December 26, 2024

कमठ की यह महत्वपूर्ण बात सुनकर अतिथि ब्राह्मण ने मन ही मन उसकी सराहना की और यह प्रश्न उपस्थित किया – ‘जीव कैसे उत्पन्न होता है ?’

कमठ ने कहा – ब्राह्मण ! पहले गुरु को, उसके बाद धर्म को नमस्कार करके मैं इस वेदवर्णित प्रश्न का यथाशक्ति समाधान करूँगा ! जीव के जन्म लेने में तीन प्रकार का कर्म कारण होता है – पुण्य, पाप और उभय मिश्रित | अर्थात कर्म तीन प्रकार के होते हैं – सात्विक, राजस और तामस | इन कर्मों के अनुसार जो सात्विक पुरुष हैं, वह स्वर्ग में जाता है | फिर समयानुसार नीचे गिरता है, तब संसार में धनी, धर्मी और सुखी होता है | जो तमोगुणी पुरुष है, वह नरक में पड़ता है और वहां नाना प्रकार की यातनाएं भोगने के पश्चात यहाँ आकर स्थावरयोनि में जन्म लेता है | तदनंतर दीर्घकाल तक उस योनी में रहते हुए महात्मा पुरुषों के दर्शन, स्पर्श, उपभोग और समीप बैठने आदि से स्थावर शरीर से मुक्त हो कर वह मनुष्य होता है | मनुष्य होने पर भी वह दुखी, दरिद्रता आदि से घिरा हुआ तथा विकलेन्द्रिय (अंधा, बहरा, काना, कुबड़ा, लंगड़ा, लूला आदि) होता है | यह सब लोगों के प्रत्यक्ष है | यह सब पाप का ही लक्षण है | जो पाप और पुण्य दोनों दोनों से मिश्रित कर्म वाला पुरुष है, वह पशु-पक्षी आदि की योनि को प्राप्त होता है | तत्पश्चात वह इस संसार में मनुष्य होता है | जिसका पुण्य अधिक और पाप थोडा होता है, वह पहले दुखी और पीछे सुखी होता है, जिसका पाप बहुत अधिक और पुण्य बहुत कम हो, वह पहले सुखी और पीछे दुखी होता है; यह मिश्रित कर्म का लक्षण है | इनमे से पहले मनुष्य की उत्पत्ति का प्रसंग सुनिए |

पुरुष और स्त्री के वीर्य तथा रज का संगम होने पर सूक्ष्म ज्ञानेन्द्रिय, मन, बुद्धि तथा शुभाशुभ कर्म संस्कार के साथ जीव गर्भ में प्रवेश करके रजोवीर्यमय कलल में स्थापित होता है | उस समय वह मूर्छित अवस्था में रहकर एक मास तक कलल में ह पड़ा रहता है | दूसरा महीना आने पर वह कललकार जीव घनीभाव को प्राप्त हो जाता है | तीसरे महीने में उसके अवयवों का निर्माण होने लगता है | (इस प्रकार होते हुए ) सातवें महीने में वह माता के खाए-पीये हुए अन्न और उसके जल का सार अंश ग्रहण करने लगता है | आठवें और नावें महीने में उस बालक को गर्भ में बड़ा उद्वेग प्राप्त होता है | उसके सब अंग झिल्ली में लपेटे हुए होते हैं और हाथों की उँगलियाँ मुख से बंधी रहती हैं | यदि गर्भ का बालक अधिकतर उदर के मध्यभाग में रहता है तो वह नंपुसक है, यदि वाम भाग में रहता है तो कन्या है और यदि दक्षिण भाग में ठहरता है तो पुरुष है | इस प्रकार वह उदर के किसी एक भाग में रहता है | जिन योनियों में वह जन्म लेता है उनका ज्ञान उस समय उसे होता है | इतना ही नहीं, उसे पहले के कई जन्मों की बातों का भी स्मरण हो जाता है | वह गाढ़ अन्धकार में अदृश्य होकर पड़ा रहता है | वहां की दुर्गन्ध से वह अत्यंत मोह को प्राप्त होता है | यदि माता ठंडा जल पीती है तो उसे सर्दी मालूम होती है | यदि गरम जल पीते है तो उसे गर्मी का अनुभव होता है | माता के मैथुन या परिश्रम करने पर उसको क्लेश होता है | यदि माता को कोई रोग होता है तो उसके गर्भ के बालक को भी पीड़ा होती है |

इसके सिवा इस बालक को स्वयं भी ऐसे रोग होते हैं, जिन्हें माता पिता नहीं देख पाते | अधिक सुकुमारता होने से ये रोग गर्भस्थ शिशु के अंगों में तीव्र वेदना उत्पन्न करते हैं | उस अवस्था में थोड़े से समय को भी वह सौ वर्षों के सामान दुस्सह मानता है | अपने प्राचीन कर्मों से भी गर्भ में बालक को बड़ा संताप होता है | यहाँ वह बार बार पुण्य करने के मंसूबे बांधता है | ‘यदि मैं मनुष्य शरीर में जन्म और जीवन पा जाऊं तो ऐसा कार्य करूँगा, जिससे निश्चय ही मेरा मोक्ष हो जाए |’ सीमान्तोन्नयन संस्कार के बाद उपर्युक्त चिंता में पड़े हुए बालक के शेष दो मास अधिक पीड़ा के कारण तीन युगों के समान बीतते हैं | तत्पश्चात जन्म का समय आने पर प्रसूति वायु से प्रेरित होकर नीचे मुखवाला वह बालक बड़ी पीड़ा का अनुभव् करता है तथा योनि के संकीर्ण द्वार से कष्टपूर्वक निकलने लगता है | उस समय उसे ऐसी पीड़ा होती है, मानो कोई उसकी चमड़ी नोंच रहा हो | किसी के हाथ का स्पर्श आदि भी उसे आरे की धार के स्पर्श सा जान पड़ता है | जन्म लेने के पश्चात वह अचेत बालक केवल माता के स्तन मात्र को जानता है | पूर्वकर्म के अधीन होने के कारण उसका गर्भगत ज्ञान नष्ट हो जाता है | फिर तो वह पूर्ववत काले लाल और सफेद (तामस, राजस और सात्विक) कर्म करने लगता है | मनुष्य का शरीर एक घर के समान है | इसमें हड्डियाँ ही प्रधान स्तम्भ हैं, नस-नाड़ियों के बंधन से ही यह बंधा हुआ है, रक्त और मांसरुपी मिटटी से यह लिपा हुआ है, विष्ठा और मूत्ररुपी द्रव्य का पात्र है | सात धातुरुपी सात दीवारों से यह अत्यंत दृढ बना हुआ है, केश और रोमरुपी घास-फूस से इसे छाया गया है, मुख ही इस घर का प्रधान दरवाजा है | शेष दो आँख, दो कान, दो नाक, लिंग और गुदा – ये आध खिड़कियाँ इस घर की शोभा बढ़ा रही हैं | दोनों ओंठ मुखरूपी द्वार के किवाड़ हैं, दाँतों की अर्गला से इस द्वार को बंद किया गया है |

नाडी ही इसकी नाली और पसीने आदि ही इसके गंदे जल के प्रवाह हैं | वह देह, गह, कफ और पित्त में डूबा हुआ है | ज़रावस्था और शोक से व्याप्त है, काल की मुखाग्नि में इस की स्थिति है, राग और द्वेष आदि से यह सदा ग्रस्त रहता है तथा यह नाना प्रकार के शोक की उत्पत्ति का स्थान है | इस प्रकार मनुष्यों का यह देहरूपी गह उत्पन्न होता है, जिसमें क्षेत्रज्ञ आत्मा गृहस्थ के रूप में निवास करता है और बुद्धि उसकी गृहिणी है | इस शरीर में जह कर जीव नाना प्रकार के साधनों में सलग्न हो नरक, स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त करता है |

इस विषय पर इस लेख को भी देख सकते हैं – जीवन के संदेहों का निवारण

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You cannot copy content of this page