कविताएँ
ए बादल बरस जा टूट कर, ए बिजली कड़क कर टूट पड़,
पड़ने दे छींटे खून के, बहने दे दरिया खून का.
जो गिनाते थे उँगलियों पर, जिंदगी का लब्बो लुआब,
आज उनकी सीरतों से, एक खंजर बन गया,
जो हमारी दुहाई दे दे, थकते नहीं थे रात दिन,
आज पूछते हैं थप्पड़ दिखा के, बता तेरी औकात क्या
तोड़ दो अपनी लाठी मुझ पर, और आँखों में लहू तुम देख लो,
इन आँखों से वो अक्स मिटा दो, जो ‘सेवक’ बना था अवाम का
मैं कौन था पूछेगा ‘कल’ तुम्हारा, और दुत्कारेगा तुम्हे,
आईना देखोगे जब जब, अक्स पे खून मेरा नजर आएगा |
ये ना समझना मैं मर गया, तो कौन खड़ा हो पायेगा,
हर बूँद से पैदा होंगे विरोधी, हर आँख में तू मुझे पायेगा |
जब सड़ जायेगी जिन्दगी तुम्हारी और लोग धिक्कारेंगे तुम्हें,
उस दिन तू बचने की कोई जगह न पायेगा |
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अभिनन्दन शर्मा
31 जुलाई 2014
अहम् राजसि, अहम् ब्रह्मास्मि
अभी तो पथ पर पग भरा है, अब इस पल का कल कहाँ है ।
ज्ञान की ज्योति जल कर, अब वो कस्तूरी मृग कहाँ है ।
अब जलाना है खुद ही को, अब तपाना है खुद ही को,
ज्ञान के सागर में नहा कर, कस्तूरी बनाना है खुद ही को ।
अब न डर है तम से मुझ को, अब न शंका जरा सी,
नाप डालूँगा धरा को, अब न छोड़ूंगा भू ज़रा सी ।
पूछा मुझ से जो कल कलि ने, इतना विश्वास आया कहाँ से,
आवाज आयी ये अंतर्मन से, अहम् राजासी, अहम् ब्रह्मास्मि ।
अहम् राजासी, अहम् ब्रह्मास्मि ।।
अभिनन्दन शर्मा
3 जनवरी 2013