेशे तु गान्धारी वामचक्षुषि ।
दक्षिणे हस्तिजिह्वा च पूषा कर्णे च दक्षिणे ॥ १९॥
यशस्विनी वामकर्णे आनने चाप्यलम्बुषा ।
कुहूश्च लिङ्गदेशे तु मूलस्थाने तु शङ्खिनी ॥ २०॥ योगचूडामण्युपनिषत्”
भावार्थः — शरीर के बाएँ भाग में इडा नाड़ी, दाहिने भाग में पिंगला, मध्य भाग में सुषुम्ना, बाईं आँख में गांधारी, दाहिनी आँख में हस्तिजिह्वा, दाहिने कान में पूषा, बाएँ कान में यशस्विनी, मुखमण्डल में अलम्बुषा, जननांगों में कुहू और गुदा में शांखिनी नाड़ी स्थित है। इड़ा नाड़ी को चंद्र नाड़ी या चन्द्रस्वर भी कहते हैं, पिंगला नाड़ी को सूर्य नाड़ी या सूर्यस्वर कहते हैं। और सुषुम्ना नाड़ी को अग्नि तत्व के समान सौम्य व तेजोमय माना गया है। सुषुम्ना नाड़ी सबसे महत्वपूर्ण होती है । सुषुम्णा नाड़ी इडा व पिंगला नाड़ी के मध्य से सीधी गुजरती हैं और जिस जिस स्थान पर इडा पिंगला और सुषुम्णा मिलती है वहां शक्ति चक्रों का निर्माण होता है । इन चक्रों की संख्या ७ होती हैं। सुषुम्ना नाड़ी को सरस्वती नदी के समान माना है और यह नाड़ी योग के परम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण है। यह नाड़ी सत्वगुण प्रधान नाड़ी हैं। योगी जन इसी नाड़ी के द्वारा अपने योग के लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। धनात्मक ऊर्जा ,ऋणात्मक ऊर्जा और ( तटस्थ ) उदासीन उर्जा जो दोनों के समान अनुपात में मिलने से निर्मित होती हैं। इन तीनों शक्तियों को ब्रह्मा, विष्णु, तथा महादेव के रूप में माना जाता है । तीन प्रकार के गुण होते हैं, सत्व, रज और तम, ये तीनों गुण तीनों नाड़ीयों (सुषुम्णा, इड़ा व पिंगला) में विद्यमान रहते हैं। अन्य १२ नाड़ीयाँ शरीर के अलग-अलग कार्यों, प्रक्रियाओं, अंगो को नियंत्रित करती है। सुषुम्णा नाड़ी अति सुक्ष्म नली के समान है, जो गुदा के निकट से निकलकर मेरूदण्ड के भीतर से होती हुई मस्तिष्क के ऊपर सहस्रार या शून्य चक्र जिसे ब्रह्मरंध्र के नाम से भी जानते हैंं,वहां तक जाती हैं। गुदा के बाऐं भाग से इड़ा नाड़ी निकलती है तथा दाऐं भाग से पिंगला निकलती है । दोनों इड़ा व पिंगला गुदा भाग से निकलकर नासिका के मूल स्थान पर जहां आज्ञा चक्र है वहाँ मिल जाती हैं । आज्ञाचक्र में सुषुम्णा इड़ा व पिंगला तीनों मिलकर युक्त त्रिवेणी संगम का निर्माण करतीं हैं । और जहां से तीनों नाड़ियाँ निकलती हैं अर्थात् मुक्त होती है (मुलाधार चक्र के तनिक नीचे से ) उसे मुक्त त्रिवेणी कहते हैं। साधारण रूप से प्राण शक्ति निरंतर इडा व पिंगला नाड़ियों से ही श्वास-प्रश्वास के रूप से प्रवाहित होती रहती हैं । हमारा श्वास कभी बाएं नथुने से और कभी दाएं नथुने से चलता है। और कभी-कभी दोनों नथुनों से समान रूप से श्वास प्रश्वास की गति होती रहती हैं। जब बाएं नथुने से श्वास अधिक वेग से चलता रहे तो उसे इडा नाडी के सक्रिय होने का प्रमाण समझना चाहिए। और जब दाएं नथुने से अधिक वेग से श्वास चलती रहे तो उसे पिंगला नाड़ी के सक्रिय होने का प्रमाण समझना चाहिए। और जब दोनों नथुनों से समान गति से एक क्षण एक नथुने से और दूसरे क्षण दूसरे नथुने से प्रवाहित हो तो उसे सुषुम्ना नाड़ी के सक्रिय होने का प्रमाण समझना चाहिए। स्वस्थ मनुष्य का नाड़ी चक्र प्रतिदिन प्रातः काल सूर्योदय के समय से ढाई -ढाई घड़ी के (एक-एक घंटे के) हिसाब से क्रमशः एक -एक नथुने से बारी बारी से चलता रहता है । इस प्रकार अहोरात्र अर्थात् १ दिन और रात में १२ बार बाएं और १२ बार ही दाएं नथुने से क्रमानुसार श्वास चलता हैं। नाड़ी शक्ति का ज्ञान होना केवल स्वास्थ्य के ठीक रखने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसका ज्ञान होने पर अनेक दिव्य शक्तियों को प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। और जो भी हम अब तक सुनते आए हैं जैसे की अष्ट सिद्धियां, नव निधियां, कुंडलिनी शक्ति, दिव्य दृष्टि तथा टेलीपैथी, हिप्नोटिज्म, मेस्मेरिज्म इत्यादि अनेक प्रकार की अविश्वसनीय और आश्चर्यजनक शक्तियों को प्राप्त कर सकते हैं। इस विषय की विशेष जानकारी शिव स्वरोदय ग्रन्थ तथा पातञ्जलयोगप्रदीप से प्राप्त कर लेनी चाहिए।
‘‘प्रधानो मारुतः प्राणः प्राणाधारो हि मानवः।
प्राणायामेन चित्तस्य निग्रहस्सुलभस्सदा ॥ ५९ ॥
प्रयत्नात् कुक्षितो वायुं नासिकापुटमार्गतः।
शनैर्निस्सारयेत् सम्यक् प्रश्वासोऽयं निगद्यते ॥ ६० ॥
रेचितस्य बहिर्वायोः स्थापनं कुम्भकं मतम्।
श्वासप्रश्वासकुम्भाश्च हठयोगो निगद्यते ॥ ६१ ॥ योगसूत्रसारः’’
अब चित्त-स्थिति के दुसरे उपाय तथा सम्प्रज्ञात समाधि के पूर्वाङ्ग बताते हैं।
विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धिनी ॥ १.३५ ॥
विषयवती = (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध) विषयोंवाली; वा = अथवा; प्रवृत्तिः = प्रवृत्ति; उत्पन्ना = उत्पन्न हुई; मनसः = मन की; स्थितिनिबन्धिनी = स्थिति को बाँधने वाली होती है। अथवा (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध) विषयों वाली प्रवृत्ति उत्पन्न होकर वह भी मन की स्थिति को बाँधने वाली होती है ।
नासिका के अग्रभाग में संयम की दृढ़ता से तन्मात्रा रूप दिव्यगन्ध का साक्षात्कार होता है उसको गन्धप्रवृत्ति तथा गन्धसंवित् कहते हैं। जिह्वाके अग्रभाग में संयम की स्थिरता से दिव्यरस का साक्षात्कार होता है उसको रसप्रवृत्ति या रससंवित् कहते हैं। तालु में संयम करने से दिव्यरूप का साक्षात्कार होता है उसको रूपप्रवृत्ति या रूपसंवित् कहते हैं। जिह्वाके मध्यभाग में संयम करने से दिव्यस्पर्श का साक्षात्कार होता है उसका नाम स्पर्शप्रवृत्ति या स्पर्शसंवित् है । जिह्वाके मूलमें दिव्यशब्द का साक्षत्कार होता है उसको शब्दप्रवृत्ति या शब्दसंवित् कहते हैं। इसप्रकार ये प्रवृत्तियाँ उत्पन्न होकर चित्तकी स्थिति को बाँधती हैं और संशय का नाश करतीं हैं, तथा समाधिप्रज्ञाकी उत्पत्ति में द्वाररूप होतीं हैं । इस प्रकार विषयों का साक्षात्कार होने से श्रद्धा बढ़ती है। चन्द्र,सूर्य, नक्षत्र,मणि,प्रदीप,रत्नप्रभा आदि में चित्त के संयम करने से जो इनका साक्षात्कार होता है वह भी विषयवती प्रवृत्ति ही जाननी चाहिये। ‘‘या हि नासादिदेशेषु दृष्टिः पुंसां स्थिरा भवेत्। स लक्ष्ययोग आख्यातो योगे श्रद्धाकरः परः || इति स्मृतेः’’ शुरुआत में ऐसे छोटे-छोटे लक्ष्यों में वृत्ति स्थिर करने से हिम्मत बढ़ जाती है और भरोसा हो जाता है कि मैं कर सकता हूँ। फिर आगे परमेश्वर जैसे सूक्ष्म विषय में भी एकाग्रता करने का साहस हो सकता है। यह लक्ष्ययोग है।
इसी प्रकार अब अगले सूत्र में एक और उपाय बतायेंगे —
विशोका वा ज्योतिष्मती ॥ १.३६ ॥
विशोका= शोकरहित; वा= अथवा; ज्योतिष्मती= प्रकाशवाली (प्रवृत्ति उत्पन्न होकर मन की स्थिति को बाँधनेवाली होती है) |
अथवा शोकरहित और ज्योतिष्मती – प्रकाशवाली (प्रवृत्ति भी मन की स्थिति को बाँधने वाली होती है) ।
सूत्र में ‘उत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धनी’ — ‘उत्पन्न हुई मन की स्थिति को बाँधनेवाली होती है।’ इतना वाक्य शेष है , इसलिये इतना वाक्य और जोड़ लेना चाहिये। विशोका माने सुखमय (सात्विक) अभ्यास से जिसका शोक (दुःख) अर्थात रजोगुण का परिणाम दूर हो गया है। ज्योतिः =सात्विक प्रकाश। ज्योतिष्मती प्रवृत्ति=सात्विकप्रकाश जिसमें अधिक या श्रेष्ठ हो, वह प्रवृत्ति ज्योतिष्मती कहलाती है। ‘तरति शोकम् आत्मवित्’ (छा. उ. ७/१/३) इति, “आत्मज्ञानी दु:खों से पार हो जाता है।“
जिस प्रकार पूर्वोक्त विषयवती प्रवृत्ति उत्पन्न होकर मन को स्थिर कर देती है, वैसे ही ‘विशोका ज्योतिष्मती’ नामवाली प्रवृत्ति भी उत्पन्न होकर अन्य समस्त वृत्तियों को रोक कर चित्त को स्थिर कर देती है।
पूर्व सूत्र में कहा गया था कि विषयवती प्रवृत्ति पञ्च ज्ञानेन्द्रियों में संयम करने से होती है वैसे ही यहाँ ज्योतिष्मती प्रवृत्ति के लिये हृदय और आज्ञाचक्र में ध्यान करने का विधान है।
रेचक प्राणायाम के द्वारा हृदय के मध्य अष्टदल कमल के ऊर्ध्वमुख होकर खिलने पर सूर्य, इन्दु, ग्रह तथा मणिप्रभा आदि के नाना रूपों में ज्योति का दर्शन होता है।
‘‘अनाहतस्य शब्दस्य तस्य शब्दस्य यो ध्वनिः।
ध्वनेरन्तर्गतं ज्योतिर्ज्योतिरन्तर्गतं मनः ॥४॥
यन्मनस्रिजगत्सृष्टिस्थितिव्यसनकर्मकृत्।
तन्मनो विलयं याति तद्विष्णोः परमं पदम्॥५॥ मण्डलब्राह्मणोपनिषद् पञ्चमं ब्राह्मणम् ||’’
अनाहत शब्द और उस शब्द के अन्दर जो ध्वनि होती है, उस ध्वनि के अन्तर्गत ज्योति रहती है और ज्योति के अन्तर्गत मन होता है ॥ जो मन इस त्रिजगत् की उत्पत्ति, स्थिति और संहार रूप कर्म का सम्पादन करता है, वही मन जिसमें विलय होता है, वह विष्णु का परम पद है ॥
(‘हं’ ‘सः’ सोऽहम् ) यह अजपा गायत्री मन्त्र है।
‘‘हकारेण बहिर्याति सकारेण विशेत्पुनः ।
हंसहंसेत्यमुं मन्त्रं जीवो जपति सर्वदा ॥३१॥ योगचूडामण्युपनिषद्’’
श्वास ‘स’ कार ध्वनि (वायु) के माध्यम से भीतर और ‘ह’ कार के साथ बाहर आती है। इस तरह यह जीव हंस-हंस (हंसमंत्र) का जप सदैव करता रहता है।
‘‘अस्यैव जपकोट्यां नादमनुभवति एवं सर्वं हंसवशान्नादो दशविधो जायते । चिणीति प्रथमः । चिञ्चिणीति द्वितीयः। घण्टानादस्तृतीयः । शङ्खनादश्चतुर्थम्। पञ्चमस्तन्वीनादः । षष्ठस्तालनादः । सप्तमो वेणुनादः। अष्टमो मृदङ्गनादः। नवमो भेरीनादः। दशमो मेघनादः ॥१६॥ हंसोपनिषद्’’
हंस मन्त्र के (सोऽहम् मंत्र के) अनुष्ठान से अनेक प्रकार के फल होते हैं। इसी मन्त्र के एक करोड़ जप पूरे होने पर दस प्रकार के नाद का अनुभव होता है। पहला नाद चिणी , दूसरा नाद है चिञ्चिणी, तीसरा घण्टानाद, चौथा शङ्खनाद, पाँचवां तन्त्रीनाद, छठा है तालनाद, सातवाँ वेणुनाद, आठवाँ मृदङ्गनाद, नवमाँ भेरीनाद, दशम मेघनादः । नवम से आगे बढ़कर दशम का ही अभ्यास करना चाहिए।
‘‘आनन्दलक्षणमनाहतनाम्नि देशे नादात्मना परिणतं तव रूपमीशे ।
प्रत्यङ्मुखेन मनसा परिचीयमानं शंसन्ति नेत्रसलिलैः पुलकैश्च धन्याः ॥१९॥ कालिदास कृत अम्बास्तवः’’
और आज्ञाचक्र में ध्यान करने पर इसीको शाम्भवी मुद्रा कहते हैं।
‘‘अन्तर्लक्ष्यं बहिर्दृष्टिः निमेषोन्मेषवर्जिता ।
एषा सा शाम्भवी मुद्रा सर्वतन्त्रेषु गोपिता ॥’’
योग में ये पांच प्रमुख मुद्राएं हैं। १.) खेचरी मुद्रा (मुख के लिए), २.) भूचरी मुद्रा (नाक के लिए), ३.) चांचरी मुद्रा (आंख के लिए), ४.) अगोचरी मुद्रा (कान के लिए), ५.) उन्मनी मुद्रा (सहस्रार के लिये) योगासन, मुद्रा और प्राणायाम की अनेक विधियाँ हैं परन्तु वे सब गुरुमुख से ही प्रयोगात्मक रूप से सीखनी चाहिये , किताबें पढ़कर नहीं। इसीलिये इनके बारे में नहीं लिखा है।
अब मन को स्थिर करने का चौथा उपाय बतलाते हैं।
वीतरागविषयं वा चित्तम् ॥ १.३७ ॥
वीतराग-विषयम्= रागरहित महापुरुषों के चित्त का ध्यान करनेवाला; वा = अथवा; चित्तम्=चित्त (मनकी स्थिति को बाँधनेवाला होता है) इस सूत्र में भी ‘मनसः स्थितिनिबन्धनी’ मन की स्थिति बाँधनेवाला होता है — इतना वाक्य मिलाने से सूत्र का अर्थ पूरा होता है।
जिन महान योगियों का चित्त अर्थात अंतःकरण राग मुक्त हो गया है, जिन्होंने विषयों की अभिलाषा को पूर्णतया छोड़ दिया है, जिसके कारण उनके चित्त से अविद्या आदि क्लेशों के संस्कार समाप्त हो गये हैं, ऐसे योगियों के चित्त का आश्रय लेने से तथा उनके चित्त में एकाग्रता बनाने से भी साधक का चित्त सात्विक, निर्मल एवं शांत होकर सुगमता से एकाग्र हो जाता है। अथवा एक अर्थ यह भी हो सकता है कि — साधक यदि क्रमशः विषय राग से रहित हो जाय और पूर्ण वैराग्य की स्थिति को प्राप्त कर ले तो भी मन की स्थिति को बाँधने में समर्थ हो जाता है। वीतराग भगवान सनक,सनन्दनादि, भगवान वशिष्ठ, भगवान् कृष्णद्वैपायन व्यास, शुकदेव और शंकराचार्य आदि की आज्ञाचक्र में धारणा करने से, उनके चित्त का आलम्बन करने से ज्ञान-वैराग्य की सिद्धि हो जाती है। जैसे कामुक व्यक्ति का चिन्तन करने से चित्त कामुक हो जाता है वैसे ही निर्मल साधुपुरुष का चिन्तन करने से चित्त निर्मल हो जाता है। इस प्रकार यह शुभ वासनायोग विरुद्धवासनाओं निवर्त्तक है।
‘‘सत्संगत्वे निस्संगत्वं, निस्संगत्वे निर्मोहत्वं।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः ॥९॥’’
सत्संग से निःसंगता (वैराग्य) की प्राप्ति होती है । निःसंगता से मोह ममता (आसक्त्ति ) नष्ट होती है । आसक्ति के नष्ट होते ही अज्ञान मिट जाता है । अज्ञान नष्ट होते ही मन निश्चल हो जाता है । शान्त और स्थिर मन वाला मनुष्य ही जीवन – मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जाता है । शान्त मन से ही आप ध्यान के अधिकारी बनते हैं। और फिर वह इसी जीवन में मुक्ति प्राप्त कर लेता है। ॥९॥
‘‘विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति।।२.७१।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग करके स्पृहारहित, ममतारहित और अहंकाररहित होकर आचरण करता है, वह शान्तिको प्राप्त होता है।
‘‘विहाय पौरुषं यो हि दैवमेवावलम्बते ।
प्रासादसिंहवत् तस्य मूर्ध्नि तिष्ठन्ति वायसा: ।।५।।’’
जो व्यक्ति निश्चय से पुरुषार्थ (उद्यम,परिश्रम) छोड़कर भाग्य का ही सहारा लेते हैं। ऐसे व्यक्ति महल के द्वारा पर बने हुए नकली सिंह (शेर) की तरह होते हैं , उनके सिर पर कौए निर्भीक होकर बैठते हैं। इसलिये संकटों से बचाव का विकल्प आरम्भ में ही सोच लेना चाहिए। घर में आग लग जाने पर कुआ खोदना उचित नहीं है। अब चित्त की एकाग्रता का अन्य पाँचवां उपाय अगले सूत्र में बतलाते हैं।
स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनं वा ॥ १.३८ ॥
स्वप्न-निद्रा-ज्ञान-आलम्बनम् = स्वप्नज्ञान और निद्राज्ञान का आलम्बन करनेवाला; वा = अथवा (चित्त भी मन की स्थिति को बांधने वाला होता है।) अथवा स्वप्न जन्य ज्ञान और निद्रा जन्य ज्ञान को आश्रय करनेवाला चित्त मनकी स्थिति को बाँधनेवाला होता है।
‘चित्तं मनसः स्थितिनिबन्धनम्’ “चित्त मनकी स्थिति को बाँधनेवाला होता है।” इतना वाक्य मिलाने से सूत्र का अर्थ पूरा होता है। इस सूत्र में वासनायोग का ही अवान्तर भेद बताते हैं, जिस प्रकार स्वप्न में तमोगुण के कारण वृत्तियाँ अन्तर्मुख होतीं हैं इसी प्रकार ध्यान की अवस्था में तम के स्थान पर सत्वगुण से वृत्तियों को अन्तर्मुख करना चाहिये और जिस प्रकार निद्रा में तमोगुणकी अधिकता से अभावकी प्रतीति होती है, उसी प्रकार ध्यान में सत्वगुण की प्रधानता से एकाग्रता उत्पन्न करनी चाहिये , जिससे वस्तु का यथार्थ ज्ञान प्राप्त हो। स्वप्न शब्द से यहाँ सात्विक स्वप्न और निद्रा शब्द से सात्विक निद्रा का अर्थ ग्रहण करना चाहिये।
‘‘ब्रह्माद्यं स्थावरान्तं च प्रसुप्तं यस्य मायया ।
तस्य विष्णोः प्रसादेन यदि कश्चित् प्रमुच्यते ॥
चराचरं लय इव प्रसुप्तम् इह पश्यताम् ।
किं मृषा व्यवहारेषु न विरक्तं भवेन् मनः ॥’’
ब्रह्मा से लेकर स्थावर पर्यन्त सभी जीव जिसकी माया से प्रसुप्त है , उस विष्णु की कृपा से ही कोई मुक्त होता है। यहाँ इस चराचर को लय की भाँति प्रसुप्त देखनेवाले पुरुष का मन मिथ्या व्यवहार में विरक्त क्यों न हो अर्थात अवश्य हो जाता है।
‘‘तत्सर्वं चित्तवीर्यस्य संकल्पस्य विजृम्भितम् ।
दीर्घस्वप्नमिमं विद्धि दीर्घं वा चित्तविभ्रमम् ॥ २८ ॥’’
यह सब मन की इच्छा या ऊर्जा की अभिव्यक्ति है, और आपको इसे या तो एक लंबे सपने के रूप में जानना चाहिए या मन की लंबी भ्रांति।
‘‘दीर्घं वापि मनोराज्यं संसारं रघुनन्दन ।
प्रबोधमेष्यसि यदा परमात्मेच्छया स्वया ॥ २९ ॥
द्रक्ष्यसि त्वं तदा सम्यगिदमर्कोदये यथा ।
स्वप्नसंकल्पजालेन यथान्यैव जगत्स्थितिः ॥ ३० ॥’’ योगवासिष्ठः / प्रकरणम् ६ (निर्वाणप्रकरणस्य पूर्वार्धम्)/सर्गः ०२८’’
हे रघुनन्दन ! अपनी ही कल्पना के विशाल राज्य का प्रदर्शन करानेवाली , इस दुनिया को जानो, और जब आप अपने भगवान की कृपा से इस दुनियाँ की सच्चाई को अच्छी तरह से समझ जाएंगे, तो कुछ भी नहीं होगा। सर्वत्र शान्ति प्रसरित हो जायेगी। तब आप पूरी तरह से इस को उतने ही स्पष्ट रूप से देखेंगे जैसे उगते सूरज की रोशनी में, सब चीजें साफ-साफ दिखतीं हैं और तब हम जानते हैं कि यह सब आपके सपने या इच्छा की रचना के जैसा ही दीखेगा।
तृणादि चतुरास्यान्तं भूतग्रामं चतुर्विधम् ।
चराचरं जगत्सर्वं प्रसुप्तं यस्य मायया ॥ १,२३२.६ ॥
तस्य विष्णो प्रिसादेन यदि कश्चित्प्रबुध्यते ।
स निस्तरति संसारं देवानामपि दुस्तरम् ॥ १,२३२.७ ॥ गरुडपुराणम्’’
तृणसे लेकर चतुरानन ब्रह्माजी तक, जो चार प्रकारका प्राणिसमुदाय है, वह अथवा समस्त चराचर जगत् जिनकी मायासे सुप्त हो रहा है, उन भगवान् विष्णु की कृपासे यदि कोई जाग उठता है – ज्ञानवान् हो जाता है तो वही देवताओंके लिये भी दुस्तर इस संसार- सागरको पार कर जाता है ।
{एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी॥
जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा॥}
इस जगत रूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपंच (मायिक जगत) से छूटे हुए हैं। जगत में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए, जब सम्पूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाए॥
‘‘या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।२.६९।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
सम्पूर्ण प्राणियों की जो रात (परमात्मासे विमुखता) है, उसमें संयमी मनुष्य जागता है, और जिसमें सब प्राणी जागते हैं (भोग और संग्रहमें लगे रहते हैं), वह तत्त्वको जाननेवाले मुनिकी दृष्टिमें रात है।
जैसे कि विज्ञान भैरव तंत्र में भगवान शिव ने ध्यान या आत्म-साक्षात्कार के ११२ विभिन्न तरीके बताए हैं और पाञ्चरात्र तथा यामलादि ग्रन्थों अनगिनत उपाय बताये गये हैं उनमें से छांट कर महर्षि पतञ्जलि ने यहाँ केवल पाँच उपायों का निदर्शन किया है इनमें से कोई भी उपाय अपनाकर एकाग्रता की सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। क्योंकि मनुष्यों की रुचि भिन्न-भिन्न होने से जिस प्रक्रिया में जिसकी अधिक रुचि हो उसी का वह ध्यान करे — अगले सूत्र में यह बतलाकर प्रवृत्ति के प्रकरण को समाप्त करते हैं।
यथाभिमतध्यानाद्वा ॥ १.३९ ॥
यथा-अभिमत-ध्यानात् = जिसको जो अभिमत हो, उसके ध्यान से (मन की स्थिति बँध जाती है।) वा=अथवा। पहले बताई हुई विधियों में से जिसको जो इष्ट हो (जो भी अच्छी लगे) उसके ध्यान से भी मन स्थिर हो जाता है।
इस सूत्र में ध्यानयोग का निरूपण किया गया है। यथाभिमत से तात्पर्य है कि चाहे बाहर ज्योति,चन्द्रादि और शिव,राम, कृष्णादि किसी मनपसन्द देवता की मूर्तियों में ध्यान करें या अन्दर नाड़ी और चक्रों में ध्यान करें। शरीर के अन्दर कहाँ किसका ध्यान करना इसका विस्तृत विवेचन वराह पुराण में दिया है। बहुत विस्तार हो जाने के भय से यहां नहीं लिखा है।
मनुष्यों की रुचियाँ अलग-अलग होतीं हैं , इसलिये जिसकी जिसमें शास्त्रीय मर्यादानुसार सात्विक श्रद्धा हो , उसमें ध्यान लगाने से चित्त एकाग्र हो जाता है। इस प्रकार जब चित्त में एकाग्रता की योग्यता प्राप्त हो जाय तब उसको जहाँ चाहें लगा सकते हैं।
‘‘ त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति।
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च।।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।। ७।। (शिवमहिम्न स्तोत्र)’’
हे परमपिता! आपको पाने के लिए अनगिनत मार्ग हैं – विविध प्राणी सत्य तक पहुंचने के लिए विभिन्न वैदिक पद्धतियों का अनुसरण करते हैं। जैसे कि वेदमार्ग, सांख्यमार्ग, योगमार्ग, पाशुपत, शैवमार्ग, वैष्णव मार्ग, आदि। लोग अपनी रुचि के अनुसार किसी एक मार्ग को पसंद करते है। मगर अन्ततोगत्वा ये सभी मार्ग, जैसे अलग अलग नदियों का पानी बहकर समुद्र में जाकर मिलता है, वैसे ही, हर मार्ग आप तक ही पहुंचता है। सचमुच, किसी भी मार्ग का अनुसरण करने से आपकी प्राप्ति हो सकती है।
‘‘त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहः।
त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च।।
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रति गिरं।
न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत् त्वं न भवसि।। २६।। शिवमहिम्न: स्तोत्रं ||’’
आप ही सूर्य, चन्द्र, पवन, अग्नि, जल, आकाश, एवं धरती हैं। आप ही आत्मा भी हैं। हे देव! हमें ऐसा कुछ भी ज्ञात नहीं जो आप न हों। इस प्रकार इस श्लोक में जैसे भगवान शिव की अष्ट मूर्तियों का वर्णन किया गया है , वैसे ही सौन्दर्य लहरी में भगवती शिवा की विश्वरूपता का वर्णन किया है।
‘‘मनस्त्वं व्योमत्वं मरुदसि मरुत्सारथिरसि ।
त्वमापस्त्वं भूमिस्त्वयि परिणतायां न हि परम् ॥
त्वमेव स्वात्मानं परिणमयितुं विश्ववपुषा ।
चिदानंदाकारं शिवयुवति भावेन बिभृषे ॥३५॥ सौंदर्य लहरी ||’’
मन तू है, आकाश तू है, वायु तू है, अग्नि तू है, जल तू है, पृथ्वी तू है, और तू ही जगत् है, हे माता! संसार में तेरे सिवा कुछ भी नहीं है, पर अपने रूप को ब्रह्माण्ड के रूप में परिणत करने के लिए , आप शिव की पत्नी की भूमिका निभाते हैं, और हमारे सामने शाश्वत चिदानन्द ईश्वरीय सुख के रूप में प्रकट होते हैं।
‘‘भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।७.४।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा मन, बुद्धि और अहंकार – यह आठ प्रकार से विभक्त हुई मेरी प्रकृति है।
‘‘मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।७.७।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
ऐसा होनेके कारण मुझ परमेश्वरसे परतर ( अतिरिक्त ) जगत का कारण अन्य कुछ भी नहीं है अर्थात् मैं ही जगत का एकमात्र कारण हूँ। हे धनंजय क्योंकि ऐसा है इसलिये यह सम्पूर्ण जगत् और समस्त प्राणी मुझ परमेश्वरमें दीर्घ तन्तुओंमें वस्त्रकी भाँति तथा जैसे सूतकी मणियाँ सूतके धागेमें पिरोयी हुई होती हैं, ऐसे ही यह सम्पूर्ण जगत् मेरेमें ही ओत-प्रोत है। सूत्रमें मणियोंकी भाँति पिरोया हुआ अनुस्यूत अनुगत बिंधा हुआ गूँथा हुआ है।
‘‘या सृष्टिः स्रष्टुराद्या वहति विधिहुतं या हविर्या च होत्री
ये द्वे कालं विधत्तः श्रुतिविषयगुणा या स्थिता व्याप्य विश्वम्।
यामाहुः सर्वबीजप्रकृतिरिति यया प्राणिनः प्राणवन्तः
प्रत्यक्षाभिः प्रसन्नस्तनुभिरवतु वस्ताभिरष्टाभिरीशः ॥ १ ॥अभिज्ञान शाकुन्तलम्’’
जिस सृष्टि को स्रष्टा ने सबसे पहले बनाया, (अर्थात जल) उसके बाद वह अग्नि जो विधि के साथ दी हुई हवन सामग्री ग्रहण करता है और वह होता (हवन करनेवाला) जिसे यज्ञ करने का काम मिला है, फिर चन्द्र और सूर्य जो दिन और रात का समय निर्धारित करते हैं तथा वह आकाश जिसका गुण शब्द हैं और जो संसार भर में रमा हुआ है, तदनन्तर वह पृथ्वी जो सब बीजों को उत्पन्न करने वाली बताई जाती है, और वह वायु जिसके कारण सब जीव जी रहे हैं अर्थात् उस आद्यसृष्टि जल, अग्नि, होता, (माने कर्ता,यजमान) सूर्य, चन्द्र, आकाश, पृथ्वी और वायु इन आठ प्रत्यक्ष रूपों में जो भगवान शिव सबको दिखाई देते हैं, वे शिव आप लोगों का कल्याण करें।
‘‘आकाशस्याधिपो विष्णुरग्नेश्चैव महेश्वरी।
वायोः सूर्यः क्षितेरीशो जीवनस्य गणाधिपः॥ (कपिल तन्त्र)’’
अर्थात् आकाश तत्व के अधिष्ठाता विष्णु, अग्नि तत्व की अधिष्ठात्री देवी दुर्गा, वायु तत्व के अधिष्ठाता सूर्य, पृथ्वी तत्व के अधिष्ठाता शिव और जल तत्व के अधिष्ठाता गणेश हैं।
करि मज्जनु पूजहिं नर नारी। गनप गौरि त्रिपुरारि तमारी।।
रमा रमन पद बंदि बहोरी। बिनवहिं अंजुलि अंचल जोरी।। रामचरितमानस ||
स्नान करके सब नर-नारी गणेशजी, गौरीजी, महादेवजी और सूर्य भगवान की पूजा करते हैं॥ फिर लक्ष्मीपति भगवान विष्णु के चरणों की वंदना करके, दोनों हाथ जोड़कर, आँचल पसारकर विनती करते हैं।
इस प्रकार चित्त को एकाग्र करने के उपाय बतलाकर अगले सूत्र में उनका फल बतलाते हैं।
परमाणु परममहत्त्वान्तोऽस्य वशीकारः ॥ १.४० ॥
परमाणु-परम-महत्त्व-अन्त: = परमाणु (जो सबसे ज्यादा सूक्ष्म है उसे परमाणु कहते हैं) और परम-महत्त्व (सबसे बढ़कर महान) पदार्थों पर्यन्त; अस्य = पूर्वोक्त उपायों से स्थित हुए चित्त का; वशीकारः = वशीकार हो जाता है।
पूर्वोक्त उपायों से स्थिर हुए चित्त का सूक्ष्म पदार्थों में परमाणु पर्यन्त और महान, परम बृहत् पदार्थों में (आकाश) पर्यन्त वशीकार हो जाता है ।
अब सिद्धियोग का वर्णन करते हैं।
‘‘प्राणस्पन्दनिरोधाद्यैरुपायैर्दृढता परा।
सिद्धियोगो भवेदत्र योग: सिद्धिकरः परः॥’’
समाधि और सिद्धि का अर्थ है प्राण और मन का स्थिर हो जाना। जब प्राण और मन स्थिर हो जाते हैं तब इन्द्रियाँ भी स्थिर हो जाती हैं और ऊपर बतलाये हुए उपायों से चित्त में एकाग्र होने की योग्यता प्राप्त हो जाती है, तब वह पूर्णतया वश में हो जाता है और छोटे-से-छोटे तथा बड़े-से-बड़े विषय में बिना रुकावट के लगाया जा सकता है। फिर अन्य किसी उपाय की आवश्यकता नहीं रहती। सूक्ष्म विषयों की अवधि परमाणु है और बृहत् विषयों की अवधि आकाश है। जब इन दोनों में चित्त स्थित हो जाता है, तब स्थिरता चित्त के वशीभूत हो जाती है अर्थात इच्छानुसार चित्त को स्थिर किया जा सकता है। इस प्रकार दोनों कोटियों में जाते हुए चित्त का जो रुकावट का न होना है, वह चित्त का परम वशीकार कहलाता है। इस वशीकार से परिपूर्ण हुआ योगीका चित्त पुनः किसी अभ्यास-साध्य-स्थिति-उपाय की अपेक्षा नहीं रखता।
सङ्गति — इस प्रकार इन उपायों द्वारा संस्कृत हुए चित्त की किस स्वरूपवाली, किस विषयवाली और कैसी समापत्ति होती है ? — यह बतलाते हैं। (“समापत्ति” शब्द “समाधि” का पर्याय है) अब अगले सूत्र में लययोग का वर्णन किया जायगा।
क्षीणवृत्तेरभिजातस्येव मणेर्ग्रहीतृग्रहणग्राह्येषु तत्स्थतदञ्जनतासमापत्तिः॥१.४१॥
क्षीण-वृत्ते:= जिसकी राजस-तामस वृत्तियाँ क्षीण हो गयी हैं (ऐसे स्वच्छ चित्त की); अभिजातस्य-मणे: इव = उत्तम जाति की (अति निर्मल) स्फटिक मणि के समान; ग्रहीतृ = अस्मिता; ग्रहण = इन्द्रिय; ग्राह्येषु = स्थूल भूतादि पदार्थ तथा तन्मात्रा तक सूक्ष्म विषयों में, तत्स्थ = एकाग्र स्थित होकर तदञ्जनता = तद्-अञ्जनता तद्-आकारता, उन्हीं के सदृश स्वरूप को प्राप्त हो जाना; {उसी (विषय के) स्वरूप को प्राप्त हो जाना} समापत्तिः = समापत्ति (तदाकार होना) है। तद्-आकारापत्ति = (उसी आकर को धारण कर लेना) ही समापत्ति कहलाती है।
व्याख्या — अभ्यास और वैराग्य से जिसकी समस्त राजस-तामस बाह्य वृत्तियाँ क्षीण हो चुकी हैं, ऐसे स्फटिक मणि की भाँति निर्मल चित्त का; जो ग्रहीता अर्थात् अस्मिता, ग्रहण अर्थात् इंद्रियां तथा ग्राह्य अर्थात् पंचभूत और चराचर विश्व के विषयों – में एकाग्र स्थित होकर (तन्मय होकर) उसी विषय के स्वरूप को प्राप्त हो जाना सम्प्रज्ञात समाधि अर्थात् चित्त का विषय के साथ तदाकार (तद्रूप) हो जाना माने लय हो जाना है । इसीको सम्प्रज्ञात लक्षणवाला योग भी कहते हैं।
इस सूत्र में महर्षि ने ग्रहीतृ, ग्रहण और ग्राह्य के भेद से सम्पूर्ण योग का विषय इकठ्ठा करके कह दिया है।
यहाँ ऊपर बताये हुए उपायों से स्वच्छ हुए चित्त की उपमा अति-निर्मल स्फटिक अर्थात विल्लोरी काँच से दी गयी है। जिस प्रकार स्फटिक के सामने जैसी वस्तु लाल,नीली अथवा पीले वर्ण की रखी जाय तो वह वैसा ही प्रतीत होने लगता है। इसी प्रकार जब चित्त की सब प्रकार की राजस-तामस वृत्तियाँ क्षीण हो जातीं हैं, तब वह सत्व के प्रकाश और सात्विकता के बढ़ने से इतना स्वच्छ हो जाता है कि उसको जिस वस्तु में लगावें उसके तदाकार हो कर उसको साक्षात् करा देता है, चाहे वह ग्राह्य अर्थात स्थूल अथवा सूक्ष्म तन्मात्रादि विषय हो, चाहे ग्रहण अर्थात इन्द्रियाँ और अहंकार और चाहे ग्रहीतृ अर्थात अस्मिता हो। यह वस्तु का साक्षात् कराना इस प्रकार होता है कि वह उस वस्तु के स्वरूप को धारण कर लेता है। चित्त के इस प्रकार तदाकार (वस्तु-आकार) हो जाने का नाम समापत्ति अर्थात सम्प्रज्ञात-समाधि है।
‘‘सनस्य मूलं हृदयं सनस्य सनस्य बीजं सनकादि वन्द्यम्।
सनेन वेद्यं सनके प्रतिष्ठितं सनातनं त्वां शरणं प्रपन्नाः || १ ||
सनेन ब्रह्मा स्वसुतान् ससर्ज विप्रान सनाढ्यान् सनकादि संज्ञान्।
धर्म प्रचाराय सनाढ्य पुत्रान् सनातनोव्यात्सततं सनातनान् || २ ||’’
इस समाधि में आप शुक, प्रह्लाद, नारद, नृसिंह, नारायण और शिव आदि किसी से भी एकाकार हो सकते हैं।
अब अगले सूत्र में इसी समापत्ति के चार भेद बताते हैं।
तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः ॥ १.४२ ॥
तत्र = उन (समापत्तियों में से) शब्द-अर्थ-ज्ञान-विकल्पै: = शब्द,अर्थ और ज्ञान — इन तीनों के विकल्पों से (भेदों से) संकीर्णा = {मिश्रिता} मिली हुई; सवितर्का-समापत्तिः = सवितर्क समापत्ति है। तर्क शब्द का प्राचीन अर्थ शब्दमय चिन्ता है। वितर्क = विशेष तर्क। जिस समाधि प्रज्ञा में वितर्क रहता है, वह सवितर्का समापत्ति है। समापत्ति अर्थात् समाधि अर्थात् वितर्कयुक्त समाधि कहलाती है ।
उन समापत्तियों में से शब्द, अर्थ और ज्ञान — इन तीनों के विकल्पों (भेदों) से मिली हुई (अर्थात् इन तीनों भिन्न-भिन्न पदार्थों का अभेद रूपसे जिसमें भान होता है) वह सवितर्क समापत्ति होती है अर्थात् सवितर्क समाधि अर्थात् वितर्कयुक्त समाधि कहलाती है ।
शब्द — सबसे पहले शब्द किसको कहते हैं, इसको दृष्टान्त देकर समझाते हैं। जो कर्णेन्द्रिय से ग्रहण किया जा सके, अथवा जिससे किसी अर्थ का ज्ञान हो जैसे “गौ”।
अर्थ — जाति आदि, जैसे ‘गौ’ — चार पैर, दो सींग, गलकम्बल (गले में लटकती मांस की ललरी) और पूँछवाला पशु-विशेष।
ज्ञान — इन शब्द और अर्थ दोंनों का प्रकाश करनेवाली बुद्धिवृत्ति जो शब्द ‘गौ’ और उसके अर्थ ‘गौ’ को मिलाकर बतलाती है कि जो ‘गौ’ शब्द है उसीका यह ‘गौ’ पशु-विशेष अर्थ है।
‘‘शब्दार्थधीविकल्पैश्च सुतरां भिन्नरूपिभिः।
संकीर्णा सा समापत्तिस्सवितर्केति कथ्यते ॥ ७२ ॥योगसूत्रसारः’’
शब्द, अर्थ और ज्ञान ये तीनों भिन्न हैं, परन्तु निरन्तर अभ्यास के कारण मिले हुए प्रतीत होते हैं। जब ‘गौ’ में चित्त को एकाग्र किया जाय, तब समाधिस्थ चित्त में ‘गौ’ अर्थ ‘गौ’ शब्द और ‘गौ’ ज्ञान के भेदों से वह मिला हुआ भासे अर्थात जब तीनों में तदाकार रहे, तब उस समापत्ति को सवितर्क समापत्ति कहेंगे। इसीको सविकल्प भी कहते हैं; क्योंकि इसमें शब्द, अर्थ और ज्ञान — इन तीनों का विकल्प (भेद) बना रहता है जब शब्द और ज्ञान का विकल्प जाता रहे और केवल ‘गौ’ अर्थ ही चित्त में भासता रहे, तब वह निर्वितर्क (वितर्करहित) समापत्ति कहलाती है।
सवितर्क से विपरीत लक्षण वाली समाधि को निर्वितर्क समाधि कहते हैं। अब इस निर्वितर्क समापत्ति का लक्षण अगले सूत्र में बतलाते हैं।
स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का ॥ १.४३ ॥
स्मृति-परिशुद्धौ = स्मृति के शुद्ध हो जानेपर (अर्थात् आगम, अनुमान, ज्ञानके कारणीभूत शब्दसंकेत स्मरण के निवृत्त होनेसे) स्वरूपशून्या इव = स्वरूपसे शून्य जैसी (अर्थात् अपने ग्रहण आकार ज्ञानात्मक रूप से रहित चित्तवृत्ति); अर्थमात्रनिर्भासा = अर्थमात्र-सी भासनेवाली (अर्थात् केवल ग्राह्य-रूप अर्थमात्र को ही प्रकाश करनेवाली); निर्वितर्का = निर्वितर्क समाधि है ।
‘‘स्मृतेर्विपरिशुद्धौ या वस्तुमात्रैव भासते।
निर्वितर्केति नाम्ना सा समापत्तिर्निगद्यते ॥ ७५॥योगसूत्रसारः’’
स्मृति के शुद्ध हो जानेपर (अर्थात् आगम, अनुमानके कारणीभूत शब्द-संकेत स्मरण के निवृत्त होनेसे) अर्थमात्र-सी भासनेवाली अपने (ग्रहण आकार ज्ञानात्मक) रूप से रहित (चित्तवृत्ति) निर्वितर्क समापत्ति है ।
न तो सत के अवयव होते हैं और न विज्ञान के अवयव होते हैं इसलिये कहा कि स्मृति के हट जाने के बाद , शब्द और ज्ञान से शून्य केवल अर्थमात्र {ओंकार के अर्थमात्र का ध्यान जिसमें रहता है} (ध्येयमात्र) जिसमें शेष रहता है वह निर्वितर्क समापत्ति है। जिसको “सवितर्क और निर्वितर्क ” शब्दों द्वारा कहा जाता है , उसी योग को “सविकल्प और निर्विकल्प” शब्दों द्वारा भी कहा जाता है। ध्यान जब सूक्ष्म होता चला जाता है तब नाम-रूप छूटते चले जाते हैं और सच्चिदानन्द शेष रह जाता है। जैसे कोई समुद्र में डूब कर समुद्र ही होगया हो, तब उस समय उसके चित्त की स्थिति को निर्वितर्क या निर्विकल्प कहेंगे।
जैसे यदि कोई E=mc2 का मतलब जानता हो तो उसे सर्वत्र (स्थावर-जङ्गम में) सापेक्षता के सिद्धांतानुसार अणु ऊर्जा शक्ति का ही दर्शन होगा और नाम-रूप का व्यतिरेक हो जायगा।
एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता ॥ १.४४ ॥
एतया-एव = इस सवितर्क और निर्वितर्क समाधियों के वर्णन से ही सविचारा-निर्विचारा च = सविचार और निर्विचार समाधि का भी; सूक्ष्म-विषया = सूक्ष्म विषयों में की जानेवाली; व्याख्याता = व्याख्यान की हुई समझनी चाहिये।
इन पूवोक्त सवितर्क और निर्वितर्क समाधियों के निरूपण से ही सूक्ष्म विषयों में की जानेवाली {सूक्ष्म तन्मात्रा और अहंकार तथा इन्द्रियों में की जानेवाली} सविचार और निर्विचार समाधि का भी व्याख्यान कर दिया गया है, ऐसा समझना चाहिये।
‘‘तथैव भूतसूक्ष्मेषु समापत्तिश्च तादृशी।
सविचारेति विख्याता विषयस्सूक्ष्म एव सः ॥ ७७ ॥ योगसूत्रसारः’’
जब ध्येय कोई सूक्ष्म विषय हो और चित्त उसके देश , काल और निमित्त के विचार से मिला हुआ तद्रूप होकर उसको साक्षात् करावे, तब वह सविचार समापत्ति कहलाती है।
‘‘शान्तादिधर्मशून्या या या सूक्ष्मविषया तथा।
निर्विचारा समापत्तिस्तुरीया चोत्तमा मता ॥ ७८ ॥ योगसूत्रसारः’’
और चित्त जब एकाग्रता के बढ़नेपर देश, काल और निमित्त आदि की स्मृति से शुद्ध होकर {मुक्त होकर} उस सूक्ष्म विषय को केवल धर्मिमात्र स्वरूप से {विशेषण शून्य स्वरूप से} तदाकार होकर प्रकाश करे, तब वह निर्विचार समापत्ति कहलाती है। सवितर्क और निर्वितर्क समापत्ति में स्थूलभूत एकाग्रता के विषय होते हैं जबकि सविचार एवं निर्विचार समापत्ति में सूक्ष्मभूत ध्यान के विषय बनते हैं।
समापत्ति और सम्प्रज्ञात-समाधि पर्यायवाचक शब्द हैं।
भाव यह है कि सविचार समापत्ति में (सूक्ष्म पृथ्वी गन्धतन्मात्र-प्रधान पञ्चतन्मात्राओं से उत्पन्न हुई है और गन्ध इसका धर्म है इत्यादि प्रकार से) कार्य-कारण-भाव का विचार विद्यमान रहता है और निर्विचार में केवल सूक्ष्मभूतों का ही भान होता है, पूर्वोक्त विचार नहीं होता। यही इन दोनों में भेद है।
इस प्रकार स्थूल पदार्थ विषयक सवितर्क-निर्वितर्क और सूक्ष्म पदार्थ-विषयक सविचार-निर्विचार रूप भेद से यह समापत्ति चार प्रकार की है।
ध्यान, सवितर्क तथा सविचार समापत्ति और समाधि में क्या भेद है, इसे स्पष्ट करते हैं।
ध्यान में ध्याता, ध्यान और ध्येय की त्रिपुटि बनी रहती है।
सवितर्क और सविचार समापत्ति में केवल ध्यानविषयक ही शब्द, अर्थ और ज्ञान से मिला हुआ विकल्प रहता है।
समाधि में केवल ध्येय का स्वरूपमात्र ही रह जाता है।
अतः सवितर्क और सविचार समापत्ति ध्यान के बाद की और समाधि से पहले की अवस्था है।
सूक्ष्म विषय कहाँ तक है, {क्या केवल परमाणुओं तक ही है ? नहीं इससे भी आगे है।} यह बात अगले सूत्र में बतलाते हैं।
सूक्ष्मविषयत्वं चालिङ्गपर्यवसानम् ॥ १.४५ ॥
सूक्ष्म-विषयत्वं च = और सूक्ष्म-विषयता; अलिङ्गपर्यवसानम् = किसी में लीन न होनेवाली अथवा लिङ्गरहित मूल-प्रकृति (गुणों की साम्यावस्था) पर्यन्त है। अर्थात् सूक्ष्म विषयता अलिङ्ग प्रकृति पर्यन्त है ।
‘‘तत् सूक्ष्मविषयत्त्वञ्च प्रधानान्तं प्रकथ्यते।
न त्वलिङ्गात् परं किञ्चित् सर्वतत्त्वेषु विद्यते ॥ ७९॥ योगसूत्रसारः’’
सूक्ष्म विषयता (अर्थात् जड़ पदार्थों की सूक्ष्मता) जो सविचार एवं निर्विचार समापत्ति में बतलाये हैं उनकी सूक्ष्म विषयता परमाणुओं में समाप्त नहीं हो जाती किन्तु मूल प्रकृति पर्यन्त अर्थात् मूल प्रकृति तक रहती है।
शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध — इन पाँच तन्मात्राओं से प्रथम आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी नामवाले सूक्ष्मभूत उत्पन्न होते हैं। उसके बाद सूक्ष्मभूतोंसे आकाशादि स्थूलभूत उत्पन्न होते हैं। पाँचों स्थूलभूतोंसे लेकर पाँचों तन्मात्राओं तक सूक्ष्मभूतों की सूक्ष्मता का तारतम्य चला गया है।
अर्थात् पार्थिव-परमाणु तथा इसका कारणभूत गन्धतन्मात्रा, जल-परमाणु तथा इसका कारणीभूत रसतन्मात्रा, अग्नि-परमाणु तथा इसका कारणीभूत रूपतन्मात्रा, वायु-परमाणु तथा इसका कारणीभूत स्पर्शतन्मात्रा, आकाश-परमाणु तथा इसका कारणीभूत शब्दतन्मात्रा एवं पञ्च तन्मात्राओं का कारणीभूत अहंकार, अहंकार का कारणीभूत लिङ्ग-संज्ञक महत्तत्व और महत्तत्व का कारण अलिङ्ग-संज्ञक प्रकृति — ये सब सूक्ष्म विषयों के अन्तर्गत हैं।
इन सबमें से पूर्व-पूर्व कार्य की अपेक्षा से उत्तर-उत्तर कारणीभूत सूक्ष्म हैं। प्रकृति से परे अन्य किसी सूक्ष्म पदार्थ के न होने से प्रकृति में ही सूक्ष्मता की पराकाष्ठा है।
यद्यपि ‘अव्यक्तात्पुरुषः परः’ इस श्रुति से प्रकृति की अपेक्षा पुरुष सूक्ष्म है तथापि पुरुष के अग्राह्य और चेतन होने से प्रकृति में ही सूक्ष्मता की पराकाष्ठा है।
‘‘इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्परः ॥१०॥ कठोपनिषद्’’
”इन्द्रियों से उच्चतर हैं उनके विषय, उन इन्द्रिय-विषयों से उच्चतर है ‘मन’, ‘मन’ से उच्चतर है बुद्धि तथा उससे (बुद्धि से) उच्चतर है ‘महान् आत्मा’।
‘‘महतः परमव्यक्तं अव्यक्तात्पुरुषः परः ।
पुरुषान्न परं किंचित् सा काष्ठा सा परा गतिः ॥११॥ कठोपनिषद् ’’
“उस महान् आत्मा से उच्चतर ‘अव्यक्त’ है, ‘अव्यक्त’ से उच्चतर ‘पुरुष’ है; ‘पुरुष’ से उच्चतर कुछ भी नहीं ː ‘वही’ सत्ता की पराकाष्ठा है, वही यात्रा का परम लक्ष्य (परा गति) है।
जो तत्व कारण में लीन हो जाता है अथवा कारण का बोधन करता है, वह लिङ्ग कहलाता है। अर्थात् स्थूल-भूत और इन्द्रियाँ विशिष्ट-लिङ्ग हैं, सूक्ष्मभूत तन्मात्राऐं और अहंकार अविशिष्ट-लिङ्ग हैं और महत्तत्व केवल लिङ्गमात्र है। ये महतत्त्व आदि अपने-अपने कारण में लीन होने से और अपने कारण-प्रधान को बोधन करने से लिङ्ग हैं। प्रधान-प्रकृति किसीमें लीन न होने से और किसी कारण को बोधन न करने से अलिङ्ग है।
पुरुष और मूल प्रकृति दो ऐसे तत्त्व हैं जिनका कोई उपादान कारण नहीं है अर्थात ये दो तत्त्व किसी से भी नहीं बने हैं, ये नित्य तत्त्व हैं। इन्हें बनाने वाला कोई भी नहीं है। यह जो कुछ दृश्य जगत (संसार) जिस भी रूप में दिख रहा है या अनुभव हो रहा है इसका मुख्य कारण मूल प्रकृति है। ईश्वर इस जगत रचना में सहायक कारण (निमित्त कारण) है।
‘‘मयाऽध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनाऽनेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।९.१०।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
प्रकृति मेरी अध्यक्षतामें सम्पूर्ण चराचर जगत् को रचती है। हे कुन्तीनन्दन ! इसी हेतुसे जगत् का विविध प्रकारसे परिवर्तन होता है।
‘‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते।येन जातानि जीवन्ति।
यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति। तद्विजिज्ञासस्व। तद् ब्रह्मेति। तैत्तिरीयोपनिषद् ||’’
ये समस्त प्राणी जहाँ से उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर ये जिसके द्वारा जीवित रहते हैं तथा तत्पश्चात् ये जिसमें समाविष्ट हो जाते हैं, उसे तुम जानने का प्रयास करो, क्योंकि वह ही है ‘ब्रह्म’।
‘‘प्रधानपुंसोरजयोर्यतः क्षोभः प्रवर्तते ।
नित्ययोर्व्यापिनोश्चैव जगदादौ महात्मनोः ।।७९।।
तत्क्षोभकत्वाद् ब्रह्मांडं सृष्टेर्हेतुर्निरञ्जनः ।
अहेतुरपि सर्वात्मा जायते परमेश्वरः ।। ८०।।
भविष्यपुराणम् /पर्व १ (ब्राह्मपर्व)/अध्यायः ६६’’
‘‘बुद्ध्यादयो विशेषान्ता अव्यक्तादीश्वरेच्छया।
पुरुषाधिधिष्ठितादेव जज्ञिरे मुनिपुंगवाः ॥६॥ सौरपुराणं – अध्यायः २१’’
‘‘तमो रजः सत्त्वमिति प्रकृतेरभवन् गुणाः ।
मया प्रक्षोभ्यमाणायाः पुरुषानुमतेन च ॥ ११.२४.५ ॥ श्रीमद्भागवतपुराणम्’’
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं — उद्धव जी ! मैंने ही जीवों के शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार प्रकृति को क्षुब्ध किया। तब उससे सत्व, रज और तम — ये तीन गुण प्रकट हुए।
‘‘ततः पदं तत्परिमार्गितव्य यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।।१५.४।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
(तदुपरान्त) उस पद का अन्वेषण करना चाहिए जिसको प्राप्त हुए पुरुष पुन: संसार में नहीं लौटते हैं। “मैं उस आदि पुरुष की शरण हूँ, जिससे यह पुरातन प्रवृत्ति प्रसृत हुई है”।
इस प्रकार अनेक श्रुति और स्मृतियों से सिद्ध होता है कि प्रकृति उपादान कारण है और पुरुष निमित्त कारण है। महत्तत्वादि का लय हो जाता है इसलिये वे लिङ्ग कहलाते हैं । ‘‘लयना-ल्लिङ्गमुच्यते” और जिसका लय नहीं होता वह {न लिङ्गम् अलिङ्गं प्रधानम् माने प्रकृति है।}
अब अगले सूत्र में अबतक जो चार समापत्तियाँ बताई हैं वे सबीज समाधि हैं; यह बतलाते हैं।
ता एव सबीजः समाधिः ॥ १.४६ ॥
ता – एव = ये पूर्वोक्त चारों समापत्तियाँ ही; सबीजः समाधि: = सबीज-समाधि कहलातीं हैं।
ये पूर्वोक्त चारों समापत्तियाँ ही सबीज समाधि कहलातीं हैं।
बाह्य अनात्मवस्तु अर्थात् कार्यसहित प्रकृति जो ग्राह्य-ग्रहण और ग्रहीतृरूप है, इसीका नाम बीज तथा आलम्बन (आश्रय) है। इसलिये इसको लेकर होनेवाली समाधि का नाम सबीज, सालम्बन तथा सम्प्रज्ञात समाधि है।
उपर्युक्त चारों समापत्तियाँ सबीज-समाधि कहलाती हैं, क्योंकि सवितर्क और निर्वितर्क समापत्ति तो स्थूल ग्राह्य वस्तु के बीजसहित (आलम्बनसहित = आश्रय सहित) होती है और सविचार तथा निर्विचार सूक्ष्म ग्राह्य वस्तु के बीजसहित (आलम्बनसहित) होती है।
‘‘सबीजोऽयं समाधिस्स्यात् सवितर्कादिभूमिभिः।
बीजस्यान्तो ह्यविद्या स्यात् सम्प्रज्ञातश्च तद्युतः ॥ ८० ॥ योगसूत्रसारः’’
पूर्व सूत्रों में भी यह समझाया जा चुका है कि सवितर्का और निर्वतर्का समापत्ति (समाधि) स्थूल विषयों (पृथ्वी, घड़े, वृक्ष, फूल आदि) में होती है तथा सविचारा और निर्विचारा समाधि सूक्ष्म विषयों जैसे तन्मात्राओं, इंद्रियों एवं उनके विषयों में या फिर मन, अहंकार, बुद्धि या अस्मिता में लगाई जाती है।
सङ्गति — अब इसके आगे निर्विचार समापत्ति इन चारों में सबसे बढ़कर है; उसका फल अगले सूत्र में बतलाते हैं।
निर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसादः ॥ १.४७ ॥
निर्विचार-वैशारद्ये — निर्विचार की वैशारद्य = प्रवीणता = निर्मल होने पर; अध्यात्म-प्रसाद: = अध्यात्म (प्रज्ञा) की निर्मलता होती है।
निर्विचार समाधि की वैशारद्य (प्रवीणता) होने पर अध्यात्म (प्रज्ञा) की निर्मलता होती है। अर्थात् चित्त की स्थिति दृढ़ हो जाती है।
वैशारद्य — “स्वच्छः स्थितिप्रवाहो वैशारद्यम्।” शुद्ध स्थिति का प्रवाह वैशारद्य कहलाता है।
अध्यात्म — ‘‘आत्मनि बुद्धौ वर्तत इत्यध्यात्म’’ जो आत्मा अर्थात् बुद्धि में स्थित रहता है वह अध्यात्म है।
प्रसाद — प्रसन्नता, निर्मलता।
‘तरति शोकम् आत्मवित्’ (छा. उ. ७/१/३)’
आत्मविद् लोग शोक को पार कर जाते हैं। अर्थात् आत्मा को जानने वाला सब दुःखों से पार उतर जाता है ।
‘‘स यो ह वै तत् परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति नास्याब्रह्मवित् कुले भवति।
तरति शोकं तरति पाप्मानं गुहाग्रन्थिभ्यो विमुक्तोऽमृतो भवति ॥९॥ मुण्डकोपनिषद् तृतीयो मुण्डकः द्वितीयः खण्डः’’
वस्तुतः वह जो कि उस ‘परम ब्रह्म’ को जानता है वह स्वयं ‘ब्रह्म’ बन जाता है; उसके कुल में ‘ब्रह्म’ को न जानने वाला या न मानने वाला पैदा नहीं होता। वह शोक से पार हो जाता है, वह पापों से तर जाता है, वह हृद्गुहा की ग्रंथियों से मुक्त होकर अमर हो जाता है।
‘‘आध्यात्मिकः प्रसादस्स्यात्प्रज्ञालोकस्तदा स्फुटः ।
ऋतम्भरा तदा प्रज्ञा सत्यं नित्यं बिभर्ति या ॥ ८२ ॥योगसूत्रसारः’’
बुद्धि में जो प्रसन्नता अर्थात् निर्मलता रहती है, वह अध्यात्म-प्रसाद है। निर्विचार समाधि की उच्चतम अवस्था में रज-तम रूप मल और मोहरूप आवरण का क्षय होने पर प्रकाशस्वरूप बुद्धि का सत्वगुण की प्रधानता से रजस्-तमस् से अनभिभूत (अतिरस्कृत) स्वच्छ स्थिरता-रूप एकाग्र-प्रवाह निरन्तर बहता रहता है। इसीका नाम वैशारद्य है। इससे योगी को प्रकृति-पर्यन्त सब पदार्थों का एक ही काल में साक्षात्कार हो जाता है। इस साक्षात्कार का नाम अध्यात्म-प्रसाद है। इसीको स्फुट-प्रज्ञा-लोक तथा प्रज्ञाप्रासाद भी कहते हैं। श्रीव्यासजी महाराज इस अवस्था का वर्णन इस प्रकार करते हैं —
‘‘प्रज्ञाप्रासादमारुह्य ह्यशोच्यः शोचतो जनान्।
भूमिष्ठानिव शैलस्थः सर्वान् प्राज्ञोऽनुपश्यति ।।’’
प्रज्ञारूपी प्रासाद (महल-अटारी) पर चढ़कर शोक रहित प्राज्ञ योगी शोकमें पड़े जनों को ऐसे देखता है, जैसे पर्वत की सबसे ऊंची चोटी पर खड़ा हुआ पुरुष नीचे पृथ्वी के लोगों को (नीचे और छोटा तथा स्पष्ट) देखता है, इसी प्रकार प्रज्ञा की निर्मलता की चोटी पर चढ़कर शोक की पहुंच से ऊंचा बैठा हुआ प्राज्ञपुरुष शोक में डूबे हुए सारे लोगों को नीचे देखता है। (यहाँ निर्विचार के अन्तर्गत ही आनन्दानुगत और अस्मितानुगत भूमियाँ भी आ गयी हैं।)
सङ्गति — अध्यात्म प्रसाद से जिस प्रज्ञा (बुद्धि) का योगी को लाभ होता है, उसका सार्थक नाम अगले सूत्र में बतलाते हैं —
ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा ॥ १.४८ ॥
ऋतम्भरा = सच्चाई को धारण करनेवाली, अविद्या आदि से रहित; तत्र = उस अध्यात्म प्रसाद के लाभ होने पर; प्रज्ञा = बुद्धि अर्थात् ज्ञान (उत्पन्न) होता है।
अध्यात्म प्रसाद के लाभ होने पर जो प्रज्ञा (समाधिजन्य बुद्धि) उत्पन्न होती है, उसका नाम ऋतम्भरा प्रज्ञा (सच्चाई को धारण करनेवाली अविद्यादि से रहित बुद्धि) है।
निर्विचार समाधि की विशारदता से जन्य अध्यात्म-प्रसाद होने पर जो समाहित-चित्त योगी की प्रज्ञा उत्पन्न होती है, उसका नाम ऋतम्भरा प्रज्ञा है। यह उसका यथार्थ नाम है; क्योंकि ‘ऋत’ नाम सत्य का है और ‘भरा’ माने धारण करनेवाली अर्थात् यह प्रज्ञा सत्य ही को धारण करनेवाली होती है; इसमें भ्रान्ति, विपर्यय-ज्ञान अर्थात् अविद्यादि का गन्ध भी नहीं होता।
इस प्रज्ञा के होने से ही उत्तम योग का लाभ होता है, जैसा कि श्रीव्यासजी ने कहा है —
‘‘आगमेनानुमानेन ध्यानाभ्यास रसेन च।
त्रिधा प्रकल्पयन् प्रज्ञां लभते योगमुत्तमम्।।’’
वेदविहित, श्रवण से, अनुमान (मनन) से और ध्यानाभ्यास में आदर (निदिध्यासन) से इन तीनों प्रकारों से प्रज्ञा का सम्पादन करता हुआ योगी उत्तम योग को प्राप्त करता है।
सत्य और ऋतमें इस प्रकार का भेद समझ लेना चाहिये कि आगम और अनुमान द्वारा जो यथार्थ ज्ञान प्राप्त है अर्थात् Conceptual fact {वैचारिक तथ्य} वह सत्य है। और साक्षात् करने के पश्चात जो यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है अर्थात् Perceptual fact {अवधारणात्मक तथ्य} वह ऋत है। अर्थात् ऋतका अर्थ साक्षात् अनुभूत सत्य है। आत्मसाक्षात्काररूपा प्रज्ञा ही ऋतम्भरा प्रज्ञा है।
सङ्गति — अब अगले सूत्र में आगम और अनुमान-जन्य ज्ञानसे ऋतम्भरा -प्रज्ञाजन्य प्रत्यक्ष ज्ञान की श्रेष्ठता बतलाते हैं।
श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात् ॥ १.४९ ॥
श्रुत-अनुमान-प्रज्ञाभ्याम् = आगम और अनुमान की प्रज्ञा से; अन्य-विषया = इस ऋतम्भरा प्रज्ञा का विषय अलग है; विशेष-अर्थत्वात् = विशेष रूप से अर्थ का साक्षात्कार करने से।
आगम और अनुमान की प्रज्ञा से ऋतम्भरा प्रज्ञा का विषय अलग है, विशेष रूप से अर्थ का साक्षात्कार करने से। अतः इसी ऋतम्भरा प्रज्ञा को प्राप्त करने का विशेष प्रयत्न करना चाहिये।
पदार्थ के दो रूप होते हैं — एक सामान्य, दूसरा विशेष। सामान्य वह है जो उस प्रकार के सब पदार्थों में पाया जाता है और विशेष वह है, जो प्रत्येक व्यक्ति का अपना-अपना रूप है, जिससे एक ही प्रकारके पदार्थों में भी एक- दूसरे से भेद हो सकता है। आगम-जन्य ज्ञान वस्तु के सामान्य रूप को ही विषय करता है, विशेष रूप को नहीं; क्योंकि विशेष के साथ शब्द का वाच्य- वाचक भाव सम्बन्ध नहीं होता है। शास्त्र ने जिस वस्तु के साथ शब्द का संकेत किया है, उस वस्तु को वह शब्द सामान्यरूप से ही बोधन करता है, न कि विशेष रूप से। गो, वृक्षादि शब्दोंके सुनने से गो, वृक्षादिका सामान्य ज्ञान होता है, व्यक्तिविशेष गो, वृक्षादि का विशेष ज्ञान नहीं होता।
इसी प्रकार अनुमान भी सामान्यरूपसे वस्तुका ज्ञान उत्पन्न कराता है, विशेष रूपसे नहीं; क्योंकि अनुमान में लिङ्गसे लिङ्गीका ज्ञान होता है, जहाँ लिङ्गकी प्राप्ति नहीं वहाँ अनुमान नहीं हो सकता, जैसे जहाँ धूम है वहाँ अग्नि है, जहाँ गति है वहाँ प्राप्ति है; जहाँ गति का अभाव है, वहाँ प्राप्ति का अभाव है।
केवल प्रत्यक्ष प्रमाण ही वस्तुके विशेष रूपको दिखलाने में समर्थ होता है; किंतु इन्द्रिय-जन्य प्रत्यक्ष-ज्ञान भी स्थूल वस्तुओं के ही प्रत्यक्ष रूप को दिखला सकता है, न कि सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट अतीन्द्रिय पदार्थों को। पञ्च- तन्मात्राऐं, अहंकार, महत्तत्व, प्रकृति, पुरुष आदि सूक्ष्म पदार्थों में प्रत्यक्ष की भी पहुंच नहीं है। आगम और अनुमान से इनके सामान्य रूप का ही पता लग सकता है, इनके विशेष रूप को नहीं बतला सकते।
‘‘यतः प्रज्ञा विशेषार्था यतस्सूक्ष्मं बिभर्ति सा।
श्रुतानुमानबोधाभ्यां ततो वैविध्यमश्नुते ॥ ८३ ॥ योगसूत्रसारः’’
निर्विचार समाधिकी विशारदता में होनेवाली ऋतम्भराप्रज्ञा से ही इन सूक्ष्म पदार्थों के विशेष रूपका साक्षात्कार हो सकता है, अन्य किसी प्रमाण से नहीं। अतएव यह प्रज्ञा विशेषविषयक होनेसे श्रुत-अनुमान प्रज्ञासे अन्य और उत्कृष्ट है। यही परम प्रत्यक्ष है। यह श्रुत और अनुमान का बीज है, अर्थात् श्रुत और अनुमान इसके आश्रय हैं, न कि यह उनके। वस्तु के यथार्थ स्वरूप को ही आगम बतलाता है और इसीका अनुमान किया जाता है। यहाँ ऋतम्भरा प्रज्ञा को प्रसंख्यान अर्थात् विवेकख्याति के तुल्य समझना चाहिये।
अब इस योगजप्रज्ञाका फल स्थाई होता है यह बात अगले सूत्र में बतलाते हैं।
तज्जः संस्कारोऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धी ॥ १.५० ॥
तत्-जः = उस ऋतंभरा प्रज्ञा से उत्पन्न होने वाला; संस्कारः = संस्कार; अन्य-संस्कार-प्रतिबन्धी = दूसरे (सब व्युत्थान के) संस्कारों का प्रतिबन्धक (रोकने वाला) होता है।
उस ऋतंभरा प्रज्ञा से उत्पन्न होने वाला संस्कार अन्य सब (दुःख के हेतु) व्युत्थान के संस्कारों का बाधक (रोकने वाला) होता है।
समाधि से पूर्व चित्त केवल व्युत्थान के संस्कारों से ही भरा रहता है। फिर जब समाधि की अवस्था में उसको जो अनुभव होता है उसके भी संस्कार पड़ते हैं। ये समाधि के संस्कार व्युत्थान के संस्कारों से बलवान् होते हैं। क्योंकि समाधि की प्रज्ञा व्युत्थान की प्रज्ञा से अधिक निर्मल होती है। उसकी निर्मलता में पदार्थ का तत्व अनुभव होता है। जितना तत्व का अनुभव होता है उतने ही उसके संस्कार प्रबल होते हैं। “तत्त्व-पक्षपातो हि धियां स्वभावः” इन संस्कारों की प्रबलता से फिर समाधि-प्रज्ञा होती है इस समाधि-प्रज्ञा से उत्पन्न हुए संस्कार व्युत्थान के संस्कारों और वासनाओं को हटाते हैं। व्युत्थान के संस्कारों के दबने से उनसे उत्पन्न होनेवाली वृत्तियाँ भी दब जाती हैं। उन वृत्तियों के निरोध होनेपर समाधि उत्पन्न होती है। इससे समाधि प्रज्ञा, समाधि-प्रज्ञा से फिर समाधि के संस्कार — इस प्रकार यह चक्र लगातार चलता रहता है। यहाँतक कि निर्विचार-समाधि उपस्थित हो जाती है। फिर निर्विचार-समाधि से ऋतम्भरा-प्रज्ञा का लाभ होता है। उस प्रज्ञा से निरोध संस्कार होता है, निरोध-संस्कार से फिर ऋतम्भरा-प्रज्ञा का प्रकर्ष, उस प्रज्ञा से फिर निरोध-संस्कार का प्रकर्ष — इस प्रकार लगातार चक्रसे निरोध के संस्कार पुष्ट हो-होकर व्युत्थानके संस्कारोंको सर्वथा रोक देते हैं। {भूतार्थपक्षपातो हि बुद्धेः स्वभावः} बुद्धि तत्त्व-पक्षपातिनी होती है। हित अनहित पसु पच्छिउ जाना। मानुष तनु गुन ग्यान निधाना।। मित्र और शत्रु को पशु-पक्षी भी पहचानते हैं। फिर मनुष्य शरीर तो गुण और ज्ञान का भंडार ही है| इस संसार में मनुष्य तभीतक भटकता है जबतक उसे ऋतम्भरा-प्रज्ञा का स्वाद नहीं मिल जाता।
‘निरुपद्रव भूतार्थ स्वभावस्य विपर्ययैः।
न बाधो यत्नवत्त्वेऽपि बुद्धेस्तत्पक्षपाततः।।३,२१३।।’प्रमाणवार्तिकम् || अर्थात्, संशय विपर्यय आदिकों से अनास्कंदित भूतार्थ, यथार्थ वस्तु है विषय जिनका ‘भूतं अबाधितं यथार्थभूतं वस्तु विषयो यस्य’ ऐसा भूतार्थ स्वभाव निरूपद्रव जो बोध होता है उसका विपर्यय बोधों से बाध नहीं होता। ‘यत्न-वत्त्वेऽपि’ बड़े-बड़े यत्न करने पर भी उनके द्वारा उनका बाध नहीं हो सकता क्योंकि ‘बुद्धेस्तत्पक्षपाततः’ बुद्धि तत्त्व-पक्षपातिनी है।
‘‘निरुध्यन्तेऽन्यसंस्काराः प्रज्ञासंस्कारवारिणा ।
तत्संस्कारनिरोधे स्यान्निर्बोजो योग इष्टदः ॥ ८४ ॥ योगसूत्रसारः’’
उस (ऋतंभरा-प्रज्ञा) से उत्पन्न होने वाला संस्कार दूसरे संस्कारों को रोकने वाला होता है । इसलिए इस प्रज्ञा का ही अभ्यास करना चाहिये, क्योंकि प्रज्ञाके संस्कार तत्त्वका संस्पर्श करते हैं। और फिर विवेकख्याति हो जाने पर संस्कारों की परम्परा ही समाप्त हो जाती है।
सङ्गति — सबीज-समाधि का सबसे ऊंची चोटीतक वर्णन करके अब निर्बीज समाधि को बतलाते हैं।
तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीजः समाधिः ॥ १.५१ ॥
तस्य = (पर वैराग्य द्वारा) उस ऋतंभरा-प्रज्ञा-जन्य संस्कार के; अपि = भी; निरोधे = निरोध हो जाने पर; सर्वनिरोधात् = (पुराने और नये) सब संस्कारों के निरोध हो जाने के कारण; निर्बीजःसमाधि: = निर्बीज-समाधि हो जाती है ।
पर वैराग्य द्वारा उस ऋतंभरा-प्रज्ञा-जन्य संस्कार के भी निरोध हो जाने पर पुरातन-नूतन (पुराने और नये) सब संस्कारों के निरोध हो जाने से निर्बीज समाधि होती है ।
पर-वैराग्य द्वारा पुरुषख्याति हो जानेपर जो निखिल-वृत्ति प्रवाह {प्रत्यक्षादि प्रमाण, विकल्प, विपर्यय, निद्रा, स्मृति} तथा संस्कार-प्रवाह {प्रज्ञा संस्कार, निरोध संस्कार} का निरोध है, वह निर्बीज-समाधि है। एक काँटे से जब दूसरे काँटे को निकाल देते हैं तब फिर दोनों को ही फैंक देते हैं।
‘‘दुःखबीजैर्यतश्शून्यस्ततो निर्बोजनामकः ।
समाधिर्मोक्षहेतुर्हि यस्मिन्वै केवलः पुमान् ॥ ८५ ॥ योगसूत्रसारः’’
इस असम्प्रज्ञात अर्थात् निर्बीज समाधि में मिथ्याज्ञान और वासनारूप संस्कारबीजों से रहित क्लेश, कर्मादि दुःख के समस्त बीजों का नाश हो जाने से पुरुष शुद्ध परमात्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हुआ केवल स्वरूपमात्रनिष्ठ और शुद्ध तथा मुक्त कहा जाता है। फिर पुनर्जन्म की सम्भावना नहीं रहती।
‘‘मनसोऽभ्युदयो नाशो मनोनाशो महोदयः ।
ज्ञमनो नाशमभ्येति मनोऽज्ञस्य विवर्धते ।। १८।।
योगवासिष्ठः/प्रकरणम् ४ (स्थितिप्रकरणम्)/सर्गः ३५’’
सांसारिक मामलों में मन का उत्थान, उसके विनाश की ओर जाता है, और उस मन के अवसाद में उसकी आध्यात्मिक उन्नति होती है। इसलिये बुद्धिमान हमेशा अपने दिमाग (अभिमान) को नीचा करते हैं; परन्तु मूर्ख उन्हें ऊंचा करने के लिये प्रयत्नशील रहते हैं।
‘‘यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।५.५।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
सांख्ययोगियोंके द्वारा जो तत्त्व प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियोंके द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। अतः जो मनुष्य सांख्ययोग और कर्मयोगको (फलरूपमें) एक देखता है, वही ठीक देखता है।
‘‘योगस्योद्देशनिर्देशौ तदर्थं वृत्तिलक्षणम् ।
योगोपायाः प्रभेदाश्च पादेऽस्मिन्नुपवर्णिताः ॥ १ ॥’’
पातञ्जल योगसूत्र के प्रथम पाद में मुख्यरूप से चार बातें बताई गयी हैं।
(१) योग का उद्देश्य है सत्वान्यथा ख्याति अथवा अपने द्रष्टा स्वरूप में स्थित होना।
(२) योग का लक्षण है चित्त की वृत्तियों का निरोध करना।
(३) वृत्तियों का निरोध करने के लिये वृत्तियों को पहचानना जरूरी है, इसलिये वृत्तियों का लक्षण बताया।
(४) इसके बाद योग प्राप्ति के अनेक उपाय और उनके प्रभेद बताये हैं।
सवितर्कादि भेदवाली सम्प्रज्ञात समाधि में अविद्या रूप बीज रहता है इसलिये उसे `सबीजसमाधि’ कहते हैं। उस अविद्या रूप बीज से जो रहित है उसे असम्प्रज्ञात समाधि अथवा `निर्बीजसमाधि’ कहते हैं। सबीजसमाधि में जब निर्विचार की विशारदता हो जाती है तब सत्त्वोद्रेक होनेपर उसमें ऋतम्भरा प्रज्ञा उत्पन्न होती है। समाधिप्रज्ञाजन्य संस्कारों से व्युत्थान के संस्कारों का बाध हो जाता है। और फिर (तस्यापि) उस प्रज्ञाजन्य संस्कार का भी निरोध होनेपर निर्बीजसमाधि होती है , और इसके बाद मोक्ष होता है। इसप्रकार क्रम जानना चाहिये।
यहाँ प्रथम समाधि-पाद पूर्ण हुआ।
अथ साधनपादः
अब तक समाधि का निरूपण किया गया, अब साधन का निरूपण करते हैं। योगसूत्र के प्रथमचरण में समाहित चित्तवाले उत्तम अधिकारियों के लिये योगका स्वरूप, उसके भेद और उसका फल सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात समाधि को विस्तार के साथ वर्णन किया गया है और योग के मुख्य उपाय अभ्यास तथा वैराग्य-साधन की कई विधियाँ बतलायी हैं। पर विक्षिप्त चित्तवाले मध्यमाधिकारी जिनके चित्त सांसारिक वासनाओं तथा राग-द्वेष आदिसे कलुषित (मलिन) हैं, उनके लिये अभ्यास और वैराग्य का होना कठिन है उनका चित्त भी शुद्ध होकर अभ्यास और वैराग्य को सम्पादन कर सके इस अभिप्राय से चित्त की एकाग्रता के असंदिग्ध उपाय क्रियायोग पूर्वक यम-नियमादि योगके आठ अङ्गों को बतलाने के लिये दूसरे साधनपाद को आरम्भ करते हैं। —
तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः ॥ २.१ ॥
तपः स्वाध्याय-ईश्वरप्रणिधानानि = तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान; क्रियायोगः = क्रियायोग है।
तप, स्वाध्याय {अध्यात्मशास्त्रों का पठन-पाठन} और ईश्वरप्रणिधान {ईश्वर की शरणागति} ये तीनों क्रियायोग है।
साधन पाद का यह पहला सूत्र है। समाधि पाद में योग के मूलभूत एवं उच्च सिद्धांतों का प्रतिपादन करने के बाद अब साधनपाद का आरंभ करते हैं। साधन पाद में क्रियायोग एवं अष्टांग योग के माध्यम से समाधिलाभ प्राप्त करने की विधियों एवं उपायों का वर्णन किया गया है।
तपः — ‘‘उपवासपराकादिकृच्छ्रचान्द्रायणादिभिः ।
शरीरशोषणं प्राहुस्तापसास्तप उत्तमम् ।। ११.२१।। कूर्मपुराणम्’’
चित्त की प्रसन्नता के अविरोधी शास्त्रविहित उपवासादि करना तप है। जो तपस्वी नहीं है उसे योग सिद्ध नहीं होता। तप तीन प्रकार का होता है, शारीरिक वाचिक और मानसिक। जिस प्रकार अश्व-विद्या में कुशल सारथि चञ्चल घोड़ों को साधता है इसी प्रकार शरीर, प्राण, इन्द्रियाँ और मन को उचित रीति और अभ्यास से वश में करने को तप कहते हैं, जिससे आप सर्दी-गर्मी, भूँक-प्यास, सुख-दुःख, हर्ष-शोक और मान- अपमान आदि सम्पूर्ण द्वन्द्वों की अवस्था में बिना विक्षेप के स्वस्थ शरीर और निर्मल अन्तःकरण के साथ योगमार्ग में प्रवृत्त रह सकें। शरीर में व्याधि तथा पीड़ा, इन्द्रियों में विकार और चित्त में अप्रसन्नता उत्पन्न करनेवाला तामसी तप योगमार्ग में निन्दित तथा वर्जित है। श्रीव्यासजी महाराज लिखते हैं “अनादि कर्म क्लेश वासना से चित्रित हुआ जो विषयों में प्रवृत्ति करानेवाला अशुद्धिसंज्ञक रजस्-तमस् का प्रसार है, वह बिना तप के अनुष्ठानके नाशको प्राप्त होना असम्भव है। अतः सबसे पहले तपरूप साधनका उपदेश किया है। संक्षेप से कहें तो ब्रह्मचर्य और गुरुसेवा ही तप है।
“तच्च चित्तप्रसादनं बाधमानमनेनाऽऽसेव्यमिति मन्यते।”
जो तप चित्तकी प्रसन्नता का हेतु हो तथा शरीर-इन्द्रियादिका बाधाकारक (पीड़ाकारक) न हो। वही सेवनीय है अन्य नहीं, वही सूत्रकारादि महर्षियों को अभिमत है; क्योंकि व्याधि, शरीर की पीड़ा आदि और चित्तकी अप्रसन्नता योगके विघ्न हैं। ऐसा ही बृहदारण्यक उपनिषद में कहा है कि —
‘तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेन’ इति ।
ब्रह्म जिज्ञासु लोग वेदों के अध्ययन, यज्ञ, दान तथा अनाशक तप से उन ब्रह्म को जानने की इच्छा करें । शरीर को हानि पहुंचानेवाला तप तो योगमार्ग का विघ्न ही है।
‘‘देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते।।१७.१४।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
देव, द्विज (ब्राह्मण), गुरु और ज्ञानी जनों का पूजन, शौच, आर्जव (सरलता), ब्रह्मचर्य और अहिंसा, यह शरीर संबंधी तप कहा जाता है।
‘‘अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते।।१७.१५।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
जो वाक्य (भाषण) उद्वेग उत्पन्न करने वाला नहीं है, जो प्रिय, हितकारक और सत्य है तथा वेदों का स्वाध्याय अभ्यास वाङ्मय (वाणी का) तप कहलाता है।
‘‘मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।१७.१६।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
मनकी प्रसन्नता, सौम्य भाव, मननशीलता, मनका निग्रह और भावोंकी शुद्धि — इस तरह यह मन-सम्बन्धी तप कहा जाता है।
‘‘एकाक्षरं परं ब्रह्म प्राणायामः परं तपः ।
सावित्र्यास्तु परं नास्ति मौनात्सत्यं विशिष्यते ।। २.८३ ।।मनुस्मृतिः/द्वितीयोध्यायः’’
एक-अक्षर (ॐ) सर्वोच्च ब्रह्म है; श्वास-निलंबन (अर्थात् प्राणायाम) सर्वोच्च तपस्या हैं; सावित्री श्लोक अर्थात् गायत्रीमन्त्र से बढ़कर कुछ नहीं है; सत्य मौन से बेहतर है।
स्वाध्याय — ‘‘वेदान्तशतरुद्रीयप्रणवादिजपं बुधाः ।
सत्त्वसिद्धिकरं पुंसां स्वाध्यायं परिचक्षते ।। ११.२२।। कूर्मपुराणम्’’
वेद-उपनिषद, शतरुद्रीय आदि का पाठ तथा योग और सांख्यके अध्यात्मसम्बन्धी विवेक-ज्ञान उत्पन्न करनेवाले सत्-शास्त्रों का नियमपूर्वक अध्ययन और ओंकार सहित गायत्री आदि मन्त्रों का जाप। ये सब अन्तःकरण की शुद्धि करनेवाले होने के कारण स्वाध्याय के अन्तर्गत आते हैं।
‘‘प्रणवादिपवित्राणां मन्त्राणां जपपूर्वकम्।
यस्य वै यावती शक्तिस्तावत्या तप आचरेत् ॥ ८३ ॥
क्रियाणां फलयुक्तानां सर्वासामपि चार्पणम्।
सर्वोत्तमे परे पुंसि क्रियायोग इतीर्यते ॥ ८४ ॥ योगसूत्रसारः’’
‘‘ओंकारपूर्विकास्तिस्रो महाव्याहृतयोऽव्ययाः ।
त्रिपदा चैव सावित्री विज्ञेयं ब्रह्मणो मुखम्।। २.८१।। मनुस्मृतिः’’
ओंकार से आरंभ होने वाली तीन व्याहृतियों वाली और तीन पाद वाली गायत्री को वेद का मुख जानना चाहिए।
“गायत्र्यास्तु परं नास्ति शोधनं पापकर्मणाम्।
महाव्याहृतिसंयुक्तां प्रणवेन च संजपेत्।। २१८।। (संवर्तस्मृति)”
‘गायत्री से बढ़कर पापकर्मों का शोधक (प्रायश्चित्त) दूसरा कुछ भी नहीं है। प्रणव (ॐकार) सहित तीन महाव्याहृतियों से युक्त गायत्री मन्त्र का जप करना चाहिये।’
ईश्वर-प्रणिधान का सामान्य अर्थ —
‘‘स्तुतिस्मरणपूजाभिर्वाङ्मनः कायकर्मभिः ।
सुनिश्चला भवेद्भक्तिरेतदीश्वरपूजनम् ।। ११.२९।। कूर्मपुराणम्’’
(१) ईश्वर की स्तुति, स्मरण, पूजा आदि भक्ति-विशेष और शरीर, इन्द्रिय, मन, प्राण, अन्तःकरण आदि सब बाह्य और आभ्यन्तर करणों से होनेवाले सारे कर्मों और उनके फलोंको अर्थात् सारे बाह्य और आभ्यन्तर जीवन को ईश्वरके समर्पण कर देना है। और उसका विशेष अर्थ (२) ॐ का उसके अर्थोंकी भावना सहित मानसिक जाप है। दूसरे अर्थ का सम्बन्ध आभ्यन्तर क्रिया से है। (३) तीसरा है कि सभी कर्मफलों के भोक्ता परमेश्वर ही हैं ऐसा चिन्तन करना।
‘‘नाहं कर्ता सर्वमेतद् ब्रह्मैव कुरुते तथा ।
एतद् ब्रह्मार्पणं प्रोक्तमृषिभिः तत्त्वदर्शिभिः ॥ ३.१६॥ कूर्मपुराणम्’’
‘‘भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।।५.२९।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
(साधक भक्त) मुझे यज्ञ और तपों का भोक्ता और सम्पूर्ण लोकों का महान् ईश्वर तथा भूतमात्र का सुहृद् (मित्र) जानकर शान्ति को प्राप्त होता है।
विष्णु-पुराणमें खाण्डिक्य और केशिध्वज के संवाद में यह विषय इस तरह से वर्णित हुआ है —
‘‘योगयुक् प्रथमं योगी युंजानो ह्यभिधीयते |
विनिष्पन्नसमाधिस्तु परं ब्रह्मोपलब्धिमान् || ३३ ||
पहले योगारम्भ करने के समय योगी युञ्जान कहलाता है, और जिसको ब्रह्म की उपलब्धि हो जाती है, उसे निष्पन्न समाधि योगी कहते हैं।
यद्यंतरायदोषेण दूष्यते चास्य मानसम् |
जन्मांतरैरभ्यसतो मुक्तिः पूर्वस्य जायते || ३४ ||
यदि विघ्नों के कारण उसका मन दूषित हो जाता है तो अगले जन्म पर्यन्त उसी अभ्यास के करते रहने से वह मुक्त हो जाता है।
विनिष्पन्नसमाधिस्तु मुक्तिं तत्रैव जन्मनि |
प्राप्नोति योगी योगाग्निदग्धकर्मचयोऽचिरात् || ३५ ||
जो योगी विनिष्पन्न समाधि हो जाता है, वह योग रूप अग्नि के सम्पर्क से कर्म समूह के दग्ध हो जाने से, उसी जन्म में शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है।
ब्रह्मचर्यमहिंसां च सत्यास्तेयापरिग्रहान् |
सेवेत योगी निष्कामो योग्यतां स्वमनो नयन् || ३६ ||
निष्काम योगी को चाहिए कि वह अपने मन को ब्रह्म चिन्तन के योग्य बनाते हुए ब्रह्मचर्य, अहिंसा, सत्यभाषण, अस्तेय (चोरी न करना) तथा अपरिग्रह का पालन करे।
स्वाध्यायशौचसंतोषतपांसि नियतात्मवान् |
कुर्वीत ब्रह्मणि तथा परस्मिन्प्रवणं मनः || ६.७.३७ ||
संयतचित्त से स्वाध्याय, शौच, संतोष तथा तप का आचरण करे तथा परंब्रह्म में अपने मन को लगाये रखे।
विज्ञानभिक्षु ने कहा है कि —
“कामतोऽकामतो वापि यत् करोमि शुभाशुभम्।
तत् सर्वं त्वयि संन्यस्तं त्वत्प्रयुक्तः करोम्यहम्”
अर्थात् फलेच्छा से या निष्कामता से जो भी शुभाशुभ कर्म का अनुष्ठान मैं कर रहा हूँ, वह सब आप परमेश्वर को ही मैं समर्पण करता हूँ; क्योंकि आप अन्तर्यामी से ही प्रेरित होकर मैं सब कर्म करता हूँ।
‘‘यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।९.२७।।श्रीमद्भगवद्गीता’’
हे कुन्तीपुत्र ! तू जो कुछ करता है, जो कुछ खाता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है, वह सब कुछ मेरे अर्पण कर दे।
‘‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।२.४७।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
कर्म करने मात्र में तुम्हारा अधिकार है। फल में कभी नहीं। अतः तुम कर्मफल के हेतु वाले मत होना और अकर्म में भी तुम्हारी आसक्ति न हो।
‘‘आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।।६.३।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मुनि के लिए कर्म करना ही हेतु (साधन) कहा है और योगारूढ़ हो जाने पर उसी पुरुष के लिए शम को (शांति, संकल्पसंन्यास) साधन कहा गया है।
‘‘योगास्त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयोविधित्सया ।
ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित् ॥ ११.२०.६ ॥ श्रीमद्भागवत’’
अर्थात् अपना कल्याण चाहनेवाले मनुष्योंके लिये मैंने तीन योग (मार्ग) बतलाये हैं‒ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग । इन तीनोंके अतिरिक्त अन्य कोई कल्याणका मार्ग नहीं है । जो अत्यन्त वैराग्यवान् हैं, वे ज्ञानयोगके अधिकारी हैं, जो संसारमें आसक्त हैं, वे कर्मयोगके अधिकारी हैं और जो न अत्यन्त विरक्त हैं और न आसक्त हैं, वे भक्तियोगके अधिकारी हैं ।
‘‘कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा बुद्ध्यात्मना वा अनुसृतस्वभावात् ।
करोति यद् यत् सकलं परस्मै नारायणायेति समर्पयेत्तत् ॥ ११.२.३६ ॥ भागवत’’
अर्थ — जो भी मेरे शरीर, मन, वचन, इन्द्रिय, बुद्धि और आत्मासे सोच समझकर या अज्ञानतावश (अपनी प्रकृति अनुरूप) हो रहा है, या जो कुछ करता है वह सबकुछ (सर्वस्व) नारायण के श्री चरणोंमें समर्पित कर देवे।
यह क्रियायोग किसलिये है ? यह बतलाते हैं।
समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च ॥ २.२ ॥
(क्रियायोग) समाधि-भावनार्थः = समाधि की भावना (समाधि का चित्त में पुनः पुनः निवेश) के लिये; क्लेश-तनू-करण-अर्थ:-च = और क्लेशोंके तनूकरण (दुबले करने) के लिये है।
(स हि क्रियायोगः) ‘सो वह उपर्युक्त क्रियायोग’ इतना पाठ भाष्यकारोंने सूत्र के आदि में अध्याहार किया है।
यह क्रियायोग समाधि की भावना के लिए और अविद्यादि क्लेशों को क्षीण करने के लिए है।
समाधि-भावना = ‘समाधिरुक्तलक्षणः तस्य भावना चेतसि पुनःपुनर्निवेशनम्’ = समाधि जिसका लक्षण पहले बताया जा चुका है “योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः॥१.२॥” उसकी भावना अर्थात् समाधिका चित्तमें बार-बार निवेश (लाना) है। (भोजवृत्ति) क्लेशतनूकरणार्थः = क्लेशा वक्ष्यमाणास्तेषां तनूकरणं स्वकार्यकारणप्रतिबन्धः = अविद्यादि क्लेश जो अगले सूत्र में कहे जायँगे, उनका तनूकरण ‘उनके स्वकार्य के कारण होनेमें प्रतिबन्धकता’। — (भोजवृत्ति)
अविद्या आदि क्लेश जिनका आगे वर्णन किया जायगा, जिनके संस्कार बीजरूपसे चित्त-भूमिमें अनादि-कालसे पड़े हुए हैं, उनको शिथिल करने और चित्तको समाधिकी प्राप्ति के योग्य बनानेके हेतु क्रियायोग किया जाता है।
तपसे शरीर, प्राण, इन्द्रिय और मनकी अशुद्धि दूर होनेपर वे स्वच्छ होकर क्लेशोंके दूर करने और समाधि-प्राप्ति में सहायता देते हैं।
स्वाध्याय से अन्तःकरण शुद्ध होता है और चित्त विक्षेपोंके आवरणसे शुद्ध होकर समाहित होनेकी योग्यता प्राप्त कर लेता है।
ईश्वरप्रणिधानसे समाधि सिद्ध होती है।
‘‘प्रतनूकृतान् क्लेशान् प्रसङ्ख्यानाग्निना दग्ध-बीज-कल्पान् अप्रसव-धर्मिणः करिष्यतीति ।’’
जब साधक क्रियायोगअर्थात् तप, स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान का निरन्तर अनुष्ठान करता है तब उसके भीतर विवेकख्याति नाम की अग्नि उत्पन्न होने लगती है जो क्लेशों को दग्धबीज जैसी अवस्था में ले आती है। इस प्रकार क्रियायोग का अनुष्ठान साधक को पञ्च क्लेशों से रहित करता हुआ शुद्ध अंतःकरण प्रदान करता है ।
‘‘समाधिर्भावनारूपः क्लेशानां शक्तिनाशनम्।
क्रियायोगेन सिद्ध्यन्ते प्रसंख्यानाग्निनामके ॥ ८५ ॥ योगसूत्रसारः’’
प्रसंख्यान माने विवेकख्याति नाम की अग्नि में क्लेशों के बीज को दग्ध किया जा सकता है।
सङ्गति — जिन क्लेशोंके दूर करनेके लिये क्रियायोग बतलाया गया है, वे क्लेश कौनसे हैं ? यह अगले सूत्र में बतलाते हैं।
अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः ॥ २.३ ॥
अविद्या-अस्मिता-राग-द्वेष-अभिनिवेशाः क्लेशाः = अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पाँच क्लेश हैं। और ये ही विघ्नकारक हैं और चित्तमें वर्तमान रहते हुए संस्काररूप गुणों के परिणामको दृढ़ करते हैं; इसलिये क्लेश नाम से कहे गये हैं। ये पाँचों विपर्यय अर्थात् मिथ्याज्ञान ही हैं, क्योंकि इन सबका कारण अविद्या ही है।
‘‘अविद्या अस्मिता रागः द्वेषश्चाभिनिवेशनम्।
पञ्चैते कथिता योगे क्लेशाः प्रत्यूहकारकाः ॥ ८६ ॥ योगसूत्रसारः’’
अविद्या माने अज्ञान, अस्मिता माने “मैं हूँ” पनेका भाव, राग माने किसीसे मोहब्बत हो जाना, द्वेष माने किसीसे दुश्मनी हो जाना, और अभिनिवेश माने अपने को मरनेवाला शरीर मानना ये पाँचों पीड़ा उत्पन्न करने वाले हैं। दुःख के इन पांच स्रोतों को क्रियायोग की साधना के माध्यम से क्षीण करना है। अविद्या से काम होता है, कामना से कर्म होता और फिर कर्म से जन्म, आयु और भोग और फिर अविद्या इस तरह यह चक्र चलता रहता है। इसलिये अविद्या का ही उच्छेद करना चाहिये।
अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष,और अभिनिवेश क्लेशों के ही सांख्य-परिभाषा में क्रमसे तमस्, मोह, महामोह, तामिस्र और अन्धतामिस्र नामान्तर हैं।
‘‘तमो मोहो महामोहस्तामिस्रो ह्यन्धसंज्ञकः।
अविद्या पञ्चपर्वैषा सांख्ययोगेषु कीर्तिता।।’’ (विष्णु पुराण, १/५/५)
तमस् (अविद्या), मोह (अस्मिता), महामोह (राग), तामिस्र (द्वेष) और अन्धतामिस्र (अभिनिवेश) — यह सांख्य और योग में पञ्चपर्वा अविद्या कही गयी है। ये तमस् आदि अवान्तर भेद से बासठ प्रकार के हैं, जैसा कि सांख्यकारिका में बतलाया है —
‘‘भेदस्तमसोऽष्टविधो मोहस्य च दशविधो महामोहः।
तामित्रोऽष्टादशधा, तथा भवत्यन्धतामिस्त्रः।। ४८।। सांख्यकारिका’’
तमस् के आठ, मोह के भी आठ, महामोह के दस, तामिस्र के अठारह और अंधतामिस्र के भी अठारह प्रकार है।
तमस् (अविद्या) — मूलप्रकृति, महत्तत्व, अहंकार और पञ्चतन्मात्राएं— इन आठ अनात्मप्रकृतियों में आत्मभ्रान्तिरूप अविद्या-संज्ञक तम आठ विषयवाला होने से आठ प्रकार का है।
मोह (अस्मिता)—गौण फलरूप अणिमा-महिमा आदि आठ ऐश्वर्यों में जो परम पुरुषार्थरूप ज्ञान है, वह अस्मिता-संज्ञक मोह कहलाता है। यह भी अणिमा आदि आठ भेद से आठ प्रकारका है।
महामोह (राग)—शब्द,स्पर्श,रूप,रस,गन्धसंज्ञक लौकिक और दिव्य विषयों में जो अनुराग है वह रागसंज्ञक महामोह कहा जाता है। यह भी दस विषयवाला होने से दस प्रकार का है।
तामिस्र (द्वेष)—उपर्युक्त आठ ऐश्वर्यों और दस विषयोंके भोगार्थ प्रवृत्त होनेपर किसी प्रतिबन्धक से इन विषयोंके भोगलाभ में विघ्न पड़नेसे जो प्रतिबन्धक- विषयक द्वेष होता है वह तामिस्र कहलाता है। वह तामिस्र आठ ऐश्वर्यों और दिव्य-अदिव्य दस विषयोंके प्रतिबन्धक होने से अठारह प्रकार का है।
अन्धतामिस्र (अभिनिवेश) — आठ प्रकारके ऐश्वर्य और दस प्रकारके विषय- भोगोंके उपस्थित होनेपर भी जो चित्त में भय रहता है कि यह सब अन्तकाल में नष्ट हो जायँगे, यह अभिनिवेश अन्धतामिस्र कहलाता है। अभिनिवेशरूप अन्धतामिस्र भी उपर्युक्त अठारह के नाश का भयरूप होनेसे अठारह प्रकार का है। ये सब अज्ञानमूलक और दुःखजनक होनेसे अज्ञान,अविद्या,विपर्ययज्ञान, मिथ्याज्ञान, भ्रान्तिज्ञान और क्लेश आदि नामोंसे कहे जाते हैं।
सङ्गति — अविद्या ही सब क्लेशों का मूल कारण है, यह बात अगले सूत्र में बतलाते हैं।
अविद्याक्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम् ॥ २.४ ॥
अविद्या-क्षेत्रम् = अविद्या ही क्षेत्र है अर्थात् उत्पत्तिकी भूमि है; उत्तरेषाम्= अगले शेष चार अर्थात् अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश नामवाले क्लेशों की जन्मभूमि है ; प्रसुप्त-तनु-विच्छिन्न-उदाराणाम् = जो प्रसुप्त,तनु,विच्छिन्न और उदार अवस्था में रहते हैं। (इन चार प्रकार की अवस्थाओं वाले होते हैं)
प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न और उदार अवस्थावाले अस्मिता आदि क्लेशोंका अविद्या क्षेत्र है। जैसे पृथिवीमें घास, लता, झाड़ी और वृक्षके पौधे उत्पन्न होते हैं वैसे ही अविद्या में अस्मिता,राग,द्वेष और अभिनिवेश उत्पन्न होते हैं ,
जिस प्रकार भूमिमें रहकर ही बीज उत्पन्न होते हैं, इसी प्रकार अविद्या के खेत में रहकर सभी क्लेश बन्धनरूप फल देते हैं। अविद्या ही इन सबका मूलकारण है। ये क्लेश चार अवस्थाओं में रहते हैं।
(१) (प्रसुप्त — जो क्लेश चित्तभूमि में अवस्थित हैं, पर अभी जागे नहीं ; क्योंकि) अपने विषय आदिके अभाव-काल में अपने कार्योंका आरम्भ नहीं कर सकते हैं, वे प्रसुप्त कहलाते हैं। जिस प्रकार बाल्यावस्थामें विषयभोग की वासनाएँ बीजरूपसे दबी रहतीं हैं, जवान होनेपर जाग्रत् होकर अपना फल दिखलातीं हैं।
(२) तनु — तनु वे क्लेश हैं, जो प्रतिपक्षभावना द्वारा अथवा क्रियायोग आदिसे शिथिल कर दिये गये हैं। “प्रतिपक्ष-भावनोपहताः क्लेशास्तनवो भवन्ति।” प्रतिपक्ष भावना का अर्थ है कि जो भी विकार, या कुसंस्कार प्रकट होना चाह रहा है उसके विपरीत अच्छे या शुभ गुणों का चिंतन करना और उस कुसंस्कार या क्लेश के दुष्परिणाम का चिंतन कर उससे दूर हटने का प्रयास करना। इस प्रकार प्रतिपक्ष भावना से क्लेशों को उदार (प्रकट) होने से बचाया जा सकता है । क्योंकि क्लेशोंका प्रतिपक्षी क्रियायोग है, इसीसे क्लेश तनु होते हैं। इस कारण वे विषयके होते हुए भी अपने कार्य के आरम्भ करनेमें समर्थ नहीं होते, शान्त रहते हैं। परन्तु इनकी वासनाएँ सूक्ष्मरूपसे चित्तमें बनी रहतीं हैं। निम्न प्रकार से इनको शिथिल (तनु) किया जाता है — (१) यथार्थ ज्ञान के अभ्यास से अविद्या को, (२) भेद-दर्शन के अभ्यास से अस्मिता को, (३) मध्यस्थ रहने के विचार से राग-द्वेष को, (४) ममता के त्याग से अभिनिवेश नामवाले क्लेशको तनु (शिथिल) किया जाता है तथा धारणा, ध्यान और समाधि द्वारा अविद्या, अस्मिता आदि सारे क्लेश तनु किये जाते हैं।
(३) विच्छिन्न — विच्छिन्न क्लेशों की वह अवस्था है जिसमें क्लेश किसी बलवान् क्लेश से दबे हुए शक्तिरूपसे रहते हैं और उसके अभाव में वर्तमान हो जाते हैं। जैसे द्वेष-अवस्था में राग छिपा रहता है और राग-अवस्था में द्वेष। क्योंकि ये राग और द्वेष दोनों परस्पर विरुद्ध हैं। कभी भी एक काल में नहीं हो सकते।
(४) उदार — उदार (प्रकट) क्लेशोंकी वह अवस्था है, जो अपने सहायक विषयों को पाकर अपने कार्यमें प्रवृत्त हो रहे हैं। जैसे व्युत्थान अवस्था में साधारण मनुष्यों में (प्रकट रूप में) होते हैं। इन सबका मूलकारण अविद्या है। उसीके नाश होने से सर्वक्लेश समूल नाश हो जाते हैं।
दग्धबीज — यह पाँचवीं अवस्था है, यह अवस्था सिद्धयोगियोंको प्राप्त होती है, इसमें क्रियायोग अथवा सम्प्रज्ञात-समाधि द्वारा तनु किये हुए क्लेश प्रसंख्यान अर्थात् विवेक-ख्यातिरूप अग्निमें दग्धबीज-भावको प्राप्त हो जाते हैं। तत्पश्चात् पुनः अंकुर उत्पन्न करने और फल देने में असमर्थ हो जाते हैं। यथा —
‘‘बीजान्यग्न्युपदग्धानि न रोहन्ति यथा पुनः।
ज्ञानदग्धैस्तथा क्लेशैर्नात्मा संपद्यते पुनः।।१२.२१३.२२।।’’ (महाभारतम्)
जैसे अग्निमें दग्ध हुए वीज फिर नहीं उगते, वैसे ही विवेकज्ञानरूप अग्नि से दग्ध हुए क्लेश फिर उत्पन्न नहीं हो सकते अतः आत्मा पुनः शरीर ग्रहण नहीं करता’
‘‘अविद्यामाश्रितास्सर्वे क्लेशा बीजामिवाङ्कुराः।
अविद्ययैव वर्धन्ते क्षीयन्ते चापि विद्यया ॥ ८७ ॥ योगसूत्रसारः’’
ये पाँचों क्लेश अविद्या से बढ़ते हैं और विद्या से नष्ट हो जाते हैं। जब ज्ञान से (कर्मों के) क्लेश दग्ध हो जाते हैं तब वे आत्मा को पुनः प्राप्त नहीं होते” देह और जीव की एकता का भाव अविद्या है। कर्तृत्व का अभिमान अस्मिता है। सुख की भावना से आसक्त होकर मैत्री का बोध राग है। दुःख की भावना के कारण निवृत्ति का अनुभव करने से शत्रुता का बोध द्वेष है। मैं यह देह हूँ, ऐसा मानकर मृत्यु से भयभीत होना अभिनिवेश है। इन पांचों क्लेशों से जो बाधित नहीं, वह ईश्वर है।
वाचस्पति मिश्रने सूत्रकी व्याख्या के अन्त में यह श्लोक दिया है —
“प्रसुप्तास्तत्त्वलीनानां तन्ववस्थाश्च योगिनाम् ।
विच्छिन्नोदाररूपाश्च क्लेशा विषयसङ्गिनाम् ॥”
‘तत्त्वलीनोंके क्लेश प्रसुप्त, योगियोंके तनु और विषयी पुरुषोंके क्लेश विच्छिन्न और उदार (अवस्थावाले) होते हैं।’ सम्प्रज्ञात-समाधि में क्लेश तनु और विवेकख्यातिमें दग्धबीज-भाव को प्राप्त होते हैं। इसीलिए ये सारे क्लेश अविद्या शब्द से व्यवहृत होते हैं। सभी क्लेश चित्त को विक्षिप्त करनेवाले हैं, इससे इनके उच्छेद में योगी को पहिले यत्न करना चाहिये।
सङ्गति — अविद्या को सभीक्लेशों का मूलकारण बताकर अब उसका यथार्थ स्वरूप दिखलाते हैं।
अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या ॥ २.५ ॥
अनित्य-अशुचि-दुःख अनित्य-अनात्मसु =अनित्य, अपवित्र, दुःख और अनात्मा (जड़) में (क्रमसे); नित्य-शुचि-सुख-आत्म-ख्याति: = नित्य, पवित्र, सुख और आत्मभाव अर्थात् चेतनता का ज्ञान; अविद्या है।
अनित्य में नित्य, अपवित्र में पवित्र, दुःख में सुख और अनात्मा में आत्माका ज्ञान अविद्या है। अपुण्य में पुण्य और अनर्थ में अर्थ देखना भी अविद्या है।
जिसमें जो धर्म नहीं है, उसमें उसका भान होना यह अविद्या का सामान्य लक्षण है।
जैसे पशुओं के चार चरण होते हैं वैसे ही अविद्या के भी चार चरण हैं, जो निम्न प्रकार से हैं —
(१) अनित्य में नित्य का ज्ञान — यह सम्पूर्ण जगत् और उसकी सम्पत्ति अनित्य है, क्योंकि उत्पत्तिवाला और विनाशी है। इसको नित्य समझना भूल है।
(२) अपवित्र में पवित्रताका ज्ञान — शरीर कफ,रुधिर, मल-मूत्र आदिका स्थान होने से अपवित्र है। इसको पवित्र मानना भूल है माने अविद्या है। अन्याय, चोरी, हिंसा आदिसे कमाया हुआ धन अपवित्र है, उसको पवित्र मानना। अधर्म, पाप, हिंसा आदि से रँगा हुआ अन्तःकरण अपवित्र है, उसको पवित्र समझना भी भूल है माने अविद्या है। व्यासजी कहते हैं कि —
“स्थानाद्वीजादुपष्टम्भान्निःस्यन्दान्निधनादपि।
कायमाधेयशौचत्वात्पण्डिता ह्यशुचिं विदुः।।”
परमबीभत्स, कुत्सित और अपवित्र शरीर में पवित्रता की बुद्धि कैसे की जा सकती है ? (१) स्थानात् — मल-मूत्र से भरा हुआ माता का उदर ही इसकी उत्पत्ति का स्थान है। (२) बीजात् — शुक्र और शोणित ही इसका बीज है। (३) उपष्टम्भात् — {वातपित्तश्लेष्मोपष्टम्भात्।} माता के द्वारा खाया-पिया अन्नादि का रस ही अर्थात् वात,पित्त और कफ ही इसकी उपादान सामग्री है। (४) निःस्यन्दात् — {प्रस्वेदमूत्रपुरीषादिमलाजस्रनिष्यन्दात्।} नौ द्वारों से तथा रोम-छिद्रों से कुछ न कुछ (क्षरण) हमेशा बहता ही रहता है। (५) निधनात् (मरणात्) —और थोड़े समय के बाद मर जाता है। (६) कायमाधेयशौचत्वात् — रात-दिन इसे शुद्धि की अपेक्षा रहती है, मुर्दे को छूकर भी स्नान करना पड़ता है इसलिये भी शरीर को अशुद्ध कहा गया है।
(३) दुःख में सुखका ज्ञान — संसारके सब विषय दुःखरूप हैं, उनमें सुख समझना भूल है।
(४) अनात्म (प्रकृति के २४ जड़ पदार्थों) में आत्मज्ञान — शरीर, इन्द्रिय और चित्त — ये सब अनात्म (जड़) हैं इनको ही आत्मा समझना। इसतरह चार प्रकारके भेद वाली अविद्या है, यही बन्धन का मूल कारण है।
समाधिपाद के आठवें सूत्र में “विपर्ययो मिथ्याज्ञानम् अतद्रूपप्रतिष्ठम् ॥१.८॥” विपर्यय (अविद्या) को वृत्तिरूपसे बताया है और यहाँ अविद्या आदि क्लेश संस्काररूपसे बतलाये गये हैं।
‘‘सद्रूपा न त्वभावोऽसौ मिथ्याबुद्धिस्वरूपिणी।
नितरामप्यसद्द्रव्ये सद्बुद्धिर्जायते तया ॥ ८८ ॥ योगसूत्रसारः’’
इस अविद्या के प्रभावसे मायारूपी असत् जगत् में सत्य बुद्धि हो जाती है, जैसे जादूके खेल में देखी हुई चीजों को बच्चे सच्ची समझ लेते हैं। इस प्रकार यथार्थ ज्ञान से जो विपरीतज्ञान है वही अविद्या है।
“अनात्मन्यात्मविज्ञानम् असतः सत्स्वरूपता।
सुखाभावे तथा सौख्यं माया विद्या-विनाशिनी ॥[ग.पु.]”
“अनात्मन्यात्मबुद्धिर्या अस्वे स्वमिति या मतिः ।
अविद्यातरुसंभूतिबीजमेतद् द्विधा स्थितम् ॥”
‘‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।२.१६।।श्रीमद्भगवद्गीता’’
असत् वस्तु का तो अस्तित्व नहीं है और सत् का कभी अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्त्व, तत्त्वदर्शी ज्ञानी पुरुषों के द्वारा देखा गया है।
‘‘अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित् कर्तुमर्हति।।२.१७।।श्रीमद्भगवद्गीता’’
उस वस्तु को तुम अविनाशी जानों, जिससे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है। इस अव्यय का नाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है।
पद्मपुराणान्तर्गत श्रीमद्भागवत के माहात्म्य में गोकर्ण जी कहते हैं —
“देहेऽस्थिमांसरुधिरेऽभिमतिं त्यज त्वं जायासुतादिषु सदा ममतां विमुञ्च।
पश्यानिशं जगदिदं क्षणभङ्गनिष्ठं वैराग्यरागरसिको भव भक्तिनिष्ठः ॥ ७९ ॥” श्रीमद्भागवतपुराणम्/माहात्म्य (पाद्मे)/अध्यायः ०४
प्रभुभक्ति में निष्ठा रखने वाले हे जीव ! तू इस हाड़, मांस और रुधिर वाले शरीर का अभिमान छोड़, स्त्रीपुत्रादिक की ममता को सदा दूर कर, क्षणभर में विनष्ट होने वाले इस जगत् को सदा देख और वैराग्यराग का रसिक बन।
तथाऽनर्थे अर्ज्जनरक्षणादिना दुःखबहुलतया अपुरुषार्थे धनादौ अर्थप्रत्ययः|| अनर्थ में अर्थ की प्रतीति होना भी अविद्या है। सभी जानते हैं कि धन कमाने में परिश्रम करना पड़ता है और उसके रक्षण में भी बहुत चिन्ता करनी पड़ती है कि कहीं अयोग्य हाथों में न पड़ जाय, इस प्रकार धन भी शाश्वत सुख का कारण नहीं है।
स्वामी श्रीशंकराचार्यजी ने भी कहा है कि —
अर्थमनर्थं भावय नित्यं नास्ति ततः सुखलेशः सत्यम् |
पुत्रादपि धनभाजां भीतिः सर्वत्रैषा विहिता रीतिः ।।२९।।
यह बात पक्की है इसे आप निश्चितरूप से जानते रहें कि धन खतरे का स्रोत है। उस धनसे असली खुशी मिलेगी इसका कोई ठिकाना नहीं है। जिसके पास धन है, वह पुत्र पर भी संदेह करता है अथवा पुत्रसे भी उसे भय होता है, वह हमेशा आतंक की स्थिति में रहता है। इस स्थिति का कोई अपवाद नहीं है।
‘‘सद्रूपा न त्वभावोऽसौ मिथ्याबुद्धिस्वरूपिणी।
नितरामप्यसद्द्रव्ये सद्बुद्धिर्जायते तया ॥ ८८ ॥ योगसूत्रसारः’’
सङ्गति — इस अविद्या के कारण सबसे प्रथम जब चित्त और आत्मा में विवेक का (पृथक्करण का) अभाव हो जाता है तब जड़ चित्तमें आत्माका भाव आरोपित हो जाने से उसमें और आत्मा में अभिन्नता प्रकट होने लगती है; इससे अस्मिता (मैं हूँ) क्लेश उत्पन्न होता है, यह अविद्या का प्रथम कार्य है। जिसका लक्षण अगले सूत्र में बतलाया गया है।
दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवास्मिता ॥ २.६ ॥
दृग्-दर्शन-शक्त्यो: = दृक् शक्ति और दर्शनशक्ति का; एकात्मता-इव = एकरूप जैसा (भान) होना; अस्मिता = अस्मिता नामवाला (क्लेश) है।
दृक् शक्ति और दर्शनशक्ति इन दोनों का एक स्वरूप-जैसा भान होना अस्मिता क्लेश है।
पुरुष द्रष्टा है, चित्त दिखानेवाला उसका एक करण है। पुरुष चैतन्य है, चित्त जड़ है। पुरुष क्रियारहित है, चित्त प्रसवधर्मी अर्थात् क्रियावाला है। पुरुष केवल है, चित्त त्रिगुणमय है। पुरुष अपरिणामी है, चित्त परिणामशील है। पुरुष स्वामी और चित्त उसकी ‘स्व’ — मिलकीयत है। इस प्रकार ये दोनों अत्यन्त भिन्न हैं। पर अविद्या के कारण दोनों में भेद नहीं दीखता है। भोक्ता और भोग्य ये दोनों अत्यन्त विभक्त हैं , परन्तु अत्यंत सामीप्य के कारण जब ये दोनों आपस में मिल जाते हैं तभी भोग सम्भव होता है। यदि अपने द्रष्टा स्वरूप का ज्ञान हो जाय तो कैवल्य ही होता है, फिर कैसा भोग ? अर्थात् फिर भोग सम्भव नहीं। जैसा कि पञ्चशिखाचार्य ने कहा है — बुद्धितः परं पुरुषम् आकार-शील-विद्यादिभिर् विभक्तम् अपश्यन् कुर्यात् तत्रात्म-बुद्धिं मोहेन[पञ्चशिख]इति || पुरुष का आकार माने स्वरूप सदा विशुद्ध है । पुरुष का शील उदासीनता है । पुरुष विद्या-रूप माने चैतन्य है और बुद्धि अविशुद्ध, अनुदासीन और जड़ है उस जड़ बुद्धिमें आत्मबुद्धि कर लेना अविद्या की बेटी अस्मिता है। {इसीको अहंकार भी कहते हैं} (पुरुष) बुद्धि से परे पुरुषको स्वरूप, शील और अविद्या आदि क्लेशसे अलग न देखता हुआ मोह (अविद्या) से बुद्धि (चित्त) में आत्मबुद्धि कर लेता है। इस प्रकार जब अस्मिता हो जाती है तब —
‘‘असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी।।१६.१४।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
“यह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया है और दूसरे शत्रुओं को भी मैं मारूंगा”, “मैं ईश्वर हूँ और भोगी हूँ”, “मैं सिद्ध पुरुष हूँ”, “मैं बलवान और सुखी हूँ”,।
तस्मात् तत्संयोगादचेतनं चेतनावदिव लिङ्गम्।
गुणकर्तत्वे च तथा कर्तेव भवत्युदासीनः।। ( सांख्य कारिका २०)
इसलिए, [क्योंकि] उस पुरुष के संपर्क से अचेतन बुद्धि (सूक्ष्म शरीर) चेतन जैसा दृश्यमान होने लगता है, और निष्क्रिय [उदासीन] पुरुष गुणों के कर्तृत्व से क्रियाशील जैसा प्रतीत होने लगता है। जैसे लोहेका गोला अग्नि के संयोग से लाल-लाल दिखने लगता है और जला भी देता है। ऐसे ही चेतन के गुणों का बुद्धि में आरोप करके मैं शान्त आकारवाला हूँ , जागरूकता मेरा स्वभाव है तथा मैं विद्यावाला हूँ। यही बुद्धि और चेतन-पुरुष में परस्पर आरोप है और यह जो अस्मिता नामवाला अहंकार है, यही भोग का हेतु है।
‘‘कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते।।१३.२१।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
कार्य (शरीर) और करण (इन्द्रियों) के द्वारा होनेवाली क्रियाओंको उत्पन्न करनेमें प्रकृति हेतु कही जाती है और सुखदुःखोंके भोक्तापनमें पुरुष हेतु कहा जाता है।
‘‘पुरुषस्य तथा बुद्धेरत्यन्तं सुविभक्तयोः ।
मध्ये चैकात्मिका बुद्धिरस्मितेत्यभिधीयते ॥ ८९ ॥ योगसूत्रसारः’’
इस प्रकार पुरुष और चित्त में अविद्या के कारण एक-जैसा भान होना अस्मिता क्लेश है। इसीको हृदय-ग्रन्थि भी कहते हैं। यही असङ्गपुरुष और चित्त का परस्पर अध्यारोप है। इस अध्यारोपसे आत्मामें बन्धन का आरोप होता है।
उपनिषद में भी कहा है कि — ‘‘यत्र हि द्वैतमिव भवति तदितर इतरं जिघ्रति तदितर इतरं पश्यति तदितर इतरं शृणोति तदितर इतरमभिवदति तदितर इतरं मनुते तदितर इतरं विजानाति यत्र वा अस्य सर्वमात्मैवाभूत्तत्केन कं जिघ्रेत्तत्केन कं पश्येत्तत्केन कं शृणुयात्तत्केन कमभिवदेत्तत् केन कं मन्वीत तत् केन कं विजानीयाद्येनेदं सर्वं विजानाति तं केन विजानीयाद्विज्ञातारमरे केन विजानीयादिति॥१४॥ बृहदारण्यकोपनिषद द्वितीयोऽध्यायःचतुर्थं ब्राह्मणम्’’ “क्योंकि जब द्वैत होता है, तब ही कोई दूसरे को सूंघता है, कोई दूसरे को देखता है, कोई दूसरे को सुनता है, कोई दूसरे से बोलता है, कोई दूसरे के बारे में सोचता है, कोई दूसरे को जानता है। लेकिन जब सब कुछ आत्म ही बन गया है, तो उसे क्या सूंघना चाहिये और किसके माध्यम से, क्या देखना चाहिये और किसके माध्यम से, क्या सुनना चाहिये और किसके माध्यम से, क्या बोलना चाहिये और किसके माध्यम से, क्या सोचना चाहिये और किसके माध्यम से, क्या जानना चाहिये और किसके माध्यम से जानना चाहिये? जिस से यह सब जाना जाता है – उस मेरे प्रिय, विज्ञाता को कौन किससे कैसे और क्या जाने?”
‘‘यदा ह्येवैष एतस्मिन् उदरमन्तरं कुरुते । अथ तस्य भयं भवति ॥ – तैत्तिरीयोपनिषत् २-७-५’’ न हि तस्माद्विदुषः अन्यद्वस्त्वन्तरमस्ति भिन्नं यतो बिभेति । अविद्यया यदा उदरमन्तरं कुरुते, अथ तस्य भयं भवतीति हि युक्तम् ।
जब हमारी ‘अन्तरात्मा’ स्वयं के लिए ‘ब्रह्म’ में स्वल्पमात्र भी भेद करती है, तो वह भयभीत होता है; जो विद्वान् मननशील नहीं है, उसके लिए स्वयं ‘ब्रह्म’ ही एक भय बन जाता है। जिसके विषय में ‘श्रुति’ का यह वचन है। *द्वितीयाद्वै भयं भवति॥*(बृहदारण्यक उपनिषद्ः१.४.२) . निश्चित रूप से, यह दूसरी इकाई से ही है इसीलिये भय उत्पन्न होता है।
मुण्डक-उपनिषद में इस ग्रन्थिके भेदनका उपाय विवेकख्याति बतलाया है। यथा — ‘‘भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे॥९॥ मुण्डकोपनिषद् द्वितीयो मुण्डकःद्वितीयः खण्डः’’
उस कार्यकारण स्वरूप ब्रह्म का साक्षात्कार होते ही मनुष्य के हृदय की सारी ग्रथियाँ खुल जाती हैं, समस्त संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, तथा मनुष्य के (प्रारब्धादि) कर्मों का क्षय हो जाता है, जब उस ‘परतत्त्व’ का दर्शन हो जाता है, जो एक साथ ही अपरा सत्ता एवं ‘परम सत्ता’ है।
पुरुष से प्रतिबिम्बित अथवा प्रकाशित चित्तकी संज्ञा अस्मिता है और पुरुष एवं चित्तमें अभिन्नताकी प्रतीति अस्मिता क्लेश है। पुरुष और चित्तमें भेद-ज्ञान विवेकख्याति है।
सङ्गति — इस अस्मिता क्लेश के कारण मन, इन्द्रयों एवं शरीरमें आत्मभाव अर्थात् ममत्व और अहमत्व पैदा हो जाता है और उनके सुख पहूँचानेवाले विषयोंमें और वस्तुओंमें राग उत्पन्न हो जाता है, जिसका लक्षण अगले सूत्रमें कहते हैं।
सुखानुशयी रागः ॥ २.७ ॥
सुख-अनुशयी = सुख भोगने के पीछे जो चित्तमें उसके भोगने की इच्छा रहती है; रागः = उसका नाम राग है। सुखानुजन्मा रागः ||
सुख भोग के पीछे जो चित्तमें सुख को भोगने की इच्छा रहती है, वह राग नाम का क्लेश है।
शरीर, इन्द्रियों और मनमें आत्माध्यास हो जानेपर जिन वस्तुओं और विषयोंसे सुख प्रतीत होता है, उनमें और उनके प्राप्त करने के साधनों में जो इच्छा-रूप तृष्णा और लोभ पैदा हो जाता है, उसके जो संस्कार चित्त में गहरे जम जाते हैं, उसीका नाम राग-क्लेश है।
‘‘इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।३.३४।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
इन्द्रिय-इन्द्रियके अर्थमें (प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें) मनुष्यके राग और द्वेष व्यवस्थासे (अनुकूलता और प्रतिकूलताको लेकर) स्थित हैं। मनुष्यको उन दोनोंके वशमें नहीं होना चाहिये; क्योंकि वे दोनों ही इसके (पारमार्थिक मार्गमें विघ्न डालनेवाले) शत्रु हैं।
यदि सभी जीव अपनीअपनी प्रकृतिके अनुरूप ही चेष्टा करते हैं प्रकृतिसे रहित कोई है ही नहीं तब तो पुरुषके प्रयत्नकी आवश्यकता न रहनेसे विधिनिषेध बतलानेवाला शास्त्र निरर्थक होगा इसपर यह कहते हैं इन्द्रिय इन्द्रियके अर्थमें अर्थात् सभी इन्द्रियोंके शब्दादि विषयोंमें राग और द्वेष स्थित हैं अर्थात् इष्टमें राग और अनिष्टमें द्वेष ऐसे प्रत्येक इन्द्रियके विषयमें राग और द्वेष दोनों अवश्य रहते हैं। वहाँ पुरुषप्रयत्नकी और शास्त्रकी आवश्यकताका विषय इस प्रकार बतलाते हैं शास्त्रानुसार बर्तनेमें (आचरणमें) लगे हुए मनुष्यको चाहिये कि वह पहलेसे ही रागद्वेषके वशमें न हो। अभिप्राय यह कि मनुष्यकी जो प्रकृति है वह रागद्वेषपूर्वक ही अपने कार्यमें मनुष्यको नियुक्त करती है। तब स्वाभाविक ही स्वधर्मका त्याग और परधर्मका अनुष्ठान होता है। परंतु जब यह जीव प्रतिपक्षभावनासे रागद्वेषका संयम कर लेता है तब केवल शास्त्रदृष्टिवाला हो जाता है फिर यह प्रकृतिके वशमें नहीं रहता। इसलिये ( कहते हैं कि ) मनुष्यको रागद्वेषके वशमें नहीं होना चाहिये क्योंकि वे ( रागद्वेष ) ही इस जीवके परिपन्थी हैं अर्थात् चोरकी भाँति कल्याणमार्गमें विघ्न करनेवाले हैं।
सङ्गति — यह राग ही द्वेषका कारण है, क्योंकि चित्त में राग के संस्कार दृढ़ हो जाने पर जिन वस्तुओं से शरीर, इन्द्रियों और मन को दुःख प्रतीत हो अथवा जिनसे सुखके साधनों में विघ्न पड़े, उनसे द्वेष होने लगता है। अतः अब अगले सूत्र में द्वेष का लक्षण कहते हैं।
दुःखानुशयी द्वेषः ॥ २.८ ॥
दुःख-अनुशयी, दुःखानुजन्मा = दुःख के अनुभव के पीछे जो तिरस्कार (घृणा) की वासना चित्तमें रहती है उसको ; द्वेषः = द्वेष कहते हैं।
दुःख के अनुभव के पीछे जो तिरस्कार (घृणा) की वासना चित्तमें रहती है, उसको द्वेष कहते हैं। जिन वस्तुओं अथवा जिन साधनों से दुःख प्रतीत हो, उनसे जो घृणा और क्रोध हो, उसके जो संस्कार चित्तमें पड़े, उसको द्वेष-क्लेश कहते हैं।
‘‘सुखे तत्साधने गर्धो राग इत्याभिधीयते।
दुःखे तत्साधने मन्युर्द्वेष इत्यभिधीयते ॥ ९० ॥ योगसूत्रसारः’’
अर्थात् जब कभी भी हम किसी भी सुख को भोगते हैं तो भोगने के बाद हमारे अंतःकरण (मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार) में उस सुख और जिन साधनों से हमें सुख प्राप्त हुआ था उनके प्रति पुनः भोग करने की जो इच्छा है, उस इच्छा विशेष को या लोभ विशेष को राग नाम का क्लेश कहते हैं। तथा दुःख और उसके साधनों के प्रति जो क्रोध होता है उसे द्वेष नामक क्लेश कहते हैं।
“आशा हि परमं दुःखं नैराश्यं परमं सुखम्।” आशा (अपेक्षा) करना ही परम दुःख है और निराशा (नैरपेक्ष्य) का भाव परम सुख है | भगवान के प्रति राग और भौतिक-प्रपञ्च (जगज्जाल) के प्रति द्वेष अनुचित नहीं है।
सङ्गति — द्वेष-क्लेश ही अर्थात् शरीर, इन्द्रियों आदिको दुःखोंसे बचानेके संस्कार ही अभिनिवेशके कारण हैं, जैसा कि अगले सूत्रसे स्पष्ट होता है।
स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारूढोऽभिनिवेशः ॥ २.९ ॥
स्वरसवाही = स्वभाव से बहनेवाला (जो कुदरती तौरपर बह रहा है); विदुष:-अपि = विद्वान के लिये भी; तथारूढ: = ऐसा ही प्रसिद्ध है (जैसा कि मूर्खोंके लिये वह); अभिनिवेशः = अभिनिवेश क्लेश है। अभिनिवेश माने मरने का भय अर्थात् जीवन के प्रति ममता है ।
‘‘विदुषोऽपि सदाऽसक्तिर्जीवने वर्तते खलु।
अभिनिवेश इत्येषः क्लेशस्तत्रास्ति कारणम् ॥ ९१ ॥ योगसूत्रसारः’’
(जो मरनेका भय हर एक प्राणी में) स्वभावतः बह रहा है और विद्वानोंके लिये भी ऐसा ही प्रसिद्ध है (जैसा कि मूर्खोंके लिये) वह अभिनिवेश नामवाला क्लेश है।
स्वरसवाही — स्वस्य रसेन संस्कारमात्रेण वहतीति स्वरसवाही। स्वरस माने अपनी वासना द्वारा; वाही माने प्रवृत्त होरहा है अर्थात् मरणभय के संस्कार जो जन्म-जन्मान्तरोंसे प्राणीमात्रके चित्तमें स्वभावसे ही चले आरहे हैं।
विदुषः — यह शब्द यहाँ केवल शब्दोंके जाननेवाले विद्वान् के लिये प्रयुक्त हुआ है। अर्थात् वह पुरुष जिसने कोरे शास्त्रोंको पढ़ा है और क्रियात्मकरूपसे योगद्वारा अनुभव तथा यथार्थ ज्ञान प्राप्त नहीं किया है। अभिनिवेश का अर्थ है ‘मा न भूवं भूयासमिति, जीव्यासम् इति’ = ऐसा न हो कि मैं न होऊं, किन्तु मैं बना रहूँ। ‘शरीरविषयादिभिः मम वियोगो मा भूदिति,धनं मे मा नश्यतु, सदैव भूयादिति।’ = शरीर और विषयादि (रूप-रसादि) से मेरा वियोग न हो। “अभिनिवेशोमरण-भयम्।” चींटी से लेकर ब्रह्मा तक को मृत्युका भय सताता है। जब कि आत्मा अजर-अमर है, जैसा कि सभी उपनिषदों में तथा गीता के दूसरे अध्याय में भी बतलाया है —
‘‘यदात्मतत्त्वेन तु ब्रह्मतत्त्वं दीपोपमेनेह युक्तः प्रपश्येत् । अजं ध्रुवं सर्वतत्त्वैर्विशुद्धं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपापैः ॥ १५॥श्वेताश्वतरोपनिषद् द्वितीयोऽध्यायः’’
जब योगी इस शरीर में स्थित आत्म तत्व के सत्य के द्वारा ब्रह्म तत्व के सत्य को आत्म-प्रकाशित सत्ता के रूप में अनुभव कर लेता है, तब उस सत्ता को अजन्मा, शाश्वत तथा प्रकृति के सभी तत्वों सें मुक्त और शुद्ध जान कर वह सभी बन्धनों से छूट जाता है।
‘‘य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।२.१९।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है और जो इसको मरा समझता है वे दोनों ही नहीं जानते हैं, क्योंकि यह आत्मा न मरता है और न मारा जाता है।
‘‘न जायते म्रियते वा कदाचि न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।२.२०।।श्रीमद्भगवद्गीता’’
यह आत्मा किसी काल में भी न जन्मता है और न मरता है और न यह एक बार होकर फिर अभावरूप होने वाला है। यह आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है, शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता।
‘‘वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्।।२.२१।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
हे पार्थ ! जो पुरुष इस आत्मा को अविनाशी, नित्य और अव्ययस्वरूप जानता है, वह कैसे किसको मरवायेगा और कैसे किसको मारेगा?
‘‘वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।२.२२।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही देही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।
‘‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।२.२३।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते और न अग्नि इसे जला सकती है ; जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती।
‘‘अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।।२.२४।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य (काटी नहीं जा सकती), अदाह्य (जलाई नहीं जा सकती), अक्लेद्य (गीली नहीं हो सकती ) और अशोष्य (सुखाई नहीं जा सकती) है; यह नित्य, सर्वगत, स्थाणु (स्थिर), अचल और सनातन है।
‘‘अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।।२.२५।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
यह आत्मा अव्यक्त अर्थात् इन्द्रियों का अविषय और यह आत्मा अचिन्त्य अर्थात् मनका अविषय और यह आत्मा अविकारी कहा जाता है; इसलिए इसको इस प्रकार जानकर तुमको शोक करना उचित नहीं है।
‘‘अन्तेषु रेमिरे धीरा न ते मध्येषु रेमिरे । अन्तप्राप्तिं सुखायाहु र्दुःखमन्तरमन्तयोः ॥१२-१७३-३५॥ महाभारतम्-शांतिपर्व’’
ज्ञानी पुरुष अन्तिम स्थितियों में रमण करते हैं, मध्यवर्ती स्थिति में नहीं। अन्तिम स्थितिकी प्राप्ति सुखस्वरूप बताई जाती है और उन दोनों के मध्यकी स्थिति दुःखरूप कही गयी है। {धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष में से मोक्ष अन्तिम है और सालोक्य,सामीप्य, सारूप्य और सायुज्य नामवाली मुक्तियों में से सायुज्य अन्तिम है} यह अभिनिवेश नामवाला क्लेश अत्यंत सूक्ष्म रूप में सदैव कार्यरत है। इसलिए जो निरंतर तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान रूपी साधना त्रय का आश्रय लेकर जीवन में आगे बढ़ते हैं वे धीरे-धीरे मृत्यु के भय से मुक्त होते चले जाते हैं और जब किसी योगी को पूर्ण रूप से यथार्थ का या तत्त्वज्ञान का अनुभव हो जाता है तब वह न तो स्वयं की मृत्यु के भय से ग्रसित होता है और ना ही किसी भी अन्य प्राणी की मृत्यु पर व्यथित होता है।
फिर भी राग-द्वेष के कारण शरीरमें आत्माध्यास हो जाता है और मूर्खसे लेकर विद्वान् तक अपने वास्तविक आत्मस्वरूपको भूलकर भौतिक शरीरकी रक्षामें लगे रहते हैं और उसके नाश से घवराते हैं। इस मृत्युके भयके जो संस्कार चित्तमें पड़ जाते हैं, इन्हीं को अभिनिवेश क्लेश कहते हैं। यह अभिनिवेश क्लेश ही सकाम कर्मोंका कारण है, जिनकी वासनाऐं चित्तभूमिमें बैठकर वर्तमान और अगले जन्मों (आवागमन) को देनेवाली होती है।
सङ्गति — सब क्लेशोंके बीजरूप होनेसे जो पॉंचों क्लेश त्यागने योग्य हैं, उन पाँचों क्लेशों और उन क्लेशोंकी प्रसुप्त,तनु, विच्छिन्न और उदार-रूप चार अवस्थाओंका पूर्व सूत्रोंमें निरूपण किया गया है। परन्तु प्रसंख्यान-रूप (विवेक- ख्यातिरूप) अग्नि द्वारा दग्ध-बीज-भावको प्राप्त हुए क्लेशोंकी पाँचवीं अवस्थाका क्यों नहीं वर्णन किया गया ? इस शङ्का के निवारणार्थ अगला सूत्र है —
ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः ॥ २.१० ॥
ते = वे (पूर्वोक्त पाँच क्लेश); प्रतिप्रसवहेयाः = (असम्प्रज्ञात-समाधिद्वारा) चित्त के अपने कारणमें लीन होनेसे त्यागने अर्थात् निवृत्त करने योग्य हैं; सूक्ष्माः = क्रिया-योगसे सूक्ष्म और प्रसंख्यान (विवेकख्यातिरूप) अग्निसे दग्ध-बीज हुए।
वे पूर्वोक्त पाँच क्लेश, जो क्रिया-योगसे सूक्ष्म और प्रसंख्यान अग्निसे दग्ध-बीज हो गये हैं, असम्प्रज्ञात-समाधिद्वारा चित्तके अपने कारणमें लीन होनेसे निवृत्त करने योग्य हैं।
ते पञ्च क्लेशा दग्धबीजकल्पा योगिनश्चरिताधिकारे चेतसि प्रलीने सह तेनैवास्तं गच्छन्ति। (व्यासभाष्य)
वे पाँच क्लेश, जो दग्धबीज के सदृश हैं, योगीके चरिताधिकार चित्तके अपने कारण में लीन होते समय उसी चित्तके साथ लीन हो जाते हैं।
चित्तके प्रलय अर्थात् अपने कारणमें लीन होनेका नाम ‘प्रतिप्रसव’ और त्यागनेयोग्य होनेका नाम ‘हेय’ है। (‘प्रसव’ का अर्थ उत्पत्ति है,उससे विरुद्ध ‘प्रतिप्रसव’ का अर्थ प्रलय अर्थात् अपने कारणमें लीन होने का है।
ये अविद्या आदि पञ्च क्लेश अत्यंत सूक्ष्म हैं। ये चित्त रूपी जिस प्रकृति से उत्पन्न हुए हैं, उसी में लीन होने योग्य होने से त्याज्य हैं।
क्रियायोग (अथवा सम्प्रज्ञात समाधि) से सूक्ष्म किये हुए क्लेश जब प्रसंख्यान (विवेकख्याति) रूप अग्निसे दग्ध-बीजके समान हो जाते हैं, तब असम्प्रज्ञात- समाधिद्वारा समाप्त अधिकारवाले चित्तके अपनी प्रकृतिमें लीन होनेसे वे क्लेश भी उसके साथ लीन होकर निवृत्त हो जाते हैं। प्रतिप्रसव के अतिरिक्त उन क्लेशोंके निरोधके लिये अन्य किसी यत्नकी आवश्यकता नहीं है।
सङ्गति — क्रिया-योग (अथवा सम्प्रज्ञात समाधि) से तनु किये हुए अङ्कुर उत्पन्न करनेकी शक्तिरूप बीजभावके सहित जो तनु क्लेश हैं, वे तनुरूप क्लेश किस विषयक प्रयत्न से दूर होते हैं ? इसको अगले सूत्रमें बतलाते हैं।
ध्यानहेयास्तद्वृत्तयः ॥ २.११ ॥
ध्यानहेया: = (प्रसंख्यान-संज्ञक) ध्यानसे त्यागने योग्य हैं ; तद्वृत्तयः = (क्लेशोंकी स्थूल वृत्तियाँ) सुख-दुःख और मोह रूप वाली, जो क्रिया-योगद्वारा तनू कर दी गयी हैं।
‘‘चित्तस्य विलयेनैते हेयाः क्लेशाश्च चित्तजाः।
क्लेशानां वृत्तयः स्थूलाः हेया ध्यानेन योगिना ॥ ९२ ॥ योगसूत्रसारः’’
क्लेशोंकी स्थूल वृत्तियाँ जो क्रिया-योगद्वारा तनू कर दी गयी हैं, प्रसंख्यान (विवेकख्याति) संज्ञक ध्यानसे त्यागने योग्य हैं। (जबतक कि वे सूक्ष्म होकर दग्ध-बीजके सदृश न हो जायँ।
अङ्कुर उत्पन्न करनेकी शक्तिरूप बीजभावके सहित जो चित्तमें क्लेश स्थित हैं, वे क्रिया-योग (अथवा सम्प्रज्ञात-समाधि) से तनु करते हुए प्रसंख्यान (विवेकख्याति) रूप ध्यानसे त्यागने योग्य हैं, जबतक कि वे सूक्ष्म होते-होते दग्ध-बीजके सदृश न हो जायँ। अर्थात् तबतक प्रसंख्यानविषयक प्रयत्न करते रहना चाहिये।
जैसे वस्त्रका स्थूल मल {धूल आदि} प्रक्षालन आदिसे सुगमतासे दूर किया जा सकता है, परन्तु सूक्ष्म-मल {तेल,घी आदि} विशेष यत्नसे (साबुन,क्षार आदि लगाकर, पत्थर पर रखकर लकड़ी आदि से पीटकर,गर्म पानी में उबालकर) दूर करना होता है, ऐसे ही क्लेशोंकी स्थूल वृत्तियाँ कम दुःख देनेवाली हैं (छोटे शत्रु हैं); किंतु क्लेशोंकी सूक्ष्म वृत्तियाँ अधिक दुःखदायी हैं (महान शत्रु हैं।) अर्थात् उदार क्लेशोंकी वृत्तियाँ स्थूलरूपसे ही वर्तमान रहतीं हैं, उनको क्रिया-योग अर्थात् तप,स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान के द्वारा (अथवा सम्प्रज्ञात-समाधि) द्वारा तनु करना चाहिये। ये तनु किये हुए क्लेशों की सूक्ष्म-वृत्तियाँ स्थूल-वृत्तयों से अधिक दुःख देनेवाली और महान शत्रु हैं। इसलिये इनकी निवृत्ति करने के लिये विशेष प्रयत्न की आवश्यकता है। इन तनु किये हुए क्लेशोंकी सूक्ष्म-वृत्तियोंको प्रसंख्यान माने सम्यग्दर्शनरूप ध्यान की अग्नि से दग्ध-बीजके सदृश कर देना चाहिये; फिर ये दग्ध-बीज होकर असम्प्रज्ञात-समाधिमें चित्तके प्रलय होनेपर उसके साथ स्वयं ही प्रलीन हो जातीं हैं, जैसा कि पूर्व सूत्रमें बतलाया गया है।
सङ्गति — क्लेश क्यों छोड़ने चाहिये ? क्योंकि क्लेश ही सकाम कर्मोंके कारण हैं, जिनकी वासनाऐं मनुष्यको संसारचक्रमें डालतीं हैं। अतः अब जन्म,आयु और भोग के हेतु, क्लेश और कर्माशय के बारे में अगले सूत्रमें बताते हैं।
क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः ॥ २.१२ ॥
क्लेशमूलः = क्लेश जिसकी जड़ है ऐसी; कर्माशयः = कर्मकी वासना; दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः = वर्त्तमान और आनेवाले जन्मोंमें भोगनेयोग्य है।
क्लेश जिसकी जड़ है ऐसी कर्मोंकी वासना वर्त्तमान और अगले जन्मोंमें भोगनेयोग्य है।
‘‘क्लेशे सत्येव वर्तेते धर्माधर्मौ हि जीवने ।
वेदनीयौ यथा दृष्टे तथाऽदृष्टे च जन्मनि ॥ ९३ ॥ ’’
‘‘सुखदुःखे तयोर्जाते विपाकस्त्रिविधस्तयोः।
क्लेशमूलो विपाकोऽयं जात्यादिर्जीवने सदा ॥ ९४ ॥ योगसूत्रसारः’’
सूत्रमें ‘कर्माशयः’ शब्दसे कर्माशय का स्वरूप, ‘क्लेशमूलः’ से उसका कारण और ‘दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः’ से उसका फल बतलाया गया है। जिन महान् योगियोंने क्लेशोंको निर्बीज समाधिद्वारा उखाड़ दिया है, उनके कर्म निष्काम अर्थात् वासनारहित केवल कर्तव्यमात्र रहते हैं, इसलिये उनको इनका फल भोग्य नहीं है। जब चित्तमें क्लेशोंके संस्कार जमे होते हैं, तब उनसे सकाम कर्म उत्पन्न होते हैं। बिना रजोगुण के कोई क्रिया नहीं हो सकती। इस रजोगुणका जब सत्वगुणके साथ मेल होता है, तब ज्ञान, धर्म, वैराग्य और ऐश्वर्यके कर्मोंमें प्रवृत्ति होती है और जब तमोगुणके साथ मेल होता है, तब उसके उलटे— अज्ञान, अधर्म, अवैराग्य और अनैश्वर्यके कर्मोंमें प्रवृत्ति होती है। यही दोनों प्रकारके कर्म शुभ-अशुभ, शुक्ल-कृष्ण, और पाप-पुण्य कहलाते हैं। जब तम तथा सत्व दोनों रजोगुणसे मिले हुए होते हैं, तब दोनों प्रकारके कर्मोंमें प्रवृत्ति होती है और ये कर्म पुण्य-पापसे मिश्रित कहलाते हैं। इन कर्मोंसे इन्हीं के अनुकूल फल भोगनेके बीज-रूप जो संस्कार चित्तमें पड़ते हैं, उन्हींको वासना कहते हैं। यही मीमांसकोंका अपूर्व और नैयायिकोंका अदृष्ट है, इसीको सूत्रमें कर्माशयके नामसे बतलाया गया है।
“आशेरते सांसारिकाः पुरुषा अस्मिन्नित्याशयो धर्माधर्मरूपः संस्कारः। स द्विविधः। पुण्यापुण्यकर्माशयः कामलोभमोहक्रोधप्रभवः दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः।”
पुण्य कर्माशय मनुष्योंसे ऊंचे देवताओं आदिके सदृश भोग देनेवाले होते हैं। पाप कर्माशय मनुष्यसे नीचे पशु-पक्षी आदिके तुल्य भोग देनेवाले होते हैं। पाप और पुण्यमिश्रित कर्माशय मनुष्योंके समान भोग-फल देनेवाले होते हैं। ऊपर तीन श्रेणियोंमें बतलाये हुए कर्मोंमें केवल शरीर अथवा इन्द्रियाँ कारण नहीं होतीं, वास्तविक कारण उनमें मनोवृत्ति होती है। इस हेतु वह मनोवृत्ति ही वास्तविक कर्म है, जिसकी प्रेरणासे शरीर तथा इन्द्रियोंमें क्रिया होती है। उसीसे वासनाओंके संस्कार पड़ते हैं। ये मनोवृत्तियाँ अनन्त हैं और इनसे उत्पन्न हुए कर्माशय अथवा फल-भोगके संस्कार भी अनन्त हैं। इस प्रकार मनोवृत्तिरूप कर्मोंसे वासनाऐं और वासनाओंसे कर्म उत्पन्न होते रहते हैं। यह क्रम बराबर चलता रहता है जबतक कि उनके प्रतिपक्षी या उनसे बलवान् कर्म उनको दबा न दें। इसीलिए कहा जाता है- भगवान के घर में देर तो हो सकती है लेकिन अंधेर नहीं हो सकती । कुछ कर्माशय वर्तमान जन्ममें, कुछ अगले जन्ममें और कुछ दोनों जन्मोंमें फल देते हैं। जब तक ये कर्म अपना फल नहीं दे लेते तब तक सोते रहते हैं इसीलिये इसको कर्माशय कहा जाता है। इसको विस्तारपूर्वक अगले सूत्रमें बतलाया जायगा।
‘‘रागद्वेषादयो दोषाः सर्वे भ्रान्तिनिबन्धनाः ।
कर्माण्यस्य भवेद् दोषः पुण्यापुण्यमिति स्थितिः।।२.२१।।
तद्वशादेव सर्वेषां सर्वदेहसमुद्भवः ।
नित्यः सर्वत्रगो ह्यात्मा कूटस्थो दोषवर्जितः।।२.२२ ।। ॥ ईश्वरगीता कूर्मपुराणे ॥ कूर्मपुराणम्-उत्तरभागः/द्वितीयोऽध्यायः’’
जब महापुरुषों के प्रति उपकार या अपकार किया जाता है तब कर्माशय शीघ्र ही फल दे देता है , जैसे शिलाद मुनि का कुमार नन्दीश्वर देवता बन गया और महाराज नहुष देवता से अजगर योनि में चले गए। {शिवजी के वाहन नन्दीश्वर पुरुषार्थ अर्थात् परिश्रम के प्रतीक हैं।} देवता की आराधना यदि तीव्रसंवेग से की जाय तो इसी जन्म में फल मिल सकता है। विश्वामित्र आदि ने तप के प्रभावसे इसी जन्म में उत्तम जाति और आयु प्राप्त की यह बात प्रसिद्ध ही है। और भी ऐसी बहुतसी कथाएं मिलती हैं जिनमें शीघ्र ही जात्यन्तर हो गया |
जैसे कि — ब्रह्मचर्य का व्रत लेकर भगवान कार्तिकेय एक बन में रहते थे। उन्होंने यह नियम बना दिया था कि जो भी स्त्री यहाँ आएगी वह लता बन जाएगी। इसलिए जैसे ही उर्वशी ने उस वन में प्रवेश किया, वह लता बन गई।
‘‘त्रिभिर्वर्षैः त्रिभिर्मासैः त्रिभिर्पक्षैः त्रिभिर्दिनैः।
अत्युत्कटैः पापपुण्यैः इहैव फलमश्नुते।।’’
उत्कट पापों या पुण्यों का फल इसी जन्म में तीन वर्ष, तीन मास, तीनपक्ष या तीन दिन में उसके कर्ता को भोगना पड़ता है।
‘‘काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।।४.१२।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
कर्मोंकी सिद्धि (फल) चाहनेवाले मनुष्य देवताओंकी उपासना किया करते हैं; क्योंकि इस मनुष्यलोकमें कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाली सिद्धि जल्दी मिल जाती है।
“तत्र नारकाणां नास्ति दृष्टजन्मवेदनीयः कर्माशयः। क्षीणक्लेशानामपि नास्त्यदृष्टजन्मवेदनीयः कर्माशय इति। यतः कर्मणां शुभाशुभानां क्लेशा एव निमित्तम्।”
नारकीय प्राणियों के लिये उनके वर्तमान जन्म के कर्माशयके भोग में परिवर्तन नहीं होता तथा जिन योगियों के अविद्यादि क्लेश क्षीण हो गये हैं उनके भी भविष्य जन्म के कर्माशय ही समाप्त हो जाते हैं अतः भोगकी सम्भावना ही नहीं रहती तो फिर परिवर्तन का प्रश्न ही नहीं होता। क्योंकि शुभ और अशुभ कर्मोंका निमित्त अविद्या आदि क्लेश ही होते हैं।
‘‘यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते।।१८.१७।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न मारता है और न (पाप से) बँधता है।
सङ्गति — इन कर्माशयोंके अनुसार ही इनका फल, जाति, आयु और भोग होता है; यह बतलाते हैं।
सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः ॥ २.१३ ॥
सति मूले = अविद्या आदि क्लेशोंकी जड़के विद्यमान होते हुए; तद्विपाक: = उसका (कर्माशयका) फल; जाति-आयु-भोगाः = जाति, (जन्म) आयु (चिरकाल तक एक शरीर का सम्बन्ध रहना) और भोग (विषय और इन्द्रियों के सम्बन्ध से सुख-दुःख के अनुभव) होते हैं।
अविद्या आदि क्लेशोंकी जड़के होते हुए उस (कर्माशयका) फल जाति, (जन्म) आयु (जीवन काल) और भोग (सुख दुःख) होता है।
‘‘जातिरायुश्च भोगश्च विपाकस्त्रिविधो मतः।
एकदेहभवादेषो नन्वेकभविको मतः ॥ ९५ ॥ योगसूत्रसारः’’
मनुष्य जाति, पशु-पक्षियों की जाति, देव जाति तथा कीट पतंगों की जाति ; इन सबको ‘जाति’ शब्द से समझना चाहिये। बहुत कालतक एक शरीर का सम्बन्ध रहना ‘आयु’ शब्द का अर्थ है। इन्द्रियों के सम्बन्ध से रूप-रसादि का अनुभव करना ‘भोग’ शब्द का अर्थ है। कोई भी क्लेश युक्त कर्म भविष्य में इन्हीं तीन रूपों में फल देगा। ‘अन्त समय जो मति सो गति’ तथा गीता और उपनिषद् में भी ऐसा ही बतलाया गया है। यथा —
‘‘यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।।८.६।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
हे कौन्तेय ! (यह जीव) अन्तकाल में जिस किसी भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर को त्यागता है, वह सदैव उस भाव के चिन्तन के फलस्वरूप उसी भाव को ही प्राप्त होता है।
‘स साध्वासाधुकर्मभ्यां सदा न तपति प्रभुः।
ताप्यतापकरूपेण विभातमखिलं जगत् ॥ ४०॥
प्रत्यगात्मतया भाति ज्ञानाद्वेदान्तवाक्यजात् ।
शुद्धमीश्वरचैतन्यं जीवचैतन्यमेव च।। ||४१||
प्रमाता च प्रमाणं च प्रमेयं च फलं तथा।
इति सप्तविधं प्रोक्तं भिद्यते व्यवहारतः ।। ||४२||
मायोपाधिविनिर्मुक्तं शुद्धमित्यभिधीयते।
मायासंबन्धतश्चेशो जीवोऽविद्यावशस्तथा ॥ ||४३||
अन्तःकरणसंबन्धात्प्रमातेत्यभिधीयते ।
तथा तद्वृत्तिसंबन्धात्प्रमाणमिति कथ्यते ॥ ||४४||
अज्ञातमपि चैतन्यं प्रमेयमिति कथ्यते।
तथा ज्ञातं च चैतन्यं फलमित्यभिधीयते ॥ ||४५||
सर्वोपाधिविनिर्मुक्तं स्वात्मानं भावयेत्सुधीः।
एवं यो वेद तत्त्वेन ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ||४६||
सर्ववेदान्तसिद्धान्तसारं वच्मि यथार्थतः ।
स्वयं मृत्वा स्वयं भूत्वा स्वयमेवावशिष्यते ॥ ||४७|| कठरुद्रोपनिषत्’’
वह सत्य-असत्य कर्मों के द्वारा कभी भी संतप्त नहीं होता । विषय भोग तापक हैं और चित्त ताप्य है, चित्त एवं उसके विषयों से यह सम्पूर्ण विश्व विभासित हो रहा है ॥ [पदार्थ विज्ञान ने पदार्थ के स्पन्दनों के अनुभव करने वाले माध्यम ( सैन्सर्स) खोजे हैं, भाव स्पन्दनों का अनुभव करने वाला माध्यम ( सैन्सर) चित्त है। विषय-भोगों द्वारा स्पंदन उत्पन्न करने तथा चित्त द्वारा उनका अनुभव किए जाने की क्षमताओं का संयोग ही भासित होने वाले विश्वका मूल कारण है, अन्यथा कुछ नहीं है। जैसे पदार्थ द्वारा प्रकाश का परावर्तन तथा आँख द्वारा उसका अनुभव करने की क्षमता के संयोग से हर दृश्य-रूप बनता है।] वेदान्त-शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि वह प्रत्येक आत्मा के रूप में है। सात तरह के जिन तत्वों का वर्णन किया गया है, वे ब्रह्म, ईश्वर, जीव, प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय और फल हैं, इसमें व्यावहारिक दृष्टि से भेद माना गया है। परम परमात्मा तो शुद्ध-चैतन्य स्वरूप हैं. वह माया के द्वारा निर्मित उषाधियों से सदा-सर्वदा मुक्त रहता है। मायारूप होने से वह ईश्वर है एवं अविद्या (अज्ञान) के वश में होने के कारण वह जीव हो जाता है। उसका अन्त:करण से सम्बन्ध होने से वही प्रमाता (ज्ञाता) कहा जाता है। उसके चित्त द्वारा अनुभूति के सम्बन्ध से वह प्रमाण संज्ञा को प्राप्त होता है। वह चैतन्य युक्त ब्रह्म जब तक खोजा जाता है, तब तक प्रमेय है। और वही जब ज्ञात हो जाता है, तब फल संज्ञक हो जाता है। इसलिए बुद्धिमान् पुरुष, अपने आपको ‘मैं सब उपाधियों से मुक्त हूँ’ ऐसा मानकर मुक्तावस्था का सतत चिंतन करे। इस प्रकार जो तत्वतः जानता है, वह ब्रह्मत्व को प्राप्त करने में सदा ही समर्थ होता है। मैंने वेदान्त के सर्वसिद्धान्तों का सार यथार्थरूप में कहा है। अपने कर्मों से जीव स्वयं ही उत्पन्न होता है, स्वयं ही मृत्यु को प्राप्त होता है और स्वयं ही अवशिष्ट रूप में बचा रहता है। यह सब आत्मा का ही खेल है, आत्मा के अतिरिक्त अन्य कोई दूसरा तत्व नहीं है। यही इस उपनिषद् का रहस्य है॥
ज्ञान ही क्लेशों के क्षय का हेतु है जैसा कि गीताजी में कहा गया है। —
‘‘यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।४.३७।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनोंको सर्वथा भस्म कर देती है, ऐसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मोंको सर्वथा भस्म कर देती है।
ऐसा ही वेद में भी कहा है। —
‘‘तदेव सक्तः सह कर्मणैति लिङ्गं मनो यत्र निषक्तमस्य॥ प्राप्यान्तं कर्मणस्तस्य यत्किंचेह करोत्ययम्॥ तस्माल्लोकात्पुनरैत्यस्मै लोकाय कर्मण इति नु कामयमानोऽथाकामयमानोयोऽकामो निष्काम आप्तकामो आत्मकाम न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति ब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्येति॥ ६ ॥ बृहदारण्यकोपनिषद चतुर्थोऽध्यायःचतुर्थं ब्राह्मणम्’’
आसक्ति के कारण, स्थानान्तरित आत्मा अपने कार्य सहित उस परिणाम को प्राप्त करता है जिससे उसका सूक्ष्म शरीर या मन चिपक जाता है। इस जीवन में उसने जो भी कर्म किया है, उसका फल परलोक में समाप्त हो कर वह उस संसार से नये कार्य के लिए इस संसार में लौट आता है।’ “इस प्रकार इच्छा करने वाला मनुष्य विचरण करता है। लेकिन जो इच्छा नहीं करता है — जो इच्छा से मुक्त है, जिसकी इच्छा संतुष्ट है, जिसकी इच्छाका एकमात्र उद्देश्य स्वयं है — उसके अंग नहीं जाते हैं। ब्रह्म होने के कारण वह ब्रह्म में विलीन हो जाता है।
‘‘तं विद्याकर्मणी समन्वारभेते पूर्वप्रज्ञा च॥२॥ बृहदारण्यकोपनिषद चतुर्थोऽध्यायःचतुर्थं ब्राह्मणम्’’
“ज्ञान, कर्म और पिछले अनुभव एकसाथ मिलकर स्वयं का अनुसरण करते हैं।
‘‘पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।।१३.२२।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
प्रकृति में स्थित पुरुष प्रकृति से उत्पन्न गुणों को भोगता है। इन गुणों का संग ही इस पुरुष (जीव) के शुभ और अशुभ योनियों में जन्म लेने का कारण है।
येन येन शरीरेण यद्यत्कर्म करोत्ययम् |
तेन तेन शरीरेण तत्तत्फलमुपाश्नुते ||४|| महाभारते शान्तिपर्वम् अध्याय १९९
“वीतरागजन्मादर्शनात् । (न्याय-सूत्र -३.१.२५.)” इस न्यायसूत्र से भी सराग व्यक्ति का ही जन्म होता है , यह बात सिद्ध होती है।
‘‘यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।४.१९।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
जिसके समस्त कार्य कामना और संकल्प से रहित हैं, ऐसे उस ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा भस्म हुये कर्मों वाले पुरुष को ज्ञानीजन पण्डित (बुद्धिमान्) कहते हैं।
‘‘विनिष्पन्नसमाधिस्तु मुक्तिं तत्रैव जन्मनि।
प्राप्नोति योगी योगाग्निदग्धकर्मचयोऽचिरात् || ६.७.३५ || विष्णुपुराणम्’’
जो योगी विनिष्पन्न समाधि हो जाता है, वह योग रूप अग्नि के सम्पर्क से कर्म समूह के दग्ध हो जाने से, उसी जन्म में शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है।
‘‘भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ॥२.२.९॥ मुण्डकोपनिषद्’’
हृदय की सारी ग्रथियाँ खुल जाती हैं, समस्त संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, तथा मनुष्य के कर्मों का क्षय हो जाता है, जब उस ‘परतत्त्व’ का दर्शन हो जाता है, जो एक साथ ही अपरा सत्ता एवं ‘परम सत्ता’ है।
‘‘तदधिगम उत्तरपूर्वाघयोरश्लेषविनाशौ तद्व्यपदेशात्।।४.१.१३।। ब्रह्मसूत्र’’
उस की प्राप्ति होने पर (ज्ञान होने पर) क्रमश: परवर्ती और पूर्व के पापों का अनासक्ति और विनाश होता है, क्योंकि ऐसा ही छान्दोग्योपनिषद् में घोषित किया गया है। ‘‘यथा पुष्करपलाश आपो न श्लिष्यन्त एवमेवंविदि पापं कर्म न श्लिष्यत इति || ३ || छान्दोग्योपनिषद् चतुर्थोऽध्यायः चतुर्दशः खण्डः’’ जैसे कमल के पत्ते से पानी नहीं चिपकता, वैसे ही इसे जानने वाले से कोई बुराई नहीं चिपकती।” इस विषयमें यह कहा गया है कि —
‘‘द्वे द्वे ह वै कर्मणी वेदितव्ये । पापकस्यैको राशिः पुण्यकृतोऽपहन्ति ।
तदिच्छस्व कर्माणि सुकृतानि कर्तुं । इहैव ते कर्म कवयो वेदयन्ते ॥’’
कर्म दो प्रकार के होते हैं। पाप और पुण्य, उनमें पापकर्मराशि को पुण्यकर्मराशि नष्ट कर देती है। इसलिए सत्कर्म करने की इच्छा करो। वह सत्कर्म इसी लोक में आचरित होता है। कवियों (प्राज्ञों) ने तुम्हारे लिये यह प्रतिपादित किया है।
‘‘कामान् यः कामयते मन्यमानः स कामभिर्जायते तत्र तत्र।
पर्याप्तकामस्य कृतात्मनस्तु इहैव सर्वे प्रविलीयन्ति कामाः ॥२॥ मुण्डकोपनिषद् तृतीयो मुण्डकः द्वितीयः खण्डः’’
जो कामनाओं की अभिलाषा करता है तथा जिसका मन उन कामनाओं में लीन रहता है, वह उन कामनाओं के द्वारा प्रेरित हो कर वहीं-वहीं जन्म ग्रहण करता है, किन्तु जिसने अपनी कामनाओं को जीत लिया है तथा अपनी आत्मा को प्राप्त कर लिया है, ऐसे ‘कृतात्मा’ जन की यहीं, इसी लोक में समस्त कामनाएँ विलुप्त हो जाती हैं।
‘‘आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ॥१.३.३॥
”शरीर को रथ एवं आत्मा को रथ का स्वामी (रथी) जानो; ‘बुद्धि’ को सारथी एवं मन को केवल घोड़ों की रास (लगाम) जानो।
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ॥१.३.४॥ कठोपनिषद्’’
”मनीषीगण इन्द्रियों को अश्व तथा इन्द्रियगोचर विषयों को उनके विचरण के मार्ग कहते हैं। तथा ‘वह’ जो ‘आत्मा’, मन तथा इन्द्रियों से युक्त है, वह भोक्ता है।
सङ्गति — जाति, आयु और भोगमें पाप और पुण्यके अनुसार सुख-दुःख मिलता है, यह अगले सूत्रमें बतलाते हैं।
ते ह्लादपरितापफलाः पुण्यापुण्यहेतुत्वात् ॥ २.१४ ॥
ते = वे (जाति, आयु, भोग) ; ह्लाद -परिताप -फलाः = सुख-दुःख फलके देनेवाले होते हैं; पुण्य-अपुण्य-हेतुत्वात् = पुण्य तथा पाप कारण होने से।
वे (जाति,(जन्म) आयु (जीवनकाल) और भोग) हर्ष शोकरूपी (सुख-दुःख रूपी) फलके देनेवाले होते हैं, क्योंकि उनके कारण पुण्य तथा पाप हैं।
‘‘विषयभोगगर्धस्य वृद्धिर्या दृश्यते नृषु।
परिणामो हि सा प्रोक्ता ज्ञेयोऽसौ दुःखदायनी ॥ ९६ ॥ योगसूत्रसारः’’
‘‘तापस्तु द्वेष एवासौ भोगस्य परिपन्थिनि।
भोगस्य स्मृतिहेतुस्स्यात् संस्कारो दुःखदायिनी ॥ ९७ ॥ योगसूत्रसारः’’
पिछले सूत्रमें बतलाये हुए कर्माशयोंके फल जाति, आयु और भोग भी दो प्रकारके (स्वादवाले) होते हैं। एक सुख देनेवाले (मीठे स्वादवाले), दूसरे दुःख देनेवाले (कड़वे स्वादवाले)
पुण्य अर्थात् अहिंसात्मक — दूसरोंको सुख पहुंचानेवाले कर्मोंसे जाति, आयु और भोगमें सुख मिलता है। पाप अर्थात् हिंसात्मक — दूसरोंको दुःख पहुंचाने वाले कर्मोंसे दुःख मिलता है। जब व्यक्ति स्वार्थ छोड़कर दूसरोंके कल्याणार्थ उनकी यथार्थ भलाई और सुख पहुंचाने की मनोवृत्तिसे कर्मोंको करता है, तब वे कर्ताको सुख पहुंचाने का कारण होते हैं; और जब वे स्वार्थवश दूसरे प्राणियोंको काम,क्रोध,लोभ,मोहादिसे दुःख देनेकी मनोवृत्तिसे किये जाते हैं, तब वे करनेवालेको दुःखका कारण होते हैं। यही कारण है कि सर्वयोनियोंमें सुख- दुःख दोनों देखे जाते हैं। कुछ कुत्ते गलियोंमें मारे-मारे फिरते हैं, कुछ मोटरोंमें बैठते हैं, नाना प्रकारके स्वादिष्ट पदार्थ खाते हैं और तीन-तीन नौकर उनकी सेवामें रहते हैं। सुख-दुःख पहुंचानेवाले कर्मोंमें भी मनोवृत्तियाँ ही कारण होतीं हैं। एक डाक्टर फोड़े का मवाद निकालने के लिये चाकू चलाता है, इससे डाक्टरके चित्तमें सुख पानेके कर्माशय बनते है, यदि कोई मनुष्य द्वेष से उसी फोड़ेमें चाकू मारता है तो उसके चित्तमें दुःख पानेके कर्माशय बनते हैं। अकर्म में भी कर्म होता है और कर्म में भी अकर्म होता है। जैसा कि श्रीकृष्णने गीतामें बतलाया है —
‘‘कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।४.१७।।’’
कर्म का तत्त्व (स्वरूप) जानना चाहिये और विकर्म का (स्वरूप) भी जानना चाहिये ; (बोद्धव्यम्) तथा अकर्म का भी (स्वरूप) जानना चाहिये (क्योंकि) कर्म की गति गहन है। तुझे यह नहीं समझना चाहिये कि केवल देहादिकी चेष्टाका नाम कर्म है और उसे न करके चुपचाप बैठ रहनेका नाम अकर्म है उसमें जाननेकी बात ही क्या है यह तो लोकमें प्रसिद्ध ही है। क्यों (ऐसा नहीं समझना चाहिये) इस पर कहते हैं कर्म का शास्त्रविहित क्रियाका भी (रहस्य) जानना चाहिये तथा विकर्म का शास्त्रवर्जित कर्मका भी (रहस्य) जानना चाहिये और अकर्मका अर्थात् चुपचाप बैठ रहनेका भी (रहस्य) समझना चाहिये। क्योंकि कर्मोंकी अर्थात् कर्म अकर्म और विकर्मकी गति उनका यथार्थ स्वरूप तत्त्व बड़ा गहन है समझनेमें बड़ा ही कठिन है।
“कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।४.१८।।”
जो मनुष्य कर्ममें अकर्म देखता है और जो अकर्ममें कर्म देखता है, वह मनुष्योंमें बुद्धिमान् है, योगी है और सम्पूर्ण कर्मोंको करनेवाला है।
“यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।४.१९।।”
जिसके सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भ संकल्प और कामनासे रहित हैं तथा जिसके सम्पूर्ण कर्म ज्ञानरूपी अग्निसे जल गये हैं, उसको ज्ञानिजन भी पण्डित (बुद्धिमान्) कहते हैं।
‘‘त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः।।४.२०।।’’
जो पुरुष, कर्मफलासक्ति को त्यागकर, नित्यतृप्त और सब आश्रयों से रहित है वह कर्म में प्रवृत्त होते हुए भी (वास्तव में) कुछ भी नहीं करता है।
कर्म-सिद्धान्त बहुत गहन है, स्थूल बुद्धिसे समझ में नहीं आ सकता, एकाग्र बुद्धिसे ही समझा जा सकता है। इस कर्म-सिद्धान्त का सार यही है कि कोई भी कर्म किसीको दुःख देनेकी नीयत से न किया जाय — ‘‘मा हिंस्यात् सर्व भूतानि’’ वास्तवमें न कोई किसीको सुख दे सकता है न दुःख। जो मिलना है वह उसे अवश्य मिलेगा। मनुष्य दूसरोंको सुख-दुःख पहुंचानेकी नीयतसे कर्म करके अपने अन्दर सुख-दुःख पानेके कर्माशय एकत्र कर लेता है।
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता॥
लक्ष्मणजी निषादराज से कहते हैं कि हे भाई! कोई किसी को सुख-दुःख का देने वाला नहीं है। सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं॥
न्यायसूत्र में बताया है कि —
“दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानाम् उत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः ।।२।।”
अर्थात् — दु:ख, जन्म, प्रवृति(धर्म-अधर्म), दोष (राग,द्वेष और मोह), और मिथ्या ज्ञान-इनमें से उत्तरोतर नाश द्वारा इसके पूर्व का नाश होने से अपवर्ग अर्थात् मोक्ष होता है। अर्थात् मनुष्य के जन्म का मुख्य कारण है उसके पूर्व-संस्कार और शेष संचित कर्म।
अज्ञानता के कारण दोष उत्पन्न होते हैं और दोष के कारण प्रवृति बन जाती है। यह प्रवृति ही है जिसके कारण जन्म होता है और सब दुःखों का कारण जन्म ही है। जब तक अज्ञानता दूर नहीं होगी तबतक यह जन्म-मरण का अनादि चक्र चलता ही रहेगा। कारण के नाशके बिना कार्यका नाश नहीं होता।
“यथा दुःखात् क्लेशः पुरुषस्य, न तथा सुखाभिलाषः । सांख्यसूत्र-६.६।।” (आत्मनः कृतकृत्यतानिमित्तं).
‘न वै सशरीरस्य सतः प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति अशरीरं वाव सन्तं न प्रियाप्रिये स्पृशतः ॥ १ ॥’ छान्दोग्योपनिषद्/ अध्यायः ८||
देहधारी स्वयं सुख और दर्द का शिकार है। जब तक किसी की पहचान शरीर के साथ होती है, तब तक उसके सुख-दुःख का कोई अंत नहीं है, लेकिन जो शरीर से तादात्म्य नहीं रखता, उसे न सुख और न ही दुख स्पर्श करता है।
‘‘आत्मानं चेद्विजानीयात् अयमस्मीति पूरुषः ।
किमिच्छन् कस्य कामाय शरीरमनुसंज्वरेत् ॥१॥ पञ्चदशी, तृप्तिदीप’’
आत्मा के अतिरिक्त और कोई वस्तु है ही नहीं , फिर कौन किसको कैसे दुख दे? जब सब कुछ आत्मा ही है ।
‘‘दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।२.५६।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
आध्यात्मिक आदि तीनों प्रकारके दुःखोंके प्राप्त होनेमें जिसका मन उद्विग्न नहीं होता अर्थात् क्षुभित नहीं होता उसे अनुद्विग्नमना कहते हैं। तथा सुखोंकी प्राप्तिमें जिसकी स्पृहा-तृष्णा नष्ट हो गयी है अर्थात् ईंधन डालनेसे जैसे अग्नि बढ़ती है वैसे ही सुखके साथसाथ जिसकी लालसा नहीं बढ़ती वह विगतस्पृह कहलाता है। एवं आसक्ति भय और क्रोध जिसके नष्ट हो गये हैं वह वीतरागभयक्रोध कहलाता है ऐसे गुणोंसे युक्त जब कोई हो जाता है तब वह स्थितधी यानी स्थितप्रज्ञ और मुनि कहलाता है।
सङ्गति — योगीके लिये सुख-दुःख दोनों दुःखरूप ही हैं, यह बात अगले सूत्रमें बतलाते हैं।
परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः॥२.१५॥
परिणाम-ताप-संस्कारदुःखैः = परिणाम, ताप, संस्कारके दुःखोंसे; गुण-वृत्ति-विरोधात् च = और गुणोंकी वृत्तियोंके विरोधसे; दुःखमेव सर्वं विवेकिनः = दुःख ही है सबकुछ अर्थात् सुख भी दुःख ही है विवेकी को।
‘‘त्रिभिर्वा कारणैरेभिर्गुणवैषम्यकारणात्।
भुञ्जतो विषयान् सर्वान् सर्वं दुःखम् विवेकिनः ॥ ९८ ॥ योगसूत्रसारः’’
‘‘अपभोगेन चातींत दुःखं साध्वतिवाहितम्।
वर्तमानं तु भोग्यं तद् दुःखं हेयत्ववर्जितम् ॥ ९९ ॥ योगसूत्रसारः’’
क्योंकि (विषय-सुखके भोगकालमें भी) परिणाम-दुःख, ताप-दुःख, और संस्कार-दुःख बना रहता है और गुणोंके स्वभावमें भी विरोध है, इसलिये विवेकी पुरुषके लिये सब कुछ (सुख भी जो विषय-जन्य है) दुःख ही है।
व्याख्या — जिस प्रकार विष मिला हुआ स्वादिष्ट पदार्थ भी बुद्धिमान् के लिये त्याज्य है, इसी प्रकार जिन योगी-जनोंको सम्पूर्ण क्लेश तथा उनके विभाग आदि का विवेकपूर्ण ज्ञान हो गया है, उनको संसारके सभी प्रकार के विषय-सुखोंमें दुःख-ही- दुःख प्रतीत होता है, क्योंकि इन सुखोंमें भी चार प्रकार का दुःख सम्मिलित है, जो नीचे व्याख्या सहित वर्णन किया जाता है —
(१) परिणाम-दुःख — विषय सुखके भोगसे इन्द्रियोंकी तृप्ति नहीं होती है, वल्कि राग-क्लेश उत्पन्न होता है। ज्यों-ज्यों भोगका अभ्यास बढ़ता है, त्यों-त्यों तृष्णा बलवती होती है। यथा —
“न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति |
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते || – मनुस्मृति (२/९४ )”
विषय-कामना विषयोंके उपभोग करने से कभी भी शान्त नहीं होती है, परन्तु जिस प्रकार हवनकुण्ड की जलती हुई अग्नि में घी आदि सामग्री की आहुति देने से अग्नि और भी अधिक प्रज्ज्वलित हो जाती है वैसे ही कामवासना भी और अधिक भड़क उठती है |
विषयोंके भोगसे इन्द्रियाँ दुर्बल हो जातीं हैं, अन्त में इन्द्रियों में विषय-भोगकी शक्ति बिलकुल नहीं रहती और तृष्णा सताती है। इस प्रकार विषय-सुख परिणाम में दुःख ही है।
(२) ताप-दुःख — विषय-सुखकी प्राप्तिमें और उसके साधनमें राग-क्लेश उत्पन्न होता है और उनमें जो रुकावटें होतीं हैं, उनसे द्वेष क्लेश उत्पन्न होता है। यह सुखके नाश होनेका दुःख सुखके भोग-कालमें भी सताता रहता है। इसी कारण यह सुख परिणाममें ताप-दुःख है।
(३) संस्कार-दुःख — सुखके भोगके जो संस्कार चित्तपर पड़ते हैं, उनसे राग उत्पन्न होता है, इसके बाद मनुष्य उनके प्राप्त करनेमें यत्न करता है। उनमें रुकावटों से द्वेष होता है। इस प्रकार राग-द्वेषके भी संस्कार पड़ते रहते हैं और उनके वशीभूत होकर जो शुभाशुभ कर्म करता है, उसके भी संस्कार पड़ते हैं। ये संस्कार अवागमनके चक्रमें ड़ालनेवाले होते हैं, इसलिये यह सुख परिणाममें संस्कार- दुःख है।
(४) गुण-वृत्ति-विरोध-दुःख — सत्व, रजस्, तमस् — ये क्रमसे प्रकाश, प्रवृत्ति और स्थिति स्वभाववाले हैं। इनकी क्रमसे सुख, दुःख और मोहरूपी वृत्तियाँ हैं। ये तीनों गुण परिणामी हैं। कभी एक गुण दूसरेको दबाकर प्रधान हो जाता है, कभी दूसरा उसको। जब सत्व रजस् तथा तमस् को दबा लेता है तब सुख-वृत्तिका उदय होता है। जब रजस् सत्व और तमस् को दबा लेता है, तब दुःख और जब तमस् सत्व तथा रजस् को दबा लेता है, तब मोह पैदा हो जाता है। इस तरह इन तीनों गुणोंमें परिणाम रहता है। इस कारण इनकी वृत्तियों में भी परिणामका होना आवश्यक है और सुखके पश्चात् दुःख और मोहका होना स्वाभाविक है। यह गुण-वृत्तियोंके विरोधसे सुखमें दुःखकी प्रतीति है। जिस प्रकार मकड़ीका जाला भी आँखमें पढ़कर अत्यन्त दुःखदायी होता है, इसी प्रकार विवेकी योगियोंका चित्त अत्यन्त शुद्ध होता है, उनको लेशमात्र भी दुःख और क्लेश खटकता है। इस कारण वे संसारके सुखोंको भी सदैव त्याज्य और दुःख-रूप समझते हैं। क्योंकि ये गुण हमेशा एक-दूसरेसे टकराते रहते हैं।
इसी प्रकार सांख्य-दर्शन अध्याय ६ में बतलाया गया है —
“कुत्रापि कोऽपि सुखीति || ७ ||”
कहीं पर भी कोई भी सम्पूर्ण रूपसे सुखी नहीं दीखता, किन्तु थोड़े समय के लिये सुखी और दुःखी दोनों प्रकार के लोग दीखते हैं।
“तदपि दुःखशबलमिति दुःखपक्षे निःक्षिपन्ते विवेचकाः || ८ ||”
यदि किसी प्रकार कुछ थोड़ा बहुत सुख प्राप्त भी हुआ तो भी सुख दुःख के निश्चय करने वाले विद्वान् लोग उस सुख को भी दुःख में ही गिनते हैं क्योंकि उसमें भी दुःख मिले हुए होते हैं, जैसे विष का मिला हुआ मिष्ट पदार्थ। इस वास्ते सांसारिक सुख को छोड़कर मोक्ष सुख के वास्ते उपाय करना चाहिए।
नानक दुखिया सब संसार। सो सुखिया जिस नाम आधार।।
‘‘नानुपहत्य भूतान्युपभोगः संभवति’’
अर्थात् कोई दूसरों को तकलीफ पहुँचाये बिना, दूसरों की हिंसा किये बिना अधिक भोग कर ही नहीं सकता। प्राणियों को कष्ट पहुँचाये बिना कोई भोगी हो नहीं सकता। जो भोगी होगा वह कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी प्रकार से दूसरों को कष्ट पहुँचाता होगा। आप जितना अधिक भोग करेंगे उसमें आपका राग उतना ही अधिक बढ़ेगा और आप भोग करने में भाँति-भाँति के कौशल बढ़ाने में लग जायेंगे। तब आप स्वयं सोचिये कि आपका जीवन कितना हिंसापूर्ण, कितना दुःखदायी और कितना अघायु हो जायेगा?
‘‘पञ्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः ।
कण्डनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन् ।। ३.६८।।मनुस्मृतिः/तृतीयोध्यायः’’
चूल्हा,चक्की, झाडू, ओखली-मूसल तथा पानी का घड़ा गृहस्थियों के ये पाँच हिंसा के स्थान हैं जिनको प्रयोग में लाते हुए गृहस्थी व्यक्ति हिंसा के पाप से बंध जाता है । उन पापोंसे मुक्त होनेके लिये ब्रह्मयज्ञ- वेद-वेदान्तादि तथा पुराणादि आर्षग्रन्थोंका स्वाध्याय, पितृयज्ञ-श्राद्ध तथा तर्पण, देवयज्ञ-देवताओका पूजन एवं हवन, भूतयज्ञ-बलिवैश्वदेव तथा पञ्चबली, मनुष्ययज्ञ-अतिथि सत्कार- इन पाँचों यज्ञोंको प्रतिदिन अवश्य करना चाहिये।
‘‘विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्।।१८.३८।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
जो सुख विषय और इन्द्रियोंके संयोगसे उत्पन्न होता है वह पहले — प्रथम क्षणमें अमृतके सदृश होता है। परंतु परिणाममें विषके समान है। अभिप्राय यह है कि बल, वीर्य, रूप, बुद्धि, मेधा, धन और उत्साहकी हानिका कारण होनेसे तथा अधर्म और उससे उत्पन्न नरकादिका हेतु होनेसे वह परिणाममें — अपने उपभोगका अन्त होनेके पश्चात् विषके सदृश होता है अतः ऐसा सुख राजस माना गया है। सत्वगुण की शान्त अवस्था सुखात्मक है , रजोगुणकी घोर अवस्था दुःखात्मक है और तमोगुण की मूढ अवस्था विषादात्मक है।
‘‘कलत्रपुत्रमित्रार्थगृहक्षेत्रधनादिकैः
क्रियते न तथा भूरि सुखं पुंसां यथाऽसुखम् ॥ [विष्णुपुराण ६.५.५६]’’
पत्नी, पुत्र, मित्र, सम्पत्ति, गृह, क्षेत्र तथा धन आदिसे उतना सुख नहीं मिलता है, जितना उन सबों से दुःख मिलता है।
‘‘नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।२.६६।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
(संयमरहित) अयुक्त पुरुष को (आत्म) ज्ञान नहीं होता और अयुक्त को भावना और ध्यान की क्षमता नहीं होती भावना रहित पुरुष को शान्ति नहीं मिलती अशान्त पुरुष को सुख कहाँ ? जिसके मन-इन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं, ऐसे मनुष्यकी व्यवसायात्मिका (निश्चयात्मिका) बुद्धि नहीं होती और व्यवसायात्मिका (निश्चयात्मिका) बुद्धि न होनेसे उसमें कर्तव्यपरायणताकी भावना नहीं होती। ऐसी भावना न होनेसे उसको शान्ति नहीं मिलती। फिर शान्तिरहित मनुष्यको सुख कैसे मिल सकता है?
‘‘ते ये शतं प्रजापतेरानन्दाः। स एको ब्रह्मण आनन्दः। श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य॥ तैत्तिरीयोपनिषद् ब्रह्मानन्दवल्ली अष्टमोऽनुवाकः’’
प्रजापति के सौ-सौ आनन्दों के बराबर है ‘ब्रह्म’ (शाश्वत-परमात्म-तत्त्व) का एक आनन्द। और यह है आनन्द वेदविद् (श्रोत्रिय) का जिसकी आत्मा को काम का प्रहार छूता तक नहीं।
प्रश्नोत्तरी ‘मणिरत्नमाला’ (स्वामी शंकराचार्य कृत) में कहा गया है कि — विषाद्विषं किं विषयाः समस्ता। दुःखी सदा को विषयानुरागी ।
प्रश्न :- विष से भी भारी विष क्या है ? उत्तर:- सारे विषयभोग |
प्रश्न :- सदा दु:खी कौन है ? उत्तर:- जो संसार के भोगों में आसक्त है |
मीराबाई ने कहा — जो मैं ऐसा जानती प्रीत किये दुःख होय। नगर ढिंढोरा पीटती प्रीत ना कीजो कोय।
सङ्गति — जिस प्रकार चिकित्सा-शास्त्र में रोग, रोगका कारण, आरोग्य, आरोग्यका साधन (औषधि) इस प्रकार चार विषय होते हैं, इसी प्रकार यहाँ इस योग-शास्त्रमें (१) दुःख जो ‘‘हेय’’ त्याज्य है, (२) दुःखका कारण द्रष्टृ-दृश्य का संयोग जो ‘‘हेय-हेतु’’ है, (३) दुःखका नाश, इस द्रष्टृ-दृश्य का संयोग का अभाव जो ‘‘हान’’ अर्थात् कैवल्य है और (४) विवेकख्याति कैवल्य का साधन जो ‘‘हानोपाय’’ है जिनका वर्णन आगे किया जायगा। इस प्रकार यह शास्त्र चतुर्व्यूह कहलाता है। तदेतच्छास्त्रं चतुर्व्यूहं , (१) हेयं, (२) हेयहेतुः, (३) हानं. (४) हानोपाय इति । दुःखं हेयम् । दुःखहेतुरविद्या । दुःखात्यन्तनिवृत्तिः हानम् । विवेकसाक्षात्कारो हानोपायः । (१. संसार, २. संसारका हेतु, ३.मोक्ष और ४.मोक्षोपाय) ‘‘हेय’’ अर्थात् त्याज्य क्या है, यह अगले सूत्रमें बतलाते हैं।
हेयं दुःखमनागतम् ॥ २.१६ ॥
हेयम् = त्याज्य; दुःखम् = दुःख, अनागतम् = आनेवाला है।
भविष्यमें आनेवाले दुःख हेय (त्यागनेयोग्य) हैं।
‘‘अनागतं यतो दुःखं बाधते योगिनं भृशम् ।
अतस्तद्धेयतामेति योगिनस्तत्त्वमिच्छतः ॥ १०० ॥ योगसूत्रसारः’’
भूतकालका दुःख भोग देकर व्यतीत हो चुका है, अतः त्यागनेयोग्य नहीं है। वर्तमान दुःख इस क्षण में भोगा जा रहा है, दूसरे क्षण में स्वयं समाप्त हो जायगा, इस कारण त्याज्य नहीं है। जिसका हम अभी अनुभव कर रहे हैं उसका त्याग अशक्य है (क्योंकि वर्तमान जन्म हो ही चुका है) इसलिये अब केवल आनेवाले दुःख ही (आनेवाले जन्म ही) त्यागनेयोग्य हैं। विवेकीजन उसीको हटानेका यत्न करते हैं।
सांख्यसूत्रकार महर्षि कपिल ने भी सांख्यसूत्रका आरम्भ इस सूत्र से किया है – “अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिः अत्यन्त पुरुषार्थः । सांख्यसूत्र-१.१ । (परमपुरुषार्थस्वरूपं)” अर्थात् तीनों प्रकार के दुःखों से नितान्त छुटकारा ही मुक्ति है।
न्यायसूत्रकार महर्षि गौतम भी कहते हैं कि —
‘‘बाधनालक्षणं दुःखम् ।। १.१.२१ ।। {दुःखलक्षणम्}” स्वतन्त्रता का न होना और विकल्प का होना दुःख कहलाता है अर्थात् मन को जिस वस्तु की इच्छा हो उसके न मिलने का नाम दुःख है।
“तदत्यन्तविमोक्षः अपवर्गः ।। १.१.२२ ।। {अपवर्गलक्षणम्} न्यायसूत्र’’ उस (दुःख) के पंजा (चंगुल) से सर्वथा छूट जाने का नाम अपवर्ग अर्थात् मुक्ति है।
‘‘आनन्दं ब्रह्मणो रूपं तच्च मोक्षे प्रतिष्ठितम् ।’’ — विज्ञानभिक्षु (योगवार्तिकम्) आनन्द ब्रह्म का स्वरूप है और वह आनन्द मोक्ष में प्रतिष्ठित है।
धीर विद्वान् पुरुष लोहे, लकड़ी तथा रस्सी के बन्धनको दृढ़ नहीं मानते। वस्तुतः दृढ़ बन्धन तो वे हैं जिन्हें हम बहुत मूल्य देते हैं — जैसे मणि, कुण्डल, पुत्र तथा स्त्री में इच्छाका होना।
सङ्गति — इस हेय दुःखका (झँझट का,इल्लत का) कारण ‘हेयहेतु’ क्या है, यह अगले सूत्रमें बतलाते हैं। —
द्रष्टृदृश्ययोः संयोगो हेयहेतुः ॥ २.१७ ॥
द्रष्टृ दृश्ययोः संयोग: = द्रष्टा और दृश्यका संयोग; हेयहेतुः = हेय (त्याज्य दुःख) का कारण है।
द्रष्टा और दृश्यका संयोग ‘‘हेयहेतु’’ (दुःखका कारण) है।
व्याख्या — योगदर्शन में दुःख को हेय के नाम से कहा गया है। अब देखना यह है कि इस दुःखका कारण क्या है और उसका निवारण क्या है।
‘‘पुरुषस्य तथा बुद्धेस्संयोगो हेयकारणम्।
निष्क्रियस्सन् हि तद्दृश्यं कारणं भोगमोक्षयोः ॥ १०१ ॥ योगसूत्रसारः’’
द्रष्टा चेतन पुरुष है, जो चित्तका स्वामी होकर उसको देखनेवाला है। दृश्य चित्त है जो स्व (मिलकियत) बनकर पुरुषको गुणोंके परिणाम-स्वरूप संसारको दिखाता है। चित्तके द्वारा देखे जानेके कारण यह सारा गुणोंका परिणाम विषय, शरीर और इन्द्रिय आदि भी सब दृश्य ही है।
संयोग — इस पुरुष और चित्तका जो आसक्तिसहित अविवेकपूर्ण भोग्य-भोक्ताभावका (स्व-स्वामिभावका) सम्बन्ध है, {जिसको हम जन्म कहते हैं।} उसके लिये यहाँ संयोग शब्द आया है। यही इस दुःखका (जो पिछले सूत्रमें हेय अर्थात् त्याज्य बतलाया था) ‘‘हेतु’’ अर्थात् कारण है। तात्पर्य यह है कि — दृक् पुरुषः, शुद्ध दृष्टि पुरुष है। दृश्यं बुद्धितत्त्वम्, बुद्धि दृश्य है। (सुख,मोह,दुःखात्मक अखिलदृश्य बुद्धिरूप ही है।) और इन दोनों का अभेदभ्रान्तिरूप संयोग दुःखका हेतु है । अतः इस संयोग को हटा देने पर सभी दुःख हट जाते हैं।
‘‘पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।।१३.२२।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
प्रकृति में स्थित पुरुष प्रकृति से उत्पन्न गुणों को भोगता है। इन गुणों का संग ही इस पुरुष (जीव) के शुभ और अशुभ योनियों में जन्म लेने का कारण है।
बुध्दि और पुरुषका संयोग दुःखका हेतु है। उस संयोग को विवेकख्याति द्वारा हटा देने पर दुःखका आत्यन्तिक प्रतीकार होता है, उच्छेद होता है। बुद्धि सूक्ष्मशरीर का उपलक्षण है अर्थात् जब निष्क्रिय चेतन पुरुष सूक्ष्मशरीर में अस्मिता का अध्यास कर लेता है तब सुख-दुःख की प्राप्ति होती है। यह बुद्धिरूप दृश्य चुम्बक के समान है। जैसे चुम्बक लोहकणों को आकर्षित कर लेता है वैसे ही यह बुद्धिरूप दृश्य पुरुषको अपनी सन्निधि मात्रसे आकर्षित कर लेता है। सूक्ष्मशरीर का स्वरूप विवेकचूड़ामणि में इस प्रकार बताया है —
‘‘वागादि पञ्च श्रवणादि पञ्च प्राणादि पञ्चाभ्रमुखानि पञ्च।
बुद्ध्याद्यविद्यापि च कामकर्मणि पुर्यष्टकं सूक्ष्मशरीरमाहुः || ९६ ||’’
वागादि पांच कर्मेन्द्रियाँ , श्रवणादि पांच ज्ञानेन्द्रियाँ,प्राणादि पांच प्राण, आकाशादि पांच भूत , बुद्धि, आदि अन्तः करण-चतुष्ट्य ,अविद्या,तथा काम और कर्म यह पुर्यष्टक अथवा सूक्ष्मशरीर कहलाता है । इस सूक्ष्मशरीर को जब हम मैं-मेरा मान लेते हैं तब दुःख परम्परा शुरू होती है।
सङ्गति — अब दृश्यका स्वरूप, उसका कार्य तथा प्रयोजन बतलाते हैं।
प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थं दृश्यम् ॥ २.१८ ॥
प्रकाश-क्रिया-स्थिति-शीलम् = प्रकाश क्रिया और स्थिति जिसका स्वभाव है; भूतेन्द्रिय-आत्मकम् = पञ्च भूत और इन्द्रियाँ जिसका स्वरूप हैं; भोग-अपवर्ग-अर्थम् =पुरुष के लिए भोग और मुक्ति ही जिसका प्रयोजन है; दृश्यम् = वह दृश्य है ।
प्रकाश, क्रिया और स्थिति जिसका स्वभाव है, भूत और इन्द्रियाँ जिसका स्वरूप हैं, पुरुष के लिए भोग और अपवर्ग ही जिसका प्रयोजन है, वह दृश्य है।
‘‘सत्त्वं रजस्तमश्चैव ज्ञानव्यापारमोहदाः।
भूतेन्द्रियात्मकं दृश्यं कारणं भोगमोक्षयोः ॥ १०२ ॥ योगसूत्रसारः’’
व्याख्या — सत्व, रजस् और तमस् — ये तीनों गुण और जो कुछ इनसे बना है वह दृश्य है। प्रकाश सत्त्व गुणका; प्रवृत्ति (क्रिया=चलना) रजोगुणका और स्थिति=रोकना तमोगुणका स्वभाव है। ये तीनों प्रकाश, क्रिया, स्थितिशील-गुण परिणामी और परस्पर संयोग-विभागवाले हैं, तथा विवेक-ख्यातिरहित पुरुषके संग संयुक्त रहते हैं अर्थात् स्व-स्वामी-भाव (भोग्य-भोक्तृभाव) सम्बन्ध रखते हैं और विवेकख्यातिवाले पुरुषसे विभक्त हो जाते हैं।
गुणोंका कार्य — यह दृश्य भूतेन्द्रियात्मक है, अर्थात् दस भूत, पाँच स्थूलभूत, पृथ्वी-जल आदि और पाँच सूक्ष्मभूत गन्ध,रस, तन्मात्रा आदि; और चौदह इन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ चार सूक्ष्मेन्द्रियाँ, मन,अहङ्कार, बुद्धि+चित्त, (महत्तत्व) आदि सब ग्राह्य-ग्रहण रूपसे इन्हीं तीनों गुणोंके कार्य हैं अर्थात् इन्हींके विभिन्न रूप हैं।
गुणोंका प्रयोजन — यह त्रिगुणात्मक दृश्य अर्थात् भूतेन्द्रिय आदि रूपसे प्रकृतिका परिणाम निष्प्रयोजन नहीं है; किंतु पुरुषके भोग-अपवर्ग रूप प्रयोजन वाला है।
भोग — उसमें द्रष्टा-दृश्यके स्वरूप-विभागसे रहित इष्ट-अनिष्ट, गुण-स्वरूपका अवधारण (अनुभव) भोग कहलाता है।
अपवर्ग — द्रष्टा और दृश्यके स्वरूपसे विभक्त भोक्ताके स्वरूपका अवधारण (साक्षात्कार) अपवर्ग है। इसीको स्वरूपावस्थिति कहते हैं, जो विवेकख्यातिके पश्चात् प्राप्त होती है, जो पुरुषका परम प्रयोजन है। अपवर्ग का एक दूसरा अर्थ भी सन्तों से सुना है जैसे कि पवर्ग जिसमें न हो सो अपवर्ग। पवर्ग माने (प, फ, ब, भ, म) प. माने पाप, फ. माने फल, ब. माने बन्धन, भ. माने भोग, म. माने मृत्यु जिसमें न हो सो अपवर्ग। शास्त्रों में तीन प्रकार से मोक्षलक्षणकी व्याख्या की है।
आदौ तु मोक्षो ज्ञानेन द्वितीयो रागसंक्षयात् ।
कृच्छ्रक्षयात् तृतीयस्तु व्याख्यातं मोक्षलक्षणम् ॥
प्रथम मोक्ष ज्ञानसे होता है, दूसरा मोक्ष रागके क्षयसे होता है और तीसरा मोक्ष दुःखत्रयके छूट जानेसे होता है।
यद्यपि यह भोग-अपवर्गरूप दोनों पुरुषार्थ बुद्धिकृत होने और बुद्धिमें ही बर्तनेसे बुद्धिके ही धर्म हैं तथापि जैसे जय और पराजय योद्धाकृत और योद्धामें वर्तमान होनेपर भी उनके स्वामी राजामें कही जाती है; क्योंकि वह उसका स्वामी और उसके फलका भोक्ता है, इसी प्रकार बन्ध या मोक्ष चित्तमें वर्तमान होते हुए भी पुरुषमें व्यवहारसे कहे जाते हैं; क्योंकि वह बुद्धिका स्वामी और उसके फलका भोक्ता है।
वास्तवमें पुरुषके भोग-अपवर्गरूप प्रयोजनकी समाप्ति न होनेतक चित्तमें ही बन्धन है और विवेकख्यातिकी उत्पत्तिसे पुरुषके उस प्रयोजनकी समाप्तिमें चित्तका ही मोक्ष है।
‘‘अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः।
अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः॥५॥ श्वेताश्वतरोपनिषद् चतुर्थोऽध्यायः’’
ऐसी ‘एक’ अजाता (अजन्मा) है जो श्वेत-कृष्ण एवं लोहितवर्णा है, जो निरन्तर अनेकरूपा प्रजाओं की सृष्टि करती जा रही है और उसका एक अजात (पुरुष) उसके साथ प्रेम में साहचर्य सुखभोग करता है; जब कि दूसरा अजात (पुरुष) उसके समस्त सुखों का भोग करके उसे त्याग देता है।
‘‘सत्त्वादीनामतद्धर्मत्वं तद्रूपत्वात् || ६.३९ || सांख्य दर्शन’’
अर्थ — सत्व, रज, तम, यह प्रकृति के धर्म नहीं हैं किन्तु प्रकृति के रूप हैं। सत्त्वादि रूप ही प्रकृति है।
‘‘लघ्वादिधर्मैरन्योन्यं साधर्म्यं वैधर्म्यं गुणानाम् || १.१२८ || सांख्य दर्शन’’
अर्थ — लघुत्वादि धर्मो से सत्वादि गुणों का साधर्म्य और वैधर्म्य है, जैसे लघुत्व के साथ सर्व सत्वव्यक्तियों का (सतोगुण के पदार्थों का) साधर्म्य है, रज और तम का वैधर्म्य है, एवं चंचलत्वादि के साथ रजोव्यक्तियों का (रजोगुण के पदार्थों का) साधर्म्य है, और सत्व तम का वैधर्म्य है, इस ही प्रकार गुरूत्व आदि के साथ तमोव्यक्तियों का (तमोगुण के पदार्थों का) साधर्म्य है, और सत्व, रज से वैधर्म्य है।
यह बात योगवासिष्ठ में भी कही गई है —
‘‘नामरूपविनिर्मुक्तं यस्मिन्संतिष्ठते जगत् ।
तमाहुः प्रकृतिं केचिन्मायामेके परे त्वणून् ।। २१।। योगवासिष्ठः / प्रकरणम् ६ (निर्वाणप्रकरणस्य पूर्वार्धम्) / सर्गः १२८’’
नाम और रूपसे विनिर्मुक्त यह जगत जिस निराकार सत्ता में ठहरता और लीन हो जाता है, कुछ लोग उसे प्रकृति या पदार्थ कहते हैं, और दूसरों के द्वारा माया या भ्रम, और परमाणु दार्शनिकों द्वारा परमाणु के रूप में भी कहा जाता है ।
सांख्यकारिका में प्रकृति और पुरुष में भेद इस प्रकार बताया गया है —
‘‘हेतुमदनित्यमव्यापि सक्रियमनेकमाश्रितं लिङ्गम्।
सावयवं परतन्त्रं व्यक्तं विपरीतमव्यक्तम् ॥१०॥ सांख्यकारिका’’
यह “प्रधान” { प्रधीयते निधीयतेऽस्मिन्प्रलयसमये वस्तुजातं जगदिति वा प्रधानम् ।} (प्रकृति) व्यक्त हेतुवाला, अनित्य, अव्यापी, सक्रिय, अनेक, आश्रितलिङ्ग, सावयव, और परतन्त्र है। इसके विपरीत “पुरुष” अव्यक्त, अहेतु, नित्य, व्यापी, अक्रिय, एक, अनाश्रित, अलिङ्ग, निरवयव और स्वतन्त्र है।
‘‘सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्।।१४.५।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
हे महाबाहो ! सत्त्व, रज और तम ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण देही आत्मा को देह के साथ बांध देते हैं।
‘‘प्रधानात् क्षोभ्यमाणाच्च तथा पुंसः पुरातनात् । प्रादुरासीन्महद् बीजं प्रधानपुरुषात्मकम् ।। ४.१६।। कूर्मपुराणम्- पूर्वभागः / चतुर्थोऽध्यायः’’
क्षोभ्यमाण प्रधानसे (गुणोंकी विषमावस्थासे) तथा पुरातन पुरुषसे प्रधान-पुरुषात्मक महद्बीज का प्रादुर्भाव हुआ।
‘‘प्रकृतेर्गुणसाम्यस्य निर्विशेषस्य मानवि ।
चेष्टा यतः स भगवान् काल इत्युपलक्षितः ॥ ३.२६.१७ ॥ श्रीमद्भागवत’’
हे मनुपुत्रि ! जिनकी प्रेरणा से गुणों की साम्यावस्था रूप निर्विशेष प्रकृति में गति उत्पन्न होती है, वास्तव में वे पुरुष रूप भगवान ही ‘‘काल’’ कहे जाते हैं।
‘‘गुणसाम्यमनुद्रिक्तमन्यूनञ्च महामुने!
प्रोच्यते प्रकृतिर्हेतुः प्रधानं कारणं परम् ।। ६-४-३४ ।। विष्णुपुराणम्’’
हे महामुने ! गुणोंकी साम्यावस्था, जो कि गुणोंसे न्यून या अधिक नहीं है, पर-कारण-प्रधान-हेतु या प्रकृति कहलाती है।
‘‘सत्त्वाज्जागरणं विद्याद् रजसा स्वप्नमादिशेत् ।
प्रस्वापं तमसा जन्तोस्तुरीयं त्रिषु सन्ततम् ॥ ११.२५.२० ॥ श्रीमद्भागवत’’
सत्त्वगुण से जाग्रदवस्था, रजोगुण से स्वप्नावस्था, और तमोगुण से सुषुप्ति अवस्था होती है, किन्तु तुरीय-साक्षी इन तीनों अवस्थाओं में सतत रहता है।
‘‘कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते।।१३.२१।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
कार्य और कारण के उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और पुरुष सुख-दु:ख के भोक्तृत्व में हेतु कहा जाता है।
“शुश्रूषा श्रवणञ्चैव ग्रहणं धारणन्तथा ।
उहोऽपोहोऽर्थविज्ञानं तत्त्वज्ञानञ्च धीगुणाः ॥”
जिस प्रकार बन्ध-मोक्ष-रूप चित्तके धर्मोंका पुरुषमें आरोप किया जाता है; इसी प्रकार ग्रहण (स्वरूपमात्रसे पदार्थका ज्ञान), धारण (ज्ञात हुए पदार्थकी स्मृति अर्थात् चिन्तन को धारणा कहा है), ऊह (पदार्थके विशेष धर्मोंका युक्तिसे निर्णय करना), अपोह (युक्तिसे आरोपित धर्मोंको दूर करना), तत्त्वज्ञान (ऊहापोहसे पदार्थका ज्ञान प्राप्त करना),अभिनिवेश (तत्त्वज्ञानपूर्वक त्याग और ग्रहणका निश्चय अर्थात् तदाकारतापत्ति) आदि धर्म भी चित्तमें वर्तमान रहते हुए पुरुषमें अविवेकसे आरोपित किये जाते हैं, क्योंकि वही उसका स्वामी और उसके फलका भोक्ता है। प्रकृतयोगकी भूमिकामात्रसे ही यहाँ चित्तके परिणामोंको गिना है। इनसे दूसरे भी इच्छा, कृति आदि उपलक्षित जानने चाहिये।
सङ्गति — दृश्यका स्वभाव, स्वरूप और प्रयोजन कहकर अगले सूत्रमें उसकी (दृश्यकी) अवस्थाओंका वर्णन करते हैं।
विशेषाविशेषलिङ्गमात्रालिङ्गानि गुणपर्वाणि ॥ २.१९ ॥
विशेष-अविशेष-लिङ्गमात्र-अलिङ्गानि = विशेष, अविशेष, लिङ्गमात्र और अलिङ्ग; गुणपर्वाणि = गुणों की अवस्थाएँ (परिणाम) हैं ।
गुणोंकी चार अवस्थाएँ (परिणाम) हैं । विशेष, अविशेष, लिङ्गमात्र और अलिङ्ग।
व्याख्या — सत्व, रजस् और तमस् — इन तीनों गुणोंकी चार अवस्थाएँ हैं। विशेष, अविशेष, लिङ्गमात्र और अलिङ्ग।
‘‘शब्दादिविषयाकारा तद्रूपनिश्चयात्मिका ॥
बुद्धिवृत्तिर्भवेद् भोगो बद्धवत्तेन पूरुषः ॥ १०३ ॥योगसूत्रसारः’’
‘‘भोक्तुस्स्वरूपविज्ञानं मोक्ष इत्येव दर्शनम्।
भोगमोक्षौ न पुंसस्तौ गुणनामेव केवलम् ॥ १०४ ॥ योगसूत्रसारः’’
(१) विशेष सोलह हैं। पाँच महाभूत — आकाश, वायु, अग्नि, जल और भूमि जो शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध — इन पाँच तन्मात्राओंके क्रम से कार्य हैं; पाँच ज्ञानेन्द्रिय — श्रोत्र (कान), त्वक् (त्वचा), चक्षु (आंख), जिह्वा (रसना या जीभ) और घ्राण (नाक) पाँच कर्मेन्द्रिय — वाक् (वाणी), पाणि (हाथ), पाद (पांव), पायु (मलेन्द्रिय) और उपस्थ (मूत्रेन्द्रिय), ग्यारहवाँ मन जो अहंकारके कार्य हैं। ये सोलह, तीनों गुणोंके विशेष परिणाम हैं। इनको विशेष इस कारणसे कहते हैं कि तीनों गुणोंके सुख, दुःख, मोहादि जो विशेष धर्म हैं, वे सब शान्त, घोर और मूढ़-रूपसे इनमें रहते हैं।
(२) अविशेष छः हैं। पाँच तन्मात्राएँ — शब्द,स्पर्श,रूप,रस और गन्ध जो पाँचों महाभूतोंके क्रमसे कारण हैं ; और एक अहंकार जो एकादश इन्द्रियोंका कारण है। ये छः क्रमसे अहंकार और महत्तत्व के कार्य गुणोंके अविशेष परिणाम हैं। इनमें शान्त, घोर, मूढ़रूप विशेष धर्म नहीं रहते, इसलिये ये अविशेष कहलाते हैं।
‘‘तन्मात्राण्यविशेषाणि अविशेषास्ततो हि ते।
न शान्ता नापि घोरास्ते न मूढाश्चाविशेषिणः॥१.२.४५॥ विष्णुपुराणम्’’
तन्मात्राएँ अविशेष हैं। वे इसलिये अविशेष हैं क्योंकि वे शान्त, घोर और मूढ़ नहीं होते।
(३) लिङ्गमात्र — सत्तामात्र महत्तत्व (समष्टि तथा व्यष्टि चित्त) यह विशेष – अविशेष से रहित केवल चिन्हमात्र तीनों गुणोंका प्रथम परिणाम है। लिङ्ग इसलिये कहलाता है, क्योंकि चिन्हमात्र व्यक्त है।
(४) अलिङ्ग — अव्यक्त — मूल प्रकृति अर्थात् गुणोंकी साम्यावस्था। यह अलिङ्ग-अवस्था पुरुषके निष्प्रयोजन है। अलिङ्ग-अवस्थाके आदिमें पुरुषार्थता कारण नहीं है और उस अवस्थाकी भी पुरुषार्थता कारण नहीं होती। यह पुरुषार्थकृत भी नहीं है, इस कारण नित्य कही जाती है। अलिङ्ग इसलिये कहलाती है कि इसका कोई चिन्ह नहीं अर्थात् व्यक्त नहीं है, अव्यक्त है। ये चारों, तीनों गुणोंके परिणामकी अवस्था विशेष हैं। इनमेंसे पहिली तीन अवस्थाएँ गुणोंके विषम परिणामसे होतीं हैं, ये ही पुरुषके प्रयोजनको साधतीं है। चौथी अलिङ्ग-अवस्थामें गुणोंमें साम्य परिणाम होता है, इसकी पुरुषके भोग तथा अपवर्ग किसी प्रयोजनमें प्रवृत्ति नहीं होती, परंतु इसी अवस्थाकी ओर गुणोंके जाननेकी प्रवृत्ति होती है, क्योंकि यह मूल अवस्था है; इसीको प्रकृति, प्रधान, अव्यक्त तथा माया भी कहते हैं। स्थूलसे सूक्ष्म और सूक्ष्मतर तथा सूक्ष्मतम ज्ञान दिलानेके लिये यह क्रम दिखलाया है। उत्पत्तिका क्रम इससे उलटा होगा। अर्थात् अलिङ्गसे लिङ्ग, लिङ्गसे छः अविशेष और अविशेषसे सोलह विशेष उत्पन्न होते हैं। इन विशेषोंका कोई तत्वान्तर परिणाम नहीं होता, उनके केवल धर्म, लक्षण और अवस्था परिणाम होते रहते हैं।
‘‘ततोऽभवन् महत्तत्त्वं अव्यक्तात् कालचोदितात् ।
विज्ञानात्माऽऽत्मदेहस्थं विश्वं व्यञ्जन् तमोनुदः ॥ ३.५.२७ ॥ श्रीमद्भागवत’’
अर्थ — तब काल की प्रेरणा से उस अव्यक्त माया से महत्तत्त्व प्रकट हुआ। वह मिथ्या अज्ञान का नाशक होने के कारण विज्ञानस्वरूप और अपने में सूक्ष्मरूप से स्थित प्रपञ्च की अभिव्यक्ति करनेवाला था ॥ २७ ॥
“नासद्रूपा न सद्रूपा माया नैवोभयात्मिका ।
सदसद्भ्यामनिर्वाच्या मिथ्याभूता सनातनी || २८ || सौरपुराणं – अध्यायः ११”
माया न असद् रूपा है, न सद् रूपा है, न उभयरूपा है — वह सत् या असत् से अनिर्वाच्या है, मिथ्यारूपा और सनातनी है (नित्या है) इन आदित्य पुराणादि में माया नामक प्रकृतिको अनिरूप्या कहा है।
‘‘तस्मान्न विज्ञानमृतेस्ति किंचित्क्वचित्कदाचिद्द्विज वस्तुजातम् ।
यच्चान्यथात्वं द्विज याति भूयो न तत्तथा तत्र कुतो हि सत्त्वम्।।४१,४३।। विष्णुपुराणम्/द्वितीयांशः/अध्यायः १२’’
हे द्विजसत्तम ! इस हेतुसे विज्ञानके सिवा कुछ भी और कभी भी वस्तुसमूह नहीं है। हे द्विज ! जो वस्तु फिर अन्यथा हो जाती है वह वैसी नहीं होती, उसमें सत्ता कहाँ ? (अर्थात् उसमें सत्ता भी नहीं होती)
‘‘अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।।२.२८।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
हे भारत ! सभी प्राणी जन्मसे पहले अप्रकट थे और मरनेके बाद अप्रकट हो जायँगे, केवल बीचमें ही प्रकट दीखते हैं। अतः इसमें शोक करनेकी बात ही क्या है? कार्यकरणके संघातरूप ही प्राणियोंको माने तो उनके उद्देश्यसे भी शोक करना उचित नहीं है क्योंकि अव्यक्त यानी न दीखना उपलब्ध न होना ही जिनकी आदि है ऐसे ये कार्यकरणके संघातरूप पुत्र मित्र आदि समस्त भूत अव्यक्तादि हैं अर्थात् जन्मसे पहले ये सब अदृश्य थे। उत्पन्न होकर मरणसे पहलेपहल बीचमें व्यक्त हैं दृश्य हैं। और पुनः अव्यक्तनिधन हैं अदृश्य होना ही जिनका निधन यानी मरण है उनको अव्यक्तनिधन कहते हैं अभिप्राय यह कि मरनेके बाद भी ये सब अदृश्य हो ही जाते हैं। ऐसे ही कहा भी है कि यह भूतसंघात अदर्शनसे आया और पुनः अदृश्य हो गया। न वह तेरा है और न तू उसका है व्यर्थ ही शोक किस लिये सुतरां इनके विषयमें अर्थात् बिना हुए ही दीखने और नष्ट होनेवाले भ्रान्तिरूप भूतोंके विषयमें चिन्ता ही क्या है रोनापीटना भी किस लिये है।
‘‘आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् ।
अप्रतर्क्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः ॥१.५॥ मनुस्मृतिः’’
अर्थ — यह सब जगत् सृष्टि के पहले प्रलयकाल में अन्धकार से आवृत्त (ढका हुआ) था। उस समय न किसी के जानने न तर्क में लाने और न प्रसिद्ध चिन्हों से युक्त इन्द्रियों से जानने योग्य था। क्योंकि उस समय यह सम्पूर्ण प्रपञ्च पूरी तरह से गहरी नींद में विलीन हो गया था।
‘‘जगन्मयी भ्रान्तिरियं न कदाचन विद्यते ।
विद्यते तु कदाचिच्च जलबुद्बुदवत्स्थिता ।। ३३ ।। योगवासिष्ठः/प्रकरणम् ६ (निर्वाणप्रकरणस्य पूर्वार्धम्)/सर्गः ०२२’’
यह ब्रह्मांडीय घटना कोई वास्तविकता नहीं है, न ही यह अस्तित्व में भी है; यह केवल एक अस्थायी भ्रम है, यह भ्रान्ति कभी-कभी होती है और कभी-कभी नहीं होती और अगले क्षण गायब होने के लिए पानी के बुलबुले के रूप में प्रकट होती है। संसार भ्रम के समान है, और कुछ नहीं। जैसे पानी में बुलबुला होता है, वैसे ही संसार को समझना चाहिए।
‘‘सद्भाव एवं भवतो मयोक्तो ज्ञानं यथा सत्यमसत्यमन्यत्
एतत्तु यत्संव्यवहारभूतं तत्रापि चोक्तं भुवनाश्रितं ते ||२.१२.४५|| विष्णुपुराणम्’’
इस तरह तुम्हें मैंने सद्भावका तथा ज्ञानके स्वरूप का उपदेश किया। ज्ञान स्वरूप परमात्मा ही सत्य हैं उनसे भिन्न सारी वस्तुऐं असत्य हैं और लोक में देव, मनुष्य आदि व्यवहार का हेतु तो कर्म ही है। परमात्म-चैतन्य सत्य है, जीव-चैतन्य सत्य नहीं है, नान्योऽतोऽस्ति द्रष्टा (बृहदा॰ ३ । ७ । २३). ‘इससे भिन्न कोई द्रष्टा नहीं है । यह वेदान्तरहस्य है।
‘‘ततस्तु तप्तरं ब्रह्मं परमात्मा जगन्मयः ।
सर्वगः सर्वभूतेशः सर्वात्मा परमेश्वरः ॥२८॥
प्रधानपुरुषौ चापि प्रविश्यात्मेच्छया हरिः ।
क्षोभयामास सम्प्राप्ते सर्गकाले व्ययाव्ययौ ॥१.२.२९॥ विष्णुपुराणम्’’
उसके पश्चात् जब सृष्टिकाल उपस्थित हुआ उस समय, वे जगत्स्वरूप, सर्वव्यापक, सभी भूतों (जीवों) के स्वामी सबों की अन्तरात्मा परमेश्वर (सम्पूर्ण जगत के स्वामी तथा नियामक) परमात्मा परंब्रह्म अपने (सत्यसंकल्प रूप) इच्छा से ही उन दोनों (विकारी प्रकृति तथा अविकारी पुरुष) के भीतर (अन्तर्यामी रूप से) प्रवेश करके उन्हें क्षोभित किये।
‘‘तस्मादव्यक्तमुत्पन्नं त्रिगुणं द्विजसत्तम।
अव्यक्ताव्यक्तभावस्था या सा प्रकृतिरव्यया।। १२.३४२.३२।। महाभारतम्’’
द्विजज्ञेष्ठ! उससे त्रिगुणात्मक अव्यक्त उत्पन्न हुआ। उसीको व्यक्तभावमें स्थित, अविनाशिनी अव्यक्त प्रकृति कहा गया है।
‘‘न घटत उद्भवः प्रकृतिपूरुषयोरजयोः
उभययुजा भवन्त्यसुभृतो जलबुद्बुदवत् ।
त्वयि त इमे ततो विविधनामगुणैः परमे
सरित इवार्णवे मधुनि लिल्युरशेषरसाः ॥ १०.८७.३१ ॥ श्रीमद्भागवत’’
अर्थ — स्वामिन् ! जीव आपसे उत्पन्न होता है, यह कहनेका ऐसा अर्थ नहीं है कि आप परिणामके द्वारा जीव बनते हैं। सिद्धान्त तो यह है कि प्रकृति और पुरुष दोनों ही अजन्मा हैं। अर्थात् उनका वास्तविक स्वरूप — जो आप हैं — कभी वृत्तियोंके अंदर उतरता नहीं, जन्म नहीं लेता। तब प्राणियोंका जन्म कैसे होता है ? अज्ञानके कारण प्रकृतिको पुरुष और पुरुषको प्रकृति समझ लेनेसे, एकका दूसरेके साथ संयोग हो जानेसे जैसे ‘बुलबुला’ नामकी कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, परन्तु उपादान-कारण जल और निमित्त-कारण वायुके संयोगसे उसकी सृष्टि हो जाती है। प्रकृतिमें पुरुष और पुरुषमें प्रकृतिका अध्यास (एकमें दूसरेकी कल्पना) हो जानेके कारण ही जीवोंके विविध नाम और गुण रख लिये जाते हैं। अन्तमें जैसे समुद्रमें नदियाँ और मधुमें समस्त पुष्पोंके रस समा जाते हैं, वैसे ही वे सब-के-सब उपाधिरहित आपमें समा जाते हैं। (इसलिये जीवोंकी भिन्नता और उनका पृथक् अस्तित्व आपके द्वारा नियन्त्रित है। उनकी पृथक् स्वतन्त्रता और सर्वव्यापकता आदि वास्तविक सत्यको न जाननेके कारण ही मानी जाती है।)
‘‘एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च।
खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी ॥२.१.३॥ मुण्डकोपनिषद्’’
इसी ‘परमात्म-तत्त्व’ से प्राण, मन तथा समस्त इन्द्रियों का जन्म होता है; तथा आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा सभी को धारण करने वाली पृथ्वी का भी जन्म होता है। जैसा कि गोपालतापिन्युपनिषत् में कहा है —
‘‘स होवाच हि तं पूर्वमेकमेवाद्वितीयं ब्रह्मासीत् । तस्मादव्यक्तमेकाक्षरम् । तस्मादक्षरान्महत् । महतोऽहङ्कारः । तस्मादहङ्कारात्पञ्च तन्मात्राणि । तेभ्यो भूतानि । तैरावृतमक्षरम् ।’’
पहले एक अद्वितीय ब्रह्म ही था । उससे अव्यक्त एकाक्षर {अ} उत्पन्न हुआ उस से प्रकृति प्रकट हुई । उसके बाद उस अक्षर से महतत्व फिर उस महतत्व से अहंकार की उत्पत्ति हुई। उस अहंकार से पांच तन्मात्राएं प्रकट हुई । उन तन्मात्राओं से पांच भूतों कि उत्पत्ति हुई । उनके द्वारा ये अक्षर ढका हुआ है ।
महत्तत्व और अहंकार का लक्षण महाभारतके मोक्षधर्म पर्वमें कहा है —
“हिरण्यगर्भो भगवानेष बुद्धिरिति स्मृतः ।
महानिति च योगेषु विरिञ्च इति चाप्युत ॥ १८ ॥
परमेश्वरसे उत्पन्न जो सबके अग्रज भगवान् हिरण्यगर्भ हैं, ये ही बुद्धि कहे गये हैं। योगशास्त्रोंमें ये ही महान् कहे गये हैं। इन्हींको विरिञ्चि तथा अज भी कहते हैं। सांख्ये च पठ्यते शास्त्रे नामभिर्बहुधात्मकः ।
विचित्ररूपो विश्वात्मा एकाक्षर इति स्मृतः ॥ १९ ॥
वृतं नैकात्मकं येन कृत्स्नं त्रैलोक्यमात्मना ।
तथैव बहुरूपत्वाद्विश्वरूप इति स्मृतः ॥ २० ॥
अनेक नाम और रूपोंसे युक्त इन हिरण्यगर्भ ब्रह्माका सांख्यशास्त्रमें भी वर्णन आता है। ये विचित्र रूपधारी, विश्वात्मा और एकाक्षर कहे गये हैं। इस अनेक रूपोंवाली त्रिलोकीकी रचना उन्होंने ही की है और स्वयं ही इसे व्याप्त कर रख्खा है। इस प्रकार बहुत-से रूप धारण करनेके कारण वे विश्वरूप माने गये हैं। एष वै विक्रियापन्नः सृजत्यात्मानमात्मना ।
अहंकारं महातेजाः प्रजापतिमहंकृतम् ॥ २१ ॥”
(महाभारतम्-शांतिपर्व-अध्याय -३०२)
ये महातेजस्वी भगवान् हिरण्यगर्भ विकारको प्राप्त हो स्वयं ही अहंकारकी और उसके अभिमानी प्रजापति विराट् की सृष्टि करते हैं।
‘‘तच्छरीरसमुत्पन्नैः कार्यैस्तैः करणैः सह ।
क्षेत्रज्ञाः समवर्तन्त गात्रेभ्यः तस्य धीमतः ॥ १,७.१ ॥ विष्णुपुराणम्’’
उस धीमान् हिरण्यगर्भ के स्थूल और सूक्ष्म — दोनों शरीरोंसे समुत्पन्न कार्यों और करणों के सहित क्षेत्रज्ञ उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार चार पर्वोंवाले दृश्य का या गुणोंका व्याख्यान पूरा हुआ।
सङ्गति — अब द्रष्टाका स्वरूप दिखाते हैं।
द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः ॥ २.२० ॥
द्रष्टा = द्रष्टा; (जो) दृशिमात्र: = देखनेकी शक्तिमात्र चेतनमात्र (ज्ञानस्वरूप आत्मा) है; शुद्ध:-अपि = (यद्यपि वह) शुद्ध अर्थात् निर्मल,निर्विकार होनेपर भी; प्रत्यय-अनुपश्यः = चित्तकी वृत्तियोंके अनुसार के देखनेवाला है ।
द्रष्टा जो देखनेकी शक्तिमात्र है, निर्विकार होता हुआ भी चित्तकी वृत्तियोंके अनुसार देखनेवाला है। प्रत्ययं बुद्धिवृत्तिमनुसृत्य पश्यतीति प्रत्ययानुपश्यः। प्रत्यय माने बुद्धिवृत्ति, उस बुद्धिवृत्तिके अनुसार देखता है, इसलिये उसको “प्रत्ययानुपश्यः” कहा है। अपनेको बुद्धिसे अलग न जाननेके कारण ही शब्दादि विषयोंको देखता है। क्योंकि चेतनके बिना जगत् का भान हो ही नहीं सकता। बुद्धिवृत्ति से जो विशिष्ट है, उसी को ही ज्ञानवृत्ति कहते हैं।
‘‘द्रष्टाऽसौ दृशिमात्रोऽपि शुद्धं प्रत्ययमीश्रते ।
बुद्धिवृत्तिविसंवेदात् परिणामीव भासते ॥ १०५ ॥ योगसूत्रसारः’’
व्याख्या :- दृषिमात्र, इस शब्दसे यह अभिप्राय है कि देखनेवाली शक्ति विशेषणरहित केवल ज्ञानमात्र है अर्थात् यह देखना या वह देखना उसका धर्म नहीं है, बल्कि यह देखनेकी शक्तिमात्र धर्मी है, उसमें कोई परिणाम नहीं होता। दृक् शक्ति की छाया जब बुद्धिमें प्रतिबिम्बित होती है तब शब्दादि विषयों का दर्शन होता है। जैसा कि महाभारतमें कहा गया है —
“यथा दीपः प्रकाशात्मा ह्रस्वो वा यदि वा महान्।
ज्ञानात्मानं तथा विद्यात्पुरुषं सर्वजन्तुषु।।१२.२१२.५४।। महाभारतम्-शांतिपर्व”
अर्थ — जैसे दीपक चाहे छोटा हो या बड़ा, प्रकाशरूप ही होता है, वैसे ही सब प्राणियोंके अंदर आत्माको भी ज्ञानरूप जानो।
‘‘ज्ञानं नैवात्मनो धर्मो न गुणो वा कथञ्चन।
ज्ञानस्वरूप एवात्मा नित्यः पूर्णः सदा शिवः ।।’’ (सौरपुराण)
अर्थ — ज्ञान न तो आत्मा का धर्म है और न किसी भाँति गुण ही है। आत्मा तो नित्य, विभु और शिव (कल्याणकारी) ज्ञानस्वरूप ही है।
‘‘न चिदप्रतिबिम्बाऽस्ति दृश्याभावादृते क्वचित् ।
क्वचिन्नाप्रतिबिम्बेन किलादर्शोऽवतिष्ठते ।।३.७.३०।। योगवासिष्ठः’’
चितिशक्ति — दृष्यके अभावके सिवा कहीं भी अप्रतिबिम्बा नहीं होती है, जैसे कि दर्पण दृश्यके अभावके सिवा कभी भी प्रतिबिम्बरहित नहीं होता है। और सुषुप्ति तथा प्रलय आदि में वृत्ति नामक दृश्यके अभावसे ही उस बुद्धिवृत्तिको नहीं देखता, यह भाव है।
तथा बुद्धिके परार्थ होनेमें श्रुति भी प्रमाण है —
‘‘न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति। आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेद सर्वं विदितम्॥५॥ बृहदारण्यकोपनिषद द्वितीयोऽध्यायः चतुर्थं ब्राह्मणम्’’
“वास्तव में, सबकी कामनाके लिये सब प्यारे नहीं होते, अपनी कामनाके लिये सब प्यारे होते हैं। सभी के लिए हम सबसे प्यार नहीं करते, अपने लिये सभी को प्यार किया जाता है, लेकिन वास्तव में यह स्वयं के लिए ही प्यार किया जाता है। “वास्तव में, हे मैत्रेयी! यह आत्मा है जिसे महसूस किया जाना चाहिए, इसके बारे में सुना जाना चाहिए , इस पर ध्यान दिया जाना चाहिये। इसके श्रवण, चिन्तन और ध्यान-स्वरूप की अनुभूति से-यह सब ज्ञात है। प्रत्येक देहधारी को अपने-अपने आत्मा के प्रति जैसा स्नेह होता है, ममता के विषयी भूत पुत्र-धन-गृहादि के प्रति वैसा स्नेह नहीं होता। अर्थात, ‘मैं’ और ‘मेरे’- इन दो प्रकार की वस्तुओं में अन्तर है, जितनी प्रीति ‘मैं’ के प्रति होती है, उतनी प्रीति ‘मेरे’-सम्बन्धी वस्तुओं के प्रति नही होती है। देहात्म बुद्धि वाले पुरुषों को अपना देह जितना प्रिय होता है, देह से सम्बन्धित गृह-स्त्री-पुत्रादि उतने प्रिय नहीं होते हैं। कोई भी प्राणी दूसरों की प्रीति के लिए उनसे प्रीति नहीं करता, अपने सुख के लिए ही पति स्त्री को, पत्नी पति को, पिता पुत्र को एवं पुत्र पिता को प्यार करता है। किसी दूसरे की प्रीति के लिए कोई प्रिय नहीं होता, केवल आत्मा की प्रीति (सुख) के लिए ही सब सबके प्रिय हुआ करते हैं।
“यश्चेतनमात्रः प्रतिपुरुषं क्षेत्रज्ञः” (मैत्रायण्युपनिषत्)
जो यह चेतन सत्ता हर भूत-प्राणियों में क्षेत्रज्ञ जीव रूप से स्थिर है और परमात्मा का अंश है।
‘‘ज्ञानमेव परं ब्रह्म ज्ञानं बन्धाय चेष्यते ।
ज्ञानात्मकमिदं विश्वं न ज्ञानाद्विद्यते परम् ॥ २,६.५० ॥ विष्णुपुराणम्’’
ज्ञान ही परं ब्रह्म है, ज्ञान ही बन्धके लिये है, यह सब ज्ञानात्मक है, ज्ञानसे परे कुछ नहीं है। हालांकि चैतन्य हमेशा विशुद्ध, निरंजन,निर्गुण और साक्षी मात्र ही होता है परन्तु जब यह बुद्धि के साथ एक हो जाता है तब यह धुंधला हो जाता है या फिर प्रतीत होने लगता है और तभी बन्धन का कारण होता है। जो लोग अपनी बुद्धि में अटके होते हैं वो अपने विचारों और मंतव्यों को ही अपना स्वरुप मान बैठते हैं और बड़े परेशान रहते हैं।
सङ्गति — वह पुरुष ही जब बुद्धिके साथ संयुक्त हो जाता तब भोक्ता कहलाता है। बुद्धि ही दृश्य है और इस दृश्यका प्रयोजन पुरुषके लिये है, यह बात अगले सूत्रमें बतलाते हैं।
तदर्थ एव दृश्यस्यात्मा ॥ २.२१ ॥
तद्-अर्थ-एव =उस =(द्रष्टा पुरुष) के लिये ही; दृश्यस्य-आत्मा = दृष्यका स्वरूप है।
उस पुरुष) के लिये ही (यह सारा) दृष्यका स्वरूप है।
व्याख्या :- ऊपर कहे हुए लक्षणानुसार दृश्यका जो स्वरूप है वह पुरुषके प्रयोजनके लिये है; क्योंकि प्रकृति अपने किसी भी प्रयोजनकी अपेक्षा न करके केवल पुरुषके भोग और अपवर्गके लिये प्रवृत्त होती है। पलँग, घर, कार, भोजन आदि जितने भी साधन हैं वे किसी भोक्ताके लिये होते हैं, उनके खुदके लिए नहीं, क्योंकि एक तो वे अचेतन होते हैं और दूसरे अनेक चीजें मिलाकर बनाए जाते हैं।
‘‘कार्यकारणरूपं तद्दृश्यं स्वार्थं कदाऽपि न ।
समीहस्तु यथाऽन्येभ्यस्तथा दृश्यं पराय वै ॥ १०६ ॥ योगसूत्रसारः’’
इस सूत्रसे सिद्ध होता है कि दृश्यकी सत्ता चैतन्यके अधीन है, वह स्वतः सिद्ध नहीं है। यह प्रकृति रूपी दृश्य केवल बन्धन या दुःखका ही कारण नहीं है इससे मोक्ष भी प्राप्त किया जा सकता है। जो सीढ़ी नीचे ले जा सकती है उसीसे ऊपर भी जाया जा सकता है। प्रसिद्ध ही है कि कांटे से ही काँटा निकाला जाता है और बाद में जिस कांटे से काँटा निकाला था उसे भी फेंक दिया जाता है । मुख्य रूप से प्रकृति का प्रयोजन पुरुष को अपवर्ग (मुक्ति) दिलाना ही है, भोग मुख्य नहीं है । जिस प्रकार यात्रा करते समय हम किसी वाहन का उपयोग गन्तव्य तक पहुँचने के लिए करते हैं उसी प्रकार मुक्ति रूपी गन्तव्य तक पहुँचने हेतु भोग यात्रा के बीच की सुख सविधाएं हैं । इन सुख सुविधाओं का यात्रा को सरलरूपसे सम्पन्न करने के लिए उपयोग मात्र ही श्रेष्ठ दर्शन है । यदि कोई सुख सुविधाओं में ही फंसा रह जायेगा तो मंजिल प्राप्त होने पर भी वह साधन को नहीं छोड़ेगा और पुनः जन्म-जन्मान्तरों के फेर में पड़ता रहेगा ।
‘‘इत्येष प्रकृतिकृतो महदादिसूक्ष्मपर्यन्तः।
प्रतिपुरुषविमोक्षार्थं स्वार्थ इव परार्थ आरम्भः॥५६॥ सांख्यकारिका’’
भावार्थ :- इस प्रकार प्रकृतिसे किया हुआ महद् इत्यादि से लेकर विशेष (स्थूल) भूतों तक का सर्ग प्रकृति ने ही रचा है। और वह प्रत्येक पुरुष के मोक्ष के लिए है। इसलिए अपने लिए प्रतीत होता हुआ (वह कार्य) भी वस्तुतः दूसरों के लिए ही है।
‘‘वत्सविवृद्धिनिमित्तं क्षीरस्य यथा प्रवृत्तिरज्ञस्य।
पुरुषविमोक्षनिमित्तं तथा प्रवृत्तिः प्रधानस्य॥५७॥ सांख्यकारिका’’
जिस तरह अचेतन दूध बछडे की वृद्धि का कारण होता है उसी तरह अचेतन अव्यक्त (प्रकृति ) पुरुष के मोक्ष के लिए प्रवृत्त होती है।
‘‘नानाविधैरुपायैरुपकारिण्यनुपकारिण: पुंस: ।
गुणवत्यगुणस्य सत: तस्यार्थमपार्थकं चरति ॥ ६०॥ सांख्यकारिका’’
नाना प्रकारके उपायोंसे यह उपकारिणी गुणवती (सत्व, रजस्, तमस् गुणवाली) प्रकृति उन अनुपकारी गुणरहित (गुणातीत) पुरुषके अर्थ निःस्वार्थ काम करती है (जिस प्रकार परोपकारी सज्जन सबका भला करता है और अपना कोई प्रत्युपकार नहीं चाहता)
प्रकृति का सम्पूर्ण उद्देश्य पुरुष को भुक्ति और मुक्ति दिलाने के लिए हुआ है ।
प्रकृति स्वयं के लिए नहीं अपितु जीवात्मा के लिए उत्पन्न हुई है ।
प्रकृति जड़ पदार्थ है और जड़ पदार्थ स्वयं के लिए उपयोगी न होकर चेतन तत्त्व के काम आते हैं ।
प्रकृति संघात है, और संघात सदैव परार्थ के लिए होता है । अर्थात् जड़ पदार्थों का जो मिला-जुला स्वरूप होता है वह किसी चेतन तत्त्व के भोग सिद्धि या उसके निःश्रेयस के लिए होता है । जैसे मोटर किसी सवार के लिये होती है।
पुरुष अर्थात् जीवात्मा प्रकृति के सहयोग के बिना न तो भोग ही भोग सकता है और न ही भोगों से मुक्ति पा सकता है।
पुरुष का बन्धन वस्तुतः हमें दिखाई देता है, जब कि बन्धन एवं मोक्ष पुरुष का न होकर प्रकृति का होता है (रूपैः सप्तभिरेव तु बध्नात्यात्मानमात्मना प्रकृति: (कारिका-६३)। ज्ञान की अवस्था में पुरुष को वस्तुस्थिति का भान होता है और वह प्रेक्षक के समान तटस्थ भाव से दूर खड़ा होकर प्रकृति से स्वयं को अलग समझ लेता है।
सङ्गति — क्या एक पुरुषके प्रयोजनको साधकर यह दृश्य नष्ट हो जाता है ? नहीं; क्योंकि — कृतार्थ आत्मज्ञानी पुरुष के लिए इस संसार का कण कण आनंद से भरा होता है या उसी चैतन्य का भाग होता है परन्तु दूसरे लोगों के लिए यह संसार उनकी दृष्टि के अनुसार मौजूद रहता है।
कृतार्थं प्रति नष्टमप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वात् ॥ २.२२ ॥
कृतार्थं-प्रति-नष्टम्-अपि = जिसका प्रयोजन सिद्ध हो गया है उसके प्रति नष्ट हुआ भी; अनष्टम् = (वह दृश्य) नष्ट नहीं होता; तद्-अन्य-साधारणत्वात् = क्योंकि वह (दृश्य) दूसरोंकी साझेकी वस्तु है।
जिसका प्रयोजन सिद्ध हो गया है उसके लिये यह दृश्य नष्ट हुआ भी नष्ट नहीं होता है; क्योंकि वह दूसरे पुरुषोंके साथ साझेकी वस्तु है।
‘‘कृतार्थं प्रति नष्टं तन्ननष्टं मूढचक्षुषे।
नशेर्धातोर्न लोपोऽर्थो नाशो भूयाददर्शनम् ॥ १०७ ॥ योगसूत्रसारः’’
व्याख्या :- इस सारे दृष्यकी रचना समस्त पुरुषोंके भोग-अपवर्गके लिये है, न कि किसी विशेष पुरुष के लिये। इसीलिये जिसका यह प्रयोजन सिद्ध हो गया है उसके लिये यद्यपि इस दृश्यका कार्य समाप्त और नाशके तुल्य हो जाता है, तथापि इसका सर्वथा नाश नहीं हो जाता; क्योंकि एक पुरुषके मुक्त हो जानेसे सब मुक्त नहीं हो जाते। यह दूसरोंके लिये इसी प्रयोजनको साधनेमें लगा रहता है। प्रकृति किसी एक व्यक्ति विशेष के लिए नहीं बनी है वह तो मानव मात्र के भोग और मुक्ति के लिए बनी है। एक यात्री की यात्रा पूरी हो जाने से सभी यात्रियों की यात्रा पूरी नहीं हो जाती इसीलिये ट्रेन चलती रहती है।
पुरुष शब्दका अर्थ यहाँ पर चित्तमें प्रतिबिम्बित चिति-शक्ति (चेतन-तत्त्व) अर्थात् जीवात्मा है। चित्तको बनानेवाले गुणोंका जीवात्माके प्रयोजन भोग और अपवर्गको सम्पादन करनेके पश्चात् अपने कारणमें लीन हो जाना ही जीवात्माकी मुक्ति (कैवल्य) कही जाती है। चित्त पुरुषका दृश्यरूप है। वही वृत्तिरूपसे अन्य सब दृश्योंको पुरुषको बोध करानेका साधन है। एक चित्तके नष्ट होनेसे उसके द्वारा दृश्यमान सारा जगत भी उसके प्रति नष्ट होनेके तुल्य है, किंतु अनन्त जीवोंके चित्त जिन्होंने (जीवोंके) उनके प्रति भोग और अपवर्गका प्रयोजन सिद्ध नहीं किया है अपने विषय सारे दृश्यमान जगत् सहित वर्तमान रहते हैं। उदाहरण के रूपमें यदि कोई छात्र कक्षा १० की परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है तो उसके लिए उस कक्षा का अस्तित्व समाप्त हो जाता है । लेकिन किसी एक के उत्तीर्ण होने से अन्य जो (उत्तीर्ण नहीं हुए हैं ) उनके लिए कक्षा १० पूर्ववत् बनी ही रहेगी । वह चाहे तो कक्षा १० में बैठना छोड़ दे लेकिन जब भी पढाई पुनः प्रारम्भ करेगा तो कक्षा १० से ही शुरू होगी । उसके लिए सभी नियम कानून, व्यवस्थाएं पहले की जैसी ही बनी रहेंगी । लेकिन जिसने कक्षा १० उत्तीर्ण कर ली, उसके लिए उस कक्षा के नियम, व्यवस्थाएं आदि सबकुछ निरर्थक हो जाते हैं । इसी प्रकार से प्रकृति भी मुक्त पुरुष के लिए नष्ट हो जाती है लेकिन अन्यों के लिए पहले के जैसी ही बनी रहती है । क्योंकि जीवात्मा असंख्य हैं। एक राजा यदि राज्य के प्रति विरक्त हो जाय तो उसके लिये राज्य नष्टप्राय ही है परन्तु अन्य राजाओं के लिये उसी राज्यमें आसक्ति होनेके कारण राज्य बना ही रहता है। विदेहराज जनक जैसे राजा विरले ही होते हैं। इसी बातको श्रुति अनुग्रहपूर्वक इस मन्त्र द्वारा समझाती है —
‘‘अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः।
अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः॥ ४.५॥ श्वेताश्वतरोपनिषद् ’’
(इस ब्रह्माण्ड में) एक अजन्मी, एक अजा = बकरी (प्रकृति) है जो कि लाल, सफेद और काले रंग (रज, सत्त्व और तम) वाली है । वह अपने जैसे रूप में बहुत सी प्रजाओं (वस्तुओं) को सृजती है, जन्म देती है । एक अजन्मा, या अज = बकरा (जीवात्मा), उसका भोग करता हुआ (अनुशेते) लेटता है, उसका सेवन करता है, जबकि दूसरे एक अजन्मे, या बकरे (जीवात्मा), ने पहले ही उस बकरी का भोग करके उसको त्याग दिया है ।
अलर्क को उनकी माता मदालसा ने राजधर्म की शिक्षा दी थी जबकि अन्य पुत्रों को निवृत्तिधर्म की शिक्षा दी गयी थी।
इस विषय में महाराज अलर्क की कहानी बहुत ही शिक्षाप्रद है। महाराज ऋतध्वज और माता मदालसा के पुत्र अलर्क थे अलर्क के बड़े भाई सुबाहु ने काशीनरेश की सहायता से इनपर आक्रमण कर दिया, मदालसा और दत्तात्रेय के परामर्श पर इन्होंने अपना राज्य सुबाहु को दे दिया और स्वयं त्यागी बन गये। मदालसा ने जो गुप्त संदेश एक ताम्रपत्र पर लिखकर एक अंगूठी में भरकर अलर्क को दिया था और कहा था कि बेटा! संकट के समय इसे खोलकर पढ़ लेना, वह संदेश इस प्रकार है —
‘‘सङ्गः सर्वात्मना त्याज्यः स चेत्त्यक्तुं न शक्यते ।
स सद्भिः सह कर्तव्यः सतां सङ्गो हि भेषजम्॥३७.२३॥ मार्कण्डेयपुराणम्’’
आसक्ति को हर तरह से पूरी तरह से त्याग दिया जाना चाहिए; यदि यह कठिन पाया जाता है, तो ‘अचूक इलाज’ के रूप में सदाचारियों की संगति की तलाश करें अर्थात् कभी भी किसीसे आसक्ति अथवा लगाव नहीं रखना चाहिये। यदि वह न छूट सके तो वह लगाव संतोंके साथ करना चाहिये। क्योंकि संतोंका संग ही भवरोगका बहुत बड़ा भेषज है, दवा है, औषधि है।
‘‘कामः सर्वात्मना हेयो हातुञ्चेच्छक्यते न सः ।
मुमुक्षां प्रति तत्कार्यं सैव तस्यापि भेषजम्॥३७.२४॥ मार्कण्डेयपुराणम्’’
कभी भी मनमें किसी प्रकारकी कामना नहीं करनी चाहिये। यदि कामनाका त्याग न हो सके तो उसको मुमुक्षाके प्रति करना चाहिये अर्थात् मोक्षकी कामना करनी चाहिये, क्योंकि वही कामना संसारके रोगोंका भेषज है। फिर भगवान दत्तात्रेय के उपदेश से जब अलर्क को आत्मानुभूति हुई तब उन्होंने कहा —
‘‘यथा घटीकुम्भकमण्डलुस्थं आकाशमेकं बहुधा हि दृष्टम् ।
तथा सुबाहुः स च काशिपोऽहमन्ये च देहेषु शरीरभेदैः॥३७.४२॥ मार्कण्डेयपुराणम्’’
जिस प्रकार कलसी, घट और कमण्डलु में एक ही आकाश है और पात्रभेद से अलग-अलग दिखाई देता है उसी प्रकार काशीराज, सुबाहु और अलर्क में एक ही आत्मतत्व है, शरीरके भेद के कारण अलग-अलग दिखाई देते हैं।
आचार्य शंकर ने भी साधनपञ्चक में कहा है कि —
“सङ्गः सत्सु विधीयतां भगवतो भक्तिर्दृढाऽऽधीयतां
शान्त्यादिः परिचीयतां दृढतरं कर्माशु सन्त्यज्यताम्।
सद्विद्वानुपसृप्यतां प्रतिदिनं तत्पादुका सेव्यतां
ब्रह्मैकाक्षरमर्थ्यतां श्रुतिशिरोवाक्यं समाकर्ण्यताम्॥२॥
सज्जनों का साथ करें, प्रभु में भक्ति को दृढ़ करें, शांति आदि गुणों का सेवन करें, कठोर कर्मों का परित्याग करें, सत्य को जानने वाले विद्वानों की शरण लें, प्रतिदिन उनकी चरण पादुकाओं की पूजा करें, ब्रह्म के एक अक्षर वाले नाम ॐ के अर्थ पर विचार करें, उपनिषदों के महावाक्यों को सुनें ॥२॥
सङ्गति — दृश्यका रूप दिखलाकर अब हेयका हेतु जो दृश्य और द्रष्टाका संयोग है, उसका वर्णन करते हैं।
स्वस्वामिशक्त्योः स्वरूपोपलब्धिहेतुः संयोगः ॥ २.२३ ॥
स्वस्वामिशक्त्योः = स्व-शक्ति और स्वामी-शक्तिसंज्ञक (बुद्धि और पुरुषके); स्वरूप-उपलब्धि हेतुः = स्वरूपकी उपलब्धिका जो कारण है; संयोगः = वह (दृश्य-द्रष्टृका स्व-स्वामिभाव) संयोग है अर्थात् स्वशक्ति और स्वामिशक्तिके स्वरूपकी उपलब्धि (दृश्य-द्रष्टृके स्व-स्वामिभाव) संयोगके वियोगका कारण है।
स्व-शक्ति और स्वामी-शक्तिसंज्ञक स्वरूपकी उपलब्धिका जो कारण है वह (दृश्य-द्रष्टृका स्व-स्वामिभाव) संयोग है। अर्थात् स्वशक्ति और स्वामी-शक्तिके स्वरूपकी उपलब्धि (दृश्य-द्रष्टृके स्व-स्वामिभाव) संयोगके वियोगका कारण है।
‘‘दृश्यस्यास्योपलब्धिर्या सा भोगनामिका मता ।
द्रष्टुस्स्वरूपलब्धिश्च मोक्षस्स्याद्योगदर्शने ॥ १०८ ॥ योगसूत्रसारः’’
व्याख्या — चित्त और यह सारा जड़ दृश्य स्व (मिल्कियत) है। चेतन पुरुष इसका स्वामी है। शक्ति शब्दका अर्थ स्वभाव या स्वरूप है, दृश्य ज्ञेय है और द्रष्टा ज्ञाता है। दृश्य और द्रष्टा दोनों नित्य और व्यापक हैं, उनका स्वरूपसे भिन्न कोई संयोग नहीं हो सकता। जो दृश्यमें भोग्यत्व और द्रष्टामें भोक्तृत्व है वह अनादि कालसे है। इस दृश्यके भोग्यत्व और द्रष्टाके भोक्तृत्व-भावको ही संयोग नाम दिया गया है। यह संयोग अनादिकालसे चला आ रहा है। इसीके हटानेके हेतु स्वशक्ति और स्वामिशक्तिके स्वरूपकी उपलब्धि की जाती है। अर्थात् स्वशक्ति और स्वामिशक्तिके स्वरूपकी उपलब्धि दृश्यद्रष्टाके स्व-स्वामिभाव संयोगके वियोगका कारण है। यह दृश्यके स्वरूपकी उपलब्धि अर्थात् दृश्यके स्वरूपका विवेकपूर्ण साक्षात् करना भोग है और द्रष्टाके स्वरूपकी उपलब्धि अर्थात् पुरुष-दर्शन या स्वरूप-स्थिति अपवर्ग है।
‘‘इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ॥१.३.४॥ कठोपनिषद्’’
मनीषीगण इन्द्रियों को अश्व तथा इन्द्रियगोचर विषयों को उनके विचरण के मार्ग कहते हैं। तथा ‘वह’ जो ‘आत्मा’, मन तथा इन्द्रियों से युक्त है, वह भोक्ता है।
‘‘यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम्।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ।।१३.२७।। श्रीमद् भगवद्गीता’’
हे भरत श्रेष्ठ ! यावन्मात्र जो कुछ भी स्थावर जंगम (चराचर) वस्तु उत्पन्न होती है, उस सबको तुम क्षेत्र (प्रकृति) और क्षेत्रज्ञ (पुरुष) के संयोग से उत्पन्न हुई जानो। अर्थात् प्रकृति और पुरुषके परस्परके सम्बन्धसे ही सम्पूर्ण जगत् की स्थिति है।
‘‘पुरुषस्य दर्शनार्थं कैवल्यार्थं तथा प्रधानस्य।
पङ्ग्वन्धवदुभयोरपि संयोगस्तत्कृत: सर्ग:।।२१।। सांख्यकारिका’’
पुरुष के दर्शन के लिए एवं प्रधान (प्रकृति) के कैवल्य के लिए दोनों (पुरुष एवं प्रकृति) का ही संयोग अंधे ओर लंगड़े के समान (होता है), (यह सम्पूर्ण) सृष्टि उस (संयोग) के द्वारा (ही) बनी हई है।
‘‘त्यज धर्ममधर्मं च उभे सत्यानृते त्यज ।
उभे सत्यानृते त्यक्त्वा येन त्यजसि तं त्यज ॥ १२.३१६.४० ॥ महाभारत’’
सभी तरह के धर्म-अधर्म तथा सत्य-असत्य दोनों का ही परित्याग कर देना चाहिए। तदनन्तर जिसके द्वारा इस प्रकार सत्य-असत्य का परित्याग किया जाता है, उसका (उस बुद्धि का) भी त्याग कर देना चाहिए।
‘‘शुद्धोसि बुद्धोसि निरंजनोऽसि संसारमाया परिवर्जितोऽसि ।
संसारस्वप्नं त्यज मोहनिद्रां मदालसोल्लापमुवाच पुत्रम् ॥ १ ॥’’
माँ मदालसा ने लोरी सुनाते हुए कहा कि हे पुत्र ! तू संसार रूपी मायाका द्रष्टा है इसलिए तू इससे अलग है, यह संसार परिवर्तनशील और स्वप्न के समान है इसलिये मोहनिद्रा का त्याग कर क्योंकि तू शुद्ध ,बुद्ध और निरंजन है।
सङ्गति — अब अगले सूत्रमें इस संयोगका कारण बताते हैं।
तस्य हेतुरविद्या ॥ २.२४ ॥
तस्य {जन्माख्यस्य द्रष्टृदृश्यसंयोगस्य} हेतुः = उस जन्म नामवाले द्रष्टा और दृश्य के संयोगका कारण; अविद्या = अविद्या (मिथ्याज्ञान) है।
उस द्रष्टा और दृश्यके संयोग का कारण अनात्मा में आत्मबुद्धिरूप मिथ्या- ज्ञानवासनारूपी अविद्या है ।
‘‘चितेश्चित्तस्य संयोगे त्वविद्या कारणं मतम्।
अविद्या सा यदा नष्टा संयोगोऽपि तथा गतः ॥ १०९ ॥योगसूत्रसारः’’
चेतना का चित्तके साथ संयोग का कारण अविद्या अर्थात् मिथ्या-ज्ञान है, जब अविद्या नष्ट हो जाती है तब यह संयोग भी नष्ट हो जाता है। इस संयोगसे आत्मा और चित्तमें विवेक न होने से अभिन्नता प्रतीत होती है; और चित्तकी सुख, दुःख और मोहरूपी वृत्तियोंका पुरुषमें अध्यारोप होता है। इन वृत्तियों को अपना स्वरूप मान लेना अज्ञान है।
‘‘तस्मात्तत्संयोगादचेतनं चेतनावदिव लिङ्गम् ।
गुणकर्तृत्वेऽपि तथा कर्तेव भवत्युदासीन: ॥ २० ॥ सांख्यकारिका’’
इस कारण उनके संयोगसे (पुरुष और बुद्धिके अविद्याके कारण आसक्ति अथवा अविवेकपूर्ण संयोगसे) अचेतन बुद्धि, चेतन-सी और वैसे ही गुणोंके कर्ता न होने पर भी उदासीन (पुरुष) कर्ता जैसा प्रतीत होता है। यद्यपि पुरुष एवं प्रकृति अत्यन्त भिन्न हैं तथापि पुरुष को इस पार्थक्य का बोध नहीं रहता, इसलिए वह अपने को बंधा हुआ अनुभव करता है।
‘‘प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।३.२७।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
मूर्ख अज्ञानी मनुष्य कर्मोंमें किस प्रकार आसक्त होता है सो कहते हैं सत्त्व रजस् और तमस् इन तीनों गुणोंकी जो साम्यावस्था है उसका नाम प्रधान या प्रकृति है उस प्रकृतिके गुणोंसे अर्थात् कार्य और करणरूप समस्त विकारोंसे लौकिक और शास्त्रीय सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे किये जाते हैं। परंतु अहंकारविमूढात्मा कार्य और करणके संघातरूप शरीरमें आत्मभावकी प्रतीतिका नाम अहंकार है उस अहंकारसे जिसका अन्तःकरण अनेक प्रकारसे मोहित हो चुका है ऐसा देहेन्द्रियके धर्मको अपना धर्म माननेवाला देहाभिमानी पुरुष अविद्यावश प्रकृतिके कर्मोंको अपनेमें मानता हुआ उन-उन कर्मोंका मैं कर्ता हूँ ऐसा मान बैठता है। ज्ञान के साधनों में आचार्योपासन को मुख्य साधन माना गया है अतः यह ज्ञान आचार्यकी संन्निधि में ही प्राप्त किया जा सकता है।
‘‘आचिनोति च शास्त्रार्थमाचारे स्थापयत्यपि।
स्वयमाचरते यस्मादाचार्यस्तेन चोच्यते ॥’’
जो शास्त्र के अर्थों को समझाते हुये उनकी हमारे भीतर स्थापना करता है। एवं स्वयं भी उनका आचरण करता है। वह आचार्य है।
सङ्गति — अब तक हेय (त्याज्य) का स्वरूप बताया, अब अगले सूत्रमें हान (प्राप्तव्य) का स्वरूप बतलाते हैं। अर्थात् अविद्याके कारण संयोगके नाशको जो कैवल्य है उसको बतलाते हैं।
तदभावात् संयोगाभावो हानं तद् दृशेः कैवल्यम् ॥ २.२५ ॥
तदभावात् = उसके (अविद्याके) अभावसे; संयोगाभावः = संयोगका अभाव; हानम् = हान है; (अर्थात् दुःखका अपने कारण सहित नाश) तत्-दृशेः = वह चिति शक्ति (द्रष्टा) का; कैवल्यम् = कैवल्य है।
उसके (अविद्याके) अभावसे संयोगका अभाव ‘हान’ है। (अर्थात् दुःखका अपने कारण सहित नाश) और वही चिति-शक्तिका कैवल्य है।
‘‘संयोगस्य ह्यभावोऽसौ हानमित्यत्युते बुधैः।
कैवल्ये केवलो जीवो गुण वा केवलास्तथा ॥ ११० ॥ योगसूत्रसारः’’
व्याख्या — उस अविद्या के अभाव से संयोग का अभाव हो जाता है, यही हान अर्थात् अज्ञान का परित्याग है और वही द्रष्टा चेतन आत्मा का ‘कैवल्य’ अर्थात् मोक्ष है। अथवा केवल गुणोंका ही व्यवहार रह जाता है। संयोगका अभाव होनेपर दोनों अलग-अलग होकर अकेले अर्थात् केवल रह जाँयगे। पुरुष और प्रकृति के बीच का संयोग का जब अभाव हो जाता है तो इस स्थिति को ही ‘हान’ के नाम से कहा गया है । दुःखो से मुक्ति को ही हान कहा है ।
अविद्याके विरोधी यथार्थ ज्ञानसे अविद्याका उच्छेद हो जाता है। अविद्याके अभाव होनेपर उसके कार्य संयोगका भी अभाव होता है वही ‘हान’ कहलाता है। मूर्त द्रव्यके समान इसका परित्याग नहीं होता, किंतु विवेकख्याति के उदय होनेपर अविवेक निमित्तज संयोग स्वयं ही निवृत्त होजाता है। यही इस संयोगका ‘हान’ है। यह जो संयोगका नाश है वही स्वरूपसे नित्य केवली (शुद्ध-स्वरूप) पुरुषका कैवल्य कहलाता है।
सङ्गति — अब इस ‘हान’ की प्राप्तिका उपाय बतलाते हैं। —
विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः ॥ २.२६ ॥
विवेक-ख्याति: = विवेकज्ञान; अविप्लवा = शुद्ध, निर्मल, अडोल अर्थात् संशय और विपर्यय से रहित; हानोपायः = हान का उपाय है।
शुद्ध माने मिथ्या-ज्ञानसे रहित जो विवेकख्याति है वह हान (कैवल्य) का उपाय है।
‘‘हानप्राप्तेरुपायो हि विवेकख्यातिनामकः।
मिथ्याज्ञानविनिर्मुक्ता ख्यातिस्सा मोक्षकारणम् ॥ १११॥ योगसूत्रसारः’’
व्याख्या — विवेक माने द्रष्टा और दृश्यका भेद तथा ख्याति माने ज्ञान होता है। इसलिये चित्त और पुरुष इन दोनोंकी भिन्नताका ज्ञान; अथवा ऐसा ज्ञान कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और चित्त मुझसे भिन्न हैं, यह विवेकख्याति है। यह विवेकज्ञान आगम अर्थात् आचार्यके उपदेश और शास्त्रोंके पढ़ने तथा अनुमानसे भी उदय होता है, पर यह परोक्ष ज्ञान है; और अनादि अविद्याके निवृत्त करनेमें असमर्थ होता है। मिथ्याज्ञानजन्य व्युत्थानके संस्कार चित्तमें बने रहते हैं और तामस-राजस वृत्तियाँ उदय होती रहती हैं। इस प्रकार यह विवेकख्याति विप्लव सहित है। विप्लव का अर्थ विच्छेद है अर्थात् जिसमें बीच-बीचमें राजसी-तामसी वृत्तियों का उदय होना बना रहे। इसलिये ऐसा विवेक-ज्ञान हानका (मोक्षका) उपाय नहीं है। यह ज्ञान जब दीर्घकाल निरन्तर सत्कारपूर्वक प्रतिपक्षभावनाके बलसे अर्थात् क्लेशके विरोधी क्रिया-योगके अनुष्ठानबलसे अविद्याके विरोधी तत्त्वज्ञान, अस्मिताके विरोधी भेदज्ञान, राग-द्वेषके विरोधी मध्यस्थता, अभिनिवेश के विरोधी सम्बन्ध ज्ञान निवृत्तिके अनुष्ठानसे जब परिपक्व हो जानेपर समाधिद्वारा साक्षात् कर लिया जाता है तो वह अपरोक्ष ज्ञान होता है। इससे अविद्याके नाश हो जानेपर कर्तृत्व-भोक्तृत्व अभिमानसे रहित और राजस-तामस मलोंसे शून्य चित्त हो जाता है। तब सत्त्वगुणके प्रकाशमें चित्तमें चेतनका जो प्रतिबिम्ब अर्थात् प्रकाश पड़ रहा है और जिसके कारण चित्तमें चेतनता प्रतीत हो रही है, चित्तसे भिन्न उसका साक्षात्कार होता है। यद्यपि यह साक्षात्कार भी चित्तके द्वारा होता है इसलिये चित्तहीकी एक सात्त्विक वृत्ति है तथापि इसके निरन्तर अभ्याससे विवेक-ज्ञानका प्रवाह निर्मल और शुद्ध हो जाता है, क्लेशोंका सर्वथा नाश होता है और मिथ्या-ज्ञान दग्धबीजके तुल्य बन्धनकी उत्पत्ति करनेमें असमर्थ हो जाता है। यही अविप्लव अर्थात् अडोल,अविच्छेद निर्मल हानका (मोक्षका) उपाय है।
दृश्यं नाम भूतेन्द्रियात्मकं, दृश्य माने पञ्चभूत और इन्द्रियोंका संयोग। द्रष्टा नाम चैतन्यम्। द्रष्टा माने चेतन आत्मा। दृश्यसान्निध्यवशात् पुरुषः परिणामीव, दृश्यकी समीपताके कारण चेतन पुरुष परिणामी जैसा भासता है। और पुरुषसान्निध्यवशात् दृश्यं चैतन्यमिव च भासते। पुरुष की समीपताके कारण दृश्य चेतन जैसा भासता है। सान्निध्यमथवा संयोग एव हेयकारणम्। यह सांनिध्य अर्थात् सामीप्यताका संयोग ही हेय का कारण है। यथा सम्यगलङ्कृतानि वस्तूनि तदिरभोगाय तथा च दृश्यं पुरुषदर्शनार्थं प्रवर्तते। जैसे अच्छी तरहसे सजाई हुई वस्तुऐं किसी अन्य पुरुषके भोगके लिये होतीं है वैसे ही सम्पूर्ण दृश्य की नुमायश पुरुषको दिखानेके लिये प्रवृत्त होती है। मुक्तस्य अविद्या अदृष्टा भवति न तु सर्वेषाम्। मुक्त पुरुषके लिये अविद्या अदर्शन को प्राप्त हो जाती है दूसरे लोगोंके लिये नहीं। अविद्याहेतुकसंयोगस्यास्याभावो हानम्। अविद्या कर्तृक संयोगका अभाव ही मोक्ष कहलाता है। तत्प्राप्तिमार्गस्तु विवेक ज्ञानम् । और उसकी प्राप्ति का मार्ग विवेक ज्ञान है।
‘‘क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्।।१३.३५।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
इस प्रकार, जो पुरुष ज्ञानचक्षु के द्वारा क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को तथा प्रकृति के विकारों से मोक्ष को (अव्यक्त नामक अविद्यारूप भूतोंकी प्रकृतिके मोक्षको) यानी उसका अभाव कर देनेको भी जानते हैं, वे परमार्थतत्त्वस्वरूप ब्रह्मको प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् पुनर्जन्म नहीं पाते।
‘‘त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।२.४५।। श्रीमद्भगवद्गीता’’
वेद त्रैगुण्यविषयक हैं अर्थात् तीनों गुणोंके कार्यरूप संसारको ही प्रकाशित करनेवाले हैं। गुण अलग हैं और पुरुष अलग है इस प्रकारके विवेक को विवेकख्याति कहते हैं। परंतु हे अर्जुन तू असंसारी हो निष्कामी हो। त्रिगुणातीत हो। तथा निर्द्वन्द्व हो अर्थात् सुख-दुःखके हेतु जो परस्पर विरोधी (युग्म) पदार्थ हैं उनका नाम द्वन्द्व है उनसे रहित हो और नित्य सत्त्वस्थ हो अर्थात् सदा सत्त्वगुणके आश्रित हो। तथा निर्योगक्षेम हो। अप्राप्त वस्तुको प्राप्त करनेका नाम योग है और प्राप्त वस्तुके रक्षणका नाम क्षेम है योगक्षेमको प्रधान माननेवालेकी कल्याणमार्गमें प्रवृत्ति होनी अत्यन्त कठिन है अतः तू योगक्षेमको न चाहनेवाला हो। तथा आत्मवान् हो अर्थात् (आत्मविषयोंमें) प्रमादरहित हो।
विवेकख्यातिकी स्थितिको अर्थात् जब विवेक-ख्याति निरन्तर बनी रहे तब उसको अविप्लव विवेक-ख्याति कहेंगे। इसीका नाम धर्ममेघ समाधि है। यही जीवन्मुक्तिकी अवस्था है। हान का उपाय अविप्लव विवेकख्याति बतलाया है। विवेकख्यातिमें जो आत्मसाक्षात्कार होता है उससे चित्त इतना विशुद्ध हो जाता है कि यह विवेकख्याति भी चित्तकी ही एक वृत्ति प्रतीत होने लगती है। इस प्रकार इस विवेकख्यातिसे भी जो आसक्तिका हट जाना है उसीका नाम पर-वैराग्य है।
सङ्गति — निर्मल, निश्चल और निर्दोष अविप्लव (कभी भी न हटनेवाली) विवेकख्यातिमें योगीकी किस प्रकारकी प्रज्ञा होती है यह अगले सूत्रमें बतलायेंगे।
तस्य सप्तधा प्रान्तभूमिः प्रज्ञा ॥ २.२७ ॥
तस्य = उसकी (निर्मल विवेकख्यातिवाले योगीकी); सप्तधा = सात प्रकारकी; प्रान्तभूमिः = सबसे ऊंची अवस्थावाली; प्रज्ञा = बुद्धि होती है।
उस निर्मल विवेकख्यातिवाले योगीकी सात प्रकारकी सबसे ऊंची अवस्थावाली प्रज्ञा होती है।
‘‘तद्विदो योगिनः प्रज्ञा सप्तधा जायतेऽमला।
प्रज्ञां सप्तविधां प्राप्य योगी कैवल्यमश्नुते ॥ ११२ ॥ योगसूत्रसारः’’
व्याख्या — निर्मल विवेकख्याति द्वारा योगीके चित्तके अशुद्धि रूप आवरण और मल नष्ट हो जाने से दूसरे सांसारिक ज्ञानोंके उत्पन्न न होनेपर सात प्रकार की उत्कर्ष अवस्थावाली प्रज्ञा उत्पन्न होती है। उनमेंसे प्रथम चार प्रकारकी प्रज्ञा कार्यसे विमुक्त करनेवाली है। विमुक्ति चित्तके अधिकारकी समाप्तिको कहते हैं। यह चार प्रकारकी प्रज्ञासम्बन्धी विमुक्ति कार्य अर्थात् प्रयत्नसाध्य है, इस कारण वह कार्य-विमुक्ति प्रज्ञा कहलाती है और अन्तकी तीन चित्तसे विमुक्त करनेवाली है, इस कारण वे चित्त-विमुक्त प्रज्ञा कहलाती हैं। उपर्युक्त चारों प्रज्ञाओंके लाभसे ये तीन प्रज्ञा स्वतः ही प्राप्त हो जातीं हैं।
१. हेयशून्य अवस्था — ज्ञातव्यमखिलं ज्ञातं, न किञ्चिदपि ज्ञातव्यमस्ति- परिज्ञातं हेयं, नास्य पुनः परिज्ञेयम् अस्ति । इत्येका।
जानने योग्य जो कुछ हेय था उस ‘हेय’ के बारे में सब कुछ जाना जा चुका है अतः अब इससे अतिरिक्त कुछ जानना शेष नहीं रहा अर्थात् जितना गुणमय दृश्य है वह सब परिणाम, ताप और संस्कार रूपी दुःखों तथा गुणवृत्ति विरोधसे दुःखरूप ही है, इसलिये ‘हेय’ है — यह मैंने जान लिया। यह पहली बुद्धि बनती है ।
२. हेयहेतु क्षीण अवस्था — हातव्यास्सर्वे हिताः न किञ्चिदपि हातव्यमस्ति- क्षीणा हेयहेतवो, न पुनरेतेषां क्षेतव्यम् अस्ति । इति द्वितीया।
जो दूर करना था अर्थात् द्रष्टा और दृश्यका संयोग जो ‘हेय-हेतु’ है वह दूर कर दिया, अब कुछ दूर करनेयोग्य शेष नहीं रहा। छो